ययाति

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

ययाति संज्ञा पुं॰ [सं॰] राजा नहुप के पुत्र जो चंद्रवंश के पाँचवें राजा थे और जिनका विवाह शुक्रचार्य की कन्या देवयानी के साथ हुआ था । विशेष— इनको देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वसु नाम के दो तथा शर्मिष्ठा के गर्भ से द्रुह्यु, अणु और पुरु नाम के तीन पुत्र हुए थे । विशेष दे॰ 'देवयानी' । इनमें से यदु से यादव वंश और पुरु से पौरव वंश का आरंभ हुआ । शर्मिष्ठा इन्हों विवाह के दहेज में मिली थी । शुक्रचार्य ने इन्हें यह कह दिया था कि शर्मिष्ठा के साथ संभेग न करना । पर जब शर्मिष्ठा ने ऋतु- मती होने पर इनसे ऋतुरक्षा की प्रार्थना की, तब इन्होंने उसके साथ संभोग किया और उसे संतान हुई । इसपर शुक्रचार्य ने इन्हों शाप दिया कि तुम्हें शीघ्र बुढापा आ जायगा । जब इन्होने शुक्राचार्य को सभोग का कारण बतलाया, तब उन्होंने कहा कि यदि कोई तुम्हारा बुढ़ापा ले लेगा, तो तुम फिर ज्यों के त्यों हो जाओगो । इन्होंने एक एक करके अपने चारों पुत्रों से कहा कि तुम हमारा बुढ़ापा लेकर अपना यौवन हमें दे दो पर किसी ने स्वीकार नही किया । अंत में पुरु ने इनका बुढ़ापा आप ले लिया और अपनी जवानी इन्हें दे दी । पुनः यौवन प्राप्त करके इन्होंने एक सहस्र वर्ष तक विषयसुख भोग । अंत में पुरु को अपना राज्य देकर आप वन में जाकर तपस्या करने लगे और अंत में स्वर्ग चले गए । स्वर्ग पहुँचने पर भी एक बार यह इंद्र के शाप से वहाँ से च्युत हुए थे; क्योंकि इन्होंने इंद्र से कहा था कि जैसी तपस्या मैंने की है, वैसी और किसी ने नहीं की । जब ये स्वर्ग से च्युत हो रहे थे, तब मार्ग में इन्हें अष्टक ऋषियों ने रोककर फिर से स्वर्ग भेजा था । इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी आया है ।