रुख
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]रुख ^१ संज्ञा पुं॰ [फ़ा॰ रुख]
१. कपोल । गाल ।
२. मुख । मुँह । चेहरा ।
३. चेहरे का भाव । आकृति । चेष्टा । उ॰— (क) रुख रुख भीहे सतर नाहिं सोहि ठहरात । मान हितू हरि वात तें घूमजात लौं जात । —स॰ सप्तक पृ॰ २६७ । (ख) पुनि मुनिवर शंकर रु(ख) ष चीन्हों । चरण गुहा ते बाहर कीन्हों । — स्वामी रामकृष्ण (शब्द॰) । (ग) संकर रुख अवलोकि भवानी । प्रभु मोहिं तजेउ हृदय अकुलानी । तुलसी (शब्द॰) । मुहा॰—रुख मिलाना= मुँह सामने करना । ४ मन की इच्छा जो मुख को आकृत्ति से प्रकट हो । चेष्टा से प्रकट इच्छा या मरजी । उ॰— राम रुख निरषि हरषौ हिये हनुमान मानो खेलवार खोली सीस ताज बाज की । —तुलसी (शब्द॰) । मुहा॰—रुख देना=प्रवृत्त होना । ध्यान देना । रुख फेरना या बदलना=(१) ध्यान किसी दूसरी ओर कर लेना । प्रवृत्त न होना । (२) अवकृपा करना । नाराज होना ।
५. कृपादृष्टि । मेहरबानी को नजर ।
६. सामने या आगे का भाग । जैसे,—(क) वह मकान दक्खिन रुख का है । (ख) कुरसी का रुख इधर कर दो ।
७. शतरंज का एक मोहरा जा ठीक सामने, पीछे, दाहिने या बाएँ चलता है, तिरछा नहीं चलता । इसे रथ, किश्ती और हाथी भी कहते हैं ।
रुख ^२ क्रि॰ वि॰
१. तरफ । ओर । पार्श्व । उ॰— मनहुँ मघा जल उमगि उदधि रुख चले नदी नद नारे । —तुलसी (शब्द॰) ।
२. सामने । उ॰— निज निज रुख रामहिं सब देखा । कोउ न जान कछु मरम विशेष । —तुलसी (शब्द॰) ।
रुख ^३ संज्ञा पुं॰ [सं॰ रुक्ष]
१. दे॰ 'रुख' ।
२. एक प्रकार की घास जिसे वरक तृण कहते हैं ।
रुख ^४ वि॰ [हिं॰ रुखा] दे॰ 'रुखा' ।