विक्षनरी:भारतीय इतिहास कोश (अ से औ)

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अंकोरवट : कम्बोडिया, जिसे पुराने लेखों में कम्बुज कहा गया है और भारतके प्राचीन सम्बन्धों का शानदार स्मारक। यह मंदिर अंकोरथोम नामक नगर में स्थित है जिसे प्राचीन काल में यशोधरपुर कहा जाता था और जो जयवर्मा द्वितीय के शासनकाल (११८१-१३०५ ई.) में कम्बोडिया की राजधानी था। यह अपने समय में संसार के महान् नगरों में गिना जाता था और इसका विशाल भव्य मंदिर अंकोरवट के नाम से आज भी विख्यात है। इसका निर्माण कम्बुज के राजा सूर्यवर्मा द्वितीय ( १०४९-६६ ई.) ने कराया था और यह विष्णु को समर्पित है। यह मंदिर एक ऊँचे चबूतरे पर स्थित है। इसमें तीन खंड हैं जिनमें से प्रत्येक में सुन्दर मूर्तियाँ हैं और प्रत्येक खंड से ऊपर के खंड तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ हैं। प्रत्येक खंड पटी हुई दीर्घिका के रूप में है। मंदिर के चार कोणों में आठ गुम्‍बजें हैं जिनमें से प्रत्येक १८० फुट ऊँची है। मुख्य मंदिर तीसरे खंड की चौड़ी छत पर है। उसका शिखर २१३ फुट ऊँचा है और पूरे क्षेत्र को गरिमा-मंडित किये हुए है। मंदिर के चारों और पत्थर की दीवार का घेरा है जो पूर्व से पश्चिम की और दो-तिहाई मील और उत्तर से दक्षिण की ओर आधे मील लम्बा है। इस दीवारके बाद ७०० फुट चौड़ी खाईं है जिसपर एक स्थान पर ३६ फूट चौड़ा पुल है। इस पुल से पक्‍की सड़क मंदिर के पहले खंड के द्वार तक चली गयी है। इस प्रकार की भव्य इमारत संसार के किसी अन्य स्थानपर नहीं मिलती है। भारत से सम्पर्क के बाद दक्षिण-पूर्वी एशिया में कला, वास्तुकला तथा स्थापत्यकला का जो विकास हुआ, उसका यह मंदिर चरमोत्कृष्ट उदाहरण है। (आर. सी. मजूमदार-कम्‍बुज देश, पृष्ठ १३५-३७)

अंग : पूर्वी बिहार का प्राचीन नाम। इसकी राजधानी गंगा के किनारे आधुनिक भागलपुर नगर के निकट चम्पा थी। ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में यह मगध राज्य में शामिल कर लिया गया, जिसमें उस समय तक पटना, गया और दक्षिणी बिहार के क्षेत्र शामिल थे। बाद में यह क्षेत्र निरन्तर मगध का भाग बना रहा और इसी का नाम बाद में बिहार पड़ा।

अंगद : सिखों के दूसरे गुरु। इनको गुरु नानक (दे.) ने ही इस पद के लिए मनोनीत किया था। नानक इनको अपने शिष्यों में सबसे अधिक मानते थे और अपने दोनों पुत्रों को छोड़कर उन्होंने अंगद को ही अपना उत्तराधिकारी चुना। गुरु अंगद श्रेष्ठ चरित्रवान् व्यक्ति और सिखों के उच्चकोटि के नेता थे जिन्होंने अनुयायियों का १४ वर्ष (१५३८-५३ ई.) तक नेतृत्व किया।

अंत्तिकिनि : अंत्तिकिनि-एक यवन राजा, जिसका उल्लेख अशोक के शिलालेख (संख्या तेरह) में किया गया है। उसकी पहचान मैसिडोनिया के राजा एंटिगोनस गोंटस (ई. पू. २७७-ई. पू. २३६) से की जाती है।

अंसारी, डाक्टर (१८८०-१९३६ ई.) : अंसारी, डाक्टर (१८८०-१६३६ ई.)-एक प्रमुख मुसलमान राष्ट्रीयतावादी नेता। उनका जन्म बिहार में हुआ, एडिनबरा (ब्रिटेन) से उन्होंने डाक्टरी की पदवी प्राप्त की और दिल्ली में रहकर वे डाक्टरी करने लगे। १९१२-१३ ई. में उन्होंने भारत में एक चिकित्सक दल संगठित करके उसे तुर्की के युद्ध में सहायता कार्य के लिए भेजा। उन्होंने मुस्लिम लीग का संगठन करने में प्रमुख भाग लिया और १९३७ ई. में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन की अध्यक्षता की। उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा संचालित असहयोग आन्दोलन में भाग लिया तथा १९३० ई. और १९३२ ई. में ब्रिटिश शासन काल में जेल यात्राएँ कीं।

अकबर : मुगलवंश का तीसरा बादशाह, भारत में मुगल साम्राज्य और राजवंश का वास्तविक संस्थापक। अपने पिता हुमायूं की मृत्यु के बाद वह १५५६ ई. में सिंहासन पर बैठा। उस समय उसके अधीन कोई खास इलाका नहीं था। उसी वर्ष पानीपत की दूसरी लड़ाई में उसने हेमू पर विजय पायी जो अफगानों के सूर राजवंश का समर्थक था। अब वह पंजाब, दिल्ली, आगरा और पास-पड़ोस के क्षेत्र का स्वामी बन गया। अगले पाँच वर्षों में अकबर ने इस क्षेत्र में अपने राज्य को मजबूत बनाया और पूर्व में गंगा-यमुना के संगम-इलाहाबाद तक और मध्य भारत में ग्वालियर और राजस्थान में अजमेर तक अपना राज्य फैलाया। अगले २० वर्षों में अकबर ने कश्मीर, सिंध और उड़ीसा को छोड़कर पूरे उत्तर भारत को जीत लिया। १५९२ ई. तक उसने इन तीनों राज्यों को भी अपने राज्य में मिला लिया। इसके पहले १५८१ ई. में उसने अपने छोटे भाई हकीम की बगावत का दमन किया जिसने अपने को काबुल का स्वतंत्र सुल्तान घोषित कर दिया था और १५८५ में उसकी मृत्यु होने पर काबुल को अपने राज्य में मिला लिया। दस वर्ष बाद उसने कंधार जीत लिया और बलूचिस्तान पर कब्जा कर लिया। उत्तर भारत को जीतने के बाद उसने दक्षिण भारत को जीतने की कोशिश की। १६०० में उसने अहमदनगर पर हमला किया और १६०१ ई. में खान देश के असीरगढ़ को जीता। यह उसके जीवन की अन्तिम विजय थी। चार वर्ष बाद जब उसकी मृत्यु हुई उस समय उसका साम्राज्य पश्चिम में काबुल से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय की तराई से दक्षिण में नर्मदा नदी के किनारे तक फैला था।

अकबर ने अपने साम्राज्य को १५ सूबों में बाँटा था : (१) काबुल, (२) लाहौर (पंजाब) जिसमें कश्मीर भी शामिल था, (३) मुल्तान-सिंध, (४) दिल्ली, (५) आगरा, (६) अवध, (७) इलाहाबाद, (८) अजमेर, (९) अहमदाबाद, (१०) मालवा, (११) बिहार, (१२) बंगाल-उड़ीसा, (१३) खानदेश, (१४) बरार और (१५) अहमदनगर।

अकबर केवल महान विजेता ही नहीं था वरन् कुशल प्रशासक और साम्राज्य का संस्थापक भी था। उसने ऐसी प्रशासन व्यवस्था की जो उसके पहले के राज्यों की व्यवस्था से उच्चकोटि की थी। उसका राजतंत्र उसके व्यक्तिगत स्वेच्छाचारी शासन और नौकरशाही पर आश्रित था। उसका उद्देश्य बादशाह के व्यक्तिगत अधिकार और राजकोष को बढ़ाना था। बादशाह के हुक्म को उसके मनसबदार पूरा करते थे। मनसबदारों की ३-३ श्रेणियाँ थी, जिनके मनसब १० से लेकर पाँच हजार तक के होते थे। इन मनसबदारों को वेतन नकद दिया जाता था। उनके ऊपर अंकुश रखने के लिए अनेक नियम बनाये गये थे, विशेष रूप से सवारों की फर्जी सूची रखने पर। हर एक सूबे में एक सूबेदार रहता था जिसको नवाब नाजिम भी कहा जाता था। उसे काफी अख्तियार रहते थे। वह भी अपना छोटा दरबार करता था जैसा कि तुर्क व अफगान सुल्तानों के राज में होता था। लेकिन अकबर ने सूबेदारों पर अंकुश लगाया और सूबे के वित्तीय मामलों की देखभाल करने के लिए 'दीवान' नामक नया अधिकारी नियुक्त किया।

राजस्व बढ़ाने के लिए राजा टोडरमल की सहायता से अकबर ने भूमि की नाप जोख और पैमाइश कराकर मालगुजाऱी की नई व्‍यवस्‍था की। रैयत और काश्‍तकारों से लगान की वसूली की सीधी व्यवस्था चलायी गयी। उपज का तिहाई हिस्सा लगान के रूपमें नकद अथवा अनाज के रूप में लिया जाता था और उसकी वसूली सरकारी अफसर करते थे।

भारत के मुसलमान शासकों में अकबर का स्थान सबसे ऊपर रखा जाता है। उसके पहले के शासकों ने यहाँ की हिन्दू प्रजा का ख्याल नहीं रखा और उनमें और बहुसंख्यक हिन्दू प्रजा में लगातार संघर्ष और शत्रुता का व्यवहार चलता रहता था। अकबर ने अपने शासन के आरम्भिक वर्षों में यह अनुभव किया कि हिन्दुस्तान का बादशाह केवल मुसलमानों का ही शासक नहीं होना चाहिये। यहाँ के सम्राट को यदि अपने राज्य को मजबूत बनाना है तो उसे हिंदुओं की राजभक्ति भी प्राप्त करनी चाहिये। उसे हिन्दू-मुसलमान, यह भेदभाव नहीं करना चाहिये। इसलिए उसने उदार नीति अपनायी। उसने पराजित राजाओं के परिवारों को गुलाम बनाने की प्रथा छोड़ दी, उनकी स्त्रियों की इज्जत नहीं ली और उनको अपने यहाँ सम्मानपूर्ण पद दिये। उसने तीर्थयात्रियों के ऊपर लगने वाले जजिया नामक कर को समाप्त कर दिया जो केवल हिन्दुओं पर लगाया जाता था। उसने हिन्दुओं को भी उनकी प्रतिभा के अनुसाशित पदों पर नियुक्त किया। उसने हिन्दू राजाओं से विवाह सम्बन्ध स्थापित किया और उनको धर्म बदलने को बाध्य नहीं किया। उसकी इस उदार नीति के कारण उसे राजपूतों का समर्थन मिला और उनकी वीरता के आधार पर अकबर ने अपना साम्राज्य काबुल से बंगाल तक फैलाया। अकबर ने हिन्दू और मुसलमानों के आपसी संघर्ष को खत्म कर एक भारतीय राष्ट्र बनाने का स्वप्न देखा। उसने हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों की अच्छी बातों को लेकर नया मत चलाने का प्रयत्न किया। इसी उद्देश्य से उसने १५८१ ई. में 'दीन इलाही' का प्रचलन किया। उसमें कुरान, हिन्दू धर्मशास्त्रों और बाइबिल के सिद्धान्तों का समन्वय किया गया था। अकबर सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता के सिद्धान्त को मानता था। उसने अपने नये धर्म को दूसरों पर लादने का प्रयास नहीं किया। बहुत थोड़े लोगों ने 'दीन इलाही' को कबूल किया और उसका उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। परन्तु, अपने इस प्रयास के कारण, "सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता तथा उदारता दिखाने के कारण मानवजाति के सच्चे उपकारकों में उसने अपना प्रमुख स्थान बना लिया है।" (वी. ए. स्मिथ-अकबर दि ग्रेट मुगल; वान नोएर-इम्परर अकबर)

अकबर द्वितीय : मुगलवंश का १८वां बादशाह। वह शाह आलम द्वितीय का पुत्र था और उसने १८०६-३७ ई. तक राज किया। उसके समय तक, भारत का अधिकांश राज अंग्रेजों के हाथ में चला गया था और १८०३ ई. में दिल्ली पर भी उनका कब्जा हो गया था। बादशाह शाह आलम द्वितीय (१७६९-१८०६ ई.) अपने जीवन के अन्तिम दिनों में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की पेंशन पर जीवन यापन करता था। उसका पुत्र बादशह अकबर द्वितीय ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कृपा के सहारे नाममात्र का बादशाह था। उससे गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्स (१८१३-२३) की ओर से कहा गया कि वह कम्पनी के क्षेत्र पर अपनी बादशाहत का दावा छोड़ दे। लार्ड हेस्टिंग्स ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ओर से मुगल बादशाह को दी जाने वाली नजर बन्द कर दी। उसका लड़का और उत्तराधिकारी बादशाह बहादुरशाह द्वितीय (१८३७-५८ ई.) भारत का अन्तिम मुगल बादशाह था।

अकबर खां : अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मुहम्मद का पुत्र। उसने प्रथम आंग्‍ल-अफगान युद्ध (१८४१-४३ ई.) के दौरान अफगानों को संगठित कर अंग्रेजों के हमले का मुकाबला करने में खास हिस्सा लिया था।

अकबर नामा : बादशाह अकबर के शासनकाल का इतिहास, जिसे अकबर के दोस्त और दरबारी अबुल फ़जल ने लिखा था। यह अकबर के शासनकाल में लिखा गया प्रामाणिक इतिहास है, क्योंकि लेखक को इसकी बहुत सी बातों की निजी जानकारी थी, और सरकारी कागजों तक उसकी पहुँच थी। यद्यपि इसमें अकबर के साथ कुछ पक्षपात किया गया है तथापि तिथियों और भौगोलिक जानकारी के लिए यह विश्वसनीय है।

अकबर, शाहजादा : औरंगजेब और उसकी दिलरस बानो बेगम का पुत्र। वह बादशाह औरंगजेब का तीसरा और प्यारा बेटा था और १६७९ ई. में उसने राजपूतों के विरुद्ध लड़ाई में मुगल सेना का नेतृत्व किया था। जब उसकी सेना चितौड़ में थी, तो राजपूतों ने उसपर अचानक हमला बोलकर उसे हरा दिया। उसके बाद औरंगजेब ने उसका तबादला मारवाड़ कर दिया। शाहजादा अकबर ने इसे अपनी बेइज्जती समझा और सोचा कि मैं स्वयं भी राजपूतों की सहायता से अपने बाप की जगह बादशाह बन सकता हूँ, जैसा कि औरंगजेब ने किया था। राजपूत सरदारों ने भी उसका हौसला बढ़ाया और उसे समझाया कि राजपूतों की मदद से वह हिन्दुस्तान का सच्चा बादशाह बन सकता है। शाहजादा अकबर ने अपने पिता को एक कड़ा पत्र लिखा जिसमें उसने असहिष्णुता की नीति को छोड़ने तथा शासन की दुर्व्यवस्था की ओर उसका ध्यान आकर्षित किया।

अन्त में ७० हजार सैनिकों के साथ, जिनमें बहुत से राजपूत भी थे, शाहजादा अकबर अजमेर के निकट १५ जनवरी १६८१ ई. को पहुँच गया। उस समय औरंगजेबकी सेना चित्तौड़ और दूसरे स्थानों में बिखरी हुई थी। अकबर ने उस समय हमला कर दिया होता तो बादशाह मुश्किल में पड़ जाता, लेकिन शाहजादे ने ऐयाशी और नाचरंग में समय गवां दिया। इस बीच औरंगजेब को अकबर और उसके राजपूत साथियों में फूट पैदा करने का मौका मिल गया। राजपूतों ने उसका साथ छोड़ दिया। शाहजादा अकबर राजपूताने से दक्षिण की ओर भागा जहाँ उसने शिवाजी के पुत्र शम्भाजी के यहाँ शरण ली। इससे शाहजादा और मराठों के संयुक्त मोर्चे का खतरा पैदा हो गया। औरंगजेब खुद दक्षिण गया। लेकिन इस बीच शाहजादा अकबर ने अपने पिता को हराने की आशा छोड़ दी और वह हिन्दुस्तान छोड़कर फारस चला गया। १६९५ ई. में अकबर ने फारस की सहायता से हिन्दुस्तान पर हमला करने की कोशिश की। पर मुल्तान के पास उसके सबसे बड़े भाई शाहजादा मुअज्जम के नेतृत्व में मुगल सेना ने उसे पराजित कर दिया। इस पराजय के बाद निराश शहजादा अकबर फिर फारस लौट गया, जहाँ १७०४ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

अकबर हैदरी, सर : (१८६९-१९४१ई.) भारत सरकार के वित्त विभाग में एक छोटे अफसर के रूप में नियुक्त और बाद में भारत का सर्वप्रथम कन्ट्रोलर आफ ट्रेजरी। १९३७ में वह निज़ाम का प्रधान सचिव बनाया गया, जहाँ कुछ शासन सुधार किये गये। बाद में वह वाइसराय की एक्जीक्वीटिव कौंसिल का सदस्य बनाया गया।

अकमल खां : अफरीदी कबाइली सरदार जिसने १६७२ ई. में मुगल बादशाह औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया और अपने को सुल्तान घोषित किया। उसने अली मस्जिद की लड़ाई में मुगल सेना को हरा दिया और कुछ समय तक पठानों के पूरे क्षेत्र पर अटक से कंधार-तक अपना राज्य स्थापित कर लिया था। १६७४ ई. में औरंगजेब खुद पेशावर गया तथा कूटनीति और शस्त्र-बल से उसने अकमल खाँ तथा पठानों को हरा दिया।

अकाल : भारत के आर्थिक जीवन की एक दुःखद विशेषता। मेगस्थजीज (दे.) ने लिखा है कि भारत में अकाल नहीं पड़ता, लेकिन यह कथन बाद के इतिहास में सही नहीं सिद्ध होता। सच तो यह है कि भारत जैसे देश में मुख्यतः खेती ही जीवन-यापन का साधन है और वह मुख्यतः अनिश्चित मानसूनी वर्षा पर निर्भर रहती है। अतः यहाँ अकाल प्रायः पड़ता रहता है। ब्रिटिश राज्यकाल के पहले के अकालों का विश्वस्त विवरण नहीं प्राप्त होता। लेकिन १७५७ ई. की पलासी की लड़ाई और १९४७ ई. में भारत की स्वाधीनता मिलने के समय के बीच, अर्थात् १९० वर्ष की छोटी अवधिके दौरान देश में बड़े-बड़े नौ अकाल पड़े। यथा,

(१) १७६९-७० ई. जिसमें बंगाल, बिहार और उड़ीसा की एक तिहाई आबादी नष्ट हो गयी। (२) १८३७-३८ ई. में समस्त उत्तरी भारत अकालग्रस्त हुआ, जिसमें ८ लाख व्यक्ति मौत के शिकार हुए। (३) १८६१ ई. में पुनः भारी अकाल पड़ा, जिसमें उत्तर भारत में असंख्य व्यक्ति मरे। (४) १८६६ ई. में उड़ीसा में अकाल पड़ा, जिसमें १० लाख लोगों की जानें गयीं। (५) १८६८-६९ई. में राजपूताना और बुंदेलखंड अकाल के शिकार हुए। इसमें कम आदमी मरे, फिर भी यह संख्या एक लाख से कम नहीं थी। (६) १८७३-७४ ई. में बंगाल और बिहार में पुनः अकाल पड़ा, जिसमें लोग भारी संख्या में मरे। (७) १८७६-७८ ई. का अकाल तो समस्त भारत में पड़ा, जिसके फलस्वरूप अकेले ब्रिटिश भारत में ५० लाख व्यक्ति मरे। (८) १८९६-१९०० ई. में दक्षिणी, मध्य और उत्तरी भारत में अकाल पड़ा जिसमें साढ़े सात लाख व्यक्ति मरे। (९) १९४२ ई. में ब्रिटिश सरकारकी 'सर्वक्षार' नीति, व्यापारियों की धनलिप्सात्मक जमाखोरी तथा प्रशासनिक भ्रष्टाचार के कारण बंगाल में अकाल पड़ा, जिसमें लगभग १५ लाख व्यक्ति मरे।

अकाल आयोग : १८८० ई. में वाइसराय लार्ड लिटन द्वारा सर रिचर्ड स्ट्रैची की अध्यक्षता में स्थापित। इसी आयोग की सिफारिश पर 'अकाल संहिता' की रचना की गयी थी। १८९७ ई. में वाइसराय लार्ड एलगिन ने सर जेम्‍स लायल की अध्यक्षता में पुनः एक अकाल आयोग की स्थापना की। द्वितीय आयोग ने प्रथम आयोग द्वारा निर्धारित सिद्धान्तों का समर्थन किया और अकाल सहायता योजना के विस्तृत कार्यान्वयन में परिवर्तन कर दिया। १९०० ई में वाइसराय लार्ड कर्जन ने सर ऐण्टोनी मैकडानल की अध्यक्षता में तृतीय अकाल आयोग की स्थापना की। इसने भी प्रथम आयोग के सिद्धान्तों का समर्थन किया और यह सिफारिश की कि सहायता कार्यवाले क्षेत्र के लिए सहायता-आयुक्त नियुक्त किया जाय तथा दूरस्थ क्षेत्रो में केन्द्र की ओर से काम की व्यवस्था करने की अपेक्षा सार्वजनिक हित के स्थानीय कार्यों में अकाल पीड़ितों को लगाकर वस्तु-वितरण किया जाय। यह भी सिफारिश की गयी कि अकाल सहायता कार्य में गैर-सरकारी संस्थाओं का अधिकाधिक सहयोग लिया जाय, कृषि बैंक खोले जायें, खेती के विकसित तरीके अपनाये जायें और सिंचाई सुविधाओं का विस्तार किया जाय। इन सिफारिशों को स्वीकार किया गया और सरकार ने उनपर अमल किया।

अकाल प्रतिवेदन (१८८० ई.)  : सर रिचर्ड स्ट्रैची की अध्यक्षता में नियुक्त अकाल आयोग द्रारा प्रस्तुत। प्रतिवेदन में सर्वप्रथम यह मौलिक सिद्धान्त निर्धारित किया गया कि अकाल के समय पीड़ितों को सहायता देना सरकार का कर्तव्य है। इस सिद्धान्त के अनुसार काम करने योग्य व्यक्तियों को काम देकर सहायता पहुँचाना तथा कमजोर और बूढ़े लोगों को अन्न एवं धन से सहायता देना उचित बताया गया। यह भी कहा गया कि सहायता के रूप में जो काम कराया जाय, वह स्थायी हो और इतना बड़ा हो कि उक्त क्षेत्र के सभी जरूरतमंद लोगों की आवश्यकता की पूर्ति हो सके। बड़ी योजनाओं पर काम करने हेतु दूर भेजने के लिए जो लोग योग्य न हों, उन्हें तालाबों की खुदाई अथवा पुलिया आदि बनाने के स्थानीय काम में लगाया जाय। सहायता के रूपमें दिया जानेवाला काम तत्काल आयोजित किया जाय और भूखमरी से शक्ति घटने के पहले ही अकालपीड़ितों को काम और अन्न प्राप्त हो जाय। लगान स्थगित अथवा साफ करके बीज एवं कृषि यन्त्र खरीदने के लिए अग्रिम धन देकर अकालपीड़ितों की अतिरिक्त एवं सामान्य सहायता की जाय। सहायता वस्तु की छीजन तथा फिजूल-खर्ची रोकने के लिए सहायता व्यय का मुख्‍य भार अकाल पीड़ित क्षेत्र की स्थानीय सरकार को उठाना चाहिए और केन्द्रीय सरकार केवल स्थानीय स्रोतों में योगदान देने का काम करे। सहायता का वितरण गैर-सरकारी प्रतिनिधि संस्थाओं के माध्यम से हो। प्रतिवेदन में यह भी सिफारिश की गयी कि अकाल सहायता एवं बीमाकोष की स्थापना के लिए प्रतिवर्ष डेढ़ करोड़ रुपया अलग कर दिया जाया करे जिससे अकाल के समय आवश्यकता पड़ने पर धन लिया जा सके।

अकाल संहिता : अकाल आयोग (१८८० ई.) की सिफारिशों के आधार पर १८८३ ई. में तैयार की गयी। इस संहिता में खाद्याभाव का पता लगाने के लिए प्रक्रिया निर्धारित की गयी थी, जिसके द्वारा पहले अभाव की स्थिति और बाद में अकाल की स्थिति घोषित की जा सके। सिद्धान्त यह माना गया कि जैसे ही अभाव की स्थिति घोषित हो, वैसे ही रेलवे और जहाजों द्वारा तत्काल अधिक अन्नवाले क्षेत्रों से अकालग्रस्त क्षेत्रों को अनाज भेजा जाय, जिससे अकालपीड़ित लोगों को अविराम खाद्यन्न मिलता रहे। साथ ही काम करने लायक लोगों को काम दिया जाय। ऐसा कहा गया है कि अकाल संहिता भी अकाल को रोकने में विफल सिद्ध हुई। किन्तु इसमें संदेह नहीं कि विज्ञान के नये स्रोतों और आयोजनाओं से अकाल की विभीषिका को कम करने में सहायता मिली।

अकाल सहायता और बीमा कोष : १८८० ई. के अकाल आयोग की सिफारिशों के अनुसार स्थापित।

अकविवा, फादर रिदांल्फो : गोआ में धर्मप्रचार करनेवाला जेसुइट सम्प्रदाय का पादरी। सितम्बर १५७९ ई. में बादशाह अकबर की प्रार्थना पर उसको और पादरी मोंसेरेत को गोआ की पुर्तगाली सरकार ने अकबर के दरबार में फतेहपुर सीकरी भेजा था। ये दोनों पादरी फरवरी १५८० ई. में फतेहपुर सीकरी पहुँचे जहाँ बादशाह ने उनका सम्मानपूर्वक स्वागत किया। अकविवा बड़ा विद्वान् था और बादशाह अकबर उसका बड़ा सम्मान करता था। वह अकबर के दरबार में काफी समय तक रहा।

अगलस्सोई : सिकंदर के आक्रमण के समय सिन्ध नदी की घाटी के निचले भाग में शिविगण के पड़ोस में रहनेवाला एक गण। सिकंदर जब सिन्धु नदी के मार्ग से भारत से वापस लौट रहा था तो इस गण के लोगों से उसका मुकाबला हुआ। अगलस्सोई गण की सेना में ४० हजार पैदल और तीन हजार घुड़सवार सैनिक थे। उन्होंने सिकंदर के छक्के छुड़ा दिये लेकिन अन्त में वे पराजित हो गये। यूनानी इतिहासकारों के अनुसार अगलस्सोई गण के २० हजार आबादीवाले एक नगर के लोगों ने स्वयं अपने नगर में आग लगा दी और अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ जलकर मर गये, ताकि उन्हें यूनानियों की दासता न भोगनी पड़े। (अगलस्सोई की पहचान पाणिनि के व्याकरण में उल्लिखित अग्रश्रेणयःसे की जाती है।-सं.)

अगाथोक्लिस : भारत का एक यवन राजा जो तक्षशिला के क्षेत्र में (१९०-१८० ई. पू. ) राज्य करता था। उस क्षेत्र में उसके कुछ सिक्के भी पाये हैं जिनमें उसका नाम यूनानी और प्राकृत दोनों भाषाओं में अंकित है।

अगेसिलोस् : एक यवन अधिकारी, जो कुषाण राजा कनिष्क के निर्माण कार्यों का निरीक्षक अभियंता था। पेशावर में कनिष्क के आदेश से निर्मित स्तूप के ध्वंसावशेषों में प्राप्त धातु पात्र से उसके नाम का पता चलता है। (जर्नल आफ दि रायल एशियाटिक सोसाइटी, १९०८ पृ. ११०९)

अग्निकुल : राजपूतों की चार जातियों, पवार (परमार), परिहार (प्रतिहार), चौहान (चाहमान) और सोलंकी अथवा चालुक्य की गणना अग्निकुल के क्षत्रियों में होती है। चंदबरदाई के रासो के अनुसार अग्निकुलके इन चार राजपूतों के पूर्व पुरुष दक्षिणी राजपूताने के आबू पहाड़ में यज्ञ के अग्निकुंड से प्रकट हुए थे। इससे इनके दक्षिण राजस्‍थान से सम्बन्धित होने का पता चलता है। कुछ लोगों का मत है कि यह यज्ञ विदेशी जातियों को वर्णाश्रम व्यवस्था में लेने के लिए किया गया था और इस प्रकार इन जातियों को उच्च क्षत्रिय वर्ण में स्थान दिया गया था। (जर्नल आफ दि रायल एन्थ्रोपालिजिकल इंस्टीट्यूट, पृ. ४२)

अग्निपुराण : १८ पुराणों में से एक। उसमें भारतीय ऐतिहासिक जनुश्रुतियों का सबसे क्रमबद्ध उल्लेख है।

अग्निमित्र : शुंगवंश (दे.) के संस्थापक पुष्यमित्र का पुत्र और उत्तराधिकारी। अपने पिता के राज्यकाल में वह नर्मदा प्रदेश का उपराजा था और उसने अपनी राजधानी विदिशा में रखी थी। विदिशा को आजकल भिलसा कहा जाता है। उसने अपने दक्षिणी पड़ोसी विदर्भ (बरार) के राजा को पराजित किया और शुंग राज्य को वर्धा नदी के तटतक फैला दिया। १४९ ई. पू. में वह अपने पिता का उत्तराधिकारी बना और पुराणों के अनुसार उसने आठ वर्ष राज्य किया। कालिदासके प्रसिद्ध नाटक 'मालविकाग्निमित्र' में इसी अग्निमित्र की प्रेमकथा का वर्णन है। इसके नाम के अनेक सिक्के भी मिले हैं। (पर्जीटर-डायनेस्टीज आफ दि कलि एज, पृष्ठ सं. ३०-७०)

अग्रमस : कर्टियस आदि यूनानी इतिहासकारों ने सिकंदर के आक्रमण के समय मगध के राजा का नाम अग्रमस अथवा क्सैन्द्रमस लिखा है। सिकंदर को उसके राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं हुआ। वह एक नाई का पुत्र था। उसके पिता ने मगध के सिंहासन पर बलात् अधिकार करके अपने को 'प्रेस्मिप्राई' (प्राच्य देश) का राजा घोषित कर दिया था। अग्रमस नाम संस्कृत औग्रसैन्य का यूनानी अपभ्रंश मालूम होता है। औग्रसैन्यका अर्थ है उग्रसेनका पुत्र। 'महाबोधिवंश' के अनुसार उग्रसेन नन्दवंश का संस्थापक था। (पी. एच. ए. आई., पृष्ठ २३२, मैक् क्रिंडिल-दि इन्वेजन आफ इण्डिया बाइ एलेक्जेंडर, पृष्ठ २२२)

अग्रमहिषी : शक राजाओं के समय में पटरानी को अग्रमहिषी की उपाधि से विभूषित किया जाता था, उदाहरण के लिए 'नागनिको'। (पी. एच. ए. आई., पृष्ठ ५१७)

अग्रोनोमोई : यूनानी लेखक स्त्रावो के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में अग्रोनोमोइ नामक अधिकारी नदियों की देखभाल, भूमि की नापजोख, जलाशयों का निरीक्षण और नहरों की देखभाल करते थे, ताकि सभी लोगों को पानी ठीक से मिल सके। यह अधिकारी शिकारियों पर भी नियंत्रण रखता था और उसको लोगों को पुरस्कृत और दंड देने का अधिकार था। वह कर वसूलता था और भूमि के स्वामित्व सम्बन्धी मामलों का भी निरीक्षण करता था। सार्वजनिक सड़कों का निर्माण और दस-दस स्टैडिया की दूरी पर स्तंभ लगाने के काम का निरीक्षण भी यही अधिकारी करता था। वह ग्रामों का शासन भी करता था। इसकी पहचान कौटिल्य अर्थशास्त्र में वर्णित 'अध्यक्ष' और अशोक के शिलालेखों में वर्णित 'राजुक' से की जाती है। (स्त्रावो, खंड ३, पृष्ठ १०३ और पी. एच. ए. आई., पृष्ठ संख्या ३८४ और ३१८)

अच्‍युत : आर्यावर्त के राजाओं में से एक। प्रयाग-स्तम्भ लेख के अनुसार समुद्रगुप्त (३३०-३७५) ने उसको पराजित कर उसका राज्य छीन लिया। अच्युत सम्भवतः अहिच्छत्रा (उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में आधुनिक रामनगर) का राजा था।

अच्युतराय : 1528 से 1542 ई. तक विजय नगर का शासक। वह कृष्‍णदेव राय (1509 से 1529 तक) का भाई और उत्तराधिकारी था। वह बलहीन और अत्याचारी स्वभाव का था। उसमें शौर्य का अभाव था। बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिल शाह ने उसे हराकर मुदगल और रायचुर दुर्ग पर कब्जा कर लिया था।

अजन्ता गुफाएँ और भित्ति चित्र : भारत में भित्ति चित्रकला के चरम विकास के उदाहरण। बम्बई (महाराष्ट्र) राज्य की अजन्ता घाटी में अनेक गुफाएँ हैं जिनमें मानव जीवन, पशु-पक्षी जगत् और प्रकृति का बहुरंगी चित्रण मिलता है। इन चित्रों की रचना पाँचवीं शताब्दी ई. में शुरू हुई और सातवीं शताब्दी ई. तक होती रही। इन चित्रों की रेखाएँ बड़ी जीवंत हैं और इनमें रंगों के सम्मिश्रण में ऊँचे दर्जे का कौशल प्रदर्शित किया गया है। इन चित्रों में मुख्यतः अलंकरण कला का प्रदर्शन किया गया है और उसका स्तर समकालीन इतालवी और दक्षिण यूरोपीय कला से उच्चकोटि का है। अजन्ता के भित्ति चित्रों में जो मानवीय आकृतियाँ और प्राकृतिक दृश्य अंकित हैं वे दाक्षिणात्य शैली के हैं। वहां की वास्तुकला भी दक्षिण की है और उसका सम्बन्ध उत्तर भारत की वास्तुकला और भित्तिचित्र कला से नगण्य है। (फर्गूसन एंड बर्जेज- 'दि केव टेम्पिल आफ इंडिया; हरवेल' - इंडियन स्कल्पचर एंड पेंटिंग; स्मिथ-हिस्ट्री आफ फाईन आर्ट्स इन इंडिया एंड सीलोन; अजन्ता फ्रेस्कोस)

अजमेर : नगर की स्थापना ११०० ई. में चौहान राजा अजयदेव ने की। ११९२ ई. में तरावड़ी की दूसरी लड़ाई में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी के द्वारा पृथ्वीराज के पराजित होने पर इस नगर पर मुसलमानों का अधिकार हो गया और तबसे यह बराबर मुसलमानी शासन में रहा। अकबर ने इसे अपने राज्य का एक सूबा बना दिया।

अजयदेव : गुजरात का शासक (११७४-७६ ई.)। उसने जैन मतावलम्बियों पर क्रूर अत्याचार किये और उनके नेता को मरवा डाला।

अजयदेव : एक चौहान राजा, जिसने ११०० ई. में अजमेर नगर की स्थापना की। उसने और उसकी रानी सोमलादेवी ने अपने सिक्के चलाये, जिनमें से कुछ पाये गये हैं।

अजातशत्रु : (जिसे कूणिक भी कहते हैं) मगध के राजा बिम्बिसार का पुत्र और उत्तराधिकारी। वह गौतम बुद्ध का समकालीन था। जनश्रुतियों के अनुसार अजातशत्रु अपने पिता की हत्या करके राजगद्दी पर बैठा था। वह शक्तिशाली राजा था और उसने वैशाली पर विजय प्राप्त करके तथा कोसल के राजा प्रसेनजित को पराजित करके काशी प्रदेश अपने राज्य में मिला लिया और कोसल की एक राजकन्या से विवाह करके मगध राज्यका विस्तार किया। उसने गंगा और सोन के संगम पर पाटलि ग्राम में किला बनवाया और पाटलीपुत्र नगर की नींव डाली। उसके राज्यकाल में ही जैन तीर्थंकर महावीर और बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान गौतम बुद्ध का निर्वाण हुआ। अजातशत्रु जैन और बौद्ध दोनों का आदर करता था। भगवान बुद्ध के भिक्षुसंघ में फूट डालनेवाले उनके चचेरे भाई देवदत्तको भी उसका संरक्षण प्राप्त था। जन श्रुतियों के अनुसार गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद ही, राजगृह में उसके राज्यकाल में बौद्धों की प्रथम संगीति हुई थी। उसका राज्यकाल ई. पू. ५१६ से ई. पू. ४८९ के आस पास माना जाता है।

अज़ारी, शेख : एक शायर, जो खुरासान से नवें बहमनी सुल्तान अहमद (१४२२-३३ ई.) के दरबार में आया और जिसे सुल्तान ने अपनी नयी राजधानी बीदर के महल की तारीफ में दो कसीदे लिखने के लिए बहुत-सा धन दिया।

अज़ीजउद्दीन : १६ वें मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय (१७५४-५९ ई.) (दे.) का मूल नाम।

अजीत सिंह : मारवाड़ के राजा जसवन्त सिंह का पुत्र। उसका जन्म १६७९ ई. में लाहौर में पिता की मृत्यु के बाद हुआ। अजीत सिंह को दिल्ली लाया गया जहाँ औरंगजेब उसे मुसलमान बना लेना चाहता था। राठौर सरदार दुर्गादास बड़े साहस के साथ अजीत सिंह को दिल्ली से निकाल कर मारवाड़ ले गया। अजीत सिंह के मामलेको लेकर मारवाड़ के राठौर सरदारों और मेवाड़ के राणा तथा औरंगजेब में लम्बा युद्ध छिड़ गया जो १७०९ ई. तक चला, जब औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके लड़के और उत्तराधिकारी बादशाह बहादुरशाह प्रथम ने राजपूतों से सुलह कर ली। अजीत सिंह ने अपनी कन्या का विवाह बादशाह फर्रुखसियर से किया और उससे सुलह कर ली, जिससे मुगल दरबार में उसका प्रभाव बढ़ गया। सैयद बन्धुओं ने उसकी सहायता मांगी और उसको अजमेर-गुजरात का सूबेदार नियुक्त कर दिया। इस प्रकार अजमेर से पश्चिमी समुद्र तटतक का प्रदेश उसके अधीन हो गया। उसे हिन्दुओं को संगठित करके मुगल सल्तनत का तख्ता पलट देने का एक अच्छा अवसर मिला था, किन्तु उसने कोई लाभ नहीं उठाया। उसके लड़के भक्तसिंह ने रहस्यमय रीति से उसकी हत्या कर दी।

अजीमुद्दौला : १८०१ ई. में गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली (१७९८-१८०५ई.) द्वारा कर्नाटक का नाममात्र के लिए नवाब बनाया गया और उसे पेंशन दी। कर्नाटक का पूरा नागरिक और सैनिक प्रशासन ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने हाथ में ले लिया था और बाद में पूरे क्षेत्र को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।

अजीम-उल्लाह खां : पेशवा बाजीराव द्वितीय (१७९६-१८१८) के पुत्र नाना साहब (दे.) का वेतन-भोगी कर्मचारी। उसने १८५७ ई. का सिपाही विद्रोह कराने में गुप्तरूप से भाग लिया। उसने भारतीयों में अंग्रेज-विरोधी भावनाएँ उभाड़ीं। ऐसा समझा जाता है कि जब यूरोप में कीमिया की लड़ाई चल रही थी तो वह यूरोप गया और उसने नाना साहब और खसियों में सन्धि कराने का प्रयास किया। वह इस प्रयास में सफल नहीं हुआ, लेकिन उसने वापस लौटकर अनेक ऐसे वृत्तान्त प्रचारित किये, जिनसे भारतीयों के मन में बैठी अंग्रेजों के अजेय होने की भावना नष्ट हो गयी। अजीम-उल्लाह के विवरण से भारतीय सिपाहियों के मन में भी कुछ सीमा तक अंग्रेजों के विरुद्ध सफलता प्राप्त करने का उत्साह जाग्रत हुआ।

अजीमुश्शान, शाहजादा : सातवें मुगल बादशाह बहादुरशाह प्रथम (१७०७-१७१२ ई.) का दूसरा पुत्र, जो अपने पिता की मृत्यु के बाद १७१२ ई. में उत्तराधिकार के युद्ध में मारा गया। एक वर्ष बाद उसका पुत्र फर्रुखसियर (१७१३-१७१९ ई.) बादशाह बना।

अटाला मसजिद : जौनपुर में शर्की राजवंश के इब्राहीम शाह (१४०२-३८ ई.) ने १४०८ ई. में बनवायी। यह इमारत जौनपुर वास्‍तुकला का उत्तम नमूना है। इसमें मीनारें नहीं हैं जो सामान्य रूप से मसजिदों में होती हैं। (ए. फुहरर-शर्की आर्कीटेक्चर आफ जौनपुर)

अतिशा : प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु और धर्म-प्रचारक। उसका जन्म ९८१ ई. में पूर्वी भारत के एक सम्पन्न जमींदार परिवार में साहोर अथवा जाहोर नामक स्थान पर हुआ जिसे कुछ लोग बंगाल में बताते हैं। उसके पिता का नाम कल्याण श्री और माता का नाम पद्मप्रभा था। माता पिता ने उसका नाम चन्द्रगर्भ रखा था। प्रारम्भिक जीवन में वह साधारण गृहस्थ और तारादेवी का उपासक था। युवा होने के बाद उसने बौद्ध सिद्धान्तों का अध्ययन किया और शीघ्र ही बौद्ध धर्म का प्रचुर ज्ञान अर्जित कर लिया। उड्यन्तपुर-बिहार के आचार्य शीलभद्र ने जहाँ अतिशा अध्ययन कर रहा था, उसे 'दीपंकर श्रीज्ञान' उपाधि से विभूषित किया। बाद में तिब्बती लोगों ने उसे अतिशा नाम से पुकारना शुरू कर दिया। शीघ्र ही लोग उसके असली नाम चन्द्रगर्भ को भूल गये और वह अतिशा दीपंकर श्रीज्ञान के नाम से अमर हो गया। वह ३१ वर्ष की आयु में भिक्षु हो गया और अगले १२ वर्ष उसने भारत और भारत के बाहर अध्ययन और योगाभ्यास में बिताये। वह पेगू (बरमा) और श्रीलंका गया। विदेशों में अध्ययन करने के बाद जब वह लौटा तो पालवंश के राजा न्यायपाल ने उसे विक्रमशिला बिहार का कुलपति बना दिया। उसकी विद्वत्‍ता और धर्म्मशीलता की ख्याति देश-देशान्तर में फैली और तिब्बत के राजा ने तिब्बत आकर वहाँ फिर से बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए उसे निमंत्रित किया। उस समय अतिशा की अवस्था ६० वर्ष की थी, लेकिन तिब्बत के राजा का अनवरत आग्रह वह अस्वीकार नहीं कर सका। दो तिब्बती भिक्षुओं के साथ अतिशा ने विक्रमशिला से तिब्बत की कठिन यात्रा नेपाल होकर पूरी की। तिब्बत में उसका राजकीय स्वागत किया गया। थालोंग का मठ उसको सौंप दिया गया, जहाँ भारी संख्या में तिब्बती भिक्षु जमा हुए। अतिशा ने १२ वर्ष तक तिब्बत में रहकर धर्म का प्रचार किया। उसने स्वयं तिब्बती भाषा सीखी और तिब्बती और संस्कृत में एक सौ से अधिक ग्रन्थ लिखे। उसकी शिक्षाओं से तिब्बत में बौद्ध धर्म में प्रविष्‍ट अनेक बुराइयाँ दूर हो गयीं। उसके प्रभाव से तिब्बत में अनेक बौद्ध भिक्षु हुए जिन्होंने उसके बाद भी बहुत वर्षों तक धर्म का प्रचार किया। अतिशा ने तिब्बत के अनेक भागों की यात्राएँ कीं और १०५४ ई. में उसने ७३ वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। तिब्बती लोगों ने उसकी समाधि ने-थांग मठ में राजकीय सम्मान के साथ बनायी। तिब्बती लोग अब भी अतिशा का स्मरण बड़े सम्मान के साथ करते हैं और उसकी मूर्ति की पूजा बोधिसत्‍त्‍व की मूर्ति की भांति करते हैं। (एस. सी. दास-इंडियन पंडित्स इन दि लैण्ड आफ स्नो; सुम्पा खान-पाग-सामजोन जेंक पृष्ठ १८५-८७; जी. एम. रोरिक-दि ब्लू एनल्स, पृष्ठ २४०-२६०; निहाररंजन राय-बंगलार इतिहास, पृष्ठ ७१६-७१७)। अदली-शेरशाह का भतीजा, जो शेरशाह के पुत्र और उत्तराधिकारी इस्लामशाह के बाद १५५४ ई. में गद्दी पर बैठा। उसने अपना नाम मुहम्मद आदिल शाह रखा। १५५७ ई. में पानीपत की दूसरी लड़ाई के बाद वह पूर्वांचल में चला गया, जहाँ बंगाल के राजा से उसकी लड़ाई हुई जिसमें वह मारा गया।

अदहम खां : बादशाह अकबर की दूधमां माहम अनगा का लड़का था। उसने अकबर को बैरम खां के विरुद्ध करने के षड्यंत्र में भाग लिया और अकबर ने १५६० ई. में बैरम खां को बर्खास्त कर दिया। इसके बाद दो वर्ष तक अकबर पर अदहम खाँ का भारी प्रभाव रहा। अकबर ने मालवा जीतने के लिए जो सेना भेजी, उसका प्रधान सेनापति अदहम खाँ को बनाया। १५६२ ई. में उसने शम्शुद्दीन अतगा खाँ को, जिसे अकबर ने अपना मंत्री बनाया था, महल के अंदर कत्ल कर दिया। इससे बादशाह इतना नाराज हुआ कि उसने उसे किले की दीवाल से नीचे फेंककर मार डालने का हुक्म दिया।

अधिराजेन्द्र : चोलवंश का अन्तिम राजा। वह परांतक (दे.) का वंशधर था। उसने केवल तीन वर्ष (१०७२-७४ई.) तक राज्य किया और उसकी हत्या कर दी गयी। वह शैव धर्मावलम्‍बी था और प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य रामानुज से इतना द्वेष करता था कि उन्हें उसके राज्यकाल में श्रीरंगम् छोड़कर अन्यत्र चला जाना पड़ा।

अधिसीम कृष्ण : पौराणिक काल में हस्तिनापुर का राजा। इसका उल्लेख वायु और मत्स्यपुराण में आया है। वह कुरुवंशी राजा परीक्षित की चौथी पीढ़ी में था। परीक्षित महाभारत युद्ध के बाद सिंहासन पर बैठा था।

अध्यक्ष : कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार विभागों के अधिकारी का पदनाम। जैसे नगराध्यक्ष (नगर-अधिकारी) और बलाध्यक्ष (सेना का अधिकारी)।

अनंगपाल : तोमर राजवंश का एक राजा, जो ११वीं शताब्दी ई. के मध्य हुआ। उसने दिल्ली में उस स्थान पर किला बनवाया जहाँ इस समय कुतुबमीनार है। उसने दिल्ली नगर को राजधानी के रूप में स्थायित्व प्रदान किया।

अनन्तवर्मा चोडगंग : पूर्वी गंग-वंश का प्रमुख राजा, जिसने कलिंगपर ७१ वर्ष (१०७६-११४७ ई.) राज्य किया। एक समय में उसका राज्य उत्तर में गंगा से लेकर दक्षिण में गोदावरी तक फैला हुआ था। उसने पुरी के जगन्नाथ मंदिर और पुरी जिले में कोणार्क के सूर्य-मंदिर का निर्माण कराया। वह हिन्दू धर्म और संस्कृत तथा तेलुगु साहित्य का महान् संरक्षण था।

अनन्द विक्रम संवत् : भारत में प्रचलित अनेक संवतों में से एक। इसका प्रयोग पृथ्वीराज रासो के कवि चंदबरदाई ने, जो मुसलमानों के आक्रमण (११९२ ई.) के समय दिल्ली नरेश पृथ्वीराजका राजकवि था, किया है। अनन्द का अर्थ है नौ (नौ नन्दों) रहित १०० में से ९ घटाने पर ९१ बचते हैं। अर्थात् ईसवी पूर्व ५८-५७ में आरम्भ होनेवाले सानन्द विक्रम संवत् के ९० या ९१ वर्ष बाद। अतएव अनन्द विक्रम संवत् का आरम्भ ईसवी सन् ३३ मानना चाहिए। (ज. रा. १९०६, पृ. ५००)

अनवरुद्दीन (१७४३-४९ ई.) : आरम्भ में निजामुल्मुल्क आसफजाह का कर्मचारी। निजाम ने प्रसन्न होकर उसको १७४३ ई. में कर्नाटक का नवाब नियुक्त कर दिया। उसकी राजधानी अर्काट थी। निजाम ने पहले नवाब दोस्त अली के लड़कों और रिश्तेदारों को नवाब नहीं बनाया। उस समय कर्नाटक में अशांति फैली हुई थी। मराठे लगातार हमले कर रहे थे और पुराने नवाब मरहम दोस्त अली के रिश्तेदार नये नवाब के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे थे। उस समय अशांति और बढ़ी जब आस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध (१७४०-४८ ई.) शुरू हो गया और कर्नाटक के क्षेत्र में पांडिचेरी और मद्रास में स्थित फ्रांसीसी और अंग्रेज व्यापारी भी आपस में लड़ने लगे।

अनवरुद्दीन कर्नाटक के नवाब के रूप में फ्रांसीसी और अंग्रेज दोनों का संरक्षक था, इसलिए आशा की जाती थी कि वह अपने राज्य में उन दोनों को लड़ने से रोकेगा। अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों संकटकाल में उसको अपना संरक्षक स्वीकार कर लेते थे। इस तरह युद्ध के आरम्भ में जब अधिक नौसैनिक शक्ति के बल पर अंग्रेजों ने फ्रांसीसी जहाजों को लूटना शुरू किया तो पांडिचेरी के फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने नवाब से फ्रांसीसी जहाजों की रक्षा करने की प्रार्थना की। लेकिन नवाब के पास जहाज नहीं थे, इसलिए अंग्रेजों ने उसके विरोध की धृष्टतापूर्वक उपेक्षा कर दी और अपनी लड़ाई जारी रखी। लेकिन जब १७४६ ई. में फ्रांसीसियों ने मद्रास पर घेरा डाला तो अंग्रेजों ने भी जो अबतक नवाब के अधिकार की उपेक्षा कर रहे थे, नवाब अनवरुद्दीन से सुरक्षा की प्रार्थना की। अनवरुद्दीन ने संरक्षक की हैसियत से डूप्ले से मद्रास का घेरा उठा लेने और शान्ति कायम रखने के लिए कहा, लेकिन फ्रांसीसियों ने उसकी एक न सुनी। चूंकि अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की लड़ाई यहाँ जमीन पर चल रही थी और अनवरुद्दीन के पास बड़ी फौज थी, इसीलिए उसने फ्रांसीसियों द्वारा डाले गये मद्रास के घेरे को तोड़ने के लिए अपनी सेना भेजी। लेकिन नवाब की सेना के पहुँचने के पहले ही फ्रांसीसियों ने मद्रास पर कब्जा कर लिया। नवाब की सेना ने फ्रांसीसियों को मद्रास में घेर लिया। इस पर छोटी-सी फ्रांसीसी सेना ने, जो मद्रास के किले में सुरक्षित थी, टिड्डी दल जैसी नवाब की बड़ी सेना पर छापा मारा और उसे बिखरा दिया। नवाब की सेना पीछे हटकर सेंट टाम नामक स्थान पर चली आयी, जहाँ एक छोटी-सी फ्रांसीसी कुमुक ने, जो मद्रास में घिरी फ्रांसीसी सेना की सहायता के लिए जा रही थी, उसे पुनः हरा दिया। इन पराजयों के परिणामस्वरूप नवाब अनवरुद्दीन की हालत अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच चलनेवाले युद्ध के दौरान असहाय दर्शक की बनी रही। इन पराजयों का दूरगामी परिणाम भी निकला। डूप्ले को यह विश्वास हो गया कि छोटी-सी सुशिक्षित फ्रांसीसी सेना अपने से बहुत बड़ी भारतीय सेना को आसानी से पराजित कर सकती है। डूप्ले ने निश्चय कर लिया कि उसकी श्रेष्ठ सैनिक-शक्ति भारत के देशी राजाओं के आंतरिक मामलों में निर्भय होकर हस्तक्षेप कर सकती है। इसलिए जब अंग्रेजों और फ्रांसीसियों का युद्ध समाप्त हो गया तो डूप्ले ने कर्नाटक के पुराने नवाब के दामाद चन्दा साहब से गुप्त सन्धि कर ली जिसमें उसको कर्नाटक का नवाब बनवाने का वादा किया गया था। इस सन्धि के आधार पर चन्दा साहब और फ्रांसीसी सेनाओं ने अनवरुद्दीन को बेलोर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित आम्बूर की लड़ाई में अगस्त १७४९ ई. में पराजित कर दिया और वह मारा गया।

अनारकली : शाहजादा सलीम की, जो बाद में बादशाह जहाँगीर (१६०५-२७ ई.) बना, प्रेयसी। बादशाह ने १६१५ ई.में लाहौर में उसकी कब्र पर संगमरमर का मकबरा तैयार कराया और उस पर एक शेर नक्स कराया जिससे अनारकली के प्रति उसका गहन प्रेम प्रकट होता है।

अनुरुद्ध : सिंहली ऐतिहासिक अनुश्रुतियों के अनुसार उदायी के तत्काल बाद, राजा अजातशत्रु (५५४-५२७ ई. पू.) का पुत्र, जो मगध की गद्दी पर बैठा। पुराणों में उसका उल्लेख नहीं मिलता है। सिंहली इतिहास में भी उसका अधिक विवरण नहीं मिलता है, सिवा इसके कि वह पितृघातक था।

अन्हिलवाड़ : आठवीं शताब्दी से १५वी. ईसवी शताब्दी तक गुजरात का प्रमुख नगर (अब यहाँ पर पाटन नामक नगर है )।अन्हिलवाड़ के राजा मूलराज ने ११७८ ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी का आक्रमण विफल कर दिया। मूलराज की इस विजय से गुजरात मुसलमानी आधिपत्य से एक शताब्दी तक बचा रहा।

अपराजित पल्लव : कांची का अन्तिम पल्लव राजा। उसने नवीं शताब्दी ई.के उत्तरार्ध में राज्य किया। ८६२-६३ ई.में उसने पांड्य राजा वरगुण वर्मा को श्री पुरम्विया के युद्ध में पराजित किया था, लेकिन बाद में नवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में वह स्वयं चोल राजा आदित्य प्रथम (८८०-९०७ ई.) से पराजित हुआ और मारा गया। अपराजित की मृत्यु के बाद पल्लव राजवंश का अन्त हो गया।

अपोलोडोटस : युक्रेटी दस का पुत्र और भारत का एक यवन राजा (१७५-१५६ ई. पू. )। उसने अपने पिता की हत्या करके उसके रक्त पर अपना रथ चलाया और उसके शव का अंतिम संस्कार भी नहीं करने दिया। उसने अपने नाम के सिक्के चलाये। कुछ लोगों का कहना है कि अपोलोडोटस युक्रेटी दस का पुत्र नहीं वरन् उसका प्रतिद्वन्द्वी था। (पी. एच. ए. आई. पृष्ठ ३८६)

अप्पा साहब : भोंसला राजा रघुजी द्वितीय (१७८८-१८१६ ई.) के छोटे भाई व्यांकोजी का पुत्र। रघुजी द्वितीय की १८१६ ई. में मृत्यु होने पर उसका नाबालिग लड़का परसोजी, जो भोंदू किस्म का था, गद्दी पर बैठा। अप्पा साहब उसका संरक्षक नियुक्त किया गया। अप्पा साहब ने अपनी शक्ति दृढ़ करने के लिए मई १८१६ ई. में अंग्रेजों से आश्रित सन्धि कर ली। इस प्रकार नागपुर राज्य, जिसने रघुजी भोंसला द्वितीय के राज्यकाल में अंग्रेजों से इस प्रकार की सन्धि करने से इन्कार कर दिया था, उसकी स्वतंत्रता अप्पा साहब के शासनकाल में समाप्त हो गयी। लेकिन जब पेशवा बाजीराव द्वितीय ने १८१७ ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध शस्त्र उठाया तो अप्पा साहब ने भी उसका साथ दिया। अंग्रेजों ने नवम्बर १८१७ ई. में उसकी सेना को सीताबल्डी की लड़ाई में पराजित कर दिया। अप्पा साहब पहले पंजाब भाग गया और बाद में जोधपुर चला गया जहाँ १८४० ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

अफगान : उन पर्वतीय जन-जातियों के लिए प्रचलित शब्द जो न केवल अफगानिस्तान में बसती हैं, बल्कि पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में भी रहती हैं। इतिहास के आरम्भ काल से भारत के साथ इस दुर्धर्ष जाति के सम्बन्ध मित्रता के भी रहे, और शत्रुता के भी। भारत की सम्पदा पर लुब्ध होकर ये लोग व्यापारियों और लुटेरों दोनों रूपों में भारत आते रहे। सुल्तान महमूद (गजनवी) पहला अफगान सुल्तान था, जिसने भारत पर आक्रमण किया। शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी पहला अफगान सुल्तान था जिसने भारत में मुसलमानी शासन की नींव डाली। दिल्ली के जिन सुल्तानों ने १२०० से १५२६ ई. तक यहाँ राज्य किया वे सभी अफगान अथवा पठान पुकारे जाते थे। लेकिन उनमें से अधिकांश तुर्क थे। केवल लोदी राजवंश के सुल्तान (१४५०-१५२६ ई.) ही असल पठान थे। प्रथम मुगल बादशाह बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई में भारत में पठान शासन का अन्त कर दिया। शेरशाह ने दुबारा पठान राज्य (१५३९-४२ ई.) स्थापित किया और पानीपत की दूसरी लड़ाई (१५५६ ई.) को जीतकर अकबर ने उसे समाप्त कर दिया।

अफगानिस्तान : पाकिस्तान की पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित देश। पेशावर के आगे डूरंड रेखा से इसकी सीमा शुरू होकर हिन्दूकुश तक जाती है। अफगानिस्तान का सदियों से भारत से सम्बन्ध रहा है। महाभारत के अनुसार कुरु नरेश धृतराष्ट्र ने गंधार की राजकुमारी से विवाह किया था। गंधार को आजकल कंधार कहते हैं। सिकंदर के हमले के पहले यह क्षेत्र तीन प्रान्तों में विभाजित था-परोपनिसदै, प्रादिया और आर्कोसिया जो आज के काबुल, हिरात और कंधार प्रान्त हैं। सिकंदर ने इस प्रदेश को जीता था। उसकी मृत्यु के बाद यह प्रदेश उसके सेनापति सेल्यूकस निकेटर को मिला और सेल्यूकस निकेटर को यह प्रदेश चन्द्रगुप्त मौर्य को समर्पण कर देना पड़ा। इस प्रकार अफगानिस्तान भारत का अभिन्न अंग बन गया। अभी हाल में जलालाबाद और कंधार के पास जो अशोक स्तम्भ मिले हैं उनसे प्रकट होता है कि अफगानिस्तान में भारतीय संस्कृति का कितना प्रभाव था। यह एशिया जानेवाले बौद्धधर्म-प्रचारकों के मार्ग पर पड़ता था और बौद्धधर्म का केन्द्र था। यह प्रदेश कुषाण साम्राज्य का अंग था। कुषाणों के पतन के बाद ईसा की तीसरी शताब्दी में यहाँ पारसियों का शासन हो गया। गुप्त शासन काल में इसको गुप्त साम्राज्य में नहीं मिलाया जा सका और ईसा की आठवीं शताब्दी में पड़ोसी पश्चिमी और उत्तरी राज्यों की भांति अफगानिस्तान में मुसलमानी शासन स्थापित हो गया। इस्लाम ने इस देश के लड़ाकू पर्वतीय लोगों में धर्मोन्माद पैदा कर दिया और भारत की सम्पदा ने उनके मन में लोभ भर दिया। इसके फलस्वरूप गजनी और गोरके मुसलमान शासकों ने भारत पर बार-बार आक्रमण किये। अन्त में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने ११९३ ई. में दिल्ली को जीत लिया और भारत में मुसलमानी शासन की नींव डाली।

दिल्ली के सुल्तानों को 'पठान' कहा जाता है, यद्यपि वे ज्यादातर तुर्क थे। ये लोग अफगानिस्तान पर अधिक समय तक अपना अधिकार नहीं रख सके। अफगानिस्तान पर क्रूर और दुर्धर्ष मंगोलों का अधिकार हो गया और वहां से उन्होंने भारत पर आक्रमण किये। १५०४ ई. में बाबर ने इस देश पर अधिकार कर लिया और काबुल को अपनी राजधानी बनाया। काबुल से उसने भारत पर आक्रमण किया और १५२६ ई. में पानीपत की पहली लड़ाई जीतकर भारत में मुगल-साम्राज्य की स्थापना की। १५९५ ई. में अकबर ने कंधार को जीता और अफगानिस्तान को फिर से मुगल-साम्राज्य का हिस्सा बना लिया। १६२२ ई. में कंधार जहाँगीर के हाथ से निकल गया। १६३८ ई. में शाहजहाँ ने उस पर पुनः अधिकार कर लिया, लेकिन १६४८ ई. में वह पुनः उसके हाथ से निकल गया। इसके बाद कंधार पर फिर से अधिकार करने के प्रयास विफल रहे, लेकिन काबुल १७३९ ई. तक मुगल साम्राज्य का हिस्सा बना रहा। उस वर्ष नादिरशाह ने, जो १७३६ ई.में फारस का शाह बना था, काबुल को जीत लिया और दिल्ली को लूटा। इस प्रकार अफगानिस्तान भारतीय शासकों के हाथ से निकल गया लेकिन संबंध बिल्कुल टूट नहीं गये। १७४७ ई. में नादिरशाह की हत्या के बाद अफगान सरदार अहमद शाह अब्दाली या दुर्रानी, ने अफगानिस्तान में अपना राज्य स्थापित किया। अहमद शाह दिल्ली के मुगल बादशाहों के लिए सिरदर्द बन गया। उसने पंजाब पर आक्रमण करके उसे अपने राज्य में मिला लिया। १७६१ ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई को जीतकर उसने मुगल-साम्राज्य की जड़ खोद डाली। अहमदशाह का, दिल्ली का बादशाह बनने का सपना पूरा नहीं हुआ और उसके बाद अफगानिस्तान कभी भारतीय राज्य का भाग नहीं बना। वहाँ अफगान बादशाहों का राज्य रहा और भारत को उस तरफ से खतरा बना रहा। जमानशाह (१७९३-१८०० ई.) ने १७९८ ई. में लाहौर पर कब्जा कर लिया और भारत पर आक्रमण करने का इरादा किया। लेकिन १८०० ई. में वह अपदस्थ कर दिया गया। इसके बाद अफगानिस्तान में अराजकता का दौर शरू हो गया जो दोस्त मोहम्मद (१८२६-६३ ई.) के शासक बनने पर खत्म हुआ। उसने अफगानिस्तान में शान्ति-व्यवस्था स्थापित की। लेकिन उसी समय से अफगानिस्तान मध्य एशिया में बढ़ते हुए रूस और भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के बीच प्रतिद्वन्द्विता का मोहरा बन गया। दोनों शक्तियाँ अफगानिस्तान में अपना प्रभुत्व जमाना चाहती थीं। अफगानिस्तान इस प्रभुत्व से बचने के लिए दोनों को एक दूसरे से लड़ाता रहता था। इस प्रतिद्वन्द्विता के कारण १९वीं शताब्दी में अफगानिस्तान और भारत की ब्रिटिश सरकार में दो युद्ध हुए (युद्धों का विवरण, 'आंग्‍ल-अफगान युद्ध' शीर्षक में देखें)। दूसरे अफगान युद्ध के परिणामस्वरूप अफगानिस्तान अपने वैदेशिक मामलों में एक प्रकार से भारत की ब्रिटिश सरकार के अधीन हो गया। १८२३ ई. में अफगानिस्तान और ब्रिटिश भारत की जो सीमा निश्चित की गयी उसे 'डूरंड रेखा' कहा जाता है। १९०४ ई. में अमीर हबीबुल्लाह को अंग्रेजों ने 'हिज़ मैजेस्टी' का खिताब दिया और उसको स्वतंत्र शासक के रूप में मान्यता दी। पहले महायुद्ध में अफगानिस्तान ने तटस्थता की नीति बरती जो ब्रिटिश शासकों के अनुकूल थी। हबीबुल्लाह के उत्तराधिकारी अमीर अमानुल्लाह से तीसरा आंग्‍ल अफगान युद्ध (अप्रैल-मई १९१९ ई.) में हुआ जिसमें अफगानिस्तान हार गया। अफगानिस्तान को भारत के मार्ग से विदेशी शस्त्रास्त्रों को आयात करने का अधिकार नहीं रहा और भारत की ब्रिटिश सरकार ने उसे सहायता देना भी बन्द कर दिया लेकिन उसको अपने वैदेशिक सम्बन्धों में आज़ादी मिल गयी और दोनों सरकारों ने एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करने का वचन दिया। अमानुल्लाह ने उसके बाद यूरोप की यात्रा की और वहाँ से लौटकर उसने अफगानिस्तान में सामाजिक, शैक्षणिक और वैधानिक सुधारों की नीति अपनायी। इन सुधारों का कट्टरपंथी अफगानों ने विरोध किया और मई १९२९ में वहाँ गृहयुद्ध शुरू हो गया। अमानुल्लाह को गद्दी छोड़नी पड़ी। कुछ समय के लिए अफगानिस्तान पर बच्चा सक्का का अधिकार हो गया। अंग्रेजों ने वहाँ हस्तक्षेप नहीं किया। अन्त में बच्चा-सक्का पराजित हुआ और मुहम्मद नादिरशाह ने जो पुराने राजपरिवार का था और अमानुल्लाह का एक योग्य सरदार था, उसका वध कर दिया। वह नादिरशाह के नाम से अफगानिस्तान का शासक बना और १९३३ ई. तक योग्यता के साथ राज्य किया। उस वर्ष उसकी हत्या कर दी गयी। उसका पुत्र महमूद जहीरशाह उसका उत्तराधिकारी बना। नादिरशाह और जहीरशाह के शासन में अफगानिस्तान और भारत के सम्बन्ध संतोषजनक रहे। पाकिस्तान के बनने के बाद भारत से अफगानिस्तान का भौगोलिक सम्बन्ध कट गया, किन्तु दोनों के बीच मित्रता के सम्बन्ध बने रहे।

अफजल खां : बीजापुर के सुल्तान का सेनापति, जिसे १०,००० सैनिकों के साथ शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा गया था जो उस समय विद्रोही शक्ति के रूप में उभर रहे थे। प्रारम्भ में अफजल खाँ सफलता प्राप्त करता हुआ १५ दिनों के भीतर सतारा से २० मील दूर वाई नामक स्थान तक पहुँच गया। लेकिन शिवाजी प्रतापगढ़ किले में सुरक्षित थे। जब अफजल खाँ शिवाजी को उस किले से बाहर निकालने में सफल नहीं हुआ तो उसने सुलह की बात चलायी और दोनों के एक खेमें में मिलने की बात तय हुई। शिवाजी को अफजल खाँ की ओर से धोखेबाजी का संदेह था, इसलिए उन्होंने कपड़ों के नीचे बख्तर पहन लिया और अपने हाथ में बघनखा लगा लिया था ताकि अफजल खाँ की ओर से घात होने पर उसका प्रतिकार कर सकें। जब शिवाजी अफजल खाँ से मिले तो उसने शिवाजी को अपनी बाहों में भर लिया और इतना कसकर दबाया जिससे शिवाजी का दम घुट जाय। शिवाजी ने अपने पंजे में लगे बघनख से अफजल खाँ का पेट फाड़ दिया और उसे मार डाला। उसके बाद मराठों ने खुले युद्ध में बीजापुर की फौज को पराजित कर दिया।

अफ्रीदी : सीमा प्रांत का एक लड़ाकू कबीला, जो खैबर क्षेत्र में निवास करता है। ये लोग भारतीय प्रशासन के लिए बराबर सिरदर्द बने रहते थे। १६६७ ई. में इन लोगों ने औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और लम्बे संघर्ष के बाद उनका दमन किया जा सका। १८९३ ई. के बाद जब अफगानिस्तान और भारत की ब्रिटिश सरकार के अधीन आ गया। ब्रिटिश शासकों को इस क्षेत्र पर नियंत्रण करने के लिए अनेक फौजी अभियान चलाने पड़े और अफ्रीदी सरदारों को अपनी ओर मिलाने के लिए उन्हें आर्थिक सहायता भी देनी पड़ी।

अबुल फ़ज़ल : शेख मुबारक का पुत्र। वह बहुत पढ़ा-लिखा और विद्वान् था और उसकी विद्वत्ताका लोग आदर करते थे। वह बहुत वर्षों तक अकबर का विश्वासपात्र वजीर और सलाहकार रहा। वह केवल दरबारी और आला अफसर ही नहीं था, वरन् बड़ा विद्वान् था और उसने अनेक पुस्तकें लिखी थीं। उसकी 'आईन-ए-अकबरी' में अकबर के साम्राज्य का विवरण मिलता है और 'अकबरनामा' में उसने अकबर के समय का इतिहास लिखा है। उसका भाई फैजी भी अकबर का दरबारी शायर था। १६०२ ई. में बुंदेला राजा वीर सिंह ने शाहजादा सलीम के उकसाने से अबुल फ़ज़ल की हत्या कर डाली।

अबुल हसन : गोलकुंडा राज्य के कुतुबशाही सुल्तानों में अन्तिम सुल्तान। मुगल सम्राट् औरंगजेब उससे नाराज हो गया और १६८७ ई. में उसने उसे पराजित कर दिया और गद्दी से हटा कर दौलताबाद के किले में कैद रखा जहाँ कुछ वर्षों के बाद उसकी मौत हो गयी।

अब्दाली, अहमद शाह : दुर्रानी कबीले का एक अफगान सरदार, जिसने १७४७ ई. में नादिरशाह (दे.) की हत्या के बाद अफगान सिंहासन पर अपना अधिकार जमा लिया। उसने १७४७ से १७७३ ई. तक शासन किया। अपने शासन काल में उसने आठ बार भारत पर हमले किये। उसने पंजाब पर अधिकार कर लिया और १७६१ ई. में पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों को पराजित किया। अफगान सैनिकों ने उस युद्ध के बाद मथुरा की ओर बढ़ने से इन्कार कर दिया क्योंकि चार साल पहले वहाँ पर अफगान सैनिकों में हैजा फैल गया था जिसमें बहुतों की मृत्यु हो गयी थी। इससे मज़बूर होकर अब्दाली अफगानिस्तान लौट गया और पानीपत में मिली विजय के बाद पूरे हिन्दुस्तान में अपना साम्राज्य स्थापित करने का उसका स्वप्न टूट गया। अब्दाली के आक्रमण का संकट १७६७ ई. तक बना रहा और उसका प्रभाव भारत में अंग्रेजों की नीति पर कई वर्षों तक पड़ा। अहमद शाह अब्दाली का देहान्त १७७३ ई. में हुआ। (यदुनाथ सरकार-फाल आफ मुगल इम्पायर, भाग दो, पृ. ३७६)

अब्दुर्रज्ज़ाक लारी : गोलकुंडा के आखिरी सुल्तान का दरबारी और सिपहसालार। १६८७ ई. नें जब औरंगजेब ने गोलकुंडा पर अन्तिम आक्रमण किया तो उसने अब्दुर्रज्ज़ाक को अनेक लालच दिये, पर वह न डिगा और बहादुरी से गोलकुंडा की रक्षा करते हुए उसके ७० घाव लगे। बाद में औरंगजेब ने उसका इलाज कराया और उसे मुगल दरबार में ऊँचा पद प्रदान किया।

अब्दुर्रज्ज़ाक हेरात : १४४८ ई. में फारस के सुलतान शाहरुख का राजदूत होकर भारत आया। पहले वह कालीकट पहुँचा और वहाँ से विजय नगर गया जहाँ का दिलचस्प वर्णन उसने किया है।

अब्दुर्रहमान, अमीर : १८८० ई. में दूसरे अफगान युद्ध के बाद अंग्रेजों की मदद से अफगानिस्तान के सिंहासन पर बैठाया गया। वह चतुर राजनीतिज्ञ था, और उसने इंग्लैण्ड और रूस दोनों से मित्रता रखी। उसने अफगानिस्तान का आन्तरिक शासन बड़ी कुशलता से चलाया और उसकी अखंडता कायम रखी। उसके शासन काल में भारत-अफगानिस्तान सीमा निर्धारण डूरंड रेखा के आधार पर १८९३ ई. में किया गया।

अब्दुर्रहीम, खानखाना : बैरम खाँ का लड़का। १५६१ ई. में पिता की मृत्यु के समय अब्दुर्रहीम नाबालिग था। अकबर के शासन में उसने तरक्की की और 'खानखाना' की उपाधि से सम्मानित किया गया। अनेक युद्धों में उसने भाग लिया। वह प्रसिद्ध कवि भी था। उसके दोहे हिंदी में प्रसिद्ध हैं। उसने बाबर की आत्मकथा का तुर्की से फारसी में अनुवाद किया। उसके आश्रित अब्दुल बाकी ने मआसिर-ए-रहीमी नामक पुस्तक में उसकी प्रशंसा की है। वह लम्बी अवस्था तक जीवित रहा और जहाँगीर के शासन काल में उसकी मृत्यु हुई।

अब्दुल गफ्फार खां : बादशाह खान और सीमांत गांधी के नाम से भी प्रसिद्ध पठानों के नेता। वे पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त के राष्ट्रीयतावादी मुस्लिम नेताओं में मुख्य रहे हैं। उन्होंने अपने प्रान्त में पहले 'खुदाई खिदमतगार' संगठन बनाया और बाद में गांधीजी के अहिंसात्मक असहयोग आन्दोलन में शामिल हो गये। १६३७ ई. के आम चुनाव में उनके नेतृत्व में कांग्रेस को बड़ी सफलता मिली और पश्चिमोत्तर प्रान्त में कांग्रेस मंत्रिमंडल बनाया गया जिसके मुख्यमंत्री अब्दुल गफ्फार खाँ के छोटे भाई, डाक्टर खान साहब हुए। स्वतंत्रता के समय भारत के विभाजन के बाद पश्चिमोत्तर प्रान्त पाकिस्तान का एक हिस्सा बन गया। अब्दुल गफ्फार खाँ ने वहाँ पख्तून आन्दोलन चलाया जिससे पाकिस्तान सरकार ने उन्‍हें लम्बे समय तक जेल में रखा। जेल से रिहा होने पर वे चिकित्सा के लिए काबुल में रहने लगे। १९७० में दिसम्बर के चुनाव में नेशनल आवामी पार्टी को पश्चिमोत्तर प्रान्त में सफलता मिली। १९७१ ई. के अन्त में पाकिस्तान के राष्ट्रपति श्री जुल्फिकार अली भुट्टो बने। उन्होंने १९७२ ई. में अब्दुल गफ्फार खाँ को पाकिस्तान लौटने की अनुमति दे दी।

अब्दुल हमीद लाहौरी : शाहजहाँ (दे.) का सरकारी इतिहासकार। उसकी रचना का नाम 'पादशाहनामा' है जो शाहजहाँ के शासन का प्रामाणिक इतिहास माना जाता है।

अब्दुल्ला, बड़ा सैयद : सैयद बंधुओं (दे.) में बड़ा भाई। सैयद अब्दुल्ला और उसके छोटे भाई हुसैन ने १७१३ से १७१९ ई. तक मुगल सल्तनत का संचालन किया। इन लोगों ने फर्रुख़सियर को १७१३ ई. में सिंहासन पर बैठाया। १८१९ ई. में उसे गद्दी से हटा दिया और उसकी हत्या करवा दी। उसी एक वर्ष के भीतर उन्होंने चार मुगल बादशाहों को गद्दी पर बैठाया और हटाया। जब उन लोगों ने पाँचवें बादशाह मुहम्मद शाह को १८१९ ई. में गद्दी पर बैठाया तो उसने हुसैन का कत्ल करवा दिया और अब्दल्ला को कैद करा दिया, जहाँ उसे जहर देकर १८२२ ई. में मार डाला गया।

अब्दुस्समद : अकबर का चित्रकला का उस्ताद, जिसे बाद में अकबर ने टकसाल का अधिकारी बनाया। वह अपने समय का नामी कलाकार माना जाता था।

अभिषेक : का अर्थ है जल छिड़कना। राजपद पर निर्वाचित होने पर राजा का अभिषेक आवश्यक माना जाता था। इस अवसर पर ब्राह्मण पुरोहित, निर्वाचित राजा का कोई निकट सम्बन्धी या भाई, एक मित्र नरेश और एक वैश्य उस पर १७ तीर्थों का पवित्र जल छिड़कते थे।

अभिसार : एक जनजाति, जो सिकंदर के आक्रमण के समय कश्‍मीर के पुंछ तथा पड़ोस के कुछ जिलों में तथा उत्‍तर-पश्चिमी सीमा प्रांत के हजारा जिले में निवास करती थी।

अभिसारेश - सिकंदर के आक्रमण के समय अभिसार जनपद का राजा। वह बड़ा चतुर राजनीतिज्ञ था। जब सिकंदर तक्षशिला पहुँचा तो उसने कहलाया कि मैं यवन आक्रमणकारियों के सामने आत्मसमर्पण करने को तैयार हूँ। इसके साथ ही वह पोरस से मिलकर सिकंदर से लड़ने के लिए भी संधि-वार्ता चलाता रहा। यह वार्ता सफल नहीं हो सकी और अंत में अभिसार जनपद के राजा को सिकंदर के सामने आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य होना पड़ा।

अमरकोट : सिन्ध का एक नगर और राज्य, जहाँ २३ नवम्बर १५४२ ई. को अकबर का जन्म हिन्दु राजा राणा प्रसाद की शरण में हुआ। मार्च १८४३ ई. में सर चार्ल्स ने पियर के नेतृत्व में भारत की अंग्रेजी सेना ने उस पर कब्जा कर लिया और उसके साथ ही पूरे सिन्ध पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अब यह पाकिस्तानी क्षेत्र में है।

अमरदास : सिखों के तीसरे गुरु (१५५२-७४ ई.)। वे चरित्रवान् और सदाचारी थे। उन्होंने सिख धर्म का काफी प्रचार किया।

अमर सिंह : मेवाड़ का राणा (१५९६-१६२० ई.)। वह प्रसिद्ध राणाप्रताप सिंह का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उसने अपनी स्वतंत्रता के लिए बादशाह अकबर से बहादुरी से युद्ध किया, लेकिन १५९९ ई. में वह पराजित हो गया। वह अकबर की परतंत्रता से अपनी मातृभूमि को बचाने में तो सफल नहीं हुआ, लेकिन उसने १६१४ ई. तक मुगलों के विरुद्ध अपनी लड़ाई जारी रखी। लगातार विफलता और मुगल साम्राज्य के बढ़ते हुए दबाव के कारण, उसने बादशाह जहाँगीर से सम्मानपूर्वक सन्धि कर ली। जहाँगीर ने मेवाड़ के राणा को मुगल दरबार में हाजिर होने और किसी राजकुमारी को मुगल हरम में भेजने की अपमानजनक शर्त नहीं रखी। मेवाड़ और मुगलों के बीच मित्रता के जो सम्बन्ध स्थापित हो गये थे वे औरंगजेब के समय में उसकी धार्मिक असहिष्णुता की नीति के कारण समाप्त हो गये।

अमरसिंह थापा : सन् १८१४-१६ ई. के आंग्ल-नेपाल युद्ध के समय नेपाली सेना का सेनापति, जिसने बड़ी वीरता से जनरल आक्टर लोनी के नेतृत्व में लड़ने वाली अंग्रेज सेना से मालौन के किले की रक्षा १५ मई १८१५ ई. तक की, जब उसे बाध्य होकर किला छोड़ना पड़ा। इसके कुछ महीने बाद १८१५ ई. की सुगौली की सन्धि के द्वारा यह युद्ध समाप्त हो गया।

अमात्य : गुप्त-शासन काल में उच्च प्रशासकीय अधिकारी का पद, जो मंत्री के समकक्ष माना जाता था। मराठा छत्रपति शिवाजी ने भी इस पद को प्रचलित किया था। शिवाजी के समय में अमात्य का अर्थ वित्तमंत्री था जिसको सरकारी हिसाब-किताब की जाँच करके उसपर हस्ताक्षर करने पड़ते थे।

अमानुल्लाह : अफगानिस्तान का बादशाह (१९१९-१९२९ ई.)। वह अपने पिता अमीर हबीबुल्ला (१९०१-१९ई.) के उत्तराधिकारी के रूप में गद्दी पर बैठा था। गद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही उसने भारत के ब्रिटिश शासकों से लड़ाई छेड़ दी जो तीसरे आंग्ल-अफगान युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। अंग्रेजों की भारतीय सेना अफगान सेना के मुकाबले में कहीं श्रेष्ठ थी। उसके पास विमान, बेतार से खबर भेजने की व्यवस्था और शक्तिशाली विस्फोटक पदार्थ थे। अंग्रेजों ने अमानुल्लाह की सेना को आसानी से पराजित कर दिया। अमानुल्लाह ने अगस्त १९१९ ई. में सन्धि का प्रस्ताव किया जिसकी पुष्टि १९२९ ई. में हुई। इस सन्धि के बाद अमानुल्लाह को अंग्रेजों से आर्थिक सहायता मिलनी बन्द हो गयी लेकिन उसे अपनी वैदेशिक नीति में आजादी मिल गयी। अफगानिस्तान और इंग्लैण्ड में राजनयिक सम्बन्ध स्थापित हो गये और एक दूसरे की राजधानियों में राजदूत भेजे गये। इसके बाद अंग्रेजों और अफगानों के सम्बन्धों में सुधार हो गया। अमानुल्लाह शाह ने उसके बाद यूरोप की यात्रा की और वहाँ से लौटने पर अपने देश में यूरोपीय ढंग के सुधार किये। इन सुधारों से पुरातनपंथी अफगान नाराज हो गये और अफगानिस्तान में गुहयुद्ध छिड़ गया जिससे मजबूर होकर अमानुल्लाह ने १९२९ में गद्दी छोड़ दी। उसके बाद वह अपनी मलका सुरैया के साथ यूरोप चला गया जहाँ वह मृत्युपर्यंत प्रवास में रहा।

अमरावती : आन्ध्र प्रदेश के गुंटूर जिले का एक नगर, जो सातवाहन राजाओं के शासनकाल में हिन्दू संस्कृति का केन्द्र था। अशोक की मृत्यु के बाद करीब चार शताब्दी तक दक्षिण भारत में सातवाहन शासन रहा। अमरावती में कला, वास्तुकला और मूर्तिकला की स्थानीय मौलिक शैली विकसित हुई थी। अमरावती में मिली मूर्तियों की कोमलता और भाव-भंगिमा दर्शनीय हैं। प्रत्येक मूर्ति का अपना आकर्षण है और पेड़-पौधों, फूलों, विशेषरूप से कमल के फूलों को बड़े सुन्दर ढंग से बनाया गया है। बुद्ध मूर्तियों को मानव आकृति के बजाय प्रतीकों के द्वारा गढ़ा गया है जिससे पता चलता है कि अमरावती-शैली मथुरा और गांधार शैलियों से पहले की है। वह यूनानी प्रभाव से सर्वथा मुक्त है।

अमित्रघात : का शाब्दिक अर्थ शत्रु-हन्ता है। यूनानी इतिहासकारों ने इस शब्द का अमित्रकाट्स रूप लिखा है और चन्द्रगुप्त मौर्य के पत्र बिन्दुसार को इस नाम से सम्बोधित किया है।

अमीचन्द : एक धनी किन्तु धूर्त सेठ, जो १८ वीं शताब्दी के मध्य में कलकत्ते में रहता था। उसने नवाब सिराजुद्दौला को अपदस्थ कर मीर जाफ़र को बंगाल का नवाब बनाने के लिए कलकत्ते में अंग्रेजों और मुर्शिदाबाद में नवाब के विरोधियों के बीच गुप्त वार्ताएँ चलायीं। जब यह गुप्त वार्ता काफी आगे बढ़ चुकी और नवाब सिराजुद्दौला के विरुद्ध पड़यंत्र में अंग्रेजों की पूर्ण भागीदारी स्पष्ट हो चुकी, अमीचन्द ने मुर्शिदाबाद में नवाब के खजाने की लूट से प्राप्त होनेवाले धन में से लम्बे कमीशन की मांग की तथा यह धमकी दी कि यदि उसे वांछित धनराशि न दी गयी तो वह नवाब को सारे पड़यंत्र की सूचना दे देगा। राबर्ट क्लाइव के सुझाव पर मीर जाफ़र के साथ होनेवाली संधि के दो प्रारूप तैयार किये गये। एक में उक्त कमीशन दिये जाने की बात थी और दूसरे में नहीं। जाली संधि-पत्र पर क्लाइव के तथा एडमिरल वाटसन को छोड़कर कलकत्ता कौंसिल के अन्य सभी सदस्यों के हस्ताक्षर थे। क्लाइवने उस जाली संधि-पत्र पर वाट्सन के भी जाली हस्ताक्षर कर लिये। किन्तु अमीचन्द को इस जाल बट्टे की जानकारी पलासी के युद्ध के उपरांत हुई और कहा जाता है कि अंततः वह निराश और पागल होकर मर गया।

अमीन खां : १६७२ ई. में अफगानिस्तान का मुगल सूबेदार। औरंगजेब के समय में जब अफरीदियों ने बादशाह के विरुद्ध विद्रोह किया उस समय अली मस्जिद की लड़ाई में अमीन खाँ बुरी तरह हारा।

अमीन खाँ : मुगल बादशाह मुहम्मद शाह के शासनकाल (१७१९-१७४८ ई.) में जब सैयद बंधुओं का पतन हो गया उस समय अमीन खाँ को दिल्ली का वजीर बनाया गया। उसकी मृत्यु १७२१ ई. में हुई।

अमीर अली, सैयद : (१८४९-१९२९ ई.) पहला भारतीय जिसको प्रिवी कौंसिल में न्यायाधीश नियुक्त किया गया। उसने अपना जीवन ऐडवोकेट के रूप में शुरू किया और १८९० ई.में कलकत्ता हाईकोर्ट का जज बनाया गया। इस पद पर वह १९०४ ई. तक रहा। १९०९ ई. में उसको इंग्लैण्ड में प्रिवी कौंसिल की जुडीशियल कमेटी में नियुक्त किया गया। उसकी मृत्यु इंग्लैण्ड में हुई। उसने 'हिस्ट्री आफ सराकेन्स' और कई कानून-सम्बन्धी पुस्तकें लिखी हैं।

अमीर उमर : सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का भांजा, जिसने बदायूँ में सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह किया, जिसका आसानी से दमन कर दिया गया और अमीर उमर को मौत के घाट उतार दिया गया।

अमीर खां : बादशाह औरंगजेब का एक सेनापति, जो २१ वर्ष (१६७७-९८ ई.) काबुल में मुगल सूबेदार रहा और उसने बड़ी योग्यता से प्रशासन चलाया।

अमीर खां : पिंडारियों का सरदार और भाड़े पर लड़नेवाले पठानों और लुटेरों का नेता। १९ वीं शताब्दी के आरम्भ में मध्य-भारत में जब तीसरा आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ तो अमीर खाँ पहले होल्कर के संरक्षण में रहकर लड़ा। लेकिन बाद में अंग्रेजों ने उसे अपने पक्ष में मिला लिया और उसे टोंक रियासत का नवाब मान लिया जहाँ उसके परिवार के लोग १९४८ ई. तक नवाब रहे। १९४८ ई. में टोंक रियासत का भारत में विलयन हो गया।

अमीर खुसरो : तोतए-हिन्द' उपनाम से प्रसिद्ध एक विद्वान् कवि और लेखक, जिसने फारसी, उर्दू और हिन्दी में अपनी रचनाएँ कीं। उसने प्रचुर मात्रा में पद्य और गद्य दोनों लिखा है और संगीत की भी रचना की है। उसने लंबी उम्र पायी और उसे दिल्ली के कई सुल्तानों-बलबन से गयासुद्दीन तुगलक तक का संरक्षण मिला। उसकी मृत्यु १३२४-२५ ई. में हुई। उसकी कृतियों में बहुत-सी कविताएँ, ऐतिहासिक मसनवी, 'तुगलक नामा' और 'तारीख-ए-अलाइ' नामक दो इतिहास ग्रंथ हैं।

अमृतराव : रघुनाथ राव (राघोबा) का दत्तक पुत्र, जो पेशवा बाजीराव प्रथम का दूसरा पुत्र था। उसने पेशवा के रूप में केवल एक वर्ष (१७७३ ई.) राज्य किया। पूना की लड़ाई के बाद जब पेशवा बाजीराव द्वितीय (१७९६-१८१८) अक्तूबर १८०३ ई. में वसई भाग गया था तब अमृतराव को पेशवा बनाया गया। अमृत राव ने पेशवा बाजीराव द्वितीय को १८०३ ई. के आरम्भ में अंग्रेजों द्वारा दुबारा पेशवा बनाने का विरोध नहीं किया और वह पेंशन पाकर बनारस में रहने लगा।

अमृतसर : पंजाब में सिखों का तीर्थस्थान। सिखों के चौथे गुरु रामदास को १५७७ ई. में बादशाह अकबर १५५६-१६०५ ई.) ने यह स्थान दिया था। बाद में इस नगर का विकास हुआ और सिखों के दान से स्वर्ण मंदिर का निर्माण किया गया।

अमृतसर की संधि : २५ अपैल, १८०९ ई. को रणजीत सिंह और ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच हुई। उस समय लार्ड मिन्टो (१८०७-१३ ई.) भारत के गवर्नर-जनरल थे। इस सन्धि के द्वारा सतलज पार की पंजाब की रियासतें अंग्रेजों के संरक्षण में आ गयीं और सतलज के पश्चिम में पंजाब राज्य का शासक रणजीत सिंह को मान लिया गया।

अमृतसर की संधि : १६ मार्च १८४६ ई. को प्रथम आंग्ल सिख युद्ध (१८४५-४६ ई.) के समाप्त होने पर अमृतसर में की गयी। इस सन्धि के द्वारा कश्मीर जो रणजीत सिंह के राज्य का हिस्सा था उसे राज्य दलीप सिंह से ले लिया गया और अंग्रेजों ने उसे गुलाब सिंह को दे दिया। गुलाब सिंह लाहौर दरबार का एक सरदार था। इसके बदले में उसने अंग्रेजों को दस लाख रुपये दिये।

अमोघ वर्ष : दक्षिण के राष्ट्रकूट राजवंश में इस नाम के तीन राजा हुए। अमोघ वर्ष प्रथम ने सबसे लम्बे समय तक (८१४-८७७ ई.) राज्य किया। उसे अपने पूर्वी पड़ोसी वेंगि के चालुक्य राजाओं से अनेक युद्ध करने पड़े। वह अपनी राजधानी नासिक से हटाकर मान्यखेट (आधुनिक मालखेड़) ले गया। अरब सौदागर सुलेमान ने ८५१ ई. में उसका उल्लेख 'बलहरा' के नाम से किया है और उसे संसार का चौथा सबसे बड़ा राजा बतलाया है। वृद्ध होने पर अमोघ वर्ष प्रथम ने राजपाट छोड़कर संन्यास ले लिया और अपने पुत्र कृष्ण द्वितीय को राजा बनाया। वह जैन धर्म का संरक्षक था।

अमोघवर्ष द्वितीय : अमोघवर्ष प्रथम का पौत्र। उसने केवल एक वर्ष (९१७-९१८ ई.) राज्य किया। उसके भाई गोविन्द चतुर्थ ने उसे गद्दी से हटा दिया और स्वयं राजा बन गया। गोविन्द चतुर्थ ने ९१८ से ९३४ ई. तक राज्य किया।

अमोघवर्ष तृतीय अथवा बड्डिग : अमोघवर्ष द्वितीय के पौत्र का दूसरा पुत्र। वह गोविन्द चतुर्थ के बाद ९३४ ई. में राजा बना और पाँच वर्ष (९३४-९३९ ई.) राज्य किया। उसके शासनकाल में दक्षिण के राष्ट्रकूटों और सुदूर दक्षिण के चोल राजाओं के मध्य शत्रुता आरम्भ हो गयी।

अम्बर, मलिक : एक हब्शी गुलाम, जो अहमद नगर में बस गया था। चाँद सुल्ताना (दे.) की मृत्यु के बाद वह तरक्की करके वजीर के पद पर पहुँच गया। उसने अहमदनगर को बादशाह जहाँगीर के पंजे से बचाने का जी-तोड़ प्रयास किया। उसमें नेतृत्व के सहज गुण थे और मध्ययुगीन भारत के सबसे बड़े राजनीतिज्ञों में उसकी गणना की जाती है। उसने अहमदनगर राज्य की राजस्व व्यवस्‍था सुधारी और सेना को छापामार युद्ध की शिक्षा दी। इस प्रकार अहमद नगर को मुगलों के आक्रमण से बचाया। लेकिन १६१६ ई. में जब बहुत बड़ी मुगल सेना ने अहमद नगर पर चढ़ाई कर दी तो मलिक अम्बर को आत्मसमर्पण करना पड़ा। उस समय शाहजादा खुर्रम मुगल सेना का नेतृत्व कर रहा था। मलिक अम्बर ने बड़े सम्मान के साथ जीवन बिताया और १६३६ ई. में बहुत वृद्ध हो जाने पर उसकी मृत्यु हुई।

अम्बष्ठ : गण के लोग सिकन्दर के आक्रमण के समय भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में चनाब और सिन्धु के संगम स्थल के उत्तरी हिस्से में रहते थे। यूनानी इतिहासकारों ने इनका उल्लेख 'अम्बप्टनोई' नाम से किया है, जो संस्कृत भाषा के अम्बष्ठ शब्द का रूपान्तर है। ऐतरेय ब्राह्मण, महाभारत और बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र में अम्बष्ठ गण का उल्लेख मिलता है। यह प्रारम्भ में एक युद्धोपजीवी गण था। यह प्रारंभ में एक युद्धोपजीवी गण था, लेकिन बाद में इस गण के लोग पुरोहित, कृषक और वैद्य भी होने लगे थे।

अम्बाजी : एक मराठा सरदार, जो राजपूताना तक धावे मारता था। आठ वर्षों (१८०९-१८१७ ई.) में उसने अकेले मेवाड़ से करीब दो करोड़ रुपये वसूले।

अम्बेडकर, डा. भीमराव रामजी : भारत की परिगणित जातियों के प्रमुख नेता। उनकी शिक्षा अमेरिका और इंग्लैण्ड में हुई थी। उन्होंने अपना जीवन सरकारी कार्यालय में एक लिपिक के रूप में शुरू किया, लेकिन शीघ्र ही सवर्ण हिन्दुओं के विरोध के कारण उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी। सवर्णों के व्यवहार से रुष्ट होकर उन्होंने अछूतों को संगठित किया और उनका राजनीतिक दल बनाया। संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य होने के साथ ही वे भारत के कानून मंत्री भी बनाये गये और उन्होंने भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार करके उसे संविधान निर्मात्री सभा से पास कराया। इस संविधान के द्वारा भारत को सार्वभौमसत्ता सम्पन्न गणतंत्र घोषित किया गया है। डाक्टर अम्बेडकर ने भारतीय संसद में हिन्दू कोड बिल भी पेश किया और उसे पास कराया।

अम्बोयना का कत्लेआम : १६२३ ई. में डच लोगों ने किया। जब डचों ने देखा कि अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी संस्था बनती जा रही है तो उन्होंने अम्बोयना में अंग्रेजों की छोटी-सी बस्ती पर अचानक हमला बोल दिया और वहाँ के सभी अंग्रेज प्रवासियों को भयंकर यातनाएँ देकर मार डाला। इस कत्लेआम के बाद अंग्रेज जावा तथा मसाले वाले द्वीपों में जाने से डरने लगे और उन्होंने अपना ध्यान भारत में ही अपने पैर जमाने की ओर केन्द्रित किया, जहाँ से उन्होंने डच लोगों को उखाड़ फेंका।

अयूब खां : अफगानिस्तान के अमीर शेर अली (दे.) का पुत्र। दूसरे आंग्ल-अफगान युद्ध के दौरान अयूब खाँ ने जुलाई १८८० ई. में भाई बंद की लड़ाई में एक बड़ी अंग्रेजी सेना को हरा दिया। लेकिन बाद में कन्दहार के निकट उसे लार्ड राबर्टस ने पराजित कर दिया। उसने कुछ समय के लिए कन्दहार पर फिर कब्जा कर लिया। लेकिन अन्त में नये अमीर अब्दुर्रहमान ने उसे हरा दिया और कन्दहार तथा अफगानिस्तान के बाहर खदेड़ दिया।

अयूब खां : पाकिस्तानी सेना में एक जनरल, जिसने अक्तूबर १९१८ ई. में पाकिस्तान सरकार का तख्ता पलट कर स्वयं सत्ता हथिया ली और वहाँ फौजी तानाशाही की स्थापना कर दी। जून 1962 में उसने पाकिस्‍तान में नया संविधान लागू किया और जनवरी 1965 ई. में वह पांच वर्ष की अवधि के लिए पाकिस्‍तान का दुबारा राष्‍ट्रपति चुना गया। उसी वर्ष उसने भारत से युद्ध छेड़ दिया जो संयुक्त राष्ट्र संघ के युद्ध विराम प्रस्ताव के आधार पर रुका और ताशकंद में दोनों देशों में सन्धि हुई। मार्च १९७० ई. में पाकिस्तान में उसके स्थान पर जनरल मोहम्मद यहिया खाँ सत्तासीन हो गया।

अयोध्या : भारत की एक प्राचीन नगरी, जो सरयू नदी के किनारे, आधुनिक नगर फैजाबाद के निकट स्थित है। अयोध्या कोसल (अवध) राज्य की राजधानी थी। रामायण के अनुसार वह श्रीरामचन्द्र के पिता राजा दशरथ की राजधानी थी। वह देश की सात पवित्र नगरियों में एक मानी जाती है। ऐतिहासिक युग में गुप्त सम्राटों की वह सम्भवतः दूसरी राजधानी सम्राट् समुद्रगुप्त के समय से पुरुगुप्त के समय तक (३३०-४७२ ई.) थी।

अरव : इस्लाम का उदय होने के बाद संगठित और शक्तिशाली हो गये। वे लोग दूर-दूर तक समुद्र यात्राएँ और व्यापार करते थे। पश्चिमी भारत के समृद्ध बन्दरगाहों तथा पश्चिमोत्तर सीमावर्ती क्षेत्र की ओर उनकी आरम्भ से निगाह थी। सबसे पहले ६३७ ई. में अरबों ने बम्बई के निकट थाना पर हमला किया, जिसको विफल कर दिया गया। लेकिन उसके बाद भड़ौंच, सिन्ध में देबल की खाड़ी और कलात पर उनके हमले हुए। सातवीं शताब्दी के अन्त में अरबों ने बलूचिस्तान के मकरान क्षेत्र को जीत लिया जिससे सिन्ध को जीतने के लिए रास्ता साफ हो गया। सिन्ध के समुद्र तट पर कुछ समुद्री लुटेरों ने अरब सौदागरों के जहाज लूट लिये। लुटेरों ने सिन्ध के देबल में शरण ली। पीड़ित अरब सौदागरों ने अरब सूबेदार अल-हज्जाम से इसकी शिकायत की, जिसने सिन्ध पर कई बार हमले किये। उस समय सिन्ध में राजा दाहिर (दे.) का राज्य था। प्रारम्भ में कुछ हमलों को विफल कर दिया गया, लेकिन ७११ ई. में अल-हज्जाज के दामाद मुहम्मद इब्न-कासिम के नेतृत्व में हमला हुआ। मुहम्मद-इब्न कासिम ने ७१२ ई. में राओर के युद्ध में राजा दाहिर को पराजित किया, जिसमें वह मारा गया। उसकी राजधानी आलोर पर अरबों का कब्जा हो गया। इसके बाद अरबों ने मुल्तान जीत लिया और सिन्ध में अरब राज्य स्थापित हो गया। अरबों ने भारत में अपने राज्य का प्रसार करने के लिए बहुत कोशिशें कीं। उन्होंने कच्छ, सौराष्ट्र अथवा काठियावाड़ और पश्चिमी गुजरात पर हमले किये। लेकिन उनका प्रसार सिन्ध के आगे नहीं हो सका। दक्षिण में चालुक्यों और पूर्व में प्रतिहारों और उत्तर में कर्कोटक राजाओं ने उनके बढ़ाव को रोका। इस प्रकार भारत में अरब राज्य सिन्ध तक ही सीमित रहा जिसे शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने ११७५ ई. में सिन्ध पर कब्जा करके खत्म कर दिया और सिन्ध दिल्ली की सल्तनत के अधीन हो गया। सिन्ध में अरबों की विजय को 'निष्फल विजय' की संज्ञा दी जाती है क्योंकि उसके बाद भारत पर इन लोगों की सत्ता स्थापित नहीं हुई।

अरविन्द घोष (१८७२-१९५०) : एक महान् देशभक्त और आन्तिकारी जो बादमें उच्च ज्ञानी या योगी हो गये। उनकी शिक्षा इंग्लैंड में हुई। वे इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा में बैठे लेकिन घुड़सवारी की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाने से आई. सी. एस. न हो सके। बाद में वे बड़ौदा कालेज के उपप्रधानाचार्य नियुक्त हुए। शीघ्र ही उन्होंने भारतीय राजनीति में रुचि लेना प्रारंभ कर दिया और 'इन्द्रप्रकाश' पत्रिका में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए। ७ अगस्त १८९३ ई. को प्रकाशित उनके प्रथम लेख से प्रकट होता है कि वे राजनीति के प्रति भारतीयों के रुख में आमूल परिवर्तन के एक्षपाती थे। इन लेखों में उन्होंने प्रतिपादित किया कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपनी नरम नीतियों के कारण देश को उपयुक्त नेतृत्व प्रदान करने में असफल रही है। उन्होंने जोर दिया कि राष्ट्र में देशभक्ति और बलिदान की उत्कट भावना भरकर कांग्रेस को वास्तविक जनवादी संस्था बनाने की आवश्यकता है। उनके विचारों को पंजाब के लाला लाजपतराय तथा महराष्ट्र के लोकमान्य तिलक ने बहुत पसंद किया। फलतः कांग्रेस के अंदर एक गरम दल बन गया जो अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सशस्त्र मार्ग ग्रहण करने को बुरा नहीं मानता था। १९०२ ई. में अरविन्द ने बड़ौदा से अपना एक आदमी बंगाल में गुप्त क्रांतिकारी संगठन बनाने के उद्देश्य से भेजा। इसके बाद वे स्वयं बंगाल चले आये और नेशनल कालेज के प्रिंसिपल बनकर 'वंदेमातरम्' तथा 'कर्मयोगी' के माध्यम से अपने विचारों का प्रचार करने लगे। इन पत्रों का संपादन वे स्वयं बड़ी योग्यता के साथ करते थे। इस प्रचार का फल यह हुआ कि बंगाल में अनेक आतंकवादी घटनाएँ घटीं और अलीपुर बम-कांड में तो स्वयं अरविन्द पर अनेक बंगालियों के साथ मुकदमा चला। एक लम्बे मुकदमे के बाद श्री अरविन्द बरी हो गये, लेकिन ब्रिटिश सरकार उन्हें भारत में ब्रिटिश शासन का परम विरोधी मानकर पुनः नजरबंद कर देने का विचार कर रही थी। इस बीच श्री अरविन्द के विचारों में बहुत परिवर्तन हो गया था। उन्होंने सक्रिय राजनीति को त्याग देने का निश्चय किया और १९०९ ई. में पांडिचेरी चले गये जो फ्रांस के अधिकार में था। वहाँ उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की जिसका उद्देश्य लोगों को उच्च आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करता था। उन्होंने अपने विचार अपनी 'डिवाइन लाइफ' नामक पुस्तक में व्यक्त किये हैं। उनका देहान्त १९५० ई. में हुआ। उन्हें देशभक्ति का कवि, राष्ट्रवाद का देवदूत तथा मानवता का प्रेमी कहा गया है। श्रद्धा से लोग उन्हें 'श्री अरविन्द' कहते हैं। (पुराणी लिखित 'लाइफ आफ श्री अरविन्द')

अराकान : की पट्टी बंगाल की खाड़ी के पूर्वी तट पर स्थित है। यहाँ १७८४ ई. तक एक स्वतंत्र राज्य रहा जिसे वर्मी लोगों ने जीत लिया। वर्मा की सीमा के विस्तार से भारत की ब्रिटिश सरकार ने बंगाल के लिए खतरा महसूस किया। प्रथम वर्मा युद्ध (१८२४-२६) का एक कारण यह भी था। युद्ध के बाद अराकान का क्षेत्र यन्दबू (दे. ) की सन्धि के अनुसार भारत की अंग्रेजी सरकार को मिल गया।

अराविंदु (कर्णाट) राजवंश : की स्थापना विजय नगर (दे.) के विनाश के बाद तिरुमल ने की। वह रामे राजा का भाई था जिसके नेतृत्व में तालीकोट के युद्ध (१५६५ ई.) में विजय नगर की सेना पराजित हुई थी और विजय नगर नष्‍ट कर दिया गया था। तिरुमल ने अपनी राजधानी पेनुकोंडा में स्थापित की और एक सीमा तक पुराने विजयनगर के हिन्दू राज्य का दबदबा फिर से स्थापित कर दिया। उसके द्वारा स्थापित राजवंश ने १६८४ ई. तक दक्षिण में राज्य किया। इस वंश के अनेक राजा हुए जिनमें वेंकट द्वितीय उल्लेखनीय था। वह अपनी राजधानी चन्द्रगिरि ले गया और उसने तेलुगु कवियों और वैष्णव आचार्यों को संरक्षण प्रदान किया। बाद में वेंकट नाम का एक अन्य राजा हुआ, उसने १६३९-४० ई. में मद्रास का क्षेत्र ईस्ट इंडिया कम्पनी के मिस्टर डे को दे दिया। इस भूमिदान की पुष्टि राजा रंग तृतीय ने की जो अराविंदु राजवंश का एक प्रकार से अन्तिम राजा था।

अर्काट : कर्नाटक का एक नगर, जिसे कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन (दे. ) (१७४३-४९ ई.) ने अपनी राजधानी बनाया। दूसरे कर्नाटक युद्ध ((१७५२-५४ ई.) में इस नगर का महत्त्वपूर्ण स्थान था। यहाँ एक मज़बूत किला था जो आम्बूर की १७४९ ई. की लड़ाई में अनवरुद्दीन की हार और मौत के बाद चन्दा साहब के नियंत्रण में चला गया। चन्दा साहब ने फ्रांसीसियों की मदद से त्रिचिनापल्ली का घेरा डाला, जहाँ अनवरुद्दीन के पुत्र मुहम्मदअली ने शरण ली थी। त्रिचिनापल्ली को राहत देने के लिए राबर्ट क्लाइव ने दो सौ अंग्रेज और तीन सौ देशी सिपाहियों की मदद से अर्काट पर अचानक कब्जा कर लिया। इसके बाद चन्दा साहब ने बहुत बड़ी सेना के साथ अर्काट का घेरा डाला और क्लाइव की सेना ५६ दिन (२३ सितम्बर से १४ नवम्बर तक) किले में घिरी रही। अन्त में क्लाइव ने चन्दा साहब की सेना का घेरा तोड़कर उसे पीछे ढकेल दिया। अर्काट के घेरे को तोड़ने में सफल होने के बाद राबर्ट क्लाइव की प्रतिष्ठा एक अच्छे सेनापति के रूप में हो गयी और कर्नाटक अंग्रेजों के कब्जे में आ गया।

अर्जुन : सिखों के पांचवें गुरु (१५७८१-१६०६ )। वे चौथे गुरु रामदास के पुत्र और उत्तराधिकारी थे। उन्होंने 'आदि ग्रंथ' का संकलन किया जिसमें पहले के चार गुरुओं और बहुत से हिन्दू और मुसलमान सन्तों की वाणियों का संग्रह है। उन्होंने सिखों को एक प्रकार का आध्यात्मिक-कर अर्थात् धार्मिक-कर देने का आदेश दिया जिससे सिख गुरुओं के धर्मकोष की स्थापना हुई। अर्जुन देव ने शाहजादा खुसरो पर दया करके उसकी सहायता की, जिसने अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। इसके कारण जहाँगीर ने उन्हें राजद्रोह के अपराध में मौत की सजा दी।

अर्थशास्त्र : देखो 'कौटिल्य'।

अर्हत् : उन बौद्ध और जैन श्रमणों की पदवी, जिन्होंने आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत उच्च स्तर प्राप्त कर लिया था। जो बौद्ध या जैन भिक्षु अपने जीवनकाल में निर्वाण प्राप्त कर लेता था उसे अर्हत् कहा जाता था।

अल-जुर्ज : भिन्नमाल अथवा भड़ौच के चारों ओर के गुर्जर क्षेत्र का पुराना अरबी नाम।

अलबुकर्क, अलफोसो द : पुर्तगाली अधिकार में आये भारतीय क्षेत्र का दूसरा गवर्नर (१५०९-१५१५ ई.)। उसने पूर्व में पुर्तगाली साम्राज्य की स्थापना के उद्देश्य से कई महत्त्वपूर्ण ठिकानों में पुर्तगाली शासन और व्यापारी कोठियाँ स्थापित कीं, और कुछ स्थानों में पुर्तगाली बस्तियाँ बसायीं, भारतीयों और पुर्तगालियों में विवाह सम्बन्धों को प्रोत्साहित किया। उसने ऐसे स्थानों में किले बनवाये जहाँ न तो पुर्तगाली बस्तियाँ बसायी जा सकती थीं और जो न तो जीते जा सकते थे। जहाँ यह भी संभव न था उसने स्थानीय राजाओं को पुर्तगाल के राजा की प्रभुता स्वीकार करने और उसे भेंट देने को प्रेरित किया। उसने बीजापुर के सुल्तान से १५१० ई. में गोआ छीन लिया, १५११ ई. में मलक्का पर और १५१५ ई. में ओर्मुज पर अधिकार कर लिया। अलबुकर्क अपने उद्देश्य को पूरा करने में गलत-सही तरीकों का ख्याल नहीं रखता था। उसने कालीकट के जमोरिन की हत्या जहर देकर करवा दी, जिसने पुर्तगालियों के आगमन पर उनसे मित्रता का व्‍यवहार किया था। पुर्तगालियों के हिन्दुस्तानी औरतों से शादी कर यहाँ बसाने की नीति भी सफल नहीं हुई और इसके परिणामस्वरूप पूर्तगाली-भारतीयों की मिश्रित जाति बन गयी जिससे पूर्व में पुर्तगाली साम्राज्य की स्थापना में कोई खास मदद नहीं मिली। उसने मुसलमानों के नर-संहार की नीति अपनायी जिससे पुर्तगालियों के साथ हिन्दुस्तानियों की हमदर्दी खत्म हो गयी और अलबुकर्क ने जिस पुर्तगाली साम्राज्य की स्थापना का स्वप्न देखा था वह उसकी मृत्यु के बाद बिखर गया।

अल्प खाँ : को अलाउद्दीन खिलजी ने १२९७ ई. में गुजरात जीतने के बाद वहाँ का सूबेदार बनाया। १३०७ ई. में अल्प खाँ ने मलिक काफूर और ख्वाजा हाजी के नेतृत्व में मुसलमानी सेना के साथ देवगिरि राज्य के विरुद्ध दूसरे अभियान में हिस्सा लिया, जिसमें गुजरात की राजकुमारी देवल देवी पकड़ी गयी। राजकुमारी देवल देवी ने गुजरात विजय के बाद अपने पिता कर्णदेव के साथ देवगिरि के राजा रामचन्द्र देव के दरबार में जाकर शरण ली थी। अल्प खाँ ने देवल देवी को अलाउद्दीन के दरबार में भेजा, जहाँ उसकी शादी सुल्तान के बड़े बेटे खिजिर खाँ के साथ कर दी गयी।

अल्प खाँ : मालवा के मुल्तान दिलावर खाँ गोरी का बेटा और उत्तराधिकारी। दिलावर खाँ ने १४०१ ई. में मालवा में अपना राज्य स्थापित किया था। गद्दी पर बैठने के बाद अल्प खाँ ने हुरांगशाह की उपाधि धारण की और १४३५ ई. में अपनी मृत्यु तक मालवा में राज्य किया। उसे जोखिम उठाने और युद्ध करने में आनन्द मिलता था। उसने दिल्ली, जौनपुर, गुजरात के सुल्तानों और बहमनी सुल्तान अहमद शाह से युद्ध किये, लेकिन अधिकांश युद्धों में उसे विफलता ही मिली।

अल्प्तगीन : मध्य एशिया के सामानी शासकों का भूतपूर्व गुलाम, जो ९६२ ई. में गजनी का शासक बन बैठा। उसने काबुल के राज्य का कुछ भाग जीतकर भारत की उत्तर पश्चिमी राज्य का कुछ भाग जीतकर भारत की उत्तर पश्चिमी सीमा पर मुसलमानी राज्य कायम किया। उसकी मौत ९६३ ई. में हुई।

अल्प्तगीन : सुल्तान बलबन (१२६६-८६ ई.) का एक सेनापति। उसको अमीर खाँ का खिताब दिया गया था। सुल्तान बलबन ने उसे बंगाल में तोगरल खाँ के विद्रोह का दमन करने के लिए भेजा था। अल्प्तगीन को तोगरल खाँ ने पराजित कर दिया और उसके बहुत से सैनिकों और सामान को अपने कब्जे में कर लिया। अपने सेनापति की पराजय से बलबन को इतना क्रोध आया कि उसने अल्प्तगीन को दिल्ली के फाटक पर फांसी पर लटकवा दिया। अल्प्तगीन योग्य सेनापति और अमीरों में लोकप्रिय था। उसको फांसी दिये जाने से अमीरों में काफी रोष पैदा हो गया था।

अलबेरूनी : (९७३-१०४८ ई.) रबीवा का रहनेवाला। सुल्तान महमूद के समय (९९७-१०३० ई.) में उसे कैदी अथवा बन्धक के रूप में गजनी लाया गया था। वह सुल्तान महमूद की सेना के साथ भारत आया और कई वर्षों तक पंजाब में रहा। उसका असली नाम अबु-रैहान मुहम्मद था, लेकिन वह 'अलबेरूनी' के नाम से ही प्रसिद्ध है जिसका अर्थ 'उस्ताद' होता है। वह बड़ा विद्वान था। भारत में रह कर उसने संस्कृत पढ़ी और हिन्दू दर्शन और दूसरे शास्त्रों का अध्ययन किया। इसी अध्ययन के आधार पर उसने 'तहकीक-ए-हिन्द' ( भारत की खोज ) नामक पुस्तक रची इसमें हिन्दुओं के इतिहास चरित्र, आचार- व्यवहार, परम्पराओं और वैज्ञानिक ज्ञान का विशद वर्णन किया गया है। इसमें मुसलमानों के आक्रमण के पहले के भारतीय इतिहास और संस्कृति का प्रामाणिक और अमूल्य विवरण मिलता है। उसकी अनेक पुस्तकें अप्राप्य हैं, लेकिन जो मिलता है उसमें सचाऊ द्वारा अंग्रेजी भाषा में अनुदित 'दि कानोलाजी आफ एंसेण्ट नेशन्स' (पुरानी कौमों का इतिहास ) उसकी विद्वत्ता को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है।

अलमसूदी : एक अरब यात्री, जिसने ९१५ ई. में प्रतिहार राजा महिपाल प्रथम के राज्यकाल में उसके राज्य की यात्रा की। अलमसूदी ने उसके घोड़ों और ऊँटों का विवरण दिया है।

अलहज्जाज : खलीफा वालिद के समय ईराक का मुसलमान सूबेदार। उस समय सिन्ध में राजा दाहिर का शासन था। सिन्ध के कुछ लुटेरों की लूटमार से क्रुद्ध होकर अलहज्जाज ने उन्हें दंडित करने के लिए कई बार चढ़ाई की किन्तु, राजा दाहिर ने उसकी फौजों को पराजित कर दिया। बाद में अलहज्जाज ने अपने भतीजे और दामाद मुहम्मद इब्‍नकासिद के साथ बड़ी फौज भेजी, जिसने राउर की लड़ाई (७१२ ई.) में राजा दाहिर को पराजित कर उसको कत्ल कर दिया और सिन्ध में मुसलमानी राज्य की स्थापना की।

अलाउद्दीन प्रथम : दक्षिण के बहमनी वंश का पहला सुल्तान। उसका पूरा खिताब था-सुल्तान अलाउद्दीन हसन शाह अल-वली-अलबहमनी। इसके पहले वह हसन के नाम से विख्यात था। वह दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक के दरबार में एक अफगान अथवा तुर्क सरदार था। उसे जफ़र खाँ का खिताब मिला था। सुल्तान मुहम्मद-बिन तुग़लक की सनकों से तंग आकर दक्षिण के मुसलान अमीरों ने विद्रोह करके दौलताबाद के किले पर अधिकार कर लिया और हसन उर्फ जफ़र खाँ को अपना सुल्तान बनाया। उसने सुल्तान अलाउद्दीन बहमन शाह की उपाधि धारण की और १३४७ ई. में कुलवर्ग (गुलवर्ग) को अपनी राजधानी बना कर नये राजवंश की नींव डाली। इतिहासकार फरिश्ता ने हसन के सम्बन्ध में लिखा है कि वह दिल्ली के ब्राह्मण ज्योतिषी गंगू के यहाँ नौकर था, जिसे मुहम्मद बिन तुगलक बहुत मानता था। अपने ब्राह्मण मालिक का कृपापात्र होने के कारण वह तुगलक की नजर में चढ़ा। इसीलिए अपने संरक्षक गंगू ब्राह्मण के प्रति आदर भाव से उसने बहनी उपाधि धारण की। फरिश्ता की यह कहानी सही नहीं है, क्योंकि इसका समर्थन सिक्कों अथवा अन्य लेखों से नहीं होता है। उसके पहले की मुसलमानी तवारीख 'बुरहान-ए-मासिर' के अनुसार हसन बहमन वंश का था इसीलिए, उसका वंश बहमनी कहलाया। वास्तव में हसन अपने को फारस के प्रसिद्ध वीर योद्धा बहमन का वंशज मानता था। हसन भी एक सफल योद्धा था। उसने अपनी मृत्यु (फरवरी १३५८ ई.) से पूर्व अपना राज्य उत्तर में बैन-गंगा से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक फैला लिया था। उसने अपने राज्य को चार सुबों--कुलबर्ग, दौलताबाद, बराड़ और बिदर में बाँट दिया था और शासन का उत्तम प्रबन्ध किया था। 'बुरहान-ए-मासिर' के अनुसार वह इंसाफ पसंद सुल्तान था जिसने इस्लाम के प्रचार के लिए बहुत कार्य किया।

अलाउद्दीन द्वितीय : दक्षिण के बहमनी वंश का दसवाँ सुल्तान। उसने १४३५ से १४५७ ई. तक राज्य किया और अपने पड़ोसी विजयनगर राज्य के राजा देवराय द्वितीय से युद्ध ठानकर उसे सन्धि करने को बाध्य किया। अलाउद्दीन द्वितीय इस्लाम का उत्साही प्रचारक था और अपने सहधर्मी मुसलानों के प्रति कृपालु था। उसने बहुत से मदरसे, मस्जिदें और वक्फ़ कायम किये। उसने अपनी राजधानी बीदर में एक अच्छा शफाखाना बनवाया। उसके शासनकाल में दक्खिनी मुसलमानों, जिन्हें हब्शियों का समर्थन प्राप्त था, और जो ज्यादातर सुन्नी थे, और विलायती मुसलमानों में, जो शिया थे, भयंकर प्रतिद्वन्द्विता पैदा हो गयी, जिसके कारण सुल्तान के समर्थन से बहुत से विलायती मुसलमानों-सैयदों और मुगलों को पुना के निकट चकन के किले में मौत के घाट उतार दिया गया।

अलाउद्दीन ख़िलजी : दिल्ली का सुल्तान (१२९६-१३१६ ई. तक)। वह ख़िलजी वंश के संस्थापक जलालुद्दीन ख़िलजी का भतीजा और दामाद था। सुल्तान बनने के पहले उसे इलाहाबाद के निकट कड़ा की जागीर दी गयी थी। तभी उसने बिना सुल्तान को बताये 1295 ई. में दक्षिण पर पहला मुसलमानी हमला किया। उसने देवगिरि के यादववंशी राजा रामचन्द्रदेव पर चढ़ाई बोल दी। रामचन्द्रदेव ने दक्षिण के अन्य हिन्दू राजाओं से सहायता मांगी जो उसे नहीं मिली। अन्त में उसने सोना, चाँदी और जवाहरात देकर अलाउद्दीन के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। बहुत-सा धन लेकर वह १२९६ ई. में दिल्ली लौटा जहाँ उसने सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर दी और खुद सुल्तान बन बैठा। उसने सुल्तान जलालुद्दीन के बेटों को भी मौत के घाट उतार दिया और उसके समर्थक अमीरों को घूस देकर चुप कर दिया। इसके बावजूद अलाउद्दीन को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मंगोलों ने उसके राज्य पर बार बार हमले किये और १३९९ ई. में तो वे दिल्ली के नज़दीक तक पहुँच गये। अलाउद्दीन ने उनको हर बार खदेड़ दिया और १३०८ ई. में उनको ऐसा हराया कि उसके बाद उन्होंने हमला करना बन्द कर दिया।

जलालुद्दीन खिलजी के समय में जिन मुगलों ने हमला किया था उनमें से जो मुसलमान बन गये थे उनको दिल्ली के पास के इलाकों में बस जाने दिया गया। उनको नौमुस्लिम कहा जाता था, किन्तु उन्होंने सुल्तान के खिलाफ षड़यंत्र रचा जिसकी जानकारी मिलने पर सुल्तान ने एक दिन में उनका कत्लेआम करा दिया। इसके बाद सुलतान के कुछ रिश्तेदारों ने विद्रोह करने की कोशिश की। उनका भी निर्दयता से दमन करके मौत के घाट उतार दिया गया।

यह माना जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी के गद्दी पर बैठने के बाद दिल्ली की सल्तनत का प्रसार आरम्भ हुआ। उसके गद्दी पर बैठने के साल भर बाद उसके भाई उलूग खाँ और वजीर नसरत खाँ के नेतृत्व में उसकी सेना ने गुजरात के हिन्दू राजा कर्णदेव पर हमला किया। कर्णदेव ने अपनी लड़की देवल देवी के साथ भागकर देवगिरि के यादव राजा रामचन्द्रदेव के दरबार में शरण ली। मुसलमानी सेना गुजरात से बेशुमार दौलत लूटकर लायी। साथ में दो कौदियों को भी लायी। उनमें से एक रानी कमलादेवी थी, जिससे अलाउद्दीन ने विवाह करके उसे अपनी मलका बनाया और दूसरा काफूर नामक गुलाम था जो शीघ्र सुल्तान की निगाह में चढ़ गया। उसको मलिक नायब का पद दिया गया। इसके बाद अलाउद्दीन ने अनेक राज्यों को जीता। रणथम्भौर १३०३ ई. में, मालवा १३०५ ई. में और उसके बाद क्रमिक रीति से उज्जैन, धार, मांडू और चन्देरी को जीत लिया गया। मलिक काफूर और ख्वाजा हाजी के नेतृत्व में मुसलमानी सेना ने पुनः दक्षिण की ओर अभियान किया। १३०७ ई. में देवगिरि को दुबारा जीता गया और १३१० ई. में ओरंगल के काकतीय राज्य को ध्वस्त कर दिया गया। इसके बाद द्वार समुद्र के होमशल राज्य को भी नष्ट कर दिया गया और मुसलमानी राज्य कन्याकुमारी तक दोनों ओर के समुद्र तटों पर पहुँच गया। मुसलमानी सेना १३११ ई. में बहुत-सी लूट की दौलत के साथ दिल्ली लौटी। उस समय उसके पास ६१३ हाथी, २०,००० घोड़े और ९६,००० मन सोना और जवाहरात की अनेक पेटियाँ थीं। इसके पहले दिल्ली का कोई सुल्तान इतना अमीर और शक्तिशाली नहीं हुआ। इन विजयों के बाद अलाउद्दीन हिमालय से कन्याकुमारी तक पूरे हिन्दुस्तान का शासक बन गया।

अलाउद्दीन केवल सैनिक ही नहीं था। वह सम्भवतः पढ़ा-लिखा न था लेकिन उसकी बुद्धि पैनी थी। वह जानता था कि उसका लक्ष्य क्या है और उसे कैसे पा सकता है। मुसलमान इतिहासकार बरनी के अनुसार सुल्तान ने अनुभव किया कि उसके शासन के आरम्भ में कई विद्रोह हुए जिनसे उसके राज्य की शान्ति भंग हो गयी। उसने इन विद्रोहों के चार कारण ढूंढ़ निकाले : (१) सुल्तान का राजकाज में दिलचस्पी न लेना, (२) शराबखोरी, (३) अमीरों के आपसी गठबंधन जिसके कारण वे षड्यंत्र करने लगते थे और (४) बेशुमार धन दौलत जिसके कारण लोगों में घमंड और राजद्रोह पैदा होता था। उसने गुप्तचर संगठन बनाया और सुल्तान की इजाजत बगैर अमीरों में परस्पर शादी-विवाहकी मुमानियत कर दी। शराब पीना, बेचना और बनाना बन्द कर दिया गया। अन्त में उसने सभी निजी सम्पत्ति को अपने अधिकार में कर लिया। दान और वक्फ़, सभी संपत्ति पर राज्य का अधिकार हो गया। लोगों पर भारी कर लगाये गये और करों को इतनी सख्ती से वसूल किया जाने लगा कि कर वसूलनेवाले अधिकारियों से लोग घृणा करने लगे और उनके साथ कोई अपनी बेटी व्याहना पसंद नहीं करता था। लेकिन अलाउद्दीन का लक्ष्य पूरा हो गया। षड्यंत्र और विद्रोह दबा दिये गये। अलाउद्दीन ने तलवार के बल पर अपना राज्य चलाया। उसने मुसलमानों अथवा मुल्लाओं को प्रशासन में हस्तक्षेप करने से रोक दिया और उसे अपने इच्छानुसार चलाया। उसके पास एक भारी बड़ी सेना थी जिसकी तनख्वाह सरकारी खजाने से दी जाती थी। उसकी सेना के पैदल सिपाही को २३४ रुपये वार्षिक तनख्वाह मिलती थी। अपने दो घोड़े रखने पर उसे ७८ रुपये वार्षिक और दिये जाते थे। सिपाही अपनी छोटी तनख्वाह पर गुजर बसर कर सकें, इसलिए उसने अनाज जैसी आवश्यक वस्तुओं से लेकर ऐश के साधनों-गुलामों और रखैल औरतों के निर्ख भी निशचित कर दिये। सरकार की ओर से निश्चित मूल्यों पर सामान बिकवाने का इन्तजाम किया जाता और किसी की हिम्मत सरकारी हुक्म को तोड़ने की नहीं पड़ती थी।

अलाउद्दीन ने कवियों को आश्रय दिया। अमीर खुसरू और हसन को उसका संरक्षण प्राप्त था। वह इमारतें बनवाने का भी शौकीन था। उसने अनेक किले और मस्जिदें बनवायीं।

उसका बुढ़ापा दुःख में बीता। १३१२ ई. के बाद उसे कोई सफलता नहीं मिली। उसकी तन्दुरुस्ती खराब हो गयी और उसे जलोदर हो गया। उसकी बुद्धि और निर्णय लेने की क्षमता नष्ट हो गयी। उसे अपनी बीबियों और लड़कों पर भरोसा नहीं रह गया था। मलिक काफूर जिसे उसने गुलाम से सेनापति बनाया, सुल्तान के नाम पर शासन चलाता था। 2 जनवरी १३१६ ई. को अलाउद्दीन की मृत्यु के साथ उसका शासन समाप्त हो गया।

अलाउद्दीन मसूद : गुलाम वंश का सातवाँ सुल्तान (१२४२- ४६ ई.)। वह सुल्तान रुकनुद्दीन का बेटा था, जो सुल्तान इल्तुतमिश (१२११-१२३६ ई.) का दूसरा बेटा और उत्तराधिकारी था। वह सुल्ताना रज़िया (१२३६-१२४० ई.) के गद्दी से हटाये जाने के बाद सुल्तान बना। अलाउद्दीन मसूद अयोग्य शासक था जिसे १२४६ ई. में अमीरों ने तख्‍़त से उतार दिया और नासिरुद्दीन को सुल्तान बनाया।

अलाउद्दीन हुसेनशाह : १४९३ ई. से १५१८ ई. तक बंगाल का सुल्तान। उसने बंगाल में हुसेनशाही वंश की नींव डाली। वह अरब के सैयद वंश का था। बंगाल में वह सफल और लोकप्रिय शासक सिद्ध हुआ। उसने अपने राज्य में आन्तरिक शांति स्थापित की, राजमहल के रक्षक सैनिकों की शक्ति घटायी, हव्शी सैनिकों को निकाल बाहर किया और अपने राज्य की सीमाएँ उड़ीसा तक बढ़ायीं। उसने बिहार को जौनपुर के शासकों से छीन लिया और कूचबिहार के कामतापुर पर भी कब्जा कर लिया। उसने अपने राज्य में, विषेशरूप से गौड़ में बहुत सी मस्जिदें और खैरातखाने बनवाये। उसने धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया और अपने राज्य में बहुत से हिन्दुओं को जैसे पुरन्दर खाँ, रूप और सनातन को उच्च पदों पर नियुक्त किया। उसके २४ वर्षके शासन में कहीं विप्लव अथवा विद्रोह नहीं हुआ। उसकी मृत्यु गौड़ में हुई। उसकी प्रजा और उसके पड़ोसी राजा उसका सम्मान करते थे। उसकी मृत्यु के बाद उसका बेटा नसरतशाह गद्दी पर बैठा।

अलार, जनरल : एक फ्रांसीसी, जो नेपोलियन के नेतृत्व में लड़ चुका था। बाद में उसे महाराज रजीतसिंह (१७९८-१८३९ ई.) ने अपनी सिख सेना को संगठित तथा प्रशिक्षित करने के लिए रख लिया।

अली आदिलशाह प्रथम : बीजापुर के आदिलशाही वंश का पांचवां सुल्तान (१५५७-१५८० ई.)। उसने शिया मजहब स्वीकार कर लिया था और सुन्नियों के प्रति असहिष्णु हो गया था। १५५८ ई. में उसने विजय नगर के हिन्दू-राज्य से समझौता करके अहमद नगर पर चढ़ाई की। इन दोनों राज्यों की सम्मिलित सेना ने अहमद नगर को तबाह कर दिया। अहमदनगर के मुसलमानों पर हिन्दुओं ने जो ज्यादतियाँ कीं उनके कारण शीघ्र ही सुल्तान अली आदिलशाह प्रथम और विजयनगर के राम राजा के सम्बन्ध बिगड़ गये। अंत में बीजापुर, अहमद नगर बीदर और गोलकुंडा के चारों मुसलमान सुल्तानों ने मिलकर विजयनगर को तालीकोट के युद्ध (१५६५ ई.) में हरा दिया। विजेता अली आदिल शाह विजय नगर को लूटने और सदा के लिए नष्ट करने में शामिल हो गया। इसके बाद सुल्तान अली आदिलशाह प्रथम ने १५७० ई. में अहमदनगर से समझौता करके भारत के पश्चिमी समुद्र तट से पुर्तगालियों को निकाल बाहर करने के प्रयास में एक बड़ी सेना लेकर गोआ को घेर लिया, लेकिन पुर्तगालियों ने हमला विफल कर दिया। अली आदिलशाह की शादी अहमदनगर की शाहजादी प्रसिद्ध चाँदबीबी से हुई थी जिसने अकबर के आक्रमण के समय अहमदनगर की रक्षा करने में बड़ी वीरता दिखायी। वह अपने पति की मृत्यु के बाद अहमदनगर में आकर रहने लगी थी।

अली आदिलशाह द्वितीय : बीजापुर के आदिलशाही वंश का आठवाँ सुल्तान (१६५६-७३ ई.)। जब वह तख्त पर बैठा उसकी उम्र केवल १८ वर्ष की थी। उसकी छोटी उम्र देखकर मुगल बादशाह शाहजहाँ ने दक्षिण के सूबेदार अपने पुत्र औरंगजेब को उसपर आक्रमण करने का आदेश दिया। मुगलों ने बीजापुर पर हल्ला बोल दिया और युवा सुल्तान की फौजों को कई जगह पराजित कर उसे १६५७ ई. में राज्य के बीदर, कल्याणी और परेन्दा आदि क्षेत्रों को सौंप सुलह कर लेने के लिए मजबूर किया।

मुगलों से सन्धि करने के बाद सुल्तान अली आदिलशाह द्वितीय ने मराठा नेता शिवाजी का दमन करने का निश्चय किया, जिसने उसके कई किलों पर अधिकार कर लिया था। १६५९ ई. में उसने अफजलखाँ के नेतृत्व में एक बड़ी फौज शिवाजी के खिलाफ भेजी। शिवाजी ने अफजल खाँ को मार डाला और बीजापुर की सेना को पराजित कर दिया। इस प्रकार अली आदिलशाह द्वितीय को शिवाजी का दमन करने अथवा उसकी बढ़ती हुई शक्ति को रोकने में सफलता नहीं मिली और वह मुगल और मराठा शक्तियों के बीच में चक्की के दो पाटों की भाँति दब गया। वह किसी प्रकार १६७३ ई. में अपनी मृत्यु तक अपनी गद्दी बचाये रहा।

अलीगढ़  : उत्तर प्रदेश का एक शहर जिसका आधुनिक भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण योग है। अलीगढ़ में एक मजबूत किला था जिसे दूसरे आंग्ल-मराठा युद्ध में अंग्रेजों ने १८०३ ई. में मराठों से छीन लिया और इससे दिल्ली को जीतने में उन्हें बड़ी मदद मिली। सन् १८५७ के सिपाही-विद्रोह का यह मुख्य केन्द्र रहा। नगर में मुसलमानों की आबादी अधिक है। १८५७ ई. से यह नगर भारतीय मुसलमानों का सांस्कृतिक केन्द्र बन गया है जब सर सैयद अहमद खाँ के प्रयास से यहाँ एंग्लो-ओरिएंटल कालेज की सथापना की गयी। शीघ्र ही यह कालेज भारतीय मुसलमानों को अंग्रेजी शिक्षा देनेवाला प्रमुख केंद्र बन गया। १६२० ई. में अलीगढ़ कालेज को विश्वविद्यालय बना दिया गया। अलीगढ़ आन्दोलन, जिसका उद्देश्य इस्लाम की उन्नति करना, भारतीय मुसलमानों को पश्चिमी शिक्षा देना, सामाजिक कुरीतियाँ दूर करना और उन्हें १८८५ ई. से आरम्भ होनेवाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रभाव से दूर रखना था, उसका केन्द्रबिन्दु अलीगढ़ ही था। अलीगढ़ कालेज के संस्थापकों और वहाँ से निकले छात्रों के राष्ट्रीयता-विरोधी रवैये से अलीगढ़ प्रतिक्रियावादियों का गढ़ समझा जाने लगा। १९०६ ई. में अलीगढ़ के कुछ स्नातकों ने मुसलमानों की आकांक्षाओं को व्यक्त करने के लिए मुस्लिम लीग की स्थापना की। कुछ वर्षों तक मुस्लिम लीग ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ मिलकर भारत के लिए शासन-सुधार की माँग की, लेकिन अन्त में, वह घोर सांप्रदायिक संस्था बन गयी और उसने पाकिस्तान की माँग की। १९४७ में उसी माँग के आधार पर भारत का विभाजन हो गया।

अली गौहर, शाहजादा : देखो 'आलम शाह द्वितीय'।

अली नकी : गुजरात का दीवान, जबकि बादशाह शाहजहाँ का चौथा बेटा शाहजादा मुराद वहाँ का सूबेदार था। अली नकी की हत्या के झूठे अभियोग में मुराद को १६६१ ई. में मौत की सजा दी गयी।

अलीनगर की संधि : ९ फरवरी १७५७ ई. को बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच हुई, जिसमें अंग्रेजों का प्रतिनिधित्व क्लाइव और वाटसन ने किया था। अंग्रेजों द्वारा कलकत्ते पर दुबारा अधिकार कर लेने के बाद यह सन्धि की गयी। इस सन्धि के द्वारा नवाब और ईस्ट इंडिया कम्पनी में निम्नलिखित शर्तों पर फिर से सुलह हो गयी :- ईस्ट इंडिया कम्पनी को मुगल बादशाह के फरमान के आधार पर व्यापार की समस्त सुविधाएँ फिर से दे दी गयीं ; कलकत्ते के किले की मरम्मत की इजाजत भी दे दी गयी ; कलकत्ते में सिक्के ढालने का अधिकार भी उन्हें दे दिया गया तथा नवाब द्वारा कलकत्ते पर अधिकार करने से अंग्रेजों को जो क्षति हुई थी उसका हरजाना देना स्वीकार किया गया और दोनों पक्षों ने शान्ति बनाये रखने का वादा किया। इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने के एक महीने बाद अंग्रेजों ने उसका उल्लंघन कर, कलकत्ता से कुछ मील दूर गंगा के किनारे की फ्रांसीसी बस्ती चन्द्रनगर पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। उसके दूसरे महीने जून में अंग्रेजों ने मीरजाफ़र और नवाब के अन्य विरोधी अफसरों से मिलकर सिराजुद्दौला के विरुद्ध षड्यंत्र रचा। इस पड़यंत्र के परिणामस्वरूप २३ जून १७५७ ई. को पलासी की लड़ाई हुई जिसमें सिराजुद्दौला हारा और मारा गया।

अली बरीद : बहमनी राज्य की एक शाखा बिदर के बरीदशाही वंश का तीसरा सुल्तान। वह कासिम बरीद का पौत्र था, जिसने १४९२ ई. में बरीदशाही राजवंश की स्थापना की। उसका पिता सुल्तान अमीर बरीद अपने राजवंश का दूसरा सुल्तान था। अली बरीद १५३९ ई. में गद्दी पर बैठा। बरीदशाही वंश का वह पहला शासक था जिसने अपने को सुल्तान घोषित किया।

अली मर्दान खिलजी : को सुल्तान कुतुबुद्दीन (दे.) ने १२०६ ई. में बंगाल का सूबेदार बनाकर भेजा। १२१० ई. में कुतुबुद्दीन की मृत्यु के बाद उसने अपने को बंगाल का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया और अलाउद्दीन का खिताब रखा। सुल्तान इल्तुतमिश (दे.) ने १२३० ई. में उसको पराजित कर दिया।

अली मुहम्मद रुहेला : ने अवध के पश्चिमोत्तर भाग, हिमालय के तराई क्षेत्र में स्थित रुहेलखंड में रुहेलों की सत्ता स्थापित की। १७७४ ई. में रुहेला युद्ध समाप्त होने पर और उनके नेता हाफिज रहमत खाँ के मरने पर ईस्ट-इंडिया कम्पनी ने उसके लड़के फैजुल्ला खाँ को रुहेल खंड के एक हिस्से का जिसमें रामपुर भी शामिल था, शासक बना दिया। इस प्रकार रामपुर के नवाबों के परिवार की शुरुआत हुई।

अली वर्दी खां : का मूल नाम मिर्जा मुहम्मद खाँ। उसको बंगाल के नवाब शुजाउद्दीन (१७२५-३९ ई.) ने मिट्टी से उठाकर आदमी बना दिया और वह अलीवर्दी या अलहवर्दी खाँ के नाम से मशहूर हुआ। नवाब शुजाउद्दौला की मृत्यु के समय अलीवर्दी खाँ बिहार में नायब नाजिम (वित्त विभाग का मुख्य अधिकारी) था, जो उस समय बंगाल का हिस्सा था। शुजाउद्दीन के बाद उसका बेटा सरफराज खाँ बंगाल का नवाब बना। इससे कुछ ही पहले नादिरशाह (दे.) की चढ़ाई हुई थी और उसने दिल्ली को लूटा था जिसके कारण पूरा मुगल प्रशासन हिल गया था। इस गड़बड़ी से लाभ उठाकर अली वर्दी खाँ ने घूस देकर दिल्ली से एक फरमान प्राप्त कर लिया जिसके द्वारा सरफराज खाँ को हटाकर उसकी जगह अली वर्दी खाँ को बंगाल का नवाब बनाया गया था। अपने भाई हाजी अहमद और जगत सेठ की सहायता से अली वर्दी खाँ ने नवाब सरफराज खाँ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और १७४० ई. में राजमहल के निकट गिरिया की लड़ाई में उसे हराकर मार डाला और बंगाल के नवाब की मसनद (गद्दी ) पर काबिज हो गया। बादशाह को नजराने में कीमती चीजें भेजकर उसने दिल्ली दरबार से नवाब बंगाल के रूप में फिर से सनद प्राप्त कर ली। इसके बाद उसने बंगाल पर १६ वर्ष (१७४०-५६ ई.) तक लगभग एक स्वतंत्र शासक के रूप में राज्य किया और कभी दिल्ली को मालगुजारी नहीं भेजी। यद्यपि उसने नवाबी बेईमानी से प्राप्त की थी तथापि उसमें कुछ अच्छे गुण भी थे। अपने प्रारम्भिक जीवन में वह योग्य प्रशासक और वीर योद्धा था। बंगाल में जो यूरोपीय कम्पनियाँ व्यापार करती थीं उनके साथ पक्षपातहीन था। उसने उनको आपस में लड़कर राज्य की शान्ति भंग करने की इजाजत नहीं दी। लेकिन मराठे उसे बराबर परेशान करते रहे। वे प्रायः प्रतिवर्ष बंगाल पर आक्रमण करते थे। वह मराठा आक्रमण रोकने में असमर्थ रहा, हालांकि उसने मराठा सरदार भास्कर पंडित की दगाबाजी से हत्या कर दी। अंत में अलीवर्दी खाँ ने मराठों से १७५१ ई. में सुलह करके उन्हें उड़ीसा के राजस्व का एक हिस्सा और १२ लाख रुपया सालाना चौथ देना मंजूर कर लिया। उसके बाद उसने वर्ष शान्ति से राज्य किया और १७५६ ई. में ८० वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हुई। उसकी मृत्यु के बाद उसका नाती सिराजुद्दौला नवाब बना।

अलीवाल की लड़ाई : २८ जनवरी १८४८ ई. को प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध में हुई। इस लड़ाई में सिखों की हार हुई और उन्हें अपनी तोपों को छोड़कर सतलज नदी के उस पार भाग जाना पड़ा।

अली शाह : कश्मीर का सातवाँ सुल्तान (१४१६-२० ई.)। उसके बाद उसका भाई सुल्तान जैनुल आब्दीन (१४२०-७० ई.) गद्दी पर बैठा जो कश्मीर का अकबर माना जाता है।

अलीबंधु : देखो मुहम्मद अली तथा शौकत अली।

अलेक्जेंड्रिया : नाम की दो बस्तियाँ सिकंदर ने भारत पर अपने हमले के दौरान स्थापित कीं, जिनमें एक अफगानिस्तान में काबुल के निकट थी और दूसरी सिन्ध में चनाब और सिन्धु के संगम के निकट। बाद में दोनों बस्तियाँ समाप्त हो गयीं।

अलेक्जेंडर, ए. वी.  : (बाद में बाइकाउंट)- अप्रैल १९४६ ई. में लार्ड पैथिक लारेंस के नेतृत्व में भारत आनेवाले ब्रिटिश मंत्रिमंडल के प्रतिनिधि दल का सदस्य।

अलेक्जेंडर (एपिरसका) : (२७२-२५५ ई. पू.) सम्भवतः अशोक के शिलालेख-संख्या १३ में अलिक सुन्दर नाम से इसी का उल्लेख किया गया है। यह भी सम्भव है कि शिलालेख में वर्णित अलिक सुन्दर कोरिंथ का अलेक्जेंडर (२५२-२४४ ई. पू.) हो। जो भी हो, इससे अशोक के समय को निश्चित करने में मदद मिलती है।

अलेक्जेंडर महान : देखो, सिकंदर महान्।

अलोर : सिन्धके अन्तिम हिन्दू राजा दाहिर के समय सिन्ध की राजधानी। अरबों ने मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में उसे ७१२ ई. में जीतकर अपने कब्जे में कर लिया। इसके बाद सिन्ध पर मुसलानों का अधिकार हो गया।

अल्मीदा, डॉन फ्रांसिसको द : पूर्व में पुर्तगाली उपनिवेशों का पहला वायसराय (१५०५-०९ ई.) उसका विश्वास था कि पूर्व में पुर्तगालियों की सफलता उनकी नौसेना की शक्ति पर निर्भर है और पूर्व में पुर्तगाली सम्राज्य की स्थापना को वह कल्पना मात्र मानता था।

अल्लामी सादुल्ला खां : बादशाह शाहजहाँ का खास वजीर। वह कुशल प्रशासक और योग्य सेनापति था जिसने अनेक अवसरों पर मुगल सेना का नेतृत्व किया था। वह अपने पद पर काम करते हुए १६५६ ई. में मरा।

अवध : प्राचीन कोसल (दे.) राज्य का आधुनिक नाम। यह इलाहाबाद के उत्तर-पश्चिम में है। इस राज्य से होकर सरयू नदी बहती है जो गंगा में मिल जाती है। रामायण के अनुसार रामचंद्रजी के पिता राजा दशरथ कोसल के राजा थे और अयोध्या उनकी राजधानी थी। ऐतिहासिक काल में कोसल उत्तरी भारत के सोलह महाजनपदों (राज्यों) में से था और उसकी राजधानी श्रावस्ती थी। छठी शताब्दी ई. पू. में उसका राजा प्रसेनजित मगधराजा बिम्बसार तथा अजातशत्रु का समसामयिक और प्रतिद्वन्द्वी था। कोसल को बाद में मगध ने जीत लिया और नंदों तथा मौर्यों के मगध साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि कब सारा कोसल राज्य अयोध्या के नाम से विख्यात हो गया। उसका आधुनिक अवध नाम अयोध्या का ही विकृत रूप है।

लगभग १५६ ई. पू. में अवध तथा उसकी राजधानी साकेत पर एक 'दुरात्म वीर' यवन ने आक्रमण किया। इस यवन की पहचान मेनान्डर (दे.) तथा उसकी यवन (यूनानी) सेनाओं से की जाती है। ईसवी सन की चौथी शताब्दी में अवध गुप्त साम्राज्य का एक भाग था और अयोध्या संभवतः पाँचवी शताब्दी में गुप्त राजाओं की दूसरी राजधानी थी। सातवीं शताब्दी में यह हर्षवर्धन (दे.) के साम्राज्य में सम्मिलित था और नौवीं शताब्दी से यह गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का भाग रहा।

तरावड़ी (दे.) (११९२ ई.) की दूसरी लड़ाई के बाद ही शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी (दे.) के एक सहायक मलिक हिसमुद्दीन आगुल बक ने अवध को जीत लिया। इसकी ऊर्वरा भूमि तथा स्वास्थ्यप्रद जलवायु से आकर्षित होकर बहुत-से मुसलमान अमीर क्रमिक रीति से अवध चले आये और वहीं बस गये। विशेष रूप से सुल्तान मुहम्मद तुगलक के राज्यकाल में बहुत से मुसलमान अमीर यहाँ आकर बस गये। १३४० ई. में ऐनुल-मुल्क ने, जो अवध का हाकिम था, और बड़ी योग्यता के साथ सूबे का शासन कर रहा था, सुल्तान मुहम्मद तुगलक के खिलाफ बगावत कर दी। उसकी बगावत कुचल दी गयी तथा उसे कैदखाने में डाल दिया गया। इसके बाद अवध दिल्ली की सल्तनत का एक भाग बना रहा, हालांकि उसका एक बड़ा हिस्सा जौनपूर राज्य (१३९९-१४७६ ई.) में मिला लिया गया था।

जौनपुर राज्य के पतन पर अवध फिर पूरी तौर से दिल्ली की सल्तनत का एक भाग बन गया। १५२६ ई. में इब्राहीम लोदी पर बाबर की विजय के बाद अवध पर मुगलों का शासन स्थापित हो गया। अकबर ने अपने साम्राज्य को जिन १५ सूबों में बाँटा था, उनमें अवध भी था। १७२४ ई. तक अवध मुगल साम्राज्य का एक महत्त्वपूर्ण सूबा रहा।

१७२४ ई. में अवध के मुगल सूबेदार सआदत खाँ ने अपने को लगभग स्वतंत्र कर लिया और अवध के नवाब वंश की स्थापना की। वह अपने को नवाब वजीर अर्थात् मुगल साम्राज्य का बड़ा वजीर कहता था। इन नवाब वजीरों की तीन पीढ़ियों ने अवध पर स्वतंत्र रीति से शासन किया। इनके नाम थे : (१) सआदत खाँ (१७२४-३९ ई.), (२) सफदरजंग (१७३९-५४ ई.) तथा शुजाउद्दौला (१७५४-७५ ई.)।

तीसरा नवाब वजीर शुजाउद्दौला (दे.) १७६४ ई. में बक्सर की लड़ाई में अंग्रेजों से हार गया। इसके बाद अवध की शक्ति का ह्रास होने लगा। फिर भी १८८४ ई. में अवध ने अंग्रेजों की सहायता से रुहेलखंड को जीत लिया और इसके बाद उस क्षेत्र में भी कुशासन फैल गया। शुजाउद्दौला के बेटे तथा उत्तराधिकारी आसफुद्दौला (१७७५-९७ ई.) के राज्यकाल में अवध को भारत में ब्रिटिश साम्राज्य तथा मराठा साम्राज्य के बीच का मध्यवर्ती राज्य माना जाने लगा। १७९७ ई. में आसफुद्दौला की मृत्यु के बाद उसकी गद्दी पर कुछ समय के लिए उसका जारज बेटा वजीर अली (१७९७-९८ ई.) बैठा। इसके बाद अंग्रेजों ने उसे हटा दिया और अवध की गद्दी पर आसफुद्दौला के भाई सआदत खाँ को बैठाया। नये नवाब ने १७९८ से १८१४ ई. तक शासन किया और कम्पनी से एक संधि कर ली। इस संधि के द्वारा कम्पनी ने अवध की रक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया। इसके बदले में नवाब ने इलाहाबाद का किला कम्पनी को सौंप दिया और ७६ लाख रुपये वार्षिक खिराज देने का वादा किया। इस प्रकार अवध एक प्रकार से कम्पनी का रक्षित अधीनस्थ राज्य बन गया। यह बात १९०१ ई. की संधि से और अच्छी तरह स्पष्ट हो गयी, जब अवध का नवाब रुहेलखंड तथा गंगा और यमुना का सारा इलाका अर्थात् अपना लगभग आधा इलाका कम्पनी को सौंप देने के लिए विवश हुआ। शेष आधा इलाका नवाब के शासन में रहा।

सआदत खाँ के बेटे तथा उत्तराधिकारी गाजीउद्दीन हैदर (१८१४-२७ ई.) को गवर्नर-जनरल लार्ड हेस्टिंग्स (दे.) ने १८१९ ई. में शाह की उपाधि प्रदान की। किंतु शाह गाजीउद्दीन हैदर तथा उसके उत्तराधिकारों-नसीरुद्दीन हैदर (१८२७-३७ ई.), मुहम्मद अलीशाह (१८३७-४२ ई.), अमजद अली शाह (१८४२-४७ ई.) तथा वाजिदअली शाह (१८४७-५६ ई.) के शासन काल में अवध का कुशासन कायम रहा। १८५६ ई. में कुशासन के अभियोग में वाजिदअली शाह को गद्दी से उतार दिया गया और अवध ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।

अवध के नवाबों ने राजधानी लखनऊ में कई खूबसूरत मसजिदें और इमारतें बनवायीं। उन्होंने लखनऊ को मुसलिम संस्कृति, संगीत और विलासिता का केन्द्र बना दिया। अवध के अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य में मिला लिया जाने पर नवाब की फौजें बर्खास्त कर दी गयीं। इसके फलस्वरूप नवाबों के आश्रित हजारों व्यक्ति बेकार हो गये और उनमें असंतोष फैल गया। गदर (दे.) के अनेक कारणों में एक कारण यह भी था।

अवध काश्तकारी कानून : अधिकांशतः गवर्नर-जनरल सर जान लारेंस के समर्थन से १८६८ ई. में पास हुआ। अवध में नवाबों के शासनकाल में बहुत से प्रभावशाली ताल्लुकेदार नियुक्त हो गये थे जिनमें अधिकांशतः राजपूत थे। वे काश्तकारों का बुरी तरह शोषण करते थे। अधिकांश काश्तकार शिकमी थे जिन्हें जब चाहे तब बेदखल किया जा सकता था। अवध काश्तकारी कानून के द्वारा अवध के काश्तकारों की अवस्था, कुछ हदतक सुधारने की कोशिश की गयी। उन्हें कुछ विशेष शर्तों पर जमीन पर दखल रखने के अधिकार दे दिये गये। यह व्यवस्था की गयी कि लगान बढ़ाने पर किसानों ने भूमि में जो स्थायी सुधार किये होंगे उनके लिए उन्हें मुआवजा दिया जायगा और न्यायालय में दर्खास्त देने के बाद ही न्यायोचित आधार पर लगान बढ़ाया जा सकेगा। यह उपयोगी और किसानों के लिए हितकारी कानून था।

अवमुक्त : नामक राज्य का उल्लेख समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भ लेख में आया है। उसका राजा नीलराज बताया गया है जिसे समुद्रगुप्त ने पराजित किया था, परन्तु बाद में उसे उसका राज्य लौटा दिया था। अवमुक्त दक्षिण में था लेकिन उसकी ठीक स्थिति का पता नहीं चलता है।

अवन्ती : प्राचीन भारत का महत्त्वपूर्ण राज्य। उसकी राजधानी उज्जयिनी आधुनिक मालवा में थी। उसकी गणना १६ राज्यों (षोड्स जनपदों ) में की जाती थी। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों के अनुसार ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म के उदय से कुछ पहले भारत १६ जनपदों में विभाजित था। इनमें अवन्ती भी था। बाद में अवन्ती ने पड़ोस के छोटे राज्यों को आत्मसात् कर लिया और उसकी गणना भारत के चार बड़े राज्यों में की जाने लगी। तीन अन्य वत्स (इलाहाबाद क्षेत्र), कोशल (अवध) और मगध (दक्षिणी बिहार) के राज्य थे। अवन्ती का राजा प्रद्योत मगध के बिंबसार और अजातशत्रु का समसामयिक था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में अवन्ती को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया।

अवन्ति वर्मा : कन्नौज के मौखरि वंश का राजा, जो स्थानेश्वर के पुष्यभूति वंश के राजा प्रभाकरवर्धन का समसामयिक था। उसके पुत्र गृहवर्मा ने प्रभाकरवर्द्धन की पुत्री राज्यश्री से विवाह किया था।

अवन्ती वर्मा (कश्मीरका) : ने ८५५ ई. में कश्मीर में उत्पल राजवंश की स्थापना की और कर्कोटक राजवंश को उखाड़ फेंका। उसके आदेश से कश्मीर में सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण किया गया, जिससे उसे बहुत कीर्ति मिली।

अवतार : सर्वशक्तिमान् परमात्मा के पृथ्वी पर जीवधारी बनकर आने पर उन्हें 'अवतार' कहा जाता है। सनातनी हिन्दुओं का विश्वास है कि जब धर्म क्षीण हो जाता है और अधर्म बढ़ता है तो सर्वशक्तिमान् परमात्मा पृथ्वी पर जीवधारी के रूप में प्रकट होकर धर्म की रक्षा करता है और अधर्म का नाश कर धर्म की पुनर्स्‍थापना करता है। सर्वशक्तिमान् परमात्मा के इन जीवधारी रूपों को सनातनी हिन्दू 'अवतार' मानते हैं। इनके अनुसार अबतक ऐसे नौ अवतार हो चुके हैं और दसवाँ कल्कि-अवतार होना बाकी है। पिछले नौ अवतारों में मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीरामचन्द्र, बलराम और बुद्ध हैं। (भागवत-४, ७-८)

अविता बिले, जनरल : नेपोलियन की सेना का एक अफसर, जो अपना भाग्य आजमाने के लिए भारत आया। उसे पंजाब के राजा रणजीत सिंह ने सिख सेना को यूरोपीय ढंग से संगठित करने के लिए नौकर रख लिया।

अव्यवस्थित प्रान्त : अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत उन प्रान्तों को कहा जाता था, जिनमें मई १७९३ ई. में जारी लार्ड कार्नवालिस का विधि-विधान व्यवह्रत नहीं होता था। ऐसे प्रान्त दिल्ली, असम, अराकान और तेनासेरीम, सागर और नर्मदा क्षेत्र, तथा पंजाब थे, जो क्रमशः १८०३ ई., १८२४ ई., १८१८ ई. और १८१९ ई. में हस्तगत किये गये थे। इन प्रान्तों का मुख्य अधिकारी चीफ़ कमिश्नर कहलाता था और जिलों के अधिकारी डिप्टी कमिश्नर। इन प्रांतों में सैनिक पदाधिकारी भी नागरिक सेवाओं हेतु नियुक्त किये जा सकते थे।

अशोक : (लगभग २७३-२३२ ई. पू. ) मौर्य राजवंश का तीसरा सम्राट्, जिसकी स्थापना उसके पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य (लगभग ३२२-२९८ ई. पू.) ने की थी। चंद्रगुप्त मौर्य के बाद उसका पिता बिन्दुसार (लगभग २९८-२७३ ई. पू.) गद्दी पर बैठा था। सिंहली इतिहास में सुरक्षित जनश्रुतियों के अनुसार अशोक अपने पिता बिन्दुसार के अनेक पुत्रों में से एक था और जिस समय बिन्दुसार की मृत्यु हुई उस समय अशोक मालवा में उज्जैन में राजप्रतिनिधि था। राजपद के उत्तराधिकार के लिए भयंकर भ्रातृयुद्ध हुआ जिसमें उसके ९९ भाई मारे गये और अशोक गद्दी पर बैठा। अशोक के शिलालेखों में इस भ्रातृयुद्ध का कोई संकेत नहीं मिलता है। इसके विपरीत शिलालेख सं. ५ से प्रकट होता है कि अशोक अपने भाई बहिनों के परिवारों का शुभचिंतक था। इसलिए गद्दी पर बैठने के पहले अशोक द्वारा भ्रातृयुद्ध में भाग लेने की बात को कुछ इतिहासकार सच नहीं मानते हैं। गद्दी पर बैठने के चार वर्ष बाद तक उसका राज्याभिषेक अवश्य नहीं हुआ। इसे इस बात का प्रमाण माना जाता है कि उसको राजा बनाने के प्रश्न पर कुछ विरोध हुआ।

अशोक सीरिया के राजा एण्टियोकस द्वितीय (२६१ - २४६ ई. पू. ) और कुछ अन्य यवन (यूनानी) राजाओं का समसामयिक था जिनका उल्लेख शिलालेख सं. 8 में है। इससे विदित होता है कि अशोक ने ईसापूर्व तीसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राज्य किया, किंतु उसके राज्याभिषेक की सही तारीख का पता नहीं चलता है। उसने ४० वर्ष राज्य किया। इसलिए राज्याभिषेक के समय वह युवक ही रहा होगा।

अशोक का पूरा नाम अशोकवर्द्धन था। उसके लेखों में उसे सदैव 'देवानामपिय' (देवताओं का प्रिय ) और 'पियदर्शिन्' (प्रियदर्शी) सम्बोधित किया गया है। केवल यास्की के लघु शिलालेख में उसको 'देवानाम्-पिय अशोक' लिखा गया है।

अशोक के राज्यकाल के प्रारम्भिक १२ वर्षों का कोई सुनिश्चित विवरण उपलब्ध नहीं है। इस काल में अपने पूर्ववर्ती राजाओं की भांति वह भी समाज (मेलों), मृगया (शिकार), मांस भोजन और आनन्द यात्राओं में प्रवृत्त रहता था। किन्तु उसके राज्यकाल के १३वें वर्ष में उसके जीवन में आमूल परिवर्तन हो गया। इस वर्ष राज्याभिषेक के आठ वर्ष बाद, उसने बंगाल की खाड़ी के तटवर्ती राज्य कलिंग पर आक्रमण किया। कलिंग राज्य उस समय महानदी और गोदावरी के बीच के क्षेत्र में विस्तृत था। इस युद्ध के कारण का पता नहीं चलता है, लेकिन उसने कलिंग को विजय करके उसे अपने राज्य में मिला लिया। इस युद्ध में भयंकर रक्तपात हुआ। एक लाख व्यक्ति मारे गये और डेढ़ लाख बन्दी बना लिये गये तथा कई लाख व्यक्ति युद्ध के बाद आनेवाली अकाल, महामारी आदि विभीषिकाओं से नष्ट हो गये। अशोक को लाखों मनुष्यों के इस विनाश और उत्पीड़न से बहुत पश्चात्ताप हुआ और वह युद्ध से घृणा करने लगा। इसके बाद ही अशोक अपने शिलालेखों के अनुसार 'धम्म' (धर्म) में प्रवृत्त हुआ। यहाँ धम्म का आशय बौद्ध धर्म लिया जाता है और वह शीघ्र ही बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। बौद्ध मतावलम्बी होने के बाद अशोक का व्यक्तित्व एकदम बदल गया। आठवें शिलालेख में, जो सम्भवतः कलिंग-विजय के चार वर्ष बाद तैयार किया गया था, अशोक ने घोषणा की "कलिंग देश में जितने आदमी मारे गये, मरे या कैद हुए उसके सौवें या हजारवें हिस्से का नाश भी अब देवताओं के प्रिय को बड़े दुःख का, कारण होगा।" उसने यह भी घोषणा की कि "(आप) विश्वास रखें कि जहाँतक क्षमा का व्यवहार हो सकता है, वहाँतक राजा हमलोगों के साथ क्षमा का बर्ताव करेगा।" उसने आगे युद्ध न करने का निश्चय किया और बाद के ३१ वर्ष के अपने शासन-काल में उसने मृत्युपर्यंत फिर कोई लड़ाई नहीं ठानी। उसने अपने उत्तराधिकारियों को भी परामर्श दिया कि वे शस्त्रों द्वारा विजय प्राप्त करने का मार्ग छोड़ दे और धर्म द्वारा विजय को वास्तविक विजय समझें। अशोक ने अब समाजों और मृगया में भाग लेना और मांसाहार करना छोड़ दिया। इसके बदले में उसने धर्मयात्राएँ आरम्भ कर दीं। उसने अपने शासन के १४वें वर्ष में बोधगया और २४वें वर्ष में बुद्ध के जन्मस्थान लुम्बिनी की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं में वह साधारण लोगों से मिलता था और उन्हें धर्म का उपदेश देता था। धम्मविजय के लिए उसने अपने शासन काल के १६वें वर्ष से ३२वें वर्ष तक शिला और स्तम्भ-लेख अंकित कराये। उसने जनता में धर्म के प्रचार के लिए अपने अधिकारियों को आदेश दिया कि वे केवल प्रशासन का कामकाज न देखें वरन् धर्म का भी प्रचार करें। उसने अपने शासन के १७वें वर्ष में 'धम्म महामात्र' नामक अधिकारियों को धर्म के प्रचार के लिए नियुक्त किया, जिनका मुख्य कार्य सारे राज्य में धर्म की वृद्धि करना था। उसने अपने सभी अधिकारियों को बताया कि उसकी प्रजा उसकी सन्तान के समान (सर्वे मुनिषा प्रजा मम ) है, अतः उसके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसा कि राज परिवार के सदस्यों के साथ किया जाता है। उसने अपने अधकारियों को निष्पक्ष रूप से करुणा-मिश्रित न्याय करने का आदेश दिया। उसने अपनी प्रजा को विचारों और व्यवहार में एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता प्रदर्शित करने की सलाह दी। उसने ऐसी गोष्ठियों को प्रोत्साहन दिया जिसमें सभी धर्मों की अच्छाइयों पर विचार किया जाय ताकि लोगों का दृष्टिकोण उदार बने। उसने न केवल अपने विशाल साम्राज्य के विभिन्न भागों में धर्म प्रचारक भेजे, वरन् विदेशों और दक्षिण भारत के सीमावर्ती राज्यों में भी धर्म-प्रचारक भेजे। उसके धर्मप्रचारक सीरिया, मिस्र, साइरिनि, मैसीडोनिया और एपीरस के यवन राज्यों तथा लंका और संभवतः बर्मा में भी गये। उसके धर्म-प्रचारक एशिया, अफ्रीका और यूरोप तीनों महादेशों में गये। अशोक ने बौद्ध धर्म का चारों दिशाओं में प्रचार किया जिससे उसने एक विश्वधर्म का रूप ले लिया। उसने मनुष्यों और पशुओं-सभी के कल्याण के लिए राजमार्गों के किनारे पेड़ लगवाये, कुएं खुदवाये। उसने मनुष्य और पशुओं की चिकित्सा के लिए औषधालय केवल अपने राज्य में ही नहीं वरन् पड़ोसी यवन राज्यों में भी खुलवाये। उसने उन राज्यों में औषधियाँ और ओषधि-वनस्पतियों के पौधे भी लगवाये। अशोक ने जाति, भाषा अथवा धर्म का भेदभाव किये बिना सभी मनुष्यों के कल्याण के लिए कार्य किया। अशोक ने मनुष्यमात्र के कल्याण के लिए जितना कार्य किया उसके आधार पर उसने इतिहास में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया है और वह मैसीडोनिया के सिकंदर, रोम के जूलियस सीज़र और फ्रांस के नेपोलियन की तुलना में महान् कहलाने का कहीं अधिक अधिकारी है।

अशोक का साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में हिन्दूकुश से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय की तराई से दक्षिण में पेन्नार नदी तक फैला था। उसके शिलालेख उसके विशाल साम्राज्य के सभी भागों में मिले हैं। अफगानिस्तान के कंधार और जलालाबाद, मैसूर में मास्की, काठियावाड़ में गिरनार और उड़ीसा के तोसली नामक स्थानों में उसके शिलालेख मिले हैं। ये शिलालेख सामान्य नागरिकों के उदबोधन के उदेश्य से उत्कीर्ण कराये गये थे, अतः उनको उन्हीं लिपियों में लिखवाया गया जो जनता में प्रचलित थीं। इसलिए कंधार और जलालाबाद के शिला लेखों में यूनानी और अरमहक लिपियों का, पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त के शाहबाजादी और मानसेरा में खरोष्ठी लिपि का और भारत के शेष भाग के शिलालेखों में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया गया। इनकी भाषा अर्ध-मागधी थी जो पाली से बहुत मिलती-जुलती है और जिसे भारतीय लोग शायद आसानी से पढ़ और समझ लेते थे।

अशोक के लेख शिलाओं, प्रस्तर-स्तम्भों और गुफाओं में पाये जाते हैं। उसके लेखों को तीन श्रणियों में बाँटा जा सकता है--शिलालेख, स्तम्भलेख और गुफालेख। शिलालेखों और स्तम्भलेखों को दो उपश्रेणियों में रखा जाता है। १४ शिलालेख सिलसिलेवार हैं जिनको चतुर्दश शिलालेख कहा जाता है। ये शिलालेख शाहबाज गढ़ी, मानसेरा, कालसी, गिरनार, सोपारा, धौली और जौगढ़ में मिले हैं। कुछ फुटकर शिलालेख असम्बद्ध रूप में हैं और संक्षिप्त हैं, शायद इसीलिए उन्हें लघु शिलालेख कहा जाता है। इस प्रकार के लघु शिलालेख रूपनाथ, सासाराम, बैराट, मास्की, सिद्धपुर, जतिंगरामेश्वर और ब्रह्मगिरि में पाये गये हैं। दूसरी श्रेणी के लघु शिलालेख वैराट (जिसे भाब्रू भी कहते हैं), येरागुडी और कोपबाल में मिले हैं। दो अन्य लघु शिलालेख अभी हाल में अफगानिस्तान में--एक जलालाबाद में और दूसरा कंधार के निकट मिले हैं। इनके अलावा सात लेख स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं जिसके कारण वे स्तम्भलेख के नामसे प्रसिद्ध हैं। ये स्तम्भलेख दिल्ली, इलाहाबाद, लौरिया-अरराज, लौरिया नन्दनगढ़ और रामपुरवा में मिले हैं। कुछ स्तम्भों पर केवल एक-एक लेख है, अतः उन्हें सात स्तम्भलेखों के क्रम से अलग रखा गया है और वे लघुस्तम्भ लेख कहे जाते हैं। इस प्रकार के लघु स्तम्भलेख सारनाथ, साँची, रुम्मिनदेह और निग्लीव में मिले हैं। अन्तिम तीन लेख बराबर पहाड़ियों की गुफाओं में मिले हैं और उनको गुफालेख के नाम से पुकारा जाता है।

कहा जाता है कि अशोक ने एक हजार स्तूपों का निर्माण कराया था जिनमें से भिलसा के एक स्तूप को छोड़कर शेष सभी नष्ट हो गये। उसका राजप्रासाद, जिसे फाहियेन (दे.) ने चौथी शताब्दी में देखा था, सातवीं शताब्दी में ह्यु एन-त्सांग की यात्रा के समय तक नष्ट हो गया था। अशोक का राजप्रासाद इतना भव्य था कि उसे देखकर यह समझा था कि उसको अशोक के लिए देवों ने तैयार किया होगा। उसके कुछ प्रस्तर-स्तम्भों पर इतनी सुंदर पालिश है कि शताब्दियों बीत जाने पर भी खराब नहीं हुई है और ललित-कला और स्थापत्य-कला के पारखी उनकी बड़ी प्रशंसा करते हैं। दूर-दूर तक फैले हुए ये प्रस्तर-स्तम्भ एक ही चट्टान से काटकर बनाये गये थे और भारतीय शिल्प के अनुपम उदाहरण हैं। "उनको देखने से मालूम होता है कि उस समय पत्थर पर पालिश करने की कला अत्यन्त उन्नत थी और आधुनिक युग में यह कला विलुप्त हो गयी है।" बड़ी चट्टानों को काटने और उन्हें उनकी खदानों से सैकड़ों मील दूर ले जाने और कभी कभी तो पहाड़ी चोटियों तक पहुँचाने की इंजीनियरिंग की कला ने भी उस युग में बहुत उन्नति कर ली थी। प्रत्येक प्रस्तर-स्तम्भ के शीर्षभाग पर एक अथवा अनेक पशुओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं। इन मूर्तियों के आसन को उलटे हुए कमल की आकृति प्रदान की गयी है। कला पारखियों ने इन प्रस्तर-स्तम्भों, विशेष रूप से सारनाथ स्तम्भ के कलात्मक शीर्षभाग की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है और सर जान मार्शल के अनुसार "प्राचीन काल में इसके जोड़ की कोई कलाकृति अन्यत्र उपलब्ध नहीं है।"

अशोक के पारिवारिक जीवन के बारे में हमें बहुत कम जानकारी है। बाद के साहित्य में सुरक्षित जनश्रुतियों के अनुसार उसकी कई रानियाँ थीं। उसके शिलालेखों में केवल दो रानियों का उल्लेख मिलता है जिनमें से दूसरी रानी का नाम कारुवाकी अथवा चारुवाकी था जो तीवर की माता थी। इसी प्रकार अशोक के पुत्रों के सम्बन्ध में हमें बहुत कम जानकारी मिलती है। तीवर उसका एक पुत्र था, लेकिन और दूसरे कान और कितने पुत्र थे, यह सब अज्ञात है। सिंहली इतिहास-ग्रंथों के अनुसार महेन्द्र, जिसने श्रीलंका में बुद्धधर्म का प्रचार किया अशोक का पुत्र था जिसे उसने धर्मप्रचार के लिए वहाँ भेजा था। यदि ऐसा था तो महेन्द्र की बहिन और सहायिका संघमित्रा अशोक की पुत्री थी, लेकिन शिलालेखों में इसका कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। साहित्यिक अनुश्रुतियों में अशोक के दो पुत्रों का नाम मिलता है, वे कुणाल और जालौक थे। लेकिन अशोक के उत्तराधिकारी के रूप में उसका कोई लड़का सिंहासन पर नहीं बैठा। उसका राज्य उसके दो पौत्रों दशरथ और सम्प्रति को मिला जिन्होंने उसे आपस में बाँट लिया।

इस बात का भी विवरण नहीं मिलता है कि अशोक के कर्मठ जीवन का अन्त कब, कैसे और कहाँ हुआ। तिब्बती परम्परा के अनुसार उसका देहावसान तक्षशिला में हुआ। उसके एक शिलालेख के अनुसार अशोक का अन्तिम कार्य भिक्षुसंघ में फूट डालने की निन्दा करना था। सम्भवतः यह घटना बौद्धों की तीसरी संगीति के बाद की है। सिंहली इतिहास-ग्रंथों के अनुसार तीसरी संगीति अशोक के राज्यकाल में पाटलीपुत्र में हुई थी।

कलिंग-विजय के बाद अशोक व्यक्तिगत रूप से बौद्ध मतावलम्बी हो गया था। यह बात इससे सिद्ध होती है कि उसने अपने को यास्की के लघु शिलालेख संख्या १ में बौद्ध-शाक्य बतलाया है और भाब्रू के शिलालेख में भी तीन रत्नों (बुद्ध, धर्म और संघ) में अपनी आस्था व्यक्त की है। सारनाथ के शिलालेख से स्पष्ट है कि उसने केवल बौद्ध तीर्थस्थलों की यात्राएँ कीं और बौद्ध भिक्षु संघ की एकता बनाये रखने का प्रयत्न किया। इससे भी यही प्रकट होता है कि वह बौद्ध मतावलम्बी था।

लेकिन उसके किसी भी शिलालेख में बौद्धधर्म के मूलभूत सिद्धान्तों-चार आर्य सत्य, अष्टांगिक-मार्ग तथा निर्वाण का उल्लेख नहीं है। इसके विपरीत उसके शिलालेखों में बौद्धधर्म की शिक्षाओं के विरुद्ध लिखा है कि धर्म के मंगलाचार से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इन बातों से कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अशोक ने जिस 'धम्म' का उपदेश दिया, वह बौद्धधर्म नहीं, विश्वधर्म था। यह निष्कर्ष सही नहीं मालूम होता है। अशोक के शिलालेखों में 'धम्म' शब्द का प्रयोग उसी धर्म के लिए किया गया है जिसे वह व्यक्तिगत रूप से मानता था और जिसका उसने अपनी प्रजा में प्रचार किया। इसलिए यदि वह व्यक्तिगत रूप से बौद्ध मतावलम्बी था तो उसके द्वारा प्रचारित धर्म भी बौद्धधर्म था। उसके शिलालेखों में बार-बार यही दोहराया गया है कि पशुओं पर दया करनी चाहिये, माता-पिता और गुरुजन की आज्ञा माननी चाहिये, सच बोलना चाहिये तथा सभी के साथ नम्रता का व्यवहार करना चाहिये। ये शिक्षाएँ निस्संदेह सभी धर्मों में पायी जाती हैं, लेकिन किसी भी धर्म में उनपर इतना जोर नहीं दिया गया जितना बौद्धधर्म में। बौद्धधर्म की पुस्तकों में निर्देश है कि बौद्ध मतावलम्बी गृहस्थों को इनका पालन करना चाहिये। अशोक ने अपने शिलालेखों में जिस धर्म का प्रचार किया वह साधारण गृहस्थों के लिए था अतः उसे बौद्धधर्म मानना ही सही है। (हलजव, सी. आई. आई. १, भंडारकर-अशोक, मुखर्जी-अशोक, स्मिथ, ही. एच. आई. वेल्स-हिस्ट्री आफ दि वर्ल्ड, भट्टाचार्य-सेलेक्ट अशोकन एपीग्राफ्स)।

अश्वघोष : बौद्धभिक्षु और आचार्य जो ईसा की दूसरी शताब्दी में हुआ। उसका जन्म मगध में हुआ था, लेकिन बाद में वह उत्तरी भारत के महान कुषाण राजा कनिष्क का सभापंडित हो गया और पेशावर में रहने लगा। वह कवि, संगीतज्ञ, विद्वान्, दार्शनिक, नाट्यकार एवं धार्मिक शास्त्रार्थ में कुशल बौद्धाचार्य था। धर्म एवं आचारनिष्ठ बौद्धभिक्षुओं में उसका बड़ा आदर था। उसके नाटकों में 'राष्ट्रपाल' और 'सारिपुत्र प्रकरण' विख्यात हैं। उसने 'सूत्र-अलंकार' नामक काव्य भी लिखा था। उसका 'बुद्ध चरित' रामायण की भांति एक धार्मिक महाकाव्य है जिसमें गौतमबुद्ध के जीवन और शिक्षाओं का वर्णन है। उसने कनिष्क द्वारा पेशावर में आयोजित चौथी 'बौद्ध संगीति' में प्रमुख भाग लिया। उसने अपने 'महायान श्रद्धोत्पाद संग्रह' नामक ग्रंथ में शून्यवाद का प्रतिपादन किया है और त्रिकायवाद (धर्मकाय, संभोगकाय, निर्माणकाय) के सिद्धांत का विकास किया है। उसके मतानुसार बुद्धत्व की प्राप्ति के हेतु एक बौद्ध के लिए बुद्ध के इस त्रिविध रूप में से 'किसी एक रूप में भक्ति रखना आवश्यक है। महायानी सम्प्रदाय के विकास में उसके विचारों का काफी योगदान है। (इन.)

अश्वमेध : का विधान ऋग्वेद में मिलता है। जब कोई विजयी राजा अपने को सार्वभौम राजा घोषित करना चाहता था तो वह अश्वमेध करता था। इस यज्ञ में एक घोड़ा छोड़ा जाता था जो सालभर इच्छानुसार विचरण करता था। उस घोड़े के पीछे-पीछे सेना चलती थी जिसका नायकत्व अश्वमेध करनेवाला राजा अथवा उसकी ओर से नियुक्त कोई राजकुमार करता था। जब अश्वमेध का घोड़ा किसी दूसरे राजा के राज्य में प्रवेश करता था तो वह या तो युद्ध करता था या बिना लड़े अधीनता स्वीकार कर लेता था। यदि अश्वमेध करनेवाला राजा उन सभी राजाओं को, जिनके राज्य से होकर घोड़ा गुजरता था, परास्त करने अथवा अपने अधीन बनाने में सफल हो जाता था तो वह सवविजयी बनकर अधीनस्थ राजाओं के साथ अपनी राजधानी लौटकर एक महोत्सव करता था, जिसमें उस घोड़े की बलि दी जाती थी। इस यज्ञ में ऋत्विक (यज्ञ करानेवाला पुरोहित) पारिप्लव नामक आख्यान तथा प्राचीन राजाओं के आख्यानों को सुनाता था और एक वीणावादक क्षत्रिय वीणापर यज्ञकर्ता राजा की विजययात्राओं पर स्वरचित प्रशस्तिका गायन करता था। बुद्ध ने युद्धकथा, भयकथा आदि निरर्थक कथाएँ कहने की प्रथा के साथ-साथ अश्वमेध की भी तीव्र भर्त्सना की और कुछ समय तक इसकी परिपाटी बंद रही। परंतु पुष्यमित्र शुंग (लगभग १८५ ई. पू.-१५० ई. पू. ) ने यह परिपाटी फिर से चला दी। कालिदास के मालविकाग्निमित्र नाटक के अनुसार उसने यवनों पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में, जो सिंधु नदी के तटतक आ गये थे, अश्वमेध किया। चौथी शताब्दी ईसवी में द्वितीय गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त (दे.) ने भी अपनी विजययात्राओं के उपलक्ष्य में अश्वमेध किया। पाँचवीं शताब्दी में कामरूप के पुष्यवर्मा वंश के छठे राजा महेन्द्रवर्मा ने भी अश्वमेध किया। सातवीं शताब्दी में बाद के गुप्त राजा आदित्यसेन ने भी अश्वमेध का अनुष्ठान किया। दक्षिण भारत में कई चालुक्य राजाओं ने भी इस यज्ञ का अनुष्ठान किया।

अष्टप्रधान  : मराठा राज्य के संस्थापक शिवाजी के आठ मंत्रियों की परिषद थी जो प्रशासन को चलाने में उनकी सहायता करती थी। परिषद का कार्य केवल सलाह देना था और उसे उत्तरदायी मंत्रिपरिषद नहीं कहा जा सकता। अष्टप्रधान में निम्नलिखित की गणना की जाती थी : (१) पेशवा अथवा प्रधानमंत्री, जो सामान्य रीति से राज्य के हितों पर दृष्टि रखता था; (२) अमात्य, वित्त-विभाग का प्रधान होता था; (३) मंत्री, राजा के सैनिक कार्यों और दरबार की कार्रवाइयों का लेखा रखता था; (४) सचिव, राजकीय पत्र-व्यवहार का अधीक्षक था; (५) सामन्त, वैदेशिक मामलों की देखरेख करता था; (६) सेनापति ; (७) पंडितराव और दानाध्यक्ष राजा का पुरोहित होता था जो दान की व्यवस्था करता था ; (८) न्यायाधीश अथवा शास्त्री जो हिन्दू न्याय की व्याख्या करता था। पंडितराव और शास्त्री को छोड़कर अष्टप्रधान में शामिल सभी मंत्री भी होते थे और उनके विभागों से सम्बन्धित मुल्की प्रशासन का कार्य राजधानी में रहनेवाले उनके सहायक करते थे।

असंग : प्रसिद्ध बौद्ध पंडित भिक्षु और आचार्य जो गुप्त काल में ईसा की चौथी शताब्दी में हुआ। वह प्रसिद्ध आचार्य वसुबन्धु का भाई था जो दूसरे गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त (लगभग ३३०-३६० ई.) का अमात्य था। उसने योगाचार्य भूमिशास्त्र की रचना की जो महायान सम्प्रदाय का आधारभूत ग्रंथ माना जाता है।

असद खां : बीजापुर के सुल्तान इब्राहीम आदिलशाह प्रथम (१५३५-५७ ई.) का वजीर था। वह योग्य प्रशासक और कूटनीतिज्ञ था। उसने १५४३ ई. में अपने कूटनीतिक चातुर्य का अच्छा परिचय दिया। उस वर्ष अहमद नगर और गोलकुंडा के सुल्तानों ने संयुक्त रूप से बीजापुर पर हमला करने के लिए विजयनगर के हिन्दू राज्य से सुलह कर ली। असद खाँ ने अहमदनगर और विजयनगर से अलग अलग संधियाँ करके उस संयुक्त मोर्चे को तोड़ दिया और इस प्रकार बीजापुर की रक्षा हो गयी।

असद खां : बादशाह औरंगजेब (1659-1707ई.) के शासनाकाल के उत्तरार्द्ध में वजीर आजाम था। उनका बेटा जुल्फख़ार खाँ औरंगजेब का सबसे अच्छा सेनापति था।

असवाल : अहमदाबाद की स्थापना के पूर्व पुराने नगर का नाम था। इसी नगर को केन्द्र बनाकर १५ वीं शताब्दी में गुजरात (दे.) में मुसलमानी सल्तनत का विकास हुआ।

असहयोग आन्दोलन : महात्मा गांधी (दे.) ने १९१९-२० ई. में आरम्भ किया था। इसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार को उन संवैधानिक सुधारों को स्वीकार करने पर विवश करना था, जिनकी माँग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कर रही थी। उन दिनों कांग्रेस का ध्येय भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य दिलाना मात्र था। प्रथम महायुद्ध के उपरांत युरोप में तुर्की साम्राज्य छिन्न-भिन्न कर दिये जाने के कारण भारतीय मुसलमानों में असंतोष व्याप्त था। अतः इस असहयोग आन्दोलन को केवल हिन्दुओं का ही नहीं बल्कि भारतीय मुसलमानों का भी समर्थन प्राप्त हुआ। इस आन्दोलन का ध्येय अंग्रेज सरकार को किसी भी प्रकार का सहयोग न देना था। प्रारम्भ में इस अत्यधिक समर्थन मिला और सैकड़ों तथा हजारों की संख्या में लोगों ने सरकार से असहयोग आरम्भ कर दिया। लोगों ने सरकारी सेवाओं से त्यागपत्र दे दिया; न्यायालयों का बहिष्कार कर दिया; विद्यार्थियों ने विद्यालयों में जाना बंद कर दिया और १९१९ के गवर्नमेण्ट आफ इंडिया ऐक्ट के अंतर्गत होनेवाले चुनावों का बहिष्कार किया। महात्मा गांधी इस आंदोलन को पूर्ण रूप से अहिंसात्मक रखना चाहते थे, परन्तु सरकार के विरुद्ध ऐसे देशव्यापी आंदोलन में एकाध हिंसात्मक घटना का घट जाना स्वाभाविक था। सरकार ने इसे बलपूर्वक दबाने का प्रयत्न किया और कानून के अंतर्गत दण्ड देना प्रारम्भ कर दिया। सहस्त्रों की संख्या में लोगों ने जेलों को भर दिया और इससे सरकार के लिए एक गंभीर समस्या उत्पन्न हो गयी। यह असहयोग आंदोलन १९२४ ई. तक तेजी से चला, परन्तु धीरे-धीरे भारतीय मुसलमानों के उदासीन हो जाने तथा कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में मतभेद उत्पन्न हो जाने के कारण, यह समाप्तप्राय हो गया। कुछ कांग्रेसी लोगों ने पंडित मोतीलाल नेहरू (दे.) तथा देशबंधु चितरंजन दास (दे.) के नेतृत्व में अलग स्वराज्य पार्टी बना ली। इसके नेता चुनाव में भाग लेकर १९१९ ई. के गवर्नमेण्ट आफ इंडिया ऐक्ट के अंतर्गत बनायी गयी केन्द्रीय और प्रान्तीय विधान सभाओं में इस अभिप्राय से जाना चाहते थे कि वे कौसिलों में लड़ सकें और उनमें या ता सुधार करायें या उन्हें समाप्त करवा दें।

असहयोग आन्दोलन व्यर्थ नहीं गया। समाज के सभी वर्गों के सहस्त्रों भारतीयों को सामूहिक जेलयात्रा के फलस्वरूप लोगों के हृदय से जेल का भय निकल गया। साथ ही लाखों भारतीयों के हृदय से अंग्रेजी सरकार का भय भी समाप्त हो गया। एक जन-आन्दोलन के लिए यह छोटी उपलब्धि नहीं थी।

असाई की लड़ाई : दूसरे आंग्ल-मराठा युद्ध (१८०३-०५ ई.) के दौरान हुई। इस लड़ाई में अंग्रेजी सेना ने सर आर्थर वेल्जली के नेतृत्व में शिन्दे और भोंसले की विशाल सेना को २३ सितम्बर १८०३ ई. को पराजित कर दिया। शिन्दे की जिस सेना ने लड़ाई में भाग लिया उसको यूरोपीय अफसरों से यूरोपीय ढंग से ट्रेनिंग दिलायी गयी थी लेकिन वह छोटी-सी अंग्रेजी सेना से बुरी तरह पराजित हो गयी।

असिक्‍नी : नामक पंजाब की नदी, जिसका उल्लेख ऋग्वेदके नदी-सूक्त में है। यूनानी इतिहासकारों ने उसे 'अकेसिनीज' लिखा है। इसका आधुनिक नाम चिनाब है। पोरस, जिसने सिकंदर का रास्ता रोका था, चिनाब और झेलम नदियों के बीच के क्षेत्र में राज्य करता था।

असीरगढ़  : खानदेश में ताप्ती नदी के तटपर स्थित एक दुर्जेय गढ़ समझा जाता है जो अनेक राजाओं के अधिकार में रह चुका है। प्रारम्भ में वह मालवा के हिून्‍दू राजाओं के अधीन था उसके बाद उसपर दिल्ली के मुसलमान सुल्तानों का अधिकार हो गया। मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के बाद इस किले पर खानदेश के फार्रुखी राजवंश का अधिकार हो गया जिनसे १६०१ ई. में अकबर ने छीन लिया। मराठा शक्ति का उदय होने पर यह मराठों के अधिकार में आ गया और उसपर शिन्दे का कब्जा रहा। अन्त में १८०३ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना ने शिन्दे और भोंसले की संयुक्त सेनाओं को असाई की लड़ाई में पराजित करके इस किले पर कब्जा कर लिया। उसके बाद वह भारत के अंग्रेजी राज्य का हिस्सा हो गया। आधुनिक समय में इस किले का सामरिक महत्त्व समाप्त हो गया है।

अस्करी : प्रथम गुगल सम्राट् बाबर (१५३६-३० ई.) का चौथा और सबसे छोटा बेटा था। अस्करी को उसके सबसे बड़े भाई हुमायूं (दे.) (१५३०-५६ ई.) ने सम्भल की जागीर दी थी। बाद में अस्करी १५३४ ई. में हुमायूं के गुजरात अभियान में उसके साथ रहा जहाँ आसानी से विजय मिलने के बाद वह ऐश-आराम में पड़ गया। वह हुमायूं के साथ दिल्ली लौट आया। जब हुमायूं १५३९ ई. में बंगाल के अभियान पर गया तो अस्करी उसके साथ नहीं गया और इस प्रकार बक्सर की लड़ाई में हुमायूं की पराजय में वह हिस्सेदार नहीं बना। जब हुमायूं बंगाल गया था तो दिल्ली में उसकी अनुपस्थिति में अस्करी ने गद्दी पर कब्जा करने की कोशिश की लेकिन पराजित हुमायूं के दिल्ली लौटने से उसकी योजना विफल हो गयी। १५४०-५४ ई. के बीच जब हुमायूं को कन्नौज की लड़ाई में पराजित होने के बाद दर-दर भटकना पड़ा और भारत छोड़कर भागना पड़ा तो अस्करी ने उसकी कोई मदद नहीं की। अस्करी ने शेरशाह के सामने आत्मसमर्पण करके अपने प्राण बचाये। हुमायूं ने जब दिल्ली पर फिर से कब्जा किया तो उसने अस्करी को क्षमा कर दिया लेकिन उसे मक्का चला जाना पड़ा जहाँ वह मर गया।

अस्सकेनोई गण : भारत पर सिकंदर महान् के आक्रमण के समय मलकंद दर्रे के निकट स्वातघाटी के एक हिस्से में रहता था। उनके पास एक बड़ी सेना थी और मस्सग दुर्ग उनकी राजधानी थी। यह दुर्ग प्राकृतिक दृष्टि से दुर्भेद्य था और उसकी रक्षा के लिए एक ऊँची प्राचीर और गहरी परिखा का निर्माण किया गया था। अस्सकेनोई लोगों ने सिकंदर से जमकर लोहा लिया और उनके एक तीर से सिकंदर घायल भी हो गया। लेकिन अन्त में सिकंदर की विजय हुई। उसने मस्सग दुर्ग पर अधिकार कर लिया और भयंकर नरसंहार के बाद अस्सकेनोई लोगों का दमन कर दिया। (संस्कृत में इस गण का नाम आश्वकायन अथवा अश्वक है। होगा। -संपादक)

अस्सपेसिओई गण : भारत पर सिकंदर महान् के आक्रमण के समय पश्चिमोत्तर सीमा पर कुनड़ अथवा चित्राल नदी की घाटी में रहता था। इस गण ने यवन आक्रमणकारियों से हट कर मोर्चा लिया था। सिकंदर को इन लोगों से दो लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं और उसके बाद ही वह इनका दमन कर सका।

अहमदनगर : निजामशाही सुल्तानों की राजधानी थी जिन्होंने १४९० ई. में दक्खिन में बहमनी सल्तनत की एक नयी शाखा की स्थापना की। अहमदनगर की स्थापना इस वंश के पहले सुल्तान अहमद निजामशाह ने की। अकबर ने जब इसपर हमला किया तो चाँदबीबी ने उसकी सेनाओं का डटकर मुकाबिला किया, परन्तु अंत में अकबर की विजय हुई। १६३७ ई. में बादशाह शाहजहाँ ने अहमदनगर को मुगल साम्राज्य में मिला लिया और उसके बाद इस नगर का महत्त्व घट गया। यह अब भी एक बड़ा नगर है और इसी नाम के जिले का मुख्यालय है।

अहमव निज़ामशाह : का असली नाम मलिक अहमद था। वह बिदर के दक्खिनी मुसलमानों के दल के नेता निजामुलमुल्क बहरी का बेटा था जिसने बहमनी सुल्तान के वजीर मुहम्मद गवां को १८४१ ई. में कत्ल करवा दिया। अपने पिता की मृत्यु के बाद मलिक अहमद ने बहमनी राज्य के आखिरी सुल्तान महमूद (१४८२-१५१८ ई.) को हराकर अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की और अपनी राजधानी का नाम अहमदनगर रखा। उसने अपना नाम अहमद निजामशाह और अपने राजवंश का नाम निजामशाही रखा। १४९९ ई. में उसने देवगिरि अथवा दौलताबाद किले को जीतकर उसपर अपना अधिकार कर लिया और इस प्रकार अपने राज्य को मजबूत बनाया। उसने १५०६ ई. तक राज्य किया।

अहमदशाह बहमनी : बहमनी सल्तन का नवाँ सुल्तान था जो १४२२ ई. में अपने भाई, आठवें सुल्तान फीरोज की हत्या करके तख्‍त पर बैठा था। उसने १४३५ ई. तक राज्य किया। उसने विजयनगर राज्य से लम्बी लड़ाई लड़ी; उस राज्य को बुरी तरह नष्ट किया और हजारों स्त्री-पुरुषों और बच्चों का कत्ल कर दिया। उसने वारंगल के हिन्दू राज्य को भी जीत लिया और मालवा तथा गुजरात के सुल्तानों तथा कोंकण के हिन्दू राजाओं से युद्ध किये। वह अपनी राजधानी गुलबर्ग से बिदर ले गया।

अहमदशाह, बादशाह : दिल्ली का १५ वाँ मुगल बादशाह (१७४८-५४ ई.) था। अपने पिता बादशाह मुहम्मदशाह के समय में जब वह शाहजादा था तो उसने अहमदशाह अब्दाली के पहले हमले को विफल कर दिया था। इसके महीने भर बाद ही मुहम्मदशाह की मृत्यु होने पर वह तख्तपर बैठा। अब्दाली ने १७५० ई. और उसके बाद १७५१ ई. में पुनः हमला किया और अहमदशाह को बाध्य होकर पंजाब उसे सौप देना पड़ा। अहमदशाह का राज्यकाल गौरवपूर्ण नहीं कहा जा सकता। १७५४ ई. में उसके वजीर गाजीउद्दीन ने उसे अंधा करके गद्दी से उतार दिया।

अहमदशाह दुर्रानी : देखो अहमदशाह अब्दाली।

अहमदशाह, सुल्तान : गुजरात का तीसरा सुल्तान (१४११-४१ ई.) था। उसके बाप और बाबा का राज्य तो अहमदाबाद के आसपास ही सीमित था, सुल्तान अहमदशाह ने उसका प्रसार पूरे गुजरात में किया और गुजरात की सल्तनत की नींव डाली। उसने मालवा के सुल्तानों और राज्यपूताना के राजाओं से अनेक युद्ध किये और किसी भी युद्ध में उसकी हार नहीं हुई। उसने पुराने हिन्दू नगर असवाल के निकट अहमदाबाद का निर्माण कराया और उसे एक सुन्दर भव्य नगर का रूप दिया।

अहमदाबाद : नाम के दो नगर हैं, एक गुजरात में और दूसरा दक्षिण में। दोनों की स्थापना अहमद नामक सुल्तानों ने की थी। दक्षिण के अहमदाबाद की स्थापना नवें बहमनी सुल्तान अहमदशाह ( दे. ) ( १४२२-३५ई.) ने की जो अपनी राजधानी गुलबर्ग से हटाकर बिदर ले आया और अपने नाम पर उसका नामकरण अहमदनगर किया। गुजरात के अहमदाबाद की स्थापना पुराने हिन्दू नगर असवाल के निकट गुजरात के सुल्तान अहमदशाह (दे.) (१४११-४१ ई.) ने की। १५ वीं शताब्दी में अपनी स्थापना के बाद से अहमदाबाद लगातार गुराजरात राज्य की राजधानी तबतक बना रहा जबतक वह बम्बई प्रदेश में शामिल नहीं कर दिया गया। सुल्तानों के बाद वह मुगलों के अधिकार में चला गया, अकबर ने १५७२ ई. में गुजरात को जीता और अपने राज्य में मिला लिया। १७५८ ई. में गुजरात और अहमदाबाद पर मराठों का अधिकार हो गया और अन्त में वह भारत के ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बना लिया गया। अहमदाबाद अपनी भव्य इमारतों के लिए प्रसिद्ध है और एक समय इसकी गणना संसार के मुख्य नगरों में होती थी। इसकी आबादी ९ लाख थी। यहाँ बहुत से करोड़पति रहते हैं। इस नगरकी समृद्धि रेशम, सुनहरे तार और सूत के कारण है। इस समय यह नगर गुजरात राज्यकी राजधानी है और सूती वस्त्र उद्योग का यह मुख्य केन्द्र है।

अहल्याबाई, रानी : इन्दौर के महाराजा मल्हार राव होल्कर (१७२८-१७६४ ई.) की विधवा पुत्रवधू थीं। मल्हार राव के जीवनकाल में ही उसके पुत्र खंडेराव का निधन १७५४ ई. में हो गया था। अतः मल्हार राव के निधन के बाद रानी अहिल्याबाई ने राज्य का शासनभार सम्हाला। रानी अहल्याबाई ने १७९५ ई. में अपनी मृत्युपर्यन्त बड़ी कुशलता से राज्य का शासन चलाया। उनकी गणना आदर्श शासकों में की जाती है। वे अपनी उदारता और प्रजावत्सलता के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने भारत के भिन्न-भिन्न भागों में अनेक मंदिरों, धर्मशालाओं, और अन्नसत्रों का निर्माण कराया। कलकत्ता से बनारस तक की सड़क, बनारस में अन्नपूर्णा का मंदिर, गया में विष्णु मंदिर उनके बनवाये हुए हैं। उन्होंने अपने समय की हलचल में प्रमुख भाग लिया। उनके एक ही पत्र मल्लेराव था जो १७६६ ई. में दिवंगत हो गया। १७६७ ई. में अहिल्याबाई ने तुकोजी होल्कर को सेनापति नियुक्त किया। अहिल्याबाई के निधन के बाद तुकोजी इन्दौर की गद्दी पर बैठा।

अहसानशाह, जलालुद्दीन : मअबर का सूबेदार था, जिसने १३३५ ई. में सुल्तान मुहम्मद तुगलक (दे.) के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और अपने को सुल्तान घोषित कर दिया। उसने मदुरा में अपना स्वतंत्र मुसलमानी राज्य स्थापित किया जिसको बाद में विजयनगर के हिन्दू राजा (१३७७-७८ ई.) ने जीत लिया।

अहसानाबाद : देखो गुलबर्ग अथवा, कुलबर्ग।

अहिच्छत्र : एक प्राचीन नगर था जहाँ अब रामनगर (जिला बरेली) स्थित है। महाभारत के अनुसार यह नगर उत्तर पंचाल राज्य की राजधानी था, जिसको द्रोणाचार्य ने जीत लिया था। ईसा की सातवीं शताब्दी में जब ह्युएन-त्सांग भारत आया तो यह नगर काफी विस्तृत क्षेत्र में फैला था।

अहोम : उत्तरी बर्मा में रहनेवाली शान जातिके थे। सुकफ के नेतृत्व में उनलोगों ने आसाम के पूर्वोत्तर क्षेत्र पर १२२८ ई. में आक्रमण किया और इस पर अधिकार कर लिया। यह वही समय था जब आसाम पर मुसलमानी आक्रमण पश्चिमोत्तर दिशा से हो रहे थे। धीरे-धीरे अहोम लोगों ने आसाम के लखीमपुर, शिवसागर, दारांग, नवगाँव और कामरूप जिलों में अपना राज्य स्थापित कर लिया। ग्वालपाड़ा जिला जो आसाम का हिस्सा है अथवा कन्धार और सिलहट के जिले कभी अहोम राज्य में शामिल नहीं थे। ब्रिटिश शासकों ने १८२४ ई. में इस क्षेत्र को जीतने के बाद इसे आसाम में शामिल कर दिया। अहोम लोगों की यह विशेषता थी कि उन्होंने भारत के पूर्वोत्तर भाग में पठान या मुगल आक्रमणकारियों को घुसने नहीं दिया, हालांकि मुगलों ने पूरे भारत पर अपना अधिकार जमा लिया था। आसाम में अहोम राज्य छह शताब्दी (१२२८-१८३५ ई.) तक कायम रहा। इस अवधि में ३९ राजा गद्दी पर बैठे। यहाँ के राजाओं की उपाधि 'स्वर्ग देव' थी। अहोम लोगों का १७ वां राजा प्रतापसिंह (१६०३-४१) और ३९ वाँ राजा गदाधर सिंह (१६८१-८६ई.) बड़ा प्रतापी था। प्रतापसिंह से पहले के अहोम राजा अपना नामकरण अहोम भाषा में करते थे लेकिन प्रतापसिंह ने संस्कृत नाम अपनाया और उसके बाद के राजा लोग दो नाम रखने लगे-एक अहोम और दूसरा संस्कृत भाषा में। अहोम लोगों का पहले अपना अलग जातीय धर्म था, लेकिन बाद में उहोंने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया। वे अपने साथ अपनी भाषा और लिपि भी लाये थे, लेकिन बाद में धीरे-धीरे उन्होंने असमिया भाषा और लिपि स्वीकार कर ली जो संस्कृत-बंगला लिपि से मिलती जुलती है। अहोम राजाओं ने आसाम में अच्छा शासन-प्रबंध किया। उनका शासन-प्रबंध सामंतवादी ढंग का था और उसमें सामंतवाद की सभी अच्छाइयाँ और बराइयाँ थीं। अहोम राजा अपने शासन का पूरा लेखा रखते थे जिन्हें 'बुरंजी' कहा जाता था। इसके फलस्वरूप अहोम और असमिया दोनों भाषाओं में काफी ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है। अहोम राजाओं की राजधानी शिवसागर जिले में वर्तमान जोरहाट के निकट गढ़ गाँव में थी। अन्तिम अहोम राजा जोगेश्वरसिंह अपने वंश के ३९ वें शासक थे जिसका आरम्भ सुकफ ने १२२८ ई. में किया था। जोगेश्वर ने केवल एक वर्ष (१८१९ ई.) राज्य किया। बर्मी लोगों ने उसकी गद्दी छीन ली, लेकिन आसाम में बर्मी शासन केवल पाँच वर्ष (१८१९-१८२४ ई.) रहा और प्रथम आंग्ल-बर्मी युद्ध के बाद यन्दव की सन्धि के अन्तर्गत आसाम भारत के ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। १८३२ ई. में ब्रिटिश शासकों ने अपने संरक्षण में पुराने अहोम राजवंश के राजकुमार पुरन्दरसिंह को उत्तरी आसाम का राजा बनाया लेकिन १८२८ ई. में कुशासन के आधार पर उसे गद्दी से हटा दिया। इसके बाद आसाम में अहोम राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया। अहोम लोग अब आसाम के अन्य निवासियों में घुल मिल गये हैं और उनकी संख्या बहुत कम रह गयी है। (देखो, आसाम)

आंगियर, जेराल्ड : बम्बई का गवर्नर (१६६९-१७०७ ई.)। वह सही अर्थों में बम्बई नगर का संस्थापक था जिसने बम्बई के महानगरी बनने की कल्पना कर ली थी। उसे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रारम्भिक संस्थापकों में गिना जा सकता है। उसकी गुमनाम कब्र सूरत में है। (मालबारी : बम्बे इन दि मेकिंग)

आंग्ल अफगान युद्ध : तीन हुए। पहला आँग्ल-अफगान युद्ध (१८३८-४२ ई.) -ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासनकाल में गवर्नर-जनरल लार्ड आक्लैण्ड के समय में शुरू हुआ और उसके उत्तराधिकारी लार्ड एलिनबरो के समय तक चलता रहा। १८३८ ई. में अफगानिस्तान का भूतपूर्व अमीर शाह शुजा अंग्रेजों का पेंशनयाफ्ता होकर पंजाब के लुधियाना नगर में रहता था। उस समय रूस के गुप्त समर्थन से फारस की सेना ने अफगानिस्तान के सीमावर्ती नगर हेरात को घेर लिया। हेरात बहुत सामरिक महत्त्व का नगर माना जाता था और उसे भारत का द्वार समझा जाता था। जब उस पर रूस की सहायता से फारस ने कब्जा कर लिया तो इंग्लैण्ड की सरकार ने उसे भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के लिए खतरा माना, हालाँकि उस समय फारस और भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के बीच में पंजाब में रणजीत सिंह और अफगानिस्तान में अमीर दोस्त मुहम्मद का स्वतंत्र राज्य था। अमीर दोस्त मुहम्मद भी हेरात पर फारस के हमले से रूसी आक्रमण का खतरा महसूस कर रहा था। वह अपनी सुरक्षा के लिए भारत की ब्रिटिश सरकार से समझौता करना चाहता था। किन्तु वह अपने पूरब के पड़ोसी महाराजा रणजीत सिंह से भी अपनी सुरक्षा की गारंटी चाहता था जिसने हाल में पेशावर पर कब्जा कर लिया था। अतएव उसने इस शर्त पर आंग्ल-अफगान गठबंधन का प्रस्ताव रखा कि अंग्रेज उसे रणजीत सिंह से पेशावर वापस दिलाने में मदद देंगे और इसके बदले में अमीर अपने दरबार तथा देश को रूसियों के प्रभाव से मुक्त रखेगा। लार्ड आक्लैण्ड की सरकार महाराजा रणजीत सिंह की शक्ति से भय खाती थी और उसने उस पर किसी प्रकार का दबाव डालने से इन्कार कर दिया। बर्न्स, जिसे आक्लैण्ड ने अमीर से बातचीत के लिए काबुल भेजा था, अप्रैल १८३८ ई. में काबुल से खाली हाथ लौट आया। उसके लौटने के बाद अमीर ने एक रूसी एजेण्ट की आवभगत की, जो कुछ समय से उसके दरबार में रहता था और अबतक उपेक्षा का पात्र बना हुआ था। इस बात को आक्लैण्ड की सरकार ने अमीर का शत्रुतापूर्ण कार्य समझा और जुलाई १८३८ ई. में उसने पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह और निष्कासित अमीर शाह शुजा से जो लुधियाना में रहता था, एक त्रिपक्षीय सन्धि कर ली जिसका उद्देश्य शाह शुजा को फिर से अफगानिस्तान की गद्दी पर बिठाना था। यह अनुमान था कि शाह शुजा काबुल में अमीर बनने के बाद अपने विदेशी सम्बन्धों में, खासतौर से रूस के सम्बन्ध में भारत की ब्रिटिश सरकार से नियंत्रित होगा। इस आक्रामक और अन्यायपूर्ण त्रिपक्षीय सन्धि के बाद आंग्ल-अफगान युद्ध अनिवार्य हो गया। इस त्रिपक्षीय सन्धि का यदि जुलाई १८३८ में कुछ औचित्य भी था तो वह सितम्बर में फारस की सेना द्वारा हेरात का घेरा उठा लिये जाने और अफगान क्षेत्र से हट आने के बाद समाप्त हो गया। लेकिन लार्ड आक्लैण्ड को इससे सन्तोष नहीं हुआ और अक्तूबर में उसने अफगानिस्तान पर चढ़ाई कर दी। इस आक्रमण का कोई औचित्य नहीं था और इसके द्वारा १८३२ ई. में सिन्ध के अमीरों से की गयी सन्धि का भी उल्लंघन होता था, क्योंकि अंग्रेजी सेना उनके क्षेत्र से होकर अफगानिस्तान गयी थी। इस युद्ध का संचालन भी बहुत गलत ढंग से किया गया। आरम्भ में अंग्रेजी सेना को कुछ सफलता मिली। अप्रैल १८३९ ई. में कंधार पर कब्जा कर लिया गया। जुलाई में अंग्रेजी सेना ने गजनी ले लिया और अगस्त में काबुल। दोस्त मोहम्मद ने काबुल खाली कर दिया और अंत में अंग्रेजी सेना के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। उसको बंदी बनाकर कलकत्ता भेज दिया गया और शाह शुजा को फिर से अफगानिस्तान का अमीर बना दिया गया। किन्तु इसके बाद ही स्थिति और विपम हो गयी। शाह शुजा को अमीर बनाने के बाद अंग्रेजी सेना बहाँ से वापस बुला लेनी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया। शाह शुजा केवल कठपुतली शासक था और देश का प्रशासन वास्तव में सर विलियम मैकनाटन के हाथ में था जिसको लार्ड आक्लैण्ड ने राजनीतिक अधिकारी के रूप में वहाँ भेजा था। अफगान लोग शाह शुजा को पहले भी पसंद नहीं करते थे और इस बात से बहुत नाराज थे कि अंग्रेजी सेना की बन्दूकों के जोर से उसे पुनः अमीर बना दिया गया है। इसीलिए काबुल में अंग्रेजी आधिपत्य सेना को रखना जरूरी हो गया था। युद्ध के कारण चीजों के दाम बेतहाशा बढ़ गये थे जिससे जनता का हर वर्ग पीड़ित था। अंग्रेजी सेना की कुछ हरकतों से भी जनरोष प्रबल हो गया था। इस मौके का दोस्त मुहम्मद के लड़के अकबर खाँ ने चालाकी से फायदा उठाया और १८४१ ई. में पूरे देश में शाह शुजा और उसकी संरक्षक अंग्रेजी सेना के विरुद्ध बड़े पैमाने पर बलवे शुरू हो गये। सर विलियम मैकनाटन के खास सलाहकार एलेक्ज़ेण्डर बर्न्स की अनीति से अफगान लोग चिढ़े हुए थे। नवम्बर १८४१ में एक क्रुद्ध अफगान भीड़ बर्न्स और उसके भाई को घर से घसीट कर ले गयी और दोनों को मार डाला। मैकनाटन और काबुल स्थित अंग्रेजी सेना के कमांडर-जनरल एलिफिंस्टन ने उस समय ढुलमुलपन और कमजोरी का प्रदर्शन किया और दिसम्बरमें अकबर खाँ से सन्धि कर ली जिसके द्वारा वापस बुला लेने और दोस्त मुहम्मद को दुबारा अमीर बना देनेका आश्वासन दिया गया। शीघ्र ही यह बात साफ हो गयी कि इस संधि के पीछे मैकनाटन की नीयत साफ नहीं है। इस पर अकबर खाँ के आदेश से मैकनाटन और उसके तीन साथियों को मौत के घाट उतार दिया गया। काबुल पर अधिकार करनेवाली अंग्रेजी सेना के १६,५०० सैनिक ६ जनवरी १८४१ ई. को काबुल से जलालाबाद की ओर रवाना हुए, जहाँ जनरल सेल के नेतृत्व में एक दूसरी अंग्रेजी सेना डटी हुई थी। अंग्रेजी सेना की वापसी विनाशकारी सिद्ध हुई। अफगानों ने सभी ओर से उसपर आक्रमण कर दिया और पूरी सेना नष्ट कर दी। केवल एक व्यक्ति, डाक्टर ब्राइडन गम्भीर रूप से जख्मी और थका माँदा १३ जनवरी को जलालाबाद पहँचा। इस दुर्घटना से गवर्नर-जनरल आक्लैण्ड और इंग्लैण्ड की सरकार को गहरा धक्का लगा। आक्लैण्ड को इंग्लैण्ड वापस बुला लिया गया और लार्ड एलिनबरो को उसके स्थान पर गवर्नर-जनरल (१८४२-१८४४ ई.) बनाया गया। एलिनबरो के कार्यकाल में जनरल पोलक ने अप्रैल १८४२ ई. में जलालाबाद पर फिर से नियंत्रण कर लिया और मई में जनरल नॉट ने कंधार को फिर से अंग्रेजों के आधिपत्य में ले लिया। इसके बाद दोनों अंग्रेजी सेनाएँ रास्ते में सभी विरोधियों को कुचलती हुई आगे बढ़ीं और सितम्बर १८४२ ई. में काबुल पर अधिकार कर लिया। इन सेनाओं ने बचे हुए बंदी अंग्रेज सिपाहियों को छुड़ाया और अंग्रेजों की विजय के उपलक्ष्य में काबुल के बाजार को बारूद से उड़ा दिया। अंग्रेजों ने काबुल शहर को निर्दयता के साथ ध्वस्त कर डाला, बड़े पैमाने पर लूटमार की और हजारों बेगुनाह अफगानों को मौत के घाट उतार दिया। इन बर्बरतापूर्ण कृत्यों के साथ इस अन्यायपूर्ण और अलाभप्रद युद्ध का अन्त हुआ। शीघ्र ही आफगानिस्तान से अंग्रेजी सेना को वापस बुला लिया गया और दोस्त मुहम्मद, अफगानिस्तान वापस लौट गया व १८४२ ई. में दुबारा गद्दी पर बैठा जिससे उसे अनावश्यक और अनुचित तरीके से हटा दिया गया था। वह १८६३ ई. तक अफगानिस्तान का शासक रहा। उस वर्ष ८० साल की उम्र में उसका देहांत हुआ। इसमें कोई सन्देह नहीं कि पहला अफगान युद्ध भारती ब्रिटिश सरकार की ओर से नितांत अनुचित रीति से अकारण ही छेड़ दिया गया था और लार्ड आक्लैण्ड की सरकार ने उसका संचालन बड़ी अयोग्यता के साथ किया। इस युद्ध से कोई लाभ नहीं हुआ और उसमें २०,००० भारतीय तथा अंग्रेज सैनिक मारे गये और डेढ़ करोड़ रुपया बर्बाद हुआ जिसको भारत की गरीब जनता से वसूला गया।

दूसरा आंग्ल-अफगान युद्ध  : (१८७८-८० ई.)-वाइसराय लार्ड लिटन प्रथम (१८७६-१८८० ई.) के शासन काल में आरम्भ हुआ और उसके उत्तराधिकारी लार्ड रिपन (१८८०-८४ ई.) के शासनकाल में समाप्त हुआ। अमीर दोस्त मुहम्मद की मृत्यु १८६३ ई. में हो गयी और उसके बेटों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध शुरू हो गया। उत्तराधिकार का यह युद्ध (१८६३-६८ ई.) पाँच वर्ष चला। इस बीच भारत सरकार ने पूर्ण निष्‍क्रियता की नीति का पालन किया और काबुल की गद्दी के प्रतिद्वन्द्वियों में किसी का पक्ष नहीं लिया। अन्त में १८६८ ई. में जब दोस्त मुहम्मद के तीसरे बेटे शेर अली ने काबुल की गद्दी प्राप्त कर ली तो भारत सरकार ने उसको अफगानिस्तान का अमीर मान लिया और उसे शस्त्रास्त्र तथा धन की सहायता देना स्वीकार कर लिया। लेकिन इसी बीच मध्य एशिया में रूस का प्रभाव बहुत बढ़ गया। रूस ने बुखारा पर १८६६ में, ताशकंद पर १८६७ में और समरकंद पर १८६८ ई. में कब्जा कर लिया। मध्य एशिया में रूस के प्रभाव के बढ़ने से अफगानिस्तान और भारत की अंग्रेज सरकार को चिन्ता हो गयी। अमीर शेर अली मध्य एशिया में रूस के प्रभाव को रोकना चाहता था और भारत की अंग्रेज सरकार अफगानिस्तान को रूसी प्रभाव से मुक्त रखना चाहती थी। इन परिस्थितियों में १८६९ ई. में पंजाब के अम्बाला नगर में अमीर शेर अली और भारत के भारत के वायसराय लार्ड मेयो (१७६९-७२ ई.) की भेंट हुई। उस समय अमीर अंग्रेजों की यह माँग मान लेने के लिए तैयार हो सकता था कि वह अपने वैदेशिक सम्बन्ध में अंग्रेजों का नियंत्रण स्वीकार कर ले और अंग्रेज रूस के विरुद्ध उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी ले लें और सहायता करें और उसको अथवा उसके नामजद व्यक्तियों को ही अफगानिस्तान का अमीर मानें। इंग्लैण्ड के निर्देश पर ब्रिटिश सरकार ने सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने की बात नहीं मानी, यद्यपि शस्त्रास्त्र और धन की सहायता देने का वचन दिया। स्वाभाविक रूप से अमीर शेर अली को भारत सरकार से समझौते की शर्तें संतोषजनक नहीं लगीं। लेकिन १८७३ ई. में रूसियों ने खीवा पर अधिकार कर लिया और इस प्रकार उनका बढ़ाव अफगानिस्तान की ओर होने लगा। इस हालत से चिन्तित होकर अमीर शेर अली ने १८७३ में वाइसराय लार्ड नार्थब्रुक (१८७३-८६ ई.) के सामने आंग्ल-अफगानिस्तान सन्धि का प्रस्ताव रखा जिसमें अफगानिस्तान को यह आश्वासन देना था कि यदि रूस अथवा उसके संरक्षण में कोई राज्य अफगानिस्तान पर आक्रमण करे तो ब्रिटिश सरकार अफगानिस्तान की सहायता केवल शस्त्रास्त्र और धन देकर ही नहीं करेगी वरन् अपनी सेना भी वहाँ भेजेगी। उस समय इंग्लैण्ड में ग्लैडस्टोन का मंत्रिमंडल था। उसकी सलाह के अनुसार लार्ड नार्थब्रुक इस प्रस्ताव पर राजी नहीं हुआ। नार्थब्रुक इस बात के लिए भी राजी नहीं हुआ कि वह अमीर शेर अली के पुत्र अब्दुल्लाजान को उसका वारिस मानकर उसे भावी अमीर मान ले। इन बातों से शेर अली अंग्रेजों से नाराज हो गया और उसने रूस से अपने सम्बन्ध सुधारने के लिए लिखा पढ़ी शुरू कर दी। रूसी एजेण्ट जल्दी-जल्दी काबुल आने लगे। १८७४ ई. में डिज़रेली ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना और १८७७ ई. में रूस-तुर्की युद्ध शुरू हो गया जिससे इंग्लैण्ड और रूस के सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न हो गयी और दोनों में किसी समय भी युद्ध छिड़ने की आशंका उत्पन्न हो गयी। इस हालत में अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पर अपना मजबूत नियंत्रण रखने का निश्चय किया जिससे अफगानिस्तान से होकर भारत में अंग्रेजी राज्य के लिए कोई खतरा न उत्पन्न हो। इस नीति के परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने क्वेटा पर १८७७ ई. में अधिकार कर लिया क्योंकि कंधार के रास्ते की सुरक्षा के लिए उसपर नियंत्रण रखना जरूरी था। लार्ड नार्थब्रुक के उत्तराधिकारी लार्ड लिटन प्रथम (१८७६-८० ई.) ने डिज़रेली मंत्रिमंडल की सलाह से काबुल दरबार में एक ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल भेजने का निश्चय किया जिसे १८७३ ई. में अफगानिस्तान के अमीर द्वारा प्रस्तावित शर्तों के आधार पर सन्धि की बातचीत शुरू करनी थी। उन शर्तों के अलावा यह शर्त भी रखी गयी कि हेरात में भी ब्रिटिश रेजिडेण्ट रखा जाय। लेकिन अमीर ने ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल काबुल भेजने का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। उसकी ओर से कहा गया कि यदि अफगानिस्तान में ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल आयेगा तो रूस के प्रतिनिधिमंडल को भी आने की इजाजत देनी पड़ेगी। इस प्रकार इस मामले में एक गतिरोध-सा उत्पन्न हो गया लेकिन अमीर के प्रतिबन्ध के बावजूद एक रूसी प्रतिनिधिमंडल जनरल स्टोलीटाफ के नेतृत्व में १८७८ ई. में अफगानिस्तान पहुँचा और उसने अमीर शेर अली से २२ जुलाई १८७८ को सन्धि की बातचीत शुरू कर दी। उसने अफगानिस्तान पर विदेशी हमला होने पर रूस की ओर से सुरक्षा की गारण्टी देने का प्रस्ताव रखा। रूसी प्रतिनिधिमण्डल के काबुल में हुए स्वागत से लार्ड लिटन (प्रथम) भयंकर रूप से क्रुद्ध हो गया और उसने इंग्लैण्ड की ब्रिटिश सरकार के परामर्श से अफगानिस्तान के अमीर पर इस बात का दबाव डाला कि वह काबुल में ब्रिटिश प्रतिनिधिमण्डल का भी स्वागत एक निश्चित तारीख २० नवम्बर १८७८ को करे। अमीर ने तब नयी सन्धि के अंतर्गत रूस से मदद माँगी लेकिन इस बीच रूस-तुर्की युद्ध समाप्त हो गया था और यूरोप में शान्ति स्थापित हो गयी थी और इंग्लैण्ड और रूस के बीच १८७८ की वर्लिन की सन्धि हो गयी थी। रूस अब इंग्लैण्ड से युद्ध नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने शेर अली को अंग्रेजों से सुलह करने की सलाह दी, लेकिन शेर अली ने अब सुलह में काफी देरी कर दी थी, क्योंकि अंग्रेज सेना ने २० नवम्बर को अफगानि्स्‍तान पर हमला बोल दिया था और इस प्रकार दूसरा आंग्ल अफगान युद्ध शुरू हो गया था।

जिस प्रकार पहले आंग्ल-अफगान युद्ध (१८३८-४२ ई.) में ब्रिटिश भारतीय सेना को आरम्भ में सफलताएँ मिलीं थीं, उसी प्रकार इस बार भी मिलीं। रूसके साथ न देने के कारण शेर अली अंग्रेजी आक्रमण का अधिक प्रतिरोध नहीं कर सका। तीन अंग्रेजी सेनाओं ने तीन ओर से काबुल पर चढ़ाई कर दी-जनरल ब्राउन के नेतृत्व में एक सेना खैबर के दर्रे से, दूसरी सेना जनरल (बाद में लार्ड ) राबर्ट्स के नेतृत्व में कुर्रम की घाटी से और तीसरी सेना जनरल बीडल्फ के नेतृत्व में क्वेटा से आगे बढ़ी। चौथी ब्रिटिश सेना ने जेनरल स्टुअर्ट के नेतृत्व में कंधार पर कब्जा कर लिया। शेर अली की हालत एक महीने में ही इतनी पतली हो गयी कि वह अफगानिस्तान छोड़कर तुर्किस्तान भाग गया जहाँ शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गयी। शेर अली की मृत्यु के बाद उसके बेटे याकूब खाँ ने अंग्रेजों से सुलह की बातचीत चलायी और मई १८७९ ई. में गन्दमक की सन्धि कर ली। इस सन्धि में अंग्रेजों की सभी शर्तें मंजूर कर ली गयीं। इसके अलावा काबुल में ब्रिटिश राजदूतों को रखना तय हुआ और अफगानिस्तान की वैदेशिक नीति भारत के वासइराय की राय से यह करने की बात भी मान ली गयी। कुर्रम, पिशीन और सिबी के जिले भी अंग्रेजों को सौंप दिये गये। इस सन्धि के अनुसार प्रथम ब्रिटिश राजदूत कैवगनरी जुलाई १८७९ ई. में काबुल पहुँच गया। उस समय ऐसा मालूम होता था कि इस युद्ध में अंग्रेजों को पूरी सफलता मिली है। लेकिन ३ सितम्बर को काबुल की अफगान सेना में सैनिक विद्रोह हो गया, कैवगनरी की हत्या कर दी गयी और फिर से लड़ाई शुरू हो गयी। अंग्रेजों ने इस बार तत्काल प्रभावशाली ढंग से कार्रवाई की। राबर्ट्स ने अक्तूबर १८७९ ई. में काबुल पर अधिकार कर लिया और अमीर याकूब खाँ की हालत कैदी जैसी हो गयी। उसके भाई अयूब खाँ ने अपने को अमीर घोषित कर दिया और उसने जुलाई १८८० ई. में ब्रिटिश सेना को कंधार के निकट भाईबन्द के युद्ध में पराजित कर दिया। लेकिन राबर्ट्स एक बड़ी सेना के साथ काबुल से कंधार पहुँचा, शेर अली के भतीजे अब्दुर्रहमान ने भी अंग्रेजों की काफी मदद की और ब्रिटिश सेना ने अयूबखाँ को पूरी तौर से हरा दिया। इसी बीच इंग्लैण्ड में डिजरेली के स्थान पर ग्लैडस्टोन प्रधानमंत्री बन गया, जिसने भारत के वाइसराय लार्ड लिटन को वापस बुलाकर लार्ड रिपन को भारत का वाइसराय (१८८०-८४) बनाया। नये वाइसराय ने अब्दुर्रहमान के साथ सन्धि करके दूसरा आंग्ल-अफगान युद्ध समाप्त कर दिया। इस सन्धि में अब्दुर्रहमान खाँ को अफगानिस्तान का अमीर मान लिया गया। अमीर ने अंग्रेजों से वार्षिक सहायता पाने के बदले में अपनी वैदेशिक नीति पर भारत सरकार का नियंत्रण स्वीकार कर लिया। गन्दमक की सन्धि में जो जिले अंग्रेजों को मिले थे वे उनके पास ही बने रहे।

दूसरा अफगान युद्ध दो नीतियों की पारस्परिक प्रतिक्रिया का परिणाम था। एक नीति जिसे अग्रसर नीति (फारवर्ड पालिसी ) कहा जाता था, उसके अनुसार भारत की, पश्चिमोत्तरमें, प्राकृतिक सीमा हिन्दूकुश होनी चाहिए। इस नीति के अनुसार भारत के ब्रिटिश साम्राज्य में कंधार और काबुल को जो भारत के दो फाटक माने जाते थे, सम्मिलित करना आवश्यक समझा जाता था। दूसरी नीति के अनुसार रूस और इंग्लैण्ड, जो पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के कारण एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे, दोनों अफगानिस्तान को अपने प्रभाव के अंतर्गत रखना चाहते थे। इंग्लैण्ड में विशेष रूप से कंजरवेटिव पार्टी को अफगानिस्तान होकर भारत की और रूसी प्रसार का तीव्र भय था। यद्यपि यह भय कभी साकार नहीं हुआ तथापि इसने अफगानिस्तान के प्रति ब्रिटिश नीति को समूची १९ वीं शताब्दी भर प्रभावित किया।

तीसरा आंग्ल-अफगान युद्ध : (अप्रैल-मई १९१९) –बहुत थोड़े दिन चला। अमीर अब्दुर्रहमान ने जिसे लार्ड रिपन ने अफगानिस्तान का अमीर मान लिया था, उसने १९०१ ई. में मृत्युपर्यन्त शासन किया। उसके उत्तराधिकारी अमीर हबीबुल्लाह (१९०१-१९ ई.) ने अपने को अफगानिस्तान का शाह घोषित किया और उसने भारत की अंग्रेजी सरकार से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखा। लेकिन उसके बेटे और उत्तराधिकारी शाह अमानुल्लाह (१९१९-२९ ई.) ने आंतरिक झगड़ों और अफगानिस्तान में व्याप्त अंग्रेज-विरोधी भावनाओं के कारण, गद्दी पर बैठने के बाद ही भारत की ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस तरह तीसरा तीसरा अंग्ल-अफगान युद्ध शुरू हो गया। युद्ध केवल दो महीने (अप्रैल-मई १९१९ ई.) चला। भारत की ब्रिटिश सेना ने बमों, विमानों, बेतार के तार की संचार व्यवस्था और आधुनिक शास्त्रास्त्रों का प्रयोग करके अफगानों को हरा दिया। अफगानों के पास आधुनिक शस्त्रास्त्र नहीं थे। उन्हें मजबूर होकर शान्ति-सन्धि के लिए झुकना पड़ा। परिणामस्वरूप रावलपिंडी की सन्धि (अगस्त १९१९) हुई। इस सन्धि के द्वारा तय हुआ कि अफगानिस्तान भारत के मार्ग से शस्त्रास्त्रों का आयात नहीं करेगा। अफगानिस्तान के शाह को भारत से दी जानेवाली आर्थिक सहायता भी बंद कर दी गयी और अफगास्तान, दोनों ने एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करने का निश्चय किया। अन्त में यह भी तय हुआ कि अफगानिस्तान अपना राजदूत लन्दन में रखेगा और इंग्लैण्ड का राजदूत काबुल में रखा जायगा। इसके बाद से आंग्ल-अफगान सम्बन्ध प्रायः मैत्रीपूर्ण रहा।

आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध  : देखो कर्नाटक बुद्ध।

आईन-ए-अकबरी : फारसी का एक प्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ जिसे अकबर बादशाह के विश्वासपात्र और मीरमुन्शी (प्रधान सचिव) अबुलफजल ने लिखा था। इसमें अकबर की सल्तनत, उसके सैनिक प्रबन्ध तथा शासनप्रबंध के बारे में सूचनाएँ मिलती हैं। फारसी के अन्य इतिहास ग्रन्थों से इसकी एक विशेषता यह है कि इसमें मुगल सल्तनत के हर-एक सूबे, जिले, और परगनों के आंकड़े दिये गये हैं। इस ग्रन्थ में हमें मुगलों के काल की आर्थिक स्थिति तथा मुगल शासन-व्यवस्था के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी मिलती है। इस ग्रन्थ का अंग्रेजी में टिप्पणी सहित अनुवाद ब्लाकमैन और जैरट ने १८७३ ई. में किया था। इस ग्रन्थ में अकबरकालीन भारत के बारे में सबसे प्रामाणिक जानकारी मिलती है।

आउटरम, सर जेम्स (१८०३-६३ ई.) : गदर के समय अंग्रेजों का एक वीर नायक था। वह १८१९ ई. में एक कैडेट (शिक्षार्थी सैनिक अधिकारी) के रूप में भारत आया। अगले साल अपनी चुस्ती के कारण वह पूना में एडजुटेंट बना दिया गया। १८२५ ई. में उसे खानदेश भेजा गया। वहाँ के भील उससे बहुत प्रभावित हुए। उसने भीलों को पैदल फौज में भरती किया। उनको हलके हथियार दिये गये। यह पलटन स्थानीय चोरों की लूटमार रोकने में बहुत सफल हुई। १८३५ से १८३८ ई. तक वह गुजरात में पोलिटिकल एजेंट रहा। १८३८ ई. में उसने अफगान युद्ध में भाग लिया। उसने गजनी के किले के सामने शत्रुओं के झंडे छीन लेने में व्यक्तिगत रीति से बड़ी वीरता प्रदर्शित की, जिसके कारण उसका बहुत नाम हुआ। १८३६ ई. में वह सिंध में पोलिटिकल एजेंट नियुक्त हुआ। उसने अपने उच्च अधिकारी सर चार्ल्स नेपियर की नीति का विरोध करके, जिसके फलस्वरूप सिंध के अमीरों से युद्ध हुआ, अपने सबल व्यक्तित्व तथा अपनी न्यायप्रियता का परिचय दिया। परन्तु जब युद्ध छिड़ गया तो उसने ८०० बलूचियों के हमले से हैदराबाद रेजिडेंसी की वीरतापूर्वक रक्षा की। इसके फलस्वरूप सर चार्ल्स नेपियर ने उसकी तुलना प्रसिद्ध फ्रांसीसी वीर बेयार्ड से की।

१८५४ ई. में वह लखनऊ में रेजिडेंट नियुक्त हुआ। १८५६ ई. में उसने अवध का राज्य नवाबों से ले लिया और उसके अंग्रेजी साम्राज्‍य में मिला लिये जाने के बाद प्रांत का पहला चीफ कमिश्नर नियुक्त हुआ। जिस समय गदर हुआ वह फारस में था। उसे शीघ्रता से फारस से बुला लिया गया और कलकत्ता से कानपुर तक की रक्षा करनेवाली बंगाल आर्मी का कमांडर नियुक्त किया गया। उसने लखनऊ रेजिडेंसी का मोहासरा उठाने में हैवलाक की भारी मदद की और विद्रोहियों को चकमा देकर रेजिडेंसी में फँसी फौज को निकाल ले आया। इसके बाद उसने लखनऊ पर पुनः अधिकार करने में सर कालिन कैम्पबेल को मदद दी। गदर के समय उसने लोमड़ी जैसी चालाकी तथा सिंह जैसे पराक्रमका परिचय दिया। ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने इसके उपलक्ष्य में उसे 'बैरन' की पदवी प्रदान की और उसकी आजीवन पेंशन नियत कर दी। कलकत्ता में स्थापित उसकी घोड़े पर सवार मूर्ति मूर्तिकला का उत्तम उदाहरण थी। उसने १८६० ई. में अवकाश ग्रहण किया और १८६३ ई. में इंग्लैण्ड में उसकी मृत्यु हुई।

आकमटी, सर सैम्युअल : को लार्ड मिंटो प्रथम (१५०७-१७) ने मद्रास में ईस्ट इंडिया कम्पनी के सैनिक अधिकारियों के विद्रोह कर देने पर मद्रास की सेना का सेनापति नियुक्त किया था। आकमटी ने शीघ्र ही विद्रोह शांत कर दिया। इसके पुरस्कारस्वरूप जावा पर आक्रमण करने के लिए (१८१०-११ ई.) जो ब्रिटिश सैन्य दल भेजा गया उसका नेतृत्व उसे सौंपा गया। परिणामस्वरूप १८११ ई. में जावा पर अधिकार कर लिया गया।

आक्‍लैण्‍ड, लार्ड : १८३६ से ४२ ई. तक ६ वर्ष भारत का गवर्नर-जनरल रहा। उसके प्रशासन में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। यह सही है कि उसने भारतीयों के लिए शिक्षा प्रसार और भारत में पश्चिमी चिकित्सा-पद्धति की शिक्षा को प्रोत्साहन दिया। उसने कम्पनी के डायरेक्टरों के उस आदेश को कार्यरूप में परिणत किया जिसके अधीन तीर्थयात्रियों और धार्मिक संस्थाओं से कर लेना बन्द कर दिया गया। लेकिन १८३७-३८ ई. में उत्तर भारत में पड़े विकराल अकाल के समय लोगों के कष्‍टों को दूर करने के लिए पर्याप्त कदम उठाने में वह विफल रहा। उसने १८३७ ई. में पादशाह बेगम के विद्रोह का दमन किया और अवध के नये नवाब (बादशाह) नसीरउद्दीन हैदर को बाध्य करके नयी सन्धि के लिए राजी किया जिसके द्वारा उससे अधिक वार्षिक धनराशि वसूल की जाने लगी। उस सन्धि को कम्पनी के डायरेक्टरों ने नामंजूर कर दिया, लेकिन आक्लैण्ड ने इस बात की सूचना अवध के बादशाह को नहीं दी। उसने सतारा के राजा को गद्दी से उतार दिया क्योंकि उसने पुर्तगालियों से मिलकर राजद्रोह का प्रयत्न किया था। अपदस्थ राजा के भाई को उसने गद्दी पर बैठाया। उसने करनूल के नवाब को भी कम्पनी के विरुद्ध युद्ध करने का प्रयास करने के आरोप में गद्दी से हटा दिया और उसके राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। लार्ड आक्लैण्ड का सबसे बदनामीवाला काम उसका प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध (१८३८-४२) शुरू करना था जिसका लक्ष्य दोस्त मुहम्मद को अफगानिस्तान की गद्दी से हटाना था क्योंकि वह रूस का समर्थक था और उसके स्थान पर शाह शुजा को वहाँ का अमीर बनाना था जिसे अंग्रेजों का समर्थक समझा जाता था। यह युद्ध अनुचित था और इसके द्वारा सिन्ध के अमीरों से की गयी सन्धि को उसे तोड़ना पड़ा था। इस युद्ध का संचालन इतने गलत ढंग से हुआ कि वह एक दुखान्त घटना बन गयी और लार्ड आक्लैण्ड को इंग्लैण्ड वापस बुला लिया गया और उनके स्थान पर लार्ड एलेनबरो को भारत का गवर्नर-जनरल बनाकर भेजा गया।

आक्टरलोनी, सर डेविड (१७५८-१८३५ ई.)  : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में एक सुविख्यात सेनानायक। उसने १८०४ ई. में होल्कर के आक्रमण के समय दिल्ली की अत्यंत कुशलता से रक्षा की थी। उपरांत १८१४-१५ ई. के गोरखा युद्ध (दे.) में, वह उन तीन आंग्ल भारतीय सेनाओं में से एक का कमांडर था, जिसने नेपाल पर आक्रमण किया था। अन्य दो सेनाओं के कमांडर तो भाग आये, किन्तु आक्टरलोनी पश्चिम की ओर से नेपाल पर आक्रमण करके मोर्चे पर डटा रहा। इस सफलता के पुरस्कारस्वरूप उसकी पदोन्नति की गयी और उसे उन समस्त अंग्रेज और भारतीय सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर नियुक्त कर दिया गया जिन्होंने नेपाल पर आक्रमण किया था। उसने अपनी पदोन्नति को सार्थक सिद्ध कर दिया तथा कठिन युद्ध के उपरांत नेपाल में दूरतक घुसता चला गया, यहाँ तक कि उसकी राजधानी काठमांडू केवल ५० मील दूर रह गयी। परिणामस्वरूप १८१६ ई. में नेपाल को संगौली की संधि (दे.) करनी पड़ी। १८१७-१८ ई. के पेंढारी युद्ध (१८१७-१८ ई.) में वह राजपूताने की पलटन का कमांडर था और उसने अमीर खाँ को पेंठारियों से फोड़कर अंग्रेजों को शीघ्र विजय दिलाने में मदद दी। १८२४-३६ ई. में प्रथम बर्मा युद्ध छिड़ने पर उसने भरतपुर (दे.) पर चढ़ाई बोली, जहाँ दुर्जन साल ने अल्पवयस्क राजा बलवन्तसिंह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। किन्तु गवर्नर-जनरल ने उसे तत्क्षण वापस बुला लिया। इसके थोड़े ही समय बाद उसकी मृत्यु हो गयी। चौरंगी के समीप कलकत्ता के मैदान में ऑक्टरलोनी का एक स्मारक आज दिन भी वर्तमान है और उसे साधारणतः मनियारमठ कहा जाता है।

आक्सेनडेन, सर जार्ज : सूरत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की फैक्टरी का अध्यक्ष था और १६६२ से १६६९ ई. तक बम्बई का गवर्नर रहा। उसने १६६४ ई. में शिवाजी के हमले के विरुद्ध सूरत की वीरतापूर्वक रक्षा की और बादशाह औरंगजेब ने भी उसकी प्रशंसा की।

आगा खाँ : भारतीय मुसलमानों के वोहरा इस्माइली समुदाय के धार्मिक नेता की उपाधि। वर्तमान आगा खाँ अली खाँ हैं जो इस पद के चौथे उत्तराधिकारी हैं। प्रथम आगा खाँ हसन अली खाँ थे, जो अपने को हजरत मुहम्मद की पुत्री के वंशज बताते थे। उनके बेटे आगा अलीशाह तीन वर्ष (१८८१-१८८४ ई.) इस पद पर रहे और उनके पुत्र सुल्तान मुहम्मद आगा खाँ तृतीय को 'हिज हाईनेस' की उपाधि ब्रिटिश शासकों ने प्रदान की। (नौरोजी दुभसिया-दि आगा खाँ एण्ड हिज एन्सेस्टर्स)

आजम, शाहजादा : छठे मुगल बादशाह औरंगजेब (१६५८-१७०७ ई.) का तीसरा बेटा था जिसने अपने बाप के मरने के बाद तख्त के लिए अपने बड़े भाई शाहजादा मुअज्जम से युद्ध किया और आगरा के निकट जाजऊ की लड़ाई में 10 जून 1707 ई. को हारा और मारा गया।

आजीवक : सम्प्रदाय की स्थापना गोशाला ने की थी जो गौतम बुद्ध का समकालीन था। उनके विचार 'सामंय' फल सुत्‍त' तथा 'भगवतीसूत्र' में मिलते हैं। आजीवक पुरुषार्थ में विश्वास नहीं करते थे। वे नियति को मनुष्य की सभी अवस्थाओं के लिए उत्तरदायी ठहराते थे। उनके नियतिवाद में पुरुष के बल या वीर्य (पराक्रम) का कोई स्थान नहीं था। वे पाप या पुण्य का कोई हेतु या कारण नहीं मानते थे। आजीवकों का सम्प्रदाय कभी इतना विशाल नहीं हुआ कि राजनीति पर उसका कोई प्रभाव पड़ता, हालाँकि अशोक के काल में उनका समुदाय महत्त्वपूर्ण माना जाता था। अशोक के पोते ने गया के निकट बराबर पहाड़ियों में निर्मित तीन गुफा-मंदिर आजीवकों को दान कर दिये थे।

आदम, जान : गवर्नर-जनरल की कौसिल का वरिष्ठ सदस्य था। १८२३ ई. में जनवरी से जुलाई तक उसने स्थानापन्न गवर्नर-जनरल के रूप में कार्य किया। उसके अल्प शासन में 'कलकत्ता जर्नल' के सम्पादक जान सिल्क बकिंघम को सार्वजनिक मामलों की आलोचना करने के कारण देश से निकाल दिया गया। इस घटना के बाद भारत के सार्वजनिक जीवन में समाचारपत्रों ने भी अपना स्थान बना लिया।

आदि ग्रंथ : सिखों का धर्मग्रंथ। उसका संकलन पाँचवें गुरु अर्जुन (१५८१-१६०६ ई.) ने १६०४ ई. में किया था। उसमें गुरु नानक, उनके तीन उत्तराधिकारियों तथा अन्य संतों की वाणियाँ संकलित हैं।

आदित्य (८८०-९०७ ई.) : चोलवंश के प्रारम्भिक राजाओं में था। उसने पल्लव राजा अपराजित को हराकर पल्लवों की राज्यशक्ति समाप्त कर दी और इस प्रकार अपने पुत्र तथा उत्तराधिकारी के राज्यकाल में चोल राज्य के उत्कर्ष का पथ प्रशस्त कर दिया।

आदित्यवंश : कम्बुज (कम्बोडिया) की जनश्रुतियों के अनुसार इन्द्रप्रस्थ का एक राजा था जिसके पुत्र कौण्डिन्य ने कम्बुज के राजवंश की स्थापना की। इस सम्बन्ध में भारत में कोई ऐतिहासिक सामग्री नहीं मिलती है।

आदित्यसेन : माधवगुप्त का पुत्र था और ६७२ ई. में मध्यदेश में राज्य करता था। उसने अश्वमेध यज्ञ किया और अपनी पुत्री का विवाह मौखरि भोगवर्द्धन से किया। उसकी दौहित्री का विवाह नेपाल-नरेश शिवदेव से हुआ था और उनके पुत्र जयदेव का विवाह कामरूपनरेश हर्षदेव की पुत्री राज्यमती से हुआ था।

आदिलशाही राजवंश : की स्थापना बीजापुर में १४८९ ई. में यूसुफ आदिल खाँ ने की थी। वह जार्जिया-निवासी गुलाम था जो अपनी योग्यता के कारण बहमनी सुल्तान महमूद ९१४८२-१५१८ ई.) के यहाँ ऊँचे पद पर पहुँचा था और उसको बीजापुर का सूबेदार बनाया गया था। बाद में उसने बीजापुर को राजधानी बनाकर स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। उसके राजवंश ने बीजापुर में १४८९ से १६८५ ई. तक राज्य किया। अन्तिम आदिलशाही सुल्तान सिकंदर को औरंगजेब ने पराजित करके गिरफ्तार कर लिया। इस राजवंश में-यूसुफ, इस्माइल, मल्लू, इब्राहीम प्रथम, अली इब्राहीम द्वितीय, मुहम्मद अली द्वितीय और सिकंदर नामक सुल्तान हुए। इस वंश के सुल्तानों ने दक्षिण में अनेक लड़ाइयाँ लड़ीं। १५८५ ई. में जब मुसलमानों ने संयुक्त रूप से विजयनगर पर हमला किया और तालीकोट का युद्ध जीत कर विजयनगर राज्य को नष्ट कर दिया तो उसमें आदिलशाही सुल्तना भी शामिल थे। आदिलशाही सुल्तानों को इमारतें बनवाने का शौक था। बीजापुर शाहर के चारों और शहरपनाह, बीजापुर की खास मस्जिद, गगन महल, इब्राहीम द्वितीय (१५८०-१६२६ ई.) का मकबरा और उसके उत्तराधिकारी मुहम्मद (१६२६-५६ ई.) का मकबरा भव्य इमारतें हैं जिन्हें कुशल कारीगरों से बनवाया गया था। कुछ सुल्तान, खासतौर से छठा सुल्तान इब्राहीम द्वितीय योग्य और उदार शासक था। वह साहित्यप्रेमी था। प्रसिद्ध इतिहासकार मुहम्मद कासिम उर्फ फरिश्ता ने आदिलशाही संरक्षण में रहकर अपना प्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ 'तारीख-ए-फरिश्ता' लिखा था।

आदिवराह : कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार राजा मिहिर भोज (८४०-९० ई.) की उपाधि थी। उसके चाँदी के सिक्कों में यह नाम अंकित मिलता है जो उत्तरी भारत में बहुतायत से मिले हैं।

आदिसूर : बंगाल की साहित्यिक अनुश्रुतियों के अनुसार गौड़ अथवा लक्षणावती का राजा था। उसने बंगाल में ब्राह्मण धर्म को पुनरुज्जीवित करने का प्रयास किया, जहाँपर बौद्ध धर्म छाया हुआ था। उसने कान्यकुब्ज से पाँच श्रेष्ठ ब्राह्मणों को अपने राज्य में बुलाकर बसाया जिन्होंने सनातन हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा की। ये ब्राह्मण ही बंगाल के राढ़ी और वारेन्द्र ब्राह्मणों के पूर्वज थे। आदिसूर का समय 700 ईसवी के बाद का माना जाता है। लेकिन समकालीन प्रमाणों के अभाव में आदिसूर की ऐतिहासिकता में संदेह किया जाता है।

आनन्द अथवा अन्त देवी : कुमारगुप्त प्रथम (दे.) (४१५-५५ ई.) की रानी थी और पुरुगुप्त (दे.) की माता थी।

आनन्दपाल  : सिन्धु नदी के तट पर स्थित उद्भांडपुर अथवा ओहिन्द के हिन्दूशाही राजवंश के राजा जयपाल का पुत्र और उत्तराधिकारी था। वह १००२ ई. के करीब गद्दी पर बैठा। सुल्तान महमूद गजनवी ने उसके पिता जयपाल को १००१ ई. में परास्त किया था। इसलिए गद्दी पर बैठने के बाद आनन्दपाल का पहला कर्तव्य यही था कि वह सुल्तान महमूद से इस हार का बदला लेता। सुल्तान महमूद ने १००६ ई. में आनन्दपाल के राज्य पर फिर से हमला किया। आनन्द पाल ने उज्जैन, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर के हिन्दू राजाओं का संघ बनाकर सुल्तान की सेना का पेशावर के मैदान में सामना किया। दोनों ओर की सेनाएँ ४० दिन तक एक दूसरे के सामने डटी रहीं। अंत में भारतीय सेना ने सुल्तान की सेना पर हमला बोल दिया और जिस समय हिन्दुओं की विजय निकट मालूम होती थी उसी समय एक दुर्घटना घट गयी। जिस हाथी पर आनन्दपाल अथवा उसका पुत्र ब्राह्मणपाल बैठा था वह पीछे मुड़कर भागने लगा। यह देखते ही भारतीय सेना छिन्न-भिन्न होकर भागने लगी। इस युद्ध में युवराज ब्राह्मणपाल मारा गया। सुल्तान की विजयी सेना आनन्दपाल के राज्य में घुस गयी और कांगड़ा और भीमनगर के किलों और मंदिरों पर हमला करके उन्हें लूटा। आनन्दपाल ने इस पर भी पराजय स्वीकार नहीं की और नमक की पहाड़ियों से मुसलमानों का लगातार प्रतिरोध करता रहा। कुछ वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गयी।

आनन्द रंग पिल्लई : डूप्ले का दुभाषिया था। उसने पांडेचेरी की घटनाओं का विवरण लिखा है और साथ ही उन घटनाओं का भी उल्लेख किया है जिनकी प्रतिक्रिया फ्रांसीसी राजधानी में हुई। उसकी तमिलभाषा में लिखी दैनिन्दिनी के बारह खंडों का अनुवाद अंग्रेजी में हुआ है। उसने कभी-कभी तो बाजारू अफवाहों और मामूली घटनाओं को भी बहुत बढ़ा चढ़ा कर लिखा है।

आन्ध्र : भारत के पूर्वी समुद्रतट पर गोदावरी के मुहाने से लेकर कृष्णा के मुहाने तक विस्तृत प्रदेशको कहते हैं। यहाँ के निवासी ज्यादातर तेलुगुभाषी हैं और इस क्षेत्र में प्राचीनकाल से बसे हुए हैं। ब्रिटिश शासनकाल में इस क्षेत्र को तमिलभाषी क्षेत्र से मिलाकर मद्रास प्रेसीडेन्सी बना दिया गया था। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद यहाँ के निवासियों ने भाषायी आधार पर उनका क्षेत्र मद्रास से अलग करके पृथक् राज्य बनाने की माँग की। हिंसा और उपद्रव की अनेक घटनाएँ घटने के बाद यह माँग स्वीकार कर ली गयी और हैदराबाद को राजधानी बनाकर पृथक् आन्ध्र राज्य की स्थापना कर दी गयी। आन्ध्र राज्य भारत में भाषायी राज्य की स्थापना का पहला उदाहरण है और उसके बाद अन्य राज्यों को भी भाषायी आधार पर तोड़ने के आन्दोलन चल पड़े।

आन्ध्र राजवंश : देखो सातवाहन राजवंश।

आभीर : गण का प्रथम उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में मिलता है। वे सिन्धु नदी के निचले काँठे और पश्चिमी राजस्थान में रहते थे। 'पेरिप्लस' नामक ग्रंथ तथा टालेमी के भूगोल में भी उनका उल्लेख है। ईसा की दूसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आभीर राजा पश्चिमी भारत के शक् शासकों के अधीन थे। ईश्वरदत्त नामक आभीर राजा महाक्षत्रप बन गया था। ईसवी तीसरी शताब्दी में आभीर राजाओं ने सातवाहन राजवंश के पराभव में महत्त्वपूर्ण योग दिया था। समुद्रगुप्त के इलाहाबाद के स्तम्भलेख में आभीरों का उल्लेख उन गणों के साथ किया गया है जिन्होंने गुप्त सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली थी। (पोलि, पृ. ५४५ )

आम्बूर की लड़ाई : फ्रांसीसियों का समर्थन प्राप्त कर लेनेवाले चन्दा साहब और कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन के बीच १७४९ ई. में हुई, जिसमें नवाब पराजित हुआ और मारा गया।

आम्भि : ई. पू. ३२७-२६ में भारत पर सिकंदर महान् के आक्रमण के समय तक्षशिला का राजा था। उसका राज्य सिन्धु और जेहलम नदियों के बीच में विस्तृत था। वह पुरु अथवा पोरस का प्रतिद्वन्द्वी राजा था जिसका राज्य जेहलम के पूर्व में था। कुछ तो पोरस से ईर्ष्या के कारण और कुछ अपनी कायरता के कारण उसने स्वेच्छा से सिकंदर की अधीनता स्वीकार कर ली और पोरस के विरुद्ध युद्ध में उसने सिकंदर का साथ दिया। सिकंदर ने उसको पुरस्कारस्वरूप पहले तो तक्षशिला के राजा के रूप में मान्यता प्रदान कर दी और बाद में सिन्धु और चनाब के संगम क्षेत्रतक का शासन उसे सौंप दिया। संभवतः चन्द्रगुप्त मौर्य ने उससे सारा प्रदेश छीन लिया और पूरे पंजाब से यवनों (यूनानियों) को निकाल बाहर किया। जब सिकंदर के सेनापति एवं उसके पूर्वी साम्राज्य के उत्तराधिकारी सेल्यूकस ने भारत पर आक्रमण किया तो उस समय भी पंजाब चन्द्रगुप्त मौर्य के अधिकार में था। आम्भि का अन्त कैसे हुआ, इसकी जानकारी नहीं मिलती है।

आम्रकार्द्दव : तीसरे गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय (३८१-४१३ ई.) का एक सेनापति था। अनेक युद्धो में विजय प्राप्त करने के कारण उसका यश चारों ओर फैला था। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने जब पूर्वी मालवा पर हमला किया तो सेनापति आम्रकार्द्दव भी उसके साथ था। उसने सनकानीक महाराज को गुप्तों का सामंत बनाने तथा पश्चिमी मालवा व काठियावाड़ के शकों का उन्मूलन करने में अपने सम्राट् की सहायता की। वह बौद्ध मतावलम्बी था अथवा बौद्धधर्म में श्रद्धा रखता था। उसने एक बौद्ध विहार को दान दिया था।

आयर, मेजर विन्सेण्ट : (१८११-७१ ई.) -बंगाल तोपखाने का अफसर होकर १८२८ ई. में भारत आया। 1839-42 ई. में काबुल पर अंग्रेजों के आक्रमण में भाग लिया। बाद में उसका स्थानान्तरण बर्मा के लिए हो गया। जब भारत में १८५७ ई. में प्रथम स्वाधीनता संग्राम छिड़ा, तो उसे भारत वापस बुला लिया गया। जब वह लौट रहा था, तो उसने सुना कि जगदीशपुर के कुवँरसिंह ने आरा को घेर रखा है। उसने अपनी जिम्मेदारी पर सेना एकत्र कर कुँवरसिंह को पराजित किया। इसके बाद वह लखनऊ गया जहाँ उसने १८५८ ई. में अंग्रेजों को विजयी बनाने में सहायता दी। वह १८६३ ई. में अवकाश पर चला गया।

आयर, सर चार्ल्स : फोर्ट विलियम (कलकत्ता) का प्रथम अध्यक्ष था। इस फोर्ट विलियम से ही सन् १७०० ई. के बाद बंगाल की सभी अंग्रेजी फैक्ट्रियों का नियन्त्रण होता था। सर चार्ल्स के प्रशासन में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं घटी।

आरगांवकी लड़ाई : २६ नवम्बर १८०३ ई. में आर्थर बेलेस्ली के नेतृत्व में अंग्रेजों और नागपुर के भोंसला शासक के नेतृत्व में मराठा दल के बीच हुई। यह लड़ाई द्वितीय मराठा युद्ध के सिलसिले में हुई थी। इसमें भोंसला की सेना निर्णायक ढंग से परास्त हुई और अंग्रेजी सेना का गवीलगढ़ के किले पर अधिकार हो गया। भोंसला राजा ने दिसंबर १८०३ ई. में देवगढ़ की सन्धि करके अंग्रेजों का आश्रित होना स्वीकार कर लिया।

आरजूमंद बानो बेगम, आरामशाह : आरजूमंद बानो बेगम- देखो मुमताज महल। आरामशाह-दिल्ली का सुल्तान (१२०६-१२११ ई.)। वह दिल्ली के प्रथम सुल्तान कुतुबुद्दीन का उत्तराधिकारी था। सुल्तान आरामशाह में कुतुबुद्दीन के गुण नहीं थे। उससे उसका सम्बन्ध भी अज्ञात है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार वह कुतुबुद्दीन का बेटा था। अबुलफजल के अनुसार वह कुतुबुद्दीन का भाई था। कुछ अन्य इतिहासकारों के अनुसार उसका प्रथम सुल्तान से कोई सम्बन्ध नहीं था। उसको कुछ अज्ञात कारणों से ही सुल्तान बनाया गया जिसे कुतुबुद्दीन के दामाद ईल्तुतमिश ने गद्दी से उतार दिया।

आरिया : यूनानी इतिहासकारों के अनुसार हेरात का नाम।

आरियाना  : अफगानिस्तान का यूनानी नाम।

आर्कोशिया : नाम का प्रयोग यूनानी इतिहासकारों ने कन्दहार क्षेत्र के लिए किया है।

आर्यदेव : एक प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य जो ईसा की दूसरी शताब्दी में हुआ। उसकी गणना बौद्धधर्म की महायान शाखा के प्रवर्तकों में होती है।

आर्यभट : भारत का प्रमुख गणितज्ञ और ज्योतिषी। जन्म ४१६ ई. में हुआ। २३ वर्ष की अवस्था में, जब वह कुसुमपुर अथवा पटना में रहता था, 'आर्यभट्ट तंत्र' नामक ग्रंथ संस्कृत में लिखा। उसने पता लगाया कि पृथ्वी प्रति दिन अपनी धुरी पर घूमती है जिससे दिन और रात होते हैं। कोपरनिकस से बहुत पहले उसने यह ढूँढ निकाला कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है। उसे सूर्य और चन्द्रग्रहण का असली कारण मालूम था। उसे यह भी पता था कि चन्द्रमा और दूसरे ग्रह स्वयं प्रकाशमान नहीं हैं वरन् सूर्य की किरणें उससे प्रतिबिम्बित होती हैं तथा पृथ्वी एवं दूसरे ग्रह सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार घूमते हैं। (बी. बी. दत्त-हिन्दू कंट्रीब्यूशन टू मैथमेटिक्स तथा एल. रोडे-ले कांस डि कल्कुल आर्यभट्ट)

आर्यसमाज : एक सामाजिक सुधार का संगठन जिसकी स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती (दे.) ने १८७५ ई. में की। पश्चिमी शिक्षा और विज्ञान के प्रभाव से बहुत से शिक्षित भारतीय ईसाई धर्म की ओर झुक जाते थे। ब्रह्मसमाज और प्रार्थनासमाज की भाँति आर्यसमाज भी इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए स्थापित किया गया और उसे इसमें काफी सफलता मिली। आर्यसमाजका लक्ष्य था 'वेदों की ओर पुनः लौटो'। वह समाज को वैदिक व्यवस्था के आधार पर संगठित करना चाहता था और बाद के पुराण पंथ को छोड़ने पर जोर देता था। आर्यसमाज ने एकेश्वरवाद की स्थापना की और बहुईश्वरवाद और मूर्तिपूजा की निन्दा की। आर्यसमाज ने जाति-पाँति के प्रतिबन्धों, और बालविवाह का विरोध किया और समुद्र यात्रा, स्त्री-शिक्षा और विधवा-विवाह का समर्थन किया। आर्यसमाज का लक्ष्य भारत की पददलित अथवा पिछ्ड़ी जातियों का उत्थान करना भी था। उसने शुद्ध आन्दोलन चलाकर बहुत से गैर-हिन्दुओं को हिन्दू बनाया और इस प्रकार हिन्दू धर्म को फिर से शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया। आर्यसमाज ने सामाजिक सुधार और शिक्षा के क्षेत्र में बहुत काम किया, विशेषरूप से पंजाब में। प्रारम्भ में आर्यसमाज ने केवल संस्कृत-शिक्षा पर जोर दिया, लेकिन बाद में लाला हंसराज के नेतृत्व में उसकी एक शाखा ने पश्चिमी-शिक्षा ग्रहण करने का समर्थन किया और लाहौर में दयानन्द एंग्लो-वैदिक कालेज की स्थापना की। लेकिन कट्टर आर्यसमाजी वैदिक आदर्शों के अनुसार आधुनिक जीवन को ढालने पर जोर देते रहे और १९०२ ई. में उन्होंने हरद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की। उत्तरी भारत में आज भी आर्यसमाज के अनुयायी बहुत बड़ी संख्या में हैं।

आर्यावर्त : का अर्थ है आर्यों का वासस्थान। मनुसंहिता (२०० ई.) में आर्यावर्त का प्रयोग हिमालय से विन्ध्य तक समस्त उत्तरी भारत के लिए किया गया है। आर्य लोग कब इस क्षेत्र में आये, इसका सही पता नहीं लगाया जा सका है। ऋग्वेद (२००० ई. पू.) की रचना के काल में आर्य लोग अफगानिस्तान और पंजाब तक सीमित थे। पंजाब में बस जाने के बाद आर्यों को पूर्व की ओर बढ़ने तथा समस्त आर्यावर्त में फैलने में कई शताब्दियाँ लग गयी होंगी।

आलम खां : सुल्तान बहलोल लोदी (१४५१-८९ ई.) का तीसरा बेटा था और दिल्ली के अँतिम सुल्तान इब्राहीम लोदी (१५१७-२६ ई.) का चाचा था। आलम खाँ अपने भतीजे की अपेक्षा अपने को दिल्ली की सल्तनत का असली हकदार समझता था। जब वह अपने बलपर इब्राहीम लोदी को गद्दी से नहीं हटा सका तो उसने लाहौर के हाकिम दौलतखाँ लोदी से मिलकर बाबर को हिन्दुस्तान पर हमला करने के लिए निमंत्रण दिया। इसके फलस्वरूप बाबर ने भारत पर हमला किया और पानीपत की पहली लड़ाई (१५२६ ई.) में इब्राहीम लोदी को हराने के बाद मौत के घाट उतार दिया। तदुपरांत बाबर स्वयं दिल्ली के तख्तपर बैठ गया और आलम खाँ की सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया। कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो गयी।

आलमगीर : देखो, औरंगजेब।

आलमगीर द्वितीय : १६ वाँ मुगल बादशाह (१७५४-५९) था। वह आठवें मुगल बादशाह जहाँदार शाह (१७१२-१३) का बेटा था। वजीर गाजीउद्दीन ने १५ वें मुगल बादशाह अहमद शाह को अन्धा करके गद्दी से उतार दिया और १७५४ ई. में आलमगीर द्वितीय को बादशाह बनाया। वह चाहता था कि बादशाह उसके हाथ की कठपुतली बना रहे। वह समय बड़ी उथल-पुथल का था। १७५६ ई. में अहमदशाह अब्दाली ने चौथी बार हिन्दुस्तान पर हमला किया और दिल्ली को लूटा। उसने सिन्ध पर कब्जा कर लिया और अपने बेटे तैमूर को वहाँ का शासन करने के लिए छोड़ दिया। इसके बाद ही मराठों ने १७५८ ई. में दिल्ली पर चढ़ाई की और पंजाब को जीत कर तैमूर को वहाँ से निकाल दिया। बादशाह आलमगीर इन सब घटनाओं का असहाय दर्शक बना रहा। जब उसने वजीर गाजीउद्दीन के नियंत्रण से अपने को मुक्त करने का प्रयास किया तो १७५९ ई. में वजीर ने उसकी भी हत्या करवा दी। इससे पहले पलासी की लड़ाई १७५७ ई. में हो चुकी थी और उसमें ईस्ट इंडिया कम्पनी की जीत हो चुकी थी। बादशाह आलमगीर द्वितीय बंगाल को मुगलों के कब्जे में बनाये रखने और इस प्रकार भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव न पड़ने देने के लिए कुछ न कर सका।

आलमशाह प्रथम : देखो 'बहादुर शाह प्रथम'।

आलमशाह द्वितीय या शाहआलम द्वितीय : १७ वाँ मुगल बादशाह (१७५९-१०६ ई.) था। जब वह अपने पिता बादशाह आलमगीर द्वितीय के उत्तराधिकारी के रूप में १७५६ ई. में गद्दी पर बैठा, तो उसका नाम शाहजादा अली गौहर था। बादशाह होने पर 'उसने आलमशाह द्वितीय का खिताब धारण किया। इतिहास में वह शाह आलम द्वितीय के नाम से प्रसिद्ध है। उसका राज्यकाल भारतीय इतिहास का एक संकटग्रस्त काल कहा जा सकता है। उसके पिता आलमगीर द्वितीय को उसके सत्तालोलुप और कुचक्री वजीर गाजीउद्दीन ने तख्त से उतार दिया था और वह नये बादशाह को भी अपनी मुट्ठी में रखना चाहता था। आलमशाह द्वितीय के गद्दी पर बैठने के दो साल पहले पलासी की लड़ाई में ईस्ट इंडिया कम्पनी विजयी हो चुकी थी, जिसके फलस्वरूप बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर उसका शासन हो गया था। उत्तर-पश्चिम में अहमदशाह अब्दाली ने अपने हमले शुरू कर दिये थे। १७५६ ई. में उसने दिल्ली को लूटा और १७५९ ई. में मराठों को जिन्होंने १७५८ ई. में पंजाब पर अधिकार कर लिया था, वहाँ से निकाल बाहर किया। दक्षिण में पेशवा बालाजी बाजीराव के नेतृत्व में मराठे मुगलों के स्थानपर अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। इस प्रकार जिस समय शाह आलम द्वितीय गद्दी पर बैठा, उस समय उसका अपना वजीर उसके खिलाफ गद्दारी कर रहा था, पूर्व में ईस्ट इंडिया कम्पनी की ताकत बढ़ रही थी तथा पंजाब में अहमदशाह अब्दाली ताक लगाये बैठा था। शाह आलम द्वितीय ने अपने तख्त के लिए अब्दाली को सबसे ज्यादा खतरनाक समझा। इसलिए उसने अब्दाली के पंजे से बचने के लिए मराठों को अपना संरक्षक बना लिया। लेकिन १७६१ ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अब्दाली ने मराठों को हरा दिया। उसने शाहआलम द्वितीय को ' दिल्ली के तख्त पर बना रहने दिया। यद्यपि बाद में उसकी इच्छा हुई कि वह उसे हटाकर स्वयं दिल्ली का तख्त हस्तगत कर ले, तथापि उसकी यह योजना पूरी नहीं हुई। किन्तु, अब्दाली की इस विफलता से बादशाह शाह आलम द्वितीय को कोई लाभ नहीं पहुँचा। १७६४ ई. में उसने अपनी शक्ति बढ़ाने का दूसरा प्रयास किया और बंगाल से अंग्रेजों को निकाल बाहर करने के लिए अवध के नवाब शुजाउद्दौला और बंगाल के भगोड़े नवाब मीर कासिम से संधि कर ली परन्तु अंग्रेजों ने बक्सर की लड़ाई (१७६४ ई.) में शाही सेना को हरा दिया और बादशाह शाह आलम द्वितीय ने ईस्ट इंडि‍या कम्पनी से इलाहाबाद की सन्धि कर ली। इस संधि के द्वारा बादशाह को कोड़ा और इलाहाबाद के जिले अवध से मिल गये और बादशाह ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूलने का यह लाभ थोड़े समय ही मिला। पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की शक्ति को क्षति अवश्य पहुँची थी किन्तु शीघ्र ही उन्होंने फिर से शक्ति अर्जित कर ली। बादशाह शाह आलम द्वितीय अपने वजीर नजीबुद्दौला (गाजीउद्दीन) की साजिशों से दिल्ली नहीं लौट पा रहा था। उसने मराठों की मदद लेने के लिए कोड़ा और इलाहाबाद के जिले मराठा सरदार महादजी शिन्दे को सौंप दिये। इस प्रकार मराठों की सहायता से १७७१ ई. में शाह आलम द्वितीय पुनः दिल्ली लौटा, लेकिन अब उसकी हैसियत मराठों के हाथ की कठपुतली के समान थी। अतएव ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इलाहाबाद की सन्धि तोड़ दी और शाह आलम द्वितीय से कोड़ा और इलाहाबाद के जिले वापस ले लिये और उसे वार्षिक २६ लाख रुपया देना भी बन्द कर दिया, जिसे अंग्रेजों ने १७६४ में बंगाल की दीवानी के बदले में देने का वायदा किया था। इससे बादशाह शाह आलम द्वितीय की हालत पतली हो गयी और वह दूसरे आंग्ल-मराठा युद्ध (१८०३-१८०५ ई.) तक मराठों की शरण में रहा। दूसरे मराठा युद्ध में ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौजों ने जनरल सेक के नेतृत्व में शिन्दे की सेना को दिल्ली के निकट पराजित कर दिया। इसके बाद शाह आलम द्वितीय और उसकी राजधानी दिल्ली दोनों पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का नियंत्रण स्थापित हो गया। बादशाह अब बूढ़ा हो चला था और अंधा भी हो गया था। वह पूर्णतया निस्सहाय था। वह ईस्ट इंडिया कम्पनी की पेंशन पर जीवनयापन करता रहा। अंतमें १८०६ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

आलवार : वैष्णव सम्प्रदाय के संत थे जिन्होंने ईसा की सातवीं आठवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में भक्तिमार्ग का प्रचार किया। इन संतों में नाथमुनि, यामुनाचार्य और रामानुजाचार्य प्रमुख थे। रामानुज ने विशिष्टाद्वैत सिद्धांतका प्रतिपादन किया, जो शंकराचार्य के अद्वैतवाद का संशोधित रूप था।

आलिया बेगम : देखो, 'मुमताज महल'।

आश्वालयन : प्राचीनकाल के एक प्रसिद्ध सूत्रकार ऋषि जिनके विरचित गूह्यसूत्र में वैदिककाल के विविध धार्मिक तथा सामाजिक अनुष्ठानों का विस्तृत विवरण मिलता है। गूह्यसूत्र में महाभारत का प्राचीनतम उल्लेख मिलता है। इसके रचनाकाल के बारे में निश्चय नहीं हो सका है।

आष्‍टी की लड़ाई : २० फरवरी १८१८ ई. को ईस्ट इंडिया कम्पनी और पेशवा बाजीराव द्वितीय के बीच तृतीय आंग्ल- मराठा युद्ध (१८१७-१८) के दौरान हुई। इस लड़ाई में पेशवा की सेना हार गयी और उसका योग्य सेनापति गोखले मारा गया। इस पराजय के फलस्वरूप पेशवा ने जून १८१८ ई. में आत्मसमर्पण कर दिया।

आसफउद्दौला (१७७५-९७ ई.)  : अवध के नवाब शुजाउद्दौला का बेटा और उत्तराधिकारी था। वह एक अयोग्य शासक था जिसने ईस्ट इंडिया कम्पनी से फैजाबाद की सन्धि करके कम्पनी को ७४ लाख रूपये वार्षिक इस शर्त पर देना स्वीकार कर लिया कि कम्पनी अपनी दो रेजीमेण्ट फौज अवध में उसके राज्य की सुरक्षा के लिए रखेगी। नवाब का वित्तीय प्रबन्ध बहुत दोषपूर्ण था और शीघ्र ही उस पर बकाया की रकम बहुत बढ़ गयी। १७८१ ई. में जब ईस्ट इंडिया कम्पनी और मराठों के बीच लड़ाई चल रही थी उस समय कम्पनी के गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने नवाब से बकाया रकम की माँग की। नवाब ने बकाया रकम बेबाक करने में तबतक अपनी असमर्थता प्रकट की जबतक उसे अपने बाप मरहूम नवाब शुजाउद्दौला द्वारा छोड़ी गयी दौलत न दिला दी जाय जो उसकी माँ और दादी के कब्जे में थी। वारेन हेस्टिंग्सने अवध की बेगमों (दे.) को आदेश दिया कि वे फैजाबाद में अपने महल से बाहर न निकलें। उसने उनके महल के ख्वाजा सरां आदि को इतनी यातनाएँ दीं कि बेगमों ने अंत में उसकी बात मानकर रुपया दे दिया। इस कांड को 'अवध की बेगमों की लूट' की संज्ञा दी जाती है। नवाब आसफउद्दौला ने इस प्रकार कम्पनी के पदाधिकारियों से मिलकर अपनी माँ और दादी को जिस प्रकार अपमानित कराया उससे उसकी बहुत बदनामी हुई। अवध का १६ साल तक कुशासन करने के बाद १७९७ ई. में आसफउद्दौला की मृत्यु हो गयी।

आसफ खां : बादशाह अकबर (१५५६-१६०५ ई.) के शासनकाल के प्रारम्भ में कड़ा का सूबेदार था। १५६४ ई. में उसने अकबर के आदेश से गोंडवाना का राज्य जीता जो आधुनिक मध्यप्रदेश के उत्तरी भाग में था। उसने गोंडवाना की शासिका रानी दुर्गावती और उसके नाबालिग पुत्र राजा वीर नारायण को हराया। कुछ समय तक आसफ खाँ ने नये विजित क्षेत्र का प्रशासन चलाया लेकिन बाद में वहाँ से उसका तबादला कर दिया गया। १५७६ ई. में उसे राजा मानसिंह के साथ उस मुगल सेना का सेनापति बनाकर भेजा गया जिसने राणाप्रताप को हल्दीघाटी के युद्ध में अप्रैल १५७६ में पराजित किया।

आसफ खां : बादशाह अकबर के शासनकाल में फारस से भारत आनेवाले मिर्जा गियासबेग का पुत्र और मेहरुन्निसा का भाई था जो बादशाह जहाँगीर (१६०५-२७ ई.) की मलका नूरजहाँ के नाम से अधिक प्रख्यात है। आसफ खाँ शाही मुलाजमत में था और मुगल दरबार का एक प्रमुख ओहदेदार बन गया था। आसफ खाँ की बेटी मुमताज महल बादशाह जहाँगीर के तीसरे बेटे शाहजादा खुर्रम को ब्‍याही थी जो शाहजहाँ के नाम से प्रख्यात है। १६२७ ई. में जहाँगीर की मौत के बाद आसफ खाँ ने नूरजहाँ के उस षड्यंत्र को विफल कर दिया जिसके द्वारा वह जहाँगीर के सबसे छोटे बेटे शहरयार को बादशाह बनाना चाहती थी। शहरयार को नूरजहाँ की बेटी ब्याही थी। आसफ खाँने शाहजहाँ को बादशाह बनाने में सफलता प्राप्त की। बादशाह शाहजहाँ ने तख्त पर बैठने के बाद अपने ससुर आसफ खाँ को सल्तनत का वजीर बना दिया जिस पद पर वह मृत्युपर्यंत बना रहा।

आसफजाह (चिन किलिच खां) : मुगल अमीरों में तूरानी पार्टी का सरदार था। तूरानी मध्य एशिया के निवासी थे और मुगल बादशाहों के दरबार में उच्च पदों पर नियुक्त थे। आसफजाह का पूरा नाम मीर कमरुद्दीन चिन किलिच खाँ था। उसका बाप गाजीउद्दीन फीरोज खाँ जंग औरंगजेब के शासनकाल में भारत आया था और शाही मुलाजमत में उच्च पदों पर नियुक्त किया गया था। मीर कमरुद्दीन जब १३ वर्ष का था तभी शाही मुलाजमत में दाखिल हुआ। जल्दी ही उसने तरक्की की और उसे चिन किलिच खाँ की उपाधि मिली। औरंगजेब की मृत्यु के समय वह बीजापुर में शाही सेना का सेनापति था। औरंगजेब के बेटों में उत्तराधिकार के लिए जो युद्ध हुए, वह उनसे दूर रहा। जब औरंगजेब का बेटा और उत्तराधिकारी बादशाह बहादुरशाह (१७०७-१२ ई.) गद्दी पर बैठा तो उसने चिन किलिच खाँ को अवध का सूबेदार बनाया और उसको भी उसके बाप का गाजीउद्दीन फीरोज जंग खिताब दिया। बाद में १७१३ ई. में बादशाह फर्रुंखसियर (१७१३-१९ ई.) ने उसे दक्खिन का सूबेदार बनाया और निजामुल्मुल्क का खिताब दिया। दक्षिण में बादशाह के प्रतिनिधि के रूप में उसने मराठों की बढ़ती हुई ताकत को रोकने की कोशिश की, लेकिन शीघ्र ही दिल्ली दरबार के प्रभावशाली सैयद बंधुओं (दे.) से, जिनके हाथ में बादशाह की नकेल थी, उसकी अनबन हो गयी। सैयद बंधुओं ने निजामुल्मुल्क का तबादला पहले मुरादाबाद और फिर मालवा कर दिया जहाँ उसने सैनिक शक्ति बटोरना शुरू कर दिया। इससे सैयद बंधुओं से शत्रुता और बढ़ गयी। अन्ततः निजामुल्मुल्क ने सैयद बंधुओं को पराजित कर दिया और उन्हें मरवा डाला। निजामुल्मुल्क को १७२० ई. में फिर से दक्खिन में बादशाह का प्रतिनिधि बना दिया गया। १७२१ ई. में बादशाह मुहम्मदशाह (१७१९-४८ ई.) ने उसे अपना वजीर बनाया लेकिन उसने १७२३ ई. में यह पद छोड़ दिया और १७२४ ई. में पुनः बादशाह के प्रतिनिधि के रूप में दक्खिन लौट गया। बादशाह मुहम्मदशाह ने उसे इस पद से जबरन हटाने की कोशिश की, लेकिन उसमें बादशाह को सफलता नहीं मिली। तब उसने निजामुल्मुल्क को दक्षिण में अपना प्रतिनिधि मान लिया और उसे आसफजाह का खिताब दिया। अब वह दक्षिण का लगभग स्वतंत्र शासक हो गया और उसने हैदराबाद के निजाम वंश की स्थापना की। आसफजाह ने अपने राज्य में अच्छा शासन प्रबंध किया। पेशवा बाजीराव प्रथम (१७२०-४० ई.) दक्षिण में उसका शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वी था।

अतः उसने बाजीराव प्रथम के विरोधी मराठा सेनापति त्र्यम्बकराव दाभाड़े का समर्थन किया, लेकिन १७३१ ई. में दाभाड़े की पराजय और मृत्यु के बाद आसफजाह ने बाजीराव प्रथम से सुलह कर ली और उसे उत्तर की ओर बढ़ने की खुली छूट दे दी। किन्तु निजाम ने १७३७ ई. में इस सन्धि को तोड़ दिया और बादशाह मुहम्मदशाह के बुलावे पर वह उत्तर में पेशवा बाजीराव प्रथम के प्रसार को रोकने के लिए दिल्ली पहुँचा। लेकिन पेशवा बाजीराव प्रथम ने निजामल्मुल्क को भोपाल के निकट लड़ाई में पराजित कर दिया और इस शर्त पर सन्धि कर ली कि मालवा और नर्मदा से चम्बल तक के क्षेत्रपर उसका प्रभुत्व स्वीकार कर लिया जाय। १७३९ ई. में जब नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला किया तो दिल्ली से दूर होने के कारण आसफजाह विनाश से बच गया और उस वजह से उसने दक्षिण में अपनी स्थिति और मजबूत कर ली। १७४८ ई. में ९१ वर्ष की उम्र में उसकी मृत्यु हुई।

आसाम : भारतका पूर्वोत्तर राज्य जिसका विस्तार पश्चिममें संकोष नदीसे पूर्वमें सदियातक है। यह राज्य ब्रह्मपुत्र नदकी देन है। ब्रह्मपुत्र नदने उत्तरमें हिमालय और दक्,णमें आसामकी पहाड़ियोंके बीचमें बहते हुए एक उपजाऊ घाटी बना दी है जो आजकल आसाम कहलाती है। उसे महाभारतमें प्रागज्योतिष और पुराणोंमें कामरूप कहा गया है। मुसलमान इतिहासकारोंने उसे कामरूप लिखा है। जबसे इस क्षेत्रको अहोम (दे.) लोगोंने जीतकर अपने अधिकारमें कर लिया तबसे यह क्षेत्र आसामके नामसे पुकारा जाने लगा है। इस क्षेत्रमें चारों ओरसे लोग आसानीसे प्रवेश कर सकते हैं इसीलिए सभी पड़ोसी क्षेत्रोंके बुभुक्षित और साहसी लोग सभी युगोंमें यहाँ आकर बसते रहे। इसी कारण यहाँकी आबादीमें बहुत अधिक रक्तका मिश्रण हुआ। यहाँ आश्ट्रिक, मंगोल और द्राविड़ जातियोंके लोग भी मिलते हैं और आर्य जातिके लोग भी। आसामकी आधुनिक आबादी बहुत मिलीजुली है और वहाँ अनेक भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं जिनमें असमी और बंगला भाषाकी अपनी लिपियाँ हैं। दूसरी बोलियाँ और भाषाएं रोमन लिपिमें लिखी जाती हैं और उनका अपना कोई साहित्य नहीं है। आसामका इतिहास मोटे तौरसे चार कालोमें विभाजित किया जा सकता है-पौराणिक काल, प्रारम्भिक काल, अहोम काल और आधुनिक काल। पौराणिक कालमें आसाममें अनार्य लोगोंका राज्य था जिन्हें दानव और असुर कहा जाता था। इसी कालमें आर्य लोग उत्तर पश्चिमके स्थल मार्गसे यहाँ आये। प्रारम्भिक काल ईसाकी चौथी शताब्दीसे आरम्भ होता है और आसामका उल्लेख कामरूपके नामसे द्वितीय गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त (३३०-८० ई.) के इलाहाबादके स्तम्भ-लेखमें आया है। यह काल १३वीं शताब्दीतक जारी रहा जब आसामपर पूर्वकी ओरसे अहोम जातिका और पश्चिमकी ओरसे मुसलमानोंका हमला हुआ। मुसलमानोंके आक्रमणोंको विफल कर दिया गया जिसके फलस्वरूप आसामके इतिहासमें मुसलमानी शासन-काल नहीं मिलता। अहोम लोगोंने इस क्षेत्रको जीत लिया और यहाँ करीब ६०० वर्षतक राज्य किया। उनके बाद बर्मी लोगोंने आसामको जीत लिया और यहाँ थोड़े समय तक राज्य किया। १८२६ ई. में आसामको भारतके ब्रिटिश राज्यका हिस्सा बना लिया गया। उसके बाद आसामके इतिहासका आधुनिक काल आरम्भ हुआ और वह राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टिसे भारतका आंतरिक भाग बन गया, हालाँकि सांस्कृतिक दृषअटिसे वह सदैव भारतका एक अंग रहा। पौराणिक कालका सबसे अधिक विख्यात राजा नरकासुर था जिसके सम्बन्धमें कहा जाता है कि वह बिहारके मिथिला नगरसे प्रागज्योतिषमें राज्य करने आया था। इसलिए यह माना जा सकता है कि उसके राज्य-कालसे आसामकी गणना आर्य-क्षेत्रमें होने लगी। नरकका नाम आसामके प्राचीन इतिहाससे, विशेषरूपसे कामाख्या देवीकी पूजा और गौहाटीके निकट नीलांचलपर उसके मंदिरके निर्माणसे जड़ा हुआ है। नरकासुरका पुत्र भागदत्त महाभारतमें महान योद्धा बताया गया है जिसने कुरुक्षेत्र युद्धमें कौरवों की ओरसे भाग लिया और मारा गया। उसका उत्तराधिकारी बज्रदत्त था और कहा जाता है कि बज्रदत्तके उत्तराधिकारियोंने कामरूपपर तीन हजार वर्षतक राज्य किया जो अतिशयोक्ति मालूम पड़ती है। ईसाकी चौथी शताब्दीमें कामरूपमें पुष्यवर्मा राज्य करता था। पुष्यवर्मा एक ऐतिहासिक व्यक्ति है जिसका उल्लेख भास्कर वर्मा (दे.) (६०४-६४९ ई.) के निधानपुर दानपत्रमें १३ राजाओंके एक राजवंशके संस्थापकके रूपमें हुआ है। इन १३ राजाओंमें समुद्रवर्मा, बालवर्मा, कल्याणवर्मा, गणपतिवर्मा, महेन्द्रवर्मा, नारायणवर्मा, महभूतिवर्मा, अथवा भूतिवर्मा, चन्द्रमुखवर्मा, स्थितवर्मा, सुस्थितवर्मा, सुप्रतिष्टितवर्मा, और भास्करवर्मा शामिल हैं। पुष्यवर्मा कामरूपका उस समय राजा था जब द्वितीय गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त (३३०-३८० ई.) ने वहाँ आक्रमण किया और इलाहाबादके स्तम्भ-लेखके अनुसार पुषअयवर्माने समुद्रगुप्तके सामने आत्म-समर्पण कर दिया। भास्कर वर्मा सम्राट हर्षवर्द्धनका सम-सामयिक था। इस बातका उल्लेख बाणके हर्ष-चरित्रमें आया है और हचुएन-त्सांगके यात्रा-वर्णनसे भी उसका पता चलता है। भास्कर वर्माका देहान्त ६४९ ई. में हर्षकी मृत्युके कुछ वर्षों बाद हुआ। उसके बाद कामरूप राज्य सातवीं शताब्दी के मध्यकालमें म्लेच्छ राजा सालस्तम्भके द्वारा स्थापित राजवंशके हाथमें चला गया। वह अपनी राजधानी प्रागज्योतिषपुर (गौहाटी) से हटाकर ब्रह्मपुत्रके किनारे हरूपेश्वर नामक स्थानपर ले गया। यह स्थान आधुनिक तेजपुरके निकट था। इस राजवंशके १३ राजा हुए जिनमें विजय, पालक, कुमार, वज्रदत्त, हर्प, बाल वर्मा, चक्र, प्रालम्म, हर्जर, वनमाल, जयमाल, बालवर्मा और त्याग सिंह शामिल हैं। इस राजवंशने सातवीं शताब्दीके मध्यसे १०वीं शताब्दीके मध्यतक राज्य किया। त्याग सिंह निःसन्तान मर गया। ब्रह्मपाल नामक एक व्यक्ति था जो अपनेको नरकासरका वंशज मानता था। उसे दसवीं शताब्दीके उत्तरार्धमें कामरूपका राजा चुन लिया गया। ब्रह्मपालने कामरूपमें तीसरे हिन्दू राजवंशकी स्थापना की। यह पाल राजवंश बंगालके राजवंशसे भिन्न था और इसने यहाँ दसवीं शताब्दीके उत्तार्धसे १२वीं शताब्दीके आरम्भतक राज्य किया। इस राज वंशके रत्नपाल, इन्द्रपाल, गोपाल, हर्षपाल, धर्मपाल और जयपाल ६ राजा हुए। अन्तिम राजा जयपालको बंगालके राजा रामपालने गद्दीसे हटा दिया और कामरूपमें तिंग्य देवको अपना सामंत राजा नियुक्त किया जिसने शीघ्र ही रामपालके विरुद्ध विद्रोह कर दिया। अतएव बंगालके राजा कुमारपालका सेनापति वैद्यदेव वहाँका राजा बनाया गया। लेकिन वैद्यदेवने भी शीघ्र ही बंगालके राजाके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और उसके बाद करीब एक शताब्दीसे अधिक समय तक कामरूपमें अराजकता रही। इस कालमें बंगालका कोई सेनवंशी राजा जब-तब कामरूपपर चढ़ाई करके बहाँके राजाओंको जीत लेता था। इसी बीच इख्तियारुद्दीनने जो बख्तियार खिलजीके नामसे प्रसिद्ध है, बंगालके सेनवंशका तख्ता उलट दिया। बख्तियार खिलजीके नेतृत्वमें ११९८ ई. में बंगालपर मुसलमानों का पहला आक्रमण हुआ। उसने बंगालकी विजयके बाद १२०५ ई. में आसामपर भी चढ़ाई की। गौहाटीके निकट ब्रह्मपुत्र नदीके उसपार स्थित कनाड-बारसी बेर नामक गाँवमें एक चट्टानपर संस्कृतमें दो पंक्तियोंका एक लेख अंकित है जिसमें कहा गया है कि शक संवत ११२७ (१२०५ ई.) के चैत्र मासकी त्रयोदशीको जिन तुर्कोंने कामरूपपर आक्रमण किया था उनको नष्ट कर दिया गया। इस शिलालेखमें कामरूपके उस वीर योद्धा का नाम नहीं दिया है जिसने मुसलमानोंके आक्रमणको विफल कर दिया। इसके बाद हमें कामरूपके इतिहासकी विशेष जानकारी नहीं मिलती है और १३ वीं शताब्दीसे वहाँका इतिहास अंधकारमें है। यदि मुसलमानोंने १२०५ ई. में आसामपर पश्चिमकी ओरसे एक विफल आक्रमण किया तो १२२८ ई. में पूर्वी दिशासे अहोम लोगोंने उसपर हमला किया और उन्हें उसपर अपना अधिकार जमानेमें सफलता मिल गयी। दोनों ओरसे आक्रमण होनेपर कामरूपका राज्य खण्डित होकर अनेक छोटे-छोटे राज्योंमें बंठ गया। एकदम पश्चिममें कामतापुर राज्य करतोयासे संकोष नदीतक विस्तृत था और उसके पूर्वमें कामरूप राज्य ब्रह्मपुत्रके उत्तरी तटपर बर नदीसे सुवर्ण श्रीतक विस्तृत था जिसपर बारह भुड़याँ (भूमिपति) राज्य करते थे। सुवर्णशीके पूर्वमें ब्रह्मपुत्रके उत्तरी तटवर्ती क्षेत्रमें चुटिया राज्य था और उसके दक्षिण तटवर्ती क्षेत्रमें काचारी राज्य था। उसके दक्षिण पश्चिममें खासी लोगोंका जयन्तिया राज्य था। कामरूपका इस प्रकार छोटे-छोटे राज्योंमें बँटा होनेके कारण मुसलमानों और अहोम आक्रमण-कारियोंको उसपर अधिकार कर लेनेमें आसानी रही। उन लोगोंने करीब-करीब एक साथ पशअचिम तथा पूर्व दिशासे उसपर आक्रमण किया। पश्चिममें कामतापुर और कामरूपके राजाओंने मुसलमानी आक्रमणोंको १४९८ ई. तक रोका। उस वर्ष बंगालके हुसेनशाहने कामतापुर और कामरूप राज्योंको बर नदीतक जीत लिया और अपने लडकेको विजित क्षेत्रका सूबेदार बनाकर हाजोमें रख दिया। लेकिन १६वीं. शताब्दीके आरम्भमें कोच जातिके विश्व सिंह नामक एक सरदारने आधुनिक आसामके पश्चिमी भागमें एक हिन्दू राज्यकी स्थापना कर ली। उसने बारह भुइयोंको परास्तकर अपनी राजधानी कूच बिहारमें स्थापित की। उसने मुसलमानोंको करतोया नदीके उसपार भगा दिया और आधुनिक आसामके पश्चिमी भागमें जिनमें ग्वालपाडा, कामरूप और दारांग जिले आते हैं, हिन्दू राज्यकी फिरसे स्थापना की। कोच राजाओंने बंगालसे आनेवाले मुसलमान आक्रमणकारियोंसे दीर्घ कालतक युद्ध किया। अंतमें १५९६ ई. उन्हें मुगल बादशाह अकबरका संरक्षण स्वीकार कर लेना पड़ा। इस प्रकार केवल ग्वालपाडा जिला ही नहीं वरन् कामरूप जिलेका बहुत बड़ा भाग मुसलमानोंके नियंत्रणमें आगया। लेकिन अहोम राजाओंने, जिन्होंने आसामके पूर्वी क्षेत्रमें अपना राज्य स्थापित कर लिया था, मुसलमानोंसे कामरूप जिला फिरसे छीन लिया। प्रथम अहोम राजा सुकफ था जिसने १२२८ ई. में आसामपर आक्रमण किया और शिवसागरपर अधिकार करके वहाँ अपना राजवंश स्थापित किया। इस राजवंशने ब्रह्मपुत्र घाटीमें कामरूप जिलेतक करीब छह शताब्दी (१२२८ ई.से १८२४ ई.) तक राज्य किया। इस राजवंशके ३९ अहोम राजा हुए जिनमेंसे १७वें राजा सुसेंगफने अपना नाम संस्कृतमें प्रतापसिंह रखा। उसके उत्तराधिकारियोंने भी संस्कृत नाम अपनाये और उनमें प्रमुख जयध्वज सिंह, चक्रध्वज सिंह, उदयादित्य सिंह, रामध्वज सिंह, गदाधर सिंह, रुद्रसिंह, शिव सिंह, प्रमत्त सिंह, राजेशअवर सिंह, लख्मी सिंह, गौरीनाथ सिंह, कमलेश्वर सिंह, चन्द्रकान्त सिंह, पुरन्दर सिंह और जोगेश्वर सिंह थे। अहोम राजाओंकी आपसी फूट, विशेष रूपसे बड़ागुहाई (प्रधान मंत्री ) पूर्णानन्द और गौहाटीके बड़ फूकन (गवर्नर) बदनचंद्रकी आपसी फूटके कारण, बदनचन्द्रने बर्मी सरकारको आसाम विजयके लिए अपनी सेना भेजनेका निमंत्रण दिया। १८१६ ई. में बर्मी सेना आसाममें घुस आयी, किन्तु वह १८१६ ई. में बर्मी सेना आसाममें घुस आयी, किन्तु वह १८१९ ई. तक उसपर पूरी तरह कब्जा नहीं कर पायी और उसके बाद १८२४ ई. तक आसाममें बर्मी शासन रहा। बर्मी शासकोंने बड़ी सख्ती बरती और अत्याचार किये जिससे अहोम सरदारोंमें असंतोष फैल गया। भारतके अंग्रेज शासकोंको भी यह पसन्द नहीं था कि उनके राज्य की सीमाओंपर बर्मी राज्यका विस्तार हो। उस समयके अहोम राजा चन्द्रकांतने कई बार बर्मी आक्रमणकारियोंको आसामसे खदेड़ देनेका प्रयास किया लेकिन उसे सफलता नहीं मिली और अन्त्रमें वह बर्मी सेना द्वारा कैद कर लिया गया। इसके बाद ही बर्मी सेना द्वारा कैद कर लिया गया। इसके बाद ही बर्मी लोगों और भारतकी अंग्रेजी सरकारके बीच युद्ध छिड़ गया। यह युद्ध केवल आसाममें ही नहीं वरन् बर्मामें भी हुआ, जिसमें अन्तमें बर्मी लोगोंकी पराजय हुई। उन्हें अंग्रेजोंसे चन्दवकी सन्धि (दे.) (१८२६ ई.) करनी पड़ी जिसके द्वारा बर्मी लोगोंने आसाम और पड़ोसके कछार और मणिपुर जिलोंसे अपना शासन हटा लिया। दक्षिणी आसामके कामरूप, दारांग और नवगांव जिलोंको भी अंग्रेजी राज्यमें मिला लिया गया। इन क्षेत्रोंको बंगालमें मिला लिया गया और उनका प्रशासन डेविड स्काटको सौंप दिया गया जो उस समय बंगालके ग्वालपाड़ा और गारो पहाड़ी जिलेका अधिकारी था। इस प्रकार बंगालके दो जिले आसामके साथ जुड़ गये। उत्तरी आसाम जिसमें आधुनिक शिवसागर जिला और सदिया और मटकको छोड़कर लखीमपुर जिला सम्मिलित था, पुराने अहोम राजवंशके वंशज पुरन्दर सिंहको सौंप दिया गया। लेकिन पुरन्दर सिंह शासकके रूपमें विफल रहा, इसलिए उसके राज्यको अर्थात् शिवसागर और लखीमपुर जिलोंको दक्षिणी आसाम के साथ जोड़कर १८३९ ई.से अंग्रेजी शासनके अधीन कर दिया गया। सदिया और मटकको भी, जो पहले दो अहोम सरदारोंको सौंप दिये गये थे, १८४३ ई.में अंग्रेजी शासनमें ले लिया गया और उनको आसामके लखीमपुर जिलेमें मिला दिया गया। १८७४ ई. तक आसामका प्रशासन बंगाल प्रान्तके अधीन रहा। उस वर्ष आसामके प्रशासनको सुधारनेके उद्देश्यसे उसे बंगाल प्रान्तसे हटाकर चीफ कमिश्नरके अधीन अलग प्रान्त बना दिया गया। उसी समय सिलहट, कछार, ग्वालपाड़ा जिले और गारो पहाड़ियोंका उत्तरी क्षेत्र आसाम राज्यमें मिला दिया गया और काफी बड़ी संख्यामें बंगाली-भाषी लोगोंको आसामका नागरिक बना दिया गया। तब (१८७४ ई.) से आसाम नाम, जो पहले अहोम लोगों द्वारा शासित पांच जिलोंकामरूप, दारांग, नवगरेव, शिव सागर और लखीमपुरके लिए प्रयुक्त होता था, सदियासे ग्वालपाड़ाक सारे क्षेत्रके लिए प्रयुक्त होने लगा जिसमें खासी और जयन्तिया पहाड़ी क्षेत्र, सूरमा घाटीके सिलहट और कछार जिलोंके अतिरिक्त बंगालके गारो पहाड़ियां तथा ग्वालपाड़ा जिलेमें सम्मिलित थे। इस प्रकार आसामकी मिली-जुली आबादी और अधिक मिश्रित हो गयी और उस क्षेत्के अंतर्गत तुलनात्मक दृष्टिसे अधिक पिछड़े पहाड़ी लोगोंके साथ अधिक उन्नत बंगाली-भाषी लोगोंको भी कर दिया गया। आसाममें हालमें भाषा-सम्बन्धी जो उपद्रव हुए उस विवादकी नींव उसी समय पड़ी थी। १९०५ ई.में बंगविभाजनके समय बंगालकी ढाका, चटगांव और राजशाही कमिश्नरियोंको आसामसे मिलाकर पूर्वी बंगाल तथा आसाम नामसे एक नया प्रान्त बना दिया गया और उसका प्रशासन एक अलग लेफ्टिनेन्ट-गवर्नरके अधीन कर दिया गया। छह वर्ष बाद बंग-भंग रद्द कर दिया गया। पूर्वी बंगाल फिरसे पश्चिमी बंगालसे जोड़ दिया गया और आसामको फिरसे चीफ कमिश्नरके अधीन अलग प्रान्त बना दिया गया और उसमें केवल खासी और जयन्तिया पहाड़ी जिलोंको ही नहीं वरन् बंगालके सिलहट, कछार, गारो पहाड़ी और ग्वालपाड़ा जिलोंको शामिल रखा गया। १९१२ ई. में आसामको गवर्नरके धीन प्रान्त बना दिया गया जिसकी सहायताके लिए कार्यकारिणी परिषद और विधानसभाका भी गठन किया गया। स्वतंत्रता-प्राप्तिके पश्चात् आसाम के गवर्नरके अधीन प्रान्तको अब राज्य कहा जाता है, किंतु देशके विभाजनके परिणाम-स्वरूप कीरमगंज तहसील को छोड़कर बाकी सिलहट जिला आसामसे निकालकर पूर्वी पाकिस्तानमें मिला दिया गया। इस प्रकार आसाम के वर्तमान भाषाई विवादकी शुरुआत बहुत कुछ इस प्रान्तको बनानेमें अंग्रेजों द्वारा की गयी गड़बड़ीसे हुई है। अंग्रेजोंने प्रशासनकी सुविधा अथवा तात्कालिक आवश्यकताओंको ध्यानमें रखकर इस प्रांतका निर्माण किया जिसमें अब परिवर्तन करना यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य हो गया है। (राज्योंके पुनर्गठनके फलस्वरूप आसामकी सीमाओंमें काफी उलटफेर हो गया है। नागा पहाड़ी जिलेको, जो पहले आसाम प्रांतका भाग था, अब नागालैंड नामके अलग राज्यमें शामिल कर दिया गया है। खासी तथा जयंतिया पहाड़ी तथा गारो पहाड़ी जिलोंको अब आसामसे अलग करे मेघालय नामसे अलग राज्य बना दिया गया है। भूतपूर्व मिजो पहाड़ी जिलेको भी अब मिजोराम नामसे अलग राज्य बना दिया गया है।

अब भारत के पूर्वांचल में निम्न राज्य हैं -- आसाम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर तथा त्रिपुरा तथा मिजोरम एवं अरुणाचल प्रदेश (भूतपूर्व उत्तर-पूर्व सीमा एजेंसी) के केन्द्र शासित क्षेत्र। -संपादक)

(कल्किपुराण, योगिनी तंत्र, काकटी-मदर गाडेस कामाख्या एंड असामीज ; इट्स फार्मेशन एंड डेवलपमेन्ट ; के. एल. बरुआ-हिस्ट्री आफ कामरूप; पी. भट्टाचार्य कामरूप शासनावाली; वी. के. बरुआ-कल्चरलर हिस्ट्री आफ आसाम; एम. भट्टाचार्य-हेट आफ दि निधानपुर कापर प्लेट, जनरल आफ इंडियन हिस्‍ट्री खंड ३१, अगस्त १९५३ पृष्ठ १११-१७; सर एडवर्ड गेट-हिस्ट्री आफ असाम; गोलपचन्द्र बरुआ-अहोम-बुरंजी; एस. के. भुइयां-बुरंजीज एंड एंग्लो-असामी रिलेशंस।)

आस्टेंड कम्पनी : भारत से व्यापार करने के लिए बेलियन लोगों द्वारा स्थापित। इसकी स्थापना अंतरराष्ट्रीय पूंजी से हुई थी और आस्ट्रिया के सम्राट् चार्ल्स छठे ने १७२२ ई. में कम्पनी को आज्ञापत्र प्रदान किया था। डच, अंग्रेजी तथा फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कम्पनियों ने तथा उनकी सरकारों ने इस कम्पनी का तीव्र विरोध किया था। डच, अंग्रेजी तथा फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कम्पनियों ने तथा उनकी सरकारों ने इस कम्पनी का तीव्र विरोध किया था। इस तीव्र विरोध के कारण सम्राट् चार्ल्स छठे ने १७३१ ई. में कम्पनी बंद करवा दी थी। परन्तु कानूनी तौर से आस्टेंड कम्पनी १७९३ ई. तक वर्तमान रही।

आस्ट्रिया के उत्‍तराधिकार का युद्ध : यूरोप में १७४० ई. में शुरू हुआ और १७४८ ई. तक चला। उस वर्ष एक्स-ला-चेपेल की सन्धि से वह खत्म हो गया। इस युद्ध में इंग्लैण्ड और फ्रांस ने दो विरोधी पक्षों का समर्थन किया और भारत में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी और फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने कर्नाटक में एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। पांडिचेरी के फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने फ्रांसीसी हितों की रक्षा के निमित्त मद्रास की अंग्रेजों की बस्ती पर अधिकार कर लिया। मद्रास और पांडिचेरी दोनों कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन (दे.) के क्षेत्र में स्थित थे। नवाब की सेना ने अंग्रेजों की रक्षा के लिए जब मद्रास का घेरा डाला तो फ्रांसीसी सेना ने उसे पीछे खदेड़ दिया। सेंट थोम की लड़ाई में नवाब की सेना पुनः पराजित हुई। यूरोप में एक्स-ला-चेपेल की सन्धि के बाद शान्ति स्थापित हो गयी और उसके बाद इंग्लैण्ड और फ्रांस ने एक दूसरे के विजित क्षेत्रों को लौटा दिया। इसी आधार पर मद्रास अंग्रेजों को वापस मिल गया। लेकिन आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध के परिणामस्वरूप पहले आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध का (जिसे कर्नाटक युद्ध भी कहते हैं) इतिहास पर भारी प्रभाव पड़ा। इस युद्ध का पहला परिणाम यह हुआ कि कर्नाटक के नवाब और उसके स्‍वामी हैदराबाद के निजाम की कमजोरी प्रकट हो गयी जो अपने राज्य में बसे विदेशियों को अपनी सार्वभौम सत्ता का सम्मान करने तथा शान्ति बनाये रखने के लिए मज़बूर नहीं कर सके। दूसरे, कर्नाटक के नवाब की अपेक्षाकृत बड़ी सेना को छोटी सी फ्रांसीसी सेना ने दो बार पराजित कर दिया। फ्रांसीसी सेना में फ्रांसीसी सैनिकों के साथ भारतीय सैनिक भी थे। इन पराजयों से प्रकट हो गया कि युरोपीय ढंग से संगठित, प्रशिक्षित तथा शस्त्रास्त्रों से सज्जित सेना भारतीय सेना से श्रेष्ठ होती है। तीसरे, इस लड़ाई में फ्रांसीसी और अंग्रेज दोनों सेनाओं में भारतीय सिपाहियों को भर्ती किया गया था और फ्रांसीसियों ने तो भारतीय सिपाहियों का प्रयोग देशी रजवाड़ों की सेनाओं से लड़ने तक में किया था। इस सबक को अंग्रेजों ने भलीभाँति सीख लिया और बाद में भारतीय सिपाहियों की सहायता से ही भारत को विजय किया।

आहवमल्ल : का विरुद कल्याणी के चालुक्यवंशी राजा सोमेश्वर प्रथम (१०५३-६८ ई.) ने धारण किया था। उसने चोल राजा राजाधिराज को कोप्पम के युद्ध में पराजित करके, चालुक्यों की शक्ति का पुनरुद्दार किया। उसने मालवा की धारा नगरी और सुदूर दक्षिण की कांची नगरी पर भी कब्जा कर लिया। अन्त में एक असाध्य ज्वर से पीड़ित होने पर उसने शिवमंत्र का जाप करते हुए तुंगभद्रा नदी में छलांग लगाकर अपना प्राणोत्सर्ग कर दिया।

इंग्लिश कम्पनी ट्रेडिंग टु दि ईस्ट इण्डीज  : १६९८ ई. में स्थापित। यह ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रतिद्वन्द्वी कम्पनी थी। दोनों में जबर्दस्त व्यापारिक प्रतियोगिता रहती थी। फलतः ईस्ट इण्डिया कम्पनी लगभग बर्बाद हो गयी। अन्त में १८०२ ई. में दोनों कम्पनियों के बीच समझौता हो गया और दोनों ने आपस में एकीकरण कर लिया। इसके अनुसार नयी कम्पनी का नाम पूर्व में व्यापार करनेवाली "यूनाइटेड कम्पनी आफ मर्चेण्ट्स आफ इंग्लैण्ड" पड़ा, लेकिन सामान्यजनों में वह ईस्ट इंडिया कम्पनी के नाम से ही विख्यात हुई।

इंडियन एसोसिएशन : स्थापना जुलाई १८७६ ई. में कलकत्ता में। इसका उद्देश्य भारत में शक्तिशाली जनमत का निर्माण करना तथा समान राजनीतिक हितों और महत्त्वाकांक्षाओं के आधार पर विविध भारतीय जातियों तथा वर्गों का एकीकरण था। अपने जन्मकाल से इस एसोसिएशन ने देश के सामने उपस्थित राजनीतिक प्रश्नों पर भारतीय जनमत संगठित तथा अभिव्यक्त करने का प्रयास किया। इस एसोसिएशन की स्थापना सुरेन्द्रनाथ बनर्जी (दे.) ने की थी, जो उस समय उग्रवादी समझे जाते थे। परंतु यह एसोसिएशन वास्तव में नरम दल वालों का संगठन बना रहा और आज भी इसका यही रूप है।

इंडियन एसोसिएशन फार दि कल्टीवेशन आफ साइन्स  : प्रसिद्ध होम्योपैथ डा. महेन्द्रलाल सरकार के दान से १८७६ ई. में कलकत्ता में स्थापना। भारतीयों को वैज्ञानिक शोध की सुविधाएँ प्रदान करनेवाला यह पहला संस्थान था। सर सी. बी. रमन ने अपना प्रसिद्ध किरण-सम्बन्धी अधिकांश शोध कार्य इसी संस्थान में किया।

इंडियन कौंसिल एक्ट : पहली बार १८६१ ई. में पारित। दूसरा ऐक्ट १८९२ ई. में और तीसरा १९०९ में पारित हुआ। ये ऐक्ट (कानून) भारत की प्रशासनिक व्यवस्था का क्रमिक विकास सूचित करते हैं, जिनके द्वारा प्रशासन में भारतीय जनता को भी कुछ राय देने की सुविधा प्रदान की गयी। १८६१ ई. के इंडियन कौंसिल ऐक्ट के द्वारा गवर्नर-जनरल की एक्जीक्यूटिव कौंसिल में पाँचवें सदस्य की नियुक्ति की गयी और कौंसिल के प्रत्येक सदस्य को विभिन्न विभागों की जिम्मेदारी सौंप देने की प्रथा आरम्भ हुई। एक्ट के द्वारा लेजिस्लेटिव कौंसिल का पुनर्गठन किया गया और अतिरिक्त सदस्यों की संख्या छह से बढ़ाकर बारह कर दी गयी। इन बारह सदस्यों में से आधे गैरसरकारी होते थे।

१८९२ ई. के इंडियन कौंसिल ऐक्ट के द्वारा इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्यों की संख्या बारह से बढ़ाकर सोलह कर दी गयी और उनके मनोनयन की प्रथा इस प्रकार बना दी गयी कि वे विविध वर्गों तथा हितों का प्रतिनिधित्व कर सकें। यद्यपि विधानमंडलों में सरकारी सदस्यों का बहुमत कायम रखा गया, तथापि सदस्यों की नियुक्ति में यदि निर्वाचन प्रणाली का नहीं, तो प्रतिनिधित्व प्रणाली का श्रीगणेश अवश्य कर दिया गया। विधानमंडलों को वार्षिक बजट पर बहस करने तथा प्रश्न पूछने के व्यापक अधिकार प्रदान किये गये। १९०९ ई. का इंडियन कौंसिल ऐक्ट मार्ल-मिण्टो सुधारों (दे.) पर आधृत था। इस ऐक्ट के द्वारा इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल तथा प्रांतीय विधानमंडलों के सदस्यों की संख्या और बढ़ा दी गयी। ऐक्ट के अनुसार विधानमंडलों के गैरसरकारी सदस्यों की संख्या भी बढ़ गयी और उनमें से कुछ सदस्यों के अप्रत्यक्ष रीति से निर्वाचित किये जाने की व्यवस्था हुई। एक्ट के द्वारा मुसलमानों के लिए पृथक् साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की प्रथा शुरू की गयी और इस प्रकार भारत के विभाजन का बीजवपन कर दिया गया।

इंडियन नेशनल कान्फ्रेंस : २८, २९ तथा ३० दिसम्बर १८८३ ई. को कलकत्ता के इंडियन एसोसिएशन के तत्त्वावधान में आयोजित। यह पहला सम्मेलन था, जिसमें सारे भारत के गैरसरकारी प्रतिनिधियों ने भाग लिया और सार्वजनिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श किया। इसी के नमूने पर दो साल बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन किया गया। इस सम्मेलन में औद्योगिक तथा तकनीकी शिक्षा, इंडियन सिविल सर्विस में भारतीयों को अधिक स्थान देने, न्यायपालिका और कार्यपालिका के कार्यों को पृथक् करने, प्रतिनिधित्वपूर्ण सरकार की स्थापना करने तथा शस्त्र कानून के सम्बन्ध में विचार किया गया। इंडियन नेशनल कान्फ्रेंस का द्वितीय अधिवेशन भी कलकत्ता में १८८५ ई. में हुआ। यह पहले अधिवेशन से अधिक प्रतिनिधित्वपूर्ण था। इसमें सामयिक राजनीतिक प्रश्नों पर विचार किया गया। १८८५ ई. के बाद इंडियन नेशनल कान्फ्रेंस का विलयन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कर दिया गया, जिसका पहला अधिवेशन १८८५ ई. में हुआ।

इंदौर : अट्टारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मल्हारराव होल्कर (दे.) द्वारा स्थापित राज्य की राजधानी।

इंसाफ की जंजीर : मुगल सम्राट जहाँगीर द्वारा १६०५ ई. में सिंहासनारूढ़ होने के तत्काल बाद लटकवायी गयी। इसमें ६० घण्टियाँ थीं। यह आगरा के किले में शाहबुरजी और यमुनातट पर स्थित एक पाषाणस्तम्भ के बीच स्थित थी। इस जंजीर को खींचने से सभी घण्टियाँ बज उठती थीं। इसके द्वारा जहाँगीर की प्रजा का छोटे से छोटा प्राणी भी अपनी शिकायत सीधे सम्राट् तक पहुँचा सकता था। इससे प्रजा के प्रति जहाँगीर के प्रेम और उसकी न्यायप्रियता का संकेत मिलता है।

इकबाल, सर मुहम्‍मद : (१८७६-१९३८ ई.) -आधुनिक भारतीय प्रसिद्ध मुसलमान कवि। इनकी रचनाएँ मुख्य रूप से फारसी में हैं और अंग्रेजी में केवल एक पुस्तक है, जिसका शीर्षक है 'सिक्स लेक्चर्स आन दि रिकन्सट्रक्शन आफ रिलीजस थाट' (धार्मिक चिंतन की नवव्याख्या के सम्बन्ध में छह व्याख्यान)। उनका मत था कि इसलाम रूहानी आजादी की जद्दोजहद के जज्बे का अलमबरदार है और सभी प्रकार के धार्मिक अनुभवों का निचोड़ है। वह कर्मवीरता का एक जीवंत सिद्धांत है जो जीवन को सोद्देश्य बनाता है। यूरोप धन और सत्ता के लिए पागल है। इसलाम ही एकमात्र धर्म है जो सच्चे जीवनमूल्यों का निर्माण कर सकता है और अनवरत संघर्ष के द्वारा प्रकृति के ऊपर मनुष्य को विजयी बना सकता है। उनकी रचनाओं ने भारत के मुसलमान युवकों में यह भावना भर दी कि उनकी एक पृथक् भूमिका है। इकबाल ने ही सबसे पहले १९३० ई. में भारत सिंध के भीतर उत्तर पश्चिमी सीमाप्रांत, बलूचिस्तान, सिंध तथा कश्मीर को मिलाकर एक नया मुसलिम राज्य बनाने का विचार रखा, जिसने पाकिस्तान को जन्म दिया। पाकिस्तान शब्द इकबाल का गढ़ा हुआ नहीं है। इसे १९३३ ई. में चौधरी रहमत अली ने गढ़ा था। इकबाल की काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'सर' की उपाधि प्रदान की।

इक्ष्वाकु : एक प्रसिद्ध पौराणिक राजा। रामायण के नायक रामचन्द्रजी के पिता तथा कोशल के राजा दशरथ उन्हीं के वंशज थे।

इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया : रजिया बेगम (१२३६-४० ई.) (दे.) के शासनकाल के प्रारम्भ में भटिंडा का हाकिम। उसने १२४० ई. में रजिया के खिलाफ बगावत कर दी, उसे परास्त कर दिया और बंदी बना लिया। परंतु उसे बहराम से, जो नया सुल्तान बना था, यथेष्ट पुरस्कार नहीं मिला। इसलिए उसने रजिया को जेलखाने से रिहा कर दिया, उससे शादी कर ली और रजिया को फिर से गद्दी पर बिठानेके लिए एक बड़ी सेना के साथ दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। परंतु वह कैथल की लड़ाई में पराजित हुआ और दूसरे दिन उसे और रजिया को मार डाला गया।

इख्तियारुद्दीन मुहम्मद : बख्तियार खिलजी का लड़का तथा बंगाल का पहला मुसलमान विजेता। वह सामान्य रूप से बख्तियार खिलजी के नाम से विख्यात है। उसका व्यक्तित्व बाहर से देखने में अधिक प्रभावशाली नहीं था, परन्तु वह बड़ा साहसी और महत्त्वाकांक्षी था। उसने बिहार पर हमला करके उसकी राजधानी उड्यन्तपुर पर अधिकार कर लिया और वहाँ के महाविहार में रहनेवाले सभी बौद्धभिक्षुओं का वध कर डाला। उसने ११९२ ई. में बिहार जीत लिया। इसके बाद ही, संभवतः ११९३ ई. में, किंवा निश्चित रूप से १२०२ ई. से पहले, उसने अचानक नदिया पर हमला बोल दिया, जो उस समय अंतिम सेन राजा, लक्षमण सेन की राजधानी था। लक्ष्मण सेन पूर्वी बंगाल भाग गया। बख्तियार खिलजी शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी की ओर से बंगाल का सूबेदार बन कर गौड़ (दे.) में रहने लगा।

इस सफलता से बख्तियार खिलजी की महत्त्वाकांक्षा और बढ़ गयी और उसने एक बड़ी मुसलमानी फौज लेकर कामरूप (आसाम) होकर तिब्बत की ओर कूच किया। बंगाल से निकलकर उसकी फौज किस दिशा में आगे बढ़ी अथवा उसका निश्चित लक्ष्‍य क्या था, यह संदिग्ध है। पन्द्रह दिन कूच करने के बाद उसने जिस राज्य पर हमला किया था, उसकी सेना से मुकाबला हुआ। युद्ध में उसकी हार हुई और उसे भारी क्षति उठानी पड़ी। वापस लौटते समय उसकी फौज नष्ट हो गयी। इख्तियारुद्दीन अपने साथ दस हजार घुड़सवार ले गया था। जब वह वापस लौटा तो उनमें सौ घुड़सवार जिन्दा बचे थे। इस हारने उसका साहस भंग कर दिया और वह शोक तथा लांछना से पीड़ित होकर १२०६ ई. में मर गया।

इजिदबख्श : शाहजहाँ के चीथे पुत्र, शाहजादा मुराद का लड़का। औरंगजेब ने उसकी जान बख्श दी और बाद में अपनी पाँचवीं लड़की की शादी उससे कर दी।

इत्मादुद्दौला : बादशाह जहाँगीर द्वारा गद्दी पर बैठने के बाद ही मिर्जा गयास बेग को प्रदत्त उपाधि। गयास बेग ईरान से आया था और अकबर का दरबारी था। वह प्रसिद्ध नूरजहाँ का पिता था, जिससे बादशाह जहाँगीर ने १६११ ई. में विवाह कर लिया। उसे तथा उसके बेटे आसफ खाँ को जहाँगीर ने ऊँचे पद प्रदान किये। उसकी मत्य १६२२ ई. में हुई और उसकी प्यारी बेटी, मलका नूरजहाँ ने उसकी कब्र पर सफेद संगमरमर का सुन्दर मकबरा बनवाया। उसका नाम इत्मादुद्दौला है। "मुगल इमारतों में उसके जोड़ की और कोई दूसरी इमारत नहीं है। अपनी नफासत और महीन पच्चीकारी में यह इमारत अपने आप में एक नमूना है।" (फर्गुसन)

इत्सिंग : एक चीनी भिक्षु और यात्री, जो ६७५ ई. में सुमात्रा होकर समुद्र मार्ग से भारत आया। वह दस वर्ष, तक नालन्दा विवविद्यालय में रहा और उसने वहाँ के प्रसिद्ध आचार्यों से संस्कृत तथा बौद्धधर्म के ग्रंथों को पढ़ा। उसने ६९१ ई. में अपना प्रसिद्ध ग्रंथ 'भारत तथा मलय द्वीपपुंज में प्रचलित बौद्धधर्म का विवरण' लिखा। इस ग्रंथ से हमें उस काल के भारत के राजनीतिक इतिहास के बारे में तो अधिक जानकारी नहीं मिलती, परंतु यह ग्रंथ बौद्धधर्म और संस्कृत साहित्य के इतिहास का अमूल्य स्रोत माना जाता है।

इन्द्र : एक वैदिक देवता, जिसका प्रधान अस्त्र बज्र था। वैदिक देवताओं में इसका स्थान बहुत ऊँचा था।

इन्द्र  : राष्ट्रकूट वंश (दे.) में इस नाम के चार राजा हुए। इन्द्र प्रथम तथा इन्द्र द्वितीय के बारे में उनके नामों को छोड़कर और कुछ ज्ञात नहीं है। इन्द्र तृतीय (९१५-१७ ई.) ने बहुत थोड़े समय तक राज्य किया। इतने ही समय में उसने कन्नौज पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। उसकी मृत्यु के बाद ही कन्नौज छिन गया। इन्द्र चतुर्थ, जिसकी मृत्यु ९८२ ई. में हुई, राष्ट्रकूट वंश का अंतिम राजा था।

इन्द्रप्रस्थ : पांडवों की राजधानी। कौरवों के साथ इनकी लड़ाई महाभारत की मुख्य कथावस्तु है। इस नगर की पहचान दिल्ली के निकट इन्दरपत गाँव से की जाती है।

इबादतखाना (प्रार्थनागृह) : बादशाह अकबर ने फतहपुर सीकरी में १५७५ ई.में बनवाया। इसमें विभिन्न धर्मों के विद्वान् एकत्र होकर धार्मिक विषयों पर विचार करते थे। शुरू में १५७५-७८ ई. तक इसमें केवल मुसलमान धर्मवेत्ता बुलाये जाते थे, परंतु बाद में १५७९-१५८२ ई. के बीच सभी धर्मों के विद्वानों को आमंत्रित किया जाने लगा। अकबर द्वारा 'दीन इलाही' (दे.) की घोषणा कर दिये जाने के बाद इबादतखाने की मजलिसें समाप्त हो गयीं।

इब्न बतूता : एक विद्वान् अफ्रीकी यात्री, जो १३३३ ई. में सुल्तान मुहम्मद तुगलक के राज्यकाल में भारत आया। सुल्तान ने उसका स्वागत किया और उसे दिल्ली का प्रधान काजी नियुक्त कर दिया। १३४२ ई. में सुल्तान के राजदूत के रूप में चीन जाने तक वह इस पद पर बना रहा। उसने अपनी भारत-यात्रा का बहुमूल्य वर्णन लिखा है, जिससे सुल्तान मुहम्मद तुगलक के जीवन और काल के बारे में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। उसका वर्णन अतिशयोक्तियों से भरा होने पर भी सामान्य रीति से विश्वसनीय है। उसने, सुल्तान द्वारा जिन कारणों से राजधानी को दिल्ली से हटाकर दौलताबाद ले जाने का आदेश दिया गया और जिस रीति से दिल्ली को पूरी तरह से खाली कराया गया, उसका जो वर्णन किया है, उसे उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है।

हब्राहीम : गोलकुंडा के कुतुबशाही वंश का तीसरा शासक, जिसने १५५० से १५८० ई. तक शासन किया। उसने विजयनगर साम्राज्य के विरुद्ध बीजापुर, बराड़ तथा अहमदनगर के सुल्तानों से समझौता कर लिया और तालीकोट की लड़ाई (१५५६ ई.) में उसे हरा देने तथा विजयनगर को उजाड़ देने के बाद लूट-खसोट में हिस्सा बँटाया। इब्राहीम अपनी प्रजा के साथ उदारतापूर्ण व्यवहार करता था और अपने राज्य में उसने हिन्दुओं को भी ऊँचे पद दे रखे थे।

इब्राहीम : सैयद बंधुओं ने १७१९ ई. में जिन चार नाममात्र के मुगल बादशाहों को दिल्ली की गद्दी पर बिठाया था, उनमें अंतिम। वह बहादुरशाह प्रथम (१७०७-१२ ई.) के तीसरे पुत्र रफी-उस-शान का लड़का था। सैयद बंधुओँ ने कुछ समय बाद उसे गद्दी से उतार दिया और मार डाला। उस समय दिल्ली के बादशाहों को बनाना और बिगाड़ना सैयद बंधुओं के हाथ में था।

इब्राहीम आदिल शाह प्रथम, इब्राहीम आदिल शाह द्वितीय : इब्राहीम आदिल शाह प्रथम- बीजापुर के आदिलशाही वंश का चौथा सुल्‍तान ((1534-57 ई.)। इस वंश के प्रथम सुल्‍तान ने शिया धर्म अंगीकार कर लिया था किंतु इसने शिया धर्म अस्‍वीकार कर दिया। वह फारस से आये अमीरों के स्‍थान पर दक्खिन से आए अमीरों को पसंद करता था। इसका वजीर असद खां अत्‍यंत योग्‍य था। उसने विजयनगर की एक सप्‍ताह की यात्रा की और बहुत से उपहारों के साथ वापस लौटा। उसने अपने राज्‍य पर बिदर, अहमदनगर तथा गोलकुंडा के सुल्‍तानों के संयुक्‍त हमले को विफल कर दिया। उसके शासनकाल में अनेकानेक षड्यंत्र रचे गए। बुढ़ापे में वह बहुत अधिक शराब पीने लगा और उसी से उसकी मृत्‍यु हो गई।

इब्राहीम आदिल शाह द्वितीय - बीजापुर के आदिलशाही वंश का छठा सुल्तान। उसने १५८० ई. से १६२६ ई. तक शासन किया। उसकी माँ अहमदनगर की प्रसिद्ध शाहजादी, चाँद बीबी थीं। इब्राहीम आदिल शाह द्वितीय जिस समय गद्दी पर बैठा, नाबालिग था और राज्य का प्रबंध १५८४ ई. तक उसकी माँ देखती रही। १५८४ ई. में चाँद बीबी अहमदनगर वापस लौट गयी। १५९५ ई. में इब्राहीम आदिल शाह द्वितीय ने अहमदनगर के सुल्तान को पराजित कर मार डाला। परंतु शीघ्र ही दोनों राज्यों को मुगल साम्राज्य द्वारा आत्मसात् कर लिये जाने की योजना का सामना करना पड़ा।

इब्राहीम आदिल शाह द्वितीय बहुत ही उदार शासक था। उसने अपने राज्य में हिन्दू और ईसाई प्रजा को पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दे रखी थी। उसने प्रशासन में कई सुधार किये; भूमि का बन्दोबस्त ठीक किया, गोआ के पुर्तगालियों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये, अपने राज्य का विस्तार मैसूर की सीमा तक किया, बीजापुर में कई सुंदर इमारतें बनवायीं और प्रसिद्ध इतिहासकार मुहम्मद कासिम को-जो फरिश्ता के उपनाम से प्रसिद्ध है-आश्रय दिया।

इब्राहीम खाँ  : १६८९-९७ ई. के मध्य बंगाल का मुगल सूबेदार। वह शांत स्वभाव का बूढ़ा आदमी था और अंग्रेजों के प्रति मित्रता का भाव रखता था। उसके पहले के सूबेदार शाइस्ता खाँ (दे.) ने अंग्रेजों को बंगाल से निकाल दिया था। इब्राहीम खां ने उन्हें वापस बुला लिया और जाव चारनाक (दे.) को उस स्थान पर बसने की इजाजत दे दी जहाँ बाद में कलकत्ता नगर विकसित हुआ। इब्राहीम खाँ प्रशासन के कार्यों की बहुत उपेक्षा करता था, इसीलिए मिदनापुर जिले के जमींदार शोभासिंह को बगावत करने का मौका मिल गया। उसने इस बगावत को तत्काल नहीं दबाया। अंग्रेजों, फ्रांसीसियों और डच लोगों को बंगाल में अपनी बस्तियों की किलेबंदी करने की इजाजत देकर, ताकि वे शोभासिंह का मुकाबला कर सकें, उसने स्थिति को और शोचनीय बना दिया। इब्राहीम खाँ की इन गलतियों से बादशाह औरंगजेब नाखुश हो गया और उसने १६९७ ई. में उसे बंगाल की सूबेदारी से हटा दिया।

इब्राहीम खाँ गार्दी : एक भाड़े का सैनिक, जिसे व्रसी (दे.) ने स्वयं प्रशिक्षित किया और जो उसके तोपखाने का प्रधान हो गया। १७५७ ई. में उसने निजाम की नौकरी कर ली, परंतु अगले साल वह पेशवा की सेवा में चला गया। उसने १७६० ई. में उदगिर (दे.) की लड़ाई में निजाम की फौजों के खिलाफ मराठों को विजयी बनाने में भारी योगदान दिया। वह पानीपत (दे.) की तीसरी लड़ाई में ९००० सिपाहियों तथा ४० तोपों के साथ मराठों की ओर से लड़ा। यद्यपि शुरू में उसने शत्रु की फौजों को पछाड़ दिया, तथापि अंत में इस युद्ध में मराठों की पराजय हुई और विजयी अफगानों ने उसे बंदी बना लिया तथा मार डाला।

इब्राहीम लोदी : दिल्ली के लोदी वंश (दे.) का तीसरा सुल्तान (१५१७-२६ ई.)। अपने शासन काल के शुरू में उसने राजपूतों से ग्वालियर छीन लिया। परंतु उसने अफगान सरदारों को कड़े नियंत्रण में रखने की जो नीति अपनायी तथा उनके साथ जिस प्रकार का कठोर व्यवहार किया उससे वे उसके विरोधी बन गये। एक असंतुष्ट सरदार, पंजाब के हाकिम दौलत खाँ लोदी ने बाबर को, जो अफगानिस्तान का बादशाह बन बैठा था, आमंत्रित किया, कि वह आकर इब्राहीम की गद्दी छीन ले। बाबर ने २१ अप्रैल १५२६ ई. को यह निमंत्रण स्वीकार कर लिया। उसने पानीपत (दे.) की पहली लड़ाई में इब्राहीम लोदी को हरा दिया और मार डाला। इब्राहीम लोदी दिल्ली का अंतिम सुल्तान था।

इब्राहीम शाह शर्की : जौनपुर का सुल्तान (१४०२-३६ ई.) और शर्की वंश का सबसे योग्य शासक। हिन्दू धर्म के प्रति वह अत्यंत असहनशील था। वह एक सुसंस्कृत व्यक्ति था और कला और साहित्य का संरक्षक था। उसने जौनपुर को मुसलिम विद्या का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बना दिया और बहुत-सी भव्य इमारतें बनवाकर शहर को सुंदर बनाया। उसने जो इमारतें बनवायीं, उनमें अटाला मसजिद सबसे मुख्य है जो १४०८ ई. में पूरी हुई।

इब्राहीम सूर : सूर वंश (दे.) का चौथा बादशाह, जिसने १५५५ ई. में बहुत थोड़े समय के लिए शासन किया। हुमायूं द्वारा दिल्ली पर फिर से मुगल शासन स्थापित किये जाने पर इब्राहीम सूर उड़ीसा भाग गया। वहाँ वह १५६७ ई. के आसपास मार डाला गया।

इमादशाही वंश : स्थापना लगभग १४९० ई.में बराड़ के फतहुल्ला (दे.) द्वारा जिसको इमादुलमुल्क कहते थे। बहमनी राज्य (दे.) से अपने को अलग कर वह स्वतंत्र शासक बन बैठा। इस वंश ने चार पीढ़ियों, १४९० ई. से १५७४ ई. तक राज्य किया। १५७४ ई. में बराड़ पर अहमदनगर ने कब्जा कर लिया।

इमादुल-मुल्क : मुगल शासनकाल की एक ऊंची पदवी। यह पदवी निजामुल्मुल्क के सबसे बड़े बेटे फीरोज जंग गाजीउद्दीन को मिली थी और उसकी मृत्यु पर उसके बेटे तथा उत्तराधिकारी शहाबुद्दीन को, जिसे गाजीउद्दीन (दे.) भी कहते थे, १७५३ ई. में मुगल बादशाह का वजीर नियुक्त होने पर मिली थी।

इम्पीरियल कान्फ्रेंस : लंदन में १९२१, १९२३ तथा १९२६ में हुई, जिसमें भारत के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया।

इम्पीरियल कैडेट कार्प्स : स्थापना वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा १९०१ ई. में। इसमें रजवाड़ों और ऊंचे खानदान के नवयुवकों को भर्ती किया जाता था और उन्हें प्राथमिक फौजी प्रशिक्षण दिया जाता था।

इम्पीरियल लायब्रेरी (अब राष्ट्रीय पुस्तकालय कहलाता है) : स्थापना वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा अपने शासनकाल (१८९९-१९०५ ई.) में। यह कलकत्ता में संप्रति बेलवेडियर में विद्यमान है जो पहले लेफ्टिनेंट-गवर्नर का निवासस्थान था। यह सार्वजनिक पुस्तकालय है जिसमें पुस्तकों का विशाल संग्रह है।

इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल : संघटन १८६१ ई. के इंडियन कौंसिल्स ऐक्ट के द्वारा। यह उस समय वायसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल (कार्यकारिणी समिति) ही थी, जिसका विस्तार करके छह से बारह मनोनीत सदस्य नियुक्त कर दिये गये थे। इनमें कम से कम आधे गैरसरकारी सदस्य होते थे। इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के पहले तीन गैरसरकारी भारतीय सदस्य महाराज पटियाला, महाराज बनारस और ग्वालियर के सर दिनकर राव थे। उसके कानून बनाने के अधिकार अत्यंत सीमित थे। १८९२ ई. के इंडियन कौंसिल्स ऐक्ट के द्वारा इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी। इसके अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बारह से बढ़ाकर सोलह कर दी गयी। इनमें अधिक से अधिक छह मनोनीत सरकारी सदस्य होते थे। दस गैरसरकारी सदस्यों में चार प्रांतीय लेजिस्लेटिव कौंसिलों द्वारा चुने जाते थे, एक कलकत्ता के चैम्बर आफ कामर्स (वाणिज्य संघ) द्वारा चुना जाता था और बाकी पाँच गवर्नर-जनरल द्वारा मनोनीत किये जाते थे। इम्पीरियल लेजिस्जिटिव कौंसिल के कार्यों का भी विस्तार किया गया। उसे बजट पर बहस करने और प्रश्न करने का अधिकार दे दिया गया।

१९०९ ई. के गवर्नमेण्ट आफ इंडिया ऐक्ट द्वारा इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल में और परिवर्तन किया गया। उसके सदस्यों की संख्या बढ़ाकर साठ कर दी गयी, जिनमें अट्ठाईस मनोनीत सरकारी सदस्य होते थे, पाँच मनोनीत गैरसरकारी सदस्य होते थे और सत्ताईस गैरसरकारी सदस्य प्रांतीय लेजिस्लेटिव कौंसिलों, मुसलमानों तथा वाणिज्य संघों के द्वारा चुने जाते थे। इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के कार्यों का भी विस्तार किया गया। उसे बजट तथा कुछ सार्वजनिक महत्त्व के प्रश्नों पर प्रस्ताव पेश करने का अधिकार दे दिया गया। प्रस्ताव सिफारिश के रूप में होते थे और सरकार उन्हें स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं थी। गवर्नर-जनरल अपने इच्छानुसार कौंसिल के अध्यक्ष के रूप में कार्य कर सकता था और किसी भी प्रस्‍ताव को पेश होने से रोक सकता था।

१९१९ के गवर्नमेण्ट आफ इंडिया ऐक्ट द्वारा और परिवर्तन किया गया। यह ऐक्ट मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट (दे.) पर आधृत था। ऐक्ट के अन्तर्गत केन्द्र में दो सदनों वाले विधानमंडल की स्थापना की गयी। इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल को अब इंडियन लेजिस्लेटिव असेम्बली में विलीन कर दिया गया और उसके सदस्यों की संख्या बढ़ाकर १४५ कर दी गयी। इनमें से १०५ सदस्य निर्वाचित होते थे। केन्द्रीय असेम्बली के कानून बनाने के अधिकारों का विस्तार कर दिया गया तथा प्रशासन पर उसका नियंत्रण बढ़ा दिया गया। (दे, ब्रिटिश प्रशासन के अंतर्गत)

इम्पीरियल सर्विस कार्प्स : स्थापना लार्ड डफरिन (१८८४-८८ ई.) के प्रशासन काल में। इस योजना के अंतर्गत देशी रजवाड़ों में सैन्यसंग्रह किया जाता था। इन सेनाओं के अफसर भारतीय होते थे। आवश्यकता पड़ने पर साम्राज्य की सेवा के लिए इनको उपलब्ध किया जाता था। इन सेनाओं ने दोनों विश्वयुद्धों में भाग लिया और महत्त्वपूर्ण सेवाएँ कीं।

इम्पी, सर एलिजा ( १७३२-१८०९ ई.)  : वेस्टमिनिस्टर में शिक्षा तथा गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स (दे.) का सहपाठी। 1773 ई. के रेग्युलेटिंग ऐक्ट द्वारा कलकत्ता के सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया और 1774 ई. में कलकत्ता पहुँचा। 1775 ई. में उसकी अध्यक्षता में नंदकुमार (दे.) के मुकदमे की सुनवाई हुई। उसने जालसाजी के अभियोग में उसे फॉंसी की सजा दी। बहुत से लोगों का विचार है कि इस मुकदमे में वारेन हेस्टिंग्स की मित्रता ने इम्पी को प्रभावित किया। 1777 ई. में वारेन हेस्टिंग्स के कथित इस्तीफे पर भी उसने उसके पक्ष में निर्णय दिया। उसने वारेन हेस्टिंग्स के विरोधी, फिलिप फ्रांसिस को ग्रांड कांड में 50,000 रु. हर्जाना देने का आदेश दिया। उसके नेतृत्व में 1779 ई. हर्जाना देनेका आदेश दिया। उसके नेतृत्व में 1779 ई. में सुप्रीम कोर्ट ने अपने अधिकारक्षेत्र के प्रश्न पर कौंसिल से झगड़ा शुरू कर दिया, जो उसकी प्रतिष्ठा को गिरानेवाला था। वारेन हेस्टिंग्स ने जैसे ही उसे मुख्य न्यायाधीश के रूप में मिलनेवाले 8000 पौंड वार्षिक वेतन के अतिरिक्त 6000 पौंड वार्षिक वेतन पर सदर दीवानी अदालत का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया, यह झगड़ा समाप्त हो गया। पार्लियामेण्ट ने इस सारी कार्यवाही को अत्यन्त अनियमित ठहराया और १७८२ ई. में इम्पी को वापस बुला लिया। उसके विरुद्ध महाभियोग चलाने की कोशिश की गयी। उसने पार्लियामेण्ट के समक्ष अपनी सफाई पेश की और महाभियोग की कार्यवाही समाप्त करा दी। वह 1790 ई. में पार्लियामेण्ट का सदस्य चुना गया और 1796 ई. तक सदस्य रहा।

इम्मादि नरसिंह : विजयनगर (दे.) के सालुव वंश (१४८६-१५०३ ई.) का दूसरा और अंतिम राजा। उसने १४८६ ई. से १५०३ ई. के आसपास वीर नरसिंह द्वारा हत्या कर दिये जाने तक राज्य किया। उसकी गतिविधियों के बारे में कुछ पता नहीं है।

इर्विन, लार्ड, एडवर्ड फ्रेडरिक लिन्डले वुड : द्वितीय बाइकाउण्ट हैलिफैक्स का पुत्र। १८८१ ई. में जन्म। उसने ईटन में शिक्षा प्राप्त की और १९१० से १९२५ ई. तक ब्रिटिश पार्लियामेण्ट का सदस्य रहा। इस दौरान ब्रिटिश मंत्रिमंडल के विविध पदों पर वह रहा। १९२५ ई. से १९३१ ई. तक वह भारत का वायसराय तथा गवर्नर-जनरल रहा। भारत के वायसराय के रूप में उसका कार्यकाल अत्यन्त तूफानी कहा गया। १९२० ई. में आरम्भ किया गया असहयोग आंदोलन (दे.) उस समय भी जारी था। १९१९ के गवर्नमेण्ट आफ इंडिया एक्ट की कार्यविधि का मूल्यांकन करने के लिए जो साइमन कमीशन (दे.) नियुक्त किया गया था, उसके सभी सदस्य अंग्रेज थे। उसमें कोई भी भारतीय सदस्य न नियुक्त किये जाने से सारे देश में गहरी राजनीतिक अशांति फैल गयी। लार्ड इर्विन ने भारतीय जनमत को शांत करने के उद्देश्य से ३१ अक्तूबर १९२९ को ब्रिटिश सरकार से परामर्श करके घोषणा की कि औपनिवेशक स्वराज्य की स्थापना भारत की संवैधानिक प्रगति का स्वाभाविक लक्ष्य है और साइमन कमीशन की रिपोर्ट मिलने के बाद पार्लियामेण्ट में नया भारतीय संवैधानिक बिल पेश किये जाने से पूर्व लंदन में सभी भारतीय राजनीतिक पार्टियों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जायगा।

परंतु इसके बाद ही ब्रिटिश अधिकारियों ने औपनिवेशिक स्वराज्य की व्याख्या करते हुए स्पष्ट कर दिया कि उसका आशय कनाडा जैसे औपनिवेशिक स्वराज्य प्राप्त देश का दर्जा प्रदान करना नहीं है बल्कि भारत को एक अधीनस्थ देश बनाये रखकर उसे स्वायत्तशासी सरकार प्रदान करना है। इस स्पष्टीकरण के फलस्वरूप लार्ड इर्विन की घोषणा भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस को संतोष नहीं प्रदान कर सकी और १९२९ ई. में लाहैर अधिवेशन में घोषणा कर दी गयी कि काँग्रेस का ध्येय पूर्ण स्वाधीनता है। कांग्रेस ने अप्रैल १९३० में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में सत्याग्रह आंदोलन आरम्भ कर दिया। गांधीजी ने अपने कुछ अनुयायियों के साथ दांडी की ओर कूच किया और जान बूझकर सरकार का 'नमक कानून' तोड़ा। यह 'नमक सत्याग्रह आंदोलन' शीघ्र ही सारे देश में फैल गया, जिससे भारी हलचल मच गयी। लार्ड इर्विन ने युक्तिपूर्वक स्थिति को सँभालने का प्रयास किया। एक ओर तो उसने कानून और व्यवस्था को बनाये रखने के लिए राज्य की सारी शक्ति लगा दी तथा - काँग्रेस वर्किंग कमेटि के सभी सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया; दूसरी ओर वह महात्मा गाँधी से समझौता-वार्ता चलाता रहा। वह गाँधीजी से कई बार मिला और अंत में गाँधी-इर्विन समझौता हो गया।

इस समझौते के अनुसार काँग्रेस ने सत्याग्रह आंदोलन स्थगित कर दिया और वह गोलमेज-सम्मेलन के दूसरे अधिवेशन में गाँधीजी को अपना एकमात्र प्रतिनिधि बनाकर भेजने को तैयार हो गयी। काँग्रेस ने इस सम्मेलन के भेजने को तैयार हो गयी। काँग्रेस ने इस सम्मेलन के पहले अधिवेशन का बहिष्कार किया था। उधर सरकार ने भी सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया। सिर्फ उन बंदियों को नहीं छोड़ा गया जिनपर हिंसात्मक उपद्रवों में भाग लेने के आरोप थे। गॉंधी-इर्विन समझौते के एक महीने बाद लार्ड इर्विन ने भारत के वायसराय के पद से अवकाश ग्रहण कर लिया और अपने उत्तराधिकारी लार्ड विलिंगडन पर यह भार छोड़ दिया कि वह चाहे तो उसकी नीति को आगे बढ़ाये और न चाहे तो समाप्त कर दे। भारत से अवकाश ग्रहण करने के बाद लार्ड इर्विन १९४० से १९४६ ई. तक अमेरिका में ब्रिटिश राजदूत रहा। १९४४ ई. में उसे अर्ल आफ हैलिफैक्स की पदवी प्रदान की गयी।

हलाहाबाद : गंगा और यमुना के संगम पर स्थित। यह स्थान सामरिक दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन नाम प्रयाग है और यह तीर्थराज कहा जाता है। ईसा की चौथी और पाँचवीं शताब्दी में गुप्त वंश के राज्य में वह उनकी एक राजधानी भी रहा है। सातवीं शताब्दी में सम्राट् हर्षवर्धन, वहाँ पाँच-पाँच वर्ष के अनन्तर, सत्र का आयोजन किया करता था। ऐसे एक सत्र में चीनी यात्री ह्युएनत्सांग ने ६४३ ई. में भाग लिया था। इलाहाबाद में सबसे प्राचीन ऐतिहासिक स्मारक अशोक (२७३-२३२ ई.पू. ) के ६ स्तम्भ-लेखों में से एक है। इस पर गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त (३३०-३८० ई.) की कवि हरिषेण रचित प्रसिद्ध प्रशास्ति है। इसमें उसके दिग्विजय का वर्णन है। इस स्थान के सामरिक महत्त्व को देखकर अकबर ने १५८३ ई.में यहाँ गंगा-यमुना के संगम पर किला बनवाया और प्रयाग के स्थान पर इसका नाम इलाहाबाद रखा। यह नगर इलाहाबाद सूबे की राजधानी बनाया गया। यह नगर बाद में उत्तर प्रदेश (संयुक्त प्रांत आगरा अवध) की राजधानी रहा। यहाँ प्रसिद्ध विश्वविद्यालय भी है।

इलाहाबादकी सन्धि : १७६५ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी की ओर से क्लाइव और बादशाह शाह आलम द्वितीय के मध्य हुई। इस सन्धि के द्वारा ईसट इंडिया कम्पनी ने कोड़ा और इलाहाबाद के जिलों को शाह आलम द्वितीय को लौटाना और उसे २६ लाख रुपये वार्षिक खिराज देना स्वीकार किया था और इसके बदले में बादशाह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूलने का अधिकार) सौंप दी थी।

इलाही सन् : बादशाह अकबर ने १५८४ ई. में चलाया। यह सौर वर्ष पर आधृत था और अकबर के गद्दी पर बैठने के बाद पहले नौरोज अर्थात् ११ मार्च १५५६ ई. से प्रचलित किया गया। शाहजहाँ ने सिक्कों पर इस सन् को लिखने की प्रथा को निरुत्साहित किया और समाप्त कर दिया। औरंगजेब ने १६५८ ई. में गद्दी पर बैठने के बाद ही इस सन् का प्रयोग पूरी तरह से बन्द कर दिया।

इलियास शाह (हाजी या मलिक इलियास भी कहलाता था ) : पश्चिमी बंगाल के स्वतंत्र बादशाह अलाउद्दीन अली शाह (१३३९-४५ ई.) का सौतेला भाई। उसके बाद १३४५ ई. के आसपास गद्दी पर बैठा और शमसुद्दीन इलियास शाह की पदवी धारण की। उसने १३५७ ई. तक शासन किया और १३५२ ई. में पूर्व बंगाल को जीता तथा उड़ीसा और तिरहुत से खिराज़ वसूल किया। उसने बनारस पर भी चढ़ाई करने की धमकी दी। इससे दिल्ली का सुल्तान फीरोज शाह तुगलक (१३५१-८८ ई.) भड़क उठा और उसने बंगाल पर हमला कर दिया। इलियास अपनी राजधानी पंडुआ से हटकर पूर्वी बंगाल के इकडला नामक स्थान पर चला गया। उसने सुल्तान की फौज को पीछे ढकेल दिया। उसका शासनकाल अत्यंत सफल रहा। उसने नया सिक्का चलाया और अपनी राजधानी में कई मसजिदें और इमारतें बनवायीं। उसकी मृत्यु राजधानी पंडुआ में १३५७ ई. में हुई। उसके बाद उसके उत्तराधिकारियों की एक लम्बी श्रुंखला १४९० ई. तक बंगाल का शासन करती रही। इन सबकी गणना बंगाल के इलियास शाही वंश में की जाती है।

इलोरा : महाराष्ट्र में पर्वतीय गुफाओं के लिए प्रसिद्ध ये गुफाएँ तीन वर्गों में विभाजित की गयी हैं और अलग अलग तीन धर्मों से सम्बन्धित हैं। दाहिनी ओर बौद्धों के चैत्य-सभाकक्ष हैं और सुदूर बायीं ओर जैनियों की गुफाएँ हैं। इन दोनों के मध्य में हिन्दू मंदिर हैं। इनमें सबसे बड़ा कैलास-मन्दिर (दे.) है जो राष्ट्रकट राजा कृष्ण (लगभग ७६०-७५ ई.) के आदेश पर बनाया गया था। केवल एक पहाड़ी चट्टान को काटकर बनाया गया यह अद्भुत मंदिर है। यह न केवल अपने आकार की गुरुता के लिए, वरन् अलंकरण के लिए भी प्रसिद्ध है। (केव.)

इल्तुतमिश : दिल्ली का सुल्तान (१२११-३६ ई.)। आरम्भ में वह दिल्ली के पहले सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक का गुलाम था। योग्यता के कारण वह मालिक का प्यारा बन गया। उसने उसे गुलामी से मुक्त कर दिया और अपनी लड़की की शादी करके उसे बदायूं का हाकिम बना दिया। कुतुबुद्दीन की मृत्यु के एक साल बाद वह उसके उत्तराधिकारी आराम को हराने के बाद दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इल्तुतमिश बहुत योग्य शासक सिद्ध हुआ। उसने असंतुष्ट मुसलमान सरदारों की बगावत कुचल दी। उसने अपने तीन शक्तिशाली प्रतिद्वन्दियों-पंजाब के एलदोज, सिंध के कुबाचा तथा बंगाल के अली मर्दान खाँ को भी पराजित किया। उसने रणथम्भौर और ग्वालियर को हिन्दुओं से फिर छीन लिया। सुल्तान आराम (दे.) के निर्बल शासनकाल में हिन्दुओं ने इन दोनों स्थानों को फिर से जीत लिया था। उसने भिलसा और उज्जैन सहित मालवा को भी जीत लिया। उसके शासन काल में मंगोलों का खूंखार नेता चंगेज खाँ खीवा के शाह जलालुद्दीन का पीछा करता हुआ भारत की सीमाओं तक आ पहुँचा और उसने भारत पर हमला करने की धमकी दी। इल्तुतमिश ने विनम्र रीति से भगोड़े शाह जलालुद्दीन को शरण देने से इन्कार करके इस आफत से पीछा छुड़ाया। इल्तुतमिश को बगदाद के खलीफा से खिलअत प्राप्त हुई थी इससे दिल्ली की सल्तनत पर उसके अधिकारकी धार्मिक पुष्टि हो गयी। उसने चाँदी के सिक्के ढालने की अच्छी व्यवस्था की जो बाद के सुल्तानों के लिए आदर्श सिद्ध हई। उसने १२३२ ई. में मुसलिम संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन के सम्मान में प्रसिद्ध कुतुबमीनार का निर्माण कराया। एक साहिसी, योद्धा और योग्य प्रशासक के रूपमें इल्तुतमिश को दिल्ली के प्रारम्भिक सुल्तानों में सबसे महान् कहा जा सकता है।

इल्‍बर्ट बिल : वायसराय के कानून सदस्य, सर सी. पी. इल्बर्ट ने १८८३ ई. में पेश किया। इसका उद्देश्य सरकारी अधिकारियों और भारतीय प्रजा के बीच जातीय भेदभाव दूर करना था। बिल में भारतीय जजों और मजिस्ट्रेटों को भी अँग्रेज अभियुक्तों के मामलों पर विचार करने के अधिकार का प्रस्ताव किया गया था। १८७३ ई.के जाता फौजदारी के अंतर्गत अंग्रेज अभियुक्तों के मामलों में केवल अंग्रेज मजिस्ट्रेट और जज ही विचार कर सकते थे। सिर्फ कलकत्ता, मद्रास और बम्बई के नगरों में भारतीय जज और मजिस्ट्रेट उनके मामलों पर विचार कर सकते थे। यद्यपि कलकत्ता, मद्रास और बम्बई के नगरों में अंग्रेज अभियुक्तों के भारतीय मजिस्ट्रेटों तथा जजों के सामने उपस्थित किये जाने से उनका कोई अहित नहीं हुआ था, तथापि भारत में रहनेवाले अंग्रेजों ने इल्बर्ट बिल के विरुद्ध एक तीव्र आंदोलन छेड़ दिया। उन्होंने वायसराय लार्ड रिपन तक को अपमानित करने का प्रयास किया और उनका बहिष्कार शुरू कर दिया। दूसरी ओर भारतीय जनमत ने इल्बर्ट बिल का जोरदार समर्थन किया। परंतु, गोरों द्वारा आरम्भ किये गये इल्बर्ट बिल-विरोधी आंदोलन से इतना तहलका मच गया कि सरकार को झूकना पड़ा और उसने इल्बर्ट बिल में परिवर्तन करके यह व्यवस्था कर दी कि किसी अंग्रेज अभियुक्त के भारतीय मजिस्ट्रेट अथवा सेशन जज के सामने उपस्थित किये जाने पर वह माँग कर सकता है कि उसका मुकदमा जूरी के द्वारा सुना जाय और जूरियों में कम से कम आधे अंग्रेज होंगे। इस प्रकार सरकार जिस जातीय भेदभाव को दूर करना चाहती थी वह न केवल कायम रहा, बल्कि उसका विस्तार कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई के नगरों में भी कर दिया गया। गोरों ने इसे अपनी बहुत बड़ी विजय मानी।

' : इस आंदोलन के बहुत महत्त्वपूर्ण परिणाम हुए। इससे भारतीयों के निकट स्पष्ट हो गया कि संगठन तथा सार्वजनिक आंदोलन कितना फलदायी होता है। भारतीयों में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी (दे.) सरीखे लोगों ने इस आंदोलन से काफी सबक सीखा। एक साल के अन्दर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय कोष की स्थापना की गयी तथा १८८३ ई. में कलकत्ता में इंडियन नेशनल कान्फ्रेंस हुई, जिसमें भारत के सभी भागों से आये हुए प्रतिनिधियों ने भाग लिया। दो साल बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। यह जातीय द्वेष भाव से प्रेरित गोरों के उन्मत्ततापूर्ण आंदोलन का भारतीय प्रत्युत्तर था।

इल्बर्ट, सर कोर्टनी पर्सीग्राहम : आक्सफोर्ड का स्नातक और बैरिस्टर। १८८२ ई. में वायसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल का कानून सदस्य होकर वह भारत आया और १८८६ ई. तक यहाँ रहा। कानून सदस्य की हैसियत से उसने इल्बर्ट बिल (दे.) पेश किया और उसमें आधारभूत परिवर्तन करके उसे लेजिस्लेटिव कौंसिल से पास कंराया। वह १८८५ से १८८७ ई. तक कलकत्ता विश्वविद्यालय का उपकुलपति रहा। उसने १८९८ ई. में अपनी 'गवर्नमेणट आफ इंडिया' नामक पुस्तक प्रकाशित करायी जो अपने विषय की प्रामाणिक कृति है।

इसमाइल मुख : सुल्तान मुहम्मद तुगलक की सेना का एक अफगान अमीर, जो दक्खिन में ऊँचे पद पर नियुक्त था। लगभग १३४५ ई. में वहाँ के बागी अफगान अमीरों ने उसे दक्खिन का स्वतंत्र शासक बना दिया। उसने अपना नाम नासिरुद्दीन शाह रखा। परन्तु, एक नये राज्य के शासक की जिम्मेदारियों को सँभालने में अपने को असमर्थ पाकर उसने १३४७ ई. में हसन के पक्ष में गद्दी त्याग दी। हसन ने प्रसिद्ध बहमनी राज्य तथा वंश (दे.) की स्थापना की।

इसमाइल शाह : बीजापुर के आदिलशाही (दे.) वंश का दूसरा सुल्तान। उसने १५१० ई. से १५३४ ई. तक शासन किया। जब वह गद्दी पर बैठा तो नाबालिग था। बालिग होने पर उसने कई लड़ाइयाँ जीतीं और विजयनगर से कृष्णा और तुंगभद्रा के बीच रायचूर का दोआब छीन लिया। फारस के शाह ने उसके दरबार में अपना दूत भेजा था। इससे वह इतना खुश हुआ कि उसका झुकाव शिया मत की ओर हो गया। फारस का शाह भी शिया था।

इसलाम : देखो 'मुसलमान धर्म।'

इसलाम खाँ : बादशाह जहाँगीर द्वारा नियुक्त बंगाल की मुगल सूबेदार। उसने बागी अफगान सरदार उसमान खाँ को परास्त किया। युद्ध में लगे घाव से इसलाम खाँ की मृत्यु हो गयी और इस प्रकार बंगाल पर अफगानों का आधिपत्य समाप्त हो गया।

इसलाम खाँ लोदी : मुख्य नाम सुलतान शाह लोदी, सरहिन्द का हाकिम। उसकी प्रसिद्धि इस कारण है कि वह दिल्ली के सुल्तानों में लोदी वंश के संस्थापक बहलोल लोदी (दे.) का चाचा था।

इसलाम शाह सूर : दिल्ली के बादशाह शेरशाह सूर (१५४० - १५४५ ई.) का पुत्र और उत्तराधिकारी। इसलाम शाह ने (जिसका मूल नाम जलाल खाँ था और जो सलीम शाह के नाम से भी विख्यात था) १५४५ से १५५४ ई. तक शासन किया। उसने बागी सरदारों का दमन किया, धक्करों को कुचला तथा मानकोट का निर्माण पूरा करके कश्मीर पर अपने आधिपत्य को मजबूत बनाया। उसने सेना की दक्षता बनाये रखी और पिता के द्वारा किये गये बहुत से शासन सुधारों को जारी रखा। परंतु भरी जवानी में उसकी मृत्यु हो गयी और उसके बाद हुमायूं (दे.) ने सुरवंश से दिल्ली की सल्तनत छीन ली।

इसलिंगटन कमीशन : नियुक्ति १९१२ ई. में। इसका उद्देश्य उच्च पदों पर विशेषरूप से इंडियन सिविल सर्विस में भारतीयों की भर्ती की समस्या पर विचार करना था। लार्ड इसलिंगटन कमीशन के चेयरमैन थे और भारतीय तथा ब्रिटिश सार्वजनिक नेता उसके सदस्य थे। कमीशन ने सिफारिश की कि जो भारतीय लंदन में होनेवाली प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता प्राप्त कर इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश करते हैं, उनके अतिरिक्त इंडियन सिविल सर्विस के २५ प्रतिशत पद भारतीयों की सीधी भर्ती तथा प्रांतीय सिविल सर्विस से पदोन्नति करके भरे जायें। उसने इंडियन सिविल सर्विस में भारतीयों की भर्ती के लिए भारत में परीक्षा लेने की सिफारिश की। यह रिपोर्ट १९१७ ई. में प्रकाशित हुई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस यह माँग पिछले ३० वर्षों के भी पूर्व से कर रही थी। रिपोर्ट में उसकी यह माँग स्वीकार कर ली गयी। परन्तु कमेटी ने आई. सी. एस. अफसरों के वेतनों में जो भारी वृद्धि की सिफारिशें की, उस पर भारतीयों द्वारा तीव्र आक्रोश व्यक्त किया गया।

ईशान वर्मा : कन्नौज के मौखरि राजवंश का चौथा राजा। वह ५५४ ई. के आसपास राज्य करता था। उसने आंध्र और गौड़ राजाओं पर विजय प्राप्त की। महाराजाधिराज की पदवी धारण करनेवाला वह पहला मौखरि राजा था।

ईश्वर : प्रारम्भिक मागध काल के हिन्दुओं में इस सृष्टि के रचयिता और पालनकर्ता के रूप में परम तत्त्व के जो अनेक नाम प्रचलित थे, उनमें से एक। यह विश्वास किया जाता है कि भक्ति करने से उसका अनुग्रह प्राप्त होता है जिससे करमों के बन्धन से छुटकारा मिल जाता है।

ईश्वरदेव : ह्युएनत्सांग द्वारा शिव की मूर्ति के लिए प्रयुक्त नाम, जिसकी स्थापना महाराजाधिराज हर्ष द्वारा प्रयाग में हर पाँचवें वर्ष आयोजित किये जानेवाले महोत्सव में की जाती थी। इस महोत्सव में बुद्ध और आदित्यदेव की मूर्तियाँ भी स्थापित की जाती थीं और हर्ष बारी-बारी से उनकी अर्चना करता था। हयुएनत्सांग ने ६४३ ई. में होनेवाले महोत्सव में भाग लिया था।

ईश्वर वर्मा : कन्नौज के मौखरि वंश का तीसरा राजा, जो छठी शताब्दी ई. के द्वितीय चतुर्थांश में राज्य करता था। उसे महाराज की पदवी प्राप्त थी। उसने संभवतः गुप्त राजकुमारी उपगुप्ता से विवाह किया था। उसका पुत्र और उत्तराधिकारी प्रसिद्ध ईशानवर्मा (दे.) था।

ईश्वरसेन : एक अमीर राजा, जिसने दूसरी शताब्दी ई. के अंत में उत्तर-पश्चिमी महाराष्ट्र में सातवाहन वंश का शासन समाप्त कर दिया। कहा जाता है कि २४८ ई. में प्रचलित त्रैकूटक संवत्सर उसी के द्वारा स्थापित राजवंश ने चलाया था।

ईसाई मिशनरी (धर्म प्रचारक) : आधुनिक भारत पर इनका गहरा प्रभाव पड़ा है। भारत के सुदूर दक्षिणी भागों में बहुत पहले से सीरियाई ईसाइयों की भारी संख्या में उपस्थिति इस बात की द्योतिका है कि इस देश में सबसे पहले आनेवाले ईसाई मिशनरी यूरोप के नहीं, सीरिया के थे। जो भी हो, राजा गोंडोफारस (दे.) (लगभग २८ से ४८ ई.) से संत टामस का सम्बन्ध यह संकेत करता है कि ईसाई धर्मप्रचारकों का एक मिशन सम्भवतः प्रथम ईसवी के दौरान भारत आया था। इतना तो निश्चित रूप से ज्ञात है कि ईसाई मिशनरियों ने धर्मप्रचार का अपना काम भारत में सोलहवीं शताब्दी के दौरान संत फ्रांसिस जैवियर के जमाने से शुरू किया। संत जैवियर का नाम आज भी भारत के अनेक स्कूल-कालेजों से सम्बद्ध है। पुर्तगालियों के भारत आने और गोआ में जम जाने के बाद ईसाई पादरियों ने भारतीयों का बलात् धर्म-परिवर्तन शुरू किया। आरम्भिक ईसाई मिशन रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा प्रवर्तित थे और वे छिटपुट रूप से भारत आये। लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी में एंग्लिकन प्रोटेस्टेंट चर्च के द्वारा ईसाई धर्मप्रचार का कार्य सुव्यवस्थित ढंग से आरम्भ हुआ। इस काल में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने ईसाई मिशनरियों को अपने राज्य के भीतर रहने की इजाजत नहीं दी, क्योंकि उसे भय था कि कहीं भारतीयों में उनके विरुद्ध उत्तेजना न उत्पन्न हो जाय। फलस्वरूप विलियम कैरी सरीखे प्रथम ब्रिटिश प्रोटेस्टेंट मिशनरियों को कम्पनी के क्षेत्राधिकार के बाहर श्रीरामपुर में रहना पड़ा, अथवा कुछ मिशनरियों को कम्पनी से सम्बद्ध पादरियों के रूप में सेवा करनी पड़ी, जैसा कि डेविड ब्राउन और हेनरी मार्टिन ने किया। सन् १८१३ ई. में ईसाई पादरियों पर से रोक हटा ली गयी और कुछ ही वर्षों के अन्दर इंग्लैण्ड, जर्मनी और अमेरिका से आनेवाले विभिन्न ईसाई मिशन भारत में स्थापित हो गये और उन्होंने भारतीयों में ईसाई धर्म का प्रचार शुरू कर दिया। ये ईसाई मिशन अपने को बहुत अरसे तक विशुद्ध धर्मप्रचार तक ही सीमित न रख सके। उन्होंने शैक्षणिक और लोकोपकारी कार्यो में भी दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी और भारत के बड़े-बड़े नगरों में कालेजों की स्थापना की और उनका संचालन किया। इस मामले में एक स्काटिश प्रेसबिटेरियन मिशनरी अलेक्जेंडर डफ अग्रणी था। उसने १८३० ई. में कलकत्ता में जनरल असेम्बलीज इंस्टीट्यूशन की स्थापना की और उसके बाद कलकत्ता से लेकर बंगाल के बाहर तक कई और मिशनरी स्कूल कालेज खोले। अंग्रेजी सीखने के उद्देश्य से भारतीय युवक इन कालेजों की ओर भारी संख्या में आकर्षित हुए। ऐसे युवक बाद में पश्चिमी ज्ञान और मान्यताओं को कट्टर हिन्दू और मूस्लिम समाज तक पहुँचाने का महत्त्वपूर्ण माध्यम बने। ईसाई मिशन और मिशनरियों ने बौद्धिक स्तर पर तो भारतीयों के मस्तिष्क को प्रभावित किया ही, साथ ही अपने लोकोपकारी कार्यों (विशेषतया चिकित्सा सम्बन्धी) से भी यूरोपीय व ईसाई सिद्धान्तों और आदर्शों का प्रचार-प्रसार किया। इस प्रकार ईसाई मिशनरियों ने आधुनिक भारत के विकास पर गहरा प्रभाव डाला। मिशनरियों ने प्रायः बिना पर्याप्त जानकारी के भारतीय धर्म की अनुचित आलोचना की, जिससे कुछ कटुता उत्पन्न हो गयी, लेकिन उन्होंने भारत के सामाजिक उत्थान में भी निःसंदिग्ध रूप से महत्त्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने भारतीय नारी की दयनीय, असम्मानजनक स्थिति, सती-प्रथा, बाल-हत्या, बाल-विवाह, बहुविवाह और जातिवाद जैसी कुरीतियों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। इन सामाजिक व्याधियों को समाप्त करने में ईसाई मिशनरियों का बहुत बड़ा योगदान है।

ईसा खाँ : उन बारह भूमिपतियों (जमींदारों) में से एक, जो सोलहवीं शताब्दी के अंतिम चौथाई भाग में पूर्वी बंगाल का नियंत्रण करते थे। पूर्वी तथा मध्यवर्ती ढाका जिला तथा मैमनसिंह जिले का अधिकांश भाग ईसा खाँ के कब्जे में था। उसने अपने पड़ोसी हिन्दू भूमिपति, विक्रमपुर के केदार राय के सहयोग से कुछ समयतक बादशाह अकबर की फौजों को रोक रखा। अंत में दोनों में मनमुटाव हो गया और ईसा खाँ को मुगल बादशाह ने अपदस्थ कर दिया।

ईस्ट इंडिया कम्पनी : स्थापना, १६०० ई. के अन्तिम दिन महारानी एलिजाबेथ प्रथम के एक घोषणापत्र द्वारा। यह लंदन के व्यापारियों की कम्पनी थी जिसे पूर्व में व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया गया। कम्पनी ने सबसे पहले व्यापार की शुरुआत मसालेवाले द्वीपों में की। १६०८ ई. में उसका पहला व्यापारिक पोत सूरत पहुँचा, परन्तु पुर्तगालियों के प्रतिरोध और शत्रुतापूर्ण रवैये ने कम्पनी को भारत के साथ सहज ही व्यापार शुरू करने नहीं दिया। पुर्तगालियों से निपटने के लिए अंग्रेजों को डच ईस्ट इंडिया कम्पनी से सहायता और समर्थन मिला और दोनों कम्पनियों ने एक साथ पुर्तगालियों से अरसेतक जमकर तगड़ा मोर्चा लिया। १६१२ ई.में कैण्टन बेस्ट के नेतृत्व में अंग्रेजों के एक जहाजी बेड़े ने पुर्तगाली हमले को कुचल दिया और अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सूरत में व्यापार शुरू कर किया। १६१३ ई. में कम्पनी को एक शाही फरमान मिला और सूरत में व्यापार करने का उसका अधिकार सुरक्षित हो गया। १६२२ ई. में अंग्रेजों ने ओर्मुज पर अधिकार कर लिया जिसके फलस्वरूप वे पुर्तगालियों के प्रतिशोध या आक्रमण से पूर्णतया सुरक्षित हो गये। १६१५-१८ ई. में सम्राट् जहाँगीर के समय ब्रिटिशनरेश जेम्स प्रथम के राजदूत सर टामस रो ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए कुछ विशेषाधिकार प्राप्त कर लिये। इसके शीघ्र बाद कम्पनी ने मसुलीपट्टम और बंगाल की खाड़ी पर स्थित अरमा गाँव नामक स्थानों पर कारखाने स्थापित किये, किंतु कम्पनी को पहली महत्त्वपूर्ण सफलता मार्च १६४० ई. में मिली जब उसने विजयनगर शासकों के प्रतिनिधि चंद्रगिरि के राजा से आधुनिक मद्रास नगर का स्थान प्राप्त कर लिया। यहाँ पर उन्होंने शीघ्र ही सेंट जार्ज किले का निर्माण किया। १६६१ ई. में ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय को पुर्तगाली राजकुमारी से विवाह के दहेज में बम्बई टापू मिल गया। चार्ल्स ने १६६८ ई. में इसको केवल १० पाउण्ड सालाना किराये पर ईस्ट इंडिया कम्पनी के सुपुर्द कर दिया। इसके बाद १६६९ और १६७७ ई. के बीच कम्पनी के गवर्नर जेराल्ड आंगियर ने आधुनिक बम्बई नगर की नींव डाली। १६८७ ई. में ईस्ट कम्पनी का पश्चिमी भारत स्थित मुख्यालय सूरत से बम्बई लाया गया। अंत में १६९० ई. में कंपनी के 'एक वफादार सेवक' जाब चारनाक ने बंगाल के नवाब इब्राहीम खाँ के निमंत्रण पर भागीरथी की दलदली भूमि पर स्थित सूतानटी गाँव में कलकत्ता नगरी की स्थापना की। बाद को १६९८ ई. में सूतानटी से लगे हुए दो गाँवों कालिकाता और गोविन्दपुर को उसमें और जोड़ दिया गया। इस प्रकार पुर्तगालियों के जबर्दस्त प्रतिरोध पर विजय प्राप्त करने के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी ने ९० वर्षों के अंदर तीन अति उत्तम बंदरगाहों-बम्बई, मद्रास और कलकत्ता पर अपना अधिकार कर लिया। इन तीनों बंदरगाहों पर किले भी थे। ये तीनों बंदरगाह प्रेसीडेंसी कहलाये और इनमें से प्रत्येक का प्रशासन ईस्ट इंडिया कम्पनी के कोर्ट आफ डायरेक्टर्स (दे.) और कोर्ट आफ प्रोपराइटर्स द्वारा नियुक्त एक गवर्नर के सुपुर्द किया गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी का संचालन लंदन में लीडन हाल स्ट्रीट स्थित कार्यालय से होता था।

' : १६९१ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी को बंगाल के नवाब इब्राहीम खाँ (दे.) से एक फरमान प्राप्त हुआ, जिसमें कम्पनी को बंगाल में सिर्फ ३००० रु. की राशि सालाना देने पर सीमा शुल्क के भुगतान से मुक्त कर दिया गया था। अन्य यूरोपीय कंपनियों को तीन प्रतिशत शुल्क अदा करना पड़ता था। ईस्ट इंडिया कंपनी के सर्जन डा. हैमिल्टन की चिकित्सा सेवाओं से खुश होकर सम्राट् फर्रुखसियर ने १७१५ ई. में नया फरमान जारी करते हुए कम्पनी को सीमा शुल्क से मुक्त करनेवाले पहले के फरमान की पुष्टि कर दी। (डा. हेमिल्टन कम्पनी द्वारा भेजे गये दूतमंडल के साथ मुगल दरबार में गया था।) व्यापार में ईस्ट इंडिया कम्पनी के इस एकाधिकार का कई अंग्रेज व्यापारियों ने विरोध किया और सत्रहवीं शताब्दी के अंत में "दि इंगलिश कम्पनी ट्रेडिंग टु दि ईस्ट इंडीज़' नामक एक प्रतिद्वन्दी संस्था की स्थापना की। नयी और पुरानी दोनों कम्पनियों में कड़ी प्रतिद्वंदिता चल पड़ी जिससे पुरानी के पैर उखड़ने लगे, किन्तु भारत और इंग्‍लैंड दोनों ही जगह अत्‍यंत कटु अप्रतिष्‍ठाजनक प्रतिद्वंद्विता के बाद 1708 ई. में समझौता हुआ जिसके अंतर्गत दोनों को मिलाकर एक कंपनी बना दी गई और उसका नाम रखा गया "दि यूनाइटेड कम्पनी आफ दि मर्चेण्ट्स आफ इंग्लैंड ट्रेडिंग टू दि ईस्ट इंडीज़'। यह संयुक्त कम्पनी बाद में भी ईस्ट इंडिया कम्पनी के नाम से ही विख्यात रही और डेढ़ सौ वर्षों में वह मात्र एक व्यापारिक निगम न रहकर ऐसी राजनीतिक एवं सैनिक संस्था बन गयी जिसने संपूर्ण भारत पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित कर ली।

' : भारत पर इस कम्पनी की प्रभुसत्ता सहसा नहीं स्थापित हो गयी। इसमें उसे सौ से भी अधिक वर्षों का समय लगा और इस अवधि में उसे फ्रांस और डच कम्पनियों तथा भारतीयों से अनेक युद्ध करने पड़े। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सौभाग्य से भारत पर प्रभुसत्ता का दावा करने वाली केन्द्रीय मुगल सरकार धीरे-धीरे कमजोर होती गयी और देश अठारहवीं शताब्दी के दौरान छोटे-छोटे अनेक मुस्लिम और हिन्दू राज्यों में बँट गया। इन राज्यों में परस्पर कोई एकता न रही। मुस्लिम राज्य न केवल हिन्दू राज्यों के खिलाफ थे वरन् उनमें आपस में भी एकता न थी और न ही उनके मन में दिल्ली में शासन करनेवाले मुगल सम्राट् के प्रति कोई निष्ठा थी। यह फूट ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए वरदान सिद्ध हुई। इस कम्पनी ने १७६१२ ई. में वाँडीवाश का युद्ध जीत कर फ्रेंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी का भारत से सफाया कर दिया। सन् १७५७ पलासी का युद्ध (दे.) जीतने के बाद बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर उसका प्रभुत्व वस्तुतः पहले ही स्थापित हो चुका था।

' : मुगल सम्राट् शाह आलम द्वितीय असहाय-सा कम्पनी की फौजों का बढ़ाव और विजयें देखता रहा। उसके देखते-देखते कम्पनी ने मैसूर के मुस्लिम राज्य को हड़प लिया और हैदराबाद के निजाम ने कम्पनी के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। पर वह कर कुछ भी न सका। हाँ, उसे इस बात से अलबत्ता कुछ संतोष मिला कि कम्पनी ने मराठों की शक्ति को भी काफी क्षीण कर दिया था। राजपूत वीर थे, किन्तु शुरू से उनमें आपस में फूट थी। उन्होंने आत्मरक्षार्थ कोई वार किये बिना ही कम्पनी के आगे घुटने टेक दिये। लार्ड हेस्टिंग्स (१८१३-२३) (दे.) के प्रशासनकाल में मराठों द्वारा आत्मसमर्पण कर दिये जाने के बाद तो मुगल सम्राट् वस्तुतः कम्पनी का पेंशनयाफ्ता बन गया। १८२९ ई. में आसाम, १८४३ ई. में सिन्ध, १८४९ ई. में पंजाब और १८५२ ई. में दक्षिणी बर्मा भी कम्पनी के शासन में आ गया। वास्तव में अब बर्मा से पेशावर तक कम्पनी का पूर्ण आधिपत्य था।

' : ईस्ट इण्डिया कम्पनी से व्यापारिक अधिकार और एकाधिपत्य पहले ही हस्तान्तरित किया जा चुका था और इस प्रकार वह ग्रेट ब्रिटेन के सम्राट् के प्रशासनिक अभिकरण के रूप में कार्य कर रही थी। चारों तरफ शांति नजर आ रही थी कि अचानक १८५७ ई. में भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। कम्पनी ने कुछ "गद्दार" भारतीयों की मदद से इस विद्रोह को दबा तो दिया, लेकिन भारतीयों के कुछ वर्गों में विरोध और बगावत की आग भड़कती रही। यह बगावत ईस्ट ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए घातक सिद्ध हुई। १८५८ ई. में कंपनी को समाप्त कर दिया गया और भारत की प्रभुसत्ता ग्रेट ब्रिटेन के सम्राट् ने स्वयं ग्रहण कर ली।

ईस्ट इंडिया कालेज, हैलीबरी : १८०५ ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा स्थापित। कम्पनी की भारतीय सिविल सर्विस में नौकरी के लिए मनोनीत युवकों को प्रशिक्षित करने की व्यवस्था इस कालेज में की गयी थी। प्रत्येक प्रशिक्षार्थी को इसमें दो वर्ष व्यतीत करने पड़ते थे जहाँ उसे सामान्य शिक्षा, भारतीय भाषाओं, कानून तथा इतिहास का ज्ञान कराया जाता था। शिक्षा की समाप्ति के पश्चात् उसे भारतीय सिविल सर्विस में नौकरी पर भेज दिया जाता था। इस कालेज में केवल मनोनीत युवक ही भर्ती किये जाते थे, अतएव उसमें उत्तीर्ण अथवा अनुत्तीर्ण होने का प्रश्न नहीं था, बल्कि इस कालेज का उद्देश्य यही था कि प्रशिक्षार्थियों का उतना ज्ञानवर्धन किया जाय जितनी उनमें क्षमता हो। इस कालेज में बौद्धिक विकास की ओर कम तथा सहयोग की भावना विकसित करने की ओर अधिक ध्‍यान दिया जाता था। यह कालेज ५० वर्ष तक चला। इसके पश्चात १८५५ ई. में भारतीय सिविल सर्विस में प्रतियोगिता परीक्षा आरम्भ हो जाने पर उक्त कालेज समाप्त कर दिया गया। (एन. सी. राय कृत सिविल सर्विस)

उज्जयिनी : (जिसको अवन्तिका भी कहते हैं) -मालवा में स्थित भारत के प्राचीन नगरों में से एक। इसकी गणना हिन्दुओं की सात पवित्र नगरियों में की जाती है। ईसा से पूर्व सातवीं शताब्दी में यह अवन्ति राज्य की राजधानी थी जो बाद में मालवा के नाम से प्रसिद्ध हुई। ईसवी सन की प्रारम्भिक शताब्दियों में यह शक क्षत्रपों (दे.) के आधिकार में आ गयी परन्तु चन्द्रगुप्त द्वितीय ने, जो तीसरा गुप्त सम्राट् था, पाँचवीं शताब्दी में इसे पुनः प्राप्त कर अपनी राजधानी बनाया। इस नगर का वर्णन प्रमुख रूप से कालिदास के साहित्यिक ग्रन्थों में हुआ है, जिन्होंने अपने मेघदूत (दे.) में इस नगर का चित्ताकर्षक वर्णन किया है। यह सिप्रा नदी के तट पर स्थित है और विभिन्न मन्दिरों, विशेष रूप से महाकाल के शिव मन्दिर से शोभायमान है।

उड़ीसा : भारतीय गणतंत्र का एक राज्य। यह भारत के पूर्वी समुद्रतट पर उत्तर में बंगाल और दक्षिण में आंध्र तक फैला हुआ है। प्राचीन काल में इसका नाम कलिंग (दे.) था और यह नंदवंश के शासक महापद्मनंद (दे.) के साम्राज्य का एक भाग था। नंदवंश के पतन के उपरांत कलिंग, मगध साम्राज्य से अलग हो गया, परन्तु सम्राट् अशोक ने उसे पुनः जीतकर मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इस युद्ध की भीषण नरहत्या और लोगों के कष्ट का सम्राट् अशोक के हृदय पर इतना गंभीर प्रभाव पड़ा कि उसने बौद्धधर्म स्वीकार कर लिया। मौर्यवंश के पतन के उपरांत कलिंग (उड़ीसा) चेरवंशीय (दे.) राजाओं के काल में पुनः स्वतंत्र हो गया और खारवेल (दे.) के शासनकाल में इसकी शक्ति में विशेष उत्कर्ष हुआ। चौथी शताब्दी में यह प्रदेश गुप्त साम्राज्य का एक भाग था और सातवीं शताब्दी में यह सम्राट् हर्षवर्द्धन के साम्राज्य के अन्तर्गत था। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि हर्ष का अंतिम सैनिक अभियान ६४२ ई. में गंजाम के विरुद्ध हुआ था, जो इसकी दक्षिणी सीमा पर स्थित है। उपरांत उड़ीसा के इतिहास में एक अंधकार युग आता है। किंतु नवीं शताब्दी में भंजवंश की स्थापना के उपरांत यह प्रदेश पुनः प्रकाश में आया। इस वंश का सबसे प्रतापी शासक रणभंज था, जिसने लगभग ५० वर्षों तक राज्य किया। १२ वीं शताब्दी के मध्य में पूर्वी गंग राजवंश ने उड़ीसा पर अपना अधिकार जमाया और इस वंश के शासक १४३४ ई. तक शासन करते रहे। इसी समय कपिलेन्द्र ने इस वंश के शासक को हराकर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। पूर्वी गंग वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक अनन्त वर्मा चोल गंग था, जिसने १०७६ से ११४८ ई. तक राज्य किया और पुरी के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कराया। पूर्वी गंगवंश के शासकों ने उत्तरी भारत के मुसलमानों और दक्षिण के बहमनी सुलतानों के आक्रमणों से उड़ीसा की रक्षा करके उसकी स्वतंत्रता नष्ट न होने दी। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में कुछ समय के लिए उड़ीसा ने दिल्ली सल्तनत की अधीनता स्वीकार कर ली थी। १३५९ ई. में सुल्तान फीरोज तुगलक ने भी उड़ीसा पर आक्रमण किया, पर एक बड़ी संख्या में हाथियों के उपहार से संतुष्ट होकर वह वापस लौट आया। मुसलमान इति‍हासकारों ने उड़ीसा का उल्लेख जाजनगर के नाम से किया है, किंन्तु १५६८ ई. में बंगाल के सुल्तान सुलेमान करारानी ने उड़ीसा पर अधिकार कर लिया था। १५७२ ई. में बादशाह अकबर ने इसे मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया और उड़ीसा बंगाल प्रान्त का एक भाग बन गया। १७५१ ई. में बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ ने इसका कुछ भाग रघुजी भोंसला के अधीन मराठों को दे दिया। १८०३ ई. तक यह मराठा राज्य का एक भाग बना रहा और उसी वर्ष नागपुर के भोंसला राजा ने देवगाँव की संधि के फलस्वरूप इसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। १७६५ ई. में ही उड़ीसा का वह भाग जो बंगाल के नवाब के अधीन शेष रह गया था, कम्पनी के अधिकार में चला गया था, क्योंकि उसी वर्ष नवाब ने दीवानी के अधिकार कम्पनी को दे दिये थे। इस प्रकार उड़ीसा बंगाल प्रान्त के साथ जुड़ गया और १८५४ ई. तक वह सीधे गवर्नर जनरल द्वारा शासित प्रान्त रहा। १८५४ ई. में बंगाल और बिहार के साथ इसका शासन भी एक लफ्टीनेंट गवर्नर के हाथों सौंप दिया गया। १८६६-६७ ई. में यहाँ भीषण दुर्भिक्ष पड़ा। १९१२ ई. में इसे बंगाल से अलग कर दिया गया, किन्तु बिहार के साथ अलग प्रान्त के रूप में यह जुड़ा रहा। अंततोगत्वा १९३५ ई. में उड़ीसा एक पृथक् प्रान्त बन गया और आज भी यह भारतीय गणतंत्र का पृथक् प्रदेश बना हुआ है।

उत्तरकुरु : भारतीय आर्यों का एक भाग, जिसका उल्लेख 'ऐतरेय ब्राह्मण' में मिलता है। वे हिमालय के उस पार रहते थे।

उत्तर पश्चिमी सीमा प्रदेश : का निर्माण १९०१ ई. में हुआ, जब लार्ड कर्जन भारत का वायसराय था। सर्व प्रथम लार्ड लिटन (१८७६ से १८८० ई.) ने सीमान्त प्रान्त की रचना का सुझाव दिया था और इस प्रान्त में सिन्ध तथा पंजाब के कुछ भागों को भी सम्मिलित करने का प्रस्ताव रखा था, किन्तु उस समय उसका सुझाव न माना गया। लार्ड कर्जन ने सिंध और पंजाब के प्रान्तों को नवनिर्मित सीमान्त प्रदेश से अलग रखा और डूरण्ड रेखा के पूर्व के समस्त पख्तून भू-भागों तथा हजारा, पेशावर, कोहाट, बन्नू और डेरास्माइल खाँ के व्यवस्थित जिलों को मिला कर इस प्रान्त को एक अलग राजनीतिक इकाई का रूप दिया। इस प्रदेश का शासन चीफ़ कमिश्नर के हाथों सौंपा गया, जो सीधे वायसराय के नियंत्रणमें कार्य करता था। वायसराय की सहायता राजनीतिक विभाग के सदस्य अपने परामर्शों से करते थे। उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त की रचना के फलस्वरूप तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रांत का नाम बदलकर आगरा और अवध का संयुक्त प्रान्त रख दिया गया, जिसे साधारणतया यू. पी. (वर्तमान उत्तर प्रदेश) कहा जाने लगा। १९३२ ई. में उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रदेश गवर्नर द्वारा शासित होने लगा और वहाँ विधान सभा भी बन गयी। स्वतंत्रता के उपरांत भारत के विभाजन के फलस्वरूप यह पाकिस्तान का एक भाग बन गया।

उत्तर-मद्र : भारतीय आर्यों का एक गण, जो उत्तरकुरु की भाँति हिमालय के उस पार रहता था।

उत्पल वंश : कश्मीर में अवन्तिवर्मा (८५५-८३) द्वारा ८५५ ई. के लगभग प्रतिस्थापित। अवन्तिवर्मा के शासनकाल में कश्मीर में सिंचाई की व्यवस्था अच्छी थी। उसके पुत्र और उत्तराधिकारी शंकरवर्मा (८८३-९०२ ई.) ने सर्वप्रथम अपने राज्य की सीमा का विस्तार किया, परन्तु अन्ततः अपनी ही प्रजा के हाथों जिसको उसने अत्यधिक कर-भार और मंदिरों की लूट से पीड़ित कर रखा था, मार डाला गया। इसके बाद कुछ काल तक अराजकता का युग रहा जिससे कश्मीर को भारी क्षति उठानी पड़ी। तत्पश्चात् दो राजा- पार्थ और उसका पुत्र उन्मत्तावन्ती- रक्त-पिपासु क्रूर शासक हुए। यह वंश उन्मत्तावन्ती की मृत्यु के साथ ही ९३९ ई. में समाप्त हो गया।

उदगिरि का युद्ध : फरवरी 1760 ई. में निजाम और मराठों के बीच हुआ। तत्कालीन पेशवा बालाजी बाजीराव (दे.) के चचेरे भाई सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में मराठों और हैदराबाद के निजाम की मुठभेड़ हुई।निजाम निर्णयात्मक रूप से पराजित हुआ और मराठों की महत्त्वाकांक्षा बलवती हो उठी।

उदय (या उदायी) : ई. पू. ४४३ के लगभग मगध का एक शासक। यह अजातशत्रु (दे.) का पौत्र एवं दर्शक (दे.) का पुत्र था। इसने सोन नदी के तट पर स्थित पाटिलपुत्र से कुछ मील दूर गंगा के किनारे कुसुमपुर नगर की स्थापना की। बाद में कुसुमपुर बृहत्तर पाटिलपुत्र (दे.) का भाग बन गया।

उदयपुर की संधि : १८१८ ई. में उदयपुर के राणा और अंग्रेजी सरकार के बीच संपन्न। इसके अनुसार अंग्रेज प्रतिनिधि सर चार्ल्स मेटकाफ के प्रयास से मेवाड़ (उदयपुर) के राणा अंग्रेजों के आश्रित हो गये।

उदय सिंह : मेवाड़ का राणा। वह १५२७ ई. में बाबर के साथ युद्ध करनेवाले राणा संग्राम सिंह का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उदय सिंह में न तो अपने पिता जैसा साहस था और न मातृभूमि-प्रेम। दुर्भाग्य से उसको मुगल सम्राट् अकबर का मुकाबला करना पड़ा, जिसने १५६७ ई. में मेवाड़ पर चढ़ाई करके चितौड़ को घेर लिया। उदय सिंह ने चित्तौड़ की सुरक्षा में व्यक्तिगत रूप से कोई भाग नहीं लिया। चार महीने के घेरे के बाद चितौड़ अकबर के अधिकार में आ गया। उदय सिंह ने चित्तौड़ की पुनःप्राप्ति के लिए कोई प्रयास नहीं किया वरन् अपनी नयी राजधानी में, जिसे उसने उदयपुर में स्थापित किया था, भोग-विलास में लीन हो गया। उसने १५७२ ई. में अपनी मृत्यु तक उदय पुर पर, अपयश का भागी बनकर, राज्य किया। उसका यशस्वी पुत्र राणा प्रताप सिंह (दे.) उत्तराधिकारी बना।

उपगुप्त : एक प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु, जो वाराणसी के गुप्त नामक गंधी का पुत्र था। वह अशौक का गुरू था। इससे प्रभावित होकर उसने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया कहा जाता है कि वह अपने इस शिष्य के साथ पवित्र बौद्ध स्थानों की यात्रा करने गया था और उसने गौतमबुद्ध के जन्म-स्थान का दर्शन भी किया था। अशोक के रुम्मिनदेई स्तम्भ-लेख से यह प्रकट होता है। (एस. भट्टाचार्य-सेलेक्ट अशोक एपीग्रैफ्स, पृ. ५९)।

उपटन, कर्नल  : ईस्ट इण्डिया कम्पनी का एक सैनिक अधिकारी; जिसने मराठों के साथ १७७६ ई. में पुरन्दर (दे.) की संधि की थी। इसके द्वारा पहले की सूरत संधि (दे.) निरस्त कर दी गयी। पुरन्दर की संधि कभी कार्यान्वित नहीं की जा सकी।

उपनिषद : आर्यों के दार्शनिक विचारों की सूचना देनेवाले ग्रन्थ जो वैदिक संहिताओं के अंतिम भाग के रूप में मिलते हैं। इनमें कर्मकांड अर्थात् यज्ञक्रियाओं की नहीं वरन् आध्यात्मिक चर्चा है। इनका प्रतिपाद्य विषय ब्रह्म और आत्मा है, जिनका ज्ञान मोक्ष-प्राप्ति के लिए आवश्यक समझा जाता था। उपनिषद् सामान्यतः गद्य में है-लेकिन कुछ पद्य में भी हैं। इनमें से कुछ आरण्यकों के भाग हैं और कुछ स्वतंत्र रूप में भी मिलते हैं। वर्तमान समय में सौ से भी अधिक ग्रन्थ उपनिषद् के नाम से प्रचलित हैं, लेकिन इनमें से केवल बारह पर ही शंकराचार्य जी (दे.) ने अपना भाष्य लिखा है और उनको ही मूल उपनिषद् ग्रन्थ माना जाता है। बारह उपनिषदों में ऐतरेय और कोषीतकि ऋग्वेद (दे.) से सम्बन्धित हैं। छांदोग्य और केन सामवेद (दे.) से। तैत्ति‍रीय, कठ और श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक, ईश, प्रश्न, मुण्डक और माण्डूक्य कृष्ण और शुक्ल यजुर्वेद के अंग हैं। निर्माणकाल की दृष्टि से ये उपनिषदें बुद्ध से पूर्व की मानी जाती हैं, यद्यपि उनमें से कुछ निश्चित रूप से बाद में संकलित हुई हैं।

उपवेद : आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद (संगीतशास्त्र) और शिल्पशास्त्र आदि विधाएँ जिन्हें वेदों से निकली हुई समझा जाता था।

उमदुतुल उमरा : कर्नाटक का नवाब, जिसकी मृत्यु के पश्चात् १८०१ ई. में लार्ड वेलेजली ने कर्नाटक का शासन प्रबन्ध इस आधार पर अपने हाथ में ले लिया कि नवाब बगावत की नीयत से मैसूर के टीपू सुलतान (दे.) के साथ पत्राचार कर रहा था।

उर्दू : तुर्की और फारसी बोलनेवाले विजेता मुसलमानों और हिन्दी बोलनेवाले विजित भारतीयों के बीच संलाप की आवश्यकता के परिणामस्वरूप उत्पन्न। 'उर्दू' तुर्की शब्द है जिसका अर्थ छावनी है। उर्दू मूलरूप में फौजी लश्कर की भाषा थी, जिसमें फारसी, तुर्की और हिन्दी से शब्द लिये गये थे। इसकी लिपि अरबी है, जो दाहिनी ओर से बायीं ओर लिखी जाती है और इसका व्याकरण तथा वाक्य-रचना का ढंग मुख्यरूप से हिन्दी का है। उर्दू यद्यपि उत्तरी भारत में मुख्यरूप से मुसलमानों द्वारा बोली जाती है, तथापि अनेक हिन्दू भी इसे बोलते हैं। इसमें धीरे धीरे साहित्य का भी विकास हुआ। प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो ने, जो अलाउदीन खिलजी के आश्रय में था और जिसकी मृत्यु १३२५ ई. में हुई, उर्दू तथा फारसी में रचना की थी। आधुनिक युग में सर मुहम्मद इकबाल उर्दू के महान् कवियों में से थे।

उलमा  : (आलिम का बहुवचन) - इस्लाम धर्म के मीमांसाकार के रूप में कट्टरपन तथा दीनी (मजहबी) हुकूमत के समर्थक थे। उन्होंने अलाउद्दीन खिलजी (दे.) मुहम्मद तुगलक (दे.) और अकबर (दे.) जैसे शक्तिशाली मुसलमान शासकों का विरोध किया। अशिक्षित तथा अज्ञानी मुसलमान जनता पर उनका भारी प्रभाव था जो आज भी बना हुआ है।

उलुग खां : सुलतान गयासुद्दीन बलबन (दे.) का सेनानायक। उलूग खाँ ने ओरंगल के काकतीय राजा प्रतापरुद्र को १३२३ ई. में हराकर उसका राज्य छीन लिया।

उलुग खाँ बलबन, सुलतान : दे. गयासुद्दीन बलबन।

उस्ताद ईसा : संभवतः 'ताज' का वास्तु-कलाविद था।

उस्ताव मंसूर : सम्राट् जहाँगीर का आश्रित एक प्रसिद्ध चित्रकार। इसके कुछ चित्र अब भी मिलते हैं जो उसके समकालीनों द्वारा की गयी उसकी चित्रकला की प्रशंसा के औचित्य को सिद्ध करते हैं।

उस्मान खाँ : अफगानों का सरदार, जिसने बंगाल में सूबेदारों के निरन्तर के परिवर्तनों से उत्पन्न असंतोष का लाभ उठाया और बंगाल के पठानों को उत्तोजित करके मुगल सम्राट् जहाँगीर के विरुद्ध १६१२ ई. में विद्रोह खड़ा कर परास्त हुआ और युद्ध में सिरपर लगे एक गम्भीर घाव के परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो गयी।

ऋग्वेद : चार वेदों में सबसे प्राचीन। कट्टर हिन्दू वेदों को अपौरुषेय मानते हैं और उनके अनुसार वैदिक ऋचाओं के साथ जिन ऋषियों के नाम मिलते हैं वे उनका दर्शन करने वाले (द्रष्‍टा) थे। ऋग्वेद शब्द ऋक् (ऋचा अथवा मंत्र) तथा वेद (विद् अर्थात् ज्ञान) के संयोग से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है ज्ञान के सूक्त। ऋग्वेद भी अन्य तीन वेदों की भाँति चार भागों में विभाजित है : संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद्। ऋग्वेद संहिता में १०१७ सूक्त हैं जो १० मंडलों के अंतर्गत मिलते हैं। ऋग्वेद के अनेक मंत्र यज्ञपरक हैं, किन्तु उसमें कुछ ऐसे मंत्र भी मिलते हैं जिन्हें आदिकालीन धार्मिक कविता का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण कहा जा सकता है। ऐतरेय एवं कौशीतक ब्राह्मण तथा आरण्यक ग्रंथ ऋग्वेद से सम्बन्धित हैं। ऋग्वेद का रचनाकाल सभी सुनिश्चित नहीं हो सका है। स्भवतः उसकी रचना ई. पू. २५०० से लेकर ई. पू. १५०० तक होती रही। उसका रचनाकाल चाहे जो भी निर्धारित हो, इतना निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि ऋग्वेद में भारतीय आर्यों के प्राचीनतम युग का इतिहास और उस युग की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक अवस्था का ज्ञान प्राप्त होता है। (देखो, वेद) (कैम्ब्रिज, भाग १, खंड ४, ए. सी. दास-रिगवेदिक इंडिया तथा ए. केगी- रिगवेद)।

ऋषि : वेद मंत्रों के द्रष्‍टा माने गंये हैं। इन्हीं ऋषियों की परंपरा में व्यास हुए जिन्होंने वेदों का संग्रह व सम्पादन किया तथा पुराण, महाभारत, भागवत आदि हिन्दू धर्म ग्रंथों की रचना की। इसी परंपरा में अगस्त्य जैसे ऋषि हुए जिन्होंने भारत के विभिन्न भागों में आर्य सभ्यता का प्रसार किया। जनश्रुतियों के अनुसार दक्षिण भारत में आर्य सभ्यता का प्रसार करनेवाले अगस्त्य ऋषि थे।

एंटिआल्किडस : भारत का एक यवन राजा था जो तक्षशिला में राज्य करता था। आधुनिक भिलसी के निकट वेसनगर (विदिशा) में प्राप्त स्तम्भ-लेख से पता चलता है कि एंटिआल्किडस ने विदिशा के राजा के दरबार में हेलियोडोरस को अपना राजदूत बना कर भेजा था। स्तम्भलेख ई. पू. १४० और ई. पू. १३० के बीच का माना जाता है।

एंटिगोनस गोंटस : का उल्लेख अशोक के शिलालेख (संख्या तेरह) में अन्तिकिनि के रूप में किया गया है। उसके साथ अशोक के मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। वह मैसिडोनिया का राजा (ई. पू. २७७ से ई. पू. २३९ तक) था।

एंटियोकस प्रथम सोटर : सेल्यूकस निकेटर का पुत्र और सीरिया का राजा। भारत में जब द्वितीय मौर्य सम्राट् बिंदुसार राज्य करता था, उसके समय में एंटियोकस सीरिया में राज्य करता था। स्ट्राटो नामक इतिहासकार के अनुसार एंटियोकस प्रथम ने डायमेचस नामक एक यवन को राजा बिन्दूसार के दरबार में अपना राजदूत बनाकर भेजा था। एंटियोकस और बिन्दुसार के बीच में मैत्री सम्बन्ध थे। बिन्दुसार ने एंटियोकस प्रथम को अपने लिये मीठी शराब (मधु) , सूखे अंजीर और एक यवन दार्शनिक खरीद कर भेजने के लिए लिखा। एंटियोकस ने जवाब में लिखा कि मीठी शराब और सूखे अंजीर तो भेज दूँगा, लेकिन यवन दार्शनिक नहीं भेज सकता क्योंकि यूनान के कानून के अनुसार दार्शनिक को बेचा नहीं जा सकता।

एंटियोकस द्वितीय थिओस : सीरिया और पश्चिमी एशिया का राजा (२६१-२४६ ई. पू.) था। उसका उल्लेख अशोक के शिलालेख संख्या तेरह में अंतियोक नामक यौन (यवन) राजा के रूप में हुआ है जिसका राज्य अशोक के साम्राज्य की पश्चिमी सीमापर बताया गया है। अशोक ने उसके साथ मित्रता के सम्बन्ध बना रखे थे और उसके राज्य में धर्म का प्रचार किया था : मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सालय खुलवाये थे और औषधवनस्पति के पौधे लगवाये थे। (द्वितीय शिलालेख)

एंटियोकस तृतीय महान् : यवन राजा जो ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के अंत में सीरिया और पश्चिमी एशिया में राज्य करता था। उसके समय में युथिडिमास के नेतृत्व में बैक्ट्रिया स्वाधीन हो गया। इसके बाद ही एंटियोकस तृतीय ने हिन्दू-कुश पार करके सुभागसेन नामक भारतीय राजा पर आक्रमण किया जिसका राज्य काबुल की घाटी में था। एंटियोकस तृतीय ने सुभागसेन को पराजित कर उससे क्षतिपूर्ति के रूप में बहुत-सा धन और हाथी लिये और अपने देश को वापस चला गया। इस आक्रमण का कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा।

एंडरसन : बम्‍बई की यूरोपीय रेजीमेण्ट का लेफ्टिनेण्ट था जिसको मार्च १८४८ ई. में लाहौर दरबार में एक अन्य अधिकारी वान्स एग्न्यू और सरदार खानसिंह के साथ भेजा गया था। सरदार खानसिंह को दीवान मूलराज के स्थान पर मुल्तान का सूबेदार बनाया गया था। मुल्तान पहुँचने के बाद लेफ्टिनेण्ट एंडरसन और उसके साथी वान्स एग्न्यू की २० अप्रैल १८४८ ई. को हत्या कर दी गयी। अनुमान है कि दीवान मूलराज जिसे सूबेदारी से हटाया गया था उसने ही इन दोनों की हत्या करवा दी थी। इस घटना के बाद मुल्तान में भीषण उपद्रव हुए, जिनके परिणामस्वरूप द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध (१८४८-४९ ई.) हुआ।

एकनाथ : १६ वीं शताब्दी ई. के उत्तरार्द्ध में उत्पन्न महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध सन्त और धर्मसुधारक। वे पैठन में पैदा हुए और ब्राह्मण होते हुए भी उन्होंने जातिभेद की तीव्र निंदा की तथा भगवद्भक्ति के प्रचार में वे लगे रहे। उन्होंने 'महार' नामक निम्न जाति के एक व्यक्ति के साथ भोजन करने में भी संकोच नहीं किया। वे १६०८ ई. में स्वर्गवासी हुए। उन्होंने अपनी कविताओं तथा अपने उपदेशों द्वारा शिवाजी के नेतृत्व में मराठा शक्ति के अभ्युदय में भारी योगदान दिया।

एक्स ला चैपेल की सन्धि : १७४८ ई. में सम्पन्न। इस संधि के द्वारा आस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध समाप्त हो गया और तदनुसार भारत में भी प्रथम आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध समाप्त कर दिया गया और विजित क्षेत्र एक दूसरे को लौटा दिये गये। मद्रास, जिस पर इस युद्ध के दौरान फ्रांसीसियों ने कब्जा कर लिया था, फिर अंग्रेजों को वापस कर दिया गया।

एजस प्रथम : भारत का एक पार्थियन राजा था जो पंजाब में राज्य करता था। पहले वह आर्कोशिया (कन्धार) और सीस्तान का उपराजा था। बाद में ई. पू. ५८ में मौअस के स्थान पर उसका स्थानान्तरण तक्षशिला कर दिया गया। उसने पहले पार्थियन राजा मिथ्रिदातस के अधीन रहकर उस प्रदेश में राज्य किया। वह एक शक्तिशाली राजा था जिसने करीब ४० वर्ष राज्य किया। इस बात की सम्भावना है कि अपने लम्बे राज्यकाल के अन्त में उसने अपने को पार्थिया से स्वतंत्र कर लिया था। उसके नाम के सिक्के पंजाब में मिले हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि विक्रम संवत् जो ईसवी पूर्व ५८-५७ में प्रचलित हुआ, उसने शुरू किया था।

एजस द्वितीय : एजस प्रथम का पौत्र था जो अपने पितामह की गद्दी पर अपने पिता एजीलिसेस (दे.) के बाद गद्दी पर बैठा और २० ई. तक राज्य किया। एजेस द्वितीय के नाम का पता भी उसके सिक्कों से चला है। सिक्कों में उसका नाम अश्पवर्मन् के नाम के साथ आया है जिससे प्रकट होता है कि भारतीयों और पार्थियन राजाओं में निकट सहयोग था।

एजीलिसेस : एजस प्रथम का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उसके सिक्के भारत के पार्थियन राजाओं के सबसे अच्छे सिक्के माने जाते हैं, जिनकी नकल बाद में भारतीय राजाओं ने की।

एटली, क्लीमेन्ट रिचर्ड (१८८३-१९६७ ई.) -  : १९४५-५० और १९५०-५५ ई. में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री, उनकी शिक्षा आक्सफोर्ड में हुई और इनर टेम्पिल के वे सदस्य थे। १९०७ ई. में वे समाजवादी विचारधारा के हो गये। प्रथम महायुद्ध में उन्होंने सैनिक के रूप में भाग लिया और मेजर का पद प्राप्त किया। १९२२ में एटली ब्रिटिश कामन्स सभा के सदस्य चुने गये और १९५५ तक बने रहे जब उनको लार्ड बना दिया गया। १९३१ ई. में वे ब्रिटेन की लेबर पार्टी के नेता चुने गये। द्वितीय महायुद्ध के दौरान वे विंस्टन चर्चिल के युद्ध मंत्रिमंडल में मंत्री बनाये गये। १९४५ के आम चुनाव में लेबर पार्टी ने कंजरवेटिव पार्टी को पराजित कर दिया और विंस्टन चर्चिल के स्थानपर एटली प्रधान मंत्री बने। उनके प्रधानमंत्रित्व काल में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने एक कानून बनाकर अगस्त १९४७ ई. में भारत का विभाजन करके उसे स्वतंत्रता प्रदान कर दी। १९५५ के आम चुनाव में कंजरवेटिव पार्टी ने लेबर पार्टी को हरा दिया। उसके बाद एटली को लार्ड सभा का सदस्य बना दिया गया। उनकी मृत्यु १९६७ ई. में हुई।

एडवर्ड, प्रिन्स आफ वेल्स : बाद में इंग्लैण्ड के राजा एडवर्ड अष्टम। वे १९२१ ई. में भारत में यात्रा करने आये थे। उस समय देश में १९१९ के गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया एक्ट के विरोध में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन जोर-शोर से चल रहा था। अतएव जब वे नवंबर महीने में बंबई उतरे और बाद में कलकत्ता गये, तो नगरों की सड़कें उन्हें सूनी दिखाई दी। भारतीय जनता ने उनका कोई स्वागत नहीं किया। उनकी यात्रा के समय समस्त भारत में जबरदस्त हड़तालें हुईं और उनके स्वागत समारोहों का पूर्ण बहिष्कार किया गया। जब १९३६ ई. में वे सम्राट् बने तो वे बहुत थोड़े दिन सिंहासन पर रहे, जिसका भारतीय शासन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। बाद में एक तलाकशुदा सामान्य महिला से विवाह कर लेने पर उन्हें राजगद्दी छोड़नी पड़ी। इस घटना की चर्चा भारत में भी खूब हुई।

एडवर्ड्स, विलियम : इंग्लैण्ड के राजा जेम्स प्रथम का राजदूत, जो सम्राट जहाँगीर के दरबार में १६१५ ई. में भारत आया था। जहाँगीर ने उसकी बड़ी आवभगत की, लेकिन उसे सम्राट से कोई रियायत न प्राप्त हो सकी।

एडवर्ड सप्तम : १९०३ से १९११ ई. तक इंग्लैण्ड के राजा तथा भारत के सम्राट्। उनके राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में लार्ड कर्जन ने दिल्ली में एक दरबार किया। इंग्लैण्ड का संवैधानिक राजा होने के कारण, उन्हें भारत के मामले में ब्रिटिश सरकार के भारतमंत्री की सलाह से कार्य करना पड़ता था। १९०८ ई. में, जब ब्रिटिश सम्राट् द्वारा भारतीय शासन को अपने हाथ में लिये ५० वर्ष पूरे हो चुके थे, उन्होंने भारतीय प्रजा तथा देशी राजाओं के नाम एक घोषणा प्रकाशित की, जिसमें विगत ५० वर्षों के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में की गयी सेवाओं का गर्वपूर्वक उल्लेख किया गया था। घोषणा के अंत में यह वादा किया गया था कि भारत में प्रतिनिधित्वपूर्ण शासन संस्थाओं का विस्तार किया जायगा। इस शाही घोषणा का कार्यान्वयन १९०९ ई. में इण्डियन कौंसिल ऐक्ट के रूप में किया गया। इसमें उन संवैधानिक सुधारों की व्यवस्था की गयी थी जिनकी सिफारिश ब्रिटिश सरकार के भारत मंत्री लार्ड मार्ले तथा भारत के गवर्नर-जनरल लार्ड मिण्टो द्वितीय ने की थी। निजी तौरपर सम्राट् एडवर्ड सप्तम इन 'सुधारों' के विरुद्ध थे, लेकिन एक संवैधानिक शासक के नाते उन्होंने अपनी उत्तरदायी सरकार की नीति और कार्यों पर अपनी स्वीकृति देकर विवेकपूर्ण कार्य किया।

एडवर्ड्स, सर हर्बर्ट : (१८१९-६८ ई.)- ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा में १८४१ ई. में भारत आया और पंजाब में नियुक्त हुआ। उसने प्रथम सिख युद्ध (१८४५-४६ ई.) के दौरान एक सिविलियन अधिकारी की हैसियत से मुदकी तथा सुबराहान की लड़ाइयाँ देखीं। १८४८ ई. में जब वह मुल्तान में था वहाँ के सिख दीवान मूलराज ने विद्रोह कर दिया और एग्न्यू तथा ऐण्डरसन नामक दो अंग्रेज अफसर मार डाले गये। उसने एक फौज इकट्ठी करके मूलराज को दो लड़ाइयों में पराजित कर दिया और कई महीने तक मुल्तान पर अधिकार बनाये रखा। अंत में ब्रिटिश सेना उसकी मदद के लिए पहुँच गयी। उसकी सेवाओं की ब्रिटिश संसद में भी प्रशंसा हुई। पेशावर के कमिश्नर की हैसियत से उसने १८५५ तथा १८५७ ई. में अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मुहम्मद खाँ से संधि करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की, जिसका फल यह हुआ कि १८५७ ई. के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम (कथित सिपाही-विद्रोह) के दौरान अमीर तटस्थ रहा। स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण उसने १८६५ ई. में अवकाश ले लिया और स्वदेश वापस चला गया। उसे साहित्य से भी अनुराग था। उसने अपने कार्यकाल के आरम्भ में "ब्राह्मणी-बुल्स लेटर्स इन इण्डिया टु हिज कजिन जान-बुल इन इंग्लैण्ड" नामक पुस्तक लिखी। बाद में १८४८-४९ ई. में "ए इयर आन द पंजाब फ्राण्टियर" नामक एक और पुस्तक लिखी।

एनफील्ड रायफिल : एक नये प्रकार की रायफिल, जो १८५६ ई. में ब्रिटिश भारतीय सेना के सैनिकों को प्रयोग के लिए दी गयी। इन रायफिलों में ग्रीज लगे हुए कारतूस प्रयुक्त होते थे, जिन्हें प्रयोग के पहले मुंह से काटना पड़ता था। सिपाहियों का विश्वास था कि इन कारतूसों में गाय अथवा सुअरकी चर्बी का प्रयोग किया गया है, अतएव इसे दाँत से काटने पर हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों का धर्म नष्ट होता है। इसके कारण भारतीय सेना में विद्रोह की भावना उत्पन्न हुई। प्रथम भारतीय स्वाधीनता-संग्राम (१८५७ ई.) के मूल में यह भी एक कारण था।

एम्‍प्‍टहिल, लार्ड : मद्रास का गवर्नर, जिसने १९०४ ई. में लार्ड कर्जन के अवकाश पर जानेपर ६ महीने भारत के वाइसराय के रूप में काम किया था।

एलगिन, लार्ड : मार्च १८६२ ई. में लार्ड केनिंग के स्थान पर भारत का गवर्नर जनरल तथा वाइसराय बनाया गया। लेकिन इस पदपर कुछ ही समय रहने के पश्चात् नवंबर १८६३ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। उसकी कब्र धर्मशाला (पंजाब) में बनी हुई है। लार्ड एलगिन के जमाने की मुख्य घटना यह है कि उसने पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में कबायलियों के विद्रोह को दबाने के लिए 'अम्बेला अभियान' चलाया था।

एलगिन, लार्ड, द्वितीय : १८९४ से १८९९ ई. तक भारत का गवर्नर-जनरल तथा वाइसराय। अपने पिता की भाँति वह इसके पूर्व किसी महत्त्वपूर्ण पदपर नहीं रहा और न उसमें कोई विशेष व्यक्तिगत योग्यता थी। इसके अलावा उसका भाग्य भी खराब था उसी के कार्यकाल में १८९६ ई. में बंबई में प्लेग की महामारी फैली और १८९६-९७ ई. में देशव्यापी अकाल पड़ा। इन दोनों विपत्तियों को रोकने में अथवा जनता को राहत पहुँचाने में उसका प्रशासन सफल नहीं हुआ। नतीजा यह हुआ कि प्लेग और अकाल के कारण अकेले ब्रिटिश भारत में १० लाख व्यक्ति काल के गाल में समा गये। इसके अलावा बम्बई में प्लेग फैलने से अंग्रेजों के हाथ-पैर इतने फूल गये कि उन्होंने सेना की सहायता से उसे रोकने के लिए अत्यन्त कठोर कदम उठाये। अंग्रेज अधिकारी लोगों को घरों से निकालने के लिए जनानखाने तक में घुस जाते थे। इससे भारतीय जनता में बड़ी कटुता उत्पन्न हुई। फल यह हुआ कि पूना में दो अंग्रेज, जिनमें एक सिविलियन तथा दूसरा सैनिक अधिकारी था, मार डाले गये। इस घटना ने राजनीतिक रूप ग्रहण कर लिया।

लार्ड एलगिन द्वितीय के जमाने में ही यह तथ्य भी नग्न रूप में सामने आया कि भारत सरकार की वित्तीय नीति किस प्रकार अंग्रेज उद्योगपतियों के लाभ के लिए चलायी जाती है। १८९५ ई. में बजट में संभाव्य घाटे को रोकने के लिए सभी प्रकार के आयात पर ५ प्रतिशत शुल्क लगाया गया। केवल लंकाशायर से भारत आनेवाले कपड़े पर यह शुल्क नहीं लगाया गया। इस पक्षपातपूर्ण नीति का भारतीयों द्वारा घोर विरोध किया गया। फल यह हुआ कि अगले बजट में लंकाशायर से आयातित कपड़े पर भी शुल्क लगाने का निश्चय किया गया, लेकिन उसके साथ भारत में बने कपड़े पर भी उत्पादन-शुल्क लगा दिया गया। इससे यह स्पष्ट हो गया कि ब्रिटिश सरकार भारत के कपड़ा-उद्योग के विकास को पसन्द नहीं करती। लार्ड एलगिन द्वितीय ने १८९५ ई. में गिलगिट के पश्चिम और हिन्दूकुश पर्वत के दक्षिण में स्थित चित्राल रियासत में उत्तराधिकार के प्रश्न पर अनावश्यक रीति से हस्तक्षेप किया जिसके फलस्वरूप उसे पश्चिमोत्तर प्रदेशमें लम्बा और खर्चीला युद्ध चलाना पड़ा। इस युद्ध में ब्रिटिश भारतीय सेना की विजय अवश्य हुई और भारत-अफगान सीमा से लेकर चित्राल तक सैनिक यातायात के लिए सड़क का निर्माण कर दिया गया, लेकिन चित्राल के आन्तरिक मामले में अंग्रेज सरकार के हस्तक्षेप से आसपास के मोहमन्द और अफरीदी कबीलों में रोष फैल गया और उन्होंने १८९७ ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। लार्ड एलगिन द्वितीय को उस विद्रोह का दमन करने के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ा और अन्त में ३५ हजार फौज लगा देनी पड़ी, तब कहीं वे काबू में आये। १८५७ ई. के भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के पश्चात् अंग्रेजों के लिए यह सबसे कठिन संघर्ष सिद्ध हुआ। लार्ड एलगिन द्वितीय के कार्यकाल में एक महत्त्वपूर्ण सैनिक सुधार हुआ। समस्त भारतीय सेना के लिए एक प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया और उसके अधीन बंगाल, मद्रास, बम्बई तथा पंजाब एवं पश्चिमोत्तर प्रान्त में तैनात पलटनों को सँभालने के लिए चार लेफ्टिनेण्ट-जनरल नियुक्त किये गये। लार्ड एलगिन द्वितीय के कार्यकाल में केवल यही एक महत्त्व का सुधार हुआ।

एलफिन्स्टिन, जनरल विलियम जार्ज कीथ : (१७८२-१८७२ ई.) ब्रिटिश सेना में १८०४ ई. में प्रविष्ट। उसने वाटरलू के युद्ध में तथा अन्य अनेक लड़ाइयों में भाग लिया। पहले अफगान-युद्ध में तथा अन्य अनेक लड़ाइयों में भाग लिया। पहले अफगान-युद्ध के समय १८३९ ई. में वह ब्रिटिश भारतीय सेना के बनारस डिवीजन का कमाण्डर था। उसे भी अफगानिस्तान भेजा गया। १८४१ ई. के अन्त में वह काबुल पर चढ़ाई करनेवाली ब्रिटिश-भारतीय सेना का प्रधान सेनापति बनाया गया। जब अफगानों ने २३ दिसंबर १८४१ ई. में सर डब्‍लू. मैकनाटन की हत्या कर दी, तो एलफिन्स्टन अपने बुढ़ापे और खराब स्वास्थ्य के कारण अपनी सेना की सुरक्षा का उपाय न कर सका। जब ब्रिटिश सेना काबुल से वापस लौटने के लिए बाध्य हो गयी तो उसने अन्य अंग्रेज अफसरों के साथ अपने को बंधक के रूप में अकबर खाँ के हवाले कर दिया। इससे अंग्रेजों की प्रतिष्ठा की भारी हानि हुई। अप्रैल १८४२ ई. में जब वह भारत वापस लौट रहा था, तो रास्ते में ही नजीरा में उसकी मृत्यु हो गयी।

एलफिन्स्टन, जान बैरन : (१८०७-६०) -आरम्भ में १८३७ से १८४२ ई. तक मद्रास का गवर्नर। इस दौरान कोई विशेष घटना नहीं घटी। लेकिन जब वह १८५३ से १८६० ई. तक बम्बई का गवर्नर रहा, तब भारत में प्रथम स्वाधीनता-संग्राम छिड़ा। उसने बड़ी चतुराई से बम्बई प्रांत में विद्रोहाग्नि नहीं फैलने दी और मध्य भारत के कुछ भागों में विद्रोह को दबाने में सहायता दी।

एलफिन्स्टन, माउण्ट स्टुअर्ट : (१७७९-१८५९) विख्यात इतिहासकार और प्रशासक। वह ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा में १७९५ ई. में लिपिक की हैसियत से भारत आया। बहुत शीघ्र वह पेशवा वाजीराव द्वितीय के दरबार में सहायक ब्रिटिश रेजीडेण्ट हो गया। उसने असई तथा आरगाँव के युद्धों में भारी वीरता दिखायी। १८०४ से १८०८ ई. तक नागपुर में रेजीडेण्ट रहा। बाद में १८११ ई. में पूना का रेजीडेण्ट बनाया गया, जहाँ उसने भारी कूटनीतिक चातुर्य का परिचय दिया। तीसरे मराठा युद्ध (दे.) (१८१७-१९ ई.) में उसने भारी संगठन-शक्ति और साहस का परिचय दिया। इस युद्ध में उसके घर पर आक्रमण हुआ, उसके पुस्तकालय को नष्ट कर दिया गया, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी और अन्त में खड़की की लड़ाई (१८१७ ई.) में बाजीराव द्वितीय को पराजित कर दिया। युद्ध समाप्त होने पर उसे बम्बई का गवर्नर बना दिया गया। इस पद पर वह अवकाश ग्रहण करने के समय (१८२७ ई.) तक बना रहा। गवर्नर की हैसियत से उसने बम्बई प्रान्त में अनेक सुधार लागू किये और प्रान्त में शिक्षा का प्रसार किया। बम्बई का एलफिन्स्टन कालेज उसके ही सम्मान में स्थापित किया गया था। उसने १८४१ ई. में अंग्रेजी में 'भारतका इतिहास' नामक अपनी विख्यात पुस्तक लिखी।

एलारा : दक्षिण में प्राचीन चोल वंश का एक राजा, जो ईसवी से पूर्व दूसरी शताब्दी में हुआ। कहा जाता है कि उसने श्रीलंका पर विजय प्राप्त की थी। वह अत्यधिक न्यायप्रिय था।

एलिनबरो, लार्ड : १८४२ ई. से १८४४ ई. तक भारत का गवर्नर-जनरल। इसके पूर्व वह बोर्ड आफ कण्ट्रोल का अध्यक्ष रह चुका था। वह भारत में लार्ड आकलैण्ड (दे.) के बाद गवर्नर-जनरल हुआ। उस समय भारत की अंग्रेज सरकार पहले अफगान-युद्ध (दे.) (१८४२-४४ ई.) में संलग्न थी। लार्ड एलिनबरो ने अफगानिस्तान से ब्रिटिश भारतीय सेना को वापस बुलाते हुए किसी को यह आभास नहीं होने दिया कि ब्रिटिश सेना हार कर वापस आयी है। इसके बाद ही एलिनबरो ने अन्यायपूर्ण ढंग से सिंध पर चढ़ाई बोल दी। सर चार्ल्स नैपियर के नेतृत्‍व में सिंध के अमीरों को पराजित कर दिया और १८४३ ई. में सिंध को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

लार्ड एलिनबरो ने इसके बाद शिन्दे के राज्य में भी हस्तक्षेप किया और १८७४ ई. की विस्मृत एवं निरस्त संधि का आधार लेकर ग्वालियर के राज्य पर चढ़ाई करने के लिए अंग्रेजी सेना भेज दी। शिन्दे की फौजें महाराजपुर और पनियार के युद्धों में पराजित हुई। लार्ड एलिनबरो ने यद्यपि ग्वालियर के राज्य को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में नहीं मिलाया, तथापि उसे अंग्रेजों का आश्रित राज्य अवश्य बना लिया। उस समय ग्वालियर की गद्दी पर एक नाबालिग शासक था, अतएव यह व्यवस्था की गयी कि राज्य का प्रशासन एक रीजेन्सी कौंसिल के हाथ में होगा जिसके सभी सदस्य भारतीय होंगे और वे ग्वालियर स्थित ब्रिटिश रेजीडेण्ट की सलाह पर शासन चलायेंगे ग्वालियर राज्य की फौज की संख्या घटाकर ९ हजार कर दी गयी, तथा १० हजार अंग्रेजी सेना वहाँ तैनात कर दी गयी। इस प्रकार ग्वालियर राज्य व्यवहारतः अंग्रेज सरकार के अधीन हो गया।

लार्ड एलिनबरो की इन कारवाइयों को ब्रिटेन स्थित कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स ने पसंद नहीं किया और कम्पनी के इतिहास में पहली बार गवर्नर-जनरल को वापस बुला लिया गया। लार्ड एलिनबरो को स्वदेश वापस लौट जाना पड़ा। ब्रिटेन वापस जाकर भी लार्ड एलिनबरो भारतीय मामलों में दिलचस्पी लेता रहा। १८५३ ई. में जब इण्डियन सिविल सर्विस में भर्ती के लिए प्रतियोगिता परीक्षा आरम्भ की गयी तो उसने उसका तीव्र विरोध किया, लेकिन इस विरोध का कोई फल नहीं निकला।

एलिफैण्टा की गुफाएँ : बम्बई के निकट, पौराणिक देवताओं की अत्यन्त भव्य मूर्तियों के लिए विख्यात हैं। इन मूर्तियों में त्रिमूर्ति सर्वश्रेष्ठ है।

एलिस, विलियम : १७६२ ई. में उस समय पटना स्थित अंग्रेजी फैक्टरी का मुखिया, जब बंगाल के नवाब मीर कासिम (दे.) ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में समस्त वयापारियों पर से चुंगी हटा ली। इसका नतीजा यह हुआ कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी और उसके कर्मचारियों के गैरकानूनी व्यापार से जो लाभ होता था, वह समाप्त हो गया। कम्पनी के जिन कर्मचारियों को इस अवैध व्यापार से भारी लाभ होता था, उन्होंने नवाब की आज्ञा का तीव्र विरोध किया। विलियम एलिस इस गैरकानूनी व्यापार का सबसे उग्र पक्षधर था। उसने नवाब की आज्ञा के विरोध में पटना नगर पर कब्जा करने का प्रयास किया। नवाब के सैनिकों ने उसका प्रतिरोध किया। फलतः एलिस अपनी छोटी-सी सेना के साथ परास्त हो गया और वह स्वयं मारा गया। इन्हीं घटनाओं के फलस्वरूप १७६३ ई. में नवाब मीर कासिम तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच युद्ध छिड़ गया।

एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल : स्थापना, प्राच्य विद्याध्ययन में अभिरुचि रखनेवाले विद्वानों की संस्था के रूप में १७८४ ई. में कलकत्ते में सर विलियम जोन्स द्वारा। गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्सने इसमें पूरी सहायता की। इस संस्था की ओर से केवल भारत ही नहीं बल्कि एशिया से सम्बन्धित विभिन्न अनुसंधान-कार्यों को प्रोत्साहित किया गया। इस संस्था के पास अच्छा पुस्तकालय है जिसमें प्रकाशित पुस्तकों के अतिरिक्त हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ संगुहीत हैं। इस संस्था की ओर से एक पत्र भी प्रकाशित किया जाता है और सैकड़ों बहुमूल्य पुस्तकों को पुनः प्रकाशित करके उनको लुप्त होने से बचाया गया है। इस संस्था की ओर से संस्कृत और फारसी की पाण्डुलिपियों का अंग्रेजी में अनुवाद भी प्रकाशित कराया गया है। सिपाही विद्रोह के बाद जब सत्ता ईस्ट इण्डिया कम्पनी से इंग्लैण्ड के राजा के पास चली गयी, उस समय से इस संस्था का नाम रायल एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल' हो गया, लेकिन १९४७ ई. में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद इसका नाम फिर से 'एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल' हो गया है।

ऐम्हर्स्ट, लार्ड : भारत का गवर्नर-जनरल (१८२३-२८ ई.)। उसके शासनकाल में प्रथम बर्मा-युद्ध (१८२४-२८ ई.) हुआ जिसके परिणामस्वरूप आसाम, अराकान और तेनासरीम ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिये गये। लार्ड ऐम्हर्स्ट युद्ध का संचालन सही ढंग से नहीं कर सका, जिससे भारतीय एवं अंग्रेजी सेना को बहुत नुकसान उठाना पड़ा और लड़ाई लम्बी चली। इस लड़ाई के दौरान दो घटनाएं घटीं। पहले ४७ वीं पलटन के देशी तोपखाने के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया क्योंकि उनको जबर्दस्ती समुद्रपार भेजा जा रहा था। उनकी कुछ दूसरी शिकायतें भी थीं। उनका विद्रोह अंग्रेजतोपखाने और दो अंग्रेज पलटनों की मदद से निर्दयतापूर्वक कुचल दिया गया। दूसरी घटना यह घटी कि भरतपुर की गद्दी के एक दावेदार दुर्जन सिंह ने १८२४ ई. में विद्रोह कर दिया और अपने को 'राजा' घोषित कर दिया। अंग्रेजों ने १८२५ ई. के शुरू में भरतपुर किले पर चढ़ाई करके उसे अपने कब्जे में ले लिया। लार्ड ऐम्हर्स्ट के समय में १८२४ ई. में कलकत्ते में गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज की स्थापना की गयी। बाद में एम्हर्स्ट ने पारिवारिक कारणों से गवर्नर-जनरल के पद से इस्तीफा दे दिया।

ओदन्तपुरी : उड्यंतपुर भी कहते हैं, यह बिहार में स्थित है। आठवीं शताब्दी के मध्य में बंगाल और बिहार में पालवंश के संस्थापक गोपाल ने यहां एक महाविहार की स्थापना की थी। यह एक महत्त्वपूर्ण विद्या-केन्द्र बन गया। तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ में बख्तियार (दे.) के पुत्र मुहम्मद के नेतृत्व में मुसलमान आक्रमणकारियों ने इसे नष्ट कर दिया।

ओनेसि क्राइटोस : एक प्रसिद्ध ग्रीक इतिहासकार, जिसने भारत पर सिकन्दर के आक्रमण का वृत्तान्त लिखा है। वह सिकन्दर के साथ ३२६ ई. पू. में तक्षशिला तक आया था। यद्यपि उसके द्वारा लिखित इतिहास अब उपलब्ध नहीं है, तथापि उसके कुछ उद्धरण अन्य यूनानी इतिहासकारों की रचनाओं में उपलब्ध हैं।

ओर्मे राबर्ट (1728-1801 ई.) : भारत का एक अंग्रेज सैनिक इतिहासकार। उसका जन्म दक्षिण भारत में हुआ, पिता भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी में सर्जन था। वह १७४३ ई. में बंगाल में लिपिक नियुक्त हुआ। छुट्टी पर जहाज में इंग्लैण्ड जाते समय राबर्ट क्लाइव (दे.) से इसकी घनिष्ठ मैत्री हो गयी। यह मैत्री दीर्घ कालतक चली। वह १७५४ से १७५८ ई. तक मद्रास कौंसिल का सदस्य रहा और कलकत्ता पर फिर से अधिकार करने के लिए क्लाइव के नेतृत्व में, फौज भेजने का जो निर्णय किया गया, उसमें मुख्य रूप से उसी का हाथ था। उसका अंग्रेजी में लिखित 'हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राष्ट्र की सन १७४५ से 'फौजी काररवाइयों का इतिहास' शीर्षक से विशाल ग्रंथ तीन खंडों में १७६३-७८ ई. में प्रकाशित हुआ। इसके पूर्व का वृत्तान्त 'ऐतिहासिक प्रकरण' शीर्षक से १७८१ ई. में प्रकाशित हुआ। उसने अपने ग्रंथों में अत्यन्त व्यौरेवार विवरण दिया है और उसके 'इतिहास' में उस काल का सबसे प्रामाणिक विवरण है। मेकाले ने अपना ग्रंथ लिखने में उससे बहुत सहायता ली है। उसने हस्तालिखित ग्रंथों का बहुमूल्य संग्रह किया था, जो अब इंडिया लाइब्रेरी में सुरक्षित है।

औपनिवेशिक स्वराज्य (डोमिनियन स्टेटस) : की मांग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पहली बार १९०८ ई. में की थी। उस समय इसका अर्थ केवल इतना ही था कि आन्तरिक मामलों में भारतीयों को स्वशासन का अधिकार दिया जाय, जैसा कि ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत कनाडा को प्राप्त था किन्तु ब्रिटिश भारतीय सरकार ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया। २१ वर्ष बाद ३१ अक्तूबर १९२९ ई. को वाइसराय लार्ड इर्विन ने घोषणा की कि भारत में संवैधानिक प्रगति का लक्ष्य औपनिवेशिक स्वराज्य की प्राप्ति है। किन्तु 'औपनिवेशिक स्वराज्य' के स्वरूप की स्पष्ट परिभाषा नहीं की गयी। फलतः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस प्रकार की अस्पष्ट और विलम्बित घोषणा पर सन्तोष प्रकट करने से इनकार कर दिया। कांग्रेस ने वर्ष के अन्त में अपने लाहौर अधिवेशन में भारत का लक्ष्य 'पूर्ण स्वाधीनता' घोषित किया। इस प्रकार भारत और ब्रिटेन के बीच की खाई बढ़ती ही रही। औपनिवेशिक स्वराज्य की घोषणा यदि २० वर्ष पहले की गयी होती, तो कदाचित् वह भारतीय आकांक्षाओं की पूर्ति कर देती। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व बदलती हुई अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के साथ बढ़ते हुए राष्ट्रवाद को औपनिवेशिक स्वराज्य की घोषणा सन्तुष्ट न कर सकी। इसके बाद भी ६ वर्ष तक ब्रिटिश सरकार ने उस घोषणा को लागू करने के लिए कुछ नहीं किया। अंत में जब १९३५ का 'गवर्नमेन्ट आफ इंडिया एक्ट' सामने आया तो वह कई दृष्टियों से औपनिवेशिक स्वराज्य के वादे की पूर्ति नहीं करता था।

नये शासन-विधान के अनुसार केन्द्र में द्वैध शासन की व्यवस्था की गयी थी जिसके अन्तर्गत विदेश विभाग और प्रतिरक्षा विभाग आदि पर निर्वाचित विधान-मंडल का कोई नियंत्रण नहीं रखा गया। दूसरी बात, इस शासन विधान में वाइसराय को अनेक निरंकुश अधिकार प्रदान किये गये थे। तीसरी बात, भारतीय विधान-मंडल द्वारा पारित अधिनियमों पर ब्रिटिश सम्राट की स्वीकृति आवश्यक थी। ब्रिटिश सरकार उक्त अधिनियमों पर स्वीकृति देने से इनकार भी कर सकती थी। इस प्रकार के प्रतिबन्धों से स्पष्ट था कि भारतीय शासन-विधान (१९३५) में औपनिवेशिक स्वराज्य की जो कथित व्यवस्था थी, वह १९३१ ई. के स्टेट्यूट आफ वेस्टमिंस्टरके अन्तर्गत औपनिवेशिक स्वराज्य की परिभाषा से बहुत निचले दर्जे की थी। इस स्टेट्यूट के अन्तर्गत आन्तरिक मामलों में उपनिवेश की प्रभुसत्ता को स्वीकार किया गया था और वैदेशिक मामलों में भी पूर्ण स्वशासन दिया गया था जिसके अनुसार उपनिवेश को विदेशों से संधि करने का अवाध अधिकार प्राप्त था। साथ ही युद्धादि में तटस्थ रहने और ब्रिटिश साम्राज्य से अलग होने का अधिकार भी उपनिवेशको दिया गया था। औपनवेशिक स्वराज्य में निहित उपर्युक्त समस्त अधिकार १९३५ के गवर्नमेन्ट आफ इंडिया एक्ट में नहीं प्रदान किये गये थे, अतएव वह भारतीय जनमत को संतुष्ट करने में पूर्णतया विफल हो गया। इसके अलावा शासन विधान में साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त को इस प्रकार विकसित किया गया था कि उससे भारत के भावी विभाजन की स्पष्ट आधारशिला तैयार कर दी गयी ऐसी अवस्था में सर स्टैफर्ड क्रिप्स ने जब ११ मार्च १९४२ ई. को औपनिवेशिक स्वराज्य के लक्ष्य की पुनः घोषणा की, तो भारतीय राष्ट्रवादियों में उससे कोई उत्साह नहीं उत्पन्न हुआ।

द्वितीय विश्वयुद्ध में जब ब्रिटेन को धन-जन की घोर हानि पहुँची और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन तीव्र से तीव्रतर होता गया, तो उसे १९३१ ई. के स्टेट्यूट आफ वेस्टमिंस्टर के अंतर्गत भारत और पाकिस्तान को पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य देने की घोषणा करनी पड़ी। १५ अगस्त १९४७ ई. को भारत ने ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के अन्तर्गत पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त कर ली। यह स्थिति १९४९ ई. में और अधिक स्पष्ट हो गयी, जब भारत को सार्वभौम प्रभुसत्ता सम्पन्न स्वाधीन गणराज्य के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गयी। भारत ने स्वेच्छा से राष्ट्रमण्डल में बने रहने का निर्णय किया। उसने घोषणा की कि वह शांति, स्वतंत्रता तथा प्रगति की नीति से अपने को आबद्ध रखेगा और ब्रिटिश सम्राट् को राष्ट्रमण्डल का प्रतीक-अध्यक्ष स्वीकार करेगा और जब भी वह अपने हित में राष्ट्रमण्डल से अलग होना आवश्यक समझेगा, उसे अलग होने का पूरा अधिकार होगा। (जी. एन. जोशी लिखित 'भारतीय संविधान' - १९५६ ई.)

औरंगजेब : भारत का छठा मुगल बादशाह (१६५९-१७०७ ई.)। वह शाहजहाँ (दे.) (१६२७-१६५९ ई.) का तीसरा पुत्र था। जब वह शाहजादा था तभी से महत्त्वपूर्ण प्रशासकीय और सैनिक पदों पर था। दक्षिण में दो बार और अफगानिस्तान में एक बार वह बादशाह का प्रतिनिधि रह चुका था। इन पदों पर काम करते हुए उसने बड़ी योग्यता साहस और परिश्रम का परिचय दिया। उसमें ये गुण बहुतायत से थे जिनका परिचय उसने बादशाह होने पर भी दिया। १६५७ ई. में जब उसका पिता शाहजहाँ बीमार पड़ा, उस समय वह दक्षिण में बादशाह का प्रतिनिधि था। उसके बड़े भाई दाराशिकोह को शाहजहाँ दिल्ली के तख्त पर बैठाना चाहता था, वह उसके पास था। शाहजहाँ का दूसरा पुत्र शुजा बंगाल में शासक था और चौथा तथा सबसे छोटा पुत्र मुराद गुजरात में बादशाह का प्रतिनिधि था। जैसे ही शाहजहाँ की बीमारी की खबर मिली, शुजा ने बंगाल में अपने को बादशाह घोषित कर दिया और गुजरात में मुराद ने भी वैसा ही किया। इन परिस्थितियों में औरंगजेब ने भी तख्त पाने की कोशिश करने का निश्चय किया। उसने मुराद से सुलह करके यह तय किया कि दोनों मिलकर कोशिश करें और विजयी होने पर सल्तनत को आपस में बाँट लें। इस तरह उत्तराधिकार के लिए शाहजहाँ के चारों पुत्रों में भ्रातृयुद्ध शुरू हो गया। औरंगजेब और मुराद की संयुक्त सेना ने उज्जैन के निकट अप्रैल १६५८ ई. में धर्मर और मई १६५८ ई. में सामूगढ़ की लड़ाइयों में शाही सेना को पराजित कर दिया। सामूगढ़ की लड़ाई में शाहजादा दारा खुद मौजूद था और हार के बाद वह भाग कर आगरा चला गया। विजयी भाइयों की संयुक्त सेना दाराशिकोह का पीछा करती हुई आगरा पहुँची और ८ जून १६५८ ई. को आगरा किले तथा उसके खजाने का समर्पण हो गया। बूढ़ा बादशाह शाहजहाँ जीवनपर्यंत बंदी बना रहा। औरंगजेब ने १६५७ ई. में गुजरात के दीवान की हत्या के अभियोग में मुराद को फांसी दिलवा दी। इसी बीच में शुजा को दारा के लड़के सुलेमान ने फरवरी १६५८ ई. में बनारस के पास बहादुरपुर की लड़ाई में पराजित कर दिया। बाद में उसने फिर से कुछ फौज इकट्ठी कर ली। औरंगजेब ने खुद सेना का संचालन कर विरुद्ध बंगाल पर चढ़ाई की और उसे खजवा की लड़ाई में पराजित किया। औरंगजेब के सेनापति मीर जुमला ने शुजा का पीछा किया और उसे पहले दक्षिण की ओर और बाद में अराकान की ओर (मई १६६० ई.) भागने पर मजबूर किया, जहाँ उसका पूरा परिवार नष्ट हो गया। आगरा पर औरंगजेब का अधिकार हो जाने के बाद दाराशिकोह वहाँ से भागा। औरंगजेब की सेना ने उसे अप्रैल १६५९ ई. में दौराई की लड़ाई में पराजित किया और जून के महीने में दाराशिकोह धोखा देकर पकड़ लिया गया। औरंगजेब ने उसको जलील किया और उसके विरुद्ध धर्मद्रोही होने का अभियोग लगाकर ३० अगस्त १६५९ ई. को उसे भी फांसी पर चढ़ा दिया। इस प्रकार अपने सभी भाइयों में औरंगजेब अकेला बच गया। उसने अनौपचारिक रूप से २१ जुलाई १६५८ को बादशाह शाहजहाँ को आजीवन कैद में डाल कर गद्दी प्राप्त कर ली थी। जून १६५९ में वह औपचारिक रूप से तख्तनशीन हुआ और 'आलमगीर' (विश्व-विजेता ) का खिताब धारण किया।

औरंगजेब की बड़ी बेगम दिलरास बानो के पाँच लड़के थे। उनमें से मुहम्मद को १६७६ ई. में गुप्तरीति से फांसी पर चढ़ा दिया गया। मुअज्जम उसका उत्तराधिकारी बना। आजम औरंगजेब की मृत्यु के बाद होनेवाले उत्तराधिकार युद्ध में मारा गया। अकबर ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और उसे देश छोड़कर फारस भागना पड़ा, जहाँ १७०४ ई. में वह मर गया और कामबख्श १७०९ ई. में उत्तराधिकार-युद्ध के दौरान मारा गया।

अपने पूर्वाधिकारियों की भाँति औरंगजेब ने मुगल साम्राज्य को बढ़ाने के लिए अथक् प्रयास किया। १६६१ ई. में उसने पालामऊ को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया। अगले वर्ष सेनापति मीर जुमला के नेतृत्व में मुगल सेना ने आसाम में गढ़गाँव पर चढ़ाई बोल दी जो उस समय अहोम राजाओं की राजधानी थी। अहोम राजा को मुगलों से सन्धि करनी पड़ी और वर्तमान दरंग जिले का काफी बड़ा हिस्सा मुगलों को देना पड़ा। हर्जाने की बड़ी रकम के अलावा सालाना नजराना देने की शर्त भी उसे माननी पड़ी। १६६६ ई. में मुगलों ने बंगाल की खाड़ी के संद्वीप और चटगाँवको जीत लिया। १६६७ ई. में पश्चिमोत्तर सीमापर अफगानों ने विद्रोह कर दिया, उसे १६७५ ई. तक दबा दिया गया। औरंगजेब के दरबार में मक्का के शरीफ और फारस के शाह, बलख, बुखारा, कासगर, खीवा और अबीसीनिया जैसे दूरवर्ती मुस्लिम देशों के राजदूत उपस्थित रहते थे।

१६७९ ई. में मुगलों और राजपूतों में लड़ाई शुरू हो गयी जिसमें मेवाड़ के राणा ने मारवाड़ के राजा का साथ दिया। इस लड़ाई का अन्त १६७८१ ई. में दिल्ली और मेवाड़ की सन्धि से हुआ। १६८६ ई. में बीजापुर और १६८९ ई. में गोलकुंडा जीतकर मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। १६८९ ई. में शिवाजी के पुत्र और उत्तराधिकारी सम्भाजी को मुगलों ने पकड़ कर मार डाला और उसकी राजधानी राजगढ़ पर अधिकार कर लिया। उसके पुत्र और उत्तराधिकारी युवक शाहू को मुगल दरबार में बंदी बनाकर रखा गया। १६९१ ई. में विजयी औरंगजेब ने तंजौर और त्रिचिनापल्ली के हिन्दू राजाओं को खिराज देने के लिए बाध्य किया। इस प्रकार मुगल साम्राज्य दक्षिण तक फैल गया।

इन विजयों के बावजूद सम्राट् औरंगजेब मुगलों का अन्तिम बड़ा बादशाह हुआ और दक्षिण के बुरहानपुर में १७०७ ई. में अपनी मृत्यु के पहले औरंगजेब के सामने ही मुगल साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया। औरंगजेब ने बहुत से क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में मिला लिया था जिससे वह इतना विशाल हो गया था कि उसको एक व्यक्ति द्वारा एक केन्द्र से शासित करना दुःसाध्य था। जैसा सर यदुनाथ सरकार ने लिखा है, "एक अजगर की भाँति मुगल साम्राज्य ने इतना अधिक क्षेत्र लील लिया कि उसको वह हजम नहीं कर सका।" औरंगजेब की मृत्यु के पहले १६६७-७५ ई. के बीच अफगानों से युद्ध के परिणामस्वरूप सल्तनत की आर्थिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गयी। राजनीतिक दृष्टि से भी अफगानों से युद्ध बड़ा मंहगा पड़ा। इसके बाद ही बादशाह को राजपूतों से युद्ध करना पड़ा और वह उनके विरुद्ध पठान सैनिकों का इस्तेमाल नहीं कर सका। इसके परिणामस्वरूप शिवाजी (१६२७-८० ई.) के विरुद्ध मुगल साम्राज्य के पूरे साधनों का इस्तेमाल नहीं हो सका जो दक्षिण में स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना कर रहा था। मथुरा और उसके पड़ोस के क्षेत्रों में १६६९ ई. में जाटों ने विद्रोह का झंडा फहरा दिया। इसके बाद १६७१ ई. में बुंदेलखंड और मालवा में विद्रोह हुए। पटियाला रियासत के नारनौल में सतनामियों ने और अलवर के क्षेत्रमें मेवातियों ने १६७२ ई. में विद्रोह कर दिया। इन सभी विद्रोहों का सख्ती से दमन किया गया, लेकिन इनसे यह तो प्रकट ही हो गया कि मुगल साम्राज्य के विरुद्ध जनता में व्यापक रूप से रोष फैल रहा था। पंजाब में सिख शक्तिशाली होते जा रहे थे। औरंगजब के आदेश से सिखों के गुरू तेगबहादुर को इस्लाम धर्म स्वीकार न करने पर फाँसी दे दी गयी। इस नृशंस कार्य से सिखों में बदला लेने की भावना भड़क उठी और वे मुगल साम्राज्य के शत्रु बन गये। आसाम में अहोमों पर १६६३ ई. में जो सन्धि थोपी गयी थी, उसको तोड़कर उन्होंने १६७१ ई. में अपने उन सब इलाकों को वापस ले लिया जिन्हें उनसे छीन लिया गया था। सम्भाजी को फांसी देने और शाहू को बंदी बना लेने से मराठों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को नष्ट नहीं किया जा सका और उन्होंने पहले सम्भाजी के नेतृत्व में मुगलों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा और अपनी खोयी हुई अधिकांश भूमि को औरंगजेब के जीवन काल में ही वापस ले लिया। उन्होंने यह दिखा दिया कि औरंगजेब मराठों का दमन नहीं कर सकता है। १६८१ से १७०७ ई. तक औरंगजेब ने दक्षिण में जो सैनिक अभियान चलाया उससे उसको उतनी ही आर्थिक क्षति उठी पड़ी, जितनी नैपोलियन को स्‍पेन के अभियान में उठानी पड़ी थी। इसी प्रकार १६७९-८० ई. के राजपूत-युद्ध में यद्यपि औरंगजेब की विजय हुई तथापि उससे यह तो प्रकट ही हो गया कि औरंगजेब ने राजपतों का वह समर्थन खो दिया है जिसे अकबर ने अपने विवेक से प्राप्त किया था और जिनकी शक्ति के आधार पर मुगल साम्राज्य की शक्ति बढ़ी थी। औरंगजेब ने अपने प्रपितामह की नीति पूरे तौर से त्याग दी। अकबर की नीति के प्रतिकूल उसने मजहब को सल्तनत के ऊपर कर दिया और अपनी शाही ताकत का प्रयोग न तो अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए, न अपने खानदान के लाभ के लिए और न अपनी रियाया के लाभ के लिए वरन् इस्लाम के प्रसार के लिए किया। वह कट्टर सून्नी मुसलमान था और उसने कुरान की शिक्षाओं के अनुसार अपने जीवन को ढालने तथा हुकूमत चलाने का प्रयास किया। वह ईमान का इतना पक्का था कि उसने मजहब के मामले में अपने को, अथवा अपने खानदान को कभी नहीं बख्शा। उसने खान-पान और पोशाक के मामले में कुरान की शिक्षाओं का पालन किया और एक पक्के मुसलमान की तरह जीवन बिताया। उसने विरासत में मिली अपनी सल्तनत को 'दारुल इस्लाम' (इस्लामी राज्य) बनाने का प्रयास किया। इस नीति के परिणामस्वरूप ही उसने हिन्दुओं के प्रति असहिष्णुता की नीति अपनायी और उनका दमन किया। हिन्दुओं पर उसने १६७९ ई. में फिर से 'जजिया' लगा दिया, जिसे अकबर ने १५६४ ई. में उठा लिया था। उसने सल्तनत के ऊँचे पदों पर हिन्दुओं को नियुक्त करना बन्द कर दिया और उनके ऊपर करों का बोझ बढ़ा दिया। उसने हिन्दुओं को नये मंदिर बनाने से रोक दिया और बहुत से पुराने मंदिरों को तोड़ डाला, जिनमें मथुरा का केशवदेव का मंदिर और बनारस का विश्वनाथ का मंदिर भी था। उसने मारवाड़ के राजा जसवन्त सिंह के नाबालिग लड़के को जबरन अपने कब्जे में करके उसे मुसलमान बनाने की कोशिश की। उसने हिन्दुओं के लिए अपमानजनक कानून कायदे बनाये और हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को मसजिदों की सीढ़ियों के नीचे रखवाया ताकि उन पर मुसलमानों के पैर पड़ें।

औरंगजेब ने यद्यपि लगभग आधी शताब्दी (१६५८-१७०७ ई.) तक शासन किया, तथापि वह इस खतरे को नहीं देख सका कि फिरंगियों की ताकत बढ़ती जा रही है। फिरंगियों ने उसके शासनकाल में भारत के विभिन्न भागों में अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं। औरंगजेब इस बात को समझ नहीं सका कि इन फिरंगियों की ताकत बढ़ने से सल्तनत को खतरा पहुँचेगा। उसने समुद्री मार्गों से फिरंगियों को आने से रोकने के लिए एक शक्तिशाली जंगी बेड़ा बनाने की आवश्यकता नहीं महसूस की। अतएव इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि उसकी मृत्यु के आधी शताब्दी के बाद ही फिरंगियों की ही एक कौम ने बड़ी चालाकी और मक्कारी के साथ हिन्दुओं के असंतोष, मुगलों के अधीनस्थ मुसलमान सूबेदारों की स्वतंत्र शासक बन जाने की महत्त्वाकांक्षा तथा हिन्दुस्तानियों की आपसी फूट से लाभ उठाकर मुगलवंश को समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना कर दी। मुगलों में जो बड़े-बड़े बादशाह हुए, उनमें औरंगजेब अंतिम था। (जे. एन. सरकार - हिस्ट्री आफ औरंगजेब, खंड १-४; एडवर्ड्स एण्ड गैरेट-मुगल रूल इन इंडिया; ईलियट एण्ड डासन, खंड ७, पृ. २११-५३३ पर काफी खां लिखित मुंतखाब-उल-लुवाब)