विक्षनरी:ब्रजभाषा सूर-कोश खण्ड-३
ब्रजभाषा सूर-कोश तृतीय खण्ड
[सम्पादन]- गुणा
- गुणन क्रिया, जरब।
- संज्ञा
- [सं. गुणन]
- गुणाकर
- गुणनिधान।
- वि.
- [सं. गुण+आकर]
- गुणाढ्य
- गुण-संपन्न, गुणवान।
- वि.
- [सं. गुण+आढ्य]
- गुणातीत
- गुणों के परे।
- वि.
- [सं. गुण+अतीत]
- गुणातीत
- परमेश्वर।
- संज्ञा
- गुणानुवाद
- बड़ाई, प्रशंसा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुणित
- गुणा किया हुआ।
- वि.
- [सं.]
- गुणी
- गुणवाला, गुणवान।
- वि.
- [सं. गुणिन]
- गुणी
- निपुण या कुशल व्यक्ति।
- संज्ञा
- गुणी
- जन्त्र मन्त्र या झाड़ फूँक करनेवाला।
- संज्ञा
- गुथति
- गूँथती है।
- वाके गुनगन गुथति माल कबहूँ उरते नहिं छोरी - १० उ, ११६।
- क्रि. स.
- [हिं. गूथना]
- गुथति
- गुथी हुई, बनायी हुई।
- वि.
- गुथना
- बँधना, फँसना, नथना।
- क्रि. अ.
- [सं. गुत्सन, प्रा. गुत्थन]
- गुथना
- टाँका या गूँथा जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. गुत्सन, प्रा. गुत्थन]
- गुथना
- बहुत मोटी और भद्दी सिलाई होना।
- क्रि. अ.
- [सं. गुत्सन, प्रा. गुत्थन]
- गुथना
- हाथापाई करना, भिड़ जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. गुत्सन, प्रा. गुत्थन]
- गुथना
- बँधना, फँसना, नथना।
- क्रि. अ.
- [सं. गुत्सन, प्रा. गुत्थन]
- गुथना
- टाँका या गूँथा जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. गुत्सन, प्रा. गुत्थन]
- गुथना
- बहुत मोटी और भद्दी सिलाई होना।
- क्रि. अ.
- [सं. गुत्सन, प्रा. गुत्थन]
- गुथना
- हाथापाई करना, भिड़ जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. गुत्सन, प्रा. गुत्थन]
- गुणीन
- गुणा किया गया।
- वि.
- [हिं. गुणा]
- गुणीन
- गिना गया, गिनती में आया।
- वि.
- [हिं. गुणा]
- गुण्य
- वह अंक जिसे गुणा करना हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुण्य
- गुणवान व्यक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुत्ता
- लगान पर खेत देने की रीति।
- संज्ञा
- [देश.]
- गुत्ता
- लगान, भूमिकर।
- संज्ञा
- [देश.]
- गुत्थमगुत्था
- उलझाव, फँसाव।
- संज्ञा
- [हिं. गुथना]
- गुत्थमगुत्था
- हाथापाई, भिड़ंत।
- संज्ञा
- [हिं. गुथना]
- गुत्थी
- गिरह, ग्रंथि।
- संज्ञा
- [हिं. गुथना]
- गुत्थी
- समस्या, उलझन।
- संज्ञा
- [हिं. गुथना]
- गुनगुना
- मामूली गरम।
- वि.
- [हिं. कुनकुना]
- गुनगुनाना
- गुनगुन शब्द करना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- गुनगुनाना
- नाक में बोलना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- गुनगुनाना
- धीरे-धीरे गाना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- गुनगौरि
- पार्वती के समान सौभाग्यवती स्त्री।
- संज्ञा
- [सं. गुण + गौरी]
- गुनगौरि
- पतिव्रता नारी।
- संज्ञा
- [सं. गुण + गौरी]
- गुनज्ञा
- (गुणों के) पारखी।
- सूर स्याम सबके सुखदायक लायक गुननि गुनज्ञ - पृ. ३४६ (४४)।
- वि.
- [सं. गुणज्ञ]
- गुनति
- गुन रही है, सोच विचार रही है।
- मेरौ कह्यौ नाहिंन सुनति। तबहिं ते इकटक रही है, कहा धौ मन गुनति - ७१९।
- क्रि. अ.
- [हिं. गुनना]
- गुनन
- मनन, विचार।
- संज्ञा
- [हिं. गुनना]
- गुनन
- अनेक गुण।
- संज्ञा
- [हिं. गुण]
- गोपीथ
- रक्षा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपीथ
- राजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपीनाथ
- गोपियों के स्वामी श्रीकृष्ण'।
- कहै सूरदास, देखि नैनन की मिटी प्यास, कृपा कीनी गोपीनाथ, आय भुवतल मैं - ८.५।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपुच्छ
- गाय की पूँछ।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपुच्छ
- एक बंदर।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपुच्छ
- एक हार।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपुच्छ
- एक बाजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपुत्र
- सूर्य-पुत्र कर्ण।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपुर
- नगर का द्वार।
- ऐसे कहत गये अपने पुर सबहिं बिलच्छन देख्यौ। मनिमय महल फरिक गोपुर लखि कनक भुमि अवरेख्यौ - सारा. ८२० |
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपुर
- किले का द्वार।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोबरगणेश गोवरगनेस
- निकम्मा।
- वि.
- [हिं. गोबर + गणेश]
- गोबरी
- कंडा, उपला।
- संज्ञा
- [हिं. गोबर + ई (प्रत्य.)]
- गोबरी
- गोबर की लिपाई।
- संज्ञा
- [हिं. गोबर + ई (प्रत्य.)]
- गोबरैल, गोबरौरा, गोबरौला
- गोबर में उत्पन्न एक कीड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. गोबर + ऐला या औला (प्रत्य.)]
- गोबर्धन
- गायों की वृद्धि करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं. गोवर्द्धन]
- गोबर्धन
- ब्रज का एक पर्वत। प्रसिद्धि है कि एक बार बहुत वर्षा होने पर श्रीकृष्ण ने इसे उँगली पर उठा लिया था।
- संज्ञा
- [सं. गोवर्द्धन]
- गोबर्धनधारी
- गोबर्धन पर्वत को उठानेवाले, श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं. गोवर्द्धन + धारी]
- गोबिंद, गोबिन्दा
- श्रीकृष्ण।
- संज्ञाा
- [सं. गोपेंद्र, या गोविंद, हि. गोविंद]
- गोबिंद, गोबिन्दा
- परबह्म।
- संज्ञाा
- [सं. गोपेंद्र, या गोविंद, हि. गोविंद]
- गोबिया
- एक तरह का बाँस।
- संज्ञा
- [देश.]
- गोप्य
- रक्षा करने योग्य।
- वि.
- गोफ
- दास. सेवक।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोफ
- दासीपुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोफ
- गोपियों का समूह।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोफण, गोफन, गोफना
- जाल का झोला जिसमें कंकड़-पत्थर रखकर चलाये जायँ।
- संज्ञा
- [सं. गोफण]
- गोफा
- नया मुँहबँधा पत्ता।
- संज्ञा
- [सं. गुंफ]
- गोफा
- तहखाना, गुफा।
- संज्ञा
- गोबर
- गाय का मल।
- संज्ञा
- [सं. गोमय]
- गोबरगणेश गोवरगनेस
- भद्दा, कुरूप।
- वि.
- [हिं. गोबर + गणेश]
- गोबरगणेश गोवरगनेस
- मूर्ख।
- वि.
- [हिं. गोबर + गणेश]
- गोबी, गोभी
- एक घास।
- संज्ञा
- [सं. गोजिह्वा]
- गोबी, गोभी
- एक शाक।
- संज्ञा
- [सं. गोजिह्वा]
- गोबी, गोभी
- पौधों का एक रोग।
- संज्ञा
- [सं. गोजिह्वा]
- गोभ, गोभा
- लहर।
- संज्ञा
- गोभुज
- राजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोभृत
- पर्वत, पहाड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमंत
- सह्याद्रि की एक पहाड़ी जहाँ गोमती देवी का स्थान है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोम
- घोड़ों की भँवरी।
- संज्ञा
- [देश.]
- गोम
- पृथ्वी।
- संज्ञा
- [देश.]
- गोमती
- उत्तर प्रदेश की एक प्रसिद्ध नदी।
- मन यह करत बिचार गोमती तीर गये - १० - ३४७।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमुखी
- माल रखने की ऊनी थैली।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमुखी
- गंगोत्तरी का वह स्थान जहाँ से गंगा निकलती है और जिसकी बनावट गाय के मुख की सी है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमुखी
- एक नदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमुखी
- घोड़ों के उपरी होठों की एक भँवरी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमुदी
- एक प्राचीन बाजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमूत्रिका
- एक चित्रकाव्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमूत्रिका
- एक घास।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमेद
- गोमेदक मणि।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमेद
- शीतल चीनी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमेदक
- एक मणि, राहु-रत्न।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमती
- बंगाल की एक नदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमती
- गोमंत पर्वत की एक देवी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमती
- एक मंत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमतीशिला
- हिमालय की एक शिला जहाँ अर्जुन का शरीर गला था।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमय, गोमल
- गोबर।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमर
- गाय को मारने वाला, गोहिंसक, कसाई।
- संज्ञा
- [सं. गो+हिं. मर प्रत्य.)]
- गोमा
- गोमती नदी।
- संज्ञा
- [देश, ]
- गोमाय, गोमायु
- सियार, गीदड़।
- चल्यौ भाजि गोमायु जंतु ज्यों लैंके हरि कौ भाग - सारा.२६७।
- संज्ञा
- [सं. गोमायु]
- गोमाय, गोमायु
- एक गन्धर्व।
- संज्ञा
- [सं. गोमायु]
- गोमी
- सियार।
- संज्ञा
- [सं. गोमिन्]
- गोमी
- पृथ्वी।
- संज्ञा
- [सं. गोमिन्]
- गोमुख
- गाय का मुख।
- गउ चराइ, मम त्वचा उपारौ। हाड़न कौ तुम ब्रज सँवारौ। सुरपति रिषि की आज्ञा पाई। लिए हाड़, दियौ ब्रज बनाई। गौमुख असुध तबहिं तैं भयौ - ६ - ५।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमुख
-
- गोमुख नाहर (व्याघ्र) :- वह मनुष्य जो देखने में तो सीधा हो, पर वास्तव में बड़ा क्रूर और अत्याचारी हो।
- मु.
- गोमुख
- नरसिंहा नामक बाजा।
- एक पटह, एक गोमुख, एक आवझ, एक झालरी, एक अमृत कुंडल रबाब भाँति सौं दुरावै - २४२५।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमुख
- एक शंख।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमुख
- माला रखने की थैली जिसकी बनावट गाय के मुख की सी होती है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमुख
- नाक नामक जल जंतु।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमुख
- योग का एक आसन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमुख
- टेढ़ा मेढ़ा घर।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमुख
- हल्दी-चावल का ऐपन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोरखो
- एक लता जिसमें फूट नामक ककड़ी फलती है।
- संज्ञा
- [हिं. गोरख]
- गोरज
- गैयों के (चलते समय) खुरों से उड़ी हुई धूल।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोरटा
- गोरे रंग का, गोरा।
- वि.
- [हिं. गोरा]
- गोरस
- दूध।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोरस
- दधि, दही।
- (क) गोरस मथत नाद इक उपजत, किंकिनि धुनि सुनि स्रवन रमापति - १० - १४९।
(ख) रैनि जमाई धरयौ हो गोरस, परयौ स्याम कैं हाथ - १० - २७७। (ग) गोरस बेचन गई बबा की सौं हौं मथुरा तें आई - २५४८।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोरस
- मठा, छाछ।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोरस
- इंद्रियों का सुख, विषय-सुख।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोरसा
- बच्चा जो केवल ऊपरी (विशेषतः गाय के) दूध पर पला हो।
- संज्ञा
- [सं, गोरस]
- गोरसी
- दूध गरमाने की अँगीठी।
- संज्ञा
- [सं. गोरस + ई (प्रत्य.)]
- गोरा
- उज्ज्वल वर्ण का।
- वि.
- [सं. गौर]
- गोर
- उजला।
- वि.
- [सं. गौर]
- गोरक
- अरयल नामक वृक्ष।
- संज्ञा
- [देश.]
- गोरख अमली (इमली)
- एक बड़ा पेड़ जिसे कल्पवृक्ष भी कहते हैं।
- संज्ञा
- [हिं. गोरख+इमली]
- गोरखधंधा
- कई तारों-कड़ियों आदि का समूह जिन्हें जोड़ना या अलग करना कठिन होता है।
- संज्ञा
- [हिं. गोरख+धंधा]
- गोरखधंधा
- झगड़ा या उलझन का काम।
- संज्ञा
- [हिं. गोरख+धंधा]
- गोरखधंधा
- झगड़ा, उलझन।
- संज्ञा
- [हिं. गोरख+धंधा]
- गोरखनाथ
- गोरखपुर के एक प्रसिद्ध सिद्ध जिनका संप्रदाय अभी तक है।
- संज्ञा
- [सं. गोरक्षनाथ]
- गोरखपंथी
- गोरखनाथ का अनुयायी।
- वि.
- [हिं. गोरखनाथ + पंथी]
- गोरखमुंडी
- मुंडी नामक घास।
- संज्ञा
- [सं. मुंडी]
- गोरखा
- नैपाल का एक प्रदेश। इस प्रदेश का निवासी।
- संज्ञा
- [हिं. गोरख]
- गोमेदक
- काला विष।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमेदक
- एक साग।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोमेध
- गोसव यज्ञ।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोयँड़
- गाँव के आसपास की भूमि।
- संज्ञा
- [हिं. गाँव + मेड़]
- गोय
- गेंद।
- संज्ञा
- [हिं. गोल]
- गोया
- मानो।
- क्रि. वि.
- [फ़ा.]
- गोयो
- छिपाया, लुप्त किया, दूर किया, मिटाया।
- गोकुल गाय दुहत दुख गोयो् कूर भए ए बार - २८००।
- क्रि. स.
- [हिं. गोना]
- गोर
- मृत शरीर की कब्र।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गोर
- फारस का एक प्रदेश।
- संज्ञा
- [अ.ग़ार]
- गोर
- गोर।
- (क) द्वै ससि। स्याम नवल घन द्वै कीन्हें विधि गोर. - १९१९।
(ख) बलि तुहिं जाउँ बेगि लै मिलऊ स्याम सरोज बदन तुव गोर - २२१५४। (ग) मनमोहन पिय दूल्हा राजत दुलहिन राधा गोर - शार.१०६६।
- वि.
- [सं. गौर]
- गुनिया, गुनियाला
- गुणवान्, गुणी।
- वि.
- [हिं. गुणी]
- गुनिया, गुनियाला
- राजों, बढ़इयों आदि का गोनिया नामक औजार।
- संज्ञा
- [हिं. कोन]
- गुनिया, गुनियाला
- वह मल्लाह जो नाव की गून खींचता है, गुनरखा।
- संज्ञा
- [सं. गुण = रस्सी]
- गुनिये
- समझिए, सोचिए।
- कंचन कलस गढ़ाये कब हम देखे धौं यह गुनिये - ११३०।
- क्रि. स.
- [हिं. गुनना]
- गुनी, गुनीला
- गुणवाला, गुणयुक्त, सगुण।
- गुन बिना गुनी, सुरूप रूप बिनु नाम बिना श्री स्याम हरी - ११५।
- वि.
- [सं. गुणिन, हिं. गुणी]
- गुनी, गुनीला
- कला-कुशल व्यक्ति।
- सुनि आनंदे सब लोग, गोकुल - गनक - गुनी - १० - २४।
- संज्ञा
- गुनी, गुनीला
- झाड़-फूँक या जंत्र-मंत्र जाननेवाला।
- (क) स्याम भुजंग डस्यौ हम देखत, ल्यावहु गुनी बोलाई ७४३।
(ख) तंत्र न फुरै, मंत्र नहिं लागै, चले गुनी गुन हारे - ३२५४।
- संज्ञा
- गुनी, गुनीला
- सोची, मानी, समझी।
- अब लौं ऐसी नाहिं सुनी। जैसी करी नंद के नंदन अद्भुत बात गुनी - सा. १०४।
- क्रि. स.
- [हिं. गुनना]
- गुने
- मनन किये, सोचे, विचारे।
- सूत ब्यास सौं हरि - गुन सुने बहुरौ तिन निज मनमैं गुरे - १ - २२८।
- क्रि. अ.
बहु.
- [हिं. गुनना]
- गुनोबर
- चिलगोजे का वृक्ष।
- संज्ञा
- [फ़ा, सनोबर]
- गोल
- अंडे, नीबू आदि के आकार का।
- वि.
- [सं.]
- गोल
-
- गोल गोल :- (१) मोटे तौर पर, स्थूल रूप से।
(२) साफ साफ नहीं। गोल बात :- जो बात बिल्कुल स्पष्ट या साफ न हो। गोल मटोल (मठोल) :- (१) मोटे तौर पर। (२) मोटा और नाटा। (३) कम ऊँचाई का पर ज्यादा मोटाईवाला। गोल होना :- (१) चुप हो जाना। (२) चुपके से चले जाना।
- मु.
- गोल
- वृत्त, घेरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोल
- गोला।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोल
- एक ओषधि।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोल
- मैनफल या मदन वृक्ष।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोल
- झुंड, समूह।
- संज्ञा
- [फ़ा गोल]
- गोल
- गोलमाल, गड़बड़, खलबली, हलचल |
- संज्ञा
- [सं. गोल (योग)]
- गोल
-
- गोल पारना (मारना) :- गड़बड़, खलबली या हलचल मचाना।
पारयो गोल :- खलबली पैदा कर दी, हलचल मचा दी। उ. - ल्याए हरि कुसलात धन्य तुम घर घर पारयौ गोल - ३२६५।
- मु.
- गोलक
- गोलोक।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोरा
- उजला, सफेद।
- वि.
- [सं. गौर]
- गोरा
- उज्ज्वलवर्ण का व्यक्ति।
- संज्ञा
- गोराई
- गोरापन।
- संज्ञा
- [हिं. गोरा+ई+या आई]
- गोराई
- उज्ज्वलता।
- संज्ञा
- [हिं. गोरा+ई+या आई]
- गोराई
- सुंदरता।
- संज्ञा
- [हिं. गोरा+ई+या आई]
- गोरिल्ला
- एक बनमानुष।
- संज्ञा
- [अफ्रिका]
- गोरी
- गौर वर्ण की स्त्री. रूपवती रमणी।
- जौ तुम सुनहु जसोदा गोरी - १० - २८६।
- संज्ञा
- [सं. गौरी, हिं. पुं. गोर]
- गोरी
- उजले रंग की, सफेद।
- अपनी अपनी गाई ग्वाल सब आनि करौ इक ठौरी। पियरी, मौरी, गोरी गैनी, खैरी, कजरी जेती - ४४५।
- वि.
- गोरू
- सींगवाला पशु, चौपाया, मवेशी।
- संज्ञा
- [सं, गो]
- गोरू
- दो कोस की नाप।
- संज्ञा
- [सं, गो]
- गोरूप
- महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोरे, गोरैं
- गोरे, गौर, वर्ण के।
- गौरै भाल बिंदु बंदन, मनु इंदु प्रात रवि काँति - ७०४।
- वि.
- [सं. गौर, हिं. गोरा]
- गोरोचन
- एक प्रकार का सुगंधित द्रव्य।
- (क) बदन सरोज तिलक गोरोचन, लटलटकनि मधुकर - गति डोलनि - १० - १२१।
(ख) सुंदर भाल - तिलक गोरोचन, मिलि मसिबिंदुका लाग्यौ री - १० - १३७।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोरोचना
- गोरोचन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोलंदाज
- गोला चलानेवाला।
- संज्ञा
- [फ़.]
- गोलंदाजी
- गोला चलाने की कला।
- संज्ञा
- [फ़.]
- गोलंबर
- गुंबद।
- संज्ञा
- [हिं. गोल + अंबर]
- गोलंबर
- गोलाई।
- संज्ञा
- [हिं. गोल + अंबर]
- गोलंबर
- बांग का गोल चबूतरा।
- संज्ञा
- [हिं. गोल + अंबर]
- गोल
- जिसका घेरा वृत्ताकार हो।
- वि.
- [सं.]
- गोलियाना
- गोल करना या बनाना।
- क्रि. स.
- [हिं. गोल]
- गोलियाना
- समूह या गोल बाँधना।
- क्रि. स.
- [हिं. गोल]
- गोली
- छोटा गोल पिंड।
- संज्ञा
- [हिं. गोला]
- गोली
- ओषधि की बटी।
- संज्ञा
- [हिं. गोला]
- गोली
- बालकों के खेलने का गोल पिंड।
है।
- संज्ञा
- [हिं. गोला]
- गोली
- गोली का खेल।
- संज्ञा
- [हिं. गोला]
- गोली
- सीसे का गोल छर्रा जो बंदूक से चलाया जाता है।
- संज्ञा
- [हिं. गोला]
- गोली
-
- गोली खाना :- घायल होना।
गोली बचाना :- संकट टल जाना। गोली मारना :- परवाह न करना।
- मु.
- गोलोक
- विष्णुलोक, जो बैकुंठ के दक्षिण में बताया जाता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोलोक
- स्वर्ग।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोला
- तोप से चलाने का गोल पिंड।
- संज्ञा
- [हिं. गोल]
- गोला
- नारियल की गरी।
- संज्ञा
- [हिं. गोल]
- गोला
- रस्सी, सूत आदि की गोल पिंडी।
- संज्ञा
- [हिं. गोल]
- गोला
- गोदावरी नदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोला
- सखी, सहेली।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोला
- मंडल।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोला
- गोली।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोलाई
- गोल होने का भाव, गोलापन।
- संज्ञा
- [हिं. गोल + आई (प्रत्य.)]
- गोलाकार, गोलाकृति
- गोल आकार या प्राकृतिवाला।
- वि.
- [सं.]
- गोलार्द्ध
- पृथ्वी का आधा भाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोलक
- गोल पिंड।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोलक
- मिट्टी का गोल घड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोलक
- फूलों का सार, इत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोलक
- आँख की पुतली।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोलक
- गुंबद।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोलक
- धन जोड़ने की पात्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोलक
- गल्ला, गुल्लक।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोलक
- आँख का डेला।
- (क) अपने दीन दास के हित लगि, फिरते सँग सँगहीं। लेते राखि पलक गोलक ज्यों, संतन तिन सबहीं - १.२८३।
(ख). अति उनींद अलसात कर्मगति गोलक चपल सिथिल कछु थोरे। (ग) अति बिसाल बारिज - दल - लोचन, राजति काजर - रेख री। इच्छा सौं मकरंद लेत मनु अलि गोलक के बेष री - १० - १३६
- संज्ञा
- [सं.]
- गोलमाल
- गड़बड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. गोल (योग)]
- गोला
- गोल बड़ा पिंड।
- संज्ञा
- [हिं. गोल]
- गोलोक
- ब्रजभूमि।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोलोकेश
- श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं. गोलोक + ईश]
- गोलोचन
- एक सुगंधित द्रव्य।
- संज्ञा
- [सं. गोरोचन]
- गोवत
- छिपाते हैं।
- यहूँ नैन की कोर निहारत कबहूँ बदन पुनि गोवत - १९६६।
- क्रि. स.
- [हिं. गोना]
- गोवति
- छिपाती है।
- सूरदास प्रभु तजी गर्ब तैं नये प्रेम गति गोवति - १८००।
- क्रि. स.
- [हिं. गोना]
- गोवध
- गाय की हत्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोवना
- छिपाना।
- क्रि. स.
- [हिं. गोना]
- गोवना
- खोना।
- क्रि. स.
- [हिं. गोना]
- गोवर्द्धन
- वृन्दावन का एक पर्वत जिसे श्रीकृष्ण ने उँगली पर उठाया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोवर्द्धन
- मथुरा का एक प्राचीन नगर और तीर्थ।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोविंद
- श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं. गोपेंद्र, प्रा. गोविंद]
- गोविंद
- वेदांत का ज्ञाता।
- संज्ञा
- [सं. गोपेंद्र, प्रा. गोविंद]
- गोविंद
- बृहस्पति।
- संज्ञा
- [सं. गोपेंद्र, प्रा. गोविंद]
- गोविंद
- परब्रह्म।
- संज्ञा
- [सं. गोपेंद्र, प्रा. गोविंद]
- गोविंद
- गोशाला का अध्यक्ष।
- संज्ञा
- [सं. गोपेंद्र, प्रा. गोविंद]
- गोविंदपद
- मोक्ष, मुक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोवीथी
- चंद्र मार्ग का एक अंश।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोवै
- छिपाता है, लुकाता है।
- माखन उलूखत बाँध्यौ, सकल लोग ब्रज जोवै। निरखि कुरुत्व उन बालनि को रिसि, लाजनि अँखियनि गोवै - ३४७।
- क्रि. स.
- [हिं. गोवना, गोना]
- गोश
- कान, श्रवण।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गोशमायल
- पगड़ी में लगा मोतियों का गुच्छा जो कान के पास रहता है।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गोशमाली
- कान उमेठना।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गोशमाली
- कड़ी चेतावनी देना |
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गोशा
- कोना, कोण।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गोशा
- एकांत स्थान।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गोशा
- दिशा, ओर।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गोशा
- कमान के सिरे।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गोशाला
- गैयों के रहने का स्थान।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोश्त
- मांस. आमिष।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गोष्ठ
- गोशाला,
- संज्ञा
- [सं.]
- गोष्ठ
- पशुशाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोष्ठ
- सलाह, परामर्श।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोष्ठ
- दल, मंडली।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोष्ठशाला
- सभाभवन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोष्ठी
- सभा, मंडली।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोष्ठी
- बात चीत।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोष्ठी
- सलाह, परामर्श।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोष्पद
- गोशाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोष्पद
- गाय के खुर के बराबर गढ़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोस
- एक झाड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोस
- प्रभात।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुनाह
- पाप।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुनाह
- अपराध।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुनाहगार
- पापी।
- वि.
- [फा.]
- गुनाहगार
- दोषी।
- वि.
- [फा.]
- गुनाहगारी
- पापी, दोषी या अपराधी होने का भाव।
- संज्ञा
- [फा.]
- गुनाही
- पापी।
- संज्ञा
- [फा.]
- गुनाही
- दोषी।
- संज्ञा
- [फा.]
- गुनि
- समझकर, सोचकर।
- (क) हरि सौं ठाकुर और न जन कौं।….। लग्यौ फिरत सुरभी ज्यौं सुत सँग, औचट गुनि गह बन कौं - १ - ९।
(ख) तुमहीं मन मैं गुनि धौं देखौ बिनु तप पायौ कासी - २९३७।
- क्रि. स.
- [हिं. गुनना]
- गुनिनि
- झाड़-फूँक करने वाले, जंत्र-मंत्र जाननेवाले।
- जंत्र - मंत्र का जानै मेरौ ? यह तुम जाइ गुनिनि कों बूझौ, इहाँ करति कत झेरौ - ७५३।
- वि.बहु.
- [हिं. गुणी]
- गुनियत
- सोचता-विचारता है, समझता-बूझता है।
- कैसो कनक मेखला कछनी यह मन गुनियत हैं - १४१२।
- क्रि. स.
- [हिं. गुनना]
- गोसई
- कपास का एक रोग।
- संज्ञा
- [देश.]
- गोसनि
- कमान के दोनों सिरों से।
- यह अचरज सुबड़ो जिय मेरे वह छाँइनि वह पोसनि। निपट निकामजानि हम छाँड़ी ज्यों कमान दिन गोसनि - १०उ. ८८।
- संज्ञा
- [फ़ा. गोशा + नि (प्रत्य.)]
- गोसमायल
- पगड़ी में लगी मोतियों की गुच्छी जो कानों के पास लटकती है।
- पाग ऊपर गोसमायंत रंग रंग रचि बनाइ - २३५०।
- संज्ञा
- [फ़ा. गोशमायल]
- गोसव
- गोमेध।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोसा
- उपला, कंडा।
- संज्ञा
- [सं. गो]
- गोसा
- कोना।
- संज्ञा
- [हिं. गोशा]
- गोसा
- किनारा।
- संज्ञा
- [हिं. गोशा]
- गोसाँई, गोसाई
- गैयों का स्वामी।
- संज्ञा
- [सं. गोस्वामी]
- गोसाँई, गोसाई
- स्वर्ग का स्वामी, ईश्वर।
- संज्ञा
- [सं. गोस्वामी]
- गोसाँई, गोसाई
- संन्यासियों का एक संप्रदाय।
- संज्ञा
- [सं. गोस्वामी]
- गोसाँई, गोसाई
- विरक्त साधु।
- संज्ञा
- [सं. गोस्वामी]
- गोसाँई, गोसाई
- वह जिसने इंद्रियों को जीत लिया हो।
- संज्ञा
- [सं. गोस्वामी]
- गोसाँई, गोसाई
- मालिक, प्रभु।
- संज्ञा
- [सं. गोस्वामी]
- गोसुत
- गाय का बच्चा, बछड़ा।
- (क) गोपी - ग्वाल - गाय - गोसुत - हित सात दिवस गिरि लीन्हयौ - १ - १७।
(ख) गोकुल पहुँचे जाइ गए बालक अपने घर। गोसुत अरु नर नारि मिली अति हेत लाइ गर।
- संज्ञा
- [सं. गो+सुत]
- गोसूक्त
- अथर्ववेद का एक अंश जिसमें ब्रह्मांङ-रचना का गाय के रूप में वर्णन है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोसैयाँ
- प्रभु, नाथ।
- संज्ञा
- [हिं. गोस.ई]
- गोस्वामी
- वह जिसने इंद्रियों को जीता हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोस्वामी
- वैष्णवाचार्यों के वंशधर या गद्दी के अधिकारी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोह
- एक जंगली जंतु।
- संज्ञा
- [सं . गोधा]
- गोह
- उदयपुरी राजवंश का एक पूर्व पुरुष।
- संज्ञा
- गोहन
- संग, साथ।
- (क) भागैं कहाँ बचौगे मोहन। पाछै आइ गई तुव गोहन - १० - ७९९।
(ख) बरन बरन ग्वाल बने महरनंद गोप जने एक गावत एक नृत्यत एक रहत गोहन - २४२८। (ग) जाके दृष्टिपरे नंदनंदन सोउ फिरत गोइन डोरी डोरी - १४६९।
- संज्ञा
- [सं. गोधन = गौओं का समूह]
- गोहन
- साथी, सहचर।
- (क) सूरदास प्रभु गोहन गोहन की छबि बाढी मेटति दुख निरखि नैन मैन के दरद को - पृ. ३५२ (८२)।
(ख) बार बार भुज धरि अंकम भरि मिलि बैठे दोउ गोहन - पृ. ३१५।
- संज्ञा
- [सं. गोधन = गौओं का समूह]
- गोहनियाँ
- साथ रहनेवाला, संगी, सहचर।
- संज्ञा
- [हिं. गोहन +इयाँ (पत्य.)]
- गोहर
- विसखोपरा जंतु।
- संज्ञा
- [सं. गोधा]
- गोहरा
- कंडा, उपला।
- संज्ञा
- [सं. गो + ईंल्ल]
- गोहराना
- आवाज देना।
- क्रि. अ.
- [हिं. गोहार]
- गोहरायौ
- पुकारा, गोहार मचायी।
- को यह लिये जात कहँ हमको कृष्णकृष्ण कहि गोहरायौ - २३१६।
- क्रि. अ.
भूत.
- [हिं. गोहराना]
- गोहलोत
- गहलौत क्षत्रिय।
- संज्ञा
- [सं. गोह]
- गोहार, गोहारि, गोहारी
- पुकार मचाना, जोर से दुहाई देना, रक्षा या सहायता के लिए चिल्लाना।
- घावहु नंद गोहारि लगौ किन तेरौ सुत अँधवाह उड़ायौ| १० - ७७।
- संज्ञा
- [सं. गो + हार (हरण)]
- गोहार, गोहारि, गोहारी
- शोर-गुल, कोलाहल।
- संज्ञा
- [सं. गो + हार (हरण)]
- गौं
-
- गौं का :- (१) विशेष कामका, उपयोगी।
(२) स्वार्थी, मतलबी। गौं का यार (साथी) :- मतलबी या स्वार्थी मित्र। गौं गाँठना (निकालना) :- काम निकालना, स्वार्थ साधना। गौं पड़ना :- गरज अटकना, काम पड़ना।
- मु.
- गौं
- ढब, चाल, ढंग।
- (क) यह सखि मैं पहिलें कहि राखी असित न अपने होंहीं। सूर काटि जौ माथौ दीजै चलत आपनी गौं हीं - ३०५६।
(ख) हम बावरी त्यों न चलि जान्यौ ज्यों गज चलत अपनी गौ हैं - ३४२८।
- संज्ञा
- [सं. गम, प्रा. गँव]
- गौं
- पक्ष, पाश्र्व।
- संज्ञा
- [सं. गम, प्रा. गँव]
- गौंटा
- छोटा गाँव।
- संज्ञा
- [हिं. गाँव+टा (प्रत्य॰)]
- गौंटा
- गाँव के लाभ के लिए किया गया खर्च।
- संज्ञा
- [हिं. गाँव+टा (प्रत्य॰)]
- गौहाँ
- गाँव-संबंधी।
- वि.
- [हिं० गाँव+हाँ (प्रत्य.)]
- गौ
- गाय, गैया।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौख
- छोटी खिड़की, झरोखा।
- संज्ञा
- [सं. गवाक्ष]
- गौख
- बाहरी दालान, चौपाल, बैठक।
- संज्ञा
- [सं. गवाक्ष]
- गौखा
- झरोखा, छोटी खिड़की।
- संज्ञा
- [सं. गवाक्ष]
- गोहार, गोहारि, गोहारी
- भीड़ जो पुकार सुनकर इकट्ठा हो।
- संज्ञा
- [सं. गो + हार (हरण)]
- गोही
- दुराव, छिपाव।
- संज्ञा
- [सं. गोपन]
- गोही
- छिपी हुई बात, गुप्त बात।
- अपनो बनिज दुरावत हौ कत नाउँ लियौ इतनौ ही। कहा दुरावत हौ मो आगे सब जानत तुव गोही - ११०९।
- संज्ञा
- [सं. गोपन]
- गोही
- महुए का बीज।
- संज्ञा
- [सं. गोपन]
- गोही
- फलों का बीज, गुठली।
- संज्ञा
- [सं. गोपन]
- गोहुअन, गोहुवन
- एक साँप।
- संज्ञा
- [हिं. गेहूँ]
- गोंहुं
- गेहूँ।
- संज्ञा
- [सं. गोधूम]
- गोहेरा
- बिसखोपरा जंतु।
- संज्ञा
- [सं. गोधा]
- गौं
- सुयोग, सुअवसर।
- संज्ञा
- [सं. गम, प्रा. गँव]
- गौं
- मतलब, अर्थ।
- तुम तौ अलि उनहीं के संगी अपना गौं कै टेकौ - ३२८७।
- संज्ञा
- [सं. गम, प्रा. गँव]
- गौखा
- गाय का चमड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. गौ=गाय+खाल]
- गौखी
- जूता।
- संज्ञा
- [हिं. गौखा]
- गौगा
- शोरगुल, हो हल्ला।
- संज्ञा
- [अ. ग़ौग़ा]
- गौगा
- अफवाह, जनश्रुति।
- संज्ञा
- [अ. ग़ौग़ा]
- गौचरी
- गाय चराने का कर जिससे कुछ भूमि चराई की छोड़ी जाती है।
- संज्ञा
- [हिं. गौ+चरना]
- गौड़
- प्राचीन वंग प्रदेश।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौड़
- इस प्रदेश का निवासी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौड़
- ब्राह्मणों की एक जाति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौड़
- राजपूतों की एक जाति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौड़
- कायस्थों की एक जाति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौड़
- एक राग जो तीसरे पहर और संध्या को गाया जाता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौड़िया
- गौड़देशीय।
- वि.
- [सं. गौड़+इया (प्रत्य.)]
- गौड़िया
- गौड़िया सम्प्रदाय-चैतन्य महाप्रभु का वैष्णव संप्रदाय।
- यौ.
- गौड़ी
- गुड़ से बनी मदिरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौड़ी
- काव्य की परुषावृत्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौड़ी
- एक रागिनी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौड़ेश्वर
- श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी जो गौरांग महाप्रभु भी कहलाते हैं।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौण
- अप्रधान, जो मुख्य न हो।
- वि.
- [सं.]
- गौण
- सहायक, संचारी।
- वि.
- [सं.]
- गौणी
- जो मुख्य न हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौणी
- लक्षणा का एक भेद।
- संज्ञा
- गौतम
- गोतम ऋषि के वंशज।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौतम
- एक न्यायशास्त्र-प्रणेता ऋषि।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौतम
- बुद्ध देव।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौतम
- सप्तर्षि मंडल का एक तारा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौतम
- वह पर्वत जिससे गोदावरी निकलती है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौतम
- एक ऋषि जिन्होंने अपनी पत्नी अहल्या को इन्द्र के साथ अनुचित संबंध करने के कारण शाप देकर पत्थर का बना दिया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौतम
- क्षत्रियों की एक जाति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौतमतिया
- गौतम ऋषि की स्त्री अहल्या। इन्द्र ने छल करके इसका सतीत्व नष्ट किया, यह भेद जानने पर गौतम ने इसे शाप देकर पत्थर का बना दिया। भगवान् रामचन्द्र ने विश्वामित्र के साथ जाते समय इसका उद्धार किया।
- संज्ञा
- [सं. गौतम = हिं. तिया]
- गौतमी
- गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौतमी
- कृपाचार्य की पत्नी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौतमी
- गोदावरी नदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौतमी
- गौतम ऋषिकृत स्मृति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौतमी
- दुर्गा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौद, गौदा
- (केले आदि) फलों का गुच्छा, घौद।
- संज्ञा
- [देश.]
- गौदान
- गाय को संकल्प करके दान करने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. गोदान]
- गौदुमा
- गाय की पूँछ की तरह मोटे से क्रमशः पतला होता जाना, उतार-चढ़ाव, गावदुम।
- वि.
- [हिं. गाय + दुम+ आ (प्रत्य.)]
- गौन
- जाना, चलना, यात्रा करना।
- (क) तात बचन रघुनाथ माथ धरि, जब बन गौन कियौ - ९ - ४६।
- संज्ञा
- [सं. गमन]
- गौन
- चंचल, स्थिर।
- वि.
- गौनई
- गान, संगीत।
- संज्ञा
- [सं . गायन]
- गौर
- लाल रंग।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौर
- पीला रंग।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौर
- चंद्रमा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौर
- सोना।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौर
- तौलने का तीन सरसों के बराबर भाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौर
- केसर।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौर
- एक मृग।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौर
- सफेद सरसों।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौर
- चैतन्य महाप्रभु का नाम।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौर
- गौड़।
- संज्ञा
- [सं. गौड़]
- गुन्नी
- एक कोड़ा जिससे ब्रजवासी होली पर मार करते हैं।
- संज्ञा
- [सं. गुण, हिं. गून = रस्सी]
- गुन्यो
- मनन किया, विचार किया।
- सुक सौं नृपति परीक्षित सुन्यौ। तिहि पुनि भली भाँति करि गुन्यौ - १ - २२७।
- क्रि. अ.
- [हिं. गुनना]
- गुप
- सन्नाटा, सूनसान।
- संज्ञाा
- [अनु.]
- गुपचुप
- छिपाकर, चुपचाप।
- क्रि. वि.
- [हिं. गुप्त + चुप]
- गुपचुप
- एक मिठाई।
- संज्ञा
- गुपचुप
- एक खेल।
- संज्ञा
- गुपचुप
- एक खिलौना।
- संज्ञा
- गुपाल
- श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं. गोपाल]
- गुपुत, गुप्त
- छिपा हुआ, अप्रकट।
- (क) राजहु भए, तजत नहिं लोभहिं गुप्त' नहीं जदुराइ - ३११४।
(ख) एक केहरि एक हंस गुपुत रहै, तिनहिं लग्यौ यह गात - सा, उ. - ३।
- वि.
- [सं. गुप्त]
- गुपुत, गुप्त
- जाति न गुप्त करी-छिपती नहीं।
- कछु इक अंगनि की सहिदानी, मेरी दृष्टि परी।…..। मृग मूसी नैननि की सोभा, जाति न गुप्त करो - ९ - ६३।
- यौ.
- गौनहर
- गाने-बजानेवाली।
- संज्ञा
- [हिं. गौनहारी]
- गौनहर, गौनहाई
- जिसका गौना हाल ही में हुआ हो।
- वि.
- [हिं. गौना + हाई (प्रत्य.)]
- गौनहार
- वह स्त्री जो दुलहिन के साथ उसकी ससुराल जाय।
- संज्ञा
- [हिं. गौना + हार (प्रत्य.)]
- गौनहारिन, गौनहारी
- गाने-बजाने का काम करनेवाली स्त्रियाँ।
- संज्ञा
- [हिं. गाना + हारी (वाजी)]
- गौना
- गमन, प्रस्थान, जाना।
- (क) अका बकासुर तवहिं सँहारथी, प्रथम कियौ बन गौना - ६०१।
(ख) मो देखत अबहीं कियौ गौना - २४२१।
- संज्ञा
- [सं. गमन]
- गौना
- विवाह के बाद की एक रीति जिसमें वर वधू को ससुराल से बिदा करा कर घर ले आता है, मुकलावा, द्विरागमन।
- संज्ञा
- [सं. गमन]
- गौने
- गये, प्रस्थान किया।
- (क) की हरि आजु पंथ यहि गौने कीधौं स्याम जलद उनयौ–१६२८।
(ख) सूरदास प्रभु मधुबन गौने तो इतनो दुख सहियत - २८५६।
- क्रि. अ.
- [सं. गमन]
- गौमुखी
- धन रखने की थैली।
- संज्ञा
- [सं. गोमुखी]
- गौर
- गोरे चमड़ेवाला, गोरी।
- गौर बरन मोरे देवर सखि, पिय मम स्याम सरीर - ९ - ४४।
- वि.
- [सं.]
- गौर
- उजला, सफेद।
- वि.
- [सं.]
- गौर
- सोच-विचार, चिंतन।
- संज्ञा
- [अ. ग़ौर]
- गौर
- ध्यान, ख्याल।
- संज्ञा
- [अ. ग़ौर]
- गौरता
- गोरापन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरता
- सफेदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरव
- महत्व, बड़प्पन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरव
- भारीपन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरव
- आदर, सम्मान।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरव
- उत्कर्ष।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरवान्वित, गौरवित
- महिमामय।
- वि.
- [सं.]
- गौरवान्वित, गौरवित
- सम्मानित, मान्य।
- वि.
- [सं.]
- गौरी
- आठ वर्ष की कन्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरी
- हल्दी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरी
- तुलसी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरी
- गोरोचन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरी
- सफेद रंग की गाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरी
- गंगा नदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरी
- चमेली।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरी
- पृथ्वी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरी
- गुड़ से बनी शराब, गौड़ी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरी
- एक रागिनी जो श्रीराग की स्त्री मानी जाती है।
- (क) मालवाई राग गौरी अरु असावरी राग - २२१३।
(ख) बेनु पनि गहि मोको सिखावत मोहन गावन गौरी - २८७३।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरांग
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरांग
- श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरांग
- चैतन्य महाप्रभु।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरा
- गोरे रंग की स्त्री।
- संज्ञा
- [सं. गौर]
- गौरा
- पार्वती जी।
- संज्ञा
- [सं. गौर]
- गौरा
- हल्दी।
- संज्ञा
- [सं. गौर]
- गौरा
- एक रागिनी।
- संज्ञा
- [सं. गौर]
- गौरा
- एक सुगंधित द्रव्य।
- संज्ञा
- [सं. गोरोचन]
- गौरी
- गोरे रंग की स्त्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरी
- पार्वती जी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरीचंदन
- लाल चंदन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरीज
- अभ्रक।
- संज्ञा
- [सं. गौरी+ज]
- गौरीज
- कार्तिकेय।
- संज्ञा
- [सं. गौरी+ज]
- गौरीज
- गणेशजी।
- संज्ञा
- [सं. गौरी+ज]
- गौरीनाथ, गौरीपति
- शिव, महादेव।
- गौरीपति पूजति ब्रजनारि - ७६६।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरीशंकर
- महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरीशंकर
- हिमालय की सबसे ऊँची चोटी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरीश, गौरीस
- शिव महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौरैया
- एक काला जल-पक्षी।
- संज्ञा
- गौला
- गौरी, पार्वती।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथ
- गाँठ लगाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथ
- धन।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथकर्ता, ग्रंथकार
- ग्रंथ का रचयिता।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथचुम्बक
- वह पाठक जिसने ग्रंथ का अध्ययन और मनन भली भाँति न किया हो।
- संज्ञा
- [सं. ग्रंथ+चुंबक = घूमनेवाला]
- ग्रंथचुम्बन
- ग्रंथ की सरसरे ढग से पाठ मात्र करना, अध्ययन-मनन न करना।
- संज्ञा
- [सं. ग्रंथ + चुंबन]
- ग्रंथन
- दो चीजों को गाँठ देकर जोड़ना।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथन
- जोड़ना।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथन
- गूँथना।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथन
- अनेक ग्रंथ।
- संज्ञा
- [सं. ग्रंथ]
- ग्रंथना
- जोड़ना, बाँधना।
- क्रि. स.
- [हिं. ग्रंथन]
- गौल्मिक
- सिपाहियों के गुल्म का नायक।
- संज्ञा
- [सं.]
- गौवन
- गैयों ने।
- कमल - बदन कुँभिलात सबन के गौवन छाँड़ी तृन की चरनी - ३३३०।
- संज्ञा
- [सं. गो+हिं. बन, अन]
- गौहर
- मोती, मुक्ता।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गौहरा
- गैयों का स्थान।
- संज्ञा
- [हिं. गौ + इरा]
- ग्याति
- वंश, कुल, जाति।
- संज्ञा
- [हिं. जाति]
- ग्यान
- जानकारी, ज्ञान।
- संज्ञा
- [सं. ज्ञान]
- ग्यारह
- दस और एक।
- वि.
- [सं, एकादश, प्रा. एगारस]
- ग्यारह
- दस और एक सूचक संख्या।
- संज्ञा
- ग्रंथ
- पुस्तक।
- पहिले ही अति चतुर हुते अरु गुरु सब ग्रंथ दिखाये - ३३६३।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथ
- गाँठ, ग्रंथि, गुल्थी।
- जिय परी ग्रंथ कौन छोरे निकट ननँद न सास - ३४८ (५७)।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथना
- गूँथना।
- क्रि. स.
- [हिं. ग्रंथन]
- ग्रंथसंधि
- ग्रंथ-विभाग अध्याय आदि।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथसाहब
- सिक्खों का धर्मग्रंथ जिसमें उनके गुरुओ के उपदेश संकलित हैं।
- संज्ञा
- [हिं. ग्रंथ + साहब]
- ग्रंथालय
- पुस्तकालय।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथि
- गाँठ।
- कारो कारो कुटिल अति कान्हर अन्तर ग्रंथि न खोलै - ३०९१।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथि
- बंधन।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथि
- मायाजाल।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथि
- गाँठ होने का रोग
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथि
- कुटिलता।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथित
- गूँथा हुआ।
- वि.
- [सं. ग्रंथन]
- ग्रंथित
- जिसमें गाँठ लगी हो।
- जैसो कियो तुम्हारे प्रभु अति तैसो भयो तत्काल। ग्रंथित सूत धरत तेहि ग्रीवा जहाँ धरत बनमाल - ३३३३।
- वि.
- [सं. ग्रंथन]
- ग्रंथिबंधन
- विवाह के समय वर-कन्या के दुपट्टे का परस्पर गँठबंधन।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथिभेद
- गिरहकट।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रंथिल
- गठीला, गाँठदार।
- वि.
- [सं.]
- ग्रंथिल
- करील्वृक्ष।
- संज्ञा
- ग्रंथिल
- अदरक।
- संज्ञा
- ग्रंथिल
- कँटायवृक्ष।
- संज्ञा
- ग्रंथिल
- चोरक नामक गंधद्रव्य।
- संज्ञा
- ग्रंथै
- गुहते या गूँधते हैं।
- जा सिर फूल फुलेल मेलि के हरि - कर ग्रंथै मोरी
- क्रि. स.
- [हिं. ग्रंथना]
- ग्रंस
- छल-कपट।
- सखी री मथुरा में दा हंस। वै अकूर ए ऊधो सजनी जानत नीके ग्रंस - ३०४९।
- संज्ञा
- [सं. ग्रंथि = कुटिलता]
- ग्रंस
- छलकपट करनेवाला व्यक्ति।
- संज्ञा
- [सं. ग्रंथि = कुटिलता]
- ग्रंस
- दुष्ट व्यक्ति।
- संज्ञा
- [सं. ग्रंथि = कुटिलता]
- ग्रथित
- गूँथा हुआ, गुंफित।
- ऐसैं मैं सबहिन तैं न्यारौं, मनिन ग्रंथित ज्यौं सूत - २ - ३८।
- वि.
- [हिं. गुँथना]
- ग्रसत
- पकड़ लेता है, ग्रस लेता है, पकड़ने पर।
- ग्राह ग्रसत गज कौं जल बूड़त, नाम लेत वाकौं दुख टारयौ - १ - १४।
- क्रि. स.
- [हिं. ग्रंसना]
- ग्रसन
- निगलना, भक्षण करना।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रसन
- पकड़, ग्रहण।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रसन
- चंगुल में फाँसना।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रसन
- ग्रास।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रसन
- ग्रहण।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रसना
- बुरी तरह पकड़ना, चंगुल में फाँसना।
- क्रि. स.
- [सं. ग्रसन]
- गुप्ता
- नायिका जो सुरति छिपा ले।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुप्ता
- गुप्त रूप से रखी हुई अविवाहिता स्त्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुफा
- कंदरा, गुहा।
- संज्ञा
- [सं. गुहा]
- गुबर्धन
- गोवर्द्धन पर्वत।
- सूर प्रभु कर तें गुवर्धन धरयौ धरनि उतारि - ९९४।
- संज्ञा
- [सं. गोवर्द्धन]
- गुबार
- गर्द, धूल।
- संज्ञा
- [अ.]
- गुबार
- दबाया हुआ क्रोध, दुख आदि मनोभाव।
- संज्ञा
- [अ.]
- गुबिंद
- श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं. गोविंद]
- गुब्बाड़ा, गुब्बारा
- रबड़ या कागज का थैलीनुमा एक खिलौना।
- संज्ञा
- [हिं. कुप्या]
- गुम
- छिपा हुआ।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुम
- अप्रसिद्ध
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- ग्रसना
- सताना।
- क्रि. स.
- [सं. ग्रसन]
- ग्रसि
- ग्रास करके, दाँत से पकड़कर।
- (१) कहौ तौ गन समेत ग्रसि खाऊँ, जमपुर जाइ न राम - ९ - १४८।
(ख) सिंह को सुत हर - भूषण ग्रसि ज्यों सोई गति भई हमारी - सा, उ. २९।
- क्रि. स.
- [सं. ग्रसन, हिं. ग्रंसना]
- ग्रसित
- ग्रसा हुआ, जकड़ा जाकर।
- (क) काम - क्रोध - पद लोभ - ग्रसित ह्वै विषय पर बिष खायौ - १ - १११।
(ख) हरि उर मोहनी बेलि लसी। तापर उरग ग्रसित तब सोभित पूरन अंस ससी - स. उ. २५।
- वि.
- [हिं.ग्रसना]
- ग्रसित
- पीड़ित।
- वि.
- [हिं.ग्रसना]
- ग्रसित
- खाया हुआ।
- वि.
- [हिं.ग्रसना]
- ग्रसिहै
- ग्रस लेगा, पकड़ लेगा।
- रूप, जोबन सकल मिथ्या, देखि जनि गरबाइ। ऐसेहिं अभिमान आलस, काल ग्रसिहै आइ - १ - ३१५।
- क्रि. स.
- [हिं. ग्राना]
- ग्रसी
- ग्रसता है।
- चक्षुश्रुवा उरहार ग्रसी ज्यों छिन पुनि या बपु रेष - सा. उ. २९।
- क्रि. स.
- [हिं. ग्रसना]
- ग्रसी
- ग्रसित, ग्रस्त।
- वि.
- [हिं. ग्रस्त]
- ग्रस्त
- जकड़ा या पकड़ा हुआ।
- वि.
- [हिं. ग्रसना]
- ग्रस्त
- पीड़ित।
- वि.
- [हिं. ग्रसना]
- ग्रस्त
- खाया हुआ, ग्रसित।
- वि.
- [हिं. ग्रसना]
- ग्रस्यौ
- बुरी तरह पकड़ लिया, ग्रस लिया।
- ग्रस्यौ गज ग्राह लै चल्यौ पाताल कौं, काल कैं त्रास मुख नाम आयौ - १.१।
- क्रि. स.
- [हिं. ग्रसना]
- ग्रह
- वे तारे जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रह
- नौ की संख्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रह
- ग्रहण करना।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रह
- कृपा।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रह
- चंद्र या सूर्य ग्रहण।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रह
- राहु।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रह
- बुरी तरह जकड़ने या तंग करनेवाला।
- वि.
- ग्रहक
- ग्रहण करनेवाला, ग्राहक।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहण
- सूर्य आदि ज्योति-पिंडों के ज्योति मार्ग में किसी अन्य आकाशवारी पिंड के आ जानेके कारण होनेवाली रुकावट या ज्योतिअवरोध।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहण
- पकड़ने या लेने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहण
- स्वीकृति, मंजूरी।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहण
- अर्थ, तात्पर्य, मतलब।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहणि, ग्रहणी
- शरीर की एक नाड़ी।
एक रोग।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहणीय
- ग्रहण करने योग्य।
- वि.
- [सं.]
- ग्रहदशा
- ग्रहों की स्थिति।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहदशा
- ग्रहों की स्थिति के अनुसार मनुष्य की भली-बुरी दशा।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहदशा
- अभाग्य, बुरी दशा।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहपति
- सूर्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहराज
- बृहस्पति।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहवेध
- ग्रहों की स्थिति, गति आदि का परिचय वेधशाला के यंत्रों द्वारा जानना।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहित
- पकड़ा, ग्रहण किया, आच्छादित किया, अवरोध किया।
- चारु स्त्रवननि ग्रहित कीनी झलक ललित कपोल - १३५१।
- क्रि. स.
- [हिं. ग्रहना]
- ग्रहीत
- पकड़ा हुआ, ग्रहण किया हुआ, स्वीकृत, अंगीकृत।
- वि.
- [हिं. ग्रहण]
- ग्रहीता
- लेने या ग्रहण करनेवाला।
- वि.
- [हिं. ग्रहीत]
- ग्राम
- छोटी बस्ती, गाँव।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राम
- बस्ती, आबादी, जनपद।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राम
- समूह, ढेर।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राम
- शिव।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राम
- संगीत का सप्तक।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहपति
- शनि।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहपति
- आक या मदार का वृक्ष।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहपति - सुत - हित अनुचर को सुत
- ग्रहपति = सूर्य + सुत (सूर्य का पुत्र=सुग्रीव) + हित = मित्र (सुग्रीव का मित्र राम) + अनुचर (राम का अनुचर या सेवक हनुमान)+सुत (हनुमान का सुत या पुत्र मकरध्वज और कामदेव का भी एक नाम है मकरध्वज)]। काम
- ग्रहपति सुत - हित - अनुचर कौ सुत जारत रहत हमेस - सा. २७।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहबसु
- राह, रास्ता।
- ग्रहबसु मिलत संभु की। सैना चमकत चित न चितैहै - सा. १०।
- संज्ञा
- [सं. ग्रह - बसु (बसु आठ हैं। अतः आठवाँ ग्रह हुआ राहु। फिर राहु से अर्थ लिया राह)]
- ग्रहमुनि - दुत
- मंद प्रकाश।
- ग्रहमुनि - दुत हित के हित कर ते मुकर उतारत नाधे - सा. ६।
- संज्ञा
- [सं. ग्रह+मुनि (मुनि सात हैं ; अत: ग्रह - मुनि का अर्थ हुआ सूर्य से सातवाँ ग्रह शनि जिसका दूसरा नाम है मंद) + द्यु ति = प्रकाश]
- ग्रहमुनि - पिता - पुत्रिका
- यमुना नदी।
- ग्रहमुनि पिता - पुत्रिका को रस अति अदभुत गति मातो - सा. ११।
- संज्ञा
- [सं. ग्रह + मुनि मुनि सात हैं, अतः ग्रहमुनि का अर्थ हुआ सातवाँ ग्रह =शनि) + पिता (शनि के पिता=सूर्य)+पुत्रिका सूर्य की पुत्रिका या पुत्री यमुना)]
- ग्रहमैत्री
- वर-कन्या के ग्रहों की अनुकूलता जिसका विचार विवाह के समय होता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहयज्ञ
- ग्रहों की उग्रता या कोप-शांति के लिए किया गया पूजन या यज्ञ।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहराज
- सूर्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रहराज
- चंद्रमा।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राममृग, ग्रामसिंह
- कुत्ता।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रामिक
- ग्राम-संबंधी, गाँव का।
- वि.
- [सं.]
- ग्रामी
- गाँव का
- जो तन दियौ ताहि बिसरायौ, ऐसौ नोनहरामी। भरि भरि द्रोह बिसै कौं धावत, जैसै सूकर - ग्रामी - १ - १४८।
- वि.
- [सं. ग्राम]
- ग्रामीण
- देहाती
- वि.
- [सं.]
- ग्रामीण
- गँवार।
- वि.
- [सं.]
- ग्रामीण
- मुरगा।
- संज्ञा
- ग्रामीण
- कुत्ता।
- संज्ञा
- ग्राम्य
- गाँव-सम्बन्धी, गाँव का।
- वि.
- [सं.]
- ग्राम्य
- मूर्ख।
- वि.
- [सं.]
- ग्राम्य
- असली, प्राकृत।
- वि.
- [सं.]
- ग्राम्य
- काव्य का एक दोष, जिसमें ग्रामीण विषयों या प्रयोगों की अधिकता हो।
- संज्ञा
- ग्राम्य
- अश्लील प्रयोग।
- संज्ञा
- ग्राम्य
- बैल आदि गाँव के पालतू पशु।
- संज्ञा
- ग्राव
- ओला।
- संज्ञा
- ग्राव
- पत्थर।
- संज्ञा
- ग्राव
- पहाड़ी।
- संज्ञा
- ग्रास
- कौर, गस्सा, निवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रास
- पकड़ने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रास
- ग्रहण लगना।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रासक
- पकड़नेवाला।
- वि.
- [सं.]
- ग्रासक
- निगलनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- ग्रासक
- छिपाने या दबानेवाला।
- वि.
- [सं.]
- ग्रासत
- खाते हैं, भोजन करते हैं।
- सालन सकल कपूर सुवासत। स्वाद लेत सुंदर हरि ग्रासत - ३९६।
- क्रि. स.
- [हिं. ग्रासना]
- ग्रासना
- पकड़ना, धरना।
- क्रि. स.
- [सं . ग्रास]
- ग्रासना
- निगलना।
- क्रि. स.
- [सं . ग्रास]
- ग्रासना
- कष्ट देना, सताना।
- क्रि. स.
- [सं . ग्रास]
- ग्रासित
- ग्रसा जकड़ा या फँसा हुआ।
- इहिं कलिकाल - ब्याल - मुख - ग्रासित सूर सरन उबरै - १.११७।
- वि.
- [हिं. ग्रासना]
- ग्रासै
- ग्रस सकता है, निगलता है।
- मारि न सकै, बिघन नहिं ग्रासै, जम न चढ़ावै कमार - १ - ९१।
- क्रि. स.
- [हिं. ग्रासना]
- ग्रासै
- कष्ट देता या सताता है।
- क्रि. स.
- [हिं. ग्रासना]
- ग्रास्यौ
- ग्रस लिया, निगल लिया।
- सबनि सनेहौ छाँड़ि दयौ। हा जदुनाथ जरा तन ग्रास्यौ, प्रतिभौ उतरि गयौ - १ - २९८।
- क्रि. स.
भूत.
- [हिं. ग्रासना]
- ग्राह
- मगर, घड़ियाल।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राह
- ग्रहण।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राह
- पकड़ लेना।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राह
- ज्ञान।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राह
- ग्रहण करनेवाला, ग्राहक।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राहक
- ग्रहण करने या लेने वाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राहक
- खरीदनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राहक
- एक साग।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राहना
- लेना, ग्रहण करना।
- क्रि. स.
- [सं. ग्रहण]
- ग्राही
- ग्रहण या स्वीकार करनेवाला व्यक्तिं।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्राह्य
- लेने योग्य।
- वि.
- [सं.]
- ग्राह्य
- मानने या स्वीकार करने योग्य।
- वि.
- [सं.]
- ग्राह्य
- जानने योग्य।
- वि.
- [सं.]
- ग्रीखम
- गरमी की ऋतु।
- संज्ञा
- [सं. ग्रीष्म]
- ग्रीव, ग्रीवा
- गर्दन।
- ग्रीव कर परसि पग पीठि तापर दियौ उर्बसी रूप पटतरहिं दीन्हीं - २५८८।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रीवी
- वह जिसकी गर्दन लंबी हो।
- संज्ञा
- [सं. ग्रीविन्]
- ग्रीवी
- ऊँट।
- संज्ञा
- [सं. ग्रीविन्]
- ग्रीषम
- गरमी की ऋतु।
- संज्ञा
- [सं. ग्रीष्म]
- ग्रीषम
- वह जो उष्ण हो।
- संज्ञा
- [सं. ग्रीष्म]
- ग्रीषमरिपुन
- स्तन, कुच।
- सुद्ध आखर भरत ग्रीषम रिपुन मध्ये साप - सा. - २।
- संज्ञा
- [सं. ग्रीष्म = गर्मी+रिपु = शत्रु (गर्मी का शत्रु पयोधर ; पयोधर के दो अर्थ हैं - (१) एक बादल। (२) स्तन ; यहाँ दूसरा अर्थ लिया गया है)]
- गुपुत, गुप्त
- जो प्रकट करने योग्य न हो, रहस्यपूर्ण।
- गुप्त मते की बात कहौ जनि काहू के आगे - ३२२७।
- वि.
- [सं. गुप्त]
- गुपुत, गुप्त
- जो शीघ्र समझ में न आ सके, गूढ़।
- वि.
- [सं. गुप्त]
- गुपुत, गुप्त
- रक्षित।
- वि.
- [सं. गुप्त]
- गुपुत, गुप्त
- वैश्यों की एक पदवी या जाति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुपुत, गुप्त
- एक प्राचीन भारतीय राजवंश।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुप्त काशी
- एक तीर्थ जो हरद्वार और बदरीनाथ के बीच में है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुप्तचर
- भेदिया, जासूस।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुप्त दान
- दान जिसे कोई न जाने।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुप्त मार
- भीतरी चोट या आघात।
- संज्ञा
- [सं. गुप्त + हिं. मार]
- गुप्त मार
- छिपाकर किया हुआ अनिष्ट।
- संज्ञा
- [सं. गुप्त + हिं. मार]
- ग्रीष्म
- गर्मी की ऋतु।
हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रीष्म
- वह जो गर्म या उष्ण हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रवेयक
- गले में पहनने का गहना।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रवेयक
- हाथी की हैकल।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्रेह
- घर।
- नीकन अदभुत बात लई। आपु ना तजत ग्रेह पुर में करबर सूर सई - सा. ११५।
- संज्ञा
- [सं. गृह., हिं. गेह]
- ग्रेहो
- गृहस्थ।
- सहज माधुरी अंग अंग प्रति सहज सदावन ग्रेही - १४८५।
- संज्ञा
- [हिं. गेह, ग्रेह]
- ग्लान
- रोगी, बीमार।
- वि.
- [सं.]
- ग्लान
- थका हुआ, क्लांत, भ्रांत।
- वि.
- [सं.]
- ग्लान
- कमजोर, निर्बल।
- वि.
- [सं.]
- ग्लान
- दीनता, निरीहता।
- संज्ञा
- ग्लानि
- मानसिक शिथिलता, अनुत्साह, अक्षमता।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्लानि
- अपने अनुचित कार्यों के विचार से उत्पन्न खेद या खिन्नता।
- ताकै मन उपजी तब ग्लानि। मैं कीन्ही बहु जिय की हानि - ४ - १२।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्लानि
- बीभत्स रस का एक स्थायी भाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- ग्वाँड़ा
- घेरा, वृत्त।
- संज्ञा
- [सं. गुड]
- ग्वाँड़ा
- मकानादि के चारों ओर का बाड़ा।
- संज्ञा
- [सं. गुड]
- ग्वाँड़ा
- बाड़े या चारदीवारी से घिरा हुआ स्थान।
- संज्ञा
- [सं. गुड]
- ग्वाच्छ
- छोटी खिड़की, झरोखा।
- सखा सहित गए माखन - चोरी। देख्यौ स्याम गवाच्छ - पंथ ह्वै, मथति एक दधि भोरी - १०.२७०।
- संज्ञा
- [स. गवाक्ष]
- ग्वार
- अहीर, ग्वाल।
- (क) सोर सुनि नंद - द्वार आए विकल गोपी - ग्वाल - ३५७।
(ख) उत होरी पढ़त ग्वार इत गारी गावति ए नंद नहीं जाये तुम महरि गुनन भारी - २४२६।
- संज्ञा
- [हिं. ग्वाल]
- ग्वार
- एक पौधा जिसकी फलियों की तरकारी और बीजों की दाल होती है।
- संज्ञा
- [सं. गोराणी]
- ग्वारिन, ग्वारी
- एक पौधा।
- संज्ञा
- [हिं. ग्वार]
- ग्वारिनी
- अहीरिन।
- ढूँढ़त फिरत ग्वारिनी हरिकौं, कितहूँ भेद नहिं पावति - ४५९।
- संज्ञा
- [हिं. ग्वालिन]
- ग्वाल
- गाय पालने-चरानेवाले, अहीर।
- संज्ञा
- [सं. गो + पाल, प्रा. गोवाल]
- ग्वाल
- व्रज के गोपजातीय बालक जो श्रीकृष्ण के बाल-सखा थे।
- संज्ञा
- [सं. गो + पाल, प्रा. गोवाल]
- ग्वाल
- दो अक्षरों का एक छन्द।
- संज्ञा
- [सं. गो + पाल, प्रा. गोवाल]
- ग्वालककड़ी
- जंगली चिचड़ा नामक ओषधि।
- संज्ञा
- [हिं. ग्वाल+ककड़ी]
- ग्वालदाड़िम
- एक पेड़।
- संज्ञा
- [हिं. ग्वाल + दाड़िम]
- ग्वालनी
- अहीरिन।
- गूढ़ोत्तर अस कहत ग्वालिनी - सा. उ. ८०।
- संज्ञा
- [हिं. ग्वाल]
- ग्वाला
- अहीर।
- संज्ञा
- [हिं. ग्वाल]
- ग्वालिन, ग्वालिनियाँ, ग्वाली
- ग्वाल जाति की स्त्री. अहीरिन
- संज्ञा
- [हिं. ग्वाल]
- ग्वालिन, ग्वालिनियाँ, ग्वाली
- गँवार या मूर्ख स्त्री।
- (क) हम ग्वाली तुम तरनि रूप रस रवि - ससि मोहै - ११४१।
(ख) जाको ब्रह्मापार न पावत ताहि खिलावति ग्वालिनियाँ - १० - १३२।
- संज्ञा
- [हिं. ग्वाल]
- ग्वालिन, ग्वालिनियाँ, ग्वाली
- ग्वार नामक पौधा।
- संज्ञा
- [हिं. ग्वार]
- ग्वालिन, ग्वालिनियाँ, ग्वाली
- एक बरसाती कीड़ा।
- संज्ञा
- [सं. गोपालिका]
- ग्वाह
- गवाह, साक्षी।
- संज्ञा
- [हिं. गवाह]
- ग्वैठना
- मरोड़ना, ऐंठना, घुमाना, टेढ़ा करना।
- क्रि. स.
- [सं. गुंठन्हें हिं. गुमेठना]
- ग्वैठा
- ऐंठा हुआ, टेढ़ा-मेढ़ा।
- वि.
- [हिं. ऐंठा (अनु.)]
- ग्वैठा
- गोबर का कंडा, उपला।
- संज्ञा
- [हिं. गोइठा]
- ग्वैंड़
- सीमा हद।
- संज्ञा
- ग्वैंड़े, ग्वेंड़ा
- गाँव के आसपास की भूमि।
- (क) गोकुल के ग्वैड़ेएक साँवरो सो ढोटा माई - ८७२।
(ख) निकसि गाँव के ग्वैंड़े आये - १०१८।
- संज्ञा
- [हिं. गाँव+इड़ा]
- ग्वैंड़े, ग्वेंड़ा
- निकट, पास. करीब।
- क्रि. वि.
- ग्वैयाँ
- -साथ का खिलाड़ी।
- रुहठि करै तासौं को खेलै रहे बैठि जहँ - तहँ सब ग्वैयाँ - १० - २४५।
- संज्ञा
- [हिं. गोहनियाँ, गोइयाँ]
- ग्वैयाँ
- सखा, साथी, सहचर।
- सूची प्रीति न जसुदा जानै, स्याम सनेही ग्वैयाँ - ३७१।
- संज्ञा
- [हिं. गोहनियाँ, गोइयाँ]
- घ
- हिंदी वर्णमाला का चौथा व्यंजन; उच्चारण जिह्वामूल या कंठ से होता है ; स्पर्श वर्ण ; इसमें घोष, नाद, संवार और महाप्राण प्रयत्न होते हैं।
- घँगोल
- कुमुद।
- संज्ञा
- [देश, ]
- घँघरा
- स्त्रियों को लहँगा।
- संज्ञा
- [हिं. घघरा]
- घँघराघोर
- छुआछूत न मानना।
- संज्ञा
- [देश.]
- घँघरी
- छोटा लहँगा।
- संज्ञा
- [हिं. घघरी]
- घँघोरना, घँघोलना
- पानी में कुछ घोलना।
- क्रि. स.
- [हिं. घन + घोलना]
- घँघोरना, घँघोलना
- पानी गंदा करना।
- क्रि. स.
- [हिं. घन + घोलना]
- घंट
- घड़ा।
- संज्ञा
- [सं. घट]
- घंट
- जलपात्र जो मृतक-क्रिया में पीपल से बाँधा जाता है।
- संज्ञा
- [सं. घट]
- घंट, घंटा
- धातु के औंधे पात्र में लगे लंगर या लट्टू से बननेवाला बाजा।
- घंट बजाइ देव अन्हवायौ - १० - २६१।
- संज्ञा
- [सं. घंटा]
- घंट, घंटा
- धातु का गोल पत्तर जो मुँगरी से बजाया जाता है।
- संज्ञा
- [सं. घंटा]
- घंट, घंटा
-
- घंटे मोरछल से उठाना :- किसी वृद्ध वृद्धा के शव को बाजे-गाजे से श्मशान ले जाना।
- मु.
- घंट, घंटा
- घड़ियाल जो समय की सूचना के लिए बजाया जाता है।
- संज्ञा
- [सं. घंटा]
- घंट, घंटा
- छोटी-छोटी घंटियाँ जो पशुओं के गले में बाँधी जाती हैं।
- कटि किंक्रिन नूपुर बिछयनि धुनि। मनहु मदन के गज - घंटा सुनि - १००५।
- संज्ञा
- [सं. घंटा]
- घंट, घंटा
- घंटे का शब्द या ध्वनि।
- संज्ञा
- [सं. घंटा]
- घंट, घंटा
- दिन रात का चौबीसवाँ भाग, साठ मिनट का समय।
- संज्ञा
- [सं. घंटा]
- घंट, घंटा
- ठेंगा, सींगा।
- संज्ञा
- [सं. घंटा]
- घंट, घंटा
-
- घंटा दिखाना :- कोई चीज माँगने पर न देना, सींगा दिखाना।
घंटा हिलाना :- व्यर्थ के काम में समय नष्ट करना।
- मु.
- घंटाकरन घंटाकर्ण
- शिव का एक उपासक जो कान में इसलिए घंटा बाँधे रहता था कि विष्णु या राम का नाम लिये जाने पर उसे हिला दूँ और वह नाम सुन न सकूँ।
- संज्ञा
- [सं. घंटा + कर्ण]
- घंटाघर
- वह ऊँचा स्थान जिस पर बहुत बड़ी घड़ी लगी हो।
- संज्ञा
- [हिं. घंटा +घर]
- घंटिका
- छोटा घंटा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घंटिका
- घुँघरू।
- संज्ञा
- [सं.]
- घंटिका
- छोटे छोटे लंबे घड़े जो रहँट में लगे रहते हैं, घरिया।
- स्रवन कूप की रहँट घंटि का राजत सुभग समाज।
- संज्ञा
- घंटियार
- पशुओं के गले में काँटे पड़ने का एक रोग।
- संज्ञा
- [हिं. घाँटी]
- घंटी
- छोटी लुटिया।
- संज्ञा
- [सं. घंटिका]
- घंटी
- बहुत छोटा घंटा।
- संज्ञा
- [सं. घंटा]
- घंटी
- घंटी बजने का शब्द।
- संज्ञा
- [सं. घंटा]
- घंटी
- घुँघरू।
- संज्ञा
- [सं. घंटा]
- घंटी
- गले का कौआ।
- संज्ञा
- [सं. घंटा]
- घंटी
- गले का कौग्रा।
- संज्ञा
- [सं. घंटा]
- घंटील
- एक घास।
- संज्ञा
- [देश.]
- घई
- पानी का भँवर या चक्कर, प्रवाह।
थूनी, टेक।
- संज्ञा
- [सं. गंभीर]
- घई
- गहरा, अथाह।
- वि.
- [सं. गंभीर]
- घउरी
- फल पत्तियों का गुच्छा।
- संज्ञा
- [हिं. घवरि]
- घघरा
- स्त्रियों का लहँगा।
- संज्ञा
- [हिं. घन + घेरा]
- घवरी
- छोटा लहँगा।
- संज्ञा
- [हिं. घघरा]
- घचघच
- नरम चीज में नुकीली चीज घुसने या धँसने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घट
- घड़ा, जलपात्र, कलसा।
- (क) माधौ, नैकु हटकौ गाइ।….। अष्टदस घट नीर अँचवति, तृषा तउ न बुझाइ - १ - ५६।
(ख) नैन घट घटत न एक धरी। कबहुँ न मिटत सदा पावस ब्रज लागी रहत झरी - ३४५५।
- संज्ञा
- [सं.]
- घट
- पिंड, शरीर।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटकना
- पी जाना।
- क्रि. स.
- [हिं. घूँटना]
- घटकर्ण
- कुंभकर्ण।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटका, घटकी
- कफ रुकना।
- संज्ञा
- [अनु, घर्र घर्र]
- घटका, घटकी
-
- घटका लगना :- मरते समय कफ रुकना।
- मु.
- घटकार
- कुम्हार।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटज
- अगस्त्य मुनि।
- संज्ञा
- [सं. घट+ज]
- घटत
- कम होता है, क्षीण होती है, घटते-घटते।
- (क) हमारे निर्धन के धन राम। चोर न लेत, घटत नहिं कबहूँ, आवत गढ़ै काम - १.९२।
(ख) नैन घट घटत न एक घरी। कबहुँ न मिटत सदा पावस ब्रज लागी रहत झरी - ३४३५। (ग) दुतिया चंद बहुत ही बाढ़ै घटत घटत घटि जाइ - १ - २६५।
- क्रि. अ.
- [हिं. कटना]
- घटति
- कम या क्षीण होती है।
- (क) सिर पर मीच, नीच नहिं चितवत, आयु घटति ज्यौं अंजुलि पानी - १०१५९।
(ख) जिह्वास्वाद, इंद्रियनि - कारन, आयु घटति दिन मान - १ - ३०४।
- क्रि. अ.
- [हिं. कटना]
- घटती
- कमी, कोर-कसर।
- संज्ञा
- [हिं. घटना]
- घटती
-
- घटती का पहरा :- अवनति के दिन।
- मु.
- घट
- मन, हृदय।
- (क) जो घट अंतर हरि सुमिरै। ताको काल रूठि का करिहे, जो चित चरन धरै - १ - ८२।
(ख) वै अबिगत अबिनासी पूरन सब घट रह्यौ समाइ - २९८८।
- संज्ञा
- [सं.]
- घट
-
- घट में बसना (बैठना) :- (१) मन में बसना, ध्यान रहना।
(२) बात समझ में आ जाना।
- मु.
- घट
- कम, थोड़ा, छोटा।
- वि.
- [हिं. घटना]
- घटक
- मध्य में होनेवाला, मध्यस्थ।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटक
- विवाह तै करानेवाला, बरेखिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटक
- दलाल।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटक
- चतुर व्यक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटक
- वंश-परंपरा बतानेवाला
- संज्ञा
- [सं.]
- घटक
- घटा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटक
- दो पक्षों का मध्यस्थ
- संज्ञा
- [सं.]
- गुम
- खोया हुआ।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुमक
- महक, सुगंध।
- संज्ञा
- [सं. गमक= जाने या फैलनेवाला]
- गुमक
- जानेवाला।
- संज्ञा
- गुमक
- सूचक, बोधक।
- संज्ञा
- गुमक
- तबले की गंभीर ध्वनि।
- संज्ञा
- गुमकना
- किसी पदार्थ आदि के भीतर ही भीतर शब्द का गूँजना।
- क्रि. अ.
- [सं. गम]
- गुमका
- भूसी से दाना अलगाना।
- संज्ञा
- [देश.]
- गुमकि
- (हृदय में) शब्द गूँजकर, क्रोध से भरकर, धड़क कर।
- धमकि मारयौ घाउ गुमकि हृदय रहयौ झमकि गहि केस लै चले ऐसे - २६१५।
- क्रि. स.
- [हिं. गुमकना]
- गुमची
- गुंजा, घुँघची।
- संज्ञा
- [सं, गुंजा]
- गुमटा
- एक कीड़ा।
- संज्ञा
- [देश.]
- घटती
- हीनता, अप्रतिष्ठा।
- घटती होइ जाहि ते अपनी कीजै ताको त्याग - १०९५।
- संज्ञा
- [हिं. घटना]
- घटदासी
- नायक-नायिका का मेल करानेवाली।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटदासी
- कुटनी।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटन
- गढ़ा जाना।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटन
- होना, उपस्थित होना।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटना
- होना, घटित होना।
- क्रि. अ.
- [सं. घटन]
- घटना
- मेल मिल जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. घटन]
- घटना
- उपयोग में आना।
- क्रि. अ.
- [सं. घटन]
- घटना
- कम या क्षीण होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. कटना]
- घटना
- होनेवाली बात, वाकया।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटबढ़
- कमीबेशी।
- संज्ञा
- [हिं. घटना + बढ़ना]
- घटबढ़
- कमबेश, न्यूनाधिक, कम ज्यादा।
- वि.
- घटयोनि
- अगस्त्य मुनि।
- संज्ञा
- [सं. घट + योनि]
- घटवाई
- घाट का कर लेनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. घाट+वाई]
- घटवाई
- कर या तलाशी के लिए रोकनेवाला।
- आवत जान न पावत कोऊ तुम मग में घटवाई। सूर स्याम हमको बिरमावत खीझत बहिनी माई - ११४४।
- संज्ञा
- [हिं. घाट+वाई]
- घटवाई
- कम करवाई।
- संज्ञा
- [हिं. घटना]
- घटवाना
- कम कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. घटना का प्रे.]
- घटवार, घटवाल
- घाट का कर या महसूल उगाहनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. घट + वाला]
- घटवार, घटवाल
- मल्लाह, केवट।
- संज्ञा
- [हिं. घट + वाला]
- घटवार, घटवाल
- घाट पर दान लेनेवाला ब्राह्मण, घाटिया।
- संज्ञा
- [हिं. घट + वाला]
- घटवार, घटवाल
- घाट का देवता।
- संज्ञा
- [हिं. घट + वाला]
- घटवारिया, घटवालिया
- नदी के घाट पर बैठकर दान लेनेवाजा पंडा।
- संज्ञा
- [हिं. घाट + वाला]
- घटवाही
- घाट का कर।
- संज्ञा
- [हिं. घाट]
- घटसंभव
- अगस्त्य मुनि।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटसुत
- अगस्त्य ऋषि जो घट से उत्पन्न माने जाते हैं।
- संज्ञा
- [सं. घट + सुत]
- घट - सुत - अरितनयापति
- श्रीकृष्ण।
- घटसुतअरितनयापति सजनी नाहिं नेह निबहो री - सा, उ. ५१।
- संज्ञा
- [सं. घटसुत = अगस्त्य ऋषि + अरि=शत्रु (अगस्त्य का शत्रु समुद्र)+ तनया (समुद्र की पुत्री लक्ष्मी)+ पति (लक्ष्मी के पति विष्णु = श्रीकृष्ण)]
- घट सुत - असनसुत
- चंद्रमा।
- घटसुत असन समै सुत आनन अमीगलित जैसे मेत - सा. २९।
- संज्ञा
- [सं. घटसुत = अगस्त्य ऋषि + असन = भोजन (अगत्य ऋषि का भोजन समुद्र जिसका उन्होंने पान किया था) + सुत (समुद्र का पुत्र, चंद्रमा)]
- घटस्थापन
- किसी मंगल कार्य के पूर्व जल से भरा घडा पूजन के स्थान पर स्थापित करना।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटस्थापन
- नवरात्र का पहला दिन जब घट की स्थापना होती है।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटहा
- घाट का ठेकेदार।
- संज्ञा
- [हिं. घाट+ हा प्रत्य.)]
- घटहा
- नदी पार पहुँचानेवाली नाव।
- संज्ञा
- [हिं. घाट+ हा प्रत्य.)]
- घटा
- उमड़े हुए मेघ, घिरे हुए बादल, मेघमाला।
- उड़त फूल उड़गन नभ अंतर, अंजन घटा घनी - २ - २८।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटा
- समूह।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटाई
- कम की, क्षीण कर दी।
- केतिक राम कृपन, ताकी पितु मातु घटाई कानि - ९ - ७७।
- क्रि. स.
- [हिं. घटाना]
- घटाई
- हीनता।
- संज्ञा
- [हिं. घटना+ई (प्रत्य.)]
- घटाई
- अप्रतिष्ठा, बेइज्जती।
- संज्ञा
- [हिं. घटना+ई (प्रत्य.)]
- घटाटोप
- बादलों की चारो ओर घिरी हुई घटा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटाटोप
- गाड़ी, पालकी आदि को ढकनेवाला कपडा या ओहार।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटाटोप
- चारो ओर से घेर लेनेवाला दल या समूह।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटाना, घटावना
- कम करना।
- क्रि. स.
- [हिं. घटना]
- घटि
- तुच्छ, नीच, गिरी हुई।
- (क) डर पावहु तिनको जे डरपहिं तुम ते घटि हम नाहीं - १११९।
(ख) कहाहम या गोकुल की गोपी बरनहीन घटि जाति - ३२२२।
- वि.
- [हिं. कटना]
- घटिक
- घंटा बजानेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटिका
- एक घड़ी (मिनट) का समय।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटिका
- घड़ी यंत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटिका
- छोटा घड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटित
- बना या रचा हुआ, रचित।
- वि.
- [सं.]
- घटित
- (बात या घटना) जो हुई हो।
- वि.
- [सं.]
- घटित
- भाव, अर्थ आदि के विचार से ठीक उतरा हुआ।
- वि.
- [सं.]
- घटिताई
- कमी, त्रुटि।
- रनहूँ में घटिताई कीन्हीं। रसना, स्रवन, नैन के होते की रसनाहीं को नहिं दीन्हीं।
- संज्ञा
- [हिं घटी]
- घटिया
- कम मोल का, सस्ता।
- वि.
- [हिं. घट +इया (प्रत्य.)]
- घटाना, घटावना
- निकाल लेना।
- क्रि. स.
- [हिं. घटना]
- घटाना, घटावना
- अपमान या अप्रतिष्ठा करना।
- क्रि. स.
- [हिं. घटना]
- घटाना, घटावना
- घटित करना।
- क्रि. स.
- [सं . घटन]
- घटाना, घटावना
- भाव, अर्थ अथवा परिणाम के विचार से ठीक ठीक सिद्ध करना या पूरा उतारना।
- क्रि. स.
- [सं . घटन]
- घटाव
- कमी, न्यूनता।
- संज्ञा
- [हिं. घटना]
- घटाव
- अवनति, पतन।
- संज्ञा
- [हिं. घटना]
- घटाव
- नदी का घटना।
- संज्ञा
- [हिं. घटना]
- घटावत
- कम करते या घटाते हैं।
- बहुत कानि मैं करी सजनी अब देखौ मर्याद घटावत - पृ. ३२९ |
- क्रि. स.
- [हिं. घटाना]
- घटावै
- कम या क्षीण करे।
- ऐसौ को अपने ठाकुर कौ इहिं बिधि महत घटावै - १ - १९२।
- क्रि. स.
- [हिं. घटना]
- घटि
- कम, हीन, घटकर।
- (क) अजामिल मनिका हैं कहा मैं घटि कियौ, तुम जो अब सूर चित तें बिसारे - १ - १२०।
(ख) मरियत लाज पाँच पतितनि मैं, हौं अब कहौ घटि कातैं - १.१३७। (ग) दुतिया - चंद बढ़त ही बाढ़ै, घटत घटत घटि जाइ - १ - २६५। (घ) बिधिमर्यादा लोक की लज्जा तृन हूँ तें घटि मानैं - पृ. ३४१ (१३)।
- वि.
- [हिं. कटना]
- घटिया
- तुच्छ, नीच।
- वि.
- [हिं. घट +इया (प्रत्य.)]
- घटिहा
- मौका देखकर स्वार्थ साधनेवाला।
- वि.
- [हिं. घात +हा (प्रत्य.)]
- घटिहा
- चतुर।
- वि.
- [हिं. घात +हा (प्रत्य.)]
- घटिहा
- धोखेबाज।
- वि.
- [हिं. घात +हा (प्रत्य.)]
- घटिहा
- आचरणहीन।
- वि.
- [हिं. घात +हा (प्रत्य.)]
- घटिहा
- दुष्ट, दुखदायी।
- वि.
- [हिं. घात +हा (प्रत्य.)]
- घटी
- एक घड़ी (मिनट) का समय।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटी
- घड़ी यंत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटी
- घंटा घड़ी।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटी
- रहँट की घरिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटी
- कमी, हानि, घाटा
- संज्ञा
- [हिं. घटना]
- घटी
-
- घटी आना (पड़ना) :- हानि होना।
- मु.
- घटी
- कम हुई, क्षीण हुई।
- हृदय की कबहुँ न जरनि घटी। बिनु गोपाल बिथा या तन की कैसै जाति कटी - १ - ९८।
- क्रि. अ.
- घटूका
- घटोत्कच नामक भीमसेन का पुत्र जो हिडिंबा से पैदा हुआ था।
- संज्ञा
- [सं. घटोत्कच]
- घटै
- कम होता है, छोटा होता है, क्षीण होता है, घटता है।
- (क) घटै पल - पल, बढ़ै छिन - छिन, जात लागि न बार - १.८८।
(ख) ब्रहावान कानि करी, बल करि नहिं बाँध्यौ। कैसैं परताप घटै, रघुपति आराध्यौ - ९ - ९७।
- क्रि. अ.
- [हिं. कटना]
- घटै
- बीते, समाप्त हो, व्यतीत हो।
- नींद न परै, घटै नहिं रजनी व्यथा विरह - ज्वर भारी - २७८२।
- क्रि. अ.
- [हिं. कटना]
- घटैगौ
- कम होगा, क्षीण होगा।
- क्रि. अ.
- [हिं. घटना]
- घटैगौ
- हानि या घाटा होगा, छोटा या तुच्छ हो जायगा।
- इहिं बिधि कहा घटैगौ तेरौ १ नंदनंदन करि घर कौ ठाकुर, आपुन ह्वै रहु चेरौ - १ - २६६।
- क्रि. अ.
- [हिं. घटना]
- घटो
- घड़ा, कलश।
- संज्ञा
- [सं. घट]
- घटोत्कच
- भीमसेन का एक पुत्र जो हिडिंबा राक्षसी से पैदा हुआ था।
- संज्ञा
- [सं.]
- घटोद्भव
- अगस्त्य मुनि।
- संज्ञा
- [सं घट + उद्भव]
- घटोर
- मेढ़ा, भेड़।
- संज्ञा
- [सं. घटोदर]
- घट्ट
- घाट।
- संज्ञा
- [सं.]
- घट्टकर
- घाट का कर।
- संज्ञा
- [हिं. घाट+कर]
- घट्टा
- घाटा, हानि।
- संज्ञा
- [हिं. घटना]
- घट्टा
- कमी, घटी
- संज्ञा
- [हिं. घटना]
- घट्टा
- दरार, छेद।
- संज्ञा
- [हिं. घटना]
- घट्टा
- घट्ठ।
- संज्ञा
- [हिं. घटना]
- घट्ठा
- हाथ-पैर आदि में अधिक या नये काम के कारण पड़ जानेवाला कड़ा या उभड़ा हुआ चिन्ह।
- संज्ञा
- [सं. घट्ट]
- घड़घड़
- घड़घड़ाने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घड़घड़ाना
- गड़गड़ाने का शब्द होना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- घड़घड़ाना
- गड़गड़ाने का शब्द करना।
- क्रि. स.
- घड़घड़ाहट
- घड़घड़ शब्द होने का भाव।
- संज्ञा
- [अनु. घड़घड़]
- घड़घड़ाहट
- बादल गरजने या गाड़ी चलने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु. घड़घड़]
- घड़त
- बनावट, ढाँचा।
- संज्ञा
- [हिं. गढ़त]
- घड़नई, घड़नैल
- बाँस में घड़े बाँधकर बनाया हुआ नाव का ढाँचा।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ा + नैया (नाव)]
- घड़ना
- रचना, बनाना।
- क्रि. स.
- [हिं. गढ़ना]
- घड़ा
- मिट्टी का गगरा।
- संज्ञा
- [सं. घट]
- घड़ा
-
- घड़ों पानी पड़ना :- लज्जा के कारण सिर नीचा हो जाना, बहुत लज्जित होना।
- मुु.
- घड़ाई
- गढ़ने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. गढ़ाई]
- गुमटा
- मत्थे या सिर की सूजन।
- संज्ञा
- [सं. गुंबा + टा (प्रत्य.)]
- गुमटी
- ऊपरी छत।
- संज्ञा
- [फा. गुंबद]
- गुमटी
- गोलाकार घर।
- संज्ञा
- [फा. गुंबद]
- गुमटी
- चोट के कारण सिर या माथे पर आनेवाली सूजन।
- संज्ञा
- [फा. गुंबद]
- गुमना
- खो जाना।
- क्रि. अ.
- [फा, गुम]
- गुमनाम
- जिसे कोई जानता न हो।
- वि.
- [फा.]
- गुमर
- घमंड।
- संज्ञा
- [फा. गुमान]
- गुमर
- दबाया हुआ क्रोध आदि भाव, गुबार।
- संज्ञा
- [फा. गुमान]
- गुमर
- कानाफूसी, धीरे धीरे की हुई बात।
- संज्ञा
- [फा. गुमान]
- गुमराह
- भूल-भटका।
- वि.
- [फ़ा.]
- घड़ाना
- गढ़वाना।
- क्रि. स.
- [हिं. गढ़ाना]
- घड़ामोड़
- शूरवीर।
- वि.
- [हिं. गढ़+मोड़ना]
- घड़िया
- मिट्टी का एक पात्र जिसमें चाँदी गलायी जाती है, घरिया।
- संज्ञा
- [सं. घटिका]
- घड़िया
- मिट्टी का छोटा प्याला।
- संज्ञा
- [सं. घटिका]
- घड़िया
- शहद का छत्ता।
- संज्ञा
- [सं. घटिका]
- घड़िया
- गर्भाशय।
- संज्ञा
- [सं. घटिका]
- घड़िया
- रहँट की ठिलियाँ।
- संज्ञा
- [सं. घटिका]
- घड़ियाल
- थालीनुमा बड़ा घंटा।
- संज्ञा
- [सं. घटिकालि, प्रा. घड़िआलि= घंटों का समूह]
- घड़ियाल
- एक बड़ा जलजंतु, ग्राहं।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ा + आल = वाला]
- घड़ियाली
- घंटा बजानेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ियाल]
- घड़ियाली
- घंटा जो पूजन में बजाया जाता है।
- संज्ञा
- घड़िला
- छोटा घड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ा]
- घड़ी
- मिनट का समय।
- संज्ञा
- [सं. घटी]
- घड़ी
-
- घड़ी-घड़ी :- बार बार।
घड़ी तोला, घड़ी माशा :- कभी एक बात कभी दूसरी। घड़ी गिनना :- (१) उत्कंठा से प्रतीक्षा करना। (२) मृत्यु का आसरा देखना। घड़ी में घड़ियाल है :- (१) जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं। (२) जरा देर में उलट-पुलट हो जाती है। घड़ी देना :- मुहूर्त या सायत बताना। घड़ी भर :- थोड़ी देर। घड़ी :- सायत पर होना, मरने के करीब होना।
- मु.
- घड़ी
- समय, काल।
- संज्ञा
- [सं. घटी]
- घड़ी
- उपयुक्त अवसर।
- संज्ञा
- [सं. घटी]
- घड़ी
- समयसूचक यंत्र।
- संज्ञा
- [सं. घटी]
- घड़ीसाज
- घड़ी की मरम्मत करनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ी + फ़ा. साज]
- घड़ीसाजी
- घड़ीसाज का काम।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ीसाज]
- घड़ोला
- छोटा घड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ा+ओला (प्रत्य.)]
- घड़ौंची
- घड़ा रखने की चौकी या तिपाई।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ा + औंची (प्रत्य.)]
- घण
- घन, बादल।
- संज्ञा
- [हिं. घन]
- घतर
- प्रभातकाल, तड़का।
- संज्ञा
- [देश.]
- घतिया
- घात करने या धोखा देनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. घात + इया (प्रत्य.)]
- घतियाना
- घात या दाँव में लाना।
चुराना, छिपाना।
- क्रि. स.
- [हिं. घात]
- घन
- (क) मेघ, बादल।
- किधौं घन बरसत नहिं. उन देसनि।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- (ख) पयोधर, स्तन |
- पगरिपु लगत सघन घन ऊपर बूझत कहा बतैहै—सा. १०।
(ख) नीकनन तें दिवस डारत परत घन पै हेर - सा. ६०।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- लोहारों का बड़ा हथोड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- लोहा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- मुख।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- समूह।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- कपूर।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- घंटा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई का विस्तार।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- एक सुगंधित घास।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- अबरक।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- कफ।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- झाँझ, मँजीरा आदि बाजे।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- शरीर।
- संज्ञा
- [सं.]
- घन
- घना, गझिन।
- वि.
- घन घनाना
- घन घन शब्द होना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- घन घनाना
- घनघन करना।
- क्रि. स.
- घन घनाना
- घंटा बजाना।
- क्रि. स.
- घनघनाहट
- घनघन शब्द या भाव |
- संज्ञा
- [अनु.]
- घनघोर
- भीषण ध्वनि, घनघनाहट।
- संज्ञा
- [सं. घन+घोर]
- घनघोर
- बादल की गरज।
- संज्ञा
- [सं. घन+घोर]
- घनघोर
- बहुत घना।
- वि.
- घनघोर
- बहुत भयानक।
- वि.
- घनचक्कर
- चंचल बुद्धिवाला।
- वि.
- [सं. घन = चक्कर]
- घनचक्कर
- मूर्ख।
- वि.
- [सं. घन = चक्कर]
- घन
- गठा हुआ, ठोस।
- वि.
- घन
- दृढ़, मजबूत।
- वि.
- घन
- बहुत अधिक।
- वि.
- घनक
- गरज, गड़गड़ाहट।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घनकना
- गरजना।
- अ.
- [अनु.]
- घनकारा
- गरजनेवाला।
- वि.
- [हिं. घनक]
- घनकोदंड
- इंद्रधनुष, मदइन।
- कुटिल भू पर तिलक - रेखा, सीस सिखिनि सिखंड। मनु मदन धनु - सर - सँघाने, देखि घनकोदंड - १ - ३०७।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनगरज
- बादल गरजने की ध्वनि।
- संज्ञा
- [हिं. घन + गरज]
- घनगरज
- एक पौधा।
- संज्ञा
- [हिं. घन + गरज]
- घनगरज
- एक तोप।
- संज्ञा
- [हिं. घन + गरज]
- घनत्व
- अँणुओ गठाव, ठोसपन।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनदार
- घना, गुंजान।
- वि.
- [सं. घन, फ़ा. दार (प्रत्य.)]
- घननाद
- बादलों की गरज।
- संज्ञा
- [सं.]
- घननाद
- रावण का पुत्र मेघनाद।
- संज्ञा
- [सं.]
- घननाद
- भीषण शब्द।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनपति
- इंद्र।
- संज्ञा
- [सं. घन + पति=स्वामी]
- घनप्रिय
- मोर, मयूर।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनप्रिय
- मोर शिखा नामक घास।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनफल
- लंबाई, चौड़ाई और मोटाई (या ऊँचाई) का गुणनफल।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनफल
- किसी संख्या को दो बार उसीसे गुणा करने पर प्राप्त फल।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनबान
- एक बाण
- संज्ञा
- [हिं. घन + बाण]
- घनबेल
- बेल-बूटेदार, जिसमें बेल-बूटे बने हों।
- कहुँ कहुँ कुचन पर दरकी अँगिया घनबेलि।
- वि.
- [हिं. घन + बेल]
- घनबेली
- बेला नामक पौधे की एक जाति।
- संज्ञा
- [सं. घन + हिं. बेल]
- घनमूल
- घनराशि का मूल अंक।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनरस
- जल, पानी।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनरस
- कपूर।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनरस
- हाथी का कोढ़ के समान एक रोग।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनवर्द्धन
- धातु को पीट कर बढ़ाना।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनवाह
- वायु।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनवाहन
- इंद्र जिसका वाहन मेघ है।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनचक्कर
- निठल्ला।
- वि.
- [सं. घन = चक्कर]
- घनचक्कर
- आतशबाजी, चरखी।
- वि.
- [सं. घन = चक्कर]
- घनचक्कर
- सूर्यमुखी का फूल।
- वि.
- [सं. घन = चक्कर]
- घनचक्कर
- चक्कर।
- वि.
- [सं. घन = चक्कर]
- घनता
- घना या ठोसपन।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनतार, घनताल
- चातक पक्षी।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनतार, घनताल
- करताल, झाँझ।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनतोल
- चातक पक्षी, पपीहा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनत्व
- घनापन।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनत्व
- लंबाई, चौड़ाई और मोटाई का विस्तार।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनहर
- अनाज भुनाने के लिए भड़भूँजे के पास लेजानेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. घान+हारा (प्रत्य.)]
- घनहस्त
- एक हाथ लंबा, चौड़ा और मोटा या ऊँचा पिंड, क्षेत्र या मान |
- संज्ञा
- [सं.]
- घना
- सघन, गझिन।
- वि.
- [सं. घन]
- घना
- घनिष्ट, निकट का
- वि.
- [सं. घन]
- घना
- बहुत अधिक, ज्यादा।
- वि.
- [सं. घन]
- घनाक्षरी
- दंडक, मनहर या कवित्त।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनाघन
- इंद्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनाघन
- मस्त हाथी।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनाघन
- बरसनेवाला बादल |
- संज्ञा
- [सं.]
- घनात्मक
- जिसकी लंबाई, चौड़ाई और मोटाई समान हो।
- वि.
- [सं.]
- गुमराह
- जो उचित मार्ग पर न चले, कुमार्गी।
- वि.
- [फ़ा.]
- गुमराही
- भूल।
- संज्ञा
- [फा.]
- गुमराही
- कुमार्ग।
- संज्ञा
- [फा.]
- गुमान
- घमंड, अहंकार, गर्व।
- (क) दधि लै मथति ग्वालि गरबीली।….। भरी गुमान बिलोकति ठाढ़ी, अपनैं रंग रँगीली - १० - २९९।
(ख) बृन्दाबन की बीथिनि तकि तकि रहत गुमान समेत। इन बातनि पति पावत मोहन जानत होहु अचेत - १०३५।
- संज्ञा
- [फा.]
- गुमान
- अनुमान।
- संज्ञा
- [फा.]
- गुमान
- लोगों की बुरी धारणा, लोकापवाद।
- संज्ञा
- [फा.]
- गुमाना
- खोना, गँवाना।
- क्रि. स.
- [फा. गुम]
- गुमानी
- घमंडी, अभिमानी।
- वि.
- [हिं. गुमान]
- गुमाश्ता, गुमास्ता
- वह कर्मचारी जो माल खरीदने-बेचने पर नियुक्त हो।
- संज्ञा
- [फा.]
- गुमिटना
- लिपटना।
- क्रि. अ.
- [सं. गुंफित]
- घनश्याम
- बादल के समान श्याम।
- वि.
- [सं.]
- घनश्याम
- काला बादल।
- संज्ञा
- घनश्याम
- श्रीकृष्णचंद्र।
- संज्ञा
- घनश्याम
- श्रीरामचंद्र।
- संज्ञा
- घनसागर
- जल।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनसागर
- कपूर।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनसार, घनसारि
- कपूर।
- पवन पानि घनसारि सुमन दै दधिसुत - किरनि भानु भई भुजें - २७२१।
- संज्ञा
- [सं. घनसार]
- घनस्याम
- बादल-सा काला।
- वि.
- [सं. घनश्याम]
- घनस्याम
- काला बादल।
- तड़ित - बसन, घनस्याम - सदृश तन, तेज पुंज तम कौं त्रासै - १ - ६९।
- संज्ञा
- घनस्याम
- श्रीकृष्ण।
- अंत के दिन कौं हैं घनस्याम - १.७६।
- संज्ञा
- घनात्मक
- घनफल।
- वि.
- [सं.]
- घनानंद
- गद्यकाव्य का एक भेद।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनानंद
- हिंदी का एक प्रसिद्ध कवि।
- संज्ञा
- [सं.]
- घनाली
- घन-समूह।
- संज्ञा
- [सं. घन + अवली]
- घनिष्ट
- घना, बहुत अधिक।
- वि.
- [सं.]
- घनिष्ट
- पास का, गहरा (संबंध आदि)।
- वि.
- [सं.]
- घनी
- सघन, गुंजान।
- वि.
- [सं. घन]
- घनी
- घनिष्ट, निकट की।
- वि.
- [सं. घन]
- घनी
- बहुत अधिक।
- कहा कमी जाके राम धनी। मनसानाथ मनोरथपूरन, सुख निधान जाकी मौज घनी - १ - ३९।
- वि.
- [सं. घन]
- घने
- अनेक (संख्यावाचक)।
- वि.
- [सं. घन]
- घबराने
- व्याकुल या अधीर हुए।
- क्रि. अ.
- [हिं. घबराना]
- घबराने
- सकपका गये, भौचक्के हो गये।
- पाती बाँचत नंद डराने। कालीदह के फूल पठावहु सुनि सबही घबराने - ५२६।
- क्रि. अ.
- [हिं. घबराना]
- घमंका
- घूँसा।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घमंका
- वह प्रहार जिससे ‘घस' शब्द हो।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घमंड
- अभिमान, गर्व।
- संज्ञा
- [सं. गर्व]
- घमंड
-
- घमंड पर आना (होना) :- इतराना, अभिमानना।
घमंड निकलना (टूटना) :- गर्व चूर होना।
- मु.
- घमंड
- बल, वीरता, जोर, भरोसा।
- जासु घमंड बदति नहिं काहुहिं कहा दुरावति मोसौं।
- संज्ञा
- [सं. गर्व]
- घमंडिन
- गर्वीली, अभिमानिनी।
- संज्ञा
- [हिं. घमंड]
- घमंडी
- गर्वी, अभिमानी।
- वि.
- [हिं. घमंड]
- घम
- धमाके का शब्द।
- वि.
- [अनु.]
- घपुआ, घप्पु
- मूर्ख।
- वि.
- [हिं. भकुआ]
- घपूचंद
- मूर्ख आदमी।
- संज्ञा
- [हिं. घपुआ]
- घबड़ाना, घबराना
- व्याकुल, अधीर या अशांत होना।
- क्रि. अ.
- [सं गह्वर या हिं. गड़बड़ाना]
- घबड़ाना, घबराना
- सकपकाना, भौचक्का होना
- क्रि. अ.
- [सं गह्वर या हिं. गड़बड़ाना]
- घबड़ाना, घबराना
- जल्दी करना, आतुर होना।
- क्रि. अ.
- [सं गह्वर या हिं. गड़बड़ाना]
- घबड़ाना, घबराना
- ऊबना, जी उजाट होना।
- क्रि. अ.
- [सं गह्वर या हिं. गड़बड़ाना]
- घबड़ाहट, घबराहट
- व्याकुलता, अधीरता, अशांति।
- संज्ञा
- [हिं. घबराना]
- घबड़ाहट, घबराहट
- सकपकाहट, कर्तव्यविमूढ़ता।
- संज्ञा
- [हिं. घबराना]
- घबड़ाहट, घबराहट
- हड़बड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. घबराना]
- घबड़ाहट, घबराहट
- ऊबासी।
- संज्ञा
- [हिं. घबराना]
- घनेरा
- बहुत अधिक (परिमाण वाचक), अतिशय।
- वि.
- [हिं. घना]
- घनेरे
- बहुत, अधिक, अगणित (संख्या में)।
- भैया - बंधु - कुटुंब घनेरे, तिनतैं कछु न सरी - १ - ७१।
- वि.
- [हिं. घने + एरे (प्रत्य.)]
- घनेरो, घनेरौ
- अधिक, अगणित(संख्यावाचक)।
- (क) जो बनिता - सुत जूथ सकेले, हयगय बिभव घनेरौ। सबै समपौसूर स्याम कौं, यह साँचौ मत मेरौ - १ - २६६।
(ख) मैं निर्धन, कछु धन नहीं, परिवार घनेरौ - ९ - ४२।
- वि.
- [हिं. घनेरा]
- घनेरो, घनेरौ
- बहुत अधिक (परिमाणवाचक), अतिशय।
- (क) जु पैचाहि तै स्याम करत उपहास घनेरो - १११९।
(ख) निजं जन जानि हरि इहाँ पठायौ दीनो बोझ घनेरो - ३४३१।
- वि.
- [हिं. घनेरा]
- घनो, घनौ
- बहुत अधिक (परिमाणवाचक), ज्यादा।
- रवि - सुत - दूत बारि नहिं | सकते, कपट - घनौ उर बरतौ ०१ - २०३।
- वि.
- [हिं. घना]
- घनोपल
- ओला।
- संज्ञा
- [सं. घन+उपल=पत्थर]
- घन्नई
- घड़ों से बनायी नाव।
- संज्ञा
- [हिं. घइनैल]
- घपचियाना
- घबराना।
- क्रि. अ.
- [हिं घाची]
- घपची
- मजबूत पकड़।
- संज्ञा
- [हिं. घन+पंच]
- घपला
- गड़बड़, गोलमाल।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घमके
- घूँसे के प्रहार का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घमकना
- ‘घम' शब्द होना।
- क्रि. अ.
- [अनु. घम]
- घमकना
- ‘घम' से घूँसा मारना।
- क्रि. स.
- घमका
- ’घम' से प्रहार का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घमका
- ऊमस. घमसा।
- संज्ञा
- [हिं. घाम]
- घूमकि
- ‘घम घम' की ध्वनि करके।
- (एरी) आनँद सौं दधि मथति जसोदा, घुमकि मथनियाँ घूमै - १० - १४७।
- क्रि. वि.
- [हिं. घमकना]
- घमखोर
- जो घाम या धूप में रह सके।
- वि.
- [हिं: घाम - फ़, खोर (खानेवाला)]
- घमघमाना
- गंभीर शब्द करना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- घमघमाना
- घूँसा मारना।
- क्रि. स.
- घमघमाना
- प्रहार करना।
- क्रि. स.
- घमर
- भारी शब्द, गंभीर ध्वनि।
- (क) त्यौं त्यौं मोहन नाचै ज्यौं ज्यौं रई - घमर कौ होई (री) - १० - १४८।
(ख) माखन खात पराये घर कौ। नित प्रति सहस मथानी मथिऐ, मेघ.शब्द दधिमाट घमर कौ - १० - ३३३।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घमरा
- भँगरी बूटी।
- संज्ञा
- [सं. भृंगराज]
- घमरौल
- शोर-गुल, हो-हल्ला।
- संज्ञा
- [अनु. घमघम]
- घमरौल
- गड़बड़घोटाला।
- संज्ञा
- [अनु. घमघम]
- घमस, घमसा
- ऊमस. तपन।
- संज्ञा
- [हिं. घाम]
- घमस, घमसा
- घनापन, सघनता।
- संज्ञा
- [हिं. घाम]
- घमसान
- घोर युद्ध।
- संज्ञा
- [अनु. घम +सान]
- घमाका
- ‘घम' का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु. घम]
- घमाघम
- घमघम की ध्वनि।
- संज्ञा
- [अनु. घम]
- घमाघम
- धूमधाम, चहलपहल।
- संज्ञा
- [अनु. घम]
- घमाघम
- घमघम करके।
- क्रि. वि.
- घमाघम
- धूमधाम से।
- क्रि. वि.
- घमाघमी
- मारपीट।
- संज्ञा
- [हिं. घमाघम]
- घमाना
- धूप खाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घाम]
- घमायल
- धूप में पका हुआ फल।
- वि.
- [हिं. घाम]
- घमासान
- घोर युद्ध।
- संज्ञा
- [हिं. घमासान]
- घमीला
- घाम में मुरझाया हुआ।
- वि.
- [हिं. घाम]
- घमोई
- बाँस का एक रोग।
- संज्ञा
- [देश.]
- घर
- मकान, गृह, गेह।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
-
- अपना घर (समझना) :- घर की तरह निःसंकोच व्यवहार का स्थान।
घर उजड़ना :- (१) कुल परिवार की धन-संपत्ति नष्ट होना। (२) घर के प्राणियों को तितर - बितर हो जाना। घर करना :- (१) बसना, रहना। (२) किसी वस्तु के लिए स्थान निकालना। (३) घर का प्रबंध करना। (स्त्री का) घर करना :- (१) पत्नी की तरह रहना। (२) बस जाना। उ. - मनु सीपज घर कियौ बारिज पर - १० - ९३। आँख (चित्त, मन, हृदय) में घर करना :- (१) बहुत पसंद आना। (२) बहुत प्रिय लगना। घर का (की) :- (१) अपना, निजी। उ. - मिसरी सूर न भावत घर की चोरी को गुड मठो - सा. ९०। (२) आपस का, आपसी। (३) अपने परिवार का व्यक्ति। (४) पति, स्वामी। घर का अच्छा :- अच्छे खाते पीते परिवार का। घर का आदमी :- भाई-बंधु। घर का उजाला :- (१) कुल की कीर्ति फैलानेवाला। (२) बहुत प्यारा। (३) बहुत सुन्दर। घर का घरवा (घरौवा) करना :- घर उजाड़ना। घर का बोझ उठाना (सम्हालना) :- घर का प्रबंध करना। घर का भेदी :- घर की सब बातें जाननेवाला। घर का भेदी (भेदिया) लंका दाहै (ढाई) :- घर का भेद बतानेवाला घर का सर्वनाश करा देता है। घर का काटने दौड़ना :- घर का सूनापन भयानक लगना। घर का न घाट का :- (१) जो न इधर का हो न उधर को, दोनों तरफ जिसका आदर न हो। (२) निकम्मा, बेकाम। घर का मर्द (शेर, वीर, बहादुर) :- घर ही में डींग हाँकनेवाला, जो बाहर कुछ न कर सके। घर के बाढे :- घर में या शत्रु के पीठ पीछे डींग हाँकनेवाला, सामने कुछ न कर सकनेवाला। उ. - (क) तुम कुँवर घर ही के बाढ़े अब कछू जिय जानिहौ - २२५९। (ख) अब घर के बाढ़ हो तुम ऐसे कहा रहे मुरझाई - २२६१। घर ही की बाढी :- घर में ही घमंड दिखानेवाली। उ. - ग्वालिन घर ही की बाढ़ी। निस दिन देखत अपने ही आँगन ठाढ़ी। घर का नाम उछालना (डुबोना) :- कुल - परिवार की बदनामी कराना। घर की बात - कुल - परिवार की बात या इज्जत। घर की तरह बैठना (रहना) :- आराम से बैठना या रहना। घर की खेती :- अपने यहाँ पैदा होनेवाली चीज, जो खरीदी न गयी हो।
- मु.
- घर
- चौखटा।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- भंडार, खजाना।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- दाँवपेंच, युक्ति।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- (बाँस का) समूह।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घरऊ
- घरेलू, घराऊ।
- वि.
- [हिं. घर + ग्राऊ (प्रत्य.)]
- घरघराना
- घर्र घर्र' ध्वनि करना।
- क्रि.अ .
- [अनु.]
- घरघराना
- कुल, परिवार।
- संज्ञा
- [हिं. घर+घराना]
- घरघराहट
- घर्र घर की ध्वनि।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घरघराहट
- कफ के कारण कंठ से साँस लेते समय निकलने वाला शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घरघाल, घरघालक, घरघालन
- घर की आर्थिक दशा बिगाड़नेवाला।
- वि.
- [हिं. घर+घालना]
- घर
-
- घर के घर :- (१) चुपचाप, गुप्त रीति से।
(२) बहुत से घर। घर खोना :- घर का नाश करना। घर-घर :- सभी घरों में। घर चलना :- (१) घर का नाश होना। (२) घर की बदनामी होना। घर-घाट :- (१) रंग-ढंग। (२) प्रकृति, स्वभाव। (३) ठौर-ठिकाना। घर-घाट जानना :- सभी भेद जानना। घर घालना :- (१) घर का नाश करना। (२) घर की बदनामी करना। (३) प्रेम करके घर बरबाद कर देना। घर घुसना :- हर समय घर ही में रहनेवाला। घर चलना :- निर्वाह होना। घर चलाना :- निर्वाह करना। घर डुबोना :- (१) घर बरबाद करना। (२) घर की बदनामी कराना। घर डूबना :- (१) घर बरबाद होना। (२) घर की बदनामी होना। घर जमना :- गृहस्थी का सामान जुटना। घर जाना :- कुल का नाश होना। घर जुगुत :- गृहस्थी का प्रबंध। घरझँकनी :- घर-घर झाँकनेवाली। घर तक पहुँचना :- माँ-बहन या बापदादे को गाली देना। घर देखना :- किसी के घर माँगने जाना। घर देख लेना (पाना) :- एक बार कुछ पाकर परच जाना। किसी के घर पड़ना :- पत्नी के रूप से रहना। (वस्तु) घर पड़ना :- किस भाव से घर आना। घर पीछे :- एक एक घर से। घर फटना :- (१) बुरा लगना। (२) घर वालों में झगड़ा होना। घर फूँक तमाशा देखना :- घर की संपत्ति आदि का नाश करके मनोरंजन करना या प्रसन्न होना। घर फोड़ना :- घर वालों में झगडा कराना। घर बंद होना :- (१) घर में ताला पड़ना। (२) घर वालों का तितर-बितर हो जाना। (३) घर से संबंध न रहना। घर बिगाड़ना :- (१) घर की संपत्ति नष्ट करना। (२) घरवालों में फूट पैदा करना। (३) घर की बहू-बेटी को बुरे मार्ग पर ले जाना। घर बनना :- घर की आर्थिक दशा सुधरना। घर बनाना :- (१) जम कर रहना। (२) घर की आर्थिक दशा सुधारना। (३) अपना घर भरना, अपना लाभ करना। घर बरबाद होना :- घर की आर्थिक दशा बिगाड़ना। घर बसना :- (१) घर की दशा सुधरना। (२) विवाह होना। घर बसाना :- (१) घर की दशा सुधारना। (२) विवाह करना। घर बैठना :- (१) एकांत में रहना (२) स्त्रियों में रहना। (३) काम छोड़ बैठना। (४) पत्नी-रूप में रहने लगना। घर बैठे रोटी :- बेमेहनत की जीविका। घर बैठे बैठे :- (१) बिना काम किये। (२) बिना कहीं गये-आये। (३) बिना यात्रा किये। घर भर-परिवार के सब लोग। घर भरना :- (१) अपना ही लाभ करना। (२) हानि की पूर्ति होना। (३) घर में मेहमान आना। घर में :- स्त्री. घरवाली। घर में डालना :- पत्नी रूप में रख लेना। घर में पड़ना :- पत्नी रूप से रहना। घर से :- पास से। घर से पाँव निकालना :- मनमाने ढंग से घूमना-फिरना। घर से बाहर पाँव निकालना :- हैसियत से ज्यादा काम करना। घर से देना :- (१) अपने पास से देना। (२) हानि उठाना। घर सेना :- (१) घर में पड़े रहना। (२) बेकार बैठना। घर होना :- (१) निबाह होना। (२) परस्पर प्रेम या मेल होना।
- मु.
- घर
- जन्मभूमि, जन्मस्थान।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- कुल, वंश।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- कार्यालय।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- कोठरी, कमरा।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- रेखाओं से घिरा स्थान, खाना।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- चौपड़, शतरंज आदि का खाना।
- चौपरि जगत मड़े दिन बीते। गुन पासे क्रम अंक चार गति सारि न क कबहूँ जीते। चारि पसारि दिसानि, मनोरथ घर फिरि फिरि गिनि आने-१.६०।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
-
- घर बंद होना :- गोटी चलने का रास्ता बंद होना।
- मु.
- घर
- कोश, डिब्बा।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- (संदूक, अलमारी आदि का) खाना।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- गुमेटना
- लपेटना।
- क्रि. स.
- [सं. गुंफित]
- गुम्मट, गुम्मर
- गुंबद, गुंबज।
- संज्ञा
- [देश.]
- गुम्मट, गुम्मर
- चेहरे या शरीर के किसी अंग पर गोल सूजन, मसा या मांस का लोथड़ा।
- संज्ञा
- [देश.]
- गुरंब, गुरंबा
- गुड़ की चाशनी में पगाया हुआ पाग।
- संज्ञा
- [हिं. गुड़ंबा]
- गुर
- कड़ाह में गाढ़ा करके जलाया हुआ ऊख का रस. गुड़।
- (क) रस लैलै - "श्रौटाइ करत गुर, डारि देत है खोई - १ - ६३।
(ख) गूँगे गुर की दसा भई है पूरन स्याम सोहाग सही - १९८२। (ग) अति बिचित्र लरिका की नाई गुर देखाइ बौरावहिं - २९८५।
- संज्ञा
- [सं. गुड़]
- गुर
- अध्यापक, उपदेशक, आचार्य।
- तुम गुर होहु और जो सीखै तिनकी समुझ सहेली - सा, ८४।
- संज्ञा
- [हिं. गुरू]
- गुर
- मूलमंत्र, सार, तत्व की बात।
- सूर भजि गोबिंद के गुन, गुर बताए देत - १:३११।
- संज्ञा
- [सं. गुर मंत्र]
- गुर
- तीन की संख्या।
- संज्ञा
- [सं. गुण]
- गुर
- भारी, बड़ा।
- वि.
- [सं. गुरु]
- गुरगा
- चेला, शिष्य।
- संज्ञा
- [सं. गुरुग]
- घर
- (पानी आदि के समाने का) स्थान।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- (नगीना आदि जड़ने का) स्थान।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- छेद, बिल।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- स्वर।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- उत्पत्ति का कारण।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- गृहस्थी, घरबार।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- गृहस्थी का सामान।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- गृहस्थी का सामान।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- (चोट या चार का) स्थान।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घर
- आँख का गड्ढा।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- घरघाल, घरघालक, घरघालन
- कुल में कलंक लगानेवाला।
- वि.
- [हिं. घर+घालना]
- घर जाया
- घर का गुलाम।
- संज्ञा
- [हिं. घर + जाया]
- घरणी
- घरवाली, स्त्री।
- संज्ञा
- [हिं. घरनी]
- घरदासी
- पत्नी।
- संज्ञा
- [हिं. घर + सं. दासी]
- घरद्वार
- रहने का स्थान, ठौर, ठिकाना।
- संज्ञा
- [हिं. घर + सं. द्वार]
- घरद्वार
- गृहस्थी, घरबार।
- संज्ञा
- [हिं. घर + सं. द्वार]
- घरद्वार
- मकान, जायदाद।
- संज्ञा
- [हिं. घर + सं. द्वार]
- घरद्वारी
- कर जो घर पीछे लगे।
- संज्ञा
- [हिं. घरद्वार]
- घरन
- पहाड़ी भेड़, जुँबली।
- संज्ञा
- [देश, ]
- घरनाल
- एक तोप।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ा + नाली]
- घरबारी
- बाल-बच्चोंवाला, गृहस्थ।
- अब तो स्याम भये घरबारी।
- संज्ञा
- [हिं. घर - +बार]
- घरबैसी
- उपपत्नी।
- संज्ञा
- [हिं. घर + बैठना]
- घरमकर
- सूर्य।
- संज्ञा
- [सं. घर्म कर]
- घरमना
- बहना।
- क्रि. अ.
- [सं. धर्म + ना (प्रत्य.)]
- घरघरर
- घिसने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घररना
- घिसना, रगड़ना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घररघरर]
- घरवा, घरवाहा
- छोटा-मोटा घर
- संज्ञा
- [हिं. घर + वा या वाहा (प्रत्य.)]
- घरवा, घरवाहा
- घरौंदा।
- संज्ञा
- [हिं. घर + वा या वाहा (प्रत्य.)]
- घरवात
- घर का साज-सामान या धन संपति, गृहस्थी।
- संज्ञा
- [हिं. घर + वात (प्रत्य.)]
- घरवाला
- घर का स्वामी या मालिक।
- संज्ञा
- [हिं. घर+वाला (प्रत्य.)]
- घरनि, घरनी
- घरवाली, भार्या, गृहिणी।
- तरुवर.मूल अकेली ठाढ़ी दुखित राम की घरनी। बसन कुचील, चिहुर लपिटाने, बिपति जाति नहिं बरनी - ९ - ७३।
(ख) जांकी घनि हरी छल - बल करि, लायो बिलँब न आवत - ९ - १३३। (ग) सूरदास धनि नंद की घरनी, देखत नैन सिराइ - १० - ३३।
- संज्ञा
- [सं. गृहिणी, प्रा. घरणी]
- घरफोड़ना, घरफोर
- घरवालों में झगड़ा-बखेड़ा करानेवाला।
- वि.
- [हिं. घर + फोड़ना]
- घरफोरी
- घरवालों में फूट या कलह करानेवाली।
- वि.
- [हिं. घर + फोड़ना]
- घरबसा
- उपपति, प्रेमी।
- संज्ञा
- [हिं. घर + बसना]
- घरबसी
- रखेली। घर में पत्नी की तरह रहनेवाली प्रेमिका।
- संज्ञा
- [हिं. घ' +बसना]
- घरबसी
- घर की दशा सुधारनेवाली।
- वि.
- घरबसी
- घर की दशा बिगाड़नेवाली (व्यंग्य)।
- वि.
- घरबार
- रहने का स्थान, ठौर ठिकाना।
- संज्ञा
- [हिं. घर + बार=द्वार]
- घरबार
- घर का जंजाल, गृहस्थी।
- संज्ञा
- [हिं. घर + बार=द्वार]
- घरबार
- निज की सारी संपत्ति, गृहस्थी का साज-सामान, घरद्वार।
- तुम्हरै भजन सबहि सिंगार। जो कोउ प्रीति करै पद - अंबुज, उर मंडत निरमोलक हार। किंकिनि नूपुर पाट - पटंबर, मानो लिये फिरैं घरबार - १ - ४१।
- संज्ञा
- [हिं. घर + बार=द्वार]
- घरवाला
- पति।
- संज्ञा
- [हिं. घर+वाला (प्रत्य.)]
- घरवाली
- घर की मालिकिन या स्वामिनी।
- संज्ञा
- [हिं. घर + वाली (प्रत्य.)]
- घरवाली
- पत्नी।
- संज्ञा
- [हिं. घर + वाली (प्रत्य.)]
- घरसा
- रगड़ा, विस्सा।
- संज्ञा
- [सं. घर्ष]
- घरहाँई, घरहाई
- घर में झगड़ा करनेवाली स्त्री।
- संज्ञा
- [हिं. घर+सं. घाती, हिं.घ ई]
- घरहाँई, घरहाई
- घर की बुराई करने या कलंक लगानेवाली स्त्री।
- संज्ञा
- [हिं. घर+सं. घाती, हिं.घ ई]
- घरहाँई, घरहाई
- झगड़ा करानेवाली।
- वि.
- घरहाँई, घरहाई
- कलंक, लांछन यो दोष लगानेवाली स्त्री।
- वि.
- घराऊ
- घर का, घरेलू।
- वि.
- [हिं. घर + आऊ (प्रत्य.)]
- घराऊ
- निजी, आपसी।
- वि.
- [हिं. घर + आऊ (प्रत्य.)]
- घरी
- समय, अवसर।
- (क) बहुरि हिमाचल के सुभ घरी। पारवती ह्वै सो अवतरी - ४ - ७।
(ख) मेरे कहैं। बिप्रनि बुलाइ, एक सुभ घरी धराइ, बागे चीरे बनाइ भूषन पहिरावौ - १० - ९५।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ी]
- घरी
- तह, परत।
- संज्ञा
- [हिं. घर=कोठा, खाना]
- घरी
- करत घरी-बाँधते हो, ल पेटते हो, सम्हालते हो।
- इन निर्गुन निर्मोल की गठरी अब किन करत घरी - ३१०४।
- प्र.
- घरीक
- एक घड़ी भर।
- क्रि. वि.
- [हिं. घड़ी + एक]
- घरुआ, घरुवा
- घर का ठीक-ठीक, बँधा-बँधाया प्रबंध या खर्च।
- संज्ञा
- [हिं. घर+वा (प्रत्य.)]
- घरू
- घर का, रेलू।
- वि.
- [हिं. घर + ऊ (प्रत्य.)]
- घरेला, घरेलू
- पालू, पालतू।
- वि.
- [हिं. घर + एला, एलू (प्रत्य.)]
- घरेला, घरेलू
- निजी, घर का।
- वि.
- [हिं. घर + एला, एलू (प्रत्य.)]
- घरेला, घरेलू
- घर का बना या तैयार किया हुआ।
- वि.
- [हिं. घर + एला, एलू (प्रत्य.)]
- घरै
- घर की।
- स्याम अकेले आँगन छाँडे, आपु गई कछु काज घरै - १०.७६।
- संज्ञा
- [सं. गृह, हिं. घर]
- घराती
- विवाह में कन्या-पक्ष के लोग।
- संज्ञा
- [हिं. घर + आती (प्रत्य.)]
- घराना
- वंश, कुल।
- संज्ञा
- [हिं. घर + आना (प्रत्य.)]
- घरि
- घड़ी भर का समय।
- (क) तुरतहिं देत बिलंब न घरि कौ - १० - १८१।
(ख) और किए हरि लगी न पलक घरि - ३४०९।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ी, ]
- घरिआर, घरियार
- घंटाघड़ियाल।
- सुनत शब्द घरियार के नृप द्वार बजावत - २५६०।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ियाल]
- घरिआर, घरियार
- घड़ियाल नामक जल जंतु।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ियाल]
- घरिक
- घड़ी भर, थोड़ी देर।
- (क) तरु दोउ धरनि गिरे भहराइ।…...। कोउ रहे अकास देखत, कोउ रहे सिरनाइ। घरिक लौं जकि रहे जहँ तहँ, देह गति बिसराइ - ३८७।
(ख) घरिक मोहिं लगिई खरिका मैं, तू जनि आवै हेत - ६७९।
- क्रि. वि.
- [हिं. घड़ी + एक]
- घरिया
- मिट्टी का एक पात्र जिसमें सोना-चाँदो गलायी जाती है।
- संज्ञा
- [हिं. घड़िया]
- घरियाना
- (कपड़े आदि की) तह लगाना, लपेटना।
- क्रि. स.
- [हिं. घरी]
- घरियारी
- घंटा बजानेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ियाल]
- घरी
- काल का एक समय जो चौबीस मिनट के बराबर होता है।
- (क) राम न सुमिरयौ एक घरी - १ - ७१।
(ख) मोकौं मुक्ति बिचारत है प्रभु पचिहौ पहर - घरी - १.१३०।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ी]
- घलना
- हथियार चल जाना, गोली छूट पड़ना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घालना]
- घलना
- मारपीट हो जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घालना]
- घलाघल, घलाघजी
- मारपीट।
- संज्ञा
- [हिं. घटना]
- घलुआ
- घेलौना, घाता।
- संज्ञा
- [हिं. घाल]
- घवद
- फलों का गुच्छा।
- संज्ञा
- [हिं. गौद, घौद]
- घवरि
- फल पत्तियों का गुच्छा।
- संज्ञा
- [सं. गह्वर]
- घसकना
- सरकना, खिसकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. खिसकना]
- घसखुदा
- जो घास खोदता हो।
- वि.
- [हिं. घास+खोदना]
- घसखुदा
- मूर्ख, गँवार, अनाड़ी।
- वि.
- [हिं. घास+खोदना]
- घसना
- रगडना, घिसना,
- क्रि. स.
- [सं. घर्षण]
- घरैया
- रका, घरेलू।
- वि.
- [हिं. घर + ऐया (पत्य.)]
- घरैया
- घर का आदमी, संबंधी।
- संज्ञा
- घरो
- घड़ा, गगरा।
- संज्ञा
- [हिं. घड़ा]
- घरौंदा, घरौंधा
- बच्चों द्वारा बनाया हुआ धूल-मिट्टी का घर
- संज्ञा
- [हिं. घर + दा (प्रत्य.)]
- घरौंदा, घरौंधा
- छोटा-मोटा कच्चा घर।
- संज्ञा
- [हिं. घर + दा (प्रत्य.)]
- घरौना
- घर, मकान।
- संज्ञा
- [हिं. घर + औना (प्रत्य)]
- घरौना
- छोटा घर, घरौंदा।
- संज्ञा
- [हिं. घर + औना (प्रत्य)]
- घर्घर
- एक प्राचीन बाजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घर्घर
- घड़घड़ाहट, घरघर शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घर्म
- घाम, धूप।
- संज्ञा
- [सं.]
- घर्मविंदु
- पसीना।
- संज्ञा
- [सं.]
- घर्मान्शु
- सूर्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- घर्रा
- आँख में लगाने का अंजन।
- संज्ञा
- [हिं. घररघरर]
- घर्रा
- कफ से गले की घरघराहट।
- संज्ञा
- [हिं. घररघरर]
- घर्रा
-
- घर्रा चलना (लगना) :- मरते समय कफ के कारण साँस का घरघराहट के साथ निकलना।
- मु.
- घर्राटा
- गहरी नींद में नाक से निकलनेवाला ‘घरघर' का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु, घर्र + आटा (प्रत्य.)]
- घरोटा
-
- घर्राटा भरना :- गहरी नींद में सोना।
- मु.
- घर्षण
- रगड़, घिस्सा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घर्षित
- रगड़ा हुआ, रगड़ खाया हुआ।
- वि.
- [सं.]
- घलना
- छूट जाना, गिर पड़ना, फेंका जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घालना]
- गुदगुदी
- मीठी खुजली या सुरसुराहट।
- संज्ञा
- [हिं. गुदगुदाना]
- गुदगुदी
- चाव
- संज्ञा
- [हिं. गुदगुदाना]
- गुदगुदी
- उत्कंठा।
- संज्ञा
- [हिं. गुदगुदाना]
- गुदगुदी
- उमंग।
- संज्ञा
- [हिं. गुदगुदाना]
- गुदड़िया
- गुदड़ीवाला।
- वि.
- [हिं. गुदड़ी]
- गुदड़ी
- फटे-पुराने कपड़ों से बना ओढ़ना या बिछौना, कंथा।
- संज्ञा
- [हिं. गूदड़]
- गुदड़ी
-
- गुदड़ी के लाल :- साधारण स्थान में बहुमूल्य वस्तु या महान व्यक्ति।
गुदड़ी का लाल :- ऐसा धनी या गुणी जिसके वेश से धन या गुण का पता न लगे।
- मु.
- गुदन
- स्त्री जो गोदना गुदाये हो।
- संज्ञा
- [हिं. गोदना]
- गुदना
- गोदा हुआ चिन्ह।
- संज्ञा
- [हिं. गोदना]
- गुदना
- चुभना, धँसना, गड़ना।
- क्रि. अ.
- गुरगा
- टहलुआ, नौकर।
- संज्ञा
- [सं. गुरुग]
- गुरगा
- दूत, चर, गुप्तचर।
- संज्ञा
- [सं. गुरुग]
- गुर चियाना
- सिकुड़ना।
- क्रि. अ.
- [हिं. गुरुच]
- गुरची
- सिकुड़न।
- संज्ञा
- [हिं. गुरुच]
- गुरचों
- कानाफूसी, गपचुप बात।
- संज्ञा
- [अनु.]
- गुरज
- गदा, सोंटा।
- संज्ञा
- [हिं. गुर्ज]
- गुरज
- गुर्जा, बुर्ज।
- संज्ञा
- [फ़ा. बुर्ज़]
- गुरदा
- कलेजे के पास का एक अंग।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुरदा
- साहस. हिम्मत।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुरदा
- छोटी तोप।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- घसीट
- घसीटने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. घसीटना]
- घसीट
- जल्दी जल्दी लिखा हुआ।
- वि.
- घसीट
- घसीटा हुआ।
- वि.
- घसीटना
- रगड़ते हुए खींचना, कढ़ोरना। यौ-घसीटा-घसीटी-खींचातानी।
- क्रि. स.
- [सं. घृष्ट, प्रा. घिष्ट + ना (प्रत्य.)]
- घसीटना
- जल्दी से लिखकर चलता करना।
- क्रि. स.
- [सं. घृष्ट, प्रा. घिष्ट + ना (प्रत्य.)]
- घसीटना
- किसी झगड़े या मामले में जबरदस्ती शामिल करना।
- क्रि. स.
- [सं. घृष्ट, प्रा. घिष्ट + ना (प्रत्य.)]
- घसेहो
- घिस चुके हो, रगड आये हो।
- लटपटी पाग महाबर के रँग मानिनि पग पर सीस घसेहो - १९५५।
- क्रि. स.
- [हिं. घसना]
- घहनाना
- किसी धातु खंड (घंटे अदि) पर आघात का शब्द होना, घहराना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- घहनाने
- (घंटे आदि) बजने या घनघनाने लगे।
- क्रि. अ.
- [हिं. घहनांना]
- घहरत
- घोर शब्द करता है, गरजता है।
- गर्जत, ध्वनि प्रलयकाल गोकुल भयौ अंधकाल चकृत भए ग्वालबाल घइरत नभ करत चहल - ९४८।
- क्रि. अ.
- [हिं. घहरना]
- घहरना
- गंभीर, घोर या भीषण ध्वनि करना, गरजना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- घंहराइ
- गरजकर, गंभीर शब्द करके, घहराकर।
- (क) गगन घहराइ जरी घटा कारी - ३८४।
(ख) फूले बजावत गिरि गिरी गार मदन भेरि घइराइ अपार संतन हित ही फूल डोल - २४१३।
- क्रि. अ.
- [हिं. घहराना]
- घहरात
- घोर शब्द करते हैं।
- गगन भेद घंहरात थहरात गात - ९६०।
- क्रि. अ.
- [हिं. घहराना]
- घहरान
- गंभीर ध्वनि।
- संज्ञा
- [हिं. घहराना]
- घहराना
- गरजना, गंभीर या घोर ध्वनि करना, भीषण शब्द निकालना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- घहरानि, घहरानी
- गंभीर ध्वनि, तुमुल शब्द, गरज।
- सुनत घहरानि ब्रज में लोग चकित भए, कहा आघात धुनि करत आव - २० - ६९।
- संज्ञा
- [हिं. घहराना]
- घहरानि, घहरानी
- गरजने लगी, घोर शब्द किया।
- क्रि. अ.
- घहरारा
- घोर शब्द, गरज।
- संज्ञा
- [हिं. घहराना]
- घहरारा
- घोर शब्द करनेवाला, गरजनेवाला।
- वि.
- घहरारी
- गंभीर ध्वनि।
- संज्ञा
- [हिं. घहरारा]
- घसना
- खाना, भक्षण करना।
- क्रि. स.
- [सं. घनन]
- घसि
- घिसकर, रगड़कर, पीसकर।
- (क) गुहि गुंजा, घसि बन धातु, अंगनि चित्र ठए - १० - २४।
(ख) एकनि कौं पुहुपनि की माला, एकनि कौं चंदन घसिनीर - १० - २५ (ग) घसि कै गरल चढाइ उरोजनि, लै रुचि सौं पय। प्याऊँ - १० - ४९।
- क्रि. अ.
- [हिं. घिसना, घसना]
- घसि
- (अपराध स्वीकार करके क्षमा मागते या बिनती करते हुए माथा आदि चरणों या देहली पर) घिसकर या रगड़कर।
- जावक रस मनौ संबर अरिगन पिया मनायी पद ललाट घसि - १९५४।
- क्रि. अ.
- [हिं. घिसना, घसना]
- घसिटना
- रगड खाते हुए खिंचना।
- क्रि. अ.
- [सं. घर्षित + ना (प्रत्य.)]
- घसियारा
- घास खोदनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. घास + आरा (प्रत्य.)]
- घसियारा
- मूर्ख, नासमझ।
- संज्ञा
- [हिं. घास + आरा (प्रत्य.)]
- घसियारिन, घसियारी
- घास बेचनेवाली।
- संज्ञा
- [हिं. घसियारा]
- घसियारिन, घसियारी
- मूर्ख या नासमझ स्त्री।
- संज्ञा
- [हिं. घसियारा]
- घसीट
- -जल्दी लिखने का भाव
- संज्ञा
- [हिं. घसीटना]
- घसीट
- जल्दी लिखा हुआ लेख।
- संज्ञा
- [हिं. घसीटना]
- घहरारी
- गंभीर ध्वनि करनेवाली, गरजनेवाली।
- वि.
- घहरि
- गूँजना, शब्दायमान होना।
- मथति दधि जसुमति मथानी, पुनि रही घर - घहरि - १० - ६७।
- क्रि. अ.
- [हिं. घहरना]
- घहरै
- घोर शब्द करता है।
- इहिं अंतर अँधवाह उठयौ इक, गरजत गगन सहित घहरै - १० - ७६।
- क्रि. अ.
- [हिं. घहरना]
- घाँ
- दिशा, दिक्।
- किहिं घाँ के तुम बीर बटाऊ कौन तुम्हारौ गाउँ - ९४४।
- संज्ञा
- [सं. ख या घट = ओर]
- घाँ
- ओर, तरफ, पक्ष।
- (क) गर्भ परीच्छित रच्छा कीनी, हुतौ नहीं बस माँ कौ। मेटी पीर परम पुरुषोत्तम, दुख मेट्यौ दुहुँ घाँ कौ - १ - ११३।
(ख) सूर तबहि हम सौं जौ कहती तेरी घाँ ह्वै लरती - १२७१।
- संज्ञा
- [सं. ख या घट = ओर]
- घाँघरा, घँघरी, घाँघरो
- स्त्रियों का घेरदार पहनावा, लहँगा।
- संज्ञा
- [सं. घर्घर= क्षुद्र घंटिका]
- घाँची
- तेली।
- संज्ञा
- [हिं. घान + ची]
- घाँटी
- गले की भीतरी घंटी, कौआ।
- संज्ञा
- [सं. घंटिका]
- घाँटी
- गला।
- संज्ञा
- [सं. घंटिका]
- घाँटो
- एक तरह का गाना।
- संज्ञा
- [हिं. घट]
- घाई
- पानी का भँवर।
- संज्ञा
- [हिं. घाँ, घा]
- घाई
- दो उँगलियों के बीच की संधि।
- संज्ञा
- [सं. गभस्ति =उँगली]
- घाई
- पेड़ी और ङाल के बीच का कोना।
- संज्ञा
- [सं. गभस्ति =उँगली]
- घाई
- चोट, आघात, मार।
- संज्ञा
- [हिं. घाव]
- घाई
- धोखा, चालबाजी।
- संज्ञा
- [हिं. घाव]
- घाई
-
- घाइयाँ बताना :- झाँसा देना।
- मु.
- घाई
- पाँच वस्तुओं का समूह।
- संज्ञा
- [हिं. गाही]
- घाउ
- संज्ञा घाव, क्षत, जखम, चोट, आघात।
- (क) धमकि मारथौ घाउ गुमकि हृदय रहयौ झमकिं गहि केस लै चले ऐसे - २६१५।
(ख) रिषि दधीचि हाड़ ले दान। ताकौ तू निज बज्र बनाउ। मरि है असुर ताहि कैं घाउ - ६ - ५।
- संज्ञा
- [हिं. घाव]
- घाऊघप्प
- गुप्त रूपसे माल उड़ानेवाला।
- वि.
- [हिं. खाऊ+गप या घप]
- घाऊघप्प
- जिसका भेद न खुले।
- वि.
- [हिं. खाऊ+गप या घप]
- घाँह, घाँही
- ओर, तरफ, पक्ष।
- संज्ञा
- [हिं. घाँ]
- घाँह, घाँही
- दिशा।
- संज्ञा
- [हिं. घाँ]
- घा
- ओर, तरफ।
- संज्ञा
- [हिं. घाँ]
- घाइ
- घाव, जख्म, चोट, आघात।
- हरि बिछुरे हम जिती सहत हैं तिते बिरह के घाइ - ३१५९।
- संज्ञा
- [हिं. घाव]
- घाइ
- मारकर, नाश करके।
- क्रि. स.
- [हिं. घाना]
- घाइल
- जिसे घाव लगा हो, जखमी, घायल।
- वि.
- [हिं. घायल]
- घाई
- ओर, तरफ।
- संज्ञा
- [हिं. घाँ, घा]
- घाई
- दिशा।
- संज्ञा
- [हिं. घाँ, घा]
- घाई
- दो वस्तुओं के बीच का स्थान, संधि।
- संज्ञा
- [हिं. घाँ, घा]
- घाई
- बार, दफा।
- संज्ञा
- [हिं. घाँ, घा]
- घाघरा
- सरजू नदी का एक नाम।
- संज्ञा
- घाघरिया, घाघरी
- घघरिया, लहँगा।
- मोहन मुसुकि गही दौरत मैं छूटि तनी छंद रहित घाघरी - २३९६।
- संज्ञा
- [हिं. घाघर=लहँगा]
- घाघस
- घाघ पक्षी।
- संज्ञा
- [हिं. घाघ - घुग्घू]
- घाट
- नदी या जलाशय का ऐसा स्थान जहाँ लोग नहाते-धोते हैं।
- संज्ञा
- [सं. घट्ट]
- घाट
- घाट-वाट-सर्वत्र, सभी स्थलों पर।
- करि हियाव, यह सौंज लादि के, हरि कै पुर लै जाहि। घाट-बाट कहुँ अटक होइ नहिं. सब कोउ देहि निंबाहि -- १-३१०।
- यौ.
- घाट
- नदी या जलाशय का वह स्थान जहाँ धोबी कपड़े धोते हैं।
- संज्ञा
- [सं. घट्ट]
- घाट
- नदी या जलाशय का वह स्थान जहाँ लोग नाव पर चढ़कर पर उतरते हैं।
- संज्ञा
- [सं. घट्ट]
- घाट
-
- घाट धरना :- राह रोकना।
घाट धरयौ :- जबरदस्ती रास्ता रोक लिया। उ. - धाट धरयौ तुम यहै जानि कै करत ठगन के छंद। घाट मारना :- नाव या पुल का किराया (उतराई) न देना। घाट लगना :- नाव पर एक बार में चढ़नेवाले यात्रियों का इकट्ठा होना। नाव का घाट लगना :- नाव किनारे पहुँचना। (किसी का) किनारे लगना :- आश्रय या सहारा पा जाना।
- मु.
- घाट
- तंग पहाड़ी रास्ता या उतार।
- संज्ञा
- [सं. घट्ट]
- घाट
- पहाड़।
- संज्ञा
- [सं. घट्ट]
- घाएँ
- ओर, तरफ।
- संज्ञा
- [देश.]
- घाएँ
- बार, अवसर, दफा।
- संज्ञा
- [देश.]
- घाएँ
- ओर से, तरफ से।
- क्रि. वि.
- घाग, घाघ
- एक अनुभवी व्यक्ति जिसकी कहावतें बहुत प्रसिद्ध हैं।
- संज्ञा
- घाग, घाघ
- बड़ा चालक या खुर्राट आदमी।
- संज्ञा
- घाग, घाघ
- जादूगर।
- संज्ञा
- घाग, घाघ
- उल्लू की जाति का एक पक्षी।
- संज्ञा
- [हिं. घुग्घू]
- घाघरा
- स्त्रियों का एक पहनावा, लहँगा।
- संज्ञा
- [सं, घर्घर=क्षुद्रांटिका]
- घाघरा
- एक कबूतर।
- संज्ञा
- [सं. घर्घर= उल्लू]
- घाघरा
- एक पौधा।
- संज्ञा
- [देश.]
- घाट
- ओर, तरफ।
- संज्ञा
- [सं. घट्ट]
- घाट
- दिशा।
- संज्ञा
- [सं. घट्ट]
- घाट
- रंग-ढंग, चाल ढाल।
- संज्ञा
- [सं. घट्ट]
- घाट
- तलवार की धार।
- संज्ञा
- [सं. घट्ट]
- घाट
- अँगिया का गला।
- संज्ञा
- [सं. घट्ट]
- घाट
- दुलहिन का लहँगा।
- संज्ञा
- [सं. घट्ट]
- घाट
- छल, कपट, धोखा।
- संज्ञा
- [सं. घात या हिं. घट= कम]
- घाट
- बुरा कर्म।
- संज्ञा
- [सं. घात या हिं. घट= कम]
- घाट
- कम, थोड़ा।
- वि.
- [हिं. घट]
- घाट
- गरदन का पिछला भाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- घात
- अहित, बुराई।
- संज्ञा
- [सं.]
- घात
- दाँव, सुयोग।
- आप अपनी घात निरखत खेल जम्यौ बनाई।
- संज्ञा
- [सं.]
- घात
-
- घात पर चढ़ना (में आना) :- वश में आना, हत्थे चढ़ना।
घात में पाना :- काम सिद्ध होने की स्थिति में पा जाना। घात लगना :- सुयोग मिलना। घात लगाना :- उपाय भिड़ाना, तदबीर लगाना, मौका ढूँढ़ना। उ. - सहसबाहु के सुतनि पुनि राखी घात लगाइ। परसुराम जब बन गयौ मारयौ रिसि कौं धाइ - ९ - १४।
- मु.
- घात
- उपयुक्त अवसर या सुयोग की प्रतीक्षा, ताक।
- संज्ञा
- [सं.]
- घात
-
- घात में फिरना :- ताक में घूमना।
घात में बैठना :- छिपकर बैठना या तैयार रहना। घात में रहना (होना) :- अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करना। घात लगाना :- तदबीर लडाना, मौका ताकना।
- मु.
- घात
- दाँव-पेंच, छल-कपट।
- (क) मैं जानी पिय मन की बात। धरनी पग - नख कहा करोवत अब सीखे ए घात - २०००।
(ख) घात मन करत लैं डारिहौं दुहुनि पर दियो गज पेलि आपुन हँकारयो - २५९२। (ग) भाजि जाहि सघन स्याम महूँ जहाँ न कोऊ घात - २७७७ |
- संज्ञा
- [सं.]
- घात
-
- घात बताना :- (१) चालाकी सिखाना।
(२) चाल चलना, बहलाना, रास्ता बताना।
- मु.
- घात
- रंग-ढंग, तौर-तरीका, ढब, धज।
- संज्ञा
- [सं.]
- घातक, घातकी
- मारनेवाला, हत्यारा।
- संज्ञा
- [सं. घातक]
- घातक, घातकी
- क्रूरकर्मा, हिंसक, बधिक, जल्लाद।
- माघौ जू मोतैं और न पापी। घातक, कुटिल, चबाई कपटी, महाक्रूर संतापी - १ - १४१
- संज्ञा
- [सं. घातक]
- गुरदा
- बडा चमंचा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुरबरा
- उर्द की पीठी के बड़े जो गुड़ के रस में या उसकी चटनी में भिगोये गये हों।
- मूँगपकौरा पनौ पतबरा। इक कोरे, इक भिजे गुरबरा - ३९६।
- संज्ञा
- [हिं. गुड़ + बड़ा= पीठी की गोल चकतियाँ]
- गुरमुख
- गुरू से मंत्र लेनेवाला, जिसने दीक्षा ली हो, दीक्षित।
- वि.
- [हिं. गुरु + मुख]
- गुरम्मर
- आम का वह वृक्ष जिसके फल खूब मीठे हों।
- संज्ञा
- [हिं. गुड़ + अंब]
- गुरवी
- घमंडी, अहंकारी।
- वि.
- [सं. गर्व]
- गुराई
- गोरापन।
- संज्ञा
- [हिं. गोरा]
- गुराब
- तोप लादने की गाड़ी।
- संज्ञा
- [देश.]
- गुराव
- चारे के टुकड़े।
- संज्ञा
- [हिं. गुरिया]
- गुराव
- चारा काटने का हथियार, गड़ासा।
- संज्ञा
- गुरिंदा
- गुप्तचर, भेदिया।
- संज्ञा
- [फ़ा. गोइंदा]
- घाटवाला
- घाटिया।
- संज्ञा
- [हिं. घाट + वाला]
- घाटा
- हानि, नुकसान।
- संज्ञा
- [हिं. घटना]
- घाटा
-
- घाटा भरना :- कमी पूरी करना।
- मु.
- घाटारोह
- [हिं. घाट+सं. रोध) घाट से किसी को उतरने-चढ़ने न देना।
- संज्ञा
- घाटि
- बाकी (रही), शेष (बची), कम (रही)।
- कौन करनी घाटि मोसौं, सो करौं। फिरि काँधि। न्याइकै नहिं खुनुस कीजै, चूक पल्लैं बाँधि - १ - १९९।
- वि.
- [हिं. घटना, घाटा]
- घाटि
- नीच कर्म, पाप, बुरा काम।
- संज्ञा
- [सं. घात, हिं. घाट = कम]
- घाटिका
- गरदन का पिछला भाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- घाटिया
- घाट पर दान लेनेवाला ब्राह्मण, गंगापुत्र।
- संज्ञा
- [सं. घाट+इया (प्रत्य.)]
- घाटी
- गले का पिछला भाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- घाटी
- पर्वतों के बीच की भूमि।
- संज्ञा
- [हिं. घाट]
- घाटी
- पहाड़ी सँकरा मार्ग, दर्रा।
- संज्ञा
- [हिं. घाट]
- घाटी
- पहाड़ी ढाल या उतार।
- संज्ञा
- [हिं. घाट]
- घाटी
- मार्ग-कर चुकाने का प्राप्तिपत्र।
- संज्ञा
- [हिं. घाट]
- घाटे
- घटकर, कम।
- ये कुलटा कलीट वे दोऊ। इक तें एक नहिं घाटे दोऊ
- वि.
- [हिं. घटना]
- घाटो
- कमी, घटी, हानि।
- संज्ञा
- [हिं. घाटा]
- घाटो
- घाँटो नामक गीत।
- संज्ञा
- [हिं. घट]
- घाटो
- दरिद्र।
- वि.
- [हिं. घटना = कम करना]
- घात
- प्रहार, चोर, मार।
- (क) सुआ पढ़ावत गनिका तारी, व्याध तरयौ सर - घात किऐं - १८९।
(ख) घात करयौ नख उर कौं–७३८।
- संज्ञा
- [सं.]
- घात
-
- घात चलाना :- जादू टोना करना।
- मु.
- घात
- वध, हत्या, नाश।
- उ. - (क) प्रान हमारे घात होत हैं तुमरे भावै हाँसी–३०६३।
(ख) सूरदास सिसुपाल पानि गहै पावक जारि करौं तन घात–१०उ. ११।
- संज्ञा
- [सं.]
- घातक, घातकी
- शत्रु।
- संज्ञा
- [सं. घातक]
- घातक, घातकी
- हानिकारिणी, नाशक।
- किंचित स्वाद स्वान बानर ज्यौं, घातक रीति ठटी - १.९८।
- वि.
- [हिं. घात]
- घाता
- समाप्त, खत्म।
- केसि - कंस दुष्ट मारि, मुष्टिक कियौ घाता - १ - १२३।
- वि.
- [सं. घात]
- घातिक
- हत्यारा, वधिक।
- संज्ञा
- [हिं. घातक]
- घातिनी
- नाश करनेवाली।
- कुच बिष बाँटि लगाइ कपट करि, बालघातिनी परम सुहाई - १० - ५०।
- संज्ञा
- [सं.]
- घातिनी
- मारनेवाली।
- संज्ञा
- [सं.]
- घातिया, घाती
- घातक, हिंसक, संहारक।
- घाती कुटिल ढीठ अति क्रोधी कपटी कुमति, जुलाई - १ - १८६।
- संज्ञा
- [सं. घातिन्, हिं. घाती]
- घातिया, घाती
- वध या नाश करनेवाला।
- क्यों एं बचन सुअंक सूर सुनि बिरह मदन सर घाती - २९८०।
- संज्ञा
- [सं. घातिन्, हिं. घाती]
- घातुक
- बधिक।
- वि.
- [सं.]
- घातुक
- क्रूर।
- वि.
- [सं.]
- घाम
-
- घाम खाना :- धूप में रहना।
घाम लगना :- लू खा जाना। घाम में घर छाना :- घर को कष्ट या संकट में डालना। घर में घाम आना :- बड़ी मुसीबत में पड़ जाना।
- मु.
- घामड़
- जो (चौपाया) धूप से व्याकुल हो।
- वि.
- [हिं. घाम]
- घामड़
- नासमझ, मूर्ख।
- वि.
- [हिं. घाम]
- घामड़
- आलसी।
- वि.
- [हिं. घाम]
- घाय
- घाव, जख्म।
- संज्ञा
- [हिं. घाव]
- घायक
- मारनेवाला।
- वि.
- [हिं. घातक]
- घायक
- घायल करनेवाला।
- वि.
- [हिं. घातक]
- घायल
- आहत, चुटैल, जख्मी।
- कहुँ जावक कहूँ बने तँबोल रँग, कहुँ अँग सेंदुर दाग्यौ। मानो रन छूटे घायल कौं जहँ तहँ स्रोनित लाग्यौ - १९७२।
- वि.
- [हिं. घाय]
- घार
- पानी के बहाव से कटकर बननेवाला गड्ढा या मार्ग।
- संज्ञा
- [सं. गत्त']
- घाल, घाला
- घलुआ, घाता।
- [हिं. घलना]
- घातें, घातैं
- दाँव, सुयोग, स्वार्थ सिद्धि का उपयुक्त स्थान और अवसर।
- मोंसों कहत स्याम हैं कैसे ऐसी मिलई घातें–१२६०।
- संज्ञा
- [सं. घात]
- घातें, घातैं
- चाल, छल, कपटयुक्ति।
- (क) मेरी बाँह छोड़ि दै राधा, करत उपरफट बातें। सूर स्याम नागर, नागरि सौं, करत प्रेम की घातै - ६८१।
(ख) हम सब जानत हरि की घातैं - ३३३८। (ग) तुम निसि दिन उर अंतर सोचत ब्रज जुवतिन की घातैं - ३०२४।
- संज्ञा
- [सं. घात]
- घातुक
- निष्ठुर, हिंसक।
- वि.
- [हिं. घात]
- घान
- उतनी वस्तु जितनी एक बार कोल्हू में पेरने, चक्की में पीसने, कड़ाही में पकाने या भाड़ में भूनने के लिए डाली जाय।
- संज्ञाा,
- [सं. घन=समूह]
- घान
- प्रहार, चोट।
- संज्ञा
- [हिं. घन=बड़ा हथौड़ा]
- घाना
- संहार या नाश करना, मारना।
- क्रि. स.
- [सं. घात, प्रा. घाय+ना (प्रत्य.)]
- घाना
- पकड़ा देना।
- क्रि. स.
- [हिं. गहना = पकड़ना]
- घानी
- घान।
- संज्ञा
- [हिं घान]
- घानी
- ढेर।
- संज्ञा
- [हिं घान]
- घाम
- धूप, सूर्यातप।
- मीत, घाम घन, बिपति बहुत बिधि, भार तरैं मर जैहौं - १ - ३३१।
- संज्ञा
- [सं. घर्म, प्रा. घम्म]
- घाल, घाला
-
- घाल न गिनना :- बहुत तुच्छ समझना।
- मु.
- घालक
- मारनेवाला।
- जौ प्रभु भेष धरैं नहिं बालक। कैसे होहिं पूतनाघालक - ११०४।
- संज्ञा
- [हिं. घालना]
- घालक
- नाश करनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. घालना]
- घालकता
- मारने या नाश करने की क्रिया या भावना।
- संज्ञा
- [सं. घालक + ता (प्रत्य.)]
- घालत
- बिगाड़ते हैं, नाश करते हैं।
- सूर स्याम संगहि सँग डोलत औरनि के घर घालत - पृ० ३२२।
- क्रि. स.
- [हिं. घालना]
- घालत
- (मारकर) डाल देंगे।
- तनक तनक से ग्वाल छोहरन कंस अबहिं | बधि घालत - २५७४।
- क्रि. स.
- [हिं. घालना]
- घालति
- मारती है, चलाती है, चुभोती है।
- घालति छुरी प्रेम की बानी सूरदास को सकै सँभारि।
- क्रि. स.
- [हिं. घालना]
- घालना
- (किसी वस्तु के भीतर या ऊपर) रखना या डालना।
- क्रि. स.
- [सं. घटन, प्रा. घडन या घलन]
- घालना
- फेंकना, चलाना, छोडना।
- क्रि. स.
- [सं. घटन, प्रा. घडन या घलन]
- घालना
- (काम) कर डालना।
- क्रि. स.
- [सं. घटन, प्रा. घडन या घलन]
- घाली
- घायल किया।
- क्रि. स.
- [हिं. घायल]
- घाले
- दूर किये, मिटाये, नष्ट किये।
- तुम पूरे सब भाँति मातु पितु संकट घाले - ११३७।
- क्रि. स.
- [हिं. घालना]
- घालौं
- नष्ट कर दूँ, मिटा दूँ।
- इनकी बुद्धि इनकौं अब घालौं - १०४२।
- क्रि. स.
- [हिं. घालना]
- घाल्यौ
- बिगाडा, बुरा चैता, अनिष्ट किया।
- मैं नहिं काहू को कछु घाल्यौ पुन्यमि करवर नाक्यौ - २३७३।
- क्रि. स.
- [हिं. घालना]
- घाल्यौ
- किसी चीज के भीतर या ऊपर डाला।
- बिन ही भीत चित्र किन कीनो किन नभ हठ करि घाल्यौ झोरी - ३०२८।
- क्रि. स.
- [हिं. घालना]
- घाव
- क्षत, जख्म।
- परत निसासनि घाव तमकि धनु तरपत जिहिं जिहिं वार - २८२६।
- संज्ञा
- [सं. घात, प्रा. घाअ]
- घाव
- चोट, अघात।
- संज्ञा
- [सं. घात, प्रा. घाअ]
- घाव
-
- घाव खाना :- घायल होना।
घाव (जले) पर नमक (नोन) छिड़कना :- दुख के समय और जी दुखाना। घाव देना :- जी दुखाना। घाव पूजना (भरना, पूरना) :- (१) घाव ठीक होना। (२) शोक या दुख कम होना।
- मु.
- घावरिया
- घाव का इलाज करनेवाला, जर्राह।
- संज्ञा
- [हिं. घाव + वरिया (वाला)]
- घास
- तृण, चारा।
- हरी घास हू सो नहिं चरै - ५ - ३।
- संज्ञा
- [सं.]
- घालना
- नाश करना, बिगाड़ना।
- क्रि. स.
- [सं. घटन, प्रा. घडन या घलन]
- घालना
- मार डालना।
- क्रि. स.
- [सं. घटन, प्रा. घडन या घलन]
- घालमेल
- मिलावट, गड़बड़।
- संज्ञा
- [हिं. घालना + मेल]
- घालमेल
- मेलजोल, घनिष्टता।
- संज्ञा
- [हिं. घालना + मेल]
- घालि
- रखकर, डालकर।
- टूक टूक ह्वै सुभट मनोरथ आने झोली घालि - ३८२६।
- क्रि. स.
- [हिं. घालना]
- घालि
- (चोंच आदि) मारकर।
- रसमय जानि सुवा सेमर कौं चोंच घालि पछितायौ - १ - ५८।
- क्रि. स.
- [हिं. घालना]
- घालि
- किसी वस्तु के भीतर या ऊपर रखकर।
- कहा मन मैं घालि बैठी भेद मैं नहिं लख सकी - २२५९।
- क्रि. स.
- [हिं. घालना]
- घालिका
- नाश करनेवाली।
- संज्ञा
- [हिं. घालक]
- घालिनी
- नाश करनेवाली।
- संज्ञा
- [हिं. घालना]
- घाली
- चलायी, फेंकी।
- क्रि. स.
- [हिं. घालना]
- घिनौना
- घिनावना।
- वि.
- [हिं. घिनाना]
- घिनौरी
- एक कीड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. घिन]
- घिन्नी
- चरखी। चक्कर।
- संज्ञा
- [हिं. घिरनी]
- घिय, घियतौ
- घी।
- ठाढो बाँध्यौ बलबीर, नैननि शिरत नीर, हरिजू तैं प्यारौ तोकौं, दूध, दही घियतौ - ३७३।
- संज्ञा
- [से, घृत, हिं. घी]
- घिया
- एक बेल। तुरई।
- संज्ञा
- [हिं. घी]
- घियाकश
- कद्दूकश।
- संज्ञा
- [हिं. घिया +फ़ा. कश]
- घियातरोई, घियातोरई
- तुरई की लता या फली।
- संज्ञा
- [हिं. घिया + तोरी]
- घिरत
- घी, घृत।
- घेवर अति घिरत चभोरे - १० - १८३।
- संज्ञा
- [सं. घृत]
- घीरतिं
- घिरती हैं, रुकती हैं।
- घेरे घिरतिं न तुम बिनु माधौ, मिलतिं न बेगि दई - ६१२।
- क्रि. स.
- [सं. ग्रहण, हिं. घिरना]
- घिरना
- घेरा या छेंका जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. ग्रहण]
- घास
-
- घास काटना (खोदना) :- (१) तुच्छ या हीन काम करना
(२) व्यर्थ का प्रयत्न करना। (३) लापरवाही से काम करना। काटिबो घास :- निरर्थक प्रयत्न करना। उ. - तुम सौं ने प्रेमकथा को कहिबो, मनौ काटिबो घास - ३३३६। घास खाना :- मूर्खता का काम करना। घास छीलना :- तुच्छ या निरर्थक काम करना।
- मु.
- घासी
- चारा, तृण।
- संज्ञा
- [हिं. घास]
- घाह
- उँगलियों के बीच की संधि, गावा, घाई।
- संज्ञा
- [सं. गभस्ति = उँगली]
- घाहु
- जख्म, आघात, चोट।
- देखहु जाइ रूप कुबजा को सहिन सकत यहु घाहु - ३२२४।
- संज्ञा
- [हिं. घाव]
- घिअ
- घी, घृत।
- संज्ञा
- [हिं. घी]
- घिआँड़ा
- घी का पात्र।
- संज्ञा
- [हिं. घी + हंडा]
- घिआ
- एक बेल।
- संज्ञा
- [हिं. घिया]
- घिउ
- घी, घृत।
- संज्ञा
- [हिं. घी]
- घिग्घी
- रोते-रोते पड़नेवाली सुबकी या हिचकी।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घिग्घी
- डर के मारे मुँह से शब्द ननिकलना।
- संज्ञा
- [अनु.]
- गुरिद
- गदा या सोंटा।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुर्ज़]
- गुरिया
- माला आदि का दाना, मनका या गाँठ।
- संज्ञा
- [सं. गुटिका]
- गुरिया
- छोटा टुकड़ा।
- संज्ञा
- [सं. गुटिका]
- गुरीरा, गुरीला
- गुड़ की तरह मीठा।
- वि.
- [हिं. गुड़+ईला (प्रत्य.)]
- गुरीरा, गुरीला
- सुन्दर, बढ़िया।
- वि.
- [हिं. गुड़+ईला (प्रत्य.)]
- गुरु
- बड़ा, लम्बा-चौड़ा।
- वि.
- [सं.]
- गुरु
- भारी, वजनी।
- वि.
- [सं.]
- गुरु
- जो कठिनता से पके या पचे।
- वि.
- [सं.]
- गुरु
- देवताओं के प्राचार्य, बृहस्पति।
- संज्ञा
- गुरु
- बृहस्पति नायक ग्रह।
- लटकन लटकि रहे भ्रू् ऊपर रंग रंग मनिगन पोहे री। मानहु गुरु सनि - सुक्र एक ह्वै लाल भाल पर सोहै री - १० - १३९।
- संज्ञा
- घिघियाना
- करुण स्वर से | विनती करना, गिड़गिड़ाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घिग्घी]
- घिघियाना
- चिल्लाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घिग्घी]
- घिचपिच
- स्थान की कमी
- संज्ञा
- [सं. घृष्ट पिष्ट]
- घिचपिच
- कम जगह में बहुत सी चीजें होना।
- संज्ञा
- [सं. घृष्ट पिष्ट]
- घिन
- नफरत, घृणा, अरुचि।
- संज्ञा
- [सं. घृणा]
- घिन
जी मिचलाना।
- संज्ञा
- [सं. घृणा]
- घिनाना
- घृणा करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घिन]
- घिनाने
- घृणा करने लगे।
- क्रि. अ.
- [हिं. घिनाना]
- घिनावना
- जिसे देखकर घिन लगे, बुरा, गंदा, घिनौना।
- वि.
- [हिं. घिन + आवना (प्रत्य.)]
- घिनैहैं
- घृणा करेंगे, अरुचि दिखायँगे।
- जिन लोगनि सौं नेह करत है, तेई देखि घिनैहैं - १ - ८६।
- क्रि. अ.
- [हिं. घिनाना]
- घिरना
- चारो ओर छा जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. ग्रहण]
- घिरनी
- चरखी,
- संज्ञा
- [सं. घूर्णन]
- घिरनी
- चक्कर।
- संज्ञा
- [सं. घूर्णन]
- घिराई
- घेरने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घिराना
- रगड़ना, घिसना।
- क्रि. स.
- [अनु, घर्र]
- घिराना
- चारों ओर से रुकवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. घेरना]
- घिराव
- घेरना।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घिराव
- घेरा।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घिरावत
- चारो तरह से रुकवाते हैं, घिरवाते हैं।
- मैया हौं न चरैहौं गाइ। सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाइ पिराइँ - ५१०।
- क्रि. स.
- [हिं. घिराना]
- घिरावना
- इकट्ठी कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. घिराना]
- घिव
- घी, घृत।
- संज्ञा
- [हिं. घी]
- घिसकना
- सरकना, हटना।
- क्रि. अ.
- [हिं. खसकना]
- घिसघिस
- सुस्ती, शिथिलता।
- संज्ञा
- [हिं. घिसना]
- घिसघिस
- अनिश्चय, गड़बड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. घिसना]
- घिसटना
- रगड़ा जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घसिटना]
- घिसटाना
- रगड़ते हुए खीचना।
- क्रि. स.
- [हिं. घसीटना]
- घिसटायौ
- रगड़ते हुए घसीटा।
- केस गहे पुहुमी घिसिटायौ - २६२१।
- क्रि. स.
- [हिं. घिसटाना]
- घिसन
- रगड़।
- संज्ञाा
- [हिं. घिसना]
- घिसन
- काम होने से मशीन आदि की क्षीणता।
- संज्ञाा
- [हिं. घिसना]
- घिसना
- रगड़ना।
- क्रि. स.
- [सं. घर्षण, प्रा. घसण]
- घिरित
- घी।
- संज्ञा
- [सं. घृत]
- घिरिनपरेवा
- गिरहबाज कबूतर।
- संज्ञा
- [हिं. घिरनी + परेवा]
- घिरिनपरेवा
- एक पक्षी जो पानी के ऊपर मँडराता रहता है।
- संज्ञा
- [हिं. घिरनी + परेवा]
- घिरिया
- शिकारियों का घेरा।
- संज्ञा
- [हिं. घिरना]
- घिरौरा
- घूस या चूहे का बिल।
- संज्ञा
- [देश, ]
- घिर्राना
- घसीटना।
- क्रि. स.
- [अनु. घिरघिर]
- घिर्राना
- घिघियाना, गिड़गिडाना।
- क्रि. स.
- [अनु. घिरघिर]
- घिर्री
- एक घास।
- संज्ञा
- [देश.]
- घिर्री
- चरखी, गराड़ी।
- संज्ञा
- [देश.]
- घिर्री
- घेरा, चक्कर।
- संज्ञा
- [देश.]
- घिसना
- पीसना, मलना।
- क्रि. स.
- [सं. घर्षण, प्रा. घसण]
- घिसना
- रगड़ खाकर कम होना, छीजना।
- क्रि. अ.
- घिसपिस
- घिसघिस।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घिसपिस
- मेलजोल।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घिसवाना
- रगड़ाना।
- क्रि. स.
- [हिं. घिसाना]
- घिसाई
- घिसने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. घिसना]
- घिसाना
- रगड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. घिसना का प्रे.]
- घिसावन
- रगड़, घिसन।
- संज्ञा
- [हिं. घिसना]
- घिसि
- घिसकर, पीसकर।
- कुब्जा घिसि चंदन लै आई - सारा, ५०२।
- क्रि. स.
- [हिं. घिसना]
- घिसिआना, घिसियाना
- घसीटना।
- क्रि. स.
- [हिं. घिसना]
- घींचना
- खींचना।
- क्रि. स.
- [सं. कर्षण, हिं. खींचना]
- घी
- दूध का सार, घृत।
- संज्ञा
- [सं. घृत, प्रा. घीअ]
- घी
-
- घी का कुप्पा :- बड़ा धनी।
घी का कुप्पा लुढ़कना :- (१) धनी आदमी का मरना। (२) गहरी हानि होना। घी के कुप्पे से जा लगना :- (१) धनी से भेंट और लाभ होना। (२) मोटा होने लगना। घी के दिये जलना :- (१) कामना पूरी होना। (२) उत्सव होना। (३) धन धान्य से पूर्ण होना। घी के दिये जलाना :- (१) इच्छा पूर्ति पर उत्सव मनाना। (२) धन-धान्य से पूर्ण होना। घी के दिये भरना :- (१) उत्सव मनाना। (२) सुख-संपति भोगना। घी -खिचड़ी :- खूब मिला-जुला। घी खिचड़ी होना :- बहुत गहरी मित्रता होना। पाँचों उँगलियाँ घी में होना :- खूब लाभ का सुख होना।
- मु.
- घीउ, घीऊ
- घी, घृत।
- संज्ञा
- [हिं. घी]
- घीकुवाँर
- ग्वार पाठा।
- संज्ञा
- [सं. घृतकुमारी]
- घीया
- तुरई।
- संज्ञा
- [हिं. घी]
- घीया
- कद्दू।
- संज्ञा
- [हिं. घी]
- घीव
- घी।
- रोटी, बाटी, पोरी झोरी। इक कोरी, इक घीव नभोरी - ३९६।
- संज्ञा
- [हिं. घी]
- घीसा
- घिसने या रगड़ने की क्रिया, माँजा, रगड़।
- संज्ञा
- [हिं. घिसना]
- घुँगची, घुँघची
- गुंजा की लता।
- संज्ञा
- [सं. गुंजा, प्रा. गुंचा]
- घिसियाइ
- घसीटेगा, रगड़ेगा।
- तुमहिं कहत कोउ करै सहाइ। वह देवता कंस मारैगौ, केस धरे धरनी घिसिआइ - ५३१।
- क्रि. स.
- [हिं. घिसिआना]
- घिसिरपिसिर
- घिसघिस।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घिस्टपिस्ट
- गहरा मेलजोल, घनिष्टता।
- संज्ञा
- [हिं. घिस घिस]
- घिस्टपिस्ट
- अनुचित संबंध।
- संज्ञा
- [हिं. घिस घिस]
- घिस्समघिस्सा
- खूब भीड़भाड़।
- संज्ञा
- [हिं. घिसना]
- घिस्समघिस्सा
- हाथ से डोरी लड़ाने को खेल।
- संज्ञा
- [हिं. घिसना]
- घिस्सा
- रगड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. घिसना]
- घिस्सा
- धक्का, ठोकर।
- संज्ञा
- [हिं. घिसना]
- घिस्सा
- हाथ से डोरी लड़ाने का खेल।
- संज्ञा
- [हिं. घिसना]
- घींच
- गरदन, ग्रीव।
- (क) घींच मरोरि, दियौ कागासुर मेरें ढिग फटकारी - १० - ६०।
(ख) नाथत ब्याल बिलँब न कीन्हौ। पग सौं चाँपि घींच बल तोरयौ, नाक फोरि गहि लीन्हौ - ५५७।
- संज्ञा
- [सं. ग्रीव अथवा हिं. घींचना]
- घुँघरू
- बूट का कोष जिसमें चना दाना रहता है।
- संज्ञा
- [अनु. घुन घुन + सं. रव या रू]
- घुँघरू
- सनई का सूखा फल जिसके बीज बजते हैं।
- संज्ञा
- [अनु. घुन घुन + सं. रव या रू]
- घुँघरूदार
- जिसमें घुँघरू लगे या बंधे हों, घुँघुरुओं से युक्त।
- वि.
- [हिं. घुँघरू + फ़ा. दार]
- घुँघवारा, घुघवारे
- छल्लेदार।
- वि.
- [हिं.घुँघराला]
- घुंडी
- कपड़े की सिली हुई छोटी गोली जो बटन की जगह लगायी जाती है।
- संज्ञा
- [सं, ग्रंथि]
- घुंडी
-
- जी की घुंडी खोलना :- मन से बैर द्वेष निकालना।
- मु.
- घुंडी
- कड़े, बाजु, जोशन आदि गहनों की गाँठ।
- संज्ञा
- [सं, ग्रंथि]
- घुंडी
- कटने पर धान की जड़ से फूटनेवाला नया अंकुर, दोहला।
- संज्ञा
- [सं, ग्रंथि]
- घुंडीदार
- घुंडीवाला।
- वि.
- [हिं. घुंडी+फ़ा. दार]
- घुग्घू. घुघुआ
- उल्लू।
- संज्ञा
- [सं. घूक, हिं. घुग्घू]
- घुँगची, घुँघची
- इस लता को लाल बीज जिस पर एक छोटा काला छींटा रहता है।
- संज्ञा
- [सं. गुंजा, प्रा. गुंचा]
- घुँघनी
- घी-तेल में तला हुआ अन्न।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घुँघनी
-
- घुँघनी मुँह में रखकर बैठना :- मौन रहना।
- मु.
- घुँवरारे, घुँघराला, घुँघराले
- छल्ले या लच्छेदार (बाल)।
- मृगमद मलय अलक घुँघरारे। उन मोहन मन हेरे हमारे।
- वि.
- [हिं. घुँघरना+वाले]
- घुँघरू
- धातु की पोली गुरिया जिसमें कंकड़ आदि भरकर बजाते हैं।
- संज्ञा
- [अनु. घुन घुन + सं. रव या रू]
- घुँघरू
-
- घुँघरू सा लदना :- शरीर में बहुत अधिक चेचक के दाने, छाले या फुंसियाँ होना।
- मु.
- घुँघरू
- छोटी छोटी गुरियों का बना पैर का गहना जो बच्चों को पहनाया जाता है या नाचनेवाले पहनते हैं।
- प्रेम सहित पग बाँधि घूँघरू सक्यौ न अंग नचाइ - १५५।
- संज्ञा
- [अनु. घुन घुन + सं. रव या रू]
- घुँघरू
-
- घुँघरु बाँधना :- (१) नाचना सिखाने के लिए चेला बनाना।
(२) नाचने को तैयार होना।
- मु.
- घुँघरू
- मरते समय कफ की अधिकता के कारण निकलनेवाला घुरघुर शब्द।
- संज्ञा
- [अनु. घुन घुन + सं. रव या रू]
- घुँघरू
-
- घुँघरू बोलना :- मरते समय कफ के कारण घुरघुर शब्द निकलना, घर्रा या घटका लगना।
- मु.
- घुघुआना, घुघुवाना
- उल्लू का, या उल्लू की तरह, बोलना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुघुआ]
- घुघुआना, घुघुवाना
- बिल्ली का, या बिल्ली की तरह, गुर्राना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुघुआ]
- घुघरी, घुघुरी
- घुँघरू।
- संज्ञा
- [हिं. घुँघरू]
- घुघरी, घुघुरी
- घी-तेल में तला अन्न।
- संज्ञा
- [हिं. घु्घुनी]
- घुटकना
- पीना।
- क्रि. स.
- [हिं. घूँट+करना]
- घुटकना
- निगलना।
- क्रि. स.
- [हिं. घूँट+करना]
- घुटकी
- घुटकने की नली।
- संज्ञा
- [हिं. घुटकना]
- घुटना
- जाँध और टाँग के बीच की गाँठ, संधि या जोड़।
- संज्ञा
- [सं. घुंटक]
- घुटना
-
- घुटना टेकना :- (१) घुटनों के बल बैठना।
(२) नम्र होना, प्रार्थना करना। घुटनों (के बल) चलना :- बच्चों का बैंयाँ बैयाँ चलना। घुटनों में सिर देना :- (१) सिर नीचा करना, चिंतित या उदास होना। (२) मुँह छिपाना, लज्जित होना। घुटनों से लगकर बैठना :- हर समय पास रहना।
- मु.
- घुटना
- साँस का रुकना, फँसना या खुल कर न लिया जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घूँटना या घोरना]
- गुरुच
- एक बेल।
- संज्ञा
- [सं. गुंडुची]
- गुरुज
- गदा, सोंटा।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुर्ज]
- गुरुज
- किले की बुर्जी, गरगज।
- संज्ञा
- [अ. बुर्ज]
- गुरुज
- मीनार या अन्य इमारत का ऊपरी भाग।
- संज्ञा
- [अ. बुर्ज]
- गुरुजन
- विद्या, बुद्धि, वय, पद आदि में बड़े, पूज्य व्यक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुरुता, गुरुताई
- भारीपन।
- संज्ञा
- [सं. गुरुता]
- गुरुता, गुरुताई
- बड़प्पन।
- संज्ञा
- [सं. गुरुता]
- गुरुता, गुरुताई
- गुरु या आचार्य का कर्तव्य।
- संज्ञा
- [सं. गुरुता]
- गुरुत्व
- भारीपन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुरुत्व
- बड़प्पन।
- संज्ञा
- [सं.]
- घुटरुनि, घुटरुवनि
- घुटनों के बल।
- (क) घुटरुनि चलत अजिर महँ बिहरत मुख मंडित नवनीत - १० - ९७।
(ख) घुटरुन चलत कनक आँगन में - सारा. १६६।
- क्रि. वि.
- [हिं. घुटना]
- घुटरूँ
- पैर के बीच की गाँठ या जोड़, घुटना।
- संज्ञा
- [हिं. घुटना]
- घुटवाना
- घोट्ने। या रगड़ने का काम करना।
- क्रि. स.
- [हिं. घोटना का प्रे.]
- घुटवाना
- बाल मुँड़ाना
- क्रि. स.
- [हिं. घोटना का प्रे.]
- घुटाई
- घोटने, रगडने, चिकना या चमकीला बनाने की क्रिया या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हि.घुटना]
- घुटाना
- घोंटने या रगड़ने का काम करना।
- क्रि. स.
- [हिं. घोटना का प्रे]
- घुटाना
- बाल मुड़ाना।
- क्रि. स.
- [हिं. घोटना का प्रे]
- घुटुरुनि, घुटुरुअनि, घुटुरुवनि
- घुटनों के बल।
- (क) कबहिं घुटुरुवनि, चलहिंगे, कहि, बिधिहिं मनावै - १० - ७४।
(ख) कब मेरौ लाल घुटुरुवनि रेंगै, कब धरनी पग द्वै क धरै - १०.७६। (ग) घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित सूरदास बलि जाई - १० - १०८।
- क्रि. वि.
- [सं. घुंटक, हिं. घुटना]
- घुटुरू, घुटुवा
- घुटना।
- संज्ञा
- [हिं. घुटना]
- घुट्टा
- घोटने की वस्तु।
- संज्ञा
- [हिं. घोटा]
- घुट्टी
- बच्चों की एक दबा।
- संज्ञा
- [हिं. घूँट]
- घुट्टी
-
- घुट्टी में पड़ना :- स्वभाव का अंग होना।
- मु.
- घुड़कना
- डाँटना, डपटना।
- क्रि. स.
- [सं. घुर]
- घुड़की
- डाँट, डपट, फटकार।
- संज्ञा
- [हिं. घुड़कना]
- घुड़की
- घुड़कने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. घुड़कना]
- घुइकी
- बंदर घुड़की-झूठमूठ डराना, धमकाना।
- या
- घुड़चढ़ा
- घुड़सवार।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा + चढ़ना]
- घुड़चढ़ी
- विवाह की एक रीति जिसमें दुलहिन के घर जाने के लिए दूल्हा | घोड़े पर चढ़ता है।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़.+चढ़ना]
- घुड़दौड़, घुड़दौर
- घोड़ों की दौड़।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा + दौड़]
- घुड़दौड़, घुड़दौर
- जुआ। जो घोड़ों के दौड़ने पर खेला जाता है।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा + दौड़]
- घुटना
-
- घुटघुट कर मरना :- (१) बड़ी कठिनता से प्राण निकलना।
(२) बहुत कष्ट सहकर जीवन बिताना। (३) कष्ट सहने को इस प्रकार विवश या अधीन होना कि उसका विरोध करना तो दूर, चर्चा तक न कर सकना।
- मु.
- घुटना
- फँसना, उलझ कर खड़ा हो जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घूँटना या घोरना]
- घुटना
- पीसा जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घोटना]
- घुटना
-
- घुटा हुआ :- बहुत चालाक, काँइयाँ, छँटा हुआ।
- मु.
- घुटना
- रगड़ से चिकना-चमकीला होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घूँटना या घोरना]
- घुटना
- मेल जोल या घनिष्टता होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घूँटना या घोरना]
- घुटना
- घुसघुस कर बातें होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घूँटना या घोरना]
- घुटना
- (कार्य या अभ्यास) बार बार होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घूँटना या घोरना]
- घुटना
- जोर से पकड़ना या कसना।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- घुटन्ना
- पायजामा।
- संज्ञा
- [हिं. घुटना]
- घुड़दौड़, घुड़दौर
- बड़ी तेजी या शीघ्रता से।
- क्रि. वि.
- घुड़नाल
- एक तोप।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा + नाल]
- घुड़बहल
- वह रथ जिसमें घोड़े जोते जाते हों।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा + बहल]
- घुड़मुहाँ
- लंबे मुँहवाला।
- वि.
- [हिं. घोड़ा+मुँह]
- घड़ला
- मिट्टी धातु आदि का घोड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा + ला (प्रत्य.)]
- घड़ला
- छोटा घोड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा + ला (प्रत्य.)]
- घुड़सार, घुड़साल
- घोड़े बाँधने का स्थान, अस्तबल, पैड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा + शाला]
- घुड़िया
- छोटी घोड़ी।
- संज्ञा
- [हि. घोड़ी (अल्प.)]
- घुड़िया
- दीवाल में लगी खूँटी।
- संज्ञा
- [हि. घोड़ी (अल्प.)]
- घुण
- एक बहुत छोटा कीड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घुन्ना
- क्रोध, द्वेष आदि को मन ही मन रखने या पालनेवाला, चुप्पा।
- वि.
- [अनु. घुनघुनाना]
- घुन्नी
- मन का भाव छिपाने में कुशल, चुप्पी, मौन।
- वि.
- [हिं. घुन्ना]
- घुप
- गहरा या घना (अँधेरा)।
- वि.
- [सं. कूप या अनु.]
- घुमँड़ना
- इकट्ठा होना, छाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुमड़ना]
- घुमक्कड़
- बहुत घूमने-फिरनेवाला।
- वि.
- [हिं. घूमना + अकड़ (प्रत्य)]
- घुमक्कड़
- आवारा।
- वि.
- [हिं. घूमना + अकड़ (प्रत्य)]
- घुमची
- गुंजा, गुंजिका।
- संज्ञा
- [हिं. घुँघची]
- घुमटा
- चक्कर।
- संज्ञा
- [हिं. घूमना + टा (प्रत्य.)]
- घुमड़
- बादलों का उमड़ना।
- संज्ञा
- [हिं. घुमड़ना]
- घुमड़ना
- बादलों का छाना या उमढ़ना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घूम + अटना]
- घुणाक्षरन्याय
- ऐसा कार्य या रचना जो अनजान या आकस्मिक रूप से हो जाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- घुन
- एक छोटा कीड़ा।
- संज्ञा
- [सं. घुण]
- घुन
-
- घुन लगना :- (१) इस कीड़े की लकड़ी या अनाज को खाना।
(२) धीरे धीरे किसी चीज का छीजना या नष्ट होना।
- मु.
- घुनघुना
- एक खिलौना, झुनझुना।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घुनना
- घुन के द्वारा लकड़ी आदि का खाया जाना।
ना।
- क्रि. स.
- [हिं. घुन]
- घुनना
- किसी चीज का भीतर ही भीतर छीजना या नष्ट होना।
- क्रि. स.
- [हिं. घुन]
- घुना
- घुना हुआ, छीज हुआ।
- वि.
- [हिं. घुनना]
- घुना
- घुन गया, नष्ट हो गया।
- क्रि. स.
- घुनि
- घुन लग गया, घुन गया।
- स्याम के बचन सुनि, मनहिं मन रहयो गुनि, काठ ज्यौं गयौ घुनि, तनु भुलानौ - ५९०।
- क्रि. स.
- [हिं. घुनना]
- घुनो
- घुना हुआ, छीजा हुआ।
- घुनो बाँस गत बु न्यौ खटोला काहू को पलँग कनक पाटी को - १० उ. - ७१।
- वि.
- [हि. घुना]
- घुमड़ना
- इकट्ठा होना, छाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घूम + अटना]
- घुमड़ाना
- छाना, उमड़ना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुमड़ना]
- घुमड़ाना
- छाया हुआ, उमडते हुए।
- वि.
- घुमड़ा
- घूमने या चक्कर खाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. घूमना]
- घुमड़ा
- सिर का चक्कर।
- संज्ञा
- [हिं. घूमना]
- घुमड़ा
- चक्कर आने का रोग।
- संज्ञा
- [हिं. घूमना]
- घुमड़ा
- परिक्रमा।
- संज्ञा
- [हिं. घूमना]
- घुमना
- घूमनेवाला, घुमक्कड़।
- वि.
- [हिं. घूमना]
- घुमनी
- घूमने-फिरनेवाली।
- वि.
- [हिं. घुमना]
- घुमनी
- चक्कर।
- संज्ञा
- [हिं. घूमना]
- घुमरी
- चक्कर आने की बीमारी
- संज्ञा
- [हिं. घुमड़ा]
- घुमरयौ
- घुमरने लगा।
- पटकि चरन नृप स्रवनन घुमरयौ - २६४३।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुमरना]
- घुमाँ
- जमीन की एक नाप जो दो बीघों के बराबर होती है।
- संज्ञा
- [हिं. घूमना]
- घुमाना
- चक्कर देना, चारो ओर फिराना।
- क्रि. स.
- [हिं. घूमना]
- घुमाना
- टहलाना सैर कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. घूमना]
- घुमाना
- किसी विषय या काम में लगाना
- क्रि. स.
- [हिं. घूमना]
- घुमाना
- चक्कर देना, चारो ओर फिराना।
- क्रि. स.
- [हिं. घूमना]
- घुमाना
- टहलाना सैर कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. घूमना]
- घुमाना
- किसी विषय या काम में लगाना
- क्रि. स.
- [हिं. घूमना]
- घुमाना
- ऐंठना, मरोड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. घूमना]
- घुमनी
- चक्कर आने का रोग।
- संज्ञा
- [हिं. घूमना]
- घुमनी
- परिक्रमा।
- संज्ञा
- [हिं. घूमना]
- घुमरना
- घोर शब्द करना।
- क्रि. अ.
- [अनु. घमघम]
- घुमरना
- बादलों का छाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुमड़ना]
- घुमरना
- घूमना-फिरना।
- क्रि. अ.
- [हि. घूमना]
- घुमरात
- घुमरता हुआ।
- गरजि घुमरात मद मार गंडनि स्रवत पवन ते बेग | तेहि समय चीन्हो - २५९१।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुमरना]
- घुमराना
- शब्द करना, गूँजना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुमरना]
- घुमरि
- घोर शब्द करके, ऊँचे स्वर से बजकर, गूँजकर।
- सूर धन्य जदुबंस उजागर धन्य धन्य धुनि घुमरि रह्यौ–२६१६।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुमरना]
- घुमरी
- चक्कर।
- संज्ञा
- [हिं. घुमड़ा]
- घुमरी
- (पानी का) भँवर।
- संज्ञा
- [हिं. घुमड़ा]
- घुरमित
- घूमता हुआ।
- वि.
- [सं. घूर्णित]
- घुरहुरी
- पगडंडी।
- संज्ञा
- [हिं. घुर + हर (प्रत्य.)]
- घुरि
- घुलकर, हिलमिलकर।
- फेनी घुरि मिसि मिली दूध संग - २३२१।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुलना]
- घुरि
- शब्द करके, बजकर।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुरना]
- घुरुहरी
- तंग रास्ता, पगडंडी।
- संज्ञा
- [हिं. घुरहुरी]
- घुरे
- कूड़े-करकट का ढेर, घूरा।
- फलन माँझ ज्यों करुई तोमरि रहत घुरे पर डारी - २९३५।
- संज्ञा
- [हिं. घूरा]
- घुरे
- बजने या शब्द करने लगे।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुरन]
- घुर्मित
- घूमता फिरता हुआ चक्कर खाता हुआ।
- क्रि. वि.
- [सं. घूर्णित]
- घुर्राना
- घुरघुर शब्द करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. गुर्राना]
- घुर्रुवा
- जानवरों का एक रोग।
- संज्ञा
- [देश.]
- गुरु
- पुष्प नक्षत्र।
- संज्ञा
- गुरु
- कुलगुरू, कुलाचार्य।
- संज्ञा
- गुरु
- किसी मन्त्र का उपदेष्टा।
- संज्ञा
- गुरु
- शिक्षक, उस्ताद।
- संज्ञा
- गुरु
- दीर्घ मात्रावाला अक्षर।
- संज्ञा
- गुरु
- वह व्यक्ति जो विद्या, वय, पद आदि में बड़ा हो।
- सूरज दोष देत गोबिंद कौं गुरु तोगनि न लजात - १० - २९४।
- संज्ञा
- गुरु
- ब्रह्मा।
- संज्ञा
- गुरु
- विष्णु।
- संज्ञा
- गुरु
- शिव।
- संज्ञा
- गुरु
- कुमंत्रणा देनेवाला व्यक्ति, गुरु घंटाल (व्यंग्य)।
- एक हरि चतुर हुते पहिले ही अब बहुतै उन गुरु सिखई - ३३०४।
- संज्ञा
- घुमाव
- घुमाने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. घुमाना]
- घुमाव
- फेर, चक्कर।
- संज्ञा
- [हिं. घुमाना]
- घुमाव
-
- घुमाव-फिराव की बात :- छल कपट, हेर फेर या दाँव-पेंच की बात या चाल।
- मु.
- घुमावदार
- जिसमें घुमव-फिराव या चक्कर हों, चक्करदार।
- वि.
- [हिं. घुमाव+फ़ा. दार]
- घुम्मरना
- शब्द करना, बजना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुमरना]
- घुम्मरना
- उमड़ना, छाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुमरना]
- घुम्मरना
- घूमना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुमरना]
- घुरकना
- घुड़की देना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुड़कना]
- घुरकी
- घुड़की, डाँटडपट।
- लोचन भरि भरि दोऊ माता, कनछेदन देखत जिय मुरकी। रोवत देखि जननि अकुलानी, दियौ तुरत नौवा कै घुरकी - १० - १८०।
- संज्ञा
- [हिं. घुड़कन, घुड़की]
- घुरघुर
- कफ रुकने के कारण होनेवाली शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घुरघुर
- (बिल्ली आदि के) गुर्राने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- घुरघुराना
- घुरघुर करना।
- क्रि. अ.
- [अनु. घुरघुर]
- घुरघुराहट
- घुरघुर शब्द निकालने का भाव, घुर्राहट।
- संज्ञा
- [हिं. घुरघुराना]
- घुरत
- बजता है, शब्द करता है।
- अवधपुर आए दसरथ राई।…..। घुरत निसान, मृदंग - सुख धुनि, भेरि झाँझ सहनाइ - ९ - २९।
- क्रि. अ.
- [सं. घुर]
- घुरना
- हिलमिल जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घुलना]
- घुरना
- शब्द करना, गूँजना।
- क्रि. अ.
- [सं. घुर]
- घुरबिनिया
- घूरे के दाने बीनना।
- संज्ञा
- [हिं. घूरा + बीनना]
- घुरबिनिया
- टूटी-फूटी चीजें बीनना।
- संज्ञा
- [हिं. घूरा + बीनना]
- घुरबिनिया
- घूरे से दाने बीननेवाला।
- वि.
- घुरमना
- फिरना, चकराना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घूमना]
- घुलना
- किसी द्रव पदार्थ का खूब हिल-मिल जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. घूर्णन, प्रा. घुलन]
- घुलना
-
- घुलघुल कर बातें करना :- बड़ी लगन या प्रीति से बातें करना।
घुलमिलकर :- बड़ी लगन या प्रीति से। नजर (आँखें) घुलना :- प्रेमपूर्वक देखना।
- मु.
- घुलना
- जल, दूध आदि के संयोग से गलना।
- क्रि. अ.
- [सं. घूर्णन, प्रा. घुलन]
- घुलना
- नरम या पिलापिला होना।
- क्रि. अ.
- [सं. घूर्णन, प्रा. घुलन]
- घुलना
- रोग आदि से शरीर क्षीण या दुर्बल होना।
- क्रि. अ.
- [सं. घूर्णन, प्रा. घुलन]
- घुलना
-
- घुला हुआ :- जिसकी शक्तियाँ क्षीण हो गयी हैं, बुड्ढा।
घुलघुल कर काँटा होना :- इतना दुर्बल होना कि हड्डियाँ दिखायी दें।
- मु.
- घुलना
- (समय) बीतना या व्यतीत होना।
- क्रि. अ.
- [सं. घूर्णन, प्रा. घुलन]
- घुलाना
- गलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. घुलना]
- घुलाना
- शरीर क्षीण करना।
- क्रि. स.
- [हिं. घुलना]
- घुलाना
- धीरे धीरे रस चूसना।
- क्रि. स.
- [हिं. घुलना]
- घुलाना
- पकाकर या दबाकर पिलपिला करना।
- क्रि. स.
- [हिं. घुलना]
- घुलाना
- समय बिताना।
- क्रि. स.
- [हिं. घुलना]
- घुलाना
- घुलने की क्रिया।
- क्रि. स.
- [हिं. घुलना]
- घुलावट
- घुलने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. घुलना]
- घुसना
- अंदर जाना, प्रवेश करना।
- क्रि. अ.
- [सं. कुश = घेखा अथवा घर्षण]
- घुसना
- चुभना, गड़ना।
- क्रि. अ.
- [सं. कुश = घेखा अथवा घर्षण]
- घुसना
- किसी काम में दखल देना।
- क्रि. अ.
- [सं. कुश = घेखा अथवा घर्षण]
- घुसना
- किसी विषय में ध्यान लगाना।
- क्रि. अ.
- [सं. कुश = घेखा अथवा घर्षण]
- घुसना
- दूर होना, जाती रहना।
- क्रि. अ.
- [सं. कुश = घेखा अथवा घर्षण]
- घुसपैठ
- पहुँच।
- संज्ञा
- [हिं. घुसना + पैठना]
- घुसाना
- भीतर करना, प्रवेश करना
- क्रि. स.
- [हिं. घुसना]
- घुसाना
- चुभाना, धँसाना।
- क्रि. स.
- [हिं. घुसना]
- घुसेड़ना
- घुसाना, धँसाना।
- क्रि. स.
- [हिं. घुसना]
- घूँगची
- गुंजा।
- संज्ञा
- [हिं. घुँघची]
- घूँघट
- साड़ी जैसे वस्त्र का वह भाग जिससे कुलवधू का मुँह ढँका रहता है।
- (क) घूँघट पट कोट टूटे, छुटे दृग ताँजी - ६५०।
(ख) घूघट ओट महल में राखति पलक कपाट दिये - पृ. ३२६।
- संज्ञा
- [सं. गंठ]
- घूँघट
-
- घूँघट उठाना (उलटना) :- (१) घुँघट हटाकर मुँह खोलना।
(२) परदा दूर करना। (३) नयी वधू का मुँह खोलना। घूँघट करना :- लाज-शर्म करना। घूँघट काढ़ना (निकालना, मारना) :- घूँघट डाल कर मुँह ढकना। दै घूँघट पट :- घूँघट काढ़कर, मुँह ढककर। उ. - दै घूँघट पट ओट नील, हँसि, कुँवर मुदित मुख हेरे - ६३२।
- मु.
- घूँघट
- परदे की दीवार, ओट।
- संज्ञा
- [सं. गंठ]
- घूँट
- पानी आदि द्रवों का उतना अंश जितना एक बार में घूँटा जाय।
- संज्ञा
- [अनु. घुटघुट]
- घूँटना
- घूँट भरना, पीना।
- क्रि. स.
- [हिं. घूँट]
- घूँटा
- घुटना।
- संज्ञा
- [सं, घुंटक, हिं. घुटना]
- घूमना
- मुड़ जाना।
- क्रि. स.
- [सं. धूर्णन]
- घूमना
- लौटना, वापस आना।
- क्रि. स.
- [सं. धूर्णन]
- घूमना
- मतवाला होना।
- क्रि. स.
- [सं. धूर्णन]
- घूमनी
- सिर का चक्कर, घुमटा।
- संज्ञा
- [हिं. घूमना]
- घूमि
- चक्कर खाकर।
- घूमि रहीं जित तित दधि - मथनी, सुनत मेघ - धुनि लाजै री - १० - १३९।
- क्रि. अ.
- [हि. घूमना]
- घूमै
- चारो ओर फिरती है, चक्कर खाती है।
- (एरी) आनँद सौं दधि मथति जसोदा, धमकि मथनियाँ घूमै - १० - १४०।
- क्रि. अ.
- [हिं. घूमना]
- घूर
- कूड़ा फेकने का स्थान।
- (क) पग तर जरत न जानै मूरख, घर तजि घूर बुझावै - २ - १३।
(ख) अपनो घर परिहरै कहौ को घूर बतावै…..। (ग) ऊधौ घर लागै अब घूर कहौ मन कहा धावै - ३४४३।
- संज्ञा
- [सं. कूट, हिं. कुरा, कूड़ा, घूरा]
- घूर
- कूड़े का ढेर।
- संज्ञा
- [सं. कूट, हिं. कुरा, कूड़ा, घूरा]
- घूर
- गंदा स्थान।
- संज्ञा
- [सं. कूट, हिं. कुरा, कूड़ा, घूरा]
- घूरना
- बुरे भाव या बुरी | नियत से ताकना।
- क्रि. अ.
- [सं. घूर्णन]
- घूँसा
- मुक्के का प्रहार।
- संज्ञा
- [हिं. घिस्सा]
- घूआ
- काँस आदि के फूल।
- संज्ञा
- [देश.]
- घूघ
- सिपाहियों की लोहे-पीतल की टोपी।
- संज्ञा
- [हिं. घोघो या फ़ा. खोद]
- घूटना
- साँस रोकना।
- क्रि. स.
- [हिं. घुटना]
- घूम
- घुमाव।
- संज्ञा
- [हिं. घूमना]
- घूम
- मोड़।
- संज्ञा
- [हिं. घूमना]
- घूमना
- घूमना, चक्कर खाना।
- क्रि. स.
- [सं. धूर्णन]
- घूमना
- टहलना, सैर करना।
- क्रि. स.
- [सं. धूर्णन]
- घूमना
- यात्रा करना।
- क्रि. स.
- [सं. धूर्णन]
- घूमना
- घेरे में मँडराना, कावा काटना।
- क्रि. स.
- [सं. धूर्णन]
- घूँटी
- बच्चों की एक औषध।
- संज्ञा
- [हिं. घूँट]
- घूँघर
- बालों का छल्ला।
- संज्ञा
- [हिं. घुमरना]
- घूँघवारी
- छल्लेदार, झबरीले।
- लघु - लघु लट सिर घूँ घरवारी, लटकन | लटकि रह्यो माथे पर - १० - ९३।
- वि.
- [हिं. घूँ घर]
- घूँघरवारे, घूँघरवाले
- छल्लेदार।
- (क) गभुआरे सिर केस हैं बर घूँघरवारे. - १० - १३४।
(ख) अरुझि रहे मुकताइल निरवारत सोहत घूँघरवारे बाल - पृ. ३१५।
- वि.
- [हिं. घूँघर]
- घूँघरा
- एक तरह का बाजा।
- संज्ञा
- [देश.]
- घूँघरी
- नूपुर, घुँघरू।
- संज्ञा
- [अनु. घुन+घुर]
- घूँघरू
- नुपूर, नेउर।
- संज्ञा
- [हिं. घुँघरू]
- घूंटैं
- पीता है।
- लाख जतन करि देखौ, तैसें बार बार बिष घूँटै - १ - ६३।
- क्रि. स.
- [हिं. घूँटना]
- घूंटैं
- साँस रोकने से, साँस दबाने से।
- कहा पुरान जु पढ़ै अठारह, ऊर्ध्व धूम के घूँटै - २०१९।
- क्रि. स.
- [हिं. घुटना]
- घूँसा
- बँधी हुई मुट्ठी, मुक्का, धमाका।
- संज्ञा
- [हिं. घिस्सा]
- घेपना
- (किसी गाढी चीज को) हाथ या उँगली से मिलाना।
- क्रि. स.
- [हिं घोपना]
- घेपना
- खुरचना।
- क्रि. स.
- [हिं घोपना]
- घेर
- घेरा, परिधि।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घेर
- निंदामय चर्चा, बदनामी।
- घर घर इहै घेर (घैर) बृथा मोसों करै बैर यह सुनि स्रवननि हृदय सहि दहिये - १२७३।
- संज्ञा
- [हिं. घैर]
- घेरघार
- घेरने या छाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घेरघार
- चारो ओर का फैलाव, विस्तार।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घेरघार
- बार-बार प्रार्थना या सिफारिश लेकर जाना।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घेरत
- चोर ओर से रोकते हैं, इधर-उधर नहीं जाने देते।
- मैया री मोहिं दाऊ टेरैत। मोकौं बन - फल तोरि देत हैं, आपुन गैयनि घेरत–४२४।
- क्रि. स.
- [हिं. घेरना]
- घेरन
- घेरने, रोकने या छाने की क्रिया, युक्ति या रीति।
- (क)कहत न बनै काँध कामरि छबि बन गैयन की घेरन - ३२७७।
(ख) कोउ गए ग्वाल गाइ बन घेरन कोउ गए बछरु लिवाइ - ५००।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घेरना
- चारो ओर छाना।
- क्रि. स.
- [सं. ग्रहण]
- घूरना
- क्रोध से देखना।
- क्रि. अ.
- [सं. घूर्णन]
- घूरना
- घूमना, टहलना।
- क्रि. अ.
- [सं. घूर्णन]
- घूरा
- कूड़े का ढेर।
- संज्ञा
- [हिं. घूर=कूड़ा]
- घूरा
- वह स्थान जहाँ कूड़ा फेका जाय।
- संज्ञा
- [हिं. घूर=कूड़ा]
- घूरा
- गंदा स्थान।
- संज्ञा
- [हिं. घूर=कूड़ा]
- घूराघारी
- घूरने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. घूरना]
- घूस
- एक बड़ा चूहा।
- संज्ञा
- [सं. गुहाशय]
- घूस
- रिश्वत।
- संज्ञा
- [सं. गुह्य + आशय]
- घृणा
- घिन, नफरत।
- संज्ञा
- [सं.]
- घृणा
- बीभत्स रस का स्थायी भाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुरु असुर
- दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य।
- नील सेत अरु पीत लाल मनि लटकन भाल रुलाई। सनि गुरु - असुर देवगुरु मिलि मनुभौम सहित समुदायी - १० - १०८।
- संज्ञा
- [सं. असुर + गुरु]
- गुरु आईन
- गुरु की स्त्री।
- संज्ञा
- [सं. गुरु+हिं. आइन (प्रत्य.)]
- गुरु आईन
- अध्यापिका।
- संज्ञा
- [सं. गुरु+हिं. आइन (प्रत्य.)]
- गुरुआई
- गुरु का धर्म।
- संज्ञा
- [सं. गुरु+हिं. आई (प्रत्य.)]
- गुरुआई
- गुरु का काम।
- संज्ञा
- [सं. गुरु+हिं. आई (प्रत्य.)]
- गुरुआई
- चालाकी, धूर्तता।
- संज्ञा
- [सं. गुरु+हिं. आई (प्रत्य.)]
- गुरुआनी
- गुरु की स्त्री।
- संज्ञा
- [सं. गुरु + आनी (प्रत्य.)]
- गुरुआनी
- अध्यापिका।
- संज्ञा
- [सं. गुरु + आनी (प्रत्य.)]
- गुरुकुल
- आचार्य का निवास स्थान जहाँ। रहकर ही विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करें।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुरुन
- गुरु का वध करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- घृणित
- घृणा के योग्य।
- वि.
- [सं.]
- घृणित
- जिसे देख या सुनकर मन में घृणा पैदा हो।
- वि.
- [सं.]
- घृत
- घी।
- संज्ञा
- [सं.]
- घृतकुमारी
- घीकुवार।
- संज्ञा
- [सं.]
- घृतपूर
- घेवर नामक पकवान।
- संज्ञा
- [सं.]
- घृतँसार
- सार-रूप घृत।
- है हरि नाम कौ आधार।….। सकल स्रुति - दधि मथत पायौ, इतोई, घृत - सार - २ - ४।
- संज्ञा
- [सं.]
- घृताची
- एक अप्सरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घृताची
- यज्ञ में घी डालने की करछुली, श्रुवा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घेंट
- गला, गरदन।
- संज्ञा
- [हिं. घाँटी]
- घेघा
- गले की नली।
- संज्ञा
- [देश.]
- घेरना
- (पशु) चराना।
- क्रि. स.
- [सं. ग्रहण]
- घेरना
- किसी स्थान पर अधिकार जमाये रखना।
- क्रि. स.
- [सं. ग्रहण]
- घेरना
- आक्रमण के लिए चारो ओर फैलना।
- क्रि. स.
- [सं. ग्रहण]
- घेरना
- किसी के पास प्रार्थना या स्वार्थ से जाना।
- क्रि. स.
- [सं. ग्रहण]
- घेरनो
- चारों ओर से घेरने या रोकने की क्रिया।
- गैयाँ गई बगराइ सघन बृंदावन बंसीबट जमुना तट घेरनो - २२८०।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घेरहिं
- आक्रमण करने या अधिकार जमाने के लिए चारो ओर से घेर लें।
- सब दल होहु हुसियार चलहु मठ घेरहिं जाई - १० उ.८।
- क्रि. स.
- [हिं. घेरना]
- घेरा
- चारो ओर की सीमा या फैलाव, परिधि।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घेरा
- सीमा या परिधि का जोड़ या मान।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घेरा
- दीवार आदि जो किसी स्थान को घेरे हो।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घेरा
- घिरा हुआ स्थाम, हाता।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घेरा
- सेना को आक्रमण।
- संज्ञा
- [हिं. घेरना]
- घेरा
- निंदामय चर्चा, बदनामी।
- (क) सकुचति हौं घर घर घेरा को नेक लाज नहिं तेरे - १०३९।
(ख) घेरा यहै चलावत घर घर सवन सुनत जिय खुनसों - १२२१। (ग) सुनि न जात घरघर को घेरा काहू मुख न समाऊँ - १२२२।
- संज्ञा
- [हिं. घैर]
- घेराई
- घेरने की क्रिया या भाव।
- संज्ञा
- [हिं. घिराई]
- घेराई
- पशु चराने की क्रिया या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. घिराई]
- घेराव
- घेरने या घिरने की क्रिया या भाव।
- संज्ञा
- [हिं. घिराव]
- घेराव
- घेरा, मंडल।
- संज्ञा
- [हिं. घिराव]
- घेरि, घेरी
- चारो ओर से उमड़ कर, छा कर।
- (क) अति भयभीत निरखि भवसागर, घन ज्यों घेरि रहयौ घट घरहरि - १. ३१२।
(ख) माधव मेघ घेरि कितौं आए - ९५८।
- क्रि. स.
- [हिं.घेरना]
- घेरि, घेरी
- चारो ओर से रोक या छेंक कर।
- (क) गैयन घेरि सखा सब लाए।
(ख) ग्वाल - बाल संग लिए थेरि रहै डगरौ - १० - ३३६।
- क्रि. स.
- [हिं.घेरना]
- घेरि, घेरी
- रोककर, पकड़ कर।
- तुम तें दूरि होत नहिं कतहूँ तुम राखौ मोहिं घेरी - ११९३।
- क्रि. स.
- [हिं.घेरना]
- घेरि, घेरी
- दुर्ग पर अधिकार करने के लिए आक्रमण करने या चारो ओर से छेंक कर।
- (क) लखन दल संग लै लंक घेरी - ९:१३९।
(ग) भीषम भवन रहत ज्यों लुब्धक असुर सैन्य मिलि घेरी - १० उ. - १२।
- क्रि. स.
- [हिं.घेरना]
- घेरे
- घेरने से रोकने से।
- घेरे घिरतिं न तुम बिनु माधौ, मिलतिं न बेगि दई - ६१२
- क्रि. स.
- [हिं. घेरना]
- घेरे
- चारो ओर छा जाते हैं।
- क्रि. स.
- [हिं. घेरना]
- घेरे
- किसी स्वार्थ या उद्देश्य से सदा साथ रहते हैं।
- या संसार विषय विष - सागर, रहत सदा सब घेरे - १ - ८५।
- क्रि. स.
- [हिं. घेरना]
- घेरे
- मंडल में।
- संज्ञा
- [हिं. घेरा]
- घेरै
- आक्रांत करता, छेंकता बा ग्रसता है।
- दिन है लेहु गोविंद गाई। मोह माया - लोभ लागे, काल घेरै आइ - १ - ३१६।
- क्रि. स.
- [हिं. घेरना]
- घेरो, घेरौ
- स्थान, विस्तार, फैलाव।
- कहा भयौ जौ संपति बाढ़ी, कियौ बहुत घर घेरौ - १ - २३६।
- संज्ञा
- [हिं. घेरा]
- घेरो, घेरौ
- चारो ओर से रोको, छेंको।
- माधव सखा स्याम इन कहि - कहि अपने गाइग्वाल सब घेरौ - २५३२।
- क्रि. स.
- [हिं. घेरना]
- घेरो, घेरौ
- निंदमय चर्चा, बदनामी।
- कहाँ कान्ह कहाँ मैं सजनी ब्रज घर घर यह चलत है घेरो - १२७१।
- संज्ञा
- [हिं. घैर]
- घेरयो
- चारो ओर से घेरा, ग्रसा, छेको, आक्रांत क्रिया।
- (क) ग्राह जब गजराज घेरयौ, बल गयौ हारी। हारि कै जब टेरि दीन्ही, पहुँचे गिरधारी - १ - १७६।
(ख) सुरति के दस द्वार रूँधे, जरा घेरयौ आइ। सूर हरि की भक्ति कीन्हैं, जन्म - पातक जाई - १ - ३१६।
- क्रि. स.
- [हिं. घेरना]
- घेलौना
- घलुवा, घाता।
- संज्ञा
- [हिं. घाल]
- घोट, घोटक
- घोड़ा, अश्व।
- संज्ञा
- [सं. घोटक]
- घोटना
- एक वस्तु को चमकीली बनाने के लिए दूसरी से रगड़ना।
- क्रि. स.
- [सं, घुट]
- घोटना
- पीसने के लिए रगड़ना।
- क्रि. स.
- [सं, घुट]
- घोटना
- मिलाना।
- क्रि. स.
- [सं, घुट]
- घोटना
- बार बार अभ्यास करना, रटना।
- क्रि. स.
- [सं, घुट]
- घोटना
- डाँटना, फटकारना।
- क्रि. स.
- [सं, घुट]
- घोटना
- गला इस तरह दबाना कि दम घुट जाय।
- क्रि. स.
- [सं, घुट]
- घोटना
- घोटने की वस्तु या औजार।
- संज्ञा
- घोटा
- वस्तु जिससे घोटने का काम किया जाय।
- संज्ञा
- [हिं. घोटना]
- घोटा
- चमकीला कपड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. घोटना]
- घेवर
- एक प्रकार की मिठाई जो, मैदे, घी और चीनी से बनती है।
- घेवर अति घिरत - चभोरे - १० - १८३।
- संज्ञा
- [हिं. घो+पूर]
- घैया
- ताजे दूध के ऊपर के माखन को काछकर इकट्ठा करने की क्रिया |
- (क) कजरी धौरी, सेंदुरि, धूमरि मेरी गैया। दुहि ल्याऊँ मैं तुरत हीं, तू करि दै री घैया–६६६।
(ख) दूध दोहनी लै री मैया। दाऊ टेरत सुनि आऊँ तब लौं करि बिधि धैया–७२५।
- संज्ञा
- [देश.]
- घैया
- गाय के थन से निकलती हुई दूध की धार जो मुँह लगाकर पी जाय।
- गिरि पर चढ़ि गिरवर - घर टेरे। अहो सुबल, श्रीदामा भैया, ल्यावहु गाइ खरिक के नेरे। आई छाक अबार भई है, नैंसुक घैया पिएउ सबेरे - ४६३।
- संज्ञा
- [देश.]
- घैया
- पेड़ काटने या उसमें से रस निकालने के उद्देश्य से किया गया आघात।
- संज्ञा
- [देश.]
- घैया
- ओर, दिशा।
- संज्ञा
- [हिं. घाई' या घा]
- घैर, घैरु, घैरो, घेरौ
- निंदामय चर्चा, बदनामी, अपयश।
- सूरदास - प्रभु बड़े गारुडी, ब्रज - घर - घर यह घेरु चलाइ - ७६१।
- संज्ञा
- [देश, ]
- घैर, घैरु, घैरो, घेरौ
- चुगली, शिकायत, उलाहना।
- संज्ञा
- [देश, ]
- घैला
- घड़ा, कलसा।
- संज्ञा
- [सं. घट]
- घैहल, घैहा
- घायल, जख्मी।
- वि.
- [हिं. घाव]
- घोंघा
- शंख की तरह का पानी का एक कीड़ा।
- संज्ञा
- [देश, ]
- घोंघा
- गेहूँ के दाने का कोश।
- संज्ञा
- [देश, ]
- घोंघा
- व्यर्थ, सारहीन।
- वि.
- घोंघा
- मूर्ख, जर।
- वि.
- घोंचा
- गौद, गुच्छा।
- संज्ञा
- [हिं. गुच्छा]
- घोंटना
- घूँट घूँट करके या धीरे धीरे पीना।
- क्रि. स.
- [हिं. घूँट, पू. हिं. घोंट]
- घोंटना
- हजम करना।
- क्रि. स.
- [हिं. घूँट, पू. हिं. घोंट]
- घोंटना
- (गला) दबाना।
- क्रि. स.
- [सं. घुट]
- घोंपना
- चुभाना। गाँठना।
- क्रि. स.
- [अनु. घप]
- घोंसला, घोंसुआ
- चिड़ियों का घर, नीड़, खोता।
- संज्ञा
- [सं. कुशालय या हिं घुसना]
- घोखना
- रटना, घोटना।
- क्रि. स.
- [सं. घुप]
- घोटा
- एक औजार।
- संज्ञा
- [हिं. घोटना]
- घोटा
- रगड़ा, घुटाई।
- संज्ञा
- [हिं. घोटना]
- घोटा
- हजामत।
- संज्ञा
- [हिं. घोटना]
- घोटाई
- घोटने का भाव, क्रिया या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. घोटना + आई (प्रत्य)]
- घोटाला
- गड़बड़, घपला।
- संज्ञा
- [देश.]
- घोटू
- घोटनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. घोटना]
- घोटू
- रट्टू।
- संज्ञा
- [हिं. घोटना]
- घोटू
- घोटनेवाला।
रट्टू। घोटने का औजार या वस्तु।
- संज्ञा
- [हिं. घोटना]
- घोटू
- पैर की गाँठ, घुटना।
- संज्ञा
- [हिं. घुटना]
- घोड़, घोड़ा
- अश्व, तुरंग।
- संज्ञा
- [सं. घोटक, प्रा. घोड़ा]
- घोण
- तारदार एक बाजा।
- संज्ञा
- [देश.]
- घोण
- नाक।
- संज्ञा
- [सं. घ्राण]
- घोर
- कठिन, कड़ा।
- कटक.सोर अति घोर दसौं दिसि, दीसति बनचर - भीर - ९ - ११५
- वि.
- [सं.]
- घोर
- सघन, घना।
- वि.
- [सं.]
- घोर
- भयानक, डरावना।
- ज्यौं पावस रितु घन - प्रथम - घोर। जल जीवक, दादर रटत मोर - ९ - १६६।
- वि.
- [सं.]
- घोर
- क्रोध की मुद्रा के साथ, दृढ़ता से पकड़े हुए।
- चित दै चितै तनय मुख ओर। सकुचत सीत भीत जलरुह ज्यौं तुव कर लकुट निरखि सखि घोर - ३५७।
- वि.
- [सं.]
- घोर
- गहरा, गाढ़ा।
- वि.
- [सं.]
- घोर
- बहुत बुरा।
- वि.
- [सं.]
- घोर
- बहुत अधिक।
- वि.
- [सं.]
- घोर
- शब्द, गर्जन, ध्वनि।
- कहि काको मन रहत स्रवन सुनि सरस मधुर मुरली की घोर - १४४७।
- संज्ञा
- [सं. घुर]
- घोड़, घोड़ा
-
- घोड़ा छोड़ना :- (१) किसी के पीछे घोड़ा दौड़ामा।
(२) घोड़े को इच्छानुसार चलने देना। घोड़ा डालना :- किसी के पीछे घोड़े को जोर से दौड़ाना। घोड़ा निकालना :- घोड़े को दूसरे से आगे बढ़ा लेना। घोड़े पर चढ़े आना :- लौटने की बहुत जल्दी करना। घोड़ा फेंकना :- घोड़ा बहुत तेज दोडाना। घोड़ा बेचकर सोना :- गहरी नींद लेना।
- मु.
- घोड़, घोड़ा
- बंदूक को एक पेंच या खटका।
- संज्ञा
- [सं. घोटक, प्रा. घोड़ा]
- घोड़, घोड़ा
- शतरंज का एक मोहरा जो ढाई घर चलता है।
- संज्ञा
- [सं. घोटक, प्रा. घोड़ा]
- घोड़, घोड़ा
- खुँटी।
- संज्ञा
- [सं. घोटक, प्रा. घोड़ा]
- घोड़िया
- छोटी घोड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ी+इया (प्रत्य.)]
- घोड़िया
- छोटा घोड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ी+इया (प्रत्य.)]
- घोड़िया
- छोटी खूँटी।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ी+इया (प्रत्य.)]
- घोड़ी
- घोड़े की मादा।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा]
- घोड़ी
- विवाह की एक रीति जिसमें दूल्हा घोड़ी पर चढ़कर दुलहिन के घर जाता है।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा]
- घोड़ी
- विवाह के गीत जो वर-पक्ष की ओर से गाये जाते हैं।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा]
- गुर्जर
- गूजर जाति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुर्जरी
- गुजराती स्त्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुर्जरी
- एक रागिनी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुर्राना
- क्रोधी का अभिमानवश कर्कश स्वर में बोलना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- गुर्रो
- भुने हुए जौ।
- संज्ञा
- [देश.]
- गुर्वि
- विशाल, बड़ी।
- वि.
- [हिं. गुर्वि]
- गुर्विणी
- गर्भवती।
- वि.
- [सं.]
- गुर्वी
- श्रेष्ट या उत्तम स्त्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुर्वी
- गर्भवती।
- वि.
- गुर्वी
- विशाल, बड़ी।
- वि.
- घोरिला
- लड़कों के खेलने का मिट्टी का घोड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ी]
- घोरिला
- खुँटा जिसकी बनावट घोड़े के मुँह की तरह हो।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ी]
- घोरी
- घोड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ी]
- घोरी
- घोलकर, मिलाकर।
- कुंकुम चंदन अरगजा घोरी - २४४४।
- क्रि. स.
- [हिं. घोलना]
- घोरै
- घोड़े (पर)।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा]
- घोरै
-
- मनु आई चढ़ि घोरै :- (१) बहुत जल्दी मचा रही है।
(२) बड़ा गर्व कर रही है, किसी घमंड में है। उ. - कहा भयौ तेरे भवन गए जो दियौ तनक लै भोरे। ता ऊपर का हैं गरजति है, मनु आई चढ़ि घोरे - १० - ३२१।
- मु.
- घोरै
- ध्वनि, शब्द।
- सुनि मुरली को घोरै सुर - बधू सीस ढोरें - २२८७।
- संज्ञा
- [सं. घुर, हिं. घोर]
- घोरै
- घोलता है, पानी आदि। में मिलता है।
- कागद धरनि करै द्रुम लेखनि जल - सायर मसि घोरै - १ - १२५।
- क्रि. स.
- [हिं घोलना]
- घोरौं
- घोल दूँ, मिला दूँ।
- कहौं तौ पैठि सुधा कैं सागर, जल समस्त मैं घोरौं। - ९ - १४८।
- क्रि. स.
- [हिं. घोलना]
- घोल
- वह पानी जिसमें कुछ घुला हो।
- संज्ञा
- [हिं. घोलना]
- घोलना
- पानी आदि द्रव पदार्थों में हल करना या मिलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. घुलना]
- घोला
- जो घोलकर बना हो।
- वि.
- [हिं. घोलना]
- घोला
-
- घोले में डालना :- (१) किसी काम को उलझन में डाल कर देर लगाना।
(२) टालटूल करना। घोले में पड़ना :- झगड़े में पड़ना, देर लगाना।
- मु.
- घोलुवा
- घोला हुआ।
- वि.
- [हिं. घोलना + उवा (प्रत्य.)]
- घोलुवा
-
- घोलुवा पीना :- कड़ुई वस्तु पीना।
घोलुवा घोलना :- काम में देर लगाना।
- मु.
- घोष
- अहीरों की बस्ती।
- (क) बकीजु गई घोष मैं छल करि, जसुदा की गति दीनी - १ - १२२।
(ख) आजु कन्हैया बहुत बच्यौ री। खेलत रह्यौ घोष के बाहर कोउ आयो शिशु रूप रच्यौ री।
- संज्ञा
- [सं.]
- घोष
- अहीर।
- बिछुरत भेंट देहु ठाढे ह्वै निरखो घोष - जन्म को खेरो - २५३२।
- संज्ञा
- [सं.]
- घोष
- गोशाला।
- नंद बिदा ह्वै घोष सिधारौ - २६५३।
- संज्ञा
- [सं.]
- घोष
- तट, किनारा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घोष
- शब्द, नाद।
- संज्ञा
- [सं.]
- घोर
- अश्व, तुरंग।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा]
- घोर
- बहुत, अत्यंत।
- क्रि. वि.
- घोरत
- भारी शब्द करता है, गरजता है।
- चहुँ दिसि पवन चकोरत घोरत मेघ घट गंभीर - ६६४।
- क्रि. अ.
- [हिं. घोरना]
- घोरना
- घोलना, मिलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. घोलना]
- घोरना
- भारी शब्द करना, गरजना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घोर]
- घोरनो
- शब्द करना।
- तैसोई नन्ही नन्ही बूँदनि बरषै मधुर मधुर ध्वनि घोरनो - २२८०।
- क्रि.
- [हिं. घोरना]
- घोरा
- घोड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा]
- घोरा
- खूँटा।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़ा]
- घोरि
- घोलकर, पानी आदि में-मिलाकर।
- (क) जो गिरिपति मसि घोरि उदघि मैं, लै सुरतरु विधि हाथ। ममकृत दोष लिखे बसुधा भरि, तऊ नहीं मिति नाथ - १ - १११।
(ख) घोरि हलाहल सुन री सजनी औसर सर तेहि न पियो - २५४५।
- क्रि. स.
- [हिं. घोलना]
- घोरिया
- छोटा घोड़ा घोड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. घोड़िया]
- घोष
- गरजने का शब्द।
- संज्ञा
- [सं.]
- घोषकुमारि, घोषकुमारी
- अहीरों या ग्वालों की कुमारियाँ।
- बहुत नारि सुहाग सुंदरि और घोषकुमारि - १०.२६
- संज्ञा
- [सं. घोष + हिं. कुमारी]
- घोषणा
- सूचना।
- संज्ञा
- [सं.]
- घोषणा
- राजाज्ञा आदि की सूचना, मुनादी।
- संज्ञा
- [सं.]
- घोषणापत्र
- राजाज्ञा-सूचना पत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- घोषपुरी
- अहीरों की बस्ती या नगरी।
- जो सुख ब्रज में एक घरी। सो सुख तीनि लोक मैं नाहीं घनि यह घोष पुरी - १० - ६९।
- संज्ञा
- [सं. घोष + हिं. पुरी]
- घोषवती
- वीणा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घोसी
- अहीर, ग्वाला।
- संज्ञा
- [सं. घोष]
- घौंर, घौंरा, घौद
- घौद, गौद, फलों का गुच्छा।
- संज्ञा
- [हिं. गौद]
- घौरी
- गौद, फलगुच्छ।
- संज्ञा
- [हिं. घौद]
- चंक
- पूरा-पूरा, सारा।
- वि.
- [सं. चक्र]
- चंक
- उत्सव जो फसल कटने पर मनाया जाता है।
- वि.
- [सं. चक्र]
- चंकुर
- रथ।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंकुर
- पेड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंक्रमण
- घूमना, टहलना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंग
- एक बाजा।
- (क) महुवरि बाँसुरी चंग लाल रंग हो हो होरी - २४१०।
(ख) डिमडिमी पटह ढोल डफ बीणा मृदंग उपंग चंग तार - २४४६।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चंग
- जौ।
- संज्ञा
- [देश.]
- चंग
- जौ की शराब।
- संज्ञा
- [देश.]
- चंग
- पतंग, गुड्डी।
- संज्ञा
- [सं चं - चंद्रमा]
- चंग
-
- चंग चढ़ना या उमहना :- खूब जोर या बढ़ती होना।
चंग पर चढ़ना :- (१) इधर उधर की बातें करके अपने अनुकूल या पक्ष में करना। (२) मिजाज बढ़ा-चढ़ा देना।
- मु.
- घौहा
- चुटीला फल।
- संज्ञा
- [हिं. घाव + हा (प्रत्य.)]
- घौहा
- चुटीला, घायल, चोट खाया हुआ।
- वि.
- घ्राण
- नाक।
- संज्ञा
- [सं.]
- घ्राण
- सूँघने की-शक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- घ्राण
- गंध, सुगंध।
- संज्ञा
- [सं.]
- ङ
- क वर्ग का अंतिम अक्षर, स्पर्श वर्ण जिसका उच्चारण कंठ और नाक से होता है।
- ङ
- सूँघने की शक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- ङ
- गंध, सुगंध।
- संज्ञा
- [सं.]
- ङ
- भैरव।
- संज्ञा
- [सं.]
- च
- हिंदी का छठा व्यंजन और अपने वर्ग का पहलाअक्षर जिसका उच्चारण तालु से होता है।
- चंग
- कुशल।
- वि.
- चंग
- स्वस्थ।
- वि.
- चंग
- सुंदर।
- वि.
- चंगना
- खींचना।
- क्रि. स.
- [हिं. चंगा या फ़ा. तंग]
- चंगना
- कसना।
- क्रि. स.
- [हिं. चंगा या फ़ा. तंग]
- चंगा
- स्वस्थ, तंदुरुस्त।
- वि.
- [हिं. चंग]
- चंगा
- सुंदर, भला।
- वि.
- [हिं. चंग]
- चंगा
- निर्मल, शुद्ध।
- वि.
- [हिं. चंग]
- चंगी
- भली लगनेवाली, सुंदर।
- भले जू भले नंदलाल वेऊ भली चरन जावक पाग जिनहिं रंगी। सूर - प्रभु देखि अंग अंग बानिक कुसल मैं रही रीझि वह नारि चंगी।
- वि.
- [हिं. चंगा]
- चंगी
-
- बनी-चगी :- बनी-चुनी, सजी-सजायी, खूब छँटी हुई, चतुर, भली (व्यंग्य)।
उ. - सखी बूझत ताहि हँसत जामुख चाहि स्याम को मिली री बनी चंगी - २१७५।
- मु.
- चंगु
- चंगुल, पंजा।
- संज्ञा
- [हिं. चंगुल]
- चंगु
- पकड़, वश, अधिकार
- संज्ञा
- [हिं. चंगुल]
- चंगुल
- पशुपक्षियों का टेढ़ा और कड़ा पंजा।
- संज्ञा
- [हिं. चौ= चार + अंगुल]
- चंगुल
- किसी चीज को पकड़ते या लेते समय हाथ के पंजों की स्थिति।
- संज्ञा
- [हिं. चौ= चार + अंगुल]
- चंगुल
-
- चंगुल में फँसना :- वश या काबू में होना।
- मु.
- चँगेर, चँगेरी, चँगेली
- बाँस की डलिया या टोकरी।
- संज्ञा
- [सं. चंगोरिक]
- चँगेर, चँगेरी, चँगेली
- फूल रखने की डलिया।
- संज्ञा
- [सं. चंगोरिक]
- चँगेर, चँगेरी, चँगेली
- चमड़े की मशक।
- संज्ञा
- [सं. चंगोरिक]
- चँगेर, चँगेरी, चँगेली
- बच्चों का झूला या पालना।
- संज्ञा
- [सं. चंगोरिक]
- चँगेर, चँगेरी, चँगेली
- चाँदी का जालीदार पात्र।
- संज्ञा
- [सं. चंगोरिक]
- चंच
- चेंच नामक साग।
- संज्ञा
- [हिं. चंचु]
- चंच
- मृग।
- संज्ञा
- [हिं. चंचु]
- चँचरी
- एक चिड़िया।
- संज्ञा
- [देश.]
- चंचरी
- भ्रमरी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचरी
- होली का एक गीत।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचरी
- एक छंद।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचरीक
- भ्रमर, भौंरा।
- बिकसत कमलावली, चले प्रपुज - चंचरीक, गुंजत कतकोमल धुनि त्यागिं कंज न्यारे - १० - २०५।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचरीकावली
- भौंरों की पंक्ति।
- संज्ञा
- [सं. चंचरीक + अवली]
- चंचरीकावली
- एक वर्णवृत्त।
- संज्ञा
- [सं. चंचरीक + अवली]
- चंचल
- अस्थिर, चलायमान।
- वि.
- [सं.]
- चंचल
- अधीर, एकाग्र न रहनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- चंचल
- घबराया हुआ।
- वि.
- [सं.]
- चंचल
- नटखट, शैतान।
- वि.
- [सं.]
- चंचल
- वायु।
- संज्ञा
- चंचल
- रसिक, कामुक।
- संज्ञा
- चंचलता, चंचलताई
- अस्थिरता, चपलता।
- तब लगि तरुनि तरल चंचलता, बुधि - बल सकुचि रहै। सूरदास जब लगि वह धुनि सुनि, नाहिंन धीर ढहै - ६४६।
- संज्ञा
- [सं. चंचलता]
- चंचलता, चंचलताई
- नटखटी, शरारत।
- संज्ञा
- [सं. चंचलता]
- चंचला
- लक्ष्मी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचला
- बिजली।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचलाई
- चपलता, अस्थिरता।
नटखटी।
- संज्ञा
- [सं. चंचल + आई (प्रत्य.)]
- गुरुबिनी
- गर्भवती।
- संज्ञा
- [सं. गुर्विणी]
- गुरुवार
- बृहस्पति का दिन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुरुसिंह
- एक पर्व।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुरू
- अध्यापक।
- बड़े गुरु की बुद्धि बड़ी वह काहू को न पत्यैहै - १२६३।
- संज्ञा
- [सं. गुरु]
- गुरेरना
- आँखें फाड़ फाड़ कर देखना, घूरना।
- क्रि. स.
- [सं. गुरु - बड़ा+ हेरना = ताकना]
- गुरेरा
- मिट्टी की गोली जो गुलेल से चलायी जाती है।
- संज्ञा
- [हिं. गुलेला]
- गुर्ज
- गदा, सोंटा।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुर्ज़]
- गुर्ज
- किले का गोलाकार स्थान जहाँ से सिपाही लड़ते हैं, बुर्ज।
- संज्ञा
- [फ़ा. बुर्ज]
- गुर्जर
- गुजरात प्रदेश।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुर्जर
- गुजरात निवासी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचलास्य
- एक सुगंधित द्रव्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचलाहट
- चंचलता, चुलबुलाहट।
- संज्ञा
- [सं. चंचल + आहट]
- चंचलाहट
- नटखटी।
- संज्ञा
- [सं. चंचल + आहट]
- चंचा
- घास फूस का पुतला जो खेतों में पशु-पक्षियों के डराने के लिए गाड़ते हैं।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचु
- चेंच का साग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचु
- रेंड का पेड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचु
- मृग, हिरन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचु
- चिड़ियों की चोंच।
- संज्ञा
- चंचुका, चंचुपुट
- चोंच।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचुभृत, चचुमान्
- पक्षी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंचुर
- दक्ष, कुशल, निपुण, चतुर।
- वि.
- [सं.]
- चंचुर
- चेच या चेंचु का साग।
- संज्ञा
- चँचोरना
- दाँत से दबाकर चूसना।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- चँचोरि
- चूसकर।
- क्रि. स.
- [हिं. चँचोरना]
- चंट
- चालाक
- वि.
- [स. चंड]
- चंट
- छटा हुआ।
- वि.
- [स. चंड]
- चंड
- तेज, उग्र, घोर।
- वि.
- [सं.]
- चंड
- बहुत, बलवान।
- वि.
- [सं.]
- चंड
- विकट, कठोर।
- वि.
- [सं.]
- चंड
- क्रोधी।
- वि.
- [सं.]
- चंड
- ताप, गरमी।
- संज्ञा
- चंड
- एक यमदूत।
- संज्ञा
- चंड
- एक दैत्य।
- संज्ञा
- चंड
- कार्तिकेय।
- संज्ञा
- चंड
- राम की सेना का एक बंदर।
- संज्ञा
- चंड
- कंस का एक भाई।
- संज्ञा
- चंडकर
- तेज किरणोंवाला सूर्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंडकौशिक
- एक मुनि।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंडता, चंडताई
- उग्रता, प्रबलता।
- संज्ञा
- [सं. चंडता]
- चंडता, चंडताई
- बल, प्रताप, वीरता।
- संज्ञा
- [सं. चंडता]
- चंडत्व
- उग्रता
- संज्ञा
- [सं.]
- चंडत्व
- प्रताप।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंडांशु
- सूर्य।
- संज्ञा
- [सं. चंड+ अंशु = किरण]
- चंडा
- उग्र स्वभाववाली।
- वि.
- [सं.]
- चंडा
- आठ नायिकाओं में एक।
- संज्ञा
- चंडा
- चोर नामक गंध-द्रव्य।
- संज्ञा
- चंडा
- केवाँ च।
- संज्ञा
- चँड़ाइ चँड़ाई
- शीघ्रता, जल्दी, उतावली।
- (क) जेंवत परखि लियौ नहि हमकौं, तुम अति करी चँड़ाइ - ४४४।
(ख) मैं अन्हवाए देति दुहूनि कौं, तुम आत करौ चँड़ाई - ५११। (ग) रीदिनि भोजन करौ चँड़ाईं बार - बार कहि - कहि करि आरति - ५१२। (घ) जननि मथत दधि, दुहुत कन्हाई। सखा परस्पर कहत स्याम सौं हमहूँ सौं तुम करत चँड़ाई - ६६८। (ङ) गाई गई सब प्याइ के, प्रातहिं नहिं आई। ता कारन मैं जाति हौं, अति करति चँडाई–७१३। (च) सूर नंद सौं कहति जसोदा, दिन आए अब करहु चँडाई - ८११।
- संज्ञा
- [सं. चंड=तेज]
- चँड़ाइ चँड़ाई
- प्रबलता।
- संज्ञा
- [सं. चंड=तेज]
- चँड़ाइ चँड़ाई
- अन्याय, अत्याचार।
- संज्ञा
- [सं. चंड=तेज]
- चंडाल
- डोम।
- संज्ञा
- [सं. चाँडाल]
- चंडाल
- नीच।
- संज्ञा
- [सं. चाँडाल]
- चंडालता
- नीचता, अधमता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंडालपक्षी
- काक, कौआ।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंडालिनी
- चंडाल वर्ण की स्त्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंडालिनी
- दुष्ट या कर्कशा स्त्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंडावल
- सेना के पीछे का भाग, ’हरावल' का विपरीतार्थक।
- संज्ञा
- [सं. चंड + अवलि]
- चंडावल
- वीर योद्धा।
- संज्ञा
- [सं. चंड + अवलि]
- चंडावल
- पहरेदार।
- संज्ञा
- [सं. चंड + अवलि]
- चंडिका, चंडी
- दुर्गा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंडिका, चंडी
- लड़ाकू स्त्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंडिका, चंडी
- लडाकू, कर्कशा, उग्र स्वभाववाली।
- वि.
- चंडीपति
- शिव, महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंडू
- अफीम का किवाम।
- संज्ञा
- [सं. चंड]
- चंडूल
- एक चिड़िया।
- संज्ञा
- [देश.]
- चंडूल
-
- पुराना चंडूल :- बेडौल या मूर्ख आदमी।
- मु.
- चंडोल
- एक तरह की पालकी।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र+दोल]
- चंडोल
- मिट्टी का एक खानेदार खिलौना
- संज्ञा
- [सं. चंद्र+दोल]
- चंद
- चंद्रमा।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र]
- चंद
- चंद्रमा के समान सुख-शांति देनेवाला व्यक्ति।
- सूरदास पर कृपा करौ प्रभु श्रीबृंदाबन - चंद - १ - १६३।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र]
- चंदन
- एक सुगंधित लकड़ी जिसको पीसकर हिंदू माथे पर तिलक लगाते हैं, पूजा करते हैं और स्थान आदि लिपाते हैं।
- कंचन-कलस, होम द्विज-पूजा, चंदन भवन लिपायौ १० - ४।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंदन
- राम की सेना का एक वानर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंदनगिरि
- मलय पर्वत।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंदनहार
- गले का एक गहना।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रहार]
- चंदना
- चंद्रमा।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रमा]
- चंदनी
- चाँदनी।
- संज्ञा
- [हिं. चाँदनी]
- चँदनौता
- एक तरह का लहँगा।
- संज्ञा
- [देश.]
- चंदबाण, चंदबान
- एक बाण।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रवाण]
- चँदराना
- बहलाना।
- क्रि. स.
- [सं. चंद्र (दिखलाना)]
- चँदराना
- जान-बूझ कर अनजान बनना।
- क्रि. स.
- [सं. चंद्र (दिखलाना)]
- चंद
- पृथ्वीराज-रासो का रचयिता हिंदी का एक कवि।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र]
- चंद
- थोड़े से।
- वि.
- [फ़ा.]
- चंद
- गिने चुने।
- वि.
- [फ़ा.]
- चंदक
- चंद्रमा।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र]
- चंदक
- चाँदनी।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र]
- चंदक
- एक मछली।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र]
- चंदक
- माथे को एक गहना।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र]
- चंदचूर
- शिव जी।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रचूड़]
- चंदक पुष्प
- लौंग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंदक पुष्प
- चंद्रकला।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंदला
- गंजा।
- वि.
- [हिं. चाँद = खोपड़ी]
- चँदवा
- सिंहासन का चँदोवा।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र]
- चँदवा
- गोल चकती।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रक]
- चँदवा
- तालाब में गहरा गड्डा।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रक]
- चँदवा
- मोर की पूँछ का अर्द्धचंद्रक चिह्न।
- मोरन के चँदवा माथे बने राजत रुचिर सुदेस री।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रक]
- चँदवा
- मछली।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रक]
- चंदा
- चंद्रमा।
- (क) अपने कर गहि गगन बतावै खेलन को माँगै चंदा - १०. १९२।
(ख) ज्यौं चकोर चंदा को इकटक भृंगी. ध्यान लगावै - १८१८।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र]
- चंदा
- राधा की एक सखी।
- कमला तारा बिमला चंदा चंद्रावलि सुकुमारि - १५८०।
- संज्ञा
- चंदा
- वह धन जो दान या सहायता-रूप में लिया जाय।
- संज्ञा
- [फ़ा. चंद्र = कुछ]
- चंदा
- पत्र-पत्रिका या सभा-समिति का मासिक, छमाही या वार्षिक शुल्क।
- संज्ञा
- [फ़ा. चंद्र = कुछ]
- चंदिका
- चाँदनी।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रिका]
- चंदिनि, चंदिनो
- चाँदनी।
- संज्ञा
- [सं. चंदू]
- चंदिनि, चंदिनो
- उजेली, चाँदनी से युक्त।
- वि.
- चँदिया
- खोपड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. चाँद]
- चँदिया
-
- चँदिया पर बाल न छोड़ना :- (१) सब कुछ हर लेना।
(२) खूब जूते मारना। चंदिया मूड़ना :- धन-संपत्ति हर लेना। चँदिया खाना :- (१) बकवाद से सिर खाना। (२) सब कुछ हरकर दरिद्र बनाना। चँदिया खुजलाना - मार खाने को जी चाहना।
- मु.
- चँदिया
- पिछली छोटी रोटी।
- संज्ञा
- [हिं. चाँद]
- चँदिया
- ताल का सबसे गहरा तल या स्थान।
- संज्ञा
- [हिं. चाँद]
- चँदिया
- चाँदी की टिकिया।
- संज्ञा
- [हिं. चाँद]
- चंदिर
- चंद्रमा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंदिर
- हाथी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुरुत्व - केंद्र
- किसी पदार्थ का वह विंदु या स्थान, जिसे किसी नोक पर टिकाने से वह पदार्थ ठीक ठीक तुल जाय, इधर उधर झका न रहे।
- संज्ञा
- [सं]
- गुरुत्वाकर्षण
- वह आकर्षण जिसके द्वारा पृथ्वी पर सब पदार्थ गिरते हैं।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुरुदक्षिणा
- भेंट या दक्षिणा जो शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात प्राचार्य को दी जाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुरुद्वारा
- आचार्य का निवास स्थान।
- संज्ञा
- [सं. गुरु+ द्वार]
- गुरुद्वारा
- सिखों का पूज्य स्थान।
- संज्ञा
- [सं. गुरु+ द्वार]
- गुरु - बांधव
- एक ही गुरु के शिष्य, गुरु-भाई।
- संज्ञा
- [सं गुरु + बन्धु, हिं. बांधव]
- गुरुबिनी
- गर्भवती रत्री।
- संज्ञा
- [सं. गुर्विणी]
- गुरुभाई
- एक ही गुरु के शिष्य, गुरु-बांधव।
- संज्ञा
- [सं. गुरु + हिं. भाई]
- गुरुमुख
- जिसने गुरुमंत्र लिया हो, दीक्षित, गुरु के प्रति कृतज्ञ या नम्र।
- दुरजोधन कें कौन काज जहँ आदर भाव न पइयै। गुरुमुख नहीं बड़े अभिमानी, कापै सेवा करइयै - १ - २३९।
- वि.
- [सं. गुरु + मुख]
- गुरुमुखी
- पंजाब में प्रचलित एक लिपि जो देवनागरी का ही एक रूप है।
- संज्ञा
- [सं. गुरु + हिं.मुखी]
- चँदेरी
- एक प्राचीन नगर जो ग्वालियर राज्य में था।
- (क) रुक्म चँदेरी बिप्र पठायौ–१० उ. ७।
(ख) राव चँदेरी को भूपाल।
- संज्ञा
- [सं. चेदि या हिं. चंदेल]
- चँदेरीपँति
- शिशुपाल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंदेल
- क्षत्रियों की एक शाखा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चँदोआ, चँदोया, चाँदोवा
- सिंहासन पर सोने-चाँदी के चोबों पर तना वितान।
- संज्ञा
- [हिं. चँदवा]
- चंद्र
- चंद्रमा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्र
- एक की संख्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्र
- मोर की पूँछ को चंद्रिका।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्र
- कपूर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्र
- जल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्र
- सोना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्र
- वह बिंदी जो सानुनासिक वर्ण पर लगायी जाती है।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्र
- लाल रंग का मोती।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्र
- हीरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्र
- सुखदायी वस्तु या पात्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्र
- आनंददायक।
- वि.
- चंद्र
- सुंदर।
- वि.
- चंद्रक
- चंद्रमा।
- काम की केली कमनीय चंद्रक चकोर, स्वाति को बू्ँद चातक परौ री - ६९१।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रक
- चंद्रमा-सा मंडल या घेरा |
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रक
- चाँदनी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रक
- मोर-पूँछ की चंद्रिका।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रक
- नाखून।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रक
- एक मछली।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रक
- कपूर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंदकला
- चंद्रमंडल का सोलहवाँ भाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंदकला
- चंद्रकिरण या ज्योति।
- चंद्रकला जनु राहु गहौ री–१० उ. ३०।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंदकला
- एक वर्णवृत्त।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंदकला
- माथे-का एक गहना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंदकला
- छोटा ढोल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रकलाधर
- महादेव, शिव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रकांत
- एक रत्न जो चंद्रमा के सामने पसीजता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रकांत
- एक राग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रकांत
- एक रत्न जो चंद्रमा के सामने पसीजता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रकांत
- एक राग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रकांत
- चंदन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रकांत
- कुमुद।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रकांता
- चंद्रमा की पत्नी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रकांता
- रात।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रकांता
- एक वर्णवृत्त।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रकांति
- चाँदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रकी
- मोरपक्षी।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रकिन्]
- चंद्रकुमार
- चंद्रमा का पुत्र बुध।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रकेतु
- लक्ष्मण का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रक्षय
- अमावास्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रगुप्त
- चित्रगुप्त।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रगुप्त
- एक मौर्यवंशी राजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रगुप्त
- एक गुप्तवंशी राजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रगोलिका
- चाँदनी, चंद्रिका।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रग्रहण
- चंद्रमा का ग्रहण।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रचूड़
- मस्तक पर चंद्रमा धारण करनेवाले शिव, महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रज
- चंद्रमा का पुत्र बुध।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रबंधु
- शंख।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रबंधु
- कुमुद।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रबधूटी
- बीरबहूटी।
- संज्ञा
- [सं. इंद्रवधू]
- चंद्रबाण, चंद्रबान
- बाण जिसका फल अर्द्धचंद्राकार होता है।
- नख मानों चंद्रबान साजि कै झझकारत उर अग्यौ - १९७२।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रबिंदु
- अर्द्ध अनुस्वार का चिह्न।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रबिंब
- चंद्रमा का मंडल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रभस्म
- कपूर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रभा
- चंद्रमा का प्रकाश।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रभाग
- चंद्रमा की कला।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रभाग
- सोलह की संख्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रजोत, चंद्रजोती, चंदज्योति
- चंद्रमा का प्रकाश।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र + ज्योति]
- चंद्रजोत, चंद्रजोती, चंदज्योति
- एक आतिशबाजी।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र + ज्योति]
- चंद्रदारा
- सत्ताइस नक्षत्र जो चंद्रमा की पत्नियाँ मानी जाती हैं।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रद्युति
- चंद्रकिरण या चंद्र प्रकाश।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रद्युति
- चंदन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रधनु
- चंद्रमा के प्रकाश से रात को दिखायी देनेवाला इंद्रधनुष।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रधर
- महादेव, शिव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रप्रभ
- चंद्रमा-सी कांतिवाला।
- वि.
- [सं.]
- चंद्रप्रभा
- चंद्रमा की ज्योति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रप्रभा
- बकुची नामक औषध।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रभाग
- एक पर्वत।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रभागा
- पंजाब की एक नदी।
- सुभ कुरुखेत अयोध्या, मिथिला, प्राग त्रिबेनी न्हाए। पुनि सतनु औरहु चंद्रभागा, गंग ब्यास अन्हवाए - सारा, ८२८।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रभाट
- एक साधु।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र + हिं. भाट]
- चंद्रभानु
- श्रीकृष्ण का एक पुत्र जो सत्यभामा के गर्भ से पैदा हुआ था।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रभाल
- शिव, महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रभूति
- चाँदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रभूषण
- शिव, महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रमणि, चंद्रमनि
- चंद्रकांत मणि।
- चौकी हेम चंद्रमनि लागी हीरा रतन जराय खची।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रमा
- चाँद, इंदु, सुधांशु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रमाललाट
- शिव, महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रमाललाम
- महादेव, शिव, शंकर।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रमा +ललाम = मस्तक पर तिलक का चिन्ह]
- चंद्रमाला
- एक छंद।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रमाला
- चंद्रहार।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रमास
- वह मास जिसमें चंद्रमा पृथ्वी की एक परिक्रमा कर लेता है।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र+मास]
- चंद्रमौलि
- मस्तक पर चंद्रमा धारण करनेवाले शिव, महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्ररेखा, चद्रलेखा
- चंद्रमा की कला।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्ररेखा, चद्रलेखा
- चंद्रमा की किरण।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्ररेखा, चद्रलेखा
- द्वितीया का चंद्रमा जो एक रेखा के रूप में होता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रलोक
- चंद्रमा का लोक।
- चंद्रलोक दीन्हो ससि को तब फगुआ में हरि आय। सब नछत्र को राजा कीन्हो ससि मंडल में छाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रवंश
- क्षत्रियों का एक कुल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रवंशी
- चंद्रवंश का।
- वि.
- [सं. चंद्रवंशिन्]
- चंद्रवधू, चंद्रवधूटी
- बीर बहूटी नामक एक छोटा लाल कीड़ा।
- संज्ञा
- [सं. इंद्रवधू]
- चंद्रवल्लरी, चंद्रवल्ली
- एक लता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रवार
- सोमवार।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रबिंदु
- अर्द्धअनुस्वार का चिन्ह।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रवेश
- शिव, महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रव्रत
- एक व्रत।
- संज्ञा
- [सं. चांद्रायण]
- चंद्रशाला, चंद्रसाला
- चाँदनी।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रशाला]
- चंद्रशाला, चंद्रसाला
- मकान की सबसे ऊपरी अटारी।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रशाला]
- चंद्रशृंग
- द्वितीया के चंद्रमा के दोनों नुकीले ओर या किनारे।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुलकंद
- चीनी में अमलतास या गुलाब के फूल धूप की गर्मी से पकाकर तैयार किया हुआ पदार्थ।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुलअकीक
- एक पौधा।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुल + अक़ीक़]
- गुलकारी
- बेल-बूटे का काम।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुलाल
- एक लाल बुकनी जो होली में चेहरे पर मली जाती है।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुल्लाला]
- गुलियाना
- गोल बनाना।
- क्रि. स.
- [हिं. गोलियाना]
- गुलिस्ताँ
- बाग-बाटिका।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुलू
- एक बड़ा वृक्ष।
- संज्ञा
- [देश.]
- गुलूबन्द
- सूती, ऊनी या रेशमी पट्टी जो गले या सिर में लपेटी जाती है।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुलूबन्द
- गले का एक गहना।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुलेनार
- अनार का फूल।
- संज्ञा
- [हि. गुलनार]
- चंद्रशेखर, चंद्रसेखर
- शिव जी जिनके मस्तक पर चंद्रमा है।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र + शेखर]
- चंद्रसरोवर
- ब्रज का एक तीर्थ स्थान जो गोवर्द्धन के समीप स्थित है।
- संज्ञा
- [सं .]
- चंद्रहार
- गले में पहनने की सोने की माला जिसके बीच में सोने का चंद्राकार पान रहता है।
- संज्ञा
- [सं .]
- चंद्रहास
- तलवार।
- संज्ञा
- [सं .]
- चंद्रहास
- रावण की तलवार
- संज्ञा
- [सं .]
- चंद्रहास
- चाँदी।
- संज्ञा
- [सं .]
- चंद्रा
- चँदोवा।
- संज्ञा
- [सं .]
- चंद्रा
- गुर्च।
- संज्ञा
- [सं .]
- चंद्रा
- मरने की अवस्था जब-टकटकी बँध जाती है और गला रुँध जाता है।
- संज्ञा
- [सं चंद्र]
- चंद्रातप
- चाँदनी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रातप
- चँदोवा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रापीड़
- शिव, महादेव
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रायण, चंद्रायन
- महीने भर का एक व्रत जिसमें चंद्रमा के घटने बढ़ने के अनुसार आहार घटाना-बढ़ाना होता है।
- सहस बार जौ बेनी परसै, चंद्रायन कीजै सौ बार - २ - ३।
- संज्ञा
- [सं. चांद्रायण]
- चंद्रालोक
- चंद्रमा का प्रकाश।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रावलि, चंद्रावली
- श्री कृष्ण की प्रेमिका और राधा की एक सखी जो चंद्रभानु की पुत्री थी।
- (क) ललिता अरु चंद्रावली सखिन मध्य सुकुमारि - ११०२।
(ख) तारा, कमला बिमला चंद्रा चंद्रावलि सुकुमारि - १५८०।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रावली]
- चंद्रिका
- चंद्रमा का प्रकाश, चाँदनी।
- संज्ञा
- [सं]
- चंद्रिका
- मोर की पूँछ का अर्द्धचंद्राकार चिन्ह।
- सोभित सुमन मयूर चंद्रिका नील नलिन तनु स्याम।
- संज्ञा
- [सं]
- चंद्रिका
- इलायची।
- संज्ञा
- [सं]
- चंद्रिका
- चाँदा मछली।
- संज्ञा
- [सं]
- चंद्रिका
- चंद्रभागा नदी।
- संज्ञा
- [सं]
- चंद्रिका
- जूही, चमेली।
- संज्ञा
- [सं]
- चंद्रिका
- एक देवी।
- संज्ञा
- [सं]
- चंद्रिका
- एक वर्णवृत्त।
- संज्ञा
- [सं]
- चंद्रिका
- माथे का वेदी नामक गहना।
- संज्ञा
- [सं]
- चंद्रिका
- रानियों का एक शिरोभूषण, चंद्रकला।
- संज्ञा
- [सं]
- चंद्रिकोत्सव
- शरदपूनों का उत्सव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंद्रिल
- शिव, महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंदोद्य
- चंद्रमा का उदय।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र + उदय]
- चंदोद्य
- चँदवा, चँदोवा।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र + उदय]
- चंद्रोपल
- चंद्रकांतमणि।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र+उपल]
- चंप
- चंपा।
- संज्ञा
- [सं. चंपक]
- चंप
- कचनार।
- संज्ञा
- [सं. चंपक]
- चंपई
- चंपे के पीले रंग का।
- वि.
- [हिं चंपा]
- चंपक
- चंपा जिसका फूल हलका पीले रंग का होता है। सुंदर नारियों के रंग की उपमा इससे दी जाती है।
- (क) चंपक - बरन, चरन कमलनि, दाड़िम दसन लरी - ९ - ६३।
(ख) चंपक जाइ गुलाब बकुल फूले तरु प्रति बूझति कहुँ देखे नँदनंदन - १८१०।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंपकली
- चंपे की कली।
- (क) रंगभरी सिर सुरंग पाग लटक रही बाम भाग चंपकली कुटिल अलक बीच - बीच रखी री - २३६२।
(ख) चंपकली सी नासिका रंग स्यामहिं लीन्हे - पृ.३२९।
- संज्ञा
- चंपकली
- गले में पहनने का एक आभूषण।
- संज्ञा
- चंपत
- गायब, लुप्त, ' अंतर्धान।
- वि.
- [देश.]
- चंपत
- दबता है।
- क्रि. अ.
- [हिं. चँपन]
- चँपना
- बोझ से दबना।
- क्रि. अ.
- [सं. चप्]
- चँपना
- लज्जित होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चप्]
- चँपना
- उपकार मानना।
- क्रि. अ.
- [सं. चप्]
- चंपा
- एक पौधा जिसमें हल्के पीले रंग के फूल लगते हैं, जिन पर, प्रसिद्धि है कि भौरे नहीं बैठते।
- संज्ञा
- [सं. चंपक]
- चंपा
- अंगदेश के राजा कर्ण की राजधानी।
- संज्ञा
- [सं. चंपक]
- चंपा
- एक केला।
- संज्ञा
- [सं. चंपक]
- चंपा
- एक घोड़ा।
- संज्ञा
- [सं. चंपक]
- चंपा
- रेशम का एक कीड़ा।
- संज्ञा
- [सं. चंपक]
- चंपा
- एक पेड़।
- संज्ञा
- [सं. चंपक]
- चंपा
- राधा की एक सखी।
- सुमना, बहुला चंपा जुहिला ज्ञाना भाना भाउ - १५८०।
- संज्ञा
- चंपाकली
- गले का एक गहना जिसमें चंपे की कली की तरह के दाने होते हैं।
- संज्ञा
- [हिं चंपा + कली]
- चंपू
- गद्य-पद्य-मय काव्य।
- संज्ञा
- [सं]
- चँपे
- दबाते हैं।
- घर बैठेहि दसन अधरन धरि चँपै स्वाँस भरैं।
- क्रि. स.
- [हिं. चँप ना]
- चंबल
- एक नदी।
- संज्ञा
- [सं. चर्मण्वती]
- चंबल
- पानी की बाढ़।
- संज्ञा
- चंबल
- भिखारी का कटोरा।
- संज्ञा
- [फ़ा. चुंबल]
- चँवर
- सुरागाय की पूँछ के बालों का गुच्छा जो काठ, सोने या चाँदी की डाँड़ी में लगाकर राजा या देवी-देवताओं पर डुलाया जाता है।
- बैठति कर - पीठ ढीठ, अधर - छत्रछाँहि। राजति अति सँवर चिकुर, सरद सभा माँहि - ६५३।
- संज्ञा
- [सं चामर]
- चँवर
- घोड़े या हाथी के सिर पर लगाने की कलगी।
- संज्ञा
- [सं चामर]
- चँवरढार
- वह सेवक जो चँवर डुलाता हो, चँवरधारी सेवक।
- संज्ञा
- [हिं. चँवर + ढारना]
- चँवरी
- लकड़ी की डाँडी जिसमें घोड़े की पूँछ के बाले लगाकर चँवर बनाते हैं।
- संज्ञा
- [हिं. चँवर लकड़ी]
- च
- कछुआ, कच्छप।
- संज्ञा
- [सं.]
- च
- चंद्रमा।
- संज्ञा
- [सं.]
- च
- चोर।
- संज्ञा
- [सं.]
- च
- दुर्जन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चइत
- चैत नामक महीना।
- संज्ञा
- [हिं. चैत]
- चइन
- आराम, सुख, आनंद।
- संज्ञा
- [हिं. चैन]
- चउँ हान
- क्षत्रियों की एक शाखा।
- संज्ञा
- [हिं. चौहान]
- चउक
- आँगन।
- संज्ञा
- [हिं. चौक]
- चउक
- बाजार।
- संज्ञा
- [हिं. चौक]
- चउकी
- छोटा तखत।
- संज्ञा
- [हिं. चौकी]
- चउकी
- पड़ाव, टिकान।
- संज्ञा
- [हिं. चौकी]
- चउकी
- स्थान जहाँ सिपाही रहें।
- संज्ञा
- [हिं. चौकी]
- चउरा
- किसी देवी-देवता, महात्मा, साधु आदि का स्थान
- संज्ञा
- [हिं. चौरा]
- चउहट्ट
- चौहट्ट, चौराहा।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+हाट]
- चऊतरा
- चबूतरा।
- संज्ञा
- [हिं. चौतरा]
- चक
- चकई नाम का खिलौना।
- (क) दै मैया भौंरा चक डोरीं - ६७९।
(ख) ब्रज लरिकन सँग खेलत, हाथ लिए चक डोरि - ६७०।
- संज्ञा
- [सं. चक्र.]
- चक
- चकवा पक्षी, चक्रवाक।
- संज्ञा
- [सं. चक्र.]
- चक
- चक्र नामक अस्त्र।
- संज्ञा
- [सं. चक्र.]
- चक
- चक्का, पहिया।
- संज्ञा
- [सं. चक्र.]
- चक
- छोटा गाँव।
- संज्ञा
- [सं. चक्र.]
- चक
- किसी बात का सिलसिला या क्रम।
- संज्ञा
- [सं. चक्र.]
- चक
- अधिकार, दखल।
- संज्ञा
- [सं. चक्र.]
- चउतरा
- चबूतरा।
- संज्ञा
- [हिं. चौतरा]
- चउथा
- तीसरे के बाद का।
- वि.
- [हिं. चौथा]
- चउदस
- पक्षका चौदहवाँ दिन।
- संज्ञा
- [हिं. चौदस]
- चउदह
- तेरह के बाद का।
- वि.
- [हि. चौदह]
- चउपाई
- एक छंद। खाट।
- संज्ञा
- [हिं. चौपाई]
- चउपार, चउपारि चउपाल, चउपालि
- बैठक।
- संज्ञा
- [हिं. चौपाल]
- चउपार, चउपारि चउपाल, चउपालि
- दालान।
- संज्ञा
- [हिं. चौपाल]
- चउर
- चँवर, मोरछल।
- संज्ञा
- [हिं. चँवर]
- चउर
- धान, चावल।
- संज्ञा
- [हिं. चावल]
- चउरा
- चौतरा।
- संज्ञा
- [हिं. चौरा]
- चक
- एक गहना।
- संज्ञा
- [सं. चक्र.]
- चक
- भरपूर, अधिक, ज्यादा।
- वि.
- चक
- चकपकाया हुआ, भौचक्की, चकित।
- वि.
- चक
- साधु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चकई
- मादा चकवा कविप्रसिद्धि के अनुसार जो अपने नर से रात्रि में बिछुड़ जाती है।
- चकई री, चलि चरन - सरोवर, जहाँ न प्रेम - बियोग - १ - ३३७।
- संज्ञा
- [हिं. चकवा]
- चकई
- घिरनी के आकार का छोटा खिलौना जिसे डोरी के सहारे लड़के नचाते हैं।
- भौंरा चकई लाल पाट को लेडुआ माँग खिलौना।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चकई
- गोल बनावट है।
- वि.
- चकचकाना
- पानी, खून आदि का छन छन कर ऊपर आना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चकचकाना
- भीग जाना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चकचकी
- करताल नामक बाजा।
- संज्ञा
- [अनु.]
- गुदर
- निर्वाह, निभना।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुजर]
- गुदर
- निवेदन, प्रार्थना।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुजर]
- गुदर
- उपस्थिति, हाजिरी।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुजर]
- गुदरना
- त्याग करना, अलग रहना।
- क्रि. अ.
- [फा. गुजर + हिं. ना (प्रत्य.)]
- गुदरना
- हाल कहना, निवेदन करना।
- क्रि. अ.
- [फा. गुजर + हिं. ना (प्रत्य.)]
- गुदरना
- बीतना, गुजरना।
- क्रि. अ.
- [फा. गुजर + हिं. ना (प्रत्य.)]
- गुदरना
- उपस्थित या पेश किया जाना।
- क्रि. अ.
- [फा. गुजर + हिं. ना (प्रत्य.)]
- गुदरानना, गुदराना
- भेंट देना, सामने रखना।
- क्रि. स.
- [फ़ा. गुजरान+हिं. ना (प्रत्य.)]
- गुदरानना, गुदराना
- हाल कहना, निवेदन करना।
- क्रि. स.
- [फ़ा. गुजरान+हिं. ना (प्रत्य.)]
- गुदरिया, गुदरी
- गुदड़ी, कंथा।
- अब कंथा एकै अति गुदरी क्यों उपजी मति मन्द - ३२३१।
- संज्ञा
- [हिं. गुदड़ी]
- गुलंच
- एक प्रकार का कंद।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुलंचा
- एक बेल, गुरुच।
- संज्ञा
- [हिं. गुडुच]
- गुल
- गुलाब का फूल।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुल
- फूल।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुल
-
- गुल खिलना :- (१) आनंददायी घटना होना।
(२) उपद्रव होना। गुल कतरना :- (१) कागज-कपड़े के बेल-बूटे बनाना। (२) अद्भुत काम करना। (३) गालों में हँसते समय पड़नेवाला गड्ढा। (४) शरीर पर गरम धातु से डाला गया दाग या छाप (५) दीपक की बत्ती का जला हुआ भाग। (६) चिलम की तंबाकू का जला हुआ अंश। (७) किसी चीज पर भिन्न रंग का दाग या चिन्ह। (८) आँख का डेला। (९) अंगारा।
- मु.
- गुल
-
- गुल बँधना :- (१) कोयलों को खूब दहकना।
(२) कुछ धन प्राप्त होना।
- मु.
- गुल
- सुंदर स्त्री. नायिका।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गुल
- हलवाई की भट्टी।
- संज्ञा
- [देश.]
- गुल
- कनपटी।
- संज्ञा
- [देश.]
- गुल
- शोर, कोलाहल।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुल]
- चकचौंधी
- अत्यधिक प्रकाश के कारण आँखों की झपक या तिलमिलाहट।
- संज्ञा
- [हिं. चकाचौंध]
- चकचौंह
- आँखों की झपक।
- संज्ञा
- [हिं. चकाचौंध]
- चकचौंहना
- आशा से ताकना।
- क्रि. अ.
- [देश.]
- चकचौहाँ
- देखने योग्य, सुंदर।
- वि.
- [देश.]
- चकडोर, चकडोरि, चकडोरी
- चकई में लपेटने की डोरी।
- अरुझि परयो मेरो मन तब तें, कर झटकत चकडोरि हलत - ६७१।
(ख) दै मैया भंवरा चकडोरी। (ग) हाथ लिए भौंरा चकडोरी।
- संज्ञा
- [हिं. चकई + डोर]
- चकडोर, चकडोरि, चकडोरी
- चकई नामक खिलौना, चक्कर खानेवाली वस्तु, चक्कर, फेरी।
- उत ते वै पठवत इतते नहिं मानत हौं तौं दुहुनि बिच चकडोरी कीनी - २२३८।
- संज्ञा
- [हिं. चकई + डोर]
- चकडोर, चकडोरि, चकडोरी
- चकई की डोरी
- संज्ञा
- [हिं. चकई + डोर]
- चकत
- दाँत की काट या पकड़।
- संज्ञा
- [हिं. चकत्ता]
- चकताई
- दाग, धब्बा, चकत्ता।
- संज्ञा
- [हिं. चकत्ता]
- चकती
- कपड़े, चमड़े अदि का टुकड़ा, चकत्ता, थिगली।
- संज्ञा
- [सं. चक्रवत्]
- चकचाना
- चकाचौंध लगना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चकचाल
- चक्कर।
- संज्ञा
- [सं. चक + हिं. चाल]
- चकचाव
- चकाचौंध।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चकचून
- पिसा हुआ।
- वि.
- [सं. चक्र+चूर्ण]
- चकचोही
- चिकनी-चुपड़ी।
- वि.
- [हिं. चिकना]
- चकचौंध
- कड़ी चमक या। अधिक प्रकाश के सामने आँखों की झपक।
- संज्ञा
- [हिं. चकाचौंध]
- चकचौंधति
- आँख में चमक या चकचौंध उत्पन्न करती है।
- चमकि चमकि चपला चकचौंधति स्याम कहत मन धीर।
- क्रि. स.
- [हिं. चकचौंधना]
- चकचौंधना
- अधिक प्रकाश में आँख झपकना, चकाचौंध होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चक्षुष + अंध]
- चकचौंधना
- आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करना।
- क्रि. स.
- चकचौंधी
- चमक से आँख तिलमिला गयी, प्रकाश के सामने न ठहर सकी।
- कोउ चक्रित भई दसन - चमक पर चकचौंधी अकुलानी - ६४४।
- क्रि. अ.
- [हिं. चकचौंधना]
- चकनाचूर
- बहुत हारा-थका, शिथिल।
- वि.
- [हिं. चक=भरपूर]
- चकपक
- चकित, भौचक्का।
- वि.
- [सं. चक = भ्रांत]
- चकपकाना
- आश्चर्य से ताकना, भौचक्का होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चकपक]
- चकपकाना
- शंकित होकर चौंकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चकपक]
- चकफेरी
- चक्कर, परिक्रमा।
- संज्ञा
- [हिं. चक + फेरी]
- चकबंदी
- हद बाँधना।
- संज्ञा
- (हिं. चक+फ़ा. बंदी]
- चकबस्त
- जमीन की चकबंदी।
- संज्ञा
- [फ़.]
- चकबस्त
- काश्मीरी ब्राह्मणों का एक भेद।
- संज्ञा
- चकमक, चकमक
- एक पत्थर जिस पर चोट करने से जल्दी आग निकलती है।
- संज्ञा
- [तु. चकमक़]
- चकमा
- भुलावा, धोखा।
- संज्ञा
- [सं. चक = भ्रांत]
- चकती
-
- बादल में चकती लगाना :- असंभव बात करने को तैयार होना, बहुत बढ़ी-चढ़ी बातें करना।
- मु.
- चकत्ता
- शरीर पर लाल-नीले उभरे हुए दाग।
- संज्ञा
- [सं. चक्र + वत्]
- चकत्ता
- काटने का चिह्न।
- संज्ञा
- [सं. चक्र + वत्]
- चकत्ता
-
- चकत्ता भरना (मारना) :- काटना।
- मु.
- चकत्ता
- तातारवंशी चगताई के वंशज मुगल बादशाह।
- संज्ञा
- [तु. चग़ताईं]
- चकत्ता
- चगताई वंशज पुरुष।
- संज्ञा
- [तु. चग़ताईं]
- चकदार
- दूसरे की जमीन पर कुँआ बनवाने, उसे काम में लाने और उसका लगान देनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चक + फ़ा.दार (प्रत्य.)]
- चकना
- चकपकाना, भौचक्का होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चक = भ्रांति]
- चकना
- चौंकना, अशंकित होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चक = भ्रांति]
- चकनाचूर
- चूर चूर, खंड खंड।
- वि.
- [हिं. चक=भरपूर]
- चकमा
- हानि, नुकसान।
- संज्ञा
- [सं. चक = भ्रांत]
- चकमा
- एक खेल।
- संज्ञा
- [सं. चक = भ्रांत]
- चकभाकी
- जिसमें चकमक लगा हो।
- वि.
- [हिं. चकमक]
- चकर
- चकवा या चक्रवाक पक्षी।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चकर
- चक्कर, फेरी, परिक्रमा।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चकरबा
- असमंजस. ऐसी स्थिति जब उचित-अनुचित न सूझे
- संज्ञा
- [सं. चक्रव्यूह]
- चकरबा
- झगड़ा।
- संज्ञा
- [सं. चक्रव्यूह]
- चकरा
- पानी का भँवर।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चकरा
- चौड़ा, विस्तृत।
- वि.
- [हिं. चौड़ा]
- चकराना
- सिर का घूमना या चक्कर खाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चक्र]
- चकल
- मिट्टी की पीड़ी जो ऐसे पौधे में लगी रहती है।
- संज्ञा
- [हिं. चक्का]
- चकलई
- चौड़ाई।
- संज्ञा
- [हिं. चकला]
- चकला
- पत्थर या लकड़ी का रोटी बेलने का गोल पाटा।
- संज्ञा
- [हिं. चक + ला (प्रत्य.)]
- चकला
- चक्की।
- संज्ञा
- [हिं. चक + ला (प्रत्य.)]
- चकला
- इलाका, जिला।
- संज्ञा
- [हिं. चक + ला (प्रत्य.)]
- चकला
- चौड़ा, विस्तृत।
- वि.
- चकलाना
- पौधे को एक स्थान से उखाड़कर दूसरे स्थान पर लगाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चकल]
- चकलाना
- चौड़ा करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चकला]
- चकली
- घिरनी, गड़ारी
- संज्ञा
- [सं.चक्र, हिं. चक]
- चकली
- चंदन आदि घिसने का छोटा चकला।
- संज्ञा
- [सं.चक्र, हिं. चक]
- चकराना
- चकित होना, चकपकाना
- क्रि. अ.
- [सं. चक्र]
- चकराना
- चकित करना, आश्चर्य में डालना।
- क्रि. स.
- चकरानी
- दासी, सेविका।
- संज्ञा
- [फ़ा. चाकर]
- चकरिया, चकरिहा
- चाकरी या नौकरी करनेवाला, सेवक
- संज्ञा
- [फ़ा. चाकरी + हा (प्रत्य.)]
- चकरी
- चौड़ी, विस्तृत।
- सौ जोजन विस्तार कनकपुरी, चकरीजोजन बीस - ९ - ७५।
- वि.
- [सं. चक्री]
- चकरी
- चक्की, चक्की का पाट।
- संज्ञा
- चकरी
- लड़कों का चकई नामक खिलौना।
- संज्ञा
- चकरी
- भ्रमित, घूमनेवाला, अस्थिर, चंचल।
- सु तौ ब्याधि हमेकौ लै आए देखी - सुनी न करी। यह तौ सूर तिन्हैं ले सौपौ जिनके मन चकरी - ३३६०।
- वि.
- चकरीन
- चकई नामक खिलौना।
- तैसेइ हरि तैसेइ सब बालक कर भौंरा चकरीन की जोरी।
- संज्ञा
- [हिं. चकरी + न (प्रत्य.)]
- चकल
- पौधे को उखाड़ने और दूसरे स्थान में लगाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चक्का]
- चकली
- चौड़ी, विस्तृत।
- वि.
- [किं. चकला]
- चकवा, चकवाहा
- एक पक्षी जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि रात में यह अपनी मादा से अलग रहता है।
- संज्ञा
- [सं. चक्रवाक]
- चकवाना
- हैरान या चकित होना।
- क्रि. अ.
- [देश.]
- चकवारि
- कछुवा।
- संज्ञाा.
- चकवी
- चकवे की मादा।
- संज्ञाा.
- [हिं. चकवा]
- चकहा, चका
- पहिया, चक्का।
- संज्ञाा.
- [सं. चक्र]
- चकहा, चका
- चकवा, चक्रवाक।
- संज्ञाा.
- [हिं. चकवा]
- चकाचक
- शरीर पर तलवार आदि के प्रहार का शब्द।
- संज्ञाा.
- [अनु.]
- चकाचक
- तर, डूबा हुआ, निमग्न।
- वि.
- चकाचक
- भरपेट।
- क्रि. वि.
- [सं. चक=तृप्त होना]
- चक्रवर्ती
- सार्वभौम राजा, समुद्रात पृथ्वी का राजा।
- संज्ञा
- चक्रवर्ती
- किसी दल का समूह।
- संज्ञा
- चकासना
- चमकानी।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमकना]
- चकित
- विस्मित, आश्चर्यान्वित।
- सूरदास - प्रभु - रूप चकित भए पंथ चलत नर बाम - ९ - ४४।
- वि.
- [सं.]
- चकित
- हैरान, घबराया हुआ।
- अजित रूप ह्वै शैल घरो हरि जलनिधि मथिबे काज। सुर अरु असुर चकित भए देखे किये भक्त के काज -
- वि.
- [सं.]
- चकित
- चौकन्ना, डरा हुआ।
- वि.
- [सं.]
- चकित
- कायर।
- वि.
- [सं.]
- चकित
- विस्मय।
- संज्ञा
- चकित
- भय।
- संज्ञा
- चकित
- कायरता।
- संज्ञा
- चकितवंत
- विस्मित, चकित, चकपकाया हुआ।
- अब अति चकितवंत मन मेरो। हौं आयौ निर्गुन उपदेसन भयौ सगुन कौ चेरौ - ३४३१।
- वि.
- [सं. चकित+वत् (प्रत्य.)]
- चकिताई
- विस्मय, अचरज, आश्चर्य।
- संज्ञा
- [हिं. चकित+आई (प्रत्य.)]
- चकी
- चकित, विस्मित।
- वि.
- [सं.चकित]
- चकुला
- चिड़िया का बच्चा।
- संज्ञा
- [देश.]
- चकृत
- विस्मित, चकपकायी हुई।
- अंबू पंडन शब्द सुनत ही चित चकृत उठि धावत - सा, उ, ३३।
- वि.
- [सं. चकित]
- चकृत
- हैरान, घबराई हुई।
- कौसिल्या सुनि परम दीन ह्वै, नैन नीर ढरकाए। बिह्वल तन - मन, चकृत भई सो यह प्रतच्छ सुपनाए - ९ - ३१।
- वि.
- [सं. चकित]
- चकैया
- चकई।
- संज्ञा
- [हिं. चकई]
- चकोटना
- चुटकी काटना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिकोटी]
- चकोतरा
- एक बड़ा नीबू।
- संज्ञा
- [सं चक्र = गोला]
- चकोर
- एक तीतर जिसके काले काले रँग पर सफेद चित्तियाँ होती हैं। चोंच और आँखें इसकी लाल होती हैं। भारतीय कवियों में यह चंद्रमा का बड़ा प्रेमी प्रसिद्ध है और उन्होंने इसके प्रेम का बराबर उल्लेख किया है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुलेनार
- लाल रंग।
- संज्ञा
- [हि. गुलनार]
- गुलेराना
- सुन्दर फूल।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुल + अ. राना]
- गुलेल
- एक तरह की कमान जिससे मिट्टी की गोलियाँ चलायी जाती हैं।
- संज्ञा
- [फ़ा. गिलूल]
- गुलेलची
- गुलेल चलानेवाला व्यक्ति।
- संज्ञा
- [हिं. गुलेल+ची (प्रत्य.)]
- गुलेला
- गुलेल से चलाने की गोली।
- संज्ञा
- [हिं. गुलेल]
- गुलेला
- बड़ी गुलेल।
- संज्ञा
- [हिं. गुलेल]
- गुलौर, गुलौरा
- वह स्थान जहाँ गुड़ बनाया जाता है।
- संज्ञा
- [सं. गुल = गुड़ हिं. औरा (प्रत्य.)]
- गुल्गा
- एक तरह का ताड़।
- संज्ञा
- [देश.]
- गुल्फ
- एँड़ी के ऊपर की गाँठ।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुल्म
- पौधों की एक जाति।
- एक जाति ह्वै रहे वृन्दावन गुल्मलता कर बास - सारा, ५७९।
- संज्ञा
- [सं]
- चकाचौंध, चकाचौंधी
- बहुत चमक या प्रकाश से आँखों की झपक या तिलमिलाहट।
- चमकि गए बीर सब चकाचौंधी लगी चितै डरपे असुर घटा घोटा - २५९१।
- संज्ञा
- [सं. चक=चमकना +चौ = चारो ओर + अंध]
- चकाना
- अचंभे से ठिठकना, चकराना, हैरान होना, चकपकाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चक=भ्रांत]
- चकाने
- चकराये, घबराय।
- क्रि. अ.
- [हिं. चकाना]
- चकाबू, चकाबूह
- चक्रव्यूह।
- संज्ञा
- [सं. चक्रव्यूह]
- चकार
- चवर्ग का पहला वर्ण।
- संज्ञा
- [सं.]
- चकार
- सहानुभूति सूचक शब्द।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्रबंधु, चक्रबांधव
- सूर्य (जिसके प्रकाश में चकवा चकवी साथ रहते हैं)।
- संज्ञा
- [सं. चक्र = चकवा]
- चक्रभेदिनी
- रात (जो चकवा-चकवी को अलग कर देती है)।
- संज्ञा
- [सं. चक्र = चकवा]
- चक्रमुद्रा
- विष्णु के अयुधों के चिन्ह जो वैष्णव बाहु आदि पर गुदाते हैं।
- मूड़े मूड़ कंठ बनमाला मुद्रा चक्र दिये। सब कोउ कहते गुलाम स्याम कौ सुनत सिरात हिए।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्रवर्ती
- सार्वभौम।
- वि.
- [सं. चक्रवर्तिन]
- चक्कर
- घुमाव का रास्ता।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चक्कर
- फेरा, परिक्रमा।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चक्कर
- पहिए की तरह घूमना।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चक्कर
-
- चक्कर काटना :- मँडराना, बार बार आनाजाना।
चक्कर खाना :- (१) टेढ़े-मेढ़े या घुमावदार मार्ग से जाना। (२) धोखा खाना। (३) भटकना, मारे मारे फिरना। चक्कर पड़ना :- ज्यादा घुमाव या फेर पड़ना। चक्कर आना :- हैरान होना, दंग रह जाना। चक्कर में डालना :- (१) हैरान करना। (२) कठिन स्थिति में डालना। चक्कर में पड़ना :- (१) हैरान होना। (२) दुबिधा में पड़ना। चक्कर लगाना :- (१) मँडराना। (२) घूमना-फिरना।
- मु.
- चक्कर
- घुमाव, पेंच, जटिलता, धोखा, भुलावा।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चक्कर
-
- चक्कर में आना (पड़ना) :- धोखा खाना।
- मु.
- चक्कर
- सिर घूमना, मूर्च्छा।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चक्कर
- पानी का भँवरा।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चक्कर
- चक्र नामक अस्त्र।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चक्कवइ
- चक्रवर्ती (राजा)।
- वि.
- [सं. चक्रवर्ती, प्रा.चक्क वत्तीं]
- चक्कवर्त
- चक्रवर्ती राजा।
- संज्ञा
- [सं. चक्रवर्ती]
- चक्कवा
- चकवा पक्षी।
- संज्ञा
- [सं. चक्रवाक]
- चकवै
- चक्रवर्ती राजा।
- वि.
- [हिं. चक्क वइ]
- चक्का
- पहिया।
- संज्ञा
- [सं. चक्र, प्रा. चक]
- चक्का
- पहिये की तरह गोल चीज।
- संज्ञा
- [सं. चक्र, प्रा. चक]
- चक्का
- बड़ा टुकड़ा
- संज्ञा
- [सं. चक्र, प्रा. चक]
- चक्का
- जमा हुआ भाग, थक्का।
- संज्ञा
- [सं. चक्र, प्रा. चक]
- चक्का
- ईटों का ढेर।
- संज्ञा
- [सं. चक्र, प्रा. चक]
- चक्काब्यूह
- चक्रव्यूह।
- संज्ञा
- [सं. चक्रव्यूह]
- चक्की
- आटा-दाल आदि पीसने का यंत्र, जाँता।
- संज्ञा
- [सं. चक्री, प्रा. चक्की]
- चकोरी
- मादा चकोर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चकोरै
- नर चकोर।
- तुव मुख दरस आस के प्यासे हरि के नयन चकोरै - २२७५।
- संज्ञा
- [हिं. चकोर]
- चकोह
- पानी का भँवर।
- संज्ञा
- [सं. चक्रवाह]
- चकौंध
- चमक या प्रकाश की अधिकता से आँख की झपक।
- संज्ञा
- [हिं. चकाचौंध]
- चक्क
- पीड़ा, दर्द।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्क
- चकवा पक्षी।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चक्क
- कुम्हार को चाक।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चक्क
- दिशा, प्रांत।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चक्कर
- पहिए की तरह गोल वस्तु।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चक्कर
- गोल घेरा।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चक्की
-
- चक्की की मानी :- (१) चक्की के निचले पाट की वह खुँटी जिस पर ऊपरी पाट घूमती है।
(२) ध्रुव तारा। चक्की छूना :- (१) चक्की चलाना शुरू करना। (२) अपनी कथा छेड़ना। चक्की पीसना :- (१) चक्की चलाना। (२) कड़ा परिश्रम करना।
- मु.
- चक्की
- पैर के घुटने की गोल हड्डी।
- संज्ञा
- [सं. चक्रिक]
- चक्की
- बिजली, बज्र।
- संज्ञा
- [सं. चक्रिक]
- चक्कू
- चाकू।
- संज्ञा
- [हिं. चाकू]
- चक्खै
- स्वाद लेकर खाय।
- क्रि. स.
- [हिं. चखना]
- चक्र
- पहिया।
- थकित होत रथ चक्र हीन ज्यौं - १ - २०१।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- कुम्हार का चाक।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- चक्की, जाँता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- कोल्हू।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- पहिए की। तरह गोल वस्तु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- शरीर के कमल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- मंडल, घेरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- रेखाओं से घिरे हुए खाने।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- घुमाव, चक्कर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- दिशा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- धोखा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्रतीर्थ
- दक्षिण भारत का एक तीर्थं।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्रतीर्थ
- नैमिषारण्य का एक कुंड।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्रधर, चक्रधारी
- जो चक्र धारण करे।
- वि.
- [सं.]
- चक्रधर, चक्रधारी
- चक्र धारण करनेवाला।
- संज्ञा
- चक्र
- एक गोल अस्त्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- विष्णु भगवान का विशेष अस्त्र।
- ग्राह गहे गजपति मुकरायौ, हाथ चक्र लै धायौ - १ - १०।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
-
- चक्र गिरना (पड़ना) :- विपत्ति आना।
- मु.
- चक्र
- पानी का भँवर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- हवाका चक्कर, बवंडर।
- अति विपरीत तृनावर्त आयौ। बात - चक्र मिस ब्रज ऊपर परि नंद - पौरि कैं भीतर धायौ - १० - ७७।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- समूह, मंडली।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- दल, झुंड।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- सेना का एक व्यूह।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- मंडल, प्रदेश।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्र
- चकवा पक्षी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्रधर, चक्रधारी
- विष्णु।
- संज्ञा
- चक्रधर, चक्रधारी
- श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- चक्रधर, चक्रधारी
- जादूगर।
- संज्ञा
- चक्रधर, चक्रधारी
- साँप।
- संज्ञा
- चक्रपाणि, चक्रपाणी, चक्रपानि, चक्रपानी
- चक्रधारी विष्णु।
- संज्ञा
- [सं. चक्र + पाणि = हाथ]
- चक्रवाक
- चकवा पक्षी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्रवाकि
- चकवी, चकई।
- रबि - छबि कैंधौं निहारि, पंकज बिगसाने। किधौं चक्रवाक निरखि, पतिहीं रति मानें - ६४२।
- संज्ञा
- [सं. चक्रवाक]
- चक्रवात
- वेग से चक्कर खाती हुई हवा, बवंडर, वातचक्र।
- तृनावर्त बिपरीत महाखल सो नृप राय पठायौ। चक्रवात ह्वै सकल घोष मैं रज धुंधर ह्वै धायौ–सारा. ४२८।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्रवाल
- अंतरिक्ष।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्रव्यूह
- सेना की एक स्थिति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्रित
- हैरान, घबराया हुआ।
- (क) नंदहिं कहति जसोदा रानी। माटी कैं मिस मुख दिखायौ, तिहुँ लोक रजधानी। नदी सुमेर देखि चक्रित भई, यकी अकथ कहानी १० - २५६।
- वि.
- [सं. चकित]
- चक्रित
- चौकन्ना, सशंकित।
- (क) गोपाल दुरै हैं माखन खात।…..। उठि अवलोकि ओट ठाढ़े ह्वै, जिहिं बिधि हैं लखि लेत। चक्रित नैन चहूँ दिसि चितवत, और सखनि कौ देत - १० - २८३।
(ख) तरु दोउ धरनि गिरे भहराइ। जर सहित अरराइ कै, आघात सब्द सुनाई। भए चक्रित लोग ब्रज के सकुचि रहे डराइ - ३८७।
- वि.
- [सं. चकित]
- चक्रित
- चकित, विस्मित, भौचक्का, भ्रांत।
- (क) सुनत नंद जसुमति चक्रित चित, चक्रित गोकुल के नर - नारि - ४३०।
(ख) देखि बदन चक्रित भई सौंतुष की सपनैं ४३९।
- वि.
- [सं. चकित]
- चक्री
- चक्र धारण करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं. चक्रिन्]
- चक्री
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं. चक्रिन्]
- चक्री
- चकवा पक्षी।
- संज्ञा
- [सं. चक्रिन्]
- चक्री
- कुम्हार।
- संज्ञा
- [सं. चक्रिन्]
- चक्री
- साँप।
- संज्ञा
- [सं. चक्रिन्]
- चक्री
- जासूस. दूत।
- संज्ञा
- [सं. चक्रिन्]
- चक्री
- तेली।
- संज्ञा
- [सं. चक्रिन्]
- चक्रांक
- चक्र आदि का। चिह्न जो वैष्णव शरीर पर गुदाते हैं।
- संज्ञा
- [सं. चक्र + अंक]
- चक्रांकित
- जिसके चक्र आदि का चिह्न शरीर पर गुदा या अंकित हो।
- वि.
- [सं.]
- चक्रांकित
- वैष्णवों का एक वर्ग जो विष्णु के चक्र आदि आयुधों के चिह्न शरीर पर गुदाता है।
- संज्ञा
- चक्राकार
- गोल।
- वि.
- [सं. चक्र + आकार]
- चक्राकी
- मादा हंस।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्राट
- साँप पकड़नेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्राट
- साँप का विष झाड़नेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्राट
- धूर्त।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्रायुध
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्रिक
- चक्र धारण करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुल्लाल
- एक लाल फूल।
- संज्ञा
- [फा.]
- गुल्लाल
- श्मशान।
- संज्ञा
- गुल्ली
- फल की गुठली।
- संज्ञा
- [सं. गुलिका=गुठली]
- गुल्ली
- महुए का बीज।
- संज्ञा
- [सं. गुलिका=गुठली]
- गुल्ली
- किसी चीज को छोटा नुकीला टुकड़ा।
- संज्ञा
- [सं. गुलिका=गुठली]
- गुल्ली
- लकड़ी का छोटा टुकड़ा जिसे डंडे से मारने का एक खेल होता है।
- संज्ञा
- [सं. गुलिका=गुठली]
- गुल्ली
- केवड़े का फूल।
- संज्ञा
- [सं. गुलिका=गुठली]
- गुल्ली
- एक तरह की मैना।
- संज्ञा
- [सं. गुलिका=गुठली]
- गुल्ली
- गन्ने की गँडेरी।
- संज्ञा
- [सं. गुलिका=गुठली]
- गुल्ली
- एक पासा।
- संज्ञा
- [सं. गुलिका=गुठली]
- चखपुतरि, चखपुतरी
- अत्यंत प्रिय पात्र।
- संज्ञा
- [हिं. चक्षु + पुतली]
- चखा
- चखनेवाला।
- वि.
- [हिं. चखना]
- चखा
- रस या स्वाद लेनेवाला, रसिक।
- वि.
- [हिं. चखना]
- चखाचखी
- कहा-सुनी।
- संज्ञा
- [हिं. चख चख]
- चखाना
- स्वाद दिलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चखना का प्रे.]
- चखावहु
- स्वाद दो, खिलाओ।
- कनक कलस रस मोहिं चखावहु - १०५०।
- क्रि. स.
- [हिं. चखना]
- चखु
- आँख।
- संज्ञा
- [सं. चक्षु]
- चखैहौं
- चखाऊँगा, खिलाऊँगा, स्वाद दिलाऊँगा।
- यह हित मनै कहत सूरज प्रभु, इहिं कृत कौ फज तुरत चखैहौं - ७ - ५।
- क्रि. स.
- [हिं. चखना]
- चखोड़ा, चखौड़ा
- काजल की लंबी रेखा जो बच्चों को नजर से बचाने के लिए उनके माथे पर लगाई जाती है।
- (क) लट लटकनि सिर चारु चखौड़ा, सुठि सोभा सिसु भाल - १० - ११४।
(ख) भाल तिलक पख स्याम चखौड़ा जननी लेति बलाइ - १० - १३३। (ग) चारु चखौड़ा पर कुंचित कच, छबि मुक्ता ताहू मैं - १० - १४७। (घ) अंजन दोउ दृग भरि दीन्हौ। भ्रव चारु चखौड़ा कीन्हौ - १० - १८३।
- संज्ञा
- [हिं. चख + ओड़ा]
- चखौती
- चटपटी भोजन।
- संज्ञा
- [हिं. चखना]
- चक्री
- चकवर्ती।
- संज्ञा
- [सं. चक्रिन्]
- चक्री
- कौआ।
- संज्ञा
- [सं. चक्रिन्]
- चक्री
- गदहा।
- संज्ञा
- [सं. चक्रिन्]
- चक्री
- रथी।
- संज्ञा
- [सं. चक्रिन्]
- चक्षुःश्रवा
- साँप जो आँख से सुनता भी है।
- संज्ञा
- [सं. चक्षुःश्रवस्]
- चक्षु
- आँख।
- संज्ञा
- [सं. चक्षुस्]
- चक्षु रिंद्रिय
- देखने की इंद्रिय, आँख।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्षश्रवा
- साँप।
- चक्षुश्रवा डर हर ग्रसी ज्यौं छिन द्वितिया बपु रेख - २७५१।
- संज्ञा
- [हिं. चक्षःश्रवा]
- चक्षुष्पति
- सूर्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- चक्षुष्य
- जो (औषध आदि) नेत्रों को हितकर हो।
- वि.
- [सं.]
- चक्षुष्य
- जो नेत्रों को प्रिय लगे, सुंदर।
- वि.
- [सं.]
- चक्षुष्य
- नेत्र-संबंधी।
- वि.
- [सं.]
- चक्षुष्य
- केतकी, केवड़ा।
- संज्ञा
- चक्षुष्य
- अंजन।
- संज्ञा
- चख
- आँख।
- लटकति बेसरि जननि की, इकटक चख लावै - १० - ७२।
- संज्ञा
- [सं. चक्षु स्]
- चख
- झगड़ा, तकरार, टंटा।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चखचख
- बकबक, कहासुनी।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चखचौंध
- अधिक प्रकाश के कारण आँखों की झपक या तिलमिलाहट।
- संज्ञा
- [हिं. चकचौंध]
- चखना
- स्वाद लेना।
- क्रि. स.
- [सं. चष]
- चखपुतरि, चखपुतरी
- आँख की पुतली।
- संज्ञा
- [हिं. चक्षु + पुतली]
- चटक
- तेजी, फुर्ती।
- संज्ञा
- [सं. चटुल = चंचल]
- चटक
- तेजी या फुर्ती से, चटपट।
- क्रि. वि.
- चटक
- फुर्तीला, तेज |
- वि.
- चटक
- चटपटे या तीक्ष्ण स्वाद का।
- वि.
- चटक
- छपे कपड़ों को धोने की रीति।
- संज्ञा
- चटकई
- तेजी, फुर्ती।
- संज्ञा
- [हिं. चटक]
- चटकत
- ‘चट' ध्वनि करके टूटता या फूटता है, तड़कता है।
- दसहूँ दिसा दुसह दवामिनि, उपजी है इहिं काल। पटकत बाँस, काँस कुस चटकत, लटकत ताल तमाल - ६१५।
- क्रि. अ.
- [हिं. चटकना (अनु.)]
- चटकदार
- चटकीला, भडकीला, चमकीला।
- वि.
- [हिं. चटक + फ़ा. दार (प्रत्य.)]
- चटकन
- चटकना, तड़कना।
- संज्ञा
- [हिं. चटकना]
- चटकन
- चमकदमक, कांति।
- संज्ञा
- [हिं. चटक]
- चट
- घाव का चकत्ता।
- संज्ञा
- [सं. चित्र, हिं. चित्ती]
- चट
- दोष, ऐब।
- संज्ञा
- [सं. चित्र, हिं. चित्ती]
- चट
- किसी कड़ी चीज के टूटने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु]
- चट
- उँगली आदि चटकाने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु]
- चट
- चाट पोंछकर खाया हुआ।
- वि.
- [हिं. चाटना]
- चट
-
- चटकर जाना :- (१) झटपट खा लेना।
(२) दूसरे की चीज हड़प लेना या हजम कर जाना।
- मु.
- चटक
- गौरैया पक्षी, चिड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चटक
- चमकदमक, कांति।
- मुकुट लटकि भ्रकुटी मटक देखौ कुंडल की चटक सों अटकि परी दृगनि लपट - ३०३९।
- संज्ञा
- [सं. चटुल = सुंदर]
- चटक
- चटक-मटक-बनाव सिंगार, चमकदमक।
- यौ
- चटक
- चटकीला, चमकीला, मनोहर, आकर्षक।
- (क) नटवर बेष बनाये चटक सो ठाढो रहे, जमुना के तीर नित नव मृग निकट बोलावै - ८४०।
(ख) ऐसो माई एक कोद को हेत। जैसे बसन कुसुंभ रँग मिलिकै नेकु चटक पुनि स्वेत - ३३४६।
- वि.
- चगड़
- चालाक, चतुर, काइयाँ।
- वि.
- [देश.]
- चचीडा, चचेंडा
- एक तरकारी।
- संज्ञा
- [सं. चिचिड]
- चचेरा
- चाचा से उत्पन्न।
- वि.
- [हिं. चाचा]
- चचोड़ना, चचोरना
- दाँत से दबा-दबाकर या खींच खींचकर रस चूसना।
- क्रि. स.
- [अनु. या देश.]
- चचोरत
- चुसता है।
- सूरदास प्रभु ऊख छाँड़ि के चतुर चकोरत आग - ३०अ९५।
- क्रि. स.
- [हिं. चचोड़ना]
- चचोरैं
- चूसते हैं।
- आपु गयौ तहाँ जहँ प्रभु परे पालनैं, कर गहे चरन अँगुठा चचोरैं - १० - ६२।
- क्रि. स.
- [हिं. चचोड़ना]
- चच्छवादिक
- चक्षु् इत्यादि।
- तामैं सक्ति अपनी धरी। चच्छावादिक इंद्री बिस्तरी - ३ - १३।
- संज्ञा
- [सं. चक्षु +आदिक]
- चच्छु
- नेत्र।
- सो अंजन कर ले सुत - चच्छुहिं आँजति जसुमति माइ - ४८७।
- संज्ञा
- [सं. चक्षु]
- चट
- झटपट, तुरंत।
- क्रि. वि.
- [सं. चटुल = चंचल]
- चट
- दाग, धब्बा।
- संज्ञा
- [सं. चित्र, हिं. चित्ती]
- चटकना
- ‘चट' शब्द करके टुडनी या तडकना
- क्रि. अ.
- [अनु, चट]
- चटकना
- (कोयले आदि का) चटचट करना।
- क्रि. अ.
- [अनु, चट]
- चटकना
- चिड़चिड़ाना, झल्लाना।
- क्रि. अ.
- [अनु, चट]
- चटकना
- (उँगली का) चटचट करना।
- क्रि. अ.
- [अनु, चट]
- चटकना
- कलियों का फूटना।
- क्रि. अ.
- [अनु, चट]
- चटकना
- अनबन या खटपट होना।
- क्रि. अ.
- [अनु, चट]
- चटकना
- तमाचा, थप्पड़
- संज्ञा
- [अनु. चट]
- चटकै - मटक
- बनाव-सिंगार।
- संज्ञा
- [हिं. चटकना +मटकना]
- चटकै - मटक
- नाज-नखरा।
- संज्ञा
- [हिं. चटकना +मटकना]
- चटका
- फुर्ती, जल्दी।
- जुग जुग यहै बिरद चलि आयो टेरि कहत हौ याते। मरियत लाज पाँच पतितन में होब कहा चटका ते।
- संज्ञा
- [हिं. चट]
- चटकारा, चटकारे
- चमकीला, चटकीला।
- वि.
- [सं. चटुल]
- चटकारा, चटकारे
- चंचल, चपल, तेज।
- अटपटात अलसात पलक पट मूँदत कबहूँ करत उघारे। मनहुँ मुदित मरकत मनि आँगन खेलत खंजरीट चटकारे - २१३२।
- वि.
- [सं. चटुल]
- चटकारा, चटकारे
- स्वाद या रस लेते हुए जीभ चटकाने का शब्द।
- वि.
- [अनु. चट]
- चटकारा, चटकारे
-
- चटकारे का :- चरपरे या मजेदार स्वाद का।
चटकारे भरना :- स्वाद लेकर चाटना।
- मु.
- चटकाली
- चिड़ियों का समूह।
- संज्ञा
- [सं. चटक + आलि]
- चटकाली
- गौरैया का झुंड।
- संज्ञा
- [सं. चटक + आलि]
- चटकाहट
- चटकने का शब्द या भाव।
- संज्ञा
- [हिं. चटकना]
- चटकाहट
- कलियाँ खिलने का शब्द।
- संज्ञा
- [हिं. चटकना]
- चटकि
- बिगड़कर, झगड़कर, अनबन करके।
- एक ही संग हम तुम सदा रहति हीं आजु ही चटकि तू भई न्यारी - २२६९।
- क्रि. अ.
- [हिं. चटकना]
- चटकीला, चटकीलो
- चटक रंग का, भड़कीला
- चटकीला पट लपटानो कटि बंसीवट जमुना के तट नागर नट ८३९।
(२) चमकदार। (३) चटपटे स्वाद का।
- वि.
- [हिं. चटक + ईला (प्रत्य.)]
- चटका
- चकत्ता।
- संज्ञा
- [सं. चित्र, हिं. चित्ती]
- चटका
- चटपटा या तीक्ष्ण स्वाद।
- संज्ञा
- [हिं. चाट]
- चटका
- चस्का।
- संज्ञा
- [हिं. चाट]
- चटकाई
- चटकीलापन।
- संज्ञा
- [हिं. चटक]
- चटकाना
- तड़काना, तोड़ना।
- क्रि. स.
- [अनु. चट]
- चटकाना
- उँगलियाँ दबाकर चटचट शब्द करना।
- क्रि. स.
- [अनु. चट]
- चटकाना
- किसी वस्तु से चटचट शब्द निकालना।
- क्रि. स.
- [अनु. चट]
- चटकाना
-
- जूतियाँ चटकाना :- मारे-मारे फिरना।
- मु.
- चटकाना
- अलग या दूर करना।
- क्रि. स.
- [अनु. चट]
- चटकाना
- चिढ़ाना।
- क्रि. स.
- [अनु. चट]
- चटपटी
- उतावली, शीघ्रता, हड़बड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. चटपट]
- चटपटी
- घबराहट, आकुलता।
- संज्ञा
- [हिं. चटपट]
- चटपटी
- उत्सुकता, छटपटाहट।
- (क) देखे बिना चटपटी लागति कछू मूड़ पड़ि पर ज्यौं।
(ख) नैनन चटपटी मेरे तब ते लगी रहति कहौ प्रान प्यारे निर्धन कौ धन - १८१०।
- संज्ञा
- [हिं. चटपट]
- चटपटी
- चटपटे स्वाद की।
- वि.
- [हिं. चटपटा]
- चटपटी
- चटपटे स्वादवाली चीज।
- संज्ञा
- चटर
- चट चट शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चटवानां
- चाटने का काम करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाटना का प्रे.]
- चटवानां
- तलवार पर सान रखना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाटना का प्रे.]
- चटशाला, चटसार, चटसाल
- बच्चों की पाठशाला, शिक्षालय।
- (क) तिनकै सँग चटसार पठायौ। राम - नाम सौं तिन चित लायौ - ७.२।
(ख) अब समझीं हम बात तुम्हारी पढे एक चटसार - १४८३। (ग) चातक मोर चकोर् बदत पिक मनहु मदन चटसार पढ़ावत - १०उ. - ५।
- संज्ञा
- [सं. चेतक या हिं. चट्ट=चेला+सार, साल या शाला]
- चटशाला, चटसार, चटसाल
- शाला, समाज, समूह।
- भँवर कुरंग काग अरु। कोकिल कपटिन की चटसार - २६८७।
- संज्ञा
- [सं. चेतक या हिं. चट्ट=चेला+सार, साल या शाला]
- गुवा, गुवाक
- चिकनी सुपारी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुवार
- अहीर, ग्वाला।
- संज्ञा
- [हिं. ग्वाल]
- गुवारि
- ग्वालिन, गोपी।
- हरि कौं टेरत फिरति गुवारि - ४६१।
- संज्ञा
- [हिं. पुं. ग्वाल]
- गुवाल, गुवाला
- ग्वाल, अहीर।
- (क) सब आनंद - मगन गुवाल, काहूँ बदत नहीं - १० - २४।
(ख) बिहँसत हरि - संग चले गुवाला - ४९९ |
- संज्ञा
- [हिं. ग्वाल]
- गुविंद
- श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं. गोविंद]
- गुसल
- स्नान।
- संज्ञा
- [अ.गुस्ल]
- गुसलखाना
- नहाने का घर या स्थान।
- संज्ञा
- [अ. गुस्ल + फा. खाना]
- गुसाँई
- प्रभु, स्वामी, ईश्वर।
- बिनु दीन्हैं ही देत सूर - प्रभु ऐसे हैं। जदुनाथ गुसाई' - १ - ३।
- संज्ञा
- [सं. गोस्वामी]
- गुसाँई
- वैष्णव-आचार्य।
- संज्ञा
- [सं. गोस्वामी]
- गुसाँई
- उपदेशक, वक्ता (व्यंग्य)।
- होहु बिदा घर जाहु गुसाई माने रहियो नात - २६५७।
- संज्ञा
- [सं. गोस्वामी]
- चटकीलापन
- चमकदमक, कांति।
- संज्ञा
- [हिं. चटकीला + पन (प्रत्य.)]
- चटकीलापन
- चटपटापन
- संज्ञा
- [हिं. चटकीला + पन (प्रत्य.)]
- चटकोरा
- एक खिलोना।
- संज्ञा
- [देश, ]
- चटखना
- तड़कना, खिलना।
- क्रि. स.
- [हिं. चटकना]
- चटखना
- तमाचा, थप्पड़।
- संज्ञा
- चटचट
- चटकने या टूटने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चटचट
- उँगलियाँ चटकाने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चटचटकि
- चटचटाकर (टूटना, फूटना) या जलना।
- झपटि झपटत लपट, फूल - फल चटचटकि, फटत लटलट द्रुम द्रुमनवारौ - ५९६।
- क्रि. अ.
- [हिं. चटचटाना]
- चटचटात
- चटचट ध्वनि करके (टूटता या फूटता)।
- सरन - सरन अब मरत हौं, मैं नहिं जान्यौ तोहिं। चटचटात अँग फटत हैं, राखु राखु प्रभु मोहिं - ५८९।
- क्रि. अ.
- [हिं. चटचटाना]
- चटचटाना
- चटचट शब्द करके टूटना या फूटना।
- क्रि. अ.
- [सं. चट = भेदन]
- चटचटाना
- लकड़ी-कोयले का चटचट करके जलना।
- क्रि. अ.
- [सं. चट = भेदन]
- चटचेटक
- इंद्रजाल।
- संज्ञा
- [सं. चेटक]
- चटनी
- चाटने की पतली चीज।
- संज्ञा
- [हिं. चाटना]
- चटनी
- धनिया-पुदीना आदि की पिसी हुई चरपरी चीज।
- संज्ञा
- [हिं. चाटना]
- चटनी
-
- चटनी करना (बनाना) :- चूर चूर करना।
- मु.
- चटपट
- झटपट, तुरंत
- क्रि. वि.
- [अनु.]
- चटपट
-
- चटपट होना :- चटपट मर जाना।
- मु.
- चटपटा
- चरपरे स्वाद का।
- वि.
- [हिं. चाट]
- चटपटाइ
- हड़बड़ी कर, जल्दी करके।
- कर सौं हाँकि सुतहिं दुलरावति, चटपटाइ बैठे अतुराने - १० - १९७।
- क्रि. अ.
- [हिं. चटपट, चटपटाना]
- चटपटाना
- जल्दी करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चटपट]
- चटाइ
- चटाकर।
- गउ चटाइ मम त्वचा उपारी - ६ - ५।
- क्रि. स.
- [हिं. चटाना]
- चटाई
- सींक, ताड़ के पत्तों आदि से बननेवाला बिछावन, साथरी।
- संज्ञा
- [सं. कट]
- चटाई
- चटाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चाटना]
- चटाक, चटाख
- टूटने या चटकने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चटाक, चटाख
- चकत्ता, दाग।
- संज्ञा
- [हिं. चट्टा]
- चटाका
- टूटने या चटकने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चटाका
-
- चटाके का :- बहुत तेज़ या कड़ा।
- मु.
- चटाना
- चटाने खिलाने का काम करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाटना का प्रे.]
- चटाना
- चटाना, खिलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाटना का प्रे.]
- चटाना
- घूस देना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाटना का प्रे.]
- चटाना
- छुरी आदि पर सान रखाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाटना का प्रे.]
- चटापटी
- शीघ्रता।
- संज्ञा
- [हिं. चटपट]
- चटापटी
- शीघ्र या चटपट मृत्यु।
- संज्ञा
- [हिं. चटपट]
- चटावन
- बच्चे को पहली बार अन्न चटाने का संस्कार, अन्नप्राशन।
- संज्ञा
- [हिं. चटाना]
- चटावै
- चटाती है, खिलाती है।
- दधिहिं बिलोइ. सदमाखन राख्यौ, मिश्री सानि चटावै नँदलाल - १० - ८४।
- क्रि. स.
- [हिं. चटाना]
- चटिक
- चटपट, तुरंत।
- क्रि. वि.
- [हिं. चट]
- चटियल
- जिसमें पेड़-पौधे नहों।
- वि.
- [देश.]
- चटिया
- दास. नौकर।
- अजामील, गनिका व्याध, नृग, ये सब मेरे। चटिया। उनहूँ जाइ सौंह दे पूछौ, मैं करि पठयौ सटिया - १ - १९२।
- संज्ञाा.
- [सं. चेटक]
- चटिहाट
- जड़, मूर्ख।
- वि.
- [देश.]
- चटी
- पाठशाला।
- संज्ञा
- [हिं. चट्ट = चेला]
- चटु
- खुशामद।
- संज्ञा
- [सं.]
- चटु
- पेट, उदर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चटुल
- चंचल, चपल।
- वि.
- [सं.]
- चटुल
- चालाक, काँइयाँ।
- वि.
- [सं.]
- चटुल
- जिसे देखकर सुख मिले, प्रियदर्शन। सुंदर |
- चटुल चारु रतिनाथ के हरि होरी है। - २४५५ (८)।
- वि.
- [सं.]
- चटुला
- बिजली, चपला।
- संज्ञा
- [संज्ञा]
- चटोरा
- अच्छी चीजें खाने का लालची, स्वादू।
- वि.
- [हिं. चाट + ओरा (प्रत्य.)]
- चटोरा
- लोभी।
- वि.
- [हिं. चाट + ओरा (प्रत्य.)]
- चटोरापन
- अच्छी चीजें खाने का लोभ या व्यसन।
- संज्ञा
- [हिं. चटोरा + पन (प्रत्य.)]
- चट्ट
- चाट-पोंछ कर खाया हुआ।
- वि.
- [हिं. चाटना]
- चट्टी
- पैर को एक गहना।
- संज्ञा
- [देश.]
- चट्टी
- हानि।
- संज्ञा
- [हिं. चाँटा]
- चट्टी
- दंड।
- संज्ञा
- [हिं. चाँटा]
- चटटू
- चटोरा, स्वादू, लोभी।
- वि.
- [हिं. चाट]
- चटटू
- पत्थर का खरल।
- संज्ञा
- [हिं. चट्टान]
- चटटू
- चाटने का खिलौना।
- संज्ञा
- [हिं. चाटना]
- चड़ बड़
- बकबक, झकझक।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चड्डा
- जाँघ का ऊपरी भाग।
- संज्ञा
- [देश.]
- चड्डा
- गावदी, मूर्ख, उजड्ड।
- वि.
- चढ़त
- चढ़ता है, लगाया या पोता जाता है।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढ़ना]
- चट्ट
- समाप्त, नष्ट।
- वि.
- [हिं. चाटना]
- चट्टा
- चेला, शिष्य।
- संज्ञा
- [सं. चेटक=दास]
- चट्टा
- बाँस की चटाई।
- संज्ञा
- [सं. कंट]
- चट्टा
- सफाचट मैदान।
- संज्ञा
- [देश.]
- चट्टा
- शरीर के चकत्ते, दाग।
- संज्ञा
- [हिं. चकत्ता]
- चट्टान
- पत्थर का बड़ा टुकड़ा।
- संज्ञा
- [हि, चट्टा]
- चट्टाबट्टा
- काठ के छोटे-छोटे खिलौनों का समूह।
- संज्ञा
- [हिं. चट्टू = चाटने का खिलौना+ बट्टा = गोला]
- चट्टाबट्टा
- बाजीगर के छोटे-बड़े गोले।
- संज्ञा
- [हिं. चट्टू = चाटने का खिलौना+ बट्टा = गोला]
- चट्टाबट्टा
-
- एक ही थैली के चट्टे-बट्टे :- एक ही रुचि, स्वभाव और ढंग के आदमी।
चट्टे-बट्टे लड़ाना :- कुछ कहकर आपस में झगड़ा कराना।
- मु.
- चट्टी
- टिकान, पड़ाव, मंजिल।
- संज्ञा
- [देश.]
- चढ़त
-
- रंग चढ़त :- रंग खिलता (है)।
उ. - (क) सूरदास कारी कमरि पै, चढ़त न दूजौ रंग - १ - ३३२। (ख) जो पै चढ़त रंग तौ ऊपर त्यौं पै होब स्यामता सेतु - ३३९०।
- मु.
- चढ़त
- ऊपर उठता है, उड़ता है।
- परनि परेवा प्रेम की (रे) चित लै चढत अकास - १ - ३२५।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़त
- किसी देवता पर चढ़ाई वस्तु या भेंट।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ता
- द्वार की ओर उठाया जाता हुआ।
- वि.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ता
- प्रारंभ होता और बढ़ता हुआ।
- वि.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़न
- चढ़ने की क्रिया या भाव।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़न
- देवता पर चढ़ायी हुई वस्तु।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ना
- ऊँचाई की ओर जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- ऊपर उठना, उड़ना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- ऊपर की ओर खिसकना या समिटना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़वाना
- चढ़ाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ाइ
- सितार, धनुष आदि में तार या डोरी चढ़ाकर या कसकर।
- कुबुधि - कमान चढ़ाई कोप करि, बुधि - तरकस रितयौ - १ - ६४।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ाइ
- मलकर, लगाकर।
- उ. - घसि कै गरल चढ़ाइ उरोजनि लै रुचि सौं पय प्याऊँ - १० - ४९।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ाई
- (सितार, धनुष आदि में) डोरी कसी या कसकर।
- उ. - तुम तौ द्विज, कुल - पूज्य हमारे, हम - तुम कौन लराई १ क्रोधवंत कछु सुन्यौ नहीं, लियौ सायकधनुष चढ़ाई - ९ - २८।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ाई
-
- लियो धनुष चढ़ाइ :- धनुष की डोरी कसी
- मु.
- चढ़ाई
- भेंट की, अर्पित की।
- मेरी बलि पर्वतहिं चढ़ाई - १०४१।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ाई
- चढ़ने की क्रिया या भाव।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ाई
- ऊँचाई की ओर जानेवाली भूमि।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ाई
- लड़ने के लिए प्रस्थान, धावा, आक्रमण।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ाई
- किसी देवी-देवता की पूजा की तैयारी।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ना
- देवता या महात्मा को अर्पित करना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- सवारी करना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- वर्ष, मास आदि का आरंभ होना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- ऋण या कर्ज होना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- बही आदि में लिखा जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- बुरा असर या प्रभाव होना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- चूल्हे या अँगीठी पर रखा जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- पोतना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
-
- रंग चढ़ना :- (१) रंग का खिलना या आना।
(२) किसी प्रकार का प्रभाव पड़ना।
- मु.
- चढ़ना
- किसी झगड़े को अदालत तक ले जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- गुल्म
- सेना का एक वर्ग।
- संज्ञा
- [सं]
- गुल्म
- पेट का रोग।
- संज्ञा
- [सं]
- गुल्मप
- एक गुल्म का नायक।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुल्लक
- धन रखने का पात्र।
- संज्ञा
- [हिं. गोलक]
- गुल्ला
- गुलेल की गोली।
- संज्ञा
- [हिं गोला]
- गुल्ला
- एक बँगला मिठाई।
- संज्ञा
- [हिं गोला]
- गुल्ला
- गन्ने की गँडेरी।
- संज्ञा
- [हिं. गुल्ली]
- गुल्ला
- शोर, हल्ला, कोलाहल।
- संज्ञा
- [अ. गुल]
- गुल्ला
- गुलेल नामक कमान।
- संज्ञा
- [हिं. गुलेल]
- गुल्ला
- एक पहाड़ी पेड़।
- संज्ञा
- [देश.]
- चढ़ना
- ।
एक वस्तु के ऊपर दूसरी का मढ़ा जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- उन्नति करना, बढ़ना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
-
- चढ़ (बढ़) कर होना :- अधिक श्रेष्ठ या महत्व का होना।
चढ़ा बढ़ा :- श्रेष्ठ। चढ़ बनना :- लाभ का अवसर हाथ आना। चढ़ बजना :- बात बनना, पौ बारह होना।
- मु.
- चढ़ना
- (नदी या पानी का) बढ़ना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- धावा या चढ़ाई करना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- धूमधाम या साज-बाज के साथ कहीं जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- महँगा हो जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- सुर या स्वर तेज होना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- नदी के प्रवाह के विरुद्ध चलना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ना
- (नस. डोरी या तार) कस जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. उच्चुलन, प्रा. उच्चडन, चड्ढन]
- चढ़ाए
- कसे, खींचे।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ाए
-
- नैन चढ़ाए :- क्रोध से भृकुटी ताने हुए।
उ. - नैन चढ़ाए कापर डोलति ब्रज मैं तिनुका तोरि - १० - ३१०।
- मु.
- चढ़चढ़ी
- होड़, लागडाँट।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ाना
- ऊँचाई पर पहुँचाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- चढ़ने का काम करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- ऊपर की ओर सिकोड़ना या समेटना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- धावा या चढ़ाई करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- भाव बढ़ाना, मँहगा करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- स्वर ऊँचा करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- सितार, धनुष आदि की डोरी कसना या चढ़ाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- देवता या महात्मा को भेंट देना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- सवारी कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- चटपट पी जाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- ऋण या कर्ज बढ़ाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- बही आदि में लिखना या टाँकन।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- चूल्हे-अँगीठी पर रखना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- लगाना, पोतना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ाना
- एक वस्तु को दूसरी पर मढ़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना का प्रे.]
- चढ़ानी
- चढ़ाई।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ायो, चढ़ायौ
- लेप किया, लगाया, मला, पोता।
- चोवा चंदन अगर कुमकुमा परिमल अंग चढ़ायौ - १०उ. ६५।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ाई
- किसी देवी देवता को पूजा या भेंट चढ़ाने की क्रिया या सामग्री, चढ़ावा, कढ़ाई।
- सूर नंद सों कहत जसोदा दिन आये अब करहु चढ़ाई।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ाउ
- चढ़ने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ाव]
- चढ़ाउतरी
- बार बार चढ़ने-उतरने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना+उतरना]
- चढ़ाउतरी
- कूद-फाँद।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना+उतरना]
- चढ़ाऊँ
- लगाऊँ, मलूँ, पोतुँ।
- तन मन जारौं, भस्म चढ़ाऊँ बिरहिन गुरु उपदेस - २७५४।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ा - ऊपरी
- अधिक उँचे चढ़ने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना+ऊपर]
- चढ़ा - ऊपरी
- आगे बढ़ जाने का भाव या प्रयत्न, लागडाँट।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना+ऊपर]
- चढ़ाए
- मढ़वाए, आवरणरूप में लगाए।
- ऊँचे मंदिर कौन काम के कनक - कलस जो चढ़ाए। भक्त भवन मैं हौं जू बसति हौं जद्यपि तृन करि छाए - १ - २४३।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ाए
- सवार कराये।
- कंचन को रथ आगे कीन्हों। हरिहिं चढ़ाए वर कै - २५२९।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ाए
- लगाये हुए, मले हुए।
- भुजा बिसाल स्याम सुंदर की चंदन खौरि चढ़ाए री - १३४३।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ावा
- टोने टुटके की चीज।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ावा
- उत्साह, प्रोत्साहन |
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ावैं
- देवता के अर्पण करें।
- कमल - पत्र मालूर चढ़ावें - ७९९।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ावै
- पुस्तक, बही, कागज आदि पर लिखे।
- अब तुम नाम गहौ मन नागर।…..। मारि न सके, बिघन नहिं ग्रासै, जम न चढ़ावै कागर - १ - ९१।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ाहु
- चढ़ाओ, सवार कराओ।
- कहै भामिनि कंत सौं मोहि कंध चढ़ाहु - १८८९।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ि
- चढ़कर, सवार होकर।
- बिप्रनि पै चढ़िकै जौ आवहु। तौ तुम मेरौ। दरसन पावहु - ६ - ७।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ि
- उन्नति करके, बढ़कर।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ि
-
- चढ़ि बाजी :- बात बन गयी, पौ बारह हो गयी।
उ. - अधर रस मुरली लूट करावति। आपुन बार बार लै अँचवति जहाँ तहाँ ढरकावति। आजु यहाँ चढ़िबाजी वाकी जोइ कोइ करै बिराजै।
- मु.
- चढ़ि
- धावा या आक्रमण करके, चढ़ाई करके।
- बार सत्रह, जरासंध मथुरा चढ़ि आयो - १० उ.३।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ि
- लगाकर, मलकर, पोतकर।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ाव
- चढ़ाव उतार-क्रमशः मोटाई कम होना।
- यौ.
- चढ़ाव
- विवाह में दुलहिन को चढ़ाये गये गहने आदि, चढ़ावा।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ाव
- विवाह में दुलहिन को दिये गये गहने आदि पहनने की रीति।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ाव
- वह दिशा जिधर से नदी बहकर आ रही ही।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ावत
- सवार कराते हैं।
- गैवर भेति चढ़ावत रासभ प्रभुता मेटि करत हिनती - १२२८।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ावत
- मलते हैं, लगाते हैं।
- जो पै जोग लिखि पठयौ हमकौ तुमहु न भस्म चढ़ावत - ३२१८।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ावन
- देवार्पित करना, चढ़ाने की क्रिया |
- दस मुख छेदि सुपक नव फल ज्यौं, संकर - उर दससीस चढ़ावन - ९ - १३१।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ावहु
- अर्पित करो।
- जरासंध सिसुपाल नृपति ते जीते हैं उठि अर्ध्य चढ़ावहु - १० उ. - २३।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ावा
- वे गहने जो दुलहिन। को चढ़ाये जाते हैं।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ावा
- वह सामग्री जो देवी देवता पर चढ़ायी जाती है, पुजापा।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ायो, चढ़ायौ
- किसी देवी-देवता को अर्पित किया।
- अब गोकुल भूतल नहिं राखौं मेरी बलि मोको न चढ़ायौ - ९४२।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ायो, चढ़ायौ
- लिखा, दर्ज किया, टाँका।
- ब्याध, गीध, गनिका जिहिं कागर, हौं तिहिं चिठि न चढ़ायौ - १ - १९३।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ायो, चढ़ायौ
- पान किया, पी लिया।
- प्रथम जोबन रस चढ़ायौ अतिहिं भई खुमारि - ११६६।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ायो, चढ़ायौ
- ऊँचे पर पहुँचाया, ऊपर उठाया।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ायो, चढ़ायौ
-
- मूड़ चढायौ :- सर पर चढ़ा लिया है, ढीठ कर दिया है।
उ - (क) बारे ही तैं मूढ़ चढ़ायौ - ३९१। (ख) तैही उनको मूढ़ चढत्यौ - १६५८। सीस चढ़ायौ :- माथे से लगाया, प्रणाम किया, बंदना की। उ. - तब बसुदेव लियौ कर पलना अपने सीस चढायौ - सारा, ३७४।
- मु.
- चढ़ायो, चढ़ायौ
- किसी के ऊपर चढ़ाकर उँचा किया।
- ऊखल ऊपर अनि पीठि दै तापर सखा चढ़ायौ - १० - २९२।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ायो, चढ़ायौ
- सवार कराया, सवारी पर बैठाया।
- चले बिमान संग गुरु - पुरजन तापर नृप पौढायौ। भस्म अंत तिल अंजलि दीन्हीं, देव इमान चढ़ायौ - ९.५०
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ाव
- चढ़ने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ाव
- चढ़ाव-उतार, ऊँचा-नीचा स्थान।
- यौ.
- चढ़ाव
- बढ़ने का भाव, वृद्धि, बाढ़, बढ़ती।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ि
-
- रंग चढ़ि रह्यौ :- रंग आ चुका है, रंग चढ़कर खिल चुकी है।
उ. - पहले ही चढ़ि रह्यौ स्याम रंग छूटत नहिं देख्यो धोई - ३१४५।
- मु.
- चढ़ी
- (नदी आदि) बाढ़ पर आयी, बढ़ गयी।
- तुम्हरे बिरह ब्रजनाथ राधिका नैनन नदी बढ़ी। लीने जाति निमेष कूल दोउ एते मान चढ़ी - ३४५४।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ी
- ऊपर गयी हुई, ऊँचे स्थान पर पहुँची हुई।
- नंदनंदन को रूप निहारत अहनिसि अटा | चढ़ी - २७९४।
- वि.
- चढ़े
- (सवारी पर) बैठकर, सवार होकर।
- (क) आनँदमगन सब अमर - गगन छाए, पुहुप बिमान चढ़े पहर पहर के - १० - ३०।
(ख) कहुँ गजराज बाजि सृंगारे तापर चढ़े जु आप - सारा, ६७७।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढना]
- चढ़ेउ
- आक्रमण या धावा किया, चढ़ाई की।
- सब मिलि करहु कछु उपाव। मार मारन चढ़ेउ बिरहिन करहु लीनो चाव - २७१५।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढना]
- चढ़ै
- नीचे से ऊपर जाती है, चढ़ती है।
- एकनि लै मन्दिर चढ़ै, एकनि बिरचि बिगोवै (हो) - १ - ४४।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ै
- लेप होता है, पोता या लगाया जाता है।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ै
-
- रंग चढ़ै :- किसी वस्तु पर रंग आवे या खिले।
उ. - सूरदास स्याम रंग राँचे, फिर न चढ़े रँग रातै - ३०२४।
- मु.
- चढ़ै
- (चूल्हे, अँगीठी आदि पर) चढ़ाकर।
- एक जेंवन करत त्याग्यौ चढ़े चूल्है दारि - पृ० ३३९ (८४)
- क्रि. अ.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़ैए
- पोतिए, मलिए, लगाइए।
- जिहि सिर केस कुसुम भरि गूँदै तेहि कैसे भसम चढ़ए - ३१२४।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चणक
- एक ऋषि।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुरंग
- एक गाना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुरंग
- चतुरंगिणी सेना का प्रधान अधिकारी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुरंग
- सेना के चार अंग-हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल।
चार अंगों से युक्त सेना।
- संज्ञा
- चतुरंग
- चार अंगों से युक्त।
- मनहुँ चढ़त चतु रंग चमू नभ बाढ़ी है खुर खेह - २८२०।
- वि.
- चतुरंग
- शतरंज का खेल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुरंगिणी, चतुरंगिनी
- चार अंगों से युक्त (सेना)।
- वि.
- [सं. चतुरंगिणी]
- चतुरंगिणी, चतुरंगिनी
- सेना जिसमें चारो अंग हों-हाथी, घोड़े, रथ और पैदल।
- संज्ञा
- चतुर
- प्रवीण, कुशल, निपुण।
- वि.
- [सं.]
- चतुर
- फुरतीला, तेज।
- वि.
- [सं.]
- चढ़ैत
- चढ़नेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चढ़ना + ऐत (प्रत्य.)]
- चढ़ैया
- चढ़ने यो चढ़ानेवाला।
- वि.
- [हिं. चढना + ऐया (प्रत्य.)]
- चढ़ैहैं
- भेंट देंगे, (देवता पर) चढ़ावेंगे।
- जा दिन राम रावनहिं मारैं, ईसहिं लै दससीस चढ़ेहैं। ता दिन सूर राम पै सीता सरबस बारि बधाई दैहैं - ९ - ८१।
- क्रि. स.
- [हिं. चढावा]
- चढ़ैहौं
- भेंट करूँगा, देवार्पित करुँगा |
- दैत्य प्रहारि पाप - फल - प्रेरित, सिरमाला सिव सीस चढ़ैहौं - ९ - १५७।
- क्रि. स.
- [हिं. चढ़ाना]
- चढ़ौ
- सवार हो।
- सूरज दास चढ़ौ प्रभु पाछ्, रेनु पखारन दीजै - ९ - ४१।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़यौ
- ऊपर उठा, ऊँचे स्थान को गया।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़यौ
-
- रवि चढ़यौ :- सूर्य उदय होकर क्षितिज पर आ गया।
उ. - रवि बहु चढ़ैयौ, रैनि सब निघटी, उचटे सकल किवार - ४०८।
- मु.
- चढ़यौ
- सवार हुआ, सवार होना।
- दई न जाति खेवट उतराई, चाहत चढ़ैयौ जहाज - १ - १०८।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढ़ना]
- चढ़यौ
- आक्रमण किया, धावा किया।
- (क) गज अहंकार चढ़ायौ दिग बिजयी, लोभ - छत्र - करि सीस १ - १४४।
(ख) इंद्रजित चढ़यौ निज सैन सब साजि कै रावरी सैनहूँ साज कीजै - ९ - १३६।
- क्रि. अ.
- [हिं. चढ़ना]
- चणक
- चना।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुहराना
- चिल्लाकर पुकारना।
- क्रि. स.
- [हिं. गुहार]
- गुहरायो
- पुकारा, चिल्लाया
- क्रि. स.
- [हिं. गुहार, गुहराना]
- गुहरायो
- (जोर-जोर से चिल्ला कर) शिकायत की, उलाहना दिया।
- काहू के लरिकहिं हरि मारयौ, भोरहिं आनि तिनहिं गुहरायौ - ३६९।
- क्रि. स.
- [हिं. गुहार, गुहराना]
- गुहरावत
- पुकारते हैं।
- बार बार हरि सौं गुहरावत मोहिं मँगावत पुनि - पुनि आनि लरै - १६७१।
- क्रि. स.
- [हिं. गुहराना]
- गुहरावहु
- शिकायत करो, पुकारो, दोहाई दो।
- जाइ सबै कंसहिं गुहरावहु। दधि माखन घृत लेत छँड़ाए आजुहिं मोहिं हजूर बोलावहु - १०९४।
- क्रि. स.
- [हिं. गुहराना]
- गुहरावै
- पुकार करें, दोहाई दें।
- हम अब कहा जाइ गुहरावै बसत तुम्हारे गाउँ - १०९२।
- क्रि. स.
- [हिं. गुहराना]
- गुहवाना
- गुँथवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. गुइना का प्रे०])
- गुहा
- गुफा, कंदरा।
- (क) अयुत अधार नहीं कछु समझत भ्रम गहि गुहा रहै - ३३५६।
(ख) जनु सु अहेरो हति यादव पति गुहा। पींजरी तोरी - १० उ.५२।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुहाई
- गुहने की क्रिया या भाव।
- संज्ञा
- [हिं. गुहना]
- गुहाई
- गुहने की मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. गुहना]
- चतुर
- धूर्त, काँइयाँ।
- वि.
- [सं.]
- चतुर
- नायक का एक भेद।
- संज्ञा
- चतुरई
- चतुराई, चतुरता।
- (क) मोहन काहैं न उगिलै माटी।….| महतारी सौं मानत नाहीं कपट - चतुरई ठाटी - १० - २५४।
(ख) चोर अधिक चतुरई सीखी जाइ ने कथा कही - १० - २९१।
- संज्ञा
- [हिं. चतुराई]
- चतुरई
- धूर्तता, काँइयाँपन।
- जैसे हरि तैसे तुम सेवक कपट चतुरई साने हो - ३००५।
- संज्ञा
- [हिं. चतुराई]
- चतुरई
-
- चतुरई छोलत हौ :- चालाकी दिखाते हो, धोखा देते हो।
उ. - जाहु चले गुन - प्रगट सूरप्रभु कहा चतुरई छोलत हौ। चतुरई तौलत हौ :- चालाकी करते हो। उ. - बहुनावकी आजु मैं जानी कहा चतुरई तौलत हौ।
- मु.
- चतुरक
- चतुर प्राणी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुरगुन
- चौगुना।
- लियौ तँबोल माथ धरि हनुमत, कियौं चतुरगुन गात - ९ - ७४।
- वि.
- [सं. चतुर्गुण]
- चतुरता
- चतुर होने का भाव, चतुराई।
- संज्ञा
- [चतुर +ता (प्रत्य.)]
- चतुरता
- कुशलता, निपुणता।
- संज्ञा
- [चतुर +ता (प्रत्य.)]
- चतुरदस
- चौदह।
- वि.
- [सं. चतुर्दश]
- चतुरा
- राधा की एक सखी का नाम।
- स्यामा, कामा चतुरानवला प्रमुदा सुमदानारि - १५८०।
- संज्ञा
- चतुराई, चतुराई
- निपुणता, दक्षता।
- संज्ञा
- [सं. चतुर + हिं. आई (प्रत्य.)]
- चतुराइ, चतुराई
- धूर्तता, चालाकी।
- (क) मन तोस किती कही समुइ। नंद नँदन के चरन - कमल भजि, तजि पाखँड चतुराइ - १ - ३१७।
(ख) स्याम फाँसि मन करण्यो हमरो अब समुझी चतुराई - १३१३।
- संज्ञा
- [सं. चतुर + हिं. आई (प्रत्य.)]
- चतुराइ, चतुराई
- काट-कपट।
- बृद्ध बयस पूरे पुन्यनि तैं तैं बहुतै निधि पाई। ताहू के खैबे - पीबे कौ कहा करति चतुराई - १० - ३२५।
- संज्ञा
- [सं. चतुर + हिं. आई (प्रत्य.)]
- चतुरात्मा
- ईश्वर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुरात्मा
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुरानन
- चार मुखवाले, ब्रह्मा।
- माया कला ईस चतुरानन चतुब्यूह धर रूप - सारा, ३५५।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुरापन
- चतुराई, होशियारी।
धूर्तता।
- संज्ञा
- [हिं. चतुरा+पन (प्रत्य.)]
- चतुरापन
- चतुराई, होशियारी।
धूर्तता।
- संज्ञा
- [हिं. चतुरा+पन (प्रत्य.)]
- चतुराय
- चतुरता, चालाकी।
- गयौ हरषि भुज ललिता धाय। गयी स्याम की सब चतुराय - २४५४ (८)।
- संज्ञा
- [हिं. चतुराई]
- चतुरनमनि
- चतुरों में श्रेष्ठ।
- ग्याननमनि, विद्यामनि, गुनमनि, चतुरनमनि, चतुराई - २१७०।
- वि.
- [सं. चतुर + मणि]
- चतुरनीक
- चतुरानन, ब्रह्मा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुरभुज
- चार भुजाओंवाला।
- बहुरौ धरै हृदय महँ ध्यान। रूप चतुरभुज स्याम सुजान - ३ - १३।
- वि.
- [सं. चतुर्भुज]
- चतुरमास
- बरसात के चार महीने, चौमासा।
- चतुरमास सूरजे प्रभु तिहिं ठौर बितायौ - ९.७१।
- संज्ञा
- [सं. चातुर्मास, हिं. चतुर्मास]
- चतुरमुख
- ब्रह्मा।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्मुख]
- चतुरमुख
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्मुख]
- चतुरमुख
- चार मुखवाला।
- वि.
- चतुरसम
- एक गंध द्रव्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुरा
- चतुर।
- वि.
- [हिं. चतुर]
- चतुरा
- काँइयाँ।
- वि.
- [हिं. चतुर]
- चतुर्दशी, चतुर्दसि, चतुर्दसी
- चौदहवीं तिथि, चौदस।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्दिक, चतुर्दिश
- चारो दिशाएँ।
- संज्ञा
- [सं. चतुर + दिक्, दिशा]
- चतुर्दिक, चतुर्दिश
- चारो ओर।
- क्रि. वि.
- चतुर्बाहु
- शिव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्बाहु
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्भुज
- चार भुजाओं वाला।
- वि.
- [सं.]
- चतुर्भुज
- विष्णु।
- संज्ञा
- चतुर्भुजा
- एक देवी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्भुजी
- एक वैष्णव संप्रदाय।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्भुज + ई (प्रत्य.)]
- चतुर्भुजी
- इस संप्रदाय का अनुयायी।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्भुज + ई (प्रत्य.)]
- चतुर्
- चार।
- वि.
- [सं.]
- चतुर्
- चार की संख्या।
- संज्ञा
- चतुर्गति
- ईश्वर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्गति
- ईश्वर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्गुण, चतुर्गुन
- चार गुणवाला।
- वि.
- [सं. चतुर्गुण]
- चतुर्थ
- चौथा।
- वि.
- [सं.]
- चतुर्थांश
- चौथाई भाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्थी
- चौथी तिथि, चौभ।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्थी
- मृत्यु के चौथे दिन की रस्म, चौथा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्दश, चतुर्दस
- चौदह।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्दश]
- चतुर्भुजी
- चार भुजावाला।
- वि.
- चतुर्मास
- वर्षा के चार महीने-आषाढ़, सावन, भादों और कुआर, चौमासा।
- संज्ञा
- [सं. चातुर्मास]
- चतुर्मुख
- चार मुखवाला।
- चारौं बेद चतुर्माख ब्रह्मा जस गावत हैं ताको - १ - ११३।
- वि.
- [सं.]
- चतुर्मुख
- ब्रम्हा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्मुख
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्मुख
- चारो ओर।
- क्रि. वि.
- चंतर्मूर्ति
- ईश्वर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्युगी
- उतना समय (वर्ष) जिसमें एक बार चारो युग बीत जायँ।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्वर्ग
- अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्वर्ण
- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चद्दर
- चदरा, दुपट्टा।
- संज्ञा
- [फ़ा. चादर]
- चद्दर
- किसी धातु का लंबा चौड़ा पत्तर।
- संज्ञा
- [फ़ा. चादर]
- चद्दर
- नदी आदि के बहते हुए पानी का वह अंश, जिसका ऊपरी भाग चादर के समान समतल हो जाता है, जिसमें लहरें नहीं उठतीं और जिसमें फँस जानेवाली नाव या प्राणी कठिनता से बचता है।
- संज्ञा
- [फ़ा. चादर]
- चनक
- चना।
- बेसन दारि चनक करि बान्यो - १००६।
- संज्ञा
- [सं. चणक]
- चनकना
- फूटना, खिलना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चटकना]
- चनखना
- चिढ़ना।
- क्रि. अ.
- [हिं. अनखना]
- चनदारी
- चने की दाल।
- मूँग, मसूर, उरद, चनदारी। कनक - फटक धरि फटकि पछारी - ३९६।
- संज्ञा
- [हिं. चना + दाल]
- चनन
- संदल, चंदन।
- संज्ञा
- [सं. चंदन]
- चनवर
- ग्रास. कौर।
- संज्ञा
- चनसित
- श्रेष्ठ, महान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुष्पद
- चार पैरवाला पशु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुष्पद
- चार पदं यो चरणवाला।
- वि.
- चतुष्पदी
- चार पदों का गीत।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुरसम
- एक गंध द्रव्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- चत्वर
- चौराहा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चत्वर
- चबूतरा, वेदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चत्वर
- घिरा हुआ कोई चौकोर स्थान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चदरा
- दुपट्टा, ओढ़ना।
- संज्ञा
- [फ़ा. चादर]
- चदिर
- कपूर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चदिर
- चंद्रमा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्विद्या
- चारो वेदों की विद्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्वेद
- ईश्वर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्वेद
- चार वेद।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्वेदी
- चारो वेद जाननेवाला व्यक्ति।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्वेदिन्]
- चतुर्वेदी
- ब्राह्मणों की एक जाति।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्वेदिन्]
- चतुर्व्यूह
- चार मनुष्यों या पदार्थों का वर्ग अथवा समूह जैसे राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न या कृष्ण, बलदेव, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध।
- (क) प्रगट भए दसरथ गृह पूरन चतुर्व्यूह अवतार - सारा, १६०।
(ख) माया कला ईस चतुरानन चतुर्व्यूह धरि रूप - सारा.३५५।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्व्यूह
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्व्यूह
- योग शास्त्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुर्व्यूह
- चिकित्सा शास्त्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चतुष्कोण
- चौकोर, चौकोनी।
- वि.
- [सं.]
- चपटी
- धँसी या बैठी हुई।
- वि.
- [हिं. चिपटी]
- चपड़ चपड़
- वह शब्द जो खातेपीते समय कुत्ते के मुँह से निकलता है।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चपड़ा
- साफ की हुई लाख का पत्तर।
- संज्ञा
- [हिं. चपटा]
- चपड़ा
- चिपटी वस्तु, पत्तर।
- संज्ञा
- [हिं. चपटा]
- चपत
- हल्का तमाचा या थप्पड़।
- संज्ञा
- [सं. चपट]
- चपत
- धक्का, हानि, नुकसान।
- संज्ञा
- [सं. चपट]
- चपत
- कुचल जाता है।
- क्रि. अ.
- [हिं. चपना]
- चपना
- कुचल जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चपन=कूटना, कुचलना]
- चपना
- लज्जित होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चपन=कूटना, कुचलना]
- चपना
- नष्ट होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चपन=कूटना, कुचलना]
- गुसा
- क्रोध, रोष।
- (क) सूरदास चरननि के बलि बलि कौन गुसा ते कृपा बिसारी।
(ख) रति माँगत' पै मान कियौ सखि सो हरि गुसा गही - २८९९।
- संज्ञा
- [हिं. गुस्सा]
- गुसाई, गुसैयाँ
- प्रभु, नाथ, ईश्वर।
- (क) मेरौ मन मतिहीन गुसाई'। सब सुखनिधि पद - कमल छाँङि, स्रम करत स्वान की नाई' - १० - १०३।
(ख) तुम्हरीं कृपा कृपाल गुसाई किहिं किहिं स्रम न गँवायौ - १ - १९०।
- संज्ञा
- [हिं. गोसाईं, गुसाई']
- गुसाई, गुसैयाँ
- मालिक, स्वामी।
- संज्ञा
- [हिं. गोसाईं, गुसाई']
- गुसाई, गुसैयाँ
- पूज्य व्यक्ति।
- (क) खेलत मैं को काकौ गुसैयाँ - १० - २४५।
(ख) नहिं अधीन तेरे बाबा के नहिं तुम हमरे नाथगुसैयाँ - ७३५। (ग) यह सुनिकै बलदेव गुसाई हल मूसल लियौ हाथ - सारा - ८३३।
- संज्ञा
- [हिं. गोसाईं, गुसाई']
- गुस्ताख
- ढीठ, अशिष्ठ।
- वि.
- [फ़ा. गुस्ताख]
- गुस्ताखी
- ढिठाई, अशिष्टता।
- संज्ञा
- [हिं.गुस्ताख]
- गुस्सा
- क्रोध, रिस।
- संज्ञा
- [अ.]
- गुस्सा
-
- गुस्सा उतरना :- क्रोध शांत होना।
(किसी पर) गुस्सा उतारना (निकालना) :- (१) क्रोध का फल चखाना। (२) एक के क्रोध का फल दूसरे को चखाना। गुस्सा थूक देना :- क्षमा करना। नाक पर गुस्सा होना (रहना) :- बहुत जल्दी गुस्सा हो जाना। गुस्सा पीना (मारना) :- क्रोध प्रगट न करना। गुस्से से लाल होना :- क्रोध से तमतमा जाना।
- मु.
- गुस्सैल
- बहुत जल्दी क्रोधित हो जानेवाला।
- वि.
- [हिं. गुस्सा + ऐल (प्रत्य.)]
- गुह
- मैला, गंदा।
- संज्ञा
- [सं. गुह्य]
- चना
- एक प्रधान अन्न।
- साग चना सँग सब चौराई - २३११।
- संज्ञा
- [सं. चणक]
- चना
-
- चने का मारा मरना :- इतना दुबला कि जरा सी चोट से मर जाय।
नाकों चने चबवाना :- बहुत हैरान करना | लोहे का चना :- बहुत कठिन काम। लोहे के चने चबाना :- कठिन काम करना।
- मु.
- चपकन
- अंगा, अँगरखा।
- संज्ञा
- [हिं. चपकना]
- चपकना
- जुड़ना, चिपकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चिपकना]
- चपकाना
- जोड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिपकाना]
- चपट
- चपत, तमाचा, चोट।
- संज्ञा
- [सं.]
- चपटना
- भिड़ना, जुटना।
- क्रि. अ.
- [चिपटना]
- चपटा
- बैठा या धँसा हुआ।
- वि.
- [हिं. चिपटा]
- चपटाना
- चिपकाना, सटाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिपटाना]
- चपटाना
- लिपटाना, आलिंगन करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिपटाना]
- चपनी
- कटोरी।
- संज्ञा
- [हिं. चपना]
- चपनी
- एक कमंडल।
- संज्ञा
- [हिं. चपना]
- चपनी
- हाँडी का ढक्कन।
- संज्ञा
- [हिं. चपना]
- चपनी
- घुटने की हड्डी।
- संज्ञा
- [हिं. चपना]
- चपरगट्टू
- नाश करने वाला।
- वि.
- [हिं. चौपट + गटपट]
- चपरगट्टू
- अभागा।
- वि.
- [हिं. चौपट + गटपट]
- चपरगट्टू
- उलझा हुआ।
- वि.
- [हिं. चौपट + गटपट]
- चपरना
- गीली या चिपचिपी वस्तु चुपड़ना या लगाना।
- क्रि. स.
- [अनु. चपचप]
- चपरना
- मिलाना, सानना, ओतप्रोत करना।
- क्रि. स.
- [अनु. चपचप]
- चपरना
- भाग जाना, खिसकना।
- क्रि. स.
- [अनु. चपचप]
- चपरि
- फुर्ती से, तेजी से, जोर से।
- मवरजु एक चकृत चपरि कर भरि बंदूर्ष षग डारि है - सा. उ. ४।
- क्रि. वि.
- [सं. चपल]
- चपल
- चंचल, अस्थिर, तेज, गतिवान।
- (क) रथ तै उतरि अवनि आतुर ह्वै, चले चरन अति धाए। मनु संचित भू - भार उतारन चपले भए अकुताए - १ - २७३।
(ख) चपल समीर भयो तेहि रजनी भीजे चारों यामा - १० उ. ६६।
- वि.
- [सं.]
- चपल
- क्षणिक।
- वि.
- [सं.]
- चपल
- हड़बड़ी मचानेवाला।
- वि.
- [सं.]
- चपल
- अवसर पर न चूकनेवाला, बहुत चालक।
- वि.
- [सं.]
- चपल
- पारा।
- संज्ञा
- चपल
- मछली।
- संज्ञा
- चपल
- चातक।
- संज्ञा
- चपल
- एक पत्थर।
- संज्ञा
- चपल
- चौर नामक सुगंधित द्रव्य।
- संज्ञा
- चपरना
- तेजी करना।
- क्रि. अ.
- [सं. चपल]
- चपरा
- लाख का पत्तर।
- संज्ञा
- [हिं. चपड़ा]
- चपरा
- कहकर मुकर जानेवाला, झूठा।
- वि.
- चपरा
- हठात, जैसे हो तैसे।
- अव्य,
- [हिं. चपरना]
- चपराना
- झूठा बनाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चपरा]
- चपरास
- चपरासी की पट्टी या पेटी।
- संज्ञा
- [हिं. चपरासी]
- चपरास
- मुलम्मा करने की कलम।
- संज्ञा
- [हिं. चपरासी]
- चपरासी
- चपरास पहननेवाला अरदली या नौकर।
- संज्ञा
- [फ़ा. चप=वायाँ+रास्ता=दाहनः]
- चपरि
- किसी गीली या चिपचिपी वस्तु को चुपड़कर।
- ऊधौ जाके माथे - भागु। अबलन जोग सिखावन आए चेरिहिं चपरि सोहाग - ३०९५
- क्रि. स.
- [हिं. चपरना]
- चपरि
- मिलाकर, सानकर, ओतप्रोत करके।
- बिषय चिंता दोऊ हैं माया। दोउ चपरि ज्यों तरुवर छाया - ११ - ६।
- क्रि. स.
- [हिं. चपरना]
- चपल
- एक चूहा।
- संज्ञा
- चपल
- राई।
- संज्ञा
- चपलता
- चंचलता, तेजीं, जल्दी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चपलता
- चालाकी, ढिठाई, धृष्टता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चपला
- फुरतीली, तेज।
- वि.
- [सं.]
- चपला
- लक्ष्मी।
- संज्ञा
- चपला
- बिजली।
- संज्ञा
- चपला
- चरित्रहीन स्त्री।
- संज्ञा
- चपला
- पीपल।
- संज्ञा
- चपला
- जीभ।
।
- संज्ञा
- चपला
- भाँग।
- संज्ञा
- चपला
- भाँग।
- संज्ञा
- चपलाई
- चपलता, चंचलता।
- (क) मंजुल तारनि की चपेलाई, चित चतुराई करषै री - १० - १३७।
(ख) कुंडल किरनि निकट भूलोचन आरति मीन दृग सम चपलाई - १३३८। (ग) खंजन मीन मृगज चपलाई नहिं पटतर एक सैन - १३४९।
- संज्ञा
- [सं. चपल.]
- चपलाना
- हिलना-डोलना।
- क्रि. अ.
- [सं. चपत]
- चपलाना
- हिलाना-डोलाना, चलाना।
- क्रि. स.
- चपाक
- चटपट। अचानक।
- क्रि. वि.
- [हिं. चटपट]
- चपाना
- जोड़ना, फँसाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चपना]
- चपाना
- दबवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चपना]
- चपाना
- लज्जित करना, झिपाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चपना]
- चपेट
- धक्का, अघात।
- संज्ञा
- [हिं. चपाना = दबाना]
- चपेट
- थप्पड़, तमाचा।
- संज्ञा
- [हिं. चपाना = दबाना]
- चपेट
- संकट, दबाव।
- संज्ञा
- [हिं. चपाना = दबाना]
- चपेटना
- दबाना, दबोचना।
- क्रि. स.
- [हिं. चपेट]
- चपेटना
- मारते-पीटते हुए पीछे खदेड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. चपेट]
- चपेटना
- फटकारना, डाँटना।
- क्रि. स.
- [हिं. चपेट]
- चपेरना
- दबाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चापना]
- चपै
- दबे, प्रभावित हो।
- करनि तिह तुम्हरी घरी, कैसे चपै सुगाल - १० उ. - ८।
- क्रि. अ.
- [हिं. चपना]
- चप्पा
- चौथाई भाग।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्पाद, प्रा. चउप्पाव]
- चप्पा
- थोड़ा भाग।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्पाद, प्रा. चउप्पाव]
- चप्पा
- चार अंगुल या एक बालिस्त जगह।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्पाद, प्रा. चउप्पाव]
- चप्पा
- थोड़ी जगह।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्पाद, प्रा. चउप्पाव]
- चप्पी
- धीरे धीरे पैर दाबने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं.चपना = दबना]
- चप्यौ
- दबगया, कुचल गया।
- बृच्छ दोउ धर परे देखे, महरि कीन्ह पुकार। अबहिं आँगन छाँड़ि आई, चप्पौ तरु की डार - ३८७।
- क्रि. अ.
- [हिं. चपना]
- चबक
- टीस. चिलक।
- संज्ञा
- [देश.]
- चबक
- दब्बू, कायर, डरपोक।
- वि.
- [हिं. चपना]
- चबकना
- टीसना, चिलकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चबक]
- चबकी
- पराँदा, चँवरी।
- संज्ञा
- [देश, ]
- चबाइ
- चुगलखोर।
- चंचल, चपल, चबाइ, चौपटा, लिए मोह की फाँसी - १ - ८६।
- वि.
- [हिं. चबाव]
- चबाइन
- बदनामी की चर्चा, निंदा।
- दासी तृष्ना भ्रमत टहल - हित, लहत न छिन बिश्राम। अनाचार - सेवक सौं मिलिकै, करत चबाइनि काम - १ - १४१।
- संज्ञा
- [हिं चाव]
- चबाई
- इधर की उधर लगानेबाला, चुगलखोर।
- (क) माधौ जू, मोतैं और न पापी। घातक, कुटिल, चबाई, केपटी, महाकुर, संतापी - १ - १४०।
(ख) सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई जनमत ही कौ धूर्त - १० - २१५। (ग) सूरदास बल बड़ौ चबाई सैसेहिं मिले सखाऊ - ४८१।
- वि.
- [हिं. चबाव]
- चबाउ
- चारो ओर फैलनेवाली चर्चा, प्रवाद।
- संज्ञा
- [हिं. चौबाई, चबाव]
- चबाउ
- बुराई या निंदा की चर्चा।
- नैनन तें यह भई बड़ाई। घर घर यहै चबाउ चलावत हम सौं भेंट न माई।
- संज्ञा
- [हिं. चौबाई, चबाव]
- चबाउ
- पीठ पीछे की निंदा।
- संज्ञा
- [हिं. चौबाई, चबाव]
- चबात
- चबाते हुए।
- क्रि. स.
- [हिं. चबाना]
- चबात
-
- दाँत चबात :- क्रोध प्रदर्शित करते हुए।
उ. - दाँत चबात चले जमपुर तै धाम हमारे कौं - १ - १५१।
- मु.
- चबाना
- दाँत से कुचलना।
- क्रि. स.
- [सं. चर्वण]
- चबाना
-
- चबा चबाकर बात करना :- स्वर बनाकर बोलना
चबे को चबाना :- किया हुआ काम फिर से करना।
- मु.
- चबाना
- दाँत से काटना, दरदराना।
- क्रि. स.
- [सं. चर्वण]
- चबारा
- ऊपरी बैठक।
- संज्ञा
- [हिं. चौवारा]
- चबाव, चबावन
- चर्चा, प्रवाद।
- संज्ञा
- [हिं. चबाव]
- चबाव, चबावन
- निंदा या बुराई की चर्चा।
- संज्ञा
- [हिं. चबाव]
- चबाव, चबावन
- चुगलखोरी।
- संज्ञा
- [हिं. चबाव]
- चबूतरा
- चौतरा।
- संज्ञा
- [हिं. चौतरा]
- चबेना
- भुना हुआ सूखा अनाज, भूँजा, चर्वण।
- एक दूध, फल, एक झगरि चबेना लेत, निज निज कामरी के आसननि कीने - ४६७।
- संज्ञा
- [हिं. चबाना]
- चबेनी
- बरातियों को दिया जानेवाला जलपान।
- संज्ञा
- [हिं. चबाना]
- चबेनी
- जलपान का मूल्य।
- संज्ञा
- [हिं. चबाना]
- चब्भू, चब्बू
- बहुत खानेवाला।
- वि.
- [हिं. चबाना]
- चब्भो
- दूसरे का दिया हुआ गोला, डुब्बी, डुबकी।
- संज्ञा
- [हिं. चभकना]
- चभक
- पानी में डूबने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चभक
- डंक मारने की क्रिया।
- संज्ञा
- [देश.]
- गुह
- कार्तिकेय।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुह
- घोड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुह
- केवट जिसने श्रीराम को गंगा पार पहुँचाया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुह
- एक लता।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुह
- गुफा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुह
- हृदय।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुहत
- (चोटी आदि) गू्ँधकर, गूँधने पर।
- मैया, कबहिं बढ़ेगी चोटी...। काढ़त गुहत न्हवावत जैहै नागिन - सी भुई' लोटी - १०.१७५।
- क्रि. स.
- [हिं. गुहना]
- गुहन
- एक में पिरोने (को), गूँथने या गूँधने (को)।
- कहि हैं न चरनन देन जावक गुहन बेनी फूल - २७५६।
- क्रि. स.
- [हिं. गुहना]
- गुहना
- पिरोना, गूँथना।
- क्रि. स.
- [सं. गुंफन]
- गुहना
- सुई तागे से सी देना।
- क्रि. स.
- [सं. गुंफन]
- चभड़चभड़
- खाते-पीते समय मुँह का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चभड़चभड़
- कुत्ते-बिल्ली का पानी पीने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चभना
- कुचला जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं चाभना]
- चभाना
- खिलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाभना]
- चभोक
- मूर्ख, गावदी, बेवकूफ।
- वि.
- [देश.]
- चभोकना, चभोरना
- गोता देना, डुबोना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुभकी]
- चभोकना, चभोरना
- भिगोना, तर करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुभकी]
- चभोरी
- भीगी हुई, तर।
- रोटी, बाटी, पोरी, झोरी। इक कोरी इक घीव चभोरी - ३९६।
- वि.
- [हिं. चभोरना]
- चभोरे
- भीगे हुए, तर, रस में डूबे हुए।
- (क) मीठे अति कोमल हैं नीके। ताते, तुरत चभोरे घी के - ३९६।
(ख) घेवर अति घिरत चभोरे। लै खाँड उपर तर बोरे - १० - १८३।
- वि.
- [हिं. चभोरना]
- चमंक
- प्रकाश।
- संज्ञा
- [हिं. चमक]
- चमकनी
- जल्दी चिढ़ने या भड़कनेवाली।
- वि.
- [हिं. चमकना]
- चमकनी
- हाव-भाव बतानेवाली।
- वि.
- [हिं. चमकना]
- चमकाति
- चमकाती है, कांति लाती है।
- तनक कटि पर कनक - कर - धनि, छीन छबि चमेकाति - १० - १८४।
- क्रि. स.
- [हिं. चमकाना]
- चमकाना
- चमकीला करना, झलकाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चमकना]
- चमकाना
- साफ या उजला करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चमकना]
- चमकाना
- भड़काना, चौंकाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चमकना]
- चमकाना
- चिढ़ाना, खिझाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चमकना]
- चमकाना
- उँगली मटका कर भाव बताना।
- क्रि. स.
- [हिं. चमकना]
- चमकारा
- चमक, प्रकाश।
- संज्ञा
- [सं. चमत्कार]
- चमकारी
- चमक, प्रकाश।
- अधर बिंब दसननि की सोभा दुति दामिनि चमकारी।
- संज्ञा
- [हिं. चमकारा]
- चमकन
- जगमगाना, प्रकाशपूर्ण होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमकन
- झलकना, दमकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमकन
- प्रसिद्ध होना, उन्नति करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमकन
- बढ़ना, बढ़ती पर होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमकन
- चौंकना, भड़कना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमकन
- झटपट खिसक जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमकन
- एक बारगी दर्द होने लगना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमकन
- मटकना; उँगलियाँ मटकाकर भाव बताना |
- क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमकन
- क्रोध प्रकट करना
- क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमकन
-
क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमंक
- कांति।
- संज्ञा
- [हिं. चमक]
- चमकना
- जगमगाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमकना]
- चमक
- प्रकाश, ज्योति, रोशनी।
- संज्ञा
- [सं. चमत्कृत]
- चमक
- कांति, आभा, दमक।
- संज्ञा
- [सं. चमत्कृत]
- चमक
-
- चमक देना (मारना) :- चमकना।
चमक लाना :- चमकाना।
- मु.
- चमक
- कमर आदि की चिक या झटका।
- संज्ञा
- [सं. चमत्कृत]
- चमकत
- चमकते हुए, ज्योतियुक्त।
- रिषि - दृग चमकत देखत भई - ९ - ३।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमकना]
- चमकताई
- कांति, अभा, दमक।
- हँसति दसननि चमकताई बज्र कन रुचि पाँति - १३५५।
- संज्ञा
- [हिं. चमक]
- चमक दमक
- आभा, कांति, तड़क-भड़क।
- मिटि गई चमक दमक अँग - अँग की, मति अरु दृष्टि हिरानी - १ - ३०५।
- संज्ञा
- [हिं. चमक + दमक (अनु.)]
- चमकदार
- चमकीला।
- वि.
- [हिं. चमक + फ़ा. दार]
- चमकारी
- चमकीली, प्रकाशयुक्त, अभावाली।
- वि.
- चमकावै
- चमकता है।
- तरपि तरपि चपला चमकावै - १०४९।
- क्रि. स.
- [हिं. चमकाना]
- चमकि
- चमक कर, जगमगाकर, प्रकाशयुक्त होकर।
- तृष्ना - तड़ित चमकि छनहीं छन, अह - निसि यह तन जारौ - १ - २०९।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमकि
- फुरती से खिसक कर, झटपट भाग कर।
- सुखा साथ के चमकि गये सब गयी स्याम कर धाइ। औरनि जानि जान मैं दीन्हौं, तुम कहँ जर पराइ - १० - ३१४।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमकि
- चौंके कर, भड़क कर।
- चमकि गये बोर सेव चकाचौंधी लगी चितै। डरपै असुर घटा घोटा - २५९१।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमकी
- रुपहले-सुनहले तारों के गोल-चौकोर तारे या सितारे।
- संज्ञा
- [हिं. चमक]
- चमकीला
- जिसमें चमक हो, चमकदार।
- वि.
- [हिं. चमक + ईला (प्रत्य.)]
- चमकीला
- भड़कीला।
- वि.
- [हिं. चमक + ईला (प्रत्य.)]
- चमकै
- चमकती है, जगमगाती है, आलोकित होती है।
- निसि अँधेरी, बीजु चमकै, सघन बरसै मेह - १० - ५।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमकना]
- चमक्यौ
- मटकने लगा।
- एक सखा हरि त्रिया रूप करि पठै दियौ तिनं पास।…..। पीलांवर जिनि देहुं स्याम को यह कहि चमक्यौ ग्वाल - २४१६।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमकना]
- चमगादड़
- एक पक्षी जो दिन में नहीं निकलता, रात में उड़ता है।
- संज्ञा
- [सं. चर्मचटका, पं. चमचिचड़ी, हिं. चमगिदड़ी]
- चमवम
- एक बंगाली मिठाई।
- संज्ञा
- [देश.]
- चमवम
- झलक या कांतिसहित।
- क्रि. वि.
- चमचमाति
- चमकती है, झलकती है।
- (क) चपली चमचमाति चमकि नभ झहरात राखिले क्यों न ब्रज नंद तात - ९६०
(ख) चपला अति चमचमाति ब्रज जन सब डर डरात टेरत सिसु पिता - मात ब्रज गलबल।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमचमाना]
- चमचमाना
- चमकना, प्रकाशित होना, झलकना, दमकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमक]
- चमचमाना
- चमक-दमक लाना, झलकाना।
- क्रि. स.
- चमचा
- चम्मच।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चमचा
- चिमटा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चमची
- छोटा चम्मच।
- संज्ञा
- [हिं. चमचा]
- चमची
- आचमनी।
- संज्ञा
- [हिं. चमचा]
- चमची
- चिमटी।
- संज्ञा
- [हिं. चमचा]
- चमजुई, चमजोई
- एक कीड़ा।
- संज्ञा
- [सं. चर्मपूका]
- चमजुई, चमजोई
- पीछा न छोडनेवाली वस्तु या पात्र।
- संज्ञा
- [सं. चर्मपूका]
- चमटना
- चिपटना, लिपटना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिमटना]
- चमड़ा
- चर्म, त्वचा।
- संज्ञा
- [सं. चर्म]
- चमड़ा
- खाल, चरसा।
- संज्ञा
- [सं. चर्म]
- चमड़ा
- छाल, छिलका।
- संज्ञा
- [सं. चर्म]
- चमड़ी
- चर्म।
- संज्ञा
- [हिं. चमड़ा]
- चमड़ी
- खाल।
- संज्ञा
- [हिं. चमड़ा]
- चमत्करण
- चमत्कार लाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमन
- गुलजार या रौनकदार बस्ती।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चमर
- सुरा गाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमर
- सुरा गाय की पूछ का बना चँवर या चामर।
- चारु चक्रमनि खचित मनोहर चंचल चमर पताका - २५६६।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमर
- एक दैत्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमरख
- चरखे की गुडियों में लगाने की चकती।
- संज्ञा
- [हिं. चाम + रक्षा]
- चमरख
- बहुत दुबली-पतली, सूखी-साखी।
- संज्ञा
- चमरशिखा, चमरसिखा
- घोड़ों की कलगी।
- संज्ञा
- [सं. चामर +, शिखा]
- चमरी
- सुरा गाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमरी
- चँवरी, चामर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमरी
- मंजरी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमत्कार
- आश्चर्य, विस्मय।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमत्कार
- अद्भुत व्यापार।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमत्कार
- अनूठापन, विलक्षणता।
- संज्ञा
- [सं.]
- धमत्कारक
- अनूठा, विलक्षण।
- वि.
- [सं.]
- चमत्कारी
- अद्भुत, विलक्षण।
- वि.
- [सं.]
- चमत्कारी
- विलक्षण काम करनेवाला, करामाती।
- वि.
- [सं.]
- चमत्कृत
- विस्मित, चकित।
- वि.
- [सं.]
- चमत्कृति
- विस्मय, आश्चर्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमन
- हरी-भरी क्यारी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चमन
- फुलवारी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चमरौधा
- एक भद्दा जूता।
- संज्ञा
- [हिं. चाम]
- चमला
- भीख माँगने का पात्र।
- संज्ञा
- [देश.]
- चमस
- एक यज्ञपात्र, चम्मच।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमाऊ
- चमर, चँवर।
- संज्ञा
- [सं. चामर]
- चमक
- कांति, प्रकाश।
- संज्ञा
- [हिं. चमक]
- चमाकना
- चमकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमकना]
- चमाचम
- चमकता हुआ।
- वि.
- [हिं. चमक]
- चमार
- एक जाति जो चमड़े का काम बनाती है।
- संज्ञा
- [सं . चर्मकार]
- चमारनी, चमारिन, चमारी
- चमार की स्त्री।
- संज्ञा
- [हिं. चमार]
- चमारनी, चमारिन, चमारी
- चमार का काम।
- संज्ञा
- [हिं. चमार]
- गुहाए
- गुथाये या पिरोये (हुए)।
- इन बिरहिन मैं कहूँ तू देखी सुमन गुहाए मंग - ३२२३।
- क्रि. स.
- [हिं. गुहना]
- गुहाना
- गुँथवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. गुहना का प्रे.]
- गुहार, गुहारि, गुहारी
- रक्षा के लिए की गयी पुकार, दोहाई।
- (क) सृंगीरिषि तब कियौ बिचार। प्रजा दोष करैनृपति गुहार - १ - २९०।
(ख) दीन गुहारि सुनौ स्रवननि भरि गर्व बचन सुनि हृदय जरौं - ११०३। (ग) प्रभु स्रवनन तहँ परी गुहारी - २४५९। (घ) अब यह कृपा जोग लिखि पठए मनसिज करी गुहारि - ३००२।
- संज्ञा
- [सं. गो +हार]
- गुहार, गुहारि, गुहारी
- लगहु गुहार-दुहाई करो, पुकार लगाओ।
- शत्रु - सेन सुधाम फेरथौ सूर लगहु् गुहार - २८३४।
- प्र.
- गुहार, गुहारि, गुहारी
- शोर-गुल, हो-हल्ला, कोलाहल, जोर का शब्द।
- (क) दौरि परे ब्रज के नर - नारी। नंद द्वार कछु होत गुहारी - ३९१।
(ख) धाए नंद, जसोदा धाई, नित प्रति कहा गुहारि - ६०४।
- संज्ञा
- [सं. गो +हार]
- गुहारना
- रक्षार्थ दुहाई देना।
- क्रि. स.
- [हिं. गुहार]
- गुहाल
- गोशाला।
- संज्ञा
- [सं. गोशाला]
- गुहि
- गूँथकर, पिरो. कर।
- (क) गुहि गुंजा घसि बन धातु, अंगनि चित्र ठए - १० - २४।
(ख) सूरदास प्रभु की यह लीला, ब्रज - बनिता पहिरै गुहि हार - १० - १७३। (ग) संभुभूषन बदन बिलसत कंज ते गुहि माल - सा. ९४।
- क्रि. स.
- [सं. गुंफन, हिं. गुहना]
- गुही
- गूँथी, एक में पिरोई, गाँथी।
- (क) सुभ स्रवननि तरल तरौन, बेनी सिथिल गुही - १० - २४।
(ख) तब कित लाड़ लड़ाइ लड़इते बेनी कुसुम गुही गाढ़ी - पृ. ३५३ (६५)।
- क्रि. स.
- [सं. गुंफन, हिं. गुहना]
- गुईहौं
- गुँधवाऊँगा, गुहाऊँगा।
- सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुईहौं - १० - १९३।
- क्रि. स.
- [हिं. गुहाना, गुहवाना]
- चमू
- सेना, फौज।
- (क) सत्रह बार फेर फिरि आयौ हरि सब चमू सँहारी - सारा, ५९८।
(ख) सखी री - पावस सैन पलान्यो। ......। दसहु दिसा सों धूम देखियत कंपति है। अति देह। मनहु चलत चतुरंग चमू नभ बाढ़ी है। खुर खेह - २८२०।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमू
- सेना जिसमें हाथी, इतने ही रथ, तिगुने सवार और पँचगुने पैदल हों।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमूर
- सिपाही।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमूर
- सेनापति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चमेलिया
- पीले रंग का।
- वि.
- [हिं. चमेली]
- चमेलिया
- चमेली की गंध से युक्त।
- वि.
- [हिं. चमेली]
- चमेली
- एक झाड़ी या लता जिसके फूल सफेद या पीले होते हैं।
- संज्ञा
- [सं. चंपकवेलि]
- चमोटो
- चाबुक, कोड़ा।
- माखन - चोर री मैं पायौ।...। बारबार हौं ढूँका लागी मेरी घात न आयौ। नोई नेत की करौं चमोटी घूँघट में डरवायौ ९०६।
- संज्ञा
- [हिं. चाम + औटा (प्रत्य.)]
- चमोटो
- पतली छड़ी, बेंत।
- संज्ञा
- [हिं. चाम + औटा (प्रत्य.)]
- चम्मच
- हल्का चमचा।
- संज्ञा
- [फ़ा. सं. चमस]
- चयन
- चैन, आरम, सुख।
- त्रिबिध पवन मन हरष दयन। सदा बहत न बिहरत चयन - २३६७।
- संज्ञा
- [हिं. चैन]
- चयनशील
- संग्रही।
- वि.
- [सं. चयन+शील (प्रत्य.)]
- चयना
- संचय या इकट्ठा करना।
- क्रि. स.
- [सं. चयन]
- चयनिका
- चुनी हुई वस्तुओं, बातों या रचनाओं का संग्रह।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर
- गुप्त रूप से कार्य करने को नियुक्त व्यक्ति।
कौड़ी। दलदल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर
- अप चलनेवाला, जंगम।
- जब हरि मुरली अधर धरत। थिर चर, चर थिर, पवन थकित रहैं, , जमुना जल न बहत - ६२०।
- वि.
- [सं.]
- चर
- अस्थिर, एक स्थान पर न रहनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- चर
- भोजन करनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- चर
- कागज-कपड़ा फटने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चरई
- पशुओं को पानी पिलाने का पक्का गहरा गढ़ा या छोटा हौज।
- संज्ञा
- [हिं. चारा]
- चय
- समूह, ढेर, राशि।
- संज्ञा
- [सं.]
- चय
- टीला।
- संज्ञा
- [सं.]
- चय
- गढ़, किला।
- संज्ञा
- [सं.]
- चय
- चहारदीवारी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चय
- नींव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चय
- चबूतरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चय
- चौकी, ऊँचा आसन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चयन
- इकट्ठा करने का कार्य, संग्रह, संचय।
- संज्ञा
- [सं.]
- चयन
- चुनने का काम, चुनाई।
- संज्ञा
- [सं.]
- चयन
- क्रम से लगाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरक
- दूत, चर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरक
- जासूस।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरक
- पथिक, मुसाफिर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरक
- भिखारी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरक
- एक प्रकार की मछली।
- संज्ञा
- चरकटा
- पशु का चारा काटनेवाला आदमी।
- संज्ञा
- [हिं. चारा+काटना]
- चरकटा
- तुच्छ मनुष्य।
- संज्ञा
- [हिं. चारा+काटना]
- चरकना
- टूटना, फूटना, दरकना।
- क्रि. अ.
- चरका
- हलका घाव, जख्म।
- संज्ञा
- [फ़ा चरक]
- चरका
- दागने का चिन्ह।
- संज्ञा
- [फ़ा चरक]
- चरका
- हानि, नुकसान।
- संज्ञा
- [फ़ा चरक]
- चरख
- पहिया, चोक।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरख
- खराद
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरख
- रेशम आदि लपेटने का ढाँचा |
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरख
- चरखा।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरख
- तोप लादने की गाड़ी।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरख
- एक शिकारी चिड़िया।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखा
- गोल चक्कर, चरख।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखा
- सूत कातने का यंत्र।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखा
- कुएँ से पानी निका लने का रहट।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखा
- सूत लपेटने की चरखी।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखा
- गराड़ी।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखा
- बुढ़ापे या कमजोरी के कारण बहुत शिथिल शरीर।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखा
- झगड़े या झंझट का काम।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखा
- गोल चक्कर, चरख।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखा
- सूत कातने का यंत्र।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखा
- कुएँ से पानी निका लने का रहट।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखा
- सूत लपेटने की चरखी।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखा
- गराड़ी।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखा
- बुढ़ापे या कमजोरी के कारण बहुत शिथिल शरीर।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरचना
- अनुमान करना।
- क्रि. स.
- [सं. चर्चन]
- चरचना
- पहचानना।
- क्रि. स.
- [सं. चर्चन]
- चरचना
- पूजा करना, पूजना।
- क्रि. स.
- [सं. अर्चन]
- चरचरा
- एक चिड़िया।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चरचरा
- चिड़चिड़े स्वभाव का।
- वि.
- [हिं. चिड़चिड़ा]
- चरचराना
- चरचर शब्द करके जलना, टूटना या फटना।
- क्रि. अ.
- [अनु. चरचर]
- चरचराना
- घाव आदि का दर्द करना या चर्राना।
- क्रि. अ.
- [अनु. चरचर]
- चरचराहट
- दर्द करने या चने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. चरचराना+हट (प्रत्य.)]
- चरचराहट
- चरचर करके फटने या टूटने का शब्द।
- संज्ञा
- [हिं. चरचराना+हट (प्रत्य.)]
- चरचा
- जिक्र, वर्णन।
- हरि - जन हरि - चरचा जो करै। दासी - सुत सो हिरदै धरै - ७ - ८।
- संज्ञा
- [सं. चर्चा]
- चरचारी
-
संज्ञा
- [हिं. चरचा]
- चरचारी
- निंदा या शिकायत करनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चरचा]
- चरचि
- देह में चंदन, अरगजा आदि सुगंधित पदार्थ लगाकर।
- बाजत ताल - मृदंग जंत्र - गति, चरचि अरगजा अंग चढ़ाई - १० - १९।
- क्रि. स.
- [हिं. चरचना]
- चरचि
- पूजकर।
- सूरदास मुनि चरन चरचि करि सुर लोकनि रुचि मान।
- क्रि. स.
- [हिं. चरचना]
- चरचित
- लगाया या पोता हुआ, लेप हुआ।
- चरचित चांदन नील कलेवर, बरसत बू दन सावन - ८:१३।
- वि.
- [सं. चर्चित]
- चरच्यौ
- चंदन आदि लगाया।
- चंदन अंग सखिन कै चरच्यौ - ३९६।
- क्रि. स.
- [हिं. चरचना]
- चरज
- चरख नामक पक्षी।
- संज्ञा
- [फ़ा. चरग़]
- चरजना
- बहकाना, भुलावा देना।
- क्रि. अ.
- [सं. चर्चन]
- चरजना
- अनुमान करना, अंदाज लगाना
- क्रि. अ.
- [सं. चर्चन]
- चरट
- खंजन पक्षी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरखा
- झगड़े या झंझट का काम।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ख]
- चरखी
- घूमनेवाली वस्तु।
- संज्ञा
- [हिं. चरखा]
- चरखी
- छोटा चरखा।
- संज्ञा
- [हिं. चरखा]
- चरखी
- कपास की ओटनी।
- संज्ञा
- [हिं. चरखा]
- चरखी
- कुएँ से पानी खींचने की गराड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. चरखा]
- चरखी
- कुम्हार का चाक।
- संज्ञा
- [हिं. चरखा]
- चरखी
- एक अतिशबाजी।
- संज्ञा
- [हिं. चरखा]
- चरंग
- एक शिकारी चिड़िया।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चरचना
- देह में चंदन आदि लगाना।
- क्रि. स.
- [सं. चर्चन]
- चरचना
- लेपना, पोतना।
- क्रि. स.
- [सं. चर्चन]
- चरण
- पैर, पग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरण
-
- चरण देना :- पैर रखना।
चरण पड़ना :- आगमन होना, कदम जाना।
- मु.
- चरण
- बड़ों का संग, बड़ों की समीपता।
- जहाँ जहाँ तुम देह धरत हौ तहाँ तहाँ जनि चरण (चरन) छुड़ायहु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरण
- छंद या श्लोक का एक पद।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरण
- चौथाई भाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरण
- मूल, जड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरण
- गोत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरण
- क्रम।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरण
- घूमने का स्थान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरण
- सूर्य आदि की किरण।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुह्य
- छिपा हुआ, गुप्त।
- वि.
- [सं.]
- गुह्य
- छिपाने योग्य।
- वि.
- [सं.]
- गुह्य
- गूढ़, जटिल।
- वि.
- [सं.]
- गुह्य
- छल-कपट।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुह्य
- कछुआ।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुह्य
- शरीर के गुप्त अंग।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुह्य
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- गुह्य
- शिव।
- संज्ञा
- [सं.]
- गूँग, गँगा, गूँगे
- वह मनुष्य जो बोल न सके।
- बहिरौ सुनै गूँग पुनि बोले - रंक चलै सिर छत्र धराई - १ - १।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुंग]
- गूँग, गँगा, गूँगे
- जो बोल न सके, मूक।
- वि.
- चरणपीठ
- खड़ाऊँ, पाँवड़ी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरणामृत
- वह जल जिसमें किसी महात्मा आदि के चरण धोये गये हों।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरणामृत
- दूध, दही, घी, शकर और शहद का घोल जिसमें किसी देवमूर्ति को स्नान कराया गया हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरणायुध
- मुरगा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरणोदक
- चरणामृत।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरत
- (पशु आदि) चरते हैं।
- अजानायक मगन क्रीड़त, चरत बारंबार - १ - ३२१।
- क्रि. स.
- [सं. चर= चरना]
- चरत
- एक बड़ा पक्षी।
- संज्ञा
- [देश.]
- चरता
- चलने का भाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरता
- पृथ्वी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरति
- चरती हैं, (चारा आदि) खाती हैं।
- जहाँ जहँ गाइ चरतिं ग्वालनि संग, तहँ तहँ आपुन धायो - ४११।
- क्रि. स.
- [हिं. चरना]
- चरण
- गमन, जाना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरण
- गमन, जाना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरण
- चरना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरणचिह्न
- धूल आदि पर पड़ा पैर का निशान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरणचिह्न
- चरण के आकार का चिह्न जिसका पूजन होता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरणतल
- पैर का तलुवा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरणदासी
- स्त्री. पत्नी।
- संज्ञा
- [सं. चरण +दासी]
- चरणदासी
- जूता, पनही।
- संज्ञा
- [सं. चरण +दासी]
- चरणपादुका
- खड़ाऊँ, पाँवड़ी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरणपादुका
- चरणचिह्न जिसका पूजन होता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरपर, चरपरा
- चुस्त, तेज, फुर्तीला।
- वि.
- [सं. चपल]
- चरपराना
- घाव या जख्म का चर्रना या पीड़ा देना।
- घाव या जख्म का चर्र्राना या पीड़ा देना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चरचर]
- चरपराहट
- स्वाद की तीक्ष्णता।
- संज्ञा
- [हिं. चरपरा]
- चरपराहट
- घाव की जलन।
- संज्ञा
- [हिं. चरपरा]
- चरपराहट
- ईर्ष्या।
- संज्ञा
- [हिं. चरपरा]
- चरफरा
- तीक्ष्ण स्वाद का।
- वि.
- [हिं. चरपरा]
- चरफराना
- तड़पना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चरब
- तेज, तीखा।
- वि.
- [फ़ा. चर्ब]
- चरब
- चरब जवानी-खुशामद करना।
- यौ.
- चरबन
- भुना अन्न, चबेना।
- संज्ञा
- [सं. चर्वण]
- चरनि
- चाल, गति।
- संज्ञा
- [सं. चर=गमन]
- चरनी
- चरने का स्थान, चरी, चरागाह।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चरनी
- चारा देने की नाँद।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चरनी
- पशुओं का चारा या आहार।
- कमल बदन कुँमिलात सबन के गौवन छाँड़ी चरनी - ३३३०।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चरनी
- चरने की क्रिया।
- गौवन छाँड़ी तृन की चरनी।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चरनोदक
- चरणामृत।
- (क) जाको चरनोदक सिव सिर धरि तीनि लोक हितकारी - १ - १५।
(ख) चरन धोइ चरनोदक लीन्हौं - १ - २३९।
- संज्ञा
- [सं. चरण + उदक = जल]
- चरपट
- चपत, तमाचा।
- संज्ञा
- [सं. चर्पट]
- चरपट
- चोर, उचक्का।
- संज्ञा
- [सं. चर्पट]
- चरपट
- एक छंद।
- संज्ञा
- [सं. चर्पट]
- चरपर, चरपरा
- स्वाद में तीक्ष्ण या तीता।
- मीठे चरपर उज्ज्वल कौरा। हौंस होइ तौ ल्याऊँ औरा - ३९६।
- वि.
- [अनु.]
- चरती
- व्रत न करनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चरन
- चरण, पैर।
- संज्ञा
- [सं. चरण]
- चरन
- बड़ों का संग-साथ या सामीप्य।
- जहाँ जहाँ तुम देह धरत हौ तहाँ तहाँ जनि चरन छुड़ायडु।
- संज्ञा
- [सं. चरण]
- चरन
- छंद का एक पद।
- संज्ञा
- [सं. चरण]
- चरनदासी
- जूता।
- संज्ञा
- [सं. चरणदासी]
- चरना
- पशु का घास खाना।
- क्रि. स.
- [सं. चर]
- चरना
- घूमना-फिरना, विचरना।
- क्रि. अ.
- चरना
- काछ।
- संज्ञा
- [सं. चरण]
- चरनायुध
- मुरगा।
- संज्ञा
- [सं. चरणायुध]
- चरनारबिंद
- चरण कमलों को।
- सूर भज चरनारबिंदनि, मिटै जीवन - मरन - १ - ३०९ |
- संज्ञा
- [सं. चरण + अरविंद]
- चरमगिरि
- अस्ताचल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरमर
- चीमड़ वस्तु के दबने या मुड़ने पर होनेवाला शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चरमराना
- चरमर शब्द होना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चरवाँक
- चतुर।
- वि.
- [हिं. चरवाँक]
- चरवाँक
- निडर।
- वि.
- [हिं. चरवाँक]
- चरवा
- मुलायम चार।
- संज्ञा
- [देश.]
- चरवाँई
- चराने का काम।
- संज्ञा
- [हिं. चराना]
- चरवाँई
- चराने की मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. चराना]
- चरवाना
- चराने का काम कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. चराना]
- चरवारे
- चरवाहा, चौपायों का रक्षक।
- राजनीति जानौ नहीं, गो - सुत चरवारे - २ - २३८।
- संज्ञा
- [हिं. चरवाहा]
- चरवाहा
- पशुओं को चरानेवाला, चौपायों का रक्षक।
- संज्ञा
- [हिं. चरना+वाहा=वाहक]
- चरवाही
- पशुओं को चराने का काम।
- संज्ञा
- [हिं. चरवाहा]
- चरवाही
- चराने की मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. चरवाहा]
- चरवैया
- चरनेवाला पशु आदि।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चरवैया
- चरानेवाला, चरवाहा।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चरबो
- खाने, पीने आदि की क्रिया।
- इन गैयन चर वो छाँड़ों है जो नहिं लाल चरै हैं—३४३६।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चरस, चरसा
- चमड़े का थैला।
- संज्ञा
- [सं. चर्म]
- चरस, चरसा
- चमड़े का पुर या मोट।
- संज्ञा
- [सं. चर्म]
- चरस, चरसा
- गाँजे के पेड़ का गोंद जो मादक होता है।
- संज्ञा
- [सं. चर्म]
- चरस, चरसा
- बनमोर नामक पक्षी।
- संज्ञा
- [फ़ा. चर्ज]
- चरबाँक, चरबाक
- चतुर, चालाक, होशियार।
- वि.
- [हिं. चरब]
- चरबाँक, चरबाक
- निर्भय, निडर, शोख।
- वि.
- [हिं. चरब]
- चरबा
- नकल, खाका।
- संज्ञा
- [फ़ा. चरबः]
- चरबा
-
- चरबा उतारना :- नकल करना।
- मु.
- चरबी
- शरीर का चिकना गाढ़ा पदार्थ जो मांस से बनता है, मेद।
- संज्ञा
- [फा.]
- चरबी
-
- चरबी चढ़ना :- मोटा होना।
चरबी छाना :- (१) मोटा होना। (२) गर्व से अंधा होना।
- मु.
- चरम
- सबसे बढ़ा-चढ़ा, चोटी का।
- वि.
- [सं.]
- चरम
- पश्चिम।
- संज्ञा
- चरम
- अंत।
- संज्ञा
- चरम
- चमडा।
- चमड़ा।
- संज्ञा
- [सं. चर्म]
- चरावन
- चराने के लिए।
- (क) गाय चरावन को सो गयौ - ९ - ७१।
(ख) आजु मैं गाय चरावन जैहौं - ४११।
- संज्ञा
- [हिं. चराना]
- चरावना
- चार खिलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चराना]
- चरावर
- व्यर्थ की बात।
- संज्ञा
- [देश, ]
- चरावै
- (गाय, भैंस आदि) चराता है।
- सौह गोप की गाई चरावै - १० - ३।
- क्रि. स.
- [हिं. चराना]
- चरिंदा
- चरनेवाला पशु।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चरि
- चारा खाकर, चरकर।
- (क) व्योम, थर, नद, सैल, कानन इते चरि न अघाइ-१-५६।
(ख) जगत-जननी करी बारी मृगा चरि चरि जाइ-९-६०।
- क्रि. स.
- [सं. चर=चलना]
- चरि
- पशु
- संज्ञा
- [सं.]
- चरित
- रहन-सहन, आचरण।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरित
- करनी, करतूत (व्यंग्य)।
- अपनो भेद तुम्हैं। नहिं के हैं। देखहु जाइ चरित तुम वाके जैसे गाल बजैहै - १२६३।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरित
- कृत्य, लीला |
- चरननि चित्त निरंतर अनुरत, रसना - चरित - रसाल - १ - १८९।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरसिया, चरसी
- चरस से पानी खींचनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चरस + इया ई, (प्रत्य.)]
- चरसिया, चरसी
- चरस नामक मद पीनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चरस + इया ई, (प्रत्य.)]
- चरहिं
- चरती हैं।
- तहँ गैयाँ गनी न जाहिं. तरुनी बैच्छ बढ़ीं। जो चरहिं जमुन कै तीर, दूनै दूध चढ़ीं - १० - २४।
- क्रि. स.
- [हिं. चरना]
- चरही
- पशुओं के चरने या पानी पीने का स्थान।
- संज्ञा
- [हिं. चरनी]
- चराइ
- पशुओं को चारा खिलाने के लिए मैदान में ले जाना।
- माधौ जू, यह मेरी इक गाइ। अब आज हैं आप - प्रागै दई, लै आइयै चराई - १ - ५१।
- क्रि. स.
- [हिं. चरना]
- चराई
- मैदान में ले जाकर पशुओं को चारा खिलाया।
- प्रथम कयौ जो बचन दया रत, तिहिं बस गोकुल गाइ चराई - १६।
- क्रि. स.
- [हिं. चरना]
- चराई
- चरने का काम।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चराई
- चराने का काम।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चराई
- चराने की मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चराऊ
- चारागाह, चरनी।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- गुथवाना
- गूथने का काम कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. गूथना]
- गुदकार, गुदकारा
- गूदेदार।
- वि.
- [हिं. गूदा या गुदार]
- गुदकार, गुदकारा
- गुदगुदा, मोटा।
- वि.
- [हिं. गूदा या गुदार]
- गुदकार, गुदकारा
- गूदेदार।
- वि.
- [हिं. गूदा या गुदार]
- गुदकार, गुदकारा
- गुदगुदा, मोटा।
- वि.
- [हिं. गूदा या गुदार]
- गुदगुदा
- मुलायम।
- वि.
- [हिं. गूदा]
- गुदगुदा
- गूदेदार, मांस या गूदे से युक्त।
- वि.
- [हिं. गूदा]
- गुदगुदाना
- गुदगुदी करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. गुदगुदा]
- गुदगुदाना
- हँसी के लिए छेड़ना।
- क्रि. अ.
- [हिं. गुदगुदा]
- गुदगुदाना
- चित्त में चाह या उत्कंठा पैदा करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. गुदगुदा]
- गूँग, गँगा, गूँगे
-
- गूँगे को गुड़ :- वह विषय या बात जिसका अनुभव तो हो परंतु वर्णन न किया जा सके।
उ. - (क) अमृत कहा अमित गुन प्रगटै सो हम कहा बतावैं। सूरदास गूँगे के गुर ज्यों बूझति कहा बुझावै १६३६। (ख) गूँगे गुर की दसा भई ह्वै पूरन स्याम सोहाग सही - १९८२।
- मु.
- गूँगी
- गोल बिछिया जो स्त्रियाँ उँगली में पहनती हैं।
दोमुहाँ साँप।
- संज्ञा
- [हिं. गूँगा]
- गूँगी
- जो गूँगी हो।
- वि.
- गूँगै
- गूँगे व्यक्ति को (ने)।
- (क) अबिगत - गति कछु कहत न आवै। ज्यौं गूँगै मीठे फल कौ रस अंतरगत हीं भावे - १ - २।
(ख) कहि न जाइ या सुख की महिमा ज्यौं गूँगे गुर खायो - ४ - ३३।
- संज्ञा
- [हिं. गूँगा]
- गूँगौं
- गूँगा व्यक्ति, मूक प्राणी।
- संज्ञा
- [हिं. गूँगा]
- गूँगौं
-
- गूँगौ गुर खाइ :- ऐसी बात जिसका अनुभव तो हो, परंतु वर्णन न हो सके, जैसे गुड़ के स्वाद का अनुभव करके भी गूँगा उसे कह नहीं पाता।
उ. - ज्यों गूँगौ गुर खाइ अधिक रस, सुख स्वाद न बतावै (हो) - २ - १०।
- मु.
- गूँच
- गुंजा, घुँघची।
- संज्ञा
- [सं. गुंज]
- गूँज
- भौरों का गुंजार।
- संज्ञा
- [सं. गुंज]
- गूँज
- प्रतिध्वनि।
- संज्ञा
- [सं. गुंज]
- गूँज
- लट्टू, की कील।
- संज्ञा
- [सं. गुंज]
- चरागाह
- चरने का स्थान, चरी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चराचर
- चर और अचर, जड़ और चेतन, स्थावर और जंगम।
- त्रिभुवन - हार सिंगार भगवती, सलिन चराचर जाके ऐन। सूरजदास विधात कें तर प्रगट भई संतनि सुख देन - ९ - १२।
- वि.
- [सं.]
- चराचर
- जगत्, संसार।
- वि.
- [सं.]
- चराचर
- कौड़ी।
- वि.
- [सं.]
- चरान
- चरने की भूमि।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चरान
- समुद्र के किनारे का दल दल।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चराना
- पशु को चराने ले जाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चरना]
- चराना
- धोखा देना, मूर्ख बनाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चरना]
- चरायौ
- (गाय, भैंस आदि को) चराया।
- धनि गो - सुत, धनि गाइ ये, कृष्ण चरायौ अपु - ४९२।
- क्रि. स.
- [हिं. चरना]
- चराव
- चरने का स्थान।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चरित्र
- आचरण, चरित।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरित्रनायक
- वह व्यक्ति जिसके चरित्र के अधार पर कोई ग्रंथ लिखा जाय।
- वह व्यक्ति जिसके चरित्र के आधार पर कोई ग्रंथ लिखा जाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरित्रवती
- अच्छे चरित्रवाली।
- वि.
- [हिं. चरित्रवान]
- चरित्रवान
- अच्छे आचरणवाला।
- वि.
- [सं.]
- चरी
- चराई का स्थान।
- संज्ञा
- [हिं. चारा]
- चरी
- छोटी ज्वारका हर पेड़ जो चारेके काम आता है।
- संज्ञा
- [हिं. चारा]
- चरी
- दूती।
- संज्ञा
- [चर= डूत]
- चरी
- दासी।
- संज्ञा
- [चर= डूत]
- चरु
- हवन या आहुति का अन्न।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरु
- हवन का अन्न पकाने का पात्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरु
- भाँड़ के साथ पकाया हुआ चावल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरु
- चराई का स्थान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरु
- यज्ञ।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरु
- बादल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरुआ
- मिट्टी का पात्र जिसमें प्रसूता स्त्री के लिए जल पकाया जाता है।
- संज्ञा
- [सं. चरु]
- चरुखला
- चरखा।
- संज्ञा
- [हिं. चरखा]
- चरू
- हवन का अन्न।
- संज्ञा
- [हिं. चरु]
- चरू
- चराई का स्थान।
- संज्ञा
- [हिं. चरी]
- चरेर, चरेरा
- कड़ा और खुरदुरा।
- वि.
- [अनु.]
- चरेर, चरेरा
- कर्कश और रूखा।
- वि.
- [अनु.]
- चरित
- जीवन चरित, जीवनी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरितनायक
- वह व्यक्ति या नायक जिसके चरित्र के आधार पर पुस्तक लिखी जाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरितवान
- सदाचारी।
- वि.
- [सं. चरित्रवान]
- चरितव्य
- आचरण करने योग्य।
- वि.
- [सं.]
- चरितार्थ
- जिसका उद्देश्य पूरा हो चुका हो, कृतार्थ।
- वि.
- [सं.]
- चरितार्थ
- जो ठीक ठीक घटे या पूरा उतरे।
- वि.
- [सं.]
- चरित्तर
- धूर्तता, चालबाजी।
- संज्ञा
- [सं. चरित्र]
- चरित्र
- कार्य, लीला।
- भूषन - बिबिध चिसद अंबर जुत सुंदर स्वाम सरीर। देखत मुदित चरित्र सबै सुर ब्योम - विमाननि भीर ९:२६।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरित्र
- स्वभाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरित्र
- करनी, करतूत (व्यंग्य)।
- संज्ञा
- [सं.]
- चचरी
- नाटक का एक गान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चरीक
- बाल सँवारने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चा
- जिक्र, वर्णन।
- हरिजन हरि - चर्चा जो करें।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चा
- बातचीत।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चा
- किंवदंती, अफवाह।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चा
- ऐसी बातचीत का प्रसंग जो जगह-जगह किसी की निंदा के उद्देश्य से छिड़ा रहे।
- चर्चा परी बहुत द्वारावति कृष्नचंद्र की बात। तब हरि गये सैल कंदर मैं अति कोमल मृदु गात - सारा, ६४६।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चा
- लेपना, पोतना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चिका
- चर्चा, जिक्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चित
- लगाया या पोता हुआ।
- वि.
- [सं.]
- चर्चित
- जिसकी चर्चा, वर्णन या जिक्र हो।
- वि.
- [सं.]
- चर्खो
- चरखी, गाड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. चरखी]
- चर्चक
- चर्चा करनेवाला व्यक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चन
- चर्चा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चन
- लेपन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चरिका
- एक नाटकीय गान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चचरी
- बसंत या फाग का गीत, चाँचर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चचरी
- होली की धूमधाम।
- संज्ञा
- [सं.]
- चचरी
- ताली बजाने का शब्द।
- संज्ञा
- [सं.]
- चचरी
- आमोद-प्रमोद।
- संज्ञा
- [सं.]
- चचरी
- गाना बजाना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरेरू
- चिड़िया, पक्षी।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चरै
- चरता है, खाता है।
- संग मृगनिहू को नहिं करै। हरी घासहू सो नहिं चरै - ५ - ३।
- क्रि. स.
- [हिं. चरना]
- चरैऐ
- चराइए।
- जमुनातट तुन बहुत, सुरभि - गन तहाँ चरैऐ - ४३१।
- क्रि. स.
- [हिं. चराना]
- चरैया
- चरानेवाला।
- (क) ये दोऊ मेरे गाइ चरैया - ५१३
(ख) मार मार कहि गारि दै धृग गाई चरैया - ५७५।
- संज्ञा
- [हिं. चराना]
- चरैया
- चरनेवाला पशु।
- संज्ञा
- [हिं. चराना]
- चरैहैं
- चायेंगे।
- इन गैयन चरबो छड़ो है जो नहिं लाल चरैहैं - ३४३६।
- क्रि. स.
- [हिं. चराना]
- चरैहौं
- चराऊँगा।
- मैया हौंन चरैहौं गाइ - ५१०।
- क्रि. स.
- [हिं. चराना]
- चरोखर
- चरी।
- संज्ञा
- [हिं. चारा+खर]
- चरौवा
- चरने का स्थान।
- संज्ञा
- [हिं. चराना]
- चर्खा
- सूत कातने का चरखा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्म
- ढाल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्मकार
- चमार।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्मचक्षु
- साधारण नेत्र
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्म जा
- रोआँ।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्म जा
- खून।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्मदृष्टि
- साधारण दृष्टि, आँख।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्या
- वह जो किया जाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्या
- चालचलन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्या
- काम-काज।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्या
- जीविका।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चित
- लेपन।
- संज्ञा
- चर्चट
- थप्पड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चट
- हथेली।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्चट
- विपुल, अधिक
- वि.
- चर्भटी
- चर्चरी गीत।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्भटी
- चर्चा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्भटी
- आनंद, क्रीड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्भटी
- आनंद ध्वनि।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्म
- चमड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्म
- (वृक्षादि की) ऊपरी छाल।
- ह्वै बिरक्त, सिर जटा धरै द्रुम. चर्म, भस्म सव गात - ९.३८।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्या
- सेवा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्या
- गमन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्य्य
- करने या आचरने योग्य।
- वि.
- [हिं. चर्चा]
- चरयौ
- घुमा-फिरा, विचरण, करता रहा।
- मन बस होत नाहिंनै मेरें।….। कहा करौं, यह चरयौ बहुत दिन, अंकुस बिना मुकेरैं अब करि सूरदास प्रभु आपुन, द्वार परयौ है तेरैं - १ - २०६।
- क्रि. अ.
- [हिं. चरना]
- चरोना
- चरचर शब्द करना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चरोना
- घाव में पीड़ा होना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चरोना
- तीव्र इच्छा होना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चर्रो
- चुभती हुई बात।
- संज्ञा
- [हिं. चर्राना]
- चर्वण
- चबाना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्वण
- वह वस्तु . जो चबायी जाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- गूँजना
- भौरों का गुंजारना।
- क्रि. अ.
- [सं. गुंजन]
- गूँजना
- प्रतिध्वनि होना।
- क्रि. अ.
- [सं. गुंजन]
- गूँजना
- ध्वनि तरंगों को दूर तक व्याप्त होना।
- क्रि. अ.
- [सं. गुंजन]
- गूँझा
- बड़ी पिराक, जो आटे या मैदे की अर्द्धचंद्राकार बनती है।
- पिस्ता, दाख, बदाम, छुहारा, खुरमा, खाझा, गूँझा, मटरी - ८१०।
- संज्ञा
- [सं. गुह्यक, प्रा. गुज्झा, हिं. गूझा]
- गूँथना
- पिरोना, गूँधना।
- क्रि. स.
- [हिं. गूथना]
- गूँथि
- गूथ कर, (एक लड़ी में) पिरोकर।
- दरसन कौं ठाढ़ी ब्रजबनिता, गूँथि कुसुम बनमाल - १० - २०६।
- संज्ञा
- [हिं. गूथना]
- गूँथी
- (लड़ी में) गूँथ दी, पिरो ली।
- माँग पारि बेनी जु सँवारति, गूँथी सुन्दर भाँति - ७०४।
- संज्ञा
- [हिं. गूँथना]
- गूँदना
- गुझियाँ, पिराक, समोसे आदि का मुँह बंद करना।
- क्रि. स.
- [हिं. गूँधना]
- गूँदे
- गुझिया, पिराक आदि बनाये।
- गोझा गूदे गाल मसूरी - २३२१।
- क्रि. स.
- [हिं. गूँदना]
- गूँदि
- चोटी गूँधकर।
- बूझति जननि कहाँ हुती प्यारी। किन तेरे भाल तिलक रचि कीनौ, किहिं कच गूँदि माँग सिर पारी - ७०८।
- क्रि. स.
- [हिं. गूँदना, गूँथना]
- घल
- काँपन।
- संज्ञा
- [सं.]
- घल
- दोष।
- संज्ञा
- [सं.]
- घल
- भूल-चूक।
- संज्ञा
- [सं.]
- घल
- छल-कपट।
- संज्ञा
- [सं.]
- चलकना
- चमकना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चलकना
- रह-रह कर दर्द उठना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चलकना
- दर्द का एकबारगी बंद हो जाना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चलचलाव
- यात्रा।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलचलाव
- मृत्यु।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलचा
- ढाक, पलाश।
- संज्ञा
- [देश.]
- चलचाल
- चंचल, अस्थिर।
- वि.
- [सं.]
- चलचूक
- धोखा।
- संज्ञा
- [सं. चल+हिं. चूक]
- चलत
- चलते या गमन करसे। (समय)।
- चिति चरन - मृदु - चारु - नंद - नख, चलल चिन्ह चहुँ दिसि सोभा - १ - ६९।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलता
- चलता या जाता हुआ।
- वि.
- [हिं. चलना]
- चलता
-
- चलता करना :- (१) हटाना, टालना।
(२) झगड़ा निपटाना। चलता पुरजा :- बहुत काइयाँ। चलता बनना (होना) :- झटपट चल देना।
- मु.
- चलता
- जिसका क्रम या सिलसिला न टूटा हो।
- वि.
- [हिं. चलना]
- चलता
-
- चलता लेखा (खाता) :- चालू हिसाब।
- मु.
- चलता
- जिसका चलन या प्रचार खूब हो।
- वि.
- [हिं. चलना]
- चलता
-
- चलता गाना :- जो गाना खूब लोकप्रिय हो।
- मु.
- चलता
- जो काम करने योग्य हो।
- वि.
- [हिं. चलना]
- चर्वण
- भुना अन्न, चबेना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चर्वित
- दाँतों से चबाया हुआ।
- वि.
- [सं.]
- चर्वित चर्वण
- किसी की हुई क्रिया या बात को बार-बार करना या कहना, पिष्टपेषण।
- संज्ञा
- [सं.]
- चव्र्य
- चबाकर खाने योग्य।
- वि.
- [सं.]
- चलंता
- चलनेवाला।
- वि.
- [हि. चलना]
- घल
- चंचल, चलायमान।
- वि.
- [सं.]
- घल
- पारा।
- संज्ञा
- [सं.]
- घल
- दोहे का एक भेद।
- संज्ञा
- [सं.]
- घल
- शिव।
- संज्ञा
- [सं.]
- घल
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चलन
- चलना, गति, चाल, चलने का भाव, ढंग या क्रिया।
- (क) ज्यों कोउ दूरि चलेन कौं करै। क्रम - क्रम करि डग डग पग धरै - ३ - १३।
(ख) कबहुँ हरि कौं लाइ अँगुरी, चलन सिखावति ग्वारि - १० - ११८। (ग) तीनि पैंड़ जाके धरनि न आवै। ताहि जसोदा चलन सिखावै - १० - १२९।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलन
- रीति-रिवाज, रस्म-व्यवहार।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलन
-
- चलन से चलना :- हैसियत से रहना।
- मु.
- चलन
- किसी चीज का व्यवहार या प्रचार।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलन
- गति, भ्रमण।
- संज्ञा
- [सं.]
- चलन
- काँपना, कंपन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चलन
- हिरन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चलन
- पैर, चरण।
- संज्ञा
- [सं.]
- चलन
- चलना चलते रहना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलन
- लागी चलन-चलनेलगी। प्रवाहित हुई, बह चली।
- कियौ जुद्ध अति ही बिकरार। लागी चलन रुधिर की धार - १ - २७६।
- प्रयो.
- चलता
- चतुर।
- वि.
- [हिं. चलना]
- चलता
- एक पेड़।
- संज्ञा
- [देश.]
- चलता
- कवच।
- संज्ञा
- [देश.]
- चलता
- चंचल होने का भाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चलति
- चलती है, प्रचलित है।
- केसी सकट अरु बृथभ पूतना तृनाबत की चलति कहानी - २३७९।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलती
- प्रभाव, अधिकार।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलतू
- चलता हुआ।
- वि.
- [हिं. चलना]
- चलतू
- चालू।
- वि.
- [हिं. चलना]
- चलतू
- जो (भूमि) जोती-बोई जाती हो।
- वि.
- [हिं. चलना]
- चलदल
- पीपल का पेड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- चलनसार
- जिसका खूब व्यवहार या प्रचार हो।
- वि.
- [हिं. चलन + सार (प्रत्य.)]
- चलनसार
- जो काफी समय तक चल या टिक सके।
- वि.
- [हिं. चलन + सार (प्रत्य.)]
- चलना
- गमन या प्रस्थान करना, जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- हिलना-डोलना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
-
- पेट चलना :- निर्वाह होना।
मन (दिल) चलना :- प्राप्ति की इच्छा होना। मुँह चलना :- (१) खाते रहना। (२) मुँह से बराबर अनुचित शब्द निकलना। हाथ चलना :- मारने को हाथ उठाना। चल बसना :- मर जाना। अपने चलते :- भरसक, यथाशक्ति, शक्ति भरे।
- मु.
- चलना
- कोई काम करने में समर्थ होना, निभना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
-
- चल निकलना :- उन्नति करना।
- मु.
- चलना
- बहना, प्रवाहित होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- वृद्धि या बढ़ती पर होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- किसी उपाय को काम में आना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- तीर-गोली छूटना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- जड़ाई-झगड़ा होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- काम चमकना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- पढ़ जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- सफल होना, प्रभाव डालना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
-
- किसी की चलना :- प्रयत्न सफल होना, दूसरे का वश या अधिकार होना।
- मु.
- चलना
- आचरण या काम करना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- खाया जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- सड़ जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- शतरंज, ताश आदि के मोहरे या पत्ते बढ़ाना या डालना।
- क्रि. स.
- चलना
- बड़ी चलनी।
- संज्ञा
- [हिं. चलनी]
- चलना
- छन्ना।
- संज्ञा
- [हिं. चलनी]
- चलनि
- चलने की क्रिया, गति, चाल।
- रथ तै उतरि चलनि आतुर ह्वै कच रज की लपटानि - १.२७९।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलनिका
- लहँगा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चलनिका
- झालर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चलनी
- आटा-आदि छानने की छलनी।
- संज्ञा
- [हिं. छलनी]
- चलनौस, चलनौसन
- चोकर, चालन।
- संज्ञा
- [हिं. चलना + औस (प्रत्य.)]
- चलपत्र
- पीपल का वृक्ष।
- संज्ञा
- [सं.]
- चलबाँक
- तेज चालवाला।
- वि.
- [हिं. चलना+बाँका]
- चलवंत
- पैदल सिपाही।
- संज्ञा
- [सं. चल + वंत]
- चलना
- आरंभ होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- क्रम या परंपरा का निर्वाह होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- क्रम या परंपरा का निर्वाह होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- खाने के लिए रखा जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- टिकना ठहरना, काम में आना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- लेन-देन या व्यवहार में आना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- लेन-देन या व्यवहार में आना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- जारी होना, प्रचार बढ़ना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- उपयोग या काम में लाया जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलना
- अच्छी तरह या ठीक काम देना।
- क्रि. अ.
- [सं. चलन]
- चलाई
- कृतकार्य में सफल हुए।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलाई
-
- कछु न चलाई :- कुछ वश न चला, कोई उपाय काम न आया, प्रयत्न सफल न हुआ।
उ. - (क) रहेउ दुष्ट पचि हार दुसासन कछू न कला चलाई - सारा. ७६९। (ख) दुर्वासा सापन को आये तिनकी कछु न चलाई - सारा, ७७२।
- मु.
- चलाई
- प्रसंग छेड़ा, बात शुरू की।
- (क) सूरदास वे सखी सयानी और कहूँ की बात चलाई - १२६६।
(ख) समय पाय ब्रज बात चलाई सुख ही माझ सुहाती - ३४१८।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलाई
- चोट की, प्रहार किया।
- मनु सुक सुरँग बिलोकि बिंव - फल चाखन कारन चोंच चलाई - ६१६।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलाऊँ
- प्रचलित करू।
- (क) यह मारग चौगुनो चलाऊँ, तौ पूरौ ब्यापारी - १ - १४६।
(ख) यकटक रहैं पलक नहिं लागें पद्धति नई चलाऊँ - १४२५।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलाऊँ
- प्रहार या आघात करू।
- सूरजदास भक्त दोऊ दिसि कापर चक्र चलाऊँ - १ - २७४।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलाऊ
- बहुत दिन चलनेवाला, टिकाऊ।
- वि.
- [हिं. चलना]
- चलाऊ
- बहुत घूमने-फिरनेवाला।
- वि.
- [हिं. चलना]
- चलाँक, चलाक
- होशियार।
- वि.
- [हिं. चालाक]
- चलाँकी, चलाकी
- होशियारी।
- संज्ञा
- [हिं. चालाकी]
- गूढ़
- छिपा हुआ, गुप्त।
- वि.
- [सं.]
- गूढ़
- विशेष अर्थ या अभिप्राय से युक्त, गंभीर।
- वि.
- [सं.]
- गूढ़
- कठिनता से समझ में आनेवाला, जटिल, कठिन।
- कहत पठवन बदरिका मोहिं गूढ़ ज्ञान सिखाइ - ३ - ३।
- वि.
- [सं.]
- गूढ़
- एक अलंकार, गूढोक्ति।
- संज्ञा
- गूढ़ताँ
- छिपाव, गुप्तता।
- संज्ञा
- [सं.]
- गूढ़ताँ
- गंभीरता, अबोध्यता।
- संज्ञा
- [सं.]
- गूढ़ताँ
- कठिनता, जटिलता।
- संज्ञा
- [सं.]
- गूढत्व
- गुप्तता
- संज्ञा
- [सं.]
- गूढत्व
- गंभीरता, अबोध्यता।
- संज्ञा
- [सं.]
- गूढत्व
- कठिनता, जटिलता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चला
- पीपल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चला
- एक गंधद्रव्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- चला
- व्यवहार, प्रचार, रीति, रस्म।
- संज्ञा
- [हिं. चाल या चलना]
- चला
- अधिकार, प्रभुत्व।
- संज्ञा
- [हिं. चाल या चलना]
- चलाइ
- हिला-डुलाकर, भाव बताकर।
- चलत अंग त्रिभंग कटिकै भौंह भाव चलाइ - १३५६।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाइ
- आरंभ की, वर्णन की, बतायी।
- बचन परगट करन कारन प्रेमकथा चलाइ - २९१६।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाइ
- लक्ष्य पर फेंक कर, (तीर आदि) छोड़कर।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाइ
- दियौ चलाई- चला दिया, लक्ष्य करके छोड़ दिया।
- अस्वत्थामा बहुरि खिस्याइ। ब्रह्म अस्त्र कौं दियौ चलाइ - १ - २८९।
- प्रयो.
- चलाइ
- दए चलाइ- भगा दिये।
- छिरक लरिकन मही सौं भरि, ग्वाल दए चलाइ - १० २८९।
- प्रयो.
- चलाई
- आरंभ की, प्रचलित की।
- नई रीति इन अवहिं चलाई - १०४१।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलवाना
- चलाने का काम दूसरे से कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलवाना
- छानने का काम कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलविचल
- अंडबंड, बेठिकाने, अस्तव्यस्त।
- वि.
- [सं. चल + विचल]
- चलविचल
- अक्रम, अव्यवस्थित।
- वि.
- [सं. चल + विचल]
- चलविचल
- नियम का उल्लंघन, व्यतिक्रम।
- संज्ञा
- चलवैया
- चलनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलहिंगे
- चलेंगे, (एक स्थान से दूसरे को जायँगे।
- कबहि घुटरुवनि चलहिंगे, कहि बिधिहिं मनोवै - १० - ७४।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चला
- बिजली।
- संज्ञा
- [सं.]
- चला
- पृथ्वी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चला
- लक्ष्मी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चलका
- बिजली, विद्युत।
- संज्ञा
- [सं. चला]
- चलाचल
- चलने की धूमधाम या तैयारी।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलाचल
- गति, चाल।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलाचल
- चपल, चंचल, अस्थिर।
- वि.
- [सं.]
- चलाचली
- चलने की धूम या तैयारी।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलाचली
- बहुतों को साथ चलना।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलाचली
- चलने का समय।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलाचली
- जो चलने को तैयार हो।
- वि.
- चलान
- चलने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलान
- चलाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलाना
- आरंभ करना, छेड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- आरंभ करना, छेड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- क्रम बनाये रखना
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- खाने की चीज परसना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- बराबर उपयोग में लाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- लेन-देन या व्यवहार में लाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- प्रचलित करना, प्रचार करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- लाठी (आदि) का उपयोग करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- (तीर गोली) छोड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- प्रहार करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलान
- अपराधी का न्यायालय भेजा जाना।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलान
- एक स्थान से दूसरे को भेजा जानेवाला माल।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलान
- ऐसे माल की सूची, रवन्ना।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलाना
- चलने को प्रेरित करना, चलने में लगाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- हिलाना-डुलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
-
- किसी की चलाना :- किसी की चर्चा करना।
पेट चलाना :- निर्वाह करना। मन (दिल) चलाना :- पाने की इच्छा होना, मन विचलित होना। मुँह चलाना :- (१) खाते रहना। (२) बहुत बातें करना या बनाना। हाथ चलाना :- मारना-पीटना।
- मु.
- चलाना
- निभाना, निर्वाह करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- बहा देना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- उन्नति करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- काम को जारी रखना या पूरा करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- काम चमकाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाना
- आचरण करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलायमान
- जो चलनेवाला हो।
- वि.
- [सं.]
- चलायमान
- चंचल, अस्थिर।
- वि.
- [सं.]
- चलायमान
- विचलित, डिगा हुआ।
- वि.
- [सं.]
- चलायमान
- चलाया, चलने के लिए प्रेरित किया।
- जित - जित मन अर्जुन कौ तितहिं रथ चलायौ - १ - २३।
- क्रि. स.
- [हिं. चलना]
- चलाव
- यात्रा
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलाव
- रस्म।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलावत
- हिलाते-डुलाते हैं, गति देते हैं।
- मनहूँ तें अति बेग अधिक करि, हरिजू चरन चलावत - ८ - ४।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलावत
- प्रारंभ करते हैं, छेड़ते हैं।
- (क) फिरि फिरि नृपति चलावत बात। कहु री सुमति कहा तोहि पलटी, प्रान - जिवन कैसे बन जात - ९ - ३८।
(ख) निकट नगर जिय जानि धँसे घर, जन्मभूमि की कथा चलावत - ९ - १६७। (ग) कहुँ पांडव की कथा चलावत चिंता करत अपार - सारा.६७५।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलावत
- (तीर गोली आदि) छोड़ते हैं।
- तीर चलावत सिष्य सिखावत घर निसान देखरावत - सारा, १९०।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलावत
- (धार, पानी आदि) चलाते या फेकते हैं।
- इत चितवत उत धार चलावत यहै सिखायौ मैया - ७३४।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलावन
- चलाने के लिए, प्रचलित करने को, प्रचार करने को।
- दैहौं राज बिभीषन जन कौं, लंकापुर रघु - आन चलावन - ९ - १३१।
- संज्ञा
- [हिं. चलाना]
- चलावना
- गति देना, चलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलावा
- रीति-रस्म।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलावा
- गौना, मुकलावा, द्विरागमन।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलावा
- एक उतारा।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलावै
- हिलावे-डुलावे, गति दे।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलावै
- (खाने के लिए) मुँह हिलाये, खाने का प्रयत्न करे।
- हौं यहि जानति बानि स्याम की अँखियाँ मचे बदन चलावै - १० - २३१।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलावै
- आँखें या भौहें) मटकावे, चमकावे या भाव बतावे |
- (क) सखियन बीच भरयो घट सिर पर तापर नैन चलावै - ८७५।
(ख) ठठकति चलै मटकि मुँह मोरे बंकट भौंह चलावें - ८७६।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलावै
- (प्रसंग) छेड़े, (चर्चा) करे।
- (क) रे मन, निपट निलज अनीति। जियत की कहि को चलावै, मरत विषयनि प्रीति - १ - ३२१।
(ख) इद्रादिक की कौन चलावै संकर करत खवासी - ३०८६।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलावै
- निर्वाह करे, वंश-परि-वार का क्रम या परंपरा बनाये रखे।
- सो सपूत परिवार चलावै एतौ लोभी धृत इनही - पृ. ३२२।
- क्रि. स.
- [हिं. चलाना]
- चलि
- चलकर, प्रस्थान करके।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलि
-
- चलि आयो :- प्रसिद्ध है, प्रचलित है।
उ - (क) जुग जुग बिरद यहै चलि आयौ, भक्तनिहाथ बिकानौ - १ - ११। (ख) जुग जुग विरद यहै। चलि आयौ, टेरि कहत हौं यातै - १ - १३७। (ग) जुग जुग यह घलि यौ - ९ - ५०।
- मु.
- चलित
- अस्थिर, हिलता-डोलता हुआ।
- चलित - कुंडल गंड - मंडल, मनहुँ निर्तत मैन - १ - ३०७।
- वि.
- [सं.]
- चलित
- चलता हुआ।
- वि.
- [सं.]
- चलिबे
- चजना, प्रस्थान।
- धर्मपुत्र कौं दै हरि राज। निज पुर चैलिचे कौं कियौ साज - १ - २८१।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चलिये
- प्रस्थान कीजिए।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलिहौं
- चलूँगा, प्रस्थान करूँगा।
- सूर सकल सुख छाँड़ि आपनौ, बनबिपदा - सँग चलिहौं - ९ - ३५।
- किं. अ.
- [हिं. चलना]
- चली
- आरंभ हुई, छिड़ी।
- भारतादि कुरुपति की जथा, चली पांडवनि की जब कथा - १ - २८४।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलैया
- चले गये।
- सूर स्याम सनमुस्व जे आये ते सब स्वर्ग चलैया - २३७४।
- क्रि. अ.
- चलौं
- चलूँ, गमन करूँ।
- बचन बाह लै चलौं गाँठि दै, पाऊँ सुख अति भारी - १ - १४६।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलौ
- चलो, प्रस्थान करो।
- सूरदास प्रभु इहिं औसर भजि उतरि चलौ भवसागर - १ - ६१।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलौ
- व्यवहार या आचरण करो, ढंग रखो।
- हम अहीर ब्रजबासी लोग। ऐसे चलौ हँसै नहिं कोऊ घर में बैठि करौ सुख भोग - १४९७।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलौखा
- एक उतारा |
- संज्ञा
- [हिं. चलावा]
- चल्यौ
- चला, प्रस्थान किया।
- रोर के जोर तें सोर घरनी कियों, चल्यौ द्विज द्वारिका द्वार ठाढ़ौ - १ - ५।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चल्ली
- सूत की तकली, कुकड़ी।
- संज्ञा
- [देश.]
- चवकी
- छोटा तखत, चौकी।
- संज्ञा
- [हिं. चौकी]
- चवना
- चू पड़ना, टपकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चुअना]
- चवन्नी
- चार आने का सिक्का।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+ना]
- चले
- प्रस्थान या गमन किया, जाने लगे।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चले
- प्रस्तुत हुए, कटिबद्ध हुए, तैयार हुए।
- कौरव - काज चले रिषि - सापन, साक पत्र सु अघाए - १ - १३।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलै
- चलता है।
- रंक चलै सिर छत्र धराइ - १ - २।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलै
- प्रसिद्ध है, प्रचलित है।
- उ. - जाकी जग मैं चलै कहानी - १ २२६।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलै
- सफल हो।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलै
-
- (एक की) कहा चलै :- (एक का) क्या वश चल सकता है, क्या सफलता मिल सकती है।
उ. - अंग निरखि अनंग लज्जित सकै नहिं ठहराय। एक की कहा चलै शत कोटि रहत लजाय।
- मु.
- चलैगी
- प्रचलित होगी, प्रसिद्ध रहेगी।
- यह तौ कथा चलैगी आगैं, सबअ पतितनि मैं हाँसी - १ - १९२।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलैगौ
- प्रचलित होगा, प्रचार बढ़ेगा।
- सूर सुमारग फेरि चलैगौ, बेदबचन उर धारौ - १ - १९२।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलैगौ
- जायगा, चलेगा।
- (क) सिर पर धरि न चलैगौ कोऊ, जो जतननि करि माया जोरी - १ - ३०३।
(ख) धोखें ही धोखें बहुत बह्यौ। मैं जान्यौ सब संग चलेगौ, जहँ। को तहाँ रहैगौ - १ - १३७।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चलैया
- चलनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- गूँधना
- (आटा आदि) माड़ना, मलना या मसलना।
- क्रि. स.
- [सं. गुध = क्रीड़ा]
- गूँधना
- (माला आदि) गूँथना या पिरोना।
(चोटी आदि) करना।
- क्रि. स.
- [सं. गुंथन]
- गूग्गुल, गूगुल
- एक गोंद जो सुगंध के लिये जलाया जाता है।
- संज्ञा
- [सं. गुग्गुल]
- गूजर
- अहीर।
- संज्ञा
- [सं. गुर्जर]
- गूजर
- एक क्षत्रिय जाति।
- संज्ञा
- [सं. गुर्जर]
- गूजरी
- अहीरन, ग्वालिन, गोपी।
- गोरस बेचनहारि गुजरी अति इतराती - १०६५।
- संज्ञा
- [सं. गुर्जरी]
- गूजरी
- पैर का एक गहना।
- संज्ञा
- [सं. गुर्जरी]
- गूजरी
- एक रागिनी।
- संज्ञा
- [सं. गुर्जरी]
- गूझा
- आटे या मैदे का एक पकवान।
- गूझा बहु पूरन पूरे। भरि भरि कपूर रस चूरे - १० - १८३।
- संज्ञा
- [सं. गुह्यक, प्रा. गुज्झा]
- गूझा
- गूदा।
- संज्ञा
- [सं. गुह्यक, प्रा. गुज्झा]
- चवपैया
- एक छंद।
- संज्ञा
- [हिं. चौपैया]
- चवपैया
- खाट।
- संज्ञा
- [हिं. चौपैया]
- चवर
- मोरछल, चँवर।
- संज्ञा
- [हिं. चवर]
- चवरा, चत्रल
- लोबिया।
- संज्ञा
- [सं. चवल]
- चवर्ग
- च से अ तक पाँच अक्षरों का समूह जिसका उच्चारण तालु से होता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- चवा
- सब दिशाओं से एक साथ चलनेवाली हवा।
- संज्ञा
- [हिं. चौवाई]
- चवाई
- बदनामी की चर्चा फैलानेवाला, निंदा करनेवाला।
- घातक कुटिल चवाई कपटी महाक्रूर संतापी।
- संज्ञा
- [हिं. चवाव]
- चवाई
- झूठी बात कहने वाला, चुगली खानेवाला।
- सुनहु स्याम बलभद्र चवाई (चबाई) जनमत हो कौ धूत - १० - २१५।
- संज्ञा
- [हिं. चवाव]
- चवाउ, चवाव
- निंदा या बुराई की चर्चा।
- (क) गोरी इहै करति चवाउ। देखौं धौ चतुराई वाकी इमहि कियौं दुराउ - १२८३।
(ख) नैनन तें यह भई बड़ाई। घर घर यई चवाव चलावत हम सौं भेंट न माई - २८८०।
- संज्ञा
- [हिं. चवाव]
- चवाउ, चवाव
- प्रवाद, अफवाह।
- संज्ञा
- [हिं. चवाव]
- चषक
- मधु, शहद।
- संज्ञा
- [सं.]
- चषक
- एक मदिरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चषचोल
- आँख का परदा या पलक।
- संज्ञा
- [हिं. चष=आँख+चोल = वस्त्र]
- चषण
- भोजन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चषण
- वध।
- संज्ञा
- [सं.]
- चषण
- क्षय।
- संज्ञा
- [सं.]
- चसक
- हलका दर्द, कसक।
- संज्ञा
- [देश.]
- चसक
- शराब पीने का पात्र।
- संज्ञा
- [सं. चषक]
- चसकना
- मीठा दर्द होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चसक]
- चसका
- शौक, आदत।
- संज्ञा
- [सं. चषण]
- चवाउ, चवाव
- चुगलखोरी।
- संज्ञा
- [हिं. चवाव]
- चवैया
- बदनामी की चर्चा।
- संज्ञा
- [हिं. चवाई]
- चवैया
- झूठी बात कहनेवाला, चुगलखोर।
- संज्ञा
- [हिं. चवाई]
- चश्म
- नेत्र, आँख।
- संज्ञा
- [फ़ा. चश्मा]
- चश्मा
- ऐनक।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चश्मा
- पानी का सोता।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चश्मा
- छोटी नदी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चश्मा
- जलाशय।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चष
- नेत्र, आँख।
- उनै उनै घन बरषत चष उर सरिता सलिन भरी - २८१४।
- संज्ञा
- [सं, चक्षु]
- चषक
- शराब पीने का पात्र।
- प्रान ये मन रसिक ललित घी लोचन चषक विवति मकरंद सुख रासि अंतर सची।
- संज्ञा
- [सं.]
- चसना
- प्राण त्यागना।
- क्रि. अ.
- [सं. चषण]
- क्रि. अ.
- चिपकना, जुड़ना।
- चसना
- [हिं. चाशनी]
- चसम
- आँख।
- संज्ञा
- [फ़ी, चश्म]
- चसमा
- ऐनक।
- संज्ञा
- [फ़ा. चश्मा]
- चसमा
- पानी का सोता।
- संज्ञा
- [फ़ा. चश्मा]
- चसी
- सट गयी, लगी, जुड़ी, चिपकी।
- ज्यों नाभी सर एक नाल नव कनक बिख रहे चसी री।
- क्रि. अ.
- [हिं. चसना]
- चस्का
- शौक, लत।
- संज्ञा
- [हिं. चसका]
- चस्पाँ
- चिपकाया या सटाया हुआ।
- वि.
- [फ़ा.]
- चह
- नाव पर चढ़ने का पाट।
- संज्ञा
- [सं. चय]
- चह
- गड्ढा, गर्त।
- संज्ञा
- [फ़ा. चाह]
- चहना
- इच्छा या प्रेम करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चहनि
- इच्छा, प्रीति।
- संज्ञा
- [हिं. चाह]
- चहबच्चा
- गंदे पानी का गड्ढा।
- संज्ञा
- [फ़ा. चाह = कुआँ+बच्चा]
- चहबच्चा
- छोटा तहखाना।
- संज्ञा
- [फ़ा. चाह = कुआँ+बच्चा]
- चहर
- आनंद की धूम।
- पंच सब्द ध्वनि बाजत नाचत गावत मंगलचार चहर की - १० - ३०।
- संज्ञा
- [हिं. चहल]
- चहर
- शोरगुल, हल्ला।
- संज्ञा
- [हिं. चहल]
- चहर
- उपद्रव, उत्पात।
- संज्ञा
- [हिं. चहल]
- चहर
- बढ़िया, उत्तम।
- वि.
- चहर
- चुलबुला, तेज।
- वि.
- चहरना
- प्रसन्न होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चहर]
- चहचहा
- हँसी-दिल्लगी, ठट्टा, चुहलबाजी।
- संज्ञा
- [हिं. चहचहाना]
- चहचहा
- मनोहरे, आनंददायी।
- वि.
- चहचहा
- ताजा, नया।
- वि.
- चहचहाना
- पक्षियों का चहकना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चहटा
- कीचड़, पंक।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चहत
- चाहता है, इच्छा करता है।
- अजहुँ सँग रहत, प्रथम लाज गहेउ संतत सुभ चहत, प्रिय जन जानि - १ - ७७।
- क्रि. स.
- [हिं. चाह]
- चहता
- प्रिय पात्र।
- संज्ञा
- [हिं. चहेता]
- चहति
- चाहती हैं, अभिलाती हैं।
- उमँगी ब्रजनारि सुभग, कान्ह बरष - गाँठ उमँग, चहतिं बरष बरषनि - १० - ९६।
- क्रि. स.
- [हिं. चाह, चाहना]
- चहनना
- दबाना, रौंदना।
- क्रि. स.
- [हिं. चहलना]
- चहनना
-
- चहनकर खाना :- डटकर खाना।
- मु.
- चहक
- चहचह शब्द।
- संज्ञा
- [हिं. चहकना]
- चहक
- पंक, कीचड़
- संज्ञा
- [हिं. चहला]
- चहकना
- पक्षियों का चहचहाना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चहकना
- उमंग या प्रसन्नता से बोलना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चहका
- जलती हुई लकड़ी।
- संज्ञा
- [देश.]
- चहका
- कीचड़, पंक।
- संज्ञा
- [हिं. चहला]
- चहकार
- चहचह शब्द।
- संज्ञा
- [हिं. चहक]
- चहकारना
- चहचहाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चहकना]
- चहकारा
- कलरव करनेवाला।
- वि.
- [हिं. चहकार]
- चहचहा
- चहकने का भाव, चहक।
- संज्ञा
- [हिं. चहचहाना]
- चहर पहर
- चहलपहल।
- संज्ञा
- [हिं. चहलपहल]
- चहराना
- प्रसन्न होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चहर]
- चहराना
- हल्की पीड़ा होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चर्राना]
- चहराना
- फटना, चटकना।
- क्रि. अ.
- [देश.]
- चहरि
- शोर-गुल, होहल्ला।
- (क) मथति दधि जसुमति मथानी, धुनि रही घर घहरि। खवन सुनति न महर - बातें, जहाँ - तहँ गह चहरि - १० - ६७।
(ख) तनु बिष रहयौ है छहरि।…..। गए अवसान, भीर नहिं भावै, भावै नहीं चहरि। ल्यावौ गुनी जाइ गोबिंद कौं बाढ़ी अतिहिं लहरि - ७५०। (ग) नेकहूँ नहिं सुनति स्रवननि करति हैं हम चहरि - ८६०।
- संज्ञा
- [सं. चहर]
- चहरि
- आनंद की धूम, रौनक।
- संज्ञा
- [सं. चहर]
- चहरि
- उपद्रव, उत्पात।
- सुत को बरजि राखौ महरि।…...। सूर स्यामहिं नेक बरजौ करत हैं अति चहरि - २०३९।
- संज्ञा
- [सं. चहर]
- चहल
- कीचड़, कीच, कर्दम।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चहल
- आनंद की धूम।
- संज्ञा
- [हिं. चहचहाना]
- चहलपहल
- अनंद की धूम, रौनक।
बहुत से लोगों का आना-जाद।
- (१) आनंद की धूम, रौनक।
(२) बहुत से लोगों का आना - जाना।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चहुटना
- चोट-चपेट लगना।
- क्रि. स.
- चहुँधार
- चारो तरफ।
- बिबिध खिलौना | भाँति के (बहु) गजमुक्ता चहुँधार - १० - ४२।
- वि.
- [हिं. चार (चहुँ =चार)]+धार= ओर, दिशा]
- चहुआन, चहुवान
- एक क्षत्रिय जाति।
- [हिं. चौहान]
- चहूँ
- चार, चारों।
- सूरदास भगवंत भजत जे, तिनकी लीक चहूँ जुग खाँची - १ - १
- वि.
- [हिं. चार]
- चहूँ
- चाहती हूँ।
- क्रि. स.
- [हिं.चौहना]
- चहूँघा
- चारो तरफ।
- उपवन बन्यौ चहूँघा पुर के अति ही मोकों भावत - २५५९।
- क्रि. वि.
- [हिं. चहूँ+घा= ओर]
- चहूँटना
- सटना, मिलना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चिमटना]
- चहेटना
- निचोड़ना, गारना।
- क्रि. स.
- [हिं. चपेटना]
- चहेटना
- दबाना, दबोचना, चपेटना।
- क्रि. स.
- [हिं. चपेटना]
- चहेता
- प्यारा।
- वि.
- [हिं. चाहना+एता (प्रत्य.)]
- चहला
- कीचड़, पंक।
- संज्ञा
- [सं. चिकिल]
- चहली
- कुएँ की गराड़ी।
- संज्ञा
- [देश.]
- चहारदीवारी
- प्राचीर, कोट, परिखा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चहिबो
- चाहना, इच्छा करना।
- तब न कियो प्रहार प्राननि को फिरि फिरि क्यों चहिबो - ३३१४।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चहियत
- चाहता है, इच्छा करता है।
- एक जु हरि दरसन की आसा ता लगि यह दुख सहियत। मन क्रम बचन सपथ सुन सूरज और नहीं कछु चहियत - ३३००।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चहिये
- उचित है, उपयुक्त है।
- (क) कहत नारि सब जनक नगर की बिघि सों गोद पसारि। सीता जू को बर यह चहिये है जोरी सुकुमार - सारा, २११।
(ख) सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि रसिकहिं सब सुन चहिये जू - २०१५।
- अव्य.
- [हिं. चाहिए]
- चही
- चाही थी, इच्छा की थी।
- रिषि कयौ, रानी पुत्री चही। मेरे मन मैं सोई। रही - ९ - २।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चहुं
- चार, चारों।
- वि.
- [हिं. चार]
- चहुँक
- चौंकना।
- संज्ञा
- [हिं. चिहुँक]
- चहुँघा
- चारो तरफ, चारो ओर।
- (क) दावानल ब्रजजन पर धायौ। गोकुल ब्रज बृंदाबन तृन द्रुम, चहुँघा चहत जरायौ - ५९२।
(ख) बारि बाँधे बीर चहुँघा देखत ही बज्र सम थाप गल कुंभ दीन्हो - २५९०।
- क्रि. वि.
- [हिं. चहुँ= चार+घा = ओर, तरफ]
- गूढ़नीड़
- खंजन पक्षी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गूढजीवी
- गुप्त रीति से जीविका प्राप्त करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं. गूढजीविन्]
- गूढजीवी
- गुप्त रीति से जीविका प्राप्त करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं. गूढजीविन्]
- गूढजीवी
- गुप्त कार्य (जैसे चोरी) करके निर्वाह करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं. गूढजीविन्]
- गूढ़पद, गूढ़पाद
- साँप, सर्प।
- संज्ञा
- [सं.]
- गूढोक्ति
- एक अलंकार।
- संज्ञा
- [स.]
- गूढोत्तर
- एक अलंकार।
- गूढ़ोत्तर अस कहत ग्वालिनी मोहि गेह रखवारी - सा, ८०।
- संज्ञा
- [सं.]
- गूथना
- (माला आदि) गूँधना या पिरोना।
- क्रि. स.
- [सं. गुंथन]
- गूथना
- टाँकना।
- क्रि. स.
- [सं. गुंथन]
- गूथना
- जोड़ देना।
- क्रि. स.
- [सं. गुंथन]
- चाँगला
- चतुर।
- वि.
- [हिं. चंगा]
- चाँचर, चाँचरि, चाँचरी
- होली, फाग या बसंत को राग या गीत।
- होली, फाग या बसंत का राग या गीत।
- संज्ञा
- [हिं.चाचर]
- चांचल्य
- चंचलता, चपलता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाँचु
- चोंचे।
- बकासुर रचि रूप माया रह्यो छल करि आइ। चाँचु पकरि पुहुमी लगाई इक अकास समाइ।
- संज्ञा
- [सं. चंचु]
- चाँट
- उड़ते हुए जल कण।
- संज्ञा
- [हिं. छींटा]
- चाँटा
- चींटा, च्युँटा।
- संज्ञा
- [हिं. चिमटना]
- चाँटा
- थप्पड़, तमाचा।
- संज्ञा
- [अनु. चट]
- चाँटी
- चींटी।
- संज्ञा
- [हिं. चाँटा]
- चाँड़
- प्रबल, बलवान।
- वि.
- [सं. चंड]
- चाँड़
- उद्दंड, शोख, उग्र।
- वि.
- [सं. चंड]
- चह्यौ
- चाहा, अभिलाषा की।
- (क) उरझयौ बिबस कर्म - निरअंतर, समि सुख - सरनि चहयौ - १ - १६२।
(ख) एकै चीर हुतौ मेरे पर, सो इन इरन चढ्यौ - १ - २४७।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चाँइयाँ, चाँई
- ठग।
- वि.
- [देश.]
- चाँइयाँ, चाँई
- छती, कपटी।
- वि.
- [देश.]
- चाँक, चाँका
- अन्न की राशि पर ठप्पा लगाने की थापी।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+ अंक]
- चाँक, चाँका
- अन्नराशि पर लगाया हुआ ठप्पा या चिह्न।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+ अंक]
- चाँक, चाँका
- टोटके के लिए शरीर पर खींचा गया घेरा।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+ अंक]
- चाँकना
- अन्न की राशि पर ठप्पा लगाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाकना]
- चाँकना
- सीमा की हद बाँधना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाकना]
- चाँकना
- पहचान का चिन्ह लगाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाकना]
- चाँगला
- स्वस्थ।
- वि.
- [हिं. चंगा]
- चहेती
- जिसे चाहा जाय।
- वि.
- [हिं. चहेता]
- चहेल
- कीचड़, कीच, कर्दम।
- संज्ञा
- [हिं. चसला]
- चहेल
- दलदली भूमि।
- संज्ञा
- [हिं. चसला]
- चहैं
- चाहते हैं, इच्छा है।
- कइयौ, यहै हम तुम सौं चहैं। पाँच बरस के नितहीं रहैं - ३ - ६।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चहै
- चाहता या इच्छा करता है, अभिलाषा रखता है।
- पारथ तिय कुरुराज सभा में बोलि करन चहै नंगी - १ - २१।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चहै
- प्रीति करता है।
- जों चहै मोहिं मैं ताहि नाही चहौं - ८८।
- चहोड़ना, चहोरना
- पौधा रोपना या बैठाना।
- क्रि. अ.
- [देश.]
- चहोड़ना, चहोरना
- सहेजना, सँभालना।
- क्रि. अ.
- [देश.]
- चहौं
- चाहता हूँ, इच्छा है।
- आयसु दियौ, जाउ बदरीबन, कहैं, सो कियौ चहौं - ३ - २।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चहौं
- प्रीतिक रती हूँ।
- जो चहै। मोहिं मैं ताहिं नाहीं चहौं - ८८।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चाँड़
- बढ़ा-चढ़ा, उत्तम।
- वि.
- [सं. चंड]
- चाँड़
- संतुष्ट।
- वि.
- [सं. चंड]
- चाँड़
- खंभा, टेक, थूनी।
- संज्ञा
- चाँड़
- बहुत आवश्यकता, गहरी चाह, भारी लालसा।
- संज्ञा
- चाँड़
-
- चाँड़ सरना :- इच्छा या लालसा पूरी होना।
चाँड़ सराना :- इच्छा या लालसा पूरी करना। चाँड़ सरायौ :- इच्छा पूरी की। उ. - पुरुष भँवर दिन चारि आपने अपनो चाँड़ सरायौ।
- मु.
- चाँड़
- दबाव, संकट।
- संज्ञा
- चाँड़
- प्रबलता, अधिकता।
- संज्ञा
- चाँड़ना
- खोदना, उजाड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. उजाड़ना]
- चांडाल
- डोम-श्वपच।
- संज्ञा
- [सं.]
- चांडाल
- कुकर्मी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चांडाली
- चांडाल जाति की स्त्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाँड़िला
- प्रबल, उग्र।
- वि.
- [चाँड़]
- चाँड़िला
- अधिक।
- वि.
- [चाँड़]
- चाँड़िले
- प्रचंड, उग्र, उद्धत, नटखट।
- नंद सुत लाड़ले प्रेम के चौंड़िले सौंहु दै कहत है बारि आगे।
- वि.
- [हिं. चाँड़िला]
- चाँड़े
- प्रबल, बलवान, घेगवान।
- हरि बिन अपनौ को संसार। मायालोभ - मोह हैं चाँड़े काल - नदी की धार - १ - ८४।
- वि.
- [सं. चंड, हिं. चाँड़]
- चाँड़े
- उग्र, उद्धत, शोख।
- धीर धरहु फल पावहुगे। अपने ही प्रिय के सुख चाँड़े कबहूँ तो बस आवहुगे।
- वि.
- [सं. चंड, हिं. चाँड़]
- चाँडू
- अफीम का किवाम, चंडू।
- संज्ञा
- [सं. चंड]
- चाँद
- चंद्रमा।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र]
- चाँद
-
- चाँद का कुंडल (मंडल) बैठना :- हलकी बदली में चंद्रमा के चारो ओर घेरा बन जाना।
चाँद का टुकड़ा :- बहुत सुंदर व्यक्ति। चाँद चढ़ना :- चाँद का ऊपर उठना। चाँद दीखे :- शुक्लपक्ष की द्वितीया के बाद। चाँद पर थूकना :- महात्मा पर कलंक लगाना जिससे स्वयं अपमानित होना पड़े। चाँद पर धूल डालना :- निर्दोष या साधु को दोष लगाना। चाँद सा :- बहुत सुंदर। किधर चाँद निकला है :- कैसे दिखायी दिये, बहुत दिन बाद दिखायी दिये।
- मु.
- चाँद
- चाँदमास. महीना।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र]
- चाँद
- द्वितीया के चंद्रमा के आकार का एक आभूषण।
- संज्ञा
- [सं. चंद्र]
- चाँद
- खोपड़ी।
- संज्ञा
- चाँद
- खोपड़ी का निचला भाग।
- संज्ञा
- चाँद
-
- चाँद पर बाल न छोड़ना :- बहुत मारना-पीटना।
सब कुछ हर लेना, खूब मूड़ना।
- मु.
- चाँदना
- प्रकाश।
- संज्ञा
- [हिं. चाँद]
- चाँदना
- चाँदनी।
- संज्ञा
- [हिं. चाँद]
- चाँदनी
- चंद्रमा का प्रकाश या उजाला, चंद्रिका।
- संज्ञा
- [हिं. चाँद]
- चाँदनी
-
- चार दिन की चाँदनी :- थोड़े दिन का सुख।
- मु.
- चाँदनी
- बिछाने की सफेद चादर।
- संज्ञा
- [हिं. चाँद]
- चाँदनी
- एक पौधा।
- संज्ञा
- [हिं. चाँद]
- चाँपति
- दबाकर, मीड़कर।
- चाँपति कर भुज दंड रेष गुन अंतर बीच कसी - सा. उ. २५।
- क्रि. स.
- [हिं. चाँपना]
- चाँपना
- दबाना, मीड़ना।
- क्रि. स.
- [सं. चपन]
- चाँपि
- दबाकर, मीड़कर।
- कहौ तौ परबत चाँपि चरन तर, नीर - खार मैं गारौ - ९ - १०७।
- क्रि. स.
- [हिं. चौपना]
- चाँयचाँय, चाँवचाँव
- बकवाद।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चाँवर, चाँवरी
- चावल।
- (क) नीलावती चाँवर दिवि - दुर्लभ। भात परौस्यौ माता सुरलभ - ३९६।
(ख) तिल चाँवरी, बतासे, मेवा, दियौ कुँवरि की गोद। सूर स्याम राधा - तनु चितवत, जसुमति मन - मन, मोद - ७०४।
- संज्ञा
- [हिं. चावल]
- चाइ, चाई
- प्रबल इच्छा, अभिलाषा।
- (क) अबकी बार मनुष्यदेह धरि, कियौ न कछू उपाइ। भटकत फिरथौ स्वान की नाई', नैकु जूठ के चाइ - १ - १५५।
(ख) कहा करौं चित चरन अटक्यौ सुधा - रस के चाइ - ३ - ३। (ग) बिष्णु - भक्ति कौ ता मान चाई - १० उं. ७।
- संज्ञा
- [हिं. चाह, चाव]
- चाइ, चाई
- चाव, उमंग, उत्साह।
- गए ग्रीषम पावस रितु आई सब काहू चित चाइ - २८४४।
- संज्ञा
- [हिं. चाह, चाव]
- चाउ, चाऊ
- इच्छा, अभिलाषा।
- (क) चित्रकेतु पृथ्वीपति राउ। सुबन हित भयौ तास चित चाउ - ६ - ५।
(ख) मैन - बचकर्म और नहिं दूजौ, विन रघुनंदन राउ। उनकै क्रोध भस्म है जैहौं, करौ न सीता चाउ - ९ - ७८।
- संज्ञा
- [सं. चाव]
- चाउ, चाऊ
-
- चाउ सरना :- इच्छा पूरी होना।
चाउ सरै :- इच्छा पूरी होने पर। उ - चाउ सरै पहिचानत नाहिंन प्रीतम करत नये - २९९३।
- मु.
- चाउर
- चावल।
- संज्ञा
- [हिं. चावल]
- चाँदला
- टेढ़ा, कुटिल, वक्र।
- वि.
- [हिं. चाँद]
- चाँदी
- एक धातु, रजत।
- संज्ञा
- [हिं. चाँद]
- चाँदी
-
- चाँदी का जूता :- घूस में दिया जाने वाला धन।
चाँदी काटना :- खूब माल मारना। चाँदी का पहरा :- सुख - समृद्धि को समय। चाँदी होना :- खूब लाभ होना।
- मु.
- चाँदी
- धन का लाभ।
- संज्ञा
- [हिं. चाँद]
- चाँदी
- चाँद, चँदिया।
- संज्ञा
- [हिं. चाँद]
- चांद्र
- चंद्रम-संबंधी।
- वि.
- [सं.]
- चांद्र
- चाँद्रायण व्रत।
- संज्ञा
- चांद्र
- चंद्रकांतमणि।
- संज्ञा
- चांद्रमास
- वह काल (या महीना) जो चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करने में लगाता है।
- संज्ञा
- [सं]
- चाँद्रवत्सर
- वह वर्ष जो चंद्रमा की गति के अनुसार निश्चित किया जाता है।
- संज्ञा
- [सं]
- चांद्रायण
- महीने भर का एक व्रत जिसमें चंद्रमा के घटने-बढ़ने के अनुसार आहार घटाया-बढ़ाया जाता है।
एक छंद।
- संज्ञा
- [सं]
- वांद्री
- चंद्रमा की स्त्री।
- संज्ञा
- [सं]
- वांद्री
- चाँदनी।
- संज्ञा
- [सं]
- वांद्री
- चंद्रमा संबंधी, चंद्रमा का।
- वि.
- चाँप
- धनुष।
- संज्ञा
- [हिं. चाप]
- चाँप
- चँपने का भाव, दबाव।
- संज्ञा
- [हिं. चँपना]
- चाँप
- पैर की अहट, चाप।
- संज्ञा
- [हिं. चँपना]
- चाँप
- चंपे का फूल।
- संज्ञा
- [हिं. चंपा]
- चाँप
- दबाव।
- संज्ञा
- [हिं.चपना]
- चाँप
- रेलपेल।
- संज्ञा
- [हिं.चपना]
- चाक
- कुम्हार का एक गोल पत्थर।
- संज्ञा
- [सं. चक्र, प्रा. चक्क]
- चाक
- गाड़ी का एक पहिया।
- संज्ञा
- [सं. चक्र, प्रा. चक्क]
- चाक
- कुएँ की गराड़ी।
- संज्ञा
- [सं. चक्र, प्रा. चक्क]
- चाक
- अन्न-राशि पर छापा लगाने का थापा।
- संज्ञा
- [सं. चक्र, प्रा. चक्क]
- चाक
- गोल चिन्ह की रेखा, गोंडला।
- संज्ञा
- [सं. चक्र, प्रा. चक्क]
- चाक
- दरार, चीढ़।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चाक
-
- चाक करना (देना) :- चीरना, फाड़ना।
चाक होना :- चिरना, फटना।
- मु.
- चाक
- दृढ़।
- वि.
- [तु.]
- चाक
- स्वस्थ।
- वि.
- [तु.]
- चाकचक
- दृढ़, मजबूत।
- वि.
- [तु. चाक]
- गूथना
- मोटी सिलाई करना, गाँथना।
- क्रि. स.
- [सं. गुंथन]
- गूद
- गूदा।
- संज्ञा
- [सं. गुप्त, प्रा. गुत्त]
- गूद
- गड्ढा।
- संज्ञा
- [सं. गर्त]
- गूद
- गहरा, चिह्न, निशान या दाग।
- संज्ञा
- [सं. गर्त]
- गूदड़ गूदर
- फटा-पुराना कपडा, चिथड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. गूथना= मोटी सिलाई, करना]
- गूदना
- माला अदि गूँथना।
- क्रि. स.
- [हिं. गूथना]
- गूदा
- फल का सरस सार भाग।
- संज्ञा
- [सं. गुप्त, प्रा. गुत्त]
- गूदा
- खोपड़ी का सार भाग, भेजा, मगज।
- संज्ञा
- [सं. गुप्त, प्रा. गुत्त]
- गूदा
- गिरी, मींगी।
- संज्ञा
- [सं. गुप्त, प्रा. गुत्त]
- गूदा
- वस्तु का सार या तत्व।
- संज्ञा
- [सं. गुप्त, प्रा. गुत्त]
- चाकचक्य
- चमक।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाकचक्य
- सुंदरता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाकना
- सीमा बाँधना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाक]
- चाकना
- अन्न-राशि पर छापा लगाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाक]
- चाकना
- चिन्ह बनाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाक]
- चाकरनी, चाकरानी
- दासी।
- संज्ञा
- [हिं. चाकर]
- चाकर
- दास. सेवक।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चाकरी
- सेवा, नौकरी।
- संज्ञा
- [हिं. चाकर]
- चाकल
- चौड़ा, विस्तृत।
- वि.
- [हिं. चलना]
- चाका
- गाड़ी का पहिया।
- संज्ञा
- [हिं. चाक]
- चाकी
- पीसने की चक्की।
- संज्ञा
- [हिं. चाक]
- चाकी
- बिजली, बज्र।
- संज्ञा
- [सं. चक्र]
- चाकू
- फल या तरकारी आदि काटने का छुरीनुमा औजार।
- संज्ञा
- [तु.]
- चाक्रि
- चारण, भाट।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाक्रि
- तेली।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाक्रि
- गाड़ीवान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाक्रि
- कुम्हार।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाक्रि
- सेवक।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाक्रि
- मंडल या चक्र से संबंधित।
- वि.
- चाक्षुष
- चतु संबंधी।
- वि.
- [सं.]
- चाखे
- चखता है, स्वाद लेता है।
- ब्यंजन सकल मँगाइ सखनि के आगैं राखे। खाटे - मीठे स्वाद, सबै रस लै - लै चाखे - ४९१।
- क्रि. स.
- [हिं. चखना]
- चाखे
- खाये।
- आँव आदि दै सबै सँधाने। सब चाखे गोबर्धन - राने - ३९६।
- क्रि. स.
- [हिं. चखना]
- चाख्यौ
- स्वाद लिया, खाया।
- (क) जिहिं मधुकर अंबुज - रस चाख्यौ, क्यों करील - फल भावें - १ - १६८।
(ख) सद माखन अति हित मैं राख्यौ। आज नहीं नैंकहुँ तुम चाख्यौ - ५४७।
- क्रि. स.
- [हिं. चखना]
- चाचर, चाचरि
- होली या फाग के गीत।
- संज्ञा
- [सं. चर्चरी]
- चाचर, चाचरि
- होली का स्वाँग और हुल्लड़।
- संज्ञा
- [सं. चर्चरी]
- चाचर, चाचरि
- हल्ला-गुल्ला, उपद्रव।
- संज्ञा
- [सं. चर्चरी]
- चाचरी
- योग की एक मुद्रा।
- संज्ञा
- [सं. चर्चरी]
- चाचा
- बाप का छोटा भाई।
- संज्ञा
- [सं तात]
- चाची
- चाचा की स्त्री।
- संज्ञा
- [हिं. चाचा]
- चाट
- स्वाद लेने की। प्रबल इच्छा
- संज्ञा
- [हिं. चाटना]
- चाक्षुष
- जिसका ज्ञान या बोध नेत्रों से हो, देखने का।
- वि.
- [सं.]
- चाख
- चांही पक्षी।
- संज्ञा
- [सं. चाष]
- चाख
- नीलकंठ पक्षी।
- संज्ञा
- [सं. चाष]
- चाख
- आँख, नेत्र।
- संज्ञा
- [सं . चक्ष]
- चाखत
- चखकर, स्वाद लेकर।
- यह जग - प्रीति सुवा - सेमर ज्यौं, चाखत ही उड़ि जात - १ - ३१३।
- क्रि. स.
- [हिं. चखना]
- चाखन
- चखना, स्वाद लेना।
- यह संसार सुवा - सेमर ज्यों, सुंदर देखि लुभायो। चाखन लाग्यौ रुई गई उड़ि, हाथ कछू नहिं आयौ - १ - ३३५।
- क्रि. स.
- [हिं. चखना]
- चाखन
- चखना, खाना।
- मनु सुक सुसँग बिलोकि बिंब फल चाखन कारन चोंच चलाई - ६१६
- संज्ञा
- चाखनहारौ
- चखनेवाला, स्वाद लेनेवाला।
- इनहिं स्वाद जो लुब्ध सूर सोइ जानत चाखनहारौ री - १० - १३५।
- क्रि. स.
- [हिं. चखना + हार (प्रत्य.)]
- चाखना
- खाना, स्वाद लेना।
- क्रि. स.
- [हिं. चखना]
- चाखि
- चखकर, स्वाद लेकर।
- सबरी कटुक बेर तजि, मीठे चाखि गोद भरि ल्याई - १ - १३।
- क्रि. स.
- [हिं. चखना]
- चाट
- शौक, चसका।
- संज्ञा
- [हिं. चाटना]
- चाट
- प्रबल इच्छा, लोलुपता।
- संज्ञा
- [हिं. चाटना]
- चाट
- लत, आदत
- संज्ञा
- [हिं. चाटना]
- चाट
- चटपटी चीज।
- संज्ञा
- [हिं. चाटना]
- चाट
- ठग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाट
- उचक्का, चाँई।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाटत
- (जीभ लगाकर) चाटता है।
- (क) मनौ भुजंक अमी - रस - लालच, फिरि फिर चाटत सुभग सुचंदहि - १० - १०७।
(ख) जैसे धेनु बच्छ कौ चाटत तैसे मैं अनुरागूँ - सारा.१३३।
- क्रि. स.
- [हिं. चाटना]
- चाटति
- (प्यार से किसी वस्तु पर) जीभ चलाती हैं।
- ब्यानी गाइ बछरुवा चाटति, हौं पय पियत पतखिनि लैया - १० - ३३५।
- क्रि. स.
- [हिं. चाटना]
- चाटना
- जीभ लगाकर खाना या स्वाद लेना।
- क्रि. स.
- [अनु. चटचट = जीभ चलाने का शब्द]
- चाटना
- पोछ-पाँछ कर खा जाना।
- क्रि. स.
- [अनु. चटचट = जीभ चलाने का शब्द]
- चाड़िला
- नटखट।
- वि.
- [हिं. चाँडिला]
- चाड़ी
- निंदा, चुगली।
- संज्ञा
- [सं. चाटु]
- चाढ़
- इच्छा, कामना।
- जज्ञ - पुरुष तजि करत जज्ञे - ब्रिधि, तातै कहि कह चाढ़ सरी - ८०६।
- संज्ञा
- [हिं. चाड़]
- चढ़ा
- प्रिय पात्र।
- संज्ञा
- [हिं. चाड़]
- चढ़ा
- प्रेमी।
- संज्ञा
- [हिं. चाड़]
- चाढ़ी
- चाहनेवाला, प्रेमी, आसक्त।
- देखी हरि मथति ग्वालि दधि ठाढ़ी। जोबन मदमाती इतराती, बेनि ठरति कटि लौं, छबि बाढ़ी। दिन थोरी, भोरी, अति गोरी, देखत ही जु स्याम भए चाढ़ी। - १० - ३००।
- वि.
- [हिं., चाढ़ा]
- चाढ़े
- प्रिय पात्र।
- धन्य धन्य भक्तत के चाढ़े - १०३५।
- संज्ञा
- [हिं. चाढ़ा]
- चाढ़े
- प्रेमी, चाहनेवाला।
- (क) तुम हम पर रिस करति हौ। हम हैं तुव चाढ़े। निठुर भई हौ लाड़ली कब के हम ठाढ़े।
(ख) दिन थोरी भोरी अति को देखत ही जु स्याम भए चाढे (चाढ़ी) - १० - ३००।
- संज्ञा
- [हिं. चाढ़ा]
- चाणक्य
- चंद्रगुप्त मौर्य का मंत्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाणाक्ष
- धूर्त, चालाक, काँइयाँ।
- वि.
- चाटना
- प्यार से जीभ फेरना।
- क्रि. स.
- [अनु. चटचट = जीभ चलाने का शब्द]
- चाटना
- कीड़ों का किसी वस्तु को खा जाना।
- क्रि. स.
- [अनु. चटचट = जीभ चलाने का शब्द]
- चाटु
- मीठी या प्रिय लगनेवाली बात।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाटु
- झूठी प्रशंसा, खुशामद, चापलूसी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाटुकार
- चापलूस. खुशामदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाटुकारी
- झूठी प्रशंसा या खुशामद, चापलूसी।
- संज्ञा
- [सं. चाटुकार+ई (प्रत्य.)]
- चाटुपट
- झूठी प्रशंसा या चापलूसी करने में बहुत कुशल।
- संज्ञा
- [सं .]
- चाटुपट
- भाँड़, भंड।
- संज्ञा
- [सं .]
- चाटे
- पोंछ-पाँछ कर चट कर गये।
- दूध - दही के भोजन चाटे नेकहुँ लाज न आई - सारा, ७४९।
- क्रि. स.
- [हिं. चाटना]
- चाड़
- चाह, चाव, प्रेम।
- हौं अपने गोपाल खड़े हौं, भौन - चाँङ सब रहौ धरी। पाऊँ कहाँ खिलावन कौ सुख, मैं दुखिया, दुख कोखि जरी - १० - ८०।
- संज्ञा
- [हिं चाँड़]
- चाणूर
- कंस का एक पहलवान जिसे श्रीकृष्ण ने मारा था।
- संज्ञा
- [सं.]
- चातक
- वर्षाकाल में बोलनेवाला एक पक्षी जिसके संबंध में कवियों का विश्वास है कि यह नदी-सरोवर का संचित जल न पीकर केवल स्वाती नक्षत्र की बूँदों से अपनी प्यास बुझाता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- चातकनी
- मादा चातक।
- संज्ञा
- [हिं. चातक]
- चातर
- जाल।
- संज्ञा
- [हिं. चादर]
- चातर
- षड्यंत्र।
- संज्ञा
- [हिं. चादर]
- चातर
- चालाक, काँइयाँ।
- वि.
- [हिं. चातुर]
- चातुर
- दिखायी देनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- चातुर
- चतुर, चालाक।
- वि.
- [सं.]
- चातुर
- खुशामदी, चापलूस. चाटुकार।
- वि.
- [सं.]
- चातुर
- चतुरता।
- रोचन भरि लै देत सीक सौं, स्रवन निकट अतिहीं चातुर की - १० - १८०।
- संज्ञा
- [हिं. चातुर]
- चातुर
- गोल तकिया।
- संज्ञा
- चातुर
- चौपहिया गाड़ी।
- संज्ञा
- चातुरई, चतुरता, चतुरताई
- चालाकी।
- संज्ञा
- [हिं. चतुरता]
- चातुरई, चतुरता, चतुरताई
- बुद्धि।
- जे जे प्रेम छके मैं देखे तिनहिं न चातुरताई - २२७५।
- संज्ञा
- [हिं. चतुरता]
- चातुरिक
- सारथी, रथवान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चातुरी
- चतुर।
- नारि गई फिरि भवन आतुरी। नंद - घरनि अब भई चातुरी - ३९१।
- वि.
- [सं.]
- चातुर्थक, चातुर्थिक
- चौथे दिन होनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- चातुर्मास्य, चातुर्मासिक
- चार महीनों में होनेवाला, चार महीने का।
- वि.
- [सं.]
- चातुर्य
- चतुराई, निपुणता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चातुर्वर्ण्य
- चार वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
इनका धर्म।
- संज्ञा
- [सं.]
- चात्रिक
- चातक पक्षी।
- संज्ञा
- [हिं. चातक]
- चादर
- ओढ़ना, दुपट्टा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चादर
-
- चादर उतारना :- स्त्री का अपमान करना।
चादर रहना :- इज्जत बनी रहना। चादर से बाहर पैर फैलाना :- हैसियत से ज्यादा खर्च करना।
- मु.
- चादर
- धातु का पत्तर।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चादर
- पानी की ऊपर से गिरने वाली धार।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चादर
- पानी का फैलाव जिसमें लहरें या भँवर न हों।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चादर
- देवता या पूज्य स्थान पर चढ़ाई जानेवाली फूलों की राशि।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चादरा
- मरदानी चादर।
- संज्ञा
- [हिं. चादर]
- चीन
- चंद्रमा।
- संज्ञा
- [हिं. चाँद]
- चानक
- सहसा, एकाएक।
- क्रि. वि.
- [हिं. अचानक]
- गूदरि
- फटा-पुराना ओढ़ना बिछौना।
- पाटंबर - अंबर तजि गूदरि पहराऊँ - १.१६६।
- संज्ञा
- [हिं. गूदड़]
- गूदे
- चोटी आदि में फूल, मोती आदि) गूँथे या पिरोये।
- जिहि सिर केस कुसुम भरि गूदे तेहि कैसे भसम चढ़ैए - ३१२४।
- क्रि. स.
- [हिं. गूदना]
- गून
- नाव खींचने की रस्सी।
- संज्ञा
- [से गुण = रस्सी]
- गून
- रीहा नामक घास।
- संज्ञा
- [से गुण = रस्सी]
- गूनसराई
- रोहू नामक वृक्ष।
- संज्ञा
- [देश.]
- गूमा
- एक पौधा।
- संज्ञा
- [सं. कुंभा, गुंभा]
- गूलर
- एक बड़ा पेड़ जिसके फल में बहुत से भुनगे रहते हैं।
- मैं ब्रह्मा इक लोक कौ, ज्यौं गूलर - फल जीव। प्रभु तुम्हरे इक रोम प्रति, कोटिक ब्रह्मा सींव - ४९२।
- संज्ञा
- [सं. उदुंबर]
- गूलर
-
- गूलर का कीड़ा :- अनुभवहीन व्यक्ति, कूपमंडूक |
गूलर का फूल :- वह (वस्तु, पात्र आदि) जो कभी देखने में न आवे। गूलर का फूल होना :- कभी दिखायी न देना। गूलर का पेट फड़वाना (पेट फाड़कर जीव उड़ाना) :- गुप्त भेद प्रकट कराना, भंडा फुड़वाना।
- मु.
- गूलर
- मेढक, दादुर।
- संज्ञा
- [देश.]
- गूलू
- एक वृक्ष।
- संज्ञा
- [देश.]
- चानन
- चंदन।
- संज्ञा
- [हिं. चंदन]
- चानना
- उमंग से होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चान +ना (प्रत्य.)]
- चानूर
- कंस का एक मल्ल जिसे धनुष-यज्ञ के समय श्रीकृष्ण ने मारा था।
- संज्ञा
- [सं. चाणूर]
- चाप
- धनुष, कमान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाप
- दबाव।
- संज्ञा
- चाप
- पैर की आहट।
- संज्ञा
- चापट, चापड़, चापर
- भूसी, चोकर।
- संज्ञा
- [हिं. चपटा]
- चापट, चापड़, चापर
- चपटा।
- वि.
- चापट, चापड़, चापर
- समतल।
- वि.
- चापट, चापड़, चापर
- उजाड़।
- वि.
- चापति
- (स्नेह से) दबाती है।
- भुज चापति चुमति बलि जाई - १० - ७१।
- क्रि. सु.
- [हिं. चापना]
- चापना
- दबाना, मीड़ना।
- क्रि. स.
- [सं. चाप]
- चापल
- चंचल होने का भाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चापल
- चंचल, अस्थिर।
- वि.
- [हिं. चपल]
- चापलता, चपलताई
- चंचलता, अस्थिरता।
- संज्ञा
- [हिं. चापल +ता, ताई]
- चापलता, चपलताई
- ढिठाई।
- संज्ञा
- [हिं. चापल +ता, ताई]
- चापलूस
- खुशामदी, चाटुकार।
- वि.
- [फ़ा.]
- चापलूसी
- खुशामद।
- संज्ञा
- [हिं. चापलूस]
- चापल्य
- चपलता।
- संज्ञा
- [हिं. चपल]
- चापि
- दबाकर, मसलकर, मीड़ कर।
- चापि ग्रीव हरि प्रान हरे, दृग - रकत - प्रवाह चल्यौ अधिकानी - १० - ७८।
- क्रि. स.
- [हिं. चापना]
- चापी
- धनुष धारण करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं. चापिन्]
- चापी
- शिव।
- संज्ञा
- [सं. चापिन्]
- चाब
- बाद, अवड़ा।
- जब मुख गए समाइ, असुर तब चाब सकोरथौ - ४३१।
- संज्ञा
- [हिं. चाबना]
- चाब
- चौखूटे दाँत।
- संज्ञा
- [हिं. चाबना]
- चाब
- बच्चे के जन्मोत्सव की एक रीति।
- संज्ञा
- [हिं. चाबना]
- चाब
- एक बाँस।
- संज्ञा
- [सं. चप]
- चाब
- एक पौधा या उसका फल।
- संज्ञा
- [सं. चव्य]
- चाब
- चार की संख्या।
- संज्ञा
- [सं. चव्य]
- चाब
- कपड़ा।
- संज्ञा
- [सं. चव्य]
- चाबना
- दाँतों से कुचलना।
- क्रि. स.
- [सं. चर्वण, प्रा. चबण]
- चाबना
- खूब भोजन करना।
- क्रि. स.
- [सं. चर्वण, प्रा. चबण]
- चाबी, चाभी
- कुंजी, ताल |
- संज्ञा
- [हिं. चाप]
- चाबुक
- कोड़ा, हंटर, सोंटा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चाबुक
- बात जिससे काम करने की उत्तेजना मिले।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चाभ
- पौधा।
- संज्ञा
- [हिं. चाब]
- चाभ
- डाढ़।
- संज्ञा
- [हिं. चाब]
- चाभना
- खाना, भक्षण करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाबना]
- चाम
- चमड़ा, खाल, चमड़ी।
- आमिष - रुधिर अस्थि अँग जौ कौं, तौ लौ कोमल चाम - १ - ७६।
- संज्ञा
- [सं. चर्म]
- चाम
-
- चाम के दाम :- चमड़े का सिक्का।
चाम के दाम चलाना :- अन्याय या अंधेर करना। चाम के दाम चलाबै :- अन्याय या अंधेर करता है। उ. - ऊधौ अब कछु कहत ने अवै। सिर पै सौति हमारे कुबिजा चाम के दाम चलावै - ४२५७।
- मु.
- चामड़ी
- चमड़ी, खाल।
- संज्ञा
- [हिं. चमड़ी]
- चाय
- एक पौधा जिसकी पत्तियाँ उबाल कर पी जाती हैं।
- संज्ञा
- [चीनी चा]
- चाय
- उमंग, उत्साह, चाव।
- भरि भरि सकट चले गिरि सनमुख अपने अपने चाय - ९१८।
- संज्ञा
- [हिं. चाव]
- चाय
- इच्छा, कामना।
- चित में यह अनुरक्त बिचारत हरि दरसन की चाय - सारा. ८४८।
- संज्ञा
- [हिं. चाव]
- चाय
- प्रेम।
- संज्ञा
- [हिं. चाव]
- चायक
- चाहनेवाला, प्रेमी।
- संज्ञा
- [हिं. चाय]
- चायक
- चुननेवाला।
- संज्ञा
- [सं. चयन]
- चार
- दो और दो का योग।
- वि.
- [सं. चतुर]
- चार
-
- चार आँखें करना :- सामने आना।
चार आँखें होना :- देखा देखी होना। चार चाँद लगना :- मान, प्रतिष्ठा या सौंदर्य बढ़ना। चार कंधे चढ़ना (चलना) :- मरना। चार-पाँच करना :- (१) हीला - हवाला करना। (२) झगड़ा करना। चारों फूटना :- न देख सकना और न विचार कर सकना। चारों खाने चित्त होना :- (१) बिलकुल हार जाना। (२) सकपका जाना।
- मु.
- चार
- कई एक, बहुत से।
- वि.
- [सं. चतुर]
- चार
- थोड़े, कुछ।
- वि.
- [सं. चतुर]
- चामर
- चौंर, चँवर, चौरी।
- संज्ञा
- [हिं. चँवर]
- चामर
- मोरछल।
- संज्ञा
- [हिं. चँवर]
- चामर
- एक छंद।
- संज्ञा
- [हिं. चँवर]
- चामरिक
- चँवर डुलानेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- चामरी
- सुरा गाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- चामिल
- भिक्षापात्र।
- संज्ञा
- [हिं. चंबल]
- चामीकर
- स्वर्ण।
- संज्ञा
- [सं.]
- चामीकर
- धतूरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चामीकर
- स्वर्णमय, सुनहरा।
- वि.
- चामुंडा
- एक देवी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चार
-
- चार दिन :- थोड़े दिन।
चार पैसे :- थोड़ा धन।
- मु.
- चार
- चार की संख्या।
- संज्ञा
- चार
- गति, चाल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चार
- बंधन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चार
- दूत, चर
- संज्ञा
- [सं.]
- चार
- दास. सेवक
- संज्ञा
- [सं.]
- चार
- चिरौंजी का पेड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- चार
- बनावटी विष।
- संज्ञा
- [सं.]
- चार
- ।
रीति-रस्म।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारक
- चरवाहा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारक
- संचालक,
- संज्ञा
- [सं.]
- चारक
- गति, चाल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारक
- कारागार।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारक
- गुप्तचर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारक
- साथी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारक
- सवार।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारक
- मनुष्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारण
- भाट, बंदीजन।
- बिद्याधर गंधर्व अपसरा गान करत सब ठाढ़े। चारण (चारन) सिद्ध पढ़त बिरुदावलि लै फगुवा सुख बाढ़े - सारा. २८।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारण
- राजपूताने की एक जाति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारण
- भ्रमणकारी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारण
- चराना।
- गोपी ग्वाल गाइ बन चारण (चारन) अति दुख पायौ त्यागत - २९१५।
- संज्ञा
- [हिं. चराना]
- चारत
- चराते हुए।
- बन - बन फिरत चारत धेनु - ४२७।
- क्रि. स.
- [हिं. चारना]
- चारदा
- चौपाया।
- संज्ञा
- [हिं. चार + दा (प्रत्य.)]
- चारदीवारी
- घेरा, हाता, प्राचीर।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चारन
- वंश की कीर्ति गाने वाला, बंदीजन।
- (क) बिप्र - सुजन - चारन - बंदी - जन सकल नंद - गृह आए - १० - ८७।
(ख) चारन सिद्ध पढ़त बिरुदावलि लै फगुवा सब ठाढे - सारा, २८।
- संज्ञा
- [सं. चारण]
- चारन
- चराने की क्रिया या भाव |
- (क) धन्य गाइ, धनि द्रुम - बन चारन। धनि जमुना हरि करत बिहारन - ३९१। (ख) प्रात जात गैया ले चारन घर आवत है साँझ - ४११।
- संज्ञा
- [हिं. चराना]
- चारन
- (गाय आदि) चराने।
- बछरा चारन चले गोपाल–४१०।
- क्रि. स.
- [हिं. चारना]
- चारना
- चराना।
- क्रि. स.
- [सं. चारण]
- चारपाई
- खाट, खटिया।
- संज्ञा
- [हिं चार+पाया]
- चारपाई
-
- चारपाई पर पड़ना :- बीमार होना।
चारपाई धरना (पकड़ना, लेना) :- (१) बहुत बीमार होना। (२) लेट जाना। चारपाई से पीठ लगना :- बीमारी से बहुत दुबले हो जाना।
- मु.
- चारा
- पशुओं के चुगने की चीजें।
- लोचन भए पखेरू माइ। लुब्धे' स्याम रूप चारा को अकल फंद परे जाइ - पृ.३२५।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चारा
- मछलियों को फँसाने का आटा या अन्य वस्तु जो कँटिया पर लगायी जाती है।
- संज्ञा
- [हिं. चरना]
- चारा
- उपाय, इलाज, तदबीर।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चारि
- चार, तीन और एक का योग।
- चौपरि जगत मड़े जुग बीते। गुन पाँसे, क्रम अक, चारि गति सारि, न कबहूँ जीते - १६०।
- वि.
- [हिं. चार]
- चारि
- थोड़ा-बहुत, कुछ।
- वि.
- [हिं. चार]
- चारि
-
- चार दिवस :- थोड़े दिन, कुछ दिन।
उ. - सब वे दिवस चारि मन रंजन, अंत काल बिगरै गो - १.७५।
- मु.
- चारिणी
- आचरण करनेवाली।
- वि.
- [सं.]
- चारित, चारितु
- जो चलाया गया हो।
- वि.
- [सं.]
- चारित, चारितु
- पशुओं का चारा।
- संज्ञा
- [हिं. चारा]
- चारित, चारितु
- (चलाया जाने वाला) आरा
- संज्ञा
- [सं.]
- गूषणा
- मोरपंखी का अर्द्धचंद्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- गूह
- मल, मैला।
- संज्ञा
- [सं. गुह]
- गृध्र
- गिद्ध, गीध।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृध्र
- जटायु, संपाती आदि पक्षी जिनकी पौराणिक कथाएँ प्रसिद्ध हैं।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृध्रव्यूह
- सेना की एक व्यूह-रचना।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृह
- घर
- संज्ञा
- [सं.]
- गृह
- वंश।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृहआस्रम
- गृहस्थाश्रम जिसमें मनुष्य बाल बच्चों के साथ रहता है।
- गृहस्रम है अति सुखदाई। तप तजि कै गृहआस्रम करौं - ९.८।
- संज्ञा
- [सं. गृह + आश्रम]
- गृहप
- घर का स्वामी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृहप
- घर का रक्षक।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारित, चारितु
- चरित्र।
- संज्ञा
- [हिं. चरित्र]
- चारित्र
- कुल-आचार।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारित्र
- स्वभाव, प्रकृति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारिव्य
- चरित्र, चालचलन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारी
- चलनेवाला।
- वि.
- [सं. चारिन्]
- चारी
- व्यवहार या आचरण करनेवाला।
- वि.
- [सं. चारिन्]
- चारी
- पैदल सिपाही।
- संज्ञा
- चारी
- संचारी भाव।
- संज्ञा
- चारी
- नृत्य का एक अंग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारी
- चार।
- महामुक्ति कोऊ नहिं बाँछै जदपि पदारथ चारी - ३३१६।
- वि.
- [हिं. चार]
- चारी
- चरायीं।
- सूरदास प्रभु नाँगे पाँयन दिन प्रति गैयाँ चारी - ३४१२।
- क्रि. स.
- [हिं. चराना]
- चारु
- सुंदर, मनोहर।
- चारु मोहिनी आइ आँध कियौ, तब नख - सिख तैं रोयौ - १ - ४३।
- वि.
- [सं.]
- चारु
- रुचिकर, सरस।
- सूरप्रभु कर गहत ग्वालिनी, चारु चुंबन हेत - १० - १८४।
- वि.
- [सं.]
- चारु
- बृहस्पति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारु
- रुक्मिणी से उत्पन्न श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारु
- केसर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारुगर्भ
- श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चरुगुप्त
- श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारुचित
- धृतराष्ट्र की एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारुता, चारुताई
- सुंदरता, मनोहरता, सुहावनापन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारुता, चारुताई
- सरसता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारुदेष्ण
- श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारुधारा
- इंद्र की पत्नी शची।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारुनेत्र
- सुंदर नेत्रवाला।
- वि.
- [सं.]
- चारुनेत्र
- हिरन, मृग।
- संज्ञा
- चारुबाहु
- श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारुभद्र
- श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारुमती
- श्रीकृष्ण की एक पुत्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारुयश
- श्रीकृष्ण की एक पुत्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारुविंद
- श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चारुश्रवा
- सुदर कानवाला।
- वि.
- [सं. चारुश्रवस्]
- चारुश्रवा
- श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
- संज्ञा
- चारुहासी
- सुंदर हँसीवाला।
- वि.
- [सं.]
- चारुहासिनी
- सुंदर मुस्कानवाली।
- वि.
- [सं.]
- चारे
- चरने (के लिए)।
- टेरि उठे बलराम स्याम कौं आवहु जाहिं धेनु बन चारे - ४२३।
- क्रि. अ.
- [हिं. चारना]
- चारै
- चार।
- दुखित देखि बसुदेवदेवकी, प्रगट भए धारि कै भुज चारै - १० - १०।
- वि.
- [हिं. चार]
- चारौं
- चारों।
- चारों बेद चतुर्मुख। ब्रह्मा जस गावत हैं ताको - १ - ११३।
- वि.
- [हिं चार]
- चारौ
- भोजन, भोज्य पदार्थ।
- संज्ञा
- [हिं. चरना, चार]
- चारौ
-
- कियो गीध कौ चारौ :- मार डाला।
उ. - नवग्रह परे रहैं पाटीतर, कूपहिं काल उसारौ। सो रावन रघुनाथ छिनक मैं कियौ गीध कौ चारौ - ६ - १५७।
- मु.
- चारौ
- चारों।
- दीनदयाल, पतितपावन, जस बेद बखानत चारौ - १ - १५७।
- वि.
- [हिं. चार]
- चारौ
- चराता है।
- ब्रह्म, सनक, सिव, ध्यान न अवत, सो ब्रज गैयनि चारौ - १० - ३७८।
- क्रि. स.
- [हिं.चराना]
- चारयो
- चारों।
- वि.
- [हिं. चार]
- चारयो
-
- चारयो (चारों) फूटना :- चर्मचक्षु और ज्ञानचक्षु नष्ट होना, दृष्टि और बुद्धि का नाश होना।
उ. - निसि दिन बिषय-बिलासनि बिलसत, फूटि गई तव चारयौ - १ - १०१।
- मु.
- चार्वाक
- एक नास्तिक।
- संज्ञा
- [सं.]
- चार्वी
- बुद्धि।
- संज्ञा
- [सं.]
- चार्वी
- चाँदनी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चार्वी
- कांति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चार्वी
- सुंदर स्त्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- चार्वी
- कुबेर की पत्नी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाल
- गति, गमग, चलने की क्रिया।
- (क) इंद्री अजित, बुद्धि बिषयारत, मन की दिन दिन उलटी चाल - १ - १२७।
(ख) टेढ़ी चाल, पाग सिर टेढ़ी, टेढ़ै टेढ़ै धायो - १ - ३१०।
- संज्ञा
- [सं. चार, हिं.चलन]
- चाल
- आचरण, चलन, बर्ताव।
- (क) महामोह के नूपुर बाजत, निंदा - सब्द रसाल। भ्रम - भोयौ मन भयौ पखावज, चलत असंगत चाल - १ - १५३।
(ख) अब कछु औरहि चाल चाली - २७३४। (ग) अब समीर पावक सम लागत सब ब्रज उलटी चाल - ३१५५। (घ) कहा वह प्रीति रीति राधा सौ। कहाँ यह करनी उलटी चाल - ३४५।
- संज्ञा
- [सं. चार, हिं.चलन]
- चाल
- चलन, रीति-रिवाज, प्रथा, परिपाटी।
- सूर स्याम कौ कहा निहोरौ, चलत बेद की चाल - १ - १५९।
(ङ) अपने सुत की चाल न देखत उलटी तू हमपै रिस ठीनति।
- संज्ञा
- [सं. चार, हिं.चलन]
- चाल
- चलने का ढंग, ढब या प्रकार।
- (क) हौं वारी नान्हें पाइनि की दौरि दिखावहु चाल - १० - २२३।
(ख) धूरि घौत तन अंजन नैननि, चलत लटपटी चाल - १० - ११४। (ग) सूरदास गोरी अति राजत ब्रज कौं आवत सुंदर चाल - ४७३। (अ) वह चितवन वह चाल मनोहर वह मुसुक्यानि जो मंद धुनि गावन–३३०७।
- संज्ञा
- [सं. चार, हिं.चलन]
- चाल
- आकार, प्रकार, बनावट, गदन |
- संज्ञा
- [सं. चार, हिं.चलन]
- चाल
- गमन-मुहूर्त, चलने की सायत, चला।
- संज्ञा
- [सं. चार, हिं.चलन]
- चाल
- कार्य करने की युक्ति, उपाय या ढंग।
- संज्ञा
- [सं. चार, हिं.चलन]
- चाल
- धोखा देने की युक्ति, छल-कपट, धूर्तता।
- संज्ञा
- [सं. चार, हिं.चलन]
- चाल
-
- चाल चलना (अक.) :- धोखा देने की युक्ति या कार्य सफल होना
चाल चलना (सक.) :- धोखा देना, चालाकी करना चाल में आना :- धोखे में पड़ना
- मु.
- चाल
- ढंग, प्रकार, विधि, तरह।
- संज्ञा
- [सं. चार, हिं.चलन]
- चाल
- शतरंज या ताश में मोहरा या पत्ता चलना।
- संज्ञा
- [सं. चार, हिं.चलन]
- चालन
- चलाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- चालन
- चलने की क्रिया, गति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चालन
- चलनी, छलनी
- संज्ञा
- [सं.]
- चालन
- छानने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- चालन
- चोकर, चलनौस।
- संज्ञा
- [हिं. चालना]
- चालनहार
- चलानेवाला, ले जानेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चालन+हार (प्रत्य.)]
- चालनहार
- चलनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चालना
- चलाना, संचालित करना।
- क्रि. स.
- [सं. चालन]
- चालना
- एक स्थान से दूसरे को ले जाना।
- क्रि. स.
- [सं. चालन]
- चालना
- विदा कराके ले जाना।
- क्रि. स.
- [सं. चालन]
- चाल
- हलचल, धूम।
- संज्ञा
- [सं. चार, हिं.चलन]
- चाल
- आहट, खटका।
- संज्ञा
- [सं. चार, हिं.चलन]
- चाल
- छाजन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाल
- स्वर्ण चूड़ पक्षी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चालक
- चलानेवाला, संचालक।
- संज्ञा
- [सं.]
- चालक
- नटखट हाथी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चालक
- हाथ चलाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- चालक
- छल-कपटी।
- संज्ञा
- [हिं. चाल=धूर्तता]
- चालचलन
- आचरण।
- संज्ञा
- [हिं. चाल+चलन]
- चालढाल
- तौर तरीका, ढंग।
- संज्ञा
- [हिं. चाल+डाल]
- चालना
- हिलाना-डुलाना।
- क्रि. स.
- [सं. चालन]
- चालना
- काम निपटाना या भुगताना।
- क्रि. स.
- [सं. चालन]
- चालना
- बात या प्रसंग छेड़ना।
- क्रि. स.
- [सं. चालन]
- चालना
- छानना।
- क्रि. स.
- [सं. चालन]
- चालना
- गति में होना, चलना।
- क्रि. अ.
- [सं. चालन]
- चालना
- विदा होकर आना, चाला होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चालन]
- चालनी
- चलनी, छलनी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चालबाज
- धूर्त, छली।
- वि.
- [हिं. चान + फ़ा. बाज़]
- चालबाजी
- छल-कपट।
- वि.
- [हिं. चाजबाज]
- चालहिं
- चाल से, गति से।
- कनक - कामिनी सौं मन बाँध्यौ, ह्वै गज चल्यौ स्वान की चालईि - १ - ७४।
- संज्ञा
- [हिं. चाल + हिं.(प्रत्य.)]
- चालीसवाँ
- जो क्रम में उनतालीस के आगे पड़ता है।
- संज्ञा
- [हिं. चालीस]
- चालु
- जो चल रहा हो।
- वि.
- [हिं. चलना]
- चालु
- जिसका चलन रोका न गया हो, चलता हुआ
- वि.
- [हिं. चलना]
- चालै
- चलता है, जाता है।
- साधु - संग, भक्ति बिना, तन अकार्थ जाई। जारी ज्यौं हाथ झारि चालै छुट काई - १ - ३३०।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चालै
- चलावे, बखान करे, प्रशंसा करे।
- अपनी को चालै सुनि सूरज पिता जननि बिसराई।
- क्रि. स.
- [चलाना]
- चाल्ह, चाल्हा
- एक मछली।
- संज्ञा
- [देश.]
- चाँवचाँव
- व्यर्थ की बकवाद।
- संज्ञा
- [हिं. चाँयँ चाँयँ]
- चाव
- प्रबल इच्छा, लालसा।
- चित्रकेतु पृथ्वीपति राव। सुतहित भयो तासु हिय चाव।
- संज्ञा
- [हिं. चाह]
- चाव
-
- चाव निकलना :- लालसा पूरी होना।
- मु.
- चाव
- प्रेम, चाह।
- संज्ञा
- [हिं. चाह]
- गृहप
- कुत्ता।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृहप
- आग।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृहपति
- घर का स्वामी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृहपति
- कुत्ता।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृहपति
- आग, अग्नि।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृहपाल
- घर का रक्षक।
- संज्ञाा
- [सं.]
- गृहपाल
- कुत्ता।
- संज्ञाा
- [सं.]
- गृहमणि, गृहमनि
- दीप, दीपक।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृहस्त, गृहस्थ
- गृहस्थ
- संज्ञा
- [सं.]
- गृहस्त, गृहस्थ
- ब्रह्मचर्य के बाद के आश्रम का धर्म निबाहनेवाला व्यक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चालान
- माल लाने या लेजाने का आज्ञापत्र।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चालान
- अपराधियोंका अदालतमें भेजा जाना।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चालिया
- धूर्त, छली।
- वि.
- [हिं. चाल +इया (प्रत्य.)]
- चालीं
- चल दीं, प्रस्थान कर दिया।
- बेनु स्रवन सुनि, गोबर्धन तैं तृन दंतनि धरि चालीं - ६१३।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चाली
- धूर्त, चालबाज, चालिया।
- वि.
- [हिं. चाल]
- चाली
- चंचल, नटखट, शैतान।
- वि.
- [हिं. चाल]
- चाली
- प्रसंग चलाया, बात शुरू की।
- (क) ऊधौ कत ए बातैं चालीं - ३२२८।
(ख) बहुरयो ब्रज बात न चाली। १० उ. - ७९।
- क्रि. स.
- [हिं. चालना]
- चाली
- अयोजन किया।
- क्रि. स.
- [हिं. चालना]
- चाली
-
- चाल चाली :- धोखा देने का प्रयोजन किया, चालाकी की।
उ. - अब कछु ओरहि चाल चाली - २७३४।
- मु.
- चालीस
- बीस की दुगनी संख्या।
- संज्ञा
- [सं. चत्वारिंशत्, प्रा. चत्तालीस]
- चालहिं
- चलते हैं।
- सूरदास प्रभु पथिक न चालहिं कासौं कहाँ सँदेसनि।
- क्रि. अ.
- [हिं. चलना]
- चाला
- प्रस्थान, कूच।
- संज्ञा
- [हिं. चाल]
- चाला
- नयी बधू को पहले पहल ससुराल या मायके जाना।
- संज्ञा
- [हिं. चाल]
- चाला
- यात्रा का मुहूर्त या शुभ सायत।
- संज्ञा
- [हिं. चाल]
- चालाक
- चतुर।
- वि.
- [फ़ा.]
- चालाक
- चालबाज।
- वि.
- [फ़ा.]
- चालाकी
- चतुराई, दक्षता।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चालाकी
- धूर्तता, चालबाजी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चालाकी
- युक्ति, कौशल।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चालान
- भेजे हुए माल का बीजक या हिसाब।
- संज्ञा
- [हिं. चलना]
- चाव
- शौक, उत्कंठा।
- संज्ञा
- [हिं. चाह]
- चाव
- लाड़-प्यार, दुलार
- संज्ञा
- [हिं. चाह]
- चाव
- उमंग, उत्साह।
- संज्ञा
- [हिं. चाह]
- चावड़ी
- ठहरने का स्थान, चट्टी।
- संज्ञा
- [देश.]
- चावण
- एक गुजराती राजवंश।
- संज्ञा
- [देश.]
- चावनी
- चाहना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाव]
- चावर, चावल
- एक अन्न तंदुल।
- संज्ञा
- [सं. तंडुत]
- चावर, चावल
- पकाया चावल, भात।
- संज्ञा
- [सं. तंडुत]
- चावर, चावल
- छोटे छोटे बीज के दाने जो खाये जायँ।
- संज्ञा
- [सं. तंडुत]
- चावर, चावल
- एक रत्ती का अठवाँ भाग।
- संज्ञा
- [सं. तंडुत]
- चावर, चावल
-
- चावल भर :- रत्ती केआठवें भाग के बराबर।
- मु.
- चाशनी
- चीनी या गुड़ का रस जो आँच पर चढ़ाकर गाढ़ा किया गया हो।
- संज्ञा
- [फा.]
- चाशनी
- किसी पदार्थ में मीठेकी मिलावट।
- संज्ञा
- [फा.]
- चाशनी
- चसको, मजा।
- संज्ञा
- [फा.]
- चाष
- नीलकंठ पक्षी। चाहा पक्षी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चाष
- आँख, नेत्र।
- संज्ञा
- [सं. चक्षु]
- चास
- जोत, बाँह।
- संज्ञा
- [हिं. चासा]
- चासना
- जोतना।
- क्रि. स.
- [हिं. चास]
- चासनी
- चाशनी।
- संज्ञा
- [फा. चाशनी]
- चासा
- हलवाहा।
- संज्ञा
- [देश.]
- चासा
- किसान।
- संज्ञा
- [देश.]
- चाह
- इच्छा, अभिलाषा
- (क) भक्ति भाव की जो तोहिं चाह। तो सौं नहिं ह्वै है निर्वाह - ४ - ९।
(ख) तुम कह्यौ मरिबे की तोहि चाइ। सव काहू कौं है यई राइ - ५ - ३।
- संज्ञा
- [सं. इच्छा, पु. हिं. चाहि अथवा सं.उत्साह, प्रा. उच्छाह]
- चाह
- प्रेम, प्रीति।
- संज्ञा
- [सं. इच्छा, पु. हिं. चाहि अथवा सं.उत्साह, प्रा. उच्छाह]
- चाह
- आदर, कदर।
- संज्ञा
- [सं. इच्छा, पु. हिं. चाहि अथवा सं.उत्साह, प्रा. उच्छाह]
- चाह
- माँग, आवश्यकता।
- संज्ञा
- [सं. इच्छा, पु. हिं. चाहि अथवा सं.उत्साह, प्रा. उच्छाह]
- चाह
- खबर, सूचना, समाचार, भेद की बात।
- (क) हौं सखि नई चाइ इक पाई। ऐसे दिननि नंद कैं सुनियत उपज्यौ पूत कन्हाई - १० - २२।
(ख) चकित भयौ ब्रज चाह सुनाई - १५६१।
- संज्ञा
- [हिं. चाल = आहट]
- चाह
- उमंग, रुचि।
- संज्ञा
- [हिं. चाव]
- चाहक
- प्रेम करनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चाहना]
- चाहत
- प्रीति, लगन।
- संज्ञा
- [हिं. चाह]
- चाहत
- इच्छा करता है, हता है, अभिलाषा करता है।
- (क) बोवत बबुर, दाख फल चाइत, जोवत है फल लागे - १ - ६१।
(ख) सुरतरु सदन सुभाव छाँड़ि कह चाहत है द्रुम भूम भँडारौ - सा. १११।
- क्रि. स.
- [हिं. चाइ]
- चाहा
- प्रीति की, लगन लगायी।
- क्रि. स
- [हिं. चाहना]
- चाहि
- प्रेम करके।
- क्रि. स.
- [हिं. चाइना]
- चाहि
- देखकर।
- क्रि. स.
- [हिं. चाइना]
- चाहि
- चाहि रही-देखती, ताकती या निहारती। रही।
- रही ग्वाति हरि कौ मुख चाहि - १० - ३१६।
- प्रो.
- चाहि
- अपेक्षाकृत (अधिक), से बढ़कर, बनिस्बत।
- अव्य
- [सं. चैव = और भी]
- चाहिए
- उचित या उपयुक्त है।
- अव्य
- [हिं. चाहना]
- चाही
- इच्छित, चहेती।
- वि.
- [हिं. चाह]
- चाही
- (वह भूमि) जो कुएँ के जज से सींची जाय।
- वि.
- [फा. चाह = कु]
- चाहे
- देखे, निहारे।
- सूर नप नारि हरि बचन मान्यौ सत्य हरष है स्याम मुख संबनि चाहे - १६१८ |
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चाहे
- जी चाहे, इच्छा हो।
- अव्य
- चाहे
- जैसा जी चाहे, या तो।
- अव्य
- चाहे
- होनेवाला हो।
- अव्य
- चाहैं
- चाहते हैं, इच्छा करते हैं।
- लियें दियौ चाहैं सब कोऊ, सुनि समरथ जदुराई - १ - १६५।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चाहै
- इच्छा करते ही, इच्छा होते ही।
- रीत भरे, भरें पुनि ढारे, चाहै फेरि भरे - १ - १०५।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चाहै
- मिल्यौ न चाहै-मिल नहीं पाती, प्राप्त नहीं होती।
- घर मैं गथ नहिं भजन तिहारौ, जौन दिऐ मैं छुटौं। धर्म - जमानत मिल्यौ न चाहै, तातें ठाकुर लूटौ - १ - १८५।
- प्रो
- चाहो, चाहौ
- इच्छा करो, चाह हो।
- (क) हरि की भक्ति करो सुख नीके जो चाहो सुख पायौ - सारा, ७३।
(ख) करो उपाव बचो जो चाहो मेरो बचन प्रमानो - सारा, ४८७।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चाहो, चाहौ
- देखो, निहारो।
- कोउ नयनन सों नयन जोरि कै कहति न मो तनचाहो - २४२७।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चाहौं
- चाहता हूँ, इच्छा करता हूँ।
- कळू चाहीँ कहौं, सकुचि मन मैं रहौं, अपने कर्म लखि त्रास अवै - १ - ११०।
- क्रि. स
- [हिं. चाहना]
- चाह्यौ
- चाह की, इच्छा की।
- (क) नाग - नर - पसु सबनि चाह्यौ सुरसरी कौ छंद - ६ - १०।
(ख) जल ते बिछुरि तुरत तनु त्याग्यौ तउ कुल जल को चाह्यौ - ३१४६।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चि, चियाँ
- इमली का बीज।
- संज्ञा
- [सं. चिंचा = इमली]
- चाहति
- इच्छा करती है, अभिलाषती है।
- (क) चरन - कमल नित रमापलोवै। चाहति नैंकु नैन भरि जोवै - १० - ३।
(ख) कासौं कहाँ सवी कोउ नाहिंन, चाहति गर्भ दुरायौ - १० - ४।
- क्रि. स.
- [हिं. चाह, चाहना]
- चाहना
- इच्छा करना, कामना रखना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाह]
- चाहना
- प्रेम करना, प्रीति रखना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाह]
- चाहना
- पाने की इच्छा जताना, माँगना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाह]
- चाहना
- प्रयत्न या कोशिश करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाह]
- चाहना
- चाह से ताकना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाह]
- चाहना
- खोजना, ढूँढ़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाह]
- चाहना
- चाह, जरूरत, आवश्यकता।
- संज्ञा
- चाहा
- बगले-सा एक जलपक्षी।
- संज्ञा
- [सं. चाष]
- चाहा
- इच्छा की, कामना की।
- क्रि. स
- [हिं. चाहना]
- चि, चियाँ
-
- चिआँ सी :- बहुत छोटी।
- मु.
- चिउँटा
- चींटा नामक कीड़ा।
- संज्ञा
- [सं. चिमटा]
- चिउँटा
-
- गुड़ चींटा होना :- परस्पर चिमट जाना।
चिउँटे के पूर निकलना :- मरने को होना, इतराकर ऐसा काम करना जिससे हानि की संभावना हो।
- मु.
- चिउँटिया रेंगान
- बहुत धीमी या सुस्त चाल या क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चिउँटी+रेंगना]
- चिउँटी
- चींटी, पिपीलिका।
- संज्ञा
- [हिं. चिमटना]
- चिउँटी
-
- चिउँटी की चाल :- सुस्त चाल, मंदगति।
- मुु.
- चिंगट
- झिंगवा या झिंगा मछली।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिंघाड़
- चीखने-चिल्लाने का घोर शब्द।
- संज्ञा
- [सं. चीत्कार]
- चिंघाड़
- चीखने-चिल्लाने का घोर शब्द।
- संज्ञा
- [सं. चीत्कार]
- चिंघाड़ना
- हाथी का बोलना।
- क्रि. अ.
- [सं. चीत्कार]
- चिंच
- इमली।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिंचिनी
- इमली।
- संज्ञा
- [सं. तिं तिड़ी]
- चिवी
- गुंजा, धुंधची।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिंज, चिंजा
- पुत्र, बेटा।
- संज्ञा
- [सं. चिरंजीव]
- चिंजी
- लड़की, बेटी।
- संज्ञा
- [हिं. चिजी]
- चिंत
- चिंता, चिंतन, ध्यान, याद, फिक्र।
- राघौ जु, कितिक बात, तजि चिंत - ६:१०७।
- संज्ञा
- [सं. चिंता]
- चिंतक
- चिंतन या ध्यान करनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- चिंतक
- ख्याल या ध्यान करनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- चिंतत
- ध्यान लगाते हैं, स्मरण करते हैं।
- सनक - संकर ध्यान धारत, निगम अगम बरन। सेस, सारद, रिषय नारद, संत चिंतत सरन - १ - ३०८।
- क्रि. स.
- [हिं. चिंतना]
- चिंतन
- स्मरण, ध्यान।
- चित्त चिंतन करत जा - अघ हरत, तारन - तरन| १ - ३०८।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृहस्त, गृहस्थ
- घरबारवाला व्यक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृहस्थाश्रम
- ब्रह्मचर्य के पश्चात का आश्रम जिसमें स्त्री और संतान के साथ व्यक्ति रहता और उनके प्रति स्वकर्तव्य निबाहता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृहस्थी
- गृहस्थाश्रम।
- संज्ञा
- [सं, गृहस्थ+हिं. ई (प्रत्य.)]
- गृहस्थी
- घर-बार।
- संज्ञा
- [सं, गृहस्थ+हिं. ई (प्रत्य.)]
- गृहस्थी
- लड़के-बाले।
- संज्ञा
- [सं, गृहस्थ+हिं. ई (प्रत्य.)]
- गृहस्थी
- घर का सामान।
- संज्ञा
- [सं, गृहस्थ+हिं. ई (प्रत्य.)]
- गृहबासी
- घर में रहनेवाला, गृहस्थ।
- संज्ञा
- [सं . गृहवासी]
- गृहिणी, गृहिनी
- घर की स्वामिनी, मालकिन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृहिणी, गृहिनी
- पत्नी, भार्या, स्त्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- गृही
- गृहस्थ।
- तपसी तुमको तप करि पावै। सुनि भागवत गृही गुन गावै - १० उ. - १२७।
- संज्ञा
- [सं. गृहिन्]
- चिंतन
- विचार, गौर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिंतना
- ध्यान या स्मरण करना।
- क्रि. स.
- [सं. चिंतन]
- चिंतना
- सोचना, गौर करना।
- क्रि. स.
- [सं. चिंतन]
- चिंतना
- ध्यान, स्मरण।
- संज्ञा
- चिंतना
- चिंता।
- संज्ञा
- चिंतनीय
- ध्यान करने योग्य।
- वि.
- चिंतनीय
- चिंता या फिक्र करने लायक।
- वि.
- चिंतनीय
- विचार करने योग्य।
- वि.
- चितवन
- स्मरण, ध्यान।
- संज्ञा
- [सं. चिंतन]
- चिता
- ध्यान, भावना।
- संज्ञा
- [सं .]
- चिता
- सोच, फिक्र, खटका।
- चिंता मानि, , चितै अंतर - गति, नाग - लोक को ध्याए - १ - २६।
- चिंता लगना :- बराबर फिक्र रहना।
कुछ चिंता नहीं :- कोई परवाह या फिक्र की बात नही।
- चिंता
- चिंताकुन
- चिंता से आतुर।
- वि.
- [सं. विता+प्राकु तु]
- चिंतातुर
- चिंता से आतुर।
- वि.
- [सं. चिंता+आतुर]
- चिंतापल
- चिंतित, चिंता से व्यग्र।
- वि.
- चिंतामणि, चिंतामनि
- परमेश्वर
- परमें उदार चतुर चिंतामनि कोटि कुबेर निधन कौं - १ - ६।
- संज्ञा
- [सं. चिंतामणि]
- चिंतामणि, चिंतामनि
- एक कल्पित रत्न जो सभी तरह की इच्छा पूरी करता है।
- संज्ञा
- [सं. चिंतामणि]
- चिंतामणि, चिंतामनि
- ब्रह्मः।
- संज्ञा
- [सं. चिंतामणि]
- चिंतामणि, चिंतामनि
- सरस्वती देवी का एक मंत्र।
- संज्ञा
- [सं. चिंतामणि]
- चिंति
- ध्यान करो, स्मरण करो।
- चिंति चरन मृदु - चंद - नख, चलत चिन्ह चहुँ दिसि सोभा - १ - ६६।
- क्रि. स.
- [हिं. चिंतना]
- चिंति
- एक देश या उसका निवासी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिंतित
- जिसे बहुत चिंता हो।
- वि.
- [सं.]
- चिंत्य
- विचार या चिंता के योग्य।
- वि.
- [सं.]
- चिंदी
- टुकड़ा।
- संज्ञा
- [देश.]
- चिंदी
-
- हिंदी की चिंदी निकालना :- बहुत छोटी छोटी भूलें दिखाना।
- मु.
- चिउड़ा, चिउरा
- चिउड़ा, दूरी।
- श्रीफ त मधुर, चिरौंजी अनी। सफरी चिउरा, अरुन खुबानी १० - २११।
- संज्ञा
- [सं. चिविट, प्रा. चित्रिड, चिउड़ा]
- चिउड़ा, चिउरा
- महुए की जाति का एक जंगली पेड़।
- संज्ञा
- [देश, ]
- चिउड़ा, चिउरा
- एक रेशमी कपड़ा।
- संज्ञा
- [देश, ]
- चिउड़ा, चिउरा
- चिकनी सुपारी।
- संज्ञा
- [सं. चिपिट, प्रा. चिवड, चिविल]
- चिक
- बाँस आदि की तीलियों का परदा।
- संज्ञा
- [तु. चिक]
- चिक
- कसाई।
- संज्ञा
- [तु. चिक]
- चिक
- कमर की चिलक या झटका |
- संज्ञा
- [देश.]
- चिकट, चिकटा
- मैला कुचैला, गंदा।
- वि.
- [सं. चिक्लिद]
- चिकट, चिकटा
- लसीला या चिपचिपा।
- वि.
- [सं. चिक्लिद]
- चिकट, चिकटा
- एक रेशमी कपड़ा।
- संज्ञा
- [देश.]
- चिकटना
- मैल से चिपकना।
- क्रि. अ
- [हिं. चिकट]
- चिकन
- एक महीन कपड़ा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चिकना
- जो खुरदुरा या ऊबड़ खाबड़ न हो।
- वि.
- [सं. चिक्कण]
- चिकना
- जिस पर हाथ-पैर फिसले।
- वि.
- चिकना
-
- चिकना देखकर फिसल पड़ना :- ऊपरी धन, रूप की चमक-दमक पर लुभा जाना।
- मु.
- चिकना
- जो रूख-सूखा न हो, स्निग्ध।
- वि.
- चिकनावट, चिकनाहट
- चिकनाई, चिकनापन।
- संज्ञा
- [हिं. चिकना+ वट, हट (प्रत्य.)]
- चिकनियाँ, चिकनिया
- बनाठना, छैल छबीला, शौकीन।
- (क) सब हीं ब्रज के लोग चिकनियाँ मेरे भाएँ घास।
(ख) बहुरि गोकु काहे को आवत भावत नवजोबनियाँ। सूरदास प्रभु वाके बस परि अब हरि भये चिकनियाँ - ३८७।
- वि.
- [हिं. चिकना]
- चिकनी
- साफ सुथरी।
- वि.
- [हिं चिकना]
- चिकनी
- बनी उनी।
- वि.
- [हिं चिकना]
- चिकनी
- जिस पर हाथ-पैर फिसले।
- वि.
- [हिं चिकना]
- चिकनी
- जिसमें तेल लगा हो।
- वि.
- [हिं चिकना]
- चिकरना
- जोर से चीखना, चिल्लाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चीत्कार प्रा. चीक्कार, चिक्कार]
- चिकवा
- एक रेशमी, कपड़ा।
- संज्ञा
- [देश.]
- चिकार
- चीत्कार, चिल्लाहट।
- (क) मरत असुर चिकार पारयौ मारयौ नंदकुमार।
(ख) गर्जनि पणव निसान संख हय गय हींस चिकार - १० उ. २।
- संज्ञा
- [सं. चीत्कार, प्रा. चिक्कार]
- चिकारना
- चिल्लाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चिकार]
- चिकना
-
- चिकना घड़ा :- निर्लज या बेहया।
चिकने घड़े पर पानी पड़ना (न ठहरना) :- अच्छी बात या उपदेश का कुछ असर न होना।
- मु.
- चिकना
- साफ सुथरा, सजा सजाया।
- वि.
- चिकना
-
- चिकना चुपड़ा :- बना-ठना, छैला।
चुपड़ी (बातें) :- बनावटी स्नेह की मीठी मीठी बातें जो फुसलाने या धोखा देने के लिए की जाय। चिकना मुँह :- (१) सजा-सजाया। (२) धन या पदवाला। चिकने मुँह का ठग :- वह धूर्त जो देखने में भला जान पड़े। चिकने मुँह को चूमना :- धनी-मानी का आदर करना।
- मु.
- चिकना
- चिकनी चुपड़ी या मीठी-मीठी बातें कहने वाला।
- वि.
- चिकना
- स्नेही, प्रेमी।
- वि.
- चिकना
- तेल घी आदि चिकने पदार्थ।
- संज्ञा
- चिकनाई
- चिकनाहट।
- चित महिं और कपट अंतर गति ज्यौं फज, नीर खोर चिकनाई - ३३१०।
- संज्ञा
- [हिं. चिकना+ई (प्रत्य.)]
- चिकनाई
- सरसता।
- संज्ञा
- [हिं. चिकना+ई (प्रत्य.)]
- चिकनाई
- घी तेल जैसे चिकने पदार्थ।
- संज्ञा
- [हिं. चिकना+ई (प्रत्य.)]
- चिकनाना
- चिकना करना।
- क्रि. स
- [हिं. चिकना + ना (प्रत्य.)]
- चिकनाना
- तेल आदि लगाना।
- क्रि. स
- [हिं. चिकना + ना (प्रत्य.)]
- चिकनाना
- साफ-सुथरा करना, सँवारना।
- क्रि. स
- [हिं. चिकना + ना (प्रत्य.)]
- चिकनाना
- चिकना होना।
- क्रि. अ.
- चिकनाना
- तेल आदि लगा होना।
- क्रि. अ.
- चिकनाना
- मोटा-ताजा होना।
- क्रि. अ.
- चिकनाना
- चिकना होना।
- क्रि. अ.
- चिकनाना
- तेल आदि लगा होना।
- क्रि. अ.
- चिकनाना
- मोटा-ताजा होना।
- क्रि. अ.
- चिकनाना
- स्नेह पूर्ण या प्रेमयुक्त होना।
- क्रि. अ.
- चिकनापन
- चिकनाई, चिकनाहट।
- संज्ञा
- [हिं चिकना + पन (प्रत्य.)]
- चिकारा
- सारंगी की तरह का एक बाजा।
- संज्ञा
- [हिं. चिकार]
- चिकारा
- एक जंगली जानवर।
- संज्ञा
- [हिं. चिकार]
- चिकित्सक
- रोग दूर करने का उपाय करनेवाला, वैद्य।
- संज्ञा
- [सं]
- चिकित्सा
- रोग दूर करने की युक्ति या क्रिया।
- संज्ञा
- [सं]
- चिकित्सा
- वैद्य का व्यवसाय या कार्य।
- संज्ञा
- [सं]
- चिकित्सालय
- वैद्य के बैठने का स्थान, दवाखाना, अस्पताल।
- संज्ञा
- [सं चिकित्सा + आलय]
- चिकिल
- कीचड़, पंक।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिकुटी
- चुटकी।
- संज्ञा
- [हिं. चिकोटी]
- चिकुर, चिकूर
- सिर के बाल, केश।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिकुर, चिकूर
- पर्वत।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिखुरन
- खेत जोतने पर निकाली हुई घास।
- संज्ञा
- चिखुरना
- खेत जोतते समय घास निकालना।
- क्रि. स.
- चिखुराई
- चिखुरने की क्रिया या मजदूरी।
- संज्ञा
- चिखुरी
- गिलहरी नायक जंतु।
- संज्ञा
- चिखौनी
- चखने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चीखना]
- चिखौनी
- स्वाद लेने की वस्तु।
- संज्ञा
- [हिं. चीखना]
- चिचान
- बाज पक्षी।
- संज्ञा
- [सं. सचान]
- चिचाना, चिचावना
- चिल्लाना।
- क्रि. अ.
- [अनु. चीची]
- चिचिंगा, चिचिंड, चिबिंडा, चिविंडी, चिचेंडा
- एक बेज जिसके फज्ञों की तर कारी होती है।
- वनकौरा पिंडीके चिचिंडी। सीप पिंडारू कोमल भिंडी - ३६६।
- संज्ञा
- [से, चिचिंड]
- चिचियाना
- चिल्लाना।
- क्रि. अ.
- [अनु. चींची]
- चिकुर, चिकूर
- रेंगने वाले जंतु, सरीसृप।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिकुर, चिकूर
- चंचल, पल।
- वि.
- चिकोटी
- चुटकी।
- संज्ञा
- [हिं. चुटकी]
- चिक्कट
- मैल, कीट।
- संज्ञा
- [हिं. चिकना + काट]
- चिक्कण, विक्कन
- चिकना।
- वि.
- [सं.]
- चिक्कण, विक्कन
- सुपारी।
- संज्ञा
- चिक्कण, विक्कन
- हड़, हरें।
- संज्ञा
- चिक्करना
- चिल्लाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चीत्कार]
- चिक्कार
- चीत्कार।
- संज्ञा
- [हिं. चिकार]
- चिखना
- चटपटी चाट।
- संज्ञा
- [हिं. चखना]
- गुदरैन
- पढ़ा हुआ पाठ सुनाना।
- संज्ञा
- [हिं. गुदरना]
- गुदरैन
- परीक्षा, इम्तहान।
- संज्ञा
- [हिं. गुदरना]
- गुदाना
- गोदने का काम कराना या गोदने की प्रेरणा देना।
- क्रि. स.
- [हिं. गोदना (प्रे.)]
- गुदार
- गूदेदार, मांसल।
- वि.
- [हिं. गूदा]
- गुदारना
- ध्यान न देना।
- क्रि. स.
- [हिं. गुदरना]
- गुदारना
- सेवा में उपस्थित करना।
- क्रि. स.
- [हिं. गुदरना]
- गुदारना
- बिताना, गुजारना।
- क्रि. स.
- [हिं. गुदरना]
- गुदारा
- नाव पर नदी पार करना।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुज़ारा]
- गुदारा
- नाव की उतराई।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुज़ारा]
- गुदारा
- निर्वाह
- संज्ञा
- [फ़ा. गुज़ारा]
- गृही
- यात्री।
- संज्ञा
- [सं. गृहिन्]
- गृहीत
- स्वीकृत।
- वि.
- [सं.]
- गृहीत
- पकड़ा हुआ।
- वि.
- [सं.]
- गृहय
- गृह-गृहस्थी-संबंधी।
- वि.
- [सं.]
- गेंगटा
- केकड़ा।
- संज्ञा
- [सं. कर्कट]
- गेड़
- ऊख का ऊपरी भाग।
- संज्ञा
- [सं. कांड]
- गेड़
- अन्न रखने का घेरा, घेरा।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठ]
- गेड़ना
- हद बाँधना, पतली . दीवार से घेरना।
- क्रि. स.
- [हिं. गेड़]
- गेड़ना
- अन्न रखने का घेरा बनाना।
- क्रि. स.
- [हिं. गेड़]
- गेंडली
- कुंडल, घेरा, फेंटा।
- संज्ञा
- [सं. कुंडली]
- चिट्टा
-
संज्ञा
- झूठा बढ़ावा देना।
- चिट्ठा
- जमा-खर्च या लेनदेन की बही, खाता या लेखा।
- संज्ञा
- [हिं. चिट]
- चिट्ठा
- लाभ-हानि का लेखा।
- संज्ञा
- [हिं. चिट]
- चिट्ठा
- सूची।
- संज्ञा
- [हिं. चिट]
- चिट्ठा
- प्रति सप्ताह था मास की मजदूरी में बटनेवाला धन।
- संज्ञा
- [हिं. चिट]
- चिट्ठा
- ब्योरा।
- संज्ञा
- [हिं. चिट]
- चिट्ठा
-
- कच्चा चिट्ठा :- पूरा पूरा और ठीक ठीक भेद।
कच्चा चिट्ठा खोलना :- भेद को ब्योरे के साथ प्रकट करना।
- मु.
- चिट्ठी
- पत्र, खत।
- संज्ञा
- [हिं. चिट]
- चिट्ठी
- लिखा हुआ छोटा पुरजा।
- संज्ञा
- [हिं. चिट]
- चिट्ठी
- आज्ञा पत्र
- संज्ञा
- [हिं. चिट]
- चिचियाहट
- चिल्लाहटे।
- संज्ञा
- [हिं. चिचियाना]
- चिचोड़ना, चिचोरना
- खूब दबाकर चूसना।
- क्रि. स
- [हिं. चिचोड़ना]
- चिजारा
- राज, कारीगर, मेमार।
- संज्ञा
- चिट
- कपड़े-कागज आदि का छोटा टुकड़ा।
- संज्ञा
- [हिं.चीड़ना या सं.चीर]
- चिट
- पुरजा, रुक्का।
- संज्ञा
- [हिं.चीड़ना या सं.चीर]
- चिटकना
- सूखने पर जगह जगह फटना या दरकना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चिटकना
- चिढ़ना, चिड़चिड़ाना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चिटका
- चिता।
- संज्ञा
- [हिं. चितः]
- चिट्टा
- सफेद, धवल।
- वि.
- [सं. सिते, प्रा. चित्त]
- चिट्टा
- (चमचमाता हुआ) रुपया।
- संज्ञा
- चिट्ठी
- निमंत्रण पत्र।
- संज्ञा
- [हिं. चिट]
- चिट्ठीपत्री
- पत्र, खत।
- संज्ञा
- [हिं. चिट ठी+पत्री]
- चिट्ठीपत्री
- पत्र व्यवहार, खत-किताबत।
- संज्ञा
- [हिं. चिट ठी+पत्री]
- चिठि
- चिट्ठा।
- संज्ञा
- [हिं. चिट, चिट्ठा]
- चिठि
- हिसाब को कागज।
- संज्ञा
- [हिं. चिट, चिट्ठा]
- चिठि
- नाम की सूची।
- संज्ञा
- [हिं. चिट, चिट्ठा]
- चिड़चिड़ाहट
- चिढ़ने या चिड़चिड़ाने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. चिड़चिड़ाना+हट]
- चिड़वा
- चिउड़ा, चुरा।
- संज्ञा
- [सं. चिविट]
- चिड़ा
- नर गौरैया।
- संज्ञा
- [सं. चटक]
- चिड़िया
- पक्षी।
- संज्ञा
- [सं. चटक, हिं. चिड़ा]
- चिड़िया
-
- चिड़िया का दूध :- अप्राप्य वस्तु।
चिड़िया चोथन (नोचन) :- चारो तरफ का तकाजा या झंझट। चिड़िया फँसना :- किसी मालदार को अपने पक्ष में करना। सोने की चिड़िया :- (१) धनी असामी। (२) सुंदर या प्रिय पात्र।
- मु.
- चिड़िहार, चिड़िमार
- चिड़ियाँ पकड़नेवाला, बहेलिया।
- संज्ञा
- [हिं. चिड़िया + हार (प्रत्य.)=मारना]
- चिढ़
- कुढ़न, खीझ।
- संज्ञा
- [हिं. चिड़चिड़ाना]
- चिढ़
-
- चिढ़ निकालना (पकड़ना) :- कुढ़ाना, खिझाना, चिढ़ाने की बात पकड़ना।
- मु.
- चिढ़ना
- कुढ़ना, खीझना, झल्लाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चिड़चिड़ाना]
- चिढ़ना
- बुरा मानना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चिड़चिड़ाना]
- चिढ़ाना
- खिझाना, कुढ़ाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिढ़ना]
- चिढ़ाना
- खिझाने की लिए भद्दी नकल बनाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिढ़ना]
- चिढ़ाना
- अजित करने के लिए हँसी उड़ाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिढ़ना]
- चित्
- चेतना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्
- चित्तवृत्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- निश्चयवाचक
- बीननेवाला।
- संज्ञा
- निश्चयवाचक
- अग्नि
- संज्ञा
- निश्चयवाचक
- एक निश्चयवाचक प्रत्यय।
- प्रत्य.
- चित
- एकत्र।
- वि.
- [सं.]
- चित
- ढका हुआ।
- वि.
- [सं.]
- चित
- मन, जी, अंतःकरण।
- संज्ञा
- [सं. चित्त]
- चित
-
- चित उचटना :- जी न लगना।
चित करना :- इच्छा होना। चित कीन्हो :- इच्छा हुई। उ. - द्वादस बन अवलोक मधुपुरी तीरथ कौं चित कीन्हौ-सारा ८२७। चित चढ़ना :- ध्यान रहना, याद आना। चित चुराना :- मन हरना। चित चोरै :- मन हरता या मोहित करता है। उ. - रमकत झमकत जनकसुता सँग हाव - भाव चित चोरैसारा. ३१०। चितहिं चुरावति :- मन हरती है। उ. - नैन सैन दै चितहिं चुरावति यहै मंत्र टोना सिर डारि। चित देना :- ध्यान देना, मन लगना। चित दे :- ध्यान देकर। उ. - (क) चित दै सुनौ हमारी बात। (ख) बिनती सुनौ दीन की चित दै कैसे तुव गुन गावै - १ - ४२। चित धरना :- (१) मन लगाना। (२) मन में लाना। चित धार (सुनौ) :- ध्यान से (सुनो)। उ. - कहौं सो कथा सुनौ चित धार। चित न धरौ :- ध्यान मत दो, मन में न लाओ। उ. - हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ - १ - २२०। चित धरि राखे :- स्मरण रखे, ध्यान में रखे। उ. - जब वह बिप्र पढ़ावै कुछ कुछ सुन कै चित धरि राखै - सारा. ११०। चित पर चढ़ना :- (१) बार बार ध्यान में आना। (२) याद होना। चित बँटना :- ध्यान इधर - उधर होना। चित बँटाना :- ध्यान एक ओर न रहने देना। चित में बैठना :- जी में पैठ जाना, मन में दृढ़ होना। चित बैठयौ :- हृदय में (यह विचार) दृढ़ हो गया है। उ. - अब हमरे चित बैठ्यो यह पद होनी होउ सो होउ। चित में आना (होना, में होना) :- इच्छा होना, जो चाहना। चित में आई :- इच्छा हुई, जी चाहा। उ. - खेलत खेलत चित में आई सृष्टि करन विस्तार - सारा, ५। चित होत :- ईच्छा होती है। उ. - यह चित होत जाउँ मैं अबही यहाँ नहीं मन लागत। चित न रहना :- जी उचाट होना। चित न रहै :- जी घबराता है, मन नहीं लगता। उ. - तब ही तैं ब्याकुल भइ डोलति चित न रहै कितनों समझाऊँ - १६५४। चित लगना :- (१) जी न घबराना। (२) ध्यान बना रहना। चित लाग्यौ :- ध्यान बना रहता है। उ. - (क) गुरु दच्छिना देन जब लागे गुरुपत्नीं यह मौंग्यौ। बालक बहेउ सिंधु में हमरो सो नित प्रति चित लाग्यौ - सारा, ५३६। (ख) उफनत तक्र चहूँ दिति चितवति चित लाग्यौ नंदलालहिं - ११८१। चित लेना :- जी चाहना। चित से उतरना :- (१) भूल जाना। (२) प्रेम या आदर का पात्र न रहना। चित से नहिं उतरत :- ध्यान नहीं भूलता, याद बनी रहती है। उ. - सूर स्याम चित तें नहिं उतरत वह बन कुज थली। चित से न टलना :- न भूलना। चित तें टरत नहीं ध्यान से नहीं हटती, कभी भूलती नहीं, बराबर याद आती है। उ. - सूर चित तैं टरत नाहीं राधिका की प्रीति।
- मु.
- चित
- दृष्टि, नजर।
- संज्ञा
- [हिं. चितवन]
- चित
- पीठ के बल गिरा या पडा हुआ।
- पीठ के बल गिरा या पड़ा हुआ।
- वि.
- [सं. चित = ढेर किया हुआ]
- चित
-
- चित करना :- कुश्ती में हराना।
चारो खाने चित :- (१). हाथ पैर फैलाये पीठ के बल गिरा हुआ। (२) हक्का - बक्का। चित् होना :- बेहोश होना।
- मु.
- चित
- पीठ के बल।
- क्रि. वि.
- चितई
- देखा, ताका, निहारी।
- देखी जाइ मथति दधि ठाढ़ी, आपु लगे खेलन द्वारे पर। फिरि चितई, हरि दृष्टि गए परि, बोलि लए हरुऐ सूनैं घर - १० - ३०१।
- क्रि. स.
- [सं. चेतना, हिं. चितवना]
- चितउन
- दृष्टि।
- संज्ञा
- [सं. चितवन]
- चितउर
- चित्तौर नगर।
- संज्ञा
- [हि. चित्तौर]
- चितए
- देखे, देखने लगे।
- (कसू' रघुराइ चिते हनुमान दिसि, आइ तन तुरत ही सीस नाया - ९ - १०६।
(ख) देखत नारि चित्र सी ढाढ़ी चितए कुँ अर कन्हाई - २५३३।
- क्रि. स.
- [हिं. तिवना]
- चितकबरा
- दाग-धबीला।
- वि.
- [सं. चित्र+कर्बुर]
- चितकूट
- एक प्रसिद्ध पर्वत।
- संज्ञा
- [से, चित्रकूट]
- चितगुपति
- एक यमराज जो पाप-पुण्य का लेखा रखते हैं।
- संज्ञा
- [सं. चित्रगुप्त]
- चितचिता, चितचेता
- मनचाहा, इच्छित, अभिलाषत।
- वि.
- [हिं. चित्त + चौता]
- चितचोर
- मन-भावना, प्रिय पात्र।
- सूरदास चातक भई गोपी कहाँ गए चितचोर - ३०८४।
- संज्ञा
- [हिं. चित + चोर]
- चितभंग
- ध्यान न लगना, उदासी।
- (क) कमल खंजन मीन मधुकर होत है चितभंग।
(ख) मेरौ मन हरि चितवन अरुझानौ। -। सूरदास चितभंग होत क्यों जो जिहिं रूप समानौ - २२८५।
- संज्ञा
- [सं. चित+भगं]
- चितभंग
- होश ठिकाने न रहना, भौचक्कापन, मतिभ्रम।
- संज्ञा
- [सं. चित+भगं]
- चितयो
- देखा, दृष्टि डाली।
- क्रि. स.
- [चेतना]
- चितरन
- चित्रित करना।
- संज्ञा
- [हिं. चितरना]
- चितरनहार
- चित्रण करनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चितरना + हार (प्रत्य.)]
- चितरना
- चित्रित करना।
- क्रि. स.
- [सं. चित्र]
- चितला
- चितकबरा, रंग-बिरंगी।
- वि.
- [सं. चित्रल]
- चितवत
- देखता (है), अवलोक कर, देखते देखते।
- (क) सिर पर मीच, नीच नहिं चितवत, आयु घटति ज्यौं अंजुलि पानी१ - १४९।
(ख) ज्यों चितवत ससि ओर चकोरी, देखत ही सुख मान - १ - १६९।
- क्रि. स.
- [हिं. चेतना]
- चितवति
- देखती है, ताकती है।
- कंधनि बाँह धरे चितवति - २५३५।
- क्रि. स.
- [हिं. चितवना]
- चिता
- श्मशान, मरघट।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिताना
- सचेत या सावधान करना, होशियार करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चेतना]
- चिताना
- याद या सुध दिलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चेतना]
- चिताना
- ज्ञानोपदेश करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चेतना]
- चिताना
- (आग) सुलगाना या जलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चेतना]
- चिताभूमि
- श्मशान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चितारी
- चित्र बनानेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चितेरा]
- चितावनी
- सतर्क, सावधान, या होशियार करने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं चिताना]
- चिति
- चिता।
- संज्ञा
- [सं .]
- चिति
- समूह।
- संज्ञा
- [सं .]
- चितवन
- ताकने का भाव या ढंग, दृष्टि, कटाक्ष।
- (क) चितवन रोके हूँ ने रही - १२७०।
(ख) मेरौ मन हरि चितवन अरुझानौ - २२८५।
- संज्ञा
- [हिं. चेतना]
- चितवन
-
- चितवन चढ़ाना :- क्रोध से घूरना।
- मु.
- चितवन
- देखना, निहारना।
- क्रि. स.
- चितवन
- चितवन देत-देखने देना, निगाह डालने देना।
- नाहिं चितवन देत सुत - तिय नाम नौका ओर - १ - ९९।
- प्र.
- चितवन
- देखना, ताकना।
- क्रि. स.
- [हिं. चेतना]
- चितवनि, चितवनियाँ
- देखने का ढंग, दृष्टि, कटाक्ष।
- (क) अंजन रंजित नैन चितवनि चित चोरे, मुख सोभा पर वा अमित असम - सर - १० - १५१।
(ख) बाल सुभाव बिलोल बिलोचन, चोरतिचितहिं चारु चितवनियाँ - १० - १०६।
- संज्ञा
- [हिं. चितवन]
- चितवाना
- दिखाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चितवना का प्रे.]
- चितवै
- देखता है, दृष्टि डालता है।
- चितवै कहा पानि - पल्लव पुट, प्रान प्रहारौं तेरो - ९ - १३२।
- क्रि. स.
- [हिं. चितवना]
- चितवौं
- देखता हूँ, ताकता हूँ, अवलोकता हूँ।
- हौं पतित अपराध। पूरन, भरयौ कर्म - विकार। काम - क्रोध अरु लोभ चितवौं, नाथ तुमहिं विसार - १ - १२६।
- क्रि. स.
- [हिं. चेतना, चितवन]
- चिता
- शव-दाह के लिए बिछाथी गयी लकड़ियों को ढेर।
- (१) शव - दाह के लिए बिछायी गयी लकड़ियों को ढेर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिति
- चुनने की क्रिया चुनाई।
- संज्ञा
- [सं .]
- चिति
- ईंटों की जुड़ाई।
- संज्ञा
- [सं .]
- चिनिका
- करधनी, मेखला।
- संज्ञा
- [सं .]
- चिती
- वह कौड़ी जिसकी पीठ चिपटी होती है। और जो फेकने पर चित अधिक पड़ती है।
- अंतर्यामी वहौ न जानत जो मो उरहिं बिती। ज्यों जुआरि रस बींधि हारि गथ सोचत पटकि चिती - १० उ. - २०३।
- संज्ञा
- [हिं. चित्ती या चित = पीठ के बल पड़ा हुआ]
- चितु
- मन, जी. दिल।
- संज्ञा
- [सं. चित्त]
- चितेरा
- चित्र बनानेवाला।
- संज्ञा
- [सं चित्रकार]
- चितेरिन, चितेरी
- चित्र बनानेवाली।
- संज्ञा
- [हिं. चितेरा]
- चितेरिन, चितेरी
- चित्रकार की स्त्री।
- संज्ञा
- [हिं. चितेरा]
- चितेरे, चितरै, चतेला
- चित्रकार।
- (क), राधा ये ढंग हैं री तेरे, वैस हाल मथत दधि कीन्हे, हरि मनु लिखे चितेरे - ७१८।
(ख) चकित भई देखें ढिग ठाढ़ी। मनौ चितेरौं लिखि लिखि काढ़ी - ३९१।
- संज्ञा
- [हिं चितेरा]
- चितै
- देखकर, दृष्टि डाल कर।
- (क) नैंकु वितै, मुमक्याइ कै, सबकौ मन हरि लीन्हो (हो) - १ - ४४।
(ख) चितै रघुनाथ बदन की ओर - ९ - २३। (ग) अति कोमल। तन चितै स्याम कौ बार - बार पछितात - १० - ८१।
- क्रि. स.
- [हिं. चेतना, चितवना]
- गेंडा
- ईख का ऊपरी भाग, अगौरा।
- संज्ञा
- [मं. कांड]
- गेंडा
- गन्ना, ईखे।
- संज्ञा
- [मं. कांड]
- गेंडु, गेंडुक
- गेंद, कंदुक।
- संज्ञा
- [सं.]
- गेंडुआ
- तकिया।
- संज्ञा
- [सं. गंडक]
- गेंडुआ
- गेंद।
- संज्ञा
- [सं. गंडक]
- गेंडुरी, गेंडुली
- रस्सी का मेंडरा, इँडरी, बिड़वा।
- काहू की छीनत हौ गेडुरी काहू की फोरत हो गगरी - ८५३।
- संज्ञा
- [सं. कुंडली]
- गेंडुरी, गेंडुली
- फेंटा, -कुंडली, घेरा।
- संज्ञा
- [सं. कुंडली]
- गेंडुरी, गेंडुली
- साँप की कुंडलाकार बैठक।
- संज्ञा
- [सं. कुंडली]
- गेंद
- रबर, चमड़े आदि का छोटा-गोला जिससे लड़के खेलते हैं, कंदुक।
- लै कर गेंद गये हैं खेलन लरिकन संग कन्हाई - सा. १०२।
- संज्ञा
- [सं. कंदुक]
- गेंदई
- गेंदे के फूल की तरह पीला।
- वि.
- [हिं. गेंदा]
- चित्रज, चित्रभू
- कामदेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्तरसारी
- चित्रसाला।
- संज्ञा
- [हिं. चित्रशाला]
- चित्तवान
- उदार चित्तवाला।
- वि.
- [सं.]
- चित्त विक्षेप
- चित्त की चंचलता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्तविद
- चित्त की बात जाननेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्तवृत्ति
- चित्त की गति या अवस्था।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्ति
- ख्याति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्ति
- कर्म।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्ती
- छोटा दाग या धब्बा।
- संज्ञा
- [सं. चित्र, प्रा. चित्त]
- चित्ती
- लाल की मादा।
- संज्ञा
- [सं. चित्र, प्रा. चित्त]
- चितै
- सोच-समझकर, विचार करके।
- चिंता मानि, चितै अंतरगति, नाग - लोक कौं धाए - १ - २९।
- क्रि. स.
- [हिं. चेतना, चितवना]
- चितै
- ध्यान या स्मरण करके।
- तब से कर तप को निकसे चितै कमलदल नैन - सारा. ६६।
- क्रि. स.
- [हिं. चेतना, चितवना]
- चितैबो
- देखना, तकना, निहारना, दृष्टि मिलाना।
- चितैबौ छाँड़ि दै री राधा। हिल - मिल खेलि स्यामसुंदर सौं, करति काम कौ बाधा - ८२०।
- संज्ञा
- [हिं. चितवना]
- चितौन
- दृष्टि, कटाक्ष।
- संज्ञा
- [हिं. चितवन]
- चितौना
- देखना, ताकना।
- क्रि. स.
- [हिं. वितवना]
- चितौनि
- दृष्टि, कटाक्ष।
- संज्ञा
- [हिं. चितवन]
- चितौनी
- सावधान करने या चिताने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चेतावनी]
- चित्कार
- चिल्लाहट।
- संज्ञा
- [हिं. चीत्कार]
- चित
- अंत:करण का एक भेद या वृत्ति।
वह मानसिक शक्ति जिससे धारणा, भावना आदि की जाती है; जी, मन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित
-
- चित्त उचटना :- जी न लगना।
चित करना :- जी चाहना। चित्त चढ़ना (पर चढ़ना) :- (१) मन में बसना। (२) याद पड़ना। चित्त चुराना :- मन मोहना। चित्त चुराइ :- मुग्ध करके, मोहित करके, आकर्षित करके। उ. - हरे खल - बल दनुजमानव सुररान सीस चढ़ाई। रचि - बिरुचि - मुख - भौंहछबि, लै चलति चित्त बुराइ - १:५६। चित्त चोराए :- मन हर लिया। उ: - सूर नगर नर नारि के मन चित्त चोराए - २५६५। चित्त देना :- गौर करना, ध्यान देना। चित्त धरना :- (१) ध्यान देना। (२) मन में लाना। चित्त बँटना :- ध्यान इधर-उधर होना। चित्त बँटाना :- ध्यान इधर-उधर करना। चित्त में धँसना (जमना, बैठना) :- मन में दृढ़ होना। चित्त होना (में होना) :- जी चाहना। चित्त लगना :- (१) जी न ऊबना। (२) प्रेम होना। चित्त से उतरना :- (१) भूल जाना। (२) प्रेम या आदर का पात्र न रहना। चित्त से न टलना :- बराबर ध्यान बना रहना।
- मु.
- चित्रक
- चीते का पेड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रक
- चीता, बाघ।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रक
- बलवान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रक
- चित्रकार।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रकर
- चित्र बनानेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रकर्मी
- चित्र बनानेवाला।
- संज्ञा
- [सं. चित्रकर्मिन्]
- चित्रकर्मी
- विचित्र या अद्भुत कार्य करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं. चित्रकर्मिन्]
- चित्रकला
- चित्र बनाने की विद्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रकाय
- चीता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रकार
- चित्र बनानेवाला, चितेरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्ती
- चित्तीदार साँप, चीतल
- संज्ञा
- [सं. चित्र, प्रा. चित्त]
- चित्ती
- कौड़ी जिसकी पीठ चिपटी हो, टैयाँ।
- संज्ञा
- [हिं. चित = पीठ के बल पड़ा हुआ]
- चित्तौर
- एक प्राचीन नगर जो उदयपुरी महाराणाओं की राजधानी थी।
- संज्ञा
- [सं. चित्रकूर, प्रा. चित्तऊड़, चितउड़]
- चित्य
- चुनने लायक।
- वि.
- [सं.]
- चित्य
- चिता-संबंधी।
- वि.
- [सं.]
- चित्य
- चिता।
- संज्ञा
- चित्य
- अग्नि।
- संज्ञा
- चित्र
- चंदन अथवा अन्य किसी सुगंधित पदार्थ या भस्म से माथे, छाती या बाहु आदि अंगों पर बनाये हुए चिह्न।
- गुहि गुंजा घसि बनमुद्रा, अंगनि चित्र ठए - १० - २४।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्र
- विविध रंगों के मेल से बनायी हुई आकृतियाँ, तसवीर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्र
- काव्य का एक अंग जिसमें व्यंग्य की प्रधानता रहती है।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्र
- एक अलंकार जिसमें पदों के अक्षर इस क्रम से लिखे जाते हैं कि रथ, कमल अदि के आकार बन जायँ।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्र
- एक वर्णवृत्त।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्र
- आकाश।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्र
- चित्रगुप्त।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्र
- अद्भुत, विचित्र।
- वि.
- चित्र
- चितकबरा, रंगबिरंगा।
- वि.
- चित्र
- अनेक प्रकार का।
- वि.
- चित्र
- चित्र के समान ठीक, दुरुस्त।
- वि.
- [सं.]
- चित्रकंठ
- कबूतर, परेवा, कपोत।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रक
- तिलक।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रना
- चित्रित करना, चित्र बनाना।
- क्रि. स.
- [सं. चित्र+ना (प्रत्य.)]
- चित्रना
- रंग भरना।
- क्रि. स.
- [सं. चित्र+ना (प्रत्य.)]
- चित्रपट
- चित्र बनाने का कपड़ा, कागज आदि आधार।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रपट
- वह वस्त्र जिस पर चित्र बने हों।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रपटी
- छोटा चित्रपट।
- संज्ञा
- [सं. चित्रपट]
- चित्रपत्र
- आँख की पुतली का पिछला भाग जिसपर प्रकाश की किरणें पड़ने पर पदाथों के रूप दिखायी देते हैं।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रपत्र
- रंग-बिरंगे या विचित्र पंखवाला।
- वि.
- चित्रपदा
- एक छंद।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रपदा
- मैना, सारिका।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रपदा
- छुईमुई की लता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रपिच्छक
- मयूर, मोर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रपुंख
- बाण, तीर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रमति
- अद्भुत बुद्धिवाला।
- वि.
- [सं. चित्र+मति]
- चित्ररथ
- सूर्य।
- संज्ञा
- [सं .]
- चित्ररथ
- एक गंधर्व।
- संज्ञा
- [सं .]
- चित्ररेखा
- वाणासुर की कन्या ऊषा की सहेली जो चित्रकला में बहुत निपुण थी।
- कुँअर तन स्याम मानो काम है दूसरो सपन में देखि ऊषा लोभाई। चित्ररेखा सकल जगत के नपन की छिन में मुरति तब लिखि देखाई - १० - उ. ३४।
- संज्ञा
- [सं .]
- चित्रल
- चितकबरा, रंगबिरंगा।
- वि.
- [सं .]
- चित्रलिखन
- सुंदर लिखावट।
- संज्ञा
- [सं .]
- चित्रलिखन
- चित्र बनाने का कार्य।
- संज्ञा
- [सं .]
- चित्रलेखनी
- चित्र बनाने की कूची।
- संज्ञा
- [सं .]
- चित्रकारि, चित्रकारी
- चित्र, चित्र बनाने की कला।
- ऐसे कहैं नर नारि बिना भीति चित्रकारि काहे को देखें मैं कान्ह कहा कहौ सहिए - १२७३।
- संज्ञा
- [हिं. चित्रकार+ई (प्रत्य.)]
- चित्रकारि, चित्रकारी
- चित्र बनाने का व्यवसाय।
- संज्ञा
- [हिं. चित्रकार+ई (प्रत्य.)]
- चित्रकाव्य
- काव्य का एक ढंग जिसमें अक्षरों को ऐसे क्रम से रखते हैं कि कमल, रथ आदि के चित्र बन जायें।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रकूट
- बाँदा जिले का एक पर्वत जहाँ वनवास-काल में राम-सीता ने बहुत समय तक वास किया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रकूट
- हिमालय की एक श्रृंग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रकेतु
- एक राजा जिसके पुत्र को उसकी छोटी रानियों ने जहर देकर मार डाला और पुत्रशोक से जिसे दुखी देख नारद ने मंत्रोपदेश दिया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रकेतु
- वइ जो चित्रित पताका लिये हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रकेतु
- लक्ष्मण का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रगुप्त
- चौदह यमराजों में एक जो प्राणियों के पाप-पुण्य का लेखा रखते हैं।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रण
- चित्र या दृश्य अंकित करना, चित्रित करने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रगद
- सत्यवती और शांतनु का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रगद
- एक गंधर्व।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रांगदा
- चित्रवाहन की कन्या जो अर्जुन को ब्याही थी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रांगदा
- रावण की एक पत्नी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रा
- नक्षत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रा
- खीरा ककड़ी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रा
- एक नदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रा
- एक अप्सरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रा
- एक रागिनी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रा
- एक वर्णवृत्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रशाला, चित्रसाला
- चित्रों के संग्रह का स्थान।
- संज्ञा
- [सं. चित्र+शाला]
- चित्रशाला, चित्रसाला
- चित्रकला सिखाने का स्थान।
- संज्ञा
- [सं. चित्र+शाला]
- चित्रसारी
- वह स्थान जहाँ चित्रों का संग्रह हो अथवा दीवालों पर चित्र बने हों।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रसारी
- सजा हुआ भवन, विलास भवन, रंगमहत्व।
- कबहुँ क रत्न महल चित्रसारी सरद निसा उजिंयारी। बैठे जनकसुता सँग बिलसत मधर केलि मनु हारी - सारा, ३१२।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रसेन
- धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रसेन
- एक गंधर्व।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रसेन
- परीक्षित का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रस्थ
- चित्र में अंकित किया हुआ।
- वि.
- [सं.]
- चित्रस्थ
- चित्र में अंकित व्यक्ति या पात्र के समान।
- वि.
- [सं.]
- चित्रांग
- जिसके अंग पर चित्तियाँ हों।
- संज्ञा
- [सं.]
- गेंदई
- गेंदे के फूल की तरह पीला रंग।
- संज्ञा
- गेंदवा
- तकिया।
- संज्ञा
- [सं. गेंडुक]
- गेंदा
- एक पौधा जिसमें पीले फूल लगते हैं।
- संज्ञा
- [हिं. गेंद]
- गेंदा
- एक गहना।
- संज्ञा
- [हिं. गेंद]
- गेंदुआ
- तकिया।
- संज्ञा
- [सं. गेंदुक]
- गेंदुआ
- गेंद।
- संज्ञा
- [सं. गेंदुक]
- गेंदुकि
- गेंद, कंदुक।
- (क) कर राजति गेंदुकि नौलासी - २४४१।
(ख) फूलन के गेंदुकि नवला सजि कनक लकुटिया हाथ - २५०२।
- संज्ञा
- [सं. कंदुक]
- गेंदुवा
- गोल तकिया।
- संज्ञा
- [सं. गेंडुक]
- गे
- गये।
- (क) तैसेहिं सूर बहुत उपदेसैं सुनि सुनि गे कै बार - १ - ८४।
(ख) बाचर खचर हार गे बनचर - सा, ११५।
- क्रि. अ. बहु.
- [हिं. गया]
- गेय
- गाने के योग्य।
- वि.
- [सं.]
- चित्रलेखा
- एक वर्णवृत्त।
- संज्ञा
- [सं .]
- चित्रलेखा
- बाणासुर की कन्या ऊषा की सखी।
- संज्ञा
- [सं .]
- चित्रलेखा
- एक अप्सरा।
- संज्ञा
- [सं .]
- चित्रलेखा
- चित्र बनाने की कैंची।
- संज्ञा
- [सं .]
- चित्रविचित्र
- रंगबिरंगा।
- वि.
- [सं .]
- चित्रविचित्र
- बेल बूटे या नक्काशीदार।
- वि.
- [सं .]
- चित्रविद्या
- चित्र बनाने की कला।
- संज्ञा
- [सं .]
- चित्रशाला, चित्रसाला
- चित्र बनने बिकने का स्थान।
- संज्ञा
- [सं. चित्र+शाला]
- चित्रशाला, चित्रसाला
- चित्रों के संग्रह का स्थान।
- संज्ञा
- [सं. चित्र+शाला]
- चित्रशाला, चित्रसाला
- चित्र बनने बिकने का स्थान।
- संज्ञा
- [सं. चित्र+शाला]
- चित्रा
- एक बाजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्राक्ष
- विचित्र या सुंदर नेत्रवाला। |
- वि.
- [सं.]
- चित्राधार
- चित्र-संग्रह। चित्रपट।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रित
- चित्रयुक्त, जिस पर चित्र बने हों।
- चित्रित बाँह, पहुँचिया पहुँचे, साथ मुरलिया बाजे - ४५१।
- वि.
- [सं. चित्र]
- चित्रित
- चित्र द्वारा दिखाया हुआ।
- वि.
- [सं. चित्र]
- चित्रित
- सांगोपांग वर्णन से युक्त।
- वि.
- [सं. चित्र]
- चित्रित
- जिसपर चित्तियाँ पड़ी हों।
- वि.
- [सं. चित्र]
- चित्रे
- चित्र बनाये, चित्रित किये।
- बेनी लसति क छबि ऐसी महलन चित्रे उर्ग - २५६२।
- क्रि. स.
- [सं. चित्र]
- चित्रश
- चित्रा नक्षत्र का पति र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चित्रोक्ति
- वह बात जो अलंकृत भाषा में कही जाय।
- संज्ञा
- [सं. चित्र + उक्ति]
- चित्रोत्तर
- एक अलंकार जिसमें प्रश्न में ही उत्तर हो अथवा कई प्रश्नों का एक ही उत्तर हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिथड़ा
- फटा-पुराना कपड़ा।
- संज्ञा
- [सं. चर्ण]
- चिथाड़ना
- चीरना, फाड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिथड़ा]
- चिथाड़ना
- लज्जित करना, नीचा दिखाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिथड़ा]
- चिदात्मा
- चैतन्यस्वरूप ब्रह्म।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिदानंद
- चैतन्य अनदमय ब्रह्म।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिदाभास
- हृदय पर ब्रह्म का आभास।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिद्रूप
- चैतन्य-स्वरूप ब्रह्म।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिद्विलास
- चैतन्यस्वरूप ब्रह्म की माया।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिद्विलास
- शंकराचार्य का एक शिष्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिनक, चिनग
- जलन, पीड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. चिनगी]
- चिनगारी, चिनगी
- दहकते कोयले का टुकड़ा।
- संज्ञा
- [सं. चूण, हिं. चुन+ अंगार]
- चिनगारी, चिनगी
- दहकती आग से उड़नेवाले कण।
- संज्ञा
- [सं. चूण, हिं. चुन+ अंगार]
- चिनगारी, चिनगी
-
- आँख से चिनगारी छूटना :- क्रोध से आँख लाल होना।
चिनगारी छोड़ना (डालना) :- झगड़े वाली बात करना।
- मु.
- चिनना
- दीवार खड़ी करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चुनना]
- चिनाना
- बिनवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. सुनाना]
- चिनाना
- ईंट आदि की जोड़ाई करना।
- क्रि. स.
- [हिं. सुनाना]
- चिनाब
- पंजाब की एक नदी जिसका प्राचीन नाम चन्द्रभागा था।
- संज्ञा
- [सं. चंद्रभाग]
- चिनार
- जान-पहचान।
- संज्ञा
- [हिं. चिन्हार]
- चिन्मये
- ज्ञानमय।
- वि.
- [सं.]
- चिन्हौरी
- पह चानने का लक्षण, पहचान, संकेत का नाम।
- अपनी गाई ग्वाले सब प्रानि करौ इकठौरी। धौरी, धूमरि, राती, रौंछी, बोल बुलाइ चिन्हौरी ४४५।
- संज्ञा
- [सं. चिन्ह, दिं. चिन्हारी]
- चिपकना
- ल सीली वस्तु से जुड़ना या सटना।
- क्रि. अ.
- [अनु, चिपचिर]
- चिपकना
- लिपटना।
- क्रि. अ.
- [अनु, चिपचिर]
- चिपकना
- किसी व्यवसाय या काम में लगना।
- क्रि. अ.
- [अनु, चिपचिर]
- चिपकाना
- काम-धंधे या व्यापार में लगाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिकना]
- चिपचिप
- लसीली वस्तु छूने से होने वाला शब्द या अनुभव।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चिपचिपा
- लसदार।
- वि.
- [अनु, चिपचिपा]
- चिपचिपाना
- लसदार या चिपचिपा मालूम होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चिपचिप]
- चिपचिपाहट
- चिपचिपाने का भाव, लसीलापन, लस।
- संज्ञा
- [हिं. चिपचिपा]
- चिपटना
- सटनी, चिपकना।
- क्रि. अ.
- [सं. चिपिट - चिपटा]
- चिन्मये
- परब्रह्म, परमेश्वर।
- संज्ञा
- चिन्ह
- निशान, संकेत, लक्षण।
- मेचक अधर निमेष पिक रुचि सों चिह्न देखि तुम्हारे - २०८८।
- संज्ञा
- [सं. चिह्न]
- चिन्हवाना, चिन्हाना
- पहचान करा देना, पहचनवाना।
- किं. स.
- [हिं. चीन्हना का प्रे.]
- चिन्हानी
- चीन्हने की वस्तु, पहचान, लक्षण।
- संज्ञा
- [सं. चिन्ह]
- चिन्हानी
- स्मारक, यादगार।
- संज्ञा
- [सं. चिन्ह]
- चिन्हानी
- रेखा, धारी।
- संज्ञा
- [सं. चिन्ह]
- चिन्हार
- जान पहचान का, जिससे जान-पहचान हो, परिचितं।
- वि.
- [हिं. चिन्ह]
- चिन्हारा
- जान-पहचान, भेट मुलाकात।
- सोच लाग्यौ करन, यई धौं जान की, कै कोऊ और, मोहिं नहिं चिन्हारा - ६ - ७६।
- संज्ञा
- [सं. चिन्ह]
- चिन्हारी
- जान-पहचान।
- संज्ञा
- [हिं. चिन्ह]
- चिन्हित
- चिह्न लगाया हुआ।
- वि.
- [सं. चिन्हित]
- चिपटना
- लिपटना, चिमटना।
- क्रि. अ.
- [सं. चिपिट - चिपटा]
- चिपटा
- दबा या धंसा हुआ।
- वि.
- [सं. चिपिट]
- चिढ़ाना
- सटाना, जोड़ना।
- क्रि. स.
- [ईि, चिपटना]
- चिढ़ाना
- लिपटाना, आलिंगन करना।
- क्रि. स.
- [ईि, चिपटना]
- चिपड़ी, चिपरी
- उपली।
- संज्ञा
- [हिं. चिप्पड़]
- चिपिट
- चिपटा, चपटा।
- वि.
- [सं.]
- चिपिट
- चिउड़ा, चिड़वा।
- संज्ञा
- चिपिट
- वह मनुष्य जिसकी नाक चपटी हों।
- संज्ञा
- चिपिट
- दृष्टि की चकपकाहट।
- संज्ञा
- चिप्पड़
- छोटा टुकड़ा। लकड़ी की सूखी पपड़ी।
- संज्ञा
- [सं. चिपिट]
- चिप्पड़
- ऊपरी छाल।
- संज्ञा
- [सं. चिपिट]
- चिप्पिका
- एक रात्रि जंतु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिप्पिका
- एक चिड़िया।
- बाँसा, बटेर, लव और सिचान। धूती चिपिका चटक भान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिप्पा
- छोटा टुकड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. चिप्पड़]
- चिप्पा
- उपली।
- संज्ञा
- [हिं. चिप्पड़]
- चिप्पा
- तौलने का एक बाँट।
- संज्ञा
- [हिं. चिप्पड़]
- चिबिल्ला
- चंवल, चपल, शोख।
- वि.
- [हिं. बिलबिला]
- चिबू, चिबुक
- ठुड्डी, ठोड़ी।
- संज्ञा
- [सं. चिबुक]
- चिमटना
- सट जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चिपटना]
- चिमटना
- लिपटना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चिपटना]
- चिरंटी
- सयानी लड़की जो पिता के घर रहे।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिरंटी
- युवती।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिरंतन
- बहुत पुराना, पुरातन।
- वि.
- [सं.]
- चिरं
- बहुत दिनों का |
- वि.
- [सं.]
- चिरं
- अधिक समय तक।
- सूरदास चिर जीवहु जुग जुग दुष्ट दले दोउ नंददुलारे२५६६।
(ख)कबहुँक कुल - देवता मनावति, चिर जीवहु मेरों के वर कन्हैया - १० - ११५। (ग) चिर जीवहु जसुदा कौ नंदन, सूरदास कौं तरनी - १० - १२३। (घ) देत असीस सूर, चिरजीवौ रामचंद्र रनधीर ६ - २८। (च) चिरजीवी सुकुमारं पवन - सुत, गहति - दीन ह्व पाइ - ६ - ८३।
- क्रि. वि.
- चिरई
- चिड़िया, पक्षी।
- संज्ञा
- [सं. चटक]
- चिरकाल
- बहुत समय।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिरकालिक, चिरकालीन
- पुराना।
- वि.
- [सं.]
- चिरकूट
- चिथड़ा।
- संज्ञा
- [सं. चिर+कुट्ट]
- चिरचना
- चिड़चिड़ाना, क्रुद्ध होना।
- क्रि.अ
- चिमटना
- गुथना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चिपटना]
- चिमटना
- पीछा न छोड़ना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चिपटना]
- चिमटा
- लोहे पीतल की संसी।
- संज्ञा
- [हिं.चिमटना]
- चिमटाना
- चिपकाना, सटाना, लसाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिमटना]
- चिमटाना
- लिपटाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिमटना]
- चिमटी
- छोटा चिमटा।
- संज्ञा
- [ईि, चिमटा]
- चिमड़ा
- चीमड़।
- वि.
- [हिं. चमड़]
- चिर जीव
- बहुत दिनों.तक जीवित रहनेवाला चिरजीवी।
- (क) जब लगि जिय घट - अंतर मेरै, को सरवरि करि पावै ? चिरंजीव तौलौं दुरजोधन, जियत न प करयौ अवै - १ - २७५।
(ख) चिरंजीव रहौ सूर नंदसुत जीजत मुख चितए - ३१४१।
- वि.
- [हिं. चिर + जो ना]
- चिरंजीवी
- बहुत दिन तक जीनेवाला।
- वि.
- [हिं. चिरजीवी]
- चिरंजीवी
- अनर।
- वि.
- [हिं. चिरजीवी]
- गेरता
- गिराते हैं, नीचे डालते हैं।
- क्रि. स.
- [हिं. गेरना = गिराना]
- गेरता
- ढालते हैं, उँडेलते हैं, मूँदते हैं।
- बारंबार जगावति माता, लोचन खोलि पलक पुनि गेरत - ४०५।
- क्रि. स.
- [हिं. गेरना = गिराना]
- गेरना
- गिराना।
- क्रि. स.
- [सं. गलन या गिरण]
- गेरना
- उँडेलना।डालना।
- क्रि. स.
- [सं. गलन या गिरण]
- गेरना
- (सुरमा आदि) डालना।
- क्रि. स.
- [सं. गलन या गिरण]
- गेरना
- घूमना, परिक्रमा करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. घेरना]
- गेरवाँ
- पशुओं के गले पर लिपटा हुआ रस्सी का भाग।
- संज्ञा
- [हिं. गेराँव]
- गेरुआ
- गेरू के मटमैले लाल रंग का।
- वि.
- [हिं. गेरू + अ (प्रत्य.)]
- गेरुआ
- गेरू में रंगा हुआ, जोगिया, भगवा।
- वि.
- [हिं. गेरू + अ (प्रत्य.)]
- गेरुआ
- एक कीड़ा।
- संज्ञा
- चिराक, चिराग
-
- चिराग गुल होना :- (१) दीपक बुझना।
(२) रौनक न रहना। (३) वंश का नाश होना। चिराग जले :- संध्या समय। चिराग ठंडा करना :- दीपक बुझाना। चिराग तले अँधेरा :- (१) ऐसे स्थान पर बुराई होना जहाँ उसे रोकने का प्रबंध हो। (२) ऐसे व्यक्ति द्वारा बुराई होना जो उसे रोकने पर नियुक्त हो।
- मु.
- चिरातन
- पुराना, पुरातन।
- वि.
- [सं. चिरंतन]
- चिरातन
- जीर्ण।
- हम तौ तबही हैं जोग लियौ। पहिरि मेखला चीर चिरातन पुनि पुनि फेरि सिआए - ३१२५।
- वि.
- [सं. चिरंतन]
- चिराना
- फड़वाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चीरना]
- चिराना
- पुराना।
- वि.
- [हिं. चिरातन]
- चिराना
- जीर्ण।
- वि.
- [हिं. चिरातन]
- चिरायँध
- मांस आदि के जलने की दुर्गंध।
- संज्ञा
- [सं. चर्म+गंध]
- चिरायँध
- बदनामी।
- संज्ञा
- [सं. चर्म+गंध]
- चिरायता
- एक पौधा।
- संज्ञा
- [सं. चिरात्]
- चिरायु
- बड़ी उम्र वाला।
- वि.
- [सं. चिर+आयु]
- चिरजीवी
- बहुत दिनों तक जीवित रहनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- चिरजीवी
- सदा जीवित रहनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- चिरजीवी
- विष्णु।
- संज्ञा
- चिरजीवी
- कौ।
- संज्ञा
- चिरजीवी
- मार्कंडेय ऋषि।
- संज्ञा
- चिरजीवी
- अश्वत्थामा, बलि, व्यास. हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और परशुराम जो चिरजीवी माने जाते हैं।
- संज्ञा
- चिरेता
- अमरता।
- संज्ञा
- [सं.चिर + हिं. ता]
- चिरना
- फटना, कटना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चीरना]
- चिरना
- लकीर के रूप में घाव होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चीरना]
- चिरना
- चीरने का औजार।
- संज्ञा
- चिरविदा
- मृत्यु, मौत।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिरम
- गुंजा, घुंघुची।
- संज्ञा
- [देश.]
- चिरवाई
- चीरना, चिरने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं.]
- चिरवाना
- चीरने का काम कराना।
- क्रि. स.
- [हिं.चीरना]
- चिरस्थायी
- बहुत समय तक रहनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- चिरस्मरणीय
- बहुत समय तक। स्मरण रखने योग्य।
- वि.
- [सं.]
- चिरस्मरणीय
- पूजनीय।
- वि.
- [सं.]
- चिरहँटा
- चिड़ीमार।
- संज्ञा
- [हिं. चिड़ी+हंता]
- चिराई
- चिरने का भाव, क्रिया या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. चीरंना]
- चिराक, चिराग
- दीपक।
- संज्ञा
- [फ़ा. चिराग]
- चिरायु
- देवता।
- संज्ञा
- चिरारी
- चिरौंजी।
- खरिक, दाख अरु गरी चिरारी। पिंड बदाम लेहु बनवारी - ३६६।
- संज्ञा
- चिराव
- चीरने का भाव या क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चिरना]
- चिराव
- चीरने से होनेवाला घाव
- संज्ञा
- [हिं. चिरना]
- चिरिया, चिरैया, चिरी
- पक्षी, पखेरू, पंछी।
- (क) चिरिया कहा समुद्र उलीचे - १ - २३४
(ख) सूरस्याम: कौं जसुमति बोधत गगन चिरैया उड़त दिखावत - १० - १८८।
- संज्ञा
- [हिं. चिड़िया]
- चिरिहार
- चिड़ियाँ फँसानेवाला, बहेलिया।
- संज्ञा
- [हिं. चिड़िया + हारे = वाला (प्रत्य)]
- चिरीखाना
- चिड़िया घर।
- संज्ञा
- [हिं. चिड़िया + खाना]
- चिरौंजी
- पियाले वृक्ष के फलों के बीज की गिरी जो मेवों में समझी जाती है।
- श्रीफल मधुर चिरौंजी श्रानी - १० - २११.
- संज्ञा
- [सं. चार+चीज]
- चिरौरी
- विनीत, प्रार्थना।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चिलक
- आभा, कांति, झलक।
- संज्ञा
- [हिं. चमक]
- चिलचिलाना
- चमकाना।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- चिलबिल
- एक पेड़।
- संज्ञा
- [सं. चिलबिल्ल]
- चिलबिली, चिलबिल्ला
- चंचल, चपल, शोख, नटखट।
- वि.
- [सं चल + बल]
- चितम
- मिट्टी की कटोरी जिसका निचला भाग नली की तरह होता है। इस पर आग रखकर तंबाकू पी जाती है।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चिलमन
- बाँस की तीलियों से बना परदा, चिक।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चिल्ला
- चालीस दिन का समय।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चिल्ला
-
- चिल्ले का जाड़ा :- चालीस दिन की बहुत अधिक जाड़े का समय।
- मु.
- चिल्ला
- एक जंगली पेड़।
- संज्ञा
- [देश.]
- चिल्ला
- मोटी रोटी।
- संज्ञा
- [देश.]
- चिल्ला
- धनुष की डोरी।
- संज्ञा
- [देश.]
- चिलक
- दर्द, टीस।
- संज्ञा
- [हिं. चमक]
- चिलकना
- रह रह कर चमकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चिल्ली]
- चिलकना
- दर्द का उठना और बंद होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चिल्ली]
- चिलका
- चाँदी का रुपया।
- संज्ञा
- [हिं. चिलक]
- चिलकाई
- चमक।
- संज्ञा
- [हिं. चिलक + आई]
- चिलकाना
- चमकानी, झलकाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिलकना]
- चिलकाना
- माँज कर उजला करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिलकना]
- चिलगोजा
- एक मेवा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चिलचिल
- अबरक।
- संज्ञा
- [हिं. चिलकना]
- चिलचिलाना
- रह रह कर चमकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चिलकना]
- चिहुँटना
-
- चित्त चिहुँटना :- चित्त में चुभना, मन स्पर्श करना।
- मु.
- चिहुँटना
- चिपटना, लिपटना।
- क्रि. स.
- [सं. चिपिट, हिं. चिमटना]
- चिहुँटिनी
- गुंजा, घुंघुचि।
- संज्ञा
- [देश.]
- चिहुँटी
- चिकोटी।
- संज्ञा
- [हिं. चुटकी]
- चिहुर
- सिरके बाल, केश।
- (क) तरुवर मूल अकेली ठाढ़ी, दुखित राम की घरनी। बसन कुचील, चिहुर लपटाने, बिपति जाति नहिं बरनी–६ - ७३।
(ख) छूटे चिहुर बदन कुम्हि लाने ज्यौं नलिनी हिमकर की मारी - ३४२५।
- संज्ञा
- [सं. चिकुर]
- चिह्न
- निशान, संकेत, लक्षण।
दाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिह्न
- पताका, झंडी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिह्न
- दाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिह्नित
- जिस पर चिह्न हो।
- वि.
- [सं.]
- चीं, चींची, चीं चपड़े
- किसी के विरोध में किया हुआ शब्द या कार्य।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चींटवा, चींटा
- चिहुँटा नामक कीड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. चिंउटा]
- चींटा
- चिउँटी, पिपिलिका।
- संज्ञा
- [हिं. चिउँटी]
- चीतना
- चित्रित करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चितना]
- चींथना
- नोचना-फाड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं.चीथना]
- चीक, चीख
- चिल्लाहट।
- संज्ञा
- [सं. चीत्कार]
- चीकट
- मैल, तलछट।
- संज्ञा
- [हिं. कीचड़]
- चीकट
- एक रेशमी कपड़ा।
- संज्ञा
- [देश.]
- चीकट
- गहने-कपड़े जो भाई द्वारा बहन को इसकी संतान के विवाह में दिये जायें।
- संज्ञा
- [देश.]
- चीकट
- बहुत मैला या गंदा।
- वि.
- चीकना, चीखना
- जोर से चिल्लाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चीत्कार]
- चिल्लाना
- जोर से बोलना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चीत्कार]
- चिल्लाहट
- चिल्लाने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. चिल्लाना]
- चिल्लाहट
- शोर, गुळ, हल्ला।
- संज्ञा
- [हिं. चिल्लाना]
- चिल्लिका
- भौंहों के बीच का स्थान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिल्ली
- झिल्ली नामक कीड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिल्ली
- बिजली।
- संज्ञा
- [सं चिरिको = एक अस्त्र]
- चिल्ही
- चिल्ल, चील।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिव
- चिबुक, ठोढ़ी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चिहुँकना
- चौंकना।
- क्रि. अ.
- [सं. चमत्कृ, प्रा. चाँकि]
- चिहुँटना
- चुटकी काटना, चिकोटी लेना।
- क्रि. स.
- [सं. चिपिट, हिं. चिमटना]
- चीठा
- बही-खाता
- संज्ञा
- [हिं. चिडा]
- चीठा
- सूची।
- संज्ञा
- [हिं. चिडा]
- चीठा
- मजदूरी का धन।
- संज्ञा
- [हिं. चिडा]
- चीठा
- ब्योरा।
- संज्ञा
- [हिं. चिडा]
- चीठी
- चिट्ठी-पत्री।
- संज्ञा
- [हिं. चिट्ठी]
- चीड़, चीढ़
- एक पेड़।
- संज्ञा
- [सं. चीड़ा]
- चीत
- चित्त, मन।
- संज्ञा
- [सं. चित्त]
- चीत
-
- हेरत चीत :- चित्त हरता है, मन मोहता है।
उ. - संग रहत सिर मेलि उगौरी, हरत अचानक चीत - २७३०।
- मु.
- चीत
- चित्रा नक्षत्र।
- संज्ञा
- [सं. चित्रा]
- चीत
- सीमा नामक धातु।
- संज्ञा
- [सं.]
- गेरुआ
- पौधों का एक रोग।
- संज्ञा
- गेरू
- मटमैलापन लिये हुए एक तरह की लाल मिट्टी।
- जैसे कंचन काँच बराबर गेरू काम सिदूर - २६८३।
- संज्ञा
- [सं. गवेरूक]
- गेह
- घर, मकान।
- (क) बिदुर - गेह हरि भोजन पाए - १ - २३६।
(ख) करि दंडवत चली ललिता जो गई राधिका गेह - १.२३६ और सारा. ९२०।
- संज्ञा
- [सं. गृह]
- गेहनी
- घरवाली, पत्नी।
- तुम रानी वसुदेव गेहनी हौं गँवारि ब्रजबासी - २७१०।
- संज्ञा
- [हिं. गेह]
- गेहपति
- घर का स्वामी।
- संज्ञा
- [हिं. गेह+सं. पति]
- गेहपति
- पति, स्वामी।
- संज्ञा
- [हिं. गेह+सं. पति]
- गेहरा
- घर, गेह।
- मुँह की इल भलई मोहू सो करन आये जिय की जासों ताही। सो तुम बिन सूनो वाको गेहरा - २००१।
- संज्ञा
- [हिं. गेह]
- गेहिनी
- घरवाली, पत्नी।
- संज्ञा
- [सं. गृहिणी]
- गेही
- गृहस्थ।
- संज्ञा
- [हिं. गेह]
- गेहुँअन
- एक विषैला साँप।
- संज्ञा
- [हिं. गेहूँ]
- चीतकार
- चिल्लाना।
- संज्ञा
- [सं. चीत्कार]
- चीतकार
- चित्र खींचनेवाला।
- संज्ञा
- [सं. चित्रकार]
- चीतहिं
- चित्रित करती है, (चित्र या बेल-बूटे आदि) खीचती है।
- द्वार बुहारति फिरति अष्टसिधि | कौरनि सथियो चीततिं नवनिधि - १० - ३२।
- क्रि. स.
- [सं. चित्र, हिं. चीतना]
- चीतना
- सोचना, विचार न। आना।
- क्रि. स
- [सं. चेत]
- चीतना
- होश में आना।
- क्रि. स
- [सं. चेत]
- चीतना
- याद आना।
- क्रि. स
- [सं. चेत]
- चीतना
- चित्रित करना, तसवीर या बेल-बूटे बनाना।
- क्रि. स.
- [सं. चित्र]
- चीतर, चीतल
- एक हिरन।
- संज्ञा
- [हिं. चिंत्ती]
- चीता
- एक हिंसक पशु।
- संज्ञा
- [सं. चित्रक]
- चीता
- एक बड़ी क्षुप।
- संज्ञा
- [सं. चित्रक]
- चीकना, चीखना
- ऊँचे स्वर से बात करना।
- क्रि. अ.
- [सं. चीत्कार]
- चोखना
- चखना, स्वाद लेना।
- क्रि. स.
- [सं. चषण, हिं. चखना]
- चीखर, चीखल
- कीच, कीचड़।
- संज्ञा
- [हिं. चीकडु (कीचड़)]
- चीखर, चीखल
- गारा।
- संज्ञा
- [हिं. चीकडु (कीचड़)]
- चीज
- वस्तु, पदार्थ, द्रव्य।
- संज्ञा
- [फ़ा. चीज़]
- चीज
- आभूषण, गहना।
- संज्ञा
- [फ़ा. चीज़]
- चीज
- राग, गीत।
- संज्ञा
- [फ़ा. चीज़]
- चीज
- विलक्षण वस्तु।
- संज्ञा
- [फ़ा. चीज़]
- चीज
- महत्व की वस्तु।
- संज्ञा
- [फ़ा. चीज़]
- चीठ
- मैल।
- संज्ञा
- [हिं. चीकड़ (कीचड़)]
- चीन
- सी धातु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीन
- तागा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीन
- एक रेशमी कपड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीन
- एक हिरन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीन
- एक प्रकार की ईख।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीन
- चिह्न, लक्षण, संकेत।
- संज्ञा
- [सं, चिह्न]
- चीनना
- पहिचानना।
- क्रि. स.
- [हिं. चीन्हना]
- चीना
- एक तरह का सावाँ।
- संज्ञा
- [हिं. चीन]
- चीना
- एक चित्तीदार कबूतर।
- संज्ञा
- [सं. चिह्न]
- चीनी
- शकर।
- संज्ञा
- [सं. चीन = देश+ई (प्रत्य.)]
- चीनो, चीनौ
- पहचान, पता, लक्षण, संकेत।
- छिन में बरषि प्रलय जल पारौ खोजु रहै नहिं चीनौ - ६४५।
- संज्ञा
- [सं. चिह्न]
- चीनो, चीनौ
- पहचाना जाना।
- श्री भागवत सुनी नहिं स्रवननि, गुरु - गोबिद नहिं चीनौ - १ - ६५
- क्रि. स.
- [हिं. चीन्हना]
- चीन्ह, चीन्हा
- चिह्न, पहचान।
- संज्ञा
- [सं. चिह्न]
- चीन्ह, चीन्हा
- चीन्ह लीन्हौ-क्रि. स.-पहचान लिया।
- बहुरि.जब बढ़ि गयौ, सिंधु तब लै गयौ, तहाँ | हरि - रूप नृप चीन्ह लीन्हौ - ८ - १६।
- यौ.
- चीन्हना
- जानना, पहचानना,
- क्रि. स.
- [सं. चिह्न]
- चीन्हि
- पहचानकर।
- क्रि. स.
- [हिं. चीन्हना]
- चीन्ही
- पहचान गयी, जान गयी।
- (क) अब तौ घात परे हौ लालन, तुम्हें भले मैं चीन्ही - १० - २६७
(ख) ओछी बुद्धि जसोदो कीन्ही। याकी जाति अबै हम चीन्ही - १० - ३६१। (ग) जाहु थरहि तुमकौं मैं चीन्ही। तुम्हरी जाति जान मैं लीन्ही १० - ७९६।
- क्रि. स.
- [हिं. चीन्हना]
- चीन्हे
- पहचाने।
- (क) अँधियारी आई तहँ भारी। दनुज - सुता तिहि तैन निहारी। बसन सुक्र - तनया के लीन्हें। करत उतावलि परे न चीन्हे - ६ - १७४।
(ख) निसि चिन्ह चीन्हे सूर स्याम रति भीने ताही के सिधारो पिय जाके रंग |राचे - १९०३।
- क्रि. स.
- [हिं. चीन्हना]
- चीन्है
- पहचानता है।
- जब भगत भगवंत चीन्है, भरम मन ते जाइ - १ - ७०।
- क्रि. स.
- [हिं. चीन्हना]
- चीन्हौ
- लक्षण, निहू, संकेत।
- (क) नेकु न राखौ ताको चीन्हो - १०४३।
(ख) कैसे सूर अगोचर लहिए निगम न पावत चीन्हौ - ३०३४।
- संज्ञा
- [सं. चिह्न]
- चीता
- हृदय, दिल।
- संज्ञा
- [सं. चित्त]
- चीता
- संज्ञा, होश-हवास।
- तिनको कहा परेखो कीजै कुबजा के मीता को। चढ़ि - चढ़ि सेज सातहुँ सिंधू बिसरी जो चीता को - ३३७६।
- संज्ञा
- [सं. चेत]
- चीता
- सोचा-विचारा हुआ।
- वि.
- [हिं. चेतना]
- चीते
- सोचा हुश्रा, विचार हुआ, अनुमानित।
- डोलत ग्वाल मनौ रन जीते। भए सबनि के मन के चीते १० - ३२।
- वि.
- [हिं. चेतना]
- चीते
- सचेत हुए, सोचा, विचार, (मन में) भावना हुई।
- ऐसैहि करते बहुत दिन बीते। प्रभु अंतरजामी मन चीते। एक दिवस आपुन आए तहँ। नव तरुनी। असनान करत जहँ - ७६६।
- क्रि. स.
- [सं, चेत, हिं. चीतना]
- चीत्कार
- शोरगुल, चिल्लाहट।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीत्यौ
- सोचा हुआ, विचारा हुआ।
- (क) मेरौ चीत्यौ भयौ नंदरानी, नंद सुवन सुखदाई - १० - १६।
(ख) अपने - अपने मन कौ चीत्यौ, नैननि देख्यौ आइ - १० - २०। (ग) हमरौ चीत्यौ भयौ तुम्हारें, जो माँग सो पाऊँ - १० - ३७।
- वि.
- [हिं. चेतना, चीता]
- चीथड़ा
- फटा-पुराना कपड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. चीथना]
- चीथना
- चीरना-फोड़ना।
- क्रि. स.
- [सं. चीर्ण]
- चीन
- पताका।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीर
- छप्पर की मॅगरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीर
- सीसा नामक धातु।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीर
- चीरने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चीरना]
- चीरचरर्म
- मृगचर्म।
- संज्ञा
- [सं. चीरचर्म]
- चीरना
- किसी पदार्थ को धारदार औजार से फाड़ना।
- क्रि. स.
- [सं. चोण = चीरा हुआ]
- चीरा
- एक रंगीन-कपड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. चीरना]
- चीरा
- चीर कर बनाया हुआ घाव।
- संज्ञा
- [हिं. चीरना]
- चीरिका
- झींगुर, झिल्ली।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीरी
- झींगुर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीरी
- एक मछली।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीन्हौ
- जानो.पहचानो।
- बड़े देव सब दिन को चीन्हौ १००६।
- क्रि. स.
- [हिं. चीन्हना]
- चीन्ह्यौ
- पहचाना।
- बहुत जन्म इहि” बहु भ्रम कीन्ह्यौ। पै इन मोकौं - कबहुँ न चीन्ह्यौ - ४ - १२।
- क्रि. स.
- [हिं. चीन्हना]
- चीमड़, चीमर
- चिमड़ा, जो तोड़ने फोड़ने पर टूटे नहीं।
- वि.
- [हिं. चमड़ा]
- चीमड़, चीमर
- कंजूस. खसीस. जो किसी तरह गाँठ से पैसा न निकाले।
- वि.
- [हिं. चमड़ा]
- चीर
- वस्त्र।
- (क) लाज के साज मैं हुती ज्यौं द्रौपदी, बढ्यौ तन - चीर नहिं . अंत पायौ - १ - ५।
(ख) प्रातकाल असनान करन को जमुना गोपि सिधारी। लै कै चीर कदंब चढ़े हरि बिनवत हैं ब्रजनारी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीर
- वृक्ष की छाल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीर
- चिथड़ी लत्ता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीर
- गाय का थन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीर
- एक पक्षी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीर
- धूप का पेड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीरी
- पक्षी, चिड़िया।
- संज्ञा
- [हिं. चिड़िया]
- चीरु
- वस्त्र।
- संज्ञा
- [सं. चीर]
- चीरु
- लत्ता |
- संज्ञा
- [सं. चीर]
- चीरू
- लाल रंगीन सूत।
- संज्ञा
- [सं. चीर]
- चीरे
- एक प्रकार का रंगीन कपड़ा जो पगड़ी बनाने के काम में आता है, पगड़ी।
- मेरे कहैं विप्रनि बुलाइ, एक सुभ घरी धराइ, बागे चीरे बनाइ, भूषन पहिरावौ - १० - ६५।
- संज्ञा
- [हिं. चीरना, चीरा]
- चीरौं
- चीर डालूँ, फाड़ दूँ।
- गहि तन हिरनकसिप कौं चीरौं, फारि उदर तिहिं रुधिर नहैहौं - ७ - ५।
- क्रि. स
- [हिं. चीरना]
- चीर्ण
- चीरा-फाड़ा हुआ।
- वि.
- [सं.]
- चीरयौ
- फाड़ा, चीरा
- चीरयौ उदर पुत्र तब निकस्यौ - सारा, ६६४।
- क्रि. स.
- [हिं. चीरना]
- चील
- एक बड़ी चिड़िया।
- संज्ञा
- [सं. चिल्ल]
- चीलड़, चीलर
- एक छोटा कीड़ा।
- संज्ञा
- [देश, ]
- चुधा
- जिसे सुझाई न दे।
- वि.
- [हिं. चौ = चार + अंध]
- चुधा
- जिसकी आँखें छोटी-छोटी हों।
- वि.
- [हिं. चौ = चार + अंध]
- चुंबक
- वह जो चुंबन ले।
- संज्ञा
- [सं.]
- चुंबक
- कामी पुरुष।
- संज्ञा
- [सं.]
- चुंबक
- धूर्त मनुष्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- चुंबक
- उलटपट कर ग्रंथ का अध्ययन करनेवाला
- संज्ञा
- [सं.]
- चुंबक
- फंदा, फाँस।
- संज्ञा
- [सं.]
- चुंबक
- एक पत्थर जिसमे आकर्षण-शक्ति होती है।
- संज्ञा
- [सं.]
- चुंबक
- आकर्षण-केंद्र, सुंदर पुरुष जिसके रूप में आकर्षण हो।
- हरि चुंबक जहँ मिलहिं सूर प्रभु मो लै जाउ तहीं - २५४२।
- संज्ञा
- [सं.]
- चुंबकव
- चुंबक का गुण, भाव या कार्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- चुंगी
- बाहरी माल पर लगनेवाला महसूल।
- संज्ञा
- [हिं. चुंगल]
- चूँघाना
- चुसा कर पिलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुसाना]
- चंच
- चोंच, चंचु।
- संज्ञा
- [हिं. चोंच]
- चंडा
- कुआँ, कूप।
- संज्ञा
- [सं.]
- चंडित
- चुटिया या चोटीवाल।
- वि.
- [हिं. चुंडी]
- चुंडी, चंदी
- कुटनी, दूती।
- संज्ञा
- [सं. चुंदी]
- चुंडी, चंदी
- चोटी, चुटैया।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा]
- चुंदरी
- ओढ़नी।
- संज्ञा
- [हिं. चूनरी]
- चँदी
- स्त्रियों की चोटी।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा]
- चुंधलाना, चूँधियाना
- आँखों को चौंधियाना या तिलमिलाना।
- क्रि. अ.
- [हिं चौ= चार + . अंध= अंधा]
- गैहुँआँ
- गेहूँ के बादामी रंग का।
- वि.
- [हिं. गेहूँ]
- गेहु
- घर, झाड़ी, झोपड़ी।
- पैरि - पैरि प्रति फिरौ बिलोकत गिरि - कंदर - बन गेहु - ९ - ७३।
- संज्ञा
- [सं. गृह, हिं. गेह]
- गेहूँ
- एक प्रसिद्ध अनाज।
- संज्ञा
- [सं. गोधूम]
- गैंडा
- एक बहुत बली पशु।
- संज्ञा
- [सं. गंडक]
- गैंती
- जमीन खोदने का कुदाल।
- संज्ञा
- [देश.]
- गै
- गये, हुये।
- (क) लटकन सीस, कंठ मनि भ्राजत, मनमथ कोटि बारनैं गै री - १० - ५५।
(ख) सुर सुनि स्रवन तजि भवन करि गवन मन रवन तनु तबहिं कहँ सुगति गै री - १९०४।
- क्रि. अ.
- [सं. गम, हिं. गया]
- गैन
- प्रस्थान, गमन।
- हेरि दै - दै ग्वाल - बालक कियौ जमुन - तट गैन - ४२७।
- संज्ञा
- [सं. गमन]
- गैन
- गैल, मार्ग, रास्ता।
- संज्ञा
- [सं. गमन]
- गैन
- कदम, पग।
- कबहुँक ठाढे होत टेकि कर, चलि न सकते इक गैन - १० - १०३।
- संज्ञा
- [सं. गमन]
- गैन
- आकाश, आसमान।
- संज्ञा
- [सं. गगन]
- चालिका, चील्लक
- झिल्ली, झींगुर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चील्ही
- टोटके द्वारा उपचार।
- संज्ञा
- [देश.]
- चीवर
- साधुओं का वस्त्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीवरी
- बौद्ध साधु। भिक्षुक।
- संज्ञा
- [सं.]
- चीह
- चिल्लाहट।
- संज्ञा
- [फ़ा. चीत्र]
- चुंगल
- चिड़ियों का पंजा, चंगुल।
- संज्ञा
- [हिं. चंगुल]
- चुंगल
- मनुष्य के हाथ का पंजा।
- संज्ञा
- [हिं. चंगुल]
- चुंगल
-
- चंगुल में फँसना :- हाथ या वश में होना।
- मु.
- चुंगली
- एक तरह की नथ।
- संज्ञा
- [देश.]
- चुंगी
- चुंगल भर वस्तु।
- संज्ञा
- [हिं. चुंगल]
- चुंबकव
- आकर्षण शक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चुंबत
- चूमता है, प्यार करता है।
- कबहुँक माखन रोटी ले के खेल करत पुनि माँगत। मुख चुंबत जननी समुझावत आप कंठ पुनि लागत - सारा. १६७
- क्रि. स.
- [सं. चुंबन, हिं. चुंबना]
- चुंबत
- स्पर्श करता है, छूता है।
- क्रि. स.
- [सं. चुंबन, हिं. चुंबना]
- चुंबति
- चूमती है, चुंबन करती हैं।
- क्रि. स.
- [हिं. चुंबना]
- चुंबति
- मुँह, सर और आँखों से लगाती है।
- इतनी सुनत कति उठि धाई, बरषत लोचन नीर। पुत्र - कबंध अंक भरि लीन्हौ, धरति न इक छिन धीर। ले लें कौन हृदय लपटावति, चुबति | भुजा गॅभीर - १ - २९।
- क्रि. स.
- [हिं. चुंबना]
- चुंबन
- मावेश में होंठों से दूसरे के हाथ, गाल आदि का स्पश करने की क्रिया, चुम्मा।
- (क) सूर प्रभु कर गहति ग्वालिनि चारु चुबन हेतु - १० - १८४।
(ख)कबहुँक मुख भारि बन देत - १५६३। (ग) दै चुवन हरि सुख लियौ - १८२७।
- संज्ञा
- [सं.]
- चुंबनकर
- चूमने वाला।
- वि.
- [सं. चुबन + कर]
- चुंबना
- चूमना, चुम्मालेना।
- क्रि. स.
- [सं. चुबन]
- चुंबना
- छूना, स्पर्श करना।
- क्रि. स.
- [सं. चुबन]
- चंबित
- चूमा हुआ।
- वि.
- [सं.]
- चंबित
- स्पर्श किया हुआ।
- वि.
- [सं.]
- चंबित
- चखा हुआ।
- वि.
- [सं.]
- चुंबिनी
- चूमनेवाली।
- वि.
- [हिं. चुंबन]
- चुंबी
- चूमनेवाला, जो चूमे।
- वि.
- [सं. चुम्बिन्]
- चुंबी
- छूने या स्पर्श करनेवाला।
- वि.
- [सं. चुम्बिन्]
- चुभना
- गड़ना, चुभना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चुभना]
- चुअत
- चूता या टपकता है।
- देखिअत चहुँ दिसि नैं घर धोरे। स्याम सुभग तनु चुअत गंड मद बरबस थोरे थोरे - २८१८।
- क्रि. अ.
- [हिं. चूना]
- चुअना
- चुना. टपकना।
- क्रि. अ.
- [हिं चूना]
- चुआई
- टपकाने का काम, भाव या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. चुना]
- चुक
- पानी आने का छेद।
- संज्ञा
- [हिं. चुना]
- चुआन
- नहर, खाई. सोता।
- संज्ञा
- [हिं. चूना]
- चुआना
- टपकाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चूना]
- चुआना
- रसीला करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चूना]
- चुआना
- अर्क उतारना।
- क्रि. स.
- [हिं. चूना]
- चुआब
- चुआने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चुना]
- चुई
- चु पड़ी उपकी।
- कछु वै कहती कछू कहि अवित प्रेम पुलकि सम स्वेद चुई - १४३३,
- क्रि. अ.
- [हिं. चूना]
- चुक
- भूल-चूक।
- संज्ञा
- [हिं. चूक]
- चुकचुकाना
- पसीजना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चूना]
- चुकट, चुकटा
- चुटकी।
- संज्ञा
- [हिं. चुटकी]
- चुकता, चुकती
- बेबाक, अदा।
- वि.
- [हिं. चुकाना]
- चुकना
- समाप्त होना, बाकी न रहना
- क्रि. अ.
- [सं. च्युत्कृत, प्रा. चुक्कि]
- चुकना
- अदा होना, बेशक होना।
- क्रि. अ.
- [सं. च्युत्कृत, प्रा. चुक्कि]
- चुकना
- है हान्, निबटना।
- क्रि. अ.
- [सं. च्युत्कृत, प्रा. चुक्कि]
- चुकना
- भूल या त्रुटि करना |
- क्रि. अ.
- [सं. च्युत्कृत, प्रा. चुक्कि]
- चुकना
- व्यर्थ होना. लक्ष्य पर न पहुँचना।
- क्रि. अ.
- [सं. च्युत्कृत, प्रा. चुक्कि]
- चुकना
- समाप्ति सूचक संयोज्य क्रिया।
- क्रि. अ.
- [हिं. चुकना]
- चुकरेंडू
- दोमुहाँ साँप, गूंगी।
- संज्ञा
- [देश, ]
- चुकवाना
- अदा कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुकाना का प्रे.]
- चुकई
- अदा होने का भाव।
- संज्ञा
- [आहे. चुकता]
- चुकाना
- अदा या बेबाक करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुकना]
- चुकाना
- ते करा, निबटाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुकना]
- चुकिया
- कुल्हिया।
- संज्ञा
- [हिं. कुक्कड़]
- चुकोता
- ऋण का अदा होना, गज की सफाई।
- संज्ञा
- [हिं. दुकाना+ता (प्रत्य.)]
- चुकड़
- कुल्हड़, पुरवा।
- संज्ञा
- [सं. चषक]
- चुक्का
- भूल, कसर, कमी।
- संज्ञा
- [ह. चूक]
- चुक्कार
- गरज, गर्जन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चुक्की
- धोखा, छल, कपट।
- संज्ञा
- [हिं. चूक]
- चुखाए
- चखाये।
- भरि अपने कर कनक कचोरा पिवति प्रियहिं चुखाए १० उ. ३८।
- क्रि. स.
- [हिं. चुखाना]
- चुखानी
- गाय के थन से दूध उतारने के लिए बछड़े को पिलाना।
- क्रि. स.
- [सं. क्षुष]
- चुखानी
- चखाना।
- क्रि. स.
- [सं. क्षुष]
- चुगना
- चिड़ियों का चोंच से दाना बीनना और खाना।
- क्रि. स.
- [सं. चयन]
- चुगल, चुगलखोर
- पीठ पीछे निंदा | करने या इधर की उधर लगानेवाला।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चुगलखोरी
- चुगली खाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चुगली
- पीठ पीछे निंदा या शिकायत करनेवाली।
- ब्रजनारी बटपारिनि हैं सब चुगली ... आपुहिं जाइ लगायौ - ११६१।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चुगली
- पीछे पीछे की निंदा या शिकायत।
- संज्ञा
- चुगा
- चिड़ियों का चारा।
- संज्ञा
- [हिं. चुगना]
- चगाइ
- चुगाकर,
- जैसैं बधिक | चुगाइ कपट कन पीछे करत बुरी - २७१७।
- क्रि. स.
- [हिं. चुगाना]
- चुगाई
- चुगने या चुगाने का भाव, क्रिया या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. चुगाना+आई (प्रत्य.)]
- चुगाऐँ
- (चिड़ियों को) दाना खिलाने से।
- कहा होत पय - पान कराएँ, बिष नहिं तजत भुजंग। कागहिं कहा कपूर चुगाएँ, स्वान न्हवाएँ गंग - १ - ३३२।
- क्रि. स.
- [हिं. चुगना]
- चुगाना
- चिड़ियों को खिलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुगना]
- चगुल
- चुगलखोर, पर-निंदक।
- चुगुल, ज्वारि, निर्दय, अपराधी, झूठौ, खोटौ| खूटा - १ - १८६।
- संज्ञा
- [हिं. चुगल]
- चंगुली
- पीठ पीछे की निंदा।
- ऐसे डरति रहति हैं वाकौ चुगुली जाइ करैगौ - १६६५।
- संज्ञा
- [हिं. चुगुली]
- चुग्घी
- चखने की थोडी चीज।
- संज्ञा
- [देश.]
- चुचकारना
- पुचकारना, दुलारना।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- चुचकारि
- पुचकारकर, दुलार-प्यार दिखाकर।
- मैया बहुत बुरी बलदाऊ। कहन लग्यौ बन बड़ौ तमासौ, सब मौड़ा मिलि आऊ। मोहूँ कौं चुचकारि गयौ लै, जहाँ सघन बन झाऊ। भागि चलौ, कहि, गयौ उहाँ हैं, काटि खाइ रे हाऊ - ४८१।
- क्रि. स.
- [हिं. चुचकारना (अनु.)]
- चुचकारी
- पुचकारने की क्रिया।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चचकारैक्रि
- पुचकारती हैं, चुमकारती है, दुलराती है।
- तब गिरत - परत उठि भागै। कहुँ नैंकु निकट नहिं लागै। तव नंद घरनि चुचकारै। वहु बलि जाउँ तुम्हारै - १० - १८३।
- स.
- [हिं. चुचकारना]
- चचात
- चूता है, टपकता है।
- अरुन अधर सु स्रमित मुख बोलत पद कछु मुसुकात री। मानहु सुपक विंब ते प्रगटत, रस अनुराग चुचात री२३१३।
- क्रि. अ.
- [हिं. चुचाना]
- चुचाना
- बूंद बूंद चूना, टपकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चूना]
- चुचाय
- बूंद बूंद टपकने, चूने या निचुडने (लगे)।
- जसुमति मात उछंग लगाये बल मोहन को आय। बाल - भाव जियमें सुधि आई, अस्तन चले चुचाय - सारा, ७१७।
- क्रि. अ.
- [हिं. चुचाना]
- चुचुआना
- चूना, टपकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चुचाना]
- चचक
- स्तन की गोल घुंडी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चचुकना
- सुखकर इस तरह सिकुड़ना कि झुर्रियाँ पड जायें।
- सूखकर इस तरह सिकुड़ना कि झुर्रियाँ पड़ जायें।
- क्रि. अ.
- [सं. शुष्क+ना (प्रत्यं, )]
- चुचुकारे
- पुचकारता या दुलराता है।
- वै देखि निरखि नमित मुँरली पर कर मुख नयन एक भए वारे। मैन सरोज बिधु बैर बिरंचि करि करत नाद बाहन चुचुकारे १३३३।
- क्रि. स.
- [हिं. चुचुकारना]
- चुटक
- एक गलीचा या कालीन।
- संज्ञा
- [देश.]
- चुटक
- कोड़ा, चाबुक।
- संज्ञा
- [हिं. चोट - क]
- चुटक
- चुटकी।
- संज्ञा
- [अनु. चुटचुट]
- चटकना
- कोड़ा-चाबुक मारना।
- क्रि. स.
- [हिं. चोट]
- चटकना
- (साग, फूल आदि); चुटकी से तोड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुटकी]
- चटकना
- साँप का काटना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुटकी]
- चुटका
- बड़ी चुटकी।
- संज्ञा
- [हिं. चुटकी]
- चुटकि, चुटकी
- अँगूठे और उँगली की पकड़।
- संज्ञा
- [अनु. चुटचुट]
- चुटकि, चुटकी
-
- चुटकी देना :- चुटकी बजाना।
चुटकी देहि, चुटकी दै दै - चुटकी देकर। उ. - (क) चुटकी देहिं नचावहीं, सुते जानि नन्हैया - १०११६। (ख) जो मूरति जल - थल में व्यापक निगम न खोजत पाई। सो मूरति तू अपन आँगन चुटकी दै दै नचाई। (ग) चुटकी दै - दै ग्वाल नचावत१० - २१५। चुटकी बजाते :- चटपट। चुटकी बजाने वाला :- खुशामदी। चुटकी भर :- बहुत थोड़ा। चुटकियों में :- बहुत शीघ्र। चुटकियों में (पर) उड़ाना :- कुछ परवाह न करना।
- मु.
- चुटकि, चुटकी
- थोड़ी चीज।
- संज्ञा
- [अनु. चुटचुट]
- चुटकि, चुटकी
- चुटकी बजने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु. चुटचुट]
- चुटकि, चुटकी
- चिकोटी।
- संज्ञा
- [अनु. चुटचुट]
- चुटकि, चुटकी
-
- चुटकी भरना (लेना) :- (१) हँसी उड़ाना।
(२) चुभती हुई बात कहना। (३) चुटकी से दबाना, कुरेदना या काटना। उ. - बार बार गहि गहि निरखत घूँवट ओट करौ किन न्यारौ। कबहुँक कर परसत कपोल छुइ चुटकि लेत ह्याँ हमहिं निहारौ।
- मु.
- चुटकि, चुटकी
- पैर की उंगलियों का छल्ला।
- संज्ञा
- [अनु. चुटचुट]
- चुटकुला
- विनोद और चमत्कार पूर्ण बात।
- संज्ञा
- [हिं. चोट+कला]
- चुटकुला
- दवा का नुस्खा जो बहुत सस्ता और कारगर हो।
- संज्ञा
- [हिं. चोट+कला]
- गैन
- हाथी।
- संज्ञा
- [सं. गयंद]
- गैना
- नाटा बैल।
- संज्ञा
- [हिं. गाय]
- गैनी
- चलनेवाली, गामिनी।
- वि.
- [हिं. गैन = गमन + ई (प्रत्य.)]
- गैनी
- कुदाल, फावड़ा।
- संज्ञा
- [हि, खंता]
- गैब
- छिपा हुआ, परोत्त।
- वि.
- [अ. ग़ेब]
- गैबर
- बड़ा हाथी।
- संज्ञा
- [सं. गजवर]
- गैबर
- एक तरह की चिड़िया।
- संज्ञा
- [सं. गजवर]
- गैबी
- छिपा हुआ, गुप्त।
- वि.
- [अ.ग़ैब]
- गैबी
- अजनवी, अज्ञात।
- वि.
- [अ.ग़ैब]
- गैबी
- अबोधगम्य।
- वि.
- [अ.ग़ैब]
- चुटपुट, चुटफुट
- फुटकर वस्तु।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चुटला
- स्त्रियों की वेणी।
- संज्ञा
- [हिं. चोटी]
- चुटला
- वेणी के ऊपर लगाने का एक गहना।
- संज्ञा
- [हिं. चोटी]
- चुटाना
- चोट खाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चोट]
- चटिया
- चोटी, शिखा, बालों की गुंथी हुई लट।
- अरस - पस चुटिया गहैं, बरजति है माई - १० - १६२।
- संज्ञा
- [हिं. चोटी]
- चटिया
-
- (किसी की) चुटिया हाथ में होना :- अपने अधीन, नीचे या वश में होना।
- मु.
- चुटियाना, चुटीलना
- घायल करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चोट]
- चुटीला
- चोट या घाव खाया हुआ।
- वि.
- [हिं. चोट]
- चुटीला
- छोटी चोटी या वेणी।
- संज्ञा
- [हिं. चोटी]
- चुटीला
- सबसे बढ़िया, चोटी पर का।
- वि.
- चुटुकि, चुटुकी
- चुटकी।
- संज्ञा
- [हिं. चुटकी]
- चुटुकि, चुटुकी
-
- चुटुकि बजवति :- चुटकी बजाती हैं।
उ. - चुटुक बजावति नचावति जसोदा रानी, बाल| केलि गावति मल्हावति सुप्रेम भर - १० - १५१।
- मु.
- चुटैल
- घायल चोट करनेवाला।
- वि.
- [हिं. चोट]
- चुड़िहार, चुड़िहारा
- चूड़ी बेचने का व्यवसाय करनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चूड़ी+हार (प्रत्य.)]
- चुड़ल
- भूतनी, डायन।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा = चोटी+हार (प्रत्य.)]
- चुड़ल
- कुरूपा स्त्री।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा = चोटी+हार (प्रत्य.)]
- चुड़ल
- दुष्टा।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा = चोटी+हार (प्रत्य.)]
- चुत
- गिरा हुआ, च्युत।
- वि.
- [सं. च्युत]
- चुन
- आटा, चूर्ण।
- संज्ञा
- [सं. चूर्ण]
- चनट
- शिकन, सिलवट।
- संज्ञा
- [हिं. चुनना]
- चुनत
- चुग लेता है, वाता है।
- एक समय मोतिन के धोखे हंस चुनत है। ज्वारि - पृ. ३४३।
- क्रि. स.
- [हिं. चुनना]
- चुनन
- कपड़े की सिलवट।
- संज्ञा
- [हिं. चुनना]
- चुनना
- बीनना, इकट्ठा करना।
- क्रि. स.
- [सं. चयन]
- चुनना
- छाँटना, अलग करना।
- क्रि. स.
- [सं. चयन]
- चुनना
- पसंद या संग्रह करना।
- क्रि. स.
- [सं. चयन]
- चुनना
- सजाकर क्रम से रखना।
- क्रि. स.
- [सं. चयन]
- चुनना
- कपड़े में शिकन डालना।
- क्रि. स.
- [सं. चयन]
- चुनना
- फूल आदि चुटकी से नोच कर अलग करना।
- क्रि. स.
- [सं. चयन]
- चुनरी
- रंग-बिरंगी ओढ़नी।
- संज्ञा
- [हिं. चुनना]
- चुनवाना
- चुनने का काम करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुनाना]
- चुनही
- चुनते हैं, चुगते हैं।
- सूरदास मुकुताहल भोगी हंस ज्वारि को चुनही - ३०१३।
- क्रि. स.
- [हिं. चुनना]
- चुनाई
- चुनने की क्रिया यी मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. चुनना]
- चुनाई
- दीवार की जोड़ाई।
- संज्ञा
- [हिं. चुनना]
- चनाना
- इकट्ठा करवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुनना का प्रे.]
- चनाना
- अलग छटवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुनना का प्रे.]
- चनाना
- सजवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुनना का प्रे.]
- चनाना
- दीवार में गड़वाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुनना का प्रे.]
- चनाना
- कपड़े में शिकन डलवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुनना का प्रे.]
- चुनाव
- चुनने या बीनने का काम।
- संज्ञा
- [हिं. चुनना]
- चुनाव
- किसी के पक्ष में मत देने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चुनना]
- चनी
- मोटा पिसा हुआ अन्न।
- संज्ञा
- [सं. चूर्ण, हिं. चूनी]
- चनी
- छाँट ली, चुन ली।
- क्रि. स.
- [हिं. चुनना]
- चनी
- रंगीन ओढ़नी।
- संज्ञा
- [हिं. चुनरी]
- चनौटिया
- कालापन लिये लाली।
- संज्ञा
- [हिं. चुनौटी]
- चुनौटी
- छोटी डिबिया जिसमें पान का चूना रखा जाता है।
- संज्ञा
- [हिं. चूना+ औटी (प्रत्य.)]
- चुनौती
- उत्तेजना, बढ़ावा।
- मदन नृपति को देस महामद बुधिबल बसि न सकत उर चैन। सूरदास प्रभु दूत दिनहि दिन पठवत चरित चुनौत दैन - १३१३।
- संज्ञा
- [हिं. चुनना]
- चुनौती
- युद्ध के लिए ललकार या प्रचार।
- संज्ञा
- [हिं. चुनना]
- चुन्नी
- मानिक आदि रत्नों के कण।
- संज्ञा
- [सं चूर्ण]
- चुन्नी
- अनाज का भूसी मिला चूरा।
- संज्ञा
- [सं चूर्ण]
- चुन्नी
- स्त्रियों की चादर।
- संज्ञा
- [सं चूर्ण]
- चुनावट
- कपड़े की चुनंट।
- संज्ञा
- [हिं. चुनना]
- चुनावनहारे
- चुनने का .. काम करनेवाले।
- सूर सुगंध चुनावनहारे कैसे दुरत दुराए - १२३३।
- संज्ञा
- [हिं. चुनाना+हारे]
- चुनिंदा
- चुनी चुनाया, छाँटा हुआ।
- वि.
- [हिं. चुनना+इंदा (प्रत्य.)]
- चुनिंदा
- बढ़िया।
- वि.
- [हिं. चुनना+इंदा (प्रत्य.)]
- चुनिंदा
- मुख्य।
- वि.
- [हिं. चुनना+इंदा (प्रत्य.)]
- चुनि
- बीनकर, एक-एक उठाकर।
- ऐसें बसिऐ ब्रज की बीथिनि। ग्वारनि के पनबारे चुनिं - चुनि, उदर भरीजै सीथिनि - १० - ४९०।
- क्रि. स.
- [हिं. चुनना]
- चुनि
- छाँटकर संग्रह करके।
- हंस उज्वल पंख निर्मल, अंग मलि - मलि न्हाहिं। मुक्ति - मुक्ता अनगिने फल, तहाँ चुनि - चुनि खाहिं - १ - ३३८।
- क्रि. स.
- [हिं. चुनना]
- चुनि
- चुटकी से नोच कर।
- फूले फूले मग धरे कलियाँ चुनि डारे - २०६७।
- क्रि. स.
- [हिं. चुनना]
- चनियाँ
- मानिक का कण।
- संज्ञा
- [हिं. चुन्नी]
- चनी
- रत्न कण।
- मरुवेति मानिक चुनी लागी बिच बिच हीरा तरंग - २२८१।
- संज्ञा
- [सं. चूर्ण, हिं. चूनी]
- चुपका
- मौन।
- वि.
- [हिं. चुप]
- चुपका
-
- चुपके से :- शांत भाव से, गुप्त रूप से।
- मु.
- चुपकाना
- बोलने न देना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुपका]
- चुपका
- मौन, खामोशी।
- संज्ञा
- [हिं. चुप]
- चुपका
-
- चुपकी लगाना :- शांत रहना।
- मु.
- चुपचाप
- शांति से।
- क्रि. वि.
- [हिं. चुप]
- चुपचाप
- छिपे छिपे।
- क्रि. वि.
- [हिं. चुप]
- चुपचाप
- चेष्टारहित।
- क्रि. वि.
- [हिं. चुप]
- चुपचाप
- निर्विरोध।
- क्रि. वि.
- [हिं. चुप]
- चुपड़ना, चपरना
- लेप करना, पोतना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिपचिपा]
- चुपड़ना, चपरना
- दोष छिपाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिपचिपा]
- चुपड़ना, चपरना
- चापलूसी करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिपचिपा]
- चुपरयौ
- थोड़े पानी से धोकर पोंछनी।
- करि मनुहारि कलेऊ दीन्हौ, मुख चुपरयौ अरु चोटी - १० - १६३।
- क्रि. स.
- [हिं. चुपड़ना]
- चुपाना
- बोलने या रोने न देना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चुप]
- चप्पा
- कम बोलनेवाला, जो सदा शांत रहे।
- वि.
- [हिं. चुप]
- चप्पा
- जो मन की बात न कहे, घुज्ञा।
- वि.
- [हिं. चुप]
- चुप्पी
- मौन, खामोशी।
- संज्ञा
- [हिं. चुप]
- चुप्पी
- शांत।
- वि.
- [हिं. चुप्पा]
- चुप्पी
- घुन्नी।
- वि.
- [हिं. चुप्पा]
- चुबलाना, चुसलाना
- मुँह में रखकर। धीरे धीरे रस या स्वाद लेना।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- चुन्नी
- चमकी या सितारे जो स्त्रियाँ माथे या गाल पर चिपकाती हैं।
- संज्ञा
- [सं चूर्ण]
- चुप
- अवाक्, मौन।
- वि.
- [सं. चुप (चोपन) मौन]
- चुप
- चुपचाप- मौन रहकर।
- यौ.
- चुप
- शांति से।
- यौ.
- चुप
- छिपे छिपे।
- यौ.
- चुप
- निठल्ला, बेकार।
- यौ.
- चुप
-
- चुप करना :- (१) बोलने न देना।
(२) मौन रहना। चुप मारना, लगाना :- मौन रहना।
- मु.
- चुप
- मौन, खामोशी, शांति।
- संज्ञा
- चुपकहि
- चुपके-चुपके, चुपके से।
- पूजा करत नंद रहे बैठे, ध्यान समाधि लगाई। चुपकहिं अनि कान्ह मुख मेल्यौ, देखौ देव - बड़ाई - १० - २६२।
- क्रि. वि.
- [हिं. चुप, चुपका]
- चुपका
- चुप्पा।
- वि.
- [हिं. चुप]
- चुर
- सूखी चीज के टूटने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चुरकना
- चहचहाना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चुरकना
- टूटना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चुरकी
- चुटिया, शिखा।
- संज्ञा
- [हिं. चोटी]
- चुरकुट
- चूर-चूर, चकनाचूर।
- (क) मुष्टिको गर्द मरदि चार गूर चुरकुट करयौ कंस मनु कंप भयौ भई रंगभूमि अनुराग रागी - २६०६।
(ख) रामदल मारि सो वृक्ष चुरकुट कियो द्विविद सिर फट गयौ लगत ताके - १०.४५ !
- क्रि. वि.
- [हिं. चूर+करना]
- चरकुस
- चूर चूर।
- क्रि. वि.
- [हिं. चूर]
- चुरचुरा
- चुरचुर शब्द करके टूटनेवाला।
- वि.
- [अनु.]
- चुरचुराना
- चुरचुर शब्द करना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चुरचुराना
- चूर-चूर हो जाना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चुरचुराना
- चूर-चूर करना। चुर-चुर शब्द करना।
- क्रि. स.
- गैरख
- गले का हँसुली नामक गहना।
- संज्ञा
- [हिं. गर=गला+रखी]
- गैरजिम्मेदार
- जो अपने दायित्व का ध्यान न रखे।
- वि.
- [अ.ग़ैर + फा, ज़िम्मेदार]
- गैरत
- लाज, शर्म।
- संज्ञा
- [अ.ग़ैरत]
- गैरमामूली
- जो साधारण न हो।
- वि.
- [अ. ग़ैर+मामूली]
- गैरमामूली
- जो नित्य नियम के विरुद्ध हो।
- वि.
- [अ. ग़ैर+मामूली]
- गैरमुनासिब
- अनुचित।
- वि.
- [अ. गैरमुनासिब]
- गैरमुमकिन
- असंभव।
- वि.
- [अ. ग़ैर+मुमकिन]
- गैरवाजिब
- अनुचित।
- वि.
- [अ. ग़ैर+वाज़िब]
- गैरहाजिर
- जो मौजूद न हो।
- वि.
- [अ. ग़ैर+हाज़िर]
- गैरहाजिरी
- अनुपस्थिति।
- संज्ञा
- [हिं. गैरहाजिर]
- चुभी
- चित्त में बस गयी।
- टरति न टारे यह छवि मन में चुभी - १४४६।
- क्रि. स.
- [हिं. चुभना]
- चुभोला
- चुभनेवाला।
- वि.
- [हिं. चुभना]
- चुभोला
- मुग्ध या अकृष्ट करनेवाला।
- वि.
- [हिं. चुभना]
- चुभोना
- फँसाना, गड़ाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुभाना]
- चमकार, चमकारी
- पुचकार, दुलार, प्यार।
- संज्ञा
- [हिं. चूमना+कार]
- चुमकारना
- पुचकारना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुमकार]
- चुम्मा
- चुंबन।
- संज्ञा
- [हिं. चूमना]
- चुर
- बाघ की माँद।
- संज्ञा
- [देश, ]
- चुर
- बैठक।
- संज्ञा
- [देश, ]
- चुर
- बहुत, अधिक, ज्यादा।
- वि.
- [सं. प्रचुर]
- चमकना
- पानी में डूबना-उतराना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चभकाना
- गोता देना, डुबाना।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- चभकी
- डुब्की, गोता।
- संज्ञा
- [अनु, चुभ चुभ]
- चुभना
- गड़ना, धंसना।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- चुभना
- मन में खटकना या चोट पहुँचाना।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- चुभना
- मन में बस जना या बना रहना।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- चुभना
- मग्न, लीन।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- चुभलाना
- मुँह में घुलना।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- चुभवाना, चुभाना
- धँसना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुभना]
- चभि
- मन में बसकर या बेनी रहकर।
- मन चुभि रही माधुरी मूरति अंग अंग उरझाई-३३१७।
- क्रि. स.
- [हिं. चुभना]
- चुराना
- लेन-देन या काम में कमी करना।
- क्रि. स.
- [सं. चुर=चोरी]
- चुराना
- खौलते पानी में पकाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुरना]
- चुरावत
- चुराते हैं।
- महा अक्षय निधि पाइ अचानक आपुहिं सबै चुरावत हैं - पृ. ३३०।
- क्रि. स.
- [हिं. चुराना]
- चुरावन
- चुराने के लिए।
- सूर गए हरि रूप चुरावन उन अप बस करि पाए - पृ. ३२४।
- संज्ञा
- [हिं. चुराना]
- चुरावै
- चुराता है, चोरी करता है।
- घर - घर गोरस सोइ चुरावै - १० - ३।
- क्रि. स.
- [हिं. चुराना]
- चुरिहार, चुरिहारा
- चूडी का व्यवसाय करनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. चूड़ी + हारों (प्रत्य.)]
- चुरी
- चूड़ी।
- (क) फूटी चुरी गोद भरि ल्यावै, फाटे चीर दिखावें गात १० - ३३२।
(ख) किंकिनी करि कुनित कंकन कर चुरी झनकार - पृ.३४४ (२६)।
- संज्ञा
- [हिं. चूड़ा, चूड़ी]
- चुरू
- चुल्लू।
- (क) हँसि जननी चुरू भराए। तब कछु - क्छु मुख पखराए - १० - १८३।
(ख) भरयो चुरू मुख धोइ तुरतही | पीरे पान - बिरी मुख नावति - ५१४। (ग) धरि तुष्टी झारी जल ल्याई। भरथौ चुरू खरिका लै आई।
- संज्ञा
- [सं. चुलुक]
- चुरैहौं
- चुराऊँगा।
- यह पर तीति नहीं जिय तेरे सो कहा तोहि चुरेहौं - १२४३।
- क्रि. स.
- [हिं.चुराना]
- चुल
- खुजलाहट, मस्ती।
- संज्ञा
- [सं. चल]
- चुरना
- खौलते पानी के साथ पकना।
- क्रि. अ.
- [सं. चूर]
- चुरना
- साधारण या गुप्त बात होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चूर]
- चरमुर
- कुरकुरी वस्तु टूटने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चरमुरा
- करारा, चुरमुरानेवाला।
- वि.
- [अनु.]
- चरमुराना
- चुरमुर शब्द करना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चुरा
- वस्तु का पिसा हुआ अंश।
- संज्ञा
- [हिं. चूरा]
- चुराइ
- चुरा कर, हरण करके।
- तबहि निसिचर गयौं छल कंरिं, लई सीय चुराइ - ६ - ६०।
- क्रि. स.
- [हिं. चुराना]
- चराई
- पकने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चुरना]
- चुराना
- चोरी करना।
- चित्त चुराना :- मन मोहित करना।
- क्रि. स.
- [सं. चुर=चोरी]
- चुराना
- छिपाना, दूसरों की दृष्टि से बचना।
- आँख चुराना :- सामने मुँह न करना।
- क्रि. स.
- [सं. चुर=चोरी]
- चुलचुलाना
- खुजलाहट होना।
- क्रि. अ
- [हिं. चुल]
- चुलबुलाहट
- खुजलाहट।
- संज्ञा
- [हिं. चुलबुलाना]
- चुलचुली
- चुल।
- संज्ञा
- [हिं. चुलबुलीना]
- चुलबुल
- चंचलता।
- संज्ञा
- [सं. चल+बल]
- चुलबुला
- चंचल, नटखट
- वि.
- [हिं. चुलबुल]
- चुलबुलाना
- हिलना| डोलना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चुलबुल]
- चुलबुलाना
- चंचल होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चुलबुल]
- चुलुक, चुलूक
- दल दल, कीचड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- चुल्ला, चुल्ली
- नटखट।
- वि.
- चुल्लू
- हथेली का गड्ढा।
- चुल्लू भर :- जितना चुल्लू में आ सके।
चुल्लुओं रोना :- बहुत रोना चुल्लू में समुद्र न समानो :- (१) छोटे पत्र में बहुत वस्तु न आना। (२) साधारण व्यक्ति से महान कार्य न हो सकना।
- संज्ञा
- [सं. चुलुक]
- चुल्हौना
- चूल्हा।
- संज्ञा
- [हिं. चूल्हा]
- चुवत
- बूंद बूद टपकती है।
- (क) बिधु पर सुदंत बिध्वंत अमृत चुवत . सूर बिपरीत रति पीड़ि नारी - १६०३।
(ख) मुरली माहिं बजावत गावत बंगाली अधर चुवत अमृत बनवारी - २३६७। (ग) देखी मैं लोचन चुवत अचेत - ३४५६।
- क्रि. अ.
- [हिं. चुवना]
- चुवना
- बूंद बूद टपकता है।
- क्रि. अ.
- [हिं. चूना]
- चुवा
- पशु, चौपाया।
- संज्ञा
- [हिं. चौ]
- चुवाना
- टपकाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चूना का प्रे.]
- चुवावत
- टप कती हैं, बूंद बूंद करते गिराती हैं।
- राँभति गाइ बच्छ हित सुधि करि, प्रेम उमॅगि थन दूध चुवा वत - ४८०।
- क्रि. स.
- [हिं. चूना' का प्रे. ‘चुवाना’]
- चुसकी
- शराब का पात्र।
- संज्ञा
- [सं. चषक]
- चुसकी
- थोड़ा थोड़ा पीना।
- संज्ञा
- [हिं. चूरना]
- चुसना
- चूसा या चचोड़ा जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चूसना]
- चुसना
- सिकुड़ जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चूसना]
- चुसना
- सारहीन होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चूसना]
- चुसना
- निर्घन या साधनहीन हो जानः।
- क्रि. अ.
- [हिं. चूसना]
- चुसना
- चूसने देना।
- क्रि. स.
- [हिं. चूसना]
- चुसाई
- चूसने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चूसना]
- चुसाना
- चूसने देना।
- क्रि. स.
- [हिं. चूसना का प्रे.]
- चुसौअल, चुसौवल
- अधिकता से चूसना।
- संज्ञा
- [हिं. चूसना]
- चुसौअल, चुसौवल
- अनेकों का चूसना।
- संज्ञा
- [हिं. चूसना]
- चुस्त
- कसा हुआ, जो ढीला न हो।
- वि.
- [फ़ा.]
- चुस्त
- फुर्तीला, जिसमें आलस्य न हो।
- वि.
- [फ़ा.]
- चुस्त
- दृढ़, मजबूत।
- वि.
- [फ़ा.]
- चुस्ती
- फुर्ती, तेजी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चुस्ती
- तंगी, कसावट।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चुस्ती
- दृढ़ता, मजबूती।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चुहँटी, चुहटी
- चुटकी।
- संज्ञा
- [देश.]
- चुहचुहा
- चटक रंग का।
- वि.
- [अनु.]
- चुहचुहाती
- सरस. रसीला।
- वि.
- [हिं. चुहचुहाना]
- चुहचुहाना
- रस टपकना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चुहचुहाना
- चिड़ियों का चहचहाना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- चुहचुहानी
- (चिड़ियाँ) चहचहाने लगीं।
- (क) चिरई चुहचुहानी चंद की ज्योति परानी रजनी बिहानी प्राची पियरी प्रवीन की।
(ख) मैं जानी जिय जहँ रति मानी। तुम आए हौ ललना जब चिरियाँ चुहचुहानी।
- क्रि. अ.
- [हिं. चुहचुहाना]
- चुहचुही
- फूलसँधनी चिड़िया।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चूँचरा
- बहाना।
- संज्ञा
- [फ़ा. चै+चरा]
- चूँदरी
- ओढ़नी।
- संज्ञा
- [हिं. चूनरी]
- चूँनी
- अन्नकण। मानिककण।
- संज्ञा
- [हिं. चून]
- चूक
- भूल, गल्ती।
- (क) अजामील तौः बिप्र तिहारौ, हुतौ पुरातन दास। नैकें चूक तै यह गति कीनी, पुनि बैकंठ निवास - १ - १३२।
(ख) कौन करनी घाटि मोसौं, सो करौ फिरि काँधि। न्याई कै नहि खुनुस कीजै, चूक पल्लै बाँधि - १ - १६६। (ग) घोष बसते की चूक हमारी कछु न चित गहिबो - ३४१५।
- संज्ञा
- [हिं. चूकना]
- चूक
- छल, कपट, फरेब, दगा।
- संज्ञा
- [हिं. चूकना]
- चूक
- खट्टे फल के गाढे़ रस से बना एक पदार्थ।
- संज्ञा
- [सं. चुक]
- चूक
- एक खट्टा साग।
- संज्ञा
- [सं. चुक]
- चूक
- बहुत ज्यादा खट्टा।
- वि.
- चूकना
- भूल करना।
- क्रि. अ.
- [सं. च्युतकृत, प्रा. चुकि]
- चूकना
- लक्ष्य से हटना।
- क्रि. अ.
- [सं. च्युतकृत, प्रा. चुकि]
- चुहुटना
- चिपकने या पकड़नेवाला।
- वि.
- चुहुटनी
- गुंजा, घूँघुची।
- संज्ञा
- [देश]
- चूँ
- चिड़ियों के बोलने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चूँ
- चूँ शब्द।
- चू करना :- (१) कुछ कहना।
(२) विरोध में कुछ कहना।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चूँकि
- क्योंकि, इसलिए कि।
- क्रि. वि.
- [फ़ा.]
- चूँच
- चोंच।
- वीथ्यो कनक परसि सुक संदर दुनै वीज गहि अँज।
- संज्ञा
- [हिं. चोंच]
- चूँचू
- चिडियों को शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चूँचू
- चुचू शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चूँचरा
- विरोध, प्रतिवाद।
- संज्ञा
- [फ़ा. चै+चरा]
- चूँचरा
- आपत्ति, उज्र।
- संज्ञा
- [फ़ा. चै+चरा]
- गैयर
- हाथी, गज।
- संज्ञा
- [सं. गजवर]
- गैयाँ
- अनेक गऊ।
- नंदकुमार चराई गैयाँ।
- संज्ञा
- [हिं. गाय]
- गैया
- गाय, गऊ।
- संज्ञा
- [सं. गो]
- गैर
- दूसरा, अन्य।
- वि.
- [अ.गैर]
- गैर
- पराया, -अजनबी, जो अपना न हो।
- वि.
- [अ.गैर]
- गैर
- अत्याचार, अंधेर।
- संज्ञा
- गैर
- हाथी।
- संज्ञा
- [हिं. गैयर]
- गैर
- मार्ग, गली।
- संज्ञा
- [हिं. गैल]
- गैर
- निंदा।
- संज्ञा
- [हिं. घैर]
- गैर
- चुगली।
- संज्ञा
- [हिं. घैर]
- चुहटना
- रौंदना, कुचलना।
- क्रि. स.
- [देश.]
- चुहना
- किसी वस्तु का रस चूसना।
- क्रि. स
- [सं. चूषण]
- चुहल
- हंसी-विनोद।
- संज्ञा
- [अनु, चुहह]
- चुहलबाज
- ठठोल।
- वि.
- [हिं. चुहल+फ़ा. बाज (प्रत्य.)]
- चुहलबाजी
- हँसी-ठठोली।
- संज्ञा
- [हिं. चुहलबाज]
- चुहिया
- चूहा का स्त्रीलिंग तथा अल्पार्थक रूप।
- संज्ञा
- [हिं. चूहा]
- चुहिल
- जहाँ खूब रौनक हो।
- वि.
- [हिं. चुहचुहाना]
- चुहुकना
- चूसना।
- क्रि. स.
- [सं. चूष]
- चुहुनुहु
- चटकीला, शोख।
- पहिरे चीर सुहि सुरंग सारी चुडुचुहु चूनरी बहुरंगनो। नील लहँगा लाल चोली कसि उबरि केसरि। सुरंगनो - १२८०।
- वि.
- [अनु.]
- चुहुटना
- चिपकना।
- क्रि. अ.
- [हि. चिमटना]
- चूड़ात
- बहुत अधिक, अत्यंत।
- क्रि. वि.
- चूड़ा
- चोटी, शिखा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़ा
- मोर के सिर की चोटी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़ा
- कुआँ।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़ा
- घूँघुची।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़ा
- चूडाकरण नामक संस्कार।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़ा
- कडा, कंकण।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा = बाहु - भूषण]
- चूड़ा
- वधू की चूड़ियाँ। चूड़ाकरण,
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा = बाहु - भूषण]
- चूड़ाकर्म
- बच्चे की पहली बार सर मुँडवाकर चोटी रखने का संस्कार, मूड़न।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़ापाश
- बालों को जूड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़ामणि
- शीशफूल नामक गहना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़ामणि
- सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़ामणि
- घुंघुची।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़ी
- महीन गोलाकार पदार्थ।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा]
- चूड़ी
- हाथ में पहनने का एक गहना।
- चूड़ियाँ ठंडी करना (तोड़ना) :- विधवा वेश बनाना।
चूड़ियाँ पहनना :- स्त्री-वेश बनाना (व्यंग्य)। चूड़ियाँ बढ़ाना :- चूड़ियाँ अलग करना।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा]
- चूड़ीदार
- जिसमें चूडी या छल्ले की तरह घेरे पड़े हों।
- वि.
- [हिं. चूड़ीं+फ़ा. दार]
- चून
- आटा, पिसान।
- संज्ञा
- [सं. चूर्ण]
- चून
- चूना।
- (क) सूर स्याम को मिली धून हरदी ज्यौं रंग रजी - ११७३।
(ख) सूर स्याम मन तुमहिं लुभानो हेरद चून रँग रोचन - १५१७।
- संज्ञा
- [सं. चूर्ण]
- चून
- एक बड़ा पेड़।
- संज्ञा
- [देश.]
- चूनर, चूनरी
- ओढ़ने का लाल रंगीन बूटियोंदार दुपट्टः।
- (क) पहिरे राती चूनरी, सेत उपरना सोहै (हो) - १ - ४४।
(ख) पहिरि चुनि चुनि चीर चुहि चुहि चूनरी बहुरंग - २२७८।
- संज्ञा
- [हिं. चुनना]
- चूकना
- अवसर खोना।
- क्रि. अ.
- [सं. च्युतकृत, प्रा. चुकि]
- चूका
- एक खट्टा साग।
- संज्ञा
- [सं, चुक]
- चूकैं
- चुकने पर, अवसर खोने पर।
- सूरदास अवसर के चूके, फिरि पछितैहौ देखि उधारी - १ - २४८।
- क्रि. अ.
- [हिं. चूकना]
- चूची
- स्तन, कुच।
- संज्ञा
- [सं. चूचुक]
- चूची
- स्तन का अग्र भाग।
- संज्ञा
- [सं. चूचुक]
- चुचुक
- स्तन का अग्र भाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़, चूड़क
- चोटी, शिखा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़, चूड़क
- सिर की कलँगी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़, चूड़क
- छोटा कुएँ।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूड़ात
- चरम सीमा, पराकाष्ठा।
- वि.
- [सं.]
- चूपड़ी
- घी चुपड़ी हुई।
- वि.
- [हिं. चुपड़ना]
- चूमति
- चूमती है, प्यार करती है।
- (क) मुख चूमति अरु नैन निहारति, राखति कंठ लगाई - १० - ५२।
(ख) चूमति कर - पगअधर - भ्र, लटकति लाट चूमति - १० - ७४।
- क्रि. स.
- [हिं. चूमना]
- चूमति
- चूमति-चाटति-प्यार करती हुई, चूमचाटकर प्रेम जताती हुई।
- लैं आई गृह चूमति चोटति, घर - घर सबनि बधाई मानी - १० - ७८।
- यौ.
- चूमन
- चूमना, प्यार करना।
- महरि मुदित उलटाइ कै, मुख चूमन लागी - १० - ६८।
- क्रि. स
- [हिं. चूमना]
- चूमना
- चुम्मा लेना।
- चूमकर छोड़ देना :- कार्य प्रारम्भ करके या वस्तु को छूकर छोड़ देना, पूरा उपयोग न करना।
चूमना-चाटना :- प्यार दिखाना।
- क्रि. स
- [सं. चुंबन]
- चूमा
- चूमने की क्रिया, चुंबन।
- संज्ञा
- [हिं. चूमना]
- चूमाचाटी
- चूम-चाट कर प्रेम जताना या प्यार दिखाना।
- संज्ञा
- [हिं. चूमना+चाटना]
- चूमि
- चूमकर, प्यार करके, चुम्मा लेकर।
- (क) निरखि हरषि मुख चूमि के, मंदिर पग धारी - १० - ६६।
(ख) मुख चूमि हरषि लै आए - १० - १८३।
- क्रि. स.
- [हिं. चूमना]
- चुम्यौ
- चूम लिया, प्यार किया।
- (क) बड़ौ मंत्र कियौ कुँवर कन्हाई। बार - बार लै कंठ लगायौ, मुख चूम्यौ, दियौ घरहिं पठाई - ७६१। (ख) काहू तुरत इ मुख चुम्यौ कर सौं छुयो कपोल - २४२७।
- क्रि. स.
- [हिं. चूमना]
- चूर
- छोटे-छोटे टुकड़े।
- संज्ञाा.
- [सं. चूर्ण]
- चूना
- एक तीक्ष्ण भस्म जो पान में खाने, और औषध के काम आती है।
- संज्ञा
- [सं. चूर्ण]
- चूना
- बूंद बूंद टपकना।
- क्रि. अ.
- [सं. च्यवन]
- चूना
- (फल आदि का) गिरना।
- क्रि. अ.
- [सं. च्यवन]
- चूना
- (छत लोटा आदि में) दराज या छेद होना जिससे पानी टपके।
- क्रि. अ.
- [सं. च्यवन]
- चूना
- गर्भ गिरना।
- क्रि. अ.
- [सं. च्यवन]
- चूना
- जो टपक रहा हो।
- वि.
- चूनी
- मोटा पिसा अन्न।
- संज्ञा
- [हिं. चुन्नी]
- चूनी
- रत्नकण, चुन्नी।
- धन भूषन धन मुकुट जरयौ नग हीरा चुनी सय नाल - पृ.३४२ (३६)।
- संज्ञा
- [हिं. चुन्नी]
- चूनै
- चूर चूर, टुकड़े टुकड़े।
- गए - स्याम ग्वालिनि घर सूनें। माखन खाइ, डारि सबै गोरस, बासन फोरि किए सब चूनै - ६१७।
- वि.
- [सं. चूर्ण, हिं. चूरा]
- चूनो
- चुना नामक भस्म।
- रंग कापे होते न्यारो हरद चूनो सानि - ८६५।
- जरो पर चूनो :- जले पर चूना छिड़कना, जो विपत्ति में हो उसे और दुख देना।
उ. - वैसहिं जाइ जरो पर चूनो दूनो दुख तिहिं काल - ३१५६।
- संज्ञा
- [हिं. चूना]
- चूर
- चूरा, बुरादा, भूर, महीन कण।
- चूर चूर कर डाला तोड़-फोड़ डाला, नष्ट कर दिया।
उ. - जोगन डेढ़ बिटप बेली सब . चूर चूर कर डाल - सारा, ४१७।
- संज्ञाा.
- [सं. चूर्ण]
- चूर
- किसी काम या भाव में लीन।
- वि.
- चूर
- किसी नशे से प्रभावित, मद-मत्त।
- वि.
- चूरण, चूरन
- चूरा।
- घृत मिष्टान्न सबै परिपूरन। मिस्रित करत पाग कौ चूरन - १००६।
- संज्ञा
- [सं. चूर्ण]
- चूरण, चूरन
- बहुत महीन पिसी हुई औषध।
- संज्ञा
- [सं. चूर्ण]
- चूरना
- चूर-चूर करना।
- क्रि. स.
- [सं. चूर्णन]
- चूरना
- तोड़-फोड़ डालना, बरबाद करना।
- क्रि. स.
- [सं. चूर्णन]
- चूरमा
- रोटी-पूरी का घी-शकर में मिलाकर भूना हुआ भोजन।
- संज्ञा
- [सं. चूर्ण]
- चूरो
- कड़ा नामक आभूषण जो बच्चों के हाथ-पैर में पहनाया जाता है।
- तन अँगुली, सिर लाल चौतनी, चूरा दुहुँ कर पाइ - १० - ८६।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा = बाहुभूषण]
- चूरो
- पिसा हुआ चूर्ण।
- संज्ञा
- [सं. चूर्ण]
- चूरो
- चिउड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. चिउड़ा]
- चूरामनि
- एक गहना।
- संज्ञा
- [सं चूड़ामणि]
- चूरि
- चूर करके, तोड़कर, नष्ट करके।
- भंजन - शब्द प्रगट अति अद्भुत, अष्टदिसा नभ - पूरि। स्रवन - हीन सुनि भए अष्टकुल नाग गरबे भयौ चूरि - ९ - २६।
- क्रि. स.
- [हिं. चूरना]
- चूरी
- हाथ की चूड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. चूड़ी]
- चूरी
- चूरा।
- संज्ञा
- [सं. चूर्ण]
- चूरी
- चूरमा।
- संज्ञा
- [सं. चूर्ण]
- चुरे
- डूबे हुए, निमग्न।
- गूझा बहु पूरन पूरे। भरि - भरि कपूर रस चूरे - १० - १८३।
- वि.
- [हिं. चूर]
- चूर्ण
- महीन पिसा पदार्थ।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूर्ण
- महीन पिसी औषध।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूर्ण
- अबीर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूर्ण
- धूल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूर्ण
- तोड़ा-फोड़ा या नष्ट किया हुआ।
- वि.
- चूर्णिका
- सत्तू।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूर्णिका
- गद्य को एक प्रकार जिसमें सरल शब्द और वाक्य हों।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूर्णित
- चूर-चूर किया हुआ।
- वि.
- [सं.]
- चूल
- चोटी, शिखा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूल
- लकड़ी का पतला सिरा जो दूसरी के छेद में ठोंका जाय।
- चूलें ढीली होना :- बहुत थकावट होना।
- संज्ञा
- [देश]
- चूलिका
- नाटक का एक अंग जिसमें घटना होने की सूचना नेपथ्य से दी जाती है।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूल्हा
- भोजन पकाने का पात्र।
- चूल्हा न्योतना :- घर भर को निमंत्रण देना।
चूल्हा जलाना (फेंकना, झोंकना) :- भोजन पकाना। चूल्हे में जाना (पड़ना) :- नष्ट-भ्रष्ट होना। चूल्हे में डालना :- नष्ट-भ्रष्ट करना। चूल्हे से निकल कर भट्टी (भाड़) में पड़ना :- छोटी विपत्ति से बचकर बड़ी में फँसना।
- संज्ञा
- [सं. चुल्लि]
- चूषण
- चूसना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चूसना
- किसी पदार्थ को | दबा-दबा कर रस पीना।
- क्रि. स.
- [सं. चूषण]
- चूसना
- किसी चीज (जैसे धन, स्वास्थ्य, यौवन आदि) का सार भाग खींच लेना।
- क्रि. स.
- [सं. चूषण]
- चूसे
- खींच-खींचकर रस पिये।
- सूरदास गोपाल छाँड़ि कै चूसै टेटा खारे - ३०४५।
- क्रि. स.
- [हिं. चूसना]
- चूहड़ा, चूहरा
- चांडाल, भंगी।
- संज्ञा
- चूहरी
- भंगिन।
- संज्ञा
- [हिं. चूहरा]
- चूही
- एक छोटा जंतु।
- संज्ञा
- [अनु. चूँ+हा]
- चूहादंती
- एक गहना।
- संज्ञा
- [हिं. चूहा+दाँत]
- चे
- चिड़ियों की बोली।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चेंचुआ
- चातक या पंछी का बच्चा।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चेचुला
- एक पकवान।
- संज्ञा
- [देश.]
- गैरिक
- गेरू।
- संज्ञा
- [सं.]
- गैरिक
- सोना।
- संज्ञा
- [सं.]
- गैरिक
- गेरू से रँगा हुआ, गेरुआ।
- वि.
- गैरी
- डाँठ या डंठलों का ढेर।
- संज्ञा
- [देश.]
- गैरी
- खाद रखने का गड्ढा।
- संज्ञा
- [सं. गर्त]
- गैल
- मार्ग, राह।
- (क) चंद्रमहिं बिसरी नभ की गैल - १८२३।
(ख) मथुरा ते निकसि परे गैल माँझ आइ उहै मुकुट पीतांबर स्याम रूप काछे - २९४९।
- संज्ञा
- [हिं. गली]
- गैल
-
- गैल जाना :- (१) साथ जाना।
(२) अनुकरण करना। गैल करना :- साथ कर देना। गैल लेना :- साथ लेना।
- मु.
- गैला, गैलारा
- गाड़ी के पहिये की लीक या लकीर।
- संज्ञा
- [हिं. गैल]
- गैला, गैलारा
- गाड़ी का मार्ग।
- संज्ञा
- [हिं. गैल]
- गैवर
- श्रेष्ठ या बड़ा हाथी।
- (क) हेवर गैवर सिंह हंसबर खग मृग कहँ हैं हम लीन्हे - ११३१।
(ख) गैवर भेति चढ़ावत। रस्ता प्रभुता मेटि करत हिनती - १२२८।
- संज्ञा
- [सं. गज+वर]
- चेचं
- चिड़ियों की बोली, चीं चीं।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चेचं
- व्यर्थ की बक-बक या बकवाद।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चेटुआ
- चिड़िया का बच्चा।
- संज्ञा
- [हिं. चिड़िया]
- चें पें
- धीमें स्वर में किया हुआ विरोध।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चें पें
- व्यर्थ की बकवाद।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चेचक
- शीतला रोग।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चेजा
- सूराख, छेद।
- संज्ञा
- [हिं. छेद (?)]
- चेट
- दास।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेट
- पति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेटक
- जादू, इंद्रजाल, मंत्र, टोना।
- तब हँसि के मेरो मुख चितयौ, मीठी बात कही। रही ठेगी, चेटक सौ लाग्यौ, परि गई प्रीति सही - १० - २८१।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेटक
- दास. सेवक।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेटक
- चटक मटक।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेटक
- चाट, चसका, मजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेटक
- तमाशा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेटकनी
- दासी, सेविका।
- संज्ञा
- [हिं. चेटी]
- चेटका
- मुरदा जलाने की चिता।
- संज्ञा
- [सं. चिता]
- चेटका
- श्मशान, मरघट।
- संज्ञा
- [सं. चिता]
- चेटकी
- इंद्रजाली, जादूगर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेटकी
- कौतुक या लीलाएँ करनेवाला, कौतुकी।
- परम गुरु रतिनाथ हाथ सिर दियो प्रेम उपदेस। चतुर चेटकी मथुरानाथ सों कहियौ जाइ अदेस-३१२५।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेटुअनि
- बालक, विद्यार्थी, शिष्य।
- सब चेटुअनि मन ऐसी आई। रहे सबै हरि - पद चित लाई - ७ - २।
- संज्ञा
- [सं. चेटक = दास, हिं. चट्टा चेला]
- चेटिका, चेटिकी, चेटिया, चेटी, चेटुई, चेटुवी
- दासी।
- संज्ञा
- [सं. चेटी]
- चेत
- सावधान या सतर्क हो ले।
- सोवत कही चेत रे रोवन, अब क्यों खात दगी - ६ - ११४।
- क्रि. अ.
- [हिं. चेतना]
- चेत
- चेतना, संज्ञा, होश।
- संज्ञा
- [सं. चेतस्]
- चेत
- ज्ञान, बोध।
- संज्ञा
- [सं. चेतस्]
- चेत
- सावधानी, चौकसी।
- मन सुवा, तन पींजना, तिहिं माँझ राखे चेत१ - ३११।
- संज्ञा
- [सं. चेतस्]
- चेत
- स्मरण, सुध।
- संज्ञा
- [सं. चेतस्]
- चेत
- चित्त।
- संज्ञा
- [सं. चेतस्]
- चेत
- यदि।
- अव्य
- [सं. चेत्]
- चेत
- शायद।
- अव्य
- [सं. चेत्]
- चेतक
- चितानेवाला।
- वि.
- [सं.]
- चेतवनि
- चेतावनी।
- संज्ञा
- [हिं. चेतावनी]
- चेतवनि
- दृष्टि, कटाक्ष।
- संज्ञा
- [हिं. चितवन]
- चेता
- संज्ञा, होश, बुद्धि।
- संज्ञा
- [सं. चित्]
- चेता
- स्मृति, याद।
- संज्ञा
- [सं. चित्]
- चेता
- होश में आया।
- क्रि. अ.
- [हिं. चेतना]
- चेताना
- चेतावनी देना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिताना]
- चेतावनी
- सतर्क, सावधान या होशियार होने की सूचना।
- संज्ञा
- [हिं. चेतना]
- चेति
- सचेत हो, होश में आ, सावधान हो।
- क्यौं तु गोबिंद नाम बिसारी ? अजहूँ चेति, भजन करि हरि कौ, काल फिरत सिर ऊपर भारी - १ - ८०।
- क्रि. अ.
- [सं. चेतना]
- चेतिका
- मुरदे की चिता।
- संज्ञा
- [सं. चिति]
- घेतौनी
- चेतावनी।
- संज्ञा
- [हिं. चेतावनी]
- चेतकी
- हड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेतकी
- चमेली का पौधा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेतकी
- एक रागिनी का नाम।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेतत
- सचेत या सावधान होता है।
- (क) सूरदास प्रभु क्यौं नहिं चेतत, जब लगि काल न आयौ - १ - ३०१।
(ख) चेतत क्यौं नाहिं मूढ़ सुनि सुबात मेरी। अजहूँ नहिं सिंधु बँध्यौ, लंका है तेरी - ९ - ११८।
- क्रि. स.
- [हिं. चेतना]
- चेतन
- चेतनायुक्त, सचेत।
- जिन जड़ तै चेतन कियौ, (रे) रचि गुनि - तत्व - विधान। चरन, चिकुर, कर, नख दए, (रे) नयन, नासिका, कान - १ - ३२५।
- वि.
- [सं. चैतन्य]
- चेतन
- आत्मा, जीव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेतन
- मनुष्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेतन
- प्राणी, जीवधारी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेतन
- परमेश्वर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेतनता
- सज्ञानता।
- सप्तम चेतनता लहै सोइ। अष्टम मास सँपूरन होइ - ३ - १३।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेतनत्व
- चेतनता।
- संज्ञा
- [हिं. चेतना+त्व]
- चेतना
- बुद्धि।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेतना
- मनोवृत्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेतना
- स्मृति, याद।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेतना
- संज्ञा, होश।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेतना
- होश में आना।
- क्रि. अ.
- चेतना
- सावधान होना।
- क्रि. अ.
- चेतना
- सोचना-विचारना।
- क्रि. स.
- [सं. चिंतन]
- चेतनावान
- सचेतन, चेतनायुक्त, सज्ञान।
- वि.
- [हिं. चेतना+वान् (प्रत्य.)]
- चेतनीय
- जो जानने योग्य हो।
- वि.
- [सं.]
- चेला
- वह जिसने शिक्षा ली हो, छात्र।
- संज्ञा
- [सं. चेटक, प्रा. चेड़छ, चेड़ा]
- चेलिकोई
- चेलों का समूह।
- संज्ञा
- [हिं. चेला]
- चेलिन, चेली
- शिष्या, छात्रा।
- संज्ञा
- [हिं. चेला]
- चेष्टक
- चेष्टा करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेष्टा
- उद्योग, यत्न, कोशिश।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेष्टा
- काम।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेष्टा
- परिश्रम।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेष्टा
- इच्छा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेहरई
- चित्र या मूर्ति में चेहरे की रंगत या आकृति।
- संज्ञा
- [फ़ा. चेहरा]
- चेहरा
- मुखड़ा, बदन।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चेय
- जो चयन करने योग्य हो।
- वि.
- [सं.]
- चेर, चेरा
- दास. सेवक।
- संज्ञा
- [सं. चेटक, प्रा. चेड़, चेड़ा; हिं. चेला]
- चेर, चेरा
- चेला, शिष्य।
- संज्ञा
- [सं. चेटक, प्रा. चेड़, चेड़ा; हिं. चेला]
- घेराई
- सेवा, नौकरी।
- ऐसे करि मोकों तुम पायौ मनौ इनकी मैं करों चेराई। सूरस्याम वे दिन बिसराये जब बाँधे तुम ऊखल लाई।
- संज्ञा
- [हिं. चेरा+ई]
- चेरि, चेरी
- दासी।
- सूरदास जसुदा मैं चेरी कहि कहि लेत बलैया - ५१३।
- संज्ञा
- [हिं. चेरा]
- चेरि, चेरी
-
- विन दामन की चेरी :- बे मोल की दासी, बहुत नम्र और आज्ञाकारिणी सेविका।
उ. - बहुरि न सूर पाइहैं हमसी बिन दामन की चेरी - २७१६।
- मु.
- चेरे, चेरो, चेरौ
- दास. सेवक।
- (क) तुम प्रताप - बल बदत न काहूँ, निडर भए घर - चेरे - १ - १७०।
(ख) जच्छ, मृतु, बासुकी, नाग, मुनि, गंधर्ब, सकल बसु, जीति मैं किए चेरे६ - १२९। (ग) इहिं बिधि कहा घटैगौ तेरौ। नँदने करि घरि कौ ठाकुर, पुन ह्व रहु चेरौ - १ - २६६। (घ) जब मोहिं रिस लागति तब त्रासति, बाँधति, मारति जैसै चेरौ - ३६६।
- संज्ञा
- [हिं. चेरा]
- चेल
- वस्त्र, कपड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेलकाई, चेलहाई
- शिष्य वर्ग।
- संज्ञा
- [हिं. चेला]
- चेला
- वह जिसने दीक्षा ली हो, शिष्य।
- संज्ञा
- [सं. चेटक, प्रा. चेड़छ, चेड़ा]
- चेत्य
- जानने योग्य
- वि.
- [सं.]
- चेत्य
- स्तुति-योग्य।
- वि.
- [सं.]
- चेत्यौ
- चेता, सचेत या सावधान हुआ।
- (क) चेत्यौ नाहिं गयौ टरि औसर, : मीन बिना जल जैसे - १ - २६३।
(ख) लोभ - मोह तें चेत्यौ नाहीं, सुपर्ने ज्यौं डहकातौ - १ - ३२९।
- क्रि. स.
- [हिं. चेतना]
- चेदि
- एक प्राचीन देश जिसके अंतर्गत ... वर्तमान बुंदेलखंड का चंदेरी नगर है। शिशुपाल यहाँ का राजा था।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेदिराज
- शिशुपाल जो श्रीकृष्ण द्वारा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में मारा गया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- चेप
- कोई चिप चिपा लस।
- संज्ञा
- [चिपचिप से अनु.]
- चेप
- चिड़ियों के फँसाने का लासा।
- संज्ञा
- [चिपचिप से अनु.]
- चेप
- चाव, उमंग, उत्साह।
- संज्ञा
- चेपदार
- चिपचिपा।
- वि.
- [हिं. चेप - फ़ा. दार]
- चेपना
- चिपकाना, सटाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चेप]
- चेहरा
-
- चेहरा उतरना :- लज्जा, निराशा आदि से चेहरा फीका हो जाना।
चेहरा तमतमाना :- गर्मी या क्रोध से चेहरा लाल होना।
- मु.
- चैंटी
- चींटी।
- सूरदास, अबला हम भोरी गुर पैंटी ज्यौं पागी - ३३३५।
- संज्ञा
- [हिं. चिउँटी]
- चै
- समूह, ढेर।
- संज्ञा
- [सं. चंय]
- चैत
- फागुन के बाद का महीना।
- संज्ञा
- [सं. चैत्र]
- चैतन्य
- चेतन आत्मा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैतन्य
- ज्ञान।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैतन्य
- परमात्मा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैतन्य
- प्रकृति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैतन्य
- चैतन्यदेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैतन्य
- सचेत।
- वि.
- गुदारा
- गूदेदार, मांसल।
- वि.
- [हिं. गुदार]
- गुदी, गुही
- गुद्दी, ल्योंड़ी गरदन के पीछे का भाग।
- गुदी चाँपि लै जीभ मैरोरी - १० - ५७।
- संज्ञा
- [हिं. गुद्दी]
- गुदी, गुही
- मींगी, गिरी।
- संज्ञा
- [हिं. गुद्दी]
- गुदी, गुही
-
- आँखें गुद्दी में होना :- (१) दिखायी न देना।
(२) समझ में न आना। गुद्दी नापना :- गुद्दी पर चाँटा (धौल) देना। गुद्दी से जीभ खींचना :- जबरन खींचना, कड़ा दण्ड देना।
- मु.
- गुदी, गुही
- हथेली का गुदगुदा भाग।
- संज्ञा
- [हिं. गुद्दी]
- गुन
- किसी वस्तु या व्यक्ति की विशेषता या धर्म जो उससे अलग न हो सके।
- बेद धरत न सुन्न गुन के नखत टारन केर - सा. ६०।
- संज्ञा
- [सं. गुण]
- गुन
- सत्व, रज और तम।
- रूप - रेख - गुन - जाति, जुगति बिनु निरालंब कित धावै - १ - २।
- संज्ञा
- [सं. गुण]
- गुन
- कला, विद्या।
- तंत्रन चलै, मन्त्र नहिं लागै, चले गुनी गुन हारे - ३२५४।
- संज्ञा
- [सं. गुण]
- गुन
- प्रभाव, फल।
- संज्ञा
- [सं. गुण]
- गुन
- शील, सद्वृत्ति, सदाचरण, पुण्य कार्य।
- (क) तिनुका सौं अपने जन कौ गुन मानत मेरु समान। सकुचि गनत अपराध समुद्रहिं बूँद - तुल्य भगवान - १ - ८।
(ख) ऐसैं कहौ कहाँलगि गुनगन लिखत अन्त नहिं लहिए - १ - ११२।
- संज्ञा
- [सं. गुण]
- गोंठ
- धोती की लपेट जो कमर पर रहती है, मुर्री।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठ]
- गोंठना
- नोक या धार कुंद कर देना।
- क्रि. स.
- [सं. कुंठन]
- गोंठना
- गुझिया, समोसे आदि गूँ धना।
- क्रि. स.
- [सं. कुंठन]
- गोंठना
- चारों ओर लकीर से घेरना।
- क्रि. स.
- [सं. गोष्ठ, प्रा. गोठ्ट+ना (प्रत्य.)]
- गोंठनी
- गोंठने का औजार।
- संज्ञा
- [हिं. गोंठना]
- गोंड
- मध्य प्रदेशीय एक जाति।
- संज्ञा
- [सं. गोंड]
- गोंड
- बंग और भुवनेश्वर के बीच का प्रदेश।
- संज्ञा
- [सं. गोंड]
- गोंड
- एक राग।
- संज्ञा
- [सं. गोंड]
- गोंड
- गैयों का बाड़ा।
- संज्ञा
- [सं गोष्ठ]
- गोंड
- जिसकी नाभि निकली हो।
- वि.
- [सं. कुंड]
- चैत्य,
- बौद्ध मठ या बिहार।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैत्य,
- चिता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैत्य,
- पीपल का पेड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैत्य,
- चिता संबंधी, चिता का।
- वि.
- चैत्र
- चैत का महीना।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैत्र
- बौद्ध भिक्षुक।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैत्र
- यज्ञभूमि।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैत्र
- देवमंदिर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैत्र
- चित्रा नक्षत्र संबंधी, चित्रा नक्षत्र का।
- वि.
- चैत्रसखा
- कामदेव, मदन।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैतन्य
- होशियार।
- वि.
- चैती
- रबी की फसल जो चैत में कटे।
- संज्ञा
- [हिं. चैत+ई (प्रत्य.)]
- चैती
- एक गाना।
- संज्ञा
- [हिं. चैत+ई (प्रत्य.)]
- चैती
- चैत संबंधी, चैत का।
- वि.
- चैत्त
- चित्त संबंधी, चित्त की।
- वि.
- [सं.]
- चैत्य,
- मकान, घर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैत्य,
- देव मंदिर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैत्य,
- यज्ञशाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैत्य,
- गौतम बुद्ध या उनकी मूर्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैत्य,
- बौद्ध भिक्षुक या संन्यासी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चोंच
- मुँह (व्यंग्य)।
- संज्ञा
- [सं. चंचु]
- चोंच
-
- दो दो चोंचे होना :- कहा-सुनी होना।
- मु.
- चॉटना
- नोचना।
- क्रि. स.
- [हिं. चिकोटी या अनु.]
- चोंडा, चोड़ा
- , स्त्रियों का झोंटा।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा]
- चोंडा, चोड़ा
- सिर, माथा।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा]
- चॉथना
- नोचना, खसोटना।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- चोंधर
- छोटी आँखवाला।
- वि.
- [हिं. चौंधियाना]
- चोंधर
- जिसे कम दिखायी दे।
- वि.
- [हिं. चौंधियाना]
- चोंधर
- मूर्ख।
- वि.
- [हिं. चौंधियाना]
- चो
- एक सुगंधित द्रव।
- संज्ञा
- [हिं. चुझाना]
- चैत्री
- चैत की पूर्णिमा।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैन
- सुख, आनंद।
- संज्ञा
- [सं. शयन]
- चैन
-
- चैन से कटना :- सुख से समय बीतना।
- मु.
- चैपला
- एक पक्षी।
- संज्ञा
- [देश, ]
- चैयाँ
- बाँह।
- चैयाँ चैयाँ गहौ चैयाँ बैयाँ बैयाँ ऐसे बोल्यौ।
- संज्ञा
- चैल
- कपड़ा, वस्त्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- चैहौं
- चाहूँगा।
- क्रि. स.
- [हिं. चाहना]
- चोंक
- चुंबन का चिह्न।
- संज्ञा
- [देश, ]
- चोंघना
- दाना चुगना।
- क्रि. स.
- [हिं. चुगना.]
- चोंच
- पक्षियों की चंचु या टोंट।
- मनु सुक सुरंग बिलोकि बिंब - फल चाखन कारन चोंच चलाई - १६१६।
- संज्ञा
- [सं. चंचु]
- चोकर
- आटे का अंश जो छानने के बाद चलनी में बचता है।
- संज्ञा
- [हिं. चून+कराई = छिलका]
- चोका
- चूसने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं. चूषण]
- चोका
-
- चोका लगाना :- मुँह लगाकर चूसना।
- मुु.
- चोख
- तेजी, फुरती।
- संज्ञा
- [हिं. चोखा]
- चोखना
- चूसकर पीना।
- क्रि. स.
- [हिं. चूसना]
- चोखनि
- चोखने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. चोखना]
- चोखा
- शुद्ध, बेमेल।
- वि.
- [सं. चोक्ष]
- चोखा
- सच्चा, ईमानदार।
- वि.
- [सं. चोक्ष]
- चोखा
- तेज धार का।
- वि.
- [सं. चोक्ष]
- चोखा
- चतुर।
- वि.
- [सं. चोक्ष]
- चोट
- दुख, शोक।
- संज्ञा
- [सं. चुट = काटना]
- चोट
- ताना, व्यंग्य, कटाक्ष।
- संज्ञा
- [सं. चुट = काटना]
- चोट
- दाँव-पेंच।
- संज्ञा
- [सं. चुट = काटना]
- चोट
- धोखा, दगा।
- संज्ञा
- [सं. चुट = काटना]
- चोट
- बार, दफा।
- संज्ञा
- [सं. चुट = काटना]
- चोटइल
- जिसे चोट लगी हो।
- वि.
- [हिं. चुटैल]
- चोदत - पोटत
- फुसल कर, मनाकर।
- तेल उबटन लै मैं धरि, लालहिं चोटत - पोटत री - १० - १८६।
- क्रि. स.
- [हिं. चोटना पोटना]
- चोटना - पोटना
- फुसलाना, मनाना।
- क्रि. स.
- चोटाना
- घायल होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चोट]
- चोटार
- चोट करने वाला।
- वि.
- [हिं. चोट+मार (प्रत्य.)]
- चोखाई
- चोखापन।
- संज्ञा
- [हिं. चोखा+ई]
- चोखाई
- चुसाई।
- संज्ञा
- [हिं. चोखना = चूसना]
- चोचला
- हावभाव।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चोचला
- नग।
- संज्ञा
- [अनु.]
- चोज
- विनोदपूर्ण उक्ति, सुभाषित।
- संज्ञा
- चोज
- हास्य-व्यंग्यपूर्ण उपहास।
- संज्ञा
- चोट
- आघात, प्रहार, टक्कर, मार।
- संज्ञा
- [सं. चुट = काटना]
- चोट
- घाव, जख्म।
- दौरत कहा, चोट लगिहै कहुँ पुनि खेलिहौं सकारे - १० - २२६।
- संज्ञा
- [सं. चुट = काटना]
- चोट
- हथियार का वार या प्रहार।
- प्रेम-बान की चोट कठिन है लागी होइ कहो कत ऐसी ३३२९।
- संज्ञा
- [सं. चुट = काटना]
- चोट
- पशु का आक्रमण।
- गैयनि फै कहुँ चोट लगावहु - ४०१।
- संज्ञा
- [सं. चुट = काटना]
- चोटार
- चोट खाया हुआ।
- वि.
- [हिं. चोट+मार (प्रत्य.)]
- चोटारना
- चोट करना।
- क्रि. अ.
- [हिं: चोट]
- चोटिया
- बालों की लट।
- संज्ञा
- [हिं. चोटी]
- चोटियाना
- चोट लगाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चोंट]
- चोटियाना
- चोटी पकड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. चोटी]
- चोटियाना
- बल का प्रयोग करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चोटी]
- चोटी
- सिर की शिखा।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा]
- चोटी
-
- चोटी हाथ में होना :- काबू में होना।
- मु.
- चोटी
- स्त्रियों या बालकों के गुंधे हुए सिर के बाल।
- करि मनुहार कलेऊ दीन्हौ मुख चुपथौ अरु चोटी - १० - १६३।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा]
- चोटी
-
- करौ चोटी :- बाल गूंध दें, चोटी कर दें।
उ. - महरि केंवरि सौं यहि कहि भाषति, उ करौं तेरी चोटी - १० - ७०३।
- मु.
- चोटी
- ऊन, सूत या रेशम का डोरा जो बाल गूंधने के काम आता है।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा]
- चोटी
- जूड़े का एक गहना।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा]
- चोटी
- पक्षियों की कलँगी।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा]
- चोटी
- सबसे ऊपरी भाग।
- संज्ञा
- [सं. चूड़ा]
- चोटी
-
- चोटी का :- सबसे अच्छा या बढ़िया।
- मु.
- चोटी - पोटी
- चिकनी-चुपड़ी या खुशामद से भरी (बात)।
- वि.
- [देश, ]
- चोटी-पोटी
- झूठी, बनावटी इधरउधर की (बात)।
- तुम जानति राधा है छोटी। चतुराई अँग अंग भरी है पूरन ज्ञान न बुधि की मोटी। हम सों सदा दुरावति सो यह बात कहत मुख चोटी-पोटी - १४७६
- वि.
- [देश, ]
- चोट्टा
- चोर।
- संज्ञा
- [हिं. चोर+टा (प्रत्य.)]
- चोढ़
- उत्साह, उमंग।
- संज्ञा
- चोप
- चाह, इच्छा।
- संज्ञा
- [हिं. चाव]
- चोप
- शौक, रुचि।
- संज्ञा
- [हिं. चाव]
- चोप
- उमंग, उत्साह।
- संज्ञा
- [हिं. चाव]
- चोप
- उत्तेजना, बढ़ावा।
- संज्ञा
- [हिं. चाव]
- चौपना
- मुग्ध होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चोप]
- चोपी
- इच्छुक।
- वि.
- [हिं. चोप]
- चोपी
- उत्साही।
- वि.
- [हिं. चोप]
- चोब
- शामियाने का खंभा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चोब
- नगाड़ा बजाने की लकड़ी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चोब
- छड़ी, सोंटा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चोब
- शामियाने का खंभा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गैहै
- रोकेगा, पकड़ेगा, थामेगा।
- जब गजेंद्र को पग तू गैहै। हरि जू ताको अनि छुटेहै - ८ - २।
- क्रि. स.
- [हिं. गहना]
- गैहै
- (गीत आदि) गायगा।
- क्रि. स.
- [हिं. गाना]
- गैहौं
- गाऊँगा, आलापूँगा।
- सूरदास ह्वै कुटिल बराती गीत सुमंगल गैहैं। - १० - १९३।
- क्रि. स.
- [हिं. गाना]
- गैहौं
- गहूँगा, पकड़ूँगा।
- सूर दिना द्वौ ब्रज जन सुखदै आइ चरन पुनि गैहौं - १९२३।
- क्रि. स.
- [हिं. गहना]
- गैहौं
- (टेक, हठ आदि) रखूँगा।
- आज्ञा पाय देव रघुवर की छिनक माँझ द्दठ गैहौं - सारा. २२४।
- क्रि. स.
- [हिं. गहना]
- गैहौ
- गाओगे, वर्णन करोगे, बखानोगे।
- भक्ति बिनु बैल बिराने ह्वैहौ। पाउँ चारि, सिर सृंग, गुंग मुख, तब कैसैं गुन गैहौ - १ - ३३१।
- क्रि. स.
- [हिं. गाना]
- गोंइँठा
- कंडा, उपला।
- संज्ञा
- [सं. गो + विष्ठा]
- गोइँड़, गोइँड़ा
- गाँव-के आसपास की भूमि।
- संज्ञा
- [हि. गाँव + मेड़]
- गोइँयाँ
- साथ में रहनेवाला मित्र, साथी।
- रुहठि करै तासौं को खेलै रहे बैठि सब गोइँयाँ (ग्वैयाँ) - १० - २४५।
- संज्ञा
- [हिं. गोइयाँ]
- गोंई
- बैलों की जोड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. गोहन]
- चोब
- नगाड़ा बजाने की लकड़ी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चोब
- सोने-चाँदी से मढ़ा डंडा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चोब
- छड़ी, सोंटा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चोबदार
- नौकर जो सोने-चाँदी से मढ़ा हुआ डंडा लेकर चलता है।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चोर
- चोरी करनेवाला।
- काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ये भए चोर औं साहू - १ - ४०।
- संज्ञा
- [सं.]
- चोर
-
- चोर पर (के घर) मार पड़ना :- धूर्त के साथ धूर्तता होना।
मन में चोर बैठना :- मन में संदेह या खटका होना। चोर सबनि चोरी करि जानी :- बुरा सबको बुरा ही समझता है। उ. - चोर सबनि चोरी करि जानै ज्ञानी मन सबै ज्ञानी–१२८७। बीस बिरियाँ चोर की तै कबहुँ मिलिहै साहु :- बुरा अपनी धूर्तता से दस-बीस बार भले ही सफलता पा ले, कभी तो चूककर साह के फंदे में पड़ेगा ही। उ.-कबहुँ तौ हम देखि एक संग राधा कान्ह। भेद हमसों कियौ राधा नठुर भई निदान्ह। बीस बिरियाँ चोर की तौ कबहुँ मिलिहै साहु। सूर सब दिन चोर कौ कहुँ होत है निरबाहु-१२८०।
- मु.
- चोर
- वह लड़का जिससे दूसरे खेल में दाँव लेते हैं।
- संज्ञा
- [सं.]
- चोर
- जिसके सच्चे रूप का पता न लगे।
- वि.
- चोरक
- एक गंध-द्रव।
- संज्ञा
- [सं.]
- चोरटा
- चोर।
- संज्ञा
- [हिं. चोट्टा]
- चोरायो
- चुराया, छिपा लिया।
- चक्र काहु चोरायो, कैधौं भुजनि बल भयो थोर।
- क्रि. स
- [हिं. चुराना]
- चोरावत
- चुराते हैं।
- क्रि. स
- [हिं. चुराना]
- चोरावत
-
- चितहिं चोरावत :- मन हरते या मोहते हैं।
उ. - सूर स्याम नागर नारिनि के चंचल चितहिं। चौरावत - १३४३।
- मु.
- चोरि
- चुराकर, चोरी करके।
- नंद - सुत, सँग सखा लीन्हे, चोरि माखन खात - १० - २७३।
- क्रि. स
- [हिं. चुराना]
- चोरिका, चोरी
- चुराने की क्रिया।
- चल सखि देखन जाहिं पिया अपने की चोरी - २४०८।
- संज्ञा
- [हिं. चोर]
- चोरीचोरा, चोरीचोरी
- चोरी से, लुक छिप कर, दूसरे की आँख बचाकर।
- क्रि. वि.
- [हिं. चोरी]
- चोरै
- चुराती है।
- (क) अंजन रंजित नैन, चितवनि चित चोरै१० - १५१।
(ख) मेरौ माई कौन कौ दधि चोरै १० - ३२१।
- क्रि. स.
- [हिं. चुराना, चोराना]
- चोरयौ
- चुराया।
- दूध दही काहे को चोरयौ काहे कौ बन गाइ चराए - ३४३४।
- क्रि. स.
- [हिं. चुराना]
- चोल, चोलक
- एक प्राचीन देश।
- संज्ञा
- [सं.]
- चोल, चोलक
- स्त्रियों की चोली का एक प्रकार।
- संज्ञा
- [सं.]
- चोरटी
- चोरी करनेवाली।
- कैहै कहा चोरटी हमसौं बातें बात उधरिहै१२६४।
- संज्ञा
- [हिं. चोरटा]
- चोरटी
- चोरटी भई-छिपाकर, चोरोसे। सदा जाहु चोरटी भई, आजु परी सँग मोर-।
- प्र
- चोरत
- चुराता है, चोरी करता हुआ।
- (क) घर - घर डोलत माखन चोरत, षटरस मेरे धाम - ३७६।
(ख) कछु दिन करि दधिमाखन - चोरी, अब चोरत मन मोर - ७७६।
- क्रि. स.
- [हिं. चुराना]
- चोरत
-
- मन चोरत :- मोहित करता है।
उ. - पूरदास प्रभु बचन बनावत अब चोरत मनमोर - १९६५।
- मु.
- चोरथन
- जो (पशु) थनों में दूध चुरा ले, पूरा न दुहने दे।
- वि.
- [हिं. चोर+थन]
- चोरना
- चुराना है।
- क्रि. स.
- [हिं. चुराना]
- चोराइ, चोराई
- चुराकर, चोरी करके।
- (क) माखन चोराइ बैठ्यौ, तौलौं : गोपी आई - १० - २८४।
(ख) प्रभु तबहीं जान्यौ यह बिधि लै गयौ चोराइ - ४३७। (ग) सोऊ तौ घर ही घर डोलतु माखन खात चोराई - १० - ३२५।
- क्रि. स.
- [हिं. चुराना]
- चोराए
- चोरी किये।
- क्रि. स
- [हिं. चुराना]
- चोराए
-
- चित्त चोराए :- मन हर लिये।
उ. - सूर ; नगर नर नारि के मन चित्त चोराए - २५१६।
- मु.
- चोराना
- चोरी करना।
- क्रि. स
- [हिं. चुराना]
- चोल, चोलक
- ढीला ढाला कुरता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चोल, चोलक
- छाल, वल्कल।
- संज्ञा
- [सं.]
- चोल, चोलक
- कवच।
- संज्ञा
- [सं.]
- चोलकी, चोलन
- बाँस का कल्ला।
- संज्ञा
- [सं. चोलकिन्]
- चोलकी, चोलन
- हाथ की कलाई।
- संज्ञा
- [सं. चोलकिन्]
- चोलना
- ढीला-ढाला कुरता।
- अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल। काम - क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ बिषय की माले - १ - १५३।
- संज्ञा
- [सं. चोल, हिं. चोला]
- चोला
- ढीला-ढाला कुरता।
- संज्ञा
- [सं. चोल]
- चोला
- बच्चे को पहली बार कपड़े पहनाने की रस्म।
- संज्ञा
- [सं. चोल]
- चोला
- शरीर, बदन।
- संज्ञा
- [सं. चोल]
- चोला
-
- चोली छोड़ना :- प्राण त्यागना।
- मु.
- चोली
- स्त्रियों को एक पहनावा जो अंगिया से मिलता-जुलता होता है और जिसकी गाँठ पेट के ऊपर बँधती है।
- संज्ञा
- [सं.]
- चोली
- ढीला-ढाला कुरता।
- संज्ञा
- [सं.]
- चोली
- अँगरखे आदि को ऊपरी अंश जिसमें बंद रहते हैं।
- संज्ञा
- [सं.]
- चोल्ला
- ढीला कुरता।
- संज्ञा
- [हिं. चोला]
- चोवा
- एक प्रकार का सुगंधित द्रव पदार्थ।
- चोवा - चंदन - अबिर, गलिनि छिर| कावन रे - १० - २८।
- संज्ञा
- [हिं. चौ]
- चोषण
- चूसना, चूसने की क्रिया। |
- संज्ञा
- [सं.]
- चोषना
- दूध पीना।
- क्रि. स.
- [हिं. चोखना]
- चोष्य
- जो चूसने योग्य हो।
- वि.
- [सं.]
- चौंक
- भय, आश्चर्य या पीड़ा-जन्य भड़क या झिझक।
- संज्ञा
- [सं. चमत्कृत, प्रा. चर्मक्कि, चाँकि]
- चौंकना
- भड़कमा, झिझकना।
- क्रि. अ.
- [हिं.चौंक+ना (प्रत्य.)]
- चौंकना
- चौकन्ना या सतर्क होना।
- क्रि. अ.
- [हिं.चौंक+ना (प्रत्य.)]
- चौंकना
- चकित या हैरान होना।
- क्रि. अ.
- [हिं.चौंक+ना (प्रत्य.)]
- चौंकना
- भय या आशंका से हिचकना।
- क्रि. अ.
- [हिं.चौंक+ना (प्रत्य.)]
- चौंकाना
- भड़काना, झिझकाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चोंकनी का प्रे]
- चौंकाना
- चौकन्ना या सतर्क करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चोंकनी का प्रे]
- चौंकाना
- चकित या हैरान करना, आश्चर्य में डालना।
- क्रि. स.
- [हिं. चोंकनी का प्रे]
- चौंकि
- (भय के सहसा उप स्थित होने से) चंचल होकर, काँप या झिझककर।
- चौंकि परी तन की सुधि आई। आजु कही ब्रज सोर मचायौ, तब जान्यौ दह गिरयौ कन्हाई - ५४८।
- क्रि. अ.
- [हिं. चौंकना]
- चौंटना
- चुटकी से तोड़ना।
- क्रि. स
- [हिं. चुटकी]
- चौंतरा
- चबूतरा।
- संज्ञा
- [हिं. चबूतरा]
- चौंतिस, चौंतीस
- जो गिनती में तीस और चार हो।
- वि.
- [सं. चतुस्त्रिंशत्, प्रा. चतुतिंसो, या चउतीसो]
- चौंतिस, चौंतीस
- तीस और चार की संख्या।
- संज्ञा
- चौंध
- अधिक प्रकाश से दृष्टि की तिलमिलाहट।
- संज्ञा
- [हिं. चौं= चारो ओर+अंध]
- चौंधना
- चकाचौंध उत्पन्न करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चौंध]
- चौंधियाना
- अधिक प्रकाश से चकाचौंध होना।
सुझाई न पड़ना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चौंध]
- चौंधी
- तिलमिलाहट।,
- संज्ञा
- [हिं. चौंध]
- चौंप
- चाव, चोप।
- संज्ञा
- [हिं. चोप]
- चौंर
- सुरागाय की पूंछ के बालों का चँवर।
- संज्ञा
- [सं. चामर]
- चौंर
- झालर, फुँदना।
- संज्ञा
- [सं. चामर]
- चौंरगाय
- सुरागाय।
- संज्ञा
- [हिं. चौर+गाय]
- चौंरा
- अनाज रखने या संग्रह करने का गड्ढा, गाड़।
- संज्ञा
- [सं. चुंड]
- चौआ
- चौपायां।
- संज्ञा
- चौआई
- चारों तरफ से बहनेवाली हवा।
- संज्ञा
- [हिं. चौबाई]
- चौआई
- अफवाह।
- संज्ञा
- [हिं. चौबाई]
- चौना
- चकित होना, चकपकाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चौंकना]
- चौना
- चौकन्ना होना, घबराना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चौंकना]
- चौक
- चौकोर या चौखूटी जमीनः।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक्क]
- चौक
- झाँगन, सहन।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक्क]
- चौक
- बड़ी वेदी।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक्क]
- चौक
- मंगल अवसरों पर देव-पूजन के लिए आटे-अबीर आदि से खींचा गया चौखुटा क्षेत्र जिसमें कई खाने होते हैं।
- कदली खंभ, चौक मोतिन के बाँधे बंदनवार - सारा. २३९।
(ख) मंगलचार भए घर घर में मोतिन चौक पुराए - सारा. ५३४। (ग) दधि अक्षत फल फूले परम रुचि अंगन चंदन चौक पुरावहु - १० उ. - २३।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक्क]
- चौक
- शहर का बड़ा बाजार।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक्क]
- चौंराना
- चँवर करना या डुलाना।
- क्रि. स.
- [सं. चामर]
- चौंराना
- झाड़ देना, बुहारना।
- क्रि. स.
- [सं. चामर]
- चौंरी
- घोड़े की पूँछ के बालों का चँवर।
- संज्ञा
- [हिं. चौंर+ई (प्रत्य.)]
- चौंरी
- चोटी या वेणी बाँधने की डोरी।
- चौंरी डोरी बिगलित केस झूमत लटकत - मुकुट सुदेस।
- संज्ञा
- [हिं. चौंर+ई (प्रत्य.)]
- चौंरी
- सफेद पूँछवाली गाय।
- संज्ञा
- [हिं. चौंर+ई (प्रत्य.)]
- चौंसठ
- जो गिनती में साठ और चार हो।
- वि.
- [सं. चतुष:ष्ठि, प्रा. चउसहि]
- चौंसठ
- साठ और चार की संख्या।
- संज्ञा
- चौं
- चार (संख्या)।
- वि.
- [सं. चतुः, प्रा.चउ],
- चौआ
- चार अँगुलियों का समूह।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+आर]
- चौआ
- चार अंगुल की नाप।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+आर]
- चौक
- चौराहा।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक्क]
- चौक
- चौसर खेलने का कपड़ा, बिसात।
- राखि संत्रह पुनि अठारह चोर पाँचो मारि। डारि दे तू तीन काने चतुर चौक निहारि।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक्क]
- चौक
- सामने के चार दाँत।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक्क]
- चौक
- चार का समूह।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक्क]
- चौकड़ा
- कान की बाली।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+कड़ा]
- चौकड़ी, चौकरी
- हरिण की छलाँग।
- संज्ञा
- [हिं. चौ =चार + सं. कला = अंग]
- चौकड़ी, चौकरी
-
- चौकड़ी भूल जाना :- भौचक्का होना।
- मु.
- चौकड़ी, चौकरी
- चार की मंडली।
- संज्ञा
- [हिं. चौ =चार + सं. कला = अंग]
- चौकड़ी, चौकरी
- एक गहना।
- संज्ञा
- [हिं. चौ =चार + सं. कला = अंग]
- चौकड़ी, चौकरी
- चार युगों का समूह।
- संज्ञा
- [हिं. चौ =चार + सं. कला = अंग]
- गोंडरा
- मोट के मुँह पर बँधी लोहे या लकड़ी की गोल छड़।
- संज्ञा
- [सं. कुंडल]
- गोंडरा
- गोल वस्तु, मँड़रा।
- संज्ञा
- [सं. कुंडल]
- गोंडरा
- लकीर का घेरा।
- संज्ञा
- [सं. कुंडल]
- गोंडरी
- गोल वस्तु, मँड़रा।
- संज्ञा
- [सं. कुंडली]
- गोंडरी
- इँड़ुरी।
- संज्ञा
- [सं. कुंडली]
- गोंडल, गोंडला
- लकीर का घेरा।
- संज्ञा
- [सं. कुंडल]
- गोंड़ा, गोंड़े
- पशुओं का बाड़ा।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठ]
- गोंड़ा, गोंड़े
- मोहल्ला, पुर।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठ]
- गोंड़ा, गोंड़े
- चौड़ी सड़क।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठ]
- गोंड़ा, गोंड़े
- आँगन, सहन।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठ]
- चौका
- पत्थर का चौकोर टुकड़ा।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक]
- चौका
- चकला।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक]
- चौका
- सामने के चार दाँतों की पंक्ति।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक]
- चौका
- सीसफूल।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक]
- चौका
- बराबर लंबाईचौड़ाई की ईंट।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक]
- चौका
- लिपा-पुता स्वच्छ स्थान।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक]
- चौका
-
- चौको लगाना :- (१) लीप-पोत कर बराबर करना।
(२) सत्यानाश करना, चौपट करना।
- मु.
- चौका
- चार वस्तुओं का समूह।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक]
- चौकी
- छोटा तखत।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्की]
- चौकी
- कुरसी।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्की]
- चौकड़ी, चौकरी
- पलथी।
- संज्ञा
- [हिं. चौ =चार + सं. कला = अंग]
- चौकड़ी, चौकरी
- चार घोड़ों की गाड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+घोड़ी]
- चौकन्ना
- साव धान, चौकस।
- वि.
- [हिं. चौ= चारो ओर+कान]
- चौकन्ना
- चौंका हुआ।
- वि.
- [हिं. चौ= चारो ओर+कान]
- चौकरी
- हरिण की छलाँग।
- संज्ञा
- [हिं.चौकड़ी]
- चौकरी
- चार की मंडली।
- संज्ञा
- [हिं.चौकड़ी]
- चौकरी
- चार युगों का समूह।
- संज्ञा
- [हिं.चौकड़ी]
- चौकस
- सावधान, सचेत, चौकन्ना।
- वि.
- [हिं. चौ= चार+कस]
- चौकस
- ठीक, दुरुस्त।
- वि.
- [हिं. चौ= चार+कस]
- चौकसाई, चौकसी
- साव धानी, होशियारी, खबरदारी।
- संज्ञा
- [हिं. चौकस]
- चौकी
- मंदिर के निचले खंभों के ऊपर का घेरा।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्की]
- चौकी
- पड़ाव, टिकान, अड्डा।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्की]
- चौकी
- वह स्थान जहाँ पुलिस रहती हो।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्की]
- चौकी
- रखवाली, खबरदारी।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्की]
- चौकी
- देवी-देवता की भेंट।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्की]
- चौकी
- जादू, टोना।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्की]
- चौकी
- गले का एक गहना।
- और हार चौकी हमेल अब तेरे कंठ न नैहौं - १५५०।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्की]
- चौकोन, चौकोना
- जिसके चार कोने हों, चौखूटा।
- वि.
- [सं. चतुष्कोण, प्रा. चउकोण, चउकोड़]
- चौकोर
- जिसके चारो कोने बरा बर हों, चार कोने का।
- वि.
- [सं. चतुष्कोण]
- चौकैं
- मंगलकार्यों में देव पूजन के उद्देश्य से छोटे-छोटे खानेदार चौकोर क्षेत्र को जो आटे या अबीर से बनते हैं।
- चंदन आँगन लिपाइ, मुतियनि चौके पुराइ, उमॅगि अंगनि आँनद सौं, तूर बजायौ - १० - ६५।
- संज्ञा
- [हिं. चौक]
- चौखंडा
- चौमंजिला।
- वि.
- [हिं. चार+खंड]
- चौखट
- दरवाजे की चार लकड़ियों को ढाँचा।
- संज्ञा
- [हिं. चार+काठ]
- चौखट
- देहली, दहलीज।
- संज्ञा
- [हिं. चार+काठ]
- चौखटा
- चार लकड़ियों का ढाँचा।
- संज्ञा
- [हिं.चौखट]
- चौखना
- चार खंड़ का।
- वि.
- [हिं. चौखंडा]
- चौखानि
- अंडज, पिंडज, स्वेदज, उभिज आदि चार प्रकार के जीव।
- जाके उदर लोकत्रय, जल थल, पंच तत्व चौखानि। सो बालक हूँ झूलत पलनी, जसुमत भवनहिं अनि - ४८७।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार+खानि=जाति, प्रकार]
- चौखुट
- चारों दिशा।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+खूट]
- चौखुट
- भूमंडल।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+खूट]
- चौखुट
- चारो ओर।
- क्रि. वि.
- चौखूटा
- चौकोना।
- वि.
- [हिं. चौखुटै]
- चौगड़ा
- खरगोश।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+गोड़]
- चौगान
- एक खेल जिसमें (हाकी या पोलो की तरह) लकड़ी के बल्ले से गेंद मारते हैं। यह खेल घोड़े पर चढ़कर भी खेला जाता है।
- श्रीमोहन खेलत चौगान। द्वारावती कोट कंचन मैं रच्यौ रुचिर मैदान। यादव बीर बराइ बटाई इक हलधर इक आपै शोर। निकले सबै कुँवर असवारी उच्चैश्रवा के पोर। लीले सुरंग, कुमैत स्याम तेहि पर है सब मन रंग।
(ख) मनमोहन खेलते चौगान - १० उ.६।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चौगान
- चौगान नामक खेल खेलने की लकड़ी जो आगे की ओर टेढ़ी या झुकी हुई होती है।
- (क) बार - बार हरि मातहिं बुझत, कहि चौगान कहाँ है। दधि - मथनी के पाछै देखौ, लै मैं धरयौ तहाँ है - १० - २४३।
(ख) ले चौगान बटा करि आगे प्रभु श्राए जब बाहर। सूर स्याम पूछत सबै ग्वालन खेलेंगे केहि ठाहर।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चौगान
- चौगान खेलने का मैदान।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चौगान
- नगाड़ा बजाने की लकड़ी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- चौगिर्द
- चारो ओर।
- क्रि. वि.
- [हिं. चौ+फ़ा. गिर्द]
- चौगुन, चौगुना, चौगुने, चौगुनौ, चौगून
- चतुर्गुण, चार बार उतना ही।
- गोपालहिं माखन खान है। याकौ जाइ चौगुनौ लैहौं, मोहिं जसुमति लौं जान ६ - १० - २७४।
- वि.
- [सं. चतुर्गण, प्रा. चागुण, हिं. चौगुना]
- चौगुन, चौगुना, चौगुने, चौगुनौ, चौगून
- बहुत अधिक।
- (क) यह मारग चौगुनौ चलाऊँ, तौ पूरौ ब्यौपारी - १ - १४६।
- वि.
- [सं. चतुर्गण, प्रा. चागुण, हिं. चौगुना]
- चौगुन, चौगुना, चौगुने, चौगुनौ, चौगून
-
- मन चौगुना होना :- उत्साह बढ़ना।
- मु.
- चौघड़
- चबानेवाले चिपटे या चौड़े दाँत, चौभर।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार+दाढ़]
- चौघड़ी, चौघ
- चारखानेदार डिब्बा या बरतन।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार+घर]
- चौघड़ी, चौघ
- चार घरों की समूह।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार+घर]
- चौघड़ी, चौघ
- दीवट जिसके दीपक में चार बत्तियाँ जलती हैं।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार+घर]
- चौघड़ी, चौघ
- एक बाजा।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार+घर]
- चौघर
- घोड़े की सरपट चाल।
- वि.
- [देश.]
- चौघोड़ी
- चार घोड़ों की गाड़ी या रथ।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार+घोड़ा]
- चौचंद
- बदनामी, निंदा, कलंक।
- संज्ञा
- [हिं. चौथ या चबाव+चंद]
- चौचंदहाई
- निदा या बदनामी फैलानेवाली।
- वि.
- [हिं. चौचंद+हाई (प्रत्य.)]
- चौड़ा
- लंबा का उलटा।
- वि.
- [सं. चिविट=चिपटा]
- चौड़ाई
- लंब. के दोनों किनारों के बीच का फैलाव।
- संज्ञा
- [हिं. चौड़ा+ई (प्रत्य.)]
- चौड़ान
- चौडाई।
- संज्ञा
- [हिं. चौड़ा]
- चौड़ाना
- चौड़ा करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चौड़ा]
- चौडोल
- एक बाजा।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+डोल (?)]
- चौतनियाँ
- चार बंदवाली बच्चों की टोपी।
- (क) भाल - तिलक मसि बिंदु बिराजत, सोभित सीस लाल चौतनियाँ - १० - १०६।
(ख) करत सिंगार चार भैया मिलि सोभा बरनि न जाई। चित्र बिंचित्र सुभग चौतनियाँ इंद्र - धनुष छवि छाई - सारा, १७२।
- संज्ञा
- [हिं. चौ (=चार)+तनी (=बंद) =चौतानी]
- चौतनियाँ
- अँगिया, चोली, चौबंदी।
- संज्ञा
- [हिं. चौ (=चार)+तनी (=बंद) =चौतानी]
- चौतनियाँ
- चार बंदवाली।
- स्याम बरन पर पीत अँगुलिया, सीस कुलहिया चौतनियाँ - १० - १३२।
- वि.
- चौतनी
- चार बंदवाली बच्चों की टोपी।
- (क) तन कैंगुली, सिर लाल चौतनी, चूरा दुहुँ कर - पाइ - १० - ८६।
(ख) सिर चौतनी, डिठौना दीन्हौ, आँखि आँजि पहिराइ निचोल - १० - ९४।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार+तनी=बंद]
- चौतरा
- चार तार का बाजा।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+तार]
- चौतरा
- जिसमें चार तार लगे हों।
- वि.
- चौताले
- मृदंग का एक ताल।
- संज्ञा
- [हि, चौ+ताल]
- चौताले
- होली का एक गीत।
- संज्ञा
- [हि, चौ+ताल]
- चौथ
- हर पक्ष की चौथी तिथि, चतुर्थी।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्थी, प्रा. चउत्थि, हिं. चउँथि]
- चौथ
- चतुर्थांश। चौथाई भाग।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्थी, प्रा. चउत्थि, हिं. चउँथि]
- चौथ
- एक कर जिसमें आय का चौथाई भाग ले लिया जाय।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्थी, प्रा. चउत्थि, हिं. चउँथि]
- चौथ
- चौथा।
- (क) चंपक लता चौथ दिन जान्यौ मृगमद सीर लगायौ।
(ख) तीजै मास हस्त पग होंहिं। चौथ मास कर - आँगुरि सोहि - ३ - १३।
- वि.
- चौथपन, चौथापन
- बुढ़ापा।
- संज्ञा
- [हिं. चौथा+पन]
- चौथा
- तीसरे के बाद का।
- वि.
- [सं. चतुर्थ, प्रा. चउत्थ]
- चौथा
- मृत्यु के चौथे दिन की एक रीति।
- संज्ञा
- चौथाई
- चौथा भाग।
- संज्ञा
- [हिं. चौथा+ई (प्रत्य.)]
- चौथी
- विवाह के चौथे दिन होनेवाली एक रीति।
- संज्ञा
- [हिं. चौथा]
- चौथी
- फसल की बाँट जिसमें।जमींदार उपज का चौथा भाग ले लेता है।
- संज्ञा
- [हिं. चौथा]
- चौदंता
- चार दाँतवाला (पशु), उभड़ती जवानी का।
- वि.
- [सं. चतुर्दत]
- चौदंता
- अल्हड़, उदंड।
- वि.
- [सं. चतुर्दत]
- चौदंती
- उदंडता। विचार दाँतवाली (मादा पशु)।
- संज्ञा
- [हिं. चौदंत]
- चौदश, चौदस
- किसी पक्ष की चौदहवीं तिथि, चतुर्दशी।
- फागुन बदि चौदस को सुभ दिन अरु रविवार सुहायौ। नखत उत्तरी आय बिचारथौ काल कंस कौ आयौ।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्दशी, प्रा, चउद्दसि]
- चौदह
- जो दस से चार अधिक हो।
- वि.
- [सं. चतुर्दश, प्रा.चउद्दस, अप, प्रा. चउद्दह]
- चौदह
- दस और चार की संख्या।
- संज्ञा
- चौदाँत
- दो हाथियों की मुठभेड़।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार+दाँत]
- चौदानिया, चौदानी
- कान की बाली जिसमें चार मोती हों।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार+दाना +ई (प्रत्य.)]
- चौधराई, चौधरात, चौधराहट
- चौधरी का काम।
- संज्ञा
- [हिं. चौधरी]
- चौपहल, चौपहला, चौपंह जू
- जिसमें चार पहल हों, वर्गात्मक।
- वि.
- [हिं. चौ+फ़ा. पहलू]
- चौपाई
- एक छंद।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्पदी]
- चौपाया
- चार पैर वाला पशु।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्पद, प्रा. चउप्पाव]
- चौपार, चौपाल
- खुली हुई बैठक, बैठक।
- संज्ञा
- [हिं. चौबार]
- चौपार, चौपाल
- दालान,
- संज्ञा
- [हिं. चौबार]
- चौपार, चौपाल
- खुली पालकी।
- संज्ञा
- [हिं. चौबार]
- चौपैया
- एक छंद।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्पदी]
- चौफेर
- चारो ओर।
- क्रि. वि.
- [हिं. चौ+फेर]
- चौफेरी
- परिक्रमा।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+फेरी]
- चौबंदी
- चुस्त अंगा।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+बंद]
- गोंड़ा, गोंड़े
- बारात की न्योछावर, परछन।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठ]
- गोंड़ा, गोंड़े
- गाँव के समीप की भूमि।
- निकसि ब्रज के गई गोड़े - १० - ८०।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठ]
- गोंद
- वृक्षों के तने से निकला हुआ लस जो चिपचिपा होता है।
- (क) एक अंस बृच्छनि कौं दीन्हौं। गोंद होइ प्रकास तिन कीन्हौं - ६५।
(ख) बाइ बिरंग बहेरा हरै कहूँ बैल गोंद ब्यापारी - ११०८।
- संज्ञा
- [सं. कुँदुरू या हिं. गूदा]
- गोंद
- एक घास।
- संज्ञा
- [सं. गुंद्रा]
- गोंद
- एक पेड़। हिंगाट।
- संज्ञा
- [हिं. गोंदी]
- गोंदनी
- एक पेड़। हिंगोट।
- संज्ञा
- [हिं. गोंद]
- गोंदपँजीरी
- पँजीरी या पाग जिसमें गोंद मिला हो।
- संज्ञा
- [हिं. गोंद+पँजीरी]
- गोंदपाक, गोंदपाग
- चीनी में पगा हुआ गोंद, गोंद की पपड़ी या कतली।
- पेठा पाक, जलेबी, कौरी। गोंदपाक, तिनगरी, गिंदौरी - ३९६।
- संज्ञा
- [हिं. गोंद+ पाक = पाग]
- गोंदमखाना
- मखाने के साथ चीनी में पगा हुआ गोंद।
- संज्ञा
- [हिं. गोंद + मखाना]
- गोंदर
- एक नरम घास।
- संज्ञा
- [सं. गुंद्रा]
- चौधराई, चौधरात, चौधराहट
- चौधरी का पद।
- संज्ञा
- [हिं. चौधरी]
- चौधराई, चौधरात, चौधराहट
- चौधरी को मिलनेवाला धन।
- संज्ञा
- [हिं. चौधरी]
- चौधरोना
- चौधरी को पद या पुरस्कार।
- संज्ञा
- [हिं. चौधरी]
- चौधरी
- किसी जाति, समाज आदि का मुखिया।
- संज्ञा
- [सं. चतुर=मसनद+धर=धरनेवाला]
- चौधारी
- चारखाना।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+धारा]
- चौप
- उमंग।
- संज्ञा
- [हिं. चोप]
- चौपई
- एक छंद।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्पदी]
- चौपट
- चारो तरफ से खुला हुआ, अरक्षित।
- वि.
- [हिं. चौ+पट=किवाड़ा या हिं. चापट]
- चौपट
- नष्ट-भ्रष्ट, तबाह, बरबाद।
- वि.
- चौपट
- चौपट चरण-जिस (व्यक्ति) के पहुँचते ही सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाय।
- यौ.
- चौपटहा, चौपटा
- काम बिगाड़ने वाला, सत्यानाशी।
- चंचल चपल, चबाइ, चौपटा, लिये मोह की फाँसी - १ - १८६।
- वि.
- [हिं. चौपट]
- चौपड़
- चौसर का खेल।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्पद, प्रा. चउप्पट]
- चौपड़
- चौसर को बिपात और गोटियाँ।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्पद, प्रा. चउप्पट]
- चौपत
- कपड़े की चार परत या तह।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार+परत]
- चौपतना
- तह लगाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चौपत]
- चौपथ
- चौराहा।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्पथ]
- चौपद
- चौपाया।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्पद्]
- चौपर, चौपारि
- चौसर नामक, खेल जो बिसात और गोटियों से खेला जाता है।
- सभा रची चौपर क्रीड़ा करि कपट कियो अति भारी - सारा. ७६२।
- संज्ञा
- [हिं. चौपड़]
- चौपरना, चौपरतना
- तह लगाना, कपड़े की परत लगाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चौपत]
- चौपहरा
- चार पहर का।
- वि.
- [हिं. चौ+पहर]
- चौरंग
- तलवार के वार से खंड खंड।
- वि.
- चौरंगा
- चार रंग का।
- वि.
- [हिं. चौ+रंग]
- चौर
- चोर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चौर
- एक गंधद्रव।
- चंदन चौर सुगंध बतावत कहाँ हमारे पास - ११३०।
- संज्ञा
- [सं.]
- चौरस
- जो ऊँच-नीचा नहो, समथल।
- वि.
- [हिं. चौ+रस]
- चौरस
- चौपहल।
- वि.
- [हिं. चौ+रस]
- चौरसाना
- चौरस करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चौरस]
- चौरा
- चौतरा, चबूतरा, बेदी।
- संज्ञा
- [सं. चतुर, प्रा. चउर]
- चौरा
- देवी-देवता को बेदी।
- संज्ञा
- [सं. चतुर, प्रा. चउर]
- चौरा
- चौपाल, चौबारा।
- संज्ञा
- [सं. चतुर, प्रा. चउर]
- चौभड़, चौभर
- चबाने के दाँत।
- संज्ञा
- चौमंजिला
- चौखंडा।
- वि.
- [हिं. चौ+ फ़ा. मंज़िल]
- चौमसिया
- चार मास का।
- वि.
- [हिं. चौ+मास]
- चौमार्ग
- चौरस्ता।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्मार्ग]
- चौमास, चौमासा
- वर्षा-के चार महीने।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्मास]
- चौमास, चौमासा
- वर्षा-संबंधी कविता।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्मास]
- चौमुख
- चारो ओर।
- क्रि. वि.
- [हिं. चौ+मुख]
- चौमुखा
- चार मुँहवाला।
- वि.
- [हिं. चौमुख]
- चौमुहानी
- चौराहा।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+फ़ा. मुहानी]
- चौरंग
- खड्ग-प्रहार की एक रोति, तलवार का एक हाथ।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+रंग]
- चौबाई
- चारों ओर से आनेवाली हवा।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+बाई=हवा]
- चौबाई
- उड़ती खबर।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+बाई=हवा]
- चौबाई
- धूमधाम की चर्चा।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+बाई=हवा]
- चौबार, चौबारा
- खुली बैठक, बैठक।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+बार=द्वार]
- चौबार, चौबारा
- . दालान।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+बार=द्वार]
- चौबार, चौबारा
- चौथी बार।
- क्रि. वि.
- [हिं. चौ+बार=दफा]
- चौबिसे, चौबीस
- बीस से चार अधिक।
- वि.
- [सं. चतुर्विंशति, प्रा. चउबीसा]
- चौबिसे, चौबीस
- बीस और चार की संख्या।
- संज्ञा
- चौबे
- ब्राह्मणों की एक जाति।
- संज्ञा
- [सं. चतुर्वेदी, प्रा. चउब्बेदी, हिं. चउबे]
- चौबोला
- एक छंद।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+बोल]
- चौरी
- छोटा चबूतरा, बेदी।
- रची चौरी आपु ब्रह्मा जरित खंभ लगाइ कै १० उ. २४।
- संज्ञा
- [हिं. चौरा]
- चौरी
- चोरी।
- संज्ञा
- [सं.]
- चौरेठा
- पिसा चावल।
- संज्ञा
- [हिं. चावल+पीठा]
- चौर्य
- चोर।
- संज्ञा
- [सं.]
- चौलड़ा
- चार लड़वाला।
- वि.
- [हिं. चौ+लड़]
- चौलाई
- एक साग।
- चौलाई लाल्हा अरु पोई - ३६६।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+राई=दाने]
- चौवन
- पचास और चार की संख्या।
- संज्ञा
- [सं. चतु: पंचाशत, पा, चतुपंचासो, - प्रा. चउवण्ण]
- चौवा
- हाथ की चार उँगलियों का समूह या विस्तार।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार]
- चौवा
- चौपाया।
- संज्ञा
- [सं. चतुष्पाद]
- चौवालीस
- चालीस और चार की संख्या।
- संज्ञा
- [सं. चतुश्चत्वारिंशत, पा, चतुच चालीसति, प्रा. चउव्वालीसइ]
- चौरा
- लोबिया नामक साग।
- संज्ञा
- [सं. चतुर, प्रा. चउर]
- चौराई
- चौलाई नामक साग।
- (क) चौराई लाल्हा अरु पोई - ३६६।
(ख) साग चना सँग सब चौराई - २३२१।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+राई]
- चौरानबे
- नब्बे से चार अधिक।
- वि.
- [सं. चतुर्नवति, प्रा. चउण्णवइ]
- चौरानबे
- नब्बे और चार की संख्या।
- संज्ञा
- चौरासी
- जो अस्सी से चार अधिक हो।
- वि.
- [सं. चतुराशीति, प्रा. चउरासीइ]
- चौरासी
- अस्सी और चार की संख्या।
- संज्ञा
- चौरासी
- चौरासी लाख योनि।
- संज्ञा
- चौरासी
-
- चौरासी में पड़ना (भरमना) :- बार-बार शरीर धारण करना।
- मु.
- चौरासी
- एक तरह का पैर का घुंघरू।
- संज्ञा
- चौराहा
- चौरास्ता।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+राह]
- चौसई
- गंजी, बंडी।
- संज्ञा
- चौसर
- एक खेल जो गोटों और पासों से खेला जाता है।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार + सर=बाजी अथवा चतुस्सारि]
- चौसर
- चार लड़ों का हार, चौलड़ी।
- चौसर हार अमोल गरे को देहु न मेरी माई - १५४४।
- संज्ञा
- [सं. चतुरसृक, ]
- चौसिंघा, चौसिंहा
- चार सींग वाला (पशु या चौपाया)।
- वि.
- [सिं. चौ+सींग]
- चौहट, चौहटे, चौहट्ट, चौहट्टा
- वह स्थान जिसके चारो ओर-दूकाने हों, चौक।
- संज्ञा
- [हिं. चौ= चार+हाट]
- चौहट, चौहटे, चौहट्ट, चौहट्टा
- चौरस्ता, चौराहा।
- (क) ज्यौं कपि डोरि बाँधि बाजीगर, कन कन कों चौहटें नचायौ - १ - ३२६।
(ख) यो गोकुल के चौहटे रंग भीगी ग्वालिन - २४०५।
- संज्ञा
- [हिं. चौ= चार+हाट]
- चौहत्तर
- सत्तर से चार अधिक की संख्या।
- संज्ञा
- [सं. चतु:सप्तति, प्रा. चौहत्तरि]
- चौहद्दी
- चारो ओर की सीमा, चारदीवारी।
- संज्ञा
- [हिं. चौ+फ़ा. हद]
- चौहरा
- चार परतवाला।
- वि.
- [हिं. चौ=चार+हर (प्रत्य.)]
- चौहरा
- चौगुना।
- वि.
- [हिं. चौ=चार+हर (प्रत्य.)]
- चौहान
- क्षत्रियों की एक शाखा।
- संज्ञा
- [हिं. चौ=चार+भुजा]
- चौहैं
- चारो ओर।
- क्रि. वि.
- [देश, ]
- च्यवन
- एक ऋषि जिनके पिता का नाम भृगु और माता का पुलोमा था। इन्होंने इतने | समय तक तप किया कि इनका सारा शरीर दीमक की मिट्टी से ढक गया, केवल आँखें खुली रहीं। राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या ने खेल समझ कर इनको चमकती हुई आँखों में काँटा चुभो दिया जिससे उनकी ज्योति जाती रही। पश्चात्, राजा ने क्षमा माँग कर अपनी पुत्री का विवाह वृद्ध ऋषि से कर दिया। सुकन्या के पातिव्रत से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारों ने वृद्ध ऋषि को युवक बना दिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- च्युत
- टपका या गिरा हुआ।
- वि.
- [सं.]
- च्युत
- पतित।
- वि.
- [सं.]
- च्युत
- भ्रष्ट।
- वि.
- [सं.]
- च्युत
- अपने स्थान से हटा हुआ।
- वि.
- [सं.]
- च्युत
- कर्तव्य-विमुख।
- वि.
- [सं.]
- च्युति
- पतन।
- संज्ञा
- [सं.]
- च्युति
- उपयुक्त स्थान से हटना।
- संज्ञा
- [सं.]
- छंगा, छंगू
- छः उँगलियोंवाला।
- वि.
- [हिं. छ:+उँगली]
- छगुनिया, छगुनी, छ.गुलिया, छ.गुली
- हाथ की सबसे छोटी उँगली।
- संज्ञा
- [हिं छगुनी]
- छंछाल
- हाथी।
- संज्ञा
- [ङिं.]
- छंछोरी
- एक पकवान।
- संज्ञा
- [हिं. छाँछ+बरी]
- छँटना
- कट कर अलग होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चुटन=तोड़ना, छेदना]
- छँटना
- दूर होना, निकल जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चुटन=तोड़ना, छेदना]
- छँटना
- तितर-बितर होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चुटन=तोड़ना, छेदना]
- छँटना
- साथ छूट जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चुटन=तोड़ना, छेदना]
- छँटना
- चुना जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चुटन=तोड़ना, छेदना]
- छँटना
-
- छँटा हुआ :- चुना हुआ, बहुत चालाक।
- मु.
- गोंदरी
- एक घास। चटाई।
- संज्ञा
- [सं. गुद्रा]
- गोंदला
- नागरमोथा। एक घास।
- संज्ञा
- [सं गुद्रा]
- गोंदा
- भुने चनों का गूँध हुआ बेसन।
- संज्ञा
- [हिं. गूँधना]
- गोंदा
- मिट्टी का गारा।
- संज्ञा
- [हिं. गूँधना]
- गोंदी
- गोंदनी का पेड़।
- संज्ञा
- [सं. गोवंदनी = प्रियंगु]
- गोंदी
- इंगुटी, हिंगोट।
- संज्ञा
- [सं. गोवंदनी = प्रियंगु]
- गोंदी
-
- गोंदी सा लदना :- (१) फलों से लद ज्ञाना।
(२) शरीर में बहुत से दाने निकलना।
- मु.
- गोंदीला
- जिस (वृक्ष) से गोंद निकले।
- वि.
- [हिं. गोंद+ईला (प्रत्य.)]
- गो
- गाय, गऊ।
- ल्याए ग्वाल घेरि गौ, गोसुत - ४७१।
- संज्ञा
- [सं.]
- गो
- किरण।
- संज्ञा
- [सं.]
- च्युति
- कर्तव्य-विमुखता।
- संज्ञा
- [सं.]
- च्युति
- अभाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- च्यूड़ा
- चूड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. चिउड़ा]
- च्यूत
- आम का पेड़ या फल।
- संज्ञा
- [सं.]
- च्योनो
- धातु गलाने की घरिया।
- संज्ञा
- च्वै
- बहना।
- क्रि. अ.
- [सं. च्यवन, हिं. चूना]
- च्वै
- च्चै चले-बहने लगे, टपकने लगे।
- सुनत तिहारी बातें मोहन वै चले दोऊ नैन - ७४९।
- यौ.
- च्वै
- गर्भपात होना।
- क्रि. अ.
- छ
- चवर्ग का दूसरा व्यंजन; इसका उच्चारण-स्थान तालु है।
- छंग
- गोद, अंक।
- संज्ञा
- [सं. उत्संग, प्रा. उच्छंग]
- छँटाव
- छाँटने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छँटेल
- चुना हुआ।
- वि.
- [हिं. छँटना]
- छँटेल
- धूर्त।
- वि.
- [हिं. छँटना]
- छंडना
- छोड़ना, त्यागना।
- क्रि. स.
- [हिं. छोड़ना]
- छंडना
- ओखली में डालकर अन्न कूटना।
- क्रि. स.
- [हिं. छोड़ना]
- छंडना
- छाँटना।
- क्रि. स.
- [हिं. छोड़ना]
- छंडना
- है या वमन करना।
- क्रि. अ.
- [सं. छर्दन]
- छड़ाना
- छुड़ा लेना।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छँड़ावत
- छड़ाते हैं, छीन लेते हैं।
- ग्वालन कर तें कौर छँड़ावत मुख लै मेलि सराहत जात - १०८४।
- क्रि. स.
- [हिं. छँड़ाना]
- छँड़ावै
- छुड़ा ले, मुक्त करावे।
- तब कत पानि धरो गोबर्द्धन कत ब्रजपतिहिं छुड़ावै - ३०६८।
- क्रि. स.
- [हिं. छँड़ाना]
- छँटना
- साफ हो जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चुटन=तोड़ना, छेदना]
- छँटना
- दुबला हो जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. चुटन=तोड़ना, छेदना]
- छँटनी
- (कर्मचारी को) काम से हटाने की क्रिया का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना+ई (प्रत्य.)]
- छँटनी
- (कर्मचारी को) काम से हटाने की क्रिया का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना+ई (प्रत्य.)]
- छँटवाना
- वस्तु आदि का कोई भाग कटवा देना।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँटना]
- छँटवाना
- चुनवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँटना]
- छँटवाना
- छिलवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँटना]
- छँटाई
- इन क्रियाओं की मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छँटाना
- छँटवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँटना]
- छँटाव
- छाँटा-छँटाया शेष बेकार अंश।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छँड़ है
- छुड़ावैगा, मुक्ति दिला येगा।
- सूर मोहिं अटक्यौ है नृपवर तुम बिनु कौन छँडै है - ११५४।
- क्रि. स.
- [हिं. छैड़ाना]
- छँड़ आ
- जो दंड से मुक्त हो।
- वि.
- [हिं. छाँड़ना]
- छँड़ आ
- वह पशु जो किसी देवता के लिए छोड़ा गया हो।
- संज्ञा
- छँड़ आ
- व्याज, ऋण आदि की छट।
- संज्ञा
- छंद
- वेद-वाक्यों का अक्षर गणना के अनुसार किया गया एक भेद।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- वेद।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- वह वाक्य जिसमें वर्ण या मात्रा के अनुसार विराम लगे।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- वह विद्या जिसमें छंदों के लक्षणों आदि का विचार हो।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- इच्छा, अभिलाषा।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- मनमाना व्यवहार।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- बंधन, गाँठ।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- समूह।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- छल-कपट का व्यवहार।
- (क) घाट धरथौ तुम इहै जानि कै करत ठगन के छेद - ११२१।
(ख) वाके छंद - भेद को जानै मीन कबहिं धौं पीवति पानी - १२८४। (ग) छंद कपट कछु जानत नाहीं सूधी हैं ब्रज की सब बाल - १३१५।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
-
- छल-छंद :- छल कपट, चालबाजी, धोखेबाजी।
- मु.
- छंद
- चाल, युक्ति।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- रंग-ढंग, चेष्टा।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- अभिप्राय।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- एकांत स्थान।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- विष।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- आवरण, ढक्कन।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- पत्ती।
- संज्ञा
- [सं. छंदस्]
- छंद
- कलाई की एक गहना।
- संज्ञा
- [सं. छंदक]
- छंदक
- रक्षक।
- वि.
- [सं.]
- छंदक
- छली।
- वि.
- [सं.]
- छंदक
- श्रीकृष्ण का एक नाम।
- संज्ञा
- छंदक
- बुद्धदेव के सारथी का नाम।
- संज्ञा
- छंदक
- छल।
- संज्ञा
- छंदज
- वसु आदि वैदिक देवता जिनकी स्तुति वेदों में है।
- संज्ञा
- [सं.]
- छंदन
- छंदों में।
- सूर दास प्रभु सुजस बखानत नेति नेति स्रति छंदन ४७६।
- संज्ञा
- [हिं. छंद]
- छंदना
- रस्सी से बाँधा जाना।
- क्रि. अ.
- [. छंद]
- छंदपातन
- बनावटी छली साधु।
- संज्ञा
- [सं.]
- छंदबंद
- छल-छपट।
- संज्ञा
- [हिं. छंद+बंद]
- छंदी, छंदेली
- कलाई का एक गहना।
- संज्ञा
- [हिं. छंद]
- छंदी, छंदेली
- छली, कपटी, धोखेबाज।
- वि.ं.
- छंदोबद्ध
- जो पद्य-रूप में हो।
- वि.ं.
- [सं.]
- छंदोभ
- छंद-रचना में मात्रा-वर्ण आदि के नियम पालन न करने का दोष।
- संज्ञा
- [सं.]
- छ
- काटना।
- संज्ञा
- [सं.]
- छ
- ढाँकना।
- संज्ञा
- [सं.]
- छ
- घर।
- संज्ञा
- [सं.]
- छ
- खंड, टुकड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- छकाछक
- तृप्त, अघाया हुआ, संतुष्ट।
- वि.
- [हिं. छकना]
- छकाछक
- भरा हुआ, परिपूर्ण।
- वि.
- [हिं. छकना]
- छकाछक
- नशे से चूर।
- वि.
- [हिं. छकना]
- छकाना
- खिला-पिलाकर तृप्त करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चकना]
- छकाना
- नशे से चूर करना।
- क्रि. स.
- [हिं. चकना]
- छकाना
- चक्कर या अचंभे में डालना।
- क्रि. स.
- [सं. चक्र=भ्रांत]
- छकाना
- दिक या हैरान करना।
- क्रि. स.
- [सं. चक्र=भ्रांत]
- छकि
- तृप्त होकर।
- क्रि. अ.
- [हिं. छकना]
- छकि
- , मद से मस्त होकर।
- क्रि. अ.
- [हिं. छकना]
- छकि
- हैरान होकर।
- क्रि. अ.
- [हिं. छकना]
- छ
- निर्मल, साफ।
- वि.
- छ
- चंचल, तरल।
- वि.
- छ
- वह संख्या, या अंक जो पाँच से एक अधिक हो।
- संज्ञा
- [सं. षट् , प्रो. छ]
- छई
- क्षय रोग।
- संज्ञा
- [सं. क्षयी]
- छई
- नष्ट होनेवाला।
- वि.
- छई
- छा गयी, फैल गयी।
- मेरे नैना बिरह की बेल बई। अब कैसे निरवारौं सजनी सब तब पसरि छई - २७७३।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छए
- विराज रहे हैं, बस गये हैं।
- सूरस्याम सुंदर रस अटके उहँइ छए री - सा. उ. ७ और पृ. ३३३।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छक
- नशा, तृप्ति, लालसा।
- संज्ञा
- [हिं. छकना]
- छकइयै
- खिला-पिला कर तृप्त कीजिए, भोजन से संतुष्ट कीजिए।
- हम तौ प्रेम - प्रीति के गहिक, भाज़ी - साक छकइयै १ - २३९।
- क्रि. स.
- [हिं. छकना, छकाना]
- छकड़ा
- दुपहिया बैलगाड़ी, लढ़ी, लढ़िया, सग्गड़।
- संज्ञा
- [सं. शकट, प्रा. सगड़ो, छंगडो]
- छकड़ा
- जिसके अंजर-पंजर ढीले हो गये हों।
- वि.
- छकड़िया
- छः कहारों द्वारा उठायी जानेवाली पालकी।
- संज्ञा
- [हिं. छः + कड़ी]
- छःकड़ी, छकरी
- छः का समूह।
- संज्ञा
- [हिं. छः+कड़ा]
- छःकड़ी, छकरी
- छः कहारों की पालकी।
- संज्ञा
- [हिं. छः+कड़ा]
- छःकड़ी, छकरी
- छः बाँधों से चारपायी बिनने का ढंग।
- संज्ञा
- [हिं. छः+कड़ा]
- छःकड़ी, छकरी
- जिसके छः अंग हों, छः से बना हुआ।
- वि.
- छकना
- खाकर अघाना या तृप्त होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चर्कन=तृप्त होना]
- छकना
- नशे से चूर होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चर्कन=तृप्त होना]
- छकना
- अचंभे में आना।
- क्रि. अ.
- [सं. चक्रभ्रांत]
- छकना
- हैरान या दिक होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चक्रभ्रांत]
- गो
- इंद्रिय।
- संज्ञा
- [सं.]
- गो
- वाणी, वाक्शक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गो
- सरस्वती।
- संज्ञा
- [सं.]
- गो
- आँख।
- संज्ञा
- [सं.]
- गो
- बिजली।
- संज्ञा
- [सं.]
- गो
- पृथ्वी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गो
- दिशा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गो
- माता।
- संज्ञा
- [सं.]
- गो
- दूध देनेवाले पशु।
- संज्ञा
- [सं.]
- गो
- जीभ, जिह्वा।
- संज्ञा
- [सं.]
- छगण
- सूखा गोबर, कंडा।
- संज्ञा
- [सं.]
- छगन, छगना
- छोटा प्रिय बालक।
- संज्ञा
- [सं. चंगट]
- छगन, छगना
- बच्चों के लिए प्यार का एक शब्द।
- वि.
- छगन, छगना
- छगन-मगन, छगना मगना-छोटे-छोटे प्यारे बच्चे।
- (क) गिरि गिरि परत घुटुरुवनि टेकत। खेलत हैं दोउ छगन - मगन (छगना मगना)।
(ख) कहा कीज मेरे छगन मगन को नृप मधुपुरी बुलायौ - २९७३।
- यौ.
- छगरी
- बकरी।
- संज्ञा
- [सं. छाल, हिं. पं. छगड़ा]
- छगुनी
- हाथ की सबसे छोटी उँगली, कनीनिका, कानी उँगली।
- संज्ञा
- [हिं. छोटी+उँगली]
- छछिआ, छछिया
- छाँछ पीने या नापने का पात्र।
- संज्ञा
- [हिं. छाँछ]
- छछिआ, छछिया
- छाँछ, भट्टा, तक्र।
- संज्ञा
- [हिं. छाँछ]
- छछुंदर, छछूँदर छछूँदरि
- चूहे की जाति का एक जंतु जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि यदि साँप इसे पकड़ कर छोड़ दे तो अ. हो जाय और खा ले तो मर जाय।
- भई रीति हठि उरग छछूँदरि छाँई बनै न खात - ३१५७।
- संज्ञा
- [सं. छछुदरी]
- छछुंदर, छछूँदर छछूँदरि
- एक प्रकार का यंत्र या तावीज।
- छछूंदर, छछूँदर छछूंदरि
- छछुंदर, छछूँदर छछूँदरि
- एक आतिशबाजी।
- छछूंदर, छछूँदर छछूंदरि
- छछुंदर, छछूँदर छछूँदरि
-
- छछूँदर छोड़ना :- झगड़ा कराना।
- मु.
- छछेरू
- घी का फेन या मैल।
- संज्ञा
- [हिं. छाछ]
- छजना
- शोभा. देना, अच्छा लगना, सोहना।
- क्रि. अ.
- [सं. सज्जन, हिं. सजना]
- छजना
- ठीक या उचित होना।
- क्रि. अ.
- [सं. सज्जन, हिं. सजना]
- छजाना
- बनाना, छाना।
- क्रि. स.
- [हिंछजना]
- छजन, छज्ञा
- छाजन या छत और कोठे या पाटन का भाग जो दीवार के बाहर निकली रहता है।
- छजन तें छूटति पिचकारी। भीग गई सब महल अटारी।
- संज्ञा
- [हिं. छाननी - यो छाना]
- छजन, छज्ञा
- टोपी का निकला हुआ किनारा।
- छज्जन, छज्जा
- छज्जे
- कोठे या छत के दीवार से बाहर या ऊपर निकले हुए भाग।
- छज्जे महलन देखि कै मन हरष बढ़ावत - २५६०।
- संज्ञा
- [हिं. छज्ञा]
- छटंकी
- छटाँक का बाँट।
- संज्ञा
- [हिं. छटाँक]
- छकी
- छक गयी।
- सुनहु सूर रस छकी राधिका बातन बैर बढ़े है - १२६३।
- क्रि. अ.
- [हिं. छकना]
- छकीला
- छका हुआ, मस्त।
- वि.
- [हिं. छकना]
- छक्का
- छः अंगों से बनी वस्तु।
- संज्ञा
- [सं. घंक, प्रा. छक्को]
- छक्का
- जुए का एक दाँव।
- संज्ञा
- [सं. घंक, प्रा. छक्को]
- छक्का
-
- छक्का-पंजा :- दाँव-पेच, चालबाजी।
छक्का पंजा भूलना :- कोई उपाय या चाल न चलना।
- मु.
- छक्का
- जुआ।
- संज्ञा
- [सं. घंक, प्रा. छक्को]
- छक्का
- ताश जिसमें छः बूटियाँ हों।
- संज्ञा
- [सं. घंक, प्रा. छक्को]
- छक्का
- होश-हवास।
- संज्ञा
- [सं. घंक, प्रा. छक्को]
- छक्का
-
- छक्के छूटना :- (१) बुद्धि का काम न करना।
(२) हिम्मत हारना। (३) हैरान करना। (४) साहस छुड़ाना।
- मु.
- छग, छगड़ा
- बकरा।
- संज्ञा
- [सं. छागल]
- छटंकी
- बहुत छोटा और हल्का व्यक्ति।
- संज्ञा
- [हिं. छटाँक]
- छटकना
- सवेग अलग होना, सटकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छटकना
- अलग-अलग रहना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छटकना
- हाथ न लगना, हत्थे न लगना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छटकना
- उछलना-कूदना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छटकाना
- सटने या अलग होने देना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छटकना]
- छटकाना
- झटका देकर पकड़ या बंधन से छुड़ाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छटकना]
- छटकाना
- बलपूर्वक अलग करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छटकना]
- छैटकाये
- झटका दिया, झटका देकर छुड़ाया।
- रिसि करि खीझ खझि लट झटकति स्याम भुजनि छटकाये दीन्हो।
- क्रि. अ.
- [हिं. छटकाना]
- छटना
- अलग होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छंटना]
- छटपट
- छटपटाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छटपट
- चंचल, चपल, नटखट।
- वि.
- छटपटानी
- बंधन या कष्ट से हाथ-पैर पटकना, तपना।,
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- छटपटानी
- ,
व्याकुल होना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- छटपटानी
- किसी चीज के लिए अकुलाना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- छटपटाहट
- छटपटाने या अधीर होने की क्रिया या भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छटपटाना]
- छटपटी
- बेचैनी।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छटपटी
- उत्कंठा।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छटाँक
- पाव का चौथाई।
- संज्ञा
- [हिं. छः+टाँक]
- छटाँक
-
- छटाँक भर :- (१) पाव का चौथाई।
(२) थोड़ा।
- मु.
- छटा
- प्रभा, दीप्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- छटा
- छबि, शोभा।
- संज्ञा
- [सं.]
- छटा
- बिजली।
- संज्ञा
- [सं.]
- छटाई
- प्रकाश, दीप्ति।
- किलकते हँसते दुरति प्रगटति मनु घन मैं बिजु छटाई - १० - १०८।
- संज्ञा
- [सं. छटा+ई (प्रत्य.)]
- छदाभा
- बिजली की चमक या कौंध।
- संज्ञा
- [सं.]
- छदाभा
- मुख की कांति, प्रभा या दीप्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- छटैल
- बँटा हुआ, बहुत चालाक।
- वि.
- [हिं. अँटना]
- छट्ठ, छट्ठि, छठ
- प्रति पक्ष की छठी तिथि।
- भादों देव छट्ठि को सुभ दिन प्रगट भये बलभाई - सारा.४२२।
- संज्ञा
- [सं. षष्ठी, प्रा. छडी]
- छट्ठि, छट्ठी, छठि, छठी
- जन्म के छठे दिन की पूजा।
- काजर रोरी अनहू (मिलि) करौ छठी कौ चार - १० - ४०।
- संज्ञा
- [सं. षष्ठी, प्रा. छुट्टी]
- छट्ठि, छट्ठी, छठि, छठी
-
- छठी आठे होना :- परस्पर न बनना, आपस में झगड़ा होना।
उ. - छठि आईं मोहिं कान्ह कुँवर सों तिनकौ कहति प्रीति सों है - १२५६। छठी का दूध निकलना (याद आना) :- बहुत कष्ट या हैरानी होना। छठी का दूध निकालना :- बहुत हैरान करना। छठी का राजा :- पुराना रईस। छठी में न पड़ना :- (१) भाग्य में बदा न होना। (२) स्वभाव या प्रकृति के विरुद्ध होना।
- मु.
- छड़ाइ
- छुड़ाना, छीन लेना।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छड़ाइ
- लई छड़ाइ-छुड़ा ली, छीन ली।
- चरन की छबि देखि डरप्यौ अरुन, गगन छपाइ। जानु करभा की सबै छबि, निदरि, लई छड़ाई - १० - २३४।
- प्र.
- छड़ाए
- छुड़ा लिये।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छड़ियो
- दरबान, द्वारपाल।
- संज्ञा
- [हिं. छड़ी]
- छड़ियाल
- एक तरह का भोला।
- संज्ञा
- [हिं. छड़ी]
- छड़ी
- पतली लकड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. छड़]
- छड़ी
- झंडी।
- संज्ञा
- [हिं. छड़]
- छड़ी
- जिसके साथ कोई न हो।
- वि.
- [हिं. छाँड़ना]
- छड़ीदार
- द्वारपाल।
- संज्ञा
- [हिं. छड़ी+दार (प्रत्य.)]
- छड़े
- छोड़े, अलग किये, त्यागे।
- जदपि अहीर जसोदानंदन कैसें जात छड़े - ३१५१।
- क्रि. स.
- [हिं. छोड़ना]
- छट्टि, छड़ी, छठ, छठी
- बह देवी जिसकी पूजा छठी को होती है।
- छट्टि, छठ्ठि, छठि, छठी
- छठणे
- छठे (स्थान या घर) में।
- छठएँ सुक्र तुला के सनि जुत, सत्रु रहन नहिं पैहैं - १० - ८६।
- क्रि. वि.
- [हिं. छठा]
- छठा
- पाँचवें के बाद का।
- वि.
- [हिं. छठ]
- छौं
- छठा।
- पंचम मास :होड़। बलि पावै। छठे मास इंद्री प्रगटावै - ३ - १३।
- वि.
- [हिं. छठा]
- छड़
- धातु आदि की लंबी डंडी।
- संज्ञा
- [सं. शर]
- छड़ना
- अनाज कूटना-छाँटना।
- क्रि. स.
- [हिं. छैटना]
- छड़ना
- त्यागना, छोड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. छोड़ना]
- छड़ा
- पैर में पहनने का एक गहना।
- संज्ञा
- [हिं. छड़]
- छड़ा
- मोतियों की लड़ों का गुच्छा या-छा।
- संज्ञा
- [हिं. छड़]
- छड़ा
- जिसके साथ कोई न हो।
- वि.
- [हिं. छाँड़ना]
- छत
- दीवारों का ऊपरी फर्श।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छत
- घर का खुला हुआ ऊपरी फर्श।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छत
- ऊपरी चादर।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छत
-
- छत बँधना :- बादलों को घिरकर छाना।
- मु.
- छत
- घाव, जख्म।
- संज्ञा
- [सं. क्षत]
- छत
- रहते या होते हुए।
- क्रि. वि.
- [सं. सत्]
- छतना
- छाती जो पत्तों आदि से बनाया गया हो।
- छाता जो पत्तों आदि से बनाया गया हो।
- संज्ञा
- [हिं. छाता, अव, छतौना]
- छतनार
- दूर तक छाया हुआ।
- वि.
- [हिं. छतना]
- छतरी, छतुरी
- छाता।
- संज्ञा
- [सं. छत्र]
- छतरी, छतुरी
- पत्तों को छाता।
- संज्ञा
- [सं. छत्र]
- छतरी, छतुरी
- मंडप।
- संज्ञा
- [सं. छत्र]
- छतरी, छतुरी
- चिता या समाधि पर बना ऊपरी मंडप।
- संज्ञा
- [सं. छत्र]
- छतरी, छतुरी
- डोली या बाहन का छाजन।
- संज्ञा
- [सं. छत्र]
- छतवंत
- क्षतयुक्त।
- वि.
- [सं. क्षत+वंत]
- छता
- छतरी, छाता।
- संज्ञा
- [हिं. छाता]
- छति
- हानि, घाटा।
- संज्ञा
- [सं. क्षति]
- छतियाँ, छतिया
- छाती, वक्षस्थल।
- (क) सूरस्याम बिरुझाने सोए लिए लगाई छतियाँ महतारी - २० - १९६।
(ख) चित ? चरनन लाग्यौ, छतियाँ धरकि रही - २२३६। (ग) छतियाँ लै लाऊँ बालक लीला गाऊँ - २६९९। (घ) वै बत्तियाँ छतियाँ लिखि राखी जे नंदलाल कहीं२६९९।
- संज्ञा
- [हिं. छाती]
- छतियाँ, छतिया
- हृदय, कलेजो, मन, जी।
- कुतिसहुँ हैं कठिन छतियाँ चितै री तेरी, अजहूँ द्रवति जो न देखति दुखारि - ३६२।
- संज्ञा
- [हिं. छाती]
- छतियाना
- छाती के पास ले जाना।
- क्रि. स.
- [हिं. छाती]
- छतीसा
- चतुर, धूर्त।
- वि.
- [हिं. छत्तीस]
- गो
- जल।
- संज्ञा
- गो
- बज्र।
- संज्ञा
- गो
- शब्द।
- संज्ञा
- गो
- नौ का अंक।
- संज्ञा
- गो
- शरीर के रोम।
- संज्ञा
- गो
- यद्यपि।
- अव्य.
- [फ़ा.]
- गो
- गया।
- दूर बढ़ि गो स्याम सुंदर ब्रज संजीवन मूर - सा. ३८।
- क्रि. अ.
- [हिं. गया]
- गोइँठा
- कंडा, उपला।
- संज्ञा
- [सं. गो+विष्ठा]
- गोइँड़
- गाँव की सीमा।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठ]
- गोइँड़
- गाँव के आसपास की भूमि।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठ]
- छतीसापन
- चालाकी, मक्कारी।
- संज्ञा
- [हिं. छत्तीसा]
- छतीसौं
- कुल छत्तीस।
- जाति पाँति पहिराइ कै समदि छत्तीसौं पौन - १० - ४०।
- वि.
- [हिं. छत्तीस]
- छतौना
- छाता, छतरी।
- संज्ञा
- [हिं. छाता]
- छत्तर
- छाता।
छत्र।
- संज्ञा
- [हिं. छत्र]
- छत्ता
- छाता, छतरी।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छत्ता
- पटाव जिसके नीचे रास्ता हो।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छत्ता
- मधुमक्खी का घर।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छत्ता
- छत्तेदार चकत्ता।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छत्ता
- कमल का बीजकोश।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छत्तीस
- तीस और छः के जोड़ से बननेवाली संख्या।
- संज्ञा
- [सं. षटत्रिंशाति, प्रा. छत्तीसा]
- छत्तीसा
- नाई, हज्जाम।
- संज्ञा
- [हिं. छत्तीस]
- छत्तीसा
- धूर्त, बहुत चालाक, काँइयाँ।
- वि.
- छत्तीसी
- छल-कपटवाली।
- वि.
- [हिं. छत्तीसा]
- छत्तर
- छाता।
- संज्ञा
- [सं. छत्र]
- छत्तर
- छत्र।
- संज्ञा
- [सं. छत्र]
- छत्र
- छतरी।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्र
- राजाओं को राजचिह्न-सूचक छाती।
- चरन - कमल बंद हरिराइ। रंक चलै सिर छत्र धराइ - १०१।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्र
-
- किसी के छत्र की छाँह में होना (रहना) :- किसी की शरण या रक्षा में होना (रहना)।
- मु.
- छत्रक
- कुकुरमुत्ता।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्रक
- छाता।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्रभंग
- वैधव्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्रभंग
- अराजकता।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्रभंग
- हाथी का एक दोष।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्रिय
- हिंदुओं के चार वर्षों में से दूसरा जिसका कर्तव्य देश-रक्षा था। विश्वास है। कि इस वर्ग के लोग युद्ध में वीरों की भाँति मरने, पर स्वर्ग जाते हैं।
- इती न करौं सपथ तौ हरि की, छत्रिय - गतिहिं न पाऊँ - १ - २७०।
- संज्ञा
- [सं. क्षत्रिय]
- छत्री
- छत्र धारण करनेवाला।
- वि.
- [सं. छत्रिन्]
- छत्री
- नाई, हज्जाम।
- संज्ञा
- छत्री
- क्षत्रिय।
- मारे छत्री इकइस बार - ९ - १३।
- संज्ञा
- [सं. क्षत्रिय]
- छवर
- घर।
- संज्ञा
- [सं.]
- छवर
- कुंज।
- संज्ञा
- [सं.]
- छदंब, छदम
- छिपाव, बहाना, छल।
- संज्ञा
- [सं. छद्म]
- छत्रक
- एक चिड़िया।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्रक
- मंदिर।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्रक
- शहद। का छत्ता।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्रधर, छत्रधारी
- छत्र धारण करनेवाला राजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्रधर, छत्रधारी
- छत्र लगानेवाला सेवक।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्रन
- राजछत्र,
- ऊँच। अटन पर छत्रन की छबि सीसन मानो फूली - २५६१।
- संज्ञा
- [हिं. छत्र]
- छत्रपति
- छत्र धारण करनेवाला राजा।
- बस किये ब्रह्मन बहुत जोगी छत्रपति केते कहौं - १० उ. २४।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्रपन
- राजत्व, राज्याधिकार।
- अब तौ हौं तिनक तजि आयौ, सोइ रजायसु दीजै। जाते रहै छत्रपन मेरौ, सोइ मंत्र कछु कीजै - १ - ६।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्रबंधु
- नीच कुल का क्षत्रिय।
- संज्ञा
- [सं.]
- छत्रभंग
- राजा का नाश।
- संज्ञा
- [सं.]
- छद, छन
- ढकने का आवरण, ढक्कन।
- संज्ञा
- [सं.]
- छद, छन
- चिड़ियों का पंख।
- संज्ञा
- [सं.]
- छद, छन
- पत्ता।
- संज्ञा
- [सं.]
- छदाम
- चौथाई पैसा।
- संज्ञा
- [हिं. छः+दाम]
- छद्दर
- नटखट लड़का।
- संज्ञा
- [हिं. छ:+स. रद]
- छद्म
- छिपाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- छद्म
- बहाना, हीला।
- संज्ञा
- [सं.]
- छद्म
- छल-कपट।
- संज्ञा
- [सं.]
- छद्मवेश
- बदला हुआ वेश।
- संज्ञा
- [सं.]
- छद्मवेशी
- जो वेश बदले हो।
- वि.
- [सं. छद्मवेशिन्]
- छनकना
- चौंककर भागना।
- क्रि. अ.
- [सं. शंका]
- छनक मनक
- गहनों की झनकार।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छनक मनक
- साजबाज।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छनक मनक
- आभूषण झनकारते फिरते बच्चे।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छनकहि
- जरा देर में, क्षणभर में।
- छनकहि मैं जरि भस्म होइगौ, जब देखे उ जागि जम्हाई - ५५०।
- क्रि. वि.
- [हिं. छनक]
- छनकाना
- तपे बरतन में पानी आदि किसी द्रव को डालकर छनछनाना।
- क्रि. स.
- [हिं. छनकना]
- छनकाना
- भड़काना।
- क्रि. स.
- [सं. शंका, हिं. छनकना]
- छनछनाना
- तपे हुए पात्र में पानी पड़ने से छनछन का शब्द होना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- छनछनाना
- खौलते हुए घी-तेल में तरकारी आदि पड़ने का शब्द होना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- छनछनाना
- छनछन करना।
- क्रि. स.
- छद्मी
- छद्मवेशी।
- वि.
- [सं. छझिन्]
- छद्मी
- छली।
- वि.
- [सं. छझिन्]
- छन
- छण भरका समय।
- बरुन - पास हैं ब्रजपतिहिं छन माहिं छुड़ावै १ - ४।
- संज्ञा
- [सं. क्षण]
- छन
- अवसर।
- संज्ञा
- [सं. क्षण]
- छनक
- छन-छन का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छनक
- तपी वस्तु पर पानी पड़ने से होनेवाला छन-छन शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छनक
- चौंक कर भागना।
- संज्ञा
- [सं. शंका]
- छनक
- एक क्षण का समय।
- संज्ञा
- [हिं. छन+एक]
- छनकना
- तपी धातु पर पानी की बूंद का गिरकर छनछन करके उड़ जाना।
- क्रि. अ.
- [अनु. छनछद]
- छनकना
- झनझनाना।
- क्रि. अ.
- [अनु. छनछद]
- छनछनाना
- झनकारना।
- क्रि. स.
- छनछवि
- बिजली।
- संज्ञा
- [सं. क्षण + छवि]
- छनदा
- रात, रात्रि।
- संज्ञा
- [सं. क्षणदा]
- छननमनन
- खौलते घी-तेल में किसी गीली वस्तु के पड़ने पर होनेवाला शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छनना
- छलनी से साफ होना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षरण]
- छनना
- छेदों से छनना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षरण]
- छनना
- नशे का पिया जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षरण]
- छनना
-
- गहरी छनना :- (१) खूब मेल जोल होना, गाढ़ी मित्रता होना।
(२) आपस में बिगाड़ होना।
- मु.
- छनना
- बहुत से छेद होना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षरण]
- छनना
- खूब बिध जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षरण]
- छन्न
- एकांत स्थान।
- संज्ञा
- छन्न
- गुप्त स्थान।
- संज्ञा
- छन्न
- छंद नामक हाथ का गहना।
- संज्ञा
- [सं. छंद]
- छन्न
- खूब तपती धातु पर पानी आदि पड़ने से उत्पन्न छनछनाहट
- संज्ञा
- [अनु.]
- छन्न
- खौलते हुए घी-तेल में गीली चीज पड़ने पर होनेवाला शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छन्न
-
- छन्न होना :- छनछनाकर उड़ जाना।
- मु.
- छन्न
- धातुओं के पत्तों की छनकार।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छन्नमति
- मूर्ख, जड़।
- वि.
- [सं.]
- छन्ना
- छानने का कपड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. छनना]
- छप
- पानी में किसी वस्तु के जोर से गिरने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छनना
- छानबीन द्वारा सच्ची-झूठी बात का पता चलना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षरण]
- छनना
- छानने का बहुत महीन कपड़ा।
- संज्ञा
- छनभंगु, छनभंगुर
- शीघ्र नष्ट होने वाला।
- (क) इहि तन छनभंगुर के कारन गरबत कहा गॅवार - १ - ८४।
(ख) सुख - संपति, दारो सुत, हय - गय, झूठ सबै समुदाइ। छनभंगुर यह सबै स्याम बिनु अंत नाहि सँग जाइ - १ - ३१७। (ग) तनु मिथ्या छनभंगुर जानौ - ५ - ३। (घ) नर सेवा हैं जौ सुख होइ। छनभंगुर थिर रहै न सोइ - ७ - २।
- वि.
- [सं. क्षणभंगुर]
- छनवाना, छनोना
- छानने का काम दूसरे से कराना।
- क्रि. स
- [हिं. छानना]
- छनवाना, छनोना
- नशा आदि पिलाना।
- क्रि. स
- [हिं. छानना]
- छनाका
- (रुपए आदि की) झनकार।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छनिक
- थोड़े समय का।
- वि.
- [सं. क्षणिक]
- छनिक
- एकक्षण, थोड़ा समय।
- संज्ञा
- [हिं. छन+एक]
- छन्न
- ढका हुआ।
- वि.
- [सं.]
- छन्न
- लुप्त।
- वि.
- [सं.]
- गो
- बैल।
- संज्ञा
- गो
- शिव का नंदी।
- संज्ञा
- गो
- घोड़ा।
- संज्ञा
- गो
- सूर्य।
- संज्ञा
- गो
- चंद्र।
- संज्ञा
- गो
- वाण, तीर।
- संज्ञा
- गो
- गवैया।
- संज्ञा
- गो
- प्रशंसा करनेवाला।
- संज्ञा
- गो
- आकाश।
- संज्ञा
- गो
- स्वर्ग।
- संज्ञा
- छपकना
- पतली छड़ी से पीटना।
- क्रि. स.
- [छप से अनु.]
- छपकना
- कटारी आदि से काटना या छिन्न करना।
- क्रि. स.
- [छप से अनु.]
- छपका
- सिर का एक गहना।
- संज्ञा
- [हिं. चपकना]
- छपका
- पतली कमची, साँटा।
- संज्ञा
- [हिं. छपकना]
- छपका
- पानी का जोरदार छींटा।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छपका
- पानी में हाथ-पैर मारने की क्रिया या भाव।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छपछपाना
- पानी पर हाथ पैर से छपछप शब्द करना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- छपछपाना
- कुछ-कुछ तैर लेना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- छपटना
- किसी वस्तु से सटना।
- क्रि. अ.
- [सं. चिपिट, हिं. चिपटना]
- छपटना
- अलगित होना।
- क्रि. अ.
- [सं. चिपिट, हिं. चिपटना]
- छपटाना
- चिपकाना, सटाना।
- क्रि. स.
- [हिं. छपटना]
- छपटाना
- छाती से लगाना, लगन करना।
- क्रि. स.
- [हिं. छपटना]
- छपटी
- दुबला-पतला, कृश।
- वि.
- [हिं. छपटना]
- छपत
- छिपते हैं।
- जदुपति जल क्रीड़त जुवतिन सँग। जल ताकि परस्पर छपत दूर - २४५२।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिपना]
- छपद
- भौंरा, भ्रमर।
- (क) छपद केज तजि बेलि सों लटि प्रेम न जान्यौ।
(ख) सूर अक्रर छपद के मन में नाहिंन त्रास दई कौ - ३०५५।
- संज्ञा
- [सं. षट्पद]
- छपन
- गुप्त, गायब, लुप्त।
- वि.
- [हिं. छिपना]
- छपन
- नाश, संहार, विनाश।
- संज्ञा
- [सं. क्षपणे]
- छपन
- छप्पन।
- छपन कोटि के मध्य राजत हैं जादवराइ - १० उ. ८।
- वि.
- [हिं. छप्पन]
- छपनहार
- नाशक।
- वि.
- [हिं. छपन+हार]
- छपना
- चिह्न पड़ना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चपना=दबना]
- छपना
- चिह्नित होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चपना=दबना]
- छपना
- मुद्रित होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चपना=दबना]
- छपना
- छिप जाना, लुप्त होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिपना]
- छपरछपर
- तराबोर।
- वि.
- [हिं. छपर]
- छपरबंद
- अच्छे घर-द्वार वाला।
- वि.
- [हिं. छपर+बंद]
- छपरबंद
- छप्पर छानेवाला।
- वि.
- [हिं. छपर+बंद]
- छपरबंदी
- छप्पर छाने की क्रिया।
- वि.
- [हिं. छपरबंद]
- छपरबंदी
- छप्पर छाने की मजदूरी।
- वि.
- [हिं. छपरबंद]
- छपरा
- छप्पर।
- संज्ञा
- [हिं. छप्पर]
- छपरिया, छपरी
- छोटा छप्पर।
- संज्ञा
- [हिं. छप्पर]
- छपरिया, छपरी
- साधुओं की झोपड़ी, मढ़ी।
- संज्ञा
- [हिं. छप्पर]
- छपवैया
- छापनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छपवैया
- छपाने या मुद्रित करानेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छपटी
- उँगलियों का एक गहना।
- संज्ञा
- [देश.]
- छपा
- रात।
- छपा न छीन होत सुन सजनी भूमि डसन रिपु कहा दुरौनी १० उ. ६३।
- संज्ञा
- [सं. क्षपा]
- छपा
- हलदी।
- संज्ञा
- [सं. क्षपा]
- छपाइ, छपाई
- छिप गयी।
- मुख छबि कहाँ कहाँ लगि माई। भानु उदै ज्यौं कमल प्रकासित रबि ससि दोऊ जोति छपाई ६३९।
- क्रि. स.
- [हिं. छिपाना]
- छपाइ, छपाई
- छिपा ली।
- बोल्यौ नहीं, रह्यौ दुरि बानर, द्रुम में देहि छपाइ - ६ - ८३।
- क्रि. स.
- [हिं. छिपाना]
- छपाइ, छपाई
- छिपाकर, गायब करके।
- महरि तें बड़ी कृपन है माई। दूध दही बेहु बिधि कौ दीनौ, सुत सौं धरति छपाई: - १० - ३२५।
- क्रि. स.
- [हिं. छिपाना]
- छपाइ, छपाई
- रहो छपाइ-छिप रहा।
- धनि रिषि साप दियौ खगपति कौं, ह्याँ तब रह्यौ छपाई - ५७३।
- प्र.
- छपाइ, छपाई
- न रही छपाई-छिपी न रही।
- प्रगटी प्रीति न रही छपाई - ७२०।
- प्र.
- छपाइ, छपाई
- छापने का काम या ढंग।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छपाइ, छपाई
- छापने की मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छपाए
- छिपाये हुए हैं, आड़ में किये हैं।
- नील जलद पर उडगन निरिखत, तजि सुभाव मनु तड़ित छपाए - १० - १०४।
- क्रि. स.
- [हिं. छिपाना]
- छपाकर
- चंद्रमा।
- सोलह कला छपाकर की छबि सोभित छत्र सीस सिर तानी - २३८३।
- संज्ञा
- [सं. पाकर]
- छपाकर
- कपूर।
- संज्ञा
- [सं. पाकर]
- छपाका
- पानी पर जोर से गिरने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छपाका
- पानी का जोरदार छींटा।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छपाना
- छापने का काम कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. छापना]
- छपाना
- चिह्नित कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. छापना]
- छपाना
- मुद्रित कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. छापना]
- छपाना
- छिपा लेना।
- क्रि. स.
- [हिं. छिपाना]
- छपाना
- खेत सींचना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छपछप]
- छपानाथ
- चंद्रमा।
- संज्ञा
- [सं. क्षपानाथ]
- छपानी
- छिप गयी, ओट या आड़ में हो गयी।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिपना]
- छपानी
- रहौं छपानी-छिप जाऊँ, आड़ में हो जाऊँ।
- बैठें जाइ मथनियाँ कै ढिग, मैं तब रहौं छपानी - १० - २६४।
- प्र.
- छपानी
- रहै छपानी-छिपी रहे, प्रगट न हो।
- (क) वा मोहन सों प्रीति निरंतर, क्यों अब रहै छपानी - ११६८।
(ख) अब ही जाइ प्रगट करि दैहैं कहो रहै यह बात छपानी - १२६२।
- प्र.
- छपाने
- छिप गये, लुक गये, ओट या आड़ में हो गये।
- हरि तब अपनी आँख मुँदाई। सखा सहित बलराम छपाने, जहँ - तहँ गए भगाई - १० - २४०।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिपना]
- छपाने
- अदृश्य हो गये, लुप्त हो गये।
- इहिं अंतर भिनुसार भयो। तारागन सब गगन छपाने, अरुन उदित, अँधकार, गयौ - ५२०।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिपना]
- छपान्यौ
- छिप गया, ओट में हो गया।
- (क) खेलत तै उठि भज्यौ सखा यह, इहिं घर आइ छपान्यौ। - १० - २७०।
(ख) कहत। स्याम मैं अतिहिं डरान्यौ। ऊखल तर मैं रह्यौ छपान्यौ - ३९१।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिपना]
- छपायो, छपायौ
- छिप गया, लुक गया।
- अंधाधुंध भयौ सब गोकुल, जो जहँ रह्यौ सो तहीं छुपायौ - १० - ७७।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिपना]
- छपाईं
- दुराव-छिपाव।
- संज्ञा
- [हिं. छिपाव]
- छपावत
- छिपाता है, ढकता है।
- सूर स्याम के ललित बदन पर, गोरज छबि कछु चंद कृपावत - ५०६।
- क्रि. स.
- [सं. क्षुपि, हिं. छिपाना]
- छपाहु
- छिपाओ, ओट में करो।
- घटाबोर करि गगन छपावहु - १०४६।
- क्रि. स.
- [हिं. छिपाना]
- छपैहौ
- छिपाओगे।
- क्रि. स.
- [हिं. छिपाना]
- छप्पन
- पचास और छः की संख्या।
- चले साजि बरात जादव कोटि छप्पन अति बली - १० उ. २४।
- संज्ञा
- [सं. षट्पंचाशत, प्रा. छप्पणम्, छप्पण]
- छप्यय
- एक मात्रिक छंद।
- संज्ञा
- [सं. षट्पद]
- छप्पर
- छाजन, छान।
- संज्ञा
- [हिं. छोपना]
- छप्पर
-
- छप्पर पर रखना :- चर्चा या जिक्र न करना।
छप्पर पर फूस न होना :- बहुत ही निर्धन होना। छप्पर फाड़ कर देना :- बैठे-बिठाये मिल जाना। छप्पर रखना :- (१) एहसान लादना। (२) दोष देना।
- मु.
- छप्पर
- छोटा ताल, डाबर, पोखर, तलैया।
- संज्ञा
- [हिं. छोपना]
- छप्परबंद
- छप्पर छानेवाले।
- वि.
- [हिं. छपर+फ़ा. बंद]
- छप्परबंद
- जिसने घर बना लिया हो।
- वि.
- [हिं. छपर+फ़ा. बंद]
- छप्यौ
- छिप गया, ओट में हो गया।
- (क) इंद्र - सरीर सहस भग पाइ। छप्यौ सो कमल - नाल में जाइ - ६ - ८।
(ख) पौरि सब देखि सो असोक बन मैं गयौ, निरखि सीता छप्यौ। वृच्छ डारा - ६ - ७६।
- क्रि. अ
- [हिं. छिपना]
- छब
- कांति, शोभा।
- संज्ञा
- [सं. छवि]
- छबड़ा
- झाबा।
- संज्ञा
- [देश.]
- छबड़ा
- खाँचा।
- संज्ञा
- [देश.]
- छबतखती
- शरीर की सुंदर गठन, सुंदरता, सजधज।
- संज्ञा
- [हिं. छवि+अ. तकतीअ]
- छबना
- सुंदर लगना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छवि]
- छबि
- शोभा, सौंदर्य।
- (क)कछुक अंग तें उड़त पीतपट उन्नत बाहु बिसाल। स्रवत स्रौनकन, तन - सोभा, छबि - धन बरसते मनु लाल - १ - २७३।
(ख) भली बनी छबि जु की क्यों लेते जम्हाई - २०२२।
- संज्ञा
- [सं. छवि]
- छबि
- कांति, प्रभा।
- संज्ञा
- [सं. छवि]
- छबिधर, छबिमान, छबिवंत
- सुंदर, शोभायुक्त, रूपवान।
- वि.
- [हिं. छवि+धर, मान्, वंत (प्रत्य.)]
- छबीरा, छबीला
- सुंदर, सजीधजा, शोभायुक्त, सुहावना।
- सुंदर, सजाधजा, शोभायुक्त, सुहावना।
- वि.
- [हिं. छवि+ईला (प्रत्य.), छबीला]
- छबीरी, छबीली
- शोभायुक्त, सुहावनी, सुंदर, सजी-धजी।
- (क) चंद्र वदन लट लटकि छबीली, मनहुँ अमृत रस ब्यालि चुरावति - १० - १४९।
(ख) छोटी छोटी गोड़ियाँ, अंगुरियाँ छबीली छोटी, नख - ज्योती, मोती शुनौ कमल - दलनि पै - १० - १५१। (ग) छबि की उपमा कहि न परति है, या छबि की जु छबीली - १०२९६। (घ) सूर स्याम मुसकान छवीरी अँखियन मैं रहीं तत्र न जानो हो कोही - ८३८। (ङ) सूरदास प्रभु नवल छबीले नवल छबीली गोरी पृ. ३४३ (२८)
- वि.
- [हिं.पं. छबीला]
- छबीरे, छबीले, छबीलो, छबीलौ
- छैल-छबीला, सुहावना, सुंदर।
- (क) हौं बलि जाउँ छबीले लाल की। धूसर धूरि घुटुरुवनि रेंगति, बोलनि बेचन रसाल की - १० - १०५।
(ख) सोभा मेरे स्यामहिं पै सोहै। बलि - बलि जाउँ छबीले मुख की, या उपमा कौं को है - १० - १५८ (ग) नटवर रूप अनूप छबीलौ, सबहिनि कै मन भावत - ४७६। (घ) मोहनलाल, छत्रीलौ गिरिधर, सूरदास बलि नागर नटकनि - ६१८।
- वि.
- [हिं. छबीला]
- छब्बीस
- बीस और छः के जोड़ वाली संख्या तथा इसका सूचक अंक।
- संज्ञा
- [सं. षड़विंश, प्रा. छब्बीसा]
- छमंड
- पितृहीन बालक।
- संज्ञा
- [सं.]
- छम
- घुँघरू बजने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छम
- पानी बरसने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छम
- शक्ति, बल।
- संज्ञा
- [सं. क्षम]
- छमक
- ठाटबाट, ठसक।,
- संज्ञा
- [हिं. छम]
- छमकना
- घुँघरू या गहने हिलाकर छमछम शब्द करना।
- क्रि. अ.
- [हि. छम (अनु.)]
- छमछम
- नूपुर, पायल या घुँघरू का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छमछम
- पानी बरसने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छमछमाना
- छमछम करना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- ओ
- योग्यता, सामर्थ्य।
- संज्ञा
- [सं. क्षमताः]
- छमना
- क्षमा करना।
- क्रि. स.
- [हिं. क्षमा]
- छमवाइ
- क्षमा करवा कर।
- बहुरि बिधि जाइ, छमुवाइ कै रुद्र कौं बिष्नु, विधि, रुद्र तहँ तुरत आए - ४ - ६।
- क्रि. स.
- [सं. क्षमा]
- छमहु
- क्षमा करो।
- (क) सूर स्याम अपराध छमहु अब, हम माँगें पति पावें५६६।
(ख) छमहु मोहिं अपराध, न जानें करी ढिठाई - ५८९।
- क्रि. स.
- [हिं. छमना]
- छमा, छमाई
- शांत, ठंढा।
- बरुन कुबेरारिक पुनि श्राइ।करी बिनय तिनहूँ बहु भाइ। तैहूँ क्रोध छमा नहिं भयौ - ७ - २।
- वि.
- [सं. क्षमा]
- छमा, छमाई
- क्षमा, माफ।
- करौ छमा कियौ असुर सँहार - ७ - २।
- संज्ञा
- गोकर्ण
- शिव का एक गण।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकर्ण
- एक मुनि।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकर्ण
- गाय का कान।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकर्ण
- जिसके कान गाय की तरह लंबे हों।
- वि.
- गोकर्णी
- मुरहरी नामक लता।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकील
- हल।
- संज्ञा
- [सं .]
- गोकील
- मूसल।
- संज्ञा
- [सं .]
- गोकुंजर
- बैल।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकुंजर
- शिव का नंदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकुल
- गैयों का झुंड या समूह।
- संज्ञा
- [सं.]
- छमाए
- क्षमा किये।
- अब हम चरन - सरन हैं आए। तब हरि उनके दोष छमाए - ८००।
- क्रि. स.
- [हिं. छमना]
- छमाछम
- गहनों के बजने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु, ]
- छमाछम
- पानी बरसने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु, ]
- छमाछम
- छमछम के निरंतर शब्द के साथ।
- क्रि. वि.
- छमादिक
- क्षमा आदि सतोगुणी वृत्तियाँ।
- दया, धर्म, संतोषहु गयौ। ज्ञान, छमादिक सब लय भयौ - १ - २६०।
- संज्ञा
- [सं. क्षमा+आदिक]
- छमाना, छमवाना
- क्षमा कराना।
- क्रि. स.
- [सं. क्षमा]
- छमापन
- क्षमा करने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. क्षमा+पन]
- छमायौ
- क्षमा कर दिया।
- पहिलौ पुत्र देवकी जायौ लै बसुदेव दिखायौ। बालक देखि कंस हँस दीन्यौ, सब अपराध छमायौ - १० - ४।
- क्रि. स.
- [हिं. छमना]
- छमावति
- क्षमा कराती है।
- कर जोरति अपराध छमावति - १०१०।
- क्रि. स.
- [हिं. छमाना]
- छमावान
- क्षमा करनेवाला।
- वि.
- [सं. क्षमावान्]
- छमासी
- मृत्यु के छः महीने पश्चात् किया जानेवाला श्राद्ध।
- संज्ञा
- [हिं. छः+सं. मास]
- छमासील
- क्षमा करनेवाला।
- वि.
- [सं. क्षमाशील]
- छमि
- क्षमा करके।
- रसना द्विज दलि दुखित होति बहु, तउ रिस कहा करे। छमि सब छोभ जु छाँड़ि छवौ रस लै समीप। सँचरै - १ - १०७।
- क्रि. स.
- [हिं. छमना]
- छमिच्छा
- समस्या, उलझन, शंका।
- संज्ञा
- [सं. समस्या]
- छमिच्छा
- इशारा, संकेत।
- संज्ञा
- [सं. समस्या]
- छमियै
- क्षमा कीजिए।
- ह्व हैं जज्ञ अब देव मुरारी। छमियै क्रोध सुरनि सुखकारी - ७ - २।
- क्रि. स.
- [हिं. छमना]
- छमी
- क्षमावान्, क्षमा करने ..ले।
- सुर हरि - भक्त, असुर हरि - द्रोही। सुर अति छमी, असुर अति कोही - ३ - ६।
- वि.
- [सं. क्षमा]
- छमुख
- कार्त्तिकेय।
- संज्ञा
- [हिं. छः+मुख]
- छमौ
- क्षमा करो।
- (क) कृपासिंधु, अपराध अपरिमित, छमौ, सूर तें सब - बिगरी - १ - ११५।
(ख) छमौ, प्रलय को समय न भयौ - ७ - २।
- क्रि. स.
- [हिं. छमना]
- छय
- नाश, विनाश।
- बान एक हरि सिव कौं दियौ। तासौं सब असुरनि छय कियौ - ७ - ७।
- संज्ञा
- [सं. क्षय]
- छय
- छय जाइ-नष्ट हो जाय।
- रविससि - कोटि कला अवलोक्त त्रिविध ताप छ्य जाइ - ४८७।
- प्र
- छपना
- नष्ट होना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षय]
- छपना
- छा जाना, फैलना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छयल
- सुंदर, बाँका, रसिक।
- नित रहत मन्मथ मदहिं छाकी निलज कुच झाँपत नहीं। तब देखि देखि छयल मोहित बिकल ह्वै धावत तहीं - १० उ. २४।
- संज्ञा
- [हिं. छैल]
- छयौ
- छा लिया, ढक लिया।
- (क) एक अंस जल कौं पुनि दयौ। ह्वै कै काई जल कौं छयौ - ६ - ५।
(ख) ताकौ जस तीनौ। पुर छयौ - ४ - ६।
- क्रि. स.
- [हिं. छाना]
- छर
- छल, कपट।
- (क) सँहचरि चतुरातुर लै आई बाँह बोल दै करि कहत वह छर - १८०६।
(ख) तबही सूर निरखि नैनन भरि आयौ उघरि लाल ललिता छर - २२६६।
- संज्ञा
- [हिं. छल]
- छर
- नाशवान।
- संज्ञा
- [सं. क्षर]
- छर
- छरो या कणों के निकलने या गिरने का शब्द, छड़ी से पीटने की ध्वनि।
- जब रजु सौं कर गाढ़ै बाँधे, छर - छर मारी साँटी - ३७५।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छरकना
- छरछर करके छिटकना, बिखरना या उछलना।
- क्रि. अ.
- [अनु. छरछर]
- छरकना
- छलकना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छलकना]
- छरद
- धिनाकर, घृणा करके।
- जो छिया छरद करि सकल संतनि तजी, बिषयबिष खाते नहिं तृप्ति मानी - १ - ११०।
- क्रि. स.
- [सं. छर्दि]
- छरना
- बहना, टपकना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षरण, प्रा. छरण]
- छरना
- चुचुआना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षरण, प्रा. छरण]
- छरना
- छँट जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षरण, प्रा. छरण]
- छरना
- भूत-प्रेत के वशीभूत होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छलना]
- छरना
- धोखा देना। लुभाना।
- क्रि. स.
- [हिं. छलना]
- छरना
- ओखली में अन्न कूटना।
- क्रि. स.
- [हिं. छड़ना]
- छरभार
- कार्य-भार, झंझट।
- संज्ञा
- [सं. सार+भार]
- छरहरा
- दुबलापतला और हलका।
- वि.
- [हिं. छड़+हरा (प्रत्य.)]
- छरहरा
- तेज, फुरतीला।
- वि.
- [हिं. छड़+हरा (प्रत्य.)]
- छरकीला
- लंबा और सुडौल।
- वि.
- छरछंद
- छल-कपट।
- संज्ञा
- [हिं. छलछंद]
- छरछंदी
- छली, कपटी।
- वि.
- [हिं. छलछंदी]
- छरछर
- कणों या छरों के गिरने का शब्द।
- संज्ञा
- [हिं. छर]
- छरछर
- पतली छड़ी मारने से होनेवाला सटसट शब्द।
- जब रजु स कर गाढ़ो बाँधे छरछर मारी साँटी - ९९३।
- संज्ञा
- [हिं. छर]
- छरछराना
- नमक या क्षार लगने से छिले या कटे हुए स्थान में पीड़ा होना।
- क्रि. अ
- [सं. क्षार, हिं. छार]
- छरछराना
- छरों का बिखराना।
- क्रि. अ.
- [अनु, छरछर]
- छरछराहट
- कणों के बिखरने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छरछराना]
- छरछराहट
- घाव के छरछराने की पीड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. छरछराना]
- छरत
- बँटती है, दूर होती है। रह नहीं जाती।
- जब हरि मुरली अधर धरत। थिर चर, चर थिर, पवन थकित रहैं। जमुना - जल न बहत। खग मोहैं, मृग - जूथ भुलाही, निरखि मदनछबि छरत - ६२०।
- क्रि. अ.
- [हिं. छरना]
- छरा
- रस्सी।
- संज्ञा
- छरा
- नारा।
- संज्ञा
- छरा
- लड़ी।
- संज्ञा
- छरा
- पैर का एक गहना।
- संज्ञा
- छरिंदा
- अकेला।
- वि.
- [हिं. छरीदा]
- छरी
- छड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. छड़ी]
- छरी
- छली-कपटी।
- संज्ञा
- [हिं. छली]
- छरीदा
- जिसके पास कुछ सामान न हो।
- वि.
- [अ. जरीद:]
- छरीदा
- अकेला।
- वि.
- [अ. जरीद:]
- छरीदार
- द्वारपाल, रक्षक।
- छरीदार बैराग बिनोदी, विकि बाहिरै कीन्हे - १ - ४०।
- संज्ञा
- [हिं. छड़ी+दार (प्रत्य.)]
- छलक
- पानी आदि द्रव-पदार्थों के छलकने की क्रिया या भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छलकना]
- छलक
- छल करनेवाला, कपटी।
- संज्ञा
- [सं.]
- छलकत
- कोई द्रव-पदार्थ छलकता है।
- छलकत तक्र उफनि अँग आवत नहिं जानति तेहि कालहिं सों - ११८०।
- क्रि. अ.
- [हिं. छलकना]
- छलकन
- छलकने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छलकनी]
- छलकन
- छलकी हुई चीज।
- संज्ञा
- [हिं. छलकनी]
- छलकन
- उद्गार।
- संज्ञा
- [हिं. छलकनी]
- छलकना
- (पानी आदि का) उछल कर भरे पात्र के बाहर गिरना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- छलकना
- उमड़ना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- छलकाना
- पानी आदि द्रवों को उछाल कर पात्र के बाहर गिराना।
- क्रि. स.
- [हिं. छलकना]
- छलकै
- उभड़ती है, बाहर प्रकटित होती है, उद्गारित होती है।
- तन दुति मोर - चंद जिमि भलकै, उमँगि - उमँगि - अँग अँग छबि छलकै - १० - ११७।
- क्रि. अ.
- [हिं. छलकना (अनु.)]
- छर
- छलता है, भुलावे में डालता है।
- जोगी कौन बड़ौ संकर हैं, ताकौ काम छरै - १ - ३५।
- क्रि. स.
- [सं. छल, हिं. छलना]
- छर्दि
- के, घमन।
- कै, वमन।
- संज्ञा
- [सं.]
- छर्रा
- कंकड़ी, कण।
- संज्ञा
- [अनु, छर छर]
- छल
- दूसरे को धोखा देने के लिए। असली रूप छिपाने का कार्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- छल
- बहाना, व्याज।
- संज्ञा
- [सं.]
- छल
- धूर्तता, धोखा।
- (क) बकी जु गई घोष मैं छल करि, जसुदा की गति दीनी - १ - १२२।
(ख) छल कियौ पांडवनि कौरव, कपट - पास ढरन - १ - २०२।
- संज्ञा
- [सं.]
- छल
-
- छल-बल करि :- उचित-अनुचित किसी भी उपाय से।
उ. - (क) छल-बल करि जित-तित हरि पर-धन, धायौ सब दिन-रात्र - १ - २१६। (ख) जाकी घरनि हरी छल-बल करि - १ - १३३।
- मु.
- छल
- दंभ।
- संज्ञा
- [सं.]
- छल
- युद्ध की नीति के विरुद्ध शत्रु, पर प्रहार या आक्रमण।
- संज्ञा
- [सं.]
- छल
- पानी गिरने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छलछंद
- चालबाजी।
- संज्ञा
- [हिं. छल+छंद]
- छलछंदी
- चालबाज, कपटी।
- वि.
- [हिं. छलछंद]
- छलछलाना
- पानी का ‘छलछल' शब्द करना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- छलछलाना
- मार से खून निकलने को होना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- छलछात, छलछाया
- छल-कपट, माया, मायाजाल।
- संज्ञा
- [सं. छल]
- छलछिद्र
- कपट, धोखेबाजी।
- संज्ञा
- [सं.]
- छलछिद्री
- छली, कपटी।
- संज्ञा
- [हिं. छल छिद्र]
- छलन
- धोखा देने के | लिए, भुलावे में डालने या प्रतारित करने के हेतु।
- थे तौ बिप्र होहिं नहिं राजा, आए छलन मुरारी - ८ - १४।
- क्रि. स.
- [सं. छल, हिं. छलना]
- छलना
- धोखा या दगा देना।
- क्रि. स.
- [सं. छल]
- छलना
- छल-कपट, धोखा।
- संज्ञा
- [सं.]
- छलनी
- छानने की चलनी।
- संज्ञा
- [हिं. चालना]
- छलनी
-
- छलनी करना :- (१) बहुत से छेद करना।
(२) फाड़ डालना। छलनी में डाल छाज में उड़ाना :- जरा सी बात को बढ़ा-चढ़ाकर झगड़ा करना। कलेजा छलनी होना :- (१) दुख सहते-सहते ऊब जाना। (२) दुख या कष्ट की बातें सुनते-सुनते घबरा जाना।
- मु.
- छलहाई
- छली।
- वि.
- [सं. छल+हा (प्रत्य.)]
- छलहाई
- छल, कपट, धोखा।
- संज्ञा
- छलहाय
- छली, कपटी।
- वि.
- [हिं. छलहाई]
- छलाँग
- कुदान, फलाँग।
- संज्ञा
- [हिं. उछल+अंग]
- छलाँगना
- कूदना, फलाँगना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छलाँग]
- छला
- छल्ला।
- संज्ञा
- [सं, छल्ली=लता]
- छला
- आभा, चमक।
- संज्ञा
- [सं. छटा]
- छलाई
- छल।
- संज्ञा
- [हिं. छल - छाई (प्रत्य.)]
- गोइंदा
- गुप्त भेदिया, गुप्तचर।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- गोइ
- छिपाकर, लुकाकर।
- क्रि. स.
- [हिं. गोगा]
- गोइ
-
- लेत मन गोइ :- मन चुरा लेते हैं, मन हर लेते हैं।
उ. - नागर नवल कुँवर बर सुंदर, मारग जात लेत मन गोइ - १० - २१०। मन धरयौ गोइ :- मन चुराकर रख लिया, छिपा लिया। उ. - कहौ घर हम जाहिं कैसे मन धरयौ तुम गो - इ ११९४। राखहु गोइ :- छिपाकर या सम्हाल कर रखो। उ. - हाँसी होन लगी है ब्रज में जो गहु राखहु गोइ - ३०२१।
- मु.
- गोइ
- गेंद।
- संज्ञा
- [हिं. गोल, गोय]
- गोइन
- एक तरह का मृग।
- संज्ञा
- गोइयाँ
- साथ में रहनेवाला, साथी, सहचर, सखी, सहेली।
- संज्ञा
- [हिं. गोहनियाँ]
- गोई
- छिपा लिया, लुका लिया।
- सूर बवन सुनि हँसी जसोदा, ग्वालि रही मुख गोई - १० - ३२२।
- क्रि. स.
- [हिं. गोना]
- गोई
-
- लै गयो मन गोई :- मन चुरा लिया, हर लिया या मुग्ध कर लिया।
उ. - (क) सूरदास सुख मूरि मनोहर लै जो गयौ मन गोई - २८८१। (ख) कपट की करि प्रीति ले गयौ मन गोई - ३२०९।
- मु.
- गोई
- साथी, सखी।
- संज्ञा
- [हिं. गोइयाँ]
- गोऊ
- छिपानेवाला, हरनेवाला।
- सूरदास जितने रंग काछत जुवती जन - मन के गोऊ हैं।
- वि.
- [हिं. गोना +ऊ (प्रत्य)]
- छलाना
- धोखा दिलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. छलना]
- छलावा
- भूत-प्रेत आदि की कल्पित छाया जो क्षण भर में ही अदृश्य हो जाती है।
- संज्ञा
- [हिं. छल]
- छलावा
-
- छलावा सा :- बहुत चंचल।
- मु.
- छलावा
- प्रकाश जो जंगलों में क्षण भर दिखायी देकर बार-बार लुप्त हो जाता है, अगियाबैताल।
- संज्ञा
- [हिं. छल]
- छलावा
-
- छलावा खेलत :- प्रकाश का क्षण भर इधर-उधर दिखायी देकर बार-बार लुप्त हो जाना।
- मु.
- छलावा
- चपल, चंचल।
- संज्ञा
- [हिं. छल]
- छलावा
- इंद्रजाल, जादू।
- संज्ञा
- [हिं. छल]
- छलि
- छलकर, धोखा देकर, भुलावे में डालकर।
- (क) जज्ञ करत वैरोचन कौ सुत, वेद - बिदित्त बिधि - कर्मा। सो छलि बाँधि पताल पठायौ, कौन कृपानिधि, धर्मा - १ - १०४।
(ख) हरि तुम बलि कौं छलि कहा लीन्यौ - ८.१५।
- क्रि. स.
- [हिं. छलना]
- छलित
- जो छला गया हो।
- वि.
- [सं.]
- छलिया
- छली, कपटी।
- वि.
- [सं. छल+इया (प्रत्य.)]
- छलियौ
- छला, धोखा दिया, प्रतारित किया।
- जिन चरननि छलियौ बलि राजा, नख गंगा जु बहैया - १० - १४१।
- क्रि. स.
- [हिं. छलना]
- छली
- छल-कपट करनेवाला।
- वि.
- [सं. छलिन्]
- छली
- कपट किया, धोखा दिया।
- मैं यह ज्ञान छली ब्रज बनिता दियौ सु क्यौं न लहौं - ४, ५९८ (२)।
- क्रि. स.
- [हिं. छलना]
- छलीक
- कपटी, मायावी।
- वि.
- [हिं. छली]
- छलु
- कपट, धोखा।
- आवन आवन कहिगे ऊवौ करि गए हमसों छलु रे - ३२२६।
- संज्ञा
- [हिं. छल]
- छले
- धोखा दिया, भुलावे में डाला।
- सूरदास प्रभु बोति, छले बलि, धरयौ पीठि पद पावन - ८ - १३।
- क्रि. स.
- [हिं. छतना]
- छल्ला
- सादी मुँदरी या अँगूठी।
- संज्ञा
- [सं. छल्लीलता]
- छल्ला
- गोल चीज, कड़ा, कुँडली।
- संज्ञा
- [सं. छल्लीलता]
- छल्ली
- छाल।
- संज्ञा
- [सं.]
- छल्ली
- लता।
- संज्ञा
- [सं.]
- छल्ली
- संतान।
- संज्ञा
- [सं.]
- छल्ली
- एक फूल।
- संज्ञा
- [सं.]
- छवना
- बच्चा, छौना।
- संज्ञा
- [हिं. छौना]
- छवा
- (पशु का) छौना।
- संज्ञा
- [सं. शावक]
- छवा
- ऐंड़ी।
- संज्ञा
- [देश.]
- छवाई
- छाने की क्रिया, मजदूरी या भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छाना, छावना]
- छवाना
- छाने का काम करना।
- क्रि. स.
- [हिं. छाना]
- छवावै
- छवाता है।
- कलि मैं नामा प्रगट ताकी छानि छवावै - १ - ४।
- क्रि. स.
- [हिं. छवाना]
- छवि
- शोभत।
- संज्ञा
- [सं.]
- छवि
- कांति।
- संज्ञा
- [सं.]
- छवि
- चित्र, प्रतिकृति।
- संज्ञा
- [अ. शबीह]
- छवैया
- छप्पर छानेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. छाना]
- छवौ
- छहों।
- छमि सब छोभ जु छाँड़ि, छवौ रस लै समीप सँचरे - १ - ११७।
- वि.
- [हिं. छह]
- छह
- छः की संख्या।
- संज्ञा
- [हिं. छः]
- छहर
- बिखरने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. छहरना]
- छहरि
- फैलना, छिटकना।
- तनु विष रह्यौ है छहरि - ७५०।
- क्रि. अ.
- [हिं. छहरना]
- छहरना
- बिखरना, छिटकना, छितर जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षरण, प्रा. खरण, छरण]
- छहरा
- छः परत या पल्ले का।
- वि.
- [हिं. छः+हरा (प्रय.)]
- छहरा
- छठा भाग।
- वि.
- [हिं. छः+हरा (प्रय.)]
- छहराना
- बिखरना, गिरकर, इधरउधर फैल जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षरण]
- छहराना
- बिखराना, फैलाना, छितराना।
- क्रि. स.
- छहराना
- भस्म करना।
- क्रि. स.
- [सं. क्षार]
- छहरीला
- हलका, इकहरा, छरहरा।
- वि.
- [हिं. छरहरा]
- छहरीला
- फुरतीला, चुस्त।
- वि.
- [हिं. छरहरा]
- छहियाँ
- छाँह, छाया।
- (क) खेलत फिरत कनकम आँगन पहिरे लाल पनहियाँ। दसरथ - कौसिल्या के प्रागैं, लसत सुमन की छहियाँ - ९ - १९।
(ख) सीतल कुंज कदम की छहियाँ छटक छहूँ रस खैऐ - ४४५। (ग) सीतल छहियाँ स्याम हैं बैठे, जानि भोजन की बिरियाँ - ४७०।
- संज्ञा
- [हिं. छाँह]
- छहूँ
- छहों।
- (के)मेरे लाड़िले हो तुम जाउ न कहूँ। तेरेहीं काजैं गोपाल, सुनहु लाड़िले लाल, राखे हैं भाजन भरि सुरस छहूँ - १० - २९५।
(ख) सीतल कुंज कदम की छहियाँ, छकि छहूँ रस खैऐ - ४४५।
- वि.
- [सं. षट, प्रा. छ, हिं. छ+हूँ (प्रत्य.)]
- छहौं
- कुल छह, छह (वस्तुओं) में सब।
- छहौं रितु तप करतिं नीकौं गेह - नेह बिसारि - ७६७।
- वि.
- [हिं. छ+हों (प्रत्य.)]
- छाँ, छाँउँ
- छाया, छाँह।
- संज्ञा
- [हिं. छाँह]
- छाँक
- खंड, भाग, टुकड़ा।
- संज्ञा
- [फ़ा. चाक]
- छाँक
- छाक।
- (क) छाँक खाय जूठन ग्वालिन कौं कछु मन मैं नहिं मान्यौ - सारा. ७५०।
(ख) एक ग्वाल मंडली करि बैठेति छाँक बाँटि के देत।
- संज्ञा
- [हिं. छाक]
- छाँटन
- छाँट कर अलग की हुई बेकार चीज
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छाँटना
- काट या कतर कर अलग करना।
- क्रि. स.
- [सं. खंडन]
- छाँटना
- (कपड़ा आदि) काटना।
- क्रि. स.
- [सं. खंडन]
- छाँटना
- छानफटक कर अनाज से भूसी अलग करना।
- क्रि. स.
- [सं. खंडन]
- छाँटना
- बेकार चीजें चुनना या निकालना।
- क्रि. स.
- [सं. खंडन]
- छाँटना
- गंदी या बुरी चीज हटाना।
- क्रि. स.
- [सं. खंडन]
- छाँटना
- साफ करना।
- क्रि. स.
- [सं. खंडन]
- छाँटना
- काट कर संक्षिप्त करना।
- क्रि. स.
- [सं. खंडन]
- छाँटना
- बदल की खाल निकालना।
- क्रि. स.
- [सं. खंडन]
- छाँटना
- सम्मिलित न करना।
- क्रि. स.
- [सं. खंडन]
- छाँक
- टुकड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. छाक]
- छाँगना
- काटना, छाँटना।
- क्रि. स.
- [सं. छिन्न+करण]
- छाँगुर
- छः उँगलियों वाला।
- वि.
- [हिं. छः+अंगुल]
- छाँछ
- मट्ठा, महो।
- प्रथम ग्वाल गाइन सँग रहते भए छाँछ के दानी - ३३०२।
- संज्ञा
- [हिं. छाछ]
- छाँट
- काटने-कतरने की क्रिया या ढंग।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छाँट
- कतरना।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छाँट
- भूसी, कन।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छाँट
- छाँटने से बची बेकार चीज।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छाँट
- वमन, कै।
- संज्ञा
- [सं. छर्दि, प्रा. छड्डि]
- छाँटन
- कटी-छँटी कतरन।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छाँटा
- छाँटने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छाँटा
- छल से किसी को दूर या अलग करना।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छाँड़त
- छोड़ता (है), त्यागता (है)।
- निरखि पतंग बानि नहिं छाँड़त, जदपि जोति तनु तावत - १ - २१०।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना, छोड़ना]
- छाँड़त
- अलग करता है, (अपने से) दूर हटाता है।
- चलनि चहति पग चले न घर कोँ। छाँड़त बनत नहीं कैसेहूँ, मोहन सुंदर बर कोँ - ७३८।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना, छोड़ना]
- छाँड़ना
- छोड़ना।
- क्रि. स.
- [सं. छर्दन, प्रा. छड्ड्न]
- छाँड़ि
- छोड़ कर, त्याग कर।
- छाँड़ि सुखधाम अरु गरुड़ तजि साँवरौ पवन के गवन तें अधिक धायौ - १ - ५।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना]
- छाँड़िबो
- छोड़ देना।
- कह्यौ भगवान सौं कहा यह कियौ तुम छाँड़िबो हुतौ या भलौ मारे - १० उ. २१।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना]
- छाँड़िहौं
- छोडूँगा, जाने दूँगा।
- अबै लैहौं, वह दाऊँ, छाँड़िहौं नहिं बिन मारे - ३ - ११।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना, छोड़ना]
- छाँड़ी
- छोड़ दी, त्याग दी।
- नीरस करि छाँड़ी सुफलकसुत जैसे दूध बिन साठी - २५३५।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना]
- छाँड़े
- छोड़ते हैं, अलग होते हैं।
- बिपति परी तब सव सँग छाँडे, कोउ न आवै नेरे - १ - ७९।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना]
- छाँड़े
- त्याग कर, विमुख होकर।
- गृह गृह प्रति द्वार फिरयौ तुमकौं प्रभु छाँड़े - १ - १२४।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना]
- छाँड़े
- छोड़ दिये, अलग किये, साथ न लिये।
- कहि मुद्रिके, कहाँ तै छाँड़े मेरे जीवन - मूरि - ९ - ८३।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना]
- छाँड़ै
- छोड़ता है, अलग करता है।
- कारौ अपनौ रंग न छाँडै, अनसँग | कबहुँ न होई. - १ - ६३।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना]
- छाँड़ै
- त्यागता है, अग्राह्य समझता है।
- खाद - अखाद न छाँडै अबल सब मैं साधु कहावै - १ - १८६।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना]
- छाँड़ौंगे
- त्याग करूँगी।
- चतुर नाइक सौ काम परयौ है कैसे ह्व छाँडौंगी - १५११।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना]
- छाँड्यौ
- संधान किया, लक्ष्य पर चलाया।
- देख्यौ जब दिव्य बान निसिचर कर तान्यौ। छाँड्यौ तब सूर हनू ब्रह्म - तेज मान्यौ - ९:९६।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँइना]
- छाँद
- पशुओं के पैर बाँधने की रस्सी, नोई।
- संज्ञा
- [सं. छंद=बंधन]
- छाँदना
- रस्सी से बाँधना।
- क्रि. स.
- [सं. छंदन = बंधन]
- छाँदना
- रस्सी से (पशु के पैर) बाँधना।
- क्रि. स.
- [सं. छंदन = बंधन]
- छाँदना
- हाथ से पैर जकड़ कर पकड़ना।
- क्रि. स.
- [सं. छंदन = बंधन]
- छांदस
- वेद-संबंधी।
- वि.
- [सं.]
- छांदस
- वेद-संबंधी।
- वि.
- [सं.]
- छांदस
- वेदपाठी।
- वि.
- [सं.]
- छांदस
- रट्टू।
- वि.
- [सं.]
- छांदस
- अल्पबुद्धि, मूर्ख।
- वि.
- [सं.]
- छाँदा
- हिस्सा, भाग।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छाँदा
- बढ़िया भोजन।
- संज्ञा
- [हिं. छानना]
- छांदोग्य
- सामवेद का एक ब्राह्मण।
इस (छांदोग्य) ब्राह्मण का एक उपनिषद।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाँव
- छाँह, छाया, शरण, आश्रय।
- रसमय जानि सुवा सेमर कौं चौंच घालि पछितायौ। कर्म - धर्म, लीला - जस, हरि - गुन इहिं रस छाँव न आयौ - १ - ५८।
- संज्ञा
- [हिं. छाँह]
- छाँवड़ा
- पशु का छौना या बछड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. छौना]
- गुन
- करनी, करतूत (व्यंग्य)।
- लरिकाईं ते करत अचगरी मैं जाने गुन तबहीं। ८०६।
(ख) कौनैं गुन बन चली बधू तुम, कहि मोंसौं सति भाउ - ९ - ४४। (ग) सुनहु महरि अपने सुत के गुन - १० - ३०३। (घ) तुम्हरे गुन सब नीके जाने - ३९१।
- संज्ञा
- [सं. गुण]
- गुन
- विशेषण।
- संज्ञा
- [सं. गुण]
- गुन
- तीन की संख्या।
- संज्ञा
- [सं. गुण]
- गुन
- प्रकृति।
- संज्ञा
- [सं. गुण]
- गुन
- रस्सी, तागा, डोरी।
- (क) इन तौ करी पाछिले की गति गुन तोरयौ बिच धार - १ - १७५।
(ख) तमहर सुत गुन आदि अन्त कवि का मतिवन्त बिचारो - सा. ४०।
- संज्ञा
- [सं. गुण]
- गुन
- एक प्रत्यय जो संख्यावाची शब्दों के अन्त में जुड़कर उतने ही गुण होना सूचित करता है।
- गिरिजा पितु पितु पितु ही ते सौ गुन सी दरसावै - सा. १५।
- प्रत्य.
- [सं. गुण]
- गुन
- मनन करके, सोच विचार कर।
- (क) हम पढ़ि गुनकै सब बिसरायौ ८९६।
(ख) गिरिजा - पति - पतनी पति जा सुत गुनगुन गनन उतारै - सा, ५।
- क्रि. स.
- [हिं. गुनना]
- गुन अकास
- आकाश का गुण, शब्द।
- गुन अकास को सिद्ध साधना सास्त्र करत बिस्तार - सा.१०४।
- संज्ञा
- [सं. गुण + आकाश]
- गुनकारी
- लाभदायक, गुण करनेवाली।
- सिय रिपु पितु सुत बंधु तात हित जाके चरन - कमल गुनकारी - सा. १०३।
- वि.
- [सं. गुण+हिं. कारी]
- गुनगुना
- नाक में बोलनेवाला।
- वि.
- [अनु.]
- गोए
- छिपा लिये, अदृश्य कर दिये।
- चतुरानन बछरा लै गोए, फिरि मांडव आए तिहि ठाँव - ४३८।
- क्रि. स.
- [हिं. गोना]
- गोकंटक
- गोखरू।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकन्या
- कामधेनु।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकर
- सूर्य, रवि।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकर्ण
- मलबार का वह क्षेत्र जो शिव की उपासना के लिए प्रसिद्ध है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकर्ण
- इस क्षेत्र की शिवमूर्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकर्ण
- खच्चर।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकर्ण
- एक साँप।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकर्ण
- बालिश्त, बित्ता।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकर्ण
- काश्मीर का एक प्राचीन राजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाँवड़ा
- छोटा बच्चा, बालक।
- संज्ञा
- [हिं. छौना]
- छाँस
- भूसी या कन जो अनाज छाँटने-फटकने पर बचता है।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छाँस
- कू।
- संज्ञा
- [हिं. छाँटना]
- छाँह, छाँहरि
- छाया।
- हरषित भए नँदलाल बैठि तरु - छाँह मैं।
- संज्ञा
- [सं. छाया]
- छाँह, छाँहरि
-
- छाँह में होना :- आड़ में होना, छिपना।
- मु.
- छाँह, छाँहरि
- ऊपर से छाया हुआ स्थान।
- संज्ञा
- [सं. छाया]
- छाँह, छाँहरि
- बचाव का स्थान, शरण।
- संज्ञा
- [सं. छाया]
- छाँह, छाँहरि
- बचाव, रक्षा।
- उ. - छाता तैं छाँह किये सोभित हरि - छाती - १ - २३।
- संज्ञा
- [सं. छाया]
- छाँह, छाँहरि
- परछाईं।
- संज्ञा
- [सं. छाया]
- छाँह, छाँहरि
-
- छाँह न छूने देना :- पास न आने देना।
छाँह बचाना :- पास न जाना। छाँह छूना :- पास जाना।
- मु.
- छाईं
- छाँह, छाया।
- संज्ञा
- [हिं. छाँह]
- छाईं
- प्रतिबिंब।
- छैलनि कै सँग यौं फिरै जैसें तनु सँग छाई (हो) - १ - ४४।
- संज्ञा
- [हिं. छाँह]
- छाई
- फैली, भर गयी।
- (क) लई बिमान चढ़ाई जानकी, कोटि मदन छबि छाई - ९ - १६२।
(ख) चित्र विचित्र सुभग चौतर्निया इंद्रधनुष छबि छाई - सारा, १७२। (ग) भीर भई दसरथ के आँगंन सामवेद धुनि छाई - ११७।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छाई
- ढक गयी, आच्छादित हो गयी।
- अति आनन्द होत गोकुल मैं रतन भूमि सब छाई - १० - २१।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छाई
- राख।
पाँस।
- संज्ञा
- [सं. क्षार]
- छाउँ
- छाया, छाँह।
- कामधेनु, चिंतामनि, दीन्हीं कल्पवृच्छ - तर छाउँ - १ - १६४।
- संज्ञा
- [हिं. छाँह]
- छाए
- फैल गये, बिछ गये, भर गये।
- आनँद मगन सब अमर गगन छाए पुहुप बिमान चढ़े पहर पहर के - १० - ३०।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छाए
- डेरा डाले थे, बसे हुए थे, टिके थे।
- (क) बंदीजन अरु भिक्षक सुनि - सुनि दूरि दूरि तै छाए। इक पहिलै ही आसा लागे, बहुत दिननि तें छाए - १०३५।
(ख) अंग - अंग प्रति मार निकर मिलि, छबिसमूह लै लै मनु छाए - १० - १०४।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छाक
- दोपहर का भोजन।
- (क) मध्य गोपाल - मंडली मोहन, छाक बाँटि कै लेत - ४१६।
(ख) अहिर लिए मधु - छाक तुरत बृंदाबन आए - ४३७। (ग) छाक लेन जे ग्वाल पठाए - ४५४। (घ) जाति - पाँति सबकी हौं जानौं, बाहिर छाक मँगाई। ग्वालनि कैं संग भोजन कीन्हौं, कुल कौं लाग लगाई - १ - २४४।
- संज्ञा
- [हिं. छकना]
- छाक
- तृप्ति, तुष्टि।
- संज्ञा
- [हिं. छकना]
- छाँह, छाँहरि
- पदार्थों का जल या शीशे में दिखायी देनेवाला प्रतिबिंब।
- संज्ञा
- [सं. छाया]
- छाँह, छाँहरि
- भूत-प्रेत का प्रभाव।
- संज्ञा
- [सं. छाया]
- छाँहगीर
- छत्र, राजछत्र।
- संज्ञा
- [हिं. छाँह+फ़ा. गीर]
- छाँहगीर
- दर्पण, शीशा, आइना।
- संज्ञा
- [हिं. छाँह+फ़ा. गीर]
- छाँही
- छाया, परछाई।
- संज्ञा
- [हिं. छाँह]
- छाइ
- आसक्त (है), रम (रहा है)।
- मैं कछू करिबे छाँड्यौ, या सरीरहिं पाइ। तऊ मेरो मन न मानत, रह्यौ अघ पर छाइ - १ - १९९।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छाइ
- छाइ रह्यौ- आसक्त हुआ है, रम रहा है।
- प्र.
- छाइ
- फैलकर, भरकर।
- रावन कह्यौ सो कह्यौ न जाई, रह्यौ क्रोध अति छाइ - ९ - १०४।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छाइ
- फैलाकर, बिछाकर।
- तब लौं तुरत एक तौ बाँधौं, द्रुम पाखाननिछाइ। द्वितीय सिंधु सिय - नैन - नीर ह्वै, जब लौं मिलै न आइ - ९ - ११०।
- क्रि. स.
- [सं. छादन]
- छाइ
- (मंडप आदि) छा कर।
- लग्न लै जु बरात साजी उनत मंडप छाइ - १० उ. १३।
- क्रि. स.
- [सं. छादन]
- छाक
- नशा, मस्ती।
- संज्ञा
- [हिं. छकना]
- छाक
- मैदे के सुहाल, माठ।
- संज्ञा
- [हिं. छकना]
- छाकना
- खा-पीकर अघाना या तृप्त होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छकना]
- छाकना
- मद पीकर मस्त होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छकना]
- छाकना
- हैरान या चकित होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छकना]
- छाकी
- मस्त, नशे में भरी हुई।
- नित रहत मदन मद छाकी - १० उ. २४।
- वि.
- [हिं. छकना]
- छाके
- छके हुए, मस्त, तृप्त।
- धाइ धाइ द्रुम भेटई ऊधौ छाके प्रेम - ३४४३।
- वि.
- [हिं. छाकना]
- छाकै
- छाक, दोपहर का भोजन।
- (क) घर - घर तैं छाकैं चलीं मानसरोवरतीर। नारायन भोजन करैं, बालक संग अहीर - ४९२।
(ख) छाकै खात खवावत ग्वालन सुंदर जमुना तीर - सारा. ४६६।
- संज्ञा
- [हिं. छाक]
- छाकै
- हैरान करते हैं।
- क्रि. स.
- [हिं. छाकना]
- छाकै
- तृप्त होते या अघाते हैं।
- क्रि. अ.
- छाज
- अनाज फटकने का सूप।
- संज्ञा
- [सं. छाद]
- छाज
-
- छाज सी दाढ़ी :- लंबी दाढ़ी।
छाजों मेंह बरसना :- मूसलाधार पानी बरसना।
- मु.
- छाज
- छाजन, छप्पर।
- संज्ञा
- [सं. छाद]
- छाज
- गाड़ी के कोचवान के सामने का छज्जा।
- संज्ञा
- [सं. छाद]
- छाज
- मकान का छज्जा।
- ऊँचे अटनि छाज की सोभा सीस ऊँचाइ निहारी - २५६२।
- संज्ञा
- [सं. छाद]
- छाजत
- शोभा देता है, भला लगता है, फबता है।
- युद्ध को करत छाजत नहीं है तुम्हैं - १० उ. ३१।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाजना]
- छाज़ति
- सुशोभित होती है शोभा बढ़ाती है।
- (क) पीत झँगुलिया की छबि छाजति, बिजुलता सोहति मनु कंदहिं - १० - १०७।
(ख) भृगु - पद - रेख स्याम - उर सजनी, कहा कहौं ज्यौं छाजति - ६३८।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाजना]
- छाजन
- वस्त्र, कपड़ा।
- संज्ञा
- [सं. छादन]
- छाजन
- छान, छ्प्पर, खपरैल।
- संज्ञा
- छाजना
- फबना, भला लगना, ठीक जान पड़ना।
- क्रि. अ.
- [सं.छादन]
- छाक्यौ
- तृप्त हुआ, उन्मत्त हुआ।
- (क) ते दिन बिसरि गऐ इहाँ आए। अति उन्मत मोह - मद छाक्यौ, फिरत केस बगराए १ - ३२०।
(२) कछु करि गए तनक चितवनि मैं यातैं रहत प्रेम - मद छाक्यौ - २५४६।
- क्रि. स.
- [हिं. छकना]
- छाग
- बकरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- छागन
- उपले की आग।
- संज्ञा
- [सं.]
- छागर, छागल
- बकरा।
- संज्ञा
- [सं. छागल]
- छागर, छागल
- बकरे की खाल की बनी चीज।
- संज्ञा
- [सं. छागल]
- छागर, छागल
- स्त्रियों के पैर का एक धुंघरूदार गहना, झाँझ, झाँझन।
- स्त्रियों के पैर का एक घुंघरूदार गहना, झाँझ, झाँझन।
- संज्ञा
- [हिं. साँकल]
- छाछ
- पनीला दही, मट्ठा, मही।
- राजनीति जानौ नहीं, गोसुत चरवारे। पीवौ छाछ अघाइकै, कब के रयवारे - १ - २३८।
- संज्ञा
- [सं. छच्छिका]
- छाछ
- घी तपने पर नीचे बैठनेवाला मट्ठा।
- संज्ञा
- [सं. छच्छिका]
- छाछठ
- छासठ की संख्या।
- संज्ञा
- [हिं. छासठ]
- छाछि
- मही, मट्ठा।
- संज्ञा
- [हिं. छाछ]
- छाजना
- सुशोभित होना।
- क्रि. अ.
- [सं.छादन]
- छाजा
- छज्जा।
- ऊँचे भवन मनोहर छाजा, मनि कंचन की भीति - १० उ. ६९।
- संज्ञा
- [सं. छाद]
- छाजी
- फबी, भली लगी।
- यह गति करत नहीं छाजी - २६६५।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाजना]
- छाजैं
- सुंदर लगते हैं, सुशोभित हैं।
- गोबर्धन बिंदाधन जमुना सघन कुंज अति छाजै - सारा, ४६२।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाजना]
- छाजै
- सुशोभित होता है।
- जसुमति दधि - माखन करति, बैठी बर धाम अजिर, ठाढ़े हरि हँसते नान्हि दँतियनि छबि छाजै - - १० - १४६।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाजना]
- छाजै
- शोभा देती है, भली लगती है, फबती है, उपयुक्त जान पड़ती है।
- (क) चित्रित बाँह पहुँचिया पहुँचै, हाथ मुरलिया छाजै - ४५१।
(ख) पल्लव हस्त मुद्रिका भ्राजै। कौस्तुभ मनि हृद्यस्थल छाजै - ६२५।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाजना]
- छाड़ना
- वमन या कै करना।
- क्रि. अ.
- [सं. छर्दि]
- छाड़ना
- छोड़ना, त्यागना।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना]
- छाड़ौ
- त्यागो।
- छाड़ौ नाहिं स्याम - स्यामा की बृंदावन रजधानी - १ - ८७।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना]
- छाड्यौ
- छोड़ा, त्यागा।
- (क) संग लगाइ बीच ही छाँड्यौ, निपट अनाथ - अकेलौ - १ - १७५।
(ख) पांडव सब पुरुषारथ | छाँड्यौ, बाँधे कपट - बचन की बेरी - १ - १५१।
- क्रि. स.
- [हिं. छाँड़ना]
- छाती
-
- वक्षस्थल, सीना
- संज्ञा
- [सं. छादिन्, छादी=आच्छादन करनेवाला]
- छाती
-
- छाती का जम :- (१) दुखदायी व्यक्ति।
(२) ढीठ आदमी। छाती पर का पत्थर (पहाड़) :- (१) चितिति करनेवाली वस्तु। (२) सदा कष्ट देनेवाली वस्तु। छाती कूटना (पीटना) :- शोक से छाती पर हाथ मारना। छाती के किवाड़ खुलना :- (१) छाती फटना। (२) गहरी चीख निकलना। (३) उन का उदय होना। छाती तले रखना :- (१) पास ही रखना। (२) बड़े प्रेम से रखना। छाती तले रहना - (१) पास रहना। (२) प्रिय होकर रहना। छाती दरकना (फटना) :- (१) दुख से मानसिक कष्ट होना। (२) ईर्ष्या से जलना, कुढ़ना। छाती निकाल कर चलना :- ऐंठकर चलना। छाती पत्थर की करना :- अधिक से अधिक कष्ट या हानि सहने को तैयार होना। छाती पर मूँग (कोदों) दलना :- (१) सामने ही ऐसा काम करना जिससे कोई कुढ़े। (२) बहुत कष्ट देना। छाती पर चढ़ना :- कष्ट देने के लिए पास जाना। छाती पर धर कर ले जाना :- अपने साथ परलोक ले जाना। छाती पर पत्थर रखना :- दुख सहने को तैयार होना। छाती पर बाल होना :- उदार और न्यायप्रिय होना। छाती पर साँप लोटना (फिरना) :- (१) दुख से मानसिक कष्ट मिलना। (२) ईर्ष्या, डाह या जलन होना। छाती पीटना :- दुख या शोक से छाती पर हाथ पटकना। छाती फुलाना :- (१) अकड़ कर चलना। (२) घमंड करना। छाती से पत्थर टलना :- चिंता का कारण सरलता से दूर होना। (२) बेटी का ब्याह हो जाना। छाती से लगना :- गले लगना | छाती से लगाना :- प्यार से गले लगाना। छाती से लगाकर रखना :- (१) पास ही रखना। (२) प्रेम से रखना। बज्र की छाती :- ऐसा कठोर हृदय जो बड़े से बड़ा कष्ट सहकर भी न फटे। उ. - (क) निकसि न जात प्रान ए पापी फाटते नाहिं बज्र की छाती - २८८२। (ख) बिहरत नाहिं बज्र की छाती हरि बियोग क्यों सहिए - ३४३५।
- मु.
- छाती
- कलेजा, हृदय, जी, मन।
- संज्ञा
- [सं. छादिन्, छादी=आच्छादन करनेवाला]
- छाती
-
- छाती उड़ी जाना - दुख या कमजोरी से जी घबड़ाना।
छाती उमड़ आना - प्रेम या दया से जी भर आना। छाती छलनी होना - दुख सहते - सहते या कुढ़ते - कुढ़ते जी ऊब जाना। छाती जलना - (१) अजीर्ण आदि के कारण हृदय में जलन जान पड़ना। (२) बड़े कष्टों के कारण मानसिक संताप होना। (३) ईर्ष्या या क्रोध से जी जलना या कुढ़ना। छाती जरत - (१) कष्ट मिलता है। उ. - काम पावक जरत छाती लोन लायौ अनि - ३३५५। (२) जी कुढ़ता है, डाह होती है। उ. - वह पापिनी दाहि कुल आई देखि जरत मोहिं छाती। छाती जलाना - (१) मानसिक कष्ट पहुँचाना। (२) कुढ़ाना, जी जलाना। छाती जारहु - मानसिक कष्ट दो। उ. - सूर न होई स्याम के मुख को जाहु न जारहु छाती ३१०६। छाती जुड़ाना - (१) क्रि. अ. - मन की इच्छा पूरी होना। (२) क्रि. स. - मन की इच्छा पूरी करना। छाती ठंडी करना - मन की इच्छा पूरी करना। छाती ठंडी होना - मन की इच्छा पूरी होना। छाती ठुकना - हिम्मत बँधना। छाती ठोकना - कठिन काम करने की हिम्मत बाँधना। छाती धड़कना - भय या आशंका से जी धक धक होना। छाती थाम कर (पकड़कर) रह (बैठ) जाना - मानसिक कष्ट या गहरी हानि सहने को लाचार हो जाना। छाती पक जाना - कष्ट सहते सहते जी ऊब जाना। छाती पत्थर की करना - भारी कष्ट या गहरी हानि सहने को तैयार होना। छाती पत्थर की होना - जी इतना कठोर करना कि भारी कष्ट या गहरी हानि सह लेना। छाती पर फिरना - बारबार याद आना। छाती भर आना - प्रेम या दया से जी गद्गद् होना। छाती मसोसना - कष्ट या हानि सहने को लाचार होना। छाती में छेद होना (पड़ना) - कुढ़ते-कुढ़ते कलेजा छलनी हो जाना छाती से लगाना - आलिंगन करना। छाती लै लावत - कलेजे से लगाती हैं। उ. - निरखत अंक स्याम सुंदर के बारबार लावत लै छाती - २९७७। छाती सों लाई - कलेजे से लगाकर। उ. - निसि बासर छाती सों लाई बालक लीला गाई - ३४३५।
- मु.
- छाती
- स्तन, कुच।
- संज्ञा
- [सं. छादिन्, छादी=आच्छादन करनेवाला]
- छाती
-
- छाती उभरना :- किशोरावस्था के पश्चात स्त्रियों के स्तन उठना या उभरना।
छाती देना :- दूध पिलाना। छाती भर आना :- (१) दूध उतरना (२) प्रेम या दया उमड़ना, आँख में आँसू आ जाना।
- मु.
- छाती
- हिम्मत, साहस, दृढ़ता।
- संज्ञा
- [सं. छादिन्, छादी=आच्छादन करनेवाला]
- छात्र
- विद्यार्थी।
- संज्ञा
- [सं.]
- छात्र
- मधु।
- संज्ञा
- [सं.]
- छात्र
- छतया नामक मधुमक्खी।
- संज्ञा
- [सं.]
- छात
- छाता, छतरी।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छात
- राजक्षंत्र।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छात
- आश्रय, आधार।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छात
- छिन्न।
- वि.
- [सं.]
- छात
- दुबला-पतली।
- वि.
- [सं.]
- छात
- छत, छाजन।
- संज्ञा
- [हिं. छत]
- छाता
- छतरी।
- छाता लौं छाँह किए सोभित हरि छाती - १२३
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छाता
- छत्ता, खुमी।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छाता
- चौड़ी छाती।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छाता
- छाती की चौड़ाई की नाप।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छात्र
- इसका मधु।
- संज्ञा
- [सं.]
- छात्रवृत्ति
- धन जो विद्यार्थी को अध्ययन के लिए सहायतार्थ दिया जाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- छात्रालय, छात्रावास
- बाहरी छात्रों के रहने या ठहरने का स्थान।
- संज्ञा
- [सं.]
- छादक
- छाने या ढकनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- छादन
- छाने या ढकने का काम।
- संज्ञा
- [सं.]
- छादन
- वह जिससे छाया या ढका जाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- छादन
- छिपाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- छादित
- छाया या ढका हुआ।
- वि.
- [सं.]
- छादी
- ढकनेवाला।
- वि.
- [हिं. छादन]
- छाद्मिक
- जो अपना वेश छिपाये हो।
- वि.
- [सं.]
- गोखरू
- एक पौधा, उसका फल।
- संज्ञा
- [सं. गोक्षर]
- गोख
- मोखा, झरोखा।
- संज्ञा
- [सं. गवाक्ष]
- गोख
- गाय का कच्चा चमड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. गो+खाल]
- गोखुर
- गाय का पैर।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोखुर
- गाय के खुर का थल पर बना चिन्ह।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोखुरा
- एक साँप।
- संज्ञा
- [हिं. गों+खुर]
- गोगा
- छोटा काँटा, मेख।
- संज्ञा
- [देश, ]
- गोगापीर
- एक पीर जो देवताओं के समान पूजा जाता है।
- संज्ञा
- [हिं. गो+पीर]
- गोग्रासि
- श्राद्ध आदि के प्रारंभ में गाय के लिए निकाला गया भोजन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोघरी
- एक तरह की कपास।
- संज्ञा
- [देश.]
- छाद्मिक
- पाखंडी, मक्कार।
- वि.
- [सं.]
- छाद्मिक
- बहुरूपिया।
- वि.
- [सं.]
- छान
- छप्पर।
- संज्ञा
- [सं. छादन = छाजन]
- छान
- पशु के पैर बाँधने की रस्सी, बंधन, नोई।
- संज्ञा
- [सं. छंद = बंधन]
- छानत
- ढूँढ़ते हैं, खोजते हैं।
- परम कुबुद्धि, तुच्छ - रस लोभी, कौड़ी लगि मग की रज छानत - १ - ११४।
- क्रि. स.
- [हिं. छानना]
- छानत
- छानते हैं।
- अतिशय सुकृत - रहति, अघ - ब्याकुल, बृथा स्रमित रज छानत - १ - २०१।
- क्रि. स.
- [हिं. छानना]
- छानन
- छानने पर बच रहने वाली मोटी चीज जो छन न सके।
- संज्ञा
- [हिं. छानना]
- छाननहार
- छाननेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. छानना+ हार (प्रत्य.)]
- छाननहार
- अलग करनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. छानना+ हार (प्रत्य.)]
- छानना
- किस पिसी या तरल चीज को महीन कपड़े के पार इसलिए निकालना कि कूड़ा-करकट या मोटा अंश ऊपर ही रह जाय।
- क्रि. स.
- [सं. चालन या क्षरण]
- छानना
- मिली-जुली चीजों को अलग करना।
- क्रि. स.
- [सं. चालन या क्षरण]
- छानना
- जाँच-पड़ताल करना
- क्रि. स.
- [सं. चालन या क्षरण]
- छानना
- ढूँढ़ना, खोज करना।
- क्रि. स.
- [सं. चालन या क्षरण]
- छानना
- छेद कर आर-पार करना।
- क्रि. स.
- [सं. चालन या क्षरण]
- छानना
- नशा पीना।
- क्रि. स.
- [सं. चालन या क्षरण]
- छानना
- रस्सी से बाँधना या जकड़न।
- क्रि. स.
- [सं. छंदन, हिं. छादना]
- छानना
- पशु के पैर बाँधना।
- क्रि. स.
- [सं. छंदन, हिं. छादना]
- छानबीन
- जाँच-पड़ताल, गहरी खोज।
- संज्ञा
- [हिं. छानना+बीनना]
- छानबीन
- विचार, विवेचना।
- संज्ञा
- [हिं. छानना+बीनना]
- छाना
- ढकना, आच्छादित करना।
- क्रि. स.
- [सं. छादन]
- छाना
- ऊपर तानना या फैलाना।
।
- क्रि. स.
- [सं. छादन]
- छाना
- बिछाना।
- क्रि. स.
- [सं. छादन]
- छाना
- शरण में लेना।
- क्रि. स.
- [सं. छादन]
- छाना
- बिछ जाना, भर जाना, फैलना। डेरा डालना, बसना, रहना, टिकना।
- क्रि. अ.
- छानबे
- नब्बे और छः की संख्या।
- संज्ञा
- [सं. षण्णवति, प्रा. षण्णवइ या छः+ नब्बे]
- छानि, छानी
- छप्पर, घासफूस की छाजन।
- टूटी छानि मेघ जल बरसै टूटे पलँग बिछइये - १ - २३९।
- संज्ञा
- [सं. छादन = छाजन, हिं. छान]
- छानि, छानी
- ढक कर, आच्छादित करके।
- मैं अपने मंदिर के कोनै राख्यौ माख छानि - १० - २८० |
- क्रि. स.
- छाने छाने
- छिपे-छिपे, चुपके से, छिपाकर।
- क्रि. वि.
- छान्यौ
- महीन कपड़े में छान ली।
- मैदा उज्ज्वल करिके छान्यौ - १००४।
- क्रि. स.
- [हिं. छानना]
- छाप
- खुदे यर उभरे हुए ठप्पे का निशान।
- (१) खुदे या उभरे हुए ठप्पे का निशान।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छाप
- किसी चीज के गड़ने से बननेवाला चिह्न।
- कंकन बलय पीठि गड़ि लागे उर पर छाप बनाए हो - २०११।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छाप
- मुहर-चिह्न मुद्रा।
- (क) दान दिए बिनु जान न पैहौ। माँगत छाप कहा दिखरायो को नहिं हमको जानत। सूरस्याम तब कह्यो ग्वारि सौं तुम मोकौं क्यौं मानत।
(ख) अजुहिं दान पहिरि ह्याँ आए कहाँ दिखावहु छाप - १०८८५
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छाप
- वैष्णवों के अंगों पर मुद्रित शंख, चक्र, आदि के चिह्न, मुद्रा।
- मेटे क्यों हूँ न मिटति छाप परी टटकी। सूरदास - प्रभु की छबि हिर दय मौं अटकी।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छाप
- अन्न की राशि पर लगाया जानेवाला चिह्न, चाँक।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छाप
- अँगूठी जिस पर अक्षर या नाम का ठप्पा रहता है।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छाप
- उपनाम।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छाप
- लकड़ी का बोझ।
- संज्ञा
- [सं. क्षेप = खेप]
- छाप
- टोकरी जिससे पानी उलीचा जाता है।
- संज्ञा
- [सं. क्षेप = खेप]
- छापक
- छोटा।
- वि.
- [हिं. छापा]
- छापना
- (आकृति आदि) चिह्नित करना।
- क्रि. स.
- [सं. चपन]
- छापना
- अंकित करना।
- क्रि. स.
- [सं. चपन]
- छापना
- (पुस्तक आदि) मुद्रित करना।
- क्रि. स.
- [सं. चपन]
- छापा
- उभरा या खुदा हुआ साँचा या ठप्पे।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छापा
- मुहर, मुद्रा।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छापा
- ठप्पे या मुद्रा का चिह्न।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छापा
- वैष्णवों के अंगों में गुदे हुए शंख, चक्र आदि के चिह्न।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छापा
- शुभ कार्यों में हल्दी आदि से लगाया जानेवाला हाथ का चिह्न, थापा।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छापा
- अन्नं की राशि पर चिह्न डालने का ठप्पा।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छापा
- किसी वस्तु की नकल।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छापा
- असावधान शत्रु पर वार या धावा।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छाम
- दुबला-पतला, कृश।
- वि.
- [सं. क्षाम]
- छामोदरी
- जिसका पेट छोटा (और सुंदर लगनेवाला) हो।
- वि.
- [सं. क्षाम+उदर]
- छाय
- परछाहीं।
- संज्ञा
- [सं. छाया।]
- छायल
- स्त्रियों का एक पहनावा।
- संज्ञा
- [हिं. छाना]
- छायांक
- चंद्रमा
- संज्ञा
- [सं. छाया+अंक]
- छाया
- (पेड़ आदि का) साया।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाया
- वह स्थान जहाँ सूर्य आदि का प्रकाश न पड़े।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाया
- परछाईं।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाया
- जल, दर्पण आदि में दिखायी देनेवाली वस्तु या व्यक्ति की आकृति।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाया
- प्रतिकृति, अनुहार।
- जनक - तनया धरी अगिनि मैं, छाया - रूप बनाइ - ९ - ६०।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाया
- नकल, अनुकरण।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाया
- सूर्य की एक पत्नी।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाया
- कांति।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाया
- शरण, रक्षा।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाया
- घूस. रिश्वत।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाया
- पंक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाया
- एक छंद।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाया
- एक रागिनी।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाया
- भूत-प्रेत का प्रभाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- छायाग्राहिणी
- एक राक्षसी जो छाया पकड़ कर जीवों को खींच लिया करती थी।
- संज्ञा
- [सं.]
- छायातन
- वह जिसका शरीर छाया से बना हो, निराकार।
- संज्ञा
- [सं. छाया+तन]
- छायादान
- एक तरह का दान।
- संज्ञा
- [सं.]
- छायादार
- जहाँ छाया हो।
- वि.
- [सं. छाया+दार]
- छायापथ
- आकाश।
- संज्ञा
- [सं.]
- छायापथ
- आकाशगंगा।
- संज्ञा
- [सं.]
- छायापुरुष
- आकाश में दृष्टि स्थिर करैने पर दिखायी देनेवाली छायाकृति।
- संज्ञा
- [सं.]
- छायाभ
- छाया से युक्त।
- वि.
- [सं. छाला+भु]
- छायालोक
- अदृश्य जगत, स्वप्नलोक।
- संज्ञा
- [सं.]
- छायावाद
- एक सिद्धांत जिसमें लाक्षणिक प्रयोगों के आधार पर अव्यक्त के प्रति प्रणय, विरह आदि के भाव प्रकट किये जाते हैं।
- संज्ञा
- [सं.]
- छायावादी
- छायावाद-संबंधी।
छायाबाद के सिद्धांत या उसकी पद्धति का समर्थक।
- वि.
- [सं]
- छाये
- लगे थे, रत थे।
- जहँ जड़भरत कृषी मैं छाये - ५ - ३।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छायौ
- फैल गया, छा गया।
- (क) गह्यौ गिरि पानि जस जगत छायौ - १ - ५।
(ख) प्रात इंद्र कोपित जलधर लै ब्रज़मण्डल पर छायौ - ३०२१। (ग)चक्रवात सकल घोष मैं रज धुंधर ह्वै छायौ - सार ४२८।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छायौ
- डेरा डाला, बसे रहे, टिके।
- (क) कहा भयो जो लोग कहत हैं कान्ह द्वारका छायौ।
(ख) किहि मातुल कियौ जगत जस कौन मधुपुरी छायौ - ३०७१।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छायौ
- छप्पर आदि ताना या छाया।
- प्रीति जानि हरि गए बिदुर कैं, नामदेव - घर छायौ - १ - २०।
- क्रि. स.
- [सं. छादन]
- छार
- वनस्पतियों या धातुओं की राख का नमक।
- संज्ञा
- [सं. क्षार]
- छार
- खारी नमक या पदार्थ।
- संज्ञा
- [सं. क्षार]
- छार
- राख, खाक, भस्म मिट्टी।
- (क) जग मैं जीवतं ही कौ नातौ। मन बिछुरै तन छार होइगौ, कोउ न बात पुछातौ - १ - ३०२।
(ख) धिक धिक जीवन है अब यह तन क्यों न होइ जरि छार - ९ - ८३। (ग) लंक जाइ छीर जब कीनी - १० - २२१।
- संज्ञा
- [सं. क्षार]
- छार
-
- छार-खार करना :- भस्म या नष्ट करना।
- मु.
- छार
- धूल, गर्दा।
- संज्ञा
- [सं. क्षार]
- छाल
- पेड़ की शाखा, दहनी आदि का ऊपरी बक्कल।
- संज्ञा
- [सं. छल्ल, छाल]
- छावँ
- शरण, आश्रय।
- संज्ञा
- [सं. छाया]
- छाव
- छा गया है, फैल रहा है।
- जे पद कमल सुरसरी परसे तिहुँ भुवन जस छाव - २४८४।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छावल
- फैलाती है, बिखराती है।
- वै देखौ रघुपति हैं आवत। दूरिहिं तैं दुतिया के ससि ज्यौं, ब्योम बिमान महा - छवि छावत - ९ - १६२।
- क्रि. अ.
- [सं. छादन, हि. छाना]
- छावल
- चारों ओर छा जाती है।
- पावस बिबिध बरन बर बादर उड़ि नहि अंबर छावत - २८३५।
- क्रि. अ.
- [सं. छादन, हि. छाना]
- छावन
- छाने (के लिए), तानने या फैलाने (के लिए)।
- तीनि पैंड़ बसुधा हौं चाहौं परनकुटी कौं छावन - ८ - १३।
- क्रि. स.
- [हिं. छाना]
- छावन
- रहने या बसने (के लिए)।
- हौं इह बात कहा जानौं प्रभु जात मधुपुरी छावन - ३१०१ और ३१९६।
- क्रि. स.
- [हिं. छाना]
- छावना
- छाना, तानना।
- क्रि. स.
- [हिं. छाना]
- छावनी
- (छप्पर, छान।
- संज्ञा
- [हिं. छाना]
- छावनी
- डेरा, पड़ाव
- संज्ञा
- [हिं. छाना]
- छावनी
- सेना के रहने का स्थान।
- संज्ञा
- [हिं. छाना]
- गोघात
- गाय की हत्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोघातक, गोघाती
- गाय का हत्यारा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोध्न
- गाय का हत्यारा या बधिक।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोध्न
- अतिथि, मेहमान।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोचंदन
- एक तरह का चंदन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोचंदना
- एक जहरीली जोंक।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोचना
- रोकना।
- क्रि. स.
- [पुं. हिं. अगोछना]
- गोचना
- मिला हुआगेंहूँ-चना।
- संज्ञा
- [हिं. गेहूँ + चना]
- गोचर
- जिसका ज्ञान इंद्रियों द्वारा हो।
- वि.
- [सं.]
- गोचर
- बात या विषय जिसका ज्ञान इंद्रियों द्वारा हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- छाल
- एक मिठाई।
- संज्ञा
- [सं. छल्ल, छाल]
- छाल
- चीनी जो बहुत साफ न हो।
- संज्ञा
- [सं. छल्ल, छाल]
- छालना
- (आटा-आदि) छानना, चालना।
- क्रि. अ.
- [सं. चालन्]
- छालना
- बहुत से छेद कर डालना।
- क्रि. अ.
- [सं. चालन्]
- छाला
- छाल, चमड़ा
- संज्ञा
- [हिं. छाल]
- छाला
- जलने या रगड़ने से पड़नेवाला फफोला या झलका।
- संज्ञा
- [हिं. छाल]
- छालित
- धोया हुआ।
- वि.
- [सं. प्रक्षालित]
- छाली
- कटी हुई सुपारी।
- संज्ञा
- [हिं. छाला]
- छालो
- बकरा।
- संज्ञा
- [सं. छागल, प्रा. छाअलो]
- छावँ
- छाँह, छाया।
- संज्ञा
- [सं. छाया]
- छावरा
- छौना, बच्चा।
- संज्ञा
- [सं. शावक]
- छावा
- छौना, बच्चा।
- संज्ञा
- [सं. शावक]
- छावा
- पुत्र, बेटा।
- संज्ञा
- [सं. शावक]
- छावा
- जवान हाथी।
- संज्ञा
- [सं. शावक]
- छावै
- एकत्र हो जाते हैं।
- सुर - मुनि देव कोटि तेंतीसौ कौतुक अंबर छाबैं - १० - ४५।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छावै
- बिखरती है, फैलती है, भेर जाती है।
- गंधबास दस जोजन छावै - ५ - २।
(ख) कंचन मुकुट कंठ मुक्तावलि मोर पंख छबि छावै - २५४९।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाना]
- छावै
- तानते या छाते हैं।
- कंचन के बहु भवन मनोहर राजा रंक न तृन छावै री - १०उ.८४।
- क्रि. स.
- छासठ
- साठ में छः जोड़ने से बननेवाली संख्या।
- संज्ञा
- [सं. षट्षष्टि, प्रा. छाछठि]
- छाहँ, छाहिं
- शरण, संरक्षा।
- बिबिध आयुध घरे, सुभट सेवत खरे, छत्र की छाहँ निरभय जनायौ - ९ - १२९।
- संज्ञा
- [सं. छाया]
- छाहँ, छाहिं
- छाया, समीपवर्ती सुरक्षित स्थान।
- जनि डर करहु सबै मिलि आवहु या पर्वत की छाहँ - ९५७।
- संज्ञा
- [सं. छाया]
- छाहिं. छाहि, छाहीं
- छाया, छाँह।
- सूर स्याम ग्वालनि लए, चले बंसीबटछाहि - ४३१।
- संज्ञा
- [हिं. छाँह]
- छाहिं. छाहि, छाहीं
-
- जलद (बादल) की छाँही :- शीघ्र नष्ट हो जानेवाली वस्तु।
उ. - (क) जौबन - रूप - राज - धन धरती जानि जलद की छाँहीं - २ - २३। (ख) जगत पिता जगदीस - सरन बिनु, सुख तीनौं पुर नाहीं। और सकल मैं देखे - ढूँढे, बादर की - सी छाहीं। सूरदास भगवंत भजन बिनु, दुख कबहुँ नहिं जाहीं - १ - ३२३।
- मु.
- छिंउँका
- भूरा चींटा।
- संज्ञा
- [हिं. चिउँटा]
- छिंगुनिया, छिंगुनी, छिंगुलिया, छिंगुली
- सबसे छोटी उँगली।
- संज्ञा
- [हिं. छँगुली]
- छिंछ, छिछि
- छींटा, धार, फौवारा।
- शोनित छि छि उछरि आकासहिं गज बाजिन सर लागी। मानौ निकरि तरनि - रंध्रनि तें उपजी हैं अति आगि - ९ - १५८।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छिंड़ाना
- जबरदस्ती छीन लेना, बल दिखाकर लेना।
- क्रि. स.
- [हिं. छीनना]
- छिंड़ाय
- छीन (लो), ले (लो)।
- (क) बहुत ढीठ यह भई ग्वालिनी मटुकी लेहु छिंड़ाय।
(ख) डरनि तुम्हरे जाति नहीं लेत दहिंउ छिड़ाय।
- क्रि. स.
- [हिं. छिड़ाना]
- छिः, छि
- घृणा या अरुचि सूचक शब्द।
- अव्यः
- [अनु.]
- छिउला
- पौधा।
- संज्ञा
- [सं. क्षुप+ला (प्रत्य.)]
- छिकना
- घिरना, छेका जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छेकना]
- छिकना
- नाम चढ़ी रकम आदि काटा जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छेकना]
- छिकुला
- फलों, तरकारियों आदि का ऊपरी आवरण, छिलका।
- संज्ञा
- [हिं. छाल]
- छिगुनिया, छिगुनी, छिगुली
- सबसे छोटी उँगली, कनिष्टिका।
- संज्ञा
- [सं. क्षुद्र+ अँगुली]
- छिच्छ
- बूँद, छींटा, सीकर।
- राम सर लागि भनु आगि गिरि पर जरी उछलि छिच्छिनि सरनि भानु छाए।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छिछकारना
- छिड़कना।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- छिछला, छिछिल
- उथला।
- वि.
- [हिं. छूछा+ला]
- छिछली
- जो गहरी न हो।
- वि.
- [हिं. छिछला]
- छिछली
- लड़कों का खेल।
- संज्ञा
- छिछियाना
- घिन करना।
- क्रि. स.
- [अनु, छिछि]
- छिछिलाई
- उथला होने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छिछला]
- छिछिलाई
- गंभीरता का अभाव।
- संज्ञा
- [हिं. छिछला]
- छिछोरपन, छिछोरापन
- ओछापन, नीचता।
- संज्ञा
- [हिं. छिछोरा]
- छिछोरपन, छिछोरापन
- गंभीरता का अभाव।
- संज्ञा
- [हिं. छिछोरा]
- छिछोरा
- ओछा, नीच प्रकृति का।
- वि.
- [हिं. छिछला]
- छिजई
- छीजती या क्षीण होती है।
- तन घन सजल सेइ निसि बासर रटि रसना छिजई - ३३०८।
- क्रि. अ.
- [हिं. छीजना]
- छिजना
- क्षीण या नष्ट होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छीजना]
- छिजाना
- नष्ट होने देना।
- क्रि. स.
- [हिं. छीजना]
- छिटकना
- बिखरना, छितरना, बगरना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षिप्त, प्रा. खित्त, छित्त+करण]
- छिटकना
- प्रकाश फैलना, उजाला होना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षिप्त, प्रा. खित्त, छित्त+करण]
- छिटका
- पालकी का परदा।
- संज्ञा
- [हिं. छिटकना]
- छिड़काई
- (पानी आदि द्रव पदार्थ) छिड़कने की क्रिया या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. छिड़कना]
- छिड़काना
- छिड़कने का काम करना, या इसकी प्रेरणा देना।
- क्रि. स.
- [हिं. छिड़कना]
- छिड़का, छिड़काव
- (पानी आदि द्रव पदार्थ) छिड़कने का काम।
- संज्ञा
- [हिं. छिड़कना]
- छिड़ना
- आरंभ होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छेड़ना]
- छिड़ाइ
- छीन (लेते हैं)।
- डरनि तुम्हरे जाति नाहीं लेत दह्यौ छिड़ाइ - ११६७।
- क्रि. स.
- [हिं. छिड़ाना]
- छिड़ाय
- छुड़ा (ली), छुड़ाकर।
- (क) अधरपान रस करहिं पियारी मुरली लई छिड़ाय - २४४६।
(ख) आरजपंथ छिड़ाय गोपिकन। अपने स्वारथ भोरी - २८६३।
- क्रि. स.
- [हिं. छिड़ाना]
- छिण
- थोड़ा समय, क्षण।
- संज्ञा
- [सं. क्षण]
- छितनी
- छोटी टोकरी।
- संज्ञा
- [सं. छत्र, प्रा. छत्त]
- छितरना
- फैलना, बिखरना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छितराना]
- छितराना
- बिखर जाना, तितरबितर होना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षिप्त+करण, प्रा. छितकरण, छित्तरण]
- छिटकाति
- छिटकी है, बिखरी हुई है, फैल रही है।
- ललित लट छिटकाति मुख पर, देहि सोभा दून - १० - १८४।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिटकना]
- छिटकाना
- बिखराना।
- क्रि. स.
- [हिं. छिटकना]
- छिटकि
- इधर-उधर फैलकर, चारों ओर बिखरकर, छितराकर।
- (क) छिटकि रहीं चहुँ दिसि जु लटुरियाँ, लटकन - लटकनि भाल। की - १० - १०५।
(ख) दुहुँ कर माट गह्यौ नँदनंदन, छिटकि बूँद - दवि परत अवात - १० - १५९। (ग) छिटकि रही दधि - बूँद हृदय पर, इत - उत चितवत करि मन मैं डर - १० - २८२।
- क्रि. अ.
- [हि, छिटकना]
- छिटकि
- प्रकाश फैलना, उजाला छाना।
- लै पौढ़ी आँगन हीं सुत कौं, छिटकि रही आछी उजियरिया - १० - २४६।
- क्रि. अ.
- [हि, छिटकना]
- छिटकुनी
- पतली छड़ी, कमची।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छिटके
- इधर-उधर फैल गये, बिखरे, छितरे।
- केस सिर बिन बयन के चहुँ दिसा छिटके झारि - १० - १६९।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिटकना]
- छिटनी
- टोकरी, झौआ।
- संज्ञा
- [हिं. छींटना]
- छिट्टी
- छोटा जलकण।
- संज्ञा
- [हिं.छौटा]
- छिड़कना
- भिगोने के लिए पानी की बूँदें डालना।
- क्रि. स.
- [हिं. छींटा+करना]
- छिड़कना
- न्योछावर करना।
- क्रि. स.
- [हिं. छींटा+करना]
- छितराना
- इधर-उधर बिखेरना, फैलाना।
- क्रि. स.
- छितराना
- अलग या दूर करना।
- क्रि. स.
- छितराव
- बिखरने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छितराना]
- छिति
- भूमि, पृथ्वी।
- अमल झकास कास कुसुमिन छिति लच्छन स्वाति जनाए - २८५४।
- संज्ञा
- [सं. क्षिति]
- छिति
- एक का अंक।
- संज्ञा
- [सं. क्षिति]
- छितिकंत
- राजा।
- संज्ञा
- [सं. क्षिति+कांत]
- छितिज
- वह स्थान जहाँ आकाश और पृथ्वी मिले जान पड़ते हैं।
- संज्ञा
- [सं. क्षितिज]
- छितिपाल
- राजा।
- संज्ञा
- [सं. क्षिति+पाल]
- छितिरुह
- पेड़, वृक्ष।
- संज्ञा
- [सं. क्षितिरुह]
- छितीस
- राजा।
- संज्ञा
- [सं. क्षिति+ईश]
- छिदना
- छेद होना, बिधना, भिदना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छेदना]
- छिदना
- घायल या जख्मी होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छेदना]
- छिदना
- (सहारे के लिए) थामना, पकड़ना।
- क्रि. स.
- छिदना
- बरच्छा, फलदान, मँगनी।
- संज्ञा
- छिदरा
- जो घना न हो, छितराया हुआ।
- वि.
- [हिं. छिद्र]
- छिदरा
- छेददार।
- वि.
- [हिं. छिद्र]
- छिदरा
- फटा हुआ।
- वि.
- [हिं. छिद्र]
- छिदरा
- ओछा, तुच्छ बुद्धि का।
- वि.
- [सं. क्षुद्र]
- छिदाना
- छेदने को प्रेरित करना, छेदने देना।
- क्रि. स.
- [हिं. छेदना का प्रे, ]
- छिदि
- चुभकर, भिदकर।
- छिदि छिदि जात बिरह सर मारे - ३०७५।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिदना]
- छिद्र
- छेद।
- मुरली कौन सुकृत - फल पाए।…..। मन कठोर, तन गाँठि प्रगट ही, छिद्र बिसाल बनाए - ६६१।
- संज्ञा
- [सं.]
- छिद्र
- गड्ढा, बिल।
- संज्ञा
- [सं.]
- छिद्र
- (छूटा हुआ) स्थान।
- संज्ञा
- [सं.]
- छिद्र
- दोष, त्रुटि।
- संज्ञा
- [सं.]
- छिद्रदर्शी
- दूसरे को दोष देखने या नुक्स निकालनेवाला।
- वि.
- [सं. छिद्रदर्शिन्]
- छिद्रान्वेषण
- दूसरे के दोष या नुक्स ढूँढ़ना।
- संज्ञा
- [सं. छिद्र+अन्वेषण]
- छिद्रान्वेषी
- दूसरे के दोष दूँढ़ने या नुक्स निकालनेवाला।
- वि.
- [सं. छिद्र+अन्वेषिन्]
- छिद्रित
- छेदा हुआ।
- वि.
- [सं.]
- छिद्रित
- दूषित।
- वि.
- [सं.]
- छिन
- क्षण।
- पुत्र कबंध अंक - भरि लीन्हौ, धरति न इक छिन धीर - १ - २९।
- संज्ञा
- [सं. क्षण]
- गोकुल
- गैयों के रहने का स्थान, गोशाला, खरिक।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकुल
- एक प्राचीन गाँव जो वर्तमान मथुरा के पूर्व दक्षिण में प्रायः तीन कोस पर जमुना के दूसरे किनारे स्थिति था। अब यह महाबन कहलाता है। श्रीकृष्ण की बाल्यावस्था यहीं बीती थी। वर्तमान गोकुल इससे भिन्न नये स्थान पर है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकुलचंद
- गोकुलवासियों को चंद्रमा के समान सुख-शांति देनेवाले श्रीकृष्ण।
- हिंडोरना झूलत गोकुलचंद - २२८१।
- संज्ञाा.
- [सं. गोकूल +चंद्र]
- गोकुलनाथ, गोकुलपति, गोकुलराइ
- गोकुल के स्वामी श्रीकृष्ण।
- गोकुलनाथ नाथ सब जनके मोपति तुम्हरे हाथ - सा, ७६४।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकुलस्थ
- गोकुलग्राम निवासी।
- वि.
- [सं.]
- गोकुलस्थ
- वल्लभी गोसाइयों का एक भेद।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकुलस्थ
- तैलंग ब्राह्मणों का एक भेद।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोकोस
- उतनी दूरी जहाँ, तक गाय का रँभाना सुनाई दे, छोटा कोस।
- संज्ञा
- [सं. गो + क्रौश]
- गोक्ष
- जोक नामक कीड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोखग
- थलचर, पशु।
- संज्ञा
- [सं. गो+खग]
- छिनक
- एक क्षण, दम भर, थोड़ी देर।
- (क) नरहरि रूप धरयौ करुनाकर, छिनक माहिं उर नखनि बिदारथौ - १ - १४।
(ख) जैसैं सुपनौं सोइ देखियत, तैसैं यह संसार। जात बिलै ह्वै छिनक मात्र मैं उघरत नैन किवार - २ - ३१।
- क्रि. वि.
- [सं. क्षण+एक]
- छिनकना
- भड़कना।
- क्रि. अ.
- [हिं. चमकना]
- छिनछवि. छिनौछवि
- क्षण भर चमकनेवाली बिजली।
- संज्ञा
- [सं. क्षण+छवि]
- छिनदा
- रात।
- संज्ञा
- [से. क्षणदा]
- छिनना
- छिन जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छीनना]
- छिनना
- छेनी या टाँको से कटना।
- क्रि. स.
- [सं. छिन]
- छिनभंग
- शीघ्र नष्ट होनेवाला।
- वि.
- [सं. क्षणभंगुर]
- छिनाइ, छिनाई
- छीनकर, हरण करके।
- (कै) इंद्र, हाथ तै बज्र छिनाइ - ६ - ५।
(ख) लियौ सुनि सौं अमृत छिनाइ - ७ - ७। (ग) ग्वारनि पै लै खाते हैं जूठी छाक छिनाइ - ११२९। (घ) असुर सब अमृत लै गए छिनाई - ८ - ८। (ङ) सिंधु मथि सुरासुर अमृत बाहर कियौ, बलि असुर लै चल्यौ सो छिनाई - ८ - ९।
- क्रि. स.
- [हिं. छिनाना]
- छिनाए
- छिनवाए, हरण कराए।
- द्रौपदि के तुम वस्त्र छिनाए १२८४।
- क्रि. स.
- [हिं. छीनना' का प्रे.]
- छिनाना
- छीनने का काम करना।
- क्रि. स.
- [हिं. छीनना]
- छिनाना
- छीनना, हरण करना।
- क्रि. स.
- छिनाना
- टाँकी या छैन्नी से कटाना।
- क्रि. स.
- [सं. छिन]
- छिनायौ
- छीन लिया, हरण किया।
- भयौं आनंद सुर - असुर कौं देखि कै, असुर तब अमृत करि बल छिनायौ - ८ - ८।
- क्रि. स.
- [हिं. छिनांना]
- छिनार, छिनारि
- व्यभिचारिणी, कुलटा।
- मैं बेटी बृषभानु महर की, मैया तुमकौ जानति। जमुना - तट बहु बार मिलन - भयौ, तुम नाहिंन पहिचानतिं। ऐसी कहि वाक मैं जानति, वह तो बड़ी छिनारि - ७०३।
- वि.
- [हिं. छिनाल]
- छिनारौ
- व्यभिचार।
- चोरी रही, छिनारौ अब भयौ, जान्यौ ज्ञान तुम्हारौ। औरै गोप - सुतनि नहिं देखौ, सूर स्याम हैं बारौ - ७७३।
- संज्ञा
- [हिं. छिनाल]
- छिनाल
- व्यभिचारिणी, कुलटा।
- वि.
- [सं. छिन्न+नारी, पू. हिं. छिनारि]
- छिनालपन, छिनालपना, छिनाला
- व्यभिचार।
- संज्ञा
- [हिं.छिनाल+पन]
- छिन्न
- कटा हुआ, खंडित।
- वि.
- [सं.]
- छिन्नभिन्न
- कटा-फटा।
- वि.
- [सं.]
- छिन्नभिन्न
- नष्ट-भ्रष्ट।
- वि.
- [सं.]
- छिन्नभिन्न
- जिसका क्रम ठीक न हो, तितर-बितर।
- वि.
- [सं.]
- छिपकली
- एक जंतु।
- संज्ञा
- [हिं. चिपकना]
- छिपकली
- कान में पहनने का एक गहना।
- संज्ञा
- [हिं. चिपकना]
- छिपना
- ओट में होना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षिप+डालना]
- छिपना
- अदृश्य होना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षिप+डालना]
- छिपना
- जो स्पष्ट न हो, गुप्त।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षिप+डालना]
- छिपाइ
- छिपा लिया, ओट में कर लिया।
- च्यवन रिषीस्वर बहु तप कियौ।….। बामी ताकौं लियौ छिपाइ। तासौं रिषि नहिं देइ दिखाइ - ९ - ३।
- क्रि. स.
- [हिं. छिपाना]
- छिपाए
- ढँके हुए, आड़ में किये हुए, दृष्टि से ओझल किये हुए।
- चत फिरत जो बदन छिपाए, भोजन कहा माँगइयै - - १ - २३९।
- क्रि. स.
- [हि. छिपाना]
- छिपछिपी
- चुपचाप।
- क्रि. वि.
- [हिं. छिपना]
- छिपाना
- ओट या आड़ में करना।
- क्रि. स.
- [सं. क्षिप+डालना]
- छिपाना
- प्रकट न करना, गुप्त रखना।
- क्रि. स.
- [सं. क्षिप+डालना]
- छिपाव
- दुराव, गोपन।
- संज्ञा
- [हिं. छिपना]
- छिपावति
- छिपाती है, प्रकट नहीं करती।
- राधे हरि - रिपु क्यौं न छिपावति - सा, उ, ११।
- क्रि. स.
- [हिं. छिपाना]
- छिपी
- प्रकट न हुई, गुप्त है, अथष्ट है।
- मो सम कौन कुटिल खल कामी। तुम सौं कहा छिपी करुनामय, सब कैं अंतरजामी - १ - २४८।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिपना]
- छिप्यौ
- छिप गया, ओट में हो गया।
- सो हत्या तिहि लागी धाइ। छिप्यौ सो कमलनाल मैं जाइ - ६ - ५।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिपना]
- छिअ
- शीघ्र, तुरंत।
- क्रि. वि.
- [सं. क्षिप्र]
- छिमा
- क्षमा।
- संज्ञा
- [सं. क्षमा]
- छिया
- घृणित वस्तु, घिनौनी जीज।
- (१) घृणित वस्तु, घिनौनी चीज।
- संज्ञा
- [सं. क्षिम, प्रा. छिव, हिं. छिः]
- छिया
-
- मल और वमन के समान घृणित समझ कर, घिना कर।
उ. - जन्म तें एक टक लागि आसा रही विषय - बिष खात नहिं तृप्ति मानी। जो छिया छरद करि सकल संतन तजी, तासु तैं मूढ़मति प्रीति ठानी - १ - ११०।
- मु.
- छिया
- मल, गलीज, मैला।
- संज्ञा
- [सं. क्षिम, प्रा. छिव, हिं. छिः]
- छिया
- मैला, मलिन।
- वि.
- छिया
- घृणित।
- वि.
- छिया
- छोकरी, लड़की।
- संज्ञा
- [हिं. बछिया]
- छियालीस
- चालीस और छः की संख्या।
- संज्ञा
- [सं. षड्चत्वारिंश, हिं. छः+चालीस]
- छियासी
- अस्सी और छः की संख्या।
- संज्ञा
- [सं.घडशीति, पा. छासीति, प्रा.छासी]
- छिरक
- छिड़ककर, छींटा देकर।
- भरि गंडूष, छिरक दै नैननि, गिरिधर भाजि चले दै कोकै - १० - २८७।
- क्रि. स.
- [हिं. छिड़कना]
- छिरकत
- छिड़कते हैं, (हलके) छींटे डालते हैं।
- (क) छिरकत हरद दही, हिय हरषत, गिरत अंक भरि लेत उठाई - १० - १९।
(ख) मिलि नाचत करत कलोल, छिरकत हरददही - १० - २४।
- क्रि. स.
- [हिं. छिड़कना]
- छिरकना
- छिड़कना।
- क्रि. स.
- [हिं. छिड़कना]
- छिरकावन
- (पानी जैसे द्रव पदार्थ) छिड़कने की क्रिया, छींटों से तर करना।
- चोवा - चंदन - अबिर, गलिनि छिरकावन रे - १० - २८।
- सुंज्ञा
- [हिं. छिड़काव]
- छिरकि
- छिड़ककर, छींटा देकर।
- सोवत लरिकनि छिरक मही सोँ, हँसते चले दै कूक - १० - ३१७।
- क्रि. स.
- [हिं. छिड़कना]
- छिरकैँ
- छिड़कते हैं, छींटें फेंकते हैं।
- कनक कौ माट लाइ, हरद - दही मिलाइ, छिरकैँ परस्पर छल - बल धाइके - १० - ३१।
- क्रि. स.
- [हिं. छिड़कना]
- छिरक्यौ
- पानी छिड़का, छींटों से तर किया।
- चकित देखि यह कहैं। नर - नारी। धरनि अकास बराबरि ज्वाला, झपटति लपट करारी। नहिं बरष्यौ, नहिं छिरक्यौ काहू, कैसै गई बुझाइ - ५९८।
- क्रि. स.
- [हिं. छिड़कना]
- छिरना
- छिल जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिलना]
- छिलकना
- छींटा डालना।
- क्रि. स.
- [हिं. छिड़कना]
- छिलका
- फलों का ऊपरी आवरण।
- संज्ञा
- [हिं. छाल]
- छिलछला, छिलछिलौ
- (पानी की) उथली या कम गहरी सतह।
- देखि नीर जु छिलछिलौ जग, समुझि कछु मन माहिं। सूर क्यौं नहिं चलै उड़ि तहँ बहुरि उड़िबौ नाहिं - १ - ३३८।
- वि.
- [हिं. छूछा+ला (प्रत्य.), छिछला]
- छिलन
- छिलने की क्रिया या भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छिलना]
- छिलन
- खरोंच, खरोंचा।
- संज्ञा
- [हिं. छिलना]
- छिलना
- छिलका उतरना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छीलना]
- छिलना
- खरोंच लगना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छीलना]
- छिहानी
- श्मशान, मरघट।
- संज्ञा
- [हिं. छिहाना]
- छींक
- नाक-मुँह से सहसा और सवेग निकलनेवाला वायु का स्फोट। हिंदुओं में किसी काम के आरंभ में छींक होना अशभ माना जाता है।
- (क) महर पैठत सदन भीतर, छींक बाई धार। सूर नंद कहत महरि सौं, आज कहा बिचार - ५२४।
(ख) छींक सुनत कुसगुन कह्यौ कहा भयौ यह पाप। अजिर चली पछितात छींक कौ दोष निवारन - ५८९।
- संज्ञा
- [सं. छिक्का]
- छींक
-
- छींक होना :- असगुन होना।
- मु.
- छींकना
- छींक आना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छींक]
- छींकना
-
- छींकते नाक काटना :- जरा जरा सी बात पर चिढ़ना या दंड देना।
- मु.
- छींका
- पतली डोरी का जाल जिसमें कुछ रखा जाता है, सिकहर।
- संज्ञा
- [सं. शिक्य]
- छींका
- झूला।
- संज्ञा
- [सं. शिक्य]
- छींकी
- छींकने लगी, छींक दी। (हिंदुओं में किसी काम के समय छींकना अशुभ माना जाता है)।
- जसुमति चली रसोई भीतर, तबहिं ग्वालि इक छींकी। ठठकि रही द्वारे पर ठाढी, बात नहीं कछु नीकी - ५४०।
- क्रि. अ.
- [हिं. छींक]
- छींके
- छींके से, सीके से, सिकहर से।
- ग्वाल के काँधे चढ़े तब, लिए छींके उतारि - १० - २८९।
- संज्ञा
- [सं. शिक्य, हिं. छीका]
- छींट
- पानी आदि की बूँद।
- राधे छिरकति छींट छबीली। कुच कंकुम कंचुकि बँर टूटे, लटक रही लट गीली।
- संज्ञा
- [सं. क्षिप्त, प्रा. चित्त]
- छींट
- बूँद या छींट का चिह्न।
- भभकि कै दंत तें रुधिर धारा चली छींट छबि बसन पर भई भारी - २५९५।
- संज्ञा
- [सं. क्षिप्त, प्रा. चित्त]
- छींट
- कपड़ा जिस पर रंगीन बेल-बूटे हों।
- संज्ञा
- [सं. क्षिप्त, प्रा. चित्त]
- छींटना
- छींटे डालना।
- क्रि. स.
- [हिं. छींट]
- छींटा
- बौछार, झड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. छींट]
- छींटा
- छींट का चिह्न।
- संज्ञा
- [हिं. छींट]
- छींटा
- व्यंग्यपूर्ण उक्ति।
- संज्ञा
- [हिं. छींट]
- छींटि
- छींटे देना, छींटों से भिगोना, छोंटे छितरा कर।
- गोरस तन छींटि रही, सोभा नहिं जाति कही, मानौ जल - जमुन बिंब उडुगन पथ केरौ - १० - २७६।
- क्रि. स.
- [हिं. छींटना]
- छींटैं
- छोटी-छोटी बूंदें।
- आनन रही ललित पय छीटैं, छाजति छबि तृन तोरे - ७३२।
- संज्ञा
- [हिं. छींटा]
- छींदा
- छीमी, फली।
- संज्ञा
- [सं. शिंबी, हिं. छीमी]
- छी
- घृणा या घिनसूचक शब्द।
- अव्य.
- [सं.]
- छिलना
- खुजली सी होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छीलना]
- छिलाई, छिलाव, छिलावट
- छीलने की क्रिया या भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छीलना]
- छिलौरी
- छोटा छाला।
- संज्ञा
- [हिं. छाला]
- छिल्लड़
- भूसी, छिलका।
- संज्ञा
- [हिं. छिलका]
- छिहत्तर
- छः और सत्तर की संख्या।
- संज्ञा
- [सं. षट्सप्तति, प्रा. छसत्तति, पा, छसत्तरि, छहत्तरि]
- छिहरना
- बिखरना, फैलना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छितरना]
- छिहाई
- ढेर लगाने का काम।
- संज्ञा
- [हिं. छिहाना]
- छिहाई
- चिता, सरा।
- संज्ञा
- [हिं. छिहाना]
- छिहाई
- मरघट।
- संज्ञा
- [हिं. छिहाना]
- छिहाना
- ढेर लगाना।
- क्रि. स.
- [सं. चयन]
- छीति
- बुराई।
- संज्ञा
- [सं. क्षति]
- छीति छान
- छिन्न-भिन्न।
- वि.
- [सं. क्षति+छिन्न]
- छीदा
- जिसमें बहुत से छेद हों, झाँझरा।
- वि.
- [सं. छिद्र]
- छीदा
- जो घना न हो, विरल।
- वि.
- [सं. छिद्र]
- छीन
- दुबला, पतला, कृश।
- (क) दिन - दिन हीन - छीन भई काया दुख - जंजाल जटी - १ - ९८।
(ख) बुधि, बिबेक, बलहीन, छीन तन सबही हाथ पराए - १ - ३२०।
- वि.
- [सं. क्षीण]
- छीन
- शिथिल, मंद, मलिन।
- पूँछ को तजि असुर दौरि के मुख गह्यौ, सुरन तब पूँछ की ओर लीनी। मथत भए छीन तब बहुरि अस्तुति करी श्री महाराज निज सक्ति दीनी - ८ - ८
- वि.
- [सं. क्षीण]
- छीन
- क्षीण, क्षय होने का भाव।
- बहुरि कह्यौ, सुरपुर कछु नाहिं। पुन्य - छीन तिहिं ठौर गिराहिं - १ - २९०।
- वि.
- [सं. क्षीण]
- छीनचंद
- द्वितीया का चाँद।
- संज्ञा
- [सं. क्षीण चंद]
- छीनता
- दुबलापन।
- संज्ञा
- [सं. क्षीणता]
- छीनना
- छिन्न या अलग करना।
- क्रि. स.
- [सं. छिन्न+ना (प्रत्य.)]
- गोचर
- गैयों के चरने का स्थान, चरने का स्थान, चरी, चरागाह।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोचर
- प्रदेश, प्रांत।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोचरी
- भिक्षावृत्ति।
- संज्ञा
- [हिं. गो+ चरना]
- गोचर्म
- गाय का चमड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोची
- एक मछली।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोची
- हिमालय की स्त्री का नाम।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोची
- रोकी, थाम ली।
- क्रि. सं. भूत.
- [हिं. गोचना]
- गो जई
- मिला हुआ। गेहूँ-जौ।
- संज्ञा
- [हिं. गेहूँ+जौ]
- गोजर
- बूढ़ा बैल।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोजर
- कनखजूरा नामक कीड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. गुनगुना]
- छी
-
- छी छी करना :- घृणा प्रकट करना।
- मु.
- छी
- वह शब्द जो कपड़ा धोते समय धोबियों के मुँह से निकलता है।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छीउल
- पलाश, ढाक।
- संज्ञा
- [देश.]
- छीका
- सीका, सिकहर।
- संज्ञा
- [सं. शिक्य]
- छीका
-
- छीका टूटना :- अनायास ऐसी घटना होना जिससे कुछ लाभ हो जाय।
- मु.
- छीका
- झरोखा।
- संज्ञा
- [सं. शिक्य]
- छीका
- पशुओं के मुख पर पहनाया जानेवाला जाल।
- संज्ञा
- [सं. शिक्य]
- छीका
- झूला।
- संज्ञा
- [सं. शिक्य]
- छीके
- छीके के ऊपर।
- अब कहि देउ कहत किन यौं कहि माँगत दही धरथौ जो है छीके।
- संज्ञा
- [हिं. छीका]
- छीछल
- उथला, छिछला।
- वि.
- [हिं. छिछला]
- छीछालेदर
- दुर्गति।
- संज्ञा
- [हिं. छी छी]
- छीज
- घाटा, कमी, घिसन।
- संज्ञा
- [हिं. छीजना]
- छीजत, छीजतु
- क्षीण होता है, घटता है, ह्रास होता है।
- (क) अंजलि के जल ज्यौं तन छीजत, खोटे कपट तिलक अरु मालहिं - १ - ७४।
(ख) बायस अजा सब्द की मिलवनि याही दुख तनु छीजतु - ३३०१।
- क्रि. अ.
- [हिं. छीजना]
- छीजना
- घटना, कम होना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षयण या क्षीण]
- छीजना
- अवनत होना, ह्रास होना।
- क्रि. अ.
- [सं. क्षयण या क्षीण]
- छीजै
- क्षीण या कम होती है।
- आयु भग्न - घट - जल ज्यौं छीजै - १ - ३४२।
- क्रि. अ.
- [हिं. छीजना]
- छीतना
- मग्ना।
- क्रि. स.
- [सं. छिद्र+ना (प्रत्य.)]
- छीतना
- बिच्छू, भिड़ आदि का डंक मारना।
- क्रि. स.
- [सं. छिद्र+ना (प्रत्य.)]
- छीतस्वामी
- वल्लभाचार्य के शिष्य, अष्टछाप के एक वैण्णव कवि।
- संज्ञा
- छीति
- हानि, घाटा।
- तेरो तन धन रूप महा गुन सुंदर स्याम सुनी यह कीर्ति। सो करु सूर जेहि भाँति रहै पति जनि बल बाँधि बढ़ावहु छीति - ३३९३।
- संज्ञा
- [सं. क्षति]
- छीप
- तेज, वेगवान।
- वि.
- [सं. क्षिप्र]
- छीप
- चिह्न, दाग, धब्बा।
- संज्ञा
- [हिं. छाप]
- छीपना
- फँसी हुई मछली को बाहर फेंकना।
- क्रि. स.
- [हिं. छीप]
- छीपना
- पानी का छींटा देना।
- क्रि. स.
- [हिं. छीप]
- छीपी
- छींट छापनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. छीप]
- छीबर
- मोटी छींट।
- संज्ञा
- [हिं. छापना]
- छीमी
- फली।
- संज्ञा
- [सं. शिबी]
- छीर
- दूध।
- माता - अछत छीर बिन सुत मरे, अजा - कंठ कुच सेइ - १ - २००।
- संज्ञा
- [सं. क्षीर]
- छीरज
- दही।
- संज्ञा
- [सं. क्षीर+ज (प्रत्य.)]
- छीरधि
- क्षीरसागर।
- संज्ञा
- [सं. क्षीरधि]
- छीनना
- दूसरे की वस्तु जबरदस्ती ले लेना, हरण करना।
- क्रि. स.
- [सं. छिन्न+ना (प्रत्य.)]
- छीनना
- अनुचित अधिकार करना।
- क्रि. स.
- [सं. छिन्न+ना (प्रत्य.)]
- छीनना
- छेनी से काटकर खुरदरा करना।
- क्रि. स.
- [सं. छिन्न+ना (प्रत्य.)]
- छीना
- स्पर्श करना।
- क्रि. स.
- [सं. क्षुप = छूना]
- छीना
- कृश, दुबला।
- वि.
- [सं. क्षीण]
- छीनि
- (दूसरे की वस्तु आदि) छीन कर या जबरदस्ती लेकर।
- (क) छल करि लई छीनि मही, बामन ह्वै धायौ - ९ - ११८।
(ख) एक जु हुतो मदन मोहन की सो छबि छीनि लियौ - ३१४७।
- क्रि. स.
- [हिं. छीनना]
- छीनी
- क्षीण, दुबली।
- देह छिन होति छीनी, दृष्टि देखते लोग - १ - ३२१।
- वि.
- [सं. क्षीण]
- छीने
- छीन लिये, ले लिये।
- क्रि. स.
- [हिं. छीनना]
- छीने
- लेत कर छीने-छीने-झपटे लेते हैं।
- जेंवतऽरु गावत हैं सारँग की तान कान्ह, सखनि के मध्य कान्ह छाक लेत कर छीने - ४६७।
- प्र.
- छीनौ
- छिन्न किया, काटकर अलग किया।
- नीर हू तैं न्यारौ कीनौ चक्र नक्र - सीस छीनौ, देवकी के प्यारे लाल ऐचि लाए थल मैं - ८ - ५।
- क्रि. स.
- [हिं. छीनना]
- छीरप
- दूध पीता बालक।
- संज्ञा
- [सं. क्षीरप]
- छोरफेन
- मलाई।
- संज्ञा
- [सं. क्षीर+फेन]
- छीरसमुद्र, छीरसागर, छीरसिंधु
- क्षीरसागर।
- संज्ञा
- [सं. क्षीर+समुद्र, सागर, सिंधु]
- छीलक
- छिलका।
- संज्ञा
- [हिं. छिलक]
- छीलना
- छिलका उतारना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाल]
- छीलना
- खुरचना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाल]
- छीलना
- खुजली-सी उत्पन्न करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छाल]
- छीलर
- छोटा छिछला गढ़ा, तलैया।
- (क) सागर की लहरि छाँड़ि, छीलर कस न्हाऊँ - १ - १६६।
(ख) अब न सुहात बिषय - रस - छीलर, वा समुद्र की आस - १ - ३३७।
- संज्ञा
- [हिं. छिछला अथवा सं. क्षीण]
- छीव
- पागल, मतवाला।
- संज्ञा
- [सं. क्षीव]
- छुँगनी
- सबसे छोटी उँगली।
- संज्ञा
- [हिं. छँगुली]
- छुँगली
- घुंघरूदार अँगूठी।
- संज्ञा
- [हिं. अँगुली]
- छुअत
- छूते ही, स्पर्श करते ही।
- (क) बहुत दिननि कौ हुतौ पुरातन, हाथ छुअत उठि आयौ - ९ - २८।
(ख) सूर प्रभु छुअत धनु टूटि धरनी परयौ - २५८४।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूना]
- छुआई
- छूने की क्रिया या रीति।
- हाहा करिए लाल कुँअरि के पायँ छुआई - २४१९।
- संज्ञा
- [हिं. छूना]
- छुआछूत
- छत-छात।
- संज्ञा
- [हिं. छूना]
- छुआना
- स्पर्श करना।
- क्रि. स.
- [हिं. छुलाना]
- छुई
- स्पर्श की।
- बिन देखे की मया बिरहिनी अति जुर जरति न जात छुई - २४३३।
- क्रि. स.
- [हिं. छूना]
- छुईमुई
- लज्जावती नामक एक पौधा जो छूने से मुरझा जाता है।
- संज्ञा
- [हिं. छूना+सुवना]
- छगुनूँ
- घुँघरू।
- संज्ञा
- [अनु, छुनछुन]
- छुच्छा
- खाली, जो भरा न हो।
- वि.
- [हिं. छूछा]
- छुच्छी
- पोली नली।
- संज्ञा
- [हिं. छूछा]
- छुच्छी
- नाक की लौंग की तरह का एक गहना।
- संज्ञा
- [हिं. छूछा]
- छुछकारना
- डाँटना, फटकारना।
- क्रि. स.
- [अनु.]
- छुछहँड
- खाली हाँड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. छूछी+हंडी]
- छुछुआना
- बेकार घूमना।
- क्रि. अ.
- [अनु. छूछू]
- छुट
- छोड़कर, सिवाय, अतिरिक्त।
- जब ते जग जन्म पाय जीव है कहायौ। तब ते छुट अवगुन इक नाम न कहि आयौ।
- अव्य.
- [हिं. छूटना]
- छुटकाई
- साथ छोड़कर, अलग होकर।
- साधु - संग, भक्ति बिना, तन अकार्थ जाई। ज्वारी ज्यौं हाथ झारि, चाले छुटकाई - १ - ३३०।
- क्रि. स.
- [हिं. छूटना, छुटकाना]
- छुटकाना
- छोड़ना, अलग करना।
- क्रि. स.
- [हिं. छूटना]
- छुटकाना
- छोड़ देना, साथ न लेना।
- क्रि. स.
- [हिं. छूटना]
- छुटकाना
- मुक्त करना, छुटकारा देना।
- क्रि. स.
- [हिं. छूटना]
- छुटकायौ
- छुड़ाया, मुक्त किया, छुटकारा दिलाया।
- हा करुनामय कुंजर टेरयौ, रयौ “हीं बल थाकौ। लागि पुकार तुरत छुटकायौ, काट्यौ बंधन ताकौ - १ - ११३।
- क्रि. स.
- [हिं. छुटकाना]
- छुटकायौ
- छोड़ दिया, साथ न लिया।
- चिंतत ही चित मैं चिंतामनि, चक्र लिए कर धायौ। अति करुना - कातर करुनामय, गरुड़हु कौ छुटकायौ - ८ ३।
- क्रि. स.
- [हिं. छुटकाना]
- छुटकायौ
- अलग किया, पकड़े न रहे।
- क्रि. स.
- [हिं. छुटकाना]
- छुटकारा
- मुक्ति, छूटने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. छुटकाना]
- छुटकारा
- रक्षा, निस्तार।
- संज्ञा
- [हिं. छुटकाना]
- छुटकारा
- छुट्टी।
- संज्ञा
- [हिं. छुटकाना]
- छुटत
- छूटते ही।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छुटत
-
- देह छुटत :- प्राण निकलते ही।
उ. - मेरी देह छुटत जम पठए दूत - १ - १५१।
- मु.
- छुटति
- छूटती है।
- कोउ अपने जिय मान करै माई हो मोहि तौ छुटति - अति कँपनी - १६६२।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छुटना
- छुट जाना, रह जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छुटपन
- छोटाई, लघुता।
- संज्ञा
- [हिं. छोटा+पन (प्रत्य.)]
- छुड़ाइ
- छुड़ाकर, अलग करके।
- भुजा छुड़ाइ, तोरि तृन ज्यौं हित, कियौं प्रभु निठुर हियौ - ९ - ४६।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छुड़ाई
- छुड़ाना, मुक्त कराना।
- राज - रवनि सुमिरे पति - कारन, असुर - बंदि तैं दिए छुड़ाई - १ - २४।
- क्रि. स.
- [हिं. छोड़ना]
- छुड़ाऊँ
- दूर करूँ, अलग करूँ।
- कै हौं पतित रहौं पावन हवै, कै तुम बिरद छुड़ाऊँ - १ - १७९।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छुड़ाऊँ
- बचाऊँ, रक्षा करूँ।
- जहँ जहँ भीर परै भक्तनि कौं, तहँ तहँ जाइ छुड़ाऊँ - १ - २७२।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छुड़ाए
- छुड़ाया, रक्षा की।
- जब गज गह्यौ ग्राह जल - भीतर, तब हरि कौं उर ध्याए (हो)। गरुड़ छाँड़ि, आतुर हैवै धाए, तो ततकाल छुड़ाए (हो) - १ - ७।
- क्रि. सं.
- [हिं. छुड़ाना]
- छुड़ाना
- अलग करना, खोलना।
- क्रि. सं.
- [हिं. छोड़ना]
- छुड़ाना
- दूसरे के अधिकार से निकालना।
- क्रि. सं.
- [हिं. छोड़ना]
- छुड़ाना
- लगी हुई वस्तु दूर करना।
- क्रि. सं.
- [हिं. छोड़ना]
- छुड़ाना
- नौकरी से हटाना।
- क्रि. सं.
- [हिं. छोड़ना]
- छुड़ाना
- क्रिया या प्रवृत्ति को दूर करना।
- क्रि. सं.
- [हिं. छोड़ना]
- छुटपन
- बचपन, लड़कपन।
- संज्ञा
- [हिं. छोटा+पन (प्रत्य.)]
- छुटाई
- छोटापन, लघुता।
- संज्ञा
- [हिं. छोटाई]
- छुटाई
- तुच्छता, हीनता।
- संज्ञा
- [हिं. छोटाई]
- छुटानी
- छुड़ाना।
- क्रि. स.
- [सं. छूट]
- छुटानी
- गाय-भैंस का दूध देना बंद होना।
- क्रि. अ.
- छुटायो, छुटायौ
- छुड़ाया, मुक्त किया।
- (क) तब गज हरि की सरनहिं आयो। सूरदास प्रभु ताहि छुड़ायो।
(ख) ताकौ चरन परसि के माधव दुःखित साप छुटायो - सारा.८२३।
- क्रि. स.
- [हिं. छुटाना]
- छुटावत
- छुड़ाते हैं, साफ करते हैं।
- राहु केतु मानहु सुमीड़ि बिधु आँक छुटावत धोयौ - ३४८२।
- क्रि. स.
- [हिं. छुटाना]
- छुटि
- दूर हुई, संबंध न रहाँ।
- लोक - लाज सब छुटि गई, उठि धाए सँग लागे हो) - १ - ४४।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छुटैया
- छुड़ानेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. छुटाना]
- छुटैया
- भाड़ों के चुटकुले।
- संज्ञा
- [हिं. छूट]
- गोझा
- एक घास।
- संज्ञा
- [सं. गुह्यक]
- गोझा
- जेब, खींसा।
- संज्ञा
- [सं. गुह्यक]
- गोट
- किनारा, किनारे का 'फीता।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ट]
- गोट
- गाँव, खेड़ा, टोली।
- संज्ञा
- [सं, गोष्ठ]
- गोट
- तोप का गोला।
- संज्ञा
- [हिं. गोल]
- गोट
- मंडली
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठी]
- गोट
- सैर जिसमें कच्ची रसोई का स्वयं प्रबंध किया जाय।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठी]
- गोट
- कंकड़ आदि का टुकड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. गोटी]
- गोट
- चौपड़ की गोटी।
- संज्ञा
- [सं, गुटिका]
- गोटा
- सुनहला-रुपहला फीता या गोट।
- संज्ञा
- [हिं. गोट]
- छुटैहै
- छुड़ावेगा।
- जब गजेंद्र कौ पग तू गैहै। हरि जू ताकौ अनि छुटै है - ८ - २।
- क्रि. स.
- [हिं. छुटाना]
- छुटौती
- सूद की छूट।
- संज्ञा
- [हिं. छूट]
- छुट्टा
- जो बँधा न हो।
- वि.
- [हिं. छूटना]
- छुट्टा
- अकेला।
- वि.
- [हिं. छूटना]
- छुट्टा
- जिसके पास कुछ न हो।
- वि.
- [हिं. छूटना]
- छुट्टी
- छुटकारा, मुक्ति।
- संज्ञा
- [हिं. छूट]
- छुट्टी
- अवकाश, फुरसत।
- संज्ञा
- [हिं. छूट]
- छुट्टी
- वह दिन जब दैनिक कार्य न करना हो।
- संज्ञा
- [हिं. छूट]
- छुट्टी
- जाने की आज्ञा।
- संज्ञा
- [हिं. छूट]
- छुट्यौ
- दूर हुआ, नष्ट हुआ।
- मैं मेरी अब रही न मेरैं, छुट्यौ देह अभिमान - २ - ३३।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छुतिहर
- नीच या तुच्छ आदमी।
- संज्ञा
- [हिं. छूत+हंडी]
- छुतिहा
- जिसे छूत लगी हो।
- वि.
- [हिं. छूत+हा (प्रत्य.)]
- छुतिहा
- दोषी, पतित, कलंकित।
- वि.
- [हिं. छूत+हा (प्रत्य.)]
- छुद्र
- छोटा, साधारण।
- छुद्र पतित तुम तारि रमापति, अब न करौ जिय गारौ - १ - १३१।
- वि.
- [सं, क्षुद्र]
- छुद्रघंट
- घुँघरू।
- संज्ञा
- [सं. क्षुद्रवंटिका]
- छुद्रघंट
- घुँघरूदार करधनी।
- संज्ञा
- [सं. क्षुद्रवंटिका]
- छुद्रघंटिका
- घुंघरू।
- संज्ञा
- [सं. क्षुद्रघंटिका]
- छुद्रघंटिका
- करधनी जिसमें बहुत से धुँघरू लगे हों।
- संज्ञा
- [सं. क्षुद्रघंटिका]
- छुद्रपति
- कुबेर।
- रुद्रपति, छुद्रपति, लोकपति, वाकपति, धेरनिपति गगनपति, अगम बानी - १५२२।
- संज्ञा
- [सं. क्षुद्रपति]
- छुद्रावलि, छुद्रावली
- क्षुद्रघंटिका, किंकिणी, करधनी।
- अंग - अभूषन जननि उतारति। …..। क्षुद्रावली उतारति कहि सौंंति धरति मनहीं मन वारति - ५१२।
- संज्ञा
- [सं. क्षुद्रावल]
- छुड़ाना
- छोड़ने का काम कराना या इसकी प्रेरणा देना।
- क्रि. स.
- [हिं. छोड़ना का प्रे]
- छुड़ायौ
- रक्षा की।
- खंभ औं प्रगट ह्वौ जन छुड़ायौ - १ - ५।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छुड़ायौ
- मुक्त किया।
- अंत औसर अरध - नाम उच्चार करि सुम्रत गज ग्राह तैं तुम छुड़ायौ - १ - ११९।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छुड़ावत
- छुड़ाता है, अलग करते हो।
- (क) दुस्सासन कटि - बसन हुड़ावत, सुमिरत नाम द्रौपदी बाँची - १ - १८।
(ख) इहिं अवसर कह बाँह छुड़ावत, इहिं डर अधिक डरयौ - १ - १५६।
- क्रि. स.
- [छुड़ाना]
- छुड़ावहु
- छोड़ो, अलग करो, (अपने पास से) दूर करो।
- जहाँ जहाँ तुम देह धरत हौ, तहाँ तहाँ जनि चरन छुड़ावहु - ४५०।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छुड़ावै
- छुड़ाता है, अलग करता है।
- दुस्सासन कटि - बसन छुड़ावै १ - २४६।
- क्रि. स.
- [हिं. छोड़ना, छुड़ाना]
- छुड़ैया
- बचानेवाला।
- वि.
- [हिं. छुड़ाना+ऐया]
- छुड़ौती
- छूट, छूटौती।
- संज्ञा
- [हिं. छुड़ाना]
- छत्
- क्षुधा, भूख।
- संज्ञा
- [सं. क्षुत्]
- छुतिहर
- अशुद्ध बरतन या पात्र।
- संज्ञा
- [हिं. छूत+हंडी]
- छुधा
- क्षुधा, भूख।
- देखि छुधा तैं मुख कुम्हिलानौ, अति कोमल तन स्याम - ३६१।
- संज्ञा
- [सं. क्षुधा]
- छुधित
- भूखी, भूखा।
- (क) माधौ, नैंकु हटकौ गाइ।….। छुधित अति न अघाति कबहूँ, निगम - द्रुम दलि खाइ - १ - ५६।
(ख) छिन छिन छुधित जान पय - कारन, हँसि हँसि निकट बुलाऊँ - १० - ७५।
- वि.
- [सं. क्षुधित]
- छुनछुनाना
- ‘छुन छुन करना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- छुननमुनन, छुनमुन
- खौलते घी-तेल में तली जानेवाली चीज के पड़ने पर होने वाला शब्द
- संज्ञा
- [अनु.]
- छुननमुनन, छुनमुन
- पैर के घुँघरूदार आभूषणों का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छुप
- स्पर्श।
- संज्ञा
- [सं.]
- छुप
- झाड़ी।
- संज्ञा
- [सं.]
- छुप
- वायु।
- संज्ञा
- [सं.]
- छुप
- चंचल।
- वि.
- छुपना
- सामने न होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छिपाना]
- छुरित
- बिजली की चमक।
- संज्ञा
- [सं.]
- छुरी
- छोटा छुरा
- संज्ञा
- [हिं. छुरा]
- छुरी
-
- छुरी चलना :- छुरी से लड़ाई होना।
किसी पर छुरी चलाना :- बहुत कष्ट देना। छुरी तेज करना :- हानि पहुँचाने की तैयारी करना। छुरी फेरना :- भारी हानि पहुँचाना।
- मु.
- छुलछुलाना
- इतराना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- छुलाना
- स्पर्श कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. छूना]
- छुवत
- छूते ही, स्पर्श करते ही।
- नल अरु नील बिस्वकर्मा - सुत, छुवत पषान तथौ - ९ - १२२।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूना]
- छुवत
- छूते हो, दौड़ की बाजी में पकड़ते हो।
- ज्ञानिकै मैं रह्यौ ठाढौ, छुवत कहा जु मोहिं - १० - २१३।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूना]
- छुवना
- स्पर्श करना।
- क्रि. स.
- [हिं. छूना]
- छुवाई
- छुआया, स्पर्श कराया।
- अबहिं सिला तैं भई देव - गति जब पग - रेनु छुवाई - ९ - ४०।
- क्रि. स.
- [हिं. छुआना, छुलाना]
- छुवाऊँ
- स्पर्श कराऊँ, छुलाऊँ।
- ये दससीस ईस - निरमालय, कैसैं चरन छुवाऊँ - ९ १३२।
- क्रि. स.
- [हिं. छुवाना]
- छुवाना
- स्पर्श कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. छूना]
- छुवाव
- संबंध, लगाव।
- संज्ञा
- [हिं. ढुवाना]
- छुवावत
- छुआते हैं, स्पर्श कराते हैं।
- षटरस के परकार जहाँ लगि, लै लै अधर छुवावत - १० ८६।
- क्रि. स.
- [हिं. छुवाना]
- छुवावैं
- स्पर्श करावे, छुलावें।
- माखन खात अचानक पावै, भुज भरि उरहि छुवावै - १० - २७२।
- क्रि. स.
- [हिं. छूना]
- छुवै
- छुता है, स्पर्श करता है।
- आरि करत कर चपल चलावत, नंद - नारिआनन छुवै मंदहिं - १० - १०७।
- क्रि. स.
- [हिं. छूना]
- छुहना
- छु जाना, स्पर्श हो जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. हुवना]
- छुहना
- सँग जाना, लिप-पुत जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. हुवना]
- छुहना
- स्पर्श करना।
- क्रि. स.
- [हिं. छूना]
- छुहाना
- प्रेम या दया करना।
- क्रि. स.
- [हिं. छोहाना]
- छुहारा
- एक प्रकार का खजूर, जिसका फल खाने में मीठा होता है।
- ऊधौ, मन माने की बात। दाख छुहारा छाँड़ि कै बिष कीरा बिष खात।
- संज्ञा
- [सं. क्षुत+हार]
- छुपाना
- सामने न रखना।
- क्रि. स.
- [हिं. छिपाना]
- छुबुक
- चिबुक, ठुड्डी, ठोढ़ी।
- संज्ञा
- [सं.]
- छभित
- विचलित, घबराया हुआ।
- वि.
- [सं. क्षुभित]
- छुभिराना
- क्षुब्ध होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. क्षोभ]
- छयौ
- छुआ स्पर्श किया।
- सोबत काम छुयो तन मेरौ - ९ - ८३।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूना]
- छुरधार
- तीक्ष्ण धार।
- संज्ञा
- [सं. चुरधार]
- छुरा
- बड़ा चाकू।
- संज्ञा
- [ सं.क्षुर]
- छुरा
- बाल मूँड़ने का उस्तरा।
- संज्ञा
- [ सं.क्षुर]
- छुराइ
- (फँसे, उलझे या झगड़ने वालों को) छुड़ाकर, अलग करके, हटाकर।
- मुख - छबि कहा कहाँ बनाइ।...। अमृत अलि मनु पिवन आए, आइ रहे लुभाई। निकसि सर तैं मीन मानौ लरत कीर छुराइ - २५२।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छुरित
- नृत्य का एक भेद।
- संज्ञा
- [सं.]
- छूईमूई
- लज्जावती पौधा जिसकी पत्तियाँ छूते ही मुरझा जाती हैं।
- संज्ञा
- [हिं. छूना+मूना=मरना]
- छूचक
- वह समय जब धर्मकर्म नहीं किये जाते।
- संज्ञा
- [सं. सूतक]
- छूचक
- बच्चा पैदा होने पर छः दिन का सूतक काल।
- संज्ञा
- [सं. सूतक]
- छूछा
- खाली।
- वि.
- [हिं. छूँ छा]
- छूछा
- निस्सार।
- वि.
- [हिं. छूँ छा]
- छूट
- मुक्ति, छुटकारा।
- संज्ञा
- [हिं. छूटना]
- छूट
- फुरसत।
- संज्ञा
- [हिं. छूटना]
- छूट
- ऋण-लगान की माफी, छुटौती।
- संज्ञा
- [हिं. छूटना]
- छूट
- कार्य के अंग-विशेष पर ध्यान न देना।
- संज्ञा
- [हिं. छूटना]
- छूट
- कार्य या व्यवहार विशेष की स्वतंत्रता।
- संज्ञा
- [हिं. छूटना]
- छूटत
- दूर होते (हैं), नहीं रहते।
- (क) मोसौं पतित न और गुसाई। अवगुन मोपैं अजहुँ न छूटत, बहुत पच्यौ अब ताई - १ - १४७।
(ख) ना हरि - भक्ति, न साधु - समागम, रह्यौ बीचहीं लटकौं। ज्यौं बहु कला का छि दिखरावै, लोभ न छूटत नट कैं - १ - १९२।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छूटत
- अस्त्र-शस्त्र चलते हैं।
- बिबिध सत्र छूटत पिचकारी चलत रुधिर की धार - सारा, २६।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छूटति
- अलग रहना, मान करना, टकारा पाना, दूर हटना।
- सुनि राधे रीझे हरि तोकों अब उनते तुम छूटति हो - पृ. ३१ (८०)।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छूटना
- लगाव या संबंध न रहना, दूर होना
- क्रि. अ.
- [सं. हुट=(बंधन आदि) काटना]
- छूटना
-
- शरीर (प्राण) छूटना :- मृत्यु होना।
- मु.
- छूटना
- बंधन आदि ढीला होना।
- क्रि. अ.
- [सं. हुट=(बंधन आदि) काटना]
- छूटना
- छुटकारा पाना।
- क्रि. अ.
- [सं. हुट=(बंधन आदि) काटना]
- छूटना
- चल देना, रवाना होना।
- क्रि. अ.
- [सं. हुट=(बंधन आदि) काटना]
- छूटना
- बिछुड़ना।
- क्रि. अ.
- [सं. हुट=(बंधन आदि) काटना]
- छूटना
- अस्त्र-शस्त्र चलना।
- क्रि. अ.
- [सं. हुट=(बंधन आदि) काटना]
- छुही
- सफेद मिट्टी।
- संज्ञा
- [हिं. छूना]
- छूँछ, छूँछा
- खाली, रीता, रिक्त।
- वि.
- [सं. तुच्छ, प्रा. चुच्छ, छुच्छ]
- छूँछ, छूँछा
-
- छूँछा हाथ :- (१) पास में धन न होना।
(२) पास में हथियार न होना। (३) साथ में कोई चीज न लाना।
- मु.
- छूँछ, छूँछा
- जिसमें कुछ तत्व न हो।
- वि.
- [सं. तुच्छ, प्रा. चुच्छ, छुच्छ]
- छूँछ, छूँछा
- निर्धन।
- वि.
- [सं. तुच्छ, प्रा. चुच्छ, छुच्छ]
- छूँछी
- खाली, रीती, रिक्त।
- पैठे सखनि सहित घर सूनौं, दधि - माखन सब खाए। छूँछी छाँड़ि मटुकिया दधि की, हँसि सब बाहिर आऐ - १० - २६०।
- वि.
- [हिं. छूँछा]
- छूँछे
- सारहीन, तत्व-रहित
- तो हूँ प्रश्न तुम्हारे छूँछे।
- वि.
- [हिं. छूछा]
- छू
- फूँक मारने का शब्द।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छू
-
- छु बनना (होना) :- उड़ जाना।
छूछू बनाना :- मूर्ख बनाना। छूमंतर :- जादू या मंत्र की फूँक। छू मंतर होना :- गायब हो जाना।
- मु.
- छूआछूत
- अस्पृश्य को न छूने का विचार, भाव या रीति।
- संज्ञा
- [हिं. छूना +छत]
- गोजरा
- जौ मिला गेहूँ।
- संज्ञा
- [हिं. गोहूँ + जौ]
- गोजा
- पौधों का नया कल्ला।
- संज्ञा
- [सं. गवाजन]
- गोजा
- गाय या पशु हाँकने की लकड़ी।
- संज्ञा
- गोजिह्वा
- गोभी नामक घास।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोजी
- गाय या पशु हाँकने की लकड़ी।
- संज्ञा
- [सं. गवाजन]
- गोजी
- लाठी, लट्ठ।
- संज्ञा
- [सं. गवाजन]
- गोजीत
- इंद्रियों को जीतनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- गोझनवट
- साड़ी का अंचल।
- संज्ञा
- [देश.]
- गोझा
- गुझिया नामक पकवान।
- (क) गोझा बहु पूरग पूरे। भरि भरि कपूर रस चूरे।
(ख) गोझा गूँदे गाल मसूरी - २३२१
- संज्ञा
- [सं. गुह्यक]
- गोझा
- लकड़ी की कील, गुज्झा।
- संज्ञा
- [सं. गुह्यक]
- छूटी
- बिखरी हुई।
- छूटी अलक भुअंगनि कुच तट पैठी त्रिबलि निकेत - १९२३।
- वि.
- छूटे
- असंबद्ध होने पर।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छूटे
-
- तन छूटे :- मृत्यु होने पर।
उ. - जीवत जाँचत कन कन निर्धन, दर-दर रटत बिहाल। तन छूटे हैं धर्म नहीं कछु, जौ दीजै मनि-माल - ११५९।
- मु.
- छूटे
- सवेग निकले, बहे।
- देखत कपि बाहुदंड तन प्रस्वेद छूटे - ९ - ९ - ७।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छूटे
- बिखर गये, बँधे या कसे न रहे।
- छूटे चिहुर बदन कुम्हिलाने ज्यों नलिनी हिमकर की मारी—३४२५।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छूटै
- अलग होता है, छूट सकता है, दूर होता है।
- तू तौ बिषया - रंग रँग्यौ है, बिन धोए क्यौं छूटै - १ - ६३।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छूटौं
- छुटूँ, मुक्त होऊँ, मुक्ति पाऊँ।
- घर मैं गथ नहिं भजन तिहारौ, जौन दियॆ मैं छूटौं - १ - १८५।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छूटौगे
- मुक्ति पाओगे, बंधनमुक्त होगे।
- रामनाम बिनु क्यौं छूटौगे, चंद गहैं ज्यौं केत - १.२९६।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छूट्यौ
- छूटा, छूट गया।
- सुमिरते ही अहि डस्थौ पारधी, कर छूट्यौ संधान - १ - ९७।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छूत
- स्पर्श, छूने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छूना]
- छूत
- गंदी या अपवित्र चीज को स्पर्श।
- संज्ञा
- [हिं. छूना]
- छूत
- गंदी चीज छूने का दोष।
- संज्ञा
- [हिं. छूना]
- छूत
- भूत-प्रेत की छाया।
- संज्ञा
- [हिं. छूना]
- छूना
- थोड़ा-थोड़ा स्पर्श होना।
- क्रि. अ.
- [सं. छुप, प्रा. छुव+ना (प्रत्य.), पू. | हिं. छुवना]
- छूना
- स्पर्श करना।
- क्रि. स.
- छूना
- हाथ लगाना।
- क्रि. स.
- छूना
- दान देने के लिए किसी चीज का स्पर्श करना।
- क्रि. स.
- छूना
- दौड़ या खेल में किसी को पकड़ना।
- क्रि. स.
- छूना
- धीरे धीरे मारना।
- क्रि. स.
- छूना
- बहुत कम व्यवहार में लाना।
- क्रि. स.
- छूटना
- (काम या अभ्यास) न होना।
- क्रि. अ.
- [सं. हुट=(बंधन आदि) काटना]
- छूटना
- बहना, प्रवाहित होना।
- क्रि. अ.
- [सं. हुट=(बंधन आदि) काटना]
- छूटना
- धीरे-धीरे पानी निकलना।
- क्रि. अ.
- [सं. हुट=(बंधन आदि) काटना]
- छूटना
- कण या छींटे निकलना।
- क्रि. अ.
- [सं. हुट=(बंधन आदि) काटना]
- छूटना
- काम बच या रह जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. हुट=(बंधन आदि) काटना]
- छूटना
- नौकरी आदि से हटाया जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. हुट=(बंधन आदि) काटना]
- छूटि
- छुटने पर, छूट कर।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छूटि
- छूट गए-छट जाने पर, अलग होने पर
- तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान छूटि गऐ कैसे जन जीवत, ज्यौं पानी बिनु पान - १ - १६९।
- संयो
- छूटि
- छुटकारा, मुक्ति।
- जानति हौं, बली बालि सौं न छूटि पाई - ९ - ११८।
- संज्ञा
- [हिं. छूट]
- छूटी
- (युद्ध में शक्ति आदि) चल पड़ी।
- इंद्रजीत लीन्ही तब शक्ती, देवनि हहा करयौ। छूटी बिजु - रासि वह मानौ, भूतल बंधु परयौ - ९ - १४४।
- क्रि. अ.
- [हिं. छूटना]
- छेंकना
- स्थान घेरना।
- क्रि. स.
- [सं. छद=ढाँकना+करण]
- छेंकना
- रोकना, जाने न देना।
- क्रि. स.
- [सं. छद=ढाँकना+करण]
- छेंकना
- लकीरों से घेरना।
- क्रि. स.
- [सं. छद=ढाँकना+करण]
- छेंकना
- (अशुद्धि) काटना या मिटाना।
- क्रि. स.
- [सं. छद=ढाँकना+करण]
- छेक
- छेद, सूराख।
- संज्ञा
- [हिं. छेद]
- छेक
- कटाव, विभाग।
- संज्ञा
- [हिं. छेद]
- छेकानुप्रास
- एक शब्दालंकार।
- संज्ञा
- [सं.]
- छेकापह्नुति
- एक काव्यालंकार।
- संज्ञा
- [सं.]
- छेकोक्ति
- एक काव्यालंकार।
- संज्ञा
- [सं.]
- छेटा
- बाधा, रुकावट।
- संज्ञा
- [सं. क्षिप्त, प्रा. छित्त]
- छेड़
- तंग करना।
- संज्ञा
- [हिं. छेद]
- छेड़
- चिढ़ाना।
- संज्ञा
- [हिं. छेद]
- छेड़
- चिढ़ाने की बात।
- संज्ञा
- [हिं. छेद]
- छेड़
- झगड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. छेद]
- छेड़ना
- कोंचना, खोदना-खादना।
- क्रि. स.
- [हिं. छेदना]
- छेड़ना
- तंग करना।
- क्रि. स.
- [हिं. छेदना]
- छेड़ना
- चिढ़ाना।
- क्रि. स.
- [हिं. छेदना]
- छेड़ना
- (काग) शुरू करना।
- क्रि. स.
- [हिं. छेदना]
- छेड़ना
- छेद करना, काटना।
- क्रि. स.
- [हिं. छेदना]
- छेत्र
- स्थान, प्रदेश।
- बेन बारानसि मुक्ति - छेत्र है - १ - ३४०।
- संज्ञा
- [सं. क्षेत्र]
- छेद
- काटने का काम।
- संज्ञा
- [सं.]
- छेद
- माश।
- संज्ञा
- [सं.]
- छेद
- छेदने-काटनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- छेद
- खंड।
- संज्ञा
- [सं.]
- छेद
- सूराख, छिद्र।
- संज्ञा
- [सं. छिद्र]
- छेद
- खोखला, बिवर, कुहर।
- संज्ञा
- [सं. छिद्र]
- छेद
- दोष, ऐब।
- संज्ञा
- [सं. छिद्र]
- छेदक
- छेदने या काटनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- छेदक
- नाश करनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- छेदक
- विभाजक।
- वि.
- [सं.]
- छेव
- काटनेछीलने का चिह्न-छल छेव-छल-कपट के दाँव।
- जनिति नहीं कहाँ ते सीखे चोरी के छल छेव - ३११४।
- संज्ञा
- [सं. छेद, प्रा. छेव]
- छेव
- आनेवाली विपत्ति।
- संज्ञा
- [सं. छेद, प्रा. छेव]
- छेव
- अनिष्ठ।
- संज्ञा
- [सं. छेद, प्रा. छेव]
- छेव
- आदत, स्वभाव।
- संज्ञा
- [हिं. टेव]
- छेवन
- कुम्हार का तागा।
- संज्ञा
- [हिं. छेवना=काटना]
- छेवना
- ताड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. छेना]
- छेवना
- काटना, चिह्न लगाना।
- क्रि. स.
- [सं. छेदन]
- छेवना
- फेंकना, मिलाना।
- क्रि. स.
- [सं. क्षेपण]
- छेवर, छेवरा
- छाल, चमड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. छेवना]
- छेवा
- छीलने-काटने का काम, आघात या चिह्न।
- संज्ञा
- [हिं. छेव]
- छेद्य
- परेवा, कबूतर।
- संज्ञा
- छेना
- फाड़े या फटे हुए दूध का खोया, पनीर।
- संज्ञा
- [सं. छेदन]
- छेना
- कंडा, उपला।
- संज्ञा
- [सं. छेदन]
- छेना
- कुल्हाड़ी आदि से काटना।
- क्रि. स.
- छेनी
- लोहे का एक औजार।
- संज्ञा
- [हिं. छेना]
- छेमंड
- अनाथ लड़का, यतीम।
- संज्ञा
- [सं.]
- छेम
- कुशल, कल्याण, मंगल।
- छेम - कुसल अरु दीनता, दंडवत सुनाई। कर जोरे बिनती करी, दुरबल - सुखदाई - १ - २३८।
- संज्ञा
- [सं. क्षेम]
- छेमकरी
- सफेद चील।
- संज्ञा
- [सं. क्षेमकरी]
- छेरी, छेली
- बकरी।
- सूरदास प्रभु - कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै।
- संज्ञा
- [सं. छेलिका]
- छेव
- काटने-छीलने के लिए किया गया आघात या वार।
- संज्ञा
- [सं. छेद, प्रा. छेव]
- छेदन
- छेदने-काटने की क्रिया।
- जसुदा, नार न छेदन दैहौं। मनिमय जटित हार ग्रीवा कौ, वहै आजु हौंलैहौं - १० - १५।
- संज्ञा
- [सं.]
- छेदन
- नाश, ध्वंस।
- संज्ञा
- [सं.]
- छेदन
- छेदने-काटने का अस्त्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- छेदनहार
- छेदनेवाला।
- वि.
- [हिं. छेदन+हारा]
- छेदना
- बेधना, भेदना।
- क्रि. स.
- [सं. छेदन]
- छेदना
- घाव करना।
- क्रि. स.
- [सं. छेदन]
- छेदना
- काटना, अलग करना।
- क्रि. स.
- [सं. छेदन]
- छेदि
- अलग करके, छिन्न करके।
- (क) जारौं लंक, छेदि दस मस्तक, सुरसंकोच निवाडौँ - ९ - १३२।
(ख) दसमुख छेदि सुपक नव फल ज्यौं, संकर - उर दससीस चढ़ावन - ९ - १३१।
- क्रि. स.
- [सं. छेदन]
- छेदे
- काटे, छिन्न किये।
- रावन के दस मस्तक छेदे, सर गहि सारँगपानि १ - १३५।
- क्रि. स.
- [हिं. छेदना]
- छेद्य
- छेदने-काटने के योग्य।
- वि.
- [सं.]
- छैल छबीला
- बाँका शौकीन युवक।
- संज्ञा
- [देश.]
- छैला
- बना-ठना, बाँका, सुंदर और रसिक पुरुष।
- संज्ञा
- [सं. छवि+ऐला (प्रत्य.)]
- छैलाना
- बालकों का हठ करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छैल]
- छोंकर, छोंकरा
- शमी वृक्ष।
- संज्ञा
- [हं. शंकरा]
- छोड़ा
- दही मथने की मथानी।
- संज्ञा
- [सं. क्ष्वेड़]
- छोड़ि
- मथानी।
- संज्ञा
- [सं. दवेड़िका]
- छोड़ि
- बड़ा बरतन या पात्र।
- संज्ञा
- [सं. क्षोणि]
- छो
- प्रेम, चाह, छोह।
- संज्ञा
- [सं. क्षोभ, हिं. छोह]
- छो
- दया, क्रोध।
- संज्ञा
- [सं. क्षोभ, हिं. छोह]
- छो
- क्षोभ, झुँझलाहट।
- संज्ञा
- [सं. क्षोभ, हिं. छोह]
- गोटा
- सुपारी, धनिया इलायची आदि का भुना हुआ मसाला।
- संज्ञा
- [हिं. गोट]
- गोटा
- चौपड़ की गोटी।
- संज्ञा
- [सं. गुटिका]
- गोटा
- तोप का गोला।
- संज्ञा
- [सं. गुटिका]
- गोटी
- कंकड़ पत्थर का छोटा टुकड़ा।
- संज्ञा
- [सं. गुटिका]
- गोटी
- चौपड़, शतरंज आदि का मोहरा
- संज्ञा
- [सं. गुटिका]
- गोटी
- एक खेल।
- संज्ञा
- [सं. गुटिका]
- गोटी
- लाभ या आमदनी का उपाय।
- संज्ञा
- [सं. गुटिका]
- गोटी
-
- गोटी जमना (बैठना) :- उपाय लग जाना।
गोटी जमाना (बैठाना) :- उपाय लगाना।
- मु.
- गोटू
- घटिया चिकनी सुपारी।
- संज्ञा
- [देश.]
- गोठ
- गोशाला, गोस्थान।
- गो - सुत गोठ बँधन सब लागे, गो - दोहन की जूनटरी - ४०४।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठ]
- छेवा
- वेग से बहनेवाला जल।
- संज्ञा
- [हिं. छेव]
- छेह
- काटने छीलने का काम, अघात या चिह्न।
- संज्ञा
- [हिं. छेव]
- छेह
- खंडन, नाश।
- संज्ञा
- [हिं. छेव]
- छेह
- अनिष्ट।
- संज्ञा
- [हिं. छेव]
- छेह
- खंडित, कटा-पिटा।
- वि.
- छेह
- कम।
- वि.
- छेह
- राख, मिट्टी।
- संज्ञा
- [सं. क्षार, हिं. खेह]
- छेह
- साया, छाया।
- संज्ञा
- [हिं. छाया]
- छेहर
- साया, छाया।
- संज्ञा
- [सं. छाया]
- छै
- नाश।
- यह कहि पारथ हरिपुर गऐ। सुन्यौ, सकल जादव छै भऐ - १ - २८६।
- संज्ञा
- [सं. क्षय]
- छै
- जो पाँच से एक अधिक हो।
- वि.
- [हिं. छः]
- छैऊ
- छहों।
- सार बेद चारौ को जोइ। छैऊ सास्त्र - सार पुनि सोइ - ७ - २।
- वि.
- [सं. षट्, प्रा. छ]
- छैना
- छीजना, कम होना।
- क्रि. स.
- [हिं. छय+ना (प्रत्य.)]
- छैना
-
- छै जाना :- छेद को फटकर फैलना।
- मु.
- छैना
- नष्ट-भ्रष्ट होना।
- क्रि. स.
- [हिं. छय+ना (प्रत्य.)]
- छैयाँ
- बचाव का स्थान, शरण, संरक्षा।
- संज्ञा
- [सं. छाया, हिं. छाँह]
- छैयाँ
-
- बसत तुम्हारी छैयाँ :- तुम्हारी ही शरण हैं, तुम्हारे ही अधीन हैं।
उ. - खेलत मैं को काको गुसैयाँ।…..। जाति - पाँति हेमतैं बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ - १० - २४५।
- मु.
- छैया
- बच्चा, वत्स।
- (क) बिसकर्मा सूतहार, रच्यौ काम ह्व सुनार, मनिगन लागे अपार, काज महर - छैया - १० - ४१।
(ख) भूतनु के छैपा, आस पास के रखैया और काली नथैया हू ध्यान इतै न चलै।
- संज्ञा
- [हिं. छवना]
- छैल
- रँगीले-सजीले युवक, बाँके शौकीन जवान। छैलनि कै संग यौं फिरै, जैसैं तनु संग छाई (हो)--।
- संज्ञा
- [हिं. छैला]
- छैल चिकनियाँ
- शौकीन आदमी।
- संज्ञा
- [देश.]
- छोई
- ईख को छीलकर फेंकी हुई पत्ती।
- संज्ञा
- [हिं. छोलना]
- छोई
- गन्ने की गँडेरी का चीफुर।
- संज्ञा
- [हिं. छोलना]
- छोकड़ा, छोकरा
- (अनुभवहीन) लड़का, बालक।
- संज्ञा
- [सं.शावक, प्रा. छावक+ रा (प्रत्य.)]
- छोकड़िया, छोकड़ी, छोकरिया, छोकरी
- (अनुभवहीन) लड़की।
- संज्ञा
- [हिं. छोकड़ा]
- छोकला
- छाल, छिलका, बक्कल।
- संज्ञा
- [सं. छल्ल]
- छोट
- छोटा, पद-मान में कम।
- बैठत सबै सभा हरि जू की, कौन बड़ौ को छोट - १ - २३२।
- वि.
- [हिं. छोटा]
- छोटका
- जो छोटा हो।
- वि.
- [हिं. छोटा+का (प्रत्य.)]
- छोटा
- आकार, डील-डौल या बड़ाई में कम।
- वि.
- [सं. क्षुद्र]
- छोटा
- उम्र या अवस्था में कम।
- वि.
- [सं. क्षुद्र]
- छोटा
- पद-प्रतिष्ठा या मान-मर्यादा में कम।
- वि.
- [सं. क्षुद्र]
- छोटौ
- उम्र में छोटा।
- वि.
- [हिं. छोटा]
- छोटौ
- तुच्छ, साधारण, मामूली।
- जौ तुम पतितनि के पावन हौ, हौं हूँ पतित न छोटौ - १ - १७९।
- वि.
- [हिं. छोटा]
- छोड़छुट्टी, छोड़ाछुट्टी
- संबंध न रहना, नाता छूटना।
- संज्ञा
- [हिं. छोड़ना+छुट।]
- छोड़ना
- किसी पकड़ी हुई वस्तु को पकड़ से अलग करना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- किसी लगी या चिपकी हुई वस्तु का अलग हो जाना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- बंधन से मुक्ति या छुटकारा देना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- अपराध क्षमा करना, दंड न देना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- ग्रहण न करना, न लेना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- ग्रहण न करना, न लेना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- ऋण आदि में छूट देना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोटा
- सार या महत्वहीन।
- वि.
- [सं. क्षुद्र]
- छोटा
- जो गंभीर या उदार न हो, ओछा।
- वि.
- [सं. क्षुद्र]
- छोटाई
- छोटापन, लघुता।
- संज्ञा
- [हिं. छोटा+ई (प्रत्य.)]
- छोटाई
- नीचता, ओछापन, तुच्छता।
- संज्ञा
- [हिं. छोटा+ई (प्रत्य.)]
- छोटापन
- छोटा होने का भाव, छोटाई।
- संज्ञा
- [हिं. छोटा+पन (प्रत्य.)]
- छोटापन
- बचपन, लड़कपन।
- संज्ञा
- [हिं. छोटा+पन (प्रत्य.)]
- छोटि
- तुच्छ, साधारण, महत्वहीन।
- कोटि द्वैक जलही घरे, यह बिनती इक छोटि - ५८९।
- वि.
- [हिं. छोटा]
- छोटियै
- आकार या विस्तार में कम ही, छोटी ही।
- छोटौ बदन छोटियै झिगुली, कटि किंकिनी बनाइ - १० - १३३।
- वि.
- [हिं. पुं. छोटा]
- छोटी
- जो बड़ी न हो, कम आकार की।
- छोटी छोटी गोड़ियाँ, अँगुरियाँ छबीली छोटी, नख - ज्योति मोती मानौ कमल - दलनि पै - १० - १५१।
- वि.
- [हिं. पुं. छोटा]
- छोटी
- अवस्था में कम।
- जे छोटी तेई हैं खोटी साजति भाजति जोरी - १६२१।
- वि.
- [हिं. पुं. छोटा]
- छोड़ना
- पास न रखना, त्यागना, अलग करना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- न उठाना, साथ न लेना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- चलाना, दौड़ाना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- अस्त्र आदि चलाना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- किसी स्थान आदि से आगे बढ़ जाना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- किसी काम को करते-करते बंद कर देना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- रोग आदि को दूर होना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- (पिचकारी, आतशबाजी आदि) चलाना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- बाकी रखना, काम में न लाना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- वेग से बाहर निकालना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोप
- छिपाव, दुराव।
- संज्ञा
- [सं. क्षेप, हिं. खेप]
- छोप
- छोप छाप- छिपाव।
- यौ
- छोप
- बचाव।
- यौ.
- छोपना
- गाढ़ा लेप आदि करना।
- क्रि. स.
- [हिं. छुपाना]
- छोपना
- मिट्टी आदि थोपना।
- क्रि. स.
- [हिं. छुपाना]
- छोपना
- छोपना छापना- ठीक करना, बनाना।
- यौ.
- छोपना
- धर दबाना, ग्रसना।
- क्रि. स.
- [हिं. छुपाना]
- छोपना
- ढकना, छेंकना।
- क्रि. स.
- [हिं. छुपाना]
- छोपना
- किसी बात को छिपाना।
- क्रि. स.
- [हिं. छुपाना]
- छोपना
- वार से बचाना।
- क्रि. स.
- [हिं. छुपाना]
- छोड़ना
- किसी काम को भूल जाना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ना
- ऊपर से गिराना या डालना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण]
- छोड़ाना
- छुड़ाना।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छोड़ावना
- छुड़ाने के लिए।
- परी पुकार द्वार गृह गृह ते सुनहु सखी इक जोगी आयो। पवन सधावन भवन छोड़ावन नवल रिसाल गोपाल पठायौ - २९९९।
- संज्ञा
- [हि, छोड़ाना]
- छोत
- अस्पृश्यता का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. छूत]
- छोनिप
- राजा।
- संज्ञा
- [सं क्षोणी+प= पालक]
- छोनी
- पृथ्वी, भूमि।
- संज्ञा
- [सं. क्षोणी]
- छोप
- गाढ़ी चीज का मोटा लेप।
- संज्ञा
- [सं. क्षेप, हिं. खेप]
- छोप
- यह लेप चढ़ाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं. क्षेप, हिं. खेप]
- छोप
- वार, आघात।
- संज्ञा
- [सं. क्षेप, हिं. खेप]
- छोपाई
- छोपने की क्रिया
- संज्ञा
- [हिं. छोपना]
- छोपाई
- छोपने का भाव या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. छोपना]
- छोभ
- दुख-क्रोध-जनित चित्त की विचलता।
- रसना द्विज दलि दुखित होति बहु, तउ रिस कहा करै। छमि सब छोभ जु छाँड़ि छवौ रस लै समीप सँचरै - १ - ११७।
- संज्ञा
- [सं. क्षोभ]
- छोभ
- नदी, तालाब आदि का उमड़ना।
- संज्ञा
- [सं. क्षोभ]
- छोभना
- चित्त का दुख-क्रोध से विचलित होना।
- क्रि. स.
- [हिं. छोभ+ना (प्रत्य.)]
- छोभना
- नदी आदि का उमड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. छोभ+ना (प्रत्य.)]
- छोभित
- क्षुब्ध, चंचल, विचलित।
- आजु अति कोपे हैं रन राम।…..। छोभित सिंधु, सेष - सिर कंपित, पवन भयौ गति पंग - १५८।
- वि.
- [सं. क्षोभित]
- छोम
- चिकना।
- संज्ञा
- [सं. क्षोम]
- छोम
- कोमल।
- संज्ञा
- [सं. क्षोम]
- छोर
- किसी वस्तु के दोनों ओर का किनारा।
- संज्ञा
- [हिं. छोड़ना]
- छोराए
- बंधन-मुक्त कराये।
- मात पिता बंदि ते छोराए - २६३१।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छोरा - छोरी
- नोच-खसोट, छीना-झपटी। झगड़ा, बखेड़ा, झंझट।
- संज्ञा
- [हिं. छोरना]
- छोरि
- छुड़ाकर, मुक्त। करके।
- (क) सूर प्रभु मारि दसकंध, थापि बंधु तिहिं. जानकी छोरि जस जगत लीजै - ९ - १३६।
(ख) नृपन को छोरि सहदेव को राज दियो देव नर सकल जै जै उचारयौ - १० उ. ५१।
- क्रि. स.
- [हिं. छोड़ना]
- छोरि
- छीन (लिए)।
- जोरि अंजलि मिले, छोरि तंदुल लए, इंद्र के बिभव तैं अधिक बाढ़ौ - १ - ५।
- क्रि. स.
- [हिं. छोड़ना]
- छोरी
- बंधन दूर किये।
- जरासिंधु को जोर उघारौ, फारि कियौ दै फाँकौ। छोरी बंदि बिदा किए राजा, राजा हृ गए राँकौ - १ - ११३।
- क्रि. स.
- [हिं. छोरना]
- छोरी
- छुड़वा दी, खुलवा दी।
- बीचहिं मार परी अति भारी, राम लछमन तब दरसन पाए। दीन दयालु बिहाल देखिकै, छोरी भुजा, कहाँ तें आए १ - ९ - १२०।
- क्रि. स.
- [हिं. छोरना]
- छोरी
- अलग की।
- जाके गुननि गुथति माल कबहूँ उर ते नहिं छोरी - १० उ. ११६।
- क्रि. स.
- [हिं. छोरना]
- छोरी
- त्याग दी।
- त्रेताजुग इक पत्नी ब्रत किए सोऊ बिलपति छोरी - २८६३।
- क्रि. स.
- [हिं. छोरना]
- छोरी
- लड़की, छोकड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. छोरा]
- छार
- बंधन से मुक्त किया।
- कोटि छ्यानबे नृप - सेना सब जरासंध बँध छोरे - १ - ३१।
- क्रि. स.
- [हिं. छोरना]
- गोड़वरियाँ
- पैताना।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़]
- गोड़वाना
- गोड़ने का काम करना।
- क्रि. स.
- [हिं. गोड़ना का प्रे.]
- गोड़वाना
- कोई काम बिगाड़ देना।
- क्रि. स.
- [हिं. गोड़ना का प्रे.]
- गोड़सँकर
- स्त्रियों के पैर का एक गहना।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़ + साँकर]
- गोड़सिया
- जलने, कुढ़ने या ईर्ष्या रखनेवाला।
- वि.,
- [हिं. गोड़ + सिहान]
- गोड़हरा
- पैर का एक गहना, कड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़ा+हरा (प्रत्य.)]
- गोड़ाँगी
- पाय जामा।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़ +अँगिया]
- गोड़ाँगी
- जूता।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़ +अँगिया]
- गोड़ा
- पलँग का पाया।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़]
- गोड़ा
- छोटा घोड़ा।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़]
- छोर
- विस्तार की सीमा।
- संज्ञा
- [हिं. छोड़ना]
- छोर
- किनारे का कुछ भाग।
- बृंदाबन के तृन न भए हम लगत चरन कै छोर।
- संज्ञा
- [हिं. छोड़ना]
- छोर
- खोलकर, छुड़ाकर, मुक्त करके।
- बंधन छोर पिता माता के अस्तुति करि सिर नायौ - सारा, ५२९।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छोरटी
- लड़की, बालिका।
- संज्ञा
- [हिं. छोरी]
- छोरत
- छोड़ते हैं, बंधन से मुक्त कराते हैं।
- (क) आपु बँधावत भक्तनि छोरत, बेद बिदित भई बानी - १० - ३४३।
(ख) ब्रज - प्यारौ, जाकौ मोहिं गारौ, छोरत काहे न ओहि - ३७५।
- क्रि. स.
- [हिं. छोड़ना]
- छोरन
- छोड़ने (के लिए), (बंधन से) मुक्त करने को।
- जाहु चली अपनौं अपनौं घर। तुमहीं सबनि मिलि ढीठ करायौ, अब आई छोरन बर - १ - ३४५।
- संज्ञा
- [हिं. छोड़ना]
- छोरना
- बंधन या फँसाव दूर करना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण = परित्याग, हिं. छोड़ना]
- छोरना
- मुक्त करना, छुटकारा देना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण = परित्याग, हिं. छोड़ना]
- छोरना
- छीनना।
- क्रि. स.
- [सं. छोरण = परित्याग, हिं. छोड़ना]
- छोरा
- छोकड़ा, बालक, लड़का।
- संज्ञा
- [सं. शावक, हिं. छावक +रा (प्रत्य.)]
- छार
- खोलकर, बंधन में न रखकर।
- बिनवै चतुरानन कर जोरे। तुव प्रताप जान्यौ नहिं प्रभु जू करै अस्तुति लट छोरे - ४८८।
- क्रि. स.
- [हिं. छोरना]
- छोरै
- खोलती हैं, उतारती हैं।
- अंग अंग आभूषन छोरैं - ७९९।
- क्रि. स.
- [हिं. छोरना]
- छोरै
- छुड़ावे, बंधन से मुक्त कराता है।
- (क) बाँधौं आजु कौन तोहिं छोरै - १० - ३४४।
(ख) कोउ छोरै जनि ढीठ कन्हाई। बाँधे दोउ भुज ऊखल लाई - ३९०।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छोरै
- खोलता है।
- जिय परी ग्रंथ कौन छोरै निकट ननद न सास - पृ. ३४८ (५७)।
- क्रि. स.
- [हिं. छुड़ाना]
- छोरयौ
- छोड़ दिया, बंधन से मुक्त किया।
- जब जब बंधन छोरयौ चाहहिं. सूर कहै यह कोवै - ३४७।
- क्रि. स.
- [हिं. छोड़ना]
- छोल
- छिलने का चिह्न।
- संज्ञा
- [हिं. छोलना]
- छोलना
- छीलना, खुरचना।
- क्रि. स.
- [हिं. छाल]
- छोलना
-
- कलेजा छोलना :- बहुत व्यथा देना।
- मु.
- छोलनी
- छीलने, खुरचने या छेद करने का औजार।
- संज्ञा
- [हिं. छोलना]
- छोला
- चना।
- संज्ञा
- [हिं. छोलना]
- छोहाना
- दया या अनुग्रह करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छोह]
- छोहारा
- छुहारा।
- ऊधो मन माने की बात। दाख छोहारा छाँड़ि कै बिष कीरा बिष खात।
- संज्ञा
- [हिं. छुहारा]
- छोहिनी
- अक्षौहिणी।
- संज्ञा
- [सं. अक्षौहिणी]
- छोही
- प्रेमी, स्नेही।
- वि.
- [हिं. छोह]
- छोही
- गँडेरी का चीफुर।
- संज्ञा
- [हिं. छोलना]
- छौंक
- बघार, तड़का।
- संज्ञा
- [अनु.]
- छौंकना
- बघारना, तड़काना।
- क्रि. स.
- [हिं. छौंक]
- छौंड़ा
- खत्ता, गाड़।
- संज्ञा
- [सं. चुंडा= गड्ढा]
- छौकनी
- पशु का चौकड़ी भरते हुए कूदना या झपटना।
- क्रि. अ.
- [सं. चतुष्क, प्रा. चउक्क]
- छौना
- पशु-पक्षी का बच्चा।
- मनौ मधुर मरालछौना, किंकिनी कल - राव - १ - ३०७।
- संज्ञा
- [सं. शावक, प्रा. छाव+औना (प्रत्य.)]
- छोलि, छोली
- छीलकर, छिलका उतारकर।
- छोलि धरे खरबूजा केरा। सीतल बास करत अति घेरा - ३९६।
- क्रि. स.
- [हिं. छाल, छीलना]
- छोवन
- कुम्हारों का डोरी।
- संज्ञा
- [हिं. छेवना]
- छोह
- ममता, प्रीति।
- (क) नंद पुकारत रोइ बुढ़ाई मैं मोहिं छाँड्यौ।….। यह कहिकै धरनी गिरत, ज्यौं तरु कटि गिरि जाइ। नंद - घरिन यह देखिकै कान्हहिं टेरि बुलाई। निठुर भए सुत आजु, तात की छह न आवति - ५८९।
(ख) माई जसुदा देखि तोकौं करति कितनौ छोह - ७०७।
- संज्ञा
- [हिं. क्षोभ]
- छोह
- दया, अनुग्रह, कृपा।
- मोसौं कहत तोहिं बिनु देख, रहत न मेरौ ‘प्रान। छोह लगति मोकौ सुनि बानी, महरि तुम्हारी आन - ७२३।
- संज्ञा
- [हिं. क्षोभ]
- छोहना
- विचलित यो क्षुब्ध होना।
- (१) विचलित या क्षुब्ध होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छोह]
- छोहना
- प्रेम या दया का व्यवहार करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छोह]
- छोहरा
- लड़का, बालक।
- संज्ञा
- [सं. शावक, प्रा. छावक, छाव+रा (प्रत्य.)]
- छोहरा
-
- मो आगे को छोहरा :- मेरे सामने का लड़का, बहुत छोटा या अनजान बालक।
उ. - (क) मो आगे को छोहरा जीत्यौ चाहै मोहिं - ११३१। (ख) भले रे नंद के छोहरा डर नहीं कहा जो मल्ल मारे बिचारे - २६१२।
- मु.
- छोहरिया, छोहरी
- लड़की।
- संज्ञा
- [हिं. छोहरा]
- छोहाना
- प्रेम, प्रीति या स्नेह करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. छोह]
- छौना
- वत्स. पुत्र, बालक।
- मधु - मेवा - पकवान - मिठाई माँगि लेहु मेरे छौना - १० - १९२। .....|
- संज्ञा
- [सं. शावक, प्रा. छाव+औना (प्रत्य.)]
- छौर
- कपास आदि का डंठल।
- संज्ञा
- [हिं. छौरा]
- छौर
- हजामत।
- संज्ञा
- [सं. क्षौर]
- छौरा
- ज्वार या बाजरे का डंठल
- संज्ञा
- [सं. क्षर = नाश्वान्, नष्ट]
- छौरा
- कपास का डंठल।
- संज्ञा
- [सं. क्षर = नाश्वान्, नष्ट]
- छ्यानबे
- नब्बे से छह अधिक।
- कोटि छ्यानबे मेघ बुलाए अनि कियौ ब्रज डेरौ - ९५९।
- वि.
- [सं. षण्सावति, प्रा. षण्सावइ या छ + नब्बे]
- छ्वै
- छूना, छूकर।
- क्रि. स.
- [पू. हिं. छुवना, हिं. छूना]
- छ्वै
- छवै आवै-छू, लेता है, अपवित्र कर देता है।
- पाँडे नहिं भोग लगावन पावै। करि - करि पाक जबै अर्पत है, तबहीं तब छुवै अवै - १० - २४९।
- प्र.
- ज
- चवर्ग का तीसरा अल्पप्राण व्यंजन; इसका उच्चारण तालु से होता है।
- जंग
- लड़ाई।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जंगल
- मांस।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंगल
- वन, अरण्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंगल
-
- जंगल में मंगल :- सूनसान जगह में चहल-पहल।
- मु.
- जँगला
- कटहरा।
- संज्ञा
- [पुर्त. जेंगिला]
- जँगला
- जालीदार खिड़की।
- संज्ञा
- [पुर्त. जेंगिला]
- जँगला
- दुपट्टे के किनारे की कढ़ाई।
- संज्ञा
- [पुर्त. जेंगिला]
- जँगला
- एक राग।
- संज्ञा
- [सं जांगल्य]
- जँगला
- एक मछली।
- संज्ञा
- [सं जांगल्य]
- जँगला
- अन्न के अनाजरहित डंठल।
- संज्ञा
- [सं जांगल्य]
- जंगली
- जंगल संबंधी।
- वि.
- [हिं. जंगल]
- जंग
- झगड़ा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जंग
- लोहे-टीन का मुरचा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जंगजू
- वीर, लड़ाका।
- वि.
- [फ़ा.]
- जंगम
- चलने-फिरने वाला, चर।
- (क) तिन मोकौं आज्ञा करी, रचि सब सृष्टि बनाइ। थावर - जंगम, सुर - असुर, रचे सबै मैं आइ - २ - ३६।
(ख) थावर - जंगम मैं मोहिं जानै। दयासील, सबसौं हित मानौं - ३ - १३।
- वि.
- [सं.]
- जंगम
- जो इधर-उधर हटाया या रखा जा सके।
- वि.
- [सं.]
- जंगम
- चल वस्तु।
- संज्ञा
- जंगम - गुल्म
- पैदलों की सेना।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंगमता
- चलने की क्रिया, शक्ति या क्षमता।
- संज्ञा
- [हिं. जंगम+ता]
- जँगरैत
- परिश्रमी।
- वि.
- [हिं. जंग]
- जंगल
- भूमि जहाँ जल न हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंगली
- अपने आप उगने वाले।
- वि.
- [हिं. जंगल]
- जंगली
- जंगल में रहने वाले।
- वि.
- [हिं. जंगल]
- जंगली
- जो पालू न हो।
- वि.
- [हिं. जंगल]
- जंगा
- घुंघरू का दाना।
- संज्ञा
- [फ़ा. जंगूला]
- जंगार, जंगाल
- तूतिया। एक रंग।
- संज्ञा
- [ज़ा.]
- जंगारी, जंगाली
- नीले रंग का।
- वि.
- [फ़ा.]
- जंगी
- लड़ाई संबंधी।
- वि.
- [फ़ा.]
- जंगी
- फौजी।
- वि.
- [फ़ा.]
- जंगी
- बहुत बड़ा।
- वि.
- [फ़ा.]
- जंगी
- वीर, लड़ाका, बहादुर।
- वि.
- [फ़ा.]
- जँचना
- देखा-भाला जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाँचना]
- जँचना
- जाँच में पूरा होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाँचना]
- जँचना
- मन में निश्चय होना, मन को ठीक लगना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाँचना]
- जँचा
- जाँचा हुआ।
- वि.
- [हिं. जँचना]
- जँचा
- अचूक।
- वि.
- [हिं. जँचना]
- जँचा
-
- जँचा-तुला :- सधा हुआ, ठीक-ठीक।
- मु.
- जँच्यौ
- जाँचा जाना, देखाभाला जाना।
- सोधि सकल गुन काछि दिखायौ, अंतर हो जो सच्यौ। जौ रीझत नहिं नाथ गुसाई, तौ कह जात जँच्यौ - १ - १७४।
- क्रि. अ.
- [हिं. बँचना]
- जंजपूक
- मंद स्वर में जप करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंजर, जंजल
- पुराना, बेकार।
- वि.
- [सं. जर्जर]
- जंजार, जंजाल, जंजाला
- प्रपंच, झंझट, कपट, संकट, कुचक्र।
- (क) सूर - प्रभु नंदलाल, मारथौ दनुज ख्याल, मेटि जंजाल ब्रज - जन उबायौ - १० - ६२।
(ख) गाई लेहु मेरे गोपालहिं। नातरु काल - ब्याले' लेतै है, छाँड़ि देहु तुम सब जंजालहिं - १ - ७४ (ग) मुरछि का हैं गिरे धरनी, कहा यह जंजाल। मैं यहाँ जो आइ देखौं, परे सब बेहाल - ५०४। (घ) कह्यौ। प्रहलाद पढ़त मैं सार। कहा पढ़ावत और जँजार - ७ - २।
- संज्ञा
- [हिं. जग+जाल, जंजाल]
- जंगुल
- जहर, विष।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंगै
- घुंघरूदार कमरपट्टी।
- संज्ञा
- [हिं. जंगा]
- जंघ, जंघा
- जाँघ, रान।
- (क) जानु - जंघ त्रिभंग सुंदर, कलित कंचन दंड - १ - ३०७।
(ख) कर कपोल भुज धरि जंघा पर लखति माई नखन की रेखनि - २७२२।
- संज्ञा
- [सं. जंघा]
- जंघ, जंघा
- पिंडली।
- संज्ञा
- [सं. जंघा]
- जंघ, जंघा
- कैंची का दस्ता।
- संज्ञा
- [सं. जंघा]
- जँघारथ
- एक ऋषि।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंघारि
- विश्वामित्र का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंघाल
- दूत।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंघाल
- मृग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंघावंधु
- एक ऋषि।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोठ
- श्राद्ध।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठ]
- गोठ
- सैर-सपाटा।
- संज्ञा
- [सं. गोष्ठ]
- गोठिल
- कुंद धारवाला।
- वि.
- [सं. कुठित]
- गोड़
- पैर, पाँव।
- (क) निसिदिन फिरत रहत मुँह बाए, अहमिति जनम बिगोइसि। गोड़ पसारि परयौ दोउ नीकैं, अब कैसी कह होइसि - १ - ३३३।
(ख) सूर सो मनसा भई पाँगुरी निरखि डगमगे गोड़ - १३५७। (ग) सैल से मल्ल वै धाइ आये सरन कोऊ भले लागे तब गोड़ पर थरथराने - २५९६।
- संज्ञा
- [सं. गम, गो]
- गोड़
-
- गोड़ भरना :- (१) पैर में महावर लगाना।
(२) वर के पैर में महावर लगाना।
- मु.
- गोड़इत
- चौकीदार, पहरेदार।
- संज्ञा
- [हिं. गोइँड़+ऐत (प्रत्य.)]
- गोड़ई
- चौकीदार।
- संज्ञा
- [हिं. गोइँड़ +ऐत (प्रत्य.)]
- गोड़ई
- चिट्टी ले जानेवाला पुराना कर्मचारी।
- संज्ञा
- [हिं. गोइँड़ +ऐत (प्रत्य.)]
- गोड़ना
- कुछ गहराई तक मिट्टी खोदना, पेड़ की जड़ के पास की मिट्टी खोदना।
- क्रि. स.
- [हिं. कोड़ना]
- गोड़ना
- (किसी काम को) बिगाड़ देना।
- क्रि. स.
- [हिं. कोड़ना]
- जंतर
- तांत्रिक यंत्र।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंतर
- ताबीज।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंतर
- गले का कठुला।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंतर
- मानमंदिर।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंतर
- वीणा, बीन।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंतरमंतर
- टोना-टुटका, जादू-टोना।
- संज्ञा
- [हिं. यंत्र+मंत्र]
- जंतरमंतर
- मानमंदिर जहाँ से नक्षत्रों की गति, स्थिति आदि देखी जाती है।
- संज्ञा
- [हिं. यंत्र+मंत्र]
- जंतरी
- पत्रा।
- संज्ञा
- [सं यंत्र]
- जंतरी
- जादूगर।
- संज्ञा
- [सं यंत्र]
- जंतरी
- बाजा बजाने में कुशल।
- संज्ञा
- [सं यंत्र]
- जंतरी
- एक औजार।
- संज्ञा
- [सं यंत्र]
- जँतसर
- गीत जो चक्की चलाते समय स्त्रियाँ गाया करती हैं।
- संज्ञा
- [हिं. जाँता]
- जँतसार
- चक्की गाड़ने या जमाने का स्थान।
- संज्ञा
- [सं. यंत्रशाला, हिं. जाँता]
- जँतसारी
- जँतसर।
- संज्ञा
- [हिं. जँतसार]
- जंता
- यंत्र।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंता
- एक औजार।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंता
- यातना देनेवाला।
- वि.
- [सं. यंतृ= यंता]
- जँताना
- जाँते में पीसा जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाँता]
- जंती
- तार खींचने का औजार।
- संज्ञा
- [हिं. जंता]
- जंती
- माता, जननी।
- संज्ञा
- [हिं. जनना]
- जंजार, जंजाल, जंजाला
- बंधन, फँसाव, जाल, उलझन।
- (क) सबै तजि भजिऐ नंदकुमार। और भजे हैं काम सरै नहिं. मिटै न भव - जंजार - १ - ६८।
(ख) करि तप बिप्र जन्म जब लीन्हो मिल्यौ जन्म जंजाल - सारा, ६१६। (ग) हृदय की कबहुँ न पीर घटी। दिन दिन हीन छीन भई काया दुख जंजाल जटी। (घ) भव जंजाल तोरि तरु बन के पल्लव हृदय बिदारयौं। (च) अंगपरसि मेटे जंजाला - ७९९।
- संज्ञा
- [हिं. जग+जाल, जंजाल]
- जंजार, जंजाल, जंजाला
-
- जंजाल में पड़ना (फँसना) :- कठिनता या संकट में पड़ना।
परिहै बहुरि जँजाला :- उलझन में फँसेगा, संकट में पड़ जायगा। उ. - बार बार मैं तुमहिं कहति हौं परिहै बहुरि जँजाला - १०३८।
- मु.
- जंजार, जंजाल, जंजाला
- पानी का भँवर।
- संज्ञा
- [हिं. जग+जाल, जंजाल]
- जंजार, जंजाल, जंजाला
- बड़ा जाल।
- संज्ञा
- [हिं. जग+जाल, जंजाल]
- जंजालिया, जंजाली
- बखेड़ा करनेवाला, झगड़ालू, उलझनी।
- वि.
- [हिं. जंजाल+इया, ई (प्रत्य.)]
- जंजीर
- साँकल, कुंडी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जंजीर
- बेड़ी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जंजीर
-
- जंजीर डालना :- बाँधना, बेड़ी डालना।
जंजीर पड़ना :- जंजीर से जकड़ा जाना।
- मु.
- जंजीरि
- जिसमें जंजीर लगी हो।
- वि.
- [हिं. जंजीर]
- जंतर
- कल, यंत्र।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंबाल
- कीचड़, काई।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंबाल
- सेवार।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंबालिनी
- नदी, सरिता।
- संज्ञा
- जंबीर
- एक नीबू।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंबीर
- बन तुलसी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंबु
- जामुन का वृक्ष या फल।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंबु
- जंबु द्वीप।
- सातौं द्वीप कहे सुक मुनि ने सोइ कहत अब सूर। जंबु, प्लक्ष, क्रौंच, साक, साल्मलि, कुस, पुष्करे भरपूर - सारा, ३४।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंबुक
- फरेंदा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंबुक
- एक वृक्ष।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंबुक
- गीदड़, स्यार।
- (क) सिंह रहै जंबुक सरनागत देखी सुनी न अकथ कहानी - पृ. ३४३।
(ख) कृष्न सिंह बलि धरी तिहारी लेबे को जंबुक अकुलात - १० उ. ११।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंत्री
- बाजा।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंत्री
- जकड़ दो, बाँध दीं।
- क्रि. स.
- [हिं. जंत्रना]
- जंत्री
- पत्रा, तिथिपत्र।
- संज्ञा
- [हिं. जंतरी]
- जंद
- पारसियों का प्राचीन धर्म ग्रंथ।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़द]
- जंद
- इस ग्रंथ की भाषा।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़द]
- जंदरा
- ताला।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंदरा
- चक्की।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंदरा
- यंत्र।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंदरा
-
- जंदरा ढीला होना :- (१) कल-पुरजे बेकार होना।
(२) थकावट से हाथ पैर सुस्त होना।
- मु.
- जंपना
- बोलना।
- क्रि. स.
- [सं. जल्पन]
- जंतु
- जन्म लेनेवाला, जीव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंत्र
- कल, उपकरण, औजार।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंत्र
- तांत्रिक यंत्र।
- साधन, मंत्र, जंत्र, उद्यम, बेल ये सब डासै धोइ। जो कछु लिखि राखी नँदनंदन, मेटि सकै नहिं कोइ - १ - २६२।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंत्र
- ताला।
- संज्ञा
- [सं. यंत्र]
- जंत्रना
- ताला बंद करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जंत्र]
- जंत्रना
- कष्ट, यातना।
- संज्ञा
- [सं, यंत्रणा]
- जंत्रमंत्र
- जादू-टोना।
- संज्ञा
- [सं. यंत्रमंत्र]
- जंत्रित
- बंद, बँधा।
- वि.
- [सं. यंत्रित]
- जंत्री
- वीणा बजानेवाला।
- संज्ञा
- [सं. यंत्रिन्]
- जंत्री
- जकड़ कर बंद करनेवाला।
- वि.
- जंभक
- जंभाई या नींद लानेवाला।
- वि.
- [सं.]
- जंभक
- हिंसा करनेवाला, भक्षक।
- वि.
- [सं.]
- जंभक
- कामी, कामुक
- वि.
- [सं.]
- जंभका
- जम्हाई, जँभाई, उबासी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंभन
- भक्षण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंभन
- रति, संभोग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंभन
- जम्हाई, उबासी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंभा, आँभाई
- जमुहाई, उबासी।
- नैन चपलता कहाँ गँवाई।…..। मनौ अरुन अंबुज पर बैठे मत्त भृंग रस आई। उड़ि न सकत ऐसे मतवारे लागत पल्क जँभाई - २००५।
- संज्ञा
- [सं. ज़ृम्भा]
- जँभात
- जँभाई लेते हैं, जँभाते हैं।
- (क) खीझत जात माखन खात। अरुन लोचन, भौंह टेढ़ी, बार - बार जँभात - १०.१००।
(ख) बदन जँभात, अंग ऐंड़ावत - १० - २४२।
- क्रि. अ.
- [हिं. जँभाना]
- जँभाना
- जंभाई लेना।
- क्रि. अ.
- [सं. जृम्भण]
- जंबुक
- बरुण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंबुखंड, जंबुद्वीप, जंबुध्वज, जंबूखंड, जंबूद्वीप
- सात पौराणिक द्वीपों में से एक जो पृथ्वी के मध्य में स्थित है और खारे समुद्र से घिरा है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंबू
- जामुन का वृक्ष।
- जंबू वृक्ष कहो क्यों लंपट फलवर अंबु फरै - ३३११।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंबू
- जामुन का फल।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंबू
- बहुत बड़ा या ऊँचा।
- वि.
- जंभ
- दाढ़, चौभड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंभ
- जबड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंभ
- एक दैत्य जो महिषासुर का पिता था और इंद्र द्वारा मारा गया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंभ
- भक्षण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंभ
- जम्हाई।
- संज्ञा
- [सं.]
- जँभारि
- इंद्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जँभारि
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंभी, जंभीर
- एक तरह का नीबू।
- संज्ञा
- जँभुआने
- जँभाई ली, -जँभाने लगे।
- पौढ़ि गई हरुऐं करि आपुन, अंग मोरि तब हरि जँभुआने - १० - १९७।
- क्रि. अ.
- [हिं. जँभाना]
- ज
- जन्म।
- संज्ञा
- [सं.]
- ज
- पिता।
- संज्ञा
- [सं.]
- ज
- वेगवान।
- वि.
- ज
- जीतनेवाला।
- वि.
- ज
- उत्पन्न, जात (जैसे जलज)।
- प्रत्य
- जइयै
- भोजन कीजिए।
- क्रि. स.
- [हिं. जेंवना]
- जए
- जने, पैदा किये।
- क्रि. स.
- [हिं. जनना]
- जए
- विजयी, जयशील।
- वि.
- [हिं. जयी]
- जए
- जीत लिये।
- क्रि. स.
- [हिं. जीतना]
- जकंद
- छलाँग, चौकड़ी।
- संज्ञा
- [फ़ा. जगंद]
- जकंदना
- कूदना, उछलना, छलाँग मारना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जकंद]
- जकंदना
- टूट पड़ना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जकंद]
- जकंदनि
- दौड़धूप, उलझन।
- संज्ञा
- [हिं. जकंद]
- जक
- धन के रक्षक भूत-प्रेत, यक्ष।
- संज्ञा
- [सं. यज्ञ]
- जक
- कंजूस आदमी।
- संज्ञा
- [सं. यज्ञ]
- जक
- जिद्द, हठ, अड़।
- हुती जिती जग मैं अधमाई सो मैं सबै री। अर्धम - समूह उधारन - कारन तुम जिय जक पकरी - १ - १३०।
- संज्ञा
- [हिं. झक]
- गुनन
- करनी, करतूत (व्यंग्य)।
- उत होरी पढ़त ग्वार इत गारी गावति ए नंद नहीं जाये तुम महरि गुनन भारी - २४२६।
- संज्ञा
- [हिं. गुण]
- गुनन
- रस्सी, डोरी, तागा।
- मोल की बिधु कीजिए, उर बिनु गुनन की माल - सा, ८८।
- संज्ञा
- [हिं. गुण]
- गुनना
- मनन या विचार करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. गुणन]
- गुनना
- सोचना, समझना।
- क्रि. अ.
- [हिं. गुणन]
- गुननि
- अनेक गुण या विशेषताए।
- काहे न निस्तारत प्रभु, गुननि अंगनि - हान - १ - १८२।
- संज्ञा
- [सं. गुण + नि (प्रत्य.)]
- गुनभरी
- गुण वाली।
- सूर राधिका गुनभरी कोउ पार न पावै - १५४५।
- वि.
- [सं. गुण + हि. भरना, भरी]
- गुनमनि
- गुणियों में श्रेष्ठ।
- ज्ञाननमनि, विद्यामनि, गुनमनि, चतुरनमनि चतुराई - १७७०।
- वि.
- [सं. गुण + मणि]
- गुन लवन
- लवण का गुण, खारापन, खारा।
- सिंधुजा गुन लवन कीन्हो अंत ते पहिचान - सा, ११४।
- संज्ञा
- [सं. गुण + लवण]
- गुनवंत
- जिसमें गुण हों, जो गुणवान हो।
- वि.
- [सं, गुण + वंत (प्रत्य.)]
- गुनवती
- गुणवाली।
- वि.
- [सं. गुण + हिं. वती]
- गोड़ियाँ
- उपाय करनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. गोटी=युक्ति]
- गोड़ियाँ
- मल्लाह।
- संज्ञा
- [देश.]
- गोड़ी
- लाभ, फायदा।
- संज्ञा
- [हिं. गोटी=लाभ]
- गोड़ी
-
- गोड़ी जमना (लगना) :- लाभ या सफलता होना।
गोड़ी हाथ से जाना :- हानि होना।
- मुु.
- गोड़ी
- पैर, चरण।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़=पैर]
- गोड़ी
-
- गोड़ी आना (पड़ना) :- किसी का चरण पड़ना, आना।
- मु.
- गोणी
- टाट का बोरा, गोन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोणी
- एक माप या तोल।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोणी
- बहुत महीन कपड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोत
- कुल, वंश।
- (क) राम भक्त - बत्सल निज बानौ। जाति, गोत, कुल, नाम गनत नहिं. रंक होइ कै रानौं - १ - ११।
(ख) तुम बड़े जदुबंस राजा मिले दोसी गोत - २६८२। (ग) इतनिक दूरि भये कुछ औरे बिसयौ गोकुल गोत - ३३६४।
- संज्ञा
- [सं. गोत्र]
- जक
- धुन, रट।
- (क) ज्यों त्रिदोस उपजे जक लागत बोलति बचन न सूधो - ३०१३।
(ख) जागते सोवत स्वप्न दिवस निसि कान्ह कान्ह जक री - ३३६०।
- संज्ञा
- [हिं. झक]
- जक
-
- जक बँधना :- रट या धुन लगना।
- मु.
- जक
- हार, पराजय।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जक
- हानि, घाटा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जक
- लज्जा, पराभव।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जक
- डर, खौफ।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जकड़
- कसने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. जकड़ना]
- जकड़ना
- कसकर बाँधना।
- क्रि. स.
- [सं. युक्त+करण]
- जकड़ना
- (अंगों का) हिल-डुल न सकना।
- क्रि. अ.
- जकना
- चकित या भौचक्का होना, अचंभे में आना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जक या चकपकाना]
- जइयै
- जाइए, प्रस्थान कीजिए।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाना]
- जई
- जौ की जाति का एक अन्न।
- संज्ञा
- [हिं. जौ]
- जई
- जौ का छोटा अंकुर।
- संज्ञा
- [हिं. जौ]
- जई
-
- जई डालना :- अंकुर निकालने के लिए किसी अन्न को तर स्थान में रखना।
- मु.
- जई
- फूलों की बतियाँ जिनमें फूल भी लगा रहता है।
- परस परम अनुराग सचि सुख लगी प्रमोद जई - १३००।
- संज्ञा
- [हिं. जौ]
- जई
- विजयी।
- वि.
- [हिं. जयी]
- जईफ
- बूढ़ा, वृद्ध।
- वि.
- [अ.ज़ईफ़]
- जईफी
- बुढ़ापा।
- संज्ञा
- [हिं. जंईफ]
- जउ, जऊ
- जब, यद्यपि।
- इतनी जउ जानत मन मूरख, मानत याही धाम - १ - ७६।
- अव्य
- [हिं. जऊ]
- जउबन
- यौवन, युवावस्था।
- संज्ञा
- [सं. यौवन]
- जक्षण
- भोजन, खाना।
- संज्ञा
- [सं.]
- जमा
- क्षयी।
- संज्ञा
- [सं. यक्ष्या]
- जखम, जख्म
- क्षत, घाव।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़ख्म]
- जखम, जख्म
- मानसिक दुख का आधात, सदमा।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़ख्म]
- जखमी, जख्मी
- घायल।
- वि.
- [हिं. जखम]
- जखीरा
- खजाना। ढेर
- संज्ञा
- [अ. ज़ख़ीरा]
- जग
- संसार, विश्व।
- जग जानत जदुनाथ, जिते जन निज भुज - स्रम - सुख पायौ - १ - १५।
- संज्ञा
- [सं. जगत्]
- जग
- संसार के लोग।
- संज्ञा
- [सं. जगत्]
- जग
- यज्ञ।
- (क) चलिए बिप्र जहाँ जग - बेदी बहुत करी मनुहारी - ८ - १४।
(ख) जग अरंभ करि नृप तहँ गयौ - ९ - ३।
- संज्ञा
- [सं. यक्ष]
- जगकर
- ब्रह्मा।
- संज्ञा
- [हिं. जग+करना]
- जकरना
- बाँधना, जकड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. जकड़ना]
- जकरि
- जकड़ कर, अच्छी तरह बाँध कर, कड़ा बंधन करके।
- (क) सूरदास प्रभु कौं यौं राखौ, ज्यौं राखिऐ, गजमत्त जकरि कै - १० - ३१८।
(ख) अब मैं याहि जकरि बाँधौंगी, बहुतै मोहिं खिझायौ। साँटिनि मारि करौं पहुँनाई, चितवत कान्ह डरायौ - १० - ३३०। (ग) कोकौ ब्रज माखन दधि काकौ, बाँधे जकरि कन्हाई - ३७५।
- क्रि. स.
- [हिं. जकड़ना]
- जकरयौ
- जकड़ा, बाँधा।
- क्रि. स.
- [हिं. जकड़ना]
- जकात
- दान।
- संज्ञा
- [अ. ज़कात]
- जकात
- कर।
- संज्ञा
- [अ. ज़कात]
- जकाती
- कर वसूलने वाला।
- संज्ञा
- [हिं. जकात]
- जकि
- भौचक्के होकर, चकपका कर।
- तरु दोउ धरनि गिरे भहराइ।…...। घरिक लौं जकि रहे जहँ तहँ देहगति बिसराइ - ३८७।
- क्रि. अ.
- [हिं. जकना]
- जकित
- विस्मित, चकित।
- हरि - मुख किधौं मोहिनी भाई। ….। सूरदास प्रभु बदन बिलोकते जकित थकित चित अनत न जाई।
- वि.
- [हिं. चकित .]
- जक्त
- संसार।
- संज्ञा
- [हिं. जगत्]
- जक्ष
- यक्ष।
- संज्ञा
- [सं. यक्ष]
- जगजगा
- चमकदार पन्नी।
- संज्ञा
- [जगमग से अनु.]
- जगजगा
- चमकदार, जगमगाया हुआ।
- वि.
- जगजगाना
- चमकना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- जगजीवन
- संसार के प्राणाधार, ईश्वर।
- जे जन सरन भजे बनबारी। ते ते राखि लिए जगजीवन, जहँ जहँ बिपति परी तहँ टारी - १ - २२।
- संज्ञा
- [सं. जग+जीवन]
- जगजोनि
- ब्रह्मा।
- संज्ञा
- [सं. जयोनिः]
- जगकंप
- एक बाजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगड्वाल
- व्यर्थ का आडंबर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगण
- तीन अक्षरों का एक गण जिसमें लघु, गुरु, लघु (जैसे महेश) का क्रम रहता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगत, जगत्
- विश्व, संसार। (श्री वल्लभाचार्य और सूर के विचार से ‘जगत' ब्रह्म का सत्-अंश होने के कारण सत्य है और ‘संसार’ अहंता-भ्रमतात्मक माया-जन्य होने के कारण मिथ्या है। ब्रह्म की सत् शक्ति से उत्पन्न सृष्टि जगत है और अध्यास से उत्पन्न सृष्टि संसार है।)
- संज्ञा
- [सं. जगत्]
- जगत, जगत्
- वायु।
- संज्ञा
- [सं. जगत्]
- जगती
- संसार।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगती
- पृथ्वी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगतीतल
- भूमि, पृथ्वी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगदंबा, जगदंबिका
- दुर्गा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगद
- पालक, रक्षक।
- वि.
- [सं.]
- जगदाधार
- ईश।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगदाधार
- वायु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगदानंद
- परमेश्वर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगदायु
- वायु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगदीश, जगदीस
- परमेश्वर।
- संज्ञा
- [सं. जगत् +ईश]
- जगत, जगत्
- महादेव।
- संज्ञा
- [सं. जगत्]
- जगत, जगत्
- जंगम।
- संज्ञा
- [सं. जगत्]
- जगत, जगत्
- कुएँ के चारो तरफ का ऊँची चबूतरा।
- संज्ञा
- [सं जगति =घर की कुरसी]
- जगत - गुरु
- परमेश्वर।
- देखौ री जसुमति बौरानी। -। जानत नाहिंजगत - गुरु माधौ, इहिं आए आपदा नसानी - १० - २५८
- संज्ञा
- [सं. जगद्गुरु]
- जगतपति
- परमेश्वर।
- संज्ञा
- [सं. जगत्+पति]
- जगतपिता
- विश्व की सृष्टि करने वाले, सष्टिकर्ता।
- संज्ञा
- [सं. जगतपिता]
- जगतमणि, जगतमनि
- संसार से सबसे श्रेष्ट, परमेश्वर।
- जहाँ बसत जदुनाथ जगतमनि बारक तहाँ आउ दै फेरी - २८५२।
- संज्ञा
- [सं. जगत्+मणि]
- जगतवंदन
- जिसकी संसार वंदना करता है, संसार में वंदनीय।
- नंदनंदन जगतवंदन धरे नटवर बेस - १० उ.९४।
- वि.
- [सं. जगत्+वंदन]
- जगतसेठ
- बहुत धनी और विख्यात महाजन।
- संज्ञा
- [सं. जगत+श्रेष्ठ]
- जगतात
- जगतपिता।
- नाथत ब्याल बिलंब न कीन्हौ।…..। अस्तुति करन लग्यौ सहसौ मुख, धन्य धन्य जगतात - ५३७।
- संज्ञा
- [हिं. जग+तात = पिता]
- जगदीश, जगदीस
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं. जगत् +ईश]
- जगदीश, जगदीस
- जगन्नाथ।
- संज्ञा
- [सं. जगत् +ईश]
- जगदीश्वर
- परमेश्वर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगदीश्वरी
- भगवती।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगदीसर
- परमेश्वर।
- तुम्हरौ नाम तजि प्रभु जगदीसर, सु तौ कहौ मेरे और कहा बल - १ - २०४।
- संज्ञा
- [सं. जगदीश्वर]
- जगद्गुरु
- परमेश्वर
- संज्ञा
- [सं.]
- जगद्गुरु
- शिव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगद्गुरु
- नारद।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगद्गुरु
- प्रतिष्ठित व्यक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगद्गुरु
- शंकराचार्य की गद्दी के महंतों की उपाधि।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगदगौरी
- दुर्गा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगदगौरी
- मनसा देवी जो नागों की बहन और जरत्कारु ऋषि की स्त्री थी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगद्धाता
- ब्रह्मा।
- संज्ञा
- [सं. जगद्धातृ]
- जगद्धाता
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं. जगद्धातृ]
- जगद्धाता
- महादेव।
- संज्ञा
- [सं. जगद्धातृ]
- जगदधात्री
- दुर्गा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगदधात्री
- सरस्वती।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगद्वंद्य
- संसार भर में पूज्य।
- वि.
- [सं.]
- जगना
- नींद से उठना।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण]
- जगना
- सचेत होना।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण]
- जगना
- उत्तेजित होना।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण]
- जगना
- जलना, दहकना।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण]
- जगना
- चमकना।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण]
- जगनाथ
- संसार के स्वामी, ईश्वर।
- ज्योतिरूप जगनाथ जगतगुरु, ज्योति पिता जगदीस - ४८७।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगन्नाथ
- जगत का नाथ, ईश्वर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगन्नाथ
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगन्नाथ
- पुरी नामक स्थान में विष्णु की मूर्ति जो सुभद्रा और बलभद्र की मूर्तियों के साथ है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगन्नाथ
- उड़ीसा में समुद्र के किनारे एक प्रसिद्ध तीर्थ।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगनियंता
- ईश्वर।
- संज्ञा
- [सं जगन्नियंतृ]
- जगन्मय
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोड़ा
- थाला, आल बाल।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़ना]
- गोड़ाई
- गोड़ने की क्रिया, भाव या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़ना]
- गोड़ाना
- गोड़ने का काम, कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. गोड़ना का प्रे.]
- गोड़पाई, गोड़ापाही
- मंडल में घूमने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़ =पाँव+पाई = ताने का सूत फैलाने का ढाँचा]
- गोड़पाई, गोड़ापाही
- किसी स्थान पर बार बार आने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़ =पाँव+पाई = ताने का सूत फैलाने का ढाँचा]
- गोड़ारी
- ताजी खोदी घास।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़ाई]
- गोड़ारी
- पलँग का पैताना।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़ + आरी (प्रत्य.)]
- गोड़ारी
- जूता।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़ + आरी (प्रत्य.)]
- गोड़ाली
- गाँडर दूब।
- संज्ञा
- [हिं. गाँडर]
- गोड़ियाँ
- पैर, पाँव।
- छोटी छोटी गोड़ियाँ, अँगुरियाँ छबीली छोटी, नख - ज्योती, मोती मानौ कमल - दलनि पर - १० - १५१।
- संज्ञा
- [हिं. गोड़]
- जगन्मयी
- लक्ष्मी
- संज्ञा
- [सं.]
- जगन्मयी
- संसार की संचालिका शक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगन्माता
- दुर्गा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगन्मोहिनी
- दुर्गा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगन्मोहिनी
- महामाया।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगपति
- संसार के स्वामी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगपाल
- संसार के पालक।
- अब धौं कहौ कौन दर जाउँ। तुम जगपाल, चतुर चिंतामनि, दीनबंधु सुनि नाउँ - १ - १६५।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगप्रान
- वायु।
- संज्ञा
- [हिं. जग + प्राण]
- जगबंद
- संसार भर में पूज्य।
- वि.
- [सं जगद्वंद्य]
- जगमग, जगमगा
- जिस पर प्रकाश पड़ता हो।
- वि.
- [अनु.]
- जगह
-
- जगह जगह :- सब जगह, हर जगह।
- मु.
- जगह
- स्थिति।
- संज्ञा
- [फ़ा. जायगाह]
- जगह
- मौका।
- संज्ञा
- [फ़ा. जायगाह]
- जगह
- पद, ओहदा।
- संज्ञा
- [फ़ा. जायगाह]
- जगहर
- जगने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. जगना]
- जगाइ
- जगा दिया, नींद त्यागने को प्रेरित किया।
- परसुराम उनकौं दियौ सोवत मनौ जगाइ - ९ - १४।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगाऊँ
- नींद से उठाऊँ, सोते से जगाऊँ।
- सकुच होत सुकुमार नींद मैं कैसै प्रभुहिं जगाऊँ - ९ - १७२।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगाऊँ
- यंत्र या सिद्धि आदि का साधन करूँ।
- हरि कारन गोरखहिं जगाऊँ जैसे स्वाँग महेस - २७५४।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगाए
- जगाया, नींद त्याग कर उठने को प्रेरित किया।
- सोवत नृप उरबसी जगाए - ९ - २।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगाए
- उत्तेजित किया, सुप्त भाव को जाग्रत किया।
- (क) दादुर मोर पपीहा बोलत सोवत मदन जगाए - २८८३।
(ख) सूरजस्यानी मिटी दरसन आसा नूतन बिरह जगाए - २९५९।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगमग, जगमगा
- जो चमक रहा हो।
- वि.
- [अनु.]
- जगमगाति
- जगमगाती है, चमकती है, दमकती है।
- अरुन चरन नख - जोति जगमगात, रुन - कुन करति पाइँ पैजनियाँ - १० - १०६।
- क्रि. अ.
- [हिं. जगमगाना (अनु.)]
- जगमगाना
- चमकना, दमकना।
- क्रि. अ.
- [अनु.]
- जगमगाहट
- जमक, दमक।
- संज्ञा
- [हिं. जगमग]
- जगर
- कवच।
- संज्ञा
- [सं.]
- जगरन
- जागना।
- संज्ञा
- [सं. जागरण]
- जगरमगर
- प्रकाश या चमकयुक्त।
- वि.
- [हिं. जगमग]
- जगवाना
- सोते से उठवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. जगना]
- जगवाना
- मंत्र द्वारा किसी वस्तु में प्रभाव कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. जगना]
- जगह
- स्थान।
- संज्ञा
- [फ़ा. जायगाह]
- जगात
- दान।
- संज्ञा
- [अ. जकात]
- जगात
- कर।
- संज्ञा
- [अ. जकात]
- जगाती
- कर वसूलने वाला कर्मचारी।
- संज्ञा
- [हिं. जगात या फ़ा. जगाती]
- जगाती
- कर वसूलने का काम या भाव।
- संज्ञा
- [हिं. जगात या फ़ा. जगाती]
- जगाना
- नींद त्यागने की प्रेरणा देना।
- क्रि. स.
- [हिं. जागना]
- जगाना
- चेत में लाना, सजग करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जागना]
- जगाना
- ठीक स्थिति में लाना।
- क्रि. स.
- [हिं. जागना]
- जगाना
- सुप्त भाव को जाग्रत करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जागना]
- जगाना
- उत्तेजित करना, क्रुद्ध करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जागना]
- जगाना
- धीमी आग को तेज करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जागना]
- जगावति
- जगाती है, नींद त्यागने को प्रेरित करती है, सोते से उठाती है।
- बद्न उघारि जगावति जननी, जागहु बलि गई आँनंद - कंद - १० - २०४।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगावते
- जगाते थे, उत्तेजित। करते थे।
- इहिं बिरियाँ बन ते ब्रज आवते।….। कबहुँक लै लै नाम मनोहर धवरी धेनु बुलावते। इहिं बिधि बचन सुनाय स्याम घन मुरछे मदन जगावते - २७३५।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगावन
- जगाने, नींद त्यागने या (सोते से) उठाने को।
- दासी कुँवर जगावन आई। देख्यौ कुँवर मृतक की नाई - ६ - ५।
- संज्ञा
- [हिं. जगाना]
- जगावै
- जगाती है, निद्रा दूर करती है।
- भरि सोवै सुख - नींद मैं, तहाँ सु जाइ जगावै - १ - ४४।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगी
- (देवी, योगिनी आदि) प्रभाव दिखाने लगी।
- भूमि अति डगमगी, जोगिनी सुनि जगी, सहर - कनसेस कौ सीस काँप्यौ - ९ - १०६।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण, हिं. जगना]
- जगी
- जागती रही, सोयी नहीं।
- कर मीड़ति पछिताति बिचारति इहिं बिधि निसा जगी - २७९०।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण, हिं. जगना]
- जगी
- मोर की जाति का एक पक्षी।
- संज्ञा
- [देश.]
- जगीत
- कुएँ की जगत।
- संज्ञा
- [हिं. जगत]
- जगीर
- जागीर।
- संज्ञा
- [हिं. जागीर]
- जगीला
- नींद न आने के कारण अलसाया हुआ, उनींदा।
- वि.
- [हिं. जागना]
- जगाना
- मंत्र या सिद्धि की। साधना करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जागना]
- जगायौ
- जगा दिया, नीं से उठा दिया, क्रुद्ध कर दिया।
- (१) जगा दिया, नींद से उठा दिया, क्रुद्ध कर दिया।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगायौ
-
- सोवत सिंह जगायौ :- बलवान व्यक्ति को अपना शत्रु बना लिया; अपने से शक्तिशाली को छेड़ दिया।
उ. - तुम जनि डरपौ - मेरी माता, राम जोरि दल ल्यायौ। सूरदास रावन कुल खोवन, सोवतसिंह जगायौ - ९ - ८८।
- मु.
- जगायौ
- सचेत किया, होश में लाये।
- व्याकुल धरनी गिरि परे नंद भए बिनु प्रान। हरि के अग्रज बंधु तुरतहीं पिता जगायौ - ५८९।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगायौ
- तीव्र किया, उत्तेजित किया, सुलगाया।
- प्रेम उमँगि कोकिला बोली बिरहिनि बिरह जगायौ - १३९२।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगायौ
- प्रसिद्ध किया।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगायौ
-
- नाम जगाओ :- नाम फैलाया, प्रसिद्ध किया।
उ. - त्रिभुवन मैं अति नाम जगायौ फिरत स्याम सँग ही - पृ. ३२२।
- मु.
- जगार
- जागरण, जागृति।
- नैना ओछे चोर सखी री। स्याम रूप निधि नोखें पाई देखत गए भरी री।…..। कहा लेहि कह तजैं बिवस भए तैसिय करनि करी री। भोर भए भोर सौ हो गयौ धरे जगार परी री - २९१८।
- संज्ञा
- [हिं. जगाना]
- जगावत
- उत्तेजित करता है।
- बंसी री बन कान्ह बजावत।…..। सुर - नर - मुनि बस किए राग रस, अधर - सुधा - रस मदन जगावत - ६४८।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगावत
- नींद से उठाती है, सोते से जगाती है।
- प्रातकाल उठि जननि जगावत - सारा, १७०।
- क्रि. स.
- [हिं. जगाना]
- जगुरि
- जंगम।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्धि
- भोजन।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्धि
- सहभोज।
- संज्ञा
- [सं.]
- जग्मि
- वायु, हवा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जग्मि
- चलता-फिरता, हिलता-डोलता, गतियुक्त।
- वि.
- जग्य
- यज्ञ।
- जोग - जग्य - जप - तप - ब्रत दुर्लभ, सो हरि गोकुल ईस - ४८७।
- संज्ञा
- [सं. यज्ञ]
- जग्यौ
- जागे, सोकर उठे।
- अस्वत्थामा भय करि भग्यौ। इहाँ लोग सब सोवत जग्यौ - १ - २८९।
- क्रि. अ.
- [हिं. जागना]
- जघन
- कमर के नीचे आगे का भाग, पेड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- जघन
- नितंब।
- संज्ञा
- [सं.]
- जघन्य
- अंतिम, चरम।
- वि.
- [सं.]
- जघन्य
- त्याज्य, बहुत बुरा।
- वि.
- [सं.]
- जघन्य
- क्षुद्र, नीच।
- वि.
- [सं.]
- जघन्य
- शूद्र।
- संज्ञा
- जघन्य
- नीच जाति।
- संज्ञा
- जन्नि
- वधिक।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्नि
- वधिक-अस्त्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जचना
- देखा-भाला जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जॅचना]
- जचना
- जाँच में ठीक उतरना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जॅचना]
- जचना
- जान पड़ना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जॅचना]
- जच्चा
- वह स्त्री जिसे बच्चा हुआ हो।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़च्चा]
- जज्ञपुरुष
- विष्णु।
- (क) दत्तात्रेयऽरु पृथु बेहुरि, जज्ञ पुरुष - बपु धार। कपिल, मनू, हयग्रीव पुनि, कीन्हौ ध्रुव अवतार - २ - ३६।
(ख) जज्ञपुरुष प्रसन्न जब भए। निकसि कुंड तैं दरसन दए।
- संज्ञा
- [सं. यज्ञपुरुष]
- जज्ञ - भाग
- यज्ञ का भाग जो देवताओं को दिया जाता है।
- जज्ञ - भाग नहिं लियौ हेत सौं रिषिपति पतित बिचारे - १ - २५।
- संज्ञा
- [सं. यज्ञभाग]
- जटना
- धोखा देना, ठगना।
- क्रि. स
- [हिं. जाट]
- जटना
- जड़ना, ठोंकना।
- क्रि. स
- [सं. जटन]
- जटल
- गप, बकवास।
- संज्ञा
- [सं. जटिल]
- जटल
- जटल काफिया-ऊटपटाँग बात।
- यौ
- जटा
- सिर के उलझे हुए लंबे-लंबे बाल।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटा
- जड़ के पतले-पतले सूत।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटा
- उलझे हुए रेशे।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटा
- शाखा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जच्छ
- यक्ष, एक प्रकार के देवता जो प्रचेता की संतान और कुबेर के सेवक माने जाते हैं।
- जच्छ, मृतु, बासुकी, नाग, मुनि, गंधरब, सकल बसु, जीति मैं किए चेरे - ९ - १२९।
- संज्ञा
- [सं. यक्ष]
- जजना
- पूजना, आदर करना।
- क्रि. स.
- जजमान, जजिमान
- धर्म-कर्म करने और दान देनेवाला।
- सँज्ञा
- [सं. यजमान]
- जजमान, जजिमान
- यज्ञ करने वाला।
- सँज्ञा
- [सं. यजमान]
- जजवा
- प्रवृत्ति, झुकाव, रुचि।
- संज्ञा
- जजा
- इनाम, पुरस्कार।
- संज्ञा
- [फ़ा. जज़ा]
- जजाति
- ययाति जो राजा नहुष के पुत्र थे और जिनका विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से हुआ था।
- संज्ञा
- [सं. ययाति]
- जजिया
- दंड।
- संज्ञा
- [अ.जज़िया]
- जजिया
- एक कर जो हिंदुओं से लिया जाता था।
- संज्ञा
- [अ.जज़िया]
- जज्ञ
- भारतीयों का प्रसिद्ध वैदिक कर्म जिसमें वेद-मंत्रों के साथ हवन और पूजन होता है।
- संज्ञा
- [सं. यज्ञ]
- गोत
- समूह, जत्था।
- सुनि यह स्याम बिरह भरे।…..। सखिन तब भुज गहि उठाए कहा बावरे होत। सूर प्रभु तुम चतुर मोहन मिलो अपने गोत - ३४२९।
- संज्ञा
- [सं. गोत्र]
- गोतना
- गोता देना, डुबाना।
- क्रि. सं.
- [हिं. गोता]
- गोतना
- नीचे की तरफ ले जाना।
- क्रि. सं.
- [हिं. गोता]
- गोतना
- नीचे झुकना।
- क्रि. अ.
- गोतना
- औंघाना।
- क्रि. अ.
- गोतम
- गोत्र चलानेवाला व्यक्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोतम
- एक ऋषि।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोतमी
- गोतम की स्त्री अहल्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोता
- डुब्बी, डुबकी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोता
-
- गोता खाना :- (१) डुबकी लगाना।
(२) धोखे में आना। गोता खात :- धोखे में आते हैं। उ. - भवसागर मैं पैरि न लीन्हौ।…….। अति गंभीर, तीर नहिं नियरैं, किहिं बिधि उतरयौ जात १ नहीं अधार नाम अवलोकत जित तित गोता खात - १ - १७५ | गोता देना :- (१) डुबाना। (२) धोखा देना। गोता मारना (लगाना) :- (१) डुबकी लगाना। (२) काम करते-करते बीच-बीच में नागा करना।
- मु.
- जटि
- बरगद का वृक्ष।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटि
- पाकर का वृक्ष।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटि
- जटा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटि
- समूह।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटि
- जटामासी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटित
- जड़ा हुआ।
- (क) नगनिजटित मनि - खंभ बनाए, पूरन बात सुगंध - ९ - ७५।
(ख) आगर इक लोह जटित लीन्ही बरिबंड। दुहूँ करनि असुर हयौ, भयौ मांस - पिंड - ९ - ९६।
- वि.
- [सं.]
- जटिल
- जिसके जटा हो, जटाधारी।
- वि.
- [सं.]
- जटिल
- दुरूह, दुर्बोध, कठिन।
- वि.
- [सं.]
- जटिल
- क्रूर, दुष्ट।
- वि.
- [सं.]
- जटिल
- सिंह।
- संज्ञा
- जटा
- जुट, पाट।
- संज्ञा
- [सं.]
- जदाचीर, जटाटीर
- महादेव, शिव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटाजूट
- जटा का समूह।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटाजूट
- लंबे बालों का समूह।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटाजूट
- शिव जी की जटा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटांधर
- शिव जी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटांधर
- एक बुद्ध।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटाधारी
- जो जटा रखता हो।
- वि.
- [सं.]
- जटाधारी
- जिसके बाल लंबे और उलझे हुए हों।
- वि.
- [सं.]
- जटाधारी
- शिव, महादेव।
- संज्ञा
- जटाधारी
- एक बुद्ध।
- संज्ञा
- जदाना
- ठगा जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जटना]
- जटामाली
- शिव जी, महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटामासी
- एक सुगंधित जड़।
- संज्ञा
- [सं. जटामांसी]
- जटायु
- रामायण का एक गिद्ध जो सूर्य के सारथी अरुण का, उसकी श्येनी नाम्नी स्त्री से उत्पन्न पुत्र था। सीता जी को हर कर लिगे जाते हुए रावण से युद्ध करके यह घायल हुआ। रामचंद्र ने इसकी अंत्येष्टि क्रिया को।
- रामायण का एक गिद्ध जो सूर्य के सारथी अरुण का, उसकी श्येनी नाम्नी स्त्री से उत्पन्न पुत्र था। सीता जी को हर कर लिये जाते हुए रावण से युद्ध करके यह घायल हुआ। रामचंद्र ने इसकी अंत्येष्टि क्रिया की।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटाल
- बरगद।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटाल
- गुग्गुल।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटाल
- जिसके लंबी जटा हो, जटाधारी।
- वि.
- जटासुर
- एक राक्षस जो द्रौपदी पर मोहित होकर युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव और द्रौपदी को हरकर ले जाते समय भीम के द्वारा मारा गया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटि
- जड़ा हुआ।
- किंकिनी कलित कटि, हाटक रतन जटि, मृदु कर कमलनि पहुँची रुचिर बर - १० - १५१।
- वि.
- [सं. जटित]
- जड़
- चेतनारहित, अचेतन।
- वि.
- [सं.]
- जड़
- चेष्टाहीन, स्तब्ध।
- वि.
- [सं.]
- जड़
- मंद बुद्धि, नासमझ।
- वि.
- [सं.]
- जड़
- अनजान, अनभिज्ञ, मूर्ख।
- जड़ स्वरूप सौं जहँ. तहँ फिरै।असन - बसन की सुधि नहिं धरै - ५ - ३।
- वि.
- [सं.]
- जड़
- गूंगा।
- वि.
- [सं.]
- जड़
- बहरा।
- वि.
- [सं.]
- जड़
- जिसके मन में मोह हो।
- वि.
- [सं.]
- जड़
- जल।
- संज्ञा
- जड़
- सीसी नामक धातु।
- संज्ञा
- जड़
-
- (१) वृक्षों या पौधों की मूल जो जमीन के भीतर रहकर उनका पोषण करती है।
- संज्ञा
- [सं. जटा-वृक्ष की जड़]
- जटिल
- ब्रह्मचारी।
- संज्ञा
- जटिल
- शिवजी।
- संज्ञा
- जटिला
- ब्रह्मचारिणी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटिला
- जटामासी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटिला
- पीपल।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटिला
- एक ऋषि-कन्या जिसका विवाह सात ऋषि-पुत्रों से हुआ था।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटी
- जकड़ी हुई।
- दिन - दिन हीन छीन भइ काया दुख - जंजाल जटी - १ - ९८।
- क्रि. स.
- [हिं. जटना]
- जटी
- पाकर-वृक्ष।
जटामासी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जटै
- जटा को, साधुओं के उलझे हुए बड़े-बड़े बालों को।
- जोगी जोग धरत मेन अपनैं, सिर पर राखि जटै - १ - २६३।
- संज्ञा
- [सं. जटा]
- जठर
- पेट।
- संज्ञा
- [सं.]
- जठर
-
- जठर जरै :- पेट की अग्नि में जले, गर्भ में यातना भोगे।
उ. - यह मति-मति जानै नहिं कोऊ, किहिं रस रसिक ढरै। सूरदास भगवंत-भजन बिनु फिरि फिरि जठर जरै - १ - ३५।
- मु.
- जठर
- एक पर्वत।
- संज्ञा
- [सं.]
- जठर
- शरीर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जठर
- एक देश।
- संज्ञा
- [सं.]
- जठर
- वृद्ध, बूढ़ा।
- वि.
- जठर
- कठिन।
- वि.
- जठराग्नि, जठरानल
- पेट की गर्मी जिससे अन्न पचता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जठराग्नि, जठरानल
- माता-पिता का संतान से वात्सल्य या प्रेम।
- संज्ञा
- [सं.]
- जठरातुर
- भूख से व्याकुल, भूखा।
- बालभाव अनुसरति भरति दृग अग्र अंसुकन आनै। जनु खंजरीट जुगल जठरातुर लेत सुभष अकुलानै - २०५३।
- वि.
- [सं. जठर+आतुर]
- जठेरा
- जेठा, बड़ा।
- वि.
- [हिं. जेठ या जठर]
- जड़ाई
- जड़ने का वेतन।
- संज्ञा
- [सं.]
- जड़ाऊ
- जिसमें नग आदि जड़े हों।
- वि.
- [हिं. जड़ना]
- जड़ाना
- जड़ने का काम करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जड़ना]
- जड़ाना
- जाड़ा सहना, शीत लगना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाड़ा]
- जड़ाव, जड़ावट
- जड़ने का काम, भाव या ढंग।
- संज्ञा
- [हिं. जड़ना]
- जड़ावर, जड़ावल
- जाड़े के कपड़े।
- संज्ञा
- [हिं. जाड़ा]
- जड़ित
- जो (नग आदि) जड़ा गया हो।
- वि.
- [हिं. जड़ना या सं. जटित]
- जड़ित
- जिसमें नग आदि जड़े हों।
- कुंडल स्रवन कनक मनि भूषित जड़ित लाल अति लोल मीन तन - २५७३।
- वि.
- [हिं. जड़ना या सं. जटित]
- जड़िमा
- जड़ता, जड़त्व।
- संज्ञा
- [सं.]
- जड़िया
- जड़नेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. जड़ना]
- जड़
-
- (२) नींव, बुनियाद।
- संज्ञा
- [सं. जटा-वृक्ष की जड़]
- जड़
-
- जड़ उखाड़ना(खोदना) :- हानि पहुँचाना, नाश करना।
जड़ जमना :- दृढ़ या स्थायी होना, स्थिति सम्हलना। जड़ पकड़ना :- मजबूत होना। जड़ पड़ना :- नींव पड़ना।
- मु.
- जड़
-
- (३) हेतु, कारण।
- संज्ञा
- [सं. जटा-वृक्ष की जड़]
- जड़
-
- (४) आधार, आश्रय, सहारा।
- संज्ञा
- [सं. जटा-वृक्ष की जड़]
- जड़ता, जड़ताई
- मूर्खता, अज्ञानता।
- (क) परम कुबुद्धि अजान ज्ञान तैं हिय जु वसति जड़ताई - १ - १८७।
(ख) कहिए कहीं दोष दीजै किहिं अपनी ही जड़ताई - २७८४।
- संज्ञा
- [हिं. जड़ता]
- जड़ता, जड़ताई
- अचेतनता।
- संज्ञा
- [हिं. जड़ता]
- जड़ता, जड़ताई
- चेष्टा न करने का भाव, स्तब्धता, अचलता।
- संज्ञा
- [हिं. जड़ता]
- जड़त्व
- हिलडुल न सकने का, भाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जड़त्व
- स्थिति और गति की इच्छा का अभाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जड़ना
- एक चीज को दूसरी में ठोंक-पीट कर बैठाना।
- क्रि. स.
- [सं. जटन]
- जड़ना
- किसी वस्तु से प्रहार करना।
- क्रि. स.
- [सं. जटन]
- जड़ना
- चुगली खाना, शिकायत करना, कान भरना।
- क्रि. स.
- [सं. जटन]
- जड़भरत
- भरत नामक एक ब्राह्मण राजा का हिरन के बच्चे से इतना प्रेम था कि मरते समय, उन्हें उसी की चिंता बनी रही। दूसरे जन्म में वे हिरन की योनि में जन्मे। पुण्य के प्रभाव से उन्हें पिछले जन्म का ज्ञान था। अतएव अगले जन्म में पुनः ब्राह्मण होने पर सांसारिक माया-मोह से अपने को बचाते रहकर वे जड़वत् रहने लगे। अतएव वे जड़भरत के नाम से विख्यात हो गये।
- ऐसी भाँति नृपति बहु भाषी। सुनि जड़ भरत हृदय मैं राखी - ५ - ४।
- संज्ञा
- [सं.]
- जड़मति
- मूर्ख बुद्धिवाला।
- जनि डरथौ मूढ़मति काहू सौं, भक्ति करौ इकसारि - ७ - ३।
- वि.
- [सं.]
- जड़वाद
- भौतिकवाद।
- संज्ञा
- [सं.]
- जड़वादी
- भौतिकवादी।
- वि.
- [सं.]
- जड़वाना
- नग, कील आदि जड़ाना।
- क्रि. स.
- [हिं. जड़ना]
- जड़ाई
- जाड़ा सहा, ठंड या सरदी खाई।
- छाँड़हु तुम यह टेक कन्हाई। नीर माहिं हम गई जड़ाई - ७९९।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाड़ा, जढ़ाना]
- जड़ाई
- जड़ने का काम, पच्चीकारी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जड़ाई
- जड़ने का भाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जड़ी
- वह वनस्पति जिसकी जड़ से औषध बनती है।
- संज्ञा
- [हि, होड़]
- जड़ी
- जड़ी-बूटी-जंगली औषध या वनस्पति।
- यौ.
- जड़ीभूत
- जड़वत्, सुन्न।
- वि.
- [सं.]
- जड़आ
- पैर का एक गहना
- संज्ञा
- [हिं. जड़ना]
- जड़ैया
- जूड़ी।
- संज्ञा
- [हिं. जूड़ी]
- जड़ैया
- नग जड़नेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. जड़िया]
- जढ़ता
- निश्चेष्टता। मूर्खता।
- संज्ञा
- [हिं. जड़ता]
- जत
- जितना, जिस मात्रा का।
- वि.
- [सं. यत्]
- जतन
- उपाय, यत्न।
- (क) करौं जतन, न भजौं तुमकौं, कछुक मन उपजाइ - १ - ४५।
(ख) माधौ इतने जतन तब काहे को किए - २७२७।
- संज्ञा
- [सं. यत्न]
- जतननि
- उपायों से, यत्न करके।
- अगम सिंधु जतननि सजि नौका, हठि क्रम - भार भरत - १ - ५५।
- संज्ञा
- [हिं. जतन+नि]
- गोदंती
- एक मणि।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोद
- उत्संग, कोरा, ओली।
- संज्ञा
- [सं. क्रोड़]
- गोद
-
- गोद का :- (१) छोटा बच्चा जो गोद में ही रहे।
(२) बहुत पास का। गोद बैठना :- दत्तक बनना। गोद लेना :- दत्तक बनाना। गोद देना :- अपने लड़के को दूसरे को इसलिए देना कि वह उसे अपना दत्तक पुत्र बना ले।
- मु.
- गोद
- आँचल।
- (क) सबरी कटुक बेर तजि, मीठे चाखि, गोद भरि ल्याई। जूठन की कछु संक न मानी, भच्छ किए सत - भाई - ११३।
(ख) तिल चाँवरी गोद भरि दीन्ही फरिया दई फ़ारि नव सारी - ७०८।
- संज्ञा
- [सं. क्रोड़]
- गोद
-
- गोद पसार कर विनती करना (माँगना) :- बहुत दीनता से प्रार्थना करना।
कई गोद पसारि :- अधीरता से विनती करती हैं। उ. - खूझा मरुग्रा कुंद सौं कहैं गोद पसारी।……..। बार बार हा हा करैं कहुँ हौ गिरिधारी - १८२२। गोद भरना :- (१) शुभ या विशेष अवसरों पर सौभाग्यवती स्त्री के अंचल में नारियल अदि पदार्थों के साथ आशीर्वाद देना। (२) संतान होना। लेहु गोद पसारि :- श्रद्धा भक्ति के साथ ग्रहण करो। उ. - दियौ फल यह गिरि गोबर्धन लेहु गोद पसारि - ९५०।
- मु.
- गोदनहर, गोदनहारी
- गोदना गोदने का काम करने ... ली।
- संज्ञा
- [हिं. गोदना + हर, हारी (प्रत्य.)]
- गोदनहरा
- टीका लगाने या गोदना गोदनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. गोदना + हारा (प्रत्य.)]
- गोदना
- नुकीली चीज चुभाना या गड़ाना।
- क्रि. स.
- [हिं. खोदना = गड़ना]
- गोदना
- कोई काम करने के लिए बार-बार जोर देना
- क्रि. स.
- [हिं. खोदना = गड़ना]
- गोदना
- छेड़छाड़ करन’, ताना मारना।
- क्रि. स.
- [हिं. खोदना = गड़ना]
- जत्था
- समूह, झुंड, गरोह।
- संज्ञा
- [सं. यूथ]
- जत्रु
- गले की कमानीदार हड्डी, हँसली।
- संज्ञा
- [सं.]
- जत्रु
- कंधे और बाँह का जोड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- जथा
- जिस प्रकार, जैसे।
- (क) पावक जथा दहत सबही दल तूल - सुमेरु समान - १ - २६९। (ख) तिन मैं कहौ एक की कथा। नारायन कहि उघयौ जथा - ६ - ३।
- क्रि. वि.
- [सं. यथा]
- जथा
- मंडली, समूह, झुंड।
- संज्ञा
- [सं. यूथ]
- जथा
- धन-सम्पत्ति, पूँजी।
- संज्ञा
- [सं. गथ]
- जथा
- जमा-जथा-धन-दौलत, पूँजी।
- यौ.
- जथाजोग
- जैसा चाहिए. वैसा; उपयुक्त, यथोचित।
- जथाजोग भेटे पुरवासी, गए सूल, सुख - सिंधु नहाए - ९ - १६८।
- अव्य.
- [सं यथायोग्य]
- जथामति
- बुद्धि के अनुसार।
- सूर प्रभु - चरित अगनित, न गनि जाहिं. कछु जथा मति आपनी कहि सुनाए - ४ - ११।
- अव्य,
- [सं. यथामति]
- जथारथ
- उचित।
- वि.
- [सं. यथार्थ]
- जतनी
- यत्न या उपाय में लगा रहनेवाला।
- संज्ञा
- [सं. यत्न]
- जतनी
- बहुत चतुर, चालाक।
- संज्ञा
- [सं. यत्न]
- जतलाना, जताना
- ज्ञात कराना, बताना।
- क्रि. स.
- [सं. ज्ञात, हिं. जताना]
- जतलाना, जताना
- सूचना देना, सावधान करना।
- क्रि. स.
- [सं. ज्ञात, हिं. जताना]
- जतारा
- वंश, जाति।
- संज्ञा
- [हिं. जाति या यूथ]
- जति, जती
- संन्यासी।
- जती, सती, तापस आराधैं, चारौं बेद रटै - १ - २६६३।
- संज्ञा
- [सं. यतिन, हिं. यती]
- जति, जती
- छंद के चरणों का वह स्थान जहाँ पढ़ते समय रुका जा सकता है।
- संज्ञा
- [सं. यति]
- जतु, जतुक
- गोंद।
- संज्ञा
- [सं.]
- जतु, जतुक
- लाख।
- संज्ञा
- [सं.]
- जतेक
- जितना, जिस मात्रा का।
- क्रि. वि.
- [हिं. जितना + एक]
- जदुपुर
- राजा यदु की राजधानी मथुरा नगरी।
- संज्ञा
- [सं. यदुपुर]
- जदुबंसी
- राजा यदु के वंशज।
- संज्ञा
- [सं. यदुवंशी]
- जदुराइ, जदुराई, जदुराज, जदुराय
- यादवराज, श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं. यदुराज]
- जदुराम
- बलराम।
- संज्ञा
- [सं. यदुराम]
- जूदुवर
- श्रेष्ठ यादव, श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं. यदुवर]
- जदुवीर
- वीर यादव, श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं. यदुवीर]
- जद्द
- अधिक, ज्यादा।
- वि.
- [अ. ज्यादः]
- जद्द
- प्रबल, प्रचंड।
- वि.
- [सं. योद्धा]
- जद्द
- दादा, पितामह।
- संज्ञा
- [अ.]
- जद्दपि, जद्यपि
- यदि, अगर।
- क्रि. वि.
- [सं. यद्यपि]
- जथारथ
- ज्यो का त्यों।
- वि.
- [सं. यथार्थ]
- जद
- जब, जब कभी।
- क्रि. वि.
- [हिं. यदा]
- जद
- यदि, अगर।
- अव्य
- [सं. यदि]
- जदपि
- यद्यपि।
- मुरली तऊ गुपालहिं भावति। सुन री सखी जदपि नँदलालहिं नाना भाँति नचावति - ६५५।
- क्रि. वि.
- [सं. यद्यपि]
- जदबद्
- न कहने योग्य बात।
- संज्ञा
- [हिं. जद्दबद्द]
- जदु
- राजा ययाति का बड़ा पुत्र जो देवयानी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। वृद्ध होने पर ययाति ने इससे कहा-विलास से मेरा मन नहीं भरा है; अतः तुम मेरी वृद्धावस्था से अपनी युवावस्था का विनिमय कर लो जिससे मैं युवक हो जाऊँ। यदु ने यह प्रस्ताव स्वीकार न किया। इस पर पिता ने राज्य नष्ट हो जाने का इसे शाप दिया। इसका राज्य नष्ट तो हुआ; पर बाद में इंद्र की कृपा से इसे पुनः राज्य प्राप्त हुआ। इसके वंशज यादव कहलाते हैं। श्रीकृष्ण इसी के वंश में हुए थे।
- बड़े पुत्र जदु स कह्यौ आइ। उन' कह्यौ, बृद्ध भयौ नहिं जाइ - ९ - १७४।
- संज्ञा
- [सं. यदु]
- जदुकुल
- यदुवंश, यदुकुल।
- आजु हो बधायौ बाजै नंद गोपराइ कै। जदुकुल जादौराइ जनमें हैं आइ कै - १० - ३१।
- संज्ञा
- [सं. यदुकुल]
- जदुनंदन
- श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं. यदुनंदन]
- जदुनाथ
- श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं. यदुनाथ]
- जदुपति, जदुपाल
- श्रीकृष्ण।
- सात दिन आइ जदुपति कियौ आप उधार - सा. ११८।
- संज्ञा
- [सं. यदुपति, यदुपाल]
- जद्दबद्द
- न कहने योग्य बात।
- संज्ञा
- [सं. यत्+अवद्य]
- जद्दी
- बाप-दादा के समय का।
- वि.
- [फ़ा. जद्]
- जन
- लोक, लोग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन
- प्रजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन
- देहाती, गँवार।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन
- अनुयायी, भक्त, दास।
- (क) खंभ तैं प्रगट ह्वै जन छुड़ायौ - १ - ५।
(ख) हरि अर्जन निज जन जान। लै गए तहाँ न जहँ ससि भान -
- संज्ञा
- [सं.]
- जन
- समूह, समुदाय।
- दुर्वासा कौ साप निवारयौ, अंबरीघ - पति राखी। १ - १० ब्रह्मलोकपरजंत फिरयौ तहँ देवमुनीजन साखी - १ - १०।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनक
- जन्मदाता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनक
- पिता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनक
- मिथिला के एक राजवंश की उपाधि। इस वंश के लोग अपने पूर्वज निमि विदेह के नाम पर वैदेह भी कहलाते थे। इसी कुल में उत्पन्न राजा सीरध्वज की पुत्री का नाम सीता था।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनक
- एक वृक्ष।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनकजा
- सीता जी।
- संज्ञा
- [सं. जनक+जा]
- जनकता
- उत्पन्न करने का भाव या काम।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनकता
- उत्पन्न करने की शक्ति
- संज्ञा
- [सं.]
- जनकनंदिनी
- जनक की पुत्री सीता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनकपुर
- मिथिला की प्राचीन राजधानी जो हिन्दुओं का तीर्थ स्थान है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनकसुता
- जनक की पुत्री सीता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनकौर
- जनक का स्थान या नगर।
- संज्ञा
- [हिं. जनक+औरा (प्रत्य.)]
- जनकौर
- जनक का वंशज या संबंधी।
- संज्ञा
- [हिं. जनक+औरा (प्रत्य.)]
- जनचर्चा
- अफवाह।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनतंत्र
- जनता के प्रतिनिधियों का शासन।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनता
- जनन या उत्पादन का भाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनता
- जनसाधारण, सर्वसाधारण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनधा
- अग्नि, आग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनन
- उत्पत्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनन
- जन्म।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनन
- अविर्भाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनन
- वंश, कुल।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनन
- पिता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनन
- परमेश्वर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनना
- (संतान को) जन्म देना।
- क्रि. स.
- [सं. जनन=जन्म]
- जननि, जननी
- उत्पन्न करने वाली।
- संज्ञा
- [सं.]
- जननि, जननी
- माता।
- (क) कपट हेत परसैं बकी जननी गति पावै - १ - ४।
(ख) सूरदास भगवंत भजन बिनु धरनी जननि बोझ कत मारी - १ - ३४। (ग) हौं यहाँ तेरे ही कारन आयो। तेरी सौं सुन जननि जसोदा हठि गोपाल पठायो।
- संज्ञा
- [सं.]
- जननि, जननी
- जूही का पेड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- जननि, जननी
- दया, कृपा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जननि, जननी
- एक गंध-द्रव्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- जननेंद्रिय
- इंद्रिय जिससे प्राणियों की उत्पत्ति होती है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनपद
- देश।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनपद
- लोक, लोग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनपाल, जनपालक
- मनुष्य या लोक का पोषक।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनपाल, जनपालक
- सेवक, पालनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनप्रवाद
- जगनिंदा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनप्रवाद
- अफवाह।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनप्रिय
- जो सबका प्रिय हो, सर्वप्रिय।
- वि.
- [सं.]
- जनप्रिय
- धनिया।
- संज्ञा
- जनप्रिय
- एक वृक्ष।
- संज्ञा
- जनप्रिय
- शिवजी।
- संज्ञा
- जनप्रियता
- लोकप्रियता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनम
- उत्पत्ति, जन्म।
- संज्ञा
- [सं. जन्म]
- जनम
- जीवन, आयु, जिंदगी।
- अधिक सुरूप कौन सीता तैं जनम बियोग भरै - १ - ३५।
- संज्ञा
- [सं. जन्म]
- जनम
-
- जन्म गँवाना (बिगोना) :- जीवन व्यर्थ नष्ट करना।
जनम बिगड़ना :- धर्म नष्ट होना।
- मु.
- जनमल
- जीवन के आदि या आरंभ से, जीवन भर का, सारे जन्म का।
- (क) प्रभु हौं सब पतितनि कौ टीकौ। और पतित सब दिवस चारि के, हौं तौ जनमत ही कौ - १ - १३८।
(ख) सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई जनमत ही कौ धूत - १० - २१५।
- वि.
- [हिं. जन्म+त (प्रत्य.)]
- जनमल
- जनता का मत, सर्वसाधारण की सम्मति
- संज्ञा
- [सं. जन = लोक + मत= सम्मति]
- जनमदिन
- जन्म का दिन।
- संज्ञा
- [सं जन्मदिन]
- जनमधरती, जनमभूमि
- वह स्थान जहाँ जन्म हुआ हो।
- संज्ञा
- [हिं. जन्म+धरती, भूमि]
- जनमना
- पैदा होना, जन्म लेना।
- क्रि. अ.
- [सं. जन्म]
- जनमना
- खेल में हारी या ‘मरी हुई गोटी या गुइयाँ का फिर से खेलने योग्य होना।
- क्रि. अ.
- [सं. जन्म]
- जनमनि
- जन्म में, शरीर धारण करने पर।
- सुजन - बेष - रचना प्रति जनमनि, आयौ पर - धन हरतौ। धर्म - धुजा अंतर कछु नाहीं, लोक दिखावत फिरतौ - १ - २०३।
- संज्ञा
- [सं. जन्म + नि (प्रत्य.)]
- जनमपत्री
- वह पत्र जिसमें जन्मकाल के ग्रहों की स्थिति आदि लिखी जाय।
- संज्ञा
- [सं. जन्मपत्री]
- जनमर्यादा
- लोकाचार।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोताखोर, गोतामार
- डुबकी लगानेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. गोता + अ. खोद, हिं. मारना]
- गोतिन
- सखी, सहेली।
- संज्ञा
- [हिं. गोत]
- गोतिया
- अपने गोत्र वाला (व्यक्ति)।
- वि.
- [सं. गोत्र+ इया (प्रत्य.)]
- गोती
- अपने गोत्र का, गोत्रीय, भाई-बंधु।
- बिधु आनन पर दीरघ लोचन, नासा लटकत मोती री। मानौ सोम संग करि लीने, जानि आपने गोती री - १० - १३९।
- वि.
- [सं. गोत्रीय]
- गोतीत
- जो ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जाना न जा सके, अगोचर।
- वि.
- [सं. गो + अतीत]
- गोत्र
- संतान।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोत्र
- नाम।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोत्र
- क्षेत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोत्र
- राजा का छत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोत्र
- समूह।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनमसँगाती, जनमसँघाती
- बहुत समय तक साथ रहनेवाला मित्र।
- संज्ञा
- [हिं. जन्म +सँघाती]
- जनमाना
- संतान पैदा कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. जन्म]
- जनमारो
- जन्म, जीवन।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनमि
- जन्म लेकर, शरीर धारण करके।
- जग मैं जनमि पाप बहु कीन्हें, आदि - अंत लौं सब बिगरी - १ - ११६।
- क्रि. अ.
- [हिं. जन्मना]
- जनमे
- पैदा हुए, अवतरे, उत्पन्न हुए।
- रिषभदेव तब जनमे आइ। राजा कै गृह बजी बधाइ - ५ - २।
- क्रि. अ.
- [सं. जन्म+ना (प्रत्य) = हिं. जन्मना]
- जनमेजय
- एक कुरुवंशी राजा।
- संज्ञा
- [सं. जन्मेजय]
- जनमै
- जन्मता है, पैदा होता है।
- अज, अबिनासी अमर प्रभु जन्मै - मरै न सोइ - २ - ३६।
- क्रि. अ.
- [हिं. जन्मना]
- जनम्यो, जनम्यौ
- जन्म लिया, पैदा किया, उत्पन्न किया।
- (क) पुनि - पुनि कहत धन्य नँद जसुमति, जिनि इनकौं जनम्यौ सो धनि धनि - ४२९।
(ख) यह कोई नहीं भलो ब्रज जन्मयो। याते बहुत डरात - २३७७।
- क्रि. अ.
- [हिं. जनमना]
- जनयिता
- जन्मदाता।
- संज्ञा
- [सं. जनथितृ]
- जनयित्री
- जन्म देनेवाली।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनवाना
- समाचार दिलवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जनवास, जनवासा
- लोगों का निवास स्थान।
- संज्ञा
- [सं. जन+वास]
- जनवास, जनवासा
- बरातियों के ठहरने का स्थान।
- संज्ञा
- [सं. जन+वास]
- जनवास, जनवासा
- सभा।
- संज्ञा
- [सं. जन+वास]
- जनश्रुत
- प्रसिद्ध, विख्यात।
- वि.
- [सं.]
- जनश्रुति
- अफवाह, किंवदंती।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनहरण
- एक दंडक वृत्त।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनहित
- भक्त की भलाई।
- को न कियौ जन - हित जदुराई - १ - ६।
- संज्ञा
- [सं, जन + हित]
- जनहित
- जो भक्तों की भलाई में लगे रहते हैं।
- वि.
- जनांत
- निश्चित सीमा का प्रदेश।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनरव
- किंवदंती, अफवाह।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनरव
- लोकनिंदा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनरव
- कोलाहल, शोर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनलोक
- सात लोकों में से पाँचवाँ लोक।
- सत्यलोक, जनलोक, तपलोक और महर निज लोक। जहँ राजत ध्रुवराज महा निधि निसि दिन रहत असोक - सारा, २२।
- संज्ञा
- [हिं. जन+लोक]
- जनवल्लभ
- जनप्रिय, लोकप्रिय।
- वि.
- [सं.]
- जनवाई
- जनानेवाली, दाई।
- संज्ञा
- [हिं. जनाई]
- जनवाई
- दाई की क्रिया या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. जनाई]
- जनवाद
- अफवाह।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनवाद
- बदनामी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनवाना
- बच्चा पैदा कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. जनना]
- जनांत
- जनहीन स्थान।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनांत
- अंत करनेवाला, यम।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनांत
- मनुष्यों का नाश करनेवाला।
- वि.
- जना
- उत्पत्ति, पैदाइश।
- संज्ञा
- [सं.]
- जना
- उत्पन्न किया हुआ, जन्माया हुआ।
- वि.
- जनाइ
- जताकर, मालूम कराकर।
- बाबा नंद बुरौ मानेंगे, और जसोदा मैया। सूरजदास जनाइ दियौ है, यह कहिकै बल भैया - ४४५।
- क्रि. अ.
- [हिं. जनाना]
- जनाइ
- विदित हो गया, प्रकट हो गया।
- महर-महरि मन गई जनाइ। खन भीतर, खन आँगन ठाढ़े, खन बाहिर देखते हैं जाइ-।
- क्रि. अ.
- [हिं. जनाना]
- जनाई
- जताया, मालूम कराया।
- (क) ग्वाल रूप हूँ मिल्यौ निसाचर, हलधर सैन बताई। मनमोहन मन में मुसुक्यानैं, खेलत भलैं जनाई - ६ - ४।
(ख) सूरदास प्रीति हदय की सब मन गए जनाई - (ग) द्वारावति पैठत हरि सौं सब लोगन खबरि जनाई - १० उ. २७।
- क्रि. स.
- [हिं. जनैना]
- जनाई
- बच्चा पैदा कराने वाली दाई।
दाई की क्रिया या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिं. जनना]
- जनाउ
- सूचना, जनाव।
- संज्ञा
- [हिं. जनाना]
- जनाऊँ
- जताऊँ, मालूम कराऊँ।
- (क) बालक बछरनि राखिहीं, एक बार लै जाउँ। कछुक जनाऊँ अपुनपौ, अब लौं रहयौ सुभाउँ - ४३१
(ख) अहि कौं लै अब ब्रजहिं दिखाऊँ। कमल - भार याही पर लादौं, याकौं आपन रूप जनाऊँ - ५५३।
- क्रि. स.
- [हिं जनाना]
- जनाए
- सूचित किये, जताये।
- अमूल अकास कास कुसुमित छिति लच्छन स्वाति जनाए - २८५४।
- क्रि. स.
- [हिं. जनाना]
- जनाचार
- लौकिक आचार या रीति।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनाजा
- शव, लाश।
- संज्ञा
- [अ. जनाज़ा]
- जनाजा
- अरथी।
- संज्ञा
- [अ. जनाज़ा]
- जनाधिनाथ
- ईश्वर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनाधिनाथ
- राजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनानखाना
- घर का वह भाग जहाँ स्त्रियाँ रहती हों, अंतःपुर।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़नाना +ख़ाना]
- जनाना
- मालूम कराना, जताना।
- क्रि. स.
- [हिं जानना]
- जनाना
- बच्चा पैदा कराना।
- क्रि. स.
- [हिं जनना]
- जनार्द्दन
- जनता को कष्ट पहुँचानेवाला, दुखदायी।
- वि.
- जनाव
- सूचना, इत्तिला।
- संज्ञा
- [हिं. जनाना]
- जनावत
- मालूम कराता है, जताता है, बताता है।
- (क) को जानै प्रभु कहाँ चले हैं, काहूँ कछु न जनावत - ८.४।
(ख) अब वहि देस नंदनंदन कहँ कोउ न समो जनावत - २८३५।
- क्रि. स.
- [हिं. जनाना]
- जनावति
- बताती हूँ।
- इतनी बात जनावति तुमसौं, सकुचति हौं हनुमंत। नाहीं सूर सुन्यौ दुख कबहूँ प्रभु केरुनांमय कंत - १ - ९२।
- क्रि. स.
- [हिं. जनावना, जनाना=बताना]
- जनावर
- पशु, पक्षी, पतंगा।
- संज्ञा
- [हिं. जानवर]
- जनावे, जनावै
- जताती है, बतलाती है, सूचित करती है।
- जमुना तोहिं बेहथौ क्यौं भावै।…..। भरि भादौं जो राति अष्टमी, सो दिन क्यों न जनावै - ५६१।
- क्रि. स.
- [हिं. जनाना]
- जनाशन
- मनुष्य-भक्षक।
- संज्ञा
- [सं. जन+अशन]
- जनाश्रय
- घर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनाश्रय
- धर्मशाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनि
- जन्म, उत्पत्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनाना
- स्त्री का, स्त्रीसंबंधी।
- वि.
- [फ़ा. ज़नाना]
- जनाना
- नपुंसक।
- वि.
- [फ़ा. ज़नाना]
- जनाना
- निर्बल, डरपोक।
- वि.
- [फ़ा. ज़नाना]
- जनाना
- जनखा।
- संज्ञा
- जनाना
- अंतःपुर।
- संज्ञा
- जनाब
- आदरसूचक शब्द या संबोधन।
- संज्ञा
- [अ.]
- जनायौ
- जताया, प्रकट किया।
- जहँ जहँ गाढ़ि परी भक्तनि कौं, तहँ तहँ आपु जनायौ - १.२०।
- क्रि. स.
- [हिं जानना]
- जनायौ
- सूचित किया।
- तबहीं तैं बाँधे हरि बैठे सो हम तुमकौं अनि जनायौ - ३६९।
- क्रि. स.
- [हिं जानना]
- जनार्द्दन
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनार्द्दन
- शालग्राम।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनु, जनुक
- मानो।
- उदित बदन, मन मुदित सदन तैं, आरति साजि सुमित्रा ल्याई। जनु सुरभी बन बसति बच्छ बिनु परबस पसुपति की बहराई - ९ - १६९।
- क्रि. वि.
- [हिं. जानना]
- जनु, जनुक
- जन्म, उत्पत्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनेंद्र
- राजा।
- संज्ञा
- [सं. जन+इंद्र]
- जने
- लोग, व्यक्ति, प्राणी।
- तीनि जने सोभा त्रिलोक की, छाँड़ि सकल पुरधाम - ९ - ४४।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनेऊ, जनेव
- यज्ञोपवीत।
- हरि हलधर को दियो जनेऊ करि षटरस जेवनार - २६२९।
- संज्ञा
- [सं. यज्ञ या जन्म]
- जनेऊ, जनेव
- यज्ञोपवीत संस्कार।
- संज्ञा
- [सं. यज्ञ या जन्म]
- जनेत
- बरात।
- संज्ञा
- [सं. जन+एत (प्रत्य.)]
- जनेता
- पिता, बाप।
- संज्ञा
- [सं. जनयिता]
- जनेश
- राजा, नरेश।
- संज्ञा
- [सं. जन + ईश]
- जनै
- जनती है।
- बाँझ सुत जनै उकठै काठ पल्लवै बिफल तरु फलै बिन मेघ - पानी - २२७३।
- क्रि. स.
- [हिं. जनना]
- जनित्री
- उत्पन्न करनेवाली।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनियाँ
- जने, लोग, व्यक्ति।
- झुनक स्याम की पैजनियाँ। जसुमति - सुत कौंचलन सिखावति, अँगुरी गहि - गहि दोउ जनियाँ - १० - १३२।
- संज्ञा
- [सं. जन]
- जनियाँ
- समूह, समुदाय, (बहुवचन वाचक प्रत्य.)
- जाकौ ध्यान धरै सबै, सुर - नर - मुनि जनियाँ - १०. १४५।
- संज्ञा
- [सं. जन]
- जनियाँ
- प्रियतमा, प्रेयसी।
- संज्ञा
- [सं.जानि]
- जनी
- दासी।
- संज्ञा
- [सं. जन]
- जनी
- स्त्री।
- संज्ञा
- [सं. जन]
- जनी
- उत्पन्न करनेवाली।
- संज्ञा
- [सं. जन]
- जनी
- जन्माई हुई, कन्या।
- संज्ञा
- [सं. जन]
- जनी
- उत्पन्न या पैदा की हुई।
- वि.
- जनी
- पैदा की।
- क्रि. स.
- [हिं. जनना]
- जनि
- नारी, स्त्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनि
- माता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनि
- पुत्रवधू।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनि
- जन्मभूमि।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनि
- मत, नहीं, न (निषेधार्थक)।
- गुप्त मते की बात कहौ जनि काहूँ कैं आगे।
- अव्य
- जनि
- जनकर, पैदा करके।
- लछिमन जनि हौं भई सधूती राज - काज जो आवै - ९ - १५२।
- क्रि. स.
- [हिं. जनना]
- जनिका
- पहेली।
- संज्ञा
- [हिं. जनाना]
- जनित
- उपजा हुआ, जन्य।
- वि.
- [सं.]
- जनिता
- उत्पन्न करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं. जनितृ]
- जनित्र
- जन्म स्थान।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोत्र
- वृद्धि, बढ़ती।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोत्र
- धन-संपत्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोत्र
- पहाड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोत्र
- भाई।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोत्र
- वंश, कुल।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोत्र
- वंश या कुल की संज्ञा जो उसके प्रवर्तक के अनुसार होती है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोत्रज
- एक ही वंश-परम्परावाला।
- वि.
- [सं.]
- गोत्रसुता
- पार्वती जी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोत्री
- समान गोत्र का, गोतिया।
- वि.
- [सं.]
- गोत्रोच्चार
- विवाह में वर-वधू के वंश, गोत्र अदि का परिचय।
- संज्ञा
- [सं.]
- जनैया
- जाननेवाला, जानकार।
- बदले को बदलो लै जाहु। उनकी एक हमारी दोइ तुम बड़े जनैया आहु - ४६१९।
- वि.
- [हिं. जनना+ऐया (प्रत्य.)]
- जनैया
- जनने या पैदा करनेवाला।
- वि.
- [हिं. जनना]
- जनैहौं
- बताऊँगा, जताऊँगा।
- आगै आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहिं न जनैहौं। हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहौं - १० - १९३।
- क्रि. स
- [हिं. जनाना]
- जनो, जनौ
- जनेऊ।
- संज्ञा
- [हिं. जनेऊ]
- जनो, जनौ
- मानो, गोया।
- क्रि. वि.
- [हिं. जानना]
- जनौं
- मानों।
- क्रि. वि.
- [हिं. जानना]
- जन्म
- उत्पत्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्म
- अस्तित्व प्राप्त करने का भाव, आविर्भाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्म
- जीवन।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्म
-
- जन्म बिगड़ना :- धर्म नष्ट होना।
जन्म जन्म :- सदा, नित्य। जन्म में थूकना :- धिक्कारना। जन्म हारना :- (१) व्यर्थ जन्म खोना। (२) दूसरे का दास होकर रहना।
- मु.
- जन्मअष्टमी
- भादो, की कृष्णाष्टमी जिस दिन श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था।
- संज्ञा
- [हिं. जन्माष्टमी]
- जन्मकुंडली
- वह चक्र जिसमें जन्मकाल के ग्रहों की स्थिति का लेखा हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्मकृत्
- पिता, जन्मदाता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्मग्रहण
- उत्पत्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्मतिथि
- जन्म की तिथि, जन्म दिन।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्मतिथि
- वर्षगाँठ।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्मतुआ
- दुधमुहाँ।
- वि.
- [हिं. जन्म + तुझा (प्रत्य.)]
- जन्मदिन
- जन्मतिथि।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्मदिन
- वर्षगाँठ।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्मना
- जन्म लेना।
- क्रि. अ.
- [से, जन्म+ना (प्रत्य.)]
- जन्मना
- आविर्भूत होना, अस्तित्व में आना।
- क्रि. अ.
- [से, जन्म+ना (प्रत्य.)]
- जन्मपत्रिका, जन्मपत्री
- वह पत्र जिसमें जन्म-काल के ग्रहों की स्थिति आदि दी गयी हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्मभूमि, जन्मस्थान
- स्थान या देश जहाँ किसी का जन्म हुआ हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्मांतर
- दूसरा जन्म।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्मांध
- जन्म का अंधा।
- वि.
- [सं. जन्म + अंधा]
- जन्मा
- जो पैदा हुआ हो।
- वि.
- [सं. जन्मन्]
- जन्माना
- जन्म देना।
- क्रि. स.
- [हिं. जन्मना]
- जन्माष्टमी
- भादों की कृष्णाष्टमी जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्मि
- जन्म लेकर, पैदा होकर।
- चौरासी लख जोनि जन्मि जग, जल - थल भ्रमत् फिरैगौ - १ - ७५।
- क्रि. अ.
- [हिं. जन्मना]
- जन्मी
- प्राणी, जीव।
- संज्ञा
- [सं. जन्मिन्]
- जन्मी
- जो पैदा या उत्पन्न हुआ हो।
- वि.
- जन्मेजय
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्मेजय
- कुरुवंशी राजा परीक्षित का पुत्र जिसने तक्षक नाग से अपने पिता का बदला लिया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्मेजय
- एक नाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- जनसाधारण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- अफवाह।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- एक देश के वासी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- लड़ाई।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- बाजार।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- निंदा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- किसी देश या वंश संबंधी।
- वि.
- जन्य
- राष्ट्रीय।
- वि.
- जन्य
- जो उत्पन्न हुआ हो।
- वि.
- जन्यता
- जन्म होने का भाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंन्या
- वधू।
- संज्ञा
- [सं.]
- जंन्या
- प्रीति, स्नेह।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्यु
- अग्नि।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्यु
- ब्रह्मा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्यु
- जीव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्यु
- जन्म, उत्पत्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- वर, दूलह।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- बराती।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- दामाद।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- पिता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- शरीर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- जन्म।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- जाति।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्य
- जन-संबंधी।
- वि.
- जन्यु
- एक ऋषि।
- संज्ञा
- [सं.]
- जन्यौ
- जना, पैदा किया।
- कौन ऐसौ बली सुभट जननी जन्यौ, एकहीं बान तकि बालि मारै - ९ - १२९।
- क्रि. स.
- [हिं. जनना]
- जप
- मंत्र आदि का बार-बार या निश्चित संख्या में पाठ करना।
- संज्ञा
- [सं]
- जप
- जपनेवाला।
- संज्ञा
- [सं]
- जपत
- जप करती है, जपती हैं।
- दुर्बल दोन - छीन चिंतित अति, जपंत नाइ रघुराइ - ९ - ७५।
- क्रि. स.
- [हिं. जपना]
- जपतप
- पूजा-पाठ।
- संज्ञा
- [हिं. जप+तप]
- जपता
- जप की क्रिया या भाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जपति
- बारबार (नाम, मंत्र आदि) जपती या रटती है।
- ऐसी कै ब्यापी हौ मनमथ मेरो जी जानै माई स्याम कहि रैनि जपति। - १६५९।
- क्रि. स.
- [हिं. जपना]
- जपन
- जपने का काम, जप।
- संज्ञा
- [सं.]
- जपना
- किसी नाम या बात को बार-बार कहना, दोहराना या रटना।
- क्रि. स.
- [सं. जपन]
- जपाना
- जप कराना।
- क्रि. स.
- [हिं. जप, जपना]
- जपिया
- जप करनेवाला।
- वि.
- [हिं. जप]
- जपिहैं
- जपेंगे, जप करेंगे।
- कहत हे, प्रागै जंपिहैं राम - १ - ५७।
- क्रि. स.
- [हिं. जपना]
- जपिहौं
- जपूँगा।
- जब लौं हौं जीव जीवन भर, सदा नाम तब जपिहौं ९ - १६४।
- क्रि. स
- [हिं. जपना]
- जपी
- जप करनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. जप+ई (पत्य.)]
- जपै
- जपता है।
- बिचानारद मुनि तत्व बतायौ जपै मंत्रं चित लाय - सीरा ७४।
- क्रि. स.
- [हिं. जपना]
- जप्तव्य
- जो जपने योग्य हो, जपनीय।
- [सं.]
- जफा
- अन्याय, सख्ती।
- संज्ञा
- [फ़ा. जफ़ा]
- जफाकश
- सहिष्णु सहनशील।
- वि.
- [फ़ा. जफ़ाकश]
- जफाकश
- मेहनती, परिश्रमी।
- वि.
- [फ़ा. जफ़ाकश]
- जपना
- मंत्र आदि को निश्चित संख्या में कहना या उच्चारण करना।
- क्रि. स.
- [सं. जपन]
- जपना
- जल्दी-जल्दी खा जाना, हड़प लेना।
- क्रि. स.
- [सं. जपन]
- जपना
- यज्ञ-यजन करना।
- क्रि. स.
- [सं. यजन]
- जपनी
- माला।
- संज्ञा
- [हिं. जपना]
- जपनी
- माला रखने की थैली, गोमुखी।
- संज्ञा
- [हिं. जपना]
- जपनी
- जपने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. जपना]
- जपनीया
- जो जपने योग्य हो।
- वि.
- [सं.]
- जपमाला
- जपने की माला।
- संज्ञा
- [सं.]
- जपयज्ञ, जपहोम
- जप।
- संज्ञा
- [सं.]
- जपा
- जप करनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. जप]
- जबान
- भाषा, बोलचाल।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़बान]
- जबानी
- मौखिक।
- वि.
- [फ़ा. ज़बानी]
- जबै
- जब हो, जभी।
- (क) जबै अवौं साधु - संगति, कछुक मन ठहराइ - १ - ४५।
(ख) सूरस्याम तेबहीं मन माने संगहि रैहौं जाइ जबै - १३००।
- क्रि. वि.
- [हिं. जब]
- जभी
- जिस समय हो।
- क्रि. वि.
- [हिं. जब + ही (प्रत्य.)]
- जभी
- ज्योंही।
- क्रि. वि.
- [हिं. जब + ही (प्रत्य.)]
- जम
- भारतीय आर्यों के एक प्रसिद्ध देवता। इन्हें दक्षिण दिशा का दिक्पाल माना जाता है। सूर्य इनके पिता और माता संज्ञा थी। प्राणियों के मरने पर उसके, शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार स्वर्ग-नरक भेजने वाले ये ही हैं। इन्हें धर्मराज भी कहा जाता है। भैसा इनका बाहन है।
- भारतीय आर्यों के एक प्रसिद्ध देवता। इन्हें दक्षिण दिशा का दिक्पाल माना जाता है। सूर्य इनके पिता और माता संज्ञा थी। प्राणियों के मरने पर उसके, शुभ - अशुभ कर्मों के अनुसार स्वर्ग - नरक भेजने वाले ये ही हैं। इन्हें धर्मराज भी कहा जाता है। भैसा इनका वाहन है।
- संज्ञा
- [सं. यम]
- जमई
- जो जमा हो, नगदी।
- वि.
- [फ़ा.]
- जमकात, जमकातर
- पानी में पड़नेवाला भँवर।
- संज्ञा
- [सं, यम + हिं. कातर]
- जमकात, जमकातर
- यम का छुरा।
- संज्ञा
- [सं. यम+हिं. कर्तरी]
- जमघंट, जमघट, जमघटा, जमघट्ट
- भीड़, ठट्ट, जमाव।
- संज्ञा
- [हिं. जमना + घट्ट]
- गोदा
- कटवाँसी बाँस।
- संज्ञा
- [देश.]
- गोदा
- नयी शाखा या डाल।
- संज्ञा
- [हिं. गोजा]
- गोदा
- पीपल आदि के पके फल।
- संज्ञा
- [हिं. घौद]
- गोदा
- कोरा, ओली, गोदी।
- धन्य नंद धनि धन्य जसोदा। धनि धनि तुमै खिलावति गोदा - १०७२।
- संज्ञा
- [हिं. गोद]
- गोदान
- गाय दान देने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोदान
- विवाह के पूर्व का एक संस्कार।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोदावरी
- दक्षिण भारत की प्रसिद्ध नदी जो नासिक के पास से निकलती और बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोदी
- कोरा, ओली।
- संज्ञा
- [हिं. गोद]
- गोदी
- एक तरह का बबूल।
- संज्ञा
- [देश.]
- गोध, गोधा
- गोह नामक पशु।
- संज्ञा
- [सं. गोधा]
- जब
- जिस समय।
- क्रि . वि.
- [सं. यावत्, प्रा. याव, जाव]
- जब
-
- जब जब :- जब कभी।
जब तब :- कभी कभी। जब होता है तब :- प्रायः। जब देखो तब :- सदा।
- मु.
- जबड़ा
- मुँह में ऊपर-नीचे की हड्डियाँ जिनमें डाढ़ें रहती हैं, कल्ला।
- संज्ञा
- [सं. जंभ्र]
- जबर
- बली।
- वि.
- [फ़ा. ज़बर]
- जबर
- मजबूत।
- वि.
- [फ़ा. ज़बर]
- जबरई
- सख्ती, ज्यादती।
- संज्ञा
- [हिं. जबर]
- जबरदस्त
- बली।
- वि.
- [फ़ा.]
- जबरदस्त
- दृढ़।
- वि.
- [फ़ा.]
- जबरदस्ती
- अत्याचार, अन्याय।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जबरदस्ती
- इच्छा के विरुद्ध, दबाव से।
- क्रि. वि.
- जबरन्
- जबरदस्ती।
- क्रि. वि.
- [अ. जव्रन्]
- जबरा
- बली, प्रबल।
- वि.
- [हिं. जबर]
- जबह
- गला काट कर प्राण लेना।
- संज्ञा
- [अ.ज़बह]
- जबहा
- साहस. हिम्मत।
- संज्ञा
- जबान
- जीभ, जिह्वा।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़बान]
- जबान
-
- जबान खींचना :- कठोर दंड देना।
जबान खुलना :- मुँह से बात निकलना। जबान चलना :- अनुचित शब्द या कड़ी बात निकलना। जबान चलाना :- कड़ी या अनुचित बात कहना। जबान डालना :- (१) माँगना। (२) प्रश्न करना। जबान थामना (पकड़ना) :- बोलने न देना। जबान पर आना :- कहने को होना। जबान पर रखना :- (१) चखना। (२) याद रखना। जबान पर लाना :- मुँह से कहना। जबान पर होना :- हरदम याद रखना। जबान बंद करना :- (१) चुप होना। (२) बोलने न देना। (३) वाद-विवाद में हराना। जबान बंद होना :- (१) चुप होना। (२) विवाद में हारना। जबान बिगड़ना :- (१) मुँह से अनुचित बात या गाली निकलने की आदत पड़ना। (२) स्वाद खराब लगना। (३) जबान चटोरी होना। जबान में लगाम न होना :- अनुचित बात कहने की आदत पड़ना। जबान रोकना :- (१) जबान पकड़ना। (२) चुप करना। जबान सभाँलना :- सोच-समझ कर बोलना। जबान से निकलना :- बोला जाना। जबान हिलाना :- मुँह से शब्द निकालना। दबी ज़बान से कहना (बोलना) :- बात पर जोर न देना।
- मु.
- जबान
- मुँह से निकला हुआ शब्द, बात, बोल।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़बान]
- जबान
-
- जबान बदलना :- बात से हट जाना।
- मु.
- जबान
- प्रतिज्ञा, वादा, कौल।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़बान]
- जबान
-
- जबान देना (हारना) :- वादा करना।
- मु.
- जमना
- पूरा अभ्यास होना।
- क्रि. अ.
- [सं. यमन = जकड़ना]
- जमना
- किसी काम या बात का खूब प्रभाव पड़ना।
- क्रि. अ.
- [सं. यमन = जकड़ना]
- जमना
- अच्छी तरह काम चलने लगना।
- क्रि. अ.
- [सं. यमन = जकड़ना]
- जमना
- उगना।
- क्रि. अ.
- [सं. जन्म +ना (प्रत्य.)]
- जमना
- एक प्रसिद्ध नदी।
- संज्ञा
- [सं. यमुना]
- जमनि
- यमदूत।
- काल - जमनि सौं अनि बनी है, देखि देखि मुख रोइसि - १ - ३३३।
- संज्ञा
- [सं. यम + हिं. नि (प्रत्य.)]
- जमनिका
- यवनिका, परदा।
- संज्ञा
- [सं. यवनिका]
- जमनिका
- मैल।
- संज्ञा
- [सं. यवनिका]
- जमनिका
- मैल।
- संज्ञा
- [सं. यवनिका]
- जमपुर
- यम के रहने का स्थान, यमलोक। हिंदुओं का विश्वास है कि मरने पर प्रेतात्मा को यम के दूत पहले यहीं लाते हैं और यहाँ यम उसके भले-बुरे कर्मो का विचार करते हैं।
- संज्ञा
- [सं. यमपुर]
- जमपुरी
- यमलोक, यमपुर।
- संज्ञा
- [सं. यमपुरी]
- जमराज
- धर्मराज, जो हिंदुओं के विश्वास के अनुसार, प्राणी के कर्मो का दंड या फल देते हैं।
- संज्ञा
- [सं. यमराज]
- जमलअर्जुन, जमलतरु, जमलद्रुम
- गोकुल में दो अर्जुनवृक्ष। पुराणों के अनुसार ये कुबेर के पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव थे। एक बार मतवाले होकर ये स्त्रियों के साथ नदी में नंगे क्रीड़ा कर रहे थे। इसी पर नारद ने इन्हें जड़ हो जाने का शाप दिया। पेड़ होकर ये दोनों नंद जी के आँगन में जमे। यशोदा ने जब कृष्ण को दंड देने के लिए मूसल से बाँधा तब इन्होंने उनका उद्धार किया।
- संज्ञा
- [सं.यमल + अर्जुन, तरु, द्रुम]
- जमल - द्रूम - भंजन
- यमल वृक्ष को तोड़नेवाले, यमलार्जुन नामक वृक्षों के द्वारा कुबेर के दोनों पुत्रों का उद्धार करनेवाले, श्रीकृष्ण
- संज्ञा
- [यमल+म+भंजन]
- जमलार्जुन
- गोकुल में दो। अर्जुन वृक्ष। कुबेर के पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव नारद के शाप से वृक्ष बन गये थे। इनका उद्धार श्रीकृष्ण ने किया था जब वे यशोदा-द्वारा बाँधे गये थे।
- नारद - साप भए जमलार्जुन, तिनकौं अवजु उधारौं - १० - ३४३।
- संज्ञा
- [सं. यमलार्जन]
- जमलोक
- वह लोक जहाँ मरने के बाद, हिंदुओं के विश्वास के अनुसार, लोग जाते हैं, यमपुरी।
- संज्ञा
- [सं. यम+लोक]
- जमलोक
- नरक।
- संज्ञा
- [सं. यम+लोक]
- जमवार
- यमद्वार।
- संज्ञा
- [सं. यम+द्वार]
- जमा
- एकत्र, इकट्ठा, संगृहीत।
- वि.
- [अ.]
- जमा
-
- कुल जमा :- सब मिलाकर, कुल।
- मु.
- जमत
- उगता है, उपजता है। (अंकुर) फूटता है।
- जज्ञ मैं करते तब मेघ बरसत मही, बीज अंकुर तबै जमते सारौ - ४ - ११।
- क्रि. अ
- [हिं. जमना]
- जमदगिनि, जमदग्नि
- भृगुवंशी एक ऋषि जो परशुराम के पिता थे।
- संज्ञा
- [सं. जमदग्नि]
- जमदिसा
- दक्षिण दिशा।
- संज्ञा
- [सं. यम + दिशा]
- जमन
- यवन, म्लेच्छ, विधर्मी।
- जा परसें जीते जम सैनी, जमन, कपालिक जैनी - ९:११ !
- संज्ञा
- [सं, यवन]
- जमधर
- तलवार।
- संज्ञा
- [सं. यम + धर]
- जमना
- किसी तरल पदार्थ का ठोस हो जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. यमन = जकड़ना]
- जमना
- एक पदार्थ का दूसरे पर मजबूती से स्थित हो जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. यमन = जकड़ना]
- जमना
-
- दृष्टि जमना :- किसी चीज पर नजर का देर तक ठहरना।
मन में बात जमना :- बात का मन पर पूरा-पूरा प्रभाव पड़ना। रंग जमना :- (१) अच्छा प्रभाव पड़ना। (२) खूब आनंद आना।
- मु.
- जमना
- इकट्ठा होना।
- क्रि. अ.
- [सं. यमन = जकड़ना]
- जमना
- अच्छा हाथ या प्रहार पड़ना।
- क्रि. अ.
- [सं. यमन = जकड़ना]
- जमाए
- द्रव पदार्थ को ठोस बनाया, (दही आदि) जमाया।
- दूध भात भोजन घृत अमृत अरु आछो करि दयौ जमाए - १० - ३०९।
- क्रि. स.
- [हिं. जमाना]
- जमाखर्च
- आय-व्यय।
- संज्ञा
- [फ़ा. जमा+ख़र्च]
- जमाजथा
- धन-संपत्ति।
- संज्ञा
- [हिं. जमा+गथ]
- जमात
- जत्था।
- संज्ञा
- [अ. जमाअत]
- जमात
- श्रेणी।
- संज्ञा
- [अ. जमाअत]
- जमानत
- वह जिम्मेदारी जो किसी अपराधी या ऋणी के लिए ली जाय, जामिनी।
- धर्म जमानत मिल्यौ न चाहै, तातैं ठाकुर लूट्यौ - १ - १८५।
- संज्ञा
- [अ. ज़मानत]
- जमानति
- जमानत रूप में।
- थाती प्रान तुम्हारी मोपै, जनमत हीं जौ दीन्ही। सौ मैं बाँटि दई पाँचनि कौं, देह जमानति लीन्ही - १ - १९६।
- संज्ञा
- [अ.ज़मानत]
- जमानती
- वह जो जमानत करे, जामिन, जिम्मेदार।
- संज्ञा
- [हिं. जमानत + ई (प्रत्य.)]
- जमाना
- किसी द्रव पदार्थ को ठोस बनाना।
- क्रि. स.
- [हिं. जमना का सक, रूप]
- जमाना
- किसी पदार्थ को दूसरे पर मजबूती और स्थायी रूप से स्थित करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जमना का सक, रूप]
- जमा
- जो अमानत के तौर पर रखा गया हो।
- वि.
- [अ.]
- जमा
- मूल धन, पूँजी।
- संज्ञा
- [अ.]
- जमा
- धनसंपत्ति, रुपया-पैसा।
- हरि, हौं ऐसौ अमल कमायौ। साबिक जमा हुती जो जोरी मिनजालिक तल ल्यायौ - १ - १४३।
- संज्ञा
- [अ.]
- जमा
-
- जमा मारना :- बेइमानी या अनुचित रीति से किसी का धन या माल ले लेना।
- मु.
- जमा
- भूमिकर, लगान।
- संज्ञा
- [अ.]
- जमा
- योग, जोड़।
- संज्ञा
- [अ.]
- जमाइ
- द्रव पदार्थ को ठोस बनाकर, (दही आदि) जमाकर।
- रैनि जमाइ धरथौ हौ गोरस परयौ स्याम कैं हाथ - १० - २७७।
- क्रि. स.
- [हिं. जमाना]
- जमाई
- स्थित की, (किसी पदार्थ पर दृढ़तापूर्वक) स्थित की।
- सूर - स्याम किलकत् द्विज देख्यौ, मनौ कमल पर बिजु जमाई - १० - ८२।
- क्रि. स
- [हिं. जमाना]
- जमाई
- दामाद।
- संज्ञा
- [सं. जामातृ]
- जमाई
- जमने या जमाने की क्रिया, रीति या मजदूरी।
- संज्ञा
- [हिंदी जमाना]
- जमाना
-
- दृष्टि जमाना :- एक टक देर तक किसी ओर देखना।
मन में बात जमाना :- किसी बात का मन पर पूरा-पूरा प्रभाव डालना। रंग जमाना :- (१) बहुत अधिक प्रभावित करना। (२) बहुत आनंदित करना।
- मु.
- जमाना
- प्रहार करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जमना का सक, रूप]
- जमाना
- हाथ के काम का अच्छा अभ्यास करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जमना का सक, रूप]
- जमाना
- किसी काम की अच्छी तरह करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जमना का सक, रूप]
- जमाना
- किसी कार-बार को अच्छी तरह चलने योग्य बताना।
- क्रि. स.
- [हिं. जमना का सक, रूप]
- जमाना
- उपजाना।
- क्रि. स.
- [हिं. जमना=उगना]
- जमाना
- समय, वक्त।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़माना]
- जमाना
- बहुत अधिक समय।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़माना]
- जमाना
- प्रताप, सौभाग्य या सुखसमृद्धि के दिन।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़माना]
- जमाना
- दुनिया, संसार।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़माना]
- जमाना
-
- जमाना देखना :- बहुत अनुभव प्राप्त करना।
- मु.
- जमामार
- अनुचित रीति या बेइमानी से दूसरों को धन मार लेने या हड़प जानेवाला।
- वि.
- [हिं. जम+मारना]
- जमायौ
- किसी द्रव पदार्थ को ठंडा करके गाढ़ा किया, जमाया।
- (क) माखनरोटी लेहु सद्य दधि रैन जमायौ - ४३१।
(ख) अति मीठौ दधि आज जमायौ, बलदाऊ तुम लेहु - ४४२।
- क्रि. स.
- [हिं जमाना]
- जमाव
- जमने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. जमाना]
- जमाव
- ज़माने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. जमाना]
- जमाव
- भीड़-भाड़, जमघट।
- संज्ञा
- [हिं. जमाना]
- जमावट
- जमने का भाव।
- संज्ञा
- [हिं. जमाना]
- जमावड़ा
- भीड़-भाड़।
- संज्ञा
- [हिं. जमना]
- जमींदार
- भूमि का स्वामी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जमींदारी
- जमींदार की भूमि।
- संज्ञा
- [हिं. जमींदार]
- जमींदारी
- जमींदार का स्वत्व या अधिकार।
- संज्ञा
- [हिं. जमींदार]
- जमी
- संयमी, इंद्रियनिग्रही।
- वि.
- [सं. यमी]
- जमीं, जमीन
- पृथ्वी।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़मीन]
- जमीं, जमीन
- धरती।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़मीन]
- जमीं, जमीन
-
- ज़मीन-आसमान एक करना :- बहुत परिश्रम या उद्योग करना।
जमीन आसमान का फरक :- बहुत अधिक अंतर या भिन्नता। जमीन-आसमान के कुलाबे मिलाना :- बहुत डींग या शेखी हाँकना। जमीन का पैर तले से निकलना :- सन्नाटे में आ जाना, बहुत चकित होना। जमीन चूमने लगना :- मुँह के बल जमीन पर गिरना। जमीन देखना :- (१) मुँह के बल गिरना। (२) नीचा देखना। जमीन दिखाना :- (१) मुँह के बल गिराना। (२) नीचा दिखाना। जमीन पकड़ना :- जमकर बैठना। जमीन पर पैर न रखना (पड़ना) :- बहुत घमंड या अभिमान करना (होना)।
- मु.
- जमीं, जमीन
- कपड़े, कागज आदि की सतह।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़मीन]
- जमीं, जमीन
- आधाररूप सामग्री।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़मीन]
- जमीं, जमीन
- किसी कार्य की निश्चित प्रणाली या योजना।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़मीन]
- जमुकना
- समीप होना।
- क्रि. अ.
- जमुन
- यमुना नदी।
- संज्ञा
- [हिं. जमुना]
- गोधन
- गौओं को समूह।
- (क) माधौ जू, यह मेरी इक गाइ।……..। हित करि मिले लेहु गोकुलपति, अपने गोधन माहँ - १.५१।
(ख) कमलनयन घनस्याम मनोहर सब गोधन को भूप।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोधन
- गो-रूपी संपत्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोधन
- चौड़े फल का तीर।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोधन
- गोवर्द्धन पर्वत।
- संज्ञा
- [सं गोबर्द्धन]
- गोधन
- एक पक्षी।
- संज्ञा
- [देश.]
- गोधर
- पहाड़, पर्वत।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोधापदी, गोधावती
- एक लता।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोधी
- एक तरह का गेहूँ।
- संज्ञा
- [सं. गोधूम]
- गोधूम
- गेहूँ।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोधूम
- नारंगी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जमुन - जल
- यमुना नदी का जल।
- संज्ञा
- [सं यमुना + जल]
- जमुना
- यमुना।
- संज्ञा
- [सं यमुना]
- जमुनियाँ
- जामुन का रंग।
- संज्ञा
- [हिं. जामुन]
- जमुनियाँ
- जामुन के रंग का, जामुनी।
- वि.
- जमुने
- यमुना नदी।
- भक्त जमुने सुगम, अगम औरै - १ - १२२।
- संज्ञा
- [सं. यमुना]
- जमुवाँ
- जामुन का रंग।
- संज्ञा
- [हिं. जामुन]
- जमुहात
- जँभाई लेते हैं।
- दोउ माता निरखत आलस मुख, छबि पर तन - मन वारतिं। बार - बार जमुहात सूर प्रभु, इहिं उपमा कवि कहै कहा री - १० - २२८।
- क्रि. अ
- [हिं. जँभाना, जम्हाना]
- जमुहाना
- जँभाई लेना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जम्हाना]
- जमूरक, जमूरा
- छोटी तोप।
- संज्ञा
- [फ़ा. जंबूरक]
- ज़मोग
- स्वीकार कराने की क्रिया।
- संज्ञा
- [हिं. जमोगना]
- ज़मोग
- अन्य द्वारा समर्थन।
- संज्ञा
- [हिं. जमोगना]
- जमोगना
- हिसाब जाँचना।
- क्रि. स.
- [अ. जमा+योग]
- जमोगना
- स्वीकार कराना, सरेखना।
- क्रि. स.
- [अ. जमा+योग]
- जमोगना
- समर्थन कराना।
- क्रि. स.
- [अ. जमा+योग]
- जम्यौ
- जमा हुआ।
- कमल - नैन हरि करौ कलेवा। माखन - रोटी, सद्य जम्यौ दधि, भाँति - भाँति के मेवा - १० - २१२।
- वि.
- [हिं. जमना]
- जम्यौ
- बहुतों के सामने कोई काम उत्तमता पूर्वक हुआ, बहुतों को रुची या प्रभावित किया।
- बटा धरनी डारि दीनौ, लै चले ढरकाइ। आपु अपनी घात निरखत, खेल जम्यौ बनाइ - १० - २४४।
- क्रि. अ.
- जम्यौ
- उगा, उत्पन्न हुआ।
- मानौ अनि सृष्टि रचिबे कौं अंबुज नाभि जम्यौ - १ - २७३।
- क्रि. अ.
- जम्हाई
- जँभाकर, जमुहाई लेकर, (मुख) खोलकर।
- मुख जम्हाई त्रिभुवन दिखरायौ - १० - ३९१।
- क्रि. अ.
- [हिं. जँभाना]
- जम्हाई
- जँभाकर, जमुहाई ली।
- (क) छनकहिं मैं जरि भस्म होइगौ, जब देखै उठि जागि जम्हाई - १० - ५५०।
(ख) सकसकात तन भीजि पसीना, उलटि पलटि तन तोरि जम्हाई - ७४८।
- क्रि. अ.
- [हिं. जँभाना]
- जम्हात
- जँभाई लेते हैं।
- (क) बल - मोहन दोऊ अलसाने। कछुकछु खाइ दूध - अँचयौ, तव जम्हात जननी जाने - १० - २३०।
(ख) ऐड़त अंग जम्हात बदन भरि कहत सबै यह बानी - ३४५४।
- क्रि. अ.
- [हिं. जँभाना, जम्हाना]
- जम्हाना
- जंभाई लेना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जँभाना]
- जयंत
- विजयी।
- वि.
- [सं.]
- जयंत
- बहुरूपिया।
- वि.
- [सं.]
- जयंत
- एक रुद्र।
- संज्ञा
- जयंत
- इंद्र का एक पुत्र।
- संज्ञा
- जयंत
- कुमार कार्तिकेय।
- संज्ञा
- जयंत
- अक्रूर के पिता।
- संज्ञा
- जयंती
- विजय करनेवाली
- संज्ञा
- [सं.]
- जयंती
- ध्वजा, पताका
- संज्ञा
- [सं.]
- जयंती
- दुर्गा का एक नाम
- संज्ञा
- [सं.]
- जयंती
- पार्वती का नाम
- संज्ञा
- [सं.]
- जयंती
- वर्षगाँठ का उत्सव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जयंती
- ऋषभ देव की स्त्री का नाम।
- रिषभ राज सब मन उत्साह। कियौ जयंती सौं पुनि ब्याह - ५ - २।
- संज्ञा
- [सं.]
- जयंती
- एक बड़ा पेड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- जयंती
- जन्माष्टमी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जयंती
- अरणी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जय
- विपक्षियों का पराभव, जीत।
- संज्ञा
- [सं.]
- जय
- देवताओं या महात्माओं की अभिवंदना करने के लिए हृदयोल्लास-व्यंजक शब्द।
- (क) सूरदास सर लग्यौ सचानहिं. जय - जय कृपानिधान - १ - ९७।
(ख) जय जय करत सकल सुर - नर - मुनि जल मैं कियौ प्रवेश - सारा, ४१।
- संज्ञा
- [सं.]
- जय
- विष्णु के एक पार्षद का नाम जो विजय का भाई था। सनकादिक के शाप से इसको हिरण्याक्ष, रावण और शिशुपाल तथा विजय को हिरण्यकशिपु, कुंभकर्ण और कंस के रूप में जन्मना पड़ा।
- (क) जय अरु बिजय कथा नहिं कछुवै दसमुख - बध बिस्तार - १ - २१५।
(ख) जय अरु बिजय असुर योनिन कौ भये तीन अवतार - सारा. ४४।
- संज्ञा
- जय
- लाभ।
- संज्ञा
- जय
- सूर्य।
- संज्ञा
- जय
- इंद्र का पुत्र जयंत।
- संज्ञा
- जय
- जीतने वाला, विजयी।
- वि.
- जयजयकार
- जय मनाने का घोष।
- संज्ञा
- [सं.]
- जयजीव
- एक अभिवादनजिसका तात्पर्य है-जय हो और जियौ।
- संज्ञा
- [हिं. जय+जी]
- जयति
- जय हो।
- क्रि. अ.
- [सं.]
- जयदेव
- गीतगोविंद नामक संस्कृत काव्य के रचयिता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जयद्रथ
- सौराष्ट्र का एक राजा जो दुर्योधन का बहनोई था।
- संज्ञा
- [सं.]
- जयध्वज
- विजयपताका।
- संज्ञा
- [सं.]
- जयना
- जीतना।
- क्रि. अ.
- [सं. जयत]
- जयपत्त, जयपत्र
- पराजित द्वारा विजयी को लिखकर दिया हुआ विजय-पत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जयफर, जयफल
- जायफल।
- संज्ञा
- [हिं. जायफल]
- जयमंगल
- राजा की सवारी का हाथी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जयमंगल
- हाथी जिस पर राजा विजय के बाद सवार हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- जयमाल, जयमाला
- विजय मिलने पर विजयी को पहनायी जानेवाली माला।
- संज्ञा
- [सं. जयमाला]
- जयमाल, जयमाला
- विवाह के पूर्व वरे हुए पुरुष के गले में कन्या द्वारा डाली जानेवाली माला।
- संज्ञा
- [सं. जयमाला]
- जयश्री
- विजय, विजयलक्ष्मी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जयस्तंभ
- स्तंभ जो विजय के स्मारकरूप में बनवाया जाय।
- संज्ञा
- [सं.]
- जया
- दुर्गा का एक नाम।
- संज्ञा
- [सं.]
- जया
- पार्वती का एक नाम।
- संज्ञा
- [सं.]
- जया
- पताका, ध्वजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जया
- जय दिलानेवाली, विजय करानेवाली।
- वि.
- जयिष्णु
- जो जीतता हो, जयशील।
- वि.
- [सं.]
- जयी
- विजयी, जयशील।
- वि.
- [सं, जयिन्]
- जयो
- जीता।
- तोरयौ। धनुष स्वयंवर कीनो रावन अजित जयो - २२६४।
- क्रि. स.
- [हिं. जीतना]
- जय्य
- जो जीतने योग्य हो।
- वि.
- [सं.]
- जर
- बुढ़ापा, वृद्धावस्था।
- बाल, किसोर, तरुन, जर, जुग सो सुपक सारि ढिग ढारी - १ - ६०।
- संज्ञा
- [सं. जरा]
- जर
- बूढ़ा मनुष्य।
- संज्ञा
- [सं. जरा]
- जर
- जीर्ण होने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- जर
- रोग, ज्वर, बुखार।
- संज्ञा
- [सं. ज्वर]
- जर
- जड़, मूल।
- जमलार्जुन दोउ सुत कुबेर के तेउ उखारे जर तै - ९६३।
- संज्ञा
- [हिं. जड़]
- जर
- स्वर्ण।
- संज्ञा
- [प्रा.]
- जर
- धन।
- संज्ञा
- [प्रा.]
- जरई
- जलती है, भस्म होती है, जले।
- जाकै हिय - अंतर रघुनंदन, सो क्यौं पावक जरई - ९ - ९९।
- क्रि. अ.
- [हिं. जरना = जलना]
- जरई
- धान के अंकुरित बीज।
- संज्ञा
- [हिं. जड़]
- जरकटी
- एक शिकारी पक्षी।
- संज्ञा
- [देश]
- जरकस, जरकसी
- जिस पर सोने के तार आदि का काम बना हो।
- वि.
- [फ़ा. जरकश]
- जरखेज
- उपजाऊ।
- वि.
- [फ़ा. ज़रवेज]
- जरजर
- जीर्ण, फटा-पुराना।
- वि.
- [हिं. जर्जर]
- जरठ
- कर्कश।
- वि.
- [सं.]
- जरठ
- बूढ़ा।
- वि.
- [सं.]
- जरठ
- पुराना, जीर्ण।
- वि.
- [सं.]
- जरठ
- पीलापन लिये सफेद।
- वि.
- [सं.]
- जरठ
- बुढ़ापा।
- संज्ञा
- जरठाई
- बुढ़ापा।
- संज्ञा
- [हिं. जरठ + आई]
- जरत
- जलते हुए।
- लाखागृह तैं जरत पांडुसुत बुधि - बल नाथ उबारे - १ - १०
- वि.
- [हिं. जलना]
- जरत
- जलता है, बलता है।
- क्रि. अ
- जरतार
- सोने-चाँदी का तार जिससे जरी का काम होता है।
- संज्ञा
- [फ़ा. जर + तार]
- जरतारा, जरतारी
- जरी के काम का, जिसमें सुनहरे-रुपहले तार लगे हों।
- वि.
- [हिं. जरतार]
- जरति
- जलती है, भस्म होती है।
- देखि जरनि जड़, नारि की, (रे) जरति प्रेत के संग - १ - ३२५।
- क्रि. अ.
- [हिं. जलना]
- जरतुआ
- ईर्ष्या करनेवाला।
- ईर्ष्या करनेवाला।
- वि.
- [हिं. जलना]
- जरतौ
- जलता, जल जाता।
- अब मोहिं राखि लेहु मनमोहन, अधम अंग पद परतौ। खरकूकर की नाइँ मानि सुख, बिषय - अगिनि मैं जरतौ - १ - २०३।
- क्रि. अ.
- [हिं. जलना]
- जरत्
- बूढ़ा।
- वि.
- [सं.]
- जरत्
- पुराना।
- वि.
- [सं.]
- जरत्कारु
- एक ऋषि जिन्होने बासुकि नाग की मनसा नामक कन्या से विवाह किया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- जरद
- पीला, पीत।
- वि.
- [फ़ा. ज़र्द]
- जरदृष्टि
- बूढ़ा।
- वि.
- [सं.]
- जरदृष्टि
- दीघाय।
- वि.
- [सं.]
- जरदी
- पीलापन।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जरन
- जलना, जल सकना, जलने देना।
- (क) पावक - जठर जरन नहिं दीन्हौं, कंचन सी मम देह करी - १ - ११६।
(ख) छल कियौ पांडवनि कौरव, कपट - पासा ढरन। ख्वाय विष, गृह लाय दीन्हौ, तउ न पाए जरन - १ - २०२।
- क्रि. अ.
- [हिं. जलना]
- गोदना
- हाथी के अंकुश मारना।
- क्रि. स.
- [हिं. खोदना = गड़ना]
- गोदना
- गोड़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. खोदना = गड़ना]
- गोदना
- अस्पष्ट लिखना।
- क्रि. स.
- [हिं. खोदना = गड़ना]
- गोदना
- गुदा हुआ काला-नीला चिन्ह।
- संज्ञा
- गोदना
- टीका लगाने की सुई।
- संज्ञा
- गोदना
- गोड़ने का औजार।
- संज्ञा
- गोदनी
- गोदने की सुई।
- संज्ञा
- [हिं. गोदना]
- गोदनी
- चुभाने-गड़ाने की नुकीली चीज।
- संज्ञा
- [हिं. गोदना]
- गोदा
- गोदावरी नदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोदा
- गायत्री स्वरूपा महादेवी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जरना
- जलना, बलन।
- क्रि. अ.
- [हिं. जलना]
- जरना
- जड़ने का काम करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जड़ना]
- जरनि
- जलने की पीड़ा, जलन।
- (क) सुत - तनया - बनिताविनोद - रस, इहिं जुर - जरनि जरायौ - १ - १५४।
(ख) तब फिरि जरनि भई नख सिख तैं दिशा बात जनु मिलकी - २७८६।
- संज्ञा
- [हिं. जरना = जलना]
- जरनि
- व्यथा, पीड़ा।
- (क) देखि जरनि, जड़, नारि की, (रे) जरति त के संग। चिता न चित फीकौ भयौ, (रे) रची जु पिय के रंग - १ - ३२५।
(ख) हदय की कबहुँ न जरनि घटी। बिनु गोपाल बिथा या तन की कैसे जाति कटी - १ - ९८। (ग) अति तप देखि कृपा हरि कीन्हो। तन की जरनि दूर भयी सबकी मिलि तरुनिनि सुख दीन्हौ - ७६९।
- संज्ञा
- [हिं. जरना = जलना]
- जरनी
- जलन, जलने की पीड़ा।
- बिछुरी मनौ संग तैं हिरनी। चितवत रहत चकित चारों दिसि, उपजी बिरह तन जरनी - ९ - ७३।
- संज्ञा
- [हिं. जरना - जलना]
- जरनी
- पीड़ा, व्यथा, कष्ट।
- (क) बड़ी करवर टरी साँप सौं ऊबरी, बाते कैं कहत तोहिं लगति जरनी - ६९८।
(ख) देखौ चारौ चंद्रसुख सीतल बिन दरसन क्यौं मिटती जरनी - ३३३०।
- संज्ञा
- [हिं. जरना - जलना]
- जरब
- चोट।
- संज्ञा
- [अ. ज़रब]
- जरब
- गुणा।
- संज्ञा
- [अ. ज़रब]
- जरबीला
- जो देखने में बहुत चटक, भड़कीला और सुंदर हो।
- वि.
- [फ़ा. ज़रब + ईला (प्रत्य.)]
- जरमुआ
- ईर्ष्यालु।
- वि.
- [हिं. जरना + मुअना]
- जरवारा
- धनी।
- वि.
- [फ़ा. जर + वाला]
- जरहु
- जल जाय, भस्म हो जाय, नष्ट हो जाय।
- वारौं कर जु कठिन अति, कोमल नयन जरहु जिनि डाँटी - १० - २५९।
- क्रि. स.
- [हिं. जलना]
- जरा
- वृद्धावस्था।
- (क) हा जदुनाथ जरा तन ग्रास्यौ, प्रतिभौ उतरि गयौ - १ - २९८।
(ख) सुरति के दस द्वार रूँधे जरा घेरथौ आइ - १ - ३१६।
- संज्ञा
- [सं.]
- जरा
- एक राक्षसी जिसने जरासंध के शरीर के दो खंडों को मिलाकर जीवित कर दिया था।
- (क) जरा जरासंध की संधि जोरयौ हुतौ। भीम ता संध को चीर डारथौ - २७५१।
(ख) जुगजुग जीवै जरा बापुरी मिलै राहु अरु केतु - ३८५९।
- संज्ञा
- [सं.]
- जरा
- एक व्याध जिसके वाण से श्रीकृष्ण देवलोक सिधारें थे।
- संज्ञा
- [सं.]
- जरा
- थोड़ा, कम।
- वि.
- [अ. ज़र्रा, ज़रा]
- जरा
- थोड़ा, कम।
- क्रि. वि.
- जराइ
- जड़ी हुई, जड़ाऊ।
- राजत जंत्रहार, केहरिनख, पहुँची रतन - जराइ - १० - १३३।
- वि.
- [हिं. जड़ना]
- जराई
- जला दी।
- पवन कौ पूत महाबल जोधा, पल मैं लंक जराई - ९ - १४०।
- क्रि. स
- (हिं. ज़राना = जलाना]
- जराउ
- जिस पर नग इत्यादि जड़े हों, जड़ाऊ।
- (क) पालनौ अति सुंदर गढ़ि ल्याउ रे बढ़ेया।….। पँच रँग रेसम लगाउ, हीरा मोतिनि मढ़ाउ, बहुबिधि रुचि करि जराउ, ल्याउ रे जरैया - १० - ४१।
(ख) गोरे भाल बिंदु सेंदुर पर टीका धरौ जराउ।
- वि.
- [हिं. जड़ना]
- जराऊ
- जिसमें नग जड़े हों।
- वि.
- [हिं. जड़ाऊ]
- जराकुमार
- जरासंध।
- संज्ञा
- [सं. जरा+कुमार]
- जराग्रस्त
- बहुत बूढ़ा।
- वि.
- [सं. जरा+ग्रस्त]
- जराति
- पीड़ित करती है, जलाती है।
- मनसिज व्यथा जराति अरनि लौ उर अंतर दहिए—२८९२।
- क्रि. स.
- [हिं. जराना, जलाना]
- जराना
- जलाना, बलाना।
- क्रि. स.
- [हिं. जलाना]
- जराफत
- मसखरापन।
- संज्ञा
- [अ. ज़राफ़त]
- जराय
- जलाकर, भस्म करके।
- कृत्या चली जहाँ द्वारावति हरि जानी यह बात। आज्ञा करी चक्र को माधव छिन कृत्या कर घात। कासी जाय जय छिनक में गये द्वारका फेर - सारा. ७०८, ७०९।
- क्रि. स.
- [हिं. जलाना]
- जराय
- जड़ाऊ बनवा कर।
- क्रि. स.
- [हिं. जड़ना]
- जरायु
- वह झिल्ली जिसमें लिपटा हुआ बच्चा पैदा होता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जरायु
- गर्भाशय।
- संज्ञा
- [सं.]
- जरायु
- जटायु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जरायुज
- गर्भ से झिल्ली में लिपटा हुआ पैदा होनेवाला जीव, पिंडज।
- संज्ञा
- [सं.]
- जरायौ
- पीड़ित किया, तपाया।
- (क) सुत - तनया - बनिता - बिनोद रस, इहिं जुर - जरनि जरायौ - १ - १५४।
- क्रि. स.
- [हिं. जलाना]
- जरायौ
- जलाया, भस्म किया।
- कपिल कुलाहल सुनि अकुलायौ। कोप - दृष्टि करि तिन्हैं जरायौ - ९ - ९।
- क्रि. स.
- [हिं. जलाना]
- जराव
- जिसमें नग जड़े हों।
- वि.
- [हिं. जड़ना]
- जराव
- वह जो जड़ाऊ हो, जड़ाऊ कामवाली।
- बहु नग लगे जराव की अँगिया भजा बहूटनि बलय संग को - १०४२।
- संज्ञा
- जरावत
- जलाता है, झुलसाता है।
- विरह ताप तन अधिक जरावत, जैसैं दव - द्रुम बेली - ९:९४।
- क्रि. स
- [हिं. जराना = जलाना]
- जरावत
- पीड़ित करता है, कष्ट पहुँचाता है।
- जब नहिं देख्यौ गुपाल लाल को बिरह जरावत छाती - २९८१।
- क्रि. स
- [हिं. जराना = जलाना]
- जरावत
- नग आदि जड़ाते हैं।
- क्रि. स.
- [हिं. जड़ाना]
- जरावन
- जलाना, भस्म करना।
- पठवौ कुटुँब - सहित जम आलय, नैंकु देहि धौं मोकौ आवन। अगिनि - पुंज सित धनुष - बान धरि, तोहिं असुर - कुल - सहित जरावन - ९ - १३१।
- क्रि. स.
- [हिं. जलाना]
- जरावै
- जलाता है, पीड़ित करता है।
- सूरदास प्रभु मोकों करहिं कृपा अब नित प्रति बिरह जरावै - १६७७।
- क्रि. स.
- [हिं. जलाना]
- जरासंध, जरासिंधु
- मगध देश का एक राजा जो बृहद्रथ का पुत्र और कंस का ससुर था। श्रीकृष्ण ने जब कंस को मार डाला तब दामाद की मृत्यु का बदला करने के लिए इसने मथुरा पर अठारह बार आक्रमण किया। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर भीम और अर्जुन को लेकर श्रीकृष्ण इसकी राजधानी गिरिब्रज पहुँचे। वहाँ भीम ने इसे मार डाला।
- संज्ञा
- [सं. जरा+संधि]
- जरासुत
- जरासंध।
- संज्ञा
- [सं. जरा+सुत]
- जरि
- जलकर, भस्म होकर।
- धिक धिक जीवन है अब यह तन, क्यौं न होई जरि छार - ९ - ८३।
- क्रि. अ.
- [हिं. जलना]
- जरि
- नग आदि जड़ कर।
- बहु बिधि जरि करि जराउ ल्याउ रे जरैया - १० - ४१।
- क्रि. स.
- [हिं. जड़ना]
- जरिबो
- जलने की क्रिया।
- चंदन चरचि तनु दहत मलयनिल स्रवन बिरहानल जरिबो - २८६०।
- संज्ञा
- [हिं. जलना]
- जरिया
- जड़ी-हुई।
- क्रीड़ा करत तमाल - तरुन - तर स्यामा स्याम उमँगि रस भरिया। यौं लपटाइ रहे उर उर ज्यौं, मरकत मनि कंचन मैं जरिया - ६८८।
- वि.
- [हिं. जड़ना]
- जरिया
- नग आदि जड़नेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. जड़िया]
- जरिया
- जलाकर बनाया हुआ।
- वि.
- [हिं. जरना]
- जरिया
- संबंध।
- संज्ञा
- [अ. ज़रिया]
- जरिया
- कारण।
- संज्ञा
- [अ. ज़रिया]
- जरियौ
- जला, जलाया।
- उलटि पवन जब बावर जरियौ, स्वान चल्यौ सिर झारी - १ - २२१।
- क्रि. स
- [हिं. जलाना]
- जरिहै
- जल जायगा।
- जरिहै लंक कनकपुर तेरौ, उदवत रघुकुल भानु - ९ - ७९।
- क्रि. अ
- [हिं. जलना]
- जरी
- (हाय) जली, (अरे) जल गयी, जली हुई।
- ब्रह्म - बाण तैं गर्भ उबारयौ, टेरत जरी जरी - १ - १६।
- क्रि. अ
- [हिं. जलना]
- जरी
- बुड्ढा, बूढ़ा, वृद्ध।
- वि.
- [सं. जरिन्]
- जरी
- सोने के तारों का काम।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़री]
- जरीफ
- मसखरा, विनोदी।
- वि.
- [अ.ज़रीफ़]
- जरीब
- एक नाप।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जरीब
- लाठी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जरूर
- अवश्य।
- क्रि. वि.
- [अ. ज़रूर]
- जरूरत
- अवश्यकता।
- संज्ञा
- [हिं. जरूर]
- जरूरी
- जिसके बिना काम न चले।
- वि.
- [हिं. जरूर]
- जरूरी
- जिसकी आवश्यकता हो।
- वि.
- [हिं. जरूर]
- जरे
- जला हुआ भाग।
- संज्ञा
- [हिं. जलना]
- जरे
-
- जरे पर चूना :- दुखी को और दुख पहुँचाना।
उ. - वैसहिं जाइ जरे पर चूनो दूनो दुख तिहिं काले - ३१५६।
- मु.
- जरैं
- जल जायें, नष्ट हों।
- क्रि. स.
- [हिं. जलना]
- जरैं
- दुखी हैं, पीड़ित हैं।
- ऊधौ तुम यह मत लै आए। इक हम जरें खिझावन आए मानौ सिखै पठाए - ३११०।
- क्रि. स.
- [हिं. जलना]
- जरैं
-
- जरैं बरैं :- नष्ट-भ्रष्ट हो जायें।
उ. - (क) डीठि लगावति कान्ह को जरैं बरैं वै आँखि - १०६९। (ख) जरै रिसि जिहिं तुम्हहिं बाध्यौ लगै मोहिं बलाइ - ३८७।
- मु.
- जरै
- डाह करता है, ईर्ष्या या द्वेष के कारण कुढ़ता है।
- कोपै तात प्रहलाद भगत कौ, नामहिं लेते जरै - १ - ८२।
- क्रि. अ.
- [हिं. जलना]
- जरेगो
- जल जायगी, सुलगेगी।
- काहे को साँस उसाँस लेति है बैरी बिरह को दवा जरैगो - २८७०।
- क्रि. अ.
- [हिं. जलना]
- जरैया
- नग जड़ने का काम करनेवाला पुरुष, कुंदनसाज।
- पालनौ अति सुंदर गढ़ि ल्याउरे बढ़ेया।….। पँच रँग रेसम लगाउ, हीरा मोतिनि मढ़ाउ, बहु बिधि जरि करि जराउ, ल्याउ रे जरैया - १० - ४१।
- संज्ञा
- [हिं. जड़िया]
- जरौंगी
- जलूँगी, भस्म हो जाऊँगी।
- हौं तव संग जरौगी, यौं कहि तिया धूति धन खायौ - २ - ३०।
- क्रि. अ.
- [हिं. जलना]
- जरौ
- जलता हुआ, प्रज्वलित।
- तेल, तूल, पावक पुट धरिकै, देखन चहैं जरौ - ९ - ९८।
- वि.
- [हिं. जरना = जलना]
- जरौट
- जड़ाऊ।
- वि.
- [हिं. जड़ना]
- जर्कबर्क
- तड़क-भड़कदार।
- वि.
- [फ़ा. जर्क बर्क]
- जर्जर
- पुराना, घिसा हुआ।
- वि.
- [सं.]
- जर्जर
- टूटा-फूटा।
- वि.
- [सं.]
- जर्जर
- बूढ़ा।
- वि.
- [सं.]
- जर्जरिता
- जीर्णता, कमजोरी।
- संज्ञा
- [सं. जर्जर]
- जर्जरित
- पुरानी
- वि.
- [सं. जर्जरित]
- जर्जरित
- टूटाफूटा, घिसा-घिसाया।
- वि.
- [सं. जर्जरित]
- जर्जरीक
- बूढ़ा।
- वि.
- [स.]
- जर्जरीक
- छेददार।
- वि.
- [स.]
- जर्द
- पीला, पीत।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़र्द]
- जर्दी
- पीलापन।
- संज्ञा
- [हिं. जर्द]
- जरयौ
- जल गया, भस्म हो गया।
- दच्छ - सीस जो कुंड मैं जरयौ। ताके बदलैं अजसिर घरथो - ४ - ५।
- क्रि. अ.
- [हिं. जलना]
- जर्रा
- कण।
- संज्ञा
- [अ. ज़र्रा]
- जर्रा
- खंड।
- संज्ञा
- [अ. ज़र्रा]
- जलंधर
- एक राक्षस।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलंधर
- एक ऋषि।
- संज्ञा
- [सं.]
- जल
- पानी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जल
- उशीर, खस।
- संज्ञा
- [सं.]
- जल - अलि
- पानी का भँवर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जल - अलि
- पानी का एक काला कीड़ा, पैरौवा, भौंतुआ।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलकांत, जलकांतर
- वरुण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलक्रीड़ा
- जलविहार।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलखावा
- जलपान।
- संज्ञा
- [हिं. जल+खाना]
- जलघुमर
- पानी का भँवर।
- संज्ञा
- [हिं. जल+घूमना]
- जलचर
- पानी के जीव-जंतु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलचरी
- मछली।
- हमते भली जलचरी बापुरी अपनो नेम निबाहयौ - ३१४९।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोधूमक
- गेहुँअन नाम के साँप।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोधूलि, गोधूली
- संध्या का समय जब चरकर लौटती हुई गैयों के खुरों से उड़ी धूल सब तरफ छा जाती है।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोध्र
- पहाड़, पर्वत।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोनंद
- कार्तिकेय का एक गण।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोन
- बैलों आदि पर लादने को खुरजी जिसका एक-एक भाग दोनों तरफ रहता है।
- संज्ञा
- [सं. गोणी]
- गोन
- टाट का बोरा या थैला।
- संज्ञा
- [सं. गोणी]
- गोन
- नाव खींचने की रस्सी।
- संज्ञा
- [सं. गुण]
- गोन
- एक तरह की घास।
- संज्ञा
- [देश.]
- गोनरा
- एक तरह की घास।
- संज्ञा
- [सं. गुप्त]
- गोनर्द
- नागरमोथा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलचादर
- ऊँचे स्थान से होनेवाला पानी का विस्तृत झीना प्रवाह।
- संज्ञा
- [सं. जल+हिं. चादर]
- जलचारी
- जल के जीव-जंतु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलज
- जल में उत्पन्न होनेवाला।
- वि.
- [सं.]
- जलज
- कमल।
- संज्ञा
- जलज
- शंख।
- संज्ञा
- जलज
- शंख।
- संज्ञा
- जलज
- मोती।
- दुर दमंकत सुभग सवननि जलज जुग डहडहत - १० - १८४।
- संज्ञा
- जलजन्य
- कमल।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलजला
- भूकंप।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़लज़ला]
- जलजात, जलजातक
- जो जल से उत्पन्न हो।
- वि.
- [सं. जल+जात, जातक= उत्पन्न]
- जलजात, जलजातक
- कमल, पद्म।
- बिराजत अंग अंग रति बात। अपने कर करि धरे बिधाता षग षग नव जलजात - सा. उ. ३।
- संज्ञा
- जलजात, जलजातक
- चंद्रमा।
- अवर जु सुभग बेद जलजातक कनक नीलमनि गात। उदित जराउ पंच तिय रवि ससि किरनि तहाँ सुदुरात - सा. उ. ९।
- संज्ञा
- जलजासन
- ब्रह्मा।
- संज्ञा
- [सं. जल+ज+आसन]
- जलतरंग
- धातु की कटोरियों में पानी भर कर बजाया जानेवाला बाजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलथंभ
- जल रोकना।
- संज्ञा
- [सं. जलस्तंभ]
- जलद
- जल देनेवाला।
- वि.
- [सं. जल+द]
- जलद
- मेघ, बादल।
- संज्ञा
- जलद
- कपूर।
- संज्ञा
- जलकाल
- वर्षा ऋतु, बरसात।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलदक्षय
- शरद ऋतु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलदेव, जलदेवता
- वरुण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलधर
- बादल।
- (क) उमँगे जमुन - जल प्रफुलित कुंज - पुंज, गरजत कारे भारे जूथ जलधर के - १० - ३४।
(ख) पूजत नाहिं सुभग स्यामल तन, जद्यपि जलधर धावत - ६६५। (ग) मोहन कर तैं धार चलति, परि मोहिनि - मुख अतिहीं छबि गाढ़ी। मनु जलधर जलधार बृष्टि लघु, पुनि - पुनि प्रेम - चंद पर बाढ़ी - ७३६।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलधर
- समुद्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलधरमाला
- बादलों की श्रेणी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलधरी
- पत्थर या धातु क, प्रर्धा जिसमें शिवलिंग स्थापित किया जाता है।
- पत्थर या धातु का अर्धा जिसमें शिवलिंग स्थापित किया जाता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलधार, जलधारा
- जल-प्रवाह, पानी की धारा, पानी की झड़ी।
- मोहन - कर तैं धार चलति, परि मोहनि - मुख अति हीं छबि गाढ़ी। मनु जलधर जलधार बृष्टिलघु, पुनि - पुनि प्रेम - चंद पर बाढ़ी - ७३६।
- संज्ञा
- [सं. जलधारा]
- जलधार, जलधारा
- तपस्या की एक रीति जिसमें धार बाँध कर पानी डाला जाता है।
- संज्ञा
- [सं. जलधारा]
- जलधारी
- बादल, मेघ।
- सुतनि तज्यौ, तिय तज्यौ, भ्रात तज्यौ, तन तैं त्वच भई न्यारी। स्रवन न सुनत, चरन - गति थाकी, नैन भए जलधारी १.११८।
- संज्ञा
- [सं. जलधारिन्]
- जलधारी
- पानी को धारण करनेवाला।
- वि.
- जलधि
- सागर, समुद्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलधिगा
- लक्ष्मी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलधिगा
- नदी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलधिज
- चंद्रमा।
- संज्ञा
- [सं. जलधि+ज]
- जलन
- जलने की पीड़ा या कष्ट।
- संज्ञा
- [हिं. जलना]
- जलन
- बहुत अधिक ईर्ष्या या दाह।
- संज्ञा
- [हिं. जलना]
- जलना
- दग्ध होना, बलना।
- क्रि. अ.
- [सं. ज्वलन]
- जलना
-
- जलती आग :- भयानक विपत्ति।
जलती आग में कूदना :- जान-बूझकर भारी विपत्ति में फँसना।
- मु.
- जलना
- आँच को तेजी से फुँक जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. ज्वलन]
- जलना
- झुलसना।
- क्रि. अ.
- [सं. ज्वलन]
- जलना
-
- जले पर नमक (चूना) छिड़कना (लगाना) :- दुखी को और दुख देना।
जले फफोले फोड़ना :- दुखी को बदला चुकाने के लिए और दुख देना।
- मु.
- जलना
- बहुत अधिक ईर्ष्या, डाह या द्वेष करना।
- (४) बहुत अधिक ईर्ष्या, डाह या द्वेष करना।
- क्रि. अ.
- [सं. ज्वलन]
- जलना
-
- जली कटी (भुनी) बात कहना (सुनाना) :- लगती या चुभती हुई बातें कहना।
जल मरना :- कुढ़ जाना, ईर्ष्या के कारण दुखी होना।
- मु.
- जलनिधि
- समुद्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलपति
- वरुण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलपति
- समुद्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलपना
- लंबी-चौड़ी या बढ़ी-चढ़ी बातें करना।
- क्रि. अ.
- [सं. जल्पन]
- जलपना
- बकवाद करना।
- क्रि. अ.
- [सं. जल्पन]
- जलपना
- डींग, व्यर्थ की बकवाद।
- संज्ञा
- जलपहिं
- बोलते हैं।
- क्रि. अ.
- [हिं. जलपना]
- जलपाई
- बोलना।
- संज्ञा
- [हिं. जलपना]
- जलपाटल
- काजल।
- संज्ञा
- [हिं. जल - पटल]
- जलपान
- नाश्ता, हल्का भोजन।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलपै
- बोले, कहे, बके।
- क्रि. अ.
- [हिं. जलपना]
- जलप्रवाह
- पानी का बहाव।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलप्रवाह
- शव को नदी में बहाने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलप्लावन
- पानी की बाढ़।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलप्लावन
- एक प्रलय, जिसमें सारी सृष्टि जलमग्न हो जाती है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलमानुष
- एक कल्पित जलजंतु जिसका ऊपरी शरीर मनुष्य और निचला मछली का होता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलयान
- जल की सवारी, जहाज।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलरितु
- बरसात। जलरितु नाम जान अब लागे हरि-भख-बचन गयौ री-सा. उ.।
- संज्ञा
- [हिं. जल+ऋतु, जलर्तु]
- जलरुह, जलरूह
- कमल।
- सुंदर कर आनन समीप अति राजत इहिं आकार। जलरुह मनौ बैर बिधु सौं तजि मिलत लए उपहार - २८३।
- संज्ञा
- [सं.]
- जललता
- पानी की लहर, तरंग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलवर्त
- मेघ का एक भेद।
- सुनते मेघवर्तक साजि सैन लै आये। जलवर्त, वारिवर्त, पवनवर्त, बीजुवर्त; आगिवर्तक जलद संग ल्याये - ९४४।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलवाना
- जलाने का काम दूसरे से कराना, सुलगवाना, बलवाना।
- क्रि. स.
- [हिं. जलाना का प्रे.]
- जलवाह
- मेघ, बादल।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलविहार
- नदी आदि पर नाव की सैर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलविहार
- जल में स्नान और खेल।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलशय, जलशयन
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलशायी
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं. जलशायिन्]
- जलसंस्कार
- नहाना।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलसंस्कार
- धोना।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलसंस्कार
- शव को जल में बहा देना।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलसा
- किसी उत्सव में बहुत से लोगों का एकत्र होना।
सभा-समाज का बड़ा अधिवेशन।
- संज्ञा
- [अ]
- जलसुत
- कमल।
- अलिसुत प्रीति करी जलसुत सौं संपुटि हाथ गह्यौ - सा. ३ - ३१। (ख) तैं जु नील पट ओट दियो री।….। जल - सुत बिंब मनहुँ जल राजत मनहुँ सरदससि राहु लियौ री - सा, उ, १८।
- संज्ञा
- [हिं. जल+सुत = पुत्र]
- जलसुत
- मोती।
- स्यामहृदय जलसुत की माला अतिहिं अनूपम छाजै री - १३४३।
- संज्ञा
- [हिं. जल+सुत = पुत्र]
- जलसुततिति
- जोंक की गति, धृष्टता, ढिठाई।
- उठि राधे कह रैन, गँवावै। महिसुत गति तजि जल - सुत - तित तजि सिंधु - सुता - पति - भवन न भावै - सा. उ. २२।
- संज्ञा
- [हिं. जल+सुत (जल से उत्पन्न जोंक) + तित (= गति)]
- जलसुत - प्रीतम-सुत-रिपु-बांधव-आयुध
- गद, रोग।
- जलसुत - प्रीतम - सुतरिपु - बांधव आयुध आपुन बिलख भयौ री - सा.उ. २१।
- संज्ञा
- [सं. जल+सुत (जल से उत्पन्न कमल)+प्रीतम (प्रियतम = कमल का प्रियतम, सूर्य)+सुत (सूर्य का सुत या पुत्र कर्ण)+रिपु (कर्ण का रिपु या शत्रु अर्जन)+बांधव (अर्जुन का भाई भीम) + आयुध (= हथियार, भीम का हथियार गदा ; यहाँ ‘गदा' शब्द से गद' अर्थ लिया)]
- जलस्तंभ
- समुद्र में बादलों से बननेवाला एक स्तंभ जिसका दर्शन अशुभ होता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलस्तंभन
- मंत्र आदि की सहायता से पानी बाँधना या उसकी गति रोकना।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलहर
- जल से भरा हुआ।
- वि.
- [हिं. जल+हर]
- जलहर
- तालाब आदि जलाशय।
- वै जलहरें हम मीनं बापुरी कैसे जिवहिं निनारे - ४८७०।
- संज्ञा
- [हिं. जलधर]
- जलहरी
- पत्थर या धातु का अर्धा जिसमें शिवलग स्थापित किया जाता है।
- संज्ञा
- [सं. जलधरी]
- जलहरी
- शिवलिंग के ऊपर गर्मी में टाँगा जानेवाला जल भरा घड़ा जिससे पानी बराबर टपकता रहता है।
- संज्ञा
- [सं. जलधरी]
- जलांजलि
- पानी-भरी अँजुली।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलांजलि
- पितरों को अँजुली भर कर जल देना।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलांतक
- एक सुमुद्र
- संज्ञा
- [सं.]
- जलांतक
- सत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलाक, जलाका
- पेट की ज्वाला या आग, प्रेम, भूख।
- संज्ञा
- जलाक, जलाका
- लू।
- संज्ञा
- जलाकर
- समुद्र, नदी।
- संज्ञा
- [सं. जल+आकर]
- जलजल
- गोटे की झालर।
- गति गयंद कुच कुंभ किंकिणी मनहुँ घंट झहनावै। मोतिनहार जलाजले मानो खुमीदंते झलकावै।
- संज्ञा
- [हिं. झलझल]
- जलातन
- क्रोधी।
- वि.
- [हिं. जलना+तन]
- जलातन
- द्वेषी।
- वि.
- [हिं. जलना+तन]
- जला
- घातक।
- संज्ञा
- [हिं. जल्लाद]
- जलाधिप
- वरुण।
- संज्ञा
- [सं. जल+अधिप]
- जलाना
- बलाना, प्रज्वलित करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जलना का सक.]
- जलाना
- आँच पर चढ़ाकर भाप या कोयले के रूप में करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जलना का सक.]
- जलाना
- झुलसाना।
- क्रि. स.
- [हिं. जलना का सक.]
- जलाना
- ईर्ष्या, द्वेष आदि पैदा करना।
- क्रि. स.
- [हिं. जलना का सक.]
- जलाना
-
- जला जला कर मारना :- बहुत तंग करना।
- मु.
- गुनहगार
- पापी।
- वि.
- [फ़ा.]
- गुनहगार
- दोषी, अपराधी।
- सिंधु ते काढ़ि संभु - कर सौंप्यो गुनहगार की नाई - ३०७७।
- वि.
- [फ़ा.]
- गुनहगारी
- पाप।
- संज्ञा
- [फा. गुनाह]
- गुनहगारी
- दोष, अपराध।
- संज्ञा
- [फा. गुनाह]
- गुनही
- गुनहगार, अपराधी।
- संज्ञा
- [फ़ा. गुनाह]
- गुनही
- समझे, बूझे, जाने।
- को गति गुनही सूर स्याम सँग काम बिमोह्यौ कामिनि - पृ. ३४४ (३४)।
- क्रि. स.
- [हिं. गुनना]
- गुना
- एक प्रत्यय जो संख्या वाची शब्दों के अंत में लगता है।
- संज्ञा
- [सं. गुणन]
- गुना
- गुण।
- संज्ञा
- [सं. गुणन]
- गनाधि
- गुणयुक्त, सगुण।
- निगमन नेति कयौ निर्गुन सों कइ गुनाधि बरनि है सूर नर - १९०६।
- वि.
- [सं. गुण + प्राधि]
- गुनावन
- सोचना, विचारना।
- संज्ञा
- [हिं. गुनना]
- गोनी
- सन, पटुआ।
- संज्ञा
- [सं, गोणी]
- गोपँगना
- गोप जाति की स्त्री. गोपी।
- इरि कौं बिमल जस गावति गोपँगना - १० - ११२।
- संज्ञाा,
- [सं. गोपांगना]
- गोप
- गाय की रक्षा करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोप
- ग्वाला, अहीर।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोप
- गोशाला का प्रबंधक।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोप
- राजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोप
- रक्षक।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोप
- रक्षक।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोप
- एक गंधर्व।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोप
- एक औषधि।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलापा
- ईर्ष्या, डाह आदि के कारण होनेवाली जलन या कुढ़न।
- संज्ञा
- [हिं. जलना+प्रपा (प्रत्य.)]
- जलाल
- रोब, आतंक, तेज।
- संज्ञा
- [अ.]
- जलाव
- खमीर।
- संज्ञा
- [हिं. जलना+श्राव (प्रत्य.)]
- जलावन
- ईंधन।
- संज्ञा
- [हिं. जलाना]
- जलावन
- किसी पदार्थ का तपान-गलाने पर जल जानेवाला अंश।
- संज्ञा
- [हिं. जलाना]
- जलावन
- जलाने, सपाने, झुलसाने का काम या भाव।
- तेज भगवान को पाय जलावन लगे असुरदल चल्यौ सबही पराई - १०उ. - ३५।
- संज्ञा
- [हिं. जलाना]
- जलावर्त्त
- पानी का भँवर।
- संज्ञा
- [सं. जल+आवर्त]
- जलाशय
- वह स्थान जहाँ पानी जमा हो।
- संज्ञा
- [सं. जल+आशय]
- जलाशय
- उशीर, खस।
- संज्ञा
- [सं. जल+आशय]
- जलाहल
- जलमय।
- वि.
- [सं. जलस्थल या हिं. जलाजल]
- जलिका, जलुका, जलूका, जलौका
- जोंक।
- संज्ञा
- [सं. जलिका]
- जलील
- तुच्छ, अपमानित।
- वि.
- [अ.ज़लील]
- जलूस
- लोगों का सजधज कर किसी उत्सव में या सवारी के साथ चलना।
- संज्ञा
- [अ.]
- जलेंद्र
- वरुण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलेंद्र
- महासागर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलेचर
- जल का जीव।
- संज्ञा
- [सं. जलचर]
- जलेतन
- क्रोधी, असहनशील।
- वि.
- [हिं. जलना+तन]
- जलेतन
- डाह, ईर्ष्या आदि से सदा जलनेवाला।
- वि.
- [हिं. जलना+तन]
- जलेबी
- एक मिठाई।
- संज्ञा
- [हिं. जलाव=खमीर]
- जलेबी
- एक पौधा।
- संज्ञा
- [हिं. जलाव=खमीर]
- जलेबी
- गोल घेरा, कुंडली।
- संज्ञा
- [हिं. जलाव=खमीर]
- जलेश
- वरुण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलेश
- समुद्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जलोदर
- पेट फूलने का रोग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जल्द
- शीघ्र।
- क्रि. वि.
- [अ.]
- जल्द
- तेजी से।
- क्रि. वि.
- [अ.]
- जल्दी
- शीघ्रता, फुरती।
- संज्ञा
- [हिं. जल्द]
- जल्दी
- शीघ्र, चटपट।
- क्रि. वि.
- जल्दी
- तेजी से।
- क्रि. वि.
- जल्प
- कथन।
- संज्ञा
- [सं.]
- जल्प
- बकवाद।
- संज्ञा
- [सं.]
- जल्पक
- बकवादी, बातूनी।
- वि.
- [सं.]
- जल्पन
- बकवाद, डींग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जल्पना
- डींग मारना।
- क्रि. अ.
- [सं. जल्पन]
- जल्पाक
- बकवादी, वाचाल।
- वि.
- [सं.]
- जल्पित
- मिथ्या।
- वि.
- [सं.]
- जल्पित
- कहा हुआ।
- वि.
- [सं.]
- जल्लाद
- घातक, बधुआ, वधिक।
- संज्ञा
- [अ.]
- जल्लाद
- निर्दयी, कठोर।
- संज्ञा
- [अ.]
- जव
- वेग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जव
- जौ।
- संज्ञा
- [सं. यव]
- जघन
- तेज, वेगवान।
- वि.
- [सं.]
- जघन
- वेग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जघन
- घोड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जघन
- यूनानी।
- संज्ञा
- [सं. यवन]
- जघन
- मुसलमान।
- संज्ञा
- [सं. यवन]
- जवनिका
- परदा, नाटक का परदा, यवनिका।
- बदन उघारि दिखायौ अपनौ नाटक की परिपाटी। बड़ी बार भई, लोचन उघरे, भरम - जवनिका फाटी - १० - २५४।
- संज्ञा
- [सं. यवनिका]
- जवनी
- तेजी, वेग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जवाँमर्द
- शूरवीर, बहादुर।
- वि.
- [फ़ा.]
- जवाँमर्दी
- वीरता।
- संज्ञा
- [हिं. जवाँमर्द]
- जवाई
- जाने का काम या भाव, गमन।
- संज्ञा
- [हिं. जाना]
- जवाई
- धन जो जाते समय दिया जाय।
- संज्ञा
- [हिं. जाना]
- जवादानी
- चंपाकली।
- संज्ञा
- [हिं. जौ+दाना]
- जवादि
- एक सुगंधित वस्तु।
- संज्ञा
- [अ.ज़वाद]
- ज़वान
- युवक।
- वि.
- [फ़ा.]
- ज़वान
- वीर।
- वि.
- [फ़ा.]
- ज़वान
- वीर पुरुष।
- संज्ञा
- ज़वान
- सिपाही।
- संज्ञा
- जवानी
- यौवन, तरुणाई।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जवानी
-
- जवानी उठना (उभड़ना, चढ़ना) :- (१) यौवन का आगमन होना।
(२) मस्त होना। जवानी ढलना :- बुढ़ापा आना। उठती (चढ़ती) जवानी :- यौवन का आरंभ। उतरती जवानी :- यौवन ढलाव।
- मु.
- जवाब
- उत्तर।
- (क) सूर आप गुजरान मुसाहिब लै जवाब पहुँचावै - १ - १४२।
- संज्ञा
- [अ.]
- जवाब
-
- जवाब तलब करना :- कारण पूछना, कैफियत माँगना।
(कोरा) जवाब मिलना :- बात अस्वीकृत होना। जबाब का जवाब देना :- प्रतिपक्षी के बदले या कथन का कड़ा जबाब देना। उ. - सूर स्याम मैं तुम्हें न डरैहौं जवाब को जवाब दैहौं - ८४३।
- मु.
- जवाब
- बदला, बदले में किया हुआ कार्य।
- संज्ञा
- [अ.]
- जवाब
- जोड़, मुकाबले की चीज।
- संज्ञा
- [अ.]
- जवाब
- नौकरी छूटना।
- संज्ञा
- [अ.]
- जवाबदेह
- उत्तरदाता।
- वि.
- [फ़ा.]
- जवाबदेही
- उत्तरदायित्व।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जवाबसवाल
- वाद-विवाद, प्रश्नोत्तर।
- संज्ञा
- [अ.]
- जवार
- अड़ोस-पड़ोस।
- संज्ञा
- [अ.]
- जवार
- अवनति, गिरे या बुरे दिन।
- संज्ञा
- [अ. ज़वाल]
- जवार
- झंझट, झगड़ा, जंजाल।
- संज्ञा
- [अ. ज़वाल]
- जवारा
- जौ के हरे अंकुर।
- संज्ञा
- [हिं. जौ]
- जवारी
- एक तरह का हार।
- संज्ञा
- [हिं. जव]
- जवाल
- अवनति, घटी, उतार।
- संज्ञा
- [अ. ज़वाल]
- जवाल
- जंजाल, आफत, झंझट।
- संज्ञा
- [अ. ज़वाल]
- जवास, जवासा
- एक कँटीला क्षुप जो वर्षा के बाद फूलता-फलता है।
- संज्ञा
- [सं. यवसिक, प्रा. यवासअ]
- जवाहर, जवाहिर
- रत्न, मणि।
- संज्ञा
- [अ.]
- जवी, जवीर्य
- तेज।
- वि.
- [सं. जविन्, जवीयस्]
- जवैया
- जानेवाला।
- वि.
- [हिं. जाना+ऐया (प्रत्य.)]
- जशन
- जलसा
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जशन
- हर्ष।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जस
- कीर्ति, सुख्याति।
- गयौ गिरि पानि जस जगत छायौ।
- संज्ञा
- [सं. यशस्, हिं. यश]
- जस
- महिमा, प्रशंसा।
- (क) जरासंध बंदी कटैं नृप - कुल जस गावै - १ - ४।
(ख) कोपि कौरव गहे केस जब सभा मैं पांडु की बधू जस नैंकु गायौ।
- संज्ञा
- [सं. यशस्, हिं. यश]
- जस
- जैसा।
- क्रि. वि.
- [सं. यथा, प्रा. जहा]
- जसद्, जस्ता
- एक धातु।
- संज्ञा
- [सं. जसद]
- जसुदा, जसुमत, जसुमति
- नंदजी की पत्नी जिन्होंने श्रीकृष्ण को पाला था।
- संज्ञा
- [सं. यशोदा]
- जसूस
- भेदिया।
- संज्ञा
- [अ. जासूस]
- जसोइ
- यशोदा।
- दुतिया के ससि लों बाढ़ै सिसु, देखै जननि जसोइ - १० - ५६।
- संज्ञा
- [सं. यशोदा]
- जसोद, जसोमति, जसोवा, जसोवै
- यशोदा।
- दै री मोकौं ल्याइ बेनु, कहि, कर गहि रोवै। ग्वालिनि डराति जियहिं. सुनै जनि जसोवै - १० - २८४।
- संज्ञा
- [सं. यशोदा]
- जस्ता
- एक मटमैली धातु।
- संज्ञा
- [सं. जसद]
- जहँ
- जिस स्थान पर, जहाँ।
- जहँ जहँ गाढ़ परी भक्तनि कौं, तहँ तहँ आपु जनायौं - १ - २०।
- क्रि. वि.
- [हिं. जहाँ]
- जहँ
-
- जहँ के तहाँ :- जिस स्थान पर हो, वहीं।
उ. - निरखि सुर नर सकल मोहे रहि गए जहँ के तहाँ - १० उ. २४।
- मु.
- जहँड़ना, जहँड़ाना
- घाटा या हानि उठाना।
- क्रि. अ.
- [सं. जहन, हिं. जहँड़ाना]
- जहँड़ना, जहँड़ाना
- धोखे या भ्रम में पड़ना।
- क्रि. अ.
- [सं. जहन, हिं. जहँड़ाना]
- जहकना
- चिढ़ना, कुढ़ना।
- क्रि. स.
- [हिं. झकना]
- जहतिया
- भूमिकर, लगान या जगात उगाहने या वसूलने वाला।
- साँचो सो लिखहार कहावै।….। मन्मथ करै कैद अपनी में जान जहतियो लावै - १ - १४२।
- संज्ञा
- [हिं. जगात = कर]
- जहदना
- कीचड़ या दलदल होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जहदा]
- जहदना
- शिथिल पड़ना, थक जाना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जहदा]
- जहदा
- दलदल, कीचड़।
- संज्ञा
- जहना
- त्यागना, छोड़ना।
- क्रि. स.
- [सं. जहन]
- गोनर्द
- सारस पक्षी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोनर्द
- एक प्राचीन देश।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोनर्द
- महादेव।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोनस
- एक साँप।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोनस
- एक मणि।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोना
- छिपाना, लुकाना।
- क्रि. स.
- [सं. गोपन]
- गोनिया
- बढ़ई का एक औजार।
- संज्ञा
- [सं. कोण, हिं. कोना+इया (प्रत्य.)]
- गोनिया
- बोरा ढोनेवाला पशु या मनुष्य।
- संज्ञा
- [किं. गोन=बोरा+इया (प्रत्य.)]
- गोनिया
- नाव की रस्सी खींचनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. गोन = रस्सी+इया (प्रत्य.)]
- गोनी
- टाट का थैला था बोरा।
- संज्ञा
- [सं, गोणी]
- जहना
- नाश, नष्ट या बरबाद करना।
- क्रि. स.
- [सं. जहन]
- जहन्नुम
- नरक।
- संज्ञा
- [अ.]
- जहन्नुम
- वह स्थान जहाँ बहुत दुख और कष्ट हो।
- संज्ञा
- [अ.]
- ज़हमत
- मुसीबत, झंझट।
- संज्ञा
- [अ.ज़हमत]
- जहर, जहरि
- विष, गरल।
- अधर सुधा मुरली की पोषे जोग - जहर कत प्यावे रे - ३०७०।
- संज्ञा
- [फ़ा जह्र]
- जहर, जहरि
-
- जहर उगलना :- (१) बहुत चुभनेवाली बात कहना।
(२) जली-कटी सुनाना। जहर करना :- बहुत तेज नमक करना। कड़ुआ जहर :- (१) बहुत कड़ुआ। (२) जिसमें बहुत तेज नमक पड़ा हो। जहर का घूँट :- बहुत बुरे स्वाद का। जहर का घँट पीना :- क्रोध को मन ही मन दबाना। जहर का बुझाया हुआ :- बहुत कष्ट देनेवाला, बड़ा दुष्ट। जहर की गाँठ (पुड़िया) :- बहुत दुखदायी।
- मु.
- जहर, जहरि
- अप्रिय बात या काम।
- संज्ञा
- [फ़ा जह्र]
- जहर, जहरि
-
- जहर लगना :- बहुत बुरा लगना।
- मु.
- जहर, जहरि
- घातक।
- वि.
- जहर, जहरि
- हानिकारक।
- वि.
- जहर, जहरि
- जौहर-व्रत।
- संज्ञा
- [हिं. जौहर]
- जहरी, जहरीला
- विषैला।
- वि.
- [हिं. जहर + ईला]
- जहाँ
- जिस जगह, जिस स्थान पर।
- क्रि. वि.
- [सं. यत्र, पा. यत्थ, प्रा. जह]
- जहाँ
-
- जहाँ का तहाँ :- जिस स्थान पर हो, वहीं।
जहाँ का तहाँ रह जाना :- (१) आगे न बढ़ पाना। (२) कुछ काम या कारवाई न होना। जहाँ तहाँ :- (१) इधर-उधर, इतस्ततः। उ - जहाँ तहाँ हैं सब आवैगे, सुनि - सुनि सस्तौ नाम। अब तौ परयौ रहैगौ दिन-दिन तुमकौं ऐसौ काम - १ - १९१। (२) सब जगह, सब स्थानों पर। उ. - मंत्र - जंत्र मेरै हरिनाम। घट-घट मैं जाकौ बिस्राम। जहाँ तहाँ सोइ करत सहाई। तासौं तेरौ क्छु न बसाइ - ७ - २।
- मु.
- जहाँगीरी
- हाथ का एक जड़ाऊ गहना।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जहाँदीद, जहाँदीदा
- अनुभवी।
- वि.
- [फ़ा.]
- जहाँपनाह
- संसार का रक्षक।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जहाज
- जलयान।
- बिनती करत मरत हों लाज। नख - सिख लौं मेरी यह देही है पाप की जहाज - १ - ९६।
- संज्ञा
- [अं. जहाज़]
- जहाज
-
- जहाज का कौवा (काग या पंछी) :- (१) कौआ या पक्षी जो जहाज से इधर-उधर उड़कर जाय और आश्रय न मिलने पर फिर लौटकर आ जाय। इसकी तुलना ऐसे व्यक्ति से की जाती है जिसको इधर-उधर भटकने के बाद हारकर या लाचार होकर अंत में केवल एक व्यक्ति का ही आश्रय लेना पड़े।
उ. - मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै। जैसे उड़ि जहाज को पंछी फिरि जहाज पै आवै - १ - १६८। (२) धूर्त, चालाक।
- मु.
- जहाजी
- जहाज से संबंधित।
- वि.
- [हिं. जहाज]
- जहान
- संसार, जगत।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जहानक्र
- प्रलय।
- संज्ञा
- [सं.]
- जहालत
- अज्ञान, मूर्खता।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जहिया
- जब, जिस समय।
- क्रि. वि.
- [सं. यद्+हिया]
- जहीं
- जहाँ या जिस स्थान पर ही।
- क्रि. वि.
- [सं. यत्र, पा. यत्थ]
- जहीं
- ज्योंही, जैसे ही।
- क्रि. वि.
- [सं. यत्र, पा. यत्थ]
- जहीन
- बुद्धिमान, स्मृतिवान्।
- वि.
- [अ.ज़हीन]
- जहूर
- प्रकाश।
- संज्ञा
- [अ. ज़हूर]
- जहूरा
- दिखावा।
- संज्ञा
- [अ. ज़हूरा]
- जहूरा
- ठाठ।
- संज्ञा
- [अ. ज़हूरा]
- जहेज
- दहेज।
- संज्ञा
- [अ. जहेज़, मि. सं. दायज]
- जह्नु
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जह्नु
- एक ऋषि जिन्होंने सारी गंगा का पान करके उसे कान से निकाल दिया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- जह्न जा, जह्न तनया, जह्न सुता
- जह्नु, की पुत्री, गंगा।
- संज्ञा
- [सं. जह्न +जा, तनया, सुता=पुत्री]
- जह्नु सप्तमी
- वैशाख शुक्ल सप्तमी, जब जह्नु, ने गंगा का पान किया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाँग
- घोड़ों की एक जाति।
- संज्ञा
- [देश.]
- जाँग
- जाँघ, उरु।
- संज्ञा
- [हिं. जाँघ]
- जाँगड़ा, जाँगरा
- भाट, बंदी आदि जो राजाओं का यश गाते हैं।
- संज्ञा
- [देश.]
- जाँगर
- शरीर।
- संज्ञा
- [हिं. जाँघ]
- जाँगर
- हाथ-पैर।
- संज्ञा
- [हिं. जाँघ]
- जाँगल
- तीतर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाँगल
- मांस।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाँगल
- वह भू-भाग जहाँ जल कम बरसे।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाँगल
- इस भू-भाग में पाये जानेवाले हिरन आदि पशु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाँगल
- जंगल-संबंधी, जंगली।
- वि.
- जाँगलि, जाँगलिक
- साँप पकड़ने वाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाँगलि, जाँगलिक
- साँप का विष उतारनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाँगलू
- जंगली, उजड्डु, गँवार।
- वि.
- [हिं. जंगल]
- जाँगुलि, जाँगुलिक
- साँप पकड़नेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाँगुलि, जाँगुलिक
- साँप का विष उतारनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाँगुली
- विष उतारने की विद्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाँघ
- घुटने और कमर के बीच का भाग, उरु।
- संज्ञा
- [सं. जंघा]
- जाँघा
- हल।
- संज्ञा
- [देश.]
- जाँघा
- कुएँ की गाड़ी का खंभा या धुरा।
- संज्ञा
- [देश.]
- जाँघा
- उरु, जाँघ।
- संज्ञा
- [सं.]
- जांघिक
- ऊँट।
- संज्ञा
- [सं.]
- जांघिक
- एक मृग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जांघिक
- हरकारे आदि जिन्हें बहुत दौड़ना पड़ता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाँघिल
- पिछले पैर का लँगड़ा।
- वि.
- [हिं. जाँघ]
- जाँघिल
- एक तरह की चिड़िया।
- संज्ञा
- [देश.]
- जाँच
- जाँचने की क्रिया, भाव या परख।
- संज्ञा
- [हिं. जाँचना]
- जाँच
- खोज, गवेषणा।
- संज्ञा
- [हिं. जाँचना]
- जाँचक
- माँगनेवाला, भिखारी।
- जाँचक मैं जाँचक कह जाँचै १ जौ जाँचै तौ रसना हारी - १ - ३४।
- संज्ञा
- [सं. याचक]
- जाँचक
- जाँचने या परीक्षा करनेवाला।
- संज्ञा
- [हिं. जाँच]
- जाँचकता
- माँगने की क्रिया या भाव, भिखमंगी।
- संज्ञा
- [सं. याचकता, हिं. जाचकता]
- जाँचत
- प्रार्थना या निवेदन करता है, माँगता है।
- असरन - सरन सूर जाँचत है, को अब सुरति करावै - १ - १७।
- क्रि. स.
- [हिं. याचना]
- जाँचति
- प्रार्थना या निवेदन करती हैं।
- प्रिय जनि रोकहि जान दै। हौं हरि - बिरह - जुरी जाँचति हौं, इती बात मोहिं दान दै - ८०५।
- क्रि. स
- [हिं. याचना]
- जाँचन
- याचना करने (के लिए) माँगने (के हेतु)।
- नंद - पौरि जे जाँचन आएँ। बहुरौ फिरि जाचक न कहाए - १० - ३२।
- क्रि. स.
- [हिं. जाँचना]
- जाँचना
- परख या परीक्षा करना।
- क्रि. स.
- [सं. याचन]
- जाँचना
- प्रार्थना करना, माँगना।
- क्रि. स.
- [सं. याचन]
- जाँचा
- परख या परीक्षा की।
- क्रि. स.
- [हिं. जाँचना]
- जाँचा
- माँगा, याचना की, निवेदन किया।
- क्रि. स.
- [हिं. जाँचना]
- जाँचि
- प्रार्थना करके, माँगकर।
- सिव - बिरंचि, सुर - असुर, नाग - मुनि, सु तौ जाँचि जन आयौ। भूल्यौ भ्रम्यौ, तृषातुर मृग लौं, काहूँ स्रम न गँवायौ - १ - २०१।
- क्रि. स.
- [हिं. याचना]
- जाँचे
- माँगे, माँगने पर, प्रार्थना करने पर, (आश्रय आदि के लिए) निवेदन किया।
- (क) कलानिधान सकल गुन - सागर, गुरु धौं कहा पढ़ाए (हो)। तिहि उपकार मृतक सुत जाँचे, सो जमपुर ते ल्याए (हो) - १ - ७।
(ख) जाँचे सिव बिरंचि - सुरपति सब, नैकुन काहू सरन दयौ - ९:६। (ग) देत दान राख्यौ न भूप कछु, महा बड़े नग हीर। भए निहाल सूर सब जाचक, जे जाँचे रघुबीर - ९ - १६।
- क्रि. स.
- [हिं. जाँचना]
- जाँच्यो, जाँच्यौ
- माँगा, (किसी वस्तु के देने की) प्रार्थना की।
- (क) जिन जो जाँच्यौ सोइ दीन, अस नँदराय ढरे - १० - २४।
(ख) जिन जाँच्यौ जाइ रस नंदराय ढरे। मानो बरसत मास असाढ़ दादुर मोर ररे।
- क्रि. स.
- [हिं. जाँचना]
- जाँजरा
- जीर्ण, जर्जर।
- वि.
- [सं. जर्जर]
- जाँझ
- आँधी और वर्षा।
- संज्ञा
- [सं. झंझा]
- जाँत, जाँता
- आटा पीसने की चक्की जो जमीन में गड़ी होती है।
- संज्ञा
- [सं.येत्र]
- जांतव
- जीव-जंतु का।
- वि.
- [सं.]
- जांतव
- जीव-जंतुओं से प्राप्त।
- वि.
- [सं.]
- जाँपना
- दबाना।
- क्रि. स.
- [हिं. चाँपना]
- जाँब
- जामुन, जंबूफल।
- संज्ञा
- [सं. जंबा]
- जांबवंत
- सुग्रीव को एक मंत्री।
- (क) महाधीर गंभीर बचन सुर्नि जाँबवंत समुझाए।
(ख) जांबवंत सुतासुत कहाँ मम सुता बुधिबंत पुरुष यह सब सँभारे।
- संज्ञा
- [सं. जांबवान]
- जांबव, जांबवक
- जामुन का फल।
जामुन की बनी शराब या सिरका। स्वर्ण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जांबव, जांबवक
- जामुन का फल।
- संज्ञा
- [सं.]
- जांबव, जांबवक
- जामुन की बनी शराब या सिरका।
- संज्ञा
- [सं.]
- जांबवती
- जांबवान की कन्या जो श्रीकृष्ण को ब्याही थी।
- जांबवती अरपी कन्या भरि मनि राखी समुहाय। करि हरि ध्यान गये हरि - पुर को जहाँ जोगेस्वर जाय।
- संज्ञा
- [सं. जाम्बवती]
- जांबवान
- सुग्रीव को रीछ मंत्री जो ब्रह्मा का पुत्र माना गया है। प्रसिद्ध है कि सतयुग में इसने वामन भगवान की परिक्रमा की थी ; द्वापर में इसने स्यमंतक मणि की खोज में गये श्रीकृष्ण से घोर युद्ध किया था और अंत में उन्हें पहचान कर अपनी पुत्री जांबवती उन्हें ब्याह दी थी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जांबवि
- वज्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जांबवी
- जांबवान की कन्या जांबवती जो श्रीकृष्ण को ब्याही थी।
- संज्ञा
- [हिं. जांबवती]
- जांबुवत्, जांबुवान
- सुग्रीव का मंत्री।
- संज्ञा
- [सं. जांबवान]
- जांबू
- जंबू द्वीप।
- संज्ञा
- [सं. जंबू]
- जाँवत
- सब, सारा।
- अव्य.
- [सं यावत्]
- जाँवत
- जब तक।
- अव्य.
- [सं यावत्]
- जाँवत
- जितना।
- अव्य.
- [सं यावत्]
- जाँवर
- गमन, जाना, प्रस्थान।
- संज्ञा
- [हिं. जाना]
- जा
- जो, जिस, जिसे।
- नीकै गाइ गुपालहिं मन रे। जा गाए निर्भय पद पाए अपराधी अनगन रे - १ - ६६।
- सर्व.
- [हिं. जो]
- जा
- माता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जा
- देवरानी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जा
- उत्पन्न, जन्य, संभूत।
- वि.
- गोप
- गाँव का मुखिया।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोप
- गले का एक गहना।
- संज्ञा
- [सं. गुंफ]
- गोप
- छिपाकर, लुकाकर, गुप्त रखकर।
- कहौ नहीं साँची सो हमसौं जिसि गोप करो सुनिकै अक्रूर बिमल स्तुति मानै - २५५७।
- क्रि. स.
- [हिं. गोपना]
- गोप
- छिपा हुआ, गुप्त।
- वि.
- [सं. गुप्त]
- गोपक
- गोप, ग्वाला, अहीर।
- नाम गोपाल जाति कुल गोपक गोप गोपाल उपासी - ३३१४।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपजा
- गोप जाति की कन्या या बालिका।
- संज्ञा
- [सं. गोप + जा]
- गोपति
- शिव।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपति
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपति
- श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपति
- सूर्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- जा
- उचित, मुनासिब।
- वि.
- [फ़ा.]
- जा
- (तुच्छतासूचक, आज्ञार्थक) जाओ, प्रस्थान या गमन करो।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाना]
- जा
-
- जा पड़ना :- (१) किसी जगह पर अकस्मात पहुँच जाना
(२) हारे-थके या लाचार होकर कहीं पहुँचना। जा रहना :- (१) किसी स्थान पर थोड़ा समय काटने के लिए ठहरना। (२) जा बसना।
- मु.
- जाइ
- जाती है।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाना]
- जाइ
- बरनि न जाइ-वर्णन नहीं की जा सकती।
- बरनि न जाइ भगत की महिमा, बारंबार बेखानौं - १ - ११
- प्र.
- जाइ
- जाकर।
- भरि सोवै सुख - नींद मैं तहाँ सु जाइ जगावै - १ - ४४।
- क्रि. अ.
- जाइ
- व्यर्थ, वृथा, निष्प्रयोजन।
- वि.
- जाइगौ
- जायगा।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाना]
- जाइगौ
- लै जाइगौ-ले जायगा।
- पकरि कंस लै जाइगौ, कालहिं परै सँभारि - ५८९।
- प्र.
- जाइफर, जाइफल
- जायफल।
- संज्ञा
- [हिं. जायफल]
- जाइस
- रायबरेली जिले का एक प्राचीन नगर जहाँ सूफी फकीरों की गद्दी है।
- संज्ञा
- [हिं. जायस]
- जाई
- पुत्री, बेटी।
- संज्ञा
- [सं. जा = उत्पन्न]
- जाई
- चमेली।
- संज्ञा
- [सं जाती]
- जाई
- जाकर।
- बहु दिन भए, हरि सुधि नहिं पाई। आज्ञा होउ तौ देखौं जाई - १ - २८६।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाना]
- जाउँ
- जाऊँ, प्रस्थान करूँ।
- तुम तजि और कौन पै जाउँ - १ - १६४।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाना]
- जाउँनि
- जामुन का फल।
- संज्ञा
- [हिं. जामुन]
- जाउ
- व्यर्थ, वृथा, असफल, अपूर्ण।
- बरु मेरी परतिज्ञा जाउ। इत पारथ कोप्यौ है। हम पर, उत भीषम भट - राउ - १ - २७४।
- वि.
- [हिं. जाना]
- जाउ
- जाय, प्रस्थान करे।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाना]
- जाउ
- चली जाउ-चली जाय, गमन करे।
- चली जाउ सैना सब मोपर धरौ चरन रघुबीर। मोहि असीस जगत - जननी की नवत न बज्र - सरीर - ९ - १०७।
- प्र.
- जाउनि
- जामुन।
- संज्ञा
- [हिं. जामुन]
- जाउर
- खीर।
- संज्ञा
- [हिं. चाउर = चावल]
- जाए
- उत्पन्न किय, पैदा किये।
- (क) कयौ, सरमिष्ठा सुत कहँ पाए ? उनि कहथौ, रिषि - किरपा तें जाए - ९ - १७४।
(ख) ता संगति नव सुत तिनं जाए - ४ - १२।
- क्रि. स.
- [हिं. जनना, जाना]
- जाए
- पैदा किये हुए।
- मथुरा क्यों न रहे जदुनंदन जो पै कान्ह देवकी जाए - ३४३४।
- वि.
- जाएस
- रायबरेली जिले का एक नगर जहाँ सूफी फकीरों की गद्दी है।
- संज्ञा
- [हिं जायस]
- जाक
- यक्ष।
- संज्ञा
- [सं. यक्ष]
- जाकी
- जिसकी।
- जाकी कृपा पंगु गिरि लंधै - १ - १।
- सर्व.
- [हिं. जा=जो+की]
- जाके
- जिसके।
- मानी हार बिमुख दुरजोधन, जाके जोधा हे सौ भाई १ - २४।
- सर्व.
- [हिं. जा=जो+के (प्रत्य.)]
- जाकैं
- जिसके।
- रघुबीर मोसौं जन जाकें, ताहि कहा सँकराई - ६ - १४८।
- सर्व,
- [हिं. जा+कै (प्रत्य.)]
- जाकों, जाकौं
- जिसे, जिसको।
- जाकौं दीनानाथ निवाजैं। भव - सागर मैं कबहुँ न झुकै, अभय निसाने बाजें - १ - ३६।
- सर्व,
- [हिं. जा+कौं (प्रत्य.)]
- जाको, जाकौ
- जिसको।
- स्रवनन सुनते रहते जाको नित सो दरसन भए नैन - २५५८।
- सर्व.
- [हिं. जा+को]
- जाख
- यक्षिणी।
- कोरी - मटुकी दहयौ जमायौं, जाख न पूजन पायौ - ३४६।
- संज्ञा
- [सं. यक्षिणी]
- जाखन
- लकड़ी का पहिया जो कुओं की नींव में दिया जाता है, जमवट, नेवार
- संज्ञा
- [देश.]
- जाखनी, जाखिनी
- यक्ष जाति की स्त्री।
- संज्ञा
- [सं. यक्षिणी]
- जाखनी, जाखिनी
- कुबेर की पत्नी।
- संज्ञा
- [सं. यक्षिणी]
- जाग
- यज्ञ, मख।
- तप कीन्हैं सो दैहैं आग। तो सेती तुम कीनौ जाग। जज्ञ कियें ग्रंधबपुर जैहौ। तहाँ आइ मोकौं तुम पैहौं - ९ - २।
- संज्ञा
- [सं. यज्ञ]
- जाग
- स्थान।
- संज्ञा
- [हिं. जगह]
- जाग
- घर।
- संज्ञा
- [हिं. जगह]
- जाग
- जागने या सावधान होने की क्रिया या भाव, जागरण, सतर्कता।
- घटती होइ जाहि ते अपनी ताकौ कीजै त्याग। धोखे कियो बास मन भीतर अब समुझे भइ जाग - ११९५।
- संज्ञा
- [हिं. जागना]
- जाग
- बिलकुल काला कबूतर।
- संज्ञा
- [देश.]
- जागता
- प्रभाव या महिमा प्रकट रूप से और तुरंत दिखानेवाला।
- वि.
- [हिं. जागना]
- जागता
- प्रकाशमान।
- वि.
- [हिं. जागना]
- जागता
-
- जागता :- प्रत्यक्ष, साक्षात्।
- मु.
- जागतिक
- जगत से संबंधित, सांसारिक।
- वि.
- [सं.]
- जागती जोत
- किसी देवी-देवता का प्रत्यक्ष चमत्कार।
- संज्ञा
- [हिं. जागना+ज्योति]
- जागती जोत
- दीपक।
- संज्ञा
- [हिं. जागना+ज्योति]
- ज़ागना
- नींद त्यागना।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण]
- ज़ागना
- जाग्रत अवस्था में होना।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण]
- ज़ागना
- सजग या सावधान होना।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण]
- ज़ागना
- चमक उठना, उदित होना।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण]
- ज़ागना
- बढ़-चढ़कर होना, धनी, ओढ्य या समृद्ध होना।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण]
- ज़ागना
- संगठित होना।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण]
- ज़ागना
- जलना।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण]
- ज़ागना
- पैदा होना, उपजना।
- क्रि. अ.
- [सं. जागरण]
- जागनौल
- एक हथियार।
- संज्ञा
- [देश.]
- जागबलिक
- याज्ञवल्क्य।
- संज्ञा
- [सं. याज्ञवल्क्य]
- जागर
- जागना, जागरण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जागर
- कवच।
- संज्ञा
- [सं.]
- जागर
- आंतरिक वृत्तियों को जाग्रत अवस्था।
- संज्ञा
- [सं.]
- जागरण, जागरन
- जागना, नींद त्यागना।
- संज्ञा
- [सं. जागरण]
- जागरण, जागरन
- किसी धार्मिक अनुष्ठान के उपलक्ष में देवी-देवता का भजन-कीर्तन कर हुए सारी रात जागना।
- बासर ध्यान करते सब बीत्यौ। निसि जागरन करन मन चीत्यौ।
- संज्ञा
- [सं. जागरण]
- जागरित
- जागने की अवस्था, जागरण।
- संज्ञा
- [सं]
- जागरित
- इंद्रियों द्वारा कार्यों का अनुभव होते रहने की स्थिति या अवस्था।
- संज्ञा
- [सं]
- जागरित
- जागा हुआ, सजग, सावधान।
- वि.
- जागरू
- भूसा, भुसैला अन्न।
- संज्ञा
- [देश.]
- जागरूक
- वह जो जाग्रत या चैतन्य हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- जागरूक
- पहरेदार, रखवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- जागरूप
- प्रत्यक्ष, स्पष्ट।
- वि.
- [हिं. जागना+रूप]
- जागर्ति
- जाग्रति।
- संज्ञा
- [सं.]
- जागर्ति
- चेतनता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जागहु
- जागो, नींद त्यागो, सोकर उठो।
- बदन उघारि जगावति जननी, जागहु बलि गई आनँद - कंद - १० - २०४।
- क्रि. अ.
- [हिं. जागना]
- जागहु
- सचेत, सजग या सावधान हो।
- क्रि. अ.
- [हिं. जागना]
- जागा
- जगह, स्थान।
- संज्ञा
- [हिं. जगह]
- जागा
- किसी उत्सव या व्रत में रात भर जागकर भजन-कीर्तन करना।
- संज्ञा
- [हिं. जागरण]
- जागि
- जागकर, जागनेपर।
- (क) सोवत मुदित भयौ सपने मैं पाई निधि। जो पराई जागि परें कछु हाथ न आयौ, यौं जग की प्रभुताई - १ - १४७।
(ख) नारायन जल मैं रहे सोइ। जागि कयौ, बहुरो जग होइ - ९ - २ .
- क्रि. अ.
- [हिं. जागना]
- जागि
- सचेत या सजग होने पर।
- क्रि. अ.
- [हिं. जागना]
- जागी
- भाट।
- संज्ञा
- [सं. यज्ञ]
- जागी
- होश में आयी, संज्ञा प्राप्त की, सचेत हुई।
- (क) स्याम नाम चकृत भई स्रवन सुनते जागी - १६५१।
(ख) किती दई सिख मंत्र साँवरे तउ हठ लहरि न जागी - २२७५
- क्रि. अ.
- [हिं. जागना]
- जागर
- राजा या शासक की ओर से किसी सेवा के पुरस्कार-रूप में मिली हुई भूमि।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जागीरदार
- वह जिसे किसी राजा या शासक से जागीर मिली हो।
- संज्ञा
- [फ़.]
- जागीरी
- जागीरदार होने की भावना।
- संज्ञा
- [हिं. जागीर+ई (प्रत्य.)]
- जागीरी
- अमीरी, रईसी।
- संज्ञा
- [हिं. जागीर+ई (प्रत्य.)]
- जागुड़
- केसर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जागृति
- जागरण, सजगता।
- संज्ञा
- [सं. जाग्रत]
- जागे
- सोकर उठे।
- कमलनैन पौढे सुख - सेज्या, बैठे पारथ पाइ तरी। प्रभु जागे, अर्जुन - तन चितयौ, कब आए तुम, कुसल खरी ? - १ - २६८।
- क्रि. अ.
- [हिं. जागना]
- जागे
- सजग हुए, चेते, सावधान हए।
- जोग - जुगति बिसरी सबै, काम - क्रोध - मद जागे (हो) - १ - ४४।
- क्रि. अ.
- [हिं. जागना]
- जागै
- जागन पर।
- जब जागै तब मिथ्या जानै१०उ - ६।
- क्रि. अ.
- [हिं. जागना]
- जाग्यौ
- सचेत हुआ, सावधान हुआ।
- तीनौं पन ऐसे ही खोयौ समय गए पर जाग्यौ - १ - ७३।
- क्रि. अ.
- [हिं जागना]
- जाग्रत
- जो जागता हो, सचेत, सजग।
- वि.
- [सं.]
- जाग्रति
- जागरण, सजगता।
- संज्ञा
- [सं. जाग्रत]
- जाघनी
- जाँघ, जंघा, उरु।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाचक
- माँगनेवाले, मंगन।
- नंद - पौरि जे जाँचन आए। बहुरौ फिरि जाचक न कहाए - १० - ३२।
- संज्ञा
- [सं. याचक]
- जाचक
- भीख माँगनेवाला, भिखमंगा।
- संज्ञा
- [सं. याचक]
- जाचकता
- माँगने का भाव।
- संज्ञा
- [सं. याचक + ता (प्रत्य.)]
- जाचकता
- भीख माँगने की क्रिया।
- संज्ञा
- [सं. याचक + ता (प्रत्य.)]
- जाचना
- माँगना, याचना करना।
- क्रि. स.
- [सं. याचन]
- जाचना
- भीख माँगना।
- क्रि. स.
- [सं. याचन]
- जाजम, जाजिम
- बेल-बूटेदार चादर।
- संज्ञा
- [तु.]
- जाजम, जाजिम
- गलीचा, कालीन।
- संज्ञा
- [तु.]
- जाजरा
- जीर्ण-शीर्ण, जर्जर।
- वि.
- [सं. जर्जर]
- जाजरी
- बहेलिया, चिड़ीमार।
- संज्ञा
- [देश.]
- गोपति
- राजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपति
- बैल।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपति
- एक ओषधि।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपति
- ग्वाल।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपति
- नंदजी।
- हमरे तो गोपति - सुत अधिपति वनिता और रन ते - सा, उ, ३४।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपति
- छिपाती है।
- क्रि. स.
- [गोपना]
- गोपद
- गौओं के रहने की स्थान।
- संज्ञा
- [सं. गोष्पद]
- गोपद
- जमीन पर बना गाय के खुर का चिह्न।
- संज्ञा
- [सं. गोष्पद]
- गोपद
- गाय के पैर।
- मोहनि कर तें दोहनि लीन्हीं गोपद बछरा जोरे - ७३२।
- संज्ञा
- [सं. गोष्पद]
- गोपदल
- सुपारी का पेड़।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाजात
- जायदाद।
- संज्ञा
- [हिं. जायदाद]
- जाज्वल्य
- प्रकाशयुक्त, तेजवान।
- वि.
- [सं.]
- जाज्वल्यमान
- प्रकाशमान, तेजवान।
- वि.
- [सं.]
- जाट
- एक जाति।
- ऐसे कुमति जाट सूरज कौं प्रभु बिनु कोउ न धात्र - १.२१६।
- संज्ञा
- जाट
- एक तरह का गाना।
- संज्ञा
- जाट
- मोटा लट्ठा।
- संज्ञा
- [हिं. जाठ]
- जाटालि
- मोखा नामक वृक्ष।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाठ, जाठि
- कोल्हू का मोटा लट्ठा।
- संज्ञा
- [सं. यष्ठि]
- जाठ, जाठि
- तालाब आदि में गड़ा हुआ लट्ठा
- संज्ञा
- [सं. यष्ठि]
- जाठर
- पेट।
- संज्ञा
- [सं. जठर]
- जाठर
- पेट की अग्नि जो भोजन पचाती है।
- संज्ञा
- [सं. जठर]
- जाठर
- भूख।
- संज्ञा
- [सं. जठर]
- जाठर
- पेट संबंधी।
- वि.
- जाठर
- पेट से उत्पन्न।
- वि.
- जाठराग्नि
- पेट की आग।
- संज्ञा
- [सं. जठराग्नि]
- जाठराग्नि
- भूख।
- संज्ञा
- [सं. जठराग्नि]
- जाठराग्नि
- संतान आदि के प्रति माता की ममता।
- संज्ञा
- [सं. जठराग्नि]
- जाड़
- शीत, सरदी, जाड़ा।
- संज्ञा
- [हिं जाड़ा]
- जाड़
- बहुत अधिक, अत्यंत।
- वि.
- जाड़नि
- जाड़-पाले से, ठंडक से।
- हा हा लागै पाइ | तिहारै। पाप होत है जाड़ नि मारें - ७९९।
- संज्ञा
- [हिं. जाड़ा + नि (प्रत्य)]
- जाड़ा
- शीत काल।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाड़ा
- ठंड।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाड्य
- जड़ता, मूर्खता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जात
- जन्म।
- संज्ञा
- [सं.]
- जात
- पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जात
- वह पुत्र जो माता के गुणों से युक्त हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- जात
- जन्म।
- संज्ञा
- [सं.]
- जात
- पुत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जात
- वह पुत्र जो माता के गुणों से युक्त हो।
- संज्ञा
- [सं.]
- जात
- जीव, प्राणी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जात
- नष्ट होता है, नाश होता है।
- (क) रावन सौ नृप जात न जान्यौ, माया बिषम सीस पर नाची - १ - १८।
(ख) रस लैलै औटाइ करत गुर, डारि देत है खोई। फिरि औटाए स्वाद जात है, गुर हैं खाँड़ न होई - १ - ६३।
- क्रि. अ.
- [हिं जाना]
- जात
- जाता हुआ, जाने से।
- अधम कौन है अजामील तैं, जम जहँ जात डरै - १ - ३५।
- क्रि. अ.
- [हिं जाना]
- जात
- उत्पन्न, जन्मा हुआ।
- सदा हित यह रहत नाहीं, सकल मिथ्या जात - १९१७।
- वि.
- जात
- व्यक्त, प्रकट।
- वि.
- जात
- अच्छा।
- वि.
- जात
- जाति।
- संज्ञा
- [हिं. जाति]
- जात
- शरीर।
- संज्ञा
- [अ. ज़ात]
- जात
- जरिया।
- संज्ञा
- [अ. ज़ात]
- जातक
- बच्चा।
- जाने कहा बाँझ ब्यावर दुख जातक जनहि न पीर है कैसी - ३३२९।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातक
- भिखारी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाता
- उत्पन्न।
- वि.
- जाता
- आटे की चक्की।
- संज्ञा
- [हिं. जाँता]
- जाति
- हिंदू समाज का जन्मानुसार किया गया विभाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाति
- मानव समाज का निवास स्थान याकुल-परंपरा के अनुसार किया गया विभाग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाति
- गुण, धर्म आदि के अनुसार किया गया विभाग, कोटि, वर्ग।
- याकी जाति अबै हम चीन्ही - ३९१।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाति
- वर्ण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाति
- कुल, वंश।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाति
- गोत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाति
- जन्म।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाति
- सामान्य, साधारण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातक
- वे बौद्धकथाएँ जिनमें बुद्धदेव के पूर्व जन्मों की बातें होती हैं।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातकर्म, जातक्रिया
- एक संस्कार जो बालक के जन्म के समय हिंदुओं में होता है।
- जातकर्म करि पूजि पितर सुर पूजन बिप्र करायौ - सारा, ३९२।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातना, जातनाई
- पीड़ा, कष्ट।
- सूर सुजसं - रागी न डरत सन, सुनि जातना कराल - १ - १८९।
- संज्ञा
- [सं. यातना]
- जातपाँत
- जाति-बिरादरी।
- संज्ञा
- [सं. जाति+पंक्ति]
- जातरा
- यात्रा।
- संज्ञा
- [सं यात्रा]
- जातरूप
- सोना।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातरूप
- धतूरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातवेद
- अग्नि।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातवेद
- इंद्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाता
- कन्या, पुत्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाति
- जाती है, प्रस्थान करती है।
- यह अति हरिहाई, हटकत हूँ बहुत अमारग जाति - १ - ५१।
- क्रि. अ.
- [सं. यान=जाना, हिं. जाना]
- जाति
- नष्ट होती है।
- कीजै कृपा दृष्टि की बरघा जन की जाति लुनाई - १ - १८५।
- क्रि. अ.
- [सं. यान=जाना, हिं. जाना]
- जातिकर्म
- बालक के जन्म के समय होनेवाला एक संस्कार।
- संज्ञा
- [सं, जातिकर्म]
- जातिच्युत
- जाति से निकाला हुआ।
- वि.
- [सं.]
- जातित्व
- जाति का भाव, जातीयत।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातिधर्म
- हर वर्ण का कर्तव्य।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाति - पाँति
- जाति, वर्ण, कुल, गोत्र आदि।
- जाति - पाँति उन सम हम नाहीं। हम निर्गुन सब गुन उन पाहीं।
- संज्ञा
- [सं. जाति + हिं. पाँति (पंक्ति)]
- जातिवैर
- सहज वैर या शत्रुता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातिसंकर
- वर्णसंकर, दोगला।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातिस्वभाव
- एक अलंकार।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाती
- चमेली।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाती
- मालती।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाती
- वर्ण, कुल, गोत्र आदि।
- संज्ञा
- [हिं. जाति]
- जाती
- हाथी।
- संज्ञा
- जाती
- अपना।
- वि.
- [अ. जाती]
- जाती
- निजी।
- वि.
- [अ. जाती]
- जातीय
- जाति का, जाति-संबंधी।
- वि.
- [सं.]
- जातीयता
- जाति का भाव या प्रेम।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातु
- कदाचित्, शायद।
- अव्य.
- [सं.]
- जातुज
- गर्भवती की इच्छा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातुधान
- राक्षस. असुर।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातुधानि
- राक्षसी, निशाचरी।
- संज्ञा
- [सं. पु. जातुधान]
- जातुधानि
- राक्षसी पूतना।
- सेसनाग के ऊपर पौढ़त, तेतिक नाहिं बड़ाई। जातुधानि - कुच - गर मर्षत तब, तहाँ पूर्नता पाई - १ - २१५।
- संज्ञा
- [सं. पु. जातुधान]
- जातू
- वज्र, कुलिश, पवि।
- संज्ञा
- [सं.]
- जातैं
- जिससे।
- सोइ कछु कीजै दीनदयाल। जातें जन छन चरन न छाँड़ै, करुनासागर, भक्तरसाल - १.१२७।
- क्रि. वि.
- [हिं. जा +ते (प्रत्य.)]
- जातौ
- जाती, होता।
- जम कौ त्रास सबै मिटि जातौ, भक्त नाम तेरौ परतौ - १ - २९७।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाना]
- जातौ
- नष्ट होता (है), जाता है।
- सूरदास कछु थिर न रहैगो जो आयौ, सो जातौ - १ - ३०२।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाना]
- जातौ
- जाता, प्रस्थान करता।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाना]
- जातौ
- लै जातौ-क्रि. स.= ले जाती, साथ लिबा जाता।
- रावन मारि, तुम्हें ले जातौ, रामाज्ञा नहिं पायौ - ९ - ८८।
- संज्ञा
- जात्य
- अच्छे वंश का, कुलीन।
- वि.
- [सं.]
- जात्य
- श्रेष्ठ, उत्तम।
- वि.
- [सं.]
- जात्य
- अच्छा लगनेवाला, सुंदर।
- वि.
- [सं.]
- जात्र, जात्रा
- यात्रा।
- हुतौ आढ्य तब कियौ असत्यय, करी न ब्रज - बन - जात्र। पोषे नहिं तुव दास प्रेम सौं, पोष्यौ अपनौ गात्र - १ - २१६।
- संज्ञा
- [सं यात्रा]
- जात्री
- यात्रा करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं. यात्री]
- जाथका
- ढेरी, राशि।
- संज्ञा
- [सं, जूथिका]
- जादवँ
- यदुवंशी।
- यह कहि पारथ हरि - पुर गए। सुन्यौ, सकल जादव छै भए - १ - २८६।
- संज्ञा
- [सं. यादव]
- जादवनाथ, जादवपति
- श्रीकृष्णचंद्र।
- (क) जन यह कैसे कहै गुसाई। तुम बिनु दीनबंधु जादवपति, सब फीकी ठकुराई - १ - १९५।
- संज्ञा
- [सं. यादव+नाथ, पति]
- जादवराई, जावराई
- श्रीकृष्णचंद्र।
- (क) भक्तबछल श्री जादवराइ। भीषम की परतिज्ञा राखी, अपनौ बचन फिराई - १ - २६७।
(ख) हरि सौं भीषम विनय सुनाई। कृपा करी तुम जादवराई - १ - २७७।
- संज्ञा
- [सं. यादव+हिं. राय]
- जादसपति, जादसपती
- जल-जीव-जंतु के स्वामी, वरुण।
- संज्ञा
- [सं यादसांपति]
- जादा
- ज्यादा, अधिक।
- वि.
- [फ़ा. ज्यादः]
- गोपदो
- गाय के खुर के समान छोटा।
- वि.
- [सं. गो+पद + ई (प्रत्य.)]
- गोपन
- छिपाव, दुराव।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपन
- रक्षा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपन
- व्याकुलता।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपन
- दीप्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपना
- छिपाना, लुकाना।
- क्रि. स.
- [सं. गोपन]
- गोपनीय
- छिपाने योग्य, गोप्य।
- वि.
- [सं.]
- गोपपति
- श्रीकृष्ण।
- दीनदयाल, गोपाल, गोपपति, गावत गुन आवत ढिग ढरहरि - १ - ३१२।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपांगना
- गोप जाति की स्त्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपा
- छिपानेवाला।
- वि.
- [सं.]
- जाइ
- अद्भुत काम, इंद्रजाल।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जाइ
- अद्भुत खेल या कृत्य।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जाइ
- टोना, टोटका।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जाइ
- मोहनी शक्ति।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जादूगर
- जादू करनेवाला।
- संज्ञा
- [फ़.]
- जादूगरी
- जादूगर का खेल।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जादौ
- यदुवंशी।
- रोवत सुनि कुंती तहँ आई। कहौ, कुसल जादौ - जदुराई - १ - २८८।
- संज्ञा
- [सं. यादव]
- जादौकुल
- यादवकुल, यदुवंश।
- फूले फिरै जादौकुल आनँद समूल मूल, अंकुरित पुन्य फूले पाछिले पहर के - १० - ३४।
- संज्ञा
- [सं. यादव+कुल]
- जादौपति
- श्रीकृष्णचंद्र।
- अब किहिं सरन जाउँ जादौपति, राखि लेहु, बलि, त्रास निवारी - १ - २६०।
- संज्ञा
- [सं. यादव+पति]
- जादौराइ, जादौराई
- भीकृष्णचंद्र।
- तुम्हरी गति न कछु कहि जाइ। दीनानाथ, कृपाल, परम सुजान जादौराइ - ३ - ३।
- संज्ञा
- [सं. यादव+हिं. राय]
- जान
- ज्ञान, जानकारी।
- संज्ञा
- [सं, ज्ञान]
- जान
- समझ, अनुमान, ख्याल, विचार।
- संज्ञा
- [सं, ज्ञान]
- जान
- जान-पहचान-परिचय, जानकारी।
- यौ.
- जान
-
- जान में :- जानकारी में, ध्यान में।
- मु.
- जान
- सुजान, ज्ञानवान, चतुर।
- प्रभु कौ देखौ एक सुभाइ। अतिगंभीर - उदार - उदधि हरि जान - सिरोमनि राइ - १ - ८।
- वि.
- [सं., ज्ञानी]
- जान
- घुटना।
- संज्ञा
- [सं. जानु]
- जान
- जाँघ, रान।
- संज्ञा
- [फ़ा. जानू]
- जान
- जानो, मानो।
- अव्य.
- [हिं. जानो]
- जान
- सवारी।
- संज्ञा
- [सं. यान]
- जान
- विमान।
- संज्ञा
- [सं. यान]
- जान
- प्राण, जीव, दम।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जान
-
- जान आना :- जी ठिकाने होना, चित्त स्थिर होना।
जान का गाहक (लेवा) :- (१) मार डालने की इच्छा रखनेवाला। (२) परेशान करनेवाला। जान का रोग :- सदा कष्ट देनेवाला विषय, व्यक्ति या वस्तु। जान के लाले पड़ना :- जान बचाना कठिन हो जाना। अपनी जान को जान न समझना :- (१) अपने प्राण की चिंता न करना। (२) बहुत ज्यादा परिश्रम करना, परिश्रम के आगे अपने सुख-दुख की परवाह न करना। दूसरे की जान को जान न समझना :- दूसरे से बहुत ज्यादा परिश्रम कराना, अपने काम के आगे दूसरे के सुख-दुख की परवाह न करना। (दूसरी की, किसी की) जान को रोना :- कष्ट देनेवाले को झुँझलाहट के साथ याद करके उसे बुराभला कहना। जान खाना :- (१) बार-बार परेशान करना। (२) किसी बात या काम के लिए बार-बार कहना। जान खोना :- मरना। जान चुराना :- किसी काम को न करने की इच्छा से टाल - टूल करना। जान छुड़ाना :- (१) किसी झंझट से बचने के लिए अपने को अलग रखना, संकट टालना। (२) प्राण बचाना। जान छूटना :- (१) किसी झंझट या मुसीबत से छुटकारा मिलना। (२) प्राण बचना। जान जाना :- मरना। (किसी पर) जान जाना :- (किसी से) इतना प्रेम होना कि उसे बिना देखे विकल हो जाना। जान जोखों :- जीवन का संकट या डर। जान तोड़कर :- बहुत परिश्रम करके। जान दूभर होना :- झंझटों, कष्टों या संकटों के मारे जीने की इच्छा न रह जाना। जान देना :- मरना। (किसी पर) जान देना :- (१) किसी के अप्रिय कार्य से दुखी होकर, लजाकर या क्रोध से मरना। (२) किसी को इतना चाहना कि उसके लिए प्राण देने को तैयार रहना। (किसी के लिए) जान देना :- (किसी से) इतना ज्यादा प्रेम करना कि सब कुछ सहने, यहाँ तक कि प्राण तक देने, को तैयार रहना। (किसी वस्तु के लिए या पीछे) जान देना :- किसी वस्तु की प्राप्ति या रक्षा के लिए प्राण तक देने को तैयार रहना। जान निकलना :- (१) मरना। (२) डर लगना। (३) बहुत कष्ट होना। जान पड़ना :- ज्ञात होना, मालूम पड़ना। जान पर आ बनना (नौबत आना) :- (१) बहुत परेशानी होना। (२) जान बचना कठिन मालूम होना। जान पर खेलना :- प्राण की परवाह न करके अपने को किसी संकट या मुसीबत में डालना। जान बचाना :- (१) प्राण की रक्षा करना। (२) किसी झंझट या मुसीबत से बचने के लिए अपने को दूर रखना। जान मार कर काम करना :- कड़ा परिश्रम करना। जान मारना :- (१) मार डालना। (२) परेशान करना। (३) बहुत मेहनत करना। (४) कड़ा काम लेना। जान में जान आना :- धीरज बँधना, भय या घबराहट का संकट-काल टल जाना। जान लेना :- (१) मार डालना। (२) परेशान करना। (३) कड़ा काम लेना। जान सी निकलने लगना :- (१) बहुत कष्ट होना। (२) संकट या कष्ट से घबड़ा जाना। जान सूखना :- (१) भय या संकट के कारण स्तब्ध रह जाना। (२) बहुत बुरा लगना, परंतु कुछ कह न सकना; खल जाना। (३) बड़ा कष्ट होना। जान से जाना :- (१) मरना। (२) बहुत कष्ट सहना या परेशान होना। जान से मारना :- प्राण लेना। जान से हाथ धोना :- मर जाना। जान हलकान (हलाकान) करना :- तंग या हैरान करना। जान हलकान (हलाकान) होना :- तंग या परेशान होना। जान हथेली पर लिये फिरना :- जान की परवाह न करके संकट का सामना करना। जान होंठों पर आना :- (१) प्राण निकलने को होना। (२) बहुत कष्ट होना।
- मुु.
- जान
- बल, शक्ति।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जान
- उत्तम या श्रेष्ठ अंश या भाग, सार भाग या तत्व।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जान
- शोभा, सुंदरता, मजा या स्वाद बढ़ानेवाली चीज।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जान
-
- जान आना :- शोभा या सुंदरता बढ़ना।
- मु.
- जान
- जाना, प्रस्थान करना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाना]
- जान
- बीतना, व्यर्थ जाना, निष्फल होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाना]
- जान
- लागे (लागो) जान-बीतने लगे, व्यर्थ ही कटने लगे।
- (क) हरि न मिले माई री जनम ऐसे ही लागो जान - २७४३। (ख) अब यों ही लागे दिन जान - २७४४।
- प्र.
- जान
- पाऊँ जान-जाने का मार्ग पाऊँ।
- चहुँ दिसि लंक - दुर्ग दानव दल, कैमैं पाऊँ जान - ९ - ७५।
- प्र.
- जान
- जानकर, समझकर।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जान
-
- जान-अजान :- जान बूझकर या बे समझे बुझे।
उ. - जान-अजान नाम जो लेइ। हरि बैकुँठ बास तिहिं देइ - ६ - ४। अपनैं जान :- अपनी समझ में, जहाँ तक मेरी बुद्धि जाती है। उ. - अपनै जान मैं बहुत करी - १ - ११५। जान पड़ना :- (१) मालूम होना, प्रतीत होना। (२) अनुभव होना। जानकर अनजान बनना :- दूसरे को धोखा देने या स्वयं झंझट और परेशानी से बचने के लिए जानते हुए भी किसी प्रसंग में अनभिज्ञ बनना। जान-बूझकर :- समझ-बूझकर, सोच-विचार कर। जान रखना :- (१) ध्यान में रखना। (२) (चेतावनी देते या धमकाते हुए) समझाना।
- मु.
- जानई
- जानता (है), अनुभव करता (है)।
- दीपक पीर न जानई (रे) पावक परत पतंग। तनु तौ तिहिं ज्वाला जरथौ। (पै) चित न भयौ रस - भंग - १ - ३२५।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानई
- परवाह करती, ध्यान देती।
- कछु कुल - धर्म न जानई, रूप सकल जग राँच्यौ (हौं) - १ - ४४।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानकार
- जाननेवाला, जानकारी रखनेवाला।
- वि.
- [हिं. जानना + कार (प्रत्य.)]
- जानकार
- कुशल, चतुर।
- वि.
- [हिं. जानना + कार (प्रत्य.)]
- जानकारी
- विषय या प्रसंग का ज्ञान या परिचय।
- संज्ञा
- [हिं. जानकारी]
- जानकारी
- कुशलता, विज्ञता।
- संज्ञा
- [हिं. जानकारी]
- जानकि, जानकी
- राजा जनक की पुत्री सीता जो श्रीरामचंद्र की पत्नी थीं।
- इहिं बिधि सोच करत अति ही नृप, जानकि - शोर निरखि बिलखात - ९ - ३८।
- संज्ञा
- [सं. जानकी]
- जानकी - जानि
- जानकी जिनकी स्त्री है। वे रामचंद्र जी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जानकी जीवन
- जानकी के लिए जीवनरूप हैं जो वे रामचंद्र जी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जानकीनाथ
- जानकी के पति श्रीरामचंद्रजी।
- सौ बातन की एकै बात। सब तजि भजौ जानकीनाथ।
- संज्ञा
- [सं.]
- जानकी मंगल
- तुलसीदास जी का एक काव्य जिसमें जानकी-विवाह वर्णित है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जानकीरमण, जानकीरमन, जानकीरवन
- जानकी के पति श्रीराम
- संज्ञा
- [सं. जानकीरमण]
- जानत
- जानते हैं।
- जिहिं जिहिं भाइ करत जन - सेवा अंतर की गति जानते - १ - १३।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानदार
- जिसमें जान हो, सजीव।
- वि.
- [फ़ा.]
- जानदार
- जिसमें बल या बूता हो, सबल।
- वि.
- [फ़ा.]
- जानदार
- जीव, जानवर, प्राणी।
- संज्ञा
- जाननहार
- जाननेवाला।
- वि.
- [हिं. जानना + हारा]
- जानना
- किसी वस्तु या प्रसंग के संबंध में ज्ञान या जानकारी होना।
- क्रि. स.
- [सं. ज्ञान]
- जानना
- जानना-बूझना-ज्ञान या जानकारी रखना।
- यौ.
- जानना
-
- किसी का कुछ जानना :- (१) किसी से सहायता पाना।
(२) किसी के किये हुए उपकार को मानना। मैं नहीं जानता :- मैं जिम्मेदार नहीं हूँ।
- मु.
- जानना
- सूचना या खबर पाना या रखना।
- क्रि. स.
- जानना
- सोचना, अनुमान करना, अटकल लड़ाना।
- क्रि. स.
- जानपद
- जनपद संबंधी वस्तु या प्रसंग।
- संज्ञा
- [सं.]
- जानपद
- जनपद वासी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जानपद
- देश।
- संज्ञा
- [सं.]
- जानपद
- लगान।
- संज्ञा
- [सं.]
- जानपदी
- वृत्ति।
- संज्ञा
- [सं.]
- जानपदी
- एक अप्सरा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जानहार
- जाननेसमझनेवाला, जानकार।
- वि.
- [हिं. जानना + हार (प्रत्य.)]
- जानहार
- जानेवाला।
- वि.
- [हिं. जाना + हारा]
- जानहार
- खो जानेवाला।
- वि.
- [हिं. जाना + हारा]
- जानहार
- मरने या नष्ट हो जानेवाला।
- वि.
- [हिं. जाना + हारा]
- जानहु
- जानो, मानो।
- अव्य.
- [हिं. जानना]
- जाना
- समझा, मालूम किया।
- पौरि - पाट, टूटि परे, भागे दरवाना। लंका मैं सोर परथौ, अजहुँ तें न जाना - ९ - १३९।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जाना
- गमन या प्रस्थान करना, अग्रसर होना।
- क्रि. अ.
- [सं. यान = सवारी]
- जाना
-
- किसी बात पर जाना :- किसी बात या कथन पर ध्यान देना या उसे मान लेना।
- मु.
- जाना
- दूर या अलग होना।
- क्रि. अ.
- [सं. यान = सवारी]
- जाना
- हानि होना।
- क्रि. अ.
- [सं. यान = सवारी]
- जानपन, जानपना
- जानकारी।
- संज्ञा
- [हिं. जान+पन (प्रत्य.)]
- जानपन, जानपना
- चतुराई, कुशलता।
- संज्ञा
- [हिं. जान+पन (प्रत्य.)]
- जानपनी
- जानकारी, अभिज्ञता।
- संज्ञा
- [हिं. जान + पन (प्रत्य.)]
- जानपनी
- चतुराई, कुशलता।
- संज्ञा
- [हिं. जान + पन (प्रत्य.)]
- जानमनि, जानराय
- ज्ञानियों में श्रेष्ठ, बहुत बुद्धिमान व्यक्ति, सुजान।
- संज्ञा
- [हिं. जान + मणि, राय]
- जानवर
- जीव, प्राणी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जानवर
- पशु।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जानवर
- मूर्ख, उजड्डु, नासमझ।
- वि.
- जानशीन
- वह जो स्वीकृति लेकर किसी पद पर काम करे।
उत्तराधिकारी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जानसिरोमनि
- ज्ञानियों में श्रेष्ठ, बहुत बुद्धिमान मनुष्य।
- प्रभु कौ देखौ एक सुभाइ। अति गंभीर उदार उदधि हरि जान सिरोमनिराई - १ - ८।
- संज्ञा
- [सं. ज्ञानशिरोमणि]
- जाना
-
- क्या जाना है :- क्या हानि होनी है ?
किसी बात से भी जाना :- बहुत कुछ करके भी कुछ हाथ या अधिकार न होना, कुछ करने योग्य न समझा जाना।
- मु.
- जाना
- खोना, चोरी होना।
- क्रि. अ.
- [सं. यान = सवारी]
- जाना
- (समय) बीतना या व्यतीत होना।
- क्रि. अ.
- [सं. यान = सवारी]
- जाना
- नष्ट या चौपट होना, बिगड़ जाना।
- क्रि. अ.
- [सं. यान = सवारी]
- जाना
- मरना।
- क्रि. अ.
- [सं. यान = सवारी]
- जाना
- बहना, प्रवाहित रहना।
- क्रि. अ.
- [सं. यान = सवारी]
- जाना
- जन्म देना, पैदा करना।
- क्रि. स.
- [सं. जनन]
- जानि
- पत्नी, भार्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- जानि
- जानकार।
ज्ञानी।
- वि.
- [सं. ज्ञानी]
- जानि
- जान कर, समझ कर, सूचना पाकर।
- जैसे तुम गज कौ पाउँ छुड़ायौ। अपने जन कौं दुखित जानि कै पाउँ पियादे धायौ - १ - २०।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानिहौं
- जानूंगा, अनुभव करूँगा।
- जानिहौं अब बाने की बात - १ - १७९।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानी
- ज्ञात होना, जान पड़ना।
- (क) अबिगत - गति जानी न परै। मन - बच - कर्म अगाध अगोचर, किहि बिधि बुधि सँचरै - १ - १०५।
(ख) हरि, हौं महापतित, अभिमानी। परमारथ सौं बिरत, 'विषय - रत, भाव - भगति। नहिं नैंकहु जानी - १ - १४९।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानी
- जान ली, ज्ञात हो गयी।
- (क) सूर स्याम उर ऊपर उबरे, यह सब घर - घर जानी - १० - ५३।
(ख) ब्रजे - भीतर उपज्यौ मेरौ रिपु, मैं जानी यह बात - १० - ६०। (ग) उन ब्रज - बासिनि बात न जानी समुझे सूर सकट पग पेलत - - १० - ६३। (घ) तुमहिं। भलैं करि जानी - ५३४।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानी
- जान से संबंध रखनेवाला।
- वि.
- [फ़ा. जान]
- जानी
- जानी दुश्मन-प्राण का गाहक शत्रु।
- यौ.
- जानी
- प्राणप्यारी।
- संज्ञा
- जानु
- घुटना।
- जानु - जंघ त्रिभंग सुंदर कलित कंचन दंड - १ - ३०७।
- संज्ञा
- [सं.]
- जानु
- जाँघ, रान।
- जानु सुजानु करभ - कर प्राकृति, कटि - प्रदेस किंका राजै - १ - ६९।
- संज्ञा
- [फ़ा. जानू]
- जानु
- मानो, जानो।
- अव्य
- [हिं. जानो]
- जानुपाणि, जानुपानि
- पैयाँ पैयाँ, हाथ-पैरों के बल।
- क्रि. वि.
- [सं. जानुपाणि]
- गोपा
- नाशक।
- वि.
- [सं.]
- गोपा
- अहीरिन।
- संज्ञा
- गोपा
- एक लता।
- संज्ञा
- गोपा
- गौतम बुद्ध की पत्नी, यशोधरा।
- संज्ञा
- गोपाल
- गाय का पालन-पोषण करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपाल
- ग्वाला, अहीर।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपाल
- इंद्रिय-निग्रह करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपाल
- श्रीकृष्ण।
- गाइ लेहु मेरे गोपालहिं - १ - ७४।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपाल
- राजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपाल
- एक छंद।
- संज्ञा
- [सं.]
- जानि
- सावधान हो, होश में आ, चेत जा।
- रे मन, आपु कौ पहिचानि। सब जनम तें भ्रमत खोयौ, अजहुँ तौ कछु जानि - १ - ७०।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानि
- जान-बूझकर
- (क) जानि बँधाए श्री बनवारी ३९१।
(ख) औरन जानि जान मैं दीन्हौ - १० - ३१४।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानि
-
- जानि बुझि :- जान बूझकर, सब कुछ समझते हुए भी।
उ. - जानि-बूझि मैं होत - अजान - १ - ३४२।
- मु.
- जानिब
- ओर, दिशा।
- संज्ञा
- [अ.]
- जानिबदार
- पक्षपाती, तरफदार।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जानिबदारी
- पक्षपात, तरफदारी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जानिबो
- जानना, समझना।
- मेरे जीव ऐसी आवत भइ चतुरानन की माँझ। सूर बिन मिले प्रलय जानिबो इनही दिवसनि साँझ - २७६२।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानियत
- जानता (हूँ), समझता (हूँ), अनुभव करता (हैं)।
- जे जे जात, परत ते भूतल, ज्यौं ज्वालागत चीर। कौन सहाइ, जानियत नाहीं, होत बीर निर्बोर - १ - २६९।
- क्रि. सं.
- [हिं. जानना]
- जानियै
- जानो, जान लो।
- क्रि. सं.
- [हिं. जानना]
- जानियै
- ना जानिये-न जाने।
- ना जानियै अहि धौं को वह, ग्वाल रूप बपु धारि - ६०४।
- प्र.
- जानूँ
- समझँ, मानँ, जानता हूँ।
- और बात नहिं जानूँ - सारा. ११७।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानूँ
-
- तो मैं जानूँ :- (यदि अमुक कार्य हो जाय या बात ठीक सिद्ध की जा सके) तो मैं समझूँ।
- मु.
- जानू
- जंघा, जाँघ।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जानै
- जान लेता है, ज्ञान रखता है। अनुभव करता है।
- मन - बानी कौं अगम अगोचर सो जानै जो पावै - १ - २।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानो
- मानो, जैसे।
- अव्य.
- [हिं. जानना]
- जानौं
- जानता-समझता हूँ।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानौ
- मानो, जैसे।
- अव्य.
- [हिं. जानना]
- जानौगे
- समझोगे, मानोगे।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जानौगे
-
- तब जानौगे :- (सावधान या मना करते हुए कहना कि अमुक कार्य करने पर) बुरा फल या परिणाम देखोगे।
उ. - अव जु कालि ते अनत सिधारो तब जानौगे तुम्हहिं हरी - ११८४।
- मु.
- जान्य
- एक ऋषि का नाम।
- संज्ञा
- [सं.]
- जापी
- जापक, जप करनेवाला।
- माधौ जू, मोते और न पापी। लंपट, धूत, पूत दमरी कौ, बिषय - जाप कौ जापी - १ - १४०।
- संज्ञा
- [सं. जापिन]
- जापू
- जप, जाप।
- संज्ञा
- [सं. जाप]
- जाफ
- मूर्छा, बेहोशी।
- संज्ञा
- [अ.ज़ोफ़, ज़ाफ]
- जाफत
- भोज, दावत।
- संज्ञा
- [अ.ज़ियाफत]
- जाफरान
- केसर।
- संज्ञा
- [अ. ज़ाफ़रान]
- जाफरानी
- केसर के रंग का।
- संज्ञा
- [हिं. जाफरान]
- जाब
- जाना, गमन करना।
- इन नैननि के नीर सखी री सेज भई घरनाव। चाहत हौं ताही पै चढिकै हरि जी के ढिग जाब - २७९८।
- क्रि. अ.
- [हिं. जाना]
- जाबजा
- जगह-जगह, इधर-उधर।
- क्रि. वि.
- [फ़ा.]
- जाबर
- बुड्ढा, वृद्ध।
- वि.
- [सं. जर्जर]
- जाबाल
- एक मुनि जिनकी माता का नाम जबला था। सत्यकाम नाम से भी इन्हें पुकारा जाता है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जान्यो, जान्यौ
- पता हुआ, मालूम पड़ा, जाना, ज्ञात हुआ।
- रावन सौ नृप ज़ात न जान्यौ माया बिषम सीस पर नाची - १ - १७।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जान्यो, जान्यौ
- समझा, माना, अनुमान किया।
- पायौ बीच इंद्र अभिमानी हरि बिन गोकुल जान्यौ - २८२०।
- क्रि. स.
- [हिं. जानना]
- जान्ह
- जाँघ, रान।
- संज्ञा
- [हिं. जाँघ]
- जाप
- मंत्र या स्तोत्र की विधिपूर्वक प्रवृत्ति।
- लंपट - धूत, पूत दमरी कौ, बिषयजाप कौ जापी - १ - १४०।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाप
- भगवान के नाम का बार-बार स्मरण-उच्चारण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जापक
- जप करनेवाला।
- संज्ञा
- [सं.]
- जापन
- जप।
- संज्ञा
- [सं.]
- जापन
- निवारण।
- संज्ञा
- [सं.]
- जापर
- जिस पर।
- जापर दीनानाथ ढरै। सोइ कुलीन, बड़ौ। सुंदर सोइ, जिहिं पर कृपा करै - १ - ३५।
- सर्व.
- [हिं. जा=जो+पर (प्रत्य.)]
- जापा
- सौरी, सौरगृह।
- संज्ञाा
- [सं. जनन]
- जाबालि
- एक ऋषि जो राजा दशरथ के गुरु और मंत्री थे। इन्होंने चित्रकूट-सभा में राम को घर लौटने के लिए समझाया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाबिर
- जबरदस्त, अत्याचारी।
- वि.
- [फ़ा.]
- जाब्ता
- नियम, कानून।
- संज्ञा
- [अ.ज़ाब्ता]
- जाम
- पहर, प्रहर, तीन घंटे का समय।
- रघुनाथ पियारे, आजु रहो (हौ)। चारि जाम बिस्राम हमारैं, छिन - छिन मीठे बचन कह्यौ (हो) - ९ - ३३।
- संज्ञा
- [सं. याम]
- जाम
- प्याला।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जाम
- कटोरा।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जाम
- जामुन का फल।
- संज्ञा
- [सं. जंबू]
- जामगी
- तोप को पलीता।
- संज्ञा
- [लश.]
- जामत
- उगता है।
- क्रि. स.
- [हिं. जमना]
- जामत
- उत्पन्न होता है।
- विरह दुख जहाँ नाहिं जामत नहीं उपजै प्रेम - २९०९।
- क्रि. स.
- [हिं. जमना]
- जामा
- कपड़ा, वस्त्र।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जामा
- एक ढीला-ढाला पहनावा जो प्रायः विवाह आदि के अवसर पर अब भी पहना जाता है।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जामा
-
- जामे से बाहर होना :- बहुत क्रुद्ध होना।
जामा (जामे) में फूला न समाना :- बहुत प्रसन्न होना।
- मु.
- जामा
- जमा, उगा, उत्पन्न हुआ।
- क्रि. अ.
- [हिं. जमना]
- जामा
- याम, पहर।
- संज्ञा
- [सं. याम]
- जामात, जामाता, जामातु
- कन्या का पति, दामाद।
- संज्ञा
- [सं. जामातृ.]
- जमिातनि
- जामाताओं को, दामादों को।
- तनया जामातनि कौं समदत, नैन नीर भरि आए - ९ - २७।
- संज्ञा
- [सं. जामातृ+हिं. (प्रत्य.)]
- जामि
- बहन, भगिनी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जामि
- पुत्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- जामि
- पतोहू।
- संज्ञा
- [सं.]
- जामदग्न्य
- जमदग्नि के पुत्र परशुराम।
- संज्ञा
- [सं.]
- जामदानी
- एक कढ़ा हुआ कपड़ा।
- संज्ञा
- [फ़ा. जाम:दानी]
- जामदानी
- शीशे या अबरक की बनी पेटी।
- संज्ञा
- [फ़ा. जाम:दानी]
- जामन
- वह दही या खट्टा पदार्थ जो दूध जमाने के काम आता है।
- संज्ञा
- [हिं. जमाना]
- जामन
- जामुन का फल।
- संज्ञा
- [सं. जंबू]
- जामना
- उगना, उत्पन्न होना।
- क्रि. अ.
- [हिं. जमना]
- जामनी
- यवनों की।
- वि.
- [सं, योवनी]
- जामल
- एक तंत्र।
- संज्ञा
- [सं.]
- जामबँत, जामवंत
- सुग्रीव का मित्र जो ब्रह्मा का पुत्र था। त्रेता में इसने श्रीरामचंद्र की सहायता की थी, द्वापर में श्रीकृष्ण ने इसे हरा कर इसकी कन्या जांबवती से विवाह किया था और सतयुग में इसने वामन, भगवान की परिक्रमा की थी।
- संज्ञा
- [सं. जांबवान्]
- जामवती
- जांबवान की पुत्री जो श्रीकृष्ण को ब्याही थी।
- रिच्छराज वह मनि तासौ लै जामवती कहँ दीन्हीं - १० उ. २६।
- संज्ञा
- [सं. जांबवती]
- जामि
- कुल-गोत्र की स्त्री।
- संज्ञा
- [सं.]
- जामिक
- पहरेदार, रक्षक।
- संज्ञा
- [सं. यामिक]
- जामिन
- जमानत करनेवाला।
- संज्ञा
- [अ. ज़ामिन]
- जामिनि, जामिन
- रात।
- जाम रहत जामिनि के बीतें, तिहिं शौसर उठि धाऊँ। सकुच होत सुकुमार नींद मैं, कैसैं प्रभुहिं जगाऊँ - ९ - १७२।
- संज्ञा
- [सं. यामिनी]
- जामिनि, जामिन
- जमानत, जिम्मेदारी।
- संज्ञा
- [फ़ा.]
- जामी
- पहरुआ, रक्षक।
- संज्ञा
- [सं. यामी]
- जामी
- बहन।
- संज्ञा
- [सं. जामि]
- जामी
- पुत्री।
- संज्ञा
- [सं. जामि]
- जामी
- पिता।
- संज्ञा
- [हिं. जमना, जनमना]
- जामी
- भूमि, जमीन।
- संज्ञा
- [हिं. जमीन]
- जामुन
- एक छोटा बेर के बराबर फल जिसका रंग बैंगनी और काला होता है।
- संज्ञा
- [सं. जंबु]
- जामुनी
- बैंगनी या काले रंग का।
- वि.
- [हिं. जामुन]
- जामे
- जमे, उगे, उत्पन्न हुए।
- दधि - सुत जामे नंद - दुवार - १० - १७३।
- क्रि. अ.
- [हिं. जमना=उगना]
- जामेय
- बहन का लड़का, भांजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाय
- व्यर्थ, निष्फल।
- अव्य.
- [फ़ा. जा=ठीक]
- जाय
- उँचित, वाजिब, ठीक।
- वि.
- जायका
- स्वाद, लज्जत, मजा।
- संज्ञा
- [अ. ज़ायका]
- जायकेदार
- स्वादिष्ट।
- वि.
- [हिं. जायका+फ़ा. दार]
- जायचा
- जन्मपत्री।
- संज्ञा
- [फ़ा. ज़ायचा]
- जायज
- उचित, मुनासिब, ठीक।
- वि.
- [अ., जायज़]
- जायजा
- जाँच।
- संज्ञा
- [अ.]
- जायजा
- हाजिरी।
- संज्ञा
- [अ.]
- जायद
- ज्यादा, अधिक।
- वि.
- [फ़ा. ज़ायद]
- जायदाद
- भूमि और धन-संपत्ति।
- संज्ञा
- [फा.]
- जायफर, जायफल
- एक सुगंधित फल।
- संज्ञा
- [सं. जातीफल]
- जायस
- रायबरेली का समीपवर्ती एक प्राचीन स्थान जहाँ सूफी फकीरों की गद्दी हैं।
- संज्ञा
- जाया
- पत्नी, भार्या।
- जरा मरन ते रहित अमाया। मात पिता सुत बंधु न जया।
- संज्ञा
- [सं.]
- जाया
- खराब, नष्ट, व्यर्थ।
- वि.
- [फ़ा. जाया]
- जाया
- पैदा या उत्पन्न किया।
- क्रि. स.
- [हिं. जनना]
- जायाजीव
- बगुला पक्षी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपिका
- गोप की स्त्री. गोपी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपिका
- अहीरिन, ग्वालिन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपिका
- छिपानेवाली।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपित
- छिपा हुआ, गुप्त।
- वि.
- [सं.]
- गोपिनी
- छिपानेवाली।
- वि.
- [सं.]
- गोपिनी
- श्यामलता।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपिया
- जाल का झोला जिसमें कंकड़पत्थर रखकर चलाये या फेके जायँ।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपी
- ग्वालिनी, गोपपत्नी या गोपकुमारी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपी
- ब्रज की गोपालक जाति की वे स्त्रियाँ या कन्याएँ जो श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं और जिन्होंने उनकी बालक्रीड़ा तथा अन्य लीलाओं का सुख उठाया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपी
- एक लता।
- संज्ञा
- [सं.]
- जायु
- औषध, दवा।
- संज्ञा
- [सं.]
- जायु
- जीतनेवाला, जेता।
- वि.
- जाये
- पैदा किये, जन्म दिया।
- क्रि. स.
- [हिं. जनना]
- जायो, जायौ
- जना, पैदा किया, जन्म दिया।
- (क) मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायौ। मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौं, तू जसुमति कब जायौ - १० - २१५।
(ख) धनि जसुमति ऐसो सुत जायौ - १० - २४८।
- क्रि. सं.
- [हिं. जनना]
- जायो, जायौ
- उत्पन्न या पैदा किया हुआ।
- अहो जसोदा कत त्रासति हौ यहै कोखि कौ जायौ - ३५६।
- वि.
- जार
- जाल, फंदा।
- दसौं दिसि तैं कर्म रोक्यौ, मीन कौं ज्यौं जार - २ - ४।
- संज्ञा
- [सं. जाल]
- जार
- उपपति, प्रेमी।
- संज्ञा
- [सं.]
- जार
- मारनेवाला, नाशक।
- वि.
- जार
- जलाना, आग लगाना।
- क्रि. स.
- जार
- जार दई-जला दी।
- चले छुड़ाय छिनक मैं तबहीं जार दई सब लंक - सारा. २८६।
- प्र.
- जारकर्म
- व्यभिचार।
- संज्ञा
- [सं.]
- जारज
- उपपति से उत्पन्न संतान।
- संज्ञा
- [सं.]
- जारजयोग
- जन्मपत्री में पड़नेवाला एक योग जिससे ज्ञात होता है कि संतान जारज है।
- संज्ञा
- [सं.]
- जारण
- धातु को भस्म करना।
- संज्ञा
- [सं.]
- जारत
- जलाती है, भस्मती है।
- (क) काल अगिनि सबही जग जारत - १ - २८४।
(ख) हौं तो मोहन को बिरहजरी रे तू कत जारत रे पापी - २८४९।
- क्रि. स.
- [हिं. जलाना]
- जारन
- ईंधन; लकड़ी, कंडे आदि।
- संज्ञा
- [हिं. जलाना]
- जारन
- जलाना, बलाना, सुलगाना।
- संज्ञा
- [हिं. जलाना]
- जारन
- जलाने, भस्म करने।
- (क) अस्वत्थामा बहुरि खिस्याइ। ब्रह्म - अस्त्र कौं दियौ चलाइ। गर्भ परीच्छित जारन गयौ। तब हरि ताहि जरननहिं दयौ - १ - २८९।
(ख) पुनि रिषिहूँ कौं जारन लाग्यौ - ९ - ५।
- क्रि. स.
- गोपालक
- ग्वाला, अहीर।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपालक
- शिव।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपालक
- राजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपालिका
- ग्वालिन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपालिका
- एक ओषधि।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपालिका
- एक कीड़ा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपाली
- गाय पालनेवाली।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपाली
- ग्वालिन, अहीरिन।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपाष्टमी
- कार्तिक शुक्ल अष्टमी जब श्रीकृष्ण ने गैया चराना शुरू किया था।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपिकन
- गोपियों से।
- आरजपंथ छिड़ाय गोपिकन अपने स्वारथ भोरी - २८६२।
- संज्ञा
- [सं. गोपिका]
- गोपुर
- द्वार, दरवाजा।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपुर
- स्वर्ग, गोलोक।
- करि प्रति हार तज्यौ सुर गोपुर कंचकोट सन फूट्यौ - २७५२।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपेन्द्र
- श्रीकृष्ण।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपेन्द्र
- गोपों में श्रेष्ठ श्रीनंद।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोप्ता
- रक्षा करनेवाला, रक्षक।
- वि.
- [सं.]
- गोप्ता
- विष्णु।
- संज्ञा
- [सं. गोप]
- गोप्ता
- गंगा।
- संज्ञा
- गोप्रवेश
- गोधूली, संध्या।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोप्य
- छिपाने लायक।
- वि.
- गोप्य
- छिपाया हुआ।
- वि.
- गोपी
- छिपाने या गुप्त रखनेवाली।
- वि.
- गोपी
- छिपायी या गुप्त रखी।
- क्रि. स.
- [हिं. गोपना]
- गोपीकामोदी
- एक रागिनी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपीचंद
- भतृहरि की बहन मैनावती का पुत्र जो रंगपुर (बंगाल) का राजा था और माता के उपदेश से वैरागी हो गया था।
- संज्ञा
- [सं. गोपी + हिं. चंद]
- गोपीचंदन
- एक पीली मिट्टी जो द्वारका के उस सरोवर से निकलती है जिसके किनारे जाकर, श्रीकृष्ण के स्वर्गवासी होने पर, अनेक गोपियों ने प्राण तजे थे।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपीजन
- गोपियों का समूह।
- गाइ.गोप - गोपीजन कारन गिरि कर - कमल लियो - १ - १२१।
- [सं. गोपी + जन=समूह]
- गोपीत
- एक खंजन पक्षी।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपीता
- गोपकन्या, गोपी।
- संज्ञा
- [सं. गोपी]
- गोपीथ
- सरोवर जहाँ गैयाँ जल पिएँ।
- संज्ञा
- [सं.]
- गोपीथ
- एक तीर्थ।
- संज्ञा
- [सं.]