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विक्षनरी:अवधी साहित्य कोश

विक्षनरी से

अखरावट  : यह जायसी कृत अवधी रचना है। इस कृति में वर्णमाला के एक-एक अक्षर के आधार पर ईश्वर, जीव, जगत, सृष्टि आदि आध्यात्मिक भावों का विवेचन किया गया है।

अगवानी  : अवधी का एक स्वागत गीत, जो बारातियों के सत्कार के लिये स्त्रियों द्वारा गाया जाता है।

अच्छेलाल शुक्ल ’रसिक’  : रसिक जी ने अवधी साहित्य के अभिवर्द्धन हेतु कन्हैया-चरित्र, द्रोपदी-पुकार आदि के साथ ही ढेर सारी रचनाओं का सृजन किया है। शेष विवरण अनुपलब्ध है।

अजदत्त  : ये द्विवेदी युग के अल्पख्यात अवधी रचनाकार हैं। काव्यधारा को प्रवहमान रखने में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है।

अजमल सुल्तानपुरी  : ये सुल्तानपुर के निवासी एवं अल्पख्यात अवधी कवि हैं।

अज्ञात  : यह नाम है अथवा विशेषण, स्पष्ट नहीं। ‘विनोद’ के अनुसार ’कामरूप’ नामक अवधी काव्यकृति अज्ञात कवि की लिखी हुई है।

अद्याप्रसाद शुक्ल  : शुक्ल जी का आधुनिक अवधी कविता में उल्लेखनीय स्थान है। इन्होंने पुस्तकाकार कम, किंतु स्पष्ट रूप से अनेक अवधी कविताओं की रचना की है।

अंधियार पाखु  : यह डॉ. सुशील सिद्धार्थ कृत अवधी का अप्रकाशित उपन्यास है। इसमें उच्च शिक्षा से सम्बद्ध लोगों को केन्द्र में रखकर उनके अत्याचारों को चित्रित किया गया है।

अनंतदास साधु  : इन्होंने सं. १६४५ के लगभग कुछ अवधी कविताएँ लिखी थीं। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं- नामदेव आदि की परची संग्रह, पीपा जी की परची, समन सेउजी की परची आदि आठ अवधी ग्रन्थ।

अनंतदास साधु  : इन्होंने सं. १६४५ के लगभग कुछ अवधी कविताएँ लिखी थीं। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं- नामदेव आदि की परची संग्रह, पीपा जी की परची, समन सेउजी की परची आदि आठ अवधी ग्रन्थ।

अनन्य  : इनका जन्मकाल सं. १७१० है। इनकी प्राप्त कृति ‘सिंदोरा’ का रचना-काल सं. १७३५ (लगभग) कहा गया है। यह कृति अवधी की श्रेष्ठ काव्यकृति मानी गई है। शेष विवरण अन्वेषणाधीन है।

अनुरागी  : ये हरदोई के निवासी हैं। इनकी काव्यकृति ‘मीनाबाजार’ (खण्डकाव्य) अवधी काव्य में गण्यमान है।

अनूप शर्मा  : ये लखनऊ के निवासी एवं अवधी कविताएँ करने में सिद्धहस्त कवि हैं। इनकी कविताएँ प्रायः पत्र-पत्रिकाओं में छपा करती हैं।

अनूप श्रीवास्तव  : लखनऊ नगर के निवासी श्रीवास्तव जी अपनी कविताओं के लिए बहुत मशहूर हैं। इन्होंने अवधी को अपनी काव्य भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की है।

अब्दुर्रशीद खाँ ‘रशीद’  : रायबरेली निवासी रशीद जी उच्चस्तर के साहित्यसेवी रहे हैं। इनकी साहित्य-सर्जना अधिकांश अवधी भाषा में प्रस्फुटित हुई है। इनका साहित्यिक स्थान अग्रगण्य है। इनका जन्म एवं मृत्यु वर्ष है क्रमशः १९०० एवं १९८० ।

अब्दुल कुद्दूस गंगोही (शेख)  : इनका जन्म रुदौली (बाराबंकी) में सं. १५१३ वि. में हुआ था। कालांतर में ये गंगोह (सहारनपुर) में बस गए, जिसके कारण इनके नाम के पीछे गंगोही शब्द लगने लगा। इनकी मृत्यु सं. १५९४ वि. में हुई। इनका उपनाम ‘अलखदास’ भी मिलता है। इन्होंने ‘चांदायन’ का फारसी अनुवाद किया था। इनके पिता का नाम इस्माइल था।

अमर बहादुर सिंह ‘अमरेश’ : ये पूरे रूप, अमावाँ, जिला रायबरेली के निवासी एवं सुविख्यात अवधी कवि रहे हैं। इनका जन्म १९२९ तथा अवसान सन् १९७८, में हुआ।

अमर बहादुर सिंह ‘अमरेश’ : ये पूरे रूप, अमावाँ, जिला रायबरेली के निवासी एवं सुविख्यात अवधी कवि रहे हैं। इनका जन्म १९२९ तथा अवसान सन् १९७८, में हुआ।

अमरजीत : ये जहाँगीरगंज, फैजाबाद के निवासी एवं अवधी साहित्यकार हैं।

अमीर अली वारसी : ये कबीर पंथी संत रहे हैं। इनका जन्म सन् १८९० ई. में ग्राम गंगाचौली, जनपद बाराबंकी में हुआ था। इन्होंने अवधी साहित्य में अविस्मरणीय योगदान किया है। इनका अवधी ग्रंथ है- “ज्ञान संग्रह” जो दो खण्डों में प्रकाशित हुआ है। प्रथम सन् १९३४ में तथा दूसरा सन् १९४४ में।

अमीर खुसरो : मध्य एशिया की लाचन जाति के तुर्क सैफुद्दीन के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म सन् १२५४ ई. (६५२ हि.) में एटा (उ.प्र.) के पटियाली नामक कस्बे में हुआ था। इनकी माँ बलवन के युद्ध मंत्री इमादुतुल मुल्क की लड़की, एक भारतीय मुसलमान महिला थीं। इनकी प्रतिभा बाल्यावस्था से ही काव्योन्मुख थी। इनमें उच्च कल्पनाशीलता के साथ-साथ सामाजिक जीवन के उपयुक्त कूटनीतिक व्यवहार-कुशलता की दक्षता मौजूद थी। खुसरों ने अपना सम्पूर्ण जीवन राज्याश्रय में बिताया। इन्होंने गुलाम, खिलजी और तुगलक तीन अफगान राजवंशों तथा ११ सुल्तानों का उत्थान-पतन देखा। जलालुद्दीन खिलजी ने खुसरों को अमीर की उपाधि प्रदान की। ये मुख्यरूप से फारसी के कवि थे किन्तु इन्होंने हिन्दी को भी अपनी प्रतिभा समर्पित कर हिन्दी साहित्य में प्रमुख स्थान प्राप्त किया। इनकी हिन्दी रचनाओं में मुकरी, पहेली आदि रूपों में जो काव्य-सृजन हुआ उसमें मुख्यतः अवधी के दर्शन होते हैं। अपने गुरू शेख निजामुद्दीन की मृत्यु को ये सहन नहीं कर सके अन्ततः ६ माह बाद सन् १३२५ ई. मे इन्होंने अपनी इहलीला समाप्त कर दी।

अमृतवाणी : यह दुर्गादास जी कृत अवधी ग्रंथ है। इसका प्रकाशन सन् १९८७ में लखनऊ से हुआ। इसके संपादक एवं प्रकाशक श्री रामनारायण चौधरी आई.ए.एस. (सेवानिवृत्त) हैं।

अम्बिका प्रसाद  : द्विवेदी युग में अवधी काव्यधारा को जीवनदान देने वालों में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इनका साहित्य अभी अप्रकाशित है।

अयोध्या प्रसाद बाजपेयी ’औथ’  : पं. अयोध्या प्रसाद बाजपेयी ’औध कवि’ ग्राम सातन पुरवा, जिला रायबरेली के निवासी थे। इनका काव्य काल संवत् १८६० से १९४२ तक रहा। डा. धीरेन्द्र वर्मा ने अपने सम्पादित ग्रन्थ हिन्दी साहित्य-कोश भाग २, पृ. २० में औध कवि के ग्रन्थों का उल्लेख इस प्रकार किया है- अवध शिकार, रागरत्नावली, साहित्य सुधासागर, राम कवितावली, छन्दानन्द, शंकर शतक ब्रज ब्रज्यो, चित्र काव्‍य, तथा रास सर्वस्व।

अयोध्या : ये रायबरेली के निवासी हैं। इन्होंने अवधी भाषा में फाग सृजित किये हैं।

अरविन्द कुमार द्विवेदी : द्विवेदी जी का अधिक विवरण तो उपलब्ध नहीं है, फिर भी इतना निश्चित है कि आंधी-पानी’ जैसी अनेक कृतियाँ सृजित की हैं, जिनका अवधी में काफी सम्मान हुआ है।

अली मुराद  : अली मुराद की गणना हिन्दी के अवधी सूफी कवियों में की जाती है। इनकी प्राप्य काव्यकृति है- ‘कथा कुँवरावत’ इनके जीवन वृत्त विषयक तथ्य उपलब्ध नहीं हैं। आत्मोल्लेख के नाम् पर कवि ने अपने ग्रन्थ के मध्य में अपना नाम लिया है तथा अपने गुरू के सम्बन्ध में कुछ कहा है। कवि ने अपने गुरू का नाम फखरुद्दीन दिया है, जो हज़रत निजामुद्दीन औलिया के पुत्र तथा उनकी शिष्य परम्‍परा में आते हैं। इनकी कृति ‘कथा कुँवरावत’ के आद्यंत अध्ययन से ज्ञात होता है कि कवि लोकजीवन का पारखी था तथा बहुज्ञ भी। नक्षत्र तिथि तथा ज्योतिष आदि का कवि को अच्छा ज्ञान था। ‘कथा कुँवरावत’ पूर्णतः काल्पनिक है। अपनी इस कृति के माध्यम से कवि सूफी सिद्धान्तों की विवेचना में पूर्ण प्रयत्नशील रहा है। यही कारण है कि साधना पद्धति तथा परम्परा की दृष्टि से कवि पूर्णतः सूफी है। शरीयत के नियमों की विस्तृत विवेचना तथा गुरू महिमा, ब्रहम स्वरूप, जीव परमात्मा के सम्बन्ध में उसने अपने विचार व्यक्त किये हैं। कवि की दृष्टि में जीवन का साध्य है-प्रेम। कवि की काव्य-भाषा अवधी है, जिसमें लोक-भाषा का सौन्दर्य परिलक्षित होता है।

अवथी मंच : सुल्तानपुर जिले के कादीपुर क्षेत्र में स्थापित यह एक संस्था है। यह संस्था ’अखत’ नामक पत्रिका दो अंकों में प्रकाशित कर चुकी है और अवधी भाषा के प्रचार-प्रसार हेतु समर्पण भाव से सेवारत है।

अवध ज्योति : अवध भारती समिति द्वारा प्रकाशित यह एक अवधी पत्रिका है, जिसका प्रकाशन सन् १९९४ से प्रारम्भ हुआ जो अबाधगति से अभी चल रहा है।

अवध ज्योति : अवध भारती समिति द्वारा प्रकाशित यह एक अवधी पत्रिका है, जिसका प्रकाशन सन् १९९४ से प्रारम्भ हुआ जो अबाधगति से अभी चल रहा है।

अवध भारती समिति  : यह बाराबंकी जनपद के हैदरगढ़ क्षेत्र में स्थित एक साहित्यिक संस्था है, जो अवधी भाषा के प्रचार-प्रसार का कार्य करती है ‘जोंधइया’ नामक पत्रिका सन् १९९०-९४ के बीच १० अंकों में प्रकाशित हुई, जिसमें लगभग १५० कवियों को प्रकाश में लाया गया, जो अप्रकाशित थे। १९९४ से ‘अवध-ज्योति’ पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है।

अवध विलास  : यह सं. १७०० में लालदास द्वारा प्रणीत अवधी का प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ है। इसमें राम और सीता की ललित कलाओं का बड़ा मनोहारी वर्णन हुआ है।

अवधी  : यह अवधी परिषद, लखनुऊ द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका है। डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित के संयोजन में सन् १९७८ में इसका, शुभारम्भ हुआ। पं. वंशीधर शुक्ल, रभई काका, पढ़ीस तथा मृगेश पर विशेषांक निकालकर इस पत्रिका ने इस बृहत्चतुष्टय के साथ आधुनिक अवधी काव्य को विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों में प्रतिष्ठा दिलाई, कई संस्थाएँ चलवाईं और अवधी पुरस्कार शुरू कराए, फलतः आधुनिक अवधी काव्य पुनर्जीवित हो उठा है।

अवधी अकादमी  : यह सुल्तानपुर जिले में कार्यरत अवधी साहित्य की कल्याणकारी संस्था है, जिससे कई अवधी पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ है।

अवधी अध्ययन केन्द्र  : इस संस्था की स्थापना सन् १९८८ में लखनऊ जनपद में हुई। अवधी के प्रचार-प्रसार हेतु इस संस्था ने ‘बिरवा’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। इस पत्रिका के कुल नौ उपयोगी अंक प्रकाशित हो चुके हैं। इसी नाम से दूसरी संस्था बिसवाँ सीतापुर से निकली है जिसके संरक्षक- पं. उमादत्त एवं श्रीकांत शर्मा ‘कान्ह’, अध्यक्ष- श्री सोमदत्त शुक्ल एवं महामंत्री, श्री रामकृष्ण संतोष हैं।

अवधी और उसका साहित्य  : यह सन् १९५४ में प्रकाशित (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से) डॉ. त्रिलोकीनाथ दीक्षित द्वारा प्रणीत एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसके प्रकाशन से अवधी के साहित्यिक स्वरूप का परिचयात्मक विश्लेषण प्राप्त हुआ है। इसका संपादन क्षेमचन्द्र ‘सुमन’ द्वारा किया गया है।

अवधी का लोक साहित्य  : अवधी क्षेत्र का लोकसाहित्य अपने में एक विशिष्ट साहित्य है। इसी पक्ष को प्रचारित एवं प्रसारित करने की शुभेच्छा से डॉ. सरोजनी रोहतगी ने उपर्युक्त शोध का लेखन किया है।

अवधी का विकास : इस पुस्तक के लेखक डॉ. बाबूराम सक्सेना हैं। इस पुस्तक के माध्यम से अवधी भाषा का प्रारम्भ, विकास एवं विश्लेषणात्मक वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। अवधी का स्वरूप उद्घाघाटित करने में इस शोधकृति का अतुलनीय योगदान रहा है।

अवधी की राष्ट्रीय कवितायें : यह सन् १९९२ में डॉ. श्यामसुन्दर मिश्र ‘मधुप’ द्वारा संपादित एक महत्वपूर्ण संकलन है। इसमें लगभग ११० अवधी कवियों का साहित्यिक परिचय और सैकड़ों रचनाओं एवं लोकगीतों को प्रस्तुत किया गया है। अवधी साहित्य को अक्षुण्ण बनाये रखने में इस ग्रंथ का प्रशंस्य योगदान है।

अवधी कृष्णभक्ति काव्य  : यह डॉ. श्याम मुरारी जायसवाल द्वारा सन् १९९८ में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध है। इस प्रबन्ध में अवधी भाषा के माध्यम से रचित कृष्ण-काव्य का उल्लेख किया गया है।

अवधी कृष्णभक्ति काव्य  : यह डॉ. श्याम मुरारी जायसवाल द्वारा सन् १९९८ में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध है। इस प्रबन्ध में अवधी भाषा के माध्यम से रचित कृष्ण-काव्य का उल्लेख किया गया है।

अवधी के आधुनिक काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ  : यह डॉ. श्यामसुन्दर मिश्र ‘मधुप’ द्वारा संपादित अवधी भाषा के कवियों, रचनाओं एवं प्रवृत्तियों से सम्बन्धित एक परिचयात्मक ग्रंथ है। इस ग्रंथ का प्रकाशन सन् १९८३ में हुआ।

अवधी कोश : यह श्री रामाज्ञा द्विवेदी ‘समीर’ द्वारा संपादित अवधी शब्द-संग्रह है। इसका संपादन एवं प्रकाशन सन् १९५४ के आस-पास हुआ था। इसमें लगभग चालीस हजार शब्द संकलित हैं। यह संभवतः पहला अवधी शब्द-संग्रह है।

अवधी परिषद  : यह लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में स्थापित एक संस्था है। ’अवधी’ नामक पत्रिका का प्रकाशन इसी संस्था के माध्यम से अत्यन्त सफलतापूर्वक सम्पन्न होता था।

अवधी भाषा एवं साहित्य का इतिहास  : यह प्रो. राजेन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव द्वारा लिखित परिचयात्मक पुस्तक है, जिसका प्रकाशन २ अक्टूबर सन् १९९७ ई. को ‘भवदीय प्रकाशन’ अयोध्या से हुआ। इस पुस्तक में अवधी व्याकरण एवं ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया गया है। अवधी साहित्य में इसकी बड़ी ही उपादेयता सिद्ध हुई।

अवधी भाषा-साहित्य और संस्कृति  : यह डॉ. राधिका प्रसाद कृत अवधी की अन्वेषणात्मक एवं परिचयात्मक पुस्तक है, जिसमें साहित्यकारों का परिचय एवं अवधी के संदर्भ में कई लेखों का समायोजन है। इस पुस्तक का प्रकाशन १९८८ ई. में ’आनंद-प्रकाशन’ दीवानी मिसिल, फैजाबाद से हुआ।

अवधी में संयुक्त क्रियापद  : यह डॉ. ज्ञानशंकर पाण्डेय द्वारा किया गया महत्वपूर्ण शोधकार्य है, जो अभी अप्रकाशित है। इसमें अवधी का भाषावैज्ञानिक वर्गीकरण एवं विकास प्रस्तुत किया गया है।

अवधी लोक कथाएँ  : डॉ. बाबूराम सक्सेना द्वारा लिखित पुस्तक ‘अवधी का विकास’ के परिशिष्ट-२ में वर्णित लोककथाएँ हैं- गुलगुला वाली कथा, ठकुरन की बहादुरी, अंधेरे की बेईमानी, लरिकिनि की पति सेवा, गुरू किहे के फल, बाम्हन अउ बोकरा केर कथा, सियार और सियारिन, बाबा की करामात, कचेहरी मा बयान, मुकदिमा कइ हाल, बम्हनी कइ बयान, भिखारी बाम्हन कय कथा।

अवधी लोकोक्ति / कहावत-कोश : यह डॉ. रामबहादुर मिश्र कृत संग्रह है, जिसमें ३,००० लोकोक्तियों/कहावतों का संकलन प्रस्तुत किया गया है। लोकोक्तियाँ अन्तर्कथात्मकता के भी साथ प्रस्तुत की गयी हैं। यह अवधी साहित्य की विशेष उपलब्धि है।

अवधी शब्द कोश : यह सन् १९९६ में हिन्दी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित एक उपयोगी संग्रह है। इसमें लगभग आठ हजार शब्दों का संकलन प्रस्तुत किया गया है और साथ ही उनका अर्थ, व्याकरणिक कोटि आदि से भी परिचय कराया गया है। इसमें ठेठ देशज शब्दों को लिया गया है, जो अभी तक अप्रकाशित थे। इस कोश में डॉ. हरदेव बाहरी तथा श्री रामाज्ञा द्विवेदी ‘समीर’ द्वारा रचित कोशों के भी समस्त देशजशब्दों को संकलित किया गया है। इसका संपादन कार्य डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित एवं डॉ. सजीवनलाल यादव द्वारा संपन्न हुआ।

अवधी शब्द कोश : यह सन् १९९६ में हिन्दी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित एक उपयोगी संग्रह है। इसमें लगभग आठ हजार शब्दों का संकलन प्रस्तुत किया गया है और साथ ही उनका अर्थ, व्याकरणिक कोटि आदि से भी परिचय कराया गया है। इसमें ठेठ देशज शब्दों को लिया गया है, जो अभी तक अप्रकाशित थे। इस कोश में डॉ. हरदेव बाहरी तथा श्री रामाज्ञा द्विवेदी ‘समीर’ द्वारा रचित कोशों के भी समस्त देशजशब्दों को संकलित किया गया है। इसका संपादन कार्य डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित एवं डॉ. सजीवनलाल यादव द्वारा संपन्न हुआ।

अवधी शब्द-सम्पदा  : यह डॉ. हरदेव बाहरी द्वारा सम्पादित अवधी का शब्द कोश है। समीर द्वारा संपादित ‘अवधी-कोश’ में परिवर्तन-परिवर्द्धन करके दोगुनी शब्द-संपदा करते हुए बाहरी जी ने अपने नये संग्रह का नाम ‘अवधी शब्द-संपदा’ दिया है। इस संग्रह का आधार सामान्य बोल चाल की भाषा है। इसमें लगभग ३०,००० शब्द संकलित हैं। इसका प्रथम संस्करण सन् १९९२ में प्रकाशित हुआ।

अवधी सागर : यह जानकी रसिक शरण द्वारा रचित अवधी ग्रंथ है। इसमें श्रीराम तथा सीताजी के चरित्र का सरस और मनोहारी ढंग से वर्णन हुआ है। इसका प्रणयन सं. १७६० में हुआ था।

अवधी साहित्य-संस्थान  : यह संस्था अयोध्या, फैजाबाद में कार्यरत है। यहाँ से ’अवधी’ पत्रिका के माध्यम से अवधी के समग्र पक्षों को विश्लेषित करने का सराहनीय कार्य हो रहा है।

अवधेश अवस्थी ‘सुमन’ : अवधी काव्य जगत के सर्वथा चर्चित व्यक्तित्व सुमन जी का जन्म सन् १९३० ई. में सीतापुर जिले के दासापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनको काव्य का गुण वंशानुगत प्राप्त हुआ था। इनके पितामह सुप्रसिद्ध महाकवि ‘द्विज बलदेव’ थे, जिन्हें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने सम्मानित किया था। सुमन जी ने अवधी और खड़ी दोनों बोलियों में काव्य रचना की थी। इनकी अवधी की सुप्रसिद्ध रचनायें इस प्रकार हैं - ‘दहेज’- सामाजिक समस्या प्रधान। ‘काका की फुलबगिया’ तथा ‘हिमालय की गरिमा’ आदि। इनके काव्य में व्यक्त राष्ट्रीयता की भावना स्तुत्य है। इनकी अवधी में बैसवारी बोली का प्रभाव परिलक्षित होता है। सन् १९९२ में कवि का निधन हो गया।

अवधेश त्रिपाठी  : कविवर अवधेश त्रिपाठी का नाम अवधी की आधुनिक कविता के प्रारम्भिक उन्नायकों में गणनीय है। इनका जन्म सन् १८९० ई. में ग्राम उनरावाँ जिला लखनऊ में हुआ था। राष्ट्रीय भावधारा के कवि अवधेश ‘सनेही मण्डल’ के अच्छे कवियों में थे। उनकी वेशभूषा आचार- व्यवहार में स्वदेशी की भावना प्रबल थी। खादी का कुर्ता, धोती, टोपी यही इनकी पोशाक थी। कवि ने अंग्रेजी शासन काल के भोगे हुए यथार्थ को अपनी कविताओं में चित्रांकित किया। अवधेश जी की अवधी वस्तुतः बैसवारी है। इनकी अवधी रचनायें हैं - ‘आजादी का वालिंटियर’, ‘जमींदार से किसान की चिरौरी’, ‘कालिज का खर्चा’, ‘मज़दूर अहिन’, ‘आजादी क्यार गान’, ‘मातमी दुनियाँ’, ‘ग्रेजुएट’, ‘मिडिलची’, ‘मेला’, ‘अंगरेजहा जवान’, ‘हम मिलिकै देसु सुधार ल्याब’, ‘हम सबके ताबेदार अहिन’, ’हम हन किसान’, ‘कवि केर बिदाई’, ’लगान’, लड़की के पिता का पछतावा’, ‘जाड़े के प्रति’, ‘कृषकों का ग्रीष्म’, ‘कवि-पत्नी का पश्चाताप’ आदि उल्लेखनीय हैं। ‘किसान-कटौं झनि’ ‘दीहात-दशा’ इनकी अवधी की अच्छी पुस्तकें है। अवधी कविता के साथ ही कवि ने अवधी गद्य में अनेक एकांकियों की रचना भी की है। त्रिपाठी जी अवधी की अमर विभूति बनकर सन् १९४८ ई. में दिवंगत हो गये।

अवधेश शुक्ल : अपनी अवधी कविताओं के माध्यम से जन-जन में प्रसिद्ध शुक्ल जी बहराइच जनपद के निवासी हैं। इनका कर्तृत्व उल्लेखनीय है। अवधेश शुक्ल का सम्प्रति निवास स्थान सीतापुर है, रचनाएँ- जागु-जागु मजदूर किसनवा आदि।

अवनीन्द्र विनोद  : कविवर अवनीन्द्र विनोद गोण्डा जिले (उ. प्र.) के निवासी हैं। इनका जन्म २ जुलाई १९५१ ई. में हुआ। शिक्षा इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राप्त की। सम्प्रति ये आई. टी.आई. लि. मनकापुर जिला गोण्डा में विधि सहायक (सतर्कता विभाग) के पद पर कार्यरत हैं। काव्य के प्रति इनकी रुचि किशोरावस्था से ही थी। इन्होंने अवधी की सैकड़ों रचनायें लिखी हैं। ‘‘गीत ज्ञान विज्ञान’ नामक पुस्तक बाल-साहित्य की अच्छी पुस्तक है। आकाशवाणी-दूरदर्शन और टेली फिल्म के लिये इन्होंने बराबर गीत लिखें है। राजनीतिक-सामाजिक विकृतियों का यथातथ्य चित्रण इनकी कविता में परिलक्षित होता है। इनकी अवधी में पूर्वीपन का बाहुल्य है। इन्होंने अपने काव्य में वर्णन शैली का प्रयोग अधिक किया है।

अश्वमेध पर्व (महाभारत)  : सबलसिंह द्वारा इस कृति का प्रणयन- समय सं. १७१८ वि. तथा १७८१ के मध्य का है। इसकी भाषा अवधी है। कथा का आधार महाभारत से ग्रहण किया गया है।

अहमक शाह : ईसा की १९वीं शती में जनमें शाह साँईदाता सम्प्रदाय से सम्बद्ध संत एवं अवधी साहित्यकार रहे हैं। इन्होंने अपनी ‘पद विचार’ नामक गद्य कृति अवधी भाषा के माधयम से प्रस्तुत की है।

आखत  : यह एक अवधी पत्रिका है, जिसका प्रकाशन ‘अवधी मंच’ के माध्यम से हो रहा है। दो अंकों में प्रकाशित होकर इस पत्रिका ने अवधी साहित्य में काफी योगदान किया है।

आखत  : यह एक अवधी पत्रिका है, जिसका प्रकाशन ‘अवधी मंच’ के माध्यम से हो रहा है। दो अंकों में प्रकाशित होकर इस पत्रिका ने अवधी साहित्य में काफी योगदान किया है।

आखिरी कलाम : यह मलिक मोहम्मद जायसी की महत्वपूर्ण रचना है। इसमें अवधी भाषा एवं दोहा -चौपाई, छंदों का सफल प्रयोग हुआ है।

आचार्य रघुनन्दनप्रसाद शर्मा  : इनका जन्म रायबरेली जनपद के ग्राम मोहनपुर मजरा छोटी खेड़ा, पो. भौजपुर, तहसील लालगंज में सन् १८७७ ई. में हुआ था। इनके पिता श्री मथुराप्रसाद तिवारी भारतीय सेना में सूबेदार मेजर के पद पर थे। शर्मा जी की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा गाँव के सरकारी प्राइमरी पाठशाला में कक्षा ८ तक हुई। ये विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे, जिससे अल्पवय में ही इन्होंने हिन्दी उर्दू का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। कलकत्‍ता प्रवास के कारण राष्ट्रीयता इनमें कूट कूट कर भर गई थी। अतः खद्दर की धोती, कुर्ता, अंगौछा, मृगचर्म के जूते पहनने लगे। स्वाध्यायी वृति के रघुनन्दन जी ने घर पर ही वेदशास्त्र का गहन अध्ययन किया और उसके प्रकाण्ड विद्वान बन गये। ये कुछ समय सुरगुजा स्टेट में फारेस्ट अफसर पद पर रहे। तदुपरांत वहीं के स्टेट कौंसिल के सदस्य भी रहे। स्वभाववश शर्मा जी अधिक समय तक कहीं नहीं ठहरते थे। बारह वर्षों तक ये गाँव में रहे और निम्नलिखित ग्रन्थों का प्रणयन किया- १-वैदिक सम्पत्ति २-अक्षर विज्ञान, ३-गायत्री मंत्र-महिमा,४ गायत्री सम्पदा, ५-कान्य कुब्ज का इतिहास, ६-मिटीरिया डिमाइना आदि। महावीर प्रसाद द्विवेदी की सिफारिश पर बम्बई के सेठ रंगनाथ जी ने इनकी कृतियों का प्रकाशन करवाया। इन्होंने भारतीय ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, संस्कृति की ज्योति विदेशों में यथा- फिजी मलेशिया, अफ्रीका आदि में प्रज्वलित की तथा भरतीयों में भी जागृति पैदा की। कानपुर के निवासी अपने परम मित्र श्री सत्यदेव पाण्डेय वैद्य के पास प्रयाग नारायण मंदिर में रहते हुए सन् १९३२ में ५४ वर्ष की आयु में अचानक, भगवान को प्रिय हो गये।

आचार्य रमेश शास्त्री : इनका जन्म १५ अगरत सन् १९२१ ई. को बाराबंकी जनपद के ’खोल’ नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम पं. जगन्नाथ प्रसाद पाण्डे है। ७ वर्ष की अल्पावस्था में पिताजी का देहावसान हो गया अतः इन पालन-पोषण नानी द्वारा लखनऊ में हुआ। शिक्षा पूरी होने के बाद केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ लखनऊ में अध्यापन कार्य मेंं लग गये। अवधी के अतिरिक्त इन्होंने खड़ी बोली एवं ब्रज भाषा को भी अपनाया। अवधी में इनकी एकमात्र काव्यकृति ‘बिरवा’ है, जिसमें राजनैतिक, सामाजिक तथा भक्तिपरक रचनाओं का बाहुल्य है। शास्त्री जी ने समीक्षापरक अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। अनुवाद द्वारा भी काव्य सृजन को आगे बढ़ाया।

आतमदीन  : इनका अवधी साहित्य के परिवर्द्धन में पर्याप्त योगदान रहा है। इन्होंने अपनी लोक कथाओं तथा लोकोक्तियों के माध्यम से अपने जीवन के अनुभवों को पद्यबद्ध किया है। साहित्य में अति सामान्य जीवन को इन्होंने अपना विषय क्षेत्र बनाया है।

आदित्य वर्मा : वर्मा जी का जन्म गोण्डा जनपद में हुआ था। इन्होंने ग्राम्य जीवन एवं सम-सामयिक विषयों को अपनी लेखनी के माध्यम से चित्रांकित करने का उपक्रम किया। ’भरत’ इनका प्रसिद्ध अवधी खण्ड काव्य है।

आदित्यप्रसाद अवस्थी ‘दिनेश दादा’ : सीतापुर जनपद के दौली नामक गाँव के निवासी अवस्थी जी अपनी अवधी रचनाओं के लिए प्रख्यात हैं। इनका जन्म २४ जुलाई सन् १९३७ को हुआ था। हास्य-व्यंग्य इनके लेखन का मुख्य क्षेत्र है। महमूद फूफा, खटमल चालीसा, मूंछे, डकैत आदि तमाम इनकी अवधी रचनाएँ हैं।

आद्याप्रसाद मिश्र ‘उन्मत्त’ : प्रतापगढ़ में जन्मे उन्मत्त जी उच्चकोटि के अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने अवधी भाषा को उत्कृष्ट साहित्य प्रदान किया है। मिश्र जी खड़ी बोली में भी साधिकार लिखते हैं। ये मंच के भी सफल कवि हैं। व्यवसाय से मिश्र जी अधिवक्ता हैं। किंतु मूलतः एक साहित्यकार और पत्रकार हैं। ‘फौजी की पाती’, ’रेलगाड़ी सुप्रसिद्ध रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में गाँवों के जीवन का चित्रांकन है।

आद्याप्रसाद सिंह ‘प्रदीप’  : ये पूर्वी अवधी के जाने माने कवि हैं। इनका जन्म २ अगस्त १९४५ ई. को सुल्तानपुर जिले के ग्राम रानेपुर दलिया गोलपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम दुर्गाप्रसाद सिंह है। सम्प्रति ये जिलापरिषद के विद्यालय में अध्यापक है। ‘पूर्वी अवधी के कवियों’ पर इन्होंने पी-एच.डी. स्तर का शोध कार्य भी किया है। इनकी अवधी की रचनायें हैं - ‘अवध बानी’ (मुक्तक संकलन) इसे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ से पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। ‘सुलोचना’ खण्डकाव्य। ‘प्रदीप’ जी ने अवधी में सुन्दर गद्य भी लिखा है। पूरबी अवधी लोक गीतों की समीक्षा पूरबी अवधी के गद्य में ही करते हैं। इन्होंने लगभग एक दर्जन ग्रन्थों की रचना की है जिनमें कुछ प्रकाशित भी हो चुके हैं। राष्ट्रीय ऐक्य पर कवि के उद्गार अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। अवधी काव्य सृजन के प्रति समर्पित प्रदीप जी से हिन्दी जगत को बड़ी सम्भावनायें हैं।

आधुनिक अवधी काव्य में राष्ट्रीय चेतना : यह डॉ. अनीस हसन द्वारा सन् १९९० में प्रस्तुत शोध-प्रबंध है। इस शोध कार्य में आधुनिक अवधी काव्य के माध्यम से अभिव्यक्त राष्ट्रीय चेतना का उद्घाटन किया गया है।

आधुनिक अवधी काव्य में लोकतत्त्व : यह डॉ. शीलेन्द्र मोहिनी श्रीवास्तव द्वारा सन् १९७६ में प्रस्तुत शोध-प्रबंध है। इस शोध कार्य में अवध प्रदेश के जनजीवन में प्रचलित एवं परिव्याप्त लोकतत्वों को खोजने एवं उनकी विवेचना करने का प्रयास किया गया है।

आधुनिक अवधी के प्रमुख कवि : यह डॉ. ओम् प्रकाश त्रिवेदी द्वारा प्रणीत परिचयात्मक ग्रंथ है। इसका प्रणयन सं. २०४७ में हुआ। इसमें पं. प्रतापनारायण मिश्र, पढ़ीस, वंशीधर शुक्ल, रमई काका, मृगेश तथा पं. द्वारका प्रसाद मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला गया है।

आधुनिक अवधी के प्रमुख कवि : यह डॉ. ओम् प्रकाश त्रिवेदी द्वारा प्रणीत परिचयात्मक ग्रंथ है। इसका प्रणयन सं. २०४७ में हुआ। इसमें पं. प्रतापनारायण मिश्र, पढ़ीस, वंशीधर शुक्ल, रमई काका, मृगेश तथा पं. द्वारका प्रसाद मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला गया है।

आधुनिक अवधी संत-साहित्य : यह डॉ. रामकृष्ण जायसवाल द्वारा सन् १९९३ में प्रस्तुत शोध- प्रबंध है। इसमें अवधी भाषा के माध्यम से रचित संत-साहित्य का उल्लेख किया गया है।

आधुनिक काल में अवधी काव्य तथा उसके कवि  : यह अवधी साहित्य का परिचयात्मक ग्रंथ है, जिनका संपादन-लेखन डॉ. दुर्गाशंकर मिश्र द्वारा सम्पन्न हुआ है। यह कृति सन् १९९५ में प्रकाशित हुई है। इसमें सैकड़ों आधुनिक अवधी कवियों का परिचय दिया गया है जिनका परिचय प्रायः अप्राप्त रहा है।

आधुनिक बैताल : आधुनिक रहीम के सदृश इनका अवधी काव्य भी बड़ा सरस और मनोरंजक है।

आधुनिक रहीम : ये अवधी में हास्य-विनोद और व्यंग्य के प्रमुख लेखक हैं। हिन्दी के पाठकों का इनके काव्य से बड़ा निकटस्थ परिचय है। इनका कोई काव्यग्रंथ अभी प्रकाशित नहीं हो पाया है फिर भी ये स्फुट काव्य लेखन में लब्धप्रतिष्ठ रचनाकार हैं।

आधुनिक सूरदास : भक्तिकालीन महाकवि सूरदास ने ब्रजभाषा में अपने अमर काव्य की रचना की है, किंतु इन्होंने अवधी में काव्य रचना कर अपनी भावनाओं को समाज के बीच सम्प्रेषित किया है।

आनंदी दीन : ये आधुनिक काल के प्रतिनिधि अवधी कवि हैं। विशेष विवरण अनुपलब्ध है।

आनन्द प्रकाश अवस्थी आनन्द’ उर्फ नन्हें भइया : बैसवारी अवधी के श्रेष्ठ रचनाकार आनन्द प्रकाश अवस्थी ’आनन्द’ रायबरेली जिले के ग्राम चिलौली (इन्हौना) में सन् १९३९ ई. में जनमें थे। अभी ये राजकीय दीक्षा विद्यालय शिवगढ़ ‘रायबरेली’ में प्रशिक्षक पद पर कार्य कर रहे हैं। इनकी अवधी की प्रमुख काव्य-कृतियाँ इस प्रकार हैं:- ‘हियरा हँसे हमार’, ‘पैकरमा’, ’नींद अउते नहीं’, ‘देवी-पंचाष्टक’, ‘देवी अहोखा’, ‘जस-चालीस’ तथा ‘मन्दिरनामा’ आदि। आनन्द जी की रचनायें सरस हैं। उनमें ग्राम्य जीवन की संस्कृति रची-बसी है। राष्ट्रीय भावना- इनकी कविता का मुखरित स्वर है। इनकी कविता में सहजता है, आडम्बर शून्यता है। यहाँ भारत भूमि के प्रति स्तवन-भाव व्यक्त किया गया है। आधुनिक अवधी के विकास में कवि आनन्द से बड़ी सम्भावनायें हैं।

आलम  : जनश्रुतियों के आधार पर कहा जाता है कि आलम धनाढ्य ब्राह्मण थे और जौनपुर निवासी थे। बाद में शेख रंगरेजिन के कारण मुसलमान हो गये थे। आलम का काव्य काल सं. १६४० से सं. १६८० के मध्य का है। आलम की प्रामाणिक चार रचनाएँ है:- (१) माधवानल कामकंदला (२) सुदामा चरित (३) स्याम सनेही (४) आलमकेलि। ‘माधवानल कामकंदला’ नामक रचना का निर्माण परिष्कृत अवधी में प्रबन्ध रूप में किया गया है। यह प्रेमपरक काव्य है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास ( पृ. १९३) में आलम नाम के दो कवियों का उल्लेख किया है- एक अकबर कालीन ‘माधवानल-कामकंदला’ के प्रणेता और दूसरे ‘आलम केलि’ के प्रणेता। परन्तु कुछ विद्वानों एवं सुधी आलोचकों ने दोनों को एक ही माना है।

आल्हखण्ड : यह वीरगाथा काल के महाकवि जगनिक द्वारा प्रणीत अवधी का सर्वप्रथम काव्य-ग्रन्थ है। इसका प्रणयन सं. १२५० में हुआ। इसमें महोबे के वीर आल्हा-ऊदल की कथा है। इस ग्रन्थ को लिपिबद्ध करने का श्रेय सर चार्ल्स इलियट को प्राप्त है। उन्होंने इसे सन् १९६५ में फर्रुखाबाद जिले में लिपिबद्ध कराया था। यह श्रीरामचरितमानस के बाद अवध प्रदेश का सबसे लोकप्रिय ग्रन्थ है।

आल्हा : यह अवधी का महत्वपूर्ण छन्द है। भानु कवि कृत ‘छन्द प्रभाकर’ में इसके अन्य नाम हैं - वीर, अश्वावतारी, मात्रिक, सवैया। इनमें १६-१५ मात्राएँ होती हैं अंत में जगण होता है। ‘आल्हखण्ड’ की रचना इसी छंद में हुई है। दूसरे संदर्भ में आल्हा ‘आल्हखंड’ महाकाव्य के नायक एवं महोबा के वीर क्षत्रिय हैं। यह अवध और बुंदेलखण्ड की लोकप्रिय वीर गाथा भी है। पावस ऋतु में सामूहिक रूप से अथवा निजीस्तर पर इसका गायन प्रायः होता दिखता है। इसके मूलरूप के सम्बन्ध में अनेक विवाद हैं। जगनिक को आल्हखण्ड का रचयिता कहा गया है, पर उस अपभ्रंश-रचना का अवधी ‘आल्हा’ पर प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं परिलक्षित होता। वर्तमान आल्हा की अनेक लड़ाइयों के रचयिता प्रतापनारायण मिश्र को कहा जाता है। आल्हा के अनेक संस्करण हैं, जिनमें कहीं ५२ लड़ाइयाँ और कहीं ५६ लड़ाइयाँ वर्णित हैं। इसे आशुगायक प्रायः गढ़ते रहते हैं। इसमें अनुरणनात्मक ध्वनियों का बाहुल्य है। आल्हा के गायक अल्हैतों की पाठ प्रविधि स्वयं में विशिष्ट है।

आल्हा : यह अवधी का महत्वपूर्ण छन्द है। भानु कवि कृत ‘छन्द प्रभाकर’ में इसके अन्य नाम हैं - वीर, अश्वावतारी, मात्रिक, सवैया। इनमें १६-१५ मात्राएँ होती हैं अंत में जगण होता है। ‘आल्हखण्ड’ की रचना इसी छंद में हुई है। दूसरे संदर्भ में आल्हा ‘आल्हखंड’ महाकाव्य के नायक एवं महोबा के वीर क्षत्रिय हैं। यह अवध और बुंदेलखण्ड की लोकप्रिय वीर गाथा भी है। पावस ऋतु में सामूहिक रूप से अथवा निजीस्तर पर इसका गायन प्रायः होता दिखता है। इसके मूलरूप के सम्बन्ध में अनेक विवाद हैं। जगनिक को आल्हखण्ड का रचयिता कहा गया है, पर उस अपभ्रंश-रचना का अवधी ‘आल्हा’ पर प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं परिलक्षित होता। वर्तमान आल्हा की अनेक लड़ाइयों के रचयिता प्रतापनारायण मिश्र को कहा जाता है। आल्हा के अनेक संस्करण हैं, जिनमें कहीं ५२ लड़ाइयाँ और कहीं ५६ लड़ाइयाँ वर्णित हैं। इसे आशुगायक प्रायः गढ़ते रहते हैं। इसमें अनुरणनात्मक ध्वनियों का बाहुल्य है। आल्हा के गायक अल्हैतों की पाठ प्रविधि स्वयं में विशिष्ट है।

आशुकवि ‘रशीदजी’ : इनका पूरा नाम श्री अब्दुर्रशीद खाँ ‘रशीद’ “आधुनिक रसखान” है। पिता का नाम स्व. श्री अब्दुल हमीद खाँ है। इनका निवास स्थाद सैयद राजन मुहल्ला (किला बाजार) रायबरेली है तथा पूर्वजों का निवास काबुल स्थिर काकरजई पर्वत रहा है। ये सन्‌ १९२० से १९६० तक जिला परिषद के अंतर्गत प्राइमरी पाठशाला के अध्यापक रहे। सन ६० में सेवा मुक्त हुए। इनकी रचनाएँ स्फुट रूप में मिलती हैं। रशीद जी रसखान की श्रेणी के भक्तकवि हैं। इनके काव्य का मुख्य रस भक्ति रहा है। ये श्रीकृष्ण के सख्य भाव के उपासक हैं।

इन्दरचंद तिवारी ‘बौड़म लखनवी’ : तिवारी जी का जन्म बराबंकी जनपद के याकूत गंज नामक ग्राम में ३० मई सन् १९३३ को हुआ, किन्तु इनका लालन पालन लखनऊ में हुआ। लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी से एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। अनेक विभागों में सेवा करते हुए इन्होंने काव्य सृजन भी शुरू किया। प्रारम्भ में अवधी भाषा को माध्यम बनाया बाद में खड़ी बोली अपना ली। इनकी कृतियाँ हैं- हीरक कण (लघु कथा में), जय बांग्ला (उपन्यास), बाल-साहित्य में इनकी कृतियाँ हैं- जब वे मौत से मिलने चले (शहीदों की कहानियाँ), बौड़म बसंत (हास्य-व्यंग्य) आदि। अवधी में इन्होंने अनेक हास्य नाटक लिखे, जैसे- भूखा भेड़िया, मंगरे मामा, स्वांग हरि के जन जगमग दीप जले आदि। ये लखनऊ दूरदर्शन से प्रसारित भी हो चुके हैं। इनका हास्य-व्यंग्य-लेखकों में सम्मानित स्थान है।

इन्द्रगोपाल सिंह ‘इन्द्र’ : ख्याति प्राप्त अवधी कवि रघुनाथ सिंह चौहान के पुत्र इन्द्रजी का जन्म सं. १९८२ वि. में भवानीपुर ग्राम में हुआ था। साहित्यानुराग इन्हें विरासत में मिला। शिक्षा न के बराबर ही रही। इन्होंने भक्त प्रह्लाद’ नामक पुस्तक की रचना की है। इसके अतिरिक्त अनेक स्फुट रचनाएँ हैं। छंद, गीत, पद आदि भी लिखे हैं। इनकी अवधी सामान्य जन-भाषा है।

इन्द्रदत्त : ये द्विवेदीयुगीन अवधी काव्य-धारा के रचनाकार हैं।

इन्द्रावती  : यह नूर मोहम्मद कृत अवधी प्रेमाख्यान है। इसमें कलिंग के राजकुमार राजकुँवर और आगमपुर की राजकुमारी इन्द्रावती की प्रेम-कथा वर्णित है। हर पाँच चौपाइयों के बाद दोहा का योग हैं। भाषा में संस्कृत और ब्रज के भी शब्द प्रयुक्त हुए हैं।

इश्क विनोद  : यह सुल्तानपुर निवासी सीता प्रसाद कृत अवधी रचना है। इसमें बरवै छंद का प्रयोग हुआ है।

ईश्वरदास  : ईश्वरदास नामक कवि, राम काव्य के सर्जक रहे हैं। जायसी और तुलसी (जिन्होंने अवधी को विश्व साहित्य में प्रतिष्ठा दिलाई) के आविर्भाव से पहले ये १५ वीं शती के मध्य में हुये थे, उपलब्ध साहित्य के आधार पर इन्हें अवधी का प्रथम उल्लेखनीय कवि माना जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनकी रचना ‘स्वर्गारोहिणी कथा’ को अवधी की प्रथम रचना माना है। इनकी अन्य रचनायें हैं:- भरत-विलाप, राम-जन्म, अंगद-पैज। ये तीनों रचनायें राम कथा पर आधारित है। इनकी रचना अवधी भाषा में हुई है। इन्होंने अपनी कृतियों -रामजन्म व अंगद-पैज में आख्यान शैली का प्रयोग किया है। आचार्य पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के शब्दों में - ’ईश्वरदास की सभी प्राप्त रचनायें इस बात का स्पष्ट संकेत करती हैं कि वे कथा शैली के सिद्धहस्त रचनाकार थे। आख्यान तत्व इनकी कृतियों में सहजता से मिलता है। इस तरह तुलसी और जायसी जैसे विश्वविश्रुत कवियों ने कथा आख्यायिका शैली का जो भव्य रूप अवधी भाषा की दृढ़ पीठिका पर खड़ा किया, उसका आरम्भ प्रारम्भिक अवधी में और विशेषकर ईश्वर दास की रचनाओं में हुआ है। ईश्वर दास द्वारा प्रणीत ‘सत्यवती कथा’ का उल्लेख भी मिलता है। मसनवी शैली में रचित यह कृति हिन्दी-प्रेमाख्यान परम्परा से ओत-प्रोत है। इसमें भारत की सती-साध्वी नारियों का चरित्र निरूपित किया गया है। भाषा अवधी है, पर सूफियों जैसी जन-भाषा नहीं। इसका रचना-काल सन् १५०१ ई. है।

ईश्वरी प्रसाद : भारतेन्दुयुगीन अवधी कवियों में इनका महत्वपूर्ण स्थान है। इनका निवास-स्थान बैसवारा क्षेत्र है।

ईसायण : यह एस. मार्शलीन द्वारा अवधी भाषा में लिखा गया एक महत्वपूर्ण महाकाव्य है। इसकी मूल कथा ईसा-चरित्र है। इसको हिन्दी जगत में सर्वप्रथम मान्यता दिलाकर प्रकाश में लाने का काम श्री मायापति मिश्र ने किया। मिश्र के अनुसार ‘मानस’ और पदमावत की रचना पद्धति को आधार मानकर रचित ‘ईसायण’ का आरम्भ ‘मंगलाचरण’ दोहों से होकर अंत सोरठा से हुआ है। ग्रन्थ से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर इसका प्रकाशन काल १९३८ ई. है। ‘मानस’ की चौपाइयों की भाँति इस काव्य की चौपाइयों में भी सरसता देखने को मिलती है।

उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण  : दामोदर पण्डित रचित यह ग्रन्थ अवधी माध्यम से लिखा गया संस्कृत का प्रथम व्याकरण है। इसके आधार पर डा. रामविलास शर्मा की स्थापना है कि अवधी संस्कृत के समानान्तर विकसित हुई है तथा यह भी कि अवधी भाषा का व्याकरण संस्कृत व्याकरण से पूर्व निर्धारित था। तात्पर्य यह कि अवधी आरम्भ में ही एक स्वायत्त भाषा रही है। यह ग्रंथ इसका प्रमाण है।

उबहटि  : नववधू के ससुराल आगमन के अवसर पर उसका स्वागत करती हुई स्त्रियाँ यह अवधी लोक गीत गाती हैं। इसमें मंगलाशा का भाव होता है।

उबहटि  : नववधू के ससुराल आगमन के अवसर पर उसका स्वागत करती हुई स्त्रियाँ यह अवधी लोक गीत गाती हैं। इसमें मंगलाशा का भाव होता है।

उभय प्रबोधक रामायण  : यह महात्मा बनादास द्वारा प्रणीत अवधी ग्रंथ है। इसकी कथा सात काण्डों में विभक्त है। इसमें छप्पय, सवैया, कुण्डलियाँ, घनाक्षरी आदि छंदों का प्रयोग हुआ है। इसकी रचना सं. १९३१ में हुई थी।

उमादत्त सारस्वत ‘दत्त’  : सीतापुर जनपद ही नहीं, अपने कृतित्व से सम्पूर्ण हिन्दी-जगत में चर्चित बदोसराँय (बाराबंकी) के मूल निवासी पं. रामदास सारस्वत के यहाँ सं. १९९२ वि. में बिसवाँ (सीतापुर) में जनमें, हास्य एवं व्यंग्य के पुट कवि, कहानीकार एवं नाटककार पं. उमादत्त सारस्वत ‘दत्त’ सनेही मण्डल के प्रौढ़ कवि रहे हैं। इनकी रचनाओं में श्रृंगार की स्थूलता का अभाव है। भाषा में प्राञ्जलता तथा व्याकरण-सम्मत शुद्धता है, जो द्विवेदी युग की प्रमुख देन है। ’दत्त’ जी आत्मविज्ञापन से दूर एकान्त साहित्य सेवी हैं। इन्होंने ‘मस्तराम का चिट्ठा’, ‘मस्तराम का सोंटा’, मैया केंचुलबदल (सभी व्यंग्य रचनाएँ), भाई-बहन (कहानी-संग्रह), मिलन (सामाजिक नाटक), लेखलतिका (निबन्ध संग्रह) आदि गद्य रचनाओं के अतिरिक्त छः काव्य-ग्रन्थ लिखें हैं। वे हैं ‘किरण’, ‘किसलय’, ’कोयल’, ‘प्रवासी पति’ (महाकाव्य), ‘मन्दोदरी’ (खण्डकाव्य) तथा मस्तराम की कुंडलियाँ (हास्यरसपूर्ण कुंडलियों का संग्रह)। इनमें से प्रथम तीन गद्य रचनाएँ तथा ‘किरण’ (काव्य-संग्रह) प्रकाशित है। ‘मस्तराम की कुंडलियाँ’ में दत्त जी की हास्यरस पूर्ण कुंडलियाँ संकलित हैं। विशुद्ध अवधी भाषा में लिखी इन कुंडलियों में सामाजिक कुरीतियों के प्रति तीव्र आक्रोश है। कवि का यह आक्रोश व्यंग्य के माध्यम से अभिव्यंजित हुआ है। ‘जुगुल जोड़ी’ शीर्षक रचना में जहाँ उनमें विवाह पर करारा व्यंग्य है, वहीं ‘चुनाव चर्चा’ तथा ‘ओट की भीख’ आदि रचनाओं में राजनीतिक विद्रूपताओं पर तीखा प्रहार है। इसी प्रकार रिशवती आँखें, ‘घूसवन्दना’ ‘खद्दर महिमा, ‘सुधारक यू समौ’ अदि रचनाएँ भी किसी न किसी सामाजिक कुरीति पर प्रकाश डालती हैं।

उमाप्रसाद बाजपेई ‘सुजान’  : अरथाना, जिला सीतापुर में सन् १९०२ ई. में जन्में कविवर सुजान जी खड़ी बोली और अवधी के अच्छे कवि थे। इनका जीवन एक अध्यापक के रूप में व्यतीत हुआ था। कार्य-स्थल सीतापुर रहा। सुजान जी के ग्रन्थों में -चूकनाथ, कृष्ण कीर्तन, नैमिषारण्य, दुर्गावती चरित्र, कुसुमांजलि आदि उल्लेखनीय हैं। ‘दहाड़’ इनकी अवधी रचनाओं का संकलन है। ‘परमार्थ प्रवेश’ इनकी एक आध्यात्मिक कृति है। इस कवि पर बैसवारी अवधी का प्रभाव है। इनकी भाषा में बिम्ब प्रस्तुत करने की क्षमता है। उपमान भी लोक जीवन से जुड़े हुए हैं। कवि का देहावसान सन् १९८८ ई. में हो गया था।

उमाशंकर मिश्र ’उमेश’ : उमेश जी का जन्म ३० अप्रैल सन् १९३१ ई. को रायबरेली जनपद के तौधकपुर ग्राम में पं. रामकृष्ण मिश्र के पुत्ररूप में हुआ। इन्होंने एम.ए. हिन्दी तक शिक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात् डाक-तार विभाग में लम्बे समय तक कार्य किया, किंतु सम्प्रति काव्य सृजन में अपने समय का सदुपयोग कर रहे हैं। इनकी काव्य कृतियाँ हैं-‘काँच के वृक्ष’ (काव्य-संग्रह), मुखौटे सलीब युद्ध (काव्य-संग्रह), आग भी अनुराग भी (गीत-संग्रह), नये-पुराने फूल (गजल-संग्रह)। मिश्र जी की अवधी रचनाएँ अत्यन्त सशक्त हैं। सम्प्रति मिश्रजी ५५४/२०३ छोटा बरहा, आलमबाग, लखनऊ में रह रहे हैं।

उमेशदत्त श्रीवास्तव ‘सुमन’ : सुमन जी का जन्म २१ जनवरी १९४५ ई. को सुल्तानपुर जनपद के ग्राम परसपट्टी, कादीपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम कृष्णमुरारी लाल श्रीवास्तव है। स्नातक स्तर तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद अध्ययन-अध्यापन में लग गये। बिटिया की पाती (खण्ड काव्य), गउँवा हमार, कवितावली, स्तुतिमाला, भिखारी (खण्ड काव्य), सुमनमाला, मुक्तावली, श्रद्धासुमन आदि इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। इनकी अवधी उद्भावनाओं में जन-जन की संवेदना अभिव्यक्त हुई है। रचनाओं में देश-प्रेम एवं सामाजिक समस्याओं को भी उजागर किया गया है।

उषा-चरित : यह सं. १८३१ में कवि जनकुंज द्वारा रचित अवधी काव्य ग्रंथ है। इसकी भाषा सरल, मधुर एवं संस्कृतनिष्ठ है।

उषाहरण : यह सं. १८८६ में सृजित जीवनलाल नागरजी का ग्रंथ है। भाषा अवधी है, जिसमें ओज एवं प्रसाद गुण का पुट है।

उसमान  : प्रसिद्ध सूफी कवि उसमान का रचना-काल सं. १६७० सुविदित है। इन्होने ‘चित्रावली’ नामक प्रेम कहानी दोहा-चौपाइयों में लिखी है। यह रचना जायसी के अनुकरण के आधार पर लिखी गई है। इसकी भाषा प्राचीन अवधी है। उसमान बादशाह जहाँगीर के सम सामयिक थे, क्योंकि कवि ने चित्रावली में जहाँगीर की न्यायप्रियता और उनके घण्टे का उल्लेख किया है। हिन्दी के सूफी कवियों में जायसी के बाद उसमान का नाम उल्लेखनीय है। चित्रावली में पग-पग पर काव्य-प्रतिभा तथा वाग्वैदग्ध्य का परिचय मिलता है। इनकी रचना में पौराणिकता का पुट है। कृति के नायक को भगवान शिव का अंश माना गया है।

ओंकार नाथ  : ओंकारनाथ जी पूर्वी अवधी भाषा के अधिकृत कवि माने गये हैं। ‘श्रृंगार सुमन’ इनकी कविताओं का लोकप्रिय संग्रह है। कवि ने अपनी कृति में पूर्वी अवधी भाषा और पूरबी गीतों का समाहार किया है।

ओमप्रकाश त्रिपाठी ‘प्रकाश’ : महोली, सीतापुर के निवासी प्रकाश जी का जन्म सन् १९३३ में हुआ। ये एक अच्छे साहित्यकार हैं। इन्होंने अपना साहित्य सृजन अधिकांश अवधी भाषा के माध्यम से किया है। इन्होंने अपनी रचनाओं में समाज को नई दिशा देने एवं उसे सन्मार्ग पर पहुँचाने की संकल्पना की है। हमार देशवा, गाँव पंचाइति, होली मा आदि इनकी अवधी की मुक्तक रचनाएँ हैं। ये कृषक इण्टर कालेज, महोली में हिन्दी अध्यापक भी रहे।

ओमप्रकाश मिश्र : कुम्हरावाँ, लखनऊ में जनमे मिश्र जी एक उच्चकोटि के साहित्यकार हैं। इन्होंने अवधी की विशेष सेवा की है। इनकी ‘विकासायन’ नामक कृति अवधी साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि है।

कजरी  : यह श्रावण मास में स्त्रियों द्वारा गेय अत्यन्त लोकप्रिय अवधी लोकगीत है। अवध की स्त्रियाँ झूले पर झूलती हुई प्रायः ‘कजरी’ गाती हैं। सावन के शुक्लपक्ष की तृतीया को ’कजरी तीज’ व्रत होता है। अनुमानतः इसी व्रत के आधार पर इन गीतों का नामकरण कजरी हुआ होगा। ‘कजरी’ में किसी विशेष घटना का उल्लेख न होकेर मानव-हृदय के विचारों का उल्लेख रहता है। कजरी में राधा-कृष्ण और गोपियाँ ही मुख्य वर्ण्य विषय हैं। इस गीत में श्रृंगार रस के दोनों पक्षों के चित्र देखने को मिलते हैं।

कठुला  : यह जातकर्म अथवा जन्मोत्सव से सम्बन्धित एक अवधी लोकगीत है। इसमें पुत्रैषणा का भाव होता है।

कढ़िलउना गीत : यह गीत उस समय गाया जाता है जब बच्चे का जन्म दिन मनाया जाता है। अवध में जन्म दिन मनाने की विशिष्ट प्रथा है। बच्चे को प्रत्येक जन्म दिन पर उसी वक्त, जिस समय बच्चे का जन्म हुआ था एक डलिया में बिठाकर खींचा जाता है। यह रस्म विवाह होने तक चलती रहती है।

कन्यादान  : विवाहोत्सव पर गाया जाने वाला यह अवधी लोकगीत अत्यन्त कवित्वपूर्ण एवं मार्मिक है। इसका वर्ण्य विषय है- विवाह मण्डप के नीचे माता-पिता द्वारा वर को कन्यादान।

कन्हैया बख्श : ये भारतेन्दु युग के अवधी साहित्यकार हैं।

कबीर  : अवध प्रदेश में होलिकोत्सव के अवसर पर स्त्री-पुरुषों द्वारा कुछ ऐसे लोक गीत गाए जाते हैं जो सभ्य समाज के लिय वर्ज्य हैं। इन्हें ’कबीर’ संज्ञा देने के पीछे कई रहस्य हैं। कबीरपंथी, निरगुन-विचारक तत्त्व-निरूपण करते हुए जो कटूक्तियाँ कहते रहे हैं, उसके कारण प्रत्येक कटु वाणी को रामोपासक तुलसी-अनुयायी अवधवासी जन इस लोकगीत को भी कबीर कहने लग गए। इसमें “अरा रा रा गों’ के साथ गुप्तांगों का उल्लेख किया जाता है जो उद्धरणीय नहीं है।

कबीर  : अवध प्रदेश में होलिकोत्सव के अवसर पर स्त्री-पुरुषों द्वारा कुछ ऐसे लोक गीत गाए जाते हैं जो सभ्य समाज के लिय वर्ज्य हैं। इन्हें ’कबीर’ संज्ञा देने के पीछे कई रहस्य हैं। कबीरपंथी, निरगुन-विचारक तत्त्व-निरूपण करते हुए जो कटूक्तियाँ कहते रहे हैं, उसके कारण प्रत्येक कटु वाणी को रामोपासक तुलसी-अनुयायी अवधवासी जन इस लोकगीत को भी कबीर कहने लग गए। इसमें “अरा रा रा गों’ के साथ गुप्तांगों का उल्लेख किया जाता है जो उद्धरणीय नहीं है।

कबीर परचई  : इसके रचयिता अनंतदास जी हैं। इनका समय सं. १६०० के आसपास माना जाता है। ‘कबीर परचई’ की छः हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हैं। इसमें कबीर के जीवन की प्रमुख घटनाओं का वर्णन किया गया है। समस्त ग्रंथ दोहा-चौपाई में लिखा गया है।

कमल किशोर शुक्ल  : ये दौलतपुर, रायबरेली के निवासी एक अवधी कवि हैं।

कमला चौथरी  : ये जनपद मेरठ की रहने वाली व्यंग्यकार कवयित्री हैं। इन्होंने अपना अवधी प्रेम ‘आपन मान जात है हाँसी’ अदि रचनाओं के माध्यम से प्रकट किया है।

कमलेश मौर्य ‘मृदु’ : मृदु जी का जन्म सन् १९५० के आसपास सीतापुर जनपद के रामाभारी आम में हुआ था। शत्रुहनलाल मौर्य इनके पिता थे। ये मंच के सफल कवि रहे हैं। मौर्यजी युवापीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में प्रसिद्ध हैं। ’चकबन्दी’, ‘अंबियन केरि बहार’, बाढ़ राहत’, ‘दसवाँ हिस्सा’, ’हमार देसवा’ आदि इनकी अवधी की प्रमुख रचनाएँ हैं।

कलुआ बैल : यह चन्द्रभूषण त्रिवेदी ‘रमई काका’ कृत अवधी उपन्यास है।

कहरवा  : जिन गीतों का प्रयोग कहार लोग करते हैं, वे ’कहरवा’ कहलाते हैं। यह अवधी का जातीय लोकगीत है। कहरवा हुडुक और मंजीरे की तान पर गाए जाते हैं। कहरवा का मुख्य विषय नारी का सौन्दर्य वर्णन हैं। इनमें नारी की विभिन्न दशाओं का भी वर्णन मिलता है। जायसीकृत कहरानामा या ‘महरावाईसी’ इसका श्रेष्ठ उदाहरण है।

कहरानामा  : यह जायसी की महत्वपूर्ण अवधी रचना है। इसमें डोली को उठाने वाले कहारों से सम्बद्द कथा है।

काजरु  : विवाह और उपनयन के अवसर पर सौन्दर्य प्रसाधन करते अथवा काजल लगाते हुए यह अवधी गीत स्त्रियों द्वारा गाया जाता है। इसमें पारस्परिक सम्बन्धों का प्रगाढ़ परिचय प्राप्त होता हैं।

काजी का नौकर : यह अवधी सम्राट पं. वंशीधर शुक्ल कृत अवधी कहानी है, जिसका सृजन सन् १९५५ में हुआ थी। इसका प्रकाशन दैनिक ’स्वतंत्र भारत’ में हो चुका है।

कान्ह जी : ये अवधी भाषा के अल्पख्यात कवि रहे हैं।

कान्ह जी : ये अवधी भाषा के अल्पख्यात कवि रहे हैं।

कामता प्रसाद : ये आधुनिक काल की बैसवारी अवधी के कवि हैं।

कामलता की कथा  : यह कवि जान द्वार रचित अनेक प्रेमाख्यानों में से एक है। भाषा लोकप्रचलित अवधी है। यह चौपाई और दोहा छंद में रचित है। इसमें पाँच चौपाई के बाद एक दोहे का क्रम है। कथा संगठन में कोई नवीन बात नहीं हैं।

कार्तिकेय : अयोध्यावासी संत कार्तिकेय जी अवधी के अच्छे साहित्यकार थे। इन्होंने सन् १९५६ ई. में वेदान्त-रहस्य’ नामक अवधी ग्रंथ लिखा, जिसमें वेदान्त के गूढ़ रहस्यों का उद्‍घाटन अवधी की दोहा-चौपाई शैली में हुआ है। अध्यात्म मार्ग के साधकों के लिए यह कृति ‘साधन-तंत्र के रूप में सिद्ध तथा प्रसिद्ध हुई है।

कालिका प्रसाद ’लामा’  : लामाजी का जन्म रायबरेली जिले के सेमरौता नामक ग्राम में सं. १९३२ में हुआ था। इनके तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं, जिनमें से ‘बारहमासा लामा’ अवधी की अमूल्य निधि है। लामा जी की असामयिक मृत्यु सं. १९७४ में हो गई थी।

कालीचरण बाजपेयी : बैसवारा क्षेत्र के विगहपुर के निवासी बाजपेयी जी आधुनिक काल के श्रेष्ठ अवधी कवि हैं।

कालीदीन : ये बैसवारी अवधी के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। इनका कर्म स्थान रहा है- बैसवारा क्षेत्र। रचनाकाल है- भारतेन्दु युग।

काशीप्रसाद द्विवेदी : इनका जन्म सन् १९५६ में बन्नावाँ रायबरेली में हुआ था। इन्होंने फुटकर अवधी काव्य-सृजन किया है।

कासिमशाह  : कासिमशाह का स्थान अवधी साहित्य के इतिहास में महत्वपूर्ण है। ये लखनऊ जनपद के दरियाबाद नामक स्थान के निवासी थे। इनके पिता का नाम इमानुल्लाह था। इनकी अवधी काव्य कृति ‘हंस जवाहिर’ का रचना-काल कवि द्वारा हि. सन् ११४९ वर्णित है। मिश्र बन्धुओं ने हंस जवाहर का रचनाकाल सं. १९०० माना है। मुहम्मद शाह का शासन काल सन् १७७६-१८०५ है। कवि ने अपने ग्रन्थ का रचना काल हिं० सन् ११४९ अर्थात् सन् १७९३ बताया है। अतएव कासिमशाह का समय मुहम्मदशाह का शासनकाल ही निश्चित होता है।

किनारा राम : ये संत परम्परा के अवधी कवि हैं। इनका जन्म सं. १९८४ में हुआ था। इन्होंने तुलसीदास की पद्धति पर अवधी भाषा में विवेकसार, रामगीता, गीतावली, रामरसाल आदि ग्रंथों की रचना की है।

किरण मिश्र : ये अयोध्या की निवासिनी हैं। इन्होंने ‘अँखुआ’ नामक अवधी रचना की है।

किरण मिश्र : ये अयोध्या की निवासिनी हैं। इन्होंने ‘अँखुआ’ नामक अवधी रचना की है।

किसान कटौंझनि : यह स्व. अवधेश त्रिपाठी की एक अवधी रचना है, जिसमें किसानों के यथार्थ जीवन पर प्रकाश डाला गया है।

कीर्तन  : यह एक स्तुतिपरक अवधी गीत है, जिसमें पंचदेवोपासना और विनयभावना दृष्टिगत होती है। उदाहरण - ‘महरानी वरदानी, जै जै विंध्याचल रानी।’

कीर्तिलता  : यह विद्यापति की कृति है, जो मिथिलानरेश गणेश्वर के पुत्र कीर्ति सिंह की प्रशस्ति में लिखी गई है। कीर्तिलता का रचनाकाल १४०२ ई. के लगभग है। इसमें विद्यापति ने स्वयं को आश्रयदाता का ‘खेलन कवि’ कहा है। आलोचकों के मतानुसार ‘खेलन कवि’ विद्यापति की उपाधि है, जो सरस कविता लिखने के कारण उन्हें मिली है, किंतु इनका तात्पर्य है बाल सखा से। इस ग्रन्थ में महाराज कीर्ति सिंह का राज्याभिषेक, युद्धारोहण, विजय आदि वर्णित है। साथ ही तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण हुआ है। इस काव्य का रूप ऐतिहासिक चरित-काव्य का है। ऐतिहासिक घटनाओं का यथातथ्य अंकन ही कवि का उद्देश्य रहा है। कल्पना और अतिरंजना का इसमें कम से कम सहारा लिया गया है। भाषा एवं साहित्य की दृष्टि से विशिष्ट इस रचना में पद्य के साथ गद्य का भी प्रयोग मिलता है। देशी भाषा अपभ्रंश (अवहट्ट) में कीर्तिलता की रचना की गई है। इसमें एक ओर संस्कृत का मिश्रण हैं तो दूसरी ओर लौकिक भाषाओं का। कीर्तिलता में अवधी के प्रारम्भिक रूप के दर्शन मिलते हैं।

कुतबन शेख  : इन्होंने सं. १५५८ में अवधी भाषा में ‘मृगावती’ की रचना दोहा-चौपाई में की। कुतबन शेख सूफी मत के अनुयायी कवि थे। प्रेमाख्यानक परम्परा में उनका स्थान महत् है। कवि ने कृति का रचनाकाल हि. सन् ९०९ बताया है, जिसके अनुसार वि.सं. १५६० होता है, जिसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, मिश्र बन्धु आदि विद्वानों ने सही माना है। इस कृति में मृगावती नामक राजकुमारी को नायिका के रूप में प्रतिष्ठित कर कवि ने प्रेम-पक्वता की स्थापना की है।

कुँवर बहादुरलाल श्रीवास्तव ‘शेष’  : शेष जी का जन्म नौबस्ता, जिला प्रतापगढ़ में १९१० ई. में हुआ। इनको बाल्यकाल सुखसुविधापूर्वक बीता। इन्होंने एच.टी.सी. ट्रेनिंग प्राप्त करके वर्षों तक अध्यापन कार्य किया। इनकी रचनाओं में सामाजिक चिंता-धारा वेगपूर्वक प्रवाहित होती रही है। नेतावर्ग की कपटलीला, पुलिस प्रशासन के अत्याचार और सामाजिक शोषण-पीड़न इनके लेखन के मूल लक्ष्य रहे हैं। इन्होंने तीन काव्य-संग्रह प्रस्तुत किए हैं - (१) गाँव की गोहार (२) अमर बापू (३) अवध खण्ड। इन्होंने हरिजन समस्या और छुआछूत पर विशेष व्यथा व्यक्त की है। इनका कवित्व समाजवादी दर्शन से पर्याप्त प्रेरित दिखता है। ‘मालिक-मजूर’ कविता में इसका श्रेष्ठ नमूना दर्शनीय है। शेष जी ने अध्यापकों की दयनीय दशा की करुण-कथा भी कही है। इनकी रचनाओं में क्रान्तिकारी भाव भी मुखरित हुआ हैं। कवि को न सुधार की आशा है और न नियोजन पर विश्वास। ’हमरे गाँव’ शीर्षक रचना में उन्होंने गाँव की पीड़ा व्यक्त की है। पूर्वी अवधी के प्रयोगों से। ओत-प्रोत इनमें निर्भीकता एवं स्पष्टवादिता भी देखने को मिलती है।

कुँवर मुकुंद सिंह : कुँवर साहब कोटा के निवासी थे। इन्होंने सं. १७६८ में ‘नल चरित’ नामक अवधी ग्रंथ का सृजन कर अवधी साहित्य के प्रति अपना अनुराग प्रदत्त किया है।’

कृपा निवास : ये रामकाव्य परंपरा से सम्बद्ध अवधी कवि हैं। इनका समय सं. १८४३ और निवास-स्थान अयोध्या रहा हैं। इन्होंने राधाकृष्ण की लीलाओं से सम्बद्ध एक ग्रंथ सृजित किया है। इनके अन्य ग्रंथ हैं - भावना पचीसी, समय प्रबन्ध, माधुरी प्रकाश, जानकी सहस्रनाम, लगन पचीसी आदि। ये सभी ग्रंथ रामचरित से समबद्ध हैं।

कृपाशंकर मिश्र ‘निर्द्वनद्व : अवधी रचनाकारों में निर्द्वन्द्व जी का उल्लेखनीय स्थान है। इनका जन्म ‘ऊँचगाँव-सानी’ जिला उन्नाव में हुआ था। इन्होंने हिन्दी में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। वर्षों तक अध्यापन कार्य करके सम्प्रति स्वतंत्र लेखन में रत हैं। इनकी दो कृतियाँ ‘बमचक’ और ’चमरौधा’ उल्लेखनीय हैं। इनकी कविताओं में जनवादी चिंतन का स्वर है। कवि ने ग्राम्य अंचल और संस्कृति के सजीव चित्र अपने गीतों में उतारे हैं। हास्य व्यंग्य के क्षेत्र में भी कवि ने अपनी सुरुचि का परिचय दिया है। साथ ही राष्ट्रीय, सामाजिक समस्याओं की ओर यथाप्रसंग दृष्टि डाली है। ये बैसवारी अवधी के कवि हैं। इन्होंने गेय छन्दों के अतिरिक्त मुक्त छन्दों का प्रयोग भी अपनी कविता में किया है और शिल्पगत नये प्रयोगों द्वारा अवधी कविताओं को समृद्ध किया है।

कृपाशंकर मिश्र ‘निर्द्वनद्व : अवधी रचनाकारों में निर्द्वन्द्व जी का उल्लेखनीय स्थान है। इनका जन्म ‘ऊँचगाँव-सानी’ जिला उन्नाव में हुआ था। इन्होंने हिन्दी में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। वर्षों तक अध्यापन कार्य करके सम्प्रति स्वतंत्र लेखन में रत हैं। इनकी दो कृतियाँ ‘बमचक’ और ’चमरौधा’ उल्लेखनीय हैं। इनकी कविताओं में जनवादी चिंतन का स्वर है। कवि ने ग्राम्य अंचल और संस्कृति के सजीव चित्र अपने गीतों में उतारे हैं। हास्य व्यंग्य के क्षेत्र में भी कवि ने अपनी सुरुचि का परिचय दिया है। साथ ही राष्ट्रीय, सामाजिक समस्याओं की ओर यथाप्रसंग दृष्टि डाली है। ये बैसवारी अवधी के कवि हैं। इन्होंने गेय छन्दों के अतिरिक्त मुक्त छन्दों का प्रयोग भी अपनी कविता में किया है और शिल्पगत नये प्रयोगों द्वारा अवधी कविताओं को समृद्ध किया है।

कृष्णशंकर शुक्ल  : ये रायबरेली जनपद के निवासी रहे हैं। इन्होंने ’बेनीमाधव बावनी’ नामक रचना सृजित की है, जिसमें पर्याप्त अवधी पुट है।

कृष्णायन  : यह सुप्रसिद्ध पत्रकार एवं राजनीतिक नेता के रूप में ख्यातिप्राप्त पं. द्वारका प्रसाद मिश्र की एक कालजयी कृति है। इसकी रचना सन् १९४२ में स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जेल में की गई थी। यह एक सफल महाकाव्य है। इसकी भाषा अवधी है। जैसाकि नाम से ही स्पष्ट है, ‘कृष्णायन’ में श्री कृष्ण का जीवन-वृत्त है। कृष्ण इस महाकाव्य के नायक हैं। इस महाकाव्य के कथानक का आधार विशेष रूप से महाभारत, श्रीमद्‌भागवत और सूरसागर है। इसकी सम्पूर्ण कथावस्तु निम्नांकित सात काण्डों में विभाजित है- १- अवतरण काण्ड, २- मथुरा काण्ड, ३- द्वारका काण्ड, ४- पूजा काण्ड, ५- गीता काण्ड, ६- जय काण्ड तथा ७- आरोहण काण्ड। कृष्णायनकार परम्परा वादी कवि है; इसीलिए इसमें प्राचीनता और आधुनिकता का अद्‌भुत समन्वय स्थापित हुआ है। संस्कृत वाङ्मय में कृष्ण अवतार का जो हेतु है, उसी का समर्थन इस काव्य में हुआ है। युगीन स्वर की सबलता इसमें द्रष्टव्य है। गाँधीवादी विचारधारा का पल्लवन भी कृष्णायन में हुआ है। इसके अनुसार कृष्ण का अवतार अत्याचार सहने में असमर्थ भारत माता की पुकार पर हुआ है। इस प्रकार कृष्णायन में सुविचारित भाव-योजना है। यह वीर रस प्रधान कृति है, किन्तु अन्य रसों का भी सुन्दर निर्वाह हुआ है। श्रृंगार अपने मर्यादित रूप में चित्रित हुआ है। रचना में प्रकृति के मनोरम दृश्यों का अंकन हुआ है। ‘कृष्णायन’ की भाषा तुलसी के रामचरित मानस की भाषा है। मानस की भाँति ही कृष्णायन की भाषा संस्कृतनिष्ठ साहित्यिक अवधी है। कृष्णायन की भाषा में तत्सम रूप अधिक है। इस कृति में दोहा, चौपाई तथा सोरठा छन्दों का प्रयोग हुआ है। ‘अलंकारों लोकोक्तियों, मुहावरों का भी स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।

केदार तिवारी  : तिवारी जी बैसवारा क्षेत्र के ग्राम तकिया पाटन जिला उन्नाव में १९०० ई. में जनमें थे। इनका बैसवारी अवधी में, लगभग २०० पृष्ठों का एक अप्रकाशित प्रबन्ध काव्य ‘अस्त्र रहित रण भंग’ है। यह ग्रन्थ राष्ट्रीय आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है, जिसमें सन् १९०५ से लेकर १९४७ ई. तक के स्वतंत्रता संग्राम का रोचक वर्णन है। इसकी गणना हिन्दी के राष्ट्रीय काव्यों में की जा सकती है। इनकी अवधी परिमार्जित है। इन्होंने परम्परागत दोहा - चौपाई को अपनाया है। १९५० ई. में तिवारी जी का देहावसान हो गया।

केदारनाथ त्रिवेदी ’नवीन’ : नवीन जी का जन्म सीतापुर जनपद के ‘कोरैया’ नामक ग्राम में सन् १८९५ ई. में हुआ था। इनको प्रारम्भिक जीवन सुखद एवं आनन्दपूर्ण था। राजकीय सेवा से कार्य-मुक्त होकर अन्ततः ये लखीमपुर नगर के स्थायी निवासी हो गये। विविध स्थानों पर नौकरी करने के कारण इन्हें सामाजिक जीवन का गम्भीर अनुभव प्राप्त हुआ। अपनी काव्य माधुरी के कारण कई बार नवीन जी पुरस्कृत भी किये गए हैं। तदुपरांत अवधी भाषा और साहित्य सृजन में द्रुत गति से अग्रसर हुए। आकाशवाणी से इनका गहरा सम्पर्क रहा है। इनकी अधिकांश रचनाओं का प्रसारण यहीं (आकाशवाणी) से हुआ। ऐसी रचनाओं में - हुल, किसान, दीवाली, महंगाई, बुढ़ापा आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। कुलीन, किसानी, नवीन रामायण और बौछार इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। इनका अधिकांश साहित्य अभी अप्रकाशित है। इनमें ‘काली कमली वाला’, उत्तर का अंगद पैज, नैमिषारण्य आदि महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक, धार्मिक, श्रृंगारमूलक भाव इनके काव्य में अधिक मुखर हुए हैं। इनके इस प्रवाह में राजनीति या सम्प्रदायगत भावों की खोज कठिन है। इन्होंने सामाजिक सुधार हेतु शिक्षा पर अधिक बल दिया है। इन्होंने अनेक समस्याओं को जन्म देने का सम्पूर्ण दायित्व सरकारी मशीनरी प्रयोग पर डाला है। नवीन जी रस एवं कल्पनाप्रधान कविता की अपेक्षा यथार्थवादी रचना पर अधिक बल देते हैं। इनकी भाषा स्वच्छ एवं मार्जित है। भाषा में पर्याप्त लालित्य है। अवधी का परिमार्जित प्रयोग इनकी कविता की प्रमुख विशेषता है। उपमा और अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग प्रसंगानुकूल हुआ है। गीत इनकी प्रिय शैली है। अवधी जनकाव्य में इनका साहित्य अपनी मूलभूत विशेषताओं के कारण सदा अमर रहेगा।

केदारनाथ मिश्र ‘चंचल  : ‘चंचल’ जी अवधी के कवि हैं। इनका जन्म ‘दलीपपुर’ जिला प्रतापगढ़ में सन् १९१९ ई. में हुआ था। प्रतिकूल एवं जटिल परिस्थितियों के कारण ये उचित शिक्षा न प्राप्त कर सके, और अध्यापन कार्य करने लगे। बहुत दिनों तक ये अविभाजित भारत देश के लाहौर नगर में रहे, तत्पश्चात् प्रतापगढ़ आ गए। ये वस्तुतः व्यंग्य-विनोद के कवि हैं। ‘रसोई-घाटी’ इनका प्रसिद्ध संकलन है, जो अद्यावधि अप्रकाशित है। ‘महंगी’ शीर्षक कविता में इनकी व्यंग्य विधा मुखर हुई है। इस कविता में त्रस्त समाज का नग्न चित्र है। इन्होंने स्वाभाविक कथन के साथ अमीरों, हाकिमों पर कठोर व्यंग्य किया है। कवि चंचल की अवधी भाषा में पूर्वीपन है। लोकोक्तियों का प्रयोग इनकी भाषा की सशक्तता का प्रमाण है। इनकी भाषा जनभाषा है, किंतु पूर्ण सुगठित है।

केशवचन्द्र वर्मा  : युग के मूल स्वर को पहचानकर कविता लिखने वालों में वर्मा जी का प्रमुख स्थान है। कविता यदि जीवन की व्याख्या है तो इस दृष्टि से वर्मा जी की कवितायें खरी हैं। इनमें जीवन की गहरी व्याख्या है। वर्मा जी की रचनाओं में युगीन समस्याओं को स्वर मिला है। इनकी कृतियों में सामाजिक, राजनीतिक चेतना का यथातथ्य मूल्यांकन हुआ है। हास्य व्यंग्यपरक रचनाओं में वर्मा जी नवीन रूप धारण कर उपस्थित हुए हैं। मनोरंजन और विनोद के क्षेत्र में ये अपने समवर्ती कवियों से बहुत आगे हैं। इनकी अवधी भाषा में शुद्ध एवं सुबोध प्रयोगों के दर्शन होते हैं। स्वच्छन्द निर्झर-सी इनकी भाषा कभी द्रुत कभी मन्थर गति से बहती है। इसके प्रवाह में गम्भीरता और आकर्षण है। ललित शब्द योजना तथा अलंकार जनित माधुर्य से मन आनन्दित हो जाता है।

कौव्वाली  : यह मुख्यतः ईरान से आयी कला है। अवध प्रदेश में कौव्वाली को प्रचारित करने का श्रेय अमीर खुसरो को है। कौव्वाली की मधुरता ही आकर्षण का कारण है। अवध प्रदेश में कौव्वाली को बहुत प्रश्रय मिला है। यहाँ की जनता कौव्वाली सुनना बहुत पसंद करती है। कौव्वाली में श्रृंगार, करुणा, वीर आदि रसों का समावेश अधिक मिलता है।

खगिनिया : ये घाघ, भड्डरी आदि की श्रेणी में परिगणित की जाने वाली एक महत्वपूर्ण लोकपंडिता रही हैं। इन्होंने अवधी साहित्य में अपने पर्याप्त अनुभवों को पद्यबद्ध करके उसमें महती भूमिका अदा की है। लोक कहावतें इनका प्रतिपाद्य विषय रही हैं।

खगिनिया : ये घाघ, भड्डरी आदि की श्रेणी में परिगणित की जाने वाली एक महत्वपूर्ण लोकपंडिता रही हैं। इन्होंने अवधी साहित्य में अपने पर्याप्त अनुभवों को पद्यबद्ध करके उसमें महती भूमिका अदा की है। लोक कहावतें इनका प्रतिपाद्य विषय रही हैं।

खिसकढ़ी  : यह श्री सूर्यप्रसाद त्रिवेदी ‘काका बैसवारी’ की हास्य-व्यंग्य प्रधान रचना है। इसमें ‘काका बैसवारी’ की ४४ रचनायें संकलिन हैं। इसकी कवितायें पाठक को हँसाती एवं विस्मित करती हैं। साथ ही हृदय पर सीधे प्रहार करती हैं।

खुशाल : ये भारतेन्दु युग के ख्यातिप्राप्त अवधी कवि हैं। बैसवाड़ा क्षेत्र इनका निवास स्थान रहा है।

ख्वाजा अहमद  : ये बाबूगंज (प्रतापगढ़) के निवासी थे। इनके पिता का नाम लाल मोहम्मद था। इनका अवधी काव्य है - नूरजहाँ। यह एक प्रेमपरक कृति है। इसकी रचना सं. १९६२ में की गई है। ‘नूरजहाँ’ प्रेमाख्यानक काव्यों की भाँति अवधीयुक्त है। इसमें दोहा-चौपाई छंद का प्रयोग है।

गंगा प्रसाद  : ये अवधी काव्यधारा को अक्षुण्ण बनाये रखने वाले साहित्यकारों में से एक हैं। द्विवेदी युग इनका आविर्भाव काल था।

गंगादयाल  : ये बैसवारा क्षेत्र के निवासी एवं भारतेन्दु युगीन अवधी साहित्यकार हैं।

गंगादयाल द्विवेदी : निगसर (बैसवारा क्षेत्र) के निवासी द्विवेदी जी भारतेन्दु युगीन अवधी साहित्यकार हैं।

गंगाधर व्यास  : ये ‘सत्योपाख्यान भाषा’ को अवधी भाषा में अनूदित करने वाले एक साहित्यकार रहे हैं। इनका जीवनकाल सन् १८४२ से १९१५ ई. तक रहा है।

गंगाप्रसाद मिश्र  : ये अवधी गद्य लेखक विशेषकर लघु नाट्य एवं एकांकियों में कुशल कलाकार हैं। इनके नाटक सामाजिक समस्याओं पर आधारित हैं। इनकी अवधी रचनाएँ हैं - नेवासा, नानक, धरती का धन, सौदागर, पाहुन, ससुराल की सैर आदि।

गंगासागर शुक्ल  : ये अवधी भाषा के एक अल्पख्यात कवि रहे हैं। इनका जन्म सन् १९४३ में रायबरेली में हुआ था।

गजराज सिंह यादव ’अमर’ : अमर जी का जन्म सन १९३० ई. में खीरी जनपद के चन्दनापुर गाँव में हुआ था। इनके पिता जी का नाम ठाकुरप्रसाद यादव था। शिक्षा ग्रहण करने के बाद ये श्री हनुमत रामेशवर दयाल इण्टर कालेज, बिसवाँ में अंग्रेजी के अध्यापक हो गये। ‘कल्पना-कुसुम’ इनका खड़ी बोली का काव्य-संग्रह है। ‘अमर कीरति’ इनकी अवधी रचनाओं का संकलन है। ये अवधी में सवैया और घनाक्षरी बड़ी कुशलता से लिखते हैं।

गजराज सिंह यादव ’अमर’ : अमर जी का जन्म सन १९३० ई. में खीरी जनपद के चन्दनापुर गाँव में हुआ था। इनके पिता जी का नाम ठाकुरप्रसाद यादव था। शिक्षा ग्रहण करने के बाद ये श्री हनुमत रामेशवर दयाल इण्टर कालेज, बिसवाँ में अंग्रेजी के अध्यापक हो गये। ‘कल्पना-कुसुम’ इनका खड़ी बोली का काव्य-संग्रह है। ‘अमर कीरति’ इनकी अवधी रचनाओं का संकलन है। ये अवधी में सवैया और घनाक्षरी बड़ी कुशलता से लिखते हैं।

गड़बड़ रामायण : यह सन् १९४२ में रचित श्री कुटलेश जी की अवधी रचना है, जो दोहा चौपाई छंदों में लिखी गयी है। इनकी चौपाइयों में एक चरण श्रीरामचरित मानस का है तो दूसरा चरण उनके द्वारा सृजित किया गया है। इसमें सामाजिक बुराइयों को उद्घाटित किया गया है।

गड़रिया और मूसा पैगम्बर : यह पं. प्रताप नारायण मिश्र द्वारा रचित लघु कथा है। भाषा अवधी है। इसमें दोहा-चौपाई शैली का प्रयोग है। एक गड़रिया, मूसा और आकाशवाणी के मध्य इसमें संवाद कराया गया है।

गणेशप्रसाद गणाधिप  : इनका जन्म सन् १९०१ में ग्राम भुइला, जनपद सीतापुर में हुआ था। ये मूलतः ब्रज और खड़ी बोली के कवि थे। फिर भी इन्होंने अवधी में कभी-कभी रचनाएँ की हैं। जैसे - ‘काह्यक यार बकावत हौ हमका, हमहू छलछंद पड़े हन।’

गयाचरण : ये द्विवेदी युग की अवधी काव्‍य धारा से सम्बद्ध महत्वपूर्ण कवि है। इनका साहित्य अप्राप्य है।

गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ : सनेही जी का जन्म १८८३ ई. में हड़हा (उन्नाव) नामक ग्राम में हुआ। इन्होंने कानपुर को केन्द्र बनाकर कई वर्षों तक मंचीय काव्य का संचालन किया। सनेही जी अपने युग के आचार्य कवि रहे हैं, साथ ही गुरुवत् पूज्य भी। अपने जीवनकाल में इन्होंने अनेक अखिल भारतीय विराट कवि सम्मेलनों को संयोजन एवं संचालन किया। दीर्घ अवधि तक ये ‘सुकवि’ नामक मासिक पत्रिका के संपादक भी रहे। इस युग को इतिहासकारों ने सनेही युग की संज्ञा दी है। सनेही जी ने त्रिशूल’ उपनाम से ओजगुण पूर्ण राष्ट्रीयता प्रधान रचनाएँ की हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में प्रेमपचीसी, कुसुमांजलि, कृषक क्रन्दन, मानस तरंग, करुण भारती, संजीवनी (काव्य-संग्रह) आदि उल्लेखनीय हैं। अवधी काव्य के क्षेत्र में सनेही जी की स्फुट रचनाएँ महत्वपूर्ण हैं।

गारी  : अवध क्षेत्र में विवाह एवं अन्य शुभ अवसरों पर स्त्रियों द्वारा गारी गाने की प्राचीन-प्रचलित परम्परा रही है। इन उत्सवों में जब भोजन का समय होता है, उसी समय गारी गाई जाती है। गारियाँ प्राचीन शैली में राम-विवाह का माध्यम बनाकर गाई जाती हैं। कालांतर में इन गीतो में विकृति आ गई और ओछे शब्दों का प्रयोग होने लगा। भोजन के समय गारी गाने का एक वैज्ञानिक सिद्धांत भी है। गारी सुनने से चित्त को प्रसन्नता होती है, जिससे भोजन आसानी से पच जाता है। आधुनिक गारी में राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक सभी समस्याओं को प्रश्रय मिला है।

गिरधारी लाल ‘पुंडरीक’ : इनका जन्म बाराबंकी जनपद के रघुनाथ गंज में सन् १९५१ में हुआ। इन्होंने अवधी कविताओं के माध्यम से गाँव का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करने की कोशिश की है। ये सम्प्रति अध्यापनरत हैं।

गिरधारी लाल ‘पुंडरीक’ : इनका जन्म बाराबंकी जनपद के रघुनाथ गंज में सन् १९५१ में हुआ। इन्होंने अवधी कविताओं के माध्यम से गाँव का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करने की कोशिश की है। ये सम्प्रति अध्यापनरत हैं।

गिरिजादयाल ’गिरीश’  : गिरीश जी लखनऊ जनपद के निवासी रहे हैं। इनकी रचनाओं में किसानों के जीवन का सुन्दर वर्णन देखने को मिलता है। सुख-सुविधा विहीन होने पर भी कृषक अपने जीवन से उदासीन नहीं होता। कर्म पर उसे असीम विश्वास है। गिरीश जी के गीत, विषय-वस्तु तथा वर्णन-कौशल की दृष्टि से पर्याप्त उत्कृष्ट हैं। इनकी भाषा सजीव एवं ललित है।

गिरिजाशंकर मिश्र ‘गिरिजेश’  : इनका जन्म सं. १८८९ में ग्राम बन्नावाँ’ जनपद रायबरेली में हुआ था। अवधी गीत, गीता ज्ञान, वेदान्त ज्ञान दर्शन और व्याधि विज्ञान गिरिजेश की अप्रकाशित कृतियाँ हैं। मुसराधार इनकी विश्रुत अवधी रचना है। इसमें ठेठ देशज शब्दों का प्रयोग है और जनभाषा की सहजता है।

गिरिधर कविराय  : इनका जन्म शिवसिंह सेंगर ने सं. १७७० वि. माना है। विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। इनकी कतिपय कुण्डलियों में गिरिधर कविराय नाम के साथ ‘साँई’ शब्द भी आता है। कहा जाता है कि ‘साँई’ वाली कुण्डलियाँ इनकी धर्मपत्नी की लिखी हुई हैं। ‘किशोरी लाल गुप्त ने अथक श्रम से ‘गिरिधर- ग्रंथावली’ का संपादन तथा प्रकाशन किया है। डॉ. ब्रजकिशोर मिश्र ने इन्हें अवध के प्रमुख कवियों में स्थान दिया है तथा इनकी भाषा को अवधी बताया है।

गिरिधारी : सातनपुर निवासी ये अवधी कवि हैं। इनका समय भारतेन्दु युग है। इनका अवधी साहित्य प्रकाशित नहीं हो पाया है।

गिरीश रामायण : यह राजस्थानी कवि गिरीश कृत प्रबंध रचना है। इसमें अवधी के साथ-साथ खड़ी बोली का भी प्रयोग परिलक्षित होता है।

गुणाकर त्रिपाठी : कांथा निवासी त्रिपाठी जी अवधी रचनाकार हैं। इनका रचनाकाल भारतेन्दु युग रहा है।

गुरुचरन लाल ‘गुदड़ी के लाल’  : आधुनिक अवधी रचनाकारों में ‘गुदड़ी के लाल’ का व्यंग्य क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान है। ८ जनवरी १९३८ ई. को मलिकमऊ चौबरा, जिला रायबरेली में इनका जन्म हुआ था। उत्तर रेलवे में ये शाप अधीक्षक के पद पर कार्यरत हैं। साहित्यानुरागी कवि गुरुचरन लाल जी कविता के साथ-साथ नाटक और निबन्ध भी लिखते हैं। सन् १९७८ ई. में प्रकाशित इनकी अवधी काव्य कृति झलबदरा और १९९६ ई. में प्रकाशित ‘छुट्टा हरहा’ विद्वानों के बीच यथेष्ट प्रशंसा प्राप्त कर चुकी हैं। इनकी रचनाओं में सामाजिक चेतना, राष्ट्रीय भावना तथा लोकसंस्कृति के स्वर मुखाग्र हुये हैं। साम्प्रदायिक सद्‍भावना, ऐक्य और अखण्डता पर लिखी गई इनकी अनेकानेक रचनायें प्रेरणादायी हैं, जिनकी भाषा बैसवारी अवधी है।

गुरुदीन सिंह ‘दीन’ : ये जैसा अपने उपनाम से प्रतीत होते हैं वैसा ही इनके साहित्य सृजन के साथ हुआ। पाण्डुलिपियाँ धीरे-धीरे दीमक एवं चूहों का आहार बन गयी। इन्होंने अवधी साहित्य में प्रचुर मात्रा में योगदान किया।

गुरुप्रसाद सिंह ‘मृगेश’  : स्व. मृगेश जी का जन्म ‘बुढ़वल’ जिला बाराबंकी में १२ जनवरी १९१० ई. में हुआ। आधुनिक अवधी काव्य और गद्य के क्षेत्र में मृगेश जी का उल्लेखनीय स्थान है। इन्होंने ब्रज, खड़ी बोली और अवधी तीनों में साहित्य सृजन किया है, जिनमें अधिकांश अप्रकाशित हैं। जैसे- गाँव के गीत, लहचारी, चहलारी नरेश आदि। बरवै व्यंजना, और पारिजात इनकी प्रकाशित अवधी कृतियाँ हैं। नाट्य विधा को मृगेश जी ने सुरुचिपूर्वक अपनाया है। इसके अतिरिक्त कुछ संस्मरण तथा आलोचनात्मक निबन्ध भी लिखे हैं। अवधी के अतिरिक्त इन्होंने माधव मंगल दयादण्ड सुगीत मृगांक, मृगेश महाभारत आदि अनेक काव्यकृतियों का सृजन किया है। इन पर कई आलोचनात्मक निबन्ध और एक शोध प्रबन्ध भी द्रष्टव्य है। इनको जनपदीय पुरस्कार द्वारा सम्मानित भी किया गया है, जो इनकी प्रतिष्ठा का प्रतीक है। इन्होंने अपनी कृतियों में अवध अंचल के लोक-जीवन को यथाशक्ति प्रतिबिम्बित किया है। अवधी प्रबन्ध रचना करने वाले ये प्रथम आधुनिक कवि हैं। कविवर मृगेश जी ने अपने महाकाव्यों में अवध के प्रकृति परिवेश को अर्थात् नदी, नाले, बन, बाग, तड़ाग, खेत, खलिहान, ऋतु, वनस्पति, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु- इन सबको स्वर दिया है। इनका मुक्तक काव्य विविधता से परिपूर्ण है। इन्होंने अनेक छन्दों और विषयों में रचनायें की हैं। बरवै छन्द के ये सफल प्रयोक्ता हैं। इन्होंने अनेक प्रकार के लोकगीत रचे हैं। धार्मिक चिंतन इनमें सर्वाधिक परिलक्षित हुआ है। मृगेश जी मानवतावादी अध्यात्म परायण आस्तिक कवि हैं। इनमें साम्प्रदायिकता की प्रतिक्रिया है। वस्तुतः मृगेश जी ग्रामीण व्यवस्था और कृषि संस्कृति के कवि हैं। सामाजिक कुरीतियों, वर्ग संघर्ष तथा किसानों-मजदूरों की व्यथा-कथा को इन्होंने पूरी सम्वेदना के साथ उभारा है। स्त्रियों की दुर्दशा, पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण, महंगाई, बेकारी, अराजकता, जातिवाद, नेतागीरी, क्षेत्रीयता आदि समस्याओं को भी इन्होंने सतर्कतापूर्वक उभारा है। इनकी रचनाओं में प्रचुर मात्रा में ऋतु वर्णन विद्यमान है। लोक और शास्त्र के बीच समन्वय स्थापित करना इनकी सबसे बड़ी विशेषता है। फलतः आधुनिक अवधी के चतुष्टय में ये गण्यमान हैं। इनमें यथेष्ट कलात्मक सौष्ठव भी है और वैचारिक समृद्धि भी। इन्होंने द्विवेदी युग से लेकर समसामयिक जीवन की विभिन्न भावसरणियों और कलात्मक अभिरुचियों का सन्निवेश करके उनमें नूतन-पुरातन का सफल सामंजस्य किया है।

गुरुप्रसाद सिंह ‘मृगेश’  : स्व. मृगेश जी का जन्म ‘बुढ़वल’ जिला बाराबंकी में १२ जनवरी १९१० ई. में हुआ। आधुनिक अवधी काव्य और गद्य के क्षेत्र में मृगेश जी का उल्लेखनीय स्थान है। इन्होंने ब्रज, खड़ी बोली और अवधी तीनों में साहित्य सृजन किया है, जिनमें अधिकांश अप्रकाशित हैं। जैसे- गाँव के गीत, लहचारी, चहलारी नरेश आदि। बरवै व्यंजना, और पारिजात इनकी प्रकाशित अवधी कृतियाँ हैं। नाट्य विधा को मृगेश जी ने सुरुचिपूर्वक अपनाया है। इसके अतिरिक्त कुछ संस्मरण तथा आलोचनात्मक निबन्ध भी लिखे हैं। अवधी के अतिरिक्त इन्होंने माधव मंगल दयादण्ड सुगीत मृगांक, मृगेश महाभारत आदि अनेक काव्यकृतियों का सृजन किया है। इन पर कई आलोचनात्मक निबन्ध और एक शोध प्रबन्ध भी द्रष्टव्य है। इनको जनपदीय पुरस्कार द्वारा सम्मानित भी किया गया है, जो इनकी प्रतिष्ठा का प्रतीक है। इन्होंने अपनी कृतियों में अवध अंचल के लोक-जीवन को यथाशक्ति प्रतिबिम्बित किया है। अवधी प्रबन्ध रचना करने वाले ये प्रथम आधुनिक कवि हैं। कविवर मृगेश जी ने अपने महाकाव्यों में अवध के प्रकृति परिवेश को अर्थात् नदी, नाले, बन, बाग, तड़ाग, खेत, खलिहान, ऋतु, वनस्पति, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु- इन सबको स्वर दिया है। इनका मुक्तक काव्य विविधता से परिपूर्ण है। इन्होंने अनेक छन्दों और विषयों में रचनायें की हैं। बरवै छन्द के ये सफल प्रयोक्ता हैं। इन्होंने अनेक प्रकार के लोकगीत रचे हैं। धार्मिक चिंतन इनमें सर्वाधिक परिलक्षित हुआ है। मृगेश जी मानवतावादी अध्यात्म परायण आस्तिक कवि हैं। इनमें साम्प्रदायिकता की प्रतिक्रिया है। वस्तुतः मृगेश जी ग्रामीण व्यवस्था और कृषि संस्कृति के कवि हैं। सामाजिक कुरीतियों, वर्ग संघर्ष तथा किसानों-मजदूरों की व्यथा-कथा को इन्होंने पूरी सम्वेदना के साथ उभारा है। स्त्रियों की दुर्दशा, पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण, महंगाई, बेकारी, अराजकता, जातिवाद, नेतागीरी, क्षेत्रीयता आदि समस्याओं को भी इन्होंने सतर्कतापूर्वक उभारा है। इनकी रचनाओं में प्रचुर मात्रा में ऋतु वर्णन विद्यमान है। लोक और शास्त्र के बीच समन्वय स्थापित करना इनकी सबसे बड़ी विशेषता है। फलतः आधुनिक अवधी के चतुष्टय में ये गण्यमान हैं। इनमें यथेष्ट कलात्मक सौष्ठव भी है और वैचारिक समृद्धि भी। इन्होंने द्विवेदी युग से लेकर समसामयिक जीवन की विभिन्न भावसरणियों और कलात्मक अभिरुचियों का सन्निवेश करके उनमें नूतन-पुरातन का सफल सामंजस्य किया है।

गुरुप्रसाद : आधुनिक काल के द्विवेदी युग के अल्पख्यात अवधी कवियों में से ये महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं।

गुरुभक्ति-प्रकाश  : यह चरनदास जी के शिष्य रामरूप जी द्वारा प्रणीत संतपरम्परा का अवधी काव्यग्रंथ है।

गुलछर्रा  : यह रमई काका की ‘फुहार’ की भाँति ही हास्य व्यंग्य प्रधान अवधी काव्य कृति है। इसका प्रकाशन सन् १९७७ में हुआ है। इस उल्लेखनीय काव्य कृति के कई प्रकाशन अद्यावधि प्रकाशित हो चुके हैं। इसमें कवि की ३६ रचनायें संकलित हैं। विषयगत वैविध्य और शिल्पगत वैशिष्ट्य इसका प्रमुख प्रदेय है। ‘गुलछर्रा’ एक फुलझरी के समान है, जिसके हास्य और व्यंग्य से आलम्बन तिलमिला नहीं उठता, वरन् उसके मधुर हास्य व्यंग्य से प्रभावित होकर आकृष्ट होता है। इस काव्य कृति की भाषा बैसवारी अवधी है। इसमें आंचलिक बोली बानी का सहज सौन्दर्य है। अवधी के लोक प्रचलित छन्दों का इसमें प्रयोग हुआ है।

गो-गज-चिकित्सा  : यह महेश्वरबख सिंह कृत अवधी रचना है। इसमें महाभारत के नकुल द्वारा वर्णित गो-गज-चिकित्सा का वर्णन प्रस्तुत किया गया है।

गोपालकृष्ण निगम ‘विरोधी’ : इनका जन्म लखनऊ के मोहल्ला फतेहगंज नाला में सन् १९१६ ई. में हुआ था। इनके पिता स्व. सूरजबली निगम अमीनाबाद हाईस्कूल (अब इण्टरमीडिएट) में अध्यापक थे। २१-२२ वर्ष की अल्पावस्था में पिता जी के देहावसान से इनकी माता ने इनको ले जाकर इनके ननिहाल (बहराइच) में पालन पोषण किया। अनेक महापुरुषों एवं विद्वानों के सीधे सम्पर्क में आकर इनमें हिन्दी प्रेम ही नहीं बल्कि काव्य प्रतिभा भी जाग्रत हुई। कई कालेजों में अपनी शिक्षा पूरी करके ये अध्ययन कार्य से जुड़े। १९७४ ई. में राजकीय रचनात्मक प्रशिक्षण महाविद्यालय, लखनऊ से अवकाश ग्रहण किया। सम्प्रति ई-२१४४, राजाजी पुरम, लखनऊ में निवास करते हैं। ‘रामाचार्या’ इनका अवधी खण्ड काव्य है। इनका अधिकांश काव्य स्तुतिपरक है। विभिन्न देवी-देवताओं के सम्बन्ध में पचासों रचनाएँ इन्होंने लिखी हैं। लहचारी, चैती आदि लोकगीतों पर भी इनकी लेखनी चली है।

गोपालचन्द्र मिश्र  : इनका जन्म संवत् १६६० के आसपास माना जाता है। इनके पिता का नाम गंगाराम था। ये छत्तीसगढ़ी की पुरानी राजधानी रतनपुर के राजा राजसिंह के दरबार में रहते थे। राजा ने इनको अपना दीवान बनाया था। इन्होंने सं. १७४६ में राजाज्ञानुसार ‘खूब तमाशा’ नामक रचना का प्रणयन किया था। इसके अतिरिक्त जैमिनी अश्वमेध, सुदामा चरित, भक्ति चिंतामणि, रामप्रताप एवं छंद विलास आदि कवि की रचनाएँ मिलती हैं। इनकी कविताओं का अवधी साहित्य में विशिष्ट स्थान है।

गोस्वामी तुलसीदास  : विश्वकवि गोस्वामी तुलसीदास का जन्म सं. १५८९ में अवध क्षेत्र में हुआ था। इनका जीवनवृत्त भले ही विवादास्पद हो, किंतु गौरव नहीं। गोस्वामीजी ने ‘ग्राम्यगिरा’ अवधी में अपनी कल्पकृति ’रामचरित मानस’ की रचना करके इस विभाषा को विश्वस्तरीय भाषा की महत्ता प्रदान की और उसे देववाणी की प्रतिस्पर्धा में प्रतिष्ठित करके जिस अंभूतपूर्व गुण गरिमा से अभिमण्डित किया, वह विस्मयकारक है। अवधी में गोस्वामी जी ने तीन रूपों का प्रयोग किया है- १- पूर्वी अवधी, जिसमें ‘बरवै रामायण’ और ‘रामलला नहछू’ की रचना की गई है, २- पश्चिमी अवधी, जिसमें जानकी मंगल और पार्वती मंगल की रचना की गई है, तथा ३- बैसवारी अवधी, जिसमें रामचरितमानस का प्रणयन किया गया है। इन कृतियों का विवरण यथास्थान द्रष्टव्य है। महत्त्व की दृष्टि से तुलसी का कर्तृत्त्व सर्वविदित है, अतएव यहाँ सूत्र रूप में ही प्रस्तुत्य है।

गौतम ऋषि  : गौतम ऋषि का जीवन परिचय अप्राप्त है, किन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि इन्होंने अवधी को गद्य कृति प्रदान कर उसकी गद्यात्मक धरोहर में पर्याप्त अभिवर्द्धन किया है। इनकी रचना है -‘सगुनावती’।

ग्यारहाँ : यह भगवानदास कृत अवधी रचना है।

घट रामायण : यह हाथरस निवासी संत तुलसीदास की अवधी रचना है। इसमें निर्गुणोपासना से सम्बद्ध रामकथा का वर्णन है।

घट रामायण : यह हाथरस निवासी संत तुलसीदास की अवधी रचना है। इसमें निर्गुणोपासना से सम्बद्ध रामकथा का वर्णन है।

घाघ  : इनका जन्म सन् १९९६ ई. में हुआ था। ‘घाघ’ ने लोक जीवन पर आधारित काव्य की रचना की है। इनकी रचनाएँ ‘कहावतों’ का रूप ले चुकी हैं। आचार्य शुक्ल, रसाल जी तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि प्रायः सभी इतिहासकारों ने इन्हें हिन्दी का लोक कवि माना है। रामनरेश त्रिपाठी ने इन्हें अकबर का समकालीन माना है। आज सम्पूर्ण उत्तर भारत में मौसम तथा इनके खेती - पाती विषयक कहावतें लोकप्रिय हैं। स्थान के अनुसार इनकी भाषा में बदलाव होता रहा है। देहात के अपढ़ किसानों के लिए ये छन्द सूत्र का कार्य करते हैं। ये छन्द वर्षा, बुवाई, जोताई, गोड़ाई, दँवाई, भोजन तथा स्वास्थ्य आदि के सम्बन्ध में रचे गए हैं। असमी तथा उड़िया में भी ‘डाक’ नाम के कवि हुए हैं, जिनकी रचनाएँ ‘घाघ’ की रचनाओं से साम्य रखती हैं। बिहार, राजस्थान में भी ‘डाक’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। तुलनात्मक आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है, तीनों स्थानों के ‘डाक’ एक ही हैं। यह तथ्य अभी परीक्षणीय है। इनके छन्दों की पुरानी प्रतिलिपि नहीं मिलती है। लोगों से सुन-सुन करके इनका संग्रह किया गया है।

घानु : यह विवाह के लगभग एक सप्ताह पूर्व होने वाला संस्कार है। इसमें गेहूँ, चावल आदि खाद्य - सामग्री को साफ सुथरा करने हेतु कार्य का शुभारम्भ किया जाता है। स्त्रियों द्वारा इस संस्कार में गीत विशेष रूप से गाये जाते हैं। इस गीत के साथ वाद्ययंत्र नहीं बजता।

घूरूप्रसाद किसान  : इनका जन्म ग्राम कुसुंभी, जिला उन्नाव में चैत्र पूर्णिमा सं. १९८७ वि. में हुआ। विषम परिस्थितियों में रहकर सामान्य शिक्षा ही प्राप्त कर सके। जीविकोपार्जन का साधन इन्होंने कृषि कर्म को बनाया, साथ ही लोकगीत शैली में अवधी कविताएँ लिखनी शुरू कर दीं। ‘बरसाति’ एवं ‘फकनहा मेला’ इनकी प्रसिद्ध कविताएँ हैं। इनकी कविताओं में अवधी, विशेषतः बैसवारी संस्कृति मुखरित हुई है। ग्राम्य जीवन की दुर्दशा पर भी कवि-दृष्टि गई है। साथ ही राष्ट्रीय नियोजन एवं नगरीकरण के बढ़ते प्रभाव से ग्राम्य विघटन पर भी प्रकाश डाला गया है।

चकल्लस  : यह बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ जी की श्रेष्ठ अवधी काव्य कृति है। इसमें तुकान्त, अतुकान्त लगभग ३७ कविताओं का संग्रह है, जिसका प्रकाशन सन् १९३३ में हुआ है। यह काव्य कृति अनेक दृष्टियों से महिमामण्डित है। इस संग्रह में अवध के जनजीवन की मर्मच्छवियाँ अंकित हैं। कविताओं में जनवादी चेतना का प्रखर स्वर है, साथ ही अनुभूति की प्रगाढ़ता और सूक्ष्म पर्यवेक्षण की शक्ति भी। विषय-वस्तु, भाव वैविध्य, नवीन छन्द योजना तथा युगीन काव्य प्रवृत्तियों की प्रतिनिधि कृति है - चकल्लस। इनकी रचना का मूल उद्देश्य अवधी भाषा को प्रश्रय देकर ग्राम्य संस्कृति को उजागर करना था। इस संकलन की कविताओं में सामाजिक कुरीतियों, पाखण्ड, पाश्चात्य संस्कृति, सामंती जीवन,आधुनिक फैशन, जाति-पाति आदि का विरोध मुखरित हुआ है। इन कविताओं की भाषा ठेठ अवधी है। इनमें तद्भव शब्दों का ही बाहुल्य है। बोलचाल की भाषा का सहज सौन्दर्य इसमें समाहित हैं।

चतुर्भुज शर्मा  : इनका जन्म सन् १९१० में बीहट वीरम के निकट ग्राम राजपुर खुर्द जिला सीतापुर में हुआ था। गजोधर दीक्षित इनके पिता थे। इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् इन्होंने गन्ना विभाग में सुपरवाइजर के पद पर नौकरी कर ली। हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत के साथ उर्दू और फारसी के भी ज्ञाता हैं चतुर्भुज शर्मा। इनकी अवधी रचनायें हैं - बजरंग-बावनी, नारद मोह, किसान की अरदास, धनुष भंग, कुत्ता-भेड़हा की लड़ाई, बाल रामायण, र्‌याल-प्याल, नहर का मुकदमा, सरदार पटेल, महात्मा गांधी का निधन, स्वतंत्रता दिवस, पोक्कन पाण्डे, गोधूली, यहिया खाँ, मधई काका की चौपारि, मेघनाथ वध, इत्यादि। इनकी समस्त अवधी सेवाओं पर उ.प्र. हिन्दी संस्थान ने इन्हें जायसी (नामित) पुरस्कार से सम्मानित किया है। भाषा में बैसवारी अवधी की स्पष्ट झलक मिलती है।

चंद्रशेखर मिश्र ‘चण्डूल’  : चण्डूल जी आधुनिक अवधी काव्य की हास्य-व्यंग्य-परम्परा में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनका परिचयात्मक विवरण अप्राप्त है।

चन्द्रभान सिंह  : इनका जन्म सन् १९७४ में ग्राम बरउवाँ, जनपद रायबरेली में हुआ था। ये होली-चहली, छंद के लिए प्रसिद्ध हैं। इनके लोकगीत रामकृष्ण कथा पर आधृत हैं। भाषा ठेठ अवधी है। ‘कृष्ण-सुदामा’ नामक इनका लोकगीत संग्रह है, जो अभी अप्रकाशित है।

चन्द्रभूषण त्रिवेदी “रमई काका” : आधुनिक अवधी कविता में श्री चन्द्रभूषण त्रिवेदी “रमई काका” का शीर्षस्थ स्थान है। महाकवि तुलसीदास के बाद ये अवधी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं। इनका हास्य-व्यंग्य-विनोद अति विशिष्ट हैं। काका के काव्यसंग्रह हैं - ‘भिनसार’, ‘बौछार’, ‘फुहार’, ‘गुलछर्रा’, नेताजी एवं हरपाती तरवारि आदि। इनका काव्य, भाव और शिल्प दोनों दृष्टियों से वैविध्यपूर्ण है। इनकी रचनाओं में बैसवारा-जनजीवन की अनेक मर्मच्छवियाँ प्रोद्‍भासित हुई हैं। प्रकृति-परिवेश का एक-एक रूप-रंग उनकी रचनाओं में अन्तर्याप्त हो उठा है। इनका दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष है- अवध की लोक संस्कृति का दिग्दर्शन। ’काका’ मूलतः ग्रामीण-व्यवस्था एवं कृषि संस्कृति के कवि हैं। अवध ग्रामांचल में व्याप्त गरीबी, भुखमरी, पर्दा-प्रथा, मुकदमेबाजी आदि समस्याओं एवं कुप्रथाओं का समाधान इनकी रचना का विषय रहा है। कृषि कर्म एवं ग्रामोद्योग का इन्होंने पुरजोर समर्थन किया है। इन्होंने अवधी लोकसंस्कृति का बड़ी बारीकी से वर्णन किया है। इनकी कविताओं का काव्य-सौष्ठव विशिष्ट है। इन्होंने जनजीवन में प्रचलित लोकोक्तियों, मुहावरों और ठेठ आंचलिक लहजों (बोली-बानी) का प्रयोग करके अपनी विलक्षण व्यंजनगतिशयता का निर्वाह किया है। ‘रमई काका’ की कविता जितनी भावबहुला है, उतनी शिल्प विविधा भी। इन्होंने छोटी-बड़ी मुक्त कविताओं के अतिरिक्त, गीत, घनाक्षरी, दोहा, सोरठा, कुण्डलियाँ, पद, विरहा, आल्हा आदि छन्दों तथा विभिन्न काव्यरूपों का सफल प्रयोग किया है। भले ही इनकी भाषा में कहीं- कहीं खड़ी बोली तथा भोजपुरी का अवधी रूपांतरण दिखाई देता हो, यों उसमें बैसवारी अवधी का सफल विनियोग हुआ है। ‘काका’ ने लोकरुचि के अनुकूल हास्यरस में अधिक लिखा है, पर श्रृंगार, करुण और वीर रसों में भी इनकी यथेष्ट गति रही है। राष्ट्रीय विभूतियों गाँधी, नेहरू आदि के प्रति इन्होंने अनेक वन्दना गीत लिखे हैं। राजनीतिक समस्याओं पर भी ‘काका’ ने पर्याप्त चिंतन किया है। पाकिस्तानी, चीनी आक्रमण के दौरान इन्होंने ‘आल्हा’ शैली में अनेक प्रेरणादायक गीत लिखे। अवधी गद्य में ‘काका’ की महती भूमिका रही है। ‘रतौंधी’, ‘बहिरे बोधन बाबा’ नामक हास्य एकांकी (ध्वनि रूपक) संकलन द्वारा इन्होंने अवधी नाटक के क्षेत्र में पहल की है। वस्तुतः ये आधुनिक अवधी के कीर्तिस्तम्भ हैं।

चन्द्रशेखर ‘चण्डूल’ : चण्डूल जी लखनऊ जनपद के बंथरा क्षेत्र के निवासी हैं। साहित्य क्षेत्र में उतरने के लिए इन्होंने अवधी को अपनी मूल भाषा के रूप में स्वीकार किया है।

चन्द्रशेखर पाण्डेय ‘चन्द्रमणि’ : इनका जन्म बन्नावाँ, रायबरेली में १९०८ में हुआ था। इन्होंने अश्लील लोकगीतों के विरोध में लोकगीतों का एक संग्रह ‘होली का हुलम्बा’ सृजित किया। इस संग्रह की भाषा अवधी है। इनकी मृत्यु सन् १९८२ में हुई।

चन्द्रशेखर बाजपेयी  : इनका जन्म पौष शुक्ल पक्ष दशमी संवत् १८५५ को असनी के निकट मुअज्जमाबाद जिला फतेहपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम मनीराम बाजपेयी था। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं - रसिक विनोद, हम्मीर हठ, विवेक विलास, हरिभक्ति विलास, नख - शिख, गुरु पंचाशिका, वृन्दावन शतक, माधवी वसंत आदि। हम्मीर हठ (वीर-काव्य) इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय रचना है। सं. १९३२ में इनका निधन हो गया। ये संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। इनकी अनेक अवधी कविताएँ हैं। ये अपनी कविताओं में ‘शेखर’ उपनाम का प्रयोग करते थे। इन्हें पटियाला, कश्मीर, जोधपुर आदि रियासतों में आश्रय प्राप्त था। अवधी के विकास में इनका योगदान उल्लेखनीय है।

चन्द्रशेखर सिंह ‘चन्द्र’ : लखनऊ जनपद के ग्राम भवानीपुर पो. इन्दौरा बाग निवासी श्री रघुनाथ सिंह चौहान के सुपुत्र चन्द्र का जन्म १६ अगस्त सन् १९३१ को हुआ। इन्होंने अवधी के साथ-साथ खड़ी बोली में भी रचनाएँ की हैं। इनके काव्यसंग्रह हैं-छंदमाला भाग-१, छंदमाला भाग-२, गीतमंजरी, लंका-संग्राम। इनकी स्फुट रचनाएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।

चन्द्रिका प्रसाद बाजपेयी ‘कौतुक’ : इनका जन्म सं. १९६४ में जिला रायबरेली के ग्राम बेहटा कला के ‘बाजपेयी खेरा’ में हुआ था। इनके पिताजी का नाम निजानन्द बाजपेयी था। रायबरेली में श्री रामावतार शुक्ल द्वारा स्थापित ‘चातुर मंडल’ के ये प्रकाशमान नक्षत्र थे। इसके अतिरिक्त रायबरेली के स्वतंत्रता संग्राम तथा राष्ट्रीय कविता के क्षेत्र में कौतुक जी की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। समस्यापूर्ति के कवि सम्मेलनों में ये कई बार पुरस्कृत हो चुके हैं। इन्होंने अनेक प्रकार की कवितायें की हैं। सामाजिक-सामयिक विकृतियों पर इनकी लेखनी साधिकार चली है। इनकी रचनाओं के संकलन एवं संग्रह की आवश्यकता है। इनका निधन सं. २०३९ में हो गया।

चमरौधा  : यह कृपाशंकर मिश्र ‘‘निर्द्वन्दु” द्वारा प्रकाशित काव्य-कृति है। इसमें विभिन्न विषयों से संबंधित अवधी कविताएँ हैं। इसकी भाषा बैसवारी अवधी है, जिसमें ठेठ देशज शब्दों की गूढार्थ व्यंजना दिखाई देती है। उल्लेखनीय कविताएँ हैं - सिपाही की चिट्ठी, किसानी आदि।

चरनदास (संत)  : इनका जन्म सं. १७६० में राजपूताना के मेवाण प्रदेश के डेहरा ग्राम में मुरलीधर के घर में हुआ था। पिताजी की मृत्यु के बाद ये ९-१० वर्ष की अवस्था में अपने मातामह के साथ दिल्ली चले आये। इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं - ‘ज्ञान स्वरोदय’, ’अष्टांग योग’, ‘पंचोपनिषदसार’, ‘भक्ति-पदार्थ’, ‘अमर लोक’, ’अखण्ड धाम’, ’सन्देह-सागर’, ‘भक्ति-सागर’ आदि। इनके प्रामाणिक २१ ग्रन्थ हैं। इन्होंने अधिकांश ग्रन्थ और साखियाँ अवधी भाषा में रची हैं। कहा जाता है कि इनके ५२ शिष्य थे, जिन्होंने चरनदास जी द्वारा प्रवर्तित चरनदारी सम्प्रदाय की ५२ शाखाएँ स्थापित की।

चरनदास : ये कृष्ण-काव्य-परम्परा से सम्बद्ध कवि हैं। ब्रजमण्डल के निवासी होने के बावजूद इन्होंने अवधी भाषा में सं. १७६० में ‘ब्रजचरित’ ग्रंथ लिखकर अवधी को जो सम्मान प्रदान किया है, वह प्रशंसनीय है।

चर्यागीत  : यह मूलतः बौद्ध साहित्य का अंग है। इसमें दिनचर्या का प्रतिफलन होता रहा है। बुद्धचर्या इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। ‘चर्यागीतों’ में सिद्धों की मनःस्थिति का प्रतीकात्मक निदर्शन किया गया है। इनमें श्रृंगार, वीभत्स और उत्साह की मार्मिक व्यंजना की गई है। प्राप्त प्रमाणों के अनुसार गीतों में जनभाषा अवधी के बहुत प्रयोग हुए हैं, शायद इसलिए कि दोनों एक ही मूल से संबद्ध हैं।

चहलारी - नरेश  : अवधी साहित्य की अमर विभूति गुरुप्रसाद सिंह ‘मृगेश’ जी द्वारा रचित यह आंचलिक इतिहास से ओत-प्रोत एक महाकाव्य है। इसमें राजा बलभद्र सिंह को नायक बनाकर प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गौरव गाथा वर्णित है।

चहलारी - नरेश  : अवधी साहित्य की अमर विभूति गुरुप्रसाद सिंह ‘मृगेश’ जी द्वारा रचित यह आंचलिक इतिहास से ओत-प्रोत एक महाकाव्य है। इसमें राजा बलभद्र सिंह को नायक बनाकर प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गौरव गाथा वर्णित है।

चहली  : अवध प्रदेश में होलिकोत्सव के अवसर पर सवाद्य वृन्दगान के रूप में गाया जाने वाला यह लोकगीत विशेष चहलपहल पूर्ण होने के कारण चहली कहलाता है। इसमें विविध पौराणिक आख्यान उपलब्ध होते हैं।

चाकी-काँड़ी  : चाकी-काँडी विवाहपूर्व का एक विशिष्ट आयोजन है। यह खाद्यान्न की तैयारी का सूचक है। इस अवसर पर ‘काँड़ी’ पूजन करती हुई स्त्रियाँ इस अवधी लोकगीत का गायन करती हैं।

चाँद भला सब तारन ते : यह गंगाप्रसाद मिश्र कृत अवधी कहानी है, जो ‘पाक्षिक उत्तर प्रदेश’ में प्रकाशित हो चुकी है।

चान्दायन  : यह मुल्ला दाऊद द्वारा रचित प्रथम प्रेमपरक काव्य है। इसमें लोरिक और चन्दा के प्रेम का वर्णन किया गया है। सम्पूर्ण कृति में दोहा, चौपाई छन्दों का प्रयोग मिलता है। चांदायन की भाषा, ठेठ अवधी है। इसमें बैसवारी अवधी और कुछ-कुछ पूर्वी अवधी का प्रयोग दिखाई पड़ता है। इसकी रचना १३७९ ई. में की गई है। सम्प्रति चांदायन के तीन पाठान्तर तथा सम्पादन प्राप्य हैं, जिनमें डॉ. माताप्रसाद गुप्त, डॉ. परमेश्वरी लाल और जयपुर निवासी रावत के प्रकाशन उल्लेखनीय हैं। प्रथम सूफी काव्य और अवधी की सर्वप्राचीन कृति के नाते चांदायन का ऐतिहासिक महत्व है। इसके बहुविध शोधपरक अध्ययन हो चुके हैं, जिससे इस महाकाव्य की गणगरिमा सर्व स्वीकार्य हैं।

चारुचंद्र द्विवेदी : ये रायबरेली के निवासी एवं अवधी भाषा के ख्यातिप्राप्त कवि हैं।

चित्रावली : यह उसमान कवि द्वारा रचित एक सूफी प्रेमाख्यान है। इस कृति का रचनाकाल हिजरी १०२२ है। इस कृति की भाषा अवधी है। यह सुजान और चित्रावली की प्रणय गाथा है। कथा सुखान्त है। इस ग्रन्थ का पता सन् १९०४ में काशी नागरी प्रचारिणी सभा में लगा। इसका प्रकाशन सभा की ओर से सन् १९१२ में हो गया है। ग्रन्थ दोहा-चौपाई छन्दों में लिखा है।

चिरंजीव : ये डलमऊ, रायबरेली के निवासी एवं भारतेन्दु युगीन अवधी कवियों में से एक हैं।

चैती  : अवध का यह एक ऋतुगीत है, जो फसल-महोत्सव के रूप में गाया जाता है। इसे उल्लास सूचक, प्रकृतिपरक र कहा जा सकता है। यथा- काहे लागी सैयां भयो जोगिया हो रामा सोवत रह्यों सइयाँ संग सेजवा। सेजवा ले सैयां गए चेरिया हो रामा।

छई दरेती : यह विवाह के पूर्व की एक रस्म है, जो छ: दिन पूर्व सम्पन्न होती हैं। इस दिन् छपुला (टेसू) की डाल पूजी जाती है और इसी दिन से लड़की/ लड़के के उबटन लगाना शुरू किया जाता है। इसमें भी जो गीत गाया जाता है, वह छई दरेती गीत कहलाता है। इस गीत के साथ वाद्ययंत्र नहीं बजते हैं।

छठी  : पुत्र-जन्म के छठवें दिन ‘छठी’ नामक उत्सव मनाया जाता है। छठी का उत्सव अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दिन सभी कुटुम्बजनों को भोजन कराने की परम्परा है।

छठी  : पुत्र-जन्म के छठवें दिन ‘छठी’ नामक उत्सव मनाया जाता है। छठी का उत्सव अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दिन सभी कुटुम्बजनों को भोजन कराने की परम्परा है।

छत्‍तीसगढ़ी : डॉ. श्यामसुन्दर दास जी ने इसे अवधी के अन्तर्गत आने वाली एक मुख्य बोली कहा है। यह मुख्यतया छत्तीसगढ़ के आस-पास बोली जाती है, जो वास्तव में अवधी का ही दूसरा नाम है।

छत्रपति सिंह  : ये आधुनिक काल के भारतेन्दुयुगीन अवधी कवि हैं। इन्होंने पर्याप्त साहित्य सृजन किया है। बैसवारा इनकी कर्मभूमि रही है।

छविराज मिश्र  : ये शहाबुद्‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‍दीनपुर, फैजाबाद के निवासी हैं। इन्होंने अवधी भाषा में प्रचुर काव्य-सृजन किया है।

छिटनी  : यह वर्षगाँठ मनाने का एक विशेष रूप है। जब किसी स्त्री के बच्चे जीवित नहीं रहते तो शिशु के जन्म लेते ही उसकी छिटनी की जाती है। इसमें किसी टोकरी में वस्त्र बिछाकर उस पर नाल सहित नवजात शिशु को लिटाकर सुहागिन स्त्रियों द्वारा पाँच-सात बार इधर उधर घसीटा जाता है, जिसे घिर्रउना या कढ़िलउना भी कहा जाता है। यह शिशु के। जन्म से लेकर विवाह तक प्रतिवर्ष वर्षगाँठ के रूप में इसी पद्धति से मनाया जाता है।

छेदनु  : यह अवधी का वात्सल्य प्रधान लोकगीत है, जो स्त्रियों द्वारा बालक के कर्णबेध संस्कार के अवसर पर गाया जाता है। इन गीतों में वाद्य यंत्रों का प्रयोग नहीं होता।

छैलबिहारी बाजयेयी ‘बाण’ : इनका जन्म १४ फरवरी १९२९ ई. को जिला हरदोई के बाण नामक गाँव में शिवदत्त बाजपेयी के यहाँ हुआ था। विशुद्ध अवधी क्षेत्र के न होने के बावजूद बाजपेयी जी ने अवधी साहित्य की काफी सेवा की है। इन्होंने ‘सहकारी खेती का स्वांग’ नामक अवधी कृति का सृजन किया है, जो १९५९ ई. में प्रकाशित हुई। स्वदेश, स्वराज्य, भारत माता, हमारे बलिदानी वीर, प्रपंच आदि इनकी मुख्य अवधी कृतियाँ हैं।

छोटकुन : निवास स्थान- भरतपुर, फैजाबाद, अवधी रचना-चौताल चिंतामणि (फाग-संग्रह)।

जगत सिंह  : ये गोण्डा नामक ग्राम के रहने वाले थे, जो सरयू के उत्तर तट पर स्थित था। इनके पिता का नाम दिग्विजय सिंह था। ये विसेन क्षत्रिय थे। इनकी दो रचनाएँ हैं - साहित्य सुधानिधि और चित्र मीमांसा। ये रीतिबद्ध कवि थे। इन दोनों प्रतियों का लिपिकाल सं. १९०७ है। इनकी कविता में अवधी का प्राचुर्य है।

जगदम्बाप्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ : हितैषी जी कानपुर के निवासी थे। इनका जन्म सन् १८९५ में एवं मृत्यु सन् १९५८ में हुई थी। इन्होंने कवित्त, सवैया, छंदों का अधिक प्रयोग किया है। इनके काव्य में बैसवारी भाषा एवं संस्कृति की झलक मिलती है। इनकी अवधी रचनाएँ हैं- मकाई की खेती, बैसवारायन आदि।

जगदम्बाप्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ : हितैषी जी कानपुर के निवासी थे। इनका जन्म सन् १८९५ में एवं मृत्यु सन् १९५८ में हुई थी। इन्होंने कवित्त, सवैया, छंदों का अधिक प्रयोग किया है। इनके काव्य में बैसवारी भाषा एवं संस्कृति की झलक मिलती है। इनकी अवधी रचनाएँ हैं- मकाई की खेती, बैसवारायन आदि।

जगदीश अवस्थी : ग्राम कोटरा, सीतापुर के निवासी अवस्थी जी अवधी के एक निष्ठावान साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से अवधी भाषा की सेवा करने का संकल्प लिया है।

जगदीश नारायण तिवारी ’लोकेश’ : लोकेश जी राजकीय पॉलीटेक्नीक, फैजाबाद में कार्यरत हैं। इन्होंने तमाम साहित्य सर्जना के साथ-साथ अवधी भाषा के प्रति भी अपनी श्रद्धा प्रकट की है, जिसका उदाहरण ‘तुलसी-स्तवन’ नामक काव्य खण्ड से दिया जा सकता है। इस कविता में तुलसी की गौरव गाथा वर्णित है।

जगदीश प्रसाद मिश्र : शोरागंज, रायबरेली निवासी मिश्र जी अवधी भाषा के अल्पख्यात कवि हैं।

जगदीश श्रीवास्तव : फैजाबाद निवासी श्रीवास्तव जी अवधी साहित्यकार हैं।

जगदीश सिंह ‘नीरद’ : नीरद जी का जन्म १ जनवरी सन् १९५२ ई. को ग्राम कुबरी, जनपद बराबंकी में हुआ था। इनके पिता का नाग हौसिला सिंह है। हिन्दी से एम.ए. तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद अध्यापन कर्म से सम्बद्ध हो गये। नीरद जी अवध भारती समिति के कोषाध्यक्ष एवं ‘जोंधइया’ पत्रिका के उप संपादक रह चुके हैं। इनकी कृतियाँ हैं - छठा पाण्डव, बदलता परिवेश, सती की शक्ति, खून की छींटें।

जगधर  : ये अच्छे अवधी गद्य लेखक हैं। फैजाबाद से प्रकाशित जनमोर्चा में इनकी रचनायें प्रायः छपती हैं।

जगन्नाथ अवस्थी : ये सुमेरपुर (बैसवारा क्षेत्र) के निवासी थे। इनका अवधी काव्य अप्रकाशित है। ये भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समकालीन थे।

जगन्नाथ : ये आधुनिक काल की बैसवारी अवधी से सम्बद्ध साहित्यकार हैं।

जगमोहन कपूर ‘सरस’ : सन् १९३८ में जनमें सीतापुर नगर के निवासी सरस जी अवधी साहित्यकार हैं। इनकी अवधी सेवा अत्यन्त उच्चकोटि की रही है। सरस जी अनेक उच्च पदों पर रह चुके हैं। इनकी अवधी रचनाएँ हैं- ‘छब्बीस जनवरी’, हे बापू तुमको राम-राम, पन्द्रह अगस्त, लाम पर, और हमार भारत। इन्होंने खड़ी बोली में भी काफी महत्वपूर्ण सृजन किया है।

जनकपुर-माहात्म्य  : यह मिथिलावासी सीताराम प्रणीत विष्णु पुराण पर आधारित प्रबंध काव्य है। इसकी रचना दोहा-चौपाई के माध्यम से सन् १९०० में हुई है।

जनकपुर-माहात्म्य  : यह मिथिलावासी सीताराम प्रणीत विष्णु पुराण पर आधारित प्रबंध काव्य है। इसकी रचना दोहा-चौपाई के माध्यम से सन् १९०० में हुई है।

जनकुंज  : जनकुंज के विषय में अधिक ज्ञात नहीं हैं। इनकी एक अवधी रचना "उषाचरित्र’ मिलती है। इसकी रचना सं. १७८२ में हुई थी। ‘उषाचरित्र’ में उषा-अनिरुद्ध की प्रणय कथा वर्णित है। इसकी भाषा अवधी है।

जनार्दन प्रसाद ’मधुकर’ : लखनऊ जनपद के निवासी मधुकर जी अवधी के ख्याति प्राप्त साहित्यकार हैं। इन्होंने अपनी साहित्य सर्जना से समाज को नयी दिशा देने का भरसक प्रयास किया है।

जनेऊ/जनौ  : यह यज्ञोपवीत संस्कार के समय स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला प्रसिद्ध अवधी लोकगीत है। ये गीत प्रायः बड़े भावपूर्ण होते हैं। इन अवधी गीतों में अवध का लोकजीवन, उसकी सुरुचि तथा कलात्मक प्रकृति रूपायित है। ये गीत वाद्य यंत्रों के साथ नहीं गाये जाते।

जंभनाथ  : इनका जन्म नागौर (जोधपुर) राजस्थान के पीपासर नामक गाँव में सं. १५०८ में हुआ था। इनके पिता का नाम लोहित परमार और माता का नाम हाँसी देवी था। इनकी कई स्फुट अवधी रचनाएँ मिलती हैं। इनकी मृत्यु सं. १५८० के लगभग हो गई थी।

जयगोविंद  : ये द्विवेदी युग के अवधी साहित्यकारों में से एक हैं। इन्होंने पर्याप्त अवधी काव्य सृजित किया है।

जयदेव शर्मा ‘कमल’ : ‘तुम हथियार गढ़ौ’ नामक इन्होंने प्रेरणापरक अवधी रचना की है।

जानकवि  : इनका पूरा नाम न्यामत खाँ है। ‘जान’ उपनाम है। इनके पिता का नाम अलफ खाँ था। इनके ग्रन्थों की संख्या ५६ है। वस्तुतः जानकवि प्रेमगाथा परंपरा के कवि हैं, पर इनका ‘कायमरासो’ वीरकाव्य परंपरा में गण्यमान है। ‘कायम रासो’ जानकवि के खानदान का ऐतिहासिक इतिवृत्त भी प्रस्तुत करता है।

जानकी चरण : इनका समय सं. १८७७ स्वीकार किया गया है। इन्होंने अवधी भाषा में पर्याप्त सृजन किया है। इनके अवधी ग्रंथ हैं- प्रेम प्रधान, सियाराम-रस मंजरी।

जानकी चरणदास  : ये रामकाव्य परंपरा से जुड़े शीर्षस्थ महाकवियों में से एक हैं। साहित्यिक अवधी को अपनी भाषा स्वीकृत करते हुए इन्होंने एक महाकाव्य का भी सृजन किया।

जानकी चरणदास  : ये रामकाव्य परंपरा से जुड़े शीर्षस्थ महाकवियों में से एक हैं। साहित्यिक अवधी को अपनी भाषा स्वीकृत करते हुए इन्होंने एक महाकाव्य का भी सृजन किया।

जानकी प्रसाद रसिक बिहारी  : बिहारी जी बुन्देलखण्ड के निवासी थे। इन्होंने ‘राम रसायन’ नामक प्रबन्ध काव्य की रचना की। इनकी अवधी में तद्‍भव व तत्सम दोनों शब्दों का मेल है।

जानकी प्रसाद : ये बैसवारा क्षेत्र के निवासी एवं भारतेन्दु युग के अवधी रचनाकार रहे हैं।

जानकी रसिक शरण : इनका आविर्भाव सं. १७६० में हुआ था। इन्होंने ’अवधी सागर’ नामक ग्रन्थ सृजित कर अवधी के प्रति अपना अनुराग प्रकट किया है।

जामा गीत  : विवाहोत्सव के उपलक्ष्य में वर को वस्त्राभूषणों द्वारा सजाते हुए स्त्रियों द्वारा इस अवधी लोकगीत का गायन किया जाता है। इसमें सामंती व्यवस्था का रूप द्रष्टव्य है।

जालपा गीत  : यह अवध क्षेत्र का विशिष्ट देवी गीत है। विवाह संस्कार में वर-कन्या के लग्न लगने पर (चाकी-काँड़ी के समय) दोनों पक्षों में यह गीत स्त्रियों द्वारा वर-कन्या की रक्षार्थ गाया जाता है।

जाहिल ‘सुल्तानपुरी’  : ये सुल्तानपुर निवासी एवं चर्चित अवधी साहित्यकार हैं।

जियाराम शुक्ल ‘विकल’ : विकल जी का जन्म फैजाबाद जनपद के अकबरपुर क्षेत्र में सन् १९३१ में हुआ था। इन्होंने अवधी साहित्य के परिवर्द्धन में सराहनीय कार्य किया है। पूरबी अवधी में अनेक लोकगीत, राष्ट्रगीत इनके द्वारा लिखे गये। १९८० से ८५ के मध्य कांग्रेस पार्टी से विधायक भी रहे।

जी.एन. व्याकुल : ये रायबरेली जिला के तिलोई विकास खण्ड के निवासी हैं। ‘जोंधइयो और मन’ इनकी सशक्त अवधी रचना है।

जीवनलाल नागर  : ये १९वीं शताब्दी के कवि हैं। इन्होंने अवधी साहित्य के अभिवर्द्धन में काफी योगदान किया है। ‘उषा हरण’ इनकी अवधी रचना है, जिसका प्रणयन-काल सं. १८८६ है।

जीवनलाल नागर  : ये १९वीं शताब्दी के कवि हैं। इन्होंने अवधी साहित्य के अभिवर्द्धन में काफी योगदान किया है। ‘उषा हरण’ इनकी अवधी रचना है, जिसका प्रणयन-काल सं. १८८६ है।

जुमई खाँ ‘आजाद’  : इनका जन्म गोबरी, प्रतापगढ़ में हुआ था। इन्होंने अवधी भाषा में पर्याप्त साहित्य सर्जना की है। ‘आजाद’ की लगभग १७ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आर्यभारत, केवट और गंगावतरण आदि रचनाओं में इनका भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पण और आस्थाभाव सहज रूप में परिलक्षित होता है। २७ जुलाई १९९४ में इनको साहित्य-सेवा के लिए सम्मानित किया गया। जुमई जी का अवधी गीत संग्रह “धरती के गीत” उल्लेखनीय है, जिसमें कथरी, कौन मनई, दुखिया मजूर, रोटी, भारत के जवनवा, दुखिय किसान आदि कविताएँ संगृहीत हैं।

जैमिनिपुराण १  : इसकी रचना प्राणनाथ नामक कवि ने सं. १७५७ वि. में की।

जैमिनिपुराण २  : इस कृति के रचयिता सरयू राम पण्डित हैं। यह शुद्ध साहित्यिक कृति है। भाषा विशुद्ध अवधी है। संस्कृत भाषा के शब्दों का प्रयोग भी इसमें हुआ है।

जैमिनी अश्वमेध भाषा  : यह रामभक्ति शाखा के भक्त कवि बाबा पुरुषोत्तम दास की एकमात्र अवधी काव्य कृति है। इसी ग्रन्थ के आधार पर इसका रचनाकाल संवत् १५९८ माना जाता है। जैमिनी अश्वमेध भाषा के वर्ण्य विषय का आधार है महाभारत तथा रामायण। इसमें अश्वमेध से सम्बद्ध युद्ध-कथा हैं। इस काव्य कृति का सम्पूर्ण कथानक ६९ अध्यायों में विभाजित है। दोहा, चौपाई, सवैया आदि अवधी छन्दों का प्रयोग है। उक्त ग्रन्थ अवधी भाषा की एक महत्त्वपूर्ण रचना है।

जोंधइया : यह एक अवधी लघु पत्रिका है, जिसका प्रकाशन अवध भारती समिति, हैदरगढ़ द्वारा सन् १९९० से प्रारम्भ किया गया, और जो १९९४ तक चला। इसमें १० अंकों के माध्यम से सैकड़ों अप्रकाशित एवं अलक्षित कवियों का परिचय दिया गया है जो अपने में एक महत्वपूर्ण कार्य है।

ज्ञान परोछि  : यह मलूकदास जी की कृति है। इसमें कवि ने वैराग्य, आत्मा की अमरता, सृष्टि की उत्पत्ति, प्राणायाम, अष्टांग योग तथा ब्रह्म के अद्वैत भाव का निरूपण किया है। इस ग्रन्थ की रचना दोहा-चौपाई शैली में की गई है।

ज्ञान संग्रह  : यह कबीरपंथी संत अमीर अली वारसी द्वारा कृत अवधी ग्रंथ है, जो दो खण्डों में प्रकाशित है। प्रथम खण्ड सन् १९३४ तथा दूसरा सन् १९४४ में प्रकाशित हुआ। इसकी भाषा ग्रामीण अवधी है।

ज्ञानदीपक : यह जौनपुर निवासी शेख नबी कृत अवधी भाषा की सुखांत रचना है, जिसका सृजन सं. १६७६ में हुआ था। इस ग्रंथ के आरम्भ में पैगम्बर और उनके चार मित्रों की स्तुति है। पीर का नामोल्लेख नहीं है। इसमें राजा ज्ञानदीप और रानी देवजानी की प्रेमकथा वर्णित है। दोहा-चौपाई छंदों का इसमें सफल प्रयोग हुआ है।

ज्ञानप्रकाश ‘ज्ञान’ : रायबरेली निवासी ज्ञान जी एक उत्साही अवधी साहित्यकार हैं।

ज्योनार गीत  : अवधी क्षेत्र में ज्योनार गीत का विशेष प्रचलन है। कन्या के विवाह के दूसरे दिन बरातियों को भोज (भात) देने की प्रथा बहुत पुरानी है। उक्त अवसर पर स्त्रियों द्वारा ये सरस गीत गाये जाते हैं। इन गीतों में व्यंजनों का वर्णन रहता है, साथ ही भोजन की मनुहार तथा विनय भाव की मधुर अभिव्यक्ति होती है। इन गीतों का आयुर्वैज्ञानिक महत्त्व भी स्वीकार किया गया है।

ज्योनार गीत  : अवधी क्षेत्र में ज्योनार गीत का विशेष प्रचलन है। कन्या के विवाह के दूसरे दिन बरातियों को भोज (भात) देने की प्रथा बहुत पुरानी है। उक्त अवसर पर स्त्रियों द्वारा ये सरस गीत गाये जाते हैं। इन गीतों में व्यंजनों का वर्णन रहता है, साथ ही भोजन की मनुहार तथा विनय भाव की मधुर अभिव्यक्ति होती है। इन गीतों का आयुर्वैज्ञानिक महत्त्व भी स्वीकार किया गया है।

ज्वाला प्रसाद : ये द्विवेदी युगीन अवधी के समर्पित कवि हैं।

ज्वालाराय : ये भारतेन्दु युगीन अवधी कवियों में से एक हैं। इनका जन्म स्थान बैसवारा क्षेत्र है।

झलरिया  : अवधी का यह वात्सल्य प्रधान लोकगीत है। शिशु के केश अब कटाने योग्य हो गये हैं, इस भाव को लक्ष्य कर शिशु की माँ परिवार के पुरखों से मुण्डन संस्कार कराने का अनुरोध करती है। वाद्ययंत्र रहित यह गीत सामूहिक रूप में गाया जाता है।

झलरिया-छेदनु  : यह अवधी का वात्सल्य प्रधान लोकगीत है, जो कर्णवेध संस्कार के समय गाया जाता है; यथा- ’जो मैं जनतेउँ लालन मोरे छेदनु तुम्हार है रे। (लालन) सोने की सुइया पठावै तो बाबा तुम्हार रे।। जो मैं जनतेउँ लालन मोरे छेदनु तुम्हार है रे। (लालन) सोने का टकवा उतारै वो आजी तुम्हारि रे।।

झामदास रामायण  : यह झामदास द्वारा प्रणीत रामकाव्य परम्परा का अवधी ग्रंथ है। झामदास का आविर्भाव सं. १८१८ में हुआ था।

झुनझुना  : यह चूड़ाकर्म संस्कार और जातकर्म के समय स्त्रियों द्वारा वृन्दगान के रूप में सस्वर गाया जाने वाला एक अवधी लोकगीत है। प्रारम्भिक पंक्तियाँ हैं - मोरे लाल का झुनझुना है बाजना एहु झुनझुना सोरवा के गा है (अरे) सोने की डाँड़ी लगावो।

टिकइतराय प्रकाश  : यह बेनी भट्ट द्वारा रचित अलंकार ग्रंथ है, जो टिकइतराय के कहने पर सं. १८४६ वि. में लिखा गया। कवि ने इसका समर्पण भी टिकइत राय को किया है। इसमें टिकइतराय के पूर्वजों की आठ तथा वंशजों की दो पीढ़ी का उल्लेख हुआ है, साथ ही टिकइतराय की प्रशस्ति भी। यह काव्य-ग्रंथ श्रृंगार निरूपण तथा अलंकारविधान का कोष है। इसकी भाषा ब्रजावधी है।

टोडरप्रसाद शुक्ल ‘प्रसाद गेंजरहा’ : इनका जन्म २२ अक्टूबर सन् १९५३ ई. को खीरी जनपद के सिंगाही कलां गाँव में हुआ था। लल्लूप्रसाद शुक्ल इनके पिता थे। बी.ए. तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद एक बेसिक विद्यालय में अध्यापक हो गये। इनके प्रेरक पं. वंशीधर शुक्ल जी रहे। इन्होंने ’नवसृजन साहित्यकार परिषद्’ का गठन किया, जिसके माध्यम से काव्य ज्योति जलाने का कार्य किया जा रहा है। ‘गँउआ हमार’, अवधी रचनाओं का संकलन है। ‘माटी के गीत’, ’वीर भारत’, ‘फहराई तिरंगा बादर मा’ इनकी अन्य अवधी रचनाएँ हैं।

टोन्हा  : यह अवधी का एक मंत्रगीत है, जो वैवाहिक प्रथाओं के बीच स्त्रियों द्वारा गाया जाता है। इसमें सम्मोहन का भाव निहित होता हैं।

ठाकुरदीन ‘माली’ : रायबरेली निवासी माली जी ने अवधी भाषा में एक फाग-संग्रह सृजित किया है।

ठाकुरदीन ‘माली’ : रायबरेली निवासी माली जी ने अवधी भाषा में एक फाग-संग्रह सृजित किया है।

ठाकुरप्रसाद त्रिपाठी ‘मधुर’ : ये जनपद फैजाबाद के निवासी अवधी के अल्पख्यात कवि हैं।

डा. अरुण कुमार त्रिवेदी  : डा. त्रिवेदी का जन्म २४ जून १९४० ई. को उन्नाव जनपद के रावतपुर ग्राम में हुआ था। ये अवधी के सुविख्यात कवि एवं साहित्यकार चन्द्रभूषण त्रिवेदी ‘रमई काका’ के सुपुत्र हैं। त्रिवेदी जी सीतापुर के आर. एम. पी. स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिन्दी के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं। ‘युद्ध मुद्रा’ नाम से नई कविताओं का संकलन इनका प्रकाशित है। इन्होंने अवधी में ’नई कविता’ और अच्छे गीतों की रचना की है। आस, जिन्दगी, क्रांति और गाँव इनकी अवधी की रचनायें हैं। इनकी अवधी बैसवारी से प्रभावित है।

डा. महेशप्रताप नारायण अवस्थी ‘महेश’ : इनका जन्म ५ जनवरी सन्‌ १९३३ ई. को रायबरेली जिले के चिलौली ग्राम में हुआ था। इन्होंने हिन्दी और संस्कृत में एम.ए. किया, और हिन्दी में पी-एच.डी. उपाधि ग्रहण करके उच्च शिक्षा प्राप्त किया। महेश जी राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, रायबरेली में संस्कृत के प्रवक्ता रहे हैं। इस समय में दारागंज इलाहाबाद में स्थायी निवास है और अवधी साहित्य सेवा के लिए पूर्णतः समर्पित हैं। इनका गीत-संग्रह अवधी लोक गीत हजारा का प्रकाशन सन् १९८५ में हुआ हैं। इनके अवधी काव्य ग्रन्थ हैं- ‘महेश सतसई’ और ‘जनरामायण’। इनकी स्फुट अवधी रचनायें ‘आम की बगिया’ में संकलित हैं, जो अभी अप्रकाशित हैं।

डाँ. रामबहादुर मिश्र ‘अवधेन्दु’ : अवधेन्दु जी का जन्म १२ सितम्बर १९५५ ई. को ग्राम-जमुवारी शुकुल बाजार, जनपद सुल्तानपुर में हुआ था इनके पिता का नाम राम सुमिरन मिश्र है। लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी में पी-एच.डी. की उपाधि १९८२ ई. में प्राप्त कर हैदरगढ़, बाराबंकी में अध्यापन कार्य से जुड़ गये। बाराबंकी में रहते हुए वहीं से त्रैमासिक पत्रिका अवध भारती जोंधइया’ का सम्पादन कार्य किया। संप्रति अवध भारती समिति, हैदरगढ़ से ही अवध-ज्योति’ पत्रिका का संपादन कर रहे हैं। इनकी अवधी कृतियाँ हैं- अवधी की लोककथाएँ, अवधी के मुहावरे, फाग ग्रंथावली, अवध की संस्कृति।

डाँ. लक्ष्मीशंकर मिश्र ‘निशंक’  : निशंक जी का जन्म कार्तिक कृष्ण पृक्ष की चतुर्थी सन् १९१८ ई. को हरदोई जिले के ग्राम भगवन्तनगर में हुआ था। इनका जीवन एक अध्यापक और कवि का रहा है। ‘सनेही जी’ के पत्र ‘सुकवि’ के बंद हो जाने पर इन्होंने ‘सुकवि विनोद’ का सम्पादन कर पारम्परिक हिंन्‍दी कविता की भरसक रक्षा की है। जयनारायण डिग्री कालेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद से सेवा निवृत्त होकर अद्यतन साहित्य-सृजन में निशंक जी लगे हुये हैं। ‘पुरवाई’ इनकी अवधी कविताओं का संकलन है। ‘भारत-माता’, ‘बाबू हमार’, ‘जाडु’, ‘हेमन्त’, ‘बसन्त’, ‘ग्रीष्म’, ‘अलाव’, ‘परभातु’, ‘किसान’, ‘पंचायत राज’, ’बैल’, ‘असली नकली का भेदु’, ‘चुनाव’, ’नेता’, ‘सुधार’, आदि निशंक जी की विशेष उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। ये सवैया छंद पर विशेष अधिकार प्राप्त कवि हैं। इनकी भाषा में ग्राम्य अवधी का सहज सौन्दर्य दिखता है।

डाँ. शिवबालक शुक्ल  : हरदोई ज़नपद में स्थित शांता ग्राम में जनमें शुक्ल जी बचपन से ही अवधी कविताओं में रुचि रखते थे। फलस्वरूप इन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा इसी भाषा के रूप में समाज को अर्पित की।

डाँ. श्याम तिवारी  : डाँ. तिवारी का जन्म १० नवम्‍बर १९२८ ई. को स्थान चुआडांगा (बांग्लादेश) में हुआ था। संयोगवश तिवारी जी अवधी भाषा क्षेत्र (जनपद बस्ती) से सम्बद्ध हो गये, जिससे अवधी भाषा की सेवा करने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त हुआ। सन्‌ १९५० से पूर्व ही इन्होनें अवधी में सृजन कार्य प्रारम्भ कर दिया था। फलस्वरूप सन्‌ १९५६ में अति महत्वपूर्ण अवधी काव्य संकलन ‘दूबि-अच्छ्त’ काशी से प्रकाशित हुआ। कवि को ग्राम्य जीवन की गहरी अनुभूति है। कृषक-जीवन का अंकन तो कवि का भोगा हुआ जैसा प्रतीत होता है।

डा. श्यामकिशोर मिश्र ‘श्रमजीवी’ : इनका जन्म सन् : १९१७ में सीतापुर जनपद के गंधौली ग्राम में हुआ था इनके पिता का नाम कृष्णबिहरी मिश्र था। ये होमियोपैथिक चिकित्सक हैं साथ ही साथ समाज सेवी भी। सन्‌ १९५३-५४ में ये नगर पालिका के अध्यक्ष तथा १९६९ से ७७ ई. तक उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य रहे हैं। सम्‍प्रति अनेक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। इनकी रचनायें हैं- ‘हमारा देश’, महात्मा का महाप्रयाण, हजरतगंज, लोहिया के प्रति, पूज्य चरण निराला, आज फिर जीवन द्विधा जागी, हिमालय के शीखर पर, आचार्य नरेन्द्र देव, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरु, ताऊ दशक आदी। इन्होंने अपनी रचनाओं में अवधी, ब्रज एवं खड़ी बोली आदि का प्रयोग किया है। छंदोबद्ध रचनाओं में कुण्डलियाँ छ्प्पय सवैया इनके प्रिय छंद रहे हैं।

डा. श्यामसुन्दर मिश्र ‘मधुप’  : इनका जन्म २८ मार्च १९२६ ई. को मैनासी सरैया, जिला सीतापुर में हुआ। लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए., पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। सम्प्रति आर.एम.पी.पी.जी. कालेज, सीतापुर में हिन्दी विभाग के रीडर एवं अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन में रत हैं। इनकी प्रकाशित काव्य-कृतियाँ हैं- गाँव का सुरपुर देउ बनाय, जागि रहे गांधी केर सपन, खेतन का देखि देखि जिउ हुलसै मोर, बसै गाँवन मा हिन्दुस्तान और आलोचनात्मक ग्रन्थ इस प्रकार हैं- १. परम्परा के परिप्रेक्ष्य में आधुनिक अवधी काव्य, २. अवधी के आधुनिक प्रबन्ध काव्य, ३. अवधी के आधुनिक काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ। प्रकाश्य कृतियों में - पानी से पत्थर (गीत), गंगा का देश, बसइ गाँवन मा हिन्दुस्तान, जागु किसान भोर भवा रे, आदि मुख्य है। इनकी रचनाओं में जन विषयक तथ्य का प्राधान्य है। मधुप जी ने अवधी के आधुनिक काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों की रचना करके अवध जनपद के सांस्कृतिक स्वरूप पर सर्वथा नया प्रकाश डाला है। इनकी कविताओं में राष्ट्रीय भावना जागरण का भाव आदि निहित है। इन्होंने अवधी के नयेपन को पूर्णतः उद‍घाटित किया हैं।

डा. श्यामसुन्दर मिश्र ‘मधुप’  : इनका जन्म २८ मार्च १९२६ ई. को मैनासी सरैया, जिला सीतापुर में हुआ। लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए., पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। सम्प्रति आर.एम.पी.पी.जी. कालेज, सीतापुर में हिन्दी विभाग के रीडर एवं अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन में रत हैं। इनकी प्रकाशित काव्य-कृतियाँ हैं- गाँव का सुरपुर देउ बनाय, जागि रहे गांधी केर सपन, खेतन का देखि देखि जिउ हुलसै मोर, बसै गाँवन मा हिन्दुस्तान और आलोचनात्मक ग्रन्थ इस प्रकार हैं- १. परम्परा के परिप्रेक्ष्य में आधुनिक अवधी काव्य, २. अवधी के आधुनिक प्रबन्ध काव्य, ३. अवधी के आधुनिक काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ। प्रकाश्य कृतियों में - पानी से पत्थर (गीत), गंगा का देश, बसइ गाँवन मा हिन्दुस्तान, जागु किसान भोर भवा रे, आदि मुख्य है। इनकी रचनाओं में जन विषयक तथ्य का प्राधान्य है। मधुप जी ने अवधी के आधुनिक काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों की रचना करके अवध जनपद के सांस्कृतिक स्वरूप पर सर्वथा नया प्रकाश डाला है। इनकी कविताओं में राष्ट्रीय भावना जागरण का भाव आदि निहित है। इन्होंने अवधी के नयेपन को पूर्णतः उद‍घाटित किया हैं।

डा. हरदेव बाहरी  : बाहरी जी दरभंगा कालोनी, इलाहाबाद के निवासी हैं। इन्होंने अवधी साहित्य के सम्मान में काफी योगदान किया है। श्री रामाज्ञा द्विवेदी ‘समीर’ के ‘अवधी कोश’ को आगे बढ़ाते हुए इन्होंने ‘अवधी शब्द-संपदा’ नामक संकलन का संपादन कर अवधी साहित्य को समृद्ध करने की कोशिश की है। सम्प्रति काफी कार्य कर भी रहे हैं।

डा. हरिकृष्ण अवस्थी  : ४ सितम्बर १९१७ को हरदोई जनपद में जनमे डा. अवस्थी अपने परिवेश के प्रति बाल्यकाल से ही जागरूक थे। इनका व्यक्तित्व बहुआयामी है ये साहित्य, राजनीति, शिक्षा, प्रशासन सभी से जुड़े रहे। सन् १९४२ के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में डा. अवस्थी ने बढ़ चढ़ कर भाग लिया, जिससे इन्हें कठोर कारावास का दण्ड मिला। उच्च शिक्षा प्राप्त कर १९४६ में, हिन्दी विभाग लखनऊ विश्व विद्यालय में प्रवक्ता पद पर इन्होंने कार्य प्रारम्भ किया और १९७६ में यहीं विभागाध्यक्ष हो गए। १९७८ में सेवा निवृत्त हुये। तत्पश्चात लखनऊ वि. वि. के कुलपति बने। सन् १९५५ से १९९६ तक ये पूर्वी अध्यापक निर्वाचन क्षेत्र और लखनऊ स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से विधान परिषद् के सदस्य रहे हैं। इस अवधि में विभिन्न संस्थाओं में सक्रिय रहे तथा अनेकानेक उपाधियों-सम्मानों से अलंकृत हुये। अवधी के प्रति किये गये महत्वपूर्ण कार्यों में इनकी सेवायें उल्लेखनीय है। पं. वंशीधर शुक्ल का पाठ्यकम में प्रवेश इनके अवधी-प्रेम का अपूर्व उदाहरण है। इनके निर्देशन में शोधकार्य की पहल हुई। इन्हीं की प्रेरणा से लखनऊ विश्वविद्यालय में अवधी परिषद् की स्थापना हुई थी।

डॉ. अजय प्रसून  : अनागत काव्य आंदोलन के प्रवर्तक डॉ. प्रसून जी का पूरा नाम डॉ. अजय कुमार द्विवेदी है। इनका जन्म लखनऊ में १८ जनवरी सन् १९५४ को हुआ था। ये लखनऊ में ही सम्प्रति सरकारी सेवा कर रहे हैं। वर्तमान पता है- ७७, सरोज निकेतन हेल्थ स्क्वायर, लखनऊ-३। इनका कवि जीवन बाल साहित्यकार के रूप में प्रारम्भ हुआ। गाओ गीत सुनाओ गीत, युग के आँसू, बाँसुरी के भीतरी तह में आदि इनकी दर्जनों कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्होंने अनेक अवधी गीतों की रचना की है, जिसमें शहरी एवं ग्राम्य जीवन पर प्रकाश डाला गया है।

डॉ. अनुजप्रताप सिंह  : ये संप्रति आर.आर. महाविद्यालय, अमेठी, सुल्तानपुर में सेवारत हैं। इन्होंने अवधी साहित्य में प्रचुर मात्रा में सर्जना की है।

डॉ. अमरनाथ बाजपेयी : ये लखनऊ नगर के प्रवासी हैं। ‘विरहिन क बसन्तु” दोहा-चौपाई छंदों में विरचित इनकी महत्वपूर्ण रचना है।

डॉ. उमाशंकर शुक्ल ‘शितिकंठ’ : इनका जन्म १ जुलाई सन् १९४३ को सीतापुर जनपद के गुलाबराय गाँव में हुआ था। पं. प्यारे लाल वैद्य इनके पिता हैं। ये शाहजहाँपुर एवं खीरी के क्रमशः जी.एफ. डिग्री कालेज एवं केन ग्रोवर डिग्री कालेज में हिन्दी प्रवक्ता रहे। संप्रति लखनऊ शहर के जयनारायण डिग्री कालेज में हिन्दी के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं। खड़ी बोली के साथ-साथ इन्होंने अवधी में भी काव्य सृजन किया है। बरवै इनका प्रिय छंद है।

डॉ. ओमप्रकाश त्रिवेदी  : इनका जन्म १५ अगस्त सन् १९३४ को ग्राम ठाकुरपुर, ब्लाक त्रिवेदीगंज, जनपद बाराबंकी के पं. श्री शुकदेव प्रसाद त्रिवेदी के यहाँ हुआ था। शिक्षोपरांत इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय एवं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अस्थायी प्रवक्ता के रूप में अध्यापन करते हुए सन् १९७१ में लखनऊ के के.के.वी. कालेज में स्थायी प्रवक्ता हो गये। अभी हाल में हिन्दी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय से रीडर पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। इन्होंने अवधी साहित्य पर शोध कार्य किए-कराये हैं- ‘अवधी भाषा के प्रमुख कवि’ उनकी है। सम्प्रति ओम् निवास ११४, मवइया, लखनऊ में स्थायी रूप से रह रहे हैं।

डॉ. कुँवर चन्द्रप्रकाश सिंह  : कुँवर साहब का जन्म सीतापुर जनपद के दसिया ग्राम में सन् १९१० ई. में हुआ था। ये अवधी के यशस्वी साहित्यकार हैं। अवधी के प्रति इनका लगाव निरन्तर बना रहा जो अवधी रचनाओं के मध्य व्यक्त होता रहा है। युवराजदत्त कालेज, लखीमपुर में हिन्दी के प्राध्यापक पद पर कार्य करते हुए इन्हें अवधी जनचेतना के कवि पढ़ीस का सान्निध्य मिला। फलतः यदा-कदा ये अवधी में काव्य रचना भी करने लगे। कुँवर साहब ने साहित्य की सभी विधाओं का प्रयोग किया है। इन्होंने लगभग एक दर्जन काव्यग्रन्थ, नाटक तथा लगभग एक दर्जन समीक्षा ग्रन्थ लिखे हैं। बड़ौदा, जोधपुर तथा मगध विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष पद पर रहने के पश्चात् सेवा निवृत्त होकर तथा आजीवन साहित्य सेवा करके कुँवर साहब १९९७ में दिवंगत हो गए।

डॉ. कृष्णकुमार श्रीवास्तव  : प्रतिभा के धनी श्रीवास्तव जी लखीमपुर, खीरी के निवासी हैं। ये अपनी अवधी रचनाओं के लिए विख्यात हैं।

डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र : मिश्र जी खड़ी बोली के सशक्त कवि हैं, साथ ही अवधी में भी अच्छी कविता करते हैं। ये सन् १९४७ में ग्राम बन्नीराय निकट ‘बिसवाँ’ जिला सीतापुर में जनमे थे। ये एक कुशल चिकित्सक हैं। समाज सेवा तथा साहित्य सेवा इनके स्वाभाविक गुण हैं, जिसका ये पूर्णतया पालन कर रहे हैं। मुख्यतः ये खड़ी बोली के कवि हैं। ‘साकेत-शौर्य’ इनका प्रख्यात काव्य-ग्रन्थ है।

डॉ. गणेशदत्त ’सारस्वत’ : इनका जन्म सीतापुर जनपद के बिसवाँ नगर में १० सितम्बर, १९३६ ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम पं. उमादत्त सारस्वत है। ये खड़ी बोली के साथ-साथ अवधी में भी रचनाएँ करते हैं। इनके द्वारा लिखित एवं संपादित दर्जनों ग्रंथ हैं। ये आर.एम.पी. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सीतापुर में हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद को भी सुशोभित कर चुके हैं।

डॉ. गौरीशंकर पाण्डेय ‘अरविन्द’ : अरविन्द जी का जन्म २८ अगस्त १९४० ई. को ग्राम जरौली, हैदरगढ़ जनपद बाराबंकी में हुआ था। इनके पिता का नाम रामखेलावन पाण्डेय है। पी-एच.डी. तक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात ये अध्यापन-कार्य में लग गये। साकेत महाविद्यालय फैजाबाद के शिक्षा विभाग में प्राध्यापक पद को ये सुशोभित कर रहे हैं। तुलसीदास, स्वर और रेखाएँ, भवानी भीख, अभिनन्दन ग्रंथ इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। सम्प्रति ये अवधी संस्थान, अयोध्या के महामंत्री हैं तथा सामाजिक संस्थाओं एवं देश प्रेम की भावनाओं से युक्त अवधी रचनाएँ कर रहे हैं।

डॉ. चक्रपाणि पाण्डेय  : इनका जन्म सन् १९३३ में रायबरेली जनपद के भीरा गोविन्दपुर में हुआ था। ये उ.प्र. के राजकीय शिक्षा विभाग में एक अध्यापक हैं। इस समय प्राचार्य के पद पर सेवारत हैं। इन्होंने खड़ी बोली में भी रचनायें की हैं। इनकी अवधी की प्रकाशित रचनायें हैं - बैसवंश भूषण, बैसवारा विभूति, राव रामबख्श उमराव चन्द्रिका, भवानी दास आदि। ‘बनौधा बीर ‘बीरा’ इनका एक प्रबन्ध काव्य है। ये प्रायः वीर रस पूर्ण रचनायें लिखते हैं। बैसवारी में लिखी इनकी घनाक्षरिया, जो वीर रस-पूर्ण हैं, बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। वस्तुतः बैसवारी लोकजीवन की गहन अनुभूति प्राप्त है डॉ. पाण्डेय को। इनकी रचना में शब्द-गुणमयता (ओज) सरसता तथा प्रवाह है। कुछेक रचनाओं में ब्रजावधी की झलक मिलती है।

डॉ. जयवीर सिंह  : इनका जन्म १ जनवरी सन् १९६५ को ग्राम लोहार खेड़ा, जनपद सीतापुर में हुआ था। इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय से एम.ए., पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इन्होंने आधुनिक अवधी कवियों पर समीक्षात्मक लेखन कार्य करते हुए स्फुट रचनाएँ भी सृजित की हैं।

डॉ. जलाल अहमद ‘तनबीर’  : ये बाराबंकी जनपद के जैसुखपुर-मवई के निवासी हैं। इन्होंने अनेक अवधी लोकगीत लिखकर अवधी भाषा के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित की है।

डॉ. जितेन्द्रनाथ पाण्डेय  : पाण्डेय जी का जन्म १ फरवरी सन् १९४५ ई को ग्राभ बहुता, पोस्ट-लाही, जिला-बाराबंकी में पं. स्व. श्री संत प्रसाद पाण्डेय के घर हुआ था। १९६७ में ये जयनारायण इण्टर कालेज, लखनऊ में प्रवक्ता एद पर नियुक्त किये गये। सन् १९७६ में डी.ए.वी. डिग्री कालेज, लखनऊ में प्रवक्ता बने। सन् १९९० में लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में रीडर पद पर आसीन हुए। इनकी अवधी सेवा हैं- ‘आधुनिक काव्य- प्रामाणिक व्याख्या और आलोचना’ तथा अवधी, अवधमणि आदि पत्रिकाओं में अवधी पर महत्वपूर्ण लेख, स्फुट अवधी कविताएँ। सम्प्रति २५४/५५ हरिभवन बनिया मोहाल, सदर बाजार, लखनऊ के निवासी हैं।

डॉ. त्रिभुवननाथ शुक्ल : शुक्ल जी अवधी साहित्य के प्रति विशेष स्नेह रखते हैं। इन्होंने अवधी में ढेर सारी कविताओं के साथ-साथ अन्य सृजन भी किया। सम्प्रति ये जबलपुर विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष पद पर कार्यरत हैं।

डॉ. त्रिलोकी नारायण दीक्षित  : मौरावाँ, जनपद उन्नाव के निवासी दीक्षित जी लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से डी.लिट. तक शिक्षा ग्रहण की। इन्होंने अवधी साहित्य स्वरूप पर इतिहास ग्रंथ प्रणीत कर अवधी के स्वरूप निर्धारण ऐतिहासिक कार्य किया है। इस ग्रंथ में अवधी साहित्यकारों का प्रथम बार परिचय दिया गया है।

डॉ. दयाराम पाठक : फैजाबाद के निवासी पाठक जी अवधी भाषा के श्रेष्ठ कवि हैं।

डॉ. देवकीनन्दन श्रीवास्तव ‘नन्दन’ : नन्दन जी का जन्म १ फरवरी सन् १९२८ ई. को प्रतापगढ़ जनपद के नारायणपुर ग्राम में हुआ था। इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी में पी-एच.डी. की उपाधि ग्रहण की। कुछ समय तक ये प्राध्यापक रहे। तत्पश्चात शान्ति निकेतन (विश्वभारती) चले गये। संप्रति सेवा निवृत्त हैं। इन्होंने अवधी, ब्रज एवं खड़ी बोली में समान रूप से लिखा है। ‘बरवै-सतसई’ उनका अवधी काव्य है, जिसमें लोक जीवन का वैविध्य द्रष्टव्य है।

डॉ. पुत्‍तूलाल शुक्ल ’चन्द्राकर’ : सीतापुर जनपद के पैंदापुर नामक गाँव में जनमे चन्द्राकर जी अवधी के एक समर्पित साहित्यकार हैं। इनका ‘मचानू’ नामक मुक्तक काव्य अति विशिष्ट है। संप्रति ये लखनऊ में निवास कर रहे हैं।

डॉ. बद्रीनारायण सिंह : इनका जन्म १८९० में सूट्ठा, रायबरेली में हुआ था। ये राधाभाव प्रधान भक्त कवि थे। ‘विरहविनय पचीसी’, ‘भजन-संग्रह’ और ’संक्षिप्त रामायण’ इनकी अप्रकाशित अवधी काव्य कृतियाँ हैं। १९५० में इनकी मृत्यु हो गयी।

डॉ. बद्रीनारायण सिंह : इनका जन्म १८९० में सूट्ठा, रायबरेली में हुआ था। ये राधाभाव प्रधान भक्त कवि थे। ‘विरहविनय पचीसी’, ‘भजन-संग्रह’ और ’संक्षिप्त रामायण’ इनकी अप्रकाशित अवधी काव्य कृतियाँ हैं। १९५० में इनकी मृत्यु हो गयी।

डॉ. मोहम्मद अख़लाक : इनका जन्म ५ जुलाई सन् १९६६ ई. को लखनऊ के काजीबाग मुहल्ले में हुआ था। इनके पिता श्री (जनाब) मो० इकबाल उद्दीन रेलवे के अवकाश प्राप्त कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारी हैं। अखलाक जी यों तो खड़ी बोली, अवधी और उर्दू तीनों में लेखन कार्य कर रहे हैं, परन्तु अवधी साहित्यकार के रूप में इनका विशेष स्थान है, क्योंकि जहाँ एक ओर इन्होंने दोहा, बरवै जैसे परम्परागत छंदों की रचना की वहीं दूसरी ओर अवधी के मृतप्राय कथा-साहित्य में नवजीवन का संचार किया है। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- दोहालोक, बरवै लोक, सोरठलहरी, ईद केर चंदा’ (अवधी गद्य में कहानी-संग्रह) आदि।

डॉ. योगेन्द्र प्रताप सिंह : इनका जन्म ३ मार्च, सन् १९६७ को ग्राम सिसौना, पोस्ट सैफपुर, जनपद बाराबंकी में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री शंकरबख्श सिंह है। लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय लेकर एम.ए.,पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त करने के बाद ये वहीं सन् १९९३ में प्रवक्ता पद पर नियुक्त हो गये। आलोचनात्मक कार्य करने के साथ-साथ इन्होंने अवधी साहित्य के प्रति भी अपनी सेवा अर्पित की है। ‘बिरवा’, ’जोंधइया’, ’अवध-अवधी विविध आयाम’ आदि अवधी पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रायः प्रकाशित होती रही हैं। ‘गुहार’, ‘हम और तुम’, ‘साहेब के गुलाम’ आदि लगभग २५ कविताएँ सृजित की हैं,। जिसमें कुछ अप्रकाशित भी हैं।

डॉ. राघवबिहारी सिंह ‘काव्य केहरी’ : ये ग्राम बरावाँ, तहसील-हैदरगढ़, जिला-बाराबंकी के निवासी हैं। इनके पिता जी का नाम श्री भारत सिंह है। इन्होंने अंग्रेजी, इतिहास एवं हिन्दी विषय से एम.ए. उत्तीर्ण कर हिन्दी साहित्य में पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त की। संस्कृत साहित्य में शास्त्री कोर्स भी उत्तीर्ण किया। सम्प्रति सार्वजनिक इण्टर कालेज हैदरगढ़, बाराबंकी के अंग्रेजी विभाग में प्रवक्ता पद पर कार्यरत हैं। इन्होंने अवधी साहित्य के अभिवर्द्धन में निम्नांकित योगदान किया- निबंध-अवँढ्यारा, अपनी बोली मा बात करौ, फर्चई, का यहु हुमसे हिन्दुस्तानु, बोली न ब्वालौ ठीक नहीं, तुम हमार अल्ला मिया न आहिउ, देख काल चला जग जाई, धरम के भरम, जब तक स्वाँसा तक तक आसा। ‘काव्य-कानन’ (अप्रकाशित कृति) में अनेक अवधी कविताएँ हैं। सम्पादित कृति- ‘अवधी के समाजवादी कवि पं. ब्रजलाल भट्ट ‘ब्रजेश”। ‘अवध ज्योति’ (त्रैमासिक पत्रिका) में सह संपादन इत्यादि। केहरी जी ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज में परिव्याप्त दुनियादारी, भौतिकता, भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता आदि प्रवृत्तियों का समर्थन किया है। इन्होंने अपनी भाषा में लुप्तप्राय देशज शब्दों का प्रयोग करते हुए जनसामान्य की भाषा को महत्ता प्रदान की है।

डॉ. राजेन्द्र मिश्र  : ये प्रयोग के निवासी एवं अल्पख्यात अवधी कवि हैं।

डॉ. राम जवाहर द्विवेदी : इनका जन्म बस्ती जनपद की हरैया तहसील के नगरा गंजा गाँव में १३ दिसम्बर १९४१ ई. को हुआ था। पिता का नाम पं. रामराज दुबे है। द्विवेदीजी ने अवधी साहित्य की सेवा पूरे मनोयोग के साथ की है, जिससे सृजन क्षेत्र में पर्याप्त श्रीवृद्धि दृष्टिगत हुई है। ये अवधी के अनूठे सवैयाकार हैं। ‘पंचामृत’ इनका अवधी काव्यग्रंथ है। ‘लिफाफा’, ’झरोखा’ इनकी प्रमुख पुस्तकें हैं।

डॉ. रामकुमार सिंह : महरामऊ, जनपद उन्नाव के निवासी डॉ. सिंह अवधी के प्रति अटूट श्रद्धा रखते हैं। इन्होंने अपने गीतों एवं कविताओं में अवधी भाषा को सर्वाधिक स्थान दिया है।

डॉ. रामचरित्र सिंह : ये संप्रति प्रतापगढ़ जिले के पी.वी.पी.जी. कालेज में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद पर सेवारत हैं। विस्तृत विवरण प्राप्त नहीं है, फिर भी इतना अवश्य प्रमाण है कि इन्होंने अवधी साहित्य की सेवा की है और करने में तत्पर हैं।

डॉ. विद्याबिन्दु सिंह  : इनका जन्म २ जुलाई सन् १९४७ को ग्राम बनगाँव बिहवा, जिला फैजाबाद में हुआ था। श्री देवनारायण सिंह इनके पिता तथा श्री कृष्णप्रताप सिंह पति हैं। अवधी लोक साहित्य पर इन्होंने शोध कार्य किया है। इनकी प्रसिद्ध अवधी रचनायें हैं - गंगा मइया, आवै दे फगुनवा, आज का गाँव, तिरिया फुलवा बरन मन, सवनवाँ, धुँघटा तोहार गोरिया, फागुनी बयारि, गाँउ की पीर, कटिया बदरा, पलसवा, मजूर, बादर बीर इत्यादि। सम्प्रति ये उ.प्र. हिन्दी संस्थान लखनऊ की उपनिदेशिका हैं।

डॉ. विश्वनाथ याज्ञिक : गुजरात राज्य के मेहसाणा जनपद के सिद्धपुर ग्राम के मूल निवासी याज्ञिक जी गुजराती ब्राह्मण हैं। इनका जन्म १६ मार्च सन् १९२४ ई. को उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद नगर में हुआ था। इनके प्रपितामह गुजरात से आकर मथुरा में बस गये। पितामह जयपुर में रहे, किंतु इनके पिता पं. गोरखनाथ याज्ञिक लखनऊ में सेवारत हुए और यहीं के निवासी हो गये। सम्प्रति ये ६९, आर्यनगर लखनऊ में रहते हैं। इन्होंने राम काव्य परम्परा को अक्षुण्ण बना रखा है। इन्होंने दोहा, पद, गीत, गजल, शैली में लगभग ३००० छंदों की रचना की है। इनका अधिकांश काव्य खड़ी बोली में लिखा गया है। प्रमुख कृतियाँ हैं - राम सुमना जलि, रामकाव्य, कल्पद्रुम, रामगीताञ्जलि, राम दोहावल आदि।

डॉ. सुशील सिद्धार्थ : ये पुरनिया रेलवे क्रासिंग, लखनऊ के निवासी हैं। इन्होंने हिन्दी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर अवधी साहित्य को अपनी सेवा बड़े मनोयोग से अर्पित की है। इन्होंने ‘विरवा’ पत्रिका का संपादन कार्य करते हुए ‘अंधियार पाखु’ शीर्षक से अवधी उपन्यास प्रणीत किया, जिसमें उच्च शिक्षा से सम्बद्ध अनेक अनाचार उद्‍घाटित करने का प्रयास है। डॉ. चन्द्रशेखर अग्निहोत्री इनके पिता हैं, जो लखनऊ के डी.ए.वी. डिग्री कालेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष पद पर कार्यरत हैं। सम्प्रति सिद्धार्थ जी अनेक अवधी रचनाओं के साथ-साथ मुम्बई में रहकर फिल्म क्षेत्र में लेखन कार्य कर रहे हैं।

डॉ. सुशीलकुमार पाण्डेय ‘साहित्येन्दु’ : ये संप्रति महाविद्यालय कादीपुर, सुल्तानपुर में संस्कृत विभाग में रीडर पद पर कार्यरत हैं। इन्होंने अवधी भाषा में तमाम रचनाएँ सृजित की हैं, जिससे अवधी साहित्य में इनका स्थान सुरक्षित हो गया है।

डॉ. हनुमानदार ‘चकोर’ : चकोर जी का जन्म सन् १९३३ में हरदोई नगर के एक वैश्य कुल में हुआ था। कानपुर देहात जनपद के पुखरायाँ डिग्री कालेज में प्राध्यापक भी रहे। अवधी में दोहा तथा बरवै लिखने में बड़े कुशल थे। मृत्यु के समय ‘गाँधी सतसई’ लिख रहे थे, जो अधूरी रह गई। १९६० ई. में अल्पायु में इनका निधन हो गया।

डॉ. हरिशंकर मिश्र : इनका जन्म २० फरवरी सन् १९५० को ग्राम ऊनौ पो. सरसवाँ, जनपद इलाहाबाद के पं. श्री राजनारायण मिश्र जी के यहाँ हुआ था। डॉ. मिश्र सम्प्रति लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रध्यापक हैं। इन्होंने अवधी पर बहुत-सा कार्य किया है, जैसे- श्रीमद्‌भागवत और तुलसी साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन (प्रका.),अवधी गद्य लेखन तथा समीक्षा, मध्ययुगीन एवं आधुनिक कविता समीक्षा।

ढीवाजी (संत)  : ये दादू दयाल के शिष्य थे, जो आजीवन उनकी सेवा में अनुरक्त रहें। इनकी साखियों में अवधी की कई रचनाएँ संकलित है। इनकी भाषा में सधुक्कड़ी प्रयोगों के बावजूद अवधी का स्वर स्पष्ट परिलक्षित होता है।

तड़िता : यह अवधी की एक नई काव्य धारा (छंद) है, जिसका प्रवर्तन श्री सच्चिदानंद तिवारी जी ‘शलभ’ के द्वारा सन् १९८९ में किया गया। इसमें चौपाई के एक चरण + दोहा के दूसरे चरण फिर चौपाई के दूसरे चरण + दोहा के चौथे चरण का प्रयोग होता है। अन्त में लघु का विधान एवं कुल ५४ मात्राओं का योग होता है। जैसे- माता परसै नक्खत बरसै, मघा, अघा नभ भूमि। पत्नी परसे वंश सुसरसै, पाले-पोसे चूमि।।

ताहिर  : इनका जीवन परिचय अधिक स्पष्ट नहीं है, फिर भी इनका निवास स्थान शायद आगरा है। कोकसार, गुणसागर नाम की दो कृतियाँ संज्ञान में आई हैं, जिनका रचनाकाल सं. १६७८ है।

तिलक  : वाग्दान के अवसर पर वर-कन्या दोनों पक्षों में स्त्रियाँ इस अवधी गीत का गायन करती हैं और अपनी शुभेच्छा व्यक्त करती हैं।

तुरन्तनाथ दीक्षित : बाण, हरदोई के निवासी दीक्षित जी एक उच्चकोटि के अवधी साहित्यकार हैं। इन्होने मुक्त काव्य का सृजन अधिक किया है। ‘वन की झाँकी’ इनकी श्रेष्ठ रचना है।

तुलसी और जायसी की अवधी का तुलनात्मक अध्ययन  : यह डॉ. आशारानी तिवारी द्वारा सन् १९७५ में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध है। इस शोधपरक कार्य में उक्त दोनों महाकवियों की अवधी का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है।

तुलसीराम वैश्य ‘नाग’ : ये लखनऊ के मशहूर अवधी कवि हैं। इन्होने नीतिपरक दोहों का सृजन किया।

तेजनारायण सिंह ’तेज’ : अनागत कविता आंदोलन से सम्बद्ध नवोदित रचनाकार श्री तेज का जन्म नौबस्ता कला अमराई गाँव, लखनऊ में ४ फरवरी सन् १९४७ को हुआ। ‘पुरवी तुमरे मन की’ इनका प्रकाशित अवधी गीत-संग्रह है। जिसका प्रकाशन भी हो चुका है। अनेक पत्र पत्रिकाओं में भी इनके लेख, कहानियाँ, कविताएँ गीत एवं अगीत प्रकाशित होते रहते हैं।

तेल मैना  : विवाहपूर्व के एक आयोजन- ‘मातृपूजन’ के अवसर पर स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला यह अवधी लोकगीत है। यथा- आनिन बानिन कहैना का तेलु संभार्‌यो आय। लि का तेलु सिरस की फली। और तेलु चढ़ावै कन्या कुँवरि।

तेल मैना  : विवाहपूर्व के एक आयोजन- ‘मातृपूजन’ के अवसर पर स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला यह अवधी लोकगीत है। यथा- आनिन बानिन कहैना का तेलु संभार्‌यो आय। लि का तेलु सिरस की फली। और तेलु चढ़ावै कन्या कुँवरि।

तोरन देवी ‘लली’  : ‘लली’ जी ने खड़ी बोली और अवधी दोनों में काव्य रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। अवधी इनकी मातृभाषा रही है। ये लखनऊ की रहने वाली थीं। परिमार्जित भाषा उनकी ’हम स्वतंत्र’ कविता की मुख्य विशेषता है। जनजीवन के भावों को चित्रित करने में इनकी रचना बहुत सक्षम रही है।

त्रिभुवन दास  : ये स्वामी नारदानंद (नैमिषारण्य) के शिष्य थे। इनके द्वारा रचित कृति ‘श्रीराम दर्शन’ की पाण्डुलिपि डॉ. श्यामसुन्दर मिश्र ‘मधुप’ को शिवदत्त मिश्र अशोक नगर, कानपुर से प्राप्त हुई है। इसमें पूरी रामकथा का विशद वर्णन है। यह अवधी के दोहा-चौपाई छंदों में प्रणीत है।

त्रिभुवननाथ शर्मा ‘मथु’ : मधु जी का जन्म ६ दिसम्बर १९३२ ई. को ग्राम नगर चौरावाँ (इटौंजा) जनपद लखनऊ में हुआ था। इन्होंने खड़ी बोली और अवधी दोनों में लिखा हैं। अवधी में इन्होने गद्य भी लिखा है। मृगेश जी के साहित्य को प्रकाश में लाने का श्रेय मधु को है। ये संपादक और प्रकाशक के रूप में भी सक्रिय हैं। सम्प्रति बाराबंकी के निवासी हैं।

त्रिभुवनप्रसाद त्रिपाठी ‘शांत’ : ये भक्त कवि हैं। इनका जन्म १९०० में परानपांडे का पुरवा, तिलोई, रायबरेली में हुआ था। ‘प्रश्नोत्तर’ और ‘विज्ञान नौका’ इनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं। इनका भक्ति प्रधान काव्य अवधी में रचित है। १९७० में इनकी मृत्यु हो गयी।

त्रिलोचन शास्त्री  : शास्त्रीजी का जन्म १९१९ ई. में चिराना पट्टी (सुल्तानपुर) में हुआ। इन्होंने काशी में उर्दू, अंग्रेजी, बंगला, गुजराती, मराठी, तमिल, बर्मी आदि भाषाओं का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया। ’हंस’ पत्रिका के सम्पादक के रूप में इन्हें ख्याति प्राप्त हुई। कालान्तर में शास्त्री जी ने ज्ञानमण्डल-शब्दकोश, उर्दू-कोश तथा ‘चित्ररेखा’ मासिक का सम्पादन किया। १९४२ के राष्ट्रीय आन्दोलन में शास्त्री जी ने सक्रिय भूमिका निभाई, फलतः इन्हें दीर्घावधि तक कारावास की यातना भुगतनी पड़ी। सम्प्रति त्रिलोचन जी दिल्ली, सागर विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं और स्वतंत्र साहित्य-सृजन में संलग्न भी। त्रिलोचन जी की प्रकाशित अवधी काव्य कृति है- अमोला। इसमें बरवै छंदों में पूर्वांचल की ग्रामीण व्यवस्था के जीवंत दृश्य हैं। त्रिलोचन जी जनवादी कवि हैं अतएव जनभाषा अवधी में इन्होंने पुष्कल काव्य प्रणयन किया है।

थान कवि  : ये रायबरेली के निवासी थे। इनका पूरा नाम थानराय है। इनके पिता का नाम निहालराय था। थान कवि ने बैसवारा के रईस दलेलसिंह के नाम पर ‘दलेल प्रकाश’ नामक रीतिग्रन्थ का प्रणयन संवत् १८४८ में किया। काव्योचित विविधता तथा क्रमबद्धता के अभाव में रचे गये इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा हैं - यदि ‘दलेल प्रकाश’ को भानुमती का पिटारा न बनाया गया होता तो कवि-ख्याति विशद होती’ - (हिन्दी साहित्य का इतिहास)।

दंगल जी : ये बस्ती के निवासी अवधी कवि हैं।

दयानंद जड़िया ‘अबोध’ : अबोध जी श्री परमानंद जड़िया ‘परमानन्द’ के अनुज हैं। ये सम्प्रति डाक उप डाकपाल के पद पर कार्यरत हैं तथा अपने पिता के नाम पर ‘श्री वैद्यनाथ धाम’ ५५१ क/४१६, आजाद नगर, आलमबाग, लखनऊ-५ में निवास कर रहे हैं। विगत दस वर्षों के अन्तराल में ‘मधुलिका प्रकाशन’, लखनऊ के माध्यम से इनके कई ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। अवधी में इन्होंने स्फुट काव्य रचनाएँ लिखी है।

दयानंद जड़िया ‘अबोध’ : अबोध जी श्री परमानंद जड़िया ‘परमानन्द’ के अनुज हैं। ये सम्प्रति डाक उप डाकपाल के पद पर कार्यरत हैं तथा अपने पिता के नाम पर ‘श्री वैद्यनाथ धाम’ ५५१ क/४१६, आजाद नगर, आलमबाग, लखनऊ-५ में निवास कर रहे हैं। विगत दस वर्षों के अन्तराल में ‘मधुलिका प्रकाशन’, लखनऊ के माध्यम से इनके कई ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। अवधी में इन्होंने स्फुट काव्य रचनाएँ लिखी है।

दयानंद सिंह ‘मृदुल’ : फैजाबाद के निवासी मृदुल जी अवधी साहित्य के एक उदीयमान रचनाकार हैं।

दयाबाई : ये सहजोबाई की समकालीन संत कवयित्री हैं। इनके सृजन में अवधी भाषा की बहुलता है।

दयाल : ये आधुनिक काल के अवधी रचनाकार हैं, परन्तु इनका साहित्य प्रकाशित नहीं हो सका है। इनका क्षेत्र बैसवाड़ा है।

दयाशंकर दीक्षित ‘देहाती’  : ये कानपुर के निवासी रहे हैं। इन्होंने अवधी भाषा के माध्यम से अनेकानेक कविताएँ समाज को समर्पित की हैं। इनकी ‘ई चारिउ नित ही पछितात’ नामक कविता और साथ ही व्यंग्यपरक दोहे अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।

दयाशंकर शुक्ल ‘देहाती’ : देहाती जी जनसामान्य से जुड़े हुए कवि हैं। इन्होंने अपनी अवधी कविताओं के माध्यम से सामाजिक बुराइयों एवं समस्याओं को बड़े साहस के साथ उजागर करते हुए उनका विरोध किया है।

दरिया साहब  : इनका जन्म सन् १६३४ ई. में हुआ था और मृत्यु सन् १७८० ई. में। दरिया अपने को कबीर का अवतार मानते थे। इन्होंने लगभग २७ रचनाओं का प्रणयन किया है। इनकी अधिकतर कृतियाँ अवधी भाषा में लिखी गई हैं। दरिया साहब ने अवधी का अधिक प्रयोग तुलसीदास के आधार पर किया है। दरिया साहब की कवित्व शक्ति सामान्य सन्त कवियों की तुलना में कहीं बेहतर है। इन्होंने ४० प्रकार के छन्दों का प्रयोग अपने काव्य में किया है।

दहाड़ : सन् १९६४ ई. में रचित यह श्री उमाप्रसाद बाजपेयी ‘सुजान’ जी की अवधी रचनाओं का संकलन है।

दिनेश दादा : ये महमूदाबाद, सीतापुर के निवासी अवधी साहित्यकार हैं। इनकी कविताएँ बड़ी ही गम्भीर हैं। इनमें समाज की बुराइयों का मर्मोद्घाटन है एवं उनसे मुक्त होने का स्वर भी है।

दिनेश मिश्र : अयोध्या के निवासी मिश्र जी अवधी जगत के अल्पख्यात साहित्यकार हैं।

दिनेश मिश्र : अयोध्या के निवासी मिश्र जी अवधी जगत के अल्पख्यात साहित्यकार हैं।

दिवाकर प्रसाद अग्निहोत्री ‘दिवाकर’ : इनका जन्म २ फरवरी १९२७ ई. को सीतापुर जनपद की बिसवाँ तहसील के पकरिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता पं. लक्ष्मीनारायण अग्निहोत्री संस्कृत एवं ज्योतिष के अधिकारी विद्वान थे। दिवाकर जी दैनिक पत्र ‘नवजीवन’ के संपादकीय विभाग में अंत तक कार्यरत रहे। इनका कार्यक्षेत्र एवं निवास स्थान लखनऊ रहा। खड़ी बोली के कवि होने के साथ-साथ इन्होंने ’हम तिनुका हन’ नामक एक अवधी काव्य सृजित किया, जिसका प्रकाशन सन् १९५८ में हुआ। १९८४ ई. में इनका निधन हो गया।

दीन जी : बस्ती के निवासी दीन जी अवधी के श्रेष्ठ भक्त हैं।

दुखहरन दास  : ये गाजीपुर (उ.प्र.) के निवासी तथा संत मलूकदास के शिष्य थे। इन्होंने ‘पुहुपावती’ नामक प्रेमाख्यान काव्य का प्रणयन संवत् १७२६ में किया। इनकी काव्य भाषा अवधी है अतः अवधी के विकास में कवि दुखहरन दास तथा इनकी कृति पुहुपावती गणनीय है।

दुथनाथ शर्मा ’श्रीश’  : इनका. जन्म १५ सितम्बर १९२० ई. को मेहरवाँ गाँव, जिला जौनपुर में हुआ था। इधर ये कानपुर के निवासी हैं। श्रीश जी मंच के सफल गीतकार हैं। इनके गीत जहाँ एक ओर विरह वेदना से आपूर्ण हैं तो दूसरी ओर समूची ग्राम्य संस्कृति अपने समग्र अवयवों के साथ इनके गीतों में सिमट आई है। कहीं कवि लोक-चेतना को झकझोरता हुआ दृष्टिगत होता है तो कहीं गाँव की मनोहारी प्रकृति में रमता हुआ। ‘फूलपाती’ श्रीश जी का एक प्रसिद्ध अवधी काव्य संग्रह है, जिसमें देश का गौरव गान है।

दुधनाथ शुक्ल ‘करुण’ : करुण जी अपने समय के प्रख्यात अवधी साहित्यकार थे। इन्होंने अपना साहित्य मंचों तथा पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

दुर्गादास : ये जगजीवन दास के सत्यनामी सम्प्रदाय के एक सिद्ध संत थे। इनका जन्म एक कुर्मी क्षत्रिय कृषक परिवार में सन् १८७१ ई. में हुआ था, जो ग्राम मोहम्मदपुर अमेठी (मोहनलाल गंज), लखनऊ में स्थित था। इनके गुरू का नाम गुरूदत्त दास था। ‘अमृतवाणी’ इनके मुखारबिन्द से निकले हुए बचनों का संग्रह है, जिसका प्रकाशन सन् १९८२ में लखनऊ से हुआ। ‘दुर्गाझूठा’ एवं ’बोधदेव’ नामक रचनाएँ भी उनके नाम से मिलती हैं। इनका शरीरान्त १५ जून १९५९ को हुआ।

दुलारे : ये रायबरेली जनपद के निवासी हैं। इन्होंने अवधी भाषा में ‘अवध मा राना भयो मरदाना’ नामक रचना प्रस्तुत की।

दुवारुचारु  : विवाहोत्वसव पर बारात-आगमन के समय कन्या पक्ष की स्त्रियाँ बारातियों का स्वागत करती हुई इस अवधी लोकगीत का गायन करती हैं। इसमें आतिथ्य का भाव दिखाई देता है, साथ ही व्यंग्य-विनोद भी। यथा- गलियाँ बहारौ बाबा तुम्हरे अवत हैं दुलरू दमाद रे। घोड़वा पलानौ भइया मोरे बहनोइया आगे होइकै जाउ रे।

दूजनदास  : ये दादू दयाल के शिष्य थे। इनका जीवन काल सं. १६४० से सं. १६८० के मध्य रहा, ऐसा अनुमान किया जाता है। इन्होंने ’ग्रंथ चौपाई’, ‘बावनी ग्रंथ’, पन्द्रह तिथि, उपदेश चौपाई, चित्रावली आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इन्होंने अधिकांश अवधी भाषा का प्रयोग किया है।

दूबि अच्छत : यह डॉ. याम तिवारी द्वारा रचित अवधी काव्य-संकलन है। इसका प्रकाशन काशी से सन् १९१६ में हुआ था। इस संकलन में १०९ कविताएँ संगृहीत हैं। इसमें ग्राम्य प्रकृति का जो चित्रांकन किया गया है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस संकलन में गाँवों की सोंधी मिट्टी की महक है। इसमें कवि ने यह साबित कर दिया है कि परम्परा के वास्तविक विकास में लोकजीवन और लोकबोली की अनिवार्यता अस्वीकार नहीं की जा सकती।

दूबि अच्छत : यह डॉ. याम तिवारी द्वारा रचित अवधी काव्य-संकलन है। इसका प्रकाशन काशी से सन् १९१६ में हुआ था। इस संकलन में १०९ कविताएँ संगृहीत हैं। इसमें ग्राम्य प्रकृति का जो चित्रांकन किया गया है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस संकलन में गाँवों की सोंधी मिट्टी की महक है। इसमें कवि ने यह साबित कर दिया है कि परम्परा के वास्तविक विकास में लोकजीवन और लोकबोली की अनिवार्यता अस्वीकार नहीं की जा सकती।

देव प्रकाश द्विवेदी ‘देव’ : फैजाबाद के निवासी देव जी अवधी भाषा के सक्रिय सेवक हैं।

देवतादास  : इनका जन्म राजातारा, जिला प्रतापगढ़ सन् १९३४ ई. में हुआ। स्कूली शिक्षा से वंचित होकर भी इन्होंने स्वाध्याय के बल पर पर्याप्त ज्ञानार्जन किया। देवतादास को कविता की प्रेरणा बाल्यकाल में ही मिली थी। ये पूर्वी अवधी के कवि हैं। इनका विशेष योगदान ‘बिरहा’ क्षेत्र में है। अनेक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समस्यायें इनके बिरहा गीतों में मुखरित हुई हैं। वस्तुतः देवतादास जी बिरहा के दंगल में अपराजेय रहे हैं। इनके अनेक शिष्य इस शैली के विकास में तत्पर हैं। कवि देवतादास ने अपने विरह-गीतों में आध्यात्मिक विरह को भी अभिव्यक्त किया है।

देवतादीन  : इन्होंने अवधी भाषा में कजरी आदि तमाम (कविताएँ) सृजित कर अवधी के प्रति स्नेह व्यक्त किया है। इनका जीवन-वृत्तान्त अप्राप्य है।

देवानन्द साहब : इनका जन्म सन् १९०० ई. के आस-पास लखनऊ जनपद के गोसाईगंज क्षेत्र में हुआ था। ये संत परम्परा के धनी थे। इन्होंने अवधी भाषा में पदों की रचना की है, जो सुगठित एवं परिष्कृत है।

देवीगीत  : अवधी लोकगीतो में इस गीत की महत्ता वैवाहिक देवी गीतों में अग्रगण्य है। वैवाहिक तैयारियाँ करते समय अथवा चाकी काँड़ी गीत के पूर्व स्त्रियाँ मंगल भावना से भरकर इसे गाती हैं तथा निर्विघ्न रूप से विवाह सम्पन्न होने की कामना करती है। लड़की के विवाह में इस गीत में दुलरवा के स्थान पर ‘दुलारी शब्द प्रयुक्त होता है।

देवीप्रसाद पाण्डेय  : ये ग्राम अदिलपुर, पो. हैबरिया, जिला-बहराइच के निवासी हैं तथा पड़ोस में ही प्राइमरी पाठशाला में सहायक अध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। इन्होंने अवधी भाषा में पर्याप्त काव्य सृजन किया है।

देवीप्रसाद शुक्ल ‘प्रणयेश’ : ये नारियल बाजार कानपुर के निवासी हैं। इनकी कविताएँ गंभीर विषयों से सम्बद्ध हैं। इनकी ‘मनुष्यता’ नामक कविता अति विशिष्ट है।

देवीरत्न अवस्थी ‘करील’  : इनका जन्म रायबरेली के बरदर नामक स्थान में सं. १९६६ (आश्विन ६) को हुआ था। देवार्चन, लोकरीत, सर्वोदय ‘मधुपर्क’ आदि इनकी रचनाएँ हैं। स्फुट रूप से करील जी ने अवधी में भी काव्य-प्रणयन किया है।

देवीशंकर द्विवेदी “बराती”  : इनका जन्म उत्तर प्रदेश के जिला उन्नाव के ग्राम ’कटोरी कला’ में हुआ। इन्होंने उन्नाव और आगरा में शिक्षा अर्जित की। आगरा विश्वविद्यालय से इन्होंने एम.ए., पी-एच.डी. की उपाधि अर्जित करके सागर, कुरूक्षेत्र, उज्जैन में अध्यापन कार्य किया। इनका शोध विशेषतः बैसवारी अवधी के भाषा वैज्ञानिक पक्ष पर किया गया कार्य ‘बैसवाड़ी शब्द सामर्थ्य’ महत्वपूर्ण है। अवधी कविता के क्षेत्र में ‘बराती’ जी का उल्लेखनीय स्थान है। अब तक इनके दो ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं - १. बबुरी के काँटे, २. बण्टाधार। कवि ने सामाजिक कुरीतियों से सम्बद्ध अनेक रचनायें प्रस्तुत की हैं - ‘या पारसाल की बात हवै’ में चेचक सम्बन्धी अन्ध विश्वासों का मार्मिक दिग्दर्शन कराया गया है। ‘बराती’ जी की भाषा प्रवाहमयी, आनुप्रासिक, पुष्ट, प्रौढ़ बैसवारी अवधी है।

देवीशंकर द्विवेदी “बराती”  : इनका जन्म उत्तर प्रदेश के जिला उन्नाव के ग्राम ’कटोरी कला’ में हुआ। इन्होंने उन्नाव और आगरा में शिक्षा अर्जित की। आगरा विश्वविद्यालय से इन्होंने एम.ए., पी-एच.डी. की उपाधि अर्जित करके सागर, कुरूक्षेत्र, उज्जैन में अध्यापन कार्य किया। इनका शोध विशेषतः बैसवारी अवधी के भाषा वैज्ञानिक पक्ष पर किया गया कार्य ‘बैसवाड़ी शब्द सामर्थ्य’ महत्वपूर्ण है। अवधी कविता के क्षेत्र में ‘बराती’ जी का उल्लेखनीय स्थान है। अब तक इनके दो ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं - १. बबुरी के काँटे, २. बण्टाधार। कवि ने सामाजिक कुरीतियों से सम्बद्ध अनेक रचनायें प्रस्तुत की हैं - ‘या पारसाल की बात हवै’ में चेचक सम्बन्धी अन्ध विश्वासों का मार्मिक दिग्दर्शन कराया गया है। ‘बराती’ जी की भाषा प्रवाहमयी, आनुप्रासिक, पुष्ट, प्रौढ़ बैसवारी अवधी है।

देहाती कर्ज : यह सन् १९५४ में रचित पं. वंशीधर शुक्ल की अवधी कहानी है। इसका दैनिक पत्र ‘स्वतंत्र’ भारत में प्रकाशन भी हो चुका है।

द्वारकाप्रसाद मिश्र  : मिश्र जी आधुनिक अवधी काव्यमाला के सुमेरु हैं। इनका जन्म सन् १९०१ में हुआ। बी.ए., एल.एल.बी. की शिक्षा प्राप्त करके मिश्र जी ने साहित्यिक, राजनीतिक और सामाजिक सभी क्षेत्रों में समान रूप से उच्च ख्याति प्राप्त की। आधुनिक युग के चाणक्य तथा कृष्ण-कथा के सूरदास, मिश्र जी की प्रतिभा से हिन्दी पाठक सुपरिचित हैं। वे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में अनेक बार जेल गए। मिश्र जी मध्य प्रदेश में लगभग पाँच वर्ष तक गृह-मंत्री, फिर मुख्यमंत्री और अनेक प्रकार के महत्त्वपूर्ण पदों को सुशोभित कर चुके हैं। जबलपुर से प्रकाशित ‘श्री शारदा’ तथा ’लोकमत’ आदि पत्रों के संपादक भी रह चुके हैं। ‘सारथी’ नामक साप्ताहिक का संपादन इन्हीं के कुशल हाथों से हुआ। सेठ गोविन्ददास के सम्पर्क में इन्होंने साहित्यिक क्षेत्र में प्रवेश किया। प्राचीन संस्कारों और धार्मिक आदर्शो के प्रति निष्ठावान मिश्र जी ने ‘कृष्णायन’ नामक महाकाव्य की रचना की। ‘हिन्दुओं का स्वातंत्र्य प्रेम’ नामक दूसरा प्रकाशित ग्रन्थ मिश्र जी के प्रखर चिन्तन का प्रमाण है। समाजगत तथा साहित्यिक प्रभाव के कारण इनकी भाषा अत्यन्त परिष्कृत एवं सुष्ठु है।

द्वारिकाप्रसाद ‘प्रेमी’ : इनका जन्म रायबरेली के मचितपुर क्षेत्र में सन् १९३० में हुआ था। इन्होंने ज्वलंत सामाजिक समस्याओं को अपनी अवधी कविता का विषय बनाया है।

द्वारिकाप्रसाद यादव ‘यदुचन्द’  : जन्म तिथि १९०६ ई., निधन तिथि १९८३ ई.। लखनऊ जनपद के सिलेंडी ग्राम के निवासी यदुचंद जी अवधी में हास्य व्यंग्य के सफल रचनाकार हैं। यदुचन्द जी जिला परिषद् लखनऊ और बाद में नगर पालिका लखनऊ में अध्यापक रहे। ये मंचीय संस्कृति से दूर एक मौन साधक थे। स्वभाव से विनोदी थे। इनके व्यंग्य बड़े तीखे होते थे। ‘बलम बिदेसिया’, ’कांग्रेसी’ आदि रचनायें इसकी उदाहरण हैं। समाज की विकृतियों पर इन्होंने बड़े तीव्र व्यंग्य किये हैं। इनकी अवधी बैसवारी प्रधान है, जिसमें लोकभाषा का अनगढ़ सौन्दर्य है। भाषा और शिल्प दोनों पर समान अधिकार है। इनकी रचनायें विशेषतः माधुरी, सुकवि, सुकवि विनोद, आदि में प्रकाशित होती रही हैं।

धमारि  : होलिकोत्सव के अवसर पर गाया जाने वाला वृंदगान ‘धमारि’ कहलाता है। यह अवधी का छन्द विशेष है, जो तथाकथित पिछड़े वर्गों द्वारा ऋतुगीत रूप में गाया जाता है। इसका प्रकाशित स्वतंत्र संग्रह तो प्राप्य नहीं है, किंतु अनेक जनपदीय और मध्ययुगीन कवियों के संकलनों में इसका विनियोग द्रष्टव्य है।

धरनीदास : ये छपरा जिला (बिहार) के माँझी गाँव में सम्वत् १७१३ वि. में जनमे एक सन्त कवि हैं। पिता का नाम परशुराम दास था। ‘सत्य प्रकाश’ एवं ’प्रेम प्रकाश’ इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। इनकी रचनाओं में अवधी का साहित्यिक रूप उपलब्ध होता है। इनकी भाषा पर ब्रज और अन्य प्रांतीय बोलियों का प्रभाव भी पड़ा है। एक अन्य जगह इनका जन्म सं. १६३२ एवं रचनाएँ ‘प्रेमपरगास’, ‘शब्द प्रकाश’, ‘रत्नावली’ मिली हैं।

धर्मदास : ये बांधवगढ़ निवासी थे एवं कबीरदास के प्रधान शिष्यों में से एक थे। कहा जाता है। कि संवत् १५७५ में कबीर के गोलोकवासी होने पर ये ही गद्दी के उत्तराधिकारी बने थे। कबीर वाणी को ‘बीजक’ में संकलित करने का श्रेय इन्हीं को है। इनकी रचनाएँ ‘धनी धरमदास की बानी’ नाम से संकलित हैं। इन पर कबीरदास जी का प्रभाव है। किंतु इन्होंने खण्डन-मण्डन से विशेष प्रयोजन न रखकर प्रेमतत्व को ही लेकर अपनी वाणी का प्रसार किया। इनकी भाषा सरल सुस्पष्ट एवं अवधी से युक्त है। इनका जन्म सं. १५०० में तथा मृत्यु सं. १६०० में हुई थी। इनकी रचनाएँ हैं- द्वादश पंथ, निर्भय ज्ञान, कबीर ज्ञानी।

धीरदास : ये बैसवाड़ा क्षेत्र के निवासी एवं भारतेन्दु युगीन अवधी कवि रहे हैं।

धोबिया  : धोबी लोगों के जातीय गीतों को ‘धोबिया गीत’ कहा जाता है। ‘धोबिया’ गीतों को एक शैली विशेष के आधार पर गाया जाता है, इसलिए हर व्यक्ति इसको स्वर देने में समर्थ नहीं होता है। धोबिया गीत अत्यंत मार्मिक और प्रभावशाली होते हैं। आज इनका विषय जातीयता से उठकर काफी विस्तृत हो गया है। धोबिया गीतों में करुणा एवं श्रृंगार रस की बहुलता होती है।

ध्यान मंजरी : यह स्वामी अग्रदास द्वारा रचित अवधी ग्रंथ है। इसमें राम और उनके अन्य भाइयों के रूप, लावण्य एवं सरयू तथा अयोध्या नगरी के सौंदर्य का अच्छा वर्णन हुआ है।

ध्यान मंजरी : यह स्वामी अग्रदास द्वारा रचित अवधी ग्रंथ है। इसमें राम और उनके अन्य भाइयों के रूप, लावण्य एवं सरयू तथा अयोध्या नगरी के सौंदर्य का अच्छा वर्णन हुआ है।

ध्रुव-चरित्र  : मलूकदास द्वारा रचित ‘ध्रुव-चरित्र’, जैसा कि नाम से विदित होता है, ध्रुव के चरित्र को आधार बनाकर लिखा गया है। यह कृति इनके सगुण भक्त होने की पुष्टि करती है। ध्रुव-चरित्र की रचना दोहा, चौपाई में की गई है। इसकी भाषा अवधी है।

नकटा  : इसके दो नामान्तर अवध में प्राप्त होते हैं - १. नकटा, २. नकटौरा। यह लोकगीत विवाहोत्सव पर स्त्रियों द्वारा उनकी गुप्त गोष्ठी में गाए जाते हैं। नकटौरा लोकनाट्य भी है, जो विवाह हेतु वर के प्रस्थान कर जाने के बाद सूने घर में काल यापन के उद्देश्य से गाया और मंचित किया जाता है।

नखत : यह सन् १९९२ से नखत-१, नखत-२ के रूप में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण परिचयात्मक अवधी पुस्तक है, जिसके माध्यम से अधुनातन अवधी के ११ कवियों का संग्रह प्रकाशित हुआ। इसमें अवधी कविता की विभिन्न शैलियों का परिचय दिया गया है।

नजफ अली सलोनी (शाह) : शाह नजफ अली रीवाँ नरेश विश्वनाथ सिंह के आश्रय में रहते थे। कहा जाता है कि शाह नजफ अली अन्धे थे। सं. १८९० में इन्होंने ’प्रेम चिनगारी’ नामक काव्य कृति की रचना की थी, जो अवधी भाषा में है।

नंदकिशोर शाकिर : शाकिर जी का जन्म २२ अगस्त १९२० ई. को सीतापुर जनपद के महमूदाबाद कस्बे में हुआ था। ये एक क्रांतिकारी के रूप में कांग्रेस पार्टी से सम्बद्ध थे और पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के सन्निकट थे। ‘बड़कवा मुच्याटा’ आल्हा छंद में इनकी सुप्रसिद्ध रचना है। सबकार बंद, बाजार बंद, भयउ भइया कइसे मिनिस्टर आदि इनकी अवधी रचनाएँ है। २४ जून १९३१ ई. को इनका असामयिक निधन हो गया।

ननकऊ सिंह : ये रायबरेली जनपद के निवासी एक अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने ‘जंगनामा’ (अवधी काव्य) का सृजन किया है।

नन्दकुमार अवस्थी : ये रानी कटरा, लखनऊ के निवासी एवं आधुनिक अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने ‘कृतिवास रामायण’ का सन् १९५९ में बंगला भाषा से अवधी में अनुवाद सम्पन्न किया था।

नरपति व्यास : ये १९वीं शताब्दी के अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने सं. १९६२ में ‘नल दमयंती की कथा’ नामक प्रेमाख्यान का प्रणयन किया है।

नरहरि रामदासी  : नरहरि जी समर्थ संप्रदाय के संत थे। ये विक्रम सं. १७०७ से १७५७ तक वर्तमान थे। इन्होंने अवधी में स्फुट रचनाएँ की हैं।

नल चरित : इस ग्रंथ के रचयिता कोटा-नरेश कुँवर मुकुंद सिंह हैं। इसका सृजन सं. १७६८ में हुआ। इसमें अवधी शब्दावली का बाहुल्य है।

नल चरित : इस ग्रंथ के रचयिता कोटा-नरेश कुँवर मुकुंद सिंह हैं। इसका सृजन सं. १७६८ में हुआ। इसमें अवधी शब्दावली का बाहुल्य है।

नल दमन : यह ग्रंथ लखनऊ के गोवर्धन दास के पुत्र सूरदास द्वारा सं. १७१४ में प्रणीत महाकाव्य है। भाषा के रूप में पूरबी अवधी को स्थान दिया गया है। भाषा शुद्ध, सरस एवं प्रवाहयुक्त है।

नल-दमयंती की कथा : यह नरपति व्यास द्वारा रचित अवधी प्रेमाख्यान है। इसका प्रणयन सं. १९६२ के लगभग हुआ था। इस ग्रंथ में दोहा-चौपाई शैली का प्रयोग हुआ है।

नल-दमयंती-चरित : यह कवि सेवाराम जी द्वारा रचित काव्य ग्रंथ है। इसकी रचना सं. १८५३ के पूर्व हुई थी। भाषा में ग्रामीण एवं साहित्यिक अवधी का सामंजस्य है।

नल-दमयन्ती  : यह सूफी कवि ’जान’ द्वारा रचित विशुद्ध प्रेमाख्यानक काव्य है। लोक विश्रुत ‘नल दमयन्ती’ की प्रणय कथा पौराणिक है। इस कथा का भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णन अनेक ग्रन्थों में हुआ है। जान कवि ने सभी ग्रन्थों का सार लेकर अपने ढंग से इस कथा का प्रणयन किया है। इस ग्रन्थ का रचना काल हिजरी सन् १०१७ (ई. सन् १६६१) जान पड़ता है। इसकी एक प्रति हिन्दुस्तानी अकादमी प्रयाग में सुरक्षित है। कवि जान ने नल दमयन्ती कथा का प्रणयन मसनवी पद्धति पर किया है। कवि की इस रचना में सूफी सिद्धान्तों का पूर्ण निर्वाह नहीं है। इस कथा को विशुद्ध प्रेम कथा ही कहा जायेगा।

नवीन गुलछर्रा  : यह पं. मनीराम द्विवेदी रचित बैसवारी अवधी की एक कलात्मक काव्य कृति है। इसके लगभग १२ संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, जो इसकी उत्कृष्टता एवं लोकप्रियता के द्योतक हैं। ६३ पृष्ठों की इस कृति में व्यंग्य विनोद और हास-परिहास का प्राधान्य है, साथ ही कुछ कविताएँ गाम्भीर्य प्रधान भी हैं। बैसवारी भाषा की इस काव्य कृति में कुछेक कविताएँ खड़ी बोली की हैं। इस कृति में राजनीतिक छल, सामाजिक-अनाचार, भ्रष्टाचार, अनीति और दोषों के दिग्दर्शन में हास्य रस की सृष्टि हुई है साथ ही शिक्षोपलब्धि भी होती है।

नसीर  : इनका जन्म जमानिया (गाजीपुर जनपद) नामक ग्राम में हुआ था। ’नसीर’ ने उर्दू के कवि फिगार की कृति ‘इश्क नामा’ को आधार बनाकर ‘युसुफ जुलेखा’ नामक काव्य की रचना की। इस कृति का रचना काल सं. १९७४ है। इसकी भाषा पूर्वी अवधी है।

नसीरुद्‌दीन सिद्‍दीकी : रामनगर, रीवाँ निवासी सिद्दीकी जी अवधी साहित्य सेवी हैं। इन्होंने अवधी साहित्य की गरिमा बढ़ाने में पूरी निष्ठा अभिव्यक्त की है।

नहखुर  : तुलसीकृत ‘रामलला नहछू’ परम्परा का यह अवधी लोकगीत विवाहोत्सव पर वर-प्रसाधन करते हुए स्त्रियों द्वारा गाया जाता है। यथा- किन यह पोखरा खोदावा घाट बंधवावा। कहिके भरई ई कहार राम अन्हवावै रे।

नानार्थ दर्पण  : यह पं. मातादीन सुकुल की रचना है। इसमें यद्यपि प्रायः ब्रजभाषा का प्रयोग है, किंतु बीच-बीच में अवधी का भी पर्याप्त प्रयोग हुआ है। संकलन की कविताएँ विभिन्न विषयों से संबन्धित हैं। इसमें छन्दों का भी वैविध्य है।

नाभादास  : ‘भक्तमाल’ के रचयिता भक्त नाभादास का अवधी भाषा में रचित ’रामचरित्र के पद’ नामक ग्रन्थ मिलता है। शेष विवरण अप्राप्य है।

नाभादास  : ‘भक्तमाल’ के रचयिता भक्त नाभादास का अवधी भाषा में रचित ’रामचरित्र के पद’ नामक ग्रन्थ मिलता है। शेष विवरण अप्राप्य है।

नित्यनाथ  : इनका जीवन वृत्तांत अप्राप्य है। इन्होंने ‘उड्डील’ (जंत्र-मंत्र) नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया है, जिसमें अवधी भाषा का प्रयोग प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।

निरगुन  : अति प्राचीन काल से ही ‘निरगुन’ की अपनी अलग स्थापना है। भारतीय चिन्तकों ने धर्म और दर्शन को जीवन का अभिन्न अंग मानकर पर्याप्त कार्य किया है। ब्रह्म के दो रूप भारतीय जन मानस में परिव्याप्त हैं - सगुण और निर्गुण। यही निर्गुण ब्रह्म की उपासना ही निर्गुण उपासना कहलाती है। इस सन्दर्भ में जो गीत गाये गये वे निरगुन कहलाये। ये भक्ति के गीत हैं। इनका वर्ण्य विषय- ज्ञान, वैराग्य, जप-जोग आदि हैं। इन गीतों का प्रचार-प्रसार ग्राम्यांचलों में अधिक रहा है। अवधी जनकाव्य में निरगुन गीतों की विपुल राशि है।

निरमोही बाप : यह कृष्णमणि चतुर्वेदी द्वारा सृजित अवधी उपन्यास है। यह दो खण्डों में विभक्त है। शेष विवरण अप्राप्त है।

निर्जर : निर्जर जी का पूरा नाम एवं विस्तृत विवरण प्राप्त नहीं हो सका है, किन्तु इन्होंने अवधी साहित्य को जो अपनी सेवा अर्पित की है वह स्वयं में अवधी प्रेम का प्रतीक है।

निसार (शेख)  : इनका जन्म १७वीं शती में हुआ था। ये शेखपुर नामक ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम गुलाम मोहम्मद था। इन्होंने सम्वत् १७९० में ३५० युसुफ जुलेखा नामक काव्य का प्रणयन किया। युसुफ जुलेखा के अतिरिक्त मेहरनिगार, रस मनोज, दीवान आदि इनके ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं।

नीलम बालकृष्ण : रायबरेली के निवासी अवधी साहित्य के रचनाकार हैं।

नूर मोहम्मद  : इनका जन्म सं. १७७० के लगभग और मृत्यु लगभग १८३० में हुई। ये जायसी के परवर्ती हिन्दी सूफी कवि हैं। इनकी प्रेमाख्यानक काव्य कृति है - इन्द्रावती, नलदमन, अनुराग-बाँसुरी। ये कृतियाँ अवधी भाषा में सृजित हैं। इस प्रकार सन् ११५७ हि. और ११७८ हिजरी सन् के मध्य कवि ने ‘नल-दमन’ की रचना की होगी। अतएव नूर मोहम्मद का रचना काल ११०७ और ११९३ हिजरी सन् के मध्य ठहरता है। अनुराग बाँसुरी के सम्पादक डॉ. चन्दबली पाण्डेय के अनुसार इनका निवास स्थान सबरहद शाहगंज जौनपुर था। यह सबरहद गाँव जौनपुर जिले के शाहगंज तहसील में स्थित है, किन्तु यहाँ इसके पूर्व किसी नसीरुद्दीन का स्थान होने की सूचना नहीं है। श्री चन्द्रबली पाण्डेय की एक और मान्यता है कि कवि अपने अंतिम दिनों में फूलपुर, आजमगढ़ में रहने लगे थे। यहीं इनकी ससुराल थी। ये कट्टर मुसलमान तथा शिया सम्प्रदाय से सम्बद्ध थे। इन्होंने अपनी रचना में इसके पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत किये हैं।

नेताजी कहिन : यह मनोहरश्याम जोशी कृत अवधी प्रधान उपन्यास है।

नौकरी की झाड़-झोंका : यह पं. वंशीधर शुक्ल कृत अवधी कहानी है, जिसका सृजन सन् १९५४ में हुआ था। इसका प्रकाशन ‘स्वतंत्र भारत’ दैनिक पत्र में हुआ था।

न्यू टेस्टामेंट : यह एक अनूदित कृति है। इसमें ब्रिटिश म्यूजियम रायपुर में सुरक्षित बाइबिल का अनुवाद सन् १८१८ में प्रस्तुत किया गया है, जिसमें अन्य क्षेत्रीय बोलियों के साथ-साथ अवधी भाषा का पर्याप्त प्रयोग हुआ है।

न्यू टेस्टामेंट : यह एक अनूदित कृति है। इसमें ब्रिटिश म्यूजियम रायपुर में सुरक्षित बाइबिल का अनुवाद सन् १८१८ में प्रस्तुत किया गया है, जिसमें अन्य क्षेत्रीय बोलियों के साथ-साथ अवधी भाषा का पर्याप्त प्रयोग हुआ है।

पं. गयाप्रसाद तिवारी ‘मानस’  : तिवारी जी का जन्म ८ जनवरी सन् १९२१ ई. को कानपुर निवासी पं. सदाशिव तिवारी एवं श्रीमती शिवदुलारी दम्पति के घर हुआ। सम्‍प्रति ३७२, राजेन्द्र नगर, लखनऊ के निवासी बन गये हैं। शिक्षा ग्रहण करने के बाद उ.प्र. सचिवालय में कार्यरत हो गये। ३१ जनवरी १९७९ को उप सचिव के पद से सेवानिवृत्त हुए। इन्होंने खड़ी बोली, ब्रज भाषा के साथ-साथ अवधी भाषा में भी काव्य सृजन किया। इनकी रचनाएँ हैं - मानद विनयावती, ब्रज विहार, मानस काव्य तरंगिणी, मनुआ मगन मगन है चोला, दोहा, गीत भी इन्होंने लिखे हैं। ये ‘काव्यश्री’ उपाधि से सम्मानित भी किये गये हैं।

पं. बेनीमाथव पाण्डेय ‘व्यास’ : ये ख्यातिप्राप्त साहित्यकार हैं। इन्होंने जीवन भर अवधी साहित्य की सेवा की जिसका विवरण तो प्राप्त नहीं है, किंतु इतना अवश्य है कि इन्होंने अनेक बार मंचों पर काव्य-पाठ किया। पत्रिकाओं में भी प्रतिष्ठित हुए।

पं. बेनीमाथव पाण्डेय ‘व्यास’ : ये ख्यातिप्राप्त साहित्यकार हैं। इन्होंने जीवन भर अवधी साहित्य की सेवा की जिसका विवरण तो प्राप्त नहीं है, किंतु इतना अवश्य है कि इन्होंने अनेक बार मंचों पर काव्य-पाठ किया। पत्रिकाओं में भी प्रतिष्ठित हुए।

पं. भगवती प्रसाद त्रिवेदी ‘करुणेश’ : त्रिवेदी जी का जन्म लखनऊ जनपद की तहसील मोहनलाल गंज के ग्राम गढ़ी असली में सन् १९०५ ई. में हुआ था। इनकी १२ वर्ष की अल्पावस्था में ही इनके पिता पं. तेजकृष्ण त्रिपाठी का निधन हो गया। शिक्षा ग्रहण करने के बाद ये सन् १९३९ ई. में कान्यकुब्ज वोकेशनल (बप्पा श्रीनारायण) कालेज, लखनऊ में काष्ठकला के अध्यापक हो गये। इन्होंने अवधी के अतिरिक्त ब्रज, उर्दू एवं खड़ी बोली में भी काव्य सृजन किया है। इनकी रचनाएँ हैं- ‘मुच्छोपमा’, जल्दी चुरौ दाल महरानी’, पद्य प्रवाह (सन् १९२८), अधर बल्लभा (सन् १९४२), चीन को चुनौती (सन् १९६२), राष्ट्रीय ऐक्य का स्वर संगम (सन् १९८४)। इसके अतिरिक्त इनकी अप्रकाशित दर्जनों कृतियाँ है।

पं. भवानी भीख त्रिपाठी ‘दिव्य’ : इनका जन्म १८९५ में मालीपुर, फैजाबाद में हुआ था। ये मूलतः ब्रजभाषा और खड़ी बोली के कवि हैं। किन्तु अवध वासी होने के नाते इन्होंने अवधी में भी काव्य सृजन किया है। इनकी अवधी रचनाएँ हैं- ‘अवधी की विशेषताएँ’, ‘तुलसी चउरा’, ‘सरयू’ तथा ‘अवधी’।

पं. मनीराम द्विवेदी ‘नवीन’  : ‘नवीन’ जी का अवधी (बैसवारी) साहित्य में उत्कृष्ट स्थान है। ये द्विवेदी युग के कवि हैं। इनका जन्म जनपद उन्नाव (बैसवारा) के नैकामऊ ग्राम में पौष बदी सप्तमी वि. सं. १९६२ को हुआ था। नैकामऊ ग्राम निराला एवं महावीर प्रसाद द्विवेदी के गाँवों से क्रमशः १० व १३ किमी. के अन्तराल पर उपस्थित है। ’नवीन’ जी में काव्य प्रतिभा नैसर्गिक थी। ये जन्मजात कवि थे। इनकी काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर कवि सम्राट आचार्य गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ जी इन्हें कविवर लिखते रहे। साथ ही इनकी रचनाओं को ‘सुकवि’ में छापते रहे। नवीन जी काव्य का प्रारम्भ समस्यापूर्ति से किया। कलकत्ता में इन्होंने ’बैसवार सेवक संघ’ की संस्थापना की। नवीन जी ने खड़ी बोली ब्रज तथा ब्रजावधी, बैसवारी में कवितायें लिखी हैं। इनकी भाषा में भावसम्प्रेषण की अभूतपूर्व क्षमता है। इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं - नवीन बीन, नवीन गुलछरें, नवीन बापू गौरव, नवीन चिनगारी, नवीन कीर्तन प्रथम, नवीन समाज विप्लव, नवीन भ्रष्टाचार, नवीन फाग-संग्रह, नवीन कीर्तन पीयूष, नवीन कीर्तन कुंज, नवीन भक्ति सरोवर, नवीन रणभेरी, नवीन पंचामृत, एक महात्मा का जीवन चरित, नवीन शिव विनय। इनकी कृतियों में युगीन स्वर को स्वर मिला है। काव्य में राष्ट्रीयता का पुट है। सामाजिक विकृतियों पर निर्भीकतापूर्वक जीहाद किया है।

पं. रामकुमार मिश्र ‘घोंघा’ : मिश्र जी का जन्म सन् १९३५ ई. में लखनऊ जनपद के गोसाईगंज कस्बे में हुआ था। सिद्धेश्वर साहित्य संस्थान गोसाईगंज के ये संस्थापक एवं संरक्षक हैं। इस संस्था के माध्यम से मिश्र जी आस-पास के कई जनपदों के उदीयमान कवियों को कवि-कर्म के प्रति प्रेरित कर रहे हैं। राष्ट्रीय भावधारा की कविताओं (खड़ी बोली) के लेखन में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हुए भी हास्य एवं व्यंग्य (अवधी) के क्षेत्र में श्री मिश्र जी ने विशेष ख्याति प्राप्त की है। ये रामपाल त्रिवेदी इंटर कालेज में अंग्रेजी विषय के प्रवक्ता पद पर कार्यरत होने के बावजूद हिन्दी कविता के प्रति विशेष अनुराग रखते हैं। मिश्र जी अनेक सामाजिक संस्थाओं के प्राण एवं प्रेरणास्रोत हैं। इन्होंने गीत, छंद, मुक्तक, लोकगीत, गजल जैसी सभी साहित्यिक विधाओं में सफल काव्य संरचना की है। इन्होंने रामलीला, नाटक, एकांकी आदि का भी सफल लेखन किया है। कविकर्म के साथ-साथ ये एक अच्छे अभिनेता एवं कुशल नाट्य निर्देशक भी रहे हैं।

पं. रामनाथ ‘ज्योतिषी’ : इनका जन्म रायबरेली जनपद के भैरमपुर गाँव में सन् १८७४ में हुआ था। इन्होंने अपने ग्रंथ ‘राम तिलकोत्सव’ की दसवीं कला (अध्याय) में अवधी के बरवै छंद का प्रयोग किया है। इनका देहावसान सन् १९४३ में हुआ।

पं. रामनाथ शर्मा ज्योतिषी  : इनका समय १९५३ ई. है। ये चंदनिहा ग्राम तहसील डलमऊ, जिला रायबरेली के निवासी थे। इनके पिता का नाम प्रयागदत्त शर्मा था। इनकी वेशभूषा साधुओं की सी थी। ये संगीताचार्य, व्याकरणाचार्य तथा सर्वाधिक ज्योतिषी के रूप में लोकप्रिय एवं चर्चित थे। ये चित्रकला के भी अच्छे ज्ञाता थे, राधाकृष्ण के अनन्य भक्त थे और राधा भाव के माधुर्योपासक कवि एवं संगीतज्ञ भी। उन्हीं से सम्बद्ध कवित्त रचते थे और राधा कृष्ण का आकर्षक मोहक चित्र तैयार करते थे। ये खड़ी बोली तथा ब्रज भाषा में साहित्य रचते थे। कवितायें छंदोबद्ध होती थीं। इनकी मुख्य रचनायें हैं - १- लालित्य-पद कुसुमाकर, २- राधिका विरहानल, ३- उषाविलास, ४-श्री कृष्णतत्व निरूपण निकुंज, ५- स्वराज्य कुंज, ६- प्रेमामृत तरंगिणी, ७- श्री राधा प्रमाण कुसुमांजलि।

पं. शिवराम मिश्र ‘मस्तराम’ : मस्तराम जी का जन्म रायबरेली जनपद के नकफुलहा गाँव में सन् १९०३ में हुआ था। इनकी कविताएँ अधिकतर हास्य-व्यंग्य से ओत-प्रोत हैं। इनकी भक्ति प्रधान रचनाओं में अवधी का सशक्त रूप परिलक्षित होता है। सन् १९४६ में इनका असामयिक निधन हो गया।

पंच रामायण : यह सन् १९५१ में सृजित श्री सुमेर सिंह भदौरिया जी की अवधी कृति है।

पंचनामा : यह टोडरमल कृत १७वीं शती की पद्यबद्ध रचना है। इसमें अवधी का प्रारम्भिक रूप से स्पष्ट रूप से झलक उठा है।

पंचम : ये रायबरेली जनपद में स्थित डलमऊ क्षेत्र के निवासी रहे हैं। भारतेन्दुयुगीन अवधी कवियों में इनका महत्वपूर्ण स्थान है।

पतितदास : ये बैसवारा क्षेत्र के गिरधरपुर के निवासी थे। इन्होंने अवधी गद्य में दो ग्रन्थ- वैद्यक कल्प, सर्वग्रंथोक्ति लिखा था, जो आयुर्वेद विषयक ग्रंथ सिद्ध हुए।

पंथक गीत  : मार्ग में चलती हुई, विशेषतः मेले-ठेले में जाती हुई स्त्रियाँ सामूहिक रूप से इस अवधी लोकगीत का गायन करती हैं, जिससे यात्रा-श्रम का परिहार होता है, मनोरंजन होता है और पुण्य स्मरण भी। इसमें राम-वन गमन के कई प्रसंग प्राप्त होते हैं।

पद विचार : यह संत अहमकशाह द्वारा रचित अवधी गद्य कृति है। इसमें जीव, जगत, माया, ब्रह्म, गुरू, संत-असंत आदि का बड़ा ही तात्त्विक विवेचन हुआ है।

पदमावत  : यह हिन्दी का श्रेष्ठ सूफी प्रेमाख्यानक महाकाव्य है। इसके रचयिता मलिक मोहम्मद जायसी हैं। इसकी रचना पूर्वी अवधी भाषा में हुई है। प्रेमगाथाओं की परम्परा में अत्यधिक महत्वपूर्ण पदमावत महाकाव्य में सिंहल के राजा गन्धर्व सेन की पुत्री पदमावती तथा चित्तौड़गढ़ के राजा रत्नसेन की प्रेमकथा वर्णित है। इस कथा में इतिहास और कल्पना का अद्भुत समन्वय है। इसमें सूफी सिद्धान्तों का निर्वाह हुआ है। लौकिक प्रेम के आधार पर आध्यात्मिक प्रेम की व्यंजना की गई है। कवि ने समस्त कथा को रूपक में बाँधने का प्रयत्न किया है। कवि के इस प्रयास में रहस्यवादी प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। इसमें वेदांत की अद्वैत भावना, हठयोग आदि हिन्दू धर्म की बातों का समावेश है साथ ही विदेशी प्रभाव भी स्पष्ट है। पदमावत-दोहा-चौपाई पद्धति को अपनाकर ठेठ अवधी भाषा में लिखा गया काव्य है। इसमें लोक जीवन के बहुरंगी चित्र निरूपित हुये हैं। इसमें लोकभाषा अवधी का सौन्दर्य देखने योग्य है।

पन्नगेश जी : ये अयोध्या के निवासी एवं सुविख्यात अवधी रचनाकार हैं।

पयपुजी  : विवाह के अवसर पर कन्यादान देते समय पैर पूजने के समय का यह गीत विशेषतः अवधी लोक गीतों में महत्वपूर्ण है। स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले इस गीत में समर्पण एवं करुणा का भाव जीवन्त हो उठता है।

पयपुजी  : विवाह के अवसर पर कन्यादान देते समय पैर पूजने के समय का यह गीत विशेषतः अवधी लोक गीतों में महत्वपूर्ण है। स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले इस गीत में समर्पण एवं करुणा का भाव जीवन्त हो उठता है।

परछन/परछनि  : पुत्र-विवाह में बारात प्रस्थान तथा वधू-आगमन के समय की यह एक लौकिक रीति है। परछन चौमासे खेत में होता है। वहीं कुआँ पूजा जाता है। इस समय माँ अपने पुत्र का मातृ-ऋण का स्मरण दिलाती है। इसी भाव को सम्मूर्तित करने वाला अवधी गीत परछनि नाम से अभिहित है। इसका गायन स्त्रियाँ ही करती हैं। इसे स्वागत गान का पूर्व रूप भी कहा जा सकता है।

परमसुख कायस्थ : ये आधुनिक युग के उरई निवासी अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने ‘सिंहासन बत्तीसी’ नामक अवधी ग्रंथ का प्रणयन सं. १९०५ में किया था।

परमात्मादीन : ये बैसवारा क्षेत्र के १९वीं शताब्दी के अवधी रचनाकार हैं।

परमानंद जड़िया : जड़िया जी का जन्म सं. १९८३ में ५१, खत्रीटोला मशकगंज, लखनऊ में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री बैजनाथ जड़िया था। ये खड़ी बोली (गद्य-पद्य), ब्रजभाषा (काव्य), अंग्रेजी (काव्य) के साथ संस्कृत के भी अच्छे जानकार हैं। इन्होंने चार महाकाव्य प्रणीत किये हैं। ये मूलतः परम्परावादी एवं भक्त कवि हैं। इनकी रचनाएँ हैं- प्रेम प्रदीप (बालकाव्य), मारुतिमहिमा (हनुमान भक्ति काव्य), राम रसायन (राम काव्य), अन्तर्ध्वनि एवं दर्पण। ‘न्यूज इन वर्स’ (अंग्रेजी कविताओं का संकलन)। ’वीर अर्जुन’ नामक अवधी महाकाव्य का प्रणयन करके जड़िया जी ने अवधी साहित्य क्षेत्र में धाक जमा दी है।

परमेश : बैसवाड़ा क्षेत्र के निवासी परमेश जी भारतेन्दु युगीन अवधी कवि हैं। इनका साहित्य अभी अप्रकाशित है।

परिहास प्रमोद  : यह महाकवि शिवरत्न शुक्ल ‘सिरस’ रचित हास्य विनोदपूर्ण एक गद्य-पद्यात्मक कृति है। कविताएँ प्रायः ब्रजावधी में लिखी गई हैं, जिनमें स्थानिक प्रयोगों का भी पुट है।

पलटू साहब  : इनका समय अनुमानतः सं. १८२७ के लगभग है और जन्म स्थान फैजाबाद जिले का नागपुर अलालपुर नामक ग्राम है। इनके गुरू का नाम गोविंद साहब था, जो भीखा के शिष्य थे। इन्होंने अवधी में पदों, साखियों की रचना की है।

पवन सुल्तानपुरी : सुल्तानपुर निवासी पवन जी एक उच्चकोटि के अवधी साहित्यकार हैं।

पँवारी  : लोक-साहित्य की एक विधा है- लोक गाथा। ये कथात्मक गीत होते हैं। इनमें कथानक का सम्पूर्ण विकास मिलता है। अत्यधिक लम्बे होने के कारण ये लोकगाथायें ही अवधी क्षेत्र में पँवारा कहलाते हैं। ‘पँवारा’ शब्द का अर्थ ही है वर्णन विस्तार के साथ गायी जाने वाली लम्बी कथा। चर्चित लोकप्रिय पँवारे हैं - शिव-पार्वती, धानू भगत, राजा भरथरी, श्रवण कुमार, चन्द्रावली, लोरिकी, चनैनी, रसोलिया, इन्द्रपरी का छलावा, पँवारा जानकी जी का। इनसे महाकाव्य अथवा खण्डकाव्य जैसा आनंद प्राप्त होता है। इनमें प्रमुख पात्र का सम्पूर्ण चरित्र चित्रित हुआ है।

पहलवानदास : ये रायबरेली जनपद के भीखीपुर क्षेत्र के संत परम्परा के कवि हैं। इनका जन्म सं. १७७६ में हुआ था। इन्होंने अवधी भाषा में ‘उपखान विवेक’ नामक ग्रंथ का प्रणयन किया है।

पारसनाथ भ्रमर  : इनका जन्म सन् १९३० ई. में मोहल्ला ब्रह्मपुरी नगर बहराइच में हुआ था। सन् १९५० के आसपास से भ्रमर जी कवि सम्मेलन में दिखाई पड़ने लगे थे। आगे चल कर मंचीय कवि के रूप में वे लोकप्रिय हुए। अवधी में अत्यन्त सुन्दर लोकगीत लिखने के साथ-साथ खड़ी बोली में भी गीत और गज़ल लिखे हैं। सन् १९८० में ये विरक्त (संन्यासी) हो गए। स्वामी के रूप में नया नाम स्वामी ’नादान्ताद्वैतघन’ हो गया। इनकी काव्य धारा में परिवर्तन आया और ये भजन लिखने लगे जो बड़े हृदयस्पर्शी हैं। भ्रमर जी की अवधी की रचनायें हैं- अरहर के ख्यातन मा आय गईं फलियाँ। ‘आयेउ रे फगुनवा बहुरि मोरे अँगना, काह कही कछु कहत न आवै, साहब, कउन मोर यह बन्दा, राम-दोहाई, मनुवा रोजु करै मनमानी, देखउ देखन जोग तमासा, अइसन ब्याह न देखन माई’ इत्यादि ‘सुरतिमई’ नाम से इनका अवधी काव्य-संकलन प्रकाशित है।

पारसनाथ भ्रमर  : इनका जन्म सन् १९३० ई. में मोहल्ला ब्रह्मपुरी नगर बहराइच में हुआ था। सन् १९५० के आसपास से भ्रमर जी कवि सम्मेलन में दिखाई पड़ने लगे थे। आगे चल कर मंचीय कवि के रूप में वे लोकप्रिय हुए। अवधी में अत्यन्त सुन्दर लोकगीत लिखने के साथ-साथ खड़ी बोली में भी गीत और गज़ल लिखे हैं। सन् १९८० में ये विरक्त (संन्यासी) हो गए। स्वामी के रूप में नया नाम स्वामी ’नादान्ताद्वैतघन’ हो गया। इनकी काव्य धारा में परिवर्तन आया और ये भजन लिखने लगे जो बड़े हृदयस्पर्शी हैं। भ्रमर जी की अवधी की रचनायें हैं- अरहर के ख्यातन मा आय गईं फलियाँ। ‘आयेउ रे फगुनवा बहुरि मोरे अँगना, काह कही कछु कहत न आवै, साहब, कउन मोर यह बन्दा, राम-दोहाई, मनुवा रोजु करै मनमानी, देखउ देखन जोग तमासा, अइसन ब्याह न देखन माई’ इत्यादि ‘सुरतिमई’ नाम से इनका अवधी काव्य-संकलन प्रकाशित है।

पारिजात  : मृगेश जी द्वारा रचित अवधी का यह प्रबन्ध-काव्य है। यह पन्द्रह सर्गों में विभक्त है। इसका कथानक महाभारत से सम्बद्ध है। इसमें पांडवों का वनवास, अज्ञातवास आदि प्रसंग रोचक ढंग से वर्णित हैं। इस महाकाव्य का नायक पारिजात वृक्ष है। इसका प्रकाशन १९८० ई. में हुआ है। यह एक विशाल प्राचीन वृक्ष रत्न है, जो उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के अन्तर्गत घाघरा नदी के तट पर स्थित है। यह विश्व का अनुपम वृक्ष मात्र बाराबंकी में ही है। ‘पारिजात’ का उल्लेख मात्र पुराणों में मिलता है। किन्तु इतिहास पुराण ग्रन्थ कुछ स्पष्ट इसके विषय में नहीं कहते। हाँ, बाराबंकी जिले में एक लोक-कथा अवश्य प्रचलित है - लाक्षागृह में आग लगने पर किस प्रकार पांडव एक सुरंग द्वारा यहाँ पहुँचे, तथा अर्जुन ने नन्दन कानन से किसी प्रकार पारिजात की एक डाल लाकर यहाँ लगा दी। इस प्रबन्ध-काव्य में परम्परा से प्रचलित कथा को मूर्तरूप देने के लिये कवि ने अनेक नवीन उद्भावनायें की हैं। यह महाकाव्य लोकसंस्कृति का अक्षय कोष है। पारिजातकार अपनी संस्कृति का उपासक है। ‘पारिजात’ आस्था विश्वास और आस्तिकता का काव्य है। लोक-जीवन और लोक-प्रकृति के बड़े संश्लिष्ट बिम्ब इस रचना में उतरे हैं। ग्राम्य प्रकृति का संश्लिष्ट बिम्ब इसमें दर्शनीय है। करुण, वात्सल्य रस से भी पारिजात परिपूर्ण है। इसमें भक्ति भावना का सफल निर्वाह हुआ है। ‘पारिजात’ का एक वैशिष्ट्य यह है कि इसमें प्राचीन कथा के साथ ही आधुनिकता बोध भी है। इस काव्य ग्रन्थ की अवधी बैसवारी के सन्निकट है। इसमें संस्कृत की कोमलकांत पदावली है। ओज प्रसाद और माधुर्य गुण युक्त भाषा में सरस प्रवाह है। लोकोक्तियों मुहावरों के प्रयोग से यह शक्तिमान है। अलंकारों का भी सहज स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। इसमें लोकशैली के छन्दों - आल्हा, कहरा, रसिया, बिदेसिया, सवैया, घनाक्षरी आदि का प्रयोग हुआ है। सुप्रसिद्ध समालोचक डॉ. भगीरथ मिश्र ने इसे ‘लोक-काव्य’ कहा है। मृगेश जी का लोक महाकाव्य ‘पारिजात’ अवधी काव्य साहित्य में उच्च स्थान रखता है. साथ ही आगामी महाकाव्यों के पथ प्रदर्शन का सामर्थ्य भी।

पीतर  : मांगलिक आयोजनों पर पूर्वजों का आह्वान करते समय ये अवधी लोकगीत सुरुचिपूर्वक गाये जाते हैं। इनमें वंशावली सुरक्षित रहती है।

पीपरि : यह एक लोकगीत है। इसमें जच्चा को उसकी जेठानी द्वारा प्रसवकाल से लेकर छठी के दिन तक पीपरि नामक ओषधि पीसकर दी जाती है और इसी से सम्बद्ध गीत को ‘पीपरि गीत’ कहते हैं।

पुं. रामप्रसाद पाण्डेय द्धिजदीन’ : ये सुल्तान्पुर जिले के निवासी एवं अवधी साहित्यकार रहे हैं। इन्होंने राम-कथा को आधार बनाकर ’राग रामायण’ नामक अवधी कृति का सृजन किया है।

पुरबी  : अवध प्रदेश के पूर्वांचल से आई हुई यह गेय शैली अपनी मधुरिमा के लिए विशेष प्रसिद्ध है। संभवतः अवध के पूर्वी जिलों में इसका पहले प्रसार रहा होगा, इसीलिए इसका नाम पुरबी पड़ा। अवधी लोक जीवन में पुरबी का प्रयोग अत्यधिक मात्रा में मिलता है। भाषा को अधिक मृदु बनाने के लिए कहीं-कहीं भोजपुरी शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। इसमें वियोग श्रृंगार के चित्र अधिक प्राप्त होते हैं। पावस, प्रकृति, प्रवास-विरह और विरहिणी नायिका इसके मूल विषय हैं। संप्रति पुरबी गीतों में सामाजिक भ्रष्टाचार और राष्ट्रीय नियोजन का स्वर भी सुनाई देता है। यह अब एक छंद विशेष हो चला हैं, जिसमें विविध विषयों का लेखन हो रहा है।

पुरुषोत्तम  : पुरुषोत्तम जी अयोध्या के पास दादर नगर के रहने वाले थे। इनके पिता का नाम क्षेमानंद था। ये जाति के ब्राह्मण थे। इन्होंने अवधी भाषा में ’धर्मास्वमेध’ नामक कृति का प्रणयन सं. १५५८ (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) में किया था।

पुरेन्द्रपाल सिंह : पुवायाँ, शाहजहाँपुर निवासी सिंह साहब अवधी कवि हैं। इनकी रचनाएँ बड़ी ही उत्कृष्ट एवं प्रासंगिक हैं।

पुष्पेन्दु जैन : इनका जन्म लखनऊ शहर के यहियागंज मुहल्ले में सन् १९१४ ई. में एक मध्यवर्गीय जैन परिवार में हुआ था। ये आर्थिक तंगी के कारण अधिक शिक्षा नहीं प्राप्त कर सके, फिर भी स्वाध्याय एवं परिश्रम के बूते हाईस्कूल पास कर अध्यापन कार्य करने लगे। छोटे-मोटे व्यवसायों को इन्होंने चलाते हुए अपना लेखन कार्य शुरू किया। ‘बसंत बहार’ इनकी कविताओं का संकलन है, जो प्रकाशित हो चुका है। इसमें ८० गीत, छंद एवं गजलें संकलित हैं। इनकी अवधी रचना ‘घास’ अति श्रेष्ठ है। अल्पावस्था में ही २९ मई १९६३ को इनका देहावसान हो गया।

पुहकर : ये १७वीं शताब्दी के हिन्दी प्रेमाख्यानकार हैं। अपने आख्यानों में इन्होंने पश्चिमी अवधी को माध्यम भाषा बनाया है। ‘रसरतन’ इनका हिन्दी प्रेमाख्यान है, जिसका रचनाकाल सं. १६७५ है।

पुहुपावती  : ‘पुहुपावती’ अवधी का विशुद्ध प्रेमाख्यानक काव्य है। इसके रचयिता हुसैन अली हैं। इस ग्रन्थ में इन्होंने अपना उपनाम सदानन्द रखा है। इस ग्रन्थ का रचना काल सम्भवतः हि. सन् ११३८ है। ‘पुहुपावती’ काशीपुर नरेश लालसाहि के पुत्र मानिकचंद तथा जम्मूद्वीप में रूप नगर के नरेश पदुमसेन की पुत्री पुहुपावती, (जो पदमिनी जाति की है) की प्रणय-कथा है। प्रेमाख्यानों की परम्परा में प्राप्त यह कथा सर्वथा काल्पनिक है। हुसैनअली कृत पुहुपावती की खण्डित प्रति ही मिली है। यह सीधी सादी प्रेम-कथा है। सूफी प्रेमाख्यान की भाँति इसमें मसनवी पद्धति का पूर्ण अनुसरण नहीं हुआ है। प्राप्त पाण्डुलिपि (अपूर्ण) के आधार पर कथा सुखांत है। श्रृंगार रस पूर्ण इस काव्य में श्रृंगार के दोनों पक्षों संयोग और वियोग का चित्रण हुआ है। इसकी भाषा मूलतः अवधी है, किन्तु साथ ही ब्रजभाषा का भी प्रयोग है। भाषा बोलचाल की सरल और बोध गम्य है। दोहा-चौपाईं छन्दों में ग्रन्थ का प्रणयन है। नौ अर्द्धलियों के बाद एक दोहे का क्रम है।

पुहुपावती : यह मलूकदास के शिष्य दुःखहरनदास द्वारा रचित अवधी प्रेमाख्यान है। इसका प्रणयन सं. १७२६ में हुआ था। इस रचना में राजपुर के प्रजापति के पुत्र और अनूपगढ़ के राजा अंबरसेन की पुत्री पुहुपावती की प्रणयकथा वर्णित है।

पुहुपावती : यह मलूकदास के शिष्य दुःखहरनदास द्वारा रचित अवधी प्रेमाख्यान है। इसका प्रणयन सं. १७२६ में हुआ था। इस रचना में राजपुर के प्रजापति के पुत्र और अनूपगढ़ के राजा अंबरसेन की पुत्री पुहुपावती की प्रणयकथा वर्णित है।

पेरी  : यह एक लोक गीत है। मांगलिक आयोजनों पर गृहिणी, जो पीत वस्त्र (पेरी) धारण करती है, उसके उपलक्ष्य में इस अवधी लोकगीत का गायन किया जाता है।

प्रताप नारायण मिश्र  : मिश्र जी का जन्म बैजेगाँव, जिला उन्नाव में सन् १८५६ में हुआ था। कालांतर में ये कानपुर आ गए, जहाँ इनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। मिश्र जी स्वभावतः मनमौजी थे इसलिए व्यवस्थित रूप से ये अध्ययन या जीवनयापन में नहीं प्रवृत्त हुए। इन्हें संस्कृत, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी और बंगला का पर्याप्त ज्ञान था। लावनी के ये शौकीन थे,। साथ ही ख्याल के भी। इन्होंने पारसी थियेटर के विरोध में अपना रंगमंच खड़ा किया। मिश्र जी ने ‘ब्राह्मण’ नामक पत्र का वर्षों तक सम्पादन किया और कविता, निबंध, नाटक तथा कई स्फुट कृतियाँ प्रस्तुत कीं। ब्रजभाषा की समस्यापूर्ति में ये बड़े पटु थे। अपनी सामयिक राजनीतिक परिस्थितियों से सम्बद्ध होने के कारण इन्होंने अवधी को भी अपना माध्यम बनाया। मिश्र जी की अवधी कविता का उत्कृष्ट रूप है इनके द्वारा रचित लोकाख्यान आल्हा। ३९ वर्ष की अल्पायु में मिश्र जी का देहावसान हो गया।

प्रभुदयाल वैद्य : वैद्य जी हरदोई जनपद के मझिला क्षेत्र के निवासी एवं प्रसिद्ध अवधी साहित्यकार रहे हैं।

प्रभुनाथ शास्त्री : प्रभु जी ने पर्याप्त साहित्य सर्जना की है। उस सृजन में अवधी साहित्य को भी पर्याप्त स्थान मिला है अतः अवधी साहित्य-सेवा में इनका स्थान महत्वपूर्ण है।

प्रयागदत्त : द्विवेदी युगीन अवधी काव्यधारा को जीवनदान देने वाले कवियों में इनका विशेष योगदान है।

प्राचीन अवधी : डॉ. रमानाथ त्रिपाठी द्वारा लिखित यह महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसमें अवधी के प्रारम्भिक स्वरूप का उद्घाटन हुआ है।

प्राणचन्द चौहान  : प्राणचन्द ने सन् १६१० ई. में अवधी भाषा में ’रामायण महानाटक’ नामक ग्रन्थ की रचना की। ‘रामायण महानाटक’ तुलसीदास के महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ वाली दोहा-चौपाई शैली में लिखा गया है।

प्राणदास  : प्राणदास दादूदयाल के शिष्य थे, जो गृहस्थाश्रम में निरन्तर साधनारत रहे। इनका देहावसान सं. १६८८ में हो गया था। इनकी कई अवधी साखियाँ मिलती हैं।

प्राणनाथ  : प्राणनाथ बैसवाड़ा के ब्राह्मण थे। ये सुमेरपुर, उन्नाव के निवासी थे। इनकी उपस्थिति १८५८ वि. में थी। इनकी कृतियाँ हैं - ‘चक्रव्यूह’, ‘बभ्रुवाहन’, ‘जीवननाथ कला’। ‘चक्रव्यूह’ का प्रणयन-काल सं. १८५० और बभ्रुवाहन का सं. १८६८ रहा है। ये अपनी कविताओं में अपना उपनाम ‘जनकवि’ लिखते थे।

प्राणनाथ  : प्राणनाथ बैसवाड़ा के ब्राह्मण थे। ये सुमेरपुर, उन्नाव के निवासी थे। इनकी उपस्थिति १८५८ वि. में थी। इनकी कृतियाँ हैं - ‘चक्रव्यूह’, ‘बभ्रुवाहन’, ‘जीवननाथ कला’। ‘चक्रव्यूह’ का प्रणयन-काल सं. १८५० और बभ्रुवाहन का सं. १८६८ रहा है। ये अपनी कविताओं में अपना उपनाम ‘जनकवि’ लिखते थे।

प्रियादास  : ‘व्यवहार पाद’ नामक ग्रन्थ इनके द्वारा प्रणीत है, जिसमें अवधी का गद्य रूप प्रयुक्त हुआ है। इनकी अवधी ठेठ देशज तथा बोलचाल की भाषा है।

प्रेम-पुराण : यह पं. प्रतापनारायण मिश्र द्वारा प्रणीत अवधी लघु कथा हैं। इसमें दोहा, चौपाई, छंदों का प्रयोग हुआ है। यह कथा एक तपस्वी, नारद तथा विष्णु के संवादों के माध्यम से सम्पन्न हुई हैं। इसमें ईश्वर प्राप्ति के लिए ज्ञान, योग, यज्ञ, तप, व्रत, नियम आदि की अपेक्षा दृढ़ प्रेम को अपनाने की प्रेरणा दी गयी है।

प्रेमनारायण दीक्षित : इनका जन्म उन्नाव जिले के मौरावाँ ग्राम में हुआ था। इन्होंने एम.ए., एल.एल.बी. तक शिक्षा ग्रहण की। अवधी साहित्य के प्रति निष्ठा रखते हुए ‘बैसवाड़ा के अवधी कवियों का वृत्तांत’ नामक ग्रंथ के सृजन का कार्य शुरू किया, किन्तु सन् १९४५ में असामयिक निधन होने से यह कार्य अधूरा रह गया था, जिसे बाद में पूरा किया गया है।

प्रेमप्रकाश वर्मा : इनका जन्म सन् १९३० में बिहार राज्य में हुआ था। इनका पूर्वनाम प्रो. फूलन प्रसाद वर्मा था। इन्होंने रामचरित मानस के आधार पर १९६९ ई. में आयोजित गांधी शताब्दी समारोह के अवसर पर ‘गांधीचरितमानस’ नामक अवधी काव्य का सृजन किया, जिसे विद्वानों ने महाकाव्य की संज्ञा से विभूषित किया है।

प्रेमरत्न : यह रत्नकुँवरि बीवी कृत अवधी काव्य ग्रंथ है। इसका प्रणयन सं. १८५७ में हुआ था।

प्रेमलता जी : ये आधुनिक युग की भक्ति परम्परा से सम्बद्ध अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने अवधी भाषा के माध्यम से रामभक्ति शाखा के रसिकोपासना के सिद्धांतों पर आधारित ’वृहत उपासना रहस्य’ नामक ग्रंथ प्रणीत किया था। इनका जीवन काल सन् १८७१ से १९४० ई. तक रहा।

प्रो. राजेन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव : ये सिविल लाइन्स, बहराइच (उ.प्र.) के निवासी हैं। इन्होंने ‘अवधी भाषा एवं साहित्य का इतिहास’ नामक शोधपरक पुस्तक अवधी साहित्य को समर्पित कर अवधी भाषा के इतिहास लेखन को आगे बढ़ाया है। इस पुस्तक का प्रकाशन २ अक्टूबर सन् १९९३ ई. को हुआ। ये सम्प्रति किसान स्नातकोत्तर महाविद्यालय बहराइच के हिन्दी-विभागाध्यक्ष हैं।

प्रो. राम अकबाल त्रिपाठी ’अंजान’ : फैजाबाद निवासी अंजान जी अवधी भाषा के स्थान प्राप्त कवि हैं।

फकीरादास : इनका जन्म बहराइच जनपद के नरोत्तमपुर ग्राम में सं. १८२७ वि. की अषाढ़ शुक्ल पक्ष पंचमी को हुआ था। आज भी उस ग्राम में स्थित गद्दी इसका प्रमाण है। उक्त तिथि पर यहाँ इनका जन्मोत्सव मनाया जाता है। पिता के स्वर्गवासी होने के पश्चात् ये माँ और बहन के साथ गौराधनाव ग्राम में रहने लगे, किन्तु वहाँ की परिस्थिति अनुकूल न होने के कारण पुनः अपने गाँव लौट गए। इनके पुत्र एवं शिष्य का नाम क्रमशः जानकीदास एवं सुरजीदास था। इनकी रचनाएँ हैं- ‘आनंदवर्धिनी’, ’ज्ञान की गारी’, ‘होरी ज्ञान की’, ‘ज्ञान का बारहमासा’, बीजा ग्रंथ। इनमें से एकमात्र ‘ज्ञान वर्धिनी’ रचना ही उपलब्ध है, जिसका रचनाकाल सं. १८८४ वि. है। इनकी रचनाओं में अवधी भाषा का ही प्रयोग हुआ है। इनका निर्वाणकाल सं. १९०८ वि. है।

फरवार से बखर तक  : यह संजय सिंह द्वारा लिखित एक अवधी उपन्यास है।

फाग : यह एक ऋतुपरक गीत है, जो होलिकोत्सव के अवसर पर गाये जाते हैं। ओजस्विता इन गीतों का गुण है। इन फाग गीतों का वर्ण्य विषय पौराणिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक हुआ करता है। अवध राम का क्षेत्र है। अतः यहाँ अवधी में रामाश्रयी फाग अधिक गाये जाते हैं। ब्रज के निकट होने के कारण अवध क्षेत्र में अवधी लोकगीतों में कृष्णाश्रयी फागों का भी अभाव नहीं है। इन गीतों में भाव-वैविध्य देखने को मिलता है।

फारुक हुसैन ‘सरल’ : सीतापुर निवासी सरल जी अवधी के प्रतिनिधि कवि हैं।

फारुक हुसैन ‘सरल’ : सीतापुर निवासी सरल जी अवधी के प्रतिनिधि कवि हैं।

फिकरानामा : यह सूफी कवि शेख बुरहानुद्दीन कृत अवधी आख्यानक रचना है।

फुहार  : यह रमई काका की हास्य-व्यंग्य प्रधान काव्य कृति है। ३६ कविताओं का यह संग्रह सन् १९५६ में प्रकाशित हुआ था। अभी तक इसके ७-८ संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। ‘फुहार’ कृति उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत भी हो चुकी है। इसमें लोक-जीवन में परिव्याप्त लोक-विश्वासू, जन प्रथा, लोकरीति, सामाजिक विषमता, भ्रष्टाचार, राजनीति, धर्म आदि से सम्बद्ध कवितायें हैं। इसमें कवित्त, गीत आदि कई छंद हैं।

फूलचन्द्र मिश्र ’चंद्र’ : दौलतपुर, रायबरेली निवासी मिश्र जी अल्पख्यात अवधी कवि हैं।

बघेली : डॉ. श्याम सुन्दरदास के मतानुसार यह मध्य प्रदेश में बोली जाने वाली मुख्य बोलियों में से एक है। अवधी और बघेली में कोई वैषम्य नहीं है। बघेलखंड में बोली जाने वाली अवधी को ही बघेली कहा गया है।

बचनेश त्रिपाठी : संडीला, हरदोई निवासी त्रिपाठी जी अवधी के ख्याति प्राप्त साहित्यकार हैं।

बच्चू लाल : ये बैसवारा क्षेत्र निवासी १९वीं शती के उत्तरार्द्ध के अवधी साहित्यकार हैं।

बण्टाधार : यह डॉ. देवी शंकर द्विवेदी ‘बराती’ जी की अवधी कविताओं का संग्रह है। इसमें विभिन्न विषयों से सम्बन्धित अवधी कविताएँ संगृहीत हैं। इसकी बैसवारी अवधी पर्याप्त पुष्ट और प्रभावोत्पादक है।

बदरी प्रपन्न ‘त्रिदंडी स्वामी’ : जन्म-मृत्यु १८७०-१९३४, स्थान बन्नावाँ, रायबरेली। इनके कई अवधी पद प्राप्त हुए हैं।

बद्रीप्रसाद ‘पाल’  : पाल जी की हास्य और व्यंग्यकार के रूप में प्रसिद्धि है। इनकी शैली व्यापक दृष्टिकोण की परिचायक है। ‘बाबू साहब का ऐश्वर्य’ नामक इनकी रचना बहुत सराही गयी है।

बद्रीप्रसाद धुरिया  : इनका जन्म मझौली जिला प्रतापगढ़ में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। धुरिया जी की रुचि श्रृंगार में अधिक जाग्रत हुई है। इन्होंने कजली लोकगीतों के माध्यम से रामकृष्ण की कथा सविस्तार कही है। इनकी भाषा सरल और निराडम्बर है। ये पूर्वांचल के लोकप्रिय कवि हैं।

बनरा  : बन्ना (बनरा) और बन्नी (बनरी) अवधी के प्रसिद्ध वैवाहिक लोकगीत हैं। इनमें हास-परिहास, आनन्दोल्लास और स्नेह-सौहार्द व्यक्त किया जाता है। इनकी संख्या शताधिक है।

बनादास  : इनका जन्म जनपद गोण्डा के अन्तर्गत अशोकपुर नामक ग्राम में सन् १८२१ में हुआ था। इनके पिता का नाम गुरुदत्त सिंह था। घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण इन्होंने भिनगा राज्य में नौकरी कर ली। तत्पश्चात् इकलौते पुत्र की मृत्यु हो गई। पुत्रशोक के कारण इन्होंने नौकरी छोड़ सन्यास धारण कर लिया और अयोध्या में रहने लगे। अयोध्या में ही सन् १८९२ ई. में इनका देहावसान हो गया। इनके द्वारा रचित ६४ ग्रन्थ मिलते हैं, जिनमें दो ग्रन्थ - ‘उभय प्रबोधक रामायण’ और ‘विस्मरण सम्हार’ डॉ. भगवती सिंह के सम्पादकत्व में छप चुके हैं। इनकी भाषा अवधी है, यद्यपि बीच-बीच में ब्रज के प्रयोग भी दिख जाते हैं। बनादास की अवधी कविता बड़ी प्रेरणादायिनी एवं अनुभूतिप्रवण है। ये अवधी के संत-काव्य के शीर्षस्थ कवि कहे जा सकते हैं।

बनारसी दास  : इनका जन्म सं. १६४६ में हुआ। पिता का नाम खरग सेन जैन और रचनाकाल - सं. १६६८ था। इन्होंने अपनी कृति में अवधी भाषा का प्रयोग किया है, जो संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से भी युक्त है।

बनौथा बीर ‘बीरा’  : यह रायबरेली निवासी डॉ. चक्रपाणि पाण्डेय का अवधी प्रबन्ध-काव्य है। इस काव्य ग्रन्थ में १८५७ के अमर शहीद बैसवारा निवासी बीरा की उत्सर्ग कथा है। इसकी भाषा विशुद्ध बैसवारी अवधी है। इस कृति में चित्रोपमता का गुण विद्यमान है। अनुप्रास की छटा तो द्रष्टव्य है ही, उपमा-उत्प्रेक्षा जैसे अलंकारों की मृसणता भी इसमें है।

बबुरी काँट  : डॉ. देवीशंकर द्विवेदी रचित अवधी कविताओं का यह एक विशिष्ट संग्रह है। कवि ने लोकजीवन की विसंगतियों का इनमें सजीव चित्रांकन किया है।

बमचक  : यह कृपाशंकर मिश्र ‘निर्द्वन्द्व’ द्वारा रचित अवधी काव्य कृति है। इसमें बैसवारा क्षेत्र की ग्रामीण व्यवस्था, लोक संस्कृति आदि के जीवंत चित्र हैं, साथ ही हास्य-व्यंग्य के चित्र भी। कवि ने भाषा एवं शिल्प के कई नये प्रयोग में किये हैं।

बरनिकासी  : बरनिकासी एक अवधी लोकगीत है, जिसे बारात प्रस्थान करते समय वृन्दगान के रूप में स्त्रियों द्वारा गाया जाता है।

बरवै व्यंजना  : यह कविवर गुरु प्रसाद सिंह मृगेश की एक प्रौढ़ रचना है, जिसका अवधी काव्य में विशिष्ट स्थान है। इसमें १०१ छन्द हैं। अपने लघु कलेवर में यह कृति श्रेष्ठ स्तर की है। इसका प्रणयन रहीम की बरवै शैली में हुआ है। बरवै व्यंजना के लघु छन्दों में कवि का हृदयग्राही सुष्ठु स्वर गुंजिंत हुआ है। भावव्यंजना की इसमें अद्भुत क्षमता है। मृगेश जी की बरवै व्यंजना माधुर्य और प्रसाद गुण से युक्त है। भाषा की मृसणता और प्रवाह उत्कृष्ट है।

बरवै व्यंजना  : यह कविवर गुरु प्रसाद सिंह मृगेश की एक प्रौढ़ रचना है, जिसका अवधी काव्य में विशिष्ट स्थान है। इसमें १०१ छन्द हैं। अपने लघु कलेवर में यह कृति श्रेष्ठ स्तर की है। इसका प्रणयन रहीम की बरवै शैली में हुआ है। बरवै व्यंजना के लघु छन्दों में कवि का हृदयग्राही सुष्ठु स्वर गुंजिंत हुआ है। भावव्यंजना की इसमें अद्भुत क्षमता है। मृगेश जी की बरवै व्यंजना माधुर्य और प्रसाद गुण से युक्त है। भाषा की मृसणता और प्रवाह उत्कृष्ट है।

बरवै हजारा  : यह कवि ‘राजेश’ के अवधी बरवै छन्दों का एक श्रेष्ठ प्रकाशित संग्रह है।

बरुआ  : यह यज्ञोपवीत के अवसर पर स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला एक अवधी लोकगीत है, जिसमें प्रव्रज्या धारण करने के अभिलाषी बटुक को लोकजीवन में प्रवृत्त होने का प्रबोध दिया जाता है।

बलई मिसिर : अवधी साहित्य को समृद्ध करने में लोक-पण्डितों का प्रशंसनीय योगदान रहा है। उनमें से मिसिर जी एक हैं। इन्होंने अपने जीवन के अनुभवों को पद्यबद्ध करते हुए जनसामान्य को नीतिपरक साहित्य प्रदान किया है। इनकी गणना घाघ, भड्डरी आदि कवियों की श्रेणी में होती है।

बलदू दास : यह जनपद बाराबंकी के संत थे। ‘राम कुंडलिया’ नामक अपनी रचना में इन्होंने प्रमुखतः अवधी का प्रयोग किया है।

बलदेव प्रसाद : वर्तमान अवधी के लोक गीतकारों में इनका महत्वपूर्ण स्थान है। इनका ‘निरवाही’ गीत विशिष्ट है।

बलभद्र सिंह पँवार : अवधी कवि पँवार जी बहराइच जनपद के बेहड़ा के निवासी हैं। इन्होंने अवधी साहित्य की बड़ी सेवा की है।

बलभद्रप्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ : ‘पढ़ीस’ जी का जन्म सीतापुर जिले की सिधौली तहसील में अम्बरपुर नामक गाँव में अष्टमी, शुक्ल पक्ष भाद्र पद सं. १६५५ वि. को हुआ था। इनके पिता श्री कृष्णकुमार दीक्षित जन्म से खीरी जिले के कलुआ नकारा नामक गाँव के निवासी थे, किंतु अम्बरपुर गाँव के परिवार की कन्या यशोदा देवी से विवाह होने पर ये अपनी ससुराल में ही बस गये। पढ़ीस जी को अवधी, ब्रज के साथ-साथ बंगला, उर्दू, अंग्रेजी आदि का अच्छा ज्ञान था। इन्होंने आकाशवाणी, लखनऊ के ‘पंचायत घर’ कार्यक्रम को काफी समय तक संचालित कर उसकी गरिमा में अभिवृद्धि की। इन्होंने ’चकल्लस’ नामक काव्य-संग्रह समाज को समर्पित करके एक विशिष्ट दिशा निर्देश किया है, साथ ही साथ मनोरंजन भी। इनकी कविताओं में राष्ट्रीय भावना अति उत्कृष्ट रूप में परिलक्षित होती है। कविताओं में व्यंग्य, विनोद का पुट है और सामाजिक विसंगतियों का विरोध भी। इसमें भाव-वैविध्य के दर्शन होते हैं। इनकी भाषा ठेठ अवधी है, अतः जनसामान्य को हृदयग्राह्य है। सहज अभिव्यक्ति उसका मुख्य बिन्दु है। ये अनेक पदों पर रहे हैं। संगीत सम्मेलनों में कई बार स्वर्ण पदक से सुशोभित किये गये। छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीतियों का इन्होंने डटकर मुकाबला किया, खासकर अछूतों के लिए पाठशाला खोली। उच्च कुलीन होने के बावजूद हल जोतकर ब्राह्मण वर्ग में परिव्याप्त अंधविश्वास को तोड़ने का भरसक प्रयास किया। हल जोतते समय घातक चोट लग जाने के कारण इस मूर्धन्य अवधी कवि का २७ जून सन् १९४२ को देहावसान हो गया।

बली मोहम्मद माल : जन्म-मृत्यु १८१९-१९७५, रस्तामऊ, रायबरेली।

बंशीधर शुक्ल  : शुक्ल जी आधुनिक अवधी के सम्राट कहे जाते हैं। यद्यपि इन्होंने ब्रज और खड़ी बोली में भी कवितायें की हैं, किन्तु इनके कवि रूप की पूर्ण और मुखर अभिव्यक्ति ‘अवधी’ में ही हुई है। इनका जन्म सन् १९०४ ई. में लखीमपुर खीरी जनपद के मन्योरा ग्राम में हुआ था। इनके पूर्वज बीघापुर (उन्नाव) के निवासी थे। कालान्तर में ये लखीमपुर खीरी में बस गये। इनके पिता पं. छेदीलाल शुक्ल एक प्रसिद्ध अल्हैत थे। इन्होंने उर्दू और संस्कृत दोनों का अध्ययन किया। इनका पारिवारिक जीवन निरन्तर अभावग्रस्त रहा। शुक्ल जी क्रान्तिकारी स्वभाव के व्यक्ति थे। इन्होंने अपनी जन्मभूमि की रक्षा एवं सेवा का संकल्प लिया और १९२१ ई. में राजनीति में सक्रिय हो गये। इस बीच शुक्ल जी कई दलों व संगठनों से जुड़े तथा विधायक भी बने। मस्त प्रकृति वाले शुक्ल जी ने आकाशवाणी के अन्तर्गत ‘देहाती प्रोग्राम’ का संचालन भी किया। शुक्ल जी मूलतः ग्राम्य जीवन के कवि थे। अवध के लोकजीवन और संस्कृति से वे पूर्णतया परिचित थे। यहाँ की (अवध) सांस्कृतिक चेतना से अभिभूत होकर कवि ने अपनी क्षेत्रीय जनभाषा में ही काव्य रचना कर अवधी की श्रीवृद्धि की है। इनकी प्रारम्भिक कवितायें हैं - खूनी परचा, दिल्ली खडयन्त्र केस, किसान की अर्जी आदि। इन्होंने कारावास की अवधि में अनेक काव्य रचनाएँ जेल की दीवारों पर कोयले से लिखीं तथा कुछ दवा की पर्चियों पर पेन्सिल से लिखीं। पुस्तक के रूप में शुक्ल जी की सर्वप्रथम रचना ‘आल्हा सुमिरिनी थी, जो ५० छन्दों की हैं। इसके बाद ‘कृषक विलाप’, ’बेटी बेचन’, ‘युगल चण्डालिका’, ‘मेलाघुमिनी’, ‘कुकुडूकूँ’, राष्ट्रीय गान आदि काव्य कृतियाँ प्रकाशित हुई। आकाशवाणी सेवा के दौरान इन्होंने कई रचनायें की। स्वतंत्रता-संग्राम, दहेज, मजदूर, कश्मीर आल्हा, दिल्ली-दरबार, तृप्यन्ताम्, श्री कृष्ण चरित्र जैसे रेडियो नाटक भी इन्होंने लिखे। इन्होंने कई हजार शब्दों का एक अवधी भाषा शब्दकोश तथा एक अवधी लोकोक्तियों का संग्रह तैयार किया था। इनकी कविताओं में प्रकृति के मनोरम, किन्तु स्वाभाविक दृश्य ग्रामीणों की विपन्नता, दुरवस्था, लोक-जीवन, संस्कृति, लोक-विश्वास, ग्रामीणों की जीवन-शैली साकार हुई है। इन रचनाओं में कवि का प्रकृति-प्रेम, राष्ट्र-प्रेम, तथा भक्ति-भाव भी मुखाग्र हुआ है। समाज में व्याप्त कुसंस्कार, भ्रष्टाचार, पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण आदि का कवि ने कट्टर विरोध करते हुए अपनी समाज सुधार भावना तथा भारतीय संस्कृति के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की है। सामन्ती व्यवस्था के विरोधी शुक्ल जी ने सामन्तों, जमींदारों, अफसरों, नेताओं आदि द्वारा किये गये शोषण के विरुद्ध आजीवन धर्मयुद्ध किया है। जागरण की भावना से प्रेरित हो कवि ने अपनी कविताओं में साम्यवादी प्रतिष्ठा का आह्वान किया है। स्वतंत्रता के पश्चात् देश के कर्णधारों में किस प्रकार दायित्व बोध लुप्त हो गया है, इससे कवि मर्माहत हो उठा है। शुक्ल जी की अवधी का रूप बैसवारी है। इसमें देशज शब्दों का बाहुल्य है। इनकी भाषा लोकोक्तियों, मुहावरों से सम्पन्न है। वर्ण-विन्यास सुगठित है। कवि ने निःसंकोच यत्र-तत्र अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग किया है।

बसंतु  : वसंतोत्सव के अवसर पर स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला यह विशिष्ट अवधी लोकगीत है। इसमें उल्लास का स्वर सर्वोपरि होता है।

बाँकेलाल मिश्र ‘लाल’  : इनका जन्म सन् १९३९ ई. में आश्विन शुक्ल सप्तमी को पेड़रिया कोंड़र ग्राम, जिला सीतापुर में हुआ था। जगन्नाथ मिश्र इनके पिता हैं। कविवर ‘लाल’ ने एम.ए. (हिन्दी) तक की उच्च शिक्षा साथ ही साथ आयुर्वेद की शिक्षा भी प्राप्त की। सम्प्रति ये सीतापुर के जिलापरिषदीय विद्यालय में अध्यापक हैं। खड़ी-बोली, ब्रज तथा अवधी भाषा पर इनका समान अधिकार है। इन्होंने तीनों भाषाओं में काव्य रचना की है। इनकी प्रकाशित रचनायें (ग्रन्थ) हैं -‘साकेत-विरहिणी’, ’ऊर्मिला’ और ‘त्रिवेणी’। इनकी अनेक अवधी रचनायें अभी अप्रकाशित ही हैं। इनकी रचनाओं में एक स्पष्ट दिशाबोध है। सामाजिक विसंगतियाँ, तथा देशानुराग इनकी कविताओं का मूल भाव है। कवि को देश का गौरवपूर्ण अतीत प्रभावित करता रहा है। कवि लाल की सुप्रसिद्ध अवधी रचनायें हैं - ’आर्यावर्त’ और ‘बापू के प्रति’।

बाँकेलाल मिश्र ‘लाल’  : इनका जन्म सन् १९३९ ई. में आश्विन शुक्ल सप्तमी को पेड़रिया कोंड़र ग्राम, जिला सीतापुर में हुआ था। जगन्नाथ मिश्र इनके पिता हैं। कविवर ‘लाल’ ने एम.ए. (हिन्दी) तक की उच्च शिक्षा साथ ही साथ आयुर्वेद की शिक्षा भी प्राप्त की। सम्प्रति ये सीतापुर के जिलापरिषदीय विद्यालय में अध्यापक हैं। खड़ी-बोली, ब्रज तथा अवधी भाषा पर इनका समान अधिकार है। इन्होंने तीनों भाषाओं में काव्य रचना की है। इनकी प्रकाशित रचनायें (ग्रन्थ) हैं -‘साकेत-विरहिणी’, ’ऊर्मिला’ और ‘त्रिवेणी’। इनकी अनेक अवधी रचनायें अभी अप्रकाशित ही हैं। इनकी रचनाओं में एक स्पष्ट दिशाबोध है। सामाजिक विसंगतियाँ, तथा देशानुराग इनकी कविताओं का मूल भाव है। कवि को देश का गौरवपूर्ण अतीत प्रभावित करता रहा है। कवि लाल की सुप्रसिद्ध अवधी रचनायें हैं - ’आर्यावर्त’ और ‘बापू के प्रति’।

बाती मेरावन  : विवाहोत्सव की एक प्रथा विशेष - ‘दीप प्रज्वलन’ के अवसर पर यह अवधी गीत स्त्रियों द्वारा गाया जाता है। यह एक प्रतीकात्मक गीत है।

बादेराय : ये रायबरेली जनपद के डलमऊ क्षेत्र के निवासी थे। इनका रचना काल था- भारतेन्दु युग। अवधी भाषा में इन्होंने बहुत लिखा है।

बाबा लक्ष्मणदास बैरागी  : बैरागी जी हरदोई जनपद (उ.प्र.) के निवासी थे। इनका जन्म स्थान बता पाना कठिन है। यह निश्चित है कि इनका अधिकांश समय बाँसा ग्राम में व्यतीत हुआ था। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् १८५७ के समय ये विद्यमान थे। अनुमानतः इनका जन्म ई. सन् १८०० तथा मृत्यु १८६४ ई. में हुई थी। अवधी भाषा में इन्होंने ‘पंचकों’ की रचना की है।

बाबा शालिकराम : ये उन्नाव जनपद के ग्राम- निवैया के अद्वैतवादी पंथ के संन्यासी थे। अवधी साहित्य में इन्होंने बहुत महत्वपूर्ण योगदान किया है। इनकी अवधी रचनाएँ हैं- शालिगराम गीता (सन् १९१७ ई.), आत्म विलास (१९०२ ई.), शतपंच विलास (सन् १८९१ ई.), हनुमान दर्श (सन् १९७५ ई.)।

बाबूराम शुक्ल ‘मंजु’ : मंजु जी का जन्म २७ जुलाई १९२० ई. को सीतापुर जिले की मिश्रिख तहसील के मुसव्वरपुर ग्राम में हुआ था। पिता का नाम गजोधर प्रसाद शुक्ल था। इन्होंने ’श्रीमद्भागवत गीता’ और ‘मेघदूत’ के अनुवाद ‘मंजु ग्रामीण गीता’ तथा ’मेघदूत’ के रूप में अवधी की अभिनव भाषाशैली में प्रस्तुत किया है। कुणाल, भोजराज और अनुसुइया चरित्र इनकी अवधी की लम्बी-लम्बी रचनाएँ हैं। संप्रति अध्यापन सेवा निवृत्ति प्राप्त कर ये साहित्यसेवा में साधनारत हैं।

बारहखड़ी  : ‘बारहखड़ी’ नामक ग्रन्थ का प्रणयन मलूक दास द्वारा हुआ है। इस ग्रन्थ के द्वारा मलूकदासी सम्प्रदाय में बालकों को अक्षर ज्ञान कराया जाता था। इसलिए इस ग्रन्थ का बहुत महत्व हो गया है। इसमें ब्रह्म की व्यापकता, सत्य, अहिंसा, दया, वैराग्य, क्षमा आदि विषयों का वर्णन मिलता है। इसका छंद दोहा है और भाषा अवधी।

बारहमासा  : यह वष ऋतु में गाया जाने वाला अत्यन्त प्रिय ऋतुपरक गीत है। इसमें वर्ष के बारहों महीने की प्रकृति का बड़ा ही सहज स्वाभाविक वर्णन रहता है। ये गीत प्रमुखतः विप्रलम्भ प्रधान होते हैं। इसमें किसी विरहिणी की विरह-व्यथा का चित्रांकन प्रकृति के विविध चित्रों एवं घटनाओं की पृष्ठभूमि में किया जाता है। अवधी लोकगीतों में इस तरह के बारहमासे बहुत बड़ी संख्या में गाये जाते हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि अवध लोकांचल में वियोगिनी नायिकाओं की मनोदशाओं को ही चित्रित करने वाले बारहमासे नहीं गाये जाते अपितु पुत्र-वियोग में मातृ हृदय की करुण स्थिति का रूपांकन करने वाले गीत भी मिलते हैं। लोक प्रचलित इन बारह मासों में वर्णन विस्तार तो होता ही है, विरह की विभिन्न अवस्थाओं का सूक्ष्म अंकन भी होता है। इसी भावधारा के अनुरूप छः मास का वर्णन रहने पर षटमासा तथा चार माह का वर्णन रहने पर चौमासा कहा जाता है। चौमासा में विशेषतः असाढ़, सावन, भादौं और क्वार का वर्णन होता है।

बालिदत्त शर्मा : शर्मा जी ने अवधी साहित्य सृजन में सराहनीय कार्य किया है। मंचों पर इनका काव्य पाठ अति सराहनीय होता था। इनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपा करते थे। किन्तु प्रकाशनाभाव में इनका पूरा साहित्य प्रकाश में नहीं आया है फिर भी ये गण्य तो हैं ही।

बिन्दु जी : बिन्दु जी अयोध्या नगर के निवासी एवं अवधी भाषा के प्रति समर्पित साहित्यकार है।

बिरवा : यह एक अलपजीवी लघु अवधी पत्रिका है, जिसका प्रकाशन अवधी अध्ययन केन्द्र, लखनऊ द्वारा सन् १९८९ में प्रारम्भ हुआ। इसने प्रत्रकारिता क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया। इसके आठ अंक प्रकाशित हुए थे, जो अपनी शोधपरकता के लिए प्रसिद्ध हैं।

बिरहा  : अवध में बिरहा गायन की परम्परा अति प्राचीन है। यह अहीर जाति का लोकप्रिय छन्द है। इसे पुरुष वर्ग गाता है। भाव वैविध्य की दृष्टि से बिरहा गीतों का विषय कुछ भी हो सकता है।

बिवाहु  : विवाहोत्सव सम्बन्धी यह विशिष्ट अवधी लोकगीत है, जिसमें विवाहेच्छा प्रकट की जाती है और विभिन्न वैवाहिक विसंगतियाँ भी।

बिवाहु  : विवाहोत्सव सम्बन्धी यह विशिष्ट अवधी लोकगीत है, जिसमें विवाहेच्छा प्रकट की जाती है और विभिन्न वैवाहिक विसंगतियाँ भी।

बिहुला  : बिहुला की कथा करुण रस से परिपूर्ण है। उत्तर प्रदेश और बिहार में इसका विशेष प्रचार है। यह कारुणिक प्रेमाख्यान कोटि की कथा है। इसमें ‘बिहुला’ नामक सुन्दर कन्या को नायिका बनाया गया है। वह अपने पति लखन्दर को, जो सर्पिणी के द्वारा डस लिया गया था बहनेतिया धोबिन से प्रार्थना कर पुनर्जीवित करा लिया था साथ ही पति के छः अन्य भाईयों को भी। (सभी सर्प दंश से कोहबर में मर गये थे।)

बीरेलाल : ये सीतापुर जनपद के निवासी एवं अवधी भाषा के अल्पख्यात साहित्यकार रहे हैं।

बुद्धिभद्र दीक्षित ‘मतई काका’ : इनका घरेलू नाम बचऊ था। प्रारम्भ में ये ‘उच्चन’ के नाम से कविताएँ लिखते थे। बाद में आकाशवाणी केन्द्र, लखनऊ के ‘पंचायतघर’ के अन्तर्गत कार्यक्रम देते हुए ‘मतई काका’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये पढ़ीस जी के पुत्र थे। इनका जन्म सीतापुर जनपद के ग्राम अम्बरपुर में २५ नवम्बर सन् १९२२ ई. को हुआ। अवधी में लिखे गीत बड़े ही सुन्दर हैं। इनका अधिकांश काव्य अप्राप्य है और जो कुछ भी है वह आकाशवाणी की लाइब्रेरी की निधिरूप में सुरक्षित है।

बेकल उत्साही  : बेकल उत्साही के नाम से ख्यात होने वाले कवि का जन्म उत्तरप्रदेश के गोण्डा जनपद की उतरौला तहसील में गोण्डा-उतरौला राजमार्ग पर स्थित गौर रमवापुर नामक ग्राम में लोदी वंश के एक जमींदार घराने में १ जून १९२८ ई. को हुआ था, किन्तु कागजात में बेकल साहब की जन्म तिथि १८ जुलाई १९२८ ई. अंकित है। परिवार के लोगों ने इनका नाम शफी खाँ लोदी रखा था, पर इस विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न पुरुष ने अपनी शायरी एवं कवित्व शक्ति के कारण “बेकल” के रूप में ही अपने को उजागर किया। शिक्षा एवं साहित्य-साधना का अंकुर लेकर जनमे शफी खाँ ने जहाँ एक ओर स्वाध्याय से घर पर अरबी-फारसी पढी, वहीं हिन्दी में विशेष योग्यता एवं विशारद की परीक्षायें भी पास कीं। सन् १९५१ में इन्होंने गन्ना विकास विभाग में नौकरी की। किन्तु एक वर्ष भी नहीं पूरा हुआ कि उसे छोड़ना पड़ा। १९५२ ई. में होने वाले भारत के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी के कार्यालय मंत्री के रूप में कार्य करते हुए इन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। सन् १९५६-५७ में इन्होंने पाकिस्तान, नेपाल तथा बंगलादेश की यात्रा करते हुए भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार का कार्य सम्पादित किया है। इन्होंने १९७६ ई. में आयोजित मारीशस के विश्व हिन्दी सम्मेलन में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया था। इन्होंने अवधी भाषा में अनेक लोकगीतों की सर्जना की। जिसमें गाँव की शोभा, ऋतुओं की बहुरंगी छटाएँ छिटकी हुई हैं। ये शुरू से ही किसानों के गायक एवं उद्बोधक रहे। उत्साही जी की निम्नलिखित हिन्दी रचनाएँ हैं- १- बेकल रसिया, २- विजय बिगुल, ३- बरौनी चुवै लाग, ४- महकै बगिया लहकै खेत।

बेताल  : शिवसिंह सरोज के अनुसार इनका जन्म सन् १६७७ तथा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनका जन्म सन् १८७२ और १८६२ के मध्य माना है। इनकी रचनाएँ फुटकर रूप में मिलती हैं। भाषा में ठेठ अवधी का प्रयोग हुआ है।

बेनी प्रवीन  : इनका वास्तविक नाम बेनी दीन बाजपेयी थी। अपने एक ग्रन्थ में इन्होंने इस नाम का प्रयोग किया है। ये टिकइतराय के समकालीन थे और महाराज दयाकृष्ण गाजिउद्दीन के अर्थमंत्री के पुत्र महाराज बालकृष्ण तथा नवल कृष्ण ‘ललन’ के आश्रित थे। इन्होंने बेनीदीन नाम से ही काव्य रचना प्रारम्भ की, किन्तु बेनी भट्ट (टिकइतराय प्रकाश के रचयिता) ‘बेनी प्रवीन’ नाम से कविता करने लगे। कतिपय विद्वानों का कथन है कि बेनी बंदीजन (भड़ौवा वाले) के वाद-विवाद में इनकी विद्वत्ता सिद्ध हुई और ये ‘बेनी प्रवीन’ नाम से विख्यात हुये। बेनी प्रवीन ने ‘नवरस तरंग’ ग्रन्थ की रचना की। इस काव्य की भाषा ब्रजावधी है। वर्ण्य विषय की दृष्टि से बेनी प्रवीन ने अपने ग्रन्थ ’नवरस तरंग’ में आश्रयदाताओं की प्रशस्ति, नायक-नायिका भेद, प्रकृति-चित्रण आदि किया है। बेनी प्रवीन के काव्य में नवों रस का समावेश है। श्रृंगार का अत्यधिक वर्णन हुआ है, परंतु श्रृंगारेतर वीर, हास्य, वीभत्स, शांत आदि रसों का भी अभाव नहीं है। कवि की रस योजना में गहरी भावुकता के दर्शन होते हैं। कवि ने अपनी सूक्ष्म कल्पना शक्ति से रूप तथा दृश्य के बड़े मोहक संश्लिष्ट और गत्यात्मक चित्र उतारे हैं। बेनी प्रवीन की भाषा ब्रज होते हुये भी अवधी की व्यापकता स्वयं सिद्ध है। कवि का शब्द चयन और संस्कार उसकी प्रतिभा के परिचायक हैं। कृति में तद्भव और तत्सम शब्दों का सम्मिश्रण है।

बेनी बंदीजन  : ये बैंती, जिला रायबरेली के रहने वाले थे और ये अवध के वजीर टिकैत राय के आश्रय में रहते थे। इन्होंने रस विलास (सं. १८७४), टिकैत राय प्रकाश, यशलहरी आदि का प्रणयन किया। ये भड़ौआ लिखने में सिद्धहस्त थे। इनका भड़ौआ-संग्रह अंशतः प्रकाशित है। इनके भड़ौए कला एवं भाव व्यंजना की दृष्टि से मशहूर हैं। कविवर बेनी भट्ट की भाषा ब्रजावधी है। तत्सम-तद्भव तथा देशज शब्दों का सहज स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। विदेशी- अरबी फारसी के शब्द भी आये हैं। भाषा एवं शब्द संचयन विषय तथा भावानुरूप हुआ है। कवि ने पिंगलशास्त्र के नियमों का पालन करते हुये छन्दोबद्ध रचना की है। इनके काव्य ग्रन्थों में विशेषतः दोहा, सवैया तथा घनाक्षरी आदि छंद प्रयुक्त हुए हैं।

बेनीमाधव : बैसवाड़ा निवासी माधव जी अवधी के अल्पख्यात कवि हैं। ये आधुनिक काल के भारतेन्दु युगीन कवियों में से एक हैं।

बेलवरिया  : बेलवरिया एक विशेष प्रकार का गीत है। जब श्रोता लम्बी कविता सुनते-सुनते ऊब जाता है तब गायक बेलवरिया गाकर श्रोताओं को आनंद देता रहता है। आधुनिक काल में ‘बेलवरिया’ का विषय आनंद प्रेषण मात्र ही नहीं रह गया है, वरन् विविध समस्याओं का भी समावेश इसमें होने लगा है। बेलवरिया गीत प्रायः श्रृंगार रस प्रधान हुआ करते हैं।

बैजनाथ प्रसाद बैजू’ : सतगढ़, रीवाँ के निवासी बैजू जी अवधी कवि हैं। इन्होंने अपने गीतों आदि के माध्यम से अवधी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान किया है।

बैजनाथ प्रसाद शुक्ल ‘भव्य’ : इनका जन्म ११ जुलाई सन् १९१८ ई. को ग्राम कोणरिया (दियरा) तहसील कादीपुर जनपद सुल्तानपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम स्वामी ओमानंद है। भव्य जी ३० नवम्बर सन् १९७५ को मुख्य लेखाधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। इनकी कई कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्होंने खड़ी बोली, ब्रजमिश्रित अवधी को भी काव्य सृजन का माध्यम बनाया है।

बैजनाथ यादव  : इनका जन्म १९२० ई. के लगभग बाराबंकी के ‘दुबहटा’ नामक ग्राम में हुआ। प्राथमिक शिक्षा अर्जित करने के बाद खेती करने लगे। इनकी रचनाओं में धार्मिक तत्वों की प्रधानता है। ‘हनुमान भजन’ और ‘राम भजन माला’ संग्रह इस बात के प्रमाण हैं। ‘पूरबी’ और कहरवा छन्द यादव जी के प्रिय छन्द हैं। इन छन्दों का प्रयोग कवि ने बड़ी सजगता के साथ किया है। धार्मिक प्रवृत्ति की प्रधानता होने के कारण भजन भी लिखे हैं। कवि ने ठेठ अवधी का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं कविता में खड़ी बोली की टूटी पंक्तियों का भी आभास मिलता है।

बैजनाथ : ये द्विवेदी युगीन अवधी साहित्यकार हैं। साहित्य अप्राप्य है।

बैताल पचीसी  : यह श्री शम्भुनाथ त्रिपाठी कृत नीति-काव्य युक्त एक श्रेष्ठ प्रबन्ध रचना है। त्रिपाठी ने ‘बैताल पचीसी’ पद्य का अनुवाद पच्चीस कथाओं के आधार पर सर्ग विभाजन करके किया है। इस ग्रन्थ का रचना काल सं. १८०९ वि. है। इसकी कथाओं में संवाद की कथात्मक सुगठित मनोरम शैली है। साथ ही नाटकीयता का गुण है। इस ग्रन्थ की भाषा बैसवारी अवधी है। इसमें दोहा, चौपाई तथा छप्पय आदि सुपाठ्य छन्दों का प्रयोग हुआ है।

बैताल पचीसी : यह भवानीशंकर द्वारा प्रणीत अवधी काव्य ग्रंथ है। इसका प्रणयन सं. १८७१ में हुआ था।

बैरगिया  : ये भक्ति के वैराग्य प्रधान अवधी लोकगीत हैं। इन गीतों का मूल विषय रहा है असार संसार, गुरु-महिमा, संत-महिमा, सत्य का आधार, ठग के रूप में मृत्यु का चित्रण आदि। दूसरे शब्दों में- इन गीतों की भाव सम्पदा वही है, जो कबीर के ज्ञान वैराग्य के गीतों में होती है। वास्तविकता तो यह है कि इन बैरगिया गीतों की अंतिम पंक्ति में कबीर का नाम रहता है। यद्यपि ये गीत कबीर रचित न होकर लोक की सम्पदा हैं। इन्हें तथोक्त जातियों में पुरुष वर्ग सश्रद्ध गाता है।

बैसवाड़ी का विश्लेषणात्मक अध्ययन : यह डॉ. जगदीश प्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रणीत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें बैसवारा क्षेत्र की अवधी का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। यह अभी अप्रकाशित है।

बैसवाड़ी-शब्द-सामर्थ्य : यह एक अवधी विषयक शोध प्रबन्ध है। इसमें अवध क्षेत्र के बैसवारी क्षेत्र को ही मुख्यतः स्थापित किया गया है। इसके लेखक डॉ. देवीशंकर द्विवेदी हैं।

बैसवाड़ी-शब्द-सामर्थ्य : यह एक अवधी विषयक शोध प्रबन्ध है। इसमें अवध क्षेत्र के बैसवारी क्षेत्र को ही मुख्यतः स्थापित किया गया है। इसके लेखक डॉ. देवीशंकर द्विवेदी हैं।

बैसवारी अवधी की लोककथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन  : यह डॉ. माताप्रसाद श्रीवास्तव द्वारा सन् १९९० में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध है। इसमें अवधी साहित्य में प्रचलित लोककथाओं के सांस्कृतिक अध्ययन को प्रस्तुत किया गया है।

बोथे दास  : ये बाराबंकी जनपद के कोटवा धाम के निवासी संत जगजीवन दास के पौत्र गिरिवरदास जी के शिष्य हैं। इन्होंने सं. १८४८ वि. में अपने गुरू के संरक्षण में अवधी भाषा में ‘भक्त विनोद’ नामक प्रबन्ध-काव्य का प्रणयन किया है। इसमें दोहा-चौपाई छंदों का प्रयोग हुआ है।

बोधा  : बोधा (बुद्धिसेन) का काव्य-प्रणयन काल विक्रम की १८वीं शताब्दी के अन्तिम चरण से लेकर १९वीं शती के प्रथम चरण तक का है। ये राजापुर, जिला बांदा के निवासी थे और बचपन से ही जन्मभूमि छोड़कर पन्ना में रहने लगे थे। पन्ना के राज दरबार में इनके सम्बन्धी रहते थे। इन्हीं के आश्रय से पुन्ना महाराज के सम्पर्क में आए। इनकी दो अवधी रचनाएँ प्राप्त होती हैं- १- ‘विरहवारीश’ या ‘माधवानल कामकंदला’, २- ‘इश्कनामा’ या ‘विरही सुभान-दंपति विलास’

बौछार  : यह चन्द्रभूषण त्रिवेदी ‘रमई काका’ की अवधी कविताओं का अत्यन्त लोकप्रिय संग्रह है। इसके २१ संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इसमें विभिन्न विषयों से संबंधित ३० रचनाएँ हैं। हास्य-व्यंग्य इनकी सर्वोपरि उपलब्धि हैं।

ब्रज किशोर निगम ‘आजाद’ : आजाद रीवाँ के निवासी हैं। इन्होंने अवधी की बड़ी सेवा की है। इनकी कविताओं में स्वच्छंदता के स्वर अधिक मुखर हुए हैं।

ब्रजकान्त बाजपेयी ‘ब्रजेश’ : ब्रजेश जी का जन्म १ अगस्त सन् १९५६ को सीतापुर जनपद के ब्रह्मावली ग्राम में हुआ था। राम आसरे बाजपेयी इनके पिताजी थे। गृहकार्य के साथ-साथ इन्होंने अपना सृजन कार्य किया है। ‘रामदूत’, ‘रावण-मन्दोदरी संवाद’, ‘सील्हापुर का मेला’ इनकी अवधी रचनाएँ हैं।

ब्रजकिशोर पाण्डेय ‘ब्रजनन्दन’  : इनका जन्म आसाढ़ बदी एकादशी सम्वत् १९४९ वि. को, ग्राम भनवामऊ, जिला रायबरेली में हुआ था, और निधन १ जनवरी सन् १९८१ में हुआ था। इनके पूर्वज गोगाँसों, रायबरेली नामक गाँव के निवासी थे। इसलिए इन्हें गोगाँसों के पाण्डेय कहा जाता है। इनके पिता का नाम रामाधीन पाण्डेय था। भनुवामऊ गाँव राणा बेनी माधव ने इनके पूर्वजों को दान में दिया था। विद्यालयीय शिक्षा अधिक न मिलने के बावजूद इन्होंने स्वाध्याय के बल पर हिन्दी, उर्दू भाषा की विशेष योग्यता प्राप्त की। आरम्भ में इन्होंने ‘कोर्ट आफ वार्ड’ में नौकरी की, तदुपरांत सन् १९१६ में काशी नरेश के यहाँ अहलमद के पद पर नौकरी की किंतु, परवशता इन्हें स्वीकार नहीं हुई। ब्रजनन्दन जी ने तीन विवाह किए। इनकी पहली पत्नी जिला बाराबंकी के ‘बड़ैल’ नामक ग्राम की थीं। अतः इन्होंने अधिकांश समय बाराबंकी में बिताया था। परन्तु इनके प्रकृति परिवेश में बैसवारीपन स्पष्ट था। ये स्वभाव से बड़े भावुक थे। इनका देश के वरिष्ठ राजनेताओं, साहित्यकारों से घनिष्ठ परिचय रहा है, जैसे - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (देश के प्रथम राष्ट्रपति), जवाहर लाल नेहरू, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, आदि। साहित्यिक संस्थाओं ने इन्हें समय-समय पर अनेक उपाधियाँ देकर सम्मानित किया। यथा- ‘काव्य-भूषण’, ‘कविः मनीषी’ साहित्य परिषद औरैया से तथा बनारस वेदांत परिषद से ‘कविरत्न’ की उपाधि मिली। इनकी प्रसिद्ध काव्य कृतियाँ हैं- १. दुखिया किसान, २ महिपाल वैचित्र्य, ३- ब्रिटिश असहयोग, ४ वैवाहिक विनय। इसके अतिरिक्त ब्रज मंजरी, प्रदोष पूजा, ऊधौ-उपचार प्रमुख हैं। अनेक स्फुट कवित्त भी इन्होंने लिखे हैं। इनकी भाषा मूलतः ब्रज है, परन्तु खड़ी बोली और अवधी में भी रचनायें की हैं। इनकी रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना के स्वर, सामाजिक संस्कारबोध तथा भक्ति और श्रृंगारिक भावना का अद्भुत सामंजस्य है। इनकी भावाभिव्यंजना तथा वर्णन चातुर्य बड़ा प्रभावपूर्ण है। भाषा भावानुवर्तिनी है। प्रवाहमयी लययुक्त इनके पदों को पढ़कर कभी-कभी घनानन्द के पदों (सवैयों) की स्मृति हो जाती है।

ब्रजचरित : यह सं. १७६० में चरनदास कृत अवधी ग्रंथ है।

ब्रजनंदन सहाय : ये आरा जिला (बिहार) निवासी आधुनिक अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने सन् १९०० में ‘सत्यभामा मंगल’ नामक ग्रंथ का सृजन किया था, जिसकी भाषा अवधी का मिश्रित रूप है।

ब्रजभूषण त्रिपाठी  : इनका जन्म सन् १८९५ ई. ग्राम दरियापुर, जिला सीतापुर में हुआ था। वंशीधर शुक्ल इन्हें अपना मूल गुरू मानते थे। इनकी ‘सती पियरिया’ लगभग १५० पंक्तियों की एक लम्बी अवधी रचना है, जो १९२९ ई. में माधुरी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। स्वान चिरई भारत, एक जनौरा, अल्हड़ परोसी आदि इनकी अवधी की प्रसिद्ध रचनाएँ है। इनका निधन सन् १९३४ में अल्पावस्था में ही हो गया था।

ब्रजभूषण त्रिपाठी  : इनका जन्म सन् १८९५ ई. ग्राम दरियापुर, जिला सीतापुर में हुआ था। वंशीधर शुक्ल इन्हें अपना मूल गुरू मानते थे। इनकी ‘सती पियरिया’ लगभग १५० पंक्तियों की एक लम्बी अवधी रचना है, जो १९२९ ई. में माधुरी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। स्वान चिरई भारत, एक जनौरा, अल्हड़ परोसी आदि इनकी अवधी की प्रसिद्ध रचनाएँ है। इनका निधन सन् १९३४ में अल्पावस्था में ही हो गया था।

ब्रजलाल भट्ट ‘ब्रजेश’  : ये रामनगर (बाराबंकी) के निवासी हैं। इन्होंने ’घूस’ शीर्षक से अवधी भाषा में एक लम्बी कविता लिखकर समाज में चारों तरफ व्याप्त भ्रष्टाचार का उल्लेख किया है। इनकी अवधी ठेठ शब्दावली से युक्त है तथा उसमें सहजता का बोध भी होता है।

ब्रजवासीदास  : ये कृष्ण काव्य-परम्परा के कवि एवं संत हैं। ब्रज क्षेत्र होने के बावजूद अवधी भाषा को इन्होंने सम्मान प्रदान किया है। सं. १८२७ में ‘ब्रज विलास’ नामक अवधी ग्रंथ का प्रणयन करके इन्होंने यह सम्मान प्रदर्शित किया है।

ब्रजविलास : यह सं. १८२७ में ब्रजवासीदास द्वारा रचित अवधी काव्य-ग्रंथ है।

ब्रजेन्द्र खरे  : इनका जन्म सन् १९३७ ई. में लखनऊ नगर में हुआ था। इनके अवधी गीतों का कवि सम्मेलनों में बड़ा आदर रहा है। इनके कुछेक अवधी गीतों के शीर्षक इस प्रकार है- गरम दुपहरिया, चन्दन बिरवा, बसन्ती बयार, उड़ति अबीर-गुलाल, जमाना बदलि गवा, जेठ के दिन, देवर भये सुकुमार, देसवा पै विपति परी, आदि। ब्रजेन्द्र खरे के ये सरस लोक गीत बड़े प्रभावी बन पड़े हैं। ये मंच के भी एक सफल कवि हैं। सम्प्रति ये परिवहन विभाग में हिन्दी अधिकारी हैं।

ब्रजेशकुमार पाण्डेय, ‘इन्दु’ : इन्दु जी का परिचयात्मक विवरण उपलब्ध नहीं है, किन्तु इन्होंने अवधी साहित्य के अभिवर्द्धन में पर्याप्त कार्य किया है। इन्होंने व्यंग्य चिन्तन, व्यंग्य व्यथा के साथ ही आँखों पर १०० छन्दों का मनोहारी चित्रण भी प्रस्तुत किया है।

ब्रह्मदत्त ‘ब्रह्मांड’ : इनका जन्म सन् १९४२ में बाराबंकी जनपद के रामसनेहीघाट पर राजपुर गाँव में हुआ था। हास्य एवं व्यंग्य इनके उल्लेखनीय हैं। फैजाबाद से प्रकाशित जनमोर्चा दैनिक के स्तम्भ ‘हाव-भाव’ में इन्होंने अनवरत पाँच वर्षों तक लिखा। सम्प्रति स्वास्थ्य विभाग में सेवारत हैं। ’बापू’ कविता में इनका अवधी अनुराग स्पष्टतः मुखरित हुआ है।

ब्रह्मा सिंह : इनका जन्म लखनऊ जनपद के बन्थरा क्षेत्र के निकट दादूपुर गाँव के ठाकुर गणेश सिंह के यहाँ सं. १९७७ वि. में हुआ था। किसी कारणवश अधिक शिक्षा न ग्रहण कर सके। इनकी रचनाएँ सनेही जी द्वारा संपादित ‘सुकवि’ पत्रिका में खूब छपी। इन्होंने प्रायः मुक्तक रचनाएँ की हैं, जिनमें दोहा, छप्पय, घनाक्षरी, रोला प्रमुख हैं। अवधी भाषा इनको सर्वप्रिय रही। इनकी रचनाओं में नेतागिरी एवं स्वजातीय कवियों की स्वार्थपरता, भारतीय कृषक के शोषण का सजीव चित्रण मिलता है।

भक्त-विनोद  : यह बोधेदास द्वारा रचित अवधी का प्रबन्ध-काव्य है। इस ग्रन्थ का रचना काल सं. १८४८ वि. है। इस काव्य कृति में ‘कोटवा’ धाम बाराबंकी जनपद निवासी संत जगजीवन दास का जीवन-वृत्त तथा उनके द्वारा प्रतिष्ठापित सतनामी सम्प्रदाय का साथ ही साथ उनके शिष्यों का समग्र वर्णन है। यह जीवनी परक प्रबन्ध काव्य है, जिसका प्रणयन अवधी भाषा में दोहा-चौपाई छन्दों में हुआ है। इसका शब्द संचयन तद्भव बहुल होते हुये भी इसमें तत्सम शब्दों का पर्याप्त प्रयोग है। यह धर्म, नीति तथा शांत - निर्वेद भावों से पूर्ण रचना है। इस ग्रन्थ में एक ओर साहित्यिकता का रस है, तो दूसरी ओर लोकजीवन की निकटता है। लोकभाषा का आनन्द है।

भक्तवच्छावली  : यह मलूकदास की दोहा-चौपाई में लिखित अवधी भाषा की सशक्त रचना है। इसमें ब्रह्म की भक्त वत्सलता का वर्णन है।

भक्तवच्छावली  : यह मलूकदास की दोहा-चौपाई में लिखित अवधी भाषा की सशक्त रचना है। इसमें ब्रह्म की भक्त वत्सलता का वर्णन है।

भक्ति सुधा बिन्दु स्वाद तिलक : यह रसिक सम्प्रदाय के रामभक्त कवि सीताराम शरण ‘रूपकला’ कृत अवधी रचना है।

भगवती प्रसाद मिश्र ‘नन्दन’ : मगहर, बस्ती के निवासी नन्दन जी अवधी साहित्यकार है। सुनहरा स्वप्न नामक इनकी अवधी रचना है।

भगवतीप्रसाद अवस्थी ‘लोप’ : लोपजी का जन्म मवइया कलाँ, बाराबंकी में १९३१ ई. में हुआ। कई दशकों से इनकी काव्य-साधना अविरल प्रवहमान है। अवधी में अनेक समसामयिक विषयों पर इनकी शताधिक रचनाएँ हैं। साथ ही दहेज आदि अनेक कविताएँ भी लिखी हैं। सम्प्रति प्रधानाचार्य रूप में सेवारत है।

भगवान हित  : इन्होंने सं. १७२८ में ‘अमृत धारा’ नामक विशद अवधी ग्रंथ का सृजन किया था। विशेष विवरण अप्राप्य है।

भगवानबख्श सिंह  : इनका जन्म सं. १९४३ में रायबरेली जिले के पूरे जंगली देवी (अलीपुर) नामक स्थान पर हुआ था। इन्होंने अपनी रचनाओं में अवधी का पर्याप्त प्रयोग किया है। विशेष विवरण सुलभ नहीं है।

भगवानबख्श सिंह ‘संत’ : ये सत्यनामी सम्प्रदाय के संत थे। इनका जन्म सन् १८८० ई. में जनपद रायबरेली के अलीपुर ग्राम में हुआ था। अवधी साहित्य में इनके द्वारा किया गया योगदान चिरस्मरणीय है। इनके अवधी ग्रंथ हैं - ‘सत्यनाम दीपिका’ और ’सत्यानंद प्रकाश’।

भजन  : मनुष्य सांसारिक क्रिया-कलापों की समस्याओं से त्राण पाने के लिए आनंद की खोज करता है। जब कभी मनुष्य निराशा के क्षणों में बंध जाता है तो ईश्वर का स्मरण करता है। उसी स्मरण को ही भजन कहा जाता है। ग्रामीण जनजीवन में भजन का बहुत महत्व है। भजनों में ईश्वर और उसकी महिमा, जीवन की क्षण भंगुरता, जीव और माया, आदि का वर्णन मिलता है। इन आध्यात्मिक गीतों में ‘राम’ शब्द की महिमा का बखान अधिक किया गया है अथवा ईश्वर के लिए इस काव्य का व्यवहार अधिक मिलता है।

भड्डरी : इनके जीवन-वृत्त के विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। ऐसा कहा जाता है। कि ये ब्राह्मण पिता और अहीरिन माता से पैदा हुए थे। घाघ की तरह इन्होंने भी लोक-जीवन का आधार (वर्षा विज्ञान, ज्योतिष, नीति और शकुन सम्बन्धी) लेकर अनेक कहावतें अवधी भाषा में लिखी हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से भले ही इनके कार्य-कारण का कोई सम्बन्ध उजागर न होता हो, परन्तु आज भी अवध क्षेत्र के लोग इन्हीं पर विश्वास करके अपने दैनिक जीवन को अभिप्रेरित करते हैं।

भड्डरी : इनके जीवन-वृत्त के विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। ऐसा कहा जाता है। कि ये ब्राह्मण पिता और अहीरिन माता से पैदा हुए थे। घाघ की तरह इन्होंने भी लोक-जीवन का आधार (वर्षा विज्ञान, ज्योतिष, नीति और शकुन सम्बन्धी) लेकर अनेक कहावतें अवधी भाषा में लिखी हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से भले ही इनके कार्य-कारण का कोई सम्बन्ध उजागर न होता हो, परन्तु आज भी अवध क्षेत्र के लोग इन्हीं पर विश्वास करके अपने दैनिक जीवन को अभिप्रेरित करते हैं।

भरत-विलाप  : १५ वीं शताब्दी में जनमें कवि ईश्वरदास जी द्वारा दोहा-चौपाई छंदों में रचित यह अवधी भाषा का प्रबन्ध काव्य है। इसका वर्ण्य विषय राम वनवास के पश्चात भरत के ननिहाल से लौटने के प्रसंग से है। इस रचना में करुण रस की प्रधानता है।

भवन कवि : ये बैसवाड़ा क्षेत्र में स्थित बेंती के निवासी अवधी साहित्यकार हैं।

भँवर सिंह ‘भँवरेश’  : इनका जन्म सं. १९७९ में हुआ था। ये ग्वालियर से आकर ग्राम चिलौला (डलमऊ) जिला रायबरेली में स्थायीरूप से बस गए है। ‘किसान कै गोहारि’ इनकी सशक्त अवधी रचना है।

भँवरी  : सप्तपदी के अवसर पर स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला यह अवधी लोकगीत बड़ा ही मार्मिक है। इसमें सातों भाँवरियों का मनोवैज्ञानिक निरूपण किया गया है।

भवानी ‘भिक्षु’ : ये तौलिहवा नेपाल के निवासी थे। इनके ‘संगठित नेपाल और शाहवंश’ कृति का प्रकाशन सन् १९५६ ई. में हुआ। यह एक वीर रस प्रधान रचना है। इसमें वीर छंद (आल्हा) एवं ठेठ अवधी भाषा का प्रयोग हुआ

भवानी प्रसाद पाठक ‘भावन’ : ये मौरावाँ, उन्नाव के निवासी थे। इन्होंने भारतेन्दु युगीन अवधी साहित्यकारों में अति महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया था।

भवानी शंकर : ये १९वीं शताब्दी के अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने सं. १८७१ में ‘बैताल पचीसी’ का सृजन अवधी भाषा में किया था।

भवानीदास खरे : खरे जी झाँसी के निवासी एवं ‘भागवतपुराण भाषा’ को अवधी में अनूदित करने वाले अवधी प्रेमी साहित्यकार हैं।

भागवत दशम स्कंथ : यह कृष्ण काव्य परम्परा से जुड़ा हुआ अवधी ग्रंथ है। इस नाम से कई कवियों ने काव्य प्रणयन किया है। ये कवि हैं- सबल स्याम्, भूपति, मोहनदास, लालचदास या लालदास।

भागवतप्रसाद मिश्र ‘बागीश’ : १ जुलाई १९२८ ई. को सिन्धन कलाँ जिला बांदा में जनमें ‘बागीश’ जी ने कानपुर को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। यहीं अब किदवई नगर में सपरिवार रहते हैं। ये हिन्दी, संस्कृत, ज्योतिष शास्त्र आदि के अच्छे विद्वान हैं। मंच के एक सफल कवि हैं। इनकी अवधी काव्य की प्रकाशित कृतियाँ हैं- ठोकर, गउने का सपन, चिड़ीमार, काँव-काँव, पत्नी चालीसा। ये व्यंग्य-विनोद के कवि हैं। इनकी पुस्तक ‘ठोकर’ अधिक लोकप्रिय हुई है, जिसके दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इन्होंने हास्य के साथ ही गम्भीर राष्ट्र प्रेम की रचनायें भी की हैं। भाषा में बैसवारी अवधी का सौन्दर्य सुरक्षित है।

भागवतप्रसाद मिश्र ‘बागीश’ : १ जुलाई १९२८ ई. को सिन्धन कलाँ जिला बांदा में जनमें ‘बागीश’ जी ने कानपुर को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। यहीं अब किदवई नगर में सपरिवार रहते हैं। ये हिन्दी, संस्कृत, ज्योतिष शास्त्र आदि के अच्छे विद्वान हैं। मंच के एक सफल कवि हैं। इनकी अवधी काव्य की प्रकाशित कृतियाँ हैं- ठोकर, गउने का सपन, चिड़ीमार, काँव-काँव, पत्नी चालीसा। ये व्यंग्य-विनोद के कवि हैं। इनकी पुस्तक ‘ठोकर’ अधिक लोकप्रिय हुई है, जिसके दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इन्होंने हास्य के साथ ही गम्भीर राष्ट्र प्रेम की रचनायें भी की हैं। भाषा में बैसवारी अवधी का सौन्दर्य सुरक्षित है।

भागीरथी : इनका जन्म फैजाबाद जिले में हुआ था। इन्होंने मुख्यतः फाग गीतों का सृजन किया है। गीतों का क्षेत्र अधिकांश राम-कृष्ण कथा का रहा है। यत्र-तत्र गणेश आदि इष्ट देवों की वन्दना हुई है। ‘चौताल चिंताहरण’, (फाग-संग्रह) चार भागों में गोरखपुर से प्रकाशित हो चुका है।

भानु मिश्र  : मिश्र जी का जीवनवृत्त अप्राप्त है। इन्होंने ‘रस विनोद’ (अवधी गद्य-पद्य) नामक ग्रन्थ का प्रणयन कर अवधी साहित्य में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है।

भानुदत्त त्रिपाठी ‘मधुरेश’  : उन्नाव जनपद के गुलरिहा ग्राम में सन् १९४८ में इनका जन्म हुआ था। इन्होंने एम.ए., एल.टी., शास्त्री, और साहित्याचार्य तक की उच्च शिक्षा प्राप्त की हैं। सम्प्रति ये बी. एन. उच्चतर माध्यमिक विद्यालय अकबरपुर, फैजाबाद में अध्यापक हैं। इनका प्रकाशित अवधी प्रबन्ध काव्य है- ‘भारत-व्यथा’। यह हिन्दी के राष्ट्रीय साहित्य की विशिष्ट निधि है। इसमें मात्र भारत की व्यथा-कथा का इतिवृत्त ही नहीं है प्रत्युत् उच्च काव्य गुणों से आपूर्ण है। इस काव्य ग्रन्थ की भाषा बैसवारी अवधी है। दर्जनों मुक्तक रचनायें भी मधुरेश जी ने अवधी में की हैं। मधुरेश जी के ‘भाव-प्रसून’ और ‘लीला माधुरी’ खड़ी बोली के प्रकाशित काव्य ग्रन्थ हैं। इनकी कविता में सम्मूर्तन की क्षमता है। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा स्वदेशी के प्रचार में गाँधीवादी भावना का समाहार कवि ने किया है। चरखा और खादी उसके दृष्टि पथ की पाथेय है।

भानुप्रसाद त्रिपाठी ‘मराल’ : प्रतापगण निवासी मराल जी अवधी भाषा के समर्पित साहित्यकार है।

भानुप्रसाद पाण्डेय ‘भानु’ : फैजाबाद निवासी पाण्डेय जी अवधी साहित्य को अनेक रचनाएँ अर्पित की हैं।

भारतीय साहित्य परिचय : यह सन् १९५४ में क्षेमचन्द्र ’सुमन’ द्वारा संपादित एवं डॉ. त्रिलोकी नारायण दीक्षित द्वारा लिखित ऐतिहासिक अवधी ग्रंथ है। इसमें अवधी भाषा एवं अवधी साहित्यकारों का परिचय दिया गया है, जो अवधी साहित्यकारों के सम्मान का परिचायक है।

भारतेन्दु मिश्र  : मिश्र जी का जन्म ५ नवम्बर १९५६ को लखनऊ में हुआ है। अपने छोटे-छोटे गीतों द्वारा अवधी नवगीत के प्रवर्तन में भारतेन्दु ने उत्कृष्ट सहयोग किया है। ‘परजवटि’ नामक पुस्तक इनके अवधी गीतों का संकलन है। इनकी कविताओं में युग-बोध है। कवि गाँव के परिवर्तित रूप से अवगत है। इनकी रचनाओं में जहाँ ग्राम्य प्रेम है वहीं प्राचीनता का मोह नहीं है। मिश्र जी वस्तुतः सामाजिक आडम्बरों के प्रति विध्वंस की भावना रखते हैं, और उसकी अभिव्यक्ति जीवन्त बिम्बों, प्रतीकों और उपमानों के माध्यम से करते हैं। भाषा साफ सुथरी ठेठ अवधी का रूप प्रस्तुत करती है।

भाँवर गीत  : भाँवर विवाह का प्रमुख अंग है। अवध क्षेत्र में वेदी पर वर-कन्या की भँवरी के समय स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला गीत भाँवर-गीत कहलाता है। इन गीतों में करुणा की प्रधानता होती है।

भिखारी दास  : ये ट्योंगा ग्राम के, जो प्रतापगढ़ से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर है, निवासी थे और राजा हिन्दूपति के आश्रित कवि थे। दास जी का स्थिति काल १७ वीं शताब्दी माना जाता है। इन्होंने ‘काव्य निर्णय’ तथा ’श्रृंगार निर्णय’ नामक दो श्रेष्ठ लक्षण ग्रन्थों की रचना हिन्दूपति के नाम पर की है। इनकी काव्य भाषा ब्रज होते हुए भी अवधी से प्रभावित थी। अतएव अवधी साहित्य में इनका विशिष्ट स्थान है।

भिनसार  : यह चन्द्रभूषण त्रिवेदी ‘रमई काका’ का काव्य-संग्रह है, जो अवधी की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इस संग्रह का प्रकाशन सन् १९४६ ई. में हुआ है। इस काव्य-संकलन में भाव वैविध्य के साथ ही कलात्मक वैशिष्ट्य भी है। इस कृति ‘भिनसार’ में नवयुग की प्रचलित समस्त काव्य प्रवृत्तियों का समावेश है। इसमें छायावादी प्रवृत्ति संश्लिष्ट प्रकृति चित्रण, प्रतीकात्मकता, प्रगतिवादी भावना, हास्य व्यंग्य, चिकित्सा तथा देश-प्रेम की भावना का दर्शन किया जा सकता है।

भीख  : भीखा साहब का पूरा नाम भीखानंद चौबे था। इनका जन्म आजमगढ़ जिले के खानपुर बोहना नामक ग्राम में हुआ था। इन्होंने अवधी भाषा के माध्यम से अनेक कविताएँ लिखी हैं।

भीख  : भीखा साहब का पूरा नाम भीखानंद चौबे था। इनका जन्म आजमगढ़ जिले के खानपुर बोहना नामक ग्राम में हुआ था। इन्होंने अवधी भाषा के माध्यम से अनेक कविताएँ लिखी हैं।

भीखी  : यज्ञोपवीत के अवसर पर बटुक को मातृ-भिक्षा देते समय यह अवधी लोकगीत सामूहिक रूप से प्रस्तुत किया जाता है।

भीमसिंह बैस ‘भीम : ‘भारतु कै मुकुट हिमालय है’ इनकी अवधी रचना है।

भीषन जी  : इनका जन्म लखनऊ-हरदोई मार्ग पर स्थित काकोरी नामक ग्राम में हुआ था। इनके दो पद ‘ग्रन्थसाहिब’ में संकलित हैं। इनके पदों में अवधी भाषा का पर्याप्त प्रयोग हुआ है। अतः अवधी साहित्य हेतु इनका समर्पण भाव प्रशंसनीय है।

भीषमदास (महात्मा) : महात्मा भीषमदास जी अनंत पंथ के संस्थापक थे। इनका जन्म सं. १७७० वि. में उन्नाव जनपद के डोंडिया खेरा ग्राम में हुआ था। ये प्रारम्भ में गृहस्थ थे तदुपरांत वैराग्य उत्पन्न होने पर उपासना हेतु ये सपत्नीक अयोध्या चले गये। चेतदास आदि इनके दर्जनों शिष्य प्रसिद्ध हुए। अमरावली, अनुराग सागर, भक्ति विनोद, सृष्टिसागर आदि दर्जनों इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। इन्होंने अपने ग्रंथों में अवधी, ब्रज, खड़ी बोली तीनों का खूब प्रयोग किया है। सं. १८५० में रायबरेली जनपद के उज्जैनी ग्राम में इनका देहावसान हो गया।

भूपति  : शिवसिंह सरोज के अनुसार भूपति राजा का नाम गुरुदत्त सिंह है, भूपति इनका उपनाम है। ये ‘अमेठी’ (जिला सुल्तानपुर) के राजा थे। इन पर लक्ष्मी और सरस्वती की कृपा थी साथ ही ये तलवार के धनी थे। इनका रचना काल सं. १७९१ माना जाता है। इनकी तीन प्रसिद्ध रचनायें हैं- सतसई, रस रत्नाकर तथा कंठाभूषण। इनमें केवल सतसई ही प्राप्त है। शेष दो अप्राप्य तथा अप्रकाशित है। इन्होंने छंदोबद्ध रचनायें की है। कवित्त, सवैया, दोहा आदि छन्दों में। इनकी भाषा प्रजावधी है। भाषा सरस, प्रवाहमयी है। तद्भव और तत्सम शब्दों का योग है।

भैरवदत्त शुक्ल : शुक्लजी का जन्म जनपद खीरी में १९३२ ई. में हुआ था। ये वंशीधर शुक्ल जी के शिष्य हैं। खड़ी बोली के साथ-साथ इन्होंने अवधी को भी स्थान दिया है। ग्राम्य जीवन इनकी रचनाओं का मूल केन्द्र है। अवधी गद्य-पद्य दोनों ही लेकर चल रहे हैं शुक्ल जी। संप्रति अध्यापन में कार्यरत हैं।

मंझन  : मंझन जी का समय सं. १५७५ या १५९७ से पूर्व का है। ‘मधुमालती’ इनकी अतिप्रसिद्ध अवधी रचना है। ये हिन्दी के सूफी कवि थे। इनका पूरा नाम गुफ्तार मियाँ मंझन है। अपनी रचना मधुमालती में मंझन ने आध्यात्मिक तत्वों का समावेश स्थान-स्थान पर किया है। साधारणतः सूफी कवियों ने अपनी कहानी को दुखांत बनाया है, पर मंझन ने इसके विपरीत अपनी कहानी का अन्त नायक-नायिका के सुखद मिलन पर किया है। मंझन जी की काव्य भाषा अवधी है। दोहा-चौपाई छंदों का प्रयोग है।

मथुरादास : ये मलूकदास के शिष्य हैं। इनका समय १६४० वि. माना जाता है। इन्होंने मलूकदास के जीवन-चरित्र से सम्बद्ध ‘परिचयी’ नामक ग्रन्थ की रचना अवधी भाषा के माध्यम से की। इसके अतिरिक्त कई अवधी ग्रन्थों की रचना भी इन्होंने की।

मथुराप्रसाद सिंह ‘जटायु’ : जटायु जी ने अवधी साहित्य की पर्याप्त सेवा की है, जिससे इन्हें अवधी क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। शेष विवरण अनुपलब्ध है।

मदनमोहन पाण्डेय ‘मनोज’ : मनोज जी का जीवन परिचय तो उपलब्ध नहीं है, परन्तु इन्होंने अवधी साहित्य की जो सेवा की है, वह श्लाघ्य है। इन्होंने गीत, काव्य, खण्ड काव्य आदि के साथ निबन्ध और कहानियाँ भी अवधी साहित्य को प्रदान किया है। साहित्य सर्जना के साथ-साथ लोकगीतों का संकलन भी इन्होंने किया है।

मदनमोहन पाण्डेय ‘मनोज’ : मनोज जी का जीवन परिचय तो उपलब्ध नहीं है, परन्तु इन्होंने अवधी साहित्य की जो सेवा की है, वह श्लाघ्य है। इन्होंने गीत, काव्य, खण्ड काव्य आदि के साथ निबन्ध और कहानियाँ भी अवधी साहित्य को प्रदान किया है। साहित्य सर्जना के साथ-साथ लोकगीतों का संकलन भी इन्होंने किया है।

मदनेश महापात्र  : मदनेश जी का वास्तविक नाम गयाप्रसाद है। इनका जन्म सं. १८८१ में असनी में हुआ था, इनके पिता का नाम दौलतराम था। इनके प्राप्त चार ग्रन्थ हैं- (१) सजन प्रकाश (२) फतेह भूषण (३) नायिका भेद (४) रसराज तिलक।

मधुर फैजाबादी : जन्म स्थान- फैजाबाद, अवधी रचना- ‘देश की माटी’।

मधुसूदन दास  : ये इटावा निवासी माथुर चौबे थे और रामानुज सम्प्रदाय के वैष्णव थे। इनकी एक मात्र अवधी रचना ‘रामाश्वमेध’ उपलब्ध है।

मध्य अवध क्षेत्र की ग्रामोद्योग शब्दावली का सर्वेक्षण और विश्लेषण  : यह डॉ. सजीवनलाल द्वारा सन् १९९३ में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध है। इस शोध-प्रबन्ध में मध्य अवध-क्षेत्र में प्रचलित ग्रामोद्योग शब्दावली का संकलन तथा उसका व्याकरणिक दृष्टि से विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।

मनछुहा/धनछुहा : यह उपनयन संस्कार का प्रथम लोकाचार है। इसे चाकी-काँड़ी तथा कहीं कहीं मठमंगरा भी कहा जाता है। जौनपुर में इसे ‘अनाज छुवइया’ कहते हैं, जो धनछुहा (धान्यछुआ) का ही आधुनिक रूप है।

मनीराम अवस्थी ‘मनेश’ : इनका जन्म जरौडा, बाराबंकी में हुआ। इनको मृगेश का पर्याप्त सान्निध्य प्राप्त हुआ। इनकी रचनाओं में अवधी लोकगीतों का सफल चित्रण हुआ है। संप्रति बंथरा, उन्नाव में चन्द्रशेखर आजाद शिक्षालय’ की स्थापना करके वहीं पर सेवारत हैं।

मनीराम : ये भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध अवधी कवि हैं। इनका निवास स्थान-- बड़ा स्थान अयोध्या है।

मनोहर लाल मिश्र : ये ‘रसिक मित्र के प्रकाशक और संपादक थे। इनका रचनाकाल सन् १९०८ ई. के आस-पास का है। इनकी अवधी कविताएँ ‘सास की शिकायत और पति की हिमायत’, ‘सास बहू की नोक-झोंक’ अति सुन्दर हैं। इनका काव्य सृजन खड़ी बोली में भी मिलता है।

मन्ना लाल ‘अपढ़’ : अपढ़ जी लखनऊ के अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने सन् १९४८ में ‘शिक्षा काव्य पंचदशी’ नामक कृति का सृजन किया है।

मन्ना लाल ‘अपढ़’ : अपढ़ जी लखनऊ के अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने सन् १९४८ में ‘शिक्षा काव्य पंचदशी’ नामक कृति का सृजन किया है।

मयाराजा जयसिंह जू देव : इनका रचनाकाल सं. १८७३ वि. के लगभग प्रतीत होता है। इन्होंने भक्तिपरक ग्रंथों को अवधी में पद्यबद्ध किया है। जैसे-‘नृसिंह-कथा’, ‘पृथुकथा’, ‘हरिचरितामृत’ आदि।

मलिक मोहम्‍मद जायसी  : ये मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य की प्रेमाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। अन्तःसाक्ष्य की व्याख्या करते हुये आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जायसी का जन्म-काल हिजरी सन् ९०० माना है। विद्वानों के मतानुसार इनकी जन्म-तिथि सं. १५७५ निश्चित हुई है। जायसी का निवास-स्थान रायबरेली जिले का जायस ग्राम है। इनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं- पदमावत, कान्हावत, आखिरी कलाम और अखरावट। जनश्रुतियों तथा अनुयायियों के अनुसार इन्होंने अन्य अनेक रचनायें भी की हैं; यथा- सखरावत, चम्पावत, मटकावत, इतरावत, चित्रावत, कहरानामा, मोराई नामा, , पोस्तीनामा, मुखरानामा, सकरानामा, खुर्दानामा, होलीनामा, नैनावत, मेखरावट नामा, जपसी, धनावत, सोरठ, मसलानामा आदि। इनमें ‘पदमावत’ अवधी का विशेष महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। जायसी की भाषा अवधी है। इसमें ठेठ देशज शब्दों का प्रयोग हुआ है। लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग से इनकी भाषा में एक विशिष्ट सामर्थ्य है। इसमें बिम्ब प्रस्तुत करने की पूर्ण क्षमता है। जायसी ने अवधी के प्रचलित दोहा-चौपाई छंदो का ही प्रयोग अपनी रचना में किया है।

मलूकदास  : इनका जन्म (वैशाख कृष्ण ५), सं. १६३१ को कड़ा (जनपद इलाहाबाद) में हुआ था। इनके पिता का नाम सुन्दरदास खत्री था। इनका देहावसान सं. १७३६ को हुआ था। इनकी प्रामाणिक १२ रचनाएँ मिलती हैं। ‘ज्ञानबोध’ इनका प्रमुख ग्रन्थ है। इनकी कृतियाँ भक्तवच्छावली, बारहखड़ी, विभय विभूति सुखसागर ध्रुव चरित्र, ज्ञान परोछि मुख्यतः अवधी काव्य हैं।

महन्त महावीर राय ’जनमहाराज’ : ये जानकीघाट, अयोध्या के म‍हंत एवं अवधी साहित्य प्रेमी हैं। इन्होंने ‘श्री सीताराम शृंग्रर रस’ नामक अवधी रचना प्रस्तुत की है।

महरानी : ये द्विवेदी युग की अवधी अल्पख्यात कवयित्री रही हैं। इन्होंने अवधी काव्यधारा को अक्षुण्ण बनाये रखने का बहुत योगदान किया

महराबाइसी  : यह मलिक मोहम्मद जायसी की एक महत्वपूर्ण रचना है। इसकी भाषा अवधी है। इसे ‘कहरानामा’ भी कहा जाता है।

महानंद बाजपेयी  : ये डलमऊ, रायबरेली के निवासी एवं भारतेन्दु युगीन अवधी कवि हैं। इनका अवधी साहित्य अभी अप्रकाशित है। इन्होंने अवधी भाषा में ‘शिवपुराण का अनुवाद’ किया है।

महानंद शाह : रायबरेली निवासी शाह अवधी भाषा के अल्पख्यात कवि हैं।

महामहोपाध्याय पं. सुधाकर द्विवेदी : ये भारतेन्दु जी के समकालीन और उनके मित्र थे। इनके पिता जनपद मिर्जापुर में कार्यरत थे। वहीं पर इनका सन् १८६० ई. में जन्म हुआ था। इनकी काव्य भाषा मूल रूप से अवधी है। इन्होंने अपनी रचनाओं में उक्ति वैचित्र्य का अधिक निरूपण किया है। सन् १९१४ में इनकी मृत्यु हो गयी।

महाराज रघुराज सिंह  : रामभक्त अवधी महाकवियों की श्रेणी से जुड़े हुए ये शीर्षस्थ महाकवि हैं। इन्होंने भी अपने काव्य सृजन का माध्यम ‘राम’ को ही स्वीकार किया। भाषा के रूप में साहित्यिक अवधी का प्रयोग किया।

महावीर प्रसाद ‘राकेश’ : इनका जन्म कार्तिक सुदी एकादशी सन् १९३५ ई. को बिलग्राम, जिला हरदोई में हुआ था। ये एक अध्यापक थे। इनका काव्य सृजन संसार खड़ी बोली और अवधी दोनों में था। भूदानी नेता, महात्मा गाँधी, जवाहर लाल, गंगा और नगर विशेषतः इनकी उल्लेखनीय रचनायें हैं। सन् १९७० ई. में राकेश जी का असामयिक निधन हो गया।

महावीर यादव  : इनका जन्म सन् १९३९ ई. में ग्राम विक्रमपुर जिला प्रतापगढ़ में हुआ था। आर्थिक कठिनाइयों के कारण यादव जी को विद्यालयीय शिक्षा न मिल सकी। आजकल घर पर ही रहकर कृषि कार्य करते हैं। गीतों में ‘बिरहा’ इनको अत्यधिक प्रिय है। इनके देशप्रेम से ओत-प्रोत बिरहा गीत विशेषतः उल्लेखनीय हैं। धूस, महँगाई आदि सामाजिक समस्यायें इनकी कविता का विषय बनी हैं। इनकी अवधी कविताओं में यत्र-तत्र भोजपुरी बोली के शब्द भी देखने को मिलते है।

महावीर यादव  : इनका जन्म सन् १९३९ ई. में ग्राम विक्रमपुर जिला प्रतापगढ़ में हुआ था। आर्थिक कठिनाइयों के कारण यादव जी को विद्यालयीय शिक्षा न मिल सकी। आजकल घर पर ही रहकर कृषि कार्य करते हैं। गीतों में ‘बिरहा’ इनको अत्यधिक प्रिय है। इनके देशप्रेम से ओत-प्रोत बिरहा गीत विशेषतः उल्लेखनीय हैं। धूस, महँगाई आदि सामाजिक समस्यायें इनकी कविता का विषय बनी हैं। इनकी अवधी कविताओं में यत्र-तत्र भोजपुरी बोली के शब्द भी देखने को मिलते है।

महावीरप्रसाद द्विवेदी ‘कल्लू अल्‍हैत’  : इनका जन्म १५ मई १८६४ ई. को ग्राम दौलतपुर, जिला रायबरेली में हुआ था। अध्ययन के पश्चात् इन्होंने रेलवे की नौकरी की, कारणवश त्याग पत्र देना पड़ा। फिर साहित्य-सेवा का व्रत ले लिया, जिसमें आजीवन लगे रहे। सन् १९०३ से १९२० तक ‘सरस्वती’ पत्रिका का सम्पादन करते हुए लगभग ८१ ग्रन्थों की रचना की। गद्य-पद्य सभी क्षेत्रों में द्विवेदी जी ने कार्य किया और उसे सम्पुष्ट बनाया। अवधी कविता के क्षेत्र में द्विवेदी जी की कुछ स्फुट कवितायें स्मरणीय है। इन्होंने ‘कल्लू अल्हैत’ के नाम से ‘सरगौ नरक ठिकाना नाहीं’ आल्हा लिखा, जो बैसवारी अवधी की श्रेष्ठ रचना है।

महेन्द्र कुमार वर्मा ‘नयन’ : नयनजी रायबरेली जनपद के शिवली क्षेत्र के रहने वाले हैं। इनकी अवधी कविता ‘दहेज’ बड़ी ही प्रासंगिक एवं उत्कृष्ट है।

महेन्द्रकुमार बाजपेयी शास्त्री ‘सरल’ : सरल जी का जन्म २२ अक्टूबर सन् १९४६ ई. को सीतापुर जनपद के शंकरपुर (र‍ेउसा) गाँव में हुआ था। ब्रजमोहन लाल बाजपेयी इनके पिता थे। ये कवि होने के साथ-सा्थ नाटककार, रेखाचित्रकार और कहानीकार भी थे। इन्होंने खड़ी बोली में काफी रचनाएँ की थी, किन्तु अवधी को भी पर्याप्त स्थान देते हुए सवैया, घनाक्षरी आदि छंदों के माध्यम से महत्वपूर्ण अवधी काव्य-सृजन किया। १९९२ के आस-पास एक दुर्घटना में इनका देहावसान हो गया।

महेश प्रसाद ‘श्रमिक’ : इनका जन्म लखन‍ऊ के काँकराबाद नामक ग्राम ( मलिहाबाद के निकट) में १ मई ३९३७ ई. को हुआ था। पिता का नाम श्री महाबीर प्रसाद ‘सविता’ है। संप्रति ये २७७/९३, खवासपुरा, नाका हिंडोला में रहकर डी.ए.वी. कालजे के सामने राजकीय यंत्र निर्माण कार्यशाला में कार्यरत हैं। इनकी काव्य-यात्रा श्री गिरिजा दयाल ‘गिरीश’ के साहित्य मण्डल से जुड़कर प्रारम्भ हुई। इनके काव्य-संग्रह हैं- धरतधूरि धुआँ, महलु मड़इया, जनचरितमानस, लुकुरी (सवैया छंद)- ये सभी अवधी के हैं एवं अप्रकाशित हैं। खड़ी बोली के प्रकाशित काव्य-संग्रह हैं- मजदूरों ने सीना ताना, सुनलो धरती पुत्र, अहिल्या बाई होल्कर। ‘जंगल संसारू’ इनका एक लम्बा कवित्त हैं। इसमें ग्रामीण परिवेश का विस्तृत वर्णन किया गया है।

महेश्वर बख्श सिंह : ये आधुनिक युग के अवधी साहित्यकार है। इनका जीवनकाल (सन् १८६०-१९०१ ई. ) के बीच रहा हैं। इन्होंने महाभारत के नकुल द्वारा वर्णित गो-गज चिकित्सा पर आधारित ‘गो-गज-चिकित्सा’ नामक काव्य का सृजन अवधी भाषा में किया है।

माड़ौ  : प्रत्येक मांगलिक आयोजन पर मंडप-अच्छादन और विसर्जन के समय स्त्रियों द्वारा यह अवधी लोक गीत गाया जाता है। इसमें हास्य-परिहास का अतिरेक दृष्टिगत होता है।

माधव प्रसाद : ये द्विवेदी युग के अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने अपनी सृजन प्रतिभा अवधी साहित्य को समर्पित की।

माधव : ये बैसवारी क्षेत्र के भारतेन्दु युगीन अवधी कवि हैं।

माधुरी दास  : इनका कविता काल सं. १६८७ है। भाषा अवधी है। विशेष विवरण अप्राप्त है।

माधुरी दास  : इनका कविता काल सं. १६८७ है। भाषा अवधी है। विशेष विवरण अप्राप्त है।

माधो : ये भारतेन्दु युग के अवधी रचनाकार है।

माधोदास  : माधोदास के बारे में विवरण अन्धकार के गर्त में ढका हुआ है। इनकी अवधी कहावतें जनमानस में खूब प्रचलित हैं। माधोदास का उल्लेख श्री राम नरेश त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक ’ग्राम-साहित्य (भाग ३)’ में किया है।

मानदास  : ये रामकाव्य परंपरा से जुड़े हुए प्रसिद्ध साहित्यकार रहे हैं। इन्होंने अपना काव्य साहित्यिक अवधी में रूपायित किया है।

मालदेव जैन : इनके ग्रन्थ हैं - पुरंदर कुमार चउपई, भोज प्रबंध। रचनाकाल- १६५२ है। भाषा अवधी है। विशेष विवरण अनुपलब्ध है।

मिहीलाल ‘मिलिन्द’ : मिलिन्द जी भारतेन्दु युगीन अवधी कवि थे। डलमऊ में इनका निवास स्थान था। इनका अवधी साहित्य अप्रकाशित है।

मीर जलील  : इ्नका पूरा नाम मीर अब्दुल जलील था। ये अरबी, फारसी, संस्कृत, हिन्दी के साथ-साथ संगीतशास्त्र के भी ज्ञाता थे। इनका समय सं. १६६२ से १७२६ ई. तक था। इन्होंने हिन्दी रचनायें ‘जलील’ उपनाम से की हैं। इनकी अवधी रचनाओं में अवधी तथा ब्रजावधी का सौन्दर्य देखा जा सकता है। इनके गुरू पं. हरवंश मिश्र बिलग्रामी थे। इनकी अवधी रचनाये हैं-प्रेम-कथा, शिख-नख आदि। प्रेम कथा चौपाइयों में रचित है और शिख-नख बरवै छन्द में।

मुक्तिभद्र दीक्षित ‘मत‍ई काका’ : इनका जन्म १९२९ में सीतापुर जनपद के सिधौली नामक कस्बे में हुआ था। ये पढ़ीस जी के ज्येष्ठ पुत्र हैं। ‘चेतु रे माली फुल बगिया’, इनकी प्रसिद्ध अवधी कविता है। इनकी कविता में देश-प्रेम, प्रकृति चित्रण और श्रृंगार वर्णन प्रमुखतः परिलक्षित होते हैं।

मुंडन, (मूड़न)  : शिशु के मुंडन संस्कार का अपना एक अलग ही महत्व हैं। इस संस्कार के सम्पन्न होने में जो वात्सल्य प्रधान अवधी लोक गीत स्त्रियों द्वारा गाया जाता है, वह ‘मूँडन गीत’ कहलाता है।

मुनीशदत्त शर्मा ‘मुनीश’ : इनका विस्तृत विवरण तो प्राप्त नहीं है, किंतु इनका अवधी काव्‍य-सृजन अपने में महत्वपूर्ण है। साहित्य अधिकतर अप्रकाशित है।

मुनीशदत्त शर्मा ‘मुनीश’ : इनका विस्तृत विवरण तो प्राप्त नहीं है, किंतु इनका अवधी काव्‍य-सृजन अपने में महत्वपूर्ण है। साहित्य अधिकतर अप्रकाशित है।

मुल्ला दाऊद  : इतर स्रोत तथा अन्तः साक्ष्य के आधार पर मुल्ला दाऊद उ.प्र. के रायबरेली जिले के ‘डलमऊ’ नामक ग्राम के निवासी थे। अवध गजोटियर्स तथा रायबरेली गजोटियर्स में मुल्ला दाऊद के डलमऊ निवासी होने का उल्लेख हुआ है। इनके अनुसार डलमऊ के मुल्ला दाऊद नामक कवि ने हिजरी ७७९ में भाषा में ‘चन्दैनी’ नामक ग्रन्थ का सम्पादन किया। कवि का रचना काल हिजरी ७८१ है तथा शाहे वक्त के रूप में कवि ने फिरोजशाह तुगलक का वर्णन किया है। डा. माताप्रसाद गुप्त के अनुसार दाऊद की जन्म-तिथि १४०० विक्रमी के आस-पास तथा मृत्यु-तिथि १४७५ वि. के आस-पास हैं। अन्तः साक्ष्य के आधार पर मुल्ला दाऊद का जीवन काल १४वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। दाऊद ने फिरोजशाह तुगलक का शासनकाल तथा जूनाशाह का मंत्रित्व काल स्वयं देखा था और अपनी कृति का प्रणयन जूनाशाह के सम्मान में किया था। इनके गुरू जैनुद्दीन थे। मुल्ला दाऊद ने अपनी अवधी कृति चांदायन की रचना दोहा-चौपाई छन्दों में किया है। दाऊद की भाषा साहित्यिक परिष्कार से दूर जन भाषा है। अवध के केन्द्र बैसवारा की लोक संस्कृति, लोक जीवन के विविध आयाम इनकी रचना में जीवन्त हुए हैं।

मुंशी गणेशप्रसाद कायस्थ  : इनका उल्लेख ‘मिश्र बन्धु विनोद’ (द्वितीय भाग) में मिलता है। इनकी अवधी रचनाएँ हैं - ‘राधाकृष्ण दिनचर्या’ और ‘ब्रजवन-यात्रा।’

मूनू कावि : ये अवधी भाषा के प्रसिद्ध कवि रहे। हैं। इनका निवास स्थान बैसवारा क्षेत्र का असोकर क्षेत्र है। इनका आविर्भाव-काल भारतेन्दु युग रहा है।

मृगावती  : अभी तक उपलब्ध हिन्दी सूफी प्रेमाख्यानों में मृगावती का स्थान प्रथम आता है। इसके प्रणयनकर्ता कुतबन है। इसका रचना काल सन् १५०३ ई. है। इसकी भाषा अवधी है। मृगावती को आधार बनाकर इस प्रेमाख्यान की रचना हुई है। इसकी कथा दुखांत है।

मेले का मजा : यह सन् १९५४ में रचित पं. वंशीधर शुक्ल की अवधी कहानी है। यह दैनिक ‘स्वतंत्र भारत’ में प्रकाशित हो चुकी है।

मैनासत  : यह साधन कृत एक लोकाख्यान काव्य है। इसका उल्लेख इतिहास ग्रन्थों में किया गया है। वस्तुतः सतवन्ती मैंना की कथा की वाचिक अभिव्यक्ति भारत में बहुत प्राचीन है। इसी कथा की साहित्यिक परिणति है- साधन रचित ‘मैनासत’। इसमें मैंना नामक रूपसी के सतीत्व की कहानी है, इसकी कथा सुखांत है। कथानक बड़ा मार्मिक और सुगठित है। संयम और मध्यम मार्ग के मैनासत का मूल तत्व हैं। ‘साधन ने पुरुष और प्रकृति के संयोग को ही योग की निष्पत्ति माना है। वस्तुतः इस कृति में योग और भोग का सुन्दर समन्वय है। नारी की मनोदशा का तथा उसके अन्तर्द्वन्द्व की बड़ी सूक्ष्म, सरस और प्रभावपूर्ण अभिव्यंजना है। यह दोहा-चौपाई और सोरठा छंद में रचित अवधी काव्य-ग्रन्थ है। इसकी रचना १४८० के आस-पास हुई मानी जाती है।

मोहनदास दफ्तरी  : ये संत दादूदयाल के शिष्य थे। ‘ब्रह्मलीला’ नामक इनका ग्रन्थ हैं, जो प्रकाशित हो चुका है। भाषा अवधी है। चौपाई छंद का प्रयोग है।

मोहनदास : ये कृष्णकाव्य परम्परा के अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने ‘भागवत दशम स्कंध’ नामक अवधी ग्रंथ का सृजन किया है।

मौन : ये बैसवारी अवधी के प्रतिनिधि कवि हैं। इनका आविर्भाव काल भारतेन्दु युग है।

यदुचंद लखनवी : लखनवी जी का जन्म लखनऊ नगर में हुआ था। ‘फैशन’ आदि अवधी रचनाएँ करके इन्होंने आधुनिक जीवन की विसंगतियों पर कटाक्ष किया है।

यदुचंद लखनवी : लखनवी जी का जन्म लखनऊ नगर में हुआ था। ‘फैशन’ आदि अवधी रचनाएँ करके इन्होंने आधुनिक जीवन की विसंगतियों पर कटाक्ष किया है।

यशोदानंदन : ये रहीम के बाद अवधी में ‘बरवै नायिका भेद’ लिखने वाले प्रसिद्ध रचनाकार हैं। इनका जन्म सं. १८२८ वि. माना गया है।

युक्तिभद्र दीक्षित  : इनका जन्म सिधौली, जिला सीतापुर में १९२९ ई. में हुआ। इन्हें काव्य-रचना की प्रेरणा अपने पिता श्री पढ़ीस जी से प्राप्त हुई। पितृशोक के कारण ये विधिवत शिक्षा अर्जित नहीं कर पाए फिर भी अपने पुरुषार्थ के बल पर इन्होंने अपने संस्कार जाग्रत किए। ये अवधी के श्रेष्ठ गीतकार हैं। इनके गीतों में अनुभूति की सघनता है और विषयगत वैविध्य भी। इन्होंने राष्ट्रीय भावधारा से प्रभावित होकर अनेक रचनाएँ की है। ऋतु गीतों की परंपरा में इनका महत्व निर्विवाद है। गाँव की धरती, वहाँ का प्रकृति परिवेश और उसके सौन्दर्य का भाव-भीना चित्र इनके गीतो में उद्भासित हुआ है। कवि के अवधी गीतों में श्रृंगार का भी पर्याप्त पुट परिलक्षित होता है। दीक्षित जी ने अपनी अवधी में भोजपुरी शब्दों को भी यथेष्ठ मात्रा में स्थान दिया है।

युगलविहार पदावली : यह रामबल्लभ शरण द्वारा प्रणीत अवधी काव्य-संग्रह है।

युगलानन्यशरण  : इन्होंने बचनावली (अवधी गद्य) नामक रचना का सृजन किया है। शेष विवरण अप्राप्त है।

योगेश्वराचार्य : ये सरभंग सम्प्रदाय के संत थे। इनका जन्म ग्राम रूपौलिया जनपद चम्पारन (बिहार) में सन् १८८४ में हुआ था। सन् १९४६ में इन्होंने साकेत को अपना निवास स्थान बनाया। गृहस्थी-परित्याग के पश्चात वैराग्यावस्था में इन्होंने अवधी भाषा में अनेक रचनाएँ प्रस्तुत की हैं।

रघुनाथ सिंह चौहान : इनका जन्म सन् १९१० में ग्राम भवानीपुर, पोस्ट-इन्दौराबाग निकट बख्शी का तालाब जनपद लखनऊ के एक कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री भगवान दीन सिंह है। पारंपरिक भक्त कवि के रूप में इनका विपुल साहित्य है। निखिल हिन्दी परिषद लखनऊ ने सन् १९८४ में छंदकार दिवस पर इनको यथोचित सम्मानित किया था। इनकी अवधी कृतियाँ हैं- गणेशचरित (महाकाव्य), चौबीसा, पचीसा, चालीसा, साठिका आदि लगभग ३३ ग्रंथ। इनका एक मात्र श्री चन्द्रिका देवी चालीसा प्रकाशित हो सका है। इसके अतिरिक्त इन्होंने कीर्तन-भजन भी लिखे हैं।

रघुनाथ सिंह चौहान : इनका जन्म सन् १९१० में ग्राम भवानीपुर, पोस्ट-इन्दौराबाग निकट बख्शी का तालाब जनपद लखनऊ के एक कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री भगवान दीन सिंह है। पारंपरिक भक्त कवि के रूप में इनका विपुल साहित्य है। निखिल हिन्दी परिषद लखनऊ ने सन् १९८४ में छंदकार दिवस पर इनको यथोचित सम्मानित किया था। इनकी अवधी कृतियाँ हैं- गणेशचरित (महाकाव्य), चौबीसा, पचीसा, चालीसा, साठिका आदि लगभग ३३ ग्रंथ। इनका एक मात्र श्री चन्द्रिका देवी चालीसा प्रकाशित हो सका है। इसके अतिरिक्त इन्होंने कीर्तन-भजन भी लिखे हैं।

रघुनाथदास  : इन्होंने विश्राम मानस (नाटक प्रतीकात्मक) ग्रन्थ का प्रणयन किया था, जिसकी भाषा अवधी है। शेष विवरण अप्राप्त है।

रघुराज सिंह : ये बैसवाड़ा क्षेत्र के भारतेन्दु युगीन अवधी कवि हैं।

रघुवंश : ये द्विवेदी युग की अवधी काव्यधारा से जुड़े हुए रचनाकार हैं। अवधी साहित्य में इन्होंने काफी योगदान किया है।

रतना-तुलसी : यह श्री विश्वनाथ सिंह ‘विकल’ कृत अवधी रचना है, जिसका प्रकाशन सन् १९७६ ई. में हुआ था।

रत्नकुँवरि बीवी : ये कृष्ण-भक्त कवयित्री एवं राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद की दादी थीं। इनका पूरा जीवन भगवद्भक्ति में बीता। सं. १८५७ वि. में इन्होंने ‘प्रेमरत्न’ नामक प्रबन्ध-काव्य की रचना दोहा-चौपाईं छंद में की थी, जिसकी भाष ब्रज मिश्रित अवधी हैं। इस कृति में भक्ति भावना से सराबोर कृष्ण-चरित्र का निरूपण हुआ है।

रधुनाथदास ‘रामसनेही’ : बाबा रघुनाथदास अयोध्या में रामानुज सम्प्रदाय के गद्दीधर महात्मा हरीराम जी के शिष्य थे। इन्होंने सं. १९११ वि. में ‘विश्रामसागर’ नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया था। ‘विश्राम सागर’ तुलसीदास की दोहा-चौपाई शैली पर लिखा गया ग्रन्थ है। भाषा अवधी है।

रमाकांत श्रीवास्तव  : श्रीवास्तव जी उन्नाव जनपद के निवासी हैं। ग्रामीण जीवन और प्राकृतिक सौन्दर्य का इनके हृदय पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। इनकी भाषा में अवधी का शुद्ध रूप विद्यमान है। भाषा में ठेठ ग्रामीण शब्दावली का प्रयोग है साथ ही कुछ नयापन भी।

रमाकान्त श्रीवास्तव  : इनका जन्म सन् १९२० में रायबरेली जनपद के लालगंज क्षेत्र के पूरे मोहनलाल में हुआ था। ‘वीरभारत’, ’जयभारत’ आदि पत्रों के संपादन कार्य में भी सहयोगी बने। अब उ.प्र. सरकार के ‘श्रमजीवी’ में सहायक रूप में कार्यरत हैं। सन् १९३६ से ही इनकी अवधी रचनाएँ निकलने लगीं थीं।

रमेश रंजन मिश्र  : व्यक्तित्व एवं कृतित्व के धनी मिश्र जी लखनऊ क्षेत्र के निवासी हैं। इन्होने अपने साहित्य सृजन में अवध को विशेष स्थान देकर उसकी गरिमा को बढ़ाया है।

रमेश रंजन मिश्र  : व्यक्तित्व एवं कृतित्व के धनी मिश्र जी लखनऊ क्षेत्र के निवासी हैं। इन्होने अपने साहित्य सृजन में अवध को विशेष स्थान देकर उसकी गरिमा को बढ़ाया है।

रमेशचंद ‘सुकंठ’ : १ जनवरी सन् १९२० को जन्में सुकंठ जी भटौली बेहंदरि, जनपद हरदोई के निवासी एवं प्रसिद्ध अवधी साहित्यकार हैं। इनके पिता का नाम गजोधर प्रसाद है। इन्होंने चकबंदी गीत, बटोही गीत, नामक रचनाएँ अवधी भाषा में सृजित की है।

रमेशचन्द्र श्रीवास्तव : इटियाथोक, गोण्डा में जन्में श्रीवास्तव जी अवधी के भक्त कवि हैं। इन्होंने अपनी श्रद्धा अवधी भाषा के प्रति अनन्य भाव से अभिव्यक्त की हैं।

रमैनी  : यह छंद विशेष है, जिसका प्रयोग संत कवियों ने (विशेषतः कबीर ने) किया है। इनकी संख्या ८४ है। इसे रामायण का देशज रूप कहा जा सकता है। इसकी भाषा में पर्याप्त अवधी रूप है। रमैनियों में कबीर ने मुख्यतः माया का निरूपण किया है, अतएव इसकी व्युत्पत्ति ’माया से रमण’ करने से संबद्ध मानी जाती हैं। माया का तिरस्कार और ईश्वर की पहचान इसमें देखने को मिली है।

रवीन्द्र प्रकाश ‘भ्रमर’  : रचना-‘सीमा हेरि रही’। परिचयात्मक विवरण अनुपलब्ध है।

रवीन्द्रकुमार श्रीवास्तव  : इनका जीवन परिचय तो उपलब्ध नहीं है, किंतु ‘सुख अंगार झरहूँ’ नामक अवधी रचना प्रस्तुत कर इन्होंने अपना अवधी अनुराग प्रकट कर दिया है।

रस विलास  : कवि बेनी भट्ट द्वारा रचित यह ग्रंथ खूबचंद (बैसवाड़ा) की प्रेरणा से लिखा गया है। खूबचंद का वंश वर्णन भी इसमें है। इस ग्रंथ में सभी रसों का सुन्दर समावेश है। सवैया, दोहा आदि छंदों का प्रयोग है। भाषा ब्रजावधी है।

रसरतन : यह कवि पुहकर द्वारा रचित हिन्दू प्रेमाख्यान है। इसकी रचना सं. १६७५ में हुई। इस ग्रंथ में भाषा के रूप में पश्चिमी अवधी प्रयुक्त हुई। शब्द-चयन, भाषा आदि ‘मानस’ के समकक्ष प्रतीत होती है।

रसिकेश जी : रचना- ’गांधी चालीसा’ शैली- दोहा-चौपाई। विशेष विवरण अप्राप्त।

रहीम  : ‘बरवै नायिका भेद’ नामक अवधी काव्य के रचयिता अब्दुर्रहीम खाँ खानखाना अकबर के नवरत्नों में विख्यात हैं। ये तुलसी के समकालीन थे। इनका जन्म सन् १५५६ ई. में हुआ था। अकबर ने इन्हें पाटन की जागीर प्रदान की थी, फिर इन्हें गुजरात की सूबेदारी भी। ‘खानखाना’, पंचहज़ारी, वकील आदि उपाधियाँ इनके वैभव और गौरव की साक्षी हैं। ‘बरवै नायिका भेद’ अवधी में नायिका भेद का सर्वोत्तम ग्रन्थ है। इसमें विभिन्न नायिकाओं के उदाहरण हैं। रहीम ने बरवै छंदों में गोपी-विरह का वर्णन भी किया है, जो स्वतंत्र रूप से विचारणीय है।

रहीम (शेख)  : शेख रहीम अरवल नगर के निवासी थे। इनके पिता का नाम यार मोहम्मद था। सं. १९१५ में इन्होंने ‘भाषा-प्रेमरस’ नामक अवधी काव्य का सृजन किया।

रहीम (शेख)  : शेख रहीम अरवल नगर के निवासी थे। इनके पिता का नाम यार मोहम्मद था। सं. १९१५ में इन्होंने ‘भाषा-प्रेमरस’ नामक अवधी काव्य का सृजन किया।

राउर-बेल (राउलबेल)  : रोडा कृत ‘राउलबेल’ शौरसेनी से प्रभावित, ११वीं शताब्दी के आसपास की रचना है। यह खण्डित काव्य एक शिलाफलक पर अंकित और प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम बम्बई में सुरक्षित है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने हिन्दी अनुशीलन में इसका एक पाठ प्रकाशित किया है और इसे ११वीं शताब्दी की रचना बताया है, और इसकी भाषा को दक्षिणी कोसली कहा है। डॉ. परमेश्वरी लाल गुप्त ने इसको १३वीं शताब्दी के आसपास की रचना माना है। इस काव्य में विभिन्न प्रदेश की स्त्रियों का रूप वर्णन है। राउलबेल की भाषा का ‘चांदायन’ की भाषा से निकट का सम्बन्ध है। अवधी के इतिहास में राउलबेल का एक प्रमुख स्थान है।

राग रामायण : यह पं. रामप्रसाद पाण्डेय ‘द्विजदीन’ द्वारा रचित अवधी कृति है। इसमें राम-कथा को प्रस्तुत किया गया है।

रागेश मिश्र : इनकी जन्मस्थली एवं जन्म-तिथि विवादास्पद है। यह विवाद पहले ‘स्वतंत्र भारत’ दैनिक पत्र के माध्यम से प्रकट हुआ। इस विवाद से हटकर स्वयं मिश्र जी का कहना है कि उन्होंने अपनी माता से सुना है कि मंगलवार फाल्गुन ८ संवत १९९१ वि. उनकी जन्म तिथि है और रामनगर, आलमबाग (कानपुर रोड), लखनऊ के एक मकान की छोटी सी खपरैल की छाया थी- जन्म स्थली। किन्तु इस तथ्य को प्रमाणित करने वाली जन्म कुंडली आज तक नहीं बन पायी। मिश्र जी की काव्य प्रतिभा विभिन्न शैलियों एवं विभिन्न बोलियों के माध्यम से प्रस्फुटित हुई है। इनकी रचनाओं में लगभग ५०० कविताएँ शताधिक लघु कथाएँ, २०० निबंध और ५० साक्षात्कार शामिल हैं।

राजकिशोर मिश्र : जन्म सन् १९५३, खेड़ा अटौरा, रायबरेली (निवास स्थान)।

राजनारायन सिंह चन्देल  : इनका जन्म कोटिया, फतेहपुर में हुआ था। इन्होंने अवधी भाषा में तैरनिहार शुभानिये जू’ आदि कविताएँ लिखकर अपना अवधी प्रेम प्रदर्शित किया है।

राजबली पाण्डेय : इनकी रचना है- गाँधी के सुरजवा (कजरी)। अन्य विवरण अप्राप्य है।

राजबली यादव  : यादव जी का जन्म सन् १९११ में ग्राम अरई, जलालपुर जनपद फैजाबाद में हुआ था। शैक्षिक स्तर सामान्य है, किंतु ये प्रतिभाशाली रचनाकार हैं। ये स्वतंत्रता संग्राम के एक वीर सैनिक रहे हैं। अपनी प्रेरक उद्बोधक रचनाओं के माध्यम से इन्होंने जन-चेतना का बिगुल बजाने का कार्य किया है। यादव जी अवधी में ‘आल्हा’ लिखने में बड़े कुशल हैं। ‘भारत की लूट’ में आल्हा शैली में प्रस्तुत करके अंग्रेजों के काले कारनामों को उजागर किया गया है। ‘मोरे पिछवरवा जमीदार भइया मीत लहरी के लहरा भीजै दे’ इनकी अवधी भाषा की प्रख्यात रचना है। इनके कई नाटक तथा गीत संकलन भी हैं।

राजा चित्रमुकुट और रानी चन्द्रकिरन की कथा : यह सं. १९११ में प्रणीत हिन्दू प्रेमाख्यान है। इस ग्रंथ की भाषा चलती हुई अवधी है। इसकी भाषा से खड़ी बोली का विकसित रूप भी परिलक्षित होता है। कवि की भाषा जायसी की भाषा से बहुत कुछ साम्य रखती है।

राजाराम बाजपेयी ‘कुमुद’ : रामकोट, सीतापुर के निवासी कुमुद जी अवधी के प्रति समर्पित साहित्यकार हैं। इन्होंने ‘कलियुग का चक्कर’ नामक कृति के साथ-साथ ढेर सारा सृजन अवधी साहित्य को अर्पित किया है।

राजाराम बाजपेयी ‘कुमुद’ : रामकोट, सीतापुर के निवासी कुमुद जी अवधी के प्रति समर्पित साहित्यकार हैं। इन्होंने ‘कलियुग का चक्कर’ नामक कृति के साथ-साथ ढेर सारा सृजन अवधी साहित्य को अर्पित किया है।

राजेश कुमार पाण्डेय निर्झर ‘प्रतापगढ़ी’ : ये प्रतापगढ़ के निवासी एवं अल्पख्यात अवधी कवि हैं।

राजेश दयाल ‘राजेश’ : इनका जन्म गणेश गंज नवैया के एक प्रतिष्ठित वैष्णव भक्त परिवार में १६ फरवरी सन् १९२३ ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री गणेश दयाल था। माता-पिता दोनों धार्मिक प्रवृत्ति के थे। ब्रज, खड़ी बोली के काव्य-सृजन के अतिरिक्त इनकी अवधी कृतियाँ भी श्रेष्ठ साबित हुईं। उनमें प्रमुख हैं- बरवै हजारा (१९७९), दोहाविहार, ‘विरवा’ पत्रिका में प्रकाशित रचना- ‘बड़की बिटनियाँ’ आदि। राजेश जी आजीवन ब्रह्मचारी रहकर स्वामी नारदानंद (नैमिषारण्य) के प्रमुख शिष्यों में सम्मान्य रहे हैं।

राथा बल्लभ : वर्तमान अवधी के लोकगीत लेखकों में इनका स्थान महत्वपूर्ण है।

राधेश्याम तिवारी  : इनका जन्म प्रतापगढ़ जनपद के पूरे वीरबल नामक ग्राम में १९४० ई. के लगभग हुआ था। पिताजी माताबदल तिवारी स्वच्छन्द प्रकृति के व्यक्ति हैं। अतः उनकी उन्मुक्तता का इन पर भी प्रभाव पड़ा है। हिन्दी में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ये गाँव के पास एक विद्यालय में अध्यापन कार्य कर रहे हैं। सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याओं से सम्बद्ध विषयों को अपनी कविता में विशेष स्थान दे रहे हैं।

राधेश्याम पाण्डेय : इन्होंने राष्ट्रीय सोहर लिखकर अवधी भाषा के प्रति अपना अनुराग प्रकट किया है।

राम अचरज तिवारी : बस्ती जनपद में जनमें तिवारी जी प्रतिभा के धनी कलाकार हैं। इन्होंने अपनी अनेक रचनाओं में अवधी को महत्व प्रदान किया है।

राम दोहावली : यह रसिक सम्प्रदाय के रामभक्त हनुमान शरण ‘मधुर अलि’ द्वारा प्रणीत अवधी रचना है, जिसका सृजन सन् १९८७ में हुआ था।

राम मनोहर : ये द्विवेदी युग के अवधी साहित्यकार हैं, जिन्होंने अवधी काव्यधारा को अक्षुण्ण बनाये रखने में सराहनीय कार्य किया।

राम मनोहर : ये द्विवेदी युग के अवधी साहित्यकार हैं, जिन्होंने अवधी काव्यधारा को अक्षुण्ण बनाये रखने में सराहनीय कार्य किया।

राम रसायन : सन् १८८२ में रसिक बिहारी द्वारा रचित अवधी ग्रंथ है। इसकी कथा १५ अध्यायों में विभक्त हैं। मूलभाषा अवधी होने के साथ-साथ इसमें यत्र-तत्र ब्रजी का प्रयोग हुआ हैं। इसमें दोह, चौपाई, सोरठा, सवैया, गीतिका, घनाक्षरी आदि छंदों का प्रयोग हुआ है।

राम रसिकावली  : यह रसिक रामभक्तों का परिचय प्रस्तुत करने वाला एक अवधी ग्रंथ है। इसके प्रणेता रीवाँ नरेश महाराज रघुराज सिंह जी हैं।

राम सुन्दर : बस्ती जनपद के राघूपुर कस्बा के निवासी ये अवधी रचनाकार सेवी हैं। ये अवधी साहित्य सृजन में उत्साहपूर्वक संलग्न है।

राम सुन्दर : बस्ती जनपद के राघूपुर कस्बा के निवासी ये अवधी रचनाकार सेवी हैं। ये अवधी साहित्य सृजन में उत्साहपूर्वक संलग्न है।

रामअधार लाल  : इनका जन्म १९२४ ई. में प्रतापगढ़ जनपद के ‘कुटिलिया’ नामक ग्राम में हुआ। साहित्यरत्न की उपाधि प्राप्त करने के उपरांत ये आजकल इण्‍टर कालेज लक्ष्मणपुर में अध्यापन कार्य कर रहे हैं। इन्होंने अधिकांशतः ग्रामीण समस्याओं और सामाजिक विषयों पर अवधी में कविताएँ लिखी हैं।

रामअधार लाल  : इनका जन्म १९२४ ई. में प्रतापगढ़ जनपद के ‘कुटिलिया’ नामक ग्राम में हुआ। साहित्यरत्न की उपाधि प्राप्त करने के उपरांत ये आजकल इण्‍टर कालेज लक्ष्मणपुर में अध्यापन कार्य कर रहे हैं। इन्होंने अधिकांशतः ग्रामीण समस्याओं और सामाजिक विषयों पर अवधी में कविताएँ लिखी हैं।

रामउजागर दुबे  : दुबे जी का जन्म १३ जुलाई सन् १९०८ को गानेपुर, जनपद फैजाबाद में हुआ था। इनकी अवधी कृतियाँ करमू प्रधान, धरमू सरपंच, पुरखों की थाती (नाटक) प्रकाशित हो चुकी हैं।

रामऋषि दास : रायबरेली के निवासी दास जी अवधी भाषा में अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त कर अत्यंत प्रतिष्ठा प्राप्त की है।

रामकिशन मौर्य : प्रतापगढ़ के चिलबिला गाँव के निवासी मौर्य जी अवधी साहित्य क्षेत्र के जाने माने कवि हैं।

रामकुंडलिया : यह बाराबंकी जिले में जनमें संत बलदूदास द्वारा रचित अवधी कृति है।

रामकृष्ण दीक्षित ‘फक्कड़’ : इनका जन्म सन् १९३६ में दोस्तपुर अमावाँ, रायबरेली में हुआ था। इन्होंने अपने अवधी गीतों में लोकजीवन की समस्याओं और बिद्रूपताओं को उजागर किया है। सन् १९८३ में इनका असामयिक निधन हो गया है।

रामकृष्ण सन्तोष  : इनका जन्म ७ जून १९४८ को औरंगाबाद-खीरी लखीमपुर में हुआ है। ‘बिरवा’ अवधी पत्रिका के तृतीयांक में इनकी प्रथम अवधी रचना छपी, जिसका पर्याप्त स्वागत हुआ। इनकी कविताओं में आत्मालोचन, आत्मविश्लेषण एवं विवेचन की प्रवृत्ति प्रधान रहती है। आत्मवेदना तो मूल बिन्दु ही है। इनकी कविता की यह विशिष्टता रही है कि उसमें कहीं अतिरंजना का पुट नहीं आने पाया है। इनकी अवधी कविताओं में लोकभाषा का सहज स्वाभाविक प्रयोग तथा भाव-सम्प्रेषण की अपूर्व क्षमता है। कवि की अवधी पश्चिमी अवधी अथवा बैसवारी अवधी का आभास कराती है। कहावतों के प्रयोग से भाषा में लाक्षणिक शक्ति विद्यमान है।

रामगुलाम द्विवेदी : सं. १८९६ में जनमे द्विवेदी जी रामकाव्य परम्परा से सम्बद्ध अवधी काव्यकार रहे हैं। इनकी अवधी कृतियाँ हैं- बरवा, और राम गीतावली।

रामगुलाम वैश्य : वर्तमान अवधी कवियों में इनका नाम उल्लेख्य है। ‘जो प्रभु हम पटवारी होइत’ आदि कविताओं के माध्यम से इन्होंने भ्रष्टाचार की ओर ध्यान आकर्षित किया है।

रामगोपाल पाण्डेय ’शरद : ये फैजाबाद जिले के निवासी एवं अवधी भाषा के प्रति समर्पित साहित्यकार हैं।

रामगोपाल पाण्डेय ’शरद : ये फैजाबाद जिले के निवासी एवं अवधी भाषा के प्रति समर्पित साहित्यकार हैं।

रामचरण दास : ये अयोध्या के महंत थे। इन्होंने कई अवधी ग्रंथ सृजित किये हैं, जिनमें ‘कवितावली रामायण’ और ‘राम चरित्र’ उल्लेख्य है।

रामचरणदास ‘करुणासिन्धु’  : इनका जन्म सं. १७६० में जनपद प्रतापगढ़ के एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ये भगवान राम के उपासक थे। मानस की सर्वप्रथम टीका इन्होंने ही की। इन्होंने २४ ग्रन्थों की रचना की है। इनका देहावसान माघ शुक्ल ९, सं. १८८८ को हो गया। मानस की टीका अवधी गद्य की रचना है।

रामचरित उपाध्याय : इनका जन्म सन् १८७२ में जनपद गाजीपुर में हुआ था। अवधी, ब्रज और खड़ी बोली पर इनका समान अधिकार था। बरवै छंद में ‘बरवा चौसई’ नामक अवधी कृति बहुत प्रसिद्ध हुई। सन् १९३८ में इनकी मृत्यु हो गयी।

रामजी दास : अवधी के वर्तमान लोकगीत सर्जकों में इनका स्थान उल्लेख्य है। इनके गीतों में आध्यात्मिकता का प्रभाव अधिक परिलक्षित हुआ है।

रामजी शरण : ये कृष्णकाव्य परम्परा के महाकवि हैं। इन्होंने ‘कृष्णायन’ महाकाव्य का सृजन अवधी भाषा में करके उल्लेखनीय कार्य किया है।

रामदत्त तिवारी ‘कुलीन’  : इनका जन्म सन् १९०७ ई. में ग्राम रौसिंगपुर (निकट मिश्रिख तीर्थ) जिला सीतापुर में हुआ था। इनकी शिक्षा हाईस्कूल तक रही। ये गन्ना विभाग में सुपरवाइजर हो गये। इनकी अवधी की प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं- कुलीनता का नंगा नाच, नारद मोह, काग भुसुण्डि-गरुड़ संवाद, दुर्गादर्शन, गंगा गौरव, अंगद-रावण-संवाद, लंका-दहन, गन्ना गाथा, गुदगुदी, बंगलादेश की लड़ाई आदि। इनकी अवधी रचनायें ‘सुकवि’ में निरन्तर प्रकाशित होती रही हैं। इनकी भाषा में लोकजीवन और लोकभाषा की सरलता है। हिन्दी सभा, सीतापुर इन्हें सम्मानित भी कर चुकी है। भाषा ठेठ अवधी है।

रामदुलारे ‘विद्याकर’ : इनका जन्म रायबरेली में सन् १९५१ में हुआ था। वर्तमान में ये अवधी भाषा के प्रति समर्पित भाव से कवि-कर्म में रत हैं।

रामदुलारे ‘विद्याकर’ : इनका जन्म रायबरेली में सन् १९५१ में हुआ था। वर्तमान में ये अवधी भाषा के प्रति समर्पित भाव से कवि-कर्म में रत हैं।

रामनयन सिंह काका’ : इनका स्थान अवधी साहित्य में अति प्रशंसनीय है। इन्होंने ‘मंगरू कै अखबार सावन कै फुहार’, के साथ-साथ लगभग एक दर्जन लोकगीतों की पुस्तकें अवधी लोक-साहित्य की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए सृजित की हैं। ‘अवध अध्यात्म रामायन’ शीर्षक से महाकाव्य की सर्जना भी की है। फलस्वरूप सन् १९८२ एवं १९८७ में ‘जायसी सम्मान’ से सम्मानित किये गये।

रामनरेश त्रिपाठी  : त्रिपाठी जी का जन्म १८८९ ई. में और निधन १९६२ ई. में हुआ। अपने खड़ी बोली प्रबन्धों-पथिक, स्वप्न मिलन आदि के लिए तो त्रिपाठी जी को अपरिमित यश मिला ही है, अवधी लोक साहित्य के सर्वेक्षण कार्य में इनकी पहल प्रशंसनीय है। इन्होंने आठ खण्डों में प्रकाशित ‘कविता कौमुदी’ के भाग ४ में लोकगीतों का दुर्लभ संग्रह प्रकाशित किया है। इसके अतिरिक्त सोहर ‘घाघ और भड्डरी’ जैसी कृतियों का प्रकाशन अवधी साहित्य-सेवा की दृष्टि से उल्लेखनीय है।

रामनरेश मिश्र ‘कात्यायन’ : खीरी जनपद के गोला गोकर्णनाथ क्षेत्र के निवासी कात्यायन जी एक भावुक रचनाकार हैं। इनकी रचनाओं में संवेदना अधिक अभिव्यक्त हुई है। इनकी प्रिय भाषा अवधी है।

रामनाथ शर्मा : जन्मस्थान- सिधौली, सीतापुर। रचना-‘भारत माँ दुनिया ते न्यारी’।

रामनारायण त्रिपाठी  : त्रिपाठी जी का जन्म सन् १८९७ में ग्राम भेलावाँ चतुरैया, जिला सीतापुर में हुआ था। इनके पिता का नाम भूधर लाल त्रिपाठी था। त्रिपाठी जी में देश के प्रति अनुराग था। ये कांग्रेसी कार्यकर्ता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। अपने जीवन काल में ये कई बार राष्ट्रीय आन्दोलनों के संदर्भ में जेल गये तथा अनेक यातनायें भी सहीं। इनका जीवन एक कृषक का था। इन्होंने अपनी, अवधी कविताओं में अपने युग-बोध का मार्मिक परिचय दिया है। पराधीन देश की दुरवस्था ही इनके लेखन का उपजीव्य बना। इनकी अवधी रचनायें इस प्रकार हैं- किसान सन्देश - १९३३ ई. में प्रकाशित, दादनि और हरगंगा, जवानी, बुढ़ापा, आदर्श भारत, गजेन्द्र मोक्ष, त्रिपुर दहन, द्रोपदी दुकूल, तथा जरासंध-वध आदि। इनकी रचनाओं में लोकजीवन और लोकभाषा की सहजता विद्यमान है। लक्षणा के सुन्दर प्रयोग हैं। भाषा में बैसवारी अवधी का रूप परिलक्षित होता है।

रामनारायण त्रिपाठी ‘मित्र’ : मित्र जी सीतापुर जनपद के चतुरैया भिलावाँ के निवासी एवं महत्वपूर्ण अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने अपना अवधी प्रेम १९३६ ई. में प्रकाशित ‘किसान संदेश’ के माध्यम से प्रकट किया है। ‘हरग गंगा’, ‘दादनि’ इनकी विशिष्ट अवधी रचनाएँ है।

रामनारायण सिंह : इनका निवास स्थान था- फैजाबाद एवं अवधी फाग (काव्य-सृजन)।

रामनारायण सिंह : इनका निवास स्थान था- फैजाबाद एवं अवधी फाग (काव्य-सृजन)।

रामप्रकाश त्रिपाठी : संदना, सीतापुर के निवासी त्रिपाठी जी उच्च स्तर के अवधी कवि हैं। इन्होंने सन् १९५२ में पंचायत का प्रपंच’ नामक कृति का सृजन किया।

रामप्रकाश यादद ‘निर्झर  : निर्झर जी का जन्म सन् १९४८ में रायबरेली जनपद के ग्राम पूरे कालिका (सेमरपहा) में हुआ था। ये एम. ए., बी.एड. की शिक्षा प्राप्त कर अध्यापन कार्य में लग गए। इनकी रचनायें देश-प्रेम से पूरित हैं, इनमें आधुनिक विकास का स्वर है। इन्होंने अपनी कवितायें लोकगीत शैली पर लिखा हैं। अवधी में बैसवारी का पुट है।

रामप्रताप पाठक  : ये ग्राम पाठक पल्ली (पटकौली), पो. मुस्तफाबाद जिला फैजाबाद के निवासी हैं। इनकी जन्म तिथि है - अगहन संवत् १९६७ वि.। इनकी विद्यालयीय शिक्षा केवल कक्षा-५ तक हो पाई, किंतु इन्होंने स्वाध्याय से हिन्दी साहित्य, भारतीय दर्शन और पुराणों का पुष्कल ज्ञान प्राप्त कर लिया। व्यवसाय से ये कृषि कार्य में प्रवृत्त हैं। इनकी अवधी रचनाएँ अभी अप्रकाशित हैं। इनमें दोहे और लोकगीत सर्वाधिक हैं।

रामप्रसाद यादव : ये फतेहपुर के निवासी एवं अवधी भाषा के सर्जक साहित्यकार हैं।

रामप्रिया शरण  : ये जनकपुर के महंत थे। इनका आविर्भाव काल सं. १७६० है। इन्होंने अवधी साहित्य के परिवर्द्धन में काफी योगदान किया है। इनका ‘सीतायन’ नामक अवधी ग्रंथ बहुत महत्वपूर्ण है।

रामबल्लभ शरण : ये १९वीं शताब्दी के रसिक सम्प्रदाय के उत्कृष्ट रामभक्त हैं। इनका जन्म सन् १८५८ में एवं मृत्यु सन् १९३२ में हुई। थी ‘युगलविहार पदावली’ इनका अवधी काव्य-संग्रह है।

रामबहादुर सिंह ‘भदौरिया’  : ये मूलतः खड़ी बोली के कवि हैं। अवधी मातृभाषा होने के कारण इन्होंने अवधी के प्रति भी आस्था एवं मोह का प्रदर्शन किया है। इनका लोकगीत-‘जिया मा धधकई होरी’ बहुश्रुत है।

रामरक्षा त्रिपाठी निर्मिक : ये फैजाबाद के निवासी एवं अल्पख्यात कवि हैं।

रामलखन सिंह  : ये प्रतापगढ़ जनपद के ‘लखापुर नाक ग्राम के निवासी हैं। एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर सम्प्रति अध्यापन कार्य कर रहे हैं। अवधी गीत के अतिरिक्त खड़ी बोली में भी इन्होंने गीत लिखे हैं। कृषक-जीवन को अधार मानकर इन्होंने गीत अधिक लिखे है।

रामलला नहछू  : यह तुलसीदास कृत रचना है। इसके दो पाठ मिलते हैं। एक में ४० पद हैं तथा दूसरे में केवल २६। ४० पद वाली प्रति प्रकाशित है। विद्वानों ने इसका रचनाकाल सं. १६१६ माना है। ‘नहछू’ नाखून काटने की एक रीति विशेष है, जो विवाह या यज्ञोपवीत संस्कार के पहले वर के नख काट कर सम्पन्न की जाती हैं। इस ग्रन्थ की रचना सोहर छन्दो में की गई है। इसकी भाषा अवधी हैं। इसमें भगवान राम के नहछू का वर्णन किया गया है।

रामविलास मिश्र  : ये रायबरेली के निवासी एवं अल्पख्यात कवि हैं।

रामशंकर शर्मा ‘प्राचीन’ : रचना- ‘खादी चुनरिया’ के माध्यम से ये अपना राष्ट्रानुराग अभिव्यक्त करने वाले कवि हैं।

रामशरण सिंह  : ये प्रतापगढ़ जनपद के खटवारा नामक गाँव के निवासी हैं। मिडिल स्कूल तक शिक्षा प्राप्त कर निकटवर्ती प्राथमिक विद्यालय, डोमपुर में कुछ सपय तक अध्यापन कार्य किया। कुछ समय उपरान्त ये रीवाँ चले आए और वहीं राजकीय माडल बेसिक स्कूल में अध्यापक हो गए। बाद में एम.ए भी कर लिया। साहित्य और कला के प्रति इनकी अभिरुचि बाल्यकाल से ही थी और इसका बहुत कुछ श्रेय इनके पिताजी को है, जिन्हें सूर, कबीर तथा तुलसी के सैकड़ों पद कंठस्थ हैं। ‘गाँव की धरती’ इनकी प्रकाशित रचना है। इस संग्रह के अधिकांश गीत गाँव के किसान तथा वहाँ की प्रकृति में सम्बद्ध हैं। इनके काव्य में प्रकृति का अनमोल चित्र अंकित हुआ हैं। शरण जी मानवतावादी कवि हैं। इन्होंने प्रेम और सौहार्दमूलक भावना के विकास से ही समाज और विश्व का कल्याण संभव कहा है। इनकी काव्य भाषा पूर्वी अवधी है। इनकी भाषा पर तुलसी की भाषा का व्यापक प्रभाव पड़ा है।

रामसागर शुक्‍ल ‘सागर’ : सागर जी सीतापुर जनपद के अशोकपुर बनियामऊ के निवासी हैं। ‘होरी’ नामक रचना इन्होंने अवधी भाषा में कई खण्डों में प्रस्तुत की है, जो अत्यन्त उच्चकोटि की है।

रामस्वयंवर : यह रीवाँ नरेश महाराज रघुराज सिंह द्वारा प्रणीत अवधी प्रबन्ध-काव्य है। इस ग्रंथ राम-सीता-विवाह का वर्णन है। इसमें अवधी एवं बघेली का मिला-जुला रूप है। इसमें सबसे अधिक उल्लेखनीय बात यह है कि सीता के नाम पर स्वयंवर न रखकर राम के नाम पर स्वयंवर पर आघृत नामकरण किया गया है।

रामस्वरूप मिश्र ‘विशारद’  : ये रायबरेली जिले के रहने वाले थे। पं. द्वारा प्रसाद मिश्र के समान ये भी राजनीति में रुचि ले रहे हैं। ‘कृष्णायन’ और ‘सुविचार सतसई’ इनके प्रमुख ग्रन्थ हैं। ‘सुविचार सतसई’ में समाज नीति की बाते हैं तो दूसरे ग्रन्थ कृष्णायन में भक्ति की प्रधानता है। इनकी शैली सरल एवं प्रवाहपूर्ण है।

रामस्वरूप सिंह : रायबरेली निवासी श्री सिंह फाग सृजन के क्षेत्र में अतिप्रसिद्ध रहे हैं।

रामस्वरूप : १८वीं शताब्दी में जन्में रामस्वरूप जी सन्त चरनदास जी के शिष्य थे। इन्होंने ‘गुरुभक्ति प्रकश’ नामक अवधी ग्रन्थ का प्रणयन किया, जिसमें इन्होंने गुरू चरनदास जी के चरित्र का उल्लेख किया है।

रामानुज मिश्र : इनका जन्म सन् १८२७ में जिला सुल्तानपुर के महरानी पश्चिम गाँव में हुआ था। मिश्र जी ने ‘भाउ तरंग’ नामक अवधी कृति प्रदान करके अवधी के प्रति अपनी आस्था प्रकट की है। इन्होंने तमाम अन्य कविताएँ भी सृजित की हैं। इनकी काव्य भाषा पूरबी अवधी है।

रामायण महानाटक  : यह सन् १६१० ई. में रचित प्राणचन्द जी की कृति है। यह कृति तुलसीदास के महाकाव्य ‘रामचरित मानस’ की दोहा-चौपाई वाली शैली में लिखी गई है। भाषा अवधी है। डॉ. गोपीनाथ तिवारी ने इसे हिन्दी का पहला मौलिक नाटक कहा है।

रामावतार लीला : इस ग्रन्थ की रचना मलूकदास द्वारा हुई है। इस रचना के पढ़ने से ज्ञात होता है कि मलूकदास आरम्भिक जीवन में अवतारवाद पर विश्वास रखते थे। इसका प्रमाण मलूकदास के निकट स्थित भग्नावशेष ठाकुरद्वारा है, जो इनका सगुण भक्त होना पुष्ट करता है। ‘रामावतार लीला’ इनकी जन्मभूमि ‘कड़ा’ के आस-पास बहुत प्रसिद्ध है।

रामाश्रय गुप्त : रचना- ‘मांझी ह्वै जाऔ तैयार’ आदि अवधी कविताओं के रचयिता गुप्त जी अल्पख्यात साहित्यकार हैं।

रामाश्वमेध  : यह मधुसूदनदास रचित उत्तर राम चरित है, जो अवधी भाषा में दोहा-चौपाई शैली में लिखा गया है। इसका रचनाकाल सं. १८२९ (सन् १७८२ ई.) है। इस महाकाव्य की रचना पद्‍मपुराण के पातालखण्ड की कथा के आधार पर की गई है।

रामेश्वर प्रसाद द्विवेदी ‘प्रलयंकर’ : प्रलयंकर जी का जन्म १९५७ ई. में पूरे सूबेदार हैदरगढ़ में हुआ था। इन्होंने हिन्दी एवं अंग्रेजी से एम.ए. करके लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से आधुनिक अवधी से सम्बन्धित विषय पर शोधकार्य किया। संप्रति रामपाल त्रिवेदी इण्टर कालेज, गोसाईगंज में प्रवक्ता पद पर सेवारत हैं और ओजस्वी स्वर से आपूर्ण अवधी रचनाएँ समाज को समर्पित कर रहे है।

रामेश्वर प्रसाद द्विवेदी ‘प्रलयंकर’ : प्रलयंकर जी का जन्म १९५७ ई. में पूरे सूबेदार हैदरगढ़ में हुआ था। इन्होंने हिन्दी एवं अंग्रेजी से एम.ए. करके लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से आधुनिक अवधी से सम्बन्धित विषय पर शोधकार्य किया। संप्रति रामपाल त्रिवेदी इण्टर कालेज, गोसाईगंज में प्रवक्ता पद पर सेवारत हैं और ओजस्वी स्वर से आपूर्ण अवधी रचनाएँ समाज को समर्पित कर रहे है।

रामेश्वर प्रसाद मिश्र : सतना में कार्यक्षेत्र होने के बावजूद मिश्र जी अवधी भाषा एवं अवधी संस्कृति के बड़े हिमायती हैं। इन्होंने अपने काव्य सृजन में अवधी को अपनी काव्य भाषा स्वीकार किया है।

रामेश्वर श्रीवास्तव ‘बाबूलाल’ : इनका जन्म सन् १९१० में रायबरेली जनपद में हुआ। इनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना मुखरित हुई है। ‘रायबरेली का इतिहास’ (सन् १९४९) इनका प्रसिद्ध अवधी काव्य है, जिसमें आल्हा शैली को अपनाया गया है।

रुद्रदत्त त्रिपाठी  : त्रिगाठी जी का निवास स्थान सुल्तानपुर जनपद के मुसाफिरखाना में है। इनकी ‘गोपियों का विरह’ नामक अवधी कविता उल्लेखनीय है।

रुद्रेन्द्रनाथ : ये बहराइच जिला के निवासी हैं। इनकी प्रतिभा साहित्य सृजन के रूप में प्रकट होती रही है।

रूप नारायण त्रिपाठी : जौनपुर निवासी त्रिपाठी ने भोजपुरी के साथ अवधी साहित्य की जो सेवा की है, वह अति महत्वपूर्ण है।

रेवाराम सिंह : इनकी रचना- ‘कांग्रेस का आल्हा’ है, जिसके माध्यम से इन्होंने राजनीतिक वातावरण को प्रदर्शित किया है।

लक्षदास : ये अवधी कृष्ण-काव्य-परम्परा के अत्यंत प्रसिद्ध कवि थे और तुलसी के समकालीन थे। इन्होंने ‘कृष्ण-रस-सागर’ ‘भागवत पुराण-सार’, ‘दोहावली’, आदि कई ग्रंथों का प्रणयन किया हैं। इनमें से ‘कृष्णचरित्र’ का विशेष प्रकाशन हुआ है।

लक्ष्मण प्रसाद ‘मित्र’  : मित्र जी का जन्म सन् १९०६ में ‘हिंडौरा’ (सीतापुर) में वैश्य कुल में हुआ था। इन्होंने अवधी में आल्हा, बारहमासा, भजन माला आदि की रचना की। पढ़ीस जी के संपर्क में आने पर इन्होंने अवधी रचनाएँ लिखनी आरंभ की है। प्रमुख कृतियों में बुड़भस, सोमवारी, प्रेमलीला, सराध की श्रद्धांजलि, सिलहारिनी, बहू की सीख, घूस का जन्म, मड़ए की धूम, तशरीफ, दो खेतों की कहानी काव्य रचनाएँ हैं। इनके सिवा ‘वाणशय्या’ नामक नाटक भी लिखा है। मित्र जी की लेखनी सामाजिक समस्याओं तथा कुरीतियों के चित्रण एवं उनके समाधान हेतु सक्रिय रही है।

लक्ष्मण शरण  : इन्होंने रामलीला बिहार (लीलानाटक) नामक अवधी रचना का सृजन सं. १८५० में किया था। शेष विवरण अप्राप्य है।

लक्ष्मण शरण  : इन्होंने रामलीला बिहार (लीलानाटक) नामक अवधी रचना का सृजन सं. १८५० में किया था। शेष विवरण अप्राप्य है।

लक्ष्मीनारायण यादव ‘बन्दा’ : बन्दा जी जन्म १५ जनवरी सन् १९३० ई. को लखनऊ में हुआ था। इनके पिता स्व. गयादीन आर्म पुलिस विभाग में कार्यरत थे, जिनक मूल निवास बाराबंकी जिले के हैदरगढ़ तहसील का मैनपुरवा नामक ग्राम हैं। बंदा जी ने पं. गोमती प्रसाद पांडेय को अपना काव्य गुरू माना है। ये संगीत एवं काव्य प्रतिभा के जितने धनी हैं उतने ही सदाचरण और स्वाभिमान के। इन्होंने अवधी के अतिरिक्त खड़ी बोली के छंदविद्या में अनेक छंद लिखे है। गीत-गजल में भी इनकी लेखनी चली है। इन्होने अवधी भाषा में अनेक श्रेष्ठ कविताएँ लिखी हैं।

लपकौरि : यह एक वैवाहिक गीत हैं। इसमें दुर्गा जनेऊ के उपरांत नाई या वर का भाई जनवास में दही गुड़ ले जाकर वर को खिलाता है। इसे लपकौरि खिलाना कहा जाता है। इसी अवसर पर स्त्रियाँ अत्यन्त फूहड़ गीत गाकर वर तथा बरातियों का मनोरंजन करती हैं।

ललकदास : सन् १७१ ई. में आविर्भूत ये लखनऊ निवासी रामानन्दी सम्प्रदाय के गद्दीधारी वैष्णव संत थे। ये भगवान राम की उपासना श्रृंगार भाव से करते थे। ललकदास विचरण करने वाले महात्मा थे। इनके दो ग्रन्थों का पता चला है। (१) सत्योपाख्यान (१७६८ ई.) एवं (२) भाषा कोशल खण्ड (१७९३ ई.)। इनका प्रतिपाद्य विषय राम की विलास क्रीड़ाओं का वर्णन है। अधिकांशतः तुलसीदास की दोहा-चौपाई शैली में इन्होंने काव्य का सृजन किया है।

ललिता चालीसा : यह श्याम सुन्दर शर्मा कृत अवधी कृति है, जो सन् १९५२ में सृजित हुई

ललिता प्रसाद : ये द्विवेदी युग के अवधी कवि हैं। अपने युग में इन्होंने इस काव्यधारा को सतत प्रवहमान बनाये रखने में अपना भरपूर योगदान किया है।

लवकुश दीक्षित  : ये बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ जी के पुत्र हैं। इनका जन्म सन् १९३३ में ग्राम अम्बरपुर जनपद सीतापुर में हुआ था। लवकुश जी के चारों भाई अवधी काव्य की सेवा में संलग्न हैं। मंच के सफल कवि लवकुश विशेषतः अवधी में गीत और लोकगीत लिखते हैं। इनका अवधी गीतों का संकलन ‘अंजुरी के मोती’ सन् १९६६ में प्रकाशित हो चुका है। हिन्दी संस्थान लखनऊ से इन्हें सम्मानित भी किया जा चुका है। इनके लोकप्रिय गीत हैं- उजेरिया भुइँ उतरी, च्यातौ किसान, बिरनवा बांधौ रखिया, नदिया, गंगा मैया आदि। इनके काव्य में कहीं प्रकृति का सौन्दर्य है तो कहीं श्रृंगार के चित्ताकर्षक दृश्य। इनकी लेखनी ने किसानों के दैन्य भाव का चित्र खींचा है। किसानों में जागृति के स्वर भरे हैं। राष्ट्रीय भावना, स्वावलम्बन एवं जोश का स्वर भी इनके गीतों में परिलक्षित होता है।

लहकँवरि  : विवाहोत्सव के उपलक्ष्य में वर-वधू के बीच द्यूत-क्रीड़ा कराती हुई स्त्रियाँ इस अवधी लोकगीत का गायन करती हैं। वर-कन्या दोनों पक्षों में ये गीत अलग-अलग रूप से गाए जाते हैं। विशेषतः वर को कलेवा कराते हुए गाया जाता है।

लाचारी (लहचारी)  : यह स्तुतिपरक गीत है। इसका सम्बन्ध लाचारी अर्थात् निरुपायता से माना गया है। यह आर्त्तभक्त का एक दैन्यभाव है, जिसे विनय पदावली से सम्बद्ध कहा जा सकता है। लाचारी गीत धार्मिक तो होते ही हैं, इनमें सामाजिक विवशताओं का भी वर्णन होता है।

लाचारी (लहचारी)  : यह स्तुतिपरक गीत है। इसका सम्बन्ध लाचारी अर्थात् निरुपायता से माना गया है। यह आर्त्तभक्त का एक दैन्यभाव है, जिसे विनय पदावली से सम्बद्ध कहा जा सकता है। लाचारी गीत धार्मिक तो होते ही हैं, इनमें सामाजिक विवशताओं का भी वर्णन होता है।

लामा अवधेश ‘सुमन’ : बलदेव नगर, सीतापुर में जनमें सुमन जी अवधी के ख्यातिप्राप्त साहित्यकार हैं। जैसा नाम है वैसी ही इनके सृजन में अनुभूति होती है। इनकी रचनाओं में सहज भाव एवं उदारता चरम सीमा तक पहुँची है।

लाल कवि  : इनके जीवन का इतिहास लुप्त प्राय है। ये बरेली के निवासी थे। इनकी एक अवधी कृति ‘अवध विलास’ उपलब्ध होती है। इसका प्रणयन सं. १७०० में हुआ था।

लाल बुझक्कड़  : लाल बुझक्कड़ जनपद फर्रुखाबाद के रत्न थे। ये अपनी बुद्धि के चमत्कार दिखाया करते थे। अवधी भाषा में इन्होंने ढेर सारी पहेलियाँ समाज को अर्पित की हैं।

लालचदास  : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ये रायबरेली के रहने वाले हलवाई थे। इन्होंने संवत् १५८५ में हरिचरित और संवत् १५८७ में ‘भागवत दशम स्कन्ध भाषा’ नाम की पुस्तक अवधी मिश्रित भाषा में लिखी। (हिन्दी साहित्य का इतिहास - पृ. १९१) इनकी रचना दोहा चौपाई में की गई है। ये वैष्णवी वृत्ति के थे। इनका नाम कहीं-कहीं लालनदास उद्धृत हुआ है। लालचदास की कृति हरिचरित्र के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ये इस कृति के रचनाकाल में ही दिवंगत हो गये थे। तदुपरांत हस्तिनापुर निवासी आसानन्द रायबरेली में रहने लगे थे, जहाँ उन्होंने लालचदास से पूरी रचना सुनी थी। अतः उन्होंने रचना का शेष भाग पूरा किया।

लालबहादुर सिंह भदौरिया  : इनका जन्म सन् १९१० में हरदोई जिले में हुआ था। ये अवधी में स्फुट रचनायें लिखते हैं। समाज-सेवा और देश-प्रेम इनके व्यक्तित्व का गुण है। व्यवसाय के रूप में ये एक प्रेस चलाते रहे। ये सदैव कांग्रेसी कार्यकर्ता रहे हैं। सन् १९४९ में सृजित इनकी कृति ‘किसान-राज्य’ उल्लेख्य है।

लावा  : यह, विवाह के अवसर पर कन्या पक्ष में ‘लावा डालने’ की प्रथा विशेष के अवसर पर स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला लोकगीत है।

लिखीस जी  : ‘पढ़ीस जी’ की टक्कर पर यह नाम रखा गया है। लिखीस जी भी व्यंग्यपूर्ण हास्य की रचना करने में विशेष कुशल हैं। हिन्दी काव्य प्रेमी इनके व्यंग्यात्मक साहित्य से विशेष परिचित हैं। इनकी शैली में प्रवाह और प्रभावित करने की सुन्दर शक्ति है। ये पढ़ीस जी और रमई काका की शैली पर लिखते हैं। अवधी भाषा को ही अपना भाषा-क्षेत्र बनाया है।

लेज  : यह होलिकोत्सव पर वृन्दगान के रूप में विलम्बित स्वर से गाया जाने वाला एक लोकगीत है। यथा- शम्भुसुत सुनहु विनय एक मोरि। मोरि विनय श्रवण करि लीजै कहत दोउ कर जोरि।

ल्क्ष्मीप्रसाद ‘प्रकाश’ : से जनपद रायबरेली के तकनपुर सेहगो गाँव में सन् १९५३ में जन्मे थे। वसन्त लाल पिता तथा श्रीमती मोहन देवी इनकी माता हैं। संस्कृत विषय से ये एम.ए. हैं तथा इस समय रायबरेली के स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत हैं। अवधी की अनेक रचनायें विविध पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। ‘ममाखी’ नाम से एक अवधी काव्य संकलन इन्होंने तैयार किया है, जो अभी अप्रकाशित है। अवधी की विभिन्न संस्थाओं से प्रकाश जी सन्नद्ध हैं। राष्टीय भावधारा, आज के संदर्भ में गिरते मानवमूल्य, कोरी स्वार्थपरता, भ्रातृत्त्व का नष्ट होना, अलगाववाद की भावना आदि की मार्मिक अभिव्यक्ति इन्होंने अपनी रचनाओं में की है।

वर्ण रत्नाकर : यह शेष ज्योतिरीश्वर ठाकुर द्वारा प्रणीत १४वीं शताब्दी की गद्य रचना है, जिसमें अवधी का प्रारम्भिक रूप देखने को मिलता है।

वंशीधर शुक्ल : आधुनिक काल में जनमें वंशीधर जी भारतेन्दु युग के प्रतिनिधि अवधी कवि हैं। बैसवाड़ा इनका निवास-स्थल है।

वंशीधर शैदा (कलयुगी) : ये एक अवधी प्रेमी साहित्यकार रहे हैं। इन्होंने ’वाल्मीकि रामायण’ का अनुवाद अवधी भाषा में सन् १९४१ से १९४९ के बीच सम्पन्न किया था।

वंशीधर शैदा : शैदा जी मोहनलाल गंज, रायबरेली में जनमे एक उच्चकोटि के अवधी साहित्यकार हैं। इनकी अवधी रचनाएँ समाज को विशिष्ट उपलब्धि साबित हुई हैं।

वंशीधर शैदा : शैदा जी मोहनलाल गंज, रायबरेली में जनमे एक उच्चकोटि के अवधी साहित्यकार हैं। इनकी अवधी रचनाएँ समाज को विशिष्ट उपलब्धि साबित हुई हैं।

वागीश शास्त्री : पैरोडी लेखक (अवधी भाषा)।

वारसी : वारसी जी बेड़हौरा, सीतापुर के निवासी अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने सन् १९४४ में ज्ञानसागर’ नामक कृति सृजित कर अपना अवधी प्रेम अभिव्यक्त किया है।

वासुदेव सिंह चौहान : इनका जन्म १६ जनवरी सन् १९२८ ई. को ग्राम उम्मेद खेड़ा, (बंथरा के निकट) लखनऊ में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री हरदेव सिंह है। सन् १९८६ में राजकीय सेवा से अवकाश प्राप्त कर काव्य सृजन में ये प्रवृत्त हैं। इनकी खड़ी बोली, ब्रज एवं अवधी तीनों पर समान अधिकार है। इन्होंने असंख्य कविताएँ लिखी हैं। ‘हुलसी के तुलसी’ (सन् १९६१) इनकी सशक्त अवधी कविता है।

विकास गीत : जिन गीतों में राष्ट्र के उत्थान की बात कही जाती है, ‘विकास गीत’ कहे जाते हैं। इन गीतों में आर्थिक उन्नति, सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास, शिक्षा का प्रसार आदि ग्रामीण समस्याओं पर बल दिया जाता है। विकास गीत दो प्रकार के होते हैं - १- सुधार गीत, २-प्रसार गीत।

विकासायन : यह श्री ओम प्रकाश द्वारा रचित काव्यग्रंथ है, जिसकी रचना अवधी भाषा में की गयी है।

विक्रमाजीत सिंह  : इनका जन्म ग्राम राजापुर, जिला प्रतापगढ़ में सन् १९०९ में हुआ था। पारिवारिक असुविधाओं के कारण ये विधिवत् स्कूलों में शिक्षा नहीं प्राप्त कर सके। कविता की प्रेरणा इन्हें शम्भुनाथ नामक किसी कवि से मिली। उसे अभ्यास द्वारा परिष्कृत करते हुए इन्होंने अवधी कविता में अपना एक स्थान सुरक्षित कर लिया। इनकी कविता में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी समस्याओं को स्वर मिला है, फिर भी श्रृंगार अपेक्षाकृत अधिक मुखर है। कजली में इन्हें दक्षता प्राप्त है। इन्होंने सैकड़ों कजलियाँ लिखी हैं, जिनमें अनेक पौराणिक प्रसंग और जनजीवन के तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं।

विजयकुमार पाण्डेय : ये सीतापुर जनपद के विख्यात ग्राम ‘गंधौली’ के निवासी हैं। इनका जन्म १५ जुलाई १९३९ को हुआ था। ग्राम गंधौली सुप्रसिद्ध समालोचक पं. कृष्ण बिहारी मिश्र की भी जन्मस्थली और कर्मस्थली रही हैं। इनकी शिक्षा-दीक्षा मात्र इण्टरमीडिएट तक ही रही हैं। समाज में इनका स्थान एक पत्रकार, साहित्यकार और समाज सेवक के रूप में हैं। ये विशेषतः अवधी में ही लिखते हैं। इनकी रचनायें इस प्रकार हैं- ‘बेड़ी गई टूटि गुलामी की’, ’हमरे जी का जंजाल’, ‘हमार मेहरी’, ‘देहरी’, ’हमार गाऊँ’ आदि।

विजयकुमार पाण्डेय : ये सीतापुर जनपद के विख्यात ग्राम ‘गंधौली’ के निवासी हैं। इनका जन्म १५ जुलाई १९३९ को हुआ था। ग्राम गंधौली सुप्रसिद्ध समालोचक पं. कृष्ण बिहारी मिश्र की भी जन्मस्थली और कर्मस्थली रही हैं। इनकी शिक्षा-दीक्षा मात्र इण्टरमीडिएट तक ही रही हैं। समाज में इनका स्थान एक पत्रकार, साहित्यकार और समाज सेवक के रूप में हैं। ये विशेषतः अवधी में ही लिखते हैं। इनकी रचनायें इस प्रकार हैं- ‘बेड़ी गई टूटि गुलामी की’, ’हमरे जी का जंजाल’, ‘हमार मेहरी’, ‘देहरी’, ’हमार गाऊँ’ आदि।

विदा  : वर पक्ष को विवाह हेतु भेजती हुई स्त्रियाँ इस अवधी लोकगीत में अपनी शुभकामनाएँ प्रकट करती हैं। इससे प्राचीन विवाहों, अपहरणों, युद्धों आदि जटिलताओं का पूर्वाभास होता है।

विद्याथर महाजन  : इनकी जन्मतिथि सन् १९०० तथा निधनतिथि सन् १९२३ ई. है। महाजन जी होशियार पुर, पंजाब के निवासी थे। इन्होंने ’श्री गांधीचरित मानस’ नामक महाकाव्य की रचना रामचरित मानस की भाषा शैली पर की है। इस ग्रन्थ में महात्मा गाँधी के पावन चरित्र पर प्रकाश डाला गया है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन महाकवि के मरणोपरांत सन् १९५५ में हुआ। इन्होंने राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक कविताएँ भी अवधी में लिखी हैं।

विद्यापति  : ‘कीर्तिलता’ विद्यापति जी की वह कृति हैं, जिसमें अवधी के प्रारम्भिक रूप का दर्शन होता है। अतः विद्यापति भी अवधी के आधार स्तम्भों के रुप में परिगणित किए जाते हैं।

विद्यार्थी महावीरप्रसाद वर्मा : इनका अवधी काव्यकारों में महत्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने अवधी छन्द ‘बरवै’ लेखन में विशेष ख्याति अर्जित की है। ‘सच्ची सलाह’ नामक इनकी बरवै रचना है।

विंध्येश्‍वरी प्रसाद श्रीवास्त : ये बिसवाँ, सीतापुर के निवासी हैं। इनकी कई कविताएँ बहुत प्रसिद्ध हुई हैं। अपनी काव्य भाषा के रूप में इन्होंने अवधी को स्वीकार किया है। इन्होंने ‘भला भाई’ नामक भड़ौवा सृजित किया है, जो अवधी की हास्य व्यंग्यात्मक विधा के रूप में प्रख्यात हुई है।

विमल पाण्डेय : लखनऊ निवासी पाण्डेय जी अवधी के ख्याति प्राप्त साहित्यकार हैं। ‘उगिलै बरफ अंगार’ इनकी विशिष्ट रचना है, जो सन् १९६३ में प्रकाश में आयी।

विमला श्रीवास्तव : ये अवधी कवयित्री हैं। इन्होंने अवधी साहित्य को गौरवान्वित करने में भरपूर सहयोग किया है। इनका कार्यक्षेत्र गोण्डा है।

विमला सूरी : रचना- ‘देसवा करौ उजियार’ के माध्यम से इन्होंने अभिप्रेरक भाव अभिव्यक्त किये हैं।

विश्वनाथ पाठक  : इनका जन्म २४ जुलाई सन् १९३१ में फैजाबाद जिले के ग्राम पाठक पल्ली (तकिया कानूनगो) में हुआ था। इनके पिता का नाम रामप्रताप पाठक था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा का माध्यम उर्दू था। हाई स्कूल पास करने के पश्चात् संस्कृत के प्रति इनकी विशेष अभिरुचि जगी। तत्पश्चात् इन्होंने संस्कृत में एम.ए. एवं साहित्याचार्य की उपाधियाँ प्राप्त की। प्राकृताचार्य की भी उच्च उपाधि प्राप्त की। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, पालि और अपभ्रंश साहित्य के साथ-साथ बंगला, गुजराती, अंग्रेजी और उर्दू भाषाओं में भी ज्ञान प्राप्त किया। इनकी रचनायें हैं -- १-सर्वमंगला - महाकाव्य (अवधी भाषा), २-घर कै कथा - अवधी प्रबन्ध काव्य (अप्रकाशित)। इन्हें अवधी संस्थान अयोध्या सम्मानित कर चुका है। सम्प्रति पाठक जी त्रिलोक नाथ इन्टर कालेज टाण्डा के संस्कृत प्रवक्ता पद से सेवा निवृत्त होकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्य भाषा साहित्य सेवा में संलग्न हैं।

विश्वनाथ पाठक  : इनका जन्म २४ जुलाई सन् १९३१ में फैजाबाद जिले के ग्राम पाठक पल्ली (तकिया कानूनगो) में हुआ था। इनके पिता का नाम रामप्रताप पाठक था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा का माध्यम उर्दू था। हाई स्कूल पास करने के पश्चात् संस्कृत के प्रति इनकी विशेष अभिरुचि जगी। तत्पश्चात् इन्होंने संस्कृत में एम.ए. एवं साहित्याचार्य की उपाधियाँ प्राप्त की। प्राकृताचार्य की भी उच्च उपाधि प्राप्त की। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, पालि और अपभ्रंश साहित्य के साथ-साथ बंगला, गुजराती, अंग्रेजी और उर्दू भाषाओं में भी ज्ञान प्राप्त किया। इनकी रचनायें हैं -- १-सर्वमंगला - महाकाव्य (अवधी भाषा), २-घर कै कथा - अवधी प्रबन्ध काव्य (अप्रकाशित)। इन्हें अवधी संस्थान अयोध्या सम्मानित कर चुका है। सम्प्रति पाठक जी त्रिलोक नाथ इन्टर कालेज टाण्डा के संस्कृत प्रवक्ता पद से सेवा निवृत्त होकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्य भाषा साहित्य सेवा में संलग्न हैं।

विश्वनाथ सिंह ’विकल’ गोंडवी : विकल जी का जन्म ८ फरवरी सन् १९२४ ई. को ग्राम खजुरी मवई, जनपद गोण्डा में हुआ था। इनके पिता का नाम दिग्विजय सिंह था। पूर्वोत्तर रेलवे की सेवा निवृत्ति के बाद ये लखनऊ के स्थानीय निवासी बन गये। आजीवन खड़ी बोली एवं अवधी दोनों में काव्य सृजन करते रहे। ‘रतना-तुलसी’, ‘धरती के धिया’, ‘गंगा मैया’ आदि अवधी की प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। हिन्दी में गजलें लिखने में भी इन्हें सफलता मिली। उ.प्र.,हिन्दी संस्थान ने इन्हें मलिक मोहम्मद जायसी (नामित) पुरस्कार से सम्मानित किया।

विश्वनाथ सिंह (रीवाँ नरेश)  : इनका जन्म सन् १७८९ में और निधन सन् १८५४ में हुआ था। ये श्रृंगारी रामभक्त शाखा के कवि हैं। इनके द्वारा रचित ४६ ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, जिनमें ‘आनंद रघुनंदन’ का ऐतिहासिक महत्व है। इनकी कुछ रचनाएँ अवधी में हुई हैं, जिनमें रमैनी, कहरा आदि प्रमुख हैं। इनमें उपदेशात्मकता अधिक है। इन कृतियों में विश्वनाथ जी ने निर्गुण मत का प्रमाण पुरस्सर खंडन किया है।

विश्वनाथ : ये भारतेन्दु युग के बैसवारी अवधी कवि हैं।

विसराम  : इनका जन्म प्रतापगढ़ जनपद के पण्डित का पुरवा नामक ग्राम में १९२५ ई. के लगभग हुआ था। विरहा इनका प्रिय छंद है। सामान्य रूप से इनके गीतों में तीन प्रकार की भावनाएँ दिखती हैं- १-प्रमुख सामाजिक घटनाओं का स्वरूप, २-आर्थिक स्थिति का विवेचन, ३-पारिवारिक भावधारा का परिशीलन। इन्होंने गीतों को अवधी भाषा में अधिक लिखा है।

वीर अर्जुन : यह श्री परमानंद जड़िया द्वारा प्रणीत अवधी महाकाव्य है। इस महाकाव्य के नायक महाभारत के विश्रुत वीर, भगवान श्रीकृष्ण के सखा एवं भक्त अर्जुन है, जो धर्मभीरु धीरोदात्त उत्कृष्ट गुणों से सम्पन्न है। इसमें दोहा, सोरठा, चौपाई, छप्पय, वीर हरिगीतिका,चवपैया आदि छंदों का सफल प्रयोग हुआ है। इसमें अन्य रसों के अतिरिक्त वीर रस का वर्णन अत्यंत प्रभावशी बन पड़ा है।

वीरेन्द्रकुमार श्रीवास्तव  : श्रीवास्तव जी मूलतः सीतापुर जनपद के निवासी हैं। सन् १९४० ई. इनकी जन्मतिथि है। एम.ए., एल.टी. तथा विद्या वाचस्पति तक की शिक्षा प्राप्त कर दयानन्द विद्या मन्दिर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, सीतापुर में अध्यापक हैं। इनका काव्य कर्म कौशल खड़ी बोली और अवधी दोनों में ही है। इनकी गणना अच्छे गीतकारों में है। ‘गंगा मइया’, ‘वर्षा गीत’, ‘तिरंगा झंडा’, जागहु ओ धरती के लाल आदि इनकी उल्लेखनीय अवधी रचनायें हैं।

वृन्दा प्रसाद ‘जैगम’ : ये कनउजी क्षेत्र से जुड़े होने के बावजूद अवधी भाषा के प्रति अनन्य निष्ठा रखने वाले साहित्यकार हैं। इन्होंने अवधी में बहुत सारी रचनाएँ की हैं।

वृहत् उपासना रहस्य : यह प्रेमलता द्वारा प्रणीत अवधी रचना है। इसमें रामभक्ति शाखा के रसिकोपासना के सिद्धांतों का बड़ा सुन्दर विवेचन हुआ है।

वेदप्रकाश सिंह ’प्रकाश’ : सैकड़ों की संख्या में कहानी, लेख, कविता आदि साहित्यिक विधाओं के प्रतियोगी पुरस्कारों से सम्मानित प्रकाश जी अवधी छंद और व्यंग्य पर साधिकार लिखते हैं। ये सम्प्रति ’सर्वोदिता’ त्रैमासिक पत्रिका के सम्पादन कार्य में समर्पित हैं।

वेदान्त रहस्य : यह सन् १९५६ में सृजित अयोध्यावासी संत कार्तिकेय जी की रचना है। इस रचना में वेदान्त का गूढ़ रहस्य अवधी भाषा के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।

वैद्यक काव्य : यह पतितदास द्वारा कृत आयुर्वेद विषयक अवधी ग्रंथ है। इसमें गद्य रूप का प्रयोग हुआ है।

वैद्यक काव्य : यह पतितदास द्वारा कृत आयुर्वेद विषयक अवधी ग्रंथ है। इसमें गद्य रूप का प्रयोग हुआ है।

शत्रोहनलाल अवस्थी ‘लवलेश’  : ‘लवलेश’ जी का जन्म भाद्रपद कृष्ण सप्तमी सन् १६२१ ई. को जिला सीतापुर की सिघौली तहसील के ऊँचाखेरा ग्राम में हुआ था। अवधबिहारी लाल अवस्थी इनके पिता थे। ये स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में जीवन भर देश एवं समाज सेवा में लगे रहे। ये गाँधीवादी विचार धारा के पोषक और कांग्रेसी कार्यकर्ता थे। ये अवधी के कुशल कवि थे। इनकी कवितायें सामाजिक तथा राजनीतिक विचार धारा से उदभूत हैं।

शंभूसिंह : ये रायबरेली जनपद के निवासी एवं अल्पख्यात अवधी कवि हैं।

शम्भुनाथ मिश्र : ये बैसवाड़ा क्षेत्र के खजूर गाँव के निवासी एवं भारतेन्दु युगीन अवधी कवि हैं।

शम्भुशरण द्विवेदी ‘बन्धु’ : इनकी रचना है- ‘झौवा भरि लरिका का करिहौ। अन्य विवरण अनुपलब्ध है।

शारदा कुमारी : इनका जन्म हरदोई नगर में सन् १९३० में हुआ था। इनका विवाह नैमिषारण्य तीर्थ स्थल क्षेत्र में हुआ था। एक बीमारी में एक नेत्र की ज्योति भी चली गयी थी। कवयित्री होने के साथ-साथ प्रवचन देने का कार्य भी करती थीं। फलस्वरूप यज्ञादि समारोहों, सम्मेलनों में भाग लिया करती थीं। ये अवधी में प्रायः भक्ति सम्बन्धी रचनाएँ लिखती थीं। १९८५ ई. में इनका निधन हो गया था।

शारदा प्रसाद ‘भुशुण्डि’  : ‘पढ़ीस’ जी की परंपरा को बढ़ाने वाले कवियों में शारदा प्रसाद जी का नाम उल्लेखनीय है। शासन, दुराचार और बाह्याचारों के ये बड़े कटु आलोचक है। ‘असेम्बली मे चख-चख’ और ’अब लखनऊ न छ्वाड़ा जाई’ इनकी प्रसिद्ध कविताएँ हैं। ‘हम तब्बो चना कहावा है’ ‘हम अब्बौ चना कहाइति है’ - नामक कविता में कवि ने अवध के प्रचलित मुहावरों और रीति-रिवाजों का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया है। इनके काव्य मे शोषित वर्ग की विद्रोही भावना व्यक्त हुई है। इनका जन्म वैशाख सम्वत् १९६७ में प्रयाग जिले के कैमें गाँव मे हुआ था।

शालिगराम शर्मा ‘स्वावलम्बी’ : ये उपड़ौरा, इलाहाबाद के निवासी हैं। इन्होंने सन् १९५४ में ‘बुढ़उ का अफसोस’ नामक अवधी कृति समाज को देकर अपना अवधी प्रेम दिखाने का सफल प्रयास किया है।

शाह नजफ अली ‘सलोनी’  : ‘प्रेम-चिनगारी’ के रचयिता शाह नजफ अली सलोनी सूफी प्रेमाख्यानक कवि हैं। ये सलोन, जिला रायबरेली के निवासी थे और इनके पिता का नाम शाह करीम अली था। इनका स्थितिकाल वि.सं. १८९० के लगभग माना जाता है। कवि सलोनी के आश्रयदाता रीवाँ नरेश महाराज विश्वनाथ सिंह थे। ऐसी जनश्रुति है कि शाह नजफ अली अन्धे थे। परन्तु इनके पास दिव्य दृष्टि थी। महाराज विश्वनाथ सिंह (रीवाँ नरेश) के दरबार की कई घटनायें इनके अंधत्व पर प्रकाश डालती हैं। ‘प्रेमचिनगारी’ के अतिरिक्त ‘अखरावटी’ का भी उल्लेख मिलता है, जो अनुपलब्ध है। शाह नजकअली की मजार रीवाँ में विद्यमान हैं। इनकी कृति प्रेम-चिनगारी का रचना काल सन् १२६१ है। इसकी रचना मसनवी पद्धति पर की गई है। भाषा अवधी है। उसमें दोहा--चौपाई छन्दों का प्रयोग है।

शाह मलिहाबादी’  : इनकी जन्म तिथि सन् १९०० तथा निधन तिथि सन् १९९२ है।शाह मलिहाबाद, लखनऊ के निवासी थे। उर्दू के अच्छे शायर होते हुये भी इन्होंने अवधी में रचनायें की। इनकी अवधी रचनाओं में पश्चिमी अवधी का प्रभाव है, जहाँ के ये मूलतः निवासी थे। राष्ट्रीय भावना-साम्प्रदायिक ऐक्य आदि की भावना से भरपूर इनकी अनेक अवधी रचनायें है।

शाह मलिहाबादी’  : इनकी जन्म तिथि सन् १९०० तथा निधन तिथि सन् १९९२ है।शाह मलिहाबाद, लखनऊ के निवासी थे। उर्दू के अच्छे शायर होते हुये भी इन्होंने अवधी में रचनायें की। इनकी अवधी रचनाओं में पश्चिमी अवधी का प्रभाव है, जहाँ के ये मूलतः निवासी थे। राष्ट्रीय भावना-साम्प्रदायिक ऐक्य आदि की भावना से भरपूर इनकी अनेक अवधी रचनायें है।

शिव पंचामृत : यह श्री शिवभूषण तिवारी जी द्वारा प्रणीत अवधी काव्य ग्रंथ है। इसमें पाँच भाग हैं। प्रत्येक भाग में १०० दोहों हैं। इन दोहों में अवधी के साथ-साथ कहीं-कहीं खड़ी बोली का भी प्रभाव परिलक्षित होता है। यह पुस्तक अभी प्रकाशनाधीन है।

शिव सम्पत्ति : इनका जन्म सन् १८८३ में ग्राम उदिगाँव जनपद आजमगढ़ में हुआ था। ये पं. रामनरेश त्रिपाठी के गुरू थे। इन्होंने अवधी के साथ-साथ ब्रजभाषा में भी रचनाएँ की हैं। इन्होंने नीतिपरक दोहों का सृजन किया, जिनका संकलन ‘शिवसम्पत्ति नीतिशतक’ एवं ‘नीति चंद्रिका’ में हुआ है।

शिवदास : अवधी के अज्ञात भक्त शिवदास बाराबंकी जनपद के निवासी थे। लोधेश्वर महादेव के आराधक भक्त कवि शिवदास की एक मात्र रचना हैं ‘नासिकेत पुराण’, जो स्वतंत्र नहीं है वरन् पद्मपुराणान्तर्गत नासिकेत उपाख्यान का भाषा में पद्य बद्ध अनुवाद है। इन्होंने और भी रचनायें की हैं किन्तु वे अभी ज्ञात नहीं हो सकी। नासिकेत उपाख्यान को दोहा-चौपाई छन्द में सरल अवधी भाषा में सन् १७५२ में प्रस्तुत किया था। विवरण के आधार पर भक्त शिवदास शैलब एगना अन्तर्गत अमीर ग्राम के मूल निवासी थे। शिवदास गूढ़रपुर के शुक्ल ब्राह्मण थे। ये अमीर गाँव से लोधेश्वर महादेव चले आये, और वही रहकर संवत् १८०९ में नासिकेत पुराण को भाषाबद्ध किया।

शिवदुलारे त्रिपाठी ‘नूतन’  : त्रिपाठी जी का जन्म उन्नाव जनपद के मौरावाँ नामक स्थान पर हुआ था। ग्रामीण जनजीवन से निकट सम्पर्क होने के कारण इनकी रचनाओं में धरती का यथार्थ दृष्टिगत होता है। भारतीय समाज में अर्थ समस्या के साथ ही उदर-भरण की समस्या भी प्रधान है। कवि ने इन समस्त पहलुओं का यथार्थ मूल्यांकन किया है। त्रिपाठी जी यथार्थवादी कवि हैं। समाज का मूल्यांकन करते सम्म कवि नें प्रत्येक पहलुओं को छूने का प्रयत्न किया है। इनकी अवधी भाषा सरल प्रवाहपूर्ण एवं विचारों को व्यक्त करने में पूर्णरूपेण सफल है।

शिवपुराण का अनुवाद : यह महानन्द बाजपेयी कृत अवधी ग्रंथ है।

शिवप्रसाद मिश्र ‘मयंक’ : ये रायबरेली के निवासी एवं अवधी भाषा के अल्पख्यात कवि हैं।

शिवप्रसाद सिंह  : फैजाबाद के ‘खूखूतारा’ नामक गाँव के निवासी थे। लोक गीतकारों में ये बहुत विख्यात हैं। इन्होंने फगुआ, कहरवा, सोहर, गारी, तथा अन्य प्रकार की अनेक रचनायें की हैं। सभी रचनाथे प्रकाशित हैं।

शिवभूषण तिवारी : ये लखनऊ शहर के निवासी हैं। जीवन परिचय अप्राप्त है। ये विशेषतः खड़ी बोली में साहित्य सृजन करते हैं। किंतु अवधी के प्रति इनका जो अनुराग है, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। इन्होंने अवधी भाषा में ‘शिव पंचामृत’ नामक ग्रंथ की रचना की है, जिसमें ५०० दोहों का संकलन है।

शिवमोहन ‘भोला’ बैसवारी : सन् १९३७ में जन्मे भोला जी रामपुर के निवासी एवं अवधी साहित्यकार है।

शिवरत्न मिश्र : ये आधुनिक काल के ख्यातिप्राप्त अवधी रचनाकार हैं।

शिवरत्न मिश्र : ये आधुनिक काल के ख्यातिप्राप्त अवधी रचनाकार हैं।

शिवरत्न शुक्ल ‘सिरस’  : इनका जन्म बछरावाँ तहसील महराजगंज, जनपद रायबरेली में सं. १९३६ में हुआ था। श्री बचान आचारी इनके पिता थे। इन्होनें रेलवे विभाग में स्टेशन मास्टर के पद पर सेवा करते हुए साहित्य सेवा भी की। ये धार्मिक वृत्ति एवं आस्तिक प्रकृति के व्यक्ति थे। ये हिन्दी, उर्दू, संस्कृत और अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे। रचना संसार इस प्रकार है- भरत भक्ति (महाकाव्य), श्री राम तिलकोत्सव (महाकाव्य), सिरस नीति सतसई, परिहास प्रमोद (अवधी व ब्रज का मिश्रित प्रयोग), आर्य सनातनी संवाद, श्री रामायण भाष्य (किष्किन्धा काण्ड), प्रभु चरित्र, श्री रामावतार, शिवरत्न संग्रह, प्रभु प्रार्थना, स्वदेशार्थ अभ्यर्थना, भिक्षा देहि, शिवाजी (महाकाव्य), उद्धव ब्रजांगना, शांत रसालकार, विनीत विजय, राम रोचिष, परशुराम, सिरस सरोज, गीत गान, अन्योक्ति आनन्द, जयसिंह और शिवा। (पत्र व्यवहार), स्वामी विवेकानंद लेखानुवाद, शोडषाष्टक विशेष उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त ’बैसवारी बोली और उसका व्याकरण’ ‘भाषा-विज्ञान’ के क्षेत्र में सिरस जी की महत्वपूर्ण पुस्तक है। इन्होंने रामचरित मानस का महाभाष्य भी किया है, जो अभी तक अप्रकाशित है। इनका निधन २०३९ में हुआ था।

शिवलाल दुबै : दुबे जी डौडियाखेरा के निवासी भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध अवधी साहित्यकार रहे है।

शिवलोचन : ये बनारस के निवासी एवं अल्पख्यात अवधी रचनाकार हैं।

शिवसिंह ‘सरोज’ : जनपद बाराबंकी में जन्मे सरोज जी अधिकांशतः लखनऊ में रहते हैं। ये अवधी के उदीयमान कवि हैं। इनकी ‘पुरवाई’ शीर्षक कविता में अवधी का बड़ा सुन्दर प्रयोग हुआ है।

शिवसिंह सेंगर : सेंगर साहब कांथा के निवासी हैं, जो बैसवाड़ा क्षेत्र में स्थित है। इन्होंने अवधी भाषा के माध्यम से भी काफी सृजन किया है। इनका अवधी साहित्य अभी प्रकाशित नहीं हो पाया है।

शिवस्वरूप अग्निहोत्री : खसौरा, हरदोई के निवासी अग्निहोत्री जी उच्चकोटि के अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं में जनसामान्य की भाषा प्रयुक्त की है।

शीतल सिंह गहरवार : ये बिहार प्रदेश के गया क्षेत्र के निवासी एवं अवधी प्रेमी साहित्यकार रहे हैं। इन्होंने श्रीरामचरितमानस की तर्ज पर ‘श्रीरामचरितायन’ नामक अवधी प्रबन्ध-काव्य का सृजन किया है।

शुकदेव मिश्र : ये भारतेन्दु युगीन अवधी कवि हैं। इनका निवास-स्थान डौडिया खेरा है। इन्होंने जो कुछ काव्य-सृजन किया है, वह अप्रकाशित है।

शुकदेव मिश्र : ये भारतेन्दु युगीन अवधी कवि हैं। इनका निवास-स्थान डौडिया खेरा है। इन्होंने जो कुछ काव्य-सृजन किया है, वह अप्रकाशित है।

शेख नबी  : ये जायसी के परवर्ती सूफी कवियों की कोटि में आते हैं। ’ज्ञानदीप’ इनकी एक मात्र प्रेमाख्यानक रचना है। कवि के जीवन-वृत्त सम्बन्धी कुछ तथ्य अन्तर्साक्ष्य रूप में इनकी कृति ’ज्ञानदीप’ में मिलते हैं, जिसके अनुसार इनका स्थिति-काल सम्राट जहाँगीर का शासन-काल ज्ञात होता है और हिजरी सन् १०२६ तदनुसार ई. सन् १६१९ ग्रन्थ का प्रणयन-काल निश्चित होता है। हिन्दी सूफी प्रेमाख्यानों के नामकरण की परम्परा नायिका प्रधान होने की है। यथा - चंदायन मृगावती, पदमावत, मधुमालती, किन्तु शेख नबी की रचना का नाम नायक प्रधान है। एक रचना के प्रणयन में कवि का उद्देश्य मात्र आनन्द का सृजन करना था। दोहा, चौपाई छन्दों में रचित ज्ञानदीप की भाषा बोलचाल की अवधी है।

शेख निसार  : ये जायसी के परवर्ती हिन्दी सूफी कवि हैं। इनकी रचनाएँ हैं - मेहनिगार, रसपनोज, दीवान, अहसन जौहर, स्त्रोदी, नस्त्र नामक फारसी गद्य ग्रन्थ, नसाब एक संग्रह और यूसुफ जुलेखा जो हिन्दी, फारसी, तुर्की, संस्कृत तथा अरबी भाषाओं में लिखे गये हैं। स्वयं कवि द्वारा उल्लिखित निवास-स्थल शेखपुर की स्थिति विद्वानों की दृष्टि में विवादास्पद है। कतिपय विद्वानों ने इसे (शेखपुर) महराज गंज तहसील जिला रायबरेली में माना है। कुछ इसे फैजाबाद जिले के मंगलसी नामक छोटे से परगना में एक छोटा गाँव बताया है। इतना तो स्पष्ट है कि शेख निसार अवध के ही निवासी थे। इन्होंने यूसुफ जुलेखा का प्रणयन सं. १८४७ में ५७ वर्ष की अवस्था में किया था। अतएव कवि का जन्म सं. १७८९ और १७९० के बीच ही हुआ होगा। शेख निसार विद्वान और आसु कवि थे। ये हिन्दी, संस्कृत, अरबी, फारसी आदि भाषाओं के ज्ञाता थे तथा इन्हें संगीत शास्त्र आदि का भी ज्ञान था। यूसुफ जुलेखा में भाषा बोलचाल की अवधी है तथा दोहा, चौपाई कवित्त, सोरठा तथा सवैया छंदों का प्रयोग है।

शेषपाल सिंह ‘शेष’ : शेष जी का जन्म २० दिसम्बर सन् १९५९ ई. को ग्राम कसन (शिवगढ़) जिला रायबरेली में एक कृषक परिवार में हुआ था। गुरूदयाल सिंह इनके पिताजी का नाम है। जोंधइया, बिरवा, आखत आदि अवधी पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ निरन्तर प्रकाशित होती रही हैं। बसंत सुहात नहीं, वृक्ष की जवानी, देश-पति, सरकार, दुमछल्ले, भारत माँ का बेड़ा, किसानो से, दुमदार दोहे, कुर्सी मिली रहै आदि इनकी अवधी की सुप्रसिद्ध रचनाएँ हैं। लोकगीत भी उच्चकोटि के हैं।

श्यामजी पाण्डेय ‘करुणेश’  : ये उच्चकोटि के अवधी साहित्यकार हैं। इन्होंने ‘एकता एवं अखण्डता’ नामक रचना प्रस्तुत की है।

श्यामनारायण ‘कपूर’ : कपूर जी आश्‍विन कृष्ण २ संवत् १९६५ (सन् १९०८ ई.) में ग्राम सम्भल जिला मुरादाबाद में जनमे थे। इनके पूर्वजों का सम्बन्ध मौरावाँ (उन्नाव) से रहा था। हाईस्कूल के उपरांत इनकी शिक्षा कनपुर में सम्पन्न हुई। इनके लेख ‘माधुरी’ तथा विज्ञान की पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। ‘साहित्य-निकेतन’ नाम से इन्होंने पुस्तकों की दूकान खोली, प्रकाशन कार्य भी किया। उन्नाव और कानपुर कार्य क्षेत्र होने के कारण इन्होंने कई अवधी रचनाएँ कीं, जो हैं - गणेश शंकर विद्यार्थी, बजट, होली, मौत, गजब होई गवा, भारत देश महान इत्यादि। देश की गौरव-गरिमा का गान, महापुरुषों का गुणगान देश के गौरव पूर्ण अतीत का स्मरण इनकी कविता का मूल प्रतिपाद्य रहा है।

श्यामनारायण अग्रवास ‘विटप’  : विटप जी का जन्म सन्‌ १९३९ में बाराबंकी जनपद के हैदरगढ़ कस्बे में जगतनारायण अग्रवाल के यहाँ हुआ था। ये एक अच्छे व्यवसायी हैं। व्यवसाय के साथ-साथ साहित्य सेवा में भी अभिरुचि रखते हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए अवधी भाषा के विशेष कवि हैं। रचनाओं में राष्ट्रीय भावनाओं की झलक मिलती है।

श्‍यामलाल शुक्ल ‘चकोर’ : इनका जन्म सन् १९१४ में ग्राम अटहरा जिला बाराबंकी में पं. रामरतन शुक्ल के यहाँ हुआ था। ये सनेही जी के शिष्य थे एवं सनेही मण्डल के होनहार कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। ‘लट्ठा पांडे का कच्चा चिट्ठा’ इनकी अवधी कविताओं का संकलन है, जो अप्रकाशित रूप में इनके पुत्र श्री जगदीश चन्द्र शुक्ल ‘प्रदीप’ के पास सुरक्षित है। सन् १९६५ में सर्पदंश से इनकी अकाल मृत्यु हो गयी।

श्यामसुन्दर लाल (गांधीदास)  : ये फैजाबाद के तकिया नामक गाँव के निवासी कायस्थ थे। सन् १९४० के पूर्व ही इन्होंने लोक गीतों की ‘चमन’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की थी यह पुस्तक फागुन के गीतों (फगुआ ) के क्षेत्र में युगान्तकारी रचना हैं। ये अनेक रागों के आविष्कारक हैं। इनके ग्रन्थ ‘चमन’ के अनेक रागों में से एक राग (डेढ़ ताल) तो इतना छा गया कि चौताल की प्राचीन परंपरा ही लुप्तप्राय हो गई।

श्यामसुन्दर शर्मा ‘कलानिधि’ : अलादादपुर, सीतापुर के निवासी कलानिधि जी अवधी के अच्छे कवि हैं। इन्होंने सन् १९५२ में लिया ‘ललिता चालीसा’ कृति सृजित की थी।

श्री कुटिलेश  : ये उन्नाव जनपद के टेढ़ा ग्राम के निवासी अवधी कवि रहे हैं। इन्होंने ‘गडबड़ रामायण’ नामक अवधी रचना समाज को समर्पित कर सामाजिक बुराइयों को उद्घाटित करने की कोशिश की है।

श्री दुर्गाविजय : यह हरिपाल सिंह कृत अवधी ग्रंथ है। इसका प्रकाशन सन् १८९८ में नवल किशोर प्रेस, लखनऊ द्वारा सम्पन्न हुआ था। इस ग्रंथ में दो खण्ड हैं। प्रथम खंड में देवी द्वारा महिषासुर-वध का वर्णन है तथा दूसरे में रक्तबीज एवं शंभु-निशुंभ की पौराणिक कथा है। इस ग्रंथ की भाषा संस्कृतनिष्ठ साहित्यिक अवधी है।

श्री रामचरितायन् : यह शीतला सिंह गहरवार द्वारा रचित अवधी प्रबन्ध-काव्य है। दोहा-चौपाई छंद का प्रयोग हुआ है।

श्रीकान्त शर्मा ‘कान्ह’  : ये सीतापुर जनपद के ग्राम रेवान में सन् १९११ में जनमें थे और बिसवाँ को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। वहीं ‘कान्ह कुटीर’ इनका आवास स्थल है। इन्होंने अपना जीवनयापन कांजी हाउस के मुंशी के रूप में किया है। इनकी अवधी की रचनायें इस प्रकार हैं। ‘मवेशी खाने के मुंशी- द्याखौ, तौ, चीन, कांग्रेस, गांधी जी इत्यादि। ये एक कुशल सामाजिक कार्यकर्ता और राष्ट्रीय भावना के व्यक्ति हैं। कांग्रेस संगठन से भी जुड़े। इनकी रचनाओं में समाजिक, राजनीतिक विसंगतियों, विकृतियों पर कटु प्रहार हुआ है।

श्रीधर पाठक  : इन्का जन्म १० दिसम्बर सन् १८८९ में जनपद आगरा के जोन्धरी नामक गाँव में हुआ था। पाठक जी को अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, अंग्रेजी तथा संस्कृत का विशेष ज्ञान था। नौकरी करते हुए इन्हें कश्मीर एवं नैनीताल में रहने का संयोग प्राप्त हुआ, जिससे प्रकृति निरीक्षण का सुअवसर उपलब्ध हुआ। इनकी ‘देहरादून’, ‘मंसूरी’ नामक कविताएँ बड़ी उत्कृष्ट हैं, जिनमें बरवै छंद का प्रयोग हुआ है। सन् १९२८ में इनका स्वर्गवास हो गया।

श्रीधर शुक्ल ‘स्वतन्त्र’  : १० अक्टूबर सन् १९३९ ई. को सीतापुर जनपद के अल्लीपुर बंडिया ग्राम में इनका जन्म हुआ था। जैसा कि इनके उपनाम से स्पष्ट है इनकी प्रकृति भी स्वतन्त्र हैं। ’स्वतंत्र जी’ गन्ना विभाग में कार्यरत हैं। इन्होंने खड़ी बोली और अवधी दोनों में ही काव्य रचनायें की हैं। इनकी अवधी कविताओं में पूर्वीपन है साथ ही भोजपुरी शब्दों का बाहुल्य भी। लाक्षणिक प्रयोग भी है। ‘नौकरशाही’ ‘मोरार जी देसाई’ ‘राजनारायण’ आदि इनकी रचनायें हैं। ये एक निबंधकार भी हैं। इनका व्यक्तित्व एक सामाजिक कार्यकर्ता और कवि का रहा हैं।

श्रीनारायण अग्निहोत्री ‘सनकी’ : हिन्दी गोष्ठियों एवं सम्मेलनों में ‘सनकी’ उपनाम से प्रसिद्ध हास्य और व्यंग्य के कवि अग्निहोत्री जी का जन्म कानपुर जनपद के नर्वल नामक ग्राम में ८ मार्च सन् १९३३ को हुआ था। इनके पिता श्री गौरीशंकर अग्निहोत्री का इनकी ढाई वर्ष की अवस्था में ही स्वर्गवास हो गया था। माताजी ने अनेक कठिनाइयों को झेलते हुए इनको शिक्षित कर शिक्षक बनाया, जिससे शिक्षक रूप में लखनऊ जनपद के चौक स्थित कालीचरण इंटर कालेज में अध्यापन कार्य किया। जयपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘गुदगुदी’ में इनके हास्य-व्यंग्य सम्बन्धी लेख प्रकाशित हुए। इनके लेखों एवं कविताओं की संख्या लगभग १५० है।

श्रीनारायण मिश्र  : मिश्रजी का जन्म कसहर जिला प्रतापगढ़ में सन् १९३६ में हुआ। बाल्यकाल में ही इनके मन में काव्य के प्रति रुचि जाग्रत हो गई थी। इन्होंने विषम परिस्थितियों में रहते हुए इण्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की, फिर कला अध्यापक के रूप में जीविकोपार्जन आरम्‍ंअ किया। खेतिहर की चिन्ता मिश्रजी की कविताओं का केन्द्रीय विषय है। मिश्रजी ने बिरहा, कहरवा, मुक्तक और गीत का अधिक प्रयोग किया है। इनकी भाषा पूर्वी अवधी है जिस पर इनकी शिक्षा और नगरीय संस्कारों की छाप है।

श्रीप्रकाश : ये बच्चू लाल महाविद्यालय, बिसवाँ सीतापुर के हिन्दी विभाग में प्रवक्ता पद पर कार्यरत हैं। इन्होंने अवधी भाषा में ढेर सारी कविताएँ लिखी हैं।

श्रीमती ऊर्मिला मिश्र  : आधुनिक अवधी काव्य धारा की एक कीर्तिमान श्रीमती ऊर्मिला मिश्र हरगाँव, जिला सीतापुर की निवासिनी थी। इनका जन्म सन् १९२९ को हुआ था। झब्बू लाल मिश्र इनके पिता तथा श्रीमती चन्द्रावती मिश्र इनकी माता थीं। अपने जीवन काल में ये कांग्रेस की एक सक्रिय कार्यकर्ता रही हैं और कई वर्षों तक महिला कांग्रेस की अध्यक्ष भी रहीं। खड़ी बोली और अवधी दोनों में ही इन्होंने सुमधुर गीतों की रचना की थी। राष्ट्रीय भावनाओं का समादर इनकी कविताओं में प्राप्य है। इनकी चर्चित रचनायें है- इन्दिरा गांधी, दहेज, बेटी, नेहरू चाचा, बापू आदि। कविता में मृसणता है, प्रवाह है और है सरसता। श्रीमती मिश्र जी का देहावसान सन् १९९२ में हो गया।

श्रीमती ऊर्मिला मिश्र  : आधुनिक अवधी काव्य धारा की एक कीर्तिमान श्रीमती ऊर्मिला मिश्र हरगाँव, जिला सीतापुर की निवासिनी थी। इनका जन्म सन् १९२९ को हुआ था। झब्बू लाल मिश्र इनके पिता तथा श्रीमती चन्द्रावती मिश्र इनकी माता थीं। अपने जीवन काल में ये कांग्रेस की एक सक्रिय कार्यकर्ता रही हैं और कई वर्षों तक महिला कांग्रेस की अध्यक्ष भी रहीं। खड़ी बोली और अवधी दोनों में ही इन्होंने सुमधुर गीतों की रचना की थी। राष्ट्रीय भावनाओं का समादर इनकी कविताओं में प्राप्य है। इनकी चर्चित रचनायें है- इन्दिरा गांधी, दहेज, बेटी, नेहरू चाचा, बापू आदि। कविता में मृसणता है, प्रवाह है और है सरसता। श्रीमती मिश्र जी का देहावसान सन् १९९२ में हो गया।

श्रीमती किशोरी तिवारी ‘बौड़मी’ : लखनऊ के कवि सम्मेलनों में ‘बौड़म’ जी के साथ उनकी धर्मपत्नी बौड़मी जी भी अपने हास्य-व्यंग्य के कारण मशहूर रही हैं। इनका जन्म बाराबंकी में सन् १९३६ ई. में हुआ, किंतु इनकी शिक्षा-दीक्षा लखनऊ में हुई। सम्प्रति पति-पत्नी १३५, नौबस्ता, लखनऊ के स्थायी निवासी बन गये हैं। बौड़म जी के प्रभाव से इन्होंने भी अवधी लोक गीतों से अपना काव्य लेखन प्रारम्भ किया। इनके लगभग ५० लोकगीत हैं जिनमें से कुछ आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित भी हो चुके हैं।

श्रीमती चन्द्रावती मिश्र (मीराबाई)  : २०वीं शताब्दी में उत्पन्न ये राम की अनन्य उपासिका थीं। इनकी एकमात्र काव्य कृति - ‘आनन्द रस भजन रामायण’ है। ये ग्राम मवई खानपुर जिला उन्नाव (बैसवारा-जनपद) की निवासी थीं। इनका जीवन प्रारम्भ से ही संघर्षशील रहा। बाल्यकाल (८ वर्ष की आयु) में ये मातृ सुख से वंचित हो गईं। बालिका चन्द्रावती को पिता द्वारा वैष्णवी संस्कार तथा अक्षर ज्ञान प्राप्त हुआ। चन्द्रावती का वैवाहिक जीवन सुखी न रहा। १९ वर्ष की आयु में वैधव्य से अभिशप्त चन्द्रावती ने अपना समग्र जीवन राम के चरणों में अर्पित कर दिया। अन्वेष्य तथ्यों के अभाव में इनके जीवन वृत्त पर स्पष्ट प्रकाश नहीं डाला जा सकता। कवयित्री चन्द्रावती मिश्र को पर्याप्त पौराणिक ज्ञान था। ये हिन्दी और संस्कृत जानती थीं। इनकी ‘आनन्द रस भजन रामायण’ प्रकाशित रचना है, परन्तु प्राप्त प्रति के अत्यन्त जर्जर होने के कारण प्रकाशन तिथि तथा प्रकाशक का स्पष्ट पता दे सकना कठिन है। आधुनिक अवधी के विकास में ‘आनन्द रस भजन रामायण’ और इसके रचयिता का महत्त्व नकारा नहीं जा सकता।

श्रीमती चन्द्रावती मिश्र (मीराबाई)  : २०वीं शताब्दी में उत्पन्न ये राम की अनन्य उपासिका थीं। इनकी एकमात्र काव्य कृति - ‘आनन्द रस भजन रामायण’ है। ये ग्राम मवई खानपुर जिला उन्नाव (बैसवारा-जनपद) की निवासी थीं। इनका जीवन प्रारम्भ से ही संघर्षशील रहा। बाल्यकाल (८ वर्ष की आयु) में ये मातृ सुख से वंचित हो गईं। बालिका चन्द्रावती को पिता द्वारा वैष्णवी संस्कार तथा अक्षर ज्ञान प्राप्त हुआ। चन्द्रावती का वैवाहिक जीवन सुखी न रहा। १९ वर्ष की आयु में वैधव्य से अभिशप्त चन्द्रावती ने अपना समग्र जीवन राम के चरणों में अर्पित कर दिया। अन्वेष्य तथ्यों के अभाव में इनके जीवन वृत्त पर स्पष्ट प्रकाश नहीं डाला जा सकता। कवयित्री चन्द्रावती मिश्र को पर्याप्त पौराणिक ज्ञान था। ये हिन्दी और संस्कृत जानती थीं। इनकी ‘आनन्द रस भजन रामायण’ प्रकाशित रचना है, परन्तु प्राप्त प्रति के अत्यन्त जर्जर होने के कारण प्रकाशन तिथि तथा प्रकाशक का स्पष्ट पता दे सकना कठिन है। आधुनिक अवधी के विकास में ‘आनन्द रस भजन रामायण’ और इसके रचयिता का महत्त्व नकारा नहीं जा सकता।

श्रीराम शुक्ल ‘कंचना’ : ये अमीनाबाद, लखनऊ के निवासी हैं। ‘बसन्त ऋतु आय गयी’ आदि कविताओं के माध्यम से अवधी भाषा के प्रति अपना अनुराग इन्होंने प्रकट किया है।

श्रीराम श्रीवास्तव ‘कमलेश’  : इनका जन्म लम्बापुर, जिला प्रताप्रगढ़ में हुआ। आरंभिक शिक्षा प्राप्त करके ये अध्यापक नियुक्त हुए और साथ ही साहित्य क्षेत्र में भी प्रविष्ट हुए। इनकी रचनाएँ ग्रामीण व्यवस्था से जुड़ी हुई हैं। इनकी कविताओं में क्रांति का प्रखर स्वर सुनाई देता है। इनकी भाषा पूर्वी अवधी है। इनके प्रयोग परिमार्जित और परिनिष्ठ हैं।

श्रीराम सिंह ‘शील’ : जन्मस्थल-रामनगर, बाराबंकी, रचना- ‘बाजी रनभेरिया।’

श्रीरामचरितमानस : यह जोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित विश्वविश्रुत अवधी महाकाव्य है। इसमें रामकथा को अत्यंत सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है। यह महाकाव्य मात्र कथा नहीं है, बल्कि इसमें नीति, आचरण एवं राजनीति सम्बन्धी निर्देश समाहित हैं। इसका प्रणयन १७ शदी के चतुर्थ दशक में हुआ था। इस ग्रंथ में दोहा, चौपाई, सोरठा, सवैया, अनुष्टुप आदि छंदों एवं अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है।

श्रीरामचरितमानस : यह जोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित विश्वविश्रुत अवधी महाकाव्य है। इसमें रामकथा को अत्यंत सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है। यह महाकाव्य मात्र कथा नहीं है, बल्कि इसमें नीति, आचरण एवं राजनीति सम्बन्धी निर्देश समाहित हैं। इसका प्रणयन १७ शदी के चतुर्थ दशक में हुआ था। इस ग्रंथ में दोहा, चौपाई, सोरठा, सवैया, अनुष्टुप आदि छंदों एवं अवधी भाषा का प्रयोग हुआ है।

श्रीसीताराम श्रृंगाररस : यह अयोध्या के महंत महावीरदास ‘जनमहाराज’ द्वारा प्रणीत रचना है। इसका सृजन सन् १९१५ में हुआ था।

श्रृंगार सुमन  : यह ओंकार नाथ द्वारा रचित अवधी कविताओं का एक लोकप्रिय संग्रह है। इस कृति में पूर्वी अवधी भाषा और पुरबी गीतों का एकत्र समाहार किया गया है।

संकटाप्रसाद सिंह ’देव’ : इनका विस्तृत विवरण तो अनुपलब्ध है, किंतु इतना अवश्य विवरण प्राप्त हुआ है कि इन्होंने अवधी में ‘शिवचरितामृतम’ नामक कृति सृजित की है।

संगम लाल  : ये उन्नाव जनपद के टेढ़ा बिहग गाँव के निवासी थे और ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुए थे। इनका रचनाकाल सं. १८६१ से १८६४ तक माना गया है। सीतामऊ के राजा राजसिंह इनके आश्रयदाता थे। इन्होंने स्फुट रचनाएँ की हैं, जिनमें अवधी रचनाओं की संख्या सर्वाधिक है।

सगुन गीत  : अवधी लोक गीतों में सगुन गीत का अपना विशिष्ट स्थान है, जो स्त्री वर्ग द्वारा मंगलभावना से विभिन्न अवसरों पर गाये जाते हैं। इसमें वाद्ययंत्रों का प्रयोग नहीं होता। सगुन का तत्सम ‘शकुन’ है, जिसका अर्थ है ‘पक्षी’ जो प्रसन्नता एवं कल्याण-भावना के प्रतीक माने जाते हैं। सम्भवतः इसीलिये वर कन्या के मंगल हेतु प्रथमतः अभ्यर्थना पक्षियों से ही की जाती है।

सच्चिदानंद तिवारी ‘शलभ’  : इनका जन्म २२ जुलाई सन् १९५१ में सीतापुर पुर जनपद के मदारीपुर, देवसिंह (अटरिया ) में हुआ। इनके पिवाजी का नाम श्री सुन्दर लाल तिवारी है। इनका साहित्यिक क्षेत्र में बड़ा योगदान है। अवधी सहित्य सेवा इनकी अतिविशिष्ट हैं। इन्होंने जोंधैया, बिरवा, आखत, अवध-ज्योति आदि पत्रिकाओं के माध्मय से अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। शलभ जी ने ‘तड़िता’ नामक अवधी काव्यधारा का प्रवर्तन किया है, जो सर्वथा नवीन एवं ग्राह्य हैं। इनका यह काव्‍यान्दोलन विद्वानों के बीच काफी प्रेरक एवं प्रशंसनीय सिद्ध हुआ है। सम्प्रति शलभ जी ५३६/१५८ क, मदेहगंज, डाकघर- निराला नगर, लखनऊ-२० में रह रहे हैं।

संजय सिंह : इनका विवरण तो अनुपलब्ध हैं, किन्तु इन्होंने जो अवधी साहित्य सेवा की है। उसमें ‘फरवार से बखर तक’ एक है। यह उनका अवधी उपन्यास है। ये सुल्तानपुर के निवासी हैं।

सतनजा : यह श्री लक्ष्मण प्रसाद मित्र द्वारा १९३३-१९८७ ई. के बीच रचित अवधी कविताओं का संकलन है, जो अवधी अध्ययन केन्द्र, लखनऊ द्वारा प्रकाशित हुआ है। इसका ऐश्वर्य एवं सरोकार अवधी कविता की अनमोल धरोहर से हैं।

सतीश आर्य  : गोण्डा निवासी आर्य जी अवधी साहित्य के अल्पख्यात साहित्यकार हैं।

संतोषकुमार मिश्र ‘चक्रवाक’ : मिश्र जी सीतापुर जनपद के निवासी हैं। इन्होंने तमाम व्यस्तताओं को निपटाते हुए अपना साहित्यिक प्रेम बरकरार रखा है। इन्होंने अवधी को अपना भाषा केन्द्र बनाकर साहित्य-सर्जना की है।

संतोषकुमार मिश्र ‘चक्रवाक’ : मिश्र जी सीतापुर जनपद के निवासी हैं। इन्होंने तमाम व्यस्तताओं को निपटाते हुए अपना साहित्यिक प्रेम बरकरार रखा है। इन्होंने अवधी को अपना भाषा केन्द्र बनाकर साहित्य-सर्जना की है।

सत्यधर शुक्ल : शुक्ल जी का जन्म १६ जनवरी, १९३६ ई. को खीरी लखीमपुर जनपद के मन्योरा गाँव में हुआ था। ये अवधी सम्राट पं. वंशीधर शुक्ल जी के सुपुत्र हैं। इन्होंने ‘ध्रुव’ महाकाव्य का सृजन कर अत्यन्त प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। इनकी अन्य अवधी रचनाएँ हैं- बसंत का बियाहु (खण्ड काव्य), अरधान आदि शुक्ल जी खड़ी बोली में भी काव्य सृजन किया है जैसे ‘आर्यावर्त’ काव्य-संग्रह।

सत्यनारायण द्विवेदी ‘श्रीश’ : जन्मस्थान-सेठवा, जनपद- फैजाबाद, इन्होंने अवधी भाषा में फुटकर साहित्य सृर्जना की है। इनका कंठ बड़ा मोहक है। कविताओं में बेधक वेदना प्राप्त होती है।

सत्यनारायण मिश्र : इनका जन्म कसहर, प्रतापगढ़ में १९३६ में हुआ था। इनकी अवधी कविताओं में किसानों की समस्या, राष्ट्रीय भावनाओं का चित्रांकन बड़ा ही सटीक हुआ है।

सत्यनारायण मिश्र : इनका जन्म हिलोर, रायबरेली में १९४२ में हुआ था। ‘सायकिल चालीसा’, ‘पटवारीनामा’ इनकी हास्यरस प्रधान कृतियाँ हैं, जो अवधी में रचित हैं।

सत्यभामा मंगल : यह ब्रजनंदन सहाय द्वारा प्रणीत ग्रंथ है, जिसमें अवधी भाषा का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। इसका प्रणयन सन् १९९० में हुआ था।

सत्यभामा मंगल : यह ब्रजनंदन सहाय द्वारा प्रणीत ग्रंथ है, जिसमें अवधी भाषा का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। इसका प्रणयन सन् १९९० में हुआ था।

सत्यवती कथा  : यह कवि ईश्वरदास रचित प्रेमाख्यानक काव्य है, जिसका रचना-काल सन् १५०१ (सं. १५५८ वि.) है। कतिपय विद्वानों के अनुसार इसकी रचना मसनवी शैली में हुई है। कुछ इसे सामान्य प्रेम-कथा मानते हैं। सत्यवती की कथा वस्तुतः भारत की सती नारी अनुसूया, सावित्री, दमयन्ती, सीता आदि आदर्श नारियों के शील तथा सत्य निरूपण करने वाली कथा से साम्य रखती है। इस कृति की भाषा अवधी है, किन्तु इसकी भाषा का स्वरूप सूफी कवियों जैसी भाषा का (जनभाषा का) नहीं है। हिन्दू प्रेमाख्यानक कवियों ने संस्कृत का आधार लेकर तत्सम् शब्दों का प्रयोग अपनी भाषा में स्वच्छंदतापूर्वक किया है।

सदना  : एक किंवदंती के अनुसार ‘सदना’ कसाई रूप में प्रसिद्ध है। इनका समय १४वीं शती का उत्तरार्द्ध माना जाता है। ‘आदि ग्रन्थ’ में इनकी रचनाएँ संगृहीत हैं, जो इनकी आध्यात्मिक शक्ति की परिचायक हैं। सदना की रचनाओं में अवधी भाषा बहुशः प्रयुक्त हुई है।

सदाशिव अवस्थी  : अवस्थी ग्राम बम्हौरा जिला सीतापुर के निवासी हैं। इनका जन्म २६ अगस्त १९२० ई. को हुआ था। इनके पिता बैजनाथ अवस्थी थे। सदाशिव जी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं। इन्होंने साहित्य विभाग में नौकरी कर ली। अब सेवामुक्त होकर साहित्य साधना करते हैं। इन्होंने खड़ी बोली और अवधी दोनों में ही रचनायें की है। अवधी की इनकी पहली पुस्तक ‘किसान हितैषी’ सन् १९४० में प्रकाशित हुई। रचनाओं में प्रेरणा शक्ति है। इनकी अवधी कविताओं में राष्ट्रीय-भावना मुखाग्र हुई है। इनकी अवधी बैसवारी से प्रभावित है।

सन्तोष कुमार मिश्र ‘चक्रवाक’ : इनका जन्म सन् १९५४ ई. में सीतापुर जनपद के बरगावाँ ग्राम में हुआ था। पं. कृष्णपाल मिश्र इनके पिताजी थे। इन्होंने लगभग सम्पूर्ण शिक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। संस्कृत भाषा और ज्योतिष का अच्छा ज्ञान था। ‘विरही पक्ष’, ‘सबनवाँ’, ‘पनिया भरैबे’, ‘मनई हतेउ कि देउता’ इनकी प्रसिद्ध अवधी रचनाएँ हैं।

सन्देश रासक  : सन्देश रासक की रचना अदहमाण नामक कवि ने की थी, जिनका समय १३वीं शती का माना जाता है। इस सन्देश काव्य में ऋतु वर्णन तथा विरह वर्णन का विस्तृत उल्लेख है। ‘सन्देश रासक’ में अवधी के विकसित रूप के दर्शन होते है।

सबलस्याम् : ये कृष्णकाव्य परम्परा के काव्यकार हैं। इन्होंने अवधी में ‘भगवत दशम स्कंध’, की रचना करके अपनी अवधी निष्ठा अभिव्यक्त की है।

सरजूराम पंडित  : सरजूराम अवध निवासी ब्राह्मण थे। इनकी एकमात्र रचना ‘जैमिनि पुराण’ मिलती है। इसका रचना-काल सन् १७४८ ई. है। महाभारत के अश्वमेध पर्व के आधार पर इसकी रचना की गई है। इसकी भाषा असन्दिग्ध रूप से अवधी है। जैमिनि पुराण की भाषा परिष्कृत और प्रवाहपूर्ण है। रचना गम्भीर तथा उच्च कोटि की है।

सरस कपूर : सीतापुर निवासी कपूर जी अवधी भाषा के ख्यातिलब्ध साहित्यकार हैं।

सरिया  : पुत्र-जन्म के अवसर पर गाया जाने वाला यह एक विशिष्ट अवधी लोकगीत है। इसमें प्रसव पीड़ा के आरम्भ होने, दाई के बुलाने, उसके भान-मनावन करने और फिर हर्षोल्लास मनाने का आख्यान वर्णित है। यह गीत अपेक्षाकृत सर्वाधिक लम्बा है। यथा- सरिआ मनाऔ बबुर तरे झडुले बिरिछ तरे।

सरोज : सीतापुर निवासी सरोज जी अल्पख्यात अवधी कवि हैं।

सरोज : सीतापुर निवासी सरोज जी अल्पख्यात अवधी कवि हैं।

सर्व ग्रंथोक्ति : यह पतितदास द्वारा रचित अवधी गद्य-ग्रंथ है। इसमें आयुर्वेद विषयक जानकारी उपलब्ध करायी गयी है।

सर्वमंगला  : यह विश्वनाथ पाठक कृत अवधी प्रबन्ध-काव्य है, जिसमें पार्वतीजी का वृत्तान्त और माहात्म्य वर्णित है। इस कृति में कवि ने तत्कालीन भारत की पीड़ा को व्यक्त करते हुए पूरे राष्ट्र की मंगलाशा की है। इस काव्य की रचना १९७० में की गई है। कुल १४ सर्गों में व्याप्त यह काव्य अवधी की विशिष्ट देन है।

सर्वेश रामायण : यह सुल्तानपुर निवासी कवि विश्वप्रेम सर्वेश कृत अवधी रचना है, जिसमें पद-विन्यास एवं शब्दावली उच्चकोटि की है।

सर्वोदय शतक : यह सन् १९५६ में रचित श्री रामस्वरूप मिश्र विशारद जी की महत्वपूर्ण अवधी रचना है।

संवंश शुक्ल : विहगपुर निवासी शुक्ल जी भारतेन्दु युग के अवधी कवि हैं। इनका अवधी साहित्य अप्रकाशित है।

सहजराम  : मिश्र बन्धु विनोद के अनुसार ये सुल्तानपुर जिले के ‘बंधुआ’ ग्राम के निवासी थे। शिवसिंह सरोज के अनुसार इनका जन्मकाल सं. १९०५ है। ’रघुवंश दीप’ और ‘प्रहलाद चरित’ इनके अवधी काव्य ग्रन्थ हैं। कवि का रचना काल सं. १९३० वि. माना जाता है। इनके दोनों ग्रन्थ दोहा-चौपाई छन्दों तथा अवधी भाषा में लिखे हैं। रचना शैली तुलसीदास कृत ‘मानस’ से साम्य रखती है। आधुनिक अवधी साहित्य में सहजराम का स्थान गण्यमान है।

सहजोबाई : १७वीं-१८वीं शताब्दी में जनमे सन्त कवियों में से ये एक हैं। इन्होंने जो साहित्य सर्जना की, उसमें ब्रज एवं भोजपुरी के साथ-साथ अवधी शब्दावली का भी पर्याप्त प्रयोग हुआ है।

साँईदास  : इनका जन्म सं. १५२५ की माघ कृष्ण १३, गुरुवार को बछोकी नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम ‘मल्लिराय’ था। इनकी काव्यकृति ’रतनज्ञानि’ से इनकी काव्य कला का परिचय मिलता है। साँईदास का विशेष प्रामाणिक विवरण प्राप्त नही है। इनके काव्य में अवधी भाषा का प्रयोग मिलता है।

साँझ  : प्रत्येक मांगलिक-लौकिक आयोजन के पूर्व सन्ध्याकाल पर स्त्रियों द्वारा इस अवधी लोकगीत का गायन किया जाता है। इसमें ‘संझा गोसाइनि’ का मानवीकरण किया गया है। यथा- गलियन गलियन फिरहिं भवानी खोरिया पूँछे बाता, केहिके दुलरवा कै यहि जगि रोपी हम जगि देखन जाब।

साध : यह गीत एक प्रकार से सोहर गीतों का ही अंग है। जब स्त्री गर्भ धारण करती है। तो उसके मन में तरह-तरह की इच्छाएँ (दोहद) जाग्रत होती हैं। उन्ही इच्छाओं को इस गीत के माध्यम से व्यक्त किया जाता है।

साधन  : इनकी रचना- ’मैनासत’ का उल्लेख मात्र इतिहास ग्रन्थों में किया गया है। शेष विवरण अप्राप्त है। वस्तुतः इसका रचनाकाल ११वीं शती के पूर्व का है। साधन की आस्था गोरखपंथ पर है किन्तु साम्प्रदायिक बाह्य चिन्हों का अभाव है। इस कृति में योग और भोग का सुन्दर समन्वय हुआ है। इनकी भाषा में अवधी बीज रूप में अंकुरित होने लगी थी।

साधन  : इनकी रचना- ’मैनासत’ का उल्लेख मात्र इतिहास ग्रन्थों में किया गया है। शेष विवरण अप्राप्त है। वस्तुतः इसका रचनाकाल ११वीं शती के पूर्व का है। साधन की आस्था गोरखपंथ पर है किन्तु साम्प्रदायिक बाह्य चिन्हों का अभाव है। इस कृति में योग और भोग का सुन्दर समन्वय हुआ है। इनकी भाषा में अवधी बीज रूप में अंकुरित होने लगी थी।

सालिग्राम ‘अनुरागी’ : धनौली, जिला हरदोई के निवासी अनुरागी जी एक समर्पित अवधी साहित्यकार हैं। ‘तमगा’ नामक अवधी कृति इनका मुक्तक काव्य है।

सावन  : यह अवधी का एक ऋतु गीत है, जिसे वर्षाऋतु में झूला झूलती हुई स्त्रियाँ सामूहिक रूप से गाती हैं। इसमें नारी-विरह का प्राधान्य होता है साथ ही ऋतु वर्णन भी।

साहेब नेवलदास : ये सतनामी सम्प्रदाय के महात्मा जगजीवनदास के शिष्य और अच्छे कवि थे। इनके आठ ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। ‘सुखसागर’ इनका प्रमुख ग्रंथ है, जिसकी भाषा अवधी है। इस ग्रंथ में सतनामी सम्प्रदाय की उपासना के साधनापरक स्वरूप का वर्णन हुआ है।

साहेब वरदानदास : ये रायबरेली के निवासी एवं अवधी के सन्त कवि हैं।

सियाराम मिश्र  : इनका जन्म सन् १९४२ ई. में ग्राम घर धनिया, जिला खीरी में हुआ था। शिक्षा प्राप्ति के बाद ये पब्लिक इन्टर कालेज गोला गोकर्ण नाथ जिला खीरी में हिन्दी प्रवक्ता हो गए और आज तक इसी पद पर वहीं कार्यरत हैं। खड़ी बोली और अवधी दोनों में ही सुरुचिपूर्ण कवितायें करते हैं। हिरोशिमा, आंगन की नागफनी, स्टालिनवाद, पंचवटी से कर्बला, हुतात्मा जटायु, अमर शहीद हुसैन तथा महासमर आदि इनकी प्रमुख उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। ‘महासमर’ उ.प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत काव्य-ग्रन्थ है। इनकी कविताओं में राष्ट्रीय भावनाओं का प्राबल्य है। इनकी अवधी भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है। लोकभाषा का सौंदर्य भी विद्यमान है।

सियाशरण मधुकरिया ‘प्रेमअली’ : इनका जन्म बिहार प्रदेश के सूपी गाँव में सन् १८६२ में हुआ था। ये रसिक सम्प्रदाय (मधुर उपासना शाखा) के रामभक्त कवि थे। १८८७ ई. में गृहस्‍थ आश्रम छोड़कर प्रेमअली जी अयोध्या आ गये और यहीं स्थायी रूप से बस गये। इन्होंने अवधी भाषा में पदों की जो रचना की है, वह अनुपम है। सन् १९४५ में इनका स्वर्गवास हो गया।

सिलपोहनी  : तैल-मातृ-पूजन के उपलक्ष्य में शिला (सिलबट्टा) पूजन की प्रथा विशेष के अवसर पर यह अवधी लोकगीत स्त्रियों द्वारा गाया जाता है। इस अवसर पर मांगलिक परिधान का बड़ा माहात्म्य है।

सिंहासनबत्तीसी : यह परमसुख कायस्थ द्वारा प्रणीत अवधी काव्य ग्रंथ है। इसका प्रणयन सं. १९०५ में हुआ था।

सीता-स्वयंवर : यह अमेठी नरेश माधव सिंह द्वारा प्रणीत अवधी ग्रंथ है, जिसका प्रणयन सन् १८८५ में हुआ था। इसके अन्तर्गत तीन खण्ड हैं। प्रथम में सीता स्वयंवर का वर्णन है। द्वितीय में रघुनाथ चरित में किष्किंधा काण्ड से राम के अयोध्या पुनरागमन का वृत्तांत है और तीसरे लवकुश चरित में रामाश्वमेध यज्ञ से लेकर सीता के लवकुश सहित अयोध्या आगमन की कथा है।

सीताप्रसाद : ये सुल्तानपुर (अमेठी) के निवासी एवं रसिकोपासक रामभक्त हैं। इनका जीवनकाल सन् १८४४-१९२५ ई. के बीच वर्णित हैं। इन्होंने ‘इश्क विनोद’ नामक अवधी रचना बरवै छंद के माध्यम से प्रस्तुत कर अपनी अवधी-निष्ठा प्रस्तुत की है।

सीतायन : यह रामप्रियाशरण जी द्वारा रचित अवधी ग्रंथ है। इसमें सीताजी एवं उनकी सखियों के चरित्रों का मनोहारी वर्णन हुआ है। साथ ही साथ इसमें रामचन्द्र जी का चरित्र भी वर्णित हुआ है।

सीतायन : यह रामप्रियाशरण जी द्वारा रचित अवधी ग्रंथ है। इसमें सीताजी एवं उनकी सखियों के चरित्रों का मनोहारी वर्णन हुआ है। साथ ही साथ इसमें रामचन्द्र जी का चरित्र भी वर्णित हुआ है।

सीताराम त्रिवेदी : इनका जन्म सन् १९२४ ई. में जनपद हरदोई के पलिया नामक ग्राम में हुआ था। ये अयोध्यासिंह इण्टर कालेज, हरदोई में हिन्दी प्रवक्ता थे। इन्होंने बरवै छंद के माध्यम से रामकथा का निरूपण किया है। ‘बरवै शतक’ इनकी अप्रकाशित कृति है।

सीताराम दास : ये जनकपुर के निवासी थे। इन्होंने सन् १९०० ई. के लगभग ‘जनकपुर-माहात्म्य’ नामक एक अवधी ग्रन्थ की रचना की। यह कृति ‘वृहद् विष्णुपुराण’ के आधार पर दोहा-चौपाई शैली में सृजित है।

सीताराम शरण ‘रूपकला’ : इनका जन्म सन् १८४० में हुआ था। ये रसिक सम्प्रदाय के रामभक्त कवि थे। इन्होंने लगभग १७ ग्रंथ सृजित किये हैं, जिनमें ‘‘भक्ति सुधा बिन्दु स्वाद तिलक’’ सर्वाधिक प्रसिद्ध अवधी ग्रंथ है। इनका देहावसान सन् १९३२ ई. में हो गया था।

सुखराम : ये बैसवारी अवधी के आधुनिक युगीन कवि हैं।

सुखसागर  : यह मलूकदास द्वारा प्रणीत ग्रन्थ है। इसमें ब्रह्म के विभिन्न अवतारों का वर्णन मिलता है। यह इनकी प्रारम्भिक कृति जान पड़ती है। इसकी रचना दोहा-चौपाई शैली में की गई है तथा इसकी भाषा अवधी है।

सुखसागर : यह सतनामी सम्प्रदाय के महात्मा जगजीवन दास (सं. १७२७-१८१७) के शिष्य साहब नेवलदास द्वारा प्रणीत अवधी ग्रंथ है। इसमें सतनामी सम्प्रदाय की उपासना के संदर्भ में वर्णन है।

सुन्दर कवि : असनी (बैसवारा क्षेत्र) निवासी ये अवधी कवि रहे हैं। भारतेन्दु युगीन अवधी कवियों में इनका महत्वपूर्ण स्थान है।

सुमित्रा कुमारी सिन्हा ‘बतासा बुआ’ : ये विशेष रूप से तो खड़ी बोली की कवयित्री हैं, किन्तु इन्होंने अवधी साहित्य में भी अनेक कविताएँ समर्पित की हैं। अवधी में बैसवाड़ी प्रयोग है, खड़ी बोली का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। इनकी अवधी रचनाएँ हैं- बतासा बुआ की झलक, गाँव की मंथरा।

सुमित्रा कुमारी सिन्हा ‘बतासा बुआ’ : ये विशेष रूप से तो खड़ी बोली की कवयित्री हैं, किन्तु इन्होंने अवधी साहित्य में भी अनेक कविताएँ समर्पित की हैं। अवधी में बैसवाड़ी प्रयोग है, खड़ी बोली का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। इनकी अवधी रचनाएँ हैं- बतासा बुआ की झलक, गाँव की मंथरा।

सुमेर सिंह भदौरिया : भदौरिया जी हरदोई जनपद के निवासी हैं। विशुद्ध अवधी क्षेत्र न होने के बावजूद इन्होंने ‘पंच रामायण’ नामक अवधी कृति समाज को अर्पित कर अपना अवधी प्रेम प्रदर्शित किया है।

सुरेन्द्र कुमार दीक्षित : इनका जन्म अक्टूबर सन् १९२७ में बम्भौरा, जनपद सीतापुर में हुआ था। ये अवधी कवि हैं। ‘पूस की रात्रि’ शीर्षक से इनकी कविता उल्लेख्य है।

सुरेश अवस्थी : आकाशवाणी और दूरदर्शन के सुपरिचित अवधी कवि अवस्थी जी का जन्म सन् १९३८ में बाराबंकी जनपद के रामनगर में हुआ। इनकी अवधी कविताएँ ‘माटी की गंध’, लोकस्वर, तुलसी आदि बड़ी ही उत्कृष्ट हैं। सम्प्रति अध्यापन कार्य में अनुरक्त है।

सुरेश चन्द्र शुक्ल ‘सुरेश’ : लखनऊ की मोतीझील कॉलोनी ऐशबाग रोड लखनऊ में जन्मे श्री सुरेश जी शिक्षा प्राप्ति के बाद रेलवे कार्यशाला में कार्यरत हो गये। कक्षा ९ से ही काव्य रचना इन्होंने प्रारम्भ कर दिया था। इनकी प्रथम रचना २ अक्टूबर सन् १९७२ ई. को ‘हे बापू तुम धन्य हो’ शीर्षक से हिन्दी दैनिक पत्र ‘स्वतंत्र भारत’ में प्रकाशित हुई थी। सुरेश जी २६ जनवरी सन् १९८० को नार्वे गए और ओसलो विश्वविद्यालय में नार्वीजियन भाषा से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। नार्वे में ही इन्होंने ‘वेदना’ नामक काव्य संग्रह प्रकाशित कराया। प्रसाद की कृति आँसू के आधार पर इनकी ’रजनी’ नामक कृति वहीं से प्रकाशित हुई। मातृभाषा अवधी होने के कारण ढेर सारी कविताएँ अवधी में इन्होंने लिखी हैं। इनकी रचनाएँ विभिन्न विधाओं में गीत, कहानी, लेख समय-समय पर ‘कादम्बिनी’, ’नवनीत’ एवं ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित हुई हैं।

सूई पूजन : अवध प्रदेश में यह जन्म दिन मनाने की रस्म है। इसमें वह सूई प्रत्येक जन्म दिन पर पूजी जाती है, जिससे उस शिशु का कान जन्म के बाद छेदा जाता है। यह रस्म विवाह होने तक चलती है। इसमें जो गीत गाया जाता है, उसे सुई गीत कहते हैं। इस गीत के साथ वाद्य यंत्र नहीं बजाये जाते हैं।

सूरजप्रसाद द्विवेदी ‘सूरज’ ‘काका बैसवारी’  : इनका जन्म सन् १९३५ ई. में ग्राम अकबराबाद जिला उन्नाव में हुआ था। काका बैसवारी की अवधी कविताओं में ग्राम्य और नगर के सामाजिक जीवन का यथातथ्य चित्रण है। इन्होंने देश की युगीन परिस्थितियों पर सच्चाई के साथ विचार किया है। हास्य और व्यंग्य के माध्यम से जन चेतना को झकझोरा है। इनकी प्रसिद्ध काव्य कृतियाँ हैं- सत्यनारायण की कथा, तुम तौ पिया परदेस सिधारे, सँकरे मा जिया हमार, बैसवारा समर, मतवाला मोहन, समय की पुकार, खिसकढ़ी आदि। गाँव का जीवन ही काका की कविताओं का वर्ण्य विषय है। इनकी अवधी कविताओं में बैसवारी अवधी तथा यहीं का लोकांचल रूपायित हुआ है। बोलचाल की भाषा का सौन्दर्य होते हुये भी साहित्यिक तत्सम शब्दों का अभाव नहीं है। विषयानुरूप-भावानुरूप भाषा में मृसणता, सुष्ठुता और प्रवाह है।

सूरदास : ये लखनऊ निवासी गोबर्धनदास के पुत्र थे। इन्होने सन् १७१४ में ‘नलदमन’ नामक अवधी ग्रन्थ का सृजन किया।

सूर्यप्रकाश त्रिपाठी ‘शूल’ : कानपुर निवासी शूल जी एक अच्छे अवधी रचनाकार हैं। इनकी कुंडलियाँ अति विशिष्ट हैं।

सूर्यप्रकाश त्रिपाठी ‘शूल’ : कानपुर निवासी शूल जी एक अच्छे अवधी रचनाकार हैं। इनकी कुंडलियाँ अति विशिष्ट हैं।

सूर्यप्रसाद ‘निशिहर’ : ये उन्नाव जनपद में स्थित बसन्त खेड़ा विहार के निवासी हैं। इन्होंने अवधी भाषा एवं साहित्य को ढेर सारी कविताएँ समर्पित कर अपना लगाव प्रकट किया है। अछूतोद्धार, हिलिं मिलि रहौ आदि इनकी अवधी रचनाएँ हैं।

सेवा राम : ये १९वीं शताब्दी के अवधी कवि हैं। इन्होंने सं. १९५३ से पूर्व ‘नल-दमयंती-चरित’ नामक अवधी ग्रंथ का सृजन किया था।

सैयद राजन : रायबरेली निवासी राजन एक अच्छे अवधी साहित्यकार हैं। इनकी रचनाएँ समाज को गति-मति प्रदान करने में सहायक है।

सोनेलाल द्विवेदी ‘लतनेश’ : द्विवेदी जी मौरावाँ जिला उन्नाव के निवासी थे। ये बैसवाड़ी अवधी के कुशल रचनाकार थे। समस्यापूर्ति आदि इनकी कविताओं के विषय रहे हैं। ३०-३२ वर्ष की अल्पायु में इनका असामयिक निधन हो गया।

सोम दीक्षित  : १ जुलाई १९४९ ई. को सीतापुर जनपद के ग्राम रिखौना में इनका जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम सुन्दर लाल दीक्षित है। हिन्दी में एम.ए. करने के उपरांत समाज सेवा को इन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। ये हिन्दी सभा सीतापुर के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। छन्दोबद्ध रचनायें सोम दीक्षित की अधिक प्रिय है। ये अच्छे छन्दकार-सवैयाकार हैं। इनकी अवधी में बैसवारी का भी पुट मिलता है।

सोहर  : यह जन्मोत्सव पर गाया जाने वाला अवधी मंगलगीत है। डा. कृष्णदेव उपाध्याय ने इसकी व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘शोभन्’ से मानी है। सोहर गीतों में ममता, वात्सल्य भाव और आशा का बीज विद्यमान रहता है। इस गीत की परपंरा प्राचीन है। प्राचीन सोहर गीतों में पुत्र-जन्म सम्बद्ध भावों को ही उजागर किया गया है। इसके अतिरिक्त अन्य चिन्तन को स्थान नहीं मिला है। किन्तु आधुनिक युग में समकालीन चिंतन को ध्यान में रखते हुए समेट लिया।

सोहाग  : विवाह लग्न के पूर्व कन्या के सौभाग्य-सुख के लिए स्त्रियों द्वारा गौरी-वन्दना करते हुए इस अवधी लोकगीत का गायन किया जाता है।

स्वराज्य बहादुर सुमन ‘सुल्तानपुरी’ : इनका विवरण अप्राप्त है, किन्तु इन्होंने निःसन्देह अवधी साहित्य की बहुत सेवा की है।

स्वामी अग्रदास : ये तुलसीदास के समकालीन ‘भक्तमाल’ के लेखक नाभादास के गुरू थे। इनका आविर्भाव काल सं. १६३२ माना गया है। इनके दो अवधी ग्रंथ- ‘कुण्डलिया रामायण’, ध्यान मंजरी’ उल्लेख्य हैं।

हनुमान शरण ‘मधुर आलि’ : ये रसिक सम्प्रदाय के रामभक्त कवि रहे हैं। इन्होंने अवधी भाषा में ‘रामदेहावली’ नामक रचना सृजित कर अपना साहित्यिक योगदान प्रकट किया है। इस रचना का सृजन सन् १८८७ में हुआ था।

हनुमान-स्तुति : यह संत जगजीवन साहब कृत स्‍तुतिपरक अवधी रचना है। इसी नाम से नेवाजदास जी ने भी अपनी अवधी कृति प्रस्तुत की है।

हरभक्त सिंह पँवार : सन् १९४० में जनमे बहराइच निवासी पँवार जी अवधी सेवी के रूप में जाने पहचाने जाते हैं। इनकी सेवा अवधी साहित्य के परिवर्द्धन में सहायक सिद्ध हुई है। इनकी अवधी रचनाएँ जनसामान्य एवं गाँव की धरती से जुड़ी हुई हैं। पारस भ्रमर इनके प्रेरणा-स्रोत हैं। इनका व्यवसाय अध्यापन कर्म रहा है।

हरि कवि  : इनका मूलनाम हरिचरणदास त्रिपाठी था। इनका जन्म सम्वत् १७६६ सारन (बिहार) जिले के चैनपुर ग्राम में हुआ था। इन्होंने ‘बिहारी सतसई’ पर टीका लिखी थी। इसके अतिरिक्त इनका एक स्फुट छंद-संग्रह भी मिलता है। इनकी रचनाओं में विशुद्ध अवधी का प्रयोग हुआ है।

हरि प्रसाद : ये भारतेन्दु युगीन अवधी साहित्यकार हैं।

हरितालिका प्रसाद : ये द्विवेदी युगीन अवधी कवि हैं। विशेष रचना दे सकने में भले ही प्रसाद जी सफल नहीं हो पाये, किन्तु अपने समय में अवधी काव्यधारा को जीवित रखने में अवश्य सफल रहे।

हरिदत्त सिंह : ये अलऊपुर, फैजाबाद के निवासी एवं अवधी कवि हैं।

हरिदास  : हरिदास का पूर्वनाम हरिसिंह था। ये डीडवाणा (राजस्थान ) के निवासी थे। कहा जाता है कि ये गोरखनाथ जी के शिष्य थे। हरिदास का जीवन-वृतांत प्रमाण पुष्ट नहीं है। यों तो इनका स्थितिकाल आदिकाल से संबद्ध है। इनकी रचनाओं में पर्याप्त अवधी प्रयुक्त हुई है।

हरिदास  : हरिदास का पूर्वनाम हरिसिंह था। ये डीडवाणा (राजस्थान ) के निवासी थे। कहा जाता है कि ये गोरखनाथ जी के शिष्य थे। हरिदास का जीवन-वृतांत प्रमाण पुष्ट नहीं है। यों तो इनका स्थितिकाल आदिकाल से संबद्ध है। इनकी रचनाओं में पर्याप्त अवधी प्रयुक्त हुई है।

हरिनाथ शर्मा : शर्मा जी सीतापुर के बदैयाँ क्षेत्र के निवासी हैं। इन्होंने साहित्यिक क्षेत्र में अवधी भाषा को अपना केन्द्र बिन्दु बनाया है। अतः इनका अवधी प्रेम सराहनीय है।

हरिपाल सिंह : सुहिलामऊ, तहसील संडीला जनपद हरदोई निवासी सिंह साहब आधुनिक अवधी साहित्यकार थे। साथ-साथ ब्रज एवं खड़ी बोली का भी प्रयोग किया। इनका जन्म १८७९ को हुआ था एवं मृत्यु १९२३ ई. को। इन्होंने श्री दुर्गाविजय नामक अवधी ग्रंथ का प्रणयन किया है। जिसका प्रकाशन नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से सन् १८९८ में हुआ। इनकी अन्य रचनाएँ हैं- विद्या के लाभ, राजा पुरूरवा और उर्वशी की कथा, सोम्बारी का मेला, ललितादेवी का मेला आदि लगभग एक दर्जन रचनाएँ हैं।

हरिप्रसाद मिश्र : फैजाबाद निवासी मिश्र जी एक अल्पख्यात अवधी कवि हैं।

हरिबख्श सिंह ‘हृदयेश’ : इनका जन्म- १९५२ में एवं जन्म स्थान पूरे धानूमुदाई का बाग, रायबरेली। इन्होंने प्रचुर मात्रा में अवधी काव्य का सृजन किया है।

हरिभक्त सिंह पँवार : पँवार जी का जन्म १ मई सन् १९४३ ई. को ग्राम अटोडर रानीबाग में हुआ था। ठेठ अवधी में रचित इनके काव्य में ग्रामीण अंचल का सौन्दर्य, धरती का सोंधापन एवं नैसर्गिक वातावरण का प्रतिबिम्बन हुआ है। खेत-खलिहान, किसान, गाँव-गिराउँ, फूल-फल आदि इनके लोकगीतों के विषय हैं।

हरिराय  : प्राप्त प्रमाण के अनुसार इनकी रचना है- ‘जानकी रामचरित नाटक’ (अवधी)। इनका रचनाकाल- सं. १८५० कहा गया है। उल्लिखित कृति और अन्यान्य विवरण अभी गर्भस्थ है।

हरिशंकर शर्मा : पैरोडी हास्य लेखक (अवधी) भाषा में।

हरिश्चन्द्र पाण्डेय ‘सरल’ : इनका जन्म सन् १९३२ में जनपद फैजाबाद के पहितीपुर कवलापुर ग्राम में हुआ। ये बहुत संवेदनशील अवधी रचनाकार हैं। इनकी रचनाओं में स्वर का जादू निवास करता है। इनकी रचनाओं में सामाजिक विसंगतियाँ, कारुणिक प्रसंग, ग्राम्य जीवन की मधुर ललित तथा करुणा कलित सम्पुष्ट हुआ है।

हरिश्चन्द्र पाण्डेय ‘सरल’ : इनका जन्म सन् १९३२ में जनपद फैजाबाद के पहितीपुर कवलापुर ग्राम में हुआ। ये बहुत संवेदनशील अवधी रचनाकार हैं। इनकी रचनाओं में स्वर का जादू निवास करता है। इनकी रचनाओं में सामाजिक विसंगतियाँ, कारुणिक प्रसंग, ग्राम्य जीवन की मधुर ललित तथा करुणा कलित सम्पुष्ट हुआ है।

हंस जवाहर : यह काव्यकृति सूफी कवि जान कवि द्वारा रचित है। सूफी प्रेमाख्यान काव्य परम्परा से सम्बद्ध यह कृति मसनवी शैली से ओत-प्रोत है। इसकी भाषा अवधी है, जो इसके माध्यम से अत्यन्त गौरवान्वित हुई है। मिश्र बन्धुओं के अनुसार इस कृति का रचना-काल सं. १९०० वि. है।

हंस जवाहर : यह काव्यकृति सूफी कवि जान कवि द्वारा रचित है। सूफी प्रेमाख्यान काव्य परम्परा से सम्बद्ध यह कृति मसनवी शैली से ओत-प्रोत है। इसकी भाषा अवधी है, जो इसके माध्यम से अत्यन्त गौरवान्वित हुई है। मिश्र बन्धुओं के अनुसार इस कृति का रचना-काल सं. १९०० वि. है।

हाफिज महमूद खाँ : अपरहटी, रीवाँ के निवासी खाँ साहब अवधी भाषा के अनन्य भक्त हैं। इन्होंने अवधी को केन्द्र बिन्दु बनाकर अपनी रचना धर्मिता प्रस्तुत की है।

हिन्दी भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास : यह डॉ. ज्ञानशंकर पाण्डेय कृत समीक्षा ग्रन्थ है। इसमें व्याकरण के साथ-साथ अवधी साहित्यकारों का विशद परिचय दिया गया है। इसका प्रणयन सन् १९८९ में हुआ।

हिन्दी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय : इस विभाग द्वारा संपादित अवधीग्रंथों, शोध प्रबन्धों, पत्र पत्रिकाओं, पाठ्यक्रमों और अवधी साहित्य हेतु किये गये प्रयासों की सर्वत्र सराहना की गयी है। ‘अवधी परिषद’ की स्थापना करके विभाग ने अवधी के मानकीकरण का कार्य किया है। अवधी पर यहाँ से दो दर्जन डी.लिट. एवं लगभग सत्‍तर पी-एच.डी. शोध कार्य सम्पन्न हो चुके हैं और दर्जनों विषयों पर शोध कार्य चल रहा है।

हिन्दुस्तानी ग्रामर : यह गिलक्राइष्ट कृत हिन्दी की गद्य कृति है। इसमें अरबी-फारसी के प्रभाव के साथ-साथ अवधी भाषा का भी पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है। इसका सृजन सन् १७९६ ई. में हुआ था।

हुसैन अली  : ये सूफी कवि थे। इन्होंने सन् १७३८ में ‘पुहुपावती’ नामक रचना का प्रणयन किया। इसी रचना में इनके उपनाम सदानंद का उल्लेख मिलता है। इनके काव्य गुरू केशवलाल थे। इनकी भाषा ब्रज मिश्रित अवधी है। यों अवधी का विनियोग अपेक्षाकृत अधिक है।

हेमचन्द्र  : इनका जन्म सं. ११४५ वि. में हुआ था तथा इनकी मृत्यु सं. १२२९ वि. में। हेमचन्द्र की रचनाएँ- प्राकृत पैंगलम् प्रबंध चिंतामणि, प्रबंध कोश, पुरातन प्रबंध संग्रह तथा व्याकरण है, जिनमें अवधी भाषा के बीज देखे जा सकते हैं।

होरी  : होलिकोत्सव के अधिकांश लोकगीत अवध क्षेत्र में पुरुषों द्वारा गाये जाते हैं, केवल यह होरी गीत स्त्रियों द्वारा गेय है। इसमें वे अपना उल्लास व्यक्त करती हैं।

स्रोत

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