रति
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]रति ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]
१. कामदेव की पत्नी जो दक्ष प्रजापति की कन्या मानी जाती है । विशेष दे॰ 'कामदेव' । उ॰—राधा हरि केरी प्रीति सब तें अधिक जानि रति रतिनाथ हूँ देखो रति थोरी सी ।—केशव (शब्द॰) । विशेष—कहते हैं, दक्ष ने अपने शरीर के पसीने से इसे उत्पन्न करके कामदेव को अर्पित किया था । यह संसार की सबसे अधिक रूपवती, सौंदर्य की साक्षात् मूर्त्ति मानी जाती है । इसे देखकर सभी देवताओं के मन में अनुराग उत्पन्न हुआ था; इसलिये इनका नाम रति पड़ा था । जिस समय शिव जी ने कामदेव को अपने तीसरे नेत्र से भस्म कर दिया था; उस समय इसने बहुत अधिक विलाप करके शिव जी से यह वरदान प्राप्त किया था कि अब से कामदेव बिना शरीर के या अनंग होकर सदा बना रहेगा । यह भी माना जाता है कि यह सदा कामदेव के साथ रहती है ।
२. कामक्रिड़ा । संभोग । मैथुन । उ॰—(क) रति जय लिखिबे की लेखनी सुरेख किधौं मीनरथ सारथी के नोदन नवीने हैं ।—केशव (शब्द॰) । (ख) लाज गरब आरस उमंग भरे नैन मुसकात । राति रमी रति देत कहि औरे प्रभा प्रभात ।—बिहारी (शब्द॰) ।
३. प्रीती । प्रेम । अनुराग । मुहब्बत । क्रि॰ प्र॰—करना ।—जोड़ना ।—लगाना ।—होना ।
४. शोभा । छबि । उ॰—चोटी में लपेटी एक मणि ही सुकाढ़ि दीन्ही दीजो राम हाथ जो बढ़ैया तेरी रति को ।—ह्वदयराम (शब्द॰) ।
५. सौभाग्य । खुशकिस्मती ।
६. साहित्य में श्रृंगार रस का स्थायी भाव । नायक नायिका की परस्पर प्रीति या प्रेम ।
७. वह कर्म जिसका उदय होने से किसी रमणीक वस्तु से मन प्रसन्न होता है । (जैन) ।
८. गुप्त भेद । रहस्य ।
९. चंद्रमा की छठी कला (को॰) ।
रति पु ^२ संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰] दे॰ 'रत्ती' ।
रति ^३ क्रि॰ वि॰ दे॰ 'रती' । उ॰—कत सकुचत निधरक फिरौ रतियौ खोरि तुम्हैं न । कहा करौ जो जाहिं ये लगैं लगौहैं नैन ।—बिहारी (शब्द॰) ।
रति पु ^४ संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰ रात] रात । रात्ति । रैन । उ॰—सही रँगीले रति जगे जगी पगी सुख चैन । अलसौहै सौहै किए कहैं हँसौंहैं नैन ।—बिहारी (शब्द॰) । विशेष—केवल समस्त पदों ही इस शब्द का इस रूप में व्यवहार होता है । जैसे, रतिवाह ।