रस
अर्थ
हिन्दी व्याकरण में "रस" शब्द का अलग उपयोग होता है। जबकि सामान्य वाक्यों में इसका अर्थ एक प्रकार का तरल पदार्थ से होता है। जैसा स्वाद अलग अलग हो सकता है। जैसे गन्ने का रस मीठा होता है। नीबू का रस खट्टा होता है। आदि।
उदाहरण
- तरल
- चलो, आज गन्ने का रस पीने चलते हैं।
- क्या आपको संतरे का रस पीना अच्छा लगता है?
- नींबू से रस को निचोड़कर शर्बत बनाई जाती है।
- व्याकरण
- हिन्दी व्याकरण में रस का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान होता है।
- बिना किसी रस के कोई भी वाक्य नहीं हो सकता है।
- हर वाक्य का अपना एक रस होता है।
- कभी कभी एक से अधिक रस का भी उपयोग वाक्यों में किया जा सकता है।
अनुवाद
- अंग्रेज juice
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प्रकाशितकोशों से अर्थ
शब्दसागर
रस संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. वह अनुभव जो मुँह में डाले हुए पदार्थों का रसना या जीभ के द्बारा होता है । खाने की चीज का स्वाद । रसनेंद्रिय का संवेदन या ज्ञान । विशेष—हमारे यहाँ वैद्यक में मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय ये छह रस माने गए है और इसकी उत्पत्ति भूमि, आकाश, वायु और अग्नि आदि के संयोग से जल में मानी गई है । जैसे—पृथ्वी ओर जल के गुण की अधिकता से मधुर रस, पृथ्वी और अग्नि के गुण की अधिकता से अम्ल रस, जल और अग्नि के गुण की अधिकता से तिक्त रस और पृथ्वी तथा वायु की अधिकता से कषाय रस उत्पन्न होता है । इन छहों रसों के मिश्रण से और छत्तीस प्रकार के रस उत्पन्न होते है । जैसे,—मधुराम्ल, मधुरतिक्त, अम्ललवण, अम्लकटु, लवणकटु, लवणतिक्त, कटुतिक्त, तिक्तकषाय आदि । भिन्न भिन्न रसों के भिन्न भिन्न गुण कहे गए हैं । जैसें,—मधुर रस के सेवन से रक्त, मांस, मेद, अस्थि और शुक्र आदि की वृद्धि होती है; अम्ल रस जारक और पाचक माना गया है; लवण रस पाचक और संशोधक माना गया है; कटु रस पाचक, रेचक, अग्नि दीपक और संशोधक माना गया है; तिक्त रस रूचिकर और दिप्तिवर्धक माना गया है; ओर कपाय रस संग्राहक और मल, मूत्र तथा श्लेष्मा आदि को रोकनेवाला माना गया है । न्याय दर्शन के अनुसार रस नित्य और अनित्य दो प्रकार का होता है । परमाणु रूप रस नित्य और रसना द्बारा गृहीत होनेवाला रस अनित्य कहा गया है ।
२. छह की संख्या ।
३. वैद्यक के अनुसार शरीर के अंदर की सात धातुओं में से पहली धातु । विशेष— सुश्रुत के अनुसार मनु्ष्य जो पदार्थ खाता है, उससे पहले द्रव स्वरूप एक सूक्ष्म सार बनता है, जो रस कहलाता है । इसका स्थान ह्वदय कहा गया है । जहाँ से यह घमनियों द्बारा सारे शरीर में फैलता है । यही रस तेज के साथ मिलकर पहले रक्त का रूप धारण करता है और तब उससे मांस, मेद, अस्थि, शुक्र आदि शेष धातुएँ बनती है । यदि यह रस किसी अस्थि अम्ल या कटु हो जाता है, तो शरीर में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न करता है । इसके दूषित होने से अरूचि, ज्वर शरीर का भारीपन, कृशता, शिथिलता, द्दष्टिहीनता आदि अनेक विकार उत्पन्न होती है । पर्या॰—रसिका । स्वेदमाता । चर्माभ्ल । चर्मसार । रक्तसार ।
४. किसी पदार्थ का सार । तत्व ।
५. साहित्य में वह आनंदात्मक चित्तवृत्ति या अनुभव विभाव, अनुभाव और संचारी से युक्त किसी स्थायी भाव के व्यंजित होने से उत्पन्न होता है । मन में उत्पन्न होनेवाला वह भाव या आनंद जो काव्य पढने अथवा अभिनय देखने से उत्पन्न होता है । विशेष— हमारे यहाँ आचार्यों में इस विषय में बहुत मतभेद है कि रस किसमें तथा कैसे अभिव्यक्त होता है । कुछ लोगोँ का मत है कि स्थायी भावों की वस्ताविक अभिव्यक्त मुख्य रूप से उन लोगों में होती है, जिनके कार्यों का अभिनय किया जाता है । (जैसे,—राम, कृष्ण, हरिश्चंद्र आदि) और गौण रूप से अभिनय करनेवाला नटों, में होता है । अतः इन्हीं में ये लोग रस की स्थिति मानते है । ऐसे आचार्यों का मत है कि अभिनय देखनेवालों या काव्य पढनेवालों के साथ रस का कोई संबंध नहीं है । इसके विपरीत अधिक लोगों का यह मत है कि अभिनय देखनेवालों तथा काव्य पढनेवालों में ही रस की अभिव्यक्ति होती है । ऐसे लोगों का कथन है कि मनुष्य के अंतःकरण में भाव पहले से ही विद्यमान रहते है; और काव्य पढने अथवा नाटक देखने के समय वही भाव उद्दीप्त होकर रस का रूप धारण कर लेते है । और यही मत ठीक माना जाता है । तात्पर्य यह कि पाठकों या दर्शकों को काव्यों अथवा अभिनयों से जो अनिर्वचनीय और लोकोत्तर आनंद प्राप्त होता है, साहित्य शास्त्र के अनुसार वही रस कहलाता है । हमारे यहा रति, हास, शोक, उत्साह, भय, जुगुप्सा, आश्चर्य और निर्वेद इन नौ स्थायी भावों के अनुसार नौ रस माने गए है; जिनके नाम इस प्रकार है ।—श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अदभुत और शांत । द्दश्य काव्य के आचार्य शांत को रस नहीं मानते । वे कहते है कि यह तो मन की स्वाभाविक भावशून्य अवस्था है । निर्वेद मन का कोई विकार नहीं है । अतःवे रसों की संख्या आठ ही मानते है । औ र कुछ लोग इन नौ रसों के सिवा एक और दसवाँ रस 'वात्सल्य' भी मानते है ।
६. नौ की संख्या ।
७. सुख का अनुभव । आनंद । मजा । उ॰— (क) यह जानिए वर दीन । पितु ब्रह्म के रसलीन ।—केशव (शब्द॰) । (ख) जेहि किए जीव निकाम वस रस हीन दिन दिन अति नई ।—तुलसी (शब्द॰) । (ग) ओठ खंडिए कौ अरयौ मुख सुवास रस मत्त । स्याम रूप नँदलाल अलि नहिं अलि अलि उन्मत ।—मतिराम (शब्द॰) । मुहा॰—रस भीजना या भीनना =(१) किसी पदार्थ का ऐसा समय आना जब उसके द्बारा आनंद उत्पन्न हो । मजे का वक्त आना । (२) तरूणाई प्रकट होना । यौवन का आंरभ या संचार होना । उ॰—ह्याँ इनके रस भीजत त्यों द्दग ह्याँ उनके मसि भीजत आवै ।—पद्माकर (शब्द॰) ।
८. प्रेम । प्रिति । मुहब्बत । यौ॰—रस रंग =(१) प्रेम के द्बारा उत्पन्न होनेवाला आनंद । मुहब्बत का मजा । (२) प्रेमक्रीड़ा । कोलि । रस रीति =प्रेम के व्यवहार । मुहब्बत का बरताव । उ॰—(क) प्रीति की वधिक रसरीति को अधिक नीति निपुन विवेक है निदेस देसकाल को ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) इष्ट मिलै और मन मिलै मिलै सकल रस रीति ।—कबीर (शब्द॰) । रस की रीति = रसरिति । उ॰—और को जानै रस की रीति । कहाँ हौं दीन कहाँ त्रिभुवनपति मिले पुरातन प्रीति । चतुरानन तन निमिष न चितवत इती राज की नीति ।—सूर (शब्द॰) ।
९. कामक्रीड़ा । केलि । बिहार । उ॰—दलित कपोल रद दलित अधर रुचि रसना रसनि रस रस में रिसाति है ।—केशव (शब्द॰) ।
१०. उमंग । जोश । वेग । उ॰—(क) आजान- बाहु परकाज रत स्वामिभक्त रस रंग नय ।—गुमान (शब्द॰) । (ख) जल कारन प्रन किए करत रस रत ललकारन । श्याम अनुज बल धाम बने सँग सुभट हजारन ।—गोपाल (शब्द॰) ।
११. गुण । सिफत । उ॰—(क) सम रस समर सकोच बस बिबस न ठिकु ठहराय । फिरि फिरि उझकति फिरि दुरति दुरि दुरि उझकति जाय ।—बिहारी (शब्द॰) । (ख) तिहुँ देवन की द्युति सी दरसै गति सोषै त्रिदोषन के रस की ।—केशव (शब्द॰) ।
१२. किसी विषय का आनंद । उ॰— जो जो जेहि जेहि रस मह, तहँ सो मुदित मन मानि ।—तुलसी (शब्द॰) ।
१३. कोई तरल या द्रव पदार्थ ।
१४. जल । पानी ।
१५. वनस्पतियों या फलों आदि में का वह जलीय अंश जो उन्हें कूटने, दबाने या निचोंड़ने आदि से निकलता है । जैसे,—ऊख का रस, आम का रस, तुलसी का रस अदरक का रस ।
१६. शोरबा । जूस । रसा ।
१७. वह पानी जिसमें मीठा या चीनी घुली हुई हो । शरबत
१८. वृक्ष का निर्यास । जैसे,—गोंद, दुघ, मद आदि ।
१९. लासा । लूआब ।
२०. घोडो़ और हाथियों का एक रोग जिसमें उनके पैरों में से जहरीला पानी बहता है ।
२१. वीर्य ।
२२. राग ।
२३. विष । जहर ।
२४. पारा ।
२७. हिंगुल शिंगरफ ।
२८. वैद्यक में घातुओं को फूँककर तैयार किया हुआ भस्म, जिसका व्यवहार औषध के रूप में होता है । जैसे,—रससिंदुर ।
२९. पहले खिंचाव का शोरा जो बहुत तेज और अच्छा होता है ।
३०. आनंदस्वरूप व्रह्म । (उपनिपद्) ।
३१. केशव के अनुसार रगण और सगण । उ॰—मगन नगन को मित्र गनि यगन भगन को दास । उदासीन जन जानिए रस रिपू केशव दास ।—केशव (शब्द॰) ।
३२. बोल नामक गंघद्रव्य ।
३३. एक प्रकार की भेड़ जो गिलगित (गिलगिट) से उत्तर और पमीर मे पाई जाती है ।
३४. भाँति । तरह । प्रकार । रूप । उ॰—एक ही रस दुनी न हरष सोक साँसति सहति ।—तुलसी (शब्द॰) ।
३५. मन की तरंग । मौज इच्छा । उ॰—तिनका बयारि के बस । ज्यों भावे त्यों उड़ाइ लै जाइ अपने रस ।—स्वामी हरिदास (शब्द॰) ।
३६. सोना (को॰) ।
३७. दुध । जैसे—गोरस (को॰) ।
रस परित्याग संज्ञा पुं॰ [सं॰] जैनों के अनुसार दुध, दही, चीनी नमक या इसी प्रकार का और कोई पदार्थ विल्कुल छोड़ देना और कभी ग्रहण न करना ।