मौर

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

मौर ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ मुकुट, पा॰ मउड़] [स्त्री॰ अल्पा॰ मौरी]

१. एक प्रकार का शिरोभूषण जो ताड़पत्र या खुखड़ी आदि का बनाया जाता है । विवाह में वर इसे अपने सिर पर पहनता है । उ॰—(क) अवधू बोत तुरावल राता । नाचै बाजन बाज बराता । मौर के माये दूलह दीन्हीं, अकथा जोरि कहाता । मड़ये के चारन समधी दीन्हों पुत्र विआहल माता ।—कबीर (शब्द॰) । (ख) सोहत मोर मनोहर माथे । मंगलमय मुकुता- मनि गाथे ।—तुलसी (शब्द॰) । (ग) रामचंद्र सीता सहित शोभत हैं तेहि ठौर । सुवरणमय मणिमय खचित शुभ सुंदर सिर मौर । -केशव (शब्द॰) । मुहा॰—मौर बाँधना=विवाह के समय सिर पर मौर पहनना । उ॰—पाँवरि तजहु देहु पग, पैरन बाँक तुखार । बाँध मौर औ छत्र सिर बेगि देहु असवार ।—जायसी (शब्द॰) ।

२. शिरोमणि । प्रधान । सरदार । उ॰—(क) जो तुम राजा आप कहावत वृंदाबन की ठौर । लूट लूट दधि खात सबन को सब चोरन के मौर ।—सुर (शब्द॰) । (ख) साधू मेरे सब बड़े अपनी अपनी ठौर । शब्द बिबेकी पारखी वह माथे का मौर ।—कबीर (शब्द॰) ।

मौर ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ मुकुल, प्रा॰ मउल] छोटे छोटे फूलों या कलियों से गुथी हुई लंबी लटोंवाला धौद । मंजरी । बौर । जैसे,—आम का मौर । पयार का मौर । अशोक का मौर । उ॰—(क) नंद महर घर के पिछवाड़े राधा आइ बतानी हो । मनों अंब दल मौर देखइ कै कुहकि कोकिला बानी हो ।—सूर (शब्द॰) । (ख) चलत सुन्यो परदेश को हियरो रह्यौ न ठौर । लै मालिन मीतहिं दिया नव रसाल को मौर ।—मतिराम (शब्द॰) । मुहा॰—मौर बँधना=मौर निकलना । मंजरी लगना ।

मौर ^३ संज्ञा पुं॰ [सं॰ मौलि (=सिर)] गरदन का पिछला भाग जो सरि के नीचे पड़ता है । गरदन । उ॰—(क) बौंह उँचै आँचरु उलटि मौर मोरि मुँह मोरि ।—बिहारी (शब्द॰) । (ख) मोर उँचै घूटेन नै नारि सरोवर न्हाइ ।—बिहारी (शब्द॰) ।