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लहसुन

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लहसुन

प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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लहसुन संज्ञा पुं॰ [सं॰ लशुन]

१. एक केंद्र से उठकर चारों ओर गिरी हुई लंबी लंबी पतली पत्तियों का एक पौधा, जिसकी जड़ गोल गाँठ के रूप में होती है । उ॰—तुलसी अपनो आचरण भलौ न लागत कासु । तेहि न बसाति जो खात नित लहसुन हू की बासु ।—तुलसी (शब्द॰) । विशेष—इसकी जड़ या कंद प्याज के ही समान तीक्ष्ण और उग्र गंधवाली होती है; इससे इसे बहुत से आचारवान् हिंदू विशेषतः वैष्णव नहीं खाते । प्याज की गाँठ और लहसुन की गाँठ की बनावट में बहुत अंतर होता है । प्याज की गाँठ कोमल कोमल छिलकों की तहों से मढ़ी हुई होती है; पर लहसुन की गाँठ चारों ओर एक पंक्ति में गुछी हुई फाँकों से बनी होती हैं जिन्हें जवा कहते हैं । वैद्यक में यह मांसवर्धक, शुक्र- वर्धक, स्निग्घ, उष्णवीर्य, पाचक, सारक, कटु, मधुर, तीक्ष्ण, टूटी जगह को ठीक करनेवाला, कफवातनाशक, कंठशोधक, गुरु, रक्तपित्तवर्धक, बलकारक, वर्णप्रसादक, मेघाजनक, नेत्रों को हितकारी, रसायन तथा हृद्रोग, जार्णज्वर, कुक्षिशूल, गुल्म, अरुचि, कास, शोथ, अर्श, आमदोष, कुष्ठ, अग्निमांद्य, कृमि, वायु, श्वास तथा कफनाशक माना जाता है । भावप्रकाश में लिखा है कि लहसुन खानेवालों के लिये खट्टी चीजें, मद्य और मांस हितजनक है; तथा कसरत, धूप, क्रोध, अधिक जल, दूध और गुड़ अहितकर है । वैद्यक में इसके बहुत गुण कहे गए हैं । यह तरकारी के मसाले में पड़ता है । 'भावप्रकाश' में लहसुन के संबंध में यह आख्यान लिखा है—जिस समय गरुड़ इंद्र के यहाँ से अमृत हरकर लिए जा रहे थे, उस समय उसकी एक बूँद जमीन पर गिर पड़ी । उसी से लहसुन की उत्पत्ति हुई । मनु आदि स्मृतियों में इसके खाने का निषेध पाया जाता है । पर्या॰—महौषध । अरिष्ट । महाकंद । म्लेच्छकंद । रसोनक । भूतघ्न । उग्रगंध ।

२. मानिक का एक दोष जिसे संस्कृत में 'अशोभक' कहते हैं ।