वराहमिहिर

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

वराहमिहिर संज्ञा पुं॰ [सं॰] ज्योतिष के एक प्रधान आचार्य जिनके बनाए बृहत्संहिता, पंचसिद्धांतिका और वृहजातक नामक ग्रंथ प्रचलित हैं । विशेष—इनके समय के संबंध में अनेक प्रकार के प्रवाद कुछ वचनों के आधार पर प्रचलित हैं । जैसे,—ज्योतिर्विदाभरण के एक श्लोक में कालिदास, धन्वंतरि आदि के साथ वराहमिहिर भी विक्रम की सभा के नौ रत्नों में गिनाए गए हैं । पर इन नौ नामों में से कई एक भिन्न भिन्न काल से सिद्ध हो चुके हैं । अतः यह श्लोक प्रमाण के योग्य नहीं । इसी प्रकार कुछ लोग ब्रह्मगुप्त के टीकाकार पृथुस्वामी के इस वचन का आश्रय लेते हैं—'नवा- धिक पंचशतसंख्य शाके वराहमिहिराचार्य्या दिवंगतः ।' और शक ५०९ में वराहमिहिर की मृत्यु मानते हैं । पर अपनी पंच- सिद्धांतिका में 'रोमकसिद्धांत' का 'अहर्गण' स्थिर करते हुए वराहमिहिर ने शक संवत् ४२७ लिया है । ज्योतिषी लोग अपना समय लेकर ही अहर्गण स्थिर करते हैं । अतः इससे ईसा की पाँचवी शताब्दी में वराहमिहिर का होना सिद्ध होता है । अपने बृहज्जातक के उपसंहाराध्याय में आचार्य ने अपना कुछ परिचय दिया है । उसके अनुसार ये अवंती (उज्जयिनी) के रहनेवाले थे । 'कायित्थ' स्थान में सूर्यदेव को प्रसन्न करके इन्होंने वर प्राप्त किया था । इनके पिता का नाम आदित्यदास था ।