विक्षनरी:भारतीय इतिहास कोश (च से न)
चंगेज खां : जन्म ११६२ ई. में। उसका मूल नाम तामूचिन था। वह मंगोलों का सरदार था जो बाद को चिंगीज़ कागन (चंगेज खाँ) के चीनी नाम से विख्यात हुआ। वह महान् सेनानयक और विजेता था, जिसने चंद वर्षों के अंदर चीन के विशाल भूभाग और मध्य एशिया के सभी प्रसिद्ध राज्यों पर विजय प्राप्त कर ली थी। इन राज्यों में बलख, बुखारा और समरकंद तथा हेरात और गजनी शामिल थे। चंगेज खाँ ने खीवा के बादशाह जलालुद्दीन को हराया जो भागकर पंजाब पहुँचा और उसने दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश (१२११-३६) से शरण माँगी, मगर इलतुतमिश ने इनकार कर दिया। सुलतान इलतुतमिश के इस बुद्धिमत्तापूर्ण कदम का परिणाम यह हुआ कि चंगेज खाँ, जो वस्तुतः सिन्ध नदी तक चढ़ आया था, भारत की ओर न बढ़कर दक्षिण-पूर्वी यूरोप की तरफ मुड़ गया। मृत्यु से पहले (१२२७ ई.) तक चंगेज खाँ ने दक्षिण-पूर्वी यूरोप के अनेक भागों को रौंदा और कृष्ण सागर में गिरनेवाली नीपर नदी तक अपनी विजय-वैजयंती फहरायी। चंगेज खाँ सेनानायक और विजेता मात्र ही नहीं, सुयोग्य संगठनकर्ता और शासक भी था। उसने अपने विशाल साम्राज्य के लिये कानून बनाये और व्यवस्था की स्थापना की। उसके वंशजों ने बाद को इस्लाम धर्म अपना लिया। भारतीय मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर भी मातृकुल से अपने को चंगेज खाँ की संतान मानता था।
चण्ड प्रद्योत महासेन : देखिये, अवंती का प्रद्योत।
चण्डीदास, अनन्तब्दु : प्रख्यात वैष्णव कवि। इनका जन्म पश्चिमी बंगाल के वीरभूमि जिले के नन्नूर गाँव में सम्भवतः चौदहवीं शताब्दी के अन्त में हुआ था। इन्होंने राधाकृष्ण प्रेम पर बंगला भाषा में बहुत ही सुंदर भजनों की रचना की है। ये गीत आज भी बहुत लोकप्रिय हैं। 'श्रीकृष्ण कीर्तन' भी इन्हीं की रचना है।
चंद बरदाई : दिल्ली और अजमेर के शासक (११७०-९०) पृथ्वीराज चौहान (दे.) का दरबारी कवि। उसने 'पृथ्वीराज रासो' या 'चंद रायसा' नामक महाकाव्य की रचना की थी। इस ग्रंथ में मुख्यरूप से पृथ्वीराज चौहान की गौरवगाथा, उसके विवाहों और मुसलमानों से युद्धों का वर्णन है।
चंद रायसा : हिन्दी का एक प्रसिद्ध महाकाव्य, जिसे दिल्ली और अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज के दरबारी कवि चंद्र बरदाई ने लिखा है। बाद में चारणों ने इसमें कुछ अंश और जोड़कर इसकी आकार-वृद्धि कर दी। अब इस ग्रंथ में लगभग सवा लाख छंद मिलते हैं। पृथ्वीराज के जीवन, कन्नौज के राठौर राजा जयचंद से उसकी शत्रुता, उसके विवाह, मुसलमानों के साथ हुए उसके युद्धों और उसकी वीरगति के बारे में सूचना देनेवाला एकमात्र यही ग्रंथ है।
चन्दा साहब : कर्नाटक के नवाब दोस्त अली का दामाद। १७४१ ई. में मराठों ने कर्नाटक पर हमला कर दिया और नवाब दोस्त अली की हत्या कर उसके दामाद चन्दा साहब को बंदी बनाकर ले गये। सात वर्ष बाद १७४८ ई. में मराठों ने चन्दा साहब को मुक्त कर दिया। इसी बीच पहला कर्नाटक या इंग्लैण्ड-फ्रांस युद्ध छिड़ गया था। इस युद्ध में डूप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसियों के श्रेष्ठ रणकौशल की सब ओर प्रशंसा होने लगी। इसलिए चन्दा साहब ने अनवरुद्दीन को गद्दी से उतारने के लिए, जिसे १७४३ ई. में निजाम ने कर्नाटक का नवाब नियुक्त किया था, डूप्ले के साथ सैनिक संधि कर ली। दोनों की संयुक्त फौजों ने अगस्त १७४९ ई. में आम्बूर के युद्ध में अनवरुद्दीन को हराया और मार डाला तथा उसके पुत्र और भावी उत्तराधिकारी मुहम्मद अली को खदेड़ दिया। मुहम्मद अली ने तिरुचिरापल्ली के किले में शरण ली। चन्दा साहब कर्नाटक का नवाब घोषित किया गया तथा आर्काट राजधानी बनी। इसके बाद चन्दा और डूप्ले ने तिरुचिरापल्ली में महम्मद अली को घेर लिया। किन्तु यह घेरा कुशलता के साथ नहीं संचालित किया गया, जिससे मुहम्मद अली को मैसूर और तंजोर के शासकों से सहायता प्राप्त करने का समय मिल गया। उधर मद्रास स्थित अंग्रेजों को भी मुहम्मद अली की तरफ से हस्तक्षेप करने का मौका मिल गया। युवक राबर्ट क्लाइव (दे.) ने दो सौ अंग्रेज तथा तीन सौ भारतीय सैनिकों को लेकर आर्काट के किले पर अचानक आक्रमण करके अधिकार कर लिया। चन्दा साहब ने आर्काट को पुनः हस्तगत करने के लिए तुरंत भारी फौज भेजी, लेकिन वह न केवल अपने इस प्रयास में विफल हुआ वरन् घमासान युद्ध में पराजित भी हुआ। उसने मजबूर होकर आत्मसमर्पण कर दिया। लेकिन तंजौर के राजा (१७५२) के आदेश पर उसका सर उड़ा दिया गया।
चंदावर का युद्ध : ११९४ ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी और बनारस तथा कन्नौज के राजा जयचंद के बीच हुआ। जयचंद इस युद्ध में पराजित होकर मारा गया तथा कन्नौज और बनारस पर मुस्लिम शासन स्थापित हो गया।
चंदेल : राजपूतों की एक जाति, इस वर्ग के लोग अपने को क्षत्रिय वर्ण के अन्तर्गत मानते हैं। किन्तु कुछ आधुनिक विद्वानों द्वारा उनकी उत्पत्ति गोंडों तथा भरों से बतलायी जाती है। बाद में इनके सरदारों के हाथ में शासन सत्ता आ जाने पर इन्हें क्षत्रिय कहा जाने लगा। चंदेलों की राजनीतिक शक्ति का उदय और विकास आधुनिक विध्यप्रदेश के दक्षिण में विद्याचल और उत्तर में यमुना के बीच स्थित बुंदेलखण्ड में हुआ। उस समय इस प्रदेश का नाम जेजाकभुक्ति या जझौती था। खजुराहों के भव्य मंदिर, कालिंजर का मजबूत किला, अजयगढ़ का महल और महोबा का प्राकृतिक सौंदर्य चंदेलों की संस्कृति और उपलब्धियों के केन्द्र थे। चंदेल शिव तथा कृष्ण के उपासक थे, परन्तु कुछ चंदेल बौद्ध और जैन धर्मों के भी अनुयायी थे। चंदेलों ने स्थापत्य कला की एक भव्य शैली का विकास किया, जिसके उदाहरण खजूराहो में अब भी विद्यमान हैं। यहाँ का महादेव नामक मुख्य शिव मन्दिर १०९ फुट लम्बा,, ६० फूट चौड़ा और ११६.५ फुट ऊँचा है। चंदेलों की शासन प्रणाली राजतंत्रीय परम्परा पर आधारित थी और उसमें न केवल राजसिंहासन के लिए उत्तराधिकार की व्यवस्था थी, वरन् मंत्रियों के पद भी वंशानुगत हुआ करते थे। दसवीं शताब्दीके अन्त में प्रतिहारों की शक्ति क्षीण हो जाने के बाद चंदेलों को संपूर्ण उत्तरी भारत पर शासन करने का अवसर मिला, लेकिन वे इसके योग्य सिद्ध नहीं हुए। (एन. एस. बोस कृत 'हिस्ट्री आफ चंदेलाज़', एस. के. मित्र कृत 'खजुराहो के प्रारम्भिक शासक')
चंदेल वंश : नवीं शताब्दी के आरंभ में नानुक चंदेल द्वारा इस वंश की स्थापना हुई, जो प्रतिहारों के मुखिया को विनष्ट कर जेजाकभुक्ति (आधुनिक बुंदेलखण्ड) के दक्षिणी भाग का स्वामी बन गया था। नानुक से बीस राजाओं की वंश परम्परा चली। इससे पहले के चंदेल राजा गुर्जर प्रतिहारों के करद सामंत थे। सातवाँ राजा यशोवर्मा ही व्यावहारिक दृष्टि से इस वंश का पहला स्वतंत्र शासक हुआ। उसने कालिंजर का प्रसिद्ध दुर्ग अपने अधिकार में कर लिया और खजुराहो मंदिर में स्थापनार्थ विष्णु की बहुमूल्य प्रतिमा उपहारस्वरूप देने के लिए प्रतिहार राजा देवपाल को मजबूर कर दिया। उसका पुत्र धंग (लगभग ९५०-१००८ ई.) चंदेलवंश का सबसे अधिक प्रतापी शासक हुआ। उसने पूरे जेजाकभुक्ति पर अपने राज्य का विस्तार करते हुए तत्कालीन भारतीय राजनीति में सक्रिय भाग लिया। वह ९८९ या ९९० ई. में अफगानिस्तान से होनेवाले सुबुक्तगीन के आक्रमण को रोकने के लिए पंजाब नरेश जयपाल द्वारा बनाये गये संघ में शामिल था। लेकिन सुबुक्तगीन के हाथों इस संघ को हार खानी पड़ी। अन्त में सौ वर्ष की लम्बी आयु प्राप्त कर धंग ने प्रयाग में शिव का नाम लेते हुए गंगा-यमुना संगम में जल-समाधि ले ली। धंग के बाद उसके पुत्र गंड ने पंजाब नरेश आनंदपाल (जयपाल का पुत्र) के साथ संघ बनाकर महमूद गजनवी से मोर्चा लिया, किन्तु दुर्भाग्य से यह दूसरा संघ भी पराजित हुआ। इस वंश के दसवें शासक विजयपाल (१०३०-५० ई.) ने कन्नौज नरेश राज्यपाल पर आक्रमण कर इसलिए मार डाला कि उसने सुल्तान महमूद गजनवी के आगे आत्मसमर्पण कर दिया था। किन्तु शीघ्र ही वह स्वयं महमूद गजनवी से पराजित हो गया। यद्यपि महमूद गजनवी का आधिपत्य अधिक समय तक नहीं रहा, तथापि श्री विजय पाल की पराजय से इस वंश की शक्ति क्षीण हो गयी और बाद के बारहों राजाओं में कोई भी तत्कालीन राजनीति में महत्त्वपूर्ण भाग नहीं ले सका और धीरे-धीरे चंदेल शक्ति का पतन हो गया। बारहवें राजा कीर्तिवर्मा ने (१०६०-११०० ई.) प्रसिद्ध आध्यात्मिक नाटक 'प्रबोधचंद्रोदय' के रचयिता को अपने यहाँ प्रश्रय दिया था। सत्रहवां शासक परमार्दि या परमल (लगभग ११६५-१२०२ ई.) इस वंश का अन्तिम उल्लेखनीय राजा था, जिसने इतिहास के मंच पर कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। परमार्दि ने अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज के आक्रमण का बहादुरी से सामना किया किन्तु हार का मूंह देखना पड़ा।इसके बाद कुतुबुद्दीन ऐबक आ धमका और उसने काजिंलर के दुर्ग पर कब्जा कर लिया। चंदेलवंश ने बुंदेलखंड की मात्र स्थानीय शक्ति के रूप में १४वीं शताब्दी तक किसी न किसी तरह अपना अस्तित्व बनाये रखा। अंतिम शासक हमीरवर्मा के निधन के साथ इस वंश का अन्त हो गया (एन. एस. बोस कृत 'हिस्ट्री आफ दि चंदेलाज़')।
चन्द्र : पूर्वी बंगाल का स्थानीय सामन्त, जिसने ग्यारहवीं शताब्दी में पालवंश की अवनति शुरू होने के बाद कुछ समय के लिए बंगाल के कुछ भाग पर शासन किया।
चन्द्रगिरि : लगभग १५८५ ई. में विजयनगर के परवर्ती राजाओं की राजधानी। १६३९ ई. में चन्द्रगिरि के राजा के अधीनस्थ एक नायक ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के मि. डेको मद्रास की भूमि प्रदान कर दी। १६४५ ई. में चंद्रगिरि के राजा रंग द्वितीय ने इस अनुदान की पुष्टि कर दी। इसके बाद वहाँ सेण्ट डेविड नामक किले का निर्माण हुआ। इसी किले के चारों तरफ मद्रास नगर का विकास किया गया है।
चन्द्रगुप्त : कर्कोट वंश का तीसरा राजा। इस वंश की स्थापना सातवीं शती के प्रारंभ में कश्मीर में हुई थी।
चन्द्रगुप्त प्रथम : गुप्त राजाओं के वंश का प्रवर्तक और पहला शासक। शुरू में उसका शासन मगध के कुछ भागों तक सीमित था। बाद को लिच्छिवि कुमारी कुमारदेवी से विवाह करके उसने अपनी शक्ति और राज्य का विस्तार कर लिया। उसने पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया, महाराजाधिराज की उपाधि धारण की; स्वयं अपने, अपनी रानी और लिच्छिवियों के नाम पर संयुक्तरूप से सोने के सिक्के चलाये, साम्राज्य का विस्तार मगध के बाहर इलाहाबाद तक किया और एक नये युग का प्रवर्तन किया जो गुप्तकाल के नाम से ज्ञात है। गुप्तकाल का शुभारंभ ३६ फरवरी ३२० ई. से हुआ, जो सम्भवतः चन्द्रगुप्त के राज्याभिषेक की तिथि है। चन्द्रगुप्त प्रथम का अल्प शासनकाल ३३० ई. में समाप्त हो गया। मृत्यु के पहले उसने अपने पुत्र समुद्रगुप्त (दे.) को, जो कुमारदेवी से जन्मा था, उत्तराधिकारी मनोनीत किया। इसने अपने बाहुबल से साम्राज्य का दूर-दूर तक विस्तार किया और शक्तिशाली गुप्त सम्राटों के वंश का सूत्रपात किया, जिन्होंने पाँचवीं शताब्दी के अंत तक मगध पर शासन किया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय : गुप्त वंश का तीसरा सम्राट् और समुद्रगुप्त (दे.) का पुत्र व उत्तराधिकारी। इसका शासनकाल सम्भवतः ३७५ ई. से ४१३ ई. तक रहा। उसने मालवा, गुजरात और काठियावाड़ पर विजय प्राप्त की, उज्जयिनी के शक क्षत्रपों का उच्छेदन किया और उनका राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया। अपनी महान् विजयों के उपलक्ष्य में उसने विक्रमादित्य (दे.) की उपाधि धारण की। शायद यह वही विक्रमादित्य है, जिसकी न्याय-नीति, उदारता और शौर्य-पराक्रम के बारे में न जाने कितनी किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। इतना स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय बहुत प्रतापी और शक्तिशाली सम्राट् था। उसके शासनकाल में कला, स्थापत्य और मूर्ति रचना का उल्लेखनीय विकास हुआ और भारत का सांस्कृतिक विकास तो अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया। कालिदास जैसा संस्कृत का उद्भट महाकवि और नाटककार (अभिज्ञानशाकुन्तलम् का लेखक) चन्द्रगुप्त द्वितीय के ही दरबार में था। उसके ही शासनकाल में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया और छः वर्षों (४०५-११) तक उसके राज्य में रहा। फाह्यान यद्यपि सम्राट् चंद्रगुप्त के दरबार में कभी गया नहीं, तथापि उसने तत्कालीन भारत की बहुत सुंदर तस्वीर पेश की है। उसने अपने यात्रा-विवरणों में लिखा है कि उस समय देश का शासन अत्यन्त सुव्यवस्थित था, लोग शान्तिपूर्ण और समृद्धिशाली जीवन बिता रहे थे। सम्राट् चंद्रगुप्त आमतौर से अयोध्या या कौशाम्बी में रहता था, फिर भी पाटलिपुत्र की ख्याति महत्त्वपूर्ण नगर के रूप में बनी हुई थी। फाह्यान को इस नगर के वैभव और सुख-सम्पन्नता ने अत्यन्त प्रभावित किया। चंद्रगुप्त ने धर्मार्थ औषधालयों और यात्रियों के लिए निःशुल्क विश्रामशालाओं का निर्माण कराया। वह अपने पूर्वजों की ही तरह धर्मनिष्ठ हिन्दू और विष्णु का उपासक था, लेकिन उसने बौद्ध और जैन धर्मों को भी प्रश्रय दिया।
चन्द्रगुप्त मौर्य : मौर्यवंश का संस्थापक। उसके माता-पिता के नाम ठीक-ठीक ज्ञात नहीं हैं। पुराणों के अनुसार वह मगध के राजा नन्द का उपपुत्र था, जिसका जन्म मुरा नामक शूद्रा दासी से हुआ था। बौद्ध और जैन सूत्रों से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म पिप्पलिवन के मोरिय क्षत्रिय कुल में हुआ था। जो भी हो, चन्द्रगुप्त प्रारंभ से ही बहुत साहसी व्यक्ति था। जब वह किशोर ही था, उसने पंजाब में पड़ाव डाले हुए यवन (यूनानी) विजेता सिकंदर से भेंट की। उसने अपनी स्पष्टवादिता से सिकंदर को नाराज कर दिया। सिकंदर ने उसे बंदी बना लेने का आदेश दिया, लेकिन वह अपने शौर्य का प्रदर्शन करता हुआ सिकंदर के शिकंजे से भाग निकला और कहा जाता है कि इसके बाद ही उसकी भेंट तक्षशिला के एक आचार्य चाणक्य या कौटिल्य से हुई। चाणक्य ने चंद्रगुप्त को सुदृढ़ सेना गठित करने और नंदवंश के अन्तिम शासक को उच्छिन्न कर मगध में अपना शासन स्थापित करने में धन की सहायता दी। इस बीच सिकंदर भारत से लौट गया था और उसकी मृत्यु भी हो चुकी थी। इस स्थिति का लाभ उठाकर चंद्रगुप्त ने पंजाब से यूनानी शासन का उच्छेदन कर दिया। इन घटनाओं की निश्चित तिथियां अभी तक निर्धारित नहीं की जा सकी हैं, लेकिन ऐसा अनुमान है कि वे ईसापूर्व ३२४ और ३२१ के बीच घटी होंगी। चंद्रगुप्त के पास विशाल सेना थी, जिसमें ३० हजार घुड़सवार, ९ हजार हाथी, ६ लाख पैदल और भारी संख्या में रथ शामिल थे। इस विशाल वाहिनी के बलपर उसने संपूर्ण आर्यावर्त (उत्तरी भारत) पर अपनी विजय-पताका फहरायी। मालवा, गुजरात और सौराष्ट्र पर विजय प्राप्त कर उसने नर्मदा तक साम्राज्य का विस्तार किया। ईसा-पूर्व ३०५ में यूनानी सेनापति सेल्यूकस ने, जो सिकंदर की मृत्यु के बाद पूर्वी यूनानी साम्राज्य का अधिष्ठाता बन बैठा था, चंद्रगुप्त की शक्ति को चुनौती दी। भारत और यूनानी सम्राटों में जमकर लड़ाई हुई। यद्यपि इस युद्ध के बारे में विस्तार से कुछ पता नहीं है, फिर भी इतना निश्चित है कि इसमें सेल्यूकस की हार हुई और उसे अपमानजनक संधि करने को बाध्य होना पड़ा, जिसके अंतर्गत उसने चंद्रगुप्त मौर्य को काबुल, हेरात, कन्धार और बलुचिस्तान के प्रदेश समर्पित कर दिये और अपनी पुत्री हेलना का उससे विवाह कर दिया। चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस को उपहार में सिर्फ ५०० हाथी दिये। इस प्रकार चंद्रगुप्त मौर्य अपने साम्राज्य का विस्तार उत्तर-पश्चिम में हिंदुकुश की पहाड़ियों तक करके उसे वहाँ तक पहुँचा दिया जिसे भारत की वैज्ञानिक सीमा कहा जाता है। इतिहासकारों के मतानुसार यह संधि ईसा-पूर्व ३०३ में हुई होगी। यह संधि चंद्रगुप्त मौर्य की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। चंद्रगुप्त अठारह वर्षों के अल्पकाल में न केवल मगध के राजसिंहासन पर बैठा वरन् उसने पंजाब और सिंध से यूनानी फौजों को खदेड़ दिया, सेल्यूकस का दर्प चूर कर दिया और समग्र उत्तर भारत में अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया। इन्हीं उपलब्धियों के कारण चंद्रगुप्त की गणना भारतीय इतिहास के महान् और सर्वाधिक सफल सम्राटों में होती है। इस बीच सिकंदर भारत से लौट गया था और उसकी मृत्यु भी हो चुकी थी। इस स्थिति का लाभ उठाकर चंद्रगुप्त ने पंजाब से यूनानी शासन का उच्छेदन कर दिया। इन घटनाओं की निश्चित तिथियां अभी तक निर्धारित नहीं की जा सकी हैं, लेकिन ऐसा अनुमान है कि वे ईसापूर्व ३२४ और ३२१ के बीच घटी होंगी। चंद्रगुप्त के पास विशाल सेना थी, जिसमें ३० हजार घुड़सवार, ९ हजार हाथी, ६ लाख पैदल और भारी संख्या में रथ शामिल थे। इस विशाल वाहिनी के बलपर उसने संपूर्ण आर्यावर्त (उत्तरी भारत) पर अपनी विजय-पताका फहरायी। मालवा, गुजरात और सौराष्ट्र पर विजय प्राप्त कर उसने नर्मदा तक साम्राज्य का विस्तार किया। ईसा-पूर्व ३०५ में यूनानी सेनापति सेल्यूकस ने, जो सिकंदर की मृत्यु के बाद पूर्वी यूनानी साम्राज्य का अधिष्ठाता बन बैठा था, चंद्रगुप्त की शक्ति को चुनौती दी। भारत और यूनानी सम्राटों में जमकर लड़ाई हुई। यद्यपि इस युद्ध के बारे में विस्तार से कुछ पता नहीं है, फिर भी इतना निश्चित है कि इसमें सेल्यूकस की हार हुई और उसे अपमानजनक संधि करने को बाध्य होना पड़ा, जिसके अंतर्गत उसने चंद्रगुप्त मौर्य को काबुल, हेरात, कन्धार और बलुचिस्तान के प्रदेश समर्पित कर दिये और अपनी पुत्री हेलना का उससे विवाह कर दिया। चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस को उपहार में सिर्फ ५०० हाथी दिये। इस प्रकार चंद्रगुप्त मौर्य अपने साम्राज्य का विस्तार उत्तर-पश्चिम में हिंदुकुश की पहाड़ियों तक करके उसे वहाँ तक पहुँचा दिया जिसे भारत की वैज्ञानिक सीमा कहा जाता है। इतिहासकारों के मतानुसार यह संधि ईसा-पूर्व ३०३ में हुई होगी। यह संधि चंद्रगुप्त मौर्य की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। चंद्रगुप्त अठारह वर्षों के अल्पकाल में न केवल मगध के राजसिंहासन पर बैठा वरन् उसने पंजाब और सिंध से यूनानी फौजों को खदेड़ दिया, सेल्यूकस का दर्प चूर कर दिया और समग्र उत्तर भारत में अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया। इन्हीं उपलब्धियों के कारण चंद्रगुप्त की गणना भारतीय इतिहास के महान् और सर्वाधिक सफल सम्राटों में होती है।
चन्द्रगुप्त के दरबार में मेगस्थनीज (दे.) नामक एक यूनानी राजदूत भेजा गया था। उसके द्वारा लिखी गयी पुस्तक 'इंडिका' (दे.) तथा चाणक्य या कौटिल्य के अर्थशास्त्र से चन्द्रगुप्त की उस शासन-प्रणाली के बारे में पता चलता है, जिसके बलपर विशाल साम्राज्य को एकसूत्र में बाँधकर चौबीस वर्षों (ईसा-पूर्व ३२२ से ३६८) तक सफलतापूर्वक शासन करता रहा। पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त का महल, जो मेगस्थनीज के अनुसार ऐश्वर्य और वैभव में सूसा और इक्बताना के महलों की भी मात करता था, अब नहीं है। स्वयं पाटलिपुत्र नगर भी, जो गंगा और सोन नदियों के संगम पर आधुनिक दीनापुर के निकट बसा हुआ था, अब इन नदियों की रेत के नीचे दबा पड़ा है। लेकिन उसके यशस्वी निर्माता की कीर्ति अजर अमर है। (स्मिथ, अध्याय ४; राय चौधरी, अध्याय ४ तथा मैकक्रिनिल कृत 'एन्शियेन्ट इंडिया')
चन्द्रदेव : ग्यारहवीं शताब्दी के आखिरी दशक में इसने गाहड़वाल वंश की स्थापना की और कन्नौज को राजधानी बनाया। उसके वंश ने तेरहवीं शताब्दी के आरंभ तक राज्य किया।
चन्द्रनगर : बंगाल का वह स्थान, जहाँ फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी ने व्यापारिक केन्द्र की स्थापना की। फ्रांसीसियों को यह स्थान १६७४ ई. में नवाब शायस्ता खाँ ने दिया था और कारखाने का निर्माण १६९०-९२ ई. में हुआ। १७५७ ई. में क्लाइव और वाटसन के नेतृत्व में अंग्रेजों ने इस नगर पर कब्जा कर लिया। छः वर्ष बाद १७६३ ई. में चन्द्रनगर फ्रांसीसियों को इस हिदायत के साथ फिर लौटा दिया गया कि व्यापारिक केन्द्र के अलावा किसी और रूप में इसका विकास न हो। चन्द्रनगर १९५० ई. में भारतीय गणतंत्र की स्थापना तक फ्रांसीसियों के अधिकार में रहा। इसके बाद इसका विलय भारतीय गणतंत्र में हो गया।
चन्द्र, राजा : मेहरौली लौह-स्तम्भ के अभिलेखों में इसका वर्णन हुआ है। कहा जाता है कि उसने एक तरफ तो बंगाल में अपने शत्रुओं को परास्त किया और दूसरी तरफ सिंध के मुहाने पर बाह्लीकों पर विजय प्राप्त की। इस राजा की पहचान निश्चित रूप से नहीं की जा सकी है। सुसुनिया अभिलेख में भी चन्द्र नामक राजा का उल्लेख है। (राय चौधरी, पृ. ५३५ नोट)
चन्द्र वर्मा : इस नाम के दो राजा हुए हैं। एक का वर्णन महाकाव्यों में कम्बोज नरेश के रूप में हुआ है और दूसरे का उल्लेख समुद्रगुप्त के प्रयाग-अभिलेख में मिलता है। इस अभलेख के अनुसार समुद्रगुप्त ने उत्तरी भारत के जिन राजाओं को पराजित और अपदस्थ किया, उनमें एक राजा चन्द्रवर्मा भी था। सुमुनिया अभिलेख में इस नाम के जिस राजा का उल्लेख है, वह पश्चिमी बंगाल के बाँकुड़ा जिले में दामोदर नदी के तट पर स्थित 'पुष्करण' का शासक था। (राय-चौधरी, पृ. ५३४-५४)
चन्द्रसेन जादव : धनाजी यादव का पुत्र और मराठा राजा साहु का प्रधान सेनापति। चन्द्रसेन का अधीनस्थ सेना संचालक बालाजी विश्वनाथ था। बाद को बालाजी की बढ़ती हुई शक्ति के आगे चन्द्रसेन की शक्ति क्षीण हो गयी और १७१३ ई. में बालाजी पेशवा बन गया।
चम्पतराय : बुंदेलों का नेता। उसने बुंदेलों को संगठित करके मुगल बादशाह औरंगजेब (१६५८-१७०७ ई.) के शासन के आरम्भिक दिनों में उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया, लेकिन जब चम्पतराय ने देखा कि औरंगजेब से उसकी हार निश्चित है और कैद हो जाना सम्भव है, तो उसने अपने पुत्र छत्रसाल को औरंगजेब के खिलाफ लड़ाई जारी रखने का दायित्व सौंपकर आत्महत्या कर ली।
चम्पानगर : मगध के पूर्व और राजमहल पहाड़ियों के पश्चिम में स्थित प्राचीन अंग राज्य की राजधानी। आधुनिक बिहार का भागलपुर क्षेत्र ही प्राचीन काल का चम्पानगर था। यह नगर चम्पा नदी और गंगा के संगम पर बसा हुआ था और अत्यन्त समृद्ध था एवं वाणिज्य-व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र था। भागलपुर शहर के निकट चम्पानगर और चम्पापुर गाँवों से इस प्राचीन नगर की पहचान की जाती है। (राय चौधरी, पृ. १०७)
चम्पा राज्य : एक प्राचीन हिन्दू राज्य, जिसकी स्थापना भारतीय प्रवासियों ने दूसरी शताब्दी ई. में हिन्दचीन के अनाम प्रदेश में की थी, जो आज वियतनाम के नाम से विदित है। राज्य की राजधानी का नाम भी चम्पा था। चम्पा राज्य का अस्तित्व लगभग तेरह सौ वर्षों (लगभग १५० ई. से १४७१ ई.) तक कायम रहा। इसने कम्बुज, अनाम और यहाँ तक कि महान मंगोल सरदार कुबलई खाँ के विरुद्ध लड़ाइयों में शानदार विजय प्राप्त की। चीन से इसके अच्छे राजनयिक संबंध थे। यहाँ के लोग मुख्यतः हिन्दू धर्म को मानने वाले थे। उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु और महेश के बहुत से मंदिरों का निर्माण कराया। बौद्धधर्मावलम्बियों की संख्या भी यहाँ काफी थी। यहाँ के अभिलेखों में संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि का प्रयोग किया गया है। सोलहवीं शताब्दी में मंगोलवंशी अनामियों ने इस हिन्दू राज्य को समाप्त कर दिया।
चक्क : १५५५ से १५८८ ई. तक कश्मीर पर शासन करनेवाली जनजाति। इसका शासन मुगल सम्राट् अकबर ने उखाड़ फेंका था।
चक्रपाणि : एक प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान्, जिसने चिकित्साशास्त्र में विशेष दक्षता प्राप्त की थी। इसका काल ग्यारहवीं शती है। इसने चरक और सुश्रुत संहिताओं पर बहुत सुंदर व्याख्याएँ लिखीं, जिनका नाम क्रमशः 'आयुर्वेद-दीपिका' और 'भानुमती' है। चक्रपाणि की एक अन्य पुस्तक 'चिकित्सासंग्रह' आरोग्य-विज्ञान का आधिकारिक ग्रंथ है। (बंगाल का इतिहास, खण्ड १, पृष्ठ ३१६-३१८)
चक्रवर्ती राजा : प्राचीनकाल में उस सार्वभौम सम्राट् को कहते थे, जिसका सम्पूर्ण भारत पर एकछत्र शासन हो। प्राचीन भारत के सभी शक्तिशाली शासक इस महान् पद को प्राप्त करने के आकांक्षी हुआ करते थे, लेकिन कुछ ही राजा अपनी इस अभिलाषा को पूरा करने में सफल होते थे। साहित्य और शिलालेखों में उल्लिखित चक्रवर्ती राजाओं से इस बात का पता तो चलता ही है कि तत्कालीन भारत में मौलिक राजनीतिक एकता विद्यमान थी।
चक्रायुध : बंगाल के राजा धर्मपाल (लगभग ७७०-८०० ई.) का आश्रित, जिसको धर्मपाल ने कन्नौज के शासक इन्द्रायुध या इन्द्रराज को हराकर उसके स्थान पर वहाँ का शासक नियुक्त किया। कन्नौज के शासक के रूप में उसकी गतिविधियों के बारे में कुछ ज्ञात नहीं है। शिलालेखीय प्रमाणों से पता चलता है कि चक्रायुध धर्मपाल का सामंत था और इसी धर्मपाल के संरक्षकत्व में उसका सितारा चमका। इतना निश्चित है कि कन्नौज पर चक्रायुध का शासन अधिक समय तक नहीं रहा, क्योंकि उसे और उसके संरक्षक धर्मपाल दोनों को ही गुर्जर-प्रतिहार नरेश नगभट्ट ने पराजित कर दिया और उनके राज्य को अपने बढ़ते हुए साम्राज्य में मिला लिया। यह ठीक से ज्ञात नहीं है कि राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय के हाथों नागभट्ट की पराजय के बाद चक्रायुध पुनः कन्नौज के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ कि नहीं। इतना निश्चित है कि चक्रायुध ने कन्नौज में अपना कोई राजवंश स्थापित नहीं किया।
चगताई : प्रसिद्ध मंगोल सरदार चंगेज खाँ का दूसरा पुत्र ; जिसने बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मध्य और पश्चिमी एशिया में विशाल साम्राज्य स्थापित किया। चगताई के वंशज 'चगताई मुगल' के नाम से जाने जाते हैं। बाबर मातृकुल से चगताई वंश का ही था।
चच : सिंध के ब्राह्मण शासक वंश का संस्थापक। जब ७११ ई. में अरबों ने सिन्ध पर आक्रमण किया तो चच का पुत्र और उत्तराधिकारी 'दाहिर' (दे.) सिंध के राजसिंहासन पर आरूढ़ था।
चटगाँव जिला : आराकान के राजा ने १६६६ ई. में इसे मुगल सम्राट् औरगजेब के हवाले कर दिया। १७६० ई. में मीर कासिम ने यह जिला ईस्ट इंडिया कम्पनी को दे दिया। १९०५ ई. में बंग-भंग होने पर यह जिला अन्य जिलों के साथ पूर्वी बंगाल और आसाम के नवगठित प्रांत में जोड़ दिया गया। बंग-भंग रद्द होने पर १९१२ ई. में यह फिर बंगाल प्रांत के अन्तर्गत आ गया। १९४१ ई. में पाकिस्तान बनने पर चटगाँव पूर्वी-पाकिस्तान (पूर्वी बंगाल) का भाग बन गया। बाद में दिसम्बर १९७१ ई. में पूर्वी पाकिस्तान के स्वाधीन हो जाने पर यह जिला नवोदित बंगला देश का अंग बन गया। कर्णफूली नदी पर स्थित इस जिले का मुख्यालय चटगाँव नगर समुद्र के नजदीक है और आधुनिक सुविधाओं से युक्त विशाल और संपन्न बंदरगाह के रूप में विकसित हो रहा है।
चरक : प्राचीन भारत का एक सुविख्यात चिकित्सक, जिसने चिकित्साशास्त्र और औषधिविज्ञान पर एक बहुत ही आधिकारिक ग्रन्थ लिखा है, जिसका नाम उसके नाम पर ही 'चरकसंहिता' प्रसिद्ध हो गया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि चरक कुषाण राजा कनिष्क का समसामयिक था, जिसका संरक्षकत्व भी उसे प्राप्त था। इसलिए कुछ इतिहासकारों का मत है कि चरक ईसा बाद दूसरी शताब्दी में हुआ होगा, लेकिन डाक्टर पी. सी. रायने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री आफ हिन्दू केमिस्ट्री' (हिन्दू रसायनशास्त्र का इतिहास) में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वह प्राक्-बौद्धकाल में हुआ था।
चर्चिल, सर विंस्टन : ब्रिटेन का प्रधानमंत्री, जिसने दूसरे विश्वयुद्ध में विजय प्राप्त की। वह पत्रकार, साहित्यिक, इतिहासकार और मार्लबरों के ड्यूक का वंशज था। उसने अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर काम किया और अन्त में ब्रिटेन के सर्वाधिक संकटमय काल में १० मई १९४० ई. को प्रधानमंत्री बना। इस गुरुतर दायित्व को उसने ७ जुलाई १९४५ तक सँभाला। इस अवधि में उसने मिली-जुली सरकार के नेता के रूप में दूसरे महायुद्ध का संचालन किया और ब्रिटेन को उसमें विजयी बनाया। चर्चिल कट्टर 'टोरी' था और उसे भारत के राष्ट्रीय आंदोलन से कोई हमदर्दी नहीं थी। वह उग्र साम्राज्यवादी था और एक अवसर पर घोषणा की थी कि "आपको देर-सबेर गांधी तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का दमन करना पड़ेगा।" वह गांधीजी तक के लिए 'भारत का नंगा फकीर' जैसे अपशब्दों का प्रयोग करता था और एक अवसर पर बड़े ही दम्भपूर्ण स्वर में कहा था कि "मैंने ब्रिटिश साम्राज्य का विघटन करने के लिए प्रधानमंत्री का पद स्वीकार नहीं किया है।" किन्तु परिस्थितियों के आगे उसकी कुछ नहीं चली। चर्चिल के प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद एक-दो वर्षों में ही ब्रिटेन को भारत को आजादी देनी पड़ी। अवश्य ही भारत में ब्रिटेन की दमनमूलक नीति की विफलता का कटु आभास सर विंस्टन चर्चिल को अपनी मृत्यु से पूर्व हुआ होगा।
चर्बीवाले कारतूस : इन्फील्ड रायफल में, जो १८५६ ई. में ब्रिटिश भारतीय सेना में चालू की गयी थी, इस्तेमाल किये जाते थे। कारतूसों पर चर्बी लगी रहती थी और रायफल में डालने के पहले उन्हें दाँत से काटना पड़ता था। चूंकि अंग्रेजों में किसी भी पशु का मांस वर्जित नहीं है, अतः यह विश्वास किया गया कि इन कारतूसों का प्रचलन हिन्दुओं और मुसलमानों को विधर्मी बनाने के लिए ही किया गया है। अधिकारियों ने पहले तो किसी प्रकार की चर्बी के इस्तेमाल को अस्वीकार किया, किन्तु बाद में जाँच करने पर पता चला कि ऊलविच आयुध कारखाने में जहाँ कारतूस बने थे पशुओं की चर्बी का इस्तेमाल किया गया है। अतएव सरकारी खंडन से स्थिति और भी छलपूर्ण समझी गयी और ऐसी धारणा फैल गयी कि चर्बीवाले कारतूसों का जान-बूझकर प्रचलन करके ईसाई सरकार हिन्दुओं और मुसलमानों को धर्मभ्रष्ट कर रही है। कारतूसों को बाद में वापस ले लिया गया, लेकिन यह कार्य काफी विलम्ब से हुआ और इसे सरकार की कमजोरी का परिचायक माना गया। सरकार के वक्तव्यों पर विश्वास नहीं किया गया और चर्बीवाले कारतूसों के प्रयोग से सिपाहियों में व्याप्त असन्तोष और भड़क उठा। १८५७ ई. के सिपाही विद्रोह के अनेक कारणों में यह प्रमुख कारण था।
चस्टन : मालवा के महाक्षत्रिय वंश का संस्थापक। उसका शासनकाल पहली शताब्दी इसवी के उत्तरार्ध में था और राजधानी उज्जैन थी। उसने चाँदी और सोने के बहुत-से सिक्के चलाये, जिनमें से कुछ प्राप्त हुए हैं।
चाँद बीबी : अहमदनगर के तीसरे शासक हुसैन निज़ाम शाह की पुत्री, जिसका विवाह बीजापुर के पाँचवें सुल्तान अली आदिलशाह (१५५७-८० ई.) के साथ हुआ था। १५८० ई. में पति की मृत्यु हो जाने पर वह अपने नाबालिग बेटे इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय (बीजापुर के छठे सुल्तान) की अभिभाविका बन गयी। बीजापुर का प्रशासन मंत्रियों द्वारा चलाया जाता रहा। १५८४ ई. में चाँदबीबी बीजापुर से अपनी जन्मभूमि अहमदनगर चली गयी और फिर कभी बीजापुर नहीं गयी। १५९३ ई. में मुगल बादशाह अकबर की फौजों ने अहमदनगर राज्य पर आक्रमण किया। संकट की इस घड़ी में चाँददबीबी ने अहमदनगर की सेना का नेतृत्व किया और अकबर के पुत्र शाहजादा मुराद की फौजों से बहादुरी के साथ सफलतापूर्वक मोर्चा लिया। किन्तु सीमित साधनों के कारण अंत में चाँदबीबी को मुगलों के हाथ बरार सुपुर्द कर उनसे संधि कर लेनी पड़ी। लेकिन इस संधि के बाद जल्दी ही लड़ाई फिर शुरू हो गयी। चाँदबीबी की सुरक्षा-व्यवस्था इतनी सुदृढ़ थी कि उसके जवित रहते मुगल सेना अहमदनगर पर कब्जा नहीं कर सकी। किन्तु एक उग्र भीड़ ने चाँदबीबी को मार डाला और इसके बाद अहमदनगर किले पर मुगलों का कब्जा हो गया।
चाइल्ड, सर जान : सूरत में स्थित ईस्ट इंडिया कम्पनी की व्यापारिक कोठी का अध्यक्ष। इंग्लैण्ड से मिले निर्देशों के अनुसार उसने पश्चिमी तट पर औरंगजेब की सत्ता को मानने से इन्कार कर दिया किन्तु मुंगलों के आगे उसकी कुछ चल न पायी और पराजय का मुंह देखना पड़ा। मुगलों ने कम्पनी की सूरत स्थित कोठी को जब्त कर लिया। बाद में मुगल बादशाह ने अपने राज्य से अंग्रेजों के निष्कासन का आदेश जारी कर दिया। अंततः अंग्रेजों को झुकना पड़ा और उन्हें सूरत वापस आने की इजाजत फिर मिल गयी।
चाइल्ड, सर जोसिया : ईस्ट इंडिया कम्पनी का चेयरमैन या गवर्नर। कम्पनी के अन्य डाइरेक्टरों के विपरीत सर जोसिया चाइल्ड बहुत ही महत्त्वाकांक्षी था। उसने भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना को अपना लक्ष्य बनाया। १६८५ ई. में उसे राजा जेम्स द्वितीय को इस बात के लिए राजी करने में सफलता मिल गयी कि चटगाँव पर अधिकार और किलेबंदी करने के लिए दस या बारह जहाजों का बेड़ा भेजा जाय। लेकिन यह अभियान बुरी तरह विफल हुआ और अंग्रेजों को १६८८ ई. में बंगाल से निष्कासित कर दिया गया। सर जोसिया का स्वप्न उसके जीवन काल में साकार नहीं हो सका, किन्तु बाद की घटनाएँ इस बात की साक्षी हैं कि उसने जो सपना देखा था, वह दिवास्वप्न नहीं था।
चाणक्य : देखिये, 'कौटिल्य'।
चामी राजेन्द्र, सर राजा : १८६८ से १८९६ ई. तक मैसूर का शासक। देशी रियासतों के प्रशासन में निरंकुशता समाप्त कर उदारवादी नीतियों को अपनाने वाला वह पहला नरेश था।
चामुण्डराज : गंग वंश (दे.) के एक राजा का मंत्री, जो मैसूर पर शासन करता था। उसके ही आदेश से श्रवणबेलगोला में एक पहाड़ी की चोटी पर गोमटेश्वर की ५६.५ फुट ऊँची विशालकाय मूर्ति का निर्माण कराया गया था। यह मूर्ति काले पत्थर की चट्टान को तराश कर बनायी गयी थी। अपनी भव्य विशालता के कारण यह प्रतिमा विश्व में बेजोड़ मानी जाती है।
चाय उद्योग : इसका जन्म १९वीं शताब्दी में हुआ। ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा अठारहवीं शताब्दी में चीन से चाय लायी गयी थी। अठारहवीं शताब्दी के अन्त में जंगली चाय के पौधों को आसाम में उगते हुए देखा गया था, परन्तु उनके विषय में सन्देह था कि उनकी पत्तियाँ उपभोग्य हैं कि नहीं। १८३४ ई. में लार्ड विलियम बेंटिक चाय के पौधों के बीज और उनको उगाने में कुशल श्रमिकों को चीन से ले आया और एक सरकारी चाय का बगीचा स्थापित किया जो १८३९ में असम टी कम्पनी के हाथ बेच दिया गया। इस कम्पनी ने कुछ प्रयोगों के उपरान्त भारत में भारतीय मजदूरों द्वारा चाय के पौधे उगाने में सफलता प्राप्त कर ली। १८५० ई. के बाद चाय उद्योग का द्रुतगति से विस्तार होने लगा। अब चाय के पौधों का रोपण केवल आसाम में ही नहीं वरन् काचार, दार्जिलिंग, नैनीताल तथा कांगड़ा की घाटी में व्यापक रूप से होने लगा है। यह उद्योग आज भारत का विदेशी मुद्रा अर्जित करनेवाला सर्वोत्तम उद्योग है।
चारुमती : मौर्य सम्राट् अशोक (लगभग ईसा पूर्व २७२-२३२) की पुत्री। उसने देवपाल क्षत्रिय से विवाह किया था लेकिन बाद में वह बौद्ध भिक्षुणी बन गयी। वह ईसा पूर्व २५० या २४९ में पिता के साथ नेपाल की यात्रा पर गयी और पिता के लौट आने के बाद भी वहीं रह गयी। उसने वहाँ अपने दिवंगत पति के नाम पर देवपत्तन नामक नगर की स्थापना की और खुद एक बिहार में भिक्षुणी की तरह रहने लगी। इस विहार का निर्माण चारुमती ने पशुपतिनाथ मन्दिर के उत्तर में कराया। चारुमती के नाम पर यह विहार आज भी विद्यमान है।
चार्टर ऐक्ट (कानून) : १७९३, १८१३, १८३३ और १८५३ ई. में पास किये गये। ईस्ट इंडिया कम्पनी का आरंभ महारानी एलिजाबेथ प्रथम द्वारा वर्ष १६०० ई. के अंतिम दिन प्रदत्त चार्टर के फलस्वरूप हुआ। इस चार्टर में कम्पनी को ईस्ट इंडीज में व्यापार करने का एकाधिकार दिया गया था। भारत में घटनेवाली अनेक विलक्षण राजनीतिक घटनाओं के फलस्वरूप १७९३ ई. में कम्पनी को व्यापार और वाणिज्य संबंधी अधिकारों के साथ-साथ भारत के विशाल क्षेत्र पर प्रशासन करने का दायित्व भी सौंपा गया। कम्पनी का पहला चार्टर १७९४ ई. में समाप्त होनेवाला था। कम्पनी की गतिविधियों के बारे में जाँच-पड़ताल तथा कुछ विचार-विमर्श करने के बाद १७९३ ई. में एक नया चार्टर कानून पास किया गया, जिसके द्वारा कम्पनी की कार्य-अवधि और अधिकार २० वर्षों के लिए पुनः बढ़ा दिये गये। इसके बाद १८५८ ई. तक हर बीस वर्षों के उपरान्त एक नया चार्टर कानून पास करने की प्रथा-सी बन गयी। १८५८ ई. में ईस्ट-इंडिया कम्पनी को समाप्त कर दिया गया और उसके अधिकार तथा शासित क्षेत्र को महारानी विक्टोरिया ने सीधे अपने हाथ में ले लिया।
१७९३ ई. के चार्टर कानून में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया था और कम्पनी को भारत में व्यापार वाणिज्य पर एकाधिकार जमाये रखने तथा अपने हस्तगत क्षेत्रों पर शासन करने की पूरी छूट दे दी गयी थी। १८१३ ई. के चार्टर कानून ने भारत के साथ व्यापार करने के कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया और इंग्लैण्ड के अन्य व्यापारियों को भी आंशिक रूप में भारत के साथ निजी व्यापार, वाणिज्य और औद्योगिक संबंध स्थापित करने का अवसर दिया, किन्तु चीन से होनेवाले कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त नहीं किया। इस चार्टर कानून ने कम्पनी के भारतीय क्षेत्रों में ईसाई पादरियों को भी प्रवेश करने की अनुमति दे दी तथा भारतीय प्रशासन में एक धार्मिक विभाग और जोड़ दिया। इस चार्टर कानून में यह भी कहा गया कि भारतवासियों के हितों की रक्षा करना और उन्हें खुशहाल बनाना इंग्लैण्ड का कर्तव्य है और इसके लिए ऐसे कदम उठाये जाने चाहिये जिनसे उनको उपयोगी ज्ञान उपलब्ध हो और उनका धार्मिक और नैतिक उत्थान हो। लेकिन यह घोषणापत्र केवल आदर्श अभिलाषा बनकर रह गया और इसपर कोई कार्रवाई नहीं की गयी।
१८३३ ई. के चार्टर कानून ने ईस्ट इंडिया कम्पनी की व्यापारिक भूमिका समाप्त कर दी और उसे पूरी तरह भारतीय प्रशासन के लिए इंग्लैण्ड के राजा के राजनीतिक अभिकरण के रूप में परिणत कर दिया। गवर्नर-जनरल की परिषद् में कानून के वास्ते एक सदस्य को और शामिल कर दिया गया तथा कानून आयोग की भी स्थापना की गयी, जिसके फलस्वरूप बाद में इंडियन पेनल कोड (भारतीय दण्ड संहिता) और इंडियन सिविल एण्ड क्रिमिनल प्रोसीजर कोड (भारतीय दीवानी एवं फौजदारी प्रक्रिया संहिता) लागू हुआ। इस प्रकार भारत के वर्तमान सरकारी कानूनों का विकास १८३३ ई. के चार्टर से शुरू हुआ। गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् को एक साथ बैठकर कानून बनाने का अधिकार भी दिया गया। इसमें इस सिद्धांत का प्रतिपादन भी किया गया कि सरकारी पदों के लिए अगर कोई भारतीय शैक्षणिक तथा अनय योग्यताएँ रखता है तो उसे केवल धर्म या रंगभेद के आधार पर इस पद से वंचित नहीं किया जायगा। यह घोषणापत्र भी काफी अरसे तक पवित्र भावना की अभिव्यक्ति मात्र रहा, लेकिन अन्त में यह काफी महत्तवपूर्ण सिद्ध हुआ।
चार्टर कानूनों की श्रृंखला में १८५३ ई. का चार्टर कानून चौथा और अन्तिम था। इसमें कम्पनी को सरकारी अभिकरण के रूप में अपना काम जारी रखने का अधिकार दिया गया और कानून आयोग के काम को पूरा करने का प्रबन्ध किया गया। इसमें यह प्राविधान भी किया गया कि कानूनों को बनाने के लिए गवर्नर-जनरल की परिषद् में छः सदस्यों को और जोड़ा जाय। इस चार्टर ने इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश के लिए खुली प्रतियोगिता की प्रणाली शुरू की। इससे पहले इस सेवा में सिर्फ कम्पनी-डाइरेक्टरों के सिफारिशी लोगों को ही प्रवेश पाने का विशेषाधिकार प्राप्त था। लेकिन अब इस सेवा का द्वार मेधावी अंग्रेजों और भारतीयों, दोनों के ही लिए खुल गया।
चार्ल्स द्वितीय : १६६०-८५ ई. में इंग्लैंड का बादशाह, जिसे पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन ब्रेगेन्जा के साथ शादी करने पर पुर्तगाली के राजा से बम्बई द्वीप दहेज के रूप में मिला था। १६६८ ई. में चार्ल्स ने यहाँ की जमीन ईस्ट इंडिया कम्पनी को १० पौण्ड के सालाना किराये के बदले पट्टे पर उठा दी। इसके बाद ही बम्बई की प्रगति और समृद्धि का श्रीगणेश हुआ। १६८७ ई. में सूरत के स्थान पर बम्बई पश्चिमी तट पर अंग्रेजों की मुख्य बस्ती बन गयी। चार्ल्स द्वितीय ने भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरक्की के लिए विभिन्न रीतियों से और भी सहायता प्रदान की।
चार्वाक : भारतीय दर्शन की भौतिकवादी विचारधारा (लोकायत) का व्याख्याता। कट्टरपंथी हिन्दू दार्शनिकों से सर्वथा विपरीत वेदों को प्रमाण नहीं माना ; शरीर से परे अजर-अमर आत्मा होने के सिद्धांत का खण्डन किया; पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानने से इनकार कर दिया और एक ऐसे दर्शन का प्रतिपादन किया जिसका मूलतत्व है कि जब तक जिओ, खाओ, पिओ और मस्त रहो, क्योंकि एक बार शरीर के भस्म हो जाने पर आत्मा नाम की कोई चीज बाकी नहीं रह जाती है। (डी. आर. शास्त्री कृत 'दि लोकायत स्कूल आफ फिलासफी')
चालुक्य, कल्याणी के : देखिये, 'चालुक्य'।
चालुक्य-चोल : वेंगि के चालुक्य वंश के अट्ठाईसवें नरेश राजेन्द्र तृतीय का वंशज, जिसने पूर्वी चालुक्य और चोल राज्यों को विरासत में प्राप्त कर दोनों को मिला दिया। राजेन्द्र तृतीय ने कुलोत्तुंग चोल की उपाधि ग्रहण की और १०७० से ११२२ ई. तक शासन किया। चोल राज्य पर इस वंश का शासन १५२७ ई. तक रहा। कुलोत्तुंग चोल तृतीय की मृत्यु के बाद इस वंश का पतन हो गया और इसके राज्य को अलाउद्दीन खिलजी की मुस्लिम सेनाओं ने रौंद डाला।
चालुक्य-वंश : छठी शताब्दी ई. के मध्य दक्षिणी भारत में उत्कर्ष को प्राप्त। इसके मूल के बारे में ठीक से कुछ पता नहीं। चालुक्य नरेशों का दावा था कि वे चंद्रवंशी राजपूत हैं और कभी अयोध्या पर शासन करते थे। गुर्जरों की एक शाखा चापस के एक अभिलेख में चालुक्य नरेश पुलकेशी के उल्लेख से कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने यह अर्थ निकाला है कि चालुक्य-जो सोलंकी के नाम से भी विख्यात हैं--गुर्जरों से सम्बद्ध थे और राजपूताना से दक्षिण में आकर बसे थे। जो हो, इतना तो निश्चित है कि चालुक्यों के नेता पुलकेशी प्रथम ने ५५० ई. में एक राज्य की स्थापना की जिसकी राजधानी वातापी थी, जो आज बीजापुर जिले में 'बादासी' के नाम से ज्ञात है। पुलकेशी प्रथम ने अपने को दिग्विजयी राजा घोषित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ भी किया था। उसके वंश ने, जो वातापी के चालुक्यों के नाम से प्रसिद्ध है, तेरह वर्षों के व्यवधान (६४२-६५५ ई.) को छोड़कर ५५० से लेकर ७५७ ई. तक शासन किया। इस वंश के नरेशों के नाम हैं--पुलकेशी प्रथम (५५०-६६ ई.), कीर्तिवर्मा प्रथम (लगभग ५६६-९७ ई.), मंगलेश (लगभग ५९७-६०८), पुलकेशी द्वितीय (लगभग ६०९-४२), व्यवधान (लगभग ६४२-५५), विक्रमादित्य प्रथम (६५५-८०), विनयादित्य (६८०-९६), विजयादित्य (६९६-७३३), विक्रमादित्य द्वितीय (७३३-७४६) और कीर्तिवर्मा द्वितीय (७४६-५७)। शुरू के इन नौ चालुक्य नरेशों में चौथा पुलकेशी द्वितीय सबसे अधिक प्रख्यात है। उसने ३४ वर्ष (६०८-४२) तक शासन किया। उसका राज्य-विस्तार उत्तर में नर्मदा से लेकर दक्षिण में कावेरी तक हो गया। किन्तु ९४२ ई. में वह पल्लव नरेश नरसिंहवर्मा द्वारा पराजित हुआ और शायद मारा भी गया। इसके बाद अगले तेरह सालों तक चालुक्य वंश पराभव को प्राप्त रहा। ६५५ ई. में पुलकेशी के पुत्र विक्रमादित्य प्रथम ने चालुक्य-शक्ति पुनः प्रतिष्ठित की। पल्लवों के साथ चालुक्यों का संघर्ष जारी रहा और ७४० ई. में चालुक्य नरेश विक्रमादित्य द्वितीय ने पल्लवों की राजधानी कांची पर अधिकार कर लिया। लेकिन उसके पुत्र और उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मा द्वितीय को राष्ट्रकूटों के नेता दंतिदुर्ग ने ७५३ ई. में सिहासनच्युत कर दिया।चालुक्यों की शक्ति पर यह दूसरा ग्रहण था। दो शताब्दियों बाद चालुक्य वंश पुनः उत्कर्ष को प्राप्त हुआ जब तैल या तैलप ने, जो अपने को वातापी के सातवें चालुक्य नरेश विजयादित्य का वंशज कहता नये चालुक्य वंश की स्थापना की। यह नया वंश ९७३ से १२०० ई. तक सत्तासीन रहा और इसमें १२ राजा हुए। इनके नाम हैं -तैल या तैलप (९७३-९७), सत्याश्रय (९९७-१००८), विक्रमादित्य पंचम (१००८-१४), अय्यन द्वितीय (१०१५), जयसिंह (१०१५-४२), सोमेश्वर प्रथम (१०४२-६८), सोमेश्वर द्वितीय (१०६८-१०७६), विक्रमादित्य षष्ठ (१०७६-११२७), सोमेश्वर तृतीय (११२७-३८), जगदेवमल्ल (११३८-५१), तैलप तृतीय (११५१-५६) और सोमेश्वर चतुर्थ (११८४-१२००)। कल्याणी के इस चालुक्य राज्य का एक लम्बे अर्से तक तंजोर के चोलवंशी शासकों से संघर्ष चलता रहा। सत्याश्रय को चोल नरेश राजराज ने परास्त किया और चालुक्य राज्य को रौंद डाला। लेकिन सोमेश्वर प्रथम ने इस अपमान का बदला न केवल चोल नरेश राजाधिराज को कोप्पम के युद्ध में करारी हार देकर ले लिया वरन् इस युद्ध में उसने राजाधिराज का वध कर दिया।सातवें नरेश विक्रमादित्य षष्ठ ने, जो विक्रमांक के नाम से भी विख्यात हैं, कांची पर अधिकार कर लिया और प्रसिद्ध कवि विल्हण को संरक्षकत्व प्रदान किया। विल्हण ने विक्रमादित्य के जीवन पर 'विक्रमांक-चरित' नामक सुविख्यात ग्रंथ लिखा है। विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु के बाद से कल्याणी के चालुक्यों की शक्ति का ह्रास शुरू हो गया। ग्यारहवें राजा तैलप तृतीय के शासनकाल में चालुक्य राज्य का अधिकांश भाग उसके प्रधान सेनापति बिज्जल कलचूरि ने हड़प लिया। चालुक्य राज्य शनै:-शनै: इतना कमजोर हो गया कि २१वीं शती में बारहवें राजा सोमेश्वर चतुर्थ का शासन समाप्त होने तक उसके राज्य का पश्चिमी भाग तो देवगिरि के यादवों ने छीन लिया और दक्षिणी भाग द्वार समुद्र के होयसलों के नियंत्रण में आ गया। वातापी और कल्याणी के चालुक्य नरेशों ने स्वयं कट्टर हिन्दू होने पर भी बौद्ध और जैन धर्म को प्रश्रय दिया। इनके शासन काल में यज्ञ-प्रधान हिन्दू धर्म पर विशेष बल दिया गया। चालुक्य राजाओं ने हिन्दू देवताओं के अनेक मंदिरों का निर्माण कराया। याज्ञवल्क्यस्मृति की 'मिताक्षरा' व्याख्या के लेखक प्रसिद्ध विधिवेत्ता विज्ञानेश्वर चालुक्यों की राजधानी कल्याणी में ही रहते थे। बंगाल को छोड़कर शेष भारत में 'मिताक्षरा' को हिन्दू कानून का सबसे आधिकारिक ग्रंथ माना जाता है। (वी. ए. स्मिथ कृत 'अर्ली हिस्ट्री आफ इंडिया')
चालुक्य, वेंगि के : वातापी के चालुक्यों की एक शाखा। इसे पूर्वी चालुक्य वंश भी कहते हैं। इस वंश का संस्थापक पुलकेशी द्वितीय (दे.) का भाई कुब्ज विष्णुवर्धन था। इसे पुलकेशी द्वितीय ने कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच में स्थित वेंगि राज्य के सिंहासन पर अपने सामंत के रूप में आरूढ़ किया था। इसने पिष्टपुर को, जो आजकल पीठापुरम् कहलाता है, अपनी राजधानी बनाया। ६१५ ई. के लगभग विष्णुवर्धन ने अपने को स्वतंत्र नरेश घोषित कर दिया और इस प्रकार वेंगि के चालुक्यों या पूर्वी चालुक्यों के नये वंश की स्थापना की। इस वंश में २७ शासक हुए। इनके नाम हैं--जयसिंह प्रथम, इन्द्र, विष्णुवर्धन द्वितीय, मंगी, जयसिंह द्वितीय कोक्किली, विष्णुवर्धन तृतीय, विजयादित्य प्रथम, विष्णुवर्धन चतुर्थ, विजयादित्य द्वितीय, विष्णुवर्धन पंचम, विजयादित्य तृतीय, भीम प्रथम, विजयादित्य चतुर्थ, विष्णुवर्धन षष्ठ, विजयादित्य पंचम, तारप या ताल प्रथम, विक्रमादित्य द्वितीय, भीम द्वितीय, युद्धमल्ल, भीम तृतीय, वादप, दानार्णव, शक्तिवर्मा, विमलादित्य, राजराज और राजेन्द्र। इस वंश के उपान्तिम नरेश राजराज ने राजेन्द्र चोल प्रथम की पुत्री से विवाह किया और उसके पुत्र राजेन्द्र ने, जिसने चोल नरेश राजेन्द्र चतुर्थ की पुत्री से विवाह किया, विरासत में प्राप्त वेंगि और चोल राज्यों को एक में मिला दिया। इस प्रकार वेंगि के चालुक्यों या पूर्वी चालुक्यों के वंश का चालुक्य-चोल के वंश में विलय हो गया।
चालुक्य, वातापी के : देखिये 'चालुक्य'।
चित्तरंजन दास (१८७०-१९२५) : कलकत्ता उच्च न्यायालय के विख्यात वकील, जिन्होंने अलीपुर बम केस में अरविंद घोष (दे.) की पैरवी की थी। उन्होंने अपनी चलती हुई वकालत को छोड़कर गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया और पूर्णतया राजनीति में आ गये। उन्होंने विलासी जीवन व्यतीत करना छोड़ दिया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सिद्धांतों का प्रचार करते हुए सारे देश का भ्रमण किया। उन्होंने अपनी समस्त संपत्ति और विशाल प्रासाद राष्ट्रीय हित में समर्पण कर दिया। वे कलकत्ता के नगरप्रमुख निर्वाचित हुए। उनके साथ श्री सुभाषचंद्र बोस (दे.) कलकत्ता निगम के मुख्य कार्याधिकारी नियुक्त हुए। इस प्रकार श्री दास ने कलकत्ता निगम को यूरोपीय नियंत्रण से मुक्त किया और निगम के साधनों को कलकत्ता के भारतीय नागरिकों के हितके लिए प्रयुक्त किया। उन्होंने मुसलमानों से समझौता करके और उन्हें नौकरियों में अधिक जगहें देकर हिन्दू-मुस्लिम मतभेदों को दूर करने का प्रयास किया। श्री दास सन् १९२२ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष हुए, लेकिन उन्होंने भारतीय शासन-विधान के अन्तर्गत संवर्द्धित धारासभाओं से अलग रहना उचित नहीं समझा। इसीलिए उन्होंने मोतीलाल नेहरू (दे.) और एन. सी. केलकर के सहयोग से 'स्वराज्य पार्टी' की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था कि धारासभाओं में प्रवेश किया जाय और आयरलैण्ड के देशभक्त श्री पार्नेल की कार्यनीति अपनाते हुए १९१९ ई. के भारतीय शासन विधान में सुधार करने अथवा उसे नष्ट करने का प्रयत्न किया जाय। यह एक प्रकार से सहयोग की नीति थी। स्वराज्य पार्टी ने शीघ्र ही धारासभाओं में बहुत-सी सीटों पर कब्जा कर लिया। बंगाल और बम्बई की धारासभाओं में तो यह इतनी शक्तिशाली हो गयी कि वहां द्वैध शासन प्रणाली के अंतर्गत मंत्रिमंडल तक का बनना कठिन हो गया। श्री दास के नेतृत्व में स्वराज्य पार्टी ने देश में इतना अधिक प्रभाव बढ़ा लिया कि तत्कालीन भारतमंत्री लार्ड बर्केनहेड के लिए भारत में सांविधानिक सुधारों के लिए श्री दास से कोई न कोई समझौता करना जरूरी हो गया। लेकिन दुर्भाग्य से अधिक परिश्रम करने और जेलजीवन की कठिनाइयों को न सह सकने के कारण श्री दास बीमार पड़ गये और १६ जून १९२५ ई. को उनका देहान्त हो गया। उनकी मृत्यु के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार से वार्ता की बात समाप्त हो गयी और इस प्रकार भारतीय स्वाधीनता की समस्या के शांतिमय समाधान का अवसर नष्ट हो गया। श्री दास के निधन का शोक संपूर्ण देश में मनाया गया। सारे देशवासी उन्हें प्यार से 'देशबंधु' कहते थे। उनके मरने पर विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उनके प्रति असीम शोक और श्रद्धा प्रकट करते हुए लिखा:
एनेछिले साथे करे मृत्युहीन प्रान।
मरने ताहाय तुमी करे गेले दान।।
चित्तू : पेंढारियों (दे.) का सबसे साहसी नेता, जो अनेक लूटपाटों में अग्रसर रहा। पेंढारियों के खिलाफ ब्रिटिश अभियान के दौरान उसका जगह-जगह पीछा किया गया। वह भागकर असीरगढ़ के निकट जंगलों में जा छिपा, लेकिन वहाँ एक बाघ ने उसे खा डाला।
चित्तौड़ : मेवाड़ के राणाओं की राजधानी। यह राजपूताना का सबसे मजबूत गढ़ था। इसकी किलेबंदी पर मेवाड़ को गर्व था और इसी के कारण सदियों तक मुस्लिम आक्रमणकारी इस पर कब्जा न कर सके। फिर भी १३०३ ई. में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के फलस्वरूप इसका पतन हो गया। लेकिन १३११ ई. में राजपूतों ने इस पर पुनः अधिकार कर लिया। १५३४ ई. में गुजरात के सुलतान बहादुरशाह ने इस पर तूफानी हमला किया, किन्तु राणा ने शीघ्र ही सुल्तान के कब्जे से इसे छुड़ा लिया। इसके बाद १५६७ ई. में अकबर ने चित्तौड़ का प्रसिद्ध घेरा डाला। किले के सेनापति जयमल और पत्ता (फत्ता) के कुशल नेतृत्व ने चार महीने तक मुगल सेनाओं का मुकाबला किया किन्तु अंत में अकबर चित्तौड़ के दुर्ग पर विजय प्राप्त करने में सफल हो गया। जब-जब चित्तौड़ का पतन हुआ, महल की सभी रानियाँ, दासियों सहित अपनी लाज बचाने के लिए दुर्ग के भीतर चिता जलाकर सती हो गयीं। चित्तौड़ पर विजय प्राप्त करने के बाद अकबर उस दुर्ग के फाटक और विशाल नगाड़े को जो मीलों दूर तक राजा के आगम और प्रस्थान की सूचना देते थे तथा देवी के मंदिर को प्रकाशित करनेवाले विशाल दीपदान को अपने साथ आगरा ले गया। इस प्रकार चित्तौड़ को वीरान बना दिया गया। उसके प्राचीर को बाद में राणा जगतसिंह ने फिर बनवाया लेकिन शाहजहाँ के आदेश पर १६५४ ई. में वह फिर ढहा दिया गया। फलस्वरूप अठारहवीं शताब्दी तक चित्तौड़ बाघ आदि जंगली जानवरों का केलिस्थल बना रहा। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में आंशिक रूप से इसका पुनर्निर्माण कराया गया। पर्वतमाला की उपत्यका में अब वहाँ छोटा-सा नगर और उसका रेलवे स्टेशन है। यहाँ का प्राचीन किला पहाड़ी पर अचल खड़ा हुआ राजपूतों की शौर्यगाथा सुनाता हुआ हजारों दर्शकों को अपनी ओर आकृष्ट करता है।
चित्राल, चिन किलिच खां : चित्राल- अफगानिस्तान और भारत के बीच पर्वतमाला के अंतराल में स्थित एक घाटी, जो डुरण्ड रेखा (दे.) को अफगानिस्तान और भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के बीच सीमा स्वीकार कर लिये जाने के बाद १८९३ ई. में भारत के ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गयी। लेकिन जब ब्रिटिश सरकार चित्राल घाटी पर अधिकार जमाने चली तो यहाँ के कबायलियों ने प्रतिरोध किया। ब्रिटिश सरकार को उन्हें अधीन करने के लिए १८९५ ई. में सेना भेजनी पड़ी। अब यह पाक-अधिकृत गुलाम कश्मीर के क्षेत्र में हो गयी है। चिन किलिच खां- देखिये, 'आसफजाह'।
चिनसुरा की डच बस्ती : १६५३ ई. में डच ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा स्थापित। यह अच्छा व्यापारिक केन्द्र था, जहाँ से डच लोग कच्चा रेशम, सूती कपड़े और शोरा का निर्यात किया करते थे। चिनसुरा स्थित डच लोग पलासी के युद्ध के बाद बंगाल में अंग्रेजों की सफलताओं से बहुत ईर्ष्या करने लगे थे। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बंगाल के नवाब मीरजाफर से एक संधि की, किन्तु राबर्ट क्लाइव की चौकसी और सतर्कता से यह योजना बेकार हो गयी। इससे पहले कि डच नयी फौजें ला सकें, क्लाइव ने उन लोगों पर आक्रमण कर नवम्बर १७६९ ई. में उन्हें बिदर्रा के युद्ध (दे.) में परास्त कर दिया। क्लाइव ने डचों को शांतिसंधि के लिए मजबूर किया, जिसके अंतर्गत चिनसुरा का उपयोग सिर्फ व्यापार-केन्द्र के रूप में किया जा सकता था। डचों ने इस स्थान को १८२५ ई. तक अपने अधीन रखा, इसके बाद सुमात्रा स्थित कुछ स्थानों के बदले ब्रिटिश सरकार के हवाले कर दिया।
चिलियांवाला की लड़ाई : दूसरे सिख-युद्ध के दौरान (दे.) १३ जनवरी १८४९ ई. को लार्ड गफ के नेतृत्व में भारतीय ब्रिटिश फौज और सिखों के बीच हुई। सिखों ने बड़ा भयंकर युद्ध किया और अंग्रेजी फौज का बड़ी बहादुरी के साथ डटकर मुकाबला किया। इस युद्ध में अंग्रेजों को जान माल का भारी नुकसान उठाना पड़ा। उनके २३५७ सैनिक और ८९ अफसर हताहत हुए। सिखों ने तीन रेजीमेण्टों के ध्वजों और चार तोपों पर कब्जा कर लिया। यह वास्तव में ब्रिटिश फौज की हार थी, लेकिन सिख रात में युद्धस्थल छोड़कर तीन मील दूर चले गये, इसलिए अंग्रेजों ने दावा किया कि यह लड़ाई बराबरी पर छूटी।
चीन : भारत का संबंध इसके साथ बहुत प्राचीन है, यद्यपि उसमें बहुधा व्यवधान पड़ता रहा है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (दे.) में चीनी रेशम (कौषेय वस्त्रों) का उल्लेख हुआ है जिससे पता चलता है कि चीन के साथ प्रारम्भ में व्यापारिक संबंध थे। अशोक के धर्मप्रचारकों के चीन जाने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। पहली ई. के अंत में कुषाण शासक कडफिस द्वितीय (ईसवी ७८-११०) और चीनी सम्राट् हो-ती (ईसवी ८९-१०५) की फौजों में संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में कडफिस की पराजय हुई। कडफिस के उत्तराधिकारी और प्रसिद्ध कुषाण शासक कनिष्क (१२०-१६२ ई.) ने इस हार का बदला लिया और चीनियों को पराजित कर भारतीय सीमा पार के उस क्षेत्र पर पुनः अधिकार कर लिया जिसे चीनी सम्राट् ने कडफिस द्वितीय से छीन लिया था। लेकिन इसके पहले ही भारत और चीन के बीच अधिक शांतिपूर्ण और प्रभावकारी संबंधों का बीजवपन शुरू हो गया था। ईसा पूर्व सन् ५२ में बाख्त्री राजदरबार स्थित, चीनी सम्राट् आईके एक राजदूत ने बौद्धधर्म स्वीकार किया था। कुछ वर्षों बाद ६७ ई. में दो भारतीय भिक्षु, कश्यप मातंग और धर्मरक्ष चीनी सम्राट् मिंग-ती (५८-७५ ई.) के दरबार में पहुँचे थे। मिंग-ती इन बौद्ध भिक्षुओं के उपदेशों से बहुत प्रभावित हुआ और उसने इनके आवास और उपासना के लिए अपनी राजधानी में नये मंदिर का निर्माण कराया। यह मंदिर 'श्वेताश्व' मंदिर कहलाता था। कश्यप और धर्मरक्ष ने बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में आरम्भ किया और बहुत लोगों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी। इस प्रकार चीन में भारत के बौद्ध धर्म के प्रसार एवं प्रचार की प्रक्रिया शुरू हो गयी। अनेक भारतीय बौद्ध-भिक्षु पश्चिमोत्तरी स्थल मार्ग एवं पूर्वोत्तरी जलमार्ग से होकर चीन पहुँचे और उन्होंने धर्म-प्रचार के कार्य में महान् सफलता प्राप्त की।
चौथी शताब्दी में चीनी सम्राट् वू-ती ने बौद्ध धर्म को अपनाया। इसके बाद यदा-कदा लगनेवाले आघातों को छोड़कर बौद्ध धर्म समग्र चीन में फैलता गया और उसे कन्फ्यूशियसवाद और ताओवाद की तरह ही चीनी धर्म के रूप में मान्यता मिल गयी। वस्तुतः चीन में बौद्धों की संख्या शीघ्र ही अन्य मतावलम्बियों से अधिक हो गयी। लगभग एक हजार साल तक चीन और भारत के बीच बराबर आना-जाना लगा रहा। भारतीय बौद्ध भिक्षु चीन जाते, वहाँ बसते और सैकड़ों पवित्र बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में करते। चीनी बौद्ध भिक्षु भी भारत की तीर्थयात्राओं पर आते, क्योंकि यह वह देश है, जहाँ बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान गौतम बुद्ध ने जन्म लिया था। यहाँ वे यात्री बौद्ध धर्म का अध्ययन करते और भारत से अनेक ग्रथों का संग्रह कर चीन ले जाते। चीन की यात्रा पर जानेवाले भारतीय बौद्ध भिक्षुओं में कुमारजीव, बोधिधर्म, गुणवर्मा और अमोघबज्र के नाम अधिक प्रसिद्ध हैं। चीनी तीर्थयात्रियों में फाह्यान और ह्वेनसांग के नाम उल्लेखनीय हैं। फाह्यान ईसा की चौथी शताब्दी में और ह्वेनसांग सातवीं शताब्दी के आरम्भ में भारत आया था। ये चीनी यात्री अपने साथ न केवल बौद्ध धर्म और दर्शन से संबंधित वरन् भारतीय ज्ञान की अन्य अनेक शाखाओं से संबंधित हज़ारों संस्कृत ग्रंथ चीन ले गये, जहाँ इनका अनुवाद और अध्ययन किया गया।
बौद्ध धर्म का महायान संप्रदाय (दे.) चीनियों के बीच विशेषरूप से लोकप्रिय हुआ। चीनियों ने इसे नये विचार तत्त्व प्रदान किये। उन्होंने गौतम बुद्ध के इस उपदेश की उपेक्षा की कि निर्वाण प्राप्त करने के लिए मनुष्य को तृष्णा पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। इसके स्थान पर उन्होंने बोधिसत्त्वों, विशेषरूप से अमिताभ की बुद्ध उपासना का विकास किया और यह मत प्रतिपादित किया कि भगवान बुद्ध द्वारा बताये गये अष्टांग मार्ग पर चलनेके अतिरिक्त अमिताभ के नामचिन्तन मात्र से (निर्वाण नहीं, जिसकी वे परवाह नहीं करते थे) अगले जीवनमें अमिताभ बुद्धलोक की प्राप्ति होगी। इस प्रकार बौद्ध धर्म के विकास में चीन का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। पहली ईसवी से शुरू होकर एक हजार वर्ष तक भारत के साथ चीन के धार्मिक और सांस्कृतिक संबंधों का चीनी चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। तुन हुआंग, यान कांग और लांग-मेन में चट्टानों को काटकर बनायी गयी गुफाओं, गौतम बुद्ध की ६०-७० फुट ऊँची विशाल प्रतिमाओं, शुंगकाल में बनी गुफाओं और कई मंजिले मंदिरों के चीन में उपलब्ध भित्तिचित्र इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। भारतीय संगीत कला, ज्योतिष शास्त्र, गणित और आयुर्वेदशास्त्र का भी चीनमें अध्ययन हुआ और इसका चीनी संस्कृति पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
भारतीय-भूभाग में मुसलमानी शासन स्थापित हो जाने के बाद भारत और चीन का संबंध कई शताब्दियों तक वस्तुतः विच्छिन्न-सा रहा। लेकिन ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासनकाल से भारत-चीन संबंध फिर स्थापित हो गया। किन्तु इस काल में यह संबंध मुख्यरूप से ब्रिटेन के व्यापारिक और साम्राज्यवादी हितों द्वारा नियन्त्रित होता था। वास्तविक अर्थों में तो भारत-चीन संबंध १९४७ ई. में भारत के नये गणराज्य की स्थापना के बाद कायम हुए। शुरू में यह संबंध अत्यंत सौहार्द्रपूर्ण रहा। दोनों देशों ने एक दूसरे के देश में अपने-अपने राजदूतावास स्थापित किये, सांस्कृतिक सम्पर्क बढ़ाया, दोनों के प्रधान मंत्रियों ने एक दूसरे के यहाँ मैत्रीपूर्ण यात्राएँ की, पंचशील के आधार पर चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई और भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए। भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवेश के लिए चीनी दावे का बराबर समर्थन किया, जबकि पश्चिमी देश उसको प्रवेश से रोके हुए थे। लेकिन चीन ने मित्रता और सहानुभूति की परवाह न कर १९६२ ई. में भारत पर अचानक हमला कर दिया। उसने लद्दाख और पूर्वोत्तर सीमा के काफी बड़े भाग पर अपना दावा किया। चीन के रुख में सहसा इस परिवर्तन से भारत आश्चर्य में पड़ गया। हमारी फौजें चीनी हमले के निरोध के लिए बिलकुल तैयार नहीं थीं, इसलिए बहादुरी से लड़ने के बावजूद उन्हें नेफा में हर खानी पड़ी। चीनी फौजें इस क्षेत्र में बढ़ते-बढ़ते आसाम के मध्य तक पहुँच गयीं। लेकिन इसके बाद ही उन्होंने अपनी विजययात्रा अचानक रोक दी और दोनों देशों के बीच युद्ध-विराम लागू हो गया। इसके बाद से भारत और चीन का संबंध बहुत खराब हो गया। १९६५ ई. के भारत-पाकिस्तान युद्ध में चीन ने पाकिस्तान के साथ गठबंधन किया और भारत पर आक्रमण करने का झूठा आरोप लगाया। इस युद्ध के समय चीन ने भारत को अल्टीमेटम भी दिया था, लेकिन बाद को वापस ले लिया। तब से भारत और चीन के बीच कटुता बराबर बनी हुई है।
चीनी यात्री : बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और इस धर्म के पवित्र उद्गमस्थल भारत में बौद्ध अवशेषों और धर्मग्रंथों की खोज तथा बुद्ध और उनके प्रमुख शिष्यों से संबंधित पवित्र स्थानों पर श्रद्धा-सुमन चढ़ाने के लिए आये थे। ये यात्री अपने साथ अनेक बौद्ध ग्रंथ और अवशेष चीन ले गये। भारत आनेवाले चीनी यात्रियों में फाह्यान सबसे पहला था। वह चन्द्रगुप्त द्वितीय (३७५-४१३ ई.) के शासनकाल में आया और ४०१ से ४१० ई. तक रहा। इस समय से ७०० ई. तक बहुत से चीनी तीर्थयात्री यहाँ आते रहे। इन यात्रियों ने अपने यात्रा-वृत्तांत लिखे हैं, जिनमें तत्कालीन भारतीय इतिहास के संबंध में बहुमूल्य सामग्री मिलती है। इन सभी यात्रियों ने तक्षशिला, वल्लभी, नालन्दा और विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों में पठन-पाठन किया। बाद के चीनी तीर्थयात्रियों में इत्सिंग (दे.) और ह्वेनसांग (दे.) सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं।
चूटिया आदिवासी : उत्तरी आसाम के कबायली लोग, जो इस समय मुख्यरूप से लखीमपुर और शिवसागर से संलग्न क्षेत्र में पाये जाते हैं। इनकी भाषा बोडो है। आरंभकाल में चूटिया कबायलियों में शान जाति के रक्त का पर्याप्त समावेश हुआ। इसके बाद इन्होंने अहोमों से वैवाहिक संबंध स्थापित किये और फिर उसी जाति में विलीन हो गये। तेरहवी में लेकर सोलहवीं शताब्दी तक अहोमों के साथ इनका संघर्ष होता रहा लेकिन अन्त में अहोमों ने इनपर विजय पा ली और इसके बाद दोनों कबीलों का परस्पर विलय हो गया। इनका मुख्यालय सदिया में था। इनके अपने पुरोहित थे, जिन्हें 'देवरी' कहा जाता था। इनकी सहायता से ही वे काली देवी के विभिन्न रूपों की उपासना किया करते थे। सदिया स्थित तांबे के मन्दिर में ये लोग काली को प्रसन्न करने के लिए मानव की बलि चढ़ाते थे। (गेट कृत 'हिस्ट्री आफ असम', पृष्ठ ४१-४२)
चूटी खान : बंगाल के शासक हुसेनशाह (१४९३-१५१८ ई.) के सेनापति परागल खाँ का पुत्र। वह चटगाँव का सूबेदार था। हुसेनशाह की तरह वह स्वयं भी बंगाली साहित्य का संरक्षक था। उसीकी संरक्षकता में श्रीकर नंदी ने महाभारत के अश्वमेध पर्व का बंगला में अनुवाद किया था।
चूटू वंश : सातवाहनों की ही एक शाखा। इस वंश ने २२५ ई. के लगभग सातवाहन साम्राज्य के एक भाग पर शासन किया था, जिसकी राजधानी उत्तरी तुंगभद्रा पर बनवासी में थी। यह शासन तीसरी शताब्दी के अंत तक चला। अभिलेखों में इस वंश के दो राजाओं, विष्णुकड और उसके दौहित्र स्कंदनाग का उल्लेख मिलता है। चूटू वंश के बाद कदम्ब (दे.) वंश का शासन स्थापित हुआ। (पी. एच. ए. आई., पृष्ठ ५०३-५०४)
चूड़ामणि जाट : मथूरा जिले के जाटों और किसानों का नेता। इसने सुदृढ़ सैनिक शक्ति के रूप में ग्रामीणों का संगठन किया और सम्राट् औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगलों से मोर्चा लिया। १७२१ ई. में मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने राजा सवाई जयसिंह को जाटों के दमन के लिए भेजा। जयसिंह ने चूड़ामणि के भतीजे बदनसिंह को अपनी ओर मिला लिया और चूड़ामणि को पराजित कर उसका गढ़ छीन लिया। फलतः चूड़ामणि ने आत्महत्या कर ली। जयसिंह ने बदनसिंह (दे.) को राजा मान लिया। बदनसिंह ने आगरा और मथुरा जिलों के कुछ भागों को लेकर भरतपुर राज्य की स्थापना की।
चेटफील्ड कमेटी : लार्ड लिनलिथगो (१९३६-४१) के प्रशासन काल में भारतीय सेना के आधुनिकीकरण पर रिपोर्ट देने के लिए नियुक्त। लार्ड चैटफील्ड इस कमेटी के अध्यक्ष थे। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट १९३९ ई. में पेश की। इस रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन की सरकार ने सेना में आवश्यक सुधार के लिए काफी बड़ी धनराशि प्रदान की। रिपोर्ट में भारत-स्थित ब्रिटिश सैनिकों की संख्या में २५ प्रतिशत कमी करने और भारतीय सेना को सीमा सुरक्षा, आंतरिक सुरक्षा, समुद्रतटीय सुरक्षा और सामान्य आरक्षित--चार वर्गों में फिर से विभक्त करने की सिफारिश की गयी थी। इसके अलावा स्थल सेना के लिए हलके टैंकों, बख्तरबंद गाड़ियों और मोटर परिवहन का प्रबंध करने, स्थल सेना और समुद्री सीमा की रक्षा करने वाली नौसेना के साथ सहयोग और समन्वय के लिए नभ-सेना में बम-वर्षक विमानों का स्क्वाड्रन जोड़ने, शाही भारतीय नौसेना को आधुनिकतम युद्धपोतों से सज्जित करके सुदृढ़ बनाने और आयुध कारखानों का पुनर्निर्माण और विस्तार करके गोला बारूद का उत्पादन बढ़ाने की भी सिफारिश की गयी थी।
चेतसिंह : बनारस का राजा। पहले वह अवध के नवाब का सामंत था, लेकिन बाद को उसने अपनी निष्ठा 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' के प्रति व्यक्त की। कम्पनी के साथ एक संधि हुई, जिसके अंतर्गत चेतसिंह ने कम्पनी को २२.५ लाख रुपये का सालाना नजराना देना स्वीकार किया और बदले में कम्पनी ने करार किया कि वह किसी भी आधार पर अपनी माँग को नहीं बढ़ायेगी और किसी भी व्यक्ति को राजा के अधिकार में दखल देने और उसके देश की शान्ति भंग करने की इजाजत नहीं देगी। १७७८ ई. में कम्पनी जब भारत में फ्रांसीसियों के साथ युद्धरत थी और मैसूर तथा मराठों से भी उसकी ठनी हुई थी, हेस्टिंग्स ने चेतसिंह से पाँच लाख रुपये का एक विशेष अंशदान माँगा। राजा ने उसे दे दिया। १७७९ ई. में यह माँग फिर दोहरायी गयी और इस बार उसके साथ फौजी कार्रवाई की धमकी भी दी गयी। १७८० ई. में यह माँग तीसरी बार फिर की गयी। इस बार चेतसिंह ने २ लाख रुपये व्यक्तिगत उपहार के रूप में हेस्टिंग्स को इस आशा के साथ भेजे कि वह प्रसन्न हो जायगा। हेस्टिंग्स ने यह राशि कम्पनी की फौजों पर खर्च कर दी और अपनी माँग में जरा भी कमी किये बिना उसने राजा से २ हजार घुड़सवार देने को कहा। राजा के अनुरोध पर उसने बाद में यह संख्या घटाकर एक हजार कर दी। लेकिन राजा ५०० घुड़सवारों और ५०० तोड़दारों का ही बंदोबस्त कर सका। राजा ने हेस्टिंग्स को सूचना भिजवायी कि ये घुड़सवार और तोड़दार कम्पनी की सेवा के लिए तैयार हैं। हेस्टिंग्स ने इसका कोई जवाब नहीं दिया और चेतसिंह से ५० लाख रुपया जुर्माना वसूलने की ठानी। हेस्टिंग्स अपनी योजना कार्यान्वित करने खुद बनारस पहुँचा। उसने राजा को उसके महल में ही कैद कर दिया। राजा ने चुपचाप आत्मसमर्पण कर दिया, किन्तु उसके सिपाही राजा के इस अपमान से क्रुद्ध हो गये। उन्होंने उस छोटी-सी ब्रिटिश टुकड़ी का सफाया कर दिया जिसके साथ हेस्टिंग्स ने बनारस आने की गलती की थी। हेस्टिंग्स अपनी जान बचाने के लिए जल्दी से चुनार भाग गया। वहाँ से कुमुक लाकर उसने बनारस पर फिर कब्जा कर लिया और चेतसिंह के महल को कम्पनी के सिपाहियों से लुटवाया। लेकिन चेतसिंह को न पकड़ा जा सका। वह ग्वालियर निकल भागा। हेस्टिंग्स ने चेतसिंह का सारा राजपाट जब्त करके उसके भतीजे को इस शर्त के साथ सुपुर्द कर दिया कि वह सालाना नजराने की रकम बढ़ाकर ४० लाख रु. कर देगा। राजा के लिए यह रकम काफी बड़ा बोझ थी और इससे उसकी आर्थिक स्थिति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पिट ने महसूस किया कि चेतसिंह के मामले में हेस्टिंग्स का व्यवहार क्रूर, अनुचित और दमनकारी था। हेस्टिंग्स पर महाभियोग लगाये जाने का एक कारण यह भी था। (सर अल्फ्रेड लायल कृत 'वारेन हेस्टिंग्स' तथा पी. ई. राबर्ट्स कृत 'हिस्ट्री आफ ब्रिटिश इण्डिया')
चेदि : गंगा और नर्मदा के बीच के क्षेत्र का नाम। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में इसका उल्लेख सोलह बड़े राज्यों (महाजनपदों) में हुआ है। बाद को इस क्षेत्र पर कल्चुरियों (दे.) ने शासन किया।
चेम्पियन, कर्नल एलेक्जेण्डर : बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक सैनिक अफसर। वारेन हेस्टिंग्स ने उसे ब्रिटिश फौज का कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक सैनिक अफसर। वारेन हेस्टिंग्स ने उसे ब्रिटिश फौज का कमाण्डर बनाकर रुहेलों के विरुद्ध अवध के नवाब की मदद के लिए भेजा। दोनों की संयुक्त सेनाओं ने २३ अप्रैल १७७४ ई. को मीरनपुर कटरा के युद्ध में रुहेलों को परास्त कर दिया।
चेम्बरलेन, सर नेविली : ब्रिटिश राजदूत, जिसे वाइसराय लार्ड लिटन प्रथम ने १८७८ ई. में अफगानिस्तान भेजा था। इसे काबुल के राजदरबार में रूसी राजदूत का प्रभाव कम करने के लिए भेजा गया था। अमीर शेरअली रूसी राजदूत को अपने यहाँ पहले ही बुला चुका था, अतः अमीर ने सर नेविली को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। सर नेविली को अली मसजिद से लौटना पड़ा। उसकी वापसी के फलस्वरूप दूसरा अफगान-युद्ध (१८७८-८०) छिड़ा।
चेम्सफोर्ड : १९१६ से १९२१ ई. तक भारत का वाइसराय और गवर्नर-जनरल। नियुक्ति के समय उसकी आयु लगभग ५० वर्ष थी और प्रशासन का कोई अनुभव नहीं था। भारतीय राजनीति जिस समय नयी करवट ले रही थी, उसकी भुमि का अपेक्षाकृत निष्क्रियतापूर्ण रही। उसका प्रशासन मेसोपोटामियाँ में ब्रिटिश सेनाओं की हार की पृष्ठभूमि में आरंभ हुआ। १९१४ ई. में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने के बाद भारत अपनी वफादारी का जिस रीति से लगातार प्रदर्शन कर रहा था, ब्रिटेन ने उसका कोई समुचित प्रत्युत्तर नहीं दिया था, जिससे भारत में गहरा असंतोष व्याप्त था। लार्ड चेम्सफोर्ड ने इस असंतोष को दूर करने के लिए अपनी ओर से कोई पहलकदमी नहीं की। भारत के प्रति ब्रिटिश नीति के निर्धारण में उसकी भूमिका नगण्य रही। ब्रिटिश कामन सभा में भारतमंत्री श्री एडविन मोण्टेगू द्वारा २० अगस्त १९१७ ई. को की गयी इस प्रसिद्ध घोषणा में उसका कोई विशेष हाथ नहीं था कि भारत में ब्रिटिश सरकार का अन्तिम ध्येय "क्रमिक रीति से उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना है।" बाद को जब मोण्टेगू भारत की यात्रा पर आया, लार्ड चेम्सफोर्ड ने उसके साथ संपूर्ण देश का दौरा किया। १९१८ ई. में भारतीय सांविधानिक सुधार की जो रिपोर्ट प्रकाशित हुई, उस पर मोंटेगू के साथ-साथ चेम्सफोर्ड का नाम भी दिया गया था। १९१९ ई. में इसी मोण्टेगू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के आधार पर नया भारतीय शासन-विधान तैयार करने में भी उसका बहुत थोड़ा हाथ था। इस शासन-विधान के लागू होने के पहले ही उसका कार्यकाल समाप्त हो गया।
लार्ड चेम्सफोर्ड ने तत्कालीन राजनीतिक स्थिति का बड़े कुशल ढंग से सामना किया। १९१८ ई. में महायुद्ध समाप्त हो गया, परन्तु चेम्सफोर्ड की सरकार ने १९१९ ई. में रौलट कमेटी (दे.) की सिफारिशों के आधार पर कई कानून पास किये। इनके अंतर्गत जजों को बिना जूरी की सहायता से राजनीतिक मुकदमें करने और प्रांतीय सरकारों को नजरबंदी के व्यापक अधिकार प्रदान किये गये। ये कानून इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सभी गैरसरकारी सदस्यों के विरोध के बावजूद पास कर दिये गये। इन दण्डात्मक कानूनों से रुष्ट जनता ने महात्मा गांधी के नेतृत्व और निर्देशन में जोरदार आंदोलन छेड़ दिया। देशभर में हड़तालें और सभाएँ हुईं। सरकारी प्रतिबंध के बावजूद इसी तरह की एक सभा अमृतसर के जालियाँवाला बाग में होने जा रही थी। जनरल डायर के नेतृत्व में ब्रिटिश सैनिकों ने इस बाग में एकत्र निहत्थी भीड़ पर बिना किसी चेतावनी के गोलियाँ दागना शुरू कर दिया। यह बाग चारों तरफ ऊँची चहारदीवारी से घिरा हुआ था और बाहर निकलने का एक ही रास्ता था जिसे सशस्त्र ब्रिटिश सैनिकों ने बंद कर रखा था। इस गोलीकांड में सैकड़ों स्त्री, पुरुष और बच्चे मारे गये और घायल हुए। यह जघन्य हत्याकांड था। इतना ही नहीं, इस हत्याकांड के बाद मार्शल-ला घोषित करके बेगुनाह लोगों पर और भी अत्याचार किये गये। उन्हें बेकसूर कड़ी सजाएँ दी गयीं और कोड़ों से पिटाई और जमीन पर घिसटाकर अपमानित किया गया। लार्ड चेम्सफोर्ड ने इन बर्बर अत्याचारों को बंद कराने और जन-आक्रोश को शान्त करने के लिए कुछ नहीं किया और बड़ी अनिच्छा से जालियांवाला बाग कांड की जाँच कराने के लिए हंटर कमेटी (दे.) नियुक्त की। इस कमेटी ने अभी अपना काम शुरू भी नहीं किया था कि वाइसराय ने अत्याचारी सैनिक और असैनिक अधिकारियों को माफी देने के लिए दोष-मुक्ति (इन्डेम्निटी) कानून पास कर दिया। हंटर कमेटी ने जनरल डायर की कड़ी भर्त्सना की और मार्शल कानून प्रशासन की आलोचना की। लार्ड चेम्सफोर्ड अपराधी अफसरों को, खासकर पंजाब के अफसरों को तत्काल और प्रभावी ढंग से दंडित करने में विफल रहा। इससे भारत-ब्रिटिश संबंधों में इतनी अधिक कटुता उत्पन्न हो गयी जितनी १८५७ ई. के विद्रोह के बाद किसी भी वाइसराय के जमाने में नहीं हुई थी। किन्तु अहिंसा की नीति में विश्वास करनेवाले महात्मा गांधी के व्यापक प्रभाव के कारण लार्ड चेम्सफोर्ड को किसी सशस्त्र विद्रोह का सामना नहीं करना पड़ा।
चेर : देखिये, 'केरल'।
चैतन्य-चरितामृत : चैतन्य देव के जीवन-वृत्तान्त पर सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ। इसके लेखक कविराज कृष्णदास हैं, जिनका जन्म १५१७ ई. में बंगाल के बर्दवान जिले में हुआ था।
चैतन्य देव : बंगाल में वैष्णव धर्म के संस्थापक, जन्म १४८५ ई. में बंगाल में नवद्वीप के विद्वान् ब्राह्मण परिवार में। अपने आलौकिक पांडित्य के कारण वे शीघ्र ही विख्यात हो गये। २४ वर्ष की आयु में उन्होंने संन्यास ले लिया। वृद्धा मां और सुन्दर पत्नी को घर में छोड़कर उन्होंने अपने ४८ वर्षों के छोटे से जीवन का शेषकाल प्रेम और भक्ति के संदेश का प्रचार करने में व्यतीत किया। अठारह वर्ष वे उड़ीसा में रहे और ६ वर्ष उन्होंने दक्षिण भारत, वृन्दावन, गौड़ और अन्य स्थानों पर बिताये। उनके भक्त और अनुयायी उन्हें भगवान् विष्णु का अवतार मानते थे। वे पंडितों के कर्मकाण्डों के विरुद्ध थे। उन्होंने जनता को हरि (विष्णु) के प्रति आस्था रखने का उपदेश दिया। उनका विश्वास था कि प्रेम और भक्ति के माध्यम से ईश्वर की अनुभूति हो सकती है। उनका उपदेश सभी जाति और पंथ के लोगों के लिए उन्मुक्त था। हिन्दू और मुसलमान, सभी ने उनकी शिष्यता ग्रहण की। उन्होंने भक्ति-भावना और उसकी महत्ता को फिर से जागृत किया। उनके सिद्धान्तों से पूर्वी भारत, खासकर बंगाल के लोग बड़ी संख्या में प्रभावित हुए। चैतन्य के जीवन एवं उपदेशों पर काफी बड़ा साहित्य-भण्डार रचा गया है। उन्होंने खोल (मृदंग वाद्य) की ताल पर जो कीर्तन गाये हैं, वे आज भी बंगाल में, खासकर मणिपुर में बहुत लोकप्रिय हैं। (कविराज कृष्णदास कृत 'चैतन्य चरितामृत')
चैतन्य-भागवत : इसमें चैतन्यदेव का जीवन वृत्तांत और उनकी शिष्य परंपरा और उपदेशों का विवरण है। यह ग्रंथ वृन्दावनदास (जन्म १५०७ ई.) द्वारा बंगला में लिखा गया है। इससे बंगाल में चैतन्य के समय के सामाजिक जीवन के बारे में महत्त्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं।
चैतन्य-मंगल : चैतन्य के जीवन पर लिखी गयीं दो पुस्तकों का नाम। इनमें से एक जयानन्द और दूसरी त्रिलोचनदास द्वारा विरचित है। जयानंद का जन्म १५२३ ई. में बर्दवान जिले में हुआ था। इन दोनों में त्रिलोचनदास की पुस्तक अधिक लोकप्रिय है।
चैत्य-गुहाएं : देखिये, 'गुहा वास्तुकला'।
चोल : प्राचीन दक्षिणापथ के तीन प्रमुख राज्यों में से एक। अन्य दो राज्य थे--पाण्ड्य और चेर या केरल। चोल राज्य या चोलमण्डलम् समुद्र के पूर्वी किनारे पर नैलोर से पुडुकोट्टइ तक फैला हुआ था। अशोक के अभिलेखों में इसका वर्णन एक स्वतंत्र राज्य के रूप में हुआ है, जहाँ मौर्य सम्राट् ने बौद्ध भिक्षुकों को भेजा था। चोल राज्य के निवासी तमिलभाषी थे। उन्होंने तमिल भाषा में उच्च कोटि के साहित्य का विकास किया, तिरुवल्लूर रचित 'कुरल' इसका ज्वलंत उदाहरण है। इतिहास में करिकाल (लगभग १०० ई.) का उल्लेख चोलवंश के प्रथम राजा के रूप में हुआ है, जिसने पुहार या पुगार की नींव डाली, सिंहल से लम्बे समय तक युद्ध किया और सिंहली युद्धबंदियों से कावेरी नदी के किनारे सौ मील लम्बे बाँध का निर्माण कराया और चोलों की राजधानी को उरगपुर (उरयूर) से कावरी पत्तनम् ले गया। उसका राजवंश कब और कैसे समाप्त हुआ यह ठीक-ठीक पता नहीं, लेकिन लगता है कि चोल राज्य का ह्रास ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में उस समय आरंभ हुआ जब उत्तर में पल्लव (दे.) और दक्षिण में पाण्ड्य (दे.) शक्तियाँ उभर रही थीं। सातवीं शती के पूर्वार्ध में जब ह्वेनसांग ने इस प्रदेश की यात्रा की, चोल राज्य सिर्फ कुडप्पा जिले तक ही सीमित था और उसका शासक पल्लव नरेश नरसिंह वर्मा (दे.) का सामंत था। ७४० ई. में चालुक्य राजा विक्रमादित्य ने पल्लवों को पराजित कर उनकी राजधानी काँची पर अधिकार कर लिया। इस हार ने पल्लवों को कमजोर कर दिया और चोल शासकों को एक बार फिर राज्य-विस्तार का अवसर मिला। नवीं शताब्दी के मध्य में चोल राजा विजयालय ने ३४ वर्षों तक शासन किया। उसके पुत्र और उत्तराधिकारी आदित्य (लगभग ८८०-९०७ ई.) ने पल्लवनरेश अपराजित को हराया। इससे चोल राज्य फिर उत्कर्ष को प्राप्त हो गया। आदित्य के पुत्र परान्तक प्रथम ने पल्लवों की शक्ति को पूरी तरह कुचल दिया, पाण्ड्यों की राजधानी मदुरा पर अधिकार कर लिया और सिंहलद्वीप पर आक्रमण किया। इस प्रकार चोल शक्ति की प्रतिस्थापना वास्तव में परान्तक प्रथम ने की और उसके वंशजों ने १३ वीं शताब्दी के अंत तक शासन किया।
चोल राजाओं की सूची इस प्रकार है--राजादित्य प्रथम (९४७-४९ ई.), गांधारादित्य (९४९-५७ ई.), अरिंजय (९५७ ई.), परान्तक द्वितीय (९५७-७३ ई.), मदुरान्तक उत्तम (९७३-८५ ई.), राजराज प्रथम (९८५-१०१६ ई.), राजेन्द्र प्रथम (१०१६-४४ ई.), राजाधिराज प्रथम (१०४४-५४ ई.), राजेन्द्रदेव द्वितीय (१०५४-६४ ई.), वीरराजेन्द्र (१०६४-६९ ई.), अधिराजेन्द्र (१०६९-७० ई.), राजेन्द्र तृतीय कुलोत्तंग प्रथम (१०७०-११२२ ई.), विक्रमचोल (११२२-३५ ई.), कुलोत्तुंग द्वितीय (११३५-५० ई.), राजराज द्वितीय (११५०-७३ ई.), राजाधिराज द्वितीय (११७९-१२१८ ई.), राजराज तृतीय (१२१८-४६ ई.) और राजेन्द्र चतुर्थ (१२४६-७९ ई.)।
चोल नरेशों में यह परम्परा थी कि वे अपने उत्तराधिकारी को जीवनकाल पर्यन्त सहयोगी बनाकर रखते थे। राजराज प्रथम (९८५-१०१६ ई.) सम्पूर्ण मद्रास, मैसूर, कुर्ग और सिंहलद्वीप (श्रीलंका) को अपने अधीन करके पूरे दक्षिणी भारत का सर्वशक्तिमान् एकछत्र सम्राट् बन गया। उसने अपनी राजधानी तंजोर में भगवान शिव का राजराजेश्वर नामक मंदिर बनवाया जो आज भी उसकी महानता की सूचना देता है। उसके पुत्र और उत्ताराधिकारी राजेन्द्र प्रथम (१०१६-४४ ई.) के पास शक्तिशाली नौसेना थी जिसने पेगू, मर्तबान तथा अण्डमान निकोबार द्वीपों को जीता। उसने बंगाल और बिहार के शासक महीपाल से युद्ध किया और उसकी सेनाएँ कलिंग पार करके ओड्र (उड़ीसा), दक्षिण कोसल, बंगाल और मगध होती हुई गंगा तक पहुंचीं। इस विजय के उपलक्ष्य में उसने 'गंगैकोंड' की उपाधि धारण की। उसका पुत्र और उत्तराधिकारी राजाधिराज (१०४४-५४ ई.) चालुक्य राजा सोमेश्वर के साथ हुए कोप्पम के युद्ध में हारा और मारा गया। परन्तु वीर राजेन्द्र (१०६४-६९) ने चालूक्यों को कुडल-संगमम् के युद्ध में परास्त कर पिछली हार का बदला ले लिया और चोल शक्ति को उत्कर्ष प्रदान किया। किंतु शीघ्र ही उत्तराधिकार के लिए युद्ध छिड़ गया, जिसका अंत होने पर चोल सिंहासन राजेन्द्र कुलोत्तुंग प्रथम (१०७०-११२२ ई.) को प्राप्त हुआ। राजेन्द्र कुलोत्तुंग की मां चोल राजकुमारी और पिता चालुक्य राज्य का स्वामी था। इस प्रकार कुलोत्तुंग ने चालुक्य-चोलों के एक नये वंश की स्थापना की। उसने चालीस वर्षों तक शासन किया और कलिंग पर फिर से आधिपत्य स्थापित किया। इसके बाद लगातार चार पीढ़ियों तक पाण्डय, होयसल, काकतीय आदि पड़ोसी राज्यों से युद्धरत रहने के कारण चोल राज्य का ह्रास होने लगा और कुछ समय के लिए दक्षिण में पाण्डय राजाओं का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इसके पश्चात् १३१० ई. में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर के नेतृत्व में तुर्कों ने दक्षिण के सभी हिन्दू राज्यों को बुरी तरह रौंद डाला। चौदहवीं शताब्दी के अन्त में ये राज्य विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत आ गये।
चोल प्रशासन : बहुत ही संगठित और सुव्यवस्थित था। यह ग्राम-पंचायत प्रणाली पर आधारित था। प्रशासन की सुविधा की दृष्टि से सम्पूर्ण चोल राज्य छः प्रांतों में बँटा हुआ था, जिनको मण्डलम् कहा जाता था। मण्डलम् के उप-विभाग कोट्टम् (कमिश्नरी) और कोट्टम् के उपविभाग नाडु (जिला) थे। नाडु के अन्तर्गत कुर्रम (ग्रामसमूह) और ग्राम होते थे। अभिलेखों में नाडु (जिला) की सभा को नाट्टर और नगर की श्रेणियों को 'नगरतार' कहा गया है। सबसे अधिक विकसित और सुसंगठित शासन गाँव की सभा अथवा महासभा का था। सभा या महासभा के सदस्य गाँव के निवासियों द्वारा प्रतिवर्ष नियमतः निर्वाचित होते थे। निर्वाचन और सदस्यता की योग्यता के नियम बने हुए थे। इन सभाओं को ऊँचे अधिकार प्राप्त थे और उनका अपना कोषागार था। प्रत्येक मण्डलम् को पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त थी लेकिन राजा के प्रशासन को नियंत्रित करने के लिए कोई केन्द्रीय विधानसभा नहीं थी। भूमि की उपज का लगभग छठा भाग सरकार को लगान के रूप में मिलता था। लगान अनाज के रूप में या स्वर्ण मुद्राओं में अदा किया जा सकता था। चोल राज्य में प्रचलित सोने का सिक्का 'कासु' कहलाता था जो १/६ औंस का होता था। चोल राजाओं के पास विशाल स्थलसेना के साथ-साथ मजबूत जहाजी बेड़ा भी था। चोल राजाओं ने सिंचाई की बड़ी-बड़ी योजनाएँ पूरी कीं, सड़कों का निर्माण किया और उन्हें सुंदर, साफ ढंग से रखा।चोल प्रशासन प्रणाली वास्तव में अत्यन्त उन्नत थी और उसके अन्तर्गत जनता को पर्याप्त स्वायत्त शासन प्राप्त था (एस. के. आयंगर कृत -'एशियेंट इंडिया', एन. के. शास्त्री कृत-'दि चोल')
चोल वास्तु : विशुद्ध रूप से भारतीय कृति, इसपर विदेशी प्रभाव के कोई चिह्न नजर नहीं आते। चोल वास्तु का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण तंजौर का राजराजेश्वर नामक शिवमंदिर है, जिसे राजराज महान् (लगभग ९८५-१०१६ ई.) ने बनवाया था। वास्तुकला और मूर्तिकला के अन्य भव्य उदाहरण गंगैकोंड-चोलपुरम् में मिलते हैं, जिसे राजेन्द्र ने नयी राजधानी बनाया था। विशाल मंदिर के साथ-साथ इस नगरी में एक भव्य प्रासाद और विशाल कृत्रिम झील भी थी जिसपर १५ मील लंबा तटबंध बनाया गया था। अब इन सबके ध्वंसावशेष ही रह गये हैं। चोल वास्तु के बाद के नमूने मदुराई, श्रीरंगम्, रामेश्वरम तथा चोल मण्डल तट पर स्थित अन्य स्थानों में मिलते हैं। जैसा कि फरगुसन ने लिखा है, चोल वास्तु-कलाकारों ने बृहदाकार कल्पना की और जौहरियों की भांति सर्वांगसुंदर कृतियाँ प्रस्तुत कीं। चोलकालीन मंदिर अपनी विशालता एवं भव्यता के लिए विख्यात हैं। उनकी कई विशेषताएं हैं, पहली विशेषता यह है कि वे अनेक मंजिलों वाले शिखर से मंडित होते हैं। तंजोर के शिवमंदिर के शिखर की ऊंचाई १९० फृट है और इसमें १४ मंजिलें हैं। इसका शीर्षबिन्दु २५ वर्गफुट का एक पत्थर तराश कर बनाया गया है जो ८० टन वजनी है। इन मंदिरों की दूसरी विशेषता अधिष्ठान पीठ से लेकर शीर्ष-बिन्दु तक इनका प्रतिमालंकरण है। इनकी तीसरी विशेषता इनका विशाल मुख्य द्वार है जिसे गोपुरम् कहते हैं। ये गोपुरम् कहीं-कहीं मंदिरों से भी ऊंचे मीलों दूर से दिखाई पड़ते हैं। उदाहरणतः कुम्भकोणम् का गोपुरम् अत्यंत विशाल और भव्य है। चोल मंदिरों की चौथी विशेषता यह है कि इनमें एक के बाद एक प्रांगण होते हैं जो गौण मंदिरों और विशाल मंडपों से युक्त होते हैं। कुछ मंडप तो एक-एक सहस्त्र स्तम्भों पर आधारित मिलते हैं। (जे. फरगुसन कृत 'हिस्ट्री आफ इंडियन एण्ड ईस्टर्न आर्कीटेक्चर'; ए. के. कुमारस्वामी कृत 'हिस्ट्री आफ इंडियन एण्ड इंडोनेशियन आर्ट')
चौथ : किसी क्षेत्र पर लगाया जाने वाला वह कर, जो वहां की राजस्व आय का चौथाई अंश होता था। सेनानायक यह कर उन क्षेत्रों पर थोपते थे जिन्हें वे कुचलने या रौंदने में सक्षम थे परंतु उन्हें सीधे अपने शासन के अन्तर्गत नहीं रखना चाहते थे। चौथ की वसूली सबसे पहले रामनगर के राजा ने दमण में पुर्तगाली प्रजा से की थी। शिवाजी ने इसे अपने राज्य के राजस्व का अंतरंग साधन बना दिया। उन्होंने इसकी वसूली १६७० ई. में खानदेश से की जो उस समय मुगल साम्राज्य के अन्तर्गत था। इसके बाद यह उनकी वित्तीय आय का नियमित स्रोत बन गया। इस परम्परा को शिवाजी के उत्तराधिकारियों ने भी कायम रखा। इस बात पर लोगों की अलग-अलग राय है कि यह कर एक प्रकार की लूट थी या फिर सुरक्षा की वचनबद्धता के एवज़ में लिया जानेवाला धन था। व्यवहार में यह कर एक प्रकार की बलात् सैनिक वसूली थी। (रानाडे कृत 'दि राइज आफ दि मराठा पावर'; एस. एन. सेन कृत 'एडमिनिस्ट्रेटिव सिस्टम आफ दि मराठाज़')।
चौरी-चौरा : उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में स्थित, जहाँ १९२२ ई. में भारत में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध चलाये जानेवाले जन आन्दोलन ने हिंसक रूप धारण कर लिया था। यह आंदोलन १९२० ई. में महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा असहयोग आन्दोलन के रूप में आरम्भ किया गया था। महात्मा गांधी ने इस बात पर जोर दिया था कि आंदोलन का स्वरूप अहिंसक रहना चाहिये। आंदोलनकारियों के हिंसा पर उतर आने से गांधीजी को बहुत सदमा पहुंचा और उन्होंने यह स्वीकार किया कि उनसे भारी भूल हुई है। उन्होंने तुरन्त असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया। गांधीजी के इस आदेश से बहुत से कांग्रेसजनों को भारी निराशा हुई। वाइसराय लार्ड रीडिंग ने इस कांड का फायदा उठाकर गांधीजी को इंसा भड़काने के अभियोग में गिरफ्तार कर लिया। गांधीजी पर मुकदमा चला और छः वर्ष कैद की सजा हुई। इस चौरी-चौरा काण्ड से असहयोग आंदोलन को गहरा धक्का लगा।
चौसा का युद्ध : जून १५३९ ई. में दूसरे मुगल बादशाह हुमायूं और अफगान शासक शेरशाह (दे.) के बीच हुआ। इस युद्ध में हुमायूं की बुरी तरह पराजय हुई। वह अपने घोड़े के साथ गंगा में कूद पड़ा और एक भिश्ती की मदद से डूबने से बच गया। हुमायूं उसकी मशक के सहारे नदी पार कर आगरा भाग गया और शेरशाह बिहार और बंगाल का स्वतंत्र शासक बन गया। चौसा गंगा के तट पर बक्सर के निकट स्थित है, इसलिए चौसा के युद्ध को कभी-कभी बक्सर का युद्ध भी कहते हैं।
चौहान : इनका नाम चाह्यान भी मिलता है। यह राजपूतों का ही एक कुल था और पँवारों, प्रतिहारों और सोलंकियों की भांति उनका उद्भव भी राजपूताना के आबू पर्वत स्थित एक यज्ञकुण्ड से माना जाता है। कुछ आधुनिक विद्वानों का मत है कि चौहान भी पँवारों, प्रतिहारों और सोलंकियों की भांति वास्तव में गुर्जरों और श्वेत हूणों के वंशज हैं जो ईसवी पांचवीं और छठीं शताब्दी के दौरान भारत में प्रविष्ट हुए, यहीं बस गये, और हिन्दू धर्म ग्रहण कर लिया। शासक तथा योद्धा होने के कारण उनकी गणना क्षत्रियों में की जाने लगी। (स्मिथ, पृ. ४२८-२९)
चौहान, शाकम्भरी के : हर्षवर्धन के पतन के बाद राजपूताना में शाकंभरी (सांभर) में कई शताब्दियों तक इन्होंने शासन किया। इसकी राजधानी अजमेर थी। इस वंश में अनेक राजा हुए हैं और उनमें बहुतों के नाम अभिलेखों में मिलते हैं, लेकिन दो के नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। पहला है विग्रहराज, जिसने बारहवीं शती के मध्य में शासन किया। इस राजा ने अपने राज्य की सीमाओं का काफी विस्तार किया और दिल्ली तथा उसके पास-पड़ोस के क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की। विग्रहराज विजेता होने के साथ-साथ कवि और साहित्यप्रेमी भी था। उसने 'हरकाली नाटक' की रचना की। 'ललिताविग्रह नाटक' उसी के शासनकाल की कृति है, जिसकी रचना विग्रहराज की प्रशस्ति के लिए की गयी थी। कुछ लोग इस नाटक का लेखक भी विग्रहराज को ही मानते हैं। इसके कुछ अंश अजमेर में 'अढ़ाई दिन का झोपड़ा' नामक मसजिद में लगे पत्थर पर अंकित पाये गये हैं। इस वंश का दूसरा सर्वाधिक उल्लेखनीय शासक विग्रहराज का भतीजा पृथ्वीराज द्वितीय या राय पिथौरा (दे.) था। अजमेर और दिल्ली के चौहान वंश का पतन ११९२ ई. में तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज द्वितीय की हार और मृत्यु के बाद हो गया।
चौहान नरेशों के एक वंश ने तोमरों के उत्तराधिकारी के रूप में मालबा पर शासन किया। मालबा के चौहानों का पतन १४०१ ई. में मुसलमानों से हारने के बाद हुआ। मुसलमानों ने इनका राज्य हड़पकर इन्हें अपदस्थ कर दिया। (स्मिथ, पृ. ४००-४७४)
छतरसिंह : १८४८ ई. में दूसरा सिख-युद्ध छिड़ने के समय सिखों का एक प्रमुख सरदार। अग्रेजों के खिलाफ युद्ध में उसने तथा उसके पुत्र शेरसिंह ने प्रमुख भूमिका अदा की, लेकिन १८४९ ई. में गुजरात के युद्ध (दे.) में सिखों की पराजय के बाद उसने अंग्रजों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया।
छत्रपति : एक राजकीय उपाधि, जो जून १६७४ ई. में स्वतंत्र शासक के रूप में अपने राज्याभिषेक के समय शिवाजी ने धारण की थी।
छत्रसाल : बुंदेला सरदार चम्पतराय का पुत्र और उत्तराधिकारी। छत्रसाल ने शिवाजी के विरुद्ध मुगल बादशाह औरंगजेब की फौजों का साथ दिया, लेकिन बाद में उसे इस मराठा नेता से प्रेरणा मिली। अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की आशा के साथ उसने शिवाजी की तरह साहस और जोखिमपूर्ण जीवन बिताने का फैसला किया। दक्षिण के फौजी अभियान से लौटने के बाद छत्रसाल ने बुंदेलखण्ड और मालवा के असंतुष्ट हिंदुओं के हितों की रक्षा का बीड़ा उठाया। मुगलों के खिलाफ उसने कई लड़ाइयां जीतीं और १६७१ ई. तक पूर्वी मालवा में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। उसने अपनी राजधानी पन्ना को बनाया और १७३१ ई. तक मृत्युपर्यन्त शासन किया।
जकात : मुसलमान बादशाहों के द्वारा लागू किया गया एक कर, जो उनकी मुसलमान प्रजा पर लगाया जाता था। यह व्यक्ति की उपार्जित आय का दो प्रतिशत होता था और इससे प्राप्त होनेवाली धनराशि खैरात के रूप में मुसलमानों में बांट दी जाती थी।
जगतसिंह : आमेर के मानसिंह का पुत्र। बादशाह अकबर के राज्यकाल में मानसिंह अनेक ऊँचे पदों पर रहा। मानसिंह जब बंगाल का सूबेदार था तब जगतसिंह उसका नायब था। अक्तूबर १५९९ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।
जगतसिंह, मेवाड़ का राणा : मेवाड़ के राणा प्रताप का पौत्र और राणा अमरसिंह का पुत्र। वह बादशाह जहाँगीर का समसामयिक था। उसके राज्यकाल में जगतसिंह ने चित्तौड़ का किला फिरसे बनवाया। उसने बादशाह शाहजहाँ (१६२८-५८ ई.) के हुक्म को मानने से इनकार कर दिया। इस पर उसका मानभंग करने के लिए १६५४ ई. में शाहजहाँ के हुक्म से चित्तौड़ का किला ढहा दिया गया।
जगत सेठ : यह उपाधि १७२३ ई. के आसपास दिल्ली के बादशाह ने बंगाल के एक बहुत अधिक धनी महाजन, मानिकचंद के भतीजे तथा गोद लिये हुए लड़के फतहचंद को प्रदान की थी। जगत सेठ की कोठियाँ ढाका और पटना में भी थीं। उसकी मुख्य कोठी मुर्शिदाबाद में थी। उसकी अतुल सम्पत्ति का उल्लेख उस काल के अनेक राजनीतिक लेखों, क्लाइव तथा बर्क जैसे अंग्रेज राजनेताओं के भाषणों में मिलता है। उसका कारोबार 'बैंक आफ इंग्लैंड से मिलता जुलता' था। उसकी कोठी केवल रुपये का लेन-देन ही नहीं करती थी, बंगाल की सरकार की ओर से ऐसे अनेक कार्य भी करती थी, जो अठारहवीं शताब्दी में 'बैंक आफ इंग्लैंड' ब्रिटिश सरकार की ओर से करता था। वह बंगाल में चाँदी की खरीद करती थी। उसने मुर्शिदाबाद में एक टकसाल खोलने में मदद की थी। वह प्रांतीय सरकार की ओर से जमींदारों की मालगुजारी वसूल करती थी, शाही खजाने को दिया जानेवाला आय का भाग दिल्ली भेजती थी और बंगाल में वाणिज्य-व्यवसाय के जरिये जितने सिक्के आते थे उनकी विनिमय-दर का नियंत्रण करती थी।
दूसरा जगत सेठ फतहचंद का पौत्र महताबचंद हुआ। वह १७४४ ई. में वारिस बना। उसका तथा उसके चचेरे भाई तथा साझेदार महाराज स्वरूपचंद का नवाब अलीवर्दी खां (दे.) के दरबार में बड़ा प्रभाव था। अलीवर्दी खां के उत्तराधिकारी, नवाब सिराजुद्दौला (दे.) ने उसे अपमानित किया तथा अपना विरोधी बना लिया। उसने उसके विरुद्ध अंग्रेजों से साजिश की और पलासी की लड़ाई (दे.) से पहले और बाद में अंग्रेजों की रुपये-पैसे से भारी मदद की। मीरजाफर (दे.) के नवाब होने पर उसे फिर पहले जैसा सम्मान और प्रभाव प्राप्त हो गया, परंतु नवाब मीरकासिम (दे.) उससे बहुत अधिक नाराज हो गया। उसे जगत सेठ की वफादारी पर संदेह था और १७६३ ई. में नवाब के आदेश से उसे मार डाला गया। इसके बाद ही बंगाल का प्रशासन नवाब के हाथों से अंग्रेजों के हाथ में आ गया। उन्होंने बेईमानी करके ईस्ट इंडिया कंपनी के ऊपर जगत सेठ का कोई कर्ज होने से इनकार कर दिया। इन सब घटनाओं के फलस्वरूप जगत सेठ के घराने का शीघ्रता से ह्रास हो गया और उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उसका वैभव समाप्त हो गया, हालांकि जगत सेठ की उपाधि महताबचंद के उत्तराधिकारियों की छह पीढ़ियों को मिलती रही। बाद के जगत सेठ ब्रिटिश भारतीय सरकार के छोटे मोटे पेंशनरों से अधिक हैसियत नहीं रखते थे। अंतिम जगत सेठ फतहचंद हुआ, जिसे यह उपाधि १९१२ ई. में मिली। उसकी मृत्यु के बाद उसके वारिसों को फिर यह उपाधि नहीं दी गयी।
जगत सेठ फतहचंद : जगत सेठ घराने के संस्थापक मानिक चंद का भतीजा तथा गोद लिया हुआ लड़का। उसे जगत सेठ की उपाधि मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने १७२३-२४ ई. में प्रदान की। उसी के जीवनकाल में जगत सेठ का घराना प्रतिष्ठा और समृद्धि के चरम शिखर पर पहुंचा। फतहचंद जगत सेठ १७१२ से १७४४ ई. तक अपने परिवार का मुखिया रहा। नवाब मुर्शिदकुली खां और उसके देहांत के बाद नवाब अलीवर्दी खां (१७४०-५६ ई.) पर उसका भारी प्रभाव था।
जगदीशपुर : बिहार में है। गदर में वहां के जमींदार कुँवर सिंह (दे.) की शानदार सफलताओं से यह स्थान प्रसिद्ध हो गया है।
जगन्नाथ मंदिर : पुरी, उड़ीसा में है। इसका निर्माण उड़ीसा के राजा अनंत वर्मा चोड़-गंग (लगभग १०७६-११४८ ई.) ने कराया था। यह वास्तुकला का अद्भुत नमूना है और कई शताब्दियां बीत जाने पर भी काल का प्रभाव इस पर बहुत थोड़ा पड़ा है। सारे भारत से हजारों धर्मप्रेमी हिन्दू यात्री और विदेशी पर्यटक इसे अब भी देखने आते हैं।
जजिया : एक मुंड-कर, जो कानून के अनुसार यहूदियों ओर ईसाइयों से लिया जाता था, परन्तु मुसलमान विजेताओं ने इसे भारत में हिन्दुओं पर भी लगा दिया। मुहम्मद बिन कासिम ने ७१२ ई. में जब सिंध जीता तब जजिया पहली बार लगाया गया। विजित हिन्दुओं को यह कर देना पड़ता था और सम्पत्ति के अनुसार यह कर उनसे लिया जाता था। भारत में मुसलमानी शासन का विस्तार होने पर यह कर सारे भारत के हिन्दुओं पर लगा दिया गया। प्रारम्भ में ब्राह्मणों को इस कर से मुक्त रखा गया था, परन्तु फीरोज शाह तुगलक (१३५१-८८ ई.) (दे.) के राज्यकाल में ब्राह्मणों पर भी यह कर पहले-पहल लगाया गया। बादशाह अकबर ने जब १५६४ ई. में यह कर उठा लिया तो हिन्दुओं ने उसकी बड़ी प्रशंसा की, परन्तु औरंगजेब ने १६७९ ई. में यह फिर लगा दिया। इस धार्मिक असहिष्णुता से हिन्दुओं में बड़ी नाराजी फैली और औरंगजेब एवं राजपूतों के बीच लम्बी लड़ाई चली। इसके फलस्वरूप औरंगजेब ने मेवाड़ को जजिया से बरी कर दिया। बादशाह फर्रुखसियर ने १७१३ ई. में गद्दी पर बैठने पर यह कर उठा लिया, परन्तु १७१७ ई. में फिर लागू कर दिया। इसके बाद, यह कर हालांकि किताबी ढंग से जायज बना रहा, परन्तु बादशाह मुहम्मदशाह (१७१९-४८ ई.) के समय से इसका वसूल किया जाना बंद कर दिया गया। जब दिल्ली की हुकूमत मजबूत थी तब इस कर से काफी आय होती थी, परन्तु बाद के मुगल शासकों के समय इसकी आय काफी कम हो गयी होगी। यह अन्यायपूर्ण कर था और इसीलिए इस कर के वसूल किये जाने से हिन्दुओं में नाराजी फैलती थी।
जझौती : जेजाकभुक्ति (दे.) का दूसरा नाम है।
जनगणना : का ज्ञान प्राचीन भारत में था। मेगस्थनीज ने लिखा है कि चन्द्रगुप्त मौर्य (३२५-२९८ ई. पू.) के शासनकाल में पाटलिपुत्र नगरपालिका का एक काम नागरिकों के जन्म और मृत्यु का लेखा-जोखा रखना था। अर्थशास्त्र (दे.) में भी जनगणना के स्थायी प्रबंध का उल्लेख है। लेकिन बाद में जनगणना की परम्परा लुप्त हो गयी। आधुनिक काल में ब्रिटिश भारतीय सरकार ने इस परम्परा को पुनर्जीवित किया। अब तो यह देश के प्रशासन का नियमित अंग बन गयी है। हर दस साल पर एक बार जनगणना होती है।
जफर खां : अलाउद्दीन खिलजी का मंत्री और सेनाध्यक्ष। सुल्तान के विभिन्न युद्धों में इसने प्रमुख भाग लिया। उसने मंगोल आक्रमण के प्रतिरोध में बड़ी वीरता और रणकौशल का प्रदर्शन किया। मंगोल आक्रमण का नायकत्व १२९९ ई. में कुल्तुघ ख्वाजा ने किया था। उसने मंगोलों को हराने में अपनी जान न्योछावर कर दी।
जफर खां : दक्षिण में बहमनी राज्य (दे.) का संस्थापक। उसका वास्तविक नाम हसन था। सुल्तान मुहम्मद तुगलक की सराहनीय सेवा करने के कारण उसे जफर खाँ की उपाधि से सम्मानित किया गया। १३४७ ई. में दौलताबाद में उसे एक बड़ी सेना का नायकत्व सौंपा गया और इस स्थिति से लाभ उठाकर उसने स्वयं को दक्षिण में एक स्वतंत्र शासक के रूप में प्रतिष्ठित किया तथा गुलबर्ग अथवा कुलबर्ग को अपनी राजधानी बनाया। सुल्तान बनने पर उसने अबुल मुजफ्फर अलाउद्दीन बहमन शाह की उपाधि धारण की। फरिश्ता का कहना है कि हुसेन मूलतः एक ब्राह्मण, ज्योतिषी गंगू का सेवक दास था जिसने उसे जीवन में ऊँचा उठाने में भारी सहायता पहुँचायी। परन्तु फरिश्ता के इस कथन की स्वतंत्र सूत्रों से पुष्टि नहीं होती। हसन का दावा था कि वह फारस के प्रसिद्ध वीर इस्कान्दियार के पुत्र बहमन का वंशज था और इसी आधार पर उसने जिस राजवंश की स्थापना की वह 'बहमनी' कहलाया। उसने अपने पड़ोसी राज्यों से अनेक युद्ध किये, विशेषरूप से हिन्दू राज्य विजय नगर (दे.) से, जो कि उसीके समय स्थापित हुआ था। वह विजयी योद्धा सिद्ध हुआ तथा १३५८ ई. में उसकी मृत्यु के समय उसकी सल्तनत उत्तर में बेनगंगा से दक्षिण में कृष्णा नदी तक तथा पश्चिम में दौलताबाद से पूर्व में मोनगिर तक फैली हुई थी। उसने राज्य का प्रबन्ध कुशलता से किया और उसे चार प्रदेशों में विभक्त किया, जिनके नाम गुलबर्ग, दौलताबाद, बराड़ और बीदर थे। प्रत्येक प्रदेश का कार्यभार एक हाकिम के अधीन था, जो सेना का गठन तथा आवश्यक नागरिक तथा सैनिक अधिकारियों की नियुक्ति करता था। इतिहासकारों द्वारा उसकी न्यायकारी सुल्तान के रूप में प्रशंसा की गयी है। वह प्रजापालक था। जब मृत्यु शैया पर था, तभी उसने अपने सबसे बड़े पुत्र मुहम्मदशाह को अपना उत्तराधिकारी नामांकित कर दिया था।
जफर खान : बंगाल की गद्दी का झूठा दावेदार तथा पूर्वी बंगाल के सुल्तान फखरुद्दीन मुबारकशाह (दे.) का जामाता। वह भागकर सुल्तान फरोजशाह तुगलक (दे.) के दरबार में पहुँचा तथा सुल्तान को बंगाल के ऊपर आक्रमण करनेके लिए प्रेरित किया, परन्तु इस अभियान में सुल्तान फीरोज तुगलक असफल रहा।
जफर खान : गुजरात के स्वतंत्र सुल्तानों के राजवंश का संस्थापक। उसने अपना जीवन तुगलक सुल्तान मुहम्मदशाह के यहाँ सेनानायक के रूप में प्रारम्भ किया, जिसने १३९१ ई. में उसे गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया। उसने शीघ्र ही वहाँ शांति व व्यवस्था स्थापित की। १३९६ ई. में फीरोज तुगलक के वंशजों के बीच होनेवाले संघर्ष से लाभ उठाकर जफर खाँ ने स्वयं को गुजरात के स्वतंत्र सुल्तान के रूप में प्रतिष्ठापित किया। उसने सात वर्षों तक शांति पूर्वक राज्य किया। अन्तिम वर्षों में वह अपने ही पुत्र तातार खां के द्वारा कैद कर लिया गया, जिसने बाद में स्वयं को सुल्तान घोषित कर दिया। लेकिन जफर खाँ ने अपने भाई की सहायता से अपने अवैध पुत्र तातार खाँ की हत्या करवा दी और गद्दी पर पुनः अधिकार कर लिया तथा सुलतान मुजफ्फर की उपाधि धारण की। वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाने के बावजूद मुजफ्फर (जफर खान) ने मालवा के शासक को पराजित कर दिया तथा अपने भाई नुसरत को वहाँ का शासक नियुक्त किया। १४११ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। उसके वंश के सुल्तानों ने गुजरातपर १५७२-७३ ई. तक स्वतंत्र रूप से राज्य किया। अन्त में अकबर ने उसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया।
जब्ती का सिद्धांत : (डाक्ट्रिन आफ लैप्स) - इसके अनुसार जो रियासतें ब्रिटिश भारतीय सरकार के अधीन थीं अथवा जो ब्रिटिश संरक्षण में थीं, उनके शासक के निस्संतान होने पर उनकी प्रभुता समाप्त होकर ब्रिटिश-भारतीय सरकार के हाथ में आ जायेगी और उनमें राजा को गोद लेने का अधिकार न होगा। इसका अर्थ यह था कि अपनी सन्तान न होने पर राजा को किसी अन्य को गोद लेने का अधिकार न होगा। यदि कोई राजा किसी को गोद लेता है, तो वह दत्तक पुत्र राजा की निजी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी तो हो सकेगा; लेकिन राज्य का उत्तराधिकारी न हो सकेगा। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन १८३४ ई. में ही किया गया था, लेकिन गवर्नर-जनरल लार्ड डलहौजी (दे.) (१८४८-५६ ई.) ने इसे अमली रूप देकर सख्ती से लागू किया। इसने इस बात की कोई परवाह नहीं की कि इससे देशी रियासतों के हिन्दू राजाओं में बड़ी बेचैनी फैलेगी, क्योंकि सन्तान न होने पर गोद लेना धार्मिक कर्तव्य माना जाता है।
इस सिद्धान्त को लागू करके डलहौजी ने १८४८ ई. में सतारा, १८४९ ई. में जैतपुर तथा सम्भलपुर, १८५० ई. में बघाट, १८५२ ई. में उदयपुर, १८५४ ई. में नागपुर तथा १८५५ ई. में झांसी को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया। उसने नागपुर राज्य के जवाहरात आदि की खुली नीलामी करायी। वह करौली रियासत पर भी कब्जा करना चाहता था। लेकिन लंदन स्थित ब्रिटिश सरकार ने मध्यप्रदेश के उदयपुर राज्य तथा सतलज के इस पार के बघाट राज्य की जब्ती रद्द कर दी और करौली की प्रस्तावित जब्ती की अनुमति नहीं दी। सतारा तथा नागपुर की जब्ती से ब्रिटिश भारतीय सरकार को यह लाभ हुआ कि कलकत्ता और बम्बई तथा बम्बई और मद्रास के बीच सीधे आवागमन में सारी बाधाएं दूर हो गयीं। लेकिन इन जब्तियों से भारतीय रियासतों के राजाओं में खलबली मच गयी और वे अपने को अरक्षित मानने लगे। इस सिद्धान्त का भी यह फल निकला कि १८५७ ई. में प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम हुआ, जिसे अंग्रेजों ने सिपाही विद्रोह की संज्ञा दी है।
जमरूद की लड़ाई : पंजाब के महाराज रणजीतसिंह और अफगानिस्तान के मीर दोस्त मुहम्मद के बीच १८०३ ई. में हुई। इस लड़ाई में अमीर परास्त हुआ और रणजीत सिंह को पेशावर सौंप देने के लिए विवश हुआ।
जमशेद : एक प्रसिद्ध ईरानी कलाकार, जिसे बादशाह अकबर (दे.) का आश्रय प्राप्त था।
जमशेद : गोलकुंडा के कुतुबशाही वंश (दे.) का दूसरा सुल्तान। इस वंश की स्थापना उसके पिता कुली कुतुबशाह ने की थी। उसने १५४३ ई. में अपने पिता को मरवा दिया और १५५० ई. में मृत्यु होने तक राज्य किया।
जमशेदपुर : भारत का 'इस्पात-नगर'। इसका नामकरण सर जमशेदजी टाटा के नाम पर हुआ, जिनके मन में बिहार में आज जहाँ जमशेदपुर तथा टाटानगर स्थित है, वहाँ इस्पात कारखाना खोलने का विचार उत्पन्न हुआ। यह संसार में इस्पात का सबसे बड़ा अकेला कारखाना है। यहाँ प्रतिवर्ष लगभग दस लाख टन इस्पात तैयार होता है।
जमानशाह : १७९३ से १७९९ ई. तक अफगानिस्तान का शासक। वह अहमदशाह अब्दाली का पौत्र था और गद्दी पर बैठते ही अपने पितामह की भाँति भारत पर चढ़ाई करना चाहता था। परंतु उसे सुबुद्धि आ गयी कि भारत पर हमला करने से पहले स्वदेश में अपनी स्थिति मजबूत कर लेनी चाहिये। फिर भी उसने १७९४ ई. में कश्मीर पर कब्जा कर लिया तथा सिंध के अमीरों को भी कर देने के लिए विवश किया। इसके बाद वह भारत पर चढ़ाई करने के लिए काबुल से रवाना हुआ, किन्तु उसकी फौजें रोहतास तक ही बढ़ पायी थीं कि अफगानिस्तान में बलवा हो गया जिसे दबाने के लिए उसे वापस लौट जाना पड़ा। उसकी सेना के जो अग्रिम दस्ते पंजाब तक पहुँच गये थे उन्हें सिखों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा और वे कोई विजय प्राप्त किये बिना ही अफगानिस्तान वापस लौट गये। इसके बाद १७९६-९७ ई. में जमानशाह ने भारत पर फिर चढ़ाई की और वह पेशावर से लाहौर की ओर बढ़ने लगा। किन्तु सिखों ने पुनः कड़ा प्रतिरोध किया और उसकी सेना पर छापे मारने लगे। अतः पंजाब में अपनी स्थिति को मजबूत करने में जमानशाह को काफी समय लग गया। उसी बीच अफगानिस्तान में फिर बलवा शुरू हो गया। अतएव जमानशाह को लाहौर से आगे बढ़े बिना ही पुनः काबुल वापस लौट जाना पड़ा। जमानशाह ने भारत पर आक्रमणक अन्तिम प्रयास १७९८ ई. में किया और सरलता से लाहौर तक बढ़ आया, जिस पर उसने पुनः अधिकार कर लिया, परन्तु इसी बीच ईरान के बादशाह ने उसके सौतेले भाई शाह महमूद की साँठगाँठ से अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया और उसे अपनी विजय अधूरी छोड़ कर पुनः पंजाब से अफगानिस्तान वापस लौट जाना पड़ा। शाह महमूद ने अन्त में जमानशाह को १७९९ ई. में हरा दिया और उसकी आँखें फोड़ दीं। फिर भी भारतीय सीमाओं पर उसके हमले का खतरा यहाँ के राजाओं को लम्बे समय तक आतंकित किये रहा, जिसके फलस्वरूप भारत के शासक अंग्रेजी राज्य के प्रसार को रोकने के लिए कोई प्रभावशाली कदम न उठा सके। (एन. के. सिन्हा कृत 'राइज़ आफ द सिक्ख पावर इन इण्डिया')
जयंतिया राज्य : इसके अंतर्गत आसाम का जयंतिया पहाड़ी क्षेत्र तथा इन पहाड़ियों तथा बादक नदी के बीच का मैदान सम्मिलित था। इस क्षेत्र के लोग उसी वंशमूल के हैं जिसके खासी (दे.) लोग, और दोनों एक ही भाषा बोलते हैं। उनमें मातृसत्ताक व्यवस्था है और सम्पत्ति का उत्तराधिकार मातृ सम्बन्ध से प्राप्त होता है। १५०० ई. के आसपास पर्वतराय ने जयंतिया में एक हिन्दू राजवंश की स्थापना की, जिसके राजाओं के नाम संस्कृत शब्दों पर आधारित थे। उनकी राजधानी जयंतियापुर थी। विश्वास किया जाता है कि शिव की अर्द्धाङ्गिनी सती के अंग जिन-जिन स्थानों पर गिरे थे, उनमें यह भी था, इसीलिए इसे अत्यन्त पवित्र माना जाता है। १५४८ से १५६४ ई. के बीच कूचबिहार के राजा नरनारायण ने जयंतिया पर अधिकार कर लिया। बाद में सत्रहवीं शताब्दी के शुरू में जयंतिया के राजा धन भानिक को कचारी राजा ने हरा दिया और उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। धन भानिक के पुत्र तथा उत्तराधिकारी जस भानिक (लगभग १६०५-२५ ई.) ने अहोम राजा प्रतापसिंह (१६०३-४१ ई. को अपनी लड़की ब्याह दी और उसकी सहायता से अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया।
जस भानिक के बाद छठे राजा लक्ष्मीनारायण (१६६९-९७ ई.) ने जयंतीपुर में एक महल बनवाया, जिसके खंडहर आज भी वर्तमान हैं। उसके उत्तराधिकारी राससिंह (१६९७-१७०८ ई.) और अहोम राजा रुद्रसिंह (१६९६-१७१४ ई.) के बीच युद्ध छिड़ गया, जिसमें रामसिंह को प्राणों से हाथ धोना पड़ा। फिर भी जयंतिया राज्य की स्वतंत्रता बनी रही। उसने १८२४ ई. में अपनी स्वतंत्रता खो दी जब बर्मियों ने हमला करके आसाम पर अधिकार कर लिया। दो साल बाद अंग्रेजों ने बर्मियों को मार भगाया और राजा रामसिंह को जयंतिया का राज्य लौटा दिया जिसे बर्मियों ने अपदस्थ कर दिया था। राम सिंह के भतीजे तथा उत्तराधिकारी राजेन्द्र सिंह से ब्रिटिश भारतीय सरकार बहुत नाराज हो गयी, क्योंकि उसकी प्रजा ने ब्रिटिश भारत के चार नागरिकों को पकड़कर उनकी बलि चढ़ी दी थी। ब्रिटिश भारतीय सरकार के बार बार कहने पर भी राजा ने इस कांड के अभियुक्तों को उसके सुपुर्द नहीं किया। अतएव १८३५ ई. में जयंतिया के राजा को गद्दी से उतार दिया गया और उसका राज्य ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।
जयचंद (अथवा जयचन्द्र) : बारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में कन्नौज तथा बनारस का शासक। वह अजमेर तथा दिल्ली के राजा पृथ्वीराज का समसामयिक तथा प्रतिद्वन्द्वी था। चंद बरदाई के रासो (दे.) के अनुसार पृथ्वीराज ने उसकी पुत्री संयोगिता का हरण कर लिया था, अतएव जयचंद ने क्रुद्ध होकर उससे प्रतिशोध लेने के लिए शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी (दे.) की सहायता की। गोरी ने ११९२ ई. में तराईन की दूसरी लड़ाई में पृथ्वीराज को हरा दिया और उसे मार डाला। परंतु अगले साल गोरी की मुसलमान फौजों ने जयचन्द्र के राज्य पर हमला कर दिया। जयचंद आगरा और इटावा के बीच जमना तट पर स्थित चन्दावर (अब फीरोजाबाद) में गोरी के सिपहसालार कुतुबुद्दीन से युद्ध में हारकर मारा गया। उसके मरने पर उसके राजवंश का अंत हो गया और कन्नौज मुसलमानी शासन के अंतर्गत आ गया।
जयदेव : एक प्रसिद्ध कवि, जो बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन (लगभग ११८०-१२०२ ई.) का समसामयिक था। वह 'गीतगोविन्द' का रचयिता है, जो आज भी अत्यन्त लोकप्रिय भक्तिमय गीतिकाव्य है।
जयध्वज सिंह : कामरूप (आसाम) का एक अहोम राजा (१६४८-६३ ई.)। उसके राज्यकाल में मुगल सिपहसालार मीर जुमला (दे.) ने आसाम पर चढ़ाई की। जयध्वजसिंह ने उसकी फौज को खदेड़ देने का भारी प्रयत्न किया, परन्तु सफलता नहीं मिली। वह राजधानी छोड़कर कामरूप भाग गया। १६६२ ई. में मीर जुमला ने उसकी राजधानी पर दखल कर लिया। उसे विवश होकर जनवरी १६६३ ई. में आक्रमणकारियों से संधि कर लेनी पड़ी। इस संधि के द्वारा उसने हर्जाने के रूप में एक बड़ी रकम तथा दक्षिणी आसाम मुगल बादशाह को सौंप देना मंजूर कर लिया। जयध्वजसिंह अपनी राजधानी में लौट आया, परन्तु कुछ महीने बाद नवम्बर १६६३ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।
जयपाल : ओहिन्द (उद्भांडपुर) के हिन्दू शाहीवंश का राजा, जिसका राज्य उत्तर प्रदेश के कांगड़ा से लेकर अफगानिस्तान के लगभग तक फैला था। उस समय गजनी की गद्दी पर उसका समसामयिक अमीर सुबुक्तगीन (९७७-९९७ ई.) था। उसने जब सुना कि सुबुक्तगीन अफगानिस्तान में उसके राज्य पर हमला कर रहा है तो उसने उसे रोकने का निश्चय किया और सेना लेकर गजनी और लगमान के बीच गुजुक नामक स्थान तक बढ़ गया। परन्तु अचानक एक बर्फीला तूफान आ गया और जयपाल को अपमानजनक संधि कर लेनी पड़ी। परन्तु उसने शीघ्र ही इस संधि की शर्तों को तोड़ दिया और सुबुक्तगीन के साथ फिर लड़ाई छिड़ गयी। सुबुक्तगीन ९९७ ई. में मर गया। उसके बाद उसके उत्तराधिकारी सुल्तान महमूद ने फिर से युद्ध शुरू कर दिया और १००१ ई. में पेशावर के निकट जयपाल उससे बुरी तरह हार गया। जयपाल इतना अभिमानी और देशभक्त था कि इस हार की ग्लानि के बाद उसने जीवित रहना और राज्य करना पसंद न किया। वह जीवित जलती चिता में कूद गया।उसको आशा थी कि उसका उत्तराधिकारी पुत्र आनंदपाल देश की रक्षा अधिक सफलता के साथ कर सकेगा। जयपाल एकमात्र हिन्दू राजा था जिसने उत्तर पश्चिम से भारत पर आक्रमण करनेवाले मुसलमानों के खिलाफ आक्रामक नीति अपनायी और अपनी आहुति देकर आत्महत्या का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया।
जयपुर : एक आदर्श नगर तथा राजपूताना की भूतपूर्व देशी रियासत। इस नगर की स्थापना १७२८ ई. में महाराज जयसिंह द्वितीय ने की और अब यह राजस्थान की राजधानी है। यह सुनियोजित ढंग से बसाया गया सुंदर नगर है। इसकी मुख्य सड़कों ने नगर को छह समचतुरस्त्र विभागों में बाँट रखा है, जिनके किनारे लाल पत्थर के मकान बने हैं। जयपुर राज्य की स्थापना ११२८ ई. में दूल्हाराय ने की थी, जो कछवाहा राजपूत था और ग्वालियर से आया था। सोलहवीं शताब्दी में उसके शासक राजा बिहारीमल ने स्वेच्छा से बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और उसे अपनी लड़की ब्याह दी जो बाद में जहाँगीर की माँ बनी। बिहारीमल के उत्तराधिकारियों में अकबर के राज्यकाल में राजा मानसिंह (दे.) तथा औरंगजेब के शासनकाल में मिर्जा राजा जयसिंह द्वितीय ने योग्य सेनापति के रूप में विशेष ख्याति प्राप्त की। जयसिंह द्वितीय प्रसिद्ध गणितज्ञ और खगोलवेत्ता भी था। उसने काशी, दिल्ली और जयपुर की वेधशालाओं का निर्माण कराया। अट्ठारहवीं शताब्दी के अंतिम दिनों में जोधपुर (दे.) की प्रतिद्वन्द्विता तथा अमीर खाँ (दे.) के नेतृत्व में पेंढारियों के हमले के कारण राज्य में काफी अव्यवस्था फैल गयी। इन परिस्थितियों में जयपुर राज्य ने जयपुर की संधि द्वारा प्रतिवर्ष निश्चित रकम नजराने के रूप में देने की शर्त पर अंग्रेजों का संरक्षण प्राप्त कर लिया। ३० मार्च १९४८ ई. को इस राज्य का राजस्थान संघ में विलयन कर दिया गया और महाराज सवाई मानसिंह को राजप्रमुख बना दिया गया।
जयपुर की संधि : जयपुर राज्य और ब्रिटिश भारतीय सरकार के बीच १८१७ ई. में गवर्नर-जनरल लार्ड हेस्टिंग्स के शासनकाल में हुई। इस संधि के द्वारा जयपुर ने ब्रिटिश आश्रित राज्य होना स्वीकार कर लिया।
जयमल्ल : मेवाड़ का एक राजपूत वीर। बादशाह अकबर की सेनाओं ने जब चित्तौड़ को घेर लिया तब राणा उदयसिंह उसको अपने भाग्य पर छोड़कर जंगलों में भाग गया और चित्तौड़ का दुर्ग जयमल्ल को सौंप गया। जयमल्ल ने वीरतापूर्वक चार महीने (२० दिसम्बर १५६७ ई. से २३ फरवरी १५६८ ई.) तक दुर्ग की रक्षा की। २३ फरवरी को वह खुद बादशाह अकबर द्वारा चलाये गये तोप के गोले से मारा गया। जयमल्ल के वीरगति प्राप्त करने के बाद चित्तौड़ का पतन हो गया।
जयरुद्रमल्ल : नेपाल का राजा, जिसे तिरहुत के राजा हरिसिंह ने १३४२ ई. में अपने अधीन कर लिया। वह तथा उसके उत्तराधिकारी पाटन और काठमांडू क्षेत्रों पर पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य तक राज्य करते रहे।
जयसिंह : मेवाड़ का महाराणा (१६८०-९८ ई.), जिसने अपने पिता राजसिंह की गद्दी प्राप्त की। उसने औरंगजेब की फौज का मुकाबला किया और १६८१ ई. के अंत में उससे संधि कर ली। इस संधि के द्वारा उसने जजिया (दे.) के बदले मुगल बादशाह को तीन परगने सौंप दिये। आक्रमणकारी मुगल सेना मेवाड़ से वापस लौट आयी।
जयसिंह : आमेर (जयपुर) का राजा, जिसने शाहजहाँ के शासनकाल के अंतिम भाग में तथा औरंगजेब के शासनकाल के प्रारम्भिक भाग में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। जब शाहजहाँ बीमार पड़ा और उसके बेटों में राजगद्दी के लिए लड़ाई होने लगी तो जयसिंह को शाहजादा शुजा के खिलाफ भेजा गया। उसने शाहजादे को हरा दिया और बंगाल की सीमाओं तक उसका पीछा किया। शाहजादा दारा जब देवराई की लड़ाई में हार गया तो उसका पीछा करने के लिए जयसिंह को भेजा गया। उसने दारा का सिंध तक पीछा किया। इसके बाद औरंगजेब ने उसे दक्खिन भेजा। वहाँ वह १६६५ से १६६६ ई. तक बीजापुर पर हमले करता रहा, परन्तु उसे ले न सका। उधर शिवाजी (दे.) के विरुद्ध उसे अधिक सफलता मिली। उसने शिवाजी पर चारों ओर से चढ़ाई बोल दी और उनकी राजधानी पुरन्दर के किले को घेर लिया। शिवाजी को विवश होकर उसके साथ १६६५ ई. में पुरन्दर की संधि करनी पड़ी, जिसके द्वारा उन्होंने मुगल बादशाह से सुलह कर ली, उसे २३ किले सौंप दिये और बादशाह की सेवा करना स्वीकार कर लिया। उसने शिवाजी को १६६६ ई. में आगरा मुगल दरबार में जाने के लिए राजी कर लिया। बीजापुर का किला जीतने में उसकी असफलता से औरंगजेब उससे नाखुश हो गया और उसे दक्खिन से वापस बुला लिया गया। १६६७ ई. में दिल्ली लौटते हुए रास्ते में उसकी मृत्यु हो गयी।
जयसिंह सवाई : आमेर का राजा। यह बड़ा ही वीर और कूटनीतिज्ञ था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद जब मुगल साम्राज्य में अव्यवस्था फैल रही थी, उसका नाम चमक उठा। उसने बहादुरशाह प्रथम के विरुद्ध बगावत का झंडा बुलंद कर दिया पर बादशाह ने उसे क्षमा कर दिया। वह मालवा में और बाद में आगरा में बादशाह का प्रतिनिधि नियुक्त हुआ। पेशवा बाजीराव प्रथम के साथ उसके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। मुगल साम्राज्य के खंडहरों पर हिन्दू पद पादशाही की स्थापना करने के पेशवा-लक्ष्य से उसे सहानुभूति थी। परन्तु आमेर पर ४४ वर्ष राज्य करने के बाद १७४३ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। इसी के राज्यकाल में गुलाबी नगर जयपुर के रूप में नयी राजधानी की रचना हुई।
जयसिंह सूरी : एक संस्कृत नाटककार, जो तेरहवीं शताब्दी ई. के प्रारम्भ में हुआ। उसने १२१९ और १२२९ ई. के बीच 'हम्मीरमदमर्दन' नाटक लिखा।
जयस्तम्भ, राणा कुम्भ का : इसे कीर्तिस्तम्भ भी कहते हैं। इसकी स्थापना पन्द्रहवीं शताब्दी के लगभग मध्य में चित्तौड़ के राणा कुंभ (१४३१-६९ ई.) ने मालवा अथवा गुजरात के मुसलमान शासक के ऊपर अपनी विजय के उपलक्ष्य में की।
जयस्थित मल्ल : तिरहुत के राजा का एक सम्बन्धी था। उसने नेपाल के राजा की लड़की से विवाह किया और १३७६ ई. में नेपाल की गद्दी छीन ली। उसने समस्त नेपाल में अपना राज्य स्थापित किया। उसने एक नये राजवंश की स्थापना की जिसने १४७६ ई. तक अविभाजित नेपाल पर राज्य किया।
जयाजीराव शिन्दे (१८४३-८६ ई.) : जब नाबालिग था तभी शिन्दे राजवंश का मुखिया हो गया। उसकी नाबालिगी की अवस्था में उसका संरक्षक नियुक्त करने के प्रश्न पर षड्यंत्र रचे जाने लगे। इसके फलस्वरूप लार्ड एलेनबरो (दे.) की सरकार ने उसके राज्य पर चढ़ाई करने के लिए एक फौज भेज दी। महाराजपुर तथा पनियार की लड़ाईयों में शिन्दे की फौज हारी और शिन्दे का दर्जा घटकर एक आश्रित राजा का हो गया। गदर के समय जयाजीराव अंग्रेजों का वफादार बना रहा, हालांकि उसकी सेना ने विप्लवियों का साथ दिया। पुरस्कारस्वरूप जयाजी को ग्वालियर लौटा दिया गया जिस पर अंग्रेजों ने १८५८ ई. में विप्लवी सेना से युद्ध के समय अधिकार कर लिया था। (देखिये, 'ग्वालियर')
जयापीड़ विनयादित्य : कश्मीर के प्रसिद्ध राजा ललितादित्य (७२४-७६० ई.) का पौत्र जो उसके बाद गद्दी पर बैठा। उसने गौड़ और कन्नौज के राजाओं को हरा दिया। वह विद्वानों का आश्रयदाता था और क्षीरस्वामी (दे.) जैसे विद्वान् उसके आश्रय में रहते थे।
जलंधर : पंजाब में व्यास और सतलज नदियों के बीच का दोआब। यह महाराज रणजीतसिंह के राज्य के अंतर्गत था, परन्तु प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध की समाप्ति पर लाहौर की संधि (९ मार्च १८४६ ई.) के द्वारा अंग्रेजों को सौंप दिया गया और ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में शामिल कर लिया गया।
जलालखां लोदी : सुल्तान इब्राहीम लोदी (१५१७-२६ ई.) का भाई। १५१७ ई. में उसे जौनपुर का शासक बना दिया गया। परन्तु सल्तनत का यह बटवारा कई लोगों को स्वीकार नहीं हुआ और जलाल खाँ ने शीघ्र दिल्ली की सल्तनत के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। सुल्तान ने जब उसके खिलाफ फौजें भेजीं तो वह ग्वालियर भागा, जहाँ के राजपूत राजा विक्रमाजीत ने उसे शरण प्रदान की। इससे सुल्तान इब्राहीम भड़क उठा और उसने ग्वालियर पर हमला कर दिया और राजा विक्रमाजीत को आत्मसमर्पण करने के लिए विवश कर दिया। युद्ध में जलाल खाँ मारा गया।
जलाल खां लोहानी : बिहार का अफगान सुल्तान। शेरशाह १५२७ ई. में उसकी नौकरी करने लगा। १५३३ ई. में सूरजगढ़ की लड़ाई में शेरशाह ने उसे हरा दिया और उसके राज्य को दखल कर लिया।
जलाल खां सूर : शेरशाह (दे.) का पुत्र और उत्तराधिकारी। दिल्ली की गद्दी पर बैठने पर उसने सुल्तान इसलामशाह (दे.) की उपाधि धारण की। उसने नौ वर्ष (१५४५-५४ ई.) तक शासन किया।
जलालुद्दीन : सुल्ताना रजिया (१२३६-४० ई.) (दे.) की उपाधि थी।
जलालुद्दीन खिलजी : दिल्ली का सुल्तान (१२९०-९६ ई.) एवं खिलजी राजवंश का संस्थापक। उसका मूल नाम फीरोजशाह खिलजी था। दिल्ली के सरदारों ने १२९० ई. में सुल्तान कैकाबाद की हत्या करने के बाद उसे सुल्तान बनाया, तब उसने अपना नाम जलालुद्दीन रखा। जिस समय वह गद्दी पर बैठा सत्तर वर्ष का बूढ़ा था और स्वभाव का इतना नरम कि साहसपूर्ण कार्यों के लिए अक्षम था। उसने एक ही सफलता प्राप्त की। उसने १२९२ ई. में मंगोलों का एक बड़ा हमला विफल कर दिया। परन्तु उसने बहुत बड़ी संख्या में मंगोल भगोड़ों को मुसलमान बन जाने और दिल्ली के पास बस जाने की इजाजत देकर नयी समस्या खड़ी कर ली। बूढ़े सुल्तान के दो बेटे थे, परन्तु प्रियपात्र भतीजा और दामाद अलाउद्दीन (दे.) था। उसीने विश्वासघात करके १२९६ ई. में उसकी हत्या कर दी और दिल्ली की गद्दी पर उसका उत्तराधिकारी बन गया।
जलालुद्दीन मंगबरनी : खीवा का सुल्तान। चंगेज खाँ (दे.) की फौजों ने जब उसके राज्य पर हमला किया, वह भागा और १२२१ ई. में दिल्ली के दरबार की शरण पाने की कोशिश की। परन्तु सुल्तान इल्तुतमिश ने उसे शरण देने से इनकार कर दिया। तब वह सिंध और उत्तरी गुजरात को लूटता हुआ फारस भाग गया।
जलालुद्दीन रूमी : एक ईरानी सूफी रहस्यवादी तथा कवि। उसके विचारों से बादशाह अकबर और उसका प्रमुख दरबारी अबुल फजल, इतिहासकार (दे.) बहुत अधिक प्रभावित हुआ था।
जसवंतराव होल्कर : तुकोजीराव होल्कर का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। उसने होल्कर राज्य पर १७९८ से १८११ ई. तक शासन किया। (देखिये, होल्कर)।
जसवंत सिंह : मारवाड़ का राजा; जोधपुर उसकी राजधानी थी। वह बादशाह शाहजहाँ की सेना में कई ऊँचे पदों पर रहा। जब शाहजहाँ बीमार पड़ा और उसके बेटों में गद्दी पाने के लिए लड़ाई छिड़ गयी तो जसवंतसिंह राजधानी में था। उसे औरंगजेब के खिलाफ भेजा गया और यह जिम्मेदारी सौंपी गयी कि औरंगजेब को दक्खिन से उत्तर भारत न आने दे। परन्तु जसवंत सिंह उज्जैन के निकट धर्मट (दे.) की लड़ाई में १६५८ ई. में उससे हार गया। बाद में वह बादशाह औरंगजेब की सेवा में रहा और राजा जयसिंह (दे.) की मृत्यु के बाद मुगलों की सेवा में सबसे प्रमुख राजपूत सरदार माना गया। उसे शाहजादा मुअज्जम (दे.) के साथ शिवाजी से लड़ने के लिए भेजा गया, परन्तु कोई सफलता नहीं मिली। अतएव उसे खैबर के दर्रे के मुहाने पर स्थित जमरूद के किले का फौजदार बनाकर भेजा गया। वहीं १६७८ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। औरंगजेब को उसकी मृत्यु से काफी राहत मिली। उसने उसके राज्य को जब्त कर लेने तथा उसकी मृत्यु के बाद पैदा हुए उसके लड़के अजितसिंह को मुसलमान बनाने की योजना बनायी। परन्तु यह योजना सफल नहीं हो सकी और इसके फलस्वरूप राजपूताने में लम्बी लड़ाई चली, जिसने मुगल साम्राज्य को कमजोर बना दिया।
जहाँगीर बादशाह : बादशाह अकबर (दे.) का सबसे बड़ा लड़का। १६०५ ई. में उसकी मृत्यु होने पर उत्तराधिकारी हुआ और १६२७ ई. में मृत्यु होने तक राज्य करता रहा। बाल्यावस्था में उसका नाम सलीम था। उसने १६०१ से १६०४ ई. तक पिता के खिलाफ बगावत की, परंतु उसे क्षमा कर दिया गया। वह १५६९ ई. में पैदा हुआ था। उसकी मां राजपूत थी। उसने अपने शासनकाल के प्रारम्भ में मुसलमान धर्म को बढ़ाने की कोशिश की। परंतु अपने पिता की भाँति, वह भी उदार तथा सहिष्णु था और उसने वही शासन-प्रणाली जारी रखी। शासन के प्रारम्भ में उसे अपने सबसे बड़े बेटे खुसरो की बगावत का सामना करना पड़ा। अकबर के शासनकाल के अंतिम दिनों में कुछ लोगों ने खुसरो को गद्दी पर बैठाने का प्रयत्न किया था। जहांगीर ने बड़ी फुर्ती दिखायी और बागी शाहजादे का पंजाब तक पीछा किया। वहां वह लड़ाई में हारा, बंदी बना लिया गया और वापस राजधानी ले आया गया। उसे कैदखाने में डाल दिया गया, जहां १६२२ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।
बादशाह जहांगीर कोई कुशल सेनानायक नहीं था, फिर भी उसने अपने पिता से जो विशाल साम्राज्य पाया था उसमें उसने वृद्धि की। उसने १६१६ ई. में अहमदनगर तथा १६२० ई. में काँगड़ा जीत लिया। उसने १६१२ ई. में अफगानों को भी पूरी तरह वश में कर लिया, जिन्होंने उसमान खां के नेतृत्व में बंगाल में अपनी स्वतंत्रता बनाये रखी थी। उसने १६१४ ई. में मेवाड़ के राणा अमरसिंह से भी हार मनवा ली। परंतु फारस के शाह ने १६२२ ई. में कंदहार उससे छीन लिया। उसके दरबार में १६०८-११ ई. तक कैप्टेन हाकिन्स (दे.) और फिर १६१५-१८ ई. तक सर थामस रो रहे। अपने पिता की भांति उसने भी मुगल साम्राज्य का शक्तिशाली जंगी बेड़ा तैयार करने की कोई आवश्यकता नहीं अनुभव की। पुर्तगालियों से होनेवाली नौसैनिक लड़ाइयों में वह उनके दूसरे फिरंगी प्रतिद्वन्द्वियों की नौसैनिक सहायता पर निर्भर रहता था। इस समय बहुत-से फिरंगी भारत में पहुँच चुके थे और वाणिज्य सम्बंधी सविधाएँ प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे थे।
उसके शासनकाल की सबसे मुख्य घटना १६११ ई. में शेर अफगन (दे.) की विधवा, नूरजहाँ (दे.) से उसकी शादी है। इस शादी के बाद उसने क्रमिक रीति से शासन का अधिकाधिक कार्य नरजहाँ पर छोड़ दिया और उसका नाम सिक्कों पर भी ढाला जाने लगा। उसके तीसरे लड़के शाहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) ने १६२२ ई. में उसके खिलाफ बगावत कर दी, परंतु उसके सिपहसालार महावत खां (दे.) ने १६२५ ई. में उसे वश में कर लिया। अगले साल खुद महावत खां बगावत पर उतर आया और कुछ समय तक जहाँगीर को भी कैद कर लेने में सफल हो गया, परंतु मलका नूरजहाँ के युक्ति-कौशल से उसे छुड़ा लिया गया और महावत खाँ को फिरसे वश में कर लिया गया। उसका दूसरा लड़का परवेज १६२६ ई. में मर गया और एक साल बाद बादशाह जहाँगीर का भी देहावसान हो गया।
जहाँगीर चित्रकला का प्रेमी था और उसने अपने समय के दो महान् मुसलमान चित्रकारों, अबुल हसन और मंसूर को संरक्षण प्रदान किया। वह बड़ा न्यायप्रिय था और अपनी प्रजा के साथ न्याय करने की भावना से उसने गद्दी पर बैठने के बाद ही राजधानी में अपने महल के फाटक पर एक घंटा लटकवा दिया था, जिसके साथ एक डोरी बंधी थी। न्याय चाहनेवाला कोई भी व्यक्ति इस डोरी से घंटा बजा सकता था। उसकी धार्मिक प्रवृत्तियों की व्याख्या करना सरल नहीं है। निश्चय ही सार्वजनिक रूप से वह पक्का मुसलमान था, परंतु अनेक वर्षों तक वह ईसाई पादरियों का इतना अधिक सत्संग करता रहा जिससे यह आशा होने लगी कि वे उसे ईसाई बनाने में सफल हो जायेंगे। परंतु उसने उन्हें निराश किया। वह अपने पिता की धार्मिक सहिष्णुता की नीति से हटा नहीं।
जहांदारशाह : बादशाह बहादुरशाह (दे.) का सबसे बड़ा पुत्र था और १७१२ ई. में उसका उत्तराधिकारी हुआ। परन्तु वह बहुत थोड़े समय (१७१२-१३ ई.) राज्य कर सका। उसके भतीजे फर्रुखसियर (दे.) ने १७१३ ई. में उसे हरा दिया और मार डाला।
जहांनारा बेगम : बादशाह शाहजहाँ की दो पुत्रियों में बड़ी। बड़ी सुसंस्कृत और तेजस्वी महिला थी। १६४४ ई. में वह अचानक बुरी तरह जल गयी। उसके घावों को डा. बागटन ने नहीं अच्छा किया, जैसा कि आमतौर से ख्याल किया जाता है, बल्कि आरिफ नामक गुलाम के द्वारा तैयार की गयी दवा ने अच्छा किया। पिताकी गद्दी पाने के लिए उसके भाइयों में जो युद्ध हुआ उसमें उसने दारा (दे.) का समर्थन किया और औरंगजेब (दे.) के गद्दी पर बैठने पर जेल में कैद अपने पिता की सेवा में अपने दिन बिताये। वह कुमारी ही मरी और उसे निजामुद्दीन औलिया की मसजिद के अहाते में एक सादी कब्र में दफनाया गया। वह शायरा थी और उसकी कब्र पर जो फारसी शेर अंकित है, वह उसी का लिखा हुआ है।
जहाजपुर का किला : मेवाड़ से बूंदी को जानेवाले संकीर्ण गिरिपथ की रक्षा करता है। कहा जाता है कि अशोक के पौत्र सम्प्रति ने इसे बनवाया। अनुश्रुतियों के अनुसार उसे अपने पितामह के साम्राज्य का पश्चिमी भाग उत्तराधिकार में मिला था।
जहाज महल : जहाज के आकार का यह महल मालवा के खिलजी बादशाहों की राजधानी मांडू में वास्तुकला की एक उल्लेखनीय कृति थी। यह दो झीलों के बीच में स्थित है। अपने महराबदार बड़े-बड़े कमरों, छतों पर बने चोटीदार मंडपों तथा सुंदर जलाशयों के कारण यह मांडू का सबसे दर्शनीय स्थल है। सम्भवतः इसे सुल्तान महमूद खिलजी (१४३६-१४६९) ने बनवाया था।
जहान खाँ : एक योग्य अफगान सेनापति। अहमदशाह अब्दाली ने १७५७ ई. में अपने लड़के तैमूरशाह को अपना प्रतिनिधि बनाकर लाहौर में रख दिया और जहान खाँ को उसका वजीर बना दिया। जहान खाँ पंजाब में शांति बनाये नहीं रख सका और मराठों ने तैमूर शाह को अपदस्थ करके १७५८ ई. में पंजाब पर अधिकार कर लिया।
जहानशाह : बादशाह बहादूरशाह प्रथम (१७०७-१२ ई.) का चौथा बेटा। १७१२ ई. में बादशाह की मृत्यु होने पर गद्दी पाने के लिए उसके चारों बेटों में जो लड़ाई हुई उसमें इसने भी हिस्सा लिया और मारा गया।
जहानसोज : का अर्थ है दुनिया को जला देनेवाला। यह पदवी गोर के अलाउद्दीन हुसेन को प्रदान की गयी थी। ११५१ ई. में उसने गोर को सर किया और नगर में आग लगा दी। यह आग, सात दिन और सात रात जलती रही। उसने सुल्तान महमूद (दे.) के मकबरे को छोड़कर सारे शहर को भस्म कर दिया।
जाकेमान्ट, विक्टर : एक फ्रेंच वनस्पतिशास्त्री, जो लगभग १८३० ई. में पंजाब में रणजीतसिंह के दरबार में आया। उसने 'भारत से पत्र' नामक पुस्तक में 'शेरे-पंजाब' के सम्बंध से अपने विचार लिखे हैं। वह रणजीतसिंह की जिज्ञासु वृत्ति से बहुत प्रभावित हुआ था और उसे 'एक असाधारण व्यक्ति' मानता था। उसके लिखे ग्रंथों में हिमालय क्षेत्र के पेड़-पौधों तथा उस काल के भारत की सामाजिक अवस्था के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
जागीर प्रथा : दिल्ली के प्रारम्भिक सुल्तानों ने शुरू की। इस प्रथा के अंतर्गत सरदारों को नकद वेतन न देकर जागीरें प्रदान कर दी जाती थीं। उन्हें इन जागीरों का प्रबंध करने तथा मालगुजारी वसूल करने का हक दे दिया जाता था। यह सामंतशाही शासन-प्रणाली थी और इससे केन्द्रीय सरकार कमजोर हो जाती थी। इसलिए सुल्तान गयासुद्दीन बलवन (दे.) ने इस पर रोक लगा दी और सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने इसे समाप्त कर दिया। परंतु सुल्तान फीरोजशाह तुगलक (दे.) ने इसे फिरसे शुरू कर दिया और बाद के काल में भी यह चलती रही। शेरशाह और अकबर दोनों इस प्रथा के विरोधी थे। वे इसको समाप्त कर उसके स्थान पर सरदारों को नकद वेतन देने की प्रथा शुरू करना चाहते थे। परंतु बाद के मुगल बादशाहों ने यह प्रथा फिर शुरू कर दी। उनको कमजोर बनाने और उनके पतन में इस प्रथा का भी हाथ रहा है।
जाजऊ की लड़ाई : १७०७ ई. में शाहजादा मुअज्जम (बाद में बहादुर शाह प्रथम) और उसके छोटे भाई शाहजादा आजम के बीच हुई। इस लड़ाई में आजम हार गया और मारा गया। इस प्रकार उसके बड़े भाई को गद्दी का उत्तराधिकारी होने का रास्ता साफ हो गया।
जाजनगर : मुसलमानों ने उड़ीसा का उल्लेख इसी नाम से किया है।
जाट : ये लोग बड़े हृष्ट-पुष्ट होते हैं और आगरा, मथुरा, मेरठ के, आसपास अधिकतर रहते हैं। कुछ नृवंशशास्त्री राजपूतों की तरह इनकी उत्पत्ति भी विदेशी जातियों से मानते हैं। राजपुतों की तरह जाटों का अठारहवीं शताब्दी से पूर्व कोई राज्य नहीं रहा। परंतु वे बड़े स्वातंत्र्यप्रिय होते हैं, अतः औरंगजेब की हिन्दू-विरोधी नीति से अत्यंत क्षुब्ध हो गये। १६८१ ई. में उन्होंने बगावत कर दी, अकबर के मकबरे को लूट लिया, उसकी कब्र खोदकर हड्डियां निकालकर जला दीं और मुगल साम्राज्य के लिए अच्छी खासी आफत पैदा कर दी। बाद में उन्हें चूड़ामन सिंह के रूप में एक नेता मिल गया। उसने थून में किला बनवाया। वह एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने का स्वप्न देखता था, परंतु १७२१ ई. में उसे वश में कर लिया गया। चूड़ामन के भतीजे बदनसिंह ने जाटों को संगठित किया और उनका एक राज्य स्थापित कर दिया। १७५६ ई. में उसकी मृत्यु हो जाने पर उसके उत्तराधिकारी सूरजमल के राज्यकाल में यह राज्य भरतपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके अंतर्गत आगरा, धौलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, मेरठ, रोहतक, फर्रुखनगर, मेवात, रेवाड़ी, गुड़गांव तथा मथुरा जिले थे। सूरजमल (१७५६-६३ ई.) के समय में जाट इतने शक्तिशाली हो गये थे कि मराठों ने अहमदशाह अब्दाली से लड़ने के लिए उनकी सहायता मांगी। परंतु मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ (दे.) के घमंडपूर्ण व्यवहार ने जाटों को इतना नाराज कर दिया कि उन्होंने पानीपत (दे.) की तीसरी लड़ाई में कोई भाग नहीं लिया। परंतु, जाटों को वास्तविक खतरे का सामना पूर्व की दिशा से करना पड़ा। विस्तारशील, ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य ने लार्ड वेलेजली (दे.) के प्रशासनकाल में भरतपुर का किला ले लेने की कोशिश की, परंतु सफलता नहीं मिली (१८०५ ई.)। परंतु जाट थोड़े ही समय चैन से बैठ पाये। १८२६ ई. में अंग्रेजों ने भरतपुर का किला जीत लिया और जाटों के स्वतंत्र राज्य का अंत हो गया।
जातक कथा : इनमें बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाएं मिलती हैं, जो पाली भाषा में हैं। जातक कथाओं के द्वारा हमें गौतम बुद्ध-काल के भारत की सामाजिक और राजनीतिक दशा का रोचक विवरण मिलता है। इनकी रचना तीसरी शताब्दी ई. पू. से पहले हुई होगी, क्योंकि भरहुत और सांची के स्तूपों पर, जो ई. पू. तीसरी शताब्दी के हैं, कई जातक कथाएं अंकित मिलती हैं। इन कथाओं के लेखक अथवा लेखकों का नाम ज्ञात नहीं है, परंतु इन्होंने बौद्ध धर्म, साहित्य और कला को बहुत अधिक प्रभावित किया है।
जाति व्यवस्था : हिन्दुओं के सामाजिक जीवन की विशिष्ट व्यवस्था, जो उनके आचरण, नैतिकता और विचारों को सर्वाधिक प्रभावित करती है। यह व्यवस्था कितनी पुरानी है, इसका उत्तर देना कठिन है। सनानती हिन्दू इसे दैवी या ईश्वर-प्रेरित व्यवस्था मानते हैं और ऋग्वेद से इसका सम्बन्ध जोड़ते हैं। लेकिन आधुनिक विद्वान इसे मानवकृत व्यवस्था मानते हैं जो किसी एक व्यक्ति द्वारा कदापि नहीं बनायी गयी वरन् विभिन्न काल की परिस्थितियों के अनुसार विकसित हुई। यद्यपि प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में मनुष्यों को चार वर्णों में विभाजित किया गया है--ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तथा प्रत्येक वर्ण का अपना विशिष्ट धर्म निरूपित किया गया है तथा अंतर्जातीय भोज अथवा अन्तर्जातीय विवाह का निषेध किया गया है, तथापि वास्तविकता यह है कि हिन्दू हजारों जातियों और उपजातियों में विभाजित हैं और अन्तर्जातीय भोज तथा अन्तर्जातीय विवाह के प्रतिबन्ध विभिन्न समय में तथा भारत के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न रहे हैं। आजकल अंतर्जातीय भोज सम्बन्धी प्रतिबंध विशेषकर शहरों में प्रायः समाप्त हो गये हैं और अंतर्जातीय विवाह सम्ब्धी प्रतिबन्ध भी शिथिल पड़ गये हैं। फिर भी जाति व्यवस्था पढ़े-लिखे भारतीयों में भी प्रचलित है और अब भी इस व्यवस्था के कारण हिन्दुओं को अन्य धर्मावलंबियों से सहज ही अलग भारतीयों में भी प्रचलित है और अब भी इस व्यवस्था के कारण हिन्दुओं को अन्य धर्मावलम्बियों से सहज ही अलग किया जा सकता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से जाति व्यवस्था आरम्भिक वैदिक कांल में भी विद्यमान थी, यद्यपि उस समय उसका रूप अस्पष्ट था। उत्तर वैदिक युग और सूत्रकाल में यह पुश्तैनी बन गयी और विभिन्न पेशे विभिन्न जातियों का प्रतिनिधित्व करने लगे। वेदपाठी, कर्मकांडी और पुरोहिती करनेवाले 'ब्राह्मण' कहलाये। देश का शासन करनेवाले तथा युद्ध कला में निपुण व्यक्ति 'क्षत्रिय' कहलाये और सर्वसाधारण, जिनका मुख्य धंधा व्यवसाय और वाणिज्य था, 'वैश्य' कहलाये। शेष लोग, जिनका धन्धा सेवा करना था, 'शूद्र' नाम से पुकारे जाने लगे। ऐतिहासिक काल में मौर्य शूद्र माने जाते थे। मेगस्थनीज ने, जो चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में भारत आया था, लोगों को सात जातियों में विभाजित किया है जो पुश्तैनी जातियां होने के बजाय वास्तव में पेशों के आधार पर वर्गीकृत जातियां थीं। उसने लिखा है, दार्शनिकों को छोड़कर, जो समाज के शीर्षस्थ स्थान पर थे, अन्य लोगों के लिए अंतर्जातीय विवाह अथवा पुश्तैनी पेशा बदलना वर्जित था। उसके बाद के काल में जो विदेशी विजेताओं के रूप में अथवा आप्रवासियों के रूप में भारत आये, उन सबको हिन्दू धर्म में अंगीकार कर लिया गया और उनके धंधों के अनुसार उन्हें विभिन्न जातियों में स्थान मिल गया। युद्ध करनेवाले लोगों को क्षत्रिय जाति में स्थान मिला और वे 'राजपूत' कहलाये। इसी प्रकार गोंड आदि आदिवासियों को भी, जिन्होंने राजनीतिक दृष्टि से महत्त्व प्राप्त कर लिया था, क्षत्रियों के रूप में मान्यता प्राप्त हो गयी।मुसलमानों के आक्रमण एवं देश को विजय कर लेने के समय तक भारतीय समाज में जाति व्यवस्था एक गतिशील संस्था थी। मुसलमानों के आने के बाद जाति बन्धन और कड़े पड़ गये। लड़ाई के मैदान में मुसलमानों का मुकाबला करने में असमर्थ होने पर हिन्दुओं ने अपनी रक्षा निष्क्रिय रूप से जातीय प्रतिबन्धों की कड़ाई में और वृद्धि करते हुए की। इस रीति से भारत में मुसलमानों के अनेक शताब्दियों के शासनकाल में हिन्दू तथा हिन्दू धर्म को जीवित रखा गया। आधुनिक काल में जाति प्रथा की कड़ाई हिन्दुओं में आधुनिक ज्ञान और विचारों के प्रसार के फलस्वरूप काफ़ी शिथिल पड़ गयी है। भारतीय गणतंत्र की नीति धीरे-धीरे जातीय भेदभाव और प्रतिबन्धों को समाप्त करने की है। (हिस्ट्री आफ कास्ट इन इंडिया' ; ई. सेनार्ट 'कास्ट इन इंडिया' ; जे. एच. हट्टन, 'कास्ट इन इंडिया', १९४६)
जाफर खां : देखिये, 'मुर्शिदकुली खां'।
जाब चारनाक : ईस्ट इंडिया कम्पनी की हुगली नदी के किनारे स्थित कोटी का मुखिया। शायस्ता खां के बाद नवाब इब्राहीम खां जब बंगाल का सूबेदार बना तो उसके निमंत्रण पर जाब चारनाक ने वह स्थान चुना जहाँ २४ अगस्त १६९० ई. को कलकत्ता नगर की नींव पड़ी। अगले वर्ष उसको नवाब का फरमान मिला कि तीन हजार रु. सालाना रकम देने पर अंग्रेजों के माल पर चुंगी माफ कर दी जायगी। इस प्रकार जाब चारनाक ने बंगाल में कलकत्ता महानगरी और भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज्य का शिलान्यास किया। (सी. आर. विल्सन कृत 'ओल्ड फोर्ट विलियम इन बंगाल', दो खण्ड)
जामा समजिद : मुसलमानों द्वारा सामूहिक रूप से नमाज पढ़ने के लिए बड़ी-बड़ी मसजिदों का निर्माण करना मुगल वास्तुकला की विशेषता रही है। जामा मसजिदें कई हैं। सांभल की जामा मसजिद बाबर ने १५२६ ई. में बनवायी। फतहपुर सीकरी की जामा समजिद अकबर ने तथा दिल्ली की शाहजहां ने बनवायी। शाहजहां ने आगरा में भी दूसरी जामा मसजिद बनवायी। बीजापुर की जामा मसजिद १५६५ ई. में सुल्तान अली आदिलशाह प्रथम (दे.) ने तथा बुरहानपुर की जामा मसजिद १५८८ ई. में खानदेश के फारूकी वंश के बादशाह अली खां ने बनवायी। दिल्ली की जामा मसजिद इन सब मसजिदों से बड़ी और आलीशान है। इसे बनाने में चौदह साल (१६४४-५८ ई.) लगे और यह मुगल राजधानी के केन्द्र में स्थित थी।
जालिम : इस विशेषण का प्रयोग बहमनी सुल्तान हुमायूं (दे.) (१४५७-६१ ई.) (दे.) के लिए किया जाता था।
ज़ालिम सिंह : राजपूताना के कोटा राज्य का राजपूत शासक। इसने १८१७ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ सुरक्षा और स्थायी मैत्री की आश्रित संधि कर ली जिसके परिणामस्वरूप वह मराठों के आक्रमण से अपने राज्य तथा परिवार की रक्षा करने में सफल हो गया। शीघ्र ही राजपूताना के दूसरे शासकों ने भी उसका अनुसरण किया।
जालौक : राजतरंगिणी (दे.) के अनुसार अशोक का पुत्र, उत्तराधिकार के रूप में कश्मीर का राज्य उसे मिला। कहा जाता है कि वह और उसकी रानी ईशान देवी शिव के उपासक थे, उसने बहुत से म्लेच्छों को कश्मीर से बाहर निकाल दिया। अशोक के किसी शिलालेख में उसका उल्लेख नहीं है। उसका भी कोई शिलालेख नहीं मिलता। राजतरंगिणी में उसका जो विवरण मिलता है, उससे मालूम होता है कि स्वयं सम्राट् अशोक के परिवार के सभी सदस्य बौद्धधर्म के अनुयायी नहीं थे।
जावली : सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में महाराष्ट्र का एक छोटा-सा राज्य। उसके राजा चन्द्रराव ने शिवाजी के द्वारा स्वराजय की स्थापना के प्रयत्नों में योग देने से इन्कार कर दिया। इस पर शिवाजी के एक सहायक ने उसका वध कर दिया। १६५५ ई. में यह राज्य शिवाजी के नियंत्रण में आ गया।
जावा : मलय द्वीपपुंज का एक द्वीप। भारत से इसका बहुत प्राचीन काल से सम्पर्क रहा है। इसका उल्लेख यव-द्वीप के रूप में रामायण में मिलता है। ऐतिहासिक काल में हिन्दुओं ने भारत से वहाँ जाकर बस्तियाँ बसायीं। आठवीं से ग्यारहवीं शताब्दी ई. तक यह द्वीप शैलेन्द्र साम्राज्य का भाग रहा। उसका पतन होने पर वहाँ दूसरा हिन्दू राज्य स्थापित हुआ जिसकी राजधानी मजपाहित थी। जावा में बहुत-से हिन्दू तथा बौद्ध मंदिर मिलते हैं, जिनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बोरोबदूर (दे.) में है। मजपाहित के हिन्दू राज्य का पन्द्रहवीं शताब्दी ई. में अंत हो गया। वहाँ के हिन्दू राजा को मुसलमान बना लिया गया तथा द्वीप पर मुसलमानों का अधिकार हो गया।इस प्रकार कुछ काल के लिए जावा से भारत का सम्बन्ध टूट गया। सत्रहवीं शताब्दी में फिरंगियों की व्यापारिक कम्पनियों के आगमन से यह सम्बन्ध फिर स्थापित हो गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत और जावा दोनों से व्यापार चलाने की कोशिश की। परन्तु जावा में अंग्रेजों का स्थान धीरे-धीरे डच लोगों ने ले लिया। विशेषरूप से १६२३ ई. में अम्बोयना के हत्याकांड के बाद द्वीप पर डच लोगों का प्रभुत्व हो गया और भारत से उसका सम्बन्ध फिर टूट गया। परन्तु नेपोलियन युद्ध के समय १८११ ई. में भारत के गवर्नर-जनरल लार्ड मिण्टो ने जावा में डच लोगों पर चढ़ाई कर दी और द्वीप पर अधिकार कर लिया। परन्तु १८१५ ई. में वियना सम्मेलन के फलस्वरूप यह द्वीप डच लोगों को लौटा दिया गया और अभी हाल तक उनके अधिकार में ही रहा।द्वितीय महायुद्ध के बाद डच लोगों को वहाँ से हटना पड़ा और स्वतंत्र भारतीय गणराज्य के नैतिक तथा राजनीतिक समर्थन से जावा तथा उसके पड़ोस के द्वीपों को मिलाकर इंडोनेशिया के स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर दी गयी।
जाविद खाँ : एक खोजा, जो बादशाह अहमदशाह (१७४८-५४ ई.) के राज्यकाल में दिल्ली के दरबारियों के दल का नेता बन गया। उसकी वजह से वजीर सफदरजंग (दे.) की सत्ता को खतरा पैदा हो गया और वजीर की साजिश से उसकी हत्या कर दी गयी।
जिंजी : कर्नाटक का एक मजबूत किला, जो गोलकुण्डा के सुल्तान के राज्य क्षेत्र के अंतर्गत था। १६७७ ई. में मराठा छत्रपति शिवाजी ने इस पर अधिकार कर लिया। १६८० ई. में शिवाजी के देहावसान के समय यह किला तथा आसपास का क्षेत्र उनके साम्राज्य के अंतर्गत था। १६८९ ई. में शिवाजी के बड़े पुत्र शम्भूजी को जब औरंगजेब ने कैद कर लिया और मरवा दिया, तब उनका दूसरा पुत्र राजाराम गद्दी पर बैठा। वह मुगलों के डर से राजधानी रामगढ़ को छोड़कर जिंजी भाग गया और रामगढ़ पर मुगलों का अधिकार हो गया। इसके बाद जिंजी पूर्वीतट पर मराठों के स्वातंत्र्य युद्ध का प्रमुख केन्द्र बन गया। तीन पहाड़ियों की किलेबंदी को मजबूत दीवाल से जोड़कर ३ मील की परिधि में जिंजी का शक्तिशाली किला बना हुआ था। औरंगजेब ने सोचा कि राजाराम को पराजित करने के लिए जिंजी के किले पर अधिकार करना जरूरी है। अतएव १६९० ई. में विशाल मुगल सेना ने जिंजी के किले को घेर लिया। लेकिन इसकी किलेबंदी इतनी मजबूत थी कि मुगल फौजें इस पर अधिकार न कर सकीं और उन्हें बार-बार पीछे खदेड़ दिया गया। लगभग ८ वर्ष के घेरे के बाद ही जिंजी किले पर १६९८ ई. में औरंगजेब का अधिकार हो सका। लेकिन राजाराम सकुशल किले से बाहर निकल गया, अतएव जिंजी पर मुगल फौजों का अधिकार बेकार साबित हुआ।
बाद में इस किले पर फ्रांसीसी लोगों ने अधिकार कर लिया। १७६१ ई. में पांडिचेरी के पतन के बाद उन्हें यह किला अंग्रेजों को सौंप देना पड़ा।
जिन्दा पीर : औरंगजेब के काल में अनेक भारतीय मुसलमान बादशाह औरंगजेब को इस नाम से सम्बोधित करते थे।
ज़िन्दां रानी : पंजाब के महाराज रणजीतसिंह (दे.) की पाँचवी रानी तथा उनके सबसे छोटे बेटे दलीपसिंह की माँ। १८४३ ई. में जब दलीपसिंह गद्दी पर बैठा तो वह नाबालिग था, अतएव जिन्दां रानी उसकी संरक्षिका बनी। परन्तु वह इस पदभार को संभाल नहीं सकी और १८४५ ई. में प्रथम सिखयुद्ध (दे.) छिड़ गया। जब १८४६ ई. में लाहौर की संधि के द्वारा प्रथम सिख-युद्ध समाप्त हुआ तो जिन्दां रानी दलीपसिंह की संरक्षिका बनी रही। परन्तु उसकी गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार उसे संदेह की दृष्टि से देखने लगी और १८४८ ई. में षड्यंत्र रचने के अभियोग में उसे लाहौर से हटा दिया गया। द्वितीय सिख-युद्ध (१८४९ ई.) जिन कारणों से छिड़ा, उनमें एक कारण यह भी था। इस युद्ध में भी सिखों की हार हुई। युद्ध की समाप्ति पर दलीपसिंह को गद्दी से उतार दिया गया और रानी जिन्दां के साथ इंग्लैण्ड भेज दिया गया। वहीं रानी की मृत्यु हो गयी।
जिन्ना, मुहम्मद अली (१८७६-१९४८ ई.) : पाकिस्तान के संस्थापक भारतीय मुसलमान। उनका जन्म कराची में हुआ, कानून का अध्ययन किया, और बम्बई में उनकी बैरिस्टरी अच्छी चलने लगी। उन्होंने दादाभाई नौरोजी (दे.) तथा गोपालकृष्ण गोखले (दे.) जैसे कांग्रेस के नरमदलीय नेताओं के अनुयायी के रूप में भारतीय राजनीति में प्रवेश किया। १९१० ई. में वे बम्बई के मुसलिम निर्वाचन क्षेत्र से केन्द्रीय लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गये, १९१३ ई. में मुसलिम लीग में शामिल हुए और १९१६ ई. में उसके अध्यक्ष हो गये। इसी हैसियत से उन्होंने संवैधानिक सुधारों की संयुक्त कांग्रेस-लीग योजना पेश की। इस योजना के अंतर्गत कांग्रेस-लीग समझौते से मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों तथा जिन प्रांतों में वे अल्प संख्यक थे वहाँ उन्हें अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गयी। इसी समझौते को 'लखनऊ-समझौता' कहते हैं।
जिन्ना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थक थे। परन्तु गांधीजी के असहयोग आंदोलन का उन्होंने तीव्र विरोध किया और इसी प्रश्न पर कांग्रेस से वे अलग हो गये। इसके बाद से उनके ऊपर हिन्दू राज्य की स्थापना के भय का भूत सवार हो गया। उनका कहना था कि अंग्रेज लोग जब भी सत्ता हस्तांतरण करें, उन्हें उसे हिन्दुओं के हाथ में नहीं सौंपना चाहिए, हालांकि वे बहुमत में हैं। ऐसा करने से भारतीय मुसलमानों को हिन्दुओं की अधीनता में रहना पड़ेगा। जिन्ना अब भारतीयों की स्वतंत्रता के अधिकार के बजाय मुसलमानों के अधिकारों पर ज्यादा जोर देने लगे। उन्हें अंग्रेजों का सामान्य कूटनीतिक समर्थन मिलता रहा और इसके फलस्वरूप वे अंत में भारतीय मुसलमानों के नेता के रूप में देश की राजनीति में उभड़े। उन्होंने लीग का पुनर्गठन किया और 'कायदे आजम' (महान नेता) के रूप में विख्यात हुए। १९४० ई. में उन्होंने धार्मिक आधार पर भारत के विभाजन तथा मुसलिम बहुसंख्यक प्रांतों को मिलाकर पाकिस्तान बनाने की मांग की। बहुत कुछ उन्हीं की वजह से १९४७ ई. में भारत का विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना हुई। पाकिस्तान के पहले गवर्नर-जनरल बनकर उन्होंने पाकिस्तान को एक इसलामी राष्ट्र बनाया। पंजाब के दंगे तथा सामूहिक रूप से जनता का एक राज्य से दूसरे राज्य को निर्गमन उन्हीं के जीवनकाल में हुआ। भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर का विवाद भी उन्होंने ही खड़ा किया। ११ सितंबर १९४८ ई. को कराची में उनकी मृत्यु हुई।
जियाउद्दीन बर्नी : प्रसिद्ध मुस्लिम इतिहासकार, जिसे सुल्तान फिरोजशाह तुगलक (दे.) का संरक्षण प्राप्त था। उसके ग्रंथ 'तारीखे फिरोजशाही' में उसके संरक्षक के शासनकाल का तात्कालिक ब्यौरा है। इसके अतिरिक्त उसके पूर्ववर्ती सुल्तान मुहम्मद तुगलक के शासन का भी ब्यौरा दिया गया है।
जिलेस्पी, जनरल सर आर. आर. : १८११ ई. में फ्रांसीसियों को जावा में पराजित कर इसने बड़ा नाम कमाया, किन्तु नेपाल के पहाड़ी किले पर अधिकार करने के प्रयास में गोरखा युद्ध (१८१४-१५) के दौरान पराजित हुआ और मारा गया। इससे अंग्रेजों की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा।
जिहाद : वह मजहबी लड़ाई जो मुसलमान लोग अन्य धर्मावलम्बियों से लड़ते थे। आज भी झगड़ालू मुसलमान नेता जब-तब जिहाद का नारा देते रहते हैं।
जीजाबाई (अथवा जीजीबाई) : मराठा राज्य के संस्थापक शिवाजी (दे.) की माँ। पति के द्वारा उपेक्षित कर दिये जानेपर भी वह अपने पुत्र की संरक्षिका बनी रहीं और उनके चरित्र, महत्त्वाकांक्षाओं तथा आदर्शों के निर्माण में सबसे अधिक योगदान किया। शिवाजी के जीवन की दिशा निर्धारित करने में उनकी माता का सबसे अधिक प्रभाव था।
जीवन खां : बोलन दर्रे के निकट दादर का एक अफगान सरदार। शाहजहाँ का सबसे बड़ा लड़का दारा १६५९ ई. में उसी के पास भागकर शरण माँगने पहुँचा था। शाहजादा दारा ने इससे पहले जीवन खाँ को शाहजहाँ के हुक्म से सूली पर चढ़ाये जाने से बचाया था। परन्तु जीवन खाँ कृतघ्न निकला और उसने दारा और उसकी दो लड़कियों तथा एक लड़के को औरंगजेब के सिपहसालार बहादूर खाँ के सुपुर्द कर दिया। बहादुर खाँ दारा को बंदी बनाकर दिल्ली लाया, जहाँ उसे कुछ समय बाद फाँसी दे दी गयी।
जीवित गुप्त प्रथम : गुप्तवंश के बाद के राजाओं में शुरू में हुआ। वह हर्षगुप्त का पुत्र और उत्तराधिकारी था, जो छठी शताब्दी ई. के द्वितीय चतुर्थांश में हुआ। वह पूर्वी हिमालय प्रदेश और बंगाल की खाड़ी के बीच के भूभाग में राज्य करता था। उसके बारे में और कुछ ज्ञात नहीं है।
जीवित गुप्त द्वितीय : बाद के गुप्त राजाओं में अंतिम राजा। वह आठवीं शताब्दी के छठे दशक में राज्य करता था। उसके देववरनाक के शिलालेख में उसके द्वारा भूमिदान का उल्लेख मिलता है। उसके बारे में और कुछ ज्ञात नहीं है।
जुझारसिंह : राजा वीरसिंह बुंदेला (दे.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। जहाँगीर (उस समय शाहजादा सलीम) के कहने से वीरसिंह बुंदेला ने अबुल फजल को मार डाला था और १६०५ ई. में जहाँगीर के तख्त पर बैठने पर वह पुरस्कृत हुआ था। जब शाहजहाँ तख्त पर बैठा, तब राजा वीरसिंह बुंदेला द्वारा छीने गये इलाकों के बारे में जाँच करने की बात चली। इस पर जुझारसिंह ने विद्रोह कर दिया, परन्तु उसे शीघ्र वश में कर लिया गया और हर्जाने के रूप में उसे बहुत-सा रुपया और जमीन देनी पड़ी। जुझारसिंह ने बादशाह की सेवा करना स्वीकार कर लिया और कई वर्षों तक दक्खिन में रहा, जहाँ उसने बहुमूल्य सेवा की। उसे ऊँचा मनसब और राजा का खिताब मिला। इससे उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ जाग उठीं और उसने शाहजहाँ के हुक्म के खिलाफ अपने पड़ोसी चौरागढ़ के राजा पर हमला कर दिया और उसे मार डाला। इस पर शाही फौजों ने उस पर चढ़ाई कर दी और उसे शीघ्र हरा दिया। शाही फौजों द्वारा पीछा किये जाने पर वह पड़ोस के जंगलों में भाग गया, जहाँ गोंडों ने उसे मार डाला।
जुल्फिकार खां : एक मुगल अमीर, जिसने बहादुरशाह (दे.) के शासनकाल में भारी शक्ति एवं समृद्धि अर्जित की। वह औरंगजेब के प्रधानमंत्री असद खाँ का पुत्र था। बहादूरशाह की मृत्यु के बाद, उसकी गद्दी के लिए होनेवाली लड़ाई में जुल्फिकार खाँ ने हस्तक्षेप किया। उसने बादशाह के चारों पुत्रों के बीच फूट पैदा करा दी तथा जहाँदारशाह को सिंहासन प्राप्त करने में सहायता पहुँचायी। जुल्फिकार उसे अपने हाथ की कठपुतली बना कर रखना चाहता था। सिंहासनारोहण के ग्यारह महीने बाद १७१३ ई. में उसने जहाँदारशाह को कत्ल कर दिया और फर्रुखसियर को गद्दी पर बिठाया। १७१३ ई. में फर्रुखसियर के हुक्म से उसे कत्ल कर दिया गया।
जूना खाँ : देखो मुहम्मद तुगलक।
जेकब, जान (१८१२-५८ ई.) : १८२८ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी के तोपखाने में प्रविष्ठ हुआ। उसने पहले अफगान युद्ध (दे.) तथा १८४३ ई. में सिंध में मियामी की लड़ाई में हिस्सा लिया। १८४७ ई. में वह सिंध का राजनीतिक अधीक्षक नियुक्त किया गया। वह योग्य प्रशासक था और उसे अपने व्यक्तिगत प्रभाव तथा फौजी कार्रवाइयों से सिंध की सीमापर शांति स्थापित की। वह कुशल पर्यवेक्षक था और उसने १८५३ ई. में भारत सरकार को चेतावनी दे दी थी कि सिपाहियों में गदर की आशंका है। परन्तु लार्ड डलहौजी ने जल्दी भयभीत होनेवाला कहकर उसकी निंदा की। १८५८ ई. में दिमाग में सूजन आ जाने से सिंध में उसकी मृत्यु हो गयी। सिंध का जैकोबाबाद नगर उसी की याद दिलाता है।
जेजाकभुक्ति : यमुना और नर्मदा नदियों के बीच में स्थित। इसे अब बुंदेलखंड कहते हैं। इस पर चंदेल राजाओं का शासन था। यह अब आंशिक रूप से उत्तर प्रदेश में तथा आंशिक रूप से मध्यप्रदेश में सम्मिलित है। इसके मुख्य नगर महोबा, कालिंजर तथा खजुराहो हैं, जहाँ बहुत से सुंदर मंदिर और जलाशय वर्तमान हैं। इन जलाशयों को पहाड़ियों के बीच के मार्ग को बाँधों से अवरुद्ध करके निर्मित किया गया था।
जेटलैण्ड, लार्ड : १९१३ से १९२२ ई. तक बंगाल का गवर्नर। एक योग्य प्रशासक से भी बढ़कर वह एक योग्य लेखक था। उसके प्रमुख ग्रंथ हैं -- 'लाइफ आफ लार्ड कर्जन' और 'हार्ट ऑफ आर्यावर्त'। उसने जब ये ग्रंथ लिखे, तब वह लार्ड रोनाल्डशे की उपाधि से विभुषित हो गया था।
जेन्किन्स, सर रिचर्ड : ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में 1800 ई. में आया और 1804 ई. में उसका तबादला राजनीतिक विभाग में कर दिया गया। वह 1810 से 1827 ई. तक नागपुर में ब्रिटिश रेजिडेंट रहा। १८१८ ई. में अप्पा साहब (दे.) के गद्दी से उतार दिये जाने के बाद वह अगले राजा की नाबालिगी अवस्था में नागपुर राज्य का प्रशासक रहा। उसने १८२८ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी की नौकरी से अवकाश ग्रहण किया। वह १८३७-१८४१ ई. तक ब्रिटिश पार्लियामेन्ट का सदस्य रहा। १८३९ ई. में वह ईस्ट इंडिया कम्पनी के कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स का चेयरमैन हो गया।
जेबुन्निसा, शाहजादी : औरंगजेब की पुत्री (१६३९-१७०९)। वह बड़ी ही गुणवती महिला थी। फारसी और अरबी की अच्छी विदुषी तथा सुलेखिका थी। उसने अपना अच्छा पुस्तकालय बनाया था। वह अच्छी कवियत्री भी थी। उसने कुरान पर टीका भी लिखी थी।
जेम्स प्रथम : इंग्लैण्ड के राजा (१६०३-२५ ई.) ने सर थामस रो को अपना दूत बनाकर १६१५ ई. में बादशाह जहागीर (दे.) के दरबार में भेजा। जेम्स प्रथम इंग्लैण्ड का पहला राजा था, जिसने भारत से सीधा सम्पर्क स्थापित किया।
जेवियर, फादर जेरोम : जेसूइट सम्प्रदाय का पुर्तगाली साधु। वह अकबर के राज्यकाल (१५५६-१६०५ ई.) में भारत आया था। फादर जेवियर, बादशाह अकबर के घनिष्ट सम्पर्क में आया। बादशाह उससे सर्वप्रथम १५९५ ई. में लाहौर में मिला था। जहाँगीर के शासनकाल तक फादर जेवियर ने मुगल दरबार से सम्पर्क बनाये रखा। उसने सम्राट् से धर्मपरिवर्तन कराने की अनुमति ले ली किन्तु उसे किसी को ईसाई बनाने में सफलता न मिली। उसने मुगल सम्राटों से भारत में बसे पुर्तगालियों के लिए कुछ रियायतें अवश्य प्राप्त कीं। फादर जेरोम जेवियर और उसका साथी एमैनुएल पिनहेरो बड़े कुशल पत्रलेखक थे। इन पत्रों में अकबर के परवर्ती शासनकाल और जहाँगीर के पूर्ववर्ती शासनकाल का रोचक विवरण प्राप्त होता है। (सर ई. मैक्ग्लान कृत 'दि जेसुएट्स एण्ड द ग्रेट मुगल')
जेसुइट पादरी : (अज्ञानियों में ईसाई धर्म का प्रचार करने के उद्देश्य से संगठित सोसाइटी आफ जीसस के सदस्य) ये पहली बार भारत तथा गोआ की पुर्तगाली बस्ती में १५४२ ई. में आये। बादशाह अकबर से मिलने के लिए जो पहले जेसुइट पादरी पहुँचे, वे साधु रिदालफो अकविवा तथा साधु अन्तानियो मोनसेरेत (दे.) थे। वे १५८० ई. में फतहपुर सीकरी में बादशाह से मिले। जेसुइट पादरियों का दूसरा दल १५९० ई. में बादशाह के दरबार में पहुँचा और तीसरा दल १५९५ ई. में आया। बादशाह ने जेसुइट पादरियों की बातें ध्यान और सम्मान से सुनीं और एक समय यह आशा होने लगी कि वे बादशाह को ईसाई धर्म में बपतिस्मा देने में सफल हो जायेंगे। उन्होंने भारत में व्यापार करनेवाली पुर्तगाली कम्पनी को राजनीतिक तथा व्यापारिक सुविधाएँ दिलाने की भी कोशिश की। परन्तु उनकी सारी कोशिशें विफल रहीं और अकबर ने ईसाई धर्म में बपतिस्मा नहीं लिया। जेसुइट पादरी जहाँगीर के दरबार में भी पहुँचे। उसने उन्हें अपना गिरजाघर बनाने, अपने पादरियों के लिए लाहौर में एक मठ बनवाने तथा बादशाह की भारतीय प्रजा को बपतिस्मा देकर ईसाई बनाने की हज़ाजत दे दी। परन्तु जहाँगीर ने भी जेसुइट पादरियों की यह आशा पूरी नहीं की कि वह बपतिस्मा लेकर ईसाई बन जायगा। बाद में राजनीतिक कारणों से उसने पुर्तगालियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। फलस्वरूप उसने जेसुइट पादरियों को आदेश दिया कि वे गिरजाघर बंद कर दें और उसकी प्रजा को बपतिस्मा देकर ईसाई न बनायें। जहाँगीर के राज्यकाल के बाद जेसुइट पादरियों का सारा राजनीतिक प्रभाव समाप्त हो गया। फिर भी उन्होंने भारत में ईसाई धर्म का प्रचार-कार्य जारी रखा, बहुत से भारतीयों को ईसाई बनाया और कलकत्ता के सेंट जैवियर कालेज जैसी शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की।
जेहलम (अथवा झेलम) : पंजाब की पाँच मुख्य नदियों में से एक। यूनानियों ने इसका नाम हाइडस्पीस लिखा है, जिसके पूर्व में पुरु (पोरस) का राज्य था। मकदूनिया के राजा सिकंदर ने जब ३२६ ई. पू. में भारत पर आक्रमण किया तो पुरु पहला भारतीय राजा था, जिसने उसका प्रबल प्रतिरोध किया।
जैकसन कवर्ली : १८५७ ई. में गदर के आरम्भिक काल में उसमें युक्ति-कौशल और संयम का अभाव था। उसने गद्दी से उतार दिये गये अवध के नवाब की फौज बर्खास्त कर दी और इस तरह उस फौज के सिपाहियों में भारी असंतोष उत्पन्न कर दिया, जिनकी जीविका का कोई साधन नहीं रह गया था। उसने अवध के ताल्लुकेदारों की रियासतों की जाँच आरम्भ की, जिससे इस प्रभावशाली वर्ग में भारी हैरानी और बेचैनी फैल गयी, फौज के बर्खास्त सिपाहियों और भयभीत ताल्लुकेदारों ने गदर में प्रमुख हिस्सा लिया। १८५४ ई. में हेनरी लारेंस को जैकसन की जगह भेजा गया, परन्तु उस वक्त तक इतनी देर हो चुकी थी कि गदर को रोकना सम्भव नहीं था।
जैकोबाबाद की संधि : ब्रिटिश भारत की सरकार और कलात के खान के बीच १८७६ ई. में हुई। इस संधि के द्वारा फौजी छावनी के रूप में क्वेटा नगर ब्रिटिश भारत की सरकार को मिल गया।
जैतपुर : एक छोटा-सा देशी राज्य, जिसे लार्ड डलहौजी (दे.) ने १८५० ई. में जब्ती का सिद्धांत लागू करके ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया।
जैन धर्म : इसका प्रवर्तन छठी शताब्दी ई. पू. में वर्धमान महावीर (दे.) ने पार्श्वनाथ की शिक्षाओं के आधार पर किया जो उनसे पहले हुए थे। पार्श्वनाथ और महावीर दोनों राजकुल में जन्मे थे, दोनों ने संसार त्याग दिया और अनागार श्रमण बन गये। महावीर ने पूर्ण (केवल) ज्ञान प्राप्त किया और जिन (इन्द्रियों के विजेता) तथा निर्ग्रन्थ (बाह्य और आभ्यंतर ग्रंथियों से रहित) कहलाने लगे। इसीलिए उनके अनुयायियों को जैन और निगंठ (निर्ग्रन्थ) दोनों कहते हैं। जैन धर्म में ब्राह्मण धर्म का कर्म (दे.) तथा पुनर्जन्म का सिद्धांत ग्रहण कर लिया गया है, परन्तु वेदों को प्रमाण नहीं स्वीकार किया जाता, वर्णभेद नहीं माना जाता और यज्ञ में पशुओं की बलि का विरोध किया जाता है। वह परमात्मा को इस जगत का कर्त्ता नहीं मानता। वह मानता है कि प्रत्येक मनुष्य का चैतन्ययुक्त आत्मा स्वभाव से अनंत गुणों से युक्त होता है और जब अपने शुद्ध रूप को प्राप्त कर लेता है तो परमात्मा कहलाने लगता है। एक जैनधर्मानुयायी का जीवन-लक्ष्य होता है आत्मा को बार-बार जन्म लेने के बंधन से मुक्त करके उस सिद्धशिला पर स्थित कर देना जहाँ वह परम आनन्द में मग्न रहता है। इसे ही निर्वाण अथवा मोक्ष कहा जाता है। मोक्ष की प्राप्ति रत्नत्रय मार्ग से संभव है। रत्नत्रय का आशय जीवन के तीन सिद्धांत रत्नों से है--सम्यक् दर्शन (सच्चा विश्वास), सम्यक् ज्ञान (सच्चा ज्ञान) तथा सम्यक् चारित्र (सच्चा आचरण)। रत्नत्रय मार्ग पर चलने के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य आवश्यक हैं।
जैन धर्म में अहिंसा के सिद्धांत पर बौद्ध धर्म की अपेक्षा कहीं अधिक बल दिया जाता है। वह मानता है कि चेतना से युक्त प्रत्येक पदार्थ जीव होता है और दुःख का अनुभव करता है। इसीलिए जैनधर्मानुयायी किसी जीव को दुःख पहुँचाने से अपने को बचाता है। जैन धर्म मोक्ष की प्राप्ति के लिए बाह्य तथा अंतरंग तप पर बल देता है। वह परिग्रह त्याग नग्नता की सीमा तक ले जाता है। परन्तु इस विषय में दो मत पाये जाते हैं। एक वर्ग साधुओं के लिए श्वेत वस्त्र धारण करने का अनुमोदन करता है। इस प्रकार जैनों में दो भेद मिलते हैं। जो साधु के लिए वस्त्र-त्याग (दिगम्बर वेश) आवश्यक मानते हैं, वे दिगम्बर कहलाते हैं। जो साधुओं को श्वेत वस्त्र-धारण की अनुमति देते हैं, वे श्वेताम्बर कहलाते हैं। जैनधर्मानुयायी यद्यपि जगत् के कर्त्ता के रूप में परमात्मा में विश्वास नहीं करते, तथापि वे ब्राह्मणों को अपना पुरोहित बनाते हैं और कुछ हिन्दू देवताओं की पूजा भी करते हैं। उनके मंदिरों में जिन महावीर तथा उनके पूर्ववर्ती तीर्थकरों (मार्ग-प्रवर्तकों) की मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं, जिनकी पूजा होती है। जैनधर्मानुयायी भी अपने को हिन्दू मानते हैं, सिर्फ उनके कुछ दार्शनिक तथा धार्मिक सिद्धांत उनसे भिन्न हैं। जैन धर्म में गृहस्थों के लिए भी धर्म का विशद विधान है। जैन धर्म कभी भारत की सीमाओं से बाहर नहीं फैला। प्राचीन भारत में देश के दक्षिणी तथा पश्चिमी भाग जैन धर्म के गढ़ थे। जैन धर्म का विशाल साहित्य है। उसका प्राचीन साहित्य 'पूर्व' कहलाता है, जिनकी संख्या चौदह है। यह साहित्य अर्द्धमागधी भाषा में था और उसमें महावीर की शिक्षाओं का संग्रह था। जैन साहित्य का वर्गीकरण बारह अंगों, उपांगों, मूलसूत्रों आदि में किया जाता है। जैन धर्म में विशाल लौकिक साहित्य भी मिलता है, जिसमें महाकाव्य, आख्यान, नाटक, दर्शन शास्त्र, न्यायशास्त्र, व्याकरण, कोशविज्ञान, काव्यशास्त्र, गणित, नक्षत्र विद्या, फलित ज्योतिष, राजनीतिशास्त्र तथा शिक्षाशास्त्र से संबन्धित ग्रंथ हैं। विविध विषय विभूषित विशाल जैन साहित्य ने भारतीय चिंताधारा तथा संस्कृति के विकास में भारी योगदान किया है।
जैनुल आब्दीन : कश्मीर का आठवाँ सुल्तान। इसने १४२० से १४६० ई. तक शासन किया। उसका शासन धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धांत तथा व्यवहार पर आधारित था। उसने हिन्दुओं पर लगे 'जजिया' (दे.) को निरस्त कर दिया और उन्हें मन्दिर बनाने की अनुमति भी प्रदान की। वह मांस खाने से परहेज करता था, उसने गोवध पर प्रतिबन्ध लगाया और साहित्य व ललित कला को प्रोत्साहन दिया। उसने करों को कम कर दिया तथा मुद्रा-सुधार किया। वह फारसी, हिन्दी तथा तिब्बती भाषाओं का ज्ञाता था तथा कविता, संगीत व चित्रकला का संरक्षक था। उसने महाभारत (दे.) तथा राजतरंगिणी (दे.) का अनुवाद संस्कृत से फारसी में तथा कुछ फारसी ग्रंथों का अनुवाद हिन्दी में कराया। उसने सदाचारपूर्ण जीवनयापन किया। वह एकपत्नीव्रती था। पुत्रों के बीच सिंहासन के लिए संघर्ष होने के कारण, उसके जीवन के अन्तिम वर्ष दुःखपूर्ण बीते। १४७० ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसके दूसरे पुत्र हाजी खाँ ने शासनभार सम्हाला।
जोधपुर : राजस्थान का एक नगर एवं राज्य, जो मारवाड़ के नाम से अधिक प्रसिद्ध रहा। वहाँ के धनी व्यवसायी 'मारवाड़ी' कहलाते हैं। इस नगर की स्थापना १४५९ ई. में राव जोधा ने की जो कन्नौज के राजा जयचंद (दे.) का वंशज था। इस राज्य की स्थापना इससे काफी पहले राव चंड ने की थी, जो जयचंद की पीढ़ी में बारहवाँ राजा था। १५६१ ई. में जोधपुर राज्य को बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी और मुगलों के यहाँ डोला भेजना पड़ा। १६७८ ई. में राजा जसवंतसिंह (दे.) के देहावसान पर औरंगजेब ने उसके लड़के को मुसलमान बनाने और जोधपुर को मुगल साम्राज्य में मिला लेने की योजना बनायी। इसके विरोध में जोधपुर, जयपुर तथा उदयपुर में मुगल साम्राज्य का जुआ उतार फेंकने की एक संधि हुई। इसके फलस्वरूप राजपूत-युद्ध छिड़ गया, जिसका अंत मुगलों द्वारा राजपूतों को कुछ सुविधाएँ दिये जाने से हुआ। परन्तु बाद में त्रिराज्य संधि की एक धारा को लेकर तीनों राज्यों में विवाद छिड़ गया। इस धारा के अनुसार जयपुर तथा जोधपुर के राजाओं को उदयपुर के राणा वंश की लड़की लेने का अधिकार मिल गया था। मुगल बादशाहों को लड़कियाँ देने के कारण दोनों राज्यों में उदयपुर की लड़कियाँ नहीं दी जाती थीं। इसके साथ यह शर्त लगा दी गयी कि जयपुर तथा जोधपुर के राजघरानों में उदयपुर के राजघराने की जो लड़कियाँ ब्याही जायेंगी, उनकी संतानों को अन्य राजधरानों की रानियों से उत्पन्न संतानों की अपेक्षा सबसे पहले राज्य का उत्तराधिकारी बनने का हक होगा। इस शर्त के फलस्वरूप इन राजघरानों की बाद की पीढ़ियों में अनेकानेक उत्तराधिकार सम्बन्धी युद्ध हुए जिनमें गद्दी पाने के प्रतिद्वन्द्वी दावेदारों ने मराठों की सहायता लेना शुरू कर दिया। अंत में मराठों ने सभी राजपूत राज्यों को अपने अधीन कर लिया और उनके राज्यों को नष्ट कर दिया। १८१८ ई. में जोधपुर राज्य ने अंग्रेजों का आश्रित बनना स्वीकार करके अपनी रक्षा की। गदर के समय यह राज्य अंग्रेजों का वफादार बना रहा। ३० मार्च १९४९ को इसका विलय राजस्थान संघ में कर दिया गया।
जोन्स, सर हारफोर्ड : १८०९ ई. में इंग्लैण्ड के राजा का दूत बनाकर फारस के शाह के दरबार में भेजा गया। उसको यह काम सौंपा गया कि वह फारस को फ्रांस तथा रूस के प्रभाव में न जाने दे। सर हारफोर्ड ने फारस से एक संधि की, जिसके द्वारा उसने वचन दिया कि वह यूरोप के किसी देश की सेना को फारस से होकर भारत जाने की इजाज़त नहीं देगा और यदि ब्रिटिश भारत पर किसी विदेशी ताकत ने हमला किया तो उसकी मदद करेगा। इसके बदले में ब्रिटेन ने वचन दिया कि यदि फारस पर किसी यूरोपीय ताकत ने, चाहे फौज के द्वारा और चाहे आर्थिक सहायता के द्वारा अथवा फौजी अफसरों की सेवाएँ उधार देकर, हमला किया तो वह उसकी मदद करेगा। यह आशा की जाती थी कि इस संधि के द्वारा फारस को भारत तथा फ्रांस अथवा रूस के बीच एक मध्यवर्ती राज्य बना दिया जायगा। परन्तु बाद के घटनाक्रम से प्रमाणित हुआ कि इंग्लैण्ड और भारत दोनों फारस से इतनी दूर और इतने निर्बल थे कि रूस से उसकी रक्षा करने के लिए उसे आवश्यक सहायता देने में समर्थ नहीं थे और १८०९ की संधि काम नहीं आयी।
जैनपुर : उत्तर प्रदेश का एक नगर जो पहले एक राज्य था। इस नगर की स्थापना सुल्तान फीरोजशाह तुगलक (दे.) ने की थी। उसने इसका नामकरण अपने पूर्वाधिकारी मुहम्मद तुगलक (दे.) के नाम पर किया, जिसे जूना खाँ भी कहते थे। तैमूर के हमले के समय इसका शासन ख्वाजा जहाँ के हाथ में था, जिसने दिल्ली के सुल्तानों की बहुमूल्य सेवा की थी। तैमूर के हमले के फलस्वरूप सल्तनत में जो अव्यवस्था फैली, उससे लाभ उठाकर ख्वाजा जहाँ ने अपने को स्वतंत्र कर लिया और शर्की वंश की स्थापना की। इस वंश ने ८५ वर्ष तक जौनपुर में राज्य किया। अंत में सुल्तान बहलोल लोदी (दे.) ने उसकी स्वतंत्रता का अंत कर दिया। शर्की वंश के राज्यकाल में जौनपुर कला और संस्कृति का महान केन्द्र बन गया। उसने वास्तुकला की अपनी विशिष्ट शैली विकसित की, जिसका शानदार नमूना अटाला मसजिद है। यह तीसरे सुल्तान इब्राहीम के राज्यकाल में १४०८ ई. में पूरी हुई।
झाँसी : बुंदेलखंड का एक राज्य, जो पेशवा बाजीराव द्वितीय के अधीन था। तीसरे मराठा-युद्ध (दे.) में उसके हार जाने पर १८१९ ई. में यह राज्य ब्रिटिश भारतीय सरकार के संरक्षण में आ गया। १८५३ ई. में लार्ड डलहौजी के प्रशासन काल में जब्ती का सिद्धांत लागू करके यह राज्य ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में शामिल कर लिया गया। इससे झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई (दे.) कुपित हो गयीं और १८५८ ई. में वह विप्लवियों के दल में सम्मिलित हो गयीं।
टाटा परिवार : जीजीभाई जमशेदजी टाटा (१७८३-१८५९ ई.) से यह वंश प्रचलित हुआ। जीजीभाई का जन्म बड़ौदा राज्य के नौसारी गाँव में बहुत ही गरीब पारसी परिवार में हुआ था। अपने परिश्रम, उत्साह तथा व्यावसायिक कुशाग्रता के कारण वे बहुत बड़े व्यवसायी बन गये। इसी सिलसिले में वे चीन गये। उन्होंने २८ वर्ष के अन्दर व्यावसायिक पेशे में दो करोड़ रूपये एकत्र किये। वे बड़े उदार तथा परोपकारी थे, दातव्य संस्थाओं के संस्थापन हेतु ५० लाख रुपयों का वृत्तिदान (स्थिरदान) उन्होंने बम्बई नगर में किया था। उनके पुत्र जमशेदजी ने १८५८ ई. से व्यवसाय का प्रबन्धाधिकरण (व्यवस्थापन) किया और धन सम्पन्नता तथा गतिविधियों की अभिवृद्धि में सफल योगदान किया। अमरीकी गृहयुद्ध के दौरान उन्होंने भारत से अमरीका, कच्चे सूत का निर्यात करके लाखों रूपये पैदा किये। वे इंग्लैण्ड गये। मैनचेस्टर में वस्त्र विनिर्माण उद्योग का अध्ययन किया और १८८७ ई. में इम्प्रेस कॉटन मिल तथा टाटा स्वदेशी मिल की नींव डाली। लोनावाला में उन्होंने जलविद्युत परियोजना का श्रीगणेश किया। उनकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी--संकची (वर्तमान जमशेदपुर) में टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी का संस्थापन, जिसने १९०७ ई. से उत्पादन कार्य प्रारम्भ कर दिया। आज वह संसार के सबसे बड़े इस्पात कारखानों में से एक है। अपने पिता की भाँति जनकल्याण के लिए उन्होंने बहुत धन दिया किन्तु इनके वृत्तिदान बड़े उद्देश्यपूर्ण थे। इन्होंने दो ऐसी छात्रवृत्तियाँ प्रदान कीं जिनसे दो भारतीय विद्यार्थी यूरोप में पौद्योगिकी (टेकनॉलोजी) का अध्ययन कर सकें। अपने पीछे बंगलोर टाटा साइंटिफिक रिसर्च इंस्टीट्यूट के निमित्त स्थिरदान के लिए उन्होंने अपार धन छोड़ा, जो उनकी मृत्यु के उपरान्त स्थापित हुआ।
टाटाओं ने उद्योगों का पुनरुत्थान करके भारत के औदयोगिक विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया। नवीन उद्योगों एवं कारखानों को स्थापित करके उन्होंने अनुसंधान के लिए मार्गदर्शन किया।
टाल्मी फिलेडेल्फस : मिस्र का यवन (यूनानी) राजा (२८५ ई. पू.- २४७ ई.पू.)। उसने डायोनीसियस को अपना दूत बनाकर मौर्य सम्राट् बिन्दुसार (दे.) की राज सभा में भेजा था। उसका उल्लेख अशोक (दे.) के शिलालेख संख्या १३ में हुआ है। अशोक ने धर्मविजय के लिए बौद्ध भिक्षुओं को उसके राज्य में भी भेजा था।
टीपू सुलतान : मैसूर के हैदरअली का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। अप्रैल १७८३ ई. में अपने पिता की मृत्यु के बाद उसने मैसूर का सिंहासन ग्रहण किया। उस समय भारत में स्थित अंग्रेजों के साथ मैसूर का युद्ध चल रहा था। अपने पिता की भाँति टीपू वीर तथा युद्धप्रिय था। उसने युद्ध जारी रखा और ब्रिगेडियर मैथ्यूज की सेना को परास्त किया और उसे बंदी बनाया। उसने मार्च १८८४ ई. में अंग्रेजों को मंगलोर की संधि करने के लिए विवश किया। इस संधि के द्वारा दोनों ने एक दूसरे के जीते इलाके लौटा दिये। किन्तु यह संधि अस्थायी सिद्ध हुई, फिर पांच वर्ष बाद अंग्रेजों और मैसूर के बीच तीसरा युद्ध प्रारंभ हो गया। यद्यपि इस युद्ध में अंग्रेजों का साथ निजाम तथा मराठा दे रहे थे, तथापि टीपू ने पर्याप्त रणकौशल एवं शौर्य प्रदर्शित किया, परन्तु अन्त में १७९२ ई. में उसे श्रीरंगपट्टम् की संधि करने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस संधि के द्वारा टीपू को विजेता मित्रों के लिए अपना आधा राज्य, तीन करोड़ रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में और अपने दो पुत्रों को बंधक के रूप में अंग्रेजों के हाथों सौंपना पड़ा। टीपू सुलतान इस अपमान पूर्ण पराजय से उद्विग्न और क्षुब्ध बना रहा। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध शक्ति-संचय जारी रखा, क्योंकि वह समझता था कि अंग्रेजों से अन्तत: युद्ध होना अनिवार्य है। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता-प्राप्ति की आशा से अपने दूतों को अरब, काबुल, कुस्तुनतुनियाँ, फ्रांस तथा मारिशस के फ्रांसीसी उपनिवेश में भेजा, परन्तु मारिशस के अतिरिक्त किसी भी देश ने उसका उत्साहवर्धन नहीं किया। उधर अप्रैल १७९८ ई. में लार्ड वैलेजली गवर्नर-जनरल के रूप में भारत आया। वह टीपू के शत्रुतापूर्ण मंतव्य से परिचित होने के कारण उसके विरुद्ध युद्ध करने के लिए उद्यत हो गया। उसने टीपू को अंग्रेजों का आश्रित होने के लिए आमंत्रित किया और उसके द्वारा यह प्रस्ताव ठुकरा दिये जाने पर उसने निजाम और मराठों के साथ त्रिपक्षीय संधि करके मार्च १७९९ में टीपू के विरुद्ध युद्ध घोषणा कर दी। टीपू ने बड़ी वीरता से युद्ध किया. परन्तु भाग्य उसके विरुद्ध था। तीनों मित्र सेनाओं ने तीन विभिन्न दिशाओं से श्रीरंगपट्टम् की ओर प्रस्थान किया और राजधानी पर घेरा डाल दिया, टीपू ने अभूतपूर्व साहस के साथ राजधानी की रक्षा की। वह श्रीरंगपट्टम् के प्राचीरों के सामने लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। वस्तु, अंग्रेजों ने मई १७९९ ई. में राजधानी पर अधिकार कर लिया। भारतीय इतिहास में उसका एक विलक्षण व्यक्तित्व था। विद्वेष से कुछ तात्कालिक अंग्रेज इतिहासकारों की दृष्टि उसके प्रति इतनी कलुषित हो गयी थी कि उन्होंने टीपू को एक धर्मान्ध क्रूरशासक वर्णित किया है। किन्तु ये सभी आरोप निराधार हैं। वह इतना सुयोग्य शासक था कि युद्धों से ग्रस्त रहने पर भी उसने मैसूर को एक श्रीसम्पन्न राज्य बना दिया। वह धर्मान्ध नहीं था और साधारणतः उसने अपनी हिन्दू प्रजा के साथ सद्भावना एवं सहिष्णुता का व्यवहार किया। वह एक दूरदर्शी राजनेता था और यदि उसे भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने में सफलता नहीं मिली तो इसमें उसका दोष नहीं था। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वही एकमात्र ऐसा भारतीय शासक था जिसने किसी भारतीय शासक के विरुद्ध चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, अंग्रेजों के साथ गठबन्धन नहीं किया, यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि भारतीय शासकों का व्यवहार उसके प्रति आक्रोशपूर्ण रहा। (विल्कीज तथा एम. एच. खान कृत 'हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान')
टुकरोई का युद्ध : यह युद्ध १५७५ ई. में उड़ीसा के बालासोर जिले में हुआ था, जिसमें मुनिम खां के नेतृत्व में अकबर की मुगल सेना ने बंगाल के अफगान शासक दाऊद को परास्त किया और उसे फिर शर्त के साथ छोड़ दिया गया। किन्तु १५७६ ई. के दूसरे युद्ध में वह परास्त हुआ और मार डाला गया।
टेरी एडवर्ड : एक पादरी, जो सर थामस रो (दे.) के साथ मुगल बादशाह जहांगीर के दरबार में आया था। उसने अपनी भारतयात्रा का विवरण लिखा है। उसका ग्रन्थ 'वायज टू ईस्ट इण्डिया' तत्कालीन भारत की घटनाओं तथा लोगों के विषय में जानकारी हासिल करने का प्रमुख साधन है।
टैरिफ बोर्ड : १९२३ ई. में भारतीय उद्योगों की सुरक्षा तथा नये उद्योगों के पोषण के लिए गठित। लोहा, कपड़ा, शक्कर और सीमेण्ट उद्योगों को संरक्षण देकर इस बोर्ड ने अच्छा कार्य किया, जिसके परिणामस्वरूप ये उद्योग फूले-फले।
चोंकका नवाब : देखिये, 'अमीर खाँ'।
टोडरमल, राजा : अकबर बादशाह का वित्तमन्त्री, जो राजा की उपाधि से सम्मानित किया गया था। वह पंजाब के लाहौर नगर (अब पाकिस्तान) में एक साधारण परिवार में उत्पन्न हुआ और १५७३ ई. में अकबर के दरबार में आया। १५७३ ई. में जब अकबर ने गुजरात पर विजय प्राप्त की, तब टोडरमल को मालगुजारी का बन्दोबस्त करने के लिए वहां नियुक्त किया गया। उसने जमीन नापने की समरूप प्रणाली सर्वप्रथम प्रचलित की, उर्वरता के आधार पर जमीन का वर्गीकरण किया तथा लगान की दर फसल की एक तिहाई निर्धारित की, जो किसान से सीधे वसूल की जाती थी। बाद में यह व्यवस्था कुछ स्थानीय परिवर्तनों के साथ पूरे मुगल साम्राज्य में लागू कर दी गयी। टोडरमल अच्छा सेनानायक भी था, १५७६ ई. में उसने बंगाल विजय किया, १५८० ई. में बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा का सूबेदार बनाया गया। वह ईमानदार, निर्लोभी और सुयोग्य राजसेवक था।
टोपरा : पंजाब में अम्बाला के निकट स्थित। यहाँ अशोक का एक स्तम्भ था, जिसपर उसके सप्त शिलालेखों की एक प्रति उत्कीर्ण थी। इस स्तम्भ को सुलतान फीरोजशाह तुगलक (दे.) दिल्ली उठवा कर ले आया, जहाँ यह अब भी विद्यमान है और फीरोजशाह की लाट के नाम से प्रसिद्ध है। (अफीफ-ए-सिराज, 'तारीख-ए-फिरोजशाही')
टोल : देशी संस्कृत विद्यालय, जो अध्यापकों के घरों में स्थित थे। प्राचीन हिन्दू शिक्षा-व्यवस्था के अनुसार अध्यापकगण इन संस्कृत पाठशालाओं को अपने खर्च से चलाते थे। इनमें प्रवेश पानेवाले विद्यार्थियों को वे स्थान, भोजन, वस्त्र उपलब्ध कराते थे। अध्ययन और अध्यापन का समय विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के सुविधानुकूल रखा जाता था। इस शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत अध्यापक और विद्यार्थी का घनिष्ठ सम्पर्क रहता था और विद्यार्थी को विद्या-प्राप्ति के लिए कोई धन नहीं देना पड़ता था। चूंकि विद्यार्थी के भरण-पोषण का भार अध्यापक पर रहता था, इसलिए उनका चुनाव भी उसकी इच्छा पर निर्भर करता था। इन पाठशालाओं में विद्याध्ययन के लिए अधिकांशतया ब्राह्मणों के बालक प्रवेश करते थे। अन्य वर्णों के मेधावी विद्यार्थियों को भी इनमें प्रवेश मिलता था, किन्तु अपने भोजन का प्रबंध उन्हें स्वयं करना पड़ता था। इन पाठशालाओं का खर्च निकालने में अध्यापकों को काफी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती थीं क्योंकि इसके लिए उन्हें स्थानीय जमींदारों तथा दाताओं की दानशीलता पर निर्भर करना पड़ता था। फिर भी शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद प्रत्येक ब्राह्मण विद्यादान करना अपना पवित्र कर्तव्य मानता था, इसलिए वह अपने घर पर एक टोल की स्थापना अवश्य करता था। इन टोलों में व्याकरण, साहित्य, स्मृति, न्याय और वेदांत अथवा दर्शन की शिक्षा दी जाती थी। कुछ टोलें अब भी विद्यमान हैं और कुछ को सरकार से अब मासिक अनुदान प्राप्त होता है।
ठग : लुटेरों तथा हत्यारों का एक गिरोह। ये लोग यात्रीयों के वेश में छोटे-छोटे गिरोहों में घूमा करते थे और सीधे-सादे बटोहियों की गर्दन रूमाल से बाँधकर, सोते समय या असावधानी की अवस्था में मार डालते और फिर उन्हें लूट लेते थे। मध्यभारत में इनकी संख्या बहुत अधिक थी। १८३० ई. से कई वर्ष की तैयारी के बाद कर्नल स्लीमैन को इनका विनाश करने में सफलता पराप्त हुई।
ठट्ठा प्रान्त : बिचली सिंध घाटी में अवस्थित। अकबर के समय में इसे मुलतान (दे.) के सूबे में मिला दिया गया था, परन्तु औरंगजेब के समय इसे पृथक् सूबा बनाया गया। इस सूबेदार की राजधानी भी ठट्ठा कहलाती थी। इसी नगर के निकट १३५१ ई. में सुल्तान मुहम्मद तुगलक की मृत्यु हुई थी।
ठाकुर अवनीन्द्रनाथ (१८७१-१९३१) : प्रख्यात कलाकार तथा साहित्यकार, 'इण्डियन सोसायटी ऑफ ओरियण्टल आर्ट्स' की स्थापना की। कला और चित्रकला की भारतीय पद्धति पुनः प्रतिष्ठित करके संसार में उसे उचित सम्मान दिलाया। उनकी चित्रकारी के प्रमुख नमूने हैं-'प्रवासी यक्ष', 'शाहजहाँ की मृत्यु', 'बुद्ध और सुजाता', 'कच और देवयानी' तथा 'उमर खय्याम'।
१९०५ से १९१६ ई. तक वे कलकत्ता में 'गवर्नमेण्ट स्कूल ऑफ आर्ट' के उपप्राचार्य और कुछ समय के लिए प्राचार्य भी रहे। उन्होंने भारतीय चित्रकला के एक नये स्कूल को जन्म किया। उनके सर्वाधिक प्रख्यात शिष्य नंदलाल बोस थे।
ठाकुर देवेन्द्रनाथ (१८१७-१९०५) : कलकत्ता निवासी श्री द्वारकानाथ टैगोर (ठाकुर) के पुत्र, जो प्रख्यात विद्वान् और धार्मिक नेता थे। अपनी दानशीलता के कारण उन्होंने 'प्रिंस' की उपाधि प्राप्त की थी। पिता से उन्होंने ऊँची सामाजिक प्रतिष्ठा तथा ऋण उत्तराधिकार में प्राप्त किया। पिता के ऋण का भुगतान उन्होंने बड़ी ही ईमानदारी के साथ किया (जो कि उस समय असाधारण बात थी ) और अपनी विद्वत्ता, शालीनता, श्रेष्ठ चरित्र तथा सांस्कृतिक क्रियाकलापों में योगदान के द्वारा उन्होंने टैगोर परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा को और ऊँचा उठाया। वे ब्राह्म समाज (दे.) के प्रमुख सदस्य थे जिसका १८४३ ई. से उन्होंने बड़ी सफलता के साथ नेतृत्व किया। १८४३ ई. में उन्होंने 'तत्वबोधिनी पत्रिका' प्रकाशित की, जिसके माध्यम से उन्होंने देशवासियों को गम्भीर चिन्तन तथा हृद्गत भावों के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया। इस पत्रिका ने मातृभाषा के विकास तथा विज्ञान एवं धर्मशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता पर बल दिया और साथ ही तत्कालीन प्रचलित सामाजिक अंधविश्वासों व कुरीतियों का विरोध किया तथा ईसाई मिशनरियों द्वारा किये जानेवाले धर्मपरिवर्तन के विरुद्ध कठोर संघर्ष छोड़ दिया। राममोहन राय (दे.) की भाँति देवेन्द्रनाथ जी भी चाहते थे कि देशवासी, पाश्चात्य संस्कृति की अच्छाइयों को ग्रहण करके उन्हें भारतीय परंपरा, संस्कृति और धर्म में समाहित कर लें। वे हिन्दू धर्म को नष्ट करने के नहीं, उसमें सुधार करने के पक्षपाती थे। वे समाज-सुधार में 'धीरे चलो' की नीति पसन्द करते थे। इसी कारण उनका केशवचन्द्र सेन (दे.) तथा उग्र समाज-सुधार के पक्षपाती ब्राह्मसमाजियों, दोनों से मतभेद हो गया। केशवचन्द्र सेन ने अपनी नयी संस्था 'नवविधान' आरम्भ की। उधर उग्र समाज-सुधार के पक्षपाती ब्राह्मसमाजियों ने आगे चलकर अपनी अलग संस्था 'साधारण ब्राह्म समाज' की स्थापना की। देवेन्द्रनाथ जी के उच्च चरित्र तथा आध्यात्मिक ज्ञान के कारण सभी देशवासी उनके प्रति श्रद्धा-भाव रखते थे और उन्हें 'महर्षि' सम्बोधित करते थे।
देवेन्द्रनाथजी धर्म के बाद शिक्षाप्रसार में सबसे अधिक रुचि लेते थे। उन्होंने बंगाल के विविध भागों में शिक्षा संस्थाएँ खोलने में मदद की। उन्होंने १८६३ ई. में बोलपुर में एकांतवास के लिए २० बीघा जमीन खरीदी और वहाँ गहरी आत्मिक शांति अनुभव करने के कारण उसका नाम 'शांति निकेतन' रख दिया और १८८६ ई. में उसे एक ट्रस्ट के सुपुर्द कर दिया। यहीं बाद में उनके स्वनामधन्य पुत्र रवीन्द्रनाथ ने विश्वभारती की स्थापना की।
देवेन्द्रनाथजी मुख्य रूप से धर्म-सुधार तथा शिक्षा-प्रसार में रुचि तो लेते ही थे, देश-सुधार के अन्य कार्यों में भी पर्याप्त रुचि लेते थे। १८५१ ई. में स्थापित होनेवाले ब्रिटिश इंडियन एसोसियेशन का सबसे पहला सेक्रेटरी उन्हें ही नियुक्त किया गया। इस एसोसियेशन का उद्देश्य संवैधानिक आंदोलन के द्वारा देश के प्रशासन में देशवासियों को उचित हिस्सा दिलाना था। उन्नीसवीं शताब्दी में जिन मुट्ठी भर शिक्षित भारतीयों ने आधुनिक भारत की आधारशिला रखी, उनमें उनका नाम सबसे शीर्षपर लिया जायगा। (एस. चक्रवर्ती कृत 'देवेन्द्रनाथ ठाकुर आत्मजीवनी')
ठाकुर द्वारकानाथ - (१७९४-१८४६) : कलकत्ता में जोड़ा सांकू के प्रसिद्ध ठाकुर (टैगोर) परिवार के संस्थापक। उन्होंने अंग्रेजों के सहयोग से व्यापार करके आपार धन अर्जित किया। उन्होंने यूनियन बैंक की स्थापना की जो बंगालियों द्वारा खोला जानेवाला पहला बैंक था। उन्होंने तत्कालीन समाज तथा धर्म-सुधार के आन्दोलनों में हिस्सा लिया। वे राजा राममोहन राय (दे.) द्वारा स्थापित ब्राह्म समाज के सबसे प्रारम्भिक सदस्यो में से थे। उन्होंने १८४३ ई. तक उसका नेतृत्व किया। इसके बाद उनके पुत्र देवेन्द्रनाथ (दे.) ने उसका नेतृत्व संभाल लिया। उन्होंने १८४२ तथा १८४५ ई. में दो बार यूरोप-यात्रा की और महारानी विक्टोरिया से उनके महल में भेंट की। उन्होंने दोनों हाथों इस तरह पैसा लुटाया कि अंत में वे कर्ज में डूब गये। उनकी दानशीलता और उदारता के कारण उन्हें प्रिंस (राजा) पुकारा जाता था। १८४६ ई. में लन्दन में उनकी मृत्यु हो गयी।
ठाकुर रवीन्द्रनाथ (७ मई १८६१-७ अगस्त १९४१) : आधुनिक काल के सबसे महान भारतीय कवि। वे श्री देवेन्द्रनाथ (दे.) ठाकुर के पुत्र थे। उनका जन्म कलकत्ता में हुआ और विश्वख्याति तथा गुरुदेव की उपाधि प्राप्त करने के बाद मृत्यु भी वहीं हुई। उन्होंने बाल्यकाल में ही कविता लिखना आरम्भ कर दिया और १८८२ ई. में प्रकाशित उनके 'संध्या-संगीत' से प्रख्यात बंगला उपन्यासकार एवं साहित्यकार तथा हमारे राष्ट्रगान 'वंदेमातरम्' के रचयिता बंकिमचन्द्र चटर्जी (दे.) इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने गले की माला उन्हें पहनाकर उनका सत्कार किया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। वे केवल कवि ही नहीं वरन् नाटककार, उपन्यासकार तथा निबंधकार भी थे। बाद के जीवन में वे चित्रकार भी बने। उन्होंने अपने काव्य में विभिन्न प्रकार के प्रयोग किये हैं। उनकी कविता सहज ही हृत्तंत्री को झंकृत कर देती है। उनकी विशेष ख्याति गीतिकाव्यकार के रूप में है। १९१३ ई. में 'गीतांजलि' का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित होने पर उन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। उसी वर्ष कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट्. की सम्मानित उपाधि से विभूषित करके अपने को गौरवान्वित किया। उन्हीं के सुझाव पर कलकत्ता विश्ववविद्यालय ने बंगला भाषा की वर्तनी शुद्ध की और उसे अपनी सबसे ऊँची डिग्री की परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया। १९१३ ई. में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'सर' की उपाधि प्रदान की। संसार के सभी भागों से उन्हें सम्मान प्राप्त हुआ और उन्होंने बौद्धिक जगत में पराधीनता के काल में भी भारत का मस्तक ऊंचा कर दिया। उन्होंने युरोप, अमेरिका और एशिया का विस्तृत भ्रमण किया और सभी देशों में भारत की कीर्तिपताका फहरायी।
रवीन्द्रनाथ ऊंचे कवि ही नहीं, वरन ऊंचे देशभक्त भी थे। उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन में प्रमुख भाग लिया। उनकी देशभक्ति संकीर्ण राष्ट्रवाद पर नहीं, वरन उदार अंतरराष्ट्रीयतावाद पर आधारित थी, इसीलिए उन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलाने के आंदोलन का समर्थन किया। वे स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने के पक्ष में थे। उन्होंने ग्राम-सुधार के कार्यों के लिए शांतिनिकेतन के निकट श्रीनिकेतन की स्थापना की। उन्होंने लोकशिक्षा, लोक गीत, लोकनृत्य, लोक-कला एवं शिल्प तथा सहकारिता आंदोलन को भी प्रोत्साहन प्रदान किया। वे उग्र राजनीतिक आंदोलनों से अपने को प्रायः पृथक् रखते थे, फिर भी विदेशी सरकार जब देशवासियों पर अत्याचार करने लगती थी तो उसके विरुद्ध अपना स्वर ऊंचा करने में वे कभी भयभीत नहीं होते थे। अंग्रेजों द्वारा जालियांवाला बाग (दे.) में किये गये बर्बर हत्याकांड से क्षुब्ध होकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत्त 'सर' की पदवी लौटा दी। उनका यह कार्य भारत में ब्रिटिश शासन की सबसे कठोर भर्त्सना थी।
रवीन्द्रनाथ ने मानव-संस्कृति के विकास में सबसे बड़ा योगदान १९०१ ई. में शांतिनिकेतन में विश्वभारती की स्थापना करके किया। इसकी स्थापना के लिए उन्होंने तत्कालीन सरकार से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं ली और पचास वर्षों तक उसे अपनी पुस्तकों से होनेवाली आय तथा अपनी पैतृक सम्पत्ति की आय से चलाते रहे। उनके देहावसान के दस वर्ष बाद इस संस्था का भार भारतीय गणराज्य की सरकार ने अपने ऊपर ले लिया और अब उसने इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय का रूप दे दिया है। रवीन्द्रनाथ श्रेष्ठ कवि और विद्वान ही नहीं, दृष्टा भी थे। वे प्रथमतः भारतीय थे। उनका अंतरराष्ट्रीयतावाद उनके देशप्रेम का ही एक अंग था। महात्मा गांधी भी उन्हें अपना मार्गदर्शक मानते थे और उन्हें श्रद्धापूर्वक 'गुरुदेव' पुकारते थे। (रवीन्द्रनाथ की कृतियां; थाम्पसन कृत 'रवीन्द्रनाथ', एस. राधाकृष्णन् लिखित 'फिलासफी आफ रवीन्द्रनाथ' तथा एस. एन. दासगुप्त लिखित 'रवीन्द्र-दीपिका')
टाकुर सत्येन्द्रनाथ (१८४२-१९२३) : इंडियन सिविल सर्विस परीक्षा में उत्तीर्ण होनेवाले प्रथम भारतीय। इनका जन्म कलकत्ता में हुआ था। ये देवेन्द्रनाथ टैगोर (दे.) के द्वितीय पुत्र और रवीन्द्रनाथ टैगोर के अग्रज थे। १८६४ ई. में उन्होंने इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश किया और बम्बई प्रांत में नियुक्त किये गये। उन दिनों सरकारी नौकरी में भारतीयों को ऊंचे उठने का बहुत कम अवसर दिया जाता था। इस कारण अवकाश-प्राप्ति के समय तक वे केवल जिला तथा सेशन जज के पद तक ही उन्नति कर सके। वे कवि और साहित्यकार भी थे। बंगला भाषा में उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं।
डंकन, जोनाथन (१७५६-१८११ ई.) : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में १७७२ ई. में भारत आया। उसे १७७८ ई. में बनारस स्थित रेजीडेण्ट एवं सुपरिण्टेण्डेण्ट बनाया गया, जहां उसने प्रशासन का सुधार और शिशुबलि की कुप्रथा का निवारण किया। बाद में १७९५ से १८११ ई. तक वह बम्बई का गवर्नर रहा और काठियावाड़ में भी प्रचलित शिशुबलि की कुप्रथा का निवारण किया। इस प्रकार उसने एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुधार का श्रीगणेश किया। बम्बई के गवर्नर की हैसियत से उसने चतुर्थ मैसूर युद्ध (दे.) (१७९९ ई) और दूसरे मराठा-युद्ध (दे.) (१८०३-०५ ई.) में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। मिस्र के विरुद्ध बैर्ड के अभियान (१८०१ ई.) को संगठित करने तथा गुजरात एवं काठियावाड़ में शान्ति स्थापित करने में भी उसने विशेष योगदान किया। उसकी कब्र पर लगे पत्थर में ठीक ही लिखा है कि वह 'सज्जन और न्यायप्रिय व्यक्ति' था।
डंडास, हेनरी : पिट के इण्डिया ऐक्ट (१७८४ ई.) के अन्तर्गत स्थापित बोर्ड आफ कण्ट्रोल का प्रथम अध्यक्ष। १७८६ ई. में उसने वारेन हैस्टिंग्स द्वारा संचालित रोहिल्ला युद्ध को पार्लमेण्ट में उचित ठहराया, लेकिन बाद में वारेन हैस्टिंग्स पर चलाये गये महाभियोग का समर्थन किया। विशेषताया बनारस के राजा चेतसिंह तथा अवध की बेगमों के मामलों में उसने वारेन हैस्टिंग्स की कटु आलोचना की। १८०२ ई. में डंडास लार्ड मेलविले बना दिया गया। १८०६ ई. में स्वयं उस पर सार्वजनिक धन के घोटाले और कर्तव्य-अवहेलना का आरोप लगाकर महाभियोग चलाया गया; लेकिन वह बरी कर दिया गया। बोर्ड आफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष की हैसियत से उसने बड़ी योग्यता तथा प्रशासनिक कुशलता का परिचय दिया। उसने बोर्ड आफ कंट्रोल को वस्तुतः एक सरकारी विभाग का रूप दे दिया और उसके अध्यक्ष के पद को भारतमंत्री के पद का समकक्ष बना दिया।
डच ईस्ट इंडिया कम्पनी : अथवा नीदरलैंड की यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कम्पनी, की स्थापना १६०२ ई. में हुई। इस कम्पनी के पास बहुत अधिक वित्तीय साधन थे और इसे डच सरकार का भी समर्थन प्राप्त था। शुरू में अंग्रेजों की तरह डच लोगों का भी पुर्तगालियों ने विरोध किया, क्योंकि उन्होंने अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी के सहयोग से पूर्व में पुर्तगालियों के व्यापार पर एकाधिकार को चुनौती देकर व्यापार में हिस्सा बंटा लिया। डच इंडिया कम्पनी ने अपना ध्यान मुख्यरूप से मसालेवाले द्वीपों से व्यापार पर केन्द्रित किया और १६२३ ई. के अम्बोला हत्याकांड के बाद वहां से अंग्रेजों को पूर्णरूप से निकाल बाहर करने में सफल हो गयी। किन्तु भारत में डच कम्पनी को उतनी सफलता नहीं मिली। पूलीकट और समुलीपट्टम में उसकी व्यापारिक कोठियां मद्रास स्थित अंग्रेजी कम्पनी की बराबरी कभी नहीं कर सकीं और बंगाल में चिनसुरा स्थित उसकी कोठी शीघ्र ही कलकत्ता स्थित अंग्रेजी कोठी के सामने फीकी पड़ गयी। १७५९ ई. के विदर्रा युद्ध (दे.) में अंग्रेजों ने चिनसुरा के डचों को परास्त कर दिया। इसके बाद डच लोगों ने बंगाल तथा सम्पूर्ण भारत में राजनीतिक शक्ति बनने का इरादा छोड़ दिया और अंग्रेजों के साथ शांति-संधि कर ली और भारत के साथ उनका व्यापार फलता-फूलता रहा। डच कम्पनी ने मलय द्वीपसमूह में अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। इन द्वीपों पर उनका अधिपत्य सन् १९५२ तक रहा, जब उन्होंने इंडोनेशिया की स्वतंत्रता को मान्यता दे दी।
डच ईस्ट इंडिया : मसालेवाले जावा तथा मोलुक्कास द्वीपों का सम्मिलित राज्य। १७वीं शताब्दी ई. के प्रारम्भ में डचों (हालैण्डवासियों) ने इन द्वीपों में अपनी व्यापारिक कोठियां स्थापित कीं और अंग्रेजों को वहां अपना पैर जमाने नहीं दिया, यहां तक कि १६२३ ई. में उन्होंने अम्बोयना में अंग्रेजों का कत्लेआम करके वहां से उनका सफाया कर दिया। उन्होंने बटाविया (जावा) को अपना सदर मुकाम बनाया, जहां से वे मलयद्वीप-समूह के अधिकांश भाग पर शासन करते थे। फलतः मलय-द्वीपसमूह डच ईस्ट इंडीज के नाम से जाना जाने लगा। १९वीं शताब्दी ई. के प्रारम्भ में जब फ्रांस के नैपोलियन ने हालैण्ड पर अधिकार जमाया, तो मलय द्वीप भी उसके नियन्त्रण में आ गया।
उस समय भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का गवर्नर जनरल लार्ड मिण्टो (प्रथम) था। उसने मलय-द्वीपसमूह पर कब्जा करने का निश्चय किया। इसके लिए उसने विशेष तैयारी की। १८१० ई. में ब्रिटिश भारतीय फौज ने अम्बोयना और मसालेवाले द्वीपों पर अधिकार कर लिया। दूसरे वर्ष मिण्टो ने १२ हजार नौसैनिकों का बेड़ा सर सैमुअल अकमूटी के नेतृत्व में भेजा जिसने पहले मलक्का में लंगर डाला। लार्ड मिण्टो स्वयं इस बेड़े के साथ था। इन सैनिकों ने बटाबिया पर आसानी से अधिकार कर लिया। इसके बाद कोर्नेलिस के किले के लिए फ्रांसीसी जनरल जैन्सेन्स, जिसे नैपोलियन ने कमांडर नियुक्त किया था और अंग्रेजी फौज के बीच घोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में विजय के फलस्वरूप सम्पूर्ण मलय-द्वीपसमूह अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। लार्ड मिण्टो इस द्वीपसमूह का प्रशासन स्टैम्फोर्ड रैफिल्स के जिम्मे छोड़कर भारत वापस आ गया। लेकिन जब १८१५ ई. में वियना की संधि के फलस्वरूप यूरोप में शांति स्थापित हुई, तो १८१६ ई. में डच ईस्ट इंडीज (मलय-द्वीपसमूह) हालैण्ड को वापस कर दिया गया। अब यह इण्डोनेशिया के स्वाधीन गणतंत्र के अंतर्गत है।
डफरिन, फ्रेडरिक टेम्पिल हैमिल्टन-टेम्पल ब्लैकाउड, मार्क्विस आफ : १८८४ से १८८८ ई. तक भारत का वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल। सामान्य तौर पर उसका शासनकाल शांतिपूर्ण था, वैसे तृतीय बर्मा-युद्ध (दे.) (१८८५-८६ ई.) उसी के कार्यकाल में हुआ जिसके फलस्वरूप उत्तरी बर्मा ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का अंग बन गया। रूसी अफगान सीमापर स्थित पंजदेह पर रूसियों का कब्जा हो जाने के फलस्वरूप रूस तथा ब्रिटेन के बीच युद्ध का खतरा पैदा हो गया था, लेकिन अफगानिस्तान के अमीर अब्दुर्रमान (दे.) (१८८०-१९०१ ई.) के शांति-प्रयास तथा लार्ड डफरिन की विवेकशीलता से युद्ध नहीं छिड़ने पाया। लार्ड डफरिन के कार्यकाल में ही १८८५ ई. का बंगाल लगान कानून बना, जिसके अंतर्गत किसानों को भूमि की सुरक्षा की गारंटी दी गयी, न्याययुक्त लगान निर्धारित किया गया तथा जमींदारों द्वारा बेदखल किये जाने के अधिकार को सीमित कर दिया गया। किसानों के हित के लिए इसी प्रकार के कानून अवध और पंजाब में भी बनाये गये। लार्ड डफरिन के कार्यकाल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना है १८८५ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन बम्बई में होना। उस समय इस घटना की महत्ता नहीं आंकी गयी, लेकिन बाद में इसी संगठन के माध्यम से भारत को १९४७ ई. में स्वाधीनता प्राप्त हुई और तभी से भारतीय गणराज्य का शासन इस पार्टी के हाथ में है। (सर अल्फ्रेड लायल कृत 'लाइफ आफ मार्क्विस आफ डफरिन ऐण्ड आवा')
डफरिन, लेडी हैरियट जार्जियाना : १८६२ ई. में लार्ड डफरिन के साथ विवाह हुआ। भारत में रहते हुए उसने 'नेशनल एसोसियेशन' नामक संस्था की स्थापना की, जिसका उद्देश्य भारतीय महिलाओं के लिए पश्चिमी चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करना था। एसोसियेशन ने काउण्टेस आफ डफरिन फण्ड की स्थापना की, जिससे कलकक्ता में लेडी डफरिन अस्पताल खोला गया।
डफ, रेवरेण्ड अलेक्जेण्डर : कलकत्ता में १८३० से १८६३ ई. तक स्काटिश प्रेसबिटेरियन पादरी। संभवतः १८२३ ई. में राजा राममोहन राय के अनुरोध पर चर्च आफ स्काटलैण्ड ने डफ को भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार के लिए भेजा। राजा राममोहन राय ने उसका भारी स्वागत किया और उन्हीं की सहायता से डफने १८३० ई. में जनरल असेम्बलीज इनस्टीट्यूशन नामक अंग्रेजी स्कूल खोला। कालांतर में इस स्कूल ने कालेज का रूप धारण कर लिया। पहले इसका नाम डफ कालेज था, लेकिन बाद में स्काटिश चर्च कालेज हो गया।
डफ ने बंगाल में शिक्षा-प्रसार तथा समाज-सुधार के लिए बहुत कुछ किया। उसने भारत में विश्वविद्यालयों की स्थापना कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। कलकत्ता विश्वविद्यालय खुलने पर वह उसकी प्रबन्ध समिति का आरम्भिक सदस्य रहा। १८५९ ई. से कई वर्षों तक वह बेथून सोसाइटी का अध्यक्ष रहा। वह पादरी था और भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के उद्देश्य से आया था। अपनी पुस्तक 'इण्डिया ऐण्ड इण्डियन मिशन्स' में उसने हिन्दू धर्म के बारे में यहां तक लिख डाला है कि "पतित व्यक्तियों के विकृत मस्तिष्क ने जिन झूठे धर्मों की सृष्टि की, उनमें हिन्दू धर्म सबसे आगे है।" स्वभावतः भारतीय विद्वानों और आमजनता में डफ के विरुद्ध भीषण आक्रोश उत्पन्न हुआ। केशवचन्द्र सेन तथा देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने डफ का कड़ा विरोध किया। बंगाल के कुछ ही पढ़े-लिखे लोगों को वह ईसाई बनाने में सफल हो सका और निराश होकर १८६३ ई. में हुई। (स्मिथ लिखित 'लाइफ आफ अलेक्जैण्डर डफ')
डफला : आसाम की पूर्वोत्तर सीमा (जो डफला पर्वतमाला से लेकर आधुनिक दारंग जिले के उत्तर तक फैली हुई है) में रहनेवाली एक जन-जाति।
डलहौज़ी, लार्ड : १८४८ से १८५६ ई. तक भारत का गवर्नर-जनरल। उसके प्रशासनकाल में ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का विपुल विस्तार हुआ और शासन-सुधार के अनेक कदम उठाये गये। उसके कार्यकाल में दूसरा सिख युद्ध (१८४८-४९) हुआ और पंजाब को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया। १८५० ई. में दो अंग्रेजों के प्रति दुर्व्यवहार के दंडस्वरूप उसने सिक्किम के एक भाग पर अधिकार कर लिया और १८५३ ई. में उसने दूसरा बर्मी युद्ध छेड़कर प्रोम नगर तक सम्पूर्ण उत्तरी बर्मा को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया। इस प्रकार ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य पेशावर से बर्मा तक फैल गया, जिसमें बंगाल की खाड़ी का पूरा तटवर्ती प्रदेश शामिल था। उसके मतानुसार भारतीयों के लिए देशी राजाओं के शासन की अपेक्षा ब्रिटिश शासन अधिक हितकर था। इसलिए उसने जब्ती का सिद्धांत (डाक्ट्रिन आफ लैप्स) (दे.) ईजाद किया, जिसके अनुसार यदि ब्रिटिश सरकार द्वारा संरक्षित कोई देशी राजा निस्संतान मर जाता है तो उसके दत्तक पुत्र को राज्य प्राप्त करने का अधिकार नहीं होगा और उसके राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया जायगा। इस सिद्धान्त को लागू करके उसने सतारा (१८४८ ई.), जैतपुर तथा संभलपुर (१८४९ ई.), बाघाट (१८५० ई.), उदयपुर (१८५२ ई.), झांसी (१८५३ ई.), नागपुर (१८५४ ई.) और करौली (१८५५ ई.) को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। बाघाट, उदयपुर और करौली के राज्य बाद को उच्च अधिकारियों के आदेश पर दत्तक पुत्रों को लौटा दिये गये। डलहौज़ी ने कर्नाटक और तंजोर की नाममात्र की स्वाधीनता को भी यह कहकर समाप्त कर दिया कि अब उनके स्वतंत्र अस्तित्व की कोई आवश्यकता नहीं है। १८५३ ई. में भूतपूर्व पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु पर उसने उसके दत्तकपुत्र ढोण्ढू पंत (जो नाना साहब के नाम से अधिक विख्यात हैं) को दी जानेवाली ८० हजार पौण्ड सालाना की वह पेंशन बंद कर दी जो उसके धर्मपिता बाजीराव को मिलती थी। अंतमें निदेशकमंडल (कोर्ट आफ डायरेक्टर्स) के आदेशपर डलहौज़ीने १८५६ ई. में अवधको भी ब्रिटिश साम्राज्यमें मिला लिया। इस प्रकार आठ वर्षोंके अल्प शासनकालमें उसने भारतका राजनीतिक मानचित्र एकदम बदल दिया।
आंतरिक प्रशासन में भी डलहौज़ी ने अनेक सुधार किये। बंगाल का प्रशासन उसने लेफ्टिनेंट-गवर्नर (१८५४) के सुपुर्द कर दिया। सार्वजनिक निर्माण विभाग स्थापित करके उसे ग्राण्ड ट्रंक रोड आदि सड़कों के निर्माण और रख-रखाव का भार सौंप दिया। उसके प्रशासनकाल में सार्वजनिक निर्माण के कार्यों पर अधिक पैसा खर्च होने लगा। सिंचाई व्यवस्था पर पहले से कहीं अधिक ध्यान दिया गया और गंगा नहर का निर्माण उसीने शुरू कराया। रेलवे लाइन बिछाने की एक सुविचारित योजना तैयार की गयी और १८५३ ई. में बम्बई से थाना तक पहली रेल लाइन का उद्घाटन हुआ। १८५४ ई. में कलकत्ता और रानीगंज के बीच दूसरी रेलवे लाइन चालू हुई। तार-व्यवस्था का श्रीगणेश भी डलहौज़ी के ज़माने में ही हुआ और देशभर में दो पैसे (तीन नया पैसा) की सामान्य दर पर डाक प्रणाली आरंभ की गयी। भारत की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए उसने १८५४ ई. की शिक्षा संबंधी घोषणा क्रियान्वित की और कलकत्ता बम्बई एवं मद्रास विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिए प्रारंभिक कदम उठाये।
लार्ड डलहौज़ी स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति का प्रशासक था और जो कुछ उचित और लाभदायक समझता था, वहीं करता था। वह दूसरों, विशेषरूप से भारतीयों की भावनाओं की कोई परवा नहीं करता था और उसने भारतीय राजाओं और साधारण जनता दोनों के ही मन में गहरा असंतोष उत्पन्न कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप १८५७ ई. में प्रथम स्वाधीनता-संग्राम (सिपाही-विद्रोह) छिड़ गया। (सर ली वार्नर कृत 'लाइफ आफ डलहौज़ी')
डायर, जनरल : ब्रिटिश भारतीय सरकार का एक सेनाधिकारी। अप्रैल १९१९ ई. में वह अमृतसर (पंजाब) में तैनात था। इस वर्ष के आरम्भ में रौलट ऐक्ट नामक अत्यंत दमनकारी कानून बनाया गया। केन्द्रीय विधान परिषद के गैर-सरकारी (निर्वाचित) सदस्यों के विरोध के बावजूद यह कानून पास किया गया था। भारतीय जनमत की इस प्रकार की घोर उपेक्षा किये जाने से समस्त भारत में रोष उत्पन्न हुआ और दिल्ली, गुजरात, पंजाब आदि प्रान्तों में जगह-जगह इस कानून के विरोध में प्रदर्शन हुए। १० अप्रैल को अमृतसर में जो प्रदर्शन हुआ, वह अधिक उग्र हो गया और उसमें चार यूरोपियन मारे गये, एक यूरोपीय ईसाई साध्वी को पीटा गया और कुछ बैकों और सरकारी भवनों को आग लगा दी गयी।
पंजाब सरकार ने तुरन्त बदले की कार्रवाई करने का निश्चय किया और एक घोषणा प्रकाशित कर अमृतसर में सभाओं आदि पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा नगर का प्रशासन जनरल डायर के नेतृत्व में सेना के सुपुर्द कर दिया। उक्त प्रतिबन्ध को तोड़कर जलियांवाला बाग में सभा आयोजित की गयी। यह स्थान तीन तरफ से घिरा हुआ था। केवल एक ही तरफ से आने-जाने का रास्ता था। इस सभा का समाचार पाते ही जनरल डायर अपने ९० सशस्त्र सैनिकों के साथ जलियांवाला बाग आया और बाग में प्रवेश एवं निकास के एकमात्र रास्ते को घेर लिया। उसने आते ही बाग में निश्शस्त्र पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों को बिना किसी चेतावनी के गोली मारने का आदेश दिया। यह गोलीकाण्ड १० मिनट तक होता रहा। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार ३७९ व्यक्ति मारे गये तथा १२०८ घायल हुए। हताहतों के उपचार की कोई व्यवस्था नहीं की गयी और जनरल डायर सैनिकों के साथ सदर मुकाम वापस आ गया, मानो उसने एक ऊँचे कर्तव्य का पालन किया हो।
डायर कदाचित् कुछ यूरोपियनों की हत्या के इस प्रति शोध को पर्याप्त नहीं समझता था। अतएव उसने नगर में मार्शल-ला लागू किया, जनता के विरुद्ध कठोर दण्डात्मक कार्रवाई तथा सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाये जाने की अपमानजनक आज्ञा दी। यह आदेश भी दिया कि जो भी भारतीय उस स्थान से गुजरे, जहां यूरोपीय ईसाई साध्वी को पीटा गया था वह सड़क पर पेट के बल रेंगता हुआ जाय। डायर की यह कार्रवाई भारतीयों का दमन करने के लिए नृशंस शक्ति-प्रयोग का नग्न प्रदर्शन थी। समस्त भारत में इसका तीव्र विरोध हुआ। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने घृणापूर्वक 'सर' की उपाधि सरकार को वापस कर दी। लेकिन ब्रिटिश भारतीय सरकार ने इस सार्वजनिक रोष प्रदर्शन की कोई परवाह नहीं की। इतना ही नहीं, पंजाब सरकार ने जनरल डायर की इस बेहुदी कार्रवाई पर अपनी स्वीकृति प्रदान की और उसे सेना में उच्च पद देकर अफगानिस्तान भेज दिया।
फिर भी इंग्लैण्ड में कुछ भले अंग्रेजों ने जनरल डायर की कार्रवाई की निंदा की। एस्किवथ ने जलियांवाला बाग काण्ड को "अपने इतिहास के सबसे जघन्य कृत्यों में से एक" बताया। ब्रिटिश जनमत के दबाव से तथा भारतीयों की व्यापक मांग को देखते हुए भारत सरकार ने अक्तूबर १९१९ में एक जांच कमेटी नियुक्त की, जिसका अध्यक्ष एक स्काटिश जज, लार्ड हण्टर बनाया गया। कमेटी ने जांच के पश्चात् अपनी रिपोर्ट में जनरल डायर की कार्रवाई को अनुचित बताया। भारत सरकार ने उक्त रिपोर्ट को मंजूर करते हुए जनरल डायर की निंदा की और उसे इस्तीफा देने के लिए विवश किया। लेकिन साम्राज्य-मद में चूर अंग्रेजों में जनरल डायर के बहुत से प्रशांसक भी थे, जिन्होंने चन्दा करके धन एकत्र किया और उससे जनरल डायर को पुरस्कृत किया। (देखिये 'हण्टर कमेटी की रिपोर्ट' तथा पट्टाभिसीतारामैया कृत 'कांग्रेस का इतिहास' प्रथम भाग, पृष्ठ १६५)
डायोनीसियस : एक यूनानी दूत, जिसे मिस्र के सम्राट ताल्मी फिलाडेल्फस (लगभग २८५-४७ ई. पू.) द्वारा मौर्य सम्राट् बिन्दुसार अथवा अशोक के दरबार में पाटलिपुत्र भेजा गया था। अशोक के शिलालेख संख्या १३ में ताल्मी का उल्लेख है।
डिओडोरस : एक प्राचीन इतिहासकार, जिसने मेगस्थनीज के विवरण का आधार लेते हुए भारत पर किये गये सिकन्दर के आक्रमण का इतिहास यूनानी भाषा में लिखा है।
डिग्बी, जान : रंगपुर का कलेकटर, जिसकी अधीनता में राममोहन राय (दे.) ने, जब वे केवल २० वर्ष के थे, १८०९ ई. में सरिश्तेदार की हैसियत से नौकरी शुरू की। इसी दौरान राममोहन राय ने अंग्रेजी पढ़ी और कलेक्टर के पास आनेवाली अंग्रेजी की तमाम पत्र-पत्रिकाओं को पढ़-पढ़कर वे अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक गतिविधियों से परिचित हो गये।
डिसरायली, बेंजामिन, अर्ल आफ बीकन्सफील्ड : एक अंग्रेज राजनीतिज्ञ और उपन्यासकार। १८३७ ई. में ब्रिटिश पार्लमेण्ट का सदस्य बना और अनुदार दल के पील-विरोधी गुट का नेता बन गया। वह पहले १८६८ ई. में तथा बाद में १८७४-८० ई. में ब्रिटेन का प्रधानमंत्री रहा। दूसरी बार उसके प्रधानमंत्रित्व-काल ने भारतीय इतिहास पर अपनी छाप छोड़ी। १८७४ ई. में स्वेज नहर कम्पनी के शेयर खरीद कर उसने भारत और ब्रिटेन के बीच एक सीधा निकट का रास्ता खोलने में मदद दी। उसी ने महारानी विक्टोरिया को १८७७ ई. में भारत की सम्राज्ञी की उपाधि से विभूषित किया। इस प्रकार उसने भारत के ऊपर ब्रिटिश नरेश के सार्वभौम प्रभुत्व पर बल दिया। उसने वाइसराय लार्ड लिटन (दे.) (१८७६-८०) की "अग्रसर नीति" का समर्थन करते हुए द्वितीय अफगान युद्ध (दे.) (१८७७-७९) छेड़ दिया।
डी'एक, काउंत : फ्रांस का एक नौसैनिक अधिकारी। यह फ्रांस के उस जहाजी बेड़े का कमांडर था जिस पर सवार होकर कर्नाटक में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच हो रहे युद्ध के आखिरी चरण में १७५८ ई. में काउंत दि लाली और फ्रांसीसी सेना भारत आयी थी। प्रारम्भ में डी' एक् को भारी सफलता मिली और उसने पीकाक के नेतृत्व में ब्रिटिश बेड़े को मद्रास के समुद्रतट से दूर भागने को मजबूर कर दिया। किन्तु पीकाक का बेड़ा शीघ्र ही लौट आया और उसने कारीकल से कुछ दूरी पर डी' एक् को परास्त कर दिया (१७५८)। डी 'एक् की इस पराजय से चौथे कर्नाटक युद्ध में फ्रांसीसियों को बहुत नुकसान पहुँचा और उसे फ्रांस वापस लौट जाना पड़ा।
डुरंड रेखा : सर मार्टीमेर डुरंड (दे.) की अध्यक्षता में गठित अफगान-सीमा आयोग ने १८९३ ई. में अफगानिस्तान तथा भारत के बीच यह सीमा-रेखा निर्धारित की थी। दोनों देशों के बीच जो कबायली क्षेत्र था, उसके दो भाग कर दिये गये। एक भाग अफगानिस्तान के नियन्त्रण में और दूसरा भाग ब्रिटिश भारतीय सरकार के नियंत्रण में कर दिया गया। ब्रिटिश नियंत्रण में खैबर क्षेत्र के अफरीदी, महसूद, वजीरी तथा स्वात कबीले और चित्राल तथा गिलगिट के क्षेत्र आये।
डुरंड सर हेनरी मार्टीमेर : १८७३ ई. में २३ वर्ष की आयु में इण्डियन सिविल सर्विस में प्रवेश किया। उसका पिता सर हेनरी मेरियन डुरंड था जो बंगाल इंजीनियर्स का अफसर होकर भारत आया और १८७० ई. में पंजाब का गवर्नर हो गया। लेकिन १८७१ ई. में एक दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गयी। हेनरी मार्टीमेर डुरंड १८७९ ई. में काबुल-अभियान के दौरान सर फ्रेडरिक राबर्ट्स का राजनीतिक सचिव था। १८८४ ई. में वह भारत सरकार का विदेश-सचिव हो गया और इस पद पर १८९४ ई. तक रहा। १८९३ ई. में एक ब्रिटिश प्रतिनिधि-दल के साथ अफगानिस्तान के अमीर अब्दुर्रहमान के पास जाकर उसने बड़ी चतुराई के साथ अमीर को एक सीमा-आयोग की स्थापना के लिए राजी कर लिया। वही इस आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। इस आयोग ने प्रसिद्ध डुरंड रेखा (दे.) निर्धारित की जो भारत और अफगानिस्तान के बीच स्थायी सीमा बनी। पाकिस्तान आज भी डूरंड रेखा को पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच की सीमा रेखा बनाये रखने पर बल देता है।
डूप्ले, जोसेफ फ्रैंक्वाय : फ्रांसीसी ईस्ट इण्डिया कम्पनी की व्यापारिक सेवा में भारत आया और बाद को १७३१ ई. में चन्द्रनगर का गवर्नर बन गया। १७४१ ई. में वह पाण्डिचेरी का गवर्नर-जनरल बनाया गया और १७५४ ई. तक इस पद पर रहा, वहाँ से वापस बुला लिया गया। वह योद्धा न होते हुए भी कुशल राजनीतिज्ञ और राजनेता था। उसने अपनी दूरदृष्टि से यह देख लिया (जैसा कि कोई नहीं कर सका) कि १८वीं शताब्दी ई. के पंचम दशक में दक्षिण भारत के राजनीतिक संतुलन में परिवर्तन घटित हो रहा है। तत्कालीन दक्षिण भारत की राजनीतिक व्यवस्था की कमजोरियों को उसीने समझा और इस बात को भी महसूस किया कि एक छोटी-सी यूरोपियन सेना लम्बी दूरी की मार करनेवाली तोपों, जल्दी गोली दागनेवाली पैदल सिपाहियों की बन्दूकों और प्रशिक्षित सैनिकों की सहायता से दक्षिण भारत की राजनीति में निर्णायक भूमिका अदा कर सकती है। उस समय फ्रांस और इंग्लैण्ड के बीच युद्ध चल रहा था। डूप्ले का उद्देश्य मद्रास पर कब्जा करके ब्रिटिश शक्ति को पंगु बना देना था। इसी उद्देश्य से उसने फ्रांसीसी जलसेनापति ला-बोर्दने को अपना जहाजी बेड़ा सशक्त करने के लिए धन दिया और सितम्बर १७४६ ई. में मद्रास अंग्रेजों से छीन लिया। ला-बोर्द ने अंग्रेजों से घूस लेकर मद्रास वापस कर देना चाहता था लेकिन डूप्ले ने बड़ी चतुराई से ऐसा नहीं होने दिया। बरसात आने पर ला-बोर्दने के बेड़े ने जब मद्रास से हटकर आयल्स आफ फ्रांस में अड्डा जमाया, तो डूप्ले ने स्वयं जाकर मद्रास पर अधिकार किया।
उसने अंग्रेजों के निकटवर्ती सेण्ट डेविड के किले को भी लेने की कोशिश की लेकिन विफल हो गया। किंतु अन्य स्थानों पर उसे उल्लेखनीय सफलताएं मिलीं। कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन ने एक बड़ी सेना मद्रास पर कब्जा करने के लिए भेजी, लेकिन उसे दो बार फ्रांसीसी-भारतीय सेना द्वारा परास्त कर दिया गया। ये दोनों युद्ध कावेरीपाक और सेण्ट चोम में हुए। यूरोप में फ्रांस और इंग्लैण्ड के बीच युद्ध १७४८ ई. में समाप्त हो गया। दोनो देशों के बीच एक्स-ला-चैपेल की संधि हुई जिसके अनुसार मद्रास अंग्रेजों को वापस कर दिया गया। इस प्रकार डूप्ले ने जो श्रम किया, वह व्यर्थ गया। कुछ भी हो, डूप्ले ने यह सिद्ध कर दिया कि यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित और आधुनिक शस्त्रों से लैस छोटी-सी फ्रांसीसी भारतीय सेना इस देश की विशाल भारतीय सेनाओं की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ है।
डूप्ले ने अपने इस अनुभव का प्रयोग करके दक्षिण भारत की रियासतों के आन्तरिक मामलों में दखल देना शुरू कर दिया। ये रियासतें बाहर से देखने में बड़ी सशक्त जान पड़ती थीं, किन्तु सैनिक दृष्टि से बहुत कमजोर तथा आन्तरिक विग्रह से पीड़ित थीं। १७४८ ई. में हैदराबाद के निजाम के मरने पर जब उत्तराधिकार का झगड़ा चला, तो डूप्ले ने हस्तक्षेप किया और निजाम के पुत्र नासिरजंग के विरुद्ध पोते मुजफ्फरजंग का पक्ष लिया। इसी रीति से डूप्ले ने कर्नाटक में नवाब अनवरुद्दीन के विरुद्ध चन्दासाहब का पक्ष-समर्थन किया। आरंभ में डूप्ले को कुछ सफलता मिली। १७४९ ई. में आम्बूर की लड़ाई में अनवरुद्दीन मारा गया। उसका पुत्र मुहम्मद अली भागकर त्रिचनापल्ली पहुँचा जहां चन्दासाहब और फ्रांसीसियों की सेना ने उसे घेर लिया।
दूसरी ओर हैदराबाद में १७५० ई. में नासिरजंग मारा गया और फ्रांसीसी जनरल बुसी के संरक्षण में मुजफ्फर जंग निजाम की गद्दी पर बैठा दिया गया। नये निजाम ने डूप्ले को कृष्णा नदी के दक्षिण में समस्त मुगल प्रदेश का नाजिम मान लिया। नये निजाम ने पाण्डिचेरी के आसपास के क्षेत्र तथा उड़ीसा के तटीय क्षेत्र और समुलीपट्टम भी फ्रांसीसियों को दे दिये। इस प्रकार डूप्ले ने भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना के स्वप्न को साकार होते देखा। लेकिन इसके बाद ही उसका पासा पलटने लगा। वह जिन फ्रांसीसी जनरलों पर निर्भर था, वे बड़े अयोग्य साबित हुए, फलतः उसकी योजनाएं विफल होने लगीं। फ्रांसीसी सेनापति त्रिचनापल्ली पर कब्जा न कर सके। फ्रांसीसियों द्वारा त्रिचनापल्ली की घेराबंदी इतने लम्बे समयतक चली कि अंग्रेजी सेना कर्नाटक के शाहजादे की मदद के लिए आ गयी। दूसरी ओर राबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में एक अंग्रेजी सेना ने कर्नाटक की राजधानी आर्काट के किले को घेर लिया। यह घेरा ५० दिन तक चला। कुछ और अंग्रेजी सेना आ जाने पर क्लाइव ने चन्दा साहब को पराजित करके मार डाला।
इसी बीच नया निजाम मुजफ्फरजंग भी मर गया। उसकी जगह सलाबजंग गद्दी पर बैठा। उसने भी फ्रांसीसियों से मैत्री कायम रखी। डूप्ले त्रिचनापल्ली पर कब्जा करने का बराबर प्रयत्न करता रहा। उसने तंजौर के राजा को तटस्थ रखने, मराठा सरदार मुरारीराव का समर्थन प्राप्त करने और मैसूर के शासक को अपनी ओर मिलाने में सफलता प्राप्त की और ३१ दिसम्बर १७५२ ई. को त्रिचनप्पल्ली की घेराबंदी पुनः शुरू कर दी। यह घेराबंदी १७५४ के मध्य तक चली। जब यह सब कुछ हो रहा था, फ्रांस की सरकार ने डूप्ले की नीतियों की महत्ता को नहीं समझा और भारत में होनेवाली इन लड़ाइयों के भारी खर्चों से वह परेशान हो उठी। फ्रांसीसी सरकार ने डूप्ले का कार्य पूरा होने के पहले ही उसे १७५४ ई. में स्वदेश वापस बुला लिया और उसके स्थान पर १ अगस्त १७५४ ई. को जनरल गोदेहू को नया गवर्नर-जनरल बना दिया। गोदेहू ने आते ही १७५५ ई. में अंग्रेजों से संधि कर ली। इस संधि के अनुसार तय पाया गया कि अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों ही भारतीय रियासतों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और जितना-जितना क्षेत्र अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के पास है, वह उनके पास बना रहेगा।
इस प्रकार फ्रांसीसी सरकार ने ही डूप्ले की नीति को विफल कर दिया। यह अवश्य हुआ कि हैदराबाद के निजाम के दरबार में फ्रांसीसियों का प्रभाव बना रहा और वहां जनरल बुसी के नेतृत्व में फ्रांसीसी भारतीय फौज तैनात रही। निराश डूप्ले की मृत्यु फ्रांस में १७६३ ई. में गरीबी की दशा में हुई।
डूप्ले भले ही विफल रहा हो, यह मानना पडेगा कि वह भारतीय इतिहास का एक प्रतिभाशाली और शक्तिमान व्यक्ति था। डूप्ले ने जिस राजनीतिक दूरदृष्टि का परिचय दिया, उससे अंग्रेजों ने बाद में स्वयं लाभ उठाया। यद्यपि फ्रांसीसी-भारतीय साम्राज्य की स्थापना करने का डूप्ले का स्वप्न साकार नहीं हुआ, तथापि ब्रिटिश-भारतीय साम्राज्य की स्थापना मुख्यतः डूप्ले की दूरदृष्टि के ही आधार पर हुई। (पी. कल्त्रू लिखित 'डूप्ले', एच. एच. डाडवेल लिखित 'डूप्ले एण्ड क्लाइव')
डूमा जनरल : फ्रांसीसी उपनिवेश पाण्डिचेरी का गवर्नर। उसने पांडिचेरी के विकास में बड़ा योग दिया। १७४४ ई. में उसके स्थान पर डूप्ले आया जिसकी प्रसिद्धि के आगे डूमा की सफलताएं धूमिल पड़ गयीं।
डेन, सर लुई : १९०४ ई. में ब्रिटिश भारतीय मिशन का नेता बनाकर अफगानिस्तान भेजा गया। यह मिशन दिसम्बर १९०४ ई. से मार्च १९०५ ई. तक काबुल में रहा और उसने वहाँ के तत्कालीन शासक अमीर हबीबुल्ला खाँ के साथ संबंध सुधारने में सफलता प्राप्त की।
डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी : १६१६ ई. में स्थापित। इसने १६२० ई. में भारत के पूर्वी समुद्रतट पर त्रंक्वेबार में अपनी पहली व्यापारिक कोठी स्थापित की। १७५५ ई. में उसने बंगाल में श्रीरामपुर में अपनी बस्ती स्थापित की। किंतु डेनिश ईस्ट इंडिया कम्पनी कभी पनप नहीं सकी और १८४५ ई. में उसने अपनी कोठियां ब्रिटिश सरकार को बेच दीं।
डे, फ्रांसिस : अरमा गाँव स्थित ईस्ट इण्डिया कम्पनी की फैक्ट्री का मुखिया। उसने १६४० ई. में स्थानीय राजा से मसुलीपट्टम् से २३० मील दक्षिण की ओर जमीन की एक पतली पट्टी प्राप्त की, साथ ही वहां पर एक किला बनाने की अनुमति भी ले ली। उसका नाम फोर्ट सेण्ट जार्ज पड़ा। बाद में चंद्रगिरि के राजा ने भी इस अनुदान पर अपनी स्वीकृति दे दी। यह राजा उपर्युक्त स्थानीय राजा का अधीश्वर था। कुछ ही वर्षो में फोर्ट सेंट जार्ज के चारों ओर एक शहर बस गया, जिसका नाम 'मद्रास' पड़ा जो बाद में चोलमण्डल तटपर ईस्ट इंडिया कम्पनी का मख्यालय बन गया। फ्रांसिस डे साहसिक और दूरदर्शी व्यक्ति था। उसीने जोर देकर बंगाल की खाड़ी के किनारे स्थित कम्पनी की बस्तियों को न छोड़ने का आग्रह किया था। बाद की घटनाओं ने सिद्ध कर दिया कि फ्रांसिस डे सही ढंग से सोच रहा था।
डेरियस (दारा) : देखिये, 'दारयबहु'।
डोरीजियफ : एक मंगोल, जो जन्मतः रूस की प्रजा था। तिब्बत के दलाई लामा की सेवा में वह उच्च पद पर पहुँच गया। १८९८ और १९०१ ई. के बीच उसने रूस की अनेक बार यात्रा की। १९०१ ई. में उसने रूस के जार के दरबार में जाकर उससे मुलाकात की। डोरीजियफ की यात्राओं का विज्ञापित उद्देश्य तिब्बत में बननेवाले बौद्ध मंदिरों के लिए रूसी बौद्धों से चन्दा वसूल करना था। यद्यपि रूसी बौद्धों से चन्दा वसूल करना था। यद्यपि रूसी सरकार ने सेण्ट पीट्सवर्ग स्थित ब्रिटिश राजदूत को यह आश्वासन दिया कि डोरीजियफ की यात्राओं का कोई राजानीतिक उद्देश्य नहीं है, तथापि ब्रिटिश भारत के वाइसराय लार्ड कर्जन ने तिब्बत सरकार के विरुद्ध अनेक निराधार आरोप लगाकर १९०४ ई. में सर फ्रांसिस यंगहसबैणड (दे.) के नेतृत्व में तिब्बत पर चढ़ाई करने के लिए एक सैन्यदल भेज दिया।
ड्यूक आफ कनाट : महारानी विक्टोरिया का पुत्र और इंग्लैण्ड के राजघराने का प्रमुख सदस्य। मार्च १९२१ ई. में वह भारत आया और गवर्नमेन्ट आफ इंडिया एक्ट १९१९ ई. के अंतर्गत भारत में लागू नये संविधान का श्रीगणेश किया। इस रीति से शाही हाथों से नये शासन-विधान का शुभारम्भ कराने पर भी वह भारतीयों को संतोष नहीं प्रदान कर सका और भारत और इंग्लैण्ड के सम्बंध कटु बने रहे।
ड्रेक, रोगर : जून १७५६ ई. में जब नवाब सिराजुद्दौला (दे.) ने कलकत्ता पर हमला किया तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के फोर्ट विलियम का गवर्नर था। ड्रेक किले की रक्षा करने के बजाय स्त्री-बच्चों को लेकर नदी में खड़े एक जहाज पर सवार होकर भाग खड़ा हुआ। उसने किले की रक्षा करनेवाली सेना को उसके भाग्य पर छोड़ दिया और कलकत्ता से दक्षिण की ओर भाग गया। जनवरी १७५७ ई. में जब वाटसन तथा क्लाइव ने पुनः कलकत्ता पर अधिकार कर लिया तो ड्रेक को फिर गवर्नर बना दिया गया। इसके बाद ड्रेक के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता।
ढाका : बाँगलादेश की राजधानी। यह नगर ब्रह्मपुत्र और गंगा (पद्मा) को जोड़नेवाली बूढ़ी गंगा नदी के तट पर बसा हुआ है। ढाका १६०८ ई. में मुगलों के सूबा बंगाल का मुख्यालय था और उसका नाम बादशाह जहाँगीर के नाम पर जहाँगीर नगर कर दिया गया था। आसाम पर मुगलों का पहला हमला ढाका से ही किया गया था जब मीर जुमला वहाँ से बढ़ता हुआ उत्तरी आसाम में अहोम राज्य की राजधानी तक पहुँच गया था। वहाँ से मीर जुमला ढाका वापस लौट आया और कुछ समय बाद वहीं उसकी मृत्यु हो गयी। मीर जुमला के उत्तराधिकारी शायस्ता खाँ ने १६६३ ई. से तीस वर्षों तक बंगाल का शासन ढाका से ही किया। इंग्लैण्ड की ईस्ट इंडिया कंपनी ने महीन बढ़िया सूती वस्त्रों, विशेषरूप से मलमल का, जिसको बनाने में ढाका के बुनकरों का बड़ा नाम था, व्यापार करने के लिए ढाका में एक कोठी स्थापित की। १७०५ ई. में जब मुर्शिद कुली खां बंगाल का सूबेदार बना तो वह मुख्यालय ढाका से हटाकर मुर्शिदाबाद ले गया। इसके बाद दो सौ वर्षों तक ढाका उपेक्षित रहा। १९०५ ई. में वह पूर्वी बंगाल और आसाम प्रांत का सदर मुकाम बना दिया गया। लेकिन उसको यह गौरव कुछ ही समय तक हासिल रहा, क्योंकि १९१२ ई. में पूर्वी बंगाल के जिले पुनः बंगाल में मिला दिये गये और आसाम को चीफ कमिश्नर के अधीन अलग प्रांत बना दिया गया। १९२० ई. में ढाका में विश्वाद्यालय की स्थापना हुई और १९४७ ई. में भारत की आजादी और विभाजन के बाद वह पूर्वी पाकिस्तान की राजधानी बना दिया गया। दिसम्बर १९७१ ई. में पाकिस्तान की तानाशाही के खिलाफ ऐतिहासिक लड़ाई जीतकर पूर्वी पाकिस्तान स्वतंत्र सार्वभौम गणतंत्र 'बांगला देश' बन गया और ढाका उसकी राजधानी हो गयी।
तक्षशिला : अति प्राचीन नगर, जो पश्चिमी पंजाब में रावलपिण्डी से उत्तर-पश्चिम की ओर २० मील की दूरी पर सरायकला नामक रेलवे स्टेशन के निकट स्थित था। सिकन्दर के आक्रमण के समय, यह राजा आम्भि (दे.) की राजधानी थी और चिकित्साशास्त्र के केन्द्र के रूप में विख्यात था। कहा जाता है कि राजा बिम्बसार (दे.) के चिकित्सक जीवक ने तक्षशिला में सात वर्ष वैद्यकशास्त्र का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। इस स्थान पर विस्तृत पुरातत्त्विक पर्यवेक्षण के परिणामस्वरूप प्राक्-मौर्य, यवन और कुषाणकालीन स्मारकों का उद्घाटन हुआ है। हिन्दू, जैन एवं बौद्ध साहित्य में तक्षशिला का विशेष उल्लेख हुआ है। अपोलोनियस नामक यूनानी यात्री ने जिसने ४३-४४ ईसवी में तक्षशिला का भ्रमण किया था, नगर का विस्तृत विवरण लिखा है। अशोक (दे.) के काल में तक्षशिला में राजप्रतिनिधि (उपराजा) रहता था। यवन और कृषाण (दे.) शासकों के काल में भी यह राजनीतिक केन्द्र रहा। सातवीं शताब्दी में यह कश्मीर राज्य का अंग हो गया। ११वीं शताब्दी के प्रारंभ में सुल्तान महमूद (दे.) की पंजाब-विजय के उपरान्त तक्षशिला का महत्त्व कम होता गया और वह एक वीरान स्थल बन गया। (सर जॉन मार्शल कृत 'गाइड टू टैक्शिला')
तबकाते अकबरी : सम्राट् अकबर के काल का आधिकारिक इतिहास ग्रन्थ। दरबारी इतिहासकार निजामुद्दीन अहमद ने इसे फारसी में लिखा था। तिथि तथा भौगोलिक वर्णन की दृष्टि से यह सर्वाधिक विश्वसनीय ग्रंथ है।
तबकाते नासिरी : यह मिनहाजुद्दीन सिराज (दे.) द्वारा लिखित दिल्ली के प्रारम्भिक सुल्तानों का इतिहास है। सिराज ने इस ग्रंथ की रचना अपने आश्रयदाता नासिरुद्दीन (दे.) के राज्यकाल में की थी।
तमिळगम् : तमिल देश, जिसके अंतर्गत तीन प्राचीन राज्य पाण्ड्य, चोल और चेर अथवा केरल स्थित थे। इसका विस्तार उत्तर में मद्रास के सौ मील उत्तर पश्चिम पुलीकट और तिरुपति पहाड़ियों तक, दक्षिण में केप कमोरिन तक, पूरब में कारोमण्डल घाट तक और पश्चिम में पश्चिमी घाट तक था। यहाँ अधिकांश लोग तमिल भाषा बोलते थे, जिसका साहित्य प्राचीन एवं समृद्ध है। यहाँ के प्राचीन निवासी अधिकांश द्रविड़ लोग थे, किन्तु बाद में बहुत से आर्य भी बस गये हैं। तमिल भाषा भी संस्कृत व्याकरण और वाक्य-विन्यास से प्रभावित और परिवर्तित है। तमिल साहित्य के सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रंथ 'कुरल', और 'मणिबेकलै' हैं। इनमें से 'कुरल' गोदावरी के दक्षिण में सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सम्मानित है।
तराइन का युद्ध : ११९१ ई. और ११९२ ई. में दिल्ली और अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज (दे.) और शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी के मध्य हुआ। तराइन के पहले युद्ध में पृथ्वीराज ने शहाबुद्दीन को परास्त किया। वह घायल होकर भाग खड़ा हुआ। परन्तु एक ही वर्ष बाद ११९२ ई. में होनेवाले दूसरे युद्ध में शहाबुद्दीन ने पृथ्वीराज को परास्त करके मार डाला। इस दूसरे युद्ध में विजय के बाद शहाबुद्दीन ने दिल्ली पर अपना अधिकार कर लिया। इसके फलस्वरूप पूरा उत्तरी भारत कई शताब्दियों तक मुसलमानों के शासन में रहा।
तरावड़ी का युद्ध : देखिये तराइन, जो तरावड़ी का दूसरा नाम है।
तर्पी वेग : एक मुगल सेनापति जिसे १५५५ ई. में हुमायूं (दे.) के मरने के तुरंत बाद बैरम खाँ (दे.) द्वारा दिल्ली की सुरक्षा का भार सौंपा गया था, परन्तु वह अपने कार्य में असफल रहा। दुष्परिणामस्वरूप १५५६ ई. में दिल्ली को हेमू (दे.) ने विजित कर अपने अधिकार में ले लिया। इस असफलता के लिए बैरमखां की आज्ञा से उसका वध कर दिया गया।
तर्मशीरी : मंगोलों की चगताई प्रशाखा का खान (शासक)। इसने १३२८-१३२९ ई. में भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली के निकट तक पहुँच गया। मोहम्मद तुगलक ने उसे अपनी फौजें वापस ले जाने के लिए प्रेरित किया।
तहमस्प, शाह : फारस का बादशाह, जिसकी शरण १५४४ ई. में निर्वासित मुगल बादशाह हुमायूं (दे.) ने ली थी। शरण देने के साथ ही उसने मुगल बादशाह को सैन्य सहायता भी दी जिसके फलस्वरूप हुमायूं कंधार और काबुल को १५४५ ई. में अपने अधीन करने में समर्थ हो सका और अन्ततः भारतीय साम्राज्य का पुनः अधीश्वर हो गया।
ताजमहल : भारत में मुगल शासन का सर्वाधिक प्रसिद्ध स्मारक। इस मकबरे को बादशाह शाहजहाँ (दे.) ने आगरा में अपनी प्रिय बेगम मुमताज महल (दे.) के मजार पर बनावाया है। इसका निर्माणकार्य १६३२ ई. में आरम्भ हुआ था और १६५३ ई. में बाईस वर्ष में पूरा हुआ, जिसमें पचास लाख रुपये खर्च हुए थे। अपने सौंदर्य के कारण यह सारे संसार में विख्यात है। इसका नक्शा उस्ताद ईसा नामक भारतीय वास्तुकार ने बनाया था। हो सकता है कि उसने नक्शा बनाने में किसी इतालवी अथवा फ्रांसीसी वास्तुकार की सहायता ली हो या वह उसकी मौलिक कृति हो। ताजमहल आज भी आगरा के निकट यमुना के किनारे स्थित है और संसार के सभी भागों से हजारों यात्री उसे देखने आते हैं। इसे 'संगमरमर की स्वप्निल रचना' कहा जाता है। (स्मिथ, वी. ए., 'हिस्ट्री ऑफ दि फाइन आर्ट्स इन इंडिया)
ताजुद्दीन यिल्विज़ : देखिये, 'यिल्विज़'।
तातार खाँ : देखिये, 'नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह' (गुजरात)।
तात्या जोग : जसवन्तराव जोग का मंत्री। इसने तृतीय मराठा-युद्ध (दे.) के बाद होल्कर राज्य के पुनर्गठन और पुनरुत्थान में विशेष योग दिया था।
तात्या टोपे : सिपाही-विद्रोह (दे.) में विप्लवियों की ओर से लड़नेवाला प्रख्यात मराठा सेनानायक। वह नाना साहब (दे.) का विशेष सहयोगी तथा आंदोलनकारियों का सशक्त समर्थक था। वह अंग्रेजों का प्रबल विरोधी था। विप्लवियों द्वारा कानपुर पर अधिकार करने के समय वह उपस्थित था। बीबीगढ़ में फिरंगी नर-नारियों तथा बच्चों का संहार उसके सामने हुआ। वह सेनानायक, रणनीतिवेत्ता, संगठनकर्ता था। बीस हजार सैनिकों की ग्वालियर सेना का नायक बनकर उसने कानपुर में अंग्रेजी सेनानायक विंढम को पराभूत किया। सर कॉलिन कैम्पवेल द्वारा कानपुर से भगाये जाने और परास्त किये जाने पर तात्या ने रानी झांसी से मिलकर मध्यभारत में भीषण युद्ध छेड़ दिया, किन्तु बेतवा के युद्ध में सर ह्यूग रोज (दे.) द्वारा परास्त हो गया। इन पराजयों ने तात्या को हतोत्साहित नहीं किया। कुछ ही महीनों में उसने रानी झाँसी के साथ ग्वालियर की दिशा में प्रयाण किया, सिंधिया (शिन्दे) की सेना को विजित किया और सिंधिया आगरा में अंग्रेजों की शरण में चला गया। नानासाहब को पेशवा घोषित किया गया और उसने सभी मराठों को अंग्रेजों के विरुद्ध खड़गहस्त करने का प्रयास किया। परन्तु ह्यूग ने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया और उसे मोरार और कोटा के युद्धों में पराजित कर दिया। इन्हीं युद्धों में झाँसी की रानी भी लड़ते हुए मारी गयी। तात्या पुनः भाग गया और उसने आत्मसमर्पण नहीं किया। जगह-जगह उसका पीछा किया गया, पर वह बच निकला। अंत में अप्रैल १८५९ ई. में सिंधिया के सामन्त मानसिंह ने विश्वासघात करके उसे पकड़वा दिया। उस पर ब्रिटिश अदालत में मुकदमा चलाया गया और विद्रोह और हत्या का अभियोग लगाया गया, परन्तु उसने यह मानने से इनकार कर दिया कि ब्रिटिश अदालत को उसके विरुद्ध सुनवाई करने का अधिकार है। अंततः उसे फाँसी की सजा दे दी गयी।
तानसेन : एक प्रख्यात संगीतज्ञ। यह सम्राट् अकबर का दरबारी गायक था। कहा जाता है कि 'भारत में सैकड़ों वर्षों से तानसेन के समान गायक नहीं हुआ'। उसने मानसिंह (दे.) के शासनकाल में ग्वालियर में प्रशिक्षण प्राप्त किया और वहीं उसका अन्तिम संस्कार किया गया। बादशाह अकबर के दरबार में उसका आगमन इतनी महत्त्वपूर्ण घटना मानी गयी कि बादशाह ने उसका एक रंगीन चित्र १५६२ ई. में बनवाया था।
ताम्रपर्णी : तिनैवेल्ली जिले की एक नदी का नाम। अशोक के स्तम्भलेख दो और तेरह में सीलोन को ताम्रपर्णी कहा गया है।
ताम्रलिप्ति : प्राचीन नगर। इस स्थान पर पश्चिमी बंगाल का मिदनापुर जिले का तामलुक नगर स्थित है। पहले यह समुद्र के निकट था (गंगा का मार्ग बदल जाने के कारण आधुनिक तामलुक समुद्र से दूर हो गया है), पाँचवीं शताब्दी में यह व्यस्त बन्दरगाह था। ताम्रलिप्ति से ही प्रसिद्ध चीनी यात्री फाहियान (दे.), जिसने ४०१ से ४१० ई. के बीच भारत का भ्रमण किया, जलपोत पर सवार होकर स्वदेश वापस गया था।
तार की पहली लाइन : भारत में १८५४ ई. में स्थापित की गयी। यह कलकत्ता से आगरा तक ८०० मील लम्बी थी। सिपाही-विद्रोह (प्रथम स्वाधीनता-संग्राम) के काल में अंग्रेजों को इससे भारी लाभ हुआ। १८५७ ई. तक इसका विस्तार पहले लाहौर और फिर पेशावर तक कर दिया गया। अब भारत और संसार के सभी देशों के बीच तार की व्यवस्था है।
तारानाथ : प्रसिद्ध तिब्बती लेखक और इतिहासकार जो सत्रहवीं शताब्दी में हुआ। उसके ग्रंथों में तिब्बती परम्परा में सुरक्षित भारत के प्रारम्भिक काल का इतिहास मिलता है। यह अन्य सूत्रों से प्राप्त सूचनाओं की पुष्टि तथा अन्तरालों की पूर्ति के लिए उपयोगी है।
ताराबाई : शिवाजी प्रथम के द्वितीय पुत्र राजाराम (दे.) की पत्नी। १७०० ई. में पति की मृत्यु के उपरान्त यह अपने अल्पवयस्क पुत्र शिवाजी तृतीय की संरक्षिका एवं प्रतिशासक बनी और उसके नाम से मराठा राज्य का शासन प्रबन्ध सम्हाला तथा मुगल सम्राट् औरंगजेब से अनवरत युद्ध किया। उसके प्रोत्साहनपूर्ण नेतृत्व में मराठों ने फिर से मुगल सल्तनत के बराड़, गुजरात और अहमदनगर के इलाकों पर हमले करने शुरू कर दिये। इसमें उसे अभूतपूर्व सफलता, सम्मान और धन मिला। १७०७ ई. में उसके पति के अग्रज शम्भूजी के पुत्र और उत्तराधिकारी शाहू अथवा शिवाजी द्वितीय को मुगलों ने जब बन्दीगृह से मुक्त कर दिया, तब ताराबाई बड़ी विकट स्थिति में पड़ गयी। शम्भूजी ने महाराष्ट्र आकर अपनी पैतृक सम्पत्ति का अधिकार माँगा। उसको शीघ्र पेशवा बालाजी विश्वनाथ के नेतृत्व में बहुत-से समर्थक मिल गये। ताराबाई का पक्ष कमजोर पड़ गया और उसे शाहू को मराठा साम्राज्य का छत्रपति स्वीकार कर लेना पड़ा। फिर भी वह अपने पुत्र शिवाजी तृतीय को सतारा में राजपद पर बनाये रखने में सफल हुई। १७०० से १७०७ ई. तक के संकटकाल में ताराबाई ने मराठा राज्य की एकसूत्रता और अखंडता बनाये रखकर अमूल्य सेवा की। बाद में उसके पुत्र शिवाजी तृतीय को राजा शाहू ने गोद लेकर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
तालपुर के अमीर : सिंध के अमीरों (दे.) की तीन शाखाओं में से एक; जो १८४३ ई. में अंग्रेजों द्वारा परास्त, अपदस्थ और निर्वासित किये गये।
तालीकोट का युद्ध : रामराजा (दे.) जो विजयनगर (दे.) की सेना का नेतृत्व कर रहा था, तथा अहमदनगर, बीजापुर और गोलकुण्डा के सुल्तानों की संयुक्त सेना के बीच २३ जनवरी १५६५ ई. को हुआ। इस युद्ध में रामराजा परास्त होकर वीरगति को प्राप्त हुआ एवं विजयनगर की सेना पूर्णतः ध्वस्त हो गयी। यह एक निर्णायक युद्ध था जिसके परिणामस्वरूप विजयनगर के हिन्दूराज्य का पूर्णरूपेण पतन हो गया।
ताशकन्द घोषणा : भारत के प्रधानमंत्री लालबहादूर शास्त्री तथा पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खाँ की लम्बी वार्ता के उपरान्त ११ जनवरी १९६६ ई.को हस्ताक्षर किये गये, संयुक्त रूप से प्रकाशित हुई। ताशकंद सम्मेलन सोवियत रूस के प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित किया गया था। ताशकंद घोषणा में कहा गया कि भारत और पाकिस्तान शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अपने झगड़ों को शांतिपूर्ण ढंग से तय करेंगे, वे २५ फरवरी १९६६ तक अपनी सेनाएँ ५ अगस्त १९६५ की सीमा-रेखा पर पीछे हटा लेंगे; दोनों देशों के बीच आपसी हित के मामलों में शिखर वार्त्ताएँ तथा अन्य स्तरों पर वार्त्ताएँ जारी रहेंगी; दोनों देशों के बीच सम्बन्ध एक दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने पर आधारित होंगे; दोनों के बीच राजनयिक संबंध पुनः स्थापित कर दिये जायेंगे; एक दूसरे के विरुद्ध प्रचारकार्य को हतोत्साहित किया जायेगा, आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बन्धों तथा संचार सम्बन्धों की फिर से स्थापना तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान फिर से शुरू करने पर विचार किया जायगा; ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जायेंगी कि लोगों का निर्गमन बंद हो; शरणार्थियों की समस्याओं तथा अवैध प्रवासी प्रश्न पर विचार-विमर्श जारी रखा जायगा तथा हाल के संघर्ष में जब्त कर ली गयी एक दूसरे की सम्पत्ति को लौटाने के प्रश्न पर विचार किया जायगा।इस घोषणा के क्रियान्वयन के फलस्वरूप दोनों पक्षों की सेनाएँ उस सीमारेखा पर वापस लौट गयीं जहाँ वे युद्ध के पूर्व तैनात थीं। परन्तु इस घोषणा से भारत-पाकिस्तान के दीर्घकालीन सम्बन्धों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता। फिर भी ताशकंद घोषणा इस कारण याद रखी जायगी कि इसपर हस्ताक्षर करने के कुछ घंटे बाद ही लालबहादूर शास्त्री की दुःखद मृत्यु हो गयी।
तिब्बत : और भारत के बीच सांस्कृतिक सम्बन्धों का लम्बा इतिहास है। सातवीं शताब्दी में तिब्बत के राजा स्रोङ् ग्चन्-स्राम्-पो (दे.) (लगभग ६२९-९८ ई.) ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया और थोव्मी-सम्भोटा नामक तिब्बती विद्वान् को भारत भेजा, जिसने बौद्ध धर्म सम्बन्धी कुछ ग्रंथ इकट्ठे किये और पश्चिमी गुप्त लिपि को तिब्बत ले गया, जो देवनागरी लिपि से काफी मिलती-जुलती थी। यही लिपि तिब्बती वर्णमाला का आधार बनी। सम्भव है बुद्ध अवलोकितेश्वर की चंदन की प्रसिद्ध मूर्ति जो अब तक दलाईलामा के राजमहल पोताला में प्रतिष्ठापित है और पूजी जाती है, वह सर्वप्रथम थोव्मी के द्वारा तिब्बत ले जायी गयी हो। राजा स्रोङ्-ग्चन ने न केवल बौद्ध धर्म ग्रहण किया बल्कि थोव्मी का शिष्य बनकर विद्याध्ययन भी किया।उसने तिब्बती लोगों में बौद्ध धर्म का प्रचार करके उनमें सत्यवादिता, दया, पवित्र एवं सादा जीवन, विद्वानों का आदर और मातृभूमि-प्रेम आदि गुणों का विकास किया। इस प्रकार बौद्ध धर्म ने तिब्बत के सांस्कृतिक और आर्थिक विकास में पर्याप्त योगदान किया। संस्कृत ग्रंथों के तिब्बती भाषा में अनुवाद का जो कार्य स्रोङ ग्चन् स्राम्-पो के द्वारा प्रारम्भ किया गया था, वह उसके उत्तराधिकारियों द्वारा आगे बढ़ाया गया और इससे तिब्बती भाषा प्रांजल एवं समर्थ साहित्यिक माध्यम के रूप में निखर कर सामने आयी। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार ने तिब्बत और भारत के बीच घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित कर दिया। तिब्बती लोग बौद्ध धर्म के भारतीय शिक्षाकेन्द्रों, विशेषतः नालंदा और विक्रमशिला आने लगे और इसी प्रकार भारतीय लोग तिब्बत जाने लगे। आने-जाने का यह सिलसिला तिब्बत और भारत के सांस्कृतिक सम्बन्धों का एक नियमित अंग बन गया।बौद्ध धर्म के महान् आचार्यों शांतिरक्षित (दे.) और पद्मसम्भव (दे.) ने तिब्बत की यात्राएँ ८वीं शती के मध्य में और अतिशा (दे.) ने ११वीं शताब्दी के मध्यमें कीं। इस सांस्कृतिक सम्पर्क से तिब्बत में लामावाद की स्थापना और विकास हुआ। लामावाद ने बौद्ध धर्म के हीनयान, महायान और तंत्रयान सम्प्रदायों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। इसने तिब्बतियों के राषट्रीय चरित्र में परिवर्तन करके उन्हें धीरे-धीरे युद्धप्रिय से शांतिप्रिय धर्मभीरु व्यक्ति बना दिया। इसने उनके बीच अनेक आध्यात्मिक गुरु, प्रकांड विद्वान्, सुयोग्य भाषाविद् और ऊँचे साधक उत्पन्न किये। संस्कृत ग्रंथों का तिब्बती भाषा में अनुवाद करने का तिब्बती और भारतीय विद्वानों का प्रयास अत्यधिक सफल सिद्ध हुआ और बहुत से संस्कृत ग्रंथ जिनकी मूल प्रतियाँ अब भारत में नहीं पायी जाती हैं, या तो मूलरूप में या तिब्बती अनुवाद के रूप में तिब्बत में उपलब्ध हुए हैं।
भूतकाल में तिब्बत और भारत के मध्य राजनीतिक सम्बन्ध बहुत थोड़े थे। द्वितीय गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त (दे.) नेपाल के नृपति को अपना करद तथा आज्ञापालक बनाने पर बड़ा गर्व करता था। उसने अपने चौथी शताब्दी के प्रयोग अभिलेख में तिब्बत का कोई उल्लेख नहीं किया है। ७वीं शताब्दी में हर्षवर्धन (दे.) ने, जिसका चीन के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध था, तिब्बत के मार्ग से एक दूत चीन भेजा था, जिससे प्रकट होता है कि तिब्बत के साथ भी उसका मैत्री-सम्बन्ध था। हर्ष की मृत्यु के बाद उसका मंत्री अर्जुन जिसने उसकी गद्दी छीन ली थी, तिब्बती शासक स्रोङ ग्चन् का कोपभाजन बन गया, क्योंकि उसने चीनी दूत वांग-ह्यएन-त्से-सी (दे.) को लूट लिया था, और उसे परास्त होकर तिरहुत से हाथ धोना पड़ा। किन्तु १७०३ ई. में तिरहुत ने तिब्बती शासन का जुआ उतार फेंका। इसके पश्चात् तिब्बत का भारत के साथ किसी भी प्रकार का राजनीतिक सम्बन्ध नहीं रहा। भारत के मुसलमान विजेता तिब्बत के हिमवेष्टित पर्वतों पर सेनाएँ भेजने से कतराते थे और बख्तियार के बेटे इख्तयारुद्दीन मोहम्मद के सिवा जिसका तिब्बत के ऊपर आक्रमण १२०४ ई. में बुरी तरह विफल हुआ, और किसी ने उसे विजय करने का प्रयास तक नहीं किया। किन्तु १७०३ ई. में तिरहुत ने तिब्बती शासन का जुआ उतार फेंका। इसके पश्चात् तिब्बत का भारत के साथ किसी भी प्रकार का राजनीतिक सम्बन्ध नहीं रहा। भारत के मुसलमान विजेता तिब्बत के हिमवेष्टित पर्वतों पर सेनाएँ भेजने से कतराते थे और बख्तियार के बेटे इख्तयारुद्दीन मोहम्मद के सिवा जिसका तिब्बत के ऊपर आक्रमण १२०४ ई. में बुरी तरह विफल हुआ, और किसी ने उसे विजय करने का प्रयास तक नहीं किया। किन्तु अंग्रेजों का व्यापारिक लोभ सीमाहीन था, और १७७४-७५ ई. में वारेन हेस्टिंग्ज (दे.) ने कम्पनी के युवा अधिकारी जार्ज बोगल को तिब्बत के धार्मिक गुरु एवं शासक ताशीलामा से भेंट करने के लिए भेजा। किन्तु बोगल, जिसने अपनी यात्रा का रोचक वर्णन किया है, अंग्रेजों के लिए कोई लाभ नहीं प्राप्त कर सका। तिब्बत अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही चीन की प्रभुसत्ता को स्वीकार करने लगा था और तिब्बत की राजधानी ल्हासा में दो चीनी राजप्रतिनिधि, जिन्हें अम्बन कहा जाता था, निवास करने लगे थे। चीन और तिब्बत ने उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक अंग्रेजों को भारत से तिब्बत में घुसने नहीं दिया। तीसरे बर्मायुद्ध (दे.) के बाद १८८६ ई. में ब्रिटिश सरकार ने चीन के साथ एक समझौता किया, जिसके अंतर्गत तिब्बत पर चीन की प्रभुसत्ता की परोक्ष स्वीकृति के बदले में चीनी सरकार ब्रिटेन द्वारा बर्मा हथियाने पर कोई आपत्ति न करने के लिए सहमत हो गयी। १८८७ ई. में तिब्बतियों ने ब्रिटिश सुरक्षित सिक्किम राज्य पर हमला कर दिया, किन्तु वे बड़ी आसानी से पीछे खदेड़ दिये गये और १८९० ई. में तिब्बत-सिक्किम की सीमा का निर्धारण चीन और ब्रिटेन के मध्य हुए समझौते के अंतर्गत किया गया। १८९३ ई. में अंग्रेजों को तिब्बत में कुछ व्यापारिक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं करायी गयीं। इस प्रकार बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भी अंग्रेजों के लिए तिब्बत वर्जित देश बना रहा। प्रथम ब्रिटिश नागरिक, जिसने ल्हासा में घुसने का साहस किया (दे.) और वहाँ की राजनीतिक और धार्मिक अवस्था की अमूल्य जानकारी प्राप्त करके वापस लौटा, शरत् चंद्र दास (दे.) नामक एक बंगाली अध्यापक था। तीसरे बर्मायुद्ध (दे.) के बाद १८८६ ई. में ब्रिटिश सरकार ने चीन के साथ एक समझौता किया, जिसके अंतर्गत तिब्बत पर चीन की प्रभुसत्ता की परोक्ष स्वीकृति के बदले में चीनी सरकार ब्रिटेन द्वारा बर्मा हथियाने पर कोई आपत्ति न करने के लिए सहमत हो गयी। १८८७ ई. में तिब्बतियों ने ब्रिटिश सुरक्षित सिक्किम राज्य पर हमला कर दिया, किन्तु वे बड़ी आसानी से पीछे खदेड़ दिये गये और १८९० ई. में तिब्बत-सिक्किम की सीमा का निर्धारण चीन और ब्रिटेन के मध्य हुए समझौते के अंतर्गत किया गया। १८९३ ई. में अंग्रेजों को तिब्बत में कुछ व्यापारिक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं करायी गयीं। इस प्रकार बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भी अंग्रेजों के लिए तिब्बत वर्जित देश बना रहा। प्रथम ब्रिटिश नागरिक, जिसने ल्हासा में घुसने का साहस किया (दे.) और वहाँ की राजनीतिक और धार्मिक अवस्था की अमूल्य जानकारी प्राप्त करके वापस लौटा, शरत् चंद्र दास (दे.) नामक एक बंगाली अध्यापक था। बीसवीं शती के प्रारम्भ में दलाई लामाने अपने शिक्षक तथा रूसी बौद्ध दोरजीफ की सहायता से चीनी प्रभुसत्ता उखाड़ फेंकने के लिए रूसी सरकार के साथ कुछ समझौते की वार्ता चलायी, जिससे ब्रिटिश भारतीय सरकार जो उस समय दबंग वाइसराय लार्ड कर्जन (दे.) द्वारा नियंत्रित थी, सशंकित हो उठी कि तिब्बत शीघ्र ही रूसी संरक्षण में चला जायगा। ब्रिटिश भारतीय सरकार इसे रोकने के लिए कृसंकल्प थी और १९०३ ई. में कर्नल-फ्रांसिस यंगहसबैण्ड के नेतृत्व में एक दल तिब्बत भेजा गया। इसने जुलाई १९०३ ई. में कर्नल-फ्रांसिस यंगहसबैण्ड के नेतृत्व में एक दल तिब्बत भेजा गया। इसने जुलाई १९०३ ई. में बिना किसी विरोध के तिब्बती क्षेत्रों में प्रवेश किया और मार्च १९०४ ई. में तिब्बती सेना को गुरु नामक स्थान पर आसानी से परास्त कर दिया। अप्रैल में उसने विशाल तिब्बती सेना को पुनः हराने के बाद अगस्त १९०४ ई. में ल्हासा में प्रवेश किया। वहाँ यंगहसबैण्ड ने सितम्बर में तिब्बत को संधि करने के लिए विवश किया, जिसके अंतर्गत उसे अंग्रेजों को तिब्बत की तीन मंडियों में व्यापार करने, ७५ लाख रुपये का हर्जाना देने (पहले तो ७५ वार्षिक किश्तों में देने की बात तय हुई), किन्तु बाद में इसे घटाकर २५ लाख रुपया कर दिया गया और उसे तीन वार्षिक किस्तों में अदा करने की बात तय हुई, हर्जाने का भुगतान न होने तक अंग्रेजों को सिक्किम और भूटान के मध्य स्थित चुम्बी घाटी पर अधिकार करने किसी विदेशी शक्ति को तिब्बत का कोई भूभाग न देने तथा उसे तिब्बत में रेलवे लाइन बिछाने की इजाजत उस समय तक न देने जबतक उसी प्रकार की सुविधाएँ ब्रिटिश सरकार को न दी जाएँ, की शर्तें स्वीकार करनी पड़ीं। इस प्रकार तिब्बत में रूसी-प्रसार का मार्ग बंद कर दिया गया, किन्तु शीघ्र ही अंग्रेजों की गलतियों के परिणामस्वरूप तिब्बत पर चीन की जो प्रभुसत्ता अभी तक केवल नाममात्र की और सांकेतिक रूप में थी, वह वास्तविक रूप में स्वीकार कर ली गयी। तिब्बत की ओर से २५ लाख रु. हर्जाना चीन को अदा करने की अनुमति दे दी गयी और अंग्रेजों को चुम्बी घाटी से हट आना पड़ा। १९०६ ई. में इंग्लैण्ड और चीन के बीच एक समझौते के अंतर्गत इंग्लैण्ड इस बात के लिए राजी हो गया कि वह न तो तिब्बत के किसी भूभाग पर अधिकार करेगा और न उसके आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप करेगा। इसके बदले में चीन सहमत हो गया कि वह किसी विदेशी शक्ति को तिब्बत के आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप करने अथवा उसकी क्षेत्रीय अखंडता का उल्लंघन करने की अनुमति नहीं देगा। १९०७ ई. में इंग्लैण्ड और रूस तिब्बत के साथ अपने राजनीतिक सम्बन्ध चीन के माध्यम से संचालित करने के लिए सहमत हो गये। इस प्रकार चीन को तिब्बत का स्वामी स्वीकार कर लिया गया और इसके बाद ही चीन ने तिब्बत को रौंद डाला और दलाई लामा को भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी। ब्रिटिश सरकार ने इसपर तीव्र प्रतिवाद किया और तिब्बतियों ने १९१८ ई. में चीन की आंतरिक अव्यवस्था से लाभ उठाकर अपने को चीनी आधिपत्य से मुक्त कर लिया। १९१७ की राज्यक्रांति के बाद रूस में जो परिवर्तन हुए तथा चीन में जो अव्यवस्था व्याप्त रही उसके परिणामस्वरूप तिब्बत में ब्रिटिश हितों पर किसी विदेशी शत्रु द्वारा आघात किये जाने का खतरा समाप्त हो गया और अगले बीस वर्षों तक तिब्बत और भारत की सरकारों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे। किन्तु इस शताब्दी के पाँचवें दशक में राजनीतिक परिस्थितियाँ बदल गयीं। माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीन एक महान् साम्यवादी राष्ट्र बन गया और उसने तिब्बत के ऊपर अपनी प्रभुसत्ता को पुनः स्थापित करने का संकल्प किया। इसके अनुसार चीनी सेनाओं ने १९५९ ई. में तिब्बत पर अधिकार कर लिया और दलाईलामा को प्राणरक्षा के लिए भागकर भारत की शरण लेनी पड़ी। भारतीय गणराज्य की नवस्थापित सरकार इन घटनाओं की मूक दर्शक बनी रही। इस प्रकार तिब्बत विशाली चीनी साम्राज्य का अंग बना लिया गया और उसकी दक्षिणी सीमा भारत की उत्तरी सीमारेखा को छूने लगी। इसके परिणामस्वरूप दोनों देशों के बीच संघर्ष अनिवार्य हो गया। (१९६२ ई. में भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ जिसके परिणामस्वरूप दोनों देशों के सम्बन्ध अभी तक सामान्य नहीं हो पाये हैं। -संपादक)
तिरुमल : विजयनगर के सेनानायक राजराज (दे.) का भाई जो १५६५ ई. में तालीकोट के युद्ध में परास्त हुआ। युद्धोपरांत तिरुमल ने नाममात्र के राजा सदाशिव (दे.) के साथ परकोण्डा में आश्रय लिया और लगभग १५७० ई. में उसका सिंहासन छीन लिया। उसने केवल तीन वर्ष तक राज्य किया और चौथे अरविंद अथवा कर्णाट राजवंश की नींव डाली। उसका अन्तिम वंशज रंग था, जो लगभग सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में हुआ।
तिलक, बाल गंगाधर (१८५७-१९२०) : प्रख्यात भारतीय राष्ट्रवादी नेता एवं विद्वान्। उनका रत्नागिरि के मराठा ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ। डकेन कालेज में शिक्षा पायी और कानून की डिग्री हासिल की। बाद में इन्होंने फर्गुसन कालेज की स्थापना की और 'मराठा' (अंग्रेजी) और 'केसरी' (मराठी) पत्रों के सम्पादक के रूप में पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। १८९७ ई. में उन्होंने शिवाजी उत्सव का शुभारम्भ किया और भारतीयों में पुनः देशभक्ति की तीव्र भावना जगाने का प्रयास किया। पूना में प्लेग के भयंकर प्रकोप को दबाने के लिए सरकार द्वारा किये गये कठोर उपायों की उन्होने कटु आलोचना की, जिसके परिणामस्वरूप राजद्रोह का अभियोग लगाकर उन्हें दण्डित किया गया। १९०७ ई. में उन्होंने विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपत राय के साथ कांग्रेस के अंदर गरम दल संगठित किया। इस दल का कहना था कि प्रस्तावों द्वारा देश की माँगों को ब्रिटिश सरकार द्वारा मनवाना सम्भव नहीं है और इसके लिए अधिक प्रभावोत्पादक रीति में काररवाई की जानी चाहिए।तिलक और उनके साथियों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इस लक्ष्य को अस्वीकार कर दिया कि भारत में उसी प्रकार की उत्तरदायी सरकार गठित होनी चाहिए जैसी ब्रिटिश साम्राज्य के स्वायत्तशासी उपनिवेशों में प्रचलित हैं। उन्होंने भारत में ब्रिटिश नियंत्रण से पूर्णतया मुक्त, पूर्ण स्वराज्य की स्थापना की माँग की। इस प्रकार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरम और गरम दल के बीच मौलिक मतभेद उत्पन्न हो गये। १९१६ ई. में तिलक ने होमरूल लीग का गठन किया। तिलक १९१९ के गवर्नमेण्ट आफ इंडिया एक्ट से संतृष्ट न थे, किन्तु अगस्त १९२० में उनका स्वर्गवास हो गया। दिसम्बर १९२० में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में घोषणा की गयी कि कांग्रेस का लक्ष्य डोमीनियन स्टेटस (औपनिवेशिक स्वराज्य) नहीं, बल्कि सभी उचित तथा शांतिपूर्ण उपायों द्वारा पूर्ण स्वराज्य की स्थापना करानी है। इस प्रकार तिलक के स्वर्गवास के बाद उनकी माँग का कांग्रेस ने भी जोरदार समर्थन किया। ब्रिटिश प्रभुत्व का घोर विरोध करने के कारण उन्हें जीवन का एक बड़ा भाग ब्रिटिश जेलों में बिताना पड़ा, परन्तु इससे उनका आत्मबल तोड़ा नहीं जा सका।सर वैलेन्टाइन चिरोल ने अपनी 'इंडियन अनरेस्ट' (भारतीय अशांति) नामक पुस्तक में उन पर जो झूठे लांछन लगाये, उनका प्रतिवाद करने के लिए उन्होंने इंग्लैण्ड जाकर उस पर मुकदमा दायर किया, परन्तु ब्रिटिश अदालत ने उनके विरुद्ध फैसला दिया। उनके 'गीता रहस्य' तथा 'ओरियन' नामक ग्रंथ उनके प्रकांड पांडित्य का परिचय देते हैं। (टी. वी. पर्वते कृत 'बालगंगाधर तिलक'; एन. सी. केलकर कृत 'लैडमार्क्स इन लोकमान्याज लाइफ'; डी. पी. करमरकर कृत 'बालगंगाधर तिलक'; अरविन्द घोष की 'स्पीचेज आफ बी. जी. तिलक' तथा रीशनर एवं गोल्डबर्ग कृत 'तिलक एण्ड दि स्ट्रगल फार इंडियन फ्रीडम')
तिवर (तिवल) : सम्राट् अशोक की दूसरी रानी कारुवाकी के गर्भ से उत्पन्न राजकुमार। इसका उल्लेख अशोक के रानी वाले अभिलेख में हुआ है। इसके विषय में और अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है। (भट्टाचार्यजी)
तिस्स : लगभग २५० ई. पू. से २११ ई. पू. तक सिंहलद्वीप (श्रीलंका) का राजा। राजकुमार महेन्द्र (दे.) इसीके आमंत्रण पर श्रीलंका गया और वहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार किया। तिस्स और मौर्य सम्राट् अशोक (दे.) में अत्यंत सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध थे तथा श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रसार में उसने महत्त्वपूर्ण योगदान किया। उसने अनुराधपुर की नींव डाली, जहाँ बोधिगया से ले जाकर पवित्र बोधिवृक्ष आरोपित किया गया। यह बोधिवृक्ष आज भी विद्यमान है।
तुंगभद्रा : दक्षिण की एक नदी। यह पश्चिम घाट से निकलती है और रायचूर के निकट कृष्णा में मिलती है। इसका प्रसिद्ध दोआब दीर्घकाल तक विजयनगर के हिन्दू राज्य व मुस्लिम बहमनी राज्य और उसके परवर्ती राज्यों के बीच विवाद का विषय रहा।
तुकाराम : महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध कवि तथा संत। ये शिवाजी प्रथम (दे.) के ज्येष्ठ समकालीन थे। इनकी कविताओं तथा शिक्षाओं का शिवाजी पर बहुत प्रभाव पड़ा।
तुकोजी राव होल्कर प्रथम : १७६७ ई. में रानी अहल्याबाई (दे.) द्वारा होल्कर सेना का सेनापति नियुक्त। रानी की मृत्यु के बाद १७९५ ई. में वह होल्कर राज्य का शासक बना और मृत्युपर्यन्त अर्थात् १७९७ ई. तक शासन किया।
तुकोजी राव द्वितीय : १८४३ से १८४६ ई. तक होल्कर राज्य का शासक। अपने कुशल शासन से उसने होल्कर वंश के ऐश्वर्य एवं प्रतिष्ठा में विशेष अभिवृद्धि की थी।
तुकोजी राव तृतीय : १९०३ से १९२६ ई. तक होल्कर राज्य का शासक। राज्य के बाहर के एक व्यक्ति को मार डालने के अभियोग में भारत सरकार की ओर से उसे पदत्याग के लिए बाध्य किया गया।
तुगरिल खां : एक तुर्की अमीर, जिसे सुल्तान बलबन (दे.) ने बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था, किन्तु १२७८ ई. में वह स्वतंत्र हो गया। सुल्तान बलबन ने १२७९ से १२८२ ई. तक तीन वर्ष की लड़ाई में उसे परास्त किया और मार डाला।
तुगलकशाह : देखिये, 'गयासुद्दीन तुगलक'।
तुरुष्क-दण्ड : एक अतिरिक्त कर, जो लगभग ११०४-११५५ ई. में राजा गोविन्दचन्द्र द्वारा लगाया गया। मुस्लिम आक्रमणकारियों से टक्कर लेने के लिए यह कर-आरोपण किया गया था।
तुलसीदास : प्रसिद्ध हिन्दी कवि तथा संत। उनका जीवनकाल १५३२ ई. से १६२३ ई. तक माना जाता है। वे काशी में रहते थे। उनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'रामचरितमानस' है जिसका उत्तरी भारत के सभी हिन्दू, चाहे गरीब हों अथवा अमीर, बड़ा आदर करते हैं। वे केवल उच्चकोटि के कवि ही नहीं थे, वरन्, हिन्दुओं के धार्मिक नेता भी थे और आज भी उनका नाम बड़ी श्रद्धा के साथ लिया जाता है।
तुलसी बाई : यशवन्तराव होल्कर की प्रिया (१७९८-१८११ ई.)। तुलसीबाई बड़ी ही बुद्धिमती और चतुर थी। १८०८ ई. में जब यशवन्तराव होल्कर पागल हो गया तब होल्कर राज्य की संरक्षिका वही बनी। १८११ ई. में राजा की मृत्यु होने पर राज्य का वास्तविक शासन उसके हाथ में आ गया। उसको राज्य के दीवान बलराम सेठ और पेंढारी नेता अमीर खाँ का समर्थन प्राप्त था। १८१७ ई. में सेना ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और उसे मार डाला। इसके तुरन्त बाद यह सेना १८१७ ई. में महीदपुर के युद्ध में अंग्रेजों द्वारा हरा दी गयी।
तुलुव वंश : की प्रस्थापना नरस नायक द्वारा १५०३ ई. में विजयनगर में हुई। इस वंश ने १५६५ ई. तक शासन किया। इसमें छः राजा हुए--नरस नायक (१५०३ - १५०५ ई.); उसका पुत्र नरसिंह (१५०५-१५०९ ई.); उसका भाई कृष्णदेव राय (दे.) (१५०९-१५२९), जो कि अपने वंश का सबसे प्रतापी राजा था और इसके काल में राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा। १५२९ से १५४२ ई. तक उसका भाई अच्युत और उसके बाद १५४२ ई. में उसका पुत्र वेंकट प्रथम और फिर (१५४२-१५६५ ई. तक) उसका चचेरा भाई सदाशिव शासक रहा। अन्तिम राजा के शासनकाल में बीजापुर, गोलकुण्डा और अहमदनगर के सुल्तानों ने मिलकर विजयनगर राज्य पर हमला किया और १५६५ ई. में तालीकोट के युद्ध में राजा को परास्त कर दिया। उन्होंने राजधानी में लूटमार करने के पश्चात् उसे उजाड़ डाला। सदाशिव पेन्कोण्डा भाग गया, जहाँ वह १५७० ई. में मार डाला गया। इस प्रकार विजयनगर और तुलुव वंश का अंत हो गया।
तुषास्प : अशोक (दे.) के राज्यकाल में गुजरात और काठियावाड़ का महामात्य था। उसे राजा की उपाधि प्राप्त थी। गिरनार के पास सुदर्शन नामक झील (दे.) का उसने पुनर्निर्माण इतनी मजबूती के साथ कराया कि फिर ४०० वर्ष तक उसकी मरम्मत की आवश्यकता नहीं पड़ी। १५० ई. में क्षत्रप रुद्रदामा ने इसका जीर्णोद्धार कराया। तुषास्प संभवतः ईरानी था और सम्राट् अशोक की सेवा में नियुक्त था।
तेगबहादुर (१६६४-१६७५) : सिखों के नवें गुरु। ये छठे गुरु हरगोविन्द के पुत्र थे और आठवें गुरु हरकिशन के उत्तराधिकारी बने। पंजाब में कीरतपुर के निकट आनन्दपुर में वे निवास करते थे। कुछ समय के लिए वे पटना में भी रहे, जहाँ १६६६ ई. में इनके प्रख्यात पुत्र तथा उत्तराधिकारी गोविन्दसिंह का जन्म हुआ। १६६८ ई. में गुरु तेगबहादुर औरंगजेब की सेना के साथ आसाम गये परन्तु वहाँ से पंजाब वापस आने के बाद बादशाह के कोपभाजन बन गये। कश्मीर के ब्राह्मणों को मुगल सम्राट् के विरुद्ध भड़काने के आरोप में राजाज्ञानुसार गुरु तेगबहादुर को बन्दी बनाकर दिल्ली लाया गया, जहाँ उनके सम्मुख विकल्प रखा गया कि या तो मुसलमान बन जाओ या मौत को स्वीकार करो। उन्होंने धर्म देने की अपेक्षा जीवन दे देना अच्छा समझा और १६७५ ई. में औरंगजेब की आज्ञा से उनको क्रूरतापूवक सूली दे दी गयी। उनके बाद उनके सुपुत्र गोविन्दसिंह सिखों के गुरु हुए, जिन्होंने शांतिप्रिय सिखों को एक सैनिक शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया। गुरु तेगबहादुर की शहादत ने सिखों को मुगलों के अत्याचारों का बदला लेने के लिए प्रेरित किया।
तेजा सिंह : प्रथम सिख-युद्ध (दे.) (१८४५-४६) छिड़ने के समय सिख सेना का प्रधान सेनापति। वह युद्ध में विजय पाने की अपेक्षा प्रतिरोधी अंग्रेजों की सद्भावना प्राप्त करने के लिए अधिक प्रयत्नशील रहा। उसके विश्वासघात के ही कारण सिखों को युद्ध में पराजय का मुंह देखना पड़ा।
तैमूर (अथवा तैमूरलंग) (१३३६-१४०५) : १३६९ ई. में समरकंद के अमीर के रूप में अपने पिता के सिंहासन पर बैठा और इसके बाद ही विश्व-विजय के लिए निकल पड़ा। मेसोपोटामिया, फारस और अफगानिस्तान को विजित कर १३९८ ई. में उसने अपनी विशाल अश्वसेना के साथ भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली तक बढ़ आया। मार्ग में उसने सहस्त्रों लोगों की हत्या की और बहुत से नगरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। उसने दिल्ली के निकट सुलतान महमूद तुगलक की विशाल सेना को निर्णायक रूप से परास्त कर दिया और १८ दिसम्बर १३९८ ई. को दिल्ली के अन्दर प्रवेश किया। उसके सैनिकों ने कई दिनों तक राजधानी की लूटपाट की। दिल्ली में वह केवल १५ दिन रुका, फिर हजारों छकड़ों पर लूट का माल लादकर अपने वतन वापस लौट गया। मार्च १३९८ ई. में उसने सिंधु नदी को दुबारा पार किया। उसकी सेना जिन-जिन इलाकों से होकर गुजरी, वहाँ अराजकता, अकाल और महामारी फैल गयी। उसके आक्रमण से दिल्ली सल्तनत की जड़ें हिल गयीं और उसका शीघ्र पतन हो गया।
तैमूरलंग : देखिये, 'तैमूर'।
तैल (अथवा तैलव) : द्वितीय चालुक्य राजवंश का प्रतिष्ठापक। उसकी राजधानी कल्याणी थी। ९७२ ई. के आसपास उसने अन्तिम राष्ट्रकूट राजा कर्क द्वितीय (दे.) को परास्त किया। तैल द्वारा प्रतिष्ठापित राजवंश ने १११९ ई. तक शासन किया।
तैलुगु : दक्षिण की चार प्रमुख भाषाओं में से एक भाषा। शेष तीन हैं-तमिल, मलयालम और कन्नड़। एक समय मद्रास प्रेसीडेन्सी के उत्तरी भाग में तेलुगु भाषा बोली जाती थी। वर्तमान आंध्र राज्य में जो तमिलनाडु तथा उड़ीसा राज्य के बीच में स्थित है, अधिकांश लोग तेलुगु भाषा बोलते हैं। विजयनगर के राजाओं का, विशेषरूप से कृष्णदेव राय का संरक्षण तेलुगु भाषा को प्राप्त रहा। कृष्णदेव राय स्वयं तेलुगु तथा संस्कृत में कविता करता था। उसके दरबार में तेलुगु के आठ उच्चकोटि के कवि थे, उनमें पेदन्न सर्वाधिक विख्यात था।
तोमर : राजपूतों (दे.) की एक शाखा। कुछ विद्वानों के अनुसार, प्रतिहारों और चौहानों की भाँति ये भी विदेशी थे। ये लोग ११वीं शताब्दी में वर्तमान दिल्ली क्षेत्र के शासक थे। तोमर-अग्रणी अनंगपाल ने ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य में दिल्ली नगर की नींव डाली थी। प्रसिद्ध लौहस्तम्भ, जिसपर चंद्र नामक अपरिचित राजा की प्रशस्ति अंकित है, १०५२ ई. में अनंगपाल द्वारा हटाकर वर्तमान स्थान पर लाया गया और मंदिरों के बीच खड़ा कर दिया गया, मुसलमान विजेताओं ने बाद में इन मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला और उस सामग्री का प्रयोग एक मसजिद और कुतुबमीनार के निर्माण में किया।
तोरमाण : हूणों का नेता, जिसने ५०० ई. के लगभग मालवा पर अधिकार कर लिया। इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की और उसका प्रभुत्व संभवतः मध्यप्रदेश, नमक की पहाड़ियों तथा मध्य भारत तक व्याप्त था। बहुत बड़ी संख्या में उसके चाँदी के सिक्के प्राप्त हुए हैं। उसका सुप्रसिद्ध पुत्र मिहिरिकुल अथवा मिहिरिगुल लगभग ५०२ ई. में उसका उत्तराधिकारी बना।
तोर्णा : पूना से दक्षिण-पश्चिम की ओर लगभग बीस मील की दूरी पर स्थित एक दुर्ग। शिवाजी ने उन्नीस वर्ष की अवस्था में १६४६ ई. में इस दुर्ग को अधिकार में करके अपना स्वराज्य अभियान आरम्भ किया।
तोसली : अशोक (दे.) के राज्यकाल में उसका एक महामात्य यहाँ रहता था। इसका उल्लेख उसके कलिंग शिलालेख में मिलता है जो उड़ीसा के पुरी जिला स्थित धौली में पाया गया है। (भट्टाचार्यजी)
त्रंक्वाबार : कारोमण्डल समुद्रतट पर स्थित एक बन्दरगाह, जहाँ १६२० ई. में डेनमार्कवासियों ने एक व्यापारिक कोठि स्थापित की थी। यह एक व्यापारिक बंदरगाह था, जो राजनीतिक दृष्टि से कभी महत्त्वपूर्ण नहीं रहा। १८४५ ई. में यह ब्रिटिश सरकार के हाथ बेच दिया गया।
त्रिचनापल्ली : कर्नाटक का दुर्ग, जहाँ कर्नाटक की मसनद के दावेदार मुहम्मद अली (दे.) ने १७५१ ई. में शरण ली थी। फ्रांसीसी तथा उनके आश्रित चंदा साहब ने इस दुर्ग पर घेरा डाल दिया, किन्तु राबर्ट क्लाइव (दे.) ने जब आर्काट को अपने अधिकार में कर लिया तो उन्हें अपना घेरा उठा लेना पड़ा। १७५३ ई. में यहाँ पुनः फ्रांसीसियों द्वारा घेरा डाला गया परन्तु १७५४ ई. में अंग्रेजों ने इस घेरे को तोड़ दिया और यह तबतक कर्नाटक के नवाब के अधीन रहा जबतक भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य में नहीं मिला लिया गया।
त्रिपक्षीय संधि : १८३८ ई. में अंग्रेजों, अफगानिस्तान के भगोड़े अमीर शाहशुजा और पंजाब के महाराज रणजीत सिंह में ऑकलैंड के शासनकाल में सम्पन्न हुई थी। इसके अनुसार शाहशुजा को सिख सेना और ब्रिटिश आर्थिक सहायता से काबुल की गद्दी पर पुनः बैठाने की बात तय हुई। इसके बदले में रणजीत सिंह ने जितना प्रदेश जीत लिया था, वह उसके अधिकार में रहने देना और सिंध को अफगानिस्तान के अमीर शाहशुजा को सौंप देना स्वीकार कर लिया गया। यह आशा की जाती थी कि शाहशुजा अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली बन जायगा। इस आक्रामक सन्धि ने अन्ततः लार्ड ऑकलैण्ड की सरकार को १८३८-४२ ई. के विनाशकारी अफगान-युद्ध (दे.) में फंसा दिया।
त्र्यम्बक जी : एक मराठा सरदार। बाजीराव द्वितीय (दे.) का विश्वासी कृपापात्र था। पेशवा ने उसे अहमदाबाद का सूबेदार बना दिया। गायकवाड़ का दूत गंगाधर शास्त्री, सुरक्षा के आश्वासन पर जब पूना आया तब त्रयम्बकजी ने षड्यंत्र रचाकर उसे मरवा डाला। अंग्रेजों ने इस पर गहरा आक्रोश व्यक्त किया और ब्रिटिश रेजीडेण्ट एलिफिंस्टन के आग्रह पर त्रयम्बकजी को बन्दी बनाकर, अंग्रेजों को सौंप दिया गया जिन्होंने उसे साष्टी में नजरबन्द कर दिया।
त्रिलोचन पाल : चंदेल राजा गण्ड ने १०१९ ई. में राजा राज्यपाल को परास्त करके मार डाला और उसके स्थान पर त्रिलोचन पाल को कन्नौज का राजा बनाया। उसी साल त्रिलोचन पाल ने सुलतान महमूद गजनवी को जमुना पार करने से रोकने का असफल प्रयास किया और संभवतः इस प्रयास में वह मारा गया। इससे अधिक उसके विषय में कुछ पता नहीं है।
त्रिलोचन पाल : ओहिन्द का पूर्वान्तिम साही राजा। इसने सुल्तान महमूद गजनवी की सेना को रोकने का विफल प्रयास किया। रामगंगा के युद्ध में वह परास्त हुआ और १०२१-२२ ई. में मार डाला गया। उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी भीम अन्तिम साही राजा था, जिसकी मृत्यु १०२६ ई. में हुई।
थानेश्वर : संस्कृत साहित्य में वर्णित एक प्रख्यात प्राचीन नगर। यह आधुनिक दिल्ली तथा प्राचीन इंद्रप्रस्थ नगर के उत्तर में अम्बाला और करनाल के बीच स्थित था। यह ब्रह्मावर्त क्षेत्र का केन्द्रबिन्दु था, जहाँ भारतीय आर्यों का सबसे पहले विस्तार हुआ। इसी के निकट कुरुक्षेत्र स्थित है, जहाँ कौरवों-पाण्डवों के बीच अठारह दिन तक युद्ध हुआ था जो महाभारत महाकाव्य का प्रमुख विषय है। थानेश्वर को स्थानेश्वर भी कहते थे, जो शिव का पवित्र स्थान था। छठी शताब्दी के अन्त में यह पुष्यभूति वंश की राजधानी बना और इसके शासक प्रभाकरवर्धन ने इसे एक विशाल साम्राज्य का, जिसके अंतर्गत मालवा, उत्तर-पश्चिमी पंजाब और राजपूताना का कुछ भाग आता था, केन्द्रीय नगर बनाया।
प्रभाकरवर्धन के छोटे पुत्र हर्षवर्धन के का (६०६-६४७) में इसका महत्त्व घट गया। उसने अपने अपेक्षाकृत अधिक विशाल साम्राज्य की राजधानी कन्नौज को बनाया। सातवीं और आठवीं शताब्दी में हूण आक्रमणों के फलस्वरूप इस नगर का तेजी से पतन हो गया, फिर भी यह हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थल बना रहा। १०१४ ई. में यह सुलतान महमूद द्वारा लूटा तथा नष्ट किया गया और अन्ततः पंजाब के गजनवी राज्य का अंग हो गया। यह दिल्ली जानेवाली सड़क पर स्थित है। इसके इर्द-गिर्द क्षेत्र में तराइन (दे.) के दो तथा पानीपत (दे.) के तीन युद्ध हुए जिन्होंने कई बार भारत के भाग्य का निर्णय किया। तृतीय मराठा-युद्ध (दे.) के उपरान्त यह भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य का अंग हो गया।
थार का रेगिस्तान : राजपूताना और सिंधु नदी की घाटी के निचले भाग के मध्य फैला हुआ है। इस रेगिस्तान में एक बूंद जल नहीं मिलता और इसे केवल कारवाँ के द्वारा ही पार किया जा सकता है। यह भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमा-रेखा बनाता है। यह सिंध को दक्षिण और उत्तरी पश्चिमी भारत से पृथक् करता है। अरबों ने जब ७१० ई. में सिंध-विजय किया तो इस रेगिस्तान के कारण वे अपने राज्य का विस्तार सिंध के आगे नहीं कर सके। इसने कुछ समय तक अंग्रेजों को भी सिंध पर दाँत इसलिए गड़ाये थे क्योंकि वह अफगानिस्तान और पंजाब का प्रवेशद्वार था। अंग्रेजों द्वारा सिंध (दे.) के अधिग्रहण के बाद यह रेगिस्तान भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बन गया।
थियोसोफिकल सोसाइटी : की स्थापना १८७५ ई. में संयुक्त राज्य अमेरिका में मैडम ब्लावत्सकी (दे.) और कर्नल एच. एस. ओलकाट द्वारा हुई। बाद में वे लोग भारत आये और सोसाइटी का प्रधान कार्यालय मद्रास के उपनगर अड्यार में स्थापित किया। जबसे सोसाइटी की सर्वेसर्वा श्रीमती एनी बेसेण्ट (दे.) भारत में आकर बस गयीं, तबसे भारतीय राजनीति और जनजीवन में सोसाइटी ने एक महत्त्वपूर्ण भुमिका अदा की। श्रीमती एनी बेसेण्ट के सत्प्रयासों और उनकी वाग्मिता के फलस्वरूप शीघ्र ही सोसाइटी की अनेक शाखाएँ सम्पूर्ण भारत में स्थापित हो गयीं। भारत में एक अलग धार्मिक सम्प्रदाय की स्थापना के रूप में सोसाइटी को बहुत थोड़ी सफलता मिली, किन्तु पाश्चात्य शिक्षा-प्राप्त हिन्दुओं के मस्तिष्क में इसने हिन्दूधर्म के प्रति शब्दाभाव पुनः जागृत कर दिया। पाश्चात्य शिक्षा-प्राप्त विद्वानों द्वारा प्राचीन हिन्दू धर्म की प्रशंसा के फलस्वरूप शिक्षित भारतीयों के मन में नव आत्मसम्मान, प्राचीनता का गौरव, देशभक्ति की नयी लहर और राष्ट्र के पुनर्निर्माण की भावना भर गयी। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने उसको समुन्नत करके पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। भारत में थियोसोफिकल सोसाइटी को लोकप्रियता श्रीमती एनी बेसेण्ट ने प्रदान की। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा परिचालित राष्ट्रीय आन्दोलन में अपने को अर्पित कर दिया था।
थीवा : उत्तर बर्मा का १८७८ से १८८६ ई. तक शासक। उसका कहना था कि उसे ब्रिटेन के अलावा अन्य यूरोपीय देशों से स्वतंत्र व्यापारिक और राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित करने का पूर्ण अधिकार है। उसके इसी दावे के कारण वाइसराय लार्ड डफरिन (दे.) ने यह बहाना करके कि थीवा ने ब्रिटिश व्यापारियों को बर्मा में सुविधाएँ प्रदान करने से इनकार कर दिया है और वह अपनी प्रजा पर कुशासन कर रहा है, दिसम्बर १८८५ ई. में उसके विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। थीवा इस आक्रमण का कोई मुकाबला नहीं कर सका, उसकी सेनाएँ सरलता से परास्त हो गयीं और उसने बिना किसी शर्त के आत्मसमर्पण कर दिया। उसे निर्वासित कर भारत भेज दिया गया, जहाँ वह मृत्युपर्यन्त रहा। उसका राज्य ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का एक अंग बना लिया गया।
थेर तिस्स : वरिष्ठ तथा बहुश्रुत भारतीय बौद्ध भिक्षु, जिसने अशोक के काल में पाटिलपुत्र में समायोजित बौद्ध संगीति (परिषद्, दे.) का सभापतित्व किया था।
दण्डनायक : विजयनगर के हिंदू राजाओं के सेनाध्यक्षों की उपाधि।
दण्डी : छठीं शताब्दी ई. में वर्तमान, जो संस्कृत का सरस कवि, साहित्य समालोचक और गद्य-लेखक था। 'काव्यादर्श' संस्कृत पद्य में लिखा उसका काव्यशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ है। उसके द्वारा लिखा गया 'दशकुमारचरित्र' संस्कृत गद्यकाव्य का सबसे प्रसिद्ध प्रेमाख्यान है।
दंतिदुर्ग : आठवीं शताब्दी ई. के मध्य में राष्ट्रकूट वंश का प्रवर्तक। उसने वातापी के चालुक्य राजा कीर्तिवर्मा द्वितीय को पराजित एवं अपदस्थ किया और एक नये राजवंश की स्थापना की, जिसके शासकों ने ७३३ से ९७२ ई. तक दक्षिण भारत में शासन किया।
दक्षिण : मूलरूप से दक्षिण अथवा दक्षिणापथ का प्रयोग उस क्षेत्र के लिए किया जाता था, जो उत्तर में विंध्य पर्वत और नर्मदा से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक विस्तृत हैं। बाद में दक्षिण का अर्थ वह क्षेत्र माना जाने लगा, जो उत्तर में नर्मदा तक, दक्षिण में तुंगभद्रा तथा कृष्णा नदी के बीच स्थित है, अर्थात् दक्षिणी पठार के मुख्य भाग को दक्षिण कहा जाने लगा, जिसके अंतर्गत आजकल का मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा आंध्रप्रदेश आता है। कृष्णा और तुंगभद्रा के दक्षिण के क्षेत्र को कभी-कभी तमिळहम् अर्थात् तमिल देश कहा जाता था। यहाँ दक्षिण का अर्थ है नर्मदा और कृष्णा नदियों के बीचका दक्षिणी पठार। भूगर्भीय दृष्टि से सिंधु और गंगा के मैदानों की अपेक्षा यह पठार बहुत प्राचीन माना जाता है।
दक्षिण में जो पुरातात्त्विक अवशेष मिले हैं, वे उत्तरी भारत (हिमालय क्षेत्र को छोड़कर) में प्राप्त अवशेषों से अधिक प्राचीन हैं। दक्षिणी पठार वस्तुतः एक पर्वतीय त्रिकोण पर स्थित है, जिसका शीर्षबिन्दु नीलगिरि है। पश्चिमीघाट एवं पूर्वीघाट इस त्रिकोणकी दो भुजाएँ हैं तथा विंध्य पर्वतश्रेणी इसका आधार है। विन्ध्य पर्वत श्रेणी के कारण कोई नदी उत्तर से दक्षिण की ओर नहीं बहती। चूंकि पश्चिमी घाट पूर्वीघाट की अपेक्षा अधिक ऊँचे हैं, अतएव दक्षिण की सभी नदियाँ सतपुड़ा पहाड़ियों के नीचे पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हैं और बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं।
रामायण तथा महाभारत में सुरक्षित प्राचीन अनुश्रुतियों के अनुसार सर्वप्रथम अगस्त्य मुनि दक्षिण गये थे। वहाँ उन्होंने वानरों, असुरों तथा राक्षसों को प्रभावित कर अपना सम्मानजनक स्थान बनाया। विश्वास किया जाता है कि ये दक्षिणवासी द्रविड़ थे, जिनकी भौतिक सभ्यता आर्यों की अपेक्षा ऊँची थी।
ऐतिहासिक दृष्टि से हमें दक्षिण के सम्बन्ध में जो जानकारी मिलती है, वह उत्तर भारत की तुलना में काफी अर्वाचीन है। नन्दवंश (दे.) से पहले हमें दक्षिण के बारे में जानकारी नहीं मिलती। इन नंद राजाओं (ई. पू. चौथी शताब्दी) के साम्राज्य में कलिंग शामिल था। हो सकता है कि सम्पूर्ण दक्षिण उनके साम्राज्य के अंतर्गत रहा हो। अशोक के साम्राज्य में यद्यपि कलिंग ही शामिल था, तथापि उसका साम्राज्य पेनार नदी तक फैला हुआ था। उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमाएँ चेर, चोल, पाण्डय तथा सातियपुत्र राज्यों को छूती थीं। मौर्यवंश के पतन के पश्चात् सातवाहनों (दे.) ने, जो आंध्र भी कहे जाते थे, एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की और ई. पू. ५० से २२५ ई. तक शासन किया। इसी काल में शकों (दे.) की एक शाखा ने दक्षिण के पश्चिमी भाग पर अधिकार कर लिया।
सातवाहनों के पतन के पश्चात् दक्षिण के विविध भागों में अनेक छोटे-छोटे राजवंशों का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें गंग (दे.), वाकाटक (दे.) तथा कदम्ब (दे.) मुख्य थे। गंगवंश की एक शाखा ने दूसरी से ग्यारहवीं शताब्दी तक मैसूर के एक बड़े क्षेत्र पर राज्य किया। श्रवणबेलगोला की पहाड़ी पर स्थापित ५६।। फुट ऊँची गोमटेश्वर की विशाल प्रतिमा इन्हीं राजाओं की याद दिलाती है। गंगवंश की एक शाखा ने उड़ीसा में भी छठी से १६वीं शताब्दी तक शासन किया। इसी वंश के अनंतवर्मा चोड़गंग ने पुरी के विख्यात जगन्नाथ मंदिर को बनवाया था। कदम्ब राजाओं ने तीसरी से छठी शताब्दी तक दक्षिण कर्नाटक और पश्चिमी मैसूर में शासन किया, जबकि वाकाटकों ने चतुर्थ से छठी शताब्दी तक मध्यप्रदेश तथा दक्षिण के पश्चिमी भाग पर शासन किया। चतुर्थ शताब्दी के मध्य में समुद्रगुप्त (दे.) ने, जो गुप्तवंश का द्वितीय सम्राट् था, दक्षिण की ओर अभियान किया और वहाँ के अनेक राजाओं को अपने अधीन किया, जिनमें पल्लव राजा विष्णुगोप भी था, जिसकी राजधानी कांची थी जिसे आजकल कांजीवरम कहते हैं। गुप्तवंश के तृतीय सम्राट् चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (दे.) ने उज्जयिनी के शक क्षत्रप को पराजित कर सम्पूर्ण मालवा और गुजरात को अपने अधीन कर लिया।
गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् उत्तर भारत दक्षिण से अलग हो गया तथा दक्षिण में चालुक्यवंश का राज्य स्थापित हुआ जो कदाचित् उत्तर भारत के किसी राजपूत वंश की एक शाखा थे। चालुक्यों की राजधानी वातापी अथवा बादामी में थी, जो आजकल महाराष्ट्र के बीजापुर जिले में है। इस वंश ने लगभग दो सौ वर्ष तक शासन किया। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा पुलकेशी द्वितीय (दे.) था, जिसने ६०८-४२ ई. तक शासन किया और ६४१ ई. में नर्मदा नदी के किनारे उत्तर भारत के सुप्रसिद्ध सम्राट् हर्षवर्धन को पराजित किया और इस प्रकार उत्तर तथा दक्षिण के बीच नर्मदा नदी की प्राकृतिक सीमा को कायम रखा। पड़ोसी कांची के पल्लव राजा (दे.) उसके सबसे शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वी थे। पल्लव राजा नरसिंह वर्मा ने ६४२ ई. में चालुक्य नरेश पुलकेशी द्वितीय को पराजित कर मार डाला। बत्तीस वर्ष पश्चात् राष्ट्रकूट वंश के दंति दुर्ग (दे.) ने चालुक्यवंश का मूलोच्छेद कर दिया। राष्ट्रकूटों के नये वंश ने मान्यखेट (आधुनिक मालखेट) को अपनी राजधानी बनाकर दक्षिणी भारत पर शासन किया। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा अमोघवर्ष (लगभग ८१५-७७ ई.) (दे.) था, जिसका उल्लेख अरब यात्रियों ने बलहर अथवा वल्लभराय के नाम से किया है। ९७३ ई. में द्वितीय चालुक्यवंश ने राष्ट्रकूट वंश का मूलोच्छेद कर दिया। इस द्वितीय चालुक्यवंश ने दक्षिणी भारत पर ११९० ई. तक शासन किया।
द्वितीय चालुक्यवंश के पतन के पश्चात् दक्षिणापथ तीन राजवंशों में विभाजित हो गया। यादवों ने देवगिरि को अपनी राजधानी बनाकर दक्षिण के पश्चिमी भाग पर शासन किया। होयसल वंश ने द्वारसमुद्र (आधुनिक हैलविड) को अपनी राजधानी बनाकर मैसूर पर शासन किया। काकतीयवंश ने बारंगल को राजधानी बनाकर दक्षिण के पूर्वी भाग (तेलंगाना) पर शासन किया। दक्षिण के इन राजाओं के बीच बराबर युद्ध होते रहते थे। फलतः दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने एक-एक करके सभी को अपने अधीन कर लिया। यादव राजा १२९६ और १३१३ ई. के बीच परास्त हुए, काकतीय राजा १३१० ई. में तथा होयसल-नरेश १३११ ई. में। इसके बाद होयसलों ने नाममात्र के लिए १४२४-२५ ई. तक शासन किया। इनके राज्य को बाद में बहमनी सुल्तानों ने अपने राज्य में मिला लिया। इस प्रकार उत्तर भारत की भाँति दक्षिण में भी हिन्दू राज्य समाप्त हो गया।
यद्यपि राजनीतिक दृष्टि से नंदों, मौर्यों तथा गुप्तों को छोड़कर शेष काल में दक्षिण उत्तर भारत से लगभग अलग ही रहा, तथापि सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से वह सदैव हिन्दू भारत का अभिन्न अंग रहा। यद्यपि दक्षिणवासी उत्तरभारतीयों से भिन्न भाषाएँ बोलते थे, तथापि उत्तर के हिन्दुओं की भाँति दक्षिण की भी राजभाषा संस्कृत ही रही। ब्राह्मण धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म का दक्षिण में भी उतना ही आदर हुआ, जितना उत्तर में। यदि दक्षिण ने उत्तर से बहुत कुछ प्राप्त किया, तो उसने उत्तर को बहुत कुछ दिया भी। आदि शंकराचार्य दक्षिण के ही थे, जिन्होंने वेदान्तदर्शन का प्रतिपादन किया। रामानुजाचार्य ने वैष्णवधर्म की स्थापना की। विख्यात स्मृतिकार विज्ञानेश्वर ने 'मिताक्षरा सिद्धांत' प्रतिपादित किया जो बंगाल और आसाम को छोड़कर शेष भारत के सामाजिक जीवन का नियमन करता है। कला और वास्तुशिल्प में दक्षिण ने हिन्दू परम्परा को जीवित रखा। कला, वास्तुशिल्प, मूर्तिकला और चित्रकला के क्षेत्र में हिन्दुओं की उन्नति का परिचय दक्षिण जाने पर ही मिलता है, जहाँ विशाल मंदिरों के रूप में अत्यन्त सुन्दर कलाकृतियाँ विद्यमान हैं। एलोरा-अजंता की गुफाएँ और ये मंदिर हिन्दुओं के कला वैभव का जो चित्र प्रस्तुत करते हैं, उसकी कल्पना उत्तर भारत के मंदिरों को देखकर नहीं की जा सकती।
दक्षिण का बाद का इतिहास : अलाउद्दीन खिलजी ने १३१० ई. में देवगिरि, उसी वर्ष वारंगल और १३११ ई. में द्वारसमुद्र के हिन्दू राजाओं को जीता। बाद में उसने अपने सेनापति मलिक काफूर (दे.) को सुदूर दक्षिण की विजय के लिए भेजा। काफूर ने पाण्ड्य राजधानी मदुरा पर अधिकार कर लेने के बाद रामेश्वरम् तक धावा बोला। इस प्रकार उसने कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण दक्षिण भारत को मुसलमानों के अधीन कर दिया। वह अपने साथ लूट के सामान में ६१२ हाथी, २० हजार घोड़े, ९६ हजार मन सोना तथा मोती एवं जवाहरात के बहुत से संदूक भर कर लाया। इससे दक्षिण भारत के वैभव का पता चलता है। किन्तु दिल्ली का प्रभुत्व वहाँ बहुत दिनों तक कायम न रह सका।
सुल्तान मुहम्मद तुगलक की नीतियों की प्रतिक्रियास्वरूप मअबर (सुदूर दक्षिण) ने विद्रोह कर दिया तथा १३३५ ई. में अहसानशाह के नेतृत्व में स्वाधीन हो गया और अगले दशक में नर्मदा और कृष्णा के बीच का दक्षिणी पठार भी अलाउद्दीन हसन बहमनी (दे.) के नेतृत्व में १३४७ ई. में स्वतंत्र हो गया। उसी समय के आसपास विजयनगर (दे.) में हिन्दू साम्राज्य की स्थापना हुई, जो कृष्णा नदी के दक्षिण में था। १६ वीं शताब्दी के द्वितीय दशक में बहमनी सल्तनत के टुकड़े-टुकड़े हो गये। जब १५२६ ई. में बाबर ने दिल्ली में मुगल साम्राज्य की स्थापना की तब बहमनी सल्तनत पांच मुस्लिम राज्यों-बरार, बीदर, बीजापुर, अहमदनगर तथा गोलकुण्डा में बँट गयी। विजयनगर का हिन्दू राज्य १५६५ ई. तक कायम रहा, जबकि बीजापुर, अहमदनगर, गोलकुण्डा तथा बीदर के सुल्तानों ने मिलकर उसपर आक्रमण किया और तालीकोट के युद्ध में पराजित किया। लेकिन मुस्लिम राज्यों की एकता भी कायम न रह सकी। अहमदनगर को, जिसने १५७४ ई. में बरार को जीत लिया था, मुगल सम्राट् अकबर (दे.) को १५९६ ई. में सौंप देना पड़ा। बाद में १६३७ ई. में सम्पूर्ण सल्तनत को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। इसके बाद बीजापुर को भी, जिसने १६१९ ई. में बीदर को जीत लिया था, १६८६ ई. में मुगल साम्राज्य में शामिल कर लिया गया। उसके तीन वर्ष बाद महाराष्ट्र अर्थात् दक्षिण के उत्तरी-पश्चिमी भाग को जहाँ शिवाजी ने स्वराज्य की स्थापना की थी, मुगल सम्राट् औरंगजेब ने अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार सम्पूर्ण दक्षिण पुनः उत्तर का भाग बन गया।
लेकिन इस बार भी यह एकता बहुत दिन तक कायम न रह सकी। महाराष्ट्र ने औरंगजेब की मृत्यु (१८०८ ई.) के पहले ही पुनः स्वाधीनता प्राप्त कर ली। औरंगजेब के उत्तराधिकारी बहादुरशाह (१७०७-१२ ई.) ने महाराष्ट्र की स्वाधीनता को मान्यता भी दे दी। १७२४ ई. में दक्षिण का मुगल सूबेदार चिनक्लिच खाँ (दे.) जो निजामुलमुल्क आसफजाह के नाम से जाना जाता है, स्वाधीन हो गया और उसने अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। इस प्रकार १८वीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश में ही दक्षिण पुनः उत्तर से अलग हो गया। कुछ समय बाद ही दक्षिण दो भागों में बँट गया। हैदराबाद में निजाम का शासन तथा पूना में मराठों का शासन स्थापित हुआ। इस बीच यूरोपीय व्यापारी भी दक्षिण पहुँच गये और पूर्वी तथा पश्चिमी तटपर यत्र-तत्र बस गये। पुर्तगाली गोवा, दमण और दिव में, अंग्रेज सूरत, बम्बई और मद्रास में और फ्रांसीसी पाण्डेचेरी, माहे तथा कारीकल में जम गये।
इन विदेशी व्यापारियों में भी प्रतिद्वन्द्विता शुरू हो गयी। पहले अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने मिलकर पुर्तगालियों के व्यापार को खत्म किया। बाद में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच द्वन्द्व हुआ। दोनों के बीच यूरोप में लड़ाई शुरू हो जाने के कारण भारत में भी संघर्ष शुरू हो गया। १७४० और १७६३ ई. के बीच दक्षिण की भूमि पर दोनों में लड़ाइयाँ हुईं। दोनों के पास देशी सेनाएँ भी थीं। ये लड़ाइयाँ कर्नाटक-युद्ध (दे.) के नाम से जानी जाती हैं। इन युद्धों का फल यह हुआ कि दक्षिण में फ्रांसीसियों की राजनीतिक शक्ति समाप्त हो गयी और अंग्रेजों की सत्ता स्थापित हो गयी। इसके अलावा दक्षिण में और भी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं। महाराष्ट्र में शिवाजी के पौत्र साहू (१७०७-४८) ने १७२७ ई. में अपनी राजसत्ता पेशवा बाजीराव प्रथम (दे.) को हस्तांतरित कर दी, जिसने महाराष्ट्र पर अपनी मृत्यु (१७४० ई.) पर्यंत शासन किया।
पेशवा ने मराठा संघ की स्थापना की और पहली बार १७३७ ई. में अपनी सेनाएँ उत्तर में भेजीं, जिसका मुख्य उद्देश्य पतनोन्मुख मुगल साम्राज्य के स्थान पर हिन्दू साम्राज्य की स्थापना था। लेकिन १७४० ई. में पेशवा बाजीराव की अचानक मृत्यु हो गयी। मृत्यु के पहले उसने अपने प्रधान सरदार भोंसले को नागपुर क्षेत्र, गायकवाड़ को बड़ौदा क्षेत्र, होल्कर को इंदौर क्षेत्र तथा शिन्दे को ग्वालियर क्षेत्र का शासन सौंपा था। उसके पुत्र पेशवा बालाजी बाजीराव (१७४०-६१ ई.) (दे.) ने पंजाब में मराठा सेना भेजी, जहाँ अहमदशाह अब्दाली का पुत्र तैमूर शासन कर रहा था। इस प्रकार बालाजी ने अब्दाली से लड़ाई मोल ले ली। फलतः पानीपत की तीसरी लड़ाई (१७६१ ई.) (दे.) में मराठों को करारी हार खानी पड़ी। बालाजी को इससे भारी धक्का लगा और उसका प्राणांत हो गया। मराठा एकता को भी भारी धक्का लगा।
इसी बीच १७६१ ई. में एक मुस्लिम सिपाही हैदर अली ने मैसूर के हिन्दू वाडयार वंश (दे.) के राजा को उखाड़ फेंका। यह हिन्दू राज्य विजयनगर के पतन (१५६५ ई.) के पश्चात् स्थापित हुआ था और इसका विस्तार दक्षिणी प्रायद्वीप के अंतिम छोर तक था। अब दक्षिण के तीनों राज्यों-हैदराबाद, मैसूर तथा पूना के बीच द्वन्द्व होने लगा। इन्होंने दक्षिण में अंग्रेजों की बढ़ती हुई राजशक्ति की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। ये तीनों राज्य एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्रों और देशविरोधी कार्यों में संलग्न रहे। फल यह हुआ कि दक्षिण के राज्य मिलकर अंग्रेजों को निकाल बाहर करने में विफल रहे। फल यह हुआ कि दक्षिण के राज्य मिलकर अंग्रेजों को निकाल बाहर करने में विफल रहे। दूसरी ओर अग्रेजों ने इन राज्यों की प्रतिद्वन्द्विता का पूरा-पूरा फायदा उठाया। अंग्रेजों ने निजाम को आश्रित संधि (दे.) करने के लिए बाध्य किया और फिर उसकी मदद से १७९९ ई. में श्रीरंगपट्टम् के युद्ध में मैसूर के सुल्तान टीपू को पराजित करके मार डाला। मराठे निष्क्रिय होकर तमाशा देखते रहे। इसके बाद अंग्रेजों ने उसी वर्ष तंजौर और सूरत को अपने अधिकार में कर लिया। अंत में १८०२ ई. में अंग्रेजों ने मराठों को भी पराजित कर उन पर बसईं की संधि (दे.) आरोपित कर दी, जिसके अनुसार पेशवा भी आश्रित संधि करने को बाध्य हो गया।
मराठों ने इस संधि से निकलने का प्रयास किया। फलतः दूसरा मराठा-युद्ध (१८०३-०५ ई.) (दे.) हुआ, जिसमें मराठा संघ के सभी राज्य हार गये और सभी को आश्रित संधि स्वीकार करनी पड़ी। इस प्रकार दक्षिण पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। मराठों की बची-खुची शक्ति तीसरे मराठा-युद्ध (१८१७-१९ ई.) (दे.) में समाप्त हो गयी जिसके फलस्वरूप पेशवा बाजीराव द्वितीय को पेंशन देकर उत्तर भारत (बिठूर) भेज दिया गया। होल्कर आदि मराठा सरदारों ने भी अंग्रेज सरकार की अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार दक्षिण का पृथक् राजनीतिक अस्तित्व पूर्णतया समाप्त हो गया। इसके बाद वह बराबर राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भारत का अभिन्न अंग बना रहा। १९४७ ई. में भारत के स्वतंत्र होने पर दक्षिण के देशी रजवाड़े भी जो अंग्रेजों के अधीन थे, भारतीय गणतंत्र में विलीन हो गये। उत्तर भारत की भाँति दक्षिणापथ अथवा दक्षिण भी अब भारत का अविभाज्य अंग है।
दक्षिण एजूकेशन सोसाइटी : महाराष्ट्र के न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे की प्रेरणा से १८८४ ई. में स्थापित की गयी। इसका मुख्यालय बम्बई था और इसका उद्देश्य शिक्षा पद्धति में ऐसा सुधार करना था, जिससे तत्कालीन शिक्षा संस्थाओं में प्रशिक्षित युवकों की अपेक्षा कहीं बेहतर युवक देशसेवा के लिए तैयार किये जा सकें। सोसाइटी के सदस्यों के लिए यह आवश्यक था कि वे ७५ रुपया नाममात्र के वेतन पर कम से कम २० वर्ष तक देशसेवा करें। गोपाल कृष्ण गोखले, श्री श्रीनिवास शास्त्री आदि विख्यात समाज-सेवकों ने, जो इसी सोसाइटी की देन थे, बाद में सुप्रसिद्ध फर्गुसन कालेज, पूना तथा वेलिंगडन कालेज, सांगली की स्थापना की।
दत्ताजी शिन्दे : एक मराठा सेनापति, जो १७५९ ई. में पेशवा बालाजी राव की ओर से पंजाब का शासक था। यह सूबा अहमदशाह अब्दाली (दे.) के पुत्र तैमूर से छीना गया था। जब अहमदशाह अब्दाली ने यह खबर सुनी तो वह आग-बबूला हो गया। उसने वर्ष समाप्त होने के पहले ही एक बड़ी सेना लेकर पंजाब पर आक्रमण कर दिया। दत्ताजी ने अब्दाली का सामना थानेश्वर के युद्ध (दिसम्बर १७५९ ई.) में किया, लेकिन हारकर भाग खड़ा हुआ। दिल्ली के १० मील उत्तर बरारीघाट में फिर दोनों के बीच युद्ध हुआ जिसमें दत्ताजी ९ जनवरी १७६० को अब्दाली के हाथों मारा गया।
दनुजमर्दन देव : बंगाल का शासक, जिसके सिक्के बंगाल के सुदूर स्थानों, जैसे पांडुआ (पश्चिमी बंगाल), स्वर्णग्राम (ढाका जिला ?) और चटगाँव में मिले हैं। इन सिक्कों पर बंगाला में संस्कृत लेख और शक संवत् १३३९-१३४० अंकित हैं। ऐसी धारणा है कि दनुजमर्दन देव और राजा गणेश एक ही थे। राजा गणेश पन्द्रहवीं ईसवी शताब्दी में बंगाल का शासन करता था। ('ढाका हिस्ट्री आफ बंगाल', खण्ड दो, पृष्ठ १२०-२२)
दयानंद सरस्वती, स्वामी : (१८२४-८३ ई.) आर्य समाज (१८७५ ई.) के संस्थापक। भारत में अंग्रेजी राज्य, विशेषरूप से अंग्रेजी शिक्षा तथा ईसाई धर्म के प्रसार के साथ पश्चिम के अंधानुकरण की जो प्रवृत्ति बढ़ती जा रही थी, उसका आर्य समाज ने विरोध किया। स्वामीजी संस्कृत के अद्वितीय विद्वान् थे, लेकिन उन्हें अंग्रेजी का ज्ञान नहीं था। वे वैदिक धर्म, वैदिक शिक्षा तथा वैदिक दर्शन में अत्यधिक विश्वास करते थे और उसी के अनुसार हिन्दू धर्म और समाज को फिर से ढालना चाहते थे। 'वेदों की ओर चलो' उनका नारा था। उन्होंने परवर्ती पौराणिक धर्म की आलोचना की और बहुदेववाद तथा मूर्तिपूजा का खण्डन किया। वे एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने जातिबंधन, बालविवाह और समुद्रयात्रा-निषेध की निंदा की। उन्होंने नारी-शिक्षा तथा विधवा-विवाह को प्रोत्साहित किया। वस्तुतः वे मुस्लिम शासन के अंतर्गत हिन्दू समाज में आ जानेवाली बुराइयों को दूर करना चाहते थे। इसके अलावा वे यह भी कहते थे कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू बनाया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने शुद्धि-आंदोलन चलाया, जिसका उद्देश्य भारतीयों की अखण्डता और एकता को बल प्रदान करना था। अतएव इस आंदोलन के राजनीतिक निहितार्थ भी थे। स्वामीजी ने अपने सिद्धांतो के प्रचार के लिए अनेक पुस्तकें लिखीं, जिनमें 'सत्यार्थप्रकाश' मुख्य है। वे एक महान् वक्ता थे और सीधे जनता के बीच जाकर उपदेश देते थे। पंजाब और उत्तर प्रदेश में उनके सिद्धान्तों का बहुत प्रचार हुआ। उन्होंने यद्यपि पश्चिमी विज्ञान तथा समाजशास्त्र तथा धर्म के सम्बन्ध में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की उपेक्षा की, तथापि उन्होंने अपने असाधारण व्यक्तित्व से हिन्दू समाज को नींव से हिला दिया। उन्होंने हिंदू मस्तिष्क को पश्चिमी शिक्षा और धर्म की चुनौती का सामना करने, प्राच्य सभ्यता को जीवित रखने तथा हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के शुद्ध रूप को प्रतिष्ठित करने का भगीरथ प्रयास किया।
आर्य समाज के आंदोलन का फल यह हुआ कि हिन्दुओं का धर्म-परिवर्तन रुक गया। जिन हिन्दुओं ने दूसरा मजहब स्वीकार कर लिया था, उनमें से अनेक को फिर हिन्दू बना लिया गया। आर्य समाज ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में बहुत बड़ा योगदान किया एवं यह शिक्षा दी कि जातिभेद और सामाजिक भिन्नता के बावजूद समस्त भारत की जनता एक है। इससे राष्ट्रीयता की भावना को बहुत बल मिला। गुरुकुल कांगड़ी (हरिद्वार) स्वामीजी के आदर्शों का मूर्तिमान रूप है, जहाँ संस्कृत शिक्षा का माध्यम है। स्वामीजी के अनुयायियों ने बाद में आधुनिक शिक्षा पर भी जोर दिया। इसके लिए उन्होंने उत्तर भारत में सैकड़ो दयानंद ऐंग्लो-वैदिक स्कूल-कालेज खोले, जिनमें आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के साथ अंग्रेजी की भी शिक्षा दी जाने लगी। १९वीं शताब्दी में भारतीय राष्ट्रीयता के विकास में स्वामी दयानंद का बहुत बड़ा योगदान माना जाता है।
दर्शक (लगभग ४६७-४४३ ई. पू.) : मगध के सम्राट् अजातशत्रु (लगभग ४९४-४६७ ई. पू.) का पुत्र और उत्तराधिकारी। कदाचित् यह वहीं नरेश था, जिसका उल्लेख भास लिखित नाटक 'स्वप्नवासवदत्ता' में मिलता है।
दलाई लामा : कुछ वर्ष पहले तक तिब्बत के धर्मगुरु तथा शासक। वर्तमान दलाई लामा, जिन्हें तिब्बत पर चीनी आक्रमण के बाद भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी, दलाई लामाओं के क्रम में चौदहवें हैं। तिब्बत की बौद्ध मतावलम्बी जनता दलाई लामा को बोधिसत्व अवलोकितेश्वर का अवतार मानती है। प्रचलित प्रथा के अनुसार दलाई लामा को देवता और मनुष्य मिलकर खोजते हैं। उस समय वे आमतौर से बालक होते हैं और गद्दी पर बैठने के बाद उनकी तरफ से अभिभावक और भिक्षुओं की परिषद् शासन चलाती है। वयस्क हो जाने पर वे स्वयं भिक्षुओं की परिषद् चुनते हैं और उसकी सहायता से शासन करते हैं।
दलायल-ए-फीरोजशाही : फारसी का एक उल्लेखनीय काव्य ग्रंथ। इसकी रचना सुल्तान फीराजशाह तुगलक के आदेश पर उसके दरबारी कवि आजुद्दीन खालिद खानी ने की थी। इसमें विभिन्न विषयों के ३०० संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद है। ये ग्रंथ सुल्तान को नगरकोट के निकट ज्वालामुखी के मंदिर में उस समय मिले थे जब १३३७ ई. में छः महीने की घेराबंदी के बाद नगरकोट ने सुल्तान के आगे आत्मसमर्पण कर दिया था।
द-लाली : देखिये, 'लाली'।
द-ला-हाये : एक फ्रांसीसी नौसेनाधिकारी, जो चोलमण्डल तट पर फ्रांसीसी हितों की रक्षा करने के लिए भेजा गया था। १६७२ ई. में फ्रांसीसियों ने मद्रास के निकट सेण्ट थोम पर कब्जा कर लिया, लेकिन अगले वर्ष ही डचों ने श्रीलंका के त्रिंकोमाली बंदरगाह में तैनात फ्रांसीसी बेड़े को, जिसका नेतृत्व द-ला-हाये कर रहा था, वहाँ से मार भगाया। बाद में डचों ने १६७४ ई. में सेण्ट थोम पर भी अधिकार कर लिया।
दलीपसिंह : पंजाब के महाराज रणजीतसिंह का सबसे छोटा पुत्र। १८४३ ई. में वह नाबालिगी की अवस्था में अपनी माँ रानी जिंदाँ की संरक्षकता में राजसिंहासन पर बैठाया गया। उसकी सरकार प्रथम सिख-युद्ध (१८४५-४६) में शामिल हुई, जिसमें सिखों की हार हुई और उसे सतलज नदी के बायीं ओर का सारा क्षेत्र एवं जलंधर दोआब अंग्रेजों को समर्पित करके और डेढ़ करोड़ रुपया हर्जाना देकर संधि करने के लिए बाध्य होना पड़ा। रानी जिंदाँ से नाबालिग राजा की संरक्षकता छीन ली गयी और उसके सारे अधिकार सिख सरदारों की परिषद् में निहित कर दिये गये। किन्तु परिषद् ने दलीपसिंह की सरकार को १८४८ ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार के विरुद्ध दूसरे युद्ध में फँसा दिया। इस बार भी सिखों की पराजय हुई और ब्रिटिश विजेताओं ने दलीपसिंह को अपदस्थ करके पंजाब को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। दलीपसिंह को पाँच लाख रुपया वार्षिक की पेंशन बाँध दी गयी और इसके बाद शीघ्र ही माँ के साथ उसे इंग्लैण्ड भेज दिया गया, जहाँ दलीपसिंह ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया और वह नारकाक में कुछ समय तक जमींदार रहा। इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान दलीपसिंह ने १८८७ ई. में रूस की यात्रा की और वहाँ जार को भारत पर हमला करने के लिए राजी करने का असफल प्रयास किया। बाद में वह भारत लौट आया और फिर से अपना पुराना सिख धर्म ग्रहण करके शेष जीवन व्यतीत किया। ('बंगाल पास्ट ऐण्ड प्रेजेण्ट', खण्ड ७४, पृष्ठ १८६)
दवार बख्श : बादशाह जहाँगीर (१६०५-२७) के पुत्र खुसरू (दे.) का पुत्र। खुसरु की मृत्यु १६२२ ई. में हो गयी और अक्तूबर १६२७ ई. में जहाँगीर के मरने पर शाहजहाँ के श्वसुर आसफ खाँ ने दिल्ली की गद्दी पर दवार बख्श को बैठा दिया ताकि जहाँगीर का सबसे छोटा पुत्र शहरयार जो मलका नूरजहाँ का कृपापात्र था, गद्दी पर न बैठ सके। फरवरी १६२८ ई. में शाहजहाँ के दक्षिण से आगरा लौट आने पर दवार बख्श को गद्दी से उतार दिया गया और शाहजहाँ सम्राट् घोषित किया गया। दवार बख्श को कारागार में डाल दिया गया। बाद में वह मुक्त होने पर फारस चला गया और वहाँ के बादशाह की संरक्षकता में जीवन व्यतीत करता रहा।
दशरथ : अयोध्या अथवा अवध के राजा, जो भारत के आदि कवि वाल्मीकिरचित रामायण के नायक रामचंद्रजी के पिता थे।
दशरथ : अशोक मौर्य का पौत्र, जो लगभग २३२ ई. पू. गद्दी पर बैठा। उसने बिहार की नागार्जुनी पहाड़ियों की कुछ गुहाएँ आजीविकों को निवास के लिए दान कर दी थीं। इन गुहाओं की दीवालों पर अंकित अभिलेखों से प्रकट होता है कि दशरथ भी अपने पितामह की भाँति 'देवानाम्प्रिय की उपाधि से विभूषित था। यह कहना कठिन है कि वह भी बौद्ध धर्म का अनुयायी था या नहीं। (रायचौधरी, पृ. ३५०-५१)
दस्तक : बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी जो पारपत्र जारी करती थी, उनमें कंपनी के अभिकर्ताओं को अधिकार दिया जाता था कि वे प्रांत के अंदर चुंगी अदा किये बिना व्यापार कर सकें। १७१७ ई. में शाह फर्रुखसियर द्वारा कम्पनी को दिये गये फरमान के अन्तर्गत ढाई प्रतिशत चुंगी अदा न करने की छूट दी गयी थी। कानूनी तौर पर यह छूट केवल कम्पनी ही प्राप्त कर सकती थी। लेकिन इस छूट का बेजा फायदा दो प्रकार से उठाया जाता था। पहले तो कम्पनी के कर्मचारी दस्तक प्राप्त करके स्वयं बिना चुंगी दिये निजी व्यापार करते थे। फिर कम्पनी इस प्रकार के दस्तक भारतीय व्यापारियों को भी बेच दिया करती थी, जिनके द्वारा वे लोग भी बिना चुंगी दिये व्यापार करते थे। नवाब सिराजुद्दौला (दे.) ने 'दस्तक' प्रथा का विरोध किया, लेकिन पलासी के युद्ध (दे.) के बाद 'दस्तक' प्रथा और अधिक बढ़ गयी। इस समय नवाब मीर जाफर (दे.) नाममात्र का शासक था। अन्त में इस प्रथा का फल यह हुआ कि इससे सबसे अधिक हानि भारतीय व्यापारियों को ही उठानी पड़ी और नवाब को भी राजस्व के बहुत बड़े अंश से हाथ धोना पड़ा।
मीर जाफर के पदच्युत किये जाने और मीर कासिम (१७६०-६३) (दे.) के पदारूढ़ किये जाने के बाद यह बुराई इतनी अधिक बढ़ गयी कि १७६२ ई. में मीर कासिम ने कम्पनी से इसका घोर विरोध किया तथा माँग की कि इसे रोका जाय। लेकिन कम्पनी ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। फलतः मीर कासिम ने सभी के लिए पूरी चुंगी माफ कर दी, जिससे सभी प्रकार के व्यापारियों को समान लाभ मिल सके। इसका नतीजा यह हुआ कि कम्पनी के कर्मचारियों को अपनी गैरकानूनी आमदनी का घाटा होने लगा। उन्होंने, विशेषरूप से पटना के एलिस नामक कम्पनी के कर्मचारी ने, शस्त्रबल से अपने गैरकानूनी दावे को मनवाने का प्रयास किया। फलतः कम्पनी और मीर कासिम में युद्ध (१७६३) छिड़ गया। मीर कासिम लड़ाई में हारकर भाग खड़ा हुआ। क्लाइव (दे.) ने, दूसरी बार (१७६५-१७६७ ई.) बंगाल का गवर्नर नियक्त होने पर 'दस्तक' प्रथा से उत्पन्न बुराई को दूर करने और कर्मचारियों के निजी व्यापार को नियंत्रित करने का प्रयास किया। लेकिन अन्त में गवर्नर-जनरल लार्ड कार्नवालिस (१७८६-९३ ई.) के जमाने में ही यह बुराई पूरी तौर से समाप्त हो सकी।
दस्यु : देखिये, 'दास'।
दाऊद खाँ : बंगाल के हाकिम सुलेमान कर्रानी का पुत्र और उत्तराधिकारी। सुलेमान की १५७८ ई. में मृत्यु हो गयी। दाऊद ने गद्दी पर बैठने के बाद अपने को स्वतंत्र बादशाह घोषित किया। उसने गाजीपुर जिले (उ. प्र. ) के एक मुगल किले पर अधिकार कर लिया। तत्कालीन मुगल बादशाह अकबर (दे.), बंगाल में स्वतंत्र राज्य की स्थापना को मुगल साम्राज्य की सुरक्षा के लिए खतरनाक मानकर १५७४ ई. में स्वयं दाऊद को दंडित करने के लिए, एक बड़ी सेना लेकर रवाना हुआ। दाऊद बिहार छोड़कर भागा। मगल सेनापति मुनअम खाँ ने उसे टुकरोई (उड़ीसा) के युद्ध (मार्च १५७५) में पराजित किया। फिर भी दाऊद मुगलों के विरुद्ध लड़ता रहा। जुलाई १५७६ ई. में राज महल के युद्ध में दाऊद अंतिम रूप से पराजित हुआ और मारा गया। उसके बाद बंगाल को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया।
दाऊद खाँ : गुजरात में १४०१ ई. में जफर खाँ ने अपने को स्वतंत्र सुल्तान घोषित करके जो नया राजवंश चलाया, उसमें चौथा सुल्तान। दाऊद १४५१ ई. में गद्दी पर बैठा। परन्तु आरम्भ में ही उसने अपने दुराचरण से समस्त अमीरों को अपना विरोधी बना दिया और उन्होंने उसे कुछ ही दिनों के बाद गद्दी से उतार दिया।
दाऊद खाँ : खानदेश के फारूकी वंश का छठा शासक। उसने सात वर्ष (१५०१-१५०८ ई.) तक शासन किया। उसके शासनकाल में कोई महत्त्वपूर्ण घटना नहीं घटी।
दाऊद बहमनी : दक्षिण के बहमनी वंश का चौथा सुल्तान। वह तृतीय सुल्तान मुजाहिदशाह का चचेरा भाई था। दाऊद ने उसकी हत्या करायी और स्वयं १३७८ ई. में गद्दी पर बैठ गया। लेकिन वह अधिक दिन तक शासन न कर सका। कुछ ही समय बाद मृत मुजाहिदशाह की दूध-बहन ने दाऊद को मरवा दिया।
दादाजी खोंडदेव (कोण्डदेव) : एक मराठा ब्राह्मण और महान मराठा नेता शिवाजी (१६२७-८० ई.) का गुरु और अभिभावक। उसने अपने इस शिष्य के मन में बचपन से साहस और पराक्रम के उदात्त भाव के साथ-साथ प्राचीन भारत के महान् हिंदू वीरों के प्रति श्रद्धा की भावना भरी। उसने गौ और ब्राह्मण को पूज्य बताया। उसी से प्रेरित होकर शिवाजी ने भारत में स्वराजय स्थापित करने का संकल्प किया। दादाजी खोंडदेव ने शिवाजी के छोटे से राज्य का शासन सुव्यवस्थित करके उसकी भावी राजस्व प्रणाली की आधारशिला रखी। (यदुनाथ सरकार कृत 'शिवाजी ऐण्ड हिज टाइम्स')
दादाभाई नौरोजी (१८२५-१९१७) : बम्बई के एक प्रमुख व्यापारी, जिनका इंग्लैण्ड तक गहरा व्यापारिक संबंध था। वे जाति के पारसी और बहुत धनिक थे। उनका दृष्टिकोण बहुत उदार था और उन्हें भारत के सार्वजनिक आन्दोलनों में गहरी दिलचस्पी रहती थी। १८८६ ई. में कलकत्ता में हुए दूसरे अधिवेशन में उन्हें भारतीय राषट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। वे पहले भारतीय थे जिन्हें उदार दल (लिबरल पार्टी) के टिकट पर इंग्लैण्ड की कामन सभा का सदस्य चुना गया। इसके बाद भी वे दो बार, १८९३ और १९०६ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। उनके देखते-देखते भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस प्रशासन संबंधी शिकायतें दूर कराने के लिए प्रयत्नशील पराधीन जनता के मामूली से संगठन से स्वराज्य प्राप्त करने के लिए संघर्षशील एक शक्तिशाली राष्ट्रीय प्रतिनिधि सभा बन गयी। स्वराज्य की मांग भारतीय राष्ट्रीय प्रतिनिधि सभा बन गयी। स्वराज्य की मांग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पहली बार १९०६ ई. में श्री नौरोजी की अध्यक्षता में हुए कलकत्ता अधिवेशन में की। उनकी मृत्यु ९२ वर्ष की अवस्था में १९१७ ई. में हुई, जिसके १२ वर्ष बाद कांग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता को अपना लक्ष्य घोषित किया। (आर. पी. मसानी कृत 'दादाभाई नौरोजी-दि ग्रैड ओल्ड मैन आफ इंडिया')
दादू : इन्होंने एक निर्गुणवादी संप्रदाय की स्थापना की, जो 'दादूपंथ' के नाम से ज्ञात है। वे अहमदाबाद के एक धुनिया के पुत्र और मुगल सम्राट् शाहजहां (१६२७-५८) के समकालीन थे। उनहोंने अपना अधिकांश जीवन राजपूताना में व्यतीत किया एवं हिन्दू और इस्लाम धर्म में समन्वय स्थापित करने के लिए अनेक पदों की रचना की। उनके अनुयायी न तो मूर्तियों की पूजा करते हैं और न कोई विशेष प्रकार की वेशभूषा धारण करते हैं। वे सिर्फ राम-नाम जपते हैं और शांतिमय जीवन में विश्वास करते हैं, यद्यपि दादूपंथियों का एक वर्ग सेना में भी भर्ती होता रहा है।
दादो का युद्ध : मार्च १८४३ ई. में सर चार्ल्स नेपियर के नेतृत्व में भारतीय ब्रिटिश सेना द्वारा मीरपुर (सिंध) के सर्वाधिक शक्तिसंपन्न अमीर मुहम्मद के खिलाफ छेड़ा और जीता गया। इस युद्ध के बाद वस्तुतः पूरे सिंध प्रदेश पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया और उसे ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।
दानसागर : बंगाल के राजा वल्लालसेन (११५८-७९ ई.) द्वारा संकलित ग्रन्थ। इसमें ७० अध्याय हैं, जिनमें दान की महत्ता, दान के प्रकार, दान करने के काल तथा दान देने की विधियों का विवेचन है।
दानाध्यक्ष : शिवाजी के प्रशासन के अष्ट-प्रधानों में से एक, जो 'पंडितराव' भी कहलाता था। वह राजपुरोहित और राजकीय दान-वितरक होता था
दानियाल, शाहज़ादा : मुगल सम्राट् अकबर का तीसरा और सबसे छोटा पुत्र। जन्म १५७२ ई. में। वह उस मुगल सेना का नायक था जिसके आगे अहमदनगर को आत्मसमर्पण करना पड़ा। वह अकबर का बहुत ही प्यारा पुत्र था, लेकिन शराबखोरी की बुरी आदत पड़ जाने से उसकी मृत्यु बहुत जल्दी १६०४ ई. में हो गयी।
दानिशमंद खाँ : शाहजहाँ के शासन के अंतिमकाल और औरंगजेब के शासन के प्रारम्भिककाल में दिल्ली दरबार में विद्यमान। वह बर्नयिर का संरक्षक था, जो उसे एशिया का योग्यतम व्यक्ति समझता था। (बर्नियर कृत 'ट्रेवेल्स')
दामाजी गायकवाड़ : पिलानी गायकवाड़ का पुत्र, जो आरम्भ में मराठा सेनापति त्र्यम्बकराव दाभाड़े की सेना में नौकर था। १७३१ ई. में बिल्हापुर के युद्ध में त्र्यम्बकराव की पराजय हुई और वह मारा गया। दामाजी ने इस युद्ध में अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया। इससे प्रभावित होकर विजेता पेशवा बाजीराव प्रथम ने दामाजी को अपनी सेवा में रख लिया और बाद को उसे गुजरात में पेशवा का प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया। इस प्रकार दामाजी मराठा संघ का एक प्रमुख सरदार बन गया और उसने बड़ौदा को अपनी राजधानी बनाकर गुजरात में गायकवाड़ों की सत्ता स्थापित की। उसने बाजीराव प्रथम के बाद दूसरे पेशवा बालाजी बाजीराव की भी सेवा की और १७६१ ई. में पानीपत के युद्ध में भाग लिया, किंतु जान बचाने के लिए वह युद्धक्षेत्र से भाग आया। इस पराजय के बाद भी दामाजी गुजरात को अपने अधिकार में किये रहा। १७६८ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। ('बम्बई गजेटियर', खण्ड ७)
दामोदर गुप्त : एक प्रख्यात विद्वान्। वह नवीं शताब्दी ई. में कश्मीर के शासक महाराज जयापीड का दरबारी कवि था।
दारयबहु (लगभग ई. पू. ५२२-४८६) : फारस के अखामनी वंश का तीसरा सम्राट्। उसके बहिस्तान अभिलेख (लगभग ई. पू. ५१९) में गंधार के लोगों को भी उसकी प्रजा बताया गया है। हमदान, परसीपोलिस तथा नक्शेरुस्तम से प्राप्त उसके एक अन्य अभिलेख में भारतीयों का भी उल्लेख उसकी प्रजा के रूप में किया गया है। हेरोडोटस के अनुसार गंधार उसके साम्राज्य का सातवाँ प्रांत और भारत अर्थात् सिंधुघाटी बीसवाँ प्रांत था। दारयबहु को अपने भारतीय साम्राज्य से काफी राजस्व प्राप्त होता था और साथ ही यहां से उसकी सेना के लिए सैनिक भी भेजे जाते थे। इस प्रकार भारत और फारस के बीच अत्यंत प्राचीनकाल से संपर्क था, जो दिनोंदिन बढ़ता गया। फलस्वरूप बहुत से फारसी शब्द भारत में प्रचलित हो गये। फारस के विचारों ने कुछ अंश तक भारतीय कला को भी प्रभावित किया। (राय चौधरी, पृ. २४० नोट)
दाराशिकोह, शाहजादा : मुगल बादशाह शाहजहाँ (दे.) का सबसे बड़ा पुत्र। मुमताज बेगम उसकी माता थी। आरम्भ में वह पंजाब का सूबेदार बनाया गया, जिसका शासन वह राजधानी से अपने प्रतिनिधियों के जरिये चलाता था। शाहजहाँ अपने पुत्रों में सबसे ज्यादा इसी को चाहता था और उसे आमतौर से अपने साथ दरबार में रखता था। दारा बहादूर इंसान था और बौद्धिक दृष्टि से उसे अपने प्रपितामह अकबर के गुण विरासत में मिले थे। वह सूफीवाद की ओर उन्मुख था और इस्लाम के हनफी पंथ का अनुयायी था। वह सभी धर्म और मजहबों का आदर करता था और हिंदू दर्शन व ईसाई धर्म में विशेष दिलचस्पी रखता था। उसके इन उदार विचारों से कुपित होकर कट्टरपंथी मुसलमानों ने उसपर इस्लाम के प्रति अनास्था फैलाने का आरोप लगाया। इस परिस्थिति का दारा के तीसरे भाई औरंगजेब ने खूब फायदा उठाया। दारा ने १६५३ ई. में कंधार की तीसरी घेराबंदी में भाग लिया था, यद्यपि वह इस अभियान में विफल रहा, फिर भी अपने पिता का कृपापात्र बना रहा और १६५७ ई. में शाहजहाँ जब बीमार पड़ा तो वह उसके पास मौजूद था।
दारा की उम्र इस समय ४३ वर्ष थी और वह पिता के तख्ते ताऊस को उत्तराधिकार में पाने की उम्मीद रखता था। लेकिन तीनों छोटे भाइयों, खासकर औरंगज़ेब ने उसके इस दावे का विरोध किया। फलस्वरूप दारा को उत्तराधिकार के लिए अपने इन भाइयों के साथ युद्ध करना पड़ा (१६५७-५८ ई.)। लेकिन शाहजहाँ के समर्थन के बावजूद दारा की फौज १५ अप्रैल १६५८ ई. को धर्मट के युद्ध में औरंगजेब और मुराद की संयुक्त फौजों से हार गयी। इसके बाद दारा अपने बाग़ी भाइयों को दबाने के लिए दुबारा खुद अपने नेतृत्व में शाही फौज़ों को लेकर निकला, किन्तु इस बार भी उसे २९ मई १६५८ ई. को सामूगढ़ के युद्ध में पराजय का मुंह देखना पड़ा। इस बार दारा के लिए आगरा वापस लौटना संभव नहीं हुआ। वह शरणार्थी बन गया और पंजाब, कच्छ, गुजरात एवं राजपूताना में भटकने के बाद तीसरी बार फिर एक बड़ी सेना तैयार करने में सफल हुआ। दौराई में अप्रैल १६५९ ई. में औरंगजेब से उसकी तीसरी और आखिरी मुठभेड़ हुई। इस बार भी वह हारा। दारा फिर शरणार्थी बनकर अपनी जान बचाने के लिए राजपूताना और कच्छ होता हुआ सिंध भागा। यहाँ उसकी प्यारी बेग़म नादिरा का इंतकाल हो गया।
दारा ने दादर के अफगान सरदार जीवनखान का आतिथ्य स्वीकार किया। किंतु मलिक जीवनखान गद्दार साबित हुआ और उसने दारा को औरंगज़ेब की फौज के हवाले दिया, जो इस बीच बराबर उसका पीछा कर रही थी। दारा को बंदी बनाकर दिल्ली लाया गया, जहाँ औरंगज़ेब के आदेश पर उसे भिखारी की पोशाक में एक छोटे-सी हथिनी पर बिठाकर सड़कों पर घुमाया गया। इसके बाद मुल्लाओं के सामने उसके खिलाफ मुक़दमा चलाया गया। धर्मद्रोह के अभियोग में मुल्लाओं ने उसे मौत की सजा दी। ३० अगस्त १६५९ ई. को इस सजा के तहत दारा का सिर काट लिया गया। उसका बड़ा पुत्र सुलेमान पहले से ही औरंगज़ेब का बंदी था। १६६२ ई. में औरंगज़ेब ने जेल में उसकी भी हत्या करा दी। दारा के दूसरे पुत्र सेपहरशिकोह को बख्श दिया गया, जिसकी शादी बाद को औरंगज़ेब की तीसरी लड़की से हुई। (कालिकारंजन कानूनगो कृत 'दाराशिकोह')
दारोगा : एक फारसी शब्द, जिसका अर्थ होता है 'प्रधान'। ब्रिटिश काल में यह थाना अधिकारी का पदनाम बन गया। इसका अंग्रेज़ी पर्याय सबइंसपेक्टर, पुलिस है। इस पद का सर्जन लार्ड कार्नवालिस (१७८६-९३) के प्रशासन के दौरान हुआ, जिसने प्रत्येक जिले को थानों या पलिस स्टेशनों में विभाजित किया था। थानों का इंचार्ज दारोगा होता था।
दास : वैदिक साहित्य में 'दास' शब्द आर्यों के शत्रु के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिनके साथ उन्हें पंजाब में युद्ध करना पड़ा था। इन्हें दस्यु भी कहते हैं। दासों को श्याम वर्ण और चपटी नाकवाला बताया गया है। वे ऐसी भाषा बोलते थे, जिसे आर्य नहीं समझते थे। उनके किलों और पशुधन को हस्तगत कर लेने के लिए आर्य लोग लालायित रहते थे। दास लोग आर्यों की यज्ञप्रथा के विरोधी थे। ये लोग कदाचित् निचली सिंधु घाटी में फलने-फूलने वाली प्रागैतिहासिक सभ्यता से सम्बंधित थे। बाद में 'दास' शब्द का अर्थ नौकर अथवा गुलाम हो गया और दस्यु डाकुओं को कहा जाने लगा। (मेकडानेल एवं कीथ रचित 'वैदिक इण्डेक्स')
दास प्रथा : भारतवर्ष में प्रायः सभी युगों में विद्यमान रही है। यद्यपि चौथी शताब्दी ई. पू. में मेगस्थनीज (दे.) ने लिखा था कि भारतवर्ष में दास प्रथा नहीं है, तथापि कौटिल्य के अर्थशास्त्र (दे.) तथा अशोक के अभिलेखों में प्राचीन भारत में दास प्रथा प्रचलित होने के संकेत उपलब्ध होते हैं। ऋणग्रस्त अथवा युद्धों में बन्दी होनेवाले व्यक्तियों को दास बना लिया जाता था। फिर भी प्राचीन भारत में यूरोप की भांति दास प्रथा न तो व्यापक थी और न दासों के प्रति वैसा क्रूर व्यवहार होता था। मुसलमानों के शासन काल में दास प्रथा में वृद्धि हुई और उन्हें नपुंसक बना डालने की क्रूर प्रथा आरम्भ हुई। यह प्रथा भारत में ब्रिटिश शासन स्थापित हो जाने के उपरांत भी यथेष्ट दिनों तक चलती रही। १८४३ ई. में इसको बन्द करने के लिए एक अधिनियम पारित किया गया।
दासबोध : १७वीं शताब्दी में स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना करनेवाले शिवाजी के गुरु रामदास द्वारा लिखित प्रसिद्ध ग्रंथ।
दास्ताने अमीर हमजल : चित्रों की एक किताब, जिसमें फारस के सुप्रसिद्ध कलाकार मीर सैयद अली और ख्वाजा अब्दुस्समद के चित्र संगृहीत हैं। जब हुमायूं ने भारत से भागकर फारस में शरण ली थी, तो यह पुस्तक उसे समर्पित की गयी थी। जब हमायं काबुल से वापस लौटा तो वह इस पुस्तक को अपने साथ ले आया। बाद में जब उसने पुनः दिल्ली को विजय किया, वह उस किताब को दिल्ली ले आया। तबसे यह चित्रसंग्रह भारत में है। इस संग्रह के चित्रों से ही मुगल चित्रकला की नींव नड़ी।
दाहिर : चच का पुत्र। जब आठवीं शताब्दी ई. के पहले दशक में अरबों ने सिंध पर आक्रमण किया, वह वहाँ का शासक था। शुरू के हमलों को तो दाहिर ने कुचल दिया किन्तु ७१२ ई. में मुहम्मद-इब्न-कासिम के नेतृत्व में अरबों ने उसे परास्त कर दिया और राओर के युद्ध में वह मारा गया। उसकी विधवा रानी ने राओर का किला बचाने में असफल होने पर जौहर कर लिया। इसके बाद अरबों ने सिंध की राजधानी आलोर पर कब्जा कर लिया और इस प्रकार सिंध मुस्लिम अरबों के शासनाधीन हो गया।
दिगम्बर जैन : जैन धर्म (दे.) का एक सम्प्रदाय, जिसके साधु वस्त्रहीन रहते हैं। इसके विपरीत श्वेताम्बर साधु श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।
दिङनाग : प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य और कवि, जो सम्भवतः चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (३८०-४१५ ई.) के शासन काल में विद्यमान था।
दिद्दा : कश्मीर नरेश क्षेमगुप्त की रानी, जिसने १० वीं शताब्दी ईसवीं में पहले अपने पति की ओर से शासन किया जो उसके हाथ की कठपुतली मात्र था, बाद में राजा के मरने पर वह स्वयं राजसिंहासन पर आरूढ़ हो गयी। १००३ ई. में उसने अपने भतीजे संग्रामराज को राजमुकुट सौंप दिया, जिससे कश्मीर में लोहर राजवंश प्रचलित हुआ।
दिया ज द नोवैस, बार्थो लोम्यो : प्रथम पुर्तगाली नाविक, जिसने १४८७ ई. में दक्षिण अफ्रीका के उत्तमाशा अन्तरीप का चक्कर लगाया और इस प्रकार यूरोप और भारत के बीच समुद्रमार्ग की खोज की।
दिलरस बानो बेगम : मुगल अफसर शाहनवाज खां की पुत्री, जो एक ईरानी अमीर था, १६३७ ई. में शाहजादा औरंगजेब के साथ ब्याही गयी। जब १६५८ ई. में औरंगजेब सम्राट् की हैसियत से दिल्ली की गद्दी पर बैठा, तो दिलरस बानो सम्राज्ञा बनी।
दिलावर खाँ गोरी : शहाबुद्दीन मुहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी का वंशज होने का दावा करनेवाला एक सरदार। वह १३९२ ई. में मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया। जब तैमूर ने १३९८ ई. में दिल्ली पर आक्रमण किया तो चारों ओर अराजकता उत्पन्न हो गयी, जिसका लाभ उठाकर दिलावर खाँ मालवा का स्वतंत्र शासक बन बैठा। पाँच वर्ष शासन करने के पश्चात उसकी मृत्य हो गयी। १४०६ ई. में उसका पुत्र अल्प खाँ गद्दी पर बैठा और उससे मालवा में एक नये राजवंश का प्रचलन हुआ। मालवा स्वाधीन राज्य के रूप में १५६१ ई. तक बचा रहा जब कि मुगल सम्राट् अकबर ने उसे विजय करके अपने अधिकार में कर लिया।
दिलावर खां लोदी : दिल्ली के अंतिम सुल्तान इब्राहीम लोदी (१५१७-२६) के अधीनस्थ लाहौर के अर्ध-स्वतन्त्र सूबेदार दौलत खां लोदी का पुत्र, जिसके साथ सुल्तान ने बड़ा कठोर व्यवहार किया। इसके फलस्वरूप दौलत खां सुल्तान से कुपित हो गया और उसने बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया।
दिलेर खां : एक मुगल अमीर, जिसे सम्राट् औरंगजेब ने शिवाजी के विरुद्ध राजा जयसिंह के साथ भेजा था। शिवाजी को जून १६६५ ई. में पुरन्दर की संधि के लिए बाध्य करने का श्रेय जयसिंह के साथ इस अमीर को भी है। किन्तु १६७० ई. में मराठों और मुगलों के बीच पुनः युद्ध आरम्भ हो गया। दिलेर खां को शाहजादा शाहआलम का सहायक बनाकर युद्ध के लिए भेजा गया। इस युद्ध में शिवाजी के विरुद्ध दिलेर खां को बहुत कम सफलता मिली। पुरन्दर की संधि के अनुसार जो किले शिवाजी के हाथ से निकल गये थे, वे पुनः शिवाजी ने छीन लिये और १६७४ ई. में शिवाजी ने एक स्वतन्त्र नरेश के रूप में अपना राज्याभिषेक किया
दिल्ली : भारत की राजधानी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि मूल दिल्ली उस स्थान पर थी जहां पहले महाभारत वर्णित पाण्डवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी। इस नगर की प्राचीनता इसी बात से सिद्ध होती है कि इन्द्रपत नाम का गाँव आज भी विद्यमान है, जहाँ हुमायूं और शेरशाह के किलों के अवशेष पाये जाते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से दिल्ली का प्रथम निर्माता तोमर नरेश अनंगपाल था, जो ईसा की ११वीं शताब्दी में शासन करता था। उसने एक लाल किला भी बनवाया था जहाँ आजकल कुतुबमीनार अवस्थित है, जो वर्तमान नयी दिल्ली से दक्षिण में तीन मील पर है। बारहवीं शताब्दी में यह नगर अजमेर के चौहानों के हस्तगत हो गया। किन्तु ११९३ ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने इसे अंतिम चौहान नरेश पृथ्वीराज से छीन लिया। इस प्रकार दिल्ली पर हिन्दू शासन का अंत हो गया।
मुस्लिम विजेताओं ने १८५७ ई. तक इसे अपनी राजधानी बनाये रखा, जबकि अंग्रेजों ने अंतिम मुगल सम्राट् बहादुरशाह (१८३७-५७ ई.) को गद्दी से उतारकर उस पर अधिकार कर लिया। मुस्लिम शासकों ने इस लम्बे काल (११९३-१८५७) के दौरान विभिन्न समयों में दिल्ली क्षेत्र के अंतर्गत विभिन्न स्थानों पर अपने महल बनाये। इन लोगों ने कभी दिल्ली छोड़ देने की बात नहीं सोची। केवल कुछ अवधि के लिए बाबर, अकबर और जहांगीर ने आगरा अपनी राजधानी बनायी थी।
अलाउद्दीन खिलज़ी (१२९६-१३१६) ने पुरानी दिल्ली के उत्तर-पूर्व तीन मील पर सीरी बसायी, गयासुद्दीन तुगलक ने पुरानी दिल्ली के पूर्व चार मील पर तुगलकाबाद का निर्माण कराया, उसके पुत्र मुहम्मद तुगलक ने १३२७ ई. में राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद ले जाने का असफल प्रयास करने के पश्चात् पुरानी दिल्ली और सीरी के बीच शहरपनाह का निर्माण कराया तथा उसके उत्तराधिकारी फीरोज़ तुगलक ने पुरानी दिल्ली के उत्तर में ८ मील पर फीरोज़बाद बसाया। इसमें संदेह नहीं कि मुस्लिम शासकों ने दिल्ली क्षेत्र में सात शहर बसाये, लेकिन सबका केन्द्र पुरानी दिल्ली ही रही। लोदी शासकों ने आगरा को राजधानी बनाया, जो मुगल शासक बाबर के जमाने में भी राजधानी रही। लेकिन हुमायूं फिर दिल्ली आ गया और पुराना किला बनवा शुरू किया, जिसके चारों ओर मुगल बादशाहों की राजधानी अवस्थित थी। शाहजहाँ ने पुरानी दिल्ली से जुड़ा हुआ शाहजहाँबाद बसाया, जहाँ उसने बहुत से शानदार महल बनवाये। पुरानी दिल्ली के बीच निर्मित जामा मस्जिद अपनी भव्यता के लिए आज भी प्रसिद्ध है। दिल्ली को कम दुर्दिन नहीं देखने पड़े। १३९८ ई. में तैमूर, १७३९ ई. में नादिरशाह तथा १७५७ ई. में अहमदशाह अब्दाली ने इसपर आक्रमण कर खूब लूटा और हजारों आदमियों को मौत के घाट उतारा। १७५८ ई. में इस पर मराठों का कब्जा होते-होते रह गया। १७६१ ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद भी यह लुटने से बच गयी।
मुगल बादशाहों की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण हो गयी और १८०३ ई. में दिल्ली पर अंग्रेजों का प्रभुत्व हो गया और मुगल बादशाह नाममात्र के शासक बने रहे। अंग्रेजों ने कलकत्ता की स्थापना की, उसका विकास किया और उसे अपनी राजधानी बनाया। फलतः दिल्ली का महत्त्व घट गया। १८५७ ई. के स्वाधीनता-संग्राम में विद्रोही सिपाहियों ने मई के महीने में दिल्ली पर कब्जा कर लिया, लेकिन सितम्बर महीने में अंग्रेजों ने पुनः उसे छीन लिया। जनवरी १८५८ ई. में अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह को औपचारिक रीति से गद्दी से उतार दिया गया और दिल्ली को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया। बहादुरशाह को पेंशन देकर रंगून में नजरबंद कर दिया गया। १९११ ई. तक कलकत्ता अंग्रेजी भारत की राजधानी रही। इसके बाद राजधानी पुनः दिल्ली लायी गयी। मुस्लिम शासकों की भाँति अंग्रेजों ने भी पुरानी दिल्ली से ६ मील दूर नयी दिल्ली बसायी, जो आज भी भारतीय गणतंत्र की राजधानी है।
दिल्ली दरबार : अंग्रेज सरकार ने १८७७, १९०३ तथा १९११ ई. में कुल तीन बार दिल्ली में विशाल दरबार किये। पहला दरबार लार्ड लिटन ने किया था, जिसमें महारानी विक्टोरिया को भारत की सम्राज्ञी घोषित किया गया। इस दरबार की शान-शौकत पर बेशुमार धन खर्च किया गया, जबकि १८७६ से १८७८ ई. तक दक्षिण के लोग भीषण अकाल से पीड़ित थे, जिसमें हजारों व्यक्तियों की जानें गयीं। उस समय दरबार के आयोजन को जन-धन की बहुत बड़ी बरबादी समझा गया। दूसरा दरबार लार्ड कर्जन ने १९०३ ई. में आयोजित किया, जिसमें बादशाह एडवर्ड सप्तम की ताजपोशी की घोषणा की गयी। यह दरबार पहले से भी ज्यादा खर्चीला साबित हुआ। इसका कुछ नतीजा तो निकला नहीं। यह केवल ब्रिटिश सरकार का शक्ति-प्रदर्शन मात्र था। तीसरा दरबार लार्ड हार्डिज (दे.) के जमाने में १९११ ई. में आयोजित हुआ। बादशाह जार्ज पंचम और उसकी महारानी इस अवसर पर भारत आये थे और उनकी ताजपोशी का समारोह हुआ था। इसी दरबार में एक घोषणा द्वारा बंगाल के विभाजन (दे.) को रद्द किया गया, साथ ही राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लाने की घोषणा की गयी।
दिल्ली विश्वविद्यालय : १९२२ ई. में स्थापित हुआ, १९५२ ई. में उसका पुनस्संगठन किया गया। इस विश्वविद्यालय में शिक्षा भी दी जाती है तथा अनेक डिग्री कालेज इससे सम्बद्ध भी हैं। अब बहुत से विश्वविद्यालयों में इसी प्रकार की व्यवस्था है।
दिल्ली समझौता : ५ मार्च १९३१ ई. को तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता महात्मा गांधी के बीच हुआ। इसके अनुसार सत्याग्रह आंदोलन जो अप्रैल १९३० में चालू किया गया था, स्थगित कर दिया गया, कांग्रेस राजनीतिक मसले हल करने के लिए लंदन के गोलमेज सम्मेलन में भाग लेनेके लिए सहमत हो गयी तथा १९३० ई. के बाद जितने भी दमनात्मक अध्यादेश जारी किये गये थे, वे वापस ले लिये गये। सत्याग्रह आंदोलन के सिलसिले में जो लोग गिरफ्तार किये गये थे उन्हें रिहा कर दिया गया।
दिल्ली सल्तनत : १२०६ ई. से लेकर, जबकि कुतुबुद्दीन ऐबक भारत का प्रथम मुस्लिम सुल्तान हुआ, १५२६ ई. तक जबकि मुगल बादशाह बाबर ने पानीपत की लड़ाई में इब्राहीम लोदी को पराजित कर मार डाला और मुगल साम्राज्य की स्थापना की, दिल्ली पर सुल्तानों का शासन रहा और इसे दिल्ली सल्तनत का काल कहा जाता है। इस ३२० वर्ष के लम्बे काल में दिल्ली के सुल्तान सारे हिन्दुस्तान के बादशाह माने जाते थे, हालांकि उनकी सल्तनत का विस्तार घटता-बढ़ता रहा। मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१) के जमाने में तो दिल्ली सल्तनत का विस्तार हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक हो गया था, किन्तु सन् १५२६ ई. में पानीपत की लड़ाई के समय उसका विस्तार दिल्ली के चारों ओर तक ही सीमित था। दिल्ली सल्तनत के अनतर्गत पाँच पृथक् वंशों ने राज्य किया, जिनका एक दूसरे से कोई सम्बन्ध नहीं था, यथा--गलामवंश (१२०६-९० ई.), खिलजी वंश (१२९०-१३२० ई.), तुगलकवंश (१३२०-१४१३ ई.), सैयदवंश (१४१४-५१ ई.) तथा लोदी वंश (१४५१-१५२६ ई.)।
गुलामवंश के १० सुल्तानों में कुतुबुद्दीन ऐबक (१२०६-१० ई.), आराम (१२११ ई.), इल्तुतमिश (१२११-३६ ई.), रुकनुद्दीन (१२३६ ई.) रजिया (१२३६-४० ई.), बहराम (१२४०-४२ ई.), मसऊद (१२४२-४६ ई.), नासिरुद्दीन (१२४६-६६ ई.) गयासुद्दीन बलबन (१२६६-८७ ई.) तथा कैकबाद (१२८७-९० ई.) हुए हैं। इनमें से अधिकांश सुल्तान अपने जीवन काल के प्रारंभ में गुलाम रह चुके थे, अतएव यह वंश गुलामवंश कहलाया। ये लोग बाद के तीन वंशों की भाँति तुर्क जाति के थे। अंतिम लोदीवंश अफगान जाति का था। गुलामवंश की पाँचवीं शासिका रजिया सुल्ताना इल्तुतमिश की लड़की थी। यह एकमात्र मुस्लिम रानी थी जो दिल्ली के तख्त पर बैठी।
खिलजीवंश में ६ सुल्तान हुए, यथा-जलालुद्दीन (१२९०-९६ ई.), रुकनुद्दीन (१२९६ ई.), अलाउद्दीन (१२९६-१३१६ ई.), शहाबुद्दीन उमर (१३१६ ई.), मुबारक (१३१६-२० ई.) तथा खुसरो (१३२० ई.)। इन सुल्तानों में अलाउद्दीन सबसे प्रतापी था। उसने न केवल राजस्थान को वरन कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण दक्षिण को अपने अधीन किया। उसके पास बहुत बड़ी सेना थी तथा जासूसों का संगठित दल था। जो भी उसके शासन का विरोध करता, उसे कठोर दण्ड दिया जाता था। सिपाहियों के वेतन निर्धारित थे तथा बहुत-सी वस्तुओं के दाम भी नियंत्रित एवं निर्धारित थे। लेकिन उसके उत्ताराधिकारी बहुत कमजोर साबित हुए। उसके मरने के ९ वर्ष बाद यह राज्य तुगलकवंश के हाथ में चला गया।
तुगलकवंश में ९ सुल्तान हुए, यथा-गयासुद्दीन (१३२०-२५ ई.), मुहम्मद (१३२५-५१ ई.), फीरोज़ (१३५१-८८ ई.), गयासुद्दीन द्वितीय (१३८९ ई.), अबूबकर (१३८९-९० ई.), नासिरुद्दीन (१३९०-९४ ई.), अलाउद्दीन (१३९४ ई.), नुसरतशाह (१३९५-९८ ई.) तथा महमूद (१३९९-१४१३ ई.)। इस वंश के द्वितीय सुल्तान मुहम्मद तुगलक के जमाने में सल्तनत का सर्वाधिक विस्तार हुआ, लेकिन इसके समय में सल्तनत का सर्वाधिक विस्तार हुआ, लेकिन इसके समय में उसका विघटन भी शुरू हो गया जबकि बंगाल और मअवर ने १३३८ ई. में विद्रोह किया, दक्षिण में बहमनी सल्तनत की स्थापना हुई तथा १३४७ ई. में सुदूर दक्षिण में विजयनगर के हिन्दू साम्राज्य का उदय हुआ। उसके शासनकाल की सबसे स्मरणीय घटना यह थी कि उसने १३२७ ई. में राजधानी दिल्ली से देवगिरि (दौलताबाद) ले जाने तथा १३२९-३२ ई. में ताँबे की सांकेतिक मुद्रा चलाने का प्रयास किया। उसके ये दोनों प्रयोग विफल रहे और सुल्तान की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा। १३९८ ई. में तैमूर ने दिल्ली पर आक्रमण किया और उसे लूटा। कमजोर सुल्तान मुकाबला न कर सका।अंतिम सुल्तान महमूद की मृत्यु (१४१३) पर खिज्र खाँ ने गद्दी पर अधिकार कर लिया और नया सैयदवंश चलाया, जिसने १४१४ से १४५१ ई. तक शासन किया। इस वंश में चार सुल्तान हुए, यथा-खिज्र खाँ (१४३४-४५ ई.) तथा आलमशाह (१४४५-५३ ई.)। इनमें से कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं था कि वह सल्तनत की ताकत को फिरसे प्रतिष्ठित करता। अंतिम शासक आलमशाह के जमाने में तो यह हाल हो गया कि सल्तनत के अंतर्गत केवल दिल्ली नगर और आसपास के गाँव रह गये। नतीजा यह हुआ कि उसे गद्दी से उतारकर लोदीवंश ने शासन शुरू किया। इस वंश ने १४५३-१५२६ ई. तक शासन किया। इस वंश में कुल तीन शासक हुए, जिनके नाम हैं--बहलोल (१४५३-८९ ई.), सिकंदर (१४८९-१५१७ ई.) तथा इब्राहीम (१५१७-२६ ई.)। इनमें से सिकंदर बहुत वीर था। उसने जौनपुर पर पुनः कब्जा किया और बिहार पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। उसने आगरे का विकास किया, ताकि आसपास के राज्यों पर नियंत्रण रह सके। इब्राहीम लोदी ने अपने उद्दण्ड व्यवहार से अपने सरदारों को नाराज कर दिया।नतीजा यह हुआ कि पंजाब के हाकिम दौलत खाँ और सुल्तान के चाचा अलम खाँ ने मुगल बादशाह बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया। बाबर ने १५२६ ई. में पानीपत की लड़ाई में इब्राहीम को परास्त किया और उसे मारकर दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत का अंत हो गया।
दिल्ली के सुल्तानों ने तलवार के जोर पर शासन किया और एक ऐसा प्रशासन स्थापित किया जिसका उद्देश्य सरदारों की सहायता से जनता को दबाये रखना था। यह एक प्रकार से निरंकुश शासन-प्रणाली थी जिसमें, हिन्दू और मुसलमान जनता को कोई अधिकार नहीं था। हिन्दुओं को और भी ज्यादा सताया जाता था। उनपर जजिया लगाया गया। साथ ही तीर्थयात्रा-कर भी लिया जाता था। जमीन का लगान और अन्य कर तो मनमाने ढंग से सुल्तानों द्वारा वसूल ही किये जाते थे। इस प्रकार के प्रशासन में प्रगति असंभव थी। शासन-प्रणाली पूर्णतया एक वर्ग तक सीमित थी। हाकिमों की एक के ऊपर एक कई श्रेणियाँ थीं, परन्तु सभी हाकिम केवल सुल्तान के प्रति उत्तरदायी होते थे और उसकी इच्छापर नियुक्त और बर्खास्त होते थे। प्रशासन को हिंदुओं की कोई परवाह नहीं थी, जो बहुमत में थे। उदार से उदार कहे जानेवाले सुल्तानों ने भी हिन्दू जनता के कल्याण के लिए कोई कार्य नहीं किया। नतीजा यह हुआ कि हिन्दू प्रजा प्रशासन के प्रति उदासीन हो गयी और मुस्लिम सूबेदारों को केन्द्रीय सत्ता के निर्बल होते ही अपने को स्वतंत्र घोषित करने का मौका मिल गया। विजयनगर को छोड़कर कहीं भी हिन्दुओं ने संगठित होकर मुस्लिम शासन को उखाड़ने का प्रयत्न नहीं किया।
हिन्दू संस्कृति और सभ्यता ने इससे पहले के आक्रमणकारियों-यूनानियों, शकों और हूणों को आत्मसात कर लिया, लेकिन मुस्लिम आक्रमणकारियों और उनके धर्म एवं संस्कृति को आत्मसात न किया जा सका। इसके विपरीत हजारों विजित हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बना लिया गया। फिर भी इस्लाम सभी हिन्दुओं को मुसलमान न बना सका और अंत में वह एक अल्पसंख्यक धर्म बनकर रह गया। मुसलमानों को हिन्दुओं के साथ साथ रहने के लिए बाध्य होना पड़ा। हिन्दुओं ने भी लड़ाई के मैदानों में पराजित होकर मुस्लिम विजेताओं से दूर रहने का प्रयत्न किया। हिन्दुओं ने अपने जातिबंधन को और भी कठोर कर लिया, महिलाओं को पर्दे के अंदर कैद कर दिया गया तथा छुआछूत हिन्दुओं का अभिन्न अंग बन गया। लेकिन मुसलमानों से हिन्दुओं का कुछ न कुछ सम्पर्क तो बना ही रहा। इसका फल यह हुआ कि एक नयी उर्दू भाषा का जन्म हुआ, जो हिन्दुओं और उन मुसलमानों के बीच सम्पर्क भाषा बनी जो तुर्की भाषा बोलते थे, सरकारी लिखापढ़ी में फारसी भाषा प्रयुक्त करते थे तथा धार्मिक समारोहों में अरबी का इस्तेमाल करते थे। हिन्दू विभिन्न प्रकार की क्षेत्रीय भाषाएँ बोलते थे, लेकिन धार्मिक कार्यों में संस्कृत का प्रयोग करते थे। दोनों धर्मों के कुछ उदारचेता व्यक्तियों ने दोनों धर्मों की विशेषताओं का अधययन किया और दोनों के बीच समन्वय की स्थापना का प्रयत्न किया। फलतः मुसलमानों में 'सूफीवाद' का जन्म हुआ और हिन्दुओं में रामानंद, चैतन्य, कबीर और नानक जैसे धार्मिक सुधारकों ने मत-मतान्तरों से ऊपर उठकर केवल एक ईश्वर की आराधना पर जोर दिया। लेकिन हिन्दुओँ और मुसलमानों के बीच की खाई यथावत् बनी रही।
कुछ सुल्तानों को भवन-निर्माण का भारी शौक था। उन्होंने अनेक भव्य प्रासादों और मस्जिदों का निर्माण कराया। यद्यपि उनके बनवाये प्रासाद इस युग तक अक्षुण्ण नहीं बचे, तथापि मस्जिदें अभी-विद्यमान हैं, जो उनके कला और वास्तुशिल्प के प्रति प्रेम को व्यक्त करती हैं। यह निर्माण कार्य मुख्यतः हिन्दू शिल्पकारों की सहायता से हुआ और मस्जिदों का निर्माण तो मुख्यतः उस सामग्री की मदद से हुआ जो हिन्दुओं के मंदिरों को तोड़कर प्राप्त की गयी थी। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत की कला एवं वास्तुशिल्प में भारतीय (हिन्दू) और विदेशी (फारसी तथा तुर्की) इस्लामी विचारों का प्रस्फुटन हुआ। भारत में वास्तुशिल्प की एक नयी शैली का जन्म हुआ, जिसे भारतीय अरबी कहते हैं। सल्तनत के विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार के वास्तुशिल्प का विकास हुआ, जिसका दिल्ली की वास्तुशैली से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस प्रकार जौनपुर, बंगाल, गुजरात, मालवा और दक्षिण में भिन्न-भिन्न प्रकार के वास्तुशिल्प का विकास हुआ। इनमें से हरेक की अपनी अपनी विशेषता थी। दिल्ली सल्तनत के काल की सबसे प्रसिद्ध इमारतें हैं-कुतुबमीनार और उसका अलाई दरवाजा, निजामुद्दीन औलिया की दरगाह और मस्जिद, कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद और फीरोज तुगलक की कब्र। इन सबका निर्माण सुल्तानों ने दिल्ली में ही कराया। (कैम्ब्रिज, खण्ड तीन; ईश्वरीप्रसाद लिखित 'मध्यकालीन भारत'; टामस कृत 'दिल्ली के पठान बादशाहों का इतिवृत्त'; के. एम. अशरफ रचित 'हिन्दुस्तान की जनता का जीवन और दशा'; फर्गुसन कृत 'भारतीय वास्तुशिल्प का इतिहास'; हैवेल कृत 'भारतीय वास्तुशिल्प'; विन्सेण्ट स्मिथ रचित 'भारत में ललित कला का इतिहास')
दिव : गुजरात के समुद्रतट पर एक महत्तवपूर्ण व्यापारिक केन्द्र और बंदरगाह। १५३५ ई. में जब बादशाह हुमायूं ने गुजरात पर विजय प्राप्त की, गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह (दे.) (१५२६-३७ ई.) ने भावकर मालवा में शरण ली और पुर्तगालियों की मदद मांगी। पुर्तगालियों ने इस अवसर का लाभ उठाया और १५३५ ई. में दिव पर अधिकार कर लिया। इस पर पुर्तगालियों का अधिकार चार सौ वर्ष से अधिक काल तक रहा। १९६१ ई. में वह स्वाधीन भारतीय गणराज्य में सम्मिलित कर लिया गया।
दिवाकर : एक कवि, जो महाराज हर्षवर्धन (६०६-४७ ई.) के काल में विद्यमान था, और उनका आश्रित था।
दिवोक अथवा दिव्य : कैवर्तों का नेता, जिसने राजा महिपाल द्वितीय (लगभग १०७०-७५ ई.) को पराजित कर मार डाला और उत्तरी बंगाल में अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
दिवोदास : एक प्रसिद्ध राजा, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। उसने दासों के अनार्य राजा संवर से युद्ध किया था।
दीग की लड़ाई : द्वितीय मराठा-युद्ध (दे.) के दौरान नवम्बर १८०४ ई. में छेड़ी गयी। इस लड़ाई में अंग्रेजों ने मराठा सरदार होल्कर को पराजित किया। (दीग पहले की भरतपुर रियासत की पुरानी राजधानी थी। सं.)
दीदोमीर : एक मुस्लिम नेता, जिसके बहुत-से अनुयायी फरीदपुर (बंगलादेश) जिले में थे। इसने १८४७ ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया, जो बलप्रयोग द्वारा दबा दिया गया।
दीनइलाही : एक नया धर्म जिसे अकबर बादशाह ने १५८२ ई. में चलाया। यह एक समन्वयात्मक धर्म था जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन, पारसी तथा ईसाई धर्म की मुख्य-मुख्य बातों को शामिल किया गया था। यह एकेश्वरवाद पर आधारित था, किन्तु उसमें थोड़ा बहुदेववाद का भी पुट था। इसका उद्देश्य सार्वभौम धार्मिक सहिष्णुता की स्थापना करना था। भारत में, जो धार्मिक भेदभाव से बहुत पीड़ित था, इस प्रकार की सहिष्णुता एक राष्ट्रीय आवश्यकता थी। यह धर्म तर्क पर आधारित था। अकबर के काल में ही इसके बहुत से अनुयायी हो गये थे। लेकिन अकबर की मृत्यु के बाद यह धर्म लुप्त हो गया।
दीपवंश : सिंहल (श्री लंका) के प्राचीन इतिहास का एक ग्रन्थ, जो चतुर्थ अथवा पंचम शताब्दी ईसवी में लिखा गया। इस ग्रन्थ से इस बात की पुष्टि होती है कि मौर्य सम्राट् अशोक की ओर से भारत के बाहर धर्म-प्रचारक भेजे जाते थे। इसमें अशोक द्वारा भेजे गये धर्म-प्रचारकों के नाम भी मिलते हैं। इस प्रकार इस पुस्तक में अशोक के धर्म-विजय के प्रयासों पर बहुत अच्छा प्रकाश डाला गया है।
दीवान : मुगल प्रशासन में सबसे बड़ा अधिकारी होता था। वह राजस्व एवं वित्त का एकमात्र प्रभारी होता था। उसकी नियुक्ति न केवल केन्द्रीय सरकार में वरन् प्रान्तीय सरकारों में भी होती थी। प्रान्तों में उसका पद सूबेदार के बाद माना जाता था। प्रान्तों में दीवान भी सम्राट् द्वारा नियुक्त होता था जो केवल सम्राट् के प्रति उत्तरदायी होता था। इस प्रकार वह सूबेदार को मनमानी करने से रोकता था।
दीवान : इस शब्द का प्रयोग सामान्यतः एक विभाग के लिए होता था, यथा-
1. दीवान-ए-आम-अथवा सम्राट् का कार्यालय। 2. दीवान-ए-अमीर कोही- अथवा कृषि विभाग। 3. दीवान-ए-अर्ज-अथवा सेना विभाग। 4. दीवान-ए-बंदगान-अथवा दास विभाग। 5. दीवान-ए-इन्शा-अथवा पत्राचार विभाग। 6. दीवान-ए-इश्तिहकाक-अथवा पेन्शन विभाग। 7. दीवान-ए-खैरात-अथवा दान विभाग। 8. दीवान-ए-खास-अथवा सम्राट् का अन्तरंग सभाकक्ष। 9. दीवान-ए-मश्तखराज-अथवा कर वसूल करनेवालों से बकाया वसूल करनेवाला विभाग। 10. दीवान-ए-काजिए-ममालक-अथवा न्याय, गुप्तचरी और डाक विभाग। 11. दीवान-ए-रिसालात-अथवा अपील विभाग। 12. दीवान-ए-रियासत-अथवा हाट अधीक्षकों का विभाग। यह शब्दावली प्रकट करती है कि दिल्ली के सम्राटों की प्रशासन पद्धति में एक प्रकार की विभागीय व्यवस्था थी।
दीवानी अदालत : दीवानी (धनसंबन्धी) न्याय की अदालत।
दुर्गादास : मारवाड़ का इतिहास-प्रसिद्ध राठौर-सरदार। यह जोधपुर के राजा जसवंतसिंह के मंत्री असिकर्ण का पुत्र था। मुगल सम्राट् की ओर से जब राजा जसवंतसिंह काबुल अभियान पर गया था, उसी बीच वहां १० दिसम्बर १६७८ ई. को उसकी मृत्यु हुई। उस समय उसका कोई पुत्र नहीं था। लेकिन दो मास पश्चात् विधवा रानियों के दो पुत्र हुए। एक पुत्र तो तत्काल मर गया, लेकिन दूसरा अजितसिंह के नाम से विख्यात हुआ। यही अजितसिंह मारवाड़ का वैध उत्तराधिकारी था। स्व. राजा के सरदारों के संरक्षण में शिशु अजितसिंह तथा उसकी मां को दिल्ली लाया गया। इन सरदारों में दुर्गादास प्रमुख था।
सरदारों ने औरंगजेब से आग्रह किया कि वे अजितसिंह को मारवाड़ की गद्दी का उत्तराधिकारी स्वीकार करें। लेकिन औरंगजेब मारवाड़ को मुगल साम्राज्य में मिलाना चाहता था, अतएव उसने यह शर्त रखी कि अजितसिंह मुसलमान हो जाय तो उसे मारवाड़ की गद्दी का उत्तराधिकारी माना जा सकता है। औरंगजेब ने अजितसिंह और उसकी विधवा मां को पकड़ने के लिए मुगल सैनिक भेजे, किन्तु चतुर वीर दुर्गादास ने औरंगजेब की योजना विफल कर दी। उसने कुछ राठौर सैनिकों को मुगल सैनिकों का सामना करने के लिए भेज दिया तथा स्वयं रानियों और शिशु को दिल्ली स्थित महल से निकालकर सुरक्षित जोधपुर ले गया। औरंगजेब ने जोधपुर पर कबजा करने के लिए विशाल मुगल सेना भेजी। १६८० ई. में जो युद्ध हुआ उसमें राठौरों का नेतृत्व दुर्गादास ने बड़ी बहादूरी से किया। औरंगजेब का पुत्र शाहजादा अकबर राजपूतों से मिल गया।
इस समय एक अवसर उपस्थित हुआ था जब राजपूत और अकबर मिलकर औरंगजेब का तख्ता पलट सकते थे, लेकिन औरंगजेब ने छलनीति से राजपूतों और अकबर में फूट पैदा कर दी। जब दुर्गादास को वास्तविकता का पता लगा तो वह अकबर को खानदेश और बगलाना होते हुए मराठा राजा शम्भूजी के दरबार में ले गया। दुर्गादास ने बहुत प्रयत्न किया कि राजपूत, मराठा और अकबर की फौजें मिलकर औरंगजेब से युद्ध करें, लेकिन आलसी शम्भूजी इसके लिए तैयार नहीं हुआ। दुर्गादास १६८७ ई. में मारवाड़ लौट आया। यद्यपि मेवाड़ ने औरंगजेब से संधि कर ली थी, तथापि मारवाड़ की ओर से दुर्गादास लगातार २० वर्ष तक औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध करता रहा। १७०७ ई. में औरंगजेब की मृत्यु हो गयी। इसके बाद नये मुगल बादशाह ने १७०८ ई. में अजितसिंह को मारवाड़ का महाराज स्वीकार कर लिया।
दुर्गावती, रानी : गोंडवाना की शासक, जो भारतीय इतिहास की सर्वाधिक प्रसिद्ध रानियों में गिनी जाती है। वह महोबा कालिंजर के चन्देल राजा कीर्तिराज की पुत्री थी। यह राजा १५४५ ई. में शेरशाह सूरी द्वारा कालिंजर के किले के घेरे के समय मारा गया था। दुर्गावती का विवाह गढ़मण्डल (गोंडवाना) के राजा दलपतिशाह के 'साथ हुआ, किन्तु वह जल्दी ही विधवा हो गयी। उस समय उसका वीर नारायण नामक नाबालिग पुत्र था जिसकी ओर से उसने स्वयं शासन करना शुरू किया। उसने मालवा के बाजबहादुर और बंगाल के अफगानों के हमलों से गोंडवाना की रक्षा की।
१५६४ ई. में मुगल सम्राट् अकबर ने रानी के राज्य पर हमला करने के लिए अपने सेनापति आसफ खाँ को भेजा। पुत्र को साथ लेकर रानी ने मुगलों की ५० हजार सेना का सामना किया। दोनों के बीच राजधानी के पास नरही में घोर युद्ध हुआ। युद्ध के दूसरे दिन उसका पुत्र घायल हो गया, जिसे रानी के सैनिकों की देखरेख में सुरक्षित स्थान पर भेज दिया गया। इन सैनिकों के जाने से रानी का पक्ष कमजोर हो गया और वह पराजित हो गयी। उसके दो तीर लगे और वह घायल हो गयी। शत्रुओं के हाथ में अपने को पड़ने से बचाने के लिए रानी ने कटार मारकर अपनी जान दे दी। इसके बाद मुगल सेना राजधानी चौरागढ़ की ओर बढ़ी। वहाँ उसके घायल अल्पवयस्क पुत्र ने पुनः जबर्दस्त प्रतिरोध किया, लेकिन बेचारा पराजित हुआ और मारा गया। गोंडवाना अकबर के साम्राज्य में मिला लिया गया। सेनापति आसफ खाँ अपने साथ वेशुमार सोना, चाँदी, हीरे, जवाहरात, सिक्के और एक हजार हाथी लेकर दिल्ली लौटा। यह इस बात का प्रमाण है कि रानी के राज्यकाल में गोंडवाना अत्यन्त समृद्धिशाली था।
दुर्जनसाल : १८२४ ई. में भरतपुर की गद्दी पर अनधिकृत कब्जा करनेवाला जाट सरदार; जबकि वास्तविक अधिकारी मृतक राजा का नाबालिग पुत्र था। ब्रिटिश सरकार ने दुर्जनसाल को मान्यता देने से इनकार कर दिया। १८२६ ई. में लार्ड कोम्बरमियर के नेतृत्व में एक ब्रिटिश भारतीय फौज भरतपुर पर चढ़ाई के लिए भेजी गयी। किले पर अंग्रेजों का कब्जा आसानी से हो गया। दुर्जनसाल को कैद करके बाहर भेज दिया गया।
दुर्योधन, दुर्रानी : दुर्योधन- 'महाभारत' महाकाव्य में वर्णित कौरवों का सबसे बड़ा भाई, जिसका युद्ध पाण्डवों से हुआ। युद्ध में दुर्याधन पराजित हुआ और मारा गया। दुर्रानी - 'अब्दालीवंश का दूसरा नाम। जब अफगानिस्तान के सुल्तान अहमदशाह (१७४७-७३ ई.) ने नादिरशाह की हत्या के पश्चात् शासन-भार ग्रहण किया, उसने गद्दी पर बैठते ही दुर्र-ये-दुर्रान की पदवी धारण की। तभी से अब्दाली खानदान को 'दुर्रानी' कहा जाने लगा।
दुर्लभराय : नवाब सिराजुद्दौला (दे.) का विश्वासघाती सेनापति, जिसने मीर जाफर के सहयोग से अपने स्वामी के विरुद्ध अंग्रेजों से साँठगाँठ की। उसने और मीर जाफर ने अंग्रेजों से १० जून १७५७ ई. को एक गुप्त संधि की। इसका फल यह हुआ कि २३ जून १७५७ ई. को जब सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के बीच विख्यात पलासी-युद्ध हुआ, दुर्लभराय और मीर जाफर ने लड़ाई में कोई भाग नहीं लिया। इस प्रकार सिराजुद्दौला पराजित हुआ।
दुर्लभवर्धन : सातवीं शताब्दी ई. में कश्मीर के कर्कोट वंश का प्रवर्तक। इस वंश ने ८५५ ई. तक कश्मीर पर शासन किया। इसके बाद उत्पलवंश का शासन स्थापित हुआ। कर्कोट वंश के प्रसिद्ध राजाओं में ललितादित्य (दे.) तथा जयापीड विनयादित्य (दे.) का नाम लिया जाता है।
देरोज़ियो, हेनरी लुई विवियन : एक पुर्तगाली भारतीय परिवार में सन् १८०९ ई. में कलकत्ता में पैदा हुआ। उसने अपने पिता के कार्यालय में क्लर्क की हैसियत से कार्य आरम्भ किया। बाद में वह अध्यापक और पत्रकार बन गया। १८२६ ई. में वह कलकत्ता के हिन्दू कालेज में अध्यापक नियुक्त हुआ, किन्तु अप्रैल १८३१ ई. में उसे इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया गया। इन पाँच वर्षों के अध्यापन काल में हिन्दू कालेज के छात्रों पर उसका असाधारण प्रभाव जम गया। इन छात्रों के माध्यम से बंगाल के नौजवानों को भी उसने प्रभावित किया, जिनमें अधिकांश स्वतंत्र चिंतक बन गये और 'युवा बंगाल' के नाम से पुकारे जाने लगे। ये लोग अपने विचारों में बहुत उग्र थे और हिन्दू समाज और धर्म की उन सभी बातों की आलोचना करते थे जो उन्हें असंगत जान पड़ती थीं। इससे सारे देश में हलचल मच गयी। कट्टर हिन्दुओं ने इन युवकों का तीव्र विरोध किया। नतीजा यह हुआ कि देरोज़ियो को हिन्दू कालेज से त्यागपत्र देने के लिए बाध्य कर दिया गया। तत्पश्चात् देरोजियो बहुत कम दिन यहाँ रहा, लेकिन आधुनिक बंगाल के इतिहास पर उसने अपनी अमिट छाप छोड़ी। उसकी शिक्षाओं ने आधुनिक विचारों के ऐसे युवकों का समूह खड़ा कर दिया जो विचारों में प्रगतिशील थे और जिन्होंने न केवल धार्मिक कट्टरता का विरोध किया, वरन् बाद में प्रशासन के विरुद्ध भी आवाज उठायी। शायद ही कभी किसी अध्यापक ने इतने कम समय में अपने छात्रों पर ऐसा व्यापक प्रभाव प्रदर्शित किया हो। (टी. एडवर्ड्स कृत देरोज़ियो का जीवन)
देवगढ़ : उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले में स्थित, जहाँ गुप्तकाल (३००-४५० ई.) के अनेक सुन्दर मंदिर विद्यमान हैं। यहाँ के दशावतार मंदिर में शिव, विष्णु तथा अन्य देवी देवताओं की अत्यंत कलापूर्ण मूर्तियाँ मिलती हैं, जो मुसलमानों की तोड़फोड़ से बच गयीं।
देवगाँव की संधि : १७ दिसम्बर १८०३ ई. को रघुजी भोंसले और अंग्रेजों के बीच हुई। द्वितीय मराठायुद्ध (दे.) के दौरान आरगाँव की लड़ाई (नवम्बर १८०३) में अंग्रेजों ने भोंसले को पराजित किया था, उसीके फलस्वरूप उक्त संधि हुई। इसके अनुसार बरार के भोंसला राजा ने अंग्रेजों को कटक का प्रांत दे दिया, जिसमें बालासोर के अलावा वरदा नदी के पश्चिम का समस्त भाग शामिल था। उसे अपनी राजधानी नागपुर में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखने के लिए मजबूर होना पड़ा। उसने निजाम अथवा पेशवा के साथ होनेवाले किसी भी झगड़े में अंग्रेजों को पंच बनाना स्वीकार किया और यह वायदा किया कि वह अपने यहाँ कम्पनी सरकार की अनुमति के बिना किसी भी यूरोपीय अथवा अमेरिकी को नौकरी नहीं देगा। व्यावहारिक दृष्टिकोण से इस संधि ने भोंसले को अंग्रेजों का आश्रित बना दिया।
देवगिरि : देखिये, 'दौलताबाद'।
देवगुप्त : तीन विभिन्न वंशों के तीन राजाओं का नाम। प्रथमतः गुप्तवंश के तृतीय सम्राट् समुद्रगुप्त (लगभग ३२०-५९० ई.) के पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय का यह एक नाम था। उसे देवगुप्त प्रथम कहा जाता है। दूसरा मालवा के गुप्त राजा का भी यह नाम था, जिसने सम्राट् हर्षवर्धन के बहनोई मौखरि नरेश गृहवर्मा (दे.) को लगभग ६०६ ई. में पराजित कर मार डाला। मालवा के इस राजा को देवगुप्त द्वितीय के नाम से याद किया जाता है। तीसरा देवगुप्त मगध के राजा आदित्यसेन का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था जिसने हर्षवर्धन की मृत्यु (६४७ ई.) के बाद पुनः गुप्तवंश की स्थापना की थी। वह देवगुप्त तृतीय के नाम से जाना जाता है। सम्भवतः वह सम्पूर्ण उत्तर भारत पर शासन करता था। उसे चालुक्य नरेश विनयादित्य ने पराजित किया, जिसने ६८० ई. तक राज्य किया। (बनर्जी. पृष्ठ ५५४, ६०७, ६१०)।
देवदत्त : बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध का चचेरा भाई। उसने बौद्ध धर्म को त्यागकर एक नये मत का प्रवर्तन किया, जो गुप्तकाल (चतुर्थ शताब्दी ईसवी) तक वर्तमान रहा।
देवपाल (लगभग ८१०-५० ई.) : बंगाल और बिहार पर शासन करनेवाले पालवंश (दे.) का तृतीय राजा और धर्मपाल का पुत्र। उसने लगभग ३५ वर्ष तक शासन किया। उसके काल में पालवंश की शक्ति अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी थी। आसाम से लेकर कश्मीर की सीमा तक और हिमालय से विन्ध्यपर्वत तक सम्पूर्ण उत्तर भारत पर उसका आधिपत्य था। जावा के शैलेन्द्रवंश के राजा बालपुत्रदेव का दूतमंडल उसके दरबार में आया था। शैलेन्द्र राजा ने नालंदा में एक बिहार का निर्माण कराया था और देवपाल ने उसके अनुरोध पर पाँच गाँवों का दान किया था। राजा देवपाल भी बौद्ध धर्म तथा नालंदा बिहार का महान् संरक्षक था, जो उन दिनों बौद्ध शिक्षा का बहुत बड़ा केन्द्र था। (ढाका हिस्ट्री आफ बंगाल, खण्ड १, पृष्ठ ११६ एफ-एफ.)
देवपाल : कन्नौज के प्रतिहारवंश का राजा, जिसने लगभग ९४० से ९५५ ई. तक शासन किया। इसीके काल में प्रतिहारों की शक्ति क्षीण होने लगी। चंदेल राजा यशोवर्मा ने उसे पराजित किया और उसे विष्णु की बहुमूल्य एक मूर्ति समर्पित करने के लिए बाध्य किया, जिसे फिर खजुराहो के मंदिर में प्रतिष्ठित किया गया।
देवभूति (अथवा देवभूमि) : मगध के शुंगवंश (दे.) लगभग १८५ ई. पू. से ७३ ई. पू. ) का अंतिम राजा। वह चरित्रहीन और दुराचारी था, फलतः उसके ब्राह्मण मंत्री वासुदेव ने लगभग ८३ ई. पू. में उसे मारकर कण्ववंश का शासन स्थापित किया।
देवराय प्रथम : (लगभग १४०६-२२) विजयनगर (दे.) के प्रथम राजवंश का तृतीय शासक। उसके सिंहासनारूढ़ होने पर विवाद उठ खड़ा हुआ, जिससे उसकी स्थिति बहुत कमजोर हो गयी। बहमनी सुल्तान फीरोज़ (दे.) ने इसका लाभ उठाते हुए विजयनगर पर हमला कर राजधानी पर कुछ समय के लिए अधिकार कर लिया। देवराय ने विवश होकर उससे संधि की जिसके अनुसार उसने सुल्तान को कर देने का वायदा किया और उसके साथ अपनी लड़की का विवाह कर दिया।
देवराय द्वितीय (१४२५-४६) : विजयनगर के प्रथम राजवंश का छठा शासक। उसने राज्य की उत्तरी सीमा पुनः कृष्णा नदी तक ले जाकर केरल पर अपनी प्रभुता स्थापित की। बहमनी सुल्तान अहमद (दे.) ने उसके समय में ही विजयनगर पर आक्रमण किया और सारे प्रजावर्ग को भीषण अत्याचारों से संत्रस्त कर डाला। लेकिन जान पड़ता है कि इस आक्रमण के बाद विजयनगर ने पुनः अपना पूर्व वैभव प्राप्त कर लिया, क्योंकि इटालियन यात्री निकोलो कोण्टी ने, जिसने १४२० ई. में विजयनगर की यात्रा की थी और फारस के यात्री अब्दुर्रज्जाक ने, जिसने १४४३ ई. में विजयनगर का भ्रमण किया था, अपने यात्रा विवरणों में इस राज्य के ऐश्वर्य और वैभव का वर्णन किया है।
देवराष्ट्र : एक प्रदेश, जिसके राजा कुबेर को सम्राट् समुद्रगुप्त (दे.) (लगभग ३३० से ३७५ ई.) ने अपने दक्षिणापथ अभियान में पराजित करने के बाद उसके अपहृत राज्य को उसे लौटा दिया। इतिहासकार स्मिथ के अनुसार यह राज्य महाराष्ट्र प्रदेश में था किन्तु नयी खोजों के अनुसार यह भारत के पूर्वीतट पर विजगापट्टम जिले में स्थित था। (स्मिथ. पृष्ठ ३०१, डुबरनिल. पृष्ठ १६० )।
देवाक : समुद्रगुप्त (लगभग ३३०-३८० ई.) के प्रयाग अभिलेख में वर्णित एक प्रत्यंत राज्य, जिसका राजा समतट (पूर्वी बंगाल का एक भाग) तथा कामरूप (प. असम) की भाँति गुप्त सम्राट् का करद था। देवाक राज्य कहाँ पर स्थित था, यह अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है। अनुमानतः यह पूर्वी बंगाल या पश्चिमी आसाम में स्थित रहा होगा।
देवानाम्पिय तिस्स : सिंहलद्वीप (श्रीलंका) का राजा, जो सम्राट् अशोक का समकालीन था। अशोक ने अपने भाई अथवा पुत्र महेन्द्र को इसी राजा के दरबार में भेजा था जिसने बाद में बौद्धधर्म ग्रहण कर लिया।
देवानाम्पिय पियदस्सी : (संस्कृत रूप देवानाम् प्रिय प्रियदर्शी) तृतीय मौर्य सम्राट् अशोक की उपाधि, जिसका उल्लेख अनेक शिलालेखों में हुआ है। केवल मास्की के शिलालेख में उसे देवानाम्पिय अशोक सम्बोधित किया गया है। इस उपाधि का अर्थ है देवों का प्रिय जो सभी के कल्याण की कामना करता है। (एस. भट्टाचार्य कृत ‘सेलेक्ट अशोकन इपीग्राफ्स’)।
देवीचन्द्र गुप्तम् : संस्कृत का एक लुप्त नाटक, जिसके कतिपय अंशों की खोज हाल ही में हुई है। इसका लेखक विशाखदत्त (दे.) माना जाता है। इस नाटक का कथानक चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई रामगुप्त के राज्यकाल से सम्बन्धित है, जो कायर तथा कुलकलंक था। जब वह अंतिम शकक्षत्रप रुद्रसिंह के आक्रमण से भयभीत होकर उसे अपनी भार्या को भेंट करने को प्रस्तुत हो गया, तो उसके कनिष्ठ भ्राता चंद्र गुप्त द्वितीय ने, शकराज की हत्या करके कुलगौरव की रक्षा की। इसके बाद चंद्रगुप्त द्वितीय ने बड़े भाई का भी वध कर डाला और उसकी भार्या से स्वयं विवाह कर लिया। इस नाटक से विदित होता है कि गुप्तराजवंश में समुद्र गुप्त (दे.) और चंद्रगुप्त द्वितीय (दे.) के बीच रामगुप्त भी सिंहासनारूढ़ हुआ था। (इ. ऐं. १९२३, पृ. १८१ नोट)
दोआब : उत्तर भारत में गंगा और यमुना के बीच तथा दक्षिण भारत में कृष्णा और तुंगभद्रा के बीच के ऐसे क्षेत्र, जो भारत के सर्वाक्षिक उपजाऊ भूभाग माने जाते हैं। इन क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिए आसपास के राजा बराबर प्रयत्नशील रहते थे। दिल्ली के सुल्तान गंगा और यमुना के दोआब पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के इच्छुक रहते थे। यह दोआब बहुधा दिल्ली पर शासन करनेवालों के ही हाथ में रहता रहा है। कुछ समय के लिए शिन्दे के नेतृत्व में मराठों का भी अधिकार इस पर रहा। १८०४ ई. में यह ब्रिटिश सरकार के हाथ में आया। कृष्णा और तुंगभद्रा के बीच के क्षेत्र को रायचूर दोआब भी कहते हैं। बहमनी सुल्तानों और विजयनगर के हिन्दू राजाओं के बीच इस दोआब पर कब्जे के लिए बराबर द्वन्द्व होता रहा। इस दोआब में रायचूर तथा मुदगल नाम के दो किले हैं। १५६५ ई. में विजयनगर के ध्वंस के पश्चात् रायचूर दोआब बीजापुर के सुल्तान के अधीन हुआ, और बाद में क्रमशः मुगल सम्राटों और अंग्रेज सरकार के कब्जे में आया।
दोनाबू का युद्ध : प्रथम बर्मा-युद्ध के दौरान (दे.) अप्रैल १८२४ ई. में हुआ। इस युद्ध में अंग्रेजों ने बर्मियों को पराजित कर दिया। बर्मा का सेनापति बंधुल मारा गया।
दोस्त अली : कर्नाटक का नवाब, जो हैदराबाद के निजाम की अधीनता में था। १७४३ ई. में मराठों ने कर्नाटक पर हमला कर दिया। दोस्त अली पराजित हुआ और मारा गया। मराठे उसके दामाद चंदा साहब (दे.) को बंदी बनाकर अपने साथ ले गये। चंदा साहब ने आगे चलकर कर्नाटक के परवर्ती इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।
दोस्त मुहम्मद खां : अफगानिस्तान का अमीर, जिसने १८२६ से १८६३ ई. तक शासन किया। जब १८३६ ई. में रूस के इशारे पर फारस ने हेरात पर हमला करने की धमकी दी, दोस्त मुहम्मद खाँ ने ब्रिटिश भारतीय सरकार से मैत्री के लिए यह शर्त रखी कि वह अमीर को पंजाब के महाराज रणजीतसिंह से पेशावर वापस लेने में मदद दे। चूंकि ब्रिटिश भारतीय सरकार ने इस शर्त पर अमीर को मदद देने से इनकार कर दिया, अतएव अमीर ने १८३७ ई. में अपने दरबार में रूस के राजदूत को आमंत्रित किया। भारत का गवर्नर-जनरल लार्ड आकलैण्ड इससे कुपित हो गया और उसकी नीति की चरम परिणति १८३८ ई. में ब्रिटिश-अफगान-युद्ध (दे.) में हुई जो १८४२ ई. तक चला। युद्ध के दौरान दोस्त मुहम्मद खाँ ने १८४० ई. में आत्म-समर्पण कर दिया और अंग्रेज उसे बंदी बना कर कलकत्ता ले गये। १८४२ ई. तक ब्रिटिश-भारतीय सेना को २० हजार आदमी गँवाकर तथा लगभग १५ करोड़ रुपया बर्बाद कर के अफगानिस्तान से लौट आना पड़ा। इसके बाद दोस्त मुहम्मद खाँ को रिहा कर अफगानिस्तान भेज दिया गया। वहाँ वह फिर से अमीर की गद्दी पर बैठा और एक स्वतन्त्र शासक की भाँति १८६३ ई. तक जीवित रहा। १८५५ तथा १८५७ ई. में उसने ब्रिटिश सरकार से दो संधियाँ कीं। अमीर ने ईमानदारी से इन संधियों का पालन किया और १८५७-५८ ई. के भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को कुचलने में अंग्रेजों की पूरी मदद की।
दौराई का युद्ध : अंतिम युद्ध था जो दारा (दे.) और औरंगजेब की सेनाओं के बीच हुआ। यह युद्ध अजमेर के दक्षिण में एक पहाड़ी दर्रे के बीच हुआ था जो तीन दिन (१२-१४ अप्रैल १६२९ ई.) तक चला। इस युद्ध में दारा की पूर्ण पराजय हुई और वह भाग निकला। अन्त में वह पकड़ा गया और औरंगजेब ने धर्मद्रोह का आरोप लगाकर उसे मृत्युदण्ड दिया।
दौलत खाँ : जब फारस के शाह अब्बास ने दिसम्बर १६४८ ई. में कन्धार पर आक्रमण किया, उस समय वहाँ का मुगल हाकिम। दौलत खाँ किले की रक्षा न कर सका, फलतः फरवरी १६४९ ई. में कन्धार फारस के अधिकार में चला गया।
दौलत खाँ लोदी : पन्द्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में दिल्ली का एक मुख्य अमीर। उस समय सुल्तान मुहम्मद तुगलक (दे.) की मृत्यु के फलस्वरूप तुगलकवंश का अंत हो चुका था। दिल्ली के अमीरों ने दौलत खाँ लोदी को गद्दी पर बिठा दिया। लेकिन वह कुछ ही महीनों तक सुल्तान रहा, क्योंकि खिज्र खाँ (दे.) ने मार्च १४१४ ई. में उसे गद्दी से उतार दिया। खिज्र खाँ स्वयं गद्दी पर बैठकर सैयद वंश प्रचलित किया।
दौलत खाँ लोदी : जिस समय दिल्ली में इब्राहीम लोदी (१५१७-२६ ई.) शासन कर रहा था, उस समय पंजाब का हाकिम। वह स्वाभिमानी प्रकृति का था और अपने पुत्र के साथ दुर्व्यवहार किये जाने के कारण सुल्तान इब्राहीम से बहुत नाराज हो गया था। दौलत खाँ ने सुल्तान के चाचा आलम खाँ से मिलकर अफगानिस्तान के शासन बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। दौलत खाँ ने आशा की थी कि बाबर भारत आकर लूट पाट करने के पश्चात् वापस चला जायगा। बाबर ने जब १५२४ ई. में लाहौर पर अधिकार कर लिया और अफगानिस्तान वापस जाने की इच्छा नहीं की, तो आलम खाँ ने अपना समर्थन वापस ले लिया। फलतः उस समय तो बाबर अफगानिस्तान वापस चला गया, लेकिन १५३६ ई. में उसने पुनः आक्रमण किया और भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डाली। इस बार दौलत खाँ लोदी को भी बाबर की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।
दौलत राव शिन्दे : महादजी शिन्दे (दे.) के भाई तुकोजी का पौत्र। १७९४ ई. में महादजी के मरने पर ग्वालियर का अधिपति बना। गद्दी पर बैठने के समय दौलतराव युवक था। उसने १८२७ ई. में अपनी मृत्युपर्यन्त शासन किया। उसका राज्य बहुत बड़ा, उत्तर से लेकर दक्षिण तक फैला हुआ था। उसके पास विशाल सेना थी, जिसको फ्रांसीसी अफसर द-ब्वाञ (दे.) ने प्रशिक्षित किया था और उस समय एक अन्य फ्रांसीसी अफसर पेरों उसका कमांडर था। दौलतराव पूना के पेशवा को अपनी मुट्ठी में करना चाहता था, लेकिन इंदैर का जसवंतराव होल्कर (दे.) इस मामले में उसका मुख्य प्रतिद्वन्द्वी था। इसके अलावा पेशवा का मुख्यमंत्री नाना फड़नवीस भी इसमें बाधक था। लेकिन १८०० ई. में नाना की मृत्यु हो गयी। दौलतराव तुरन्त पूना में अपनी धाक जमाने का प्रयास करने लगा। होल्कर ने उसका विरोध किया, फलतः पूना के परकोटे के बाहर ही अक्तूबर १८०२ ई. में दोनों के बीच युद्ध हुआ। पेशवा बाजीराव द्वितीय डरकर भाग खड़ा हुआ। उसने अंग्रेजों की शरण लेकर उनसे बसईं की संधि (दे.) की जिसके अनुसार अंग्रेजों ने पेशवा को पूना की गद्दी पर बैठाने का वायदा किया और बदले में पेशवा ने अपने खर्च पर पूना में अंग्रेज पलटन रखना स्वीकार किया। अंग्रेजों ने मई १८०३ ई. में पेशवा को पुनः गद्दी पर बैठा दिया। लेकिन शिन्दे, होल्कर और भोंसले (दे.) सभी ने बसईं की संधि का विरोध किया, क्योंकि उससे मराठों की स्वाधीनता समाप्त हो जाती थी।
फलतः १८०३ ई. में द्वितीय मराठा-युद्ध हुआ। दौलतराव शिन्दे की सेना यद्यपि यूरोपीय पद्धति से प्रशिक्षित थी तथापि वह असई, आरगाँव और लासवाड़ी के युद्धों में बुरी तरह पराजित हुई। दौलतराव के फ्रांसीसी सेनापति पेरों ने नौकरी छोड़ दी। दौलतराव को विवश होकर सुर्जी अर्जुनगाँव की संधि करनी पड़ी, जिसके अनुसार उसने अपना दक्षिण का प्रदेश तथा गंगा-यमुना के बीच का दोआब अंग्रेजों को समर्पित कर दिया। दौलतराव इस पराजय से बहुत क्षुब्ध हुआ। फलतः नवम्बर १८०५ ई. में उसने अंग्रेजों से फिर युद्ध कर दिया। यद्यपि उसे विजय प्राप्त नहीं हुई, तथापि अंग्रेजों ने पहले की संधि की शर्तों को नरम कर दिया। अंग्रेजों ने चम्बल नदी शिन्दे तथा अंग्रेजी राज्य की सीमा स्वीकार कर ली। दौलतराव अब भी अपने खोये हुए प्रदेशों को वापस पाने के लिए लालायित था। उसने अंग्रेजी क्षेत्र में लूटपाट करनेवाले पेंढारियों को सहायता देना आरंभ किया। १८१७ ई. में लार्ड हेस्टिंग्ज ने पेंढारियों के दमन के लिए अभियान चलाया और दौलतराव को नयी संधि करने के लिए बाध्य किया, जिसके अनुसार दौलतराव ने पेंढारियों को कोई सहायता न देने का वायदा किया तथा अंग्रेजों का यह अधिकार भी स्वीकार किया कि वे राजपूत राजाओं से संधि कर सकते हैं। इस प्रकार दौलतराव अंग्रेजों को कोई भी हानि पहुँचाने में असमर्थ हो गया। १८२७ ई. में जब उसकी मृत्यु हो गयी, तब भी उसके अधीन एक विशाल राज्य था, जिसकी राजधानी ग्वालियर थी।
दौलताबाद : दक्षिण के यादववंशी (दे.) राजाओं की राजधानी देवगिरि का सुल्तान मुहम्मद तुगलक द्वारा रखा गया नाम। यह गोदावरी नदी की उत्तरी घाटी में स्थित है और भौगोलिक दृष्टि से भारत का केन्द्रीय स्थल कहा जा सकता है। इस नगर ने इतिहास में बहुत बार उत्थान और पतन देखा। यह १३१८ ई. तक यादवों की राजधानी रहा, १२९४ ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने इसे लूटा। बाद में खिलजी की फौजों ने दुबारा १३१८ ई. में यादव राजा हरपाल देव को पराजित कर मार डाला। उसकी मृत्यु से यादववंश का अंत हो गया और नगर दिल्ली सल्तनत के अंतर्गत आ गया। बाद में जब सुल्तान मुहम्मद तुगलक गद्दी पर बैठा, उसे देवगिरि की केन्द्रीय स्थिति बहुत पसंद आयी। उस समय मुहम्मद तुगलक का शासन पंजाब से बंगाल तक तथा हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक फैला हुआ था।
सुल्तान ने देवगिरि का नाम दौलताबाद रखा। उसने इस नगर में बड़े-बड़े भवन और सड़कें बनवायीं। एक सड़क दौलताबाद से दिल्ली तक बनायी गयी। १३२७ ई. में सुल्तान दिल्ली से राजधानी हटाकर दौलताबाद ले गया। दिल्ली के नागरिकों ने दौलताबाद जाना पसंद नहीं किया। इस स्थानांतरण से लाभ कुछ नहीं हुआ, उल्टे परेशानियाँ बढ़ गयीं। फलतः राजधानी पुनः दिल्ली ले आयी गयी। लेकिन इससे दौलताबाद का महत्त्व नहीं घटा। दक्षिण में जब बहमनी राज्य टूटा, तब अहमदनगर राज्य में दौलताबाद का गढ़ अत्यन्त शक्तिशाली माना जाता रहा। १६३१ ई. में सम्राट् शाहजहाँ इस गढ़ को सर न कर सका, और किलेदार फतेह खाँ को घूस देकर ही उस पर कब्जा कर सका। मुगल शासन के अन्तर्गत भी दौलताबाद प्रशासन का मुख्य केन्द्र बना रहा। इसी नगर से औरंगजेब ने अपने दक्षिणी अभियानों का आयोजन किया। औरंगजेब के आदेश से गोलकुण्डा का अंतिम शासक अब्दुल हसन दौलताबाद के ही गढ़ में कैद किया गया था। १७०७ ई. में बुरहानपुर में औरंगजेब की मृत्यु होने पर उसके शव को दौलताबाद में ही दफनाया गया। १७६० ई. में यह नगर मराठों के अधिकार में आ गया, लेकिन इसका पुराना नाम देवगिरि पुनः प्रचलित न हो सका। आज भी यह दौलताबाद के नाम से ही जाना जाता है।
द्रविड़ (देश) : तमिलनाडु का प्राचीन नाम, अर्थात् मद्रास से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक दक्षिण भारत का भूभाग।
द्रविड़ (निवासी) : भारत में बसी हुई प्राचीनतम प्रजातियों में से एक, जो पहले उत्तर और दक्षिण दोनों भागों में फैली हुई थी। कालांतर में उत्तर भारत के द्रविड़ मेसोपोटामिया (वर्तमान ईराक) की ओर चले गये और रास्ते में बलूचिस्तान में अपनी ब्राहुई शाखा छोड़ गये जो आज भी द्रविड़ भाषा से मिलती-जुलती बोली बोलते हैं। उत्तर भारत के द्रविड़ लोगों को आर्यों ने दक्षिण की ओर खदेड़ दिया। आर्यों की सभ्यता और संस्कृति द्रविड़ों के मुकाबले निचले दर्जे की थी, लेकिन अच्छे योद्धा होने के कारण उत्तर भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने में वे सफल हो गये।
उत्तर में आर्यों के जम जाने के बावजूद दक्षिण भारत में द्रविड़ लोगों की सत्ता शताब्दियों तक कायम रही। इनकी सन्तान आज भी दक्षिण भारत में है जो तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम भाषाएँ बोलती है। इन भाषाओं का मूल उद्भव संस्कृत से नहीं हुआ है जो आर्यों की भाषा मानी जाती है। समय बीतने के साथ द्रविड़ों और आर्यों में रक्त का सम्मिश्रण हुआ और इस समय दोनों के बीच का भेद लगभग लुप्त हो गया है और दोनों की सभ्यता, संस्कृति और धर्म में समन्वय स्थापित हो गया है। द्रविड़ लोगों के देवी-देवता वैदिक धर्म में शामिल हो गये हैं और उत्तर भारत में उनकी पूजा उसी प्रकार होती है जैसे दक्षिण भारत में।
द्रौपदी : पंचाल के राजा द्रुपद की पुत्री, जिसे पाण्डुपुत्र अर्जुन ने अपनी धनुर्विद्या का प्रदर्शन करके विजित किया था, लेकिन बाद में पाँचों पाण्डवों के साथ उसका विवाह हुआ। संस्कृत के प्रसिद्ध महाकाव्य 'महाभारत' की वह मुख्य नायिका है।
द्वारसमुद्र : आधुनिक हैलविड़ का प्राचीन नाम। यह होयसल राजाओं की राजधानी थी जो वर्तमान कर्नाटक क्षेत्र पर शासन करते थे। इस राजधानी की स्थापना बिहिग (दे.) ने की, जो बाद में विष्णुवर्धन (लगभग ११११-१४ ई.) के नाम से विख्यात हुआ। यह नगर वैष्णव धर्म का केन्द्र बना। विख्यात वैष्णव संत रामानुज को विष्णुवर्धन की ही संरक्षकता प्राप्त थी। इस राजा ने कई भव्य विष्णुमंदिर बनवाये। द्वारसमुद्र में बना विष्णुमंदिर अपने सौंदर्य और कला के लिए बहुत विख्यात हुआ। किसी समय द्वारसमुद्र का राज्य देवगिरि (दे.) तक फैला हुआ था। १३२६ ई. में सुल्तान मुहम्मद तुगलक की मुस्लिम सेना ने इस नगर को लूट-पाटकर बरबाद कर डाला।
द्वैध शासन-पद्धति : सांविधानिक व्यवस्था का एक रूप। द्वैध शासन का सिद्धांत सबसे पहले लियोनेल कर्टिस ने प्रतिपादित किया था जो बहुत दिनों तक 'राउण्ड टेबिल' का सम्पादक रहा। बाद में यह सिद्धान्त १९१९ ई. के भारतीय शासन विधान में लागू किया गया जिसके अनुसार प्रान्तों में शिक्षा, स्वायत्त शासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक निर्माण, कृषि तथा सहकारिता आदि विभागों का प्रशासन मंत्रियों को हस्तांतरित कर दिया गया। ये मंत्री प्रान्तीय विधानसभा के निर्वाचित सदस्य होते थे और विधानसभा के प्रति उत्तरदायी थे। दूसरी ओर राजस्व, कानून, न्याय, पुलिस, सिंचाई, श्रम तथा वित्त आदि विभागों का प्रशासन गवर्नर की एक्जीक्यूटिव कौंसिल के सदस्यों के लिए सुरक्षित रखा गया। ये सदस्य गवर्नर द्वारा मनोनीत होते थे और उन्हीं के प्रति उत्तरदायी होते थे, विधानसभा के प्रति नहीं।
अंग्रेज शासकों के मतानुसार द्वैध शासन-पद्धति की स्थापना का मुख्य उद्देश्य भारतीयों को क्रमिक रूप से प्रशासन चलाने की कला का प्रशिक्षण देना था और यह एक प्रकार से भारतीयों की प्रशासन-क्षमता पर आक्षेप था। इसके अलावा हस्तांतरित विभाग खर्चेवाले विभाग थे, जबकि सुरक्षित विभाग आमदनीवाले विभाग थे। इस प्रकार का विभागों का बँटवारा मंत्रियों के लिए परेशानी पैदा करनेवाला था, क्योंकि ऐसी स्थिति में उन्हें खर्चे के लिए एक्जीक्यूटिव कौंसिल के सदस्यों का मुंह देखना पड़ता था। वास्तव में यह द्वैध शासन-पद्धति एक प्रकार से संक्रमणकालीन शासन-पद्धति थी, जिसे भारतीयों ने पसन्द नहीं किया। लेकिन ब्रिटिश सरकार को इस शासन-पद्धति में अधिक लाभ नजर आता था, क्योंकि अधिक महत्त्वपूर्ण विभाग एक्जीक्यूटिव कौंसिल के सदस्यों के हाथ में थे जो गवर्नर के प्रति उत्तरदायी थे। इस शासन-पद्धति की अलोकप्रियता तथा कार्यान्वयन में कठिनाइ के बावजद इसे आगे चलकर १९३५ ई. के भारतीय शासन-विधान में भी शामिल कर लिया गया। अर्थात् केन्द्र में भी द्वैध प्रशासन-पद्धति लागू करने की व्यवस्था की गयी, जबकि पहले यह केवल प्रान्तों में लागू थी। लेकिन १९३५ ई. का नया शासन-विधान कभी पूर्णतया लागू नहीं किया जा सका, अतः केन्द्र में द्वैध शासन पद्धति लागू नहीं हुई। जब स्वतन्त्र भारत का नया संविधान बना, पुराने शासन-विधान और द्वैध शासन-पद्धति का स्वतः अंत हो गया।
द्वैध शासन, बंगाल का : १७६५ ई. की इलाहाबाद की संधि (दे.) के अंतर्गत बंगाल, बिहार और उड़ीसा में स्थापित। उक्त संधि के फलस्वरूप एक ओर ईस्ट इण्डिया कम्पनी और दूसरी ओर अवध के नवाब शुजाउद्दौला, बंगाल के नवाब मीर कासिम और दिल्ली के सम्राट् शाहआलम द्वितीय के बीच युद्ध का अन्त हो गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल की दीवानी (दे.) सौंप दी गयी, अर्थात् कम्पनी को बंगाल का दीवान (वित्तमंत्री तथा राजस्व संग्रहकर्त्ता) बना दिया गया, जबकि मीर जाफर के लड़के को बंगाल का नवाब मान लिया गया। यह तय पाया गया कि कम्पनी जो राजस्व वसूल करेगी, उसमेंसे २६ लाख रुपया सालाना सम्राट् को तथा ५२ लाख रुपया बंगाल के नवाब को शासन चलाने के लिए दिया जायगा तथा शेष भाग कम्पनी अपने पास रखेगी। इस प्रकार बंगाल, बिहार और उड़ीसा में दोहरे शासन का आविर्भाव हुआ।
इसके अंतर्गत कम्पनी राजस्व वसूलने के लिए तथा नवाब शासन चलाने के लिए जिम्मेदार हुए। दोनों ने ही सम्राट् की अधीनता स्वीकार की और सम्राट् को भी राजस्व का कुछ भाग मिलने लगा जो बहुत वर्षों से बंद हो गया था। इस दोहरे शासन से कम्पनी की असंगत स्थिति का तो अंत हो गया, किन्तु शासन-व्यवस्था में कोई सुधार न हो सका।
दूसरी ओर नवाब से वित्तीय प्रबंध ले लिये जाने और उस पर शांति एवं व्यवस्था तथा कम्पनी के कर्मचारियों की घूसखोरी की प्रवृत्ति को रोकने की जिम्मेदारी सौंप दिये जाने से बंगाल की शासन-व्यवस्था बिगड़ने लगी; क्योंकि कम्पनी के कर्मचारी अपने को मालिक समझते थे, उन पर नियंत्रण पा सकना बहुत कठिन था। गरीब जनता कम्पनी तथा नवाब दोनों के अफसरों के अत्याचारों से त्राहि-त्राहि करने लगी। इसी का फल हुआ कि १७६९-७० ई. में भयंकर अकाल पड़ा जिससे बंगाल की एक-तिहाई आबादी नष्ट हो गयी। इस दुखद घटना ने दोहरी शासन-पद्धति की बुराई को सबसे अधिक उजागर कर दिया। फलतः १७७२ ई. में इसे समाप्त कर दिया गया।
धंग- (लगभग ९५०-९९) : मध्य भारत के चंदेलवंश का सबसे अधिक शक्तिशाली राजा। उसने अपना साम्राज्य चारों दिशाओं में फैलाया और काफी लम्बे अरसे तक शासन किया। उसने खजुराहो के कुछ सुन्दर मंदिर भी बनवाये तथा तत्कालीन राजनीति में सक्रिय भाग लिया। ९८९-९० ई. में वह पंजाब के राजा जयपाल (दे.) द्वारा संगठित भारतीय नरेशों के महासंघ में शामिल हुआ और सबसे साथ मिलकर गजनी के सुबुक्तगीन (दे.) के हमले का मुकाबला करने को बढ़ा, लेकिन कुर्रम घाटी के निकट युद्ध में सब राजाओं के साथ धंग ने भी हार खायी। राजा धंग सौ वर्ष तक जिया। जीवन के सौ वर्ष पूरे होने पर उसने प्रयाग जाकर त्रिवेणी में जलसमाधि ले ली। (एन. एस. वसु कृत 'चंदेलों का इतिहास')
धनञ्जय : दक्षिण भारत के उत्तरी अर्काट जिले में स्थित कुस्थलपुर का राजा। प्रयाग के स्तम्भलेख के अनुसार समुद्रगुप्त (चतुर्थ शताब्दी) ने अपने दक्षिणी अभियान में धनञ्जय को पराजित करने बाद उदारतापूर्वक मुक्त भी कर दिया।
धननंद : नंदवंशी राजाओं में अंतिम, जो सिकन्दर के आक्रमण के समय शासन करता था। प्राचीन यूनानी लेखकों उसका नाम अग्रमस अथवा जैण्ड्रमस लिखा है। इन लेखकों के अनुसार धननंद के पास अपार सम्पत्ति थी। पश्चिम में उसके साम्राज्य की सीमा व्यास नदी तक थी। उसके पास विशाल सेना थी, जिसमें २० हजार घुड़सवार, दो लाख पैदल, दो हजार रथ तथा तीन हजार हाथी थे। इस विशाल सेना से मुकाबला होने की बात सुनकर ही सिकन्दर के सैनिकों ने आगे पूर्व की ओर बढ़ने से इनकार कर दिया। फलतः सिकंदर को अपने देश वापस लौटना पड़ा। धननंद अत्याचारी राजा था और प्रजा उससे कुपित थी। चन्द्रगुप्त मौर्य (दे.) ने तक्षशिला के स्नातक चाणक्य की सहायता से प्रजा के असंतोष का लाभ उठाकर मगध पर आक्रमण कर दिया और धननंद को मार डाला तथा पाटलिपुत्र को राजधानी बनाकर मौर्यवंश को सत्तारूढ़ किया।
धनाजी जादव : एक मराठा सरदार, जिसने १६८९ ई. में शम्भु जी (दे.) की पराजय और मृत्यु के पश्चात् मुगलों के विरुद्ध मराठों का संघर्ष पूरी शक्ति से जारी रखा। उसने मुगलों के विभिन्न क्षेत्रों को बारी-बारी से रौंदा और मराठों का स्वराज्य के लिए संघर्ष जारी रखा। १७०७ ई. में मुगलों की कैद से साहु की मुक्ति के पश्चात् धनाजी मराठा सेना का प्रधान बनाया गया। धनाजी की मृत्यु हो जाने पर उसके स्थान पर उसका लड़का चंद्रसेन जादव सेनापति बनाया गया।
धरसेन : पश्चिम में वल्लभी के मैत्रकवंश (दे.) के चार राजाओं ने यह नाम धारण किया। यह वंश गुप्त राजाओं के पतन के पश्चात् राज्य श्रीसम्पन्न हुआ था। धरसेन प्रथम ने सेनापति की उपाधि ग्रहण की, किन्तु अन्य तीनों ने राजकीय उपाधियाँ धारण की। धरसेन चतुर्थ ने ६४५ से ६४९ ई. तक शासन किया। वह सम्राट् हर्षवर्धन का दौहित्र था। उसने 'परमभट्टारक परमेश्वर चक्रवर्ती' की उपाधि धारण की थी। वह अपने नाना हर्षवर्धन का उत्तराधिकारी भी बनना चाहता था, लेकिन उसे सफलता न मिली। उसके कार्यकलापों के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती।
धर्मट की लड़ाई : १५ अप्रैल १६५८ ई. को उज्जैन से १४ मील दूर हुई। इस युद्ध में एक ओर बीमार सम्राट् शाहजहाँ की ओर से दारा का पक्ष लेते हुए राजा जसवंतसिंह तथा कासिम अली की फौजों ने तथा दूसरी ओर से विद्रोही औरंगजेब तथा मुराद की फौज़ों ने भाग लिया। इस लड़ाई में शाही फौज बुरी तरह परास्त हुई। औरंगजेब ने विजयी होकर दिल्ली की ओर तेज़ी से प्रयाण किया। वह चम्बल नदी पार कर आगरा से पूर्व आठ मील पर सामूगढ़ पहुँचा, जहाँ दारा के नेतृत्व में शाही फौज से उसकी पुनः मुठभेड़ हुई। दारा पराजित होकर भाग खड़ा हुआ।
धर्मपाल : बंगाल और बिहार के पालवंश (दे.) का द्वितीय राजा। उसने लगभग ७५२ से ७९४ ई. तक शासन किया। वस्तुतः वह पालवंश की कीर्ति का प्रतिष्ठापक था। बंगाल के नरेशों में वह सबसे अधिक प्रतापी था। उसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी, जहाँ से उसने बंगाल और बिहार की सीमाओं के बाहर अनेक विजय-यात्राएँ कीं। कुछ समय के लिए वह सम्पूर्ण उत्तरी भारत का अधिपति हो गया। उसने कन्नौज के राजा इन्द्रराज को गद्दी से उतारकर उसके स्थान पर चक्रायुध को बैठाया, जिसने उसका सामंत बनना स्वीकार कर लिया। धर्मपाल को दो मोर्चों पर युद्ध करना पड़ा। उसने दक्षिण में राष्ट्रकूटों (दे.) से लोहा लिया जिन्होंने उसे गंगा-यमुना के दोआब से पीछे खदेड़ दिया। उधर प्रतिहारों (दे.) ने कन्नौज से उसके सामंत चक्रायुध को मार भगाया। राजा धर्मपाल बौद्धधर्म का उत्साही संरक्षक था, उसने विक्रमशिला (आधुनिक भागलपुर जिले) में सुप्रसिद्ध विहार एवं विश्वविद्यालय की स्थापना की तथा राजशाही जिले के पहाड़पुर के निकट सोमपुर विहार बनवाया। (ढाका हिस्ट्री आफ बंगाल, खण्ड एक)
धर्मपाल : कामरूप (आसाम) में १०वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजा ब्रह्मपाल द्वारा प्रवर्तित वंश का सातवाँ राजा। धर्मपाल १२वीं शताब्दी में हुआ। उसके शासन की अवधि का ठीक-ठीक पता नहीं चलता। तीन आलेखों में उसके द्वारा ब्राह्मणों को दिये गये भूमिदान का उल्लेख मिलता है। वह सात्तविक विचारों का शासक था, अतः अपने भूमिदान के आलेखों में धर्माचरण से होनेवाले पुण्यों का उल्लेख अवश्य कराता था। सम्भवतः वह विष्णु का उपासक था।
धर्मरत्न : मध्य एशिया में रहनेवाला एक भारतीय बौद्ध भिक्षु, जो ६५ ई. में कश्यप मातंग (दे.) के साथ चीन गया और वहाँ के हान सम्राट् मिंग-ती की संरक्षकता में लोयांग में श्वेताश्व विहार की स्थापना की। इस प्रकार उसने चीन में बौद्ध धर्म के प्रसार में योगदान किया।
धर्मशास्त्र : वेदों के बाद धर्मशास्त्रों को ही हिन्दुओं में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त है। धर्मशास्त्रों में वैदिक धर्मसूत्रों के अंतिरिक्त जिनमें उस युग की सामाजिक रीति-नीति और विधि-विधानों का विवरण है, मनुस्मृति आदि स्मृतियाँ भी शामिल की जाती हैं।
धृतराष्ट्र : महाभारत की कथा के अनुसार कौरवों का पिता। इन्हीं कौरवों का युद्ध अपने चचेरे भाई पाण्डवों से हुआ था। धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधा था, अतएव वह हस्तिनापुर का औपचारिक राजा था और उसकी ओर से छोटा भाई पाण्डु शासन चलाता था। पाण्डु के मरने के बाद कौरवों और पाण्डवों में उत्तराधिकार का विवाद चला, जिसके फलस्वरूप कुरुक्षेत्र में 'महाभारत' युद्ध हुआ, जिसमें दुर्योधन के नेतृत्व में कौरवों की पराजय हुई और युधिष्ठिर के नेतृत्व में पाण्डवों की विजय हुई।
धीमान् : ९वीं शताब्दी ई. में बंगाल के पाल राजाओं के समय में एक सुप्रसिद्ध कलाकार और मूर्तिकार। विख्यात तिब्बती इतिहासकार तारानाथ ने धीमान् और उसके पुत्र विटोपाल का उल्लेख अपनी पुस्तक में किया है और उन्हें बंगाल में प्रस्तर-मूर्तिकला, ताम्र-मूर्तिकला तथा चित्रकला की पृथक् शैली का प्रवर्तक बताया है।
धोयी : बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन (११७९-१२०५ ई.) के दरबार का कवि। उसने कालिदास के 'मेघदूत' के अनुकरण पर 'पवनदूत' काव्य की रचना की, जिसमें राजकुमार लक्ष्मणसेन के अभियान का वर्णन है।
धौली : उड़ीसा के पूरी जिले में स्थित, जहाँ अशोक के चतुर्दश शिलालेखों की एक प्रति प्राप्त हुई है। जौगढ़ की भाँति यहाँ भी संख्या ११, १२ तथा १३ के लेख नहीं मिलते। उनके स्थान पर दो अन्य लेख मिले हैं, जो विशेषरूप से कलिंग के लिए उत्कीर्ण कराये गये थे।
ध्रुव : मान्यखेट के राष्ट्रकूट वंश का चौथा राजा, जिसने लगभग ७८० से ७९३ ई. तक शासन किया। वह पराक्रमी योद्धा था, जिसने भिन्नमाल के गुर्जर राजा वत्सराज को पराजित किया और उससे वे दोनों श्वेत छत्र छीन लिये जो इसके पहले गुर्जर नरेश ने गौड़ नरेश से छीने थे। राजा ध्रुव ने लगभग ७७५ ई. में पल्लव (दे.) नरेश को भी परास्त किया।
ध्रुवदेवी : आरंभ में, सम्राट समुद्रगुप्त के बड़े पुत्र रामगुप्त की रानी। बाद में जब समुद्रगुप्त के छोटे पुत्र चंद्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य (३८० से ४१५ ई., दे.) ने रामगुप्त को मारकर गद्दी प्राप्त की तब उसने ध्रुवदेवी से विवाह कर लिया। उससे कुमारगुप्त उत्पन्न हुआ, जिसने बाद में ४१५ से ४५५ ई. तक शासन किया।
ध्रुवभट्ट : वल्लभी का राजा, जिसने कन्नौज के सम्राट् हर्षवर्धन (६०६-६४७ ई.) की पुत्री से विवाह किया। उसके मरने पर उसके पुत्र धरसेन चतुर्थ (दे.) ने 'परमभट्टारक' की पदवी प्राप्त की।
नंदवंश : का प्रवर्तन महापद्मनन्द (दे.) द्वारा लगभग ३६२ ई. पू. मगध में हुआ। इस वंश में नौ शासक हुए, यथा महापद्म और उसके आठ पुत्र, जिन्होंने बारी-बारी से राज्य किया। विभिन्न प्रमाणों के आधार पर उनका शासन काल १००, ४०, अथवा २० वर्षों का माना जाता है। केवल दो ही पीढ़ियों के शासकों के लिए १०० वर्षों का शासनकाल अत्यधिक जान पड़ता है। ४० वर्षों का शासनकाल उचित प्रतीत होता है। इस आधार पर मानना पड़ेगा कि ३२२ ई. पू. के आसपास चन्द्रगुप्त मौर्य (दे.) ने नंदवंश का नाश किया। नंदवंश के शासक शूद्र थे, फिर भी उन्होंने यथेष्ट शक्ति और धन संचय किया था। इस वंश के अंतिम शासक के पास, जिसे पुराणों ने धननन्द और यूनानी इतिहासकारों ने अग्रमस अथवा जैण्ड्रमस लिखा है, अतुल कोष तथा एक विशाल सेना थी, जिसमें २०,००० अश्वारोही, २००,००० पदाति, २,००० रथ और ३,००० हाथी थे। यूनानी इतिहासकारों ने उसे प्राच्य देश के शासक के रूप में उल्लिखित किया है। उसके राज्य की सीमा व्यास नदी तक विस्तृत थी और उसकी शक्ति से भयभीत होकर सिकन्दर के सैनिकों ने व्यास नदी से आगे बढ़ना अस्वीकार कर दिया और सिकन्दर को वापस लौटना पड़ा। किन्तु नंदवंश का अन्तिम शासक धननन्द अत्यंत अलोकप्रिय था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य अथवा कौटिल्य नामक ब्राह्मण की सहायता से ३२२ ई. पू. के निकट उसे तथा नंदवंश को नष्ट करके मौर्य वंश की नींव डाली।
नंदकुमार : एक बंगाली फौजदार, जो १७५७ ई. में क्लाइव तथा वाटसन द्वारा चन्द्रनगर के फ्रांसीसियों पर आक्रमण करने के समय हुगली में नियुक्त था। नन्दकुमार के अधीन बंगाल के नवाब की एक बड़ी सैन्य टुकड़ी थी, जिसका प्रयोग वह अंग्रेजों के आक्रमण के समय फ्रांसीसियों की रक्षा के लिए कर सकता था। किन्तु उक्त आक्रमण के पूर्व नन्दकुमार अपने अधीनस्थ सैनिकों को लेकर हुगली से दूर चला गया और अंग्रेजों ने सरलता से चन्द्रनगर पर अधिकार कर लिया। "यह स्पष्ट है कि इस प्रकार के आचरण के लिए नंदकुमार को उत्कोच (घूस) दिया गया था।" पलासी के युद्ध के उपरान्त वह नवाब मीर जाफ़र का कृपा पात्र बन गया और १७६४ ई. में शाहआलम ने उसको 'महाराज' की उपाधि प्रदान की। उसी साल वारेन हेस्टिंग्स को हटाकर नन्दकुमार को वर्दवान का कलक्टर नियुक्त किया गया और इस कारण हेस्टिंग्स ने उसे कभी क्षमा नहीं किया। अगले ही वर्ष नन्दकुमार को बंगाल का नायब सूबेदार नियुक्त किया गया, किन्तु शीघ्र ही उसे पदमुक्त कर वहां मुहम्मद रज़ा खां की नियुक्ति की गयी। १७७२ ई. में तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने रज़ा ख़ाँ हटा दिया तथा नन्दकुमार की सहायता से उस पर मुकदमा भी चलाया। किन्तु आरोप सिद्ध न हुए और तभी से नन्दकुमार और वारेन हेस्टिंग्स में मतभेद हो गया।
मार्च १७७५ ई. में नन्दकुमार ने वारेन हेस्टिंग्स के विरुद्ध कलकत्ता कौंसिल के सम्मुख भ्रष्टाचार एवं घूस के गंभीर आरोप लगाये, किन्तु दूसरे ही महीने बारवेल (दे.) नामक कौंसिल के सदस्य ने नन्दकुमार के विरुद्ध षड्यंत्र का एक वाद प्रस्तुत कर दिया। ये दोनों वाद विचाराधीन ही थे कि मोहनप्रसाद नामक एक व्यक्ति ने नन्दकुमार के विरुद्ध जालसाज़ी का एक और वाद प्रस्तुत कर दिया। इस अभियोग की सुनवाई मई, १७७५ में प्रारंभ हुई और समस्त कार्यवाही, बड़ी शीघ्रता से पूर्ण की गयी। नन्दकुमार दोषी सिद्ध किया गया और गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के मित्र तथा सुप्रीम कोर्ट के जज सर एलिजा इम्पी (दे.) ने उसको फाँसी की सजा दी। ५ अगस्त १७७५ ई. को नन्दकुमार को फांसी दे दी गयी। यद्यपि नन्दकुमार निर्दोष तथा सच्चा देशभक्त न था, तथापि जालसाजी के आरोप में उसे प्राणदण्ड देना एक प्रकार से न्याय की हत्या करना था। (बेवरिज कृत 'महाराजा नंदकुमार का मुकदमा')
नन्दिवर्धन : पुराणों के अनुसार शिशुनागवंश के अंतिम शासक पंचमक के पूर्व मगध का शासक। इसके संबंध में कोई विवरण उपलब्ध नहीं है।
नम्बूद्री ब्राह्मण : इस वर्ग का निवास मलाबार (केरल) का भूभाग है। इन लोगों ने वैदिक परंपरा और कर्मकाण्ड को विपरीत परिस्थितियों में भी आत्मत्यागपूर्वक सुरक्षित रख़ा है। अपनी विशिष्टता के कारण इन्हीं लोगों में से बद्रीनाथ आदि पवित्र मन्दिरों के रावल (मुख्य पुजारी) नियुक्त किये जाते हैं।
नगरकोट : आधुनिक काँगड़ा, जो हिमाचल प्रदेश में है। सुल्तान मुहम्मद तुगलक (दे.) ने १३३७ ई. में उस पर अधिकार कर लिया था।
नजफ़ खाँ : देखिये, 'मिर्जा नजफ़ खां'।
नजमुद्दौला : बंगाल के नवाब मीर जाफ़र का द्वितीय पुत्र और उत्तराधिकारी। १७६६ ई. में मीर जाफ़र की मृत्यु के उपरान्त अंग्रेजों ने बड़े भाई के स्थान पर उसको इस शर्त पर गद्दी पर बैठाया कि राज्य का संचालन कलकत्ता कौंसिल द्वारा चुने गये एक डिप्टी या उपशासक द्वारा होगा। कौंसिल ने रजा खां को उपशासक चुना और इस प्रकार नजमुद्दौला केवल नाममात्र का शासक रह गया। १७६६ ई. में उसका भत्ता कम करके ४१ लाख कर दिया गया, जो पुनः १७६९ ई. में ३२ लाख और १७७२ ई. में केवल १५ लाख कर दिया गया, जो उसके पद और शक्ति के क्रमिक ह्रास का सूचक है।
नयपाल : विहार और बंगाल के पालवंशीय शासक महीपाल (दे.) का पुत्र और उत्तराधिकारी। वह पालवंश का दसवाँ शासक था और उसने लगभग १०३८ से १०५५ ई. तक राज्य किया। उसके राज्यकाल में दीर्घकाल तक कलचुरियों (दे.) से संघर्ष चलता रहा। पाल शासन का विघटन नयपाल के राज्यकाल से ही प्रारंभ हो गया था और पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिणी बंगाल उसके हाथों से निकल गया था। उसके राज्यकाल में प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् अतिशा (दीपंकर श्रीज्ञान) ने तिब्बत के शासकों के निमंत्रण पर अपने शिष्यों सहित वहां की यात्रा की।
नरसा नायक : विजयनगर के सालुववंश के दूसरे और अन्तिम अल्पवयस्क शासक इम्मडि नरसिंह का संरक्षक। उसने उस बाल-शासक को एक प्रकार से बन्दी बना लिया और शासन संचालन की समस्त शक्ति अपने हाथों में ले ली। यह कार्य उसने इतनी चतुरता एवं कठोरता से किया कि १५०३ ई. में उसकी मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र वीर नरसिंह ही संरक्षक बना और वही १५०५ ई. में शासक बन बैठा।
नरसिंहगुप्त : सुविख्यात गुप्तवंश का एक शासक, जिसने बालादित्य का विरुद्ध धारण किया था। वह सम्राट् पुरुगुप्त (दे.) का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था। उसका शासनकाल लगभग ४६७ ई. से ४७३ ई. तक माना जाता है। नरसिंहगुप्त बौद्ध धर्म का कट्टर अनुयायी था और उसने नालन्दा में, जो उत्तरी भारत में बौद्ध शिक्षा का विश्वविख्यात केन्द्र था, ईंटों का एक भव्य मंदिर बनवाया, जिसमें ८० फुट ऊँची बुद्ध की ताम्रप्रतिमा की स्थापना की गयी थी। विद्वानों ने बालादित्य को ही हूण शासक मिहिरकुल का विजेता माना है, जिसकी सत्ता ५३३-३४ ई. में समाप्त कर दी गयी। ऊपर जो तिथियाँ दी गयी हैं, उनसे यह समीकरण सही नहीं प्रतीत होता।
नरसिंहवर्मा : कांची के विख्यात पल्लव सम्राट् महेन्द्रवर्मा (दे.) का पुत्र और उत्तराधिकारी। उसका उपनाम राजसिंह भी था। उसने लगभग ६३० ई. से ६६८ ई. तक राज्य किया। नरसिंहवर्मा पल्लववंश का सबसे सफल एवं ख्यातिलब्ध शासक था। उसने ६४२ ई. में चालुक्यवंश के प्रतापी सम्राट् पुलकेशी द्वितीय को पराजित कर मार डाला और चालुक्यों की राजधानी वातापी (आधुनिक बादामी) पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार उसने दक्षिण भारत में पल्लवों की सार्वभौम सत्ता स्थापित की। ६४० ई. में ह्युएनत्सांग नामक चीनी यात्री दक्षिण में परिभ्रमण करते हुए उसकी राजधानी कांची गया था, और नरसिंहवर्मा की शक्ति एवं ऐश्वर्य से विशेषरूप से प्रभावित हुआ था। नरसिंहवर्मा ने पल्लव कला में एक नवीन शैली का प्रचलन किया जो राजसिंह शैली के नाम से विख्यात है। उसने महाबलिपुरम् (मामल्लपुर) में धर्मराजरथ का निर्माण कराया और कांची का प्रसिद्ध कैलासनाथ मंदिर भी उसी के राज्यकाल में निर्मित हुआ।
नरेन्द्रनाथ दत्त : देखिये, 'स्वामी विवेकानन्द'।
नरेन्द्र-मण्डल : माण्टेगू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट की सिफारिशों के अनुसार ८ फरवरी १९२१ ई. को शाही ऐलान द्वारा इसकी स्थापना हुई। भारतीय देशी रियासतों के विभिन्न प्रतिनिधि शासक इसके सदस्य थे। वाइसराय इसका अध्यक्ष होता था और हर साल राजाओं में से इसके चांसलर और प्रोचांसलर का चुनाव होता था। यह सिर्फ एक सलाहकार संस्था थी और इसे कार्यकारी अधिकार प्राप्त नहीं थे। वाइसराय इस संस्था से उन सभी मामलों में परामर्श ले सकता था, जिनसे ब्रिटिश भारत और देशी रियासत, दोनों का ही संबंध होता था। यह रियासतों और उनके शासकों के आंतरिक मामलों या ब्रिटेन के बादशाह से उनके संबंधों, या रियासतों के वर्तमान अधिकारों या विवाह-संबंधों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था और न उनकी कार्य-स्वतंत्रता पर अंकुश लगा सकता था। इस मण्डल की स्थापना का उद्देश्य देशी रियासतों को ब्रिटिश भारतीय सरकार तथा नयी राष्ट्रीय विचारधारा के निकट संपर्क में लाना था। संस्था बहुत कारगर सिद्ध नहीं हुई। परिस्थितियोंवश इसकी उपयोगिता सिर्फ इतनी रही कि उसने सम्पूर्ण भारत के लिए आज की तरह की संघीय सरकार की स्थापना के लिए रास्ता साफ कर दिया।
नवाज़ ख़ाँ, शाह : १६५८-५९ ई. में मुगलों की ओर से अहमदाबाद का सूबेदार। सामूगढ़ (दे.) के युद्ध के उपरान्त जब शाहज़ादा दारा (दे.) भागकर अहमदाबाद आया तो उसने उसको शरण दी। नवाज़ ख़ाँ ने दारा को सूरत पर अधिकार करने में इस आशय से भी सहायता दी कि कदाचित वह पुनः अपना राज्य पाने में समर्थ हो सके। किन्तु दारा अजमेर चला गया और नवाज़ खां द्वारा की गयी सहायता व्यर्थ सिद्ध हुई।
नवाब वज़ीर : (अवधके)-देखिये, 'शुजाउद्दौला'।
नसरतशाह : हुसैनशाह का सबसे बड़ा पुत्र और उत्तराधिकारी। उसने १५१८ से १५३३ ई. तक बंगाल में शासन किया। हुसैनशाह के १८ पुत्र थे और नसरतशाह ने सभी के साथ अच्छा व्यवहार किया। उसने तिरहुत भी जीत लिया था और वह ललितकलाओं, वास्तुकला और साहित्य का पोषक था। उसने अपनी राजधानी गौड़ में बड़ी सुनहली मसजिद और कदमरसूल नामक दो प्रसिद्ध मसजिदों का निर्माण कराया। साथ ही उसने महाभारत का संस्कृत से बंगला में अनुवाद कराया।
नसरत शाह : तुगलकवंश (दे.) का आठवाँ सुल्तान। वह सुल्तान फीरोज तुगलक का पौत्र था। उसे जनवरी १३९५ ई. में गद्दी पर बैठाया गया किन्तु ३ या ४ ही वर्ष नाममात्र का शासक रहने के उपरांत उसकी हत्या कर दी गयी। अपने शासनकाल में वह फिरोजाबाद में दरबार लगाता था, जबकि उसका प्रतिद्वन्द्वी और चचेरा भाई महमूद तुगलक पुरानी दिल्ली में शासन करता था। उसकी मृत्यु से महमूद तुगलक, तुगलकवंश का एकमात्र निर्विरोध प्रतिनिधि रह गया।
नहपान : शकों के क्षहरातवंश का एक प्रसिद्ध क्षत्रप, जिसने नासिक या उसके निकट राजधानी बनाकर महाराष्ट्र प्रदेश पर शासन किया। उसकी तिथि का निश्चयपूर्वक निर्धारण नहीं हो सका है, लेकिन उसके सिक्कों एवं अभिलेखों से यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि उसने दूसरी शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश में राज्य किया। उसके राज्य में पूना (पुणें), उत्तरी कोंकण, काठियावाड़ और मालवा के भूभाग तथा अजमेर सम्मिलित थे। कुछ लोग उसे ही शक संवत् का प्रवर्तक मानते हैं।
नाग : नर्मदा नदी की घाटी के मूल निवासी। उनके एक शासक गणपति नाग का उल्लेख समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भलेख में हुआ है।
नागपुर : विदर्भ क्षेत्र का एक नगर और ब्रिटिशकालीन मध्य-प्रदेश की एक रियासत। अब यह महाराष्ट्र प्रदेश के अन्तर्गत है। पेशवा बाजीराव प्रथम (दे.) के काल में रघुजी भोंसला द्वारा स्थापित राजवंश के शासकों की यह नगर राजधानी था। १७६१ ई. में पेशवा बालाजी बाजीराव (दे.) की मृत्यु के उपरान्त नागपुर के भोंसला शासक प्रायः स्वतंत्र हो गये। परन्तु द्वितीय मराठा-युद्ध (दे.) में अंग्रेजों द्वारा पराजित होने पर १८०३ ई. में उन्हें सहायक-सन्धि स्वीकार करनी पड़ी। १८५४ ई. में जब्ती के सिद्धांत के अनुसार इसे ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।
नागभट्ट प्रथम : गुर्जर प्रतिहार वंश का संस्थापक। साधारणतया उसका काल आठवीं शताब्दी माना जाता है। सिन्ध के अरबों और दक्षिण के चालुक्यों तथा राष्ट्रकूटों के विरुद्ध वह अपने वंश की सत्ता बनाये रखने में समर्थ रहा।
नागभट्ट, द्वितीय : गुर्जर प्रतिहार वंश का एक प्रारंभिक शासक। लगभग ८१६ ई. में उसने गंगा के मैदान पर आक्रमण करके कन्नौज पर अधिकार कर लिया और वहाँ के शासक को सिंहासन से उतारकर कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। उपरान्त राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय (दे.) के हाथों उसकी पराजय हुई।
नागसेन : एक प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु एवं दार्शनिक। मेनेण्डर नामक यवन शासक को बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों से परिचित करानेवाले विद्वान के रूप में इसका उल्लेख 'मिलिन्द-पञ्हो' (मिलिन्द के प्रश्न) नामक ग्रंथ में हुआ है।
नागसेन : समुद्रगुप्त (दे.) की प्रयागप्रशस्ति लेख में उट्टंकित एक शासक। समुद्रगुप्त ने उसे पराजित करके उसके राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसे पद्मावती (पदम पवाया) का शासक बताया गया है, जो ग्वालियर और झाँसी के बीच स्थित थी।
नागा : लोग भारत के उत्तर-पूर्वी सीमा-प्रदेश में रहते हैं। वे प्रारम्भ में बड़े ही क्रूर थे और नर-मुण्डों का शिकार करते थे। उनकी मांग है कि उनके निवास क्षेत्र नागालैण्ड को स्वायत्त-शासन प्राप्त हो। (अब 'नागालैंड' भारतीय संघ का एक राज्य बना दिया गया है।-सं.)
नागानन्द : एक प्रसिद्ध संस्कृत नाटक, जिसकी रचना सातवीं शती में सम्राट हर्षवर्धन (दे.) द्वारा की हुई मानी जाती है।
नागार्जुन : एक प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान्, जिसका समय दूसरी शताब्दी ई. माना जाता है। कदाचित उसको सम्राट् कनिष्क (दे.) का संरक्षण प्राप्त था। उसकी दो प्रसिद्ध कृतियाँ 'सुहृल्लेख' और 'मध्यमकारिका' है। 'सुहृल्लेख' में बौद्धधर्मके सिद्धान्तोंका संक्षिप्त वर्णन है और 'मध्यमकारिका' महायान सम्प्रदाय का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।
नागार्जुन : एक प्रख्यात हिन्दू रसायनशास्त्र का विद्वान। उसका समय सातवीं-आठवीं शताब्दी माना जाता है। उसके प्रसिद्ध ग्रंथ 'रसरत्नाकर' में धातुओं के संशोधन और उनके गुण-दोषों का निरूपण है, जिसमें पारे का उल्लेख (पारद प्रयोग) सबसे महत्त्वपूर्ण है। अरबों ने नागार्जुन के ग्रन्थों से ही रसायन-विद्या का विशेष ज्ञान प्राप्त किया था (देखिये-पी. सी. राय कृत 'हिन्दू रसायनशास्त्र का इतिहास', भाग दो)।
नाट, जनरल सर विलियम (१७८२ से १८४५ ई. तक) : ईस्ट इंडिया कम्पनी की बंगाल सेना में १८०० ई. में एक सैनिक पदाधिकारी होकर आया। उसकी अतिशीघ्र सेनाओं का नेतृत्व सौंपा गया। आगे चलकर उसने अफगानों के आक्रमणों से कंदहार की रक्षा की। मैकनाटन (दे.) की हत्या के उपरांत उसने बिना स्पष्ट आदेश के भारत लौटना अस्वीकार कर दिया, किन्तु जब १८४२ ई. के जुलाई मास में लार्ड एलेनबरा ने उसे अपने मनचाहे मार्ग से लौटने की अनुमति दी, तब उसने लौटने के लिए जानबूझकर लम्बा मार्ग चुना। गजनी होता हुआ वह १७ सितम्बर १८४२ ई. को काबुल पहुँचा और ब्रिटिश सेनाओं की शक्ति जताता हुआ जलालाबाद होकर भारत लौटा। इस प्रकार उसने अफगान-युद्ध की पराजय को विजय का रूप दे दिया। उपरान्त उसकी नियुक्ति काबुल के रेजीडेण्ट के रूप में हुई और १८४४ ई. में उसने भारतीय सेवा से अवकाश लिया।
नादिरशाह : १७३६ ई. में फ़ारस में सिंहासनारूढ़ हुआ। उसने १७३८ ई. में काबुल और कन्दहार पर अधिकार कर लिया और १७३९ ई. के प्रारंभ में भारतवर्ष पर आक्रमण कर दिया। तत्कालीन मुगल बादशाह मुहम्मदशाह (दे.) राजपूतों का सहयोग उपलब्ध न कर सका। मुसलमान अमीरों और अधिकारियों में से अधिकांश नादिरशाह के साथ षड्यंत्र करते रहे। फलस्वरूप नादिरशाह निर्विरोध काबुल तक बढ़ आया और मुगल सेनाओं को सरलता से परास्त कर २० मार्च १७३९ ई. को उसने दिल्लीमें प्रवेश किया। पराजित मुगल बादशाह को उसका स्वागत करना पड़ा। उसके सैनिकों ने पहले कुछ दिनों तक दिल्ली में कोई लूटमार नहीं की, परंतु उसके सैनिकों पर जब हमले होने लगे तो उसने क्रुद्ध होकर कत्लेआम तथा प्रातः आठ बजे से सायंकाल तक नगर को लूटने का आदेश दे दिया। मुगल-सम्राट् की मध्यस्थता के फलस्वरूप उसने नर-संहार एवं लूटमार बन्द करवा दी, किन्तु तब तक दिल्ली के ३०,००० नागरिक मारे जा चुके थे और नगर का अधिकांश भाग जलाया जा चुका था।
नादिरशाह ने काबुल और सिन्धु नदी के पश्चिम का समस्त भूभाग अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया तथा मुहम्मदशाह को दिल्ली का सम्राट्, बना रहने दिया। १६ मई १७३९ ई. को वह ३० करोड़ रुपये, बहुमूल्य रत्न, मोती, कोहेनूर (दे.) सहित असंख्य हीरे, तख़्ते ताऊस (दे.), १००० हाथी ७००० घोड़े, १०,००० ऊँट, मुगल रनिवास (हरम) की बहुत-सी सुंदरियाँ, २०० कारीगर, १०० मिस्त्री एवं २०० बढ़ई लेकर तथा भारत को रक्तरंजित और पददलित छोड़कर स्वदेश लौट गया। वस्तुतः उसे इस आक्रमण में लूट का इतना धन प्राप्त हुआ कि उसने फारस को ३ वर्ष तक कर-मुक्त रखा। किन्तु उसके प्रारब्ध में इस धन का उपभोग अधिक काल तक बदा न था। इसीलिए भारत से लौटने के आठ ही वर्ष बाद उसका मस्तिष्क विकृत हो गया और विक्षिप्तावस्था में उसके ही शिविर में १७४७ ई. में छुरे से उसकी हत्या कर दी गयी।
नादिरा बेगम : बादशाह शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दारा शिकोह की पत्नी। सामूगढ़ के युद्धोपरान्त उसने दारा के साथ पलायन किया और उसके साथ ही समस्त दुःख एवं कष्ट सहे। अन्ततः इस दारुण दुःख को और अधिक सहन करने में असमर्थ होकर दादर जाते समय १६५९ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु से दारा को गहरा आघात लगा।
नानक : सिख धर्म के प्रवर्तक। १४६९ ई. में लाहौर के निकट तलवण्डी अथवा आधुनिक ननकाना साहिब में खत्री परिवार में वे उत्पन्न हुए। वे साधु स्वभाव के धर्म-प्रचारक थे। उन्होंने अपना समस्त जीवन हिन्दू और इस्लाम धर्म की उन अच्छी बातों के प्रचार में लगाया, जो समस्त मानव समाज के लिए कल्याणकारी हैं। उनका ध्येय धार्मिक झगड़ों को मिटाना था। उन्होंने विश्व में एक दूसरे के प्रति उदारता एवं सहनशीलता का उपदेश दिया। उन्होंने सर्वशक्तिमान् ईश्वर में आस्था रखने की शिक्षा दी तथा धार्मिक कट्टरता एवं अंधविश्वास का विरोध किया। उन्होंने सभी मनुष्यों को जाति और धर्म के भेदभावों से ऊपर उठाकर एक माना तथा अपने अनुयायियों को इस अपवित्र संसार में पवित्र जीवन बिताने की प्रेरणा दी। उन्होंने अत्यधिक तपस्या तथा अत्यधिक सांसारिक भोगविलास, अहंभाव एवं आडम्बर, स्वार्थपरता और असत्यभाषण से दूर रहने की शिक्षा दी। उन्होंने सभी को अपने धर्म का उपदेश दिया, फलतः हिन्दू और मुसलमान, दोनों ही उनके अनुयायी हो गये। उनके स्वरचित पवित्र पद तथा शिक्षाएँ (बानियाँ) सिखों के धर्मग्रंथ 'ग्रंथ साहिब' में संकलित हैं। नानकदेव की मृत्यु १५३९ ई. में हुई।
नाना फड़नवीस : एक मराठा राजनेता, जो पानीपत (दे.) के तृतीय युद्ध के समय पेशवा की सेवा में नियुक्त था। वह युद्धभूमि से जीवित लौट आया था। उपरान्त १७७३ ई. में नारायण राव पेशवा की हत्या कराकर उसके चाचा राघोबा ने जब स्वयं गद्दी हथियाने का प्रयत्न किया तो उसने उसका विरोध किया। नाना फड़नवीस ने नारायण राव के मरणोपरान्त उत्पन्न पुत्र माधवराव नारायण को १७७४ ई. में पेशवा की गद्दी पर बैठाकर राघोबा की चाल विफल कर दी। नाना फड़नवीस ही अल्पवयस्क पेशवा का मुख्यमंत्री बना और १७७४ से १८०० ई. में मृत्युपर्यन्त मराठा राज्य का शासन-संचालन करता रहा। किन्तु उसकी स्थिति निष्कंटक न थी, क्योंकि अन्य मराठा सरदार, विशेषकर महादजी शिन्दे (दे.) उसके विरोधी थे।
फिर भी नाना फड़नवीस अपनी चतुराई से समस्त विरोधों के बादजूद अपनी सत्ता बनाये रखने में सफल रहा। १७७५ से १७८३ ई. तक उसने अंग्रेजों के विरुद्ध प्रथम मराठा-युद्ध का संचालन किया। साल्बाई की संधि से इस युद्ध की समाप्ति हुई। उक्त संधि के अनुसार राघोबा को पेंशन दे दी गयी और मराठों को साष्टी के अतिरिक्त अन्य किसी भूभाग से हाथ नहीं धोना पड़ा। १७८४ ई. में नाना फड़नवीस ने मैसूर के शासक टीपू सुल्तान से लोहा लिया और कुछ ऐसे इलाके पुनः प्राप्त कर लिये, जिन्हें टीपू ने बलपूर्वक अपने अधिकार में कर लिया था। १७८९ ई. में टीपू सुल्तान के विरुद्ध उसने अंग्रेजों और निजाम का साथ दिया तथा तृतीय मैसूर-युद्ध में भी भाग लिया, जिसके फलस्वरूप मराठों को टीपू के राज्य का एक भूभाग प्राप्त हुआ। १७९४ ई. में महादजी शिन्दे की मृत्यु हो जाने से नाना फड़नवीस का एक प्रबल प्रतिद्वन्द्वी उठ गया और उसके बाद नाना फड़नवीस ने निर्विरोध मराठा राजनीति का संचालन किया। १७९५ ई. में उसने मराठा संघ की सम्मिलित सेनाओं का निजाम के विरुद्ध संचालन किया और खर्दा (दे.) के युद्ध में निजाम की पराजय हुई। फलस्वरूप निजाम को अपने राज्य के कई महत्त्वपूर्ण भूभाग मराठों को देने पड़े।
१७९६ ई. में नाना फड़नवीस के कठोर नियंत्रण से तंग आकर माधोराव पेशवा ने आत्महत्या कर ली। उपरांत राघोबा का पुत्र बाजीराव द्वितीय (दे.) पेशवा बना, जो प्रारंभ से ही नाना फड़नवीस का विरोधी था। इस प्रकार ब्राह्मण पेशवा और उसके ब्राह्मण मुख्यमंत्री में प्रतिद्वन्द्विता चल पड़ी। दोनों में से किसी में भी सैनिक क्षमता न थी, किन्तु दोनों ही राजनीति के चतुर एवं धूर्त खिलाड़ी थे। दोनों के परस्पर षड्यंत्रों से मराठों का दो विरोधी शिविरों में विभाजन हो गया, जिससे पेशवा की स्थिति दुर्बल हो गयी। इसके बावजूद नाना फड़नवीस आजीवन मराठा संघ को एकसूत्र में आबद्ध रखने में समर्थ रहा। १८०० ई. में नाना फड़नवीस की मृत्यु हो गयी और इसके साथ ही मराठों की समस्त क्षमता, चतुरता एवं सूझबूझ का अंत हो गया।
नाना साहब (धोण्ढो पंत) : अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय (दे.) के दत्तक पुत्र। वे अपने निर्वासित पिता बाजीराव द्वितीय के साथ कानपुर जिले में बिठूर नामक स्थल पर रहते थे और वहाँ के अंग्रेजों से उनका अच्छा मैत्री सम्बन्ध था। किन्तु १८५३ ई. में उनके पिता बाजीराव की मृत्यु के उपरान्त तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड डलहौजी ने उनकी पैतृक वार्षिक पेंशन देना अस्वीकार कर दिया, जिससे उनमें अंग्रेजों के प्रति घृणा और विरोध-भावना उत्पन्न हो गयी। तथाकथित सिपाही-विद्रोह (१८५७) में उनका कितना हाथ था, इस संबंध में निश्चय कर पाना कठिन है, किन्तु यह निश्चित है कि उसके संगठन एवं संचालन में उनका प्रमुख योगदान था। कुछ विद्रोहियों ने तो अंग्रेजी सत्ता हटाकर उन्हीं को सिंहासनासीन करने तक की योजना बनायी थी। कानपुर के निकट बीबीपुर में अंग्रेजों की हत्या का उत्तरदायित्व भी उन्हीं पर आरोपित किया गया। किन्तु नाना साहब में अपने पिता की ही भाँति सैनिक योग्यता न थी। १८५८ ई. में ताँत्या टोपे ने ग्वालियर पर अधिकार कर लेने के उपरान्त उन्हें पेशवा भी घोषित किया, पर नाना साहब विद्रोही सैनिकों का सफल नेतृत्व न कर सके। ताँत्या टोपे (दे.) की पराजय और २० जून १८५८ ई. को ग्वालियर पर अंग्रेजों के पुनः अधिकार कर लेने के उपरान्त नाना साहब भाग खड़े हुए। अनेक प्रयत्न करने पर भी अंग्रेज उन्हें बन्दी न बना सके और अज्ञातवास में ही उनकी मृत्यु हो गयी।
नामपंक्ति : का उल्लेख सम्राट् अशोक के १३ वें शिलालेख में हुआ है परन्तु उसकी ठीक पहचान नहीं हो सकी है। अभिलेख की अन्य प्रतियों में उन्हें नाभक और नाभिति भी कहा गया है। भण्डारकर महोदय का मत था कि वे उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रदेश और भारत के पश्चिमी तट के बीच निवास करते थे। (दे.-डी. आर. भण्डारकर कृत 'अशोक', पृ. ३३)।
नामहीन शासक' : अनुमानतः कुषाण राजा था जिसने कदफिसस द्वितीय की मृत्यु के उपरान्त, संभवतः ११० ई. से १२० ई.में कनिष्क के सिंहासनारोहण तक राज्य किया। कदाचित् इस अज्ञातनामा राजा ने ही वे नामरहित सिक्के प्रचलित किये थे जिनपर सोटरमेगस या त्रातारस (महान रक्षक) का लेख उत्कीर्ण पाया गया है।
नायडू, सरोजिनी (१८७९-१९४९) : इस सुप्रसिद्ध विदुषी महिला का जन्म बंगाली परिवार में और विवाह मराठा सज्जन (दाक्षिणात्य महानुभाव) से हुआ। वे ख्यातिलब्ध कवि तथा वक्ता थीं। उन्होंने भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण भाग लिया और १९२५ ई. में कानपुर में होनेवाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता की। इस उच्च पद पर आसीन होनेवाली वे प्रथम महिला थीं। भारतीय गणतंत्र में १९४७ से १९४९ ई. में मृत्युपर्यन्त उत्तर प्रदेश के राज्यपाल का पद सँभालनेवाली वे प्रथम महिला थीं। उनकी पुत्री पद्मजा नायडू भी पश्चिमी बंगाल की राज्यपाल रहीं।
नारायण राव : मराठों का पांचवां पेशवा, जिसने १७७२-७३ ई. में केवल ९ महीनों तक शासन किया। वह पेशवा माधवराव नारायण (१७६१-७२) (दे.) का सहोदर एवं उत्तराधिकारी था। सिंहासनासीन होने के केवल ९ मास उपरान्त ही उसके चाचा रघुनाथराव अथवा राघोबा के समर्थकों ने उसकी हत्या कर दी।
नार्थब्रुक, अर्ल : १८७२ से १८७६ ई. तक भारतवर्ष का वाइसराय और गवर्नर-जनरल। वह ग्लैडस्टोन के विचारों का समर्थक और उदारदल का था। भारत में उसकी नीति "करों में कमी, अनावश्यक कानूनों को न बनाने तथा कृषि योग्य भूमि पर भार कम करने" की थी। वह मुक्त व्यापार का समर्थक था, परन्तु आयात होनेवाली वस्तुओं पर अल्प करों से होनेवाली आय को तिलांजलि नहीं दे सका। उसने तेल, चावल, नील और लाख को छोड़कर निर्यात होनेवाली समस्त वस्तुओं पर से निर्यात-कर हटा दिया और आयात करों में भी ७।। प्रतिशत से ५ प्रतिशत की कमी कर दी। परन्तु इस अल्प आयात कर का भी लंकाशायर के सूती उद्योगपतियों ने विरोध किया। परिणामस्वरूप लार्ड डिजरेली की अनुदार सरकार तथा तत्कालीन भारत-मंत्री लार्ड सैलिसबरी ने उद्योगपतियों के हितों को ध्यान में रखकर ५ प्रतिशत के आयात कर को भी हटा देने पर बल दिया, इस कारण भारत-मंत्री (लार्ड सैलिसबरी) और नार्थब्रुक में मतभेद हो गया। यह मतभेद अफगानिस्तान के प्रति अपनायी जानेवाली नीति के प्रश्न पर और भी बढ़ गया।
१८७३ ई. में जब रूस ने कीब (दे.) पर अधिकार कर लिया, तब अफगानिस्तान के अमीर शेरअली ने भारत की अंग्रेजी सरकार से और भी निकट के मैत्री-सम्बन्ध का प्रस्ताव रखा। भविष्य में रूस के आक्रमण और साम्राज्य-विस्तार को ध्यान में रखकर यह संधि-प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। नार्थब्रुक शेरअली की इस प्रार्थना को उचित समझता था, इसलिए उसने ब्रिटिश सरकार से अफगानिस्तान के साथ इस आशय का लिखित समझौता कर लेने की अनुमति चाही। किन्तु इंग्लैण्ड की सरकार ने अनुमति देना स्वीकार न किया तथा शेरअली को केवल साधारण सहायता का वचन देने को कहा गया। किन्तु इंग्लैण्ड में डिजरैली की सरकार बनते ही ब्रिटिश मंत्रिमंडल की नीतियों में परिवर्तन आ गया। उसने अफगानिस्तान के प्रति १८७३ ई. से चली आती हुई अत्याधिक निष्क्रियता की नीति को त्यागकर अग्रसर नीति अपनाने में रुचि प्रकट की। नये भारतमंत्री लार्ड सैलिसबरी ने १८७४ ई. में नार्थब्रुक को आदेश दिया कि वे अमीर शेरअली से अपने राज्य में एक अंग्रेज रेजीडेण्ट रखने को कहें। किन्तु नार्थब्रुक ने इस माँग को अनुचित समझा क्योंकि थोड़े ही दिन पूर्व भारत सरकार ने अमीर के संधि-प्रस्तावों को ठुकरा दिया था। उसके विचार से रेजीडेण्ट रखने का प्रस्ताव अनुचित था और उसके भयंकर परिणाम हो सकते थे। फलतः लार्ड नार्थब्रुक ने अंग्रेज सरकार के साथ पहले से ही मतभेद होने के कारण त्यागपत्र दे दिया। कहना न होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिरता की दृष्टि से उक्त आयात कर का प्रचलित रहना आत्यावश्यक था।
नालन्दा : सातवीं शताब्दी का एक विश्वविख्यात बौद्ध विद्यापीठ। नालन्दा दक्षिणी बिहार में राजगिरि (राजगृह) के निकट स्थित है और उसके ध्वंसावशेष बड़गाँव नामक ग्राम में दूरतक बिखरे पड़े हैं। यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि कब और किसने नालन्दा महाविहार की नींव डाली। फाहियान ने, जिसने पाँचवीं शताब्दी में पाटलिपुत्र और आसपास के क्षेत्रों में भ्रमण किया था, इसका उल्लेख नहीं किया है, किन्तु सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत भ्रमण करनेवाले चीनी यात्री ह्युएनत्सांग ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इस प्रकार नालन्दा महाविहार ने, विश्वविद्यालय के रूप में पांचवीं और छठी शताब्दियों में विशेष कीर्ति अर्जित कर ली थी। वस्तुत ह्यएनत्सांग का कथन है कि गुप्त सम्राट् नरसिंहगुप्त बालादित्य (लगभग ४७० ई.) ने नालन्दा में एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया और उसमें ८० फुट ऊँची ताँबे की बुद्ध प्रतिमा की स्थापना की। जिन दिनों ह्यएनत्सांग नालन्दा विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त कर रहा था, उस समय शीलभद्र नामक बंगाली बौद्ध भिक्षु वहाँ का महास्थविर था। प्रायः इसी काल में शैलेन्द्र शासक बालपुत्रदेव ने मगध के तत्कालीन शासक देवपाल की अनुमति से नालन्दा में एक नये विहार का निर्माण इस आशय से कराया कि जावा से नालन्दा शिक्षा प्राप्त करने आनेवाले भिक्षुओं को निवास की सुविधा प्राप्त हो सके।
वास्तव में नालन्दा विहार अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विश्वविद्यालय था। वहाँ केवल भारत से नहीं, बल्कि सुदूर तिब्बत, चीन, जावा और लंका से अनेकानेक विद्यार्थी और विद्वान आते रहते थे। यद्यपि वहाँ सभी प्रकार की शिक्षा दी जाती थी तथापि बौद्धधर्म की महायान शाखा का अध्ययन-अध्यापन विशेषरूप से होता था। वहाँ हस्तलिखित ग्रंथों का एक विशाल पुस्तकालय, जो तीन विशाल भवनों में, जिनमें से एक नौ खंडों (मंजिलों) का था, स्थापित था। आज के किसी भी भारतीय विश्वविद्यालय को यह श्रेय प्राप्त नहीं है। वहाँ का अनुशासन कठोर था और समय की सूचना जलघड़ी द्वारा विधिवत् दी जाती थी। सभी प्रश्नों एवं समस्याओं पर खुलकर वाद-विवाद होते थे। शिक्षा के इस महान् केन्द्र का कब और कैसे विनाश हुआ, यह निश्चयपूर्वक ज्ञात नहीं है, किन्तु ध्वंसावशेषों के अध्ययन से प्रतीत होता है कि एक भयंकर अग्निकांड इसका कारण था। (पी. वी. वापट कृत '२५०० ईअर्स आफ बुद्धिज्म')
नासिक : महाराष्ट्र प्रदेश में गोदावरी तीरवर्ती एक प्राचीन नगर तथा हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थल। यह नगर कदाचित शक क्षत्रप नह्यान (दे.) की राजधानी था। चालुक्य सम्राट् पुलकेशी द्तीय और प्रारम्भिक राष्ट्रकूट (दे.) शासकों के काल में इस नगर की महत्ता बनी रही, परन्तु राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष द्वारा मान्यखेट (आधुनिक मालखेड़) को राजधानी बना लेनेपर इसका महत्त्व कम हो गया। नासिक और उसके समीपवर्ती क्षेत्र हिन्दू, बौद्ध एवं जैन अवशेषों के लिए प्रसिद्ध हैं।
नासिर जंग : दक्षिण (हैदराबाद) के निजामुल्मुल्क आसफजाह का द्वितीय पुत्र और उत्तराधिकारी। वह १७४८ ई. में निजाम बना, किन्तु उसके भानजे मुजफ्फर जंग (दे.) ने उत्तराधिकार के सम्बन्ध में विवाद खड़ा कर दिया। फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले और अर्काट के सिंहासन के दावेदार चंदा साहब ने उसका पक्ष लिया। नासिर जंग ने कर्नाटक पर आक्रमण करके अपने विरोधियों को मार्च १७५० ई. में बेलुडाबूर के युद्ध में पराजित किया और मुजफ्फर जंग ने पूर्णरूप से आत्मासमर्पण कर दिया। किन्तु नासिर जंग इस विजय से अधिक दिनों तक लाभ न उठा सका, क्योंकि दिसम्बर १७५० ई. में एक आकस्मिक आक्रमण में वह मारा गया।
नासिरुद्दीन : १५०० से १५१२ ई. में अपनी मृत्युपर्यन्त मालवा का सुलतान। वह पितृहन्ता था; यद्यपि उसके पिता ने उसे स्वेच्छा से १५०० ई. में सुल्तान बना दिया था तथापि उसने १५०१ ई. में उसे विष देकर मार डाला। वह क्रूर एवं अत्याचारी शासक था।
नासिरुद्दीन कुबाचा (कुबैचा) : शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी (दे.) का तुर्क गुलाम। अपनी योग्यता के बल पर वह सिंध का सूबेदार नियुक्त हुआ और उसने कुतुबुद्दीन ऐबक की बहिन से विवाह कर लिया। कुतुबुद्दीन भी उसी की भाँति गोरी का एक तुर्क गुलाम था। शहाबुद्दीन गोरी की मृत्यु के उपरान्त जब कुतुबुद्दीन (१२०६-१० ई.) दिल्ली का सुल्तान बना, कुबाचा ने विद्रोह कर दिया। किन्तु उसकी पराजय हुई और उसे कुतुबुद्दीन की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।
नासिरुद्दीन महमूद : दिल्ली का सुल्तान जिसने १२४६ ई. से १२६६ ई. तक राज्य किया। वह सुल्तान इल्तुतमिश (१२११-१२३६) का कनिष्ठ पुत्र था। नासिरुद्दीन विद्याप्रेमी और शान्त स्वभाव का व्यक्ति था। शासन का सम्पूर्ण भार उलग खाँ अथवा गयासुद्दीन बलबन (दे.) पर छोड़कर वह सादा जीवन व्यतीत करता था। उसने बलबन की पुत्री से विवाह किया था। उसके राज्यकाल में बलबन ने शासन प्रबन्ध में विशेष क्षमता दिखायी और पंजाब तथा दोआब के हिन्दुओं के विद्रोहों का दृढ़ता से दमन किया। साथ ही उसने मुगलों (मंगोलों) के आक्रमणों को भी रोका। नासिरुद्दीन विद्वानों का आश्रयदाता था और तबक़ाते-नासिरी (दे.) के लेखक मिनहाजुद्दीन सिराज को उसके दरबार में उच्च पद प्राप्त था।
नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह : तातार खाँ ने १४०३ में सिंहासनारोहण के उपरान्त उपाधि धारण की। उसने अपने पिता जफ़र खाँ को, जो उन दिनों गुजरात का सूबेदार था, बन्दी बना लिया और स्वयं स्वतंत्ररूप से उस प्रदेश पर शासन करने लगा। किन्तु एक वर्ष बाद ही उसके पिता ने उसे विष देकर मार डाला और स्वयं गुजरात के सिंहासन पर अधिकार कर लिया।
निकितिन, अथनासियस : एक रूसी व्यापारी एवं पर्यटक, जिसने १४७० से १४७४ ई. तक दक्षिण के बहमनी राज्य में भ्रमण किया। उसने दक्षिण की तत्कालीन दशा का आंखों देखा विवरण लिखा है। उसके अनुसार दक्षिण में साधारण मनुष्यों की स्थिति दयनीय थी, परन्तु वहाँ का शासक वर्ग तथा अमीर उमरा अत्यधिक धनी और विलासपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे।
निकोल्सन, ब्रिगेडियर जनरल जॉन (१८२१-१८५७ ई.) : एक वीर सैनिक, जो १८३९ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में कलकत्ते में नियुक्त हुआ। उसने १८५७ ई. के तथाकथित सिपाही-विद्रोह में यथेष्ट ख्याति अर्जित की। अफगानिस्तान में होनेवाले १८४०-४१ ई. के अभियान में भाग लेते हुए वह बंदी बनाया गया, परन्तु शीघ्र ही मुक्त हो गया। १८४८-४९ ई. के सिख-युद्ध में भी उसने विशेष ख्याति प्राप्त की। १८५७ ई. के सिपाही-विद्रोह के प्रारंभ होने के समय वह पेशावर में डिप्टी कमिश्नर था। किन्तु शीघ्र ही उसको एक द्रुतगामी सैनिक टुकड़ी का नायक बनाकर पंजाब से दिल्ली को पुनः जीत लेने के लिए भेजा गया। निकोल्सन शीघ्रता से मंजिल तय करता हुआ १४ अगस्त १८५७ ई. को दिल्ली पहुँच गया और १४ सितम्बर को उस अंग्रेज सेना का नेतृत्व किया, जिसने दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। दिल्ली की सड़कों पर लड़ते हुए निकोल्सन के सीने में गोली लगी और इस संघातिक चोट के फलस्वरूप २३ सितम्बर १८५७ ई. को उसकी मृत्यु हो गयी। किन्तु दिल्ली पर उसके द्वारा अधिकार कर लेने से विद्रोह प्रायः समाप्त हो गया और इस प्रकार उसने अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य की रक्षा की।
निज़ाम आसफजाह : देखिये, आसफजाह निजाम खाँ।
निजाम खां : देखिये, सिकन्दर लोदी।
निजामशाह बहमनी : बहमनी सल्तनत (दे.) का बारहवाँ सुल्तान। १४६१ ई. में अपने पिता सुल्तान हुमायूं (दे.) के उपरांत सिंहासनासीन होने के समय वह अल्पवयस्क था। १४६३ ई. में अचानक उसकी मृत्यु हो गयी।
निज़ामशाही वंश : का आरम्भ जुन्नार में १४९० ई. में मलिक अहमद के द्वारा हुआ, जिसने तत्कालीन बहमनी शासक सुल्तान महमूद (दे.) (१४८२ से १५१८) के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उसने निजामशाह की उपाधि धारण की और अपनी राजधानी अहमदनगर ले गया। उसके द्वारा प्रवर्तित निजामशाही वंश १४९० से १६३७ ई. तक राज्य करता रहा। पश्चात् १६३७ ई. में सम्राट् शाहजहाँ के राज्यकाल में उसे जीतकर मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। १५७४ ई. में इस वंश ने बरार पर भी अधिकार कर लिया था, परन्तु १५९६ ई. में उसे बरार को मुगल सम्राट् अकबर को दे देना पड़ा।
इस वंश के तृतीय शासक हुसैनशाह ने विजयनगर (दे.) राज्य के विरुद्ध दक्षिण के मुसलमान राज्यों के गठबंधन में भाग लिया था और १५६५ ई. के तालीकोट (दे.) के युद्ध में विजय प्राप्त करने के उपरांत विजयनगर के लूटने में भी पूरा हाथ बँटाया। चाँदबीबी, जो मुगलों के विरुद्ध अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध हुई निजामशाही वंश के सुल्तान हुसैन निजामशाह (१५५३ से १५६५ ई.) की पुत्री थी। निजामशाही वंश का आधुनिक काल में अवशिष्ट स्मारक भद्रमहल है, जो सफेद पत्थरों से निर्मित है और अपनी जीर्णदशा में अहमदनगर में विद्यमान है।
निजामुद्दीन : मुगल सम्राट् अकबर के काल का इतिहास लेखक। उसने 'तबकाते अकबरी' नामक पुस्तक लिखी, जिसमें अकबर के राज्यकाल का प्रामाणिक एवं विश्वसनीय विवरण है।
निजामुद्दीन औलिया : एक प्रसिद्ध सूफी संत, जो अकबर के राज्यकाल में दिल्ली में आकर बस गया था। समस्त जनता उसे अत्यधिक आदर की दृष्टि से देखती थी। दिल्ली में उसकी कब्र के पास एक विशाल मस्जिद का निर्माण किया गया।
निज़ामुलमुल्क : इस उच्च उपाधि का शाब्दिक अर्थ है-'समस्त साम्राज्य का उपप्रधान'। सम्राट् मोहम्मदशाह (१७१९-४८) ने सर्वप्रथम यह उपाधि चिन किलिच खाँ को प्रदान की थी। तभी से उनके वंश में यह उपाधि आनुवंशिक रूप में कुछ समय पहले तक चली आ रही थी। इस वंश का मुखिया साधारणतया निजाम कहलाता था।
नियार्कस : मकदूनिया के महान् विजेता सिकन्दर का नौसेनाधिकारी। उसीने सिकन्दर के जलपोतों का पहले झेलम नदी से सिन्धु नदी के मुहाने तक और उपरान्त फारस की खाड़ी होते हुए दजला और फरात नदियों के मार्ग से सूसा पहुँचने तक नेतृत्व किया था। सूसा पहुँचने पर वह सिकंदर से मिला, जो स्थल मार्ग से पहले ही वहाँ पहुँच चुका था। नियार्कस ने अपनी इस लम्बी यात्रा का विवरण भी लिखा है।
निवेदिता, सिस्टर : स्वामी विवेकानन्द (दे.)की एक प्रमुख शिष्य, जो आयरिश महिला थी और उसका मूल नाम कुमारी मार्गरेट नोबुल था। वह स्वामी विवेकानन्द से सर्वप्रथम लन्दन में मिली थी और उनसे प्रभावित होकर भारत चली आयी। यहाँ विधिवत् दीक्षित होकर वह स्वामीजी की शिष्य बन गयी और उसे रामकृष्ण मिशन के सेवाकार्य में लगा दिया गया। इस प्रकार वह पूर्णरूप से समाजसेवा के कार्यों में निरत हो गयी और कलकत्ते में भीषणरूप से प्लेग फैलने पर भारतीय बस्तियों में प्रशंसनीय सुश्रूषा कार्य कर उसने एक आदर्श स्थापित कर दिया। उत्तरी कलकत्ता के उस भाग में एक बालिका विद्यालय की स्थापना उसने की, जहाँ घोर कट्टरपंथी हिन्दू बहुसंख्या में थे। प्राचीन हिन्दू आदर्शों को शिक्षित जनता तक पहुँचाने के लिए अंग्रेजी में पुस्तकें लिखीं और सम्पूर्ण भारत में घूम घूमकर अपने व्याख्यानों द्वारा उनका प्रचार किया। वह भारत की स्वतंत्रता की कट्टर समर्थक थी और अरविन्द घोष सरीखे राष्ट्रवादियों से उसका घनिष्ठ सम्पर्क हो गया। स्वामी विवेकानन्द की मृत्यु के उपरान्त एक सप्ताह के अंदर ही उसने भारत की सेवा में अपना सम्पूर्ण समय लगा देने के उद्देश्य से रामकृष्ण मिशन से संबंध विच्छेद कर लिया। 'भारत की बालसुलभ कहानियाँ' (Cradle Tales of India ) उसकी अनेक रचनाओं में से एक लोकप्रिय रचना है। (देखिये-प्रवर्त्तिक आत्मप्राण द्वारा रचित 'सिस्टर निवेदिता')
नील प्रभु मुंशी : शिवाजी का ब्राह्मण परामर्शदाता। छत्रपति शिवाजी ने औरंगजेब (दे.) को जो विरोधपत्र भेजा था, वह उसीने लिखा था। यह पत्र शिवाजी ने औरंगजेब द्वारा १६७९ ई. में हिन्दुओं पर पुनः जजिया (दे.) लगाने के विरोध में भेजा था।
नील, ब्रिगेडियर जनरल, जेम्स : प्रथम स्वाधीनता संग्राम (तथाकथित सिपाही-विद्रोह) के दिनों में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना का एक उच्च अधिकारी। ११ जून, १८५७ ई. को उसने एक साहसिक धावे के उपरान्त इलाहाबाद के किले पर उसी समय अधिकार कर लिया, जब वह दुर्ग विद्रोहियों के हाथों में जाने ही वाला था। शीघ्र ही वहाँ जनरल हैवलाक के नेतृत्व में एक और ब्रिटिश टुकड़ी उससे आ मिली। इस प्रकार स्थिति सुदृढ़ हो जाने पर हैवलाक और नील के नेतृत्व में अंग्रेज सेनाएं कानपुर की ओर चल पड़ीं। इलाहाबाद से कानपुर तक के मार्ग में नील ने, प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर, अपनी नृशंस बर्बरता का परिचय दिया और मार्ग के गाँवों की निरीह तथा निर्दोष भारतीय जनता को वह मौत के घाट उतारता चला। इस प्रकार उसने प्रतिशोध की ऐसी ज्वाला धधका दी जिसका प्रतिफल भारतीयों तथा अंग्रेजों दोनों को भोगना पड़ा। नील और उसकी सेनाओं के कानपुर पहुँचने के पूर्व ही बीबीगढ़ का दुःखद काण्ड हो चुका था। नील और हैवलाक ने शीघ्र ही कानपुर पर अधिकार कर लिया और नील वहीं रुक गया। वहाँ उसने अपनी प्रतिशोध भावना का अत्यधिक बीभत्स प्रदर्शन किया तथा हैवलाक के सहायतार्थ जब वह कानपुर से लखनऊ को चला तो मार्ग में जिस किसी भारतीय को वह पकड़ पाता था उसे पेड़ों पर लटकाकर फाँसी दे देता था। किन्तु लखनऊ पहुँचने पर वहाँ की गलियों में युद्ध करता हुआ वह मौत के घाट उतार दिया गया।
नुनीज़, फ़रनाओ : एक पुर्तगाली यात्री जो १५३५ ई. में विजयनगर (दे.) आया। उसने सम्पूर्ण विजयनगर राज्य का विस्तृत भ्रमण किया और उसके इतिहास तथा तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दशा का विस्तृत वर्णन किया है।
नूरजहाँ : सम्राट् जहाँगीर की पत्नी। उसका मूल नाम मेहरुन्निसा था। जब उसका पिता मिर्जा गयासबेग, जो फारस का निवासी था, अपने भाग्य की परीक्षा करने भारत आ रहा था, तभी मार्ग में नूरजहाँ का जन्म कंदहार में हुआ। उसका पिता गयासबेग अकबर के दरबार में एक उच्च पद पाने में सफल हुआ और १६०५ ई. में जहाँगीर के राज्यारोहण के वर्ष ही वह मालमंत्री नियुक्त हो गया। उसे एतमादुद्दौला की उपाधि दी गयी। सत्रह वर्ष की अवस्था में मेहरुन्नासा का विवाह अलीकुली नामक एक साहसी ईरानी नवयुवक से हुआ, जिसे जहाँगीर के राज्यकाल के प्रारम्भ में शेर अफगान की उपाधि और बर्दवान की जागीर दी गयी थी। १६०७ ई. में जहाँगीर के दूतों ने शेर अफगन को एक युद्ध में मार डाला और विधवा मेहरुन्निसा को दिल्ली के शाही हरम में लाया गया, जहाँ वह सम्राट् अकबर की विधवा रानी सलीमा बेगम की परिचारिका बनी। उसके सौन्दर्य के प्रति आकर्षित होकर जहाँगीर ने १६११ ई. में उससे विवाह कर लिया। उसका नाम बदलकर पहले नूरमहल और उपरांत नूरजहाँ रखा गया।
असाधारण सुन्दरी होने के अतिरिक्त नूरजहाँ बुद्धिमती, शील और विवेकसंपन्न भी थी। उसकी साहित्य, कविता और ललित कलाओं में विशेष रुचि थी। उसका लक्ष्य वेध अचूक होता था। १६१९ ई. में उसने फतेहपुर सीकरी में एक ही गोली से शेर को मार दिया था। इन समस्त गुणों के कारण उसने अपने पति पर पूर्ण प्रभुत्व स्थापित कर लिया, फलतः जहाँगीर के शासन का प्रायः समस्त भार उसी पर आ गया। सिक्कों पर भी उसका नाम खोदा जाने लगा और वह महल में ही दरबार करने लगी। उसके पिता एतमादुद्दौला और भाई आसफ खाँ को मुगल दरबार में उच्च पद प्रदान किया गया और उसकी भतीजी का विवाह, जो आगे चलकर मुमताजमहल के नाम से प्रसिद्ध हुई, शाहजादा खुर्रम (दे.) से हो गया। उसने पहले पति से उत्पन्न अपनी पुत्री का विवाह जहाँगीर के सबसे छोटे पुत्र शाहजादा शहरयार से कर दिया और चूंकि उसकी जहाँगीर से कोई संतान न हुई थी, अतः शहरयार को ही जहाँगीर के उपरांत वह सिंहासनासीन कराना चाहती थी। महावत खाँ और शाहजादा खुर्रम ने उसके प्रभाव और शक्ति को कम करने का प्रयास किया, किन्तु नूरजहाँ ने अपनी बुद्धिमत्ता और कार्यपटुता से उनके प्रारम्भिक प्रयासों को विफल कर दिया।
जहाँगीर के जीवनकाल में वह सर्शक्तिसम्पन्न रही, किन्तु १६२७ ई. में जहाँगीर की मृत्यु के उपरांत उसकी राजनीतिक प्रभुता नष्ट हो गयी और उसने १६४५ ई. में मृत्युपर्यन्त तक का शेष जीवन लाहौर में बिताया। उसकी कलात्मक रुचि का प्रमाण उस भव्य एवं आकर्षक मकबरे में उपलब्ध है, जिसे उसने अपने पिता एतमादुद्दौला के अस्थि अवशेषों पर आगरे में बनवाया था। कलाविदों के अनुसार यह मकबरा बारीक पच्चीकारी और साज-सज्जा की दृष्टि से अनुपम है।
नेकसियर : औरंगजेब (दे.) का पौत्र और उसके चतुर्थ पुत्र शाहजादा अकबर का पुत्र। वह उन पाँच कठपुतली बादशाहों में से तीसरा था, जिसे सैयद बन्धुओं (दे.) ने १७१९ ई. में दिल्ली में सिंहासनासीन किया था। वह केवल थोड़े दिनों के लिए ही बादशाह बना और मुहम्मद इब्राहीम को गद्दी पर बैठाने के लिए सैयद बंधुओं ने उसकी हत्या करवा दी।
नेगापट्टम् (नागपत्तनम्) : भारत के पूर्वी समुद्रतट पर एक प्रसिद्ध नगर तथा बन्दरगाह। डच लोगों ने यहाँ अपनी एक बस्ती और व्यापार-केन्द्र स्थापित किया था, जिस पर अंग्रेजों ने १७८१ ई. में अधिकार कर लिया।
नेपाल : भारत की उत्तरी सीमा के अंतर्गत पश्चिम में सतलज नदी से पूर्व में सिक्किम तक लगभग ५०० मील फैला हुआ स्वतंत्र राज्य। इसकी राजधानी काठमांडू है। तीसरी शताब्दी ई. पू. में यह भूभाग अशोक के साम्राज्य का एक अंग था और चौथी शताब्दी ई. में नेपाल राज्य सम्राट् समुद्रगुप्त की सार्वभौम सत्ता स्वीकार करता था। सातवीं शताब्दी में इस पर तिब्बत का आधिपत्य हो गया। उपरांत इस देश में आंतरिक संघर्षों के कारण अत्यधिक रक्तपात हुआ। ग्यारहवीं शताब्दी में नेपाल में ठाकुरीवंश के राजा राज्य करते थे। इसके बाद जब नेपाल में मल्लवंश, जिसका सबसे प्रसिद्ध शासक यक्षमल्ल (लगभग १४२६ से १४७५ ई.) था, राज्य कर रहा था, मिथिला के शासक नान्यदेव ने नेपाल पर अपनी नाममात्र की प्रभुता स्थापित कर ली। यक्षमल्ल ने मृत्यु के पूर्व ही राज्य का बँटवारा अपने पुत्रों और पुत्रियों में कर दिया था। इस विभाजन के फलस्वरूप नेपाल, काठमांडू तथा भातगाँव के दो परस्पर प्रतिद्वन्द्वी राज्यों में बँट गया।
इन आंतरिक झगड़ों का लाभ उठाकर पश्चिमी हिमालय के प्रदेशों में बसनेवाली गोरखा जाति ने १७६८ ई. में नेपाल पर अधिकार कर लिया। शनै:-शनै: गोरखाओं ने अपनी सैनिक शक्ति में वृद्धि कर नेपाल को एक शक्तिशाली राज्य बना दिया। १९वीं शताब्दी में उन्होंने अपने राज्य की दक्षिणी सीमा बढ़ाकर ब्रिटिश भारत की उत्तरी सीमा से मिला दी। सीमा सामीप्य के कारण १८१४-१५ ई. में नेपाल और अंग्रेजों में युद्ध हुआ, इस गोरखा युद्ध (दे.) के उपरांत दोनों पक्षों में सुगौली (दे.) की संधि हुई, जिसके अनुसार नेपाल ने अपने राज्य के कुछ भूभाग ब्रिटिश सरकार को दे दिये। संधि की एक धारा के अनुसार नेपाल की वैदेशिक नीति भारत की ब्रिटिश सरकार के द्वारा नियंत्रित होती रही। इस प्रकार कुछ प्रतिबंधों के साथ नेपाल स्वतंत्र देश बना रहा। नेपाल के बहुसंख्यक लोग हिन्दू धर्म के अनुयायी हैं और अल्पसंख्या में लोग बौद्ध धर्म के विकृत रूप के अनुयायी हैं। नेपाल में संस्कृत के बहुत से हस्तलिखित महत्त्वपूर्ण ग्रंथ उपलब्ध हुए हैं। नेपाल के वर्तमान शासक महाराज वीरेन्द्र हैं। उनके पिता स्वर्गीय महाराजा महेन्द्र ने नेपाल में एक नया संविधान प्रचलित किया था।
नेपियर, सर चार्ल्स जेम्स (१७८२-१८५३) : एक प्रसिद्ध सेनानायक एवं राजनीतिज्ञ। यूरोप के युद्धों में, अपनी सैनिक योग्यता का परिचय देने के उपरान्त, उसे १८४२ ई. में भारतवर्ष के सिंध प्रदेश में भारतीय और ब्रिटिश सेना के संचालन का भार सौंपा गया। वह स्वभाव से साम्राज्यवादी मनोवृत्ति का तथा आक्रमक नीति का समर्थक था। पदभार सँभालते ही उसने सिंध के लोगों और वहाँ के अमीरों (दे.) के न्यायोचित अधिकारों की उपेक्षा करके समूचे प्रदेश को जीतने का संकल्प किया। अपनी आक्रामक नीति के आधार पर उसने जानबूझकर सिंध के अमीरों से युद्ध ठानी। १८४३ ई. में उसने मियानी के युद्ध (दे.) में अमीरों को परास्त किया और पुनः हैदराबाद के युद्ध (दे.) में उनकी समस्त सैन्य शक्ति नष्ट कर दी। उपरान्त वह १८४७ ई. तक सिंध प्रदेश पर एक निरंकुश किन्तु योग्य शासक की भाँति हुकूमत करता रहा और एक महान् सेनानायक का यश उपार्जित कर इंग्लैण्ड वापस लौट गया। चिलियानवाला के प्रसिद्ध युद्ध (दे.) के उपरान्त, जिसमें सिखों द्वारा ब्रिटिश सेना लगभग पराजित हो गयी थी, नेपियर को ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना के सर्वोच्च सेनाधिकारी के रूप में पुनः भारत बुलाया गया। किन्तु उसके भारत आने के पूर्व ही अंग्रेजों की विजय तथा सिख युद्ध की समाप्ति हो चुकी थी। भारत आने पर उसने कम्पनी की सेनाओं के पुनर्गठन पर विशेष ध्यान दिया परन्तु कम्पनी की सेवा में रत भारतीय सैनिकों के भत्ते सम्बन्धी नियमों में परिवर्तन कर देने के लिए उसे तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड डलहौजी की भर्त्सना सहनी पड़ी। फलतः उसने त्यागपत्र प्रेषित कर दिया और इंग्लैण्ड लौट गया। यद्यपि नेपियर योग्य सेनानायक था, तथापि एक राजनीतिज्ञ के रूप में वह औचित्य-अनौचित्य पर ध्यान न देनेवाला तथा झगड़ालू प्रकृति का व्यक्ति भी था। उसे १८५७ ई. के सिपाही-विद्रोह का पूर्वाभास हो गया था। उसने तत्कालीन भारत सरकार के प्रशासकीय एवं सैनिक दोषों पर एक पुस्तक भी लिखी थी।
नेहरू, पण्डित जवाहरलाल (१८८९-१९६४) : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानी एवं स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधान मंत्री। जन्म इलाहाबाद में १४ नवम्बर १८८९ ई. को हुआ। वे पं. मोतीलाल नेहरू और श्रीमती स्वरूप रानी के एकमात्र पुत्र थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई और १५ वर्ष की उम्र में वे इंग्लैण्ड के हैरो स्कूल भेजे गये। वहाँ (हैरो) से ट्रिनिटी कालेज में दाखिल किये गये और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से स्नातक हुए। उनके विषय रसायनशास्त्र, भूगर्भ विद्या और वनस्पति शास्त्र थे। १९१२ ई. में वे बैरिस्टर बने और उसी वर्ष भारत लौटकर उन्होंने इलाहाबाद में वकालत प्रारम्भ की। वकालत में उनकी विशेष रुचि न थी और शीघ्र ही वे भारतीय राजनीति में भाग लेने लगे। १९१२ ई. में उन्होंने बाँकीपुर (बिहार) में होनेवाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया और १९१६ ई. के लखनऊ अधिवेशन में वे सर्वप्रथम महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आये।उसी वर्ष उन्होंने कुमारी कमला कौल से विवाह किया, जिनसे उन्हें एक पुत्री इन्दिरा, जो आजकल भारत की प्रधानमंत्री हैं, तथा एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसकी शीघ्र ही मृत्यु हो गयी। समय के साथ-साथ पं. नेहरू की रुचि भारतीय राजनीति में बढ़ती गयी। जालियाँवालाबाग हत्याकांड की जाँच में देशबन्धु चितरंजनदास एवं महात्मा गाँधी के सहयोगी रहे और १९२१ के असहयोग आंदोलन में तो महात्मा गाँधी के अत्यधिक निकट सम्पर्क में आ गये। यह सम्बन्ध समय की गति के साथ-साथ दृढ़तर होता गया और उसकी समाप्ति केवल महात्मा गाँधी जी की मृत्यु से ही हुई।
असहयोग आंदोलन में वे पहली बार जेल गये। उनके जीवनकाल के नौ वर्ष जेल में ही बीते। उन्होंने कुल नौ बार जेलयात्रा की। साइमन कमीशन के विरुद्ध लखनऊ के प्रदर्शन में उन्होंने भाग लिया। एक अहिंसात्मक सत्याग्रही होने पर भी उन्हें पुलिस की लाठियों की गहरी मार सहनी पड़ी। १९२८ ई. में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महामंत्री बने और १९२९ के लाहौर अधिवेशन में उसके अध्यक्ष चुने गये। इसी ऐतिहासिक अधिवेशन में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया था। वे पुनः १९३६ तथा १९४६ में इसके अध्यक्ष हुए और १९५१ से १९५४ तक के प्रत्येक अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाते रहे। १९५८ ई. में उनकी पुत्री इन्दिरा (गाँधी) भी उसी अध्यक्ष पद पर आसीन हुई, जिस पद को उनके पिता एवं पितामह (पं. मोतीलाल नेहरू) सुशोभित कर चुके थे।
१९२९ के बाद पं. नेहरू भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के अग्रणी नेता रहे। १९३० ई. में सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्हें ६ मास का कारागार-दण्ड मिला और वहाँ से मुक्त होने के केवल ८ दिन बाद ही उन्हें धारा १४४ भंग करने के अभियोग में पुनः बन्दी बनाया गया तथा ३० माह का कारागार-दण्ड मिला। किन्तु एक वर्ष बाद ही उन्हें मुक्त कर दिया गया। कारागार से छूटने के १२ दिन बाद ही उनके पिता पं. मोतीलाल नेहरू की १९३१ ई. में मृत्यु हो गयी। उसके उपरान्त जेलयात्राओं तथा परिवार के प्रियजनों के विछोह का ताँता-सा लगा रहा। उनकी माता स्वरूप रानीजी तथा पत्नी कमलाजी गंभीर रूप से अस्वस्थ थीं। माँ पक्षाघात से तथा पत्नी राजयक्षमा से पीड़ित थीं। जब वे सातवीं बार कारागार में थे, तभी जर्मनी में उनकी पत्नी मरणासन्न दशा में पहुँच गयीं और सरकार ने अन्तिम क्षण पर उन्हें पत्नी की मृत्युशैय्या के निकट पहुँचने की अनुमति दे दी। कमलाजी की मृत्यु के बाद ही १९३८ ई. में उनकी माता की मृत्यु हो गयी। उपरान्त उन्होंने स्पेन, चेकोस्लोवाकिया और चुंगकिंग (चीन) का भ्रमण किया। किन्तु भारत की राजनीतिक गतिविधियों से उनका निकट सम्पर्क बराबर बना रहा। १९३९ ई. में महात्मा गाँधी के विरोध करने पर भी नेताजी सुभाषचन्द्र वसु के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरी बार अध्यक्ष चुने जाने पर, उनमें और नेताजी में गंभीर सैद्धान्तिक मतभेद हो गया और उन्होंने उनके द्वारा गठित वर्किंग कमेटी से त्यागपत्र दे दिया। १९४० ई. में महात्मा जी द्वारा निर्देशित व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने के कारण उन्हें ४ वर्षों का कारागार-दण्ड मिला, किन्तु एक वर्ष बाद ही छोड़ दिये गये। उसके उपरान्त पर्ल हार्बर पर हवाई हमले की घटना घटी, जिसके फलस्वरूप जापान और अमेरिका भी द्वितीय विश्व महायुद्ध में कूद पड़े। युद्ध क्रमशः भारत की पूर्वी सीमाओं के निकट पहुँच गया।
पंडित नेहरू के लिए वे दिन घोर मानसिक पीड़ा के थे। एक ओर वे धुरी राष्ट्रों (जर्मनी, इटली और जापान) की पराजय भी चाहते थे और दूसरी ओर मित्र राष्ट्रों तथा अंग्रेजों की विजय से भारत के भविष्य को लेकर गंभीर रूप से चिन्तित भी थे। अहिंसा के प्रश्न पर उनमें और महात्मा जी में मतभेद था, क्योंकि गाँधीजी अहिंसा को जीवन का एक मार्ग मानते थे और पंडित नेहरू उसे केवल एक नीति के रूप में स्वीकार करने के पक्ष में थे। अन्त में उन्होंने महात्मा गाँधी के दृष्टिकोण को ही अपनाया और अगस्त १९४२ ई. में उनके द्वारा संचालित 'भारत छोड़ो' आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। अन्य भारतीय नेताओं के साथ वे भी बन्दी बना लिये गये। इस नवीं बार वे सबसे अधिक दिनों तक कारागार में रहे। जून १९४५ ई. में उन्हें मुक्त कर दिया गया। उपरान्त उन्होंने मुसलिम लीग के साथ ब्रिटिश मंत्रिमंडलीय योजना (कैबिनेट मिशन प्लान) पर पारस्परिक विचार-विनिमय किया, पर वार्ताएँ असफल रहीं। २ सितम्बर १९४६ ई. को तत्कालीन वाइसराय के आमंत्रण पर जो अन्तरिम सरकार बनी उसके वे प्रधान चुने गये।मुस्लिम लीग को इस अन्तरिम सरकार में सम्मिलित करने में उनको सफलता तो मिली, किन्तु जिन्ना (दे.) के नेतृत्व में लीग से कोई ठोस एवं विश्वसनीय समझौता न हो सका। परिणामस्वरूप कांग्रेस, जिसमें हिन्दू बहुसंख्या में थे और लीग, जो पूर्णतया मुसलमानों की संस्था थी, एक दूसरे से दूर खिंचती गयीं। सम्पूर्ण देश, विशेषतः पंजाब और बंगाल में हिन्दू और मुसलमानों का भयंकर रक्तपात हुआ।
इसी बीच लार्ड माउण्टबैटन भारत के वाइसराय नियुक्त हुए। प्रारंभ में कुछ विरोध और हिचक के उपरान्त पं. नेहरू वाइसराय के इस सुझाव से सहमत हो गये कि भारत में स्वतंत्रता और आंतरिक शान्ति तभी संभव है जब देश का भारत और पाकिस्तान में विभाजन हो जाय। ३ जून १९४७ ई. को पं. नेहरू ने आकाशवाणी के माध्यम से घोषणा की कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने देश के विभाजन की योजना स्वीकार कर ली है। १५ अगस्त १९४७ ई. को वे स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने। तब उनकी उम्र के ५८ वर्षों में ३ मास कम थे।
१७ वर्षों तक वे भारत सरकार के इस महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन रहे और कार्यरत रहते हुए ही २७ मई १९६४ ई. को उनका देहान्त हो गया। विश्व के प्रमुख राजनीतिज्ञों में उनका एक विशिष्ट और सम्माननीय स्थान था। उन्होंने यूरोप और एशिया के सभी देशों की यात्राएँ की थीं। सभी देशों में, विशेषतः रूस और चीन में भी, जहाँ वे १९५४ में गये थे, उनका भव्य स्वागत किया गया।
देश की आन्तरिक समस्याओं को सुलझाने में नेहरू के सम्मुख अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हुईं। उनकी सरकार को सर्वप्रथम महात्मा गाँधी की हत्या का आघात सहना पड़ा,। कश्मीर और हैदराबाद के जटिल प्रश्नों के साथ-साथ शरणार्थियों की दीर्घकालिक तथा हृदयविदारक विकराल समस्याएँ भी समक्ष थीं। यद्यपि फ्रांसीसी औपनिवेशिक बस्तियों की समस्याओं का पारस्परिक समझौते से समाधान हो गया, तथापि पुर्तगाली बस्तियों के भारत में विलयन हेतु १९६१ ई. में सेना का प्रयोग करना पड़ा। दक्षिण से लेकर नागालैण्ड तक सम्पूर्ण देश में संकीर्ण भाषावाद एवं साम्प्रदायिकतावाद की प्रवृत्तियाँ फिर से उभरने लगीं और कहीं-कहीं तो इन प्रश्नों ने हिंसात्मक रूप धारण कर लिया। फिर भी नेहरू सरकार, सामान्यतः सम्पूर्ण देश में शान्ति, सुव्यवस्था तथा जनमत पर आधारित उसका संवैधानिक स्वरूप बनाये रखने में समर्थ रही, जिससे स्तंत्र भारत के नूतन इतिहास का श्रीगणेश हुआ।समुचित साधनों का अभाव होते हुए भी उनके मंत्रिमंडल द्वारा तीन पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से देश के औद्योगिक एवं सामाजिक विकास की महती योजना बनायी गयी, जिसके परिणाम यथेष्ट समय बीतने पर ही दृष्टिगत होंगे।
वैदेशिक सम्बन्धों में पं. नेहरू ने तटस्थता की नीति अपनायी और आंग्ल-अमेरिकी तथा रूसी, दोनों ही गुटों से अलग रहे। उन्होंने दोनों ही गुटों के देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखे और समस्त अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को परस्पर विचार-विमर्श एवं शान्तिपूर्ण समझौते से सुलझाने पर बल दिया। उनके विचारों और आदर्शों को भलीभाँति न समझने के कारण कई बार उनकी तीव्र आलोचना भी हुई, पर मेक्सिको की सीनेट के एक सदस्य के शब्दों में 'वे सही रूप से विश्व में शांति और सौहार्द्र के सच्चे नायक थे।' पाकिस्तान के साथ उन्होंने मैत्रीपूर्ण स्बन्ध स्थापित करने का भरसक प्रयास किया और एक युद्ध-निषेध संधि का भी प्रस्ताव रखा, परन्तु सीटो और सेण्टों की सदस्यता तथा अमरीका से बिना माँगे ही प्राप्त अत्यधिक सैनिक सहायता से प्रोत्साहित होकर पाकिस्तान ने उस सन्धि-प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस प्रकार भारत और पाकिस्तान के सम्बन्धों को सुधारने में पं. नेहरू के प्रयास असफल रहे। उन्हें सर्वाधिक आघात अक्टूबर १९६२ ई. में लगा, जब चीन ने, जिसे भारत ने बिना सैनिक अथवा अन्य किसी प्रकार के विरोध के तिब्बत पर बलपूर्वक अधिकार कर लेने दिया था, भारतीय सीमा के अंतर्गत घुसकर लद्दाख तथा उत्तरी पूर्वी सीमांचल प्रदेशों (नेफा) पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण का कारण दीर्घकाल से चला आ रहा भारत-चीन सीमा-विवाद था।
पं. नेहरू तथा भारत के लिए यह आक्रमण अप्रत्याशित था। यद्यपि लद्दाख में भारतीय सैनिकों ने चीनियों को यथासंभव रोकने का प्रयास किया, तथापि उत्तरी पूर्वी सीमा में चीनी सेनाएँ निरन्तर घुसती चली आयीं। वे आसाम प्रदेश को रौंद डालने की स्थिति में थीं, पर नवम्बर १९६२ ई. में चीन ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी और नेफा से उसकी सेनाएँ लौटने लगीं। यद्यपि भारत ने युद्ध-विराम स्वीकार नहीं किया, तथापि उसके सम्मुख युद्ध बन्द करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय न था। देशभर में भारत की इस सैनिक एवं सामरिक तैयारी के अभाव की तीव्र आलोचना हुई। फलतः पं. नेहरू को अपने रक्षामंत्री कृष्णा मेनन को हटाकर मंत्रिमंडल में परिवर्तन करना पड़ा। उन्होंने विश्व के सभी देशों से सहायता की अपील की और इंग्लैण्ड, अमरीका तथा रूस ने भारत के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए तत्काल सहायता का वचन दिया। किन्तु आंग्ल-अमरीकी गुट ने भारत की इस विषम परिस्थिति का अनुचित लाभ उठाने के लिए पं. नेहरू पर दबाव डालना प्रारम्भ किया कि वे भारत-पाकिस्तान के बीच उन विवादग्रस्त क्षेत्रों को जो भारत के अभिन्न भूभाग बन चुके थे, पाकिस्तान को देकर समझौता कर लें। किन्तु पंडित जी विपत्तियों से घबरानेवाले व्यक्ति न थे। वे आंग्ल-अमरीकी गुट की चालों में न फँसे। उन्होंने देशवासियों को चीन के साथ एक दीर्घकालीन संघर्ष की चेतावनी भी दी। दिसम्बर १९६२ ई. में अफ्रीका तथा एशिया के कुछ देशों ने कोलम्बो (श्रीलंका) की एक बैठक में एक योजना तैयार की, जो 'कोलम्बो योजना' के नाम से विख्यात है और जिसमें भारत तथा चीन के सीमा-सम्बन्धी विवादों को हल करने के कुछ सुझाव थे। यद्यपि इस योजना के कुछ सुझाव प्रत्यक्षरूप से भारत के प्रति न्यायोचित न थे, तथापि पंडित नेहरू ने उन्हें स्वीकार कर लिया, क्योंकि वे युद्ध अथवा संघर्ष की अपेक्षा शांतिमय ढंग से इन विवादों को समाप्त करना चाहते थे। किन्तु चीन ने उन सुझावों को स्वीकार न किया और सीमा-विवाद का प्रश्न पण्डित नेहरू की मृत्युपर्यंत बना रहा।
पंडित नेहरू पहले राष्ट्राध्यक्ष थे, जिन्होंने १९६३ ई. में रूस, इंग्लैण्ड तथा अमेरिका के बीच आंशिक परमाणविक परीक्षण-निषेध संधि पर हस्ताक्षर किये जाने का स्वागत किया। उपरान्त लोकसभा के कुछ उपचुनावों में कांग्रेसी उम्मीदवारों की विफलता के कारण कांग्रेस दल ने उन्हें सुझाव दिया कि वे अपने मंत्रिमंडल का पुनर्गठन करें, ताकि कांग्रेस के कुछ गणमान्य नेता दल को पुनर्संगठित करने में अपना पूर्ण समय दे सकें। पंडित नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों की संख्या कम कर दी और श्री मोरारजी देसाई तथा श्री पाटिल सरीखे अपने पुराने सहयोगियों का त्यागपत्र स्वीकार कर लिया। साथ ही उन्होंने एक छोटे तथा ठोस मंत्रिमंडल का गठन किया। जनवरी १९६४ ई. में जब वे भुवनेश्वर कांग्रेस अधिवेशन में भाग ले रहे थे, तभी वे गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गये। यद्यपि कुछ दिनों के लिए उनके स्वास्थ्य में थोड़ा सुधार अवश्य हुआ, किन्तु २७ मई १९६४ ई. को दिल्ली में उनका प्राणान्त हो गया।
पंडित नेहरू एक महान् राजनीतिज्ञ और प्रभावशाली वक्ता ही नहीं, ख्यातिलब्ध लेखक भी थे। उनकी आत्मकथा १९३६ ई. में प्रकाशित हुई और संसार के सभी देशों में उसका आदर हुआ। उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व (India and the World), सोवियत रूस (Soviet Russia ), विश्व इतिहास की एक झलक (Glimpses of World History), भारत की एकता (Unity of India) और स्वतंत्रता और उसके बाद (Independence and After) विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें से अन्तिम दो पुस्तकें उनके फुटकर लेखों और भाषणों के संग्रह हैं।
स्वतंत्रता सेनानी के रूप में पंडित नेहरू स्वाधीन भारतीय गणतंत्र के मुख्य निर्माता थे, किन्तु राष्ट्रवाद के प्रति उनका दृष्टिकोण व्यापक था। विश्व की समस्त मानव जाति की स्वतंत्रता के प्रति उन्हें प्रेम था। इसीलिए उन्होंने अफ्रीका, एशिया तथा दक्षिण अमरीका के सभी स्वातंत्र्य आंदोलनों के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की तथा उनका समर्थन भी किया। देश, वर्ग, वर्ण और जाति के भेदों से ऊपर उठकर उन्हें समस्त मानव जाति की स्वतंत्रता में गहरी निष्ठा थी। इसी प्रकार विश्व शांति की स्थापना के प्रयासों में उन्हें अटूट विशवास था और इस हेतु वे संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रबल समर्थक थे। स्वेज नहर, कोरिया, लाओस, कांगों और वियतनाम सरीखी कई अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को उन्होंने शांतिपूर्ण वार्ता से सुलझाने का सुझाव दिया और विश्व ने भी उनके विचारों का आदर किया।
नेहरू, पण्डित मोतीलाल (१८६१-१९३१) : ख्यातिलब्ध देशभक्त, जन्म दिल्ली के एक कश्मीरी परिवार में १८६१ ई. में। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत प्रारम्भ की और थोड़े ही समय में समस्त उत्तरी भारत के बड़े वकीलों में उनकी गणना होने लगी। १९१९ ई. में माण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के आधार पर किये गये शासन-सुधारों के उपरान्त वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आन्दोलन में सम्मिलित हुए और उसका समर्थन करने के लिए 'इण्डिपेण्डेण्ट' नामक एक दैनिक निकालना प्रारम्भ किया। १९२० ई. में असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित हुए और आर्थिक दृष्टि से अपनी अत्यन्त लाभप्रद वकालत छोड़ने के साथ ही असेम्बली की सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया। किन्तु कुछ ही समय के उपरान्त उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों पर पुनर्विचार करके देशबन्धु चितरंजन दास (दे.) के सहयोग से कांग्रेस के अन्दर स्वराज्य पार्टी की स्थापना की। १९२३ ई. में वे पुनः असेम्बली के सदस्य चुने गये और वहाँ स्वराज्य पार्टी के नेता बने।
प्रभावशाली वक्ता होने के साथ ही व कुशल संसदीय नेता भी थे। परिणामस्वरूप अल्पसंख्यक होते हुए भी उनकी स्वराज्य पार्टी ने तत्कालीन असेम्बली में अनेक उल्लेखनीय सफलताएँ प्राप्त कीं। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दो बार, प्रथम बार १९१९ ई. कलकत्ता में और दूसरी बार १९२८ ई. में अमृतसर में, अध्यक्ष बने और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओरसे १९२८ ई. में भावी भारतीय संविधान की एक रूपरेखा तैयार की, जो 'नेहरू रिपोर्ट' के नाम से विख्यात है। इस रिपोर्ट में उन्होंने भारतवर्ष के लिए तत्काल औपनिवेशिक स्वराज्य दिये जाने की संस्तुति की थी। किन्तु जब तत्कालीन भारत सरकार ने उस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया, तब पं. मोतीलाल ने १९३० के असहयोग आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। वे कारागार भेज दिये गये। जेलयात्रा का उनके स्वास्थ्य पर बड़ा ही सांघातिक प्रभाव पड़ा और १९३१ ई. में, एक वर्ष उपरान्त ही उनकी मृत्यु हो गयी। पं. मोतीलाल भारत के एक सच्चे सपूत तो थे ही, उन्होंने देश को पंडित जवाहरलाल नेहरू सरीखा पुत्ररत्न भी दिया।
नौनिहालसिंह : महाराज रणजीतसिंह (दे.) के पुत्र एवं उत्तराधिकारी खड़गसिंह (दे.) का पुत्र। अपने पिता खड़गसिंह की हत्या के एक दिन बाद ही एक दुर्घटना में मार्च १८४० ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।
नौमुस्लिम : आक्रमणकारी मंगोलों को, जिन्होंने १२९२ ई. के आसपास इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया और जिन्हें किलोखेड़ी तथा दिल्ली के आसपास बसा दिया गया था, 'नौमुस्लिम' कहा जाता था। लेकिन उनको बसा दिये जाने के बाद भी मंगोलों के आक्रमण होते रहे, अतएव १२९७ ई. में तत्कालीन दिल्ली शासक अलाउद्दीन खिलजी (दे.) ने इन सभी नौमुस्लिमों की हत्या करा दी, क्योंकि उसे इनपर मंगोलों से षड्यंत्र रचने का संदेह हो गया था।
नौसेना विद्रोह : १९४७ ई. में बम्बई के बन्दरगाह में स्थित भारतीय नौसेना ने विद्रोह कर दिया। यद्यपि उसके विद्रोह का बलपूर्वक दमन कर दिया गया, तथापि इससे स्पष्ट हो गया कि भारतीय नौसैनिकों में भी राजनीतिक असंतोप फैल गया है और ब्रिटिश सरकार को सेना के इस महत्त्वपूर्ण भाग से निष्ठा एवं आज्ञापालन की आशा नहीं करनी चाहिए।