विक्षनरी:भारतीय इतिहास कोश (प से ब)

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पंगुल की लड़ाई : १४२० ई. में बहमनी सुल्तान फीरोज़शाह और विजयनगर के राजा देवराय के बीच हुई। इस लड़ाई में सुल्तान हार गया और विजयनगर की सेना ने बहमनी राज्य के कुछ पूर्वी तथा दक्षिणी जिलों पर अधिकार कर लिया। इस हार से सुल्तान बहुत खिन्न हो गया, उसने शासन से हाथ खींच लिया और कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो गयी।

पंजदेह : अफगान सीमा का एक गाँव तथा जिला और सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मर्व (दे.) नगर से सौ मील दक्षिण में स्थित। १८८४ ई. में रूसियों ने मर्व पर अधिकार कर लिया, जो अफगानिस्तान की सीमा से १५० मील की दूरी पर स्थित है। कुछ अंग्रेज सैनिक अधिकारी तथा राजनीतिज्ञ झूठमूठ इस नगर को बहुत अधिक सामरिक महत्त्व प्रदान कर रहे थे। अतएव मर्व पर रूस का अधिकार हो जाने से इंग्लैण्ड में भारी खलबली मच गयी। १८८५ ई. में रूसी अफगान सीमा की ओर और अधिक आगे बढ़े और उन्होंने मार्च १८८५ ई. में आफगानों को पंजदेह से निकाल दिया। इससे इंग्लैण्ड में बेचैनी और बढ़ गयी। अंग्रेजों को अफगानिस्तान पर रूसी हमले का भय होने लगा। अतएव उन्होंने अफगानिस्तान के मित्र तथा रक्षक होने का नाटक करके, किंतु वास्तव में अफगानिस्तान होकर भारत की दिशा में आगे बढ़ने से रोकने के लिए, रूसियों की इस कार्रवाई पर गहरी नाराजी प्रकट की और इस बात की आशंका की जाने लगी कि पंजदेह के प्रश्न को लेकर इंग्लैण्ड और रूस में लड़ाई छिड़ जायगी। अमीर अब्दुर्रहमान (दे.) की बुद्धिमत्ता से यह लड़ाई टल गयी।उसने दूरदर्शिता से यह समझ लिया था कि यदि पंजदेह के प्रश्न पर इंग्लैण्ड और रूस के बीच लड़ाई हुई तो अफगानिस्तान युद्धभूमि बन जायगा और वह इस विपत्ति को दूर रखना चाहता था। उसने घोषणा की कि यह निश्चय नहीं है कि पंजदेह वास्तव में अफगानिस्तान का हिस्सा है और यदि पंजदेह और अफगानिस्तान के बीच जुल्फिकार दर्रे पर उसका अधिकार मान लिया जाय ता उसे संतोष हो जायगा। अमीर अब्दुर्रहमान के इस समझौतापरक रवैये से ब्रिटिश सरकार को भी अपना रवैया बदलना पड़ा। इंग्लैण्ड और रूस का संयुक्त सीमा कमीशन नियुक्त किया गया। उसने जिस सीमा-रेखा की सिफारिश की, उसे १८८७ ई. में स्वीकार कर लिया गया। इस सीमारेखा के अनुसार पंजदेह पर रूसियों का अधिकार और जुल्फिकार दर्रे पर अपगानिस्तान का अधिकार मान लिया गया। इस सिफारिश के अनुसार पामीर की दिशा में रूसियों के बढ़ाव पर कोई रोकटोक नहीं लगायी गयी।

पंजाब : पाँच नदियों का देश। पाँच नदियाँ हैं- झेलम, चिनाब, रावी, व्यास तथा सतलज, जो सभी सिंधु में मिल जाती हैं। यह त्रिकोणात्मक प्रदेश है। सिंधु और सतलज इसकी दो भुजाएँ और हिमालय इसका आधार है। उत्तर-पश्चिम में यह हिमालय के उस पार के देशों के साथ चार दर्रों से जुड़ा हुआ है, जिनमें खैबर दर्रा मुख्य है। अतएव पश्चिम से सभी युगों में सभी जातियों के लोग यहाँ आकर बसते रहे हैं। इसे जातियों का संगम-स्थल कहा जा सकता है। समुद्र मार्ग से यूरोपीयों के आगमन से पूर्व सभी आक्रमणकारी पंजाब होकर भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश करते रहे हैं और उसकी आबादी पर अपने चिह्र छोड़ते रहे हैं। पंजाब में अत्यंत प्राचीन काल से सभ्यता फलती-फूलती रही है, जिसके अवशेष हाल में सिंधु घाटी सभ्यता (दे.) के रूप में मिले हैं। ऐतिहासिक काल में पंजाब पांचवी शताब्दी ई. पू. में हरवामनी वंश के सम्राट् दारयबहु प्रथम (दे.) के साम्राज्य में सम्मिलित था। ३२६ ई. पू. में जब मकदूनिया के राजा सिकन्दर ने हमला किया, पंजाब कई छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था, जिन्हें सिकन्दर ने जीत लिया। परंतु वह पंजाब में अपने पैर नहीं जमा सका और उकी मृत्यु के बाद ही पंजाब मौर्य साम्राज्य (दे.) का एक भाग बन गया। मौर्य साम्राज्य के अपकर्ष तथा पतन के बाद पंजाब पर क्रमिक रीति से बाख्त्री (बैक्ट्रिया) के यूनानियों (यवनों), शकों, कुषाणओं तथा हूणों ने आक्रमण किया और उसपर अधिकार कर लिया।

पंजाब का पहला मुसलमान विजेता गजनी का सुल्तान महमूद (९७१-१०३० ई.) (दे.) था, जिसके वंशजों से इसे ११८६ ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने जीत लिया। १२०६ ई. से यह दिल्ली सल्तनत के अधीन रहा और उसके बाद अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक मुगल साम्राज्य का भाग रहा। तत्पश्चात्, इस पर अधिकार करने के लिए अफगानों, मराठों तथा सिखों में त्रिपक्षीय संघर्ष चलता रहा। १७६१ ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई (दे.) में अफगान अहमदशाह अब्दाली की विजयसे मराठों की राज्यशक्ति समाप्त हो गयी। इसके बाद ही अहमदशाह अब्दाली की भी मृत्यु हो गयी और सिखों की राज्यशक्ति का उदय होने लगा। रणजीतसिंह (१७९०-१८३९ ई.) ने पंजाब में शक्तिशाली स्वतंत्र सिख राज्य की स्थापना की। परंतु उसकी मृत्यु के बाद ही राज्य में अव्यवस्था फैल गयी और सिखों और अंग्रेजों के बीच दो लड़ाइयों के फलस्वरूप १८४९ ई. में पंजाब ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। यह १९४७ ई. तक ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के एक प्रांत के रूप में फलता फूलता रहा। १९४७ ई. में भारत के स्वाधीन होने पर पंजाब दो भागों में बाँट दिया गया। मुसलिम-बहुल पश्चिमी पंजाब को पाकिस्तान (दे.) में सम्मिलित कर लिया गया और पूर्वी पंजाब, जहाँ हिन्दुओं की जनसंख्या अधिक थी, भारत का भाग बना रहा।

पंजाब भूमि-बेदखली कानून : १९०० ई. में वाइसराय लार्ड कर्जन की प्रेरणा से बनाया गया। इस कानून में महाजनों के पास भूमि गिरवी रख देनेवाले किसानों को बेदखली से सुरक्षा प्रदान की गयी। उसमें व्यवस्था की गयी कि वंश-परंपरा से भूमि जोतनेवाले किसानों को कर्जे की अदायगी के लिए अदालत से प्राप्त की गयी डिगरी के आधार पर भूमि से बेदखल नहीं किया जा सकेगा। इसके फलस्वरूप पंजाब के किसानों को भूमिहीन बनने से रोक दिया गया।

पंडितराव : शिवाजी (दे.) के अष्ट प्रधानों में से एक। वह राजपुरोहित था और मराठा राज्य का धर्म विभाग उनके अधीन था।

पंडित, श्रीमती विजयालक्ष्मी : जन्म १९०० ई. में। पंडित मोतीलाल नेहरू (दे.) की पुत्री तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू (दे.) की बहिन। भारत के राष्ट्रीय आंदोलन तथा स्वाधीनता संग्राम में मुख्य भाग लिया। वक्तृत्व कला में दक्ष हैं। भारत की स्वाधीनता के बाद अनेक उच्च पदों पर रह चुकी हैं। इंग्लैण्ड में भारत की उच्चायुक्त (१९५५-६१ ई.), सोवियत संघ (१९४७-४९ ई.) तथा अमरीका (१९४९-५१ ई.) में भारत की राजदूत रह चुकी हैं। १९५४ ई. में संयुक्त राष्ट्र जनरल असेम्बली की अध्यक्ष रहीं। १९६२ ई. में महाराष्ट्र की राज्यपाल नियुक्त हुईं। देश की राजनीति में सक्रिय भाग लेने के लिए अक्तूबर १९६४ ई. में इस पद से इस्तीफा दे दिया और पंडित नेहरू के फूलपुर निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभाकी सदस्य चुनी गयीं। १९६७ ई. में चौथे आम चुनाव में पुनः इसी क्षेत्र से विजयी हुईं। १९७१ ई. में राजनीति से अवकाश ग्रहण कर लिया।

पंडिता रमाबाई (१८५८-१९२२ ई.)  : उन्नीसवीं शताब्दी की उन थोड़ी-सी भारतीय महिलाओं में मुख्य, जिन्होंने पश्चिमी शिक्षा प्राप्त की। वे बाल्यावस्था में ही विधवा हो गयी थीं। उन्होंने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया और एक विधवाश्रम की स्थापना की। उन्होंने अमरीका में व्याख्यान दिये और भारतीय महिलाओं, विशेषरूप से हिन्दू विधवाओं के लिए एक शिक्षण संस्थान खोलने के निमित्त धन-संग्रह का प्रयास किया। पश्चिमी देशों में उनकी विद्वत्ता एवं वाग्मिता की बड़ी प्रसिद्ध थी और उन्हें 'सरस्वती' की उपाधि से विभषित किया जाता था।

पंत, गोविन्दवल्लभ : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक प्रमुख सदस्य तथा नेता। स्वाधीनता के बाद वे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री हुए और पंडित नेहरू के केन्द्रीय मंत्रिमंडल में गृहमंत्री के रूप में सम्मिलित होने तक प्रांत का प्रशासन बड़ी योग्यता के साथ चलाते रहे। उन्होंने देश की महती सेवा की और जिस समय उनकी मृत्यु हुई, उस समय भी वे केन्द्रीय गृहमंत्री का पदभार संभाले हुए थे।

पंत प्रतिनिधि : यह पद पेशवा (दे.) से भी ऊँचा था। यह नया पद शिवाजी के दूसरे पुत्र राजाराम (दे.) ने उस समय बनाया जब उसने जिंजी के किले में शरण ले रखी थी। शाह (दे.) के राज्यकाल में पंत प्रतिनिधि के पद का महत्त्व घट गया और पेशवा के पद का महत्त्व बढ़ गया।

पटना  : भारतीय गणराज्य के बिहार राज्य की राजधानी। गंगा के तट पर प्राचीन पाटलिपुत्र(दे.) नगरी के निकट स्थित है। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने पटना में एक व्यापारिक केन्द्र खोल रखा था और मि. एलिस उसका प्रधान था। १७६३ ई. में उसने बंगाल के नवाब मीर कासिम से पटना छीन लेने की कोशिश की, जिसमें उसे सफलता नहीं मिली। इसके फलस्वरूप अंग्रेजों और मीर कासिम के बीच युद्ध शुरू हो गया। मीर कासिम के हार जाने पर तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी को दीवानी मिल जाने पर पटना बिहार के पटना डिवीजन का मुख्यालय बना दिया गया। १९१२ ई. में यह बिहार तथा उड़ीसा के नवनिर्मित प्रांत की राजधानी बना दिया गया और यहां पृथक् उच्च न्यायालय तथा विश्वविद्यालय की सथापना कर दी गयी।

पटियाला : एक नगर और पंजाब की एक भूतपूर्व देशी रियासत भी। दिल्ली से लगभग १२५ मील उत्तर-पश्चिम में स्थित है। रियासत की स्थापना १७६३ ई. में सिखों की फुलकियां मिस्ल के एक सरदार ने की थी। रणजीतसिंह (दे.) के राज्यप्रसार के भय से पटियाला राज्य १८०९ ई. में अंग्रेजों का रक्षित राज्य बन गया और जुलाई १९४८ ई. में भारत संघ में विलयन होने तक रक्षित राज्य बना रहा। यह पहले पटियाला तथा पूर्वी पंजाब राज्य संघ (जिसे संक्षेप में पेप्सू कहते थे ) का हिस्सा था, किंतु १९५६ ई. के राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अंतर्गत इसे पंजाब राज्य का एक हिस्सा बना दिया गया। ब्रिटिश शासन काल में पटियाला नरेश, महाराज भूपेन्द्रसिंह (१८९१-१९३८ ई.) ने पटियाला रियासत की काफी उन्नति की, नरेन्द्रमंडल की स्थापना में भारी योग दिया और १९२५ ई. में राष्ट्रसंघ असेम्बली में देश राजाओं का प्रतिनिधि‍त्व किया।

पटेल, वल्लभभाई, सरदार (१८७५-१९५० ई.) : एक प्रसिद्ध देशभक्त तथा राजनेता, जन्म ३१ अक्तूबर १८७५ ई. को गुजरात में। उन्होंने गोधरा नगर में वकालत से जीवन आरम्भ किया। बाद में उन्होंने इंग्लैण्ड जाकर बैरिस्टरी पास की और लौटकर अहमदाबाद में रहने लगे। महात्मा गांधी से जब पहली बार मिले तो अहमदाबाद में ही बैरिस्टर थे। इसके बाद ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित हो गये और बारडोली सत्याग्रह का नेतृत्व किया और जेल गये। बारडोली के किसानों का जिस कुशलता से संगठन किया, उसके फलस्वरूप वे गांधीजी के अधिक निकट आ गये और उनके द्वारा 'सरदार' कहलाने लगे। क्रमिक रीति से सरदार पटेल को कांग्रेस नेताओं में उच्च स्थान प्राप्त हो गया। १९३१ ई. में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये और १९४२ ई. में महात्मा गांधी द्वारा चलाये गये 'भारत छोड़ो' आंदोलन में प्रमुख भाग लिया। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी सदस्यों के साथ उन्हें नजरबंद कर दिया गया और १९४५ ई. में उनके साथ वे भी रिहा किये गये।

१९४६ ई. में गठित अंतरिम सरकार में वे गृह सदस्य के रूप में सम्मिलित हुए। इसके बाद ही सारे देश में साम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये, जिन्हें रोकने में आंशिक सफलता ही मिली। स्वाधीनता की अनिवार्यता देखते हुए वे देश के विभाजन से सहमत हो गये और स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद गृह मंत्री तथा उपप्रधान मंत्री नियुक्त हुए। इस पद पर १५ दिसम्बर १९५० ई. को मृत्यु होने तक बने रहे। भारतीय गणराज्य के उपप्रधान मंत्री तथा गृहमंत्री के रूप में उन्होंने बड़ी दृढ़ता का परिचय दिया, जिसके फलस्वरूप वे 'लौहपुरुष' के रूप में विख्यात हुए। उनकी सबसे महान् उपलब्धि शांतिपूर्ण रीति से भारतीय गणराज्य में देशी रियासतों का विलयन था।

१९४७ ई. में पाकिस्तान के हमले के बाद कश्मीर का भारत में विलयन स्वीकार करने के निर्णय में उनका मुख्य हाथ था। उनकी अंतिम महान् उपलब्धि हैदराबाद के निजाम के विरुद्ध पुलिस काररवाई का निर्णय था। इसके फलस्वरूप हैदराबाद रियासत भारतीय गणराज्य में विलयन के लिए विवश हो गयी और भारतीय उपमहाद्वीप में तीसरा स्वतंत्र राज्य अथवा दक्षिण में पाकिस्तान का गढ़ नहीं बन सका। महात्मा गांधी की हत्या के समय उन्होंने अपनी स्वभावगत दृढ़ता का परिचय दिया और हत्याकांड के बाद ही यह घोषणा करके कि हत्यारा एक पागल हिन्दू था तथा शांति तथा व्यवस्था बनाये रखने के कड़े प्रबंध करके एक भयानक गृह युद्ध से देश को बचा लिया।

पटेल, विट्ठलदास झबेरभाई (१८७३-१९३३ ई.) : भारत के प्रमुख राष्ट्रीय नेता और सरदार पटेल के बड़े भाई। २७ सितम्बर १८७३ ई. को नड़ियाद में जन्म और २२ अक्तूबर १९३३ ई. को वियना में देहावसान हुआ। १९०५ ई. बैरिस्टर हुए और वकालत करने लगे, परंतु शीघ्र ही भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में खिंच आये। उन्होंने रौलट कानून (दे.) के विरुद्ध प्रबल आंदोलन चलाया, केन्द्रीय असेम्बली के सदस्य चुने गये, किंतु कांग्रेस की असहयोग की नीति के अनुसार सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। बाद में स्वराज्य पार्टी (दे.) में सम्मिलित हो गये और पुनः केन्द्रीय असेम्बली के सदस्य चुने गये। वे केन्द्रीय असेम्बली के पहले गैरसरकारी अध्यक्ष निर्वाचित हुए और अपना निर्णायक मत डालकर सरकारी सार्वजनिक सुरक्षा बिल को अस्वीकृत करा दिया और अधिवेशन के दौरान पुलिस को केन्द्रीय असेम्बली हाल में प्रवेश करने से रोक दिया। उन्होंने १९३० ई. में कांग्रेस नेताओं के नजरबंद कर दिये जाने के विरोधस्वरूप केन्द्रीय असेम्बली के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और इसके बाद ही स्वयं उनको भी नजरबंद कर दिया गया। जेल में उनका स्वास्थ्य चौपट हो गया और वे स्वास्थ्य-सुधार के लिए यूरोप चले गये। वियना में उनकी भेंट नेताजी सुभाष चन्द्र वसु से हुई। नेताजी पर उनका पूरा विश्वास था और उन्होंने उनको अपने इच्छानुसार राष्ट्रीय कार्यों में खर्च करने के लिए दो लाख रुपये की वसीयत कर दी। इसके बाद ही वियना में उनकी मृत्यु हो गयी। १९३३ ई. में उनकी मृत्यु पर छोटे भाई सरदार पटेल ने असहयोग के सिद्धान्तों में विश्वास करते हुए भी भारत में एक ब्रिटिश अदालत में मुकदमा दायर कर दिया और बड़े भाई की वसीयत रद्द करा दी। विट्ठलदास झवेरभाई पटेल महान् देशभक्त थे और भारत के अंग्रेज शासक भी उनसे डरते थे।

पठान : भारत और अफगानिस्तान के बीच सीमांत क्षेत्र में रहनेवाली जनजातियाँ। कुछ इतिहास ग्रंथों में, जैसे थामस के अंग्रेजी भाषा के 'पठान बादशाहों के वृत्तांत' शीर्षक ग्रंथ में इस शब्द का गलत प्रयोग किया गया है और कुतुबुद्दीन से लेकर इब्राहीम लोदी तक दिल्ली के समस्त सुल्तानों को 'पठान' लिख दिया गया है। दिल्ली के सुल्तानों के अधिकांश राजवंशों का विकास तुर्कों से हुआ था, लोदी और संभवतः खिलजी वंश इसके अपवाद थे। शेरशाह अफगान था और उसके वंश को पठान वंश कह सकते हैं। सीमाप्रांत के पठान वजीरी, अफ्रीदी आदि अनेक कबीलों में बंटे हुए हैं और कुछ समय पहले तक लगभग घुमन्तू जीवन व्यतीत करते रहते थे। इसीलिए ये जब-तब भारत पर चढ़ाइयाँ करना जीवन-यापन का वैध साधन मानते थे। भारत में बसने वाले बहुत से पठान रुपया उधार देने का काम करते हैं और बड़ी लम्बी दर से सूद वसूल करते हैं।

पतंजलि : पाणिनि (दे.) की प्रसिद्ध संस्कृत व्याकरण पुस्तक अष्टाध्यायी के ख्यातिनामा टीकाकार, जिनकी उक्त टीका 'महाभाष्य' नाम से प्रसिद्ध है। विश्वास किया जाता है कि वे शुंग (दे.) राजा पुष्यमित्र के समसामयिक थे, जो दूसरी शताब्दी ई.पू. में हुआ।

पतंजलि : एक महान् दार्शनिक, जिन्होंने संस्कृत भाषा में 'योगसूत्र' नाम से प्रसिद्ध दर्शनग्रंथ की रचना की। उनका काल अनिश्चित है, परंतु वे प्रसिद्ध भाष्यकार पतंजलि से भिन्न थे।

पद्मभूषण : भारतीय गणराज्य में प्रदान किये जानेवाले अलंकरणों में इसका स्थान तीसरा है। सर्वोच्च अलंकरण 'भारतरत्न' है और उसके बाद दूसरा स्थान 'पद्मविभूषण' का है।

पद्मश्री : भारतीय गणराज्य में प्रदान किये जानेवाले अलंकरणों में इसका चौथा स्थान है।

पद्मसंभव : एक प्रसिद्ध भारतीय जो आठवीं शताब्दी ई. के मध्यकाल में वर्तमान था। कहा जाता है कि वह पहले उद्यान (स्वार्त) का राजकुमार था और उसने बौद्ध भिक्षु की दीक्षा ले ली थी। तिब्बत के राजा ख्रि-स्रोङ-लदे वचन् के निमंत्रण पर वह तिब्बत गया और वहाँ उसने तंत्रयान का प्रचार किया। तिब्बती लोगों को विश्वास था कि उसे ऐसी सिद्धियाँ प्राप्त थीं जिनसे वह अलौकिक चमत्कार दिखा सकता था। उसने तिब्बत में बौद्ध धर्म के जिस सम्प्रदाय की स्थापना की, उसे पश्चिमी विद्वान् 'लाल टोपीवाले' कहते हैं। उसने तिब्बत के राजा को तथा बहुत से तिब्बतियों को शिष्य बनाया। उसने तिब्बत में बौद्ध-धर्म के जिस रूप का प्रचार किया, वह 'लामा धर्म' के नाम से विख्यात है। तिब्बती लोग बुद्ध के समान पद्मसंभव की भी पूजा करते हैं।

पद्मिनी : मेवाड़ के राणा रतनसिंह की रानी। राजपूत अनुश्रुतियों के अनुसार सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी पद्मिनी के रूप की प्रशंसा सुनकर उसे पाने के लिए व्याकुल हो उठा और उसने १३०३ ई. में चित्तौड़ पर हमला कर दिया। राजपूत बड़ी वीरता के साथ लड़े, परंतु वे चित्तौड़गढ़ की रक्षा नहीं कर सके। जब यह देखा गया कि अब दुर्ग पर शत्रु का अधिकार होने से रोका नहीं जा सकता तो पद्मिनी ने अन्य रानियों के साथ जलती चिताओं पर कूदकर 'जौहर' कर लिया।

पनगल का राजा : जस्टिस अथवा अब्राह्मण पार्टी का नेता, जो गवर्नमेण्ट आफ इंडिया एक्ट, १९१९ के द्वारा स्थापित संविधान को क्रियान्वित करने के लिए १९२१ ई. में मद्रास का मुख्यमंत्री नियुक्त हुआ। उसके मंत्रिमंडल ने शिक्षा तथा मंदिरों की धर्मादा सम्पत्ति की प्रबंध व्यवस्था में सुधार किये।

परगना : प्रशासन की दृष्टि से सरकार (जिला) का एक उपविभाग। यह प्रशासकीय व्यवस्था अकबर ने की थी।

परमार (पँवार) वंश : इसका आरम्भ नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में नर्मदा के उत्तर मालवा (प्राचीन अवन्ती) क्षेत्र में उपेन्द्र अथवा कृष्णराज से हुआ। इसकी राजधानी धारा नगरी थी। इस वंश में आठ राजा हुए, जिनमें सातवाँ मुंज और आठवाँ मुंज का भतीजा भोज (दे.) सबसे प्रतापी था। मुंज अनेक वर्षों तक कल्याणी के चालुक्य राजाओं से युद्ध करता रहा और ९९५ ई. में युद्ध में ही मारा गया। उसका उत्तराधिकारी भोज (१०१८-६० ई.) गुजरात तथा चेदि के राजाओं की संयुक्त सेनाओं के साथ युद्ध में मारा गया। उसकी मृत्यु के साथ परमार वंश का प्रताप नष्ट हो गया, यद्यपि स्थानीय राजाओं के रूप में परमार राजा तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ तक राज्य करते रहे, अन्त में तोमरों (दे.) ने उनका उच्छेद कर दिया। परमार राजा, विशेषरूप से मुंज और भोज बड़े विद्वान् थे और विद्वानों एवं कवियों के आश्रयदाता थे।

परमार्थ (४९९-५६९ ई.)  : एक प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु तथा विद्वान्, जिसने ५४६ तथा ५६९ ई. के बीच अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'वसुबंधुचरित' की रचना की। इस पुस्तक में उसने कनिष्क (दे.) के द्वारा आमंत्रित बौद्धों की चौथी संगीति (महासभा) का विवरण लिपिबद्ध किया है।

परमार्दि (अथवा परमाल) : जेजाकभक्ति (दे.) का अंतिम चंदेल शासक, जिसे एक महत्त्वपूर्ण स्वतंत्र राजा कहा जा सकता है। वह पाँच वर्ष की अवस्था में सिंहासन पर बैठा और ११८२ ई. तक राज्य करता रहा, जब कि चौहान राजा पृथ्वीराज (दे.) से युद्ध में पराजित हो गया। पृथ्वीराज ने उसकी राजधानी ध्वस्त कर दी। इस पराजय के बाद ही दिल्ली के सुल्तान कुतुबुद्दीन (दे.) के नेतृत्व में मुसलमानों ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया और कालंजर का किला घेर लिया। परमार्दि को कालंजर का किला शत्रुओं के हाथ सौंप देना पड़ा और संभवतः युद्धभूमि में वह मारा गया। उसकी मृत्यु के साथ चंदेल वंश का उत्कर्ष समाप्त हो गया।

परवेज, शाहजादा : बादशाह जहाँगीर का दूसरा लड़का। उसके बड़े भाई शाहजादा खुसरो के अंधा कर दिये जाने के बाद उसे युवराज बनाया गया। उसको मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया, वह इलाहाबाद तथा दक्खिन में ऊँचे पदों पर रहा। उसके छोटे भाई शाहजादा खुर्रम (बाद में शाहजहाँ) ने जब जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, उसने पिता का साथ दिया और १६२४ ई. में इलाहाबाद के निकट डमडम की लड़ाई में शाहजादा खुर्रम को हरा दिया। इसके बाद परवेज़ को गुजरात का सूबेदार बना दिया गया। अत्यधिक शराब पीने के कारण १६२६ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

परशाद, राणा : राजपूताने में स्थित अमरकोट का शासक। उसने भगोड़े मुगल बादशाह हुमायूँ और उसकी नवपरिणीता बेगम हमीदा बानू को शरण दी। इनका पुत्र अकबर राणा परशाद के संरक्षण में अमरकोट में १५४२ ई. में पैदा हुआ।

परसाजी भोंसले : रघुजी भोंसले (दे.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। वह जड़बुद्धि था और गद्दी पर बैठने के एक साल बाद, १८१७ ई. में उसके चचेरेभाई अप्पा साहेब (दे.) ने उसकी हत्या कर दी।

परान्तक प्रथम : चोल राजा आदित्य (दे.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी, जिसने ९०७ ई .से ९४९ ई. तक राज्य किया। वह प्रबल पराक्रमी योद्धा था और उसने पांड्य राजाओं की राजधानी मदुरा पर अधिकार कर चोल राज्य की सीमाओं का विस्तार कर दिया। उसने सिंहलद्वीप (श्रीलंका) पर भी आक्रमण किया।

परान्तक द्वितीय : चोल राजा परान्तक प्रथम (दे.) का पौत्र, जिसने ९५६ से ९७३ ई. तक राज्य किया।

परागल खां : बंगाल के सुल्तान हुसेनशाह (१४३९-१५१९ ई.) का सेनापति। वह बँगला साहित्य का संरक्षक था। परमेश्वर ने महभारत का बँगला साहित्य का संरक्षक था। परमेश्वर ने महाभारत का बंगला अनुवाद उसी की आज्ञा से किया, जो बँगला भाषा में महाभारत का सबसे प्राचीन अनुवाद है।

परिहार : देखिये, 'प्रतिहार'।

परेरा, पादरी जूलियन : बंगाल का बड़ा पादरी, जो १५७६ तथा १५७७ ई. में बादशाह अकबर के सम्पर्क में आया और उसे ईसाई धर्म के बारे में जानकारी दी।

पर्चाज, सैमुएल : भारत में फिरंगियों की प्रारम्भिक बस्तियों का विवरण-लेखक, जिसकी 'पिल्ग्रिम्स' (यात्रीगण) नामक पुस्तक विख्यात है। कम्पनी के डाइरेक्टरों का मत था कि भारत की वस्तुस्थिति, डच लोगों की धूर्तताओं तथा भारत में भूतपूर्व अंग्रेज व्यापारियों की धोखेबाजियों के ज्ञानार्थ कम्पनी के नौकरों के लिए इस पुस्तक को पढ़ना बहुत जरूरी है। कम्पनी ने भारत में कर्मचारियों की ज्ञानवृद्धि के लिए १८६९६ ई. में इस पुस्तक की प्रतियाँ भारत भेजी थीं।

परोपनिसदे : यूनानी इतिहासकारों के अनुसार अफगानिस्तान की राजधानी काबुल के आसपास का भूभाग। सेल्यूकस निकेटर ने आरिया (हेरात क्षेत्र), आकासिया (कंदहार क्षेत्र) तथा गदरोसिया (बलूचिस्तान) के साथ-साथ यह भूभाग भी चन्द्रगुप्त मौर्य (दे.) को सौंप दिया।

पल्लववंश : इस वंश के शासक अर्काट, मद्रास, त्रिचनापल्ली तथा तंजौर के आधुनिक जिलों पर राज्य करते थे। उनके उत्कर्षकाल में यह राज्य उत्तर में उड़ीसा की सीमा तक तथा दक्षिण में पैन्नार नदी तक विस्तृत था। पश्चिम में भी वह दक्षिण भारत में दूर तक फैला हुआ था। यह पता नहीं है कि पल्लव राजवंश की स्थापना कब हुई और किसने की। उत्तरी भारत के शिलालेख में जिस सबसे पहले पल्लव राजा का उल्लेख मिलता है, वह कांची का विष्णुगोप था। चौथी शताब्दी ई. के लगभग मध्यकाल में समुद्रगुप्त (दे.) ने पहले उसे बंदी बनाकर फिर मुक्त कर दिया था। सिंहविष्णु के राज्यकाल के बाद इस राजवंश का इतिहास अधिक सुनिश्चित रीति से ज्ञात है। सिंहविष्णु छठी शताब्दी ई. के उत्तरार्ध में सिंहासन पर बैठा। उसके बाद लगभग दो शताब्दियों तक अनेक शक्तिशाली पल्लववंशी राजाओं ने राज्य किया। इन राजाओं के नाम थे--महेन्द्रवर्मा प्रथम (लगभग ६००-२५ ई.), नरसिंहवर्मा प्रथम (लगभग ६२५-४५ ई.), महेन्द्रवर्मा द्वितीय, परमेश्वरवर्मा, नरसिंहवर्मा द्वितीय, परमेश्वरवर्मा द्वितीय. महेन्द्रवर्मा तृतीय नन्दीवर्मा (लगभग ७१७-८२ ई.), दंतिवर्मा, नन्दीवर्मा द्वितीय तथा अपराजित।

पल्लव राज्यकाल के इतिहास की सबसे मुख्य विशेषता यह है कि इसके पूर्वार्धकाल में इस वंश के राजाओं का वातापी के चालुक्य राजाओं के साथ तथा उत्तरार्ध काल में मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजाओं के साथ अनवरत युद्ध चलता रहा। महेन्द्रवर्मा प्रथम महान् वास्तु-निर्माता था। उसने पत्थरों को तराशकर अनेक मंदिर बनवाये। उसने महेन्द्र तालाब भी खुदवाया। उसे लगभग ६१० ई. में चालक्य राजा पुलकेशी द्वितीय (दे.) ने पराजित कर दिया और वह उसे वेङि प्रांत सौंप देने के लिए विवश हुआ। महेन्द्र के पुत्र तथा उत्तराधिकारी नरसिंहवर्मा (दे.) ने ६४२ ई. पुलकेशी द्वितीय को परास्त कर दिया, उसकी राजधानी वातापी पर अधिकार कर लिया और उसका वध कर दिया। परंतु चालुक्यों ने ६५५ ई. में इस हार का बदला ले लिया। चालुक्य राजा विक्रमादित्य प्रथम ने पल्लव राजा परमेश्वरवर्मा को पराजित कर राजधानी कांची पर अधिकार कर लिया।

इसके बाद पल्लव राज्यशक्ति क्षीण होने लगी। लगभग ७४० ई. में पल्लव राजा नन्दीवर्मा प्रथम को चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने परास्त कर उसकी राजधानी कांची पर पुनः अधिकार कर लिया। नन्दीवर्मा के उत्तराधिकारी दंतिवर्मा को राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय (दे.) ने परास्त कर दिया। अगले पल्लव राजा ने राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम की पुत्री से विवाह करके अपनी राज्यशक्ति सुदृढ़ करने का प्रयास किया। परंतु यह विवाह-सम्बंध अधिक समय तक, पल्लववंश की रक्षा नहीं कर सका। नवीं शताब्दी के अंत में चोल राजा आदित्य प्रथम ने पल्लव राजा अपराजित को परास्त करके पल्लव वंश का अंत कर दिया। इसके बाद पल्लव राज्य चोलों के राज्य के अंतर्गत आ गया।

प्रारम्भिक पल्लव राजाओं ने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया। उन्होंने मामल्लपुरम् अथवा महाबलिपुरम् नगर की स्थापना की और वहाँ पर पांच रथ-मंदिरों का निर्माण कराया। उनमें से प्रत्येक रथ एक-एक चट्टान को काटकर बनाया गया है। इन पर सुन्दर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। ये मंदिर वास्तुकला की आश्चर्यजनक कृति हैं।कांची में पल्लव राजाओं के बनवाये बहुत-से मंदिर हैं। उन्होंने कांची को एक प्रकार से मंदिरों का नगर बना दिया। पल्लव राजा अधिकांशतः हिन्दूधर्मानुयायी थे। उनमें से कुछ विष्णु के उपासक थे और कुछ शिव के।

पलासी की लड़ाई : राबर्ट क्लाइव (दे.) के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना और बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेना के बीच २३ जून १७५७ ई. को की गयी। नवाब के प्रमुख सेनाध्यक्ष मीर जाफर तथा उसके सहयोगियों के विश्वासघात के कारण लड़ाई कुछ घंटे ही चली-सुबह आरम्भ हुई तथा दोपहर तक समाप्त हो गयी। फलतः नवाब की हार हुई। इसे लड़ाई न कहकर झड़प कहना अधिक युक्तिसंगत होगा। फिर भी इसके गम्भीर परिणाम हुए। नवाब सिराजुद्दौला, जो युद्धभूमि से भाग गया था, शीघ्र बंदी बना लिया गया और उसकी हत्या कर दी गयी। विजयी अंग्रेजी सेना अपनी कठपुतली, विश्वासघाती मीर जाफर को लेकर मुर्शिदाबाद की ओर बढ़ी और उसके पहुँचते ही मुर्शिदाबाद ने बिना किसी लड़ाई के आत्मसमर्पण कर दिया। मीर जाफर को बंगाल को नवाब घोषित कर दिया गया। मीर जाफर ने सारा खजाना राबर्ट क्लाइव तथा उसके सहयोगी अंग्रेजों को पुरस्कृत करने में लुटा दिया और पूरी तरह से वह अंग्रेजों का आश्रित हो गया। अंग्रेज एक प्रकार से बंगाल के सर्वेसर्वा बन गया। बंगाल की जो दौलत उनके हाथ लगी, उनको भारत में फ्रांसीसियों पर विजय प्राप्त करने में बहुत मदद दी। फ्रांसीसियों के साथ उनका जो युद्ध हुआ, वह कर्नाटक युद्ध के नाम से विख्यात है।

पल्‍लीलोर की लड़ाई : १७८१ ई. में मैसूर के हैदरअली (दे.) और सर आयरकूट तथा जनरल पियर्स के नेतृत्व में कम्पनी की सेनाओं के बीच हुई। इस लड़ाई में हैदरअली हार गया और उसकी रोकथाम कर दी गयी।

पँवार : देखिये, 'परमार'।

पांडव : राजा पांडु के पुत्र, जो पाँच भाई थे। महाभारत में उनकी और कौरवों की प्रतिद्वन्द्विता तथा लड़ाई का वर्णन है।

पांडिचेरी : मद्रास से कुछ मील दक्षिण भारत के पूर्वी तट पर स्थित एक बंदरगाह। इसकी स्थापना १६७४ ई. में फ्रांकोइस मार्टिन ने की, जो फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कम्पनी का कर्मचारी था। १६९३ ई. में इस पर डच लोगों ने अधिकार कर एक मजबूत किला बनाया। १६९९ ई. में यह फ्रांसीसी लोगों को किले के साथ वापस मिल गया। मार्टिन ने समृद्ध नगर के रूप में इसका विकास किया और यह भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य की राजधानी बना दिया गया। फ्रांसीसी लोगों के पास बंगाल में चन्द्रनगर, मलाबार में माहे तथा कारोमंडल तट पर कारिकल की बस्तियां थी। अंग्रेजों ने १७४५ ई. में और पुनः १७४७ ई. में पांडिचेरी पर कब्जा करने की कोशिश की, परंतु सफल नहीं हुए। अंत में उन्होंने १७६१ ई. में इस पर अधिकार कर लिया। इसके छिन जाने से भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य का अंत हो गया। १७६३ ई. में इसे फ्रांसीसी लोगों को लौटा दिया गया किंतु इसकी किलेबंदी तोड़ दी गयी और यहां पर रखी जानेवाली सेना की संख्या पर कड़ी पाबंदी लगा दी गयी। इसके बाद से यह भारत में फ्रांसीसी बस्तियों की राजधानी बना रहा।भारत के स्वाधीन होने के बाद पांडिचेरी तथा भारत की अन्य फ्रांसीसी बस्तियों का शांतिपूर्ण रीति से भारतीय गणराज्य में विलयन कर दिया गया। इसका शासन अब केन्द्र-शासित क्षेत्र के रूप में होता है। इसकी एक निर्वाचित विधान सभा है और लोकप्रिय सरकार के द्वारा इसका शासन संचालित होता है। ब्रिटिश शासन काल में अरविन्द घोष (दे.) ने ब्रिटिश भारत से भाग कर पांडिचेरी में शरण ली और वहाँ एक आश्रम की स्थापना की थी। संसार के विविध देशों से श्री अरविन्द के भक्तगण यहाँ आते रहते हैं।

पांड्य : उत्तर में वेल्लास नदी के दक्षिणी भाग से लेकर दक्षिण में केप कमोरिन तथा पूर्व में कारोमंडल तट से लेकर पश्चिम में त्रावणकोर के मार्ग पर पड़नेवाले अच्चनकोविल दर्रे तक का प्रदेश पांड्यवंशी राजाओं का शासित क्षेत्र होने के कारण पांड्य देश कहलाता था। इस प्रकार पांड्य राज्य आधुनिक मदुरा तथा तिन्नेवेल्ली जिलों में तथा त्रावणकोर के उस भूभाग में जिसमें केप कमोरिन स्थित है, विस्तृत था। उसकी राजधानी मदुरा थी। दूर-दूर के देशों के साथ इस राज्य के व्यापारिक सम्बंध थे। यह व्यापार कोक और बाद में कयाल बंदरगाह से होता था। ईसवी सन् की पहली शताब्दी में प्लिनी ने इसे एक अत्यंत समृद्ध देश बताया है। पेरिप्लस (लगभग ८० ई.) तथा टालमी (लगभग १४० ई.) ने भी इसकी सम्पन्नता का उल्लेख किया है। मेगस्थनीज ने भी, जो चौथी शताब्दी ई. पू. में आया था, इस देश का नाम सुना था और वह इसकी उत्पत्ति हेराक्लीज की पुत्री से मानता था। यह कपोलकथा मात्र है, किंतु यह सही है कि पांड्य देश में मातृसत्ताक व्यवस्था प्रचलित थी। संस्कृत वैयाकरण कात्यायन ने भी, जो चौथी शताब्दी ई. पू. में हुआ, पांड्य देश का वर्णन किया है। मार्कोपोलो (दे.) के यात्रा-वृत्तांत से पांड्य देश के बारे में काफी जानकारी मिलती है। उसने दो बार १२८८ ई. में और १२९३ ई. में पांड्य देश की यात्रा की थी। वह पांड्य राजा और प्रजा के धन और ऐश्वर्य को देखकर चकित रह गया था।

यद्यपि प्राचीन तमिल साहित्य में पांड्य राज्य का महत्त्वपूर्ण वर्णन है तथापि उसके प्राचीन इतिहास के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती। सबसे पहला पांड्य राजा, जिसकी तिथि निश्चित रूप से निर्धारित की जा सकी है (दूसरी शताब्दी ई.), नेडुंचेलियन था। पांड्य और पल्लव (दे.) राजाओं के बीच बराबर युद्ध होते रहते थे, जो कई शताब्दियों तक चलते रहे। प्रतीत होता है कि पांड्य राजाओं की अपेक्षा पल्लव राजा अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुई और ८६२-६३ ई. में पल्लव राजा अपराजित ने पांड्य राजा को परास्त कर दिया। किंतु पल्लवों को चोल राजाओं ने परास्त कर दिया और लगभग ९९४ ई. से तेरहवीं शताब्दी के अंत तक पांड्य राजा भी चोल राजाओं की अधीनता में रहे।

इस बीच पांड्य राजाओं को अक्सर सिंहल (श्रीलंका) के राजाओं से भी युद्ध करना पड़ता था। ११०० ई. से १५६७ ई. के बीच सत्रह पांड्य राजाओं ने कभी स्वतंत्र रूप से और कभी करद राजा के रूप में राज्य किया। इनमें जटावर्मा सुन्दर सबसे शक्तिशाली राजा था। उसने १२५१ से १२७१ ई. तक राज्य किया। वह नेल्लोर से लेकर केप कमोरिन तक सारे पूर्वी तट का स्वामी था। १३१० ई. में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के सेनानायक मलिक कफूर (दे.) के नेतृत्व में मुसलमानों ने पांड्य राज्य को रौंद डाला। इसके बाद पांड्य राजाओं की स्थिति पलायगार (स्थानीय जमींदार) के समान हो गयी। पांड्य देश को मुसलमान 'मअबर' कहते थे। मुहम्मद तुगलक के राज्यकाल तक पांड्य देश दिल्ली सल्तनत के अधीन रहा। १३३५ ई. में वहां के मुसलमान सुबेदार जलालुद्दीन अहसानशाह (दे.) ने अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। उसके वंश ने १३७८ ई. तक पांड्य देश पर राज्य किया। इसके बाद पांड्य देश विजयनगर के हिन्दू साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

पाकिस्तान : यह नाम १९३३ ई. में चौधरी रहमत अली ने गढ़ा। अंग्रेजीमें पंजाब 'पी' से, अफगान (सीमाप्रांत) 'ए' से, कश्मीर 'के' से तथा सिंध 'एस' से लिखा जाता है। अतएव इन चारों प्रांतों के प्रथम अक्षरों को मिलाकर अंग्रेजी में PAKS (पाक्स) शब्द बनता है। इसमें 'स्तान' (स्थान) प्रत्यय लगाकर उसने पाकिस्तान शब्द बनाया, जिसका अर्थ उसने किया 'पाक देश'। यहां पर स्मरण रखना चाहिए कि पाकिस्तान का निर्माण करने के लिए जिन चार प्रांतों को चुना गया था, वे सभी मुसलिम बहुमतवाले प्रांत थे। १९३० ई. में सर मुहम्मद इकबाल ने भारत संघ के अंतर्गत उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत, बलूचिस्तान, सिंध तथा कश्मीर के प्रांतों का एक अलग मुसलिम राज्य बनाने का सुझाव दिया था।

१९४० ई. में मुसलिम लीग ने पाकिस्तान की स्थापना अपना लक्ष्‍य बना लिया। जैसे-जैसे यह स्पष्ट होता गया कि अंग्रेज अब भारतीयों के हाथ में सत्ता हस्तांतरण कर देंगे, वैसे-वैसे भारतीय मुसलमानों को भय होने लगा कि उन्हें हिन्दुओं के बहुमत के शासन में रहना पड़ेगा और मुहम्मद अली जिन्ना (दे.) के नेतृत्व में उन्होंने मांग की कि उत्तर पश्चिमी सीमाप्रांत, सिंध, कश्मीर तथा बंगाल को मिलाकर पाकिस्तान बना दिया जाय और भारत का विभाजन हिन्दुस्तान और पाकिस्तान - ऐसे दो राज्यों में कर दिया जाय। इतिहास की दृष्टि से भारत के विभाजन की मांग गलत थी और न देश और न देशवासियों के हित में थी। परंतु 'फूट डालो और शासन करो' की नीति के अनुसार अंग्रेजों ने बहुत समय पहले ही मुसलमानों की साम्प्रदायिक आधार पर पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों की मांग स्वीकार कर ली थी और अब वे पृथक् राज्य की मांग अस्वीकार नहीं कर सकते थे। कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने भी पाकिस्तान की मांग का समर्थन किया। इससे उत्साहित होकर मुसलमानों ने लूट, आगजनी, बलात्कार तथा हत्याओं के रूप में सारे देश में, और विशेष रूप से पंजाब, सिंध तथा बंगाल के मुसलिम बहुमतवाले प्रांतों में 'सीधी काररवाई' शुरू कर दी। देश में अराजकता की स्थिति उत्पन्न होने लगी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अगस्त १९४७ ई. में स्वाधीनता पाने की बेचैनी में देश के विभाजन तथा पाकिस्तान के निर्माण की मांग स्वीकार कर ली।

पाकिस्तान में उत्तर-पशचिमी सीमाप्रांत, बलूचिस्तान, सिंध, पश्चिमी पंजाब तथा पूर्वी बंगाल को सम्मिलित किया गया। इस प्रकार मुसलिम लीग की इच्छा के विपरीत पाकिस्तान दो हिस्सों में बंटा हुआ था। कश्मीर ने पहले तो हिन्दुस्तान तथा पाकिस्तान दोनों में से किसी राज्य में मिलने से इनकार कर दिया, बाद में वह हिन्दुस्तान में मिल गया। पूर्वी बंगाल (जो अब 'बंगला देश' बन गया है), उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत, सिंध तथा पश्चिमी पंजाब को मिलाकर बनाये गये पश्चिमी पाकिस्तान से एक हजार से अधिक मील के फासले पर था। प्रारम्भ में पाकिस्तान की राजधानी कराची हुई और मुहम्मद अली जिन्ना उसके पहले गवर्नर-जनरल नियुक्त किये गये। पाकिस्तान को 'इसलामी राज्य' घोषित किया गया और वहां संसदीय लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था स्थापित की गयी। परंतु १९४८ ई. में जिन्ना की मृत्यु के बाद संविधान की धाराओंके अनुसार शासन चलाना कठिन हो गया। पाकिस्तान का पहला संविधान २३ मार्च १९५६ ई. को लागू हुआ, जिसके अनुसार जनरल इसकंदर मिर्जा को पहला अस्थायी प्रेसीडेंट चुना गया। जनरल इसकंदर मिर्जा ने ७ अक्तूबर १९५८ ई. को पाकिस्तान का संविधान रद्द करके फौजी शासन की स्थापना कर दी, जो दिसम्बर १९७१ ई. तक चलता रहा। २७ अक्तूबर १९५८ ई. को जनरल अयूब खां ने जनरल इसकंदर मिर्जा को अपदस्थ कर दिया। २५ मार्च १९७० ई. को जनरल याहिया खाँ ने जनरल अयूब खां का स्थान ले लिया। दिसम्बर १९७१ ई. के भारत-पाकिस्तान युद्ध में हारने के बाद जनरल याहियां खां को शासन-सत्ता जुल्फिकार अली भुट्टो के हाथ में सौंप देनी पड़ी।

पाकिस्तानी शासकों ने पिछले २६ सालों में भारत के प्रति संघर्ष और टकराव की जो नीति बरती, उसके फलस्वरूप दोनों देशों के बीच चार युद्ध हो चुके हैं--पहला १९४८-४९ ई. में, दूसरा अप्रैल १९६५ ई. में, तीसरा अगस्त १९६५ ई. में और चौथा दिसम्बर १९७१ ई. में।

पाकिस्तानी शासकों ने पूर्वी पाकिस्तान को पश्चिमी पाकिस्तान का उपनिवेश जैसा भाग मानकर उसके प्रति जो भेदभावपूर्ण नीति बरती, उसके फलस्वरूप १८ अप्रैल १९७१ ई. को शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में उसने पाकिस्तान में अपना सम्बंध-विच्छेद कर लिया और 'बंगला देश' के नाम से स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया। बंगला देश पर बलात् अधिकार रखनेवाली पाकिस्तानी सेनाओं ने १६ दिसम्बर १९७१ ई. को ढाका में भारतीय सेनाओं और बँगला देश की मुक्तवाहिनी की संयुक्त कमान के सामने बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दिया। २६ महीने बाद २२ फरवरी १९७४ ई. को पाकिस्तान ने बंगला देश को मान्यता प्रदान कर दी।

बँगला देशके निर्माण के फलस्वरूप पाकिस्तान का इसलामी गणराज्य अब पश्चिमी पाकिस्तान तक सीमित रह गया है। बँगला देश भी भारत की भाँति धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है। पिछले २६ वर्षों में पाकिस्तान के उथल-पुथल से भरे इतिहास में उसके तीन संविधान बन चुके हैं। उसका नया संविधान १४ अगस्त १९७३ ई. को लागू हुआ। इसके अंतर्गत पाकिस्तान को 'इसलामी गणराज्य' घोषित किया गया है। संविधान में प्रधानमंत्री को विशेष अधिकार प्रदान किये गये हैं।

पाटलिपुत्र : मगध के राजाओं की प्रसिद्ध राजधानी। सोन और गंगा नदी के संगम पर आधुनिक पटना तथा बांकीपुर के निकट स्थित। पाटलिपुत्र का दुर्ग राजा अजातशत्रु (लगभग ४९४-४६७ ई. पू.) ने बनवाया और उसके पौत्र उदयी (लगभग ४४३-४१८ ई. पू.) ने पाटलिपुत्र दुर्ग के पड़ोस में गंगा तट पर कुसुमपुर की स्थापना की। दोनों नगर शीघ्र मिलकर एक हो गये और मौर्य राजा चन्द्रगुप्त के अधीन पाटलिपुत्र नगर का राजधानी के रूप में विकास हुआ। नगर के चारों ओर लकड़ी की प्राचीर बनी हुई थी, जिसमें ५७० बुर्ज तथा ६४ द्वार थे। प्राचीर के बाहर नगर की रक्षा के निमित्त गहरी खाईं थी, जिसमें सोन नदी का पानी भरा रहता था। प्राचीर के भीतर राजा का महल था, जिसके ध्वंसावशेष आधुनिक कुमराहार ग्राम के निकट मिले हैं। राजा का महल इतना भव्य था कि मेगस्थनीज (दे.) ने उसके सामने सूसा तथा एकबताना के राजमहलों को हेय बताया था। राजमहल लकड़ी का बना हुआ था और अब लगभग नष्ट हो गया है। बाद में अशोक ने नगर के अंदर पत्थर का महल बनवाया। यह महल भी नष्ट हो गया है, किंतु पांचवीं शताब्दी ई. में जब फाहियान पाटलिपुत्र आया था, यह वर्तमान था। चीनी यात्री इस भव्य महल को देखकर इतना चकित हो गया कि उसे विश्वास नहीं हुआ कि यह मनुष्यों का बनाया हुआ है, वह इसे असुरों के द्वारा निर्मित समझता था।

पाटलिपुत्र शुंग (दे.) और कण्व (दे.) वंश के राजाओं की भी राजधानी रहा। उड़ीसा के राजा खारवेल (दे.) और संभवतः भारतीय यवन राजा मिनाण्डर (दे.) ने इस पर आक्रमण किया, फिर भी नगर फलता-फूलता रहा। यह गुप्त सम्राटों की राजधानी रहा, जिन्होंने ३२० ई. से ५०० ई. तक राज्य किया। उनका राज्यकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल माना जाता है और पाटलिपुत्र उस युग में भारतीय संस्कृति और सभ्यता का महान् केन्द्र था। गुप्तवंश के पतन के बाद इस नगर का महत्त्व घटने लगा। सातवीं शताब्दी ई. में इसका स्थान कन्नौज (दे.) ने ले लिया। बाद में नवीं शताब्दी में पाल राजाओं ने मुद्गगिरि (मुंगेर) को अपनी राजधानी बनाया। मुसलमानी शासनकाल में पाटलिपुत्र का महत्त्व और घट गया और अब पटना (दे.) नगर, जो प्राचीन पाटलिपुत्र के निकट स्थित है, बिहार राज्य की राजधानी है।

पाटिंगर, एल्ड्रेड : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक अंग्रेज जनरल। उसने १८३८ ई. में फारस के हमले के विरुद्ध हेरात की रक्षा की।

पाटिंगर, सर हेनरी : सिंध में ईस्ट इंडिया कम्पनी के द्वारा नियुक्त पहला ब्रिटिश रेजिडेंट। उसने १८३२ ई. में सिंध के अमीरों से संधि-वार्ता की, जिसके फलस्वरूप अंग्रेजों के लिए दक्षिणी सिंधु नदी में नावें चलाकर व्यापार करने का रास्ता खुल गया।

पाणिनि : प्रसिद्ध संस्कृत वैयाकरण। वे चौथी शताब्दी ई. पू. के पूर्व हुए। उनकी 'अष्टाध्यायी' नामक रचना संस्कृत के व्याकरण-ग्रंथों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।

पाणिनि : एक संस्कृत कवि, जो वैयाकरण पाणिनि से भिन्न थे। संस्कृत कवियों में उनका नाम आदर से लिया जाता था और संस्कृत काव्यग्रंथों में उनकी कविताओं के उद्धरण मिलते हैं।

पानचाओ : एक चीनी सेनापति, जिसने ७३ ई. और १०२ ई. के बीच किसी समय खोतान में बढ़कर कदफिसस द्वितीय की आक्रमणकारी सेनाओं को खदेड़ दिया और उसे चीनी सम्राट हो-ती (८९-१०५ ई.) को कर देने के लिए विवश किया।

पान यांग : चीनी सेनापति पान-चाओ (दे.) का पुत्र और अपने पिता की भाँति तुर्किस्तान का चीनी शासक। वह योग्य प्रशासक ही नहीं, इतिहासकार भी था। उसने लिखा है कि १५२ ई. में खोतान चीनी साम्राज्य से निकल गया। उसका यह वक्तव्‍य इस धारणा से मिलता है कि कनिष्क (लगभग १२०-१६२ ई.) ने १२५ ई. तथा १६० ई. के बीच खोतान तथा उसके आसपास के क्षेत्र को जीत लिया था।

पानीपत : तीन भाग्यनिर्णायक लड़ाइयां यहाँ हुईं, जिन्होंने भारतीय इतिहास की धारा मोड़ दी। पानीपत की पहली लड़ाई २१ अप्रैल १५२६ ई. को दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी (दे.) और मुगल आक्रमणकारी बाबर के बीच हुई। इब्राहीम के पास एक लाख फौज थी। उधर बाबर के पास केवल १२००० फौज तथा बड़ी संख्या में तोपें थीं। रणविद्या, सैन्य-संचालन की श्रेष्ठता तथा तोपों के प्रभावशाली प्रयोग के कारण बाबर ने इब्राहीम लोदी के ऊपर निर्णयात्मक विजय प्राप्त की। लोदी रणभूमि में मारा गया। पानीपत की पहली लड़ाई के फलस्वरूप दिल्ली और आगरा पर बाबर का दखल हो गया और उससे भारत में मुगल राजवंश का प्रचलन हुआ।

पानीपत की दूसरी लड़ाई ५ नवम्बर १५५६ ई. को अफगान बादशाह आदिलशाह सूर (दे.) के योग्य हिन्दू सेनापति और मंत्रि हेमू (दे.) और अकबर के बीच हुई, जिसने अपने पिता हुमायूं (दे.) से दिल्ली का तख्त पाया था। हेमू के पास अकबर से कहीं अधिक बड़ी सेना तथा १,५०० हाथी थे। प्रारम्भ में मुगल सेना के मुकाबले में हेमु को सफलता प्राप्त हुई, परंतु संयोगवश एक तीर हेमू की आँख में घुस गया और उसने युद्ध का पासा पलट दिया। तीर लगने से हेमू अचेत होकर गिर पड़ा और उसकी सेना भाग खड़ी हुई। हेमू को गिरफ्तार कर लिया गया और उसे किशोर अकबर के सामने ले जाया गया। अकबर ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। पानीपत की दूसरी लड़ाई के फलस्वरूप दिली और आगरा अकबर के कब्जे में आ गये। इस लड़ाई के फलस्वरूप दिल्‍ली के तख्त के लिए मुगलों और अफगानों के बीच चलनेवाला संघर्ष अंतिम रूप से मुगलों के पक्ष में निर्णीत हो गया और अगले तीन सौ वर्षों तक दिल्ली का तख्त मुगलों के पास रहा।

पानीपत की तीसरी लड़ाई १४ जनवरी १७६१ ई. को अफगान आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली (दे.) और मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय (दे.) के संरक्षक और सहायक मराठों के बीच हुई। इस लड़ाई में मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ अफगान सेनापति अब्दाली से लड़ाई के दांव-पेंचों में मात खा गया। अवध का नवाब शुजाउद्दौला और रुहेला सरदार नजीब खां अब्दाली का साथ दे रहे थे। अब्दाली ने घमासान युद्ध के बाद मराठा सेनाओं को निर्णयात्मक रूप से हरा दिया। सदाशिव राव भाऊ, पेशवा के होनहार तरुण पुत्र और अनेक मराठा सरदारों ने युद्धभूमि में वीरगति पायी। इस हार से मराठों-की राज्यशक्ति को भारी धक्का लगा। युद्ध के छह महीने बाद ही भग्नहृदय पेशवा बालाजीराव की मृत्यु हो गयी।

पानीपत की तीसरी लड़ाई ने भारत का भाग्य निर्णय कर दिया जो उस समय अधर में लटक रहा था। मुगल बादशाह अपने पुराने शत्रु मराठों की सहायता से भी अपनी रक्षा न कर सका। इस हार से पेशवा का दबदबा समाप्त हो गया और वह मराठा सरदारों के ऊपर अपना नियंत्रण कायम नहीं रख सका। मराठा संघ की एकता भंग हो जाने से मुगल साम्राज्य के खंडहरों पर मराठा राज्य की स्थापना का अवसर हाथ से निकल गया। अहमदशाह अब्दाली भी अपनी इस जीत से कोई फायदा न उठा सका। यह जीत उसके लिए बड़ी महंगी साबित हुई। इसके बाद ही उसकी विजयी सेना में विद्रोह का भय उत्पन्न हो गया। अतः दिल्ली के तख्त पर अपना कब्जा मजबूत बनाने से पहले ही उसे अफगानिस्तान वापस लौट जाना पड़ा।

पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को जो क्षति उठानी पड़ी, मुगलों का जो पराभव शुरू हो गया, तथा मुसलमान शासकों में जो अनेकता वर्तमान थी, उसके फलस्वरूप भारत में ब्रिटिश शक्ति के उदय की दिशा में काफी सहायता मिली।

पामर एण्ड कम्पनी कांड : यह कम्पनी साहूकारी की एक फर्म थी, जिसकी एक शाखा निजाम हैदराबाद में भी थी। फर्म की एक साझेदार महिला रमबोल्ड का अभिभावक गवर्नर-जनरल लार्ड हेस्टिंग्स (१८१३-२३ ई.) था। ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने कानून बनाकर यूरोपीय लोगों द्वारा देशी रियासतों से लेन-देन करने पर रोक लगा दी थी, फिर भी लार्ड हेस्टिंग्स ने रमबोल्ड के प्रति अपने स्नेह के कारण फर्म से निजाम को रुपया उधार देने की इजाजत दे दी। नये रेजिडेंट चार्ल्स मेटकाफ ने जब इस अनियमितता की ओर संकेत किया, तब भी इसने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। इस कांड के कारण लार्ड हेस्टिंग्स को गनर्नर-जनरल के पद से हटा दिया जानेवाला था, परंतु राजा जार्ज चतुर्थ के हस्तक्षेप से उसे अपने पद पर बना रहने दिया गया। फिर भी इस घटना के फलस्वरूप कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स से उसके सम्बन्ध हमेशा के लिए खराब हो गये।

पामर, जनरल सर आर्थर पावर (१८४०-१९०४ ई.) : १८४०-१९०४ ई. में भारतीय सेना का एक अफसर नियुक्त हुआ। उसने १८५७-५८ ई. में गदर का दमन करने में, १८६३-६४ ई. में मोहमंद कबीले के खिलाफ लड़ाई में, १८७४-७५ ई. में दफला अभियान में, १८७८-७९ ई. में अफगान युद्ध में तथा १८९७-९८ ई. में तिरह के युद्ध में भाग लिया। वह १९०० से १९०२ ई. में अवकाश ग्रहण करने तक भारत का प्रधान सेनापति रहा। उसने ब्रिटिश भारतीय सेना में कई सुधार किये।

पामर्स्टन, लार्ड : एक प्रमुख ब्रिटिश राजनेता, वह १८३० से १८४१ ई. तक इंग्लैण्ड का विदेशमंत्री रहा। १८३३ ई. में रूस ने तुर्की के साथ अनकियार स्केलेसी की जो संधि की, और जिसके फलस्वरूप रूस ने एक सीमा तक तूर्की पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया, उसकी उसके ऊपर तीव्र प्रतिक्रिया हुई। पामर्स्टन को भय था कि इस संधि का भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध उपयोग किया जायगा। इसलिए वह अफगानिस्तान को ब्रिटिश प्रभाव क्षेत्र में लाने को उत्सुक था ताकि रूस पर दबाव डालने के लिए अफगानिस्तान का उपयोग किया जा सके। लार्ड पामर्स्टन की इस रूस-विरोधी नीति ने लार्ड आकलैंड को जिस नीति पर चलने के लिए विवश किया, उसके फलस्वरूप पहला अफगान युद्ध (१८३९-४२ ई.) (दे.) हुआ।

पामीर : २५,००० फुट ऊँची एक पर्वत-श्रृंखला, जिसे संसार की छत कहा जाता है। यह भारत को सोवियत संघ से अलग करती है। अनुमान लगाया जाता है कि आर्यों ने इस पर्वत-श्रुंखला को पार करके भारत में प्रवेश किया। ऐतिहासिक काल में कुषाण राजा कनिष्क (दे.) ने इस पर्वत-श्रुंखला को पार करके चीन पर हमला करने के लिए एक सेना भेजी। चौथी शताब्दी ई. में चीनी यात्री फाहियान इस पर्वतमाला को पार कर भारत आया। सातवीं शताब्दी ईसवी में ह्युएनत्सांग भारत से लौटते समय इसी पर्वतमाला को लांघ कर चीन गया। ६५७ ई. में एक चीनी यात्री वांग ह्युएनत्से, जो भारत में बौद्ध तीर्थस्थानों में चीवरदान करने आया था, पामीर के रास्ते चीन वापस लौटा। मध्य एशिया में रूसी राज्यशक्ति का विस्तार होने पर बीसवीं शताब्दी में पामीर को नया सामरिक महत्त्व प्राप्त हो गया। (देखिये, 'पंजदेह' की घटना)।

पामीरा : सीरिया के रेगिस्तान में एक नगर। कुषाणकाल में यह भारत और यूरोप के बीच व्यापार का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था।

पारसी : जरथुस्त्र के अनुयायी एवं पारस देश के निवासियों का एक छोटा-सा समुदाय। सातवीं शताब्दी ई. में जब मुसलमान अरबों ने पारस देश को जीता, वे वहाँ से भाग आये और भारत में शरण ली। पारसी लोग अपने धर्म और संस्कृति के अनुरक्षण के लिए बड़े सचेष्‍ट रहते हैं। वे पहले गुजरात के तट पर संजान में बस गये, इसके बाद बम्बई में आ बसे। भारत के अल्पसंख्यक वर्गों में पारसी सबसे धनी और सबसे उन्नतिशील माने जाते हैं। दादाभाई नौरोजी (दे.), जो ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के सदस्य निर्वाचित होनेवाले पहले भारतीय थे, पारसी थे। प्रसिद्ध उद्योगपति टाटा भी पारसी हैं। पारसी लोगों का ज्योतिषशास्त्र में भारी विश्वास होता है। उनके विवाह समारोहों में पुरोहित लोग पहले जेन्द भाषा के और फिर संस्कृत भाषा के मंत्र पढ़ते हैं।

पार्श्वनाथ : जैनों के तेईसवें तीर्थकर (मार्गदाता), वे महावीर स्वामी (दे.) से लगभग दो शताब्दी पहले बनारस के एक राजकुल में उत्पन्न हुए। उन्होंने जैन धर्म का प्रवर्तन किया और चातुर्याम व्रत-अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह का उपदेश दिया। छठीं शताब्दी ई. पू. में महावीर ने उनके चार व्रतों में ब्रह्मचर्य का पाँचवा व्रत और जोड़ दिया।

पालपा की लड़ाई : नेपाल युद्ध (१८१४-१६ ई.) के दौरान ब्रिटिश भारतीय सेना और गोरखाओं के बीच हुई। इस लड़ाई में गोरखाओं ने ब्रिटिश भारतीय सेना को हरा दिया। परंतु अंत में गोरखाओं को परास्त कर दिया गया।

पालवंश : बंगाल में इस वंश का उद्भव लगभग ७५० ई. में गोपाल से हुआ। कुछ समय से बंगाल में अराजकता फैली हुई थी। इसीका अंत करने के लिए जनता ने गोपाल को राजा निर्वाचित किया। इश वंश के सभी अठारह राजाओं के नाम का अंत पाल शब्द से होता है, अतएव इस राजवंश को पालवंश कहा जाता है। इस वंश ने बंगाल पर लगभग ७५० से ११५५ ई. तक तथा बिहार में ११९९ ई. में मुसलमानों की विजय तक राज्य किया। पालवंश के राजाओं की वंशावली, विशेषरूप से चौदहवें राजा रामपाल (लगभग १०७७-११२० ई.) के बाद अस्त-व्यस्त रूप में मिलती है। फिर भी अस्थायी रूप से निम्नोक्त वंशाव लीको सही माना जा सकता है-(१) गोपाल (७५०-७० ई.) (२) धर्मपाल (७७०-८१० ई.), (३) देवपाल (८१०-५० ई.), (४) विग्रहपाल (अथवा सुरपाल) (८५०-५४ ई.), (५) नारायणपाल (८५४-९०८ ई.), (६) राज्यपाल (६०८-४० ई.), (७) गोपाल द्वितीय (९४०-६० ई.), (८) विग्रहपाल द्वितीय (९६०-८८ ई.), (९) महीपाल (९८८-१०३८ ई.), (१०) नयपाल (१०३८-५५ ई.), (११) विग्रहपाल तृतीय (१०५५-७० ई.), (१२) महीपाल द्वितीय (१०७०-७५ ई.), (१३) सुरपाल द्वितीय (१०७५-७७ ई.), (१४) रामपाल (१०७७-११२० ई.), (१५) कुमारपाल (११२०-२५ ई.), (१६) गोपाल तृतीय (११२५-४० ई.), (१७) मदनपाल (११४०-५५ ई.) तथा (१५) गोविन्दपाल (११५५-५९ ई.)।

पालवं शका दूसरा शासक धर्मपाल (दे.) इस वंश का सबसे महान् राजा था। उसने अपना राज्य कन्नौज तक विस्तृत किया और प्रतिहारों तथा राष्ट्रकूटों के साथ त्रिकोणात्मक संघर्ष में अपने राज्य को सुरक्षित रखा। उसके पुत्र एवं उत्तराधि‍कारी देवपाल (दे.) ने भी कई युद्धों को जीता। वह अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से उठाकर बंगाल ले गया। उसकी राजसभा में सुमात्रा के राजा बालपुत्रदेव का दूत आया था। देवपाल (८१०-५० ई.) के बाद पालवंश की राज्यशक्ति राजाओं की निर्बलता तथा गूर्जर प्रतिहार राजाओं के आक्रमणों के कारण क्षीण होने लगी। नवें राजा महीपाल प्रथम के राज्यकाल में चोलराजा राजेन्द्र (दे.) ने लगभग १०२३ ई. में गंगा तक के प्रदेशों को जीता। रामपाल (१०७७-११२० ई.) के राज्यकाल में अस्थायी रूप से पालों की राज्यशक्ति फिर उत्कर्ष को प्राप्त होने लगी। किन्तु बारहवीं शताब्दी के मध्य तक सेन राजाओं (दे.) ने पाल राजाओं से बंगाल छीन लिया। बाद में ११९९ ई. में बख्तियार के पुत्र (दे.) इख्तियारुद्दीन मुहम्मद के नेतृत्व में मुसलमानों ने बिहार में भी पालवंश को समाप्त कर दिया।

पालवंशी राजा बौद्ध थे और उनके राज्यकाल में बौद्ध शिक्षाकेन्द्रों की बड़ी उन्नति हुई। नालन्दा (दे.) तथा विक्रमशिला (दे.) के प्रसिद्ध महाविहारों को उनका संरक्षण प्राप्त था। प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु अतिशा (दे.) दसवें पालराजा नयपाल के राज्यकाल में उत्पन्न हुआ, जो तिब्बत के राजा के निमंत्रण पर तिब्बत गया था। पालवंशी राजा कला तथा वास्तुकला के महान् प्रेमी थे और उन्होंने धीमान (दे.) तथा विटपाल (दे.) जैसे महान् शिल्पियों को संरक्षण प्रदान किया। पालकाल की कोई इमारत शेष नहीं बची है, परन्तु उन्होंने जो बहत से जलाशय खुदवाये, उनमें कई, विशेषरूप से दीनाजपुर जिले में बचे हुए हैं।

पालवंश (कामरूप का) : बंगाल तथा बिहार पर राज्य करनेवाले पालवंश से यह भिन्न था। इसकी उत्पत्ति कामरूप में लगभग १००० ई. में ब्रह्म पाल से हुई। कहा जाता है कि उसे जनता ने स्वयं राजा चुना। उसने जिस राजवंश को चलाया, उसमें सात राजा--रत्नपाल, इन्द्रपाल, गोपाल, हर्षपाल, धर्मपाल तथा जयपाल हुए। इन राजाओं ने कामरूप पर ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक राज्य किया। दूसरे राजा रत्नपाल ने २६ वर्ष से अधिक समय तक राज्य किया। उसने दुर्जय को अपनी नयी राजधानी बनाया। दुर्जय की पहचान अभी तक नहीं हो सकी है। उसने 'परमेश्वर परमभट्टारक महाराजाधिराज' की पदवी धारण की। अंतिम राजा जयपाल को संभवतः बंगाल के राजा रामपाल (दे.) ने अपदस्थ कर दिया। रामपाल के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उसने कामरूप को जीता था।

पिगट, लार्ड : मद्रास का गवर्नर (१७७५-७८ ई.)। मद्रास में कम्पनी के पदाधिकारियों में जो भ्रष्टाचार व्याप्त था, उसे वह समाप्त नहीं तो रोकना अवश्य चाहता था। परन्तु उसके अधीनस्थ भ्रष्टाचारी पदाधिकारी उस ईमानदार गवर्नर से कहीं अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुए। उन्होंने उसे अपदस्थ करके कैदखाने में डाल दिया। मद्रास के कैदखाने में ही उसकी मृत्यु हो गयी।

पिंडारी (पेंढारी) : अनियमित सवार, जो मराठा सेनाओं के साथ-साथ चलते थे। उन्हें कोई वेतन नहीं दिया जाता था और शत्रु के देश को लूटने की इजाजत रहती थी। यद्यपि कुछ प्रमुख पेंढारी नेता पठान थे, तथापि सभी जातियों के खूंखार और खतरनाक व्यक्ति उनके दल में सम्मिलित थे। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उनको शिन्दे का संरक्षण प्राप्त था। उसने उनको नर्मदा घाटी के मालवा क्षेत्र में जमीनें दे रखी थीं। वहां से वे मध्यभारत में दूर-दूर तक धावे मारते थे और अमीरों तथा गरीबों को समान रूप से लूटा करते थे। १८१२ ई. में उन्होंने बुंदेलखंड में, १८१५ ई. में निजाम के राज्य में तथा १८१६ ई. में उत्तरी सरकार में लूटपाट की। इस तरह उन्होंने ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की शांति और समृद्धि के लिए खतरा उत्पन्न कर दिया। अतएव १८१७ ई. में गवर्नर-जनरल लार्ड हेस्टिंग्स ने उनके विरुद्ध अभियान के लिए एक बड़ी सेना संगठित की। यद्यपि पेंढारी-विरोधी अभियान के फलस्वरूप तीसरा मराठा-युद्ध (दे.) छिड़ गया तथापि पेंढारियों का दमन कर दिया गया। उनके पठान नेता अमीर खां को टोंक के नवाब के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गयी। उसने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली। पेंढारियों का दूसरा महत्त्वपूर्ण नेता चित्तू था। उसका पीछा किया जाने पर वह जंगलों में भाग गया, जहां एक चीते ने उसे खा डाला।

पिट का इंडिया ऐक्ट : विलियम पिट कनिष्ठ ने, जो उस समय इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री था, प्रस्तावित किया और १७८४ ई. में पास हुआ। इसका उद्देश्य १७७३ ई. के रेग्युलेटिंग ऐक्ट के कुछ स्पष्ट दोषों को दूर करना था। इसके द्वारा भारत में ब्रिटिश राज्य पर कम्पनी और इंग्लैण्ड की सरकार का संयुक्त शासन स्थापित कर दिया गया। 'कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स' (दे.) के हाथ में वाणिज्‍य का नियंत्रण तथा नियुक्तियाँ करने का कार्य रहने दिया गया, परन्तु कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स (दे.) के हाथ से कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स का चुनाव करने के अतिरिक्त सब अधिकार छीन लिये गये। एक बोर्ड आफ कंट्रोल की स्थापना कर दी गयी। इसमें छह अवैतनिक प्रिवी कौंसिलर होते थे। उनमें से एक को अध्यक्ष बना दिया जाता था और उसे निर्णायक मत प्राप्त होता था। अब कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स बोर्ड की पूर्व अनुमति के बिना कोई भी खरीता भारत नहीं भेज सकता था। इसी प्रकार भारत से जो खरीते आते थे, वे बोर्ड के सामने रखे जाते थे। बोर्ड यह आग्रह भी कर सकता था कि कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स की सहमति न होने पर भी केवल उसी के आदेश भारत भेजे जायें। गवर्नर-जनरल की नियुक्ति पहले की भाँति कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स करता था, परन्तु इंग्लैण्ड का राजा उसे वापस बुला सकता था। गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गयी, जिनमें से एक प्रधान सेनापति होता था। कौंसिल के सहित गवर्नर-जनरल को युद्ध, राजस्व तथा राजनीतिक मामलों में बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेंसी पर अधिक नियंत्रण प्रदान कर दिया गया। कौंसिल के सहित गवर्नर-जनरल को बोर्ड आफ कंट्रोल की सहमति से कोर्ट अथवा उसकी गुप्त समिति के द्वारा भेजे गये किसी स्पष्ट निर्देश के बिना युद्ध की घोषणा करने अथवा युद्ध शुरू करने के उद्देश्य से कोई संधि वार्ता चलाने से रोक दिया गया। ऐक्ट में बाद में एक संशोधन कर दिया गया, जिसके द्वारा गवर्नर-जनरल को जब वह आवश्यक समझे, अपनी कौंसिल के निर्णय को अस्वीकार कर देने का अधिकार दे दिया गया।

पिट, विलियम (कनिष्ठ) : ब्रिटेन का १७८३ ई. से १८०१ ई. तक प्रधानमंत्री। उसने मुख्यरूप से भारत में ब्रिटिश प्रशासन के प्रश्न पर चुनाव जीता। १७७३ ई. का रेग्युलेटिंग ऐक्ट पास होने के बाद जो एक दशक बीता था, उसमें भारत में ब्रिटिश प्रशासन के अनेक दोष उजागर हुए थे और उनको दूर करना आवश्यक समझा जा रहा था। अतएव प्रधानमंत्री नियुक्त होने के बाद पिटने जो पहला महत्त्वपूर्ण कदम उठाया वह इंडिया ऐक्ट (दे.) पास करना था। इस ऐक्ट के द्वारा भारत के प्रशासन पर ब्रिटिश पार्लियामेण्ट का नियंत्रण अधिक दृढ़ बना दिया गया, एक बोर्ड आफ कंट्रोल की स्थापना की गयी तथा बंगाल के गवर्नर-जनरल तथा उसकी कौंसिल को बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेंसी के आंतरिक तथा बाह्य प्रशासन पर नियंत्रण करने के अधिक अधिकार प्रदान किये गये।

पिट का इंडिया ऐक्ट पास होने पर वारेन हेस्टिंग्स ने, जो उस समय बंगाल का गवर्नर-जनरल था, इस्तीफा दे दिया। इसके बाद ही ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में भारतीय प्रशासन का सर्वेक्षण आरम्भ किया गया। पिट का इंडिया ऐक्ट पास होने पर वारेन हेस्टिंग्स ने, जो उस समय बंगाल का गवर्नर-जनरल था इस्तीफा दे दिया। इसके बाद ही ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में भारतीय प्रशासन का सर्वेक्षण आरम्भ किया गया। पिट ने नंदकुमार (दे.) की फाँसी तथा रुहेला युद्ध (दे.) के प्रश्न पर वारेन हेस्टिंग्स के पक्ष में वोट दिया, किन्तु चेतसिंह (दे.) तथा अवध की बेगमों (दे.) के प्रश्न पर उसके विरुद्ध वोट दिया। अतएव १७८८ ई. में हेस्टिंग्स पर महाभियोग चलाया गया, यद्यपि सात साल के मुकदमे के बाद उसे बरी कर दिया गया। किन्तु पिट ने वारेन हेस्टिंग्स को 'पिअर'की पदवी से सम्मानित करना स्वीकार नहीं किया। इससे प्रकट होता है कि उसके बारे में उसका क्या मूल्यांकन था।

पिट के प्रधानमंत्रित्व काल में लार्ड कार्नवालिस (दे.) (१७८६-९३ ई.), सर जान शोर (दे.) (१७९३-९८ ई.) तथा लार्ड वेल्जली (दे.) (१७९८-१८०५ ई.) गवर्नर-जनरल रहे। लार्ड कार्नवालिस से पिट के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण थे और उसने उसके बंगाल में स्थायी बंदोबस्त करने के प्रस्ताव का समर्थन किया। उसने लार्ड वेल्जली का भी उसके प्रशासनकाल के प्रारम्भिक वर्षों में समर्थन किया। परन्तु जब लार्ड वेल्जली ने युद्धों का एक अंतहीन सिलसिला जारी कर दिया तो पिट ने उसका समर्थन करना बंद कर दिया। १८०५ ई. में लार्ड वेल्जली को वापस बुला कर उसके स्थान पर लार्ड कार्नवालिस को भेजा गया। १८०६ ई. में पिट की मृत्यु हो गयी।

पितनिक : लोगों का उल्लेख अशोक के शिलालेख संख्या ५ तथा ८ में मिलता है। ये लोग उसके साम्राज्य की पश्चिमी सीमाओं पर रहते थे।

पिनहेरो, पादरी एमैनुएल : एक जेशूइट पादरी। १५९५ ई. में पादरी जेरोय जैवियर के साथ बादशाह अकबर के दरबार में गया और उसके राज्यकाल के अंतिम वर्षों में वहीं रहा। उन्हें बादशाह ने अपनी प्रजा को बपतिस्मा देकर ईसाई बनाने की इजाजत दे दी। पिनहेरो ने अपने देश को जो पत्र लिखे, उनसे उस युग के इतिहास पर अच्छी रोशनी पड़ती है।

पियर्स, कर्नल हघ : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक फौजी अफसर। उसने पहले मैसूर-युद्ध (१७६७-६९ ई.) में स्थल मार्ग द्वारा बंगाल से मद्रास जानेवाली एक सेना का नेतृत्व किया था।

पीर मुहम्मद : तैमूर (दे.) का पौत्र। उसने १३९७ ई. में तैमूर की चढ़ाई से एक साल पहले आकर कच्छ और मुलतान को जीत लिया। इस प्रकार उसने तैमूर के हमले के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया।

पीर मुहम्मद खाँ : शुरू में बैरम खाँ (दे.) का नौकर। पानीपत की दूसरी लड़ाई (दे.) (१५५६ ई.) के बाद हेमू (दे.) की पत्नी का पीछा करने के लिए भेजा गया, जो खजाना लेकर भाग गयी थी। वापस लौटने पर वह बैरम खाँ के विरोधी दल में सम्मिलित हो गया। इस पर बैरम खाँ उसका विरोधी हो गया, उसका पद छीन लिया गया और उसे गुजरात भेज दिया गया। यह समझा गया कि पीर मुहम्मद खाँ को बैरम खाँ की प्रतिहिंसा का शिकार बनाया गया है और बैरम खाँ-विरोधी दल के समर्थन से उसे शीघ्र दरबार में वापस बुला लिया गया। उसे बैरम खाँ की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए नियुक्त किया गया। १५६० ई. में बैरम खाँ का पतन हो जाने तथा उसकी हत्या कर दिये जाने पर, पीर मुहम्मद खाँ को अदहम खाँ का महायक सेनापति बनाकर मालवा पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया और मालवा को जीत लिया गया। पीर महम्मद खाँ ने मालवा में बंदी बनाये गये मुसलमानों के साथ अत्यन्त क्रूरता का व्यवहार करके अपने को कलंकित किया। अदहम खाँ के हटा दिये जाने पर वह मालवा का सूबेदार बनाया गया। इसके बाद उसने खानदेश पर हमला किया, किन्तु उसकी फौजों को खदेड़ दिया गया। नर्मदा को दुबारा पार करते समय वह डूब कर मर गया।

पीस, डैमिनगोस : एक पुर्तगाली यात्री, जो कृष्णदेव राय (दे.) के राज्यकाल में विजयनगर आया। उसने राजा के स्वभाव तथा उस काल की आर्थिक तथा सामाजिक दशा का रोचक वर्णन किया है। उसका विश्वास था कि विजयनगर उतना ही बड़ा है, जितना बड़ा रोम और यहाँ असंख्य लोग निवास करते हैं। वह उसे संसार का सबसे सम्पन्न नगर मानता था। उसने राजा के महल में एक कमरा फर्श से लेकर ऊपर छत तक समूचा हाथीदाँत का बना देखा। राजसभा का शिष्टाचार बड़ा विशद था और राजा के पास बहुत विशाल सेना थी।

पुरनिया : मैसूर निवासी एक ब्राह्मण, जो अपनी योग्यता के बलपर उन्नति करके टीपू सुल्तान (दे.) (१७८२-९९ ई.) का दीवान बन गया। १७९९ ई. में उसकी पराजय तथा मृत्यु पर विजयी अंग्रेजों ने मैसूर राज्य के एक हिस्से में उसके पुराने हिन्दू राजा के जिस नाबालिग पौत्र को गद्दी पर बिठाया, उसका दीवान पुरनिया को नियुक्त कर दिया। पुरनिया बहुत योग्य प्रशासक सि‍द्ध हुआ और उसने बालक राजा की ओर से राज्य का प्रशासन बड़ी कुशलता से किया।

पुरन्‍दर की संधि : मार्च १७७६ ई.में मराठों तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच हुई। बम्बई सरकार और अपने को पेशवा माननेवाले राघोबा (दे.) के बीच १७७५ ई. की सूरत की संधि (दे.) के फलस्वरूप कम्पनी और मराठों के बीच युद्ध छिड़ गया था। इस युद्ध को रोकने के लिए कम्पनी ने अपने प्रतिनिधि कर्नल अपटन को मराठों से संधि-वार्ता के लिए भेजा था। पुरन्दर की संधि के द्वारा अंग्रेजों ने इस शर्त पर राघोबा का साथ छोड़ना स्वीकार कर लिया कि उन्हें साष्टी को अपने अधिकार में रखने दिया जायगा। कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स ने इस संधि को नामंजूर कर दिया और मराठों से फिर युद्ध छिड़ गया। यह युद्ध १७८२ ई. तक चलता रहा और साल्बाई की संधि के द्वारा समाप्त हुआ। अंग्रेजों ने साल्बाई में पुरन्दर की संधि की सभी शर्तें स्वीकार कर लीं और मराठों से सुलह कर ली।

पुराण : धार्मिक अनुश्रुतियों तथा प्राचीन ऐतिहासिक, आख्यानों के भंडार। पुराण अठारह हैं, जिनमें से वायु, विष्णु, ब्रह्मांड, मत्स्य तथा भागवत पुराणों में राजाओं की वंशावलियाँ मिलती हैं जो अत्यन्त मूल्यवान हैं। पुराणों का काल-निर्णय कठिन है। पुराणों में भविष्य, ब्रह्मांड तथा मत्स्य पुराण सबसे प्राचीन हैं और उनका रचनाकाल ई. पू. चौथी शताब्दी भी हो सकता है। परन्तु पुराणों में बहुत-से अंश बहुत बाद के काल तक जुड़ते रहे और उन्हें वर्तमान रूप चौथी तथा पाँचवीं शताब्दी ई. में प्राप्त हुआ। पूर्वोक्त पुराणों के अतिरिक्त अन्य तेरह पुराण हैं- ब्रह्म, पद्म, नारदीय, मार्कण्डेय, आग्नेय, भविष्‍य, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वाराह, स्कन्द, वामन, कूर्म तथा गरुड़ पुराण।

पुरी : हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थान, जो उड़ीसा के समुद्रतट पर स्थित है। यहाँ जगन्नाथजी का विशाल मंदिर है, जिसे उड़ीसा के राजा अवन्तीवर्मा चोलगंग (दे.) (१०७६-११४८ ई.) ने बनवाया।

पुरु : इस जन का उल्लेख वेदों में मिलता है। वे आर्यजाति के अन्तर्गत थे, फिर भी 'वैरीकी भाषा' बोलते थे। आर्यों के अन्य जनों (कबीलों) से उनका युद्ध चलता रहता था। वे अन्य जनों के साथ सरस्वती नदी के तट पर रहते थे। यह ज्ञात नहीं है कि ३२६ ई. पू. में झेलम नदी के तट पर सिकंदर की सेनाओं का युद्धभूमि में मुकाबला करनेवाले राजा पुरु से प्राचीन पुरुजन का क्या सम्बन्ध था।

पुरु : यूनानी इतिहासकारों ने इसका नाम पोरस लिखा है। उनके वर्णनानुसार मकदूनिया के राजा सिकन्दर ने ३२६ ई. पू. में जब पंजाब पर आक्रमण किया, उसका राज्य झेलम और चिनाब नदियों के बीच में स्थित था। पुरु इस बात का उदाहरण प्रस्तुत करता है कि भारतीय क्षत्रिय राजा शूरवीर और स्वाभिमानी होते थे। पुरु के पड़ोसी, तक्षशिला के राजा आम्भि ने, जिसका राज्य झेलम के पश्चिम में था, सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली। किन्तु पुरु ने सिकन्दर के आगे सिर झुकाने से इनकार कर दिया और उससे युद्धभूमि में भेंट करने का निश्चय किया। सिकन्दर ने इस बात का पता लगा लिया था कि उसके शत्रु का मुख्य बल हाथी हैं और उसने अपनी सेना को बता दिया था कि उनका सामना किस रीति से करना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि पुरु ने इस बात का पता लगाने की कोशिश नहीं की कि यवन सेना की शक्ति का क्या रहस्य है। यवन सेना का मुख्य बल उसके द्रुतगामी अश्वारोही तथा घोड़ों पर सवार फुर्तीले तीरंदाज थे। पुरु को अपनी वीरता और हस्तिसेना का विश्वास था और उसने सिकन्दर को झेलम नदी पार करने से रोकने की चेष्टा नहीं की। सिकन्दर के द्रुतगामी अश्वारोही तथा घोड़ों पर सवार तीरंदाज जब सामने आ गये तब जाकर उसने झेलम के पूर्वी तट पर कर्री के मैदान में व्यूहरचना करके उनका सामना किया। उसकी धीरे-धीरे चलनेवाली पदाति सेना सबसे आगे थी, उसके पीछे हस्तिसेना थी। उसने जिस ढंग की वर्गाकार व्यूहरचना की थी उसमें सेनाके लिए तेजी से गमन करना सम्भव नहीं था। उसके धनुषधारी सैनिकों के धनुष इतने बड़े थे कि उन्हें चलाने के लिए जमीन पर टेकना पड़ता था। सिकन्दर ने अपनी द्रुतगामी सेना की गतिशीलता का पूरा लाभ उठाया और उसकी इस रणनीति ने उसे युद्ध में विजयी बना दिया। पुरु बड़ी वीरता से लड़ा और घायल हो जाने पर भी उसने युद्धभूमि में पीठ नहीं दिखायी। यवन सैनिकों ने उसे बंदी बना लिया। सिकन्दर ने बुद्धिमत्ता से काम लेकर उसे मित्र राजा बना लिया। उसने उसे पुरा राजोचित सम्मान प्रदान किया और उसका राज्य लौटा दिया और शायद पंजाब में जीते गये कुछ राज्य भी उसे सौंप दिये। सिकंदर की वापसी के बाद पुरु की क्या भूमिका रही, यह ज्ञात नहीं है। पंजाब को यवनों से चन्द्रगुप्त मौर्य (दे.) ने मुक्त कराया।

पुरुषपुर : आधुनिक पेशावर का प्राचीन नाम, जो महान् कुषाण राजा कनिष्क (दे.) की राजधानी थी।

पुरुषोत्तम : एक हिन्दू दर्शनवेत्ता, जिसको बादशाह अकबर ने लगभग १५८० ई. में फतेहपुर सीकरी के इबादतखाने में वाद-विवाद के लिए आमंत्रित किया था।

पुरुषोत्तम गजपति : उड़ीसा का एक राजा (१४७०-९७ ई.)। वह कपिलेन्द्र वंश (दे.) का था। उसे विजयनगर के राजा तथा बहमनी के सुल्तान से युद्ध करना पड़ा और अपने राज्यकाल के प्रारम्भ में वह उनसे पराजित हुआ। उन्होंने उसके राज्य का गोदावरी से दक्षिण का भाग छीन लिया। परन्तु पुरुषोत्तम गजपति ने अपनी मृत्यु से पूर्व गोदावरी तथा कृष्णा नदी के दोआब पर फिर से अधिकार कर लिया और कोंडबिन्दु तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया।

पुरोहित : राजा का धार्मिक परामर्शदाता और धर्मानुष्ठाता। हिन्दू राजतंत्र में प्रशासन पर उसका काफी प्रभाव होता था।

पुर्तगाली : वास्को द गामा के नेतृत्व में ये लोग चार जहाजों पर सवार होकर २० मई १४९८ ई. को भारत पहुँचे। वे समुद्रमार्ग से आशा अंतरीप का चक्कर लगाकर भारत पहुँचनेवाले पहले यूरोपीय व्यापारी थे। उन्होंने अपने जहाजों का लंगर कालीकट में डाला। वहाँ के हिन्दू राजा ने, जिसे जमोरिन कहते थे, उनका स्वागत किया। वे वहाँ से कोचीन और कन्नानोर गये और सकुशल पुर्तगाल वापस लौट गये। पुर्तगाली भाग्यवशात् बड़े अच्छे मौके पर भारत आये थे, उस समय उत्तरी भारत में दिल्ली की सल्तनत और दक्खिन में बहमनी राज्य दोनों विघटन की अवस्था में थे। उस काल में भारत जिन राज्यों में विभाजित था, उनमें से किसी के पास नौसेना नहीं थी। किसी राज्य ने नौसेना संगठित करने का विचार तक नहीं किया था।इसलिए भारत में पुर्तगालों के बढ़ाव में सिर्फ वे अरब सौदागर बाधक थे जिनके हाथ में भारत का पश्चिम से होनेवाला सारा व्यापार था। वास्को द गामा जब १५०२ ई. में दुबारा आया तब जमोरिन से उसका संघर्ष हो गया, क्योंकि उसने अरब सौदागरों के हाथ से सारा व्यापार छीनकर पुर्तगालियों के हाथ में सौंप देने से इनकार कर दिया। किन्तु भारत के साथ पुर्तगालियों का व्यापार बढ़ता रहा और १५०५ ई. में डोम फ्रांसिस्को द आलमीदा (दे.) को भारत में पहला पुर्तगाली वाइसराय (प्रतिनिधि) नियुक्त किया गया। १५०८ ई. में उसने अरब सागर में एक नौसैनिक लड़ाई में मित्र और गुजरात के सुल्तानों के एक संयुक्त बेड़े को हरा दिया और इस प्रकार समुद्री मार्गों पर पुर्तगाली प्रभुत्व स्थापित कर लिया।इसके फलस्वरूप अगले पुर्तगाली गवर्नर आलबुकर्क को पश्चिम से हिन्द महासागर में प्रवेश करने के सभी मार्गों पर अपने अड्डे स्थापित करने तथा अरबों के जहाजों को समुद्र से मार भगाने में सफलता प्राप्त हुई। उसने १५१० ई. में बीजापुर के सुल्तान से गोआ का टापू छीन लिया। आलबुकर्क ने १५११ ई. में मलक्का पर तथा १५१५ ई. में ओर्मुजपर भी अधिकार कर लिया। इससे पहले अदन पर अधिकार करने के प्रयत्न में वह विफल रहा था। पुर्तगालियों ने गोआ के साथ-साथ भारत के पश्चिमी तट पर डामन और डय्यू नामक दो और स्थानों पर कब्जा कर लिया और इस प्रकार भारत में एक प्रकार से अपना छोटा-सा साम्राज्य स्थापित कर लिया, जिस पर वे लोग अब तक शासन करते रहे। भारतीय बस्तियों पर उनका शासन अत्यन्त दमनकारी रहा। उन्होंने विर्धमियों पर, विशेषरूप से मुसलमानों पर क्रूर अत्याचार किये और उनको दंडित करने के लिए धार्मिक अदालतों की स्थापना की। पुर्तगाली संख्या में बहुत थोड़े थे जो उनके साम्राज्य के प्रसार में सबसे बड़ी कमी थी। आलबुकर्क ने इस बाधा को दूर करने के लिए पुर्तगाली नाविकों को अपहृत भारतीय विवाहिता स्त्रियों तथा कन्याओं से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया। उसका ख्याल था कि इस प्रकार से वर्णसंकरों की एक जाति उत्पन्न करके पुर्तगाली भारत में अपना शासन बनाये रखने में सफल हो जायेंगे, किन्तु उसका यह मनोरथ पूरा न हुआ।

सत्रहवीं शताब्दी में डच और अंग्रेज व्यापारी भी भारत पहुँचे। अंग्रेज और पुर्तगाली व्यापारियों में स्थल और समुद्र पर दीर्घकाल तक लड़ाइयाँ चलतीं रहीं, जिनके फलस्वरूप पुर्तगालियों के हाथ से न केवल व्यापार, बल्कि समुद्र के ऊपर से भी एकाधिकार छिन गया। यद्यपि पुर्तगाली मुगल बादशाहों तथा मराठों के आक्रमण से अपने भारतीय साम्राज्य की रक्षा करने में सफल रहे, तथापि यह निश्चित था कि उनके भारतीय साम्राज्य का वही परिणाम हुआ होता जो फ्रांसीसी साम्राज्य का हुआ और वह ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य द्वारा अवश्य निगल लिया जाता, मगर नेपोलियन के विरुद्ध युद्ध में पुर्तगाल इंग्लैण्ड का मित्रराष्ट्र था। इस वजह से फ्रांस और हालैंड को जबकि उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत में अपने साम्राज्य से हाथ धोना पड़ा, और वे केवल कुछ व्यापारिक केन्द्रों पर अपना कब्जा बनाये रख सके, पुर्तगाल ने गोआ, डामन और डय्यू पर अपना स्वतंत्र साम्राज्य बनाये रखा। स्वतंत्र भारत अपने भूखंड पर पुर्तगाली साम्राज्य को जारी रखने की इजाजत नहीं दे सकता था, अतएव जब पुर्तगाल द्वारा शांतिपूर्ण रीति से अपनी भारतीय बस्तियों की शासन सत्ता हस्तांतरित कर देने की दीर्घकालीन समझौता वार्ता विफल हो गयी, तब १९६० ई. में उनसे वह भूभाग बलपूर्वक आजाद करा लिया गया।

पुलकेशी प्रथम : दक्षिण में वातापी अथवा बादामी में चालुक्य वंश (दे.) का प्रवर्तक। वह छठी शताब्दी के लगभग मध्यकाल में हुआ था।

पुलकेशी द्वितीय : पुलकेशी प्रथम का पौत्र तथा चालुक्य वंश (दे.) का चौथा राजा, जिसने ६०९-४२ ई. तक राज्य किया। वह महाराजाधिराज हर्षवर्धन का समसामयिक तथा प्रतिद्वन्द्वी था। उसने ६२० ई. में दक्षिण पर हर्ष का आक्रमण विफल कर दिया। वह महान् योद्धा था और उसने गुजरात, राजपूताना तथा मालवा को विजय किया। उसने कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच स्थित वेंगि का राज्य जीता और अपने भाई कुब्ज विष्णुवर्धन (दे.) को वहाँ अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया।

उसने दक्षिण भारत के चोल, पांड्य तथा केरल राज्यों को अपने अधीन कर लिया, पल्लव राजाओं से भी दीर्घकाल तक युद्ध किया और लगभग ६०९ ई. में राजा महेन्द्रवर्मा को परास्त कर दिया। उसकी कीर्ति सुदूरवर्ती फारस देश तक पहुँच गयी थी। फारस के शाह खुसरो द्वितीय ने ६२५-२६ ई. में पुलकेशी द्वितीय के द्वारा भेजे गये दूतमंडल से भेंट की थी। इसके बदले में उसने भी अपना दूतमंडल पुलकेशी द्वितीय की सेवा में भेजा। अजंता की गुफा संख्या १ से एक भित्तिचित्र में फारस के दूतमंडल को पुलकेशी द्वितीय के सम्मुख अपना परिचयपत्र प्रस्तुत करते हुए दिखाया गया है। चीनी यात्री ह्युएनत्सांग ६४१ ई. में उसकी राजसभा में आया था और उसके राज्य का भ्रमण किया था। उसने पुलकेशी द्वितीय के शौर्य और उसके सामंतों की स्वामिभक्ति की प्रशंसा की है। किन्तु ६४२ ई. में इस शक्तिशाली राजा को पल्लव राजा नरसिंहवर्मा ने एक युद्ध में पराजित कर मार डाला। उसने उसकी राजधानी पर भी अधिकार कर लिया और कुछ समय के लिए उसके वंश का उच्छेद कर दिया।

पुलिस, भारतीय : सर्वप्रथम ब्रिटिश भारत में इस विभाग की स्थापना गवर्नर-जनरल लार्ड कार्नवालिस (१७८६-९३ ई.) ने की। कलकत्ता, ढाका, पटना तथा मुर्शिदाबाद में चार अधीक्षकों के अधीन पुलिस रखी गयी। क्रमशः प्रत्येक जिले में एक पुलिस अधीक्षक की नियुक्ति हुई। उसके अधीन प्रत्येक सब-डिवीजन में एक उप-पुलिस अधीक्षक, प्रत्येक सर्किल में एक पुलिस इंसपेक्टर तथा प्रत्येक थाने में एक थानाध्यक्ष होता था। थानाध्यक्ष के अधीन कई कांस्टेबिल होते थे। इन सबको राज्य से वेतन दिया जाता था और वे सामूहिकरूप से अपने-अपने क्षेत्र में शांति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए जिम्मेदार होते थे। गाँवों में चौकीदार रखे जाते थे जिन्हें सरकार मामूली वेतन देती थी। उनका काम अपने क्षेत्र के बदमाशों पर नजर रखना और कोई दंडनीय अपराध होने पर उसकी सूचना थानाध्यक्ष को देना होता था। कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास के प्रेसीडेंसी नगरों में पुलिस कमिश्नर के अधीन एक संयुक्त पुलिसदल होता था। पुलिस कमिश्नर सीधे पुलिस विभाग से सम्बन्धित मंत्री के अधीन होता था और कानून तथा व्यवस्था बनाये रखना तथा विभागीय प्रशिक्षण प्रदान करना उसकी जिम्मेदारी होती थी। अब भारतीय प्रशासकीय सेवा के सदस्यों की भाँति पुलिस अधीक्षकों की भरती भी मुख्यरूप से अखिल भारतीय प्रतियोगिता परीक्षा के आधार पर होती है, किन्तु अभी तक कोई अखिल भारतीय पुलिस सेवा नहीं गठित की गयी है।

१८६१ ई. के पुलिस ऐक्ट के द्वारा पुलिस को प्रांतीय संगठन बना दिया गया और उसका प्रशासन सम्बन्धित प्रांतीय सरकारों के जिम्मे कर दिया गया। प्रत्येक प्रांत के पुलिस संगठन का प्रधान पुलिस महानिरीक्षक होता है, जो उसका नियंत्रण करता है। सारे देश में पुलिस संगठन का सबसे बड़ा दोष यह था कि पुलिस अफसरों में शिक्षा का अभाव तथा भ्रष्टाचार का बोलबाला रहता था। १९०२ ई. में पुलिस प्रशासन की जाँच करने के लिए एक कमीशन की नियुक्ति की गयी और उसकी सिफारिशों के आधार पर पुलिस दल में सुधार करने और उसका मनोबल ऊँचा उठाने के लिए कदम उठाये गये। एक खुफिया जाँच विभाग की स्थापना की गयी तथा अंतरप्रांतीय समन्वय के लिए केन्द्रीय सरकार के गृह विभाग के अधीन केन्द्रीय खुफिया विभाग गठित किया गया। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद पुलिस दल में अधिक शिक्षित व्यक्तियों को आकर्षित करने के उद्देश्य से वेतनमान में सुधार कर दिया गया है और सुविधाओं में काफी वृद्धि कर दी गयी है। पुलिस दल के सदस्यों में यह भावना उत्पन्न करने का प्रयास किया गया है कि वे जनता के सेवक हैं, किन्तु इसमें सीमित सफलता ही मिली है।

पुष्यगुप्त : एक वैश्य, जिसे चंद्रगुप्त मौर्य (दे.) ने सौराष्ट्र में अपना राष्ट्रीय प्रतिनिधि नियुक्त किया था, जिसने वहाँ की एक नदी पर बाँध बनाकर प्रसिद्ध सुदर्शन झील का निर्माण कराया।

पुष्यभूति वंश : छठी शताब्दी ई. में दिल्ली के निकट थानेश्वर में पुष्यभूति से, जो शिव का उपासक था, इस वंश का प्रारम्भ हुआ। इस वंश में तीन राजा हुए--प्रभाकरवर्धन और उसके दो पुत्र राज्यवर्धन तथा हर्षवर्धन। प्रभाकरवर्धन (दे.) की मृत्यु पर उसके सिंहासन पर उसका बड़ा पुत्र राज्यवर्धन (दे.) बैठा। किन्तु राज्याभिषेक के बाद ही राज्यवर्धन को युद्धों में फँस जाना पड़ा और उसका वध कर दिया गया। तब उसका यशस्वी छोटा भाई हर्षवर्धन (दे.) (६०६-४७ ई.) शासक हुआ, जिसने चालीस वर्ष तक राज्य करके अपनी कीर्ति का विस्तार किया। वह निस्संतान था, अतः उसकी मृत्यु के साथ पुष्यभूति वंश का अन्त हो गया।

पुष्यमित्र : एक जनजाति, जिसका विकास और निवास अज्ञात है। पाँचवीं शताब्दी के प्रारम्भ में कुमारगुप्त प्रथम (दे.) के राज्यकाल में पुष्यमित्रों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। युवराज स्कन्दगुप्त (दे.) ने उन्हें परास्त कर दिया, परन्तु इसके लिए उसे भयंकर युद्ध करना पड़ा और कुछ रातों उसे जमीन पर हाथों का तकिया लगाकर सोना पड़ा। गुप्त साम्राज्य के पतन का एक कारण पुष्यमित्रों का आक्रमण भी था।

पुष्यमित्र शुंग : मौर्यवंश को पराजित करनेवाला तथा शुंगवंश (लगभग १८५ ई. पू. ) का प्रवर्तक। वह जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय था। मौर्यवंश के अंतिम राजा बृहद्रथ ने उसे अपना सेनापति नियुक्त कर दिया। बृहद्रथ जब एक सैन्य-प्रदर्शन का निरीक्षण कर रहा था, पुयमित्र ने उसे मरवा दिया और स्वयं सिंहासन पर बैठ गया। उसने ३८ वर्ष तक राज्य किया। यह सरल कार्य नहीं था। साम्राज्य पर दक्षिण-पूर्व से उड़ीसा के राजा खारवेल (दे.) ने तथा उत्तर से भारतीय यवन राजा मिनाण्डर (दे.) ने आक्रमण किया। पुष्यमित्र ने दोनों आक्रमणों को विफल कर दिया, उसने विशाल साम्राज्य को खंडित नहीं होने दिया और अपनी विजयों के उपलक्ष्य में लम्बे अंतराल के बाद अश्वमेध यज्ञ (दे.) का अनुष्ठान किया। अशोक के प्रभाव से अश्वमेध जैसे हिंसाप्रधान यज्ञों की परिपाटी विलुप्त हो गयी थी। पुष्य मित्र ने हिन्दू धर्म को पुनरुज्जीवित किया और राजभाषा के रूप में संस्कृत की फिर से प्रतिष्ठापना की। प्रसिद्ध संस्कृत वैयाकरण पतंजलि उसी के कालमें हुए।

उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी अग्निमित्र (दे.) तथा पौत्र वसुमित्र (दे.) दोनों महान् योद्धा थे। कहा जाता है कि पुष्यमित्रों ने बहुत-से बौद्ध स्तूपों का ध्वंस कराया तथा बौद्ध श्रमणों का सिर कटवाया, किन्तु इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।

पूना  : महाराष्ट्र का प्रमुख नगर, जो शिवाजी (दे.) तथा उनके पुत्र एवं उत्तराधिकारी शम्भूजी (दे.) की राजधानी था। शाहू (दे.) अपनी राजधानी यहाँ से उठाकर सतारा ले गया, परन्तु १७४९ ई. में उसकी मृत्यु के बाद पेशवा बालाजी बाजीराव (दे.) ने इसे फिर मराठा राज्य के हार जाने तथा अपदस्थ कर दिये जाने के बाद इसका मान घट गया। पूना अब भी महत्त्वपूर्ण नगर है और यहाँ एक विश्वविद्यालय स्थित है। गांधीजी ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड का साम्प्रदायिक निर्णय (दे.) रद्द कराने के लिए १९३२ ई. का प्रसिद्ध उपवास पूना में ही किया था।

पूना की संधि : १९३२ ई. में पेशवा बाजीराव द्वितीय (दे.) और अंग्रेजों के बीच १८०२ ई. की बसई की संधि (दे.) के स्थान पर की गयी। इस संधि के द्वारा पेशवा ने अपने दरबार से समस्त विदेशी प्रतिनिधियों को निकाल दिया, पूना में ब्रिटिश सेना रखने का खर्च पूरा करने के लिए कुछ क्षेत्र सौंप दिये तथा मराठा संघ का नेतृत्व त्याग दिया। बाद में बाजीराव द्वितीय को पश्चाताप हुआ कि यह संधि उसके ऊपर जबर्दस्ती थोप दी गयी है। उसने १८१८ ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, परन्तु उसे पराजित होकर आत्मसमर्पण करना पड़ा और १८१८ ई. में उसे गद्दी से उतार दिया गया।

पूना महिला विश्वविद्यालय : इसकी स्थापना प्रोफेसर धोण्ढो केशव कर्वे ने १९१७ ई. में की। इससे भारत में महिला शिक्षा की प्रगति के एक महत्त्वपूर्ण अध्याय का सूत्रपात हुआ।

पूना समझौता : २४ सितम्बर १९३२ ई. को गांधीजी की रोगशैया पर हुआ। रैमजे मैकडोनाल्ड के साम्प्रदायिक निर्णय (दे.) के द्वारा न केवल मुसलमानों को, बल्कि दलित जाति के हिन्दुओं को सवर्ण हिन्दुओं से अलग करने के लिए भी पृथक् प्रतिनिधित्व प्रदान कर दिया गया था। गांधीजी ने इसी के विरुद्ध आमरण उपवास आरम्भ कर दिया था। इस समझौते के द्वारा दलित जाति के प्रतिनिधियों को सामान्य निर्वाचित क्षेत्रों के द्वारा, जिनमें सभी गैर-मुसलमानों को वोट देने का अधिकार था, निर्वाचित करने का निर्णय किया गया।

पूर्वनन्द : इस शब्द का प्रयोग गलत ढंग से नन्दवंश के पूर्ववर्ती राजाओं के लिए किया जाता है। पूर्वनन्द कोई वंश नहीं, एक राजा था।

पूर्व मीमांसा : हिन्दूदर्शन का एक सम्प्रदाय। इस सम्प्रदाय में वेदविहित यज्ञ-यागादि कर्मों पर बहुत बल दिया जाता है। मीमांसा दर्शन के प्रमुख प्रवक्ता शबरस्वामी, प्रभाकर तथा कुमारिल थे जो चौथी-पाँचवीं शताब्दी ई. में हुए।

पूर्वी गंगवंश : राजराज प्रथम से इसका प्रचलन हुआ, जो ११वीं शताब्दी ई. के मध्य में कलिंग (उड़ीसा) का शासक बना। वह वज्रहस्त का पुत्र था। इस वंश ने १४०२ ई. तक शासन किया। बाद में मुसलमानों ने इस वंश का उच्छेद किया। इस वंश में कुल १५ राजा हुए, यथा-- राजराज प्रथम, अनन्तवर्म्मा चूड़गंग (१०७८-११४२ ई.), कामार्णव, राघव, राजराज द्वितीय, अनंगभीम प्रथम, राजराज तृतीय, अनंगभीम द्वितीय, नृसिंह तृतीय, भानुदेव तृतीय तथा नृसिंह चतुर्थ (१३८४-१४०२ ई.)। इस वंश का द्वितीय राजा अनन्तवर्मा चूड़गंग बहुत प्रसिद्ध हुआ। उसी ने पुरी में जगन्नाथजी का मन्दिर बनवाया था।

पूर्वी गंगवंश के अधिकांश राजा कला एवं साहित्य के अनुरागी थे। उन्हीं की संरक्षता में कला एवं वास्तु की उड़िया शैली का विकास हुआ। इस वंश के शासन में जितने मन्दिर बनवाये गये, उतने देश में कहीं नहीं बनवाये गये। राजनीतिक दृष्टि से इस वंश के राजा दूरदर्शी नहीं कहे जा सकते। जब बंगाल पर मुसलमानों का आक्रमण हुआ और स्वयं उड़ीसा की सीमा पर हमले होने लगे, तब भी अनन्तवर्मा के बाद के चार राजाओं ने प्रभावी ढंग से मुसलमानों को खदेड़ने के लिए आगे कदम नहीं बढ़ाया। लेकिन १३वीं शताब्दी ई. में बाद के गंग राजाओं ने अनेक वर्षों तक मुसलमानों को राज्य में घुसने नहीं दिया। अंत में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने १४०२ ई. में गंगवंश का उन्मूलन कर डाला।

पूर्वी बंगाल : (दे.) 'बांगला देश'।

पृथ्वीराज चौहान (जिसे राय पिथौरा भी कहते थे) : सांभर, अजमेर और दिल्ली का शासक। उसका मुख्य प्रतिद्वन्द्वी कन्नौज का राजा जयचंद्र (दे.) था जिसकी पुत्री संयोगिता ने पिता की इच्छा के विरुद्ध स्वयंवर सभा में उसका वरण किया था और पृथ्वीराज लगभग ११७५ ई. में उसका अपहरण कर लाया था। पृथ्वीराज महान् योद्धा था और उसने ११८२ ई. में चंदेल राजा परमाल को हरा कर उसकी राजधानी महोबा पर अधिकार कर लिया था। शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी के आक्रमण का उसने डटकर मुकाबला किया और ११८२ ई. में तराइन की पहली लड़ाई में उसे हरा दिया। किन्तु अगले साल तराइन की दूसरी लड़ाई में वह हार गया तथा मारा गया। उसकी प्रेम तथा युद्ध-कथाओं का वर्णन उसके प्रसिद्ध चारण चन्दबरदाई ने 'रासो' नामक महाकाव्य में लिखा है।

पेथिक-लारेंस, लार्ड : भारत में १९४६ ई. में जो कैबिनेट मिशन (दे.) आया, उसके अध्यक्ष। वे भारत की संवैधानिक सुधारों की मांग के प्रबल समर्थक थे। एटली मंत्रिमण्डल में भारतमंत्री (१९४५-४७ ई.) की हैसियत से उन्होंने ब्रिटेन की उस नीति के निर्माण में मुख्य हिस्सा लिया, जिसके फलस्वरूप १९४७ ई. में भारत को स्वाधीनता प्राप्त हुई।

पेप्सू : अंग्रेजी भाषा में पटियाला तथा पूर्वी पंजाब राज्य संघ का नाम-संक्षेप। इस राज्य संघ का निर्माण सतलज के किनारे स्थित उन सिख रियासतों को मिला कर किया गया था जिन्होंने १८०९ ई. में अमृतसर की संधि के द्वारा ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार कर लिया था।

पेयटन, एडमिरल : १७४६ ई. में भारतीय समुद्र में ला बोर्द ने (दे.) के नेतृत्व में फ्रांसीसी जंगी बेड़े का सामना करनेवाले ब्रिटिश जंगी बेड़े का कमांडर। फ्रांसीसी बेड़े के मुकाबले में पेयटन को अपना बेड़ा लेकर भागना पड़ा, जिसके फलस्वरूप मद्रास (दे.) पर फ्रांसीसियों का अधिकार हो गया।

पेरों, जनरल : एक फ्रांसीसी भृत्य (भाड़े का) सैनिक, जो पहली बार १७८० ई. में भारत आया। १७८१ ई. में गोहद के राणा ने उसे नौकर रख लिया। बाद में वह भरतपुर राज्य की सेवा में आ गया। १७९० ई. में दब्वांग (दे.) ने उसे महादजी शिन्दे की सेवा में रख लिया। उसने शिन्दे को कई प्रतिद्वन्द्वी राजाओं पर विजय प्राप्त करने में मदद दी। १७९६ ई. में दब्वांग के अवकाश ग्रहण करने पर वह शिन्दे की सेना का सेनापति नियुक्त हुआ। उसने राजपूताना पर शिन्दे का आधिपत्य स्थापित किया। किन्तु १८०३ ई. में जब दूसरा मराठा-युद्ध शुरू हुआ, तब पेरों भारतीय-ब्रिटिश सेनाओं के विरुद्ध कोई सफलता नहीं प्राप्त कर सका और अलीगढ़ तथा कोमल की लड़ाईयों में उसे हार खानी पड़ी। फलस्वरूप दौलतराव शिन्दे का पेरों पर से विश्वास उठ गया और उसने उसकी जगह अम्बाजी को नियुक्त कर दिया। लालवाड़ी (दे.) में शिन्दे की सेना के हारने के बाद पेरों ने यह नौकरी छोड़ दी और कलकत्ता चला गया। वहां उसने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की शरण ली। कम्पनी ने उसके सकुशल फ्रांस लौटने का प्रबंध कर दिया, जहां १८३४ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

पेशवा  : मूलरूप से शिवाजी के द्वारा नियुक्त अष्ट प्रधानों में से एक। उसे मुख्य प्रधान भी कहते थे। उसका कार्य सामान्य रीति से प्रजाहित पर ध्यान रखना था। शाहू (दे.) (१७०८-४८ ई.) के राज्यकाल में बालाजी विश्वनाथ (दे.) ने इस पद का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ा दिया। वह १७१३ ई. में पेशवा नियुक्त हुआ और १८२० ई. में मृत्यु होने तक इस पद पर रहा। उसने सेनापति तथा राजनीतिज्ञ, दोनों ही रूपों में जो सफलताएं प्राप्त कीं, उससे दूसरे प्रधानों की अपेक्षा पेशवा के पद की मर्यादा बहुत बढ़ गयी। १७२० ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र बाजीराव प्रथम (दे.) पेशवा नियुक्त हुआ, तबसे यह पद बालाजी का एक प्रकार से खानदानी हक बन गया। बाजीराव प्रथम बीस साल (१७२०-४० ई.) तक पेशवा रहा और उसने निजामपर विजय प्राप्त करके तथा उत्तरी भारत में विजययात्राएं करके पेशवा पद का महत्त्व और बढ़ा दिया। उसकी उत्तरी भारत की विजययात्राओं के फलस्वरूप मालवा, गुजरात तथा मध्य भारत में मराठा राज्यशक्ति स्थापित हो गयी तथा मराठा संघ की शक्ति बहुत बढ़ गयी। मराठा संघ में शिन्दे, होल्कर, गायकवाड़ तथा भोंसले सम्मिलित थे।

१७४० ई. में बाजीराव प्रथम की मृत्यु होने पर उसका पुत्र बालाजी बाजीराव पेशवा बना। १७४९ ई. में महाराज शाहू (दे.) निस्संतान मर गया। इसके फलस्वरूप पेशवा का पद वंशगत होने के साथ ही मराठा राज्य में सर्वोच्च मान लिया गया। पेशवा मराठा राज्य की राजधानी सतारा से हटा कर पूना ले गया। इसके बाद मराठा राजा पेशवा के हाथ की कठपुतली मात्र रह गये और राज्य का वास्तविक इतिहास पेशवाओं के इतिहास से सम्पृक्त हो गया। बालाजी बाजीराव ने १७४० से १७६३ ई. तक शासन किया और वह इतना शक्तिशाली हो गया कि मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय (दे.) (१७५४-५९ ई.) और शाहआलम द्वितीय (दे.) (१७५९-१८०६ ई.) अहमदशाह अब्दाली के हमले से अपनी रक्षा करने के लिए उस पर आश्रित रहे। बाजीराव के पिता ने हिन्दूपाद पादशाही की स्थापना अपना उद्देश्य बनाया था। परन्तु उसने पिता की इस नीति को त्याग कर मुगल साम्राज्य के स्थान पर मराठा साम्राज्य की स्थापना करना अपना उद्देश्य बना लिया और हिन्दू तथा मुसलमान राज्यों को समान रूप से लूटना शुरू कर दिया। इससे फलस्वरूप महाराष्ट्र के बाहर के सभी प्रदेशों के लोगों की सहानुभूति वह खो बैठा। १७६१ ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई (दे.) में अहमदशाह अब्दाली की सेना से उसकी जबर्दस्त हार का एक कारण यह भी था। इस लड़ाई में मराठों को भारी क्षति उठानी पड़ी और उसका परिणाम उनके लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हुआ। इस लड़ाई के छः महीने के बाद ही पेशवा बालाजी बाजीराव शोकाभिभूत होकर मर गया।

उसकी मृत्यु के बाद पेशवाओं का और उनके साथ-साथ मराठा राज्यशक्ति का पतन आरम्भ हो गया। उसका उत्तराधिकारी माधवराव प्रथम (दे.) (१७६१-६२ ई.) बहुत जल्दी मर गया। अगला पेशवा नारायणराव (दे.) १५५२-७३ ई. में अपने चाचा राघोवा के (दे.) संकेत पर मार डाला गया। उसके बाद १७७३ ई. में कुछ समय के लिए राघोवा पेशवा रहा, परन्तु उसे विवश होकर पेशवाई नारायणराव की मृत्यु के बाद जन्मे उसके पुत्र माधवराव नारायण (दे.) को सौंपनी पड़ी। माधवराव नारायण १७७४ से १७९६ ई. तक पेशवा रहा। परन्तु राघोवा पेशवा कुल-कलंक साबित हुआ। अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए उसने पेशवा को पहले अंग्रेज-मराठा युद्ध में फंसा दिया जो १७७५ ई. से १७८२ ई. तक चलता रहा। इस युद्ध के फलस्वरूप मराठा संघ पर पेशवा का नियंत्रण और शिथिल पड़ गया। नाना फड़नवीस इस समय पेशवा का प्रधानामात्य था। उसकी नीतिकुशलता तथा योग्यता के कारण अगले १८ सालों तक दक्षि‍ण में पेशवाओं की राज्यशक्ति अखंडित रही, किन्तु, उत्तर भारत में मराठा राज्यशक्ति स्थापित करने के सारे प्रयत्न त्याग दिये गये। १८०० ई. में नाना फड़नवीस की मृत्यु के साथ पेशवा को बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह देनेवाला कोई न मिला। १८०२ ई. में पेशवा बाजीराव द्वितीय ने, जो १७९६ ई. में पेशवा बना था, अपने मराठा सरदारों, विशेषरूप से होल्कर और शिन्दे के चंगुल से अपने को बचाने के लिए अंग्रेजों के साथ स्वेच्छा से बसई की संधि (दे.) कर ली। उसने अंग्रेजों की आश्रित सेना रखना स्वीकार करके एक प्रकार से अपनी स्वतंत्रता बेच दी। उसके इस कायरतापूर्ण आचरण पर मराठा सरदारों में भारी क्षोभ उत्पन्न हो गया। फलस्वरूप दूसरा मराठा-युद्ध (१८०३-५ ई.) हुआ, और मराठा राज्यशक्ति और मजबूती से अंग्रेजों के फौलादी पंजे में कस गयी। अंग्रेजों का जुआ अपने ऊपर लाद लेने पर वाजीराव द्वितीय को शीघ्र पछतावा होने लगा कि उसने भारी गलती की है। उसके द्वारा उस जुए को उतार फेंकने की कोशिश करने पर तीसरा मराठा-युद्ध (दे.) (१८१७-१९ ई.) छिड़ गया। इस युद्ध में कई लड़ाइयों में पेशवा की निर्णयात्मक हार हुई और उसे गद्दी से उतार दिया गया और पेशवाई समाप्त कर दी गयी, फिर भी बाजीराव द्वितीय को ८ लाख रुपये की वार्षिक पेन्शन पर कानपुर के निकट बिठूर जाकर रहने की इजाजत दे दी गयी। १८५३ ई. में बिठूर में ही उसकी मृत्यु हुई। अंग्रेजों ने उसके गोद लिये हुए लड़के नाना साहब (दे.) को पेन्शन देने से इनकार कर दिया। इसके फलस्वरूप उसने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में प्रमुख भाग लिया और अंत में पराजित हो गया।

पेशावर : अविभाजित भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रान्त का एक महत्त्वपूर्ण नगर और प्रान्तीय मुख्यालय भी। सामरिक दृष्टि से नगर की स्थिति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह खैबर दर्रे की भारतीय सीमा में पड़नेवाले भाग की रक्षा करता है। उत्तर-पश्चिम से आनेवाले आक्रमणकारी इसी दर्रे को पार करके भारत आते रहे हैं। भारत और उत्तर पश्चिम के देशों के बीच का मुख्य वणिक्-पथ भी इसी दर्रे से होकर जाता है। इसका प्राचीन नाम पुरुषपुर था और ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में यह कुषाण साम्राज्य की राजधानी था। दसवीं शताब्दी में इस पर गजनी (दे.) के सुल्तान महमूद का अधिकार हो गया और १८३४ ई. तक यह अफगानिस्तान के राज्य का एक भाग रहा। १८३४ ई. में इसपर महाराज रणजीतसिंह ने अधि‍कार कर लिया। १८४८ ई. तक यह सिख राज्य का भाग रहा। १८४८ ई. में दूसरा सिख-युद्ध (दे.) छिड़ने पर सिखों ने अंग्रेजों के खिलाफ अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मुहम्मद की सहायता प्राप्त करने के लिए इसे उसके हाथ सौंप दिया। पंजाब पर अधिकार कर लिये जाने के बाद यह ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का एक भाग बन गया। अब यह पाकिस्तान में है।

पैठन : उत्तरी गोदावरी घाटी में स्थित एक नगर। इसे पहले 'प्रतिष्ठान' कहते थे, जो प्रारम्भिक आंध्र राजाओं (दे.) की राजधानी था।

पैन्तेलियोन : एक भारतीय-यवन राजा, जिसने चौकोर सिक्के चलाये थे। उसका काल लगभग १९०-१८० ई. पू. माना जाता है।

पोकाक, एडमिरल : बंगाल की खाड़ी में द-एक के नेतृत्ववाले फ्रांसीसी बेड़े के विरुद्ध अंग्रेजी बेड़े का नायक, जिसने १७५८ ई. में कारिकल के निकट उसे हरा दिया। इस विजय के फलस्वरूप अंग्रेजों को लाली के नेतृत्ववाले फ्रांसीसी हमले के विरुद्ध मद्रास की रक्षा करने में मदद मिली।

पोरस : (दे.), 'पुरु'।

पोर्टो नोवो की लड़ाई : १७८१ ई. में मैसूर के हैदरअली और सर आयरकूट के नेतृत्व में कम्पनी की फौजों के बीच की गयी। इसमें हैदरअली हार गया और उसे भारी क्षति उठानी पड़ी। फलस्वरूप उसकी शक्ति नियंत्रित कर दी गयी।

पोलक, जनरल : एक योग्य फौजी अफसर। पहले अफगान युद्ध में उसके नेतृत्व में सेना पेशावर भेजी गयी, जिसे जलालाबाद में १८४१ ई. में घिरी हुई अंग्रेजी सेना को मदद पहुंचाने का कार्य सौंपा गया था। पोलक ने काफी सूझबूझ का परिचय दिया, उसने जलालाबाद का घेरा तोड़ दिया और वहां से अंग्रेजी सेना को निकाल लाया। इसके बाद उसने जगदलक और तेजिन की दो लड़ाइयों में अफगानों को हराया और सितम्बर १८४२ ई. में एक विजयी सेना लेकर काबुल जा पहुंचा। काबुल में बाजार में आग लगा देने के बाद, उसने अक्तूबर १८४२ ई. में काबुल खाली कर दिया और इस प्रकार पहले अफगान-युद्ध (दे.) का अंत हो गया।

पोलो, मार्को : वेनिस का एक यात्री, जो १२८८ ई. तथा १२९३ ई. में भारत आया। उसने यहां जो कुछ देखा और पाया उसका विशद वर्णन किया है। उसने लिखा है कि पांडव देश का राजा बड़ा न्यायिक था और अपने राज्य का शासन बड़ी योग्यत के साथ कर रहा था। वहां के लोग अत्यन्त समृद्ध थे और उसके कयाल बंदरगाह से बहुत अधिक मात्रा में व्यापार होता था। उसने कयाल को विशाल तथा सुन्दर नगर बताया है।

पौफम, कर्नल : ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक फौजी अफसर। पहले मराठा-युद्ध (दे.) (१७७५-८२ ई.) में उसने १७७९ ई. में बंगाल से स्थल मार्ग द्वारा बम्बई भेजी जानेवाली सेना का गौडर्ड (दे.) के साथ नेतृत्व किया और १७८० ई. में ग्वालियर का किला सर करके भारी नाम कमाया।

प्रतापरुद्र : उड़ीसा का प्रसिद्ध राजा। लगभग १४१० ई. में विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय (दे.) ने उसे पराजित कर दिया।

प्रतापरुद्र : ओरंगल का काकतीय वंशज (दे.) राजा। दिल्ली के सुल्तान गयासुद्दीन (दे.) के सिपहसालार उलुगा खां ने १३२३ ई. में उसे हरा दिया और गद्दी से उतार दिया।

प्रतापसिंह, राणा : राणा उदय सिंह का पुत्र तथा उत्तराधिकारी, जिसने मेवाड़ पर १५७२ ई.से १९ जनवरी १५९७ ई. में मृत्यु होने तक राज्य किया। वह बड़ा शूरवीर और सच्चा देशभक्त था। उसने अपनी मातृभूमि मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बादशाह अकबर की अपने से कहीं बड़ी फौज का मुकाबला किया। अकबर ने चित्तौड़गढ़ पहले ही ले लिया था। वह उस समय दुनिया का सबसे दौलतमंद बादशाह था। जब राणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से इनकार कर दिया, अकबर ने आमेर के राजा मानसिंह तथा आसफ खाँ के नेतृत्व में एक बड़ी शाही फौज भेजी। अप्रैल १५७६ ई. में हल्दी घाट (दे.) में लड़ाई हुई। राणा बड़ी वीरता से लड़ा, किन्तु उसकी पराजय हुई। राणा ने भागकर पहाड़ों की शरण ली। शाही सेना ने उसका पीछा किया और उसके कई किलों पर अधिकार कर लिया। फिर भी राणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। वह पहाड़ियों में मारा-मारा फिरता रहा, उसके बच्चे कंदमूल पर गुजारा करते रहे, मगर उसने अपना स्वातंत्र्य युद्ध जारी रखा और १५९७ ई. में मृत्यु से पूर्व अपने कुछ मजबूत गढ़ों को फिर से अपने अधिकार में कर लिया। राजपूतों में वही एक ऐसी वीर था जिसने मातृभूमि की स्वतंत्रता का अपहरण न होने देने के लिए मुसलमानों की विशाल सेना से युद्ध किया। उसके बाद उसका पुत्र अमरसिंह गद्दी पर बैठा। उसने १६१४ ई. में बादशाह जहाँगीर की अधीनता स्वीकार कर ली।

प्रतापादित्य : जेसोर (बंगाल) का एक वीर भूमिपति (जमींदार)। उसने अकबर को खिराज देने से इनकार कर दिया और मुगल सेना को हरा दिया। अंत में उसे परास्त कर के बंदी बना लिया गया। जब वह दिल्ली भेजा जा रहा था, रास्ते में उसकी मृत्यु हो गयी।

प्रतिहार (अथवा परिहार) : देखिये, 'गूर्जर-प्रतिहार वंश'।

प्रबोध चंद्रोदय : एक मनोभावात्मक संस्कृत रूपक जिसमें वेदांत दर्शन का सुन्दर निरूपण किया गया है। यह चंदेल राजा कीर्तिवर्मा (दे.) के आश्रय में लिखा गया था, जो ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राज्य करता था।

प्रभाकरवर्धन  : थानेश्वर का राजा, जो पुष्यभूतिवंश (दे.) का था और छठी शताब्दी के अंत में राज्य करता था। उसकी माता गुप्तवंश की राजकुमारी, महासेनगुप्त नामक थी। उसने अपने पड़ोसी राज्यों, मालवों, उत्तर-पश्चिमी पंजाब के हूणों तथा गुर्जरों के साथ युद्ध करके काफी प्रतिष्ठा प्राप्त की। उसने अपनी पुत्री राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरि राजा ग्रहवर्मा से कर दिया। प्रभाकरवर्धन की मृत्यु ६०४ ई. में हुई। उसके बाद उसका सबसे बड़ा पुत्र राज्यवर्धन उत्तराधिकारी हुआ।

प्रभावती गुप्ता : चन्द्रगुप्त द्वितीय (लगभग ३८०-४१३ ई.) (दे.) की पुत्री। उसका विवाह वाकाटक (दे.) राजा रुद्रसेन द्वितीय से हुआ था। उसके वंशज शताब्दियों तक दक्षिण भारत पर राज्य करते रहे।

प्रवरसेन प्रथम : वाकाटक वंश (दे.) का शासक, जो चौथी शताब्दी ई. में राज्य करता था। उसके राज्य में मध्य प्रदेश तथा दक्षिण का अधिकांश पश्चिमी भाग था। उसके बारे में अधिक ज्ञात नहीं है।

प्रवरसेन द्वितीय : वाकाटक (दे.) राजा रुद्रसेन द्वितीय (दे.) का पुत्र एवं उत्तराधिकारी। उसने प्रभावती गुप्ता (दे.) से विवाह किया और लगभग ४१० ई. में सिंहासन पर बैठा। उसने धीरे-धीरे गुप्त राजाओं की अधीनता से अपने को स्वतंत्र कर लिया।

प्रसेनजित्  : छठी शताब्दी ई. पू. के मध्यकाल के आसपास कोशल का राजा और गौतम बुद्ध (दे.) तथा वर्धमान महावीर (दे.) का समसामयिक। दोनों ने उसके राज्य में विहार किया था। प्रसेनजित ने मगध के राजा बिम्बिसार (दे.) की बहिन से विवाह किया था और उसकी बहिन राजा बिम्बिसार को ब्याही थी। इस विवाह-सम्बन्ध के बावजूद प्रसेनजित को बिम्बिसार तथा उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी तथा पितृघाती अजातशत्रु से युद्ध करना पड़ा। अजातशत्रु ने उससे काशी ग्राम छीन लिया जो बिम्बिसार की रानी कोशल देवी को स्नानचूर्ण मूल्य के रूप में मिला था। इसके बाद ही प्रसेनजित की मृत्यु हो गयी और कोशल राज्य का अपकर्ष आरम्भ हो गया।

प्रान्तीय स्वशासन : गवर्नमेण्ट आफ इंडिया ऐक्ट १९३५ ई. के द्वारा किये गये संवैधानिक परिवर्तनों की मुख्य विशेषता थी। (दे., भारत में ब्रिटिश प्रशासन)।

प्राकृत : संस्कृत भाषा का बोलचाल का विकृत रूप। यह पाली से अधिक मिलती-जुलती है। सम्राट् अशोक के काल में यह सारे भारत की बोलचाल की भाषा थी। देहरादून जिले में स्थित कालसी से लेकर मैसूर तक मिलनेवाले उसके सभी शिलालेखों में इसी भाषा का प्रयोग किया गया है।

प्राग्ज्योतिष : महाभारत में उल्लिखित आसाम के आधुनिक प्रांत का पुराना नाम। कुछ लोग प्राग्ज्योतिषपुर की पहचान दक्षिण आसाम की घाटी में स्थित गोहाटी नगर से करते हैं।

प्राचीन भारत की कला और वास्तुकला  : की गौरवशाली परम्परा और महान उपलब्धियाँ हैं। प्रागैतिहसिक काल से आधुनिक काल तक भारत की कला और वास्तुकला में बहुत से परिवर्तन हुए हैं। सिन्धुघाटी सभ्यता (लगभग ३००० से १५०० ई. पू.) के जो अवशेष मिले हैं उनसे मालूम होता है कि उस समय विशाल भवन बनाये जाते थे, जिनमें आधुनिक सुविधाएँ -जैसे बाजार, सार्वजनिक स्नानागार, पानी की निकासी के लिए नालियाँ और गंदा पानी सोखने के गड्ढे सभी पकी ईंटों से बनाये जाते थे। इस प्रकार के निर्माणकार्य मोहन्जोदाड़ो, हड़प्पा और सिन्धु घाटी सभ्यता के दूसरे नगरों में मिले हैं। उस काल की मिली मोहरों से प्रकट होता है कि तक्षणकला और लिपि कला उस समय लोगों को ज्ञात थी। ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के नष्ट हो जाने के बाद पत्थर के मकान बनाने की कला त्याग दी गयी और ऐतिहासिक काल (लगभग ३२० ई. पू.) शुरू होने पर भारतीयों ने लकड़ी के मकान बनाना शुरू कर दिया। चन्द्रगुप्त मौर्य (लगभग ३२२ ई. पू. से २९८ ई. पू.) के महल, जिसकी मेगस्थनीज ने बड़ी प्रशंसा की है और जिसे सूसा और एकबताना के महलों से अच्छा बताया है, लकड़ी के बने थे और नगर के चारों ओर के परकोटे में भी शहतीरों का इस्तेमाल किया गया था। पत्थर का फिर से प्रयोग चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र अशोक (लगभग २७०-२३२ ई. पू.) के काल में शुरू हुआ जिसने प्रस्तर स्तम्भों पर अनेक लेख अंकित कराये। इन पर इतनी सुन्दर पालिश की जाती थी कि वे सदियों तक लौह-स्तम्भ माने जाते रहे। अशोक ने स्तूपों के निर्माण में भी पत्थर का प्रयोग किया। उसका महल भी पत्थर का बना था जो इतना सुन्दर और विशाल था कि करीब ६०० वर्ष बाद जब फाहियेन ४०५-११ ई. में भारत आया और उसने उसे देखा तो उसने उसे देवों द्वारा निर्मित समझा। अशोक के स्तम्भों का अलंकरण उच्चकोटि का है, जिससे पता चलता है कि उस समय पत्थर को तरासने (तक्षण) और पालिश करने की कला काफी विकसित हो चुकी थी। कुछ लोगों का अनुमान है कि भारतीय स्थापत्यकला पर यूनानी प्रभाव पड़ा था।

पत्थर पर आधारित प्राचीन भारतीय वास्तुकला के नमूने मुख्य रूप से मंदिरों के रूप में मिलते हैं। उत्तर अथवा दक्षिण भारत में किसी प्राचीन राजप्रासाद के अवशेष अब तक नहीं मिले हैं। लेकिन १२० ई. से ११९३ ई. के बीच अनेक हिन्दू, बौद्ध और जैन मंदिरों के निर्माण में पत्थर का प्रयोग किया गया। दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश मंदिरों को जो उत्तर भारत में स्थित थे और कला के उत्कृष्ट नमूने थे, मुसलमान आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया। केवल कुछ ही मंदिर मनुष्य और काल के विनाश से बच गये हैं। इनमें झांसी जिले में देवगढ़ के मंदिर, कानपुर जिले के भीतर गाँव के मंदिर और छतरपुर जिले के खजुराहो के मंदिर हैं। इनमें से दो मंदिर उत्तर प्रदेश में और तीसरा मध्य प्रदेश में है। ये मंदिर उत्तरी भारत में भारतीय वास्तु तथा स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। प्राचीन भारतीय कला और वास्तुकला की महानता को समझने के लिए हमें दक्षिण भारत की ओर देखना पड़ता है, जिसे सही अर्थों में मंदिरों का देश कहा गया है।

प्राचीन भारतीय कला और वास्‍तुकला समुद्र पार करके विदेशों में भी पहुँची थी और उसने हिन्देशिया, हिन्दचीन और कंबोडिया की कला, वास्तुकला तथा स्थापत्यकला को प्रभावित किया था। जावा के बोरोबुदूर का स्तूप और कम्बोडिया के अंकोरवट का मंदिर दक्षिण पूर्वी एशिया में भारतीय कला का सबसे भव्य नमूना है। (एम. ह्वीलर-दी इंडस सिविलीजेशन; ए. के. कुमारस्वामी हिस्ट्री आफ इंडियन ऐंड इंडोनेशियन आर्ट; जे. फर्ग्यूसन-हिस्ट्री आफ इंडियन ऐंड ईस्टर्न आर्किटेक्चर; वी. ए. स्मिथ--हिस्ट्री आफ फाइन आर्ट इन इंडिया ऐंड सीलोन)

प्रार्थना समाज : इसकी स्थापना १८६७ ई. में ब्राह्म समाज के नेता केशवचन्द सेन (दे.) के निर्देशन में महाराष्ट्र में की गयी। ब्राह्म समाजियों के विपरीत प्रार्थना समाज के सदस्य अपने को हिन्दू मानते थे। वे एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे और महाराष्ट्र के तुकाराम (दे.) तथा रामदास जैसे महान् संतों की परम्परा के अनुयायी थे। उन्होंने अपना मुख्य ध्यान हिन्दुओं में समाज-सुधार के कार्यों, जैसे सहभोज, अंतर्जातीय विवाह, विधवा-विवाह, अछूतोद्धार आदि में लगाया। प्रार्थना समाज ने बहुत से समाज सुधारकों को अपनी ओर आकर्षित किया, जिनमें जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे भी थे। मुख्य रूप से उनके प्रयत्न से प्रार्थना समाज की ओर से 'दक्कन एजूकेशन सोसाइटी' (दक्षिण शिक्षा समिति) (दे.) जैसी लोकोपकारी संस्थाओं की स्थापना की गयी।

प्रिंस आफ वेल्स : अर्थात् युवराज एडवर्ड ने १९२१ ई. में भारत की यात्रा की। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने युवराज का बहिष्कार किया। युवराज के स्वागत-समारोहों का शांतिपूर्ण रीति से बहिष्कार करने के आंदोलन को जो अभूतपूर्व सफलता मिली, उससे अच्छी तरह स्पष्ट हो गया कि भारत में ब्रिटेन के विरुद्ध कितना असंतोष व्याप्त है और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जनता पर कितना प्रभाव है। इससे ब्रिटिश सरकार की आँखें खुल गयीं।

प्रौढ़ देवराय (अथवा पडियाराव) : विजयनगर के प्रथम राजवंश का अंतिम राजा। उसे १४८५ ई. में सालुव नरसिंह ने अपदस्थ कर दिया।

प्लिनी : एक प्राचीन यूनानी भूगोलवेत्ता। उसके 'नेचुरल हिस्ट्री' (प्राकृतिक इतिहास) नामक ग्रंथ में प्रथम शताब्दी ईसवी सन् के भारत के बारे में काफी सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। विश्वास किया जाता है कि उसका यह ग्रन्थ ७७ ई. में प्रकाशित हुआ था।

प्लेग : यह महामारी बम्बई में १८९६ ई. में भयंकर रूप से फैल गयी। इसे रोकने के लिए लोगों को उनके घरों से हटाकर अलग कैम्पों में रखने तथा मरीजों को अस्पताल भेजने के कड़े नियम बनाये गये। इन नियमों का देशवासियों की भावनाओं की कोई चिंता न करके कठोरता से पालन कराया गया। इसके फलस्वरूप जनता में भारी असंतोष उत्पन्न हो गया और १८९७ ई. में प्लेग में सहायता-कार्य करनेवाले दो अंग्रेज अफसरों की पूना में हत्या कर दी गयी तथा १८९८ ई. में बम्बई में भयानक दंगा हो गया। इसके फलस्वरूप सरकार ने कड़े दमनकारी कानून बनाये और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (दे.) पर राजद्रोह का अभियोग लगाकर उन पर मुकदमा चलाया और दंडित किया।

१८९८ ई. में कलकत्ता में भी प्लेग की महामारी फैल गयी और इसमें बहुत-सी जानें गयीं। इस महामारी के समय रामकृष्ण मिशन (दे.) तथा सिस्टर निवेदिता ने बीमारों तथा मरणासन्न व्यक्तियों की सेवा-सुश्रुषा करके भारी नाम कमाया। धीरे-धीरे प्लेग की महामारी का प्रसार रोक दिया गया, किन्तु भारत से इस महामारी का पूर्ण उन्मूलन अभी तक संभव नहीं हो सका है।

फखरुद्दीन : सुल्तान बलबन के शासनकाल में दिल्ली का कोतवाल। वह बड़ा ऐशपरस्त था और प्रतिदिन पोशाक बदलता था। जब बलबन ने अमीरों की शक्ति को कुचलने के लिए दोआब के दो हजार शमसी घुड़सवारों की भुमि के पट्टों का नियमन और भूमि के पुराने अनुदानों को इस आधार पर रद्द करना शुरू किया कि उनलोगों ने सैनिक सेवा प्रदान करना बंद कर दिया है, फखरुद्दीन भूस्वामियों के हितों का मुख्य संरक्षक और प्रवक्ता बन गया।

एक दिन फखरुद्दीन सुल्तान के पास गमगीन शक्ल लिये हुए गया। सुल्तान ने पूछा कि वह गमगीन क्यों है, तो उसने जवाब दिया कि शमसी घुड़सवारों की जमीन वापस ली जा रही है, अतएव मुझे चिंता हो गयी है कि अब बुढ़ापे में जिदगी कैसे कटेगी। इस चतुरतापूर्ण कथन से सुल्तान को बड़ी दया आयी। सुल्तान ने शमसी घुड़सवारों से जमीन वापस लेने का आदेश रद्द कर दिया। १२८७ ई. में बलबन की मृत्यु के पश्चात् फखरुद्दीन ने पहले कैकोबाद को गद्दी पर बिठाने और फिर १२९० ई. में उसे गद्दी से उतार कर जलालुद्दीन खिलज़ी को उसपर बैठाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। १३०१ ई. में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को संदेह हुआ कि फखरुद्दीन ने हाजी मौला को विद्रोह करने के लिए उकसाया है, तब उसने उसे सपरिवार मरवा दिया।

फखरुद्दीन अब्दुल अजीज कूफी : नैशापुर का काजी था जिसने एक गुलाम बालक खरीदा और उसे अपने लड़कों के साथ धार्मिक एवं सैनिक शिक्षा दी। यही बालक आगे चलकर कुतुबुद्दीन ऐबक के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो दिल्ली का प्रथम सुल्तान और गुलाम वंश का संस्थापक बना। फखरुद्दीन के लड़कों ने इस गुलाम बालक को एक व्यापारी के हाथ बेच दिया। इस व्यापारी ने उसे गजनी में बेच दिया।

फकरुद्दीन मुबारक शाह : सुल्तान मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१ ई.) के जमाने में सोनारगाँव (बंगाल) के सूबेदार बहराम खाँ (जो तातार खाँ के नाम से भी जाना जाता था ) का जिरहबख्तर बरदार। १३३६ ई. में बहराम खाँ के मरने के पश्चात् उसने अपने को सीनार गाँव का शासक घोषित कर दिया और फखरुद्दीन मुबारक शाह की पदवी धारण की। इस प्रकार उसने बंगाल में स्वतन्त्र सल्तनत की स्थापना की। उसने लगभग दस वर्ष तक शासन किया। (भट्टसाली, पृष्ठ १५)।

फखरुद्दीन मुहम्मद जूना खाँ : देखिये, 'मुहम्मद तुगलक'।

फजलुलहक, अब्दुल कासिम (१८७३-१९६२) : भूतपूर्व पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) का गवर्नर। उसका जन्म बरीसाल में हुआ। पहले वह डिप्टी मजिस्ट्रेट के पद पर था, किन्तु शीघ्र ही उसे छोड़कर कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत शुरू कर दी। उसका जीवन विविधतापूर्ण और विलक्षण रहा। १९०४ ई. में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुआ, किन्तु शीघ्र ही कांग्रेस को छोड़कर मुस्लिम लीग में शामिल हो गया और उसका अध्यक्ष भी रहा। गोलमेज सम्मेलन (दे.) के पहले और दूसरे अधिवेशनों में उसने मुस्लिम लीग का प्रतिनिधित्व किया। वह १९३७ से ४३ ई. तक अविभाजित बंगाल का मुख्यमंत्री और कृषक प्रजा पार्टी का नेता रहा। देश विभाजन के बाद वह पूर्वी पाकिस्तान चला गया। वहाँ पर वह मुख्यमंत्री और गवर्नर भी रहा।

फतेहउल्ला, इमादशाह : जिसने हिन्दू धर्म को छोड़कर इस्लाम अपना लिया, चौदहवें बहमनी सुल्तान महमूद (१४८२-१५१८ ई.) के शासनकाल में बरार का सूबेदार। सुल्तान के नाबालिग होने और महमूद खाँ की हत्या के बाद उत्पन्न अराजकता और विघटन की स्थिति का लाभ उठा कर फतेहउल्ला १४८४ ई. में बरार का शासक बन बैठा और उसने 'इमादुल्मुल्क' की उपाधि धारण की। इस प्रकार इमादशाही वंश का सूत्रपात हुआ। इस वंश ने १५७४ ई. तक बरार में शासन किया। इसके बाद बरार को अहमदनगर में मिला लिया गया।

फतेहखाँ : सुल्तान फीरोज़शाह तुगलक का सबसे बड़ा पुत्र (१३५१-८८ )। उसकी मृत्यु फीरोज़ से पहले ही हो गयी थी। फतेहखाँ का बड़ा लड़का गयासुद्दीन तुगलक अपने बाबा सुल्तान फीरोजशाह की मृत्यु के तत्काल बाद गद्दी पर बैठा, किन्तु कुछ ही महीनों बाद उसे अपदस्थ कर उसकी हत्या कर दी गयी। फतेहखाँ का दूसरा लड़का नसरतशाह तुगलक वंश का उपांतिम सुल्तान था, जिसने १३९५ से १३९९ ई. तक शासन किया।

फतेहखाँ : मलिक अम्बर का पुत्र। मलिक अम्बर अहमद नगर के निजामशाहों का वर्षों तक वज़ीर रहा। फतेहखाँ में अपने बाप जैसी वफादारी नहीं थी। वह अहमदनगर के उपान्तिम शासक मुरतज़ा निजामशाह द्वितीय का वजीर था। उसने १६३० ई. में निजामशाह की हत्या कर उसके युवा पुत्र हुसेन को अहमदनगर का शासक घोषित कर दिया। १६३१ ई. में उसने बड़ी बहादुरी के साथ मुगल-सम्राट् शाहजहाँ की फौजों से दौलताबाद दुर्ग की रक्षा की। उसके पिता मलिक अम्बर ने दौलताबाद की बड़ी मजबूत किलेबन्दी की थी। १६३३ ई. में मुगल सम्राट् ने फतेहखाँ को लालच दिया जिससे उसने दौलताबाद का दुर्ग मुगल सम्राट् के हवाले कर दिया। शाहजहाँ ने अहमदनगर के अंतिम निजामशाह हुसेन को ग्वालियर के किले में आजीवन कैद रखा और फतेहखाँ को अपनी सेवा में ले लिया। वह मृत्युपर्यन्त बादशाह की सेवा में रहा। (कैम्ब्रिज., पृष्ठ २६५)

फतेहपुर सीकरी : आगरा से २३ मील पश्चिम में स्थित, यहाँ प्रसिद्ध मुस्लिम फकीर शेख सलीम चिश्ती रहता था। सम्राट् अकबर, जो संतान के लिए अधीर था, अपनी मुराद पूरी होनेके लिए चिश्ती से दुआ मांगने गया। १४६९ ई. में जब उसकी पहली हिन्दू बेगम जोधाबाई ने सीकरी में पुत्र (भावी सम्राट् जहाँगीर) को जन्म दिया, कृतज्ञ सम्राट् ने शेख के नाम पर उसका नाम सलीम रखा और सीकरी को राजधानी बनाने का निश्चय किया ताकि वह स्वयं वहाँ रह सके। सीकरी का निर्माण १५८० ई. में आरंभ हुआ और पूरा नगर अनेक आलीशान इमारतों के साथ कुछ ही वर्षों में बनकर तैयार हो गया। अकबर ने १५७३ ई. में सीकरी से ही गुजरात को फतह करने के लिए कूच किया था। इसलिए इसकी सफलता के उपलक्ष्य में उसने सीकरी का नाम फतेहपुर (विजयनगरी) रखा। तभी से सीकरी 'फतेहपुर सीकरी' के नाम से प्रसिद्ध हो गयी। लगभग १५ वर्षों तक यह अकबर की राजधानी बनी रही। इस अल्प अवधि में नगरी में अनेक विशाल भवनों का निर्माण किया गया। सभी भवन प्रायः लाल पत्थर से बनाये गये हैं। इन भवनों में सलीम चिश्ती का मकबरा, जामा मस्जिद, बुलंद दरवाजा, जोधाबाई का महल, हवाखाना, दीवानेखास, बीरबल महल, मरियम और तुर्की सुल्तानों के महल तथा इबादतखाना (उपासना गृह) विशेष उल्लेखनीय हैं। इबादतखाना को छोड़कर बाकी ये सभी इमारतें आज भी मौजूद हैं और सम्राट् अकबर के ललितकला प्रेम की भव्य प्रतीक हैं। (कुमार स्वामी., खण्ड द्वितीय, पृष्ठ २१७)।

फरायज़ी आन्दोलन : फरीदपुर (जो अब बंगलादेश में है) के हाजी शरियतुल्लाह ने चलाया। यह मुस्लिम पुनरुद्धार आन्दोलन था जिसका उद्देश्य इस्लाम का शुद्धीकरण था। इसने फरीदपुर जिले और उसके पास-पड़ोस के क्षेत्रों में रहनेवाले मुस्लिम काश्तकारों को भारी संख्या में आकर्षित किया। यह शान्तिपूर्ण आन्दोलन था जिसने बाद को कृषि आन्दोलन का रूप ले लिया। बाद धीरे-धीरे यह ठंडा पड़ गया।

फरिश्ता, मुहम्मद कासिम (१५७०-१६१२)  : एक प्रसिद्ध इतिहासकार, जिसने फारसी में इतिहास लिखा है। उसका जन्म फारस में कैस्पियन सागर के तटपर अस्त्राबाद में हुआ। वह युवावस्था में अपने पिता के साथ अहमदाबाद आया और वहाँ १५८९ ई. तक रहा। इसके बाद वह बीजापुर चला गया, जहाँ उसे सुल्तान इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय का संरक्षण प्राप्त हुआ। सुल्तान ने उससे भारत का इतिहास लिखने को कहा। यह कार्य उसने १६०९ ई. में पूरा किया। उसके द्वारा लिखा गया भारत का इतिहास 'तारीखे फरिश्ता' के नाम से विख्यात है। ब्रिग्स ने उसकी पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद 'भारत में मुसलमानी शक्ति के विकास का इतिहास' नाम से किया है, उसकी मृत्यु १६१२ ई. में बीजापुर में हुई। पूर्वी देशों के इतिहासकारों में वह अधिक विश्वसनीय है। उसका प्रसिद्ध इतिहास ग्रंथ आज भी भारत में मुसलमानों के शासनकाल पर सबसे प्रामाणिक माना जाता है।

फरीद खाँ : देखिये, 'शेरशाह'।

फर्रुखसियर : नवाँ मुगल बादशाह (१७१३-१९) और अज़ीमुश्शान का पुत्र, जो अपने पिता शाहआलम प्रथम (१७०७-१२) की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकार के युद्धमें १७१२ ई. में मारा गया था। फर्रुखसियर वजीर जुल्फिकार खाँ की सहायता से अपने चाचा बादशाह जहाँ दारशाह (१७१२-१३) को, जिसकी बाद में हत्या करा दी गयी, पदच्युत कर खुद दिल्ली के राजसिंहासन पर बैठ गया। इसके कुछ ही दिन बाद फर्रुखसियर ने जुल्फिकार खाँ को सुली पर चढ़वा दिया और हुसेन अली व अब्दुल्ला खाँ नामक दो सैयद भाइयों को अपना विश्वासपात्र बनाया। उसने हुसेन अली को प्रधान सेनापति और अब्दुल्ला खाँ को वजीर बनाया। अपने अल्प शासनकाल में फर्रुखसियर ने सिख नेता बंदा बैरागी को उसके एक हजार अनुयायियों के साथ गिरफ्तार कर १७१५ ई. में सबको मरवा डाला।

ईस्ट इंडिया कम्पनी ने फर्रुखसियर से बहुत लाभ उठाया। १७१५ ई. में एक अंग्रेजी दूत-मंडल, जिसमें विलियम हैमिल्टन नामक शल्यचिकित्सक भी था, उसके दरबार में आया था। अंग्रेज शल्यचिकित्सक ने बहादुरशाह की बीमार पुत्री को मामूली इलाज से ठीक कर दिया। फर्रुकसियर ने खुश होकर शल्यचिकित्सक की स्वामी ईस्ट इंडिया कम्पनी को इनाम के तौरपर व्यापार में महत्त्वपूर्ण रियायतें दीं और बंगाल में उसके लिए तटकर माफ कर दिया। फर्रुखसियर दिमाग का कमजोर था। वह सैयद भाइयों के नियंत्रण से मुक्त होना चाहता था। दैवयोग से उन्हें सम्राट् के षड्यंत्र का पता चल गया और उन्होंने पहले ही उसको अपदस्थ कर दिया और बाद को आँखें निकलवा कर मरवा डाला।

फाउलर, सर हेनरी : १८९४ ई. में ब्रिटिश सरकार का भारत-मंत्री। १८९८ ई. में उसकी अध्यक्षता में गठित एक समिति की सिफारिशपर गिन्नी (सोना) और रुपये (चाँदी) दोनों को ही असीमित विधिमान्य मुद्रा मान लिया गया, जिसकी दर एक शिलिंग चार पेंस प्रति रुपया निर्धारित हुई और टकसाल में केवल सोने के मुक्त सिक्के ही ढाले जाने लगे।

फाक्स, चार्ल्स जेम्स (१७४९-१८०६) : इंग्लैंड का प्रमुख राजनैतिज्ञ और सांसदिक। १७८३ ई.में उसने लार्ड नार्थ के साथ मिलकर इंग्लैड में एक मंत्रिमंडल का गठन किया। इसी वर्ष उसने संसद के सामने भारत संबंधी विधेयक पेश किया जिसमें ईस्ट इंडिया कम्पनी के कोर्ट आफ प्रोप्राइटर्स और बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स दोनों को ही भंग करके सारे राजनीतिक और सैनिक अधिकार चार वर्षों के लिए पहले संसद और बाद को महाराज (क्राउन) द्वारा नियुक्त किये जानेवाले किये जानेवाले सात डायरेक्टरों या कमिश्नरों को हस्तांतरित कर देने का प्रस्ताव था। कामन सभा (हाउस आफ कामन्स) ने तो इस विधेयक को भारी बहुमत से पास कर दिया किन्तु जार्ज तृतीय द्वारा लार्ड टैम्पिल के जरिये किये जानेवाले विरोधी प्रचार के फलस्वरूप लार्ड सभा (हाउस आफ लार्ड्स) ने उसे ठुकरा दिया। तदनन्तर जार्ज तृतीय ने फ़ाक्स और नार्थ के मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर दिया। किन्तु फाक्स अपने उदारवादी दृष्टिकोण के कारण भारतीय मामलों में गहरी दिलचस्पी लेता रहा। १७८८ ई. में वारेन हेस्टिंग्स (दे.) पर महाभियोग लगाने में उसका प्रमुख हाथ था।

फारस : और भारत का अत्यन्त प्राचीन काल से गहरा सम्बन्ध रहा है। विश्वास किया जाता है कि फारस में जा बसने वाले आर्य उसी मूलवंश के थे जिससे भारतीय आर्यों का विकास हुआ। अवेस्ता की भाषा संस्कृत से इतनी मिलती जुलती है कि दोनों एक ही भाषा-परिवार की मानी जाती हैं। भारत से फारस का निकट सम्बन्ध छठी शताब्दी ई. पू. में स्थापित हुआ, जब फारस के शाहंशाह साइरस (कुरुष अथवा कुरु) (लगभग ५५५-५३० ई. पू.) ने काबुल नदी तथा सिंधु नदी के बीच का प्रदेश जीत लिया, जिसमें अश्वक आदि गणों का निवास था। डेरियस (दारयवुह) (लगभग ५२२-४८६ ई. पू.) के राज्यकाल में फारस के साम्राज्य की सीमाओं का और विस्तार हुआ और गंधार तथा उससे और पूर्व में सिन्धु नदी तक का प्रदेश उसके अंतर्गत आ गया। गंधार से पूर्व के प्रदेश को ईरानी 'हिन्द' कहते थे और वह फारस के साम्राज्य का बीसवाँ प्रांत था। गंधार और 'हिन्द' डेरियस के पुत्र एवं उत्तराधिकारी जरेक्सीज (क्षयार्श) (५८६-४६५ ई. पू.) के राज्य के अन्तर्गत बने रहे। जरेक्सीजने जब यूनान पर चढाई की तब उसकी सेना में गंधार और 'हिन्द' के भी सैनिक लड़ने गये थे।

फारस और भारत के प्राचीन सम्पर्क के फलस्वरूप उत्तर-पश्चिम भारत में खरोष्ठी लिपि प्रचलित हो गयी तथा भारतीय वास्तुकला पर भी पारसी प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा। फारस के शाहंशाह डेरियस तृतीय (३३५-३३० ई. पू.) को मकदूनिया के राजा सिकन्दर ने ३३१ ई. पू. में गौगामेल की जिस लड़ाई में हराया उसमें भारतीय सेनाओं ने भी फारस की सेनाओं के साथ युद्ध किया था। इस युद्ध के बाद ही डेरियस तृतीय की मृत्यु हो गयी, जिसके फलस्वरूप सिकन्दर फारस के साम्राज्य का स्वामी हो गया। इसके बाद ही सिकन्दर ने ३२७ ई. पू. में पंजाब तथा सिंध पर आक्रमण किया, जिनके ऊपर फारस के साम्राज्य का नियंत्रण शिथिल पड़ गया था और जहाँ अनेक छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये थे। सिकन्दर की मृत्यु के बाद पंजाब ने फारस के साम्राज्य के नियंत्रण से अपने को मुक्त कर लिया, किंतु, फारस और भारत के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध कायम रहे।

अशोक ने पश्चिम के जिन सुदूरवर्ती राज्यों में धर्म विजय के लिए बौद्ध भिक्षुओं को भेजा था, वे फारस होकर उन देशों में गये थे। फारस में उस समय मानी धर्म प्रचलित था। बौद्ध भिक्षुओं ने इस मानी धर्म को भी प्रभावित किया। अजंता की गुफा संख्या १ के भित्तिचित्र से प्रकट होता है कि फारस और भारत के बीच दौत्य सम्बन्ध बराबर बना रहा। इस भित्तिचित्र में दिखाया गया है कि फारस के शाह खुसरो द्वितीय द्वारा लगभग ६२७ ई. में भेजा गया दूत चालुक्य राजा पुलकेशी द्वितीय (६०८-४२ ई.) को अपना परिचय-पत्र प्रस्तुत कर रहा है। सातवीं शताब्दी के मध्य में अरबों ने जब फारस पर अधिकार करके वहां इसलाम धर्म का प्रचार किया, जरथुश्ती पारसियों का एक दल, जो अपनी जमीन और दौलत की अपेक्षा अपने धर्म से अधिक प्रेम करता था, भागकर भारत चला आया और यहाँ उन्हें आश्रय प्राप्त हुआ। इन पारसियों के वंशज आज भी वर्तमान हैं और भारत के सम्मानित एवं समृद्धिशाली अल्पसंख्क वर्ग में उनकी गणना की जाती है।

भारत पर जिन मुसलमानों ने विजय प्राप्त की, उनमें अधिकांश तुर्क तथा सुन्नी थे। उधर फारस के लोग तथा वहाँ के शाह शिया मतावलम्बी थे। इसलिए मुसलमानी शासन-काल में फारस और भारत के सम्बन्ध सूत्र शिथिल पड़ गये। फिर भी फारस के साहसी मुसलमान अक्सर दौलत की खोज में भारत आते रहते थे और उन्हें अक्सर यहाँ आने पर अमीर बना दिया जाता था। इस प्रकार का एक ईरानी अमीर युसूफ आदिल शाह था, जिसने बीजापुर का आदिलशाही वंश (१४९०-१६७३ ई.) चलाया। प्रसिद्ध मुसलमान इतिहासकार फरिश्ता (दे.) भी फारस का रहनेवाला था। उसने भारत में मुसलमानी राज्यशक्ति के उत्थान और पतन का इतिहास लिखा है। दिल्ली के सुल्तानों के दरबार में फारसी भाषा का प्रयोग होता था और मुगल दरबार में भी इसी भाषा का प्रयोग जारी रहा। सारे भारत में मुसलमान शासकों के दरबारों में फारसी भाषा, फारसी पहनावे और फारसी शिष्टाचार का प्रचलन था। दूसरे मुगल बादशाह हुमायू (दे.) को फारस के शाह ताहमस्य के दरबार में शरण मिली थी और उसी की फौजी सहायता से उसने दुबारा दिल्ली का तख्त प्राप्त किया। १३४९ ई. में फारस ने कंदहार छीन लिया और शाहजहाँ तथा औरंगजेब द्वारा उस पर दुबारा अधिकार कर लेने के सारे प्रयत्नों को विफल कर दिया। फारस ने भारत को सबसे जबर्दस्त चोट १७३९ ई. में पहुँचायी जब फारस के शासक नादिरशाह (दे.) ने भारत पर चढ़ाई की, दिल्ली को निर्दयतापूर्वक लूटा तथा तख्तेताऊस, कोहनूर और बहुत-सी दौलत लेकर फारस लौट गया। १७४७ ई. में नादिरशाह की मृत्यु के बाद ही अफगानिस्तान में अहमदशाह दुर्रानी की राज्यशक्ति के उदय से फारस और भारत के बीच नवस्थापित राजनीतिक सम्बन्ध फिर भंग हो गया। परन्तु, नादिरशाह के हमले से भारत को जो क्षति पहुँची, उससे वह फिर उबर न सका। नादिरशाह के हमले ने मुगल साम्राज्य को जर्जर कर दिया। १७६१ ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई में मुगलों तथा मराठों की पराजय तथा उसके बाद ही भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का उदय, नादिरशाह के क्रूर हमले का ही परिणाम था।

उन्नीसवीं शताब्दी में फारस को लेकर ब्रिटेन और रूस में काफी प्रतिद्वन्द्विता चली। दोनों ही फारस को अपने संरक्षण में लेना चाहते थे। फलतः भारत और फारस का राजनीतिक सम्बन्ध ब्रिटेन और रूस की कूटनीतिक चालों से सम्बद्ध हो गया। १९०७ ई. में ब्रिटेन और रूस में समझौता हो गया जिसके द्वारा दोनों ने फारस की अखंडता बनाये रखने की प्रतिज्ञा की। इसके साथ ही वे इस बातपर भी सहमत हो गये कि उत्तरी फारस को रूसी प्रभाव क्षेत्र में तथा दक्षिण-पूर्वी फारस को ब्रिटिश प्रभाव क्षेत्र में माना जायगा। रूस ने यह स्वीकार कर लिया कि फारस की खाड़ी में इंग्लैंड का विशेष स्वार्थ है। इस प्रकार युरोप के दो सभ्य देशों ने एक स्वतंत्र देश का आपस में जिस नीति से बंदरबाट कर लेने का निर्णय लिया, वह उनकी सभ्यता के वास्तविक चेहरे को बेनकाब करनेवाला था। १९३४ ई. से फारस का नाम सरकारी तौर से बदलकर ईरान कर दिया गया है। ईरान अब शक्तिशाली आधुनिक राष्ट्र बन गया है। भारतीय गणराज्य से उसका मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध है।

फारूकी वंश : खानदेश में १३८८ ई. में सुल्तान फीरोज़शाह तुगलक (१३५१-८८) के निजी सेवक मलिक रजा फारूकी से प्रचलित, जिसे सुल्तान ने प्रांत के प्रशासन का भार सौंपा था। मलिक रज़ा फारूकी ने ग्यारह वर्षों (१३८८-९९) तक शासन किया। बाद को उसका पुत्र मलिक नासिर (१३९९-१४३८) उत्तराधिकारी बना। उसने हिन्दू राजा को परास्त कर असीरगढ़ किले पर कब्जा किया, लेकिन पड़ोस में स्थित गुजरात के मुस्लिम बादशाह और बहमनी सुल्तान अलाउद्दीन अहमद ने फारुकी को हराकर उसकी पुत्री से विवाह कर लिया। इस वंश के तीसरे बादशाह आदिल खाँ प्रथम (१४३४-४१) और चौथे बादशाह मुबारक खाँ प्रथम (१४४१-५७) के शासनकाल में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं घटी। किन्तु पाँचवाँ बादशाह आदिल खाँ द्वितीय (१४५७-१५०८) योग्य और शक्तिशाली शासक था जिसने गोंडवाना पर अपनी प्रभुसत्ता कायम की। आदिल खाँ द्वितीय के कोई पुत्र न था इसलिए गद्दी उसके भाई दाऊद (१५०१-०८) को मिली। दाऊद के पुत्र और उत्तराधिकारी गजनी खाँ को गद्दी पर बैठने के दस दिनों के अन्दर ही जहर देकर मार डाला गया। इसके बाद फारूकी वंश गृहयुद्ध का शिकार बन गया, जिसे अहमदनगर और गुजरात के सुल्तानों ने और भड़काया। इस आंतरिक संघर्ष ने फारुकी वंश को अत्यधिक कमजोर कर दिया और उसके अंतिम शासक बहादूर फारूकी ने १६०१ ई. में मुगल सम्राट् अकबर के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। इस वंश के शासकों ने अपनी राजधानी बुरहानपुर तथा थालनेर नगर को सुन्दर मस्जिदों और मकबरों का निर्माण करके सुसज्जित किया था। बुरहानपुर में ताप्ती नदी पर निर्मित उनके राजप्रासादों के ध्वंसावशेष स्थापत्यकला के प्रति उनके प्रेम और कलापूर्ण रुचि के प्रतीक हैं।

फाहियान (फाहियेन) : एक चीनी तीर्थयात्री, जो भारत में ४०१ से ४१० ई. तक रहा। वह विनय-पिटक की प्रामाणिक प्रति प्राप्त करने के उद्देश्य से आया था। फाहियान पश्चिमी चीन से चलकर गोबी मरुस्थल के दक्षिण में लाप-नोर होते हुए खोतान आया, जहाँ बौद्ध धर्म की महायान शाखा का प्रचलन था। वह पामीर पार करते और भयंकर कष्टों का सामना करते हुए उदयनोर (स्वान) पहुँचा। उसके बाद तक्षशिला होते हुए पुरुषपुर (पेशावर) पहुँचा। समस्त उत्तरी भारत की यात्रा करते हुए वह तीन वर्ष पाटलिपुत्र में तथा दो वर्ष ताम्रलिप्ति (आधुनिक पश्चिमी बंगाल के मिदनापुर जिलान्तर्गत तमलुक) में रहा। उस जमाने में ताम्रलिप्ति प्रसिद्ध बन्दरगाह था।

वह ४१० ई. में ताम्रलिप्ति से जलयान द्वारा स्वदेश रवाना हुआ और रास्ते में श्रीलंका तथा जावा रुकता हुआ ४१४ ई. में चीन वापस लौटा।

फाहियान ने भारत में जो कुछ देखा, उसका बड़ा रोचक विवरण लिखा है। वह गंगा घाटी के मैदान से बहुत आकर्षित हुआ जिसे उसने मध्यदेश की संज्ञा दी, जो उस समय गुप्तवंश के चन्द्रगुप्त द्वितीय (लगभग 380-415 ई.) के शासन के अन्तर्गत था। फाहियान ने अपने विवरण में चन्द्रगुप्त का कहीं उल्लेख नहीं किया और न कभी उनके दरबार में ही उपस्थित हुआ। लेकिन वह यहाँ के कुशल एवं उदार प्रशासन से बहुत प्रभावित हुआ। उसने लिखा है कि यहाँ लोग बेरोकटोक कहीं भी आ-जा सकते हैं। कहीं किसी को पंजीयन अथवा पारपत्र की आवश्यकता नहीं होती। अपराधों के लिए मुख्यतः अर्थदण्ड दिया जाता है। फाँसी की सजा नहीं दी जाती, लेकिन गम्भीर अपराधों के लिए अंग-भंग का दण्ड दिया जाता है। भूमि के लगान से राजस्व प्राप्त किया जाता है और सभी राजकीय अधिकारियों को नियमित रूप से वेतन मिलता है।

मगध के नगर उसे बहुत पसंद आये। पाटलिपुत्र में उसने तीन वर्ष रहकर संस्कृत भाषा सीखी और बौद्ध धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया। उसके कथनानुसार आम जनता धनी और वैभव-सम्पन्न थी। धर्मार्थक संस्थाएँ बहुत थीं। महापथों पर यात्रियों के लिए विश्रामगृह बने हुए थे। एक बहुत अच्छा चिकित्सालय भी था। फाहियान को अशोक का राजप्रासाद, जो उस समय भी वर्तमान था, बहुत पसन्द आया। वह उसकी विशालता और भव्यता से अति प्रभावित हुआ। उसे प्रतीत हुआ कि यह राजप्रासाद देवों द्वारा निर्मित हुआ होगा, मानव इस प्रकार का कलापूर्ण भवन बना ही नहीं सकता। उसने बौद्ध तीर्थस्थानों तथा बोधगया, श्रावस्ती, कपिलवस्तु तथा कुशीनगर को लगभग वीरान अथवा उजड़ा हुआ पाया। उसने लिखा है कि सम्पूर्ण देश में कोई किसी भी प्राणी की हत्या नहीं करता। कोई शराब नहीं पीता और न कोई प्याज-लहसून खाता है। इससे प्रकट होता है कि उस जमाने में लोग बहुत संयमी होते थे और शाकाहारी भोजन के आदी थे। फाहियान के विवरण में एक महत्त्वपूर्ण बात छूट गयी है। उसने नालंदा बिहार और विश्वविद्यालय का जिक्र नहीं किया है। जान पड़ता है कि फाहियान के स्वदेश वापस हो जाने के बाद इनकी स्थापना हुई।

फिंच, जनरल : फिंच, जनरल (1820-92) - ब्रिटिश भारतीय फौज का एक अधिकारी, जिसने द्वितीय बर्मा-युद्ध (1852 ई.) में भाग लिया था। युद्ध जीत लेने के बाद उसने नवनियुक्त कमिश्नर मेजर आर्थर फेरे को बर्मा के नये प्रांत में आवश्यक प्रशासनिक सुधार करने में बहुत सहायता दी। 1878 ई. में उसकी पुस्तक 'बर्मा, पास्ट एण्ड प्रेजेण्ट' (बर्मा : अतीत और वर्तमान) प्रकाशित हुई।

फिच, राल्फ : एक अंग्रेज सौदागर जो स्थल मार्ग से १५८३ ई. में भारत आया। उसने उत्तरी भारत, बंगाल, बर्मा, मलक्का और श्रीलंका की यात्रा की और १५९१ ई. में सकुशल इंग्लैंड वापस लौट गया। उसने अपना जो यात्रा-विवरण लिखा उसके आधार पर ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपनी प्रारम्भिक व्यापारिक योजना तैयार की।

फीरोज़ खाँ : शेरशाह (१५४०-४५) के एकमात्र पुत्र और उत्तराधिकारी इस्लाम (या सलीम) शाह का इकलौता लड़का। इस्लामशाह (१५४५-५४) की मृत्यु पर अल्‍पवयस्क फीरोज़ खाँ को उसके मामा मुबारिज़ खाँ ने मार डाला, जो बाद को मुहम्मद आदिलशाह (१५५४-५६) के नाम से खुद तख्तपर बैठ गया।

फीरोज़शाह  : मुगल बादशाह बादुरशाह द्वितीय (१८३७-५८) का एक सम्बन्धी। उसने भारतीय स्वाधीनता संग्राम (१८५७ ई.) से पहले कुछ दिनों तक ब्रिटिश-विरोधी भावना भड़काने में प्रमुख भूमिका अदा की थी।

फीरोज़ शाह का युद्ध : २१ और २२ दिसम्बर को प्रथम सिख-युद्ध (१८४५-४६) के दौरान सिखों और अंग्रेजों के बीच छेड़ा गया। २१ दिसम्बर की रात को ब्रिटिश फौज की हालत बेहद नाजुक थी, जब उसे खुले मैदान में पड़ाव डालना पड़ा। दूसरे दिन तड़के ही युद्ध फिर शुरू हुआ, किन्तु सिख जनरल तेजसिंह द्वारा स्वार्थवश बहादुर सैनिकों को पीछे हटने का आदेश दिये जाने के कारण वह अकस्मात् समाप्त हो गया। युद्ध में सिखों की हार हुई, किन्तु अंग्रेजों को जीत का भारी मूल्य चुकाना पड़ा। ब्रिटिश फौज के २४१५ जवान हताहत हुए जिसमें १०३ अधिकारी भी थे। अधिकारियों में गवर्नर-जनरल के पांच अंगरक्षक मारे गये और चार घायल हो गये। इस लड़ाई की समाप्ति से सिख-अंग्रेज युद्ध समाप्त नहीं हुआ, उसकी समाप्ति दो महीने बाद फरवरी १८४६ ई. में सुबराहान में अंग्रेजों की जीत के साथ हुई। (जे. डी. कानिंग्घम कृत हिस्ट्री आफ दि सिक्खस)।

फीरोजशाह बहमनी (१३९७-१४२२)  : बहमनी वंश का आठवाँ सुल्तान। इतिहासकार फरि‍श्ता के अनुसार उसका शासनकाल बहमनी वंश का सबसे अधिक गौरवशाली काल था। फीरोजशाह ने लगभग हर वर्ष पड़ोसी हिन्दू राज्य विजयनगर पर हमले किये। १४०६ ई. में तो वह वस्तुतः नगर में घुस गया और उसने विजयनगर के राजा देवराय प्रथम (१४०६-१२) को संधि करने के बदले में अपनी लड़की देने को मजबूर किया। किन्तु १४२० ई. में सुल्तान को कृष्णा नदी के उत्तर पंगल के युद्ध में हिन्दुओं से करारी मात खानी पड़ी और वह बिलकुल टूटा हुआ घर लौटा। फीरोज ने अपन जीवन के शेष दो वर्ष इबादत में बिताये और प्रशासन को तुर्की गुलामों के हाथों में छोड़ दिया। फीरोज इमारतों का शौकीन था। उसने राजधानी गुलबर्ग को अनेक भव्य इमारतों से अलंकृत किया जिनमें प्रमुख एक मस्जिद है जिसका निर्माण उसने स्पेन की कुर्तुबा (कारडोवा) मस्जिद की शैली पर कराया था। उसने राजधानी के दक्षिण में भीम नदी के तट पर फीरोजाबाद नगर में विशाल प्राचीरयुक्त राज प्रासाद भी बनवाया।

फीरोजशाह खिलजी- : देखिये, जलालुद्दीन फीरोजशाह खिलजी।

फीरोजशाह तुगलक : तुगलक वंश के दूसरे सुल्तान मुहम्मद तुगलक का चचेरा भाई और उत्तराधिकारी। उसने मार्च १३५१ से लेकर सितम्बर १३८८ ई. में मृत्युपर्यन्त शासन किया। उसका पिता रजब सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक (१३२०-२५) का छोटा भाई था। फीरोजशाह शांतिप्रेमी सुल्तान था, जिसकी पहली समस्या ठट्टा (सिंध) से फौज को सकुशल दिल्ली वापस लाने की थी। यह फौज मुहम्मद तुगलक वहां विद्रोह को दबाने के लिए ले गया था किन्तु अचानक उसकी मृत्यु हो गयी। १३६१-६३ ई. में फीरोज ने सिंध को नियंत्रण में लाने की कोशिश की और एक लम्बी लड़ाई के बाद उसे वहाँ के विद्रोही शासक जाम बाबानिया को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करने में सफलता मिली। उसने जाम को सालाना नजराना देने के लिए मजबूर किया। सुल्तान ने १३५३ और १३५६ ई. में बंगाल पर भी पुनः आधिपत्य स्थापित करने की कोशिशें की किन्तु विफल हा। फीरोज ने दक्षिण में मुस्लिम बहमनी सुल्तानों और विजयनगर के हिन्दू राजाओं पर पुनः विजय प्राप्त करने की कोशिश नहीं की। वे लोग मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१) के शासनकाल के अंतिम वर्षों में दिल्ली के प्रभुत्त्व को स्वीकार करके स्वतंत्र हो गये थे। फीरोज दिल्ली सल्तनत के विघटन को भी न रोक सका जिसकी शुरूआत उससे पहले के सुल्तान मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में ही हो गयी थी। फीरोज को एकमात्र सैनिक सफलता जाजनगर (उड़ीसा) में मिली, जहाँ उसने १३६० ई. में फतेह हासिल की।

फीरोजाबाद : एक नगर, जिसे सुल्तान फिरोजशाह तुगलक (१३५१-८८) ने अपनी राजधानी दिल्ली से दस मील की दूरी पर बसाया था। यही नाम सुल्तान ने १३५३-५४ ई. में बंगाल की चढ़ाई के दौरान वहाँ के पंहुचा नगर को भी दिया था।

सुलतान फीरोज कट्टर मुसलमान था और उसने देश का प्रशासन इस्लाम के सिद्धान्तों के अनुरूप चलाने का प्रयास किया। फलस्वरूप हिन्दुओं को, जो बहुमत में थे, भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उनके धार्मिक उत्सवों, सार्वजनिक सभाओं और पूजा-पाठ पर प्रतिबंध लगाया गया। इस धार्मिक कट्टरता के बाबजूद फीरोज उदार शासक था। उसने अनेक कष्टदायी और अनुचित करों को समाप्त किया, यद्यपि ब्राह्मणों पर भी जजिया कर थोपा गया जो अभी तक इससे मुक्त थे। उसने सिंचाई कार्य को प्रोत्साहन दिया, जौनपुर सहित कई नगरों की स्थापना की, अनेक बाग-बगीचों को लगाया और वहाँ तमाम मस्जिदों का निर्माण कराया। उसने अंग-भंग- जैसे कठोर दंड को समाप्त किया और एक धर्मार्थ चिकित्सालय की स्थापना की जहाँ रोगियों को दवाएँ और भोजन मुफ्त दिया जाता था। उसका शासन कठोर नहीं था। चीजों की कीमत कम थी। लोग शांति से रहते थे। किन्तु फीरोज की यह कोमलता आनेवाली पीढ़ी के लिए घातक सिद्ध हुई। उसने अपनी फौज का गठन सामंती परम्परा के आधार पर किया था; वह आमतौर से वेतन की जगह अधिकारियों को जागीरें और सिपाहियों को जमीनें बाँटता था। वृद्धों के प्रति दयालुता प्रदर्शित करने के लिए उसने सेना की सेवाओं को पुश्तैनी बना दिया। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत की फौज कमजोर हो गयी और फीरोज की मृत्यु के दस साल बाद तैमूर ने १३९८ ई. में जब दिल्ली पर आक्रमण किया वह बड़ी आसानी से हरा दी गयी। फ़ीरोज जिज्ञासु प्रकृति का व्यक्ति था। यही वजह थी कि वह टोपरा और मेरठ से दो अशोक-स्तभों को बड़ी सावधानी से दिल्ली लाया और उन्हें वहाँ स्थापित किया। उसने दो मुसलमान इतिहासकारों-जियाउद्दीन बरनी (दे.) और शम्सी शीराज अफीफ को संरक्षण प्रदान किया था।

फुलर, सर जे. बैमफील्ड : १९०५ ई. में वाइसराय लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल और आसाम को मिलाकर बनाये गये पूर्वीप्रांत का पहला लेफ्टीनेंट-गवर्नर। फुलर इंडियन सिविल सर्विस और भारतीयों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं का विरोधी था। इस नये प्रांत का प्रशासन चलाने में उसने जानबूझकर हिन्दूविरोधी रवैया अपनाया और बंगभंग-विरोधी आन्दोलन से मुसलमानों को अलग करने के लिए उन्हें सरकार की 'चहेती बेगम' ऐलान किया। किन्तु इससे आंदोलन को दबाया न जा सका। इस आन्दोलन के समर्थकों में स्कूली छात्र की संख्या बहुत बड़ी थी। छात्रों को आंदोलन से रोकने के लिए फुलर ने स्कूलों को एक परिपत्र भेजा, जिसमें धमकी दी गयी थी कि अगर छात्रों ने राजनीतिक आंदोलन में भाग लिया तो उनको मिलनेवाली राजकीय सहायता बंद और उनकी मान्यता रद्द कर दी जायगी। दो स्कूलों को इस आदेश के उल्लंघन का दोषी समझा गया। फुलर उनकी मान्यता रद्द करना चाहता था, किन्तु भारत सरकार ने भारतमंत्री लार्ड मोर्ले की सहमति से उससे अनुरोध किया कि वह उक्त दो स्कूलों की मान्यता समाप्त करने का अपना प्रस्ताव वापस ले ले। फुलर को इस पर इतना आक्रोश हुआ कि उसने अपना त्यागपत्र दे दिया। उसका इस्तीफा तुरन्त स्वीकार कर लिया गया।

फुलार्टन, कर्नल विलियम : द्वितीय मैसूर-युद्ध (१७७९-८४) के दौरान ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौज का एक अफसर। उसने नवम्बर १७८३ ई. में कोयम्बटूर पर अधिकार किया और वह श्रीरंगपत्तनम् पर हमला करनेवाला ही था कि मद्रास सरकार ने टीपू सुल्तान के साथ शांति स्थापित करने के उद्देश्यसे उसे वापस बुला लिया। अवकाश ग्रहण करने के बाद इंग्लैंड में उसने फैलो ऑफ रायल सोसाइटी तथा संसद सदस्‍य के रूप में सक्रिय जीवन व्‍यतीत किया। उसने 'ए व्यू ऑफ इंगलिश इण्‍टरेस्ट इन इंडिया', (भारत में ब्रिटिश हितों पर एक दृष्टिपात) नामक पुस्तक लिखी। १८०८ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

फूट : एक अंग्रेज नाटककार, जिसने १७७० ई. में 'दि नवाब' नामक नाटक लिखा। इसमें ईस्ट इंडिया कम्पनी के उन कर्मचारियों का व्यंग्य-चित्र प्रस्तुत किया गया था जो बंगाल से बेशुमार दौलत इकट्ठा कर स्वदेश लौटने पर अपने आडंबरयुक्त जीवन से सामाजिक जीवन को दूषित बनाते थे और अपनी संपदा से औरों में ईर्ष्या पैदा करते थे। इस नाटक ने इंग्लैड की जनता को इस बात की जांच-पड़ताल के लिए प्रेरित किया कि कम्पनी के अवकाश प्राप्त अधिकारियों के पास जो व्यंग्यपूर्वक 'नवाब' के नाम से संबोधित किये जाने लगे, इतनी दौलत कहाँ से आयी?

फूनान : कम्बुज राज्य का, जो अब कम्बोडिया कहलाता है, प्राचीन चीनी नाम, जहाँ एक भारतीय प्रवासी ब्राह्मण कौण्डिन्य ने सम्भवतः ईसा की पहली शताब्दी में हिन्दू राज्य की स्थापना की थी। छठी शताब्दी में फूनान का पूरी तरह कम्बुज देश में विलय हो गया।

फेडरेल कोर्ट आफ इंडिया (संघ न्यायालय) : भारतीय शासनविधान १९३५ ई. के अन्तर्गत स्थापित। भारत के प्रथम मुख्य न्यायाधीश सर मौरिस ग्वायर की अध्यक्षता में इसने १९३७ ई. से कार्य आरम्भ किया। भारतीय संघ, प्रांतों और संघीय राज्यों के बीच विवादों के निपटाने का अधिकार एकमात्र इसी अदालत को प्राप्त था। इसके क्षेत्राधिकार में कुछ अपीलों की सुनवाई करना भी शामिल था। इसके फैसले के खिलाफ सिर्फ इंग्लैंड की प्रिवी कौन्सिल में अपील की जा सकती थी। जनवरी १९५० ई. में इसका विलय भारत के सर्वोच्च न्यायालय के रूप में हो गया। (भारतीय शासन विधान, १९३५)।

फेरे, कर्नल : बड़ोदा के मल्हारराव गायकवाड़ के दरबार में ब्रिटिश रेजिडेंट। उसने गायकवाड़ के विरुद्ध कुशासन के कई आरोप लगाये। एक कमीशन द्वारा इन आरोपों की जांच किये जाने पर मल्हारराव को फेरे के निर्देशन में प्रशासन में सुधार करने के लिए अठारह महीने का समय दिया गया। परन्तु यह समय प्रशासन के किसी सुधार के बिना बीत गया। १८७५ ई. में कर्नल फेरे ने मल्हारराव पर आरोप लगाया कि उसने मुझे जहर देने की कोशिश की। मल्हारराव पर मुकदमा चलाया गया और अंत में उसे गद्दी से उतार दिया गया।

फेरे, सर आर्थर : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में फौज का मेजर। बर्मा विजय कर लेने पर वह विजित प्रदेशों का प्रशासक नियुक्त किया गया। उसने यह दायित्त्व इतने अच्छे ढंग से संभाला कि उसे बर्मा का पहला चीफ कमिश्नर नियुक्त कर दिया गया, जिसमें ब्रिटिश बर्मा, तेनासरीम, पग् तथा अराकान सम्मिलित थे।

फैजी-शेख : मुबारक का पुत्र, अबुलफजल का बड़ा भाई और अकबर के नवरत्नो में से एक। वह श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार था। अकबर से वह पहली बार १५६७ ई. में मिला। अकबर उसकी विद्वत्ता के सम्बन्ध में पहले ही बहुत कुछ सुन चुका था, अतएव उसने उसकी बड़ी आवभगत की और अपने दरबार में सम्मानित स्थान प्रदान किया। २७ जून १५७९ ई. को पहली बार अकबर ने पुलपिट पर खड़े होकर जो खुतबा पढ़ा, उसकी रचना फैजी ने की थी। इस प्रकार अकबर ने नये धर्म का प्रवर्तन किया जो 'दीन-इलाही' (दे.) नाम से विख्यात हुआ। १५९१ ई. में अकबर ने फैजी को खानदेश और अहमदनगर अपना दूत बनाकर भेजा। वह खानदेश को अधीन करने में सफल हुआ, लेकिन अहमदनगर में उसे सफलता नहीं मिली। इस प्रकार राज-दौत्यकर्म में उसे आंशिक सफलता प्राप्त हुई। १५९५ ई.में उसकी मृत्यु हुई।

फैजुल्ला खाँ  : रुहेलखण्ड राज्य के संस्थापक अली मुहम्मद रुहेला का पुत्र। १७७४ ई. में हाफिज रहमत खाँ की पराजय और मृत्यु के पश्चात् उसे रुहेलखण्ड का एक भाग दे दिया गया, जिसमें रामपुर भी शामिल था। बाद में वह कम्पनी सरकार की अधीनता में वहाँ का शासक बना दिया गया।

फोर्ट विलियम : इस किले का निर्माण कलकत्ता में १६९६ से १७१५ ई. के दौरान हुआ। इसके बन जाने से कलकत्ता नगर में अंग्रेजों को सुरक्षा प्राप्त हो गया। १७५६ ई. में इसपर नवाब सिराजुद्दौला ने कब्जा कर लिया, किन्तु १७५७ ई. में अंग्रेजों का इस पर पुनः अधिकार हो गया। बाद में इस किले को तुड़वाकर इसके स्थान पर कस्टम हाउस और जनरल पोस्ट आफिस की इमारतों का निर्माण कराया गया। आजकल जिस स्थान पर किला है, उसे बाद में चुना गया था।

फोर्ट सेण्ट जार्ज : इस किले का निर्माण मसुलीपत्तनम् स्थित ईस्ट इंडिया कम्पनी की कौन्सिल के एक सदस्य फ्रांसिस डे ने १६४० ई. में चोलमंडल तट पर जमीन की एक पतली पट्टी के ऊपर कराया। यह जमीन पड़ोस के हिन्दू राजा चन्द्रगिरि से पट्टे पर मिली थी। इस किले के चारों ओर आधुनिक मद्रास नगर का विकास हुआ। अंग्रेजों ने बाद में मसुलीपत्तनम् के स्थान पर इस को अपना मुख्यालय बनाया और अंततः इसे मद्रास प्रसीडेंसी की राजधानी बनाया गया।

फोर्ट सेण्ट डेविड : इस किले का निर्माण ईस्ट इंडिया कम्पनी ने १८ वीं शताब्दी में कराया। यह पांडिचेरी से कुछ दक्षिण में चोलमंडल तट पर स्थित है। १७४७-४८ ई. में फ्रांसीसियों ने अठारह महीनों तक इस पर घेरा डाल रखा। तदनन्तर १७५८ ई. में काउण्ट दि लाली के नेतृत्व में एक महीने की घेराबंदी के बाद इस पर फ्रांसीसियों ने कब्जा कर लिया, किन्तु १७६० ई. में बिंदवास के युद्ध के बाद यह पुनः अंग्रेजों के हाथ में आ गया।

फोर्ड, कर्नल : ईस्ट इण्डिया कम्पनी की बंगाल सेना का एक अफसर, जिसे राबर्ट क्लाइव ने १७५९ ई .में दक्षिण भारत में फ्रांसीसियों पर प्रहार करने के लिए भेजा था। वह सफलता के साथ समुद्र तट पर बढ़ता गया और मसुलीपत्तनम पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार उत्तरी सरकार पर फ्रांसीसियों का नियंत्रण समाप्त हो गया और वह अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। बाद को इसी साल उसने बिदर्रा के युद्ध में डचों को परास्त किया, जिनका मुख्यालय चिनसुरा (बंगाल) में था। इस पराजय के बाद बंगाल से डचों का भी सफाया हो गया।

कर्नल फोर्ड की मृत्यु दर्दनाक ढंग से हुई। १७६९ ई. में लंदन स्थित कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स ने वैसिटार्ट और स्क्रैफ्टन के साथ उसे कम्पनी की हर शाखा की जांच करने का अधिकार देकर भारत भेजा। किन्तु जिस जहाज से कर्नल फोर्ड और उसके दोनों साथी यात्रा कर रहे थे, उतमाशा अन्तरीप (केप आफ गुडहोप) से रवाना होने के बाद उसकी कोई खबर नहीं मिली। शायद वह दुर्घटनाग्रस्त होकर समुद्र में डूब गया।

फोर्थ, डा. : बंगाल की तत्कालीन राजधानी मुर्शिदाबाद के निकट कासिमबाजार स्थित ईस्ट इंडिया कंपनी की एक कोठी से सम्बद्ध अंग्रेज चिकित्सक। १७५६ ई. में मार्च के उत्तरार्ध में एक दिन जब नवाब अलीवर्दी खां (दे) गंभीर रूप से बीमार पड़ा, डा. फोर्थ उसे देखने गया। डा. फोर्थ जिस समय बीमार नवाब से बातचीत कर रहा था, उसके पौत्र और संभावित उत्तराधिकारी सिराजुद्दौला ने नवाब को सूचना दी कि अंग्रेजों ने मेरे विरुद्ध षड्यंत्र करनेवालो घसीटी बेगम को सहायता देना स्वीकार कर लिया है। मरणासन्न नवाब द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या यह खबर सही है, डा. फोर्थ ने न केवल उसे गलत बताया, वरन्, ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरफ से इस बात की भी घोषणा की कि बंगाल की राजनीति में हस्तक्षेप करने का कंपनी का कोई इरादा नहीं है। फोर्थ की इस बात पर सिराजुद्दौला ने विश्वास नहीं किया। इस घटना से पता चलता है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के कर्मचारी कम्पनी के हितों के संरक्षण के लिए किस तरह झूठ बोलते और छल करते थे।

फोर्बेस, जेम्स (१७४१-१८१९) : भारत आनेवाले उन विशिष्ट अंग्रेजों में से एक, जिन्होंने हिन्दुओं की प्राचीन जीवनशैली और भारत की प्राचीन सभ्यता की काफी सराहना की। वह १७६५ ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी की हैसियत से भारत आया था। १७७८ ई. में प्रथम मराठा-युद्ध के कुछ पहले वह कर्नल कीटिंग का निजी सचिव नियुक्त हुआ। १७८४ ई. में कम्पनी की की सेवा से अवकाश ग्रहण कर वह स्वदेश वापस लौट गया। भारत से इंग्लैंड रवाना होने के समय वह अपने साथ साहित्य, दर्शन, कला और स्थापत्य आदि विभिन्न भारतीय विषयों के लगभग १५४ ग्रंथ ले गया। उसने १८१३-१५ ई. में अपने भारत विषयक संस्मरण चार खण्डों में 'ओरियण्टल मेमायर्स' के नाम से प्रकाशित किये।

फौजदार : मुगलकालीन भारत का वह अधिकारी, जिसका काम जिले (सरकार) में कानून एवं व्यवस्था बनाये रखना होता था। यह अधिकारी जिले में तैनात फौजी टुकड़ी का नायक होता था। उसके ऊपर छोटी-मोटी बगावतों को दबाने, डाकू गिरोहों को भगाने या गिरफ्तार करने और हिंसक अपराधों की रोकथाम करने का दायित्व रहता था। वह राजस्व अधिकारियों अथवा काजियों को अपनी आज्ञाओं का पालन करवाने में सहायता प्रदान करता था। वह आमतौर से जिले के मुख्यालय में ही वास करता था।

फौजदारी अदालत : वह अदालत जिसका काम हिंसात्मक अपराधों के खिलाफ मुकदमों की सुनवाई करना है। बंगाल में ब्रिटिश शासन की शुरुआत के समय फौजदारी अदालत हर जिले में होती थी। इस अदालत के फैसलों के खिलाफ सदर निजामत अदालत में अपील की जा सकती थी। यह अदालत दीवानी अदालत से भिन्न है जो केवल सिविल (दीवानी) या राजस्व सम्बन्धी मुकदमों की सुनवाई करती है।

फ्रांसिस, सर फिलिप (१७४०-१८१८)  : को रेग्युलेटिंग एक्ट के अन्तर्गत बंगाल में फोर्ट विलियम के गवर्नर-जनरल की परिषद का सदस्य नामजद किया गया। उसका वार्षिक वेतन १० हजार पौण्ड निर्धारित हुआ। अक्तूबर १७७४ ई. में कलकत्ता आने के कुछ समय बाद उसने दो अन्य सहयोगियों-मौनसन और क्लेवरिंग के साथ गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स की नीतियों और शासन प्रणाली का तीव्र विरोध किया। इस प्रकार फ्रांसिस और वारेन हेस्टिंग्स में संघर्ष शुरू हो गया, जिसका अन्त फ्रांसिस की हार में हुआ। १७८० ई. में फ्रांसिस और हेस्टिंग्स में संघर्ष हो गया और इसके बाद अशक्त होकर वह इंग्लैंड चला गया। वहाँ उसने वारेन हेस्टिंग्स पर महाभियोग लगाने के अभियान को संगठित और संचालित करने में प्रमुख भाग लिया। फिलिप बंगाल में लगान के स्थायी बन्दोबस्त का सुझाव देनेवाला पहला अंग्रेज अधिकारी था। १७९५ ई. में वारेन हेस्टिंग्स के निर्दोष घोषित किये जाने पर वह बहुत निराश हुआ और १८०७ में सार्वजनिक जीवन से अलग हो गया।

फ्रायर, डा. जान : एक ब्रिटिश यात्री जो सत्रहवीं शताब्दी के सातवें दशक में भारत आया। उसने मुख्यतः दक्षिणी भारत की यात्रा की। इस यात्रा का उसने रोचक वर्णन लिखा है। (ए न्यू एकाउण्ट)

फ्रेरे, सर हेनरी बार्टल एडवर्ड (१८१५-८९) : एक प्रख्यात ब्रिटिश प्रशासक, जो १८३४ ई. में उच्च अधिकारी की हैसियत से भारत आया। १८३४ ई. में उच्च अधिकारी की हैसियत से भारत आया। १८४६ ई. में वह सतारा में रेजीडेण्ट नियुक्त किया गया और १८४८ ई. में सतारा को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिये जाने पर, जिसका वह विरोधी था, वहाँ का कमिश्नर बनाया गया। १८५० ई. में सिन्ध का कमिश्नर बना, जहाँ नौ वर्षों (१८५०-५९) तक बड़ी सफलता के साथ प्रशासन चलाता रहा। १८५०-५९) तक बड़ी सफलता के साथ प्रशासन चलाता रहा। १८५८ से १८६२ ई. तक वह वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् का सदस्य रहा और भारत का वित्तीय संतुलन बनाये रखने में सहायता की। १८६२ से १८६७ ई. तक बम्बई का गवर्नर रहा। इस दौरान उसने शिक्षा का प्रसार किया, कालेज (जैसे डक्कन कालेज) खुलवाये, रेलों का विस्तार किया, बम्बई नगरनिगम की स्थापना की और नारीशिक्षा को बढ़ावा दिया। किन्तु बैंक आफ बम्बई की असफलता के लिए उसकी आलोचना हुई। अवकाश ग्रहण कर इंग्लैण्ड चले जाने के बाद वह इंडिया कौन्सिल (१८६७-७७) का सदस्य बना। वह अफगानिस्तान में अग्रसर नीति का समर्थक था और ब्रिटिश प्रशासन की स्वेच्छाचारी मनोवृत्ति का पोषक था। इंग्लैंड के लिए उसने बसे बड़ी सेवा अफ्रीका में की, किन्तु वहाँ उसकी आक्रामक नीति के कारण जुलू-युद्ध छि‍ड़ गया, जिसकी वजह से उसे इंग्लैंड वापस बुला लिया गया। उसकी मृत्यु १८८९ ई. में हुई।

फ्रैंच-ईस्ट इंडिया कम्पनी : इसकी स्थापना १६६४ ई. में कोलबर्ट की प्रेरणा से फ्रांस की सरकार ने की। इसमें सरकारी पूँजी भी लगायी गयी, किंतु प्रबन्ध-कुशलता के अभाव में प्रथम चार वर्षों के दौरान मद्रास के उपनिवेशीकरण के प्रयास सफल नहीं हुए। व्यापार कार्य में उसे इंग्लिश और डच कम्पनियों की प्रतिद्वन्द्विता का सामना करना पड़ा, जो भारत के साथ पहले से व्यापार कर रही थीं और यहाँ अपनी कोठियाँ स्थापित कर चुकी थीं। इनके विरोध के बावजूद फ्रांसीसी १६६८ ई. में सूरत में एक कोठी स्थापित करने में सफल हो गये। १६७३ ई. में उन्होंने मद्रास से ८५ मील दक्षिण में आधुनिक पांडिचेरी का स्थान प्राप्त कर लिया और १६९४ ई. में फ्रांकोई मार्टिन को इसका मुख्य अधिकारी नियुक्त कर दिया। उसने इसे शीघ्र ही विकसित कर इतना महत्त्वपूर्ण बंदरगाह बना दिया कि भारत में यह फ्रैंच ईस्ट इंडिया कम्पनी का मुख्यालय बन गया।

फ्रैंच कम्पनी को १६७४ ई. में बंगाल के नवाब शायस्ता खाँ से भागीरथी के किनारे कलकत्ता के निकट, चंद्रनगर का स्थान मिल गया, जहाँ १६९०-९२ के दौरान उसने नया व्यापार-केन्द्र स्थापित किया। इस प्रकार पांडिचेरी और चंद्रनगर में फ्रैंच कम्पनी मद्रास और कलकत्ता स्थित इंग्लिश कंपनी की पड़ोसी और प्रतिद्वन्द्वी बन गयी। परन्तु अठारहवीं शताब्दी के प्रथम दो दशकों में फ्रैंच कम्पनी को व्यापार में सफलता नहीं मिली और उसे सूरत स्थित अपनी कोठी बंद कर देनी पड़ी। अगले दो दशकों में कम्पनी का व्यापार फलने-फूलने लगा और उसने १७२१ ई. में मारीशस में, १७२५ ई. में मलाबार तट पर माही तथा १७३९ में चोलमण्डल तट स्थित कारीकल में अपनी कोठियाँ स्थापित कर लीं।

अभी तक फ्रैंच कम्पनी का सारा ध्यान भारत के साथ व्यापार करने पर ही केन्द्रित था, किन्तु १७४२ ई. में पांडिचेरी के गवर्नर पद पर डूप्ले की नियुक्ति के साथ उसकी नीति और उद्देश्य में परिवर्तन हुआ। इस समय यूरोप में आस्ट्रियाई उत्तराधिकार का युद्ध (१७४०-४८) चल रहा था और फ्रांस व इंग्लैंड परस्पर संघर्षरत थे। इधर चोलमण्डल तट पर अंग्रेजों का कोई जहाजी बेड़ा तैनात न था, किन्तु फ्रांस का जहाजी बेड़ा तैनात था। इस स्थिति का लाभ उठाकर फ्रांसीसियों ने सितम्बर १७४६ ई. में मद्रास पर कब्जा कर लिया। मद्रास से खदेड़े गये इंग्लिश कम्पनी के अधिकारियों ने कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन से अपील की, जिसके शासन क्षेत्र के अन्तर्गत मद्रास आता था। अनवरुद्दीन ने मद्रास को फ्रांसीसियों से हस्तगत करने के लिए विशाल सेना भेजी, मगर फ्रांसीसियों की छोटी-सी सेना ने मेलापुर अथवा सेण्टथोम के युद्ध में नवाब की विशाल वाहिनी को करारी शिकस्त दी और मद्रास पर फ्रांसीसियों का कब्जा बना रहा। दो वर्ष बाद यूरोप में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच युद्ध एक्स-ला चैपेल की संधि के साथ समाप्त हो गया। इस संधि की शर्तों के अनुसार मद्रास इंग्लिश कम्पनी को वापस कर दिया गया।

मैलापुर के युद्ध में नवाब की विशाल सेना पर फ्रांसीसियों की विजय ने बता दिया कि पुराने तौर-तरीकों से लड़नेवाली टिड्डी दल जैसी भारतीय सेना को यूरोपवासियों की छोटी-सी अनुशासित सेना भारतीय सिपाहियों की मदद से किस तरह परास्त कर सकती है। इस नसीहत का डूप्ले की नीतियों पर गहरा प्रभाव पड़ा। अभी तक फ्रांसीसियों में किसी प्रकार की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा न थी। अब डूप्ले ने अपनी श्रेष्ठ सेना-शक्ति के आधार पर भारतीय राजनीति में सक्रिय भाग लेना और भारत में अपना साम्राज्य विस्तार करना आरम्भ कर दिया। उसकी पहलकदमी पर फ्रांसीसी कम्पनी ने १७४८ ई. में कर्नाटक तथा हैदराबाद के उत्तराधिकार सम्बन्धी युद्धों में भाग लिया। आरम्भ में उसे अच्छी सफलता मिली। उसे अपना एक आदमी हैदराबाद के निजाम के पद पर बिठाने में सफलता मिल गयी, जो पूरी तरह से फ्रांसीसी जनरल बुसी की मुट्ठी में था। उसने फ्रांसीसियों को अपनी सेना के खर्च के लिए उत्तरी सरकार की राजस्व-वसूली का अधिकार प्रदान कर दिया। किन्तु डूप्ले इंग्लिश कंपनी को भारत से बाहर खदेड़ने का अपना लक्ष्य पूरा करने में विफल रहा। इस दौरान यूरोप में इंग्लैंड और फ्रांस के बीच शांति कायम रही और फ्रांस की सरकार ने इंग्लैड के साथ इस अघोषित युद्ध को जिसकी शुरुआत डूप्ले ने भारत में की थी, समाप्त करने का निश्चय किया। फलतः १७५४ ई. में डूप्ले को फ्रांस वापस बुला लिया गया और इस प्रकार उसका भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना का स्वप्न अधूरा रह गया।

डूप्ले के फ्रांस लौटने के दो वर्ष बाद यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध छिड़ गया और भारत-स्थित इंग्लिश और फ्रांसीसी कम्पनि‍यां पुनः संघर्षरत हो गयीं। १७५७ ई. में अंग्रेजों ने पहले तो चंद्रनगर (बंगाल) में फ्रांसीसी बस्ती पर कब्जा कर लिया और उसके बाद ही पलासी के युद्ध में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को परास्त कर और नवाब की गद्दी पर अपने आश्रित मीर जाफर को बिठाकर बंगाल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। १७५८ ई. में कर्नल फोर्ड के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने फ्रांसीसियों को उत्तरी सरकार से बेदखल कर दिया और १७६० ई. में फ्रांसीसियों को बिंदवास के युद्ध में अंग्रेज जनरल सर आयरकूट के हाथों करारी मात खानी पड़ी। इसके एक वर्ष बाद अंग्रेजों ने पांडिचेरी पर भी कब्जा कर लिया और इस प्रकार फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथ से भारत का सारा इलाका छिन गया। १७६३ ई. में पेरिस शांति-संधि हुई और सप्तवर्षीय युद्ध इस संधि के अन्तर्गत फ्रांसीसी कम्पनी को पांडिचेरी, चंद्रनगर, माही और कारीकाल की बस्तियाँ लौटा दी गयीं, किन्तु भारत में उसका राजनीतिक प्रभुत्व समाप्त हो गया। अब वह इन स्थानों पर केवल व्यापारी संस्था के रूप में कार्य कर सकती थी। १९५० ई. में भारत स्थित इन फ्रेंच बस्तियों का विलयन भारतीय गणराज्य में कर दिया गया।

फ़्रैण्ड आफ इंडिया : एक पत्र, जिसका प्रकाशन जान मार्शमेन के निर्देशन में सिरामपुर के मिशनरियों ने १८१८ ई. में शुरू किया था। यह ईसाई धर्म का प्रचार करनेवाला समाजसुधारक पत्र था। इसने सती-प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन का समर्थन किया। बाद में यह पत्र कलकत्ता के 'स्टेट्समैन' में विलीन हो गया।

बंकिदेव, अलुपेन्द्र : सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (दे.) के सेनापति मालिक काफूर के आक्रमण के समय भारत के सुदूर दक्षिणी भाग में विद्यमान एक छोटा राजा। काफूर ने उसे हराकर उसका राज्य खत्म कर दिया।

बंग-भंग : पहली बार १९०५ ई. में वाइसराय लार्ड कर्जन द्वारा किया गया। उसका तर्क था कि तत्कालीन बंगाल प्रांत, जिसमें बिहार और उड़ीसा भी शामिल थे, बहुत बड़ा है। एक लेफ्टिनेंट-गवर्नर उसका प्रशासन ठीक ढंग से नहीं चला पाता, फलस्वरूप पूर्वी बंगाल के जिलों की उपेक्षा होती है जहाँ मुसलमान अधिक संख्या में हैं। अतएव उत्तरी और पूर्वी बंगाल के राजशाही, ढाका तथा चटगाँव डिवीजनों में आनेवाले पन्द्रह जिले आसाम में मिला दिये गये और पूर्वी बंगाल तथा आसाम नाम से एक नया प्रांत बना दिया गया और उसे बंगाल से अलग कर दिया गया। बिहार तथा उड़ीसा को पुराने बंगाल में सम्मिलित रखा गया। बंगाल के लोगों, विशेष रूप से हिन्दुओं में बंग-भंग से भारी क्षोभ फैल गया, क्योंकि इसका उद्देश्य था एक राष्‍ट्र को विभाजित कर देना, बंगवासियों की एकता को भंग कर देने का प्रयास, जातीय परंपरा, इतिहास तथा भाषा पर घृणित प्रहार। इसको जनता की राजनीतिक आकांक्षाओं को कुचल देने का एक साधन माना गया। बंगवासियों ने अपने प्रांत का विच्छेद रोकने के लिए अंग्रेजी माल, विशेष रूप से इंग्लैंड के बने वस्त्रों का बहिष्कार प्रारंम्भ कर दिया और २७ अक्तूबर को, जिस दिन बंग-विच्छेद किया गया, राष्ट्रीय शोकदिवस मनाया गया।

सरकार को यह जन-आन्दोलन रुचिकर नहीं प्रतीत हुआ। उसने उसे विफल बनाने के लिए मुसलमानों को अपनी ओर मिलाने का चेष्टा की और वचन दिया कि नये प्रांत में उनको विशेष सुविधाएँ प्राप्त होंगी। इसके साथ ही उसने दमनकारी उपायों का सहारा लिया और सार्वजनिक स्थानों पर 'वंदेमातरम्' का घोष करना तक दंडनीय अपराध करार दिया गया। दमन के फलस्वरूप जन-असन्तोष और गहरा हो गया और आंतकवादी गतिविधियाँ आरम्भ हो गयीं। अंग्रेज अफसरों तथा उनके भारतीय गुर्गों की हत्या करने के प्रयत्न किये गये। सरकारने दमनचक्र और तेज कर दिया परन्तु, उसका कोई फल नहीं निकला। परिणामस्वरूप दिसम्बर १९११ ई. के दिल्ली दरबार में शाही घोषणा करके बंग-विच्छेद सम्बन्धी आदेश में संशोधन कर दिया गया। पूर्वी बंगालके १५ जिलों को आसाम से अलग करके पश्चिमी बंगाल में फिर संयुक्त कर दिया गा। इसके साथ ही बिहार तथा उड़ीसा को बंगाल प्रांत से अलग कर दिया गया। संयुक्त बंगाल का प्रशासन एक गवर्नर के अधीन हो गया। प्रशासन की कथित शिथिलता दूर करने के लिए यह सुझाव लार्ड कर्जन को भी दिया गया था, परन्तु उसने इसे नामंजूर कर दिया था।

बंगाल का दूसरी बार विभाजन १९४७ ई. में भारत विभाजन के फलस्वरूप हुआ। भारत को इसी शर्त पर स्वाधीनता प्रदान की गयी कि उसका विभाजन भारत तथा पाकिस्तान नाम के दो राज्यों में कर दिया जाय। फलस्वरूप बंगाल के ढाका तथा चटगाँव डिविजन के सभी जिलों तथा राजशाही एवं प्रेसीडेंसी डिवीजन के कुछ जिलों को अलग करके पूर्वी पाकिस्तान का निर्माण कर दिया गया। १६ दिसम्बर १९७१ ई.को पूर्वी पाकिस्तान शेष पाकिस्तान से अलग होकर एक स्वतंत्र सार्वभौम प्रभुसत्ता-सम्पन्न राष्ट्र बन गया, जो अब 'बांगलादेश' कहलाने लगा है।

बंगाल : वह क्षेत्र, जिसके पश्चिम में बिहार, पूर्व में आसाम, उत्तर में हिमालय की तराई तथा दक्षिण में उड़ीसा तथा बंगाल की खाड़ी स्थित है। यह नदियों का क्षेत्र है, जिसमें मुख्यतया गंगा और ब्रह्मपुत्र तथा उसकी अनेक सहायक नदियाँ बहती हैं। कछारी भूमि होने से कुषि-कार्य यहाँ अपेक्षाकृत सरल है। इसके समृद्ध एवं विविध साधनों से सम्पन्न होने के कारण पड़ोसी राज्यों के लोग सदा से इसकी ओर आकृष्ट होते रहे हैं। इस क्षेत्र का नाम 'बंगाल' अंग्रेजों ने प्रचलित किया। पहले इसे बंगला कहते थे, जो संस्कृत शब्द 'बंग' का अपभ्रंश है। प्राचीनकाल में बंग से पूर्व और मध्य बंगाल निर्दिष्ट होते थे। इस शब्द का प्रयोग महाकाव्यों में भी मिलता है। पश्चिम तथा पश्चिमोत्तर बंगाल को तब गौड़ के नाम से जाना जाता था। बंग और गौड़ दोनों मौर्य और गुप्त साम्राज्यों में शामिल थे। गुप्त साम्राज्य का पतन हो जाने पर धर्मादित्य, गोपचन्द्र और समाचारदेव आदि स्थानीय राजाओं ने अपने को स्वाधीन कर लिया।

छठीं शताब्दी के मध्य में गौड़ शक्तिशाली राज्य हो गया। सातवीं शताब्दी के मध्य में गौड़ शक्तिशाली राज्य हो गया। सातवीं शताब्दी के आरम्भ में वहाँ शशांक नामक अत्यन्त पराक्रमी राजा हुआ, जो हर्षवर्धन का प्रबल प्रतिद्वन्द्वी था। उसकी मृत्यु के पश्चात् बंगाल हर्ष के साम्राज्य का अंग बन गया। उसके बाद यह कामरूप के भास्कर वर्मा के शासनान्तर्गत आ गया। कैसे और कब बंगाल कामरूप के शासन से मुक्त हुआ, यह विदित नहीं है। फिर भी यह अधिक समय तक स्वतंत्र नहीं रह सका, क्योंकि आठवीं शताब्दी के आरम्भ में कन्नौज के यशोवर्मा ने इसे रौंद डाला। इस आक्रमण के फलस्वरूप पूरे प्रदेश में अराजकता व्याप्त हो गयी। जनश्रुतियों के आधार पर कहा जाता है, कि इसी काल में यहाँ आदि सूर नामक शासक हुआ। प्रसिद्धि है कि उसने मिथिला से पाँच ब्राह्मणों को पाँच ब्राह्मणेतर सेवकों के साथ बंगाल में ब्राह्मण धर्म को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए आमंत्रित किया। ऐसा प्रतीत होता है कि बंगाल में अराजकता की दशा का अन्त तभी हुआ, जब वहां की जनता ने गोपाल नामक व्यक्ति को राजा निर्वाचित करके सिंहासनासीन किया। गोपाल से ही प्रसिद्ध पाल राजवंश की परम्परा चली, जिसके शासनकाल में बंगाल महान् शक्तिशाली और समृद्धिशाली हुआ और बौद्ध संस्कृति का प्रमुख केन्द्र बना, धर्मपाल तथा अतिशा (दे.), आदि आचार्यों को चीन, तिब्बत जैसे सुदूर देशों में बौद्धधर्म के प्रचार के लिए भेजा और अपनी निजी ललितकला और वास्तु शैली विकसित की जिसका प्रतिनिधित्व धीमान (दे.) और विटयाल (दे.) करते थे।

बारहवीं शताब्दी के मध्य तक पाल राजवंश की शक्ति का ह्रास हो गया और उसके स्थान पर सेन राजवंश प्रतिष्ठित हुआ, जो ११९८ और १२०१ ई. के बीच किसी समय मलिक इख्तियारुद्दीन मुहम्मद खिलजी की पश्चिमी बंगाल विजय तक कायम रहा। पचास वर्ष बाद मुसलमानों ने पूर्वी बंगाल भी जीत लिया, इस प्रकार पूरा प्रदेश दिल्ली सल्तनत का भाग हो गया। किन्तु १३३६ ई. के लगभग फखरुद्दीन मुबारक शाह ने पूर्वी बंगाल में बगावत कर दी जो अन्त में सारे सूबे में फैल गयी। फलस्वरूप दिल्ली की सल्तनत से उसका पूरी तरह से सम्बन्ध टूट गया। १३४५ से १४९० ई. तक इलियास शाही राजवंश बंगाल पर राज्य करता रहा। बीच में केवल ४ वर्षों (लगभग १४१४-१८ ई.) में चार हिन्दू राजाओं गणेश, उसके पुत्र जदू, दनुज मर्दन तथा महेन्द्र ने अस्थायी रूप से शासन किया। १४९० ई. में अलाउद्दीन हुसेन शाह ने सैयद राजवंश का सूत्रपात किया। इस वंश के लोग १५३८ ई. तक जब हुमायूँ ने बंगाल को जीता, यहाँ राज्य करते रहे। इसके एक वर्ष बाद ही शेरशाह ने हूमायूँ को परास्त कर दिया और उसके वंशज १५६४ ई. तक शासन करते रहे, जब सुलेमान करनानी ने एक नया राजवंश चलाया। करनानी वंश का अन्तिम शासक दाऊद खाँ १५७६ ई. में बादशाह अकबर से हार गया और बंगाल पुनः दिल्ली के प्रभुत्व में आ गया।

इसके बाद शांति और सम्पन्नता का युग आरम्भ हुआ और बंगाल ने वाणिज्य-व्यवसाय में इतनी उन्नति की कि उसकी समृद्धि की विदेशी यात्रियों तक ने प्रशंसा की और यूरोपीय व्यावसायिक कम्पनियां अपनी व्यापारी कोठि‍याँ स्थापित करने के लिए प्रेरित हुईं।

सर्वप्रथम बंगाल में पुर्तगाली आये, लेकिन विधिवत् वाणिज्य की अपेक्षा समुद्री डकैती और गुलामों का सौदा करने की तरफ उन्होंने अधिक ध्यान दिया। परिणामस्वरूप बंगाल के कछारी भूभाग में उनका भारी आतंक छा गया, जिसका निवारण १६३२ ई. में मुगल सूबेदार कासिम अली ने उनका दमन करके किया। बाद ही क्रमशः डच (हालैण्डवासी), डेन (डेनमार्कवासी), फ्रांसीसी और अंग्रेज आ धमके और क्रमशः चिनसुरा, सिरामपुर, चन्द्रनगर और कलकत्ता में, जो सभी हुगली के तट पर हैं, जम गये। जबतक मुगल बादशाह सबल बने रहे, बंगाल में उनके सूबेदारों ने इन यूरोपीय व्यक्सायों को अपने नियंत्रण में रखा और शांति भंग करने का उनका साहस नहीं हुआ। बंगाल के सूबेदार मुर्शिद कुली खां के शासन काल में बिहार और उसके उत्तराधिकारी शुजाउद्दीन के शासन काल (१७२७-३८ ई.) में उड़ीसा भी बंगाल में सम्मिलित करलिया गया। लेकिन शुजा का पुत्र अयोग्य सिद्ध हुआ और १७४० ई. में अलीवर्दी खाँ द्वारा, जो बिहार में उसका नायब था, अपदस्थ कर दिया गया।

नवाब अलीवर्दी खाँ दिल्ली से लगभग स्वतंत्र होकर १७५६ ई. में अपनी मृत्यु तक बंगाल पर शासन करता रहा। उसका उत्तराधिकारी पौत्र सिराजुद्दौला अनुभवहीन और कमजोर शासक साबित हुआ। परिणामस्वरूप वह अंग्रेजों पर नियंत्रण न रख सका, जिन्होंने उसकी प्रभुसत्ता की अवहेलना कर फ्रांसीसियों से युद्ध छेड़ दिया। वह अन्त में उस षड्यंत्र का शिकार हो गया जो अंग्रेजों ने उसके असन्तुष्ट दरबारियों के साथ मिलकर रचा था। फलस्वरूप जून १७५७ ई. में पलासी की लड़ाई में सिराज हार गया। वह लड़ाई के मैदान से भाग कर मुर्शिदाबाद पहुँचा और विजेताओं का प्रतिरोध करने के लिए सैन्य संग्रह न कर पाने पर वहाँ से भी भाग निकला। विजयी अंग्रेजों ने २८ जून १७५७ ई. को मीर जाफर को, जो सिराज का निकट सम्बन्धी और षड्यंत्रकारियों में प्रमुख था, नवाब की गद्दी पर बैठाया। इसके चार दिन बाद ही भगोड़े सिराजुद्दौला का वध कर दिया गया। इस प्रकार बंगाल में मुस्लिम शासन का लज्जास्पद ढंग से पतन हुआ।

मीर जाफर को भी शीघ्र इस बात का अहसास हो गया कि वह अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली मात्र है। उसे भी उन्होंने शीघ्र ही अपदस्थ कर उसके दामाद मीर कासिम को गद्दी पर बैठाया। उसके साथ भी अंग्रेजों की पटरी नहीं बैठी और उन्होंने उससे युद्ध छेड़ दिया और १७६४ ई. में बक्सर में उसकी हार हुई। इसके बाद मीर कासिम विस्मृति के गर्भ में विलीन हो गया और मीर जाफर, फिर से नवाब बनाया गया। १७६५ ई. में मीर जाफर मर गया।

इसी वर्ष अंग्रेजों को दिल्लीके बादशाह से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी मिल गयी। कम्पनी ने पलासी के विजेता राबर्ट क्लाइव को गवर्नर नियुक्त किया। दो वर्ष बाद वह इंग्लैंड चला गया और अगले पाँच वर्षों तक बंगाल में अत्यधिक कुशासन रहा। नवाब कम्पनी के स्थानीय अधिकारियों के हाथ का खिलौना मात्र रह गया, जिसे जनता की हितरक्षा का कोई ख्याल नहीं था। इसी बीच बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा, जिसमें एक तिहाई आबादी विनष्ट हो गयी। १७७२ ई. में कम्पनी की ओर से वारेन हेस्टिंग्स बंगाल के गवर्नर के रूप में नियुक्त हुआ। अगले साल रेग्युलेटिंग कानून पास हो जाने पर वह गवर्नर-जनरल बना दिया गया और बम्बई तथा मद्रास की प्रेसीडेन्सियां उसके अधीन कर दी गयीं। इस प्रकार बंगाल भारत में बढ़ते हुए ब्रिटिश साम्राज्य का न केवल अंग वरन् उसका केन्द्र-बिन्दु भी बन गया, क्योंकि कलकत्ता को शीघ्र ही भारतीय ब्रिटिश साम्राज्‍य की राजधानी बना दिया गया।

प्रशासकीय दृष्टि से बंगाल में अनेक परिवर्तन हुए। ब्रिटिश प्रशासन के आरम्भ में बिहार और उड़ीसा समेत पूरे प्रदेश में गवर्नर-जनरल द्वारा कौन्सिल की सहायता से शासन चलाया गया। १८५४ में इसको लेफ्टिनेण्‍ट गवर्नर के अधीन कर दिया गया। १९०५ ई. में लार्ड कर्जन ने प्रदेश दो टुकड़ों में विभाजित कर दिया- पश्चिमी बंगाल, बिहार और उड़ीसा की एक इकाई लेफटिनेण्‍ट गवर्नर के अधीन बनायी गयी और पूर्वी बंगाल की दूसरी इकाई आसाम के साथ मिलाकर अन्य लेफ्टिनेण्‍ट-गवर्नर के अधीन बनायी गयी। इस विभाजन पर बंगाल के लोगों, विशेषकर हिन्दुओं ने जबर्दस्त विरोध प्रकट किया और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्‍व में बहुत ही प्रभावशाली आन्दोलन चलाया, जिसमें स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग और ब्रिटिश सामान का बहिष्कार प्रमुख था। ब्रिटिश सरकार ने आन्दोलन को बल-प्रयोग-द्वारा दबाने के जो भी प्रयास किये उनसे जनरोष भूमिगत हो गया और अरविन्द घोष के नेतृत्व में बंगाल में आतंकवाद ने अपना सिर उठाया। फलस्वरूप प्रसिद्ध अलीपुर बमकाण्ड का मुकदमा चला। मुकदमे में अरविन्द घोष दोषमुक्त कर दिये गये, यद्यपि उनके अनेक साथियों को आजीवन कारावास की सजा मिली। अन्त में ब्रिटिश सरकार ने १९११ ई. में बंग-भंग रद्द कर पश्चिमी बंगाल को पूर्वी बंगाल के साथ फिर जोड़ दिया। बिहार, उड़ीसा और आसाम इससे पृथक कर दिये गये और बंगाल सपरिषद गवर्नर के शासन के अधीन कर दिया गया।

१९४७ ई. में देश को स्वाधीनता दिलाने के हेतु, बंगाल पुनः दो हिस्सों में बाँटा गया। पश्चिमी बंगाल के जिलों को उत्तरी बंगाल के कुछ जिलों से जोड़कर भारत में 'पश्चिमी बंगाल' राज्य बनाया गया और पूर्वी बंगाल के जिलों का भाग 'पूर्वी पाकिस्तान' के नाम से गठित हुआ। दिसम्बर १९७१ ई. में पूर्वी पाकिस्तान पश्चिमी पाकिस्तान से अलग होकर 'बांगला देश' के नाम से स्वतन्त्र देश बन गया। प्रांत का यह अस्वाभाविक विभाजन यद्यपि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सहमति से हुआ था, फिर भी इसके परिणामस्वरूप लाखों लोगों को, अधिकांशतः पूर्वी बंगाल के हिन्दुओं को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा, व्यापक हिंसा, लूटपाट, बलात्कार की तकलीफें उठानी पड़ीं और बचेखुचे लोग भी बार-बार उत्पीड़न के शिकार होते रहे। इधर कटा-छँटा पश्चिमी बंगाल का राज्य पुराने प्रदेश का केवल एक तिहाई भाग रह गया और विभाजन के बाद उसे अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा, जिसमें पूर्वी बंगाल के विस्थापित हिन्दुओं के पुनर्वास की समस्या सबसे जटिल थी।

बंगाल, पहला भारतीय प्रदेश था जिसने ब्रिटिश शासन का स्वागत किया। साथ ही संसदीय शासन और लोकतंत्र के ब्रिटिश राजनीतिक विचारों को आत्मसात् करने की दिशा में भी भारत का यह प्रदेश अग्रणी हुआ। भारतीय राष्ट्रीयता का शंखनाद यहीं फूंका गया और प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन भी यहीं आयोजित किया गया। इस प्रकार बंगाल ने ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के शुभारम्भ का मार्ग प्रशस्त किया और उसे अपना पहला अध्यक्ष प्रदान किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ही अन्त में भारत की स्वाधीनता प्राप्त करने में सफल रही। गोपालकृष्ण गोखले ने एक बार यह कह कर बंगाल की प्रशंसा ठीक ही की थी कि 'बंगाल जो आज सोचता है, उसे भारत कल सोचता है।'

बंगाल की दीवानी : १७६५ ई. में बादशाह शाह आलम ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को प्रदान की। १७६४ ई. में बक्सर के युद्ध में अवध के नवाब के पराजित हो जाने पर कम्पनी ने इलाहाबाद तथा आसपास के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था। कम्पनी ने ये क्षेत्र सम्राट् को देकर बदले में बंगाल की दीवानी प्राप्त की। इसका अर्थ था कि कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में राजस्व वसूल करने का अधिकार प्राप्त हो गया। बदले में कम्पनी बादशाह को २६ लाख रुपया वार्षिक देती थी। साथ ही मुर्शिदाबाद के नवाब को भी कम्पनी सामान्य प्रशासन के लिए ५३ लाख रुपया देती थी। शेष बचे हुए धन को कम्पनी अपने पास रखती थी। नवाब को दी जानेवाली वार्षिक रकम बाद में घटाकर ३२ लाख रुपया कर दी गयी। कम्पनी को दीवानी मिलने से उसे प्रान्तीय प्रशासन में पहली बार कानूनी हैसियत प्राप्त हो गयी। वैसे १७५७ ई. में पलासी के युद्ध में षड्यन्त्रों के द्वारा विजय प्राप्त करने के पश्चात् कम्पनी को शासन का अधिकार प्राप्त हो गया था, किन्तु राजस्व की वसूली का अधिकार प्राप्त होने का अर्थ यह था कि कम्पनी को व्यावहारिक रूप से प्रान्तीय शासन करने का अधिकार है, क्योंकि राजस्व की वसूली को सामान्य प्रशासन से अलग करना कठिन था। प्रशासन हाथ में आ जाने के बावजूद कम्पनी की कानूनी हैसियत दीवान की ही रही, जो ब्रिटिश महारानी द्वारा भारतीय शासन अपने हाथ में लेने के समय तक कायम रही।

बकिंघम, जान सिल्क : कलकत्ता जर्नल' का सम्पादक, जो सरकारी अधिकारियों की मुक्त कण्ठ से आलोचना किया करता था। अत: कार्यवाहक गवर्नर-जनरल जान एडम्स ने उसे १८२३ ई. में भारत से निष्कासित कर दिया।

बक्‍सर की लड़ाई : २२ अक्तूबर १७६४ ई. को आरम्भ इस लड़ाई में मेजर जनरल हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में कम्पनी की सेना ने शाह आलम द्वितीय, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा बंगाल के भगोड़े नवाब मीर कासिम की मिलीजुली सेना को हरा दिया। इस विजय से भारत में कम्पनी की प्रतिष्ठा काफी बढ़ गयी, जिसके फलस्वरूप होनेवाले समझौते के अन्तर्गत बादशाह ने कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी सौप दी। इसके बदले में कम्पनी ने उसे इलाहाबाद तथा कड़ा के जिले, जो उसने अवध के नवाब से छीन लिये थे, लौटा दिये और बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के राजस्व से २६ लाख रुपया वार्षिक खिराज के रूप में देना स्वीकार किया। इस प्रकार बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थिति वैधानिक हो गयी।

बख्‍त खाँ : १८५७ ई. में दिल्ली के विद्रोही सिपाहियों का नेता, जिसने गदर के दिनों में दिल्ली की हलचलों में प्रमुख रूप से भाग लिया।

बख्तियारउद्दीन गाजी शाह : पूर्वी बंगाल के पहले स्वतंत्र शासक फखरुद्दीन मुबारक शाह का लड़का और उत्तराधिकारी। उसने १३२९ से १३५२ ई. तक राज्य किया। पश्चिमी बंगाल के सुल्तान शमसुद्दीन इलियास शाह (दे.) ने उसकी गद्दी छीन ली।

बख्तियार खिलजी : इख्तियारुद्दीन मुहम्मद का पिता, जिसने नवद्वीप या नदिया के राजा लक्ष्मणसेन को भगा दिया और इस प्रकार बंगाल में मुसलमानी राज्य की नींव डाली।

बघाट : सतलज पार स्थित एक पहाड़ी रियासत, जिसे लार्ड कैनिंग ने अपने पूर्वाधिकारी के निर्णय को बदल कर बघाट रियासत उसके पुराने राजा को लौटा दी।

बटलर, डाक्टर फैनी : प्रथम अंग्रेज महिला चिकित्सक, जिसने १८६० ई. में भारत आकर डाक्टरी शुरू की। उसने महिलाओं के लिए सेवा का एक नया आदर्श उपस्थित किया था।

बटलर-समिति रिपोर्ट : १९२९ ई. में प्रस्तुत की गयी। भारत में सर्वोंच्च (ब्रिटिश) सत्ता और देशी रियासतों के तत्कालीन सम्बन्धों की जाँच करने के उपरान्त समिति ने दोनों के वित्तीय एवं आर्थिक सम्बन्धों को व्यवस्थित करने के विषय में अपनी सिफारिशें प्रस्तुत कीं। इसकी आधारभूत सिफारिश थी कि सर्वोच्च सत्ता और देशी राजाओं के बीच ऐतिहासिक सम्बन्धों को ध्यान में रखकर उन्हें उनकी सहमति के बिना भारतीय विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी नयी सरकार से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए विवश न किया जाये। रिपोर्ट में देशी राजाओं की ये आशंकाएँ प्रतिलक्षित थीं कि भारत में लोकप्रिय शासन प्रचलित होने से वे अपने अधिकारों से वंचित हो जायेगे। भारतीय लोकमत ने इस रिपोर्ट को प्रतिगामी माना।

बटल, सर हरकोर्ट : वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद का सदस्य। बाद में संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) और बर्मा का गवर्नर हुआ। समर्थ प्रशासक के रूप में उसकी ख्याति बहुत थी और भारत-मंत्री द्वारा गठित देशी रियासत समिति (इंडियन स्टेट्स कमेटी) का १९२७ ई. में वह अध्यक्ष नियुक्त किया गया। यह समिति देशी रियासतों और सर्वोच्च सत्ता के पारस्परिक सम्बन्धों की जाँच के लिए नियुक्त की गयी थी। समिति ने १९२९ ई. में रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।

बड़गांव समझौता : प्रथम मराठा-युद्ध (१७७६-८२ ई.) के दौरान भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार की ओर से कर्नल करनाक द्वारा जनवरी १७७९ ई. में किया गया। कर्नल काकबर्न के नेतृत्व में अंग्रेजों की एक सेना ने कमिश्नर कर्नल करनाक के साथ पूना की ओर कूच किया, किन्तु रास्ते में उसे पश्चिमी घाट स्थित तेल गाँव नामक स्थान पर मराठों की विशाल सेना का मुकाबला करना पड़ा। अंग्रेज सेना की कई स्थानों पर हार हुई और उसे मराठों ने चारों तरफ से घेर लिया। ऐसी स्थिति में कर्नल करनाक हिम्मत हार गया और उसके जोर देने पर ही कमांडिंग अफसर कर्नल काकबर्न ने बड़गाँव समझौते पर हस्ताक्षर किये। इस समझौते के अनुसार तय हुआ कि कम्पनी की बम्बई सरकार १७७३ ई. के बाद जीते गये समस्त इलाके मराठों को लौटा देगी और अपने वचनों का पालन करने की गारंटी के रूप में कुछ अंग्रेज अफसरों को बंधक के रूप में मराठों के सुपुर्द कर देगी, राघोबा (दे.) को, जिसको पेशवा की गद्दी पर बिठाने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने लड़ाई छेड़ी थी उसे मराठों को सौंप देगी, बंगाल से मदद के लिए आ रही ब्रिटिश कुमुक वापस लौटा दी जायगी और भड़ौंच से प्राप्त राजस्व का एक हिस्सा महादजी शिन्दे को दिया जायगा। सैनिक स्थिति अंग्रेजों के इतने प्रतिकूल नहीं थी कि वे इस प्रकार की शर्तें स्वीकार करते। गवर्नल-जनरल ने इस समझौते को अस्वीकृत कर दिया और समझौता करनेवाले अंग्रेज अधिकारियों को कम्पनी की नौकरी से बर्खास्त कर दिया। राघोबा ने महादजी शिन्दे की शरण लेकर अपनी प्राणरक्षा की और अंग्रेजों को भी परेशानी से बचा लिया। अंग्रेजों ने बुद्धिमत्ता दिखाते हुए समझौते की शर्तों के अनुसार भड़ौंच से प्राप्त राजस्व का भाग शिन्दे को देकर उसके साथ अच्छे संबंध स्थापित कर लिये।

बड़ गोहांई : आसाम के अहोम राजाओं के दो शीर्षस्थ अधिकारियों में से एक का सरकारी पद नाम, जिसे स्वयं राजा के बाद सर्वोच्च अधिकार प्राप्त थे। दूसरा उच्च अधिकारी बूढ़ा गोहांई कहलाता था। इस पद पर पन्द्रह अहोम परिवारों का ही कोई व्यक्ति, जो अहोम अभिजात वर्ग में गिने जाते थे, पदासीन होता था। यह सामान्यतः वंशानुगत होता था किन्तु राजा को यह अधिकार प्राप्त था कि वह निर्धारित परिवार के किसी भी सदस्य को, जिसे वह पसन्द करे, चुन ले। यदि वह चाहे तो बड़-गोहांई को बर्खास्त भी कर सकता था। अहोम राज्य के एक भाग का प्रशासन बड़-गोहांई के अधीन था, जिसे प्रशासनिक, सैनिक तथा न्यायिक अधिकार प्राप्त थे। (ई. गेट कृत हिस्ट्री आफ आसाम)

बड़ बरुआ : अहोम राजा प्रताप सिंह (१६०३-४१ ई.) के राज्य में आसाम के उत्तरी भाग में स्थित कलियावड के पूर्व के क्षेत्र के लिए नियुक्त प्रशासक का पदनाम। इस पद पर सबसे पहले राजा के चाचा मोमाई तमूली की नियुक्ति हुई थी।

बड्डोवाल : २१ जनवरी १८४६ ई. को यहाँ सिखों के साथ हुई एक मुठभेड़ में ब्रिटिश सेना पराजित हो गयी, जिसका नेतृत्व सर हेनरी स्मिथ कर रहा था। एक सप्ताह बाद ही अलीवाल के युद्ध में सिख अंग्रेजों से हार गये।

बड़ोदा : गुजरात का एक महत्त्वपूर्ण नगर, मराठों ने सर्वप्रथम इस पर १७०६ ई. में आक्रमण किया। १७३२ ई. में पीलाजी गायकवाड़ ने, जो पेशवा बाजीराव प्रथम का अनुयायी और समर्थक था, गुजरात में अपनी सत्ता कायम की और बड़ोदा को सदर मुकाम बनाया। पीलाजी के पुत्र एवं उत्तराधिकारी दामाजी द्वितीय (१७३२-६८) के प्रशासनकाल में बड़ोदा का गौरव अधिक बढ़ा और यह गायकवाड़ों की राजधानी बन गया। दामाजी ने इसे भव्य इमारतों तथा प्रमुख संस्थाओं के निर्माण द्वारा आकर्षक बनाया। आजकल यहाँ एक विश्वविद्यालय भी है।

बदनचन्द्र : गौहाटी का (१८१०-२० ई. तक) बड़ फूकन (सुबेदार)। उसने प्रजा का बड़ी निर्दयता से दमन किया और जबरन धन वसूला। अन्त में स्थिति यहाँ तक पहुँची कि बड़ गुहांई (प्रधानमंत्री) पूर्णानन्द ने, जिसके पुत्र के साथ बदनचन्द्र की लड़की ब्याही थी, बदनचन्द्र को उसके पद से हटा दिया। उसे पकड़ने के लिए गौहाटी सिपाही भेजे गये। लेकिन बदनचन्द्र को अपनी पुत्री से इसकी सूचना पहले मिल गयी थी और वह सैनिकों के पहुँचने के पहले वहाँ से चला गया। बदनचन्द्र ने इसका बदला लेने का निश्चय किया। वह भाग कर कलकत्ता पहुँचा और वहाँ उसने गवर्नर-जनरल लार्ड मिंटो से मिलकर आसाम में अंग्रेजी फौज भेजने का अनुरोध किया। लेकिन मिंटो ने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।

इसके बाद बदनचन्द्र बर्मी शासक के दरबार में गया और उसे आसाम में बर्मी फौज भेजने के लिए राजी कर लिया। इस प्रकार १८१६ ई. में बर्मी फौज आसाम पर हमला करते हुए जोरहाट तक बढ़ गयी और गौहाटी में बदनचन्द्र को फिर से सूबेदार बना दिया। इसी बीच पूर्णानन्द की मृत्यु हो गयी और बदनचन्द्र ने बर्मी सेना को आसाम से लौट जाने के लिए राजी कर लिया और उसे हर्जाने के रूप में भारी रकम अदा की। इस प्रकार सफलता पाने के बाद बदनचन्द्र अहंकारी और निरंकुश हो गया। उसने अहोम राजा की माता और अनेक सरदारों को अपना विरोधी बना लिया। इनलोगों की शह पाकर बदनचन्द्र की हत्या कर दी गयी। उसने जो नीति अपनायी थी उसके फलस्वरूप १८१९ ई. में बर्मियों ने आसाम को विजय करके उसे अपने राज्य में मिला लिया।

बदन सिंह : भाऊ सिंह का पुत्र, जिसने अपनी सैनिक कुशलता, कूटनीति और विवाह सम्बन्ध द्वारा आगरा और मथुरा जिलों के पार्श्व में भरतपुर नामक एक जाट रियासत की स्थापना की। उसकी जन्मतिथि का पता नहीं है, मृत्यु १७५६ ई. में हुई।

बदर-ए-चाच : मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१) का समसामयिक एक इतिहासकार।

बराबर पहाड़ियां : गया से लगभग १५ मील उत्तर में स्थित। इन पहाड़ियों में सात गुफाएं हैं, जिनमें से चार अशोक मौर्य के नाम से सम्बद्ध हैं। शेष तीन में, जो नागार्जुनी वर्ग की कहलाती हैं, अशोक के पौत्र दशरथ के शिलालेख हैं। अशोक के युग में इन पहाड़ियों की ख्याति 'खलाटिका' के नाम से थी। खारवेल के समय इनको लोग गोरथ गिरि के नाम से जानते थे। बाद में इनका प्रवारगिरि नाम प्रचलित हो गया। आधुनिक काल में पहाड़ी के अशोक-शिलालेखों वाली गुफाओं के भाग को 'बराबर की पहाड़ियाँ' कहते और दूसरे भाग को 'नागार्जुनी पहाड़ी' कहते हैं।

बदरीनाथ : उत्तरप्रदेश के पर्वतीय भूभाग गढ़वाल में स्थित हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ-स्थान। यहाँ नर-नारायण की प्रतिमा बदरी नारायण के नाम से पूजी जाती है। यहाँ से कुछ दूर पर आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित 'ज्योतिष्पीठ' मठ है। प्रतिवर्ष यहाँ हजारों तीर्थ-यात्री आते हैं।

बदायूँनी : अब्दुल कादिर अल बदायूँनी अकबर का दरबारी इतिहासकार था। वह कट्टर सुन्नी था। उसकी 'मुंतरवबुत्-तवारीख' में अकबर के शासनकाल का विवरण सुन्नी मुसलमानों के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है जिससे वह अकबर की उदार नीतियों की प्रशंसा नहीं कर सका। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध है। अबुलफजल की पुस्तक 'अकबरनामा' में अकबर की प्रशंसा अधिक है। बदायूँनी की पुस्तक से अकबर के काल का एक संतुलित चित्र प्रस्तुत करने में सहायता मिलती है।

बनर्जी, कृष्णमोहन : डेरोजियो (१८०९-३१ ई.) के प्रारंभिक शिष्यों में से, एक तथा हिन्दू कालेज के आदर्श स्नातक। जन्म कलकत्ता के एक ब्राह्मण परिवार में। पश्चिम के बुद्धिवाद के प्रभाव से कृष्णमोहन अपना पैतृक धर्म छोड़कर ईसाई बन गये। जीवन के अन्तिम दिनों में वे पादरी बन गये। वे मान्य शिक्षाविद् एवं पत्रकार थे, अपने समय के राजनीतिक आन्दोलनों में भी भाग लेते थे, इंडियन असोसियेशन के प्रथम मंत्री थे और कलकत्ता विश्वविद्यालय सीनेट के प्रारम्भिक सदस्यों में से थे।

बनर्जी, (बोनर्जी) डब्लू सी. (१८४४-१९०६) : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष और कलकत्ता हाईकोर्ट के प्रमुख वकील। वे अंग्रेजी चाल-ढाल के कट्टर अनुयायी थे, अतः स्वयं अपने पारिवारिक नाम 'बनर्जी' का अंग्रेजीकरण करके उसे 'बोनर्जी' कर दिया और अपने पुत्र का नाम भी 'शेली' रखा, लेकिन हृदय से वे सच्चे भारतीय थे। इसीलिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के १८८५ ई. में हुए प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये। उन्हें दुबारा भी इलाहाबाद में १८९२ ई. में हुए कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया। १९०२ ई. में वे इंग्लैंड जाकर बस गये। वहाँ १९०६ में अपनी मृत्युपर्यन्त भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आन्दोलन को बढ़ावा देते रहे।

बनर्जी रंगलाल : बंगला कवि (१८१७-८७ ई.)। अपनी रचनाओं द्वारा उन्होंने राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया तथा देशवासियों में स्वाधीनता की उत्कट कामना पैदा की। उसकी उदात्त रचना 'पद्मिनी' की यह मार्मिक पंक्ति बड़ी लोक प्रिय थी "स्वाधीनता-हीनताय के वसिते चाय रे, के वसिते चाय?" (ऐसे राज्य में कौन रहना चाहता है? जहाँ आजादी नहीं है?)

बनर्जी, सर गुरुदास-(१८४४-१९१८)  : कलकत्ता हाईकोर्ट के अवर न्यायाधीश। उन्होंने अपना जीवन बंगाल के एक कालेज में प्रोफेसर के रूप में आरम्भ किया, किन्तु शीघ्र ही वकालत आरम्भ कर दी और १८७६ ई. में डी. एल. की डिग्री प्राप्त कर ली। १८८८ ई. में वे हाईकोर्ट के न्यायाधीश बने और १९०४ ई. में सेवानिवृत्त हुए। शिक्षा के विकास और प्रसार में उनकी तीव्र रुचि थी और कलकत्ता विश्वविद्यालय के दो कार्यावधि तक वाइस-चांसलर रहे। वे सनातनधर्मी विचारके थे। हिन्दू धर्म पर कई पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें मुख्य हैं- बँगला में 'ज्ञान ओ कर्म' तथा अंग्रेजी में 'फ्यू थाट्स ओन एज्केशन'।

बनर्जी, सर सुरेन्द्रनाथ : कलकत्ता के ब्राह्मण परिवार में १८४८ ई. में जन्म हुआ था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की एवं १८६९ ई. में आई. सी. एस. परीक्षा पास की। इंडियन सिविल सर्विस में १८७१ ई. में शामिल हुए और सिल्हट में असिस्टेन्ट मजिस्ट्रेट तथा कलक्टर नियुक्त किये गये। शीघ्र ही उन्हें इस आधार पर बर्खास्त कर दिया गया कि उन्होंने अनियमित ढंग से एक मुकदमे में फैसला दिया था। उन्होंने तब बैरिस्टर के रूप में अपना नाम दर्ज कराने का प्रयास किया, किन्तु उसके लिए उन्हें अनुमति देने से इन्कार कर दिया गया, क्योंकि वे इंडियन सिविल सर्विस से बर्खास्त किये गये थे। उनके लिए यह एक करारी चोट थी और उन्होंने महसूस किया कि एक भारतीय होने के नाते उन्हें यह सब भुगतना पड़ा है।

बैरिस्टर बनने में विफल होने के बाद १८७५ ई. में भारत लौटने पर वे प्रोफेसर हो गये; पहले मेट्रोपालिटन इंस्टीट्यूशन में (जो अब विद्यासागर कालेज कहलाता है) और बाद में रिपन कालेज (जो अब सुरेन्द्रनाथ कालेज कहलाता है) में, जिसकी स्थापना उन्होंने की थी। अध्यापक के रूप में उन्होंने अपने छात्रों को देशभक्ति और सार्वजनिक सेवा की भावना से अनुप्राणित किया। मेजिनी के जीवन और भारतीय एकता सदृश विषयों पर उनके भाषणों ने छात्रों में बहुत उत्साह पैदा किया। राजनीति में भी भाग लेते रहे और १८७६ में इंडियन असोसियेशन की स्थापना तथा १८८३ में कलकत्ता में प्रथम अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने में प्रमुख योगदान किया। एक राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की दिशा में यह पहला प्रयास था। १८८५ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (इंडियन नेशनल कांग्रेस) की स्‍थापना के बाद उन्‍होंने अखिल भारतीय राष्‍ट्रीय सम्मेलन (आल इंडिया नेशनल कान्फ्रेंस) का उसमें विलय कराने में प्रमुख भाग लिया और उसके बाद से उनकी गिनती कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में होने लगी। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के १८९५ में पूना में हुए ग्यारहवें अधिवेशन और १९०२ में अहमदाबाद में हुए अठारहवें अधिवशन की अध्यक्षता की। उन्होंने देशव्यापी भ्रमण कर बड़ी-बड़ी सभाओं में भाषण करते हुए राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता और देश के प्रशासन में भारतीयों को अधिक हिस्सा देने पर जोर दिया। उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी कार्य किया और 'दि बंगाली' के यशस्वी सम्पादक रहे। बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक तक इस पत्र ने जनमत को जाग्रत करने में बहुमूल्य योग्यदान किया। उन्होंने १८७८ ई. के वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट के विरोध का नेतृत्व किया और इलबर्ट बिल के समर्थन में प्रमुख भाग लिया।

बंगाल लेजिस्लेटिव कौंसिल के १८९३ से १९१३ तक वे सदस्य रहे और बड़े साहस के साथ लार्ड कर्जन के कलकत्ता कार्पोरेशन ऐक्ट का विरोध किया, जिसका उद्देश्य कार्पोरेशन का सरकारीकरण था। उक्त कानून पास हो जाने पर उन्होंने कार्पोरेशन में भाग लेने से इन्कार कर दिया। उन्होंने बंगाल के विभाजन का भी घोर विरोध किया और इसके विरोध में जबर्दस्त आन्दोलन चलाया जिससे वे बंगाल के निर्विवाद रूप से नेता मान लिये गये। वे बंगाल के 'बिना ताज के बादशाह' कहलाने लगे। बंगाल का विभाजन १९११ ई. में रद्द कर दिया गया, जो सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की बड़ी जीत थी। लेकिन इस समय तक देशवासियों में एक नया वर्ग पैदा हो गया था जिसका विचार था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वैधानिक आन्दोलन विफल सिद्ध हुए और भारत में स्वराज्य-प्राप्ति के लिए और प्रभावपूर्ण नीति अपनायी जानी चाहिए। यह वर्ग, जो गरम दल कहलाता था, हिंसात्मक तरीके अपनाने से भी नहीं डरता था, उससे चाहे क्रांति ही क्यों न हो जाये। लेकिन सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का, जिनकी शिक्षा-दीक्षा अट्ठारहवीं शताब्दी के अंग्रेजी साहित्य, विशेषकर बर्क के सिद्धांतों पर हुई थी, क्रांति अथवा क्रांतिकारी तरीकों में कोई विश्वास नहीं था और वे भारत तथा इंग्लैण्ड के बीच पूर्ण अलगाव की बात सोच भी नहीं सकते थे। इस प्रकार सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को, जिन्हें कभी अंग्रेज प्रशासक गरम विचारों का उग्रवादी व्यक्ति मानते थे, अब स्वयं उनके देशवासी नरम दल का व्यक्ति मानने लगे थे। सूरत कांग्रेस (१९०७) के बाद वे कांग्रेस पर गरम दलवालों का कब्जा होने से रोकने में सफल रहे थे, किन्तु इसके बाद शीघ्र ही कांग्रेस गरम दलवालों के नियन्त्रण में चली गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि माण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के आधार पर जब १९१९ का गवर्नमेण्ट आफ इंडिया एक्ट पास हुआ तो सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने तो उसे इस आधार पर स्वीकार कर लिया था कि कांग्रेस अपने आरम्भिक दिनों में जो मांग कर रही थी, वह इस एक्ट से बहुत हद तक पूरी हो गयी है, लेकिन स्वयं कांग्रेस ने उसे अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद हो गया। उन्होंने कांग्रेस के अन्य पुराने नेताओं के साथ लिबरल फेडरेशन की स्थापना की जो अधिक जन-समर्थन नहीं प्राप्त कर सका। फिर भी सुरेन्द्रनाथ बनर्जी नयी बगाल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य निर्वाचित हो गये। १९२१ ई. में 'सर' की उपाधि से विभूषित किये गये और बंगाल सरकार के मंत्री बने। १९२३ ई. में कलकत्ता म्युनिसिपल बिल को विधानमंडल से पास कराया, जिससे लार्ड कर्जन द्वारा बनाया गया पूर्ववर्ती कानून निरस्त हो गया और कलकत्ता कार्पोरेशन पर पूर्ण रूप से लोकप्रिय नियंत्रण स्थापित हो गया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी १९२० ई. में शुरू किये गये असहयोग आन्दोलन से सहमत नहीं थे। फलतः स्थानीय स्वशासन के क्षेत्र में उनकी महत्त्वपूर्ण कानूनी उपलब्धियों के बावजूद उन्हें पहले की भाँति देशवासियों का समर्थन नहीं मिल सका। वे १९२३ के चुनाव में हार गये और तदुपरान्त १९१५ में अपनी मृत्युपर्यन्त सार्वजनिक जीवन से प्रायः अलग रहे। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन जिसकी १८७६ ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने शुरूआत की थी, इस समय तक बहुत विकसित हो गया था और देश के लिए कानून बनाने तथा देश के प्रशासन में अधिक हिस्सा दिये जाने की जिन माँगों के लिए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने पचास वर्ष से भी अधिक समय तक संघर्ष किया था, उन माँगों की पूर्ति से अब देशवासी संतुष्ट नहीं थे। वे अब स्वाधीनता की माँग कर रहे थे, जो सुरेन्द्रनाथ की कल्पना से परे थी। उनकी मृत्यु जिस समय हुई उस समय उनकी गिनती देश के लोकप्रिय नेताओं में नहीं होती थी, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि वे आधुनिक भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माताओं में से थे जिसकी स्वाधीन भारत एक देन है। (एस. एन. बनर्जी, कृत ए नेशन इन मेकिंग)

बनर्जी, हेमचन्द्र : एक बंगला कवि (१८३८-१९०३ ई.)। उनकी 'वृत्रसंहार', जैसी काव्य रचनाओं ने राष्ट्रीय भावनाओं का प्रसार किया। उनकी प्रसिद्ध रचना 'भारत संगीत' (१८७० ई.) ने लोगों को देश की स्वाधीनता के लिए प्रयत्नशील होने को प्रेरित किया।

बनारस : देखिये 'वाराणसी'।

बनारस की संधि : अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच १७७३ ई. में हुई। इसके अनुसार कड़ा तथा इलाहाबाद जिले, जो १७७३ ई. में हुई। इसके अनुसार कड़ा तथा इलाहाबाद जिले, जो १७६५ ई. में बादशाह शाह आलम द्वितीय को दिये गये थे, उससे वापस लेकर अवध के नवाब के अधीन कर दिये गये। इसकी एवज में एकमुश्त पचास लाख रुपये तथा वार्षिक आर्थिक सहायता देना नवाब ने स्वीकार किया। शर्त यह थी कि कम्पनी नवाब के संरक्षण के लिए अवध में अपनी एक सैनिक टुकड़ी रखेगी।

बनारस की संधि : राजा चेतसिंह और ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच १७७५ ई. में हुई। इसके द्वारा चेतसिंह ने, जो मूलरूप में अवध के नवाब का सामन्त था, ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रभुत्व इस शर्त पर स्वीकार कर लिया कि वह कम्पनी को साढ़े बाइस लाख रुपये का वार्षिक नजराना दिया करेगा। संधि में इस बात का भी उल्लेख था कि कम्पनी उससे अन्य किसी प्रकार की माँग नहीं करेगी और न किसी व्यक्ति को उसके अधिकार में हस्तक्षेप करने अथवा देश की शांति भंग करने दिया जायेगा। इस निश्चित आश्वासन के बावजूद वारेन हेस्टिंग्स ने १७७८-८० ई. के वर्षों में अतिरिक्त धन की माँग की। यह घटना 'चेतसिंह के मामले' के नाम से विख्यात है।

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय : पं. मदन मोहन मालवीय के अथक उत्साह और प्रयासों से १९१५ ई. में स्थापित हुआ। संप्रति यह भारत के सबसे बड़े आवासीय विश्वविद्यालयों में से एक है।

बन्दा (वीर बैरागी) : दसवें गुरु गोविन्द सिंह की १७०८ ई. में हत्या हो जाने के बाद सिखों का नेता बना। वह सिखों का आध्यात्मिक नेता नहीं था किन्तु १७०८ से १७१५ ई. तक अपनी मृत्युपर्यन्त उनका राजनीतिक नेता रहा। गुरु गोविन्द सिंह के बच्चों को सरहिन्द के फौजदार वजीर खाँ ने बड़ी क्रूरता के साथ मार डाला था। वजीर खाँ से बदला लेना बन्दा अपना मुख्य कर्तव्य मानता था। इसे उसने शीघ्रता से पूरा किया। उसने बड़ी संख्या में सिखों को संगठित किया और उनकी मदद से सरहिन्द पर कब्जा कर फौजदार वजीर खाँ को मार डाला। उसने यमुना और सतलज के प्रदेश को अपने अधीन कर लिया और मुखीशपुर में लोहागढ़ (लोहगढ़ अथवा लौहगढ़) नामक मजबूत किला निर्मित कराया, इसके साथ ही राजा की उपाधि ग्रहण कर अपने नाम से सिक्के भी जारी करा दिये। कुछ काल बाद सम्राट् बहादुरशाह प्रथम (१७०७-१२) ने शीघ्र ही लोहगढ़ पर घेरा डाल कर कब्जे में कर लिया। बन्दा तथा उसके अनेक अनुयायियों को बाध्य होकर बहादुरशाह प्रथम की मृत्यु तक अज्ञातवास करना पड़ा। इसके उपरान्त बन्दा ने लोहगढ़ को पुनः अपने अधिकार में कर लिया और सरहिन्द के सूबे में लूटपाट आरम्भ कर दी। किन्तु १७१५ ई. में मुगलों ने गुरुदासपुर के किले पर घेरा डाल दिया। बन्दा उसी किले में था। मुगलों ने किले पर कब्जा करने के साथ ही बन्दा तथा उसके अनेक साथियों को भी बन्दी बना लिया। बन्दा को कैदी के रूप में दिल्ली भेजा गया, जहाँ उसे अमानवीय यंत्रणाएँ दी गयीं। आँखों के सामने ही उसके पुत्र को मार डाला गया और स्वयं उसे गर्म चिमटों से नोचकर १७१५ ई. में हाथी से कुचलवा दिया गया। बन्दा की शहादत वर्षों तक सिखों के लिए प्रेरणा का स्रोत रही।

बन्धुल अथवा महाबन्धुल : बर्मी सेनापति, प्रथम आंग्ल-बर्मी युद्ध (१८२४-२६ ई.) छिड़ने पर उसने बंगाल में बर्मी सेना का नेतृत्व किया था। उसे सफलता मिलने का इतना भरोसा था कि गवर्नर जनरल लार्ड एम्हर्स्ट के लिए वह सोने की बेड़िया अपने साथ लाया था। बंधुल ने चटगाँव सीमा के निकट एक ब्रिटिश रेजिमेण्ट को हरा दिया। लेकिन अंग्रेजों ने इस बीच रंगून पर नौसैनिक अभियान करके मई, १८२४ में कब्जा कर लिया। ब्रिटिश आक्रमणकारियों का सामना करने के लिए तब बंधुल को बर्मा वापस बुला लिया गया, जहाँ सेनापति के रूप में उसने बड़े रणकौशल का परिचय दिया, लेकिन रंगून के कब्जे के लिए दिसम्बर १८२४ ई. में किये गये हमले में वह पराजित हो गया। वहाँ से पीछे हटकर डोनाबियू में लकड़कोट के सहारे वह २ अप्रैल १८२५ ई. तक बहादुरी के साथ शत्रुओं का मुकाबला करता रहा। किन्तु अचानक एक राकेट आ लगने से उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार प्रथम आंग्ल-बर्मी युद्ध में बर्मा पराजित हो गया।

बन्धुपालित : वायु पुराण के अनुसार कुणाल का पुत्र और सम्राट् अशोक का पौत्र। कहा जाता है कि वह अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ था, किन्तु शिलालेखों अथवा अन्य सूत्रों से उसके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।

बन्धुवर्मा : सम्राट् कुमारगुप्त प्रथम (४१५-५५ ई.) का पश्चिमी मालवा स्थित दशापुर का सामन्त। उसका उल्लेख ४३७-३८ ई. के मन्दसोर शिलालेख में हुआ है।

बम्बई : देश का एक प्रमुख औद्योगिक नगर एवं महाराष्ट्र प्रदेश की राजधानी। नगर का बन्दरगाह १८-५३ उत्तरी अक्षांश और ७२-५४ पूर्वी देशान्तर रेखा वाले अरब सागर तट पर स्थित है। बन्दरगाह भव्य एवं प्राकृतिक है, किन्तु अंग्रेजों के अधिकार तथा उनके द्वारा इसका विकास किये जाने से पूर्व इसका कोई महत्त्व नहीं था, क्योंकि सँकरी खाड़ियों, दलदलों और पहाड़ियों के कारण यह भारत के आंतरिक भूभाग से अलग-अलग था। वर्तमान नगर की भूमि तथा बन्दरगाह और पास-पड़ोस के क्षेत्रों पर पुर्तगाली सेनापति अल्बुकर्क १५१० ई. से कब्जा किये हुए था। १६६१ ई. में पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन का विवाह इंग्लैड के राजा चार्ल्स द्वितीय के साथ सम्पन्न होने पर दहेज के रूप में पुर्तगालियों ने इसे भी अंग्रेजों को सौंप दिया। यह जागीर इतनी बेकार की मानी गयी कि राजा चार्ल्स द्वितीय ने १६६८ ई. में इसे मात्र १० पौण्ड वार्षिक किराये पर ईस्ट इंडिया कम्पनी को हस्तान्तरित कर दिया। जिराल्ड आंगियर के प्रयासों के फलस्वरूप जो १६६९ से १६७७ ई. तक इसका गवर्नर था, बम्बई का विकास आरम्भ हुआ और शीघ्र ही यह इतना समृद्ध नगर हो गया कि सूरत को पछाड़ कर अंग्रेजों का मुख्य व्यवसाय-भूमि बन गया।

१७७३ ई. के रेग्युलेटिंग ऐक्ट ने बम्बई प्रेसीडेन्सी को बंगाल के तथा उसकी कौन्सिल के सामान्य नियंत्रण में कर दिया था, अतः यह केन्द्रीय सरकार की राजधानी कभी नहीं बन सका, किन्तु इसका महत्त्व ब्रिटिश राज्य के प्रसार के साथ-साथ बढ़ता गया। बम्बई प्रेसीडेन्सी में भारत के पश्चिमी तट का सारा उत्तरी भाग, जिसमें सिन्ध, मालवा और गुजरात भी शामिल था, मिला दिया गया। नगर में वृद्धि हुई, बन्दरगाह विकसित किया गया और नयी गोदी का निर्माण हुआ। १८६४ ई. में बम्बई-बड़ौदा और सेंट्रल रेलवे लाइनों के बन जाने पर तथा १८६९ ई. में स्वेज नहर के चालू हो जाने पर यूरोप से पूर्व में आनेवाले जहाजों के लिए भारत में रुकने लायक यह पहला बंदरगाह हो गया। इस प्रकार बम्बई नगर 'भारत का मुख्य प्रवेशद्वार' बन गया। यह सूती वस्त्रों का प्रमुख उत्पादक केन्द्र भी है। धनिक पारसियों ने इसे अपना बना लिया है और उन्होंने इसकी समृद्धि में भारी योगदान किया है।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन १८८५ ई. में बम्बई में ही हुआ था और देश के स्वाधीनता आन्दोलन में भी बम्बई का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। सिन्ध को इससे १९३५ ई. में पृथक् कर दिया गया। स्वाधीनता के उपरान्त बम्बई राज्य भाषाई आधार पर दो राज्यों में विभाजित हुआ। पहला राज्य महाराष्ट्र बना, जिसकी राजधानी बम्बई है और दूसरा गुजरात, जितकी राजधानी अहमदाबाद अथवा गांधीनगर है। (सर डब्ल्यू. हण्टर कृत इम्पीरियल गजेटियर जिल्द ७; एस. एम. एडवर्ड्स कृत दि राइज आफ बाम्बे तथा शेपर्ड कृत बाम्बे, १९३२)।

बम्‍बई का प्‍लेग : १८९७ ई. में फैला, जब बम्बई और पूना दोनों नगरों में गिल्टियाँ निकलनेवाली प्लेग (ताउन) की बीमारी गम्भीर महामारी के रूप में व्याप्त हो गयी। भयभीत सरकार ने अनावश्यक तथा अत्यधिक कठोर कदम उठाकर न केवल व्याधिग्रस्त लोगों को बस्ती से अलग हटा दिया, वरन् उन लोगों को भी हटा दिया, जिनके रोगपीड़ित होने का जरा भी सन्देह था। बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र 'केसरी' में सरकार के निर्मम आचरण की तीव्र भर्त्सना की; वैसे तो तिलक महामारी रोकने के सरकारी प्रयासों के प्रशंसक थे, किन्तु उन्होंने इस बात की मांग उठायी कि सरकारी कानूनों को लागू करने में कठोरता न बरती जाय। उसके तुरन्त बाद अज्ञात आक्रमणकारियों ने प्लेग कमिश्नर रैण्ड तथा उसके सहायक आयेर्स्ट की हत्या कर दी। फलतः तिलक के विरुद्ध राजद्रोह फैलाने का आरोप लगा कर मुकदमा चलाया गया और उन्हें कारावास की सजा मिली। इस प्रकार बम्बई के प्लेग (ताउन) के संकट ने तिलक को देश का अग्रणी नेता बना दिया।

बयाना : राजस्थान के भरतपुर जिले का एक पहाड़ी किला और पुरानी बस्ती। यहाँ यौधेय गण का एक शिलालेख भी उपलब्ध हुआ है। पिछले समय में यह स्थान एक मुस्लिम जागीरदार के अधीन हो गया। उस युग में दिल्ली पर अभियान करनेवाली सेनाओं के लिए इस किले पर कब्जा करना महत्त्वपूर्ण माना जाता था।

बरगोइने, कर्नल : ब्रिटिश पार्लियामेण्ट का सदस्य, जिसने मई, १७७३ ई. पार्लियामेण्ट में राबर्ट क्लाइव के विरुद्ध तीव्र आरोप लगाये। उसी के प्रस्ताव पर पार्लियामेण्ट ने पारित किया कि ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना द्वारा भारत में अधिग्रहीत क्षेत्रों अथवा धन को यदि कम्पनी का कोई कर्मचारी अपनी निजी सम्पत्ति बना लेता है तो उसका यह कार्य गैर-कानूनी है और यह बात प्रमाणित है कि राबर्ट क्लाइव ने इस प्रकार से २,३४,००० पौंड की राशि प्राप्त की है। प्रस्ताव में एक संशोधन यह भी जोड़ दिया गया कि राबर्ट क्लाइव ने अपने देश के लिए महान् और सराहनीय सेवाएँ की हैं। राबर्ट क्लाइव को बरगोइने का प्रस्ताव पारित होने से इतना सदमा पहुँचा कि उसने १७७४ में आत्महत्या कर ली।

बरनी, जियाउद्दीन : प्रसिद्ध मुसलमान इतिहासकार, जो फिरोजशाह तुगलक के समय में हुआ था। उसकी पुस्तक 'तारीखे फिरोजशाही' में फिरोज शहंशाह तुगलक के शासन का विश्वसनीय वर्णन है। साथ ही इस पुस्तक में दिल्ली के पूर्ववर्ती सुल्तानों के शासन के सम्बन्ध में भी काफी जानकारी मिलती है।

बरबोसा, इडोरडो : जेशुइट यात्री, जो १५६० ई. में भारत आया। उसने विजयनगर का भ्रमण किया और १५८१ ई. में उत्तरी भारत तथा बंगाल की यात्रा की। वह विजयनगर की समृद्धि और बंगाल में निर्मित उत्कृष्ट वस्तुओं से बहुत प्रभावित हुआ। (मैकलागन कृत जेस्युट मिशन)

बराड़ (बरार) : प्राचीन राज्य विदर्भ का आधुनिक नाम। यह वर्धा नदी की घाटी में स्थित है। मौर्यों के साम्राज्य का यह एक भाग था। पुष्यमित्र शुङ के पुत्र अग्निमित्र के शासनकाल में इसने साम्राज्य से पृथक् हो जाने का विफल प्रयास किया। बाद में यह चालुक्यों के अधीन हो गया, जिनसे इसे अलाउद्दीन खिलजी ने जीत लिया। फिर यह मुहम्मद तुगलक के राज्य में सम्मिलित हो गया तथा बहमनी राज्य की स्थापना पर उसका अंग बन गया। यह १४८४ ई. में उस समय तक उसका भाग बना रहा जब इमादुलमुल्क ने यहाँ एक स्वतंत्र राज्य कायम किया। उसने इमादशाही राजवंश चलाया, जो १५७४ ई. तक शासक रहा, तदनन्तर बरार को अहमदनगर ने आत्मसात् कर लिया। १५९६ ई. में यह बादशाह अकबर को सौंप दिया गया जिसने इसको अलग सूबा बना दिया।

१७१४ ई.की संधि के अनुसार, जो बादशाहों को अपने इच्छानुसार तख्त पर बैठाने और उतारनेवाले सैयद-बन्धु हुसेन अली और पेशवा बालाजी विश्वनाथ के बीच हुई थी, बराड़ मराठों के नियंत्रण में चला गया। इसके शीघ्र ही बाद एक जागीर के रूप में इसे रघुजी भोंसले को अर्पित कर दिया रघुजी विवाह सम्बन्ध से राजा साहू का सम्बन्धी था। कालान्तर में मराठा राज्य का प्रसार होने पर रघुजी भोंसले ने अपनी जागीर में नये इलाकों को शामिल कर लिया। तीसरे पेशवा बालाजी बाजीराव के समय में बरार भोंसला राज्य का केन्द्र बन गया।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध में भोंसला राजा आरगाँव की लड़ीई में पराजित हो गया और देवगाँव (दिसम्बर, १८०३ ई.) की संधि के अनुसार बरार भोंसला राजा से लेकर पुरस्कारस्वरूप हैदराबाद के निजाम को सौंप दिया गया। निजाम पहले ही अंग्रेजों के साथ आश्रित-संधि कर चुका था। वह इस बात के लिए वचनबद्ध था कि अपने राज्य में ब्रिटिश टुकड़ी के खर्च के लिए वार्षिक सहायता देगा। किन्तु वर्षों तक निजाम ने यह धन नहीं चुकाया। अन्त में बकाये के भुगतान के लिए उसने बरार का राजस्व जमानत के रूप में ब्रिटिश भारतीय सरकार को अर्पित कर दिया, किन्तु यह व्यवस्था सन्तोषजनक तरीके से नहीं चल सकी। अतः १९०२ ई. में निजाम ने बरार को स्थायी पट्टे पर भारत सरकार को सौंप दिया। इस प्रकार यह ब्रिटिश भारत का अंग हो गया।

बरारी घाट की लड़ाई : ९ जनवरी १७६० ई. में छेड़ी गयी। यह स्थान दिल्ली से दस मील उत्तर स्थित है, जहाँ अहमदशाह अब्दाली ने मराठा सेनापति दत्ताजी शिन्दे को हराकर मार डाला। लड़ाई में मराठा सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार अब्दाली के लिए दिल्ली का मार्ग खुल गया। मराठों की यह हार एक वर्ष बाद पानीपत की तीसरी लड़ाई में होनेवाली उनकी जबर्दस्त हार का पूर्वाभास थी।

बरीद, अमीर : बीदर के बरीदशाही राजवंश के प्रवर्तक कासिम बरीद का पुत्र तथा उत्तराधिकारी, जिसने यह शाही उपाधि १५२६ ई. में ग्रहण की।

बरीदशाही राजवंश, (बीदर का) : कासिम बरीद ने बहमनी राज्य के पाँच शाखाओं में विभाजित हो जाने के पश्चात् १४९२ ई. में इसे चलाया। इस राजवंश ने बीदर तथा उसके पास-पड़ोस के इलाकों पर १६१९ ई. तक जब बीजापुर के सुल्तान ने इसे अपदस्थ कर दिया, शासन किया।

बरुआ : आसाम के अहोम राजाओं का एक पदाधिकारी। उनका स्थान फूकन के बाद होता था। मूलरूप में ऐसे लगभग बीस अधिकारी होते थे जो उच्च अहोम परिवारों में से चुने जाते थे। वे प्रशासन के विभिन्न विभागों के प्रधान होते थे। बाद में अहोमों से इतर प्रजा से भी इनकी नियुक्तियाँ होने लगीं। कालान्तर में धर्म अथवा जाति का ध्यान किये बिना इस पद पर आसीन सभी व्यक्तियों को 'बरुआ' कहा जाने लगा। यह पदनाम उन सभी लोगों ने ग्रहण कर लिया जिनके पूर्वज कभी इस पद पर रहे थे। आसाम के कुछ मुसलमान परिवारों की भी उपाधि 'बरुआ' है।

बर्क, एडमंड-(१७२९-९७ई.) : इंग्लैण्ड का एक प्रमुख सार्वजनिक नेता। इसने साहित्यिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त की। अपने समय में यह ब्रिटिश टोरी या कंजरवेटीय विचारधारा का मान्य नेता था। पार्लियामेण्ट के सदस्य की हैसियत से उसने भारत के गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स के विरुद्ध महाभियोग चलाने में प्रमुख भाग लिया और अपनी सहज उदारता का परिचय देते हुए सत्तारूढ़ शासनाधिकारियों द्वारा प्रजा के उत्पीड़न पर गहरा क्षोभ प्रकट किया। उसकी मुख्य रचनाएँ हैं: 'आन कांसिलिएशन विद अमेरिका', 'फ्रेन्च रेवलूशन' तथा 'दि सब्लाइम एण्ड दि ब्यूटीफुल'।

बर्केनहेड, लार्ड-(१८७२-१९३०)  : बहुत ही सफल अंग्रेज वकील और राजनीतिज्ञ। वह पार्लियामेण्ट का १९०६ से १९१९ ई. तक सदस्य रहा, फिर लार्ड बना दिया गया। वह १९१५-१६ ई. में एटर्नी जनरल और १९१९-२२ में लार्ड चांसलर तथा १९२४-२८ में सेक्रेटरी आफ स्टेट फार इंडिया (भारतमंत्री) नियुक्त हुआ। वह उदारवादी (लिबरल) राजनीतिज्ञ था, लेकिन १९२७ ई. में साइमन कमीशन में सभी अंग्रेज सदस्यों की नियुक्त करने पर भारतीयों ने उसकी तीव्र निन्दा की। साइमन कमीशन की नियुक्ति १९१९ के गवर्नमेण्ट आफ इंडिया एक्ट की कार्यव्यवस्था की जाँच के लिए की गयी थी।

बर्ड, आर. एम. : भारत सरकार की सेवा में नियुक्त एक अधिकारी, जो लार्ड विलियम बेण्टिक के शासनकाल में पश्चिमोत्तर प्रदेश में भूमि बन्दोबस्त का मुख्य प्रभारी था। उसने इस काम को पूरा करने में दस वर्ष (१८३०-४०) लगाये और भूमि का अर्द्धस्थायी महालवारी बन्दोबस्त किया है। लार्ड कार्नवालिस के शासनकाल में बंगाल में प्रचलित इस्तमरारी बन्दोबस्त से यह बिलकुल भिन्न था।

बर्न, कर्नल- : जब १८१६ ई. में पेशवा बाजीराव द्वितीय ने खड़की में स्थित ब्रिटिश सेना पर अचानक हमला बोला, तब उसके कमाण्डर कर्नल बर्न ने पेशवा को पूरी तरह पराजित कर उसकी योजना को विफल कर दिया।

बर्नियर, फ्रैंको : एक फ्रांसीसी विद्वान् डाक्टर। भारत में वह १६५६ ई. से १६६८ ई. तक रहा, सारे देश का भ्रमण किया और शाहजहाँ तथा औरंगजेब के मध्यवर्ती शासनकालों में उसने भारत में जो कुछ देखा उसका रोचक विवरण प्रस्तुत किया है। उसने मुगल दरबार के प्रमुख दरबारी दानिशमन्द की नौकरी कर ली थी। वह दिल्ली में उस समय मौजूद था, जब शाहजादा दारा को राजधानी की सड़कों पर घुमाया गया। उसके पीछे-पीछे भारी भीड़ चल रही थी, जो उसके दुर्भाग्य पर विलाप कर रही थी। फिर भी भीड़ में से किसी व्यक्ति को अपनी तलवार निकाल कर दारा को छुड़ाने का साहस नहीं हुआ। इस प्रकार वर्नियर ने विदेशी होने पर भी सत्ताधारियों के सम्मुख भारतीय जनता की निष्क्रियता तथा असहायावस्था को लक्षित कर लिया था।

बर्नियर ने शाहजहाँ तथा औरंगजेब के रेखाचित्र भी प्रस्तुत किये हैं। बंगाल की समृद्धि से वह बहुत प्रभावित हुआ था, परन्तु जनसाधारण की निर्धनता ने उसे अत्यधिक द्रवित भी किया था। दरबार की शान-शौकत तथा विशाल सेना का खर्च निकालने के लिए प्रजा पर करों का भारी बोझ लाद दिया गया था। इस विशाल सेना का उपयोग जनता को दबाये रखने के लिए किया जाता था। (वी. ए. स्मिथ द्वारा संपादित ट्रैवेल्स आफ बर्नियर)

बर्न्स, जेम्स (१८०१-६२ ई.)  : सर अलेक्जेण्डर बर्न्स का बड़ा भाई, जो १८२१ ई. में भारत आया और कम्पनी की सेना में १८४९ तक सर्जन रहा। वह विद्वान् लेखक भी था। 'हिस्ट्री आफ़ कच्छ' उसकी रचना है।

बर्न्स, सर अलेक्जण्डर (१८०५-४१)  : कम्पनी की सैनिक सेवा में १६ वर्ष की उम्र में दाखिल हुआ, फारसी सीखी और एक नीतिज्ञ के रूप में ख्याति प्राप्ति की। उसे १८३० ई. में दौत्यकार्य के लिए रणजीत सिंह के दरबार में लाहौर और बाद में अफगानिस्तान, बुखारा और फारस भेजा गया। ऊपरी तौरपर उसकी यात्रा का उद्देश्य व्यावसायिक घोषित किया गया था, किन्तु वास्तव में उसे काबुल में रूसी एजेन्ट की गतिविधि जानने के लिए भेजा गया था। भारत लौटने पर उसने अमीर दोस्त मोहम्मद का समर्थन करने की सलाह दी, किन्तु उसकी राय को ठुकरा दिया गया। लार्ड लिटन प्रथम द्वारा अपनायी गयी आक्रमक नीति के परिणामस्वरूप द्वितीय अफगान-युद्ध (दे.) हुआ। युद्ध के दौरान बर्न्स सर डब्ल्यू. एच. मैकनाघटन की अधीनता में काबुल में पोलिटिकल एजेन्ट नियुक्त किया गया, लेकिन २ नवम्बर, १९४० ई. को काबुल में अफगानों ने बगावत कर दी और बर्न्स की हत्या कर दी। इस प्रकार लार्ड लिटन की आक्रमक नीति का दंड बर्न्स को भुगतना पड़ा।

बर्नी, मेजर हेनरी : आवा के दरबार में १८३० ई. में नियुक्त होने वाला पहला ब्रिटिश रेजिडेण्ट।

बर्मा : भारत के पूर्व में स्थित एक विशाल देश, जिसे पटकोई पर्वतश्रृंखला, घने जगलों तथा बंगाल की खाड़ी ने भारत से अलग कर रखा है। ऐसा लगता है, आरम्भिक काल में भारत और बर्मा के बीच कोई राजनीतिक सम्बन्ध नहीं था, यद्यपि बर्मा उस काल में भी हिन्दू संस्कृति से इतना प्रभावित हो चुका था कि इसके नगरों के नाम जैसे अयथिया अथवा अयोध्या संस्कृत नामों पर रखे जाने लगे थे। बाद में अशोक के काल में बौद्धधर्म और संस्कृति का बर्मा में इतना अधिक प्रसार हुआ कि आज भी वहाँ के बहुसंख्यक लोग बौद्ध मतावलम्बी हैं। मुसलमानों के शासनकाल में बर्मा से भारत का सभी प्रकार का सम्पर्क भंग हो गया। स्वयं भी वह अनेक छोटे राज्यों में बँटा होने से सैनिक-शक्ति-सम्पन्न नहीं था। १७५७ ई. में राजा अलोम्प्रा ने नया बर्मी राजवंश चलाया। इस वंश के शासकों ने न केवल उत्तरी और दक्षिणी बर्मा को राज्य में मिलाया, वरन् उसकी सीमाएँ स्याम, तनासरिम, अराकान तथा मणिपुर तक बढ़ा लीं। विजयों से, विशेषकर १८१६ ई. में आसाम की विजय से, बर्मी राज्य की सीमा भारत में बढ़ते हुए ब्रिटिश साम्राज्य की सीमाओं के सन्निकट आ गयी, जिससे दोनों के बीच शक्ति-परीक्षण अनिवार्य हो गया।

फलस्वरूप तीन क्रमिक बर्मी-युद्ध हुए और १८८६ ई. में पूरा देश ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत आ गया। किन्तु १९३५ ई. के भारतीय शासनविधान के अंतर्गत बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया। १९४७ ई. से भारत और बर्मा दो स्वाधीन पड़ोसी मित्र राष्ट्र हैं।

बर्मा-शासनविधान : ब्रिटिश संसद ने १९३२ ई. में पारित किया, जिसके द्वारा बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया। इसके अनुसार बर्मा को उसी प्रकार के अधिकार प्रदान किये गये जिस प्रकार भारत को १९२१ ई. के शासनविधान के अन्तर्गत प्रदान किये गये थे।

बर्मी युद्ध : कुल तीन हुए। पहला आंग्ल-बर्मी युद्ध दो वर्ष (१८२४-२६ ई.) तक चला। इसका कारण बर्मी राज्य की न सीमाओं का आसपास तक फैल जाना तथा दक्षिणी बंगाल के चटगांव क्षेत्र पर भी बर्मी अधिकार का खतरा उत्पन्न हो जाना था। लार्ड एम्हर्स्ट की सरकार ने, जिसने युद्ध घोषित किया था, आरम्भ में युद्ध के संचालन में पूर्ण अयोग्यता का प्रदर्शन किया, उधर बर्मी सेनापति बंधुल ने युद्ध के संचालन में बड़ी योग्यता का परिचय दिया। ब्रिटिश भारतीय सेना ने बर्मी सेना को आसाम से मार भगाया, रंगून पर चढ़ाई करके उस पर कब्जा कर लिया। दोनाबू की लड़ाई में बंधुल परास्त हुआ और युद्धभूमि में अकस्मात् गोली लग जाने से मारा गया। तब अंग्रेजों ने दक्षिणी बर्मा की राजधानी प्रोम पर कब्जा कर बर्मी सरकार को यन्दबू की संधि (१८२६) करने के लिए मजबूर कर दिया।

संधि के अन्तर्गत बर्मियों ने अंग्रेजों को एक करोड़ रुपया हर्जाने के रूप में देना स्वीकार किया, अराकान और तेनासरीम के सूबे अंग्रेजों को सौंप दिये, मणिपुर को स्वाधीन राज्य के रूप में मान्यता प्रदान कर दी, आसाम, कचार और जयन्तिया में हस्तक्षेप न करने का वायदा किया तथा आवा में ब्रिटिश रेजीडेंट रखना स्वीकार कर लिया। इसके अलावा बर्मियों को एक व्यावसायिक सन्धि भी करनी पड़ी, जिसके अन्तर्गत अंग्रेजों को बर्मा में वाणिज्य और व्यवसाय के अनिर्दिष्ट अधिकार प्राप्त हो गये।

यन्दबू सन्धि के आधार पर राजनीतिक एवं व्यावसायिक मांगो के फलस्वरूप १८५२ ई. में द्वितीय बर्मी युद्ध छिड़ा। लार्ड डलहौजी ने जो उस समय गवर्नर जनरल था, बर्मा के शासक पर संधि की सभी शर्तें पूरी करने के लिए जोर डाला। बर्मी शासक का कथन था कि अंग्रेज संधि की शर्तों से कहीं ज्यादा की मांग कर रहे हैं। अपनी माँगों को एक निर्धारित तारीख तक पूरा कराने के लिए लार्ड डलहौजी ने कमोडोर लैम्बर्ट के नेतृत्व में एक जहाजी बेड़ा रंगून भेज दिया। ब्रिटिश नौसेना के अधिकारी की तुनुक-मिजाजी के कारण ब्रिटिश फिगेट और एक बर्मी जहाज के बीच गोलाबारी हो गयी। लार्ड डलहौजी ने तत्काल अल्टीमेटम भेज दिया और एडमिरल आस्टेन के नेतृत्व में ब्रिटिश नौसेना ने दक्षिणी बर्मा पर आक्रमण कर दिया। रंगून, मर्तबान, बेसीन, प्रोम और पेगू पर शीघ्र ही कब्जा हो गया। लार्ड डलहौजी, सितम्बर १८५२ ई. में स्वयं बर्मा पहुँचा। बर्मी राजा उसकी शर्तों को स्वीकार करने के लिए उद्यत नहीं हो रहा था उत्तरी बर्मा तक बढ़ना विवेकपूर्ण नहीं समझा, अतएव उसने उत्तरी बर्मा तक बढ़ना विवेकपूर्ण नहीं समझा, अतएव उसने दक्षिणी बर्मा को भारत में मिला लिये जाने की घोषणा कर स्वयं अपनी पहल पर युद्ध बन्द कर दिया। पेगू अथवा दक्षिणी बर्मा पर कब्जा हो जाने से बंगाल की खाड़ी के समूचे तट पर अंग्रेजों का नियंत्रण हो गया।

तृतीय बर्मी-युद्ध ३८ वर्ष बाद १८८५ ई. में हुआ। उस समय थिबा ऊपरी बर्मा का शासक राजा था और मांडले उसकी राजधानी थी। लार्ड डफरिन भारत का गवर्नर-जनरल था। बर्मी शासक जबर्दस्ती दक्षिणी बर्मा छीन लिये जाने से कुपित था और मांडले स्थित ब्रिटिश रेजिडेण्ट तथा अधिकारियों को उन मध्ययुगीन शिष्टाचारों को पूरा करने में झूँझलाहट होती थी जो उन्हे थिबा से मुलाकात के समय पूरी करनी पड़ती थीं। १८५२ ई. की पराजय से पूरी तरह चिढ़े हुए थिबा ने फ्रांसीसियों का समर्थन और सहयोग प्राप्त करने का प्रयास शुरू कर दिया। उस समय तक फ्रांसीसियों ने कोचीन चीन तथा उत्तरी बर्मा के पूर्व में स्थित टेन्किन में, अपना विशाल साम्राज्य कायम कर लिया था। फ्रासीसियों के साथ बर्मियों के मेलजोल तथा थिबा की सरकार द्वारा एक अंग्रेज फर्म पर, जो उत्तरी बर्मा में लट्ठे का रोजगार करती थी, भारी जुर्माना कर देने के कारण भारत सरकार ने १८८५ ई. में तृतीय बर्मी-युद्ध की घोषणा कर दी। युद्ध के लिए अंग्रेजों ने तैयारियाँ पूरी तरह से कर रखी थीं, जबकि थिबा की फ्रांसीसियों से सहायता प्राप्त करने की आशा मृग-मरीचिका सिद्ध हुई। युद्ध घोषणा ९ नवम्बर १८८५ ई. को की गयी और बीस दिनों में ही मांडले पर कब्जा हो गया। राजा थिबा बन्दी बना लिया गया, उसे अपदस्थ कर उत्तरी बर्मा को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया और दक्षिणी बर्मा को मिलाकर एक नया सूबा बना दिया गया, रंगून को उसकी राजधानी बनाया गया। इस प्रकार ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य पूर्वोत्तर में अपनी चरम सीमा तक प्रसारित हो गया। (सर ए. फेरे, हिस्ट्री आफ बर्मा; जी. ई. हार्वे, हिस्ट्री आफ बर्मा)

बलबन, सुल्तान गयासुद्दीन : गुलाम वंश का नवाँ सुल्तान (१२६६-८७)। बलबन मुलतः सुल्तान इल्तुतमिश का तुर्की गुलाम था। अपनी योग्यता और गुणों के कारण वह धीरे-धीरे ऊँचे पदों और प्रतिष्ठा को प्राप्त करता गया। उसकी पुत्री सुल्तान नसीरउद्दीन (१२४६-६६ ई.) को ब्याही थी जिसने उसे अपना मंत्री तथा सहायक नियुक्त किया। सुल्तान के सहायक के रूप में बलबन अपने दामाद के नाम पर १२६६ ई. में उसकी मृत्यु तक दिल्ली सल्तनत का प्रशासन चलाता रहा। उसके बाद वह स्वयं सिंहासन पर बैठ गया और सुल्तान गयासुद्दीन की उपाधि धारण की। उसने बड़ी योग्यता से शासन किया। विद्रोही तुर्की अमीरों को कुचलकर, मेवाती सदृश्य लुटेरों को कठोर दंड देकर, निष्पक्ष न्याय व्यवस्था, जिसमें छोटे-बड़े के साथ कोई भेदभाव नहीं होता था तथा एक बहुत ही कार्य कुशल गुप्तचर व्यवस्था संगठित कर, जो उसके राज्य में होनेवाली सभी बातों से उसे अवगत रखती थी, बलबन ने राज्य में शान्ति-व्यवस्था पुनः कायम की।

बलवर्मा : आर्यावर्त का एक राजा, जिसका राज्य प्रयागन स्तम्भलेख के अनुसार समुद्रगुप्त (३३०-८० ई.) ने बलपूर्वक उन्मूलित कर दिया। बलवर्मा अथवा उसके राज्य की अब तक पहचान नहीं हो सकी है।

बलराम सेठ : जसवंत राव होल्कर (१७९८-१८११) का मंत्री। जसवंतराव की मृत्यु हो जाने पर बलराम सेठ ने होल्कर की उपपत्नी (रखैल) तुलसीबाई का समर्थन किया और तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (१८१७-१८ ई.) छिड़ने तक उसे सत्तासीन रखा। उसके बाद दोनों विस्मृति के गर्भ में विलीन हो गये।

बलहारा : संस्कृत शब्द 'बल्लभ' का अरबी रूपान्तर, जिसका प्रयोग अरब लेखकों ने मान्यखेट अथवा मालखेड़ के राष्ट्रकूट राजाओं के लिए किया है। यह पदवी कदाचित् राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम के लिए प्रयुक्त होती थी, जिसने लगभग ६२ वर्ष (८१५-७७ई.) तक राज्य किया था।

बलि : कर अथवा अतिरिक्त अधिभार, यह उपज के छठें हिस्से (भाग) के अतिरिक्त लगाया जाता था। मौर्य शासक भूमिकर के रूप में इसे इकट्ठा करते थे।

बलूचिस्तान : भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिम में किरथर पर्वत-श्रृंखला के उस पार स्थित। भौगोलिक दृष्टि से यह भारत के बाहर है लेकिन राजनीतिक दृष्टि से प्राय: भारतीय साम्राज्य का भाग रहा है। इसे सिकन्दर ने जीता था, तदनन्तर सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य (३२२ ई.पू.-२९८ ई.पू.) को सौंप दिया और यह मौर्य साम्राज्य का अंग बन गया। उसके बाद यह काफी लम्बे अर्से तक किसी भी भारतीय शासनतन्त्र के अंतर्गत नहीं रहा। १५९५ ई. में इसे अकबर ने जीत कर मुगल साम्राज्य का अंग बना लिया। अठारहवीं शताब्दी के अन्त में यह अफ़गानिस्ता का आश्रित राज्य बन गया।

१८३६ ई. में अफ़गानिस्तान पर आक्रमण करने के लिए ब्रिटिश भारतीय सेना इस क्षेत्र से गुजरी, और १८४३ ई. तक यह ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के नियंत्रण में आ गया। १८४८ ई. में इसकी राजधानी क्वेटा को औपचारिक रूप में अंग्रेजों ने अधिकृत कर लिया। १९४७ ई. में भारत के विभाजन के उपरान्त बलूचिस्तान पश्चिम पाकिस्तान का भाग बन गया।

बलोचपुर की लड़ाई : १६२३ ई. में जहाँगीर की शाही फौजों और उसके पुत्र शाहजहाँ के बीच, जिसने बादशाह के विरुद्ध बगावत कर दी थी, हुई। अन्त में शाहजहाँ पराजित हो गया और उसे दक्षिण की ओर भागना पड़ा।

बल्लाल सेन : बंगाल के सेन वंश का (११५८-७९ ई.) प्रमुख शासक। उसने उत्तरी बंगाल पर विजय प्राप्त की और कदाचित् मगध के पालों के विरुद्ध भी अभियान चलाया और बंगाल में पालवंश के शासन का अंत कर दिया। वह विद्वान् और संस्कृत का ख्यातिप्राप्त लेखक था। उसकी दो कृतियाँ-दानसागर और अद्भुत सागर आज भी उपलब्ध हैं, जिनके द्वारा उसने बंगाल में सनातन धर्म को पुनरुज्जीवित किया। उसे बंगाल के ब्राह्मणों और कायस्थों में 'कुलीन प्रथा' का प्रवर्तक माना जाता है।

बसई (बेसीन) : बम्बई के निकट, भारत का पश्चिमी तटवर्ती एक बन्दरगाह, जिसपर १६ वीं शताब्दी के आरम्भ में पुर्तगालियों ने अधिकार कर लिया। मराठों ने लगभग १७७० ई. में इसे पुनः प्राप्त कर लिया। ईस्ट इंडिया कम्पनी इसको अपने कब्जे में करना चाहती थी। इस उद्देश्य से बम्बई की सरकार ने १७७२ ई. में पेशवा नारायणराव की मृत्यु के उपरान्त मराठों की घरेलू राजनीति में हस्तक्षेप शुरू कर दिया। इस कारण अन्त में प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (१७७५-८२ ई.) में हुआ, जिसके बाद भी बसई पर मराठों का ही अधिकार रहा।

बसई की संधि : दिसम्बर ३१, १८०२ ई. को पेशवा बाजीराव द्वितीय और अंग्रेजों के बीच हुई, जिसके द्वारा पेशवा ने ईस्ट इंडिया कम्पनी का आश्रित होना स्वीकार कर लिया। यह एक सामान्य प्रतिरक्षात्मक समझौता था, जिसका उद्देश्य भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के इलाकों और पेशवा के राज्यक्षेत्र को पारस्परिक सुरक्षा प्रदान करना था। कम्पनी ने पेशवा के इलाके में कम से कम ६ बटालियन सैनिक रखने तथा पेशवा की उसके सभी शत्रुओं से रक्षा करने का उत्तरदायित्व ग्रहण कर लिया। बदले में पेशवा ने कम्पनी को २६ लाख रुपये की वार्षिक आर्थिक सहायता देना, तथा अपनी सेवा में अंग्रेजों के शत्रु यूरापियनों की न रखना, सूरत से अपने सारे दावों को छोड़ देना, किसी विदेशी ताकत से बिना ब्रिटिश सरकार की सलाह के कोई सम्बन्ध न रखना और निजाम तथा गायकवाड़ से अपने विवादों में अंग्रेजों को मध्यस्थ बनाना स्वीकार किया।

इस संधि के तुरन्त बाद ब्रिटिश भारतीय सेना ने पेशवा बाजीराव द्वितीय को पूना में उसकी गद्दी पर पुनः प्रतिष्ठित कर दिया। किन्तु उक्त संधि का वास्तविक परिणाम यह निकला कि पेशवा ने अपनी स्वाधीनता के साथ ही साथ मराठा सरदारों की स्वाधीनता की भी बलि चढ़ा दी। मराठों ने, विशेषकर शिन्दे और होल्कर ने इस संधि पर बहुत आक्रोश प्रकट किया। उनके विरोध तथा स्वयं पेशवा द्वारा इसकी अवहेलना किये जाने के परिणामस्वरूप द्वितीय मराठा-युद्ध (१८०३-५ ई. में) हुआ और अन्त में मराठों को ब्रिटिश प्रभुसत्ता स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ा।

बहलोल लोदी : १४५१ से ८९ ई. तक दिल्ली का सुल्तान। वह लोदी कबीले का अफगान था, इसलिए लोदी उसका उपनाम बन गया। १४५१ ई. में जब सैयद राजवंश के सुल्तान आलम शाह ने दिल्ली का तख्त छोड़ा, उस समय बहलोल लाहौर और सरहिन्द का सूबेदार था। उसने अपने वजीर हमीद खॉ की मदद से दिल्ली के तख्त पर कब्जा कर लिया। वह दिल्ली का पहला अफगान सुल्तान था, जिसने लोदी राजवंश की शुरूआत की। बहलोल के सुल्तान बनने के समय दिल्ली सल्तनत नाममात्र की थी। बहलोल शूरवीर, युद्धप्रिय और महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने जौनपुर, मेवात, सम्भल तथा रेवाड़ी पर अपनी सत्ता फिर से स्थापित की और दोआब के सरदारों का दमन किया। उसने ग्वालियर पर भी कब्जा कर लिया। इस प्रकार उसने दिल्ली सल्तनत का पुराना दरबार एक प्रकार से फिरसे कायम कर दिया। वह गरीबों से हमदर्दी रखता था और विद्वानों का आश्रयदाता था।

दरबार में शालीनता और शिष्टाचार के पालन पर जोर देकर तथा अमीरों को अनुशासन में बांध करके उसने सुल्तान की प्रतिष्ठा को काफी ऊँचा उठा दिया। उसने दोआब के विद्रोही हिन्दुओं का कठोरता के साथ दमन किया, बंगाल के सूबेदार तोगरल खाँ को हराकर मार डाला और उसके प्रमुख समर्थकों को बंगाल की राजधानी लखनौती के मुख्य बाजार में फांसी पर लटकवा दिया। उपरांत अपने पुत्र बुगरा खां को बंगाल का सूबेदार नियुक्त करके यह चेतावनी दे दी कि उसने भी यदि विद्रोह करने का प्रयास किया तो उसका भी हश्र वही होगा जो तोगरल खां का हो चुका है।

बलबन ने अपना ध्यान सल्तनत की सुरक्षा पर केन्द्रित किया, जिसके लिए उस समय पश्चिमोत्तर सीमा पर मंगोलों से खतरा था। वे किसी भी समय भारत पर आक्रमण कर सकते थे। अतः बलबन ने अपने बड़े लड़के मुहम्मद खां को मुल्तान का हाकिम नियुक्त किया और स्वयं भी सीमा के आसपास ही पड़ाव डालकर रहने लगा। उसका डर बेबुनियाद नहीं था। मंगोलों ने १२७९ ई. में भारत पर आक्रमण करने का प्रयास किया, किन्तु शाहजादा मुहम्मद खां ने उन्हें पीछे खदेड़ दिया। १२८५ ई. में पुनः आक्रमण कर वे मुल्तान तक बढ़ आये, और शाहजादे पर हमला करके उसे मार डाला। सुल्तान के लिए, जो अपने बड़े बेटे को बहुत ही प्यार करता था और यह उम्मीद लगाये बैठा था कि वह उसका उत्तराधिकारी होगा, यह भीषण आघात था। बलबन की अवस्था उस समय अस्सी वर्ष हो चुकी थी और पुत्रशोक में उसकी मृत्यु हो गयी। उसकी गणना दिल्ली के सबसे शक्तिशाली सुल्तानों में होती है। (बरनी कृत तारिखे फिरोजशाही)

बसी (बुसी), मारकुइस डि : एक प्रमुख फ्रांसीसी सेनापति, जिसने कर्नाटक में हुए आंग्ल-फ्रांसीसी युद्धों में हिस्सा लिया। उसका पुरा नाम चार्ल्स जोसेफ पार्टस्सियर, मारकुइस डि बुसी था। १७५१ ई. में डूप्ले के आदेशानुसार वह नये निजाम मुजफ्फरजंग को पदासीन करने उसकी राजधानी औरंगाबाद ले गया। मुजफ्फरजंग की मृत्यु के बाद सलावतजंग के गद्दीनशीन होने पर बुसी नये निजाम का परामर्शदाता बना। उसकी सरकार का उसने सात वर्षों तक बड़ी कुशलता के साथ संचालन किया। १७५३ ई. में बुसी ने निजाम सलावतजंग को सलाह दी कि वह फ्रांसीसी सेना का खर्च चलाने के लिए, जो निजाम के शत्रुओं से उसकी रक्षा करने के लिए तैनात की गयी थी और जिसके आधार पर निजाम के दरबार में फ्रांसीसी प्रभुत्व स्थापित हो गया था, उत्तरी सरकार का राजस्व उसके सुपुर्द कर दे। तीसरा आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध (१७५६-६३ ई.) शुरू होने पर १७५८ ई. में काउण्ट डि लाली (दे.) ने बुसी को निजाम के दरबार से वापस बुला लिया, जिससे निजाम के दरबार में फ्रांसीसी प्रभुत्व समाप्त हो गया। सर आयरकूट के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने फ्रांसीसियों को १७६० ई. में बिन्दवास की लड़ाई (दे.) में हराकर उत्तरी सरकार पर भी कब्जा कर लिया। इस लड़ाई में बुसी बन्दी बना लिया गया। बाद में रिहा होकर वह फ्रांस वापस लौट गया।

१७८३ ई. में उसे अंग्रेजों के विरुद्ध हैदरअली की सहायता करने के लिए पुनः भारत भेजा गया। इस समय तक बुसी वृद्ध हो चला था और बीमार रहता था। उसके आने के पहले ही हैदरअली की मृत्यु हो गयी। ऐसी परिस्थिति में वह घटनाक्रम को प्रभावित नहीं कर सका और अन्त में सेवानिवृत्त होकर फ्रांस लौट गया। निजाम सलावतजंग के परामर्शदाता के रूप में उसे प्रचुर धन प्राप्त हुआ था। उसके आधार पर उसने अपना शेष जीवन सुख से बिताया।

बहमनी राज्य और राजवंश : दक्षिण में बहमनी राज्य और राजवंश का आरम्भ दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१ ई.) के एक अधिकारी हसन (उपनाम जफरशाह) ने १३४७ ई. में किया। तुगलक के अत्याचारों और उसकी सनकों के कारण दक्षिण के मुसलमान अमीरों ने विद्रोह कर दिया। हसन ने इस विद्रोह का फायदा उठाया और वहाँ अपना राज्य स्थापित कर लिया। हसन अपने को फारस के वीर योद्धा बहमन का वंशज मानता था, इसीलिए उसका वंश बहमनी कहलाने लगा। तख्त पर बठने के बाद हसन ने अलाउद्दीन बहमन शाह का खिताब धारण कर लिया और अपनी राजधानी कुलबर्ग अथवा गुलबर्ग में बनायी। उसने ११ वर्ष (१३४७-५८ ई.) शासन किया। उसकी मृत्यु के समय बहमनी राज्य उत्तर में पेनगंगा से दक्षिण में कृष्णा नदी के किनारे तक और पश्चिम में गोवा से पूर्व में भोंगिर तक फैल गया था।

बहमनी राजवंश में हसन के अतिरिक्त १३ अन्य सुल्तान हुए थे। इनमें मुहम्मद प्रथम (१३५८-७३ ई.) मुजाहिद (१३७३-७७ ई.); दाउद (१३७८ ई.); मुहम्मद द्वितीय (१३७८-९७ ई.); ग्यासुद्दीन (१३९७ ई.); शम्सुद्दीन (१३९७ ई.); फिरोज (१३९७-१४२२ ई.) अहमद द्वितीय (१४२२-३५ ई.); अलाउद्दीन (१४३५-५७ ई.); हमायू (१४५७-६१ ई.); निजाम (१४६१-६३ ई.); मुहम्मद तृतीय (१४६३-८२) और महमूद (१४८२-१५१८ ई.) शामिल हैं।

बहमनी सल्तनत की अपने पड़ोसी विजयनगर के हिन्दू राज्य से लगातार अनबन चलती रही। विजयनगर राज्य उस समय तुंगभद्रा के दक्षिण और कृष्णा के उत्तरी क्षेत्र में फैला हुआ था और उसकी पश्चिमी सीमा बहमनी राज्य से मिली हुई थी। विजयनगर राज्य के दो मजबूत किले मुगदल और रायचूर बहमनी सीमा के निकट स्थित थे। इन किलों पर बहमनी सल्तनत और विजयनगर राज्य दोनों दाँत लगाये हुए थे। इन दोनों राज्यों में धर्म का अन्तर भी था। बहमनी राज्य इस्लामी और विजयनगर राज्य हिन्दू था। बहमनी सल्तनत की स्थापना के बाद ही इनदोनों राज्यों में लड़ाइयाँ शुरू हो गयीं और वे तबतक चलती रहीं, जबतक बहमनी सल्तनत कायम रही। बहमनी सुल्तानों द्वारा पड़ोसी हिन्दू राज्य को नष्ट करने के सभी प्रयास निष्फल सिद्ध हुए, यद्यपि इन युद्धों में अनेक बार बहमनी सुल्तानों की विजय हुई और रायचूर के दोआब पर विजयनगर के राजाओं के मुकाबले में बहमनी सुल्तानों का अधिकार अधिक समय तक रहा।

बहमनी सुल्तानों में तख्त के लिए प्रायः रक्तपात होता रहा। चार सुल्तानों को कत्ल कर दिया गया, दो अन्य को गद्दी से जबरन उतारकर अंधा कर दिया गया। १४ सुल्तानों में से केवल पाँच अपनी मौत से मरे। नवें सुल्तान अहमद ने राजधानी गुलबर्ग से हटाकर बीदर बनायी, जहाँ उसने अनेक आलीशान इमारतों का निर्माण कराया।

बहमनी राज्य की आबादी में मुसलमान अल्पसंख्यक थे, इलिए सुल्तानों ने राज्य के बाहर के मुसलमानों को वहाँ आकर बसने के लिए प्रोत्साहित किया। परिणामस्वरूप बहुत से विदेशी मुसलमान वहाँ जाकर बस गये जो अधिकतर शिया थे। उनमें से बहुत से लोगों को राज्य के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया गया। विदेशी मुसलमानों के बढ़ते हुए प्रभाव से ईर्ष्यालु होकर दक्खिनी और अबीसीनियाई मुसलमान, जो ज्यादातर सुन्नी थे, उनसे शत्रुता रखने लगे। दसवें सुल्तान अलाउद्दीन द्वितीय (१४३५-५७ ई.) के शासनकाल में दक्खिनी और विदेशी मुसलमानों के संघर्ष ने अत्यन्त उग्र रूप धारण कर लिया। १४८१ ई. में १३ वें सुल्तान मुहम्मद तृतीय के राज्यकाल में मुहम्मद गवाँ को फाँसी दे दी गयी जो ग्यारहवें सुल्तान हमायूँ के समय से बहमनी सल्तनत का बड़ा वजीर था और उसने राज्य की बड़ी सेवा की थी। मुहम्मद गवाँ की मौत के बाद बहमनी सल्तनत का पतन शुरू हो गया। अगले और आखिरी सुल्तान महमूद के राज्यकाल में बहमनी राज्य के पाँच स्वतन्त्र राज्य बरार, बीदर, अहमदनगर, गोलकुंडा और बीजापुर बन गये, जिनके सूबेदारों ने अपने को स्वतन्त्र सुल्तान घोषित कर दिया। इन पाँचों राज्यों ने १७ वीं शताब्दी तक अपनी स्वतन्त्रता बनाये रखी। तब इन सबको मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया।

बहमनी सल्तनत से भारत को कोई खास फायदा नहीं पहुँचा। कुछ बहमनी सुल्तानों ने इस्लामी शिक्षा को प्रोत्साहन दिया और राज्य के पूर्वी भाग में सिंचाई का प्रबन्ध किया। लेकिन उनकी लड़ाइयों, नरसंहार और आगजनी से प्रजा को बहुत नुकसान पहुँचा। इस सल्तनत में साधारण प्रजा की दशा बहुत दयनीय थी, जैसा कि रूसी व्यापारी एथानासियस निकितिन ने लिखा है, जिसने बहमनी राज्य का चार वर्ष (१४७०-७४ ई.) तक भ्रमण किया। उसने लिखा है कि भूमि पर जनसंख्या का भार अत्यधिक है, जबकि अमीर लोग समृद्धि और ऐश्वर्य का जीवन बिताते हैं। वे जहाँ कहीं जाते हैं, उनके लिए चांदी के पलंग पहले से ही रवाना कर दिये जाते हैं। उनके साथ बहुत से घुड़सवार और सिपाही, मशालची और गवैये चलते हैं। बहमनी सुल्तानों ने गाविलगढ़ और नरनाल में मजबूत किले बनवाये और गुलवर्ग एवं बीदर में कुछ मस्जिदें भी बनवायीं। बहमनी सल्तनत के इतिहास से प्रकट होता है कि हिन्दू आबादी को सामूहिक रूप से जबरन मुसलमान बनाने का सुल्तानों का प्रयास किस प्रकार विफल सिद्ध हुआ। (मीडोज टेलर- (मैन्युअल आफ इण्डियन हिस्ट्री; किंग-हिस्ट्री आफ दि बहमनी किंगडम् और निकितिन-इण्डिया इन दि फिफटींथ सेंचुरी)

बहराम ऐबा : उपनाम किशलू खाँ। वह सुल्तान मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१ई.) के शासनकाल में उच्च, सिन्ध और मुल्तान का नाजिम था। १३२९ ई. में बहराम ऐबा ने सुल्तान के विरुद्ध उस समय विद्रोह किया जब वह देवगिरि में था। सुल्तान ने वहाँ से मुल्तान की ओर कूच किया और बहराम को पराजित करके बंदी बना लिया। सुल्तान ने उसका सिर काट कर शहर के फाटक पर टंगवा दिया जिससे किसी को फिर विद्रोह करने का साहस न हो।

बहराम खां : सुल्तान मुहम्मद तुगलक का दूध-भाई। सुल्तान ने उसे गयासुद्दीन बहादूर शाह के साथ पूर्वी बंगाल का सूबेदार बनाया। जब गयासुद्दीन ने सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह किया, बहराम खां ने उसे पराजित कर मार डाला। इसके बाद बहराम पूर्वी बंगाल का एकमात्र सूबेदार बन गया। १३३६ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी और उसके बाद ही पूर्वी बंगाल दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र हो गया।

बहाई सम्प्रदाय : बहाउल्लाह (१८१७-९२) के द्वारा प्रबतित। उसका जन्म फारस (ईरान) में हुआ था, परन्तु शाह के आदेश से उसे देश से निर्वासित कर दिया गया। इस सम्प्रदाय के मुख्य सिद्धांत हैं: ईश्वर अज्ञेय है, वह केवल अपने पैगम्बरों द्वारा अपने को व्यक्त करता है; इलहाम किसी एक युग तक सीमित नहीं है, वह हर युग में होता रहता है; हर हजार वर्ष के बाद पैगम्बरों का जन्म होता रहता है; वर्तमान युग के लिए ईश्वरीय आदेश है कि समस्त मानवजाति को एक मजहब तथा एक विश्व व्यवस्था के अंतर्गत संगठित कर दो। इस सम्प्रदाय का सबसे पहला मुखिया उसका संस्थापक बहाउल्लाह था। उसके बाद यह पद उसके वशजों को उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त होना रहा। कट्टर मुसलमान बहाई सम्प्रदाय को नास्तिकों का सम्प्रदाय मानते हैं, फिर भी भारत तथा पाकिस्तान सहित ४० देशों में इस सम्प्रदाय के अनुयायी मिलते हैं। इस संप्रदाय की ओरसे अंग्रेजी में 'दि बहाई वर्ल्ड' नाम का एक पत्र भी प्रकाशित होता है।

बहाउद्दीन गुरशास्प : सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक (१३२०-२५ ई.) का भांजा। जिस समय सुल्तान मुहम्मद तुगलक १३२५ ई. में गद्दी पर बैठा, बहाउद्दीन दक्षिण में सागर का हाकिम था। उसने मुहम्मद तुगलक को दिल्ली का सुल्तान मानने से इन्कार कर इसके विरुद्ध १३२६-२७ ई. में विद्रोह कर दिया। वह पराजित करके बंदी बना लिया गया और उसी रूप में दिल्ली भिजवा दिया गया, जहाँ जीवित दशा में ही उसकी खाल खिंचवा ली गयी और उसके शव को दिल्ली में घुमाया गया, ताकि राजद्रोह करनेवालों को चेतावनी मिल जाय।

बहादुरपुर की लड़ाई : फरवरी १६५८ ई. में दारा शिकोह के सबसे बड़े लड़के सुलेमान और बादशाह शाहजहाँ के दूसरे लड़के शुजा के बीच में हुई। शुजा ने शाहजहाँ की बीमारी की खबर मिलते ही अपने को बंगाल का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। इस लड़ाई में शहजादा शुजा पराजित हुआ और वह बंगाल वापस लौट गया।

बहादुर शाह : गुजरात का सुल्तान (१५२६-३७ ई.)। उसने मालवा के सुल्तान को पराजित कर उसके राज्य को १४३१ ई. में अपने राज्य में मिला लिया। उसने मेवाड़ पर भी चढ़ाई और १५३४ ई. में चित्तौड़ पर कब्जा कर लिया। लेकिन एक वर्ष बाद मुगल बादशाह हुमायूँ ने उसे पराजित कर दिया। बहादूर शाह ने गोवा भागकर अपने को बचाया। कुछ समय बाद हुमायूँ गुजरात से लौट गया और उसके बाद बहादूर शाह ने फिर से अपने राज्य पर अधिकार जमा लिया। मुगलों के आक्रमण के कारण उसने पुर्तगालियों को बेसीन सौंप कर उनसे सन्धि कर ली। जब बहादूर शाह ने अपने राज्य पर पूरी तरह फिर से दखल कर लिया तब उसमें और पुर्तगालियों में उन्हें दी गयी रियायतों को लेकर मतभेद पैदा हो गया, जिन्हे दूर करने के लिए पुर्तालियों ने बहादूर शाह को पुर्तगाली गवर्नर नूनो डा. कुन्हा से फरवरी १५३७ ई. में उसके जहाज पर जाकर मुलाकात करने पर सहमत कर लिया। लेकिन पुर्तगालियों ने बहादूर शाह को धोखा देकर जहाज से गिरा कर डुबो दिया और उसके उसके साथियों को मार डाला।

बहादूर शाह : १६वीं शताब्दी के अन्त में खानदेश का शासक। १६०० ई. में बादशाह अकबर ने जिस समय असीरगढ़ के किले का घेरा डाला, उस समय बहादूर शाह ने बडी योग्यतासे ६ महीने तक किले की रक्षा की, लेकिन बाद में बादशाह अकबर द्वारा व्यक्तिगत सुरक्षा का आश्वासन पाकर वह मुगल खेमे में जाकर सुलह की बातचीत करने के लिए राजी हो गया। लेकिन अकबर ने अपने वायदे को तोड़कर बहादूर शाह को नजरबन्द कर लिया और उसे किले में अपने आदमियों को आत्मसमर्पण करने का लिखित आदेश भेजने के लिए बाध्य किया। अकबर ने इस तरह छल से किले पर कब्जा कर लिया।

बहादुर शाह प्रथम : दिल्ली का सातवाँ मुगल बादशाह (१७०७-१२ ई.)। वह औरंगजेब का दूसरा लड़का था, जो १७०७ ई. में उसके उत्तराधिकारी के रूप में गद्दी पर बैठा। औरंगजेब के मरने के बाद उत्तराधिकार के युद्ध में उसके उस समय दो जीवित भाई-आजम और कामबख्श पराजित हुए और मारे गये। शाहजादे के रूप में बहादूर प्रथम मुअज्जम कहलाता था। वह शाह आलम के नाम से भी प्रसिद्ध है। तख्त पर बैठने के बाद उसने बहादूर शाह का खिताब धारण किया, लेकिन वह अपने पहले नाम शाह आलम अथवा आलम शाह के नाम से भी पुकारा जाता था। उसके पिता ने अपने जीवन काल में उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया था, कुछ वर्षों तक तो उसे पिता की कैद में भी रहना पड़ा। कठोर दमन के कारण उसका व्यक्तित्व कुंठित हो चुका था और गद्दी पर बैठने के समय संकट की स्थिति में मुगल साम्राज्य की रक्षा करने अथवा उसे सुदृढ़ बनाने की क्षमता उसमें नहीं थी। फिर भी उसने पांच वर्ष के अपने अल्पकालीन शासन में मुगल साम्राज्य को फिर से सुदृढ़ बनाने का प्रयास किया। उस समय मुगल साम्राज्य को मुख्यरूप से तीन शत्रुओं से खतरा था; यथा-राजपूत, मराठा और सिख। उसने राजपूतों को रियायतें देकर उनसे सुलह कर ली। शम्भूजी के पुत्र साहू को रिहा कर मराठों की शत्रुता को मिटाने का प्रयास किया। साहू के महाराष्ट्र लौटने के बाद मराठों में फूट पैदा हो गयी और गृहयुद्ध छिड़ जाने के कारण कुछ समय के लिए वे दिल्ली के मुगल साम्राज्य को परेशान करने की स्थिति में नहीं रहे। लेकिन बादशाह ने सिखों के विरुद्ध सख्ती से काम लिया और उनको तथा उनके नेता वीर बन्‍दा वैरागी को पराजित करके उन्‍हें कुछ समय के लिए कुचल दिया। लेकिन इसके बाद ही १७१२ ई. में बहादूर शाह प्रथम की मृत्यु हो गयी।

बहादूर शाह द्वितीय : दिल्ली का १९ वाँ और अंतिम मुगल बादशाह (१८३७-५८ ई.)। अपने पिता और पूर्ववर्ती बादशाह अकबर द्वितीय की भाँति बहादूर शाह द्वितीय भी ईस्ट इंडिया कम्पनी से पेंशन पाता रहा और अपनी स्थिति में किसी तरह का सुधार नहीं कर पाया। १८५७ ई. में सिपाही-विद्रोह शुरू होने के समय बहादूर शाह ८२ वर्ष का वृद्ध था, और स्वयं निर्णय लेने कीं क्षमता खो चुका था। विद्रोहियों ने उसको आजाद हिन्दुस्तान का बादशाह बनाया। इस कारण अंग्रेज उससे कुपित हो गये और उन्होंने उससे शत्रुवत् व्यवहार किया। सितम्बर १८५७ में अंग्रेजों ने दुबारा दिल्ली पर कब्जा कर लिया और बहादूर शाह द्वितीय को गिरप्तार कर उसपर मुकदमा चलाया तथा उसे रंगून निर्वासित कर दिया, जहाँ ८७ वर्ष की अवस्था में १८६२ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। जिस दिन बहादूर शाह द्वितीय पकड़ा गया, उसी दिन उसके दो बेटों और पोते को भी गिरफ्तार करके गोली मार दी गयी। इस प्रकार बादशाह अकबर के वंश का अंत हो गया।

बहार खां लोहानी : १६वीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश में बिहार का स्वतंत्र अफगान शासक। उसने फरीद खाँ को १५२२ ई. में अपनी सेवा में नियुक्त किया, जो बाद में शेर शाह के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बहार खाँ ने फरीद खाँ को 'शेर खाँ' का खिताब दिया था, क्योंकि उसने बिना किसी हथियार के शेर को मार डाला था। बहार खाँ ने शेर खाँ को अपना नायब बनाया और अपने नाबालिग लड़के जलाल खाँ का उस्ताद भी नियुक्त किया। इस प्रकार बहार खाँ ने शेर खाँ के भावी उत्कर्ष का पथ प्रशस्त कर दिया।

बांगला देश : पहले पूर्वी बंगाल और पूर्वी पाकिस्तान के नामों से विख्यात। इसमें ढाका, राजशाही तथा चटगाँव डिवीजनों के अन्तर्गत १५ जिले हैं। पूर्वी बंगाल को लार्ड कर्जन ने सर्वप्रथम बंगाल से अलग करके पूर्वी बंगाल एवं आसाम का नया प्रांत बनाया। बंगाल की जनता ने इसका घोर विरोध किया। बंगालियों के विचार में उनकी विकासशील राष्ट्रीय भावना को कुचलने के लिए बंग-भंग किया गया था। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में बंग-भंग विरोधी जबर्दस्त आंदोलन शुरू हुआ। जगह-जगह सभाएँ आयोजित की गयीं, प्रदर्शन किये गये, अंग्रेजी माल का बहिष्कार किया गया और स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग को प्रोत्साहन प्रदान किया गया। जब इन विरोध-प्रदर्शनों का लार्ड कर्जन पर असर पड़ता न दिखाई दिया, तब बंगाल में आतंकवादी आन्दोलन शुरू हो गया। अंग्रेज सरकार ने एक ओर आंदोलनकारियों का कठोर दमन प्रारम्भ किया, दूसरी ओर उसने मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध भड़काना शुरू किया, क्योंकि पूर्वी बंगाल में मुसलमानों का भारी बहुमत था। लार्ड कर्जन के ब्रिटेन वापस चले जाने के बाद १९१२ ई. में बंग-भंग रद्द कर दिया गया और पूर्वी बंगाल को पश्चिमी बगाल में पुनः मिला कर पूर्ववत् एक प्रान्त बना दिया गया।

१९४७ ई. में भारत को स्वाधीनता प्रदान किये जाने पर जब देश का बँटवारा हुआ, तब पूर्वी बंगाल को पुनः पश्चिमी बंगाल से अलग करके पाकिस्तान का अंग बना दिया गया, और उसे 'पूर्वी पाकिस्तान' कहा जाने लगा। दिसम्बर १९७१ ई. में 'पूर्वी पाकिस्तान' पाकिस्तान से अलग होकर सार्वभौम प्रभुता-सम्पन्न स्वतंत्र देश बन गया और उसका नाम बदलकर 'बांगला देश' रख दिया गया।

बांसवाड़ा : राजपूताना और गुजरात की सीमा पर स्थित एक राजपूत रियासत, जहाँ उदयपुर के राणाओं की एक शाखा का राज्य था। इसने ईस्ट इंडिया कम्पनी की अधीता स्वीकार कर ली और १८१८ ई. में आश्रित संधि द्वारा ब्रिटिश संरक्षण प्राप्त कर लिया।

बाघ : मध्य भारत में ग्वालियर के निकट स्थित यह स्थान शैलगृहों में उत्कीर्ण भित्तिचित्रों के लिए प्रसिद्ध है। ये भित्तिचित्र अजंता शैली के हैं, परन्तु स्थान की दुर्गमता के कारण उतने प्रसिद्ध नहीं हैं।

बाजबहादूर : मालवा का शासक, जो अकबर के सेनापति अहमद खाँ और पीरमुहम्मद से १५६१-६२ ई. में पराजित हो गया। बाजबहादुर ने शीघ्र ही मालवा पुनः प्राप्त कर लिया और मुगलों के साथ कुछ समय तक लड़ाई जारी रखी, किन्तु अन्त में पुनः पराजित हुआ और मालवा से भगा दिया गया। उसे कुछ समय के लिए मेवाड़ के राणा के यहाँ शरण मिली। किन्तु फरवरी १५६८ ई. में चितौड़ के पतन के पश्चात् उसने बादशाह अकबर को आत्मसमर्पण कर दिया। रूपमती के साथ जूड़े हुए उसके प्रेम सम्बन्ध ने कहानी का रूप ले लिया है। वह सुरुचिपूर्ण व्यक्ति था और उसने मालवा की राजधानी मांडू में कुछ अच्छी इमारतें बनवायीं। बाद में बादशाह अकबर की सेवा में गायक के रूप में उसने बड़ी ख्याति अर्जित की।

बाजीराव प्रथम : मराठा राज्य का दूसरा पेशवा (१७२०-४० ई.), जिसकी नियुक्ति उसके पिता बालाजी विश्वनाथ के उत्तराधिकारी के रूप में राजा साहू (दे.) ने की थी। साहू ने राजकाज से अपने को करीब-करीब अलग कर लिया था और मराठा राज्यके प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव प्रथम देखता था। वह महान् राजनायक और योग्य सेनापति था। उसने अपनी दूर दृष्टि से देख लिया था कि मुगल साम्राज्य छिन्न भिन्न होने जा रहा है और उसने महाराष्ट्र क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुगल साम्राज्य के स्थान पर हिन्दू-पद-पादशाही स्थापित करने की योजना बनायी थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर भारत भेजा जिससे पतनोन्‍मुख मुगल साम्राज्य की जड़ पर अंतिम प्रहार किया जा सके। उसने १७२३ ई. में मालवा पर आक्रमण किया और १७२४ ई. में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से गुजरात जीत लिया।

लेकिन मराठा सरदारों का एक वर्ग उत्तर भारत में मराठा शक्ति के प्रसार की इस नीति का विरोधी था, जिसका नेतृत्व सेनापति त्र्यम्बक राव दाभाड़े कर रहा था। बाजीराव ने घबोई के युद्ध में दाभाड़े को पराजित कर उसका वध कर दिया। १७३१ ई. में निजाम के साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा पेशवा को उत्तर भारत में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी और दक्षिण भारत में निजाम को इसी प्रकार की छूट मिल गयी। बाजीराव प्रथम का अब महाराष्ट्र में कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और राजा साहू का उसके ऊपर केवल नाममात्र का नियंत्रण था। इन परिस्थितियों में बाजीराव प्रथम ने पेशवा पद को पैतृक उत्तराधिकारी के रूप में अपने परिवार के लिए सुरक्षित कर दिया और उत्तर भारत में मराठा शक्ति के प्रसार की अपनी योजनाओं को फिर से आगे बढ़ाया। उसने आमेर के राजपूत राजा और बुन्देलों से गठबंधन कर लिया। १७३७ ई. में उसकी विजयी सेनाएँ दिल्ली के पास पहुँच गयीं। मुगल बादशाह मुहम्मदशाह (१७१९-४८ ई.) ने घबड़ा कर हैदराबाद के निजाम को बुलाया जिसने मराठों से की गयी १७३१ ई. वाली संधि का उल्लंघन कर बाजीराव प्रथम का बढ़ाव रोकने के लिए अपनी सेना उत्तर भारत में भेज दी। पेशवा ने निजाम की सेना को भोपाल के निकट युद्ध में पराजित कर दिया और उसे फिर सन्धि करने को मजबूर किया, जिसके द्वारा मराठों को केवल मालवा का क्षेत्र ही नहीं, वरन नर्मदा और चम्बल के बीच का क्षेत्र भी मिल गया। इस सन्धि की पुष्टि मुगल बादशाह ने की और हिन्दुस्तान के बड़े हिस्से पर मराठों का आधिपत्य हो गया।

१७३९ ई. में बाजीराव प्रथम ने पुर्तगालियों से साष्टी और बसई का इलाका छीन लिया। लेकिन बाजीराव प्रथम को अनेक मराठा सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ रहा था; विशेषरूप से उन सरदारों का जो क्षत्रिय थे और ब्राह्मण पेशवा की शक्ति बढ़ने से ईर्ष्या करते थे। बाजीराव प्रथम ने पुश्तैनी मराठा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए अपने समर्थकों में से नये सरदार नियुक्त किये और उन्हें मराठों द्वारा विजित नये क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया। इस प्रकार मराठा मंडल की स्थापना हुई जिसमें ग्वालियर के शिन्दे, बड़ोदा के गायकवाड़, इन्दौर के होल्कर और नागपुर के भोंसला शासक शामिल थे। इन सबके अधिकार में काफी विस्तृत क्षेत्र था। इन लोगों ने बाजीराव प्रथम का समर्थन कर मराठा शक्ति के प्रसार में सहयोग दिया। लेकिन इनके द्वारा जिस सामन्तवादी व्यवस्था का बीजारोपण हुआ, उसके फलस्वरूप अन्त में मराठों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी। यदि बाजीराव प्रथम कुछ समय और जीवित रहता तो सम्भव था कि वह इसे रोकने के लिए कुछ उपाय करता। लेकिन १८४० ई. में उसकी ४२ वर्ष की आयु में मृत्यु हो गयी, जिससे हिन्दू-पद-पादशाही की स्थापना के लक्ष्य को गहरी क्षति पहुँची। (डफ ग्रांट-हिस्ट्री आफ मराठाज; एच. एन. सिन्हा-राइज आफ दि पेशवाज)

बाजीराव द्वितीय : आठवाँ और अन्तिम पेशवा (१७९६-१८१८)। वह राघोबा का पुत्र था, उसने अंग्रेजों की सहायता से पेशवा का पद प्राप्त किया और उसके लिए कई मराठा क्षेत्र अंग्रजों को दे दिये। बाजीराव द्वितीय स्वार्थी और अयोग्य शासक था तथा महत्त्वाकांक्षी होने के कारण अपने प्रधानमंत्री नाना फड़नवीस से ईर्ष्या करता था। नाना फड़नवीस की मृत्यु १८०० ई. में हो गयी और बाजीराव सत्ता खुद सँभालने के लिए आतुर हो उठा। लेकिन वह सैनिक गुणों से रहित और व्यक्तिगत रूप से कायर था और समझता था कि केवल छल कपट से अपने लक्ष्‍य को प्राप्त किया जा सकता है। नाना फड़नवीस की मृत्यु के बाद उसके रिक्त पद के लिए दौलतराव शिन्दे और जसवन्तराव होल्कर में प्रतिद्वन्द्विता शुरू हो गयी। बाजीराव द्वितीय छल कपट से इन दोनों को अपने नियंत्रण में रखना चाहता था, जिससे मामला और उलझ गया। शिन्दे और होल्कर ने पेशवा को अपने नियंत्रण में लेने के लिए पूना के फाटकों के बाहर युद्ध शुरू कर दिया। बाजीराव द्वितीय ने शिन्दे का साथ दिया लेकिन होल्कर की सेना ने उन दोनों की संयुक्त सेनाओं को पराजित कर दिया।

भयभीत पेशवा बाजीराव द्वितीय ने १८०१ ई. में बसई भागकर अंग्रेजों की शरण ली और वहीं एक अंग्रेजी जहाज पर बसई की सन्धि (३१ दिसम्बर, १८०२) पर हस्ताक्षर कर दिये। इसके द्वारा उसने ईस्ट इडिया कम्पनी का आश्रित होना स्वीकार कर लिया। अंग्रेजों ने बाजीराव द्वितीय को राजधानी पूना में पुनः सत्तासीन करने का वचन दिया और पेशवा की रक्षा के लिए उसने राज्य में पर्याप्त सेना रखने की जिम्मेदारी ली। इसके बदले में पेशवा ने कम्पनी को इतना मराठी इलाका देना स्वीकार कर लिया जिससे कम्पनी की सेना का खर्च निकल आये। उसने यह भी वायदा किया कि वह अपने यहाँ अंग्रेजों से शत्रुता रखनेवाले अन्य यूरोपीय देश के लोगों को नौकरी पर नहीं रखेगा। इस प्रकार बाजीराव द्वितीय ने अपनी रक्षा के लिए अंग्रेजों के हाथ अपनी स्वतंत्रता बेच दी। मराठा सरदारों ने बसई की सन्धि के प्रति रोष प्रकट किया, क्योंकि उन्हें लगा कि पेशवा ने अपनी कायरता के कारण उनसभी की स्वतंत्रता बेच दी है। अतः उनलोगों ने इस आपत्तिजनक सन्धि को खत्म कराने के लिए युद्धकी तैयारी की। परिणामस्वरूप द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (दे.) (१८०३-६ ई.) हुआ, जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई और मराठा क्षेत्रों पर उनकी प्रभुसत्ता स्थापित हो गयी।

पेशवा बाजीराव द्वितीय ने शीघ्र सिद्ध कर दिया कि वह केवल कायर ही नहीं, वरन् विश्वासघाती भी है। वह अंग्रेजों के साथ हुई सन्धि के प्रति भी सच्चा साबित नहीं हुआ। संधि के द्वारा लगाये गये प्रतिबन्ध उसे रुचिकर नहीं थे। उसने मराठा सरदारों में व्याप्त रोष और असन्तोष से फायदा उठाकर अंग्रजों के विरुद्ध दुबारा मराठों को संगठित किया। नवम्बर १८१७ में बाजीराव द्वितीय के नेतृत्व में गठित मराठा सेना ने पूना की अंग्रेजी रेजीडेन्सी को लूटकर जला दिया और खड़की स्थित अंग्रेजी सेना पर हमला कर दिया, लेकिन वह पराजित हो गया। तदनन्तर वह दो और लड़ाइयों -जनवरी १८१८ में कोरे गाँव और एक महीने बाद आष्टी की लड़ाई- में पराजित हुआ। उसने भागने की कोशिश की, लेकिन ३ जून १८१८ ई. को उसे अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। अंग्रेजों ने इसबार पेशवा का पद ही समाप्त कर दिया और बाजीराव द्वितीय को अपदस्थ करके बंदी के रूप में कानपुर के निकट बिठूर भेज दिया, जहाँ १८५३ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। मराठों की स्वतंत्रता नष्ट करने के लिए वह सबसे अधिक जिम्मेदार था।

बाण : थानेश्वर और कन्नौज के पुष्यभूति-वंशज राजा हर्षवर्धन (६०६-४७ ई.) का दरबारी कवि। उसकी रचना 'हर्षचरित' में जो लगभग ६२० ई. में लिखी गयी, हर्ष के शासनकाल के आरम्भिक वर्षों का विवरण मिलता है। उसकी दूसरी रचना 'कादम्बरी' संस्कृत गद्य साहित्य का प्रसिद्ध गौरवपूर्ण ग्रंथ है।

बादरायण : ब्राह्मण ग्रन्थों के बाद सूत्रकाल के प्रसिद्ध मनीषी और लेखक। उन्हीं के 'ब्रह्मसूत्र' के आधार पर शंकराचार्य ने अद्वैतवादी (एकेश्वरवाद) वेदान्त दर्शन की स्थापना की।

बादल : मेवाड़ का वीर राजपूत योद्धा, जिसका नाम दूसरे वीर योद्धा गोरा के साथ जुड़ गया है। बादल और गोरा ने थोड़े से राजपूत सैनिकों के साथ सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की बहुत बड़ी सेना का बहादूरी से मुकाबला किया, जिसने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था। अन्त में बादल ने युद्ध क्षेत्र में वीरगति पायी और सुल्तान की सेना चित्तौड़ पर चढ़ गयी। चित्तौड़ किले में राजपूत महिलाएँ रानी पद्मनी के साथ जलकर सती हो गयीं, मुसलमान सैनिक उनका स्पर्श न कर सके। पद्दिमनी की सुन्दरता से आकृष्ट होकर ही अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था।

बादशाहनामा : इस ऐतिहासिक ग्रंथ में औरंगजेब के राज्य का अधिकृत विवरण मिलता है, जिसे अब्दुल हमीद ने लिखा था।

बादामी : बीजापुर जिले के वातापी नामक प्राचीन नगर का आधुनिक नाम। यह चालुक्य राजाओं की राजधानी था। यहाँ अनेक गुप्त मन्दिर तथा पाषाण मन्दिर हैं, जो अपनी वास्तुशैली तथा भव्य मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं।

बापा : चित्तौड़ के प्रसिद्ध गुहिलौत राजवंश का प्रवर्तक। इसी वंश में राणा संग्राम सिंह तथा राणाप्रताप सिंह सहित मेवाड़ के अनेक प्रसिद्ध शुरूवीर शासक हुए हैं।

बाबर : दिल्ली का प्रथम मुगल बादशाह (१५२६-३० ई.)। उसका पितृकुल तैमूर जो तैमूरलंग के नाम से प्रसिद्ध है, और मातृकुल चंगेज खाँ से सम्बन्धित था। बाबर का जन्म १४८३ ई. में हुआ। ११ वर्ष की उम्र में ही वह फरगना में अपने पिता की छोटी-सी जागीर का मालिक बना। फरगना अब चीनी तुर्किस्तान में है। आरम्भ में बाबर को अनेक कष्ट झेलने पड़े, लेकिन वह महत्त्वाकांक्षी और साहसी था। यद्यपि वह फरगना से शीघ्र ही निकाल दिया गया, लेकिन १५०४ ई. में काबुल पर अधिकार जमाने में सफल हो गया। उस समय उसकी उम्र केवल २१ वर्ष की थी। इसके बाद बाबर ने समरकंद जीतने का निष्फल प्रयास किया, जो उसके पूर्वज तैमूर की राजधानी रह चुका था। इमके बाद बाबर ने समरकंद जीतने का निष्फल प्रयास किया, जो उसके पूर्वज तैमूर की राजधानी रह चुका था। इसके बाद उसने वहाँ से दक्षिण पूर्व की ओर भारत में अपना भाग्य आजमाने का निश्चय किया। उस समय भारत की राजनीतिक स्थिति उसके मंसूबों को पूरा करने की दृष्टि से अनुकूल थी। दिल्ली की सल्तनत विघटन की ओर थी, दक्षिण भारत दिल्ली से स्वतन्त्र हो चुका था। उत्तर में कश्मीर, मालवा, गुजरात और बंगाल व्यावहारिक रूप से विभिन्न अफगान सुल्तानों के अधीन स्वतंत्र राज्य बन गये थे। राजपूताने के क्षत्रिय शासक भी स्वतन्त्र हो गये थे और मेवाड़ का राणा संग्राम सिंह उत्तर भारत में फिर से हिन्दू राज्य स्थापित करने का स्वप्न देख रहा था। पंजाब दौलत खाँ नाम के विद्रोही अमीर के आधिपत्य में था और इब्राहीम लोदी (१५१५-२६ ई.) के तख्त के लिए स्वयं उसका चाचा आलम खाँ दावेदार था। इस प्रकार बाबर के आक्रमण के समय भारत में कोई शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता नहीं रह गयी थी। उस समय अनेक छोटे-छोटे राज्य वर्तमान थे जो आपसमें लड़ते रहते थे और उनकी इस आंतरिक फूट से बाबर को बहुत मदद मिली।

दौलत खाँ और आलम खाँ ने तो इस उम्मीद में बाबर को भारत पर आक्रमण करने का न्यौता दिया कि वह तैमूर की भाँति दिल्ली की सल्तनत को धाराशायी कर वापस चला जायगा और दिल्ली के तख्त पर इनमें से कोई अपना अधिकार जमा लेगा। इस पृष्ठभूमि में बाबर १५२४ ई. में पंजाब में दाखिल हुआ और लाहौर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने भारत में रुकने का इरादा जाहिर किया। इससे दौलत खाँ और आलम खां की आशाओं पर पानी फिर गया और उन्होंने उसका साथ छोड़ दिया। इस प्रकार अकेला पड़ जाने पर बाबर को काबुल लौटना पड़ा, लेकिन अगले वर्ष वह बहुत बड़ी सेना लेकर फिर भारत आ धमका। उसने दौलत खाँ का दमन किया और २१ अप्रैल १५२६ ई. को पानीपत की पहली लड़ाई में सुल्तान इब्राहीम लोदी को परास्त कर उसे मार डाला। इस विजय के बाद बाबर दिल्ली और आगरा का बन गया। उसके अधिकार को भारत के विभिन्न भागों के अफगान सरदार अथवा मेवाड़ के राणा संग्राम सिंह मानने को तैयार नहीं थे। लेकिन राजपूतों और अफगानों ने एकसाथ इसका प्रतिरोध नहीं किया और बाबर को उनसे अलग-अलग निपटने का मौका मिल गया।

बाबर ने राणा को १६ मार्च १५२७ ई. को खानवा के युद्ध में परास्त किया। इसके बाद उसने यमुना नदी पार कर चन्देरी के किले को सर कर लिया। इस प्रकार उसने राजपूतों के प्रतिरोध को प्रभावशाली ढंग से कुचल दिया। दो वर्ष बाद बाबर ने बंगाल और बिहार के अफगान सरदारों को (६ मई १५२९ ई. को) घाघरा के युद्ध में पराजित कर दिया। यह लड़ाई पटना के निकट घाघरा और गंगा के संगम के पास हुई थी। इन तीन लड़ाइयों को जीतने के बाद बाबर अफगानिस्तान से बंगाल की सीमा तक और हिमालय से ग्वालियर तक के क्षेत्र का शासक हो गया। इस प्रकार बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की। लेकिन शीघ्र ही २६ दिसम्बर १५३० ई. को बाबर की मृत्यु हो गयी और उसे इतना समय नहीं मिला कि वह अपने साम्राज्य की शासन-व्यवस्था को सुधार कर उसे मजबूत बना सकता, जैसा कि बाद में उसके पौत्र अकबर (१५५६-१६०५ ई.) ने किया।

बाबर केवल कुशल योद्धा ही नहीं था जिसने दिल्ली पर अधिकार कर अपना साम्राज्य स्थापित किया, वरन् वह साहित्यप्रेमी भी था, जैसा कि उसके संस्मरणों से सिद्ध होता है जो उसने तुर्की भाषा में लिखे और जिनका बाद में अकबर के आदेश से फ़ारसी में अनुवाद कराया गया। (लेन और मूल कृत 'बाबर')

बाम्बे-बर्मा ट्रेडिंग कार्पोरेशन : एक अंग्रेजी व्यापारी कम्पनी, जो उत्तरी आसाम में लट्ठों का रोजगार करती थी। १८८४ ई. में बर्मा की सरकार ने, जो उस समय राजा थिबा द्वारा शासित थी, कम्पनी के ऊपर विभिन्न अभियोगों में २,३०,००० पौंड का जुर्माना कर दिया। बर्मा और भारत की ब्रिटिश सरकार के सम्बन्ध पहले से ही तनावपूर्ण थे। भारत सरकार की इस माँग को कि इस मामले को वाइसराय की मध्यस्थता के लिए सौंप दिया जाना चाहिए, बर्मा सरकार द्वारा ठुकरा देना तृतीय बर्मी युद्ध (१८८५-८६ ई.) का प्रत्यक्ष कारण बन गया जिसके फलस्वरूप उत्तरी बर्मा अंग्रेजों के कब्जे में आ गया था।

बायजीद : बंगाल के शासक सुलेमान करनानी (१५६९-७२ ई.) का पुत्र जो अपने पिता का उत्तराधिकारी बना। किन्तु शीघ्र ही बंगाल पर मुगल बादशाह अकबर का कब्जा हो गया और वह उड़ीसा भाग गया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी।

बायजीद शाह : बंगाल (१४१२-१४ ई.) का नाममात्र का शासक, जिसे कदाचित् राजा गणेश ने अपदस्थ कर दिया था।

बारकर, सर राबर्ट : वारेन हेस्टिंग्स के शासनकाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में था और बाद में तरक्की कर प्रधान सेनापति बन गया। उसकी उपस्थिति में १७ जून १७७२ ई. को अवध के नवाब शुजाउद्दौला और रुहेलों के नेता हफीज रहमत खाँ के बीच सन्धि पर हस्ताक्षर हुए थे। इस सन्धि में यह उल्लिखित था कि यदि मराठे रुहेलखंड पर आक्रमण करते हैं तो अवध का नवाब मराठों को निष्कासित करने में रुहेलों की सहायता करेगा और बदले में रुहेले उसे चालीस लाख रुपया देंगे। राबर्ट बारकर संधि पर हस्ताक्षर होने का केवल साक्षी था, उसने कम्पनी अथवा वारेन हेस्टिंग्स की तरफ से संधि के क्रियान्वयन के सम्बन्ध में कोई आश्वासन नहीं दिया था। बाद में संधि का उल्लंघन होने पर अंग्रेजों को उसे लागू करने के लिए रुहेलखंड में अपनी सेना भेजनी पड़ी।

बारटोली, एफ. : एक (जेशुयिट) पादरी और लेखक, जो अकबर बादशाह (१५५६-१६०५ ई.) के शासनकाल में भारत आया और उसने यहाँ जो कुछ देखा, उसका वृतान्त लिख छोड़ा। दीन-इलाही धर्म के सम्बन्ध में जिसका प्रवर्तन अकबर ने किया था, उसके विचार बड़े ही रोचक हैं। उसके अनुसार इस नये धर्म में मुहम्मद साहब की कुरान, ब्राह्मणों के धर्म ग्रंथों और कुछ हदतक बाइबिल को उन बातों को ग्रहण किया गया था, जिनसे बादशाह के धार्मिक एकीकरण संबंधी उद्देश्यों की पूर्ति होती थी।

बारथेमा, एल. डि. : एक विदेशी यात्री जो १५०३ और १५०८ ई. के बीच भारत आया तथा गुजरात से बंगाल तक भ्रमण करता रहा। उसने बंगाल में निर्मित वस्तुओं की उत्कृष्टता की बहुत प्रशंसा की है। उसके विचार में बंगाल कपास, चीनी, अनाज तथा हर प्रकार के गोश्त के लिए संसार का सबसे सम्पन्न देश था।

बारनेट, कमाडोर कुर्टिस : १७४० ई. में आस्ट्रियाई उत्तराधिकार का युद्ध छिड़ने के समय ईस्ट इंडिया कम्पनी के जहाजी बेड़े का कमांडर। उसने हिन्द महासागर स्थित फ्रांसीसी जहाजों पर कब्जा कर लिया। लेकिन लाबोरदोने के नेतृत्व में फ्रांसीसी बेड़े के मद्रास पहुँचने पर बारनेट ने उसका मुकाबला नहीं किया और वह हुगली क़ी तरफ रवाना हो गया। बारनेट को इस निष्क्रियता के फलस्वरूप फ्रांसासियों को मद्रास पर घेरा डालकर कब्जा करने का मौका मिल गया।

बारबक शाह : बंगाल के स्वतंत्र सुल्तान नसीरउद्दीन महमूद का पुत्र (१४४२-६०)। उसका मूल नाम सरुकुनुद्दीन था, जिसने बंगाल पर १४६० से ७४ ई. तक १४ वर्ष शासन क़िया। उसकी राजसत्ता के आधारस्तम्भ हब्शी (अबसीनियाई) गुलाम थे, जिनमें से कुछ को उसने ऊँचे ओहदों पर नियुक्त कर रखा था। वह बुद्धिमान् शासक था और प्रशासन का संचालन शरीयत (इस्लामी कानून) के अनुसार करता था।

बारबक शाह : मूलरूप से बंगाल के नवाब जलालउद्दीन फतहशाह (१४८१-८६) का एक हब्शी (अबीसीनियाई) गुलाम। उसने जलालउद्दीन के विरुद्ध बगावत की और असन्तुष्ट अबीसीनियाई गुलामों का सरगना बनकर अपने मालिक को मार डाला और स्वयं १४८६ ई. में बारबक शाह और सुल्तान शाहजादा के नाम से गद्दी पर बैठा। लेकिन इन्दिल खाँ नामक दूसरे अबीसीनिबाई गुलाम ने शीघ्र ही उसकी हत्याकर गद्दी पर खुद कब्जा कर लिया।

बारबक शाह : सुल्तान बहलोल लोदी (दे.) का बड़ा पृत्र। १४८६ ई. में सुल्तान ने उसे जौनपृर में राजप्रतिनिधि नियुक्त किया। १४८९ ई. में पिता की मृत्यु हो जाने पर छोटे भाई सिकन्दर लोदी ने उसकी उपेक्षाकर दिल्ली के तख्त पर अधिकार कर लिया। सिकन्दर लोदी ने तीन वर्ष बाद उसे जौनपुर से भी निकाल दिया जहाँ वह स्वतन्त्र होकर शासन करने का प्रयास कर रहा था।

बारवेल रिचर्ड : बंगाल में १७५८ ई. से ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में नियुक्त। १७७३ ई. में रेग्युलेटिंग ऐक्ट के अनुसार वह गवर्नर-जनरल को कौंसिल का सदस्य नियुक्त हुआ। वह कौंसिल के अन्य सदस्यों के विरुद्ध वारेन हेस्टिंग्स का समर्थक था। हेस्टिंग्स जबतक गवर्नर-जनरल रहा, वह बराबर उसके प्रशासन का समर्थक बना रहा।

बार्लो, सर जार्ज : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा के लिए भारत आया। लार्ड वेलेजली (१७९५-१८०५ ई.) के प्रशासनकाल में पदोन्नति कर वह कौंसिल का सदस्य बन गया। अक्बर १८०५ ई. में लार्ड कार्नवालिस की मृत्यु के समय उसे कौंसिल का वरिष्ठ सदस्य होने के नाते कार्यकारी गवर्नर-जनरल नियुक्त कर दिया गया। उस पदपर वह १८०७ ई. तक रहा। वह अपने पूर्वाधिकारी लार्ड कार्नवालिस द्वारा अपनाया गयी अहस्तक्षेप की नीति का अनुगामी बना रहा। इसके परिणामस्वरूप उसने राजपूत राजाओं को मराठों को दया पर छोड़ दिया, जिन्होंने राजपूताना पर आक्रमण कर मनमानी लूट-खसोट की। इससे कम्पनी सरकार की प्रतिष्ठा बहुत गिर गयी। उसके प्रशासन-काल में बेल्लोर में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया जिसे सख्ती के साथ दबा दिया गया। उसकी अहस्तक्षेप की नीति से खर्च में कमी हुई और वार्षिक वचत होने लगी। इससे कम्पनी के डाइरेक्टर तो खुश हुए किन्तु उसकी दुर्बल नीतियों से भारत तथा इंग्लैंड के अंग्रेज इतने नाराज हुए कि गवर्नर-जनरल के पद पर उसकी नियुक्ति की पुष्टि नहीं की गयी और लार्ड मिण्टो प्रथम को उसके स्थान पर भेज दिया गया।

बालपुत्रदेव : सुवर्णद्वीप के शैलेन्द्र वंश का एक राजा, जिसने नालन्दा में एक बिहार बनवाया और मगध तथा बंगाल के राजा देवपाल (८३९-७८ ई.) के पास राजदूत भेज कर प्रार्थना की कि नालन्दा स्थित विहार के खर्च के लिए पाँच गाँव प्रदान कर दिये जायँ।

बाल श्री रानी : सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र (१०२ ई.) की माता। रानी बालश्री ने नासिक में एक शिलालेख उत्कीर्ण कराया था, जिसपर उसके आत्मज गौतमीपुत्र की विजयों का उल्लेख है।

बालाजी बाजीराव : तृतीय पेशवा (१७४०-६१ ई.)। अपने पिता बाजीराव प्रथम के उत्तराधि‍कारी के रूप में १७४० ई. में पेशवा बना। उसके पदारूढ़ होने के समय मुगल साम्राज्य के स्थान पर हिन्दू राज्य की स्थापना के लिए स्थिति बहुत अनुकूल थी। भारत पर बाहरी आक्रमण हो रहे थे और १७३९ ई. में नादिरशाह द्वारा दिल्ली निर्दयतापूर्वक उजाड़ी जा चुकी थी। मुगल साम्राज्य की साख इतनी ज्यादा इससे पहले कभी नहीं गिरी थी। उपरांत अहमदशाह अब्दाली के बार बार के हमलों से वह और भी कमजोर हो गया। अहमदशाह अब्दाली ने पंजाब पर कब्जा कर लिया, दिल्ली को लूटा और अपने प्रतिनिधि के रूप में नाजीबुद्दौला को रख दिया, जो मुगल बादशाह के ऊपर व्यावहारिक रूप में हुकुमत करने लगा। इस प्रकार यह प्रकट था कि भारत के हिन्दुओं में यदि एकता स्थापित हो सके तो वे मुगल साम्राज्य को समाप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। इस पर भी पेशवा बालाजी बाजीराव अवसर से लाभ नहीं उठा सका। वह मराठा शक्ति की प्रधानता के विचार से इतना अभिभूत था कि मुगल साम्राज्य के स्थान पर हिन्दू पदपादशाही स्थापित करने की अपने पिता को योजना त्यागकर उसके स्थान पर मराठा साम्राज्य स्थापित करने का स्वप्न देखने लगा। इस प्रकार मराठा साम्राज्यवाद हिन्दू राष्ट्रवाद का पर्याय नहीं रह गया। बालाजी बाजीराव ने भारत के अन्दरूनी और बाहरी मुसलमानों के विरुद्ध समस्त हिन्दू साधनों को संगठित करने की बात कभी सोची ही नहीं। उसकी संकुचित योजना के अनुरूप मराठा साम्राज्यवाद की स्थापना के लिए मराठों की संख्या चूँकि बहुत कम थी, इसलिए उसे गैर-मराठा भाड़े के सैनिकों का भर्ती कर अपनी सेना को शक्तिशाली बनाने की नीति अपनानी पड़ी। फलतः उसकी सेना अपनी संरचना में 'राष्ट्रीय' नहीं रह गयी और लूटखसोट के अलावा वह किसी उच्चतर प्रेरणा से प्रेरित नहीं हो सकी।

बालाजी बाजीराव ने हल्के हथियारों से सुसज्जित फुर्तीली पैदल सेना का प्रयोग करने की पुरानी मराठा रणनीति में भी परिवर्तन कर दिया। वह पहले की अपेक्षा अधिक वजनदार हथियारों से लैस घुड़सवारों और भारी तोपखाने को अधिक महत्त्व देने लगा। पेशवा स्वयं अपने सरदारों को पड़ोस के राजपूत राजाओं के इलाकों में लूट खसोट करने के लिए प्रोत्साहित करता रहता था, इस प्रकार वह अपने पुराने मित्रों की सहायता से वंचित हो गया, जो उसके पिता बाजीराव प्रथम के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध हुए थे। उसने एक ही साथ दो मोर्चों पर दक्षिण में निजाम के विरुद्ध और उत्तर में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध लड़ने की भी गलती की। आरम्भ में तो उसे कुछ सफलता मिली, उसने निजाम को १७५० ई. में उदगिर की लड़ाई में हरा दिया और बीजापुर का पूरा प्रदेश तथा औरंगाबाद और बीदर के बड़े भागों को निजाम से छीन लिया। मराठा शक्ति का सुदूर दक्षिण में भी प्रसार हुआ। उन्होंने मैसूर के हिन्दू राजा को हरा कर बेदनूर पर आक्रमण कर दिया। किन्तु उनके बढ़ाव को मैसूर राज्य के मुसलमान सेनापति हैदर अली ने रोक दिया, जिसने बाद में वहाँ के हिन्दू राजा को भी अपदस्थ कर दिया।

उत्तर में बालाजी बाजीराव को पहले तो अच्छी सफलता मिली, उसकी सेना ने राजपूतों की रियासतों को मनमाने ढंग से लूटा, दोआब को रौंद कर उस पर कब्जा कर लिया, मुगल बादशाह से गठबंधन करके दिल्ली पर दबदबा जमा लिया, अब्दाली के नायब नाजीबुद्दीला को खदेड़ दिया और पंजाब से अब्दाली के पुत्र तैमूर को निष्कासित कर दिया। इस प्रकार मराठों का दबदबा अटक तक फैल गया। किन्तु मराठों की यह सफलता अल्पकालिक सिद्ध हुई। अब्दाली ने १७५९ ई. में पुनः भारत पर आक्रमण किया और मराठों को जनवरी १७६० ई. में बरारीघाट की लड़ाई में हराया और पंजाब को पुनः प्राप्त कर दिल्ली की तरफ बढ़ा।

इस बीच मराठों की लूटमार से न केवल रुहेले और अवध के नवाब वरन् राजपूत, जाट और सिख भी विरोधी बन गये थे। रुहेले और अवध के नवाब तो अब्दाली से जा मिले, राजपूत, जाट और सिखों ने तटस्थ रहना पसन्द किया। फलतः अब्दाली की फौज का दिल्ली की तरफ बढ़ाव शाहआलम द्वितीय के लिए उतना ही बड़ा खतरा था जितना मराठों के लिए; अतः दोनों ने आपस में संधि कर ली। पेशवा बालाजी बाजीराव ने सदाशिवराव भाऊ के सेनापतित्व में एक बड़ी सेना अब्दाली को रोकने के लिए भेजी। पेशवाओं ने अभी तक उत्तर भारत में जितनी सेनाएँ भेजी थीं, उनमें यह सबसे विशाल थी। मराठों ने दिल्ली पर कब्जा तो कर लिया, पर वह उनके लिए मरुभूमि साबित हुई, क्योंकि वहाँ इतनी बड़ी सेना के लिए रसद उपलब्ध नहीं थी। अतः वे पानीपत की तरफ बढ़ गये। १४ जनवरी १७६१ ई. को अब्दाली के साथ पानीपत का तीसरा भाग्यनिर्णायक युद्ध हुआ। मराठों की बुरी तरह से हार हुई। पेशवा का युवा पुत्र विश्वासराव, जो नाममात्र का सेनापति था, भाऊ, जो वास्तव में सेना की कमान सम्भाल रहा था तथा अनेक मराठा सेनानी मैदान में खेत रहे। उनकी घुड़सवार और पैदल सेना के हजारों जवान मारे गये। वास्तव में पानीपत का तीसरा युद्ध समूचे राष्ट्र के लिए भयंकर वज्रपात सिद्ध हुआ। पेशवा बालाजी बाजीराव की, जो भोगविलास के कारण पहले ही असाध्य रोग से ग्रस्त हो गया था, २३ जून, १७६१ ई. को मृत्यु हो गयी। (जी. डफ-हिस्ट्री आफ मराठाज; जे. एन. सरकार-फाल आफ दि मुगल एम्पायर)

बालाजी विश्वनाथ : प्रथम पेशवा, (१७६१ ई. को मृत्यु हो गयी। (जी. डफ-हिस्ट्री आफ मराठाज; जे. एन. सरकार-फाल आफ दि मुगल एम्पायर)

बालाजी विश्वनाथ : प्रथम पेशवा, (१७१३-२० ई.), जिसका जन्म एक निर्धन परिवार में हुआ था। उसने अपना जीवन राजा साहू के सेनापति के अधीन एक कारकुन के रूप में आरम्भ किया। अपनी प्रशासकीय और सैनिक संगठन-क्षमता से वह राजा साहू की नजरों में चढ़ गया और उसने १७१३ ई. में उसे पेशवा नियुक्त कर दिया। वैधानिक रूप से पेशवा राजा के आठ मन्त्रियों में से एक होता था और उसका दर्जा निश्चय ही पंत प्रतिनिधि (दे.) के नीचे था, किन्तु अपनी योग्यता से बालाजी विश्वनाथ ने शीघ्र ही पेशवा को मराठा प्रशासन का वास्तविक प्रधान बना दिया। उसने मराठा राज्य की शक्ति और प्रतिष्ठा में भारी वृद्धि की। १७१४ ई. में उसने मुगल बादशाह से एक संधि की, जिसके अन्तर्गत दस लाख रुपये वार्षिक खिराज देने के बदले उसे शाही सेवा के निमित्त १५,००० घुड़सवार सेना तथा दक्षिण में शाँति व्यवस्था कायम रखने का अधिकार प्राप्त हो गया।

इस नीति से पेशवा ने मराठों के लिए न केवल उन इलाकों को पुनः प्राप्त कर लिया, जो कभी शिवाजी (दे.) के अधिकार में थे और बाद में मुगलों द्वारा छीन लिये गये थे, वरन् मराठी-भाषी जिले-खानदेश, गोंडवाना, बरार तथा हैदराबाद व कर्नाटक के कुछ हिस्से भी प्राप्त कर लिये। साथ ही उसने मराठा सरकार के लिए मुगल साम्राज्य के दक्खिन के छह सूबा में चौथ और सरदेशमुखी एकत्र करने का अधिकार भी प्राप्त कर लिया। बाद में दिल्ली की सरकार के अनुरोध पर पेशवे एक बड़ी मराठा सेना मुगल राजधानी में सैयद बन्धुओं की सत्ता बनाये रखने के लिए भेजी, जो दिल्ली की बादशाहत के भाग्यविधाता बन गये थे। इस प्रकार बालाजी विश्वनाथ ने मुगल बादशाह की प्रभुता को नाममात्र के लिए मान्यता देकर न केवल मराठों के राज्य क्षेत्र का विस्तार किया तथा उन्हें दक्षिण के समाप्त मुगलाई इलाकों में चौथ व सरदेशमुखी की वसूली का अधिकार दिलाया, वरन् मुगल सल्तनत की रास्व-वसूली में सहभागी बनाकर उन्हें, उसकी राजनीतिक सत्ता में भी भागीदार बना दिया। इस पर कृतज्ञ राजा साहू ने बालाजी विश्वनाथ की १७२० ई. में मृत्यु होने पर उसके पुत्र बाजीराव प्रथम को उसका पेशवा का पद प्रदान कर दिया। (जी. डफ. हिस्त्री आफ मराठाज तथा जे. एन. सरकार-फाल आफ दि मुगल एम्पायर)

बालादित्य प्रथम : देखिये, नरसिंह गुप्त।

बालादित्य द्वितीय : गुप्त राजा भानु गुप्त का उपनाम था।

बाली : मलाया द्वीपसमूह के अन्तर्गत एक द्वीप। यह दक्षिण पूर्वी एशिया के उन स्थानों में एक है, जहाँ ईसवी सन् के आरम्भ की शताब्दियों में हिन्दुओं ने अपने उपनिवेश बनाये और भारतीय सभ्यता, संस्कृति और धर्म का प्रसार किया। बाली द्वीप में अब भी हिन्दू धर्म का प्रचार है।

बाल्डविन, स्टेनली (१८६७-१९४७) : इंग्लैण्डका १९२३-२९ ई.में और पुनः १९३५-३७ ई.में प्रधान मंत्री। उसने १९१९ ई.के भारतीय शासन विधानकी कार्य प्रणालीकी जाँचके लिए १९२८ ई. में सात सदस्यीय 'साइमन कमीशन' नियुक्त किया। कमीशनके सभी सदस्य अंग्रेज थे। भारतके ममलोंकी जाँचके कार्यसे सभी भारतीयोंको अलग रखनेकी नीतिसे भारतमें उस समय बड़ा असन्तोष और आक्रोश पैदा हो गया था।

बिट्टिग अथवा बिट्टिदेव : देखिये 'विष्णुवर्धन'।

बिट्ठल नाथ : प्रसिद्ध वैष्णव सन्त वल्लभाचार्य (जन्म १४४९ ई.) के सुयोग्य पुत्र जो अपने पिता के गोलोक वास के बाद उनकी गद्दी पर बैठे। उन्होंने हिन्दी में 'चौरासी वैष्णववन की वार्ता' नाम से प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की।

बिठूर : उत्तर प्रदेश में कानपुर के निकटवर्ती एक छोटा कस्बा। १८१८ ई. में अंग्रेजों से पराजित हो जाने के पश्चात् अन्तिम पेशवा बाजीराव द्वितीय ने आठ लाख रुपये की वार्षिक पेंशन के सहारे पर यहाँ एकान्तवास किया। १८५३ ई. में उसकी मृत्यु हो जाने के बाद बिठूर पेशवा के पुत्र नाना साहब का वासस्थल बना रहा। १८५७ ई. में सिपाही-विद्रोह आरम्भ हो जाने पर उन्होंने अपने को 'पेशवा' घोषित कर दिया और अंग्रेजों से पराजित होने तथा पलायन करने के लिए विवश होने से पूर्व तक यहाँ अपना दरबार लगाते रहे।

बितिक्ची : मुगल प्रशासन काल में यह सूबे के हिसाब-किताब का प्रभारी अधिकारी होता था।

बिन्दुसार (३०० ई. पू.-२७३ ई. पू.) : मौर्य राजवंश के प्रवर्तक चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र और उत्तराधिकारी। उसकी गतिविधियों के बारे में बहुत कम जानकारी है। इस तथ्य से कि उसने 'अमित्रघात' की पदवी ग्रहण की थी, अनुमान होता है कि उसने अपने अनेक शत्रुओं का घात किया था और उसके शासन-काल में संभवतः कलिंग को छोड़कर दक्षिण भारत मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया था। उसने अपने साम्राज्य के पश्चिम में स्थित यवन (यूनानी) राज्यों से मैत्री-सम्बन्ध कायम रखे। उसके दरबार में डायमेत्रस नामक यूनानी राजदूत रहता था। उसका उत्तराधिकारी उसका प्रसिद्ध पुत्र अशोक था।

बिम्बसार : मगध का राजा, जिसके शासनकाल में मगध राज्य का उत्कर्ष आरम्भ हुआ। उसने अंग (पूर्वी बिहार) को अपने राज्य में मिला लिया, कोशल तथा वैशाली से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये और आधुनिक पटना जि‍ले में स्थित राजगृह को अपनी नयी राजधानी बनाया। उसके शासनकाल में मगध एक समृद्ध राज्य बन गया। जैनों के अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर तथा बौद्धधर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध उसके समकालीन थे। सिंहली दंतकथाओं के अनुसार बिम्बसार गौतम बुद्ध के निर्वाण के साठ वर्ष पूर्व सिहासनारूढ़ हुआ था। गौतम बुद्ध का निर्वाण काल ४८६ ई. पू. माना जाता है। इस आधार पर बिम्बसार लगभग ५४६ ई. पू. में सिंहासनारूढ़ हुआ। जनश्रुतियों के अनुसार वृद्धावस्था में उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी अजातशत्रु ने उसकी हत्या कर दी। पुराणों के अनुसार बिम्बसार शैशुनाग वंश (दे.) का पांचवा राजा था, परंतु सिंहली ग्रंथों तथा अश्वघोष के साक्ष्‍य के अनुसार वह हर्यक वंश (दे.) का था। वह मगध का प्रथम महान सम्राट था। (राय चौधरी, पृ. ११५)

बिलग्रमी, सैयद हुसेन : निजाम की रियासत का शिक्षा निदेशक। लार्ड कर्जन के द्वारा १९०२ ई. में नियुक्त शिक्षा आयोग के दो भारतीय सदस्यों में से एक यह भी थे। (दूसरे सदस्य सर गुरुदास बनार्जी थे)। भारतमंत्री लार्ड मोर्ले ने इंडियन कौंसिल में जिन दो सदस्यों को नियुक्त किया था, उनमें यह भी एक थे (अन्य सदस्य सर के. जी. गुप्त थे)।

बिल्‍हण : कश्मीर में जन्मा कल्याणी के चालुक्य राजा विक्रमादित्य का दरबारी कवि। उसने 'विक्रमांक-चरित' नामक रचना में अपने संरक्षक के युद्धों और आखेट यात्राओं का वर्णन किया है। उक्त पुस्तक की प्रतिलिपि वृह्लर को एक जैन पुस्तकालय में उपलब्ध हुई थी और उसने उसका सम्पादन भी किया था।

बिल्‍हापुर की लड़ाई : पेशवा बाजीराव प्रथम और उसके प्रतिद्वन्द्वी मराठा राज्य के पुश्तैनी सेनापति त्र्यम्बक राव दाभाड़े के बीच पहली अप्रैल १७३१ ई. को हुई। दाभाड़े को कोल्हापुर राज्य तथा निजामुलमुल्क की सहायता प्राप्त थी, फिर भी वह पराजित हुआ और मारा गया। इस विजय से बाजीराव प्रथम का मराठा राज्य में कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया और पेशवा ही व्यवहारतः उसका वास्तविक शासक बन गया।

बिशनदास : एक ख्यातिप्राप्त हिन्दू चित्रकार, जिसे सम्राट् जहाँगीर का संरक्षण प्राप्त था।

बिश्नाग : पुर्तगाली यात्री फर्नाओनूनिज ने विजयनगर के लिए इस नाम का प्रयोग किया है। इस यात्री ने १५३५ ई. में विजयनगर की यात्रा की थी।

बिहार  : आधुनिक काल में उस प्रदेश का नाम, जिसके पूर्व में पश्चिमी बंगाल और पश्चिम में उत्तर प्रदेश है। इसमें प्राचीन काल के अंग (भागलपुर मंडल), वृज्जि (तिरहुत मंडल) तथा मगध (पटना तथा गया मंडल), राज्य शामिल हैं। कालान्तर में अंग और वृज्जि का मगध में विलीनीकरण हो गया। बिहार का आधुनिक राज्य बारहवीं शताब्दी के अन्त तक मगध के नाम से ही सम्बोधित किया जाता था, जब इसे मुसलमानों ने रौंद डाला और बख्तियार खिलजी के पुत्र इख्यियारउद्दीन ने दिल्ली सल्तनत के अधीन कर दिया। आक्रमणकारी मुसलमानों ने सर्वत्र फैले हुए बौद्ध बिहारों को किले समझा और तब से यह सूबा बिहार नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। अकबर के साम्राज्य का यह अलग सूबा था, किन्तु १७१९ ई. के लगभग मुर्शीद कुली खाँ की सूबेदारी के समय यह बंगाल में मिला दिया गया। इस प्रकार बिहार का बंगाल के साथ प्रशासकीय संयोजन १९११ ई. तक चलता रहा। पश्चात् इसमें उड़ीसा को शामिल कर गवर्नर के शासनाधीन एक पृथक् सूबा बनाया गया। भारतीय गणतंत्र में भी यह पृथक् राज्य है, यद्यपि उड़ीसा को इससे अलग कर दिया गया है।

१९५१ ई. की जनगणना के अनुसार इसका क्षेत्रफल ७०,३६८ वर्ग मील और जनसंख्या ४,०२,१८,९१६ है। इसकी राजधानी पटना के साथ, जहाँ प्राचीन नगर पाटलिपुत्र की स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं, वहाँ जमदेशपुर टाटानगर आधुनिक काल के इस्पात और लोहा उद्योग का मुख्य केन्द्र है। इस राज्य से गुजरती हुई गंगा ने इसे दो भागों में विभाजित कर दिया है। यहाँ चावल, गेहूँ, मक्का, गन्ना, तम्बाकू तथा तिलहन की अच्छी उपज होती है और कोयला, लोहा तथा अबरक जैसे खनिज प्रचुरता से उपलब्ध हैं। भारत की औद्योगिक प्रगति के साथ ही बिहार की भी प्रगति निश्चित है, क्योंकि यहाँ लोहा और कोयला की प्रचुरता है। यहाँ की अनेक नदियों को बाँधों से नियंत्रित करके बाढ़ों की रोक-थाम की जा रही है और भारी मात्रा में विद्युत शक्ति भी उपलब्ध होने लगी है। जो बिहार अशोक महान् का जन्मस्थल था, वह भारतीय गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद का भी जन्मस्थल है।

बिहारीमल : आमेर का राजा, जो राजनीति में यथार्थवाद का अनुगामी था। वह राजपूताना के उन राजपूत शासकों में अग्रणी था, जिन्होंने मुगलों का विरोध करने की नीति की निरर्थकता समझ ली थी। उसने बाबर की और उसके उपरांत हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर ली। १५५५ ई. में उसकी भेंट अकबर से हुई, जिसने उसका समुचित सत्कार किया। १५६१ ई. में अजमेर के जागीरदार ने बिहारीमल पर आक्रमण करके उसके कुछ इलाकों को दबा लिया और इसके पुत्र को बंधक के रूप में अपने पास रख लिया। बिहारीमल ने अपने राज्य को बचाने के लिए अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ करके मैत्री-सम्बन्ध को और मजबूत बना लिया। यह सम्बन्ध सुखद सिद्ध हुआ और यही राजकुमारी अकबर के ज्योष्ठ पुत्र जहाँगीर की माँ बनी। राजा बिहारीमल ने अपने पुत्र भगवानदास तथा दत्तक पौत्र मानसिंह के साथ बादशाह अकबर की नौकरी कर ली और इन सबको ऊँचे मनसब दिये गये। इस प्रकार बिहारीमल ने अपनी नीति से आमेर (जयपुर) को मुगलों की लूटमार तथा बर्बादी से बचाकर जयपुर रियासत को राजपूताने की सबसे धनी और कलाकौशलपूर्ण रियासत बना दिया।

बिहारी लाल : तुलसी दास के बाद सत्रहवीं शताब्दी का सर्वाधिक ख्यातिप्राप्त हिन्दी कवि। इसने अपनी रचना 'सतसई' १६६२ ई. में पूरी की।

बीकानेर : राजस्थान का एक नगर तथा पुरानी रियासत। इसे राठौर सरदार बीकाजी ने स्थापित किया था। दिल्ली से यह ढ़ाई सौ मील दूर थार रेगिस्तान की सीमा पर स्थित है। १५७० ई. में यह राज्य सम्राट् अकबर की अधीनता में आया और १८१८ ई. में अंग्रेजों का आश्रित बनने तक मुगल साम्राज्य का हिस्सा रहा। बीकानेर ऊँटों के लिए प्रसिद्ध है। प्रथम विश्वयुद्ध में बीकानेर के महाराज गंगासिंह ने बीकानेरी ऊँटों का रिसाला संगठित किया था जो सोमालीलैण्ड में बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। महाराज बीकानेर को इसके पुरस्कारस्वरूप पुराने राष्ट्रसंघ (लीग आफ नेशन्स) में भारत का प्रतिनिधि नियुक्त किया गया था। महाराज बीकानेर नरेन्द्र मंडल (चेम्बर आफ प्रिन्सेज) के आरम्भ से ही एक महत्त्वपूर्ण सदस्य रहे। स्वाधीनता के उपरान्त बीकानेर रियासत भारत में विलीन हो गयी।

बीजापुर : दक्षिण में भीमा और कृष्णा के दोआब में स्थित एक मध्यकालीन मुस्लिम राज्य। पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त में जब बहमनी सल्तनत पाँच शाखाओं में विभक्त हो गयी, तब उनमें यह सबसे महत्त्वपूर्ण शाखा बनी। पाँचों सल्तनतों में यह सबसे दक्षिण में थी। इस राज्य की स्थापना यूसुफ आदिलशाह ने की थी, जो मूल रूप में गुलाम था, लेकिन अपनी योग्यता के बल पर बीजापुर में बहमनी सुल्तानों का हाकिम बना दिया गया। १४८९ ई. में उसने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर आदिलशाही राजवंश के अन्तर्गत बीजापुर को पृथक् राज्य बना लिया। इसके नौ सुल्‍तान हुए, यथा- यूसुफ (१४९०-१५१०), इस्‍माईल (१५१०-३४), मल्लू (१५३४-३५), इब्राहीम प्रथम (१५३५-५७), अली (१५५७-८०), इब्राहीम द्वितीय (१५८०-१६२६), मुहम्मद (१६२६-५६), अली द्वितीय (१६५६-७६) तथा सिकन्दर (१६७१-८८)।

बीजापुर को आरम्भ से ही अपने पड़ोसियों, विशेषकर हिन्दू राज्य विजयनगर से संघर्ष करना पड़ा। गोआ का बन्दरगाह, जो बीजापुर राज्य में स्थित था, १४१० ई. में पुर्तगालियों के अधिकार में चला गया। १५३६ ई. में बीदर, अहमदनगर तथा गोलकुंडा ने मिलकर बीजापुर पर आक्रमण कर दिया, लेकिन उन्हें परास्त होना पड़ा। इसका बदला लेने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने विजयनगर से समझौता कर लिया और दोनों राज्यों की मिलीजुली सेना ने अहमदनगर में लूटपाट की। लेकिन छह वर्ष बाद बीजापुर का बीदर, अहमदनगर तथा गोलकुंडा के साथ विजयनगर के विरुद्ध गठबंधन हो गया और १५६५ ई. में तालीकोट की लड़ाई में विजयनगर राज्य को नष्ट कर दिया गया। लेकिन १५७० ई. में बीजापुर का सुल्तान अहमदनगर के सुल्तान, कालीकट के जमोरिन तथा अचिन के राजा की सहायता के बल पर भी पुर्तगालियों को खदेड़ कर गोआ को पुनः प्राप्त करने में विफल रहा। सत्रहवीं शताब्दी में बीजापुर को दो शत्रुओं का सामना करना पड़ा -मुगल बादशाह, जिसने उत्तर से चढ़ाई बोल दी थी तथा शिवाजी, जिनके नेतृत्व में मराठा शक्ति का उत्कर्ष हो रहा था। सातवें सुल्तान ने शाहजहाँ को वार्षिक खिराज देने का वायदा कर मुगलों से समझौता कर लिया किन्तु न तो वह और न उसके उतराधिकारी शिवाजी का बढ़ाव रोक सके। शिवाजी की शक्ति का उदय होने से बीजापुर सल्तनत काफी कमजोर हो गयी। अन्तमें १६७६-८८ ई.) के शासनकाल में बीजापुर को बाध्य होकर मुगल बादशाह औरंगजेब के आगे १८ महीने के घेरे के बाद आत्मसमर्पण कर देना पड़ा। सुल्तान सिकन्दर, को कैदखाने में डाल दिया गया, जहाँ पन्द्रह वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गयी। उसके पतन के बाद बीजापुर का स्वाधीन अस्तित्व समाप्त हो गया।

बीजापुर सल्तनत के संस्थापक शिया मतावलम्बी थे। यह परपरा सल्तनत के चौथे सुल्तान इब्राहीम प्रथम (१५३५-५७) के शासनकाल तक चली। सुल्तान इब्राहीम प्रथम पुनः सुन्नी मतावलम्बी हो गया। लेकिन उसका पुत्र और उत्तराधिकारी अली (१५५७-८०) फिर शिया हो गया। आदिलशाही सुल्तान सामान्यतः सहिष्णु थे। यूसुफ आदिलशाह ने एक मराठी महिला से शादी की थी, जो उसके पुत्र और उत्तराधिकारी इस्माईल आदिलशाह की माँ बनी। हिन्दुओं को उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया जाता था और राज्य का हिसाब-किताब और पत्र-व्यवहार मराठी में किया जाता था। आदिलशाह सुल्तान कला और साहित्य का संरक्षक था। प्रसिद्ध इतिहासकार मुहम्मद कासिम उपनाम फरि‍स्ता ने छठे सुल्तान इब्राहीम द्वितीय (१५८०-१६२६ ई.) की संरक्षकता में अपने ग्रंथों की रचना की थी। बीजापुर में एक अच्छा पुस्तकालय था, जिसकी कुछ पुस्तकें अब भी ब्रिटिश संग्रहालय में उपलब्ध हैं।

बीजापुर में ललित कला तथा वास्तुकला की एक शैली विकसित हुई। इस काल की इमारतें अपनी अभिकल्पना और भव्यता के लिए प्रसिद्ध हैं। सुल्तान यूसुफ अली, इब्राहीम द्वितीय तथा मुहम्मद शाह ने अनेक इमारतें बनावायीं। बीजापुर नगर का विशाल परकोटा, जिसकी परिधि सवा छह मील है, मस्जिद, जिसमें एक साथ पाँच हजार लोग नमाज पढ़ सकते हैं, सभाकक्ष जिसे गगनमहल कहते हैं, इब्राहीम द्वितीय की कब्र तथा मुहम्मद शाह का मकबरा, जिसकी गुम्बज संसार की दूसरी सबसे बड़ी गुम्बज है; बीजापुर की भूतकालीन भव्यता के कुछ बचे हुए कीर्तिस्तम्भ हैं। (सेवेल- ए फारगाटेन एम्पायर; मिडोज टेलर-मैन्युअल आफ इण्डियन हिस्ट्री; हेनरी कजिन्स-बीजापुर एण्ड इट्स आर्कीटेक्चरल रुयेन्स, विद एन हिस्टोरिकल आउटलाइन आफ आदिल शाह डाईनेस्टी)

बीदर : दक्षिण (आन्ध्र) का एक पुराना नगर, जो आधुनिक हैदराबाद नगर से ज्यादा दूर नहीं है। यह प्राचीन हिन्दू राज्य बारंगल के अन्तर्गत था। इसे पहले अलाउद्दीन खिलजी ने रौंद डाला और बाद में सुल्तान ग्यासउद्दीन तुगलक के शासनकाल में उसके पुत्र जूना खाँ ने इसे दिल्ली की सल्तनत के अधीन कर दिया। १३४७ ई. में बहमनी सल्तनत की स्थापना होने पर बीदर उसका अंग बन गया और नवें सुल्तान अहमद शाह के शासनकाल में उसकी राजधानी हो गया। १४९२ ई. में बहमनी सल्तनत के छिन्न-भिन्न होने पर जब कासिम बरीद ने स्वतंत्र बीदर सल्तनत की स्थापना की, तब यह उसकी राजधानी बनाया गया। १५६५ ई. में विजयनगर के विरुद्ध बीजापुर, अहमदनगर और गोलकुण्डा के सम्मिलित अभियान में यह भी शामिल था और तालीकोट की लड़ाई में इन सबने सम्मिलित रूप से विजय प्राप्त की, लेकिन १६१९ ई. में इसपर बीजापुर सल्तनत ने कब्जा कर लिया और इसकी स्वतन्त्रता समाप्त हो गयी। बरीदशाही सुल्तानों द्वारा निर्मित कुछ उल्लेखनीय इमारतों के अवशेष बीदर में आज भी मौजूद हैं। (मिडोज टेलर-मैन्युअल आफ इण्डियन हिस्ट्री)

बीबीगढ़ : कानपुर में स्थित एक इमारत, जिसमें १८५७ ई. के सिपाही-विद्रोह के दौरान २११ अंग्रेज स्त्री-पुरुषों और बच्चों को, जिन्होंने २६ जून को आत्मसमर्पण किया था, १४ जुलाई को नाना साहब और तात्या टोपे के आदेशानुसार मार डाला गया और उनके शवों को करीब के कुऐ में फेंक दिया गया। इससे पूर्व बनारस तथा इलाहाबाद में अंग्रेजों ने गाँव के गाँव फूँक दिये थे। यह उसी के बदले की काररवाई थी। इसके फलस्वरूप ब्रिटिश सेनाओं ने भी भारतीयों पर नृशंस अत्याचार किये।

बीरबल, राजा : एक राजपूत सरदार, जो स्वेच्छा से बादशाह अकबर की सेवा में आ गया और उसका मुँह-लगा स्नेह पात्र बन गया था। अकबर ने उसे 'राजा' की पदवी दी। बीरबल उतना प्रतिभाशाली सेनापति नहीं था, जितना प्रतिभाशाली कवि। अकबर ने उसे 'कविराय' की उपाधि से सम्मानित किया था। वह १५८६ ई. में पश्चिमोत्तर सीमा के यूसुफजाई कबीले पर चढ़ाई करने के लिए मुगल सेना का नायक बनाकर भेजा गया और युद्ध में मारा गया।

बुक्क प्रथम : संगम का पुत्र, अपने भाई हरिहर प्रथम के साथ १३३६ ई. में उसने विजयनगर की स्थापना की। हरिहर प्रथम के निधन के बाद १३५४ ई. से १३७७ ई. तक मृत्युपर्यन्त वह विजयनगर का शासन करता रहा। उसके जीवन का अधिकांश भाग बहमनी सुल्तानों से युद्ध करने में व्यतीत हुआ। उसने अपना एक दूतमंडल चीन भी भेजा था।

बुक्क द्वितीय : बुक्क प्रथम का पौत्र। विजयनगर के राजसिंहासन पर बैठाये जाने पर उसके भाई विरूपाक्ष ने उसका विरोध किया था। वह केवल दो वर्ष (१४०४-०६ ई.) राज्य कर सका।

बुद्ध, गौतम : बौद्ध धर्म के सुप्रसिद्ध संस्थापक। बस्ती जिले (उत्तर प्रदेश) के पास आधुनिक नेपाल राज्य में स्थित कपिलवस्तु के क्षत्रिय राजपरिवार में उनका जन्म हुआ। उनके पिता का नाम शुद्धोधन और माता का नाम माया देवी था। शिशु-जन्म के उपरांत माता की मृत्यु हो गयी और बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया। उनका लालन-पालन उनकी मौसी और विमाता प्रजापति गौतमी ने किया। उनके गोत्र का नाम गौतम था, शाक्य जाति में उत्पन्न होने के कारण वे शाक्य सिंह और बाद में शाक्य मुनि कहलाये। सोलह वर्ष की उम्र में उनका विवाह यशोधरा से (जिन्हें भद्द कच्छना, सुभद्रका, बिम्बा अथवा गोपा भी कहते हैं) कर दिया गया। अगले तेरह वर्षों तक सिद्धार्थ ने अपने पिता के महल में राजसी जीवन व्यतीत किया। किसी दिन भ्रमण के समय वृद्धावस्था, रोग तथा मृत्यु के दर्शन हो जाने पर उन्होंने सांसारिक सुखों की निस्सारता का अनुभव इतनी तीव्रता से किया कि जिस रात उनके पुत्र का जन्म हुआ, उसी रात पिता के ऐश्वर्यपूर्ण राजप्रासाद, प्रिया एवं सुन्दर पत्नी तथा नये पुत्र का परित्याग कर दिया। उन्होंने परिव्राजक भिक्षु का जीवन अपना कर उस मार्ग की खोज शुरू कर दी जिससे रोग, वृद्धावस्था तथा मृत्यु की पीड़ा से छुटकारा पाया जा सके। इस महान् त्याग के समय गौतम की अवस्था केवल २९ वर्ष थी।

प्रथम एक वर्ष तक उन्होंने दर्शन का अध्ययन किया, किन्तु उससे उनकी शंकाओं का कोई समाधान नहीं हुआ। तत्पश्चात् अगले पाँच वर्षों तक उन्होंने इस आशा में कि मुक्ति का मार्ग प्राप्त हो सकेगा, कठोर तप किया। लेकिन वह निष्फल ही रहा। तब एक दिन जब वे आधुनिक बोध गया में नैरज्जना नदी के तट पर पीपल वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में बैठे हुए थे, बुद्धत्व लाभ हुआ। इसके बाद वे बुद्ध के नाम से विख्यात हो गये और उन्होने आजीवन सत्य का जिस रूप में साक्षात्कार किया था, उसका उपदेश करने का संकल्प किया। उन्होंने वाराणसी के निकट सारनाथ के मृगवन में अपना पहला धर्मोपदेश किया, जहाँ पाँच भिक्षु उनके अनुयायी हो गये। उपरांत अगले ४५ वर्षों तक बुद्ध उत्तर प्रदेश तथा बिहार में पदयात्रा करके धर्मोपदेश करते रहे। उन्होंने जाति-पांति का कोई भेदभाव किये बगैर राजपुत्रों से लेकर किसानों तक को अपना अनुयायी बनाया, भिक्षु संघ में संगठित किया, उसके नियम निश्चित किये और सहस्त्रों नर-नारियों को अपना मतावलम्बी बनाया। उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म बाद में बौद्ध धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनका, निर्वाण ८० वर्ष की आयु में देवरिया जिले के कुशीनगर अथवा कसिया में हुआ। उनके निर्वाण की तिथि जन्म तिथि के सदृश अभी तक सही निश्चित नहीं हो सकी है, यद्यपि यह सभी स्वीकार करते हैं कि वे मगध के राजा बिम्बसार तथा अजातशत्रु के समकालीन थे और अजातशत्रु के शासनकाल में ही उनकी मृत्यु हुई। चीन की जनश्रुति के अनुसार बुद्ध का निधन ४८६ ई. पू. में हुआ था। इस प्रकार उनका जन्म अस्सी वर्ष पूर्व ५६६ ई. पू. में सिद्ध होता है। धर्म-संस्‍थापक के रूप में गौतम बुद्ध का स्थान अप्रतिम है। सर्वप्रथम वे निश्चित रूप से ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। दूसरे, उन्होंने लोकोत्तर पुरुष होने का कोई दावा नहीं किया और अपनी पूजा को सब प्रकार से हतोत्साहित किया। उनका मात्र इतना दावा था कि मुझे सम्यक् सम्बोधि-लाभ हुआ है। इस सम्बन्ध में भी उनकी यह मान्यता थी कि पुरुषार्थ करने पर किसी को भी बोधि-लाभ हो सकता है। तीसरे, वे पहले धर्म संस्थापक थे, जिन्होंने भिक्षु संघ संगठित किया और शांतिमय तरीके से समता, प्रेम और दया के संदेश का प्रचार करके लोगों को अपने धर्म में दीक्षित किया। उन्होंने सर्वोपरि बुद्धिवाद को स्थान दिया और अपने अनुयायियों को समझाया कि वे किसी बात को उस समय तक सत्य के रूप में स्वीकार न करें, जब तक वह तर्कसंगत न हो। उन्होंने विश्वबन्धुत्व का केवल उपदेश ही नहीं दिया, वरन् आजीवन उसका आचरण किया और उन सभी को बिना जाति या वर्ण के भेदभाव के, अपने शिष्यों के रूप में स्वीकार किया जो उनका धर्मोपदेश सुनने के लिए तैयार थे। इस प्रकार उन्होंने एक ऐसे धर्म की संस्थापना की, जो भारत की सीमाएँ लाँघकर चारों ओर के देशों में फैल गया। फलतः वह संसार के महान् धर्मों में अन्यतम माना जाता है। (ओल्डेनबर्ग-बुद्ध; ई. जे. थामस-लाइफ आफ बुद्ध; एडविन आर्नोल्ड-लाइट आफ एशिया)

बुद्ध गुप्त : गुप्त राजवंश की मुख्य शाखा का अन्तिम सम्राट् (४७६-९५ ई..)। इसने गुप्त साम्राज्य की अखण्डता बनाये रखने का भारी प्रयास किया। इसकी मृत्यु के बाद तोरमाण तथा उसके पुत्र मिहिरगुल के नेतृत्व में हूणों के आक्रमण के कारण गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

बुद्धराज : कलचूरि वंश का एक राजकुमार। विश्वास किया जाता है कि वह राज्यवर्द्धन का समकालीन था और राज्यवर्द्धन ने उससे अपनी अधीनता स्वीकार करवा ली थी। उसके बारे में बहुत कम जानकारी प्राप्त है। (रायचौधरी, पृष्ठ ६०७ का फुटनोट)

बुद्धवर्मा : कांची का एक पल्लव नरेश, जिसने चोलों को पराजित किया। शिलालेखों में उसका उल्लेख हुआ है, जिससे अनुमान किया जाता है कि विष्णुगोप के बाद वह छठा राजा था। उसके बारे में अधिक कुछ जानकारी नहीं है। (राजचौधरी, पृष्ठ ५०१)

बुन्देलखण्ड : उस भूखण्ड का नाम, जिसके उत्तर में यमुना और दक्षिण में विन्ध्य पर्वतश्रुंखला, पूर्व में बेतवा और पश्चिम में होंस अथवा तमसा नदी है। बुन्देलों का नाम तब प्रसिद्धि में आया, जब उन लोगों ने यहाँ अपना राज्य चौदहवीं शताब्दी तक शासित होता रहा। राज्य के प्रमुख नगर थे--खजुराहो जिला छतरपुर; महोबा-जिला हमीरपुर तथा कालञ्जर, जिला बाँदा। खजुराहो में आज भी अनेक भव्य वास्तुकृतियाँ अवशिष्ट हैं। कालंजर में राज्य की सुरक्षा के लिए एक मजबूत किला था। शेरशाह इस किले की घेराबन्दी के समय १५४५ ई. में यहीं मारा गया था। बुन्देलखण्ड का अधिकांश भूभाग अब उत्तर प्रदेश में है, किन्तु कुछ भाग मध्यप्रदेश में भी मिला दिया गया है।

बुन्देला  : देशज मूल के राजपूतों का एक गोत्र, जो चौदहवीं शताब्दी के मध्य में जमुना के दक्षि‍ण और विन्ध्य पर्वतश्रृंखला के उत्तर में पड़नेवाले प्रदेश में शक्तिसम्पन्न हो गये थे। इससे पहले यह क्षेत्र जेजाकभुक्ति के नाम से प्रसिद्ध था, जिस पर चन्देले शासन करते थे। बुन्देले युद्धप्रिय लोग थे और जिस भूमि पर वे शासन करते थे, वह उनके नाम से बुन्देलखण्ड कहलाने लगी। बुन्देलों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी, किन्तु बाद में औरंगजेब के शासनकाल में बुन्देला सरदार छत्रसाल पूर्वी मालवा में अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य कायम करने में सफल हो गया, जिसकी राजधानी पन्ना थी। बाद में इस राज्य ने अंग्रेजों को अपना प्रभु स्वीकार कर लिया।

बुरहान-ए-मासिर : बहमनी सल्तनत के सुल्तानों का एक इतिहास-वृत्तान्त है। फरिस्ता के इतिहास से इसमें अधिक प्रामाणिक विवरण है। इसे सईद अली तवातवा ने लिखा था। लेखक अहमदनगर के सुल्तान बुरहान निजाम शाह द्वितीय की सेवा में था, जिसके नाम पर ही पुस्तक का नामकरण किया गया है। इतिहास को पूरा करने में उसे छह वर्ष (१५९१-९६) लगे थे। इसमें बहमनी शाही खानदान तथा अहमदनगर के सुल्तानों का विवरण है।

बुरहान निजामशाह प्रथम  : अहमदनगर के निजामशाही खानदान का दूसरा सुल्तान। ४५ वर्ष (१५०८-५३ ई.) के लम्बे शासनकाल में वह मुख्यतः पड़ोस के राज्यों, विशेषकर हिन्दू राज्य विजयनगर से युद्ध करने में व्यस्त रहा। १५३० ई. में उसने बीजापुर के मुसलमान शासक के विरुद्ध विजयनगर के हिन्दू राजा से संधि कर ली, लेकिन यह संधि अधिक दिनों तक नहीं टिकी। बुरहान मूलतः सुन्नी था, लेकिन जीवन के अन्तिम दिनों में वह शिया हो गया था।

बुलन्द दरवाजा : अकबर ने फतेहपुर सीकरी में १५७५-७६ ई. में इसका निर्माण कराया। यह तोरणद्वार कदाचित् उसकी गुजरात की विजय की स्मृति के रूप में बनाया गया था। संगमरमर और लाल पत्थर से निर्मित यह दरवाजा फतेहपुर सीकरी स्थित बड़ी मस्जिद के मार्ग पर विद्यमान है।

बून, चार्ल्स : बम्बई का गवर्नर (१७१५-२२), जिसने नगर के चारों तरफ एक दीवार बनवायी थी और व्यापारिक कोठी तथा व्यवसाय की सुरक्षा के लिए बन्दरगाह पर कम्पनी की ओर से तैनात सशस्त्र जहाजों की संख्या में वृद्धि कर दी थी।

बूढ़ा गोहाँई : आसाम के अहोम राजाओं के अधीन दो सर्वोच्च अधिकारियों में से एक का पदनाम। दूसरे अधिकारी का पदनाम बड़-गोहाँई था। अधिकारी का चयन अहोम राजा एक विशेष परिवार के सदस्यों में से करते थे और व्यावहारिक रूप में यह पद वंशानुक्रम से उत्तराधिकार में प्राप्त होता रहता था। (गेट-हिस्ट्री आफ आसाम, पृ. २३५-३६)

बूरन : पिण्डारियों (पेंढारियों) का एक सरदार, जो १८१२ ई. से १८१८ ई. तक लूटमार के कार्यों में प्रमुख भाग लेता रहा। लार्ड हेस्टिंग्स द्वारा १८१७-१८ ई. में पिण्डारियों के विरुद्ध आयोजित किये गये अभियान में वह मारा गया।

बूसेस, फादर  : एक ईसाई पादरी। भारत आने पर वह बादशाह शाहजहाँ के सबसे बड़े शाहजादे दाराशिकोह का अन्तरंग मित्र हो गया था।

बृहद्रथ : मगध के प्राचीनतम, राजवंश का प्रवर्तक। वह जरासन्ध का पिता था और उसके वंश ने मगध पर छठी शताब्दी ई. पू. तक शासन किया।

बृहद्रथ : मगध के मौर्यवंश का अन्तिम राजा, जिसे लगभग १८५ ई. पू. में ब्राह्मण मंत्री पुष्‍यमित्र ने अपदस्थ कर दिया था। फलस्वरूप मौर्य राजवंश का अन्त हो गया।

बृहस्पति : भारत का एक प्राचीन राजनयज्ञ एवं स्मृतिकार। उसकी कृति बृहस्पति स्मृति गुप्तकाल की रचना मानी जाती है, जो अभी तक अन्य ग्रन्थों में उद्धरण रूप में ही उपलब्ध है।

बृहस्पति मित्र : कलिङ्ग के राजा खारवेल के हाथी गुम्फा शिलालेख में यह नाम 'वहसतिमित' के रूप में मिलता है। शिलालेख में इसको राजगुह का राजा बताया गया है। कुछ विद्वानों ने उसकी पहचान मगध के राजा पुष्यमित्र से की है, जिसने १८५ ई. पू. के लगभग शुंग राजवंश संस्थापित किया। किन्तु यह मान्यता सन्देह से मुक्त नहीं हे। (रायचौधरी. पृष्ठ ३७३ तथा ४१८ के फुटनोट)

बूँदी : एक छोटी सी राजपूत रियासत, जो मेवाड़ के समीप है। इसके शासक ने काफी वर्षों तक अपने को स्वाधीन रखा, किन्तु बाद में अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। मुगल साम्राज्य के अधःपतन पर यह कुछ समय के लिए मराठा सरदार होल्कर के नियंत्रण में चली गयी, किन्तु द्वितीय मराठा-युद्ध (१८०३-०६ ई.) में होल्कर की पराजय हो जाने पर उसका नियंत्रण समाप्त हो गया। फिर भी मराठों का आतंक बना रहा। अतः १८१८ ई. में बूँदी ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से आश्रित-संधि कर ली। १९४७-४८ में भारतीय गणतंत्र में विलीन होने से पूर्व तक यह रियासत ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत रही।

बूवूजी खानम : बीजापुर के सुल्तान यूसुफ आदिलशाह (१४८९-१५१० ई.) की मराठा पत्नी। वह मराठा सरदार मुकुन्दराव की बहिन थी, जिसे यूसुफ आदिलशाह ने अपने शासनकाल के आरम्भ में ही पराजित कर दिया था। तदनन्तर मुकुन्दराव ने आदिलशाह के साथ उसका विवाह कर दिया। वह द्वितीय आदिलशाही सुल्तान इस्माइल तथा तीन शाहजादियों की माँ बनी। इन शाहजादियों का विवाह पड़ोस के मुसलमान राज्यों के शाही परिवारों के साथ कर दिया गया।

बेगमें, अवध की : नवाब आसफउद्दौला की माँ और दादी। १७७५ ई. में अवध की गद्दी पर बैठने के बाद आसफउद्दौला ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ फैजाबाद की संधि की, जिसके अन्तर्गत उसने अवध में ब्रिटिश सेना रखने के लिए एक बड़ी धनराशि देना स्वीकार किया। अवध का प्रशासन भ्रष्ट और कमजोर था, अतः नियत धनराशि न दे सकने के कारण नवाब पर कम्पनी का बकाया चढ़ गया। १७८१ ई. तक मैसूर, मराठों तथा चेत सिंह से हुई लड़ाइयों के कारण कम्पनी को रुपये की बड़ी आवश्यकता थी। गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने नवाब अवध से बकाये की रकम को चुकता कर देने के लिए जोर डाला, लेकिन नवाब ने भुगतान करने में अपनी असमर्थता व्‍यक्त करते हुए कहा कि मैं भुगतान उस समय कर सकता हूँ जब मुझे उस बड़ी जागीर तथा दौलत पर अधिकार दिलवा दिया जाय जो मेरी माँ और दादी ने हथिया ली है।

अवध की बेगमें आसफउद्दौला को २५०,००० पौंड की धनराशि पहले दे चुकी थी, १७७५ ई. में ब्रिटिश रेजीडेन्ट मिडिल्टन के समझाने पर ३००,००० पौंड उन्होंने पुनः दिया। इससे कम्पनी का पावना अदा कर दिया गया। कलकत्ता स्थित कौंसिल ने बेगमों को आश्वासन था कि भविष्य में उनमें धन की माँग नहीं की जायेगी। वारेन होस्टिंग्स ने इस प्रकार का वचन देने का विरोध किया था, किन्तु कौंसिल के अन्दर मतदान में वह पराजित हो गया था। इसके बाद ही १७८० ई. में चेतसिंह कांड (दे.) हुआ।

हेस्टिंग्स अवध की बेगमों से नाराज था, क्योंकि १७७५ ई. में उन्होंने कौंसिल में उसके विरोधियों का समर्थन प्राप्त किया था। अतः १७८१ ई. में नवाब अवध ने जब बकाया भुगतान करने में उस समय तक अपनी असमर्थता व्यक्त की जब तक उसे अपनी माँ और दादी की दौलत न दिला दी जाय तो हेस्टिंग्स ने तत्काल उसके अनुरोध को स्वीकार कर ब्रिटिश रेजिडेन्ट मिडिल्टन को आदेश दिया कि वह बेगमों पर बकाये की धनराशि का भुगतान करने के लिए दवाव डाले। चूँकि रेजिडेन्ट मिडिल्टन ने जोर जबर्दस्ती करने में समुचित तत्परता नहीं दिखायी, अतः उसके स्थान पर ब्रिस्टो को नियुक्त कर दिया गया जिसने बेगमों के उच्च पदस्थ कर्मचारियों को कैद में डलवा दिया, उनको बेड़ियाँ डलवा दीं, उनका भोजन भी बन्द करवा दिया था और कदाचित उनको कोड़े भी लगवाये। उन्हें इतनी कठोर यातनाएँ दी गयीं कि उनकी दुर्दशा देखकर स्वयं नवाब भी विचलित होने लगा, किन्तु हेस्टिंग्स टस से मस नहीं हुआ और कोई समझौता-वार्ता चलाने अथवा दया प्रकट करने की मनाही कर दी। आखिर में बेगमों को बाध्य होकर रुपया देना पड़ा, जिसके सम्बन्ध में कलकत्ता स्थित कौंसिल ने १७७५ ई. में उन्हें गारन्टी दी थी कि अब उनसे धन की कोई माँग नहीं की जायगी। सारा मामला निःसन्देह घिनावना, क्षुद्रतापूर्ण और राज्य की आवश्यकताओं को देखते हुए भी अनुचित था। हेस्टिंग्स की बाद में दी गयी यह दलील बड़ी लचर थी कि चेतसिंह से साँठगाँठ के कारण बेगमों ने ब्रिटिश संरक्षण प्राप्त करने का अधिकार खो दिया था, तथा कलकत्ता की कौंसिल द्वारा द्वारा दी गयी गारन्टी समाप्त हो गयी थी। वारेन हेस्टिंग्स ने बेगमों के खिलाफ द्वेषवश काररवाई की थी और यह विस्मयकारी है कि लार्ड सभा ने उसे बेगमों पर अत्याचार करने के आरोप से दोषमुक्त कर दिया। उसने निःसन्देह उनपर अत्याचार किया था, यद्यपि इस प्रकार जोर-जबर्दस्ती से प्राप्त की गयी धनराशि का उपयोग कम्पनी की ही सेवा में किया गया था। (पी. ई. राबर्ट्स -हिस्ट्री आफ दि ब्रिटिश रूल इन इण्डिया, तथा सर अल्‍फ्रेड ल्याल-वारेन हेस्टिंग्‍स)

बेचर, रिचर्ड : अठारहवीं शताब्दी के छठे दशक में ईस्ट इंडिया कम्पनी का बंगाल स्थित एक अधिकारी, जिसने २४ मई, १७६४ ई. को कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स, लन्दन की गुप्त समिति को एक रिपोर्ट भेजी। रिपोर्ट में १७७० ई. के भयावह अकाल के पूर्व बंगाल में व्याप्त शोचनीय स्थिति का व्यौरा दिया गया था। उसने लिखा था कि कम्पनी ने जबसे दीवानी के अधिकार प्राप्त किये हैं, लोगों की हालत पहले से ज्यादा खराब हो गयी है। जो बंगाल निरंकुश और स्वेच्छाचारी शासन में भी फल-फूल रहा था, वह अब विनाश के कगार पर है। किन्तु रिपोर्ट की व्यावहारिक दृष्टि से उपेक्षा कर दी गयी।

बेडेन पावेल, लार्ड : संसार भर में बालचर (ब्वाय स्काउट्स) आन्दोलन का प्रतिष्ठापक। प्रारम्भ में इसमें भारतीयों को शामिल नहीं किया गया था, भारत की यात्रा करने के बाद बेडेन पावेल ने प्रयास करके इस आन्दोलन से रंगभेद की नीति को खत्म करा दिया।

बेण्टिक, लार्ड विलियम कवेण्डिश : बंगाल का अन्तिम गवर्नर जनरल (१८२८-३३ ई.) और भारत के गवर्नर-जनरलों में पहला (१८३३-३५ ई.)। वह पहले मद्रास के गवर्नर की हैसियत से भारत आया, लेकिन १८०६ ई. में वेल्लोर में सिपाही-विद्रोह हो जाने पर उसे वापस बुला लिया गया। इक्कीस वर्षों के बाद लार्ड एम्हर्स्ट द्वारा त्यागपत्र दे देने पर उसे गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया और उसने जुलाई १८२८ ई. में यह पद ग्रहण किया। उसके सात वर्ष के प्रशासन काल में कोई युद्ध नहीं हुआ और प्रायः शांति बनी रही। यद्यपि उसने युद्ध के द्वारा कोई नया प्रदेश नहीं जीता, तथापि १८३० ई. में कछार (आसाम) के उत्तराधिकारियों का आपस में कोई निर्णय न होने पर उस पर कब्जा कर लिया गया, इसी प्रकार १८३४ ई. में शासकीय अयोग्यता के कारण दक्षिण का कुर्ग इलाका एवं १८३५ ई. में आसाम का जयन्तिया परगना ब्रिटिश भारत में मिला लिया गया, क्योंकि उसके शासक ने उन आदमियों को सौंपने से इंकार कर दिया था जो ब्रिटिश नागरिकों को उड़ा ले गये थे और कालीदेवी के आगे उनकी बलि चढ़ा दी थी।

सामान्यतः लार्ड बेण्टिक ने देशी रियासतों के मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति का अनुसरण किया। लेकिन १८३१ ई. में मैसूर नरेश के लम्बे कुशासन के कारण उसके राज्य को ब्रिटिश प्रशासन के अन्तर्गत ले लिया गया। बेण्टिक भारतीय साम्राज्य के विभिन्न प्रांतों की स्वयं जानकारी रखने के उद्देश्य से बहुत अधिक दौरे किया करता था। १८२९ ई. में वह मलय प्रायद्वीप गया और उसकी राजधानी पेनांग से सिंगापुर स्थानान्तरित कर दी। इंग्लैण्ड की सरकार के निर्देश पर उसने सिंध के अमीरों से व्यावसायिक संधियाँ कीं, जिसके फलस्वरूप सिन्धु का जलमार्ग अंग्रेजों की जहाजरानी के लिए खुल गया। १८३१ ई. में उसने पंजाब के महाराज रणजीत सिंह से संधि की, जिसके फलस्वरूप अंग्रेजों और महाराज के बीच स्थायी मैत्री स्थापित हो गयी। महाराज ने सतलज और ऊपरी सिन्ध के मार्ग से व्यापार को प्रोत्साहित करना स्वीकार कर लिया। उसके द्वारा एक गलत नीति का सूत्रपात इस रूप में हो गया कि अमीर दोस्त मोहम्मद से अफगानिस्तान की राजगद्दी प्राप्त करने के लिए निर्वासित शाह शुजा को प्रोत्साहित किया गया। इस गलत नीति के फलस्वरूप १८३८-४२ ई. में प्रथम अफगान युद्ध में अंग्रेजों को भारी क्षति उठानी पड़ी और सिंध को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया।

बेण्टिक के शासन का महत्त्व उसके प्रशासकीय एवं सामाजिक सुधारों के कारण है, जिनके फलस्वरूप वह बहुत लोकप्रिय हुआ। इनका आरम्भ सैनिक और असैनिक सेवाओं में किफायतशारी बरतने से हुआ। उसने राजस्व, विशेषकर अफ़ीम के एकाधिकार से होनेवाली आय में भारी वृद्धि की। फलतः जिस वार्षिक बजट में घाटे होते रहते थे, उनमें बचत होने लगी। उसने भारतीय सेना में प्रचलित कोड़े लगाने की प्रथा को समाप्त कर दिया। भारतीय नदियों में स्टीमर चालू किये, आगरा क्षेत्र में कृषि भूमि का बन्दोबस्त कराया, जिससे राजस्व में वृद्धि हुई, तथा किसानों द्वारा दी जानेवाली मालगुजारी का उचित निर्धारण कर उन्हें अधिकारों के अभिलेख दिलवाये। बेण्टिक ने लार्ड कार्नवालिस की भारतीयों को कम्पनी की निम्न नौकरियों को छोड़कर ऊंची नौकरियों से अलग रखने की गलत नीति को उलट दिया और भारतीयों की नियुक्तियाँ अच्छे वेतन पर डिप्टी मजिस्ट्रेट जैसे प्रशासकीय पदों पर कीं तथा डिवीजनल कमिश्नरों (मंडल आयुक्त) के पदों की स्थापना की। इस प्रकार उसने भारतीय प्रशासकीय ढाँचे को उसका आधुनिक रूप प्रदान किया।

लार्ड बेण्टिक के सामाजिक सुधार भी कुछ कम महत्‍त्व के नहीं थे। १८२९ ई. में उसने सती प्रथा को समाप्त कर दिया। कर्नल स्लीमन के सहयोग से उसने ठगी का भी उन्मूलन किया। उस समय ठगों का देशव्यापी गुप्त संगठन था, वे देश भर में घूमा करते थे और भोले-भाले यात्रियों की रुमाल से गला घोंटकर हत्या कर दिया करते थे और उनका सारा मालमत्ता लूट लेते थे। १८३२ ई. में धर्म-परिवर्तन से होनेवाली सभी अयोग्यताओं को समाप्त कर दिया गया। १८३३ ई. में कम्पनी के अधिकार पत्र को अगले बीस वर्षों के लिए नवीन कर दिया गया। इससे कम्पनी चीन के व्यवसाय पर एकाधिकार से वंचित हो गयी। वह अब मात्र प्रशासकीय संस्था रह गयी। नये चार्टर एक्ट द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। बंगाल के गवर्नर-जनरल का पद नाम बदलकर भारत का गवर्नर-जनरल कर दिया गया। गवर्नर-जनरल की कौंसिल की सदस्य संख्या बढ़ाकर चार कर दी गयी तथा यह सिद्धांत निर्दिष्ट किया गया कि कोई भी भारतीय, मात्र अपने धर्म, जन्म अथवा रंग के कारण कम्पनी के अन्तर्गत किसी पद से, यदि वह उसके लिए योग्य हो, वंचित नहीं किया जायेगा। १८३२ ई. के चार्टर एक्ट में यह निर्देश दिया गया था कि भारतीयों में शिक्षा का प्रसार करने के लिए उचित कदम उठाये जाने चाहिए। अतः लार्ड विलियम बेण्टिक ने आदेश दिया कि भविष्य में सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होनी चाहिए और भारतीयों में पश्चिमी शिक्षा का प्रसार करने के लिए और अधिक धन खर्च किया जाना चाहिए। लार्ड विलियम बेंटिक ने १८३५ ई. में कलकत्ता मेडिकल कालेज की स्थापना की। उसी वर्ष मार्च के महीने में वह अपने उच्च पद से सेवानिवृत हो गया। लार्ड विलियम बेण्टिक ने अपने प्रशासनकाल में जिस उदारता तथा सहानुभूति का परिचय दिया, उसके फलस्वरूप भारतीयों में उसे अपने किसी भी पूर्वाधिकारीकी अपेक्षा अधिक लोकप्रियता मिली। (थार्न्टन,-हिस्ट्री आफ इण्डिया; डी. वूल्गर. डी. लाइफ आफ लार्ड बेण्टिक)

बेथ्यून्, जान इलियट ड्रिन्कवाटर (१८०६-६२)  : भारत की सर्वोच्च परिषद् का विधि-सदस्य। उसने भारतीयों, विशेषकर महिलाओं के लिए शिक्षा-प्रसार के कार्य में काफी रुचि ली और कलकत्ता में उच्च वर्ग की भारतीय लड़कियों में पश्चिमी शिक्षा का प्रसार करने के लिए बेथ्यून स्कूल की स्थापना की। आगे चलकर इस संस्था का स्तर पर्याप्त ऊँचा उठ गया और आजकल कलकत्ता का यह प्रसिद्ध बालिका महाविद्यालय हो गया है।

बेदारा (बिदर्रा) की लड़ाई : नवम्बर, १७५९ ई. में छिड़ी। कलकत्ता से कुछ मील दूर चिनसुरा में रहनेवाले डच लोग अंग्रेजों को अपदस्थ करना चाहते थे। उन्होंने नवाब मीरजाफर के साथ साँठगाँठ कर जावा-स्थिति अपनी बस्तियों से सैनिक सामग्री मँगाने का प्रयास किया। राबर्ट क्लाइव ने जो उस समय बंगाल का गवर्नर था, डचों के इरादे का पूर्वानुमान लगाकर उन्हें चिनसुरा के निकट बेदारा की लड़ाई में पराजित कर दिया। इससे डच की प्रभुता की सभी सम्भावनाएँ नष्ट हो गयीं और बंगाल में अंग्रेजों का कोई यूरोपीय प्रतिस्पर्द्धी शेष नहीं रह गया।

बेनफील्ड, पाल : एक सूदखोर अंग्रेज महाजन जिसने कर्नाटक के नवाब पर ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रभुत्वकाल के आरम्भिक वर्षों में नवाब को ब्याज की अत्यधिक ऊँची दरों पर ऋण दिया था। बेनफील्ड का बोर्ड आफ कन्ट्रोल के अध्यक्ष विलियम डुंडास पर काफी प्रभाव था। डुंडास ने कार्यकारी गवर्नर-जनरल सर जान मैक्फर्सन को प्रभावित कर उससे आदेश दिलवा दिया कि नवाब पर लदे कर्ज का भुगतान बिना जाँच-पड़ताल के बेनफील्ड तथा अन्य लोगों को कर्नाटक के राजकोष से करा दिया जाय। कर्ज लगभग पचास लाख पौंड का था। यह भ्रष्टाचार का लज्जाजनक दृष्टान्त था जो डुण्डास के आदेश पर किया गया।

बेबादल खां : आगरा का प्रसिद्ध और उत्कृष्ट जौहरी। बादशाह शाहजहाँ के आदेश पर तख्त-ए-ताऊस का निर्माण उसी की देखरेख में हुआ था।

बेरीगाजा  : पश्चिम समुद्र तटवर्ती नगर भड़ौच का यूनानी नाम। इसका प्राचीन नाम भृगुकच्छ था। प्राचीनकाल में यह व्यस्त बन्दरगाह था। यहाँ से पश्चिम में मैडागास्कर और पूर्व में पूर्वी द्वीपसमूह तक जहाज जाते थे।

बेली, कर्नल : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना का एक अधिकारी। दूसरे आँग्ल-मैसूर युद्ध के दौरान नवाब हैदरअली के पुत्र टीपू ने काँजींवरम् के निकट कर्नल बेली और उसके ३७२० सिपाहियों को घेर लिया। उसके बहुत से सैनिक मारे गये और बेली बन्दी बना लिया गया। बाद में उसको रिहा कर दिया गया, लेकिन इस पराजय के बाद उसे किसी महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त नहीं किया गया।

बेली, बटरवर्थ : लार्ड एम्हर्स्ट के प्रशासनकाल में गवर्नर जनरल की कौंसिल का वरिष्ठ सदस्य। मार्च १८२८ ई. में एम्हर्स्ट द्वारा त्यागपत्र दे देने पर जुलाई १८२८ ई. तक, जब लार्ड विलियम बेण्टिक ने गवर्नर-जनरल का कार्यभार सम्हाला था, यह कार्यकारी गवर्नर-जनरल रहा। उसके अल्प प्रशासनकाल में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं घटी।

बेसनगर : पूर्वी मालवा-स्थित प्राचीन नगर विदिशा का आधुनिक नाम। शुंग राजाओं के शासनकाल में इसका बहुत महत्त्व था और बाद में भी अनेक वर्षों तक यह स्थानीय शासकों की राजधानी बना रहा। यहाँ के शासकों ने भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित यवन (यूनानी) शासकों के साथ राजनीतिक सम्बन्ध बना रखे थे। यहाँ भगवान वासुदेव के सम्मान में तक्षशिला के राजा एंटिआल्किडस के राजदूत हेलियोडोरोस द्वारा लगभग १३५ ई. पू. में एक गरुड़ध्वज स्थापित कराया गया था।

बेसीन : बर्मा में इरावदी नदी के पश्चिमोत्तर कोण में स्थित एक बन्दरगाह, जिसको ब्रिटिश भारतीय सेना ने द्वितीय बर्मी-युद्ध के समय मई, १८५२ ई. में अपने अधिकार में कर लिया था।

बेसेन्ट, श्रीमती एनी (१८४७-१९३३ ई.)  : थियोसोफिकल विचारधारा की सुप्रसिद्ध प्रचारिका। लन्दन के विलियम पेजउड की पुत्री; अक्तूबर १८४७ ई. में जन्म। बीस वर्ष की उम्र में रेवरेंड फ्रैंक बेसेंट के साथ उनका विवाह हुआ, किन्तु यह विवाह-सम्बन्ध सुखदायी नहीं सिद्ध हुआ। अतः श्रीमती बेसेण्ट ने १८७३ ई. में अपने पति से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। अगले ग्यारह वर्षों तक चार्ल्स ब्राड़ला के घनिष्ठ सम्पर्क में रहकर वे राजनीतिज्ञ तथा स्वतन्त्र विचारों की प्रचारिका बन गयीं। इस दिशा में उन्होंने अनेक व्याख्यान दिये और 'अजैक्स' के उपनाम से लेख लिखे। धीरे-धीरे उनके विचार क्रान्तिकारी समाजवाद की ओर मुड़ गये। फलस्वरूप १८८९ ई. में उनके तथा चार्ल्स ब्राड़ला के बीच गम्भीर मतभेद उत्पन्न हो गया। तदनन्तर उनकी ट्टढ़ निष्ठा थियोसिफी (ब्रह्मविद्या) में हो गयी, वे हेलेने ब्लावत्सकी के निकट सम्पर्क में आयीं और भारत को उन्होंने अपना घर बना लिया। उन्होंने बनारस में सेन्ट्रल हिन्दू कालेज नाम से विशाल शिक्षाकेन्द्र स्थापित किया। १९०७ ई. में वे थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष निर्वाचित हुईं। १९१६ ई. में उन्होंने इंडियन होमरूल लीग की स्थापना की और उसकी प्रथम अध्यक्ष बनीं। १९१७ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्ष बनायो गयीं। बाद में उन्होंने अपने को यद्यपि कांग्रेस के गरमदल से अलग कर लिया था, तथापि भारत सरकार उन्हें खतरनाक व्यक्ति मानती थी और १९१७ ई. में उन्हें कुछ समय के लिए नजरबंद भी रखा गया। 'मान्टेग्यू सुधारों' की घोषणा होने पर श्रीमती बेसेन्ट ने पहले उनका समर्थन किया, किन्तु थोड़े समय के बाद उन्होंने उग्र राष्ट्रवादियों के दृष्टिकोण का जोरदार समर्थन आरम्भ कर दिया। इसी बीच उन्होंने अपने धर्मपुत्र जे. कृष्णमूर्ति को भावी विशवगुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया और नये अध्यात्मवादी दल की स्थापना की। १९२६-२७ ई. में श्रीमती एनी बेसेन्ट ने कृष्णमूर्ति के साथ इंग्लैंड और अमेरिका का व्यापक भ्रमण किया और अपने जोशीले भाषणों में उनके नये मसीहा होने के दावे का समर्थन किया। भारत लौटने पर बालक कृष्णमूर्ति के पिता के साथ उनकी मुकदमेबाजी शुरू हो गयी। इस कांड से उनकी प्रतिष्ठा को काफी धक्का लगा। १९३३ ई. में भारत में उनका निधन हुआ। अपनी भाषण-पटुता, संगठन-क्षमता और स्वाधीनता प्रेम के कारण वे भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की अग्रगी नेता बन गयीं, यह निश्चय ही एक अंग्रेज महिला के लिए अभूतपूर्व सम्मान था। प्रतिभा-सम्पन्न लेखिका और स्वतन्त्र विचारक के नाते उन्होंने ब्रह्म विद्या पर प्रचुर रूप में लिखा है। उन्होंने अपनी आत्मकथा १८९३ ई. में प्रकाशित की थी, और १९०२ ई. में प्रकाशित 'रिलीजस प्राबलेम इन इंडिया' (भारत में धार्मिक समस्या) उनकी अन्तिम महान् साहित्यिक कृति थी। 'हाऊ इंडिया राट फार फ्रीडम' में उन्होंने भारत को अपनी मातृभूमि बताया है।

बेस्ट, कप्तान : अंग्रेजों के लड़ाकू जहाज 'ड्रैगाँन' का कप्तान। नवम्बर १६१२ ई. में एक अन्य छोटे जहाज 'ओसियान्दर' के सहारे उसने हिन्द महासागर में पुर्तगाली बेड़े को, जिसमें चार बड़े और पचीस छोटे जहाज थे, हरा दिया। इसी घटना से भारतीय राजनीतिम अंग्रेजी जहाजी बेड़े का दबदबा छा गया, क्योंकि इस लड़ाई की खबर से मुगल बादशाह जहाँगीर का यह पुराना ख्याल जाता रहा कि यूरोपियन शक्तियों में पुर्तगाली सबसे शक्तिशाली हैं।

बैक्ट्रिया (बाख्त्री) : हिन्दू कुश और आक्सस नदी के बीच का क्षेत्र। यह क्षेत्र सीरिया के सिल्यूकीडियन साम्राज्य का अंग था, लेकिन २०२ ईसा पूर्व में यहाँ युथिडिमास नामक यवन राजा ने अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया। उसके उत्तराधिकारी डेमेट्रिअस ने अफगानिस्तान और पंजाब के क्षेत्र को जीत लिया। यूनानी इतिहासकारों ने उसे भारत का राजा लिखा है। उसने बैक्ट्रिया के यवनों और पश्चिमोत्तर भारत के लोगों में निकट सम्पर्क स्थापित कर दिया। शीघ्र ही उत्तर-पश्चिमी भारत के विभिन्न भागों में भारतीय-यवन राजाओं के छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये, जिनमें मेनाण्डर सबसे अधिक विख्यात है। बैक्ट्रिया के साथ इस सम्पर्क के परिणामस्वरूप भारतीय कला पर यवन प्रभाव पड़ा और मूर्तिकला की गंधार शैली का विकास हुआ।

बैजाबाई महारानी : दौलतराव सिंधिया (दे.) की पत्नी। १८२७ ई. में दौलतराव की मृत्यु के बाद वह नाबालिग उत्तराधिकारी जनकोजीराव की संरक्षिका बनी। वह बड़ी महत्त्वाकांक्षी महिला थी और सारा राज्य-प्रबंध अपने नियंत्रण में रखना चाहती थी। इसी वजह से राज्य-प्रबंध में छल-कपट और गड़बड़ी बढ़ गयी और उसके परिणामस्वरूप १८३३ ई. में उसको राज्य से निकाल दिया गया।

बैरकपुर का विद्रोह : बैरकपुर छावनी में दोबार विद्रोह हुआ। पहल १८२४ ई. में और दूसरा १८५७ ई. में हुआ। यह छावनी हुगली के किनारे कलकत्ता से १५ मील उत्तरस्थित थी। यहाँ गवर्नर-जनरल का देहाती निवास-स्थान था और कम्पनी की कुछ रेजीमेन्टें भी यहाँ रहती थीं। १८२४ ई. में भारतीय सेना का एक दस्ता प्रथम आंग्ल बर्मी युद्ध (१८२४-२६ ई.) में लड़ने के लिए भेजा जानेवाला था। भारतीय सेना के सिपाही जो इस दस्ते में थे, उन्हें उस समय के नियमों के अनुसार अपनी यात्रा की व्यवस्था खुद करनी थी जो यदि असम्भव नहीं तो भी बहुत कठिन कार्य था। लेकिन इस कठिनाई को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया गया। इसके अलावा हिन्दू सिपाही समुद्री यात्रा से भयभीत रहते थे, क्योंकि उनका विश्वास था कि समुद्री यात्रा करने से वे जातिच्युत हो जायेंगे। अतः ४७ वीं नेटिव इन्फेन्टरी तथा बैरकपुर स्थित कुछ अन्य रिसालों ने परेड के मैदान में आदेशों का पालन करने से इंकार कर दिया। पर अंग्रेज तोपचियों तथा इसके बंदूकधारी ब्रिटिश रिसालों को उन पर गोली वर्षा का आदेश दिया गया, जिससे परेड के मैदान में बूचड़खाने का दृश्य उपस्थित हो गया। इस घटना से ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना के भारतीय सैनिकों में अंग्रेजों के विरुद्ध भारी कटुता फैल गयी। बैरकपुर में सिपाहियों की दूसरी बगावत २९ वीं नेटिव इन्फेन्टरी के एक सिपाही ने अपनी रेजिमेन्ट के यूरोपीय एड्जुटेन्ट को परेड मैदान पर सभी सहयोगियों के सामने काट डाला और कोई सिपाही अपने स्थान से हिला तक नहीं। तत्काल ब्रिटिश सैनिकों को बुलाया गया और विद्रोहियों को या तो मार डाला गया था उन्हें कठोर रूप में दंडित किया गया। इस बगावत से बैरकपुर स्थित भारतीय सिपाहियों में काफी उत्तेजना फैल गयी और अन्त में उसने व्यापक सिपाही-विद्रोह का रूप ग्रहण कर लिया, जिससे ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की नींव हिल गयी।

बैरम खाँ : बादशाह हुमायूँ का सहयोगी तथा उसके नाबालिग पुत्र अकबर का वली अथवा संरक्षक। १५५६ ई. में हुमायूँ की मृत्यु होने पर बैरम खाँ ने अकबर को उसका उत्तराधिकारी तथा दिल्ली का बादशाह घोषित कर दिया, लेकिन शीघ्र ही दिल्ली उसके हाथ से निकल गयी। बैरम खाँ के सेनापतित्व में ही १५५६ ई. में पानीपत की दूसरी लड़ाई में अकबर की विजय हुई और दिल्ली के तख्त पर उसका अधिकार हुआ। इसके बाद चार वर्ष बाद तक बैरम खाँ अकबर का संरक्षक रहा और इस अवधि में मुगल सेनाओं ने ग्वालियर, अजमेर और जौनपुर राज्यों को जीत कर मुगल साम्राज्य में उन्हें शामिल कर लिया। बैरम खाँ ने मालवा जीतने की तैयारियाँ भी शुरू कर दीं। परन्तु इस बीच बहुत से दरबारी और स्वयं अकबर उसके विरुद्ध हो चुका था। अकबर १८ वर्ष का हो चुका था और उसके हाथ की कठपुतली बनकर नहीं रहना चाहता था। अतः १५६० ई. में उसने बैरम खाँ को बर्खास्त कर दिया। बैरम खाँ ने पहले तो उसकी आज्ञा चुपचाप मान ली और मक्का जाने की तैयारियाँ शुरू कर दी, परन्तु इसके बाद ही उसने बगावत का झंडा बुलन्द कर दिया। अकबर ने उसे परास्त कर दिया और उसके साथ दया का बर्ताव किया। उसने उसे मक्का जाने की इजाजत दे दी। परन्तु १५६१ ई. में मक्का जाते समय मार्ग में पाटन (गुजरात) में एक पठान ने उसकी हत्या कर दी। बाद में उसका पुत्र अब्दुर्रहमान अकबर का प्रमुख दरबारी बना।

बैर्ड, सर डेविड : लार्ड वेलेजली (१७९८-१८०५ ई.) के शासनकाल में कम्पनी की सेना का उच्च अधिकारी। १८०१ ई. में बैर्ड के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना लालसागर भेजी गयी जिससे मिस्र से फ्रांसीसियों को निकालने में मदद पहुँचायी जा सके। बैर्ड के काहिरा पहुँचने के पहले ही फ्रांसीसियों ने सिकन्दरिया में आत्मसमर्पण कर दिया था। लेकिन बैर्ड ने सेना का संचालन बड़ी योग्यता से किया, इस वजह से उसे 'सर' की उपाधि से विभूषित किया गया।

बोइन, बेनोय द (१७५१-१८३०)  : सेवाय (फ्रांस) में जन्म। सैनिक का पेशा ग्रहण कर उसने १७७८ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी की मद्रासी पलटन में नौकरी कर ली। कुछ समय बाद यहाँ से निकल कर महादजी शिन्दे के यहाँ नौकर हो गया और शिन्दे की सेनाओं को यूरोपीय युद्धकला की शिक्षा देने लगा। इस कार्य के लिए उसे बहुत अधिक वेतन मिलता था। बोइन की ही सहायता से शिन्दे ने जून १७९० ई. में पाटन का युद्ध जीता और मेड़ता के युद्ध (सितम्बर १७९० ई.) में पठानों, राजपूतों और मुगलों को एक साथ पराजित किया। इसके बाद वह शिन्दे का सेनाध्यक्ष हो गया। उसने लखेरी के युद्ध (सितम्बर १७९३ ई.) में होल्कर को पराजित किया। १७९४ ई. में महादजी शिन्दे की मृत्यु के पश्चात् बोइन ने उसके उत्तराधिकारी दौलतराय शिन्दे की सेवा शुरू की, लेकिन स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण दिसम्बर १७९५ ई. में त्यागपत्र दे दिया। दूसरे वर्ष वह लंदन होकर फ्रांस गया तथा वहीं बस गया। १८३० ई. में मृत्यु के उपरान्त उसने २ करोड़ फ्रैंक की सम्पत्ति छोड़ी।

बोगाज कोई : एशिया माइनर में एक स्थान, जहाँ महत्त्वपूर्ण पुरातत्त्व सम्बन्धी अवशेष प्राप्त हुए हैं। वहाँ के शिलालेखों में जो चौदहवीं शताब्दी ई. पू. के बताये जाते हैं, इन्द्र, दशरथ, आर्त्ततम आदि आर्यनामधारी राजाओं का उल्लेख है और इन्द्र, वरुण और नासत्य आदि आर्य देवताओं से संधियों का साक्षी होने की प्रार्थना की गयी है। इस प्रकार बेगाज कोई से आर्यों के निष्क्रमण मार्गों का संकेत मिलता है। (हाल-हिस्ट्री आफ इजिप्ट)

बोंग्ले, जार्ज : ईस्ट डिया कम्पनी का बंगाल में स्थित एक अधिकारी, जिसे १७७४ ई. में गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने व्यावसायिक सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए पहले पहल तिब्बत भेजा था। उसे अपने उद्देश्य में नगण्य सफलता मिली।

बोदापाया : बर्मा का राजा (१७७९-१८१९ ई.) जिसने १७८५ ई. में अराकान को और १८१३ ई. में मणिपुर को अपने राज्य में मिला लिया तथा १८१६ ई. में आसाम पर चढ़ाई की। तदनन्तर उसने ब्रिटिश भारत सरकार से चटगाँव, ढाका तथा मुर्शिदाबाद समर्पित कर देने की माँग की, किन्तु स्यामियों के हाथों पराजित हो जाने से उसकी महत्त्वाकांक्षाओं पर लगाम लग गयी और १८१९ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। लार्ड हेस्टिंग्स ने, जो उस समय गवर्नर-जनरल था, बर्मी राजा का पत्र इस टिप्पणी के साथ वापस कर दिया कि कदाचित् यह नकली है। इस प्रकार कुछ समय के लिए आँग्ल-बर्मी युद्ध टल गया।

बोध गया : बिहार के आधुनिक गया नगर से ६ मील दक्षिण नैरंजना नदी के तट पर स्थित। यहाँ बोधि वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ गौतम को बोधि प्राप्त हुई जिससे वे 'बुद्ध' कहे जाने लगे। बौद्धों का यह पवित्र तीर्थ स्थान है। आठवें स्तम्भ-लेख के अनुसार सम्राट् अशोक अपने राज्याभिषेक के दसवें वर्ष यहाँ आया था। अशोक ने बोध गया में एक विहार भी निर्मित कराया। कालांतर में यह स्थान बौद्धों के लिए तीर्थ बन गया और भारत से बाहर के बौद्ध तीर्थ-यात्रियों का भी यहाँ आना आरम्भ हो गया। समुद्रगुप्त (३३५-७५ ई.) के शासनकाल में सिंहलद्वीप के राजा मेघवर्ण ने भी गुप्त सम्राट् की अनुमति से यहाँ एक विहार निर्मित कराया था। लेकिन ४०५-११ ई. में भारत-भ्रमण करनेवाले चीनी यात्री फाह्यान ने इस स्थान को जंगलों से घिरा हुआ पाया। सातवीं शताब्दी के आरम्भ में इस स्थान पर और संकट उस समय आया जब गौड़ अथवा मध्य बंगाल के राजा शशांक ने जो बौद्ध धर्म से द्वेष करता था, पवित्र बोधिवृक्ष को कटवा कर जलवा दिया। बाद में हयुएनसांग के अनुसार मगध के स्थानीय राजा पूर्णवर्मा द्वारा, जिसे अशोक का वंशज बताया गया है, यहाँ दूसरा वृक्ष लगाया गया। इस स्थान की अब समुचित देखरेख होती है, यहाँ अच्छा विश्रामालय बन गया है और देश-देशान्तरों से बौद्ध तीर्थयात्री यहाँ निरन्तर आते रहते हैं। (स्मिथ.-पृष्ठ ३०३, ३१६, ३६७)

बोधिसत्त्व : बौद्धों के महायान सम्प्रदाय के अनुसार जो अर्हत बुद्धपदवी पाने के अधिकारी होने पर भी महाकरुणा से प्रेरित होकर सबके दुःखनाश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं, वे 'बोधिसत्‍त्व' कहलाते हैं। महायानियों में बुद्धों के साथ-साथ बोधिसत्त्वों की पूजा और भक्ति का विशेष स्थान है। (सर सी. ईटिलयर कृत हिन्दुइज्म एण्ड बुद्धिज्म)

बोप देव : संस्कृत का एक प्रसिद्ध वैयाकरण और कवि जो देवगिरि के पश्चात्कालीन यादव नरेशों के समय विद्यमान था.। उसका रचा हुआ 'मुग्धबोध' संस्कृत व्याकरण का मानक ग्रंथ माना जाता है।

बोरोबुदुर : जावा द्वीप का सर्वाधिक प्रसिद्ध बौद्ध स्तूप, जिसे ७५०-८५४ ई. में शैलेन्द्र राजवंश के एक शासक ने बनवाया था। इसके निर्माता का नाम ज्ञात नहीं है और न इसके निर्माण की तिथि ज्ञात है। बोरोबुदुर स्तूप आज भी शैलेन्द्र राजाओं के वैभवपूर्ण युग के स्मारक के रूप में विद्यमान है। इसे संसार का आठवाँ आश्चर्य माना जा सकता है। इसकी वास्तुशैली पर भारतीय प्रभाव सुस्पष्ट है। यह एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है।

इसमें ९ खंड हैं जो उत्तरोत्तर एक दूसरे से छोटे बनाये गये हैं। शीर्षस्थ खंड पर घंटे की आकृति का स्तूप है। इसका आकार अति विशाल है। सबसे नीचे के चौकोर खंड की लम्बाई १३१ गज है। बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ इसके शिलापट्टों पर उत्कीर्ण हैं। प्रदक्षिणा-मार्ग के शिलापट्टों पर बुद्ध के जीवन की अनेक घटनाएँ उत्कीर्ण हैं, जिनमें से कुछ 'ललित विस्तर' से लो गयी हैं। यह स्तूप जावा और उसके पड़ोस के द्वीपों पर शासन करनेवाले भारतवंशी राजाओं की वास्तुशिल्पीय परिकल्पना की भव्यता का उत्कृष्ट उदाहरण है। (आर. सी. मजूमदार सुवर्णद्वीप, जिल्द दो तथा ए. के. कुमार स्वामी-हिस्ट्री आफ इडियन एण्ड इंडोनेशियन आर्ट)

बोर्ड आफ़ कन्ट्रोल : भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रशासन को ब्रिटिश सरकार द्वारा नियन्त्रित करने के लिए १७८४ ई. के पिट के इंडिया ऐक्ट के अन्तर्गत गठित। प्रिवी कौंसिल के मेम्बरों में से छः व्यक्ति इसके सदस्य हुआ करते थे, जिन्हें इस कार्य के लिए कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता था। उनमें से ही एक इसका अध्यक्ष होता था, जिसे निर्णायक मताधिकार प्राप्त था। बोर्ड को नियुक्तियाँ करने अथवा वाणिज्य सम्बन्धी मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं था। लेकिन भारत सरकार के समस्त असैनिक अथवा सैनिक मामलों तथा राजस्व से सम्बन्धित समस्त मामलों की देख-रेख, निर्देश और उनके नियंत्रण का अधिकार उसी के हाथ में था। कोर्ट आफ़ डाइरेक्टर्स के द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी को जो खरीते भेजे जाते थे, उनपर इसकी सहमति प्राप्त होना आवश्यक था। वह बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स की बिना स्वीकृति के स्वयं भी आदेश भेज सकता था। बोर्ड आफ कन्ट्रोल का प्रथम अध्यक्ष हेनरी डुण्डास, पिट का एक मित्र तथा उसके मंत्रिमंडल का सदस्य था। डुण्डास के बुद्धिमतापूर्ण कार्यों के फलस्वरूप अध्यक्ष पद को शीघ्र ही सेक्रेटरी आफ़ स्टेट फ़ार इंडिया (भारत-मंत्री) के समकक्ष बना दिया। इस प्रकार शनै-शनैः भारत के प्रशासन पर बोर्ड आफ़ कन्ट्रोल की सत्ता में काफी वृद्धि हो गयी। गदर के उपरान्त जब १८५९ के कानून के अन्तर्गत भारत का प्रशासन ब्रिटिश राजसत्ता को हस्तान्तरित किया गया, तब बोर्ड आफ कन्ट्रोल को समाप्त कर दिया गया। उसका अध्यक्ष सेक्रेटरी आफ स्टेट फार इंडिया (भारत मंत्री) हो गया और बोर्ड का विलयन उसकी भारत परिषद् में कर दिया गया। लार्ड एलनबेरा बोर्ड आफ कंट्रोल का अन्तिम अध्यक्ष था। (सर सी. इलबर्ट-गवर्नमेंट आफ इंडिया; बी. कीथ-कांस्टीट्यूशनल हिस्ट्री आफ इंडिया)

बोर्ड आफ ट्रेड : ईस्ट इंडिया कम्पनी के वरिष्ठ अधिकारियों का एक संगठन, जो भारत के प्रशासन के साथ-साथ कम्पनी की व्यापारिक कार्रवाइयोंको भी नियंत्रित करता था। इसके सभी मेम्बर व्यक्तिगत रूप से व्यापार में रुचि लेते थे, उनके प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष के समर्थन से ईस्ट इंडिया कम्पनी के सभी कर्मचारी निजी व्यवसाय करने लगे, जिससे देश और साथ ही कम्पनी को भी काफी आर्थिक क्षति होती थी। लार्ड कार्नवालिस के आरम्भिक कार्यों में इसको नियंत्रित करने का काम सबसे महत्त्वपूर्ण था। उसने पहले इसके भ्रष्ट सदस्यों को निकाल दिया और इसका पुनर्गठन कर ऐसे सदस्यों को उसमें रखा जिनका प्रशासन से कोई सरोकार नहीं था। इस प्रकार बोर्ड कम्पनी के केवल व्यावसायिक कार्यों की ही देखरेख करता था। धीरे-धीरे इसका महत्त्व कम होता गया क्योंकि कम्पनी के व्यापारिक अधिकार सीमित थे और १८३३ ई. में व्यावसायिक संगठन के रूप में ईस्ट इंडिया कम्पनी के समाप्त किये जाने पर यह भी समाप्त हो गया।

बोर्ड आफ रेवेन्यू (राजस्व परिषद्) : इसका गठन १७७२ ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने उस समय किया जब ईस्ट इंडिया कम्पनी दीवानी का कार्य कर रही थी। दो नायब दीवानों के पद समाप्त कर दिये गये और आरम्भ में गवर्नर तथा उसकी परिषद् ने राजस्व परिषद् के रूप में कार्य शुरू किया, किन्तु १७८७ ई. में इसे पुनर्गठित किया गया। गवर्नर की परिषद् का एक सदस्य इसका अध्यक्ष तथा कम्पनी के कुछ वरिष्ठ अधिकारी सदस्य बनाये गये। लार्ड कार्नवालिस ने सर जान शोर की नियुक्ति राजस्व परिषद् के अध्यक्ष के रूप में की और उसको बंगाल में भू-राजस्व की दीर्घकालिक प्रणाली शुरू करने के बारे में रिपोर्ट प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी सौंपी। शोर बन्दोबस्त के विरुद्ध था किन्तु लार्ड कार्नवालिस के अनुरोध पर बंगाल में भू-राजस्व की स्थायी प्रणाली चालू करायी गयी। इस व्यवस्था से कलकत्ता स्थित राजस्व-परिषद् का महत्त्व बढ़ गया और एक सुयोग्य अधिकारी की अधीनता में उसने अपना कार्य भी जारी रखा। राजस्व परिषद् आज भी कार्यरत है और उसका प्रभारी अधिकारी वरिष्ठ प्रशासकों में से ही होता है। इसका सम्बन्ध मुख्यतः माल के मामलों से ही रहता है।

बोलन दर्रा : सिन्धु के मैदान को अफगानिस्तान स्थित कलात और कन्धार के क्षेत्रों से जोड़नेवाला संकीर्ण मार्ग। इस पर कब्जा रखना उन अनेक कारणों में मुख्य माना जाता था जिनसे उन्नीसवीं शताब्दी में आंग्ल-अफगान सम्बन्ध प्रभावित होते थे।

बोस, आनन्द मोहन (१८४७-१९०६ ई.)  : अपने समय के प्रमुख जनसेवी। मेमनसिंह जिले के मध्यवर्गीय हिन्दू परिवार में जन्म। शिक्षा प्रेसीडेन्सी कालेज कलकत्ता में हुई। १८६७ ई. में गणित में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त कर 'प्रेमचन्द रायचन्द छात्रवृत्ति' पायी। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में १८७३ ई. में रैगलर होनेवाले प्रथम भारतीय। १८७४ ई. में बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौट आने पर इन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा का राजनीतिज्ञ, शिक्षाविद् और धार्मिक सुधारक के रूप में देश की सेवा में उत्सर्ग कर दिया। वे इंडियन एसोसियेशन के, जिसकी स्थापना कलकत्ता में १८७६ ई. में की गयी थीं, प्रथम संस्थापक सचिव थे।

१८८३ ई. में भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन कलकत्ता में संपन्न कराने में उन्होंने प्रमुख योगदान किया जिससे १८८५ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ। वे आजीवन कांग्रेस के प्रमुख सदस्य रहे और १८९८ ई. में मद्रास में होनेवाले कांग्रेस के चौदहवें अधिवेशन की अध्यक्षता की। उन्होंने बंग-भंग विरोधी आन्दोलन में प्रमुख भाग लिया और स्वदेशी आन्दोलन चलाने का सुझाव देनेवालों में वे अग्रणी थे। मृत्यु से कुछ महीने पूर्व उनका अन्तिम सार्वजनिक कार्य, १६ अक्तूबर, १९०५ ई. को कलकत्ता में फेडरेशन हाल का शिलान्यास करना था। शिक्षाविद् के रूप में उन्होंने देश की जो सेवा की, कलकत्ता का सिटी कालेज और मेमनसिंह स्थित आनन्द मोहन कालेज उसका साक्षी है। वे अत्यधिक धर्मभीरु और बुद्धिवादी दृष्टिकोण से सम्पन्न व्यक्ति थे। जीवन के आरम्भिक दिनों में वे ब्रह्म समाज आन्दोलन के विकास में प्रमुख भाग लिया। वे साधारण ब्रह्म समाज के प्रथम अध्यक्ष भी हुए और इस संगठन का लोकतांत्रिक विधान उन्हीं की देन है। (एच. सी. सरकार-ए लाइफ आफ आनन्द मोहन बोस)

बोस, सर जगदीश चन्द्र (१८५८-१९३७ ई.) : ख्यातिप्राप्ति भारतीय वैज्ञानिक, वनस्पति विज्ञान तथा भौतिक शास्त्री, जन्म बंगाल के ढाका जिले में। शिक्षा सेण्ट जेवियर्स कालेज, कलकत्ता और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में, जहाँ से उन्होंने १८८४ ई. में उच्च सम्मान के साथ डिग्री प्राप्त की। १८९६ ई. में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयसे वे डी. एस सी. हुए तथा प्रेसीडेन्सी कालेज कलकत्ता में भौतिक विज्ञान के १८८५ ई. से १९१५ ई. तक प्रोफेसर रहे। १९१७ ई. में कलकत्ता में बोस शोध-संस्थान (बोस रिसर्च इंस्टीच्यूट) की स्थापना की और १९३७ ई. में मृत्युपर्यन्त वे उसके डाइरेक्टर रहे।

भारतीय वैज्ञानिकों में वे अग्रगण्य थे। उन्हें अपने वैज्ञानिक शोध कार्यों में भारी विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ा। उन्होंने भौतिक विज्ञान में विद्युत्-विकिरण के क्षेत्र में और पूर्ण जीव एवं वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण अन्वेषणकार्य किया। उन्होंने पौधों पर निद्रा, हवा, भोजन और औषधियों का प्रभाव सिद्ध करने के लिए नये प्रयोगात्मक तरीके अपनाये और नये उपकरणों का आविष्कार किया। उन्होंने प्रदर्शित किया कि पौधों और जन्तुओं के ऊतकों (टिशुओं) की प्रतिक्रियाओं में कितनी समानता है। उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं- 'रिस्पॉन्स इन दि लिविंग एण्ड दि नान लिविंग (१९०२) 'प्लान्ट रिस्पान्सेज' (१९०६) तथा 'मोटर मेकनिज्म आफ प्लान्ट्स' (१९२८), (पी. गेड्डेस- दि लाइफ एण्ड वर्क आफ सर जगदीश चन्द्र बोस तथा सर जे. सी. बोस)

बोस, सुभाषचन्द्र : नेताजी के नाम से विख्यात; मध्यवर्गीय सम्भ्रांत बंगाली परिवार में २३ जनवरी, १८९७ ई. को कटक, उड़ीसा में जन्म। वे १९१९ ई. में बी. ए. परीक्षा पास कर इंग्लैंड चले गये। १९२० ई. में इंडियन सिविल सर्विस परीक्षा में बैठे और योग्यताक्रम से उनका चौथा स्थान आया, लेकिन फिर उससे त्यागपत्र दे दिया। १९२१ ई. में स्वदेश लौटने पर वे चित्तरंजन दास (दे.) और गांधीजी की प्रेरणा से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गये। उनका राजनीतिक जीवन भारत की स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध एक लम्बे संघर्ष की कहानी है। उन्हें पहली बार दिसम्बर १९२१ ई. में ६ महीने की जेल हुई और उसके बाद तो उन्हें ग्यारह बार कारावास दंड मिला। उन्होंने १९२४ ई. में कलकत्ता कार्पोरेशन के मुख्य अधिकारी के रूप में अपनी विलक्षण संगठन-क्षमता का परिचय दिया। अक्तूबर १९२४ ई. से १६ मई १९२७ ई. तक उन्हें मांडले में न्यू बंगाल आर्डिनेन्स के अन्तर्गत नजरबंद रखा गया।

वे कांग्रेस में नरम विचारधारा के विरोधी थे और १९२८ ई. में ही कलकत्ता में हुई कांग्रेस की विषय-समिति की बैठक में उन्होंने औपनिवेशिक स्वराज्य सम्बन्धी प्रस्ताव का विरोध किया था। वे भारत में ब्रिटिश शासन को किसी भी रूप में जारी रखने के प्रबल विरोधी थे और ब्रिटिश सरकार ने उन्हें बराबर विभिन्न तरीकों से जेल में बंदी बना कर रखा। १९३८ ई. में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये और १९३९ ई. में महात्मा गांधी के विरोध के बावजूद कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में मुझाव दिया कि स्वाधीनता की राष्ट्रीय माँग एक निश्चित समय के अन्दर पूरी करने के लिए ब्रिटिश सरकार के सामने रखी जाये, और ब्रिटिश सरकार द्वारा निर्धारित अवधि तक माँग पूरी न करने पर सविनय-अवज्ञा तथा सत्याग्रह आन्दोलन शुरू कर देना चाहिए। किन्तु कांग्रेस वर्किंग कमेटी के बहुसंख्यक सदस्यों के, जो महात्मा गांधी के कट्टर अनुयायी थे, निरन्तर विरोध के फलस्वरूप उन्हें अप्रैल १९३९ ई. में अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे देना पड़ा।

उसके बाद उन्होंने दोहरा संघर्ष किया। एक तरफ तो उनका संघर्ष ब्रिटिश भारत सरकार से था जिसे वे हर तरीके से उखाड़ फेंकना चाहते थे और दूसरी ओर महात्मा गांधी की अहिंसा नीति की समर्थक पार्टी से था। उन्होंने अहिंसा को एक साधन के रूप में ही स्वीकार किया, साध्य के रूप में नहीं। उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध पूरे जोर पर था और सुभाषचन्द्र इस बात के पक्ष में थे कि भारत को अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति का पूरा पूरा लाभ उठाना चाहिए और भारत के लिए सम्मानजनक शर्तों पर इंग्लैंड के शत्रुओं से सशस्त्र सहायता प्राप्त करनी चाहिए। स्वाभाविक रूप से ब्रिटिश सरकार उन्हें सबसे खतरनाक व्यक्ति मानने लगी और उन्हें पुलिस की कड़ी निगरानी में घर में ही नजरबन्द कर दिया।

किन्तु सुभाषचन्द्र २६ जनवरी १९४१ ई. को चुपके से अपने घर से निकल भागे और स्थल मार्ग से काबुल और वहाँ से जर्मनी पहुँच गये। अगले वर्ष दक्षिण पूर्व एशिया स्थित भारतीयों के एक सम्मेलन में उन्हें आजाद हिन्द फौज तथा इंडियन इंडिपेन्डेन्स लीग की जिम्मेदारी सम्भालने के लिए आमंत्रित किया गया। तदनुसार १९४३ ई. में सुभाषचन्द्र बोस एक पनडुब्बी में सवार होकर जर्मनी से सिंगापुर पहुँचे, जहाँ से उस समय तक अंग्रेजी सेना हट आयी थी। उन्होंने तत्काल उन भारतीय सैनिकों को संगठित किया जिन्हें पीछे हटते हुए अंग्रेजों ने मलय प्रायद्वीप में छोड़ दिया था। उनके द्वारा संगठित सेना 'आजाद हिन्द फौज' के नाम से प्रसिद्ध हुई।

२१ अक्तूबर १९४३ ई. को उन्होंने अस्थायी आजाद हिन्द सरकार गठित करने का अपना प्रसिद्ध घोषणापत्र जारी किया और इसके बाद भारत को स्वाधीन करने के लिए पूर्व की तरफ से ब्रिटिश भारतीय क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने बर्मा की सीमा पर आजाद हिन्द फौज के अभियान का स्वयं नेतृत्व किया और मणिपुर स्थित कोहिमा तक बढ़ आये। किन्तु हथियारों और गोला-बारूद की कमी, विशेष रूप से हवाई जहाजों के अभाव के कारण उन्हें १९४४ ई. में मणिपुर के मोर्चे से पीछे हटने के लिए बाध्य होना पड़ा।

इस बीच जापान पराजित हो गया और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की किसी प्रकार से कोई सहायता करने की स्थिति में नहीं रह गया। अतः उन्हें सिंगापुर से एक विमान द्वारा जापान के लिए रवाना होना पड़ा, किन्तु उनका विमान थैहोकू नामक स्थान पर गिरकर नष्ट हो गया और इस दुर्घटना में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का १८ अगस्त, १९४५ ई. को प्राणांत हो गया, फिर भी उनका तूफानी जीवन निरर्थक नहीं गया। उन्होंने देशवासियों में अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर करने और स्वाधीनता प्राप्त करने की उद्दाम इच्छा जाग्रत कर दी, जिसके फलस्वरूप १९४७ ई. में देश स्वतंत्र हो गया। (सुभाषचन्द्र बोस कृत आटोबायोग्राफी; पी. डी. सग्गीकृत लाइफ एण्ड वर्क आफ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस)

बोस्कावन, एडमिरल एडवर्ड : जून १७४८ ई. में एक संगठित जहाजी बेड़े के साथ फ्रांसीसियों से बदला लेने के लिए आया, जिन्होंने मद्रास पर कब्जा कर लिया था। बोस्कावेन ने पांडिचेरी पर घेरा डाल दिया, किन्तु उसने यह कार्रवाई ऐसी ढिलाई के साथ की जिससे पांडिचेरी में फ्रांसीसी फौजें वर्षाऋतु तक डटी रहीं। वर्षाऋतु प्रारम्भ हो जाने पर उसे अपना बेड़ा हटा लेना पड़ा। १७४८ ई. में एक्सला चैपेल की संधि द्वारा युद्ध की समाप्ति पर वह अपना बेड़ा लेकर इग्लैंड वापस चला गया।

बौद्धधर्म : की स्थापना गौतम बुद्ध ने ई. पू. छठीं शताब्दी के उत्तरार्ध में की। यह मूलरूप से पुनर्जन्म तथा कर्म के सिद्धांतों पर आधृत है जिनको तत्कालीन भारतीय दार्शनिक इतना सत्य मानते थे कि उनके लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं थी। कर्मवाद की मान्यता के अनुसार जीव के पूर्वजन्म के अच्छे और बुरे कर्मों के अनुसार उसकी वर्तमान जीवन-दशा निश्चित होती है। पुनर्जन्मवाद के अनुसार मृत्यु होने पर शरीर नष्ट हो जाता है, किन्तु आत्मा अमर होने के कारण मुक्ति प्राप्त होने तक नये जन्म लेता रहता है। परन्तु बौद्धधर्म हिन्दुओं के आत्मवाद को नहीं मानता। उसकी मान्यता के अनुसार एक जन्म का कर्मभव दूसरे जन्म के उपपत्तिभव को व्यवस्थित करता है।

बौद्धधर्म चार आर्य सत्यों पर आधृत है: (१) संसार दुःखमय है; (२) दुःखों का कारण है; (३) दुःख का नाश होता है; तथा (४) दुःखों के नाश के लिए उपाय भी है। बौद्धधर्म की मान्यता के अनसार दुःखों का मूल कारण तृष्णा है, अतः तृष्णा के क्षय से भवचक्र तथा दुःखों से मुक्ति मिलती है। तृष्णा के क्षय के लिए अष्टांग मार्ग का उपदेश दिया गया है।

(१) सम्यक् दृष्टि अर्थात्, चार आर्य सत्यों तथा भवचक्र के कारणों का ज्ञान; (२) सम्यक् संकल्प अर्थात् सांसारिक विषयों, राग-द्वेष तथा हिंसा के परित्याग के लिए दृढ़ संकल्प: (३) सम्यक् वाक् अर्थात् मिथ्‍या, अनुचित तथा दुर्वचनों का परित्याग; (४) सम्यक् कर्म अर्थात् हिंसा, परद्रव्य का अपहरण तथा वासना की पूर्ति की इच्छा का परित्याग; (५) सम्यक् आजीविका अर्थात् न्यायपूर्ण जीविका; (६) सम्यक् व्यायाम अर्थात् बुराइयों का नाश करके अच्छे कर्म के लिए उद्यत रहना; (७) सम्यक् स्मृति अर्थात् लोभादि को रोककर चित्तशुद्धि; तथा (८) सम्यक् समाधि अर्थात् चित्त की एकाग्रता।

अष्टांग मार्ग को मध्य मार्ग भी कहा गया है, क्योंकि यह दोनों अन्तों (छोरों) लोक में आसक्ति तथा कायक्लेश से बचने का उपदेश देता है। इस मार्ग पर चलने से निर्वाण की प्राप्ति होती है, जिसे बौद्धधर्म में जीवन का परम लक्ष्य माना गया है।

गृहस्थ, श्रावक भी निर्वाण-प्राप्ति का अधिकारी बन सकता है।

कालान्तर में बौद्धधर्म का उसके जन्मस्थान भारत में लोप हो गया। उसके ह्रास के अनेक कारण थे। बौद्ध विहारों में धीरे-धीरे अतुल सम्पत्ति एकत्र हो गयी जिससे भिक्षुओं के जीवन में शिथिलाचार का प्रवेश हो गया और बहुत से अवांछनीय तथा अयोग्य व्यक्ति भी भिक्षु जीवन की ओर आकर्षित होने लगे। गृहस्थों की तुलना में भिक्षुओं की संख्या बहुत अधिक हो गयी और बौद्धधर्म क्रमिक रूप से निवृत्ति एवं आचार-प्रधान धर्म से प्रवृत्ति-प्रधान महायान में परिवर्तित हो गया। बाद में उसमें तन्त्रवाद के रूप में खुले व्यभिचार का प्रवेश हुआ। उधर शंकराचार्य (दे.) और कुमारिल भट्ट (दे.) सदृश विद्वानों ने हिन्दू धर्म को नवोन्मेष प्रदान किया। अन्त में मुसलमानों के आक्रमण के फलस्वरूप भारत से बौद्धधर्म का पूर्ण लोप हो गया, हालांकि संसार की एक तिहाई जनसंख्या आज भी बौद्ध धर्मावलम्बी है। (एस. राधाकृष्णन् कृत हिस्ट्री आफ इंडियन फिलासफी खंड १; राइस डेविड्स कृत बुद्धिज्म; थामस कृत हिस्ट्री आफ बुद्धिस्ट थाट; सर चार्ल्स ईलियट कृत हिन्दुइज्म एण्ड बुद्धिज्म, तीन खंडों में; ई. कौजे कृत बुद्धिज्म, इट्स इसेन्स एण्ड डेवलपमेण्ट)

बौद्ध संगीति : का आयोजन चार बार हुआ। पहली संगीति (महासभा) गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद ही राजगृह (आधुनिक राजगिरि) में हुई। इसमें बौद्ध स्थाविरों (थेरों) ने भाग लिया और बुद्ध के प्रमुख शिष्य महाकस्यप (महाकश्यप) ने उसकी अध्यक्षता की। चूँकि बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं को लिपिबद्ध नहीं किया था, इसलिए संगीति में उनके तीन शिष्यों-महापण्डित महाकाश्यप, सबसे वयोवृद्ध उपालि तथा सबसे प्रिय शिष्य आनन्द ने उनकी शिक्षाओं का संगायन किया। तत्पश्चात उनकी ये शिक्षाएँ गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक चलती रहीं, उन्हें लिपिबद्ध बहुत बाद में किया गया।

एक शताब्दी बाद बुद्धोपदिष्ट कुछ विनय-नियमों के सम्बन्ध में भिक्षुओं में विवाद उत्पन्न हो जाने पर वैशाली में दूसरी संगीति हुई। इस संगीति में विनय-नियमों को कठोर बनाया गया और जो बुद्धोपदिष्ट शिक्षाएँ अलिखित रूप में प्रचलि‍त थीं उनमें संशोधन किया गया।

बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के २३६ अनुश्रुतियों के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के २३६ वर्ष बाद सम्राट् अशोक के संरक्षण में तीसरी संगीति हुई, जिसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्धग्रंथ 'कथावत्थु' के रचयिता तिस्स मोग्गलीपुत्र ने की। विश्वास किया जाता है कि इस संगीति में त्रिपिटक (दे.) को अन्तिम रूप प्रदान किया गया। यदि इसे सही मान लिया जाय कि अशोक ने अपना सारनाथ वाला स्तम्भलेख इस संगीति के बाद उत्कीर्ण कराया, तब यह मानना उचित होगा कि इस संगीति के निर्णयों को इतने अधिक बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों ने स्वीकार नहीं किया कि अशोक को धमकी देने पड़ी कि संघ में फूट डालनेवालों को कड़ा दण्ड दिया जायगा।

चौथी और अंतिम संगीति कुषाण सम्राट् कनिष्क के शासनकाल (लगभग १२०-१४४ ई.) में हुई। इस संगीति में त्रिपिटक का प्रामाणिक भाष्य तैयार किया गया, जिसे ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराकर कुंडल वन-विहार में स्तूप का निर्माण कराकर उसी में सुरक्षित रख दिया गया। इन ताम्रपत्रों को अभी तक उपलब्ध नहीं किया जा सका है। (कर्न-मैनुएल आफ बुद्धिज्म; राइस डेविड्स-बुद्धिज्म; इंडियन हिस्टारिकल क्वार्टरली, मार्च १९५९)

बौद्ध साहित्य  : कि रचना गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद हुई। गौतम बुद्ध ने अपने उपदेशों को लिपिबद्ध नहीं किया। उनके निर्वाण के बाद ही राजगृह में प्रथम संगीति में उनके तीन प्रमुख शिष्यों, आनन्द, उपालि तथा कश्यप ने उनकी शिक्षाओं का सर्वप्रथम संगायन किया। विश्वास किया जाता है कि त्रिपिटक में बुद्ध के इन्हीं वचनों का संग्रह है। अनेक शताब्दियों तक इन बुद्ध-वचनों का संगायन होता रहा और वे गुरु-शिष्य परम्परा से केवल मौखिक रूप में प्रचलित रहे। ई. पू. ८० में सिंहलद्धीप के राजा वट्टगामणि के शासनकाल में इनको सर्वप्रथम लिपिबद्ध किया गया। त्रिपिटक में सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्मपिटक की गणना होती है। सुत्तपिटक में बुद्ध के उपदेशों और संवादों का संग्रह है। विनयपिटक में भिक्षु संघ के आचार-विचार एवं नियमों का तथा अभिधम्मपिटक में बौद्धधर्म के आध्‍यात्मिक एवं दार्शनिक विचारों का संग्रह है। सुत्तपिटक के पाँच बड़े विभाग हैं, जो 'निकाय' के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनके अन्तर्गत धम्मपद, थेरगाथा, थेरीगाथा तथा जातक आदि ग्रन्थ हैं। विनयपिटक भी तीन विभागों में विभक्त है। अभिधम्म पिटक के सात विभाग हैं, जिनमें धम्मसंगणि मूल ग्रन्थ माना जाता है।

इस समय त्रिपिटक साहित्य चार भाषाओं में मिलता है। उसका पाली संस्करण मुख्य रूप से सिंहलद्वीप, बर्मा तथा स्याम में प्रचलित है। नेपाल तथा मध्य एशिया के बौद्ध केन्द्रों में उसका संस्कृत रूपान्तर प्रचलित है। उसका चीनी भाषा में अनुवाद संस्कृत से हुआ तथा ईसवी सन् की नवीं तथा ग्यारहवीं शताब्दी के बीच भोट भाषा में रूपान्तर हुआ। उसका जापानी रूपांतर १०० जिल्दों में उपलब्ध है, जिनमें से प्रत्येक में एक हजार पृष्ठ हैं।

त्रिपिटक के अतिरिक्त नागसेन रचित 'मिलिन्दपन्हो' (लगभग १४७ ई. पू.) तथा बुद्धघोष रचित 'विशुद्धिमग्ग' बौद्धों के प्रमुख धर्मग्रन्थ हैं। (ताकाकुशु कृत एशेन्शियल्स आफ बुद्धिस्ट फिलासफी)

बौद्धों में सम्प्रदाय-भेद : इस कारण हुआ कि गौतम बुद्ध के जीवनकाल में उनकी शिक्षाओं को लिपिबद्ध नहीं किया गया था। फलतः उनके परिनिर्वाण के बाद ही भिक्षु भिक्षुणियों के आचार-नियमों तथा उनके वचनों के अभिप्राय को लेकर उनके शिष्यों में वाद-विवाद होने लगा। उनके परिनिर्वाण के एक शताब्दी के अन्दर ही बौद्धों में अनेक निकायों (सम्प्रदायों) का आविर्भाव हो चुका था, जिनमें दो मुख्य निकाय बाद में हीनयान और महायान के नाम से प्रसिद्ध हुए। हीनयान निकाय का साहित्य पाली भाषा में तथा महायान का संस्कृत भाषा में निबद्ध होने के कारण हीनयान को पाली निकाय तथा महामान को संस्कृत निकाय भी कहते हैं। हीनयान मुख्य रूप से श्रीलंका (सिंहल द्वीप) तथा बर्मा में प्रचलित होने के कारण बहुधा दक्षिणी बौद्धधर्म भी कहा जाता है। इसी प्रकार महायान मुख्यरूप से नेपाल, चीन, तिब्बत मंगोलिया, कोरिया तथा जापान में प्रचिलत होने के कारण उत्तरी बौद्ध धर्म भी कहा जाता है। हीनयान और महामान, दोनों ही यान (मार्ग) बौद्धधर्म के निकाय होने के कारण कुछ लोग उसके साथ 'हीन' तथा 'महा' विशेषण का प्रयोग उचित नहीं मानते और इसीलिए वे हीनयान को स्थविरों (थेरों) का मार्ग अथवा स्थविरवाद (थेरवाद) कहना पसंद करते हैं।

बौद्धधर्म में सम्प्रदाय-भेद किस काल में हुआ, यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। महायान का आविर्भाव अचानक नहीं हुआ, वरन् उसका विकास अनेक शताब्दियों में क्रमिक रीति से हुआ। कुछ लोग महायान का उद्गम महासंधिक और सर्वास्तिवादी निकायों से मानते हैं, जो ई. पू. ३५० में वर्तमान थे। अशोक (लगभग ई. पू. २७३-२३१) के शिलालेखों में महायान के अस्तित्व का कोई संकेत नहीं मिलता। कनिष्क (राज्यारोहण लगभग १२० ई.) के शासनकाल में चौथी बौद्ध धर्मसंगीति (धर्म महासभा) हुई। उस समय भी महायान का विशेष प्रचार नहीं था, हालांकि नागार्जुन ने, जो कनिष्क का समकालीन एवं आश्रित था, अपनी 'कारिका' में हीनयान के मतों का खंडन किया है। ईसवी सन् की चौथी शताब्दी में जब फाहियान भारत आया था तो उसने सभी स्थानों पर हीनयानी भिक्षुओं के विहारों के साथ-साथ महायानी भिक्षुओं के विहार भी पाये थे। अतः महायान का विकास ईसवी सन् की दूसरी और चौथी शताब्दी के मध्य हुआ होगा। इसी काल में बहुत से विदेशियों ने भी बौद्धधर्म ग्रहण किया। इस आधार पर यह मत प्रतिपादित किया जाता है कि महायान का विकास इनकी प्रवृत्तियों को ध्यान में रख कर हुआ। परन्तु यह मत भी युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि महायान का विकास भारतीय बौद्धों की आध्यात्मिक तथा दार्शनिक प्रवृत्तियों के आधार पर हुआ, हालांकि बाद के युगों में यह भारत की अपेक्षा भारत के बाहर के देशों में अधिक लोकप्रिय हुआ।

हीनयान और महायान निकाय में व्यापक सिद्धान्त भेद है। हीनयानवादियों के अनुसार सिद्धार्थ गौतम बुद्धपद लाभ करनेवाले एकमात्र बुद्ध थे, जिन्होंने स्वयं निर्वाण लाभ किया और जिनकी शिक्षाओं का अनुसरण करने से अन्य लोग भी इस जीवन अथवा परवर्ती जीवन में निर्वाण-लाभ कर सकते हैं। इस मार्ग में बुद्ध अथवा बुद्ध अथवा बुद्ध प्रतिमाओं की पूजा अर्चना तथा भक्ति का कोई स्थान नहीं है, क्योंकि हीनयानी बुद्ध को ईश्वर न मानकर महापुरुष मानते हैं, जिन्होंने अपने पुरुषार्थ से बुद्धत्व लाभ कर भवचक्र के कारणभूत कर्मबीजों को दग्ध कर दिया था। प्रत्येक व्यक्ति उन्हीं की भाँति अपने पुरुषार्थ से तृष्णा का क्षय करके तथा अष्टांगिक मार्ग के अनुकूल सम्यक् जीवन अपना करके निर्वाण लाभ कर सकता है। महायानियों के अनुसार असंख्य बुद्धों में सिद्धार्थ गौतम भी बुद्धावतार थे। अतीत काल में भी अनेक बुद्ध हो चुके हैं और अनागतकाल में भी होंगे। केवल इस लोक में ही नहीं, गंगा नदी की बालू के कणों की भाँति अनन्त लोकों में कोटि कल्पों के अन्तर पर बुद्धों का अवतार और धर्मोपदेश होता रहता है। यह लोक अनंताकाश में धूल के कण के समान तथा अनंतकाल प्रवाह में एक क्षण के समान है, इस कल्प में भावी बुद्ध मैत्रेय होंगे। अतीत काल के बुद्ध और अनागत बुद्ध सर्वशक्तिमान्, देवाधिदेव हैं जो मनुष्यों की प्रार्थना तथा स्तुतिपाठ से अनुग्रहशील होते हैं तथा फूलधूप-दीपादि के अर्पण से प्रसन्न होते हैं।

अंततोगत्वा चीन में अमिद अथवा अमिताभ बुद्ध की पूजा प्रचलित हो गयी, जिनका प्रारम्भिक बौद्ध ग्रंथों में कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह माना जाता है कि वे सुखावती लोक में निवास करते हैं। उनके श्रद्धालु भक्तों द्वारा कामना की जाने लगी कि मरणोपरान्त उनका जन्म उन्हीं के लोक में हो। निर्वाण तथा गौतम बुद्ध को भूला दिया गया। महायानी बौद्ध साधक के जीवन का उद्देश्य व्यक्तिगत निर्वाण प्राप्त करना नहीं होता। वह बोधि प्राप्त कर लेने पर अपने व्यक्तिगत निर्वाण के लिए नहीं, बल्कि विश्व के सभी प्राणियों के निर्वाण के लिए उद्योग करता है। ऐसे साधक को 'बोधिसत्‍त्व' कहते हैं। इस प्रकार महायान में बुद्धों और बोधिसत्‍त्वों की पूजा प्रचलित हो गयी। मन्दिरों में उनकी प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना होने लगी और विविध विधि-विधानों से उनकी वंदना और पूजा होने लगी।

बुद्ध के जीवनकाल, जातक कथाओं में वर्णित पूर्वजन्मों तथा ललितविस्तर जैसे बाद के ग्रंथों में वर्णित उनके जीवन की विविध घटनाओं के आधार पर बौद्ध स्थापत्य के अंतर्गत मूर्तियों का निर्माण प्रचुर मात्रा में होने लगा। बौद्ध धर्मग्रंथों का प्रणयन संस्कृत में होने तथा बुदधों एवं बोधिसत्‍त्वों की मूर्ति पूजा प्रचलित होने से धीरे-धीरे महायान बौद्धधर्म और हिन्दूधर्म के बीच अंतर मिटने लगा और अंततोगत्वा बौद्धधर्म हिन्दूधर्म में समाहित हो गया। हीनयान और महायान में सिद्धांत-भेद होते हुए भी दोनों बुद्धोपदिष्ट मार्ग हैं और दोनों ही बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित हैं। दोनों का विकास अपने ढंग से अलग-अलग भूमियों पर तथा अलग-अलग वातावरण में हुआ है। (ईलियट-हिन्दुइज्म एण्ड बुद्धइज्म; वी. ए. स्मिथ आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ इंडिया, मैकग्रेगर-इंट्रोडक्शन टू महायान फिलासफी; सुजुकी-डेवलपमेण्ट आफ महायान बुद्धिज्म; एन. दत्त-एस्पेक्‍ट्स आफ महायान बुद्धिज्म)

ब्रजभाषा : हिन्दी की एक बोली। वल्लभाचार्य के शिष्य कवियों ने, जो अष्टछाप के नाम से सामूहिक रूप में प्रसिद्ध हैं, इसका उपयोग किया और लोकप्रिय बनाया। वल्लभाचार्य के शिष्यों में सबसे प्रमुख सूरदास थे, जिन्होंने सूरसागर की रचना की। सूरसागर में विशेष रूप से कृष्ण की बाल-लीलाओं का पद्यों में वर्णन हैं। प्रसिद्ध भक्त कवि मीराबाई ने भी ब्रजभाषा में गीतों की रचना की थी।

ब्रजभूमि : यमुना के तटवर्ती उस क्षेत्र का नाम, जिसमें मथुरा और वृन्दावन स्थित हैं। वैष्णव भक्तों ने कृष्ण और राधा की लीला-भूमि के रूप में इसका वर्णन किया है।

ब्रह्म : परमात्मा की संज्ञा। ब्राह्मण दार्शनिकों ने परमात्मा को, जो अन्तर्यामी और घट-घटव्यापी पथदर्शक हैं, इस संज्ञा से सम्बोधित किया है। उपनिषदों और वेदान्त दर्शन में ब्रह्मस्वरूप की चर्चा है। शंकराचार्य ने अपनी रचनाओं में ब्रह्मवाद की विस्तार से व्याख्या की है।

ब्रह्मजीत गौड़ : शेरशाह (१५३०-४५ ई.) की सेवा में नियुक्त एक हिन्दू सेनापति।

ब्रह्मणस्पति : ऋग्वेद में वर्णित एक देवता, जो प्रार्थना का अधिपति है।

ब्रह्मपाल : कामरूप के पाल राजवंश का प्रवर्तक, जो लगभग १००० ई. में हुआ। सालस्तम्भ राजवंश का उच्छेद होने पर, ब्रह्मपाल को, जो सालस्तमभ राजवंश से सम्बन्धित था, जनता ने उसकी योग्यता के कारण कामरूप का शासक चुना। उसके वंश में आठ राजा हुए, सभी के नामों के अन्त में 'पाल' शब्द जुड़ा हुआ है। ये बंगाल के समकालीन पाल राजाओं से भिन्न हैं। ब्रह्मपाल राजवंश का बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अन्त हो गया। (बी. के. बरुआ कृत ए कल्चरल हिस्ट्री आफ आसाम, पृष्ठ ३३-३५)

ब्रह्मपुत्र : एक विशाल नदी, जो तिब्बत से, जहाँ इसे सांगपो कहते हैं, निकल कर भारत में आती है। इसकी लम्बाई १८०० मील है। आसाम प्रदेश से गुजरती हुई यह पहले पूर्व से पश्चिम और फिर दक्षिण की तरफ बहकर बंगाल में गंगा से मिलती है। प्राचीन नगर प्राग्ज्योतिषपुर, (आधुनिक गोहाटी), कामरूप राज्य की राजधानी, ब्रह्मपुत्र के तट पर बसा हुआ था।

ब्रह्मसभा : एक एकेश्वरवादी संगठन, जिसकी स्थापना राजाराम मोहन राय ने १८२८ ई. में कलकत्ता में की। इसका उद्देश्य उन सभी लोगों को एक मंच पर लाना था जो एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे और मूर्तिपूजा का खंडन करते थे। आरम्भ में इसकी बैठकें किराये के मकान में होती थीं और इसके प्रथम मंत्री थे श्री ताराचन्द्र चक्रवर्ती। शनिवार को इसकी साप्ताहिक सभाएँ होतीं थीं, जिनमें ब्राह्मणों द्वारा वेद-पाठ किया जाता था। शीघ्र ही इन सभाओं में बड़ी संख्या में लोग भाग लेने लगे, अतः राजाराम मोहन राय ने १८३० ई. में इसके सदस्यों से एकत्र किये गये चन्दे से चितपुर रोड पर एक मकान खरीद कर ट्रस्टियों की समिति को सौंप दिया। अब यह माना जाता है कि ब्रह्मसभा ने ही ब्रह्मसमाज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया है, यद्यपि दोनों संगठनों में मौलिक अन्तर था। उदाहरणार्थ, ब्रह्मसभा के सदस्य, ब्राह्मसमाज के सदस्यों के विपरीत अपने को हिन्दू घोषित करते थे और धार्मिक कामों तथा विवाहों आदि में वर्णव्यवस्था को मानते थे।

ब्रह्म-समाज आन्दोलन : का श्रीगणेश राजाराम मोहन राय द्वारा १८२८ ई. में स्थापित ब्रह्मसभा से हुआ। ब्रह्मसभा का उद्देश्य असाम्प्रदायिक आधार पर एकेश्वरवाद का प्रचार करना था। वह विभिन्न सामाजिक सुधारों, जैसे जाति-पाँति का उन्मूलन, अन्तर्जातीय विवाह का प्रचलन तथा महिलाओं का उद्धार और उनमें शिक्षाप्रसार के पक्ष में थी। राम मोहन राय के इंग्लैण्ड प्रस्थान करने और वहां उनकी मृत्यु हो जाने के फलस्वरूप ब्रह्मसभा निष्प्राण हो गयी, किन्तु महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर (१८१७-१९०५ ई.) ने १८४३ ई. में इसका नेतृत्व सँभाल कर और 'तत्त्वबोधिनी' पत्रिका द्वारा इसके सिद्धांतों का प्रचार करके इसे नवजीवन प्रदान किया। उस समय इस आंदोलन का उद्देश्य हिन्दूधर्म के एकेश्वरवादी स्वरूप का प्रचार करना था। ब्रह्मसभा के सदस्य वेदों को अपौरुषेय मानते थे तथा जाति-पाँति के उन्मूलन, अंतर्जातीय विवाह आदि सामाजिक सुधारों के विरुद्ध थे। परंतु नवयुवक वर्ग ने, जिसका नेतृत्व प्रारम्भ में अक्षयकुमार सेन और बाद में केशवचन्द्र सेन ने किया, वेदों के अपौरुषेय होने में शंका प्रकट की और ब्रह्मसभा के सदस्यों द्वारा जाति-पाँति को न मानने तथा अन्य सामाजिक सुधारों का समर्थन करने पर जोर दिया। देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने उनकी इस माँग को स्वीकार नहीं किया और १८६५ ई. में केशवचन्द्र सेन और उनके अनयायियों को सभी पदों से हटा दिया। इस प्रकार ब्रह्म समाज आंदोलन में गहरी फूट पड़ गयी। तत्पश्चात् देवेद्रनाथ और उनके अनुयायियों ने आदि ब्राह्मसमाज गठित किया जो हिन्दुओं के शुद्ध एकेश्वरवाद का प्रतिपादक और सामाजिक सुधारों का विरोधी था। नवयुवक वर्ग ने केशवचन्द्र सेन के नेतृत्व में ब्राह्मसमाज की स्थापना की, जो १८७८ ई. तक खूब फला-फूला। १८७८ ई. में केशवचन्द्रसेन और उनके अनुयायियों में कुछ सिद्धांतों पर मतभेद हो जाने और मुख्यरूप से उनकी अवयस्क कन्या का हिन्दू रीत्यानुसार महाराज कूच बिहार से विवाह होने के कारण, ब्राह्मसमाज में पुनः फूट पड़ गयी और विरोधी दल ने साधारण ब्राह्मसमाज की स्थापना की। केशवचन्द्र सेन और उनके समर्थकों ने भी 'नवविधान' नामक नया संगठन खड़ा कर दिया। इस प्रकार ब्राह्मसमाजी इस समय तीन दलों में विभक्त हैं- आदि ब्राह्मसमाज, साधारण ब्राह्मसमाज तथा नवविधान। तीनों दलों के उपासनागृह अलग-अलग हैं।

ब्राह्मसमाज आंदोलन का सूत्रपात तो कलकत्ता में हुआ, परन्तु शीघ्र ही उसका प्रचार सारे बंगाल में तथा बंगाल के बाहर उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा मद्रास तक हो गया। सभी प्रांतीय समाज साधारण ब्राह्मसमाज से सम्बद्ध हैं। महाराष्ट्र में इसका नाम 'प्रार्थना समाज' रखा गया।

बाद में ब्राह्मसमाज आंदोलन का जोर काफी कम पड़ गया। किन्तु इस आदोलन ने देश की बहुमूल्य सेवा की। यह आंदोलन पर्दा प्रथा मिटाने, विधवा-विवाह प्रचलित करने, अंतर्जातीय विवाह को वैध ठहराने वाला कानून बनवाने, जाति-पाँति के बंधनों को शिथिल करने, हिन्दुओं को ईसाई बनने से रोकने तथा उच्च शिक्षा का, विशेषरूप से महिलाओं में शिक्षा का प्रचार करने में सहायक सिद्ध हुआ। किन्तु इसे हिन्दुओं में एकेश्वरवाद का प्रचार करने तथा मूर्ति-पूजा समाप्त कराने में बहुत थोड़ी सफलता मिली। (शिवनाथ शास्त्री रचित हिस्ट्री आफ दि ब्राह्म समाज, खंड १-२)

ब्रह्मर्षि देश : मनु ने थानेश्वर के आस-पास के क्षेत्र, पूर्वी राजस्थान, गंगा और यमुना के दोआब तथा मथुरा जिले के अंचल को यह नाम दिया है।

ब्रह्मा : एक हिन्दू देवता। विष्णु और शिव के साथ त्रिदेवों में इनकी गणना होती है। ये सृष्टि की रचना करते हैं और वेदों में इन्हें विधाता, हिरण्यगर्भ तथा प्रजापति कहा गया है।

ब्रह्मावर्त : इससे उस प्रदेश का बोध होता था जो सरस्वती और दृष्ट्वती नदियों के बीच में स्थित था। संप्रति दोनों नदियाँ लुप्त हो चुकी हैं, अतः इस प्रदेश की सीमाओं की सही-सही पहचान नहीं हो सकती।

ब्राइडन, डा.  : एक अंग्रेज सर्जन (शल्य चिकित्सक) जो प्रथम अफगानिस्तान युद्ध (१८३९-४२ ई.) (दे.) में अफगानिस्तान पर चढ़ाई करनेवाली ब्रिटिश सेना में नियुक्त था। युद्ध में उसकी रेजिमेंट के सभी आदमी मारे गये और १३ जनवरी १८४२ ई. को जलालाबाद वापस पहुँचने तथा अफगानों के हाथ ब्रिटिश सेना की पराजय का संवाद देनेवाला वह अकेला अंग्रेज बचा था।

ब्राउन, रेवरेण्ड डेविड : ब्रिटेन से शुरू-शुरू में बंगाल आनेवाले मिशनरियों में से एक। उस समय ईसाई मिशनरियों को कम्पनी के इलाकों में लोगों का धर्मपरिवर्तन करने की अनुमति नहीं थी। अतः डेविड ब्राउन कलकत्ता में ईस्ट इंडिया कम्पनी का चैपलेन बन गया।

ब्रासियर, कैप्टन : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक सैनिक अधिकारी, जो मई-जून १८५७ ई. में विद्रोही सिपाहियों के विरुद्ध सिखों की छोटी-सी पलटन के साथ इलाहाबाद के किले की रक्षा उस समय तक बड़ी सूझबूझ से करता रहा, जब तक कि नील के नेतृत्व में ११ जून को ब्रिटिश सेना वहाँ पहुँच नहीं गयी।

ब्राहुई : बलूचिस्तान की एक छोटी-सी जनजाति, द्रविड़ भाषा बोलती है। उसका अस्तित्व इस बात का द्योतक है कि द्रविड़ लोग जो आजकल मुख्यतः दक्षिण में ही पाये जाते हैं, कभी समूचे भारत में फैले थे और बलूचिस्तान से होकर मैसोपोटामिया जाते हुए मार्ग में अपना एक छोटा सा वर्ग यहाँ छोड़ गये।

ब्राह्मण ग्रंथ : वेदों का ही एक विवरणात्मक विभाग। मंत्र भाग अथवा संहिताभाग जबकि पद्यमें है, ब्राह्मण-भाग गद्य में है। दोनों को ही वेद कहा गया है और अपौरुषेय माना गया है। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञानुष्ठान के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण, नाना विषयों के उपाख्यान तथा प्राचीन राजाओं और ऋषियों की गाथाएं मिलती हैं। (मैकडोनेल एवं कीथ कृत वैदिक इंडेक्स)

ब्राह्मण जाति : जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत हिन्दुओं में सबसे ऊँची जाति गिनी जाती है। सनातनी हिन्दुओं के विचारानुसार ब्राह्मणों की उत्पत्ति विराट् पुरुष के मुख से हुई, उन्हें मनुष्यों में देवता बताया गया है। इस प्रकार चारों वर्णों में उन्हें सर्वाधिक महत्ता प्रदान की गयी है। अन्य विचारानुसार जाति-व्यवस्था विविध व्यवसायों पर आधारित थी। जो वर्ग सामान्य रूप से पौरोहित्य कार्य एवं वेदाध्यापन करता था, उसकी गणना ब्राह्मण वर्ण में की जाने लगी। हिन्दू वर्ण-व्यवस्था में मूलतः क्षत्रियों को, जो राजन्य (राजा) होते थे, ब्राह्मणों से श्रेष्ठ माना जाता था। परवर्ती काल में हिन्दू वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणों ने क्षत्रियों से भी ऊँचा स्थान प्राप्त कर लिया। (देखिये, जाति-व्‍यवस्‍था)

ब्राह्मण-धर्म : हिन्दू धर्म का प्रारम्भिक रूप, जो ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में बौद्ध एवं जैन धर्म जैसे ब्राह्मणोत्तर धर्मों के उदय से पूर्व प्रचलित था।

ब्राह्मणपाल : भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित उद्भाण्डपुर (वैहाण्ड) के हिन्दू शाही वंश के राजा जयपाल का पौत्र एवं आनन्दपाल का पुत्र। १००८ ई. में इसने गजनी के सुल्तान महमूद के विरुद्ध वैहाण्ड की लड़ाई में अपने पिता की सेना का नेतृत्व किया था, किन्तु युद्ध में पराजित हुआ और मारा गया।

ब्राह्मी लिपि : आधुनिक देवनागरी लिपि का प्राचीन रूप, जिसका प्रयोग संस्कृत तथा उत्तरी एवं पश्चिमी भारत की अन्य भाषाओं को लिखने में होता था। अशोक के शिलालेख, (पश्चिमोत्तर सीमा क्षेत्र के शिलालेखों को छोड़कर), ब्राह्मी लिपि में अंकित हैं।

ब्रिटिश प्रशासन तंत्र : भारत में धीमी गति से विकसित हुआ, जिसे दो कालों में विभाजित किया जा सकता है। पहला १७७३ ई. से १८५८ ई. तक और दूसरा १८५८ ई. से १९४७ ई. तक। इसका केन्द्रविन्दु १७७३ ई. का रेग्युलेटिंग एक्ट था और चरमविन्दु स्वाधीन भारत का वर्तमान प्रशासन है। रेग्युलेटिंग एक्ट के पास होने के पूर्व ईस्ट इंडिया कम्पनी की भारत में तीन व्यापारिक कोठियां कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में थीं। प्रत्येक कोठी एक अध्यक्ष के अधीन थी। प्लासी को लड़ाई (१७५७ ई.) तथा उसके बाद की घटनाओं के फलस्वरूप ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल और बिहार पर शासन करने का अधिकार प्राप्त हो गया। जो प्रबन्ध व्यवस्था एक व्यावसायिक एवं व्यापारिक संस्था का प्रशासन चलाने के लिए की गयी थी, वह एक राज्य का प्रशासन चलाने के लिए, जिसके बढ़ने की सम्भावना थी, स्वाभाविक रीति से अनुपयुक्त समझी गयी। फलतः इंग्लैण्ड की पार्लियामेंट ने १७७३ ई. में रेग्युलेटिंग एक्ट (दे.) पास किया। इसके द्वारा भारतीय प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों में छोड़ दिया गया, किन्तु इसके साथ ही भारतीय राज्य पर कम्पनी के प्रशासन की संसदीय देखरेख का भी प्राविधान कर दिया गया। भारत में कम्पनी के अधीन सभी इलाकों में एकाएक प्रशासनिक व्यवस्था का सूत्रपात बंगाल का प्रशासन गर्वनर-जनरल तथा उसकी चार सदस्यीय परिषद् में निहित करके, युद्ध तथा शान्ति से सम्बन्धित मामलों में प्रेसीडेन्सियों को उसके अधीन करके किया गया। मद्रास और बम्बई, प्रेसीडेन्सियों का प्रशासन भी गवर्नर तथा उसकी परिषद् में निहित कर दिया गया। एक्ट में गर्वनर जनरल तथा उसकी परिषद् के सदस्यों के नाम उल्लिखित थे। चूँकि सभी का कार्यकाल पाँच वर्ष निर्धारित कर दिया गया था, उनको अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले वापस बुला लेने की भी व्यवस्था थी और सभी निर्णय बहुमत से लेने का प्राविधान था, अतः आरम्भ से ही इस प्रशासनिक व्यवस्था में एक व्यक्ति के निरंकुश शासन को असम्भव बना दिया गया था और उसका संचालन पारस्परिक विचार-विमर्श और सहमति के आधार पर ही हो सकता था। इसके अतिरिक्त रेग्युलेटिंग एक्ट के अन्तर्गत कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायालय स्थापित किया गया, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश और तीन अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की गयी और सभी को ऊँचा वेतन दिया गया। सभी नियुक्तियाँ ब्रिटिश सरकार द्वारा की गयी थीं और सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार-क्षेत्र कलकत्ता स्थित सभी ब्रिटिश नागरिकों तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी के सभी अधिकारियों तक विस्तृत था। इस प्रकार एक्ट के द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रशासित क्षेत्रों में कानून का शासन स्थापित करने का प्रयास किया गया।

इसके बावजूद रेग्यूलेटिंग एक्ट, अनेक दृष्टियों से त्रुटिपूर्ण था, जैसा कि १७७३-८४ ई. की अवधि में प्रथम गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स तथा उसकी चार सदस्यीय परिषद् द्वारा इसके कार्यान्वित किये जाने पर प्रकट हुआ। इसके द्वारा भारत में कम्पनी के प्रशासन पर पार्लियामेंट का नियन्त्रण प्रभावकारी ढंग से लागू करना सम्भव नहीं हो सका। गवर्नर-जनरल को परिषद् की राय के विरुद्ध कार्य करने का अधिकार न होने से उसे परिषद् में पक्षपातपूर्ण अङ्गङों का सामना करना पड़ता था। सुदूरवर्ती मद्रास और बम्बई प्रेसीडेन्सियों पर देख-रेख रखने का जो अधिकार गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद् में निहित किया गया था, वह इतना अस्पष्ट था कि इन दोनों प्रेसीडेन्सियों के अधिकारी गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद् की पूर्व स्वीकृति के बिना ही युद्ध शुरू कर देते थे। सर्वोच्च न्यायालय को कम्पनी के शीर्षस्थ अधिकारियों के विरुद्ध भी मुकदमों की सुनवायी करने का अधिकार दे दिये जाने से न्यायपालिका और कार्यकारिणी में टकराव की सूरत पैदा हो गयी। इन त्रुटियों को दूर करने के लिए १७८४ ई. में पिट् का इंडिया एक्ट पास हुआ। इसके द्वारा भारतीय प्रशासन पर ब्रिटिश सरकार और कम्पनी का संयुक्त नियन्त्रण स्थापित कर दिया गया। इसके द्वारा इंग्लैण्ड में बोर्ड आफ कन्ट्रोल (दे.) गठित करके भारत स्थित कम्पनी के इलाकों के प्रशासन पर पार्लियामेण्ट का नियन्त्रण अधिक प्रभावी बना दिया गया। बोर्ड आफ कण्ट्रोल में प्रिवी कौंसिल के ६ सदस्य होते थे, जिन्हें कोई वेतन नहीं दिया जाता था। इन ६ सदस्यों में से ही एक को बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया जाता था, जिसे निर्णायक मत डालने का भी अधिकार प्राप्त था। बोर्ड को नियुक्तियाँ करने अथवा कम्पनी के व्यावसायिक मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार न था। ये दोनों जिम्मेदारियाँ ईस्ट इंण्डिया कम्पनी के कोर्ट आफ कण्ट्रोल को ब्रिटिश अधिकृत क्षेत्रों के असैनिक, सैनिक तथा आर्थिक प्रशासन से सम्बन्धित सभी मामलों में देखरेख करने, निर्देश देने और नियन्त्रण रखने का अधिकार प्राप्त था।

भारत स्थित कम्पनी के अधिकारियों को बिना बोर्ड आफ कण्ट्रोल की सहमति के कोई आदेश सीधे नहीं भेजा जा सकता था। बोर्ड को यह अधिकार भी प्राप्त था कि वह यदि कोई आदेश देना उचित समझे तो उसे बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स की स्वीकृति के बिना भी जारी कर सकता था। हेनरी जान डुण्डास बोर्ड आफ कण्ट्रोल का प्रथम अध्यक्ष था और उसके कुशल मार्गनिर्देशन में बोर्ड आफ कण्ट्रोल भारतीय प्रशासन का वास्तविक सूत्रधार बनगया। भारत में गवर्नर-जनरल की स्थिति सुदृढ़ करने के लिए उसकी परिषद् के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गयी और प्रधान सेनापति को भी उसका सदस्य बना दिया गया। गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद् का बम्बई और मद्रास प्रेसोडेन्सियों के प्रशासनों पर नियन्त्रण अधिक प्रभावी बना दिया गया। दो वर्ष पश्चात् एक पूरक कानून द्वारा गवर्नर-जनरल को विशेष मामलों में परिषद् के बहुमत के निर्णय की अवहेलना कर देने का अधिकार भी प्रदान कर दिया गया। भारत के ब्रिटिश अधिकृत क्षेत्रों का प्रशासन अब सपरिषद् गवर्नर जनरल में निहित कर दिया गया। इसी के अनुसार १८३४ ई. में उसका पद नाम बदलकर बंगाल स्थित फोर्ट विलियम के गवर्नर-जनरल के बजाय भारत का गवर्नर-जनरल कर दिया गया।

ब्रिटिश प्रशासन तंत्र : भारतीय प्रशासन पर बोर्ड आफ कण्ट्रोल के माध्यम से ब्रिटिश पार्लियामेण्ट और कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स के माध्यम से ईस्ट इंडिया कम्पनी का दोहरा नियन्त्रण १८५७ ई .के गदर तक कायम रहा। फिर भी व्यावहारिक रूप में ब्रिटिश पार्लियामेण्‍ट का नियन्त्रण अधिक प्रभावी था। यह मुख्यतः बोर्ड आफ कण्ट्रोल के प्रथम अध्यक्ष डुण्डास के कुशल और विवेकपूर्ण निर्देशन के फलस्वरूप सम्भव हो सका। उसने अपने लम्बे कार्यकाल में बोर्ड आफ कण्ट्रोल को राजनीतिक निर्णयों के लिए सर्वोपरि सत्ता के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया तथा बोर्ड के सारे अधिकारों को अपने हाथों में केन्द्रित करके बोर्ड के अध्यक्षपद को वस्तुतः भारत मन्त्री के पद का समकक्ष बना दिया।

उक्त दोनों कानूनों को पास करके ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने वस्तुतः भारतीय प्रशासन का नैतिक उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकार पत्र का प्रत्येक बीस वर्ष के बाद नवीनीकरण किया जाता था। फलतः इन अवसरों का लाभ उठाकर ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने भारतीय प्रशासन व्यवस्था में समयानुकूल आवश्यक परिवर्तन करना आरम्भ कर दिया। १८१३ ई. के चार्टर एक्ट द्वारा भारत से व्यापार करने के लिए इंग्लैण्ड की जनता को भी आंशिक रूप से छूट दे दी गयी और ईस्ट इंडिया कम्पनी का व्यापारिक रूप बड़ी हद तक समाप्त कर दिया गया। १८३३ ई. के चार्टर ऐक्ट द्वारा भारतीय व्यापार पर कम्पनी का एकाधिकार बिल्कुल समाप्त कर दिया गया और उसे भारत का प्रशासन चलाने के लिए ब्रिटिश सरकार का राजनीतिक प्रतिनिधि बना दिया गया। इस एक्ट के द्वारा गवर्नर-जनरल की परिषद् में चौथा सदस्य बढ़ा दिया गया और उसे कानून बनाने का अधिकार प्रदान कर दिया गया। प्रधान सेनापति की सदस्यता यथापूर्व जारी रखी गयी। इस ऐक्ट के द्वारा एक विधि आयोग की भी नियुक्ति की गयी, जिसने अन्ततोगत्वा भारत में दीवानी और फौजदारी के मामलों में एक सामान्य सार्वजनिक कानून का प्रचलन किया। अन्त में १८५३ ई. के चार्टर ऐक्ट द्वारा इंडियन सिविल सर्विस में भरती के लिए खुली प्रतियोगिता की प्रणाली चालू की गयी। इससे इंडियन सिविल सर्विस के भारतीयकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ, जिसमें तब तक केवल अंग्रेज ही भर्ती होते थे। इस ऐक्ट के द्वारा कानूनों का निर्माण करने के लिए गवर्नर-जनरल की परिषद् में अतिरिक्त ६ सदस्य बढ़ाने की व्यवस्था की गयी। इस कार्य के लिए परिषद् में प्रारम्भ में जो ६ सदस्य नामांकित किये गये, वे निःसंन्देह सभी अंग्रेज थे। फिर भी इस व्यवस्था से ही भारत में विधानमंडल की शुरूआत संभव हो सकी।

1852 ई. के चार्टर कानून के पास होने के चार वर्ष बाद सिपाही-विद्रोह शुरू हो जाने से भारत में कम्पनी के शासन की जड़ें हिल गयीं। विद्रोह को कम्पनी की सेनाओं ने दबा दिया। किन्तु भारत में कम्पनी के प्रशासन की कमजोरियाँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो गयीं। फलतः ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने १८५८ ई. में भारत में उत्तम शासन व्यवस्था के लिए कानून पास कर के भारतीय प्रशासन का नियंत्रण ब्रिटिश राजसत्ता को हस्तांतरित कर दिया। कानून में प्राविधान किया गया कि भारत का शासन अब ब्रिटिश सम्राट् के नाम से उसके मंत्रियों में से एक मंत्री द्वारा चलाया जायगा और उसकी सहायता के लिए एक पन्द्रह सदस्यीय परिषद् गठित की जायगी। गवर्नर जनरल को वाइसराय (राज प्रतिनिधि) का नया पदनाम दिया गया, कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स (दे.) को तोड़ दिया गया, बोर्ड आफ कन्ट्रोल (दे.) का नाम बदलकर भारत परिषद् कर दिया गया और उसका अध्यक्ष जो ब्रिटिश मंत्रिमंडल का सदस्य होता था, भारतमंत्री कहा जाने लगा। भारतीय प्रशासन पद्धति में परिवर्तन की घोषणा महारानी के घोषणापत्र (दे.) द्वारा की गयी, जो १ नवम्बर १८५८ ई. को जारी हुई। इस घोषणापत्र में उन संधियों तथा करारों की जो ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारतीय राजाओं से किये थे, पुष्टि की गयी, आम माफी दी गयी और घोषित किया गया कि "सभी लोगों को वे चाहे जिस जाति अथवा अथवा धर्म के हों, मुक्त रूप से और निष्पक्ष भाव से ब्रिटिश सम्राट् की सेवा में, उन कार्यों के लिए जिनके लिए वे अपनी शिक्षा, योग्यता और ईमानदारी के आधार पर उपयुक्त सिद्ध होंगे, नौकरी दी जायगी।"

भारतीय प्रशासन व्यवस्था में अगला महत्त्वपूर्ण परिवर्तन १८६१ ई. के इंडियन कैंसिल ऐक्ट द्वारा किया गया। इस कानून के द्वारा वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् में पाँचवा साधारण गैर-सरकारी (यूरोपीय) सदस्य बढ़ा दिया गया, वाइसराय के अधिकारों में पर्याप्त वृद्धि कर दी गयी और उसे कार्यकारिणी परिषद् के कार्यसंचालन के लिए नियम बनाने के अधिकार प्रदान कर दिये गये। इन अधिकारों का प्रयोग करके कैनिंग ने, जो उस सय वाइसराय था, कार्यकारिणी परिषद् के प्रत्येक सदस्य के जिम्मे अलग-अलग विभाग कर दिये। उसे अधिकार दिया गया कि वह अपने विभाग के छोटे मामलों को स्वयं और अधिक महत्त्व के मामलों को वाइसराय से विचार-विमर्श करने के उपरान्त निपटा सकता था। सामान्य नीति के प्रश्न अथवा अन्य विभागों से भी संबंधित मामले निर्णय के लिए कार्यकारिणी परिषद् में रखे जाते थे। विभागों के बँटवारे की इस पद्धति से समय की काफी बचत हुई और यह न केवल ब्रिटिश शासनकाल में चलती रहीं, वरन् कुछ परिवर्तनों के साथ इसे स्वाधीन भारत में भी अंगीकार कर लिया गया है।

ब्रिटिश प्रशासन तंत्र : १८६१ ई. के इंडियन कौंसिल ऐक्ट (भारतीय परिषद् कानून) के द्वारा भारत की विधायनी प्रणाली में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये थे। सिपाही-विद्रोह से प्रकट हो गया था कि भारतीय प्रशासन तंत्र में ऐसी व्यवस्था आवश्यक है जिसके द्वारा भारतीय लोकमत को जाना जा सके। अतः १८६१ ई. के कानून में इस बात का प्राविधान किया गया कि विधायी कार्यों के लिए वाइसराय की परिषद् की सदस्य संख्या ६ से १२ तक बढ़ा दी जाये और इनमें से आधे सदस्य गैरसरकारी होने चाहिए। यद्यपि विधि-निर्माण के अधिकार विभिन्न रीतियों से सीमित कर दिये गये थे, तथापि यह सिद्धान्त स्वीकार कर लिया गया था कि गैरसरकारी भारतीयों को कानून बनाने में, जिनसे वे शासित होते हैं, शामिल किया जाना चाहिए। तीन भारतीयों यथा महाराजा पटियाला, राजा बनारस तथा ग्वालियर के सर दिनकर राव को लेजिस्लेटिव कौंसिल अर्थात् वाइसराय की विधान परिषद् में मनोनीत किया गया।

१८६१ ई. के इंडियन कौंसिल्स ऐक्ट के द्वारा बम्बई और मद्रास सरकारों को भी प्रांत की शांति और उत्तम शासन-व्यवस्था के लिए कानून बनाने के सीमित अधिकार प्रदान कर दिये गये और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गवर्नर की कार्यकारिणि परिषद् की सदस्य संख्या चार से आठ तक बढ़ा दी गयी जिनमें से कम से कम आधे गैर-सरकारी होते थे।

१८६१ ई. के ऐक्ट में गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद् को इसी प्रकार की विधान परिषदें न केवल शेष तीन सूबों यथा बङ्गाल, पश्चिमोत्तर प्रदेश (बाद में संयुक्त प्रांत अथवा उत्तर प्रदेश) तथा पंजाब में गठित करने वरन् अन्य उन नये सूबों में भी गठित करने का अधिकार दिया गया जो इस कानून के अन्तर्गत बाद में निर्मित हों। विधान परिषदें बंगाल में १८६२ ई. में, पश्चिमोत्तर प्रदेश में १८८६ ई. में तथा पंजाब में १८९८ ई. में गठित हुई। १८६१ ई. के एक्ट में यद्यपि कानून बनाने में गैर-सरकारी भारतीयों से विचार-विमर्श करने के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया गया था, तथापि सरकार के नियंत्रण को शिथिल करने का इरादा लेशमात्र भी नहीं था, बल्कि प्रवृत्ति इसके विपरीत दिशा में थी, जैसा कि १८७० ई. के इंडियन कौंसिल ऐक्ट से प्रकट हुआ। इस एक्ट के द्वारा गवर्नर-जनरल तथा उसकी कार्यकारिणी को न केवल विधान परिषद् से परामर्श लिये बिना ही कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया, वरन् वाइसराय को यह अधिकार भी दे दिया गया कि भारत-स्थित ब्रिटिश साम्राज्य के हितमें अथवा उसकी सुरक्षा और शान्ति के लिए यदि वह आवश्यक समझे तो वह अपनी कार्यकारिणी द्वारा बहुमत से किये गये निर्णयों की भी अवहेलना कर सकता था। वाइसराय को इस प्रकार मुगलों की भाँति पूर्ण स्वेच्छाचारी शासक बना दिया गया। १८७४ ई. में वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् में एक साधारण छठां सदस्य बढ़ाया गया। उसके जिम्मे सार्वजनिक-निर्माण विभाग कर दिया गया।

इस बीच भारतीय लोकमत उत्तरोत्तर जागृत होता जा रहा था। पश्चीमी शिक्षा के फलस्वरूप सार्वजनिक मंचों और समाचारपत्रों के माध्यम से जनता अपनी भावनाओं को प्रकट करने लगी थी। कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई में लार्ड कैनिंग के शासनकाल में विश्वविद्यालयों की स्थापना हो चुकी थी। १८६९ ई. में स्वेज नहर के खुल जाने और १८७० ई. में इंग्लैंड और भारत के बीच सीधा तार-सम्बन्ध स्थापित हो जाने से दोनों देशों के बीच की दूरी कम हो गयी और बड़ी संख्या में भारतीय इंग्लैंड जाने लगे और वहाँ पर प्रचलित उदार राजनीतिक भावना से अनुप्राणित होकर वे स्वदेश लौटने लगे। इसके फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (दे.) की स्थापना हुई, जिसका प्रथम अधिवेशन बम्बई में १८७५ ई. में हुआ। शिक्षित भारतीयों ने अभूतपूर्व राष्ट्रीय एकता का परिचय देते हुए दृढ़तापूर्वक न केवल यह मांग की कि देश की नौकरियों में उन्हें अधिक स्थान दिया जाय वरन् इस बात की भी माँग की कि समुचित संख्या में जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों को विधान परिषद् में शामिल कर उनके अधिकार-क्षेत्र को बढ़ाया जाय; उन्हें परिषद् में वार्षिक बजट पर बहस करने तथा प्रशनोत्तरों द्वारा सरकार से सूचनाएँ प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हो।

ब्रिटिश प्रशासन तंत्र : प्रबुद्ध लोकमत के दबाव के फलस्वरूप ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने १८९२ ई. में इंडियन कौंसिल्स ऐक्ट बनाया, जिसके फलस्वरूप गवर्नर-जनरल की विधान परिषद् तथा प्रादेशिक गवर्नरों की परिषदों के गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या में वृद्धि कर दी गयी। यद्यपि कुछ सदस्यों का सरकार द्वारा मनोनयन जारी रखा गया, तथापि उनमें से कुछ को परोक्ष रूप में निर्वाचित करने का भी प्राविधान कर दिया गया। ऐक्ट के द्वारा विधान परिषदों को वार्षिक बजट पर बहस करने तथा प्रश्नों द्वारा सूचनाएँ प्राप्त करने का भी अधिकार प्राप्त हो गया। निर्वाचन के सिद्धांत को स्वीकार कर और विधान परिषदों को कार्यकारिणी पर कुछ नियंत्रण प्रदान कर, इंडियन कौंसिल एक्ट १८९२ ई. ने भारत में शासन-सुधारों का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

भारतीय लोकमत प्रशासन व्यवस्था को और अधिक उदार बनाने के लिए निरन्तर दबाव डालता रहा। अगला महत्त्वपूर्ण परिवर्तन १९०९ ई. के भारतीय शासन विधान द्वारा किया गया। इसे मार्ले मिन्टो सुधार कहते हैं। इस कानून में योग्य भारतीयों को पहले की अपेक्षा अधिक संख्या में सरकार में शामिल करने का प्राविधान किया गया। इसके फलस्वरूप एक भारतीय (सर सत्येन्द्र प्रसन्न सिन्हा, बाद में रायपुर के लार्ड सिन्हा) की वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् में तथा बंगाल की कार्यकारिणी परिषद् में राजा किशोरीलाल गोस्वामी की नियुक्ति हुई थी। इसी प्रकार मद्रास और बम्बई प्रांतों की कार्यकारिणी परिषदों में भी भारतीयों की नियुक्तियां की गयीं। १९०९ ई. के कानून में विधानपरिषदों की संरचना तथा उनके कार्यों में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। केन्द्रीय विधान परिषद् की सदस्य संख्या बढ़ाकर साठ और बड़े प्रांतों की विधान परिषदों में निर्वाचित गैर सरकारी सदस्यों की अनुपातिक संख्या बढ़ा दी गयी, यद्यपि बहुमत मनोनीत सरकारी एवं गैरसरकारी सदस्यों का ही बनाये रखा गया। सदस्यों का निर्वाचन पहले की भाँति परोक्ष पद्धति से ही होता था, अब साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व का भी सूत्रपात कर दिया गया। निर्वाचन क्षेत्र पहले की तुलना में अधिक व्यापक बना दिये गये। विधान परिषदों को बजट पर बहस करने और उन पर तथा सेना, विदेशी मामले तथा देशी रजवाड़ों के प्रश्नों को छोड़कर, अन्य प्रश्नों पर प्रस्ताव लाने की भी अनुमति प्रदान कर दी गयी। प्रस्ताव सिफारिश के ही रूप में होते थे और उन्हें स्वीकार करने के लिए सरकार बाध्य नहीं थी, इस प्रकार १९०९ ई. का कानून भारत में उत्तरदायी सरकार की शुरुआत की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था, फिर भी इस कानून के द्वारा भारत में उत्तरदायी शासन प्रणाली की स्थापना नहीं हुई और भारतीय प्रशासन पहले की भाँति पूर्णरूप से ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के प्रति उत्तरदायी बना रहा।

अतः १९०९ ई. के शासन-सुधारों से भारतीय राजनीतिक आकांक्षाएँ सन्तुष्ट नहीं हो सकीं और असंतोष बढ़ता रहा। उसके बाद प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया और भारत ने अपनी राजभक्ति का परिचय देते हुए युद्ध में इंग्लैण्ड का साथ दिया और अपनी सरकार की नीतियों के निर्धारण में अधिक आवाज की माँग की। भारतीयों की माँगों को सन्तुष्ट करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने २० अगस्त १९१७ ई. को भारत मंत्री श्री एड्विन मान्टेग्यू के माध्यम से घोषणा की कि "सम्राट् की सरकार की यह नीति है कि प्रशासन की प्रत्येक शाखा में भारतीयों को अधिक स्थान दिया जाय तथा स्वायत्तशासी संस्थाओं को क्रमिक रूप से विकसित किया जाये ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के अभिन्न अंग के रूप में भारत में उत्तरोत्तर उत्तरदायी सरकार की स्थापना हो सके।" यह एक युगान्तरकारी घोषणा थी जिसके द्वारा भारत में संसदीय पद्धति की उत्तरदायी सरकार की स्थापना का वचन दिया गया था। इस नीति के अनुसरण में १९१९ ई. के भारतीय शासन विधान ने भारतीय प्रशासन और भारतमंत्री के सम्बन्धों में कोई प्रभावी परिवर्तन नहीं किया। यद्यपि भारतमंत्री की परिषद् में भारतीयों की नियुक्ति का पथ प्रशस्त कर दिया गया, तथापि परिषद् को यथापूर्व भारतमंत्री के अधीनस्थ रखा गया। भारतमंत्री का भारतीय प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण, केवल प्रांतों के हस्तान्तरित विभागों के प्रशासन को छोड़कर, पूर्ववत् बना रहा। भारतमंत्री को केन्द्रीय और प्रादेशिक सरकारों के एजेंट की हैसियत से किये जानेवाले कार्यों से मुक्त कर दिया गया। यह दायित्व एक नये अधिकारी, हाईकमिश्नर, को सौंपा गया जिसकी नियुक्ति भारत सरकार करती थी। इसके अतिरिक्त भारतमंत्री तथा उपमंत्री का वेतन तथा उसके विभाग का व्यय, जो तब तक भारतीय राजस्व से वहन किया जाता था, आगे से ब्रिटिश पार्लियामेन्ट द्वारा स्वीकृत ब्रिटेन के बजट से वहन किये जाने का प्राविधान किया गया। इस प्रकार भारत पर ब्रिटिश पार्लियामेण्ट का नियंत्रण और सुदृढ़ बना दिया गया।

१९१९ ई. के विधान में भारत की प्रशासकीय व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल यथापूर्व भारतमंत्री तथा पार्लियामेन्ट के प्रति उत्तरदायी बना रहा, किन्तु उसकी कार्यकारिणी परिषद् का आकार बढ़ा दिया गया और यह परम्परा प्रचलित की गयी कि उसके तीन सदस्य भारतीय होंगे। इस प्रकार भारतीय प्रशासन को प्रभावित करने की दृष्टि से भारतीयों की स्थिति पहले की अपेक्षा सुधर गयी। केन्द्रीय और प्रादेशिक सरकारों के कार्यों को यथासम्भव स्पष्ट रूप से विभाजित कर दिया गया और उनके आय के स्रोतों को भी निर्धारित कर दिया गया।

ब्रिटिश प्रशासन तंत्र : केन्द्रीय विधानमंडल को भी पूरी तरह से नया रूप दिया गया। उसे दो सदनों में विभक्त कर दिया गया। अपर सदन का नाम कौंसिल आफ स्टेट (राज्यसभा) तथा निम्न सदन का नाम केन्द्रीय लेजिस्लेटिव असेम्बली (विधानसभा) रखा गया। कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों को गवर्नर-जनरल इन दोनों में से किसी एक सदन में मनोनीत कर सकता था। यद्यपि साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली कायम रखी गयी, तथापि प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान कर दी गयी और दोनों सदनों में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत हो गया। मताधिकार सम्पत्ति सम्बधी योग्यता पर आधारित था जो कौंसिल आफ स्टेट के लिए निम्न सदन की अपेक्षा अधिक ऊँची थी, किन्तु अनुचित रूप से प्रतिबंधात्मक नहीं थी।

केन्द्रीय विधानमंडल को विधि-निर्माण के क्षेत्र में तथा वित्तीय मामलों में विस्तृत अधिकार प्रदान कर दिये गये, किन्तु साथ ही गवर्नर-जनरल को प्रमाणीकरण तथा अध्यादेश जारी करने के अधिकार प्रदान करके उसके इन अधिकारों को काफी हद तक सीमित भी कर दिया गया। दोनों सदनों के अधिकार समान थे, किन्तु अनुदानों को स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार केवल निम्न सदन को था। इस प्रकार भारत के इतिहास में पहली बार एक निर्वाचित संसद की स्थापना हुई, जिसे प्रशासन को काफी हद तक नियंत्रित करने का अधिकार प्राप्त था।

१९१९ ई. के शासन-विधान ने प्रादेशिक शासन व्यवस्था में भी व्यापक परिवर्तन कर दिये। सभी १० प्रांतों को, जिनमें उस समय ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य विभक्त था, गवर्नरों वाला प्रांत बना दिया गया। इन प्रांतों का शासन गवर्नर कार्यकारिणी परिषद् की सहायता से चलाते थे, जिनमें कुछ गैरसरकारी भारतीय सदस्यों की नियुक्ति का प्राविधान कर दिया गया। गवर्नर की नियुक्ति सम्राट् द्वारा होती थी। उसे व्यापक अधिकार तथा विशेषाधिकार प्राप्त थे। वास्तव में प्रांतीय शासन की वास्तविक सत्ता उसी के हाथ में केन्द्रित थी। फिर भी नये विधान के अनुसार प्रांतों में पहली बार वैध शासन का प्रचलन किया। प्रशासकीय विभागों को दो भागों में विभक्त कर दिया गया। पुलिस, न्याय, भूमि राजस्व आदि विभागों को आरक्षित विषयों के अंतर्गत रखा गया तथा हस्तान्तरित विषयों के अंतर्गत स्वायत्त-शासन, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ, आबकारी आदि विभागों को कर दिया गया। आरक्षित विषयों के सम्बन्ध में प्राविधान किया गया कि इन विभागों का प्रशासन गवर्नर कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों के परामर्श और सहायता से चलायेगा जो पहले की भाँति गवर्नर-जनरल तथा भारतमंत्री के प्रति उत्तरदायी होंगे। किन्तु हस्तान्तरित विषयों का प्रशासन गवर्नर द्वारा अपने मन्त्रियों के परामर्श तथा सहायता से चलाने का प्राविधान किया गया। इन मंत्रियों की नियुक्ति गवर्नर प्रांतीय विधानमंडल के निर्वाचित सदस्यों में से ही कर सकता था। मंत्री अपने पद पर गवर्नर की खुशी पर बने रह सकते थे, किन्तु उनके लिए विधान मंडल का विश्वास बनाये रखना अनिवार्य था। विश्वास खो देने पर उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता था।

प्रांतों में विधानमंडलों को व्यापक अधिकार प्रदान किये गये। उनके बहुसंख्यक सदस्य गैरसरकारी होते थे, जो प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के आधार पर निर्वाचित किये जाते थे। साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व तथा नामजदगी की प्रणाली को कायम रखा गया, किन्तु प्रांतीय विधानमंडलों के अधिकार काफी बढ़ा दिये गये। उनमें किसी भी प्रांतीय विषय के सम्बन्ध में विधेयक प्रस्तुत किया जा सकता था; किन्तु आरक्षित विषयों से सम्बन्धित विधेयक को उसके प्रतिकूल मतदान के बावजूद कानून बनाया जा सकता था, यदि गवर्नर यह प्रमाणित कर दे कि वह प्रांत की शांति एवं व्यवस्था के लिए आवश्यक है। लेकिन हस्तान्तरित विषयों से सम्बन्धित विधेयक केवल उसकी अनुमति से ही स्वीकृत हो सकते थे। इसी प्रकार प्रांत का पूरा बजट प्रांतीय विधानमंडल में प्रस्तुत किया जाना और उस पर विधानमंडल में बहस होना आवश्यक था, किन्तु हस्तान्तरित विषयों से सम्बन्धित अनुदानों पर जबकि उसकी स्वीकृति आवश्यक थी, आरक्षित विषयों से सम्बन्धित अनुदान को अस्वीकृत हो जाने पर भी गवर्नर अपने विशेषाधिकार से प्रमाणित करके पास कर सकता था। इस प्रकार विधि-निर्माण एवं वित्तीय मामलों में प्रांतीय विधानमंडलों के अधिकार, यद्यपि आरक्षित विषयों के सम्बन्ध में काफी सीमित थे, तथापि पहले की तुलना में काफी विस्तृत हो गये थे। केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधानमंडलों में व्यापक मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत तथा उन्हें बहस करने और निर्णय लेने के व्यापक अधिकार प्रदान किया जाना १९१९ ई. के शासनविधान की महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। इस शासनविधान ने अनेक प्रतिबंधों के बावज्द ब्रिटिश भारत को संसदीय लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली के पथ पर निश्चित रूप से अग्रसर कर दिया।

ब्रिटिश प्रशासन तंत्र : फिर भी १९१९ ई. के शासन-विधान से, जो १९२१ ई. में कार्यान्वित हुआ, भारतीयों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को सन्तुष्ट नहीं किया जा सका। भारतीय लिबरलों ने इन शासन-सुधारों को स्वीकार कर लिया और उन्हें कार्यान्वित करने का भी प्रयास किया; किन्तु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उन्हें नितांत अपर्याप्त मानकर अस्वीकार कर दिया। महात्मा गांधी, जो उस समय तक कांग्रेस के मान्य नेता बन गये थे और खिलाफत आन्दोलन (दे.) का भी नेतृत्व कर रहे थे, असहयोग आन्दोलन शुरू कर दिया। यह आंदोलन शीघ्र ही सारे देश में फैल गया। किन्तु १९२४ ई. तक खिलाफत आन्दोलनकारी कांग्रेस से अलग हो गये और ब्रिटिश सरकार भी पशु-बल के आधार पर असहयोग आन्दोलन का दमन करने में सफल हो गयी। फिर भी कांग्रेस ने झुकना तो दूर, अपने १९२७ ई. के मद्रास अधिवेशन में भारत का लक्ष्‍य 'पूर्ण स्वाधीनता' घोषित किया। अपनी इस घोषणा को उसने और अधिक स्पष्ट शब्दों में १९२९ ई. के लाहौर अधिवेशन में दोहराया। १९३० ई. में महात्मा गांधी ने सविनय-अवज्ञा आन्दोलन (दे.) आरम्भ कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने पुनः कठोर दमन की नीति अपनायी, महात्मा गांधी सहित सभी कांग्रेस नेताओं को कैद कर लिया और हजारों लोगों को जेलों में ठूँस दिया। फलस्वरूप सविनय-अवज्ञा आन्दोलन धीरे धीरे शिथिल पड़ गया, किन्तु देश में असंतोष बना रहा। असन्तुष्ट भारत को सन्तुष्ट करने की आशा में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने १९३५ ई. में नया भारतीय शासन विधान पास किया, जिसके द्वारा भारतीय प्रशासनतंत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। १९३५ ई. के शासन-विधान में भारत सरकार को पहले की भाँति वाइसराय तथा गवर्नर जनरल को भारत मंत्री के प्रति उत्तरदायी बनाकर ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के अधीन रखा गया। इसके साथ उसमें तत्कालीन भारतीय शासन-विधान की सभी विशेषताओं, जैसे विधानमंडलों में जनता का प्रतिनिधित्व, द्वैध शासन, मंत्रियों का उत्तरदायित्व, प्रांतों को स्वशासन-साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व एवं विशेषाधिकारों को यथापूर्व कायम रखा गया। इसके अतिरिक्त इस विधान में दो नयी विशेषताएँ थीं-यथा, केन्द्र में संघशासन तथा प्रदेशों में जिन्हें स्वशासन प्रदान कर दिया गया था, लोकप्रिय उत्तरदायी सरकार।

दो नये प्रांत, यथा सिन्ध तथा उड़ीसा गठित किये गये और इन दोनों को पश्चिमोत्तर सीमा-प्रांत के साथ गवर्नर-वाला प्रांत बना दिया गया। बर्मा को ब्रिटिश भारत से पृथक् कर दिया गया। इस प्रकार ब्रिटिश भारत में तब ११ गवर्नरों वाले प्रांत तथा ४ चीफ-कमिश्नरों द्वारा शासित क्षेत्र यथा दिल्ली, अजमेर-मारवाड़, कुर्ग, अंडमान तथा निकोबार द्वीपसमूह तथा ब्रिटिश बलूचिस्तान थे।

१९३५ ई. के शासन-विधान की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता संघीय शासन-प्रणाली थी। उसमें सभी भारतीय प्रांतों तथा सभी देशी रियासतों की एक संघीय इकाई बनाने का प्रस्ताव किया गया था। केन्द्र में द्विसदनीय विधानमंडल तथा गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में द्वैध शासन की व्यवस्था की गयी थी। गवर्नर-जनरल को अधिकार दिया गया था कि वह अपनी कार्यकारिणी परिषद् में दो सदस्यों को मनोनीत करके सुरक्षा तथा विदेशी मामलों के आरक्षित विभागों को उनके जिम्मे कर दें। अन्य सभी विभाग हस्तांतरित विभागों के अन्तर्गत कर दिये गये थे और यह प्राविधान किया गया था कि उनका शासन चलाने के लिए गवर्नर-जनरल मंत्रियों की नियुक्ति करेगा, जो विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी होंगे। गवर्नर-जनरल को पहले की ही भाँति यह विशेषाधिकार प्राप्त था कि संघीय विधानमंडल में प्रतिकूल मतदान होने के बावजूद वह प्रमाणित करके किसी विधेयक को कानून का रूप दे सकता था। इसके साथ ही वह ६ महीने की अवधि के लिए अध्यादेश भी जारी कर सकता था। संघीय विधानमंडल के दोनों सदनों के बहुसंख्यक सदस्य के मतदाताओं द्वारा सीधे निर्वाचित किये जाने की व्यवस्था की गयी थी, किन्तु संघ में शामिल होनेवाली देशी रियासतों को निचले सदन के एक तिहाई प्रतिनिधियों को तथा ऊपरी सदन के दो बटा पाँच प्रतिनिधियों को मनोनीत करने का अधिकार प्रदान किया गया था। इस प्रकार सम्पूर्ण भारत के प्रतिनिधियों के एक ही सदन में बैठने की व्यवस्था पहली बार की गयी थी।

१९३५ ई. के शासन-विधान में प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त करके लोकप्रिय सरकारों की स्थापना की गयी। सभी विभागों का प्रशासन मंत्रियों के जिम्मे कर दिया गया, जिनकी नियुक्ति गवर्नरों के हाथ में थी, लेकिन वे लोकप्रिय निर्वाचित विधान-सभाओं के प्रति उत्तरदायी होते थे। साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व बरकरार रखा गया और ६ प्रांतों में द्विसदनीय विधान मंडलों की व्यवस्था की गयी। प्रत्येक प्रांत के निचले सदन में जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि होते थे। सभी वयस्क स्त्री पुरुषों को जो थोड़ी सम्पत्ति भी रखते थे, मताधिकार प्रदान कर दिया गया था।

ब्रिटिश प्रशासन तंत्र : १९३५ ई. का शासन-विधान भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य का दर्जा दिलाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था, किन्तु इसके द्वारा जो शासन व्यवस्था स्थापित की गयी थी, वह कुछ महत्त्वपूर्ण मामलों में औपनिवेशिक स्वराज्य के दर्जे के अनुकूल नहीं थी। प्रथमत:, केन्द्र में द्वैध शासन होने के कारण कार्यकारिणी का एक भाग भारत के लोगों द्वारा हटाया नहीं जा सकता था और वह ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के प्रति उत्तरदायी था। दूसरे, वाइसराय के प्रमाणित करके तथा अध्यादेशों द्वारा कानून बनाने के विशेषाधिकार वास्तविक औपनिवेशिक स्वराज्य के प्रतिकूल थे और इनसे सिद्ध होता था कि भारत अब भी इंग्लैण्ड पर आश्रित है। तीसरे, यह प्राविधान कि भारतीय संघीय विधानमंडल द्वारा पास किये गये कानूनों पर गवर्नर-जनरल अपनी स्वीकृति प्रदान करने से इंकार कर सकता है अथवा आरक्षित रख सकता है और भारत मंत्री के परामर्श पर ब्रिटिश राजसत्ता उसे अस्वीकृत कर सकती है, भारत के पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य के दर्जे का उपभोग करने के मार्ग में सबसे गम्भीर रुकावट थी।

ऐसी परिस्थितियों में १९३५ ई. के शासन-विधान के सम्बन्ध में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाया। विधान के संघीय भाग का क्रियान्वयन देशी राजाओं के सहयोग पर निर्भर करता था और चूँकि इस भाग का स्वागत नहीं हुआ था, अतः विधान का केवल प्रांतीय विभाग ही १९३७ ई. में कार्यान्वित किया गया। सभी पार्टियों ने चुनाव में भाग लिया और सभी प्रांतों में लोकप्रिय सरकारों की स्थापना हो गयी, किन्तु केन्द्र में पुरानी प्रणाली की अनुत्तरदायी कार्यकारिणी और आंशिक लोकप्रिय विधायिका, जो कि १९१९ ई. के विधान के अनुसार गठित की गयी थी, कार्य करती रही। दो वर्ष पश्चात् द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया, जिसका भारत की राजनीतिक स्थिति पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। प्रारम्भ में ब्रिटेन की पराजयों के बाद उसके द्वारा शत्रुओं का जबर्दस्त मुकाबला, जापानियों का आक्रमण, युद्ध में अमेरिकी हस्तक्षेप तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच गम्भीर मतभेदों के फलस्वरूप भारत में अत्यधिक तनावपूर्ण राजनीतिक स्थित पैदा हो गयी। कुछ लोगों का विचार था कि ब्रिटेन के खतरे से लाभ उठाकर भारत को अपनी आजादी के लिए दबाव डालना चाहिए, किन्तु महात्मा गांधी ने घोषित किया कि 'हम ब्रिटेन का विनाश करके अपनी आजादी नहीं प्राप्त करना चाहते हैं।' इन परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार ने वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् की सदस्य संख्या बढ़ाकर १५ कर दी, जिनमें से ११ सदस्य भारतीय होनेवाले थे। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने भारतीय प्रशासन के काफी बड़े हिस्से पर भारतीयों का नियंत्रण स्थापित कर और सर स्टैफर्ड क्रिप्स को भारतीय समस्या का समाधान ढूंढ़ने के लिए भारत भेजने की घोषणा की। लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तत्काल पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान करने के लिए आन्दोलन करती रही। चूँकि ब्रिटिश सरकार ने स्वेच्छा से इस मांग को स्वीकार नहीं किया, अतएव कांग्रेस ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेजों से तत्काल भारत छोड़ देने की मांग की और १९४२ में देशव्यापी सविनय-अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ कर दिया। महात्मा गांधी द्वारा अहिंसा का आग्रह करने के बावजूद आन्दोलन के दौरान काफी हिंसात्मक घटनाएँ घटीं। ब्रिटिश सरकार पशुबल का प्रयोग करके आन्दोलन का दमन करने में सफल हो गयी और अन्त में युद्ध में भी जीत गयी। किन्तु १९४२ ई. की बगावत और १९४६ ई. में नौसेना के विद्रोह ने यह प्रकट कर दिया कि ब्रिटेन अब बहुसंख्यक भारतीयों की सहमति से अपना शासन कायम नहीं रख सकता है। उसने अप्रैल १९४६ ई. में कैबिनेट मिशन को भारत भेजा, उसकी विफलता तथा उसके बाद भारतव्यापी साम्प्रदायिक दंगों ने इस विश्वासको और भी सुदृढ़ कर दिया। विश्वयुद्ध में जीत जाने के बावजूद ब्रिटेन इतना थक और दिवालिया हो गया था कि वह यह समझ गया कि मात्र शक्ति के बल पर वह भारत को अपने कब्जे में नहीं रख सकता है। भारत को यदि तत्काल आजाद न किया गया तो वह न केवल उसे खो बैठेगा वरन् उसके साथ मैत्रीपूर्ण व्यावसायिक सम्बन्ध भी कायम नहीं रख सकेगा। व्यावसायिक सम्बन्धों पर ब्रिटेन की आर्थिक व्यवस्था एवं वित्तीय सम्पन्नता निर्भर करती है। ऐसी परिस्थिति में ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने अभूतपूर्व दूरदर्शिता और साहस का परिचय देते हुए १५ अगस्त १९४७ ई. को भारत को स्वाधीनता प्रदान कर दी, देश का भारत और पाकिस्तान के रूप में दो भागों में विभाजन कर दिया। ब्रिटेन की 'फूट डालो और शासन करो' की नीति के फलस्वरूप भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की खाईं इतनी चौड़ी हो गयी थी कि देश का विभाजन अनिवार्य हो गया था। इस प्रकार १७७३ ई. के रेग्युलेटिंग एक्ट द्वारा जिस भारतीय प्रशासनतंत्र की नींव डाली गयी, उसकी चरम परिणति भारत की स्वाधीनता के रूप में हुई। (सर सी. हलबर्ट-दि गवर्नमेण्ट आफ इंडिया तथा ए. बी. कीथ-कांस्टीच्यूशनल हिस्ट्री आफ इंडिया)

ब्रेथवेट, कर्नल : एक ब्रिटिश सैनिक अधिकारी, जो १७८१ ई. के द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध में हैदरअली की सेना से पराजित हो गया।

ब्लावत्स्की, मैडम हेलेना पेत्रव्ना (१८३१-९१)  : एक प्रतिभाशाली रूसी महिला, जो भारत के प्राचीन अध्यात्मवाद की बहुत प्रशंसक थीं और १८७५ ई. में उन्होंने ब्रह्मविद्या-समाज (थियोसोफिकल सोसाइटी) की स्थापना की। १८७९ ई. में वे भारत आयीं और मद्रास के निकट अडयार में थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रधान कार्यालयकी स्थापना की। उनके प्रमुख प्रकाशनों में 'आइसिस' , 'अनवेल्ड', 'सिक्रेट डाक्ट्रिन' तथा 'दि वायस आफ सायलेन्‍स' हैं। (ए. पी. क्लीथर-एच. पी. ब्लावत्स्की: हरसेल्फ)

ब्लेकेट, सर बसील : लार्ड इर्विन (१९२६-३१ ई.) के शासनकाल में वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् का वित्त-सदस्य। सर बसील ने रुपये का विनिमय मूल्य १ शिलिंग ६ पेंस स्थिर किया, जिसकी भारतीयों ने तीव्र आलोचना की।

ब्लैकहोल (कालकोठरी) : कलकत्ता स्थित फोर्ट विलियम में १८ फुट लम्बा और १४ फुट दस इंच चौड़ा एक कमरा। २० जून १७५६ ई. को नवाब सिराजुद्दौला ने किले पर कब्जा करके अनेक अंग्रेजों को बन्दी बना लिया। बी. जेड. हालवेल के अनुसार, जिसके ऊपर उस समय किले की रक्षा का भार था, अंग्रेज बन्दियों की संख्या १४६ थी। उन सबको रात में किले की काल-कोठरी में बंद कर दिया गया, जिसके फलस्वरूप दम घुटने से रात में १२३ बन्दियों की मृत्यु हो गयी। इस घटना को क्रूर नृशंसता माना गया और सिराजुद्दौला को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया गया। ठोस सबूतों के आधार पर इस घटना की सचाई पर सन्देह प्रकट किया जाता है और सम्भव है कि यह कोरी कपोल-कल्पना हो। जो कुछ भी हो, सिराजुद्दौला इस घटना के लिए जिम्मेदार नहीं था। (मिल-हिस्ट्री आफ इंडिया, विद विल्सन नोट्स, जिल्द ३, १८५८ ई. का संस्करण; ए. के. मैत्र कृत बंगला पुस्तक सिराजुद्दौला; सी. लिटिल--दि ब्लैक होल ट्रेजडी)