विक्षनरी:भारतीय इतिहास कोश (क से घ)

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कंदर्पनारायण : बंगाल प्रांत पर सोलहवीं शताब्दी में शासन करनेवाले बारह भूमियाँ लोगों में से एक। उसका इलाका चंद्रद्वीप कहलाता था जो आधुनिक वाकरगंज जिले के समतुल्य था। वाकरगंज अब बंगला देश में है। दीर्घकालीन प्रतिरोध के बाद उसे बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेनी पड़ी।

कंदहार (अथवा कंधार) : अफगानिस्तान का दूसरा बड़ा नगर। सामरिक दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत से अफगानिस्तान जानेवाली रेलवे लाइन यहीं पर समाप्त होती है। यह नगर महत्त्वपूर्ण मंडी भी है। पूर्व से पश्चिम को स्थलमार्ग से होनेवाला अधिकांश व्यापार यहीं से होता है। कंदहार में सोतों के पानी से सिंचाई की अनोखी व्यवस्था है। जगह-जगह कुएं खोदकर उनको सुरंग से मिला दिया गया है।

कंदहार का इतिहास उथल-पुथल से भरा हुआ है। पाँचवीं शताब्दी ई. पू. में यह फारस के साम्राज्य का भाग था। लगभग ३२६ ई. पू. में मकदूनिया के राजा सिकंदर ने भारत पर आक्रमण करते समय इसे जीता और उसके मरने पर यह उसके सेनापति सेल्यूकस के अधिकार में आया। कुछ वर्ष बाद सेल्यूकस ने इसे चंद्रगुप्त मौर्य (दे.) को सौंप दिया। यह अशोक के साम्राज्य का एक भाग था। उसका एक शिलालेख हाल में इस नगर के निकट मिला है। मौर्यवंश के पतन पर यह बैक्ट्रिया, पार्थिया, कुषाण तथा शक राजाओं के अंतर्गत रहा।

दसवीं शताब्दी में यह अफगानों के कब्जे में आ गया और मुसलिम राज्य बन गया। ग्यारहवीं शताब्दी में सुल्तान महमूद, तेरहवीं शताब्दी में चंगेज खां तथा चौदहवीं शताब्दी में तैमूर ने इस पर अधिकार कर लिया। १५०७ ई. में इसे बाबर ने जीत लिया और १६२५ ई. तक दिल्ली के मुगल बादशाहों के कब्जे में रहा। १६२५ ई. में फारस के शाह अब्बास ने इस पर दखल कर लिया। शाहजहाँ और औरंगजेब द्वारा इस पर दुबारा अधिकार करने के सारे प्रयत्न विफल हुए। कंदहार थोड़े समय (१७०८-३७ ई.) को छोड़कर १७४७ ई. में नादिरशाह की मृत्यु के समय तक फारस के कब्जे में रहा। १७४७ ई. में अहमदशाह अब्दाली (दे.) ने अफगानिस्तान के साथ साथ इस पर भी अधिकार कर लिया। किन्तु, उसके पौत्र जमानशाह (दे.) की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए कंदहार काबुल से अलग हो गया। 1839 ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार ने शाहशुजा (दे.) की ओर से युद्ध करते हुए इस पर दखल कर लिया और 1842 ई. तक अपने कब्जे में रखा। ब्रिटिश सेना ने १८७९ ई. में इस पर फिर दखल कर लिया, किन्तु १८८१ ई. में खाली कर देना पड़ा। तबसे यह अफगानिस्तान के राज्य का एक भाग है।

कम्पनी-राज की सिविल सर्विस (बाद को 'इंडियन सिविल सर्विस' ) : वह प्रशासकीय सेवा, जिसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में अपना प्रशासन चलाने के लिए चालू किया था। इसका आरम्भ अत्यन्त छोटे रूप में हुआ। व्यापारियों की संस्था के रूप में कम्पनी ने अपनी सेवा में अंग्रेज युवकों को लिपिक के पद पर नियुक्त किया। ये ब्रिटिश युवक आम तौर से डायरेक्टरों द्वारा मनोनीत होते और कम्पनी के शेयरहोल्डरों से रिश्तेदारी के आधार पर चुने जाते थे। उनकी उम्र २० वर्ष से कम होती। उन्हें स्कूली शिक्षा या तो बिल्कुल मिली ही न होती या बहुत कम मिली होती। उनका वेतन भी बहुत कम होता था। १७५७ ई. में पलासी युद्ध के बाद जब कम्पनी के आधिपत्य में भारत का काफी बड़ा क्षेत्र आ गया तो उसने नवविजित क्षेत्रों का प्रशासन अपने इन लिपिकों के सुपुर्द कर दिया। इन नवनियुक्त अफसरों ने जबरदस्त भ्रष्टाचार और बेईमानी शुरू कर दी, अतः कमपनी ने उनसे एक करार (कावेनेंट) पर हस्ताक्षर करने को कहा, जिसमें कम्पनी की सेवा ईमानदारी और सच्‍चाई के साथ करने का वचन मांगा गया था। इसी आधार पर अंग्रेजी में इस करारशुदा सेवा को 'कावेनेंटेड सिविल सर्विस' कहा जाने लगा। बंगाल में लार्ड क्लाइव के दूसरी बार के प्रशासनकाल में कम्पनी ने पहली बार अपने अफसरों को उक्त करार करने को बाध्य किया। अफसरों ने शुरू में तो इस नयी व्यवस्था का विरोध किया किन्तु अंततः उन्हें झुकना पड़ा। लार्ड कार्नवालिस के प्रशासनकाल में यह कावेनेंटेड सिविल सर्विस (करारवाली सिविल सेवा ) भारत में कम्पनी के प्रशासनतंत्र का एक नियमित अंग बन गयी।

लार्ड कार्नवालिस ने इस सेवा में सिर्फ अंग्रेजों को ही भर्ती किया और उनके वेतन भी काफी बढ़ा दिये। कम्पनी के अंतर्गत सभी महत्त्वपूर्ण सिविल पदों पर अंग्रेजों की नियुक्ति होती और जिला कलेक्टरों, मजिस्ट्रेटों, जजों के पदों पर तो जैसे उनका एकाधिकार हो गया। बाद को जब विभागीय सचिवों और राजनयिक एजेंटों के पद चालू किये गये तो उन पर भी अंग्रेजों की ही नियुक्ति की गयी। लार्ड वेलेस्ली ने कावेनेंटेड सिविल सर्विस के सदस्यों का बौद्धिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए एक निश्चित अवधि तक उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था की। इसके लिए उसने कलकत्ता में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना की। किन्तु १८०५ ई. में यह कालेज बंद करना पड़ा, क्योंकि इसपर होनेवाले खर्च पर कम्पनी ने ऐतराज किया। इसके बाद के पचास वर्षों में कावेनेंटेड सिविल सर्विस के रंगरूटों को लंदन के हेलेबरी कालेज में प्रशिक्षण दिया जाता रहा। इनमें से कुछ रंगरूट तो वास्तव में अत्यन्त योग्य और सफल प्रशासक सिद्ध हुए, किन्तु सामान्य तौर से औसत सदस्यों में बहुत कमियाँ पायी जाती थीं, क्योंकि कावेनेंटेड सिविल सर्विस में कम्पनी के डायरेक्टरों द्वारा नामजद लोगों की भर्ती होती थी, जिन्हें योग्य प्रशासक बनने के लिए अपेक्षित शिक्षा बिल्कुल नहीं प्राप्त थी। फलतः स्वयं इंग्लैण्ड में ही यह मांग उठी कि सर्वोत्तम और सर्वाधिक मेधावी ब्रिटिश युवकों को ही प्रशासक बनाकर भारत भेजा जाना चाहिए।

अतः १८५३ ई. में कावेनेंटेड सिविल सर्विस में, जो अब 'इंडियन सिविल सर्विस' के नाम से पुकारी जाने लगी, प्रवेश सार्वजनिक प्रतियोगिता के माध्यम से सबके लिए खोल दिया गया। १८५५ ई. में लंदन में बोर्ड आफ कंट्रोल की देखरेख में पहली सार्वजनिक प्रतियोगिता हुई। सन् १८५८ से यह प्रतियोगिता सिविल सर्विस कमिश्नरों की देखरेख में होने लगी। इस प्रकार इंडियन सिविल सर्विस में सभी मेधावी ब्रिटिश युवकों के लिए प्रवेश का द्वार खुल गया, लेकिन चार्टर एक्ट, १८३२ ई. (दे.) और १८५८ ई. में महारानी के घोषणापत्र (दे.) के बावजूद भारतीय अब भी प्रवेश से वंचित रहे। १८६४ ई. में पहली बार एक भारतीय (महाकवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर के बड़े भाई सत्येन्द्र नाथ ठाकुर ) लंदन में हुई इण्डियन सिविल सर्विस की प्रतियोगिता में सफल हुआ और उसने इंडियन सिविल सर्विस में स्थान प्राप्त किया। किन्तु इंडियन सिविल सर्विस में भारतीयों का प्रवेश अत्यल्प रहा और १८७६ में अधिकतम उम्र २३ वर्ष से घटा कर १९ वर्ष कर देने से यह प्रवेश असंभव नहीं तो और अधिक कठिन अवश्य बना दिया गया।

बहरहाल, इस समय तक भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार हो गया था, इसलिए भारतीय विश्वविद्यालयों के नये स्नातकों द्वारा इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश की अधिक सुविधाएं माँगना स्वाभाविक था। भारतीयों ने यह माँग करना शुरू किया कि इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश के लिए लंदन के साथ ही साथ भारत में भी एक प्रतियोगिता परीक्षा होनी चाहिए और प्रवेश की अधिकतम उम्र पहले की तरह २३ वर्ष कर दी जाये। बाद में इस मांग पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी जोर दिया और शुरू के प्रायः सभी अधिवेशनों में इस माँग को दोहराया। लेकिन इसे बराबर नजरंदाज किया जाता रहा।

१८७८ ई. में भारतीय मांग को टालने के लिए एक नयी सेवा आरम्भ की गयी जिसे 'स्टेट्यूटरी सिविल सर्विस' का नाम दिया गया और इसमें भारतीयों की भर्ती की गयी। इस सेवा के लोग कम महत्त्ववाले कुछ ऊंचे पदों पर विशेषरूप से न्यायिक पदों पर, नियुक्त किये गये और उन्हें एक से पदों पर कार्य करने के बावजूद इंडियन सिविल सर्विस के सदस्यों के मुकाबले दो-तिहाई वेतन दिया जाता रहा। इसलिए इस सेवा से भी भारतीय माँग संतुष्ट नहीं हुई और १८८५ ई. में इस सेवा को समाप्त कर दिया गया। उम्र की १८८९ ई. में बढ़ाकर २३ वर्ष कर दी गयी किन्तु इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश के लिए भारत में भी प्रतियोगिता परीक्षा कराने की माँग १९२२ ई. तक नहीं मानी गयी। ब्रिटेन और भारत दोनों ही सरकारों का भरसक प्रयास अब भी यही रहा कि इंडियन सिविल सर्विस सेवा में बाहुल्य अंग्रेजों का ही बना रहे।

प्रधानमंत्री लायड जार्ज ने अगस्त १९२२ में कामन सभा (हाउस आफ कामन्स) में किये गये एक भाषण में इंडियन सिविल सर्वि‍स के अंग्रेज नौकरशाहों को भारतीय संवैधानिक ढांचे 'इस्‍पाती चौखटा' कहा और भविष्‍यवाणी की कि "अगर आप इस इस्पाती चौखटे को हटा लें तो पूरा ढांचा ही ढह जायेगा।" किन्तु पचीस वर्षों बाद इस इस्पाती चौखटे के बने रहने पर भी ढांचा ढह पड़ा।

असलियत यह थी कि इंडियन सिविल सर्विस के ब्रिटिश सदस्यों ने भारत के विकास और यहाँ तक कि उसके राजनीतिक भविष्य के विकास में भी निस्संदेह महत्त्वपूर्ण योग दिया, किन्तु वे अपने को भारत का अंग कभी न बना पाये। वे भारत के लिए बहुत मंहगे थे। उन्होंने आमतौर से भारतीयों को अपने से नीचा समझा। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उनका अंतिम प्रयास अत्यन्त घृणित था। उन्होंने भारत में साम्प्रदायिक तनाव इस हद तक बढ़ा दिया कि अगस्त १९४७ में आखिरकार जब उन्हें परिस्थितियों ने भारत छोड़ने को विवश कर दिया तो वे उसे दो टुकड़ों में बँटा हुआ और लहुलुहान छोड़कर गये। (एन. सी. राय कृत दि सिविल सर्विस इन इंडिया)

कठिओई : (कठ) एक गण जो पंजाब में चिनाव और रावी नदियों के बीच में रहता था। उसकी राजधानी सांगल थी, जो सम्भवतः आधुनिक गुरुदासपुर जिले में स्थित थी। मकदूनिया के राजा सिकंदर ने ३२६ ई. पू. में अपने आक्रमण के समय इस गणराज्य को भी हराया था।

कड़ा : इलाहाबाद जिले का एक नगर। यहाँ सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी (दे.) १२९६ ई. में अपने भतीजे ने एवं दामाद अलाउद्दीन खिलजी (दे.) के हाथों मारा गया।

कण्व (अथवा काण्वायन ) वंश : लगभग ७३ ई. पू. शुंगवंश के बाद मगध का शासनकर्ता। इसका संस्थापक वासुदेव शुंगवंश के अंतिम राजा देवभूति का ब्राह्मण अमात्य था। कण्ववंश में उसके संस्थापक सहित चार राजा हुए जिन्होंने पैतालीस वर्ष तक राज्य किया। उसके अंतिम राजा सुशर्मा को लगभग २८ ई. पू. में आंध्र वंश के संस्थापक सिभुक ने मार डाला।

कथावत्थु : पालि भाषा का एक प्रसिद्ध बौद्ध टीका ग्रन्थ। प्रो. र्हाइस डेविस ने इसका रचनाकाल अशोक का राज्यकाल (लगभग २७३-२३२ ई. पू.) माना है।

कथासरित्सागर : सोमदेव कवि की १०६३ और १०८१ ई. के बीच की रचना। इसमें भारतीय वणिकपुत्रों द्वारा दक्षिण-पूर्व एशिया के समुद्रो में साहसिक यात्राएँ करने के अनेक वर्णन मिलते हैं।

कदफिसस प्रथम : पूरा नाम कुजल-कर-कदफिसस, कुषाण वंश का पहला राजा। वह सम्भवतः ४० ई. में गद्दीपर बैठा तथा लगभग ३७ वर्ष तक राज्य किया। उसने अपने राज्य का विस्तार बैक्ट्रिया से आगे अफगानिस्तान में तथा भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा क्षेत्र में सिंधु नदी के उस पार तक किया।

कदफिसस द्वितीय : कदफिसस प्रथम (दे.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। उसने कुषाण साम्राज्य का विस्तार सारे उत्तरी भारत में किया। बहुत से लोगों का विचार है कि उसी ने ७८ ई. में अपने राज्यारोहण के उपलक्ष्‍य में शक संवत् (दे.) प्रचलित किया। उसका साम्राज्य पूर्व में बनारस तथा दक्षिण में नर्मदा तक फैला हुआ था। उसमें मालवा तथा पश्चिमी भारत भी सम्मिलित था, जहाँ के शक क्षत्रप (दे.) उसे अपना स्वामी मानते थे। ८७ ई. में उसने चीनी सम्राट् से बराबरी का दावा किया और अपने साथ एक चीनी राजकुमारी का विवाह-सम्बन्ध कर देने की माँग की। जब उसकी यह माँग स्वीकार नहीं की गयी तो उसने पामीर के मार्ग से चीन पर हमला करने के लिए एक बड़ी सेना भेजी। परन्तु उसकी सेना हार गयी और कदफिसस द्वितीय को चीन से संधि कर लेनी पड़ी। इस संधि के द्वारा उसने चीन को वार्षिक कर देना स्वीकार कर लिया। कदफिसस द्वितीय के विभिन्न प्रकार के सिक्के बहुत अधिक संख्या में मिलते हैं। इससे सूचित होता है कि उसने दीर्घकाल तक राज्य किया। उसका राज्यकाल सम्भवतः ११७ ई. के आसपास समाप्त हुआ।

कनकमुनि का स्तूप : उत्तर प्रदेश में बस्ती जिले में निग्लीव गाँव के पास स्थित। सम्राट अशोक दो बार इस स्तूप का दर्शन करने गया था--पहली बार अपने राज्याभिषेक के चौदहवें वर्ष में और दूसरी बार बीसवें वर्ष में। पहली बार जब वह स्तूप का दर्शन करने गया तो उसने उसका विस्तार कराकर आकार पहले से दूना करवा दिया। दूसरी बार जब वह उसके दर्शन करने गया तो उसने वहाँ एक प्रस्तर-स्तम्भ स्थापित कराया।

कनारा : पश्चिमी मैसूर में एक पतली पट्टी, जो उसे समुद्रतट से अलग करती है। १७९९ ई. में इसे ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला गया।

कनिंघम, जनरल जोसेफ डेवी (१८१२-१८५१)  : १८३४ ई. में बंगाल इंजीनियर्स में एक अधिकारी बनकर आया। वह सर अलैक्जैण्डर कनिंघम (दे.) का बड़ा भाई था। उसने पंजाब में विभिन्न स्थापनों और पदों पर कार्य किया तथा रणजीतसिंह और अमीर दोस्त मोहम्मद के साथ हुई वार्ता प्रसंग के समय भी मौजूद था। उसने १८४६ ई. के प्रथम सिखयुद्ध (दे.) में भाग लिया और अलीवाल तथा सुबराहानकी लड़ाइयाँ भी देखीं। इस प्रकार उसे पंजाब और पंजाबियों को जानने का पर्याप्त अवसर मिला। वह एक उदारमना व्यक्ति और उच्चकोटि का इतिहासकार भी था। उसके द्वारा लिखा गया सिखों का इतिहास अपने विषय का आधिकारिक और प्रामाणिक ग्रन्थ है, लेकिन इस प्रकाशन ने उसे संकट में डाल दिया। इस विषय पर उसके सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण और इस स्पष्टवादिता ने कि प्रथम सिखयुद्ध में अंग्रेजों ने दो सिख जनरलों को फोड़ लिया था, उसके अफसरों को नाराज कर दिया और विशेष महत्त्व के राजनीतिक पदों से हटाकर उसको साधारण काम सौंप दिया गया। १८५१ ई. में अम्बाला में उसकी मृत्यु हो गयी।

कनिंघम, सर अलेक्जेण्डर (१८१४-९३ ई.)  : प्रसिद्ध पुरातत्त्वान्वेषक, जो १८३३ ई. में एक सैन्य शिक्षार्थी की हैसियत से भारत आया। वह १८३६ ई. में गवर्नर जनरल लार्ड आकलैण्ड का अंगरक्षक हो गया। १८३६ ई. में ही वह सेना की इंजीनियरिंग शाखा में चला गया और १८४६ ई. के प्रथम सिखयुद्ध (दे.) में फील्ड इंजीनियर हो गया। उसने दूसरे सिखयुद्ध (दे.) (१८४८-४९ ई.) में और चिल्लियाँवाला की लड़ाई में भी भाग लिया। वह १८५६ से ५८ ई. तक बर्मा में मुख्य अभियंता (चीफ इंजीनियर) रहा और इसके बाद इसी पद पर पश्चिमोत्तर प्रांत में भी नियुक्त हुआ। १८६१ ई. में रिटायर होने के बाद फौरन ही वह भारत सरकार का पुरातत्त्व-सर्वेक्षक बना दिया गया। १८७० ई. में वह विभाग का निदेशक हो गया और १८८५ ई. में भारत से वापस जानेतक इसी पद पर बना रहा। अवकाश-ग्रहण के बाद उसने प्राचीन मुद्राशास्त्र पर विशेष ध्यान दिया और वह इस विषय का अधिकारी विद्वान् माना जाता था। उसकी मृत्यु १८९३ ई. में हुई। उसके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में 'भिल्सा टोप्स', 'दि ऐशियेण्ट ज्यागरफी आफ इंडिया', 'कार्पस् इंरिक्रप्शनम इंडिकेरम' (खण्ड प्रथम), 'दि स्तूप आफ भरहुत' और 'दि बुक आफ इंडियन एराज' विशेष उल्लेखनीय हैं। भारतीय पुरातत्त्वशास्त्र में उसके योगदान से हमें प्राचीन भारतीय इतिहास की बहुत अधिक जानकारी मिली है। प्राचीन भारतीय इतिहास के छात्रों के लिए सर अलैक्जैण्डर कनिंघम की पुस्तकें आज भी अत्यधिक महत्त्व रखती हैं।

कनिष्क : कदफिसस प्रथम (दे.) द्वारा स्‍थापित कुषाण राजवंश का सबसे प्रसिद्ध राजा। कनिष्‍क का काल अत्‍यंत विवादास्‍पद रहा है। कुछ विद्वानों के मतानुसार उसका शासनकाल 78 ई. में आरंभ हुआ, जिस काल में शक संवत् प्रचलित हुआ। अन्‍य मत के अनुसार वह दूसरे कुषाण राजा कदफिसस द्वितीय की मृत्‍यु के 10 वर्ष बाद लगभग 120 ई. में सिंहासन पर बैठा। कदफिसस द्वितीय के साथ उसका कोई संबंध ज्ञात नहीं है। उसके पिता का नाम वाझेष्‍क था, परंतु वह गद्दी पर नहीं बैठा। कनिष्‍क की राजधानी पुरुषपुर अथवा पेशावर थी। वहाँ उसने बहुत-सी इमारतें बनवाकर नगर को सुन्दर बनाया। उसके साम्राज्य में गंधार (पूर्वी अफगानिस्तान), कश्मीर तथा सिंधु और गंगा का मैदान सम्मिलित थे। उसने एक सेना भेजकर पामीर के उस पार चीनी तुर्किस्तान पर चढ़ाई की और खोतन, यारकंद तथा काशगर के सरदारों को हराया। ये सरदार अभी तक चीनी सम्राट् के अधीन थे। कनिष्क ने इनमें से कुछ को विवश किया कि वे उसके दरबार में अपने पुत्रों को बंधक के रूप में भेजें। उसने लम्बे समय तक, सम्भवतः २४ वर्ष १२० ई. से १४४ ई. तक शासन किया। उसका नाम कई शिलालेखों पर अंकित है। उसके विविध प्रकार के सिक्के मिलते हैं, जिनपर जरयुस्त्री, यूनानी, सिहिर तथा शिव, बुद्ध आदि भारतीय देवताओं के चित्र अंकित हैं। इससे संकेत मिलता है कि कनिष्क सभी धर्मों के प्रति आदरभाव रखता था। बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार वह बौद्ध धर्म का पक्का अनुयायी था और उसने बौद्धों की चौथी संगीति आयोजित की थी, जिसमें बौद्ध त्रिपिटक का प्रामाणिक भाष्य तैयार किया गया। यह भाष्य ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराया गया और उनको कश्मीर के कुंडलवन बिहार में, जहाँ चौथी संगीति हुई, एक स्तूप बनवाकर उसमें सुरक्षित रख दिया गया। इस संगीति में मुख्य रूप से हीनयान सम्प्रदाय के अनुयायियों ने भाग लिया, परन्तु महायान निकाय भी उस समय तक काफी प्रबल हो चुका था और अश्वघोष, नागार्जुन, वसुमित्र आदि प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य, जिनको कनिष्क का संरक्षण प्राप्त था, इसी सम्प्रदाय के अनुयायी थे। कनिष्क विद्वानों का आश्रयदाता था। प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य चरक उसका राजवैद्य था। कनिष्क विशाल भवनों का महान निर्माता और मूर्ति एवं वास्तुकला का प्रेमी था। उसने पेशावर में बुद्ध के अवशेषों पर ४०० फुट ऊँचा स्तूप बनवाया। उसने तक्षशिला नगर का एक नया भाग बनवाया जो सिरमुख कहलाता था। उसने कश्मीर में अपने नाम पर नया नगर बसाया, मथुरा में वास्तुकला की कई सुन्दर कृतियों का निर्माण कराया। सम्भवतः गांधार कला (दे.) का विकास उसी के राज्यकाल में हुआ। उसने गंधार के बाहर के शिल्पियों को भी अपना संरक्षण प्रदान किया। उसके साम्राज्य के अंतर्गत सारनाथ तथा मथुरा में तथा दक्षिण में कृष्णा नदी के तट पर स्थित अमरावती में वास्तुकला की नयी शैलियाँ विकसित हुईं। वास्तव में भारतीय कला, संस्कृति तथा सभ्यता के विकास में कनिष्क ने विदेशी होते हुए भी इतना प्राचीन भारत के सबसे महान् राजाओं में माना जाता है।

कन्नौज : उत्तरी भारत का अत्यंत प्राचीन और प्रसिद्ध नगर। इसका मूल नाम कान्यकुब्ज था, जो ब्राह्मणों का भी केन्द्रस्थल बन गया था। अब यह एक छोटा-सा नगर है और इसमें अधिकांश मुसलमान रहते हैं। महाभारत में इसका बार-बार उल्लेख किया गया है। पतंजलि ने भी, जो दूसरी शताब्दी ई. पू. में हुए, इसका संकेत किया है। जब चीनी यात्री फाहियेन लगभग ४०५ ई. में इस नगर में आया तो यहाँ उसे केवल दो बौद्ध विहार मिले। यह उस समय उतना बड़ा नगर नहीं रह गया था जितना ह्युएनत्सांग के समय था। वह ६३६ ई. में इस नगर में आया था और यहाँ सात वर्ष ठहरा। उस समय यह जनसंकुल नगर था, यहाँ सैकड़ों हिन्दू तथा बौद्ध मंदिर थे और गंगा के पूर्वी तटपर लगभग चार मील तक विहार-ही-विहार थे। नगर में अनेक मनोरम उद्यान तथा सुन्दर तड़ाग थे और नगरदुर्ग की रक्षा की शक्तिशाली व्यवस्था थी। नगर में इस परिवर्तन का सारा श्रेय महाराजाधिराज हर्षवर्धन (६०६-६४७ ई.) को प्राप्त था, जिन्होंने इसे राजधानी बनाया। यह नगर अपने ऐश्वर्य और समृद्धि के कारण 'महोदय श्री' कहा जाने लगा था। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद जितने भी हिन्दू राजवंश हुए, उनकी अभिलाषा कन्नौज पर अधिकार करने की रहती थी। प्रतिहार राजाओं (८१६-१०९० ई.) ने इसे अपनी राजधी बनाया और कन्नौज फिर उत्तर भारत का प्रधान नगर बन गया। बंगाल के राजा धर्मपाल (दे.) ने इस नगर पर आक्रमण किया और कुछ समय तक बड़े गर्व के साथ इसे अपने अधिकार में रखा।

इस नगर पर विपत्तियाँ उस समय से पड़नी शुरू हुई जब १०१८ ई. में सुल्तान महमूद ने इसपर चढ़ाई की। उस समय का प्रतिहार राजा अपनी राजधानी कन्नौज से हटाकर गंगा के दूसरे तट पर स्थित बारी भाग गया। इसका अंतिम प्रतिहार राजा राज्यपाल (दे.) था, जिसे चंदेल राजा गंड ने अपदस्थ कर दिया। इसके बाद बारहवीं शताब्दी में कन्नौज गाहड्वाल राजपूतों के अधिकार में आ गया, जो राठौर के नाम से प्रसिद्ध हैं। कन्नौज का अंतिम राठौर राजा जयचंद ११९४ ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी से पराजित हुआ और मारा गया। इसके बाद कन्नौज का महत्त्व समाप्त हो गया। शेरशाह सूरी (दे.) ने मुगल बादशाह से अपनी निर्णयात्मक लड़ाई इस शहर के पास ही १५४० ई. में लड़ी और इसके बाद इस शहरको नष्ट कर दिया। इस शहर में अब पुरानी इमारतों के सिर्फ खंडहर बच गये हैं।

कपय नायक : तेलंगाना के हिन्दुओं का नेता। १३३६ ई. में उसने दक्षिण भारत के पूर्वी तट पर एक राज्य की स्थापना की। बाद में उसने मुसलमानों का जुआ उतार फेंकने और हिन्दू साम्राज्य की स्थापना करने में विजयनगर राज्य के संस्थापक दो भाइयों हरिहर तथा बुक्क (दे.) के साथ सहयोग किया।

कपिलवस्तु : उत्तर प्रदेशके बस्ती जिले के उत्तर में नेपाल की तराई में स्थित। इसका शाब्दिक अर्थ है 'कपिल का स्थान'। परन्तु, यह पता नहीं है कि इस स्थान का क्या सांख्य दर्शन (दे.) के प्रवर्तक कपिल से कोई सम्बन्ध था ? ऐतिहासिक रूप से कपिलवस्तु बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध (दे.) के जन्मस्थान के रूप में प्रसिद्ध है। (नवीन खुदाई से प्रमाणित हो गया है कि बस्ती जिले का पियरहवा नामक स्थान ही प्राचीन कपिलवस्तु था। -संपादक)

कपिलेन्द्र (अथवा कपिलेश्वर)  : एक राजा, जिसने लगभग १४५३ ई. में उड़ीसा के गंगवंश (दे.) का उच्छेद कर अपना राज्य स्थापित किया। उसने १४७० ई. तक राज्य किया। बहुत ही योग्य और पुरुषार्थी व्यक्ति था। उसने न केवल अपने राज्य के अंदर विद्रोहों का दमन किया, बल्कि राज्य की सीमा गंगा से कावेरी तक विस्तृत कर ली। उसने उड़ीसा में एक नये राजवंश की स्थापना की, जिसमें सबसे प्रसिद्ध राजा पुरुषोत्तम (दे.) (१४७०-९७ ई.) तथा उसका पुत्र प्रतापरुद्र (दे.) (१४९७-१५४० ई.) था। लगभग १५४१ ई. में कपिलेन्द्र के राजवंश को भोई राजवंश (दे.) ने अपदस्थ कर दिया।

कपूर सिंह : पंजाब के फैजुल्लापुर का एक सिख नेता, जो अठारहवीं शताब्दी में हुआ। बन्दा को फांसी दे दिये जाने के बाद उसने सिखों का संगठन किया, जो बाद में सिखों के धर्मराज्य, दल या खालसा के रूप में विकसित हुआ। पंजाब में सिखों का अस्तित्व एक अलग सम्प्रदाय के रूप में बनाये रखने में खालसा ने बहुत मदद की।

कबाचा, नासिरुद्दीन : एक गुलाम जो शहाबुद्दीन महम्मद गोरी का कृपापात्र बन गया। शहाबुद्दीन ने उसे सिंध का सूबेदार नियुक्त कर दिया। वह इतना शक्तिशाली था कि दिल्ली के पहले सुल्तान कुतुबुद्दीन (दे.) ने इसी में बुद्धिमानी समझी कि उससे अपनी बहिन का ब्याह करके मित्रता स्थापित कर ली। सुल्तान कुतुबुद्दीन की मृत्यु पर कबाचा दिल्ली के तख्त का दावेदार बन गया और इस प्रकार वह कुतुबुद्दीन के दामाद एवं उत्तराधिकारी सुल्तान इल्तुतमिश (दे.) का प्रबल प्रतिद्वन्द्वी सिद्ध हुआ। अंत में लम्बी लड़ाई के बाद कबाचा ने इल्तुतमिश की अधीनता स्वीकार कर ली।

कबीर : प्रसिद्ध संत, जिन्होंने मनुष्य-मनुष्य तथा हिन्दू धर्म एवं मुसलमान धर्म के बीच एकता स्थापित करने का उपदेश दिया। उनका जन्मकाल और मृत्युकाल अनिश्चित है, परन्तु सम्भवतः उनका जीवनकाल चौदहवीं शताब्दी का अंतिम भाग तथा पन्द्रहवीं शताब्दी का प्रारम्भिक भाग है। विश्वास किया जाता है कि वे प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य रामानन्द के शिष्य थे, यद्यपि उनका लालन-पालन मुसलमान जुलाहा परिवार में हुआ था। कबीर ने अपने अधिकांश विचार हिन्दू धर्म से लिये। मुसलमान सूफी संतों तथा कवियों का भी उनपर भारी प्रभाव था। कबीर ने प्रेम के पंथ का उपदेश दिया जिसमें विभिन्न जातियों और धर्मों में कोई भेदभाव नहीं किया जाता। उनके लिए हिन्दू और तुरुक एक ही मिट्टी के पुतले थे और अल्लाह और राम एक ही ईश्वरके दो नाम। कबीर हिन्दू और इसलाम धर्म के कर्मकांड अथवा बाह्याडम्बरों में विश्वास नहीं करते थे। उनका मत था कि जो हरि को भजता है वह उसी का हो जाता है। उनका मत था कि ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए एक है और वह है ईश्वर की भक्ति करना तथा छल-कपट, झूठ तथा पाखंड से दूर रहना।

कमरुद्दीन : बादशाह महम्मद शाह (१७१९-४८ ई.) (दे.) का वजीर और एक योग्य अधिकारी। अहमदशाह अब्दाली ने १७४८ ई. में जब भारत पर पहला आक्रमण किया तो कमरुद्दीन ने शाहजादा अहमद को उस आक्रमण को विफल करने में सहायता दी। परन्तु पंजाब में सतलज के तट पर सरहिन्द में जो लड़ाई हुई तथा जिसमें अब्दाली हारा, उसमें कमरुद्दीन मारा गया।

कमला देवी : गुजरात के राजा कर्णदेव द्वितीय (दे.) की रानी। १२९७ ई. में उसका पति अलाउद्दीन खिलजी की सेना से हार गया। फलस्वरूप वह अपनी पुत्री देवलदेवी को लेकर भागी, परन्तु मुसलमानों ने उसको पकड़ लिया और दिल्ली ले गये, जहाँ वह सुल्तान की चहेती बेगम बन गयी।

कमिश्नर (आयुक्त) : वह सरकारी अधिकारी, जिसके अधीन कई जिलों को मिलाकर बनाये गये एक मंडल (डिवीजन) का प्रशासन होता है। यह पद १८२९ ई. में प्रचलित हुआ। मूलरूप में कमिश्नर का काम जिले के कलक्टरों, मजिस्ट्रेटों और जजों के कार्य का निरीक्षण करने के अलावा पुलिस और न्याय विभाग का दायित्व संभालना था। किन्तु इतना अधिक काम एक व्यक्ति के लिए बहुत भारी पड़ता था, अतः कमिश्नर को न्याय एवं पुलिस विभाग के दायित्व से मुक्त कर अधीनस्थ जिला कलक्टरों के कार्य का निरीक्षक मात्र रहने दिया गया। राजस्व सम्बन्धी मामलों के मुकदमों का फैसला करना भी उसी की जिम्मेदारी थी।

कम्बुज देश : आधुनिक कम्बोडिया में भारतीयों द्वारा स्थापित प्राचीन हिन्दू राज्य। जनश्रुतियों के अनुसार इस राज्य की स्थापना कौण्डिन्य नामक एक भारतीय ब्राह्मण ने की थी। उसने वहाँ के स्थानीय नागराज की पुत्री सोभा से विवाह कर लिया और दूसरी शताब्दी ईसवी में कम्बुज में एक राजवंश की स्थापना की। चीनी लोग इस राज्य को फूनान कहते थे। कहा जाता है कि भारत से सैकड़ों ब्राह्मण फूनान जाकर बस गये और वहाँ के मूल निवासियों की कन्याओं से उन्होंने विवाह कर लिया। फूनान राज्य ने भारत तथा चीन में अपने दूत भेजे। छठीं शताब्दी में यह देश फूनान के बजाय 'कम्बुज देश' कहलाने लगा। इसका आधुनिक नाम 'कम्बोडिया' इसी के आधार पर पड़ा है। कम्बुज देश के राजाओं के शरीर में भारतीय रक्त था। वे लगभग नौ शताब्दियों तक इस देश पर बड़े पराक्रम के साथ शासन करते रहे। पन्द्रहवीं शताब्दी में कम्बुज देश के हिन्दू राज्य को अन्नाम तथा स्याम के लोगों ने नष्ट कर दिया और वह कम्बोडिया का एक छोटा-सा राज्य रह गया। कम्बोडिया अभी कुछ दशकों पहले तक फ्रांस का संरक्षित राज्य था।

कम्बुज देश के जो प्रतापी राजा हुए, उनमें चार का नाम उल्लेखनीय है। वे हैं जयवर्मा प्रथम तथा द्वितीय; यशोवर्मा जिसने यशोधरपुरकी स्थापना की, जिसे अब अंकोरथोम कहते हैं तथा जिसकी विजयगाथाओं का वर्णन करनेवाले संस्कृत तथा स्थानीय भाषाओं में कई शिलालेख मिलते हैं; सूर्यवर्मा द्वितीय, जिसने अंकोरवाट का अनुपम मंदिर बनवाया, जो अपनी विशालता तथा सुन्दरता के कारण संसार में वास्तुकला की एक आश्चर्यजनक कृति माना जाता है। कम्बुज देश में हिन्दू और बौद्ध, दोनों धर्म प्रचलित रहे। बाद में बौद्धधर्म ने अधिक प्राधान्य प्राप्त कर लिया और आधुनिक कम्बोडिया में भी यह धर्म प्रचलित है।

कम्बोज : कश्मीर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित प्राचीन जनपद, काफिरिस्तान का कुछ भाग भी उसमें सम्मिलित था। इस देश के निवासी भी 'कम्बोज' कहलाते थे। अशोक के शिलालेखों में कम्बोजों को उसकी प्रजा बताया गया है, जिनके बीच उसने बौद्धधर्म का प्रचार किया।

कम्बोडिया : देखिये 'कम्बुज'।

कयाल : दक्षिण भारत में ताम्रपर्णी नदी के तटपर स्थित एक नगर। वेनिस का यात्री मार्कोपोलो इस नगर में १२८८ ई. तथा १२९९ ई. में दो बार आया था। उसने इसे विशाल नगर बताया है, जो वाणिज्‍य-व्यवसाय का केन्द्र था। इसके पोताश्रय (बंदरगाह) में पश्चिमी तथा पूर्व के चीन जैसे सुदूर देशों के व्यापारियों की भीड़ रहती थी।

करणसिंह : कश्मीर के अंतिम महाराज। अपने पिता द्वारा राज्य का विलयन भारत संघ में कर देने के बाद वे कुछ समयतक कश्मीर के राजप्रमुख रहे। वे विद्वान् और साहित्यप्रेमी व्यक्ति हैं, उन्होंने गांधीजी पर भी एक पुस्तक लिखी है।

करणसिंह : मेवाड़ के राणा अमरसिंह (दे.) का पुत्र और राणा प्रतासिंह का पौत्र। १६१४ ई. में राणा अमरसिंह मुगलों के अधीन हो गया और उसके तथा उसके पुत्र करणसिंह ने बादशाह जहाँगीर का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। जहाँगीर मेवाड़-विजय पर गर्व से फूला न समाया और उसने करणसिंह तथा उसके पिता की मूर्तियाँ आगरे के महल में स्थापित कीं। करणसिंह को पंचहजारी मनसबदार का पद स्वीकार कर लेना पड़ा और अपने पिता की मृत्यु के बाद वह मुगलों का अधीनस्थ राजा होकर मेवाड़ का शासन करता रहा।

करनाल की लड़ाई : १७३९ ई. में नादिरशाह और मुगल बादशाह मुहम्मद शाह (१७१९-४८ ई.) (दे.) की फौजों के बीच हुई। नादिरशाह की फौजें बिना किसी प्रतिरोध के दिल्ली के निकट करनाल तक चढ़ आयीं। इस लड़ाई में मुगलों की जबरदस्त हार हुई, बादशाह मुहम्मद शाह बंदी बना लिया गया, नादिरशाह ने अपनी सेना के साथ दिल्ली में प्रवेश किया और निर्दयता के साथ मारकाट कर उसे लूटा।

करिकाल : अबतक ज्ञात चोल राजाओं में सबसे प्राचीन। उसका काल १०० ई. माना जाता है। कहा जाता है कि उसने पुहार नगर की स्थापना की और कावेरी नदी के किनारे सौ मील लम्बा बांध बनवाया।

करीम खां : पेंढारियों (दे.) का नेता। भारत के गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्स (१८१३-२३ ई.) ने पेंढारियों पर जो चढ़ाई की, उसके फलस्वरूप उसे १८१८ ई. में अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। उसे उत्तर प्रदेश में गावरुपुर में एक जागीर दे दी गयी, जहाँ वह शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने लगा।

करेरी, डा. जेमिली : एक इटालियन यात्री, जो शाहंशाह औरंगजेब (१६५८-१७०७ ई.) के शासनकाल के अंतिम दिनों में भारत आया। १६९५ ई. में जब औरंगजेब कृष्णा नदी के तटपर गलगला में पड़ाव डाले हुए था, तब डा. जेमिली करेरी उससे मिला था। उसने बूढ़े शाहंशाह के शिविर, उसकी शकल-सूरत, उसके रहन-सहन के ढंग के बारे में बड़ा दिलचस्प विवरण लिख छोड़ा है।

करोन, फ्रैन्को : भारत में प्रथम फ्रांसीसी फैक्टरी का संस्थापक। फ्रांसीसी ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भेजे जाने पर वह १६६७ ई. में एक छोटे फ्रांसीसी जहाजी बेड़े के साथ भारतीय तटपर आया और सूरत में एक फैक्टरी की स्थापना की।

करौली राज्य : दक्षिणी राजपूताने की एक पुरानी रियासत। लार्ड डलहौजी जब्ती के सद्धांत (दे.) के अंतर्गत इसे ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लेना चाहता था। परन्तु इंग्लैण्ड के उच्च अधिकारियों ने इसकी आज्ञा नहीं दी। उनका मत था कि करौली आश्रित राज्य नहीं है, जिसपर यह सिद्धांत लागू होता हो, बल्कि रक्षित मित्र राज्य है।

कर्क : एक प्रतिहार (दे.) राजा, जिसने ८३७ ई. में मुंगेर में गौड़ राजा से यद्ध करते हुए ख्याति प्राप्त की।

कर्क द्वितीय  : राष्ट्रकूट वंश (दे.) का अंतिम राजा, जिसे ९७३ ई. में तैल चालुक्य (दे.) ने अपदस्थ कर दिया।

कर्कोटक वंश : कश्मीर में सातवीं शताब्दी में दुर्लभवर्धन के द्वारा स्थापित। इसने कश्मीर पर ८५५ ई. तक राज्य किया। इसके बाद उत्पलवंश ने इसे उखाड़ फेंका। इस वंश के तीन सबसे प्रसिद्ध राजा चन्द्रापीड़ (दे.), मुक्तापीड़ ललितादित्य (दे.) तथा जयापीड़ विनयादित्य (दे.) हुए।

कर्जन, जार्ज नेथानियल (केडिल्सटन का मारक्विस ) (१८५९-१९२५)  : एटन और आक्सफोर्ड में शिक्षित और १८९९ ई. में भारत का गवर्नर-जनरल नियुक्त। इससे पहले वह मध्य एशिया से कोरिया तक विस्तृत यात्रा कर चुका था और इन यात्राओं के ऊपर उसकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी थीं। गवर्नर-जनरल के पद पर उसका पहला कार्यकाल १९०४ ई. में समाप्त हुआ। लेकिन उसे दुबारा फिर इसी पद पर नियुक्त कर दिया गया। इस दौरान वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् के सैनिक सदस्य की स्थिति को लेकर कमाण्डर-इन-चीफ लार्ड किचनर से उसका मतभेद हो गया। ब्रिटिश सरकार से भी इस प्रश्न पर समर्थन न मिला, अतः १९०५ में उसने गवर्नर जनरल के पद से त्यागपत्र दे दिया। लार्ड कर्जन के कार्यकाल की प्रमुख विशेषता प्रशासन में किये गये सुधार थे। उसने सीमाप्रांत नामक एक नये प्रांत की स्थापना की, जिसका उद्देश्य उस क्षेत्र की विद्रोही जनजातियों पर अच्छी तरह से नियंत्रण रख सकना था। फिर भी उसे १९०१ में वजीरी कबीले के विरुद्ध अभियान की स्वीकृति देनी पड़ी, जिसका अंत अंग्रेजों की जीत में हुआ। १९०३ ई. में कर्जन फारस की खाड़ी में ब्रिटिश हितों पर रूसी कुठाराघात रोकने और वहाँ ब्रिटिश व्यापार और प्रभाव बढ़ाने के लिए गया। तिब्बत में रूसी प्रभाव रोकने के लिए उसने १९०३ ई. में एक ब्रिटिश मिशन भेजा, लेकिन इसका नतीजा यह निकला कि तिब्बत से युद्ध छिड़ गया। अंग्रेजी और भारतीय सेना ल्हासा में घुस गयी और शांति के लिए ल्हासा-संधि (दे.) करने के लिए तिब्बत को मजबूर होना पड़ा।

कर्जन ने प्रशासन के हर क्षेत्र की जाँच-पड़ताल की और जनमत की ज्यादा परवाह किये बिना जो सुधार उचित समझे किये। उसने इम्पीरियल कैडिट कोर की स्‍थापना की, निजाम से बरार का विवाद निपटाया और कलकत्ता में विक्टोरिया मेमोरियल हाल का निर्माण शुरू कराया। इसके लिए उसने धनाढ्य भारतीयों से बड़े-बड़े दान लिये। दिसम्बर १९०२ ई. में एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक पर दिल्ली दरबार आयोजित किया, भारत का वित्तीय प्रबंध दक्षता से किया, नमक-कर दो बार कम किया, न्यूनतम आय पर कर माफ किया तथा सरकारी गोपनीयता कानून, भारतीय खान कानून, प्राचीन स्मारक संरक्षण कानून और सहकारी ऋण समिति कानून जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण कानून पास कराये। किन्तु विश्वविद्यालय अधिनियम और बंग-भंग जैसे कुछ कार्यों तथा सार्वजनिक भाषणों में भारतीय चरित्र और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की निंदा किये जाने की वजह से भारत में उसके खिलाफ उग्र जन-आक्रोश भड़क उठा। वह शासन को उदार बनाने और भारत में हर प्रकार के आंदोलनों को कुचलने में विश्वास करता था। उसकी इन नीतियों का नतीजा यह निकला कि भारतीय राष्ट्रवाद की भावना ने और जोर पकड़ लिया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की लोकप्रियता पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गयी।

१९०५ ई. में भारत से अवकाश ग्रहण करने के बाद कर्जन बीस वर्षों तक जिया, इस अवधि में उसने ब्रिटेन के कई मंत्रिमंडलों में उच्च पदों पर काम किया, लेकिन इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री का पद पाने की अभिलाषा पूरी न हो सकी और १९२५ ई. में उसकी मृत्य हो गयी। (लार्ड रोनाल्डशे कृत लाइफ आफ लार्ड कर्जन)

कर्टिस, लायोनेल : प्रख्यात पत्रकार। वह 'राउण्ड टेबुल' पत्र का संस्थापक और कई वर्षों तक उसका संपादक रहा। वह ब्रिटिश साम्राज्य की एकता बनाये रखने का बहुत बड़ा समर्थक था। उसी के सुझाव पर १९१९ ई. के गवर्नमेण्ट आफ इंडिया ऐक्ट में पहली बार 'द्वैध शासन' का सिद्धांत शामिल किया गया, जिसका प्रयोजन यह था कि ब्रिटिश भारत के प्रांतों में आंशिक रूप से प्रशासन का दायित्व जनप्रतिनिधियों पर छोड़ा जाय। यही सिद्धान्त १९३५ ई. के गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया ऐक्ट के अंतर्गत केन्द्र में भी लागू करने की व्यवस्था की गयी, किन्तु वह कार्यान्वित न हो सकी।

कर्णदेव : गुजरात का राजा। १२९७ ई. में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के सिपहसालारों ने उसके राज्य पर हमला किया। युद्ध में वह पराजित हुआ और उसकी रानी कमलादेवी को बंदी बनाकर सुल्तान के हरम में भेज दिया गया। कर्णदेव भागकर देवगिरि के राजा रामचंद्रदेव (दे.) की शरण में चला गया। परन्तु, सुल्तान अलाउद्दीन की फौज ने उसे चैन से न बैठने दिया और उसका पीछा करती हुई दक्खि‍न में नन्दरबार पहुँची, जहाँ उसने एक छोटा-सा राज्य स्थापित कर लिया था। प्रबल प्रतिरोध के बाद उसका राज्य छीन लिया गया।

कर्णसुवर्ण : शशांक (दे.) के राज्यकाल में गौड़ (बंगाल) की राजधानी। शशांक तथा उसके समसामयिक महाराजाधिराज हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद, कामरूप (असम) के राजा भास्करवर्मा (दे.) ने कर्णसुवर्ण को जीत लिया और कुछ समय तक अपने अधिकार में रखा। उसने निधानपुर का दानपत्र कर्णसुवर्ण में अपने विजय शिविर में लिखवाया था। कर्णसुवर्ण की पहचान तर्कसंगत रीति से बंगाल में भागीरथी के तटपर स्थित मुर्शिदाबाद से की जाती है।

कर्णावती : मेवाड़ की एक वीर रानी। गुजरात के शासक बहादुर शाह ने जब १५३५ ई. में चित्तौड़ पर चढ़ाई की तो रानी ने दुर्ग की रक्षा की व्यवस्था की। जब हुमायूं बहादुरशाह के खिलाफ फौजें लेकर दिल्ली से चला तो रानी कर्णावती ने मुगल बादशाह से बहादुरशाह के खिलाफ संधि का प्रस्ताव किया, क्योंकि वह दोनों का समान शत्रु था। परन्तु हुमायूं ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। रानी कर्णावती बहादुरशाह की फौजों से चित्तौड़ की रक्षा करने में विफल रही, परन्तु मुसलमानों की इस विजय से हुमायूं को भी कोई लाभ नहीं हुआ, क्योंकि बहादुरशाह ने उसे भी गुजरात से वापस लौटने के लिए विवश कर दिया।

कर्तृपुर : समुद्रगुप्त (लगभग ३३०-३८० ई.) के इलाहाबाद स्तम्भ-लेख के अनुसार एक प्रत्यन्त (सीमांत) राज्य, जिसका राजा दूसरे प्रत्यंत राजाओं की भांति समुद्रगुप्त का करद था। यह राज्य सम्भवतः आधुनिक कुमायूं तथा गढ़वाल जिलों में विस्तृत था।

कर्नाक, कर्नल : कम्पनी की सेना का एक जनरल, १७६५ ई. में जब पदोन्नति कर इसे बंगाल की कौंसिल में भेजा गया, तब यह बिहार में तैनात था। बंगाल में कम्पनी के प्रशासन में इसने १७६५ से १७६७ ई. तक क्लाइव की सहायता की। बाद में प्रथम मराठा-युद्ध के दौरान मराठों के विरुद्ध अंग्रेज सेना के साथ भेजा गया और १३ जनवरी १७७९ ई. को बड़ागाँव के समझौते पर हस्ताक्षर कर अपने माथे कलंक का टीका लगाया। इस समझौते के अन्तर्गत उसने यह वचन दिया कि कुछ अंग्रेज अधिकारी बन्धक के रूप में मराठों को उस समय तक के लिए सौंप दिये जायेंगे, जब तक कम्पनी ने १७७३ से मराठा के जितने इलाकों पर कब्जा किया वे सब उन्हें वापस नहीं कर दिये जाते। वारेन हेस्टिंग्स ने इस समझौते को नहीं माना और डाइरेक्टरों के आदेश पर कर्नाक को बर्खास्त कर दिया गया।

कर्नाटक की लड़ाइयां : अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के बीच हुईं। ये लड़ाइयां अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की प्रतिद्वन्द्विता के परिणामस्वरूप हुईं और उनकी यूरोप की प्रतिस्पर्द्धा से सम्बन्धित थीं। ये लड़ाइयां अठारहवीं शताब्दी के आंग्ल-फ्रांसीसी युद्धों का ही एक भाग थीं। इनको 'कर्नाटककी लड़ाइयां' इसलिए कहते हैं कि ये भारत के कर्नाटक प्रदेश में लड़ी गयीं।

कर्नाटक की पहली लड़ाई आस्ट्रियाई उत्तराधिकार के युद्ध (१७४०-४८ ई.) से उत्पन्न आंग्ल-फ्रांसीसी शत्रुता के फलस्वरूप हुई। यह भारत में १७४६ ई. में उस समय शुरू हुई, जब फ्रांसीसियों ने मद्रास पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों ने कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन को फ्रांसीसियों को मद्रास से खदेड़ देने के लिए एक बड़ी सेना भेजने को प्रेरित किया। लेकिन सेन्ट थोम की लड़ाई में नवाब की सेना फ्रांसीसियों से पराजित हो गयी। फ्रांसीसियों ने पांडिचेरी पर अंग्रेजों का हमला विफल कर दिया। डूप्ले के नेतृत्व में उनका मद्रास पर भी कब्जा बना रहा। विजित इलाकों की पारस्परिक वापसी के आधार पर एक्सला-चैपेल की संधि (१७४८ ई.) हो जाने के बाद यह युद्ध समाप्त हो गया। संधि के अन्तर्गत मद्रास अंग्रेजों को मिल गया और क्षेत्रीय दृष्टि से अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया। लेकिन कर्नाटक की पहली लड़ाई से यह महत्त्वपूर्ण सबक मिला कि यूरोपीय तरीके से प्रशिक्षित एवं हथियारों से सज्जित भारतीय सैनिकों की सहायता से यूरोपीयों की एक छोटी सेना बहुत बड़ी भारतीय सेना को सरलता से हरा सकती है।

इस अनुभव के अनुसार डूप्ले ने राजनीतिक लाभ उठाने के लिए हैदराबाद के मामले में हस्तक्षेप किया। हैदराबाद के निजाम आसफजाह की मृत्यु १७४८ ई. में हो गयी और कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन का भी १७४९ ई. में निधन हो गया। दोनों स्थानों पर उत्तराधिकार का प्रश्न विवादास्पद था। डूप्ले ने कर्नाटक की गद्दी के लिए नवाब के जारज पुत्र मुहम्मद अली के विरुद्ध चन्दासाहब की सहायता करने का वचन दे दिया। इसी प्रकार हैदराबाद की गद्दी के लिए निजाम के दूसरे पुत्र नासिरजंग के विरुद्ध उसने निजाम के दोहते मुजफ्फरजंग की सहायता करने का आश्वासन दिया। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों ने सहज ही हैदराबाद की गद्दी के लिए नासिरजंग और कर्नाटक में मुहम्मद अली का समर्थन आरम्भ कर दिया। इस प्रकार आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध का दूसरा चरण आरम्भ हुआ, जो कर्नाटक की दूसरी लड़ाई (१७५१-५४ ई.) के नाम से प्रसिद्ध है।

भारतमें अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच यह लड़ाई अनधिकृत थी, क्योंकि यूरोप में दोनों के बीच शान्ति थी। पहले डूप्ले के निर्देशन में फ्रांसीसियों को सभी जगह सफलता मिली। उनके आश्रित चन्दासाहब को कर्नाटक की गद्दी मिल गयी और उसके प्रतिद्वन्द्वी मुहम्मद अली को अंग्रेज सैनिकों के संरक्षण में त्रिचनापल्ली के किले में शरण लेनी पड़ी। हैदराबाद में मुजफ्फरजंग निजाम के पद पर सत्तारूढ़ हो गया और उसने फ्रांसीसियों को कृष्णा से कन्याकुमारी तक के क्षेत्र में दक्षिण भारत की सार्वभौम शक्ति के रूप में मान्यता प्रदान कर दी।

१७५१ ई. में मुजफ्फरजंग मारा गया, लेकिन फ्रांसीसी अपने दूसरे आश्रित सलावतजंग को निजाम की गद्दी पर बैठाने में सफल हो गये। सलावतजंग ने फ्रांसीसियों के वे सभी अधिकार कायम रखे जो उन्हें मुजफ्फरजंग ने प्रदान किये थे। उस समय ऐसा प्रतीत होने लगा कि अब कुछ ही समय बाद त्रिचनापल्ली पर कब्जा होते ही फ्रांसीसियों की पूर्ण विजय हो जायगी। फ्रांसीसियों की सहायता से चन्दासाहब ने त्रिचनापल्ली को, जहाँ मुहम्मद अली आश्रय लिये था, घेर रखा था। त्रिचनापल्ली के पतन के साथ ही कर्नाटक तथा दक्षिण भारत में अंग्रेजों की शक्ति का नष्ट होना प्रायः निश्चित था। इस गम्भीर परिस्थिति में एक युवक कप्तान राबर्ट क्लाइव के सुझाव पर अंग्रेजों ने चन्दासाहब की राजधानी अंकोट पर आक्रमण करने का निश्चय किया। यह योजना बहुत ही सफल सिद्ध हुई। क्लाइव तथा उसकी २०० अंग्रेज और ३०० भारतीय सिपाहियों की छोटी-सी सेना ने सरलता के साथ अर्काट के किले पर कब्जा कर लिया। तत्काल चन्दासाहब ने त्रिचनापल्ली के सामने से बड़ी सेना हटाकर अर्काट पर पुनः कब्जा करने के उद्देश्य से घेरा डाल दिया। किन्तु क्लाइव की मुट्ठीभर सेना ५३ दिनों तक किले के अंदर डटी रही और अंत में चन्दासाहब की सेना ने जब किले पर धावा बोलकर उसे छीनने की कोशिश की तो उसे पीछे ढकेल दिया। चन्दासाहब की सेना को बाध्य होकर अर्काट के सामने से हटना पड़ा। क्लाइव की विजयी सेना तब किले के बाहर निकल आयी। उसकी सहायता के लिए अंग्रेजों तथा सहयोगी भारतीय राजाओं की नयी फौजें भी पहुँच गयी थीं। इन फौजों की मदद से क्लाइव ने कावेरीपाक तथा अन्य कई स्थानों पर चन्दासाहब की सेना को हराया। चन्दासाहब को विवश होकर आत्मसमर्पण कर देना पड़ा और उसे मार डाला गया।

फ्रांसीसियों ने अब कर्नाटक पर अपना समस्त अधिकार त्याग दिया, किंतु निजाम पर उनका प्रभाव पूर्ववत् बना रहा। निजाम के दरबार में इस समय बुसी डूप्ले का प्रतिनिधि था। इसी बीच फ्रांस की सरकार ने १७५४ ई. में डूप्ले को स्वदेश वापस बुला लिया, क्योंकि कर्नाटक की लड़ाइयों में डूप्ले की हार से वह हतोत्साहित हो गयी थी और इस अनधिकृत युद्ध को समाप्त कर फिर से शांति स्थापित कर देना चाहती थी। इस प्रकार कर्नाटक की दूसरी लड़ाई का अंत हो गया। इसके परिणामस्वरूप निजाम के दरबार में फ्रांसीसी और कर्नाटक में अंग्रेज प्रभुत्वशाली हो गये।

कर्नाटक की तीसरी लड़ाई ठीक दो साल बाद १७५६ ई. में शुरू हुई। इस समय यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध आरम्भ हो गया था और इंग्लैण्ड तथा फ्रांस में फिर ठन गयी थी। फलतः भारत में भी अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में लड़ाई शुरू हो गयी। इस बार लड़ाई कर्नाटक की सीमा लांघ कर बंगाल तक फैल गयी। अंग्रेजों ने १७५७ ई. में फ्रांसीसियों से चन्द्रनगर छीन लिया। किन्तु, सर्वाधिक निर्णायक लड़ाइयाँ कर्नाटक में ही हुईं। फ्रांस ने काउंट लाली को पांडिचेरी का गवर्नर बनाकर भेजा। उसने शुरूआत अच्छी की और आते ही फोर्ट सेंट डेविड पर तथा अंग्रेजों की पास-पड़ोस की सभी छोटी-छोटी बस्तियों पर कब्जा कर लिया, परन्तु मद्रास को उनसे नहीं छीन सका। उसने एक भारी गलती यह की कि बुसी को निजाम के दरबार से वापस बुला लिया। इससे निजाम पर फ्रांसीसियों का प्रभाव समाप्त हो गया। बंगाल से एक अंग्रेज सेना कर्नल फोर्ड के नेतृत्व में भेजी गयी। उसने आकर १७५८ ई. में उत्तरी सरकार फ्रांसीसियों से छीन लिया। युद्ध इसके बाद भी चलता रहा। १७६० ई. में सर आयर कूट के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने बिन्दवास की लड़ाई में फ्रांसीसी सेना को पराजित कर दिया। लाली को पीछे हटकर पांडचेरी भागना पड़ा। अंग्रेजी सेना ने उसे भी घेर लिया और १७६१ ई. में लाली को आत्मसमर्पण कर देना पड़ा।

यह युद्ध १७६३ ई. में पेरिस की संधि से समाप्त हो गया। फ्रांसीसियों को पांडिचेरी और अन्य बस्तियाँ इस शर्त पर वापस कर दी गयीं कि उनकी न तो किलेबंदी की जायगी और न वहाँ फौज रखी जायगी। उनका उपयोग सिर्फ तिजारत के लिए किया जायगा। इस प्रकार कर्नाटक की तीसरी लड़ाई के परिणामस्वरूप भारत में अंग्रेजों के प्रतिद्वंद्वी फ्रांसीसियों का पूर्ण पराभव हो गया और भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना का पथ प्रशस्त हो गया।

कर्पूरमंजरी : दक्षिण के एक कवि राजशेखर द्वारा प्राकृत भाषा में लिखा गया एक नाटक। राजशेखर गुर्जर-प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल (दे.) (८९०-९१० ई.) का गुरु था।

कर्वे (महर्षि, धोंढों केशव कर्वे) : एक प्रसिद्ध समाजसेवी प्राध्यापक, जिन्होंने पूना में महिला विश्वविद्यालय की स्थापना की। यह अपने ढंग की अनोखी संस्था है जो आधुनिक काल में भारत में नारी-शिक्षा की प्रगति को सूचित करती है।

कलकत्ता : स्थापना, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रतिनिधि जाब चारनाक द्वारा १६९० ई. में। उसने हुगली तटपर स्थित आधुनिक हुगली नगरसे १५ मील दक्षिण मूतानटीमें एक फैक्टरी कायम की। सूतानटीके चारों तरफ दलदल था और पहले यह सुविधाजनक स्थान नहीं लगता था। किन्तु यहाँतक जहाज आ-जा सकते थे और अंग्रेजोंकी समुद्री शक्तिके लिए यह स्थान चिनसुरा, जहाँ डच बस गये थे और चन्दरनगर जहाँ फ्रांसीसियोंने अपनेको पहलेसे जमा रखा था, दोनोंसे अधिक उपयुक्त था। डच और फ्रांसीसी दोनोंके जहाज बिना सूतानटीसे गुजरे अपनी फैक्टरियों तक नहीं पहुँच सकते थे। १६९६ ई. में शोभासिंहके विद्रोहके परिणामस्वरूप अंग्रेजोंको सूतानटी स्थित अपनी फैक्टरीकी किलेबन्दी करनेका बहाना मिल गया। दो वर्ष बाद १६९८ ई. में अंग्रेजोंने तीन संलग्न गाँव सूतानटी, कालीकाता और गोविन्दपुरके जमींदारी-अधिकार मात्र १२०० रुपये भूतपूर्व मालिकोंको देकर प्राप्त कर लिये और तीनों गाँवोंको मिलाकर एक नयी बस्ती बस गयी, जो बादमें 'कलकत्ता' के नासे प्रसिद्ध हुई। यह नाम बंगाली 'कालीकाता' का ही अंग्रेजी रूपांतर था। १७०० ई. में यह 'फोर्ट विलियम' नामसे बंगाल प्रेसीडेन्सीका सदर सुकाम हो गया। सर चार्ल्स आयर इस प्रेसीडेंसीका प्रथम अध्यक्ष हुआ। १७१६ ई. में फोर्ट विलियमका निर्माण कार्य पूरा हो गया। बादशाह फर्रुखसियरके दरबारमें कम्पनीके वकील सरमैनके प्रयत्नसे कम्पनीको १७१७ ई. में बंगालमें बिना चुंगी दिये व्यापार करनेका अधिकार मिल गया। इसके बदलेमें कम्पनीको केवल तीन हजार रुपये वार्षिक मगल सम्राट्को देना पड़ा। इससे बंगालमें कम्पनी का व्यापार खूब फला-फूला और कलकत्ताकी सम्पन्नता बढ़ती गयी। इसकी जनसंख्या १७३५ ई. में एक लाख तक हो गयी। १७२७ ई. तक यहाँ जहाजोंसे दस हजार टन माल प्रतिव्र्ष आने लगा। १७४२ ई. में मराठोंके आक्रमणके भयसे नगरके चारों ओर एक खाई खोदनेकी शुरुआत हुई। इसी स्थानपर आजकल सर्कुलर रोड बनी हुई है। अप्रैल १७५६ ई. में नवाब अलीवर्दीके देहावसानपर उसका पौत्र सिराजुद्दौला बंगालका नवाब बना। आंग्ल फ्रांसीसी युद्धकी आशंकासे अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनोंने अपनी-अपनी बस्तियोंकी किलेबन्दी शुरू कर दी। सिराजने इस पसन्द नहीं किया और समस्त निर्माण-कार्य बन्द कर देनेका आदेश दिया। फ्रांसीसियोंने निर्माणकार्य रुकवा दिया, किन्तु अंग्रेजोंने न केवल टालमटोल की, वरन् कलकत्तामें एक राजनीतिक भगोड़ेको शरण भी दे दी। इससे सिराज आगबबूला हो गया और उसने कलकत्तापर आक्रमण कर १६ जून १७५६ ई. को उसपर घेरा डाल दिया। केवल चार दिनोंकी घेरेबन्दीके बाद अंग्रेजोंने नवाबके समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। नवाब अपनी जीवके बाद अंग्रेजोंको नगरपर पुनः कब्जा करनेसे रोकनेकी कोई व्यवस्था किये बिना ही शीघ्र वापस लौट गया। नवाबकी इस लापरवाहीका लाभ उठाकर क्लाइव और वाटसनके नेतृत्वमें अंग्रेज सेनाने जनवरी १७५७ ई. में कलकत्तापर पुनः अधिकार कर लिया। नवाबने भी फरवरी १७५७ ई. की एक संधिके द्वारा कम्पनीकी सत्ताका बहाल किया जाना स्वीकार कर लिया। इसके बाद ही कलकत्तास्थित कम्पनीके अधिकारियोंने नवाबके असन्तुष्ट दरबारी अमीरोंसे एक षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया; जिसके परिणामस्वरूप २३ जून १७५७ ई. को पलासीकी लड़ाई हुई। इस लड़ाईमें सिराजुद्दौलाकी पराजय हुई और वह मारा गया। मीर जाफ़रको मुर्शिदाबादमें बंगालके नवाबकी गद्दीपर बैठाया गया। इन सब गठनाओं से बंगालमें कम्पनीका प्रभाव बढ़ गया। बंगालका प्रशासन अब व्यावहारिक रूपमें अंग्रेजोंके हाथमें आ गया, अतः नवाबी राजधानी मुशिदाबादकी अपेक्षा अब कलकत्ता बंगालके प्रशासनका केन्द्रस्थल बन गया। बादमें होनेवाले राजनीतिक परिवर्तनोंसे कलकत्ताका महत्त्व और बढ़ गया। १७७२ ई. में बोर्ड आफ रेवेन्यू (राजस्व परिषद्) को, जो तबतक मुर्शिदाबादमें था, कलकत्ता स्थानान्तरित कर दिया गया और अगले वर्ष रेग्युलेटिंग ऐक्टके अंतर्गत बंगालका तत्कालीन गवर्नर वारेन हेस्टिग्स भारतमें ब्रिटिश अधिकृत सभी क्षेत्रोंका गवर्नर-जनरल बना दिया गया। इस प्रकार कलकत्ता भारतके अंग्रेजी साम्राज्यकी राजधानी बन गया। यह गौरव उसे १९१२ ई. तक, जब भारत सरकारकी राजधानी दिल्ली स्थानान्तरित की गयी, प्राप्त रहा। कलकत्ता अब पश्चिमी बंगाल राज्यकी राजधानी है।

कलकत्ता को मद्रास तथा बम्बई के अन्य दो प्रेसीडेन्सी नगरों के सदृश स्थानीय स्वायत्‍त, शासन के विशेषाधिकार प्राप्त हैं। अठारहवीं शताब्दी के अंत में नगर की सफाई की देखरेख तथा इसकी पुलिसव्यवस्था का दायित्व सरकार द्वारा नियुक्त कुछ विशिष्ट नागरिकों को सौंप दिया गया, जिन्हें 'जस्टिस आफ पीस' की उपाधि प्रदान की गयी। १८५६ ई. में नगर की सफ़ाई-व्यवस्था की देखरेख, उसमें सुधार तथा करों के निर्धारण एवं संग्रह के लिए तीन कमिश्नरों की नियुक्ति की गयी। लेकिन यह व्यवस्था संतोषजनक सिद्ध नहीं हो सकी, अतः 'जस्टिस आफ पीस' उपाधिधारी विशिष्ट नागरिकों के काम की देखरेख के लिए एक अध्यक्ष की नियुक्ति की गयी और उसे नगर का पुलिस कमिश्नर भी बना दिया गया। सर स्टुअर्ट हाग की अध्यक्षता में जलपूर्ति तथा जलनिकासी के लिए उचित व्यवस्था तथा सीवेज के निर्माणका सूत्रपात हुआ। नगर-व्यवस्थामें अन्य सुधार भी किये गये और कलकत्ता गगनचुम्बी अट्टालिकाओंके नगरके रूपमें विकसित होने लगा। किन्तु 'जस्टिस आफ पीस' उपाधिधारी विशिषअट नागरिकों और अथ्यक्षके बीच निरन्तर खटपट चलती रहती थी। अतः १८७६ ई. में कलकत्ता कार्पोरेशनका पुनर्गठन किया गया। अब उसका प्रशासन एक अध्यक्ष तथा ७२ सदस्य चलाते थे, जिसमें दो तिहाई निर्वाचित होते थे। १८८२ ई. में निर्वाचित सदस्योंकी संख्या बढ़ाकर पचास कर दी गयी और कार्पोरेशनकी सीमा कुछ उपनगरीय क्षेत्रों तक बढ़ा दी गयी। किन्तु १८९९ ई. में लार्ड कर्जनने एक कानून पास करवा कर निर्वाचित सदस्योंकी संख्यया घटा कर कुलकी आधी कर दी और अध्यक्षको, जो सरकार द्वारा नियुक्त एक अधिकारी होता था, विस्तृत अधिकार प्रदान कर दिये। इस कानूनसे जनतामें तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ और प्रांतीय कौंसिलमें सुरेन्द्रनाथ बनर्जी (दे.) के नेतृत्वमें भारतीय सदस्योंने उसका तीव्र विरोध किया, किन्तु उनके विरोधके बावजूद कानून पास हो गया। अतः इसका कार्यान्वयन होनेपर कलकत्ता कार्पोरेशनके अट्टाईस भारतीय सदस्योंने सुरेन्द्रनाथ बनर्जीके नेतृत्वमें कार्पोरेशनकी सदस्यतासे त्यागपत्र दे दिया। इसे भारतमें असहयोग आंदोलनकी शुरुआतका सबसे प्राचीन दृष्टांत माना जा सकता है। चौबीस वर्ष बाद सुरेन्द्रनाथ बनर्जीने, जो तब बंगालके स्वायत्त-शासन मंत्री थे, एक नया कानून पास कराया, जिसके द्वारा कलकत्ता कार्पोरेशनके विधानमें समुचित परिवर्तन कर दिया गया। सरकारी अध्यक्षके पदको समाप्त कर दिया गया, कार्पोरेशनके सभी सदस्य निर्वाचित होने लगे और कार्पोरेशनके सदस्यों अथवा कौंसिलरोंको अपना 'मेयर' निर्वाचित करनेका अधिकार मिल गया। एक एक्जीक्यूटिव अफसर नियुक्त किया गया जो कार्पोरेशनके प्रति उत्तरदायी होता था और उसकी नियुक्तिका अधिकार भी कार्पोरेशनको ही प्राप्त था। इस प्रकार कलकत्ताको अपना नागरिक प्रशासन स्वयं चलानेका अधिकार प्राप्त हो गया।

कलकत्ता जर्नल : अंग्रेज पत्रकार जान सिल्क बकिंघम के द्वारा मुद्रित एवं प्रकाशित। सिल्क को कार्यकारी गवर्नर जनरल जान एडम्स की सरकार ने १८२३ ई. में देश से निष्कासित कर दिया और कलकत्ता जर्नल का प्रकाशन बन्द हो गया।

कलकत्ता मदरसा : तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स के आदेश से १७८१ ई. में कायम किया गया और तब से भारत में फारसी और अरबी के अध्ययन का यह एक प्रमुख प्राच्य-विद्याकेन्द्र है।

कलकत्ता मेडिकल कालेज : मार्च, १८३५ ई. में तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड विलियम बेन्टिक द्वारा स्थापित। इसके अन्तर्गत भारत में पश्चिमी चिकित्सा-विज्ञान के अध्ययन और व्यवसाय की शुरुआत हुई। इसने अनेक प्रमुख भारतीय चिकित्सक और शल्यक पैदा किये, जिनमें विधानचन्द्र राय (जो बंगाल के मुख्यमंत्री भी रहे) और उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी भी थे, जिन्होंने कालाजार की दवा का आविष्कार किया।

कलकत्ता विश्वविद्यालय : स्थापना लार्ड कैनिंग के प्रशासनकाल १८५७ ई. में। इसका आरम्भ कालेजों को सम्बद्ध करनेवाली एवं परीक्षा लेनेवाली संस्था के रूप में हुआ। इसका वाइस-चांसलर मनोनीत हुआ करता था, जो अवैतनिक रूप से एक सिंडिकेट तथा सिनेट की मंत्रणा तथा सहमति लेकर कार्य करता था। प्रारम्भ के सभी वाइस चांसलर यूरोपियन होते थे। कुलगुरु पद पर नियुक्त होनेवाले प्रथम भारतीय थे सर गुरुदास बनर्जी। १९०४ ई. में लार्ड कर्जन ने भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पास कराया। इसका मुख्य उद्देश्य विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण कड़ा करना तथा विशेषकर कलकत्ता विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय अधिकार को सीमित करना था। उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय का अधिकार-क्षेत्र सुदूर बर्मा और श्रीलंका तक प्रसारित था। इस कानून के द्वारा सिनेटरों की संख्या सीमित कर दी गयी, उनमें से अधिकांश सरकार द्वारा मनोनीत होने लगे, नये कालेजों को सम्बद्ध करने के नियम कड़े कर दिये गये, विश्वविद्यालयों द्वारा सम्बद्ध कालेजों का नियमित निरीक्षण निर्धारित किया गया और विश्वविद्यालयों को प्रोफेसरों तथा लेक्चररों की नियुक्तियाँ कर अध्यापन की व्यवस्था करने का अधिकार दिया गया। इसके साथ ही विश्वविद्यालयों को प्रयोगशालाओं तथा संग्रहालयों की स्थापना करने के अधिकार दे दिये गये। १९०४ ई. के इस अधिनियम का, जिसका उद्देश्य बंगाल में शिक्षा के प्रसार को नियंत्रित रखना था, सदुपयोग सर आशुतोष मुखर्जी ने अपने कुलगुरु-काल में किया। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य आरम्भ किया, जिससे न केवल बंगाल वरन् शेष भारत भी लाभान्वित हुआ। कलकत्ता विश्वविद्यालय का क्षेत्रीय अधिकार पहले की अपेक्षा अब बहुत कम है, किन्तु यह आज भी भारत का प्रमुख विश्वविद्यालय है। ज्ञान के प्रसार में, जो इसका सदैव लक्ष्य रहा है, इसका योगदान अन्य भारतीय विश्वविद्यालयों की तुलना में अब भी सर्वाधिक है। कलकत्ता विश्वविद्यालय के विधान में हाल में परिवर्तन किया गया है और अब कुलगुरु तथा कोषाध्यक्ष पूर्णकालिक एवं वेतनभोगी शीर्षस्थ कार्याधिकारी होते हैं।

कलचूरि वंश : मालवा और उत्तरी महाराष्ट्र के शासक। उनको हैहयवंशी भी कहा जाता था। उनका राज्य 'चेदि' कहलाता था, जो आधुनिक मध्य प्रदेश के अधिकांश भाग में स्थित था। कलचूरि वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा गांगेयदेव कलचूरि (लगभग 1015-40 ई.) था तथा उसका पुत्र एवं उत्‍त्‍राधिकारी कर्णदेव (लगभग 1040-70) था। कर्णदेव ने लगभग १०६० ई. में मालवा के राजा भोज को परास्त कर दिया, परंतु बाद में कीर्तिवर्मा चंदेल (दे.) ने, जो १०४९ से ११०० ई. तक राज्य करता था, उसे हरा दिया। इस पराजय से कलचुरियों की शक्ति क्षीण हो गयी और ११८१ ई. तक अज्ञात कारणों से इस वंश का पतन हो गया। कलचूरि शासक त्रैकूटक संवत् (दे.) का व्यवहार करते थे, जो २४८-४९ ई. में प्रचलित हुआ।

कलात : बलूचिस्तान का एक राज्य, जो अब पाकिस्तान में है। कलात के खान ने भारतीय ब्रिटिश सरकार से एक संधि करके अंग्रेजों को क्वेटा (दे.) सौंप दिया, जो बोलन दर्रे की रक्षा का उपयक्त स्थल है। १८९२ ई. में उसने अपने वजीर को उसके पिता तथा पुत्र सहित मार डाला। इस अपराध के लिए ब्रिटिश सरकार ने उसे गद्दी छोड़ देने के लिए विवश किया और उसके लड़के को 'खान' बना दिया। कलात पाकिस्तान की स्थापना तक ब्रिटिश भारत का एक संरक्षित अधीनस्थ राज्य बना रहा। अब वह पाकिस्तान का अधीनस्थ राज्य है।

कलिंग : पूर्वी समुद्र तट पर महानदी और गोदावरी नदियों का मध्यवर्ती क्षेत्र। इसके अंतर्गत आधुनिक उड़ीसा का राज्य आ जाता था। इसे अशोक मौर्य (दे.) ने अपने राज्याभिषेक के आठवें वर्ष (लगभग २७३-२३२ ई. पू.) में जीत लिया। कलिंग के लोगों ने अशोक की सेना का इतना डटकर प्रतिरोध किया कि इस युद्ध में कलिंग के एक लाख आदमी मारे गये, डेढ़ लाख कैद कर लिये गये तथा इनसे कई गुने अधिक आदमी बाद में मर गये। युद्ध में जो वध और विनाश हुआ तथा लोगों को जो विपत्ति उठानी पड़ी, उससे अशोक को भारी दुःख और खेद हुआ। उसे सबसे अधिक पश्चाताप इस बात से हुआ कि यह सब उसकी शस्त्रों द्वारा साम्राज्य-विस्तार की लिप्सा के कारण हुआ। उसने शस्त्रों द्वारा विजय करना छोड़ दिया और बौद्धधर्म ग्रहण कर लिया। (देखिये, उड़ीसा)

कलीमुल्ला : बहमनी वंश का अंतिम नाममात्र का सुल्तान, जो वास्तविक शासक कासिम बरीद के हाथों मारे जाने से बचने के लिए १५२६ ई. में बीजापुर भाग गया। बाद में वह अहमदनगर चला गया, जहाँ उसकी मृत्यु हुई।

कलुष : मराठा छत्रपति शिवाजी के पुत्र तथा उत्तराधिकारी सम्भाजी (१६८०-८९ ई.) का ब्राह्मण मंत्री। मुगलों ने सम्भाजी के साथ कलुष को भी बंदी बना लिया और उसे क्रूरतापूर्वक मार डाला।

कलेक्टर (जिला अधिकारी) : भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद से जिले में राजस्व-वसूली का प्रभारी अधिकारी। इस पद की स्थापना सर्वप्रथम १७७२ ई.में हुई जब बंगाल, बिहार और उड़ीसा का राजस्व-प्रशासन सपरिषद-गवर्नर ने भारतीय नायब दीवानों से अपने हाथ में लेकर कलेक्टरों के सुपुर्द कर दिया। कलेक्टरों के पदों पर अंग्रेजों की नियुक्ति की गयी और प्रत्येक जिला एक कलेक्टर के अधीन कर दिया गया। १७७३ ई. में कलेक्टर का पद समाप्त कर दिया गया, लेकिन १७८१ ई. में वह पुनः स्थापित कर दिया गया। १७८६ ई. में उन्हें राजस्व परिषद् (दे.) की सलाह और अनुमति से राजस्व निर्धारित करने और वसूलने का दायित्व सौंपा गया। कलेक्टर को जिले में दीवानी मुकदमों का फैसला करने का अधिकार पहले से ही था, अब उसे मजिस्ट्रेट के अधिकार भी दे दिये गये, जिससे वह फौजदारी के मुकदमें भी सुन सकता था। इस प्रकार कलेक्टर जिलों में ब्रिटिश शासन का एकमात्र प्रतिनिधि बन गया। उसके ऊपर बहुत-सी जिम्मेदारियाँ डाल दी गयीं। किन्तु १७९३ ई. की 'कार्नवालिस संहिता' (दे.) में कलेक्टर से न्यायिक और मजिस्ट्रेटी सभी प्रकार के अधिकार छीन कर जिला जज को दे दिये गये। कुछ समय बाद मजिस्ट्रेट के अधिकार जिला मजिस्ट्रेट में निहित कर दिये गये और जिला मजिस्ट्रेट का कार्यालय भी जिला कलेक्टर के कार्यालय से अलग कर दिया गया। बाद को कलेक्टर के ऊपर फिर से मजिस्ट्रेट की जिम्मेदारियाँ डाल दी गयीं और जिला प्रशासन पूरी तरह जिला मजिस्ट्रेट और कलेक्टर के हाथ में आ गया। १८५३ ई. में भारतीयों को जब प्रतियोगात्मक परीक्षा के जरिये 'इंडियन सिविल सर्विस' में प्रवेश की अनुमति मिला गयी, तब से इस पद पर भारतीयों की नियुक्ति भी होने लगी। ब्रिटिश शासन के दौरान जिला मजिस्ट्रेट और कलेक्टर प्रशासन तंत्र की एक बहुत महत्त्वपूर्ण कड़ी था। स्वाधीन भारत की गणतंत्रीय व्यवस्था में भी वह शासन प्रणाली का बहुत महत्त्वपूर्ण अंग बना हुआ है। (एल. एस. एस. ओमैले कृत 'इंडियन सिविल सर्विस', जी. एन. जोशी कृत 'इंडियन एडमिनिस्ट्रेशन')

कल्याणी : अब आंध्र प्रदेश में विद्यमान। मध्यकाल की दो शताब्दियों (९७३-११९० ई.) तक यह नगर चालुक्य (दे.) राजाओं की राजधानी रहा।

कल्हण : संस्कृत के 'राजतरंगिणी' (दे.) नामक ग्रंथ का रचयिता, जिसमें कश्मीर के राजाओं का वृत्तांत दिया गया है। वह बारहवीं शताब्दी ई. में हुआ।

कश्मीर : भारत का धुर उत्तरवर्ती सीमाप्रांत। इसके पश्चिम में पाकिस्तानी सीमाप्रदेश, उत्तर-पश्चिम में अफगानिस्तान, उत्तर-पूर्व में चीन का सिनकियांग प्रांत तथा पूर्व में तिब्बत है। कश्मीर अपनी प्राकृतिक सुषमा तथा स्वास्थ्यप्रद जलवायु के लिए विख्यात है, सामरिक दृष्टि से भी इसकी स्थिति महत्त्वपूर्ण है। यह उत्तर-पश्चिम से भारत में आनेवाले मार्ग की रक्षा करता है। इसकी सीमाएँ अफगानिस्तान, तुर्किस्तान तथा चीन की सीमाओं से मिली हुई हैं। इसका १००६ ई. तक का इतिहास कल्हण की राजतरंगिणी में, १००६ ई. से १४२० ई तक का जोनराज की रचना में, १४२० ई. से १४८९ ई. तक का श्रीवर की रचना में तथा १४८९ ई. से १५८६ ई. तक का प्राज्ञ भट्ट की राजावलिपताका में मिलता है। ये सभी ग्रंथ संस्कृत में हैं। परम्परा से यह विश्वास प्रचलित है कि कश्मीर मूल रूप में एक सरोवर (झील) था तथा कश्यप मुनि के उद्योग से इस झील के पानी के लिए निर्गम मार्ग बनाया गया और उन्होंने ही इस भूमि पर ब्राह्मणों को बसाया। महाभारत में 'कस्मीरज' के लोगों को क्षत्रिय बताया गया है, अशोक के द्वारा भेजे गये भिक्षुओं ने इस देश में बौद्ध धर्म का प्रचार किया और वह द्वितीय शताब्दी ई. में कुषाण राज्यकाल तक फलता-फूलता रहा। परन्तु, हिन्दू धर्म इस क्षेत्र का प्रधान धर्म बराबर बना रहा और सातवीं शताब्दी ई. में दुर्लभवर्धन ने कर्कोटक राजवंश (दे.) की स्थापना की। ८५५ ई. में कर्कोटक वंश को उत्पल वंश ने उखाड़ फेंका। बाद में तंत्री सैनिक नेताओं, यशस्कर तथा पर्वगुप्त के वंशजों ने क्रमिक रीति से शासन किया। क्षेमगुप्त की विधवा रानी दिद्दा ने १००३ ई. तक शासन किया। इसके बाद कश्मीर लोहरवंशी राजाओं के शासन में आ गया।

कश्मीर सुल्तान महमूद के हमलों से बचा रहा, परन्तु १३४६ ई. में उसके अंतिम हिन्दू राजा उद्यानदेव की हत्या उसके मुसलमान मंत्री अमीर शाह ने कर दी और वह शामशुद्दीन के नाम से गद्दी पर बैठा। उसके वंश ने १५८६ ई. तक कश्मीर पर शासन किया। इसके बाद वह बादशाह अकबर के अधीन हो गया और मुगल साम्राज्य का एक भाग बन गया। १७५७ ई. में अहमदशाह दुर्रानी ने उस पर कब्जा कर लिया और वह १८१९ ई. तक अफगानिस्तान के राज्य का एक भाग रहा। १८१९ ई. में रणजीतसिंह ने उसे पुनः जीत लिया और अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। प्रथम सिखयुद्ध ( १८४६ ई.) में सिखों की हार होने पर कश्मीर जम्मू के राजा गुलाबसिंह के हाथ एक करोड़ रुपये में बेच दिया गया। पराजित सिख राज्य ने विजयी अंग्रेजों को डेढ़ करोड़ रुपया हर्जाना देना मंजूर किया था। कश्मीर को बेचकर इसी रकम की अदायगी की गयी। गुलाबसिंह ने ब्रिटिश भारतीय सरकार से एक अलग संधि कर ली, जिसके अंतर्गत उसे कश्मीर तथा जम्मू का स्वतंत्र शासक स्वीकार कर लिया गया। गुलाबसिंह ने लद्दाख भी जीता था। १८५७ ई. में उसकी मृत्यु हुई। उसके उत्तराधिकारी रणवीरसिंह (१८५७-८५ ई.), परताबसिंह ( १८८५-१९२५ ई.) तथा हरिसिंह (१९२५-४९ ) हुए।

१९४७ ई. में भारत का विभाजन होने पर कश्मीर पहले भारत तथा पाकिस्तान दोनों से अलग रहना चाहता था, परंतु २० अक्तूबर १९४८ ई. को उत्तर-पश्चिमी सीमांचलों के कबीलेवालों ने नव-स्थापित पाकिस्तान सरकार की साजिश और सहायता से हमला कर दिया और उसकी राजधानी श्रीनगर की ओर बढ़ने लगे। महाराज हरिसिंह ने अनुभव किया कि जम्मू तथा कश्मीर रियासत के पास इतने साधन नहीं हैं कि वह कबीलेवालों को खदेड़ सकें और अपने राज्य की स्वतंत्रता तथा अखंडता की रक्षा कर सकें। अतएव शेख मुहम्मद अब्दुल्ला की सलाह पर उहोंने भारत से फौजी सहायता की मांग की और भारतीय संघ के प्रवेशपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। भारत सरकार ने हवाई जहाजों से अपनी फौजें भेजीं और श्रीनगर आक्रमणकारियों के हाथ में पड़ने से बाल-बाल बच गया। परंतु आक्रमणकारियों ने लगभग आधे कश्मीर पर अधिकार कर लिया था और भारत तथा पाकिस्तान के बीच एक भयंकर युद्ध के द्वारा ही उन्हें पीछे ढकेला जा सकता था। भारत सरकार ने इस प्रकार के युद्ध से बचने तथा विवाद को शांतिपूर्ण रीति से तय करने के उद्देश्य से ६ जनवरी १९४८ ई. को यह मामला संयुक्त-राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पेश कर दिया। सुरक्षा परिषद् ने उसी महीने कश्मीर में युद्धविराम करा दिया। परंतु अब कश्मीर का प्रश्न पश्चिमी राष्ट्रों की शक्तिमूलक राजनीति की शतरंज का मोहरा बन गया और संयुक्त राष्ट्रसंघ अभी तक इस प्रश्न को तय करने में सफल नहीं हो सका है। फलस्वरूप कश्मीर का आधा भाग, जिसे तथाकथित 'आजाद कश्मीर' कहा जाता है, पाकिस्तान के गैरकानूनी कब्जे में चला गया है और कश्मीर का आधा भाग तथा जम्मू भारतीय संघ के अंतर्गत है।

काँगड़ा : हिमाचल प्रदेश में परकोटे से घिरा एक नगर। यह भटिंडा के राजा जयपाल (दे.) के राज्य की पूर्वी सीमा थी। १३९९ ई. में तैमूर ने इसे लूटा, परंतु इसके बाद भी इस नगर पर हिन्दू राजा शासन करते रहे। १६२० ई. में बादशाह जहाँगीर ने इस नगर को जीत लिया और यह मुगल साम्राज्य का अंग बन गया। मुगलों के संरक्षण में कांगड़ा के चित्रकारों ने अपनी अलग शैली विकसित की। १८११ ई. में यह नगर रणजीतसिंह के अधिकार में आ गया। १८४८ ई. में उसका राज्य भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिये जाने पर यह भी उसी का भाग हो गया।

कांग्रेस : देखिये, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस।

कांची : भारत में हिन्दुओं की सात पवित्र नगरियों में से एक। इसका पहला ऐतिहासिक उल्लेख समुद्रगुप्त (लगभग ३३५-८० ई.) के इलाहाबाद स्तम्भलेख में मिलता है। इसके अनुसार गुप्त सम्राट् ने कांची के राजा विष्णुगोप को अपने अधीन किया था। कांची, जिसे अब कांजीवरम् कहते हैं, पल्लवों (दे.) की राजधानी रही है। ह्युएनत्सांग लगभग ६४० ई. में इस नगर में आया था। उस समय नरसिंह वर्मा के शासन में पल्लव राजशक्ति अपने चरम उत्कर्ष पर थी। ह्युएनत्सांग के अनुसार कांची ५ या ६ मील के घेरे में बसी एक विशाल नगरी थी और उसमें अनेकानेक हिन्दू, बौद्ध तथा जैन मंदिर थे। कांची प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य धर्मपाल की जन्मस्थली भी है। वैष्णव आचार्य रामानुज ने इसी नगरी में शिक्षा प्राप्त की थी और अनेक वर्षों तक वे यहाँ रहे थे। पल्लवों और चालुक्यों के अनवरत युद्धों के कारण कांची को काफी क्षति उठानी पड़ी। चालुक्यों ने इस नगरी में अनेक भव्य मंदिर बनवाये, जिनमें कैलासनाथ का मंदिर सबसे प्रसिद्ध है।

कांसीजोड़ा कांड  : ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासनकाल में कलकत्ता स्थित सुप्रीम कोर्ट और सपरिषद् गवर्नर-जनरल (सुप्रीम कौंसिल) के बीच एक जमींदार के मामले को लेकर होनेवाला संघर्ष। कांसीजोड़ा के जमींदार (राजा) से अपना कर्ज वसूलने के लिए एक व्यक्ति ने जमींदार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर किया। सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमे को विचारार्थ स्वीकार करते हुए जमींदार के खिलाफ समादेश जारी किया, जिसमें उससे अदालत में पेश होने को कहा गया था। लेकिन उक्त जमींदार की इस आपत्ति पर कि वह न तो कम्पनी का सेवक है और न कलकत्तावासी है, अतः उस पर सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार लागू नहीं होता, सुप्रीम कौंसिल अर्थात् सपरिषद् गवर्नर-जनरल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वह इस मामले को आगे न बढ़ाये। लेकिन सुप्रीम कोर्ट अपना क्षेत्राधिकार बढ़ाने पर तुला हुआ था, इसलिए उसने अपने अधिकारियों को जमींदार की गिरफ्तारी के लिए भेजा। सुप्रीम कौंसिल ने इसके जवाब में फौरन अपने सिपाहियों को उन अधिकारियों की गिरफ्तारी के लिए भेज दिया जो जमींदार को गिरफ्तार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा भेजे गये थे। इस प्रकार कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच कटु संघर्ष की स्थिति पैदा हो गयी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर एलिजा इम्पी को काफी अधिक भत्ता देकर सदर दीवानी अदालतका भी मुख्य न्यायाधीश बना दिये जाने से संघर्ष टल गया। इम्पी द्वारा इस पद का स्वीकार किया जाना उचित नहीं समझा गया। उस पर बाद में जो महाभियोग लाया गया, उसका एक कारण यह भी था। (आई. बी. बनर्जी कृत 'दि सुप्रीम कोर्ट इन कनफ्लिक्ट')

काकतीय वंश : बारहवीं शताब्दी में कल्याणी के चालुक्य वंश का पतन होने के बाद प्रतिष्ठित। उसने ओरंगल के राज्य की स्थापना की। उसके राजा प्रतापरुद्रदेव द्वितीय को १३१० ई. में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की फौजों ने हरा दिया। अलाउद्दीन ने उससे हर्जाने के रूप में भारी रकम ऐंठी और वार्षिक कर देने का वचन लिया। सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक (१३२०-२५ ई.) के शासनकाल में इस राज्य को अंतिम रूप से समाप्त कर दिया गया और उसे दिल्ली की सल्तनत में मिला लिया गया।

काकबर्न, कर्नल जेम्स : ईस्ट इंडिया कम्पनी की बम्बई फौज का अधिकारी। प्रथम मराठा-यद्ध (दे.) के दौरान उसका सामना मराठों की सेना से हुआ। उसने भयभीत होकर पीछे हटने का फैसला किया और बड़गाँव जा पहुँचा। वहाँ यह महसूस होने पर कि अब इससे पीछे हटना संभव नहीं है, उसने मराठों से बडगाँव का समझौता कर लिया। यह समझौता कम्पनी को अपमानजनक लगा और उसने उसे तोड़ दिया। काकबर्न को इसके बाद नौकरी से निकाल दिया गया।

काच : गुप्तकाल के कुछ सिक्कों पर पाया गया नाम। संभवतः इस नाम का राजकुमार द्वितीय गुप्त सम्राट्, समुद्रगुप्त (दे.) ही था।

काचार : आसाम प्रदेश का अब एक जिला, जिसका सदर मुकाम सिल्चर है। इसका इतिहास पुराना है, जिसका पता अनेक शताब्दियों पूर्व से चलता है। यहाँ अनेक राजा ऐसे हो चुके हैं जो अपने को भीम, पाँच पाण्डवों में से द्वितीय के वंशज होने का दावा करते थे। ऐतिहासिक काल में यह अधिकतर अहोम राजाओं का अधीनस्थ एवं उनका संरक्षित राज्य रहा है। तत्कालीन शासक राजा गोविन्दचन्द्र की साठगांठ से १८१९ ई. में बर्मियों ने इसे रौंद डाला था, लेकिन शीघ्र ही अंग्रेजों ने बर्मियों को काचार से बाहर निकाल दिया और उन्होंने बदरपुर (मार्च १८२४ ई.) की संधि द्वारा गोविन्दचन्द्र को काचार के राजा के रूप में पुनः शासना रूढ़ कर दिया। इसके बदले में उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी की सत्ता को स्वीकार कर लिया और दस हजार रुपये वार्षिक खिराज के रूप में देने को राजी हो गया। किन्तु गोविन्दचन्द्र प्रशासन की दुर्व्यवस्था के कारण स्थानीय विद्रोहियों को दबा सकने में विफल रहा और प्रजा को भारी करभार से पीड़ित करने लगा, फलतः १८३० ई. में उसकी हत्या कर दी गयी। उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं था, अतः अगस्त १८३२ ई. की एक घोषणा के द्वारा काचार ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। तब से यह निरन्तर भारत का एक भाग है। (गेट-'हिस्ट्री आफ़ आसाम')

काचारी : एक जनजाति। विश्वास किया जाता है कि ब्रह्मपुत्र की घाटी में बसने वाली यह सबसे प्राचीन जाति है। आसाम के आधुनिक काचार जिले का नामकरण इसी जनजाति के आधार पर हुआ है। तेरहवीं शताब्दी में काचारी लोगों का राज्य ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिणी तट तक फैला हुआ था। उनके राज्य में अधिकांश आधुनिक नौगाँव जिला और काचार जिले का कुछ भाग सम्मिलित था। उनकी राजधानी गोलाघाट के आधुनिक नगर से पैतालीस मील दक्षिण, धनश्री नदी के तट पर स्थित डीभापुर थी। अहोम (दे.) लोगों ने १५३६ ई. में उनके राज्य को जीत लिया और काचारी लोग डीभापुर छोड़कर भाग गये। इस नगर के अब खंडहर मिलते हैं। पराजित काचारी लोगों ने एक नये राज्य की स्थापना की और मैबोंग को अपनी राजधानी बनाया। किन्तु इसके बाद भी अहोम राजाओं से उनकी बराबर लड़ाइयाँ होती रहती थीं। अहोम राजाओं का कहना था कि वे उनके आश्रित हैं। उनका अंतिम राजा गोविन्दचन्द्र था, जिसे १८१८ ई. में मणिपुर (दे.) के राजा ने हरा दिया। १८२१ ई. में बर्मियों ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। १८३६ ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार ने बर्मियों को निकाल बाहर किया और गोविन्दचन्द्र को पुनः उसकी गद्दी मिल गयी। परन्तु, १८३० ई. में एक मणिपुरी आक्रमणकारी ने उसकी हत्या कर दी। उसके निस्संतान होने के कारण १८३२ ई. में उसका राज्य ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।

काजी  : भारत में मुसलमान शासनकाल में न्याय विभाग का उच्च अधिकारी।

काटन, सर आर्थर टामस (१८०३-९९)  : मद्रास में ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक प्रख्यात इंजीनियर। वह दक्षिण भारत में सिंचाई सम्बन्धी कार्यों का विशेषज्ञ था। उसने कावेरी, कोलरून, गोदावरी और कृष्णा नदियों द्वारा सिंचाई करने की योजनाएँ बनायीं व पूरी कीं और इस प्रकार तंजौर, त्रिचिनापल्ली और दक्षिणी अर्काट जिलों की सिंचाई व्यवस्था को सुधारा। उसने गोदावरी जिले में गोदावरी नदी पर एक बाँध का निर्माण भी किया। वह भारतीय हाईड्रालिक इंजीनियरिंग विद्या का जनक था। १८६१ ई. में उसे 'नाइट' की उपाधि से विभूषित किया गया। सन् १८६२ में उसने कम्पनी की सेवाओं से अवकाश ग्रहण किया और १८९९ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। उसकी कृति 'पब्लिक वर्क्स इन इंडिया' अपने विषय का एक मानक ग्रन्थ है।

काटन, सर विलिऔबी (१७८३-१८६०) : १८२१ ई. में सैनिक अफसर के रूप में भारत आया। उसने प्रथम बर्मी युद्ध (दे.) (१८२५-२६ई.) और प्रथम अफगान-युद्ध (दे.) (१८३८-३९ई.) में भाग लिया और १८४१ ई. में ब्रिटिश सेना के नष्ट कर दिये जाने से पूर्व ही काबुल से लौट आया। बाद को उसे सेना का प्रधान सेनापति (कमांडर इन-चीफ) बनाया गया। इस पद पर वह १८४१ ई. से ५० ई. तक रहा।

काटन, सर सिडनी (१७९२-१८७४) : १८१० ई. में एक सैनिक अफसर की हैसियत से भारत आया और उसने मद्रास, बंगाल और बम्बई प्रेसीडेंसियों में सेवा की। उसने १८१७-१८ ई. में पिंढारी-युद्ध (दे.), १८२८ में बर्मी युद्ध (दे.) और १८४२-४२ में सिंध-युद्ध (दे.) में भाग लिया। १८५३ ई. में पश्चिमोत्तर सीमा पर ब्रिटिश सेना की कमान उसके हाथ में थी। १८५७ ई. के भारतीय स्वाधीनता संग्राम (जिसे अंग्रेजों ने 'सिपाही विद्रोह' का नाम दिया) के समय वह पेशावर में ब्रिगेडियर जनरल था। अपनी सूझ-बूझ और दूरदर्शिता से उसने वहाँ किसी प्रकार का उपद्रव नहीं होने दिया। इससे आश्वस्त होकर पंजाब सरकार ने राज्य की अधिकांश ब्रिटिश सेना को दिल्ली में विद्रोह दबाने के लिए भेज दिया। उसकी दो पुस्तकें -- 'नाइन इयर्स आन दि नार्थ वेस्टर्न फ्रांटियर' (पश्चिमोत्तर सीमापर नौ वर्ष) और 'सेंट्रल एशियन क्वेश्चन' (मध्य एशिया का मसला ) अपने विषय की उल्लेखनीय पुस्तकें मानी जाती हैं।

काटन, सर हेनरी जान स्टेडमेन (१८४५-१९१५ )  : १८६७ ई. में भारतीय सिविल सेवा में नियुक्त। वह उन्नति करते हुए १८९१ ई. में बंगाल का मुख्य सचिव (चीफ सेक्रेटरी) हो गया। १८९६ ई. में उसकी नियुक्ति भारत सरकार के गृह-सचिव पद पर हुई और इसके बाद वह, आसाम का मुख्य आयुक्त (चीफ कमिश्नर) बनाया गया। इस पद पर वह १८९६ से १९०२ ई. में अवकाश ग्रहण करने तक बना रहा। वह बहुत ही उदारवादी सिविल अधिकारी था, इस कारण भारतीय राष्ट्रवाद का प्रमुख समर्थक बन गया। उसे १९०४ ई. में बम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के २० वें अधिवेशन का अधयक्ष चुना गया। अपने भाषण में उसने पहली बार भारत में स्वतंत्र और पृथक् राज्यों के महासंघ 'संयुक्त राज्य भारत' की स्थापना का सुझाव रखा। (पी. सीतारमैया कृत 'हिस्ट्री आफ दि इंडियन नेशनल कांग्रेस' -खण्ड एक)

काठमांडू : नेपाल की राजधानी। १८१५ ई. में अंग्रेजों ने इस पर हमला किया था, परन्तु गोरखाओं ने उन्हें पीछे खदेड़ दिया।

काठियावाड़ (सौराष्ट्र) : भारत के पश्चिमी भाग में स्थित। यह पहले मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत था। उसके बाद इस पर शक क्षत्रपों का शासन हुआ, जो कुषाण राजाओं को 'शाहों का शाह' मानते थे। बाद में काठियावाड़ गुप्त साम्राज्य का भाग रहा और हर्षवर्धन (६०६-४८ ई.) ने भी इस पर राज्य किया। इसके बाद यह स्थानीय हिन्दू राजाओं के अधीन रहा। लगभग ८१२ ई. में मुहम्मद-इब्न-कासिम के नेतृत्व में अरबों ने इसे जीत लिया। फिर भी हिन्दू तीर्थयात्री यहाँ बड़ी संख्या में आते रहे। विशेषरूप से सोमनाथ के शिव मंदिर में पूजा करने के लिए बहुत से हिन्दू आते थे। १०२६ ई. में सुल्तान महमूद ने सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर पर अधिकार कर लिया और उसे नष्ट कर डाला। धीरे-धीरे काठियावाड़ मुसलमानों के नियंत्रण में चला गया। तीसरे मराठा-युद्ध (दे.) के बाद यह ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में शामिल कर लिया गया।

कादम्ब : एक कुल जो तीसरी शताब्दी ईसवी में उत्तरी, दक्षिणी तथा पश्चिमी कर्नाटक में राज्य करता था। वनवासी अथवा वैजयंती उनकी राजधानी थी। वे लोग जाति से ब्राह्मण थे, परन्तु, कर्म से क्षत्रिय माने जाते थे। उनका पहला राजा मयूर शर्मा था जो चौथी शताब्दी ई. में हुआ। उसके उत्तराधिकारियों के बारे में हमें कुछ पता नहीं है। उनका दर्जा धीरे-धीरे घटकर स्थानीय सामंत का रह गया और वे अधीनस्थ पदों पर कार्य करने लगे। विजयनगर के राजाओं का शायद कादम्ब वंश से संबंध रहा हो।

कादियान : पंजाब का एक कसबा। मिर्जा गुलाम अहमद (१८३८-१९०८ ई.), जिन्होंने मुसलमानों में सुधार आंदोलन चलाया, यहीं रहते थे। उनके अनुयायी उनके निवासस्थान के नाम पर 'कादियानी' कहलाते हैं। कट्टर मुसलमान कादियानी लोगों को विधर्मी मानते हैं, क्योंकि वे मिर्जा गुलाम अहमद के पैगंबर होने का दावा करते हैं।

कानपुर : उत्तर प्रदेश में गंगा तट पर स्थित एक पुराना नगर। ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक दिनों से ही यह नगर भारत का प्रमुख सैनिक-केन्द्र रहा है। १८५७ ई. के स्वतंत्रता संग्राम (जिसे अंग्रेजों ने 'सिपाही-विद्रोह' या 'गदर' कहकर पुकारा) में इसने प्रमुख भूमिका अदा की। जिस समय स्वाधीनता-संग्राम छिड़ा, कानपुर के निकट बिठूर में भूतपूर्व पेशवा बाजीराव के पुत्र नाना साहब रहते थे। उन्होंने अपने को 'पेशवा' घोषित किया और कानपुर स्थित विद्रोही सिपाहियों का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। ८ जून १८५७ ई. को ब्रिटिश नागरिकों ने इस आश्वासन पर आत्मसमर्पण कर दिया कि उन्हें इलाहाबाद तक सुरक्षित जाने दिया जायगा। किन्तु ब्रिटिश सेना जिस समय नौकाओं के जरिये इस स्थान से रवाना होने की तैयारी कर रही थी, उस पर प्राणघाती गोलाबारी शुरू कर दी गयी। चार को छोड़कर सारे ब्रिटिश सैनिक मारे गये। इस कत्लेआम ने अंग्रेजों के दिमाग में बदले की जबर्दस्त भावना पैदा कर दी। नील और हैबलक के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने कानपुर शहर पर फिर कब्जा कर लिया और देशवासियों पर भारी अत्याचार किये। नवम्बर के अन्त में नगर पर विद्रोही ग्वालियर टुकड़ी का कब्जा था, लेकिन दिसम्बर १८५७ ई. के शुरू में उस पर सर कोलिन कैम्पबेल ने अधिकार कर लिया। आजकल कानपुर प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है। १९३१ ई. में यहाँ भयानक साम्प्रदायिक दंगा हुआ, जिसमें विख्यात कांग्रेस-नेता श्री गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हो गये।

कान्होजी आंग्रे : एक प्रसिद्ध मराठा जल-सेनापति अथवा समुद्री डाकू जो घेरिया तथा सुवर्ण दुर्ग के किलों के सहारे बम्बई से लेकर गोआ तक सारे समुद्र तट पर नियंत्रण रखता था।

काफमैन, जनरल : १८६७ ई. में तुर्किस्तान में रूस की ओर से नियुक्त गवर्नर-जनरल। उसका अफगानिस्तान के अमीर शेर अली से पत्र-व्यवहार चल रहा था। शेर अली ने यह पत्र व्यवहार ब्रिटिश भारतीय सरकार के पास भेज दिया। इसके आधार पर अफगानिस्तान को लेकर रूसी इरादों के बारे में संदेह किया जाने लगा। परन्तु इससे कोई लाभ नहीं हुआ। १८७८ ई. में दूसरा अफगान-युद्ध शुरू होने पर शेर अली ने रूस से मदद देने की जो अपील की, उसका कोई नतीजा नहीं निकला और उसे रूस में शरण लेने तक से निरुत्साहित किया गया। जनरल काफमैन की साजिशों का फल यही निकला कि शेर अली को अपनी गद्दी से हाथ धोना पड़ा।

काफूर : मूल रूप में एक हिन्दू हिजड़ा, जिसे एक हजार दीनार में खरीदकर गुलाम बनाया गया था। इसीलिए वह 'हजारदीनारी' कहलाता था। वह सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के सामने १२९७ ई. में गुजरात-विजय के तोहफे के रूप में लाया गया था। वह शीघ्र ही सुल्तान की नजरों में चढ़ गया। सुल्तान ने उसे उच्च पद प्रदान किये और १३०७ ई. में उसे सल्तनत का मलिक नायब बना दिया। मलिक काफूर बहुत ही योग्य सेनापति सिद्ध हुआ और उसने देवगिरि, ओरंगल, घोरसमुद्र, मलाबार और मदुरा को जीतकर सुल्तान के अधीन कर दिया और सल्तनत की सीमाएँ रामेश्वरम् तक विस्तृत कर दीं। इन सब सफलताओं से उसकी प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी और वह सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का सबसे विश्वस्त अधिकारी बन गया। उसने सुल्तान पर सबसे अधिक प्रभाव जमा लिया। सत्ता और प्रभाव में वृद्धि के साथ-साथ मलिक काफूर की महत्त्वाकांक्षाएँ भी बढ़ गयीं और १३१६ ई. में अलाउद्दीन की मृत्यु होने पर उसने उसके एक नाबालिग लड़के को गद्दी पर बैठा दिया और सारी सत्ता अपने हाथ में केन्द्रित रखी। इसके बाद उसने गद्दी को स्वयं हथिया लेने का विचार किया। उसने अलाउद्दीन के दो बड़े बेटों की आँखें निकलवा लीं, नाबालिग सुल्तान की माँ को कैद कर लिया और अलाउद्दीन के परिवार से सम्बन्धित सभी सरदारों तथा गुलामों को मरवा डालने की साजिश रची। परन्तु वह जिन लोगों की जान लेना चाहता था वे सब संगठित हो गये और उन्होंने उसके गद्दी पर बैठने के पैंतीस दिन बाद ही उसे मार डाला।

काबुल : एक नगर का नाम और उस नदी का भी नाम, जिसके किनारे यह नगर बसा हुआ है। यह नगर आधुनिक अफगानिस्तान की राजधानी है। काबुल नदी, जिस प्राचीनकाल में 'कुभा' भी कहते थे, सिंधु में आकर मिल जाती है। मौर्यकाल (दे.) में काबुल भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत था। मौर्यवंश के पतन पर काबुल पर कई यवन राजाओं का शासन हुआ। यह कुषाणों (दे.) के भारतीय साम्राज्य का एक भाषा था, परन्तु बाद में बाबर के समय तक यह प्रदेश भारत के अधीन नहीं रहा। बाबर काबुल का शासक था और १५२६ ई. में उसने दिल्ली को जीत लिया। उसके बाद नादिर शाह (दे.) के समय तक यह भारतीय साम्राज्य का भाग रहा। नादिरशाह ने अफगानिस्तान जीत लिया और उसके मरने पर अहमदशाह अब्दाली उसका शासक हुआ। उसके बाद से अफगानिस्तान स्वतंत्र राज्य हो गया है।

कामंदक : राजशास्त्र का एक भारतीय लेखक। उसका 'नीतिसार' अपने विषय का प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।

कामता : कामरूप (दे.) का ही दूसरा नाम।

कामतापुर : आधुनिक कूच बिहार के कुछ मील दक्षिण में स्थित। कामरूप राज्य के ह्रासकाल में खेन नामक जनजाति ने वहाँ अपना राज्य स्थापित किया और कामतापुर को राजधानी बनाया। उन्होंने लगभग ७५ वर्ष तक इस राज्य पर शासन किया। लगभग १४९८ ई. में बंगाल के अलाउद्दीन हुसेनशाह (दे.) ने इस राज्य को जीत लिया।

कामबख्श : बादशाह औरंगजेब (दे.) का पाँचवा पुत्र। बादशाह की मृत्यु के बाद उसकी गद्दी के लिए उसके पुत्रों में जो युद्ध हुआ, उसमें वह १७०७ ई. में लड़ते हुए मारा गया।

कामरान, शाहजादा : मुगल वंश के संस्थापक बादशाह बाबर (१५२६-३० ई.) का दूसरा पुत्र। पिता की मृत्यु पर उसके बड़े भाई, बादशाह हुमायूं (दे.) ने उसके साथ बड़ी उदारता का व्यवहार किया और उसे अफगानिस्तान का शासक बना दिया। परन्तु कामरान कृतघ्न निकला। उसने हुमायूं की उस समय मदद नहीं की, जब वह शेरशाह (दे.) से युद्ध कर रहा था। जब वह भारत से भागा तो उसने उसे शरण देने से भी इनकार कर दिया। हुमायूं ने जब फारस के शाह की फौजी मदद से कामरान को परास्त कर दिया, उससे गद्दी छीनकर उसे मार डाला, तभी वह दिल्ली पर फिर से विजय प्राप्त करने में सफल हुआ।

कामरूप : देखो, आसाम।

कामाख्या मंदिर : आसाम में गोहाटी के निकट नीलाचल पर स्थित। विश्वास किया जाता है कि शिव जब अपनी पत्नी सती का शव कंधे पर लिये हुए उन्मत्त के सदृश भ्रमण कर रहे थे तो विष्णु द्वारा उसके छिन्न-भिन्न कर दिये जाने पर देवी का योनिमंडल इसी पर्वत पर गिरा था। यह शाक्तों का केन्द्र है और देश के सभी भागों से धर्मप्राण हिन्दू यहाँ आते हैं। वर्तमान मंदिर कोच राजा नरनारायण (१५४०-८० ई.) (दे.) ने बनवाया है।

काम्बर मेयर, स्टेपिलटन काटन, प्रथम वाई-काउण्‍ट (१७७३-१८६५) : ब्रिटिश फौज के लेफ्टीनेंट कर्नल की हैसियत से १७९९ ई. में भारत आया और उसने टीपू सुल्तान (दे.) के विरुद्ध युद्ध में भाग लिया। १८२२ ई. में वह भारतीय सेना का कमांडर-इन चीफ (प्रधान सेनापति) हो गया और १८२६ ई. में उसने भरतपुर के दुर्ग पर विजय प्राप्त की। वह १८३० ई. में कम्पनी की सेवा से निवृत्त हुआ और १८६५ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

कायदे आजम : का अर्थ है महान् नेता। मुहम्‍मद अली जिन्ना (दे.) को इसी नाम से पुकारा जाता था। सबसे पहले महात्मा गांधी ने उनके नाम के साथ इस उपाधि का प्रयोग किया था।

कायस्थ : की गणना उच्च जाति के हिन्दुओं में होती है। बंगाल में वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत उनका स्थान ब्राह्मणों के बाद माना जाता है। बहुत से विद्वानों का मत है कि बंगाल के कायस्थ मूलरूप में क्षत्रिय थे और उन्होंने तलवार के स्थान पर कलम ग्रहण कर ली और लिपिक बन गये। जैसोर का राजा प्रतापादित्य, चन्द्रद्वीप का राजा कन्दर्पनारायण तथा विक्रमपुर (ढाका) का केदार राम, जिसने अकबर का प्रबल प्रतिरोध किया और अनेक वर्षों तक मुगलों को बंगाल पर अधिकार करने नहीं दिया, सभी कायस्थ थे।

कारमाइकेल, लार्ड : बिहार तथा आसाम से पृथक् कर बंगाल को गवर्नर का सूबा बनाने पर, उसका पहला गवर्नर।

काराजाल : भारत और चीन के बीच का एक क्षेत्र। सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने उसे जीतने के लिए फौज भेजी, परन्तु वह इस कार्य में बुरी तरह विफल हुआ। पूर्ववर्ती इतिहासकारों ने इस क्षेत्र को चीन समझ लिया और गलत तरीके से यह मत व्यक्त किया कि सुल्तान ने अपनी सनक में चीन पर चढ़ाई की, जिसमें उसकी फौज नष्ट हो गयी।

कारुवाकी (अथवा कालुवाकी) : अशोक मौर्य की दूसरी रानी तथा तिवल अथवा तिवर की माता थी। अशोक की रानियों में सिर्फ इसी रानी का नामोल्लेख उसके शिलालेखों में हुआ है। संस्कृत में उसका नाम चारुवाकी रहा होगा।

कार्टियर, जान : ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक कर्मचारी जो पदोन्नति कर बंगाल का गवर्नर बन गया। इस पद पर उसने १७६९ से १७७२ ई. तक कार्य किया। उसका प्रशासन भ्रष्टाचार और कृषकों के हितों की उपेक्षा के लिए कुख्यात रहा, इसके ही शासनकाल में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा, जिसमें बंगाल और बिहार की एक तिहाई जनसंख्या नष्ट हो गयी।

कार्नवालिस कोड : मई १७९३ में प्रचलित। यह जार्ज बार्लो द्वारा तैयार किया गया था, जो बाद में गवर्नर-जनरल बना। यह उन सभी प्रशासकीय सुधारों पर आधारित है जो लार्ड कार्नवालिस ने अपने शासन के दौरान (१७८६-९३) किये थे। बाद में इसी के आधार पर बंगाल और संपूर्ण भारत में सिविल सेवा की संस्थापना हुई। इस कोड का सबसे बड़ा दोष यह था कि इसके अन्तर्गत कम्पनी की सभी उच्च सेवाओं व ऊँचे पदों से भारतीयों को पूर्णतया वंचित कर दिया गया। ये सेवाएं पूर्णरूप से यूरोपीयों के लिए सुरक्षित कर दिये जाने से भारत जैसे गरीब देश के लिए बहुत खर्चीली साबित हुईं। यही नहीं, भारत जैसे विशाल देश के लिए अधिकारियों की संख्या अत्यन्त न्यून रखी गयी थी।

कार्नवालिस, चार्ल्स (प्रथम मारक्विस) (१७३८-१८०५) : अमेरिकी स्वाधीनता-संग्राम के दौरान यार्कटाउन में तैनात। अक्तूबर १७८१ में उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा, जिसके साथ ही अमेरिका में अंग्रेजी आधिपत्य समाप्त हो गया। इसके पश्चात् कार्नवालिस भारत का गवर्नर-जनरल और बंगाल का कमांडर-इन-चीफ (प्रधान सेनापति) नियुक्त किया गया। इस पद पर वह सात वर्षों (१७८६-९३) तक रहा। १८०५ ई. में वह इसी पद पर दुबारा भारत भेजा गया, किन्तु तीन महीने बाद ५ अक्तूबर को गाजीपुर (उ. प्र.) में उसकी मृत्यु हो गयी। अपने प्रथम कार्यकाल में कार्नवालिस ने तीसरा मैसूर-युद्ध (दे.) (१७९०-९२) किया, जिसमें उसने हैदराबाद के निजाम और मराठों के साथ मिलकर मैसूर के टीपू सुल्तान पर दो बार चढ़ाई की। अंग्रेजी फौजें राजधानी तक पहुँच जाने पर टीपू सुल्तान श्रीरंगपट्टम की संधि (दे.) (१७९२) करने को बाध्य हुआ। इस संधि के अंतर्गत टीपू ने अपने राज्य का आधा भाग अंग्रेजों, हैदराबाद के निजाम और मराठों को सुपुर्द कर दिया। इसमें अंग्रेजों के हिस्से में मलाबार, कुर्ग, डिण्डीगुल और बड़ा महल पड़ा। कुर्ग को संरक्षित राज्य बनाये रखा गया और बाकी तीन क्षेत्रों को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।

लार्ड कार्नवालिस के शासन-सुधार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उसने पहले बंगाल में कम्पनी के वाणिज्य प्रबन्ध को सुधारा, व्यापार परिषद् (बोर्ड आफ ट्रेड) के सदस्यों की संख्या ग्यारह से घटाकर पाँच कर दी और यह व्यवस्था की कि कम्पनी को माल की सप्लाई के ठेके कम्पनी के अधिकारियों को न देकर व्यापारियों को दिये जायँ। इससे कम्पनी नीची दरों पर माल खरीद सकती थी। नवाब के हाथों से फौजदारी मुकदमें करने का अधिकार छीनकर वह सदर निजामत अदालत कलकत्ता ले गया, जहाँ सदर दीवनी अदालत वारेन हेस्टिंग्स द्वारा पहले ही स्थानान्तरित की जा चुकी थी। सदर निजामत अदालत की अध्यक्षता सदर काजी और मुफ्तियों की सहायता से गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद् करती थी। चार सरकिट अदालतें स्थापित की गयीं। इनमें से हर अदालत में काजी और मुफ्तियों की मदद से दो ब्रिटिश जज न्याय करते थे। इन जजों को साल में दो बार पूरे जिले का दौरा करना पड़ता था और फौजदारी के मुकदमे निपटाने होते थे। चार प्रांतीय अपील-अदालतें कलकत्ता, पटना, ढाका और मुर्शिदाबाद में स्थापित की गयीं, जिनका काम दीवानी के बड़े मुकदमों का फैसला करना और मुंसिफ के अधीनस्थ नीची अदालतों की अपील की सुनवाई करना था। प्रांतीय अदालतों के फैसलों के विरुद्ध सदर दीवानी अदालत में अपील की जा सकती थी। बंगाल को प्रशासन की दृष्टि से कई जिलों में बाँटा गया। हर जिले में राजस्व-वसूली का अधिकार कलेक्टर को सौंपा गया और न्याय करने तथा मुकदमों का फैसला करने की जिम्मेदारी जिला जज को सौंपी गयी। हर जिले में एक पुलिस अधीक्षक की भी नियुक्ति की गयी, जिसका काम जिले के अंदर कानून और व्यवस्था बनाये रखने में सहायता करना था। पुलिस अधीक्षक को जज के अधीन कार्य करना पड़ता था। प्रत्येक जिले को विभिन्न थानों में विभाजित किया गया। थाने का इंचार्ज दारोगा (पुलिस सब-इंसपेक्टर) बनाया गया, जिसका काम स्थानीय पुलिस पर नियंत्रण रखना और जमींदारों को शांति-व्यवस्था सम्बन्धी उस दायित्व से मुक्त करना था, जो वे दीर्घकाल से निबाहते आ रहे थे। दारोगा से ऊपर के की नियुक्ति की जाती थी और भारतीयों को जान-बूझकर ऐसे पदों से वंचित रखा जाता था। उनकी नियुक्ति छोटे पदों पर की जाती थी। इस प्रकार भारतीयों को उनकी अपनी ही भूमि में उच्च सेवाओं से वंचित करना और सभी ओहदों के गौरांग अधिकारियों को ऊँचा वेतन देना बंगाल में कार्नवालिस के सिविल प्रशासन का मूल आधार था। इस शासन प्रणाली की नकल कुछ आवश्यक परिवर्तनों के साथ अन्य प्रांतों में भी की गयी। लेकिन यह शासन प्रणाली बहुत खर्चीली थी, इसी वजह से अधिक समय तक चल नहीं सकी। कार्नवालिस द्वारा किये गये इन समस्त शासन-सुधारों का समावेश 'कार्नवालिस कोड' (दे.) में किया गया।

लार्ड कार्नवालिस द्वारा किया जानेवाला सबसे महत्त्वपूर्ण शासन-सुधार बंगाल में लगान का स्थायी बंदोबस्त था। इसके अंतर्गत जमींदारों को उनकी जमीन का मालिक मान लिया गया। वे इस जमीन को अपने पास इस शर्त पर बराबर रख सकते थे कि उससे प्राप्त होनेवाले अनुमानित मालगुजारी का ९० प्रतिशत अंश हर साल एक निश्चित तिथि पर सूर्यास्त से पहले कम्पनी के कोषागार में जमा करते रहें। निश्चित तिथि पर मालगुजारी जमा न करने पर दंडस्वरूप सम्बन्धित जमींदार की जमीन जब्त कर ली जाती थी और नीलामी में सबसे ऊँची बोली लगानेवाले को बेच दी जाती थी। इस जमींदारी प्रथा के द्वारा कम्पनी को मालगुजारी से निश्चित वार्षिक आय होने लगी और उसने बंगाल में भूस्वामियों का ऐसा वर्ग पैदा कर दिया जिसके हित कम्पनी के हितों से मजबूती के साथ बँध गये। किन्तु इस प्रथा से प्रांतीय सरकारों को कृषि-उत्पादनों के बढ़े हुए मूल्यों, बेहतर प्रशासन और सामान्य आर्थिक सुधार के फलस्वरूप बढ़ी हुई मालगुजारी का कोई अंश न मिलता था और किसान को पूरी तरह से जमींदारों की कृपा पर छोड़ दिया गया था। लेकिन इन त्रुटियों के बावजूद बंगाल, बिहार और उड़ीसा में सन् १७९३ में लागू किया गया यह स्थायी बन्दोबस्त भारत में समूचे ब्रिटिश शासनकाल में प्रचलित रहा। (डब्लू. एस. सेक्टन कार कृत 'दि मारक्विस आफ कार्नवालिस', एफ. डी. असकोली कृत 'अर्ली रिवाइज्ड हिस्ट्री आफ बंगाल' )

कालंजर (कालिंजर) : उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में। कालंजर का किला बहुत मजबूत माना जाता था और उस पर अधिकार करने के लिए पड़ोस के हिन्दू राजा लालायित रहते थे। १२०३ ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने इस किले को जीत लिया, परन्तु बाद में राजपूतों ने उसे फिर ले लिया। १५४५ ई. में उसे शेरशाह ने छीन लिया, परन्तु किले पर घेरा डालने के समय वह बारूद में आग लग जाने से जलकर मर गया। इसके बाद ही राजपूतों ने किला फिर ले लिया। १५६९ ई. में बादशाह अकबर ने राजपूतों से किला जीता। इसके बाद वह मुगल साम्राज्य का एक भाग बन गया। मुगलों के पतन पर वह अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया।

कालचक्र यान : बौद्धधर्म के विविध सम्प्रदायों में से एक, जिसकी प्रवृत्ति अद्वैतवाद की ओर है। यह तिब्बत तथा उड़ीसा में लोकप्रिय था।

कालसी : उत्तर प्रदेश में देहरादून जिले का एक गाँव। यहाँ पर एक विशाल शिला पर अशोक के चौदह शिलालेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण मिले हैं।

काला पहाड़ (उर्फ राजू) : एक ब्राह्मण, जो मुसलमान बन गया था। वह बड़ा योग्य सेनापति था और बंगाल के सुलेमान कर्रानी (दे.) (१५६५-७२ई.) की सेना में उसने भारी ख्याति प्राप्त की। १५६८ ई. में उसने उड़ीसा पर चढ़ाई की, वहाँ के राजा को पराजित किया और पुरी के जगन्नाथ मंदिर को लूटा। इसके बाद उसने राजा नरनारायण (दे.) के भाई चिला राय की कोच सेना को हराया। आसाम में वह तेजपुर तक चढ़ गया और गौहाटी के निकट कामाख्या मंदिर को नष्ट कर दिया। परन्तु १५८३ ई. में वह राजमहल के निकट एक नौसैनिक लड़ाई में बादशाह अकबर की फौजों से हार गया और मारा गया।

कालाशोक (जो काकवर्ण भी कहलाता है) : मगध (दे.) के राजा शिशुनाग का उत्तराधिकारी। वह राजधानी को गिरिव्रज से उठाकर पाटलिपुत्र ले आया। उसी के राज्यकाल में, गौतम बुद्ध के निर्वाण (लगभग ४८६ ई.) के लगभग सौ वर्ष बाद, बौद्धों की द्वितीय संगीति हुई। अज्ञात कारणों से उसकी हत्या कर दी गयी।

कालिदास : संस्कृत के कवियों और नाटककारों का शिरोमणि। उसके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं- रघुवंश (महाकाव्य), शकुंतला (नाटक), मालविकाग्निमित्र (नाटक), मेघदूत (खंडकाव्य) तथा ऋतुसंहार (गीतिकाव्य)। उसका काल विवाद का विषय है। लोकानुश्रुति के अनुसार वह राजा विक्रमादित्य की राजसभा का कवि था। विक्रमादित्य की पहचान चन्द्रगुप्त द्वितीय (लगभग ३७५-४१३ ई.) से की जाती है और लोक-परम्परा के आधार पर उसका जो काल (चौथी शताब्दी का अंतिम भाग तथा पाँचवीं शताब्दी का प्रारम्भिक भाग) निर्धारित किया जाता है, वह शायद सही है।

कालीकट : पन्द्रहवीं शताब्दी का मलाबार तट पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह। २७ मई १४९८ ई. में पुर्तगाली अन्वेषक एडमिरल वास्कोडिगामा तीन जहाजों के साथ इस बन्दरगाह पर उतरा। यहाँ के हिन्दू राजा ने, जो 'जमोरिन' कहलाता था, उसका स्वागत किया। इस घटना ने समुद्र मार्ग से आने वाले साहसी यात्रि‍यों के लिए देश के द्वार खोलकर भारतीय इतिहास की धारा बदल दी। इससे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो गया।

कालीकाता (अथवा कालीघाट) : देखिये, 'कलकत्ता'।

काल्विन, जान (१७९७-१८५७) : कलकत्ता के एक अंग्रेज व्यापारी का पुत्र। उसका जन्म कलकत्ता में ही हुआ था। उसने सन् १८२६ में इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश किया और उन्नति करते-करते गवर्नर-जनरल लार्ड आकलैण्ड (दे.) के निजी-सचिव पद तक पहुँच गया। जान काल्विन ने गवर्नर-जनरल की अफगान नीति को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था। वह सन् १८५३ से १८५७ में अपनी मृत्यु के समय तक पश्चिमोत्तर प्रांत (आधुनिक उत्तर प्रदेश) का लेफ्टिनेंट-गवर्नर रहा। उसकी मृत्यु १८५७ के स्वाधीनता संग्राम (सिपाही-विद्रोह) के दौरान हुई जिसकी उसने कभी कल्पना नहीं की थी। इस विद्रोह के कारण चिंता और कठोर परिश्रम ने उसके स्वास्थ्य को जर्जर कर दिया और उसकी मृत्यु हो गयी।

कावेनेन्टेड सिविल सर्विस : देखिये, 'कम्पनी-राज की सिविल सर्विस'।

काशगर : मध्य तुर्किस्तान का एक राज्य, जो पहले चीन के नियंत्रण में था। कुषाण सम्राट् कनिष्क (लगभग १२०-४४ ई.) उसे अपने अधीन कर लिया। चीनी यात्री ह्यएनत्सांग के यात्रा-विवरण से प्रकट होता है कि सातवीं शताब्दी में काशगर में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रभाव था। पुरातात्त्विक अनुसंधानों से प्रकट हुआ है कि इस क्षेत्र में भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार विशेषरूप से था।

काशी  : देखिये, 'बनारस'।

काशीराज पंडित : एक मराठा वाकयानवीस। सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में जो मराठा सेना उत्तरी भारत में भेजी गयी और जिसने १७६१ ई. में पानीपत की लड़ाई में हिस्सा लिया, वह उसी के साथ नियुक्त था। उसने सावधानी से जाँच-पड़ताल के बाद अपने खरीते पूना दरबार भेजे थे। इन खरीतों में पानीपत की लड़ाई का विवरण भी है। यह विवरण अब अंग्रेजी भाषा में 'एकाउण्ट आफ दि वैटिल आफ पानीपत' शीर्षक से आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित कर दिया गया है। काशीराज पंडित कुशल पर्यवेक्षक था।

काशीराम दास : बंगाल में पैदा हुआ एक कवि। उसने सोलहवीं शताब्दी में बंगला भाषा में महाभारत लिखा। बंगाल में एक-एक बच्चा उसका नाम जानता है और उसका महाभारत बंगला साहित्य की एक सबसे लोकप्रिय तथा सम्मानित पुस्तक है।

काश्‍यप मातन्‍ग : पहला भारतीय भिक्षु, जो चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए लगभग ६७ ई. में वहाँ गया। चीनी सम्राट् मिंग (५८-७५ ई.) ने अपने कुछ दूत भेजे थे। उन्हीं के निमंत्रण पर वह चीन गया था। वह मगध में जन्मा था, परन्तु जिस समय चीन जाने का निमंत्रण मिला, वह गंधार में रहता था।

कासिम खां  : एक मुगल सरदार, जिसे बादशाह शाहजहाँ (१६२७-५९ ई.) ने बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया। शाहजहाँ ने उसे हुक्म दिया था कि वह बंगाल से पुर्तगाली व्यापारियों को निकाल बाहर कर दे, क्योंकि उन्हें व्यापार करने का जो अधिकार प्रदान किया गया था, उसका वे दुरुपयोग कर रहे थे। कासिम खां ने १६३२ ई. में हुगली पर अधिकार कर लिया और बंगाल में व्यापार करनेवाले पुर्तगालियों के होश ठिकाने लगा दिये। १६५८ ई. में कासिम खां को राजा जसवंत सिंह के साथ बागी शाहजादों, औरंगजेब और मुराद को रोकने तथा उन्हें दक्खिन से उत्तर भारत में न आने देने के लिए भेजा गया। धर्मट (दे.) में शाही फौज का बागी शाहजादों की फौज से मुकाबला हुआ। कासिम खां ने इस युद्ध में अपने मालिक को जिताने के लिए कोई कोशिश नहीं की और युद्ध में शाही फौज हार गयी।

कासिम बरीद : बहमनी सुल्तान महमूद (दे.) (१४८२-१५८२ ई.) का वजीर। १४९२ ई. से कासिम बरीद एक प्रकार से बहमनी साम्राज्य से बीजापुर, बराड़-गोलकुंडा तथा अहमदनगर के निकल जाने के बाद, राजधानी के आसपास के उसके हिस्से का शासक रहा। कासिम बरीद बरीदशाही वंश का संस्थापक माना जाता है, जिसने १६१९ ई. तक विदर पर राज्य किया। १६१९ ई. में बिदर पर बीजापुर ने अधिकार कर लिया।

कासिम बाज़ार  : पश्चिमी बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में भागीरथी के तट पर स्थित। मुर्शिदाबाद नगर बंगाल के नवाबों की राजधानी था और कासिम बाजार का उसके अत्यधिक निकट होना फिरंगी व्यापारियों के लिए विशेष आकर्षण की बात थी। ब्रिटिश, फ्रांसीसी और डच, सभी लोगों ने यहाँ पर अपने कारखाने स्थापित किये। १६८६ ई. में बंगाल के नवाब ने पहले तो ब्रिटिश कारखाने को जब्त सिराजुद्दौला ने १७५६ ई. में उस पर फिर कब्जा कर लिया और रेजीडेंट तथा उसके सहायक (वारेन हेस्टिंग्स) को मुर्शिदाबाद में बंदी बना लिया गया। लेकिन पलासी युद्ध के बाद कम्पनी ने उसे सिराजुद्दौला के हाथों से वापस छीन लिया। इसके बाद १७७० ई. तक इस कस्‍बे की सम्पन्नता बराबर बढ़ती रही। किन्तु १७७० ई. में भीषण अकाल पड़ा, जिससे कासिम बाजार के आसपास बहुत-से खेत वीरान हो गये। १८१३ ई. में भागीरथी की धारा भी हटकर शहर से तीन मील दूर चली गयी। फलतः व्यापारिक क्षेत्र के रूप में कासिम बाजार की पुरानी महत्ता समाप्त हो गयी।

कास्मास इंदिकोप्लूसटेस : एक यवन (यूनानी) व्यापारी, जो बाद को भिक्षु हो गया। उसने ५३५ ई. से ५४७ ई. तक भूमध्यसागार, लाल सागर और फारस की खाड़ी के क्षेत्रों तथा श्रीलंका और भारत की यात्रा की और अपनी पुस्तक 'क्रिश्चियन टोपोग्राफी' में अपना यात्रा-वत्तांत विस्तार से लिखा। पुस्तक से श्रीलंका तथा पश्चिमी समुद्र तट पर स्थित अन्य देशों के साथ भारत के व्यापार के सम्बन्ध में बहुमूल्य जानकारी मिलती है। (जे. डब्लू. मेंक्रिंडिल कृत 'ऐंशिऐंट इंडिया')

किचनर, होरेशियो हूबर्ट, अर्ल (१८५०-१९१६ ई.)  : १९०२ ई. में भारत का प्रधान-सेनापति नियुक्त। इससे पहले वह मिस्र के सेनापति की हैसियत से मिस्र तथा सूडान की लड़ाइयों (१८९६-९९ ई.) में और १९०० में दक्षिण अफ्रीका के युद्ध में नामवरी हासिल कर चुका था। भारत के प्रधान-सेनापति की हैसियत से उसने सेना में अनेक प्रशासनिक सुधार किये तथा सामरिक दृष्टि से ब्रिटिश तथा भारतीय फौजों की अलग-अलग छावनियों में फिर से तैनाती की। लार्ड किचनर को उदार नहीं कहा जा सकता। उसने वाइसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल में भारतीय सदस्य की नियुक्ति का विरोध किया।

भारत में उसके प्रशासन-काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना फौजी प्रशासन के प्रश्न पर वाइसराय लार्ड कर्जन (दे.) से उसका तीव्र विवाद था। विवादास्पद प्रश्न यह था कि क्या वाइसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल में प्रधान सेनापति के अतिरिक्त सैनिक सदस्य भी होना चाहिए। सैनिक सदस्य फौज का आदमी था, परन्तु वह पद तथा सैनिक अनुभव में प्रधान सेनापति से छोटा था। लार्ड किचनर का कहना था कि सैनिक सदस्य का पद तोड़ दिया जाना चाहिए तथा एक्जीक्यूटिव कौंसिल में प्रधान सेनापति को सैनिक मामलों में एकमात्र निर्णायक अधिकारी होना चाहिए। लार्ड कर्जन लार्ड किचनर के इस प्रस्ताव के विरुद्ध था। यह विवाद अंतिम रूप से तय करने के लिए भारत-मंत्री के पास भेजा गया। उसने एक समझौता प्रस्तुत किया, जिसे किचनर ने स्वीकार कर लिया, परन्तु कर्जन को वह स्वीकार नहीं हुआ और उसने इस्तीफा दे दिया। किचनर ने इस तरह काफी यश पैदा करके भारत से अवकाश ग्रहण किया। अगस्त १९१४ में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू होने पर लार्ड किचनर को युद्ध मंत्रणालय का अधिकारी बना दिया गया और इस पद पर उसने बड़ी सफलता के साथ काम किया। जून १९१६ ई. में 'हैम्पशायर' जहाज पर सवार होकर वह जब एक महत्त्वपूर्ण फौजी तथा कूटनीतिक कार्य से स्कापा फ्लो से रूस जा रहा था तो मार्ग में एक बारूदी सुरंग से टकराकर जहाज डूब गया और उसकी मृत्यु हो गयी।

किलपैट्रिक, कर्नल जान : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में मद्रास में नियुक्त। अंधेरी तंग कोठरी की दुर्घटना (जो 'ब्लैक होल की घटना' नाम से सरनाम है) (दे.) का समाचार पाकर किलपैट्रिक को २३० सिपाहियों के साथ बंगाल भेजा गया। कलकत्ता से दक्षिण, हुगली के तट पर स्थित फुल्टा नामक स्थान में जिन अंग्रेजों ने शरण ले रखी थी, उनकी सहायता के लिए पहुँचनेवाली यह पहली ब्रिटिश कुमुक थी। बाद में क्लाइव (दे.) तथा वाटसन (दे.) के पहुँचने पर उसने कलकत्ता पर फिर से अधिकार करने में भाग लिया। खबर है कि पलासी की लड़ाई से ठीक पहले युद्ध कौंसिल की जो बैठक हुई थी, उसमें किलपैट्रिक ने सेना को आगे बढ़ने का आदेश देने के विरुद्ध वोट दिया। क्लाइव ने पहले इस निर्णय को मान लिया, परन्तु बाद में उसे अस्वीकार कर दिया। किलपैट्रिक १७८७ ई. में मर गया।

किलागुल मुहम्मद : क्वेटा के निकट एक छोटा-सा स्थान। पुरातात्त्विक अनुसंधानों से प्रकट हुआ है कि यहाँ प्रागैतिहासिक काल की एक पाषाणकालीन ग्राम सभ्यता वर्तमान थी, जब मिट्टी के बरतनों का प्रचलन नहीं था।

किशलू खां : मुलतान तथा सिंध का नाजिम। उसने सुल्तान मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१ ई.) के खिलाफ विद्रोह कर दिया। परन्तु १३२८ ई. में एक लड़ाई में उसे हराकर मार डाला गया।

की-पिन : की पहचान कश्मीर से और गंधार (दे.) से भी की जाती है। गंधार से उसकी पहचान अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होती है। इतना निश्चित है कि यह प्रदेश अफगानिस्तान और पंजाब के बीच में स्थित था और तक्षशिला भी इसी के अंतर्गत थी। इस पर शकों (दे.) का अधिकार था। बाद में इस पर कुषाण राजा कदफिसस प्रथम (लगभग ४०-७८ ई.) का अधिकार हो गया।

कीरतसागर : बुंदेलखंड में महोबा के निकट एक सुंदर झील। इसका निर्माण चंदेल राजा कीर्तिवर्मा (लगभग १०४९-११०० ई.) ने कराया। यह झील ग्यारह मील के घेरे में थी और इसके तट पर कई मंदिर बने हुए थे।

कीरत सिंह : बृंदेलखंड में कालंजर का राजा। रींवा के बघेल राजा बीरसिंह (अथवा बीर खां) को शरण देने के कारण शेरशाह सूर (१५४०-४५ ई.) उससे कुपित हो गया। १५४५ ई. में शेरशाह ने जब कालंजर का किला लेने की कोशिश की तो कीरत सिंह ने उसकी फौजों का डटकर मुकाबला किया। शेरशाह ने किला सर कर लिया, परंतु इससे पहले वह सांघातिक रूप से घायल हो गया बाद में शेरशाह के लड़के इसलाम शाह ने कीरत सिंह को मार डाला।

कीरत सिंह : आमेर के राजा जयसिंह (दे.) का लड़का। खबर है कि बादशाह औरंगजेब के भड़काने पर उसने १६६७ ई. में अपने पिता को जहर देकर हत्या कर डाली। राजा जयसिंह की मृत्यु हो जाने पर औरंगजेब ने संतोष की गहरी साँस ली।

कीर्तिवर्मा  : एक चंदेल राजा, जो बुंदेलखंड पर राज्य (लगभग १०४९-११०० ई.) करता था। वह बड़ा पराक्रमी था। उसने चेदि (मध्यप्रदेश) राजा कर्णदेव (दे.) को पराजित कर अपने राज्य का काफी विस्तार किया। उसने प्रजा की भलाई के लिए अनेक कार्य किये। उसने कीरतसागर (दे.) झील बनवायी। वह विद्वानों का आश्रयदाता था। 'प्रबोध चन्द्रोदय' नाटक के रचयिता श्रीकृष्ण मिश्र को उसका आश्रय प्राप्त था।

कुजुल कदफिसस : देखिये, 'कदफिसस प्रथम'।

कुणाल : अशोक का पुत्र ? उसका उल्लेख अशोक अथवा उसके किसी उत्तराधिकारी के शिलालेख में नहीं मिलता। उसको लेकर अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं जो मन में करुणा उत्पन्न करती हैं। कहा जाता है कि वह अपनी सौतेली माँ तिष्यरक्षिता का कोपभाजन बन गया। तिष्यरक्षिता का भी उल्लेख अशोक के किसी शिलालेख में नहीं मिलता। उसने उसकी आँखें फोड़वा दीं और अशोक की आज्ञा से उसे तक्षशिला के शासक के पद से हटा दिया। बाद में अशोक को अपनी गलती का पता चला। कहा जाता है कि भिक्षु घोष ने बुद्ध की करुणा पर जो प्रवचन किया, उसे सुनकर धर्मनिष्ठ भिक्षुओं के कपोलों पर अश्रुधारा बह चली। उसे लगाने से ही कुणाल के ज्योतिहीन नेत्रों में ज्योति आ गयी, जिससे अशोक को सान्त्वना प्राप्त हुई।

कुतलग खां : सुल्तान मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१ ई.) द्वारा दक्खिन का नाजिम (सूबेदार) नियक्त किया गया। राजधानी से दूर होने तथा सुल्तान के सनक भरे आदेशों से असंतुष्ट होकर उसने बगावत कर दी, किन्तु सुल्तान ने १३४४-४५ ई. में उसकी बगावत कुचल दी।

कुतलग, ख्वाजा : मंगोलों का सरदार। उसने १२९९ ई. में भारत पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से चढ़ाई की। दिल्ली के बाहर एक युद्ध में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (१२९६-१३१६ ई.) के एक बहुत ही योग्य सिपहसालार जफर खां ने उसे हरा दिया और वह भारत से वापस लौट गया। उसे इतना ही संतोष मिला कि युद्ध में उसका विजयी प्रतिद्वन्द्वी जफर खां मारा गया।

कुतुब मीनार : दिल्ली तथा भारत में मुसलमान शासनकाल की सबसे शानदार इमारत। नीचे के भाग को छोड़कर, यह पूरी मीनार सुल्तान इल्तुतमिश के हुक्म से १२३२ ई .में बनायी गयी। इसका नीचे का भाग पहले सुल्तान कुतुबुद्दीन ने बनवाया था। सम्भवतः इसका नामकरण कुतुबुद्दीन के नाम पर नहीं, वरन् उस संत के नाम पर किया गया है जिसे यहाँ दफन किया गया था।

कुतुबशाही वंश : स्थापना १५१८ ई.में कुली कुतुबशाह (दे.) के द्वारा, जो सुल्तान मुहम्मद शाह तृतीय (दे.) तथा उसके उत्तराधिकारी महमूद शाह (दे.) के राज्यकाल में बहमनी राज्य के पूर्वी भाग का हाकिम था। महमूद शाह की मृत्यु पर उसने अपने को गोलकुंडा का स्वतंत्र सुल्तान घोषित कर दिया और कुतुबशाही वंश की स्थापना की जिसने १५१८ ई.से १६८७ ई. तक राज्य किया। इस वंश के प्रारम्भिक सुल्तान जमशेद (१५४३-५० ई.), इब्राहीम (१५५०-८० ई.) तथा मुहम्मद कुली (१५८७-१६११ ई.) थे। जमशेद पितृघातक था। इब्राहीम योग्य शासक था। उसने १५६५ ई. में तालीकोट की लड़ाई (दे.) में विजयनगर साम्राज्य को पराजित करने में भाग लिया। १६८७ ई. में औरंगजेब ने कुतुबशाही वंश का उच्छेद कर दिया।

कुतुबुद्दीन ऐबक : दिल्ली का पहला मुसलमान सुल्तान। मूल रूप से तुर्किस्तान का रहनेवाला था, जो गुलाम के रूप में खरीदकर शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी (दे.) की सेवा में उपस्थित किया गया। अपनी योग्यता के कारण वह मालिक का कृपापात्र बन गया। ११९२ ई. में तराई की दूसरी लड़ाई (दे.) में विजय के बाद शहाबुद्दीन भारत में युद्ध जारी रखने का भार अपने विश्वासपात्र गुलाम और सिपहसालार कुतुबुद्दीन ऐबक पर छोड़कर खुरासान वापस लौट गया। कुतुबुद्दीन ने बड़ी योग्यता के साथ मालिक के द्वारा सौंपा गया काम पूरा किया। ११९३ ई. में उसने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और दोआब पर चढ़ाई की। अगले दस सालों (११९३-१२०३ ई.) में उसने अपने मालिक को कन्नौज, ग्वालियर, अन्हिलवाड़, अजमेर तथा कालंजर फतह करने में मदद दी। इस बीच में कुतुबुद्दीन के एक सहायक, बख्तियार (दे.) के पुत्र मुहम्मद ने बिहार और बंगाल जीत लिया था।

इस तरह शहबुद्दीन मुहम्मद गोरी की मृत्यु के समय तक कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपनी प्रतिष्ठा इतनी बढ़ा ली थी कि शहाबुद्दीन के मरने के बाद उसके भारतीय साम्राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त होने में उसे किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। उसकी गणना दिल्ली के पहले सुल्तान के रूप में की जाती है। उसने १२०६ ई. से १२१० ई. में मृत्यु होने तक राज्य किया। कुतुबुद्दीन बुद्धिमान् राजनीतिज्ञ था। उसने अनुभव किया कि मुहम्मद गोरी से उसका खून का रिश्ता नहीं है, अतएव उसने मुहम्मद गोरी के प्रमुख सहयोगियों को अपना समर्थक बना लेना उचित समझा। फलतः उसने किरमान के हाकिम ताजुद्दीन मिल्दिज की पुत्री से स्वयं विवाह कर लिया और अपनी बहिन का विवाह सिंध के हाकिम नासिरुद्दीन कुबाचा (दे.) तथा अपनी पुत्री का विवाह अपने प्रमुख गुलाम तथा सबसे योग्य सिपहसालार इल्तुतमिश से कर दिया। कुतुबुद्दीन ने केवल चार वर्ष (१२०६-१० ई.) राज्य किया और पोलो के मैदान में दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से उसकी मृत्यु हो गयी। वह शक्तिशाली और क्रूर विजेता तथा शासक था, परन्तु इसके साथ ही उसमें सौन्दर्य को परखने की सहज वृत्ति भी थी, जिसके फलस्वरूप उसने कुतुबमीनार (दे.) बनवाना शुरू किया था।

कुतुबुद्दीन कोका : बादशाह जहाँगीर (१६०५-२७ ई.) का दूध-भाई था। जहाँगीर ने तख्त पर बैठने के बाद ही उसे शेर अफगान (दे.) को दरबार में लाने के लिए भेजा था, जिसने मेहरुन्निसा (भावी मलका नूरजहाँ) (दे.) से शादी कर ली थी और उस समय बंगाल में बर्दवान में उसे जागीर मिली हुई थी। कोका शांतिपूर्ण रीति से शेर अफगान को पकड़कर ला नहीं सका। दोनों में युद्ध छिड़ गया, जिसमें दोनों मारे गये।

कुतुबुद्दीन मुबारक : खिलजी वंश का अंतिम सुल्तान तथा सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (दे.) का पुत्र एवं उत्तराधिकारी। उसने १३१६ से १३२० ई. तक राज्य किया। गद्दी पर बैठने के बाद ही उसने देवगिरि के राजा हरपाल देव पर चढ़ाई की, युद्ध में उसे परास्त किया और उसे बंदी बनाकर उसकी खाल उधेड़वा दी। इस सफलता के फलस्वरूप उसका दिमाग फिर गया। वह अपना समय सुरा तथा सुन्दरी में बिताने लगा। १३२७ ई. में उसके कृपापात्र खुसरो खां ने उसकी हत्या कर डाली। उसकी मृत्यु के साथ खिलजी वंश का अंत हो गया।

कुन्हा, नूनो दा : १५३७ ई. में दिवका पुर्तगाली गवर्नर, उसने अपने समकालीन गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह (१५२६-३७) को अपने जहाज पर सैर के लिए आमंत्रित किया और कुचक्र रचकर उसकी हत्या करा दी। सुल्तान जिस समय जहाज से उतर रहा था कुन्हा ने उस पर हमला करा दिया। सुल्तान ने जान बचाने के लिए उछलकर जहाज के अंदर जाने की कोशिश की किन्तु पुर्तगाली नाविक ने उसके सिर पर प्रहार किया और उसे मार डाला।

कुबेर : देवराष्ट्र का राजा। प्रयाग के स्तम्भ-लेख के अनुसार समुद्रगुप्त (दे.) ने उसे युद्ध में बंदी बनाने के बाद मुक्त कर दिया था। देवराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश के विजगापट्टम जिले में स्थित बताया जाता है।

कुबेरनागा : चन्द्रगुप्त द्वितीय (लगभग ३८०-४१३ ई.) की एक रानी थी।

कुब्ज विष्णुवर्धन : चालुक्य राजा पुलकेशी द्वितीय (लगभग (६०९-४२ ई.) का छोटा भाई। पुलकेशी ने ६११ ई. में अपने छोटे भाई को कृष्णा और गोदावरी नदियों के मध्य में स्थित वेंगि के राज्‍य का शासक नियुक्‍त कर दिया। इसकी राजधानी पिष्टपुर, आधुनिक पीठापुरम् थी। लगभग ६१५ ई. में कुब्ज विष्णुवर्धन ने अपने को वेंगि का स्वतंत्र राजा बना लिया और पूर्वी चालुक्य वंश (दे.) की स्थापना की जिसने १०७० ई. तक राज्य किया।

कुमराहार : बिहार में बाँकीपुर के निकट एक गाँव। यहीं पर प्राचीन पाटलिपुत्र (दे.) नगर स्थित था।

कुमार : देखिये, 'भास्करवर्मा'।

कुमारगुप्त प्रथम : चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (लगभग ३७५-४१३ ई.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। उसने ४१३ ई. से ४५३ ई. तक राज्य किया, उत्तराधिकार में प्राप्त विशाल गुप्त साम्राज्य की अखंडता बनाये रखी और शायद उसका और विस्तार किया, क्योंकि अपने पितामह समुद्रगुप्त की भांति उसने भी अश्वमेध यज्ञ किया था; परन्तु उसके राज्यकाल में गुप्त साम्राज्य के ऊपर विपत्ति के बादल घहराने लगे थे। पहले तो पुष्यमित्रों ने, जिनके बारे में कुछ ज्ञान नहीं है, साम्राज्य पर आक्रमण किया; उनके खदेड़ दिये जाने के बाद हूणों के आक्रमण आरम्भ हो गये। कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त के नेतृत्व में हूणों को पराजित करके उनकी बाढ़ रोक दी गयी। इन सब विपत्तियों के काल में ही कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु हो गयी।

कुमारगुप्त द्वितीय : कुमारगुप्त प्रथम का प्रपौत्र। उसने लगभग ४७३ ई. में अपने पिता नरसिंहगुप्त बालादित्य से सिंहासन प्राप्त किया और ४७४ ई. तक राज्य किया। उसका राज्य उसके पूर्वजों के विशाल साम्राज्य के पूर्वी प्रांतों तक सीमित था। उसने बहुत थोड़े समय राज्य किया। वह पुत्रहीन था और उसके बाद गुप्तवंश की सीधी वंश परम्परा समाप्त हो गयी।

कुमारघोष : बंगाल का प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु, जो जावा के शैलेन्द्र राजवंश (दे.) का गुरु हो गया। उसके आदेश से एक शैलेन्द्र राजा ने जावा में तारा का सुन्दर मंदिर बनवाया।

कुमारजीव : जन्म ३४४ ई. में। उसका पिता कुमार अथवा कुमारायन था। उसकी माता मध्य एशिया स्थित कूचा के राजा की बहन, राजकुमारी जीवा थी। कुमारजीव की जीवन-कहानी सामान्य रूप से भारत से बाहर भारतीय संस्कृति, और विशेषरूप से बौद्धधर्म के प्रसार की कहानी है। उसने पहले कूचा में और फिर कश्मीर में शिक्षा पायी। २० वर्ष की अवस्था में वह बौद्ध भिक्षु हो गया। वह कूचा में रहकर महायानी बौद्धधर्म की शिक्षा देने लगा। जब वह बन्दी बनाकर चीन ले जाया गया तो चीनी सम्राट् यात्री याओहीन ने ४०१ ई. में उससे अपने राज्य में बौद्धधर्म का प्रचार करने को कहा। इसके बाद वह चीन की राजधानी चांगआन में बस गया और ४१३ ई. में अपनी मृत्यु तक वहीं रहा।

कुमारजीव ने अपने जीवनकाल के इन अंतिम बारह वर्षों में चीनी विद्वानों की सहायता से, जिन्हें चीनी सम्राट् ने उसकी सेवा में नियुक्त कर दिया था, अठ्ठानवे संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। इन ग्रन्थों में 'प्रज्ञापारमिता', 'विमलकीर्ति-निर्देश' तथा 'सद्धर्म पुंडरीक सूत्र' नामक ग्रन्थ भी हैं जो महायानी निकाय के मूल सिद्धांत ग्रंथ हैं। उसने बहुत से चीनियों को अपना शिष्य बनाया। उसका सबसे प्रसिद्ध चीनी शिष्य फाहियान था, जिसने उसके कहने से ४०५-११ ई. में भारत की यात्रा की। इस तरह कुमारजीव ने महायानी बौद्धधर्म की विजय पताका फहरायी जिसका प्रसार पहले चीन में और फिर वहाँ से कोरिया में और फिर जापान में हुआ। वृहत्तर भारत के निर्माण में कुमारजीव और उसके चरण-चिह्नों पर चलनेवाले अन्य अनेकानेक भारतीय बौद्ध भिक्षुओं का बहुत बड़ा हाथ है।

कुमारदेवी : लिच्छवि राजकुमारी, चन्द्रगुप्त प्रथम (लगभग ३२०-३० ई.) के साथ विवाहित और प्रसिद्ध समुद्रगुप्त (लगभग ३३०-३८० ई.) की माता। विश्वास किया जाता है कि लिच्छविकुमारी के विवाह-सम्बन्ध ने चन्द्रगुप्त प्रथम के उत्कर्ष में बहुत सहायता दी और उसके पुत्र ने अपने शिलालेख में गर्व के साथ अपने लिच्छवि-दौहित्र होने का उल्लेख किया है।

कुमारपाल : एक चालुक्य राजकुमार, जिसे राज्याधिकारियों ने गुजरात की गद्दी पर बैठाया। उसने अह्रिलवाड़ को राजधानी बनाकर ११४३ ई. से ११७२ ई. तक राज्य किया। वह पक्का जैन धर्मानुयायी और प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचन्द्र का संरक्षक था। अहिंसा का प्रचार करने के उद्देश्य से उसने राजाज्ञा की अवहेलना करके जीव-हिंसा करनेवाले बहुत से लोगों को सूली पर चढ़ा दिया। उसने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया।

कुमारपाल : बंगाल के पालवंश का बाद का राजा। वह राम पाल का पुत्र था और लगभग ११२० ई. में पिता के सिंहासन पर बैठा। उसने केवल पाँच वर्ष राज्य किया। उसके राज्यकाल में पालवंश का अपकर्ष आरम्भ हो गया। कामरूप में कुमारपाल के कृपापात्र तथा अमात्य विद्यादेव ने एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली।

कुमारामात्य : गुप्त साम्राज्य के उच्च राज्याधिकारियों की एक पदवी। कवि हरिषेण को, जिसने इलाहाबाद स्तम्भ पर उत्कीर्ण समुद्रगुप्त (दे.) की प्रशस्ति की रचना की, 'कुमारामात्य' के अतिरिक्त 'महादंड नायक' (सेना का अधिकारी) आदि की पदवियाँ भी प्राप्त थीं। कुमारामात्य या तो महाराजाधिराज या युवराज या प्रांतीय शासक की सेवा में रहता था।

कुमारिल भट्ट : हिन्दुओं के धर्मसूत्रों एवं पूर्व-मीमांसा दर्शन के विद्वान् भाष्यकार। वे आत्मा को नित्य मानते थे और बौद्ध धर्म एवं दर्शन के प्रखर आलोचक थे। वे दक्षिण भारत के निवासी थे और लगभग ७०० ई. में हुए।

कुम्भा : मेवाड़ का राणा (१४३१-६९ ई.)। मेवाड़ के सबसे महान शासकों में उसकी गणना की जाती है। उसने मालवा तथा गुजरात के सुल्तानों की शक्तिशाली सेनाओं को मेवाड़ से दूर रखा। वह महान वास्तुनिर्माता था। उसने मेवाड़ की रक्षा के लिए स्थापित चौरासी दुर्गों में से बत्तीस दुर्गों का निर्माण कराया। इन दुर्गों में कुम्भलगढ़ सैनिक दृष्टि से सबसे अधिक उल्लेखनीय है। उसने जयस्तर (जिसे 'कीर्तिस्तम्भ' भी कहते हैं ) का निर्माण कराया। वह केवल महान् शासक तथा योद्धा ही नहीं, प्रतिभाशाली कवि, प्रकांड विद्वान् तथा प्रसिद्ध संगीतज्ञ भी था।

कुरल' (अथवा तिरुक्कुरल) : तमिल भाषा का महत्त्वपूर्ण काव्यग्रंथ। इसकी रचना ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में हुई। गोदावरी के दक्षिण का यह सबसे प्रतिष्टित और लोकप्रिय ग्रंथ है। इसमें सदाचार और नीति विषयक अनेक शिक्षाएँ हैं जो आज भी तमिल लोगों की जबान पर रहती हैं।

कुरान : मुसलमानों की सबसे पवित्र पुस्तक। उसमें उनके पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब की वाणी संगृहीत है। इसलामी धर्मशास्त्र तथा राजशास्त्र उसी पर आधारित है। इस किताब को 'खुदा का कलाम' माना जाता है, जो पैगम्बर मुहम्मद साहब पर उतारी गयी थी।

कुरुक्षेत्र : प्रसिद्ध युद्धभूमि, जहाँ महाभारत के अनुसार १८ दिन तक कौरवों और पांडवों के बीच इस बात का निर्णय करने के लिए भीषण युद्ध हुआ कि दोनों में से कौन उत्तरी भारत का सार्वभौम शासन करेगा। इस युद्ध में पांडवों की विजय हुई। कुरुक्षेत्र दिल्ली के निकट ही स्थित था। यह स्थान पानीपत से अधिक दूर नहीं है, जहाँ तीन बार भारत का भाग्य-निर्णय हुआ। पश्चिमी विद्वान् कुरुक्षेत्र के युद्ध की ऐतिहासिकता में संदेह करते हैं, परंतु सभी धर्मनिष्ठ हिन्दुओं का विश्वास है कि यह युद्ध हुआ था।

कुर्ग : अब मैसूर (कर्नाटक) राज्य का एक जिला। यह पश्चिमी घाट के पठार पर प्रायद्वीप के दक्षिण में स्थित है इस जिले की पुरानी राजधानी मरकारा और अब यहाँ की राजभाषा कन्नड़ है। यहाँ चावल और काफी की पैदावार बहुतायत से होती है। यहाँ की काफी ने ही खासतौर से अंग्रेजों का ध्यान इस जिले की ओर आकर्षित किया। इस जिले का नाम कुर्ग नाक कबायलियों के आधार पर पड़ा, जो मूल रूप से यहाँ के निवासी थे। इस जिले का इतिहास नवीं और दसवीं शताब्दी के बाद से ही मिलता है जब इसका शासन गंग राजाओं (दे.) के हाथ में था। ११वीं शताब्दी में गंगवंशी राजाओं के पदच्युत कर दिये जाने पर इसका शासन क्रमशः चोल और होयसलों के हाथ में आ गया। इसके बाद यह विजयनगर साम्राज्य का अंग बन गया। विजयनगर का पतन होने पर राजपरिवार के एक राजकुमार ने इस क्षेत्र पर अपना शासन स्थापित किया और उसके वंशज तबतक यहाँ शासन करते रहे, जबतक वह १८३४ ई. में ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला नहीं लिया गया। मैसूर के हैदरअली और उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने इस पर अपने प्रभुत्व का दावा किया, यद्यपि कुर्ग बार-बार मुस्लिम शासन के खिलाफ विद्रोह करते रहे। १७८८ ई. में जब लार्ड कार्नवालिस ने टीपू सुल्तान से युद्ध छेड़ा तो उसने वीरराजा के साथ एक संधि की, जो अपने को कुर्ग का शासक कहता था। बाद को मार्च १७९२ ई. में टीपू सुल्तान ने भी ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ संधि की, जिसके अनुसार टीपू ने कुर्ग कम्पनी को दे दिया और कम्पनी ने वीरराजा को कुर्ग के स्वतंत्र शासक के रूप में मान्यता दी। १८०९ ई. में वीरराजा की मृत्यु हो गयी और १८२० ई. में वीरराजा द्वितीय उत्तराधिकारी बना। वह बहुत ही निर्दय और भ्रष्ट था। अतः गवर्नर-जनरल लार्ड विलियम बेण्टिक ने १८३४ ई. में उसे अपदस्थ कर कुर्ग को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया। इसके बाद जब तक भारत में ब्रिटिश शासन रहा, कुर्ग का प्रशासन बराबर पृथक् राज्य के रूप में चीफ कमिश्नर (मुख्य आयुक्त) द्वारा चलाया जाता रहा। १९५१ ई. में इसका विलय भारतीय गणतंत्र में हो गया और अब यह मैसूर राज्य का एक जिला है। (पी. एम. मुत्तन्ना कृत 'कुर्ग और कुर्गवासी')

कुर्नूल : पुराने मद्रास प्रान्त की छोटी-सी रियासत, जिसका शासन नवाब के हाथ में था। लार्ड आकलैंड (१८३६-४२ ई.) के शासनकाल में इस रियासत को ब्रिटिश भारतीय राज्य में मिला लिया गया, क्योंकि यह संदेह किया जाता था कि नवाब अंग्रेजों के विरुद्ध षड्यंत्र कर रहा है।

कुर्रम (अथवा कोट्टम) : चोल राज्य में प्रशासन की एक इकाई। इसके अंतर्गत गाँवों का एक समूह होता था, जिसका स्थानीय प्रशासन महासभा की सहायता से चलाया जाता था। महासभा का वार्षिक चुनाव सम्पन्न कराने के लिए विस्तृत नियम थे। कुर्रम (अथवा कोट्टम) को राजा के अधीन स्थानीय स्वशासन के विस्तृत अधिकार प्राप्त थे। उसकी ओर से स्थानीय कर लगाये जाते थे। उसका स्थानीय खजाना भी होता था। अपने क्षेत्र की भूमि पर उसका पूरा नियंत्रण रहता था। वह अपनी समितियाँ नियुक्त करती थी, जिसके द्वारा अपने क्षेत्र के जलाशयों और उद्यानों की देखभाल करती थी। वह अपने क्षेत्र में शांति और न्याय की भी व्यवस्था करती थी।

कुली कुतुबशाह : एक तुर्क सरदार, जो बहमनी सुल्तान मुहम्मद तृतीय (दे.) (१४६३-८२ ई.) का नौकर था। सुल्तान के वजीर मुहम्मद गवाँ (दे.) की कृपा दृष्टि होने के कारण वह पदोन्नति करके बहमनी राज्य के पूर्वी भाग अर्थात् गोलकुंडा का हाकिम नियुक्त हो गया। १४८१ ई. में अपने संरक्षक मुहम्मद गवाँ का वध कर दिये जाने पर उसने बिदर के दरबार से नाता तोड़ लिया और १५१८ ई. में अपने को गोलकुंडा का सुल्तान घोषित कर दिया। उसने १५४३ ई. तक शासन किया। उस समय जब उसकी अवस्था नब्बे वर्ष की हो चुकी थी, उसके पुत्र जमशेद ने उसकी हत्या कर दी। उसने कुतुबशाही वंश की स्थापना की, जिसने गोलकुंडा पर १६८७ ई. तक राज्य लिया। १६८७ ई. में औरंगजेब (दे.) ने गोलकुंडा जीत लिया और उसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया।

कुलीनतावाद : का प्रवेश बंगाल के ब्राह्मणों में बंगाल के दूसरे सेन राजा, बल्लालसेन (लगभग 1158-79) ने किया। बादमें उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी लक्ष्मणसेन (लगभग 1179-1206 ई.) ने इसका विस्तार किया। इस प्रथा का मूल उद्देश्य स्पष्ट नहीं है, परन्तु बाद के समय में यह सामाजिक उत्पीड़न का एक बहुत बड़ा कारण बन गया। इसके द्वारा विवाह-सम्बन्ध केवल उन्हीं घरानों में सीमित कर दिया गया, जिन्हें कुलीन माना जाता था। परिणामस्वरूप कुलीन ब्राह्मण घरानों में वर के अभाव में बहुत-सी कन्याएं अविवाहित रह जाती थीं। फलतः एक-एक कुलीन ब्राह्मण के साथ कई-कई कुलीन कन्याओं का पल्ला बाँध देने की प्रथा चली, जिनके भरण-पोषण का कोई भार उसके ऊपर नहीं रहता था। इस प्रथा से बहुत-सी सामाजिक बुराइयाँ पैदा हो गयीं और उन्नीसवीं शताब्दी के अंग्रेजी पढ़े-लिखे बंगालियों ने इस प्रथा का तीव्र विरोध किया। यद्यपि इधर हाल के वर्षो में यह प्रथा उतनी कठोर नहीं रह गयी है जितनी पहले थी, तथापि बंगाल के कूलीन हिन्दुओं में यह अब भी वर्तमान है।

कुलोत्तुङ्ग प्रथम : चोल राजा राजेन्द्र प्रथम (दे.) (१०१२-४४ ई.) की पुत्री अम्भङ्गदेवी और पूर्वी चालुक्य राजा राजराज नरेन्द्र प्रथम (१०२२-६३ ई.) का पुत्र। चोल राजा अधिराजेन्द्र (१०६७-७० ई.) की मृत्यु हो जाने पर वह सिंहासन पर बैठा और इस प्रकार एक नये चालुक्य-चोल वंश का सूत्रपात हुआ। उसने १०७० से ११२२ ई. तक राज्य किया। उसके वंश ने चोल राज्य पर १०७० ई. से लेकर १२७६ ई. में उसकी समाप्ति तक राज्य किया। वह सुयोग्य शासक था। उसने कलिंग को जीता और चोल राज्य में मालगुजारी की व्यवस्था का व्यापक संशोधन किया। उसके पूर्ववर्ती चोल राजा अधिराजेन्द्र की धार्मिक असहिष्णुता की नीति के कारण आचार्य रामनुज (दे.) चोल राज्य से बाहर चले गये थे। कुलोत्तुङ्ग के राज्यकाल में वे वापस लौट आये और चोल राजधानी श्रीरंगम् में रहने लगे।

कुलोत्तुङ्ग चोल द्वितीय : चालुक्य-चोल वंश का तीसरा राजा। उसने ११३३ से ११५० ई. तक राज्य किया।

कुलोत्तुङ्ग चोल तृतीय : चालुक्य-चोल वंश का अंतिम राजा। उसने ११७८ से १२१८ ई. तक राज्य किया। उसने पाण्ड्य देश पर कई चढ़ाइयां कीं और कुछ समय तक उसे अपने अधीन रखा। कहा जाता है कि १२०८ ई. में उसने वेङ्गि (दे.) पर भी आक्रमण किया। परंतु १२१६ ई. में उसे पाण्ड्य शक्ति से परास्त होना पड़ा और पाण्ड्य राजा सुन्दर की अधीनता स्वीकार करके ही वह अपनी गद्दी वापस पा सका। इसके बाद चालुक्य-चोल वंश का पराभव हो गया।

कुल्लूक : एक धर्मशास्त्रज्ञ विद्वान्, जिनका जन्म बंगाल में हुआ, परंतु काशी में रहते थे। उनका समय चौदहवीं शताब्दी का मध्यकाल है। उन्होंने मनुसंहिता पर (दे.) 'मन्वर्थमुक्तावली' नामक संस्कृत-टीका लिखी है, जिसका हिन्दू समाज पर बहुत व्यापक प्रभाव रहा है।

कुषाण : युहारी कबीले के लोग, जो यायावर जीवन व्यतीत करता था। बैक्ट्रिया में बस जाने के बाद इस कबीले ने यायावर जीवन त्याग दिया। ईसवी सन् से पूर्व की पहली शताब्दी में उसके भारत पर हमले शुरू हो गये। इस कबीले की कई शाखाएं थीं, जिनमें कुषाण भी थे। अंत में कुजुल कर कदफिसस (दे.) के नेतृत्व में कुषाणों ने अन्य चार शाखाओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। कुजुल कर कदफिसस ने बाद में भारत में कुषाण राजवंश की स्थापना की और भारतीय इतिहास में वह कदफिसस प्रथम (दे.) के नाम से विख्यात हुआ। कुषाणों ने भारत में एक विशाल साम्राज्य का विस्तार किया और संभवतः लगभग ४८ ई. से २२० ई. तक उस पर राज्य किया। भारत के कुषाण राजाओं में कदफिसस प्रथम, कदफिसस द्वितीय, कनिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। सामान्य रीति से यह माना जाता है कि ७८ ई. से प्रचलित शक संवत् कुषाणों ने चलाया।

कुसुमपुर : पाटलिपुत्र (दे.) का दूसरा नाम।

कूचबिहार, कूचा अथवा कुची : कूचबिहार- भारत के बंगाल प्रांत का एक नगर और जिला। यह तोरसा नदी के किनारे स्थित है और तिस्ता तथा संकोश नदियाँ ब्रह्मपुत्र में मिलने से पहले इस जिले से होकर गुजरती हैं। इसका नाम कोच नामक कबायलियों के आधार पर पड़ा है, जिन्हें बाद को, खासकर उनके राजाओं को क्षत्रिय समझा जाने लगा। यह जिला कामरूप (आसाम) के प्राचीन हिंदू शासकों के राज्य का एक अंग था। भास्करवर्मा (लगभग ६००-६५० ई.) के काल में यह राज्य करतोया तक फैला हुआ था। लेकिन सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में वह कामरूप से अलग हो गया और स्थानीय कोच लोगों के मुखिया विश्वसिंह द्वारा स्थापित नये राज्य की राजधानी कूचबिहार बन गयी। इस वंश का सबसे बड़ा राजा विश्वसिंह का पुत्र और उसका उत्तराधिकारी नरनारायण (१५४०-८४ ई.) हुआ। इसने आसाम का काफी बड़ा भूभाग अपने अधीन कर लिया और आधुनिक रंगपुर जिले के दक्षिणी अंचल तक अपनी शक्ति का विस्तार किया। वह हिन्दुत्व, कला और साहित्य का बहुत बड़ा पोषक था। उसने गौहाटी के निकट कामाख्या देवी के मंदिर का फिर से निर्माण कराया। यह मंदिर काला पहाड़ नामक मुस्लिम हमलावर द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था। वह आसाम में वैष्णव धर्म के महान् संस्थापक शंकरदेव (दे.) का संरक्षक था।

उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र और भतीजे में उत्तराधिकार का युद्ध छिड़ गया। उसके पुत्र नें अपने को बचाने के लिए मुगल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। उसका राज्य काफी अरसे तक मुगलों के अधीन बना रहा, किंतु बाद को १७७२ ई. में उस पर भोटों ने हमला कर दिया। तत्कालीन राजा ने बंगाल के गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स से सहायता मांगी। वारेन हेस्टिंग्स ने कम्पनी के सैनिकों की एक टुकड़ी मदद के लिए भेज दी जिसने भोटों को खदेड़कर उन्हें संधि करने को मजबूर कर दिया। कम्पनी और कूचबिहार के राजा के बीच एक संधि हुई, जिसके अधीन राजा ने ईस्ट इंडिया कम्पनी का संरक्षण स्वीकार कर लिया और इसके बदले में वह कम्पनी को वार्षिक राजस्व देने के लिए राजी हो गया। कूचबिहार १९३८ ई. तक बंगाल के गवर्नर के शासनांतर्गत रहा, किन्तु इसके बाद इसका नियंत्रण ईस्टर्न स्टेट्स एजेन्सी के सुपुर्द कर दिया गया। १९५० ई. में इसका विलय भारतीय गणतंत्र में हुआ और यह पश्चिमी बंगाल का एक जिला बन गया। (अमानुल्लाह कृत 'कूचबिहार का इतिहास')

कूचा अथवा कुची -तुर्किस्तान का एक नगर। ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दि‍यों में यह भातीय संस्कृति, सभ्यता तथा बौद्ध धर्म का महान् केन्द्र था। प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु कुमारजीव (दे.) को इसी नगर से बन्दी बनाकर चीन ले जाया गया था, जहां उसने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में अपना जीवन लगा दिया।

कूट, सर आयर (१७२६-१७८३)  : प्रथम ब्रिटिश रेजीमेंट के साथ कैप्टन के रूप में भारत आया। यह रेजीमेंट (३९वीं) १७५४ ई. में भारत भेजी गयी थी। कैप्टन कूट १७५६ ई. में क्लाइव के साथ बंगाल गया और वह कलकत्ता की विजय और पलासी के युद्ध दोनों ही मौकों पर मौजूद था। पलासी युद्ध के बाद पराजित फ्रांसीसी सेना को उसने ४०० मील तक खदेड़ा, जिसके पुरस्कारस्वरूप वह लेफ्टीनेंट कर्नल बना दिया गया। इसके बाद उसे मद्रास भेजा गया, जहाँ पहले उसने उत्तरी सरकार पर अधिकार किया जो कई वर्षों से फ्रांसीसी आधिपत्य में था और बाद को २२ जनवरी १७६० ई. को विन्दवास के निर्णायक युद्ध में फ्रांसीसियों को करारी मात देनेवाली ब्रिटिश सेना का संचालन किया। १७६१ ई. में पांडिचेरी के अधिग्रहण में भी उसने हिस्सा लिया। १७७९ ई. में क्लेवरिंग की मृत्यु के बाद वह गवर्नर-जनरल की परिषद् का सदस्य बनाया गया। १७८० ई. में हैदरअली के विरुद्ध अंग्रेजी फौज का नेतृत्व करने के लिए वह फिर मद्रास भेजा गया। इस बार उसने पोर्टोनोवो के युद्ध (जून १७८१ ) में हैदरअली को हराया तो सही, किंतु उसकी यह विजय विन्द्वास युद्ध के विजेता के अनुरूप न थी। बाद को हैदरअली के साथ पालीलुर में एक अन्य युद्ध में कूट को अपनी एक टांग से हाथ धोना पड़ा। इस दुर्घटना के बाद कूट का पुराना साहस और पराक्रम लुप्त हो गया और १७८३ ई. में अपनी मृत्यु के समय तक उसने अपनी पुरानी ख्याति के अनुरूप कोई कार्य नहीं किया। (एस. सी. विली कृत 'लाइफ आफ सर आयर कूट' )

कूणिक : अजातशत्रु (दे.) को इस नाम से भी सम्बोधित किया जाता था।

कूना (जिसे सुन्दर नेडुभरन भी कहते हैं) : एक पांड्य शासक, जो सातवीं शताब्दी ई. में राज्य करता था। वह पहले जैनधर्मानुयायी था, बाद में शैव हो गया। शैव होने के बाद उसने जैनों पर भारी अत्याचार किये। कहा जाता है कि उसने ८००० जैनों को सूली पर चढ़वा दिया था।

कृत्तिवास : एक प्रसिद्ध बँगला कवि, जिसका जन्म १३४६ ई. में हुआ। उसने रामायण का संस्कृत भाषा से बँगला में अनुवाद किया है। उसकी रामायण का बंगाल में घर-घर में प्रचार है।

कृष्ण : विष्णु के अवतार के रूप में इनकी पूजा सारे भारत में होती है। महाभारत और भागवतपुराण में इनका वर्णन मिलता है।

कृष्ण : सातवाहन (दे.) वंश का दूसरा राजा। उसका संभाव्य काल २३५ ई. पू. है। उसने सातवाहन राज्य का विस्तार पश्चिम में नासिक तक किया था।

कृष्ण प्रथम : द्वितीय राष्ट्रकूट (दे.) राजा (८६८-७२ ई.)। उसने चालुक्यों (दे.) पर राष्ट्रकूटों का प्रभुत्व स्थापित किया और एलोरा के कैलास मंदिर (दे.) का निर्माण कराया, जिसे प्राचीन भारत में वास्तुकला की सबसे आश्चर्यजनक कृति माना जाता है।

कृष्ण द्वितीय : बाद का एक राष्ट्रकूट राजा, जिसने ८७७-९१३ ई. तक राज्य किया।

कृष्ण तृतीय : राष्ट्रकूट वंश का अंतिम महान् शासक, जिसने ९३९-६८ ई. तक राज्य किया। उसके बाद तीन और नाममात्र के राजा हुए।

कृष्णदेव राय : विजयनगर का १५०९ से १५२९ ई. तक राजा। विजयनगर के शासकों में वह सबसे महान् था। उसने बीदर के सुल्तान के हमले को विफल कर दिया, बीजापुर के सुल्तान यूसुफ आदिलशाह को युद्ध में परास्त किया तथा मार डाला, बाद में बीजापुर से रायचूर का किला वापस ले लिया, जिसके लिए दोनों राज्यों में लम्बे अर्से से लड़ाई चल रही थी। उसने अस्थायी रीति से बीजापुर पर भी अधिकार कर लिया और कुलबर्ग का किला नष्ट कर दिया। उसने उड़ीसा के राजा प्रतापरुद्र को भी हराया और अपना राज्य कृष्णा नदी तक और बाद में तेलंगण होकर उड़ीसा में गोदावरी तक विस्तृत किया। दक्षिण में उसने अपना राज्य मैसूर में श्रीरंगपट्टनम (श्रीरंगपट्टम) तक विस्तृत किया। इस प्रकार उसके राज्यकाल में विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत सारा मद्रास प्रांत, उत्तर में उड़ीसा का एक बड़ा भाग तथा सारा मैसूर राज्य आ गया था।

कृष्णदेव राय बड़ा वीर तथा पराक्रमी राजा था। उसके सम्पर्क में आनेवाले सभी व्यक्ति उससे बहुत अधिक प्रभावित थे। इनमें नूनिज (दे.) तथा पीस (दे.) जैसे विदेशी यात्री भी थे, जो उसके राज्य में आये थे। कृष्णदेव राय स्वयं भी कवि एवं लेखक होने के कारण विद्वानों का बड़ा आदर करता था। उसने मंदिरों तथा विद्वान् ब्राह्मणों को प्रचुर मात्रा में दान दिया। प्रसिद्ध तेलुगु कवि अल्लसानि पेछन्न उसका राजकवि था।

कृष्णराजा : मैसूर के सर चमो राजेन्द्र का पुत्र और उत्तराधिकारी तथा उदार शासक। १८९६ ई. में वह गद्दी पर बैठा। उसने राज्य में कई प्रशासनिक सुधार किये, जिसके फलस्वरूप मैसूर ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की एक उन्नत रियासत बन गयी।

कृष्णा : दक्षिण भारत की एक नदी। यह पश्चिमी घाट से निकलकर पूर्व की दिशा में रहती है और आंध्र प्रदेश में गुन्टूर के निकट बंगाल की खाड़ी में गिरती है। तुंगभद्रा इसकी एक शाखा है और रायचूर के निकट इसमें मिलती है। दोनों नदियों के बीच का दोआब हथियाने के लिए अनेक वर्षों तक विजयनगर साम्राज्‍य और बहमनी राज्य में संघर्ष होता रहा। इसके तट पर अमरावती स्थित है, जिसकी वास्तुकला तथा मूर्तिकला की अपनी विशिष्ट शैली थी, जो गांधार शैली से प्रतिस्पर्धा करती थी। इसकी घाटी अत्यंत उर्वर है, जिससे आबादी अत्यंत सघन हो गयी है।

केनेडी, वान्स (१७८४-१८४६ ई.)  : शिमला के पर्वतीय राज्यों में जो १८१६ ई. में ब्रिटिश शासन में आये, ब्रिटिश भारतीय सरकार का एजेंट। उसने सबसे पहले पता लगाया कि शिमला का जलवायु बड़ा स्वास्थ्यप्रद है और यूरोपीय देशों से मिलता-जुलता है। उसने १८२२ ई. में सबसे पहले शिमला में अपना मकान बनवाया। इस प्रकार शिमला क्रमिक रीति से गर्मियों में निवास के लिए लोकप्रिय पर्वतीय स्थान बन गया। बाद में उसे भारत सरकार की ग्रीष्मकालीन राजधानी बना दिया गया। केनेडी कई भाषाओं का अच्छा जानकार था और उसने अंग्रेजी भाषा में 'वेदान्त फिलासोफी आफ हिन्दूज' (हिन्दुओं का वेदान्त दर्शन) शीर्षक से दो रोचक पुस्तकें लिखी हैं।

केरलपुत्र : अशोक के द्वितीय शिलालेख के अनुसार उसके साम्राज्य के दक्षिणी सीमांत प्रदेश के निवासी। उनके देश में आधुनिक ट्रावणकोर क्षेत्र सम्मिलित था।

केरी, विलियम  : मूल पेशे से मोची, बाद में बैपटिस्ट मिशनरी बन गया और १७९३ ई. में कलकत्ता आकर अन्य बैपटिस्ट मिशनरियों के साथ श्रीरामपुर में बस गया। उसने बंगाल के लोगों के मध्य ईसाई धर्म का प्रचार करने में अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। उसने बंगला सीखी और अपने मुंशी रामराम बसु की सहायता से बाइबिल का बंगला में अनुवाद किया। बंगला गद्य में अन्य पुस्तकों की रचना की, जिनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध कथोपकथन हैं। उसने बंगला के दो पत्र 'दिग्दर्शन' तथा 'समाचार दर्पण' के प्रकाशन में सहायता भी दी थी। १८०१ ई. में केरी कलकत्ता स्थित फोर्ट विलियम कालेज में संस्कृत और बंगला का प्राध्यापक हो गया और १८३१ ई. में अपनी मृत्यु तक उस पद पर बना रहा। अपने इस पद पर रहकर उसने बंगला में इतिहास, दर्शन, कथाओं एवं लोककथाओं की अनेक पुस्तकों की रचना को प्रोत्साहित किया। शिक्षाविद् के रूप में केरी ने भारतीयों को पश्चिमी विज्ञान और अंग्रेजी साहित्य की शिक्षा देने का समर्थन किया और उसके विचारों ने भारत में पश्चिमी शिक्षा के प्रसार के पक्ष में लार्ड विलियम बेन्टिक के निर्णय को प्रभावित किया। केरी प्रमुख समाज-सुधारक भी था और उसके ही कहने से १८०२ ई. में लार्ड वेलेस्ली ने गंगा और समुद्र के संगम (गंगासागर) पर शिशुओं की बलि देने की प्रथा पर रोक लगा दी थी। सती प्रथा की भी केरी ने जोरदार शब्दो में भर्त्सना की थी। उसने इस सम्बन्ध में हिन्दुओं में भी लोकमत इतना अनुकूल बना लिया कि १८२९ ई. में लार्ड विलियम बेन्टिक ने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया। शिक्षाविद् और समाज-सुधारक के रूप में भारतीयों द्वारा केरी का आज भी स्मरण किया जाता है। (जार्ज स्मिथ कृत 'लाइफ़ आफ़ विलियम केरी')

केलॉड, कर्नल जान : बंगाल में कम्पनी की सेना का १७६० ई. में कमांडर। उसने नवाब मीर जाफ़र के स्थान पर मीर कासिम को नवाब बनाने के लिए वानसिटार्ट के षड्यंत्र में भाग लिया। वानसिटार्ट के आदेशों पर वह सेना के साथ मुर्शिदाबाद जा धमका और नवाब के महल को घेर लिया। इस प्रकार उसने मीर जाफ़र को गद्दी छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया। उसके बाद मीर कासिम को बंगाल का नवाब घोषित कर दिया गया।

केशवदेव मंदिर : मथुरा में स्थित। जहांगीर (१६०५-२७ ई.) के राज्यकाल में राजा वीरसिंह बुंदेला (दे.) ने पहले से तोड़े गये इस मन्दिर को फिर से बनवाया था। १६७० ई. में औरंगजेब के हुक्म से इस भव्य मंदिर को पुनः तोड़ डाला गया और उसी स्थान पर एक मसजिद बनायी गयी। मंदिर की रत्नजटित मूर्तियों को उठाकर आगरा ले आया गया, जहां उन्हें जहानारा की मसजिद की सीढ़ियों के नीचे चिन दिया गया।

कैकोबाद : सुल्तान बलवन (दे.) का पोता और उसके सबसे बड़े बेटे बुगरा खां का लड़का था। १२८७ ई. में सुल्तान बलबन की मृत्यु हो जाने और बुगरा खां द्वारा सल्तनत का भार संभालने से इनकार कर देने पर, कैकोबाद, जो सत्रह या अट्ठारह वर्ष का तरुण था, दिल्ली का सुल्तान बना। परंतु वह सुरा और सुन्दरी में इतना आसक्त हो गया कि उसने अपना स्वास्थ्य चौपट कर लिया और वह शासन का संचालन नहीं कर सका। १२९० ई. में वह अपने ही महल के अंदर मार डाला गया। उसकी मृत्यु से दिल्ली के सुल्तानों में गुलाम वंश का अंत हो गया।

उसके स्थान पर १२९० ई. में जलालुद्दीन खिलजी (दे.) सुल्तान बना।

कैक्टस लाइन (नागफनी रेखा) : भारत में ब्रिटिश राज के प्रारम्भिक काल में एक सूबे से दूसरे सूबे में बिना चुंगी अदा किये माल की रफ्तनी, विशेषकर देशी राज्यों में नमक की तस्करी रोकने के लिए २५०० मील की लम्बाई में स्थापित की गयी थी। इसकी देखरेख करने के लिए १२००० आदमियों की जरूरत पड़ती थी। भारत में मुक्त व्यापार की प्रगति होने पर एक हजार मील की नागफनी की झाड़ी लार्ड नार्थब्रुक के कार्यकाल में और शेष लार्ड लिटन (१८७६-८० ई.) के कार्यकाल में नष्ट कर दी गयी।

कैथल की लड़ाई : १२४० ई. में हुई, जिसमें सुल्ताना रजिया (दे.) और उसका पति अल्तूनिया उसके भाई बहराम के हाथों पराजित हुए और बंदी बना लिये गये। लड़ाई के दूसरे दिन दोनों को मार डाला गया और बहराम सुल्तान बन गया।

कैनिंग, कैप्टन : ब्रिटिश भारत सरकार द्वारा बर्मा के राजा (१७७९-१८१९ ई.) बोदाँपाया के दरबार में १८०३, १८०९ तथा १८११ ई. में दूत बनाकर भेजा गया। पहले भेजे गये दूतों के सदृश कैनिंग के साथ भी अच्छा व्यवहार नहीं हुआ और उसे भारत तथा बर्मा की सीमा के सम्बन्ध में समझौता कराने में सफलता नहीं मिली।

कैनिंग, वाईकाउण्ट (अर्ल) : भारत का १८५६ से १८६२ ई. तक गवर्नर-जनरल तथा प्रथम वाइसराय। उसके शासन के आरम्भिक काल में सिपाही-विद्रोह (१८५७-५८) सबसे प्रमुख घटना थी, जिसके कारण भारत में ब्रिटिश राज खतरे में पड़ गया। अपनी संगठन-शक्ति तथा भारत की अधिकांश जनता के निष्क्रिय रहने के कारण कैनिंग विद्रोह का दमन करने में सफल हुआ। विद्रोह के दमन के बाद पार्लियामेण्ट ने भारत का शासन अच्छे ढंग से चलाने के लिए एक कानून बनाया, जिसके अंतर्गत भारत का प्रशासन ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथों से निकालकर ब्रिटिश सम्राट के अधीन कर दिया गया और गवर्नर-जनरल को वाइसराय (सम्राट का प्रतिनिधि) बना दिया गया। इस कानून के बन जाने के बाद महारानी विक्टोरिया का घोषणा-पत्र (दे.) प्रकाशित हुआ और इस प्रकार लार्ड कैनिंग ने प्रथम वाइसराय के रूप में भारतीय प्रशासन में नया अध्याय प्रारम्भ किया। लार्ड कैनिंग ने भारतीयों से प्रतिशोध लेने की अंग्रेजों की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने का प्रयास किया, जिसके फलस्वरूप उन्होंने 'क्षमाशील कैनिंग' कहकर उसका उपहास उड़ाया। कलकत्ता स्थित अंग्रेज व्यापारियों ने तो महारानी को आवेदन-पत्र देकर लार्ड कैनिंग के वापस बुला लेने तक की मांग की, किन्तु उसे अस्वीकार कर दिया गया और लार्ड कैनिंग भारत में वाइसराय बना रहा। उसने भारत की सेना को पुनर्गठित किया और आयकर, दस प्रतिशत का एकसमान सीमाशुल्क तथा नोटों का प्रचलन कर डांवाडोल आर्थिक स्थिति को पुनः स्थिर बनाया। उसने १८५९ ई. में लगान कानून पासकर स्थायी बंदोबस्त के अन्तर्गत असामी काश्तकारों को सुरक्षा प्रदान की। १८६० ई. में भारतीय दंड विधान और १८६१ ई. में जाब्ता फौजदारी बना। १८६२ ई. में एक कानून पास कर पुरानी अदालतों के स्थान पर कलकत्ता, मद्रास और बम्बई हाईकोर्ट कायम किये गये। गोरे नील-उत्पादकों के विरुद्ध बंगाल तथा बिहार के असामियों की शिकायतों की सुनवायी के लिए एक आयोग की नियुक्ति की गयी। इस रिपोर्ट के आधारपर नील-उत्पादकों को असामियों पर अत्याचार करने से काफी हद तक रोक दिया गया। लार्ड कैनिंग ने १८५७ ई. में कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई में विश्वविद्यालयों की स्थापना करके भारत में नवजागरण के युग का श्रीगणेश किया। उसके प्रशासन का अन्तिम महत्त्वपूर्ण कार्य १८६१ ई. में इंडियन कौंसिल एक्ट (दे.) का पास होना था, जिसके द्वारा भारतीय प्रशासन तंत्र में महत्त्वपूर्ण सुधार हुए और भारतीय विधानमंडलों में भारतीयों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ।

कैबिनेट मिशन : एटली (दे.) मंत्रिमंडल द्वारा १९४६ ई. में भारत भेजा गया। लार्ड पैथिक-लारेन्स प्रतिनिधिमंडल के अध्यक्ष तथा सर स्टेफर्ड क्रिप्स और श्री ए. वी. अलेक्जेण्डर उसके सदस्य थे। प्रतिनिधिमंडल ने, जो अप्रैल में भारत आ गया था, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग में संवैधानिक प्रश्नों पर पहले समझौता कराने का प्रयास किया। लेकिन समझौता-प्रयासों के विफल होने पर प्रतिनिधिमंडल ने भारत की संवैधानिक प्रगति के लिए स्वयं अपने प्रस्ताव प्रस्तुत किये। वे प्रस्ताव थे : (१) ब्रिटिश भारतीय प्रांतों के संघ की स्थापना, जिसे प्रतिरक्षा, विदेशी मामलों तथा संचार व्यवस्था के नियंत्रण का अधिकार होगा; (२) समझौता-वार्ता के बाद भारतीय संघ में देशी रियासतों का प्रवेश ; (३) प्रांतों द्वारा अपने इच्छानुसार अपने अधीनस्थ संघों का निर्माण, जिन्हें यह निर्णय करने का अधिकार होगा कि संघीय विषयों के अतिरिक्त अन्य कौन-कौन विषय उनके अधीन रहेंगे; (४) उपर्युक्त तीन प्राविधानों के अनुसार संविधान सभा का गठन, जिसमें भारत का सर्वमान्य संविधान बनाने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों को प्रतिनिधित्व प्राप्त होगा ; (५) इस बीच, भारतीय प्रशासन को चलाने के लिए अंतरिम राष्ट्रीय सरकार का गठन। अंतरिम सरकार में विभिन्न सम्प्रदायों के बीच सीटों के बंटवारे के प्रश्न पर मतभेद उत्पन्न हो जाने के कारण कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिये गये।

कैब्राल, अन्तानियो : गोवा स्थित पुर्तगाली वाइसराय के दूत के रूप में १५७३ ई. में मुगलों तथा पुर्तगालियों के बीच संधि की शर्तों पर वार्ता करने के लिए बादशाह अकबर के दरबार में पहुँचा। कैब्राल अकबर के दरबार में दूसरी बार १५७८ ई. में आया था। उस समय बादशाह ने उससे अपने दरबार में ईसाई धर्म के विद्वानों को भिजवाने के लिए कहा, जिनसे वह ईसाई धर्म की विशेषताओं के बारे में जानकारी प्राप्त कर सके। उसकी प्रार्थना पर गोवा स्थित पुर्तगाली वाइसराय ने फादर अकविवा और फादर मोनसेरेत को अकबर के दरबार में भेजा। अकबर ने उनका स्वागत किया और उन्होंने ईसाई धर्म के सम्बन्ध में उसे सही जानकारी करायी।

कैब्राल, पेड्रो अलवारिस : दूसरा पुर्तगाली एडमिरल, जो वास्कोडिगामा की रवानगी के ठीक एक वर्ष बाद एक बड़े पुर्तगाली जहाजी बेड़े के साथ भारत आया। उसने कालीकट में व्यापारिक कोठी अथवा कारखाना कायम किया। कन्नानोर और कोचीन से उसे काफी तिजारती माल मिला। वह इस सफल यात्रा के उपरान्त पुर्तगाल वापस लौट गया।

कैब्राल, फादर जान : एक पुर्तगाली जेसुइट पादरी। १६३२ ई. में जब बादशाह शाहजहाँ ने हुगली स्थित पुर्तगाली बस्ती पर आक्रमण करके अधिकार कर लिया, तब फादर कैब्राल बंगाल में था। उसने एक प्रत्यक्षदर्शी के रूप में १६३३ ई. में इस घटना का वर्णन किया था।

कैमक, जनरल : प्रथम मराठा-युद्ध (१७७५-८२ ई.) में अंग्रेज सेना का कुशल नायक। उसने १६ फ़रवरी, १७८१ ई. को सिपरी में शिन्दे की सेना को हराया।

कैम्पबेल, जान : कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक असैनिक अधिकारी, जो १८४७ तथा १८५४ ई. के बीच उड़ीसा का प्रशासक था। भारत के गवर्नर-जनरल लार्ड हार्डिञ्ज प्रथम के निर्देश पर उसने उड़ीसा में प्रचलित नरबलि की प्रथा का उन्मूलन करने में प्रमुख भूमिका अदा की।

कैम्पबेल, सर आर्किबाल्ड : प्रथम बर्मी युद्ध (१८२४-२६ ई.) में चढ़ाई के लिए भेजी गयी ब्रिटिश सेना का प्रधान सेनापति। उसने बर्मी अभियान को संगठित तथा संचालित करने में अनेक गलतियाँ कीं, जिसके कारण युद्ध निरर्थक ही लम्बा चला और सैनिकों को ऐसी अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा जिनसे बचा जा सकता था। इन गलतियों के बावजूद कैम्पबेल ने रंगून पर मई, १८२४ ई. में कब्जा कर लिया और बर्मी सेनापति बंधुल की सेना को पराजित कर दिया। इसके बाद ही सेनापति बंधुल लड़ाई में मारा गया। अंग्रेज सेना प्रोम पर कब्जा कर यांदबू तक बढ़ गयी जो बर्मी राजधानी से ६० मील की दूरी पर था। इसके परिणामस्वरूप बर्मा के राजा को कैम्पबेल की शर्तों के अनुसार यंदक (१८२६) की संधि करनी पड़ी।

कैम्पबेल, सर कालिन (बादमें लार्ड क्लाइड) (१७९२-१८६३ ई.) : यूरोप में स्पेन प्रायद्वीप तथा नेपोलियन के विरुद्ध युद्ध में तथा १८४२ ई. में चीन-युद्ध में भाग लेकर ख्याति प्राप्त की। १८४६ ई. में ब्रिटिश भारतीय सेना में शामिल हुआ। दूसरे सिख-युद्ध (दे.) में ब्रिगेडियर की हैसियत से लड़ा और नामवरी पायी। इसके बाद इंग्लैंड वापस लौट गया। प्रथम स्वाधीनता-संग्राम के समय (जिसे अंग्रेज इतिहासकारों 'सिपाही-विद्रोह' लिखा है) एक दिन की नोटिस पर ब्रिटिश सेना का प्रधान सेनापति नियुक्त होकर जुलाई १८५६ ई. में भारत पहुँचा।

सिपाही-विद्रोह (१८५७-५८ ई.) को दबाने में उसका प्रमुख हाथ था। उसने विद्रोहियों के विरुद्ध अभियान की सुविचारित योजना तैयार की, नेपाल के जंग बहादूर राणा की सहायता प्राप्त की, नवम्बर १८५७ ई. के मध्य लखनऊ को मुक्त किया, विद्रोही ग्वालियर सेना से कानपुर को दिसम्बरमें फिर ले लिया, अवध तथा रुहेलखंड के विद्रोह का बेरहमी से दमन किया और रानी झांसी तथा तात्या टोपे का तबतक बराबर पीछा किया, जबतक रानी लड़ाई में मारी नहीं गयी और तात्या को बन्दी नहीं बना लिया गया। तात्या को बाद में फांसी पर चढ़ा दिया गया। इस प्रकार कैम्पबेल ने गदर को दबाने और भारत में ब्रिटिश राज को विजयी बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

उसे बाद में जनरल बना दिया गया और 'लार्ड' की पदवी प्रदान की गयी। १८६३ ई. में मृत्यु होने पर उसे वेस्टमिनिस्टर एबे में दफनाया गया।

कैलास मन्दिर : एलोरा, आन्ध्र प्रदेश में है। वहाँ चट्टान को काटकर विरचित यह मन्दिर राष्ट्रकूट राजा कृष्ण प्रथम (लगभग ७६० ई. में राज्यारोहण) ने बनवाया था। यह सारे संसार में वास्तुकला की सबसे आश्चर्यजनक कृति है। यह समूचा मन्दिर पहाड़ी के एक भाग को काटकर बनाया गया है और इसका अलंकरण अद्वितीय है। पत्थरपर इतनी सुंदर पालिश की गयी है कि आज भी जो लोग मन्दिर देखने के लिए जाते हैं, उनका प्रतिबिंब उसमें स्पष्ट दिखाई पड़ता है।

कोंकण : एक सामुद्रिक पट्टी, जो उत्तर में दमन से लेकर दक्षिण में कनारा तक तथा पूर्व में पश्चिमी घाट से लेकर पश्चिम में अरब सागर के तट तक फैली हुई है। इस क्षेत्र में तूफान के साथ वर्षा बहुत होती है। समुद्री किनारा काफी ऊँचा नीचा और बीहड़ है। इसके फलस्वरूप समुद्री डाकुओं के लिए कोंकण के तट पर समुद्री डकैती डालना सरल होता था। १८१२ ई. में यह समुद्री डकैती समाप्त कर दी गयी।

कोंटी, निकोलो डी : एक इटालवी यात्री, जो पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत आया। १४२० ई. में वह देवराय द्वितीय (दे.) के शासन के समय विजयनगर में था। उसने इस नगर का रोचक वर्णन किया है। उसका अनुमान है कि नगर ६० मील के दायरे में फैला था, उसकी किलेबंदी बहुत मजबूत और आबादी घनी थी तथा उसमें युद्धकला में प्रवीण ९० हजार लोग निवास करते थे। राजा की कई रानियाँ थीं तथा रानियों में भी सती प्रथा (दे.) प्रचलित थी।

कोंडपल्ली : विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत एक दुर्ग, जिस पर बहमनी सुल्तान मुहम्मदशाह तृतीय ने १४८१ ई. में अधिकार कर लिया। उसने दुर्ग के भीतर एक मन्दिर में पूजा करनेवाले कुछ ब्राह्मण पुरोहितों को अपने हाथ से मार डाला और इस प्रकार 'गाज़ी' की उपाधि प्राप्त की, जिस पर वह बहुत गर्व करता था।

कोचीन : मलाबार समुद्र तट पर स्थित। १६वीं शताब्‍दी के आरम्भ में यह हिन्दू राज्य था लेकिन कालीकट के पड़ोसी हिन्दू राज्य से इसके सम्बन्ध अमैत्रीपूर्ण चल रहे थे। इसने पुर्तगाली यात्री कैब्राल को आश्रय दिया और पुर्तगालियों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किये। पुर्तगालियों ने कोचीन में अपनी एक कोठी स्थापित की। कुछ ही समय में पुर्तगालियों ने हिंदू राजा को शक्तिहीन बना दिया। १६६२ ई. में डच लोगों ने पुर्तगालियों को कोचीन से खदेड़ भगाया। अठारहवीं शताब्दी में कोचीन का राजा मैसूर के हैदरअली (दे.) का सामंत बन गया। किन्तु टीपू सुल्तान (दे.) की पराजय के बाद यह ब्रिटिश आधिपत्य में आ गया और अंग्रेजों ने इसे भारत में अपनी एक संरक्षित रियासत बना लिया।

कोटा की लड़ाई  : कर्नल मौन्सन के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेनाओं और होल्कर की सेनाओं के बीच १८०४ ई. में हुई। इस लड़ाई में कर्नल मौन्सन हार गया और आगरे की तरफ भागा। लार्ड वेलेस्ली के प्रशासन काल में कम्पनी ने अनेक लड़ाइयाँ जीतीं, परन्तु इस लड़ाई में उसे हार खानी पड़ी।

कोटा, नगर तथा राज्य : दिल्ली से २५० मील की दूरी पर, राजपूताना में चम्बल के दाहिने तट पर स्थित। इस राज्य की स्थापना १६२५ ई. में बादशाह शाहजहाँ ने की। शाहजहाँ ने गद्दी पर बैठने से पूर्व जब अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह किया था, तब बूंदी के छोटे राजकुमार ने उसकी मदद की थी। इसके पुरस्कार में शाहजहाँ ने उसे कोटा दे दिया। मार्च १९४८ ई. में कोटा रियासत का विलयन राजस्थान संघ में कर दिया गया।

कोड़ा जहानाबाद : इलाहाबाद जिले के निकट। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बक्सर की लड़ाई (१७६४ ई.) के बाद इसे अवध के नवाब से ले लिया और १७६४ ई. में इलाहाबाद जिले के साथ बादशाह शाह आलम को दे दिया। बादशाह ने बंगाल की दीवानी कम्पनी को सौंप दी और कम्पनी ने इसके बदले में बादशाह को प्रतिवर्ष २६ लाख रुपया खिराज देना स्वीकार कर लिया। इसके बाद ही शाह आलम ने कोड़ा और इलाहाबाद जिले मराठों को दे दिये। बाद में उनसे ये जिले छीन लिये गये और इनको ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला दिया गया।

कोप्‍पम् की लड़ाई : कल्याणी के चालुक्य राजा सोमेश्वर (दे.) तथा चोल राजा राजाधिराज के बीच ११५२ अथवा ११५३ ई. में हुई। इस लड़ाई में चोल राजा हार गया और मारा गया। चालुक्य और चोल राजाओं में आये दिन होनेवाली लड़ाइयों में यह मुख्य लड़ाई थी।

कोमारोफ : एक रूसी जनरल १८८५ ई. में उसने अफगानों को मर्व से सौ मील दक्षिण पंजदेह में अपनी चौकी हटाने पर मजबूर कर दिया, जिससे एक संकटपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो गयी। रूस का कहना था कि १८८४ ई. में मर्व पर उसका अधिकार हो जाने के बाद पंजदेह उसके इलाके में आ गया है, परन्तु ब्रिटिश सरकार उसे अफगानिस्तान का इलाका मानती थी और उस पर रूसी अधिकार को अफगानिस्तान की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरा समझती थी। इस प्रकार कोमारोफ की काररवाई के फलस्वरूप पंजदेह की घटना (दे.) घटित हुई।

कोयम्बटूर जिला : टीपू सुल्तान (दे.) के शासनकाल में मैसूर राज्य का एक भाग। अंतिम मैसूर-युद्ध में उसकी पराजय और मृत्यु के बाद १७९९ ई. में कोयम्बटूर भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।

कोरेगांव की लड़ाई : १८१८ ई. में तीसरे मराठा-युद्ध के दौरान पेशवा बाजीराव द्वितीय और अंग्रेजों के बीच हुई। इस लड़ाई में पेशवा हार गया और अंत में उसने सर जान मैलकम के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।

कोर्के : ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में तिन्नैवेल्ली तट पर एक प्रमुख बंदरगाह। मोतियों के व्यापार का यह मुख्य स्थान था। समुद्र तट में परिवर्तन हो जाने से दीर्घकाल से यह स्थान चारों ओर स्थल से घिर गया है। यहाँ पर अनेक जैन मंदिर हैं।

कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स : देखिये, 'कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स'।

कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स : में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शेयर होल्डर होते थे। वे प्रतिवर्ष चौबीस निदेशकों (डाइरेक्टरों) को चुनते थे जो कम्पनी के कार्यकलापों का प्रबन्ध करते थे। शुरू में कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स को कोर्ट आफ डायरेक्टर्स के कार्यों का निरीक्षण करने का अधिकार था और उसकी बैठकें हंगामी हुआ करती थीं। उसकी सारी कार्यवाही सिर्फ हानि-लाभ की दृष्टि से संचालित होती थी। प्रतिद्वन्द्वी गुट वार्षिक चुनावों के समय डाइरेक्टरों को बनाते, हटाते और अपने वोट बढ़ाने के लिए शेयरों को खरीदते व बाँटते थे। इससे भ्रष्टाचार खूब पनपा। फलतः रेग्यूलेटिंग ऐक्ट १७७३ ई. के जरिये कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स की बैठक में मत देने की योग्यता ५०० पौण्ड से बढ़ाकर १ हजार पौण्ड का शेयर कर दी गयी। इसके अलावा अब यह कोर्ट चार वर्षों के कार्यकाल के लिए एक वर्ष में सिर्फ छः डाइरेक्टर चुन सकता था। फिर भी कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स सिर्फ व्यापार और वाणिज्य में दिलचस्पी रखनेवाले व्यापारियों की संस्था बनी रही और वह कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स के निर्णयों को बहुत हद तक प्रभावित करती थी। इस बीच कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स के ऊपर भारत में बढ़ते हुए ब्रिटिश साम्राज्य के प्रशासन की देखरेख करने का दायित्व आ गया था। फलतः पिट्स इंडिया ऐक्ट (दे.) के द्वारा कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स के कार्य का निरीक्षण करने के लिए बोर्ड आफ कंट्रोल स्थापित किया गया। इसके बाद कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स की ऐसी किसी कार्यवाही को रद्द करने या उसमें हेर-फेर करने का अधिकार कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स को न रहा जिसे बोर्ड आफ कंट्रोल की स्वीकृति मिल चुकी हो। इस प्रकार कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स को अब भारतीय राजनीति को प्रभावित करने का कोई अधिकार नहीं रहा। किन्तु कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स भारत में ब्रिटिश राज्य को चलाने का माध्यम बना रहा, हालांकि समय बीतने के साथ भारतीय प्रशासन पर बोर्ड आफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष का अंकुश अधिकाधिक बढ़ता गया। फिर भी डाइरेक्टरों के हाथ में इतनी शक्ति अब भी थी कि उन्होंने लार्ड वेलेस्ली और लार्ड एलेनबरी को कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही इंग्लैण्ड वापस बुला लेने के लिए बाध्य कर दिया। १८५८ ई. में ब्रिटिश सम्राट् द्वारा भारत का प्रशासन अपने हाथ में ले लिये जाने के फलस्वरूप ईस्ट इंडिया कम्पनी भंग कर दी गयी और उसके साथ ही उसकी कार्यकारणी अर्थात् कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स का अस्तित्व भी समाप्त हो गया।

कोर्ट, जनरल क्लाइड आगस्ट : एक फ्रांसीसी सैनिक अफसर, जो १८२७ ई. में पंजाब के महाराज रणजीत सिंह (दे.) की फौज में नियुक्त हुआ। उसने रणजीत सिंह के तोपखाने का पुनर्गठन करके उसमें भारी सुधार किये। किन्तु रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद न जाने किस वजह से सिख सेना का उस पर विश्वास समाप्त हो गया और उसने कोर्ट पर हमला कर दिया। किन्तु एक फ्रांसीसी सहयोगी वेंतुरा की मदद से उसकी जान बच गयी। वह लाहौर से फ्रांस चला गया, जहाँ वह विस्मृति के गर्भ में विलीन हो गया।

कोल्लम : त्रावणकोर के क्विलोन नगर का पुराना नाम। ख्याल किया जाता है कि कोल्लम नगर की स्थापना पर कोल्लम संवत् चलाया गया, जो ८२४-२५ ई. में प्रचलित हुआ। प्राचीन चेर राज्य के कई अभिलेखों में इस संवत् का प्रयोग किया गया है।

कोल्हापुर : एक शहर का भी नाम और राज्य का भी, जिस पर शिवाजी का दूसरा पुत्र शासन करता था। तीसरे मराठा-युद्ध के बाद यह अंग्रेजों का रक्षित राज्य हो गया और १९४८ ई. में भारत संघ में विलयन होने तक एक छोटा-सा अधीनस्थ रक्षित राज्य बना रहा।

कोशल : इस नाम के दो प्राचीन राज्य थे। पहला, उत्तर भारत में था जो अवध के भूभाग में स्थित था। इसकी राजधानी अयोध्या थी। दूसरा, दक्षिण भारत में महानदी की उत्तरी घाटी में स्थित था। समुद्रगुप्त (लगभग ३३०-३८० ई.) के इलाहाबाद स्तम्भलेख में दक्षिणवाले कोशल के राजा महेन्द्र का उल्लेख मिलता है, जिसने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली। दक्षिण के कोशल राज्य में आधुनिक विलासपुर, रायपुर तथा संभलपुर जिले सम्मिलित थे। उसकी राजधानी श्रीपुर थी. जो आज भी 'रायपुर जिले में वर्तमान है। इसने भारतीय इतिहास में कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं अदा की।'

परन्तु उत्तर का कोशल राज्य प्राचान भारतीय अनुश्रुतियों तथा इतिहास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी गौरवगाथा वाल्मीकि की रामायण में अंकित है, जिसमें उसके राजा दशरथ और उनके पुत्र राम का यशोगान है। ऐतिहासिक काल में कोशल काफी बड़ा राज्य था। छठी शताब्दी ई. के आसपास भारत जिन सोलह महाजनपदों (राज्यों) में विभाजित था, उनमें कोशल भी था। उसके तीन प्रधान नगर थे-अयोध्या, साकेत तथा श्रावस्ती। इसके राजा अपने को इक्ष्वाकु का वंशज कहते थे। इक्ष्‍वाकु के कुछ वंशजों का उल्लेख वेदों में भी मिलता है। कोशल का पहला ऐतिहासिक राजा प्रसेनजित था जो मगध के राजा बिंबसार का समसामयिक था। दोनों राजा गौतम बुद्ध के समसामयिक थे। कोशल और मगध में शक्ति प्राप्त करने के लिए तीव्र प्रतिद्वन्विता चल रही थी। अंत में अजातशत्रु (लगभग ४९४-४६७ ई.पू.) के राज्यकाल में मगध ने कोशल को हड़प लिया।

कोहनूर : एक संसार-प्रसिद्ध हीरा। यह मुगल बादशाहों के ताज में संलग्न था, परन्तु नादिरशाह इसे लूट ले गया। उसकी मृत्यु पर यह अहमदशाह अब्दाली (दे.) को मिला। उसके एक वंशज शाह शुजा से यह महाराज रणजीत सिंह को मिला और उनके वंशज से ब्रिटिश भारतीय सरकार ने ले लिया और महारानी विक्टोरिया को अर्पित कर दिया। अब यह इंग्‍लैंड के राजमुकुट की शोभा बढ़ा रहा है।

कौण्डिन्य : कंबोडिया में सुरक्षित अनुश्रुतियों के अनुसार एक भारतीय ब्राह्मण जिसने कम्बुज देश (दे.) के राज्य की स्थापना की। कम्बुज देश को ही अब 'कम्बोडिया' कहते हैं।

कौंसिल आफ स्टेट (राज्य परिषद्) : भारतीय शासन विधान १९१९ ई. के अधीन इसका संघटन हुआ, जिसके द्वारा ब्रिटिश भारत में दो सदनों वाले विधानमण्डल की स्थापना की गयी। इसी विधानमंडल का उच्च सदन 'राज्य परिषद्' कहलाता था। इसकी सदस्य संख्या ६१ रखी गयी, जिनमें से ३४ का निर्वाचन व १० अधिकारियों तथा शेष गैरसरकारी सदस्यों का मनोनयन होता था। निर्वाचन में सम्पत्तिशाली व्यक्तियों को ही मतदान का अधिकार दिया गया था। परिषद् के सदस्यों में से ही किसी एक को गवर्नर जनरल उसका अध्यक्ष मनोनीत करता था। परिषद् को निचले सदन के साथ (जिसे केन्द्रीय विधान सभा के नाम से पुकारा जाता था) समन्वयकारी अधिकार प्रदान किये गये, किन्तु अनुदान सम्बन्धी मांगे निचले सदन में ही पेश की जा सकती थीं। राज्य परिषद् से आशा की जाती थी कि वह केन्द्रीय विधान सभा की संभाव्य उदार और लोकतांत्रिक प्रवृत्तियों पर अंकुश रखे। इसने काफी हद तक इस मन्तव्य को पूरा किया। भारतीय शासन विधान १९३५ ई. के अंतर्गत इसकी सदस्य संख्या एवं इसका महत्त्व बढ़ गया। अब इसमें २६० सदस्य होते थे, जिनमें १५६ सदस्य ब्रिटिश भारत के थे और १०४ सदस्य भारतीय संघ में शामिल होनेवाली रियासतों के। ब्रिटिश भारत के १५६ में से छः सदस्य अल्पसंख्यकों, दलित वर्ग और महिलाओं को समुचित प्रतिनिधित्व देने के लिए गवर्नर-जनरल द्वारा मनोनीत किये जाने और शेष १५० का चुनाव साम्प्रदायिक आधार पर किये जाने की व्यवस्था की गयी। मताधिकार काफी सीमित रखा गया। रियासतों के सभी १०४ सदस्यों को नियुक्त करने का अधिकार वहाँ के राजाओं को दिया गया। इस प्रकार २६० सदस्यों के सदन में ११० केन्द्रीय और रियासती सरकारों द्वारा मनोनीत किये जाने की व्यवस्था की गयी। यह राज्य परिषद् स्थायी संस्था थी और भंग नहीं की जा सकती थी। उसके एक तिहाई सदस्य हर तीसरे साल निवृत्त होते थे और किसी भी हालत में एक सदस्य का कार्यकाल नौ वर्ष से अधिक नहीं हो सकता था। परिषद् को सभी मामलों में जिनमें वित्तीय मामले भी शामिल थे, विधान सभा (निचले सदन) के साथ लगभग समान अधिकार प्राप्त थे। इस प्रकार भारतीय शासनविधान १९३५ ई. द्वारा गठित यह राज्य परिषद् केन्द्र में वास्तविक उत्तरदायी सरकार के विकास की दिशा में गंभीर बाधा थी। लेकिन १९३५ ई. के इस विधान का राज्य परिषद् सम्बन्धी भाग पूरी तरह लागू भी न हो पाया था कि भारत स्वाधीन हो गया। स्वाधीनता के बाद भारत ने जो नया संविधान स्वीकार किया, उसके अंतर्गत इस राज्य परिषद् को राज्य सभा (दे.) में बदल दिया गया। राज्य सभा का गठन और स्तर पुरानी राज्य परिषद् से बहुत भिन्न प्रकार का है।

कौटिल्य (जिसे चाणक्य अथवा विष्णुगुप्त भी कहते हैं ) : तक्षशिला-निवासी एक ब्राह्मण मुद्राराक्षस (दे.) नाटक में सुरक्षित अनुश्रुतियों के अनुसार वह पाटलिपुत्र (दे.) चला आया, जहाँ राजा नंद (दे.) ने उसे अपमानित किया। अपमान का बदला लेने के लिए वह चन्द्रगुप्त मौर्य से मिल गया और उसे नंद को पराजित करने तथा मार डालने और मगध के सिंहासन पर स्वयं बैठ जाने में मदद दी। इसके बाद वह उसका प्रधान अमात्य बन गया और मगध राज्य पर उसका अधिकार सुदृढ़ बनाने तथा राज्य का शासन-प्रबंध करने में उसकी सहायता की। यह पता नहीं है कि उसकी मृत्यु कहाँ और कब हुई। कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' की रचना की जो संस्कृत में राजशास्त्र का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है। यद्यपि चंद्रगुप्त मौर्य (लगभग ३२२-२९८ ई. पू.) के अमात्य कौटिल्य (अथवा चाणक्य अथवा विषणुगुप्त) तथा अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य को एक ही व्यक्ति माना जाता है, तथापि अर्थशास्त्र को चौथी शताब्दी ई. पू. की रचना मानने में अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं। अर्थशास्त्र में चीन का उल्लेख मिलता है। उसमें राजभाषा के रूप में संस्कृत का व्यवहार मिलता है। उसमें राज्याधिकारियों के जो पद (जैसे संधाता आदि) दिये गये हैं, उनमें से किसी का उल्लेख अशोक के शिलालेखों में नहीं मिलता। इन सब कारणों से अर्थशास्त्र को प्रारम्भिक मौर्य राजाओं के काल की रचना न मानकर बाद के काल की रचना माना जाता है। परन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारतीय राजशास्त्र पर उसका अमिट प्रभाव पड़ा।

कौरव : इन्द्रप्रस्थ के राजा धृतराष्ट्र के पुत्र। इन्द्रप्रस्थ दिल्ली के निकट स्थित था, जहाँ आज इन्दरपत गाँव बसा हुआ है। पांडव (पांडु के पुत्र) (दे.) कौरवों के चचेरे भाई थे। कौरवों और पांडवों की प्रतिद्वन्विता तथा उनका युद्ध महाभारत की मुख्य कथावस्तु है।

कौराल : दक्षिण का एक राज्य, जिसका उल्लेख समुद्रगुप्त (दे.) के इलाहाबाद स्तम्भ-लेख में है। उसका राजा मंत्रराज गुप्त सम्राट् द्वारा पराजित हुआ। बाद में समुद्रगुप्त ने उसे फिर गद्दी पर बैठा दिया। कौराल राज्य कहाँ था, यह अभी तक निश्चित रूप से पता नहीं चल सका है।

कौस्थलपुर : दक्षिण भारत का एक राज्य, जिसके राजा धनंजय को समुद्रगुप्त (दे.) ने सिंहासन से उतार दिया। बाद में समुद्रगुप्त ने उसका राज्य उसे लौटा दिया। यह सम्भवतः उत्तरी आर्काट जिले में स्थित था।

क्यूरी, सर फ्रेडरिक (१७९९-१८७५) : कम्पनी की कावेनेंटेड सिविल सर्विस में १८२० ई. में प्रविष्ट और १८४२ ई. में विदेश सचिव। वह गवर्नर-जनरल के स्टाफ में भी रहा। वह १८४५-४६ ई. में प्रथम सिखयुद्ध (दे.) के दौरान कमांडर-इन-चीफ था। उसने लाहौर की संधि की, जिसके फलस्वरूप युद्ध समाप्त हो गया। इसके बाद वह ६ अप्रैल १८४८ ई. को लाहौर में ब्रिटिश रेजीडेंट नियुक्त हुआ। जब मुल्तान के बर्खास्त सिख गवर्नर मूलराज ने वहाँ उपद्रव शुरू किया और २० अप्रैल को दो ब्रिटिश अफसरों को मार डाला तो सर फ्रेडरिक ने मुल्तान के विद्रोह को दबाने और शहर की घेराबंदी करने का असफल प्रयास किया। उसने हजारा जिले के सिख गवर्नर शेरसिंह को मुल्तान की घेरा बंदी करनेवाली फौजों की मदद के लिए भेजा, किन्तु शेरसिंह जाकर मूलराज से मिल गया और सर फ्रेडरिक के प्रयास पूरी तरह विफल हो गये। इसके बाद शीघ्र ही १८४८-४९ ई. में दूसरा सिख-युद्ध (दे.) छिड़ गया। सिखों की बुरी तरह पराजय हुई और उनकी राजसत्ता एकदम समाप्त हो गयी। पंजाब को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया। उसने १८५३ ई. में शासन से अवकाश ग्रहण किया और १८५४ ई. में वह ईस्ट इंडिया कम्पनी का डायरेक्टर चुना गया। १८५७ ई. में उसे चेयरमैन बनाया गया। इसके एक वर्ष बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी समाप्त हुई और उसे इंडिया कौंसिल का सदस्य नियुक्त किया गया। १८७५ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

क्रिप्स, सर रिचर्ड स्टेफोर्ड (१८८९-१९५२) : उसका दृष्टिकोण उदार समझा जाता था। भारत की राजनीतिक और संवैधानिक समस्याओं को शांतिपूर्वक हल कराने के लिए उसे दो बार-पहले १९४२ ई. में और दुबारा १९४६ ई. में भारत भेजा गया। १९४२ ई. में क्रिप्स ने भारत में संविधान के विकास के लिए कुछ सुझाव दिये, जिन्हें 'क्रिप्स-प्रस्ताव' के नाम से जाना जाता है। इन प्रस्तावों में ब्रिटिश सरकार के इस इरादे को दोहराया गया कि युद्द समाप्त होने के बाद यथाशीघ्र भारतीय संघ की स्थापना कर दी जायगी, जिसका स्तर ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के राज्य का-सा होगा। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए क्रिप्स-प्रस्ताव में आगे कहा गया था कि प्रांतीय विधान मंडलों द्वारा निर्वाचित संविधान सभा ब्रिटिश सरकार के साथ भावी सम्बन्धों के बारे में एक संधि करेगी। भारत को राष्ट्रमंडल से अलग होने, भारतीय राज्यों को भारतीय संघ में शामिल होने न होने और किसी भी भारतीय प्रांत को प्रस्तावित भारतीय संघ से बाहर रहने और वर्तमान संविधान बनाये रखने की छूट रहेगी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उसे इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि उसमें भारत को 'औपनिवेशिक स्वराज्य' तत्काल देने की बात नहीं कही गयी थी। १९४६ ई. में क्रिप्स ने कैबिनेट मिशन (दे.) के सदस्य की हैसियत से प्रस्ताव पेश किया, जिसमें ब्रिटिश भारतीय प्रांतों का ऐसा संघ बनाने का सुझाव दिया गया था, जिसके नियंत्रण में रक्षा, विदेश और संचार सम्बन्धी सभी मामले रहते। उक्त प्रस्ताव के अनुसार देशी रियासतें भी बातचीत के बाद संघ में शामिल हो सकती थीं। प्रांतों को संघ के अधीन अपना उप-संघ बनाने की स्वतंत्रता थी। इस सम्बन्ध में बाकी सब बातें विस्तार से तय करने का अधिकार संविधान सभा को दिया गया था और परिवर्तनों के पूरी तरह लागू होने तक केन्द्र में सभी दलों की अंतरिम राष्ट्रीय सरकार बनाने का प्राविधान था। कांग्रेस और मुस्लिम लीग की शत्रुता दूर न की जा सकी और कैबिनेट मिशन प्रस्ताव, जिसके तैयार करने में क्रिप्स का काफी बड़ा हाथ था, ठुकरा दिया गया।

क्रिवी, लार्ड : १९११-१२ ई. में ब्रिटिश सरकार का भारत मंत्री। सम्राट् जार्ज पंचम के भारत पधारने पर क्रिवी ने दिल्ली में दरबार का आयोजन किया। इस समय राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली लाने की घोषणा भी की गयी। इसके अलावा जिन अन्य महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों की घोषणा की गयी थी, उनमें बंग-विभाजन को रद्द करते हुए उसे सपरिषद् गवर्नर के अन्तर्गत करना, बिहार और उड़ीसा को बंगाल से पृथक् करना, बिहार, उड़ीसा और छोटा नागपुर के लिए लेफ्टिनेंट-गवर्नर का नया पद चालू करना तथा आसाम का दर्जा घटाकर फिर चीफ कमिश्नरी के स्तर पर ले आना शामिल था। इस प्रकार भारतीय प्रशासन में होनेवाले अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों के साथ लार्ड क्रिवी का नाम जुड़ा हुआ है।

कैटिरास : सिकंदर के साथ पंजाब के अभियान में भाग लेने के लिए जो यूनानी सेनापति आये, उनमें सबसे वफादार और योग्य। सिकंदर उसको 'बिलकुल अपने समान' मानता था। उसने कर्री के मैदान वाली लड़ाई में भाग लिया था, जिसमें पुरु (दे.) की हार हुई थी। बाद में उसने सिंधु नदी के दाहिने किनारे-किनारे दक्षिणी पंजाब तथा सिंध होकर वापस लौटने वाली यूनानी सेना का नेतृत्व किया। अंत में वह विजयी यूनानी सेनाओं को कंदहार और सीसतान (शकस्थान) के मार्ग से बेबिलोन वापस ले गया।

क्रोमर, ईवलिन बारिंग, लार्ड (१८४१-१९१७) : १८७७ ई. में मिस्र में गठित अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय बोर्ड के सदस्य की हैसियत से सार्वजनिक वित्त-प्रबंध के विशेषज्ञ के रूप में विख्यात। १८८० ई. में वह वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् के वित्तीय सदस्य की हैसियत से भारत आया। उसने इस पद पर तीन वर्षों तक सफलतापूर्वक कार्य किया। १८९२ ई. में उसे 'लार्ड' की उपाधि से विभूषित किया गया। इसी के बाद मिस्र में अपने शासन-प्रबंध के लिए उसने और भी नाम कमाया।

क्लाइड, कालिन कैम्पबेल, लार्ड : देखिये, 'कैम्पबेल, सर कालिन'।

क्लाइव, लार्ड राबर्ट : जन्म १७२५ ई. में। वह नवयुवक के रूप में भारत आया, और मद्रास में ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिपिक (क्लर्क) पदपर नियुक्त हो गया। बाद में उसे कम्पनी की सैनिक सेवा में काम करने की अनुमति मिल गयी। १७५१ ई. में २६ वर्ष की उम्र में ही वह कैप्टेन हो गया। इस समय कर्नाटक (दे.) में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच दूसरी लड़ाई छिड़ी हुई थी। फ्रांसीसियों के आश्रित चंदा साहब ने अंग्रेजों के आश्रित मुहम्मद अली को त्रिचिनापल्ली में घेर लिया था। मद्रास के कम्पनी अधिकारी यह नहीं समझ पा रहे थे कि मुहम्मद अली को कैसे मदद पहुँचायी जाय। इस विषम स्थिति में युवा कप्तान राबर्ट क्लाइव ने सुझाव दिया कि चंदा साहब का ध्यान बटाने के लिए कर्नाटक की राजधानी अर्काट पर अचानक आक्रमण कर दिया जाय। राबर्ट क्लाइव ने इस योजना को पूरी सफलता के साथ कार्यान्वित करके अर्काट पर कब्जा कर लिया। चंदा साहब ने उस पर पुनः आधिपत्य स्थापित करने के लिए बड़ी सेना भेजी। राबर्ट क्लाइव ने ५३ दिनों तक इस सेना की घेरेबंदी का डटकर मुकाबला किया। इसके बाद युद्ध का पासा पलटकर ब्रिटिश कम्पनी के पक्ष में हो गया और क्लाइव की ख्याति बढ़ गयी।

१७५३ ई. में क्लाइव छुट्टी लेकर इंग्लैण्ड चला गया और दो वर्षों बाद एडमिरल वाटसन की कमान के अंतर्गत एक स्काड्रन के साथ लौटा। बम्बई आने पर उसे शीघ्र ही घेरिया बंदरगाह पर समुद्री लुटेरों से निपटने के लिए भेजा गया, जहाँ उसकी विजय हुई। बाद को पश्चिमी भारत में स्थित वनकोट और नौ गाँवों के बदले में घेरिया बंदरगाह मराठों के सुपुर्द कर दिया गया।

इसके बाद क्लाइव और वाटसन जहाज से मद्रास गये, लेकिन कुछ ही समय बाद उसे बंगाल भेज दिया गया, जहाँ इस बीच बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कलकत्ता पर अधिकार जमा लिया। जनवरी १७५७ ई. में कलकत्ता को वस्तुतः बिना किसी प्रतिरोध के नवाब के हाथों से छीन लिया गया। इस समय से क्लाइव बंगाल में कम्पनी का सर्वेसर्वा हो गया। फरवरी में उसने नवाब के साथ अलीनगर संधि (दे.) की, जिसके अंतर्गत कम्पनी ने बंगाल के ऊपर नवाब का आधिपत्य स्वीकार करने का वायदा किया। लेकिन एक महीने बाद ही क्लाइव ने फ्रांसीसी उपनिवेश चन्द्रनगर पर हमला किया, उसे जीता और ध्वस्त कर दिया। इस प्रकार बंगाल में फ्रांस की प्रतिद्वंद्विता समाप्त करने के बाद उसने नवाब सिराज को अपदस्थ करने और उसके स्थान पर मीरजाफ़र को बंगाल का नवाब बनाने के लिए सिराज के निकाले हुए दरबारियों के साथ ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरफ से षड्यंत्र रचा। जून १७५७ ई. में औपचारिक रूप से एक संधि हुई। कलकत्ता के सेठ अमीचन्द (दे.) को उक्त संधि का पता चल गया। उसने धमकी दी कि मुर्शिदाबाद के खजाने की लूट का कुछ हिस्सा यदि मुझे देने का वायदा नहीं किया गया तो मैं संधि का भंडाफोड़ कर दूँगा। क्लाइव ने असली संधि को गुप्त बनाये रखने के विचार से अमीचंद को संधि की एक नकली प्रति थमाकर चकमा दे दिया।

इधर क्लाइव ने असली संधि के अनुसार बिना किसी औपचारिक घोषणा के नवाब सिराजुद्दौला के ऊपर हमला बोल दिया और २३ जून १७५७ ई. को पलासी के युद्ध में उसकी फौजों को बुरी तरह परास्त किया। सिराज भाग खड़ा हुआ और क्लाइव अपनी फौज के साथ मुर्सिदाबाद की ओर बढ़ा जहाँ बिना किसी प्रतिरोध का सामना किये उसने राजधानी पर अधिकार कर लिया और मीरजाफ़र को बंगाल का नवाब बनाया। मीरजाफर ने कम्पनी के सभी कर्मचारियों को बड़े-बड़े इनाम दिये। राबर्ट क्लाइव को ३ लाख ३४ हजार १ सौ पाउण्ड की भारी रकम देने के अलावा मीरजाफर ने उससे २४ परगना की जमींदारी के बदले ईस्ट इंडिया कम्पनी से मिलनेवाली मालगुजारी में से प्रतिवर्ष ३० हजार पाउण्ड की राशि देने का वायदा किया। इस प्रकार राबर्ट क्लाइव स्वयं कम्पनी का एक जमींदार बन गया। उसे अब बंगाल का गवर्नर बना दिया गया। उसने चिनसुरा के निकट विदैर्रा के युद्ध (दे.) में डचों को हराया और बंगाल में उनकी सत्ता को समाप्त किया। इसके बाद क्लाइव छुट्टी पर इंग्लैण्ड चला गया, जहाँ उसने पाँच वर्ष (१७६०-६५) बिताये। आयरलैण्ड के लार्डों की सूची के अंतर्गत उसे 'बैरन, क्लाइव आफ प्लासी' की उपाधि दी गयी थ। चैथम के अर्ल ने 'जन्मजात जनरल' कहकर उसका स्वागत किया।

क्लाइव के इंग्लैण्ड प्रवासकाल में बंगाल में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। नवाब मीरजाफर को भ्रष्ट कौंसिल ने अपदस्थ कर उसके स्थान पर मीरकासिम (दे.) को बैठा दिया। मीरकासिम ने भी शीघ्र ही कलकत्ता कौंसिल को इस कदर नाराज कर दिया कि उसके और कम्पनी के बीच युद्ध छिड़ गया। मीरकासिम की पराजय हुई। वह अवध भाग गया, जहाँ उसने नवाब शुजाउद्दौला और बादशाह शाहआलम द्वितीय के साथ गठबंधन किया। इन सब घटनाओं से चिंतित होकर कम्पनी के डाइरेक्टरों ने राबर्ट क्लाइव को, जो अब 'लार्ड क्लाइव' हो गया था, बंगाल का गवर्नर और प्रधान सेनापति बनाकर भेजा। वह ३ मई १७६५ ई. को बंगाल पहुँचा, लेकिन तब तक मीरकासिम और उसके सहयोगी बक्सर के युद्ध में पराजित हो चुके थे। इन पराभूत शत्रुओं के साथ राजनीतिक समझौता करना अब क्लाइव के जिम्मे पड़ा। बक्सर में हारने के बाद मीरकासिम भाग गया और बंगाल के रिक्त राजसिंहासन पर मीरजाफर के पौत्र को बैठाया गया। नवाब शुजाउद्दौला को अवध लौटा दिया गया और बदले में उसने कोड़ा और इलाहाबाद के जिले कम्पनी को दे दिये, जिन्हें कम्पनी ने शाहआलम द्वितीय के सुपुर्द कर दिया। शाहआलम ने दीवानी अधिकार अर्थात् बंगाल, बिहार और उड़ीसा का शासन-प्रबंध करने और मालगुजारी वसूलने का अधिकार ईस्ट इंडिया कम्पनी को इस शर्त पर दे दिया कि वह बादशाह को सालाना २६ लाख रुपया देगी। इस प्रकार बंगाल, बिहार और उड़ीसा में लार्ड क्लाइव ने बादशाह और कम्पनी की 'दोहरी सरकार' की क्लाइव ने बादशाह और कम्पनी की 'दोहरी सरकार' की स्थापना की।


इस राजनीतिक व्यवस्था के बाद लार्ड क्लाइव ने कम्पनी की आंतरिक व्यवस्था सुधारने का कठिन कार्य हाथ में लिया। १७६५ ई. में नियुक्ति के समय लार्ड क्लाइव को खासतौर से यह निर्देश दिया गया था कि वह बंगाल में कम्पनी के अधिकारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार का उन्मूलन करे और इनके द्वारा किये जा रहे निजी व्यापार को रोके। ये अधिकारी निजी व्यापार बढ़ाने में लग गये थे, जिससे कम्पनी और नवाब दोनों के ही राजस्व को नुकसान पहुँच रहा था। लार्ड क्लाइव ने कम्पनी के सभी अधिकारियों से प्रतिज्ञापत्रों पर दस्तखत कराये, जिनमें इस बात की शपथ ली गयी थी कि वे रिश्वत नहीं लेंगे। क्लाइव ने फिजूल खर्ची रोकने के लिए अधिकारियों के दौरा-भत्ता में भी कटौती कर दी और जब गोरों ने बगावत करने का प्रयास किया तो क्लाइव ने बड़े साहस के साथ उसे कुचल दिया। निजी व्यापार रोकने के मामले में क्लाइव ने स्वयं अपने निर्देशों की उपेक्षा की। उसने कम्पनी के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ एक व्यापार-मंडल की स्थापना की और उसे नमक तथा कुछ अन्य चीजों में निजी व्यापार चलाने का एकाधिकार प्रदान कर दिया। इसमें क्लाइव ने खुद पाँच हिस्से लिये, जिन्हें बाद में उसने तीन लाख रुपयों में बेच दिया। १७६७ ई. में क्लाइव ने अंतिम रूप से अवकाश ग्रहण कर लिया और इंग्लैण्ड चला गया। बंगाल के प्रशासनकाल में क्लाइव ने अपने अनगिनत शत्रु बना लिये थे। इंग्लैण्ड लौटने पर इन शत्रुओं तथा कुछ सार्वजनिक नेताओं ने, जो कम्पनी के प्रशासन को भ्रष्टाचार और धनलोलुपता से मुक्त कराना चाहते थे, क्लाइव पर गंभीर आक्षेप किये। ब्रिटिश संसद में कर्नल बरगोइन के प्रस्ताव पर क्लाइव के बंगाल-प्रशासन की संसदीय जाँच करायी गयी। इसके फलस्वरूप संसद ने कर्नल बरगोइन का प्रस्ताव पारित कर बंगाल में व्याप्त भ्रष्टाचार की भर्त्सना की, बंगाल में कम्पनी की फौज की मदद से इकट्ठी की गयी दौलत को गैरकानूनी करार दिया। राबर्ट क्लाइव के विरुद्ध संसदने एक तरफ तो यह अभियोग लगाया कि उसने २ लाख ३४ हजार पाउण्ड की धनराशि को अवैध ढंग से हड्प लिया, दूसरी प्रशंसा भी की कि उसने देश की महान् और सराहनीय सेवाएं कीं। इस प्रच्छन्न भर्त्सना से राबर्ट क्लाइव के दिल को इतनी चोट पहुँची कि उसने २२ नवंबर १७७४ ई. को अपना गला काटकर आत्महत्या कर ली।

क्लियोफिस : यूनानी इतिहासकारों के अनुसार असिक्नोई (दे.) की रानी। कहा जाता है कि मकदूनिया के राजा सिकन्दर से उसको एक लड़का पैदा हुआ था।

क्लेवरिंग, जनरल, सर जान : ईस्ट इंडिया कम्पनी की ओर से रेगूलेटिंग ऐक्ट (१७७३ ई.) के अन्तर्गत गवर्नर-जनरल की परिषद् का सदस्य नियुक्त। वह अक्तूबर १७७४ ई. को कलकत्ता आया और तबसे अगस्त १७७७ ई. तक इसी पद पर कार्य करते हुए उसका निधन हो गया। वह सामान्य गुणों वाला एक ईमानदार व्यक्ति था। उसने अपने कार्यकाल में वारेन हेस्टिंग्स का बराबर विरोध किया और अपने एक अन्य साथी फिलिप फ्रांसिस का समर्थन किया। यद्यपि महाराज नन्दकुमार ने उसे अपना संरक्षक समझा, तथापि उसने नंदकुमार को फांसी से बचाने के लिए कुछ भी नहीं किया। १७७७ ई. के प्रारंभ में वारेन हेस्टिंग्स के इस्तीफे की खबर पर सर जान क्लेवरिंग को उसका उत्तराधिकारी नियुक्त किया गया, किन्तु हेस्टिंग्स ने अपने इस्तीफे की खबर का खंडन कर दिया और क्लेवरिंग को गवर्नर-जनरल के पद पर नहीं बैठने दिया। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गयी, लेकिन हेस्टिंग्स के पक्ष में फैसला हुआ। इस घटना ने कौंसिल में घोर कटुता उत्पन्न कर दी और इसी कटुता के वातावरण में क्लेवरिंग की मृत्यु हो गयी।

क्लोज, सर बेरी (१७५६-१८१३) : १७७१ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी की मद्रासी पलटन के अधिकारी की हैसियत से भारत आया। उसने १७८० ई. में हैदरअली के खिलाफ लड़ाई में भाग लिया। वह १७९२ ई. में और दुबारा फिर १७९९ में श्रीरंगपट्टम की घेराबंदी के समय मौजूद था। १७९९ ई. में उसे मैसूर में ब्रिटेन का पहला रेजीडेंट नियुक्त किया गया। नये राजा के लिए वह बड़ा ही सहानुभूतिपूर्ण पथप्रदर्शक सिद्ध हुआ। इसके बाद १७०१ ई. में वह पूना में रेजीडेंट नियुक्त किया गया, जहाँ १० वर्षों तक रहा। उसने दिसम्बर १८०२ ई. में बसई की संधि (दे.) के लिए पेशवा बाजीराव द्वितीय से वार्ता आरम्भ की। १८११ ई. में उसने अपने पद से अवकाश ग्रहण किया और वह बैरन (लार्ड) बना दिया गया। १८१३ ई. में उसका निधन हो गया।

क्षत्रप : उत्तर भारत के कई भूभागों पर राज्य करने वाले शक शासकों की उपाधि। क्षत्रप शासक तीन वर्गों में विभक्त किये जाते हैं, तथा काबुल की घाटी में कापिशी के क्षत्रप, पश्चिम पंजाब अथवा तक्षशिला और मथुरा के क्षत्रप। ग्रनह्वर्यक, तिरह्वर्न एवं शिवसेन कापिशी के क्षत्रपों में से था। पंजाब का क्षत्रप कुल अपेक्षाकृत बड़ा था और उसमें लियक, उसका पुत्र पतिक, मणिगुल और उसका पुत्र जियोनिसस अथवा डिहोनिक, इन्द्रवर्मा और उसका पुत्र अस्थवर्मा तथा उसका भतीजा शस आदि थे। मथुरा के क्षत्रप कुल में रजुबल अथवा रजुल, उसका पुत्र सुदास अथवा सोडाश तथा उसका भतीजा खरोष्ठ हुए। इन शक क्षत्रपों के सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। उनके नाम सिक्कों और खण्डित अभिलेखों में उपलब्ध हैं। उनकी तिथियों का अभी तक निश्चय नहीं हो सका है, पर ऐसा विश्वास किया जाता है कि उन्होंने कुषाणों के पूर्व राज्य किया। (बनर्जी, पू. ४४३ नोट)

क्षत्रिय : भारतीय आर्यों में अत्यंत आरम्भिक काल से वर्ण व्यवस्था मिलती है, जिसके अनुसार समाज में उनको दूसरा स्थान प्राप्त था। उनका कार्य युद्ध करना तथा प्रजा की रक्षा करना था। 'क्षत्रिय' शब्द का व्युत्पत्ति की दृष्टि से अर्थ है-जो (दूसरों को) क्षत से बचावे। ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार क्षत्रियों की गणना ब्राह्मणों के बाद की जाती थी, परन्तु बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार चार वर्णों में क्षत्रियों को ब्राह्मणों से ऊँचा अर्थात् समाज में सर्वोपरि स्थान प्राप्त था। गौतम बुद्ध और महावीर दोनों क्षत्रिय थे और इससे इस स्थापना को बल मिलता है कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म जहाँ एक ओर समाज में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के दावे के प्रति क्षत्रियों के विरोध भाव को प्रकट करते हैं, वहीं दूसरी ओर पृथक् जीवन दर्शन के लिए उनकी आकांक्षा को भी अभिव्यक्ति देते हैं। जो भी हो, बाद में क्षत्रियों का स्थान निश्चित रूप से चारों वर्णों में ब्राह्मणों के बाद दूसरा माना जाता था।

क्षयार्श (जरक्सीज) : पारस (फारस) का सम्राट् (४८६-४६५ ई. पू.), सम्राट् दारयवुह (डेरियस) का पुत्र एवं उत्तराधिकारी। उसने अपने पिता से प्राप्त भारतीय साम्राज्य अक्षुण्ण रखा। उसके साम्राज्य में गंधार, सिन्धु नदी की घाटी (पूर्व में राजस्थान की मरुभूमि तक) तथा संभवतः सिंध प्रांत सम्मिलित था। यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस के अनुसार क्षयार्श यूनान (ग्रीस) पर चढ़ाई करने के लिए जो सेना ले गया था उसमें गंधार तथा भारत के योद्धा भी सम्मिलित थे। गंधार के सैनिक नरकुल के धनुष तथा भाले लिये हुए थे। भारतीय सैनिक सूती कपड़े पहने हुए थे और वे बांस के धनुष लिये हुए थे, जिससे वे नुकीले लोहे के फलक से युक्त तीर फेंकते थे।

क्षुद्रक : एक गण, जो पंजाब में जहलम और चिनाब नदियों के संगम के नीचे वाले भाग में निवास करता था। यूनानी इतिहासकारों ने इनका नाम ओक्सिड्राकाई दिया है। जब सिकन्दर ने इनके देश पर आक्रमण किया तो उन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली और उसे बहुत-से रथ, बकलस, सौ टेलेंट (एक प्राचीन भार) लोहा और सूती वस्त्रों का ढेर भेंट किया। इससे संकेत मिलता है कि उनकी सभ्यता बहुत उन्नत थी।

क्षेमजित (अथवा क्षात्रौजस) : शैशुनागवंश का चौथा राजा और राजा बिम्बसार (दे.) (लगभग ५२२-४९४ ई. पू. ) का पूर्ववर्ती शासक। नाम के अलावा उसके बारे में और कुछ ज्ञात नहीं है।

क्षेमधर्म : शैशुनागवंश (दे.) का तीसरा राजा, जो सातवीं शताब्दी ई. पू. के उत्तरार्ध में राज्य करता था। उसके राज्यकाल के बारे में कुछ विशेष वृतान्त ज्ञात नहीं है।

खजवा की लड़ाई : शाहजहां के दूसरे और तीसरे पुत्रों, शाहजादा शुजा (दे.) और शाहजादा औरंगजेब (दे.) के बीच १६५९ ई. में हुई। इस लड़ाई में शुजा हारकर भागा। उसे बंगाल से बाहर खदेड़ दिया गया। वह अराकान भाग गया, जहां उसकी मृत्यु हो गयी।

खजुराहो  : चंदेलों (दे.) की धार्मिक राजधानी, जो बुंदेलखण्ड में छतरपुर से २७ मील पूर्व में स्थित है। खजुराहों में अनेक मंदिर बने हुए हैं जो चंदेलों के ऐश्वर्य और उनके कला, मूर्तिकला तथा वास्तुकला-प्रेम की साक्षी देते हैं। दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में जिन मंदिरों का निर्माण किया गया, उनमें यहां के मंदिर सबसे भव्य माने जाते हैं। खजुराहो के मंदिरों में कंडरिया महादेव का मंदिर सबसे विशाल और सबसे सुन्दर है।

खड़की की लड़ाई : १८१७ ई. में तीसरे मराठा-युद्ध की शुरुआत इसी से हुई। पेशवा बाजीराव द्वितीय ने पूना में तैनात ब्रिटिश फौजों पर हमला बोल दिया। परन्तु एल्फिन्स्टन (दे.) ने उन फौजों का नेतृत्व बड़ी कुशलता से किया और खड़की की लड़ाई में पेशवा को हरा दिया।

खड़गसिंह : महाराज रणजीत सिंह (दे.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। वह न केवल मंद-बुद्धि था, बल्कि उद्धत सिखों को वश में रखने की क्षमता से भी रहित था। गद्दी पर बैठने के साल भर बाद ही १८४० ई. में उसकी हत्या कर दी गयी।

खरोष्ठी : एक प्राचीन भारतीय लिपि जो ब्राह्मी लिपि के ठीक उलटे ढंग अर्थात् दाहिने से बायें लिखी जाती थी। अशोक ने अपने चतुर्दश शिलालेखों में से दो मानसेरा तथा शहवाजगढ़ी के शिलालेखों में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया है। इससे मालूम पड़ता है कि तीसरी शताब्दी ई. पू. में भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्तों में ब्राह्मी लिपि के बजाय खरोष्‍ठी लिपि प्रचलित थी।

खर्डा की लड़ाई : १७९५ ई. में हैदराबाद के निजाम और मराठों के बीच हुई, जिसमें निजाम बुरी तरह हारा और उसे अत्यंत प्रतिकूल शर्तों पर संधि करने के लिए विवश होना पड़ा। मुख्यरूप से इस हार के कारण निजाम ने १७९८ ई. में भारत में अंग्रेजों के आश्रित होने की संधि कर ली और इस प्रकार अपनी स्वतंत्रता बेच कर जान बचा ली।

खलाफ हसन बसरी : एक विदेशी सौदागर, जो पन्द्रहवीं शताब्दी में बहमनी राज्य में आया और आठवें बहमनी सुल्तान फीरोज (दे.) के भाई शाहजादा अहमद को १४२२ ई. में फीरोज को गद्दी से उतार देने तथा उसकी हत्या कर डालने में मदद की। इसके बाद वह नये सुल्तान अहमद (१४२२-३५ ई.) का वजीर हो गया, परंतु, अगले सुल्तान अलाउद्दीन (१४३५-५७ ई.) के राज्यकाल में बहमनी राज्य में दक्खिनी तथा विलायती अमीरों के बीच एक दंगे के दौरान मार डाला गया।

खलीलुल्ला खां  : उस फौज का एक सिपहसालार, जिसको लेकर बादशाह शाहजहां का सबसे बड़ा पुत्र शाहजादा दारा (दे.) अपने तीसरे और चौथे भाई शाहजादा औरंगजेब तथा शाहजादा मुराद से १६५८ ई. में आगरा के किले से ८ मील पूर्व सामूगढ़ में लड़ा। खलीलुल्ला खां की विश्वासघातपूर्ण सलाह पर ही शाहजादा दारा लड़ाई के नाजुक दौर में उस हाथी से उतर पड़ा, जिस पर वह लड़ाई के शुरू से सवार था और एक घोड़े पर सवार हो गया। हाथी की पीठ पर खाली हौदे को देखकर दारा के सिपाहियों ने समझा कि वह मारा गया है और वे सब भाग खड़े हुए। दारा वह लड़ाई तो हार ही गया, इसके साथ दिल्ली का ताज भी उसके हाथ से निकल गया।

खानजमां : एक उजबेक अमीर, जिसे बादशाह अकबर (१५५६-१६०५ ई.) की ईरानी चाल-ढाल पसंद नहीं थी। उसने १५६७ ई. में बादशाह के खिलाफ बगावत कर दी। बगावत शीघ्र कुचल दी गयी। इसकी वजह से अकबर की चितौड़ पर चढ़ाई में कुछ विलम्ब हो गया।

खानजहां बहादुर : बादशाह औरंगजेब (१६५९-१७०७ ई.) का एक अधिकारी, जिसने उसके मंदिरों को तोड़ने के हुक्म का बखूबी पालन किया। उसने १६७९ ई. में जोधपुर में अनेक हिन्दू मन्दिर तोड़ दिये और कई गाड़ी भर कर देवमूर्तियां जोधपुर से आगरा भेजीं। औरंगजेब ने उसे खूब शाबाशी दी।

खानजहां लोदी : एक अफगान सरदार, जो बादशाह शाहजहां के गद्दी पर बैठने के समय दक्खिन का सूबेदार था। उसने दावरबख्श (दे.) के बादशाह बनाये जाने का समर्थन किया, परन्तु शाहजहां (१६२७-५९ ई.) ने गद्दी पर बैठने पर उसे क्षमा कर दिया और दक्खिन के सूबेदार के पद पर बने रहने दिया। परन्तु, जब वह बादशाह के हुक्म से बालाघाट को फिरसे न जीत सका, जिसे उसने निजामशाह के हाथ बेच दिया था, तो उसे दिल्ली वापस बुला लिया गया। उसे डर था कि मुझे अभी और दंडित किया जायगा। इसलिए वह अहमदनगर भाग गया। परनत् शाही फौजों ने उसका पीछा किया और वह १६३१ ई. में एक युद्ध में मारा गया।

खानवा की लड़ाई : आगरा से थोड़ी दूर पर बादशाह बाबर (१५२५-३० ई.) तथा मेवाड़ के राणा संग्रामसिंह के बीच १५२७ ई. में हुई, जिसमें राणा संग्रामसिंह की निर्णयात्मक पराजय हो गयी। इस लड़ाई के बाद मुगल साम्राज्य के लिए राजपूताने की ओर से कोई भय नहीं रहा।

ख़ाने-जहान : मूल रूप से तेलंगाना का एक हिन्दू। वह मुसलमान बन गया और अपनी योग्यता के कारण सुल्तान फीरोज तुगलक (१३५१-८८ ई.) का अत्यन्त विश्वस्त उच्च अधिकारी बन गया। वास्तव में सल्तनत का सारा आंतरिक प्रशासन १३८० ई. में उसकी मृत्यु तक उसी के हाथ में था।

खाने-जहान (कनिष्ठ) : खाने-जहान (ज्येष्ठ) का पुत्र। १३७० ई. में पिता की मृत्यु होने पर उसके स्थान पर सुल्तान फीरोज तुगलक (१३५१-८८ ई.) का वजीर बना। उसने सुल्तान फीरोज और उसके सबसे बड़े पुत्र मुहम्मद खां में मनमुटाव कराने की कोशिश की, परन्तु शाहजादे ने सुल्तान के सामने सारे षड्यन्त्र का पर्दाफाश कर दिया। इस तरह खाने-जहान सुल्तान के मन से उतर गया। १३८७ ई. में उसे बर्खास्त कर मार डाला गया।

खाने दौरान  : शाहजहां के राज्यकाल (१६२७-५९ ई.) में एक सूबेदार, जो रैयत से निर्दयतापूर्वक रुपया ऐंठने के लिए बदनाम था। उसकी मृत्यु पर लोगों ने इस तरह खुशी मनायी जैसे किसी आफत से छुटकारा पाया हो।

खाफी खां : खुरासान के क्वाफ नामक स्थान के निवासी मुहम्मद हाशिम का उपनाम, जिसने 'मुन्तखबुल-लुवाब' नामक प्रसिद्ध इतिहास ग्रंथ की रचना की है। वह मुगल दरबार में रहता था और उसने अपनी पुस्तक बादशाह मुहम्मदशाह (१७१९-४८ ई.) के राज्यकाल में लिखी। मुसलमान इतिहासकारों में उसे अत्यन्त तटस्थ लेखक माना जा सकता है। वह इतना उदार और सत्यप्रेमी लेखक था कि उसने अपनी पुस्तक में मराठा छत्रपति शिवाजी की विजयों का भी उल्लेख किया है और उनके कुछ गुणों की प्रशंसा की है। उसके ग्रंथ में बादशाह औरंगजेब (१६५९-१७०७ ई.) के राज्यकाल का सबसे प्रामाणिक विवरण मिलता है। वह उसका निकटवर्ती समकालीन कहा जा सकता है।

खाम : भारतीय मुसलिम राज्य-प्रणाली में राजस्व का एक स्रोत। यह युद्ध की लूट तथा खानों की उपज का एक बटा पाँच हिस्सा लिया जाता था।

खारवेल : कलिंग (उड़ीसा) तथा उसके आसपास के क्षेत्र का एक प्रारम्भिक राजा। उसके बारे में सारी सूचनाओं का आधार सिर्फ हाथीगुम्फा लेख है, जिसको अभी एकदम सुनिश्चित रीति से पढ़ा नहीं जा सका है। उस लेख में आये हुए दो वाक्यांशों की सही-सही व्याख्या होना अभी शेष है। अनुमान किया जाता है कि इन वाक्यांशों में तिथि का संकेत है। फिर भी इस लेख का पुरी जिले में उदयगिरिपर निर्ग्रंथ (जैन) साधुओं की एक गुफा पर अंकित होना प्रमाणित करता है कि खारवेल कलिंग का राजा था और निर्ग्रन्थों (जैन साधुओं) का उपासक था। वह महान योद्धा था। उसने पूर्वी भारत में चतुर्दिक विजय-यात्राएँ की। उसकी सेना ने यदि सुदूर दक्षिण में पांड्य राजाओं की राज्य सीमा तक धावा मारा तो उत्तर में उसने मगध के राजा वहपति-मितम को परास्त किया, जिसकी पहचान लगभग १८५ ई. पू. में शुंगवंश के राजा पुण्यमित्र (दे.) से की जाती है। बताया जाता है कि खारवेल ने मथुरा के यवन राजा तथा (सातवाहन वंश के) एक शातकर्णि राजा को हराया। उसने जनता के कल्याण के लिए भी अनेक कार्य किये। उसने एक नहर नगर के बीच से निकलवायी, जिसका निर्माण तीन सौ वर्ष पूर्व एक नन्दराजा ने किया था। उसके राज्यकाल की अवधि ज्ञात नहीं है। उसके उत्तराधिकारियों ने कोई ख्याति नहीं प्राप्त की।

खालसा : सिखों का सैनिक धर्मतंत्र। इसकी स्थापना १७१६ ई. में बन्दा (दे.) को सूली पर चढ़ा दिये जाने के बाद हुई। इसका सूत्रपात कपूरसिंह (दे.) ने किया। जैसे-जैसे समय बीतता गया, इसका आशय सिखों की समूची सैनिक शक्ति हो गया। परंतु शुरू में अनेक वर्षों तक खालसा के अंदर एकता का अभाव था। वह बारह मिस्लों में विभाजित था, जिनमें आपसी लड़ाई-झगड़े चलते रहते थे। महाराज रणजीतसिंह (१७९८-१८३९ ई.) (दे.) ने इन मिस्लों को अपने अधिनायकत्व में संगठित किया और समस्त सिख जनता 'खालसा' सम्बोधित की जाने लगी। प्रथम सिख-युद्ध (दे.) में खालसा की हार हुई तथा दवितीय सिख-युद्ध (१८४८-४९ ई.) में हार के बाद उसका विघटन कर दिया गया।

खालसा : उस सरकारी जमीन को कहते हैं, जिसका प्रबंध सरकार खुद करती है। दिल्ली के सुल्तानों के अंतर्गत मालगुजारी की जो व्यवस्था थी, उसके सम्बंध में इस शब्द का प्रयोग किया जाता था।

खिज़र खां  : सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (१२९६-१३१६ ई.) का सबसे बड़ा पुत्र, १३०३ ई. में उसे मेवाड़ का सूबेदार बनाया गया। यह राज्य अलाउद्दीन ने हाल में जीता था। खिज़र खां १३११ ई. तक इसका सुबेदार रहा। उसने १३०७ ई. में गुजरात के पराजित राजा कर्णदेव की पुत्री देवलदेवी से विवाह कर लिया। दोनों की प्रेमगाथा का वर्णन कवि अमीर खुसरो (दे.) ने किया है। सब यही सोचते थे कि वही अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकारी होगा। परंतु १३१६ ई. में सुल्तान अलाउद्दीन की मृत्यु होने पर उसे मलिक काफूर ने अंधा बनाकर गद्दी पर बैठने के अयोग्य कर दिया।

ख़िज्र ख़ां सैयद : तैमूर की ओर से मुलतान का हाकिम। १४१४ ई. में दिल्ली के अंतिम तुगलक सुल्तान के ऊपर उसने चढ़ाई की और उसे बन्दी बनाकर राजधानी पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार वह दिल्ली के सुल्तानों में एक नये वंश-सैयद वंश का संस्थापक बना। उसका अधिकारक्षेत्र केवल दिल्ली तथा उसके आसपास के क्षेत्र तक सीमित था। उसने दिल्ली पर सात साल (१४१४-२१ ई.) तक शासन किया।

खिलजी : तुर्कों का एक कबीला, जो उत्तरी भारत पर मुसलमानों की विजय के बाद यहां आकर बस गया। जलालुद्दीन ने गुलाम वंश के अंतिम सुल्तान की हत्या करके खिलजियों को दिल्ली का सुल्तान बनाया। खिलजी वंश ने १२९० से १३२० ई. तक राज्य किया। दिल्ली के खिलजी सुल्तानों में अलाउद्दीन (१२९६-१३१६ ई.) सबसे प्रसिद्ध और योग्य शासक था।

खिलाफत आंदोलन : उद्देश्य मुसलमान शासन में तुर्की की प्रभुसत्ता तथा अखंडता बनाये रखना तथा उसके सुल्तान को मुसलिम देशों का खलीफा मानना था। १९१४ ई. से पहले ही तुर्की की सल्तनत दिनोंदिन कमजोर होती जा रही थी और उसका तेजी से ह्रास हो रहा था। प्रथम विश्वयुद्ध (१९१४-१८ ई.) में उसे जो क्षति उठांनी पड़ी, उसके फलस्वरूप इस बात का खतरा उत्पन्न हो गया कि वह पूरी तरह समाप्त हो जायगी। इससे भारतीय मुसलमानों में बड़ी बेचैनी फैली और उन्होंने १९२० ई. में एक आंदोलन शुरू किया, जिसका उद्देश्य इंग्लैंड पर इस बात के लिए जोर डालना था कि वह तुर्की साम्राज्य तथा 'खलीफा' पद को तोड़ने में हिस्सा न ले। भारतीय मुसलमानों का यह आंदोलन 'खिलाफत आंदोलन' के नाम से विख्यात है। इसमें 'अलीबंधु' -शौकत अली और मुहम्मद अली खूब चमके। दोनों सुशिक्षित और अच्छे वक्ता थे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित हो गये, जिसने महात्मा गांधी के नेतृत्व में १९२० में असहयोग आंदोलन आरम्भ किया। इस प्रकार खिलाफत आंदोलन के फलस्वरूप भारतीय मुसलमानों और हिन्दुओं में अभूतपूर्व एकता स्थापित हो गयी और इससे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को काफी शक्ति मिली। खिलाफत आंदोलन के साथ-साथ असहयोग आंदोलन ने बहुत से भारतीय मुसलमानों को अफगानिस्तान की हिज्रत के लिए प्रेरित किया। परंतु अफगानों ने मुसलमान होते हुए भी अपने भारतीय मुसलमान भाइयों की हिज्रत का स्वागत नहीं किया। उधर तुर्की में कमाल अतातुर्क का उदय हुआ, जिसने तुर्को में नवजागरण का संचार किया। १९२३ ई. में तुर्की के सुल्तान को गद्दी से उतार दिया गया और १९२० ई. में खलीफा का पद तोड़ दिया गया। इस प्रकार खिलाफत आंदोलन के नीचे की जमीन ही एक प्रकार से खिसक गयी और इसके बाद आंदोलन शीघ्रता से समाप्त हो गया।

खीव : उज्बेकिस्तान में स्थित, जो अब सोवियत संघ में है। पहले अफगान-युद्ध के अवसर पर यह अफगानिस्तान का अधीनस्थ राज्य था। रूस खीव को हथियाना चाहता था। परंतु १८३९ ई. में खीव पर उसका आक्रमण पूर्णतया विफल रहा। इससे प्रकट हो गया कि रूस अपनी राजधानी से इतनी दूरी पर कमजोर पड़ता है। परंतु कई साल बाद १८७३ ई. में रूस ने खीव पर दखल कर लिया। इससे अफगानिस्तान का अमीर शेर अली इतना घबड़ाया कि उसने ब्रिटिश भारतीय सरकार से प्रार्थना की कि उसके साथ रक्षात्मक संधि कर ली जाय। उस समय ब्रिटिश भारतीय सरकार ने उसका यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। परंतु १८७८ ई. में इसी प्रकार का एक प्रस्ताव अफगानिस्तान से जबर्दस्ती मनवाने के लिए दूसरा अफगान युद्ध (१८७८-८१ ई.) छेड़ा गया।

खुसरो खाँ : एक नीच जाति का गुजराती हिन्दू, जो मुसलमान बन गया था। वह सुल्तान मुबारक खिलजी (१३१६-२० ई.) का कृपापात्र होकर उसका बड़ा वजीर नियुक्त हो गया। परंतु वह इतना कृतघ्न निकला कि उसने १३२० ई. में अपने मालिक की हत्या कर दी और उसकी गद्दी हथिया ली। गद्दी पर बैठने पर उसने अपना नाम सुल्तान नासिरुद्दीन खुसरो शाह रखा। उसने राज्य का खजाना या तो उन सरदारों को घूस देने में, जिनसे वह डरता था अथवा अपने सम्बंधियों और ज्ञातिजनों को पुरस्कृत करने में लुटा दिया। उसने मरडूम सुल्तान के परिवार के सदस्यों की हत्या कर डाली और उसके समर्थकों का वध कर दिया। परंतु वह थोड़े ही दिन राज्य कर पाया। वह १३२० ई. के अप्रैल से सितम्बर तक गद्दी पर रहा। दिल्ली के मुसलमान सरदारों के एक दल ने उसे हराकर मार डाला।

खुसरो मलिक : खुसरो शाह (दे.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। पंजाब पर शासन करनेवाला यह अंतिम गजनवी था। ११८६ ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने उसे हरा दिया। उसके साथ ही गजनवी वंश का अंत हो गया।

खुसरो शाह : गजनवी वंश के बहराम शाह का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। गुज्ज तुर्कों के हमले के फलस्वरूप ११६० ई. में गजनी छोड़कर पंजाब भाग आने को विवश हुआ, जहां अपनी मृत्यु तक शासन करता रहा। उसके बाद उसका पुत्र खुसरो मलिक उत्तराधिकारी हुआ।

खुसरो, शाहजादा : सलीम (जहांगीर) का सबसे बड़ा पुत्र और बादशाह अकबर का पौत्र। १६०५ ई. में अकबर की मृत्यु के समय उसकी गद्दी पर सलीम के बजाय शाहजादा खुसरो को बैठाने का प्रयत्न किया गया। राजा मानसिंह के समर्थन के बावजूद यह योजना विफल हुई। मानसिंह खुसरो का मामा था। सलीम ने गद्दी पर बैठने के बाद अपने पुत्र को क्षमा कर दिया, साथ ही उसे आगरे के किले में कैद कर दिया। परंतु वह कैद से निकल भागा और अपने पिता बादशाह जहांगीर के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। परंतु उसे शीघ्र परास्त कर दिया गया। बादशाह ने उसे फिर क्षमा कर दिया।

इसके बाद शाहजादा खुसरो को गद्दी पर बैठाने के लिए दूसरा षड्यंत्र रचा गया, परंतु वह विफल हो गया। शाहजादे को अंधा कर दिया गया। शाहजादा काफी लोकप्रिय था और मुगलों के मानदंड से एक वफादार पति था। उसने मलका नूरजहां की पहले पति से उत्पन्न कन्या से विवाह करने और उसे अपनी दूसरी पत्नी बनाने से इनकार कर दिया। शाहजादे का मन अपने पिता से कभी पूरी तरह से मिल नहीं पाया। उसका छोटा भाई खुर्रम (शाहजहां) उससे ईर्ष्या एवं घृणा करता था। १६२० ई. में जहांगीर ने खुसरो को शाहजहां के सुपुर्द कर दिया। उसने उसे बुरहानपुर में कैद कर दिया, जहां १६२२ ई. में उसका मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु का कारण निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है, परंतु विश्वास किया जाता है कि शाहजहां ने द्वेषवश किसी रीति से उसकी जान ले ली।

खेर, वी. जी.  : बम्बई प्रांत में १९३७ ई. में बननेवाले पहले कांग्रेस मंत्रिमंडल के मुख्यमंत्री। उन्होंने बड़ी योग्यता तथा सफलता के साथ प्रशासन चलाया तथा शिक्षा-प्रणाली के विकास में विशेष रुचि दिखलायी।

ख़ैबर का दर्रा : अविभाजित भारतवर्ष और अफगानिस्तान के बीच मुख्य पहाड़ी दर्रा। इसके पूर्वी (भारतीय) छोर पर पेशावर तथा लण्डी कोतल स्थित हैं, जहां से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल को मार्ग जाता है। उत्तर-पश्चिम से भारत पर आक्रमण करनेवाले अधिकांश आक्रमणकारी इसी दर्रे से भारत में आये। अब यह दर्रा पाकिस्तान के पश्चिणी पंजाब प्रांत को अफगानिस्तान से जोड़ता है। प्राचीन काल के हिन्दू राजा विदेशी आक्रमणकारियों से इस दर्रे की रक्षा नहीं कर सके। मुसलमानी शासनकाल में तैमूर, बाबर, हुमायूं, नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली ने इसी दर्रे से होकर भारत पर चढ़ाइयां कीं। जब पंजाब ब्रिटिश शासन में आ गया, तभी खैबर के दर्रे की रक्षा की समुचित व्यवस्था की गयी और उसके बाद इस मार्ग से भारत पर फिर कोई हमला नहीं हुआ।

खैरपुर : सिंध का एक नगर। १८४३ ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार द्वारा सिंध पर दखल किये जाने के समय वहां पर तालपुर कबीले के जो तीन अमीर शासन करते थे, उनमें से एक की यह राजधानी थी।

खोखर खुर्द : उड़ीसा की सीमा पर हीरे की खानों का क्षेत्र। बादशाह जहांगीर (१६०५-२७ ई.) ने इसे जीत कर मुगल साम्राज्य में सम्मिलित किया। १७५७ ई. में पलासी की लड़ाई के बाद यह क्षेत्र अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया।

ख्वाजा जहां : मूल नाम अहमद, सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक (१३२०-२५ ई.) के राज्यकाल में इमारतों का दारोगा था। सुल्तान के पुत्र जूना खां ने पिता के स्वागत के लिए तुगलकाबाद के बाहर एक तोरण बनवाया, जो सुल्तान के ऊपर गिर पड़ा और उसकी मृत्यु हो गयी। उसके बाद जूना खां सुल्तान मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१ ई.) के नाम से गद्दी पर बैठा। अहमद को सुल्तान ने 'ख्वाजा जहां' की उपाधि प्रदान की और उसे अपना वजीर बनाया। ख्वाजा जहां ने सुल्तान के २६ वर्ष के राज्यकाल में उसकी महती सेवा की और उसकी ओर से कई लड़ाइयां जीतीं परंतु १३५१ ई. में सुल्तान की मृत्यु पर उसने उसके भतीजे फीरोज तुगलक के मुकाबले में एक प्रतिद्वन्द्वी को गद्दी पर बैठाने की कोशिश की, परंतु उसकी योजना विफल हो गयी। नये सुल्तान ने उसे क्षमा कर दिया और उसे सामान जाकर शांतिपूर्ण जीवन बिताने की इजाजत दे दी। परंतु उसके साथ जो फौजी टुकड़ी भेजी गयी थी, उसने उसे रास्ते में मार डाला।

ख्वाजा जहाँ : मलिक सरवर को बख्शी गयी उपाधि, जो खोजा था। छठे तुगलक सुल्तान नासिरुद्दीन (१३९०-९४ ई.) ने उसे 'मलिक्-उस्-शर्क' (पूरब का स्वामी) बनाकर १३९४ ई. में जौनपुर भेज दिया। उसने शीघ्र अपना अधिकार गंगा के समूचे दोआब पर कर लिया और १३९९ ई. में अपनी मृत्यु तक लगभग स्वतंत्र सुल्तान की हैसियत से इस सारे क्षेत्र पर शासन करता रहा। उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी मुबारक ने सुल्तान की पदवी धारण की और जौनपुर (दे.) के शर्की वंश की स्थापना की।

ख्वाजा जहाँ : कई बरसों तक बहमनी सुल्तानों का वजीर। वह राज्य की सारी शक्ति अपने हाथ में केन्द्रित करने के मनसूबे बांधने लगा, इसलिए १४६३ ई. में उसकी हत्या कर दी गयी और उसका पद और पदवी मुहम्मद गवां (दे.) को प्रदान कर दी गयी।

ख्वाजा हाजी : सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (१२९६-१३१६ ई.) का मशहूर तथा वफादार सिपहसालार। मलिक काफूर (दे.) के साथ दक्खिन पर कई चढ़ाईयां कीं और उसे जीतकर अलाउद्दीन का राज्य वहां स्थापित किया।

गंग राजा : द्वारसमुद्र के राजा विष्णुवर्धन (लगभग १११०-४१) का मंत्री। विष्णुवर्धन विष्णु का अनन्य उपासक था, जबकि गंग राजा जैन था और उसने बहुत से जैन मंदिरों का निर्माण कराया।

गंगवंश : दूसरी से ग्यारहवीं शताब्दी ई. तक मैसूर के अधिकांश भाग का शासक। इस वंश के प्रथम शासक कोंगनि वर्मा ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की और अपने राज्य का काफी विस्तार किया। उसके उत्तराधिकारियों ने भी दक्षिण भारत के राजाओं के बीच होनेवाले युद्धों में महत्तवपूर्ण भूमिका अदा की। कुछ समय तक वे पल्लवों की अधीनता में रहे। दसवीं शताब्दी के गंग राजा जैन धर्म के आश्रयतदाता थे। ९८३ ई. में गंग राजा राजमल्ल चतुर्थ के मंत्री चामुण्डराय ने श्रवण-बेलगोला में गोमटेश्वर की साढ़े छप्पन फूट ऊँची विशाल प्रतिमा का निर्माण कराया। गंगों की शक्ति को विष्णुवर्धन (लगभग १११०-४१) ई. ने तलकाड के युद्ध में नष्ट कर दिया। (डूबरनिल.)

गंगवंश (पूर्वी)  : मैसूर के गंगवंश की ही एक शाखा, जिसने कलिंग या उड़ीसा पर शासन किया। इस वंश का संस्थापक वज्रहस्त था, जिसके पुत्र और उत्तराधिकारी राजराज प्रथम ने राजेन्द्र चोलदेव द्वितीय (१०८०-१११८ ई.) की पुत्री राजसुंदरी से विवाद किया। इस वैवाहिक संबंध ने इस वंश की शक्ति अत्यधिक बढ़ा दी और राजराज प्रथम का पुत्र अनंतवर्मा चोलगंग (१०७८-११४८ ई.) (दे.) उत्तर की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार करने में समर्थ हुआ। अनंतवर्मा चोलगंग ने ७० वर्ष तक शासन किया और उसके राज्य में मद्रास के कुछ उत्तरी जिले भी शामिल थे। उसके पास शक्तिशाली नौसेना थी और उसने बंगाल की दक्षिणी सीमापर बार-बार हमले किये। अनंतवर्मा के बाद उसके उत्तराधिकारी चार पुत्रों ने कुल मिलाकर एक के बाद एक ६० वर्ष तक राज्य किया। इस अवधि में तुर्कों के हमले शुरू हो गये थे। पूर्व के गंग राजा इनको रोक नहीं पाये। अनंतवर्मा के चार पुत्रों के बाद इस वंश के नौ और राजाओं ने उस समय तक शासन किया, जब तक अंतिम राजा नरसिंह चतुर्थ (१३८४-१४०२ ई.) को तुर्कों ने उखाड़ नहीं फेंका। पूर्वी गंग शासक कला के महान् संरक्षकों में से थे। पुरी (उड़ीसा) का प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर और मुखलिंगम् (उड़ीसा) स्थित राज राजेश्वर मंदिर पूर्वी गंग शासकों के कलाप्रेम के भव्य प्रतीक हैं। गंग शासकों द्वारा निर्मित ये दिर भारत में आज भी अपना सानी नहीं रखते। (बनर्जी. पृ. २७०, स्मिथ. पृ. ४९८)

गंगा  : हिन्दुओं की सबसे पवित्र नदी। इसके तटों पर अनेक नगर बसे हुए हैं, जिनमें सबसे प्राचीन और पवित्र वाराणसी (दे.) है। प्रसिद्ध ऐतिहासिक राजधानी पाटलिपुत्र गंगा और वाणिज्य के प्रमुख केन्द्र कलकत्ता महानगर को भी गंगा की ही एक सहायक नदी के तट पर बसाया गया। गंगा की मिट्टी उत्तर भारत के अधिकांश भूभाग को उर्वर बनाती है। गंगा की घाटी आज भी भारत का हृदयस्थल मानी जाती है। गंगा और यमुना के बीच दोआब का क्षेत्र भारत का सबसे अधिक उपजाऊ क्षेत्र है। इस क्षेत्र ने भारत में अनेक वंशों का उत्थान और पतन देखा है।

गंगाधर शास्त्री : बड़ौदा के गायकवाड़ का मुख्यमंत्री। अंग्रेजों से उसकी गाढ़ी मित्रता थी। इसलिए पेशवा बाजीराव द्वितीय (१७९६-१८१८ ई.) उससे नाराज हो गया। पेशवा और गायकवाड़ के बीच कुछ पुराने विवादों को तय करने के उद्देश्य से गंगाधर शास्त्री १८१४ ई. में पूना भेजा गया। पेशवा उसको वहां से नासिक ले गया। नासिक में पेशवा के हार्दिक मित्र त्र्यम्बकजी ने उसकी हत्या करा दी। गंगाधर शास्त्री की हत्या को ब्रिटिश भारतीय सरकार ने अमैत्रीपूर्ण कार्य समझा और परोक्ष रूप से यही तीसरे मराठा-युद्ध (दे.) का कारण बना।

गंगाबाई : पेशवा नारायणराव (१७७२-७३ ई.) की पत्नी। पेशवा की हत्या चाचा राघोवा के इशारे पर अगस्त १७७३ ई. में कर दी गयी। अगले वर्ष विधवा गंगाबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम माधवराव नारायणराव रखा गया। माधवराव १७७४ से १७९६ ई. तक पेशवा रहा।

गंगासिंह, सर, महाराज : राजपूताना स्थित बीकानेर के १८८७ से १९३४ ई. तक शासक। वे प्रगतिशील भारतीय राजा थे। १९२१ से १९२५ ई. तक वे नरेन्द्रमण्डल (चैम्बर आफ प्रिंस) के प्रथम चांसलर रहे। दिल्ली में हुए नरेन्द्र-सम्मेलन का उन्हें महामंत्री बनाया गया (१९१६-२० ई.)। प्रथम विश्व-युद्ध के समय उन्होंने अपने सारे साधनस्रोत ब्रिटिश सरकार की सहायता में लगा दिये। व्यक्तिगत युद्ध-सेवा की इच्छा प्रकट करने पर उन्हें फ्रांस-स्थित ब्रिटेन के प्रधान सेनापति सर जान फ्रेंच के स्टाफ में नियुक्त किया गया।

गंगू : फरिश्ता' के अनुसार दिल्ली का एक ब्राह्मण ज्योतिषी और बहमनी राज्य के संस्थापक हसन का गुरु। कहा जाता है उसने हसन की महानता के बारे में पहले से ही भविष्यवाणी कर दी थी। इस किंवदंती की पुष्टि अन्य इतिहासग्रंथ या सिक्कों और अभिलेखों के प्रमाण से नहीं होती है।

गंगे कोंड : एक उपाधि, जिसे चोल नरेश राजेन्द्र चोलदेव प्रथम (१०१८-३५ ई.) ने बंगाल के राजा महिपाल या गंग राजाओं पर विजय पाने के उपलक्ष्य में धारण किया। इस विजय के उपलक्ष्य में ही उसने गंगे कोंड-चोलपुरम् के नाम से एक नया नगर भी बसाया था। (स्मिथ.)

गंजाम : उड़ीसा का एक नगर, जो ६१९ ई. में कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन (६०६-४७ ई.) के प्रतिद्वन्द्वी और समकालीन बंगाल के राजा शशांक के नियंत्रण में था। ६४८ ई. में हर्ष ने हमला कर इस पर अपना अधिकार स्थापित किया। इस समय यह महत्त्वपूर्ण समृद्ध नगर है।

गंड (९९९-१०२५) : चंदेल राजा धंग का पुत्र और उत्तराधिकारी। वह पंजाब के राजा आनंदपाल द्वारा महमूद गजनी का सामना करने के लिए १००८-९ ई. में बनाये गये हिन्दू राजाओं के संघ में शामिल हुआ और सबके साथ हार गया। दस वर्ष बाद गंड के पुत्र विद्याधर ने कन्नौज के शासक राज्यपाल पर हमला कर उसे मार डाला, क्योंकि उसने कायरतापूर्वक महमूद गज़नी का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। इस बात से क्रुद्ध होकर सुलतान गजनी ने गंड के राज्य पर हमला कर दिया और उसे कालंजर का दुर्ग समर्पित कर सुलह करने को बाध्य किया। (स्मिथ.)

गंडमक की संधि : द्वितीय अफगान-युद्ध (दे.) (१८७८-८० ई.) के दौरान मई १८७९ में भारतीय ब्रिटिश सरकार के तत्कालीन वाइसराय लार्ड लिटन और अफगानिस्तान के अपदस्थ अमीर शेरअली के बड़े पुत्र याकूब खां के बीच हुई थी। इस संधि के अन्तर्गत याकूब खां, जिसे अमीर के रूप में मान्यता दी गयी थी, अपने विदेशी संबंध ब्रिटिश निर्देशन से संचालित करने, राजधानी काबुल में ब्रिटिश रेजीडेंट रखने और कुर्रम दर्रे तथा पिशीन और सीबी जिलों को ब्रिटिश नियंत्रण में देने के लिए राजी हो गया। पिशीन और सीबी जिले बोलन दर्रे के निकट स्थित हैं। गंडमक-संधि लार्ड लिटन की अफगान-नीति (दे.) की सबसे बड़ी उपलब्धि थी और उसने ब्रिटिश भारत को इंग्लैण्ड के तत्कालीन प्रधानमंत्री लार्ड बेकन्सफील्ड के शब्दों में 'वैज्ञानिक सीमा' प्रदान कर दी। किन्तु अंग्रेजों की यह विजय अल्पकालीन थी। गंडमक संधि के केवल चार महीने बाद २ सितम्बर १८७९ ई. को अफगानों ने फिर सिर उठाया और उन्होंने ब्रिटिश रेजीडेण्ट की हत्या कर गंडमक-संधि को रद्द कर दिया। अफगानिस्तान में युद्ध फिर भड़क उठा और वह तभी समाप्त हुआ जब अंग्रेजों ने अपने आश्रित याकूब खां को अफगानों के हाथ समर्पित कर दिया और काबुल में अपना रेजीडेण्ट रखने का विचार तथा संधि के अन्तर्गत मिला समग्र अफगान क्षेत्र त्याग दिया।

गंधार : प्राचीन काल में सिंधु नदी के दोनों तटों पर स्थित उस प्रदेश का नाम, जहाँ आजकल पाकिस्तान के रावलपिण्डी और पेशावर जिले हैं। तक्षशिला और पुष्करावती इसके भी प्रमुख नगर थे। यहाँ के लोग 'गांधार' कहलाते थे और उनका उल्लेख अशोककालीन अभिलेखों में मिलता है। बहिस्तान अभिलेख (लगभग ५२०-५१८ ई. पू. ) (दे.) से पता चलता है कि इस प्रदेश को बाद में फारस के सम्राट् दारा (डेरियस) ने अपने राज्य में मिला लिया। इस राज्य में कुछ समय कश्मीर भी शामिल था। गंधार निश्चित रूप से अशोक के साम्राज्य का अंग था। भारत के साथ उसके घनिष्ठ संबंध थे। महाभारत के अनुसार गंधार की राजकुमारी धृतराष्ट्र की महारानी और दुर्योधन की माता थी। मौर्य वंश के पतन के पश्चात् गंधार भारत और बाख्त्री शासकों के बीच बंट गया। इसके उपरान्त यह प्रदेश कुषाण राज्य का अंग बना। इस प्रकार यह पूर्वी और पश्चिमी संस्कृतियों का संगम-स्थल बन गया और उसने कला की एक नयी शैली को जन्म दिया जो 'गांधार शैली' के नाम से विख्यात है।

गक्खड़ : कबायली लोग, जिनका दमन १२०४ ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने और उसके बाद १५३३ ई. में शेरशाह ने किया। शेरशाह ने इन लोगों को दबाये रखने के लिए रोहतास (पंजाब) में किले का निर्माण भी कराया।

गजनवी : गजनी के शासक। अलप्तगीन प्रथम गजनवी शासक था जिसने ९६३ ई. तक राज्य किया। इसके बाद क्रमशः अमीर सुबुक्तगीन (९७७-९७), सुल्तान महमूद (९९७-१०३०) और बहराम शाह ने राज्य किया। बहराम के पुत्र खुसरो ने गजनी को त्यागकर सन् ११६० में पंजाब में अड्डा जमाया तथा लाहौर को अपना सदर-मुकाम बनाया। उसका पुत्र खुसरो मलिक अंतिम गजनवी था। उसे सन् ११८६ में शहाबुद्दीन गोरी ने उखाड़ फेंका। इसके साथ ही गजनवी वंश नष्ट गया।

गज़नी : अफगानिस्तान का एक पहाड़ी नगर, जो काबुल से दक्षिण-पश्चिम ७८ मील पर स्थित व्यापारिक केन्द्र है। मध्ययुग में यह किले के रूप में था। १०वीं शताब्दी में अलप्तगीन नामक तुर्क ने यहां एक छोटे से राज्य की स्थापना कर गजनी को राजधानी बनाया। अलप्तगीन की मृत्यु ९६३ ई. में हुई। उसका पुत्र सुबुक्तगीन और पौत्र सुल्तान महमूद (९९७-१०३० ई.) था जो महमूद गजनवी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गजनी नगर बड़े-बड़े भवनों, चौड़ी सड़कों और संग्रहालयों से परिपूर्ण था, लेकिन सन् ११५१ में गोर के अलाउद्दीन हुसेन ने इस नगर को जलाकर खाक कर दिया। इसके लिए उसे जहांसोज की उपाधि मिली। बाद में शहाबद्दीन गोरी ने इस नगर का उद्धार किया और इसे अपना सदर-मुकाम बनाया व यही गोरी बाद में भारत का भारत का पहला मुस्लिम विजेता बना। यह नगर आधुनिक काल तक महत्त्वपूर्ण सामरिक अड्डा बना रहा। प्रथम अफगान युद्ध (दे.) के दौरान ब्रिटिश जनरल नाट ने इस नगर की किलेबंदी को नष्ट कर दिया।

गजनी खाँ : खान देश का सातवां सुल्तान, जो दाऊद का पुत्र था। गद्दी पर बैठने (सन् १५०८) के दस दिनों के अंदर उसे जहर देकर मार डाला गया।

गजपति प्रतापरुद्र : उड़ीसा का शासक, जिसे विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय (१५१०-३० ई.) ने परास्त किया। इस युद्ध में उदयगिरि का दुर्ग भी गजपति के हाथों से निकल गया।

गजबाहु : श्रीलंका का एक प्राचीन राजा, जिसने सन् १७३ से लेकर १९१ ई. तक राज्य शासन किया। यह तिथि इस दृष्टि से महत्‍त्‍वपूर्ण है कि इससे प्राचीन पाण्ड्य, चेरी और चोल राजाओं की तिथियाँ निश्चित करने में सहायता मिलती है। ये राजा उसके समकालीन थे।

गढ़ कटंगा : गोंडवाना के अन्तर्गत आधुनिक मध्य प्रदेश के उत्तरी जिलों में कहीं पर स्थित था। १५६४ ई. में जब इसका प्रशासन रानी दुर्गावती अपने अल्पवयस्क पुत्र वीरनारायण की अभिभाविका के रूप में चला रही थी, मुगल सम्राट् अकबर ने उस पर हमला किया और उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया।

गढ़गांव : अहोम राजाओं (१२२८-१८२४ ई.) के शासन काल में आसाम की राजधानी थी। यह आधुनिक शिवसागर जिले में दीखू नदी के तट पर स्थित है। १६६२-६३ ई. में मुगल सम्राट् औरंगजेब के सेनानायक मीर जुमला ने इस शहर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। शहाबुद्दीन ने गढ़गांव पर मीर जुमला के विजय-अभियान का विस्तार से वर्णन किया है। गढ़गांव की शक्ति और वैभव से प्रभावित होकर वह लिखता है कि इस शहर के चार द्वार थे जो पत्थर और गारे से बनाये गये थे। चारों द्वारों से मार्ग राजप्रासाद की ओर जाता था, जो तीन कोस (दो मील) की दूरी पर था। नगर के चारों ओर प्राचीर के स्थान पर दो कोस या उससे कुछ अधिक चौड़ाई में उगाया गया बांसों का घना और अभेद्य झुरमुट था। राजप्रासाद के चतुर्दिक् कई पुरुसा गहरे पानी से भरी खाई थी। राजप्रासाद ६६ स्तम्भों पर खड़ा था। प्रत्येक स्तम्भ की गोलाई ६ फुट थी। सभी स्तंभ अत्यधिक चिकने और चमकदार थे। शहाबुद्दीन के विचारानुसार राजप्रासाद की काष्ठकला इतनी भव्य और रमणीक थी कि दुनिया में उसके जोड़ की नक्काशी मिलना मुश्किल है। आसाम ने १६६७ ई. में मुगल शासन का जुआ उतार फेंका और गढ़गाँव १८२४ ई. में अंग्रेजों की विजय तक अहोम राजाओं की राजधानी बना रहा।

गणेश, राजा : प्रारंभ में उत्तरी बंगाल के दीनाजपुर का एक शक्तिशाली सामंत। योग्यता, अनुभव, सम्पत्ति और अन्य साधनस्रोतों ने उसे बंगाल के सुल्तान गयासुद्दीन आज़म (लगभग १३९३-१४१० ई.) के दरबार का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बना दिया। १४१० ई. सुल्तान की मृत्यु के बाद उसके युवा पुत्रों में उत्तराधिकार का संघर्ष छिड़ गया और देश में अव्यवस्था व्याप्त हो गयी। इस अराजक स्थिति का लाभ उठाकर गणेश १४१४ ई. में बंगाल के तख्त पर बैठ गया। उसने 'दनुजमर्दनदेव' की उपाधि धारण की। उसने चार वर्षों तक शासन किया। इस दौरान उसके राज्य पर जौनपुर के सुल्तान इब्राहीम शाह की फौज ने हमला किया। राजा गणेश ने हमलावरों को मार भगाया और कुशलतापूर्वक शासन करता रहा। १४१८ ई. में वृद्वावस्था के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। गणेश अपने पीछे दो पुत्र छोड़कर मरा। बड़े पुत्र का नाम जद्दू था, जिसने बाद को इसलाम धर्म स्वीकार करके अपना नाम जलालुद्दीन रख लिया और छोटे का नाम महेन्द्र था जो अपने परम्परागत हिन्दू धर्म के प्रति ही आस्थावान् बना रहा। राजा की मृत्यु के बाद कुछ लोगों ने महेन्द्र को सिंहासन पर बैठाने का असफल प्रयास किया, किन्तु अंततः बंगाल की राजगद्दी बड़े पुत्र जद्दू या जलालुद्दीन को ही मिली। उसने बंगाल पर १४१८ से १४३१ ई. तक शासन किया। जलालुद्दीन का पुत्र और उत्तराधिकारी शमसुद्दीन अहमद मूर्ख और निर्दय शासक था। १४४२ ई. में दो गुलामों ने उसकी हत्या कर दी। इसके साथ ही गणेश के वंश का अंत हो गया। (हि. बं. खंड २, पृष्ठ १२०-२९)

गदरोसिया : यूनानी (यवन) बलूचिस्तान को इसी नाम से पुकारते थे। सिकन्दर ने भारत विजय के दौरान गदरोसिया पर भी विजय प्राप्त की थी किन्तु बाद को सेल्यूकस (दे.) ने इसे चंद्रगुप्त मौर्य (लगभग ३८३ से २९८ ई. पू.) को समर्पित कर दिया और वह मौर्यों के भारतीय साम्राज्य का अंग बन गया।

गदाई शेख : एक शिया, जिसे सम्राट अकबर के अभिभावक बैरम खाँ ने सदरुस्सुदुर (विधि और धार्मिक विभाग का मुख्य अधिकारी) नियुक्त किया। सभी प्रकार के अनुदानों, अनुमोदनों और भत्तों पर उसका नियंत्रण था। गदाई को इतने ऊँचे पद के लायक कोई विशेष योग्यता नहीं प्राप्त थी और ऊपर से वह शिया था, इसलिए इस पद पर उसकी नियुक्ति की वजह से कट्टर सुन्नी मुसलमानों ने बैरम खाँ का विरोध और जोर-शोर से शुरू कर दिया।

गदाधर सिंह : उन्तीसवां अहोम राजा, जिसने आसाम पर पन्द्रह वर्षों (१६८१-९६ ई.) तक राज्य किया। उसने सबसे पहले १८६२ ई. में गौहाटी को मुगल आधिपत्य से मुक्त कराया और औरंगजेब को मोनास नदी अहोम राज्य की सीमा मानने के लिए मजबूर किया। मोनास नदी आधुनिक गोलपाड़ा और कामरूप जिलों के बीच बहती है। गदाधर सिंह बहुत ही शक्तिशाली शासक था। उसने सभी आंतरिक षड्यंत्रों और उपद्रवों का दमन किया, आसाम में राज्य की गिरी हुई प्रतिष्ठा को ऊँचा उठाया, मीरी और नागा विद्रोहियों को कुचला और सामन्तों की शक्ति को तोड़ा। गदाधर सिंह शाक्त (शक्ति का उपासक) था, इसलिए उसने वैष्णवों का उत्पीड़न किया और वैष्णव गोसाइयों को कुचल डाला। उसने गौहाटी में कचेरी घाट के बिलकुल सामने ब्रह्मपुत्र के एक द्वीप में उमानंदा मंदिर का निर्माण कराया, ब्राह्मणों और हिन्दू मंदिरों को भूमिदान किया, कई राजमार्गों का निर्माण कराया, पत्थर के दो पुल बनवाये, तालाब खुदवाये और आसाम में जोतों का विस्तृत सर्वेक्षण आरंभ कराया। (सर एडवर्ड गेट कृत 'हिस्ट्री आफ आसाम')।

गफ, ह्यू (प्रथम वाईकाउन्ट) (१७९९-१८६९)  : एक ब्रिटिश सेनाधिकारी, १७९४ में ब्रिटिश सेना में भर्ती हुआ, स्पेन प्रायद्वीप के युद्ध में भाग लिया। १८५७ ई. में मद्रास की सेना के मैसूर डिवीजन का सेनापति बनकर भारत आया तथा १८४१-४३ ई. के दौरान चीन के युद्ध में भाग लिया। वहां से लौटने पर वह ब्रिटिश भारतीय सेना का प्रधान सेनापति हो गया। उसने १८४३ ई. में महाराजपुर के युद्ध में शिन्दे की फौजों को हराया तथा प्रथम सिख-युद्ध (१८४५-४६) के दौरान ब्रिटिश सेना का नेतृत्व किया। उसके अधीन लार्ड हार्डिज ने भी काम किया था, जो बाद में भारत का गवर्नर-जनरल बना। उसने मुदकी की लड़ाई (१८४५), फीरोज़शाह की लड़ाई (१८४६) में सिखों को परास्त कर अंतिम विजय प्राप्त की। दूसरे सिख-युद्ध (१८४८-४९) में भी उसने ब्रिटिश सेना का नेतृत्व किया तथा रामनगर के युद्ध (१८४८) में विजय प्राप्त की। चिलियानवाला की लड़ाई (१८४९) में उसे कुछ पीछे हटना पड़ा था, लेकिन गुजरात के युद्ध में उसने निर्णायक विजय प्राप्त की। सिख लोग सदा के लिए परास्त हो गये। उसने मई १८४९ ई. में अवकाश ग्रहण कर लिया। कहा जाता है कि ड्यूक आफ बेलिंगडन को छोड़कर कोई भी सेनापति ह्यू गफ की भाँति युद्धों में ऐसी सफलता के साथ नहीं लड़ा।

गफूर खाँ : लूटमार करनेवाले अफगान सरदार अमीर खाँ का दामाद। अमीर खाँ को कम्पनी ने १८१७ ई. में टोंक का नवाब माना गया, जिसे होल्कर ने मन्दौर की संधि के अनुसार १८१९ ई. में अंग्रेजों के हाथ सौंप दिया।

गया : बिहार का एक नगर और हिन्दुओं का तीर्थस्थल। हिन्दू लोग यहां एक खास स्थान पर अपने पुरखों को पिण्डदान देना अपना कर्तव्य समझते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि जहां भगवान् विष्णु के चरणचिह्न पड़े थे। गया से कुछ मील की दूरी पर बोधि-गया है, जहां गौतम बुद्ध को बोधिलाभ हुआ था, इसलिए यह स्थान बौद्ध धर्मावलम्बियों का तीर्थ है। गया में हर वर्ष खासकर पितृपक्ष के दिनों में भारी संख्या में दूर दूर से तीर्थयात्री आते हैं और शहर से लगकर बहनेवाली फाल्गू नदी के जल और बालू के पिण्ड बनाकर अपने पूर्वजों को चढ़ाते हैं। गया में अब मगध विश्वविद्यालय स्थापित हो गया है।

गयासुद्दीन : गोर का सुल्तान, जिसने ११७३ ई.में गजनी को तुर्कमानों से छीन लिया। ये तुर्कमान गजनी और उसके आसपास के क्षेत्रों पर ११५१ ई. से कब्जा किये हुए थे। गयासुद्दीन ने बाद में यह क्षेत्र अपने भाई शहाबुद्दीन को सौंप दिया जो मुईजुद्दीन मुहम्मद विन साम अथवा मुहम्मद गोरी के नाम से विख्यात है। गयासुद्दीन १२०३ ई. में मर गया। उसके बाद गद्दी उसके भाई शहाबुद्दीन को मिली, जो दिल्ली को जीत चुका था।

गयासुद्दीन खिलजी : मालवा के खिलजी वंश का द्वितीय सुल्तान, जिसका शासनकाल (१४६९-१५०१ ई.) शांतिपूर्ण रहा। उसने मरने के एक वर्ष पहले ही अपने बड़े पुत्र को गद्दी पर बैठा दिया था।

गयासुद्दीन तुगलक (अथवा तुगलक शाह) : दिल्ली का सुल्तान (१३२०-२५ ई.)। उसने तुगलक वंश की स्थापना की थी। उसका पिता सुल्तान बलबन (१२६६-८६) (दे.) का तुर्क गुलाम था। सुल्तान ने उसे गुलामी से मुक्त कर दिया था और उसने एक जाट स्त्री से विवाह किया। उसके लड़के गयासुद्दीन का आरंभिक नाम गाजी मलिक था, जो अपने गुणों और वीरता के कारण सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ((१२९६-१३१६ ई.) के द्वारा उच्च पदों पर नियुक्त किया गया। उसने मंगोलों के आक्रमण से कई बार उत्तर-पश्चिमी सीमा की रक्षा की। खिलजी वंश के अंतिम शासक मुबारक को मारकर (१३२० ई.) गद्दी पर बैठनेवाले सरदार खुसरो को भी गयासुद्दीन ने पराजित किया। तदनन्तर अमीरों ने गयासुद्दीन को ही गद्दी पर बैठा दिया। उसने तुगलक वंश की स्थापना की। गद्दी पर बैठने के बाद उसने केवल ५ वर्ष शासन किया लेकिन अपने अल्पकालीन शासन में ही दिल्ली के सुल्तानों की सैनिक शक्ति को पुनर्गठित किया। वारंगल के काकतीय राजा प्रतापरुद्रदेव द्वितीय को पराजित किया, और बंगाल के विद्रोही हाकिम गयासुद्दीन बहादुर को हराया। इसके अलावा उसने गैरकानूनी भूमि अनुदानों को छीनकर, योग्य और ईमानदार हाकिमों को नियुक्त करके, लगान वसूली में मनमानी बंद करके, कृषि को प्रोत्साहित कर, सिंचाई के साधन प्रस्तुत कर, न्याय एवं पुलिस-व्यवस्था में सुधार करके, गरीबों के लिए सहायता की व्यवस्था करके तथा डाक व्यवस्था को विकसित करके राज्यव्यवस्था को आदर्श रूप दिया। उसने विद्वानों का भी संरक्षण किया, जिनमें अमीर खुसरो मुख्य था। एक दुर्घटना के कारण गयासुद्दीन के शासन का अंत हो गया, जिसके लिए कुछ इतिहासकारों ने उसके पुत्र जूना खाँ (दे.) को ही जिम्मेदार बताया है, जो बाद में मुहम्मद तुगलक के नाम से गद्दी पर बैठा।

गयासुद्दीन बलबन : देखिये, 'बलवन'।

गयासुद्दीन बहमनी : दक्षिण के बहमनी वंश का छठा सुल्तान, जिसने १३९७ ई. में कुछ महीने तक ही शासन किया। उसे अंधा करके गद्दी से उतार दिया गया।

गयासुद्दीन बहादुर : बंगाल के सूबेदार शम्सुद्दीन फीरोज़शाह के पाँच पुत्रों में से एक। वह १३१० ई. से पूर्वी बंगाल पर स्वतंत्र सुल्तान की भाँति शासन कर रहा था। १३१८ ई. में शम्सुद्दीन के मरने पर गयासुद्दीन बहादुर ने भी अपने को बंगाल की गद्दी का हकदार बताया किंतु वह पराजित हो गया। १३२४ ई. में दिल्ली के सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक ने उसे कैद कर लिया। गयासुद्दीन बहादुर की मृत्यु कैदखाने में हुई।

गयासुद्दीन महमूद शाह : हुसेनशाही वंश का अंतिम सुल्तान। इस वंश ने १४९३ से १५३८ ई. तक राज्य किया। गयासुद्दीन १५३३ ई. में बंगाल की गद्दी पर बैठा किन्तु वह केवल ५ वर्ष शासन कर सका, क्योंकि शेर खाँ सूरी (दे.) ने उसे बंगाल से खदेड़ दिया।

गवर्नर-जनरल : ब्रिटिश भारत का सर्वोच्च अधिकारी। १७७३ ई. के रेगुलेटिंग ऐक्ट (दे.) के अंतर्गत इस पद की सृष्टि की गयी थी। सर्वप्रथम वारेन हेस्टिंग्स इस पद पर नियुक्त हुआ। वह १७७४ से १७८६ ई. पद पर रहा। इस पद का पूरा नाम "बंगाल में फोर्ट विलियम का गवर्नर-जनरल" था जो १८३४ ई. तक रहा। १८३३ ई. के चार्टर ऐक्ट के अनुसार इस पद का नाम 'भारत का गवर्नर-जनरल' हो गया। १८५८ ई. में जब भारत का शासन कम्पनी के हाथ से ब्रिटेन की महारानी के हाथ में आ गया तब गवर्नर-जनरल को 'वाइसराय' (राज-प्रतिनिधि) भी कहा जाने लगा। जबतक भारत पर ब्रिटिश शासन रहा तबतक भारत में कोई भारतीय गवर्नर-जनरल या वाइसराय नहीं हुआ। १७७३ ई. के रेगुलेटिंग ऐक्ट में गवर्नर जनरल के अधिकारों और कर्त्तव्यों का विवरण दिया हुआ है। बाद में पिट के इंडिया ऐक्ट (१७८४) तथा पूरक ऐक्ट (१७८६) के अनुसार इन अधिकारों और कर्त्तव्यों को बढ़ाया गया। गवर्नर-जनरल अपनी कौंसिल (परिषद) की सलाह एवं सहायता से शासन करता था, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर वह परिषद् की राय की उपेक्षा भी कर सकता था। इस व्यवस्था से गवर्नर-जनरल व्यवहारतः भारत का भाग्य विधाता होता था। केवल सुदूर स्थित ब्रिटेन की संसद और भारतमंत्री ही उस पर नियंत्रण रख सकते थे। क्रमानुसार निम्नलिखित गवर्नर जनरल हुए :

वारेन हेस्टिंग्स, लार्ड कार्नवालिस, सर जान शोर, लार्ड वेलेस्ली, लार्ड कार्नवालिस, सर जान शोर, लार्ड वेलेस्ली, लार्ड कार्नवालिस (द्वितीय), लार्ड मिण्टो (प्रथम), लार्ड हेस्टिंग्स, लार्ड एमर्हस्ट, लार्ड विलियम बेंटिक, लार्ड आकलैंड, लार्ड एलेनबरो, लार्ड हार्डिंग (प्रथम), लार्ड डलहौजी, लार्ड केनिंग, लार्ड एलगिन (प्रथम), लार्ड लारेंस, लार्ड मेयो, लार्ड नार्थब्रुक, लार्ड लिटन (प्रथम), लार्ड रिपन, लार्ड डफरिन, लार्ड लैंसडाउन, लार्ड एलगिन (द्वितीय), लार्ड कर्जन, लार्ड मिण्टो (द्वितीय), हार्डिंग (द्वितीय), लार्ड चेम्सफोर्ड, लार्ड रीडिंग, लार्ड इरविन, लार्ड विलिंगटन, लार्ड लिनलिथगो, लार्ड वावेल तथा लार्ड माउण्टबैटन।

भारत के स्वाधीन होने पर श्री राजगोपालाचार्य गवर्नर जनरल के पद पर २५ जनवरी १९५० तक रहे। उसके बाद २६ जनवरी १९५० को भारत के गणतंत्र बन जाने पर गवर्नर-जनरल का पद समाप्त कर दिया गया। लार्ड विलियम बेंटिक बंगाल में फोर्ट विलियम का अंतिम गवर्नर जनरल था। वही फिर १८३३ ई. के चार्टर एक्ट के अनुसार भारत का प्रथम गवर्नर-जनरल बना। लार्ड केनिंग १८५८ के भारतीय शासन-विधान के अनुसार प्रथम वाइसराय था तथा लार्ड लिनलिथगो अंतिम वाइसराय। लार्ड माउण्टबेटेन ब्रिटिश सम्राट् का अंतिम प्रतिनिधि था। (विस्तार के लिए उक्त नामों के अंतर्गत अन्यत्र देखिये। )

गवर्नर-जनरल के कानून : वे कानून जिन्हें गवर्नर-जनरल, भारतीय शासन-विधान (१९३५) के अंतर्गत प्राप्त अधिकारों के अनुसार बना-बनाकर लागू करता था। ये कानून केवल ६ माह तक वैध माने जाते थे। गवर्नर-जनरल जिन कानूनों को बनाना जरूरी समझता था किन्तु जिन पर विधान-मंडल की स्वीकृति नहीं मिल पाती थी, उन्हें गवर्नर-जनरल कानून बना सकता था।

गवासपुर : अंग्रेजी शासन के समय आधुनिक उत्तर प्रदेश का एक छोटा-सा राज्य, जो १८१८ ई. में पिण्ढारी नेता करीम खां को अंग्रेजों के आगे आत्मसमर्पण कर देने के बाद दे दिया गया था। उसके वंशज पिछले समय तक इस रियासत पर शासन करते रहे।

गांगेयदेव कलचूरि : यमुना और नर्मदा नदियों के बीच में स्थित चेदि (दे.) का राजा (लगभग १०१५-४० ई.)। वह योग्य और महत्त्वाकांक्षी शासक था, जिसने 'विक्रमादित्य' उपाधि धारण करते हुए उत्तर भारत में सर्वशक्तिमान् सार्वभौम सम्राट् की स्थिति प्राप्त करने की कोशिश की। उसे इसमें कुछ हद तक सफलता भी मिली। १०१२९ ई. में उसने सुदूर तिरहुत (आधुनिक उत्तरी बिहार) पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित की। उसने पश्चिमोत्तर के विदेशी हमलावरों और बंगाल के पाल राजाओं से प्रयाग और वाराणसी नगरों की रक्षा की। उसके बाद उसका पुत्र कर्ण या लक्ष्मीकर्ण (लगभग १०४०-७० ई.) गद्दी पर बैठा।

गांधी, मोहनदास करमचंद : महात्मा गांधी के नाम से प्रसिद्ध, जन्म २ अक्तूबर १८६९ ई. को पश्चिमी भारत के पोरबंदर नामक स्थान में। उनके माता-पिता कट्टर हिन्दू थे। उनके पिता करमचंद (कबा गांधी) पहले पोरबंदर रियासत के दीवान थे और बाद को क्रमशः राजकोट (काठियावाड़) और वांकानेर में दीवान रहे। मोहनदास करमचंद जब केवल तेरह वर्ष के थे और स्कूल में पढ़ते थे, पोरबंदर के एक व्यापारी की पुत्री कस्तूरबाई (कस्तूरबा) से उनका विवाह कर दिया गया। वर-वधू की अवस्था लगभग समान थी। दोनों ने ६२ वर्ष तक वैवाहिक जीवन बिताया। १९४४ ई. में पूना की ब्रिटिश जेल में कस्तूरबा का स्वर्गवास हुआ। गांधीजी अठारह वर्ष की आयु में एक पुत्र के पिता हो गये थे और अगले वर्ष इंग्लैण्ड चले गये, जहाँ तीन वर्षों (१८८८-९१) तक रहकर उन्होंने 'बैरिस्टरी' पास की। भारत लौटने पर उन्होंने राजकोट और बम्बई में वकालत शुरू की, किन्तु इसमें उन्हें विशेष सफलता न मिली।

इसलिए सन् १८९२ में जब दक्षिण अफ्रीका में व्यापार करनेवाले एक भारतीय मुसलमान (मेमन) व्यापारी ने उनके सामने अपने मुकदमें देखने का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया और सन् १८९३ में वे दक्षिण अफ्रीका चले गये। वहाँ पहुँचते ही उन्हें दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ किये जानेवाले अपमानजनक व्यवहार के कटु अनभवें हुए। एक बार वे डरबन से प्रिटोरिया तक रेलवे द्वारा प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा कर रहे थे। रास्ते में मेरित्सबर्ग पर एक गोरा उनके डिब्बे में घुसा और उसने स्थानीय पुलिस की सहायता से उन्हें धक्का देकर डिब्बे से नीचे उतार दिया, क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में किसी भी भारतीय को, चाहे वह कितना ही धनी और प्रतिष्ठित क्यों न हो, गोरों के साथ प्रथम श्रेणी में यात्रा करने की अनुमति नहीं थी। मेरित्सबर्ग-कांड ने गांधीजी की जीवनयात्रा को एक नयी दिशा दी। उन्होंने स्वयं इस घटनाका विवरण इस प्रकार लिखा है-- "मेरित्सबर्ग में एक पुलिस कांस्टेबुल ने मुझे धक्का देकर ट्रेन से बाहर निकाल दिया। ट्रेन चली गयी। मैं विश्रामकक्ष में जाकर बैठ गया। मैं ठंड से काँप रहा था। मुझे नहीं मालूम था कि मेरा असबाब कहाँ पर है और न मैं किसी से कुछ पूछने की हिम्मत कर सकता था कि कहीं फिर बेइज्जती न हो। नींद का सवाल ही नहीं था। मेरे मन में ऊहापोह होने लगी। काफी रात गये मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि भारत वापस भाग जाना कायरता होगी। मैंने जो दायित्व अपने ऊपर लिया है, उसे पूरा करना चाहिए।" मेरित्सबर्ग-कांड के बाद उन्होंने अपने मन में दक्षिणी अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों को अपमान की उस जिन्दगी से उबारने का संकल्प किया, जिसे वे लम्बे अरसे से झेलते चले आ रहे थे। इस संकल्प के बाद गांधीजी अगले बीस वर्षों (१८९३-१९१४) तक दक्षिणी अफ्रीका में रहे और शीघ्र ही वहाँ इनके नेतृत्व में उत्पीड़ित भारतीयों पर लगे सारे प्रतिबंधों को हटाने के लिए एक आंदोलन छिड़ गया। इस आंदोलन को सफल बनाने के उद्देश्य से उन्होंने अपनी चलती हुई वकालत छोड़ दी और ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर अपने परिवार और मित्रों के साथ टालस्टाय आश्रम की स्थापना करके वहीं रहने लगे। उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता की तो उन्होंने टीका भी की। उन्हें इन ग्रंथों के अध्ययन से विश्वास हो गया कि परमार्थका जीवन ही सच्चा जीवन है, मनुष्य को खुद मेहनत करके अपनी रोजी कमानी चाहिए और जहाँतक हो सके मशीनों पर कम से कम आश्रित होना चाहिए। उन्होंने सन् १८९४ में नेटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की और दक्षिण अफ्रीका के लम्बे आंदोलन के दौरान उन्होंने, उनकी पत्नी ने और उनके साथियों ने कई बार जेलयात्रा की। एक अवसर पर कुछ गोरों ने, जो दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी की मौजूदगी नापसंद करते थे, उनपर हमला कर दिया। एक अन्य अवसर पर कुछ पठानों ने उनपर हमला कर दिया क्योंकि उन्होंने दक्षिणी अफ्रीकी नेता जनरल स्मट्स के साथ एक समझौते का समर्थन किया था। बाद में जनरल स्मट्स ने अपना वचन भंग कर दिया। सन् १८९९-१९०२ के दक्षिण अफ्रीकी-युद्ध और १९०६ के जुलू-विद्रोह के दौरान गांधीजी ने घायल ब्रिटिश सैनिकों की शुश्रूषा के लिए, भारतीयों की एक एम्बुलेंस कोर का गठन किया। गांधीजी संकट की घड़ी में ब्रिटिश साम्राज्य की सहायता करना भारतीयों का कर्त्तव्य समझते थे, किन्तु ब्रिटिश साम्राज्यवादी इससे प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने उल्टे कई दमनात्मक कानूनों के ऊपर एक नया कानून बना दिया कि ट्रांसवाल में रहनेवाले प्रत्येक भारतीय को परिवार के प्रत्येक सदस्य के साथ अपना नाम पंजीकृत कराना होगा और उसे अपने साथ हर वक्त निजी परिचयपत्र रखना होगा। इस अपमानजनक कानून के विरुद्ध गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों के बीच एक सशक्ता आंदोलन का संचालन किया जो अहिंसक सविनय अवज्ञा पर आधारित था। उनके नेतृत्व में अनेक भारतीयों ने अपना नाम पंजीकृत कराने से इनकार कर दिया और बार-बार कानून का उल्लंघन करते हुए ट्रांसवाल सीमा को पार किया। गांधीजी के नेतृत्व में लगभग दो हजार भारतीयों ने इस सिलसिले में अपने को गिरफ्तार कराया। इस विरोध के फलस्वरूप दक्षिणी अफ्रीकी सरकार को सन् १९१४ में अधिकाश काले कानूनों को रद्द करना पड़ा और गांधीजी एवं उनके अहिंसक सत्याग्रह आंदोलन को यह पहली महान सफलता प्राप्त हुई।

सन् १९१४ में गांधीजी भारत वापस लौट आये। देशवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें 'महात्मा' पुकारना शुरू कर दिया। उन्होंने अगले चार वर्ष भारतीय स्थिति का अध्ययन करने तथा स्वयं को व उन लोगों को तैयार करने में बिताये जो सत्याग्रह के द्वारा भारत में प्रचलित सामाजिक व राजनीतिक बुराइयों को हटाने में उनका अनुगमन करना चाहते थे। इस दौरान गांधीजी मूक पर्यवेक्षक नहीं रहे। सन् १९१७ में वे उत्तरी बिहार के चम्पारन जिले में गये और वहाँ सविनय अवज्ञा आंदोलन के माध्यम से उन्होंने उत्पीड़ित किसानों के मन में नया साहस और विश्वास भरा तथा निलहे गोरों के हाथों अरसे से हो रहा किसानों का शोषण समाप्त किया। इसके शीघ्र बाद गांधीजी ने अहमदाबाद के मिल मजदूरों का नेतृत्व किया। इन मजूदरों को बहुत कम वेतन मिलता था। उन्होंने उनकी हड़ताल संगठित की जो २१ दिनों तक चली और अंततः मालिक-मजदूरों, दोनों को ही पंच-निर्णय का सिद्धांत स्वीकार करना पड़ा। मार्च सन् १९१९ में केन्द्रीय विधानमंडल द्वारा सभी भारतीय सदस्यों के संयुक्त विरोध के बावजूद रौलट बिल (दे.) पास कर दिये जाने और अप्रैल १९१९ में जालियांवाला बाग हत्याकांड (दे.) के बाद गांधीजी ने भारत में ब्रिटिश सरकार को 'शैतान' की संज्ञा दी और भारतीयों से अपील की कि वे सभी सरकारी पदों से इस्तीफा दे दें, ब्रिटिश अदालतों तथा स्कूल और कालेजों का बहिष्कार करें तथा सरकार के साथ असहयोग करके उसे पूरी तरह अपंग बना दें। गांधीजी के इस आह्वान पर रौलट कानून के विरोध में बम्बई तथा देश के सभी प्रमुख नगरों में ३० मार्च १९१९ को और गाँवों में ६ अप्रैल १९१९ को हड़ताल हुई। हड़ताल के दिन सभी शहरों का जीवन ठप्प हो गया, व्यापार बंद रहा और अंग्रेज अफसर असहाय-से देखते रहे। इस हड़ताल ने असहयोग के हथियार की शक्ति पूरी तरह प्रकट कर दी। सन् १९२० में गांधीजी कांग्रेस के नेता बन गये और उनके निर्देश और उनकी प्रेरणा से हजारों भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार के साथ पूर्ण सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। हजारों असहयोगियों को ब्रिटिश जेलों में ठूंस दिया गया और लाखों लोगों पर सरकारी अधिकारियों ने बर्बर अत्याचार किये। ब्रिटिश सरकार के इस दमनचक्र के कारण लोग अहिंसक न रह सके और कई स्थानों पर हिंसा भड़क उठी। हिंसा का इस तरह भड़क उठना गांधीजी को अच्छा न लगा। उन्होंने स्वीकार किया कि अहिंसा के अनुशासन में बाँधे बिना लोगों को असहयोग आंदोलन के लिए प्रेरित कर उन्होंने "हिमालय जैसी भूल" की है और यह सोचकर उन्होंने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। अहिंसक असहयोग आंदोलन के फलस्वरूप जिस 'स्वराज्य' को गांधीजी ने एक वर्ष के अंदर लाने का वादा किया था वह नहीं आ सका, फिर भी लोग आंदोलन की विफलता की ओर ध्यान नहीं देना चाहते थे, क्योंकि असलियत में देखा जाय तो इस अहिंसक असहयोग आंदोलन को जबरदस्त सफलता हासिल हुई। उसने भारतीयों के मन से ब्रिटिश तोपों, संगीनों और जेलों का खौफ निकालकर उन्हें निडर बनाया, जिससे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिल गयी। भारत में ब्रिटिश शासन के दिन अब इने-गिने रह गये। फिर भी अभी संघर्ष कठिन और लंबा था। सन् १९२२ में गांधीजी को राजद्रोह के अभियोग में गिरफ्तार कर लिया गया। उनपर मुकदमा चलाया गया और एक मधुरभाषी ब्रिटिश जज ने उन्हें ६ वर्ष कैद की सजा दे दी। सन् १९२४ में एपेण्डेसाइटिस की बीमारी की वजह से उन्हें रिहा कर दिया गया।

गांधीजी का विश्वास था कि भारत की भावी राजनीतिक प्रगति हिन्दू-मुस्लिम एकता पर निर्भर करती है। वे इस एकता की स्थापना के लिए सन् १९१८ से बराबर प्रयत्नशील रहे। उन्होंने इस्लामी देशों की एकता के प्रतीक-स्वरूप तुर्की की खिलाफत के सवाल पर भारतीय मुसलमानों की माँगों का समर्थन किया किन्तु हिन्दू-मुसलिम एकता के उनके इन प्रयासों का कोई स्थायी असर न हुआ। सितम्बर सन् १९२४ में उन्होंने दिल्ली में मुस्लिम नेता मुहम्मद अली के निवास पर तीन हफ्ते का अनशन किया। उन्हें आशा थी कि यह उपवास हिन्दू और मुसलमानों में पूर्ण सौहार्द्र और सद्भवता स्थापित कर देगा। कुछ समय के लिए तो ऐसा लगा भी कि उनके इस कठिन व्रत ने अपना लक्ष्‍य प्राप्त कर लिया, किन्तु पारस्परिक अविश्वास और हितों के संघर्ष से, जिसे भारत की अंग्रेज सरकार बराबर उभाड़ती और बढ़ावा देती रही, दोनों सम्प्रदाय जल्दी ही फिर एकता के पथ से भटक गये। गंधीजी ने हिन्दुओं से अपील की कि वे मुसलमानों द्वारा गोवध से उत्तेजित न हों और नमाज़ के समय मस्जिदों के सामने से बाजा बजाते हुए जुलूस आदि न निकालें। किन्तु गांधीजी के इन उपदेशों और अपीलों से मुसलमान संतृष्ट नहीं हुए क्योंकि हिन्दुओं के साथ उनके मतभेद गोवध और मस्जिदों के सामने बाजे के प्रश्न तक ही सीमित नहीं थे। इन मतभेदों की जड़ें गहरी थीं। मुसलमानों को भय था कि अंग्रेजों द्वारा सत्ता भारतीयों को हस्तांतरित किये जाने पर अल्पसंख्यक मुसलमानों पर हिन्दुओं का शासन स्थापित हो जायेगा, जो बहुत बड़ी संख्या में हैं। मुसलमानों के इस भय को अंग्रेज शासकों ने और अधिक भड़काया। सन् १९०९ और १९१९ के भारतीय शासन, विधानों के अंतर्गत केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का सिद्धांत लागू करके उनके इस भय को साकार रूप दे दिया गया था। गांधीजी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा मुसलमानों के इस भय का निवारण न हो सका और न ही ऐसा कोई उपाय निकाला जा सका जिससे अल्पसंख्यक मुसलमानों को देश के प्रशासन में समान अधिकारों के लिए आश्वस्त किया जा सकता हो। बस, यहीं से पाकिस्तान की उत्पत्ति का बीज अंकुरित हुआ।

सन् १९२५ में जब अधिकांश कांग्रेसजनों ने १९१९ के भारतीय शासन-विधान द्वारा स्थापित कौंसिलों में प्रवेश करने की इच्छा प्रकट की, तो गांधीजी ने कुछ समय के लिए सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और उन्होंने अपने आगामी तीन वर्ष ग्रामोत्थान कार्य में लगाये। उन्होंने गाँवों की भयंकर निर्धनता को दूर करने के लिए चरखे पर सूत कातने का प्रचार किया और हिन्दुओं में व्याप्त छुआछूत को मिटाने की कोशिश की। अपने इस कार्यक्रम को गांधीजी 'रचनात्मक कार्यक्रम' कहते थे। इस कार्य्रक्रम के जरिये वे अन्य भारतीय नेताओं के मुकाबले, गाँवों में निवास करनेवाली देश की ९० प्रतिशत जनता के बहुत अधिक निकट आ गये। उन्होंने सारे देश में गाँव-गाँव की यात्रा की, गाँववालों की पोशाक अपना ली और उनकी भाषा में उनसे बातचीत की। इस प्रकार उन्होंने गाँवों में रहनेवाली करोड़ों की आबादी में राजनीतिक जागृति आंदोलन के स्तर से उठाकर देशव्यापी अदम्य जन-आंदोलन का रूप दे दिया। सन् १९२७ में गांधीजी ने फिर राजनीति में हिस्सा लेना शुरू कर दिया क्योंकि उन्होंने देखा कि संवैधानिक विकास की मंद गति के कारण देश में हिंसा भड़क उठने की आशंका है। कांग्रेस पहले ही यह घोषणा कर चुकी थी कि उसका लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना है। गांधीजी के नेतृत्व में शीघ्र ही यह निर्णय लिया गया कि अगर ब्रिटिश सरकार तत्काल 'औपनिवेशिक स्वराज्य' प्रदान करने का वायदा नहीं करती है तो कांग्रेस सविनय-अवज्ञा का एक नया अहिंसक आंदोलन आरंभ करेगी। इस आंदोलन का नेतृत्व गांधीजी ने संभाल लिया और सन् १९३० में उन्होंने अपने कुछ चुने हुए अनुयायियों के साथ अहमदाबाद के निकट साबरमती आश्रम से दांडी तक पदयात्रा की और वहाँ समुद्रजल से नमक बनाया, जो तत्कालीन कानूनों के अनुसार अवैध और दंडनीय था। साबरमती से दांडी तक की यह नमक यात्रा; उनका अवज्ञा पूर्ण चुनौती से भरा क्रांतिकारी कदम था। इसका देशभर पर असाधारण प्रभाव पड़ा और शीघ्र ही हजारों भारतीयों ने विभिन्न कानूनों को तोड़ना शुरू कर दिया। देश में एक बार फिर तेजी से सत्याग्रह आंदोलन चल पड़ा। ब्रिटिश सरकार ने पहले तो दमन और उत्पीड़न का अपना पुराना रास्ता अपनाया और हजारों की संख्या में लोगों को जेलों में ठूंस दिया, गांधीजी को भी कैद कर लिया; किन्तु बाद को उसने राजनीतिक बातचीत भी शुरू कर दी। सन् १९३१ और ३२ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि की हैसियत से गांधीजी ने, लंदन में होनेवाले दूसरे और तीसरे गोलमेज सम्मेलनों (दे.) में भाग लिया। गांधीजी वहाँ पर एक सामान्य ग्रामीण भारतीय की तरह धोती पहने और चादर ओढ़े उपस्थित हुए जिसका विंस्टन चर्चिल ने खूब मजाक उड़ाया और उन्हें 'भारतीय फकीर' की संज्ञा दी गांधीजी ने ब्रिटिश सम्राट् से भी मुलाकात की। गोलमेज सम्मेलनों के नतीजों ने उन्हें निराश कर दिया और स्वदेश लौटते समय रास्ते में ही उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन फिर से छेड़ने की घोषणा कर दी। इस कारण भारत आते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्से मेकडोनाल्ड ने जिस समय अपना कुख्यात 'कम्युनल एवार्ड' (साम्प्रदायिक निर्णय) (दे.) दिया, गांधीजी उस समय जेल में थे। इस एवार्ड में केन्द्रीय और प्रांतीय विधानमंडलों में न केवल मुसलमानों और ईसइयों को अलग प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया था वरन हिन्दूओं की परिगणित जातियों को भी अलग प्रतिनिधित्व दिया गया था। यह सवर्ण हिन्दूओं और परिगणित जातियों के बीच स्थायी दरार पैदा करने का कुचक्र था। गांधीजी ने इसके खतरे को समझा और विरोध-स्वरूप आमरण अनशन शुरू कर दिया। वे अछूतों को शेष हिन्दुओं से हमेशा के लिए अलग कर देने का विचार गवारा न कर सके। गांधीजी के अनशन के फलस्वरूप पूना-समझौता (दे.) हुआ जिसके अनुसार कुछ वर्षों के लिए दलित वर्गों के वास्ते कुछ स्थान आरक्षित रखने के साथ संयुक्त निर्वाचन-क्षेत्रों की व्यवस्था की गयी। इस प्रकार हिन्दू समाज की एकता और अखण्डता कायम रह सकी।

गांधीजी सन् १९३३ में रिहा हुए और इसके बाद अगले कुछ वर्षों तक उन्होंने अपने को अछूतोद्धार के काम में लगा दिया और इसके हेतु उन्होंने 'हरिजन' नामक एक पत्र निकाला। इस साप्ताहिक का संपादन और प्रकाशन वे आजीवन करते रहे।

जब दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ा, गांधी जी ब्रिटेन को अपना नैतिक समर्थन देने के लिए तैयार हो गये और उन्होंने ऐसा कोई काम न करने का फैसला किया जिससे संकट की घड़ी में उसे परेशानी हो। इसी कारण उन्होंने जर्मनी या जापान की सैनिक सहायता से भारतीय स्वाधीनता प्राप्त करने के नेताजी सुभाषचंद्र वसु के प्रयासों का समर्थन नहीं किया। उन्होंने अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ इस बात पर सहमति प्रकट की कि अगर ब्रिटेन युद्ध के बाद भारत की पूर्ण स्वाधीनता देने का पक्का आश्वासन दे तो भारत उसके साथ पूरा सहयोग करेगा। लेकिन चुंकि ऐसा कोई आश्वासन नहीं मिला, इसलिए गांधीजी तथा कुछ उनके चुने हुए अनुयायियों ने 'व्यक्तिगत सत्याग्रह' के नाम से एक नया आंदोलन शुरू कर दिया। परन्तु इस आंदोलन का ब्रिटिश सरकार पर कोई खास असर नहीं पड़ा। इसलिए अगस्त सन् १९४२ में उन्होंने अंग्रेजों से भारत छोड़ने और भारतवासियों को तत्काल सत्ता हस्तातरित करने की मांग की। 'भारत छोड़ो' नारा शीघ्र ही देशभर में फैल गया। नौसेना तक इससे प्रभावित हुई। अंग्रेजों को एक बार फिर एक शक्तिशाली जन-आंदोलन का सामना करना पड़ा। हजारों लोगों को गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया गया। सन् १९४२ में सभी कांग्रेसी नेताओं के साथ गांधीजी को भी कैद कर लिया गया। गांधीजी की पत्नी कस्तूरबा भी गिरप्तार कर ली गयीं और सन् १९४४ में नजरबंदी की अवस्था में जेल के अंदर ही उनकी मृत्यु हो गयी।

इसके बाद गांधीजी को शीघ्र ही रिहा कर दिया गया। ब्रिटेन और उसके मित्रराष्ट्रों की युद्ध में विजय हुई। भारत में आजादी की माँग को बराबर जोर पकड़ता देख ब्रिटेन ने महसूस किया कि उसके लिए अब भारत पर अपना आधिपत्य बनाये रखना सम्भव नहीं है। उसने भारतीयों के हाथों सत्ता सौंपने का फैसला किया। किन्तु उनके सामने प्रश्न यह था कि भारत को एक अखण्ड देश के रूप में स्वतंत्रता प्रदान की जाय या साम्प्रदायिक आधार पर उसके दो टुकड़े कर दिये जायँ। दोनों सम्प्रदायों के स्वार्थी नेताओं ने देश के अंदर सन् १९४६ में भयंकर साम्प्रदायिक दंगे करवा दिये। गांधीजी देश के विभाजन और साम्प्रदायिक दंगे, दोनों के तीव्र विरोधी थे। उन्होंने बंगाल, बिहार और पंजाब में गाँव-गाँव जाकर लोगों को साम्प्रदायिक सौहार्द्र और राष्ट्रीय एकता का महत्त्व समझाया। किन्तु उनके प्रयास सफल न हुए। कांग्रेस के अंदर उनके साथियों ने देश को भारत और पाकिस्तान, दो पृथक् राष्ट्रों में बाँट देने के आधार पर स्वाधीनता स्वीकार कर ली और अंततः गांधीजी को भी उनकी बात मान लेनी पड़ी। भारत ने १५ अगस्त १९४७ को स्वाधीनता प्राप्त कर ली। किन्तु इसके तुरन्त बाद भयंकर साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे और पश्चिमी सीमा के दोनों ओर अल्पसंख्यक समुदायों पर जघन्य अत्याचार किये गये। दिल्ली भी इन दंगों से अछूती नहीं रही। गांधीजी ने साम्प्रदायिक वैमनस्य दूर करने के उद्देश्य से जनवरी सन् १९४८ में दिल्ली में पुनः अनशन आरम्भ किया। कुछ ही दिनों के अंदर एक समझौता हुआ और राजधानी में साम्प्रदायिक सौहार्द्र स्थापित हो गया। गांधीजी ने स्वयं हस्तक्षेप करके नवस्थापित भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को एक बहुत बड़ी धनराशि दिलवा दी। बहुत से हिन्दुओं के विचार से पाकिस्तान सरकार इस धनराशि के लिए कानूनी तौर से हकदार न थी। इस प्रकार कुछ हिन्दू लोग गांधीजी को भारत में हिन्दूराज की स्थापना में बाधक समझने लगे। गांधीजी के अंतिम उपवास के दस दिनों बाद ही ३० जनवरी १९४८ को एक धर्मान्ध हिन्दू ने दिल्ली में उन्हें उस समय गोली मार दी. जब वे अपनी दैनिक प्रार्थना-सभा में भाग लेने जा रहे थे।

अपने महान नेता की मृत्यु का समाचार सुनकर सारा देश शोकाकुल हो उठा। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्र को महात्माजी की हत्या की सूचना इन शब्दों में दी, "हमारे जीवन से प्रकाश चला गया और आज चारों तरफ अंधकार छा गया है। मैं नहीं जानता कि मैं आपको क्या बताऊँ और कैसे बताऊँ। हमारे प्यारे नेता, राष्ट्रपिता बापू अब नहीं रहे।" महात्मा गांधी वास्तव में भारत के 'राष्ट्रपिता' थे। सत्ताइस वर्षों के अल्पकाल में उन्होंने भारत को सदियों की दासता के अँधेरे से निकालकर आजाद्री के उजाले में पहुँचा दिया। किन्तु गांधीजी का योगदान सिर्फ भारत की सीमाओँ तक सीमित नहीं था। उनका प्रभाव संपूर्ण मानव जाति पर पड़ा, जैसा कि अर्नाल्‍ड टायनबी ने लिखा है- "हमने जिस पीढ़ी में जन्म लिया है, वह न केवल पश्चिम में हिटलर और रूस में स्टालिन की पीढ़ी है, वरन् वह भारत में गांधीजी की पीढ़ी भी है और यह भविष्यवाणी बड़े विश्वास के साथ की जा सकती है कि मानव इतिहास पर गांधी का प्रभाव स्टालिन या हिटलर से कहीं ज्यादा और स्थायी होगा।" (मोहनदास करमचंद गांधी-'आत्मकथा', डा. जी. तेन्दुलकर कृत 'महात्मा', लुई फिशर कृत 'लाइफ आफ गांधी', एच. मुखर्जी कृत 'गांधीजी', अर्नाल्ड टायनबी कृत 'स्टडी आफ हिस्ट्री' खण्ड १२)

गाज़ी : एक उपाधि, जिसका अर्थ होता है धर्मयुद्ध करनेवाला। अनेक मुसलमान बादशाहों की भाँति औरंगजेब ने भी यह उपाधि धारण की थी।

गाज़ीउद्दीन इमामुलमुल्क : हैदराबाद के प्रथम निजाम के पुत्र गाज़ीउद्दीन खाँ का पुत्र। जब उसका पिता १७५२ ई. में औरंगाबाद में उसकी सौतेली माँ द्वारा विष देकर मार डाला गया, उस समय गाज़ीउद्दीन दिल्ली में था। दिल्ली में वह अवध के सूबेदार सफदरजंग की सहायता से मीरबख्शी (वेतन-वितरण विभाग का प्रधान) बन गया। बाद में उसने सफदरजंग का साथ छोड़ दिया और मराठों के साथ हो गया, जिनकी सहायता से उसने बादशाह अहमदशाह (१७४८-५४ ई.) को गद्दी से उतार दिया। युवक गाज़ीउद्दीन कुटिल, एहसानफरामोश और बड़ा महत्त्वाकांक्षी था, किन्तु न तो उसमें रण-कौशल था और न संगठन-शक्ति। वह अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण रोकने में विफल रहा, जिसने १७५६ ई. में दिल्ली पर हमला किया और उसे लूटा तथा पंजाब पर अधिकार कर लिया। अब्दाली के चले जाने के बाद उसने मराठों से मिलकर १७५८ ई. में पंजाब पर पुनः अधिकार करने का षड्यंत्र किया, लेकिन १७५९ ई. में अब्दाली ने पुनः भारत पर आक्रमण किया और पंजाब को फिर हथिया लिया। गाज़ीउद्दीन किसी प्रकार अब्दाली से क्षमा प्राप्त करने में सफल हो गया। जैसे ही अब्दाली वापस गया, गाज़ीउद्दीन ने फिर से चालबाजी शुरू कर दी और १७५९ ई. में बादशाह आलमगीर द्वितीय को मार डाला। उसने औरंगजेब के सबसे छोटे पुत्र कामबख्श के पोते को शाहजहाँ तृतीय के नाम से गद्दी पर बैठा दिया। लेकिन अब्दाली फिर आ धमका। गाज़ीउद्दीन ने सूरजमल जाट की शरण ली और मराठों की सहायता से अब्दाली का सामना करने का प्रयास किया, किन्तु पानीपत की तीसरी लड़ाई (१७६१) में अब्दाली ने मराठों को बुरी तरह कुचल दिया और गाज़ीउद्दीन के षड्यंत्रों एवं राजनीतिक गतिविधियों को सदा के लिए समाप्त कर दिया। गाजीउद्दीन की मृत्यु १८०० ई. में हुई।

गाज़ीउद्दीन, फीरोज़ जंग : एक ईरानी जो औरंगज़ेब के शासनकाल में भारत आया। वह मुगलों की नौकरी में अनेक उच्च पदों पर रहा। १६८५ ई. में बीजापुर और १६८७ ई. में गोलकुंडा पर घेरा डाले जाने के समय वह उपस्थित था। उसने युद्ध में अद्भुत कौशल का प्रदर्शन किया। १६८८ ई. में ताऊन की बीमारी फैलने पर उसकी एक आँख चली गयी, तो भी वह मृत्युपर्यन्त मुगाल दरबार का प्रभावशाली सरदार बना रहा। उसका बेटा मीर कमरुद्दीन चिन किलिच खाँ था जो १७१३ में हैदराबाद का प्रथम निजाम बना।

गाज़ी मलिक : देखिये, 'गायासुद्दीन तुगलक'।

गाडविन, जनरल सर एच. टी.  : ब्रिटिश भारतीय सेना का एक अधिकारी। प्रथम बर्मा-युद्ध (१८२४-२६) के दौरान उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी की महत्त्वपूर्ण सेवा की। द्वितीय बर्मा-युद्ध (१८५२) में भी उसने ७० वर्ष की अवस्था होने पर भी ब्रिटिश सेना का नेतृत्व किया और युद्ध में विजय प्राप्त की।

गायकवाड़ : एक मराठा खानदान, जो पेशवा बाजीराव प्रथम (१७२०-४०) के शासनकाल में सत्ता में आया। इन वंश के संस्थापक दामजी प्रथम के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है। उसके भतीजे पीलाजी (१७२१-३२) के जीवन काल में यह खानदान प्रमुखता में आया। पीलाजी राजा साहू के सेनापति खाण्डेराव दाभाड़े के गुट का था। उसने १७२० ई. में सूरत से ५० मील पूर्व सौनगढ़ में एक दुर्ग का निर्माण कराया। १७२० ई. में सूरत से ५० मील पूर्व सौनगढ़ में एक दुर्ग का निर्माण कराया। १७३१ ई. में वह बिल्हापुर अथवा बालापुर के युद्ध में खाण्डेराव के पुत्र और उत्तराधिकारी त्र्यम्‍बकराव दाभाड़े की तरफ से लड़ा, किन्तु इस युद्ध में दाभाड़े की पराजय और मृत्यु होने पर उसने पेशवा बाजीराव प्रथम के साथ संधि कर ली। पेशवा ने उससे गुजरात पर निगाह रखने को कहा। गायकवाड़ ने अपना मुख्य ठिकाना बड़ौदा बनाया। किन्तु पीलाजी की १७३२ ई. में हत्या कर दी गयी और उसका पुत्र दामाजी द्वितीय उत्तराधिकारी बना, जो सन् १७६१ ई. में पानीपत के युद्ध में मौजूद था और बाद में भाग निकला। १७६८ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। दामाजी द्वितीय के कई पुत्र थे, जिनमें १७६८ से १८०० ई. तक लगातार उत्तराधिकार-युद्ध चलता रहा। १८०० ई. में दामाजी के बड़े लड़के गोविन्दराव का पुत्र सिंहासनारूढ़ हुआ। उसने १८१९ ई. तक शासन किया। इस दौरान गायकवाड़ वंश ने अंग्रेजों के साथ शांतिपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखा और बिना किसी युद्ध के १८०५ ई. में आश्रित-संधि कर ली। गायकवाड़ वंश अंग्रेजों के प्रति वफादार बना रहा और इस कारण दूसरे और तीसरे आंग्ल मराठा युद्धों में अन्य मराठा सरदारों को जन-धन की जो अपार क्षति उठानी पड़ी उससे बच गया। आनंदराव का उत्तराधिकारी उसका भाई सयाजी द्वितीय (१८१९-४७) बना और उसके बाद उसके तीन पुत्र गणपतिराव (१८४७-५६), खाण्डेराव (१८५६-७०) और मल्हारराव (१८७०-७५) क्रमशः सिंहासन पर आरूढ़ हुए। मल्हारराव पर कुशासन और ब्रिटिश रेजीडेण्ट कर्नल फेयरे को विष देकर मरवा डालने का अभियोग लगाया गया। उसे गिरफ्तार कर लिया गया और वाइसराय लार्ड नार्थब्रुक द्वारा नियुक्त आयोग के सामने उस पर मुकदमा चला। हत्याभियोग पर आयोग के सदस्यों में मतभेद था, अतः उसे बरी कर दिया गया, किन्तु दुराचरण और कुशासन के आरोप में उसे गद्दी से उतार दिया गया। मल्हारराव के कोई संतान नहीं थी, इसलिए भारत सरकार ने सयाजीराव नामक बालक को, जिसका गायकवाड़ वंश से कुछ दूर का सम्बन्ध था, गद्दी पर बैठा दिया और नये शासक के अल्पवयस्क रहने तक प्रशासन सर टी. माधवराव के हाथों सुपुर्द कर दिया। सयाजीराव तृतीय ने १८७५ ई. में शासन संभाला और १९३९ ई. उसकी मृत्यु हुई। उसने अपने को देशी रजवाड़ों में सर्वाधिक योग्य और जागरूक शासक सिद्ध किया और बड़ौदा को भारत का सर्वाधिक उन्नतिशील राज्य बना दिया।

गार्डनर, कर्नल अलेक्जेण्डर हटन (१७८५-१८७७) : एक साहसी अंग्रेज पेशेवर सिपाही। उसने अफगानिस्तान पहुँचकर हबीबुल्लाह खाँ के यहाँ नौकरी की और उसके चाचा अमीर दोस्त मोहम्मद के खिलाफ लड़ाइयों में भाग लिया। १८२६ ई. में वह पंजाब चला आया और कर्नल की हैसियत से रणजीत सिंह की फौज में शामिल हो गया। उसने उसके तोपखाने को प्रशिक्षण दिया। १८३५ ई. में उसने अफगानों के विरुद्ध युद्ध में सिखों की सहायता की। रणजीत सिंह की मृत्यु के उपरान्त होनेवाले उत्तराधिकार-युद्ध में उसने भी भाग लिया। प्रथम सिख-युद्ध (दे.) के दौरान वह लाहौर में था, किन्तु इसमें उसे कोई सक्रिय भूमिका नहीं दी गयी। १८४६ ई. में उसने जम्मू-कश्मीर में राजा गुलाब सिंह के यहाँ नौकरी कर ली और १८४७ ई. तक मृत्युपर्यंत उन्हीं की सेवा में रहा।

गालिब खाँ : एक पठान सरदार, जो भारत पर तैमूर के आक्रमण (१३९८-९९ ई.) के बाद सामान का स्वतंत्र शासक बन गया था।

गाबिल गढ़ : बरार का एक शक्तिशाली दुर्ग, जिसका निर्माण बहमनी सुल्तानों ने कराया था। बाद में इस पर मराठों का अधिकार हो गया। दूसरे मराठा-युद्ध (१८०४-६) में १५ दिसम्बर १८०३ ई. को अंग्रेजों ने इसे बरारके भोंसला राजा के हाथों से छीन लिया।

गाहड़वाल (गहरवार) वंश : राजपूत राजा चंद्रदेव ने ग्यारहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में इसको प्रतिष्ठापित किया। उसके पौत्र गोविन्द्रचंद्र ने युवराज के रूप में ११०४ से १११४ ई. तक तथा उसके बाद राजा के रूप में ११५४ ई. तक एक विशाल राज्य पर शासन किया, जिसमें आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार का अधिकांश भाग शामिल था। उसने मुस्लिम तुर्कों के आक्रमण से वाराणसी और जेतवन जैसे पवित्र धार्मिक स्थानों की रक्षा की। उसने अपनी राजधानी कन्नौज का पूर्व गौरव कुछ सीमा तक पुनः स्थापित किया। गोविन्दचंद्र का पौत्र राजा जयचंद्र (जो जयचंद के नाम से विख्यात है) था, जिसकी सुन्दर पुत्री संयोगिता को अजमेर का चौहान राजा पृथ्वीराज अपह्रत कर ले गया था। इस कांड से दोनों राजाओं में इतनी अधिक शत्रुता हो गयी कि जब तुर्कों ने पृथ्वीराज के राज्य पर हमला किया, उस समय जयचंद ने उसकी कोई सहायता नहीं की। ११९२ ई.में तराइन (तरावड़ी) के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज पराजित हुआ और उसने स्वयं प्राणांत कर दिया। दो वर्ष बाद सन् ११९४ ई.में चन्दावर के युद्ध में तुर्क विजेता शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने जयचंद को भी हराया और मार डाला। तुर्कों ने उसकी राजधानी कन्नौज को खूब लूटा और नष्ट-भ्रष्ट किया। उसके साथ ही गाहड़वाल वंश का अंत हो गया।

गिरनार : काठियावाड़ प्रायद्वीप में जूनागढ़ के निकट स्थित पर्वत। यहाँ एक चट्टान पर मौर्य सम्राट् अशोक (लगभग २७३ ई.पू. से २३२ ई. पू.) का चतुर्दश शिलालेख अंकित है। उसी चट्टान के दूसरी ओर शक क्षत्रप रुद्रदमन (लगभग १५० ई.) का अभिलेख है, जिसमें प्रथम मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त (लगभग ३२२ ई. पू. से २९८ ई. पू.) के आदेश से वहाँ पर सुदर्शन झील के निर्माण का उल्लेख है। इन दोनों महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक अभिलेखों के अलावा गिरनार में अनेक भव्य मंदिर बने हुए हैं, जिन्हें गुजरात के चालुक्य राजाओं ने बनवाया था। (बर्गेस. खंड २ तथा ह. हं. खंड ८, पृ. ३६)

गिरमिट प्रथा : मजदूरों की भरती के लिए उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में आरम्भ की गयी। इस प्रथा के अंतर्गत भारतीय मजदूरों से किसी बगीचे पर एक निर्धारित अवधि तक (प्राय: पांच से सात साल) काम करने के लिए 'एग्रीमेंट' (जिसे बोलचाल की भाषा में 'गिरमिट' कहा जाता था, इसी से इस प्रथा को 'गिरमिट' प्रथा कहने लगे ) कराया जाता था। 'गिरमिट' से मुक्त होने पर मजदूर को छूट रहती थी कि वह या तो भारत लौट जाय या स्वतंत्र मजदूर की हैसियत से वहीं उपनिवेश में बस जाय। यदि वह स्वदेश वापस लौटना चाहता था तो उसे किराया दिया जाता था। 'गिरमिट' की यह सामान्य प्रथा कहीं-कहीं कुछ परिवर्तित रूप में भी प्रचलित थी। भारतीय मजदूर अनपढ़ और असंगठित होते थे। उन्हें रोजी की तलाश थी, इसलिए न्यायान्याय के विचार से शून्य धनी ठेकेदार बहुधा मजदूरों से मनमानी शर्तें भी करा लेते थे। गिरमिट प्रथा के अंतर्गत बहुसंख्यक भारतीय मजदूर हिन्द महासागर में स्थित मारीशस, प्रशांत महासागर में स्थित फिजी, मलय प्रायद्वीप तथा द्वीपपुंज, श्रीलंका, केनिया, टांगानायका, उगांडा, दक्षिण अफ्रीका, ट्रिनिडाड, जमायका और ब्रिटिश गायना गये और इनमें से बहुतेरों ने 'गिरमिट' -मुक्त होने पर उसी स्थान पर बस जाना पसंद किया। वे वहां पर या तो स्वतंत्र मजदूर बनकर या छोटे-मोटे व्यापारी बनकर जीविका कमाने लगे। इस तरह उपर्युक्त ब्रिटिश उपनिवेशों में प्रवासी भारतीयों की काफी बड़ी संख्या हो गयी। प्रवासी भारतीयों की संख्या जब बढ़ी और वे समुद्ध होने लगे तो उन उपनिवेशों में रहनेवाले गोरे उनसे ईर्ष्या करने लगे और उनके विरोधी बन गये। गोरों ने इस बात को भुला दिया कि इन प्रवासी भारतीयों के पुरखों को उन्हीं लोगों ने अपने देश में आमंत्रित किया था और गिरमिटिया मजदूरों की सेवाओं से भारी लाभ उठाया था। उन्होंने उन उपनिवेशों की समृद्धि में उतना ही योगदान दिया था, जितना वहां के गोरे निवासियों ने। अब चूंकि वे गोरों की गुलामी नहीं करना चाहते थे तो उन्हें अवांछित व्यक्ति करार दिया जा रहा था। इस तरह गिरमिट प्रथा के कारण जातीय भेदभाव पर आधारित नयी समस्याएं उठ खड़ी हुईं, जिनका अभी तक समाधान नहीं हो सका है।

गिरिया : बिहार में राजमहल के निकट, जहां दो बार युद्ध हुए। पहला युद्ध १७४० ई. में बंगाल के नवाब अलीवर्दी खां (दे.) और उसके प्रतिद्वन्द्वी सरफराज खां के बीच हुआ, जिसमें सरफराज पराजित हुआ और मारा गया। अलीवर्दी खां इस विजय के बाद मसनद पर बैठा। गिरिया की दूसरी लड़ाई (१७६३) नवाब मीर कासिम (दे.) और ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच हुई। मीर कासिम पराजित हो गया तथा अन्य तीन युद्धों में हारकर पटना भाग गया। बंगाल की गद्दी उससे छिन गयी।

गिरिब्रज : पटना के समीप राजगिर नामक आधुनिक कसबे का प्राचीन नाम। इस नगर को सम्राट बिम्बसार (लगभग ५५० ई. पू.) ने बनवाकर इसका नाम राजगृह रखा और अपनी राजधानी बनाया। बाद में उसी का वंशज सम्राट् कालाशोक राजगृह से राजधानी हटाकर पाटलिपुत्र ले गया। महात्मा बुद्ध के निर्वाण के बाद राजगृह में ही प्रथम बौद्ध संगीति (धर्मसभा) ४८६ ई. पू. में हुई, जहाँ अभिधर्म और विनय पिटकों की रचना की गयी। गिरिब्रज अथवा राजगृह बहुत काल तक विभिन्न प्रकार से बौद्ध धर्म से संबंधित रहा। आजकल राजगिर गरम पानी के झरनों के कारण अच्छे स्वास्थ्य-केन्द्र के रूपमें भी प्रसिद्ध है।

गिलगिट : कश्मीर के उत्तर-पश्चिमी कोने में स्थित। घाटी में बहनेवाली नदी और वहाँ बसे हुए कसबे का नाम भी गिलगिट है, जो जिले का सदर मुकाम है। गिलगिट सिंधु नदी की सहायक नदी है। सामरिक दृष्टि से गिलगिट का बहुत महत्त्व है। यहाँ से चित्राल होकर अफगानिस्तान के लिए सीधा रास्ता है। कुछ दूरी तक रूस की सीमा भी इससे लगी हुई है। अतएव वाइसराय लार्ड लिटन प्रथम के समय ब्रिटिश सरकार ने गिलगिट घाटी पर सीधा नियंत्रण प्राप्त करने का प्रयत्न किया, जो कश्मीर के महाराज के शासन के अन्तर्गत थी। लार्ड लिटन ने महाराज से गुप्त समझौता किया जिसके अनुसार गिलगिट में एक ब्रिटिश एजेंट नियुक्त हुआ। १८८९ ई. में एक ब्रिटिश अफसर गिलगिट भेजा गया। ब्रिटिश सरकार की इस कार्रवाई से अफगानिस्तान का शासक अमीर अब्दुर्रहमान बहुत घबराया, उसकी दृष्टि में अफगानिस्तान के प्रति ब्रिटिश इरादे सच्चे नहीं थे। इस प्रकार भारत सरकार और अफगानिस्तान के बीच उस काल में गिलगिट विवाद का विषय हो गया था। आजकल वह पाकिस्तान द्वारा नियंत्रित गुलाम कश्मीर के शासन के अन्तर्गत है।

गिलजई : एक अफगान कबीला, जिसने १८४० ई. में अफगानिस्तान पर चढ़ाई करनेवाली ब्रिटिश सेना की दुर्बल स्थिति का फायदा उठाकर विद्रोह कर दिया। यद्यपि उन्हें तत्काल दबा दिया गया, तथापि १८४१ ई. में उनका विद्रोह फिर भड़क उठा। फलतः १८४१-४२ ई. में काबुल से जलालाबाद वापस आनेवाली ब्रिटिश फौज को भारी हानि उठानी पड़ी।

गीतगोविन्द : संस्कृत के मधुरतम गीतों की एक उत्कृष्ट रचना। बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन (दे.) (लगभग ११७८-१२०३) के दरबारी कवि जयदेव ने इस गीतों की रचना की, जिनमें राधा और कृष्ण के अलौकिक प्रेम का वर्णन है।

गुजरात : पश्चिमी भारत का एक प्रदेश। गुजराती भाषा बोलनेवाले सम्पूर्ण क्षेत्र को 'गुजरात' कहा जाता है, जिसमें पुराने बम्बई सूबे के अहमदाबाद, भड़ौंच, पंचमहल, खैरा तथा सूरत जिले, भूतपूर्व बड़ौदा राज्य का क्षेत्र तथा सौराष्ट्र एवं कच्छ की रियासतें शामिल थीं। अन्य प्रदेशों की अपेक्षा गुजरात कम प्राचीन जान पड़ता है, क्योंकि अशोक अथवा रुद्रदामा के शिलालेखों में इसका विवरण नहीं मिलता। पाँचवीं शताब्दी ईसवी में जब हूणों ने भारत पर हमला किया, तब से यह नाम प्रचलित हुआ। यह नाम गुर्जर लोगों से उदभूत प्रतीत होता है। गुर्जर लोग विदेशी थे, जो पाँचवीं शताब्दी ईसवीं में पश्चिमोत्तर दिशा से भारत में अन्हिलवाड़ व भिन्नमाल आये और क्रमशः यहाँ बस गये। इसके बाद दो शताब्दियों में गुजरात राज्य बन गया, जिसमें राजपूताना का भी कुछ भाग सम्मिलित था। आरंभ में इसकी राजधानी अन्हिलवाड़ थी जो बाद में भिन्नमाल में स्थापित हुई। गुर्जर प्रतिहार (दे.) राजाओं के समय में गुजरात बहुत विख्यात हुआ। १०२४ ई. में महमूद गजनवी के आक्रमण से इस राज्य की शक्ति घटने लगी और इसकी प्रतिष्ठा नष्ट हो गयी। इसी आक्रमण में महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर लूटा था। फिर भी यह १२९७ ई. तक स्वतंत्र रहा जबकि अलाउद्दीन खिलजी ने इसे अपने अधिकार में कर लिया। १४०१ ई. में गुजरात का हाकिम जाफर खाँ अपने को स्वतंत्र घोषित कर नसीरुद्दीन मुहम्मदशाह के नाम से गुजरात का सुलतान बन गया। उसके वंश ने १५७२-७३ ई. तक शासन किया। नसीरुद्दीन मुहम्मद शाह के वंश में अहमदशाह (१४११-४१), महमूद वघर्रा (१४५९-१५११) तथा बहादुरशाह (१५२६-३७) प्रमुख शासक हुए। १५३७ ई. में पुर्तगालियों ने धोखा देकर बहादूरशाह को उस समय मार डाला, जब डयू नामक बंदरगाह में जहाज पर पुर्तगाली गवर्नर डी कुन्हा से मिलने के लिए वह गया था। बहादुरशाह की मृत्यु के बाद लगभग ४० वर्ष तक गुजरात में अराजकता की स्थिति रही, बाद में इस पर अकबर ने कब्जा कर लिया। औरंगजेब के मरने के बाद बाजीराव प्रथम (द्वितीय पेशवा ) (१७२०-४०) के जमाने में यह राज्य मराठों के अधिकार में आ गया, जिसे गायकवाड़ों को शासन के लिए दे दिया गया, जिन्होंने बड़ौदा को राजधानी बनाया। गायकवाड़ों का संबंध अंग्रेजों से भी अच्छा रहा और बसई की संधि (१८०२) (दे.) से उन्हें विशेष संरक्षण प्राप्त हुआ। तीसरे मराठा-युद्ध (१८१७-१८) में गुजरात अंग्रेजों के अधिकार में आ गया, जिसे बम्बई प्रान्त का अंग बना दिया गया। भारत के आज़ाद होने के बाद राज्यों का पुनर्गठन होने पर गुजरात बम्बई से अलग कर दिया गया और उसकी राजधानी अहमदाबाद बनायी गयी। गुजरात में हिन्दू और मुसलमान राजाओं द्वारा बनवायी गयी इमारतें वास्तुशिल्प की सुन्दर कृतियां हैं। राजधानी अहमदाबाद बहुत साफ सुथरा नगर माना जाता है और भारतीय सूती वस्त्र उद्योग का केन्द्र है। ( के. एम. मुंशी कृत 'ग्लोरी दैट वाज़ गुजरात' )

गुजरात की लड़ाई : पंजाब में १८४९ ई. में अंग्रेजों और सिखों के बीच दूसरे सिख-युद्ध (१८४८-४९ ई.) के दौरान हुई। इस लड़ाई में दोनों ओर से मुख्यतः तोपों का इतना अधिक प्रयोग हुआ कि इसे तोपों की लड़ाई कहा जाता है। अंग्रेज सेनापति लार्ड गफ ने रणभूमि का सावधानी से निरीक्षण करने के बाद सिखों की तोपों पर गोले बरसा कर उनका मुंह बंद कर दिया। इसके बाद अंग्रेजों की पैदल सेना ने सिख सेना पर हमला किया और उसमें भगदड़ मचा दी। अंग्रेजों ने सिख सेना का दूर तक पीछा करके उसके ऊपर निर्णयात्मक विजय प्राप्त की। इस लड़ाई ने एक प्रकार से दूसरे सिख-युद्ध का भाग्यनिर्णय कर दिया।

गुणवर्मा  : कश्मीर का एक राजकुमार जो बौद्ध भिक्षु हो गया और अपना जीवन सुदूरपूर्व के देशों में धर्मप्रचार में बिताया। वह पहले लंका, फिर जावा और अंत में चीन पहुँचा। चीनी वृत्तांत के अनुसार उसने जावा के लोगों को बौद्ध बनाया। ४३१ ई. में नानकिंग (चीन) में उसका देहांत हुआ।

गुप्तवंश : ३२० ई. के लगभग चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा स्थापित। इस वंश ने लगभग ५१० ई. तक उत्तर भारत पर शासन किया। चन्द्रगुप्त प्रथम का पिता घटोत्कच तथा पितामह गुप्त था जो शायद पाटलिपुत्र के राजा थे। चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया, जिससे उसकी शक्ति बहुत बढ़ गयी। वह केवल सम्पूर्ण मगध का शासक ही नहीं हो गया, उसका राज्य प्रयाग तक फैल गया। उसके राज्य में तिरहुत, दक्षिणी बिहार तथा अवध के प्रदेश शामिल थे। उसने महाराजाधिराज की पदवी धारण की। इस वंश में कई बड़े बड़े सम्राट् हुए, यथा समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य, कुमारगुप्त प्रथम, स्कंदगुप्त, तथा कुमारगुप्त द्वितीय। इसके अलावा परवर्ती काल में कुछ निर्बल राजा भी हुए, जिन्होंने या तो केवल मगध पर या सुदूर मालवा जैसे छोटे राज्यों पर शासन किया। गुप्त वंश का द्वितीय सम्राट् समुद्रगुप्त बहुत बड़ा विजेता था। उसने न केवल लगभग सम्पूर्ण उत्तरी भारत को अपने अधीन किया, वरन् दक्षिण-विजय के लिए भी अभियान किया। उसने कांची (कांजीवरम्) के राजा विष्णुगोप को भी अपना करद बनाया। तृतीय गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वतीय था जो विक्रमादित्य (लगभग ३८०-४१५ ई.) के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसने सौराष्ट्र पर विजय प्राप्त की और वहां के स्थानीय शकराज के शासन को उखाड़ फेंका। फलतः उसे 'शकारि' की उपाधि मिली। कहानियों एवं किंवदन्तियों में जिस विक्रमादित्य का उल्लेख मिलता है, वह कदाचित् यही विक्रमादित्य था। यही सम्राट् महान् संस्कृत कवि और नाटककार कालिदास का संरक्षण था। उसके पुत्र कुमारगुप्त प्रथम (४१५-५५) ने पुष्यमित्रों के आक्रमण को विफल किया जो एक अज्ञात आदिवासी जाति के लोग थे। उसने गुप्त साम्राज्य को अक्षुण्ण रखा। उसके पुत्र स्कन्दगुप्त (४५५ से लगभग ४६७ ई. तक) को, जिसने पुष्यमित्रों को खदेड़ने में अपने पिता की सहायता की थी और अभूतपूर्व वीरता का परिचय दिया था, हूण आक्रमणकारियों का सामना करना पड़ा। हूणों से उसका जबरदस्त युद्ध हुआ और हूणों के आक्रमण रुके नहीं। इन आक्रमणों ने गुप्त साम्राज्य को जर्जर कर दिया। हूणों ने गांधार पर कब्जा कर लिया। जब स्कंदगुप्त मरा, गुप्त साम्राज्य लड़खड़ा रहा था। उसके बाद उसका भाई पुरगुप्त सिंहासन पर बैठा जो कुछ ही महीने जीवित रहा। उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी नृसिंहगुप्त बालदित्य (४६७-७३) बौद्धमतानुयायी था। उसने नालंदा (दक्षिण बिहार) में ३०० फुट ऊँचा एक विशालकाय मंदिर बनवाया। उसने भी हूणों के विरुद्ध युद्ध किया और सम्भवतः उन्हें पराजित भी किया, किन्तु उसका शासनकाल भी बहुत दिनों तक नहीं चला। उसके बाद उसके पुत्र कुमारगुप्त द्वितीय (४७३-७६) का शासन भी अल्पकालीन था। यह वह समय था, जब गुप्त साम्राज्य का पतन हो रहा था। बाद के गुप्त राजाओं का विशेष विवरण नहीं मिलता। सम्भवतः एक राजा बुद्धगुप्त (४७६-९५) हुआ, जिसके काल में तोरमान तथा उसके पुत्र मिहिरगुल के नेतृत्व में हूणों ने भीषण आक्रमण किये और वे उत्तर भारत के मध्य तक धंसते चले गये। इस प्रकार गुप्त साम्राज्य खंडित हो गया। बाद में बालादित्य नामक गुप्त राजा ने मिहिरगुल के हमलों को रोका। बताया जाता है कि मन्दसौर के राजा यशोधर्मा ने ५३३ ई. में मिहिरगुल को पराजित कर मार डाला। लेकिन इस विजय से गुप्त वंश को कोई लाभ नहीं हुआ। अब कोई सम्राट् तो रहा नहीं, स्थानीय छोटे-छोटे राजा रह गये जो मगध अथवा मालवा के सीमित भागों पर शासन करते रहे। (आर. सी. मजूमदार लिखित 'क्लासिकल एज')।

गुप्तवंश की सांस्कृतिक उपलब्धियां : भारत के सांस्कृतिक इतिहास में गुप्त वंश का बहुत बड़ा महत्त्व है। एक को छोड़कर बाकी सभी गुप्त सम्राट् ब्राह्मण धर्म (वैदिक धर्म) को माननेवाले थे। समुद्रगुप्त तथा कुमारगुप्त प्रथम ने तो अश्वमेध यज्ञ भी किया था। उन्होंने बौद्ध और जैन धर्म को भी आश्रय दिया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में चीनी यात्री फाहियान आया था। उसने उस समय के भारत की दशा का वर्णन किया है। उसके विवरणों से पता चलता है कि गुप्त साम्राज्य सुशासित था। हलके दण्ड की व्यवस्था के बावजूद अपराध बहुत कम होते थे। करभार बहुत कम था। राजकाज की भाषा संस्कृत थी। साहित्य की प्रत्येक विधा में संस्कृत ने बहुत उच्च स्थान ग्रहण कर रखा था। विश्वविश्रुत नाटक अभिज्ञान शाकुन्तल तथा रघुवंश महाकाव्य के रचयिता कालिदास, मृच्छकटिक नाटक के लेखक शूद्रक, मुद्राराक्षस नाटक के लेखक विशाखदत्त तथा सुविख्यात कोशकार अमरसिंह इसी गुप्तकाल में हुए। ऐसा विश्वास किया जाता है कि रामायण, महाभारत, पुराण (विशेषकर वायुपुराण) तथा मनुसंहिता अपने वर्तमान रूप में गुप्त काल में ही बनी। महान् गणितज्ञ आर्यभट्ट (जन्म ४७६ ई.), बराहमिहिर (५०५-८७ ई.) तथा ब्रह्मगुप्त (जन्म ५९८ ई.) ने गणित तथा ज्योतिर्विज्ञान के विकास में बहुत बड़ा योगदान किया। इसी काल में दशमलव प्रणाली का यहां आविष्कार हुआ जो बाद में अरबों के माध्यम से यूरोप तक पहुँची। व्यावहारिक ज्ञान के क्षेत्र में विश्व को भारत की यह सबसे बड़ी देन मानी जाती है। उस काल में वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला तथा धातुविज्ञान अत्यंत विकसित अवस्था में पहुँच गये थे, जिसका प्रमाण झांसी और कानपुर (जिले) के गुप्तकालीन अवशेषों, अजन्ता की गुफा सं. १६ तथा १७ की चित्रकारी, मेहरोली (दिल्ली) में स्थित राजा चन्द्र के लौहस्तम्भ, नालंदा में ८० फुट ऊँची बुद्ध की ताँबे की मूर्ति तथा सुलतानगंज स्थित साढ़े सात फुट ऊँची बुद्ध की ताँबे की प्रतिमा से मिलता है। निश्चय ही गुप्तकाल में कला, वास्तुशिल्प, मूर्तिनिर्माण और धातु विज्ञान के जो स्मारक आज हमें दिखाई देते हैं, प्रमाणित होता है कि गुप्त काल के उस लम्बे शांतिपूर्ण युग में भारतीय कला विकास एवं सौन्दर्य के शिखर पर पहुँच गयी थी। (आर. डी. बनर्जी लिखित 'गुप्त सम्राटों का युग', दत्त लिखित 'गणित विज्ञान को हिन्दुओं की देन', ए. डी. कीथ लिखित 'संस्कृत साहित्य का इतिहास', आर. सी. मजूमदार लिखित 'क्लासिकल एज')

गुप्त : एक गन्धी, जो किंवदन्ती के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करनेवाले श्रमण उपगुप्त का पिता था। कहा जाता है, गौतम बुद्ध के जन्मस्थान लुम्बिनी की यात्रा करने के लिए उपगुप्त अशोक के साथ गया था।

गुप्त : तृतीय और चतुर्थ शताब्दी ई. के मध्य में वर्तमान मगध का एक स्थानीय सामन्त, जिसका पौत्र चन्द्रगुप्त प्रथम बाद में गुप्त वंश का संस्थापक बना।

गुरु की लड़ाई : १९०४ ई. में तिब्बतियों और ब्रिटिश भारतीय फौजों के बीच हुई थी। तिब्बती लोग इसमें बड़ी आसानी से पराजित हो गये। ब्रिटिश भारतीय फौज का सेनापति कर्नल फ्रांसिस यंगहस्बैण्ड (दे.) विजेता की भांति तिब्बत की राजधानी में प्रविष्ट हुआ। तिब्बत ने अन्ततः अंग्रेजों की अधीनता सवीकार कर ली।

गुरुकुल : उत्तर प्रदेश में हरिद्वार के निकट कांगड़ी (अब कनखल) में स्थित। इस विद्यामंदिर की स्थापना आर्य समाज के नेता स्वामी श्रद्धानंद ने १९०२ ई. में की थी। इसका उद्देश्य भारत में वैदिक जीवन-विधि की पुनः प्रतिष्ठा करना रहा है। संस्कृत के माध्यम से अध्ययन इस संस्था की मुख्य विशेषता है। अब यह एक विश्वविद्यालय बन गया है।

गुरु गोविन्दसिंह : सिखों के दसवें तथा अंतिम गुरु, जो अपने पिता तथा ९वें गुरु तेगबहादुर की गद्दी पर १६७५ ई. में बैठे। दक्षिण में नान्देड़ नामक स्थान पर एक अफगान द्वारा १७०८ ई. में मार डाले जाने तक गद्दी पर विराजमान रहे। वे सिखों को एक सैनिक-शक्ति बना देनेवाले प्रथम गुरु थे। उन्होंने मुसलमानों का सामना करने के लिए सिखों का सैनिक संगठन किया। उन्होंने 'पाहुल' (दीक्षा) प्रथा का शुभारंभ किया, जिसके अनुसार सभी सिख समूह में जाति बंधन तोड़ने के उद्देश्य से एक ही कटोरे में 'अमृत' पान करते थे तथा प्रसाद ग्रहण करते थे। उन्होंने इन सिखों को 'खालसा' (पवित्र) सम्बोधित किया और उन्हें अपने नाम के आगे 'सिंह' जोड़ने का आदेश दिया। गुरुजी ने धूमपान (तम्बाकू-सेवन) पर रोक लगा दी तथा पाँच 'ककार' का नियम बनाया, अर्थात् प्रत्येक सिख के लिए केश, कंघा, कड़ा, कच्छ (जाँघिया) तथा कृपाण रखना जरूरी कर दिया। गुरु गोविन्दसिंह ने पुरानी धार्मिक शिक्षाओं को अक्षुण्ण रखते हुए सिखों में नये प्राण फूँक दिये। अभी तक उनकी गिनती शांतिप्रिय धर्मभीरु व्यक्तियों में होती थी। अब वे एक नयी सामाजिक तथा राजनीतिक शक्ति बन गये। गुरु गोविन्दसिंह को अनेक पहाड़ी राजाओं और मुगल मनसबदारों से युद्ध करना पड़ा। उनके दो पुत्र सरहिन्द के मुगल फौजदार के हाथ में पड़ गये, जिन्हें उसने जिन्दा दीवार में चुनवा दिया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उनकी गद्दी के उत्तराधिकार के लिए जो युद्ध हुआ, उसमें गुरुजी ने बहादुरशाह का पक्ष लिया। उसके बादशाह बनने पर उन्होंने उसकी सुरक्षा में शान्तिमय जीवनयापन स्वीकार कर लिया, किन्तु १७०८ ई. में एक विश्वासी पठान ने दक्षिण में उनकी हत्या कर दी।

गुरुदासपुर : पंजाब का एक किलेबंद नगर। इसी किले में सिखों का नेता बंदा बैरागी सन् १७१५ ई. में मुगल सेना द्वारा घेर लिया गया था और बाद में भीषण युद्ध के पश्चात् गिरफ्तार कर लिया गया। बंदा और उसके अनुयायियों को मुगल दिल्ली ले गये, जहाँ उन्हें, घोर यातनाएँ देकर मार डाला गया।

गुर्जर : एक जनजाति, जिसके बारे में विश्वास किया जाता है कि ये लोग हूणों के साथ भारत आये। छठी शताब्दी के बाद इन्होंने भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। सातवीं शताब्दी में इनका उल्लेख बाणकृत हर्षचरित, ह्वेनसांग के यात्रा-विवरण और पुलकेशी के ऐहोल शिलालेख में आया है। इन्होंने पंजाब, मारवाड़ और भड़ौंच में अपनी रियासतें कायम की। इनकी कई शाखाएँ थीं, जिनमें गुर्जर प्रतिहारों ने 8वीं शताब्दी ई. में भारतीय इतिहास में बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त की।

गुर्जर प्रतिहार वंश : की स्थापना नागभट्ट नामक एक सामंत ने ७२५ ई.में की। राम के भाई लक्ष्मण को अपना पूर्वज बताते हुए अपने वंश को सूर्यवंश की शाखा प्रसिद्ध किया। वह राजपूतों की प्रतिहार शाखा का शासक था। उसके राज्य की स्थापना गुजरात में हुई, अतएव उसके वंश का नाम 'गुर्जर प्रतिहार' पड़ा। लेकिन पश्चिमी विद्वानों का कहना है कि जो गुर्जर लोग आरम्भिक हूणों के साथ आये थे, उन्हीं की शाखा प्रतिहार थे। इसीलिए यह वंश 'गुर्जर प्रतिहार' कहा जाने लगा। कुछ भी हो, नागभट्ट प्रथम बड़ा वीर था। उसने सिंध की ओर से होनेवाले अरबों के आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया। साथ ही दक्षिण के चालुक्यों और राष्ट्रकूटों के आक्रमणों का भी प्रतिरोध किया और अपनी स्वतंत्रता को कायम रखा। नागभट्ट के भतीजे का पुत्र वत्सराज इस वंश का पहला शासक था जिसने सम्राट् की पदवी धारण की, यद्यपि उसने राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से बुरी तरह हार खायी। वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने ८१६ ई. के लगभग गंगा की घाटी पर हमला किया, और कन्नौज पर अधिकार कर लिया। वहाँ के राजा को गद्दी से उतार दिया और वह अपनी राजधानी कन्नौज ले आया। यद्यपि नागभट्ट द्वितीय भी राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय (दे.) ) से पराजित हुआ, तथापि नागभट्ट के वंशज कन्नौज तथा आसपास के क्षेत्रों पर १०१८-१९ ई. तक शासन करते रहे, जबकि महमूद गजनवी ने कन्नौज पर कब्जा करके प्रतिहार राजा को बाड़ी भाग जाने के लिए विवश किया। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा भोज प्रथम था, जो नागभट्ट द्वितीय का पौत्र था। भोज प्रथम ने (लगभग ८३६-८६ ई.) ५० वर्ष तक शासन किया और प्रतिहार साम्राज्य का विस्तार पूर्व में उत्तरी बंगाल से पश्चिम में सतलज तक हो गया। अरब व्यापारी सुलेमान इसी राजा भोज के समय में भारत आया था। उसने अपना यात्रा-विवरण में राजा की सैनिक शक्ति और सुव्यवस्थित शासन की बड़ी प्रशंसा की है। अगला सम्राट् महेन्द्रपाल था, जो 'कर्पूरमंजरी' नाटक के रचयिता महाकवि राजशेखर का शिष्य और संरक्षक था। महेन्द्र का पुत्र महिपाल भी राष्ट्रकूट राजा इन्द्र तृतीय (दे.) से बुरी तरह पराजित हुआ। राष्ट्रकूटों ने कन्नौज पर कब्जा कर लिया, लेकिन शीघ्र ही महिपाल ने पुनः उसे हथिया लिया। परन्तु महिपाल के समय में ही गुर्जर-प्रतिहार राज्य का पतन होने लगा। उसके बाद के राजाओं--भोज द्वितीय, विनायकपाल, महेन्द्रपाल द्वितीय, देवपाल, महिपाल द्वितीय और विजयपाल ने जैसे-तैसे १०१९ ई. तक अपने राज्य को कायम रखा। महमूद गजनवी के हमले के समय कन्नौज का शासक राज्यपाल था। राज्यपाल बिना लड़े भाग खड़ा हुआ। बाद में उसने महमूद की अधीनता स्वीकार कर ली। इससे आसपास के राजपूत राजा बहुत नाराज हुए। महमूद गजनवी के लौट जाने पर कालिंजर के चन्देल राजा गण्ड के नेतृत्व में राजपूत राजाओं ने कन्नौज के राज्यपाल को पराजित कर मार डाला और उसके स्थान पर त्रिलोचन पाल को गद्दी पर बैठाया। महमूद के दुबारा आक्रमण करने पर कन्नौज फिर उसके अधीन हो गया। त्रिलोचनपाल भागकर बाड़ी में शासन करने लगा, उसकी हैसियत स्थानीय सामन्त जैसी रह गयी। कन्नौज में गहड़वाल अथवा राठौर वंश का उद्भव होने पर उसने ११वीं शताब्दी के द्वितीय चतुर्थांश में बाड़ी के गुर्जर-प्रतिहार वंश को सदा के लिए उखाड़ फेंका। गुर्जर प्रतिहार वंश के आंतरिक प्रशासन के बारे में कुछ भी पता नहीं है, लेकिन इतिहास में इस वंश का मुख्य योगदान यह है कि इसने ७१२ ई.में सिंध विजय करनेवाले अरबों को आगे नहीं बढ़ने दिया।

गुलबदन बेगम : प्रथम मुगल बादशाह बाबर की पुत्री। वह प्रतिभाशाली महिला थी, जिसने अपने भाई बादशाह हुमायूं (१५३०-५६) के जमाने का विवरण इकट्ठा कर 'हुमायूंनामा' नामक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में उस जमाने के भारत की आर्थिक दशा का महत्त्वपूर्ण विवरण प्राप्त होता है।

गुलबर्ग (अथवा कुलबर्ग) : दक्षिण के बहमनी वंश के संस्थापक सुल्तान अलाउद्दीन ने इसे १३४७ ई. में अपनी राजधानी बनाया। उसने इसका नाम एहसानाबाद रखा। १४२५ ई. तक यह इस राज्य की राजधानी रहा, जबकि ९वें सुल्तान (१४२२-३६) ने इसे त्याग कर बीदर को राजधानी बनाया। बहमनी सुल्तानों और उनके दरबारियों ने गुलबर्ग में बहुत इमारतें बनवायी थीं। लेकिन ये इमारतें इतनी बड़ी और कमजोर थीं कि अब उनके ध्वंसावशेष ही देखे जा सकते हैं।

गुलाबसिंह, कश्मीर का महाराज : पंजाब के सिख शासक महाराज रणजीत सिंह (दे.) के यहाँ आरम्भ में घुड़सवार की हैसियतसे नियुक्त। गुलाबसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर रणजीत सिंह ने उसे जम्मू की जागीर दे दी, जिससे गुलाबसिंह ने अपना प्रभुत्व लद्दाख तक बढ़ा लिया। १८३९ ई. में महाराज रणजीत सिंह की मृत्यु हो गयी, तब खालसा (दे.) ने गुलाबसिंह को भी एक मंत्री चुना। १८४६ ई. में अंग्रेजों और सिखों में सुबदाहान का युद्ध (दे.) हुआ। गुलाबसिंह ने चतुराई से विजयी अंग्रेजों और सिखों के बीच लाहौर की संधि (१८४६) करा दी, जिसके अनुसार सिखों ने कश्मीर और संलग्न इलाका अंग्रेजों को सौंप दिया। बाद में अंग्रेजों ने कश्मीर और संलग्न इलाके को एक लाख पौंड के बदले गुलाबसिंह के हाथ बेच दिया और उसे वहाँ का राजा स्वीकार कर लिया। गुलाबसिंह ने कश्मीर में डोगरा वंश के राज्य की स्थापना की। गुलाबसिंह और अंग्रेजों के बीच बहुत अच्छे सम्बन्ध रहे। उसकी मृत्यु १८५७ ई. में हुई। डोगरा वंश का शासन १९४८ ई. तक रहा। इसके बाद यह राज्य भारत में विलीन हो गया।

गुलाम कादिर : रुहेला सरदार नजीबुद्दौला (दे.) का पौत्र, जो १७६१ से १७७० ई. तक अहमदशाह अब्दाली की सदारत में रहा तथा बाद में मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय (१७५९-१८०६) के सहायक की हैसियत से व्यवहारतः दिल्ली पर शासन करता रहा। १७८७ ई. में कादिर ने लूटपाट करने की गरज से फिर दिल्ली पर कब्जा किया, लेकिन इसके पूर्व अब्दाली की लूटमार से शाही खजाना खाली हो चुका था, अतएव कादिर को कुछ भी नहीं प्राप्त हुआ। इसी निराशा से खीझकर उसने शाहआलम को अंधा बना दिया। महादजी शिन्दे ने कादिर को पराजित कर मार डाला। इसके बाद वह व्यवहारतः मुगल बादशाह का संरक्षक बन गया।

गुलाम वंश : दिल्ली में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा १२०६ ई. में स्थापित। यह वंश १२९० ई. तक शासन करता रहा। इसका नाम 'गुलाम वंश' इस कारण पड़ा कि इसका संस्थापक और उसके इल्तुतमिश और बलबन जैसे महान् उत्तराधिकारी प्रारम्भ में गुलाम अथवा दास थे और बाद में वे दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करने में समर्थ हुए। कुतुबुद्दीन (१२०६-१० ई.) मूलतः शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी का तुर्क दास था और ११९२ ई. के तराइन के युद्ध में विजय प्राप्त करने में उसने अपने स्वामी की विशेष सहायता की। उसने अपना स्वामी की ओर से दिल्ली पर अधिकार कर लिया और मुसलमानों की सल्तनत पश्चिम में गुजरात तथा पूर्व में बिहार और बंगाल तक, १२०६ ई. में गोरी की मृत्यु के पूर्व ही, विस्तृत कर दी। शहाबुद्दीन ने १२०३ ई. में उसे दासता से मुक्त कर सुल्तान की उपाधि से विभूषित किया। इस प्रकार स्वभावतः वह अपने स्वामी के भारतीय साम्राज्य का उत्तराधिकारी और दिल्ली के गुलाम वंश का संस्थापक बन गया। उसने १२१० ई. में अपनी मृत्यु के समय तक राज्य किया। उसका पुत्र और उत्तराधिकारी आरामशाह था, जिसने केवल एक वर्ष राज्य किया और बाद में १२११ ई. में उसके बहनोई इल्तुतमिश ने उसे सिंहासन से हटा दिया। इल्तुतमिश भी कुशल प्रशासक था और उसने १२३६ ई. में अपनी मृत्यु तक राज्य किया। उसका उत्तराधिकारी, उका पुत्र रुक्नुद्दीन था, जो घोर निकम्मा तथा दुराचारी था और उसे केवल कुछ महीनों के शासन के उपरान्त गद्दी से उतारकर उसकी बहिन रजिय्यतउद्दीन, उपनाम रजिया सुल्ताना को १२३७ ई. में सिंहासनासीन किया गया। रजिया कुशल शासक सिद्ध हुई, किन्तु स्त्री होना ही उसके विरोध का कारण हुआ और ३ वर्षों के शासन के उपरान्त १२४० ई. में उसे गद्दी से उतार दिया गया। उसका भाई बहराम उसका उत्तराधिकारी हुआ और उसने १२४२ ई. तक राज्य किया, जब उसकी हत्या कर दी गयी। उसके उपरान्त इल्तुतमिश का पौत्र मसूद शाह उत्तराधिकारी हुआ, किन्तु वह इतना विलासप्रिय और अत्याचारी शासक सिद्ध हुआ कि १२४६ ई. में उसे गद्दी से उतारकर इल्तुतमिश के अन्य पुत्र नासिरुद्दीन को शासक बनाया गया। सुल्तान नासिरुद्दीन में विलासप्रियता आदि दुर्गुण न थे। वह शांत स्वभाव का और विद्याप्रेमी व्यक्ति था। साथ ही उसे बलबन सरीखे कर्त्तव्यनिष्ठ एक ऐसे व्यक्ति का सहयोग प्राप्त था, जो इल्तुतमिश के प्रथम चालीस गुलामों में से एक और सुल्तान का श्वसुर भी था। उसने २० वर्षों तक (१२४६-१२६६ ई.) शासन किया। उसके उपरांत उसका श्वसुर बलबन सिंहासनासीन हुआ, जो बड़ा ही कठोर शासक था। उसने इल्तुतमिश के काल से होनेवाले मंगोल आक्रमणों से देश को मुक्त किया, सभी हिन्दू और मुस्लिम विद्रोहों का दमन किया और दरबार तथा समस्त राज्य में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित की। उसने बंगाल के तुरारिल खाँ (दे.) के विद्रोह का दमन करके १२८६ ई. अथवा अपनी मृत्युपर्यंत राज्य किया। इसके एक वर्ष पूर्व ही उlके प्रिय पुत्र शाहजादा मुहम्मद की मृत्यु पंजाब में मंगोल आक्रामकों के युद्ध के बीच हो चुकी थी। उसके द्वितीय पुत्र बुगरा खाँ ने, जिसे उसने बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था, दिल्ली आकर अपने पिता के शासनभार को सँभालना अस्वीकार कर दिया। ऐसी परिस्थिति में बुगरा खाँ के पुत्र कैकोबाद (दे.) को १२८६ ई. में सुल्तान घोषित किया गया। किन्तु वह इतना शराबी निकला कि दरबार के अमीरों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और १२९० ई. में उसका कर डाला। इस प्रकार गुलाम वंश का दुःखमय अन्त हुआ। गुलाम वंश के शासकों ने प्रजा के हितों पर अधिक ध्यान न दिया और प्रशासन की अपेक्षा भोग-विलासों में ही उनका अधिक झुकाव रहा। फिर भी वास्तुकला के क्षेत्र में उनकी कुछ उल्लेखनीय कृतियाँ शेष हैं, जिनमें कुतुबमीनार (दे.) अपनी भव्यता के कारण दर्शनीय है। इस वंश के शासकों ने मिनहाजुद्दीन सिराज और अमीर खुसरो जैसे विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। मिनहाजुद्दीन सिराज ने 'तबकाते नासिरी' (दे.) नामक ग्रन्थ की रचना की है।रजिया कुशल शासक सिद्ध हुई, किन्तु स्त्री होना ही उसके विरोध का कारण हुआ और ३ वर्षों के शासन के उपरान्त १२४० ई. में उसे गद्दी से उतार दिया गया। उसका भाई बहराम उसका उत्तराधिकारी हुआ और उसने १२४२ ई. तक राज्य किया, जब उसकी हत्या कर दी गयी। उसके उपरान्त इल्तुतमिश का पौत्र मसूद शाह उत्तराधिकारी हुआ, किन्तु वह इतना विलासप्रिय और अत्याचारी शासक सिद्ध हुआ कि १२४६ ई. में उसे गद्दी से उतारकर इल्तुतमिश के अन्य पुत्र नासिरुद्दीन को शासक बनाया गया। सुल्तान नासिरुद्दीन में विलासप्रियता आदि दुर्गुण न थे। वह शांत स्वभाव का और विद्याप्रेमी व्यक्ति था। साथ ही उसे बलबन सरीखे कर्त्तव्यनिष्ठ एक ऐसे व्यक्ति का सहयोग प्राप्त था, जो इल्तुतमिश के प्रथम चालीस गुलामों में से एक और सुल्तान का श्वसुर भी था। उसने २० वर्षों तक (१२४६-१२६६ ई.) शासन किया। उसके उपरांत उसका श्वसुर बलबन सिंहासनासीन हुआ, जो बड़ा ही कठोर शासक था। उसने इल्तुतमिश के काल से होनेवाले मंगोल आक्रमणों से देश को मुक्त किया, सभी हिन्दू और मुस्लिम विद्रोहों का दमन किया और दरबार तथा समस्त राज्य में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित की। उसने बंगाल के तुरारिल खाँ (दे.) के विद्रोह का दमन करके १२८६ ई. अथवा अपनी मृत्युपर्यंत राज्य किया। इसके एक वर्ष पूर्व ही उlके प्रिय पुत्र शाहजादा मुहम्मद की मृत्यु पंजाब में मंगोल आक्रामकों के युद्ध के बीच हो चुकी थी। उसके द्वितीय पुत्र बुगरा खाँ ने, जिसे उसने बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था, दिल्ली आकर अपने पिता के शासनभार को सँभालना अस्वीकार कर दिया। ऐसी परिस्थिति में बुगरा खाँ के पुत्र कैकोबाद (दे.) को १२८६ ई. में सुल्तान घोषित किया गया। किन्तु वह इतना शराबी निकला कि दरबार के अमीरों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और १२९० ई. में उसका कर डाला। इस प्रकार गुलाम वंश का दुःखमय अन्त हुआ। गुलाम वंश के शासकों ने प्रजा के हितों पर अधिक ध्यान न दिया और प्रशासन की अपेक्षा भोग-विलासों में ही उनका अधिक झुकाव रहा। फिर भी वास्तुकला के क्षेत्र में उनकी कुछ उल्लेखनीय कृतियाँ शेष हैं, जिनमें कुतुबमीनार (दे.) अपनी भव्यता के कारण दर्शनीय है। इस वंश के शासकों ने मिनहाजुद्दीन सिराज और अमीर खुसरो जैसे विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। मिनहाजुद्दीन सिराज ने 'तबकाते नासिरी' (दे.) नामक ग्रन्थ की रचना की है।

गुलाम हुसेतखाँ तबत खाँ, सैयद : १८वीं शताब्दी का प्रसिद्ध इतिहासकार। वह बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ (दे.) का चचेरा भाई लगता था। वह मुगल बादशाह का मीरमुंशी और बंगाल के नवाब के यहाँ नियुक्त था। बाद में उसने कलकत्ता में नवाब मीर कासिम (दे.) का प्रतिनिधित्व किया। मीर कासिम के पतन के पश्चात् उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी में नौकरी कर ली। वह उच्चकोटि का इतिहासकार था। उसकी पुस्तक 'सियारुल मुतखरीन' में मुगल वंश के पतन तथा पिछले सात मुगल बादशाहों के शासनकाल के संबंध में आधिकारिक तथा विश्वस्त विवरण मिलता है।

गुहा वास्तु : भारतीय प्राचीन वास्तुकला का एक बहुत ही सुन्दर नमूना। अशोक के शासनकाल से गुहाओं का उपयोग आवास के रूप में होने लगा। गया के निकट बराबर (दे.) पहाड़ी पर ऐसी अनेक गुफाएँ विद्यमान हैं, जिन्हें सम्राट् अशोक ने आवास-योग्य बनाकर आजीवकों को दे दिया था। अशोककालीन गुहाएँ सादे कमरों के रूप में होती थीं, लेकिन बाद में उन्हें आवास एवं उपासनागृह के रूप में स्तम्भों एवं मूर्तियों से अलंकृत किया जाने लगा। यह कार्य विशेष रूप से बौद्धों द्वारा किया गया। भारत के विभिन्न भागों में सैकड़ों गुहाएँ बिखरी पड़ी हैं। इनमें जो गुहाएँ बौद्ध बिहारों के रूप में प्रयुक्त होती थीं, वे सादी होती थीं। उनके बीचोबीच एक विशाल मंडप तथा किनारे-किनारे छोटी-छोटी कोठरियाँ होती थीं। पूजा के लिए प्रयुक्त गुहाएँ 'चैत्यशाला' कहलाती थीं, जो सुन्दर कलाकृतियाँ होती थीं। चैत्य में एक लम्बा आयताकार मंडप होता था, जिसका अंतिम भाग गजपृष्ठाकार होता था। स्तम्भों की दो लम्बी पंक्तियाँ इस मंडप को मुख्यकक्षा और दो पार्श्व बीथिकाओं में विभक्त कर देती थीं। गजपृष्ठ में एक स्तूप होता था। द्वारमुख खूब अलंकृत होता था। उसमें तीन दरवाजे होते थे। बीच का द्वार मध्यवर्ती कक्ष में प्रवेश के लिए तथा अन्य दो द्वार पार्श्वबीथियों के लिए होते थे। चैत्य के ठीक सामने द्वारमुख के ऊपर अश्वपादत्र (घोड़े की नाल) के आकार का चैत्यगवाक्ष होता था। ऐसी अनेक गुहाएँ महाराष्ट्र के नासिक, भाजा, भिलसा, कार्ले और अन्य स्थानों पर पायी गयी हैं। कार्ले की गुहाएँ सर्वोत्कृष्ट मानी जाती हैं। इनका निर्माण ईसापूर्व २०० से ईसा बाद २३० की अवधि में हुआ था। (स्मिथ कृत 'हिस्ट्री आफ फाइन आर्ट इन इंडिया एण्ड सीलोन')।

गूजर : गुर्जर लोगों की एक शाखा। ऐसा विश्वास किया जाता है कि शकों और हूणों के साथ जो और विदेशी आये थे, वे यहाँ बस गये और उन्हें हिन्दू बना लिया गया।

गृहवर्मा मौखरि : कन्नौज के मौखरि राजा अवन्तिवर्मा का पुत्र। वह छठीं शताब्दी ईसवी के अन्त में गद्दी पर बैठा और उसने थानेश्वर के राजा प्रभाकरवर्धन की पुत्री राज्यश्री से विवाह किया। किन्तु ६०५ ई. में मालवा के राजा ने (जो कदाचित् देवगुप्त था) कन्नौज पर हमला कर दिया और गृहवर्मा को पराजित कर मार डाला। राज्यश्री को कन्नौज में ही कैद में डाल दिया गया। इस प्रकार मौखरि वंश का अंत हो गया।

गैरवाज : एक तकनीकी शब्द, जो सुल्तान फीरोजशाह तुगलक (१३५१-८८ ई.) की सेना में अनियमित सिपाहियों के लिए प्रयुक्त होता था। इन लोगों को सीधे शाही खजाने से वेतन मिलता था।

गोंड़  : एक आदिवासी जाति, जो आधुनिक मध्य प्रदेश के छतरपुर इलाके में निवास करती थी। बाद में इस जाति ने लूटपाट का काम छोड़कर युद्धों में लड़ने का व्यवसाय शुरू किया। कालांतर में इन्हें राजपूत माना जाने लगा। जेजाकभूक्ति के चन्देल राजा (दे.) सम्भवतः मूलरूप से गोंड़ ही थे।

गोंडवाना : गोंडों का राज्य, जो वर्तमान मध्यप्र देश के उत्तरी भाग में था। उसे गढ़टंगा भी कहते थे। अकबर ने १५६४ ई. में इसपर विजय प्राप्त की और अपने राज्य में मिला लिया (देखिये, रानी दुर्गावती)।

गोण्डोफर्नीज (गोण्डोफारेंस) : भारतीय पार्थियन राजा, जिसने २० से ४८ ई. तक एक बड़े साम्राज्य पर शासन किया, जिसमें कंदहार, काबुल और तक्षशिला भी शामिल थे। एक किंवदन्ती के अनुसार ईसा मसीह के शिष्य सेण्ट टामस इसी के शासनकाल में यहाँ आये, और यहाँ शहीद हुए थे।

गोकुला : १७वीं शताब्दी में उत्पन्न, उत्तर प्रदेश के मथुरा क्षेत्र (व्रजमंडल) का जाट नेता। वह तिलपत का जमींदार था, उसने मुगल बादशाह औरंगजेब के शासन के विरुद्ध किसानों के विद्रोह का नेतृत्व किया और असाधारण साहस और वीरता का परिचय दिया। १६६९ ई. में उसने मथुरा के अत्याचारी मुगल फौजदार पर हमला कर उसे मार डाला। इससे सारे जिले में अशांति उत्पन्न हो गयी। गोकुला के विरुद्ध मुगल सेना भेजी गयी, जिसने विद्रोहियों का दमन किया। गोकुला की पराजय हुई और वह मार डाला गया। उसके परिवार के लोगों को जबरदस्ती मुसलमान बना लिया गया। लेकिन गोकुला का बलिदान विफल नहीं गया। उसके उदाहरण ने जाटों में अदम्य स्फूर्ति और प्रेरणा भर दी, और उन्होंने औरंगजेब की असह्य नीतियों का लम्बे अरसे तक इतना जबरदस्त प्रतिरोध किया कि मुगल साम्राज्य अंदर से जर्जर हो गया। १६९१ ई. में जाटों ने औरंगजेब के अत्याचारों का प्रतिशोध लेने के लिए अकबर के मकबरे (सिकन्दरा) को बरबारद कर दिया और अकबर की हड्डियाँ कब्र से निकालकर जला दीं।

गोखले, गोपालकृष्ण (१८६६-१९१५)  : भारत के महान् राष्ट्रवादी नेता। वे कोल्हापुर के एक मराठा ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। उन्होंने फर्गुसन कालेज पूना में इतिहास और अर्थशास्त्र के प्रोफेसर की हैसियत से जीवन आरंभ किया और १९०२ ई. तक वे इस पद पर रहे। आरंभ से ही वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से संबंधित रहे। कुछ दिनों तक वे इसके संयुक्त-मंत्री रहे, १९०५ ई. के अधिवेशन में इसके अध्यक्ष बने। १९०२ ई. में वे बम्बई विधान परिषद के सदस्य चुने गये, और तत्पश्चात् वे वाइसराय द्वारा केन्द्रीय विधान परिषदों गैर-सरकारी सदस्यों का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुने गये। १९०५ ई. में उन्होंने पूना में 'सर्वेंट्स आफ इंडिया सोसायटी' (भारत सेवक समाज) की स्थापना की, जिसके सदस्य आजीवन निर्धन रहने और निस्स्वार्थ भाव से देश की सेवा करने का व्रत लेते थ़े। १९१० ई. में जब केन्द्रीय व्यवस्थापिका परिषद् का विस्तार हुआ तो गोखले उसके एक प्रमुख नेता गिने जाते थे और सरकार के प्रभावशाली आलोचक थे। सरकार की वित्तीय नीतियों की बखिया उधेड़ने में उन्हें विशेष दक्षता प्राप्त थी और वार्षिक बजट पर विवाद के दौरान उनकी असाधारण पांडित्यपूर्ण वक्तृताएँ सुनने लायक होती थीं। उन्होंने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा लागू करने के लिए एक विधेयक प्रस्तुत किया जो सरकार द्वारा विरोध किये जाने के कारण अस्वीकृत हो गया। १९१२-१५ ई.में वे इण्डियन पब्लिक सर्विस कमीशन के सदस्य रहे। इस हैसियत से उन्होंने सबसे बड़ी देश-सेवा यह की कि कमीशन की सिफारिश पर सरकारी नौकरियों में भारतीयों की संख्या काफी बढ़ा दी गयी। १९१५ ई. में उनकी मृत्यु से देश में संविधानवादी दल की शक्ति का भारी ह्रास हुआ। असहयोग आंदोलन के युग के पहले पुरानी कांग्रेस के वे सबसे श्रेष्ठ और महान् नेता गिने जाते थे। (आर. पी. परांजपे लिखित 'गोपालकृष्ण गोखले' और एस. शास्त्री द्वारा लिखित 'गोपालकृष्ण गोखले का जीवन')।

गोखले, सेनापति : पेशवा बाजीराव द्वितीय (१७९६-१८१८ ई.) का सेनानायक। उसने तृतीय मराठा-युद्ध में पेशवा की सेनाओं का नेतृत्व किया था, किन्तु पराजित हो गया तथा आष्ठी के युद्ध (१८१८ ई.) में मारा गया।

गोगुण्डा का युद्ध : मुगल सम्राट् अकबर तथा मेवाड़ के राणा प्रताप सिंह (दे.) के बीच हुआ। यह युद्ध गोगुण्डा के निकट हल्दीघाटी में लड़ा गया, अतएव इसे हल्दीघाटी का युद्ध भी कहते हैं। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व राजा मानसिंह ने किया। राणा और उनकी सेना ने बड़ी बहादुरी से युद्ध किया तो भी वे पराजित हो गये। राणा को भागना पड़ा और अपनी मृत्यु (१५९७) पर्यन्त वे अकबर के विरुद्ध लड़ते रहे।

गोडर्ड कर्नल (१७४०-८३) : जनरल कूटे के अधीन मद्रास में १७५९ ई. में सैनिक-सेवा आरंभ की और अनेक युद्धों में भाग लिया, जिनके फलस्वरूप १७६१ ई. में पांडिचेरी का पतन हो गया। वह १७७८ ई. तक अनेक सैनिक पदों पर रहा। जब अंग्रेजों तथा मराठों के बीच पहला युद्ध हुआ, उसने वारेन हेस्टिंग्स (दे.) के आदेश से सेना लेकर कलकत्ता से बम्बई की ओर प्रयाण किया। उसने महू और अहमदाबाद छीन लिया, महादजी शिन्दे को हराया, १७८० ई. में बसई पर अधिकार कर लिया और पूना पर चढ़ाई की, किन्तु पीछे हटना पड़ा। १७८२ ई. में सालबाई की संधि होने पर जब मराठा-युद्ध समाप्त हुआ, गोडर्ड को बम्बई में ब्रिटिश सेना का प्रधान सेनाध्यक्ष बना दिया गया। लेकिन स्वास्थ्य अच्छा न होने के कारण वह शीघ्र अवकाश पर चला गया। जब वह १७८३ ई. में समुद्र के रास्ते इंग्लैण्ड जा रहा था, रास्ते में जहाज पर ही मर गया।

गोडोल्फिन, अर्ल आफ : इंग्लैण्ड की महारानी ऐन (१७०२-१४) का प्रधानमंत्री, वह १७०२ से १७०८ ई. तक इस पद पर रहा। उसने १६०० ई. में स्थापित पुरानी ईस्ट इंडिया कम्पनी तथा १६९८ ई. में स्थापित नयी कम्पनी के बीच उठे विवाद में पंच बनकर निर्णय दिया। इस निर्णय के फलस्वरूप दोनों कम्पनियाँ एक दूसरे में मिल गयीं और उनका नामकरण "युनाइटेड कम्पनी आफ मर्चेण्ट्स आफ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू दि ईस्ट इंडीज" किया गया। जनता में उसका नाम 'ईस्ट इंडिया कंपनी' ही प्रचलित रहा।

गोदावरी : दक्षिण भारत में पश्चिम से पूर्व की ओर बहनेवाली ८०० मील लम्बी नदी, जो बंगाल की खाड़ी में मसुलीपट्टम के निकट गिरती है। यह भारत की सात पवित्र नदियों में से एक गिनी जाती है।

गोदेहू : फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कम्पनी का डाइरेक्टर। कम्पनी ने १७५४ ई. में उसे डूप्ले (दे.) के स्थान पर भेजा और भारत में फ्रांसीसियों की स्थिति की जाँच करने का आदेश दिया। यहाँ आने के बाद गोदेहू ने, जिसे डूप्ले ने कोई आपत्ति किये बिना कार्यभार सौंप दिया था, अंग्रेजों के साथ युद्ध बंद कर दिया और उनसे जनवरी १७५५ ई. में अस्थायी संधि कर ली। इस संधि के द्वारा अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने देशी राजाओं के विवाद में हस्तक्षेप न करने का निश्चय किया तथा दोनों के द्वारा अधिकृत कुछ क्षेत्रों को मान्यता प्रदान कर दी। इस संधि पर दोनों कम्पनियों को स्वीकृति देना शेष था, तभी ब्रिटेन और फ्रांस के बीच सप्तवर्षीय युद्ध छिड़ गया। फलतः भारत में भी अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच पुनः युद्ध छिड़ गया।

गोपचन्द्र : गुप्त साम्राज्य के पतन के समय ६ठीं शताब्दी के पूर्वार्ध के लगभग स्वतंत्र बंग राज्य (जिसमें वर्तमान बंगाल का पूर्वी, दक्षिणी तथा पश्चिमी भाग शामिल था) के आरंभिक तीन शासकों में से एक। अन्य दो के नाम धर्मादित्य तथा समाचारदेव थे। गोचपन्द्र का नाम कुछ दानपत्रों में मिलता है। उसके नाम की कुछ स्वर्णमुद्राएँ भी पायी गयी हैं। उसके पूर्वजों अथवा वंशजों के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है।

गोपाल प्रथम : बंगाल और बिहार पर लगभग चार शताब्दी तक शासन करनेवाले पालवंश का संस्थापक। उसके पिता का नाम वप्यट और पितामह का नाम दयितविष्णु था। दोनों का सम्बन्ध सम्भवतः किसी राजकुल से नहीं था। आठवीं शताब्दी के मध्य बंगाल और बिहार में अराजकता उत्पन्न होने पर लोगों ने गोपाल (प्रथम) को राजा चुना। गोपाल (प्रथम) का शासन लगभग ७५० से ७७० ई. तक चला। उसने कहाँ-कहाँ विजय प्राप्त की, यह ज्ञात नहीं। लेकिन उसके द्वारा संस्थापित पालवंश ने दीर्घकाल तक शासन किया। इस वंश के अधिकांश राजा बौद्ध थे। १२वीं शताब्दी तक बंगाल-बिहार पर इस वंश के राजाओं का शासन रहा। ११९७ ई. में मुसलमानों ने इस पर विजय प्राप्त की। (हि. ब., खंड १)

गोपाल द्वितीय : बंगाल के पाल वंश का परवर्ती राजा, जो अपने पिता राज्यपाल के बाद गद्दी पर बैठा। उसने सम्भवतः ९४०-५७ ई. तक शासन किया। उसके कार्यों के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है। (हि. बं., खंड १)

गोपाल तृतीय : बंगाल के पाल वंश का परवर्ती राजा, जो अपने पिता कुमारपाल के बाद गद्दी पर बैठा। वह राजा रामपाल (दे.) का पौत्र था। उसके चाचा मदनपाल ने ११४५ ई. में उसको गद्दी से उतार दिया। उसके बारे में भी विस्तृत विवरण ज्ञात नहीं है। (हि. बं., खंड १)

गोपुरम् : दाक्षिणात्य शैली के मंदिरों का एक विशेष शिखराकार अंग। खासतौर से चोल राजाओं (दे.) द्वारा निर्मित मंदिर विशाल गोपुर (उत्तुंग शीर्षवाले द्वार) से मंडित मंदिर विशाल गोपुर (उत्तुंग शीर्षवाले द्वार) से मंडित होते थे। कालांतर में कई-कई मंजिलों के गोपुरों का निर्माण किया जाने लगा, जिनकी वास्तु-प्राकृति अत्यंत भव्य होती थी। कुम्भकोणम् का गोपुरम् वास्तुकला की दृष्टिसे अत्यन्त भव्य गिना जाता है।

गोबी मरुस्थल : मध्य एशिया में स्थित, जो पूर्व से पश्चिम १२०० मील लम्बा तथा उत्तर से दक्षिण ८०० मील चौड़ा है। आजकल यह एक रेगिस्तान है, लेकिन प्राचीन काल में इस क्षेत्र के बीच-बीच में समृद्धिशाली भारतीय बस्तियाँ बसी हुई थीं। सर औरेल स्टोन द्वारा पुरातात्विक खुदाई में बौद्ध स्तूपों, बिहारों, बौद्ध एवं हिन्दू देवताओं की मूर्तियाँ, बहुत-सी पांडुलिपियाँ तथा भारतीय भाषाओं एवं वर्णाक्षरों में बहुत से आलेखों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस अवशेषों के बीच घूमते हुए सर औरेल को यह अनुभव होने लगा था कि वे पंजाब के किसी प्राचीन गाँव में घूम रहे हैं। ७वीं शताब्दी में सुप्रसिद्ध चीनी यात्री ह्युएनसांग इसी गोबी मरूस्थल के रास्ते से ही भारत आया और फिर चीन वापस गया। उसे इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म और भारतीय संस्कृति का प्राधान्य दिखाई दिया। ज्यों-ज्यों इस क्षेत्र में रेगिस्तान बढ़ता गया, त्यों-त्यों यहाँ भारतीय संस्कृति के केन्द्र विलुप्त होते गये।

गोमटेश्वर : के नाम से प्रसिद्ध मूर्ति मैसूर के गंग वंशीय राजा के मंत्री चामुण्डराय (दे.) ने ९८३ ई. के लगभग निर्मित करायी थी। यह मूर्ति ५६ फुट से अधिक ऊँची है और श्रवणबेलगोला की एक पहाड़ी पर स्थित है। यह एक काले पत्थर को काटकर बनायी गयी है। वास्तु-कला की दृष्टि से यह मूर्ति विश्व में अपने ढंग की अद्वितीय मानी जाती है।

गोर के सुल्‍तान : पूर्वी ईरानी वंश के और आरंभ में गजनी के सुल्तानों के सामन्त। गजनवी (दे.) वंश के अशक्त हो जाने पर गोर के शासक स्वाधीन होने का लगातार प्रयास करते रहे और गजनी के सुल्तानों से लड़ते रहे। अंत में ११५१ ई. में अलाउद्दीन हुसेन गोरी ने गजनी पर चढ़ाई करके उसे लूटा और जलाकर खाक कर दिया। इस प्रकार उसने गोर को गजनी से पूर्णतया स्वाधीन कर सुल्तान की उपाधि ग्रहण की। यद्यपि उसका पुत्र सैफुद्दीन महमूद गद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद ही गुज्ज तुर्कमानों से युद्ध में मारा गया तथापि उसका चचेरा भाई गयासुद्दीन महमूद एक सफल शासक सिद्ध हुआ। उसने ११७३ ई. में गजनी पर कब्जा कर लिया और अपने छोटे भाई शहाबुद्दीन को वहाँ का हाकिम नियुक्त किया, जो मुईजुद्दीन मुहम्मद बिन साम अथवा मुहम्मद गोरी (दे.) के नाम से विख्यात हुआ। गजनी को ही आधार बनाकर शहाबुद्दीन ने भारत पर हमले शुरू किये। उसका पहला आक्रमण ११७५ ई. में मुलतान पर हुआ। दूसरे हमले के दौरान ११९२ ई. में मुलतान पर हुआ। दूसरे हमले के दौरान ११९२ ई. में तराइन के युद्ध में उसने पृथ्वीराज चौहान को हराया। इसी हमले के फलस्वरूप भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना हुई। १२०३ ई. में सुलतान गयासुद्दीन गोरी मर गया और शहाबुद्दीन गौर, गजनी और उत्तर भारत का शासक बन गया। उसने बहुत थोड़े समय शासन किया। १२०६ ई. में खोकरों ने उसे मार डाला। उसके वंश में कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं था, फलतः उसकी मृत्यु के बाद गोरी वंश का अन्त हो गया।

गोरखा : मंगोलियन आकृति के लोग, जो मुख्यतः नेपाल में बसे हुए हैं। इनके दाढ़ी नहीं उगती, शरीर का रंग कुछ पीला होता है, नाक चपटी और गाल फूले होते हैं। ये लोग हिमालय की ढलानों पर निवास करते हैं और उच्च कोटि के योद्धा माने जाते हैं। पहले ये लोग क्षत्रिय राजाओं की अधीनता में रहते थे। किंतु १७६८ ई. में क्षत्रिय राजवंशों की आपसी कलह से लाभ उठाकर उन्होंने अपने देश में गोरखा शासन स्थापित कर लिया। १८१६ ई. में अंग्रेजों से पराजित हो जानेपर ब्रिटिश फौज में नौकरी करने लगे और ब्रिटिश साम्राज्य के प्रसार में इन्होंने बड़ी सहायता दी। भारत के कथित 'सिपाही-विद्रोह' या गदर (१८५७) को दबाने में भी गोरखों ने अंग्रेजों की मदद की।

गोरखा युद्ध : १८१६ ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार और नेपाल के बीच हुआ। उस समय भारत का गवर्नर-जनरल लार्ड हेस्टिंग्स था। १८०१ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी का कब्जा गोरखपुर जिले पर हो जाने से कम्पनी का राज्य नेपाल की सीमा तक पहुँच गया। यह दोनों राज्यों के लिए परेशानी का विषय था। नेपाली अपने राज्य का प्रसार उत्तर की ओर नहीं कर सकते थे, क्योंकि उत्तर में शक्तिशाली चीन और हिमालय था, अतएव ये लोग दक्षिण की और ही अपने राज्य का प्रसार कर सकते थे। लेकिन दक्षिण में कम्पनी का राज्य हो जाने से उनके राज्य के प्रसार में बाधा उत्पन्न हो गयी। अतएव दोनों पक्षो में मनमुटाव रहने लगा। १८१४ ई. में गोरखों ने बस्ती जिले (उत्तर प्रदेश के उत्तर में बुटवल के तीन पुलिस थानों पर, जो कंपनी के अधिकार में थे, आक्रमण कर दिया, फलतः कम्पनी ने नेपाल के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। प्रथम ब्रिटिस अभियान तो विफल हुआ और अंग्रेज लोग नेपाली राजधानी पर कब्जा न कर सके। कालंग के किले पर हमले के समय अंग्रेज सेनापति जनरल जिलेस्पी मारा गया। जैतक की लड़ाई में भी अंग्रेजी सेना हार गयी। लेकिन १८१५ ई. में अंग्रेजी अभियान को अधिक सफलता मिली। अंग्रेजों ने अल्मोड़ा पर, जो उन दिनों नेपाल के कब्जे में था, अधिकार कर लिया और मालौन के किले में स्थित गोरखों को आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य कर दिया। गोरखों ने सोचा कि अंग्रेजों से लड़ना उचित नहीं है, अतएव उन्होंने नवम्बर १८१५ ई. में सुगौली की संधि कर ली। लेकिन नेपाल सरकार ने संधि की पुष्टि करने में देर की, फलतः ब्रिटिश जनरल आक्टरलोनी ने पुनः नेपाल पर आक्रमण कर दिया और फरवरी १८१६ ई. में मकदानपुर की लड़ाई में गोरखों को पराजित कर दिया। जब ब्रिटिश भारतीय फौज आगे बढ़ते हुए नेपाल की राजधानी से केवल ५० मील दूर रह गयी, तो गोरखों ने अंतिम रूप से हार स्वीकार कर ली और सुगौली की संधिके अनुसार गढ़वाल और कुमायूं जिले अंग्रेजों को दे दिये तथा काठमाण्डू में अंग्रेज रेजीडेण्ट रखना स्वीकार कर लिया। इसके बाद गोरखा लोगों के संबंध अंग्रेजों से बहुत अच्छे हो गये और वे लोग ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति बराबर वफादार रहे।

गोरा : मेवाड़ का एक वीर राजपूत, जिसने अपने साथी बादल के साथ सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का घोर प्रतिरोध किया। जब सुल्तान ने मेवाड़ पर आक्रमण किया, उस समय नगर के बाहरी फाटक पर गोरा-बादल ने डटकर सामना किया। इन दोनों ने अपनी जान दे दी, लेकिन पराजय स्वीकार नहीं की।

गोलकुण्डा : दक्षिण भारत में हैदराबाद के निकट एक किला और ध्वस्त नगर। गोदावरी और कृष्णा नदियों के बीच का इलाका भी जो बंगाल की खाड़ी तक फैला हुआ था, गोलकुण्डा के नाम से प्रसिद्ध था। पहले यह वरमंगल (वारंगल) के काकतीय साम्राज्य के अन्तर्गत था, जिस पर बाद में अलाउद्दीन खिलजी (१३१० ई.) ने विजय प्राप्त की। फिर वह एक स्वतंत्र राज्य के रूप में १४२४-२५ ई. तक बना रहा और बाद में बहमनी सल्तनत में मिला लिया गया। बहमनी सल्तनत के पूर्वी भाग की राजधानी वारंगल बनायी गयी। १५१८ ई.में उसका कुतुबशाह नामक तुर्क हाकिम स्वतंत्र सुल्तान बन बैठा और उसने गोलकुण्डा को अपनी राजधानी बनाया। यह राज्य १६८७ ई. तक स्वाधीन रहा, जबकि औरंगजेब ने उसपर अधिकार करके उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया। पुराने जमाने में गोलकुण्डा हीरों के लिए प्रसिद्ध था। आजकल यह कुतुबशाही सुल्तानों द्वार निर्मित मस्जिदों तथा मकबरों के ध्वंसावशेषों के लिए प्रसिद्ध है।

गोलमेज़ सम्मेलन : १९३० से १९३२ ई.के बीच लन्दन में आयोजित। इस सम्मेलन का आयोजन तत्कालीन वाइसराय लार्ड इर्विन की ३१ अगस्त १९२९ ई. की उस घोषणा के आधार पर हुआ था, जिसमें उन्होंने साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित हो जाने के उपरान्त भारत के नये संविधान की रिपोर्ट प्रकाशित हो जाने के उपरान्त भारत के नये संविधान की रचना के लिए लंदन में गोलमेज सम्मेलन का प्रस्ताव किया था। साइमन कमीशन के सभी सदस्य अंग्रेज थे, जिससे भारतीयों में तीव्र असंतोष उत्पन्न हो गया। इसी असंतोष को दूर करने के अभिप्राय से इस सम्मेलन का आयोजन किया गया था। १९२९ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अध्यक्ष पद से स्पष्ट घोषणा की थी कि भारतीयों का लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता है, और कांग्रेस का गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेना व्यर्थ होगा। ६ अप्रैल १९३० ई. को महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरंभ किया और उसके एक मास उपरान्त ही साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। भारत सरकार ने आर्डिनेंस-राज लागू करके कठोर दमन नीति का आश्रय लिया और महात्मा गांधी सहित कांग्रेस के सभी नेताओं को जेल में बंद कर दिया। इससे यद्यपि आन्दोलन प्रकट रूप में तो शांत हो गया, तथापि अप्रत्यक्ष रूप से उसकी अग्नि सुलगती रही। निरन्तर बढ़ते हुए असन्तोष को दूर करने के लिए ही नवम्बर १९३१ ई. में लन्दन में गोलमेज सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें भारत और इंग्लैण्ड के सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया। इस सम्मेलन की अध्यक्षता इंग्लैण्ड के तत्कालीन प्रधानमंत्री रैम्ज़े मैक्डोनल्ड ने की और उसके तीन अधिवेशन क्रमशः १६ नवम्बर १९३० से २९ जनवरी १९३१ ई. तक, २ सितम्बर से २ दिसम्बर १९३१ तक, तथा १७ नवम्बर से २४ दिसम्बर १९३२ ई. तक हुए। प्रथम अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपना कोई प्रतिनिधि नहीं भेजा था। इस अधिवेशन से इतना लाभ अवश्य हुआ कि ब्रिटिश सरकार ने इस प्रतिबंध के साथ केन्द्र और प्रान्तों की विधान सभाओं को शासन संबंधी उत्तरदायित्व सौंपना स्वीकार कर लिया कि केन्द्रीय विधानमंडल का गठन ब्रिटिश भारत तथा देशी राज्यों के संघ के आधार पर हो। द्वितीय अधिवेशन में महात्मा गांधी ने कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि बनकर भाग लिया। इसमें मुख्य रूप से साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के आधार पर सीटों के बँटवारे के जटिल प्रश्न पर विचार-विनिमय होता रहा। किन्तु इस प्रश्न पर परस्पर मतैक्य न हो सका, क्योंकि मुसलमान प्रतिनिधियों को ऐसा विश्वास हो गया था कि हिन्दुओं से समझौता करने की अपेक्षा अंग्रेजों से उन्हें अधिक सीटें प्राप्त हो सकेंगी।इस गतिरोध का लाभ उठाकर प्रधानमंत्री रैम्ज़े मैकडोनल्ड ने सांप्रदायिक निर्णय (दे.) की घोषणा की, जिसमें केवल मान्य अल्पसख्यकों को ही नहीं. बल्कि हिन्दुओं के दलित वर्ग को भी अलग प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था थी। महात्मा गांधी ने इसका तीव्र विरोध किया और आमरण अनशन आरम्भ कर दिया, जिसके फलस्वरूप कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार में एक समझौता हुआ जो 'पूना समझौता' (दे.) के नाम से विख्यात है। यद्यपि इस समझौते से साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की समस्या का कोई संतोषजनक समाधान न हुआ, तथापि इससे अच्छा कोई दूसरा हल न मिलने के कारण सभी दलों ने इसे मान लिया। गोलमेज सम्मेलनके तीसरे अधिवेशन में भारतीय संवैधानिक प्रगति के कुछ सिद्धान्तों पर सभी लोग सहमत हो गये, जिन्हें एक श्वेतपत्र के रूप में ब्रिटिश संसद के दोनों सदनों की संयुक्त प्रवर समिति के सम्मुख रखा गया। यही श्वेतपत्र आगे चलकर १९३३ ई. के गवर्नमेन्ट आफ इंडिया एक्ट (भारतीय शासन-विधान) का आधार बना।

गोल्लास : श्वेत हूणों का नेता, जिसका जिक्र यूनानी यात्री कास्मस इण्डिकोप्लूस्टीज ने किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह हूण राजा तोरमासा का पुत्र मिहिरगुल था, जिसने छठीं शताब्दी में गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण करके उसकी जड़ें हिला दीं। लेकिन बाद में नृसिंह गुप्त बालादित्य तथा यशोधर्मा (दे.) ने मिलकर ५३३ ई. में उसे पराजित कर दिया। (मैकगवर्न, पृ. ४१६-१७)

गोवा  : भारत के पश्चिमी तट पर बम्बई से दक्षिण की ओर २०० मील पर स्थित एक महत्त्वपूर्ण द्वीप और बंदरगाह। भारत और पश्चिमी जगत के बीच यह सदैव एक महत्त्वपूर्ण व्यापार-केन्द्र रहा है। १५१० ई. में यह बीजापुर के सुल्तान के अधिकार में था, तभी अल्बूकर्क के नेतृत्व में पुर्तगालियों ने इस पर अधिकार कर लिया। मुगलों ने पुर्तगालियों से गोवा छीनने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु सफल न हुए। बाद में १८०९ ई. में नैपोलियन से युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने बड़ी आसानी से गोवा पर कब्जा कर लिया, लेकिन वियना की संधि (१८१५ ई.) के अन्तर्गत वह पुनः पुर्तगालियों को लौटा दिया गया। १९६२ ई. तक वह पुर्तगालियों के अधिकार में रहा। उसी वर्ष जन-आन्दोलन के बल पर भारत सरकार ने उसे चार शताब्दियों की विदेशी दासता से मुक्त करके भारतीय गणराज्य में मिला लिया।

गोविन्द पंडित : एक मराठा अधिकारी जिसे मराठा सेनापति सदाशिवराय भाऊ ने पानीपत की तीसरी लड़ाई से पहले अहमदशाह अब्दाली की संचार-व्यवस्था को भंग करने के लिए नियुक्त किया था। लेकिन अब्दाली ने पंडित की सेना पर हमला कर उसे पराजित कर दिया। इस विजय से अब्दाली को रसदपूर्ति अबाध रूप से मिलने लगी। फलतः पानीपत की लड़ाई (जनवरी १७६१ ई.) में अब्दाली ने मराठों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली।

गोविन्द प्रथम : उड़ीसा के भोई वंश का संस्थापक। इस वंश ने १५४२ से १५५९ ई. तक शासन किया। वह पहले उड़ीसा के राजा प्रतापरुद्र (१४९७-१५४०) का मंत्री था। गोविन्द प्रथम ने प्रतापरुद्र (दे.) के वंशजों को निकाल बाहर किया और स्वयं गद्दी पर बैठ गया। उसने, उसके पुत्र ने तथा उसके दो पौत्रों ने कुल १८ वर्ष तक शासन किया। इन लोगों के बारे में विस्तारपूर्वक कुछ भी ज्ञात नहीं है, लेकिन अंतिम राजा मुकुन्द हरिचंद को १५५९ ई. में गद्दी से उतार दिया गया।

गोविन्द प्रथम : दक्षिण के राष्ट्रकूट वंश (दे.) के संस्थापक दन्तिदुर्ग का पूर्वज। इसके बारे में अधिक ज्ञात नहीं है। लेकिन राष्ट्रकूट वंश (दे.) ने ७५३ से ९७३ ई. तक शासन किया था।

गोविन्द द्वितीय : राष्ट्रकूट वंश का आरम्भिक राजा। वह कृष्ण प्रथम का पुत्र था और उसने ७७५-७९ ई. तक शासन किया। उसे उसके भाई ध्रुव ने गद्दी से उतार दिया।

गोविन्द तृतीय : राष्ट्रकूट वंश के राजा ध्रुव का पुत्र, जिसने ७९३ से ८१५ ई. तक शासन किया। उसने उत्तर में विन्ध्य पर्वत के इस पार मालवा तक तथा दक्षिण में काँची (काँजीवरम्) तक अपना साम्राज्य फैलाया। उसने अपने भाई इन्द्रराज को लाट (दक्षिण गुजरात) का शासक नियुक्त किया, प्रतिहार राजा वत्सराज को पराजित किया, बंगाल के राजा धर्मपाल तथा कन्नौज के राजा चक्रायुध को अपने अधीन किया।

गोविन्द चतुर्थ : राष्ट्रकूट वंश का एक परवर्ती राजा, जिसने ९१८ से ९३४ ई. तक शासन किया। राष्ट्रकूट साम्राज्य का पतन उससे कुछ पहले ही आरंभ हो गया था, वह इस राजा के काल में भी जारी रहा। इसके ४० वर्ष बाद तो इस वंश का ही अन्त हो गया।

गोविन्दचंद्र : कन्नौज के गाहड़वाल अथवा गहरवार (दे.) वंश का एक राजा। वह इस वंश के संस्थापक राजा चन्द्रदेव का पौत्र था, जिसने १११४ से ११५४ ई. तक विशाल साम्राज्य पर शासन किया। इस साम्राज्य में वर्तमान उत्तर प्रदेश का अधिकांश भाग तथा बिहार शामिल था। वह उदार शासक था, उसने बहुत भूमिदान किया और सिक्के चलाये जो भारत में अनेक स्थानों पर पाये गये हैं। उत्तर भारत में उस समय मुसलमानों का प्रवेश आरंभ हो गया था। गोविन्दचन्द्र ने जनता पर 'तुरुष्क दण्ड' नामक एक विशेष कर लगाया था। यह शायद मुसलमानी आक्रमण का प्रतिरोध करने हेतु धन एकत्र करने के उद्देश्य से लगाया गया था।

गोविन्दपुर : पास-पास बसे उन तीन गांवों में से एक, जिनके स्थान पर कलकत्ता बसाया गया था। अन्य दो गांवों के नाम सूतानट्टी और कालीकोठा था। कलकत्‍ता की नींव जाब चारनाक ने १६९० ई. में रखी थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी को इस पर जमींदारी अधिकार १६९८ ई. में प्राप्त हुआ था।

गोशाला : बुद्ध और महावीर का समकालीन, जिसने आजीवक सम्प्रदाय (दे.) की स्थापना की।

गोसाँई : एक शैव सम्प्रदाय, जिसने १९वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में देश में व्याप्त अशांति और अव्यवस्था के कारण शस्त्र धारण कर लिया। इन लोगों ने हिम्मत बहादुर के नेतृत्व में शिन्दे की सेना में भाग लिया। आसाम (या अन्यत्र के भी कुछ) वैष्णव सत्रों के प्रधान लोगों को 'गोसाँई' कहा जाता है।

गोहाटी : ब्रह्मपुत्र के बायें या दक्षिणी तट पर स्थित आसाम का सबसे विशाल नगर। इसका इतिहास बहुत पुराना है। यह प्राचीन कामरूप राज्य की राजधानी थी और उस समय इसका नाम प्राग्ज्योतिषपुर था। आधुनिक गोहाटी नगर के निकट ही नीलाचल पहाड़ी पर कामाख्या देवी का मंदिर स्थित है। नगर का नाम प्राग्ज्योतिषपुर से बदलकर गोहाटी कब पड़ा, यह ठीक तौर से नहीं कहा जा सकता, किन्तु ऐसा अनुमान है कि इसका नाम बारहवीं शताब्दी के मध्य में कामरूप के प्राचीन हिन्दू राज्य के पतन के बाद और सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में मुगलों की विजय के बीच रखा गया। जो हो, इतना निश्चित है १६३७ ई. में मुगल शासक ने जब दक्षिणी आसाम में इस नगर को अपना सदर मुकाम बनाया, तब इसका नाम गुवाहाटी या गोहाटी था। तीस वर्ष बाद अहोम राजा चक्रध्वज सिंह (१६६३-६९) ने इस नगर को मुगलों के आधिपत्य से मुक्त करा लिया और अपने एक प्रतिनिधि (बार फूकन) की नियुक्ति की। किन्तु १६७९ ई. में मुगलों के सेनानायक मीर जुमला ने इस पर पुनः कब्जा कर लिया। तीन वर्ष बाद १६८२ ई. में अहोम राजा गदाधर सिंह (दे.) (१६८१-९६) ने इसे फिर मुगलों के हाथ से छीन लिया। १७८६ ई. में अहोम राजा गौरीनाथ सिंह (१७८०-९४) ने गौहाटी को अपनी राजधानी बनाया। १७९३ ई. में कैप्टन वेल्श ने, जिनके नेतृत्व में यहाँ ब्रिटिश कुमुक भेजी गयी थी, इस नगर को ब्रह्मपुत्र महानद के दोनों तटों पर बसा हुआ एक विशाल और घनी आबादीवाला स्थान पाया। आसाम पर अंग्रेजों का कब्जा हो जाने के बाद शीघ्र ही गौहाटी का महानगरीय स्वरूप समाप्त हो गया, क्योंकि अब नयी राजधानी शिलांग हो गयी। इस समय गौहाटी आसाम का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र है। यहाँ पर एक विश्वविद्यालय भी है।

गौड़ : इसका उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों, जैसे पाणिनि के सूत्रों, कौटिल्य के अर्थशास्त्र और कुछ पुराणों में जनपद और वहाँ के निवासियों, दोनों के लिए हुआ है। इसका आशय पश्चिमी और पश्चिमोत्तर बंगाल क्षेत्र और यहाँ के वासी, दोनों ही है। बंग नाम का प्रयोग सिर्फ पूर्वी और मध्य बंगाल के लिए होता था। समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख (३३०-८०) में बंगाल को गुप्त साम्राज्य का अंग बताया गया है, किन्तु उसमें गौड़ का जिक्र नहीं है। गौड़ राजा गुप्त सम्राटों के पतन के बाद प्रमुखता में आये। इसके शासकों में गोपचंद्र और समाचारदेव के नाम उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने इस राज्य की सैनिक-शक्ति का विस्तार किया। सातवीं शताब्दी में गौड़ नरेश शशांक ने, जिसकी राजधानी कर्णसुवर्ण (मुर्शिदाबाद) थी, थाण्वीश्वर (थानेसर) के पुष्यमूर्ति वंश के राजाओं से लम्बा युद्ध किया और उसके दूसरे शासक राज्यवर्धन (दे.) को मार डाला। राज्यवर्धन के भाई और उत्तराधिकारी हर्षवर्धन (दे.) ने इसका बदला लेने के लिए कामरूप (आसाम) के शासक कुमार भास्करवर्मा के साथ मिलकर कम से कम सन् ६१९ ई. तक शशांक के विरुद्ध युद्ध जारी रखा, किन्तु शशांक ने उनकी सेनाओं का तीव्र प्रतिरोध किया। शशांक की मृत्यु के बाद उसकी राजधानी कर्णसुवर्ण पर कुछ समय के लिए भास्कर वर्मा का अधिकार हो गया। यह अधिकार कितने अरसे तक रहा, ठीक ठीक पता नहीं चलता। सातवीं शताब्दी के मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक के सौ वर्ष गौड़ राज्य भारी उथल-पुथल, विदेशी आक्रमणों और अराजकता से व्याप्त रहा। यह स्थिति ७५० ई. में पाल वंश के राजाओं के सिंहासनारूढ़ होने पर समाप्त हुई। पाल नरेशों ने गौड़ेश्वर की उपाधि धारण की। द्वितीय पाल नरेश धर्मपाल (लगभग ७५२-८१०) और उसके पुत्र देवपाल (लगभग ८१०-४९) के शासनकाल में गौड़ उत्तरी भारत की एक प्रमुख शक्ति बन गया। इसके बाद पाल वंश के पतन पर गौड़ भी अवनति के गर्त में तबतक गिरता रहा, जबतक वहाँ सेन राजाओं का नया वंश सत्ता में नहीं आया। ११५८ ई. के लगभग बख्तियार खिलजी के पुत्र मलिक इख्तियारुद्दीन मुहम्मद ने हमला करके गौड़ को सेन शासकों के हाथ से छीन लिया। मुसलमानों के आधिपत्य के बाद पृथक् राज्य के रूप में गौड़ का अस्तित्व समाप्त हो गया, किन्तु नगर के रूप में वह इसी नाम से आगामी तीन शताब्दियों तक प्रांतीय राजधानी बना रहा।

गौड़ नगर  : पश्चिमी बंगाल के आधुनिक माल्दा जिले में स्थित। यह सेन राजाओं (११वीं और १२वीं ई. शताब्दी) के शासनकाल में बंगाल की राजधानी था। १२०३ ई. में इस पर मलिक इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बख्तियार ने कब्जा कर लिया। १२२० ई. में गयासद्दीन ईवाज़ ने इसे बंगाल की राजधानी बनाया। १५३८ ई. में इसे शेरशाह ने लूटा और जला दिया। हुमायूं ने इसका पुनर्निर्माण कराया। १५७० ई. में सम्राट् अकबर ने विशाल फौज भेजकर गौड़ पर कब्जा कर लिया। इस कब्जे के बाद शहर में एक भीषण महामारी का प्रकोप हुआ, जिससे इसकी आबादी बहुत कम हो गयी। जब गंगा नदी अपनी धारा बदलकर शहर से दूर जा पहुँची, तब इसका पूरी तरह से पतन हो गया। अब तो यह ध्वंसावशेषों का ढेर और बीहड़ जंगल है। समृद्धि के दिनों में गौड़ नगर साढ़े सात मील लंबे और दो मील चौड़े क्षेत्र में फैला हुआ था। इसके चारों ओर सुदृढ़ प्राचीर था। इस नगर की अपनी विशिष्ट स्थापनत्य शैली थी। इस शैली की प्रमुख विशेषता प्रत्थर के छोटे किन्तु भारीभरकम खम्भों पर टिकी ईंटों की बनी नुकीली मेहरावें और गुंबज हैं। गौड़ में स्वर्ण मस्जिद (१५२६), छोटी स्वर्ण मस्जिद, लोटन मस्जिद और कदम रसूल मस्जिद के अवशेष अब भी विद्यमान हैं। इनमें कदम रसूल मस्जिद के अवशेष काफी अच्छी हालत में हैं।

गौतम बुद्ध : देखिये, बुद्ध।

गौतमीपुत्र शातकर्णी : सातवाहन वंश का एक प्रसिद्ध राजा, जिसने दूसरी शताब्दी ईसवी के प्रथम चतुर्थांश में शासन किया। उसने भूमक द्वारा स्थापित क्षहरात वंश का उन्मूलन कर उसका राज्य अपने राज्य में मिला लिया। गौतमीपुत्र के राज्य में मालवा, काठियावाड़, गुजरात, उत्तरी कोंकण, बरार और गोदावरी से सींचा जानेवाला समग्र प्रदेश शामिल था। उसने विदेशी शकों, यवनों (ग्रीकों) और पल्हवों (पार्थियनों) की शक्ति का विनाशकर देश के गौरव का पुनरुद्धार किया। उसने ब्राह्मणों और बौद्धों को उदारतापूर्वक दान दिये, और वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा फिर से स्थापित की। उसने सातवाहन वंश का गौरव फिर से प्रतिष्ठित किया।

गौतमी बालश्री : सातवाहन वंश की एक विधवा रानी, जिसका उल्लेख नासिक अभिलेख में मिलता है। अभिलेख में उसे सत्यनिष्ठ, दानी और धैर्यशाली रानी बताया गया है जो तप, त्याग और आत्मसंयम के साथ जीवन व्यतीत करती थी। वह आदर्श राजर्षिवधू और प्रसिद्ध सातवाहन राजा गौतमीपुत्र शातकर्णी की माता थी।

ग्यांत्से : तिब्बत का एक व्यापारिक नगर। १९०४ ई. में लार्ड कर्जन ने तिब्बत पर चढ़ाई के लिए अपनी सेना भेजी। संधि के अनुसार इस नगर में ब्रिटिश भारतीय व्यापार मिशन की स्थापना की गयी।

ग्रान्ट, चार्ल्स (१७४६-१८२३)  : ईस्ट इंडिया कम्पनी में क्लर्क की हैसियत से १७६७ ई. में भारत में नियुक्त, किन्तु पदोन्नति करते-करते १७६७ ई. में भारत में नियुक्त, किन्तु पदोन्नति करते-करते १७८१ ई. में वह मालदा (बंगाल) स्थित व्यापारिक कार्यवाह (कामर्शियल रेजीडेंट) बन गया। लार्ड कार्नवालिस उसकी ईमानदारी से बहुत प्रभावित था। फलतः १७८७ ई. में ग्राण्ट को व्यापार बोर्ड का चौथा सदस्य मनोनीत किया गया। भारत में वह ईसाई धर्मप्रचार का कट्टर समर्थक था। सेवा से निवृत्त होने पर वह इंग्लैण्ड वापस गया और १७०२ ई. में ब्रिटिश संसद का सदस्य बनाया गया। १८०५ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी के कोर्ट आफ डायरेक्टर्स का अध्यक्ष बना। इसके बाद १८०९ और १८१५ में भी इस पद पर चुना गया। ब्रिटिश संसद में वह भारतीय मामलों की बहस में प्रमुख भाग लेता था। उसने भारत में शिक्षा-प्रसार और ईसाई धर्मप्रचार के लिए ब्रिटिश संसद से वार्षिक अनुदान स्वीकार कराया।

ग्रान्ट, जेम्स : बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में १७८४ से १७८९ ई. तक रहा। उसने प्रान्त में राजस्व की व्यवस्था की देखरेख की और १७९१ ई. में बंगाल की जमींदारी और भूमि-व्यवस्था पर अपनी विस्तृत रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट में उस काल की राजस्व-प्रणाली का प्रामाणिक विवरण मिलता है।

ग्राण्ड ट्रंक रोड : शेरशाह (१५४०-४५) (दे.) द्वारा बनावायी गयी। यह सड़क पूर्वी बंगाल के सोनारगांव से पश्चिम में सिंधु नदी तक लगभग १५०० कोस (३००० मील) लम्बी थी। यह अब भी विद्यमान है और कलकत्ता को अमृतसर (पंजाब) से जोड़ती है।

ग्राहम, जनरल : १८८७ ई. में सिक्किम पर हुए तिब्बत के आक्रमण को विफल करनेवाली ब्रिटिश भारतीय फौज का सेनापति।

ग्रिफिन, एडमिरल : एक ब्रिटिश नौसेनाधिकारी। जब १७४७ ई. में डूप्ले (दे.) के नेतृत्व में फ्रांसीसियों ने फोर्ट सेण्ट डेविड पर अधिकार करने की कोशिश की, तब इस आक्रमण को विफल करनेवाले नौसैनिक बेड़े का नेतृत्व ग्रिफिन ने ही किया था।

ग्लैडस्टन, विलियम इबर्ट (१८०९-९८)  : एक प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनेता। वह महारानी विक्टोरिया के जमाने में उदार दल का नेता था और अपने जीवनकाल में चार बार १८६८-७४, १८८०-८५, १८८६ तथा १८९२-९४ ई. में ब्रिटेन का प्रधानमंत्री रहा। उसने भारतीय प्रशासन में कुछ अंशों तक उदारता की नीति अपनायी थी। वह अनुदार दलवालों की उस प्रसार-नीति का विरोधी था, जिसके फलस्वरूप दो बार अफगान-युद्ध हुआ। उसने लार्ड रिपन को भारत में वाइसराय (१८८०-१८८४) नियुक्त किया था, जिसकी नीतियाँ बहुत लोकप्रिय हुईं। ग्लैडस्टन ने द्वितीय अफगान-युद्ध (१८७८-८०) को समाप्त कराया और अमीर अब्दुर्रहमान को मान्यता प्रदान करते हुए अफगानिस्तान के आन्तरिक मामलों में कोई हस्तक्षेप न करने का आदेश दिया। ग्लैडस्टन अपने उदार सिद्धान्तों और आयरलैंड के राष्ट्रवाद के प्रति सहानुभूति के कारण भारतीय जनता में भी लोकप्रिय हुआ। भारत में भी वह उदार नीति का समर्थक समझा जाने लगा।

ग्लौकनिकाई : भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के समय यह गण चनाव नदी के पश्चिम, पंजाब के एक भाग में निवास करता था। यह राज्य पुरु (दे.) के राज्य से मिला हुआ था। इस गण राज्य में ३७ पुर थे, जिनमें से प्रत्येक की जनसंख्या १० हजार से अधिक थी। पुरु (पोरस) की पराजय के पश्चात् सिकन्दर ने इस गण को भी पराजित कर अपने अधीन कर लिया। इस गण का नाम ग्लौसी भी मिलता है। (काशीप्रसाद जायसवाल ने इस गण की पहचान पाणिनि के एक सूत्र में आये ग्लुचुकायन गण से की है। -संपादक)

ग्वायर, सर मारिस लिनफोर्ड : एक विख्यात अंग्रेज विधिवेत्ता, जो भारतीय संघ न्यायालय (दे.) का अध्यक्ष था और १९३७ से १९४३ ई. तक भारत के प्रधान न्यायाधीश पद पर रहा। अवकाशग्रहण करने के पश्चात् वह दिल्ली विश्वविद्यालय का उपकुलपति हुआ और १९४९ ई. तक इस पद पर रहा। भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार करने में उसने महत्त्वपूर्ण योगदान किया था।

ग्वालियर : मध्यप्रदेश का एक नगर। पहले इस नाम की देशी रियासत भी थी। यहाँ एक प्रसिद्ध किला नगर के बाहर लगभग ३०० फुट ऊँची पहाड़ी पर बना हुआ है। इसकी दीवारें बहुत ऊँची हैं और बहुत दिनों तक इसे अभेद्य माना जाता रहा। इसे किस राजा ने बनवाया, इसका पता नहीं, किन्तु यह निश्चित है कि यह ५२५ ई. के पूर्व बना। ऐसी जनश्रुति प्रचलित है कि जिस सूरज नामक राजा ने इस नगर की स्थापना की, वह कुष्ठ रोग से पीड़ित था और ग्वालिया नामक एक संत की कृपा से रोगमुक्त हुआ। नगर का ग्वालियर नाम इसी सन्त के नाम पर पड़ा। शिलालेखों से पता चलता है कि किले का आरंभिक नाम गोपगिरि या गोपाद्रि था, जिसे बाद में ग्वालियर कहा जाने लगा। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार हूण सरदार तोरमाण (दे.) तथा उसके पुत्र मिहिरगुल (दे.) ने छठीं शताब्दी ई. में इस पर अधिकार कर लिया। ९वीं शताब्दी में यह किला कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार राजा भोज (दे.) के अधिकार में आया। १०२१ ई. में महमूद गजनवी के आक्रमण तक यह राजपूतों के अधिकार में रहा। ११९६ ई. में सुलतान कुतुबुद्दीन ऐबक (दे.) ने इस पर अधिकार कर लिया। १२१० ई. में राजपूतों ने इसे पुनः हथिया लिया, लेकिन १२३२ ई. में सुल्तान इल्तुतमिश ने पुनः इस पर कब्जा कर लिया। १३९८ ई. में यह तोमर (तंवर) राजपूतों के अधिकार में आया और १५१८ ई. तक रहा। इस वंश का सर्वप्रसिद्ध राजा मानसिंह तोमर (१४८६-१५१७) हुआ है, जिसने इस किले में विशाल महल और बड़े-बड़े फाटक बनवाये। उसकी रानी मृगनैनी के कारण ग्वालियर संगीत विद्या का केन्द्र बना। तानसेन जैसा विख्यात संगीतज्ञ इसी ग्वालियर की देन है। यहीं पर उसकी कब्र बनी हुई है। १५१८ ई. में इब्राहीम लोदी (दे.) ने इस किले पर कब्जा जमा लिया। सन् १५२६ ई. में बाबर (दे.) ने इस पर अधिकार किया। १५४२ ई. में यह शेरशाह सूरी (दे.) के कब्जे में आया। लेकिन १५५८ ई. में अकबर ने पुनः इसे मुगल सल्तनत में मिला लिया। मुगल बादशाहों ने इस किले को मुख्यतः शाही कैदखाने के रूप में इस्तेमाल किया, जिसमें राजबंदी रखे जाते थे। १७५१ ई. में मराठों ने इस पर कब्जा कर लिया। १७७१ ई. में मराठा सरदार शिन्दे ने इसे अपनी राजधानी बनाया। १७८१ ई. में अंग्रेजी सेना ने पोफम के नेतृत्व में इस पर अचानक कब्जा कर लिया, लेकिन बाद में अंग्रेजों ने इसे शिन्दे को लौटा दिया। १८५७ ई. के स्वाधीनता संग्राम में यहां की फौजों ने विद्रोह किया और शिन्दे के शासन को समाप्त कर दिया, लेकिन सर ह्यू रोज़ के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने विद्रोह को दबाकर इस पर कब्जा कर लिया। १८८६ ई. तक इस पर अंग्रेज काबिज़ रहे। बाद में उन्होंने इसे शिन्दे को लौटा दिया। १९४७ ई. में भारत के स्वाधीन होने के बाद यह राज्य भारतीय गणतन्त्र में विलीन हो गया। इस नगर में तथा आसपास बहुत से ऐतिहासिक स्मारक हैं। नगर में ८ बड़े तालाब तथा ६ बड़े महल हैं। प्राचीन उज्जयिनी, भिलसा (विदिशा), बेसनगर, उदयगिरि तथा बाध की प्रसिद्ध बौद्ध गुहाओं के अवशेष आज भी इस राज्य में विद्यमान हैं। चन्देरी, मन्दसौर और गोहद में भी, जो इसी राज्य के अंग थे, प्राचीन अवशेष पाये जाते हैं।

घसीटी बेगम : बंगाल के नवाब अलीवर्दी खां (१७४०-५६) की सबसे बड़ी पुत्री। वह अपने चचेरे भाई नवाजिश मुहम्मद को ब्याही थी। नवाजिश को ढाका का हाकिम नियुक्त किया गया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी। उसकी विधवा घसीटी बेगम मुर्शिदाबाद लौट आयी। राजवल्लभ उसका दीवान तथा हुसेन कुली खां उसका विश्वस्त गुमाश्ता था। अलीवर्दी खां के पश्चात् घसीटी बेगम ने अपने भांजे सिराजुद्दौला को गद्दी पर बैठाने का समर्थन नहीं किया। उसने अपनी दूसरी छोटी बहन के पुत्र शौकतजंग को, जो पूर्णिया का हाकिम था, बंगाल का नवाब बनाना चाहा। सिराज ने इसी दौरान जब सुना कि घसीटी बेगम और हुसेन कुली खां के बीच अवैध संबंध है, तो वह आगबबूला हो गया और उसने मुर्शिदाबाद की सड़क पर खुलेआम हुसेनकुली खां की हत्या कर दी। इससे घसीटी बेगम और सिराज के बीच मनमुटाव और बढ़ गया। जब १७५६ ई. में अलीवर्दी खां बहुत बीमार था और उसके जीवित रहने की कोई आशा नहीं रही, घसीटी बेगम ने राजवल्लभ की सलाह पर मुर्शिदाबाद स्थित नवाब के महल को छोड़ दिया और नगर के बाहर दक्षिण में दो मील दूर मोती झील पर वह अपने १० हजार अंगरक्षकों के साथ रहकर सिराजुद्दौला के विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगी। सिराज गद्दी पर बैठने के बाद बड़ी चतुराई से घसीटी बेगम को मोती झील से नवाब के महल में ले आया। राजवल्लभ घसीटी बेगम का बहुत-सा धन हड़पकर अंग्रेजों की शरण में चला गया, किंतु घसीटी बेगम अब सिराजुद्दौला के विरुद्ध षड्यंत्रों में कोई सक्रिय भाग लेने की स्थिति में नहीं रह गयी थी। १७५६ ई. में सिराज ने घसीटी बेगम की छोटी बहन के पुत्र शौकतजंग को लड़ाई में हरा दिया और मार डाला। इसके बाद बंगाल की राजनीति पर घसीटी बेगम का प्रभाव समाप्त हो गया। आज भी मोतीझील के खंडहर विद्यमान हैं।

घोषा : वैदिक युग की एक प्रमुख ब्रह्मवादिनी नारी, जिसके नाम से ऋग्वेद में अनेक सूक्त मिलते हैं।