विक्षनरी:ब्रजभाषा सूर-कोश खण्ड-५
ब्रजभाषा सूर-कोश पंचम खण्ड
[सम्पादन]- थरिया
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थाली)
- थाली।
- थरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थली)
- माँद।
- थरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थली)
- गुफा।
- थरू
- संज्ञा
- पुं.
- [सं. स्थल]
- जगह, स्थल।
- थर्राना
- क्रि. अ.
- (अनु. थर थर)
- डर से काँपना।
- थर्राना
- क्रि. अ.
- (अनु. थर थर)
- दहलना, भयभीत हो जाना।
- थल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थल)
- स्थान, ठिकाना।
- थल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थल)
- सूखी धरती।
- थल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थल)
- थल का मार्ग।
- थल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थल)
- रेगिस्तान।
- थल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थल)
- बाघ की माँद।
- थलकना
- क्रि. अ.
- (सं. स्थूल)
- झोल से हिलना- डोलना।
- थलकना
- क्रि. अ.
- (सं. स्थूल)
- मोटापे से मांस का डिलना-डोलना।
- थलचर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थलचर)
- पृथ्वी के जीव-जन्तु।
- थलचारी
- वि.
- (सं. स्थलचारी)
- भूमि पर चलनेवाले।
- थलज
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थल)
- स्थल में उत्पन्न होनेवाला पेड़- पौधा आदि।
- थलज
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थल)
- गुलाब।
- थलथल
- वि.
- (सं. स्थूल)
- मोटापे या झोल के कारण हिलता-डोलता हुआ।
- थलथलाना
- क्रि. अ.
- (हिं. थलथल या थलकना)
- करण शरीर के मांस का हिलना-डोलना।
- थलपति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थल + पति)
- राजा।
- थलरूह
- वि.
- (सं. स्थलरूह)
- पृथ्वी पर के पेड़-पौधे।
- थलिया
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थली)
- थाली।
- थली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थली)
- स्थान, जगह।
- थली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थली)
- जल के नीचे का तल।
- थली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थली)
- बैठने का स्थान।
- थली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थली)
- परती जमीन।
- थली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थली)
- टीला।
- थवर्इ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थपति, प्रा. थवइ)
- मकान बनाने-वाला, कारीगर, राज, मेमार।
- थसर
- वि.
- (सं. शिथिल)
- शिथिल।
- थसरना
- क्रि. अ.
- (सं. शिथिल)
- शिथिल होना।
- थापना
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थापना)
- रखने का कार्य।
- थापना
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थापना)
- मूर्ति आदि की स्थापना।
- थापना
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थापना)
- नवरात्र में घट-स्थापना।
- थापर
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थप्पड़)
- तमाचा, झापड़।
- थापरा
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- छोटी नाव, डोंगी।
- थापा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थाप)
- गीले हाथ से दिया हुआ रोली, चंदन अदि का छापा या चिन्ह।
- थापा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थाप)
- देवी-देवता की पूज्ञा का चंदा, पुजौरा।
- थापा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थाप)
- अनाज के ढेर पर डाला गया चिन्ह।
- थापा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थाप)
- छापे का साँचा, छापा।
- थापा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थाप)
- ढेर, राशि।
- दरिद्री
- वि.
- (हिं. दरिद्र)
- निर्धन।
- दरिद्री
- वि.
- (सं. दरिद्र)
- निर्धन, कंगाल, गरीब।
- दरिया
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- नदी।
- दरिया
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- समुद्र।
- दरिया
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दरना)
- दला हुआ अनाज, दलिया।
- दरियाई
- वि.
- (फा.)
- नदी या समुद्र से संबंधित।
- दरियाई
- वि.
- (फा.)
- नदी या समुद्र में रहनेवाला।
- दरियाई
- वि.
- (फा.)
- नदी या समुद्र के निकट का।
- दरियाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा.दाराई)
- एक रेशमी साटन।
- दरियादिल
- वि.
- (फा.)
- बहुत उदार या दानी।
- दरियादिली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा.)
- उदारता, दानशीलता।
- दरियाफ़्त
- वि.
- (फा.)
- ज्ञात, जिसका पता लगा हो।
- दरियाव
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दरिया)
- नदी।
- दरियाव
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दरिया)
- समुद्र।
- दरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्तर, स्तरी)
- मोटे सूत का
- दरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- गुफा, खोह, पहाड़ के बीच की आड़।
- उ.—अधम समूह उधारन कारन तुम जिय जक पकरी। मैं जु रह्यौं राजीवनैन दुरि, पाप-पहार-दरी—१-१३०।
- दरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- पहाड़ी खड्ड जहाँ नदी बहती हो।
- दरी
- वि.
- (सं. दरिन्)
- फाड़नेवाला।
- दरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दर=द्वार)
- द्वार का।
- दरीखाना
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दरी + खाना)
- घर जिसमें बहुत से द्वार हों।
- दरीचा
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दरीचः)
- खिड़की।
- दरीचा
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दरीचः)
- खिड़की के पास बैठने की जगह।
- दरीचा
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दरीचः)
- चोर दरवाजा।
- दरीची
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा. दरीचा)
- झरोखा, खिड़की।
- दरीची
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा. दरीचा)
- झरोखे के पास बैठने की जगह।
- दरीबा
- संज्ञा
- पुं.
- (?)
- बाजार।
- दरीबा
- संज्ञा
- पुं.
- (?)
- पान का बाजार।
- दरीभृत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पर्वत, पहाड़।
- दरीमुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- गुफा का द्वार।
- दरीमुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- श्रीराम की सेना का बंदर।
- दरेंती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दर + यंत्र)
- अनाज पीसने की चक्की।
- दरेग
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. दरेग)
- कोर-कसर, कमी।
- दरेर, दरेरा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दरण)
- रगड़ा, धक्का।
- दरेर, दरेरा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दरण)
- मेंह का झोंका या झोला।
- उ.—अति दरेर की झरेर टपकत सब अँबराई—१५६५।
- दरेर, दरेरा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दरण)
- बहाब का जोर, धारा का तोड़।
- दरेरना
- क्रि. स.
- (सं. दरण)
- रगड़ना, पीसना।
- दरेरना
- क्रि. स.
- (सं. दरण)
- रगड़ते हुए धक्का देना, धकियाते हुए ले चलना।
- दरैया
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दरण)
- दलने-पीसनेवाला।
- दरैया
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दरण)
- घातक, विनाशक।
- दरोग
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- झूठ, असत्य।
- दरोगा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दारोगा)
- थानेदार।
- दर्ज
- वि.
- (फ़ा.)
- कागज पर लिखा हुआ।
- दर्जा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- श्रेणी।
- दर्जा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- कक्षा।
- दर्जा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- पद।
- दर्जा
- क्रि. वि.
- (अ.)
- गुना, गुणित।
- दर्जिन
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दर्जी )
- दर्जी जाति की स्त्री।
- दर्जी
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दर्जी)
- कपड़ा सीनेवाला।
- मुहा.- दर्जी की सुई— जोकई तरह के काम करे।
- दर्द
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- पीड़ा, कष्ट।
- मुहा.— दर्द खाना— कष्ट सहन करना।
- दर्द
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- दुख, तकलीफ।
- दर्द
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- दया, करुणा।
- मुहा.- दर्द खाना— तरस खाना, दया करना।
- दर्द
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- धन की हानि का दुख या अफसोस।
- दर्दमंद, दर्दी
- वि.
- (फ़ा.)
- जो दर्द से दुखी हो।
- दर्दमंद, दर्दी
- वि.
- (फ़ा.)
- जो दूसरे का दुख-दर्द समझ सके, दयालु।
- दर्दुर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मेढक।
- दर्दुर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बादल।
- दर्दुर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मलय पर्वत के समीप एक पर्वत।
- दर्दुर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक चमड़ामढ़ा बाजा।
- दर्प
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- घमंड, अहंकार, मद।
- दर्प
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मान, मद मिश्रित कोप।
- दर्प
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अक्खड़पन।
- दर्प
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आतंक, रोब-दाब।
- दर्पक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- गर्व करनेवाला।
- दर्पक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कामदेव, रति का पति।
- दर्पण, दर्पन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दर्पण)
- आइना, आरसी।
- दर्पण, दर्पन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दर्पण)
- आँख, दृग।
- दर्पण, दर्पन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दर्पण)
- उद्दीपन, उत्तेजना।
- दर्पित
- वि.
- (सं.)
- गर्व या मद से भरा हुआ।
- दर्पी
- वि.
- (सं. दर्पिन्)
- गर्व या मद करनेवाला।
- दर्ब
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्रव्य)
- धन।
- दर्ब
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्रव्य)
- सोना चाँदी आदि।
- दर्बान
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.दरबान)
- द्वारपाल।
- दर्बानी
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दरबानी)
- द्वारपाल का काम।
- दर्बार
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दरबार)
- सभा, राजसभा।
- दर्बारी
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दरबारी)
- राजसभा का सदस्य।
- दर्भ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कृश, डाभ।
- दर्भ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कुशासन।
- दर्भट
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- भीतरी या गुप्त कोठरी।
- दर्भासन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कुश का बना आसन।
- दर्रा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- सँकरा पहाड़ी मार्ग।
- दर्रा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.दरना)
- मोटा आटा।
- दर्रा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.दरना)
- दरार, दरज।
- दर्राना
- क्रि. अ.
- (अनु.)
- बैधड़क चले जाना।
- दर्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- हिंसा में रुचि रखनेवाला।
- दर्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- राक्षस, दानव।
- दर्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक प्राचीन जाति जो पंजाब के उत्तर में बसती थी।
- दर्वरीक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- इंद्र मघवा।
- दर्वरीक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वायु, पवन।
- दर्वरीक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक तरह का प्राचीन बाजा।
- दर्वा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- राजा ऊशीनर की पत्नी का नाम।
- दर्शक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिखाने या बतानेवाला।
- दर्शक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- राजा के दर्शन करानेवाला।
- दर्शक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- निरीक्षण करनेवाला।
- दर्शन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- देखने की क्रिया, साक्षात्कार, देखा-देखी। इस प्रकार के दर्शन के प्रायः चार रूप हैं—प्रत्यक्ष, चित्र, स्वप्न और श्रवण।
- दर्शन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- भेंट, मुलाकात।
- दर्शन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वह विद्या या शास्त्र जिसमें पदार्थों के धर्म, कारण, संबंध आदि की विवेचना हो।
- दर्शन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नेत्र, आँख।
- दर्शन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- स्वप्न।
- दर्शन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुद्धिं।
- दर्शन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- धर्म।
- थाम
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थामना)
- थामने की क्रिया या ढंग।
- थामना, थाम्हना
- क्रि. स.
- (सं. स्तंभन, प्रा. थंभन = रोकना, हिं. थामना)
- चलती या गिरती हुई चीज को रोकना।
- थामना, थाम्हना
- क्रि. स.
- (सं. स्तंभन, प्रा. थंभन = रोकना, हिं. थामना)
- पकड़ना, ग्रहण करना।
- थामना, थाम्हना
- क्रि. स.
- (सं. स्तंभन, प्रा. थंभन = रोकना, हिं. थामना)
- सहारा या सहायता देना।
- थामना, थाम्हना
- क्रि. स.
- (सं. स्तंभन, प्रा. थंभन = रोकना, हिं. थामना)
- कार्य का भार लेना।
- थामना, थाम्हना
- क्रि. स.
- (सं. स्तंभन, प्रा. थंभन = रोकना, हिं. थामना)
- चौकसी या पहरे में रखना।
- थायी
- वि.
- (सं. स्थायी)
- सदा रहनेवाला।
- थार, थारा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. थाल)
- बड़ी थाली, थाल।
- उ.— कर कनक-थार तिय करहिं गान—९-१६६।
- थारा
- सर्व.
- (हिं. तुम्हारा)
- तुम्हारा।
- थारी
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थाली)
- थाली, बड़ी तश्तरी।
- उ.—माँगत कछु जूठन थारी—१०-१८३।
- दर्वा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- राधा की एक सखी का नाम।
- उ.—दर्वा, रंभा, कृष्ना, ध्याना, मैना, नैना, रूप—१५८०।
- दर्विका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- घी का काजल।
- दर्वी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कलछी।
- दर्वी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- साँप का फन।
- दर्वीका
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- साँप जिसके फन हो।
- दर्श
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दर्शन, साक्षात्कार।
- दर्श
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- द्वितीया तिथि।
- दर्श
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अमावास्या।
- दर्श
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अमावास्या को किया जानेवाला यज्ञ आदि।
- दर्शक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- देखने या दर्शन करनेवाला।
- दर्शन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दर्पण, आरसी।
- दर्शन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- रंग, वर्ण।
- दर्शन शास्त्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वह शास्त्र जिसमें प्रकृति, आत्मा, परमात्मा, जीवन का लक्ष्य आदि का विवेचन होता है, तत्वज्ञान।
- दर्शनीय
- वि.
- (सं.)
- देखने योग्य।
- दर्शनीय
- वि.
- (सं.)
- सुंदर।
- दर्शाना
- क्रि. स.
- (हिं. दरसाना)
- दिखाना।
- दर्शाना
- क्रि. स.
- (हिं. दरसाना)
- समझाना।
- दर्शित
- वि.
- (सं.)
- दिखलाया या समझाया हुआ।
- दर्शी
- वि.
- (सं. दर्शिन्)
- देखनेवाला।
- दर्शी
- वि.
- (सं. दर्शिन्)
- जानने, समझने या विचार करनेवाला।
- दल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- फूल की पंखड़ी
- दल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पौधे का पत्ता।
- उ.—अद्भुत राम नाम के अंक। धर्म-अंकुर के पावन द्वै दल, मुत्कि-बधू-ताटंक—१-९०।
- दल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- समूह, गिरोह।
- दल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पक्ष, गुट्ट, मंडली।
- दल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सेना।
- उ.—(क) कौरौ-दल नासि-नासि कीन्हौं जन-भायौं—१-२३। (ख) जा सहाइ पाँडव दल जीतौ—१-२६९।
- दल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- किसी फ़ल या समतल पदार्थ की मोटाई।
- दल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- किसी अस्त्र का कोष म्यान।
- दल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- धन।
- दलक, दलकन
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ. दलक)
- गुदड़ी
- दलक, दलकन
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दलकना)
- किसी धातु या बाजे पर किये गये आघात से उत्पन्न कंप, थर-थराहट, धमक, झनझनाहट।
- दलक, दलकन
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दलकना)
- रह रहकर उठने वाली टीस।
- दलकना
- क्रि. अ.
- (सं. दलन)
- फट या चिर जाना।
- दलकना
- क्रि. अ.
- (सं. दलन)
- काँपना, थर्राना।
- दलकना
- क्रि. अ.
- (सं. दलन)
- चौंकना।
- दलकना
- क्रि. अ.
- (सं. दलन)
- विकल होना।
- दलकना
- क्रि. स.
- (सं. दलन)
- डराना, भयभीत करना, भय से कँपाना।
- दलकि
- क्रि. स.
- (हिं. दलकना)
- भयभीत करके, डराकर।
- उ.—सूरजदास सिंह बलि अपनी लीन्हीं दलकि सृगालहिं।
- दलगंजन
- वि.
- (सं.)
- सेना का नाश करनेवाला वीर।
- दलदल
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दलाढ्य)
- कीचड़, पंक।
- दलदल
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दलाढ्य)
- जमीन जहाँ बहुत कीचड़ हो।
- मुहा.- दलदल में फँसना— (१) कीचड़ से लथपथ होना। (२) किसी मुसीबत या जंजट में फँस जाना। (३) किसी काम का उलजन याय जगड़े में इस तरह फँस जाना कि फैसला न हो सके, खटाई में पड़ जाना।
- दलदला
- वि.
- पुं.
- (हिं. दलदल)
- जहाँ कीचड़ हो।
- दलदली
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दलदल)
- (धरती) जहाँ कीचड़ हो।
- दलदार
- वि.
- (हिं. दल + फ़ा. दार)
- मोटे दल का।
- दलन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दलने, पीसने या चूर करने का काम
- दलन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नाश. संहार।
- दलना
- क्रि. स.
- (सं. दलन)
- रकड़ या पीसकर चूर चूर करना।
- दलना
- क्रि. स.
- (सं. दलन)
- रौंदना, कुचलना, दबाना भीड़ना, मसलना
- दलना
- क्रि. स.
- (सं. दलन)
- चक्की में डालकर अनाज आदि को मोटा मोटा पीसना।
- दलना
- क्रि. स.
- (सं. दलन)
- नष्ट-ध्वस्त करना, जीत लेना।
- दलना
- क्रि. स.
- (सं. दलन)
- तोड़ना, खंड खंड करना।
- दलना
- वि.
- (सं. दलन)
- संहार करने वाले, दलन करने वाले।
- उ.—गोपी लै उठाई जसुमति कैं दीन्पौ अखिल असुर के दलना—१०-५४।
- दलनि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दलना)
- पीसने-दलने की क्रिया।
- दलनीय
- वि.
- (सं. दलन)
- दलने के योग्य।
- दलाप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सेनानायक।
- दलाप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सोना।
- दलपति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अगुआ, मुखिया, सेनापति।
- दल-बल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- लाव-लश्कर, फौज-फाँटा।
- दाल बादल
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दल +बादल)
- बादलों का समुह।
- दाल बादल
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दल +बादल)
- भारी सेना, दल-बल।
- दाल बादल
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दल +बादल)
- बड़ा शामियाना।
- दलमलना
- क्रि. स.
- (हिं. दलना + मलना)
- रौंद डालना, कुचल देना, पीस डालना।
- दलमलना
- क्रि. स.
- (हिं. दलना + मलना)
- नाश करना, मार डालना।
- दलवाना
- क्रि. स.
- (हिं. दलना का प्रे.)
- दलने पीसने का काम कराना।
- दलवाना
- क्रि. स.
- (हिं. दलना का प्रे.)
- कुचलवाना, रौदाना।
- दलवाना
- क्रि. स.
- (हिं. दलना का प्रे.)
- नष्ट कराना।
- दलवाल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दलपाल)
- सेनापति, सेनानायक।
- दलवैया
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दलना)
- दलने-पीसनेवाला।
- दलसूचि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- काँटा, पत्तों का काँटा।
- दलसूसा
- संज्ञा
- पुं.
- (स. दलश्रसा)
- पत्तों की नस।
- दलहन
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाल +अन्न)
- वह अनाज जिसकी दाल दली जाती हो।
- दलहरा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाल +हारा)
- दाल बेचनेवाला।
- दलहा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थाल्हा)
- थाला, आलबाल।
- दलाना
- क्रि. स.
- (हिं. दलना का प्रे.)
- दलवाना-पिसवाना।
- दलारा
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- झूलनेवाला बिस्तर।
- दलाल
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- माल बेचने-खरीदने में कुछ धन लेकर सहायता करनेवाला।
- दलाल
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- स्त्री-पुरुषों को अनाचार के लिए मिलानेवाला।
- दलाली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- दलाल या मध्यस्थ का काम।
- दलाली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- दलाल को मिलनेवाला धन।
- उ.—भत्कनि-हाट बैठि अस्थिर ह्यौ, हरि नग निर्मल लेहि। काम-क्रोध-मद-लोभ-मोह तू, सकल दलाली देहि—१-३१०।
- दलि
- क्रि. स.
- (हिं. दलना)
- रौंद या कुचल कर।
- उ.—माधौ, नैंकु हटकौ गाइ।¨¨। छुधित अति न अधाति कबहूँ, निगम-द्रुम दलि खाइ—१-५६।
- दलि
- क्रि. स.
- (हिं. दलना)
- कुचली जाकर, कुचल जाने पर, पीड़ित होने पर।
- उ.—रसना द्विज दलि दुखित होति बहु तउ रिस कहा करै—१-११७।
- दलील
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ.)
- तर्क, युक्ति।
- दलील
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ.)
- बहस।
- दले
- क्रि. स.
- (हिं. दलना)
- नष्ट किये, मार डाले।
- उ.—सूरदास चिरजीवहु जुग-जुग दुष्ट दले दोउ नंददुलारे—२५६९।
- दलेपंज
- वि.
- (हिं. ढलना+पंजा)
- ढलती उम्र का।
- दलैया
- वि.
- (हिं. दलना)
- दलने-पीसने वाला।
- दलैया
- वि.
- (हिं. दलना)
- मीड़ने-मसलने वाला।
- दलैया
- वि.
- (हिं. दलना)
- मारने या नाश करने वाला।
- दल्भ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- धोखा।
- दल्भ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पाप।
- दवँगरा
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- वर्षा ऋतु का पहला छींटा।
- दलि-भलि
- क्रि. स.
- (हिं. दलना + मलना)
- नाश करके, मारकर।
- उ.—धनि जननी जो सुभटहिं जावै। भीर परैं रिपु कौं दल दलि-मलि कौतुक करि दिखरावै—९-१५२।
- दलित
- वि.
- (सं.)
- जो मसला या मीड़ा गया हो।
- दलित
- वि.
- (सं.)
- रौंदा या कुचला हुआ।
- दलित
- वि.
- (सं.)
- खंड-खंड किया हुआ।
- दलित
- वि.
- (सं.)
- नष्ट-विनष्ट, छिन्न भिन्न।
- दलिद्र
- वि.
- (हिं. दरिद्र)
- निर्धन, धनहीन।
- दलिया
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दलना)
- मोटा पिसा अनाज।
- दली
- क्रि. स.
- (हिं. दलना)
- रगड़ी, मसली, मीड़ी, कुचली।
- उ.—पग सौं चाँपी पूँछ, सबै अवसान भुलायौ। चरन मसकि धरनी दली, उरग गयौ अकुलाइ—५८९।
- दली
- वि.
- (सं. दलिन्)
- दल या मोटाईवाला।
- दली
- वि.
- (सं. दलिन्)
- पत्तों से युक्त।
- थापि
- क्रि. स.
- (हिं. थापना)
- प्रतिष्ठित या स्थापित करके।
- थापिया, थापी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थापना)
- चिपटा- और चौड़ा काठ का दुकड़ा।
- थापी
- वि.
- (हिं. थापना)
- लिपा हुआ, सना हुआ, लिप्त।
- उ.—कामी, बिबस कामिनी कैं रस, लोम-लालसा थापी-१-१४.।
- थापी
- संज्ञा
- पुं.
- प्रतिष्ठित या स्थापित करनेवाला।
- थापे
- क्रि. स.
- (हिं थापना)
- प्रतिष्ठित किया।
- उ.—परसुराम ह्वै के द्विज थापे दूर कियो भुवि भार-सारा, १३९।
- थापे
- संज्ञा
- पुं. बहु.
- (हिं. थापा)
- रोली-चंदन आदि के हाथ से लगाये गये छापे या चिन्ह।
- उ.—घर-घर थापे दीजिए घर-घर मंगलचार-९३३।
- थापै
- क्रि. स.
- (हिं. थापना)
- स्थापित करता है, जमाता है।
- उ.—ग्वालनि देखि मनहिं रिस काँपै। पुनि मन मैं भय अंकुर थापै-५८५।
- थापैंगे
- क्रि. स.
- (हिं. थापना)
- प्रतिष्ठित या स्थापित करेंगे।
- उ.—पुनि वलिराजहिं स्वर्गलोक में थापैंगे हरि राइ—सारा. ३४६।
- थाप्यो, थाप्यौ
- क्रि. स.
- (हिं. थापना)
- प्रतिष्ठित या स्थापित किया।
- उ.— (क) जिनि जायौ ऐसौ पूत, सब सुख-करनि फरी। थिर थाप्यौ सब परिवार, मन की सूल हरी—१.-२४। (ख) जिहिं बल बिप्र तिलक दै थाप्यौ, रच्छा करी आप बिदमान—१.-१२.। (ग) इंद्रहिं मोहि गोबर्धन थाप्यो उनकी पूजा कहा सरै-६५३। (घ) मारि म्लेच्छ धर्म फिरि थाप्यो— सारा. ३२०।
- थाम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.. स्तंभ, प्रा. थंभ)
- खंभ, स्तंभ।
- दवँरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दँवरी)
- अनाज के दानेदार डंठलों को बैलों से रौंदवाने की क्रिया।
- दव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वन, जंगल।
- दव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आग जो वन में पेडों की रगड़ से सहसा लग जाती है।
- उ. — द्रुम मनहुँ बेलि दव डाढ़ी —२५३५।
- दव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आग, अग्नि।
- उ. — आजु अजुध्या जल नहिं अँचवौं ना मुख देखौं माई। सूरदास राघव के बिछुरे मरौं भवन दव लाई — ६-४७।
- दव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आग की लपट या तपन।
- दवथु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जलन।
- दवथु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दुख।
- दवन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दमन)
- नाश।
- दवन, दवना
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दमनक)
- दौना नामक पौधा।
- दवंना
- क्रि. स.
- (सं. दव)
- जलाना, भस्म करना।
- दवागि, दवागिन, दवागी, दवाग्नि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दवाग्नि)
- दव, वन में वृक्षों की रगड़ से सहसा लगने-वाली आग, दावानल।
- दवानल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दव +अनल)
- वन की आग।
- दवानी
- वि.
- (अ.)
- जो सदा बना रहे, स्थायी।
- दवारि, दवारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दवाग्नि, हिं. दवागि)
- वनाग्नि, दावानल।
- उ.—दारुन दुख दवारि ज्यौं तृन-बन, नाहिंन बुझति बुझाई—-९-५२।
- दश
- वि.
- (सं.)
- जो गिनती म नौ से एक अधिक हो, दस।
- दश
- वि.
- (सं.)
- कई, बहुत से।
- दशकंठ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दस सिर वाला, रावण।
- दशकंठजहा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- रावण को मारनेवाले श्रीराम।
- दशकंठारि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दशकंठ +अरि)
- श्रीराम।
- दशकंध
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दश +हिं. कंध)
- रावण।
- दवनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दमन)
- अनाज के सूखे पौधों को बैलों से रौंदवाने की किया, मँड़ाई, दँवरी।
- दवरिया
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दावाग्नि)
- जंगल की आग।
- दवा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दव)
- आग जो वन में सहसा लग जाती है।
- उ. — (क) नारी-नर सब देखि चकित भए दवा लग्यौ चहुँ कोद —५९२। (ख) नहिं दामिनि, द्रुम दवा सैल चढ़ि फिरि बयारि उलटी झर लावति — ३४८५।
- दवा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दव)
- आग, अग्नि।
- उ. — कालीदह के पुहुप माँगि पठए हमसौ उनि। ¨¨। जौ नहिं पठवहुँ काल्हि तौ, गोकुल दवा लगाइ — ५८६।
- दवा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दव)
- आग की लपट या तपन।
- जोग-अगिनि की दवा देखियत —३०१८।
- दवा, दवाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा. दवा)
- औषध।
- मुहा.- दवा को न मिलना— जरा भी न मिलना, दुर्लभ होना।
- दवा, दवाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा. दवा)
- रोग दूर करने का उपाय।
- दवा, दवाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा. दवा)
- (किसी भाव को) मिटाने का उपाय।
- दवा, दवाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा. दवा)
- ((किसी के) उपचार या सुधारने का उपाय।
- दवाखाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- औषधालय।
- दशकंधर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- रावण।
- उ.—दशकंधर कौ बेगि सँहारौ दूर करौ भुव-भार—सारा.२५९।
- दशक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- लगभग दस वस्तुओं आदि का समूह।
- उ.—गाउँ दशक शिरदार कहाई—१००२।
- दशक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सन्, संवत् आदि में दस-दस वर्षों का समूह।
- दशकर्म
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दस संस्कार—गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकरण निष्कामण,नामकरण, अन्नप्राशन चुड़ाकरण, उपनयन और विवाह।
- दशगात्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शरीर के दस प्रधान अंग।
- दशगात्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मृतक-संबंधी एक कर्म जो मरने के बाद दस दिन तक पिंड-दान-द्वारा किया जाता है।
- दशग्रीव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- रावण।
- दशति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- सौ, शत।
- दशधा
- वि.
- (सं.)
- दस प्रकार या ढग का।
- दशधा
- क्रि. वि.
- (सं.)
- दस प्रकार से।
- दशद्वार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शरीर के दस छिद्र—दो कान, दो आँख, दो नथुने, मुख, गुदा, लिंग और ब्रह्यांड।
- दशन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दाँत।
- उ.—ज्यों गजराज काज के औसर औरे दशन देखावत—२९९३।
- दशन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कवच।
- दशन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शिखर।
- दशनच्छद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- होंठ।
- दशनबीज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अनार, दाड़िम।
- दशनाम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- संन्यासियों के दस भेद—तीर्थ, आश्रम, वन, अरगय, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती भारती, पुरी।
- दशनामी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दश +हिं. नाम)
- संन्यासियों का एक वर्ग जो शंकराचार्य के शिष्यों से चला माना जाता है।
- दशनामी
- वि.
- (सं. दश +हिं. नाम)
- दशनाम से संबंधित।
- दशबल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुद्धदेव, जिन्हे दस बल प्राप्त थे—दान, शील, क्षमा, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा, बल, उपाय, प्रणिधि और ज्ञान।
- दशभूमिग, दशभूमीश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दस बलों को प्राप्त करनेवाले बुद्धदेव।
- दशम
- वि.
- (सं.)
- दसवाँ।
- दशम दशा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- मरण, मृत्यु।
- दशमलव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- गणित में पूर्ण इकाई से कम और उसका अंश सूचित करने वाले अंक।
- दशमांश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दसवाँ अंश या भाग।
- दशमी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- चांद्र मास के शुक्ल और कृष्ण पक्षों की दसवीं तिथि।
- दशमी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- विमुक्त अवस्था।
- दशमी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- मरण अवस्था।
- दशमुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दसमुख वाला, रावण।
- दशमूल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दस पेड़ों की छाल या जड़।
- दशमौलि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- रावण।
- दशरथ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अयोध्या के राजा जो इक्ष्वाकु वंशी थे और जिनके चार पुत्रों में श्रीराम बड़े थे।
- दसरथसुत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- श्रीरामचद्र।
- दशरात्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दस रातों में होनेवाला यज्ञ।
- दशवाजी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दशवाजिन्)
- चंद्रमा।
- दशवाहु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शिव जी, महादेव।
- दशशिर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दश +शिरस)
- रावण।
- दशशीर्ष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- रावण।
- दशशीर्ष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक अस्त्र जो दूसरों के अस्त्रों को निष्फल करनेके लिए चलाया जाता था।
- दशशीश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दशशीर्ष)
- रावण
- दशस्यंदन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- राजा दशरथ।
- दशहरा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ज्येष्ठ शुक्ला दशमी जो गंगा जी की जन्म-तिथि मानी जाती है।
- दशहरा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- विजयादशमी।
- दशांग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सुगंधित धूप जो पूज न के समय जलायी जाती है।
- दशांत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुढ़ापा।
- दशा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- हालत, अवस्था, स्थिति।
- दशा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- मनुष्य के जीवन की दस अवस्थाओं —गर्भवास, जन्म, बाल्य, कौमार, पोगड़, यौवन, स्थविर्य, जरा, प्राणरोध और नाश—में एक।
- दशा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- साहित्य में विरही की दस अवस्थाओं —अभिलाष, चिंता, स्मरण, गुण-कथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण—में एक।
- दशा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- ज्योतिष में प्रत्येक ग्रह का नियत भोगकाल।
- दशा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दीपक की बत्ती।
- दशाह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मृतक-कर्मो का दसवाँ दिन।
- दस
- वि.
- (सं. दश)
- जो पाँच का दूना हो।
- मुहा.- दस बीसक— कई, बहुत से। उ.— बेसन के दस-बीसक दोना— ३९६।
- दस
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दश)
- पाँच की दूनी संख्या और उसका सूचक अंक।
- दसएँ
- वि.
- (हिं. दसवाँ)
- दसवाँ, दसवें।
- उ.—दसए मास मोहन भए (हो) आँगन बाजै तू—१०-४०।
- दसकंठ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दशकंठ)
- रावण।
- दसकंध
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दश +स्कध=हिं. कंध)
- रावण।
- उ.—बहुरि बीर जब गयौ अवासहिं, जहाँ बसै दस कंध—९-७५।
- दसकंधर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दशकंधर)
- रावण।
- उ.—दस-कंधर मारीच निसाचर यह सुनि कै अकुलाए—९-५७।
- दसक
- वि.
- (सं. दश +हिं. एक)
- लगभग दस।
- उ.—बर्ष ब्यतीत दसक जब होइ। बहुरि किसोर होइ पुनि सोइ—३-१३।
- दसठोन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दश +थन)
- प्रसूता स्त्री का दसवें दिन का स्नान जब वह सौरी से दूसरे स्थान को जाती है।
- दसन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दशन)
- दाँत।
- उ.—ज्यों गजराज काज के औसर औरे दसन दिखावत—२९९३।
- मुहा.- तृन दसननि लै (धरि)— दाँत में तिनका लेकर, विनयपूर्वक क्षमा-याचना करके, गिड़गिड़ाते हुए। उ.— (क) तृन दसननि लै मिलि दसकंधर, कंठनि मेलि पगा— ९-११४। (ख) हा हा करि दस ननि तृन धरि धरि लोचन जलनि ढराउँरी— १६७३।
- दशा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- चित्त।
- दशा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कपड़े का छोर या अंचल।
- दशाकर्ष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दीपक
- दशाकर्ष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अंचल।
- दशानन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दश + आनन=मुख)
- रावण।
- दशाश्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दश +अश्व)
- चंद्रमा।
- दशाश्वमेध
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- काशी का एक तीर्थ जहाँ राजार्षि दिवोदास की सहायता से ब्रह्या का दस अश्वमेध करना प्रसिद्ध है।
- दशाश्वमेध
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- प्रयाग का एक घाट जहाँ का जल कभी बिगड़ता नहीं माना जाता।
- दशास्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दशमुख, रावण।
- दशाह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दस दिन।
- थारू, थारु, थाल, थाला
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थाली)
- बड़ी थाली, बड़ी तश्तरी।
- थाला
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थालक)
- थाँवला, आल-बाल।
- थाला
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थालक)
- वृक्ष के चारों ओर बना चबूतरा।
- थालिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थालिका)
- थाला, थाँवला।
- थालिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थाली)
- थाली।
- उ.— झलमल दीप समीप सौंजे भरि लेकर कंचन थालिका —८०६।
- थाली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थाली =बटलोई)
- काँसे-पीतल आदि धातुओं की बनी हुई बड़ी तश्तरी।
- मुहा.- थाली का बैंगन— वह व्यक्ति जो निश्चित सिद्धांत न रखता हो और थोड़ॆ हानि-लाभ से विचलित होकर कभी एक पक्ष में हो जाय, कभी दूसरे।
थाली बजाना (१) साँप का विष उतारने के लिए थाली बजाकर मंत्र पढ़ना। (२) बच्चा होने पर थाली बजाने की रीति करना जिससे उसको डर न लगे।
- थाव
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं थाह)
- थाह, गहराई का अंत।
- थावर, थावरु
- वि.
- (सं. स्थावर)
- जो एक स्थान से दूसरे पर लाया न जा सके, अचल, जंगम का विपरीतार्थक।
- उ. — (क) थावर-जंगम, सुर-असुर, रचे सबै मैं आइ - २-३६। (ख) थावर-जंगम मैं मोहिं ज नैं। दयासील, सबसौं हित मानै ३-१३।
- थाह
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्था, हिं. थाह)
- जलाशयों का तल या थल भाग, गहराई का अंत।
- उ.— (क) ममता-घटा, मोह की बूँदैं, सरिता मैन अपारो। बूड़त कतहुँ थाह नहिं पावत, गुरु जन ओट अधारौ-१—२०९। (ख) बूड़त स्याम, थाह नहिं पावौं, दुस्साहस-दुख-सिंधु परी—१-२४९।
- मुहा.- थाह मिलना (लगना)— (१) गहरे पानी में थल का पता लगना। (२) किसी भेद का पता चलना।
डूबते को थाह मिलना— संकट में पड़े हुँ आश्रयहीन व्यक्ति को सहारा मिलना।
- थाह
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्था, हिं. थाह)
- कम गहरा पानी।
- दसना
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दशन)
- दाँत।
- उ.—सोभित सुक-कपोल-अधार, अलप-अलप दसना—१०-९०।
- दसना
- क्रि. अ.
- (हिं. डासना)
- बिछाया जाना, फैलना।
- दसना
- क्रि. स.
- (हिं. डासना)
- (बिस्तर आदि) बिछाना।
- दसना
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. डासना)
- बिस्तर, बिछौना, बिछावन।
- दसना
- क्रि. स.
- (हिं. डसना)
- डस लेना, डंक मारना।
- दसम
- वि.
- (सं. दशम)
- दसवाँ, दसवें।
- उ.—दसम मास पुनि बाहर आबै—३-१३।
- दसमाथ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दस +माथ)
- रावण।
- दसमी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दशमी)
- चांद्र मास के कृष्ण अथवा शुक्ल पक्ष की दसवीं तिथि।
- उ.—दसमी कौ संजम बिस्तरै—९-५।
- दसमौलि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दश +मौलि=सिर)
- रावण।
- दसरंग
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दस +रंग)
- एक कसरत।
- दसानन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दश + आनन)
- रावण।
- दसाना
- क्रि. स.
- (हिं. डासना)
- बिछाना,
- दसारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (देश)
- एक चिड़िया।
- दसी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दशा)
- कपड़े के छोर या किनारे का सूत,।
- दसी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दशा)
- कपड़े का पल्ला या आँचल।
- दसी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दशा)
- पता, निशाना, चिन्ह।
- दसोतरा
- वि.
- (सं. दश + उत्तर)
- दस से अधिक।
- दसोतरा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दश + उत्तर)
- सौ में दस।
- दसौं
- वि.
- (सं. दश, हिं. दस)
- कुल दस, दस में प्रत्येक, दसों।
- उ.—दसौं दिसि ततैं कर्म रोक्यो, मीन कौं ज्यौं जार—२-४।
- दसौंधी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दास=दानपात्र + बंदी=भाट)
- राजाऒं की वंशावली या विरुदावली का गान करने वाला, भाट।
- उ.—देस देस तें ढाढ़ी आये मन-वांछित फल पायौ। को कहि सकै दसौंधी उनको भयो सबन मन भायौ—सारा. ४०५।
- दसरथ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दशरथ)
- अयोध्या के राजा दशरथ।
- उ.—दसरथ नृपति —अजोध्या राव—९-१५।
- दसरथकुमार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दशरथ +कुमार=पुत्र)
- राजा दशरथ के पुत्र।
- दसवाँ
- वि.
- (हिं. दस)
- जो नौ के एक बाद हो।
- दससिर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दश +शिरसू)
- रावण।
- दससीस
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दसशीर्ष)
- रावण।
- दस-स्यंदन
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दस +स्यंदन=रथ)
- राजा दशरथ।
- दसहिं
- संज्ञा
- स्त्री. सवि.
- (हिं. दशा +हीं.)
- दशा, स्थिति या अवस्था को।
- उ. -- अपने तन में भेद बहुत बिधि, रसना न जानै नैन की दसहिं—३०१७।
- दसांग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दशांग)
- धूप जो पूजा के अवसर पर जलायी जाती है।
- दसा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दशा)
- हालत, अवस्था, स्थिति।
- दसा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दशा)
- बुरी हालन, दुर्दशा।
- उ.—नैनन दसा करी यह मेरी। आपुन भये जाइ हरि चेरे मोहिं करत हैं चेरी—पृ. ३३१ (६)।
- दस्तगीर
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- सहारा देनेवाला, सहायक।
- दस्तयाब
- वि.
- (फ़ा.)
- मिला हुआ, प्राप्त।
- दस्तखान
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दरतरख्वान)
- चादर जिस पर मुसलमानों के यहाँ भोजन की थाली रखी जाती है।
- दस्ता
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दस्तः)
- हाथ में आनेवाली (चीज)।
- दस्ता
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दस्तः)
- मूठ, बेंट।
- दस्ता
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दस्तः)
- फूलों का गुच्छ गुलदस्ता।
- दस्ता
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दस्तः)
- सिपाहियों की छोटी टुकड़ी।
- दस्ता
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दस्तः)
- चौबीस कागजों की गड़डी।
- दस्ता
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दस्तः)
- डंडा सोंटा।
- दस्ताना
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दस्तानः)
- हाथ का मोजा।
- दतंदाजी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- किसी काम में दखल देने या हस्तक्षेप करने की क्रिया।
- दस्त
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- हाथ, हस्त।
- दस्तक
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- हाथ मारकर खट खटाने की क्रिया।
- दस्तक
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- दरवाजा खटखटाना।
- मुहा.- दस्तक देना— दरवाजा खटखटाना।
- दस्तक
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- मालगुजारी वसूलने का हुक्मनामा।
- दस्तक
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- कर, महसूल टैक्स।
- उ.—मोहरिल पाँच साथ करि दीने, तिनकी बड़ी बिपरीत। जिम्मै उनके, माँगैं मोतैं, यह तौ बड़ी अनीति। बढ़ौ तुम्हार बरामद हूँ कौ लिखि कीनौ है साफ। सूरदास की यहै बीनती, दस्तक कीजै माफ—१-१४३।
- मुहा.- दस्तक बाँधना (लगाना)— बैकार का खर्च अपने ऊपर डालना।
- दस्तकार
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- हाथ का कारीगर।
- दस्तकारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- हाथ की कारीगरी।
- दस्तखत
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- हस्ताक्षर।
- दस्तखती
- वि.
- (फ़ा. दस्तखत)
- जिस पर हस्ताक्षर हों।
- दस्तावेज
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- वह पत्र पर जिस पर कुछ शर्तें तय करके दोनों पक्ष हस्ताक्षर करें।
- दस्ती
- वि.
- (फ़ा. दस्त=हाथ)
- हाथ का।
- दस्ती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा. दस्त=हाथ)
- मशाल।
- दस्ती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा. दस्त=हाथ)
- छोटी मूठ।
- दस्ती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा. दस्त=हाथ)
- विजयादशमी के दिन राजा द्वारा सरदारों में बाँटी जानेवाली सौगात।
- दस्तूर
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- रीति-रिवाज, रस्म, प्रथा।
- दस्तूर
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- नियम, कायदा।
- दस्तूरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा.)
- दूकानदारों द्वारा धनियों के नौकरों को खरीदारी करने पर दिया जानेवाला इनाम।
- दस्यु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- डाकू।
- दस्यु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- असुर।
- दहड़-दहड़
- क्रि. वि.
- (अनु.)
- धाँय-धायँ करके या लपट के साथ (जलना)।
- दहत
- क्रि. स.
- पुं.
- (हिं. दहना)
- जलाता या भस्म करता है।
- उ.—(क) उलटी गाढ़ परी दुर्वासैं, दहत सुदरसन जाकौं—१-११३। (ख) पावक जथा दहत सबही दल तूल-सुमेरु-समान—१-२६९।
- दहति
- क्रि. स.
- (हिं. दहना)
- क्रोध से संतप्त करती है, कुढ़ाती है।
- उ.—कुँवरि सौं कहति बृषभानु घरनी। नैंकु नहिं घरे रहति, तोहिं कितनौ कहति, रिसनि मोहिं दहति, बन भई हरनी —६९८।
- दहदल
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दलदल)
- कीचड़, दलदल।
- दहन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जलनें या भस्म होने की क्रिया।
- दहन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अग्नि, आग।
- दहन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कृत्तिका नक्षत्र।
- दहन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- तीन की संख्या।
- दहन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- चीता पशु।
- दहन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक रुद्र।
- दहिए
- क्रि. स.
- (हिं. दहना)
- जलिए, भस्म होइए।
- उ.—कै दहिए दारुन दावानल जाइ जमुन धँसि लीजैं—२८६४।
- दहक
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.दहन)
- आग की धधक।
- दहक
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.दहन)
- ज्वाला, लपट।
- दहक
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.दहन)
- शर्म, लज्जा।
- दहकन
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हि.दहकना)
- आग दहकने की क्रिया।
- दहकना
- क्रि. अ.
- (सं.दहन)
- लपट लौ या धधक के साथ जलना।
- दहकना
- क्रि. अ.
- (सं.दहन)
- शरीर का तपना।
- दहकाना
- क्रि. स.
- (हिं. दहकना)
- लपट या धधक के साथ आग जलाना।
- दहकाना
- क्रि. स.
- (हिं. दहकना)
- क्रोध दिलाना।
- दहग्गी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं दाह + आग)
- ताप, गरमी।
- दस्युता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- लुटेरापन, डकैती।
- दस्युता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- क्रूरता, दुष्टता।
- दस्युवृत्ति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- डकैती, चोरी।
- दस्युवृत्ति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- क्रूरता, दुष्टता।
- दस्युवृत्ति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दस्युओं को मारनेवाले, इंद्र।
- दस्त्र
- वि.
- (सं.)
- हिंसा करने वाला।
- दह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.ह्रद)
- नदी का भीतरी गड़ढा, पाल।
- उ.—लै बसुदेव धसैं दह सामुहिं तिहूँ लोक उजियारे हो।
- दह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कुंड, हौज।
- दह
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दहन)
- ज्वाला, लपट लौ।
- दह
- वि.
- (फ़ा.)
- दस।
- उ.—(क) भादौं घोर रात अँधियारी। द्वार कपाट काट भट रोके दह दिसि कंस भय भारी। (ख) गो-सुत गाइ फिरत हैं दह दिसि बने चरित्र न थोरे—२६६४।
- दहर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- छछूँदर।
- दहर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- भाई, भ्राता।
- दहर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बालक।
- दहर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नरक।
- दहर
- वि.
- छोटा
- दहर
- वि.
- सूक्ष्म।
- दहर
- वि.
- दुर्बोध।
- दहर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. ह्रद )
- नदी का गहरा गड़ढा, दह
- उ.—अति अचगरी करत मोहन पटकि गेंड्डरी दहर।
- दहर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. ह्रद )
- कुंड, हौज।
- दहर
- क्रि. स.
- (हिं, दहलाना)
- दहला कर, भयभीत करके।
- उ.—सूर प्रभु आय गोकुल प्रगट भए सतन दै हरख, दुष्ट जन मन दहर के।
- थित
- वि.
- (सं. स्थित)
- रखा हुआ, स्थापित।
- थिति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थिति)
- ठहराव, स्थिरता।
- थिति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थिति)
- ठहरने का स्थान।
- थिति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थिति)
- रहने-ठहरने का भाव।
- थिति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थिति)
- बने रहने या रक्षित होने का भाव, रक्षा।
- उ.—तुमहीं करत त्रिगुन बिस्तार। उतपति, थिति, पुनि करत सँहार-७-२१
- थिति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थिति)
- अवस्था, दशा।
- थिर
- वि.
- (सं. स्थिर)
- जो चलता हुआ या हिलता-डोलता न हो, ठहरा हुआ।
- थिर
- वि.
- (सं. स्थिर)
- शांत, धीर, अचंचल, अविचलित।
- थिर
- वि.
- (सं. स्थिर)
- जो एक ही अवस्था में रहे, स्थायी, अविनाशी।
- उ.—(क) सूरदास कछु थिर न रहैगौ, जो आयौ सो जातौ—१-३०२। (ख) जीवन जन्म अल्प सपनौ सौ, समुझि देखि मन माहीं। बादर-छाँइ, धूम-घौराहर, जैसैं थिर न रहाहीं—१-३१९। (ग) मरन भूलि, जीवन थिर जान्यौ बहु उद्यम जिय धारयौ—१-३३६। (घ) चेतन जीव सदा थिर मानौ—५-४। (च) नर-सेवा तैं जो सुख होइ; छनभंगुर थिर रहे न सोइ-७-२। (छ) असुर कौ राज थिर नाहिं देखौं— ८-८।
- थिरक
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थिरकना)
- नाचते समय पैरों का हिलना-डोलना या उठना-गिरना।
- दहनकेतन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- धूम, धुआँ।
- दहनशील
- वि.
- (सं.)
- जलनेवाला।
- दहना
- क्रि. अ.
- (सं.दहन)
- जलना, भस्म होना।
- दहना
- क्रि. अ.
- (सं.दहन)
- क्रोध से कुढ़ना, झुंझलाना।
- दहना
- क्रि. स.
- जलाना भस्म करना।
- दहना
- क्रि. स.
- दुखी करना, कष्ट पहुँचाना।
- दहना
- क्रि. स.
- कुढ़ाना।
- दहना
- क्रि. अ.
- (हिं. दह)
- धँसना, नीचे बैठना।
- दहना
- वि.
- (हिं. दहिना)
- बायाँ का उलटा, दहिना।
- दहनि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं.दहना)
- जलने की क्रिया।
- दहनीय
- वि.
- (सं.)
- जलने या जलाये जाने योग्य।
- दहनोपल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.दहन + उपल)
- सूर्यकांत मणि।
- दहनोपल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.दहन + उपल)
- आतशी शीशा।
- दहपट
- वि.
- (फा. दह=दस, दसो दिशा +पट=समतल
- ध्वस्त, नष्टभ्रष्ट, ढाया हुआ।
- उ.—तृन दसननि लै मिलि दसंकधर, कंठनि मेलि पगा। सूरदास प्रभु रघुपति आए, दहपट होई लँका ९-११४।
- दहपट
- वि.
- (फा. दह=दस, दसो दिशा +पट=समतल
- रौंदा या कुचला हुआ।
- दहपटना
- क्रि. स.
- (हिं. दहपट)
- ढा देना, नष्ट या चौपट करना।
- दहपटना
- क्रि. स.
- (हिं. दहपट)
- रौंदना, कुचलना।
- दहपट्टे
- क्रि. स.
- (हिं. दहपट)
- नष्ट किये, ध्वस्त कर दिये।
- उ.—तब बिलंब नहिं कियौ, सबै दानव दहपट्टे—१-१८०।
- दहबासी
- संज्ञा
- पुं.
- [ फ़ा. दह =दस +बासी (प्रत्य.)]
- दस सैनिकों का नायक।
- दहर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- छोटा चूहा।
- दहर-दहर
- क्रि. वि.
- (अनु.)
- धू-धू या धायँ-धाँयँ के साथ जलते हुए।
- दहरना
- क्रि. अ.
- (हिं. दहलना)
- भयभीत होना, डरना।
- दहरना
- क्रि. स.
- (हिं. दहलाना)
- भयभीत करना।
- दहराकाश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ईश्वर।
- दहरौरा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दह् +बड़ा)
- दहीबड़ा।
- दहरौरा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दह् +बड़ा)
- गुलगुला-विशेष।
- दहल
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दहलना)
- डर से काँपने की क्रिया।
- दहलना
- क्रि. अ.
- (सं. दर=डर +हिं. हलना=हिलना)
- डर से चौंकना या काँप उठना।
- मुहा.- कलेजा (जी) गहलना— डर से छाती धक धक करना।
- दहला
- संज्ञा
- पुं.
- [फ़ा. दह=दस +ला (प्रत्य.)]
- ताश (खेल) का वह पत्ता जिसमें दस चिन्ह या बूटियाँ हों।
- दहला
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. थल)
- थाला, थाँवला।
- दहाड़ना
- क्रि. अ.
- (अनु.)
- चिल्ला-चिल्ला कर रोना।
- दहाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- चौड़ा मुँह या द्वार।
- दहाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- स्थान जहाँ एक नदी दूसरी से या समुद्र से मिलती है।
- दहार
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. दयार=प्रदेश)
- प्रांत, प्रदेश।
- दहार
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. दयार=प्रदेश)
- आसपास का प्रदेश।
- दहिगल
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- एक चिड़िया।
- दहिजार
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाढ़ीजार)
- पुरुषों के लिए स्त्रियों द्वारा प्रयुक्त एक गाली।
- दहिना
- वि.
- (सं. दक्षिण)
- बायाँ का उलटा।
- दहिनावत
- वि.
- (सं. दक्षिणावर्त)
- जिसका घुमाव दाहिनी ऒर को हो दाहिनी ऒर घूमा हुआ।
- दहिनावत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दक्षिणावर्त)
- दाहिनी ऒर से चारो ऒर घूमने की क्रिया या भाव।
- उ.—दहिनाबर्त देत ध्रुव तारे सकल नखत बहु बार—सारा. १७९।
- दहलाना
- क्रि. स.
- (हिं. दहलना)
- भयभीत करना।
- दहलीज
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा. दहलीज)
- बाहरी द्वार के चौखट की निचली लकड़ी, देहली, डेहरी।
- दहलीज
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा. दहलीज)
- बाहरी द्वार से मिला कोठा।
- मुहा.- दहलीज का कुचा— हर समय पीछे लगा रहने नाला।
दहलीज न झाँकना- वैर या ईर्ष्या के कारण किसी के द्वारा पर न जाना।
दहलीज की मिट्टी ले डालना— बार-बार किसी के दरवाजे पर जाना।
- दहशत
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा.)
- डर, भय, शोक।
- दहाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा. दह=दस)
- दस का मान या भाव।
- दहाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा. दह=दस)
- दो अंकों की संख्या में बायाँ अंक जो दसगुने का बोधक होता है।
- दहाई
- क्रि. स.
- (हिं. दहाना)
- जलाकर, भस्म करके।
- दहाड़
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अनु.)
- जोर की गरज, घोर गर्जन।
- दहाड़
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अनु.)
- जोर से रोने-चिल्लाने की ध्वनि।
- दहाड़ना
- क्रि. अ.
- (अनु.)
- जोर से गरजना या चिल्लाना।
- दहिने
- क्रि. वि.
- (हिं. दहिना)
- दाहिनी ऒर को।
- उ.—दहिने देखि मृगन की मालहिं—२४८३।
- मुहा.- दहिने होना- अनुकूल होना, प्रसन्न होना।
दहिने बायें— इधर-उधर, दोनों ऒर।
- दहिनैं
- क्रि. वि.
- (हिं. दाहिना)
- दायीं ओर, दाहिने हाथ की तरफ।
- उ.—देखें नंद चले घर आवत। पैठत पौरि छींक भई बाँए, दहिनैं धाह सुनावत—५४१।
- दहिबो
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दहना=जलना)
- जलने या भस्म होने का कार्य, भाव, प्रसंग, या स्थिति।
- उ.—देखे जात अपनी इन अँखियन या तन को दहिबो—३४१४।
- दहियक
- संज्ञा
- पुं.
- ((फ़ा. दह=दस)
- दसवाँ हिस्सा।
- दहियत
- क्रि. स.
- (हिं. दहना)
- संतप्त करते हैं, दुख देते हैं।
- दहियत
- क्रि. स.
- (हिं. दहना)
- जलाते हैं, भस्म करते हैं।
- उ.—(क) ते बेली कैसैं दहियत हैं, जे अपनैं रस भेइ—१३००। (ख) चदन चंद-किरनि पावक सम मिलि मिलि या तन दहियत—२३००। (ग) जरासंध पै जाय पुकारी महा क्रोध मन दहियत—सारा. ५९६।
- दहियल
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दहला)
- थाला, थाँवला।
- दहियौ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दहि)
- दधि, दही।
- उ.—मथुरा जाति हौं बेचन दहियौ—१०-३१३।
- दही
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दधि)
- खटाई डालकर जमाया हुआ दूध, दधि।
- मुहा.- दही दही करना— कोई चीज मोल लेने के लिए जगह-जगह लोगों से कहते फिरना।
- दही
- क्रि. अ.
- (हिं. दहना)
- जली, संतप्न हुई।
- उ.—(क) चितवति रही ठगी सी ठाढ़ी, कहि न सकति कछु, काम दही—३००४। (ख) अब इन जोग-सँदेसन सुनि-सुनि बिरहिनि बिरह दही—३३४४।
- दहुँ, दहु
- अव्य.
- (सं. अथवा)
- या, अथवा।
- दहुँ, दहु
- अव्य.
- (सं. अथवा)
- कदाचित्।
- दहेंगर
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दही +घड़ा)
- दही का घड़ा।
- दहेंड़ी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दही +हंडी)
- दही की हंडी।
- दहेज
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. जहेज)
- विवाह में कन्या की ओर से वर-पक्ष को दिया जानेवाला धन और सामान, दायजा, यौतुक।
- दहेला
- वि.
- [हिं. दहला +एला (प्रत्य.)]
- जला हुआ।
- दहेला
- वि.
- [हिं. दहला +एला (प्रत्य.)]
- दुखी, संतप्त।
- दहेला
- वि.
- (हिं. दहलना)
- भीगा या ठिठुरा हुआ।
- दहेली
- वि.
- (हिं. दहेला)
- दुखी, संतप्त।
- उ.—सुनि सजनी मैं रही अकेली बिरह दहेली इत गुरु जन झहरैं—१६७१।
- दहोतरसो
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दशोत्तरशत)
- एक सौ दस।
- दहै
- क्रि. स.
- (सं. दद्दन, हिं. दहना)
- जलाती है, भस्म करती है।
- उ.—अगिनि बिना जानैं जो गहै। तातकाल सो ताकौं दहै—६-३।
- दहै
- क्रि. स.
- (सं. दद्दन, हिं. दहना)
- संतप्त करे, दुख पहुँचाती है।
- उ.—(क) यह आसा पापिनी दहै। तजि सेवा बैंकुठनाथ की, नीच नरनि कैं संग रहै—१-५३। (ख) देहऽभिमान ताहि नहिं दहै—३-१३।
- दहै
- क्रि. स.
- (सं. दद्दन, हिं. दहना)
- क्रोध दिलाती है, कुढ़ाती है।
- दहै
- क्रि. स.
- (सं. दद्दन, हिं. दहना)
- नष्ट करता या मिटाता है, क्षीण करता है।
- उ.—त्यौं जो हरि बिन जानैं कहे। सो सब अपने पापनि दहै—६-४।
- दहो
- क्रि. स.
- (हिं. दहना)
- भस्म किया, जलाया।
- उ.—निगड़ तोरि मिलि मात-पिता को हरष अनल करि दुखहिं दहो—२६४४।
- दहौं
- क्रि. अ.
- (हिं. दहना)
- जलता हूँ, बलता हूँ, भस्म होता हूँ।
- उ.—और इहाँउ बिवेक अगिनि के बिरह-बिदाक दहौं—३-२।
- दहौं
- क्रि. स.
- (हिं. दहना)
- मिटाऊँ, नष्ट दूँ।
- उ.—(क) तेरे सब संदेहैं दहौं—३-१३। (ख) तेरे सब संदेहनि दहौं—४-१२।
- दहौंगौ
- क्रि. स.
- ( हिं. दहना)
- मिटा दूँगा, नष्ट कर दूँगा।
- उ.—सूर स्याम कहै कर गहि ल्याऊ, ससि तन-दाप दहौंगौ—१०-१९४।
- दहौ
- क्रि. स.
- (सं. दहना, हिं. दहना)
- नष्ट करो, दूर करो, भस्म कर दो।
- उ.—इहाँ कपिल सौं माता कह्यौ। प्रभु मेरौ अज्ञान तुम दहौ—३-१३।
- दह्य
- वि.
- (सं.)
- जो जल सकता हो।
- दह्यो, दह्यौ
- क्रि. स.
- (हिं. दहना)
- जलाया, भस्म किया।
- दह्यो, दह्यौ
- क्रि. स.
- (हिं. दहना)
- मारा, नाश किया।
- उ. — भक्तबछल बपु धरि नरकेहरि, दनुज दह्यौ, उर दरि सुरसाँई-१-६।
- दह्यो, दह्यौ
- क्रि. अ.
- (हिं. दहना)
- जला, संतप्त हुआ।
- उ.—सुनि ताको अंतर्गत दह्यौ—१०-उ.-७।
- दह्यो, दह्यौ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दहो)
- दही।
- उ.—(क) सद माखन धृत दह्यौ सजायौ अरु मीठो पय पीजै—१०-१९०। (ख) जाको राज-रोग कफ बाढ़त दह्यौ खवावत ताहि—३१४५। (ग) कृष्णछाँड़ि गोकुल कत आये चाखन दूध दह्यौ—२६६७।
- दाँ
- संज्ञा
- पुं.
- [सं. दाच् (प्रत्य.)]
- दफा, बार।
- दाँ
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- ज्ञाता, जानकार।
- दाँई
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दायाँ)
- दाहिनी ऒर की।
- दाँई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दाई)
- बारी, बार, दफा।
- दाँउ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाँव)
- अवसर, मौका, दाउँ।
- उ.—यक ऐसेहि झकझोरति मोको पायौ नीकौ दाँउ—१६१३।
- दाँक
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्रांव= चिल्लाना)
- दहाड़, गर्जन।
- दाँकना
- क्रि. अ.
- (हिं. दाँक +ना)
- गरजना, दहाड़ना।
- दाँकै
- क्रि. अ.
- (हिं. दाँकना)
- गरज कर, दहाड़ कर।
- उ.—जैसे सिंह आपु मुख निरखै परै कूप में दाँकै हो।
- दाँग
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- दिशा, ऒर।
- दाँग
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. डंका)
- नगाड़ा, डंका।
- दाँग
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. डूँगर)
- टीला।
- दाँग
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. डूँगर)
- श्रृंग।
- दाँगर
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. डाँगर)
- पशु।
- दाँगर
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. डाँगर)
- मूर्ख।
- दाँगर
- वि.
- (हिं. डाँगर)
- जो बहुत दुबला-पतला हो।
- दाँज
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. उदाहाये)
- बराबरी, समता।
- थाह
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्था, हिं. थाह)
- गहराई का पता।
- मुहा.- थाह लगाना— (१) गहराई का पता लगाना। (२) भेद का पता चलना।
थाह लेना— (१) गहराई का पता लगाना। (२) भेद का पता चलाना।
- थाह
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्था, हिं. थाह)
- अंत, पार, सीमा।
- थाह
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्था, हिं. थाह)
- परिमाण आदि का अनुमान।
- थाह
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्था, हिं. थाह)
- भेद, रहस्य।
- मुहा.- मन की थाइ— गुप्त विचार का पता।
- थाहना
- क्रि. स.
- (हिं थाह)
- थाह या गहराई का पता लगाना।
- थाहना
- क्रि. स.
- (हिं थाह)
- पता लगाना, अनुमान करना।
- थाद्दरा
- वि.
- (हिं. थाह)
- छिछला, कम गहरा।
- थाह्यौ
- क्रि. स.
- (हिं. थाहना)
- थाह ली, गहराई का पता लगाया।
- उ.- सो बल कहा भयौ भगवान ? जिहिं बल मीन.रूप जल थाह्यौ, लियौ निगम, इति असुर-परान-१.-१२७।
- थिगली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. टिकली)
- चकती, पैबँद।
- मुहा.- थिगली लगाना- जोड़ तोड़ भिड़ाना, युक्ति लड़ाना।
बादल में थिगली लगाना- (१) बहुत कठिन काम करना। (२) असंभव बात कहना।
रेशम में टाट की थिगली— बेमेल चीज।
- थित
- वि.
- (सं. स्थित)
- ठहरा हुआ, स्थिर, स्थायी।
- दाँड़ना
- क्रि. स.
- (सं. दंड)
- दंड देना।
- दाँड़ना
- क्रि. स.
- (सं. दंड)
- अर्थ-दंड देना, जुरमाना करना।
- दाँडाजिनिक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- साधु-वेश में (दंड-आदि धारण करके) धोखा देनेवाला।
- दाँडिक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दंड देनेवाला।
- दाँडित
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जल्लाद।
- दाँड़ी
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. डाँड़)
- डंडा।
- दाँड़ी
- संज्ञा
- पुं.
- हिं. डाँड़)
- सीमा।
- दाँड़ी
- संज्ञा
- स्त्री.
- हिं. डाँड़)
- डंडी
- दाँड़ी
- संज्ञा
- स्त्री.
- हिं. डाँड़)
- डंडे में बँधी झोली की सवारी, झप्पान।
- दाँत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दंत)
- दंत, रद, दशन।
- दाँत
- यौ.
- दाँत का चौका—सामने के चार दाँत।
- मुहा.- दाँत उखाड़ना— कठिन दंड देना, मुँह तोड़ना। दाँतो (तले) उँगली काटना (दबाना)— (१) चकित होना, दंग रह जाना। (२) दुख या खेद प्रकट करना। (३) संकेत से मना करना। दाँत काटी रोटी— बहुत धनिष्ठता, गहरी दोस्ती। दाँत काढ़ना (निकालना)— (१) खीसें बाना, व्यर्थ ही हँसना। (२) दीनता दिखाना, गिड़ादड़ाना। दाँत किटकिटाना (किचकिचा ना, पासना)— (१) बहुत चोर लगाना। (२) बहुत क्रोध करना। दाँत पासि— बहुत क्रोध करके, झुंझला कर। उ.— सूर केस नहिं टारि सेकै काउ दाँत पासि जौ जग मरै— १-२३४। दाँत किरकिरे होना— हार मानना। दाँत कुरेदने को तिनका न रहना— सब कुछ चला जाना। दाँत खट्टे करना— (१) खूब है राम करना। (२) बुरी तरह हराना। दाँत खटूट हीना— (१) हैरान होना। (२) हार जाना। (किसी के) दाँतों चढ़ना— (१) किसी को खटकना या बुरा लगना। (२) किसी की टोंक या बूँस लगना। (किसी को) दाँतों चढ़ाना— (१) बुरी दृष्टि , देखना। (२) नजर लगाना। दाँत चबाना— क्रोध से दाँत पीसना। दाँत चबात— क्रोध से दाँत पीसने हुए। उ.— मेरी देह छुटत जम पठए जितक दूत धर मौं। दाँत चबात चले जमपुर हैं धाम हमारे कौं— १-१५१। दाँत जमना— दाँत निकालना। दाँत जाड़ देना— बहुत दंड देना, मुंह तोड़ना। दाँत गिरना (जड़ना, टूटना)— ब्रुढ़ापा आना। दाँत ताड़ना— (१) हैरान करना। (२) कठिन दंड देना। दाँत दिखाना— (१) हँसना। (२) डराना। (३) अपना बड़प्पन दिखाना। दाँत देखना— दाँत गिनना, परखना। दाँतों धरती पकड़ कर— बड़ी तकलीफ और किफायत से। दाँत न लगाना— बिना चबाये निगलना। किसी चीज का दाँत निकास देना, निकासना— (दाँत काढ़ना) फट जाना। दाँत निपोरना— (१) व्यर्थ ही हँसना। (२) गिड़गिड़ाना। दाँत पर न रखा जाना— बहुत ही खट्टा होना। दाँत पर मैल जमना— बहुत ही निर्धन होना। दाँत पर रखना— चखना। दाँतों पसीना आना— बहुत कठिन परिश्रम करना। दाँत बजना— दाँत चबात चले जमपुर हैं धाम हमारे कौं— १-१५१। दाँत जमना— दाँत निकालना। दाँत झाड़ देना— बहुत दंड देना, मुंह तोड़ना। दाँत गिरना (झड़ना, टूटना)— ब्रुढ़ापा आना। दाँत ताड़ना— (१) हैरान करना। (२) कठिन दंड देना। दाँत दिखाना— (१) हँसना। (२) डराना। (३) अपना बड़प्पन दिखाना। दाँत देखना— दाँत गिनना, परखना। दाँतों धरती पकड़ कर— बड़ी तकलीफ और किफायत से। दाँत न लगाना— बिना चबाये निगलना। किसी चीज का दाँत निकास देना, निकासना— (दाँत काढ़ना) फट जाना। दाँत निपोरना— (१) व्यर्थ ही हँसना। (२) गिड़गिड़ाना। दाँत पर न रखा जाना— बहुत ही खट्टा होना। दाँत पर मैल जमना— बहुत ही निर्धन होना। दाँत पर रखना— चखना। दाँतों पसीना आना— बहुत कठिन परिश्रम करना। दाँत बजना— सर्दी से दाँत बजना। दाँत मसमसाना (मीसना)— क्रोध से दाँत पीसना। दाँतों में जीभ-सा होंना— बौरयों या शत्रुऒं के बीच में रहना। दाँतों में तिनका लेना— बहुत गिड़गिड़ाना, विनती करना। (किसी जीज पर) दाँत रखना (लगना)— लेने . पाने की इच्छा रखना। ( किसी व्यक्ति पर) दाँत रखना— बदला लेने या वैर निकालने की इच्छा रखना। दाँतों से उठाना— बड़ा कंजूसी से जुगा कर रखना। (किसी पर) दाँत होना— (१) प्राप्त करने की इच्छा होना। (२) बदला लेने की इच्छा रखना। (किसी के) तालू में दाँत जमना— शामत आना।
- दाँत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दंत)
- दाँत या अंकुर की तरह किसी चीज का नुकीला भाग, दंदाना, दाँता।
- दाँत
- वि.
- (सं.)
- दबाया हुआ, दमन किया हुआ।
- दाँत
- वि.
- (सं.)
- जिसने इद्रियों को वश में कर लिया हो।
- दाँत
- वि.
- (सं.)
- दाँत से संबंध रखनेवाला।
- दाँतना
- क्रि. अ.
- (हिं. दाँत)
- (पशुऒं आदि का ) दाँत वाला होकर जवान होना।
- दाँतली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. डाट)
- काग, डाट।
- दाँता
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाँत)
- दंदाना, नुकीला कँगूरा आदि।
- दाँताकिटकिट, दाँताकिलकिल
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दाँत + किटकिटाना)
- कहा-सुनी, झगड़ा।
- दाँताकिटकिट, दाँताकिलकिल
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दाँत + किटकिटाना)
- गाली, गलौज।
- दाँति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- इंद्रियों का दमन, सहन-शक्ति।
- दाँति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- अधीनता।
- दाँति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- विनय, नम्रता।
- दाँती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दात्री)
- हँसिया।
- दाँती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दाँत)
- दाँतों की पंक्ति, बत्तीसी।
- दाँती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दाँत)
- सँकरा पंहाड़ी मार्ग, दर्रा।
- दांपत्य
- वि.
- (सं.)
- पति-पत्नी-संबंधी।
- दांपत्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पति-पत्नी का प्रेम-व्यवहार।
- दांभिक
- वि.
- (सं.)
- पाखंडी।
- दांभिक
- वि.
- (सं.)
- घमंडी।
- दांभिक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बगला, बक।
- दाँव, दाव
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाँव)
- अवसर, दाँव।
- दाँवनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दामिनी)
- एक गहना, दामिनी।
- दाँवरि, दाँवरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दाम, हिं. दाँवरी)
- रस्सी, डोरी।
- उ. — (क) दघि-मिस आपु बँघायौ दाँवरि सुत कुबेर के तारे— १-२५। (ख) बेद-उपनिषद जासु कौ निरगुनहिं बतावै। सोइ सगुन ह्यै नंद की दाँवरी बँधावै — १-४।
- दा
- संज्ञा
- पुं.
- (अनु.)
- सितार का एक बोल।
- दा
- प्रत्य.
- स्त्री.
- (अनु.)
- देनेवाली, दात्री।
- दाइँ दाइ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाँव)
- बार, दफा।
- उ.—एक दाइँ मरिवो पै मरिबो नंदनँदन के काजनि—२८७२।
- दाइँ दाइ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाँव)
- दाँव
- दाइ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दाई)
- वह स्त्री जो स्त्रियों को बच्चा जनने में सहायता देती है, दाई।
- उ.—लाख टका अरु झूमका सारी दाइ कौ नेग—१०-४०।
- दाइज, दाइजा, दाइजो
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाय)
- वह धन जो विवाह में वर-पक्ष को दिया जाय।
- उ.—(क) दसरथ चले अवध आनंदत। जनकराइ बहु दाइज दै करि, बार-बार पद बंदत—९-२७। (ख) कहुँ सुत-ब्याह बहुँ कन्या को देत दाइजो रोई।
- दाईं
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दायाँ)
- दाहिनी।
- दाईं
- संज्ञा
- स्त्री.
- [सं. दाचू (प्रत्य.), हिं. दाँ (प्रत्य.)]
- बार, दफा।
- दाईं
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. धात्री या फा. दायः)
- दूसरे के बच्चे को दूध पिला कर पालनेवाली. धाय।
- दाईं
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. धात्री या फा. दायः)
- बच्चे की ददेखभाल करनेवाली सेविका।
- दाईं
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. धात्री या फा. दायः)
- वह स्त्री जो बच्चा जनने में सहायता देती है।
- उ.—झगविनि तैं नैं बहुत खिझ ई। कचन-हार दिऐं नहि मानति, तुहीं अनोखी दाई—१०-१६।
- मुहा.- दाई से पेट छिपाना (दुराना)— जानने वाले से कोई भेद छिपाना। दाई आगे पेट दुरा-वति-रहस्य या भेद जाननेवालें से कोई बात छिपाती है। उ.— औरनि सौं दुगव जो करती तौ हम कहती भली सयानी। दाई आगे पेट दुरावति वाकी बुद्धि आज मैं जानी— १२६२।
- दाईं
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दादी)
- दादी।
- दाईं
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दादी)
- बूढ़ी स्त्री।
- दाईं
- वि.
- (हिं. दायी)
- देनेवाला।
- दाँउ, दाउ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाँव)
- बार, दफा, मरतबा।
- दाँउ, दाउ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाँव)
- बारी, पारी।
- दाँउ, दाउ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाँव)
- मौका, उपयुक्त अवसर या संयोग।
- उ.—यक ऐसिहि झकझोरिति मोंकौ पायौ नीकौ दाउँ—पृ. ३१३ (१३)।
- मुहा.- दाँउ लेना— बुरे या अनुचित व्यवहार का बदला लेना। लैहौं दाउँ— पिछले अनुचित व्यवहार का बदला लूँगा | उ.-(क) असुर क्रोध ह्यौ कह्यौ बहुत तुम असुर संहारे। अब लैहौं वह दाँउ छाँड़िहौं नहिं बिन मारे— ३-११। (ख) सूर स्याम सोइ सोइ हम करि हैं, जोइ जोइ तुम सब कैहौ। लैहै दाँउ कबहुँ हम तुमसौं, बहुरि कहाँ तुम जैहौ— ७९३। लेत दाँउ— बदला लेता है, जैसा व्यवहार किया गया था, वैसा ही उत्तर देता है। उ.— मारि भजत जो जाहि, ताहिं सो मारंत, लेत अपनौ दाँउ— ५३३। लयौ दाउ— बदला ले लिया, प्रतिकार कर लिया। उ.— मेरे आगैं महरि जसोदा, तोकौं गगी दीन्ही।¨¨। तोकौं कहि पुनि कह्यौ बबा कौं, बढ़ौ धूत वृषभान। तब मैं दह्यौ, टग्यौ कब तुमकौं हँसि लागी लपटान। भली गही तू मेरी बेटी. लयौं आपनौ दाउ— ७०९। दाँउ लियौ-बदला लिया। उ.— और सकल नागरि नारिनि कौं दासी दाँउ लियौ— ३०८७।
- दाँउ, दाउ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाँव)
- मतलब गाँठने का उपाय, चाल या युक्ति।
- दाँउ, दाउ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाँव)
- कुश्ती जीतने का पेच या बंद।
- उ.—तब हरि मिलि मल्लक्रीड़ा करि बहु बिधि दाँउ दिखाये सारा. ५२१।
- दाँउ, दाउ
- यौ.
- दाँउ-घत
- दाँव-पेच, जीत के उपाय, युक्ति।
- उ.—यह बालक धौं कौन कौ कीन्हौ जुद्ध बनाइ। दाँउ-घात बहुतैं कियौ, मरत नहीं जदुराइ—५८९।
- दाँउ, दाउ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाँव)
- छल-कपट का व्यवहार।
- उ.—अब करति चतुराई जाने स्याम पढ़ाये दाँउ—१२८३।
- दाँउ, दाउ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाँव)
- खेलन की बारी या पारी, चाल।
- दाँउ, दाउ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाँव)
- जीत की कौड़ी या पाँसा।
- उ.—(क) दाँउ बलगम को देखि उन छल कियों रुक्म जीत्यौ कहन लगे सारे। देवबानी भई, जीत भई राम की, ताहू पै मूढ़ माहीं सँमारे—१० उ. ३३। (ख) दाँउ अबकैं परयौ पूनै, कुमति पिछली हारि—१-३०९।
- मुहा.- दाँउ देना— खेल म हारने पर दूसरे को खिलाना या नियत दंड भोगना। दाँउ देत नहिं— हारने पर भी दूसरे को खेलने नहीं देते। उ.— तुमरे संग कहो को खेलै दाउँ देत नहिं करत रुनैया। दाँउ दियौ— स्वयं हारने के बाद जीतनेवाले को खिलाया। उ.— रुहठिं करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ सब ग्वैयाँ। सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाँउ दियौ करि नंद-दुहैया— १०-२४५।
- दाऊ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. देव)
- अवस्था में बड़ा भाई, बड़े भैया।
- दाऊ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. देव)
- श्री कुष्ण के भाई, बलराम।
- उ.—(क) दाऊ जू, कहि स्याम पुकारूयौ—४०७। (ख) मैया री मोहिं दाऊ टेरत—४२४।
- दाक्षायण
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सोना, स्वर्ण।
- दाक्षायण
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- स्वर्णमुद्रा।
- दाक्षायण
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दक्ष प्रजापति का किया हुआ एक यज्ञ।
- दाक्षायण
- वि.
- दक्ष से उत्पन्न।
- दाक्षायण
- वि.
- दक्षसंबंधी।
- दाक्षायणी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दक्ष-कन्या।
- दाक्षायणी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दुर्गा।
- दाक्षायणी
- वि.
- (सं. दाक्षायनिन )
- सोने का, स्वर्णमय।
- दाक्षिण
- वि.
- (सं.)
- दक्षिण-संबंधी।
- दाक्षिण
- वि.
- (सं.)
- दक्षिणा-संबंधी।
- दाक्षिणात्य
- वि.
- (सं.)
- दक्षिण का, दक्षिणी।
- दाक्षिणात्य
- संज्ञा
- पुं.
- भारत का दक्षिणी भाग।
- दाक्षिणात्य
- संज्ञा
- पुं.
- इस भाग का निवासी।
- दाक्षिणात्य
- संज्ञा
- पुं.
- नारियल।
- दाक्षिण्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- प्रसन्नता, अनुकूलता।
- दाक्षिण्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- उदारता।
- दाक्षिण्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दूसरे को प्रसन्न करने का भाव।
- दाक्षिण्य
- वि.
- दक्षिण-संबंधी।
- दाक्षिण्य
- वि.
- दक्षिणा-संबंधी।
- दाक्षी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दक्ष की कन्या।
- दाक्ष्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दक्षता, निपुणता, कौशल।
- दाग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दग्ध)
- जलन, जलने की वेदना।
- उ.—मिलिहै ह्रदय सिराइ स्रवन सुनि मेटि बिरह के दाग—२९४८।
- दाग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दग्ध)
- जलने का चिह्न।
- दाग
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दाग़)
- धब्बा, चित्ती।
- दाग
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दाग़)
- निशान, चिह्न।
- उ.—(क) कुंडल मकर कपोलनि झलकत स्रम सीकर के दाग—१२१४। (ख) दसन-दाग नख-रेख बनी है—१९५६।
- दाग
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दाग़)
- फल आदि के सड़ने का निशान।
- दाग
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दाग़)
- कलंक, दोष।
- दागदार
- वि.
- (फ़ा.)
- दागी।
- दागदार
- वि.
- (फ़ा.)
- धबीला।
- दागना
- क्रि. स.
- (हिं. दाग)
- जलना, दग्ध करना।
- दागना
- क्रि. स.
- (हिं. दाग)
- तपे हुए लोहे से चिह्न डालना।
- दाख
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्राक्षा)
- अंगूर।
- दाख
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्राक्षा)
- मुनक्का-किशमिश।
- उ.—ऊथौ मन माने की बात। दाख-छुहारा छाँड़ि अमृत-फल बिष-कीरा बिष खात—४०२१।
- दखिल
- वि.
- (फा.)
- प्रविष्ट, घुसा हुआ।
- दखिल
- वि.
- (फा.)
- मिला हुआ, सम्मिलित।
- दखिल
- वि.
- (फा.)
- पहुँचा हुआ।
- दाखिला
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- प्रवेश, पैठ।
- दाखिला
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- सम्मिलित किये जाने का कार्य।
- दाखी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दाक्षी)
- दक्ष की कन्या।
- दाग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दग्ध)
- जलाने का काम, दाह।
- दाग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दग्ध)
- मुर्दा जलाने का काम, दाह-कर्म।
- थिरकना
- क्रि. अं.
- (सं. अस्थिर + करण)
- नाचते समय पैरों को हिलाना-डुलाना या उठाना- गिराना।
- थिरकना
- क्रि. अं.
- (सं. अस्थिर + करण)
- मटक-मटक कर नाचना।
- थिरकौंहाँ
- वि.
- (हिं. थिरकना)
- थिरकने या हिलनेवाला।
- थिरकौंहाँ
- वि.
- (हिं स्थिर)
- ठहरा हुआ, स्थिर।
- थिरजीह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थिर + जिह्वा)
- मछली।
- थिरता, थिरताई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थिरता)
- ठहराव।
- थिरता, थिरताई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थिरता)
- स्थायित्व।
- थिरता, थिरताई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थिरता)
- शांति, अचलता।
- थिरना
- क्रि. अ.
- [सं. स्थिर, हिं. थिर+ना (प्रत्य.)]
- द्रवों का हिलना-डोलना बंद होना।
- थिरना
- क्रि. अ.
- [सं. स्थिर, हिं. थिर+ना (प्रत्य.)]
- द्रवों के स्थिर होने पर उनमें घुली हुई चीज का तल में बैठना।
- दागना
- क्रि. स.
- (हिं. दाग)
- धातु के तप्त साँचे से चिह्न डालना।
- दागना
- क्रि. स.
- (हिं. दाग)
- तेज दवा से फोड़े-फुंसी को जलाना।
- दागना
- क्रि. स.
- (हिं. दाग)
- बंदूक आदि में बत्ती देना या आग लगाना।
- दागना
- क्रि. स.
- (फ़ा. दाग़)
- रंग आदि से चिह्न अंकित करना।
- दागबेल
- संज्ञा
- स्त्री
- (फ़ा. दाग़ +हिं. बेल)
- कच्ची भूमि पर सिधान के लिए फावड़े आदि से बनाये हुए चिह्न।
- दागर
- वि.
- (हिं.. दागना ?)
- नष्ट करनेवाला, नाशक।
- दागी
- वि.
- (फा. दाग)
- जिस पर दाग-धब्बा लगा हो।
- दागी
- वि.
- (फा. दाग)
- जिस पर सड़ने का निशान हो।
- दागी
- वि.
- (फा. दाग)
- जिसको कलंक लगाया गया हो, कलंकित।
- दागी
- वि.
- (फा. दाग)
- जिसे दंड मिल चुका हो, दंडित।
- दाड़क
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दाढ़, ढाढ़।
- दाड़क
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दाँत।
- दाड़िम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अनार।
- उ.—दाड़िम दामिनि कुंदकली मिलि बाढ़ूयौ बहुत बषान— सा. उ.—१५।
- दाड़िम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- इलाइची।
- दाड़िमप्रिय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- तोता, शुक।
- दाड़ी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दाड़िम)
- अनार, दाड़िम।
- दाढ़
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.दंष्ट्रा, प्रा. डडडा)
- दंत-पंक्तियों के दोनों छोरपर के चौड़े दाँत, चौभर।
- मुहा.- दाढ़ गरम होना-भोजन मिलना।
- दाढ़
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अनु.)
- दहाड़
- दाढ़
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अनु.)
- चिल्लाहट।
- मुहा.- ढाढ़ मारकर रोना— चिल्लाकर रोना।
- दाढ़ना
- क्रि. स.
- (सं. दाहन)
- आग मे जलना, भस्म होना
- दागी
- क्रि. स.
- (हिं. दागना)
- जलायी, भस्म की।
- दागे
- क्रि. स.
- (फा. दाग)
- रंग आदि के चिन्ह अंकित किये।
- उ.—कबहुँक बैठि-अंस भुज धरि कै पीक कपोलनि दागे।
- दाग्यौ
- क्रि. स.
- (हिं. दागना)
- दाग लगाया, जला कर कोई चिन्ह बनाया, छाप, लगायी।
- उ.—तौ. तुम कोऊ तारूयौ नहिं जौ मोसौं पतित न दाग्यौ—१-७३।
- दाग्यौ
- क्रि. स.
- (हिं. दागना)
- रंग आदि से चिन्हित किया।
- उ.—कबहुँक जावक कहुँ बने समोर रंग कहुँ अंग सेंदुर दाग्यौ—१९७२।
- दाध
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- गरमी, ताप, दाह, जलन।
- दाज, दाझ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाहन)
- अँधेरा।
- दाज, दाझ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाहन)
- अँधेरी रात।
- दाजन, दाझन
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दहन)
- जलन।
- दाजना, दाझना
- क्रि. अ.
- (सं. दग्व)
- जलना, ईर्ष्या करना, द्वेष रखना।
- दाजना, दाझना
- क्रि. स.
- जलाना, संतप्त करना।
- दाढ़ना
- क्रि. स.
- (सं. दाहन)
- संतप्त या दुखी करना।
- दाढ़ा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाढ़)
- वन की आग।
- दाढ़ा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाढ़)
- आग।
- दाढ़ा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाढ़)
- दाह, जलन।
- मुहा.- दाढ़ा फणूकना-जलन पैदा करना।
- दाढ़िक, दाढ़ी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दाद)
- टोढ़ी, ठुड्डी।
- दाढ़िक, दाढ़ी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दाद)
- गाल, दाढ़ और टुड्डी के बाल।
- दाढ़ीजार
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाढ़ +जलना)
- वह जिसकी दाढ़ी जली हो।
- दाढ़ीजार
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाढ़ +जलना)
- मूर्ख पुरुषों के लिए झुँझलायी हुई स्त्रियों की एक गाली।
- दात
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाता)
- देनेवाला।
- उ.—जाके सखा स्यामसुंदर से श्रीपति सकल सुखन के दात-१०-उ.५९।
- दात
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दातव्य)
- दात।
- उ.—गोकुल बजत सुनी बधाई लोगनि हियै सुहात। सूरदास आनंद नंद कैं देत वन क नग दात—१०-१२।
- दातव्थ
- वि.
- (सं.)
- देने योग्य।
- दातव्थ
- संज्ञा
- पुं.
- दान देने की क्रिया।
- दातव्थ
- संज्ञा
- पुं.
- उदारता।
- दाता
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वह जो दान दे, दानी।
- दाता
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- देनेवाला।
- दाता
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- उदार।
- दातापन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाता +हिं. पन)
- दानशीलता।
- दातार
- संज्ञा
- पुं.
- (स. दाता का बहु)
- देनेवाले, दाता।
- उ.—काकौं नाम बताऊँ तोकौं। दुखदायक अट्टप्ट मम मोकौं। कहियत इतने दुख-दातार—१-२९०।
- दाती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दात्री)
- देनेवाली।
- उ.—पलित केस कफ कंठ बिरोध्यौ कल न परै दिन राती। माया-मोह न छाँड़े तृष्ना ए दोऊ दुख-दाती।
- दातुन, दातून, दातौन
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दतुवन)
- दाँत साफ करने की क्रिया।
- दातुन, दातून, दातौन
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दतुवन)
- नीम, बबूल आदि की छोटी टहनी का एक बालिश्त के बराबर टुकड़ा, जिससे दाँत साफ किये जाते हैं।
- दातृता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दानशीलता, उदारता।
- दातृत्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दानीपन, उदारता।
- दात्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- हँसिया, दाँती।
- दात्री
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- देनेवाली।
- दात्री
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दात्र)
- हँसिया, दाँती।
- दाद
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दद्रु)
- एक चर्मरोग।
- दाद
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा.)
- इंसाफ, न्याय।
- मुहा.- दाद चाहना— अन्याय या अत्याचार के विरोध या प्रतिकार की प्रर्थना करना।
दाद देना— (१) न्याय या इसाफ करना। (२) प्रशंसा या बड़ाई करना, सराहना।
- दादनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा.)
- रकम जो चुकानी हो।
- दादनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा.)
- रकम जो अग्रिम दी जाय।
- दाधीचि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दधीचि का वंशज या गोत्रज।
- दाधे
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाद, दग्ध)
- जला हुआ स्थान।
- मुहा.- दाधे पर लोन लगावै— जले पर नमक लगाना, दुखी या पीड़िच को वाक्यों या कार्यों से और पीड़ा पहुँचाना। उ.— सूरदास प्रभु हमहिं निदरि दाधे पर लीन लगावै— ३०८८।
- दाधे
- क्रि. स.
- जलाये, भस्म किये।
- उ.—बिबरन भये खंड जो दाधे बारिज ज्यों जलमीन—२७६७।
- दाधौ
- वि.
- (हिं. दाध)
- जो जला हुआ हो।
- उ.—हरि-मुख ए रंग-संग बिधे दाधौ फिरे जरै—२७७०।
- दान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- देने का काम।
- दान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- धर्म-भाव से देने का काम।
- दान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वस्तु जो दान में दी जाय।
- दान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कर, चुंगी, महसूल।
- उ.— तुम समरथ की बाम कहा काहु को करिहौ। चोरी जातीं र्बेचि दान सब दिन का भरिहौं।
- दान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- राजनीति का एक उपाय जिसमें कुछ देकर शत्रु के विरुद्ध सफलता पाने का प्रयत्न किया जाय।
- दान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- हाथी का मद।
- दादु
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दद्रु.)
- दाद नामक चर्मरोग।
- दादुर, दादुल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.ददुर)
- मेढक।
- उ.—(क) मनु बरषत मास अषाढ़ दादुर मोर ररे—१०-२४। (ख) गर्जत गगन गयंद गुंजरत अरु दादुर किलकार—२८२०। (ग) दादुल जल दिन जियै पवन भख मीन तजै हठि प्रान—३३५७।
- दादू
- संज्ञा
- पुं.
- (अनु. दादा)
- दादा के लिए स्नेह-सूचक संबोधन।
- दादू
- संज्ञा
- पुं.
- (अनु. दादा)
- आत्मीयता सूचत सामान्य संबोधन।
- दादू
- संज्ञा
- पुं.
- (अनु. दादा)
- अकबर के समकालीन एक साधु जिनका पथ प्रसिद्ध है।
- दादूपंथी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दादू +पंथी)
- दादू या दादू दयाल नामक साधु के अनुयायी, जिनके तीन वर्ग हैं—विरक्त या संन्यासी, नागा या सैनिक और विस्तर धारी या गृहस्थ।
- दाध
- संज्ञा
- स्त्री. पुं.
- (सं. दाद)
- जलन, दाह, ताप।
- दाधना
- क्रि. स.
- (सं. दग्ध)
- जलाना, भस्म करना।
- दाधा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दग्ध, हिं. दाध)
- जलन, दुख, दाह, ताप।
- उ.—(क)निरखत बिधि भ्रमि भूलि परयौ तब, मन-मन करत समाधा। सूरदास प्रभु और रच्यौ बिधि, सोच भयौ तन दाधा—९०५। (ख) सूरदास प्रभु मिले कृपा करि गये दुरति दुख दाधा—१४३७।
- दाधा
- वि.
- जला हुआ, जो जल गया हो।
- दादर
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दादुर)
- मेढक, मंडूक।
- उ.—ज़्यौं पावस रितु घन-प्रथम घोर। जल जावक, दादर रटत मोर—९-१६६।
- दादर
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- एक तरह का चलता गाना।
- दादरा
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- एक तरह का चलता गाना।
- दादस
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दादा +सास)
- सास की सास।
- दादा
- संज्ञा
- पुं.
- (पं, ताउ)
- पिता के पिता, पितामह।
- दादा
- संज्ञा
- पुं.
- (पं, ताउ)
- बड़ा भाई।
- दादा
- संज्ञा
- पुं.
- (पं, ताउ)
- बड़ों के लिए आदरसूचक शब्द।
- दादि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा. दाद.)
- न्याय इंसाफ, प्रशंसा।
- उ.—सदा सर्बदा राजाराम कौ सूर दादि तहँ पाई—९-१७।
- दादी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दादा)
- पिता की माता।
- दादी
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दाद)
- न्याय चाहनेवाला।
- दान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- छेदन।
- दान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शुद्धि।
- दान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक तरह का मधु।
- दानक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा नान।
- दानकुल्या
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- हाथी का मद।
- दानधर्म
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दान-पुण्य।
- दानपति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सदा दान देनेवाला।
- दानपति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अक्रूर का एक नाम जो उसे स्यमंतक मणि के प्रभाव से प्रति दिन प्रचुर दान देने के कारण दिया गया था।
- दानपत्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वह पत्र या लेख जिसमें संपति दान का लेखा हो।
- दानपात्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दान पाने का अधिकारी।
- थीथी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थिति)
- दशा, अवस्था, स्थिति।
- थीथी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थिति)
- धीरज, धैर्य।
- थीर, थीरा
- वि.
- (सं. स्थिर, हिं थिर)
- स्थिर।
- थुकवाना , थुकाना
- क्रि. स.
- (हिं थूकना का प्रे.)
- थूकने का कार्य दूसरे से कराना।
- थुकवाना , थुकाना
- क्रि. स.
- (हिं थूकना का प्रे.)
- उगलवाना।
- थुकवाना , थुकाना
- क्रि. स.
- (हिं थूकना का प्रे.)
- निंदा या तिरस्कार कराना।
- थुकहाई
- वि.
- स्त्री.
- [हिं. थूक +हाई (प्रत्य.)]
- वह स्त्री जिसकी सब निंदा या बुराई करें।
- थुकाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थूकना)
- थूकने की क्रिया।
- थुकायल, थुकेल, थुकैल, थुकैला
- वि.
- (हिं. थूक + आयल, एल, ऐल, ऐला)
- जिसकी सब निंदा करें।
- थुक्का फजीहत
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थूक + अ. फजीहत)
- निंदा और बुराई।
- दानवी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दानवाकार भयानक आकृति और क्रूर प्रकृतिवाली स्त्री।
- दानवी, दानवीय
- वि.
- (सं. दानवीय)
- दानव-संबंधी।
- दान-वीर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अत्यंत दानी।
- दानवेंद्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दानव +इंद्र)
- राजा बलि।
- दानशील
- वि.
- (सं.)
- दान करनेवाला।
- दानशीलता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दान की वृत्ति, उदारता।
- दानसागर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कई वस्तुऒं का महादानी।
- दाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दान:)
- अनाज का कण।
- दाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दान:)
- अनाज अन्न।
- दाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दान:)
- भुना अनाज, चबेना।
- दानलीला
- संज्ञा
- स्त्री.
- (स.)
- श्रीकृष्ण की एक लीला जिसमें उन्होंने गोपियों से गोरस का कर वसूल किया था।
- दानलीला
- संज्ञा
- स्त्री.
- (स.)
- वह ग्रंथ जिसमें इस लीला का वर्णन किया गया हो।
- दानव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दनु' नामत पत्नी ,से उत्पन्न कश्यप के पुत्र, दनुज, असुर, राक्षंस।
- दानवगुरु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शुक्राचार्य।
- दानवप्रिया
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दानव =दैत्य; यहाँ आशय कुंभकरण से है; कुंभकरण की प्रिया=नींद)
- नींद, निद्रा।
- उ.—दानव प्रिया सेर चलि सौ सुरभी रस गुड़ सीचों। तजत न स्वाद आपने तन को जो बिधि दीनो नीचो—सा. ९०।
- दानवारि
- संज्ञा
- पुं.
- (स. दानव +अरि=शत्रु)
- विष्णु।
- दानवारि
- संज्ञा
- पुं.
- (स. दानव +अरि=शत्रु)
- देवता।
- दानवारि
- संज्ञा
- पुं.
- (स. दानव +अरि=शत्रु)
- इंद्र
- दान-वारि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- हाथी का मद।
- दानवी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दानव की स्त्री।
- दाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दान:)
- छोटे-छोटे बीज।
- दाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दान:)
- अनार आदि फलों के बीज।
- दाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दान:)
- छोटी गोल वस्तु जो प्रायः गूँथी जाय।
- दाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दान:)
- माला की एक मनका या गुरिया।
- दाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दान:)
- छोटी छोटी गोल चीजों के लिए संख्या-सूचक शब्द।
- दाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दान:)
- रवा, कण।
- दाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दान:)
- किसी चीज का हलका उभार।
- दाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दान:)
- शरीर के चमड़े पर किसी कारण पड़ जानेवाला हल्का उभार।
- दाना
- वि.
- (फा. दाना)
- बुद्धिमान, अक्लमंद।
- दानाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा.)
- अक्लमंदी, बुद्धिमानी।
- दानी
- वि.
- (सं. दानिन्)
- जो दान करे, उदार।
- दानी
- संज्ञा
- पुं.
- दान करनेवाला व्यक्ति, दाता।
- दानी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दानीय)
- कर-संग्रह करने या दान लेनेवाला।
- उ.—(क)तुम जो कहति हौ मेरौ कन्हैया गंगा केसौ पानी। बाहिर तरुन किसोर बयस बर बाट-घाट का दानी—१०-३११। (ख) परुसत ग्वारि ग्वार सब जेंवत मध्य ऊष्ण सुखकारी। सूर स्याम दधि दानी कहि कहि आनँद घोष-कुमारी।
- दानीय
- वि.
- (सं.)
- दान करने योग्य।
- दाने
- संज्ञा
- पुं. बहु.
- (हिं. दाना)
- अनाज के कण।
- मुहा.- दाने दाने को तरसना— भोजन का बहुत कष्ट सहना।
दाने दाने को महताज— बहुत दरिद्र।
- दानेदार
- वि.
- (फा.)
- जिसमें दाने या रवे हों।
- दानो, दानौ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दानव)
- दैत्य, दनुज, दानव।
- उ.—हमता जहाँ तहाँ प्रभु नाहीं सो हमता क्यौं मानौं| प्रगट खंभ तैं दए दिखाई जद्यपि कुल कौ दानो—१-११।
- दान्हे
- वि.
- (हिं. दाहना)
- दाँया, दहना।
- उ. — जल दान्हें कर आनि कहत मुख धोरहु नारी - ३०९०।
- दाप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दर्प, प्रा. दप्प)
- जलन, ताप, दुख।
- उ. — (क) दियौ क्रोध करि सिवहिं सराप करौ कृपा जो मिटै यह दाप — ४-५। (ख) हरि आगे कुबिजा अधिकारनि को जीवै इहिं दाप—२१७१।
- दाप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दर्प, प्रा. दप्प)
- क्रोध।
- उ. — कच कौं प्रथम दियौ मैं साप। उनहूँ मोहि दियौ करि दाप— ९-१७४।
- दाना-चारा
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दाना + हिं. चारा)
- भोजन।
- दानाध्यक्ष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दान का प्रबंध करनेवाला कर्मचारी या सेवक।
- दाना-पानी
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दाना + हिं. पानी)
- खान-पान, अन्न-जल।
- दाना-पानी
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दाना + हिं. पानी)
- जीविका, रोजी।
- मुहा.- दाना-पानी उठना— जीविका न रहना।
- दाना-पानी
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दाना + हिं. पानी)
- कहीं रहने-बसने का संयोग।
- दानि
- वि.
- (हिं. दानी)
- जो दान करे, उदार।
- दानि
- संज्ञा
- पुं.
- दान करनेवाला व्यक्ति, दाता।
- उ.—सकल सुख के दानि आनि उर, दृढ़ विश्वास भजौ नँदलालहिं—१-७४।
- दानि
- संज्ञा
- पुं.
- उदार।
- उ.—कृपा निधान दानि दामोदर सदा सँवारन काज—१-१०९।
- दानिनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दान करनेवाली स्त्री।
- दानिया
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दानी)
- उदार, दानी।
- दाप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दर्प, प्रा. दप्प)
- अहंकार, घमंड, अभिमान।
- दाप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दर्प, प्रा. दप्प)
- शक्ति, बल, जोर।
- दाप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दर्प, प्रा. दप्प)
- उत्साह, उमंग।
- दाप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दर्प, प्रा. दप्प)
- रोब, आतंक।
- दापक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दर्पक)
- दबानेवाला।
- उ.— सो प्रभु हैं जल-थल सब ब्यापक। जो है कंस दर्प को दापक— १००१।
- दापना
- क्रिं.स
- (हिं. दाप)
- दबाना।
- दापना
- क्रिं.स
- (हिं. दाप)
- रोकना।
- दाब
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दबना)
- दबने-दबाने का भाव।
- दाब
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दबना)
- भार, बोझ।
- मुहा.- दाब में होना वश या अधीन होना।
- दाब
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दबना)
- आतंक, अधिकार, दबदबा, शासन।
- मुहा.- दाब दिखाना— अधिकार या हुकूमत जताना।
दाब मानना— वश में या अधीन होना।
दाब में रखना— वश या शासन ममें रखना।
दाब में लाना— वश या शासन में करना।
दाब में होना— वश या शसन में हाना।
- दाबदार
- वि.
- (हिं. दाब+फ़ा दार)
- रोब-प्रभाव वाला।
- दाबना
- क्रि. स.
- (हिं. दबाना)
- भार या बोझ के नीचे लाना।
- दाबना
- क्रि. स.
- (हिं. दबाना)
- शरीर के किसी अंग से जोर लगाना
- दाबना
- क्रि. स.
- (हिं. दबाना)
- पीछे हटाना।
- दाबना
- क्रि. स.
- (हिं. दबाना)
- गाड़ना या दफन करना।
- दाबना
- क्रि. स.
- (हिं. दबाना)
- प्रभाव या आतंक जमाना।
- दाबना
- क्रि. स.
- (हिं. दबाना)
- गुण या महत्व की अधिंकता से दूसरे को हीन कर देना।
- दाबना
- क्रि. स.
- (हिं. दबाना)
- बात या चर्चा को फैलने न देना।
- दाबना
- क्रि. स.
- (हिं. दबाना)
- दमन करना।
- दाबना
- क्रि. स.
- (हिं. दबाना)
- अनुचित अधिकार करना।
- दाबना
- क्रि. स.
- (हिं. दबाना)
- विवश कर देना।
- दाभ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दर्भ)
- एक तरह का कुश डाभ।
- दाभ्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जो वश में आ सके।
- दाम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- रस्सी, रज्जु।
- उ.—नंद पितु माता जसोदा बाँधे ऊखल दाम—२५८३।
- दाम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- माला, हार, लड़ी।
- उ.—(क) कहुँ क्रीड़त, कहुँ दाम बनावत, कहुँ करत सिंगार। (ख) निरखि कोमल चारु मूरति ह्रदय मुक्रुता दाम—२५३५।
- दाम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- समूह, राशि।
- दाम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- लोक, विश्व।
- दाम
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- जाल, फदा, पाश।
- उ.—लोचन चोर बाँधे स्याम। जात ही उन तुरत पकरे कुटिल अलकनि दाम—पृ. ३२४ (२८)।
- दाम
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दमड़ी)
- एक दमड़ी का तीसरा भाग।
- मुहा.- दाम दाम भर देना-लेना— कौड़ी-कौड़ी चुका देना-लेना।
- दाम
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दमड़ी)
- मूल्य, कीमत, मोल।
- उ.—हमसौं लीजै दान के दाम सबे परखाई—१०१७।
- मुहा.- दाम उठना— कोई वस्तु बिक जाना।
(किसी वस्तु का) दाम करना (चुकाना)— मोल-भाव करना।
दाम खड़ा करना— मूल्य वसूलना।
दाम भरना— नष्ट करने के कारण किसी चीज का मूल्य देने को विवश होना, डाँड़ देना।
दाम भर पाना— सारा मूल्य पा जाना।
- दाम
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दमड़ी)
- धन, रुपया-पैसा।
- उ.—(क) बालापन खेलत ही खोयौ, जोबन जोरत दाम—१-५७। (ख) कोउ कहै दैहैं दाम नृपति जेतौ धन चाहै—५८९।
- दाम
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दमड़ी)
- सिक्का, रुपया।
- उ.—हरि कौ नाम, दाम खोटे लौं, झकि झकि डारि दयौ—१-६४।
- दाम
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दमड़ी)
- राजनीति में धन देकर शत्रु को वश में करने की चाल।
- दाम
- वि.
- (स.)
- देनेवाला, दाता।
- दामक
- संज्ञा
- पुं.
- (स.)
- लगाम, बागडोर।
- दामन
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- अंगे, कुर्ते आदि का निचला भाग, पल्ला।
- दामन
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- पहाड़ का निचला भाग।
- दामन
- संज्ञा
- पुं. बहु.
- (सं.)
- मूल्य, कीमत, मोल. धन।
- मुहा.- बिन दामन मो हाथ बिकानौ— बिना मोल के दश में या अधीन हो गयी। उ.— धन्य धन्य डढ़ नेम तुमारों बिन दामन मो हाथ बिकानी— १७१९।
- दामनगीर
- वि.
- (फा.)
- पल्ला पकड़ने या पाछे पड़ जानेवाला, सिर हो जानेवाला।
- उ.—अपनो पिंड पोषिबैं कारन कोटि सहस जिय मारे। इन पापनि तैं कयौं उबरौगे दामनगीर तुम्हारे—१-३३४।
- मुहा.- दामनगीर होना— पीछे पड़ना या लगना।
- दामनगीर
- वि.
- (फा.)
- दावा करने वाला, दावेदार।
- दामोदर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाम=(१) रस्सी, (२) लोक + उदर ) (दम अर्थात इंद्रिय-दमन में श्रोठ)
- श्रीकृष्ण जो एक बार रस्सी से बाँधे गयॆ थे।
- उ. — (क) तौलौं बँधे देव दामादर जौ लौं यह कृत कीनी— सारा. ४५२।(ख) जन-कारन भुज आपु बँधाए वचन कियौ रिषि ताम। ताही दिन तैं प्रगट सूर प्रभु यह दामोदर नाम — २६१।
- दामोदर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाम=(१) रस्सी, (२) लोक + उदर ) (दम अर्थात इंद्रिय-दमन में श्रोठ)
- विष्णु जिनके उदर में सारा विश्व है।
- दामोदर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाम=(१) रस्सी, (२) लोक + उदर ) (दम अर्थात इंद्रिय-दमन में श्रोठ)
- जैनियों के एक तीर्थकर।
- दायँ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दावँ)
- बार।
- दायँ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दावँ)
- बारी।
- दायँ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दाईं)
- बार।
- दायँ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दाईं)
- बारी।
- दायँ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दमन)
- कटी हुई फसल को बैलों से रौंदवा कर दाना-भूसा अलग करने की क्रिया, दवँरी।
- दायँ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (?)
- बराबरी, समानता।
- दाय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- किसी की दिया जानेवाला धन।
- थिरना
- क्रि. अ.
- [सं. स्थिर, हिं. थिर+ना (प्रत्य.)]
- मैल बैठने पर जल, तेल आदि का स्वच्छ हो जाना।
- थिरा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थिरा)
- पृथ्वी।
- थिराना
- क्रि. स.
- (हिं. थिरना)
- द्रवों का हिलना-डोलना बंद करना।
- थिराना
- क्रि. स.
- (हिं. थिरना)
- द्रवों को स्थिर करके घुली हुई चीजों को तल में बैठालना।
- थी
- क्रि. अ.
- (हिं. था)
- ‘है’ किया का भूत. स्त्री रूप।
- थीकरा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थित + कर)
- रक्षा का भार।
- थीता
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थित, हिं. थित)
- स्थिरता।
- थीता
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थित, हिं. थित)
- स्थायित्व।
- थीता
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थित, हिं. थित)
- अचंचल रहने का भाव।
- थीथी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थिति)
- दृढ़ता, स्थिरता।
- दामनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- रस्सी, रज्जु।
- दामर, दामरि, दामरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दाम)
- रस्सी।
- दामा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दावा)
- दावानल।
- दामा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दाम)
- राधा की एक सखी का नाम।
- उ.—कहि राधा किन हार चोरायौ।¨¨¨¨ प्रेमा दामा रूपा हसा रंगा हरषा जाउ—१५८०।
- दामाद
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- जवाँई, जामाता।
- दामिन, दामिनि, दामिनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दामिनी)
- बिजली, विद्युत्।
- उ. — घन-दामिनि घरती लौं कौंधै, जमुना-जल सौं पागे — १०-४। (ख) नील बसन तनु, सजल जलद मनु, दामिनि बिवि भुज-दंड चलावति — १०-१४९।
- दामिन, दामिनि, दामिनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दामिनी)
- स्त्रियों के सिर का एक गहना, बेंदी, बिंदिया, दावँनी।
- दामी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दाम)
- कर, मालगुजारी।
- दामी
- वि.
- (हिं. दाम)
- अधिक दाम या मूल्यवाला।
- दामोद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अथर्ववेद की एक शाखा।
- दाय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दान आदि में देने का धन।
- दाय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- उत्तराधिका रियों में बाँटा जा सकनेवाला पैतृक धन।
- दाय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दान।
- दाय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाव)
- जलन, ताप, दुख।
- दायक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- देनेवाला, दाता।
- दायज, दायजा, दायजो
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाय )
- वह धन जो विवाह में वर-पक्ष को दिया जाय, दहेज, यौतुक।
- उ.—कहुँ सुत ब्याह कहूँ कन्या को देत दायजौ रोईं—सारा. २३५।
- दायभाग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पैतृक धन का भाग।
- दायभाग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पैतृक या संबंधी के धन के बटवारे की व्यवस्था।
- दायर
- वि.
- (फा.)
- चलता हुआ।
- दायर
- वि.
- (फा.)
- जारी।
- मुहा.- दायर होना— किसी के समक्ष पेश होना या उपस्थित किया जाना।
- दायरा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- गोल घेरा।
- दायरा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- वृत्त।
- दायरा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- मडली।
- दायरा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- खँजड़ी, डफली।
- दायाँ
- वि.
- (हिं. दाहिना)
- दाहिना।
- दाया
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दया)
- दया-कृपा।
- उ.—दाया करि मोकौं यह कहिए अमर हाहुँ जेहि भाँति—सारा. १५१।
- दायागत
- वि.
- (सं.)
- हिस्से में मिला हुआ।
- दायाद
- वि.
- (सं.)
- हिस्सा या दाय पाने का अधिकारी।
- दायाद
- संज्ञा
- पुं.
- पुत्र।
- दायाद
- संज्ञा
- पुं.
- सपिंड कुटुंबी।
- दायादा, दायादी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कन्या।
- दायित
- वि.
- (सं.)
- दान किया हुआ।
- दायित्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- देनदार होने का भाव।
- दायित्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जिम्मेदारी, जवाबदेही।
- दायिनी
- वि.
- स्त्री.
- (स.)
- देनेवाली।
- दायी
- वि.
- (पं. दायिन्)
- देनेवाला |
- दायें
- क्रि. वि.
- (हिं. दायाँ)
- दाहिनी ऒर को।
- मुहा.- दायें होना— अनुकूल या प्रसन्न होना।
- दार
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- स्त्री, पत्नी, भार्या।
- उ.—नाम सुनीति बड़ी तिहिं दार। सुरुचि दूसरी ताकी नार—४-९।
- दार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दारु)
- काठ।
- दार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दारु)
- बढ़ई।
- दारक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- लड़का।
- दारक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पुत्र।
- दारक
- वि.
- (सं.)
- फाड़ने या विदीर्ण करनेवाला।
- दारकर्म
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- विवाह।
- दारण
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- चीड़-फाड़ की क्रिया।
- दारद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक तरह का विष।
- दारद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पारा।
- दारद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- इंगुर।
- दारना
- क्रि. स.
- (सं. दारण)
- चीरना फाड़ना।
- दारना
- क्रि. स.
- (सं. दारण)
- नष्ट करना।
- दारपरिग्रह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- स्त्री का ग्रहण, विवाह।
- दारमदार
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- आश्रय।
- दारमदार
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- कार्यभार।
- दारसंग्रह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- स्त्री का ग्रहण, विवाह।
- दारा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. पुं. दार)
- स्त्री, पत्नी।
- उ.—(क) सुख-संपत्ति दारा-सुत हय-गय झूठ सबै समुद्राइ—१-३१७। (ख) धन-दारा-सुत-बंधु-कुटुँब-कुल निरखि-निरखि बौरान्यौ—१-३१९।
- दारि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दाल)
- दाल।
- उ.—बेसन दारि चनक करि बान्यौ—१००९।
- दारिउँ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दाड़िम)
- अनार।
- दारिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बालिका
- दारिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- पुत्री।
- दारित़
- वि.
- (सं.)
- चीरा-फाड़ा हुआ।
- दारिद, दारिद्र, दारिद्रथ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दारिद्रथ)
- दरिद्रता, निर्धनता।
- उ.—सुदामा दारिद्र भंजे कूबरी तारी—१-१७६।
- दारिम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाड़िम)
- अनार।
- दारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- वेवाई का रोग, षर वा।
- दारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दारिका)
- युद्ध में जीत कर लायी गयी दासी।
- दारीजार
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दारी + सं. जार)
- दासी का पति (गाली)।
- दारीजार
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दारी + सं. जार)
- दासीपुत्र, गुलाम।
- दारु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- काष्ठ, काठ, लकड़ी।
- उ.—जो यह बधू होइरंकाहू की, दारु-ध्वरूप धरे। छूटै देह, जाइ सरिंता तजि, पग सौं परस करे—९-४१।
- दारु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- देवदार।
- दारु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बढ़ई।
- दारु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पीतल।
- दारु
- वि.
- दानी, उदार।
- दारु
- वि.
- टूटने फूटनेवाला।
- दारुक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- देवदास।
- दारुक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- श्रीकृष्ण के सारथी का नाम जो इनके परम भक्त थे।
- दारुक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- काठ का पुतला।
- दारुका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कठपुतली।
- दारुकावन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक वन जो तीर्थ भी है।
- दारुज
- वि.
- (सं.)
- काठ से पैदा होनेवाला।
- दारुज
- वि.
- (सं.)
- काठ का बना हुआ।
- दारुण
- वि.
- (सं.)
- भीषण, घोर।
- दारुण
- वि.
- (सं.)
- कठिन, दुःसह।
- दारुण
- वि.
- (सं.)
- फाड़नेवाला, विदारक।
- दारुण
- संज्ञा
- पुं.
- भयानक रस।
- दारुण
- संज्ञा
- पुं.
- विष्णु।
- दारुण
- संज्ञा
- पुं.
- शिव।
- दारुण
- संज्ञा
- पुं.
- एक नरक।
- दारुण
- संज्ञा
- पुं.
- राक्षस।
- दारुणारि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दारुण=राक्षस + अरि)
- विष्णु।
- दारुन
- वि.
- (सं. दारुण)
- कठोर, भीषण, घोर, भयंकर।
- उ.—(क) जहाँ न कहू कौ गम दुसह दारुन तम सकल बिधि बिषम खल मल खानि—१-७७। (ख) दुस्सासन अति दारुन रिस करि केसनि करि पकरी—१-२५४। काहै कौ कलह नाध्यौ दारुन दाँवरि बाँध्यौ. कठिन लकुट लैतैं त्रास्पौ मेरे भैया—३७२।
- दारुन
- वि.
- (सं. दारुण)
- विकट, प्रचंड, दुसह।
- उ.—(क) दारुन दुख दवारि ज्यौं तृन बन नाहिंन बुझति बुझाई—९-५२। (ख) नाहीं सही परति अब मापै दारुन त्रास निसाचर केरी—९९३।
- दारुनटी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कठपुतली।
- दारुपात्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- काठ का बरतन।
- दारुपुत्रिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कठपुतली।
- दारुमय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- काठ का बना हुआ।
- दारुमयी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- काठ से निर्मित।
- दारु-योषिता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कठपुतली।
- दारू
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- दवा।
- दारू
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- शराब।
- दारू
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- बारूद।
- दारूकार
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दारू + हिं. कार)
- शराब बनानेवाले।
- थुक्का फजीहत
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थूक + अ. फजीहत)
- लड़ाई-झगड़ा।
- थुड़ी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अनु. थू थू =थूकने का शब्द)
- घृणा या धिृक्कार-सूचक शब्द, लानत, फिटकार।
- मुहा.- थुड़ी थुड़ी होना— निंदा या तिरस्कार होना।
- थुथकार
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थूक)
- थूकने की क्रिया, भाव या शब्द।
- थुथकारना
- क्रि. अ.
- (हिं. थुथकार)
- घृणा दिखाना।
- थुथना
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थूथन)
- लंबा निकला हुआ मुँह।
- थुथाना
- क्रि. अ.
- (हिं. थूथन)
- नाराज होना।
- थुनी, थुन्नी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थूण, हिं, थूनी)
- थूनी, खंभा, चाँड़।
- उ. — अति पूरन पूरे पुन्य, रोपी सुथिर थुनी — १०-२४।
- थुरना
- क्रि. स.
- (सं. थुर्वण=मारना)
- मारना-पीटना।
- थुरना
- क्रि. स.
- (सं. थुर्वण=मारना)
- कूटना-पीटना।
- थुरहथ, थुरहथा
- वि.
- (हिं. थोडा+हाथ)
- छोटे-छोटे हाथोंवाला।
- दारूड़ा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दारू)
- शराब , मध।
- दारों, दारौं
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाड़िम)
- अनार।
- दारोगा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- निरीक्षक।
- दारोगा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- थानेदार।
- दाढ़र्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दृढ़ता।
- दारथों, दारथौं
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाडिम)
- अनार।
- दार्वंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मोर, मयूर।
- दार्शनिक
- वि.
- (सं.)
- दर्शन शास्त्र का ज्ञाता।
- दार्शनिक
- वि.
- (सं.)
- दर्शन शास्त्र से संबंध रखनेवाला।
- दार्शनिक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दर्शन शास्त्र का ज्ञाता व्यक्ति, तत्ववेत्ता।
- दार्ष्टांतिक
- वि.
- (सं.)
- दृष्टांत संबंधी।
- दाल
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दालि)
- मूल्य, कीमत, मोल, धन।
- दाल
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दालि)
- पानी में उबाला गया दला अन्न जिंसे लोग रोटी-भात के साथ खाते हैं।
- उ. — दाल-भात घृत कढ़ी सलोनी अरू नाना पकवान-सारा. १८७।
- मुहा.- दाल गलना— दाल का अच्छी तरह पक जाना।
(किसी की) दाल न गलना— (किसी का) मतलब पूरा न होना या काम सिद्ध न होना।
दाल-दलिया— रूखा-सूखा भोजन।
दाल नें कुछ काला होना— किसी काम या बोत में संवेह, खउका या रहस्य होना।
दाल-रोटी- सादा भोजन।
दाल-रोटी चलना- जीविका का निर्वाह होना।
दाल-रोटी से खुश— अच्छी-खासीं हैसियत का, खाता-पीता।
जूतियों दाल ब़ना— बहुत झगड़ा या अनबन होना।
- दाल
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दालि)
- दाल की बनावट की कोई चीज।
- दाल
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दालि)
- चेचक, फुंसी आदि की पपड़ी या खुरंडा।
- मुहा.- दाल छूटना— खुरड अलग होना।
दाल बँधना— खुरंड पडूना।
- दाल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पेड़ के खोंडरे का शहद।
- दालक
- वि.
- (हिं. दलना)
- दूर करने वाले, दमन करने में समर्थ।
- उ.—सूरदास प्रभु असुर निकंदन व्रज जन के दुख-दालक—२३६९।
- दालमोठ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दाल + मोठ)
- एक नमकीन खाद्य।
- दालान
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- खुला कमरा, ऒसारा।
- दालि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दाल।
- दालि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- अनार।
- दालि
- क्रि. स.
- (हिं. दलना)
- दबाकर, दमन करके।
- उ.—अति घायल धीरज दुवाहिआ तेज दुर्जन दालि—२८२६।
- दालिद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दारिद्रथ)
- दरिद्रता।
- दालिम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाड़िम)
- अनार।
- दाली
- क्रि. स.
- (हिं. दलना)
- दमन किया।
- उ.—जिनि पहिले पलना पौढ़े पय पीवत पूतना दाली—२५६७।
- दाल्मि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- इंद्र।
- दावँ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्रव्य)
- बार, दफा।
- दावँ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्रव्य)
- बारी, पारी।
- दावँ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्रव्य)
- उपयुक्त अवसर, अनुकूल संयोग।
- मुहा.- दाँव करना— घात लगाना।
दाँव चूकना- अनुकूल संयोग पाकर भी कुछ लाभ न उठाना।
दाँव ताकना (लगानाँ)— अनुकूल अवसर की ताक में रहना।
दाँव लगना— अनुचित व्यवहार का बदला लेना। उ.— असुर कुपित ह्रै कह्यौ बहुत असुर संहारे। अब लैहौं वह दाँव छाँड़िहौं नहिं बिनु मारे।
- दावँ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्रव्य)
- युक्ति, उपाय, चाल, ढंग।
- उ.—सुनहु सूर याको बन पठऊँ यहै बनैगो दाँव—२९१२।
- मुहा.- दाँव पर आना (चढ़ना)— ऐसी स्थिति में पड़ जाना जिससे दूसरे का मतलब सिद्ध हो सके।
दाँव पर चढ़ाना (लाना)— दूसरे को ऐसी स्थिति में डालना जिससे अपना मतलब सिद्ध हो सके।
- दावँ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्रव्य)
- कुश्ती जीतने की चाल या पेच।
- उ.—तब हरि मिले मल्लक्रीड़ा करि बहु बिधि दाँव दिखाये।
- दावँ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्रव्य)
- कार्य-साधन का छल-कपट।
- मुहा.- दाँव खेलना— चाल चलना, धोखा देना।
- दावँ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्रव्य)
- खेलने की बारी या चाल।
- मुहा.- दाँव बदना (रखना, लगाना)— खेल या जुए में धन लगाकर हार-जीत होना।
- दावँ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्रव्य)
- जीत का पाँसा या कौड़ी।
- उ.—दाँव बलराम को देखि उन छल कियौ रुक्म जीत्यौ कहन लगे सारे। देव-बानी भयी जीति भई राम की, ताहुँ पै मूढ़ नाहीं सँभारे।
- मुहा.- दाँव देना— खेल में हार जाने पर पूर्व-निश्चित दंड भोगना या श्रम करना। उ.— तुमरे संग कहौ को खेलै दाँव देंत नहिं करत रुनैया।
दाँव लेना— खेल में जीत जाने पर हारनेवाले से पूर्वनिश्चित श्रम कराना या दंड देना।
- दावँ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्रव्य)
- स्थान, ठौर, जगह।
- दावँना
- क्रि. स.
- (सं. दमन)
- अनाज अलग करने के लिए फसल को बैलों से रौंदवाना।
- दावँनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दामिनी)
- स्त्रियों का माथे का एक गहना, बंदी।
- दावँरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दाम)
- रस्सी, रज्जु।
- दाव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जंगल, वन।
- दाव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वन की आग।
- दाव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आग।
- दाव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जलन, तपन, ताप।
- दाव
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- एक हथियार।
- दाव
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- एक पेड़।
- दावत
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ. दअवत)
- भोज, प्रीतिभोज, ज्योनार।
- दावत
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ. दअवत)
- भोजन का निमंत्रण, न्योता।
- दावदी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. गुलदाउदी)
- गुच्छेदार सुंदर फूलों का एक पौधा।
- दावन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दमन)
- दमन, नाश।
- दावन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दमन)
- नाश या दमन करनेवाले।
- उ.—(क) ब्रह्म लियौ अवतार, दुष्ट के दावन रे—१०-२८। (ख) हरि ब्रज-जन के दुख-बिसरावन। कहाँ कंस, कब कमल मँगाए, कहाँ दवानल-दावन—६०३।
- दावन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दमन)
- हँसिया।
- दावन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दमन)
- टेढ़ा छरा, खुखड़ी।
- दावन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दामन)
- अंगे-कुर्ते का पल्ला।
- दावना
- क्रि. स.
- (हिं. दावँना)
- दाना-भूसा अलग करने के लिए डंठलों को बैलो से रौंदवाना, माँड़ना।
- दावना
- क्रि. स.
- (हिं. दावन)
- दमन या नष्ट करना।
- दावनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दावँनी)
- स्त्रियों के माथे का एक गहना, बंदी, दामिनी।
- दावा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दाव)
- वन की आग, दावानल।
- दावा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- किसी वस्तु को अपनी कहना, किसी वस्तु पर अधिकार जताना।
- दावा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- स्वत्व, हक, अधिकार।
- दावा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- अधिकार या हक सिद्ध करने के लिए न्यायालय में दिया गया प्रार्थना-पत्र।
- दावा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- नालिश, अभियोग।
- दावेदार
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. दावा + फा. दार)
- दावा करने या अपना हक जतानेवाला।
- दाश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- केवट, धीवर।
- दाश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नौकर।
- दाशरथ
- वि.
- (सं.)
- दशरथ संबंधी।
- दाशरथ
- संज्ञा
- पुं.
- राजा दशरथ के पुत्र श्रीरामचंद्र।
- दाशरथि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दशरथ के पुत्र श्रीराम आदि।
- दाश्त
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा.)
- पालन-पोषण, लालन-पालन।
- दाश्व
- वि.
- (सं.)
- देनेवाला।
- दास
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सेवक, नौकर।
- दास
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- भक्त।
- दास
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- भक्त गज।
- उ.—ग्राह गहे गजपति मुकराययौ हाथ चक्र लै धायौ। तजि बैकुंठ, गरुड़ तजि, श्री तजि, निकट दास कैं आयौ—१-१०।
- दास
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शूद्र।
- दास
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- धीवर।
- दास
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दस्यु।
- दास
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वृत्रासुर।
- दास
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दासन, डासन)
- बिछौना।
- दासक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दास, सेवक।
- दासता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दास-कर्म, सेवावृत्ति।
- दासत्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दास-भाव
- दासत्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सेवावृत्ति।
- दावा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- जोर, प्रताप।
- दावा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- वह दृढ़ता या साहस जो यथार्थ स्थिति के निश्चय के कारण व्यक्ति में आ जाता है।
- दावा
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- दृढ़ता या साहसपूर्ण कथन।
- दावागीर
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. दावा+फा. गीर)
- दावा करने, हक जताने या अधिकार सिद्ध करनेवाला।
- दावाग्नि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- वन की आग, दावा।
- दावात
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ. दवात)
- स्याही का पात्र।
- दावादार
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. दावा+फा. दार)
- दावा करने या हक जतानेवाला।
- दावानल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाव+अनल)
- वन की आग जो बाँसों या पेड़ों की टहनियों के रगड़ने से उत्पन्न होकर दूर तक फैलती चली जाती है।
- उ. कबहुँ तुम नाहिंन गहरू कियौ।¨¨¨। अघ-अरिष्ट, केसी, काली मथि दावानलहिं पियौ — १-१२१।
- दाविनी
- संज्ञा
- (सं. दामिनी)
- बिजली, दामिनी।
- दाविनी
- संज्ञा
- (सं. दामिनी)
- स्त्रियों का माथे का एक गहना, बंदी।
- दासन
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. डासन)
- बिछौना।
- दासपन
- संज्ञा
- पुं.
- [सं. दास +पन(प्रत्य.)]
- दासत्व, सेवा-कर्म।
- उ.—दासी-सुत तैं नारद भयौ। दोष दासपन कौ मिटि गयौ—१-२३०।
- दासपनौ
- संज्ञा
- पुं.
- [सं. दास + हिं. पन (प्रत्य.)]
- दासत्व, सेवाक, दासभाव।
- उ.—बंदन दासपनौ सो करै। भक्तनि सख्य-भाव अनुसरै—९-५।
- दास-ब्रत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दास+ब्रत)
- दास का व्रत, सेवक का प्रण।
- दास-ब्रत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दास+ब्रत)
- भक्त का प्रण, भक्त का निश्चय।
- उ.—मुनि-मद मेटि दास-ब्रत राख्यौ, अंबरीष-हितकारी—१-१७।
- दासा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दशन)
- हँसिया।
- दासा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दास)
- सेवक, नौकर।
- दासानुदास
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सेवक का सेवक, तुच्छ सेवक। (नम्रता-सूचक प्रयोग)।
- दासिका, दासी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दासी)
- (सेविका)।
- दासिका, दासी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दासी)
- कुब्जा जो कंस की सेविका थी और जिसे श्रीकृष्ण ने, प्रसिद्धि के अनुसार, अपनाया था।
- सूरज स्याम सुध दासी की करो कही बिधि कैसौ—सा. १०४।
- थहना
- क्रि. स.
- (हिं. थाह)
- थाह लगाना।
- थहरना
- क्रि. अ.
- (अनु. थरथर)
- काँपना, थर्राना।
- थहरात
- क्रि. स.
- (हिं. थहरान)
- थर्रा या काँप जाता है।
- उ.— गगन मेध घहरात थहरात गात— ९६०।
- थहराना
- क्रि. /स.
- (हिं. टहराना)
- दुर्बलता से काँपना।
- थहराना
- क्रि. /स.
- (हिं. टहराना)
- भय या डर से काँपना।
- थहाइ
- क्रि. स.
- (हिं. थहाना)
- गहराई का पता लगाकर, थाह लेकर।
- उ. — सूर कहै ऐसो को त्रिभुवन आवै सिंधु थहाइ - पृ. ३२८।
- थहाना
- क्रि. स.
- (हिं. थाह)
- थाह लेना, गहराई का पता लगाना।
- थहाना
- क्रि. स.
- (हिं. थाह)
- किसी की योग्यता, कुशलता, विद्वता, बुद्धि आदि का पता लगाना।
- थहारना
- क्रि. स.
- (हिं. ठहराना)
- जल में ठहराना।
- थाँग
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थान या हिं. थान)
- लुकने-छिपने का गुप्त स्थान।
- थुरहथ, थुरहथा
- वि.
- (हिं. थोडा+हाथ)
- किफायत करनेवाला।
- थुरहथी
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. थुरहथ)
- छोटे हाथवाली।
- थुली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं . थूला)
- अनाज का दलिया।
- थूँक, थूक
- संज्ञा
- पुं.
- (अनु. थू थू)
- गाढ़ा खखार।
- मुहा.- थूक उछालना— बेकार बकना।
थूक लागाकर रखना— कंजूसी से जोड़ जोड़कर रखना।
थूक से (थूकी. सत्तू सानना कंजूसी) के मारे बहुत जरा सी चीज से बड़ा काम करने चलना।
- थूँकना, थूकना
- क्रि. अ.
- [हिं. थूक + ना (प्रत्य.)]
- मुँह से थूक निकाल कर फेंकना।
- मुहा.- किसी (वातु या व्यक्त) पर न थूकना— बहुत घृणा करना।
थूकना और चाटना— (१) बात कहना और कहकर मुकर जाना। (२) वस्तु देकर फिर वापस कर लेना।
- थूँकना, थूकना
- क्रि. स.
- [हिं. थूक + ना (प्रत्य.)]
- मुँह की वस्तु उगलकर फेंकना।
- थूँकना, थूकना
- क्रि. स.
- [हिं. थूक + ना (प्रत्य.)]
- निंदा या बुराई करना, धिक्कारना।
- मुहा.- (क्रोध-आदि) थूकना (थूक देना)— गुस्सा दबा लेना या शांत करना।
- थू
- अव्य.
- (अनु.)
- थूकने का शब्द।
- थू
- अव्य.
- (अनु.)
- घृणा या तिरस्कार सूचक शब्द, छिः।
- मुहा.- थू-थू करना— घुणा तिरस्कार प्रकट करना।
थू-थू होना— निंदा या तिरस्कार होना।
- थूथन, थूथुन
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- नर पशुऒं का लंबा मुँह। थूथन फुलाना (सुजाना)—नाराज होना।
- मुहा.- थूथन फुलाना (सुजाना)— नाराज होना।
- दासेय
- वि.
- (सं.)
- दास से उत्पन्न।
- दासेय
- संज्ञा
- पुं.
- दास।
- दासेय
- संज्ञा
- पुं.
- धीवर।
- दासेयी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- व्यास की माता सत्यवती।
- दासेर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दास।
- दासेर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- धीवर।
- दासेर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ऊँट।
- दासेरक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दासीपुत्र।
- दासेरक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ऊँट।
- दास्तान
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा.)
- हाल, वृत्तांत।
- दास्तान
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा.)
- किस्सा, कथा-कहानी।
- दास्तान
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फा.)
- बयान, वर्णन।
- दास्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दासपन, सेवा, दासत्व।
- दास्यमान
- वि.
- (सं.)
- जो दिया जानेवाला हो।
- दाह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जलाने की क्रिया या भाव।
- दाह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शव या मुर्दा जलाने की क्रिया।
- दाह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ताप, जलन।
- उ.—अंतर-दाह जु मिटट्यौ ब्यास कौ, इक चित ह्रै भगवान किऐ —१-८९।
- दाह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शोक, दुख, संताप।
- दाह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- डाह, ईर्ष्या।
- दाह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक रोग।
- दाहन
- संज्ञा
- (सं.)
- भस्म कराने या जलवाने का काम।
- दाहना
- क्रि. स.
- (सं. दाह)
- जलाना, भस्म करना।
- दाहना
- क्रि. स.
- (सं. दाह)
- सताना, दुख देना।
- दाहना
- वि.
- (हिं. दाहिना)
- दायाँ, दाहिना।
- दाहसर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मुर्दा जलाने का स्थान।
- दाहिन, दाहिना
- वि.
- (सं. दक्षिण, हीं. दाहिना)
- दायाँ, बायाँ का उलटा, दक्षिण
- दाहिनावर्त
- वि.
- (सं. दक्षिणावर्त)
- दाहिनी ऒर को घूमा हुआ।
- दाहिनावर्त
- वि.
- (सं. दक्षिणावर्त)
- जो घूमने में दाहिनी ऒर से बढ़े।
- दाहिनावर्त
- संज्ञा
- पुं.
- प्रदक्षिणा।
- दाहिनावर्त
- संज्ञा
- पुं.
- एक तरह का शंख।
- दाहक
- वि.
- (सं.)
- जलानेवाला।
- उ.—अहि मयंक मकरंद कंद हति दाहक गरल जिवाये—२८५४।
- दाहक
- वि.
- (सं.)
- संतापकारी।
- दाहक
- संज्ञा
- पुं.
- चित्रक वृक्ष।
- दाहक
- संज्ञा
- पुं.
- आग, अग्नि।
- दाहकता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- जलाने का भाव या गुण।
- दाहकत्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जलाने का भाव या गुण।
- दाहकर्म
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मुर्दा फूँकने का काम।
- दाहक्रिया
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मुर्दा जलाने की क्रिया।
- दाहत
- क्रि. स.
- (हीं. दाहना
- जलाता है, भस्म करता है।
- उ.—(क) जल नहिं बूड़त, अगिनि न दाहत, है ऐसौ हरि-नाम—१-९२। (ख) जैहै काहि समीप सूर नर कुटिल बचन-दव दाहत—१-२१०। (ग) सूरदास प्रभु हरि बिरहा-रिपु दाहत अंग दिखावत बास—सा. उ. २८।
- दाहन
- संज्ञा
- (सं.)
- जलाने का काम।
- दाहिनी
- वि. स्त्री.
- (हिं. दाहिना)
- दायीं ऒर की।
- मुहा.- दाहिनी देना (लाना)— परिक्रमा या प्रदक्षिणा करना।
दाहिनी देहि- प्रदक्षिणा करके। उ.— जटा भस्म तनु दहै वृथा करि कर्म बँधावै। पुहुमि दाहिनी देहि गुफा बसि मोहि न पावै।
- दाहिने
- क्रि. वि.
- (हिं. दाहिना)
- दायें हाथ की ऒर।
- मुहा.- दाहिने होना— अनुकूल या प्रसन्न होना।
- दाहिनैं
- क्रि. वि.
- (हिं. दाहिना)
- दाहिने हाथ की तरफ, दाहिनी ऒर।
- उ.—बाएँ काग, दाहिनैं खर-स्वर, व्याकुल घर फिरि आई—५४०।
- दाहिनौ
- वि.
- (हिं. दाहिना)
- अनुकूल, प्रसन्न।
- उ.—बड़ी बैस बिधि भयौ दाहिनौ, धनि जसुमति ऐसौ सुत जायौ—१०-२४८।
- दाहीं
- क्रि. स.
- (हिं. दाहना)
- जलायी गयीं।
- उ.—चंदन तजि अँग भस्म बतावत बिरह अनल अति दाहीं—३३१२।
- दाही
- वि.
- (सं. दाहिन)
- जलाने या भस्म करनेवाला।
- दाहु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दाह)
- जलन, ताप।
- उ.—सुरति सँदेस सुनाइ मेटौ बल्लमिनि को दाहु—३०२०।
- दाहे
- वि.
- (हिं. दाह)
- जले हुए।
- उ.—पलक न परत चहूँ दिसि चितवत बिरहानल के दाहे—३०७८।
- दाहै
- क्रि. स.
- (हिं. दाह)
- जलाती है।
- उ.—घर बन कछु न सुहाइ रैनि दिन मनहु मृगी दौ दाहै—२८०१।
- दाह्य
- वि.
- (सं.)
- जलाने या भस्म करने योग्य।
- दिक्कत
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ.)
- तंगी, तकलीफ परेशानी।
- दिक्कत
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ.)
- कठिनता, मुश्किल।
- दिक्कन्या
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दिशा-रूपी कन्याएँ जो ब्रह्मा की पुत्रियाँ मानी जाती है।
- दिक्कर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शिव, महादेव।
- दिक्करि, दिक्करी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिक्करिन्)
- दिशाऒं के हाथी
- दिक्कांता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दिशा-रूपी कन्या।
- दिक्चक्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आठ दिशाऒं का समुह।
- दिक्पति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिशाऒं के स्वामी ग्रह, यथा-दक्षिण के स्वामी मंगल, पश्चिम के शनि, उत्तर के बुध, पूर्व के सूर्य, अग्निकोण के शुक्र, नैर्ऋत-कोण के राहु, वायुकोण के चंद्रमा और ईशानकोण के वृहस्पति।
- दिक्पति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दसों दिशाऒं के पालक देवता।
- दिक्पाल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दसों दिशाऒं के पालन-कर्त्ता देवता, यथा पूर्व के इंद्र, अग्निकोण के अग्नि, नैर्ऋतकोण के नैर्ऋत, पश्चिम के वरुण, वायुकोण के मरुत, उत्तर के कुबेर, ईशानकोण के ईश, ऊर्द्ध दिशा के ब्रह्मा, और अधोदिशा के अनंत।
- दिए
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- ‘देना’ क्रिया के भूतकालिक रूप ‘दिया’ का बहुवचन।
- उ.—अरघावन करि हेत दिए (दए)—१०-८५२। इसका प्रयोग संयोजक-क्रिया के रूप में भी होता हे।
उ.—गुरु-सुत आनि दिए जमपुर तैं—१-१८
- दिए
- वि.
- लगाये हुए।
- उ.—चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए—१०-९९।
- दिक
- वि.
- (अ. दिक)
- हैरान, तंग।
- दिक
- संज्ञा
- पुं.
- (अं दिक)
- अस्वस्थ।
- दिक
- संज्ञा
- पुं.
- क्षय रोग, तपेदिक।
- दिकदाह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिग्दाह)
- सूर्यास्त के पश्चात् भी दिशाओं का जलती-सी दिखायी देना।
- दिकाक
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. दिक्रीक=बारीक)
- कतरन, धज्जी।
- दिकाक
- वि.
- (अ.दक्रियानूस)
- बहुत चालाक, खुर्राट।
- दिक
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दिशा, ऒर, तरफ।
- दिक्क
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- हाथी का बच्चा।
- दिंक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जूं नामक कीड़ा।
- दिंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक तरह का नाच।
- दिंडि, दिंडिर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिंडिर)
- एक पुराना बाजा।
- दिंडी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- उन्नीस मात्राऒं का एक छंद
- दिंडीर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- समुद्र-फेन।
- दिअना
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दीपक)
- दिआ, दीपक।
- दिअली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दिया)
- छोटा दिया।
- दिआ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दिया)
- दिया, दीपक।
- उ.—तब फिरि जरनि भई नखसिख तें दिआ बात जनु मिलकी—२७८६।
- दिउली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दिया)
- छोटा दिया।
- दिउली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दिया)
- सूखे घाव के ऊपर की पपड़ी, खुरंड दाल।
- दिक्पाल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- चौबीस मात्राऒं का एक छंद।
- दिक्शूल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- विशिष्ट दिनों में, विशिष्ट दिशाऒं में यात्रा न करने का योग; यथा-शुक्र और रविवार को पश्चिम की ऒर, मंगल और बुध को उत्तर की ऒर, शनि और सोम को पूर्व की ऒर और वृहस्पति को दक्षिण की ऒर।
- दिक्साधन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिशाऒं के ज्ञान ता उपाय।
- दिक्सुन्दरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दिशारूपी सुंदरी।
- दिक्स्वामी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिक्पति।
- दिखना
- क्रि. अ.
- (हिं. देखना)
- दिखायी देना।
- दिखराइहौं
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखलाऊँगा, दृष्टिगोचर कराऊँगा।
- उ. — हँसि कह्यौ तुम्हैं दिखराइहौं रूप वइ।
- दिखराई
- क्रि. स.
- (हिं. देखना का प्रे. रूप, दिखलाना )
- दिखायी, दृष्टिगोचर करायी।
- उ. — कोटिक कला काछि दिखराई जल-थल सुधि नहिं काल १-१५३।
- दिखराऊँ
- क्रि. स.
- (हिं. ‘देखना’ का प्रे. रूप दिखलाना)
- दिखलाऊँ, प्रदर्शि करूँ, दृष्टिगोचर कराऊँ।
- उ. — (क) बन बारानसि मुक्ति-छेत्र है, चलि तोकौं दिखराऊँ — १.३४०। (ख) कैसैं नाथहिं मुख दिखराऊँ जौ बिनु देखे जाऊँ — ६-७५। (ग) देखि तिया कैसौ बल करि तोहिं दिखराऊँ — ६-११८।
- दिखराए
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखाये, दृष्टि-गोचर कराये।
- उ.— मुख मैं तीनि लोक दिखराए, चकित भई नँदरनियाँ— १०८३।
- दिखराना
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दृष्टिगोचर कराना।
- दिखराना
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- अनुभव कराना, मालूम कराना।
- दिखरायौ
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाया)
- दिखाया, देखने को प्रवृत्त किया।
- उ. — (क) मैं ही भूलि चंद दिखरायौ, ताहि कहत मैं खैहौं — १०-१८९। (ख) माटी कैं मिस मुख दिखरायौ, तिहूँ लोक रजधानी — १०-२-५६।
- दिखरावत
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखाते है।
- दिखरावत
- क्रि. स.
- (दिखलाना)
- जताते या अनुभव कराते हैं।
- उ.— सूर भजन-महिमा दिखरावत, इमि अति सुगम चरन आराधे — ९५८।
- दिखरावति
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखलाती है।
- उ. — जसुमति तब नंद बुलावति, लाल लिए कनियाँ दिखरावति, लगन घरी आवति, यातैं न्हवाइ बनावौ —१०-९५। (ख) ठाढ़ी अजिर जसोदा अपनैं हरिहिं लिए चंदा दिखरावति — १०-१८८।
- दिखरावति
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- अनुभव कराती है, मालूम कराती है, जताती है।
- उ.— हा हा लकुट त्रास दिखरावति— १०-३५६।
- दिखरावन
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखलाने की क्रिया।
- उ.— करिहौं नाम अचल पसुपतिं कौ, पूजा-बिधि कौतुक दिखरावन— ९-२३२।
- दिखरावना
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दृष्टिगोचर कराना।
- दिखरावना
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- अनुभव कराना, जताना।
- थूथनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थूथन)
- मादा पशुओं का लंबा मुँह।
- मुहा.- थूथनी फैलाना— नाराज होना।
- थूथरा
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- लंबा और भद्दा चेहरा।
- थून, थूनि, थूनी
- संज्ञा
- पुं. स्त्री
- (स. स्थूण)
- खंभा।
- थूरना
- क्रि. स.
- (सं. थुर्वण=मारना)
- कुचलना।
- थूरना
- क्रि. स.
- (सं. थुर्वण=मारना )
- मारना-पीटना।
- थूरना
- क्रि. स.
- (सं. थुर्वण=मारना )
- ठूँस ठूँस कर भरना।
- थूरना
- क्रि. स.
- (सं. थुर्वण=मारना )
- खूब डटकर खाना।
- थूल, थूला
- वि.
- (सं. स्थूल)
- मोटा, भारी-भरकम।
- उ.—देख्पौ भरत तरून अति सुंदर। थूल सरीर रहित सब सुंदर - ५-३।
- थूल, थूला
- वि.
- (सं. स्थूल)
- मोटपे के कारण भद्दा, मोटा और थलथल।
- थूली
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. थूला)
- मोटी-ताजी, भारी भरकम।
- दिखरावती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखाने की क्रिया या भाव।
- दिखरावती
- क्रि. स.
- दिखलाती
- दिखरावती
- क्रि. स.
- अनुभव कराती।
- दिखरावहु
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखलाऒ, दर्शन कराऒ।
- उ.—तबहुँ देहुँ जल बाहर आवहु। बाँह उठाइ अंग दिखरावहु—७९९।
- दिखरावे
- क्रि. स.
- (हिं. ’देखना‘ का प्रे. रूप)
- दिखाता हे, दृष्टिगोचर कराता है।
- उ.—ज्यौं बहु कला काछि दिखरावै, लोभ न छूटत नट कैं—१-२९२।
- दिखरावौं
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखाऊँ, दृष्टि-गोचर कराऊँ।
- उ.—(क) मेरे कहैं नहीं तू मानति दिखरावौं मुख बाइ—१०-२५५। (ख) ब्रत-फल इनहिं प्रगट दिखरावौं।बसन हरौ लै कदम चढ़ावौं—७९९।
- दिखरावौ
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखाओं, दृष्टि-गोचर कराओ।
- उ.—अछत-दूब दल बँधाइ, ललन की गँठि जुराइ, इहै मोहिं लाहौ नैननि दिखरावौ—१०-९५।
- दिखलवाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखलाने की क्रिया या भाव।
- दिखलवाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दिखलाना)
- वह धन जो दिखाने के बदले में दिया या लिया जाय।
- दिखलवाना
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना का प्रे.)
- दूसरे को दिखाने में लगाना या प्रवृत्त करना।
- दिखाव
- संज्ञा
- पुं.
- [हिं. दिखाना + आव (प्रत्य.)]
- देखने का भाव या क्रिया।
- दिखाव
- संज्ञा
- पुं.
- [हिं. देखना + आव (प्रत्य.)]
- दृश्य।
- दिखाव
- संज्ञा
- पुं.
- [हिं. देखना + आव (प्रत्य.)]
- दूर और नीचे तक देखने का भाव।
- दिखावट
- संज्ञा
- स्त्री.
- [हिं. देखना + आवट (प्रत्य.)]
- दिखाने का भाव या ढंग।
- दिखावट
- संज्ञा
- स्त्री.
- [हिं. देखना + आवट (प्रत्य.)]
- ऊपरी तड़क-भड़क या बनावट।
- दिखावटी
- वि.
- [हिं. दिखावट +ई (प्रत्य.)]
- जो सिर्फ देखने के लिए हो, काम न आ सके, दिखौआ।
- दिखावत
- क्रि. स.
- (हिं. दिखाना)
- दिखाते हें या दिख-लाते हुए।
- उ.—धर्म-धुजा अंतर कछु नाहीं, लोक दिखावत फिरतौ—१-२०३।
- दिखावति
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखाती है, देखने को प्रवृत्त करती है।
- उ.—कुम्हिलानौ मुख चंद दिखावति, देखौ धौं नँदरानि—३६५।
- दिखावहिंगे
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखलायँगे, दृष्टिगोचर करायँगे।
- उ.—तैसिए स्याम घटा घन-घोरनि बिच बगपाँति दिखावहिंगे—२८८९।
- दिखावहु
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखलाऒ।
- उ.—(क) अपनी भक्ति देहु भगवान। कोटि लालच जौ दिखावहु, नाहिनैं रुचि आन—१-१०६। (ख) अब की बार मेरे कुँवर कन्हैया नंदहि नाच दिखा-वहु—१०-१७९।
- दिखाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- [हिं. दिखाना + आई (प्रत्य.)]
- वह धन जो देखने के बदले में दिया जाय।
- दिखाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- [हिं. दिखाना + आई (प्रत्य.)]
- वह धन जो दिखाने के बदले में मिले।
- दिखाऊ
- वि.
- [हिं. दिखाना या देखना + आऊ (प्रत्य.)]
- देखने योग्य।
- दिखाऊ
- वि.
- [हिं. दिखाना या देखना + आऊ (प्रत्य.)]
- दिखाने योग्य।
- दिखाऊ
- वि.
- [हिं. दिखाना या देखना + आऊ (प्रत्य.)]
- जो सिर्फ देखने लायक हो, काम न आ सके।
- दिखाऊ
- वि.
- [हिं. दिखाना या देखना + आऊ (प्रत्य.)]
- सिर्फ दिखावटी या बनावटी।
- दिखाए
- क्रि. स.
- (हिं. दिखाना)
- पढ़ाये, अध्ययन कराये।
- उ.पहिले ही अति चतुर हुए अरु गुरु सब ग्रंथ दिखाए—३३७३।
- दिखाना
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दृष्टिगोचर कराना।
- दिखाना
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- अनुभव कराना या जताना।
- दिखायौ
- क्रि. स.
- (हिं. दिखाना)
- दिखलाया, प्रदर्शित किया।
- उ.—सूर अनेक देह धरि भूतल, नाना भाव दिखायौ—१-२०५।
- दिखलाना
- क्रि. स.
- (हिं. दिखने का प्रे.)
- दृष्टि-गोचर कराना।
- दिखलाना
- क्रि. स.
- (हिं. दिखने का प्रे.)
- अनुभव कराना, मालूम कराना।
- दिखलावा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दिखवा)
- झूठा ठाट-बाट।
- दिखवैया
- संज्ञा
- पुं.
- [(हिं. दिखाना+वैया (प्रत्य.))]
- दिखानेवाला।
- दिखवैया
- संज्ञा
- पुं.
- [(हिं. दिखाना+वैया (प्रत्य.))]
- देखनेवाला।
- दिखहार
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दिखाना +हार)
- देखनेवाला।
- दिखाइ
- क्रि. स.
- (हिं. दिखाना)
- दिखा कर।
- उ.—सोवत सपने मैं ज्यौं संपति, त्यौं दिखाइ बौरावै—१-४३।
- दिखाई
- क्रि. अ.
- (हिं. देखना, दिखाना)
- दीख पड़ना, सामने आना, प्रत्यक्ष होना।
- उ.—प्रगट खंभ हैं दए दिखाई, जद्यपि कुल कौ दानौ—१-११।
- दिखाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- [हिं. दिखाना + आई (प्रत्य.)]
- देखने की क्रिया या भाव।
- दिखाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- [हिं. दिखाना + आई (प्रत्य.)]
- दिखाने की क्रिया या भाव।
- दिगंत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दसों दिशाएँ।
- दिगंत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. ट्टगू +अंत)
- आँख का कोना।
- दिगंतर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिशाऒं के बीच का स्थान।
- दिगंबर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शिव, महादेव।
- दिगंबर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जैन-यती जो नंगा रहता हो।
- दिगंबर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिशाऒं का वस्त्र, अंधकार।
- दिगंबर
- वि.
- दिशाऒं का वस्त्र धारण करनेवाला, नंगा।
- उ.—कहँ अबला, कहँ दसा दिगंबर।
- दिगंबरता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- नंगा रहने का भाव, नग्नता।
- दिगंबरपुर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वह नगर या स्थान जहाँ दिगंबर रहने वाले व्यक्ति बसते हों।
- उ.—सूरदास दिगंबरपुर ते रजक कहा ब्यौसाइ—३३३४।
- दिगंबरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दुर्गा।
- दिखावा
- संज्ञा
- पुं.
- [हिं. देखना + आवा (प्रत्य.)]
- ऊपरी तड़क-भड़क, झूठा आडंबर, बनावटीपन।
- दिखावै
- क्रि. स.
- (हिं. दिखलाना)
- दिखलाती है, देखने को प्रेरित करती है।
- उ.—महा मोहिनी मोहि आतमा, अपमारगहिं लगावै। ज्यौं दूती पर-बधू भोरि कै, लै पर-पुरुष दिखावै—१-४२।
- दिखिअत
- क्रि. स.
- (हिं. दिखना)
- दिखायी देता है, जान पड़ता है।
- उ.—सूरदास गाहक नहिं कोऊ दिखिअत गरे परी—३१०४।
- दिखैया
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. देखना + ऐया)
- देखनेवाला।
- दिखैया
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दिखाना + ऐया)
- दिखानेवाला।
- दिखैहै
- क्रि. अ.
- [हिं. देखना, दिखाना]
- दीख पड़ेगा, दिखायी देगा।
- उ.—कहँ वह नीर, कहाँ वह सोभा, कहँ रँग-रुप दिखैहै—१-८६।
- दिखौआ, दिखौवा
- वि.
- [हिं. देखना + औआ (प्रत्य.)]
- जो देखने भर का हो, काम न आ सके; बनावटी।
- दिगंत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिशा का छोर या अंत।
- दिगंत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आकाश का छोर, क्षितिज।
- दिगंत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- चारो दिशाएँ।
- दिगंश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- क्षितिज वृत्त का ३६० वां अंश।
- दिग, दिग्
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिक्)
- दिशा, ऒर, तरफ।
- दिगज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिग्गाज=सिंदुर=१. हाथी। २. सिंदुर जिसकी बिंदी लगायी जाती है)
- सिंदूर नामक लाल चूर्ण जिसकी बिंदी लगायी जाती है।
- उ.—दिगज बिंदु बिजे छन बेनन भानु जुगल अन-रूप उँ ज्यारी—सा. ९८।
- दिगदंती
- संज्ञा
- पुं.
- [सं. दिक् +हिं. दंतार=दंत +आर (प्रत्य.)]
- आठ हाथी जो आठों दिशाऒं की रक्षा के लिए स्थापित हैं। यथा—पूर्व में ऐरावत, पूर्व—दक्षिण में पुंडरीक, दक्षिण में वामन, दक्षिण पश्चिम में कुमुद, पश्चिम में अंजन, पश्चिम-उत्तर में पुष्प-दंत, उत्तर में सार्वभौम, उत्तर-पूर्व में सप्तसीक।
- उ.—बिडरि चले घन प्रलय जानि कै, दिगपति दिगदंतीनि सकेलत—१०-६३।
- दिगपति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिक्पति, दिग्पति)
- दसों दिशाऒं के पालक देवता, यथा—पूर्व के इंद्र, अग्नि-कोण के वह्रि, दक्षिण के यम, नैर्ऋतकोण के नैर्ऋत, पश्चिम के वरुण, वायुकोण के मरुत, उत्तर के कुबेर, ईशानकोण के ईश, ऊर्द्ध दिशा के ब्रह्मा और अधोदिशा के अनंत।
- बिडरि चले धन प्रलय जानि कै, दिगपति दिगदंतीनि सकेलत—१०-५३।
- दिगबिजय
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिग्विजय)
- अपना महत्व स्थापित करने के उद्देश्य से राजाऒं का देश देशांतरों में ससैन्य जाकर विजय प्राप्त करने की प्राचीन प्रथा।
- उ.—(क) बहुरि राज ताकौ जब गयौ।मिस दिगविजय चहूँ दिसि गयौ—१-२९०। (ख) दिगबिजय कौं जुवति-मंडल भूप परि हैं पाइ—३२२७।
- दिगबिजयी
- वि.
- पुं.
- (सं. दिग्विजयी)
- सभी दिशाऒं के राजाऒं को जीतनेवाला।
- उ.—राज-अहँकार चढ़ यौ दिगबिजयी, लोभ छत्रकरि सीस। फौज असत-संगति की मेरैं, ऐसौं हौं मैं ईस—१-१४४।
- दिगीश, दिगीश्वर, दिगेश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिक्पाल।
- दिगीश, दिगीश्वर, दिगेश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य चंद्र आदि ग्रह।
- दिग्गज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आठ हाथी आठों दिशाओं की रक्षा के लिए स्थापित हैं; पूर्व में ऐरावत, पूर्व-दक्षिणकोण में पुंडरीक, दक्षिण में वामन, दक्षिण-पश्चिमकोण में कुमुद, पश्चिम में अंजन, पश्चिम-उत्तर कोण में पुष्पदंत, उत्तर में सार्वभौम और उत्तर-पूर्व कोण में सप्ततीक।
- दिग्गज
- वि.
- बहुत बड़ा या भारी।
- दिग्गयंद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिशाऒं के हाथी, दिग्गज।
- दिग्घ
- वि.
- (सं. दीर्घ)
- लंबा।
- दिग्घ
- वि.
- (सं. दीर्घ)
- बड़ा।
- दिग्जय
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिग्विजय)
- दिग्विजय।
- दिग्जया
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- क्षितिज वृत्त का ३६० वाँ भाग।
- दिग्दर्शक
- वि.
- (सं.)
- दिशाओं का ज्ञान करानेवाला।
- दिग्दर्शन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- उदाहरण-रूप प्रस्तुत आदर्श या नमूना।
- दिग्दर्शन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आदर्श या नमूना दिखाने का काम।
- दिग्दर्शन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जानकारी।
- दिग्दर्शनी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिशा-ज्ञान करानेवाली वस्तु।
- दिग्दाह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्यास्त के पश्चात् भी दिशाओं का लाल और जलती हुई सी दिखायी देना।
- दिग्देवता
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिक् +देवता)
- दिक्पाल।
- दिग्ध
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- विष-बुझा वाण।
- दिग्ध
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अग्नि।
- दिग्ध
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- विष में बुझा हुआ।
- दिग्ध
- वि.
- पुं.
- (सं.)
- लिप्त।
- दिग्ध
- वि.
- (सं. दीर्घ)
- बड़ा, लंबा, दीर्घ।
- दिग्पट
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिक्पट)
- दिशा-रूपी वस्त्र।
- दिग्पति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिकू+पति)
- दिक्पाल।
- दिग्पाल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिकू+पाल)
- दिक्पाल।
- दिग्भ्रम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिशा का भूल जाना।
- दिग्मंडल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सब दिशाएँ।
- दिग्+राज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिक् +राज)
- दिक्पाल।
- दिग्बसन, दिग्बस्त्र
- संज्ञा
- पुं.
- (स. दिक् +वसन, वस्त्र)
- शिव जी।
- दिग्बसन, दिग्बस्त्र
- संज्ञा
- पुं.
- (स. दिक् +वसन, वस्त्र)
- दिगंबर जैनी।
- दिग्बसन, दिग्बस्त्र
- संज्ञा
- पुं.
- (स. दिक् +वसन, वस्त्र)
- नग्न व्यक्ति।
- दिग्वान्
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पहरेदार, चौकीदार।
- दिग्वारण
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिग्गज।
- दिग्विजय
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- राजाओं का देश-देशांतरों में जाकर विजय करना और इस प्रकार अपना महत्व स्थापित करना।
- उ. — करि दिग्विजय विजय को जग में भक्त पक्ष करवायौ।(२) गुण, विद्वता आदि में दूमरों को पराजित करके स्व-प्रतिष्ठा स्थापित करना।
- थेइ-थेइ, थेई-थेई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अनु.)
- नाच का बोल।
- थेगली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थिगली)
- पेबंद, चकती।
- थेथर
- वि.
- (देश.)
- बहुत हारा-थका, परेशान।
- थेथरई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थेथर)
- थकान, परेशानी।
- थेवा
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- अँगूठी का घर जिसमें नगीना जड़ा जाता है।
- थेवा
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- अँगूठी का नगीना।
- थेवा
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- धातु का पत्तर जिस पर मुहर खोदी जाती है।
- थैला
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थल =कपड़े का घर)
- कपड़े का बड़ा बटुआ।
- थैला
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थल =कपड़े का घर)
- रूपयों का थैला, तोड़ा।
- थैली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थैली)
- छोटा थैला।
- दिङमूढ़
- वि.
- (सं.)
- मूर्ख
- दिच्छित
- वि.
- (सं. दीक्षित)
- जिसने दीक्षा ली हो।
- दिज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विज)
- ब्राह्मण।
- दिज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विज)
- पक्षी |
- दिज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विज)
- चंद्र |
- दिजराज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विजराज)
- ब्राह्मण।
- दिजराज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विजराज)
- चंद्रमा।
- दिजोत्तम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विजोत्तम)
- श्रेष्ठ ब्राह्मण।
- दिठवन
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. देवोत्थान)
- कार्तिक शुक्ल एकादशीं को विष्णु का शेष-शैया से उठना।
- दिठियार
- वि.
- [हिं. दीठ=दृष्टि+इयार या आर (प्रत्य)]
- जिसे दिखायी देता हो, देखनेवाला।
- दिग्विजयी
- वि.
- पुं.
- (सं.)
- दिग्विजय करनेवाला।
- उ.—गज अहँकार चढ़यौ दिग्विजयी लोभ छत्र करि सीस।
- दिग्विभाग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिशा, ऒर, तरफ।
- दिग्व्यापी
- वि.
- (सं.)
- जो सर्वत्र व्याप्त हो।
- दिग्शिखा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पूर्व दिशा।
- दिग्सिंधुर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिग्गज।
- दिङनाग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिग्गज।
- दिङनारि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बहुत से पुरुषों से प्रेंम करनेवाली स्त्री।
- दिङमातंग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिग्गज।
- दिङमात्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सिर्फ नमूना भर।
- दिङमूढ़
- वि.
- (सं.)
- जो दिशाभूला हो।
- दिठौना
- संज्ञा
- पुं.
- [हिं. दीठ=दृष्टि+औना (प्रत्य.)]
- नजर लगने से बचाने के लिए बच्चों के माथे पर लगाया गया काजल का बिंदु।
- दिढ़
- वि.
- (सं. दृढ़)
- मजबूत, पक्का।
- दिढ़
- वि.
- (सं. दृढ़)
- ध्रुव, पक्का।
- दिढ़ता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृढ़ता)
- मजबूत होने का भाव।
- दिढ़ता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृढ़ता)
- विचार आदि पर दृढ़ रहने का भाव।
- दिढ़ाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृढ़)
- दृढ़ होने का भाव।
- दिढ़ाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृढ़)
- विचार या निश्चय पर दृढ़ रहने का भाव।
- दिढ़ाना
- क्रि. स.
- [सं. दृढ़+आना (प्रत्थ.) ]
- पक्का या मजबूत करना।
- दिढ़ाना
- क्रि. स.
- [सं. दृढ़+आना (प्रत्थ.) ]
- निश्चित करना।
- दितवार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. आदित्यवार)
- रविवार।
- दिति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कश्यय ऋषि की स्त्री जो दक्ष प्रजापति की कन्या और दैत्यों की माता थी।
- उ.—कस्यप की दिति नारि, गर्भ ताकैं दोउ आए—३-११
- दिति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- खंडन।
- दिति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दाता।
- दितिकुल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दैत्य वंश।
- दितिज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिति से उत्पन्न, दैत्य।
- दितिसुत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दैत्य, असुर।
- दित्सा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दान की इच्छा।
- दित्स्य
- वि.
- (सं.)
- जो दान किया जा सके।
- दिद्य्क्षा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- देखने की इच्छा।
- दिद्य्क्षु
- वि.
- (सं.)
- जो देखना चाहता हो।
- दिद्यु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वज्र।
- दिद्यु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वाण।
- दिधि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- धैर्य।
- दिन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्योदय से सूर्यास्त तक का समय।
- मुहा.- दिन को तारे दिखाई देना— इतना मानसिक कष्ट होना कि बुद्धि ठिकाने न रहे।
दिन को दिन रात को रात न जानना (समझना)— सुख या आराम की चिंता न करना।
दिन चढ़ना— सूर्योदय के बाद समय बीतना।
दिन छपना (हूबना, बृड़ना, मूँ दना)— संध्या होना।
दिन टलना— सूर्यास्त होने को होना।
दिन दहाड़े या दिन दोपहर— ठीक दिन के समय।
दिन दूना रात चौगुना बढ़ना (हीना)— बहुत जल्दी उन्नति करना।
दिन निकलना (होना)— सूर्योदय होना।
- दिन
- यौ.
- दिन-रात—हर समय, सदा।
- दिन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आठ पहर या चौबीस घंटे का समय जिसमें पृथ्वी एक बार अपने अक्ष पर घूम लेती है।
- मुहा.- चार दिन— बहुत थोड़ा समय। उ.— चारि चारि दिन सबै सुहागिनि री ह्णै चुकी मैं स्वरूप अपनी— १७६२। दिन-दिन (दिन पर दिन)-हर रोज, सदा। उ.— मैं दिन दिन उनमानी मुहाप्रलय की नीति— ३४५७।
- दिन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- समय, काल, वक्त।
- मुहा.- दिन काटना— कष्ट के दिन बिताना।
दिन गँकाना— बेकार समय खोना।
दिन पूरे करना— कष्ट का समय किसी तरह बिताना।
दिन बिगड़ना— बुरे दिन आना।
दिन भुगतना— कष्ट के दिन काटना।
- दिन
- यौ.
- पतले दिन—बुरे, खोटे या कष्ट के दिन।
- दिन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नियत निश्चित या उचित समय।
- उ.—सूर नंद सौं कहति जसोदा दिन आये अब करहु चँड़ाई—११८।
- मुहा.- दिन आना— अंत समय आना।
दिन धरना— दिन निश्चित करना या ठहराना।
दिन धराना (सुधाना)— दिन निश्चित करना या मुहूर्त्त निकलवाना।
दिन धराइ (सुधाइ)— मुहूर्त्त निकलवाकर। उ.— पालनो आन्यौ सबहिं अति मन मान्यौ नीको सो दिन धराइ (सुधाइ) सखिन मंगल गवाइ रंगमहल में पौढ़यौ है कन्हैया— १०-४१।
- दिन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- विशेष घटना का काल या समय।
- मुहा.- दिन चढ़ना- किसी स्त्री का गर्भवती होना।
दिन पड़ना— बुरा समय आना।
दिन फिरना (बहुरना)- बुरे दिनों के बाद अच्छे दिन आना।
दिन भरना- बुरे दिन बिताना।
दिन उतरना— युवावस्था बीतना।
- दिन
- क्रि. वि.
- सदा, सर्वदा, हमेशा।
- दिनअर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिनकर)
- सूर्य।
- दिनकंत
- संज्ञा
- पुं.
- [सं. दिन + हिं. कंत (कांत)]
- सूर्य।
- दिनकर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य।
- उ.—ज्यौं दिन-करहिं उलूक न मानत, परि आई यह टेव—१-१००।
- दिनकर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आक, मंदार।
- दिनकर-कन्या
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- यमुना जी।
- दिनकर-सुत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- यम।
- दिनकर-सुत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शनि।
- दिनकर-सुत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सुग्रीव।
- दिनकर-सुत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अश्विनीकुमार।
- दिनकर-सुत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कर्ण।
- दिनकर्त्ता, दिनकृत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य।
- दिनकेशर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अँधेरा, अंधकार।
- दिनचर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + हि. चर)
- सूर्य।
- दिनचर-सुत-सुत
- संज्ञा
- पुं.
- [दिन (=हिं. वार) + चर (=वारचर=वारिचर=पानी में चलनेवाली मछली) + सुत (=मछली-सुत=व्यास) + सुत (व्यास के पुत्र शुकदेव=शुक=तोता)]
- शुक, तोता।
- उ.—दिनचर-सुत-सुत सरिस नासिका है कपोल श्री भाई—सा. १०३।
- दिनचर्या
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दिन भर का काम-धंधा।
- दिनचारी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिनचारिनू)
- दिन में चलने वाला, सूर्य।
- दिन ज्योति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिन ज्योतिस्)
- दिन का प्रकाश।
- दिन ज्योति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिन ज्योतिस्)
- धूप।
- दिनदानी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + हिं. दानी)
- सदैव दान करनेवाला।
- दिनदीप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + दीप)
- सूर्य।
- दिनदुखि, दिनदुखी
- (सं.)
- चकवा पक्षी।
- दिननाथ, दिननाह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिननाथ)
- सूर्य।
- दिननायक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिन का स्वामी, सूर्य।
- दिनप, दिनपति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन +प, पति)
- सूर्य।
- दिनप, दिनपति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन +प, पति)
- मित्र ('मित्र' सूर्य का पर्यायवाची है। इसका दूसरा अर्थ सखा है। वही यहाँ लिया गया है।)
- उ.—दिनपति चले धौं कहा जात—सा. ८।
- दिनपति-सुत-अरि-पिता-पुत्र-सुत
- संज्ञा
- पुं.
- [सं. दिन-पति (=सूर्य) + सुत (=सूर्य का पुत्र कर्ण) + अरि (कर्ण का अरि या शत्रु अर्जुन) + पिता (=अर्जुन के पिता इंद्र) +पुत्र (=इंद्र का पुत्र बालि) + पुत्र (=बालि का पुत्र अंगद)]
- अंगद या बाजूबंद नामक आभूषण।
- उ.—दिनपति-सुत-अरि-पिता-पुत्र-सुत सो निज करन सँभारे। मानहु कंज रिच्छ गहि तीजो कंचन भू पर धारे—सा. १३।
- दिनपति-सुत-पतिनी-प्रिय
- संज्ञा
- पुं., स्त्री.
- [सं. दिनपति (=सूर्य) + सुत (=सूर्य का पुत्र शनि) + पत्नी (=शनि की पत्नी कर्कशा) + प्रिय (=कर्कशा स्त्री का प्रिय कठोर वचन या वाणी)
- क्रूर वचन या वाणी।
- उ.—लषि वृजचंद चंदमुख राधे। दधि सुतसुत पतिनी न निकासत दिनपति-सुत-पतिनी-प्रिय बाधे—सा. ६।
- दिनपाल, दिनपालक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य।
- दिनबंधु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य।
- दिनबंधु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मंदार।
- दिनमणि, दिनमनि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिनमणि)
- सूर्य।
- उ.—(क) लै मुरली आँगन ह्णै देखौ, दिनमनि उदित भए द्विधरी—४०३। (ख) तूल दिनमनि कहा सारँग, नाहिं उपमा देत—७०६। (ग) बिनय अंचल छोरि रबि सौं, करति हैं सब बाम। हमहिं होहु दयाल दिनमनि तुम विदित संसार—७६७।
- दिनमणि, दिनमनि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिनमणि)
- आक, मंदार।
- दिनमयूख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य।
- दिनमयूख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मंदार।
- दिनमल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मास, महीना।
- दिनमान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन की अवधि या उसका मान।
- दिनमाली
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य, रवि।
- दिनमुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सबेरा, प्रभात।
- दिनरत्न
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य।
- दिनाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिन + हि. आना)
- ऐसी विषैली वस्तु जिसके खाने से मुत्यु हो जाय।
- उ.—काके सिर पढ़ि मंत्र दियौ हम कहाँ हमारे पास दिनाई।
- दिनागम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + आगम)
- प्रभात।
- दिनाती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दिन + आती)
- एक दिन का काम या उसकी मजदूरी।
- दिनादि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + आदि=शुरू)
- प्रभात।
- दिनाधीश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य।
- दिनाधीश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मंदार।
- दिनारु, दिनालु
- वि.
- (सं. दिनालु)
- बहुत दिनों का, पुराना।
- दिनार्द्ध
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + अर्द्ध)
- आधा दिन, दोपहर।
- दिनास्त
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- संध्या, सायंकाल।
- दिनिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- एक दिन की मजदूरी।
- थूली
- संज्ञा
- स्त्री.
- अनाज का मोटा दलिया।
- थूवा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्तूप, प्रा. थूप, थूब)
- टीला, ढूह।
- थूवा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्तूप, प्रा. थूप, थूब)
- मिट्टी का बड़ा लोंदा।
- थूवा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अनु. थू थू)
- घृणा का तिरस्कार सूचक शब्द।
- थूहड़, थूहर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थूए=थूनी)
- एक पेड़।
- थूहा
- संज्ञा
- पुं.
- (स.स्तूप प्रा. थूप, थूप)
- टीला।
- थूही
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थूहा)
- मिट्टी की ढेरी।
- थूही
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थूहा)
- मिट्टी के खंभे जिन पर गराड़ी की लकड़ी रखी जाती है।
- थेंथर
- वि.
- (देश.)
- थका-थकाया, सुस्त, परेशान।
- थेइ-थेइ, थेई-थेई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अनु.)
- थिरक-थिरक कर नाचने की मुद्रा और ताल।
- उ.—(क) कालिनाग के फन पर निरतत, संकर्षन कौ बीर। लाग मान थेइ-थेइ करि उघटत, ताल मृदंग गँमीर- ५७५(ख) होड़ा-होड़ी नृत्य करैं रीझि रीझि अंग भरै ताता थेई उघटत हैं हरषि मन — १७८१।
- दिनरत्न
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मंदार।
- दिनराइ, दिनराई, दिनराउ, दिनराऊ, दिनराज, दिनराय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिनराज)
- सूर्य, रवि।
- दिनशेष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- संध्या, सायंकाल।
- दिनांक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + अंक)
- तारीख।
- दिनांत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + अंत)
- संध्या, सायंकाल।
- दिनांतक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + अंतक)
- अंधकार।
- दिनांध
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + अंध)
- वह जिसे दिन में दिखायी न दे।
- दिनांश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + अंश)
- प्रातः, मध्याह्न और सायं—दिन के तीन अंश या भाग।
- दिनांश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + अंश)
- दिन के पाँच अंश जिनमें प्रत्येक, सूर्योदय के पश्चात् तीन मूहूर्त का होता है; यथा प्रातः, संगव, मध्याह्न, अपराह्न, और सायंकाल
- दिना
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन)
- दिन।
- उ.—(क) जा दिना तैं जनम पायौ, यहै मेरी रीति। बिषय-बिष हठि खात, नाहीं डरत करत अनीति—१-१०६। (ख) एक दिना हरि लई करोटी सुनि हरिषी नँदरानी—सारा. ४२१। (ग) अपनी दसा कहौं मैं कासौं बन-बन डोलति रैनि-दिना—१४९१। (घ) माई वै दिना यह देह अछत बिधना जो आनंरी—२९०४।
- मुहा.— चार दिना— थोड़ा समय। उ.— दिना चारि रहते जग ऊपर— १०५३।
- दिनियर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिनकर)
- सूर्य।
- दिनी
- वि.
- [हिं. दिन + ई (प्रत्य.)]
- बहुत दिनों का, पुराना।
- दिनी
- वि.
- [हिं. दिन + ई (प्रत्य.)]
- बूढ़ी।
- उ.—भली बुद्धि तेरैं जिय उपजी। ज्यौं-ज्यौं दिनी भई त्यौं निपजी—३९१।
- दिनेर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिनकर, प्रा. दिनियर)
- सूर्य।
- दिनेश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + ईश)
- सूर्य, रवि।
- दिनेश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + ईश)
- आक, मंदार
- दिनेश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + ईश)
- दिन के स्वामी ग्रह।
- दिनेशात्मज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + ईश + आत्मज=पुत्र)
- शनि।
- दिनेशात्मज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + ईश + आत्मज=पुत्र)
- यम।
- दिनेशात्मज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + ईश + आत्मज=पुत्र)
- कर्ण।
- दिनेशात्मज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + ईश + आत्मज=पुत्र)
- सुग्रीव।
- दिनेशात्मज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + ईश + आत्मज=पुत्र)
- अश्विनीकुमार।
- दिनेश्वर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिन + ईश्वर)
- सूर्य, रवि।
- दिनेस
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिनेश)
- सूर्य
- उ. — सिव बिरंचि सनकादि महामुनि सेस सुरेस दिनेस। इन सबहिनि मिलि पार न पायौ द्वारावती नरेस — सारा. ६८४।
- दिनौधी
- संज्ञा
- स्त्री.
- [हिं. दिन + अंध +ई (प्रत्य.)]
- आँख का एक रोग जिसमें दिन के प्रकाश में कम दिखायी देता है।
- दिपत
- क्रि. अ.
- (हिं. दिपना)
- चमकते हैं, शोभा पाते हैं।
- उ. —नीकन अधिक दिपत दुत ताते अंतरिच्छ छबि भारी — सा. ५१।
- दिपति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीप्ति)
- चमक, शोभा।
- दिपति
- क्रि. अ.
- (सं. दीप्ति)
- चमकती है, शोभा पाती है।
- दिपना
- क्रि. अ.
- (सं. दीप्ति)
- चमकना, शोभा पाना।
- दिब
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिव्य)
- वह परीक्षा जो सत्यता या निर्दोषता सिद्ध करने के लिए दी जाय।
- दियरा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दीया)
- एक तरह का पकवान।
- दियला, दियवा, दिया
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दीया)
- दीपक।
- दियाबती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दीया + बाती)
- (साँझ को) दिया जलाने का काम।
- दियारा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दयार)
- नदी-किनारे की भूमि, कछार।
- दियारा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दयार)
- प्रदेश, प्रांत।
- दिये
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- लगाये (हुए)।
- उ.— (क) मूँडयौ मूँड़ कंठ बनमाला, मुद्रा-चक्र दिये— १-१७१। (ख) तन पहिरे नूतन चीर, काजर नैन दिये— १०-२४।
- दियो, दियौ
- क्रि. स.
- (सं. दान, हिं. देना)
- दिया। प्रदान किया।
- उ. — (क) करि बल बिगत उबारि दुष्ट तैं, ग्राह ग्रसत बैकुँठ दियौ— १-२६। (ख) मैं यह ज्ञान छली ब्रज-बनिता दियो सु क्यों न लहौं—१० उ. १०४।
- दिर
- संज्ञा
- पुं.
- (अनु.)
- सितार का एक बोल।
- दिरद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विरद)
- हाथी।
- दिरद
- वि.
- दो दाँत वाला।
- दिमाक, दिमाग
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. दिमाग़)
- मस्तिष्क।
- मुहा.- दिमाग खाना (चाटना)— बहुत बकवाद करके परेशान कर देना।
दिमाग खाली करना— मगजपच्ची करना।
दिमाग आसमान पर होना (चढ़ना)— बहुत घमण्ड होना।
दिमाग न पाया जाना (मिलना)- बहुत धमण्ड होना।
दिमाग में खलल होना— पागल-सा हो जाना।
- दिमाक, दिमाग
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. दिमाग़)
- बुद्धि, समझ, मानसिक शक्ति।
- मुहा.- दिमाग लड़ाना— सोच-विचार करना।
- दिमाक, दिमाग
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. दिमाग़)
- अभिमान, गर्व, घमण्ड, शेखी।
- मुहा.- दिमा झड़ना— घमंड चूर होना।
- दिमागदार
- वि.
- [अ. दिमाग़ + फ़ा. दार (प्रत्य.)]
- बुद्धिमान या समझदार।
- दिमागदार
- वि.
- [अ. दिमाग़ + फ़ा. दार (प्रत्य.)]
- अभिमानी, घमंडी।
- दिमागी
- वि.
- (हिं. दिमाग)
- दिमाग से संबंध रखने-वाला।
- दिमागी
- वि.
- (हिं. दिमाग)
- अभिमानी, घमंडी।
- दिमात
- वि.
- (सं. द्विमातृ)
- जिसके दो माताएँ हों।
- दियत
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. देना)
- किसी को मार डालने या घायल करने के बदले में आक्रमणकारी को दिया जानेवाला धन।
- दियना, दियरा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दीया)
- दीपक, चिराग।
- दिरमान
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दरमानः)
- चिकित्सा।
- दिरमानी
- संज्ञा
- पुं.
- (हीं. दिरमान)
- वैद्य, चिकित्सक।
- दिरानी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. देवरानी)
- देवर की स्त्री।
- दिरिस
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्य्श्य)
- देखने की वस्तु, दृश्य।
- दिल
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- कलेजा।
- मुहा.- दिल उछलना— (१) घबराहट होना। (२) प्रसन्नता होना।
दिल उड़ना— बहुत घबराहढ होना।
दिल उलटना— (१) वमन करते-करते परेशान हो जाना। (२) होश हवास जाते रहना।
दिल काँपना— डर लगना।
दिल जलना— (१) कष्ट पहुंचना (२) बहुत बुरा लगना।
दिल जलाना— दुख देना।
दिल टूटना— हिम्मत न रह जाना, निराश हो जाना।
दिल ठंढा करना— संतोष देना।
दिल ठंढा होना— संतोष होना।
दिल थाम कर बैंठ (रह) जाना— रोक कर, वेग दबाकर या मन मसोस कर रह जाना।
दिल धक-धक करना— डर स बहुत घबराना।
दिल घड़कना— (१) डर से घबराना। (२) बहुत चिंतित होना, जी में खटका होना।
दिल निकाल कर रख देना- सबसे प्रिय वस्तु या सर्वस्व दे देना।
दिल पक जाना— बहुत तंग या परेशान हो जाना।
दिल बैठना— हुदय की गति बहुत क्षीण हो जाना।
दिल का बुलबुला बैठना— शोक या दुख के आघात से हृदय की गति रूक जाना।
- दिल
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- मन, चित्त, हृदय, जी।
- मुहा.- दिल अटकना— मुग्ध होना, प्रेम होना।
दिल आना— प्रेम करना।
दिल उकताना, उचटना— जी उचाट होना, मन न लगना।
दिल उठाना— (१) विरक्त होना। (२) इच्छा करना।
दिल उमड़ना— चित्त में दुख या दया उमड़ना।
दिल उलटना— (१) घबराहट होना। (२) मन न लगना। (३) घृणा होना।
दिल उठाना— (१) मन फेर लेना। (२) इच्छा करना।
दिल कड़ा करना— साहस या हिम्मत से काम लेना।
दिल कड़ा होना— कठोर साहसी या हिम्मती होना।
दिल कवाब होना— बहुत बुरा लगना, जी जल जाना।
दिल करना— (१) साहस करना। (२) इच्छा करना।
दिल का— जीवटवाला, हिम्मती, साहसी।
दिल का कमल खिलना— बहुत प्रसन्नता होना।
दिल का गवाही देना— किसी बात के करने या न करने अथवा उचित होने न होने का विचार मन में आना।
दिल का गुबार (गुब्बार, बुखार) निकालना— क्रोध दुख या झुँझलाहट में खूब भली-बुरी सुनकर संतोष करना।
दिल का बादशाह— (१) बहुत उदार। (२) मनमौजी।
दिल का भरना (भर जाना)— (१) संतुष्ट होना, छक जाना, मन भर जाना। (२) इच्छा पूरी होना (३) रूचि या इच्छा के अनुकूल काम होना। (४) खटका या संदेह मिटना। (५) दिलजमई होना।
दिल की दिल में रहना। (रह जाना)— इच्छा पूरी न हो सकना।
दिल की फाँस— मन का दुक या कष्ट।
दिल कुढ़ना— मन में दुख या कष्ट होना, जी जलना।
दिल कुढ़ाना— दुख या कष्ट देना, जी जलाना।
दिल कुम्हलाना— मन का खिन्न या उदास होना।
दिल के दरवाजे खुलना— जी का हाल या भेद मालूम होना।
दिल के फफोले फूटना— मन के भाव या चित्त के उद्गार प्रकट होना।
दिल के फफोले फोड़ना— भली बुरी सुनाकर जी ठंढा करना।
दिल को करार होना— जी को धैर्य, शांति या आशा होना।
दिल मसोसना— शोक, क्रोध आदि को प्रकट न करके मन ही में दबाना।
मन मसोस कर रह जाना— शोक, क्रोध आदि को कारणवश प्रकट न कर सकना।
दिल को लगना— (१) किसी बात का मन पर बड़ा प्रभाव पड़ना। (२) बहुत लगन होना।
दिल खट्टा होना— घृणा या विरक्ति होना।
दिल को खटकना— (१) संदेह या चिंता होना। (२) जी हिचकिचाना।
दिल खुलना— संकोच या हिचक न रह जाना।
दिल खिलना— चित्त बहुत प्रसन्न होना।
दिल खोलकर— (१) बिना हिचक या संकोच के, बेधड़क। (२) मनमाना (३) बहुत चाव या उत्साह के साथ।
दिल चलना— (१) इच्छा होना। (२) चित्त चंचल या विचलित होना। (३) मोहित या मुग्ध होना।
दिल, चुराना— किसी काम से भागना या टाल-टूल करना।
दिल जमना— (१) किसी काम में मन या चित्त लगना। (२) किसी विषय या पदार्थ का रूचि के अनुकूल होना।
दिल जमाना— किसी कार्य-व्यापार में ध्यान देना या मन लगाना।
दिल जलना— (१) गुस्सा या जुँजलाहट लगना, कुढ़ना। (२) डाह या ईर्ष्या होना।
दिल जलाना— (१) कुढ़ाना, चिढ़ाना। (२) सताना, दुखी करना। (३) डाह या ईर्ष्या पैदा करना।
दिलजान से जुटना (लगना)— (१) खूब मन लगाना, बहुत ध्यान से काम करना। (२) कड़ी मेहनत करना।
दिल टूट जाना, टूटना— निराशा या निरूत्साह होना।
दिल ठिकाने होना— शान्ति, संतोष या धैर्य होना।
दिल ठुकना— (१) चित्त स्थिर होना। (२) हिम्मत बाँधना।
दिल ठोंकना— (१) जी पक्का करना। (२) हिम्मत बाँधना।
दिल डूबना— (१) मूर्छित होना। (२) घबराहट होना। (३) निराशा होना।
दिल तड़पना— अधिक प्रेम के कारण किसी के लिए जी में बेचैनी होना।
दिल तोड़ना— हिम्मत या साहस भंग करग कर देना।
दिल दहलना— बहुत भय लगना।
दिल दुखना— कष्ट या दुख होना।
दिल देखना— जी की थाह लेना।
दिल देना— प्रेम करना।
दिल दौड़ना— (१) बड़ी इच्छा होना। (२) जी इधर-उधर भटकना।
दिल दौड़ाना— (१) इच्छा करना। (२) सोचना, ध्यान दौड़ाना।
दिल धड़कना— (१) डर से जी काँपना। (२) चित में चिंता होना।
दिल पक जाना— दुख सहते-सहते तंग आ जाना।
दिल पकड़ लेना (कर बैठ जाना)— शोक या दुख के वेग को दबाकर रह जाना— प्रकट न कर पाना।
दिल पकड़ा जाना— संदेह या खुटका पैदा होना।
दिल पकड़े फिरना— मोह-ममता से प्रिय पात्र के लिए भटकते फिरना।
दिल पर न वश होना— जी में अच्छी तरह बैठ जाना।
दिल पर मैल आना— किसी के प्रति पहले का सा प्रेम या सद्भाव न रह जाना।
दिल पर साँप लोटना— किसी की बढ़ती या उन्नति देखकर ईर्ष्या से दुखी होना।
दिल पर हाथ रखे फिरना— मोह-ममता से भटकना।
दिल पसीजना (पिघलना)— पुखी या पीड़ित को देखकर जी में दया उमड़ना।
दिल पाना— मन की थाह पा लेना।
दिल पीछे पड़ना— दुख-शोक भूलकर मन बहलाना।
दिल फटना (फट जाना)— (१) पहले-सा प्रेम या व्यवहार न रहना। (२) उत्साह भंग हो जाना।
दिल फिरना (फिर जाना)— पहले सा प्रेम न रहकर अरूचि या विरक्ति उत्पन्न हो जाना।
दिल फीका होना— घुणा या विरक्ति हो जाना।
दिल बढ़ना— (१) उत्साहित होना। (२) हिम्मत बढ़ना।
दिल बढ़ाना— (१) उत्साहित करना। (२) हिम्मत बढ़ाना।
दिल बह-लना— (१) आनंद या मनोरंजन होना। (२) दुख-चिंता भूलकर दूसरे काम में मन लगना।
दिल बहलाना— (१) आनंद या मनोरंजन करना। (२) दुख-चिंता भूलकर दूसरे काम में मन लगना।
दिल बुझना— मन में उत्साह या उमंग न रहना।
दिल बुरा होना— (१) जी मचलाना। (२) घिन या अरूचि होना। (३) अस्वस्थ होना। (४) मन में दुर्भाव या कपट होना।
दिल बेकल होना— बेचैनी या घबराहट होना।
दिल बैठ जाना (बैठना)- (१) मूर्छा आना। (२) बहुत उदास या खिन्न होना।
दिल बैठा जाना (१) चित्त ठिकाने न रहना। (२) जरा भी उमंग न रह जाना। (३) मूर्छा आने लगना।
दिल मटकना— चित्त का व्यग्र या चंचल होना।
दिल भर आना— मन में दया उमड़ना।
दिल भारी करना— चित्त खिन्न या दुखी करना।
दिल मसोसना— शोक-दुख आदि का वेग दबाना।
दिल मारना— (१) उमंग या उत्साह को दबाना। (२) संतोष करना।
दिल मिलना— स्नेह या प्रेम होना।
दिल में आना— (१) विचार उठना। (२) इच्छा या इरादा होना।
दिल में खुभना (गड़ना, चुभना)— (१) हृदय पर गहरा प्रभाव करना। (२) बराबर ध्यान बना रहना।
दिल में गाँठ (गिरह) पड़ना— अनुचित कार्य-व्यवहार के कारण बुरा मानना।
दिल में घर करना— (१) बराबर ध्यान बना रहना। (२) मन में बसना।
दिल में चुटकियाँ (चुटकी) लेना— (१) हँसी उड़ाना (२) चुभती हुई बात करना।
दिल में चोर बैठना— शंका या संदेह होना।
दिल में जगह करना— (१) बराबर ध्यान बना रहना। (२) मन में बसाना।
दिल में फफोले पड़ना— मन में बहुत दुखी होना।
दिल में फरक आना (बल पड़ना)— शंका या संदेह होना, सद्भाव न रह जाना।
दिल में धरना (रखना)— (१) ध्यान रखना। (२) बुरा मानना। (३) बात गुप्त रखना, अप्रकट रखना।
दिल मैला करना— चित्त में दुर्भाव उत्पन्न करना।
दिल रूकना— (१) जी घबराना। (२) जी में संकोच होना।
(किसी का) दिल रखना— (१) किसी की इच्छा पूरी कर देना। (२) प्रसन्न या संतुष्ट करना।
दिल लगना— (१) मन का किसी काम में रम जाना। (२) मन बहलाना। (३) प्रेम होना।
दिल लगाना- (१) मन बहलाना। (२) प्रेम करना।
दिल ललचाना— (१) कुछ पाने की इच्छा या लालसा होना। (२) मन मोहित होना।
दिल लेना— (१) अपने प्रेम में फँसाना। (२) मन की थाह लेना।
दिल लोटना— मन छटपटाना।
दिल से उतरना (गिरना)— स्नेह, श्रद्धा या आदर का पात्र न रह जाना।
दिल से— (१) खूब जी लगाकर। (२) अपनी इच्छा से।
दिल से उठना— स्वयं कोई काम करने की इच्छा होना।
दिल से दूर करना— भुला देना।
दिल हट जाना— अरूचि हो जाना।
(किसी के) दिल को हाथ में रखना— (किसी के) दिल को हाथ में लेना— किसी के दिल को अपने कार्य-व्यवहार से वश में कर लेना।
दिल हिलना— बहुत भय लगना।
दिल ही दिल में— चुपके-चुपके।
दिल-जान से— (१) खूब मन लगाकर। (२) कड़ा परिश्रम करके।
- दिल
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- साहस, दम।
- दिल
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- प्रवृत्ति, इच्छा।
- दिलचला
- वि.
- (फ़ा. दिल + चलना)
- साहसी, हिम्मती।
- दिलचला
- वि.
- (फ़ा. दिल + चलना)
- वीर, बहादुर।
- दिलदार
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- वह जिससे प्रेम हो, प्रेम-पात्र।
- दिलदारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा. दिलदारी + ई (प्रत्य.))
- उदारता।
- दिलदारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- [फ़ा. दिलदारी + ई (प्रत्य.)]
- रसिकता।
- दिलपसंद
- वि.
- (फ़ा.)
- जो दिल को भला लगे।
- दिलबर
- वि.
- (फ़ा.)
- प्रिय, प्यारा।
- दिलरुबा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- प्रेम पात्र, प्रिय व्यक्ति।
- दिलवाना
- क्रि. स.
- (हिं. देना का प्रे.)
- देने का काम दूसरे से कराना।
- दिलवाना
- क्रि. स.
- (हिं. देना का प्रे.)
- प्राप्त कराना।
- दिलवाला
- वि.
- [फ़ा. दिल + हिं. वाला (प्रत्य.)]
- देने के काम में उदार।
- दिलवाला
- वि.
- [फ़ा. दिल + हिं. वाला (प्रत्य.)]
- बहादुर, साहसी।
- दिलचला
- वि.
- (फ़ा. दिल + चलना)
- दानी, उदार।
- दिलचस्प
- वि.
- (फ़ा.)
- मनोरंजक, मनोहर।
- दिलचस्पी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- मनोरंजन,
- दिलचस्पी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- रूचि।
- दिलजमई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा. दिल + अ. जमअई)
- इत-मीनान, तसल्ली, भरोसा, संतोष।
- दिलजला
- वि.
- (फ़ा. दिल + हिं. जलना)
- दुखी, पीड़ित।
- दिलदरिया, दिलदरियाव
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दरियादिल)
- उदार या दानी व्यक्ति।
- दिलदरिया, दिलदरियाव
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दरियादिल)
- उदार या दानी होने का भाव।
- दिलदार
- वि.
- (फ़ा.)
- उदार, दाता,
- दिलदार
- वि.
- (फ़ा.)
- रसिक।
- दिलीप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक चंद्रवंशी राजा।
- दिलेर
- वि.
- (फ़ा.)
- बहादुर, साहसी।
- दिलेरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- बहादुरी, साहस।
- दिल्लगी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा. दिल + हिं. लगना)
- दिल लगाने की क्रिया या भाव।
- दिल्लगी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा. दिल + हिं. लगना)
- हँसी ठट्ठा, मजाक, मखौल, मसखरी।
- मुहा.- दिल्लगी उडाना— हँसी में उड़ा देना।
- दिल्लगीबाज
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दिल्लगी + फ़ा. बाज़)
- मस-खरा, मखौलिया, हँसोड़, हँसी- ठिठोली करनेवाला।
- दिल्लगीबाजी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दिल्लगी + फ़ा. बाज़ी)
- हँसी-ठठोली।
- दिल्ली
- संज्ञा
- स्त्री.
- यमुना नदी के किनारे बसा हुआ भारत का प्रसिद्ध नगर जो प्राचीन काल से हिंदू-मुसलमान राजाओं की राजधानी होता आया है। सन् ८०३ में अँग्रेजों ने इस पर अधिकार किया था और नौ वर्ष बाद इसको अपनी राजधानी बनाया था। स्वतंत्र भारत की राजधानी के रूप में आज यह नगर संसार में प्रसिद्ध है।
- दिल्लीवाल
- वि.
- [हिं. दिल्ली +वाला (प्रत्य.)]
- दिल्ली से संबंधित, दिल्ली का।
- दिल्लीवाल
- वि.
- [हिं. दिल्ली +वाला (प्रत्य.)]
- दिल्ली का रहनेवाला।
- दिलवैया
- वि.
- (हिं. दिलवाना + ऐया)
- दिलाने-वाला —प्राप्त करानेवाला।
- दिलवैया
- वि.
- (हिं. दिलवाना + ऐया)
- देनेवाला।
- दिलाना
- क्रि. स.
- (हिं. ‘देना’ का प्रे.)
- देने का काम दूसरे से कराना।
- दिलाना
- क्रि. स.
- (हिं. ‘देना’ का प्रे.)
- प्राप्त कराना।
- दिलावर
- वि.
- (फ़ा.)
- बहादुर, साहसी, वीर।
- दिलावरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- बहादुरी , साहस।
- दिलासा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दिल + हिं. आशा)
- तसल्ली, ढारस।
- दिली
- वि.
- (फ़ा. दिल)
- हार्दिक।
- दिली
- वि.
- (फ़ा. दिल)
- बहुत घनिष्ठ।
- दिलीप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- इक्ष्वाकुवंशी एक राजा, ‘रघुवंश के अनुसार जिनकी पत्नी सुदक्षिणा के गर्भ से राजा रघु जन्मे थे।
- थोथरा
- वि.
- (हिं. थोथी)
- खोखला, खाली।
- थोथरा
- वि.
- (हिं. थोथी)
- निस्सार, तत्वरहित।
- थोथरा
- वि.
- (हिं. थोथी)
- बेकार।
- थोथा
- वि.
- (देश.)
- खाली, खोखला, पोला।
- थोथा
- वि.
- (देश.)
- जिसकी धार तेज न हो, गुठला।
- थोथा
- वि.
- (देश.)
- बिना दुम या पूँछ का।
- थोथा
- वि.
- (देश.)
- भद्दा, बेढंगा।
- थोथा
- वि.
- (देश.)
- निकम्मा, बेकार।
- थोपड़ी, थोपी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थोपना)
- चपत, धौल।
- थोपना
- क्रि. स.
- (सं. स्थापन, हिं. थापन)
- किसी गीली चीज की मोटी तह ऊपर जमाना, छोपना।
- दिव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- स्वर्ग।
- उ. —नीलावती चाँवर दिव दुरलभ। भात परोस्यौ माता सुरलभ— ३८६।
- दिव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आकाश।
- दिव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वन।
- दिव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिन।
- दिवराज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- स्वर्ग का राजा, इन्द्र।
- उ.— सूरदास प्रभु कृपा करहिंगे सरन चलौ दिवराज।
- दिवरानी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. देवरानी)
- देवर की पत्नी।
- दिवस
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिन, वासर, रोज।
- उ. — एक दिवस हौं द्वार नंद के नहीं रहति बिनु आई— २५३८।
- दिवस-अंध
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिवस + हिं. अंधा)
- उल्लू।
- दिवसकर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य।
- दिवसकर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मंदार।
- दिवस्पृश्
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पैर से स्वर्ग को छूनेवाले वामनावतारी विष्णु।
- दिवांध
- वि.
- (सं.)
- जिसे दिन में दिखायी न दे।
- दिवांध
- संज्ञा
- पुं.
- दिनौंधी नामक रोग।
- दिवांध
- संज्ञा
- पुं.
- उल्लू।
- दिवांधकी
- स.
- स्त्री.
- (सं.)
- छछूँ दर।
- दिवा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिन।
- दिवा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक वर्णवृत्त।
- दिवाई
- क्रि. स.
- [हिं. दिलाना (प्रे.)
- दिलायी, प्राप्त करायी।
- उ. — (क) सिव-बिरंचि नारद मुनि देखत,, तिनहुँ न मौकौं सुरति दिवाई-७-४। (ख) कहा करौं, बलि जाउँ, छोरि तू तेरी सौंस दिवाई - ३६३। (ग) काहू तौ मोहिं सुधि न दिवाई - १०६४। (घ) जो भाई सो सौंह दिवाई तब सूघे मन मान्यौ— २२७५।
- दिवाकर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य।
- दिवाकर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कौआ, काक।
- दिवसनाथ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य, दिनकर, रवि।
- दिवसपति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य, रवि।
- दिवसपति-नंदनि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिवसपति (=सूर्य) + नंदिनी=पुत्री)
- सूर्य की पुत्री।
- दिवसपति-नंदनि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिवसपति (=सूर्य) + नंदिनी=पुत्री)
- यमुना।
- दिवसपतिसुतमात
- संज्ञा
- पुं.
- [सं. दिवसपति (=सूर्य) + सुत (=सूर्य का पुत्र कर्ण) + माता (=कर्ण की माता कुंती=कुंत=वर्छा)]
- बर्छा, भाला।
- उ. — दिवसपति सुतमात अवधि विचार प्रथम मिलाप— सा. ३२।
- दिवसमणि, दिवसमनि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिवसमणि)
- सूर्य, रवि।
- दिवसमुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सबेरा, प्रातःकाल।
- दिवसमुद्रा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- एक दिन का वेतन।
- दिवसेश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिवस+ईश)
- सूर्य, रवि।
- दिवसति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य, रवि।
- दिवाकर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मदार का वृक्ष या फूल।
- दिवाकर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक फूल।
- दिवाकीर्ति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नाई।
- दिवाकीर्ति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- चाँडाल।
- दिवाकीर्ति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- उल्लू नामक पक्षी।
- दिवाचर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पक्षी।
- दिवाचर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- चांडाल।
- दिवाटन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कौआ, काक।
- दिवातन
- वि.
- (सं. दिवा + वेतन ?)
- दिन भर का।
- दिवातन
- संज्ञा
- पुं.
- एक दिन का वेतन या मजदूरी।
- दिवान
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. दिवान)
- मंत्री, वजीर।
- दिवाना
- वि.
- (हिं. दीवाना)
- पागल, मतवाला, बावला।
- दिवानाथ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- रवि। सूर्य।
- दिवानी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (देश.)
- एक पेड़।
- दिवानी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दीवाना)
- दीवान का पद।
- दिवानी
- वि.
- (हिं. दीवाना)
- पगली, मतवाली, बावली।
- उ.— (क) तब तू कहति सबनि सौं हँसि-हँसि अब तू प्रगटहिं भई दिवानी— ११९०। (ख) सूरदास प्रभु मिलिकै बिछुरे ताते भई दिवानी— ३३५९।
- दिवापृष्ट
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य, रवि।
- दिवाभिसारिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- वह नायिका जो दिन में पति से मिलने के लिए जाय।
- दिवाभीत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- चोर
- दिवाभीत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- उल्लू।
- दिवामणि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य।
- दिवामणि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मदार।
- दिवामध्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दोपहर, मध्याह्न।
- दिवाय
- क्रि.सं.
- (हिं. दिलाना)
- दिलाकर।
- दिवाय
- संयु.
- देहु दिवाय
- दिला दो।
- उ.— फगुवा हमको देहु दिवाय—२४१०।
- दिवायो, दिवायौ
- क्रि. स.
- (हिं. देना का प्रे.)
- दिलाया, दिलवाया।
- उ.— (क) जय अरू बिजय कर्म कइ कीन्हौ, ब्रह्मसराप दिवायौ—१-१०४। (ख) दोइ लख धेनु दई तेहि अवसर बहुतहि दान दिवायो— सारा. ३९२।
- दिवार
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दीवार)
- दीवार, भीत।
- दिवारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दीवाली)
- दीपावली का त्योहार।
- दिवाल
- वि.
- [हिं. देना + दाल (प्रत्य.)]
- देनेवाला।
- दिवाल
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दीवार)
- दीवार, भीत।
- दिवाला
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दीवा + बालना)
- धन या पूँजी न रह जाने के कारण ऋण चुकाने की अस मर्थता, टाट उलटना।
- दिवाला
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दीवा + बालना)
- किसी पदार्थ का बिलकुल खत्म हो जाना।
- दिवालिया
- वि.
- (हिं. दिवाला + इया)
- जो दिवाला निकाल चुका हो।
- दिवाली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दीवाली)
- दीपावली का त्योहार।
- दिवावति
- क्रि. स.
- (हिं दिलाना)
- दूसरे को देने के लिए प्रवृत्त करती है, दिलवाती है।
- दिवावति
- क्रि. स.
- (हिं दिलाना)
- प्राप्त कराती है, (शपथ आदि) रखती है।
- उ. — छाँड़ि देहु बहि जाइ मथानी। सौंह दिवावति छोरहु आनी — ३९१।
- दिवावति
- क्रि. स.
- (हिं दिलाना)
- भूत-प्रेत की बाधा रोकने के लिए (हाथ) फिरवाती है।
- उ. — (क) घर-घर हाथ दिवावति डोलति, बाँधति गरै बघनियाँ — १०-८३।। (ख) घर-घर हाथ दिवावति डोलति, गोद लिए गोपाल बिनानी—१०-२५८।
- दिवि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिव)
- स्वर्ग।
- उ. — (क) सूर भयौ आनंद नृपति-मन दिवि दुंदुभी बजाए—९-२४।
- दिवि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिव)
- आकाश।
- उ. — जैं दिवि भूतल सोभा समान। जै जै सूर, न सब्द आन —९-१६६।
- दिवि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिव)
- देव।
- उ. — पाटंबर दिवि-मंदिर छायौ —१००१।
- दिव्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अपराधी या निरपराधी की परीक्षा की एक प्राचीत रीति।
- दिव्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शपथ।
- दिव्यकवच
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अलौकिक कवच।
- दिव्यकवच
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वह स्तोत्र जिसका पाठ करने से अंग-रक्षा हो
- दिव्यक्रिया
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- व्यक्ति को अपराधी-निर-पराधी सिद्ध करने की प्राचीन परीक्षा-प्रणाली।
- दिव्यगायन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- स्वर्ग के गायक, गंधर्व।
- दिव्यचक्षु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिव्यचक्षुस्)
- ज्ञान-चक्षु अंतःदृष्टि, दिव्यदृष्टि
- दिव्यचक्षु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिव्यचक्षुस्)
- अंधा।
- दिव्यता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- अलौकिक होन का भाव।
- दिव्यता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- देव भाव।
- दिवोका, दिवौका
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिवौकस्))
- चातक पक्षी।
- दिवोल्का
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दिन से गिरनेवाली उल्का।
- दिव्य
- वि.
- (सं. दिव्य)
- स्वर्ग से संबंध रखनेवाला, स्वर्गीय।
- दिव्य
- वि.
- (सं. दिव्य)
- आकाश से संबंध रखने वाला।
- दिव्य
- वि.
- (सं. दिव्य)
- प्रकाशपूर्ण, चमकीला।
- उ. — आजु दीपति दिव्य दीप मालिका— १०-८०९।
- दिव्य
- वि.
- (सं. दिव्य)
- बहुत बढ़िया।
- दिव्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जौ नामक अन्न।
- दिव्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आँवला
- दिव्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक प्रकार के केतु।
- दिव्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- स्वर्गीय या अलौकिक नायक।
- दिवि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नीलकंठ पक्षी।
- दिविता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दीप्ति आभा, कांति।
- दिविषत्
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- स्वर्ग-वासी।
- दिविषत्
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- देवता।
- दिविष्टि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- यज्ञ।
- दिविष्ठि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- स्वर्ग में रहनेवाले, देवता।
- दिवेश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिक्पाल |
- दिवैया
- वि.
- [हिं. देना + वैया (प्रत्य.)]
- देने वाला।
- दिवोका, दिवौका
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिवौकस्))
- स्वर्ग में रहने वाला।
- दिवोका, दिवौका
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिवौकस्))
- देवता।
- थैली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थैली)
- रूपयों से भरी हुई थैली, तोड़ा।
- मुहा.- थैली खोलना थैली से रूपया देना।
- थोक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्तोमक)
- ढेर, राशि।
- थोक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्तोमक)
- समूह, झुंड।
- मुहा.- थोक करना इकट्ठा या जमा करना। सकै थोक कई- इकट्ठा कर सके। उ.— द्रुम चढ़ि काहे न टेरौ कान्हा, गैयाँ दूरि गयीं।¨¨¨¨। छाँड़ि खेल सब दूरि जात हैं बोले जो सकै थोक कई।
- थोक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्तोमक)
- इकट्ठा बेचने का माल।
- थोड़ा
- वि.
- [सं. स्तोक, पा. थोअ + ढ़ा (प्रत्य.)
- कम, तनिक, जरा सा।
- थोड़ा
- थौ.
- थोड़-बहुत—कुछ-कुछ किसी कदर।
- मुहा.- थोड़ा थोड़ा होना- लज्जित होना। जो करॆ सो थोड़ा बहुत-कुच करना चाहिए।
- थोड़ा
- कि वि.
- कम मात्रा में, जरा, तनिक, टुक।
- थोड़े
- वि. बहु.
- (हिं. थोड़ा)
- कुछ, कम संख्या में।
- थोड़े
- क्रि. वि.
- (हिं. थोड़ा)
- थोड़े परिमाण या मात्रा में।
- मुहा.- थोड़े ही- नहीं, बिलकुल नहीं।
- थोथ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. थोथा)
- निस्सारता, खोखलापन।
- दिव्यता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- उत्तमता, सुंदरता।
- दिव्यदोहद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- किसी इच्छा की सिद्धि के लिए देवता को अर्पित किया जानेवाला पदार्थ।
- दिव्यदृष्टि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- अंतः दृष्टि, अलौकिक दृष्टि।
- दिव्यधर्मी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिव्यधर्मिन्))
- सुशील व्यक्ति।
- दिव्यनगरी
- संज्ञा
- (सं.)
- ऐरावती नगरी।
- दिव्यनदी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- आकाश गंगा।
- दिव्यनारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- अप्सरा।
- दिव्यपुष्प
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- केरवीर, कनेर।
- दिव्य रथ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- देवताओं का विमान।
- दिव्यवस्त्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य का प्रकाश।
- दिव्यवाक्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- देववाणी, आकाशवाणी।
- दिव्य-सरिता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.दिव्यसरित्)
- आकाश गंगा।
- दिव्यस्त्री, दिब्यांगना
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- देववधू अप्सरा।
- दिव्यांशु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य, रवि।
- दिव्यांगना
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- देवी।
- दिव्यांगना
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- अप्सरा।
- दिव्या
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- आँवला
- दिव्या
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- तीन प्रकार की नायिकों में एक, स्वर्गीय अथवा अलौकिक नायिका।
- दिव्यादिव्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- तीन प्रकार कॆ नायकों में एक, वह मनुष्य जिसमें देबगुण हों।
- दिव्यादिव्या
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- तीन प्रकार की नायि काओं में एक, वह स्त्री जिसमें देवियों के गुण हों।
- दिव्यास्त्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वह अस्त्र जो देवों से मिला हो।
- दिव्यास्त्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वह अस्त्र जो मंत्रों से चले।
- दिव्योदिक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वर्षा का जल।
- दिव्योपपादक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- देवता जिनकी उत्पत्ति बिना माता-पिता के मानी जाती है।
- दिश
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिश्)
- दिशा, दिक्।
- दिशा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- ओर, तरफ।
- दिशा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- क्षितिज-वृत्त के किये गये चार विभागों में से किसी एक की ओर का विस्तार। ये चार विभाग हैं -पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण। इनकें बीच के कोणों के नाम ये हैं। पूर्व दक्षिण के बीच अग्निकोण, दक्षिण पश्चिम के बीच नैर्ऋत्य कोण, पश्चिम-उत्तर के बीच वायव्य कोण और उत्तर-पूर्व के बीच ईशान कोण। इन आठ दिशाओं के सर के ऊपर की दिशा को ‘ऊद्र्ध्व’ और पैर के नीचे की दिशा को ‘अधः’ कहते हैं।
- दिशा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दस की संख्या।
- दिशागज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिग्गज।
- दिशाजय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिग्विजय।
- दिष्टि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- भाग्य।
- दिष्टि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- उपदेश।
- दिष्टि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- उत्सव।
- दिष्टि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- प्रसन्नता।
- दिष्टि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृष्टि)
- देखने की शक्ति।
- दिष्टि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृष्टि)
- नजर।
- दिसंतर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. देशांतर)
- विदेश, परदेश।
- दिसंतर
- क्रि. वि.
- दिशाओं के अंत तक, बहुत दूर तक।
- दिस
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिशा)
- दिशा।
- दिस
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिशा)
- ओर।
- दिशापाल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिक्पाल।
- दिशाभ्रम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिशा-संबंधी भ्रम।
- दिशाशूल, दिशासूल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिक्शूल)
- समय का वह योग जब विशेष दिशाओं में यात्रा करने का निषेध हो।
- दिशि, दिसि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिशा)
- दिशा ओर।
- दिशेभ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिश् + इभ)
- दिग्गज।
- दिश्य
- वि.
- (सं.)
- दिशा-संबंधी।
- दिष्ट
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- भाग्य।
- दिष्ट
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- उपदेश।
- दिष्ट
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- काल।
- दिष्टांत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मृत्यु, मौत।
- दिसना
- क्रि. अ.
- (हिं. दिखना)
- दिखायी पड़ना।
- दिसा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिशा)
- दिशा।
- दिसा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिशा)
- ओर।
- दिसा
- संज्ञा
- स्त्री.
- मल त्यागने की क्रिया।
- दिसादाह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिश् + दाह)
- सूर्यास्त के पश्चात् भी दिशाओं की जलती हुई सी दिखायी देना।
- दिसावर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. देशांतर)
- विदेश, परदेश।
- मुहा.- दिसावर उतरना— विदेशों में भाव गिरना।
- दिसावरी
- वि.
- [हिं. दिसावर + ई (प्रत्य.)]
- विदेश या परदेश से आया हुआ, बाहरी, परदेशी।
- दिसि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिज्ञा)
- ओर, तरफ।
- उ. — (क) जापर कृपा करै करूनामय ता दिसि कौन निहारै—१-२५४। (ख) सूरदास भक्त दोऊ दिसि का पर चक्र चालाऊँ —
- दिसि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिज्ञा)
- दिशाएँ जिनकी संख्या दस है।
- दिसिटि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दष्टि)
- दृष्टि, नजर।
- दिहाड़ा
- संज्ञा
- पुं.
- [हिं. दिन + हार (प्रत्य.)]
- दिन।
- दिहाड़ा
- संज्ञा
- पुं.
- [हिं. दिन + हार (प्रत्य.)]
- बुरी दशा, दुर्गति।
- दिहाड़ी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दिहाड़ा + ई प्रत्य.)
- दिन भर की मजदूरी।
- दिहात
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. देहात)
- गाँव, देहात।
- दिहात
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. देहात)
- वह स्थान जो सभ्यतादि में पिछड़ा हो।
- दिहाती
- वि.
- (हिं. देहात)
- गाँव का रहनेवाला।
- दिहाती
- वि.
- (हिं. देहात)
- असभ्य, गँवार, उजड्ड।
- दिहातीपन
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. देहातीपन)
- ग्रामीणता।
- दिहातीपन
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. देहातीपन)
- उजडँडता, गवारूपन।
- दिहेज
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. देहज)
- विवाह में कन्यापक्ष की ओर से वर-पक्ष को दिया जानेवाला सामान आदि।
- दिसिदुरद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिशि + द्विरद)
- दिग्गज।
- दिसिनायक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिशि + नायक)
- दिक्पाल।
- दिसिप, दिसिपति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिशा + प, पति = पालक स्वामी, रक्षक)
- दिक्पाल।
- दिसिराज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दिशा + राजा)
- दिक्पाल।
- दिसैया
- वि.
- [हिं. दिसना=दिखना + ऐया (प्रत्य.)]
- देखनेवाला।
- दिसैया
- वि.
- [हिं. दिसना=दिखना + ऐया (प्रत्य.)]
- दिखानेवाला
- दिस्सा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दिशा)
- ओर, तरफ, दिशा।
- दिहंदा
- वि.
- (फ़ा.)
- दाता, देनेवाला।
- दिहरा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. देव + हिं. धर=देवहर)
- देव-मंदिर।
- दिहल
- क्रि. स.
- [पू. हिं. में 'देना' क्रिया का भूत. रूप]
- दिया, प्रदान किया।
- दीअट
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. देवट)
- दीपक रखने का आधार।
- दीआ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दीया)
- दीप, दीपक।
- दीए
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- दियॆ, प्रदान किये।
- दीए
- संज्ञा
- पुं. बहु.
- (हिं. दीया)
- बहुत से दीपक।
- मुहा.- दीए का हँसना-दीप की बत्ती से फूल झड़ना।
- दीक्षक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दीक्षा देनेवाला, गुरू।
- दीक्षण
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दीक्षा देने की क्रिया।
- दीक्षांत
- संज्ञा
- पुं.
- (स.)
- दीक्षा-संस्कार की समाप्ति पर किया जानेवाला यज्ञ।
- दीक्षांत
- संज्ञा
- पुं.
- (स.)
- महाविद्या-लय या विश्वविद्यालय का उपाधि-वितरणोत्सव।
- दीक्षा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- यजन, यज्ञकर्म।
- दीक्षा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- मंत्र की शिक्षा, मंत्रोपदेश।
- दीक्षा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- उपनयन-संस्कार जिसमें गायत्री मंत्र दिया जाता है।
- दीक्षा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- गुरू-मंत्र, आचार्योपदेश।
- दीक्षा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- पूजन।
- दीक्षागुरु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मंत्रोपदेंसक आचार्य।
- दीक्षापति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- यज्ञ का रक्षक, सोम।
- दीक्षित
- वि.
- (सं.)
- जो किसी यज्ञ में लगा हो।
- दीक्षित
- वि.
- (सं.)
- जिसने आचार्य से दीक्षा ली हो।
- दीक्षित
- संज्ञा
- पं.
- (सं.)
- ब्राह्मणों का एक वर्ग।
- दीखति
- क्रि. अ.
- (हिं. दीखना)
- दिखायी देता है, दृष्टिगोचर होता है।
- दीखति
- क्रि. अ.
- (हिं. दीखना)
- जान पड़ता है, मालूम होता है।
- उ. दीखति है कछु होवनहारी ४-५।
- थोपना
- क्रि. स.
- (सं. स्थापन, हिं. थापन)
- तवे पर गीला आटा फैलाना।
- थोपना
- क्रि. स.
- (सं. स्थापन, हिं. थापन)
- मोटा लेप चढ़ाना।
- थोपना
- क्रि. स.
- (सं. स्थापन, हिं. थापन)
- किसी के मत्थे मढ़ना या लगाना।
- थोबड़ा
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- पशुओं का थूथन।
- थोर
- वि.
- (हिं. थाड़ा)
- थोड़ा, कम।
- उ.—धनुष-बान सिरान, कैधौं गरुड़ बाहन खोर। चक्र काहु चारायो, कैधौं भुजनि-बल भयौ थोर—१-२५३।
- मुहा.- जो कीजे सो थोर— इनके लिए जो कुछ किया जाय वह कम होगा। उ.— हरि का दोष कहा करि दीजै जो कीजै सो इनको थोर— पृ.३३५(४०)
- थोर
- वि.
- (हिं. थाड़ा)
- छोटा, छोटा-सा।
- उ.—बार-बार डरात तोकौं बरन बदनहिं थोर—३६४।
- थोर
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- केले की पेड़ी का बिचला भाग।
- थोर
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- थूहर का पेड़।
- थोरनो
- वि.
- (हिं. थोडा)
- कम, थोड़ा।
- उ.—जैसी ही हरी हरी भूमि हुलसावनी मोर मराल सुख होत न थोरनो—२२८०।
- थोरा
- वि.
- (हिं. थोड़ा)
- कम, थोड़ा, अल्प।
- दीखना
- क्रि. अ.
- (हिं. देखना)
- दिखायी देना।
- दीघी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीर्घिका)
- तालाब, पोखरा।
- दीच्छा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीक्षा)
- मंत्रोपदेश।
- दीजियै
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- प्रदान कीजिए।
- उ.— ताहिं कै हाथ निरमोल नग दीजिए— १-२२३।
- दीजियौ
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- देना, प्रदान करना। प्र.— अंक दीजियो—गले लगाना।
- उ.— तुम लछिमन निज पुरहिं सिधारौ।¨¨¨¨¨। सूर सुमित्रा अंक दिजियौ, कौसिल्याहिं प्रनाम हमारौ—९-३६।
- दीजै
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- दीजिए।
- उ.— नर-देही पाइ चित्त चरन-कमल दीजै—।
- दीठ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृष्टि)
- देखने की शक्ति, दृष्टि।
- मुहा.- दीठ मारी जाना— देखने की शक्ति न रहना।
- दीठ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृष्टि)
- देखने के लिए आँख की पुतली का घुमाव या स्थिति, अवलोकन, चितवन, नजर।
- मुहा.- दीठ करना- देखना।
दीठ चुकना— देत न पाना।
दीठ फिरना— (१) किसी दूसरी ओर देखने लगना। (२) कृपादृष्टि न रह जाना।
दीठ फेंकना— नजर डालना।
दीठ फेरना— (१) दूसरी ओर देखना। (२) अप्रसन्न हो जाना, कृपादृष्टि न रखना।
दीठ बचाना— (१) सामने न पड़ना या होना। (२) छिपाना, दूसरे को देखने न देना।
दीठि बाँधना— ऐसा जादू करना कि कुछ का कुछ दिखायी दे।
दीठि लगाना— ताकना।
- दीठ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृष्टि)
- ज्योति प्रसार जिससे रूप रंग का बोध हो।
- मुहा.- दीठ पर चढ़ना— (१) अच्छा लगना, पसंद आना, निगाह में जँचना। (२) आंखों को बुरा लगना, नजरों में खटकना।
दीठ बिछाना— (१) बड़ी उत्कंठा से प्रतीक्षा करना। (२) बड़ी श्रद्धा और प्रीत से स्वागत करना।
दीठ में आना (पड़ना)— दिखायी पड़ना। दीठे में समाना— भला या प्रिय लगने के कारण बराबर ध्यान में बना रहना।
दीठि से उतरना (गिरना)— श्रद्धा, प्रीति या विश्वास के योग्य न रह जाना।
- दीठ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृष्टि)
- किसी अक्छी चीज पर ऐसी कुदृष्टि पड़ना जिसका प्रभाव बहुत बुरा हो, कुदृष्टि, नजर।
- मुहा.- दीठ उतारना (जाड़ना)— मंत्र द्वारा नजर या कुदृष्टि का बुरा प्रभाव दूर करना।
दीठि खा जाना (चढ़ना, पर चढ़ना)— कुदृष्टि पड़ना, मजर लगना, हूँस में आना, टोंक लगना।
जीठि जलना— नजर या कुदृष्टि का प्रभाव दूर करने के लिए राई-नोन का उतारा करके जलाना।
- दीठ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृष्टि)
- देखने के लिए खुली हुई आंख।
- मुहा.- दीठि उठाना— निगाह ऊपर करके देखना।
दीठ गड़ाना (जमाना)— एकटक देखना या ताकना।
दीठ चुराना— लज्जा, भय आदि से सामने म आना।
दीठ जुड़ना (मिलना)— देखा देखी होना।
दीठ जोढ़ना (मिलाना)— देखा-देखी करना।
दीठी फिसलना— आंख में चकाचौंध होना।
दीठ भर देखना— जी भरकर या अच्छी तरह देखना।
दीठ मारना— (१) आंख से संकेत करना। (२) आंख के संकेत से माना करना।
दीठ लगना— देखा-देखी के वाद प्रेम होना।
दीठ लड़ना— देखा देखी होना।
दीठ लड़ाना— आंख के सामने आंख किये रहना, एकटक देखना।
- दीठ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृष्टि)
- देख-भाल, निगरानी।
- दीठ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृष्टि)
- परख, पहचान।
- दीठ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृष्टि)
- कृपादृष्टि, भलाई का ध्यान।
- दीठ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृष्टि)
- आशा।
- दीठ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दृष्टि)
- ध्यान, विचार।
- दीठबंद
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दीठ + सं. बंध)
- ऐसा जादू या इन्द्रजाल कि कुछ का कुछ दिखायी दे।
- दीठबंदी
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दीठबंद)
- ऐसी माया या जादू कि कुछ का कुछ दिखायी दे।
- दीठवंत
- वि.
- (सं. दष्टि + वंत)
- जिसे दिखायी दे, जिसके आंखें हों।
- दीठवंत
- वि.
- (सं. दष्टि + वंत)
- ज्ञानी।
- दीन
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- धर्म-विश्वास, मत।
- दीनता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दरिद्रता, गरीबी।
- दीनता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कातरता, आत्तंभाव।
- उ.—(क) उनकी मोसौं दीनता कोउ कहिं न सुनावौ—१-२३७।
- दीनता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- उदासी, खिन्नता।
- दीनता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- अधीनता का भाव, विनीत भाव।
- उ.—कोमल बचन दीनता सब सौं, सदा अनंदित रहियै—२-१८।
- दीनताई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दीनता)
- निर्धनता
- दीनताई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दीनता)
- कातरता।
- दीनत्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- निर्धनता।
- दीनत्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आर्त्तभाव।
- दीनदयाल, दीनदयालु
- वि.
- (सं. दीनदयालु)
- दीनों पर दया करनेवाला।
- दीठि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दीठ)
- नेत्र-ज्योति, दृष्टि।
- दीठि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दीठ)
- अवलोकन, दृक्पात, चितवन।
- उ.—आइ निकट श्रीनाथ निहारे, परी तिलक पर दीठि—१-२७४।
- दीठि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दीठ)
- कुदृष्टि, नजर।
- उ.—(क) लालन वारी या मुख ऊपर। माई मेरिहि दीठि न लागै, तातैं मसि-बिंदा दियौ भ्रू पर—१०-९२। (ख) खेलत मैं कोउ दीठि लगाई, लै लै राई लौन उतारति—१०-२००। (ग) कुँवरी कौं कहु दीठि लागी, निरखि कै पछि-ताइ—६९६।
- दीत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. आदित्य)
- सूर्य, रवि।
- दीदा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- दृष्टि।
- दीदा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- देखादेखी।
- दीदा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दीदः)
- आँख, नेत्र।
- मुहा.- दीदा लगाना (जमना)— जी लगना, मन रमना।
दीदे का पानी ढल (में पानी रह) जाना— निर्लज्ज हो जाना।
दीदा निकालना— (१) आंख फोड़ना। (२) क्रोध से देखना।
दीदा पट्ट होना— (१) अंधा होना। (२) अक्ल कुंद होना।
दीदा फाड़कर देखना— विस्मय या आश्चर्य से एकटक निहारना।
दीदा मटकाना— आँख चमकाना।
- दीदा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दीदः)
- ढिठाई, अनुचित साहस।
- दीदाधोई
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दीदा + धोना)
- बेशर्म, निर्लज्ज।
- दीदाफटी
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दीदा + फटना)
- बेशर्म, निर्लज्ज।
- दीदार
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- देखा-देखी, दर्शन।
- दीदारु, दीदारू
- वि.
- (हिं. दीदार)
- देखने योग्य।
- दीदी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दादा)
- बड़ी बहन।
- दीधिति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- सूर्य-चन्द्रमा आदि की किरण।
- दीधिति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- उँगली |
- दीन
- वि.
- (सं.)
- दरिद्र, निर्धन।
- दीन
- वि.
- (सं.)
- दुखी, कातर, हीन दशावाला।
- उ.—(क) सूर दीन प्रभु-प्रगट-बिरद सुनि अजहूँ दयाल पतत सिर नाई—१-६। (ख) सूरस्याम सुन्दर जौ सेवै क्यौं होवै गति दीन—१-४६। (ग) तुमहिं समान और नहिं दूजौ, काहि भजौं हौं दीन—१-१११।
- दीन
- वि.
- (सं.)
- उदास, खिन्न।
- दीन
- वि.
- (सं.)
- नम्र, विनीत।
- दीन
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- दी, दिया।
- उ.—(क) पानि-ग्रहन रधुबर बर कीन्हयौ जनक-सुता सुख दीन—९-२६। (ख) जिन जो जाँच्यौ सोई दीन अस नँदराइ ढरे—१०-२४। (ग) षंडामर्क जो पूछन लाग्यौ तब यह उत्तर दीन—सारा. ११२। (घ) दीन मुक्ति निज पुर की ताकौं—सारा. २७३।
- दीनदयाल, दीनदयालु
- संज्ञा
- पुं.
- ईश्वर का एक नाम।
- दीनदार
- वि.
- (अ. दीन + फ़. दार)
- धार्मिक।
- दीनदारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- धर्म का आचरण।
- दीनदुनिया, दीनदुना
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ. दीन + दुनिया )
- लोक-परलोक।
- दीननाथ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दीनों के स्वामी।
- दीननाथ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ईश्वर का एक नाम।
- उ.—दीननाथ अब बारि तुम्हारी—१-११८।
- दीननि
- वि.
- [सं. दीन + हिं. नि (प्रत्य.)]
- दीनों को, दीनों पर।
- उ.—जब जब दीननि कठिन परी। जानत हौं करुनामय जन कौं तब तब सुगम करी—१-१६।
- दीनबंधु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दुखियों का सहायक।
- उ.—दीन-बंधु हरि, भक्त -कृपानिधि, वेद-पुराननि गाए (हो)—१-७।
- दीनबंधु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ईश्वर का एक नाम।
- दीनहिं
- वि.
- [हिं. दीन + हिं (प्रत्य.)]
- दीन-दरिद्र को।
- उ.—कह दाता जो द्रवै न दीनहिं, देखि दुखित ततकाल—१-१५९।
- दीनहिं
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- दिया, प्रदान किया।
- दीनानाथ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दीन + नाथ)
- दीनों का स्वामी या रक्षक, दुखियों का पालक और सहायक।
- दीनानाथ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दीन + नाथ)
- ईश्वर के लिए एक संबोधन।
- उ.—दीनानाथ दयाल मुगारि—७-२।
- दीनार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सोने का गहना।
- दीनार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सोने की मोहर।
- दीनार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सोने का एक प्राचीन सिक्का।
- दीनी
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- दी, प्रदान की।
- उ.—(क) नर-देही दीनी सुमिरन कौं—१-११६। (ख) बकी जु गई घोष मैं छल करि, जसुदा की गति दीनी—१-१२२। (ग) बिभीषण कौ लंक दीनी—१-१७६। (घ) तिल-चाँवरी गोद करि दीनी फरिया दई फारि नव सारी—७०८।
- दीनौ
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- दिया, प्रदान किया।
- उ.—पारथ बिमल बभुबाहन कौं सीस-खिलौना दीनौ—१-२९।
प्र.—मन दीनौ—मन लगाया, चित्त रमाया। उ.—भाव-भत्कि कछु हृदय न उपजी, मन विषया मैं दीनौ—१-६५।
- दीन्यौ
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- दिया, प्रदान किया।
- दीन्यौ
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- बंद किया, लगाया, रोका।
- उ.—बड़े पतित पासंगहु नाही, अजामिल कौन बिचारौ। भाजे नरक नाम सुनि मेरौ, जम दीन्यौ हठि तैरौ—१-१३१।
- दीन्हीं
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- दी, प्रदान की।
- उ.—बिप्र सुदामा कौं निधि दीन्हीं—१-३६।
- दीन्ही
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- दी, प्रदान की।
- उ.—असुर-जोनि ता ऊपर दीन्ही, धर्म-उछेद करायौ—१-१०४।
- दीन्ही
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- डाली, झोंक दी।
- उ.—हरि की माया कोउ न जानै आँखि धूरि सी दीन्ही—९६४।।
- दीन्हे
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- दिये रहता है।
- दीन्हे
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- बंद (रखता हे)।
- उ.—कवै भपौनरक से प्रोसौ, दीन्हे रहत किवार—१-१४१।
- दीन्हैं
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- दिये, देने पर,
- उ.—बिनु दीन्हैं ही देत सूर-प्रभु ऐसे हैं जदुनाथ-गुसाईं—१-३।
- दीन्हौ
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- दिया, प्रदान किया।
- उ.—(क) बारह बरस बसुदेव देवकिहिं कंस महा दुख दीन्हौ—१-१५। (ख) निकसे खंभ-बीच तैं नरहरि, ताहि अभय पद दीन्हौ—१-१०४।
- दीन्हौ
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- लगाया
- उ.—अंजन दोउ दृग भरि दीन्हौ—१०-१८३।
- दीन्ह्यौ
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- दिया, प्रदान किया।
- उ.—मागध हत्यौ, मुक्त नृप कीन्हें, मृतक बिप्र-सुत दीन्ह्यौ—१-१७।
- दीप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दीपक, दीया।
- उ.— धूप-नैवेद्य साजि कै, मंगल करै विचारि—३०-५०।
- दीप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक छंद।
- दीप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्वीप)
- द्वीप, टापू।
- उ. — कंसहिं कमल पठाइहै, काली पठवै दीप—५८९।
- दीपक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दीया, चिराग।
- उ.— दीपक पीर न जानई (रे) पावक परत पतंग—१-३२५।
- दीपक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक अर्थालङ्कार।
- दीपक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक राग।
- दीपक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक ताल।
- दीपक
- वि.
- प्रकाश करने या फैलानेवाला।
- उ.—बासुदेव जादव कुल-दीपक बंदीजन बर भावत—२७२९।
- दीपक
- वि.
- वेग या उमंग लानेवाला।
- दीपक
- वि.
- बढ़ाने या वृद्धि करनेवाला।
- दीपकजात
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दीपक + जात=उत्पन्न)
- काजल।
- उ.— अलिहता रँग मिट्यौ अधरन लग्यौ दीपकजात—२१३०।
- दीपकमाला
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- एक वर्णवृत्त।
- दीपकमाला
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दीपक अलंकार का एक भेद।
- दीपकमाला
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दीपक-पंक्ति।
- दीपकलिका, दीपकली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीपकलिका)
- दिये की लौ या टेम।
- दीपकवृक्ष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बड़ी दीयट जिसमें कई दीपक रखें जा सकें।
- दीपकवृक्ष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- झाड़।
- दीपकसुत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- काजल, कज्जल।
- दीपक ल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- संध्याकाल जब दीप जलता है।
- दीपकावृत्ति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दीपक अंलकार का एक भेद।
- दीपकिट्ट
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- काजल, कज्जल।
- थ्यावस
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थेय)
- ठहराव, स्थिरता।
- थ्यावस
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थेय)
- स्थायित्व।
- थ्यावस
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्थेय)
- धैर्य, धीरता।
- द
- देवनागरी वर्णमाला का अठारहवाँ और तवर्ग का तीसरा व्यंजन; इसका उच्चारण स्थान दंतमूल है।
- दंग
- वि.
- (फा.)
- चकित, विस्मित।
- दंग
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- भय, डर, घबराहट।
- उ.—जब रथ साजि चढ़ौं रन सनमुख जीय न आनौं दंग। (तंक) राघव सैन समेत सँहारौं करौं रुधिरमय अंग—(पंक)—६-१३४।
- दंगई
- वि.
- (हिं. दंगा)
- दंगा या झगड़ा करनेवाला, उपद्रवी।
- दंगई
- वि.
- (हिं. दंगा)
- उग्र, प्रचंड।
- दंगई
- वि.
- (हिं. दंगा)
- लंबा-चौड़ा।
- दंगई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दंगा)
- दंगा करने का भाव, उपद्रव।
- दीपकूपी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दीए की बत्ती।
- दीपत
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीप्ति)
- कांति, ज्योति।
- उ.—दधि-सुत दीपत तज मुरझानो दिनपति-सुत है भूषन हीन-सा. ९६।
- दीपत
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीप्ति)
- छटा, शोभा।
- उ.— भू-सुत-सत्रु गेह में काडू दीपत द्वार दई —सा. ३१।
- दीपत
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीप्ति)
- कीर्ति।
- दीपत
- क्रि. अ.
- (हिं. दीपना)
- प्रकाशित होता है, चमकता है।
- दीपत
- क्रि. अ.
- (हिं. दीपना)
- शोभित है।
- उ.— रामदूत दीपत नछत्र में पुरी धनद रूचि रचि तमहारी—सा.९८।
- दीपत
- वि.
- चमकता हुआ, प्रकाश फैलाता हुआ।
- दीपति
- क्रि. अ.
- स्त्री.
- (हिं. दीपना)
- प्रकाशित होती है, चमकती है।
- उ.— आज दीपति दिव्य दीपमालिका—८०९।
- दीपदान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पूजा का एक अंग जिसमें देवता के सामने दीपक जलाया जाता है।
- दीपदान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कार्तिक में राधादामोदर के लिए दीपक जलाने का कृत्य।
- दीपदान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक क्रिया जिसमें मरणासन्न के अथवा मृत व्यक्ति के हाथ से आटे के जलते हुए दीप का संकल्प कराया जाता है।
- उ.— भस्म अंत तिल-अंजलि दीन्हीं देव बिमान चढ़ायौ। दिन दस लौं जल कुंभ साजि सुचि, दीपदान करवायौ—९-५०।
- दीपदानी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीप + हिं. दानी)
- दीपक का समान-घी, बत्ती आदि—रखने की डिबिया।
- दीपध्वज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- काजल, कज्जल।
- दीपन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- प्रकाश के लिए जलाने की क्रिया।
- दीपन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बढ़ाने की क्रिया।
- दीपन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वेग या उमंग को उत्तेजित करने की क्रिया।
- दीपन
- वि.
- बढ़ाने या उत्तेजित करनेवाला।
- दीपन
- संज्ञा
- पुं.
- कुंकुंम, केसर।
- दीपन
- संज्ञा
- पुं.
- मंत्र-सिद्धि का एक संस्कार।
- दीपना
- क्रि. अ.
- (सं. दीपन)
- चमकना, जगमगाना।
- दीपना
- क्रि. स.
- चमकाना, प्रकाशित करना।
- दीपनीप
- वि.
- (सं.)
- प्रकाशन के योग्य।
- दीपनीप
- वि.
- (सं.)
- उत्तेजन के योग्य।
- दीपपादप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दीवट।
- दीपपादप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- झाड़।
- दीपमाला
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- जलते हुए दीपकों की पंक्ति।
- दीपमाला
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- जली हुई बत्तियों का समूह।
- दीपमालिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दीपकों की पंक्ति या समूह।
- दीपमालिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दिवाली।
- उ.— आज दीपति दिव्य दीपमालिका—८०९।
- दीपमालिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दीपदान या आरती के लिए जलायी गयी बत्तियों की पंक्ति।
- उ.—दीपमालिका रचि-रचि साजत। पुहुपमाल मंडली बिराजत।
- दीपमाली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीपमालिका)
- दिवाली।
- दीपवृक्ष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दीवट, दीपाधार।
- दीपशत्रु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पतंग जो दीप को बुझा दे।
- दीपशिखा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दीप की लौ या टेम।
- दीपशिखा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दीपक का धुआँ या काजल।
- दीपसुत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- काजल, कज्जल।
- दीपग्नि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दीप की लौ की आँच।
- दीपान्वता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दीवाली।
- दीपवलि, दीपावली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीपावलि)
- दीवाली।
- दीपिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- छोटा दीप।
- उ.—दोउ रूख लिये दीपिका मानो किये जात उजियारॆ—२१९०।
- दीपिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- एक रागिनी जो प्रदोषकाल में गायी जाती है।
- दीपित
- वि.
- (सं.)
- प्रकाशित, जलता हुआ।
- दीपित
- वि.
- (सं.)
- चमकता या जगमगाता हुआ।
- दीपित
- वि.
- (सं.)
- उत्तेजित।
- दीपै
- क्रि. अ.
- (हिं. दीपना)
- चमकता है।
- दीपै
- संज्ञा
- पुं.
- [सं. द्विप, हिं. दीप + पै (प्रत्य.)]
- द्वीपों-में।
- उ. — तद्यपि भवन भाव नहिं ब्रज बिनु खोजौ दीपै सात—३३५१।
- दीपोत्सव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दीप + उत्सव)
- दिवाली।
- दीप्त
- वि.
- (सं.)
- जलता हुआ।
- दीप्त
- वि.
- (सं.)
- चमकता हुआ।
- दीप्त
- संज्ञा
- पुं.
- सोना, स्वर्ण।
- दीप्त
- संज्ञा
- पुं.
- सिंह।
- दीप्तक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सोना, स्वर्ण।
- दीप्तकिरण
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य।
- दीप्तकिरण
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मदार।
- दीप्तवर्ण
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कार्त्तिकेय।
- दिप्तवर्ण
- वि.
- जिसका शरीर कुन्दन सा चमकता हो।
- दीप्तांग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दीप्त + अंग)
- मोर, मयूर।
- दीप्तांग
- वि.
- जिसका शरीर खूब चमकता हो।
- दीप्तांशु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्य।
- दीप्तांशु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मदार।
- दीप्ता
- वि.
- स्त्री.
- (सं.)
- चमकती हुई, प्रकाशित।
- दीप्ता
- वि.
- स्त्री.
- (सं.)
- सूर्य से प्रकाशित (दिशा)।
- दीप्ताक्ष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बिड़ाल, बिल्ली।
- दीप्ताक्ष
- वि.
- जिसकी आँखें खूब चमकती हों।
- दीप्ताग्नि
- वि.
- (सं. दीप्त + अग्नि)
- जिसकी पाचन शक्ति तीव्र हो।
- दीप्ताग्नि
- वि.
- (सं. दीप्त + अग्नि)
- जिसको बहुत भूख लगी हो।
- दीप्ताग्नि
- संज्ञा
- पुं.
- अगस्त्य मुनि जिन्होंने समुद्र पी डाला था और वातापि राक्षस को पचा डाला था।
- दीप्ति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- उजाला, प्रकाश।
- दीप्ति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- चमक, प्रभा, द्युति।
- दीप्ति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कांति, शोभा, छवि।
- दीप्ति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- ज्ञान का प्रकाश।
- दीप्तिमान, दीप्तिमान्
- वि.
- (सं. दीप्तिमत्)
- चमकता हुआ, प्रकाशित।
- दीप्तिमान, दीप्तिमान्
- वि.
- (सं. दीप्तिमत्)
- शोभा या कांति से युक्त।
- दीप्तिमान, दीप्तिमान्
- संज्ञा
- पुं.
- सत्यभामा से उत्पन्न श्रीकृष्ण का एक पुत्र।
- दीप्तोपल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूर्यकान्त मणि।
- दीप्य
- वि.
- (सं.)
- जो जलाया जाने को हो।
- दीप्य
- वि.
- (सं.)
- जो जलाया जाने योग्य हो।
- दीप्यमान
- वि.
- (सं.)
- चमकता हुआ।
- दीप्र
- वि.
- (सं.)
- दीप्तिमान्, प्रकाशयुक्त।
- दीबे
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- देने (के लिए)।
- उ.— (क) मंत्री काम कुमति दीबे कौं, क्रोध रहत प्रतिहारी —१-१४४। (ख) या छबि की पटतर दीबे कौं सुकवि कहा टकटोहै—१०-१५८।
- दीबो, दीबौ
- क्रि. स.
- (हिं. देना)
- देना, प्रदान करना।
- दीबो, दीबौ
- संज्ञा
- पुं.
- देने या प्रदान करने की क्रिया।
- दीमक
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- एक छोटा कीड़ा, बल्मीक।
- दीयट
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दीवट)
- दीपक का आधार।
- दीयमान
- वि.
- (सं.)
- जो देने योग्य हो।
- दीयमान
- वि.
- (सं.)
- जो दिया जाने को हो।
- दीया
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दीपक, प्रा. दीअ)
- दीप।
- मुहा.- दीया जलना (जले)— संध्या होना (होने पर)।
दीया जलाना— दिवाला निकालना।
दीया ठंढ़ा करना— दिया बुजाना।
दिया ठंढा होना— दिया बुझना।
किसी के घर का दीया ठंढ़ा होना— किसी कें वंश में पुत्र न रहने से घर में रौनक न रह जाना।
दीया बढ़ाना— दीप बुझाना।
दीया-बत्ती करना— रोशनी का सामान करना।
दीया लेकर ढूंढना— बहुत छानबीन करना।
- दीया
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दीपक, प्रा. दीअ)
- बत्ती जलाने का पात्र या बरतन।
- दीयौ
- क्रि. स.भूत
- (सं. दान, हिं. देना)
- दी, प्रदान की।
- दीयौ
- क्रि. स.भूत
- (सं. दान, हिं. देना)
- डाली, छोड़ी।
- उ.—नृप कह्यौ, इंद्रपुरी की न इच्छा हमैं, रिषिनि तब पूरनाहुती दीयौ—४-११।
- दीरघ
- वि.
- (सं. दीर्घ)
- लंबा, बड़ा।
- उ.— इन पै दीरघ धनुष चढ़ौ क्यौं, सखि, यह संसय मोर—९-२३।
- दीरघ
- वि.
- (सं. दीर्घ)
- गुरू या दीर्घ मात्रावाला।
- उ. पाछिले कर पहिल दीरघ बहुरि लघुता बोर— सा. ११०।
- दीरघता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीर्घता)
- लंबाई, बड़ापन, (लघु का विपरीतार्थक), अधिकता
- उ.— (क) तप अरू लघु-दीरघता सेवा, स्वामि-धर्म सब जगहिं सिखाए —९-१६८। (ख) लघु-दीरघता कछू न जानैं, कहुँ बछरा कहुं धेनु चराए —१०-३०९।
- दीर्घ
- वि.
- (सं.)
- लंबा।
- दीर्घ
- वि.
- (सं.)
- बड़ा।
- दीर्घ
- वि.
- (सं.)
- दीर्घ या गुरू मात्रावाला।
- दीर्घ
- संज्ञा
- पुं.
- गुरू या द्विमात्रिक वर्ण।
- दीर्घकंठ
- वि.
- (सं.)
- जिसकी गरदन लंबी हो।
- दीर्घकंठ
- संज्ञा
- पुं.
- बगुला।
- दीर्घकंठ
- संज्ञा
- पुं.
- एक दानव।
- दंगल
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- पहलवानों की कुश्ती।
- दंगल
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- कुश्ती लड़ने का अखाड़ा।
- मुहा.- दंगल में उतरना- कुश्ती लड़ने को तैयार होना।
- दंगल
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- समूह, दल, जमाव।
- दंगल
- संज्ञा
- पुं.
- (फा.)
- मोटा गद्दा या तोशक।
- दंगली
- वि.
- (फा. दंगल)
- दंगल-सबंधी
- दंगली
- वि.
- (फा. दंगल)
- बहुत बड़ा।
- दंगा
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दंगल)
- झगड़ा-फसाद, उपद्रव।
- दंगा
- संज्ञा
- पुं.
- (फा. दंगल)
- शोर-गुल, गुल-गपाड़ा।
- दंगैत, दँगैत
- वि.
- [हिं. दंगा + ऐत (प्रत्य.)]
- उपद्रवी।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- डंडा, सोंटा, लाठी।
- उ.—(क) जानु-जंध त्रिभंग सुंदर, कलित कंचन-दंड—१-३०७। (ख) पिनाकहु के दंड लौं तन लहत बल सतराइ —३-३। (ग) बटुआ झोरी दंड अधारा इतने न को आराधै—३२८४।
- मुहा.- दंड ग्रहण करना- संन्यास लेना।
- दीर्घकंद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मूली।
- दीर्घकंधर
- वि.
- (सं.)
- लंबी गरदनवाला।
- दीर्घकंधर
- संज्ञा
- पुं.
- बगुला पक्षी, बैंक।
- दीर्घकर्ण
- वि.
- (सं.)
- बड़े कानवाला।
- दीर्घकाय
- वि.
- (सं.)
- बड़े डील-डौल का।
- दीर्घकेश
- वि.
- (सं.)
- लंबे लंबे बालवाला।
- दीर्घगति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ऊँट (जो लंबे डग रखता है)।
- दीर्घग्रीव
- वि.
- (सं.)
- लबी गरदनवाला
- दीर्घग्रीव
- संज्ञा
- पुं.
- नील कौंच या सारस पक्षी।
- दीर्घघाटिका
- वि.
- (सं.)
- जिसकी गरदन लंबी हो।
- दीर्घघाटिका
- संज्ञा
- पुं.
- ऊँट।
- दीर्घच्छद
- वि.
- (सं.)
- जिसके लंबे-लंबे पत्ते हों।
- दीर्घच्छद
- संज्ञा
- पुं.
- ईख, ऊख।
- दीर्घजंघ
- वि.
- (सं.)
- लंबी-लंबी टाँगोंवाला।
- दीर्घजंघ
- संज्ञा
- पुं.
- बक, बगुल।
- दीर्घजंघ
- संज्ञा
- पुं.
- ऊँट।
- दीर्घजिह्व
- वि.
- (सं.)
- लंबी जीभवाला।
- दीर्घजिह्व
- संज्ञा
- पुं.
- सर्प।
- दीर्घजिह्व
- संज्ञा
- पुं.
- दानव।
- दीर्घजिह्वा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- एक राक्षसी जो विरोचन की पुत्री थी और जिसे इंद्र ने मारा था।
- दीर्घजीवी
- वि.
- (सं. दीर्घजीविन्)
- बहुत दिन जीनेवाला।
- दीर्घतपा
- वि.
- (सं. दीर्घतपस्)
- बहुत दिन तप करने वाला।
- दीर्घतमा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दीर्घतमस्)
- एक ऋषि जिनके रचे मंत्र ऋग्वेद के पहले मंडल में हैं।
- दीर्घता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- लंबाई।
- दीर्घता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- लंबे होने की भावना।
- दीर्घदर्शिता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दूर तक सोचने की क्रिया, भावना या क्षमता, दूरदर्शिता।
- दीर्घदर्शी
- वि.
- (सं. दीर्घर्शिन्)
- दूर तक की बात सोचनेवाला, दूरदर्शी।
- दीर्घदर्शी
- वि.
- (सं. दीर्घर्शिन्)
- विचारवान्।
- दीर्घदृष्टि
- वि.
- (सं.)
- जो दूर तक देख सके।
- दीर्घदृष्टि
- वि.
- (सं.)
- जो दूर तक सोच सके।
- दीर्घदृष्टि
- संज्ञा
- पुं.
- गीध, जो दूर तर देखता है।
- दीर्घनाद
- वि.
- (सं.)
- जिससे जोर का शब्द निकले
- दीर्घनाद
- संज्ञा
- पुं.
- शंख।
- दीर्घनिद्रा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- मृत्यु, मौत।
- दीर्घनिश्वास
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- लंबी साँस जो दुख-शोक में ली जाती है।
- दीर्घपर्ण
- वि.
- (सं.)
- जिसके पत्ते लम्बे हों।
- दीर्घपाद
- वि.
- (सं.)
- लम्बी टाँगोंवाला।
- दीर्घपाद
- संज्ञा
- पुं.
- कंक पक्षी।
- दीर्घपाद
- संज्ञा
- पुं.
- सारस।
- दीर्घपृष्ठ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सर्प, साँप।
- दीर्घप्रज्ञ
- वि.
- (सं.)
- दूरदर्शी, दीर्घदर्शी।
- दीर्घबाहु
- वि.
- (सं.)
- लंम्बी भुजाओंवाला।
- दीर्घमारुत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- हाथी।
- दीर्घयज्ञ
- वि.
- (सं.)
- बहुत समय तक यज्ञ करनेवाला।
- दीर्घरद
- वि.
- (सं.)
- लंबे-लंबे दाँतवाला।
- दीर्घरद
- संज्ञा
- पुं.
- सुअर, शूकर।
- दीर्घरसन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सर्प, साँप।
- दीर्घरोमा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- भालू, रीछ।
- दीर्घलोचन
- वि.
- (सं.)
- बड़ी-बड़ी आँखवाला |
- दीर्घवक्तृ
- वि.
- (सं.)
- लम्बे मुँहवाला।
- दीर्घवक्तृ
- संज्ञा
- पुं.
- हाथी, गज।
- दीर्घश्रुत
- वि.
- (सं.)
- जो दूर तक सुनायी दे।
- दीर्घश्रुत
- वि.
- (सं.)
- जिसका नाम दूर-दूर तक फैला हो।
- दीर्घसूत्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बहुत दिनों में समाप्त होने-वाला एक यज्ञ।
- दीर्घसूत्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वह जो यह यज्ञ करे।
- दीर्घसूत्रता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- देर से काम करने का भाव।
- दीर्घसूत्री
- वि.
- (सं. दीर्घसूत्रिन्)
- देर से काम करनेवाला।
- दीर्घायु
- वि.
- (सं.)
- बहुत दिन जानेवाला।
- दीर्घायु
- संज्ञा
- पुं.
- कौआ, काक।
- दीर्घायु
- संज्ञा
- पुं.
- मार्कन्डेय |
- दीवान
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- राजसभा।
- दीवान
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- गजल-संग्रह।
- दीवानआम
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- ऐसा दरबार जिसमें राजा से साधारण लोग भी मिल सकें।
- दीवानआम
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- ऐसे दरबार का स्थान।
- दीवानखाना
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- बड़े आदमियों के घर की बैठक।
- दीवानखास
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. दीवान + फा. खास)
- ऐसा दरबार जिसमें राजा चुने हुए व्यक्तियों के साथ बैठता है।
- दीवानखास
- संज्ञा
- पुं.
- (अ. दीवान + फा. खास)
- ऐसे दरबार का स्थान।
- दीवाना
- वि.
- (फ़ा.)
- पागल, तिड़ी।
- मुहा.- किसी के पीछे दीवाना होना— उसको प्राप्ति के लिए पागल या बेचैन होना।
- दीवानापना, दीवानापना
- संज्ञा
- पुं.
- [फ़ा. दीवाना + हिं. पन (प्रत्य.)]
- पागलपन, सिड़ीपन।
- दीवानी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा. दीवान)
- दीवान का पद।
- दीवानी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा. दीवान)
- धन-व्यवहार-संबंधी न्यायालय।
- दीवानी
- वि.
- स्त्री.
- (फ़ा. दीवाना)
- पगली, बावली।
- दीवार, दीवाल
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- पत्थर, ईंट आदि से बना ऊँचा परदा या घेंरा, भीत।
- दीवार, दीवाल
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- किसी वस्तु का उठा हुआ घेरा।
- दीवारगीर, दीवारगीरी
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- दिया आदि का आधार जो दीवार में लगाया जाता है।
- दीवाली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीपावली)
- कार्तिकी अमावास्या को मनाया जानेंवाला हिंदुओं का एक उत्सव जिसमें लक्ष्मी का पूजन करके दीपक जलायें जाते हैं।
- दीवि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नीलकंठ नामक पक्षी।
- दीवी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दीया)
- दीवट दीपाधार।
- दीस
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीश)
- दिशा, ओर, तरफ।
- उ.— गरजत रहत मत गज चहुँ दिसि, छत्र-धुजा चहुँ दीस —९-८५।
- दीस
- क्रि. अ.
- (हिं. दिखना)
- दिखायी पड़ता है।
- दीर्घा
- वि.
- (सं.)
- बड़े मुँहवाला।
- दीर्घा
- संज्ञा
- पुं.
- हाथी।
- दीर्घा
- संज्ञा
- पुं.
- शिव का एक अनुचर।
- दीर्घाहन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ग्रीष्म ऋतु, जब दिन बड़े होते हैं।
- दीर्घिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बावली, छोटा तालाब।
- दीर्ण
- वि.
- (सं.)
- फटा या दरका हुआ।
- दीवट
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दीपस्थ, प्रा. दीवट्ठ)
- दीपकधार।
- दीवला
- संज्ञा
- पुं.
- [हिं. दीवा + ला (प्रत्य.)]
- दीया, दीप।
- दीवा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दीपक)
- दीया, दीप।
- दीवान
- संज्ञा
- पुं.
- (अ.)
- राज्य-प्रबन्धकर्त्ता मंत्री, प्रधान।
- उ. —भक्त ध्रुव कौं अटल पदवी, राम के दीवान—१-२३५।
- दीसत
- क्रि. स.
- (हिं. दीखना)
- दिखायी देते हैं।
- उ.— (क) जहाँ तहाँ दीसत कपि करत राम-आन—९-९६। (ख) उड़त धूरि, धुँआँ धुर दीसत सूल सकल जलधार—१० उ. २।
- दीसति
- क्रि. अ.
- स्त्री.
- (हिं. दीसना)
- दिखायी देती है।
- उ.— (क) वै लखि आये राम रजा। जल कैं निकट आइ ठाढ़े भये दीसति बिमल ध्वजा—। (ख) उज्ज्वल असित दीसति हैं दुँहु नैननि-कोर—।
- दीसति
- क्रि. अ.
- स्त्री.
- (हिं. दीसना)
- जान पड़ती है, मालूम होती है।
- उ.— राजा कह्यौ, सप्त दिन माहिं। सिद्धि होत कछु दीसति नाहिं—१-३४१।
- दीसना
- क्रि. अ.
- (सं. दृश् = देखना)
- दिखायी देना।
- दीह
- वि.
- (सं. दीर्घ)
- लम्बा, बड़ा।
- दुंका
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्तोक)
- अन्न का दाना या कण।
- दुँगरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (देश.)
- एक मोटा कपड़ा।
- दुंद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्धन्द्ध)
- दो पक्षों में होनेवाला जगड़ा।
- दुंद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्धन्द्ध)
- उपद्रव, उधम।
- उ.— कहा करौं हरिबहुत खिझाई।¨¨¨¨¨। भोर होत उरहन लै आबहिं, ब्रज की बधू अनेक। फिरत जहाँ तहै दुंद मचावत घर न रहत छन एक—३८८।
- दुंद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्धन्द्ध)
- जोड़ा, युग्म।
- थोरि
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. पुं थोड़ा)
- छोटी-सी, साधारण।
- उ. — अरून अधरनि दसन झाई कहौं उपमा थोरि। नील पुट बिच मनौ मोती धरे बंदन बोरि-१०-२२५।
- थोरिक
- वि.
- (हिं. थोड़ा + एक)
- तनिक-सा, थोड़ा-सा।
- थोरी
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. थोड़ा)
- थोड़ी, कम।
- उ.— राज-पाट सिंहासन बैठो, नील पदुम हूँ सों कहै थोरी।¨¨¨¨। हस्ती दॆखि बहुत मन-गर्वित, ता मूरख की मति है थोरी — १३०३।
- मुहा.- जा कछु कह्या से थोरी (१) ऐसा (अनुचित कार्य किया है कि चाहे जितना बुरा भला या उचित अनुचित कहा जाय, कम है। (२) बहुत-कुछ कहा जा सकता है। उ.— सूरदास प्रभु अतुलित महिमा जो कछु कह्यौ सो थोरी— १० उ.-५२।२. मामूली, साधारण सी, तुच्छ। उ.— बौट न लेहु सबै चाहत है, यहै बात है थारी— १०-२६७।
- थोरी
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. थोड़ा)
- मामूली, साधारण सी, तुच्छ
- थोरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (देश.)
- एक हीन अनार्य जाति।
- थोरे
- वि.
- (हिं. थोड़ा)
- थोड़े, कम।
- उ. — (क) थोरे जीवन भयो भारौ — १-१५२। (ख) की यहि गाउँ बसत की अनतहिं दिननि बहुत की थोरे — १२६०।
- थोरेक
- वि.
- (हि. थोड़ा+एक)
- थोड़ा ही, तनिक सा।
- उ. — थोरेक ही बल सौं छिन भीतर दीनौ ताहि गिराइ — ४१०।
- थोरैं
- वि. सवि.
- (हिं. थोड़ा)
- थोड़े (के ही लिए), जरा से (के लिए)।
- उ. — सुनहु महरि ऐसी न बुझिए , सुत बाँघति माखन दधि थोरैं — ३४४।
- थोरो, थोरौ
- वि.
- (हिं. थोड़ा)
- थोड़े, कम, अल्प।
- उ. — औगुन और बहुत हैं मो मैं, कह्यौ सूर मैं थोरौ - १-१८६।
- थौंद
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. तोंद)
- तोंद।
- दुंदुह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. डुंडभ)
- पानी का साँप, डेंड़हा।
- दुंबुर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. उदुंबर)
- गूलर की जाति का एक पेड़।
- दुःख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कष्ट, क्लेश, तकलीफ।
- दुःख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- संकट, विपत्ति, आपत्ति
- दुःख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मानसिक कष्ट, खेद।
- दुःख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पीड़ा, व्यथा।
- दुःख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- रोग, बीमारी।
- दुःखकर
- वि.
- (सं.)
- कष्ट पहुंचानेवाला।
- दुःखग्राम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- संसार।
- दुःखजीवी
- वि.
- (सं.)
- कष्ट से जीवन बितानेवाला।
- दुंद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुंदुभि)
- नगाड़ा।
- दुंदर, दुंदरा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्वंद्वं)
- उलझन, झंझट, जंजाल।
- उ.— देख्यौ भरत तरून अति सुन्दर। थूल सरीर रहित सब दुंदर—५-३।
- दुंदरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुंद)
- हलचल, उत्पात।
- उ.— जुरी ब्रज सुंदरी दसन छबि कुंदरी कामतनु दुंदरी करनहरी—१२६०।
- दुंदुभ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नगाड़ा, घाँसा।
- दुंदुभि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- नगाड़ा, घाँसा।
- उ.— हरि कह्यौ, मम हुदय माहिं तू रहि सदा, सुरनि मिलि देव-दुंदभि बजाई—८-८।
- दुंदुभि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- विष
- दुंदुभि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वरूण।
- दुंदुभि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक राक्षस जिसे मारकर ऋष्यमूक पर्वत पर फेंक देने पर बालि को वहाँ न जाने का शाप मिला था।
- दुंदुभिक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक तरह का कीड़ा।
- दुंदुभी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दुंदुभि)
- नगाड़ा, घाँसा।
- दुःखलोक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- संसार, जगत।
- दुःखसाध्य
- वि.
- (सं.)
- जिस (काम) का करना कठिन या मुश्किल हो।
- दुःखांत
- वि.
- (सं.)
- जिसके अंत में कष्ट मिलें।
- दुःखांत
- वि.
- (सं.)
- जिसके अंत में कष्ट या दुख का वर्णन हो।
- दुःखांत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कष्ट का अंत।
- दुःखांत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बहुत कष्ट।
- दुःखायतन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- संसार, जगत।
- दुःखार्त्त
- वि.
- (सं.)
- कष्ट से व्याकुल।
- दुःखित
- वि.
- (सं.)
- जिसे कष्ट या तकलीफ हो।
- दुःखिनी
- वि.
- (सं.)
- जिस (स्त्री) पर दुख पड़ा हो।
- दुःखी
- वि.
- पुं.
- (सं.)
- जो कष्ट में हो।
- दुःशकुन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ऐसा लक्षण या दर्शन जिसका फल बुरा समझा जाता हो।
- दुःशला
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- धुतराष्ट्र की पुत्री जो जयद्रथ की व्याही था।
- दुःशासन
- वि.
- (सं.)
- जो किसी का दबाव न मानें।
- दुःशासन
- संज्ञा
- पुं.
- धृतराष्ट्र का एक पुत्र जो दुर्योधन का प्रिय पात्र और मंत्री था।
- दुःशील
- वि.
- (सं.)
- बुरे स्वभाववाला।
- दुःशीलता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरा स्वभाव।
- दुःशीलता
- वि.
- (सं.)
- जिस (व्यक्ति) का सुधार करना कठिन हो।
- दुःशीलता
- वि.
- (सं.)
- जिस (धातु आदि) का शोधना कठिन हो।
- दुःश्रव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- काव्य का एक दोष जो उसमें कर्णकटु वर्ण आने से माना जाता है।
- दुःखत्रय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- तीन प्रकार के दुख।
- दुःखद
- वि.
- (सं.)
- कष्ट पहुँचानेवाला।
- दुःखदग्ध
- वि.
- (सं.)
- दुख से पीड़ित, बहुत दुखी।
- दुःखदाता
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःखदातृ)
- दुख देनेवाला।
- दुःखदायक
- वि.
- (सं.)
- जिससे दुख मिले।
- दुःखयायी
- वि.
- (सं. दुःखदायिन्)
- दुख देनेवाला।
- दुःखप्रद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कष्ट देनेवाला।
- दुःखबहुल
- वि.
- (सं.)
- दुख या कष्ट से युक्त।
- दुःखमय
- वि.
- (सं.)
- कष्ट-पूर्ण, क्लेश-युक्त।
- दुःखलभ्य
- वि.
- (सं.)
- जो कष्ट से प्राप्त हो सके।
- दुःसाहस
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- व्यर्थ का या निरर्थक साहस जिससे कुछ लाभ न हो।
- दुःसाहस
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अनुचित साहस, ढिठाई, धृष्टता।
- दुःसाहसिक
- वि.
- (सं.)
- जिस (कार्य) का करना निष्फल या अनुचित हो।
- दुःसाहसी
- वि.
- (सं.)
- निष्फल या अनुचित साहस के काम करनेवाला।
- दुःस्थ
- वि.
- (सं.)
- जिसकी स्थिति अच्छी न हो, दुर्दशा में पड़ा हुआ।
- दुःस्थ
- वि.
- (सं.)
- दरिद्र, निर्धन
- दुःस्थ
- वि.
- (सं.)
- मूर्ख, बुद्धिहीन, मूढ़।
- दुःस्थिति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरी या कष्ट की अवस्था।
- दुःस्पर्श
- वि.
- (सं.)
- जो छूने लायक न हो।
- दुःस्पर्श
- वि.
- (सं.)
- जिसका छूना या पाना कठिन हो।
- दुःषम
- वि.
- (सं.)
- निंदनीय।
- दुःषेध
- वि.
- (सं.)
- जिसका दूर करना कठिन हो।
- दुःसंकल्प
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- खोटा या अनुचित विचार।
- दुःसंकल्प
- वि.
- बुरा या अनुचित विचार रखनेवाला।
- दुःसंग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरे लोगों का साथ, कुसंग।
- दुःसंधान
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- काव्य का एक रस जो बेमेल बातों को सुनकर होता है।
- दुःसह
- वि.
- (सं.)
- जो कष्ट से सहा जाय।
- दुःसाधी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःसाधिन)
- द्वारपाल।
- दुःसाध्य
- वि.
- (सं.)
- जो कष्ट से किया जा सके।
- दुःसाध्य
- वि.
- (सं.)
- जिसका उपाय या उपचार करना कठिन हो।
- दुःस्पर्श
- संज्ञा
- स्त्री.
- आकाशगंगा।
- दुःस्वप्न
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ऐसा स्वप्न जिसका फल बुरा हो।
- दुःस्वभाव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा स्वभाव।
- दुःस्वभाव
- वि.
- बुरे स्वभाववाला।
- दु
- वि.
- (हिं. दो)
- ‘दो’ का संक्षिप्त रूप जो समास-रचना के काम आता है।
- दुअन
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुवन)
- दुष्ट मनुष्य।
- दुअन
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुवन)
- शत्रु।
- दुअन
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुवन)
- राक्षस, दैत्य।
- दुअरवा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्वार)
- द्वार या दरवाजा।
- दुअरिया
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. द्वार)
- छोटा द्वार या दरवाजा।
- दुआ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ.)
- प्रार्थना।
- दुआ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ.)
- आशीर्वाद।
- दुआ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं.दो)
- गले का एक गहना।
- दुआदस
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्वादश))
- बारह।
- दुआब, दुआबा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दुआबा)
- दो नदियों के बीच का उपजाऊ भू-भाग।
- दुआर, दुआरा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.द्वार)
- द्वार, दरवाजा।
- उ.— (क) मानिनि बार बसन उघार। संभु कोप दुआर आयो आद को तनु मार —सा. ८९। (ख) देखि बदन बिथ-कित भईं बैठी हैं सिंह-दुआर —२४४३।
- दुआर-बैरी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्वार + हिं. बैरी)
- द्वार का शत्रु, कपाट या किवाड़।
- उ.— छूटे दिन दुआर के बैरी लटकत सो न सम्हार-सा. ८३।
- दुआरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुआर)
- छोटा दरवाजा।
- दुइ, दुई
- वि.
- (हिं. दो)
- दो।
- उ.— दुइ मृनाल मातुल उभे द्वै कदली खंभ बिन पात-सा. उ. ३।
- मुहा.- दुइ नाव पाँव धरि- दो नावों पर पैर रखकर, दो ऐसे पक्षों का आश्रय लेकर जो साथ-साथ न रह सके, न हो सकें। उ.— दुई तरंग दुइ नाव पाँव धरि ते कहि कवन न मूठे।
- दुइज
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्वितीय, पा. दुईज)
- दूज, द्वितीय।
- दुकड़ी
- वि.
- (हिं. दो + कड़ी)
- जिसमें दो कड़ीयाँ हों।
- दुकना
- क्रि. अ.
- (देश.)
- लुकना, छिपना।
- दुकान
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- माल बिकने की जगह, हट्ट।
- मुहा.- दुकान उठाना— दूकान बंद करना।
दुकान बढ़ाना— दूकान बंद करना।
दुकान लगाना— (१) दूकान का सामान आकर्षक ढंग से सजाना। (२) बहुत सी चीज इधर-उधर फैलाना।
- दुकानदार
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- दूकान का मालिक।
- दुकानदार
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- वह जो ढोंग या तिकड़म से पैसा बनाता हो।
- दुकानदारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- दूकान की बिक्री का काम।
- दुकानदारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- तिकड़म से धन पैदा करने का काम।
- दुकार
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + आकार)
- दो रेखाऐ।
- उ.—परयौ जो रेख ललाट और मुख भेंटि दुकार बनायौ—३३८८।
- दुकाल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुष्काल)
- अकाल, दुर्भिक्ष।
- दुकुल्ली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (देश.)
- चमड़ामढ़ा एक बाजा।
- थाँग
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थान या हिं. थान)
- खोयी हुई चीज की खोज, सुराग।
- थाँग
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. स्थान या हिं. थान)
- गुप्त भेद या पता।
- थाँगी
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थाँग)
- चोरी का माल लेने या रखनेवाला।
- थाँगी
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थाँग)
- चोरों का भेद जाननेवाला।
- थाँगी
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थाँग)
- गुप्तचर, जासूस।
- थाँगी
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थाँग)
- चोरों का नायक।
- थाँभ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. स्तंभ)
- खंभा, थूनी, चाँड़, टेक।
- थाँभना
- क्रि. स.
- (हिं. थामना)
- रोकना, लेना, थामना।
- थाँवला
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. थाला)
- पौधे का थाला।
- था
- क्रि. अ.
- (सं. स्था)
- ‘है’ का भूतकाल, रहा।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक योग का नाम।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- चार हाथ की नाप
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- इक्ष्वाकु राजा का एक पुत्र।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- यम।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक घड़ी या चौबिस मिनट का समय।
- उ. -- एक दंड दूदसी सुनायी - १००१।
- दंडक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- डंडा।
- दंडक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दंड देनेवाला।
- दंडक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- २६ से अधिक वर्णों का छंद।
- दंडक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- इक्ष्वाकु राजा का एक पुत्र जो शुक्राचार्य का शिष्य था और गुरु-कन्या का कौमार्य भंग करने के कारण जो अपने राज्य-सहित भस्म होगया थाः
- दंडक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दंडकवन।
- दुइज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विज)
- दूज का चाँद।
- दुऔ
- वि.
- (हिं. दोनों
- दोनों।
- दुकड़हा
- वि.
- [(हिं. दुकड़ा + हा (प्रप्य.)]
- जिसका मूल्य एक दुकड़ा हो।
- दुकड़हा
- वि.
- [(हिं. दुकड़ा + हा (प्रप्य.)]
- बहुत मामूली या तुच्छ।
- दुकड़हा
- वि.
- [(हिं. दुकड़ा + हा (प्रप्य.)]
- नीच, कमीना।
- दुकड़ा
- संज्ञा
- पुं.
- [सं. द्विक + ड़ा (प्रप्य.)]
- दो का जोड़ा।
- दुकड़ा
- संज्ञा
- पुं.
- [सं. द्विक + ड़ा (प्रप्य.)]
- दो दमड़ी, छदाम।
- दुकड़ी
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दुकड़ा)
- दो-दो (चीजों) का।
- दुकड़ी
- संज्ञा
- स्त्री.
- ताश की दुग्गी।
- दुकड़ी
- संज्ञा
- स्त्री.
- दो घोड़ों की बग्घी या गाड़ी।
- दुकूल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सूत या तीसी के रेशे से बना कपड़ा।
- दुकूल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- महीन कपड़ा।
- दुकूल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वस्त्र, कपड़ा।
- दुकूल-कोट
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुकुल + कोट)
- वस्त्र का समूह, कपड़े का ढेर।
- उ.— रिपु कच गहत द्रुपद-तनया जब सरन सरन कहि भाषी। बढ़ौ दुकूल-कोट अंबर लौं सभा माँझ पति राखी—१-२७।
- दुकेला
- वि.
- [हिं. दुक्का + एला (प्रत्य.)]
- जिसके साथ की दूसरा भी हो।
- अकेला-दुकेला-जिसके साथ कोई न हो या एक ही दो मामूली आदमी हों।
- दुकेला
- यौं
- अकेला-दुकेला-जिसके साथ कोई न हो या एक ही दो मामूली आदमी हों।
- दुकेले
- क्रि. वि.
- (हिं. दुकेला)
- किसी को साथ लिये हुए।
- दुकेले
- यौं
- अकेले-दुकेले—बिना किसी को साथ लिये या एक ही दो आदमियों के साथ।
- दुक्कड़
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं, दो+कूँड़)
- एक बाजा।
- दुक्का
- वि.
- (सं. द्विक्)
- जो किसी (व्यक्ति) के साथ हो।
- दुक्का
- वि.
- (सं. द्विक्)
- जो दो (वस्तुऐ) साथ हों।
- दुक्का
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विक्)
- ताश की दुग्गी।
- दुक्की
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुवकी)
- ताश का एकपत्ता जिसमें दो बूटियाँ हों।
- दुखंडा
- वि.
- (हिं.दो + खंड)
- जिसमें दो खंड हों।
- दुखंत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुष्यंत)
- राजा दुष्यंत।
- दुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःख)
- कष्ट, क्लेश।
- उ.—बारह बरस बसुदेव-देवकहिं कंस महा दुख दीन्हौ—१-१५।
- दुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःख)
- संकट, आपत्ति, विपत्ति।
- दुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःख)
- मानसिक कष्ट।
- दुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःख)
- पीड़ा, व्यथा।
- दुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःख)
- रोग।
- दुखड़ा
- संज्ञा
- पुं.
- [हिं. दुख + ड़ा (प्रत्य.)]
- दुख की कथा या चर्चा।
- मुहा.- दुखड़ा रोना— दुख का हाल कहना।
- दुखड़ा
- संज्ञा
- पुं.
- [हिं. दुख + ड़ा (प्रत्य.)]
- कष्ट, मसीबत, विपत्ति।
- मुहा.- (स्त्री पर) दुखड़ा पड़ना— (स्त्री का) विधवा हो जाना।
दुखड़ा पीटना (भरना)— बहुत कष्ट भोगना।
- दुखता
- वि.
- [हिं. दुख + ता]
- पीड़ित, दर्द करता हआ।
- दुखती
- वि.
- स्त्री.
- (हिं.दुखता)
- दर्द करती हुई, पीड़ित।
- दुखती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं.दुखता)
- उठी हुई (आँख)।
- दुखद
- वि.
- (सं. दुःख + द)
- कष्ट, देनेवाला।
- दुखदाइ, दुखदाई
- वि.
- (सं. दुःखदायिन्, हिं. दुखदायी)
- दुख देनेवाला। जिससे कष्ट मिले।
- उ.—(क) कह्यौ वृषभ सौं, को दुखदाइ? तासु नाम मोहिं देहु बताइ—१-२९०। (ख) कोउ कहै सत्रु होइ दुखदाई—१-२९०।
- दुखदानि, दुखदानी
- वि.
- [सं. दुःख + दान +ई (प्रत्य.)]
- दुखदाई, दुखद।
- उ.—(क) भ्रम्यौ बहुत लघु धाम बिलोकत छन-भंगुर दुख दानी—१-८७। (ख) दरस-मलीन, दीन दुरबल अति, तिनकौं मैं दुख दानी। ऐसौ सूरदास जन हरि कौ, सब अधमनि मैं मानी—१-१२९।
- दुखदाहक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःख + दाहक)
- दुख दूर करनेवाले, क्लेश मिटानेवाले।
- उ.— सूरदास सठ तातैं हरि भजि, आरत के दुख-दाहक—१-१९।
- दुखदुंद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुख + द्वंद्वं)
- दुख और आपत्ति।
- उ.—छन महँ सकल निसाचर मारे। हरे सकल दुख-दुंद हमारे।
- दुखना
- क्रि. अ.
- (सं. दुःख)
- (किसी अंग का) दर्द करना।
- दुखनि
- संज्ञा
- पुं. सवि.
- [सं. दुःख + नि (प्रत्य.)]
- दुखों से।
- उ.— जिहिं जिहिं जोनि भ्रम्यौ संकट-बस, सोइ-सोइ दुखनि भरि—१-८१।
- दुखनी
- वि.
- (हिं. दुख + नी)
- दुख माननेवाली।
- दुखनी
- वि.
- (हिं. दुख + नी)
- बहुत दुखनेवाली।
- दुख-पुंज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःख +पुंज)
- कष्ट-समूह, अनेक प्रकार के दुख, दुख की अधिकता, अधिक दुख।
- उ.—मैं अज्ञान कछू नहिं समुझयौ, परि दुख-पुंज सह्यौ—१-४६।
- दुखरा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुखड़ा)
- दुख की कथा या चर्चा।
- दुखवना
- क्रि. स.
- (हिं. दुखना)
- पीड़ा या कष्ट देना।
- दुख-सागर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःख + सागर)
- दुख का समुद्र, अथाह समुद्र के समान महान दुख, महान क्लेश।
- दुखहाया
- वि.
- [हिं. दुख + हाया (प्रत्य.)]
- बहुत दुखी।
- दुखाना
- क्रि. स.
- (सं. दुःख)
- पीड़ा या कष्ट देना।
- मुहा.- जी दुखाना— मानसिक कष्ट देना।
- दुखाना
- क्रि. स.
- (सं. दुःख)
- किसी पीड़ित या पके हुए अंग को छू देना।
- दुखारा
- वि.
- [हिं. दुख + आर (प्रत्य.)]
- दुखी, पीड़ित।
- दुखारि-दुखारी
- वि.
- [हिं. दुखारी=दुख + आर (प्रत्य.)]
- दुखी, व्यथित, खिन्न।
- उ.—कुलिसहुँ तैं कठिन छतिया चितै री तेरी अजहुँ द्रवति जो न देखति दुखारि—३६१।
- दुखारे, दुखारो
- वि.
- [हिं. दुख + आर (प्रत्य.)]
- दुखी, पीड़ित।
- उ.— (क) सूरदास जम कंठ गहे तैं, निकसत प्रान दुखारे—१-३३४। (ख) इती दूर स्त्रम कियो राज द्विज भए दुखारे—१० उ. ८।
- दुखित
- वि.
- (सं. दुःखित)
- पीड़ित, क्लेशित।
- उ.—(क) रसना द्विज दलि दुखित होत बहु, तउ रिस कहा करै—१-११७। (ख) कुरूच्छेत्र मैं पुनि जब आयौ। गाइ बृषभ तहाँ दुखित पायौ—१-२९०। (ग) जननि दुखित करि इनहिं मैं लै चल्यौ भई ब्याकुल सबै घोष नारी—१५५१।
- दुखिया
- वि.
- [हिं. दुख + इया (प्रत्य.)]
- दुखी, पीड़ित।
- उ.—पाऊँ कहाँ खिलावन कौ सुख, मैं दुखिया, दुख कोखि जरी—१०-८०।
- दुखियारा
- वि.
- (हिं. दुखिया)
- जो दुख में पड़ा हो, दुखी।
- दुखियारा
- वि.
- (हिं. दुखिया)
- जिसे शारीरिक कष्ट हो, रोगी।
- दुखियारी
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दुखियारी)
- दुःखिनी।
- दुखियारी
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दुखियारी)
- रोगिणी।
- दुखी
- वि.
- (सं. दुःखित, दुःखी)
- जो दुख या कष्ट में हो।
- दुखी
- वि.
- (सं. दुःखित, दुःखी)
- जो खिन्न या उदास हो।
- दुखी
- वि.
- (सं. दुःखित, दुःखी)
- रोगी।
- दुखीला
- वि.
- [(हिं. दुख + ईला (प्रत्य.)]
- दुख अनुभव करने या माननेवाला (स्वभाव)।
- दुखीली
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दुखिला)
- दुख, पीड़ा या कष्ट अनुभव करने की प्रकृति।
- दुखौहाँ
- वि.
- [हिं. दुख + औहाँ (प्रत्य.)]
- दुख देनेवाला।
- दुखौहीं
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दुखौहाँ)
- दुखदायिनी।
- दुग
- वि.
- (सं. द्विक)
- दो।
- दुगई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (देश.)
- ओसारा, बरामदा।
- दुगदुगी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अनु. धुकधुकी)
- धुकधुकी।
- मुहा.- दुगदुगी में दम— मरने के समीप।
- दुगदुगी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अनु. धुकधुकी)
- गले से छाती तक लटकनेवाला एक गहना।
- दुगन, दुगना
- वि.
- (सं. द्विगुण, हिं. दुगना)
- दूना।
- दुगाड़ा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + गाड़)
- दोहरी बंदूक या गोली।
- दुगासरा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्ग + आश्रय)
- दुर्ग के समीप या नीचे बसा हुआ गाँव।
- दुगुण, दुगुन
- वि.
- (हिं. दुगना)
- दूना, द्विगुण।
- दुग्ग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्ग)
- किला, दुर्ग, कोट।
- दुग्ध
- वि.
- (सं.)
- दुहा हआ।
- दुग्ध
- वि.
- (सं.)
- भरा हआ।
- दुग्ध
- संज्ञा
- पुं.
- दूध।
- दुग्धकूपिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- एक पकवान।
- दुग्धतालीय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दूध का फेन।
- दुग्धतालीय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दूध की मलाई।
- दुग्धफेन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दूध का फेन।
- दुग्धफेन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक पौधा।
- दुग्धबीज्ञा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- ज्वार, जुन्हरी।
- दुग्धसागर, दुग्धसिंधु
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पुराणों के अनुसार सात समुद्रों में से एक, क्षीरसमुद्र, क्षीरसागर।
- उ.— स्वास उदर उससित यों मानौ दुग्ध-सिंधु छवि पावै —१०-६५।
- दुग्धाब्धि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- क्षीरसागर।
- दुग्धाब्धितनया
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- लक्ष्मी।
- दुग्धी
- वि.
- (सं. दुग्धिन्)
- जिसमें दूध हो।
- दुघड़िया
- वि.
- (हिं. दो + घड़ी)
- दो घड़ी का।
- दुघड़िया मुहूर्त्त
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + घड़ी + सं. मुहुर्त्त)
- दो-दो घड़ियों का निकाला हुआ महूर्त।
- दुघरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दो + घड़ी)
- दुघड़िया मुहूर्त।
- दुचंद
- वि.
- (फ़ा. दोचंद)
- दूना, दुगना।
- दुचल्ला
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + चाल)
- छत जो दोनों ओर को ढालू हो।
- दुचित
- वि.
- (हिं. दो + चित्त)
- जो दुबिधा में हो, अस्थिर चित्त।
- दुचित
- वि.
- (हिं. दो + चित्त)
- चिंतित, चिंता-ग्रसित।
- दुचितई, दुचिताई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुचित)
- दुबिधा, चित्त की अस्थिरता।
- उ.— साँची कहहु देख स्त्रवनन सुख छाँढ़हु छिआ कुटिल दुचिताई—।
- दुचितई, दुचिताई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुचित)
- खटका, आशंका, चिंता।
- दुचित्ता
- वि.
- (हिं. दो + चित्त)
- जो दुबिधा में हो, अस्थिर चित्त।
- दुचित्ता
- वि.
- (हिं. दो + चित्त)
- संदेह में पड़ा हुआ।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दड के आकार की कोई चीज।
- उ.—देखत कपि बाहु-दंड तन प्रस्वेद छूटै—९-९७।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- व्या-याम का एक प्रकार।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- भूमि पर गिरकर किया हुआ प्रणाम, दडवत्।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक तरह गा व्यूह।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अपराध की सजा।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अर्थदंड, जुरमाना , डाँड।
- मुहा - दंड पड़ना - घाटा या हानि होना। दंड भरना - (सहना) - १. जुरमाना देना। २. दूसरे का घाटा स्वयं पूरा करना। दंड भुगतना (भोगना) - १. सजा भुगतना। २. जान बूझकर कष्ट सहना।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दमन-शमन।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ध्वजा या झंडे का बाँस।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- तराजू की डंडी।
- दंड
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- मथानी।
- दुचित्ता
- वि.
- (हिं. दो + चित्त)
- चिंतित, जिसके मन में खटका हो।
- दुछण
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्वेषण=शत्रु)
- सिंह।
- दुज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विज)
- ब्राह्मण
- दुज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विज)
- चंद्र।
- दुजड़, दुजड़ी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (देश.)
- तलवार, कटार।
- दुजन्मा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विजन्मा)
- ब्राह्मण।
- दुजन्मा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विजन्मा)
- चंद्र।
- दुजपति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- चंद्रमा।
- दुजपति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- गरूण।
- दुजपति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ब्राह्मण।
- दुजपति
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कपूर।
- दुजराज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विजराज)
- श्रेष्ठ ब्राह्मण।
- दुजराज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विजराज)
- चंन्द्रमा।
- दुजराज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विजराज)
- पक्षिराज गरूड़।
- दुजराज
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विजराज)
- कपूर।
- दुजाति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्विजाति)
- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियाँ जो यज्ञोपवीत संस्कार के बाद नया जन्म धारण करती मानी गयी हैं।
- दुजाति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्विजाति)
- ब्राह्मण।
- दुजाति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्विजाति)
- पक्षी।
- दुजानू
- क्रि. वि.
- (फ़ा. दो +जानूँ
- दोनों घुटनों के बल।
- दुजीह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विजिह्ण)
- साँप।
- दुजेश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विजेश)
- ब्राह्मण।
- दुजेश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विजेश)
- चंद्र।
- दुटूक
- वि.
- (हिं. दो +टूक)
- दो टुकड़ों में तोड़ा हुआ।
- उ.— किया दुटूक चाप देखत ही रहे चकित सब ठाढ़े।
- मुहा.- दुटूक बात— साफ-साफ बात जिसमें घुमाव-फिराव, राजनीति या छल-कपट न हो।
- दुत
- अव्य.
- (अनु.)
- तिरस्कार के साथ हटाने के लिए बोला जानेवाला शब्द।
- दुत
- अव्य.
- (अनु.)
- घृणा-सूचक शब्द।
- दुत
- अव्य.
- अनु.)
- बच्चों के लिए स्नेंह-सूचक शब्द।
- दुतकार
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अनु.दुत + कार)
- धिक्कार, फटकार।
- दुतकारना
- क्रि. स.
- (हिं. दुतकार)
- ‘दुत’ कहकर किसी को तिरस्कार के साथ हटाना।
- दुतकारना
- क्रि. स.
- (हिं. दुतकार)
- धिक्कारना, फटकारना।
- दुतर्फा
- वि.
- (फ़ा. दो + हिं. तरफ)
- दोनों ओर का।
- दुतारा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + तार)
- दो तार का बाजा।
- दुति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्युति)
- चमक।
- दुति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्युति)
- शोभा।
- दुतिमान
- वि.
- (सं. द्यु तिमान)
- चमक या प्रकाश-वाला।
- दुतिय
- वि.
- (सं. द्वितीय)
- दुसरा।
- दुतिया
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्वितीय)
- प्रत्येक पक्ष की दूसरी तिथि, दूज, द्वितीया।
- उ.— (क) वै देखौ रघुपति हैं आवत। दूरहिं तैं दुतिया के ससि ज्यौं, ब्योम बिमान महा छबि छावत—९-१६७। (ख) दुतिया के ससि लौं बाढ़ै सिसु देखौ जननि जसोइ—१०-५६।
- दुतिवंत
- वि.
- (सं. द्यु ति +हिं. वंत)
- चमकीला, कांतिवान, आभायुक्त, प्रकाशवान्।
- दुतिवंत
- वि.
- (सं. द्यु ति +हिं. वंत)
- सुंदर, शोभावाला।
- दुती, दुतीय
- वि.
- (सं. द्वितीय)
- दूसरा।
- उ.—दुती लगन में है सिव-भूषन सो तन को सुखकारी— सा. ८१।
- दुतीया
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्वितीय)
- दूज, द्वितीय।
- दुतीरास, दुतीरासि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्वितीय +राशि)
- दूसरी राशि, वृष राशि।
- दुथन
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- पत्नी, विवाहिता स्त्री।
- दुदल
- वि.
- (सं. द्विदल)
- फूटने या टूटने पर जिसके दो बराबर खंड हो जायें।
- दुदल
- संज्ञा
- पुं.
- दाल।
- दुदल
- संज्ञा
- पुं.
- एक पौधा।
- दुदलाना
- क्रि. स.
- (अनु.)
- दुतकारना, फटकारना।
- दुदहँडी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दूध +हंडी)
- दूध की मटकी।
- दुदामी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दो + दाम)
- एक सूती कपड़ा।
- दुदिला
- वि.
- (हिं. दो + फ़ा. दिल)
- दुबिधा में पड़ा हुआ, दुचिता।
- दुदिला
- वि.
- (हिं. दो + फ़ा. दिल)
- चिंतित, घबराया हुआ।
- दुदुकारना
- क्रि. स.
- (अनु.)
- दुतकारना, फटकारना।
- दुद्धी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुबिधा)
- दुबिधा।
- दुद्धी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुबिधा)
- चिंता।
- दुधपिठवा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दूध + पीठा)
- एक पकवान।
- दुधमुख
- वि.
- (हिं. दूध + मुख)
- दूधपीता (बालक या शिशु)।
- दुधमुख
- वि.
- (हिं. दूध + मुख)
- अनजान-अबोध।
- दुधमुहाँ
- वि.
- (हिं. दूध + मुँह)
- दूधपीता (बालक या शिशु)।
- दुधमुहाँ
- वि.
- (हिं. दूध + मुँह)
- अबोध, अनजान।
- दुधहंडी, दुधाँडी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दूध + हाँडी)
- दूध रखने की मटकी।
- दुधार
- वि.
- [हिं. दूध + आर (प्रत्य.)]
- दूध देनेवाली।
- दुधार
- वि.
- [हिं. दूध + आर (प्रत्य.)]
- जिसमें दूध हो।
- दुधार, दुधारा
- वि.
- (हिं. दो + धार)
- (तलवार, छरी आदि) जिसमें दोनों ओर धार हो।
- दुधार, दुधारा
- संज्ञा
- पुं.
- चौड़ा, तेज खाँड़ा या तलवार।
- दुधारी
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दूध + आर)
- दूध देनेवाली।
- दुधारी
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दो + आर)
- दोनों ओर धारवाली।
- दुधारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- कटारी जिसम दोनों ओर धार हो।
- दुधारू
- वि.
- (हिं. दूध + आर)
- दूध देनेवाली।
- दुधिया
- वि.
- (हिं. दूध + इया)
- जिसमें दूध पड़ा हो।
- दुधिया
- वि.
- (हिं. दूध + इया)
- जो दूध से बना हो।
- दुधिया
- वि.
- (हिं. दूध + इया)
- दूध सा सफेद।
- दुनियाँई
- संज्ञा
- स्त्री.
- संसार, जगत, दुनियाँ।
- दुनियाँदार
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- संसारी, गृहस्थ।
- दुनियाँदार
- वि.
- व्यवहार-कुशल।
- दुनियाँदार
- वि.
- चालाकी से काम निकालनेवाला।
- दुनियाँदारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- दुनियाँ का कार-बार या व्यवहार।
- दुनियाँदारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- दुनियाँ में काम निकालने की रीति-नीति।
- दुनियाँदारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- दिखाऊ या बनावटी व्यवहार।
- मुहा.- दुनियादारी की बात— मन का भाव छिपा कर की जानेवाली ल्लले-चप्पो की बात।
- दुनियाँसाज
- वि.
- (फ़ा.)
- मतलबी।
- दुनियाँसाज
- वि.
- (फ़ा.)
- चापलूस।
- दुनियाँसाजी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- मतलब निकालने की रीति-नीति।
- दुधिया
- संज्ञा
- पुं.
- दूध से बनी एक मिठाई।
- दुधैली
- वि.
- (हिं. दूध +ऐल)
- बहुत दूध देनेवाली।
- दुनया
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + सं. नदी, प्रा. णई)
- वह स्थान जहाँ दो नदियों का संगम हो।
- दुनरना, दुनवना
- क्रि. अ.
- (हिं. दो + नवना)
- झुककर दोहरा हो जाना।
- दुनरना, दुनवना
- क्रि. स.
- लचाकर या झुकाकर दोहरा कर देना।
- दुनाली
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दो + नाल)
- दो नलोंवाली।
- दुनियाँ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ. दुनिया)
- संसार, इहलोक।
- मुहा.- दुनियाँ के परदे पर— सारे संसार में।
दुनियाँ की हा लगना— (१) सांसारिक अनुभव होना। (२) छल-कपट या चालाकी सीख जाना।
दुनियाँ भर का— (१) बहुत अथिक। (२) बहुतों का।
दुनियाँ से उठ जाना (चल बसना)— मर जाना।
- दुनियाँ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ. दुनिया)
- संसार के लोग, जनता।
- दुनियाँ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (अ. दुनिया)
- संसार का जाल या बंधन।
- दुनियाँई
- वि.
- [अ. दुनिया + हिं. ई (प्रप्य.)]
- सांसारिक।
- दुनियाँसाजी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- चापलूसी, चाटुकारी।
- दुनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुनियाँ)
- संसार, जगत।
- दुपटा, दुपट्टा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + पाट=दुपट्टा)
- चादर, चद्दर।
- मुहा.- दुपट्टा तान कर सोना— चिंतारहित होकर सोना।
दुपट्टा बदलना— सखी या सहेली बनाना।
- दुपटा, दुपट्टा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + पाट=दुपट्टा)
- कंधे या गले में डालने का लंबा कपड़ा।
- दुपटी, दुपट्टी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुपट्टा)
- चादर, चद्दर।
- दुपद
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + संपद)
- दो पैरवाला, मनुष्य।
- उ.—राजा, इक पंडित पौरि तुम्हारी। अपद-दुपद-पसु-भाषा बूझत, अबिगत अल्प अहारी—८-१४।
- दुपर्दी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दो + फ़ा. पर्दां)
- बगलबंदी या मिर्जई जिसमें दोनों ओर पर्दे हों।
- दुपहर
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दोपहर = दो+पहर)
- दोपहर, मध्याह्नकाल।
- उ.— दुपहर दिवस जानि घर सूनौ, ढूँढ़ि-ढँढ़ोरि आपही खायौ—१०-३३१।
- दुपहरिया, दुपहरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दोपहर)
- मध्याह्नकाल, दोपहर का समय।
- दुपहरिया, दुपहरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दोपहर)
- एक छोटा फूलदार पौधा।
- दंडक बन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दंडक वन)
- दंडकारण्य जहाँ श्रीरामचंद्र ने बसकर शूर्पणखा का नासिकोच्छेदन किया था। विंध्य पर्वत से गोदावरी नदी तक फैले हुए इस प्रदेश में पहले इक्ष्वाकु राजा के एक पुत्र का राज्य था। गुरु-कन्या का कौमार्य भंग करने के अपराध में शुक्राचार्य के शाप से राज्य सहित वह भस्म हो गया था। तभी से वह प्रदेश दंडकारण्य कहलाने लगा।
- उ.—तहँ ते चल दंडकबन को सुख निधि साँवल गात—सारा.२५४।
- दंडकारण्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दंडकवन।
- दंडकी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- ढोलक।
- दंडध्न
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- डंडे से मारने वाला।
- दंडघ्न
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिया हुआ दंड न मानने वाला।
- दंडढक्का
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नगाड़ा, धौंसा, दमामा।
- दंडत
- क्रि. स.
- (हिं. दंडना)
- दंड देते-देते, दंड देकर, शासित करके।
- उ.—मुसल मुदगर इनत, त्रिबिध करमनि गनत, मोहिं दंडत धरम-दूत हारे—१-१२०।
- दंडदाता
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दंडदाता)
- दंडविधायक, सर्व शासक।
- उ.—यह सुनि दूत चले खिसियाइ। कह्य। तिन धर्मराज सौं जाइ। अबलौं हम तुमहीं कौं जानत। तुमहीं कौं दंड-दाता मानत—६४.।
- दंडधर, दंडधार
- वि.
- (सं)
- जो डंडा बाँधे हो।
- दंडधर, दंडधार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं)
- यम।
- दुपी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विप)
- हाथी, गज।
- दुफसली
- वि.
- स्त्री.
- (हिं. दो + फ़सल)
- अनिश्चित।
- दुबकना
- वि.अ.
- (हिं. दबकना)
- छिपना, लुकना।
- दुबज्यौरा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दूध + जेवरा)
- गले का एक गहना।
- दुबधा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्विविधा)
- अनिश्चिय, चित्त की अस्थिरता।
- दुबधा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्विविधा)
- संशय, संदेह
- दुबधा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्विविधा)
- असमंजस, पसोपेश (खटका, चिंता)।
- दुबरा
- वि.
- (हिं. दुबला)
- दुबला-पतला।
- दुबराई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुबरा + ई)
- दुर्बलता, दुबलापन।
- दुबराई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुबरा + ई)
- कमजोरी, शक्तिहीनता।
- दुबराना
- क्रि. अ.
- (हिं. दुबलाना)
- दुबला होना।
- दुबला
- वि.
- (सं. दुर्बल)
- हल्के और पतले शरीर का।
- दुबला
- वि.
- (सं. दुर्बल)
- कमजोर,शक्तिहीन।
- दुबलापन
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुबला + पन)
- क्षीणता, कृशता।
- दुबाइन
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुबे)
- दुबे की स्त्री।
- दुबारा
- क्रि. वि.
- (हिं. दो + बार)
- दूसरी बार।
- दुबाला
- वि.
- (फ़ा.)
- दूना, दुगना।
- दुबाहिया
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विवाह)
- दोनों हाथ से तलवार चलानेवाला।
- दुबिद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विविद)
- राम की सेना का एक बंदर।
- दुबिध, दुबिधा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुबधा)
- अनिश्चय चित्त की अस्थिरता।
- दुबिध, दुबिधा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुबधा)
- संशय, संदेह।
- दुबिध, दुबिधा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुबधा)
- असमंजस, आगापीछा।
- उ.—(क) इक लोहा पूजा मैं राखत इक घर बधिक परौ। सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ—१-२२०। (ख) को जानै दुबिधा-सँकोच में तुम डर निकट न आवैं
- दुबिध, दुबिधा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुबधा)
- खटका, चिंता।
- दुबीचा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + बीच)
- दुबिधा, अनिश्चय।
- दुबीचा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + बीच)
- संशय, संदेह।
- दुबीचा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + बीच)
- असमंजस, आगा-पीछा।
- दुबीचा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + बीच)
- खटका, चिंता।
- दुभाखी, दुभाषिया, दुभाषी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विभाषित्, हिं. दुभाषिया)
- दो भिन्न भाषाएँ बोलनेवालों का मध्यस्थ वह व्यक्ति जो एक को दूसरे का तात्पर्य समझाने की योग्यता रखता हो।
- दुम
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- पशुओं की पूंछ, पुच्छ।
- मुहा.- दुम के पीछे फिरना- साथ लगे रहना।
दुम बचाकर भागना— डरकर भाग जाना।
दुम दबा जाना— (१) डर से भाग जाना। (२) डर से काम छोड़ बैठना।
दम में घुसना— दूर हो जाना, छट जाना।
दुम में घुसा रहना— खुशामद या लालच से साथ सगे रहना।
दुम हिलाना— प्रसन्नता दिखाना।
- दुम
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- पूँछ की तरह पीछे लगी, बँधी या टँकी चीज।
- दुमुहाँ
- वि.
- (हिं. दो + मुँह)
- दो मुँह वाला।
- दुरंग, दुरंगा
- वि.
- (हिं. दो + रंग)
- जिसमें दो रंग हों।
- दुरंग, दुरंगा
- वि.
- (हिं. दो + रंग)
- दो तरह का।
- दुरंग, दुरंगा
- वि.
- (हिं. दो + रंग)
- दोनों पक्षों से मेल—मुलाकात बनाये रखनेवाला।
- दुरंगी
- वि.
- (हिं. दुरंगा)
- दो रंगवाली।
- दुरंगी
- वि.
- (हिं. दुरंगा)
- दो तरह की।
- दुरंगी
- वि.
- (हिं. दुरंगा)
- दोनों पक्षों से मिली हुई।
- दुरंगी
- संज्ञा
- स्त्री.
- कुछ बातें पक्ष की, क्रुछ विपक्ष की अपनाने कि वृत्ति, दुबधा।
- दुरंत
- वि.
- (सं.)
- जिसका अंत या पार पाना कठिन हो।
- दुरंत
- वि.
- (सं.)
- जिसे करना या पाना कठिन हो, दुर्गम, दुस्तर।
- उ.—वह जु हुती प्रतिमा समीप की सुखसंपति दुरंत जई री—२७८९।
- दुम
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- पीछे-पीछे या साथ लगा रहनेवाला आदमी।
- दुम
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- काम का शेषांश।
- दुमची
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- तसमा जो दुम के नीचे दबा रहता है।
- दुमची
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- पुट्टठों के बीच की हड्डी।
- दुमदार
- वि.
- (फ़ा.)
- जिसके पूँछ हो।
- दुमदार
- वि.
- (फ़ा.)
- जिसके पीछे दुम—जैसी कोई चीज बँधी या टँकी हो।
- दुमन
- वि.
- (सं. दुर्मनस्, दुर्मना)
- अनमना, खिन्न।
- दुमात
- वि.
- (सं. दुर्मातृ)
- बुरी माँ।
- दुमात
- वि.
- (सं. दुर्मातृ)
- सौतेली माँ।
- दुमाला
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + माला)
- पाश, फंदा।
- दुरंत
- वि.
- (सं.)
- घोर, प्रचंड।
- दुरंत
- वि.
- (सं.)
- जिसका अंत या फल बूरा हो।
- दुरंत
- वि.
- (सं.)
- दुष्ट, नीच।
- दुरंतक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शिव, महादेव।
- दुरंधा
- वि.
- (सं. द्विरंध्र)
- जिसमें दो छेद हों।
- दुरंधा
- वि.
- (सं. द्विरंध्र)
- जो आरपार छिदा हुआ हो।
- दुर
- अव्य.
- (हिं. दूर)
- एक शब्द जिसका प्रयोग किसी को अपमान के साथ हटाने के लिए किया जाता है।
- मुहा.- दुर-दुर करना— तिरस्कार के साथ हटाना।
दुर-दुर फिट-फिट— तिरास्कार और फटकार।
- दुर
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- मोती।
- दुर
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- मोती का लटकन जो नाक में स्त्रियाँ पहनती हैं।
- दुर
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- छोटी बाली जो कान में पहनी जाती है।
- उ.—(क)कान्ह कुँ वर कौ कनछेदन है, हाथ सोहारी भेली गुर की।.......। कंचन के द्वै दुर मंगाइ लिए, कहौं कहा छेदनि आतुर की—१०-१८०। (ख) दुर दमंकत सुभग—स्रवननि १०-१८४।
- दुरत्यय
- वि.
- (सं.)
- जिसका पार पाना कठिन हो।
- दुरत्यय
- वि.
- (सं.)
- जिसको लाँघा न जा सके, दुस्तर।
- दुरद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विरद)
- हाथी, कुंजर।
- उ.—(क) दुरद मूल के आदि राधिका बैठी करत सिंगार—सा. ३५। (ख) दुरद कौ दंत उपटाइ तुम लेत हे वहै बल आजु काहैं न संभारौ—३०६६।
- दुरदाम
- वि.
- (सं. दुर्दम)
- कठिन, कष्ट साध्य।
- उ.—हरि राधा-राधा रटत जपत मंत्र दुरदाम। बिरह बिराग महाजोगी ज्यों बीतत हैं सब जाम।
- दुरदाल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विरद)
- हाथी, कुंजर।
- दुरदुराना
- क्रि. स.
- (हिं. दूर + दुर)
- बड़े अपमान या तिर स्कार के साथ हटाना या भगाना।
- दुरदृष्ट
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अभागा।
- दुरदृष्ट
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अभाग्य।
- दुरधिगम
- वि.
- (सं.)
- जिसकी प्राप्ति संभव न हो।
- दुरधिगम
- वि.
- (सं.)
- जो समझ में न आ सके, दुर्बोध।
- दुरइयै
- क्रि. अ.
- (हिं. दूर)
- छिपाइए, गुप्त रखिए, प्रकट न कीजिए।
- उ.—तुम तौ तीनि लोक के ठाकुर, तुम तैं कहा दुरइयै—१-२३९।
- दुरगम
- वि.
- (सं.)
- जहाँ जाना या पहुँचना कठिन हो।
- उ.— जीव जल-थलांजिते, बेष धर-धर तिते अटत दुरगम अगम अचल भारे—१-१२०।
- दुरजन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्जन)
- दुष्ट, खल, नीच।
- उ.—काकी ध्वंजा बैठि कपि किलकिहि, किहिं भय दुरजन डरिहैं—२-२९।
- दुरजोधन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्योधन)
- धृतराष्ट्र का बड़ा पुत्र दुर्योधन जिसे युधिष्टिर 'सुयोधन' कहा करते थे।
- दुरत
- क्रि. अ.
- (हिं. दूर, दुरना)
- छिपता है, छिपाने से।
- उ.—(क)सूरदास प्रभु दुरत दुराए डुँगरनि ओट सुमेर—४५८। (ख) दुख अस हाँसी सुनौ सखी री, कान्ह अचानक आए। सूर स्याम कौ मिलन सखी अब, कैसे दुरत दुराए—७९४।
- दुरति
- क्रि. अ.
- स्त्री.
- (हिं. दूर, दुरना)
- छिपाती है, दिखायी नहीं देती।
- दुरति
- क्रि. अ.
- स्त्री.
- (हिं. दूर, दुरना)
- ऒट में हो जाती है, आँख के आगे से हट जाती हे।
- उ.—दूध-दंत-दुति कहि न जाति कछु अद्भुत उपमा पाई। किलकल-हँसत दुरति प्रगटति मनु, घन मैं बिञ्जु, छटाई—१०-१०८।
- दुरतिक्रम
- वि.
- (सं.)
- जिसका उल्लंघन या अतिक्रमण न हो सके।
- दुरतिक्रम
- वि.
- (सं.)
- ऐसा प्रबल कि जिसके बाहर या विरुद्ध कोई न हो सके।
- दुरतिक्रम
- वि.
- (सं.)
- जिसका पार पाना बहुत कठिन हो।
- दुरध्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा मार्ग, कुपथ।
- दुरना
- क्रि. अ.
- (हिं. दूर)
- आड़ या ऒट में हो जाना।
- दुरना
- क्रि. अ.
- (हिं. दूर)
- छिपना, दिखायी न पड़ना।
- दुरप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दर्प)
- गर्व, अभिमान।
- उ.—सूर प्रत्यच्छ निहारत भूषन सब दुख दुरप झुलानौ—सा. १००।
- दुरपदी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्रौपदी)
- पांडवों की रानी द्रौपदी।
- दुरबल
- वि.
- (सं. दुर्बल)
- अशक्त, बलहीन।
- दुरबल
- वि.
- (सं. दुर्बल)
- कृश, दुबला-पतला।
- उ.—पट कुचैल, दुरबल द्विज देखत, ताके तंदुल खाए (हो)—१-७।
- दुरबास
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुवास)
- बुरी गंध, दुर्गंध।
- दुरबासा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुवासा)
- एक क्रोधी मुनि।
- दुरबुद्धि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दुः + बुद्धि)
- दुष्ट मति, मुर्खता।
- उ.—अब मोहिं कृपा कीजिए सोइ। फिरि ऐसी दुर-बुद्धि न होई—४-५।
- दुरस्था
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरी या हीन दशा।
- दुरवाय
- वि.
- (सं.)
- जो आसानी से न मिल सके।
- दुरस
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + औरस)
- सगा भाई।
- दुराइ
- क्रि. स.
- (हिं. दुराना)
- छिपाकर।
- उ.— लै राखे ब्रज सखा नंदगृह बालक भेष दुराइ—२५८०।
- दुराइयाँ
- क्रि. वि.
- (हिं. दुराना)
- छिपान से, प्रकट न करने से, गुप्त रखन से।
- उ.— (तुम) केरि बालक जुवा खेल्यो, केरि दुरद दुराइयाँ — ५७७।
- दुराई
- क्रि. स.
- स्त्री.पुं.
- (हिं. दुराना)
- दूर किया, हटाया, अदृश्य कर लिया।
- उ.— रूद्र को बीर्य खसि कै परयौ धरनि पर, मोहिनी रूप हरि लियो दुराई—८-१०।
- दुराई
- क्रि. स.
- स्त्री.पुं.
- (हिं. दुराना)
- छिपाया।
- दुराई
- प्र.
- नाहिंन परति दुराई—छिपायी नहीं जाती।
- उ.— जान देहु गोपाल बुलाई। उर की प्रीति प्रान कैं लालच नाहिंन परति दुराई —८०१। (ख) लै भैया केवट, उतराई। महाराज रघुपति इत ठाढ़ेत कत नाव दुराई—९-४०।
- दुराईए
- क्रि. स.
- (हिं. दुराना)
- छिपाइए, गुप्त रखिए।
- उ.— तुम तौ तीन लोक के ठाकुर तुम तैं कहा दुराइए।
- दुराउ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुराव)
- छिपाव, भेद-भाव।
- उ.— गोपी इहै करत चबाउ। देखौ धौं चतुराई वाकी हम सौं कियो दुराउ—११८३।
- दंडधर, दंडधार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं)
- शासक
- दंडधर, दंडधार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं)
- साधु।
- दंडन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दंड देने की क्रिया, शासन।
- दंडना
- क्रि. स.
- (सं. दंडन)
- सजा देना, शासित करना।
- दंडनायक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- सेनापति।
- दंडनायक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दंड-विधायक
- दंडनायक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शासक
- दंडनायक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- यमराज।
- दंडनीति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बल-प्रयोग की शासन-विधि।
- दंडनीय
- वि.
- (सं)
- दंड पाने योग्य (व्यक्ति-कार्य)।
- दुरभाव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुभाव)
- बुरा भाव या विचार।
- दुरभिग्रह़
- वि.
- (सं.)
- जो मुश्किल से पकड़ा जा सके।
- दुरभिसंधि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरे अभिप्राय से किया गया षङयंत्र या रचा गया कुचक्र।
- दुरभेव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्भाव)
- बुरा भाव।
- दुरभेव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्भाव)
- मन-मोटाव, मनोमालिन्य।
- दुरमति
- वि.
- (सं. दुर्मति)
- दुर्बुद्धि, कम अक्ल।
- उ.—परम गंग कौ छाँड़ि पियासौ दुरमति कूप खनावै—१-१६८।
- दुरमति
- वि.
- (सं. दुर्मति)
- खल, दुष्ट।
- उ.— भीषम, करन, द्रोन देखत, दुस्सासन बाहँ गही। पूरे चीर, अंत नहिं पायौ, दुरमति हारि लही—१-१५८।
- दुरमुट, दुरमुस
- संज्ञा
- पुं.
- [सं. दुर (उप.) + मुस = कूटना]
- गच या फर्श कूटन का लोहे या पत्थर-जड़ा डंडा।
- दुरलभ
- वि.
- (सं. दुर्लभ)
- जो कठिनता से प्राप्त हो, दुर्लभ।
- उ.—अब सूरज दिन दरसन दुरलभ कलित कमल कर कंठ गहौ (हो) —९-३३।
- दुरवस्थ
- वि.
- (सं.)
- जो अच्छी दशा में न हो।
- दुराए
- क्रि. अ.
- (हिं. दूर, दुराना)
- छिपाने से, अलक्षित रखने से, छिपाकर, आड़ में धरके।
- उ.— (क) सूरदास प्रभु दुरत दुराए कहुँ डुँगरनि ओट सुमेरू—४५८।
- दुराए
- क्रि. अ.
- (हिं. दूर, दुराना)
- गुप्त रखने या प्रकट न करने से।
- उ.— सूर स्याम कौ मिलन सखी अब, कैसे दुरत दुराए —६७५।
- दुराए
- प्र.
- छिपाये रखता है, आड़ में किये रहता है।
- उ.—मानौ मनिधर मनि ज्यौं छाँड़यौ फन तर रहत दुराए—६७५।
- दुरागमन, दुरागौन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विरागमन)
- वधू का दूसरी बार (गौना करके) ससुराल जाना।
- मुहा.- दुरागौन देना— गौना करना।
दुरागौन लाना— गोना लाना।
- दुराग्रह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अनुचित हठ या जिद।
- दुराग्रह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- गलत बात पर भी अड़े रहने का भाव।
- दुराग्रही
- वि.
- (सं.)
- अनुचित हठ या जिद रखनेवाला।
- दुराग्रही
- वि.
- (सं.)
- गलत बात पर भी अड़नेवाला।
- दुराचरण
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा चालचलन।
- दुराचार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा चालचलन।
- दुरादुरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुरना=छिपना)
- दुराव-छिपाव।
- मुहा.- दुरादुरी करके— छिपे-छिपे, गुपचुप।
- दुराधन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- धुतराष्ट्र के एक पुत्र।
- दुराधर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।
- दुराधर्ष
- वि.
- (सं.)
- जिसको वश में करना कठिन हो।
- दुराधर्षता
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- प्रबलता, प्रचण्डता।
- दुराधार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शिव जी, महादेव।
- दुराना
- क्रि. अ.
- (हिं. दूर)
- दूर होना, हटना, भागना।
- दुराना
- क्रि. अ.
- (हिं. दूर)
- छिपना, आड़ में होना।
- दुराना
- क्रि. स.
- दूर करना, हटाना, भगाना
- दुराना
- क्रि. स.
- छोड़ना, त्यागना।
- दुराचारी
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुराचार)
- बुरे चालचलन का।
- दुराज
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दूर् + राज्य)
- बुरा शासन।
- दुराज
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + राज्य)
- एक ही राज्य में दो का शासन जिससे प्रजा दुखी रहे।
- दुराज
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + राज्य)
- वह राज्य जहाँ दो शासक हों।
- दुराजी
- वि.
- (सं. द्विराज्य)
- दो शासकों से शासित।
- दुराजी
- संज्ञा
- पुं.
- दुराज, बुरा शासन।
- दुराजैं
- वि.
- पुं. सवि.
- [सं. दुर् + राज्य + ऐं (प्रत्य.)]
- बुरे राज्य को, बुरे शासन को।
- उ.— मारि कंस-केसी मथुरा मैं मेटूयौ सबै दुराजैं—१-३६।
- दुराजैं
- वि.
- पुं. सवि.
- [सं. दुर् + राज्य + ऐं (प्रत्य.)]
- दो राजाओं के शासन में।
- उ.— (क) कठुला कंठ। चिबुक तरैं मुख-दसन बिराजैं— खंजन बिच सुक आनि कै मनु परयौ दुराजैं १०-१३४। (ख) जोग-बिरह के बीच परम दुख परियत हैं यह दुसह दुराजैं—३२७३।
- दुरात
- क्रि. अ.
- (हिं. दुराना)
- दूर होते हैं, भागते हैं।
- उ.— जदपि सूर प्रताप स्याम को दानव दूरि दुरात—३३५१।
- दुरात्मा
- वि.
- (सं. दुरात्मन्)
- दुष्ट व्यक्ति।
- दुराना
- क्रि. स.
- छिपाना, गुप्त रखना।
- दुरानौ
- क्रि. अ.
- (हिं. दुरना)
- दूर हो गया।
- उ.—सूर प्रतच्छ निहारत भूषन ,सब दुख-दुरप दुरानौ—सा. १००।
- दुराय
- वि.
- (सं.)
- जिसे पाना कठित हो, दुष्प्राप्य।
- दुरायो, दुरायौ
- क्रि. स.
- (हिं. दूर)
- गुप्त रखा, प्रकट न किया।
- उ.—कासौं कहौं सखी कोउ नाहिंन, चाहति गर्भ दुरायौ—१०-४। (ख) मुख दधि पोंछि, बुद्धि इक कीन्ही, दोना पीठि दुरायौ—१०-३३४।
- दुरायो, दुरायौ
- क्रि. अ.
- आड़ म कर दिया, सामने न रहने दिया, अलक्षित किया।
- उ.—(क) मनौ कुबिजा के कूबर माँह दुरायौ—३४४२। (ख) सूरदास ब्रजबासिन को हित हरि हिय माँझ दुरायौ—३४६४। (ग) इतने माँझ पुत्र लै भाज्यौ निधि मैं जाय दुरायौ—सारा. ६९२।
- दुराराध्य
- वि.
- (सं.)
- जिसकी आराधना कठिन हो।
- दुराराध्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- विष्णु।
- दुरारोह
- वि.
- (सं.)
- जिस पर चढ़ना कठिन हो।
- दुरारोह
- संज्ञा
- पुं.
- ताड़ का पेड़
- दुरालंभ, दुरालभ
- वि.
- (सं. दुरालभ)
- जिसका मिलना या प्राप्त होना कठिन हो, दुष्प्राप्य।
- दुराश
- वि.
- (सं.)
- जिसे अधिक आशा न हो।
- दुराशय
- वि.
- (सं.)
- जिसका उद्देश्य अच्छा न हो।
- दुराशय
- संज्ञा
- पुं.
- बुरा आशय।
- दुराशय
- संज्ञा
- पुं.
- बुरे आशयवाला।
- दुराशा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- ऐसी आशा जो पूरी न हो सके, व्यर्थ की आशा।
- दुरास
- वि.
- (सं. दुराश)
- जिसे अधिक आशा न हो।
- दुरासद
- वि.
- (सं.)
- दुष्प्राप्य।
- दुरासद
- वि.
- (सं.)
- दुसाध्य।
- दुरासा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दुराशा)
- ऐसी आशा जो पूरी न हो, व्यर्थ की आशा।
- उ.—ऐसैं करत अनेक जनम गए, मन संतोष न पायौ। दिन-दिन अधिक दुरासा लाग्यो, सकल लोक भ्रमि आयौ—१-१५४।
- दुरि
- क्रि. अ.
- (हिं. दुरना)
- छिपकर, ओट में होकर, आड़ में जाकर।
- उ.— (क) अधम-समूह उधारन-कारन तुम जिय जक पकरी। मैं जु रह्यौं राजीव-नैन, दुरि, पाप-पहार-दरी—१-१३०। (ख) सात देखत बधे एक ब्रज दुरि बच्यौ इत पर बाँधि हम पंगु कीन्हो—२६२४।
- दुरालाप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा या कटु वचन।
- दुरालाप
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- गाली, अपशब्द।
- दुरालापी
- वि.
- (हिं. दुरालाप)
- कटु या बुरी बात कहनेवाला।
- दुरालापी
- वि.
- (हिं. दुरालाप)
- गाली बकनेवाला
- दुराव
- संज्ञा
- पुं.
- [हिं. दुराना + आव (प्रत्य.)]
- छिपाव, भेद-भाव।
- उ.—(क) औरनि सौं दुराव जो करती तौ हम कहती भली सयानी—१२६२। (ख) मेरी प्रकृति भलै करि जानति मैं तो सौं करिहौं दुराव ही—१२३७। (ग)कछू दुराव नहीं हम राख्यौ निकट तुम्हारे आई—११९२।
- दुराव
- संज्ञा
- पुं.
- [हिं. दुराना + आव (प्रत्य.)]
- छल-कपट।
- दुरावत
- क्रि. अ.
- (हिं. दूर, दुराना)
- छिपाते है, आड़ में करते है, गुप्त रखते हो, प्रकट नहीं करते।
- उ.—(क) अखिल ब्रहमंङ खंड की महिमा, सिसुता माहिं दुरावत—१०-१०२। (ख) स्याम कहा चाहत से डोलत ? पूँछे तैं तुम बदन दुरावत, सूधे बोल न बोलत—१०-२७९। (ग) ब्रजहिं कृष्ण-अवतार है, मैं जानी प्रभु आज। बहुत किए फ़न-धात मैं, बदन दुरावत लाज—५८९। (घ) सगुन सुमेर प्रगट देखियत तुम तृन की ऒट दुरावत—३१३५।
- दुरावति
- क्रि. अ.
- स्त्री.
- (हिं. दुराना)
- छिपाती है, ऒट में करती है।
- उ.—सूरदास-प्रभुंहोहु पराकृत, अस कहि भुज के चिन्ह दुरावति—१०-७। (ख) कबहुँ हरि कौं चितै चूमति, कबहुँ गावति गारि। कबहुँ लैं पाछे दुरावति, ह्याँ नहीं बनवारि१०-११८।
- दुरावहु
- क्रि. स.
- (हिं. दुराना)
- दूर करो, हटाओ, अदृश्य करो।
- उ.—महाराज, यह रूप दुरावहु। रूप चतुर्भुज मोहिं दिखावहु—८-२।
- दुरावैगी
- क्रि. स.
- (हिं. दुराना)
- छिपाएगी, गुप्त रखेगी।
- उ.—अब तू कहा दुरावैगी—२०७७।
- दुरि
- प्र.
- रहे दुरि - छिपे हैं।
- उ.— सारँगरिपु की ओट रहे दुरि सुंदर सारँग चारि— सा. उ. १७
- दुरित
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पाप, पातक।
- दुरित
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कष्ट दुख।
- उ.— मात-पिता दुरित क्यों हरते—११०२।
- दुरित
- वि.
- पाप करनेवाला पापी, पातकी।
- दुरित
- वि.
- (हिं. दुरना)
- छिपा हुआ, अप्रकट।
- उ.— देवलोक देखत सब कौतुक, बाल-केलि अनुरागे। गावत सुनत सुजस सुखकरि मन, सूर दुरित दुख भागे—४१६।
- दुरितदमनी
- वि.
- स्त्री.
- (सं.)
- पाप का नाश करनेवाली।
- दुरियाना
- क्रि. स.
- (सं. दूर)
- दूर करना, हटाना।
- दुरियाना
- क्रि. स.
- (सं. दुर)
- दुरदुराना, अपमान से हटाना।
- दुरिष्ट
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पाप
- दुरिष्ट
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक यज्ञ।
- दुरुस्त
- वि.
- (फ़ा.)
- जिसमें ऐब या दोष न हो।
- मुहा.- दुरूस्त करना— (१) सुधारणा। (२) दंड देना।
- दुरुस्त
- वि.
- (फ़ा.)
- उचित, मुनासिब।
- दुरुस्त
- वि.
- (फ़ा.)
- ययार्थ।
- दुरुस्ती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- सुधार, संशोधन।
- दुरुस्ती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- दंड, सजा, मरम्मत।
- दुरुह
- वि.
- (सं.)
- जिसका समझना कठिन हो, गूढ़।
- दुरे
- क्रि. अ.
- (हिं. दुरना)
- छिप गये, ओट में हो गये, आड़ में हो गये।
- उ.—(क) प्रगटति हँसत दँतुलि, मनु सीपज दमकि दुरे दल ओलै री—१०-१३७। (ख) गोपाल दुरे हैं माखन खात—१०-२८३। (ग) अब कहा दुरे साँवरे ढोटा फगुआ देहु हमार —१४०४।
- दुरेफ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.द्विरेफ)
- भ्रमर, भौंरा।
- उ.— मुरली मुख-छबि पत्र-साखा दृग दुरेफ चढ़यौ-३३-७।
- दुरैहौ
- क्रि. स.
- (हिं. दुराना)
- छिपाऊँगी।
- उ.— मोसौ कही, कौन तो सी प्रिय, तोसों बात दुरैहौं—१२६०।
- दुरैहौ
- क्रि. स.
- (हिं. दूर)
- दूर करोगे, हटाओगे, बचाओगे।
- उ.— भक्ति बिनु बैल बिरानै ह्यौहौ।¨¨¨¨ लादत, जोतत लकुट बाजिहै, तब कहँ मूँढ़ दुरैहौ—१-३३१।
- दुरिहै
- क्रि. अ.
- (हिं. दुरना)
- छिपेगी, प्रकट न होगी, दिखायी न देगी।
- उ.— तातैं यहै सोच जिय मोरैं, क्यौं दुरिहै ससि-बचन-उज्यारी—१०-११।
- दुरी
- क्रि. अ.
- (हिं. दुरना)
- आड़ में हो गयी, छिप गयी।
- उ.—ज्ञान-बिवेक बिरोधे दोऊ, हते बंधु हितकारी। बाँध्यौ बैर दया भगिनी सौं, भागि दुरी सु बिचारी —१-१७३।
- दुरीषणा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- अहित या अकल्याण की कामना।
- दुरीषणा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- शाप।
- दुरुखा
- वि.
- (हिं. दो + फ़ा. रुख़)
- जिसके दोनों ओर मुँह हो।
- दुरुखा
- वि.
- (हिं. दो + फ़ा. रुख़)
- जिसकें दोनों ओर अलग-अलग रंग या उनकी छाया हो।
- दुरुत्तर
- वि.
- (सं.)
- जिसका पार पाना कठिन हो।
- दुरुत्तर
- संज्ञा
- पुं.
- अनुचित या कटु उत्तर।
- दुरुपयोग
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अनुचित उपयोग।
- दुरुस्त
- वि.
- (फ़ा.)
- जो टूटा-फूटा या खराब न हो, ठीक।
- दंडपाणि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- यमराज।
- दंडपाणि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शिव जी के वर से काशी में स्थापित भैरव की एक मूर्ति।
- दंडपाल, दंडपालक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- द्वारपाल।
- दंडपाशक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- घातक, जल्लाद।
- दंडप्रणाम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- भूमि पर गिरकर सादर प्रणाम करने की मुद्रा।
- दंडमान्
- वि.
- (हिं. दंड + मान्य)
- दंडनीय।
- दडमुद्रा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- साधुओं के दो चिन्ह—दंड और मुद्रा।
- दडमुद्रा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- तंत्र की एक मुद्रा।
- दंडयाम
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- चढ़ाई।,
- दंडयाम
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- वरयात्रा।
- दुरोदर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जुआ।
- दुरोदर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जुआरी।
- दुरौंधा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्वार्रार्द्ध)
- द्वार की ऊपरी लकड़ी।
- दुर
- अव्य.
- या उप
- (सं.)
- दूषण या दोष (बुरा अर्थ)।
- दुर
- अव्य.
- या उप
- (सं.)
- निषेध, मना करना
- दुर
- अव्य.
- या उप
- (सं.)
- दुख।
- दुर्कुल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुष्कुल)
- अप्रतिष्ठित कुल।
- दुर्गन्ध
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरी गंध, कुबास, बदवू।
- दुर्गंधता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दुर्गंध का भाव।
- दुर्ग
- वि.
- (सं.)
- जहाँ जाना कठिन हो, दुर्गंम।
- दुर्ग
- संज्ञा
- पुं.
- गढ़, कोट, किला।
- दुर्ग
- संज्ञा
- पुं.
- एक असुर जिसको मारने से देवी का नाम दुर्गा पड़ गया।
- दुर्ग
- संज्ञा
- पुं.
- एक प्राचीन अस्त्र।
- उ.— (क) तब चानूर गर्व मन लीन्हौ। दुर्ग प्रहार कुष्न पर कीन्हौ —३०७०।
- दुर्गकारक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- किला बनानेवाला।
- दुर्गत
- वि.
- (सं.)
- जिसकी दशा बुरी या गिरी हो, दुर्दशाग्रस्त।
- दुर्गत
- वि.
- (सं.)
- दरिद्र।
- दुर्गति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दुः + गति)
- दुर्दशा, बुरी गति, विपत्ति।
- उ.— ध्रुवहिं अमै पद दियौ मुरारी। अंबरीष की दुर्गति टारी—१-२८।
- दुर्गति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दुः + गति)
- परलोक में होने वाली दुर्दशा, नरक-भोग।
- दुर्गपाल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- किले का रक्षक।
- दुर्गम
- वि.
- (सं.)
- जहाँ जाना-पहुँचना कठिन हो।
- दुर्गम
- वि.
- (सं.)
- जिसे समझना कठिन हो।
- दुर्गम
- वि.
- (सं.)
- जिसका करना कठिन हो, दुस्तर।
- दुर्गम
- संज्ञा
- पुं.
- गढ़, किला।
- दुर्गम
- संज्ञा
- पुं.
- वन।
- दुर्गम
- संज्ञा
- पुं.
- संकट का स्थान।
- दुर्गम
- संज्ञा
- पुं.
- एक असुर।
- दुर्गम
- संज्ञा
- पुं.
- विष्णु।
- दुर्गमत
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दुर्गम होने का भाव।
- दुर्गमनीय, दुर्गम्य
- वि.
- (सं.)
- जहाँ जाना कठिन हो।
- दुर्गमनीय, दुर्गम्य
- वि.
- (सं.)
- जिसे समझना कठिन हो।
- दुर्गमनीय, दुर्गम्य
- वि.
- (सं.)
- जिसे पार करना कठिन हो।
- दुर्गरक्षक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दुर्गपाल, किलेदार।
- दुर्गलंचन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ऊँट।
- दुर्गसंचर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दुर्गम स्थान तक पहुँचने के साधन।
- दुर्गा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- आदि शक्ति, देवी जिन्होंने महिषासुर, शुंभ, निशुंभ आदि को मारा था।
- दुर्गा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अपराजिता।
- दुर्गा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नौ वर्ष की कन्या।
- दुर्गाधिकारी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- किले का स्वामी।
- दुर्गाध्यक्ष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- किले का स्वामी।
- दुर्गानवमी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कार्तिक, चैत्र और आश्विन के शुक्ल पक्ष की नवमी।
- दुर्घात
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा या भयानक घात या प्रहार।
- दुर्घात
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा छल-कपट।
- दुर्घोष
- वि.
- (सं.)
- जो कटु या कर्कश ध्वनि करे।
- दुर्जन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दुष्ट जन, खोटा आदमी।
- उ.—(क) दुर्जन-बचन सुनत दुख जैसौ। बान लगैं दुख होइ न तैसौ—४-५। (ख) अति घायल धीरज दुवाहिआ तेज दुर्जन दालि—२८२६।
- दुर्जनता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दुष्टता, खोटापन।
- दुर्जय
- वि.
- (सं.)
- जो जल्दी जीता न जा सके।
- दुर्जय
- संज्ञा
- पुं.
- एक राक्षस।
- दुर्जय
- संज्ञा
- पुं.
- विष्णु
- दुर्जर
- वि.
- (सं.)
- जो कठिनता से पच सके।
- दुर्जति
- वि.
- (सं.)
- जो बुरी रीति से जन्मा हो।
- दुर्गाष्टमी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- चैत्र और आश्विन के शुक्ल पक्ष की अष्टमी।
- दुर्गाह्य
- वि.
- (सं.)
- जिसका समझना कठिन हो।
- दुर्गुण
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दोष, ऐब, बुराई।
- दुर्गेश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दुर्ग का स्वामी या रक्षक।
- दुर्गोत्सव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दुर्गा पूजा का उत्सव।
- दुर्ग्रह
- वि.
- (सं.)
- जो जल्दी पकड़ा न जा सके।
- दुर्ग्रह
- वि.
- (सं.)
- जो कठिनता से समझा जा सके।
- दुर्घट
- वि.
- (सं.)
- जिसका होना कठिन हो।
- दुर्घटना
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- अशुभ या हानि-कारिणी घटना, बुरा संयोग।
- दुर्घटना
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- विपत्ति।
- दुर्जति
- वि.
- (सं.)
- जिसका जन्म व्यर्थ ही हो |
- दुर्जति
- वि.
- (सं.)
- नीच।
- दुर्जति
- संज्ञा
- व्यसन, दुर्व्यसन।
- दुर्जति
- संज्ञा
- संकट।
- दुर्जाति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरी या नीच जाति।
- दुर्जाति
- वि.
- बुरे कुल का।
- दुर्जाति
- वि.
- बिगड़ी जीति का।
- दुर्जीव
- वि.
- (सं.)
- बुरी रीति से जीविका पानेवाला।
- दुर्जेय
- वि.
- (सं.)
- जो सरलता से जीता न जा सके।
- दुर्जोधन, दुर्जोधना
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुयोधन)
- धृतराष्ट्र का पुत्र जो चचेरे भाई पांडवों से वैर रखता या।
- दुर्ज्ञेय
- वि.
- (सं.)
- जो कठिनता से समझ में आ सके।
- दुर्दम
- वि.
- (सं.)
- जो सरलता से दबाया या जीता न जा सके।
- दुर्दम
- वि.
- (सं.)
- प्रबल, प्रचंड।
- दुर्दम
- संज्ञा
- पुं.
- रोहिणी और वसुदेव का एक पुत्र।
- दुर्दमन
- वि.
- (सं.)
- जिसको दबाना कठिन हो, प्रचंड।
- दुर्दमनीय
- वि.
- (सं.)
- जिसको दबाना कठिन हो प्रबल।
- दुर्दम्य
- वि.
- (सं. दुर्दम)
- जिसको दबाना कठिन हो।
- दुर्दश, दुर्दशन
- वि.
- (सं.)
- जो जल्दी दिखायी न पड़े।
- दुर्दश, दुर्दशन
- वि.
- (सं.)
- जो देखने में बड़ा भयंकर हो।
- दुर्दशा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरी दशा, दुर्गति।
- दुर्दात
- वि.
- (सं.)
- जिसको दबाना कठिन हो, प्रबल।
- दुर्दिन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा दिन।
- दुर्दिन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- वह दिन जब घटा घिरी हो।
- दुर्दिन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कष्ट के दिन।
- दुर्दैव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दुर्भाग्य।
- दुर्दैव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिनोंका फेर।
- दुर्द्धर
- वि.
- (सं.)
- जिसको पकड़ना कठिन हो।
- दुर्द्धर
- वि.
- (सं.)
- प्रबल, प्रचंड।
- दुर्द्धर
- वि.
- (सं.)
- जिसको समझना कठिन हो।
- दुर्द्धर
- संज्ञा
- पुं.
- एक नरक।
- दुर्द्धर
- संज्ञा
- पुं.
- महिषासुर का सेनापति।
- दुर्द्धर
- संज्ञा
- पुं.
- धृतराष्ट्र का एक पुत्र।
- दुर्द्धर
- संज्ञा
- पुं.
- रावण का एक सैनिक जो हनुमान द्वारा मारा गया था।
- दुर्द्धर
- संज्ञा
- पुं.
- विष्णु।
- दुर्द्धर्ष
- वि.
- (सं.)
- जिसका दमन करना कठिन हो, प्रचंड।
- दुर्द्धर्ष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- धृतराष्टृ का एक पुत्र।
- दुर्द्धर्ष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक राक्षस का नाम।
- दुर्द्धी
- वि.
- (सं.)
- मंद बुद्धिवाला।
- दुर्नय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरी चाल |
- दुर्नय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अन्याय |
- दंडयामा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- यम।
- दंडयामा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दिन।
- दंडवत, दंडवत्
- संज्ञा
- पुं. स्त्री.
- (सं. दंडवत्))
- पृथ्वी पर लेटकर किया हुआ साष्टांग प्रणाम।
- उ.—छेम-कुसल अरु दीनता. दंडवत सुनाई। कर जोरो बिनती करी, दुरबल-सुखदाई—१-२३८।
- दंडवासी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दंडवासिन्)
- द्वारपाल, दरबान।
- दंडाकरन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दंडकारणय)
- दंडकवन।
- दंडायमान
- वि.
- (सं.)
- डंडे की तरह सीधा खड़ा।
- दंडालय
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- स्थान जहाँ दंड दिया जाय।
- दंडाहत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- छाछ-मट्ठा।
- दंडित
- वि.
- (सं.)
- जिसे दंड मिला हो।
- दंडी
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दंडिन्)
- डंडा बाँधने वाला।
- दुर्नाद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा या अप्रिय शब्द।
- दुर्नाद
- वि.
- कर्कश या अप्रिय ध्वनि करनेवाला।
- दुर्नाद
- संज्ञा
- पुं.
- राक्षस।
- दुर्द्धरूढ़
- वि.
- (सं.)
- गुरू की बात शीघ्र न माने।
- दुर्धर
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्द्धर)
- रावण का एक सैनिक जो अशोक वाटिका उजाड़ते हुए हनुमान को पकड़ने आया था; परंतु राम दूत द्वारा स्वयं मारा गया था।
- उ.— दुर्धर परहस्त संग आइ सैन भारी। पवन-दूत दखव दल ताड़े दिसि चारी—९-९-६।
- दुर्नाम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्नामन्)
- बुरा नाम बद-नामी।
- दुर्नाम
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्नामन्)
- बुरा वचन, गाली।
- दुर्निमित्त
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा सगुन।
- दुर्निरीक्ष, दुर्निरीक्ष्य
- वि.
- (सं.)
- जो देखा न जा सके।
- दुर्निरीक्ष, दुर्निरीक्ष्य
- वि.
- (सं.)
- देखने में भयंकर।
- दुर्निरीक्ष, दुर्निरीक्ष्य
- वि.
- (सं.)
- कुरूप।
- दुर्निवार, दुरनिवार्य
- वि.
- (सं. दुर्मिवार्य्य)
- जो जल्दी रोका न जा सके।
- दुर्निवार, दुरनिवार्य
- वि.
- (सं. दुर्मिवार्य्य)
- जिसे जल्दी दूर न किया जा सके।
- दुर्निवार, दुरनिवार्य
- वि.
- (सं. दुर्मिवार्य्य)
- जो जल्दी टल न सके।
- दुर्नीति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कुचाल, अन्याय।
- दुर्बचन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्वचन)
- दुर्वाक्य, कटु वचन।
- उ.— सुत-कलत्र दुर्बचन जो भाखैं। तिंन्हैं मोहवस मन नाहिं राखै -५-४।
- दुर्बचन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्वचन)
- गाली।
- दुर्बल
- वि.
- (सं.)
- कमजोर, दुबला-पतला।
- दुर्बलता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कमजोरी, दुबलापन।
- दुर्बासा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुर्वांसा)
- एक क्रोधी मुनि जो अत्रि के पुत्र थे। इनकी पत्नी कंदली थी।
- दुर्बासैं
- संज्ञा
- पुं. सवि.
- (सं.दुर्वांसा)
- दुर्वासा को, दुर्वासा पर।
- उ.— उलटी गाढ़ परी दुर्बासे, दहत सुदरसन जाकौं—१-११३।
- दुर्बुद्धी
- वि.
- (सं. दुर्बुद्धि)
- मूर्ख, मंदबुद्धि।
- उ.— निर्घिन, नीच, कुलज, दुर्बुद्धी, भौदू, नित कौ रौऊ —१-१८६।
- दुर्बोध
- वि.
- (सं.)
- जो जल्दी समझ में न आये, गूढ़।
- दुर्भक्ष
- वि.
- (सं.)
- जिसे खाना कठिन हो।
- दुर्भक्ष
- वि.
- (सं.)
- खाने में बुरा।
- दुर्भक्ष
- संज्ञा
- पुं.
- अकाल, दुर्भिक्ष।
- दुर्भग
- वि.
- (सं.)
- अभागा, भाग्यहीन।
- दुर्भगा
- वि.
- स्त्री.
- (सं.)
- अभागिनी, भाग्यहीना।
- दुर्भगा
- संज्ञा
- स्त्री.
- पति-प्रेम से वंचिता पत्नी।
- दुर्भर
- वि.
- (सं.)
- भारी, वजनी।
- दुर्भाग , दुर्भाग्य
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्भाग्य)
- बुरा भाग्य, अभाग्य।
- दुर्भागी
- वि.
- (सं. दुर्भाग्य)
- मंद भाग्यवाला, अभागा।
- दुर्भाव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा भाव।
- दुर्भाव
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- द्वेष।
- दुर्भावना
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरी भावना।
- दुर्भावना
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- खटका, चिंता, अंदेशा।
- दुर्भाव्य
- वि.
- (सं.)
- जो जल्दी ध्यान में न आ सके।
- दुर्भिक्ष, दुर्भिच्छ
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्भिक्ष)
- अकाल का समय, अन्न के अभाव का काल।
- दुर्भेद, दुर्भद्य
- वि.
- (सं. दुर्भेद)
- जिसका भेदना या छेदना कठिन हो।
- दुर्भेद, दुर्भद्य
- वि.
- (सं. दुर्भेद)
- जिसे जल्दी पार न किया जा सके।
- दुर्मति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- नासमझी।
- दुर्मति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कुबुद्धि।
- दुर्मति
- वि.
- जिसकी समझ ठीक न हो।
- दुर्मति
- वि.
- खल, दुष्ट नीच।
- दुर्मद
- वि.
- (सं.)
- नशे में चूर।
- दुर्मद
- वि.
- (सं.)
- गर्व में चूर।
- दुर्मना
- वि.
- (सं. दुर्मनस्)
- बुरे चित्त या विचार का, दुष्ट।
- दुर्मना
- वि.
- (सं. दुर्मनस्)
- उदास, खिन्न, अनमना।
- दुर्मर
- वि.
- (सं.)
- जिसकी मृत्यु बड़े कष्ट से हो।
- दुर्मरण
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कष्ट से हेनेवाली मृत्यु।
- दुर्मर्ष
- वि.
- (सं.)
- जिसको सहना कठिन हो, दुःसह।
- दुर्मल्लिका, दुर्मल्ली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दुर्मल्लिका)
- उपरूपक का एक भेद जो हास्यरस प्रधान होता है।
- दुर्मिल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- एक मात्रिक और एक वर्णिक छंद।
- दुर्मुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- घोड़ा।
- दुर्मुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- श्रीराम की सेना का एक बंदर।
- दुर्मुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- श्रीराम का एक गुप्तचर।
- दुर्मुख
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- शिव, महादेव।
- दुर्मुख
- वि.
- जिसका मुख बुरा हो।
- दुर्मुख
- वि.
- कटु-भाषी, कठोर बात कहनेवाला।
- दुर्मुट, दुर्मुस
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर् + मुस = कूटना)
- गच या फर्श कूटने का डंडा जिसके नीचे लोहा या पत्थर लगा होता है।
- दुर्लभ
- वि.
- (सं.)
- जो कठिनता से मिल सके, जिसे प्राप्त करना सहज न हो, दुष्प्राप्य।
- उ.—सोइ सारँग चतुरानन दुर्लभ सोइ सारँग संभु मुनि ध्यात—सा. उ. २४।
- दुर्लभ
- वि.
- (सं.)
- अनोखा, बहुत बढ़िया।
- उ.—दुर्लभ रूप देखिबे लायक—२४४४।
- दुर्लभ
- वि.
- (सं.)
- प्रिय, रुचिकर।
- उ.—जहाँ तहाँ तैं सबै धार्इं सुनत दुर्लभ नाम—२९५५।
- दुर्लभ
- संज्ञा
- पुं.
- विष्णु।
- दुर्लेख्य
- वि.
- (सं.)
- जो बुरी लिखावट में लिखा हो।
- दुर्वच
- वि.
- (सं.)
- जो दुख से कहा जा सके।
- दुर्वच
- वि.
- (सं.)
- जो कठिनता से कहा जा सके।
- दुर्वच, दुर्वचन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- गाली, कटुवचन।
- दुर्वह
- वि.
- (सं.)
- जिसे उठाकर ले चलना कठिन हो।
- दुर्वाच
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा या कटुवचन।
- दुर्मूल्य
- वि.
- (सं.)
- जिसका दाम अधिक हो, मँहगा।
- दुर्मेध
- वि.
- (सं. दुमेधस्)
- नासमझ, मंद बुद्धिवाला।
- दुर्यश
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्यशस)
- बुराई, बदनामी, अपयश।
- दुर्योध
- वि.
- (सं.)
- कठिनाइयाँ सहकर भी युद्ध के मैदान में डटा रहनेवाला, विकट साहसी।
- दुर्योधन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कुरुवंशीय राजा धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र जो चचेरे भाई पांडवों को अपना शत्रु समझता था और जिसे युधिष्ठिर ‘सुयोधन’ कहा करते थे। गदा चलाने में यह बड़ा निपुण था। धृतराष्ट्र की इच्छा युधिष्ठिर को ही युवराज बनाने की थी; परंतु दुर्योधन ने इसका विरोध किया और पांडवों को वन भेज दिया। लौटने पर युधिष्ठिर न इन्द्रप्रस्थ को राजधानी बनाकर राजसूय यज्ञ किया। उनके अपार वैभव को देखकर वह जल उठा। पश्चात् अपने मामा शकुनि के कौशल से युधिष्ठिर का राज्य और धन ही नहीं, द्रौपदी सहित उनके भाइयों को भी इसने जुए में जीत लिया। तब दुःशासन द्रोपदी को सभा में घसीट लाया और दुर्योधन ने उसे अपनी जाँघ पर बैठने का संकेत किया। भीम का क्रोध यह देखकर भभक उठा और उन्होंने गदा से दुर्योधन की जाँघ तोड़ने की प्रतिज्ञा की। द्युत के नियमानुसार पांडवों को बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास करना पड़ा। पश्चात् श्रीकृष्ण पांडवों के दूत होकर कौरव सभा में गये; परंतु दुर्योधन पूर्व निश्चय के अनुसार आधा राज्य तो क्या, पाँच गाँव देने को भी तैयार न हुआ। फलतः कुरुक्षेत्र का भयानक युद्ध हुआ जिसमें सौ भाइयों सहित दुर्योधन मारा गया।
- दुर्योनि
- वि.
- (सं.)
- जो नीच कुल में जन्मा हो।
- दुर्रा
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दुर्रः)
- कोड़ा, चाबुक।
- दुर्लंध्य
- वि.
- (सं.)
- जिसे लाँघना सरल न हो।
- दुर्लक्ष्य
- वि.
- (सं.)
- जो कठिनता से दिखायी पड़े।
- दुर्लक्ष्य
- संज्ञा
- पुं.
- बुरा उदेश्य, लक्ष्य या स्वार्थ।
- दुर्वाद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- निंदा, बदनामी।
- दुर्वाद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अप्रिय वाक्य।
- दुर्वाद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अनुचित विवाद।
- दुर्वादी
- वि.
- (सं. दुर्वादिन्)
- तर्क-कुतर्क करनेवाला।
- दुर्वार, दुर्वार्य
- वि.
- (सं.)
- जो जल्दी रोका न जा सके।
- दुर्वासना
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरी या अनुचित इच्छा।
- दुर्वासना
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- इच्छा जो पूरी न हो सके।
- दुर्वासा
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्वासस्)
- एक क्रोधी मुनि जो अत्रि के पुत्र थे। इन्होंने और्व मुनि की कन्या कंदली से विवाह किया था। पत्नी से सौ बार क्रुद्ध होने पर इन्होंने उसे क्षमा कर दिया; पश्चात किसी अपराध पर उसे शाप देकर भस्म कर दिया। इस पर इनके ससुर और्व मुनि ने शाप दिया—तुम्हारा गर्व चूर होगा। इसी कारण अंबरीष के प्रसंग में इन्हें नीचा देखना पड़ा।
- दुर्विगाह
- वि.
- (सं.)
- जिसकी थाह जल्दी न मिले।
- दुर्विज्ञेय
- वि.
- (सं.)
- जो जल्दी जाना न जा सके।
- दुर्विद
- वि.
- (सं.)
- जिसे जानना कठिन हो।
- दुर्विदग्व
- वि.
- (सं.)
- अधजला
- दुर्विदग्व
- वि.
- (सं.)
- अधपका।
- दुर्विदग्व
- वि.
- (सं.)
- घमंडी, अहंकारी।
- दुर्विदग्घता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- पूर्ण निपुणता का अभाव।
- दुर्विध
- वि.
- (सं.)
- दरिद्र।
- दुर्विध
- वि.
- (सं.)
- नीच।
- दुर्विधि
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दुर्भाग्य, अभाग्य।
- दुर्विधि
- संज्ञा
- स्त्री.
- बुरी विधि, अनीति, कुनीति।
- दुर्विनीत
- वि.
- (सं.)
- अशिष्ट, उद्धत, अक्खड़।
- दंतमूलीय
- वि.
- (सं.)
- दंतमूल से उच्चरित होने वाले (वर्ण जैसे त, थ)।
- दंतवक्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- करुष देश का राजा जो वृद्ध शर्मा का पुत्र था और शिशुपाल का भाई लगता था। इसे श्रीकृष्ण ने मारा था।
- उ.—सूर प्रभु रहे ता ठौर दिन और कछु मारि दंतवक्र पुर गमन कीन्हो—१० उ. ५६।
- दंतशूल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दाँत की पीड़ा।
- दंतार, दंताल
- संज्ञा
- पुं.
- [(हिं. दाँत + आर (प्रत्य.)]
- हाथी।
- दंतार, दंताल
- वि.
- [(हिं. दाँत + आर (प्रत्य.)]
- जिसके दाँत बड़े-बड़े हो, बड़दंता।
- दंतालिका, दंताली
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- लगाम।
- दंतावल, दंताहल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दंतावल)
- हाथी।
- दँतियाँ
- संज्ञा
- स्त्री.
- [हिं. दाँत + इयाँ (प्रत्य.)]
- बच्चों के छोटे-छोटे दाँत।
- उ.—(क) किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत—१०-११०। (ख) बोलत स्याम तोतरी बतियाँ, हँसि-हँसि दतियाँ दूमै—१०-१४७। (ग) बिहँसत उघरि गर्ई दँतियाँ, लै सूर स्याम उर लायौ—१०-२८८।
- दंती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- एक पेड़।
- दंती
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दंत)
- हाथी।
- दुर्विपाक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कुफल।
- दुर्विपाक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दुर्घटना |
- दुर्विभाव्य
- वि.
- (सं.)
- जिसका अनुमान भी न हो सके।
- दुर्विलसित
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा या अनुचित काम।
- दुर्विवाह
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा या निंदित विवाह।
- दुर्विष
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- महादेव जिन पर विष का कोई प्रभाव न हुआ।
- दुर्विषस
- वि.
- (सं.)
- जिसे सहना कठिन हो, दुःसह।
- दुर्वृत्त
- वि.
- (सं.)
- जिसका आचरण बुरा हो।
- दुर्वृत्त
- संज्ञा
- पुं.
- बुरा आचरण, या व्यवहार।
- दुर्वृत्ति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरा काम या व्यवसाय
- दुर्व्यवस्था
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- कुप्रबंध।
- दुर्व्यवहार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरा बर्ताव या आचरण।
- दुर्व्यसन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरी लत या आदत।
- दुर्व्यसनी
- वि.
- (सं.)
- बुरी लत या आदतवाला।
- दुर्व्रत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बुरी इच्छा या निश्चय।
- दुर्व्रत
- वि.
- बुरी इच्छा रखनेवाला, नीचाशय।
- दुर्हृद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- जो मित्र न हो, शत्रु।
- दुलकी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दलकना)
- घोड़े की एक चाल।
- दुलखना
- क्रि. स.
- (हिं. दो + लक्षण)
- बार-बार कहना।
- दुलड़ा
- वि.
- (हिं. दो + लड़)
- जिसमें दो लड़ हों।
- दुलड़ा
- संज्ञा
- पुं.
- दो लड़ों का हार।
- दुलड़ी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुलड़ा)
- दो लड़ों की माला।
- दुलत्ती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दो + लात)
- पशुओ का पिछले पैर उठा कर मारना।
- दुलना
- क्रि. अ.
- (हिं. दुलना)
- हिलना-डोलना।
- दुलभ
- वि.
- (हिं. दुर्लभ)
- दुष्प्राय्य।
- दुलभ
- वि.
- (हिं. दुर्लभ)
- बहुत सुंदर।
- दुलराई
- क्रि. वि.
- (हिं. दुलारना)
- लाड़ प्यार करके, दुलार करके।
- उ.—जसोदा हरि पालनै झुलावै। हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-सोइ कछु गावै—१०-४३।
- दुलराना
- क्रि. स.
- (हिं. दुलारना)
- लाड़ प्यार करना।
- दुलराना
- क्रि. अ.
- दुलारे बच्चों का सा व्यवहार करना।
- दुलरावति
- क्रि. स.
- (हिं. दुलारना)
- दुलार-प्यार कंरती है, लाड़-प्यार दिखाती है।
- उ.—(क) बैठी हुती जसोदा मंदिर, दुलरावति सुत कुँवर कन्हाई—१०-५०। (ख) कर सौ ठोकि सुतहिं दुलरावति, चटपटाइ बैठे अतुराने—१०-१९७।
- दुलरावन
- संज्ञा
- (हिं. दुलारना)
- दुलार करने का भाव।
- दुलरावन
- प्र.
- लागी दुलरावन—दुलार-प्यार का व्यवहार करने लगी।
- उ.—अब लागी मोको दुलरावन प्रेम करति टरि ऐसी हो। सुनेहु सूर तुमरे छिन छिन मति बढ़ी प्रेम की गैसी हो।
- दुलरावना
- क्रि. स.
- (हिं. दुलारना)
- दुलार प्यार करना।
- दुलरी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दो + लड़ = दुलड़ी)
- दो लड़ की माला।
- उ.—(क) दुलरी कंठ नयन रतनारे मो मन चितै हरयौ—८८३। (ख) स्त्रुति मंडल मकराकृत कुंडल कंठ कनक दुलरी—३०२६।
- दुलरी
- वि.
- दो लड़ की।
- उ.—अंग-अभूषन जननि उतारति। दुलरी ग्रीव माल मोतिनि कौ, लै केयूर भुज स्याम निहारति—५१२।
- दुलरुवा
- वि.
- (हिं. दुलारा)
- प्यारा-दुलारा।
- दुलह, दुलहा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दूल्हा)
- वर, दूल्हा।
- उ.—श्री बलदेव कह्यौ दुर्योधन नीको दुलह विचारो—सारा. ८०३।
- दुलहन, दुलहिन, दुलहिनि, दुलहिनी , दुलहिया, दुलही,
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुलहन)
- वधू, नयी बहू।
- उ.—(क) आगैं आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहिं न जनैहों। हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहिया लैहौं—१०-१६३। (ख) दुलहिनि कहत दौरि दीजहु द्विज पाती नंद के लालहिं—१०-३-२०।
- दुलही
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुलहन)
- श्रीकृष्ण का गैया-विशेष के लिए दुलार का संबोधन।
- उ.—अपनी अपनी गाइ ग्वाल सब, आनि करौ इकठौरी।¨¨¨¨¨। दुलही, फुलही,भौंरी, भूरी, हाँकि ठिकाई तेती-४४५।
- दुलहेटा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुलारा + बेटा)
- लाड़ला-दुलारा बेटा।
- दुलाई
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. तुलाई, तुराई)
- रूई भरी रजाई।
- दुलाना
- क्रि. स.
- (हिं. डुलाना)
- हिलना-डुलाना।
- दुलार
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुलारना)
- लाड़-प्यार।
- दुलारना
- क्रि. स.
- (सं. दुर्लालन, प्रा. दुल्लाडन)
- लाड़-प्यार करना, लाड़ लड़ाना।
- दुलारा
- वि.
- (हिं. दुलार, दुलारा)
- प्यारा, लाड़ला।
- दुलारा
- संज्ञा
- पुं.
- प्यारा और लाड़ला पुत्र।
- दुलारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. पुं. दुलारा)
- लाड़ली बेटी, प्रिय कन्या।
- उ.—यह सुनिकै बृषभानु मुदित चित, हँसि हँसि बूझति बात दुलारी—७०८।
- दुलारी
- वि.
- स्त्री.
- जिसका खूब दुलार-प्यार हो, लाड़ली।
- दुलारे
- वि.
- (हिं. दुलार का बहु.)
- जिनका बहुत लाड़-प्यार होता हो, लाड़ले प्यारे।
- दुलारे
- संज्ञा
- पुं.
- लाड़ला बेटा या बेटे।
- उ.—कोमल कर गोबर्धन धारथै जब हुते नंद-दुलारे—१-२५।
- दुलारो, दुलारौ
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुलारा)
- लाड़ला बेटा, प्रिय पुत्र।
- मिटि जु गयौ संताप जनम कौ, देख्यौ नंद-दुलारौ—१०-१५।
- दुलीचा, दुलैचा
- संज्ञा
- पुं.
- (देश.)
- गलीचा, कालीन।
- दुलोही
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दो + लोहा)
- तलवार।
- दुर्ल्लभ
- वि.
- (सं. दुर्लभ)
- दुष्प्राप्य।
- दुर्ल्लभ
- वि.
- (सं. दुर्लभ)
- बहुत सूंदर।
- दुल्हैयौ
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुलहन)
- नयी वधू।
- दुव
- वि.
- (सं. द्वि)
- दो।
- दुवन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुर्मनस्)
- दुष्ट प्रकृति का आदमी, दुर्जन।
- दुवन
- संज्ञा
- पुं.
- सं. दुर्मनस्)
- शत्रु, वैरी।
- दुवन
- संज्ञा
- पुं.
- सं. दुर्मनस्)
- राक्षस।
- दुवन
- वि.
- बुरा, खराब।
- दुवाज
- संज्ञा
- पुं.
- (?)
- एक तरह का घोड़ा।
- दुवादस
- वि.
- (सं. द्वादश)
- बारह।
- दुवादस
- वि.
- (सं. द्वादश)
- बारहवाँ।
- दुवादस वानी
- वि.
- (सं. द्वादश=सूर्य + वर्ण)
- सूर्य के समान चमक-दमक वाला, खरा, दमकता हुआ।
- दुवादसी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्वादशी)
- किसी पक्ष की बारहवीं तिथि।
- दुवार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्वार)
- द्वार, दरवाजा, बाहर निकलने का पथ।
- उ.—(क) आँखि, नाक, मुख, मूल दुवार—। (ख) दधिसुत जामें नंद-दुवार—४-१२। (ग) देहरि उलँधि सकत नाहिं सो अब खेलत नंद-दुवार—१०-१७३।(घ) सब सुंदरि मिलि मंगल गावत कंचन कलस दुवार—सारा.—१६३।
- दुवारिका
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. द्वारका)
- द्वारकापुरी।
- दुवारे, दुवारैं
- संज्ञा
- पुं. मुनि
- (सं. द्वार)
- द्वार पर।
- उ.—अर्थ काम दोउ रहैं दुवारें, धर्म-मोक्ष सिर नावैं—१-४०। (ख) हरि ठाढ़े रथ चढ़े दुवारे—१-२४०। (ग) देखि फिरि हरि ग्वाल दुवारे। तब इक बुद्धि रची अपनैं मन, गए नाँधि पिछवारैं—१०-१७७।
- दुविद
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. द्विविद)
- श्रीराम का सेनानायक एक बंदर।
- दुविधा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुबधा)
- असमंजस।
- दुविधा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुबधा)
- खटका।
- दुवो, दुवौ
- वि.
- (हिं. दव=दो + उ=ही)
- दोनों।
- दुशवार
- वि.
- (फ़ा.)
- कठिन।
- दुशवार
- वि.
- (फ़ा.)
- दुःसह।
- दुशवारी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- कठिनता।
- दुशाला
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा. दोशाला)
- बढ़िया चादर।
- मुहा.- दुशाले में लपेटकर— छिपे-छिपे।
- दुशासन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःशासन)
- दुर्योधन का एक भाई।
- दुशासन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःशासन)
- बुरा या कष्टदायी शासन।
- दुश्चर
- वि.
- (सं.)
- जिसका करना कठिन हो।
- दुश्चित्
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- घबराहट।
- दुश्चेष्टा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरा काम, कुचेष्टा।
- दुश्चेष्टित
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पाप।
- दुश्चेष्टित
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नीच काम।
- दुश्च्यवन
- वि.
- (सं.)
- जो जल्दी विचलित न हो।
- दुश्च्यवन
- संज्ञा
- पुं.
- देवराज इंद्र।
- दुश्च्याव
- वि.
- (सं.)
- जो जल्दी विचलित न हो।
- दुश्च्याव
- संज्ञा
- पुं.
- शिव जी, महादेव।
- दुश्मन
- संज्ञा
- पुं.
- (फ़ा.)
- शत्रु, वैरी।
- दुश्मनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (फ़ा.)
- वैर, शत्रुता, विरोध।
- दुश्चरित
- वि.
- (सं.)
- बुरे चरित्रवाला।
- दुश्चरित
- वि.
- (सं.)
- कठिन।
- दुश्चरित
- संज्ञा
- पुं.
- बुरा आचरण।
- दुश्चरित
- संज्ञा
- पुं.
- पाप।
- दुश्चरित्र
- वि.
- (सं.)
- बुरे चरित्रवाला।
- दुश्चरित्र
- संज्ञा
- पुं.
- बुरा आचरण, दुराचार।
- दुश्चलन
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दः + हि. चलन)
- दुराचार।
- दुश्चित्य
- वि.
- (सं.)
- जो कठिनता से समझ में आवे।
- दुश्चिकित्स
- वि.
- (सं.)
- जिसकी चिकित्सा न हो सके।
- दुश्चित्
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- खटका।
- दंत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पहाड़ की चोटी।
- दंतक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दाँत।
- दंतक
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- पर्वत की चोटी।
- दंतकथा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- सुनी-सुनायी बात, जनश्रुति।
- दंतताल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- ताल देने का एक बाजा।
- दंतदर्शन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- क्रोध में दाँत निकालना।
- दंतधावन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दाँत साफ करने की क्रिया।
- दंतपत्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कान का एक गहना।
- दंतबक्र
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दंतवक्र)
- करुष देश का एक राजा।
- दंतमूल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दाँत उगने का स्थान।
- दुष्कर
- वि.
- (सं.)
- जिसको करना कठिन हो (काम)।
- दुष्कर
- संज्ञा
- पुं.
- आकाश, गगन।
- दुष्कर्म
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुष्कर्म्मन्)
- बुरा काम, पाप।
- दुष्कर्मी, दुष्कमी
- वि.
- (सं. दुष्कर्मन्)
- पापी।
- दुष्काल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कुसमय।
- दुष्काल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अकाल।
- दुष्कीर्ति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- अपयश, बदनामी।
- दुष्कुल
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नीच या बुरा कुल।
- दुष्कुल
- वि.
- नीच या अप्रतिष्ठित घराने का।
- दुष्कुलीन
- वि.
- (सं.)
- तुच्छ या अप्रतिष्ठित घराने का।
- दुष्टवेता
- वि.
- (सं. दुष्टचेतस्)
- कपटी।
- दुष्टता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दोष , ऐब।
- दुष्टता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुराई, खराबी।
- दुष्टता
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- खोटाई, दुर्जनता।
- दुष्टत्व
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- दुष्टता, खोटापन, दुर्जनता।
- दुष्टपना
- संज्ञा
- पुं.
- [हिं. दुष्ट +पन (प्रत्य.)]
- खोटाई।
- दुष्टमति
- वि.
- (सं.)
- दुर्बुद्धि, दुराशय।
- दुष्ट-सभा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दुष्ट + सभा)
- दुष्टों का समूह
- उ.—बालक लियौ उछंग दुष्टमति, हरषित अस्तन-पान कराई—१०-५०।
- दुष्ट-सभा
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दुष्ट + सभा)
- दुराचारी कौरवों की राजसभा।
- उ.—अंबर हरत द्रपद-तनया की दुष्ट-सभा मधि लाज सम्हारी—१-२२।
- दुष्टा
- वि.
- स्त्री.
- (सं.)
- दुष्ट या बुरे स्वभाव की।
- दुष्कृति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरा या नीच कर्म।
- दुष्कृति
- वि.
- (सं.)
- कुकर्मी, पापी।
- दुष्कृती
- वि.
- (सं. दुष्कृतिन्)
- बुरा काम करनेवाला।
- दुष्क्रीत
- वि.
- (सं.)
- अधिक मूल्य का, महँगा।
- दुष्ट
- वि.
- (सं.)
- जिसमें दोष हो, दूषित।
- दुष्ट
- वि.
- (सं.)
- खल, दुर्जन, खोटा।
- दुष्टचारी
- वि.
- (सं. दुष्टचरिन्)
- बुरा आचरण करनेवाला।
- दुष्टचारी
- वि.
- (सं. दुष्टचरिन्)
- खल, दुर्जन, नीच।
- दुष्टवेता
- वि.
- (सं. दुष्टचेतस्)
- बुरे विचार का।
- दुष्टवेता
- वि.
- (सं. दुष्टचेतस्)
- बुरा या अहित चाहनेवाला।
- दुष्प्राय, दुष्प्राप्य
- वि.
- (सं. दुष्प्राप्य)
- जो आसानी से मिल न सके, जिसका मिलना कठिन हो।
- दुष्प्रेक्ष, दुष्प्रेक्ष्य
- वि.
- (सं. दुष्प्रेक्ष्य)
- जिसे देखना कठिन हो।
- दुष्प्रेक्ष, दुष्प्रेक्ष्य
- वि.
- (सं. दुष्प्रेक्ष्य)
- देखने में भीषण या भयानक।
- दुष्मंत, दुष्यंत
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुष्यंत)
- एक पुरुवंशी राजा जिसने कण्व ऋषि की पोषिता कन्या शकुंतला से विवाह किया था और जिनकी कथा लेकर कालिदास ने ¨अभिज्ञान शाकुंतल¨ नाटक लिखा।
- दुसराना
- क्रि. स.
- (हिं. दूसरा)
- दुहराना।
- दुसरिहा
- वि.
- [हिं. दूसरा + हा (प्रत्य.)]
- साथ रहनेवाला, साथी-संगी।
- दुसरिहा
- वि.
- [हिं. दूसरा + हा (प्रत्य.)]
- प्रतिद्वंद्वी, विरोधी।
- दुसह
- वि.
- (सं. दुःसह)
- जो सरलता से सहा न जा सके, असह्य, बहुत कष्टदायक।
- उ.—(क) तुम बिनु ऐसो कौन नंद-सुत यह दुख दुसह मिटावन लायक—९५४। (ख) अति ही दुसह सह्यौ नहिं जाई—२६५०। (ग) चलते हरि धिक जु रहत ये प्रान कहँ वह सुख, अब सहौं दुसह दुख, उर करि कुलिस समान—२९८४।
- दुसह
- वि.
- (सं. दुःसह)
- कठोर, दृढ़, मजबूत।
- उ.—यह अति दुसह पिनाक पिता-प्रन राघव बयस किसोर—९-२३।
- दुसही
- वि.
- [हिं. दुःसह + ई (प्रत्य.)]
- जो कठिनता से सहन कर सके।
- दुष्पराजय
- वि.
- (सं.)
- जिसको जीतना कठिन हो।
- दुष्परिग्रह
- वि.
- (सं.)
- जिसको पकड़ना कठिन हो।
- दुष्पर्श
- वि.
- (सं.)
- जिसको स्पर्श करना कठिन हो।
- दुष्पर्श
- वि.
- (सं.)
- जिसको पकड़ना कठिन हो।
- दुष्पार
- वि.
- (सं.)
- जिसको पार करना कठिन हो।
- दुष्पूर
- वि.
- (सं.)
- जिसको पूरा भरना कठिन हो।
- दुष्प्रकृति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरी या दुष्ट प्रकृति।
- दुष्प्रकृति
- वि.
- खोटे या नीच स्वभाववाला।
- दुष्प्रधर्ष
- वि.
- (सं.)
- जो जल्दी पकड़ा न जा सके।
- दुष्प्रवृत्ति
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- बुरी या खोटी प्रकृति।
- दुष्टाचार
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- कुकर्म, खोटा या बुरा काम।
- दुष्टाचार
- वि.
- (सं.)
- खोटा या बुरा काम करनेवाला।
- दुष्टाचारी
- वि.
- (सं.)
- बुरा काम करनेवाला, कुकर्मी।
- दुष्टात्मा
- वि.
- (सं.)
- खोटे या बुरे स्वभाव का।
- दुष्टान्न
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- बासी या सड़ा अन्न।
- दुष्टान्न
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- अन्न जो पाप की कमाई हो।
- दुष्टान्न
- संज्ञा
- पुं.
- (सं.)
- नीच का अन्न।
- दुष्टि
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं.)
- दोष, ऐब, पाप।
- दुष्पच
- वि.
- (सं.)
- जो जल्दी न पच सके।
- दुष्पद
- वि.
- (सं.)
- जो सरलता से प्राप्त न हो सके।
- दुसही
- वि.
- [हिं. दुःसह + ई (प्रत्य.)]
- डाह रखनेवाला, डाही, ईर्ष्यालु।
- दुसाखा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + शाखा)
- दो कनखे वाला शमादाना।
- दुसाखा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + शाखा)
- लकड़ी जिसमें दो कनखे हों।
- दुसाध
- वि.
- (सं. दुःसाध्य)
- नीच, दुष्ट।
- दुसार, दुसाल
- संज्ञा
- पुं.
- (दिं. दो + सालना)
- आर पार किया गया या होनेवाला छेद।
- दुसार, दुसाल
- क्रि. वि.
- एक पार से दूसरे पार तक।
- दुसार, दुसाल
- वि.
- (सं. दुःशल्य)
- बहुत कष्ट देनेवाला।
- दुसाला
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दुशाला)
- पश्मीने की चादर।
- दुसासन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःशासन)
- धृतराष्ट्र का एक पुत्र जो भीम द्वारा मारा गया था।
- दुसूती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दो + सूत)
- एक मोटा कपड़ा।
- दुसेजा
- संज्ञा
- पुं.
- (हिं. दो + सेज)
- बड़ी खाट, पलँग।
- दुस्कर
- वि.
- (सं. दुष्कर)
- जिसे करना कठिन हो।
- दुस्तर
- वि.
- (सं.)
- जिसे पार करना कठिन हो।
- उ. — सूरजदास स्याम सेए तैं दुस्तर पार तरै—१-९२।
- दुस्तर
- वि.
- (सं.)
- दुर्घट, बिकट, कठिन।
- दुम्त्यज
- वि.
- (सं. दुस्त्याज्य)
- जिसको त्यागना कठिन हो।
- दुस्तर्क्य
- वि.
- (सं.)
- जिसे तर्क से सिद्ध करना कठिन हो।
- दुस्सह
- वि.
- (सं. दुःसह)
- अत्यंत कष्टदायक, घोर।
- उ. — हिरनकसिप दुस्सह तप कियौ—७-२।
- दुस्सासन
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दुःशासन)
- धुतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक जो भीम द्वारा मारा गया था।
- दुहत
- क्रि. स.
- (हिं. दुहना)
- दुहते हैं, दुही जाती हैं।
- उ. नव लख धेनु दुहत हैं नित प्रति, बड़ौ नाम है नंद महर कौ—१०-३३३।
- दुहता
- संज्ञा
- पुं.
- (सं. दौहित्र)
- लड़की का लड़का, नाती।
- दुहती
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुहिता)
- पुत्री की पुत्री, नातिन।
- दुहत्थड़, दुहत्था
- वि.
- (हिं. दो ÷ हाथ)
- दोनों हाथों से किया हुआ।
- दुहत्थड़, दुहत्था
- वि.
- (हिं. दो ÷ हाथ)
- जिसमें दो हत्थे हों या मूँठें हों।
- दुहन
- संज्ञा
- स्त्री.
- (हिं. दुहना)
- दुहने की क्रिया, (थन से) दूध निकालने की किया।
- उ. (क) काल्हि तुम्हें गो दुहन सिखावैं, दुही सबै अब गाइ—४००। (ख) मैं दुहिहौं, मोहिं दुहन सिखावहु —४०१। (ग) बाबा मोकौं दुहन सिखायौ—६६७।
- दुहना
- क्रि. स.
- (सं. दोहन)
- थन से दूध निकालना।
- दुहना
- क्रि. स.
- (सं. दोहन)
- सारा तत्व-भाग निचोड़ लेना।
- दुहना
- क्रि. स.
- (सं. दोहन)
- धन हर लेना।
- दुहनियाँ, दुहनी
- संज्ञा
- स्त्री.
- (सं. दोहनी)
- वह पात्र जिसमें दूध दूहा जाय।
- उ. — डारि दियौ भरी दूध-दुहनियाँ अबहीं नीकैं आई—७४१।
- दुहरना, दुहराना
- क्रि. स.
- (हिं. दोहराना)
- किसी बात को बार-बार कहना।
- दुहरना, दुहराना
- क्रि. स.
- (हिं. दोहराना)
- किसी चीज को दोहरा क