रङ्ग

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

रंग संज्ञा पुं॰ [सं॰ रंङ्ग, फ़ा॰ रंग]

१. राँगा नामक धातु ।

२. नृत्य गीत आदि । नाचना गाना । यौ॰—नाच रंग । जैसे,—वहाँ आजकल खूब नाच रंग हो रहा है ।

३. वह स्थान जहाँ नृत्य या अभिनय होता हो । नाचने गाने, नाटक करने आदि के लिये बनाया हुआ स्थान । यौ॰—रंगमंच । रंगभूमि । रंगद्वार । रंगदेवता । रंगस्थन आदि ।

४. युद्धस्थल । रणक्षेत्र । लड़ाई का मैदान ।

५. खदिरसार

६. किसी दृश्य पदार्थ का वह गुण जो उसके आकार से भिन्न होता है और जिसका अनुभव केवल आँखों से ही होता है । वर्ण । विशेष— जब किसी पदार्थ पर पहले पहले हमारी दृष्टि जाती है, तब प्रायः हमें दो ही बातों का ज्ञान होता है । एक तो उसके आकर का और दूसरा उसके रंग का । वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि रंग वास्तव में प्रकाश की किरणों में ही होता है; और वस्तुओं के भिन्न भिन्न रासायनिक गुणों के कारण ही हमारी आँखों को उनका अनुभव वस्तुओं में होता है । जब किसी वस्तु पर प्रकाश पड़ता है, तब उस प्रकाश के तीन बाग होते हैं । पहला भाग तो परावर्तित हो जाता है; दूसरा वर्तित हो जाता है; और तीसरा उस वस्तु के द्वारा सोख लिया जाता है । परंतु सब वस्तुओं में ये गुण समान रुप में नहीं होते; किसी में कम और किसी में अधिक होते हैं । कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं, जिनमें से प्रकाश परावर्तित होता ही नहीं, या तो वर्तित होता है या सोख लिया जाता है; जैसे, शुद्ध जल । ऐसे पदार्थ प्रायः बिना रंग के दिखाई देते हैं । जिन पदार्थों पर पड़नेवाला सारा प्रकाश परावर्तित हो जाता है, वे श्वेत दिखाई पड़ते हैं । और जो पदार्थ अपने ऊपर पड़नेवाला समस्त प्रकाश सीख लेते हैं, वे काले होते या दिखाई देते हैं । प्रकाश का विश्लेषण करने से उसमें अनेक रंगों की किरणें मिलती हैं, जिनमें ये सात रंग मुख्य हैं—बैंगनी, नील, श्याम, या आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाला । जब ये सातों रंग मिलकर एक हो जाते हैं, तब हम उसे सफेद कहते हैं; और जब इन सातों में से एक भी रंग नहीं रहता, तब हम उसे काला कहते हैं । अब यदि किसी ऐसे पदार्थ पर श्वेत प्रकाश पड़े, जिसमें लाल किरणों को छोड़कर और सब रंगों की किरणों को सोख लेने की शक्ति हो, तो स्वभावतः प्रकाश का केवल लाल ही अंश उसपर बच रहेगा; और उस दशा में हम उस पदार्थ को लाल रंग का कहेंगे । अर्थात् प्रत्येक वस्तु हमें उसी रंग की देख पड़ती है, जिस रंग का वह न तो सोख सकती है और न वर्तित करती है, बल्कि जिसे वह परावर्तित करती है । कुछ रंग ऐसे भी होते हैं, जिनके मिलने से सफेद रंग बनता है । ऐसे रंग एक दूसरे के परिपूरक कहलाते हैं । जैसे,—यदि हरितपीत रंग के प्रकाश के साथ ही लाल रंग का प्रकाश भी पहुँचने लगे, तो उस दशा में हमें सफेद रंग दिखाई पड़ेगा । इसलिये लाल और हरितपीत दोनों एक दूसरे के परिपूरक रंग है । प्रायः दो रंगों के मिलने से एक नया तीसरा रंग भी पैदा हो जाता है; जैसे— लाल और पीले के मिलने से नारंगी रंग बनता है । परंतु ये सब बातें केवल प्रकाश की किरणों के संबंध में हैं; बाजार में मिलनेवाली बुकनियों के संबंध में नहीं हैं । दो प्रकार की बुकनियों को एक साथ मिलाने से जो परिणाम होगा, वह दो रंगों की प्रकाश- किरणों को मिलाने के परिणाम से कभी कभी बिलकुल भिन्न होगा । इसका कारण यह है कि जब हम दो प्रकार की बुकनियों को एक में मिलाते हैं, उस समय हम वास्तव में एक रंग में दूसरा रंग जोड़ते नहीं हैं, बल्कि एक रंग में से दूसरा रंग घटाते हैं । जिस रंग की किरण को एक बुकनी परावर्तिन करती है, उसे दूसरी बुकनी सोख लेती है । इसी लिये बुकनियों के संबंध में जो नियम हैं, वे प्रकाश की किरणों के संबंध के नियम से भिन्न है ।

७. कुछ विशिष्ट रासायनिक क्रियाओं से बनाया हुआ वह पदार्थ जिसका व्यवहार किसी चीज को रँगने या रंगीन बनाने के लिये होता है । वह चीज जिसके द्वारा कोई चीज रँगी जाय या जिससे किसी चीज पर रंग चढ़ाया जाय । विशेष— बाजारों में प्रायः अनेक प्रकार के कार्यों के लिये अनेक रुपों में वने बनाए रंग मिलते हैं, जिनका व्यवहार चीजों को रँगन या चित्रित करने के लिये होता है । जैसे, कपड़े रँगने का रंग, लकड़ी पर चढ़ाने का रंग, तसबीर बनाने का रंग आदि । क्रि॰ प्र॰—करना ।—चढ़ना ।—चढ़ाना ।—पोतना ।—होना । यौ॰— रंगविरंग, रंगविरंगा=जिसमें अनेक प्रकार के रंग हों । तरह तरह के रंगोवाला । उ॰— रंगबिरंग एक पक्षी बना । छाटा चोंच और काटे घना । (पहेली) । मुहा॰— रंग आना या चढ़ना=रंग अच्छी तरह लग जाना या प्रकट होना । रंग उड़ना या उतरना =छूप या जल आदि के संसर्ग से रंग का बिगड़ जाना या फीका पड़ जाना । रंग खेलना=होली के दिनों में पानी में रंग घोलकर एक दूसरे पर डालना । रंग डोलना या फेंकना=(होली में) पानी में रंग घालकर किसी पर डालना । रंग निखरना=रंग का शोख या चटकीला होना । यौ॰— रंगदार ।

८. शरीर का ऊपरी वर्ण । बदन और चेहरे की रंगत । वर्ण । मुहा॰— (चेहरे का) रंग उड़ना या उतरना=भय या लज्जा से चेहरे की रौनक का जाता रहना । चेहरा पीला पड़ना । कांतिहीन होना । रंग निकलना=दे॰ 'रंग निखरना' । रंग निखरना=चेहरे के रंग का साफ होना । चेहरे साफ और चमकदार होना । चेहरे पर रौनक आना । रंग फक होना=दे॰ 'रंग उड़ना' । रंग बदलना=(१)लाल पीला होना । खफ ा होना । क्रुद्ध होना । नाराज होना । जैसे,—आप तो नाहक हम पर रंग बदल रहे हैं । (२) रुप परिवर्तित करना ।

९. यौवन । जवानी । युवावस्था । क्रि॰ प्र॰—आना ।— चढ़ना ।—होना । मुहा॰—रंग चूना=युवावस्था का पूर्ण विकास होना । यौवन उमड़ना । रंग टपकना=दे॰ 'रंग चूना' ।

१०. शोभा । सौंदर्य । रौनक । छवि । क्रि॰ प्र॰—आना ।—उतरना ।—चढ़ना ।—दिखाना ।—होना । मुहा॰—रंग पकड़ना=रौनक या बहार पर आना । रंग पर आना=दे॰ 'रंग पकड़ना' । रंग फीका पड़ना या होना= रौनक कम हो जाना । शोभा का घट जाना । रंग बरसना= अत्यंत शोभा होना । खूब रौनक होना । उ॰— सखी, मचमूच आज तो इस कदंब के नीचे रंग बरस रहा है ।—हरिश्चंद्र (शब्द॰) । रंग है=शाबाश । वाह वा क्या बात है ।

११. प्रभाव । असर । मुहा॰—रंग चढ़ना=प्रभाव पड़ना । असर पड़ना । जैसे,—इस लड़के पर भी अब नया रंग चढ़ रहा है । रंग जमना=प्रभाव पड़ना । असर पड़ना ।

१२. दूसरे के हृदय पर पड़नेवाली शक्ति, गुण या महत्व का प्रभाव । धाक । रोब । मुहा॰— रंग जमना=धाक जमना । अनुकूल स्थिति उत्पन्न होना । उ॰— दोनों ने समझा कि रंग जैसा चाहिए, वैसा जम गया । —अयोध्या॰ (शब्द॰) । रंग उखड़ना =धाक न रहना । स्थिति प्रतिकूल होना । दूसरों पर महत्व आदि का प्रभाव न रह जाना । जैसे,—पहले यहाँ उसे बहुत आमदनी थी; पर अब रंग उखड़ गया । रंग जमाना= प्रभाव डालना । धाक बाँधना । रंग फीका रहना= पूरा पूरा प्रभाव न पड़ना । रंग बँधना=रोब जमना । धाक बँधना । रंग बाँधना=(१) अपना महत्व दूसरे के हृदय में स्थापित करना । रोब गाँठना । धाक जमाना । उ॰—भाई मुझे तो एक दिन के लिये भी कहीं तख्त मिल जाय, तो रंग बाध दूँ । —राधाकृष्णदास (शब्द॰) । (२) झूठा आडंबर रचना । ढोंग रचना । रंग बिगडना=रोब जाता रहना । प्रभाव नष्ट या कम हो जाना । रंग बिगाड़ना=(१) प्रभाव नष्ट करना । महत्व घटाना । (२) शेखी किरकिरी करना । रंग लाना=अपना प्रभाव या गुण दिखलाना ।

१३. क्रीड़ा । कौतुक । खेल । आनंद । उत्सव । उ॰— (क) दिन में सब लोग राग, रंग, नृत्य, दान, भोजन, पान इत्यादि में नियुक्त थे । (ख) बर जंग रंग करिबे चह्यौ मनहिं सुढंग उमंग में ।— गोपाल (शब्द॰) । यौ॰—रंगरलियाँ=आमोद प्रमोद । मौज । चैन । क्रि॰ प्र॰—करना ।—मनाना । मुहा॰—रंग रलना=आमोद प्रमोद करना । क्रीड़ा या भोग विलास करना । उ॰— भाव ही कह्यौ मन भाव दृढ़ राखिबो दे सुख तुमहिं संग रंग रलिहैं ।—सूर (शब्द॰) । रंग में भंग पड़ना=आमोद प्रमोद के बीच कोई दुःख की बात आ पड़ना । हँसी और आनंद में विघ्न पड़ना ।

१४. युद्ध । लडाई । समर । मुहा॰—रंग मचाना=रण में खूब युद्ध करना । उ॰— चढ़ि देहि समर उत्तर परन उत्तर द्वार मचाय रंग ।—गोपाल (शब्द॰) ।

१५. मन की उमंग वा तरंग । मन का वेग या स्वच्छंद प्रवृत्ति । मौज । उ॰(क) रत्नजटित किंकिणि पग नूपुर अपने रंग बजावहु । — सूर (शब्द॰) । (ख) अपने अपने रंग में सब रँगे हैं, जिसने जो सिद्धांत कर लिया है, वही उसके जी में गड़ रहा है ।—हरिश्चंद्र (शब्द॰) । (ग) चढ़े रंग सफजंग के हिंदू तुरुक अमान । उमड़ि उमड़ि दुहुँ दिसि लगे कौरन लौहौ खान ।— लाल (शब्द॰) । मुहा॰— (किसी के) रंग में ढलना=किसी के कहने या विचार के अनुसार कार्य करने लगना । किसी के प्रभाव में आना । उ॰— तुरत मन सुख मानि लीन्हों नारि तेहि रंग ढरी ।—सरू (शब्द॰) ।

१६. आनंद । मजा ।उ॰— (क)बहुत झूरिया लागे संग । दाम न खरचै लूटै रंग । —देवस्वामी (शब्द॰) । (ख) खान पान सनमान राग रंग मनहिं न भावै । —गिरिधर (शब्द॰) । (ग) मोकों व्याकुल छाँडिकै आपुन करैं जु रंग । —सूर (शब्द॰) । विशेष— इस अर्थ में इस शब्द का और इसके मुहावरों का प्रयोग प्रायः नशे के संबंध में भी होता है । मुहा॰—रंग आना=मजा मिलना । आनंद मिलना । रंग उखड़ना=बने हुए आनंद का अचानक घटना या नष्ट हो जाना । रंग जमना=आनंद का पूर्णता पर आना । खूब मजा होना । रंग मचाना=धूम मचाना । उ॰— असवारी में रंग मचावै । मन के संग तुरंग नचावै । —लाल (शब्द॰) । रंग में भंग करना=पूर्ण आनंद के समय उसमें विघ्न उपस्थित करना । बना बनायाय मजा बिगडना । रंग रचाना=उत्सव करना । जलसा करना । रंग रहना =आनंद रहना । प्रसन्नता । रहना । मजा रहना ।

१७. दशा । हालत । उ॰— कबहुँ नहिं यहि भाँति देख्यो,आज को सो रंग । —सूर (शब्द॰) । मुहा॰— रंग लाना=दशा उपस्थित करना । हालत करना । जैसे,—तुम्हारी ही शरारत यह सब रंग लाई है ।

१८. अदभूत व्यापार । कांड । दृश्य । जैसे,—यह सब रंग उन्हीं की कृपा का फल है ।

१९. प्रसन्नता । कृपा । दया । मेहरबानी । उ॰— हम चाकर कलिरा ज के वृथा करत हौ देष । ताकी मरजी को तकै करत रंग औ रोप ।—गुमान (शब्द॰) ।

२०. प्रेम । अनुराग । उ॰— (क) जब हम रँगी श्याम के रंगा । तब लिखि पठवा ज्ञान प्रसंगा ।—रघुनाथदास (शब्द॰) । (ख) देखु जरनि जड़ नारि की जरत प्रेम के रांग । चिता न चित फीको भयो रची जु पिय के रंग ।—सूर (शब्द॰) । (ग) ऐसे भए तो कहा तुलसी जो पै जानकीनाथ के रंग न राते ।—तुलसी (शब्द॰) । मुहा॰—रंग देना=किसी को अपने प्रेमपाश में फँसाने के लिये उसके प्रति प्रेम प्रकट करना । (बाजारू) । रंग (में) भौंजना= अनुराग में सराबोर होना । उ॰— गोरिन के रंग भींजिगो साँवरो साँवरे के रंग भींजी सु गोरी ।—पद्माकर (शब्द॰) ।

२१. ढंग । ढब । चाल । तर्ज । उ॰— (क) राजभवनाम्यंतर तो यह उपकरण था और बाहर नभमंडल का और ही रंग दिखलाई देता था ।—अयोध्यासिंह (शब्द॰) । जो तुम राजी हो इस रंग । तो खेलो फाग हमारे संग ।—लल्लूलाल (शब्द॰) । (ग) त्यौं पदमाकर यौं मग में रंग देखत हो कब की रुख राखे ।—पद्माकर (शब्द॰) । यौ॰—कुरंग=बुरा ढब या ढंग । बुरा लक्षण । उ॰— सुनु जानकी कुरंगनैनी होय न कुरंग यह बड़ोई कुरंग है ।— हृदयराम (शब्द॰) । रंग ढंग =(१) दशा । हालत । (२) चाल ढाल । तौर तरीका । उ॰— हमारा प्रधान शासक न विक्रम के रंग ढंग का है न हारुँ या अकबर के । उसका रंग ही निराला है । —बालमुकुंद(शब्द॰) । (३) व्यवहार । बरताव । जैसे—आजकल उसके रंग ढंग अच्छे नहीं दिखाई देते ।

४. ऐसी बात जिससे किसी दूसरी बात का अनुमान हो । लक्षण । जैसे,—आसमान के रंग ढंग से तो मालूम होता है कि आज पानी बरसेगा । मुहा॰ पु— रंग काछना=चाल चलना । ढंग अख्तियार करना । उ॰— सूर श्याम जितने रंग काछत युवती जन मन के गोऊ हैं ।—सूर (शब्द॰) । (किसी को अपने) रंग में रँगना= किसी को अपने ही विचारों का बना लेना । अपना सा कर लेना ।

२२. भाँति । प्रकार । तरह । उ॰— दूरि भजत प्रभु पीठि दै गुन बिस्तारन काल । प्रगटत निरगुन निकट रहि चंग रंग भूपाल ।— बिहारी (शब्द॰) ।

२३. चौपड़ की गोटियों के, खेल के काम के लिये किए हुए, दो कृत्रिम विभागों में से एक । विशेष— चौपड़ की कुल गोटियाँ १६ होती हैं, जो चार रंगों में विभक्त होती हैं । इनमें से विशिष्ट दो रंग की आठ गोटियाँ 'रंग' और शेष दो रंगों की आठ गोटियाँ 'बदरंग' कहलाती हैं । मुहा॰—रंग जमना=चौपड़ में रंग की गोटी का किसी अच्छे और उपयुक्त घर में जा बैठना, जिसके कारण खेलाड़ी की जीत अधिक निश्चित हो जाती है । रंग भारना =बाजी जीतना । विजय पाना । उ॰— (क) यह होंठ जो कि पोपले यारों हैं हमारे । इन होठों ने बोसों के बड़े रंग हैं मारे ।—नजीर (शब्द॰) । (ख) इश्कबाजी के लिये हमने विछाई चौसर । पासा गिरते ही गोया रंग हमारा मारा । —(शब्द॰) ।