विक्षनरी:भारतीय इतिहास कोश (भ से म)

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भगदत्त : कामरूप का पौराणिक राजा, जिसका उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। ऐतिहासिक काल में कामरूप के राजा पुष्यवर्मा (लगभग ३३०-६४६ ई.) के वंशज अपने को भगदत्त कुलोत्पन्न मानते थे। ८ वीं शताब्दी में कामरूपका राजा हर्ष हुआ। उसने अपनी पुत्री राज्यमती का विवाह नेपाल के राजा से किया था। नेपाल के एक शिलालेख में राजा हर्ष को भी भगदत्त-कुलोत्‍पन्न बताया गया है। (ई. ए., खण्ड ९, पू. १७९)

भगवद्गीता  : महाभारत के भीष्मपर्व का अंश। सनातनी हिन्दुओं की मान्यता के अनुसार इसमें पाण्डव-वीर अर्जुन को दिया गया भगवान् कृष्ण का उपदेश संगृहीत है। इसका रचनाकाल अभी तक निश्चित रूप में निर्धारित नहीं हो सका है। स्वामी विवेकानन्द के विचार से इसकी रचना बुद्ध से पूर्व हो चुकी थी। पश्चिम के विद्वान् इसका रचनाकाल चौथी शताब्दी ईसवी मानते हैं। यह हिन्दू धर्म का सर्वश्रेष्ठ और सर्वमान्य ग्रंथ है, जिसमें निष्काम कर्म और भक्ति का उपदेश दिया गया है।

भगवानदास : आमेर (जयपुर) का शासक, जिसके पिता राजा बिहारीमल ने स्वेच्छा से मुगल बादशाह अकबर का आधिपत्य स्वीकार कर उससे अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। अकबर की सेवा में आकर भगवानदास ने अच्छी पदोन्नति की और मुगल सेना के आक्रमण का नेतृत्व कर कश्मीर पर विजय प्राप्त की, जिससे वह मुगल साम्राज्य का अंग बन गया। राजा भगवानदास ख्यातिप्राप्त हिन्दी कवि भी थे।

भग्ग (भर्ग) गण : प्राक्-मौर्यकाल में सुंसुमार गिरि पर निवास करता था।

भट्ट कुल : जिसने बालाजी विश्वनाथ भट्ट को उत्पन्न किया, जो राजा साहू के अष्ट प्रधानों में से एक था। उसने पेशवा अथवा मुख्य प्रधान के पद की प्रतिष्ठा बढ़ा कर उसे मराठा राज्य का सर्वेसर्वा बना दिया। उसने इस पद को अपने परिवार में पुश्तैनी कर दिया। सभी पेशवा उसके वंशज थे।

भण्डि : राज्यवर्धन (दे.) की मृत्यु के समय कन्नौज का प्रमुख राजपुरुष, जिसने हर्ष (दे.) को सिंहासनासीन करने में प्रधान भूमिका पूरी की।

भत्ता : एक पारिभाषिक शब्द। यह एक प्रकार का अतिरिक्त वेतन था जो बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी के सैनिक अधिकारियों को दिया जाता था। इसकी रकम मीरजाफर ने दूसरी बार बंगाल का नवाब बनने पर दुगुनी कर दी, लेकिन १७६६ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी के डाइरेक्टरों ने इसे बन्द कर देने का निर्णय किया। जब बंगाल के गर्वनर क्लाइव ने तत्कालीन भत्ता बन्द करने के निर्णय को कार्यान्वित किया, तब कम्पनी के भारत स्थित अंग्रेज सैनिक अधिकारियों ने इसके कार्यान्वयन को रोकने के प्रयास में अपने कमीशन सामूहिक रूप में त्याग दिये। यह व्यवहारतः एक प्रकार का विद्रोह था, किन्तु क्लाइव ने स्थिति का मुकाबला बड़ी सूझबूझ के साथ किया और अधिकारी भी झूक गये। १७९५ ई. में यह भत्ता उस समय पुनः चालू कर दिया गया जब अंग्रेज अधिकारियों ने संयुक्त रूप से इसके पुनः चालू किये जाने का अनुरोध किया। किन्तु लार्ड विलियम बेण्टिक (१८२८-३५ ई.) के प्रशासनकाल में डाइरेक्टरों के आदेशानुसार इसे अन्तिम रूप से समाप्त कर दिया गया।

भद्रक : शुंग राजवंश का पाचवाँ राजा। उसकी पहचान पभोसा के शिलालेख में वर्णित राजा उदक अथवा औड्रक से की जाती है, लेकिन यह अभी निश्चित नहीं है। उसके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है। (राय चौधरी, पृ. ३९३-९४)

भद्रबाहु : श्रुत केवली जैन मुनियों में अन्तिम, जो सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के समकालीन थे। चन्द्रगुप्त के शासन की अन्तिम अवधि में बारह वर्षीय अकाल पड़ा, जिससे सारे साम्राज्य में त्राहि-त्राहि मच गयी, अन्त में चन्द्रगुप्त सिंहासन त्याग कर भद्रबाहु के नेतृत्व में अन्य जैन मुनियों के साथ दक्षिण भारत के कर्नाटक देशस्थ श्रवण बेलगोला नामक स्थान पर चला गया। भद्रबाहु ने पूर्णायु का भोग कर अंत में त्याग किया। उन्होंने दक्षिण भारत में जैन-धर्म का अच्छा प्रचार किया। उनका उल्लेख श्रीरंगपट्टम में प्राप्त लगभग ९०० ई. के दो शिलालेखों में मिलता है। श्रवण बेलगोला स्थित जैन मठ के गुरु, जो दक्षिण भारत के सभी जैन साधुओं के आचार्य माने जाते हैं, अपने को भद्रबाहु की शिष्य-परम्परा में बतलाते हैं। (जैकोबी-सैक्रेड बुक्स आफ दि ईस्ट)

भद्रव्यास : एक भारतीय वीर, जिसने पूर्वी पंजाब के बाख्त्री यवन राज्य को नष्ट करने में प्रमुख योगदान किया था (राय चौधरी, पृ. ४२९)

भद्रसाल : नन्दवंश के अन्तिम राजा का सेनापति, जिसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने सिंहासन पर अधिकार करने के लिए काफी रक्तपात के बाद पाटलिपुत्र (पटना) में हराया था।

भरत : अनेक वैदिक राजाओं, ऋषभदेव के छोटे पुत्र, दुष्यंत-शकुन्तला के पुत्र तथा रामचन्द्रजी के अनुज का नाम। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में हिन्दमहासागर तक विस्तृत उपमहाद्वीप भारतवर्ष के नाम से विख्यात है, क्योंकि इसमें भरत के वंशज रहते हैं। (विष्णु पुराण, खण्ड २ पृष्ठ ३.१)

भरतपुर : एक नगर और भूतपूर्व देशी राज्य, जिसकी स्थापना अठ्ठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जाट सरदार बदनसिंह ने की। उसके दत्तक पुत्र और उत्तराधिकारी सूरजमल के शासनकाल में भरतपुर राज्य की सीमा आगरा, धौलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, गुरगांव तथा मथुरा तक फैल गयी थी। इस प्रकार यह केन्द्रीय भारत में एक शक्तिशाली सत्ता के रूप में संगठित हो गया। बाद में इसका क्षेत्र कम हो गया। भरतपुर में एक बहुत ही मजबूत दुहरा किला बना हुआ है। पानीपत की तीसरी लड़ाई (१७६१ ई.) में इसके शासक सूरजमल ने मराठों का साथ नहीं दिया। इसकी ख्याति और प्रतिष्ठा उस समय और बढ़ गयी जब १८०५ ई. में द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध के दौरान इसने लार्ड लेक के नेतृत्व में लड़ रही ब्रिटिश सेना को मार भगाया और किले पर कब्जा करने के प्रयास को विफल कर दिया। फलतः भरतपुर का किला अभेद्य माना जाने लगा। फिर भी भरतपुर के राजा ने अंग्रेजों के साथ आश्रित रहने की सन्धि कर ली और १८२४ ई. तक उनके साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बने रहे। किन्तु प्रथम आंग्ल-बर्मी युद्ध के दौरान अंग्रेजी सेना की पराजयों से प्रोत्साहित होकर भरतपुर के सिंहासन के एक दावेदार, दुर्जन साल ने स्वर्गीय राजा के अल्पवयस्क पुत्र तथा अपने चचेरे भाई को सिंहासन पर बैठाने के ब्रिटिश भारत सरकार के निर्णय को सशस्त्र चुनौती दी। किन्तु लार्ड काम्बरमियर के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने १८२६ ई. में भरतपुर के किले को सरलता से जीत लिया। दुर्जन साल को निर्वासित कर दिया गया और अंग्रेजों द्वारा मनोनीत कुँवर को गद्दी पर बैठाया गया। भरतपुर तबसे ब्रिटिश साम्राज्य का एक निष्ठावान् अधीनस्थ राज्य बना रहा। स्वाधीनता प्राप्ति के उपरान्त इसे भारतीय गणराज्य में मिला लिया गया।

भरहुत : मध्य भारत में स्थित। यह स्थान शुंगकालीन (१८५ ई. पू.-७३ ई. पू.)। आरम्भिक बौद्ध वास्तु एवं मूर्तिकला के लिए प्रसिद्ध है।

भरहुत स्तूप : सर जान मार्शल की राय में शुंगकाल (१८५-७३ ई. पू.) का सबसे प्राचीन अवशेष। भरहुत मध्य प्रदेश राज्य में विलीन रीवाँ रियासत के क्षेत्र में अवस्थित है। यह स्तूप उस स्थान पर बनाया गया था, जहाँ मगध और प्रयाग के मार्ग मालवा और दक्षिण को जानेवाली सड़कों से मिलते थे। यह ईट और पत्थर का बना हुआ है। इसके चारों तरफ एक वेदिका थी, जिसमें चार तोरण द्वार थे। इसके दो तोरण द्वारों पर उत्कीर्ण अभिलेखों में डाहल के राजाओं की तीन पीढ़ियों का उल्लेख है, जो शुंगों के सामन्त थे। बौद्धधर्म के लुप्त हो जाने पर पड़ोस के गाँवों के लोगों ने स्तूप को तोड़फोड़ डाला। इसके अवशेषों का पता कनिंघम साहब ने चलाया। उनके ही प्रयास से पूर्वी तोरण द्वार तथा वेदिका के जो बचे हुए स्तम्भ रहे उन्हें कलकत्ता ले जाकर भारतीय संग्रहालय में रख दिया गया। पूर्वी तोरण द्वार तेईस फुट ऊँचा था। स्तूप के स्तम्भों, सूचियों, उष्णीषों आदि पर बुद्ध के जीवन तथा जातकों के अनेक दृश्यों के चित्र मिलते हैं। (कैम्ब्रि., खण्ड १, पृष्ठ ६२४-२५)

भर्तृदमन : उज्जैन का महाक्षत्रप (२८९-९५ ई.), जो रुद्रसेन (मृत्यु २७४ ई.) का पुत्र था। वह बड़े भाई विश्वसिंह (मृत्यु २८८ ई.) के बाद शासनारूढ़ हुआ। उसका पुत्र विश्वसूर केवल क्षत्रप कहलाता था। ऐसा लगता है, भर्तृदमन की मृत्यु के बाद महाक्षत्रप का पद अस्थाई रूप से अप्रचलित हो गया। पश्चिमोत्तर भारत पर सासानी बादशाहों लगभग (२९३-३५० ई.) के आक्रमणों के बाद सम्भवत;, महाक्षत्रप पद समाप्त कर दिया गया।

भर्तृहरि : एक प्रसिद्ध संस्कृत कवि, जो ईसा की सातवीं शताब्दी में विद्यमान थे। उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति 'शतकत्रय' के साथ ही भट्टि काव्य भी कही जाती हैं, जिसकी रचना उन्होंने मुख्यतः संस्कृत व्याकरण पढ़ाने के उद्देश्य से की थी। मैक्डोनेल के अनुसार, विदित होता है कि भर्तृहरि कवि के अतिरिक्त वैयाकरण, तथा तत्त्वज्ञानि थे। (मैक्डोनेल-हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर)

भवनाग : भारशिवों का एक शासक। वाकाटक नरेशों के अनेक शिलालेखों में इसका उल्लेख है। गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष के पूर्व इसका अभ्युदय हुआ था और इससे एक राजवंश भी प्रचलित हुआ, जिसका शासन क्षेत्र गंगा तक फैल गया। भारशिवों ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। (रायचौधरी., पृष्ठ ४८०)

भवभूति : संस्कृत का दाक्षिणात्य कवि तथा नाटककार, जिसकी प्रसिद्ध रचना 'उत्तरामचरित' तथा 'मालती माधव' हैं। कहा जाता है कि वह आठवीं शती के आरम्भ में कन्नौज पर शासन करने वाले यशोवर्मा का दरबारी कवि था।

भाग : भूमि-कर, जो कृषि उपज में से राजा के हिस्से के रूप में लिया जाता था और उपज का सामान्यतः षष्ठांश होता था। इसकी मात्रा में हेर-फेर भी होता रहता था। उदाहरणार्थ, अशोक ने महात्मा बुद्ध की जन्मस्थली लुम्बिनी ग्राम में इसे घटाकर मात्र आठवाँ भाग कर दिया था।

भागभद्र, काशीपुत्र : विदिशा का एक राजा, जिसके राज्याभिषेक के चौदहवें वर्ष में तक्षशिला के यवन राजा एण्टीयाल्कीडस का राजदूत हेलियोडोस भेंट करने आया। (स्मिथ., पृष्ठ २३८ नोट ३; रायचौधरी., पृष्ठ ३१४)

भागवत : विदिशा का एक राजा, जिसके राज्याभिषेक के बारहवें वर्ष में विदिशा अथवा बेसनगर में गरुड़स्तम्भ निर्मित किया गया। यह राजा बेसनगर के राजा भागभद्र से भिन्न है, जिसका उल्लेख हेलियोडोरस द्वारा स्थापित गरुड़स्तम्भ में किया गया है। (रायचौधरी., पृष्ठ ३९४)

भागवत : एक वैष्णव सम्प्रदाय, जिसके अनुयायी विष्णु, वासुदेव अथवा कृष्ण की पूजा करते हैं। इस सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव उत्तर वैदिककाल में माना गया है। आगे चलकर इसका प्रभाव अधिक व्यापक हो गया और भारत में बसे यवनों (यूनानियों) का भी इसकी ओर झुकाव हुआ। तक्षशिला के यवन राजा एण्टीयाल्कीडस के राजदूत हेलियोडोरसने, जिसने १४० और १३० ई. पू. के बीच बेसनगर अथवा विदिशा में एक गरुड़स्तम्भ निर्मित कराया, अपने को गर्व के साथ 'परम-भागवत' घोषित किया है।

भागवत लोग वैष्णव के नाम से भी प्रसिद्ध थे और वासुदेव की भक्ति को भगवान् का अनुग्रह और कर्मफल से मुक्ति पाने का आधार मानते थे। गुप्तशासकों के काल में इस सम्प्रदाय का महत्त्व काफी बढ़ गया। कुछ गुप्त सम्राटों ने भी अपने को 'भागवत' कहा है। कतिपय चालुक्य शासक भी अपने को भागवत मतावलम्बी बताते थे। बादामी गुहा के प्रसिद्ध मन्दिरों के आधार पर सिद्ध होता है कि छठीं शताब्दी में भागवत सम्प्रदाय का दक्षिण में प्रचार था। इस सम्प्रदाय के धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन करनेवाले प्रमुख वैष्णवाचार्यों में सबसे ज्यादा प्रसिद्धि रामानुज और मध्व को मिली। पूर्वी भारत में इस सम्प्रदाय के सर्वाधिक लोकप्रिय व्याख्याता श्री चैतन्य महाप्रभु हुए। राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ दि वैष्णव सेक्ट)

भानुगुप्त : प्रारम्भिक गुप्त सम्राटों में से एक, जिसका समय ५१० ई. के लगभग निश्चित किया गया है। उसकी पहचान सम्राट् बालादित्य से की गयी है, जिसने ह्येनसांग के अनुसार हूणों के नेता मिहिरकुल को पराजित किया था।

भाऊ साहब : देखिये, 'सदाशिव राव'।

भानुदेव : गंग राजवंश का एक राजा, जो दक्षिण भारत पर हुए अलाउद्दीन के आक्रमण से पूर्व उड़ीसा पर शासन कर रहा था। १२९४ ई. के लगभग मुस्लिम आक्रमणों के फलस्वरूप उसका राज्य नष्ट हो गया।

भारत : एशिया महाद्वीप के दक्षिणी भाग में स्थित तीन प्रायद्वीपों में मध्यवर्ती और सबसे बड़ा प्रायद्वीप। यह त्रिभुजाकार है। हिमालय पर्वत-श्रुंखला को इस त्रिभुज का आधार और कन्याकुमारी को उसका शीर्षबिन्दु कहा जा सकता है। इसके उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में हिन्द महासागर स्थित है। ऊँचे-ऊँचे पर्वतों ने इसे उत्तर-पश्चिम में अफगानिस्तान तथा उत्तर-पूर्व में बर्मा से अलग कर दिया है। यह स्वतंत्र भौगोलिक ईकाई है। इसका क्षेत्रफल १७,०९,५०० वर्ग मील तथा १९५१ ई. की गणना के अनुसार जनसंख्या ४४,६८,६६,३०० है (१९७१ ई. की जनगणना के अनुसार जनसंख्या अब ५४,६९,५५,९४५ है। -सं.)। प्राकृतिक दृष्टि से इसे तीन क्षेत्रों में विभक्त किया जा सकता है-हिमालय का क्षेत्र; उत्तर का मैदान जिससे होकर सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियाँ बहती हैं; दक्षिण का पठार, जिसे विंध्य पर्वतमाला उत्तर के मैदान से अलग करती है। इसकी विशाल जनसंख्या दो सौ से अधिक बोलियाँ बोलती है और संसार के सभी मुख्य धर्मों को माननेवाले यहाँ मिलते हैं। अंग्रेजी में इस देश का नाम 'इंडिया' सिन्धु के फारसी रूपांतरण के आधार पर यूनानियों द्वारा प्रचलित 'हंडस' नाम से पड़ा। मूल रूप से इस देश का नाम प्रागैतिहासिक काल के राजा भरत के आधार पर भारतवर्ष है। अब इसका क्षेत्रफल संकुचित हो गया है और इस प्रायद्वीप के दो छोटे-छोटे क्षेत्रों पाकिस्तान तथा बंगलादेश को इससे पृथक् करके शेष भू-भाग को भारत कहते हैं। 'हिन्दुस्थान' नाम सही तौर से केवल गंगा के उत्तरी मैदान के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है जहाँ हिन्दी बोली जाती है। इसे भारत अथवा इंडिया का पर्याय नहीं माना जा सकता।

भारत की आधारभूत एकता उसकी विशिष्ट संस्कृति तथा सभ्यता पर आधारित है। यह इस बात से प्रकट है कि हिन्दू धर्म सारे देश में फैला हुआ है; संस्कृत को सब देवभाषा स्वीकार करते हैं; जिन सात नदियों को पवित्र माना जाता है उनमें सिंधु पंजाब में बहती है और कावेरी दक्षिण में; इसी प्रकार जिन सात पुरियों को पवित्र माना जाता है उनमें हरिद्वार उत्तर प्रदेश में स्थित है और कांची सुदूर दक्षिण में। भारत के सभी सार्वभौम राजाओं की आकांक्षा रही है कि उनके राज्य का विस्तार आसेतु हिमालय हो। परन्तु इतने बड़े देश को, जो वास्तव में एक उपमहाद्वीप है और क्षेत्रफल में पश्चिमी रूस को छोड़कर सारे यूरोप के बराबर है, एक राजनीतिक इकाई बनाये रखना अत्यन्त कठिन है। वास्तव में उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ब्रिटिश शासन की स्थापना से पूर्व सारा देश, बहुत थोड़े काल को छोड़कर, कभी एक साम्राज्य के अंतर्गत नहीं रहा। ब्रिटिश शासनकाल में सारे देश में एक समान शासन-व्यवस्था करके तथा अंग्रेजी को सारे देश में प्रशासन और शिक्षा की समान भाषा बनाकर पूरे देश को एक राजनीतिक इकाई बना दिया गया। परन्तु यह एकता एक शताब्दी के अंदर भंग हो गयी। १९४७ ई. में जब भारत स्वाधीन हुआ, उसे विभाजित करके सिन्ध, उत्तर पश्चिमी सीमाप्रांत, पश्चिमी पंजाब (यह भाग अब 'पाकिस्तान' कहलाता है), पूर्वी तथा उत्तरी बंगाल (यह भाग अब 'बांगलादेश' कहलाता है) उससे अलग कर दिया गया।

भारत का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ होता है। ३००० ई. पू. तथा १५०० ई. पू. के बीच सिन्धु घाटी (दे.) में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष मोहनजोदड़ो और हड़प्पा (दे.) में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में आर्यों का प्रवेश बाद में हुआ। आर्यों ने पाया कि इस देश में उनसे पूर्व के जो लोग निवास कर रहे थे, उनकी सभ्यता यदि उनसे श्रेष्ठ नहीं तो किसी रीति से निकृष्ट भी नहीं थी। आर्यों से पूर्व के लोगों में सबसे बड़ा वर्ग द्रविड़ों (दे.) का था। आर्यों द्वारा वे क्रमिक रीति से उत्तर से दक्षिण खदेड़ दिये गये, जहाँ दीर्घकाल तक उनका प्राधान्य रहा। बादमें उन्होंने आर्यों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया, उनसे विवाह सम्बन्ध सथापित कर लिये और अब वे महान् भारतीय राष्ट्र के अंग हैं। द्रविड़ों के अलावा देश में और मूल जातियाँ थीं, जिनमें से कुछ का प्रतिनिधित्व मुण्डा, कोल, भील आदि जनजातियाँ करती हैं जो मोन-ख्मेर वर्ग की भाषाएँ बोलती हैं। भारतीय आर्यों का प्राचीनतम साहित्य हमें वेदों (दे.) में विशेष रूप से ऋग्वेद (दे.) में मिलता है, जिसका रचनाकाल कुछ विद्वान् तीन हजार ई. पू. मानते हैं। वेदों में हमें उसकाल की सभ्यता की एक झाँकी मिलती है। आर्यों ने इस देश को कोई राजनीतिक एकता नहीं प्रदान की, यद्यपि उन्होंने उसे एक पुष्ट दर्शन और धर्म प्रदान किया, जो हिन्दू धर्म के नाम से प्रख्यात है और कम से कम चार हजार वर्ष से अक्षुण्ण है।

भारत : प्राचीन भारतीयों ने कोई तिथि क्रमानुसार इतिहास नहीं सुरक्षित रखा है। सबसे प्राचीन सुनिश्चित तिथि जो हमें ज्ञात है, ३२६ ई. पू. है, जब मकदूनिया के राजा सिंकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया। इस तिथि से पहले की घटनाओं का तारतम्य जोड़ कर तथा साहित्य में सुरक्षित ऐतिहासिक अनुश्रुतियों का उपयोग करके भारत का इतिहास सातवीं शताब्दी ई. पू. तक पहुँच जाता है। उस काल में भारत काबुल की घाटी से लेकर गोदावरी तक षोडश जनपदों में विभाजित था, जिनके नाम निम्नोक्त प्रकार के थे:-

अंग (पूर्वी बिहार), मगध (दक्षि‍णी बिहार), काशी (बनारस), कोशल (अवध), वृजि (उत्तरी बिहार), मल्ल (गोरखपुर), चेदि (बुन्देलखंड), वत्स (इलाहाबाद), कुरु (थानेश्वर तथा दिल्ली क्षेत्र), पंचाल (बरेली तथा बदायूँ क्षेत्र), मत्स्य (जयपुर), शौरसेन (मथुरा), अश्मक (गोदावरी के तट पर), अवन्ती (मालवा), गंधार (पेशावर क्षेत्र) तथा कम्बोज (कश्मीर तथा अफगानिस्तान)। इन राज्यों में आपस में बराबर लड़ाई होती रहती थी। छठीं शताब्दी ई. पू. के मध्य में बिम्बिसार (दे.) तथा अजातशत्रु (दे.) के राज्यकाल में मगध ने काशी तथा कोशल पर अधिकार करने के बाद अपनी सीमाओं का विस्तार आरम्भ किया। इन्हीं दोनों मगध राजाओं के राज्यकाल में वर्धमान महावीर (दे.) ने जैन धर्म तथा गौतम बुद्ध (दे.) ने बौद्ध धर्म का उपदेश दिया। बाद के काल में मगध राज्य का विस्तार जारी रहा और चौथी शताब्दी ई. पू. के अंत में नन्द राजाओं के शासनकाल में उसका विस्तार बंगाल से लेकर पंजाब में व्यास नदी के तट तक सारे उत्तरी भारत में हो गया।

यूनानी इतिहासकारों द्वारा वर्णित 'प्रेसिआई' (दे.) देश का राजा इतना शक्तिशाली था कि सिकन्दर की सेनाएँ ब्यास पार कर के 'प्रेसिआई' देश में नहीं घुस सकीं और सिकन्दर, जिसने ३२६ ई. में पंजाब पर हमला किया, पीछे लौटने के लिए विवश हुआ। वह सिन्धु नदी के मार्ग से वापस लौटा। इस घटना के बाद ही मगध पर मौर्यवंश (दे.) शासन करने लगा। इस वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य (लगभग ३२२ ई. पू.-२९८ ई. पू.) ने पंजाब में सिकन्दर जिन यूनानी अधिकारियों को छोड़ गया था उन्हें निकाल बाहर किया और बाद में एक युद्ध में सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस को हरा दिया। सेल्यूकस ने हिन्दूकुश तक का सारा प्रदेश वापस लौटा कर चन्द्रगुप्त से संधि कर ली। चंद्रगुप्त ने सारे उत्तरी भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। उसने सम्भवतः दक्षिण भी विजय कर लिया। वह अपने इस विशाल साम्राज्य पर अपनी राजधानी पाटलिपुत्र (दे.) से शासन करता था। उसकी राजधानी पाटलिपुत्र वैभव और समृद्धि में सूसा और एकबताना नगरियों को भी मात करती थी। उसका पौत्र अशोक (दे.) था, जिसने कलिंग (उड़ीसा) को जीता। उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय के पादमूल से लेकर दक्षिण में पन्नार नदी तक तथा उत्तर-पश्चिम में हिन्दूकुश से लेकर उत्तर-पूर्व में आसाम की सीमा तक विस्तृत था। उसने अपने विशाल साम्राज्य के समग्र साधनों को मनुष्यों तथा पशुओं के कल्याण-कार्यों तथा बौद्धधर्म के प्रसार में लगाकर अमिट यश प्राप्त किया। उसने बौद्धधर्म के प्रसार के लिए भिक्षुओं को मिस्र, मकदूनिया तथा कोरिन्थ (प्राचीन यूनान की विलास नगरी) जैसे दूर-दूर स्थानों में भेजा और वहाँ लोकोपकारी कार्य कराये। उसके प्रयत्नों से बौद्धधर्म विश्वधर्म बन गया, परन्तु उसकी युद्ध से विरत रहने की शांतिपूर्ण नीति ने उसके वंश की शक्ति क्षीण कर दी और लगभग आधी शताब्दी के बाद पुष्यमित्र (दे.) ने उसका उच्छेद कर दिया। पुष्यमित्र ने शुङ्गवंश (लगभग १८५ ई. पू.-७३ ई. पू.) की स्थापना की, जिसका उच्छेद कराववंश (लगभग ७३ ई. पू.-२८ ई. पू.) ने कर दिया।

मौर्यवंश के पतन के बाद मगध की शक्ति घटने लगी और सातवाहन (दे.) राजाओं के नेतृत्व में मगध साम्राज्य से दक्षिण अलग हो गया। सातवाहन वंश को आंध्र (दे.) वंश भी कहते हैं और उसने ५० ई. पू. से २२५ ई. तक राज्य किया। भारत में एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के अभाव में बैक्ट्रिया और पार्थिया के राजाओं ने उत्तरी भारत पर आक्रमण शुरू कर दिये। इन आक्रमणकारी राजाओं में मिनाण्डर (दे.) सबसे विख्यात है। इसके बाद ही शक (दे.) राजाओं के आक्रमण शुरू हो गये और महाराष्ट्र, सौराष्ट्र तथा मथुरा शक क्षत्रपों के शासन में आ गये। इस तरह भारत की जो राजनीतिक एकता भंग हो गयी थी, वह ईसवी पहली शताब्दी में कदफिसस प्रथम (दे.) द्वारा कुषाण वंश (दे.) की शुरुआत से फिर स्थापित हो गयी। इस वंश ने तीसरी शताब्दी ईसवी के मध्य तक उत्तरी भारत पर राज्य किया।

भारत : इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क (लगभग १२०-१४४ ई.) था, जिसकी राजधानी पुरुषपुर अथवा पेशावर थी। उसने बौद्धधर्म ग्रहण कर लिया और अश्वघोष (दे.), नागार्जुन (दे.) तथा चरक (दे.) जैसे भारतीय विद्वानों को संरक्षण दिया। कुषाणवंश का अज्ञात कारणों से तीसरी शताब्दी के मध्य तक पतन हो गया। इसके बाद भारतीय इतिहास का अंधकार युग आरम्भ होता है जो चौथी शताब्दी के आरम्भ में गुप्तवंश (दे.) के उदय से समाप्त हुआ।

लगभग ३२० ई. में चन्द्रगुप्त ने गुप्तवंश को प्रचलित किया और पाटलिपुत्र को फिर से अपनी राजधानी बनाया। गुप्त वंश में एक के बाद एक चार महान् शक्तिशाली राजा हुए, जिन्होंने सारे उत्तरी भारत में अपना साम्राज्य विस्तृत कर लिया और दक्षिण के कई राज्यों पर भी प्रभुत्व स्थापित किया। उन्होंने हिन्दूधर्म को राज्यधर्म बनाया, बौद्धधर्म और जैनधर्म के प्रति सहिष्णुता बरती और ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला, वास्तुकला और चित्रकला की उन्नति की। इसी युग में कालिदास (दे.), आर्यभट (दे.) तथा वराहमिहिर (दे.) हुए। रामायण, महाभारत, पुराणों तथा मनुसंहिता को भी इसी युग में वर्तमान रूप प्राप्त हुआ। चीनी यात्री फाह्यान ने ४०१ से ४१० ई. के बीच भारत की यात्रा की और उसने उस काल का रोचक वर्णन किया है। उसका मत है कि उस काल में देश में पूरा रामराज्य था। स्वाभाविक रूप से गुप्त युग को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है और उसकी तुलना एथेन्स के पेरीक्लीज युग से की जाती है। (पेरीक्लीज (लगभग ४९२-५२९ ई. पू.) एथेन्स का महान् राजनेता तथा सेनापति था। उसके प्रशासनकाल (४६०-४२९ ई. पू.) में एथेन्स उन्नति के शिखर पर पहुँच गया।)

आंतरिक विघटन तथा हूणों के आक्रमणों के फलस्वरूप छठीं शताब्दी में गुप्त साम्राज्य का पतन हो गया। परन्तु सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हर्षवर्धन (दे.) ने एक दूसरा साम्राज्य खड़ा कर दिया, जिसकी राजधानी कन्नौज थी। यह साम्राज्य सारे उत्तरी भारत में विस्तृत था। दक्षि‍ण में चालुक्य राजा पुलकेशी द्वितीय ने उसका साम्राज्य नर्मदा के तट से आगे बढ़ने से रोक दिया था। चीनी यात्री हयुएनत्सांग (दे.) उसके राज्यकाल में भारत आया था और उसने अपने यात्रा-वर्णन में लिखा है कि हर्षवर्धन बड़ा प्रतापी और शक्तिशाली राजा है। वह ६४७ ई. में निस्संतान मर गया और उसके बाद सारे उत्तरी भारत में फिर अव्यवस्था फैल गयी।

इस अव्यवस्था के फलस्वरूप बहुत से युद्धप्रिय राजवंशों का उदय हुआ, जो अपने को राजपूत (दे.) कहते थे। इनमें पंजाब का हिन्दूशाही राजवंश, गुजरात का गुर्जर-प्रतिहार वंश (दे.) अजमेर का चौहान वंश (दे.), कन्नौज का गहड़वाल वंश (दे.) तथा मगध और बंगाल का पाल वंश (दे.) था। दक्षिण में भी सातवाहन वंश के पतन के बाद इसी प्रकार सत्ता का विघटन हो गया। उड़ीसा के गंगवंश (दे.) जिसने पुरी का प्रसिद्ध जगन्नाथ मन्दिर बनवाया, वातापी के चालुक्यवंश (दे.), जिसके राज्यकाल में अजंता (दे.) के कुछ गुफा चित्र बने तथा कांची के पल्लववंश ने, जिसकी स्मृति उस काल में बनवाये गये कुछ प्रसिद्ध मन्दिरों में सुरक्षित है, दक्षिण को आपस में बाँट लिया और परस्पर युद्धों में एक-दूसरे का नाश कर दिया। इसके बाद मान्यखेट अथवा मालखेड़ के राष्ट्रकूट वंश (दे.) का उदय हुआ, जिसका उच्छेद पुर ने चालुक्य वंश की एक नवीन शाखा ने कर दिया, जिसने कल्याणी (दे.) को अपनी राजधानी बनाया। उसका उच्छेद देवगिरि के यादव वंश (दे.) तथा द्वारसमुद्र के होमसल (दे.) वंश ने कर दिया। सुदूर दक्षि‍ण में चेर (दे.), पांड्य (दे.) और चोल राज्यों का उदय हुआ, जिनमें से अंतिम राज्य सबसे अधिक चला। वह ९०० से १३०० ई. तक वर्तमान रहा। इस तरह सारे भारत में अनैक्य व्याप्त हो गया। इस बीच ७१२ ई. में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। मुहम्मद-इब्न-कासिम के नेतृत्व में मुसलमान अरबों ने सिंध पर हमला किया और वहाँ के ब्राह्मण राजा दाहिर को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार इस्लाम के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के हिन्दू राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और ११७६ ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी (दे.) ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन (दे.) के नेतृत्व में मुसलमानों ने हमले करके पंजाब छीन लिया था और गजनी के सुल्तान महमूद ने (दे.) ने ९९७ से १०३० ई. के बीच भारत पर सत्रह हमले किये और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली। फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुसलमानी आक्रमण का जिस अनवरत रीति से प्रबल प्रतिरोध किया, उसका महत्त्व कम करके नहीं आँकना चाहिए।

भारत : फारस तथा पश्चिम एशिया के दूसरे राज्यों की तरह मुसलमानों को भारत में शीघ्रता से सफलता नहीं मिली। यद्यपि सिंध पर अरब मुसलमानों का शीघ्रता से कब्जा हो गया, परन्तु वहाँ से वे लगभग चार शताब्दियों तक आगे नहीं बढ़ पाये। उत्तर-पश्चिम के मुसलमान आक्रमणकारियों को भी भारत ने लगभग तीन शताब्दियों तक रोक रखा। शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी का दिल्ली जीतने का पहला प्रयास विफल हुआ और पृथ्वीराज (दे.) ने ११९१ ई. में तराई की पहली लड़ाई में उसे हरा दिया। वह ११९३ ई. में तराई की दूसरी लड़ाई में ही पृथ्वीराज को हराने में सफल हुआ। इस विजय के बाद शहाबुद्दीन और उसके सेनापतियों ने उत्तरी भारत के दूसरे हिन्दू राजाओं को भी हरा दिया और वहाँ मुसलमानी शासन स्थापित कर दिया। इस तरह तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ में दिल्ली के सुल्तानों की अधीनता में उत्तरी भारत की राजनीतिक एकता फिर से स्थापित हो गयी।

दक्षिण एक और शताब्दी तक स्वतन्त्र रहा, किन्तु सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (दे.) के राज्यकाल में दक्षिण भी दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया और इस तरह चौदहवीं शताब्दी में कुछ काल के लिए सारे भारत का शासन फिर एक केन्द्रीय सत्ता के अन्तर्गत हो गया। परंतु दिल्ली सल्तनत का शीघ्र विघटन शुरू हो गया और १३३६ ई. में दक्षिण में हिन्दुओं का एक विशाल राज्य स्थापित हुआ, जिसकी राजधानी विजयनगर थी बंगाल (१३३८ ई.), जौनपुर (१३९३ ई.), गुजरात तथा दक्षिण के मध्यवर्ती भाग में भी बहमनी सल्तनत (१३४७ ई.) के नाम से स्वतन्त्र मुसलमानी राज्य स्थापित हो गये। १३९८ ई. में तैमूर (दे.) ने भारतप र हमला किया और दिल्ली पर कब्जा कर लिया और उसे लूटा। उसके हमले से दिल्ली की सल्तनत जर्जर हो गयी।

दिल्ली की सल्तनत वास्तव में कमजोर थी, क्योंकि सुल्तानों ने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का हृदय जीतने का कोई प्रयास नहीं किया। वे धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त कट्टर थे और उन्होंने बलपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया। इससे हिन्दू प्रजा उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखती थी। इसके फलस्वरूप १५२६ ई. में बाबर (दे.) ने आसानी से दिल्ली की सल्तनत को उखाड़ फेंका। उसने पानीपत की पहली लड़ाई में अन्तिम सुल्तान इब्राहीम लोदी को हरा दिया और मुगल वंश (दे.) को प्रतिष्ठित किया, जिसने १५२६ से १८५८ ई. तक भारत पर शासन किया। तीसरा मुगल बादशाह अकबर (दे.) असाधारण रूप से योग्य और दूरदर्शी शासक था। उसने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का हृदय जीतने की कोशिश की और विशेष रूप से युद्धप्रिय राजपूत राजाओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता तथा मेल-मिलाप की नीति बरती, हिन्दुओं पर से जजिया उठा लिया और राज्य के ऊँचे पदों पर बिना किसी भेदभाव के सिर्फ योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ कीं। राजपूतों और मुगलों के सहयोग से उसने अपना साम्राज्य कन्दहार से आसाम की सीमा तक तथा हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में अहमदनगर तक विस्तृत कर दिया। उसके लड़के जहाँगीर (दे.) तथा पौत्र शाहजहाँ (दे.) के राज्यकाल में मुगल साम्राज्य का विस्तार जारी रहा। शाहजहां ने ताज (दे.) का निर्माण कराया, परन्तु कन्दहार उसके हाथ से निकल गया। अकबर के प्रपौत्र औरंगजेब (दे.) के राज्यकाल में मुगल साम्राज्य का विस्तार अपने चरम शिखर पर पहुँच गया और कुछ काल के लिए सारा भारत उसके अन्तर्गत हो गया। परंतु औरंगजेब ने जान-बूझकर अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति त्याग दी और हिन्दुओं को अपने विरुद्ध कर लिया। उसने हिन्दुस्तान का शासन सिर्फ मुसलमानों के हित में चलाने की कोशिश की और हिन्दुओं को जबर्दस्ती मुसलमान बनाने का विफल प्रयत्न किया। इससे राजपूताना, बुन्देलखंड तथा पंजाब के हिन्दू उसके विरुद्ध खड़े हो गये। महाराष्ट्र में शिवाजी (दे.) ने १७०७ ई. में औरंगजेब की मृत्यु से पूर्व ही एक स्वतन्त्र हिन्दू राज्य स्थापित कर दिया। औरंगजेब अन्तिम महान् मुगल बादशाह था। उसके उत्तराधिकारी अत्यन्त निर्बल और अयोग्य थे, उनके वजीर विश्वासघाती थे। फारस के नादिरशाह (दे.) ने मुगल बादशाहत पर सबसे सांघातिक प्रहार किया। उसने १७३९ ई. में भारत पर चढ़ाई की, दिल्ली पर कब्जा कर लिया और उसे निर्दयतापूर्वक लूटा। उसके हमले से मुगल साम्राज्य पूरी तरह जर्जर हो गया और इसके बाद शीघ्रता से उसका विघटन हो गया। अवध, बंगाल तथा दक्षिण के मुसलमान सूबेदारों ने अपने को लगभग स्वतन्त्र कर लिया। राजपूत राजा भी अर्द्ध-स्वतन्त्र हो गये। पेशवा बाजीराव प्रथम (दे.) के नेतृत्व में मराठों ने मुगल साम्राज्य के खंडहरों पर हिन्दू पद पादशाही की स्थापना का प्रयास किया।

भारत : परंतु यह सम्भव नहीं हो सका। फिरंगी लोग समुद्री मार्गों से भारत की जमीन पर पैर जमा चुके थे। अकबर से लेकर औरंगजेब तक मुगल बादशाहों ने भारत के इस नये मार्ग का महत्त्व नहीं समझा। इनमें से कोई इन नवांगतुकों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं का अनुमान नहीं लगा सका और उनके जंगी बेड़े का मुकाबला करने के लिए एक शक्तिशाली भारतीय जंगी बेड़ा तैयार करने की आवश्यकता को अनुभव नहीं कर सका। इस तरह भारतीयों की ओर से किसी प्रतिरोध का सामना किये बगैर सबसे पहले पुर्तगाली भारत पहुँचे। उसके बाद डच, अंग्रेज, फ्रांसीसी आये। सोलहवीं शताब्दी में इन फिरंगियों में आपस में लड़ाइयाँ होती रहीं, जो अधिकांश समुद्र में हुई। डच और अंग्रेजों ने मिलकर सबसे पहले पुर्तगालियों की सामुद्रिक शक्ति समाप्त कर दी। इसके बाद डच लोगों को पता चला कि उनके लिए भारत की अपेक्षा मसालेवाले द्वीपों से व्यापार करना अधिक लाभदायी है। इस तरह भारत में सिर्फ अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच प्रतिद्वन्द्विता हुई।

अठारहवीं शताब्दी के शुरू में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने मम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता पर कब्जा कर लिया। उधर फ्रांसीसियों की ईस्‍ट इंडिया कम्पनी ने माहे, पांडिचेरी तथा चन्द्रनगर पर कब्जा कर लिया। उन्हें अपनी सेनाओं में भारतीय सिपाहियों को भरती करने की भी इजाजत मिल गयी। वे इन भारतीय सिपाहियों का उपयोग न केवल अपनी आपसी लड़ाइयों में करते थे, बल्कि इस देश के राजाओं के विरुद्ध भी करते थे। इन राजाओं की आपसी प्रतिद्वन्द्विता और कमजोरी ने इनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को जाग्रत कर दिया और उन्होंने कुछ देशी राजाओं के विरुद्ध दूसरे देशी राजाओं से संधियाँ कर लीं। १८४४-४९ ई. में मुगल बादशाह की प्रभुसत्ता की पूर्ण उपेक्षा करके उन्होंने आपस में कर्नाटक की पहली लड़ाई (दे.) छेड़ी। एक साल के बाद कर्नाटक की दूसरी लड़ाई (दे.) शुरू हुई, जिसमें फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले (दे.) ने पहली लड़ाई से सबक लेते हुए न केवल कर्नाटक के प्रशासन पर, बल्कि निजाम के राज्य पर भी फ्रांस का राजनीतिक नियन्त्रण स्थापित करने की कोशिश की। परन्तु अंग्रेजों ने उसकी महत्त्वाकांक्षा पूरी न होने दी। अंग्रेजों को बंगाल में भारी सफलता मिली थी। बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के केवल पचास वर्ष बाद, १७५७ ई. में राबर्ट क्लाइव (दे.) के नेतृत्व में अंग्रेजों ने नवाब सिराजुद्दौला (दे.) के विरुद्ध विश्वासघातपूर्ण राजद्रोहात्मक षड्यन्त्र रचकर पलासी की लड़ाई (दे.) जीत ली और बंगाल को एक प्रकार से अपनी मुट्ठी में कर लिया। उन्होंने बंगाल की गद्दी पर एक कठपुतली नवाब मीरजाफर को बिठा दिया। इसके बाद एक के बाद, तेजी से कई घटनाएँ घटीं।

अहमद शाह अब्दाली (दे.) ने १७४८ से १७६० ई. के बीच भारत पर कई चढ़ाइयाँ कीं और १७६१ ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई (दे.) जीतकर मुगल साम्राज्य का फातिहा पढ़ दिया। उसने दिल्ली पर दखल करके उसे लूटा। पानीपत की तीसरी लड़ाई में सबसे अधिक क्षति मराठों को उठानी पड़ी। कुछ समय के लिए उनकी बाढ़ रुक गयी और इस प्रकार वे मुगल बादशाहों की जगह ले लेने का मौका खो बैठे। यह लड़ाई वास्तव में मुगल साम्राज्य के पतन की सूचक है। इसने भारत में मुगल साम्राज्य के स्थान पर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना में मदद दी। अब्दाली को पानीपत में जो फतह मिली, उससे न तो वह स्वयं कोई लाभ उठा सका और न उसका साथ देनेवाले मुसलमान सरदार। इस लड़ाई से वास्तविक फायदा अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उठाया। इसके बाद कम्पनी को एक के बाद दूसरी सफलताएँ मिलती गयीं।

बंगाल के साधनों से बलशाली होकर अंग्रेजों ने १७६० ई. में वाण्डीवाश की लड़ाई में फ्रांसीसियों को हरा दिया और १७६२ ई. में पांडिचेरी ले लिया। इस प्रकार उन्होंने भारत में फ्रांसीसियों की राजनीतिक शक्ति समाप्त कर दी। १७६४ ई. में अंग्रेजों ने बक्सर की लड़ाई में बादशाह बहादुरशाह (दे.) और अवध के नवाब की सम्मिलित फौजों को हरा दिया और १७६५ ई. में बादशाह से बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी (दे.) प्राप्त कर ली। इसके फलस्वरूप ईस्ट इंडिया कम्पनी को पहली बार बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के प्रशासन का कानूनी अधिकार मिल गया। कुछ इतिहासकार इसे भारत में ब्रिटिश राज्य का प्रारम्भ मानते हैं। १७७३ ई. में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने एक रेग्युलेटिंग ऐक्ट (दे.) पास करके भारत में ब्रिटिश प्रशासन को व्यवस्थित रूप देने का प्रयास किया। इस ऐक्ट के अन्तर्गत भारत में कम्पनी के क्षेत्रों का प्रशासन गवर्नर-जनरल के अधीन कर दिया गया। उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की कौंसिल गठित की गयी। ऐक्ट में बंगाल के गवर्नर को गवर्नर-जनरल का पद प्रदान कर दिया गया और कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की भी स्थापना की गयी। वारेन हेस्टिंग्स, जो उस समय बंगाल का गवर्नर था, १७७३ ई. में पहला गवर्नर-जनरल बनाया गया।

भारत : १७७३ ई. से १९४७ ई. तक का काल, जब भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त हुआ और भारत स्वाधीन हुआ, दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहला, कम्पनी का शासनकाल, जो १८५८ ई. तक चला और दूसरा, १८५८ से १९४७ ई. का काल, जब भारत का शासन सीधे ब्रिटेन के द्वारा होने लगा।

कम्पनी के शासन काल में भारत का प्रशासन एक के बाद एक बाईस गवर्नर-जनरलों (दे.) के हाथ में रहा। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे उल्लेखनीय घटना यह है कि कम्पनी युद्ध तथा कूटनीति के द्वारा भारत में अपने साम्राज्य का उत्तरोत्तर विस्तार करती रही। मैसूर (दे.) के साथ चार लड़ाइयाँ, मराठों (दे.) के साथ तीन, बर्मा (दे.) तथा सिखों (दे.), गोरखों (दे.) तथा अफगानिस्तान के साथ एक-एक लड़ाई छेड़ी गयी। इनमें से प्रत्येक लड़ाई में कम्पनी को एक या दूसरे देशी राजा की मदद मिली। उसने जिन फौजों से लड़ाई की उनमें अधिकांश भारतीय सिपाही थे और लड़ाई का खर्च पूरी तरह भारतीय करदाता को उठाना पड़ा। इन लड़ाइयों के फलस्वरूप १८५७ ई. तक सारे भारत पर कम्पनी का प्रभुत्व स्थापित हो गया। दो-तिहाई भारत सीधे कंपनी के शासन में आ गया और शेष एक-तिहाई पर देशी राज्यों का शासन बना रहा। परन्तु उन्होंने कम्पनी का सार्वभौम प्रभुत्व स्वीकार कर लिया और अधीनस्थ तथा आश्रित मित्र राजा के रूप में अपनी रियासत का शासन चलाते रहे।

इस काल में सती प्रथा (दे.) का अन्त कर देने के समान कुछ सामाजिक सुधार के भी कार्य किये गये: अंग्रेजी के माध्यम से पश्चिमी शिक्षा के प्रचार की दिशा में कदम उठाये गये, अंग्रेजी देश की राजभाषा बना दी गयी, सारे देश में समान जाब्ता दीवानी और जाब्ता फौजदारी कानून लागू कर दिया गया जिससे सारे देश में एकता की नयी भावना पैदा हो गयी। परन्तु शासन स्वेच्छाचारी बना रहा और वह पूरी तरह अंग्रेजों के हाथ में रहा। १८३३ ई. के चार्टर ऐक्ट (दे.) के विपरीत ऊँचे पदों पर भारतीयों को नियुक्त नहीं किया गया। भाप से चलनेवाले जहाजों और रेलगाड़ियों का प्रचलन, ईसाई मिशनरियों द्वारा आक्षेपजनक रीति से ईसाई धर्म का प्रचार, लार्ड डलहौजी (दे.) द्वारा जब्ती का सिद्धांत (दे.) लागू करके अथवा कुशासन के आधार पर कुछ पुरानी देशी रियासतों की जब्ती तथा ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीय सिपाहियों की शिकायतें- इन सब कारणों ने मिलकर सारे भारत में एक गहरे असन्तोष की आग धधका दी, जो १८५७-५८ ई. में गदर (दे.) के रूप में भड़क उठी।

अधिकांश देशी राजाओं ने अपने को गदर से अलग रखा। देश की अधिकांश जनता ने भी इसमें कोई हिस्सा नहीं लिया। फलस्वरूप कम्पनी को बलपूर्वक गदर को कुचल देने में सफलता मिली, परन्तु गदर के बाद ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने भारत पर कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया। भारत का शासन अब सीधे ब्रिटेन के द्वारा किया जाने लगा। महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणा-पत्र (दे.) जारी करके अपनी भारतीय प्रजा को उसके कुछ अधिकारों तथा कुछ स्वाधीनताओं के बारे में आश्वासन दिया।

इस प्रकार भारत में ब्रिटिश शासन का दूसरा काल (१८५८-१९४७ ई.) आरम्भ हुआ। इस काल का शासन एक के बाद इकत्तीस गवर्नर-जनरलों के हाथ में रहा। गवर्नर-जनरल को अब वाइसराय (ब्रिटिश सम्राट् का प्रतिनिधि) कहा जाने लगा। लार्ड कैनिंग (दे.) पहला वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे प्रमुख घटना है- भारत में राष्ट्रवादी भावना का उदय और १९४७ ई. में भारत की स्वाधीनता के रूप में उसकी अंतिम विजय। १८५७ ई. में कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई में विश्वविद्यालयों की स्थापना के बाद शिक्षा का प्रसार होने तथा १८६९ ई. में स्वेज नहर खुलने के बाद इंग्लैण्ड तथा यूरोप से निकट सम्पर्क स्थापित हो जाने से भारत में नये मध्यवर्ग का विकास हुआ। यह मध्यवर्ग पश्चिमी दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा अर्थशास्त्र के विचारों से प्रभावित था और ब्रिटिश शासन में भारतीयों को जो नीचा दर्जा मिला हुआ था, उससे रुष्ट था। ब्रिटिश शासन में स्थापित शांति के फलस्वरूप यह वर्ग सारे भारत को एक देश तथा समस्त भारतीयों को एक कौम मानने लगा और ब्रिटेन की भाँति संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना उसका लक्ष्‍य बन गया। वह एक ऐसे संगठन की आवश्यकता अनुभव करने लगा जो समस्त भारतीय राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर सके। इसके फलस्वरूप १८८५ ई. में बम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई जिसमें देश के समस्त भागों से ७१ प्रतिनिधियों ने भाग लिया। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन १८८६ ई. में कलकत्ता में हुआ जिसमें सारे देश से निर्वाचित ४३४ प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में मांग की गयी कि भारत में केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों का विस्तार किया जाय और उसके आधे सदस्य निर्वाचित भारतीय हों। कांग्रेस हर साल अपने अधिवेशनों में अपनी मांगे दुहराती रही। लार्ड डफरिन (दे.) ने कांग्रेस पर व्यंग्य करते हुए उसे ऐसे अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करनेवाली संस्था बताया जिसे सिर्फ खुर्दवीन से देखा जा सकता है। लार्ड लैन्सडाउन (दे.) ने उसके प्रति पूर्ण उपेक्षा की नीति बरती, लार्ड कर्जन (दे.) ने उसका खुलेआम मजाक उड़ाया तथा लार्ड मिन्टो द्वितीय (दे.) ने १९०९ के इंडियन कौंसिल ऐक्ट द्वारा स्थापित विधानमंडलों में मुसलमानों को अनुपात से अनुचित रीति से अधिक प्रतिनिधित्व देकर उन्हें फोड़ने तथा काँग्रेस को तोड़ने की कोशिश की, फिर भी कांग्रेस जिन्दा रही।

भारत : कांग्रेस को पहली मामूली सफलता १९०९ में मिली जब इंग्लैण्ड में भारतमंत्री के निर्देशन में काम करनेवाली भारत परिषद् में दो भारतीय सदस्यों की नियुक्ति पहली बार की गयी, वाइसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल में पहली बार एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति की गयी तथा इंडियन कौंसिल ऐक्ट के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों का विस्तार कर दिया गया तथा उनमें निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों का अनुपात पहले से अधिक बढ़ा दिया गया। इन सुधारों के प्रस्तावक लार्ड मार्ले ने हालांकि भारत में संसदीय संस्थाओं की स्थापना करने का कोई इरादा होने से इन्कार किया, फिर भी ऐक्ट में जो व्यवस्थाएँ की गयी थीं, उनका उद्देश्य उसी दिशा में आगे बढ़ने के सिवा और कुछ नहीं हो सकता था। १९११ ई. में लार्ड कर्जन द्वारा १९०५ ई. में किया गया बंगाल का विभाजन रद्द कर दिया गया और १९१२ ई. में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी कलकत्ता से उठाकर दिल्ली ले जायी गयी। दो साल बाद पहला विश्वयुद्ध (दे.) छिड़ गया और भारत ने ब्रिटेन का पूरा साथ दिया। भारत ने युद्ध को जीतने के लिए ब्रिटेन की फौजों से, धन से तथा सामग्री से मदद की। भारत आशा करता था कि इस राजभक्ति-प्रदर्शन के बदले युद्ध से होने वाले लाभों में उसे भी हिस्सा मिलेगा।

भारत के लिए स्वशासन की माँग करने में पहली बार भारतीय मुसलमान भी हिन्दुओं के साथ संयुक्त हो गये और अगस्त १९१७ ई. में ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि भारत में ब्रिटिश शासन की नीति यह है कि 'शासन की प्रत्येक शाखा में भारतीयों को अधिकाधिक स्थान दिया जाय तथा स्वायत शासन का क्रमिक रूप से विकास किया जाय ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत भारत में उत्तरदायी सरकार की उत्तरोत्तर स्थापना हो सके।' इस घोषणा के अनुसार १९१९ का गवर्नमेन्ट आफ इंडिया ऐक्ट पास किया गया। इस ऐक्ट के द्वारा विधानमंडलों का विस्तार कर दिया गया और अब उनके बहुसंख्यक सदस्य भारतीय जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होने लगे। ऐक्ट के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रांतीय सरकारों के कार्यों का विभाजन कर दिया गया और प्रांतों में द्वैधशासन प्रणाली लागू करके कार्यपालिका को आंशिक रीति से विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी बना दिया गया। इस ऐक्ट के द्वारा भारत ने सुनिश्चित रीति से प्रगति की। भारत के इतिहास में पहली बार एक ऐसी संस्था की स्थापना की गयी, जिसके द्वारा ब्रिटिश भारत के निर्वाचित प्रतिनिधि सरकारी आधार पर एकत्र हो सकते थे, पहली बार उनका बहुमत स्थापित कर दिया गया था और अब वे सरकार के कार्यों की निर्भयतापूर्वक आलोचना कर सकते थे।

इन सुधारों से पुराने कांग्रेसजन संतुष्ट हो गये, परन्तु नवयुवकों का दल, जिसे मोहनदास करमचंद गांधी (दे.) के रूप में एक नया नेता मिल गया था, संतुष्ट नहीं हुआ। इन सुधारों के अन्तर्गत केन्द्रीय कार्यपालिका को केन्द्रीय विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं बनाया गया था और वाइसराय को बहुत अधिक अधिकार प्रदान कर दिये गये थे। अतएव उसने इन सुधारों को अस्वीकृत कर दिया। उसके मन में जो आशंकाएँ थीं, वे गलत नहीं थीं, यह १९१९ के ऐक्ट के बाद ही पास किये गये। रौलट ऐक्ट (दे.) जैसे दमनकारी कानूनों तथा जलियाँवाला बाग हत्याकांड (दे.) जैसे दमनमूलक कार्यों से सिद्ध हो गया। कांग्रेस ने १९२० ई. में अपने नागपुर अधिवेशन में अपना ध्येय पूर्ण स्वराज्य की स्थापना घोषित कर दिया और अपनी माँगों को मनवाने के लिए उसने अहिंसक असहयोग की नीति अपनायी। चूंकि ब्रिटिश सरकार ने उसकी माँगें स्वीकार नहीं की और दमनकारी नीति के द्वारा वह असहयोग आंदोलन को दबा देने में सफल हो गयी, इसलिए कांग्रेस ने दिसम्बर १९२९ ई. में लाहौर अधिवेशन में अपना लक्ष्‍य पूर्ण स्वाधीनता निश्चित किया और अपनी माँग को मनवाने के लिए उसने १९३० में सत्याग्रह आंदोलन (दे.) शुरू कर दिया।

भारत : सरकार ने पहले की तरह आन्दोलन को दबाने के लिए दमन और समझौते के दोनों रास्ते अख्तियार किये और १९३५ का गवर्नमेण्ट आफ इंडिया ऐक्ट (दे.) पास किया। इस ऐक्ट के द्वारा ब्रिटिश भारत तथा देशी रियासतों के लिए सम्मिलित रूप से एक संघीय शासन का प्रस्ताव किया गया, केन्द्र में एक प्रकार के द्वैध शासन की स्थापना की गयी तथा प्रांतों को स्वशासन प्रदान कर दिया गया। ऐक्ट का प्रांतों से सम्बन्धित भाग लागू कर दिया गया तथा अप्रैल १९३७ ई. में प्रांतीय स्वशासन का श्रीगणेश कर दिया गया। परन्तु ऐक्ट के संघ सरकार से सम्बन्धित भाग के लागू होने से पहले ही सितम्बर १९३९ ई. में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया जो १९४५ ई. तक जारी रहा। यह विश्वव्यापी युद्ध था और ब्रिटेन को अपने सारे साधन उसमें झोंक देने पड़ें। भारत ने ब्रिटेन का साथ दिया और भारत के पास जन और धन की जो विशाल शक्ति थी उससे लाभ उठाकर तथा अमरीका की सहायता से ब्रिटेन युद्ध जीत गया। गांधीजी के अमित प्रभाव तथा अहिंसा में उनकी दृढ़ निष्ठा के कारण भारत ने यद्यपि ब्रिटिश सम्बन्ध को बनाये रखा, फिर भी यह स्पष्ट हो गया कि भारत अब ब्रिटिश साम्राज्य की अधीनता में नहीं रहना चाहता।

कुछ ब्रिटिश अफसरों ने भारत को स्वाधीन होने से रोकने के लिए अंतिम दुर्राभसंधि की और मुसलमानों की भारत का विभाजन करके पाकिस्तान की स्थापना की मांग का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप अगस्त १९४६ ई. में सारे देश में भयानक साम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये, जिन्हें वाइसराय लार्ड वेवेल (दे.) अपने समस्त फौजी अनुभवों तथा साधनों के बावजूद रोकने में विफल रहा। यह अनुभव किया गया कि भारत का प्रशासन ऐसी सरकार के द्वारा चलाना संभव नहीं है जिसका नियंत्रण मुख्य रूप से अंग्रेजों के हाथ में हो। अतएव सितम्बर १९४६ ई. में लार्ड वेवेल ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय नेताओं की एक अंतरिम सरकार गठित की। ब्रिटिश अधिकारियों की कृपापात्र होने के कारण मुसलिम लीग के दिमाग काफी ऊँचे हो गये थे। उसने पहले तो एक महीने तक अंतरिम सरकार से अपने को अलग रखा, इसके बाद वह भी उसमें सम्मिलित हो गयी।

भारत का संविधान बनाने के लिए एक भारतीय संविधान सभा का आयोजन किया गया। १९४७ ई. के शुरू में लार्ड वेवेल के स्थान पर लार्ड माउन्टबेटेन वाइसराय नियुक्त हुआ। उसे पंजाब में भयानक साम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ा, जिनको भड़काने में वहाँ के कुछ ब्रिटिश अफसरों का हाथ था। वह प्रधानमंत्री एटली के नेतृत्व में ब्रिटेन की सरकार को यह समझाने में सफल हो गया कि भारत का भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान करने से शांति की स्थापना संभव हो सकेगी और ब्रिटेन भारत में अपने व्यापारिक हितों को सुरक्षित रख सकेगा। ३ जून १९४७ को ब्रिटिश सरकार की ओर से घोषणा कर दी गयी कि भारत का भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान कर दी जायगी। ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने १५ अगस्त १९४७ ई. को इंडिपेंडेंस आफ इंडिया ऐक्ट पास कर दिया। इस तरह भारत उत्तर पश्चिमी सीमाप्रांत, बलूचिस्तान, सिंध, पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल तथा उत्तरी बंगाल के मुसलिम बहुल भागों से रहित हो जाने के बाद, सात शताब्दियों की विदेशी पराधीनता के पश्चात्, स्वाधीनता के एक नये पथ पर अग्रसर हुआ।

स्वाधीन भारत को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ा, वे सरल नहीं थीं। उसे सबसे पहले साम्प्रदायिक उन्माद को शांत करना था। भारत ने जानबूझकर धर्मनिरपेक्ष राज्य बनना पसंद किया। उसने आश्वासन दिया कि जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान को निर्गमन करने के बजाय भारत में रहना पसन्द किया है उनको नागरिकता के पूर्ण अधिकार प्रदान किये जायेंगे, हालाँकि पाकिस्तान जानबूझकर अपने यहाँ से हिन्दुओं को निकाल बाहर करने अथवा जिन हिन्दुओं ने वहाँ रहने का फैसला किया था, उनको एक प्रकार से द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना देने की नीति पर चल रहा था। लार्ड माउन्टबेटेन को स्वाधीन भारत का पहला गवर्नर-जनरल बनाये रखा गया और पंडित जवाहरलाल नेहरू तथा अंतरिम सरकार में उनके कांग्रेसी सहयोगियों ने थोड़े से हेरफर के साथ पहले भारतीय मंत्रिमंडल का निर्माण किया। इस मंत्रिमंडल में सरदार पटेल तथा मौलाना अबुलकलाम आजाद को तो सम्मिलित कर लिया गया था, परन्तु नेताजी के बड़े भाई शरतचन्द्र बोस को छोड़ दिया गया। ३० जनवरी १९४८ ई. को एक पागल हिन्दू ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या कर दी। सारा देश शोक के सागर में डूब गया। नौ महीने के बाद श्री जिन्ना जो पाकिस्तान के पहले गवर्नर-जनरल बन गये थे, उनकी भी मृत्यु हो गयी। उसी वर्ष लार्ड माउन्टबेटेन ने भी अवकाश ग्रहण कर लिया और श्री चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भारत के पहले और अंतिम गवर्नर-जनरल नियुक्त हुए।

भारत : अधिकांश देशी रियासतों ने, जिनके सामने भारत अथवा पाकिस्तान में विलयन का प्रस्ताव रखा गया था, भारत में विलयन के पक्ष में निर्णय किया, परन्तु, दो रियासतों-कश्मीर तथा हैदराबाद ने कोई निर्णय नहीं किया। पाकिस्तान ने बलपूर्वक कश्मीर की रियासत पर अधिकार करने का प्रयास किया, परन्तु अक्तूबर १९४७ ई. में कश्मीर के महाराज ने भारत में विलयन की घोषणा कर दी और भारतीय सेनाओं को वायुयानों से भेजकर श्रीनगर सहित कश्मीर की घाटी तक जम्मू की रक्षा कर ली गयी। पाकिस्तानी आक्रमणकारियों ने रियासत के उत्तरी भाग पर अपना कब्जा बनाये रखा और इसके फलस्वरूप पाकिस्तान से युद्ध छिड़ गया। भारत ने यह मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया और संयुक्त राष्ट्र संघ ने जिस क्षेत्र पर जिसका कब्जा था, उसी के आधार पर युद्ध विराम करा दिया। वह आज तक इस प्रश्न का कोई निपटारा नहीं करा सका है। हैदराबाद के निजाम ने अपनी रियासत को स्वतंत्रता का दर्जा दिलाने का षड्यंत्र रचा, परन्तु भारत सरकार की पुलिस कार्रवाई के फलस्वरूप वह १९४८ ई. में अपनी रियासत का भारत में विलयन करने के लिए मजबूर हो गये।

भारतीय संविधान सभा द्वारा २६ नवम्बर १९४९ में पास किया गया भारत का संविधान अधिनियम २६ जनवरी १९५० को लागू कर दिया गया। इस संविधान में भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया था और संघात्मक शासन की व्यवस्था की गयी थी। डा. राजेन्द्र प्रसाद को पहला राष्ट्रपति चुना गया और बहुमत पार्टी के नेता के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमन्त्री का पद ग्रहण किया। इस पद पर वे २७ मई १९६४ ई., अपनी मृत्यु तक बने रहे। नवोदित भारतीय गणराज्य के लिए उनका दीर्घकालीन प्रधानमंत्रित्व बड़ा लाभदायी सिद्ध हुआ। उससे प्रशासन तथा घरेलू एवं विदेश नीतियों में निरंतरता बनी रही। पंडित नेहरू ने वैदेशिक मामलों में गुटनिरपेक्षता की नीति अपनायी और चीन से राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किये। फ्रांस ने १९५१ ई. में चंद्रनगर शांतिपूर्ण रीति से भारत को हस्तांतरित कर दिया। १९५६ ई. में उसने अन्य फ्रेंच बस्तियाँ (पांडिचेरी, कारीकल, माहे तथा युन्नान) भी भारत को सौंप दीं। पुर्तगाल ने फ्रांस का अनुकरण करने और शांतपूर्ण रीति से अपनी पुर्तगाली बस्तियाँ (गोआ, दमन और दिव) छोड़ने से इनकार कर दिया। फलस्वरूप १९६१ ई. में भारत को बलपूर्वक इन बस्तियों को ले लेना पड़ा। (अब १९७५ ई. में पुर्तगाली शासन ने वास्तविकता को समझकर इसको वैधानिक मान्यता दे दी है।-सं.) इस तरह भारत का एकीकरण पूरा हो गया।

पंडित नेहरू ने १९५१ ई. में भारत को नियोजित अर्थव्यवस्था तथा उद्योगीकरण के मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए २,०६९ करोड़ रुपये की प्रथम पंचवर्षीय योजना प्रस्तुत की। भारत ने बालिग मताधिकार स्वीकार कर लिया और उसके आधार पर उसका पहला आम चुनाव शाँतिपूर्वक सम्पन्न हुआ। १९५३ ई. में भाषावार आधार पर आंध्र को मद्रास से अलग करके नया राज्य बना दिया गया। इसी आधार पर पूर्वी पंजाब को पंजाब तथा हरियाणा के दो राज्यों में विभाजित कर दिया गया है। जून १९५४ ई. में चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई भार तकी यात्रा पर आये। अगले अक्तूबर में पंडित नेहरू ने चीन की यात्रा की। पंचशील के समझौते पर हस्ताक्षर होने से भारत और चीन के मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गये। १९५५ ई. में भारत ने अप्रैल में होनेवाले बांदुंग सम्मेलन में प्रमुख भूमिका अदा करके अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपना प्रभाव बढ़ाया। जून में पंडित नेहरू ने सोवियत संघ की यात्रा की, जहाँ उनका बहुत उत्साह के साथ स्वागत किया गया। नवम्बर में सोवियत नेताओं, ख्रुश्चेव तथा बुल्गानिन ने भारत की यात्रा की औ उनका जनता के द्वारा अपूर्व स्वागत किया गया।

१९५६ ई. में भारत ने ४८०० करोड़ रुपये की अपनी द्वितीय पंचवर्षीय योजना आरम्भ की। उसने बर्मा, श्रीलंका तथा इंडोनेशिया के साथ मिलकर ब्रिटिश फौजों को मिस्र से हटा लेने की माँग की, जहाँ प्रेसीडेंट नासिर ने स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत की प्रतिष्ठा उस समय उच्च शिखर पर थी। १९५७ ई. में बालिग मताधिकार के आधार पर भारतीय गणराज्य का दूसरा आम चुनाव हुआ। पंडित नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी को पुनः केन्द्र में तथा केरल को छोड़कर अन्य सभी राज्यों से बहुमत प्राप्त हो गया। केरल में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में मंत्रिमंडल गठित हुआ, परंतु पंडित नेहरू के नेतृत्व में केन्द्र ने उसपर अपना नियंत्रण बनाये रखा। १९५८ ई. में इंडियन रिफाइनरीज लि. की स्थापना के साथ भारत ने बड़े उद्योगों के क्षेत्र में अपने कदम बढ़ाये। उसने विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रगति की और प्रथम पारमाणविक भट्ठी (रिऐक्टर) निर्मित किया। परंतु भारत ने पारमाणविक बम बनाने से इन्कार कर दिया और परमाणु शक्ति का केवल शांतिपूर्ण कार्यों में प्रयोग करने के अपने निश्चय की घोषणा की।

भारत : १९५९ ई. में चीन ने ति‍ब्बत पर हमला किया और पंडित नेहरू की सरकार मौन दर्शक बनी रही। दलाई लामा तथा हजारों तिब्बतियों ने भाग कर भारत में शरण ली और पंडित नेहरू की सरकार ने उन्हें तत्परता से शरण प्रदान की। चीन ने इसे अमित्रतापूर्ण कार्य माना और १९५९ ई. में उत्तर-पूर्वी सीमा क्षेत्र में लांगजू पर तथा हिमालय क्षेत्र के लद्दाख प्रदेश में भारतीय क्षेत्रों पर बलपूर्वक अधिकार करके भारत के प्रति अपने आक्रामक रवैये को उजागर कर दिया। तीन साल बाद चीन ने भारत के उत्तरी तथा पूर्वी सीमा क्षेत्रों पर अकारण बड़ा हमला बोल दिया। भारतीय सेना मित्र माने जानेवाले देश के इस हमले के लिए तैयार नहीं थी, फिर भी उत्तर में उसने अपने पैर मजबूती से जमाये रखे, परन्तु उत्तर पूर्वी मोर्चे पर वह बहुत थोड़ा अथवा नगण्य प्रतिरोध कर सकी और चीनी फौजें आसाम की सीमा के निकट पहुंच गयीं। इससे भारत को बहुत अपमानित होना पड़ा। इससे भी बड़ा अपमान उसे तब उठाना पड़ा जब चीन ने १९६३ ई. में एकांगी युद्धविराम की घोषणा कर दी, लड़ाई रोक दी और भारत के जन क्षेत्रों को वह लेना चाहता था, उनको अपने अधिकार में रखा। इससे पंडित नेहरू को, जो १९५० ई. से चीन के प्रति मैत्रीपूर्ण नीति बरत रहे थे, भारी निराशा हुई और इसके शीघ्र ही बाद १९६४ ई. में उनकी मृत्यु हो गयी।

पाकिस्तान भारत के लिए भारी चिंता का विषय बना रहा। उसने १९४७ ई. में ही पाकिस्तानी सैनिकों को कबीलेवालों के वेश में कश्मीर में भेजा था और वह कश्मीर के प्रश्न को भारत के साथ अपने विवाद का मुख्य विषय बनाये हुए था। इसके फलस्वरूप सितम्बर १९६५ ई. में भारत और पाकिस्तान के बीच तीन सप्ताह का युद्ध छिड़ गया। यह युद्ध संयुक्त राष्ट्रसंघ तथा सोवियत संघ के हस्तक्षेप से समाप्त हुआ। सोवियत संघ ने ताशकंद में पाकिस्तान के प्रेसीडेंट अयूब खाँ तथा भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री (दे.) का एक सम्मेलन किया। दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने एक संयुक्त घोषणा प्रकाशित करके सभी विवादास्पद प्रश्नों को शांतिपूर्ण रीति से तय करने तथा अपनी सेनाओं को युद्ध-पूर्व की स्थिति पर वापस लौटा लेने पर सहमति व्यक्त की। ११ जनवरी १९६६ ई. को ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घंटे बाद ही लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु हो गयी। पश्चात् पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी उनके स्थान पर भारत की प्रधानमंत्री चुनी गयीं।

भारत का विभाजन : स्वाधीनता प्रदान किये जाने से पूर्व १९४७ ई. में किया गया। मुसलमानों की हठपूर्ण माँग तथा अंग्रेजों की 'फूट डालो और शासन करो' की पुरानी नीति ही इसका मूल थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा मुसलिम लीग के नेताओं की सहमति से भारत के विविध प्रांतों में रहनेवाले बहुसंख्यक लोगों के धर्म के आधार पर भारत का विभाजन भारत और पाकिस्तान में कर दिया गया। उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत, पश्चिमी पंजाब, सिंध तथा पूर्वी बंगाल को मिलाकर एक नया राज्य बना जो 'पाकिस्तान' कहलाया। पाकिस्तान ने अपने को इसलामी राज्य घोषित किया। शेष भारत को धर्मनिरपेक्ष भारतीय गणराज्य घोषित कर दिया गया।

१९४७ ई. में भारत के विभाजन के फलस्वरूप फलस्वरूप लाखों लोगों को भारी मुसीबतें झेलनी पड़ीं और करोड़ों लोगों को देश के विभाजन पर भारी दुःख हुआ। फिर भी भारत के लोगों ने देश के विभाजन को अनिवार्य मानकर स्वीकार कर लिया। १६ दिसम्बर १९७१ ई. को पाकिस्तान का भी विभाजन हो गया और पूर्वी पाकिस्तान पाकिस्तान से अलग होकर 'बांगला देश' का नया राज्य बन गया।

भारत का संविधान : २६ नवम्बर १९४९ ई. को संविधान सभा द्वारा पास किया गया और २६ जनवरी १९५० ई. से लागू हुआ। यह एक भारी-भरकम दस्तावेज है, जिसमें २२ भागों के अंतर्गत ३९५ धाराएँ तथा नौ अनुसूचियाँ हैं। भारत का संविधान एक अभिलिखित तथा सरलता से परिवर्तनशील संविधान है। इसके द्वारा देश में सार्वभौम, संघीय, लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष और संसदीय गणतंत्र की स्थापना की गयी है। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है-- "हम भारतवासी भारत को एक सार्वभौम लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाने, सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, धर्म, पंथ और पूजा की स्वतंत्रता, स्तर और अवसर की समानता दिलाने तथा व्यक्तिगत सम्मान और राष्ट्रीय एकता का ध्यान रखते हुए उनमें भ्रातृत्व भावना बढ़ाने का पावन संकल्प करते हैं और यह संविधान बनाते, स्वीकार करते और अपने को प्रदान करते हैं।"

जैसा की एक अनुसूची में उल्लेख है, यह संविधान देश के लिए संघीय शासन की व्यवस्था करता है और उन सभी व्यक्तियों को नागरिकता प्रदान करता है, जिनका जन्म भारत में हुआ है या जिनके माँ-बाप में से कोई भारत में पैदा हुआ है या संविधान लागू होने के पाँच वर्ष पहले से जो भारत में रह रहे हैं। यह संविधान देश के नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार देता है जिनकी रक्षा के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय में सीधे अपील की जा सकती है। ये मौलिक अधिकार हैं-समानता, अस्पृश्यता-विनाश, विचार-अभिव्यक्ति और बोलने की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण ढंग से सम्मेलन और सभा करने की स्वतंत्रता, संघ व संगठन बनाने की स्वतंत्रता, भारत के किसी भाग में आने-जाने और रहने की स्वतंत्रता, धनोपार्जन और सम्पत्ति रखने की स्वतंत्रता तथा कोई भी व्यवसाय व धंधा और व्यापार करने की स्वतंत्रता। संविधान में कुछ नीति-निर्देशक सिद्धांत भी हैं, जो यद्यपि न्यायालय के आदेश से लागू नहीं कराये जा सकते तथापि देश में कल्याणकारी राज्य के विकास हेतु प्रशासकीय कार्यों में केन्द्र और राज्यों का पथ-प्रदर्शन करते हैं।

संविधान में केन्द्र और राज्यों के लिए पृथक् शासन व्यवस्था है। केन्द्रीय कार्यपालिका के सारे अधिकार निर्वाचित राषट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद में निहित हैं। राष्ट्रपति का कार्यकाल पाँच वर्ष है। वह दुबारा फिर चुना जा सकता है। उसको १० हजार रु. मासिक वेतन और इसके अलावा कुछ भत्ते मिलते हैं। प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है और वही बाद को प्रधानमंत्री की सलाह से अन्य मंत्रियों की नियुक्ति भी करता है। संविधान राष्ट्रपति को कार्यपालिका और न्यायपालिका सम्बन्धी बहुत व्यापक अधिकार प्रदान करता है, परन्तु ब्रिटिश शासन प्रणाली के अनुरूप राष्ट्रपति इन अधिकारों का प्रयोग मंत्रियों की सलाह और स्वीकृति से ही कर सकता है। मंत्रियों का कार्यकाल राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर है, किन्तु ये मंत्री संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं। राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाकर उसे संसद के बहुमत द्वारा हटाया जा सकता है। केन्द्र की विधायिका शक्ति संसद में निहित है। उसके दो सदन होते हैं-एक राज्य सभा और दूसरी लोकसभा।

राज्यसभा में २३८ प्रतिनिधि होते हैं जिनमें १२ राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जाते हैं और शेष का निर्वाचन राज्य-विधानमंडलों के निर्वाचित सदस्यों द्वारा राज्यों की आबादी के अनुपात में होता है। लोकसभा की शक्ति पाँच सौ सदस्यों की है, जिनमें से सभी वयस्क मताधिकार के आधार पर पांच वर्षों के लिए चुने जाते हैं। संसद के दोनों सदनों के अधिकार वित्त-विधेयक को छोड़कर परस्पर समन्वयकारी हैं। वित्त-विधेयक सिर्फ लोकसभा में ही पेश हो सकता है। राज्यसभा उसमें संशोधन के लिए सुझाव दे सकती है, किन्तु लोकसभा इन सुझावों को मानने न मानने के लिए स्वतंत्र है।

केन्द्रीय न्यायपालिका के अधिकार सर्वोच्च न्यायालय में निहित हैं, जिसमें एक प्रधान न्यायाधीश तथा १३ अन्य न्यायाधीश होते हैं। इन न्यायाधीशों की नियुक्तित राष्ट्रपति करता है और ये ६५ वर्ष की उम्र तक अपने पदों पर कार्य कर सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय को मूल क्षेत्राधिकार तथा पुनर्विचाराधिकार, दोनों ही प्रकार का अधिकार प्राप्त है और वह किसी भी कानून की संवैधानिकता पर निर्णय दे सकता है। हाँ, उसकी उपयुक्तता परखने का उसे अधिकार नहीं है।

भारत का संविधान : राज्यों में कार्यपालिका के अधिकार राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री और उसकी मंत्रिपरिषद में निहित हैं। राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा पाँच वर्षों के लिए की जाती है। राज्यपाल का वेतन ५५०० रु. मासिक है। मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद् की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है जो राज्य विधानमंडलों के प्रति उत्तरदायी होती है। राज्यों की विधायिका दो सदनों वाले एक विधानमंडल में निहित होती है। इनमें उच्च सदन अर्थात् विधानपरिषद् के सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते हैं और निम्न सदन यानी विधान सभा के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा चुने जाते हैं। कुछ राज्यों जैसे आंध्र, बिहार, मध्यप्रदेश, मद्रास, महाराष्ट्र, मैसूर, पंजाब, उत्तरप्रदेश और पश्चिमी बंगाल में दो सदनों वाले विधान मंडल हैं जब कि अन्य राज्यों में प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदस्यों वाली विधानसभाएँ ही हैं।

राज्यों की न्यायपालिका उच्च न्यायालयों में निहित हैं, जिनमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा कई अन्य न्यायाधीश होते हैं। इनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है और ये ६२ वर्ष की उम्र तक अपने पद पर बने रह सकते हैं। संविधान में संशोधन के लिए अबतक दो दर्जन से अधिक अधिनियम पारित हो चुके हैं और आगे भी आवश्यकता पड़ने पर पारित होते रहेंगे। इस प्रकार इस संविधान ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आकांक्षाओं को आशा से अधिक पूरा करते हुए देश में ऐसी सरकार की स्थापना की है, जो जनता के लिए है और जनता द्वारा ही चलायी जाती है।

भारत के यवन राज्‍य : इनका आरम्भ अफगानिस्तान तथा उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत में अशोक के देहावसान (लगभग २३२ ई. पू. के बाद किसी समय हुआ। सीरि‍या के महान् राजा एन्टीमोकस ने २०६ ई. पू. के आसपाप हिन्दूकुश को पार कर काबुल की घाटी में राज्य करने वाले सुभगसेन नामक एक भारतीय राजा को हराया और हर्जाने के रूप में उससे अपरिमित धन और बहुत से हाथी प्राप्त करके स्वदेश वापस चला गया। उसके बाद ही बैक्ट्रिया के यवन राजा डेमेट्रियस (दे.) ने पंजाब का काफी भाग जीत लिया। एक दूसरे यवन राजा युक्रेटीयस ने डेमेट्रियस से बैक्ट्रिया का राज्य छीन लिया। भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत में उस काल में बहुत-से छोटे-छोटे यवन सामन्त राज्य करते थे, जिनका परिचय हमें उनके द्वारा जारी किये गये नाना प्रकार के सिक्कों से मिलता है। इनमें सबसे प्रसिद्ध राजा मिनान्डर था, जो भारत में काफी भीतर तक घुस आया था। उसने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया और उसकी पहचान प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ 'मिलिन्दपन्हो' (मिलिन्द के प्रश्न) में उल्लिखित राजा मिलिन्द से की जाती है। एक दूसरा यवन राजा एन्टिआल्कीडस था जो तक्षशिला में राज्य करता था। उसने अपने दूत हेलियोडोरस (दे.) को शुंग राजा भागभद्र की राजसभा में भेजा था। हेलियोडोरस भागवत धर्म का अनुयायी बन गया था और उसने बेसनगर में वासुदेव के गरुड़-स्तम्भ का निर्माण कराया था। अंतिम यवन राजा हरमाओस था, जिसका राज्य ईसवी सन् की पहली शताब्दी में कुषाण राजा कदफिसस प्रथम (दे.) ने छीन लिया।

भारत परिषद् (इण्डिया कौंसिल) : भारतीय शासन विधान १८५८ ई. के अन्तर्गत स्थापित। इस विधान के अनुसार भारत का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथों से लेकर ब्रिटिश सम्राट् के अधीन कर दिया गया। बोर्ड आफ कंट्रोल और उसके अध्यक्ष का पद समाप्त कर उसके स्थान पर 'कौन्सिल आफ इंडिया' अथवा भारत परिषद् की स्थापना की गयी। इसका अध्यक्ष ब्रिटिश सरकार के भारतीय मामलों के मंत्री (भारतमंत्री) को बनाया गया। इस कौन्सिल में १५ सदस्य थे, जिनकी नियुक्ति पहले तो जीवनभर के लिए की गयी, लेकिन बाद को उसकी अवधि १० से १५ वर्षों के बीच कर दी गयी। कौन्सिल में उन्हीं सदस्यों की नियुक्ति का जाती, जिन्हें भारतीय गतिविधियों का ज्ञान होता था। कौन्सिल से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह भारतमन्त्री को परामर्श दे और उसपर नियन्त्रण रखे। अतः उसे विशेष अधिकार प्रदान किये गये तथा भारतीय राजस्व के व्यय और विनयोजन एवं वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् के साधारण सदस्यों की नियुक्ति के लिए उसकी स्वीकृति आवश्यक कर दी गयी। १८६९ ई. के विधान द्वारा इसके सदस्यों का कार्यकाल घटाकर दस वर्ष कर दिया गया (जिसे भारतमंत्री की मर्जी से बढ़ाया जा सकता था) और कौन्सिल का स्तर परामर्शदात्री संस्था का कर दिया गया। पूरी १९ वीं शताब्दी तक इसके सदस्य सिर्फ ब्रिटिश लोग ही बनाये जाते थे। १९०७ ई. में पहली बार दो भारतीयों -श्री कृष्णगोविन्द गुप्त और सैयद हुसेन बिल्ग्रामी को इसका सदस्य नियुक्त किया गया। १९१९ ई. के विधान द्वारा कौन्सिल के सदस्यों की संख्या घटाकर १२ कर दी गयी और कार्यकाल पाँच वर्ष। अब कौन्सिल पहले से अधिक भारतमन्त्री के अधीन हो गयी। १९३५ ई. के भारतीय शासन विधान के अनुसार, अप्रैल १९३७ से कौंसिल (भारत परिषद्) को खत्म कर दिया गया। जब तक यह कौंसिल रही, तब तक भारतीयों ने इसे बराबर प्रतिक्रियावादी संस्था के रूप में घृणा की दृष्टि से देखा, जिसका काम भारतीय हितों की कीमत पर ब्रिटिश स्वार्थों की रक्षा करना था।

भारत-भूमि के निवासी  : इनको चार मुख्य विभागों अथवा नसलों में बाँटा जाता है, यथा (१) भारतीय आर्य, (दे.) जो लम्बे गौरवर्ण, लम्बी नासिकावाले तथा संस्कृत से उद्भूत भाषाओं के बोलने वाले हैं; (२) द्रविण, (दे.), जो दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में संस्कृत मूल से भिन्न हैं तथा तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम भाषाएँ बोलते हैं; (३) आदिवासी, जो भील, कोल और मुण्डा लोगों की भाँति छोटे, कृष्णवर्ण तथा चपटी नाकवाले हैं। उनकी बोलियों की न कोई वर्णमाला है और न लिखित साहित्य ही; (४) मंगोल जाति के वंशज, जो गोरखाओं, भोटियों और खासी लोगों की भाँति दाढ़ी-मूँछ रहित, पीतवर्ण, छोटी आँखों तथा गालों पर उभरी हुई हड्डियों वाले लोग हैं। अन्तिम दो विभागों के लोग नवप्रस्तर युग के आग्नेयवंशी लोगों की सन्तानें हैं। इन चारों नसलों के लोग भारतवर्ष में अनेकानेक शताब्दियों से निवास करते रहे हैं, और उनमें, विशेषतः आर्यों, द्रविड़ों तथा मंगोलों के वंशजों में, परस्पर विवाह सम्बन्ध भी होते रहे हैं। फलतः उनमें ऐसा रक्त-सम्मिश्रण हो गया है कि भेद करना कठिन है। भारत की अन्य संस्थाओं की भाँति आधुनिक भारतीय जातियाँ भी एक ऐसे सम्मिश्रण की परिणति हैं, जिसकी प्रक्रिया दीर्घकाल से इस देश में चलती रही है।

भारत रक्षा कानून : प्रथम विश्वयुद्ध के समय १९१४ ई. में बना। इसके अऩ्तर्गत भारत सरकार को युद्ध के दौरान लोगों को गिरफ्तार करने, नजरबन्द करने तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाने के व्यापक अधिकार प्राप्त हो गये। भारतीयों ने इस कानून को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का हनन करनेवाला और कठोर दमनचक्र का प्रतीक माना।

भारतवर्ष : वह देश जहाँ राजा भरत (दे.) के वंशज रहते हैं। यह उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में हिन्द महासागर तक विस्तृत है (विष्णुपुराण, खंड २,३.१)। इसका आधुनिक नाम भारत है।

भारतीय आर्य : उन आर्यों (दे.) की एक शाखा, जिनके सम्बन्ध में अनुमान लगाया जाता है कि उन्होंने ईसा पूर्व लगभग दो हजार वर्ष पहले किसी अनिश्चित काल में उतर-पश्चिम दिशा से भारत में प्रवेश किया। वे यायावर थे और सबसे पहले पंजाब में बसे। इसके बाद वे इस देश में रहनेवाले लोगों से, जिन्हें वे दास या दस्यु कहते थे, दीर्घकालीन युद्ध करते हुए गंगा की घाटी से होकर उत्तरी भारत में आगे बढ़े। अन्त में उन्होंने विजयी होकर इस देश के आदिम लोगों को अपने वश में किया। जिस धर्म का विकास वे लोग करते आ रहे थे, उसकी झाँकी वेदों (दे.) में मिलती है। वेदों से हमें उनके राजनीतिक और सामाजिक संघटन का भी परिचय मिलता है।

वे जनों या कबीलों में विभक्त थे। प्रत्येक जन का शासन एक मुखिया करता था जो 'राजा' कहलाता था। जनों में आपस में लड़ाइयाँ होती रहती थीं, परन्तु अनार्य शत्रुओं के विरुद्ध वे एक हो जाते थे। राजा वंशगत होता था और उसकी आय का स्रोत था-विजित कबीलों द्वारा दी जानेवाली बलि (कर) तथा प्रजा से मिलने वाली भेंट। उसके मुख्य अधिकारी थे-सेनानी (सेना का मुखिया), ग्रामणी (गाँव का मुखिया) तथा पुरोहित। प्रजा समिति तथा सभा के माध्यम से राज्यकार्य में हाथ बँटाती थी। समिति में जनपद की सम्पूर्ण जनता एकत्र होती थी। सभा पितर अथवा वृद्ध लोगों की संस्था थी। सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक थी और पिता परिवार का मुखिया होता था। अधिकतर एक विवाह प्रचलित था, परन्तु बहुविवाह भी होते थे। सामाजिक जीवन में स्त्रियों को ऊँचा स्थान प्राप्त था और गृहप्रबंध उन्हीं के हाथ में था। कुछ स्त्रियाँ इतनी विदुषी होती थीं कि मन्त्रों तक की रचना करती थीं। आधुनिक अर्थ में जातिव्यवस्था प्रचलित नहीं थी, परन्तु वर्णव्यवस्था वर्तमान थी, जिसके अन्तर्गत जनता का वर्गीकरण ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा विश: (वैश्य) में किया जाता था।

आर्य गाँवों में निवास करते थे, उनके पुर अथवा नगर नहीं थे। उनकी आजीविका का मुख्य साधन था-पशुपालन और कृषि। उनमें चर्मकार, रथकार (बढ़ई) आदि व्यवसाय भी प्रचलित थे। व्यापार बैलों तथा सुवर्ण आभूषणों के द्वारा किया जाता था। उनका मुख्य भोजन घी, शाक और फल था। यज्ञ में बलि दिये गये पशुओँ का मांस भी खाया जाता था। सोम और सीमित सुरापान प्रचलित था। द्यूत-क्रीड़ा और रथों की दौड़ मनोरंजन के मुख्य साधन थे। आर्यों ने विजित अनार्यों को भी अपनी वर्णव्यवस्था में सम्मिलित कर लिया और उनका वर्गीकरण शूद्रों में किया जाने लगा। आर्य प्रकृति की विविध शक्तियों को साधारणत:, देवता मानकर उनकी उपासना करते थे। वे द्यौ: (आकाश), वज्र (बिजली) तथा सूर्य की शक्तियों के रूप में वरुण, इन्द्र, सूर्य आदि की पूजा करते थे। आर्यों के देवताओं की संख्या विशाल थी और उनकी उपासना के लिए जटिल कर्मकाण्ड के ज्ञाता पुरोहितों की आवश्यकता आवश्यकता पड़ती थी। आर्यों में यह विश्वास भी प्रचलित था कि मूलतः ईश्वर एक और सर्वव्यापक है, यद्यपि उसके नाम भिन्न-भिन्न हैं। आर्य बड़े उद्यमी और पुरुषार्थी थे और उनके वि‍चारों तथा संस्थाओं का विकास अनेक युगों में हुआ। महान् हिन्दू सभ्‍यता और संस्कृति उन्हीं की देन है।

भारतीय कानून कमीशन : इसकी स्थापना १८३३ ई. में लार्ड मैकाले की अध्यक्षता में की गयी। इसने कई वर्ष तक कार्य किया और उसी के आधार पर १८६० ई. में भारतीय दण्ड विधान तथा १८६१ ई. में जाब्ता दीवानी और जाब्ता फौजदारी तैयार किये गये। इस तरह ब्रिटिश भारत में समान कानूनी व्यवस्था की स्थापना हुई।

भारतीय दण्ड विधान : गवर्नर-जनरल लार्ड विलियम बेण्टिक (१८२८-३५ ई.) द्वारा नियुक्त कानून कमीशन ने इसका प्रणयन किया। मैकाले (दे.) इस कमीशन का प्रमुख सदस्य था। इस कानून को १८६० ई. में लागू किया गया। फलस्वरूप समूचे ब्रिटिश भारत में समान दण्ड-विधान लागू हो गया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस : भारतीयों के सबसे बड़े इस राजनीतिक संगठन की स्थापना २८ दिसम्बर १८८५ ई. को की गयी। इसका पहला अधिवेशन बम्बई में कलकत्ता हाईकोर्ट के बैरि‍स्टर उमेशचन्द्र बनर्जी की अध्यक्षता में हुआ। कहा जाता है कि वाइसराय लार्ड डफरिन १८८४-८८ ई.) ने कांग्रेस की स्थापना का अप्रत्यक्ष रीति से समर्थन किया। यह सही है कि एक अवकाश प्राप्त अंग्रेज अधिकारी एलन आक्टेवियन ह्यूम कांग्रेस का जन्मदाता था और १९१२ ई. में उसकी मृत्यु हो जाने पर कांग्रेस ने उसे अपना "जन्मदाता और संस्थापक" घोषित किया था। गोखले के अनुसार १८८५ ई. में ह्यूम के सिवा और कोई व्यक्ति कांग्रेस की स्थापना नहीं कर सकता था। परन्तु वस्तुस्थिति यह प्रतीत होती है, जैसाकि सी. वाई. चिन्तामणि का मत है, राजनीतिक उद्देश्यों से राष्ट्रीय सम्मेलन का विचार कई व्यक्तियों के मन में उठा था और वह १८८५ ई. में चरितार्थ हुआ।

कांग्रेस के प्रारम्भिक वर्षों में उसके समर्थक खुलेआम कहते थे कि इस संगठन से भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव मजबूत होगी। इसीलिए सरकार उस पर कृपादृष्टि रखती थी और वाइसराय लार्ड डफरिन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन के प्रतिनिधियों को गार्डन पार्टी दी थी। यह अधिवेशन १८८६ ई. में कलकत्ता में हुआ। इसी रीति से मद्रास के गवर्नर ने कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन के प्रतिनिधियों का स्वागत किया था। यह अधिवेशन १८८७ ई. में मद्रास में हुआ। परंतु यह उसी समय स्पष्ट होने लगा था कि कांग्रेस का विकास लार्ड डफरिन की आशाओं के अनुरूप नहीं होने जा रहा है, बल्कि वह वास्तव में एक राष्ट्रीय संस्था के रूप में विकसित होती जा रही है और वह उन अधिकारों और सिद्धांतों का समर्थन करती है जो उसके विचार में भारतीय राष्ट्र के राजनीतिक विकास में सहायक हो सकते हैं। इस प्रकार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस शीघ्र ही सरकार का कोपभाजन बन गयी और भारतीय जनता में अधिकाधिक लोकप्रिय होती गयी।

शीघ्र ही उसे भारतीय राष्ट्र की आवाज माना जाने लगा और उसने अपनी स्थापना के बासठ वर्षों के बाद ही राष्ट्र को स्वाधीनता दिला दी। यह एक ऐसी उपलब्धि है जिसपर कोई भी संगठन उचित रीति से गर्व कर सकता है। परंतु इस महान लक्ष्य की प्राप्ति से पूर्व भारत या राष्ट्रीय कांग्रेस को कड़ी अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा। कांग्रेस के पहले अधिवेशन में प्रतिनिधियों की संख्या जहाँ ६१ थी, दूसरे कलकत्ता अधिवेशन में बढ़कर ४३६ हो गयी और बम्बई में होने वाले पाँचवे अधिवेशन में बढ़कर १८८९ हो गयी। यह आवश्यक समझा गया कि सारे देश में विविध राजनीतिक सार्वजनिक संस्थाओं से चुने जानेवाले प्रतिनिधियों की अधिकतम सीमा १००० निर्धारित कर दी जाय। कांग्रेस के अधिवेशनों में पहुँचनेवाले दर्शकों की संख्या भी उत्तरोत्तर बढ़ती गयी और प्रतिनिधियों को ठहराने की व्यवस्था करना तथा अधिवेशन में सबके बैठने की व्यवस्था करना एक कठिन समस्या बन गयी, जिसे संतोषजनक रीति से हल करना सरल कार्य नहीं था। प्रतिनिधियों तथा दर्शकों की उत्तरोत्तर बढ़ती संख्या से यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस राष्ट्रीय संस्था है, यद्यपि मुसलमान लोग सामान्य रीति से अपने को उससे अलग रख रहे थे।

समय बीतने के साथ कांग्रेस के उद्देश्यों और उनको प्राप्त करने के उपायों में परिवर्तन होता गया। कांग्रेस के पहले अधिवेशन में केवल नौ प्रस्ताव पास किये गये, जिनके द्वारा माँग की गयी कि (१) एक शाही कमीशन के द्वारा, जिसमें भारत को भी उचित रीति से प्रतिनिधित्व प्राप्त हो, भारतीय प्रशासन की जाँच की जाय; (२) इंडिया कौंसिल (भारत परिषद) को तोड़ दिया जाय; (३) केन्द्रीय तथा प्रांतीय लेजिस्लेटिव कौंसिलों का विस्तार करके उनमें यथेष्ट अनुपात में निर्वाचित सदस्यों को लिया जाय और उन्हें वार्षिक बजट पर विचार करने तथा प्रश्न पूछने का अधिकार दिया जाय; (४) इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा इंग्लैण्ड और भारत में एक साथ ली जाय और उसमें प्रवेश करनेवालों की अधिकतम उम्र १९ वर्ष से बढ़ाकर २३ वर्ष कर दी जाय; (५) फौजी खर्च घटाया जाय; (६) चुंगी फिर से लगायी जाय और बढ़ा हुआ फौजी खर्च यदि घटाया न जा सके तो उसकी पूर्ति के लिए लाइसेंस कर का विस्तार किया जाय; (७) बर्मा को, जिस पर अधिकार कर लेने की निंदा की गयी, अलग कर दिया जाय; (८) उक्त प्रस्तावों को सभी प्रांतों की सभी राजनीतिक संस्थाओं को भेजा जाय ताकि वे उनके क्रियान्वयन की माँग कर सकें; (९) अगले साल बड़े दिन पर कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन फिर बुलाया जाय। उक्त प्रस्ताव के अनुसार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन १८८६ ई. में बड़े दिन पर कलकत्ता में हुआ। इसके बाद प्रति वर्ष बड़े दिन पर उसका अधिवेशन भारत के किसी न किसी बड़े नगर में होता रहा। १९३७ ई. में पहली बार उसका अधिवेशन एक गाँव (फैजपुर) में हुआ। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस प्रारम्भ में अपने प्रस्तावों के क्रियान्वयन के लिए ब्रिटिश सरकार की सद्भावना पर पूरी तरह से निर्भर रहती थी। उसके प्रस्ताव प्रार्थना के रूप में पेश किये जाते थे। कांग्रेस को ब्रिटेन पर पूरा विश्वास था और वह उसके राजनीतिक सिद्धांतों तथा संस्थाओं के प्रति आदर भाव रखती थी।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस : बहुत वर्षों तक कांग्रेस के नेताओं का विश्वास रहा कि अंग्रेज लोग इतने न्यायप्रिय हैं कि यदि भारतीयों की शिकायतें उनके सामने रख दी जायें तो वे अवश्य दूर कर दी जायेंगी। इसी विश्वास के आधार पर वैधानिक आंदोलन चलाकर जूरी के द्वारा मुकदमों की सुनवाई की प्रथा का विस्तार करने, न्यायकार्य को प्रशासन कार्य से पृथक् करने, शस्त्र कानून रद्द करने, सामान्य तथा तकनीकी शिक्षा का विस्तार करने, केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों का विस्तार करके उनमें निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधि बढ़ाने तथा उन्हें देश के वित्तीय तथा सामान्य प्रशासन पर नियंत्रण का अधिक अधिकार प्रदान करके देश में स्वशासन का विकास करने की माँग की गयी। ब्रिटिश जनता को सूचना देने के उद्देश्य से १८८८ ई. में लंदन में एक प्रचार एजेंसी खोली गयी। बाद में इस कार्य के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश कमेटी की स्थापना की गयी, जो साप्ताहिक 'इंडिया' का प्रकाशन करती थी।

परंतु इन सब प्रयत्नों का कोई फल नहीं निकला और ब्रिटिश सरकार ने १८९२ ई. के इंडियन कौंसिल ऐक्ट (दे.) को छोड़कर और कोई सुधार नहीं किया। उसने कांग्रेस तथा उसके प्रस्तावों की पूर्ण उपेक्षा की। इससे कांग्रेस के अनुयायियों में निराशा की भावना फैली। देश के अंदर कांग्रेस के प्रचार के फलस्वरूप कांग्रेस के अनुयायियों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही थी और धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार की विरोधी भावना बढ़ृने लगी। कांग्रेस जनों का एक वर्ग वैधानिक आंदोलन में अपना विश्वास खो बैठा। वह प्रतिवर्ष सरकार को प्रार्थनाएँ भेजने की पद्धति की खिल्ली उड़ाता था, जिनको सरकार रद्दी की टोकरी में फेंक देती थी। इस वर्ग का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक, अरविन्द घोष, विपिन चन्द्र पाल तथा लाला लाजपतराय कर रहे थे। उनका कहना था कि सिर्फ जबान चलाने से शासन सुधार नहीं प्राप्त होंगें, उनके लिए ठोस काररवाई करने की आवश्यकता है। उसका कहना था कि सिर्फ स्वायत्तशासी संस्थाओं के विस्तार से देश संतुष्ट नहीं हो सकता, देश प्रशासन पर वास्तविक नियंत्रण चाहता है। उसने आत्मसहायता और जनता को जाग्रत करने की आवश्यकता पर बल दिया।

इस बीच भारत सरकार ने कई प्रतिगामी कार्य किये, जैसे टकसालों में जनता की चाँदी से सिक्कों की ढलाई बंद कर देना, विनिमय दर से होनेवाली हानि की पूर्ति के लिए भत्ता देना, इंडियन यूनीवर्सिटीज ऐक्ट (दे.) तथा बंगभंग (दे.) (१९०५)। इसके साथ कई वाइसरायों ने ऐसे वक्तव्य दिये जो बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं थे, जैसे "भारत को तलवार के बल पर जीता रखा गया है और उसी के बल पर कब्जे में रखा जायगा" (लार्ड एलगिन) तथा "भारत में सच्चाई का आदर नहीं किया जाता और वास्तव में सच्चाई कभी भारतीय आदर्श नहीं रहा है" (लार्ड कर्जन)।

इन सब बातों से भारतीयों में, विशेषरूप से कांग्रेस जनों के नये और नवयुवक वर्ग में गहरा आक्रोश भर गया। पुराने और नये कांग्रेसजनों, नरमदल और गरमदल वालों, वैधानिक आंदोलन में विश्वास करनेवालों और उग्र राष्ट्रीयतावादियों में मतभेद पहली बार १९०५ ई. में बनारस में गोपालकृष्ण गोखले की अध्यक्षता में होनेवाले कांग्रेस अधिवेशन में प्रकट हुए। अध्यक्ष की ओर से रखे गये प्रस्ताव में "भारतीय विधानमंडलों का और विस्तार और सुधार करने" की प्रार्थना की गयी थी। इसके विरोध में नवयुवक वर्ग ने माँग की कि भारत में ऐसी सरकार होनी चाहिए जो स्वायत्तशासी हो और ब्रिटिश नियंत्रण से पूर्णतया मुक्त हो। अध्यक्ष का प्रस्ताव पास हो गया। अगले साल १९०६ ई. में कलकत्ता में होनेवाले अधिवेशन में मतभेद फिर प्रकट हुए। अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी (दे.) ने दोनों दलों में समझौता कराने का प्रयास किया। उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में घोषणा की कि भारत को "ब्रिटेन अथवा उपनिवेशों जैसा स्वराज्य" मिलना चाहिए। परन्तु यह समझौता भ्रामक सिद्ध हुआ और अगले साल १९०८ ई. की सूरत कांग्रेस में नरमदल और गरमदलवालों में खुला संघर्ष हुआ और कांग्रेस अधिवेशन भंग हो गया। अगले साल (१९०८ ई. में) इलाहाबाद अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का संविधान तैयार किया गया। इसकी पहली धारा में कहा गया था कि कांग्रेस का ध्येय "संवैधानिक उपायों से एक ऐसी शासन प्रणाली की स्थापना करना है जो ब्रिटिश साम्राज्य के स्वशासनयुक्त सदस्यों के अनुरूप हो।" इसको कांग्रेस की नीति के रूप में स्वीकार कर लिया गया और भविष्य में ऐसा कोई व्यक्ति कांग्रेस के लिए प्रतिनिधि नहीं चुना जा सकता था जिसने इस प्रस्ताव को लिखितरूप से स्वीकार न कर लिया हो। मार्ले-मिन्टो सुधारों की रिपोर्ट पर आधारित १९०९ ई. के इंडियन कौंसिल ऐक्ट (दे.) तथा १९११ ई. में बंग-भंग रद्द कर दिये जाने से नरम दलवालों की स्थिति मजबूत हो गयी और १९१६ ई. तक कांग्रेस उनके नियंत्रण में रही।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस : परंतु मार्ले-मिन्टो सुधार इतने सीमित थे कि शीघ्र ही उनके विरुद्ध असंतोष उत्पन्न होने लगा। इस बीच देश की अंदरूनी तथा अंतरराष्ट्रीय घटनाओं के फलस्वरूप भारतीय मुसलमानों का एक वर्ग भी स्वशासन की माँग करने लगा। अभी तक भारतीय मुसलमानों ने कांग्रेस के नेतृत्व में चलाये गये राष्ट्रीय आंदोलन से अपने को अलग रखा था। परंतु १९०९ ई. के इंडियन कौंसिल ऐक्ट में मुसलमानों को खुश रखने के उद्देश्य से प्रदान किये गये साम्प्रदायिक प्रति‍निधित्व के बावजूद, मुसलिम लीग ने १९१३ ई. में स्वशासन की प्राप्ति अपना उद्देश्य घोषित कर दिया। १९१६ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुसलिम लीग का अधिवेशन लगभग साथ-साथ लखनऊ में हुआ, जिसमें शासन-सुधारों की संयुक्त योजना तैयार की गयी। इस संयुक्त माँग के जवाब में तथा प्रथम विश्वयुद्ध (दे.) के फलस्वरूप उत्पन्न परिस्थितियों के दबाव से ब्रिटेन ने १९१८ ई. में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों (दे.) की घोषणा की। शीघ्र ही इनके आधार पर १९१९ ई. का गवर्नमेन्ट आफ इंडिया ऐक्ट (दे.) तैयार किया गया, जिसमें विधानमंडलों में प्रत्यक्ष चुनाव के आधार पर जनता को प्रतिनिधित्व प्रदान करने का सिद्धांत स्वीकार कर लिया गया और आंशिक रीति से प्रांतीय स्वशासन की स्थापना कर दी गयी। इन सुधारों को स्वीकार करने के प्रश्न पर कांग्रेस में दो दल हो गये। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी और तेजबहादूर सप्रू जैसे पुराने कांग्रेसजनों के नेतृत्व में नरमदलवालों ने सुधारों को स्वीकार कर लिया और उन्हें क्रियान्वित करने का निश्चय किया। दूसरी ओर राष्ट्रीयतावादियों ने, जो अब कांग्रेस में बहुमत में थे, सुधारों को अपर्याप्त माना और १९१८ ई. के अधिवेशन में कांग्रेस ने उन्हें अस्‍वीकार कर दिया। नरमदलवाले अब कांग्रेस से अलग हो गये, जिसके निर्माण में उन्होंने बहुत परिश्रम किया था और उसके लिए अनेक कुर्बानियाँ की थीं।

इसी समय कांग्रेस को मोहनदास करमचंद गांधी (दे.) के रूप में एक नया नेता मिल गया और जिसके निर्देशन में ११२० ई. के नागपुर अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अथवा ध्येय सभी उचित तथा शांतिपूर्ण उपायोग से पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति घोषित किया और अपनी माँगों को मनवाने के लिए सरकार के प्रति अहिंसक असहयोग की नीति बरतने का निश्चय किया। इस प्रकार कांग्रेस के ध्येय और उसके उपायों में भारी परिवर्तन आ गया।

कांग्रेस को अब पहले से कहीं अधिक जन समर्थन प्राप्त होने लगा और उसने एक ऐसा साधन प्राप्त कर लिया, जिसका प्रयोग करके वह अपनी माँगों को मनवा सकती थी। १९२१ ई. में गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने मुसलमानों के द्वारा चलाये जा रहे खिलाफत आंदोलन (दे.) का समर्थन किया और एक साल में स्वराज्य दिलाने का वादा करके असहयोग आंदोलन आरम्भ कर दिया। प्रिंस आफ वेल्स के आगमन पर उसका बायकाट किया गया और हिन्दुओं तथा मुसलमानों के संयुक्त असहयोग से सरकार को किस रीति से पंगु बनाया जा सकता है, इसका अपूर्व प्रदर्शन हुआ। सरकार ने तीव्र दमन किया और आंदोलन गांधीजी के इच्छानुसार पूर्णरूप से अहिंसक नहीं रह सका। तुर्की में घटनेवाली घटनाओं के फलस्वरूप खिलाफत आंदोलन मृत हो गया और असहयोग आंदोलन बंद कर दिया गया। परन्तु कांग्रेस का आंदोलन चलता रहा और १९२९ ई. के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता की प्राप्ति कांग्रेस का लक्ष्य घोषित किया गया।

कांग्रेस ने अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए अप्रैल १९३० ई. सत्याग्रह आंदोलन (दे.) आरम्भ कर दिया। मुसलिम लीग ने सत्याग्रह आंदोलन में शरीक होने से इनकार कर दिया। सरकार ने फिर दमन का सहारा लिया। उसने गांधीजी और कांग्रेस के दूसरे बहुत से नेताओं को जेलों में बंद कर दिया और कांग्रेस आंदोलन पुनः स्थागित कर दिया गया। परंतु दमन के जोर से स्वाधीनता की आकांक्षा को नहीं कुचला जा सका और १९३९ ई. में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने पर यह अच्छी तरह प्रकट हो गया कि ब्रिटेन युद्ध जीतने के लिए भारत के साधनों पर कितना अधिक निर्भर है। गांधीजी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ब्रिटेन के शत्रुराष्ट्रों का खुला समर्थन करने से साफ इनकार कर दिया और इस बात की प्रतीक्षा करना उचित समझा कि ब्रिटेन में एक दिन सदबुद्धि का उदय होगा और वह स्वेच्छा से भारत की राजनीतिक माँगों को स्वीकार कर लेगा, परन्तु सुभाषचन्द्र बोस (दे.) के नेतृत्व में कांग्रेसजनों का एक वर्ग ब्रिटेन के शत्रु राष्ट्रों से फौजी गठबंधन कर लेने के पक्ष में था। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस कलकत्ता में अपने घर में नजरबंद थे। एक दिन वे चुपके से भाग निकले और स्थल-मार्ग से जर्मनी जा पहुँचे। अनेक साहसिक घटनाओं के बाद वे सिंगापुर पहुँचे और वहाँ १९४२-४३ ई. में अंग्रेजों ने बर्मा खाली करते समय जिन ९०,००० भारतीय सेनाओं को जापानियों के हाथ बंदी के रूप में छोड़ दिया था, उनकी सहायता से आजाद हिन्द फौज का संगठन किया, अपनी अध्यक्षता में एक अस्थायी आजाद हिन्द सरकार की रचना की और जापानियों की सहायता से भारत को बलपूर्वक आजाद करने के लिए उसकी पूर्वी सीमाओं पर फौजी आक्रमण कर दिया। परन्तु १९४४ ई. में उनका प्रयास विफल हुआ। गांधीजी ने १९४२ ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध जो 'भारत छोड़ो' आन्दोलन छेड़ा था, वह भी विफल रहा।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस : १९४५ ई. तक ब्रिटेन फिर विजयी हो चुका था और प्रतीत होता था कि वह फिर पुराना साम्राज्यवादी रवैया अख्तियार कर लेगा। परन्तु युद्ध ने ब्रिटेन को जन और धन की भारी क्षति पहुँचायी थी, वह पूरी तरह से जर्जर और पंगु हो चुका था। वह यद्यपि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का दमन करने में सफल हो गया था, तथापि भारत में ब्रिटिश-विरोधी भावनाओं एवं गतिविधियों ने इतना प्रबल रूप धारण कर लिया था कि ब्रिटेन के लिए इसके सिवा कोई चारा नहीं रह गया कि वह कांग्रेस की माँगों को स्वीकार करके ही भारत पर अपना अधिकार बनाये रख सकता है। कांग्रेस ने १९४६ ई. के मेरठ अधिवेशन में पुनः स्वाधीनता की माँग दोहरायी और अंत में अगस्त १९४७ ई. में भारत और पाकिस्तान (दे.) के रूप में देश के विभाजन की भारी कीमत चुकाकर अपनी मांगें मनवा ली। इस प्रकार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने बासठ वर्ष पूर्व अपनी स्थापना के अवसर पर अपना जो ध्येय निश्चित किया था, उससे अधिक प्राप्त कर लिया। इस समय कांग्रेस ही भारत सरकार का संचालन कर रही है। उसके कार्यकाल में भारत को संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्रात्मक संविधान प्रदान किया गया और अनेक शताब्दियों की विदशी दासता के फलस्वरूप देश गरीबी, अज्ञान तथा सामाजिक एवं आर्थिक असमानता के जिन अभिशापों से ग्रस्‍त था, उनसे छुटकारा दिलाने का बीड़ा उठाया गया है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आज भी भारत की प्रमुख रानीतिक पार्टी है।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस लोकतांत्रिक संगठन है जो सारे देश में फैला हुआ है। १८ वर्ष या इससे अधिक उम्र का कोई भी व्यक्ति २५ पैसा वार्षिक चंदा देकर उसका प्राथमिक सदस्य बन सकता है और २० वर्ष से अधिक उम्र का कोई भी प्राथमिक सदस्य खादी पहनने आदि की कुछ शर्ते पूरी करने पर उसका पूर्ण तथा सक्रिय सदस्य बन सकता है। सबसे नीचे ग्राम या मोहल्ला कांग्रेस कमेटी होती है, उससे ऊपर जिला कांग्रेस कमेटी होती है। प्रत्येक प्रदेश में अपनी सभी जिला कांग्रेस कमेटियों के कार्यों का पर्यवेक्षण और नियंत्रण करने के लिए एक प्रदेश कांग्रेस कमेटी होती है। सभी प्रदेश कांग्रेस कमेटियाँ अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधीन होती हैं, जिसके सदस्य सभी राज्यों से चुने जाते हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कार्य समूचे वर्ष चलता रहता है और उसका निर्देशन वर्किंग कमेटी करती है, जिसके अध्यक्ष का चुनाव दो वर्ष के लिए होता है। ऊपर से ऐसा प्रतीत होता है कि संगठन के अन्दर कार्यों का काफी विकेन्द्रीकरण है, परन्तु अनुभवों से सिद्ध होता है कि आवश्यकता पड़ने पर यह संगठन अपने कार्यों में केन्द्रीयकरण की भारी क्षमता रखता है।

नीचे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के १८८५ ई .में होनेवाले पहले अधिवेशन से लेकर १९४७ ई. तक के अधिवेशन स्थानों तथा अध्यक्षों की सूची दी जा रही है, जिससे उसका राष्ट्रीय एवं अखिल भारतीय रूप प्रकट होता है।

सन - स्थान - अध्यक्ष - १८८५-बम्बई-उमेशचन्द्र बनर्जी, १८८६-कलकत्ता-दादाभाई नौरोजी, १८८७-मद्रास-सैयद बदरुद्दीन तैयबजी, १८८८-इलाहाबाद-जार्ज यूल, १८८९-बम्बई-सर विलियम वेडरबर्न, १८९०- कलकत्ता-सर फीरोजशाह मेहता, १८९१-नागपुर-आनन्द चार्लू, १८९२-इलाहाबाद-उमेशचंद्र बनर्जी, १८९३-लाहौर-दादाभाई नौरोजी, १८९४-मद्रास-अलफ्रेड वेब, १८९५-पूना-सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, १८९६-कलकत्ता-मोहम्मद रहीमतुल्ला सयानी, १८९७-अमरावती-सी. शंकरन नायर,१८९८-मद्रास-आनन्द मोहन वसु, १८९९-लखनऊ-रमेशचन्द्र दत्त, १९००-लाहौर-नारायण गणेश चन्द्रावरकर, १९०१-कलकत्ता-दीनशा ईदलजी वाचा, १९०२-अहमदाबाद-सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, १९०३-मद्रास-लालमोहन घोष, १९०४-बम्बई-सर हेनरी काटन, १९०५-बनारस-गोपाकृष्ण गोखले, १९०६-कलकत्ता-दादाभाई नौरोजी, १९०७-सूरत-रासबिहारी घोष (अधिवेशन भंग), १९०८-मद्रास-रासबिहारी घोष, १९०९-लाहौर-मदनमोहन मालवीय, १९१०-इलाहाबाद-सर विलियम बेडरबर्न, १९११-कलकत्ता-विशन नारायण दर, १९१२-पटना-रघुनाथ नृसिंह मुधीलकर, १९१३-कराची-नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर, १९१४-मद्रास-भूपेन्द्रनाथ वसु, १९१५-बम्बई-सत्येन्द्र प्रसन्न सिंह, १९१६-लखनऊ-अम्बिकाचरण मुजुमदार, १९१७-कलकत्ता-श्रीमती एनी बेसेंट, १९१८-बम्बई (विशेष) -सैयद हसन इमाम, १९१९-अमृतसर-पंडित मोतीलाल नेहरू, १९२०-कलकत्ता (विशेष)-लाला लाजपत राय, १९२०-नागपुर-चक्रवर्ती विजयराघवाचार्य, १९२१-अहमदाबाद-हकीम अजमल खाँ, १९२२-गया-चित्तरंजन दास, १९२३-कोकोन-डा. मौलाना मोहम्‍मद अली,१९२३-दिल्ली (विशेष)-अबुल कलाम आजाद, १९२४-बेलगाँव-मोहनदास करमचंद गाँधी, १९२५- कानपुर-श्रीमती सरोजिनी नायडू, १९२६-गौहाटी-श्रीनिवास आयंगर, १९२७-मद्रास-डा. मुख्तर अहमद अन्सारी, १९२८-कलकत्ता-पंडित मोतीलाल नेहरू, १९२९-लाहौर-पंडित जवाहरलाल नेहरू, १९३०-कोई अधिवेशन नहीं हुआ, १९३१-कराची-वल्लभभाई पटेल, १९३२-दिल्ली-सेठ रणछोरलालदास अमृतलाल, १९३३-कलकत्ता-श्रीमती नेली सेनगुप्त, १९३४-बम्बई-राजेन्द्र प्रसाद, १९३५-कोई अधिवेशन नहीं हुआ, १९३६-लखनऊ-पंडित जवाहरलाल नेहरू, १९३७-फैजपुर-पंडित जवाहरलाल नेहरू, १९३८-हरीपुरा-सुभाषचंद्र बोस, १९३९-त्रिपुरी-सुभाषचंद्र बोस, १९४०-रामगढ़-मौलाना अबुलकलाम आजाद, १९४१-१९४५-कोई अधिवेशन नहीं हुआ, १९४६-... पंडित जवाहरलाल नेहरू, १९४६-... आचार्य जयरामदास दौलतराम कृपालानी, १९४७-राजेन्द्र प्रसाद.

स्वाधीनता पाने के बाद १९४८ ई. में कांग्रेस का अधिवेशन जयपुर में पट्टाभि सीतारमैया की अध्यक्षता में हुआ, १९५० ई. में नयी दिल्ली में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में, जिन्होंने हैदराबाद (१९५३) तथा कल्याणी अधिवेशनों की भी अध्यक्षता की, १९५५ ई. में अवाड़ी में उच्छ्रङ्गराय नवलराय ढेबर की अध्यक्षता में, जिन्होंने अमृतसर (१९५६ ई.) तथा गोहाटी (१९५८ ई.) अधिवेशनों की भी अध्यक्षता की, १९५९ ई. में नागपुर में श्रीमती इंदिरा गांधी की अध्यक्षता में, तथा १९६४ई. में भुवनेश्वर में तथा १९६५ ई. में दुर्गापुर में के. कामराज की अध्यक्षता में हुआ। अवाड़ी अधिवशन (१९५५ ई.) में कांग्रेस ने देश में लोकतांत्रिक आधार पर समाजवादी राज्य की स्थापना की नीति स्वीकार की, जिसे उसने भुवनेश्वर अधिवेशन (१९६५ ई.) में दोहराया।

भारतीय वर्णमाला : सबसे प्राचीन भारतीय लिपिमाला के नमूने पिपरहवा के स्तूप और अशोक (२७३ ई. पू. से २३२ ई. पू.) के शिलालेखों में मिलते हैं। उस लिपि को ब्राह्मी लिपि कहा जाता है और भारत की सभी आधुनिक लिपियाँ उसी से विकसित हुई हैं। ब्राह्मी लिपि का विकास कैसे हुआ, यह अब तक रहस्य है। एक मत है कि पश्चिमी एशिया में जो लिपियाँ प्रचलित थीं, उन्हीं से ब्राह्मी लिपि का विकास हुआ। दूसरा मत है कि प्राचीन ब्राह्मी लिपि का विकास हुआ। दूसरा मत है कि प्राचीन ब्राह्मी लिपि का विकास सिन्ध के मोहनजोदड़ो और हड़प्‍पा के प्रागैतिहासिक अवशेषों में प्राप्त मोहरों या मुद्राओं पर अंकित चित्रलिपि से हुआ। पश्चिमोत्तर भारत में अशोक के शिलालेख खरोष्ठी लिपि में मिले हैं और अफगानिस्तान के हाल में उसके जो दो शिलालेख मिले हैं, उनमें खरोष्ठी और अरमइक ग्रीक, दोनों लिपि‍यों का प्रयोग है। इस प्रकार ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी में भारत में ब्राह्मी, खरोष्ठी और अरमइक, तीनों लिपियों का प्रयोग होता था; और उनमें से ब्राह्मी लिपि पूरे भारत में प्रचलित थी और बाद की अधिकांश भारतीय लिपियाँ उसी से विकसित हुई हैं। ईसा की सातवीं शताब्दी में जब तिब्बत में राजा स्रोङ्गम्पन् स्गम्न्पो (६२९-६९८ ई.) का राज्य था, उस समय बौद्धधर्म ने तिब्बत अथवा भोट देश में प्रवेश किया और उसके साथ ही भारतीय वर्णमाला और लिपि भी वहाँ पहुँची जो भोट वर्णमाला का आधार बनी।

भारतीय शासन विधान : १८५८, १९०९, १९१९ तथा १९३५ ई. के शासनविधानों का विवरण 'ब्रिटिश भारतीय प्रशासनतंत्र' के अन्तर्गत देखिये।

भारतीय संविधान सभा : इसकी स्थापना का अधिकार ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने १६ मई १९४६ ई. की कैबिनेट मिशन (दे.) योजना में स्वीकार किया। इस योजना के अंतर्गत संविधान सभा का गठन किया गया, जिसमें सभी प्रांतों तथा देशी रियासतों का प्रतिनिधित्व करनेवाले ३८१ सदस्य थे। परन्तु मुसलिम लीग उसकी बैठकों में शामिल नहीं हुई और इसीलिए भारतीय संविधान सभा दिसम्बर १९४६ ई. में होनेवाले अधिवेशन में कोई कार्य नहीं कर सकी। ब्रिटिश पार्लियामेन्ट की ओर से भारत के पाकिस्तान तथा भारत नाम से दो स्वतंत्र राज्यों में विभाजन करने की योजना के आधार पर जब १९४७ ई. में इंडियन इंडिपेन्डेन्स एक्ट पास किया गया, तब संविधान सभा का भी विभाजन कर दिया गया। पाकिस्तान में शामिल क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करनेवाले सदस्यों को लेकर पाकिस्तान संविधान सभा का गठन कर दिया गया। शेष सदस्य भारतीय संविधान सभा के सदस्य बने रहे। लम्बी बहस के बाद डा. राजेन्द्र प्रसाद (दे.) की अध्यक्षता में भारतीय संविधान सभा ने २६ नवम्बर १९४९ ई. को भारत का संविधान अधिनियम पास कर दिया।

इस अधिनियम में निर्धारित किया गया कि भारत सार्वभौम सत्ता-सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य होगा और उसके राज्यक्षेत्र में गवर्नरों के द्वारा शासित प्रांत सम्मिलित होंगे। संविधान सभा ने भारतीय विधान मंडल की हैसियत से कार्य करते हुए निर्णय किया कि भारतीय गणराज्य ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का सदस्य बना रहेगा। भारतीय संविधान सभा ने जो संविधान तैयार किया था, उसमें भारत में एक निर्वाचित राष्ट्रपति के अधीन संघात्मक लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना स्वीकृत की गयी थी। इस संविधान को २६ जनवरी १९५० ई. को घोषणा के द्वारा स्वीकार किया गया और उसी दिन से लागू कर दिया गया। उसी के उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष २६ जनवरी को भारत में 'गणराज्य दिवस' मनाया जाता है।

भारतीय संवैधानिक सुधारों की रिपोर्ट : इसमें १९१७-१८ ई. में नियुक्त भारतमंत्री एडविन मांटेग्यू तथा वाइसराय लार्ड चेम्सफोर्ड की सिफारिशें निहित थीं। १९१९ ई. का गवर्नमेण्ट आफ इंडिया ऐक्ट इसी रिपोर्ट पर आधारित था। इस ऐक्ट में केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों का विस्तार कर दिया गया तथा द्वैधशासन प्रणाली (दे.) के द्वारा प्रांतों का प्रशासन आंशिक रूप से उत्तरदायी बना दिया गया।

भारतीय सभ्यता और धर्म का विदेशों में विस्तार : वृहत्तर भारत' भारत के प्राचीन इतिहास का एक गौरवपूर्ण अध्याय है। दूसरे देशों के साथ भारत का संपर्क प्रागेतिहासिक काल में भी था। ऐतिहासिक काल में देश के बाहर भारतीय संस्कृति का प्रसार सबसे पहले तीसरे मौर्य सम्राट अशोक (लगभग २७३ से २३२ ईसा-पूर्व) ने किया, जिसने बौद्ध धर्म प्रचारकों को पश्चिम में अफगानिस्तान के रास्ते फारस, सीरिया, मिस्र और मेसीडोनिया (मकदूनिया) तथा दक्षिण में श्रीलंका तक भेजा। अशोक ने अपने अभिलेखों में दावा किया है कि उसके धर्म-विजय संबंधी प्रयासों के फलस्वरूप इन सभी देशों में बहुत से लोगों ने बौद्ध धर्म अपनाया और उसने इन सभी देशों में मनुष्य और पशुओं दोनों के लिए अस्पताल खुलवाये। अशोक का यह दावा सही था, इसके प्रमाण उपलब्ध हैं। यूनानी इतिहासकारों ने इस बात का उल्लेख किया है कि ईसवी सन् की प्रारंभिक शताब्दियों में भारतीय बंदरगाहों से विदेश यात्रा पर जाते थे और अरब सागर पार करके पश्चिमी देशों के साथ व्यापार करते थे। उन्होंने सोकोत्रा में अपना उपनिवेश स्थापित किया था और रोम तथा उसके साम्राज्य के साथ उनका प्रगाढ़ व्यापारिक संबंध था।

लगभग इसी समय, विशेष रीति से कुषाणों के शासन काल में बौद्ध धर्म का भारत से बाहर मध्‍य एशिया में प्रसार हुआ और ताशकंद, खोतन और यारकंद भारतीय संस्कृति के केन्द्र बन गये। गोमति-विहार और कूचा या कूची नगर भारतीय संस्कृति के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण केन्द्र थे। सर आरेल स्टीन की गवेषणाओं के फलस्वरूप एशिया में भारतीय संस्कृति के अनेक अवशेष प्राप्त हुए हैं। मध्य एशिया से भारतीय बौद्ध धर्म और संस्कृति का प्रसार ईसवी सन् की प्रारंभिक-शताब्दियों के दौरान चीन में हुआ और लगभग एक हजार वर्षों तक भारत तथा चीन के बीच घनिष्ठ सांस्कृतिक संबंध कायम रहे। भारी संख्या में भारतीय बौद्ध भिक्षु चीन गये, वहाँ बसे तथा उन्होंने चीनी विद्वानों की मदद से न केवल बौद्ध धर्म वरन् ज्ञान की विभिन्न शाखाओं, जैसे-व्याकरण, छंदशास्त्र, काव्यशास्त्र, कला और चिकित्सा शास्त्र की सैकड़ों पुस्तकों का संस्कृत से चीनी भाषा में अनुवाद किया। ये भारतीय भिक्षु संस्कृत भाषा के पंडित थे, अतः चीनी विद्वानों ने इनसे संस्कृत सीखी।

इन बौद्ध भिक्षुओं में सबसे पहले कश्‍यप मातंग और धर्मरक्ष ६७ ई. के आस-पास चीन गये थे। इनके अलावा चीन जानेवाले अन्य कई भारतीय भिक्षुओं के नाम चीनी इतिहास ग्रंथों में सुरक्षित हैं। इनमें से कुछ प्रमुख हैं-कुमारजीव (४०१-१३ ई.), बोधिधर्म (लगभग ५२०-९ ई.) गुणवर्मा (४२४-६० ई.) और अमोघ वज्र (४०१-१३ ई.), बोधिधर्म (लगभग ५२०-९ ई.) गुणवर्मा (४२४-६० ई.) और अमोघवज्र (७४६-७४ ई.)। इसी तरह बौद्धधर्म के पवित्र ग्रंथों की खोज में और बौद्ध तीर्थों की यात्रा करने के लिए चीनी भिक्षु भी भारी संख्या में भारत आये। वे वापसी में अपने साथ सैकड़ों संस्कृत ग्रंथ चीन ले गये और उनका चीनी भाषा में अनुवाद किया। भारत आनेवाले चीनी यात्रियों में सबसे अधिक प्रसिद्ध फाहियान और ह्यएनत्सांग हैं, जो क्रमशः ईसवी सन् की ५ वीं और ७ वीं शताब्दियों में भारत आये थे। इस आवागमन के फलस्वरूप बौद्ध धर्म का महायान रूप चीनियों में इतना अधिक प्रचलित हो गया कि यह वस्तुतः चीन का राष्ट्रीय धर्म बन गया। चीन से बौद्ध धर्म और भारतीय संस्कृति कोरिया पहुँची और कोरिया से जापान।

बौद्ध धर्म का नेपाल और तिब्बत में भी प्रसार हुआ। भारतीय बौद्ध भिक्षुओं में पद्मसंभव और अतिशा दीपंकर श्रीज्ञान (१०४२-५४ ई.) के नाम तिब्बतवासी आज भी बहुत श्रद्धा के साथ लेते हैं। पद्मसंभव आठवीं शताब्दी के मध्य में तिब्बत गये और वहाँ लामा धर्म की स्थापना की। तिब्बत ने भारतीय धर्म ग्रहण करने के साथ-साथ उसकी लिपि को भी ग्रहण किया।

भारतीय सभ्यता और धर्म का विदेशों में विस्तार : भारतीय संस्कृति तथा हिन्दू एवं बौद्ध धर्म का असार श्रीलंका के अतिरिक्त बर्मा, मलय प्रायद्धीप, सुमात्रा, जावा (यबद्वीप) और मलयद्वीपसमूह तथा वहाँ से उत्तर की ओर स्याम, कम्बुज (कम्बोडिया) और अनाम में भी हुआ। इन देशों में केवल भारतीय भिक्षु और व्यापारी ही नहीं पहुँचे, वरन् भारतीयों ने वहाँ अपने उपनिवेश भी बसाये, जिनपर हिन्दू राजा शासन करते थे। इन राज्यों के शासक अपने को भारत के क्षत्रिय राजाओं का वंशज बताते थे। इन राज्यों में चम्पा (आधुनिक अनाम और हिन्द चीन), कम्बुज (जो अब कम्बोडिया के नाम से जाना जाता है), और सुमात्रा में श्रीविजय राज्य, जिसकी राजधानी परंबनम थी, उल्लेखनीय थे। ये हिन्दू राज्य ईसवी तीसरी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक खूब फले फूले। इनके राजा या तो हिन्दू या फिर बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। उन्होंने संस्कृत भाषा में अपनी प्रशास्तियां लिखवायी हैं। उन्होंने शिव, ब्रह्मा और बुद्ध के साथ-साथ ब्राह्मण तथा बौद्ध धर्म के अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित की और अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण कराया।

इन मंदिरों में जावा के बोरोबुदूर और प्रापात्राण मंदिर तथा कम्बोडिया के अंकोरवट के मंदिर आज भी अपने समस्त कला वैभव के साथ विद्यमान हैं। ये मन्दिर दक्षिण पूर्व एशिया में हिन्दू सभ्यता की महान उपलब्धियों के ज्वलंत प्रतीक हैं। चम्पा राज्य अनामवासियों के हमलों के कारण १४७१ ई. में नष्ट हो गया। कम्बुज का पतन भी लगभग इसी समय स्याम की शक्ति के प्रदुर्भाव के साथ हुआ और मलयद्वीपसमूह का हिन्दू राज्य एक शताब्दी पहले वहाँ के अंतिम शासक द्वारा इस्लाम-धर्म ग्रहण कर लेने के कारण समाप्त हो गया। तथ्य यह है कि तेरहवीं शताब्दी में भारत पर मुसलमान की विजय के बाद दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर भारतीयों का प्रसार बंद हो गया और दोनों क्षेत्रों के बीच संपर्क टूट गया। दक्षिण-पूर्व एशिया के देश इसके बाद शताब्दियों तक पुर्तगालियों, फ्रासीसियों और डचों के शोषण के शिकार रहे। (आर. सी, मजूमदार कृत चम्पा एण्ड स्वर्णद्वीप, बी. आर. चटर्जी कृत इण्डियन इम्फ्लुएंस आन कम्‍बोज, डी. जी. ई. हाल कृत हिस्ट्री आफ साउथ ईस्ट एशिया, सर ए. स्टीन कृत ऐशियेण्ट खोतान, इनरमोस्ट एशिया, रूइंस आफ डेजर्ट कैथे।)

भास : अर्थशास्त्र' के लेखक कौटिल्य का पूर्ववर्ती संस्कृत नाटककार। विश्वास किया जाता है कि उसने 'चारु दत्त' , 'प्रतिमा' और 'स्वप्न-वासवदत्ता' आदि तेरह नाटकों की रचना की थी। 'स्वप्न-वासवदत्ता' में शैशुनाग वंशी राजा दर्शक (लगभग ४६७ ई. पू.) का उल्लेख है। इन नाटकों का, जिनका बाद के युगों में लोप हो गया था, बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में केरलीय गणपति शास्त्री ने पता लगाया। (गणपति शास्त्री : दि ड्रामाज आफ़ भास तथा इंडियन एन्टीक्वरी, १९१६, पृष्ठ १८९-९५)

भास्कर पण्डित : मराठा शासक रघुजी भोंसला का सेनापति, जिसने १७४३-४५ ई. में नवाब अलीवर्दी खाँ के शासन काल में बंगाल पर आक्रमण किया। खुली लड़ाई में उसका मुकाबला करने में असमर्थ होने पर नवाब अलीवर्दी खाँ ने भास्कर पंडित को कासिम बाजार के निकट मानकड़ाह में एकांत में मिलने के लिए बुलाया और वहां उसकी हत्या करवा दी। लेकिन भास्कर पंडित की हत्या से मराठों की चढ़ाइयाँ बंद नहीं हुईं। फलत: १७५१ ई.में उड़ीसा सौंप कर तथा बारह लाख रुपये वार्षिक चौथ देना स्वीकार कर नवाब को मराठों के साथ सन्धि करनी पड़ी। भास्कर पंडित के आक्रमणों से बंगाल में अत्यधिक आतंक फैल गया था और उसके बारगीरों (स्वयंसेवक अश्वारोही सैनिकों) की लूटमार को आज भी बंगाल के लोग याद करते हैं। (सरकार-हिस्ट्री आफ बंगाल, भाग दो, पृष्ठ ४५५-६१)

भास्कर वर्मा : कामरूप (आसाम) के आरम्भिक राजाओं में सर्वाधिक ख्यातिप्राप्त, जिसने लगभग ६०० से ६५० ई. तक शासन किया। ईसा की चौथी शताब्दी में यह पुष्यवर्मा द्वारा स्थापित राजवंश का अन्तिम किन्तु सर्वाधिक महान् शासक था। इसका उल्लेख बाण के 'हर्षचरित' और ह्येनत्सांग की "ट्रैवल्स एण्ड लाईफ" में हुआ है। निधानपुर ताम्र दानपत्र में भी उसका कीर्तिगान है, जिसमें हर्षवर्धन की मृत्यु हो जाने के उपरान्त ही कदाचित् उसे जारी किया गया था। बाण तथा ह्येनत्सांग ने भास्कर वर्मा का उल्लेख 'कुमार' के नाम से किया है। उसकी हर्षवर्धन के साथ एक संधि हुई थी। यह संधि कदाचित् बंगाल के राजा शशांक (दे.) की शक्ति को रोकने के लिए की गयी थी। लेकिन इस बात का कहीं उल्लेख नहीं है कि उन्होंने कभी मिलकर शशांक पर आक्रमण किया था। यह तथ्य कि भास्कर वर्मा ने निधानपुर दानपत्र कर्णसुवर्ण स्थित शिविर से जारी किया था जिसकी पहचान मुर्शिदाबाद स्थित रंगमाटी से की गयी है, निश्चित रूप में सिद्ध करता है कि किसी समय उसने कामरूप राज्य की सीमा बंगाल में मुर्शिदाबाद जिले तक प्रसारित कर दी थी।

वह विद्वानों का संरक्षक था। यद्यपि वह व्यक्तिगत रूप में सनातनी हिन्दू धर्म मतावलम्बी था तथापि उसने अपने दरबार में बौद्ध चीनी यात्री ह्येनत्सांग को आमंत्रित किया और उसका बड़े सम्मान के साथ स्वागत किया था। बाद में सम्राट् हर्षवर्धन के आदेश पर भास्कर वर्मा राजमहल के निकट स्थित हर्षवर्धन के शिविर में चीनी यात्री के साथ-साथ गया था और वहाँ से अपने मित्र समाट् की सभाओं में कन्नौज और वहाँ से अपने मित्र समाट् की सभाओं में कन्नौज और प्रयाग में सम्मिलित हुआ। वह हर्ष की मृत्यु (६४८ ई.) के बाद कई वर्ष जीवित रहा, और चीनी वृत्तांतों के अनुसार समस्त पूर्वी भारत का स्वामी बन गया। चीनी राजदूत वांग हयुएनत्से ने जब हर्ष के सिंहासन पर अधिकार कर लेनेवाले उसके मंत्री अर्जुन को दंड देने के लिए कन्नौज पर आक्रमण किया, तब भास्कर वर्मा ने साज-सामान देकर उसकी पर्याप्त सहायता की थी। भास्कर वर्मा निःसन्तान था। उसकी मृत्यु (६५० ई.) के उपरान्त कामरूप राज्य पर नये सालस्तम्भ राजवंश का शासन स्थापित हो गया। (के. बरुआ-अर्ली हिस्ट्री आफ कामरूप; पी. भट्टाचार्य-कामरूप शासनावली तथा एस. भट्टाचार्य- डेट आफ दि निधानपुर ग्रान्ट, जर्नल आफ इंडियन हिस्ट्री-जिल्द ३१, अगस्त, १९५३, पृष्ठ ११२-१७)

भास्कराचार्य : ख्‍यातिप्राप्त गणितज्ञ और ज्योतिषाचार्य, जन्म १११४ ई. दक्षिण देशवर्ती सह्याद्रि श्रृंखला के पादमूल में स्थित बीजापुर में। उनके पिता चूड़ामणि महेश्वर भी ज्योतिषी थे, जिनसे उन्होंने गणित और खगोलशास्त्र सीखा। छत्तीस वर्ष की अल्पावस्था में उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना 'सिद्धान्तशिरोमणि' लिखी।यह पुस्तक दो भागों में विभाजित है-अंकगणित तथा बीजगणित, प्रथम भाग को लीलावती भी कहते हैं। यह पुस्तक पद्यमय है और दर्शाती है कि गणित विज्ञान में हिन्दुओं ने कितनी उन्नति की थी। (एच. बनर्जी-लीलावती तथा, बी. बी. दत्त-कन्ट्रीब्यूशन्स आफ दि हिन्दूज टू मैथमेटिक्स)

भितरी : बनारस से पूर्व गाजीपुर जिले में स्थित। यहाँ पाँचवें गुप्त सम्राट् स्कन्दगुप्त (४५५-६७ ई.) ने एक स्तम्भ निर्मित कराया था जिसके शीर्ष पर विष्णु की मूर्ति थी। मूर्ति अब लुप्त हो चुकी है, लेकिन स्तम्भ अब भी खड़ा है और इस पर संस्कृत में एक विस्तृत अभिलेख के अनुसार स्कन्दगुप्त कुमारगुप्त प्रथम (४१३-५५ ई.) का पुत्र और उत्तराधिकारी था। १८८९ ई. में कुमारगुप्त द्वितीय की एक मोहर भितरी में मिली थी। इस मोहर पर स्कन्दगुप्त का कोई उल्लेख नहीं है और पुरगुप्त को कुमारगुप्त प्रथम का पुत्र तथा उत्तराधिकारी बतलाया गया है। भितरी में प्राप्त अभिलेख तथा मोहर की परस्पर प्रतिकूल बातों का समाधान करने के लिए यह अनुमान किया जाता है कि पुरगुप्त स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था और वह स्कन्दगुप्त की मृत्यु के उपरान्त सिंहासनारूढ़ हुआ था। (फ्लीट-गुप्ता इंसक्रिपशन्स, नम्बर १३; बनर्जी-क्रॉनालोजी आफ दि लेट इम्पीरियल गुप्ताज, अनल्स आफ भण्डारकर रिसर्च इंस्टीच्यूट, 'जिल्द १, भाग १, १९१९ तथा रायचौधरी. पृ. ५७२-८५)'

भिन्नमाल : उत्तर गुजरात के निकट पुरानी सिरोही रियासत में स्थित एक प्राचीन नगर। गुर्जर प्रतिहारों के काल (नवीं शताब्दी) में यह शासन का प्रमुख केन्द्र था।

भिलसा : प्राचीन नगर विदिशा का आधुनिक नाम। इसके निकट कुछ स्तूपों के अवशेष हैं जिन्हें जनश्रुतियों के अनुसार अशोक द्वारा सथापित बताया जाता है। मुसलमानों के जमाने में यह फूलता-फलता नगर था। यहाँ एक किला था जिससे मालवा प्रदेश में भिलसा सामरिक महत्त्व का स्थान माना जाता था। इस पर सुल्तान इल्तुतमिश ने १२३४ ई. में कब्जा कर लिया था। पश्चात् १२९२ ई. में इस पर अलाउद्दीन का कब्जा हो गया और इसके फलस्वरूप उसके लिए दक्षिण भारत पर चढ़ाई करने का मार्ग प्रशस्त हो गया।

भीतरगांव : उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले में अवस्थित, जहाँ गुप्तकाल का एक मन्दिर है। इसे चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल का बताया जाता है। इस मन्दिर की मृन्मय मूर्तियाँ दृष्टव्य हैं। यह मंदिर गुप्तकालीन कला और वास्तु रचना की भव्यता का उत्कृष्ट नमूना है।

भीम अथवा भीमसेन : महाभारत की कथाओं के नायक पाँच पाण्डव राजकुमारों में दूसरा। पाण्डु के पाँचों पुत्रों में शारीरिक दृष्टि से यह सबूसे अधिक बलवान था और महाभारत में इसके शक्ति-प्रदर्शन की अनेक घटनाएँ वर्णित हैं।

भीम  : कैवर्त जाति में उत्पन्न और दिव्योक अथवा दिव्य (दे.) का भतीजा एवं उत्तराधिकारी। उसने बंगाल के राजा महीपाल द्वितीय के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया और उत्तरी बंगाल में स्वाधीन राज्य की स्थापना की। भीम का शासन थोड़े ही समय रहा, क्योंकि महीपाल के छोटे भाई रामपाल ने १०८४ ई. में उसका राज्य छीन लिया।

भीम : उद्भाण्डपुर के हिन्दू शाहीय वंश का चौथा राजा। उसकी दौहित्री (पुत्री की पुत्री) कश्मीर की ख्यातिप्राप्त रानी दिद्दा थी। उसके शासनकाल में गजनी का सुल्तान सबुक्तगीन (९७७-९७ ई.) काफी शक्तिशाली हो गया। उसके राज्य-प्रसार को रोकने में भीम का उत्तराधिकारी जयपाल विफल रहा।

भीमदेव प्रथम : गुजरात के चालुक्य अथवा सोलंकी वंश का राजा। उसके शासनकाल में महमूद गजनवी ने सोमनाथ के शिवमन्दिर पर आक्रमण किया और राजा उसको रोकने तथा मन्दिर की रक्षा करने में असफल रहा। महमूद गजनवी ने १०२५ ई. में मन्दिर को नष्ट कर दिया। उसके लौट जाने पर राजा भीम ने पुराने मन्दिर के स्थान पर, जो ईटों और लकड़ी का बना हुआ था, पत्थर का नया मन्दिर बनवाना शुरू कर दिया।

भीमदेव द्वितीय : गुजरात के सोलंकी अथवा चालुक्यवंश का पश्चात्कालीन राजा, जिसने ११७८ ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी के आक्रमण को विफल कर दिया। इस विजय के फलस्वरूप पूरा गुजरात एक शताब्दी से अधिक समय तक मुसलमानों के अधिकार में जाने से सुरक्षित रहा। इतने पर भी भीमदेव की राजधानी अन्हिलवाड़ पर कुतुबुद्दीन ने ११९७ ई. में आक्रमण और लूटमार कर ही डाली। भीमदेव द्वितीय उन गिने-चुने हिन्दू राजाओं में से एक था जो कुछ समय तक भारत में मुसलमानों की प्रगति रोकने में समर्थ हुए थे।

भीमसेन : एक हिन्दू इतिहासकार, जो औरंगजेब (१६५६-१७०७ ई.) के शासनकाल में विद्यमान था। उसने फारसी में 'नुस्खा ए दिलकुशा' नामक ग्रंथ लिखा है। उसका जन्म दक्षिण में बुरहानपुर में हुआ, अतः भीमसेन बुरहानपुरी कहलाता था। उसके ग्रंथ से देश की आर्थिक स्थिति के बारे में काफी जानकारी मिलती है।

भील : भारत की एक आदिवासी जाति, जिसका उल्लेख वैदिक साहित्य में निषादों के रूप में किया गया है। ये लोग जो भाषा बोलते हैं, उसकी गणना आग्नेय भाषा परिवार में की जाती है।

भुइयाँ : पूर्वी बंगाल तथा आसाम के छोटे-मोटे जमींदारों की पदवी उनकी संख्या बारह बतायी जाती है। यह जातिबोधक शब्द नहीं है, वरन् जमींदारों के समूह का वाचक है। ये लोग इतने धनिक और शक्तिशाली हो गये थे कि अर्धस्वाधीन शासकों की तरह कार्य करते थे और एक दूसरे से स्वतंत्र थे। पूर्वी बंगाल में ढाका, मैमनसिंह, फरीदपुर, बरिसाल तथा कोमिल्ला जिलों के बड़े भाग पर उनका अधिकार था। आसाम में उनकी जमींदारियाँ ब्रह्मपुत्र नदी के दोनों तटों पर पश्चिम में कामता राज्य और पूर्व में चुटिया राज्य के बीच के क्षेत्र में विस्तृत थीं। बंगाल में सोलहवीं शताब्दी में अकबर ने उनका दमन किया। आसाम में पहले तो राजा नरनारायण (१५४०-८४) ने उनको वश में किया और बाद में उनकी जमींदारियाँ अहोम शासकों के राज्य में विलीन कर दी गयीं। 'भुइयाँ' शब्द आसाम और बंगाल में अब सामान्य पारिवारिक पदवी मात्र रह गयी है और इसका प्रयोग जाति-धर्म के भेदभाव के बिना होता है। (जे. एन. सरकार-हिस्ट्री आफ बंगाल, खण्ड दो तथा गेट हिस्ट्री आफ आसाम)

भुक्ति : गुप्त साम्राज्य की एक प्रशासकीय इकाई। इसका प्रयोग सामान्यतः प्रांत का बोध कराने के लिए होता था। एक भुक्ति को अनेक विषयों अथवा मंडलों में बाँटा जाता था। भुक्ति के शासक को 'उपरिक' अथवा 'उपरिक महाराज' कहते थे।

भुवनेश्वर : उड़ीसा का एक प्राचीन नगर, जो अब इसकी राजधानी है। यहाँ प्रारम्भिक कलिंग शैली के मंदिर-वास्तु के कुछ उत्कृष्ट नमूने मिलते हैं, उदाहरणार्थ लिङ्गराज और राजरानी के मन्दिर, जिन्हें कड़ा अथवा केसरीवंश के राजाओं ने बनवाया था। (आर. डी. बनर्जी-हिस्ट्री आफ उड़ीसा, जिल्द एक)

भूटान : पूर्वी हिमालय में एक स्वाधीन राज्य, जो तिब्बत और भारत के बीच स्थित है। इसकी सीमा भारत के साथ लगभग दो सौ मील तक फैली हुई है। इसके पूर्व में अबोर और मिशमी जनजातियों का निवास है और पश्चिम में सिक्किम अवस्थित है। यह पर्वतीय प्रदेश है जिसे सहजरूप में तीन भागों में बाँटा जा सकता है; दक्षिणी भाग जो भारत से सटा हुआ है, पर्वतीय है और यहाँ भारी वर्षा होती है। मध्य भाग घाटियों का प्रदेश है और वर्षा मामूली होती है। इसमें कृषि सम्भव है। इसी क्षेत्र में अधिकांश लोग रहते हैं। उत्तरी भाग पर्वतों से आच्छादित है। इसके कुछ शिखर २४००० फुट तक ऊँचे हैं। इस क्षेत्र में न तो मनुष्यों का निवास है और न कृषि ही होती है। भूटान में अनेक नदियाँ बहती हैं, जिनमें मानस, तोरसा और संकोश से भारतीय भली प्रकार से परिचित हैं। लकड़ी के बहुमूल्य लट्ठे यहाँ बहुतायत से तैयार होते हैं और वन्य-पशुओं जैसे हाथी, गैंडा, बाघ, तेन्दुआ और अरनाभैंसा का यह घर है।

भूटान नाम भारतीय शब्द भोटान्त का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है भोट देश अर्थात् तिब्बत का अन्त। यहाँ के बहुसंख्यक लोग जिन्हें भोटिया कहते हैं, तिब्बती मूल के हैं और वे बौद्धधर्म के उस रूप को मानते हैं जो बहुत कुछ तिब्बत के लामाओं के मत से मिलता-जुलता है। तिब्बत की तरह भूटान में भी पुरोहितों को 'लामा' कहते हैं। लामाओं के सम्बन्ध में विश्वास किया जाता है कि उनके पास अलौकिक शक्ति होती है, अतः लोग उनका आदर करते हैं और उनसे भयभीत भी रहते हैं। भूटान में सामन्ती व्यवस्था है। सारी सत्ता नौ सरदारों पेन्लेपों के हाथ में है जो पैंतालीस मकानों में, जिन्हें फोंग कहते हैं, रहते हैं और सशस्त्र अनुचर रखते हैं। राजा पूरे देश का प्रधान होता है और सिद्धान्तः उसका निर्वाचन परिषद् करती है, किन्तु व्यावहारिक रूप में सरदारों (पेन्लेपों) में जो सबसे ज्यादा शक्तिशाली होता है उसी के द्वारा वह मनोनीत किया जाता है। १९०७ ई. से भूटान का राज्यपद पश्चिमी क्षेत्र के पेन्लेप (सरदार) के परिवार में पुश्तैनी हो गया है।

भूटान के प्रारम्भिक इतिहास के बारे में बहुत कम जानकारी है। कहा जाता है, भारतमूलक कुछ राजाओं ने भूटान में नवीं शताब्दी तक शासन किया था। उसके बाद तिब्बतियों ने उन्हें बाहर निकाल दिया। किसी मुसलमान शासक ने भूटान पर कभी शासन नहीं किया। ब्रिटिश-भारत के साथ इसका सम्बन्ध १७७२ ई. में उस समय कायम हुआ, जब एक भूटानी सेना ने कूच-बिहार पर आक्रमण किया और राजा को बन्दी बना कर ले गयी। तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने एक सैन्यदल भेजा, जिसने आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया और १७७४ ई. में संधि हुई। वारेन हेस्टिंग्स ने वाणिज्य सम्बन्ध विकसित करने के लिए १७७४ ई. में जार्ज बोग्ले तथा तत्पश्चात् सैम्युअल टर्नर को राजदूत के रूप में भूटान भेजा, लेकिन दोनों ही असफल रहे। १८२६ ई. में आसाम पर ब्रिटिश भारत का कब्जा हो जाने पर ही घनिष्ठ सम्बन्ध कायम हो सका। कैप्टन राबर्ट पेम्बर्टन का दूतमंडल भूटान को इस बात के लिए राजी करने में विफल हो गया कि वह दारंग जिला स्थित दआर क्षेत्र भारत को समर्पित कर दे। भूटान ने इस पर गैरकानूनी ढंग से १८४१ ई. में कब्जा कर लिया था। ब्रिटिश सरकार ने भूटान को एक हजार रुपये वार्षिक सहायता उस समय तक देना स्वीकार किया था जब तक कि दआर क्षेत्र में शांति कायम रहती है। लेकिन भूटानियों के आक्रमण इतने पर भी बन्द न हुए और १८६३ ई. में भूटान सरकार ने ब्रिटिश राजदूत सर ऐशले ईडेन के साथ दुर्व्यवहार किया, परिणामस्वरूप १८६५ ई. में ब्रिटिश सेना ने भूटान पर आक्रमण कर दिया। पहले तो ब्रिटिश सेना देवनागिरि की लड़ाई में पराजित हो गयी, किन्तु बाद में उसने भूटानियों को परास्त कर दिया। उन्हें बंगाल और आसामका सम्पूर्ण दआर (तराई) क्षेत्र अंग्रेजों को सौंप कर संधि करने के लिए बाध्य किया गया, इसके बदले में उनको वार्षिक आर्थिक सहायता देना स्वीकृत हुआ। उसके बाद से भूटान और भारत का सम्बन्ध घनिष्ठ होता गया। १९१० ई. में यह समझौता हुआ कि वैदेशिक मामलों में भूटान सरकार ब्रिटिश भारत सरकार की सलाह के अनुसार चलेगी और भूटान के आन्तरिक प्रशासन में ब्रिटिश भारत सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी। वार्षिक भत्ता भी बढ़ाकर एक लाख रुपया कर दिया गया।

भूटान : इस संधि के बाद ही चीनी सरकार ने दावा किया कि भूटान उसका करद राज्य है। लेकिन भारत की ब्रिटिश सरकार ने चीन को सूचित कर दिया कि भूटान स्वतंत्र राज्य है और उसकी वैदेशिक नीति भारतीय ब्रिटिश सरकार द्वारा संचालित होती है, जो भूटान के मामलों में किसी प्रकार के चीनी हस्तक्षेप को सहन नहीं करेगी।

स्वाधीन हो जाने के उपरान्त भारत ने भूटान के साथ नयी संधि की, जिसके द्वारा उसकी वार्षिक आर्थिक सहायता बढ़ाकर पाँच लाख रुपये कर दी गयी, देवनागिरि का क्षेत्र भूटान को सौंप दिया गया। इसके बदले में भूटान ने वचन दिया कि उसके वैदेशिक सम्बन्ध पूर्ववत् भारत के परामर्श से ही संचालित होंगे। (रोनाल्डशे लैण्ड्स आफ दि थण्डरबोल्ट तथा सर चार्ल्स बाल- टिबेट, पास्ट एण्ड प्रेजेन्ट)

भूति वर्मा : महाभूति वर्मा अथवा भूतवर्मा भी सम्बोधित किया जाता है। कामरूप के पुष्यवर्मा द्वारा प्रवर्तित राजवंश का आरम्भिक राजा, जिसने शताब्दी के मध्य में शासन किया। बादगंगा चट्टान शिलालेख के अनुसार, जिसपर गुप्त युग की तिथि अंकित कही जाती है और जो ५५४ ई. के समकक्ष है, भूतिवर्मा ने अश्वमेध यज्ञ किया था। इससे प्रकट होता है कि उसने गुप्तों के अधिराज्य का परित्याग कर दिया था। उसने भारी संख्या में ब्राह्मणों को कौशिकी नदी के निकट चन्द्रपुरी परगने में पट्टे लिखकर भूमि प्रदान की, जिनका उसके उत्तराधिकारी भास्कर वर्मा ने नवीनीकरण किया। (एफ. आर. ए. एस. आठ, पृष्ठ १३८-१३१ तथा दस, पृष्ठ ६४-६७; भट्टाचार्य-कामरूपशासनावली, पृष्ठ २७)

भूमक : महाराष्ट्र में क्षहरात कुल का पहला क्षत्रप, जिसकी राजधानी नासिक थी। उसके शासन का पता केवल सिक्कों से चलता है, उसका वास्तविक समय निश्चित नहीं है। अनुमान से वह ईसा की प्रथम शताब्दी के आरम्भिक वर्षों का निर्धारित किया गया है।

भूमिकर  : देखिये, 'मालगुजारी'।

भूमि व्यवस्था : भारत के अलग-अलग भागों में यह अलग अलग प्रकार की है। भारतीय राजाओं के शासनकाल में किसानों को किन शर्तों पर भूमि-खेती करने के लिए दी जाती थी, इसका ठीक से पता नहीं है। मुसलमानी शासनकाल में अकबर से पूर्व भूमि-व्यवस्था का कोई सुनिश्चित रूप नहीं था। अकबर ने सीधे रैयत (किसान) से मालगुजारी की वसूली का बंदोबस्त किया, इसलिए यह 'रैयतवारी व्यवस्था' कहलायी। रैयत को नकद अथवा उपज के रूप में भूमिकर अदा करने की छूट थी, यद्यपि उसे नकद भुगतान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता परंतु अठारहवीं शताब्दी में, जब मुगल बादशाहों की शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण होने लगी, भूमिकर की वसूली का कार्य वंशगत बन गया और किसानों से भूमिकर की वसूली, जो एक सरकारी कर्त्तव्य था, अधिकार माना जाने लगा और भूमिकर की वसूली करनेवाला अपने को भूमि का मालिक अथवा 'जमींदार' समझने लगा। इस प्रकार उसने वह अधिकार प्राप्त कर लिया, जो उसे पहले कभी नहीं प्राप्त था।

मुगलों के उत्तराधिकारी के रूप में अंग्रेजों ने विशेषरूप से बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में कुछ दुर्भाग्यपूर्ण प्रयोगों के बाद जमींदारों को जमीन का मालिक स्वीकार कर लिया और स्थायी बन्दोबस्त कर दिया, जिसके अंतर्गत जमींदारों को इस शर्तपर जमीन का मालिक मान लिया गया कि वे सरकार को प्रतिवर्ष एक निश्चित तिथि पर मालगुजारी अदा कर दिया करें। यह मालगुजारी रैयत से मिलनेवाले अनुमानित लगान का ९० प्रतिशत होती थी। जमींदारों को यह छूट दे दी गयी कि वे रैयत को जितने समय के लिए चाहें उतने समय के लिए काश्त करने को दे दें। बाद में कानून बनाकर रैयत से मनमाने तरीके से लगान बढ़ाते जाने तथा अनुचित रीति से बेदखली करने के विरुद्ध उसको सुरक्षा प्रदान करने की कोशिश की गयी, परंतु उसको अपनी काश्त की जमीन पर कोई मालिकाना हक नहीं प्रदान किया गया। हाँ, यदि वह जमींदार को अतिरिक्त शुल्क अथवा धन देकर जमीन खरीद ले तो बात दूसरी थी।

भूमि व्यवस्था : बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में सन् १७९३ ई. में स्थापित यह जमींदारी व्यवस्था भारत के स्वाधीनता प्राप्ति के बाद तक जारी रही। हाल में यह व्‍यवस्था समाप्त कर दी गयी है, परंतु अभी जमीन जोतनेवालों को जमीन पर मालिकाना हक देने की दिशा में कानून बनाया जाना शेष है। (अब अधिकांश राज्यों में इस प्रकार के कानून बन गये हैं।-सं.)

दूसरी 'रैयतवारी व्यवस्था' उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मद्रास तथा बम्बई प्रांतों में जारी की गयी। इसके अंतर्गत सरकार सीधे रैयत अथवा किसान से बंदोबस्त करती है, जो जमीन का मालिक बन जाता है। परंतु उसे यह मालिकाना हक थोड़े समय के लिए प्रदान किया गया था। बाद में यह समय तीस वर्ष निर्धारित कर दिया गया, जिसके बाद नयी पैमाइश करके नयी शर्तों पर नया बंदोबस्त करने की व्यवथा थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत भूमि की उपज की आधी मात्रा सरकारी भाग नियत की गयी। इस प्रकार इस व्यवस्था के अंतर्गत काश्तकार को केवल सीमित लाभ हुआ। उसे निर्धारित अवधि के लिए भूमि की सुरक्षा प्राप्त हो गयी, परंतु इसके लिए उसे अत्यधिक ऊँची दर पर भूमिकर देने के लिए बाध्य होना पड़ा।

तीसरी 'महालवारी व्यवस्था' उत्तर प्रदेश में की गयी। इसके अंतर्गत महाल (कई गाँवों) के आधार पर बंदोबस्त किया गया और महाल के सभी गाँवों को सामूहिक रूप से मालगुजारी का देनदार बना दिया गया। महाल के गाँवों के मुखिया हर काश्तकार से उसकी काश्त के आधार पर उसकी देनदारी निर्धारित करते थे। इसके लिए जमीन की सावधानी से पैमाइश की जाती थी। महालवारी प्रथा के साथ-साथ उत्तरप्रदेश में 'ताल्लुकदारी प्रथा' भी प्रचलित थी। इस प्रथा के अंतर्गत ताल्लुकेदार को अपने ताल्लुके का मालिक मान लिया गया और अपनी रैयत पर उसे पूरा अधिकार प्रदान किया गया। इस प्रथा में और बंगाल की जमींदारी प्रथा अथवा स्थायी बंदोबस्त में इतना ही अंतर था कि यह स्थायी नहीं थी।

पाँचवी 'मामलतदारी प्रथा' गुजरात तथा दक्खिन में प्रचलित थी। इसके अंतर्गत मामलातदार प्रत्येक गाँव के देसाई अथवा पटेल से तय कर लेते थे कि उनका गाँव कितनी मालगुजारी का देनदार है और इसके बाद तय की गयी रकम की वसूली का भार उसके ऊपर छोड़ देते थे। धीरे-धीरे सारे बम्बई प्रांत में मामलतदारी व्यवस्था के स्थान पर रैयतवारी व्यवस्था लागू कर दी गयी। ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में विभिन्न प्रकार की भूमि-व्यवस्था का एक ही तात्पर्य था और वह था सरकार और काश्तकारों के बीच मध्यवर्तियों को कायम रखना। इन मध्यवर्तियों को देश के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता था, ऐसे लोगों द्वारा एक प्रकार के सामंतवादी वर्ग का निर्माण किया गया जिनके समर्थन पर सरकार टिकी हुई थी। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भारतीय गणराज्य ने समाजवादी व्यवस्था का निर्माण अपना आदर्श बनाया है, जिसके लिए सामंतवाद के सभी अवशेषों का उन्मूलन आवश्यक है। किन्तु अभी तक समाजवादी आधार पर भूमिका, विशेषरीति से कृषि-योग्य भूमि का वितरण करने की दिशा में बहुत थोड़ा कार्य हुआ है, ताकि भूमि को वास्तविक रूप से जोतनेवाला व्यक्ति ही उस भूमि का मालिक हो जाय। (अब इस दिशा में काफी प्रगति हुई है।-सं.)

भृगु : एक ऋषि, जिन्हें मानवधर्मशास्त्र अथवा मनुस्मृति की रचना का श्रेय दिया जाता है। इनका स्थितिकाल २०० ई. पू. से २०० ई. के बीच किसी समय में माना जाता है।

भृगुकच्छ : प्राक् मौर्यकाल का एक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह, बाद के वर्षों में भी इसका महत्त्व बना रहा। इसका आधुनिक नाम भड़ौच है।

भोंसला : उस परिवार का नाम, जिसमें शिवाजी उत्पन्न हुए थे। इस परिवार की एक शाखा बाद में नागपुर में जाकर बस गयी और भोंसलाराज परिवार के नाम से प्रसिद्ध हुई।

भोई राजवंश : ने १५४२-५९ ई. तक उड़ीसा का शासन किया। इस वंश का प्रवर्तक गोविन्द माना जाता है, जो उड़ीसा के पूर्ववर्ती शासक प्रतापरुद्र (१४९७-१५४० ई.) का मंत्री था। गोविन्द भोई अथवा लेखक वर्ग का था और उसका घराना इसी कारण भोई राजवंश कहलाया। इसमें केवल तीन राजा हुए, यथा गोविन्द, उसका पुत्र तथा पौत्र और उनका शासन केवल अट्ठारह वर्ष तक चला।

भोग कुल : बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार वज्जी संघ में सम्मिलित था जिसकी राजधानी वैशाली (दे.) थी। (सेक्रेट बुक्स आफ दि ईस्ट, खण्ड ४५, पृ. ७१ का नोट)

भोगवर्मा : कन्नौज का एक मौखरि सामन्त। उत्तरकालीन गुप्त सम्राट आदित्यसेन (७७२-७३ ई.) की पुत्री से इसका विवाह हुआ था, फलस्वरूप यह अपने श्वसुर का सहायक बन गया। (राय चौधरी. पृष्ठ ६१०)

भोज : प्राचीन साहित्य में इसका प्रयोग तीन अर्थों में हुआ है; प्रथम शासकीय पदवी के रूप में, जो दक्षि‍ण के मूर्धांभिषिक्त राजाओं के लिए प्रयुक्त होती थी, द्वितीय जनपद के रूप में, जैसा कि अशोक के शिलालेख संख्या १३ में प्रयुक्त हुआ है जो कदाचित् बरार में था; और तीसरे, व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में, जैसा कि कन्नौज और मालवा के अनेक राजाओं का नाम था।

भोज प्रथम : कन्नौज का गुर्जर प्रतिहारवंशज राजा, जिसने पचास वर्ष (८४०-९०० ई.) पर्यन्त शासन किया। उसका मूलनाम मिहिर था और भोज कुलनाम अथवा उपनाम। वह अत्यधिक प्रतापी शासक था और उसका राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में नर्मदा, पूर्व में बंगाल और पश्चिम में सतलज तक विस्तृत था, जिसे सही अर्थों में साम्राज्य कहा जा सकता था। भोज प्रथम विशेषरूप से विष्णु के वाराह अवतार का उपासक था, अतः उसने अपने सिक्कों पर आदिवाराह को उत्कीर्ण कराया था। वह वीर सेनानी था, जिसने अरबों को न केवल सिंध में ही रोक रखा, वरन् कश्मीर के राजा शंकरवर्मा, भड़ोच के राष्ट्रकूट राजा ध्रुव तथा बंगाल के पाल राजाओं के साथ अनेक युद्ध किये।

सम्राट भोज प्रथम बड़ा विद्यानुरागी था। अरब यात्री सुलेमान ने, जो उसके राज्य में आया था, अपने विवरण में लिखा है कि सम्राट् भोज प्रथम के पास एक शक्तिशाली सेना है, जिसमें सर्वश्रेष्ठ अश्वारोही और ऊँटों की बड़ी फौज शामिल है। वह अत्यंत वैभवसंपन्न राजा था और भारत में कोई प्रदेश डाकुओं से इतना सुरक्षित नहीं था जितना उसका राज्य। इससे प्रकट होता है कि भोज प्रथम अति कुशल प्रशासक था। (आर. सी. मजूमदार -एज आफ इम्पीरियल कन्नौज, त्रिपाठी-हिस्ट्री आफ कन्नौज)

भोज द्वितीय : भोज प्रथम का पौत्र, जिसने प्रतिहार राज्य पर दो तीन वर्ष (९०८-१० ई.) की अल्प अवधि पर्यन्त ही शासन किया।

भोज परमार : मालवा के परमार अथवा पँवार वंश का यशस्वी राजा, जिसने १०१८-६० ई. तक शासन किया था। उसकी राजधानी धार थी। उसने 'नवसाहसाक' अर्थात् 'नव विक्रमादित्य' पदवी धारण की। जनश्रुति है कि उसने पुरुष्कों (तुर्कों) को भी पराजित किया। वह विद्या का पोषक, कवियों का संरक्षक और स्वयं भी बहुमुखी विद्वान् था। उसने संस्कृत में छन्द, अलंकार, योगशास्त्र, गणित ज्योतिष तथा वास्तुकला आदि विषयों पर गंभीर पुस्तकें लिखी थीं। उसने भोजपुर में विशाल सरोवर का निर्माण कराया, जिसका क्षेत्रफल २५० वर्ग मील से भी अधिक विस्तृत था। यह सरोवर पन्द्रहवीं शताब्दी तक विद्यमान था। यह सरोवर पन्द्रहवीं शताब्दी तक विद्यमान था, जब उसके तटबन्धों को कुछ स्थानीय शासकों ने काट दिया। अपने शासनकाल के अंतिम वर्षों में उसे पराजय का अपयश भोगना पड़ा। गुजरात के चालुक्यराज तथा चेदि-नरेश की संयुक्त सेनाओं ने लगभग १०६० ई. में उसे पराजित कर दिया। इसके बाद ही उसकी मृत्यु हो गयी।

भोटिया : गूजरों की भांति एक घुमंतू जाति, जिसमें सातवीं और आठवीं शताब्दी ईसवी में बहुत से विदेशी आक्रमणकारी हिन्दूधर्म ग्रहण करने के बाद समाविष्ट हो गये।

भोपाल : मध्य प्रदेश में स्थित प्रमुख नगर। इसे बादशाह अकबर ने रानी दूर्गावती के गोंडवाना राज्य से अलग करके जागीर बना दिया। कुछ काल तक यह एक नवाब के अधीन रहा, पश्चात् १७६१ ई. के बाद वह अर्धस्वतंत्र हो गया। लेकिन १८१७ ई. में इसका शासक अंग्रेजों के साथ सहायक संधि करने के लिए बाध्य हुआ। १९४८ ई. में भोपाल रियासत भारतीय गणराज्य में मिला ली गयी एवं संप्रति यह मध्यप्रदेश की राजधानी है।

मंगलूर की संधि : ईस्ट इंडिया कम्पनी और मैसूर के टीपू सुल्तान के बीच १७८४ ई. में हुई। इस संधि के फलस्वरूप दूसरे मैसूर युद्ध (दे.) का अन्त हो गया, जो १७८१ ई. में शुरू हुआ था। इस संधि के द्वारा दोनों पक्षों ने एक दूसरे के छीने गये इलाके वापस लौटा दिये।

मंगोल : छोटी आँख, पीली चमड़ीवाली एक जाति, जिसके दाढ़ी-मूँछ नहीं होती। मंगोलों के कई समूह विविध समयों में भारत में आये और उनमें से कुछ यहीं बस गये। चंगेज खाँ (दे.), जिसके भारत पर हमला करने का खतरा १२११ ई. में उत्पन्न हो गया था, मंगोल था। इसी प्रकार तैमूर भी, जिसने भारत पर १३९८ ई. में हमला किया, मंगोल था। परन्तु चंगेज खाँ और उसके अनुयायी मुसलमान नहीं थे, तैमूर और उसके अनुयायी मुसलमान हो गये थे। मंगोल लोग ही मुसलमान बनने के बाद 'मुगल' कहलाने लगे। १२११ ई. में चंगेज खाँ तो सिंध नदी से वापस लौट गया, किंतु उसके बाद मंगोलों ने और कई आक्रमण किये। दिल्ली के बलवन (दे.) और अलाउद्दीन खिलजी (दे.) जैसे शक्तिशाली सुल्तानों को भी मंगोलों का हमला रोकने में एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देना पड़ा। १३९८ ई. में तैमूर के हमले ने दिल्ली की सल्तनत की नींवें हिला दीं और मुगल वंश की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया, जिसने अठारहवीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन की स्थापना होने तक इस देश में राज्य किया।

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मण्डी, पीटर : यूरोपीय यात्री जो जहाँगीर के शासनकाल में भारत आया। उसने भारत का बड़े ही रोचक शब्दों में आंखों देखा विवरण प्रस्तुत किया है, जो तत्कालीन भारत की सामाजिक और आर्थिक दशा पर विशेष प्रकाश डालता है।

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मंदसोर : मालवा का एक प्राचीन नगर, जो प्रसिद्ध पुरानी राजधानी उज्जयिनी से अधिक दूर नहीं है। संभवतः महाकवि कालिदास (दे.) का निवास इसी नगर में था। निश्चय ही राजा यशोधर्मा (लगभग ५३ ई.) की राजधानी यहीं थी। यशोधर्मा ने हूण राजा मिहिरगुल (दे.) को परास्त किया और आसाम तक के प्रदेशों को जीता।

मंसूर अली खाँ (१८२९-८४ ई.)- : बंगाल का अंतिम नवाब नाजिम। इससे पहले मुर्शिदाबाद के नवाबों को १९ तोपों की सलामी का हक मिला हुआ था। उन्हें दीवानी अदालतों में हाजिर नहीं होना पड़ता था। ये समस्त अधिकार उससे छीन लिये गये, उसके वेतन और भत्ते में भी कमी कर दी गयी। मंसूर अली खाँ स्वयं इंग्लैड गया और वहाँ हाउस आफ कामन्स में अपील की, परंतु वह नामंजूर हो गयी। फलस्वरूप १८८० ई. में उसने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।

मंसूर, ख्वाजा शाह : बादशाह अकबर का पहला दीवान और विश्वासपात्र, किन्तु उसने अकबर के भाई मिर्जा विश्वासपात्र, किन्तु उसने अकबर के भाई मिर्जा हकीम से मिलकर उसके खिलाफ साजिश की और १५८१ ई.में उसे अकबर के हुक्म से फाँसी दे दी गयी।

मअवर : मुसलमान इतिहासकारों द्वारा दिया गया कारोमंडल तट का नाम। इसे अलाउद्दीन खिलजी (दे.) ने जीता, परन्तु १३३४ ई. में यह अहसानशाह के अधीन स्वतंत्र राज्य बन गया।

मकाओ : चीन के तट के समीप एक पुर्तगाली बस्ती, जिसे १८०९ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने छीन लिया। (अब भी यह द्वीप पुर्तगाल सरकार के अधीन है।-सं.)

मक्का : पैगम्बर मुहम्मद साहब का जन्म-स्थान। मुसलमानों- के लिए अरब का यह पवित्र तीर्थस्थान है और प्रतिवर्ष भारत से हजारों मुसलमान वहाँ जाते हैं।

मगध : दक्षिण बिहार के पटना तथा गया जिलों का एक जनपद। यह अत्यंत प्राचीन राज्य था और इसका उल्लेख वेदों में भी मिलता है। ऐतिहासिक काल में इस पर जिस राजवंश का शासन था, उसीमें बिम्बिसार हुआ जो जैन धर्म के प्रवर्तक वर्धमान महावीर तथा बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध का समसामयिक था। बिम्बिसार दोनों का उपासक था। उसने अंग अथवा पूर्व बिहार (भागलपुर जिला) पर अधिकार करके तथा कोशल और वैशाली के राजघरानों से विवाह सम्बन्ध करके मगध राज्य का विस्तार किया। बिम्बिसार के पुत्र तथा उत्तराधिकारी अजातशत्रु ने वैशाली (तिरहुत) को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया, कोशल को पराजित किया तथा गंगा और सोन नदी के संगम पर स्थित पाटलिग्राम में दुर्ग बनवाया। बिम्बिसार के राजवंश के बाद के राजाओं ने इसी दुर्ग के चारों ओर पाटलिपुत्र अथवा कुसुमपुर नगर बसाया। एक और बाद का राजा राजधानी गिरिव्रज से उठा कर पाटलिपुत्र ले आया। इस प्रकार मगध राज्य के साथ पाटलिपुत्र का नाम जुड़ गया।

राजा महापद्मनन्द की राजधानी भी पाटलिपुत्र थी। उसने बिम्बिसार के राजवंश का उच्छेदन किया और मगध राज्य का विस्तार पूर्व में कलिंग (उड़ीसा) से लेकर पश्चिम में पंजाब में ब्‍यास नदी तक किया। 'प्रेसिआई' के राजा (यूनानी इतिहासकारों ने मगध के राजा का उल्लेख इसी नाम से किया है) की सेनाओं से मुठभेड़ होने के भय से ही सिकन्दर की सेनाओं ने ब्यास नदी से आगे बढ़ने से इनकार कर दिया और सिकन्दर को वापस लौटना पड़ा। मौर्य राजा चन्द्रगुप्त (दे.) ने नन्द वंश का उच्छेद कर दिया और चौथी शताब्दी ई. पू. के उत्तरार्द्ध में मगध साम्राज्य को देश की सबसे मुख्य राज्यशक्ति बना दिया। मगध साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में हिन्दूकुश से लेकर पूर्व में कलिंग तक हो गया। वह संभवतः दक्षिण में भी विस्तृत था। चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक (दे.) ने कलिंग विजय करके उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया। इसके बाद ही अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया और अपने विशाल साम्राज्य के समस्त साधनों को सभी मनुष्यों के कल्याण तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए प्रयुक्त करने लगा। इस प्रकार मगध ने एक नये राज्यादर्श की प्रतिष्ठापना की और भारतीय इतिहास को नयी एकता प्रदान की।

मगध : मगध की राजधानी पाटलिपुत्र इतनी भव्‍य नगरी थी कि उसकी प्रशंसा न केवल चन्द्रगुप्त की राजसभा के यवन (यूनानी) राजदूत मेगास्थेनीज ने की है, वरन् चीनी यात्री फाहियान (दे.) ने भी की है, जो कि पांचवीं शताब्दी ई. में भारत आया था। इस बीच शुँग तथा कण्व वंश के अधीन मगध की राज्यशक्ति क्षीण हो गयी, परंतु चौथी शताब्दी ई. में गुप्त वंश (दे.) की स्थापना के बाद वह फिर उत्कर्ष को प्राप्त हो गया और मगध साम्राज्य सारे उत्तरी भारत में विस्तृत हो गया। सुदूर दक्षिण में काँची तक के राजा उसके प्रभुत्व को स्वीकार करते थे। छठीं शताब्दी के अंत में मगध फिर अपकर्ष को प्राप्त हो गया। नवीं शताब्दी में राजा धर्मपाल (दे.) के राज्यकाल में फिर थोड़े समय के लिए उसका उत्कर्ष हुआ। बारहवीं शताब्दी के अंत में मगध को मुसलमानों ने जीत लिया। वह उनकी सल्तनत का एक सूबा बन गया और बिहारों की अधिकता के कारण समूचे सूबे को 'विहार' कहा जाने लगा।

मणिपुर : भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में एक छोटा-सा राज्य। यह आसाम के दक्षिण में स्थित है। इसकी राजधानी इम्फाल, इसका क्षेत्रफल ८,६२० वर्ग मील तथा जनसंख्या लगभग ६ लाख है। परंपरागत अनुश्रुतियों के आधार पर इसका सम्बन्ध पंच पांडवों में से तीसरे भाई अर्जुन से जोड़ा जाता है। परंतु महाभारत में वर्णित मणिपुर कलिंग के निकट अवस्थित था और उसकी पहचान आधुनिक मणिपुर राज्य से करना उचित नहीं है। इसका इतिहास भी १७१४ ई. से पूर्व नहीं पाया जाता। उस समय इस पर गरीब निवाज नामक एक राजा राज्य करता था। वह सुयोग्य हिन्दू शासक था। उसने सुचास रीति से शासन किया, परंतु उसके उत्तराधिकारियों को बर्मियों से युद्ध करना पड़ा जो बार-बार राज्य पर हमले करते रहते थे। अंत में १८२५ ई. में बर्मियों ने इस पर अधिकार कर लिया। परंतु इस क्षेत्र में बर्मियों का राज्य-विस्तार होने के फलस्वरूप आंग्ल-बर्मी युद्ध (दे.) छिड़ गया जो यन्दव् की संधि (दे.) के द्वारा समाप्त हुआ। इसके फलस्वरूप मणिपुर राज्य उसके राजा गम्भीर सिंह को वापस मिल गया।

ब्रिटिश भारतीय सरकार अब मणिपूर के साथ अर्द्धस्वतंत्र रक्षित राज्य जैसा व्यवहार करने लगी, जिसका शासन उसके राजा के हाथ में था। परंतु १८९० ई. में शासनारूढ राजा को उसके भाई टिकेन्द्रजीत के कहने से जो राज्य की सेना का प्रधान सेनापति भी था, गद्दी से उतार दिया गया। एक नये राजा को गद्दी पर बैठाया गया। ब्रिटिश सरकार ने नये राजा को मान्यता प्रदान कर दी, किंतु टिकेन्द्रजीत को राज्य से निष्कासित कर देने का फैसला भी किया। लेकिन आसाम का चीफ कमिश्नर मि. क्विन्टन जब निष्कासन आज्ञा को क्रियान्वित करने मणिपुर गया, उसपर विश्वासघातपूर्ण हमला किया गया और मार डाला गया। फलतः एक भारतीय-ब्रिटिश सेना भेजी गयी, जिसने सरलतापूर्वक राज्य पर अधिकार कर लिया, टिकेन्द्रजीत को बंदी बना लिया और उसे और उसके द्वारा गद्दी पर बैठाये गये गुड्डा राजा को फाँसी दे दी गयी तथा एक नये राजा को गद्दी पर बैठाया गया। नया राजा नाबालिग था, इसलिए राज्य का प्रशासन मध्यकाल के लिए पोलिटिकल एजेंट ने सँभाल लिया। १९४८-४९ ई. में भारतीय गणराज्य में विलयन होने तक यह भारत की एक अधीनस्थ देशी रियासत थी।

मणिमेखलै : तमिल का एक महाकाव्य। इसकी रचना सत्तानार ने की जो मदुरा में अन्न का व्यापारी था। यह एक बौद्ध रचना है, जिसमें धार्मिक दृष्टि से मणिमेखलै की जीवनकथा वर्णित है। इसका रचनाकाल निश्चित नहीं है, परन्तु संभवतः यह पाँचवी शताब्दी ई. की रचना है।

मत्स्य : एक प्राचीन राज्य, जो आधुनिक राजपूताना के पूर्वी भाग में स्थित था। उसकी राजधानी विराटनगर अथवा वैराट आधनिक जयपुर राज्य में स्थित थी। इसका उल्लेख वेदों में मिलता है और महाभारत में वर्णित कौरवों और पाँडवों के युद्ध की कथा में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ऐतिहासिक काल में यह राज्य मगध साम्राज्य का एक भाग था। इसकी राजधानी बैराट के निकट अशोक (दे.) का एक महत्त्वपूर्ण शिलालेख प्राप्त हुआ है।

मत्स्यपुराण : हिन्दुओं के प्राचीन अट्ठारह पुराणों (दे.) में से एक। इसका मूल भाग काफी पुराना है और चौथी शताब्दी ई. में वर्तमान था, उसका वर्तमान रूप बाद का है। इसमें प्राचीन भारतीय राजाओं की वंशावलियाँ दी गयी हैं। आधुनिक शोघों से प्रमाणित हुआ है कि ये वंशावलियाँ अधिकांश में प्रामाणिक हैं।

मथुरा : उत्तर प्रदेश में यमुना के तट पर स्थित एक प्राचीन नगर। धर्मनिष्ठ हिन्दू लोग इसे अत्यन्त पवित्र मानते हैं, क्योंकि विष्णु के अवतार कृष्ण की उपासना से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। विश्वास किया जाता है कि कृष्णावतार यहीं हुआ था। ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में यह कला, वास्तुकला तथा मूर्तिकला का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया था। यह जैनों तथा बौद्धों का भी केन्द्र था। चीनी यात्री फाहियान (दे.) ने, जो पाँचवीं शताब्दी ई. में भारत आया था, मथुरा तथा उसके आस-पास बीस बौद्ध बिहार देखे थे। यह नगर अनेकानेक भव्य भवनों से शोभायमान और अत्यन्त सम्पन्न था।

मथुरा की सम्पन्नता की कथाएँ सुनकर सुल्तान महमूद के मुँह में पानी भर आया। उसने १०२८ ई. में इस नगर को लूटा, यहाँ के मन्दिरों को नष्ट कर दिया और बहुत-सी दौलत उठा ले गया। परन्तु हिन्दुओं ने धर्म भावना से प्रेरित होकर इस नगर का पुनर्निर्माण कर डाला। बुंदेला राजा वीर सिंह (दे.) ने जहाँगीर के राज्यकाल में यहाँ एक बहुत ही भव्य मन्दिर बनवाया। यह इतना ऊँचा था कि मुगलों की राजधानी से दिखाई पड़ता था और १६७० ई. में बादशाह औरंगजेब के हुक्म से इसे नष्ट कर दिया गया। अठारहवीं शताब्दी में जाट सरदार सूरजमल ने मथुरा को अपनी राजधानी बनाया। १७५७ ई.में अहमद शाह अब्दाली ने इस नगर पर चढ़ाई की। परन्तु मथुरा में तैनात अब्दाली की सेना में हैजा फल जाने से उसके सैनिक इतने भयभीत हो गये कि १७६१ ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद जब अब्दाली ने अपने सैनिकों को इस नगर को लूटने का आदेश दिया, उन्होंने इनकार कर दिया और अब्दाली इस नगर की दौलत को लूटे बिना ही वापस लौट जाने के लिए विवश हो गया। तीसरे मराठा-युद्ध के बाद इस नगर को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।

मदनमोहन मालवीय : देखिये, मालवी, मदनमोहन।

मदरसा, कलकत्ता : वारेन हेस्टिंग्स (दे.) ने १७८१ ई. में अरबी और फारसी की शिक्षा देने के लिए इसकी स्थापना की। सर डेनिसन रास जैसे कितने ही प्रमुख प्राच्यविद्याविद् कलकत्ता मदरसा में शिक्षक रहे हैं।

मदीना : अरब देश का दूसरा प्रधान नगर। ६२२ ई. में मुहम्मद साहब ने मक्का से मदीना की हिजरत की और मुसलमानी हिजरी संवत् उसी वर्ष से आरम्भ हुआ।

मदुरा : दक्षिण भारत का एक बहुत प्राचीन नगर, जो ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी में पाण्डव राज्य की राजधानी था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मदुरा के सुन्दर सूती कपड़ों तथा मोतियों का उल्लेख है। इस नगर की सम्पन्नता का प्रमाण १३११ ई. में मिलता है, जब सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (दे.) की मुसलमान सेना ने इस पर दखल किया और इसे लूटा। उसका विजयी सेनापति यहाँ से ५१२ हाथी, पाँच हजार घोड़े तथा पाँच सौ मन हीरे, मोती, पन्ना, माणिक आदि रत्न लट ले गया। बाद में यह विजयनगर साम्राज्य का भाग बन गया। उसके पतन पर यह नायक (दे.) राजवंश की राजधानी बना। इस नगर में अनेक भव्य देव मन्दिर हैं जिनमें सुन्दरेश्वर तथा मीनाक्षी के मन्दिर सबसे प्रमुख हैं। मदुरा में सूती कपड़े अब भी विख्यात हैं।

मद्रास : इस नगर की स्थापना अंग्रेजों ने की। १६४० ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी के फ्रांसिस डे (दे.) ने हिन्दू राजा से पट्टे पर यहाँ की जमीन प्राप्त की। राजा ने उसे इस जमीन पर किला बनाने की भी अनुमति दे दी। बाद में राजा चन्द्रगिरि तथा गोलकुण्डा के सुल्तान ने भी उसके दान की पुष्टि कर दी। उस स्थान पर किले का निर्माण कर लिया गया और उसे फोर्ट सेण्ट जार्ज कहने लगे। १६४२ ई. में कारोमण्डल तट पर ईस्ट इंडिया कम्पनी की मुख्य बस्ती मसुलीपट्टम के बजाय मद्रास हो गयी। १६५३ ई. में इसे स्वतन्त्र एजेंसी और बाद में प्रेसीडेंसी का दर्जा मिल गया। हैदराबाद के निजाम तथा कर्नाटक के नवाब, दोनों से इसके अच्छे सम्बन्ध रहे और एक व्यापारिक केन्द्र के रूप में इसकी उन्नति हुई। १६८८ ई. में मद्रास में म्युनिसिपल प्रशासन की स्थापना की गयी। १७२६ ई. में न्याय कार्य के लिए एक मेयर की अदालत स्थापित की गयी।

पहले अंग्रेज-फ्रांसीसी युद्ध के समय १७४६ ई. में फ्रांसीसियों ने इस नगर पर कब्जा कर लिया, परन्तु एक्स ला-शैमेले की सन्धि के अनुसार यह १७४८ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी को लौटा दिया गया। नवाब सिराजुद्दौला (दे.) के कलकत्ता पर अधिकार कर लेने पर १७५६ ई. में क्लाइव और वाटसन के नेतृत्व में कम्पनी की कुछ फौजें मद्रास से भेजी गयीं और उन्होंने आसानी से कलकत्ता पर फिर से कब्जा कर लिया। १७७३ ई. के रेग्युलेटिंग ऐक्ट में कम्पनी के मद्रास क्षेत्र को बंगाल सरकार के नियन्त्रण में कर दिया गया। यह नियन्त्रण बहुत ढीला-ढाला था। पिट के इंडिया ऐक्ट (दे.) में मद्रास को पूरी तौर से बंगाल के फोर्ट विलियम के गवर्नर-जनरल के अधीन कर दिया गया। दक्खिन में ब्रिटिश अधिकृत क्षेत्र का विस्तार होने पर मद्रास प्रेसीडेंसी के क्षेत्र का भी विस्तार हुआ और अन्त में उड़ीसा की सीमा से लेकर केप कमोरिन तक भारत का सारा पूर्वी तट इसके अन्तर्गत आ गया।

१८५७ ई. में मद्रास में एक विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी। स्वामी विवेकानन्द की महत्ता सबसे पहले मद्रास में स्वीकार की गयी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में मद्रास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन १८८७ ई. में मद्रास में हुआ। बाद के वर्षों में कांग्रेस के कई अधिवेशन यहाँ हुए। भारत का पहला भारतीय गवर्नर-जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी मद्रास ने प्रदान किया। हाल में मद्रास प्रेसीडेंसी को भाषावार आधार पर आंध्र और मद्रास के दो राज्यों में विभाजित कर दिया गया है। इस तरह मद्रास प्रेसीडेंसी से उसके तेलुगु-भाषी उत्तरी क्षेत्र को निकाल दिया गया है और अब उसमें उसका तमिलभाषी दक्षिणी क्षेत्र है। (मद्रास राज्य को अब तमिलनाडु कहते है।-सं.)

मध्यप्रदेश : सम्प्रति उस प्रदेश का नाम जो ब्रिटिश शासन काल में मध्य प्रांत तथा बरार कहलाता था। हिन्दू राज्य काल में वह क्षेत्र जेजाकभुक्ति अथवा जुझौती (दे.) राज्य के अन्तर्गत था। खजुराहो, महोबा तथा कालंजर के प्राचीन नगर इसी प्रदेश में हैं। इन नगरों में वास्तुकला की जो कृतियाँ मिलती हैं, उनसे चन्देल राजाओं (दे.) के उत्कर्ष का प्रमाण मिलता है।

मध्य भारत : उत्तर में चम्बल, दक्षिण में नर्मदा, पश्चिम में गुजरात तथा पूर्व में बुन्देलखण्ड के बीच का क्षेत्र है। यहाँ अतीतकाल में अनेक प्रसिद्ध हिन्दू राज्य विकसित हुए। इसकी उज्जयिनी, धारा आदि नगरियां प्रसिद्ध थीं। पाँचवीं शताब्दी ई. में जब चीनी यात्री फाहियान (४०१-१० ई.) आया था यहाँ खूब समृद्धि थी। इसका बाद का इतिहास गुर्जर-प्रतिहारों (दे.) के इतिहास से जुड़ा मिलता है।

मध्यमिका : राजस्थान में चित्तौड़ के निकट एक प्राचीन नगरी। इसे अब 'नगरी' कहते हैं। एक 'पुरात्मा वीर यवन' ने इस नगरी को घेर लिया था, जो सम्भवतः यवन राजा मिनाण्‍डर (दे.) था। तीसरी शताब्दी ई. पू. में यह महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता था। इसके खंडहरों में मौर्यकालीन भवन के कुछ चिह्र तथा शुङ्गकाल के दो शिलालेख प्राप्त हुए हैं। इनमें अश्वमेध तथा वाजपेय यज्ञों का उल्लेख है।

मनरो, सर टामस (१७६१-१८२७ ई.) : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक पदाधिकारी, जो जिलाधीश के पद से क्रमशः मद्रास का गवर्नर बना और १८२० से १८२७ ई. तक बड़ी ही योग्यता से उक्त प्रेसीडेन्सी का शासन-भार सँभाले रहा। उसने मद्रास प्रदेश में भूमिकर सम्बन्धी, रैयतवारी प्रथा प्रचलित की। उसने सहायक प्रथा से सम्बन्धित जो रिपोर्ट प्रस्तुत की, वह उसकी राजनीतिक सूक्ष्म दृष्टि की परिचायक है।

मनरो, सर हेक्टर (१७२६-१८०५ ई.) : ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में भारत में नियुक्त सेनापति, जिसने १७६४ ई. में बक्सर का प्रसिद्ध युद्ध जीत कर विशेष यश प्राप्त किया। किन्तु १७८० ई.में हैदर अली के सम्मुख वह लज्जात्मक ढंग से अपना तोपखाना काँजीवरम् के तालाब में फेंक कर मद्रास भाग आया। १७८२ ई. में उसने अवकाश ग्रहण किया।

मनसबदार : मुगल शासनकाल में बादशाह अकबर के समय से उसे कहते थे जिसे कोई मनसब अथवा ओहदा मिलता था। मनसबदार राज्य का वेतनभोगी पदाधिकारी होता था। उसे राज्य की फौजी सेवा के लिए निश्चित संख्या में फौज देनी पड़ती थी। मनसबदारी प्रथा मुगलकाल की सैनिक नौकरशाही प्रथा की रीढ़ थी। अकबर ने इसे व्यवस्थित रूप प्रदान दिया। सभी मुल्की तथा फौजी पदाधिकारियों को तैंतीस मनसबों में बाँट दिया गया। सबसे छोटा मनसब १० सवारों का और सबसे बड़ा १० हजार सवारों का होता था। उन्हें अपने मनसब के अनुसार तनख्वाह जाती थी। ७,०००, ८००० तथा १०,००० के सबसे ऊँचे मनसब शाहजादों के लिए सुरक्षित थे। बादशाह स्वयं मनसबदार की नियुक्ति करता था, उसे तरक्की देता था, उसे निलम्बित या पदच्युत करता था। प्रत्येक मनसबदार का वेतन नियत था और उसे उस वेतन से एक निश्चित संख्या में घुड़सवार, हाथी तथा असबाब ढोनेवाले जानवर रखने पड़ते थे।

परंतु मनसबदार इन शर्तों का शायद ही कभी पालन करते थे। मनसबदारों की बेईमानी रोकने के लिए अकबर ने उनके घोड़ों को दागने की प्रथा आरम्भ की और अपने राज्यकाल के ग्यारहवें वर्ष में जात और सवार का दोहरा वर्गीकरण शुरू किया। जात मनसबदार के ओहदे का सूचक होता था और सवार से संकेत मिलता था कि उसे कितनी सेना रखनी होगी। मनसबदार वंशगत नहीं बनाये जाते थे। मनसबदार नियुक्त होने के लिए किसी विशेष योग्यता की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। मनसबदारों को काफी ऊँचा वेतन दिया जाता था। अनुमान लगाया जाता है कि ५०० के मनसबदार को अपने अधीन सेना रखने का सब खर्च काट देने के वाद १००० रु. मासिक निजी वेतन बचा रहता था। १०,००० के मनसबदार का निजी वेतन १८००० रु. प्रतिमास बैठता था। अकबर मनसबदारों को नकद वेतन देने के पक्ष में था, परंतु बाद में मनसबदारों के ओहदे के अनुरूप आयवाली जागीरें देने की प्रथा चल पड़ी। इसके फलस्वरूप मुगलशासन व्यवस्था निर्बल पड़ गयी।

मनु : एक ऋषि और हिन्दू धर्मशास्त्र के रचयिता। उनकी मनुसंहिता में हिन्दुओं के सभी धार्मिक तथा लौकिक कर्तव्यों का निरूपण है।

मनुसंहिता : हिन्दू धर्मशास्त्र का सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ। इसमें सभी धार्मिक, सामाजिक, नैतिक कर्तव्यों का विवेचन है। अंग्रेजी में इसका अनुवाद सर विलियम जोंस ने 'लॉज आफ मनु' नाम से किया है। इसका रचनाकाल ईसवी प्रथम शताब्दी के आसपास माना जाता है। संभवतः यह काल इससे पूर्व था, बाद में नहीं।

मयूर शर्मा : मैसूर में राज्य करनेवाले कादम्बवंश (दे.) का प्रवर्तक। वह जाति से ब्राह्मण किंतु कर्म से क्षत्रिय था। उसने काँची के पल्लववंश के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और सम्भवतः चौथी शताब्दी ई. में कादम्बवंश का आरम्भ किया। उसने दक्षिण भारत में विस्तृत क्षेत्रों को जीता।

मराठा युद्ध : भारत में अंग्रेजों के साथ १७७५-८२ ई., १८०३-०५ ई. तथा १८१७-१९ ई. में हुए। पहला मराठायुद्ध (१७७५-८२ ई.) पेशवा नारायण राव (दे.) के चाचा राघोवा के फलस्वरूप हुआ। राघोवा नारायणराव की मृत्यु के बाद उत्पन्न उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी माधवराव नारायण को पेशवा की गद्दी से हटाना चाहता था। इसके लिए उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी को साष्टी तथा बसई देने का वादा करके अंग्रेजों का समर्थन प्राप्त करने की कोशिश की। कम्पनी ने भी साम्राज्य लिप्सा के वशीभूत हो मराठों के उत्तराधिकार युद्ध से लाभ उठाने की चेष्टा की। पहला मराठा-युद्ध लम्बा चला और अंग्रेजों के लिए अगौरवपूर्ण सिद्ध हुआ।

कर्नल कैमक के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने बड़गाँव (१७७९ ई.) में आत्मसमर्पण कर दिया और अंग्रेजों ने एक समझौता करके राघोवा को सौंप देने का वचन दे दिया। परन्तु वारेन हेस्टिंग्स (दे.) ने, जो उस समय गवर्नर-जनरल था, इस समझौते को नामंजूर कर दिया और युद्ध पुनः शुरू हो गया। यद्यपि लेस्ली तथा गोडर्ड के नेतृत्व में एक हिन्दुस्तानी एवं अंग्रेज सेना १७७९ ई. में बंगाल से मध्य भारत होकर सूरत तक पहुँचने में सफल हो गयी तथा १७८० ई. में मेजर पौफम ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया, फिर भी अंग्रेज कोई निर्णयात्मक विजय नहीं प्राप्त कर सके और न मराठा सेना अंग्रेजों को निर्णयात्मक रूप से हरा सकी। ऐसी परिस्थिति में अंग्रेजों ने महादजी शिन्दे को मध्यस्थ बनाकर साल्वाई की संधि (१७८२ ई.) (दे.) के द्वारा युद्ध समाप्त कर दिया। इसके द्वारा अंग्रेजों ने अपने कठपुतली राघोवा की पेन्शन नियत करा दी और दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए इलाके लौटा दिये। मराठों ने साष्टी कम्पनी को सौंप दिया।

मराठा युद्ध : इस प्रकार मराठों और अंग्रेजों, दोनों को अपनी अपनी शक्ति और कमजोरी का पता चल गया और अगले बीस वर्षों तक उनके बीच शाँति रही। मराठा सरदारों में आपसी ईर्ष्या-द्वेष और प्रतिद्वन्द्विता चलती रही और २५ अक्तूबर १८०२ ई. को तत्कालीन पेशवा बाजीराव द्वितीय को अपने चंगुल में करने के लिए शिन्दे और होल्कर में पुना के बाहर युद्ध हुआ। बाजीराव द्वितीय कायर और षड्यंत्रकारी था और उसे राज्य के हित की कोई चिंता नहीं थी। जिस समय पूना का युद्ध चल ही रहा था, वह प्रतिद्वन्द्वी मराठा सरदारों के चंगुल से अपने को बचाने के लिए पूना से भागकर बसई अंग्रेजों की शरण में चला गया। वहाँ उसने ३१ दिसम्बर १७०२ ई. को बसई की लज्जाजनक संधि (दे.) कर ली, जिसके द्वारा उसने पेशवा पद फिर से प्राप्त करने का मनोरथ बनाया था। इस प्रकार बाजीराव द्वितीय ने मराठा राज्य की स्वतंत्रता बेच दी और वह अंग्रेजों के द्वारा पुनः पूना की गद्दी पर शासीन कर दियागया। परंतु मराठा सरदारों, विशेषरूप से शिन्दे, भोंसले और होल्कर ने इस व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया और फलस्वरूप दूसरा मराठा-युद्ध (दे.) (१८०३-०५ ई.) छिड़ गया।

मराठा सरदारों में पुनः एकता नहीं स्थापित हो सकी। गायकवाड़ अंग्रेजों से मिल गया। यद्यपि शिन्दे और होल्कर संयुक्त हो गये, तथापि होल्कर ने उनका साथ नहीं दिया, यद्यपि वह भी बसई की संधि का उतना ही विरोधी था जितना शिन्दे और भोंसले। परिणाम यह हुआ कि इस संकटकाल में भी मराठे अपनी सम्पूर्ण शक्ति से अंग्रेजों का मुकाबला करने में असमर्थ रहे। फिर उनके पास कोई महान् सेनापति तथा रणविद्या-विशारद नहीं था। फलतः दक्खिन में सर आर्थर वेल्जली (भावी ड्यूक आफ वेलिंग्टन) के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने सितम्बर १८०३ ई. में असई की लड़ाई में शिन्दे और भोंसले की संयुक्त सेना को हरा दिया। इसके बाद नवम्बर में उसने आरगाँव की लड़ाई में भोंसले को इस प्रकार निर्णायात्मक रीति से परास्त कर दिया कि अगले महीने उसने अंग्रेजों से देवगाँव की संधि कर ली। इस संधि के द्वारा उसने कटक अंग्रेजों को दे दिया और एक प्रकार से उनका आश्रित हो गया।

मराठा युद्ध : इस बीच उत्तरी भारत में लार्ड लेक के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने अलीगढ़ और दिल्ली पर कब्जा कर लिया और अंत में लासवाड़ी की लड़ाई में शिन्दे को इस प्रकार निर्णयात्मक रीति से पराजित किया कि वह ३० दिसम्बर १८०३ ई. को सुर्जी अर्जुनगाँव की संधि करने के लिए विवश हुआ। इससे पूर्व आरगाँव की लड़ाई में भी शिन्दे हारा था। सुर्जी अर्जुनगाँव की संधि के द्वारा शिन्दे ने गँगा और यमुना के बीच का सारा प्रदेश अंग्रेजों को सौंप दिया, मुगल बादशाह, पेशवा तथा निजाम के ऊपर नियंत्रण करने का अपना सारा दावा त्याग दिया, अंग्रेजों की स्वीकृति के बिना किसी फिरंगी को नौकर न रखने के लिए राजी हो गया तथा एक प्रकार से अंग्रेजों का आश्रित बन गया।

होल्कर अभी तक युद्ध से अलग रहा था। जब उसके प्रतिद्वन्द्वी शिन्दे की शक्ति अंग्रेजों ने नष्ट कर दी, तब वह मूर्खतावश १८०४ ई. में अकेले अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में उतर पड़ा। प्रारम्भ में राजपूताना में उसे अंग्रेजों के विरुद्ध कुछ सफलता मिली, परंतु अक्तूबर में वह दिल्ली को न ले सका और नवम्बर १८०४ ई. में दीग की लड़ाई में हार गया। भरतपुर का राजा होल्कर की ओर से युद्ध कर रहा था। लार्ड लेक ने ग्वालियर का किला छीनने की कोशिश की, परंतु सफल न हो सका। उसकी इस विफलता के फलस्वरूप इंग्लैण्ड में युद्ध को जारी रखने के विरुद्ध भावना जोर पकड़ती गयी और १८०५ ई. में लार्ड वेल्जली को वापस बुला लिया गया। उसके उत्तराधिकारी ने होल्कर से जिन अनुकूल शर्तों पर संधि कर ली, उनकी वह पहले आशा नहीं कर सकता था। होल्कर ने चम्बल के उत्तर में सारे प्रदेश पर अपना दावा छोड़ दिया और अपने राज्य का अधिकांश भाग पुनः प्राप्त कर लिया (१८०६ ई.)।

दूसरे अंग्रेज-मराठा युद्ध के परिणाम से न तो किसी मराठा सरदार को संतोष हुआ, न पेशवा को। उन सबको अपनी सत्ता और प्रतिष्ठा छिन जाने से खेद हुआ। पेशवा बाजीराव द्वितीय षड्यंत्रकारी मनोवृत्ति का तो था ही, उसने अविचारपूर्ण रीति से अंग्रेजों को जो सत्ता सौंप दी थी, उसे फिर से प्राप्त करने की आशा से १८१७ ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध मराठा सरदारों का संगठन बनाने में नेतृत्व किया और इस प्रकार तीसरे मराठा-युद्ध (१८१७-१९ ई.) का सूत्रपात किया। परन्तु इस बार गवर्नर-जनरल लार्ड हेस्टिंग्स के नेतृत्व में भारत की ब्रिटिश सेनाएँ बहुत शक्तिशाली सिद्ध हुईं। युद्ध के आरंभ में ही उन्होंने सामरिक कौशल का परिचय देते हुए शिन्दे को इस तरह अलग कर दिया कि वह युद्ध में कोई भाग न ले सका। भोंसले को १८१७ ई. में सीताबल्डी और नागपुर की लड़ाईयों में और होल्कर को उसी वर्ष महीदपुर की लड़ाई में पराजित किया गया। पेशवा को, जिसने युद्ध का सूत्रपात किया था, पहले १८१७ ई. में खड़की की लड़ाई में परास्त किया गया, इसके बाद जनवरी १८१८ ई. में कोरेगाँव की लड़ाईयों में और एक महीने के बाद आष्टी की लड़ाई में पुनः हराया गया। इस अंतिम हार के फलस्वरूप पेशवा ने जून १८१८ ई. में अंग्रेजों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार तीसरे मराठा युद्ध में अंग्रेजों की पूर्ण विजय हुई। उन्होंने अब पेशवा का पद तोड़ दिया और बाजीराव द्वितीय को कानपुर के निकट बिठूर में जाकर रहने की अनुमति दे दी। उन्होंने उसकी पेन्शन बाँध तदी और उसका सारा साम्राज्य अब अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया। भोंसले का नर्मदा से उत्तर का सारा इलाका अंग्रेजों ने ले लिया और शेष इलाका रघुजी भोंसले द्वितीय (दे.) के एक नाबालिग पौत्र के हवाले कर दिया गया और उसे आश्रित राजा बना लिया गया। इसी प्रकार होल्कर ने नर्मदा के दक्षिण के समस्त जिले अंग्रेजों को सौंप दिये, राजपूत राज्यों पर अपना समस्त आधिपत्य त्याग दिया, अपने क्षेत्र में एक आश्रित सेना रखना स्वीकार कर लिया और अंग्रेजों की कृपा पर राज्य करने लगा। इस प्रकार पंजाब तथा सिंध को छोड़कर समस्त भारत में अंग्रेजों की सार्वभौम सत्ता स्थापित हो गयी।

मराठा  : देखिये, 'महाराष्ट्र'।

मराठा शासन तथा सैन्य व्यवस्था : हिन्दू तथा मुसलमान शासन एवं सैन्य व्यवस्था का मिश्रित रूप। इसका सूत्रपात शिवाजी (दे.) ने किया, जिन्होंने स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना की। इसमें समस्त राज्यशक्ति राजा के हाथ में रहती थी। वह अष्टप्रधानों की सहायता से शासन करता था, जिनकी नियुक्ति वह स्वयं करता था। अपनी इच्छानुसार वह जब चाहे उन्हें अपने पद से हटा सकता था। अष्टप्रधानों का नेता पेशवा कहलाता था। उसका पद प्रधानमंत्री के समान था। अन्य सात वित्त, लेखागार, पत्राचार, वैदेशिक मामले, सेना, धार्मिक कृत्य एवं दान तथा न्याय विभागों के प्रधान होते थे। धार्मिक तथा न्याय विभागों के प्रधानों को छोड़कर बाकी अष्टप्रधान सैन्य अधिकारी भी होते थे। जब वे सैन्य-सेवा में रहते थे, उनका प्रशासकीय कार्य उनके नायब करते थे।

मराठा शासन तथा सैन्य व्यवस्था : अष्टप्रधानों के नायबों की नियुक्ति भी राजा करता था। मालगुजारी की वसूली का कार्य पटेलों के हाथ में था। भूमि की उपज का एक तिहाई भाग मालगुजारी के रूप में वसूल किया जाता था। भूमि का विस्तृत सर्वेक्षण किया जाता था और उर्वरता के अनुसार उसका चार श्रेणियों में वर्गीकरण किया जाता था। विदेशी अथवा मुगल नियंत्रण में जो भूमि होती थी, उसपर दो प्रकार के कर लिये जाते थे। एक को 'सरदेशमुखी' कहते थे। यह मालगुजारी के एक-दसवें भाग के बराबर होता था। दूसरा 'चौथ' कहलाता था। यह मालगुजारी के एक-चौथाई भाग के बराबर होता था। चौथ देनेवाले को लूटा नहीं जाता था, इसलिए महाराष्ट्र से बाहर के लोगों की दृष्टि में मराठा शासन व्यवस्था लूट-खसोट पर आधारित मानी जाती थी। मराठा साम्राज्य के विस्तार के साथ लूट खसोट की यह प्रवृत्ति बढ़ती गयी और स्वराज्य की भावना के आधार पर सारे देश पर मराठा शासन स्थापित होने में बाधक सिद्ध हुई।

शिवाजी ने शासन-व्यवस्था के साथ-साथ सेना की भी व्यवस्था की। सेना में मुख्यरूप से पैदल सैनिक तथा घुड़सवार होते थे। यह सेना छापामार युद्ध तथा पर्वतीय क्षेत्रों में लड़ने के लिए बहुत उपयुक्त थी। राजा स्वयं प्रत्येक सैनिक का चुनाव करता था। वेतन या तो नकद दिया जाता था या जिला प्रशासन को सुपुर्द कर दिया जाता था। शिवाजी ने वेतन के लिए जागीरें देने की प्रथा नहीं चलायी। सेना में कड़ा अनुशासन रखा जाता था और सैनिकों को शिविर में स्त्रियों को साथ रखने की अनुमति नहीं थी। सैनिक लूटका सारा माल राज्य को सौंप देते थे। सेना को भारी शस्त्रास्त्र अथवा शिविरों के लिए भारी असबाब लेकर नहीं चलना पड़ता था। शिवाजी ने घुड़सवारों को दो श्रेणियों में बाँट रखा था। 'बरगीरियों' को घोड़े तथा शस्‍त्रास्त्र राज्य की ओर से मिलते थे। 'सिलहदारों' को घोड़ों और शस्त्रास्त्रों की व्यवस्था स्वयं करनी पड़ती थी। सेना का नियंत्रण करने के लिए क्रमिक रीति से नायकों, जुमलादारों, हजारियों और पंजहजारियों की नियुक्ति की जाती थी। इन सबके ऊपर और एक सरनौबत घुड़सवार सेना के ऊपर होता था। समस्त सेना के ऊपर सेनापति रहता था। महाराष्ट्र के पर्वतीय क्षेत्र में किलों का बहुत महत्त्व था और शिवाजी ने अपने राज्य के सभी महत्त्वपूर्ण दर्रों पर किले स्थापित कर दिये थे और उनमें सैनिकों तथा रसद की उत्तम व्यवस्था की थी। मराठों का सारा मुल्की तथा सैनिक प्रशासन राजा के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रहता था। फलस्वरूप राजा के ऊपर बहुत अधिक कर्तव्य-भार पड़ जाता था। बाद के मराठा शासक अपने उत्तरदायित्वों को सुचारु रीति से वहन नहीं कर पाये। फलस्वरूप मराठा शासन एवं सैन्य व्यवस्था में शिथिलता आ गयी और जब उसको अंग्रेजों की आधुनिक सैन्य-व्यवस्था का मुकाबला करना पड़ा, वह विफल सिद्ध हुई।

मराठा संघ : इसका सूत्रपात दूसरे पेशवा बाजीराव प्रथम (१७२०-४० ई.) के शासनकाल में हुआ। एक ओर सेनापति दाभाड़े के नेतृत्व में मराठा क्षत्रिय सरदारों के विरोध तथा दूरी ओर उत्तर तथा दक्षिण में मराठा साम्राज्य का शीघ्रता से विस्तार होने के कारण पेशवा बाजीराव प्रथम को अपने उन स्वामीभक्त समर्थकों पर अधिक निर्भर रहना पड़ा, जिनकी सैनिक योग्यता युद्धभूमि में प्रमाणित हो चुकी थी। फलस्वरूप उसने अपने बड़े-बड़े क्षेत्र इन समर्थकों के अधीन कर दिये। उसके समर्थकों में रघुजी भोंसले, रानोजी शिन्दे, मल्हार राव होल्कर तथा दाभाजी गायकवाड़ मुख्य थे। इन नेताओं ने मिलकर मराठा संघ का निर्माण किया। बाजीराव प्रथम (१७२०-४० ई.) तथा उसके पुत्र बालाजी बाजीराव (१७४०-६१ ई.) के शासनकाल में इस संघ पर पेशवा का कड़ा नियंत्रण रहा।

मरुद्वधा : ऋग्वेद के नदीसूक्त में जिन दस नदियों के नाम आये हैं, उनमें से एक इसकी पहचान मरुवर्दवन नदी से की जाती है जो कश्मीर-जम्मू राज्य की मरुघाटी से बहती है और चिनाव में मिल जाती है। अन्य नौ नदियों के नाम हैं-- गंगा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री (सतलज), परुष्णी (रावी), असिक्नी (चिनाव), वितस्ता (झेलम), आर्जीकीया (कांशी) तथा सुषोमा (सोहन)। अंतिम दो नदियां रावलपिंडी जिले में हैं। मरुद्वधा नदी के उल्लेख से प्रकट होता है कि ऋग्वेद-कालीन आर्य कश्मीर तथा जम्मू के अंतरंग भागों से परिचित थे।

मर्व : अफगानिस्तान की उत्तर-पश्चिमी सीमा से लगभग १५० मील उत्तर एक नगर। १८८४ ई. में रूस ने इसपर अधिकार कर लिया। इंग्लैंड में कुछ लोग इसे झूठमूठ बड़े सामरिक महत्त्व का नगर बता रहे थे। मर्व के पतन से अंग्रेजों में अफगानिस्तान पर, और परोक्ष अथवा अपरोक्ष रीति से भारत पर रूसी हमले का भय छा गया। इस पर इंग्लैंड और रूस में युद्ध छिड़ जाने का खतरा उत्पन्न हो गया। परंतु अमीर अब्दुर्रहमान (दे.) के धैर्य और अंग्रेज तथा रूसी राजनेताओं के कूटनीतिक कौशल से यह युद्ध टल गया। (देखिये, 'पंजदेह की घटना')

मलय : आधुनिक मलय प्रायद्वीप, जिसका भारत से दीर्घकालीन सम्बन्ध रहा है। इसके नाम से प्रतीत होता है कि इसका कोई सम्बन्ध प्रसिद्ध मालव गण से रहा है, किंतु इस विषय में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है। बौद्ध जातक कथाओं तथा टालेमी के भूगोल से संकेत मिलता है कि भारतीयों में यह स्वर्णद्वीप अथवा स्वर्णभूमि के रूप में विख्यात था और मलय भारत के बीच खूब व्यापार होता था। मलय प्रायद्वीप तथा कम्बोडिया में प्रारम्भिक पाँचवी शताब्दी ई. के संस्कृत शिलालेख प्राप्त हुए हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया में शैलेन्द्र वंश (दे.) के राजाओं ने जिस विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी, उसमें मलय भी सम्मिलित था। इन राजाओं का बंगाल तथा भारत से निकट सम्पर्क था। तेरहवीं शताब्दी ई. में, जब भारत में मुसलमानी शासन की स्थापान हुई, मलय और भारत के सांस्कृतिक सम्बन्ध टूट गये।

मलिक अम्बर : एक हब्शी गुलाम जो पदोन्नति करके अहमद नगर का वजीर बन गया। वहाँ का राज्यप्रबंध अनेक वर्षों तक उसके हाथ में रहा। उसने पहली बार १६०१ ई. में नामवरी हासिल की, जब उसने दक्षिण-पूर्वी बरार में मुगल सेना को हरा दिया। मुगल सेना दौलताबाद पर अधिकार करना चाहती थी जो अहमदनगर सल्तनत की राजधानी थी। १६०१ ई. में राजधानी यहीं स्थानांतरित कर दी गयी थी। वह जितना योग्य सिपहसालार था, उतना ही योग्य राजनेता भी था। उसीके उद्योग से अहमद नगर पर कब्जा करने के जहाँगीर के सारे प्रयत्न विफल हो गये। उसने अहमद नगर राज्य की उत्तम शासन-व्यवस्था की। इसके अलावा उसने राज्य में मालगुजारी की व्यवस्था भी बड़े सुन्दर ढंग से की। सारी कृषि-योग्य भूमि को उर्वरता के आधार पर चार श्रेणियों में विभाजित कर दिया गया और लगान स्थायी रूप से निश्चित कर दिया गया, जो नकद लिया जाता था। लगान की वसूली राज्य के अधिकारी गाँव के पटेल से करते थे। मलिक अम्बर की मृत्यु १६२६ ई. में बुढ़ापे में हुई। उसकी मृत्यु के बाद ही अहमद नगर सल्तनत को मुगल साम्राज्य में सम्मिलित किया जा सका।

मलिक अयाज : गुजरात के सुल्तान महमूद बेगड़ा (दे.) (१४५९-१५११ ई.) के सामुद्रिक बेड़े का अधिनायक। उसने १५०८ ई. में मिस्री सामुद्रिक बेड़े के सहयोग से, जिसका अधिनायकत्व अमीर हुसेन कर रहा था, चौल के निकट सामुद्रिक लड़ाई में पुर्तगालियों को हरा दिया।परन्तु अगले साल ड्यू के निकट एक सामुद्रिक लड़ाई पुर्तगालियों ने उसे हरा दिया और उसका बेड़ा नष्ट कर दिया।

मलिक अहमद : अहमद नगर के निजामशाही वंश का प्रवर्तक। वह कुछ वर्षों तक बहमनी वंश के सुल्तान महमूद (दे.) के अधीन पूना के निकट जुन्नार का हाकिम रहा। १४९० ई. में उसने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया और एक स्वतंत्र राज्य का शासक बन बैठा। उसने अहमद निजाम शाह की उपाधि धारण की और अहमद नगर को राजधानी बनाया। उसने १४९९ ई. में देवगिरि अथवा दौलताबाद जीत लिया और अपने राज्य को सुदृढ़ बनाया। उसकी मृत्यु १५०८ ई. में हुई। उसके द्वारा स्थापित निजामशाही वंश के वंशज अहमद नगर पर १६३७ ई. तक शासन करते रहे। पश्चात् उसका राज्य मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

मलिक काफूर : देखिये, 'काफूर'।

मलिक गाजी शाहना : सुल्तान फीरोज तुगलक (१३५१-८८ ई.) का मुख्य वास्तुशिल्पी। सुल्तान फीरोज तुगलक को इमारतें बनवाने का अधिक शौक था। उसी के निर्देश में मलिक गाजी शाहना ने फीरोजाबाद और जौनपुर के नये नगरों का, मुसलमान यात्रियों के लिए १२० सरायों का तथा अनेक नहरों का निर्माण कराया। इन नहरों में से एक नहर-पुरानी जमना नहर अब तक काम कर रही है और मलिक गाजी शाहना के निर्माण-कौशल का प्रमाण प्रस्तुत करती है।

मलिक मकबूल : सुल्तान मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१ई.) के राज्य काल में वारंगल का सूबेदार। लगभग १३४० ई. में हरिहर और बुक्क ने मलिक मकबूल को वारंगल से निकाल दिया और बाद में विजयनगर राज्य (दे.) की स्थापना की।

मलिक मोहम्मद जायसी : बादशाह हुमायूँ का (१५३०-५६ ई.) का समसामयिक अवधी का कवि। मुसलमान होते हुए भी उसने हिन्दी भाषा में रचना की।

मलिक शाहू लोदी : मुल्तान का एक अफ़गान। सरदार सुल्तान मुहम्मद तुगलक (१३२५-३१ ई.) के राज्यकाल के उत्तरार्ध में उसने बगावत कर दी, परन्तु उसे पराजित कर दिया गया और वह अफगानिस्तान भाग जाने के लिए विवश हुआ।

मलिक हसन : मूल रूप में ब्राह्मण, जो मुसलमान बन गया और उसका नाम हसन रखा गया। बहमनी सुल्तान मुहम्मद तृतीय (१४६३-८२ ई.) के शासनकाल में वह तेलंगाना का सूबेदार था। वह दक्खिनी मुसलमान अमीरों के उस दल का प्रमुख सदस्य था जो विदेशी मुसलमान अमीरों के दल के नेता महमूद गवाँ (दे.) का विरोधी था। उसने उस षड्यंत्र में प्रमुख भाग लिया जिसके फलस्वरूप १४८१ ई. में महमूद गवाँ का वध कर दिया गया।

मल्लगण : गौतम बुद्ध (दे.) के समय पावा तथा कुसीनारा में निवास करता था। बौद्ध किंवदंतियों में इस गण के लोगों का प्रायः उल्लेख हुआ है।

मल्लिकार्जुन : विजयनगर के राजा देवराय द्वितीय (दे.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। उसने १४४७ से १४६५ ई. तक राज्य किया। मल्लिकार्जुन अपने सामंतों को वश में रखने में असफल रहा। उधर बहमनी सुल्तान अलाउद्दीन तथा उड़ीसा के राजा कपिलेश्वर ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। फलस्वरूप उसकी राज्यशक्ति क्षीण होने लगी। कुछ समय बाद चन्द्रगिरि के नरसिंह सालुव (दे.) ने उसका सिंहासन छीन लिया। नरसिंह सालुव उसी का सामंत था।

मल्ल : बीजापुर का तीसरा सुल्तान। उसने १५३४ ई. में केवल छः महीने शासन किया। वह बड़ा पापी था, इसीलिए उसे अंधा बना कर गद्दी से उतार दिया गया।

मल्हार राव होल्कर : इंदौर के होल्कर वंश का प्रवर्तक प्रारंभ में वह पेशवा बाजीराव प्रथम (१७२०-४० ई.) की सेवा में रहा। उसकी स्वामिभक्ति के फलस्वरूप मध्य भारत में एक बड़ा क्षेत्र उसके शासन में कर दिया गया। उसके उत्तराधिकारी इस क्षेत्र का शासन करते रहे। १९४८ ई. में उसके राज्य का भारतीय गणराज्य में विलयन कर लिया गया।

मसुलीपट्टम् : भारत के पूर्वी समुद्रतट का एक नगर तथा बंदरगाह। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने १६११ ई. में यहाँ एक कोठी स्थापित की। फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भी १६६९ ई. में यहाँ अपनी कोठी स्थापित की। पहले कर्नाटक-युद्ध (दे.) में फ्रासीसियों ने इस पर अधिकार कर लिया, परंतु तीसरे कर्नाटक-युद्ध (दे.) में कर्नल फोर्ड (दे.) ने इसे छीन लिया। १७५९ ई. में यह अंग्रेजों को सौंप दिया गया।

मसुलीपट्टम् की संधि : १७६८ ई. में अंग्रेजों और हैदराबाद के निजाम के बीच हुई। इसके द्वारा अंग्रेजों ने निजाम को बालाघाट का शासक स्वीकार कर लिया। अंग्रेजों ने १७६९ ई. में मैसूर के साथ की गयी एक संधि तथा पुनः १७८४ ई. की मंगलूर की संधि के द्वारा इस प्रदेश पर मैसूर का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। यह इस बात का उदाहरण है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत में किस प्रकार छलकपट की कूटनीति खेल रही थी। लार्ड कार्नवालिस ने १७८८-८९ ई. में कम्पनी के द्वारा दिये गये वचनों से मुकर जाने की कोशिश की। इसके फलस्वरूप तीसरा मैसूर-युद्ध (दे.) (१७९०-९२ ई.) में हुआ।

महमूद : बीदर (दे.) का सुल्तान जिसने कृष्णदेव राय (दे.) के सिंहासन पर बैठने के बाद ही विजयनगर पर हमला कर दिया। कृष्णदेवराय ने उसकी सेनाओं को पीछे खदेड़ दिया और युद्ध भूमि में वह घायल भी हो गया।

महमूद खिलजी : मालवा के सुल्तान महमूद गोरी (१४३२-३६ ई.) (दे.) का वजीर उसने अपने मालिक को जहर देकर मार डाला और १४३६ ई. में उसकी गद्दी छीन ली। उसने १४३६ ई. से १४६९ ई. में अपनी मृत्यु तक शासन किया और मालवा में खिलजी वंश चलाया। उसका जीवन पड़ोसी राजाओं- गुजरात के सुल्तान, मेवाड़ के राणा कुम्भा तथा निजाम शाह बहमनी से युद्ध करने में बीता। उसने राज्य का काफी विस्तार किया तथा कई सुन्दर इमारतें बनवायीं, जिनमें राजधानी मांडू में निर्मित एक सतखंडी मीनार भी थी।

महमूद खिलजी द्वितीय (१५१२-३१ ई.) : मालवा के खिलजी वंश का अंतिम सुल्तान। गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह (१५२६-३७ ई.) (दे.) ने उसे हरा दिया और उसका राज्य अपने राज्य में मिला लिया।

महमूद, गज़नी का सुल्तान : अमीर सुबुक्तगीन का लड़का, जो उसके बाद ९८६-८७ ई. में गजनी की गद्दी पर बैठा। उसने अपनी स्वतंत्र सत्ता की सूचना देने के लिए सुल्तान की पदवी धारण की और १०३० ई. में अपनी मृत्यु तक राज्य किया। उसने अपने राज्यकाल में भारत पर कई चढ़ाइयाँ कीं (इनकी संख्या आमतौर से सत्रह मानी जाती है)। उसका पहला हमला १००१ ई.में जयपाल (दे.) पर हुआ, जिसे उसने पेशावर के निकट हराया। सात साल बाद उसने जयपाल के उत्तराधिकारी अनंगपाल को हराया। इन सफलताओं के फलस्वरूप पंजाब एक प्रकार से उसके अधिकार में आ गया। अगले वर्षों में उसने थानेश्वर, मथुरा तथा कन्नौज पर चढ़ाई की और ग्वालियर तथा कालंजर को अपने अधीन किया। १०२६ ई. में उसने काठियावाड़ (सौराष्ट्र) पर चढ़ाई की और सोमनाथ के मंदिर का शिवलिंग तोड़ डाला और नगर एवं मंदिर की सम्पत्ति लूट ली। उसने भारत पर अंतिम चढ़ाई १०२७ ई. में मुल्तान पर की। सुल्तान महमूद बहुत ही योग्य सिपहसालार था। वह विद्वानों का आदर करता था और कला तथा वास्तुकला का प्रेमी था। उसने अपनी राजधानी गजनी में कई खूबसूरत इमारतें बनवायीं तथा झीलों, पुस्तकालयों आदि का निर्माण कराया। उसने पंजाब को अपने राज्य में मिला लिया और शेष भारत के राजवंशों की शक्ति क्षीण कर दी।

महमूद गवाँ, ख्वाज़ा : एक ईरानी सरदार, जिसे ग्यारहवें बहमनी सुल्तान हुमायूँ (१४५७-६१ ई.) ने नौकर रख लिया। उसने धीरे-धीरे उच्च पद प्राप्त कर लिया। हुमायूँ के नाबालिग लड़के निजाम(१४६१-६३ ई.) के राज्यकाल में उसने और पदोन्नति की। निजाम की ओर से उसकी मां शासन चला रही थी। शासन-कार्य के लिए उसने दो मुख्य सलाहकार नियुक्त किये, जिनमें से एक महमूद गवाँ था। १४१३ ई. में अचानक निजाम की मृत्यु हो गयी और उसका भाई मुहम्मद गद्दी का वारिस बना। मुहम्मद शाह ने १४३६ से १४८२ ई. तक राज्य किया। उसके राज्यकाल में महमूद गवाँ को बड़ा वजीर बना दिया गया। उसने सुयोग्य सिपहसालार और राजनेता के रूप में बहमनी राज्य के विस्तार में सबसे अधिक योगदान किया।

वह विद्वानों का बहुत आदर करता था और कला तथा वास्तुकला का प्रेमी था। उस समय बीदर बहमनी राज्य की राजधानी थी। उसने वहाँ एक विद्यालय तथा पुस्तकालय की स्थापना की। दक्खिनी मुसलमान अमीर उससे दुश्मनी रखते थे। अंत में वे उसके खिलाफ षड्यंत्र रचने में सफल हो गये। उन्होंने उसके नाम की जाली चिट्ठियाँ बना कर सुल्तान मुहम्मद शाह को विश्वास दिला दिया कि वह विश्वासघात करके विजय नगर के राजा से मिल गया है। सुल्तान के हुक्म से १४८१ ई. में उसका वध कर दिया गया। इस अन्यायपूर्ण कृत्य से बहमनी के सुल्तानों की राज्य-सत्ता को भारी क्षति पहुँची और शीघ्र बहमनी राज्य कई टुकड़ों में बँट गया।

महमूद ग़ोरी (१४३२-३२ ई.) : मालवा के गोरी वंश का तीसरा और अंतिम शासक। वह नितांत अयोग्य शासक था और बहुत अधिक शराब पीता था। १४३६ ई. में उसके वजीर ने उसको जहर देकर मार डाला।

महमूद, जौनपुर का सुल्तान : शर्की वंश का तीसरा सुल्तान। उसने १४३६ से १४५८ ई. तक राज्य किया। वह सफल शासक था और उसने जौनपुर में कुछ खूबसूरत मसजिदें बनवायीं।

महमूद तुगलक (१३९४-१४१३ ई.) : दिल्ली के तुगलक वंश का अंतिम सुल्तान। उसके राज्यकाल में अनवरत संघर्ष चलते रहे और दुरवस्था चरम सीमा पर पहुँच गयी। उसके राज्यकाल के पूर्वार्द्ध में लम्बा उत्तराधिकार युद्ध १३९९ ई. तक चलता रहा, जब उसका प्रतिद्वन्द्वी सुल्तान नसरत शाह पराजित हुआ और मारा गया। उसके राज्यकाल के उत्तरार्द्ध में दिल्ली सल्तनत टूटने लगी। जौनपुर, गुजरात, मालवा और खानदेश स्वतंत्र मुसलिम राज्य बन गये। दूसरी ओर ग्वालियर में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना हुई। दोआब के हिन्दुओं में बराबर विद्रोह होता रहा। इन्हीं परिस्थितियों में १३९८ ई. में तैमूर (दे.) ने भारत पर चढ़ाई कर दी। सुल्तान महमूद तुगलक के राज्य में इतनी अव्यवस्था थी कि आक्रमणकारी दिल्ली की सीमाओं तक पहुँच गया और उसका कोई प्रतिरोध नहीं किया गया। तैमूर की सेनाओं ने सुल्तान की सेना को गहरी शिकस्त दी और महमूद गुजरात भाग गया। तैमूर की विजयी सेना दिल्ली में घूस आयी और पन्द्रह दिन निर्दयतापूर्वक लूटपाट और राजधानी का विध्वंस करती रही। तैमूर के वापस लौट जाने के बाद भारत भीषण अकाल तथा महामारी से ग्रस्त रहा। दिल्ली की सल्तनत की हालत अब एक सड़ती लाश जैसी थी। तैमूर की सेना के चले जाने के बाद सुल्तान महमूद तुगलक दिल्ली वापस लौट आया और वह सल्तनत को विनाश से नहीं बचा सका। १४१३ ई. में उसकी मृत्यु होने पर तुगलक वंश का अंत हो गया।

महमूद बेगड़ा (अथवा बिगढ़ा) : गुजरात का छठाँ सुल्तान। वह तेरह वर्ष की उम्र में गद्दी पर बैठा और बावन वर्ष (१४५९-१५११ ई.) तक सफलतापूर्वक राज्य करता रहा। वह अपने वंश का सबसे प्रमुख सुल्तान था। उसने बड़ोदा के निकट चांपानेर तथा जूनागढ़ जीत लिया तथा अहमदनगर के सुल्तान को हराया। उसने भारतीय समुद्रों में पुर्तगालियों से भी युद्ध किया और १५०८ ई. में चौल की लड़ाई में एक पुर्तगाली जंगी बेड़े को हरा दिया। अगले वर्ष १५०९ ई. में पुर्तगालियों ने उसका बेड़ा डुबा दिया। फिर भी उसने अपने राज्यकाल में पुर्तगालियों को दिव पर कब्जा करने नहीं दिया। उसने बड़ी शानदार मूँछें बढ़ा रखी थीं और इतना अधिक खाता था कि उसके बारे में सारे देश में तरह-तरह की कपोल कथाएँ प्रचलित हो गयीं। एक इटालवी यात्री लुडोविको डी वारदेमा उसके राज्य में आया था। उसने भी इन कथाओं का उल्लेख किया है।

महमूद शाह बहमनी (१४८२-१५१८ ई.)  : बहमनी राज्य का अंतिम शासक तथा सुल्तान मुहम्मद तृतीय का उत्तराधिकारी। गद्दी पर बैठने के समय उसकी उम्र बारह साल की थी। उसने छब्बीस वर्ष तक राज्य किया। वह सर्वथा शक्तिहीन था। उसके राज्यकाल में बीजापुर, गोलकुण्डा, बरार तथा अहमदनगर बहमनी सल्तनत से अलग हो गये। १५१८ ई. में उसकी मृत्यु के समय केवल बीदर का शासक उसकी नाममात्र की अधीनता स्वीकार करता था।

महलवारी प्रथा : देखिये, 'भूमि व्यवस्था'।

महसूद : अफगानों का एक कबीला। डूरैण्ड सीमारेखा (दे.) के अनुसार उसको भारतीय सीमा के अन्तर्गत रखा गया। इस कबीले के लोग लड़ाकू और झगड़ालू होते हैं। उन्हें शान्त रखने के लिए ब्रिटिश भारतीय सरकार को जब-तब दण्‍डात्मक कार्रवाई करनी पड़ती थी।

महाक्षत्रप : इनकी दो शाखाएँ थीं, यथा पश्चिमी क्षत्रप कुल, जिसका प्रर्वतन भूमक ने महाराष्ट्र में किया और उज्जयिनी का महाक्षत्रप कुल, जिसे चष्टन (चस्टन अथवा सष्टन) ने प्रचलित किया था। इन दोनों कुलों के प्रवर्तक शक आक्रान्ताओं के सरदार थे। पश्चिमी क्षत्रप कुल के आरम्भ की तिथि निश्चित नहीं है। कदाचित् उसकी राजधानी नासिक थी और केवल दो शासकों, भूमक और नहपान के ही नाम ज्ञात हैं। दोनों में किसी की भी तिथि निश्चित नहीं है। विद्वोंनों ने भूमक का काल ईसा की प्रथम शताब्दी का प्रारम्भिक वर्ष माना है और नहपान का काल दूसरी शताब्दी का प्रारम्भिक वर्ष। पश्चिमी भारत के शक क्षत्रपों में नहपान सबसे प्रतापी था। उसका उल्लेख कई अभिलेखों में किसी अनिश्चित संवत् की तिथियों के साथ हुआ है। कुछ विद्वानों ने उक्त तिथियों की शक संवत् की तिथियाँ स्वीकार किया है और उसका राज्यकाल ११९ ई. से १२४ ई. तक ठहराया है। उसने क्षत्रप के रूप में शासन आरम्भ किया और उपरान्त महाक्षत्रप बना। नहपान ने पश्चिमी भारत के एक विस्तृत भू-भाग पर राज्य किया और प्रभूत दान दिया। किन्तु सातवाहन शासक गौतमीपुत्र श्री सातकर्णी (दे.) ने उसे परास्त करके पश्चिमी क्षत्रपों के वंश का अन्त कर दिया।

उज्जयिनी के महाक्षत्रपों ने दीर्घकाल तक शासन किया। इस वंश का प्रवर्तक यशोभोतिक का पुत्र चस्तन अथवा चष्टन था। यशोभोतिक के नाम से ही स्पष्ट है कि वह शक था। उसका शासनकाल लगभग १३० ई. में आरम्भ हुआ और उसके वंशज ३८८ ई. तक राज्य करते रहे। इस वंश का सबसे महान शासक चष्टन का पौत्र रुद्रदामा प्रथम (दे.) (१३०-१५० ई.) था। उसने पश्चिमी भारत के एक विस्तृत भू-भाग पर राज्य किया और उसकी उपलब्धियाँ गिरनार नामक पर्वत पर उत्कीर्ण एक संस्कृत अभिलेख में वर्णित हैं। अभिलेख के अनुसार उसने सुदर्शन ताल के उस बाँध का पुनर्निर्माण कराया जो सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त मौर्य (दे.) के शासनकाल में निर्मित हुआ था। रुद्रदामा के उपरान्त उसका ज्येष्ठ पुत्र दामघसद प्रथम शासक हुआ और उपरान्त उसका पुत्र जीवनदामा तथा दामघसद का भाई रुद्रसिंह सिंहासनासीन हुए।

रुद्रसिंह के उपरान्त उसके तीन पुत्र रुद्रसेन प्रथम, संघदामा और दामसेन शासक हुए और दामसेन के उपरान्त उसके तीन पुत्र यशोदामा, विजयसेन और दामजदश्री क्रमशः सिंहासनासीन हुए। उपरान्त रुद्रसेन द्वितीय, विश्वमित्र, भर्तृदामा, रुद्रदामा द्वितीय और रुद्रसेन तृतीय, (३४८-३७८ ई.) ने शासन किया। रुद्रसेन तृतीय के उत्तराधिकारी कदाचित् सिंहसेन, रुद्रसेन चतुर्थ और सत्यसिंह थे। सत्यसिंह का पुत्र और उत्तराधिकारी रुद्रसिंह तृतीय इस वंश का अन्तिम शासक था। उसे गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने पराजित और अपदस्थ किया। उज्जयिनी के महाक्षत्रपों का इतिहास इस दृष्टि से रोचक है कि वह दर्शाता है कि उस काल का एक विदेशी शासक वंश कितनी शीघ्रता से ही भारतीय एवं हिन्दू धर्मानुयायी बन गया तथा उसने संस्कृत को अपनी राजाभाषा स्वीकार कर लिया।

महात्मा गांधी : देखिये, 'गांधी, मोहनदास करमचन्द।'

महानन्दी : शैशुनाग वंश का अन्तिम राजा। उसका राज्यकाल पाँचवीं शताब्दी ई. पू. अन्तिम भाग अथवा चौथी शताब्दी ई. पू. का था। उसके राज्यकाल के बारे में कुछ अधिक ज्ञात नहीं है।

महापथ : मगध के नन्द वंश का आद्यपुरुष। पुराणों के अनुसार वह शैशनाग वंश के अन्तिम राजा महानन्दी का शूद्र दासी से उत्पन्न पुत्र था। उसने महानन्दी की हत्या करके मगध का सिंहासन छीन लिया। दासी-पुत्र होने के बावजूद महापद्म ने अपने को एक शक्तिशाली शासक सिद्ध किया। उसने मगध राज्य का विस्तार पूर्व में कलिंग से लेकर पश्चिम में पंजाब की व्यास नदी तक किया। प्रतीत होता है कि उसने इस विशाल साम्राज्य का शासन अत्यन्त योग्यता के साथ किया। उसके राज्याभिषेक की सही तिथि ज्ञात नहीं है। उसने कितने वर्ष राज्य किया, यह भी निश्चित नहीं है। परन्तु उसके साम्राज्य का विस्तार देखते हुए, अनुमान होता है कि उसने चौथी शताब्दी ई. पू. के पूर्वार्द्ध में लगभग तीस वर्ष तक राज्य किया।

महाभारत : संस्कृत का दूसरा और सबसे बड़ा महाकाव्य, इसके रचयिता महर्षि वेदव्यास माने जाते हैं। यह बहुत विशाल ग्रंथ है और इसमें एक लाख श्लोक हैं। सम्पूर्ण महाभारत का पहला उल्लेख गुप्तकाल (चौथी-पांचवी शताब्दी ई.) के एक शिलालेख में मिलता है, परन्तु इसका मूल अंश और प्राचीन रहा होगा, क्योंकि पाणिनि को उसकी सूचना थी। पाणिनि ईसवी सन् प्रचलित होने से पूर्व हुए। महाभारत की मुख्य कथा कौरवों और पांडवों के युद्ध की कथा है जो चचेरे भाई थे। कौरव हस्तिनापुर (मेरठ जिले में स्थित) के राजा धृतराष्ट्र के पुत्र थे और पांडव धृतराष्ट्र के छोटे भाई पांडु के पुत्र थे, और आधुनिक दिल्ली के निकट इन्द्रप्रस्थ में राज्य करते थे। पांडवों का पांचालों तथा यादवों से विवाह-सम्बन्ध था। पांडवों ने अपने को सार्वभौम राजा घोषित किया। कौरव पांडवों के इस उत्कर्ष को सहन नहीं कर सके। फलस्वरूप दोनों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें आर्यावर्त्त के प्रायः सभी राजाओं ने कौरवों अथवा पांडवों के पक्षधर बन कर भाग लिया। पानीपत के मैदान के निकट जहाँ ऐतिहासिक काल में तीन बार भारत का भाग्य निर्णय हुआ, कुरुक्षेत्र में अठारह दिन तक भीषण युद्ध हुआ। इसमें कौरव पराजित हुए और पांडव विजयी होकर भारत के सार्वभौम राजा बने। परन्तु इस महान् विजय के बाद ही उन्होंने संसार से विरक्त होकर राज्य त्याग दिया। उनके बाद राजा परीक्षित उनका उत्तराधिकारी हुआ।

महाभारत में कौरवों और पांडवों की मुख्य कथा के अतिरिक्त अनेक उदात्त राजाओं और उनकी रानि‍यों तथा अनेक तपोवन ऋषियों की नैतिक शिक्षाओं से भरी रोचक कहानियाँ हैं। भगवद्गीता भी इसीका एक अंश है। महाभारत को हिन्दू अपना राष्ट्रीय महाकाव्य मानते हैं और इसका सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। हिन्दू अपनी इस कथा को जावा तथा कम्बोडिया जैसे सुदूर देशों में भी ले गये, जहाँ उन्होंने अपने उपनिवेश बसाये।

महारानी विक्टोरिया : देखिये, 'विक्टोरिया'।

महाराष्ट्र : पश्चिमी घाट के उस क्षेत्र का नाम, जो पूर्व में वर्धा से लेकर पश्चिम में समुद्रतट तक विस्तृत है। इस क्षेत्र को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। पहला कोंकण, जो पश्चिमी घाट और समुद्रतट के बीच में स्थित है। दूसरा भावल, जो केवल २७ मील चौड़ा है और पश्चिमी घाट के पूर्व में स्थित है। तीसरा देश, जो भावल के पूर्व में स्थित है। इस क्षेत्र की पहाड़ियों पर पानी सुगमता से मिल जाता है और किलेबंदी के लिए प्राकृतिक सुविधाएं प्राप्त हैं। महाराष्ट्र के लोग बड़े सीधे-सादे, कर्मठ तथा स्वावलम्बी हैं। उनमें राजपूतों जैसी शूरवीरता तो नहीं है, परन्तु वे उनसे अधि‍क कुशाग्र-बुद्धि रखते हैं। वे साधनों की अपेक्षा साध्य पर अधिक ध्यान देते हैं। ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में इस क्षेत्र पर भूभक द्वारा स्थापित शक क्षत्रपों का एक वंश राज्य करता था। पाँचवी शताब्दी ई. में चन्द्रगुप्त द्वितीय (दे.) ने शकों का उच्छेद करके इस क्षेत्र को गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। सातवीं शताब्दी ई. में यह क्षेत्र चालुक्य राजा पुलकेशी द्वितीय (६०८-४२ ई.) (दे.) के राज्य का एक भाग था। चीनी यात्री ह्युएनत्सांग ने इस क्षेत्र की यात्रा की थी। उसने अनुभव किया कि इस क्षेत्र में यात्रा करना अत्यन्त दुष्कर है। इसके बाद इस पर राष्ट्रकूटों (दे.) और फिर देवगिरि के यादवों का, पश्चात् दिल्ली के सुल्तानों का राज्य रहा। बाद में यह बहमनी राज्य के अन्तर्गत आ गया। बहमनी राज्य समाप्त होने पर यह क्षेत्र अहमदनगर और बीजापुर के सुल्तानों के बीच बँट गया और इसका पृथक् अस्तित्व अथवा इतिहास एक प्रकार से समाप्त हो गया।

परन्तु सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में एक महापुरुष का उदय होने से इस क्षेत्र ने फिर से प्रमुखता प्राप्त कर ली। यह महापुरुष शिवाजी थे, जिनका जन्म १६२७ ई. में हुआ। उन्होंने महाराष्ट्र के लोगों में राष्ट्रीय एकता तथा स्वतंत्रता की भावना उत्पन्न की और १६८० ई. में अपनी मृत्यु से पूर्व एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना कर दी। मुगल साम्राज्य अपने सारे साधनों के बावजूद इस राज्य का उच्छेद नहीं कर सका और यह लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रहा। शिवाजी के पौत्र साहू की १७४९ ई. मृत्यु हो जाने पर उनकी वंश परम्परा समाप्त हो गयी परन्तु उस समय तक मराठा राज्य का शासन पेशवाओं (दे.) के हाथ में आ गया था। पेशवाओं ने पूना को राजधानी बना कर १८१८ ई. तक महाराष्ट्र पर शासन किया। १८१८ ई. में अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय अंग्रेजों से हार गया और गद्दी से उतार दिया गया। परन्तु इसके बाद भी मराठा भारतीय राजनीति में एक मुख्य शक्ति बने रहे। मराठा शासक बड़ोदा के गायकवाड़, ग्वालियर के शिन्दे, इन्दौर के होल्कर तथा नागपुर के भौंसले ब्रिटिश भारतीय सरकार के प्रत्यक्ष तथा इंग्लैण्ड के राजा के अप्रत्यक्ष आधिपत्य में, आश्रित राजा की हैसियत से मध्य तथा दक्षिणी भारत के काफी बड़े भाग पर राज्य करते रहे। १९४८-४९ ई. में इन सब देशी रियासतों का भारतीय गणराज्य में विलयन हो गया।

महावंश : श्रीलंका (सिंहल) का इतिहास ग्रन्थ। यह राजा महानाम के राज्यकाल में लिखा गया जिसने ४५८ ई. से ४८० ई. तक राज्य किया। श्रीलंका का प्राचीन इतिहास दर्शाते समय स्थान-स्थान पर भारत तथा उसके इतिहास का उल्लेख किया गया है। वास्तव में अशोक तथा श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रचार के बारे में विस्तृत सूचना महावंश से ही प्राप्त की गयी है।

महावत खाँ : मुगल काल की एक उपाधि। यह विविध समयों में विविध व्यक्तियों को प्रदान की गयी जिसे प्राप्त करनेवाले एक व्यक्ति ने सबसे अधिक ख्याति और प्रतिष्ठा पायी, वह जमानबेग नामक योग्य सैनिक था। बादशाह जहाँगीर ने तख्तनशीन होने के बाद ही १६०५ ई. में उसे यह उपाधि प्रदान की। प्रारम्भ में वह बहुत ही स्वामिभक्त और योग्य सिपहसालार सिद्ध हुआ। उसे राणा अमर सिंह से युद्ध करने के लिए मेवाड़ भेजा गया। उसने कई घमासान लड़ाईयों में उसे हराया। मेवाड़ से लौटने पर उसे दक्खिन भेजा गया। उसे वहाँ के बागी सूबेदार खानखाना को अपने साथ राजधानी लाने का काम सौंपा गया। यह कार्य उसने बड़े युक्तिकौशल के साथ सफलतापूर्वक सम्पन्न किया।

जैसे-जैसे जहाँगीर पर नूरजहाँ का प्रभाव बढ़ता गया, वैसे-वैसे महावत खां पर जहाँगीर की कृपादृष्टि कम होती गयी। मलका नूरजहाँ के पिता और भाई, दोनों महावत खाँ के विरोधी थे। अगले बारह साल तक बादशाह ने महावत खाँ को कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं सौंपा। इससे वह हताश होने लगा। फिर भी शाहजादा खुर्रम ने जब जहाँगीर के खिलाफ बगावत की, तो महावत खाँ उसे दबाने के लिए शाही फौज लेकर गया। उसने बागी शाहजादे को पहले दक्खिन में बिलोचपुर के युद्ध में और फिर इलाहाबाद के निकट डमडम की लड़ाई में हराया। इन विजयों से मलका नूरजहाँ का उसके प्रति विरोध भाव और बढ़ गया और उसे काबुल की सूबेदारी से हटाकर बंगाल भेजा गया। इससे महावत खाँ इतना भड़क उठा कि उसने १६२६ ई. में दिल्ली का तख्त उलट देने की कोशिश की। जहाँगीर जिस समय काबुल जा रहा था, वह उसे अपनी हिरासत में ले लेने में सफल हो गया। परन्तु नूरजहाँ महावत खाँ से कहीं अधिक चालाक थी। उसने शीघ्र बादशाह को हिरासत से छुड़ा लिया और दरबार में महावत खाँ का प्रभाव समाप्त हो गया।

महावत खाँ हताश होकर शाहजादा खुर्रम से मिल गया, जिसने १६२६ ई. में बगावत कर दी। परन्तु उसके साथ जहाँगीर का कोई युद्ध नहीं हुआ। १६२७ ई. में जहाँगीर की मृत्यु हो गयी। शाहजहाँ के तख्त पर बैठने पर महावत खाँ को उच्च पदों पर नियुक्त किया गया और उसे खानखाना की पदवी दी गयी। महावत खाँ ने दिल्ली की गद्दी के लिए होनेवाले उत्तराधिकार युद्ध में शाहजहाँ का समर्थन किया, बुन्देलखंड में एक बगावत को कुचला, दौलताबाद पर घेरा डाला और उस पर दखल कर लिया। इस प्रकार उसने अहमदनगर को पूरी तौरसे मुगल साम्राज्य के अधीन बना दिया। यह महावत खाँ की अंतिम सफलता थी। वह मुगलों का बहुत ही योग्य सिपहसालार था। उसने बीजापुर को भी जीतने की कोशिश की, परंतु विफल रहा। इसके लिए बादशाह ने उसकी तंबीह की। इस अपमान से वह बहुत दुःखी हुआ और १६३४ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

महावीर : अथवा वर्धमान महावीर, जो जैन धर्म के प्रवर्तक थे। उनका जन्म उच्च क्षत्रिय कुल में हुआ था जो वैशाली तथा मगध के राजवंश से सम्बन्धित था। उनका पहला नाम वर्धमान रखा गया। उनकी जन्मतिथि तथा निर्वाण तिथि निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है, परन्तु इतना निश्चित है कि जन्म बिम्बिसार (दे.) के राज्यकाल में हुआ और निर्वाण बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु (दे.) के राज्यकाल में, गौतम बुद्ध का निर्वाण होने से कुछ पहले हुआ। वे कुछ वर्ष गुहस्थ जीवन में रहे। तीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने गृह त्याग किया और नग्न अनागार श्रमण बन गये। उन्होंने बारह वर्ष तक दुष्कर तप किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें पूर्णज्ञान की प्राप्ति हुई, जिसे 'केवल-ज्ञान' कहते हैं। इसके बाद वे केवली (केवल ज्ञान के धारक), निग्रन्थ (ग्रन्थियों से रहित), जिन (इन्द्रियजेता) तथा महावीर कहलाने लगे। अगले तीस वर्षों तक वे देश में चारों ओर ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए सद्धर्म का उपदेश देते रहे। उन्होंने जिस धर्म का उपदेश दिया, उसे आजकल जैनधर्म कहते हैं। उन्होंने राजा अजातशत्रु के राजकाल में ७२ वर्ष की अवस्था में बिहार के पटना जिला स्थित पावापुरी में निर्वाण प्राप्त किया। निर्वाण की तिथि अनिश्चित है।

महिला जागरण : का सूत्रपात मुख्य रूप से बीसवीं शताब्दी में हुआ। यद्यपि प्राचीन काल में भारतीय महिलाओं में शिक्षा का व्यापक प्रचार काल में भारतीय महिलाओं में शिक्षा का व्यापक प्रचार था तथापि उन्नीसवीं शताब्दी में पहुँचने तक उनमें अनेक सामाजिक कुरीतियाँ बद्धमूल हो चुकी थीं, यथा, सती प्रथा, जन्मते ही कन्याओं की हत्या कर देना, बाल-विवाह, विधवाओं की दयनीय दशा, पर्दा प्रथा तथा बहु-विवाह प्रथा। सती प्रथा तथा शिशुहत्या उन्नीसवीं शताब्दी के द्वितीय चतुर्थांश में कानून बनाकर बन्द कर दी गयी। पं. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की प्रेरणा से कानून बनाकर सहवास की आयु बढ़ा दी गयी तथा हिन्दू विधवाओं के पुनर्विवाह को वैध करार दे दिया गया। महिलाओं के उत्थान के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा उनके बीच फैली निरक्षरता थी। ईसाई मिशनरियों, ब्राह्म-समाज तथा आर्य-समाज जैसी समाज-सुधारक संस्थाओं तथा उदारमना भारतीयों के प्रयास से क्रमिक रीति से महिलाओं में अशिक्षा का उन्मूलन किया गया। १८४९ ई. में लड़कियों की शिक्षा के लिए बेथ्यून कालेज की स्थापना की गयी। इसके बाद इस प्रकार की अनेक महिला शिक्षा-संस्थाएँ खोली गयीं। मानवशास्त्र, चिकित्सा, विज्ञानादि की शिक्षा संस्थाओं में सहशिक्षा की व्यवस्था की गयी। प्रो. कर्बे ने पूना में एक महिला विश्वविद्यालय की स्थापना की।

देश की राजनीति में उदारतावादी प्रवृत्तियों का समावेश होने के साथ विधान मण्डलों के लिए जनप्रतिनिधियों को चुनने में महिलाओं को भी मताधिकार प्राप्त होने लगा। इस समय प्रत्येक वयस्क पुरुष को ही नहीं, वरन प्रत्येक वयस्क महिला को भी समान मताधिकार प्राप्त है। इस दिशा में स्वतन्त्र भारत इंग्लैण्ड तथा कई यूरोपीय देशों से आगे निकल गया है। एक प्रख्यात भारतीय महिला इंग्लैण्ड तथा सोवियत संघ में राजदूत के पद पर रह चुकी हैं, यही नहीं उन्होंने संयुक्त राष्ट्रसंघ में भी भारत का प्रनिनिधित्व किया है। एक अन्य विख्यात भारतीय महिला इस समय भारत की प्रधानमन्त्री हैं। एक अन्य प्रख्यात महिला भारत के एक प्रमुख राज्य में राज्यपाल के पद को सुशोभित कर रही हैं। स्वतन्त्र भारत में कानून बनाकर हिन्दओं में बहुविवाह पर रोक लगा दी गयी है तथा पिता की सम्पत्ति में पुत्री को भी उत्तराधिकार प्रदान कर दिया गया है। मुसलमान स्त्रियों को छोड़कर अन्य सभी भरतीय स्त्रियों को अब उतनी ही स्वतन्त्रता प्राप्त है जितनी भारतीय पुरुषों को। राष्ट्र को प्रगति के पथ पर अग्रसर करने में भारतीय महिलाएँ भी अब पुरुषों के साथ कन्धे से कंधा भिड़ाकर महत्त्वपूर्ण योगदान कर रही हैं। (कई राज्यों में महिलाएँ मुख्यमंत्री के पद को सुशोभित कर चुकी हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा तथा भारतीय पुलिस सेवा में भी अनेक महिलाएँ उच्च पदों पर आसीन हैं। -सं.)

महिला सिपाही : इनकी भरती अठारहवीं शताब्दी की अन्तिम तिमाही में हैदराबाद के निजाम ने की। कहा जाता है कि इन्होंने १७९५ ई. में मराठों और निजाम के बीच कुर्दला के युद्ध में भाग लिया था। बताया जाता है कि ये महिला सिपाही दिलेरी में निजामी फौज के पुरुषवर्ग से कमजोर नहीं साबित हुई।

महीपाल प्रथम (लगभग ९७८-१०३० ई.)  : बंगाल के पालवंश का नवाँ राजा। उसके राज्यकाल में पाल राज्य टूटने लगा था, क्योंकि दक्षिण-पश्चिमी बंगाल पर सेन वंश तथा पूर्वी बंगाल पर चन्द्र वंश का राज्य हो गया। अन्त में १०२३ ई. में चोल राजा राजेन्द्र ने बंगाल पर चढ़ाई की और गंगा तट तक के प्रदेशों को जीत लिया। कलचूरि राजा गांगेयदेव ने भी उसके राज्य पर आक्रमण किया। इसके बावजूद वह देवपाल के बाद पालवंश का सबसे बड़ा शासक हुआ। उसने बनारस, नालन्दा, उत्तरी तथा पश्चिमी बंगाल में अनेक जनोपयोगी निर्माण कार्य कराये।

महीपाल द्वितीय : पाल राजा महीपाल प्रथम (दे.) का प्रपौत्र। वह राजा विग्रहपाल के तीन पुत्रों में सबसे बड़ा था, अतः पिता के बाद वही उत्तराधिकारी हुआ। परन्तु उसने बहुत थोड़े समय (लगभग १०७०-७५ ई.) तक राज्य किया। उसका शासन अत्यन्त निर्बल था और विद्रोही कैवर्त्‍त नेता दिव्य से युद्ध में वह पराजित हुआ और मारा गया।

महेन्द्र पाल- (लगभग ८१०-९१० ई.) : गूर्जर-प्रतिहार राजा मिहिर भोज (दे.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। उसने सौराष्ट्र से लेकर अवध तक फैले अपने पिता के विशाल साम्राज्य को न केवल अखंडित रखा, बल्कि पाल राजाओं को मगध से निकाल बाहर किया और पश्चिम बंगाल पर चढ़ाई की, जहाँ उसका एक शिलालेख मिलता है। वह विद्वानों का बड़ा आदर करता था और उनका आश्रयदाता था। संस्कृत के प्रसिद्ध नाटक 'कर्पूरमंजरी' का रचयिता राजशेखर उसका गुरु और राजसभा का सम्मानित सदस्य था।

महेन्द्र, राजकुमार : सम्राट् अशोक (दे.) का पुत्र अथवा भाई। उसने अपनी बहिन संघमित्रा के साथ लगभग २५१ ई. पू. में सिंहल (श्रीलंका) की यात्रा की और वहाँ बौद्धधर्म का प्रचार किया। उसने राजा तिस्स, राजपरिवार के सदस्यों तथा बहुत से सामान्य नागरिकों को बौद्धधर्म में दीक्षित किया। अशोक के किसी शिलालेख में उसके नाम का उल्लेख नहीं है, परन्तु सिंहली इतिहास ग्रन्थों- दीपवंश, महावंश तथा श्रीलंका स्थित अनुराधापुर में उसकी स्मृति में सिंहलियों द्वारा स्थापित महाविहार से उसके अस्तित्व और महान सफलताओं का पता चलता है। उसकी मृत्यु सिंहल में ही २०४ ई. पू. में हुई।

महेन्द्रवर्मा प्रथम (लगभग ६००-२५ ई.) : काँची के पल्लव राजा सिंहविष्णु का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। उसने अनेक मन्दिरों तथा गुफाओं का निर्माण कराया, आर्काट और अर्कोनम के बीच महेन्द्रवाड़ी के नाम से नये नगर की स्थापना की और उसके निकट एक विशाल जलाशय का निर्माण कराया। लगभग ६१० ई. में चालुक्य राजा पुलकेशी द्वितीय (दे.) ने उसे पराजित कर दिया और वेङ्ग‍ि उससे छीन लिया। वह प्रारम्भ में जैन धर्मानुयायी था, पर बाद में शैव हो गया।

महेन्द्रवर्मा द्वितीय : पल्लव राजा महेन्द्रवर्मा (दे.) का पौत्र तथा नरसिंहवर्मा प्रथम (दे.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। लगभग ६६८ ई. में वह सिंहासन पर बैठा और केवल छः साल राज्य किया। चालुक्य राजा विक्रमादित्य से वह बुरी तरह पराजित हो गया।

महोबा : उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले का एक पुराना नगर। यह चंदेलवंश (दे.) के राजाओं की राजधानी रहा। उन्होंने नवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी ई. तक राज्य किया। उस समय यह क्षेत्र जेजाकभुक्ति अथवा जुझौती कहलाता था। चंदेल राजाओं ने महोबा में कई सुन्दर मन्दिरों का निर्माण कराया। इन मंदिरों के ध्वंसावशेष उसकाल की श्रेष्ठ वास्तुकला तथा मूर्तिकला का परिचय देते हैं।

मांटगोमरी, सर राबर्ट (१८०९-८७ ई.)  : १८२८ ई. में कम्पनी की सेवा में नियुक्त हुआ। वह पहले उत्तर पश्चि‍मी सीमाप्रांत में और फिर पंजाब में रहा। पंजाब पर दखल हो जाने के बाद वह उसके प्रशासकीय बोर्ड का सदस्य हो गया। गदर छिड़ने पर उसने अपनी ओर से भारी पहलकदमी की और लाहौर तथा मियाँमीर में अपनी जिम्मेदारी पर कई हिन्दुस्तानी पलटनों से हथियार ले लिये। उसने मुलतान, फीरोजपुर तथा काँगड़ा को भी आनेवाले संकट की चेतावनी दे दी। वह १८५९ ई. से १८६५ ई. तक पंजाब का लेफ्टिनेंट-गवर्नर रहा। उसने प्रांत में शांति और व्यवस्था की स्थापना करने में बड़ी योग्यता प्रदर्शित की। भारत से अवकाश ग्रहण करने पर वह इंग्लैण्ड में इंडिया कौंसिल (भारत परिषद्) का सदस्य हो गया और १८८७ ई. में अपनी मृत्यु तक उसी पद पर रहा।


मांटेग्यू, एडविन सैमुएल (१८७९-१९२४ ई.) : लायड जार्ज के मंत्रिमंडल में १९१७ ई. से १९२२ ई. तक भारतमंत्री। २० अगस्त १९१७ ई. को उसने कामन्स सभा में घोषणा की कि भारत में क्रमिक रीति से उत्तरदायी सरकार की उपलब्धि ब्रिटिश सरकार की नीति है। इस नीति को क्रियान्वित करने के लिए उसने १९१७-१८ ई. में भारत की यात्रा की, वाइसराय लार्ड चेम्सफोर्ड के साथ सारे देश का दौरा किया और भारत के संवैधानिक सुधारों की रिपोर्ट तैयार करने में मुख्य भाग लिया। इसी रिपोर्ट में प्रतिपादित सिद्धांतों के आधार पर १९१९ ई. का गवर्नमेन्ट आफ इंडिया ऐक्ट तैयार किया गया। उसकी निजी डायरी उसकी मृत्यु के छः साल बाद १९३० ई. में प्रकाशित हुई। इस डायरी से रिपोर्ट की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

मांटेग्यू और प्रधानमंत्री लायड जार्ज में इस बात को लेकर मतभेद था कि भारतीय जनमत को ब्रिटिश सरकार की तुर्की सम्बंधी नीति को किस सीमा तक प्रभावित करने की अनुमति दी जानी चाहिए। १९२२ ई. में उसने मंत्रिमंडल की अनुमति के बिना ही संधि के विरुद्ध भारत को प्रतिवाद प्रकाशित करने का अधिकार दे दिया। लायड जार्ज ने इसे परंपरा का उल्लंघन माना और मांटेग्यू से इस्तीफा मांग लिया। १९२२ ई. में आम चुनाव में अपनी सीट हार जाने पर उसके राजनीतिक जीवन का अंत हो गया। १९२४ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट : भारत में संवैधानिक सुधारों के विषय में १९१८ ई. में तैयार की गयी।

इसी रिपोर्ट के आधारपर १९१९ का गवर्नमेण्ट आफ इंडिया ऐक्ट (दे., 'भारत में ब्रिटिश प्रशासन') तैयार किया गया, जिसमें केन्द्रीय सरकार तथा प्रांतीय सरकार के कार्यों का स्पष्ट विभाजन किया गया, सभी विधानमंडलों में प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर चुने गये जन-प्रतिनिधियों का बहुमत स्थापित कर दिया गया, वाइसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल का विस्तार करके उसमें और अधिक भारतीय सदस्यों की नियुक्ति की गयी तथा प्रांतों में द्वैध शासन (दे.) का सूत्रपात किया गया।

मांडू : मालवा (दे.) का एक नगर। मालवा के गोरीवंश के सुल्तान हुशंगशाह (१४०५-३५ ई.) ने इसे अपनी राजधानी बनाया। यह पहाड़ी की चोटी पर स्थित दुर्ग था, जिसका परकोटा लगभग २५ मील लम्बा था। इस दुर्ग-नगर में अनेक सुन्दर मसजिदों तथा महलों जैसे, जामी मसजिद, हिंडोला महल, जहाजमहल, बाज बहादुर और रूपमती के महल के ध्वंसावशेष मिलते हैं। बाजबहादुर और रूपमती के महल बलुआ पत्थर और संगमरमर के बने हैं। बादशाह जहाँगीर को यह नगर बड़ा पसंद आया और वह १६१७ ई. में यहाँ ठहरा। उसने यहाँ की कुछ इमारतों की मरम्मत भी करायी थी।

माउण्टबेटेन, लुई, लार्ड : जन्म १९०० ई. में विण्डसर में बैटेनबर्ग के प्रिंस लुई तथा महारानी विक्टोरिया की पौत्री, हेस की राजकुमारी विक्टोरिया का पुत्र। १९१३ ई. में उसने ब्रिटिश नौसेना में प्रवेश किया और योग्यता तथा चुस्ती के कारण द्वितीय विश्वयुद्ध में नौसेना का उच्च कमांडर नियुक्त हुआ। १९४३ ई. में उसे दक्षिण-पूर्वी एशिया में मित्रराष्ट्रीय सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर नियुक्त कर दिया गया। वह इस पद पर १९४६ ई. तक रहा। उसने जापान के विरुद्ध युद्ध का सफलतापूर्वक संचालन किया, जिसके फलस्वरूप बर्मा पर फिर से अधिकार कर लिया गया।

वह १९४७ ई. में भारत का वाइसराय नियुक्त हुआ। उसने १५ अगस्त १९४७ ई. को भारत का भारत तथा पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके ब्रिटिश हाथों से भारतीय हाथों में सत्ता हस्तांतरण के कार्य में भारी युक्तिकौशल, चुस्ती तथा राजनीतिक सूझबूझ का परिचय दिया। वह भारत के नये राज्य का गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ। इस हैसियत से उसने देशी राजाओं को अपनी रियासतों को भारत-संघ अथवा पाकिस्तान में विलयन करने के लिए प्रेरित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। बाद में जब पाकिस्तान ने सीमाप्रांत के कबीलेवालों को कश्मीर पर हमला करने में मदद दी, उसने भारत सरकार को विवाद संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद में पेश करने की सलाह दी और इस प्रकार भारत तथा पाकिस्तान के बीच कश्मीर-विवाद उत्पन्न करने में मदद की। १९४८ ई. में भारत के गवर्नर-जनरल के पद से अवकाश ग्रहण करने पर ब्रिटिश नौ-सेना के उच्चपदों पर रहा। १९५५ से १९६५ ई. तक वह ब्रिटेन का प्रधान नौसेनाध्यक्ष रहा।

माधवराव : पेशवा बालाजीराव का दूसरा लड़का, जो उसके मरने पर १७६१ ई. में पेशवा बना। उस समय उसकी उम्र केवल १७ वर्ष थी। पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की जबर्दस्त हार के बाद ही वह पेशवा बना। प्रारम्भ में उसका चाचा रघुनाथराव उसकी ओर से शासन करता रहा, परंतु शीघ्र ही उसने शासन सूत्र अपने हाथ में ले लिया। धीरे-धीरे उसने पानीपत की हार के फलस्वरूप पेशवा की खोयी हुई सत्ता और प्रतिष्ठा फिर से स्थापित कर दी। निजाम को दो बार पराजय का मुँह देखना पड़ा और पेशवा की शक्ति तोड़ देने का उसका प्रयत्न विफल रहा। मैसूर का हैदरअली (दे.) भी, जिसने दक्षिण में मराठों के इलाकों पर दखल करना शुरू कर दिया था, दो बार पराजित हुआ। बरार का भोंसले राजा भी, जो पेशवा के विरुद्ध निजाम और हैदरअली से गठबंधन किये हुए था, पराजित हुआ और उसने पेशवा की अधीनता स्वीकार कर ली। पेशवा माधवराव को सबसे बड़ी सफलता उत्तरी भारत में मिली, जहाँ १७७१-७२ ई. में उसकी सेना ने मालवा तथा बुदेलखंड पर फिर से अधिकार कर लिया, राजपूत राजाओं से चौथ वसूल की, जाटों और रुहेलों का दमन किया, दिल्ली पर फिर से दखल कर लिया और भगोड़े मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय (१७६९-१८०६ ई.) को, जो इलाहाबाद में ईस्ट इंडिया कम्पनी की पेन्शन पर रह रहा था, फिर से दिल्ली के तख्त पर बैठाया। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि पानीपत की तीसरी लड़ाई (दे.) के फलस्वरूप मराठों की शक्ति को जितनी क्षति पहुँची थी, उस सबकी भरपाई कर ली गयी है। इसी समय अचानक १७७२ ई. में महान् पेशवा माधवराव का देहान्त हो गया। जैसा कि ग्राण्ट डफ ने लिखा है 'मराठा साम्राज्य के लिए पानीपत का मैदान उतना घातक सिद्ध नहीं हुआ जितना इस श्रेष्ठ शासक का असामयिक देहावसान।'

माधवराव नारायण (जिसे माधव तृतीय भी कहते हैं) : पेशवा नारायणराव (दे.) के मरने के बाद पैदा हुआ और १७७४ ई. में पिता का उत्तराधिकारी बना। उस समय वह शिशु था, इसलिए शासनकार्य चलाने के लिए एक समिति नियुक्त कर दी गयी और नाना फड़नवीस उसका प्रधान नियुक्त हुआ। माधवराव का दादा (उसके पिता नारायणराव का चाचा) राघोबा ईस्ट इंडिया कम्पनी से षड्यंत्र करके स्वयं पेशवा बनने का प्रयत्न करने लगा। इसके फलस्वरूप पहला मराठा-युद्ध (१७७५-८२ ई.) हुआ जिसका अंत साल्बाई की संधि (१७८२ ई.) से हुआ। इस संधि के फलस्वरूप पेशवा का राज्य अखंडित रहा। पेशवा के बालक होने के कारण सत्ता पर अधिकार प्राप्त करने के लिए महादजी शिन्दे और नाना फड़नवीस में गहरी प्रतिद्वन्द्विता चली, जिससे मराठों की शक्ति क्षीण हो गयी। १७९४ ई. में महादजी शिन्दे की मृत्यु होने पर यह आपसी प्रतिद्वंद्विता समाप्त हुई। अगले साल (१७९५ ई. में) मराठों ने खर्डा (दे.) की लड़ाई में निजाम को पराजित किया। परंतु तरुण पेशवा माधवराव नारायण नाना फड़नवीस की कड़ी निगरानी में रहने के कारण जिन्दगी से ऊब गया था और १७९५ ई. में उसने आत्महत्या कर ली।

माधवराव शिन्दे : ग्वालियर (दे.) का १८८६ से १९२५ ई. तक शासक रहा। वह उदार शासक था और उसने रियासत के शासन-प्रबंध में कुछ उपयोगी सुधार किये।

माधवाचार्य : सुप्रसिद्ध वेद-भाष्यकार सायण का भाई। वह प्रकांड विद्वान् और प्रसिद्ध धर्मशास्त्रकार था। उसने अनेक ग्रंथों की रचना की। वह विजयनगर (दे.) के दूसरे राजा बुक्क (राज्यरोहण १३५४ ई.) का मंत्री भी था।

माधवाचार्य : हुगली जिले के त्रिवेणी स्थान का निवासी एक बंगाली कवि। वह अकबर का समसामयिक और 'चंडीमंगल' का रचयिता था। मालूम पड़ता है कि उसे मुगल बादशाह का कुछ सीमा तक आश्रय प्राप्त था।

मानवबलि : यह सामाजिक कुप्रथा उड़ीसा की कुछ जनजातियों में प्रचलित थी। लार्ड हार्डिंज प्रथम (१८४४-४८ ई.) के शासनकाल में इस सामाजिक कुरीति को मिटाने की दिशा में कदम उठाये गये और जान कैंपबेल के नेतृत्व में १८४७ से लेकर १८५४ ई. के बीच इसे मिटा दिया गया।

मानसिंह : ग्वालियर के तोमरवंशी राजपूतों में सबसे प्रसिद्ध राजा। उसने १४८६ ई. से १५१७ ई. तक राज्य किया। वह महान् योद्धा तथा भवन-निर्माता था। जब तक वह जीवित रहा उसने दिल्ली के सुल्तानों के साथ साथ जौनपुर तथा मालवा के मुसलमान शासकों को अपने राज्य से दूर रखा और ग्वालियर की स्वतंत्रता बनाये रखी। मृगनयनी उसकी प्रिय रानी थी। दोनों ने ग्वालियर को संगीत आदि कलाओं का एक महान् केन्द्र बना दिया। भारत के सर्वोत्तम गायकों और वादकों का ग्वालियर में जमघट लगा रहता था। मानसिंह ने ग्वालियर का भव्य महल बनवाया। उसका विशाल पूर्वी द्वार उसके निर्माता के विशाल व्यक्तित्व का प्रतीक है।

मानसिंह, कुँवर एवं राजा : आमेर के राजा बिहारीमल (दे.) का गोद लिया हुआ पौत्र। १५६२ ई. में राजा बिहारीमल ने बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और अपनी लड़की उसे ब्याह दी। उसी समय कुँवर मानसिंह ने भी बादशाह की सेवा स्वीकार कर ली। मानसिंह ने १६१४ ई. में दक्खिन में मृत्यु होने तक मुगल साम्राज्य की बहुमूल्य सहायता की। वह महान् सेनापति था और उसने मुगलों को अनेक युद्धों में चतुर्दिक् विजय दिलायी। उसे काबुल तथा बंगाल जैसे महत्त्वपूर्ण सूबों की सूबेदारी सौंपी गयी। उसने अफगानों को पराजित कर उनसे मुगलों की अधीनता स्वीकार करायी। वह मुगल साम्राज्य का एक प्रमुख समर्थक हिन्दू था।

मानसेल, चार्ल्स जी. : पंजाब पर १८४९ ई. में अधिकार करने के बाद उसका शासन-प्रबंध करने के लिए लार्ड डलहौजी ने जो बोर्ड नियुक्त किया था, उसका सदस्य। वह १८५१ ई. तक बोर्ड का सदस्य रहा।

मान्‍यखेट : आधुनिक नाम मालखंड़, जो आंध्रप्रदेश का ऐतिहासिक नगर है। राजा अमोघवर्ष (लगभग ८१५-७७ ई.) ने इसे राष्ट्रकूटों की राजधानी बनाया। इस नगर में अनेक जैन मंदिर हैं।

मान्सन, कर्नल सर जार्ज (१७३०-३६ ई.)  : कम्पनी की सेवा में एक फौजी अफसर बनकर १७५८ ई. में भारत आया। १७६० ई. में जब पांडिचेरी का घेरा डाला गया, वह सहायक कमांडर था। १७७४ ई. में वह रेग्युलेटिंग ऐक्ट (दे.) के अंतर्गत गवर्नन-जनरल की कौंसिल का सदस्य नियुक्त किया गया। वह आमतौर से वारेन हेस्टिंग्स के विरुद्ध अपने दो सहयोगियों फ्रांसिस और क्लेवरिंग का साथ दिया करता था। वारेन हेस्टिंग्स उसे अपना खतरनाक विरोधी मानता था। किन्तु सितम्बर १७७६ ई. में उसने इस्तीफा दे दिया और इसके बाद ही बंगाल, हुगली (दे.) में उसकी मृत्यु हो गयी।

मामल्लपुरम् : नगर की स्थापना पल्लव राजा नरसिंह वर्मा (लगभग ६२५-४५ ई.) ने की। इसे अब महाबलिपुरम् कहते हैं। नगर की सबसे आश्चर्यजनक कृति सात रथ हैं, जो चट्टानों को तराश कर बनाये गये हैं। प्रत्येक रथ पर शिल्पकला के सुंदर नमूने देखने को मिलते हैं। संभवतः दक्षिण-पूर्व एशिया के चम्पा (दे.), कम्बोडिया (दे.) आदि देशों में वास्तुकला की जो कृतियाँ मिलती हैं, उनकी प्रेरणा मामल्लपुरम् की कृतियों से ली गयी थी।

मामुलनार : एक प्राचीन तमिल कवि, जो मौर्यों (दे.) के चार शताब्दी बाद हुआ। उसने अपनी रचनाओं में दक्षिण भारत में विख्यात मौर्यों की राजशक्ति का बार-बार उल्लेख किया है।

मारवाड़ : देखिये, 'जोधपुर'।

मार्टिन, रेवरेंड हेनरी : भारत में सबसे पहले जो अंग्रेज ईसाई पादरी पहुँचे, उनमें से एक। जिस समय वह आया, ईस्ट इंडिया कम्पनी ईसाई पादरियों को अपने क्षेत्र में रहने की अनुमति नहीं देती थी। कम्पनी को भय था कि उनके द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार करने से भारतीय लोग कम्पनी के विरुद्ध भड़क उठेंगे। इसलिए हेनरी मार्टिन बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी का चैपलिन (गिरजाघर में धार्मिक कृत्य सम्पादन करनेवाला) नियुक्त हो गया। वह उन्हीं धार्मिक कृत्यों को सम्पादित करता था जो उसके पद के अनुरूप थे। १८१३ ई. में ईसाई पादरियों द्वारा धर्म प्रचार पर लगी पाबंदी उठा ली गयी।

मार्तंड मंदिर : कश्मीर में राजा ललितादित्य (दे.) ने बनवाया। उसने कश्मीर पर ७२४ ई. से ७६० ई. तक राज्य किया।

मार्ले, जान (१८३८-१९२८ ई.) : १९०५ से १९१० ई. तक भारतमंत्री रहा। १९०७ ई. में उसने जहाँ एक ओर भारत में आतंकवादियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करने का समर्थन किया, वहीं दूसरी ओर लंदन में भारतमंत्री की कौंसिल में दो भारतीयों तथा वाइसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल में एक भारतीय की नियुक्ति करके शिक्षित भारतीयों को संतुष्ट करने का यत्न किया। उसने भारत में संसदीय शासन-व्यवस्था की स्थापना करने का कोई सरकारी इरादा होने से इनकार किया, किंतु १९०९ ई. का गवर्नमेण्ट आफ इंडिया ऐक्ट पास करके भारत के संविधान में काफी परिवर्तन कर दिया। यह मार्ले-मिण्टो सुधार कानून के नाम से विख्यात है। इसके अंतर्गत भारतीय संविधान में पहले से अधिक बड़ी संख्या में निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों की व्यवस्था की गयी, विधान मंडलों में प्रश्न पूछने, बजट पर बहस करने तथा प्रस्ताव पेश करने का अधिकार दे दिया गया। लार्ड मिण्टो द्वितीय (दे.) के साथ-साथ वह भी भारतीय विधान मंडलों में साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली आरम्भ करने के लिए जिम्मेदार था। दस वर्ष बाद, भारतमंत्री के पद से हट जाने के पश्चात् उसने मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों (दे.) को असामयिक बताया था। वह युद्धविरोधी था और १९१४ ई. में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने पर उसने सार्वजनिक जीवन से अवकाश ग्रहण कर लिया। वह प्रसिद्ध लेखक भी था और १९२३ ई. में मृत्यु से पहले उसकी गणना सबसे वयोवृद्ध अंग्रेजी साहित्यकारों में की जाने लगी थी। अंग्रेजी भाषा में उसकी मुख्य पुस्तकें 'ग्लैडस्टीन का जीवन' (१९०३ ई.), 'वाल्टेयर' (१८७२ ई.), 'रूसो' (१८७३ ई.), 'काबडेन' (१८८१ ई.), 'बर्क' (१८७९ ई.), 'बालपोल' (१८८९ ई.), 'क्रामवेल' (१९०० ई.) तथा १९१७ ई. में प्रकाशित उसके 'संस्मरण' (दो खंड) हैं।

मार्ले-मिन्टो सुधार : देखिये, 'भारत में ब्रिटिश प्रशासन'।

मार्शमैन, जान : एक अंग्रेज ईसाई पादरी जो बैप्टिस्ट मिशन का सदस्य था। वह श्रीरामपुर में बस गया जो उस समय डच लोगों के कब्जे में था। उसने 'फ्रेंड आफ इंडिया' नामक एक अंग्रेजी पत्र निकाला, जिसका उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार तथा समाज-सुधार था। वह भारत में शिक्षा-प्रचार पर बल देता था और कलकत्ता में एक विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रस्ताव का समर्थक था।

मालगुजारी : अथवा भूमिकर, अत्यन्त प्राचीन काल से भारत में सरकार की आय का मुख्य स्रोत रहा है। राज्य को भूमि की उपज का एक भाग कर के रूप में लेने का अधिकार है, यह सिद्धान्त भारत में सदा से सर्वमान्य रहा है। मौर्य, गुप्त आदि हिन्दू राजाओं के शासनकाल में भूमि की उपज का एक छटाँ भाग कर के रूप में लिया जाता था। मुसलमानी शासन-काल में भूमिकर बहुधा मनमाने ढंग से बढ़ा दिया जाता था। अकबर ने मालगुजारी की दर भूमि की उपज का एक तिहाई भाग निश्चित कर दी और समूचे मुगल शासन-काल में यही दर वैध मानी जाती थी। परंतु व्यवहार रूप में मालगुजारी की दर तथा मालगुजारी की वसूली की व्यवस्था में अनगिनत उलट-फेर होते रहते थे।

ब्रिटिश शासनकाल में मुगल काल की व्यवस्था कुछ आवश्यक संशोधनों के साथ स्वीकार कर ली गयी। सिद्धांत रूप में मालगुजारी की दर भूमि की उपज का कम से कम एक तिहाई भाग निर्धारित रखी गयी और उसे सरकार की आय का मुख्य स्रोत माना गया। परन्तु अंग्रेजों ने मुगलों की अपेक्षा समय-समय पर भूमि की पैमाइश कराने की कहीं अधिक विशद् व्यवस्था की। भूमि की पैमाइश सबसे पहले सोलहवीं शताब्दी में शेरशाह सूर (दे.) ने करायी थी। उसने भूमि की समस्त पैदावार और नकदी में उसका मूल्य निश्चित कर दिया और सरकार के भाग का समस्त भूमिकर सख्ती से वसूल करने की व्यवस्था की। ब्रिटिश शासन काल में भूमिकर घटाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। भारतीय गणराज्य की वर्तमान सरकार ने भूमिकर की ब्रिटिश व्यवस्था कायम रखी है, यद्यपि सरकार और किसानों के बीच जमींदार ताल्लुकेदार, जोतदार आदि मध्यवर्तियों को हटाने और किसान को अपनी जोत का मालिक बनाने की दिशा में तेज कदम उठाये गये हैं।

मालब : मालव गण का पश्‍चाद्वर्ती निवास स्‍थान। मालव गण प्राचीन काल में भी विख्‍यात था। यूनानी इतिहासकारों ने संभवत: इसे ही भल्‍लोई की संज्ञा दी है। सिकन्दर के आक्रमण के समय हाइड्राओटिस (इरावती अथवा आधुनिक रखी) नदी के दक्षिणी भाग में उसके दाहिने तट पर गण का वास था। जब सिकन्दर ने इस गण के नगरों पर हमला किया, उन्होंने, सिकन्दर को जख्मी कर दिया। आक्रमणकारी यवन सेना ने इस गण को पराजित कर दिया और उसके हजारों निरपराध नर-नारियों को मार डाला। किसी अनिश्चित काल में यह गण अवन्ती में आ बसा और उसके नाम पर यह क्षेत्र मालव अथवा मालवा कहा जाने लगा। उज्जयिनी मालव की राजधानी बनी। प्रारम्भ में उज्जयिनी में गणतंत्रात्मक शासन था, बाद में राजतंत्रात्मक शासन की स्थापना हुई। ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में यहाँ शक क्षत्रपों का शासन स्थापित हुआ। चौथी शताब्दी ई. में उन्होंने समुद्रगुप्त की सार्वभौम सत्ता स्वीकार कर ली। समुद्रगुप्त के पुत्र एवं उत्तराधिकारी चंद्रगुप्त द्वितीय ने इसे गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। पाँचवी शताब्दी के प्रारम्भ में चीनी यात्री फाहियान (दे.) ने मालवा की यात्रा की थी। उसने यहाँ के लोगों को सम्पन्न पाया। यहाँ की जलवायु उसे बहुत स्वास्थ्यप्रद लगी और यहाँ के सुशासन से वह बहुत प्रभावित हुआ। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद मालवा पर हूणों का आधिपत्य हो गया। लगभग ५२८ ई. में राजा यशोधर्मा ने हूणों को परास्त किया और मालवगण की प्रसिद्ध तथा प्राचीन नगरी उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाया।

उज्जयिनी हिन्दुओं की न केवल एक पवित्र नगरी है, वरन् वह विद्या का केन्द्र भी रही है। इसका नाम परंपरागत रूप में महान् राजा विक्रमादित्य (दे.) और इसके प्रसिद्ध राजकवि कालिदास के साथ जुड़ा हुआ है। मालवागण का यह क्षेत्र धीरे-धीरे मालवा के सुशासित राज्य में विकसित हो गया। बाद की शताब्दियों में यह राज्य में विकसित हो गया। बाद की शताब्दियों में यह राज्य पहले चालुक्य राज्य और फिर गूर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का एक भाग रहा। १३०१ ई. में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने इसे दिल्ली की सल्तनत में सम्मिलित कर लिया। १४०१ ई. यह स्वतंत्र मुसलिम राज्य बन गया। १५३१ ई. में इसे गुजरात के सुल्तान ने अपने अधीन कर लिया, परन्तु इकतालीस वर्षों बाद अकबर ने १५७२-७३ ई. में इस पर चढ़ाई करके इसे मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। १७३८ ई. में यह मराठों के अधिकार में आ गया और इस पर शिन्दे (दे.) शासन करने लगा। तीसरे मराठा-युद्ध (दे.) में शिन्दे के पराभव के बाद यह ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।

मालविकाग्निमित्र : महाकवि कालिदास का प्रसिद्ध संस्कृत नाटक, जिसकी रचना संभवतः पाँचवीं शताब्दी ई. में हुई। इस नाटक की कथावस्तु प्रथम शुंग राजा पुष्यमित्र (दे.) तथा उसके पुत्र अग्निमित्र तथा अग्निमित्र और मालविका की प्रेमकथा पर आधारित है। इस नाटक से ऐतिहासिक महत्त्व की कुछ सामग्री प्राप्त होती है।

मालवीय, पंडित मदनमोहन (१८६१-१९४६ ई.)  : प्रमुख राष्ट्रीय नेता, शिक्षाविद् तथा समाजसुधारक। उनका जन्म प्रयाग में हुआ। १८८५ ई. में वे एक स्कूल में अध्यापक हो गये, परन्तु शीघ्र ही वकालत का पेशा अपनाकर १८९३ ई. में इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकील के रूप में अपना नाम दर्ज करा लिया। उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी प्रवेश किया और १८८५ तथा १९०७ ई. के बीच तीन पत्रों- हिन्दुस्थान, इंडियन यूनियन तथा अभ्युदय का सम्पादन किया। जीवनकाल के प्रारम्भ से ही वे राजनीति में रुचि लेने लगे और १८८६ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में सम्मिलित हुए। दो बार १९०९ तथा १९१८ ई. में कांग्रेस के अध्यक्ष हुए। १९०२ ई. में यू. पी. लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य और बाद में लेजिस्लेटिव असेम्बली के सदस्य चुने गये। वे ब्रिटिश सरकार के निर्भीक आलोचक थे और उन्होंने पंजाब की दमन नीति की तीव्र आलोचना की, जिसकी चरम परिणति जालियाँवालाबाग हत्याकांड (दे.) में हुई। वे कट्टर हिन्दू थे, परन्तु शुद्धि (हिन्दू धर्म छोड़कर दूसरा धर्म अपनालेनेवालों को पुनः हिन्दू बना लेते) तथा अस्पृश्यता-निवारण में विश्वास करते थे। वे तीन बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि १९१५ ई. में बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना है। विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए उन्होंने सारे देश का दौरा करके देशी राजाओं तथा जनता से चंदा की भारी राशि इकट्ठा की थी।

मावली : शिवाजी (दे.) के समय में पश्चिमी घाटों में रहनेवाली एक पहाड़ी जाति, जो बहुत पिछड़ी हुई थी। मावली युवक अत्यन्त वीर, पश्चिमी तथा अपने नये नेता के स्वामिभक्त थे। वे अपने क्षेत्र के सभी पहाड़ी मार्गों तथा भूमि के एक-एक चप्पे से परिचित थे। अपनी तरुणावस्था में उन्हीं के साथ रहने के कारण शिवाजी ने अपने देश की भूमि का घनिष्ठ परिचय प्राप्त कर लिया।

मासिरे-आलमगीरी : यह रचना मुहम्मद साकी ने की। यह एक प्रकार से बादशाह औरंगजेब (१६५८-१७०७ ई.) के समय और जीवन पर प्रकाश डालनेवाला समसामयिक इतिहास ग्रंथ है।

मासूद : गजनी के सुल्तान महमूद (दे.) का लड़का। वह प्रसिद्ध विद्वान् तथा इतिहासकार अबू-रिहान मुहम्मद का, जो अल-बरूनी (दे.) के नाम से विख्यात है, संरक्षक था।

मास्की : आंध्रप्रदेश के रायचूर जिले में एक छोटा-सा गाँव। सम्राट् अशोक के प्रथम लघु शिलालेख की एक प्रति १९१९ ई. में मास्की में मिली थी। अशोक का मास्की शिलालेख इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि यह एकमात्र शिलालेख से प्रमाणित हो जाता है कि राजा देवानांप्रिय प्रियदर्शी तीसरा मौर्य सम्राट् अशोक था। जार्ज टर्नोर ने १८३७ ई. में केवल अनुमान से देवनांप्रिय प्रियदर्शी की पहचान अशोक से की थी।

माहम अनगा : बादशाह अकबर के बचपन में उसकी मुख्य अनका (दूधमाता) ती और अदहम खाँ की माँ थी। वह हरम के अन्दर उस दल में सम्मिलित थी जो बैरम खाँ (दे.) के राज्य का सर्वेसर्वा बने रहने का विरोधी था। उसने अकबर को बैरम खाँ के हाथ से सल्तनत की बागडोर छीनने के लिए प्रोत्साहित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। १५६० ई. में अकबर बैरम खाँ को आगरा में छोड़कर दिल्ली अपनी बेवा माँ के पास चला आया। अगले दो साल तक माहम अनगा का उसके ऊपर बहुत अधिक प्रभाव रहा। १५६१ ई. में उसने अकबर के कोप से अपने बेटे अदहम खाँ को बचाया। परन्तु अगले साल जब अदहम खाँ ने अतगा खाँ, वजीर की हत्या कर डाली तो वह उसकी रक्षा नहीं कर सकी। अकबर के हुक्म से उसे बाँधकर किले के परकोट से नीचे फेंक दिया गया, जिससे वह मर गया। अपने बेटे के शोक में माहम अनगा (अनका) की भी शीघ्र मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु से अकबर हरम के प्रभाव से मुक्त हो गया।

मिंगन्‍ती : चीन के प्रारम्भिक हान वंश का एक सम्राट् (५८-७५ ई.)। उसने ६२ ई. में स्वप्न में बुद्ध का दर्शन किया और उनके धर्म के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए राजदूत भारत भेजे। वे कुछ बौद्ध ग्रंथ, मूर्तियाँ तथा दो भारतीय बौद्ध भिक्षुओं--काश्यप मातंग (दे.) तथा गोवर्धन (दे.) को लेकर चीन वापस लौटे। दोनों भारतीय भिक्षु चीन में बस गये, उन्होंने कुछ बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया तथा कुछ चीनियों को बौद्धधर्म में दीक्षित किया। इस प्रकार सम्राट् मिंगन्ती ने सबसे पहले चीन में बौद्ध धर्म का प्रवेश कराया।

मिण्टो, अर्ल, प्रथम (१७५१-१८१४ ई.)  : भारत का १८०७ से १८१३ ई. तक गवर्नर-जनरल। वह अहस्तक्षेप की नीति का समर्थक था और उसके शासनकाल में भारत किसी बड़े युद्ध में नहीं फँसा। परन्तु उसने कई राजनीतिक सफलताएँ प्राप्त कीं। उसने १८०९ ई. में शक्ति प्रदर्शन के द्वारा पेंढारी नेता अमीर खाँ को बरार में हस्तक्षेप करने से रोक दिया। उसकी सबसे बड़ी राजनीतिक सफलता पंजाब के महाराज रणजीत सिंह के साथ १८०९ ई. में की गयी अमृतसर की संधि (दे.) थी, जिसके द्वारा सतलज पंजाब के सिख राज्य तथा ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की सीमा मान ली गयी। भारत पर फ्रांस और रूस के सम्मिलित हमले को रोकने के लिए लार्ड मिण्टो ने १८०८ ई. में सर जान माल्कम को दूत बनाकर फारस भेजा और उसी साल माउण्ट स्टुअर्ट एल्फिन्स्टन को अफगानिस्तान के अमीर शाहशुजा के पास भेजा। फ्रांस और रूस के खतरे को दूर करने के उपायों के बारे में दोनों राज्यों से समझौता हो गया। १८१० ई. में फ्रांस और रूस की दोस्ती टूट जाने से यह खतरा दूर हो गया। परन्तु फ्रांस के हमले का भय बना रहा और लार्ड मिण्टो प्रथम ने १८१० ई. में पश्चिम में बौर्बन तथा मारिशस के फ्रांसीसी द्वीपों को तथा पूर्व में डच लोगों द्वारा अधिकृत अम्बोमना तथा मसालेवाले द्वीपों को तथा १८११ ई. में जावा द्वीप को जीत लिया। इस प्रकार लार्ड मिण्टो प्रथम ने फ्रांस तथा पूर्वी द्वीप-समूह के उसके अधीनस्थ राज्यों के बढ़ाव पर प्रभावशाली ढंग से रोक लगा दी।

मिण्टो, अर्ल, द्वितीय (१८४५-१९१४ ई.)  : लार्ड कर्जन (दे.) के बाद १९०५ से १९१० ई. तक भारत का वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल। वह लार्ड मिण्टो प्रथम का प्रपौत्र था। लार्ड कर्जन ने भारत में जो संकटपूर्ण स्थिति उत्पन्न कर दी थी उसका सामना करने में तथा तत्कालीन भारतमन्त्री लार्ड मार्ले के साथ मिलजूलकर कार्य करने में उसने काफी युक्ति-कौशल का परिचय दिया। लार्ड कर्जन और प्रधान सेनापति लार्ड किचनर (दे.) एक दूसरे से झगड़ा कर बैठे थे। उसने लार्ड किचनर से झगड़ा रफा किया और अफगानिस्तान के अमीर के सम्बन्धों में काफी सुधार किया। अमीर उससे मिलने के लिए कलकत्ता आया।

किन्तु लार्ड मिण्टो द्वितीय के सामने सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य राष्ट्रीयतावादी विचारधारा को संतुष्ट करना था। लार्ड कर्जन के बंग-भंग के अविवेकपूर्ण आदेश से भारत में राष्ट्रीय जागरण की जबर्दस्त हिलोर उठने लगी थी और आतंकवादी गतिविधियों में भी काफी वृद्धि हो गयी थी। लार्ड मिण्टो द्वितीय ने आतंकवादी गतिविधियों का दमन करने तथा समाचार पत्रों का मुँह बन्द करके न्याय और व्‍यवस्था को बनाये रखने के लिए कड़े कदम उठाये। उसने रेग्युलेशन ३ के अन्तर्गत राष्‍ट्रीयतावादी नेताओं का निष्कासन करके तथा बिना मुकदमा चलाये लोगों को नजरबन्द करके उग्र राष्ट्रीय आन्दोलन का दमन करने की कोशिश की। इसके साथ ही उसने भारत में नरम विचारधारा के नेताओं को संतुष्ट करने के लिए कुछ कदम उठाये। उसने भारत-मन्त्री की कौन्सिल में पहली बार दो भारतीयों को नियुक्त करना तथा वाइसराय की एक्जीक्यूटिव कौन्सिल में पहली बार एक भारतीय की नियुक्ति करना स्वीकार कर लिया। इसके साथ ही उसने गवर्नमेण्ट आफ इंडिया ऐक्ट, १९०९ ई. (जिसे मार्ले-मिण्टो सुधार ऐक्ट भी कहते हैं) पास करवा कर महत्त्वपूर्ण शासन-सुधार भी किये। इस ऐक्ट के द्वारा विधानमंडलों के प्रत्यक्ष निर्वाचन की प्रथा शुरू करने तथा प्रान्तीय एवं केन्द्रीय विधान मण्डलों में निर्वाचित प्रतिनिधि‍यों की संख्या बढ़ाकर भारत में क्रमिक रीति के स्वशासन का विस्तार करने की नीति का सूत्रपात किया गया।

लार्ड मण्टो द्वितीय ने हिन्दुओं के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव को रोकने के लिए जानबूझकर मुसलमानों को प्रोत्साहन देने की नीति अपनायी, विधानमण्डलों में मुसलमानों को साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व देने की माँग को कानूनी मान्यता प्रदान की, १९०६ ई. में मुसलिम लीग की प्रतिष्ठापना को बल प्रदान किया और इस प्रकार भावी साम्प्रदायिक वैमनस्य का बीज बो दिया।

मिताक्षरा : संस्कृत भाषा में धर्मशास्त्र का (याज्ञवल्क्य स्मृति का व्याख्यान-रूप) प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसका प्रणयन विज्ञानेश्वर ने किया, जो चालुक्यों की राजधानी कल्याणी में विक्रमादित्य चालुक्य (दे.) (१०७६-११२६ ई.) के राज्यकाल में रहता था। बंगाल तथा आसाम के आतिरिक्त शेष भारत में हिन्दू कानून के विषय में मिताक्षरा को प्रमाण माना जाता है। उत्तराधिकार के सम्बन्ध में इसमें यह आधारभूत सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है कि हिन्दू परिवार में समस्त पैतृक सम्पत्ति में पुत्र पिता का सहभागी होता है और उसे अपनी स्वीकृति के अतिरिक्त अन्य किसी रीति से उत्तराधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।

मित्रियातरु प्रथम : पार्थिया का राजा (लगभग १७१ ई. पू.-१३६ ई. पू.)। उसने तक्षशिला का राज्य, जो सिंधु तथा हाइवसपीस (झेलम) नदियों के बीच स्थित था, अपने राज्य में मिला लिया।

मिदनापुर : पश्चिम बंगाल का एक नगर तथा जिला। इसका कुछ भाग बंगाल की खाड़ी के तटपर स्थित है। प्राचीन ताम्रलिप्ति जलपट्टन, जहाँ से चीनी यात्री फाहियान (दे.) पोत पर सवार होकर चीन वापस गया, अब तामलुक नगर कहलाता है और मिदनापुर जिले में समुद्र तट से ६० मील की दूरी पर स्थित है। १७६० ई. में नवाब मीरकासिम (१७६०-६३ ई.) ने बंगाल का नवाब बनाये जाने पर मिदनापुर जिले के साथ-साथ बर्दवान तथा चटगाँव जिला ईस्ट इंडिया कम्पनी को दे दिया था।

मिनहाजे-सिराज (पूरा नाम मिनहाजुद्दीन) : एक प्रसिद्ध इतिहासकार। वह सुल्तान नासिरुद्दीन (दे.) (१२४६-६६ ई.) के अधीन एक उच्च पदासीन था। उसने उसी के नाम पर अपने ग्रंथ का नाम तबकाते-नासिरी रखा। दिल्ली के प्रारम्भिक सुल्तानों का वह लगभग समसामयिक रहा और उसका ग्रंथ काफी प्रामाणिक माना जाता है। 'तबकाते-नासिरी' का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद रैवर्टी ने किया।

मिनाण्डर : एक यूनानी नाटककार। विण्डिरच के सदृश कुछ यूरोपीय विद्वानों का मत है कि मिनाण्डर तथा उसी की भाँति के अन्य यूनानी नाटककारों ने भारतीय संस्कृत नाटकों को प्रभावित किया था, क्योंकि दोनों में सुस्पष्ट साम्‍य मिलता है। परन्तु यह प्रश्न विवादास्पद माना जाता है।

मिनाण्डर (मिलिन्द) : पंजाब पर लगभग १६० ई. पू. से १४० ई. पू. तक राज्य करनेवाले यवन राजाओं में सबसे अधिक उल्लेखनीय। उसके विविध प्रकार के बहुत से सिक्के उतर भारत के विस्तृत क्षेत्र में, यहाँ तक कि यमुना के दक्षिण में भी मिलते हैं। सम्भव है कि गार्गी संहिता में जिस दुरात्मा वीर यवन राजा द्वारा प्रयाग पर अधिकार करके कुसुमपुर (अर्थात् पाटलिपुत्र) में भय उत्पन्न करने का उल्लेख है, वह मिनाण्डर हो। बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार उसने बौद्ध धर्म की शरण ले ली। प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ 'मिलिन्दपन्हो' (मिलिन्द के प्रश्न) में बौद्ध भिक्षु नागसेन के साथ उसके संवादात्मक प्रश्नोत्तर दिये हुए हैं।

मियानी की लड़ाई : १८४३ ई. में सर चार्ल्स नेपियर के नेतृत्व में ब्रिटिश भारतीय सेना और सिंध के अमीरों के बीच हुई। अमीरों की जबर्दस्त हार हुई और सिंध को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।

मिर्जा : अकबर के चचेरे बन्धुगण। १५७२ ई. में मिर्जाओं ने गुजरात में बादशाह अकबर के विरुद्ध विद्रोह का झंडा बुलन्द कर दिया। अगले साल बादशाह ने स्वयं उनका दमन किया।

मिर्जा अबू तालिब खाँ : समुद्र-यात्रा करके इंलैण्ड जाने वाला पहला भारतीय मुसलमान, जो १७८५ ई. में इंग्लैँड पहुँचा।

मिर्जा गुलाम अहमद (१८३९-१९०८ ई.)  : इसलाम के अनुयायी 'कादियानी' इसीलिए कहे जाते हैं।

मिर्जा गुलाम हुसेन : भारत के मुसलमान इतिहाकारों में से एक। वह अट्ठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वर्तमान था और कई महत्त्वपूर्ण पदों पर रहा। उसके ग्रंथ 'सय्यारुल मुतअख्खिरीन' में मुगल साम्राज्य के अन्तिमकाल तथा भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के उदय के प्रारम्भिक वर्षों का सामयिक विवरण मिलता है।

मिर्जा नजफ़ खाँ : एक ईरानी सरदार जो दिल्ली आया और मुगलों की नौकरी करने लगा। वह पदोन्नति करते हुए १७७२ ई. में शाह आलम के दिल्ली वापस लौटने पर उसका बड़ा वजीर नियुक्त हुआ और १७५२ ई. में मृत्यु होने तक इसी पद पर रहा। इस अवधि में दिल्ली साम्राज्य की हुकूमत उसी के हाथ में रही। उसने सिखों का हमला विफल कर दिया, जाटों का दमन किया, आगरा पर फिर से दखल कर लिया और मराठों को दिल्ली से दूर रखा। दिल्ली में उच्च पद प्राप्त करनेवाला वह अंतिम विदेशी मुसलमान था।

मिर्जा महम्मद : देखिये, 'सिराजुद्दौला'।

मिर्जा (अथवा मीर) शाह : कश्मीर का पहला मुसलमान सुल्तान। वह सूरत से आया था और अपनी योग्यता के कारण कश्मीर के हिन्दू राजा का मंत्री हो गया। १३४६ ई. में उसने गद्दी छीन ली, शम्सुद्दीन का नाम धारण किया और एक राजवंश चलाया, जो १५४१ ई. तक कश्मीर पर राज्य करता रहा।

मिर्जा हैदर : कश्मीर का १५४० से १५५१ ई. तक शासक। वह बादशाह हुमायूँ का मुगल रिश्तेदार था और उसी के नाम पर कश्मीर का शासन करता था। किन्तु हुमायूँ की अधीनता वह नाममात्र के लिए मानता था। व्यवहार रूप में वह स्वतंत्र था। १५५१ ई. में कश्मीरी अमीरों ने उसका तख्त छीन लिया। चार साल बाद कश्मीर का शासन-चक्र लोगों के हाथ में पहुँच गया।

मिलिन्दपन्हो (मिलिन्द के प्रश्न) : एक प्रसिद्ध बौद्धग्रंथ, जिसमें यवन राजा मिलिन्द और बौद्ध भिक्षु नागसेन (दे.) के बीच प्रश्न और उत्तर के रूप में बौद्ध दर्शन और धर्म की विवेचना की गयी है। मिलिन्द की पहचान भारतीय यवन (यूनानी) राजा मिनाण्डर (दे.) से की जाती है। विश्वास किया जाता है कि मिनाण्डर ने बौद्धधर्म अंगीकार कर लिया था। इस ग्रंथ का रचनाकाल तीसरी शताब्दी ई. से पूर्व माना जाता है।

मिल्डेनेहाल, जान : एक अंग्रेज व्यापारी, जो १५९९ ई. में स्थलमार्ग से भारत आया। वह पूर्व में सात वर्ष रहा और बादशाह अकबर से उसके राज्यकाल के अंतिम दिनों में मिला। उसकी बादशाह से आमने-सामने बातचीत हुई। परंतु वह अकबर से या उसके पुत्र जहाँगीर से अंग्रेजों के लिए कोई व्यापारिक सुविधा प्राप्त करने में विफल रहा। १६१४ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। वह बेईमान तथा धूर्त था, परंतु व्यापार की खोज में भारत आनेवाले अंग्रेजों का अगुआ था।

मिहिरगुल (अथवा मिहिरकुल) : हूण राजा तोरमाण (दे.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी, जो पाँचवीं शताब्दी ई. के अंतिम दशकों में गुप्त साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पर तथा मध्यवर्ती मालवा पर राज्य करता था। मिहिरगुल लगभग ५०० ई. में गद्दी पर बैठा। उसका साम्राज्य भारत से बाहर अफगानिस्तान तक विस्तृत था। वह बड़ा अत्याचारी था और उसने बौद्धों का क्रूरतापूर्वक दमन किया। उसकी राजधानी पंजाब में साकल अथवा सियालकोट थी। लगभग ५२८ ई. में मगध के राजा बालादित्य और मंदसोर के राजा यशोधर्मा ने मिलकर उसे पराजित कर भगा दिया। मिहिरगुल हारकर कश्मीर भाग गया, जहाँ वह स्वयं राजा बन गया। परंतु वह बहुत थोड़े समय राज्य कर सका।

मीडोज, जनरल सर विलियम : तीसरे मैसूर-युद्ध (दे.) १८९० ई.) में टीपू सुल्तान पर चढ़ाई करनेवाली ब्रिटिश सेना का कमांडर। उसे टीपू के द्विण्डिगुल, कोयंबतूर, पालघाट आदि ठिकानों को छीन लेने में सफलता मिली परंतु उसकी विजय निर्णायात्मक नहीं कही जा सकती थी। अतएव १८९१ ई. में कार्नवालिस ने स्वयं सेना की मुख्य कमान सँभाल ली और जनरल मीडोज उसके अधीन कार्य करता रहा।

मीर कासिम  : अंग्रेजों ने १७६० ई. में इसके ससुर मीर जाफर को गद्दी से उतारकर इसे बंगाल का नवाब बनाया। मीर कासिम ने नवाबी पाने के लिए कम्पनी को वर्दवान, मिदनापुर तथा चटगाँव के तीन जिले सौंप दिये, कलकत्ता कौंसिल को २० लाख रुपया नकद दिया तथा मीर जाफर का सारा कर्जा बेबाक कर देने का वादा किया। मीर कासिम मीर जाफर से अधिक योग्य तथा अधिक दृढ़ व्यक्ति था। उसने मालगुजारी की वसूली के नियम अधिक कठोर बना दिये और राज्य की आय लगभग दूनी कर दी। उसने फौज का भी संगठन किया और कलकत्ता के अनुचित हस्तक्षेप से अपने को दूर रखने के लिए राजधानी मुर्शिदाबाद से उठाकर मुंगेर ले गया।

कम्पनी के अधिकारी मीर जाफर (दे.) (१७५७-६० ई.) के समय से बिना चुंगी दिये अवैध व्यापार के द्वारा बहुत बेजा फायदा उठा रहे थे। मीर जाफर ने इस अवैध व्यापार को बंद करने का निश्चय किया। उसने कलकत्ता कौंसिल के तत्कालीन अध्यक्ष वैन्सीटार्ट (दे.) से समझौता किया कि फिरंगी व्यापारियों के निजी माल पर नवाब को दूसरों से ली जानेवाली ४० प्रतिशत चुंगी के स्थानपर ९ प्रतिशत चुंगी लेने का अधिकार होगा। परंतु कलकत्ता कौंसिल ने इस समझौते को रद्द कर दिया और सिर्फ नमक पर २।। प्रतिशत चुंगी के लिए राजी हुई। कलकत्ता कौंसिल के इस अनौचित्यपूर्ण निर्णय पर नवाब मीर कासिम इतना क्रुद्ध हुआ कि उसने भारतीय और फिरंगी सभी व्यापारियों को बिना चुंगी दिये व्यापार करने की अनुमति दे दी।

इस तरह यह स्पष्ट हो गया कि कम्पनी के कर्मचारियों द्वारा अपने अवैध व्यापार को जारी रखने के आग्रह और नवाब मीर कासिम द्वारा अपने को खुदमुख्तार बनाने के दृढ़ निश्चय के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता था, फलतः नवाब तथा कम्पनी के बीच युद्ध अनिवार्य हो गया। युद्ध की दिशा में पहला कदम पटना में कम्पनी के मुख्याधिकारी मि. एलिस ने उठाया। उसने पटना पर दखल कर लेने की कोशिश की, जो विफल कर दी गयी और युद्ध छिड़ गया। किन्तु मीर कासिम में कोई सैनिक प्रतिभा नहीं थी। उसके पास योग्य सिपहसालार भी नहीं था। ऐसी परिस्थिति में वह कटवा, धेरिया तथा उधुवानाला की लड़ाइयों में कम्पनी की फौज से हार गया। अंग्रेजी फौज जब उसकी राजधानी मुंगेर के निकट पहुँची तो वह पटना भाग गया। वहाँ उसने समस्त अंग्रेज बंदियों को मार डाला तथा पड़े, उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद वह अवध भाग गया और वहाँ उसने नवाब शुजाउद्दौला तथा भगोड़े बादशाह शाह आलम द्वितीय से कम्पनी के विरुद्ध गठबंधन कर लिया। परंतु अंग्रेजों ने २२ अक्तूबर १७६४ ई. को बक्सर की लड़ाई में तीनों को हरा दिया। शुजाउद्दौला जान बचा कर रुहेलखंड भागा, बादशाह शाह आलम द्वितीय अंग्रेजों की शरण में आ गया और मीर कासिम दर-दर की खाक छानता हुआ कई साल बाद भारी मुफलिसी में दिल्ली में मर गया।

मीर जाफर : बंगाल का १७५७ से १७६० ई. तक और फिर १७६३ से १७६५ ई. तक नवाब। वह बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ (दे.) का बहनोई था और मुर्शिदाबाद के दरबार में बहुत अधिक प्रभाव रखता था। अलीवर्दी के पौत्र तथा उत्तराधिकारी नवाब सिराजुद्दौला (दे.) को उसकी स्वामिभक्ति में सन्देह था और उसने उसे बख्शी (दे.) के पद से हटा दिया। इससे मीर जाफर और फिरंट हो गया और उसने सुराजुद्दौला को गद्दी से हटाने तथा खुद नवाब बनने के लिए असंतुष्ट दरबारियों के साथ षड्यंत्र रचा, जिसमें जगत सेठ (दे.) भी सम्मिलित था। षड्यंत्रकारियों के नेता के रूप में मीर जाफर ने १० जून १७५७ ई. को कलकत्ता में अंग्रेजों से एक संधि की। इस संधि के द्वारा मीर जाफर ने वचन दिया कि वह अंग्रेजों की सहायता से बंगाल का नवाब बन गया तो सिराजुद्दौला ने अलीनगर की संधि (९ फरवरी १७५७ ई.) के द्वारा उन्हें जो सुविधाएँ रखी हैं, उनकी पुष्टि कर देगा, अंग्रेजों से रक्षात्मक संधि करेगा, फ्रांसीसियों को बंगाल से निकाल देगा, १७५६ ई. में कलकत्ता जीते जाने के बदले ईस्ट इंडिया कम्पनी को १० लाख पौंड हर्जाना देगा और इसका आधा रुपया कलकत्ता के अंग्रेज निवासियों को देगा। मीर जाफर ने गुप्त संधि करके अंग्रेजी सेना, नौसेना तथा कौंसिल के सदस्यों को भी काफी अधिक धन देने का वादा किया।

इस संधि के अनुसार २३ जून १७५७ ई. को पलासी की लड़ाई में मीर जाफर तथा उसके सहयोगी षड्यंत्रकारियों ने कोई हिस्‍सा नहीं लिया और अंग्रेज बड़ी आसानी से लड़ाई जीत गये। सिराजुद्दौला युद्धभूमि से भाग गया, परन्तु उसे शीघ्र बंदी बना लिया गया और मीर जाफर के पुत्र मीरन ने उसका वध कर दिया। इसके बाद मीर जाफर बंगाल का नया नवाब बना दिया गया। गद्दीनशीन होने पर उसने १० जून १७५७ ई. की संधिके द्वारा जितने भी वादे किये थे सब पूरे कर दिये। इसके अतिरिक्त उसने कम्पनी को चौबीस परगने की जमींदारी भी दे दी। उसने १५ जून १७५७ ई. को कंपनी के साथ एक और संधि की, जिसके द्वारा उसने दो नयी धाराओं से अपने को बाँध लिया। इन धाराओं में कहा गया था-(1) अंग्रेजों के दुश्‍मन मेरे दुश्‍मन होंगे, चाहे भारतीय हों या यूरोपीय, (2) जब कभी मैं अंग्रेजों से सहायता की मांग करूंगा, उसका खर्च दूंगा।

मीर जाफर : मीर जाफर ने इस तरह बंगाल पर एक प्रकार से अंग्रेजों का राजनीतिक तथा सैनिक प्रभुत्व स्वीकार कर अपनी नवाबी का अगौरवपूर्ण अध्याय आरम्भ किया। उसने १७५६ ई. में कलकत्ता पर दखल करने से अंग्रेजों को जो क्षति उठानी पड़ी थी उसके लिए १,७७,००,००० रु. हर्जाना देकर, अंग्रेजी सेना, नौसेना तथा अधिकारियों को १,१२,५०,००० रु. देकर (जिसमें २३,४०,००० रु. सिर्फ क्लाइव को दिये गये) तथा चौबीस परगने की सारी मालगुजारी कम्पनी को सौंप कर राज्य को दीवालिया बना दिया। वह अपनी फौज की तनख्वाहें देने में भी असमर्थ हो गया। इस प्रकार मीर जाफर अंग्रेजों पर अधिकाधिक निर्भर होता गया और शीघ्र ही अपनी स्थिति से बेचैन हो उठा। अतएव उसने अंग्रेजों के विरुद्ध डच लोगों से षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया। परन्तु अंग्रेजों ने बिदर्रा में डच लोगों को हरा दिया। १७६० ई. में मीर जाफर का संरक्षक क्लाइव इंग्लैंड चला गया और इसके बाद मीर जाफर का लड़का तथा भावी उत्तराधिकारी मीरन बिजली गिरने से मर गया। इसके फलस्वरूप मीर जाफर के उत्तराधिकारी का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। क्लाइव के उत्तराधिकारियों ने क्लाइव का ही अनुकरण किया और १७६० ई. में क्लाइव के गुड्डे मीर जाफर को गद्दी से हटाकर उसके दामाद मीर कासि‍म (दे.) को नया नवाब बना दिया।

मीर जाफर ने बिना कोई प्रतिरोध किये १७६० ई. में नवाबी छोड़ दी, परन्तु १७६३ ई. में अंग्रेजों और नवाब मीर कासिम में युद्ध छिड़ जाने पर उसे फिर नवाब बना दिया गया। पुनः नवाबी प्राप्त करने से पूर्व मीर जाफर ने अंग्रेजों से एक संधि की, जिसके द्वारा उसने अपनी फौजों की संख्या सीमित करना, राजधानी मुर्शिदाबाद में स्थायी ब्रिटिश रेजिडेंट रखना, अंग्रेजों के नमक के व्यापार पर केवल २ प्रतिशत चूँगी लेना, कम्पनी को युद्ध के खर्च के तौरपर ३५ लाख रुपया देना, अंग्रेजी सेना तथा नौसेना के सदस्यों को भेंट के तौरपर ३७।। लाख रुपया देना तथा मीर कासिम से युद्ध में जिन लोगों को व्यक्तिगत रुप से क्षति उठानी पड़ी उन्हें हर्जाना देना स्वीकार कर लिया। अतएव पुनः नवाबी मिलने पर मीर जाफर को आर्थिक स्थिति पहले से भी अधिक शोचनीय हो गयी। उसका राजनीतिक भविष्य लगभग समाप्त हो गया। उसे अफीम की लत थी और कुष्ठ रोग से पीड़ित था। १७६५ ई. में उसकी कलंकपूर्ण मृत्यु हो गयी। बंगाल में मुसलमानी शासन के पतन के लिए जो भारतीय मुसलमान जिम्मेदार थे, उनमें मीर जाफर प्रमुख था।

मीर जुमला मीर मुहम्मद सईद : एक ईरानी व्यापारी, जो प्रारम्भ में गोलकुंडा में हीरे का व्यापार करता था। बाद में वह गोलकुंडा के सुल्तान अब्दुल्ला कुतुबशाह (१६२६-७२ ई.) की सेवा में जाकर क्रमशः उसका वजीर बन गया। वह राजनेता के साथ-साथ महान सिपहसालार भी था। उसकी संपत्ति, शक्ति तथा प्रतिष्ठा के कारण गोलकुंडा का सुल्तान उससे ईर्ष्या करने लगा और वह उसे दंडित करना चाहता था। मीर जुमला ने मुगलों से साजिश करके, शाहजादा औरंगजेब की सहायता से, जो उस समय गोलकुंडा पर हमला करनेवाली मुगल सेना का नेतृत्व कर रहा था, १६५६ ई. में दक्खिन में बादशाह शाहजहाँ की सेवा स्वीकार कर ली। इसके बाद ही वह शाहजहाँ का बड़ा वजीर नियुक्त हो गया।

शाहजहाँ (दे. ) के लड़कों में उत्तराधिकार युद्ध छिड़ने पर, मीर जुमला ने औरंगजेब का पक्ष लिया और उसे धर्म की लड़ाई (दे.) जीतने में भारी मदद दी। १६६० ई. में औरंगजेब ने उसे बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया, जहाँ पहुँच कर उसने शुजा (दे.) को प्रांत से बाहर खदेड़ दिया। बाद में उसने आसाम पर चढ़ाई की, अहोम राजा को अपनी राजधानी छोड़कर भागने तथा १६६२ ई. की संधि करने के लिए विवश किया। इस संधि के द्वारा अहोम राजा हर्जाने के रूप में एक बड़ी रकम देने तथा दक्षिणी आसाम का बहुत-सा भाग मुगलों को सौंप देने के लिए राजी हो गया। आसाम के जंगलों से वापस लौटते समय मुगल सेना को भारी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी और मीर जुमला बीमार पड़ गया। वह जनवरी १६६३ ई. में ढाका वापस लौटते समय रास्ते में ही मर गया।

मीर जुमला, शरीयतुल्ला खाँ : एक तूरानी जो बादशाह बादशाह फर्रुखशियर के राज्यकाल (१७१३-१९ ई.) के पूर्वार्द्ध में ढाका तथा पटना में काजी रहा। वह षड्यंत्रकारी मनोवृत्ति का था और उसने फर्रुखशियर को सैयद बंधुओं (दे.) से लड़ाने की कोशिश की। बाद में वह सैयद बंधुओं से मिल गया और उनके नीचतापूर्ण कार्यों में मदद करने लगा।

मीरन : नवाब मीर जाफर (दे.) (१७५७-६० ई.) का लड़का तथा भावी उत्तराधिकारी। नवाब सिराजुद्दौला (दे.) पलासी की लड़ाई में हारने के बाद जब भागा तो उसने उसे गिरफ्तार कर लिया और मुर्शिदाबाद वापस लाकर १७५७ ई. में उसकी हत्या कर डाली। इसके बाद ही बिजली गिरने से मीरन की मृत्यु हो गयी।

मीरनपुर कटरा की लड़ाई : अवध के नवाब शुजाउद्दौला की और रुहेलों के बीच १७७४ ई. में हुई। एक अंग्रेजी पलटन भी शुजाउद्दौला की मदद पर थी। शुजाउद्दौला ने रुहेलों को हरा दिया और उनका राज्य अवध में मिला लिया।

मीरन बहादुर शाह : ताप्ती की घाटी में स्थित खानदेश का शासक। १५९० ई. में उसने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली, परन्तु बाद में अपने इस कार्यपर पश्चाताप करके उसने विद्रोह कर दिया। १५९९ ई. में अकबर ने स्वयं सेना लेकर खानदेश पर चढ़ाई की और असीरगढ़ पर कब्जा करके मीरन बहादुरशाह को अधीन बनाया। खानदेश को मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

मीरपुर परिवार : सिंध के अमीरों के परिवारों में से एक। १८४३ ई. में मियानी (दे.) की लड़ाई में सिंध के अमीरों के अन्य परिवारों के साथ यह परिवार भी हारा और निर्वासित कर दिया गया।

मीर फतह अली खाँ तालपुर : जिसने १७८३ ई. में सिंध के ऊपर अहमद शाह अब्दाली के उत्तराधिकारियों का नियंत्रण समाप्त कर दिया और सिंध को एक प्रकार से स्वतंत्र राज्य बना दिया। उसकी मृत्यु १८०२ ई. में हुई। उसके उत्तराधिकारी, जो मध्यवर्ती सिंध पर शारान करते थे, चार परिवारों में विभक्त हो गये। वे शहदादपुर में रहते थे। मीरपुर तथा खैरपुर में रहनेवाले अपने संबन्धि‍यों की भाँति वे सब सिंध के अमीर कहलाते थे।

मुअज्जम, शाहजादा : देखिये, 'बहादुरशाह प्रथम'।

मुईनुद्दीन चिश्ती (ख्वाजा) : एक प्रसिद्ध मुसलमान (सूफी) संत। अकबर और जहाँगीर बहुधा उसके अजमेर-स्थित मज़ार की जियारत के लिए जाया करते थे।

मुकर्रब खाँ : मूल नाम शेख हसन, जहाँगीर का विशेष विश्वासपात्र पदाधिकारी था। १६०७ ई. में वह शाही दूत के रूप में गोआ के पुर्तगालियों के पास भेजा गया, किन्तु इस दौत्यकर्म का कोई परिणाम न निकला। उपरांत मुकर्रब खाँ की नियुक्ति सूरत के प्रान्तीय शासक के रूप में हुई, जहाँ उसने अंग्रेजों को पुर्तगालियों से युद्ध करने के लिए उत्साहित किया। नाविक युद्ध में अंग्रेजों ने पुर्तगालियों पर विजय पायी किन्तु स्वयं मुकर्रब खाँ ने, जिसके पास कोई नौ-सेना न थी, जब पुर्तगालियों से सुलह का प्रस्ताव किया, तब उसे उस समय अत्यधिक अपमान की घूँट पीनी पड़ी, जब उन्होंने उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया।

मुकर्रब खाँ : मूल नाम शेख नियाम। औरंगजेब का एक उत्साही सैनिक पदाधिकारी था। उसे खानजमा की उपाधि दी गयी थी। १६८९ ई. में जब उसे सूचना मिली कि मराठा शासक शंभूजी अपने प्रधानमंत्री कवि कलश के साथ संगमेश्वर की यात्रा कर रहा है, वह कोल्हापुर में था। उसने शीघ्रता से कूच करके शम्भूजी के पड़ाव को घेर लिया तथा मराठा शासक को उसके प्रधानमंत्री कवि कलश तथा सारे लाव-लश्कर के साथ बन्दी बना लिया।

मक्तापीड : देखिये, 'ललितादित्य मक्तापीड'

मुकुन्द राव : एक मराठा सरदार जो बीजापुर के सुल्तान यूसुफ़ आदिलशाह (दे.) (१४९०-१५१० ई.) के द्वारा पराजित हुआ। उपरान्त उसने सुलतान को अपनी बहिन व्याह कर सन्धि कर ली। व्याह के बाद उसकी बहन का नाम बूवूजी खानम पड़ा और वह दूसरे सुल्तान, इस्माइल की माँ बनी।

मुखर्जी, आशुतोष (१८६४-१९२४) : बंगाल के ख्यातिलब्ध बैरिस्टर और शिक्षाविद्। मध्यम वर्ग के बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ और विद्यार्थी जीवन में ही नाम कमाने के उपरांत १८८८ ई. में कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत प्रारम्भ की। १९०४ ई. से हाईकोर्ट के न्यायाधीश और १९२० ई. से स्थानापन्न मुख्य न्यायाधीश रहने के बाद १९२३ ई. में उन्होंने अवकाश ले लिया। वे यद्यपि राजनीति से दूर रहे, फिर भी वे १८९९ ई. में बंगाल विधान परिषद् के सदस्य मनोनीत किये गये। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में, जिसके लिए उन्होंने अपना समस्त जीवन अर्पित कर दिया था, उन्होंने बंगाल की जो महती सेवा की, उसके आधार पर उन्हें आधुनिक बंगाल का निर्माता कहा जा सकता है। २५ वर्ष की अल्पआयु में वें कलकत्ता विश्वविद्यालय के सिनेट के सदस्य हुए और उपरान्त चार सत्रावधि तक उसके उपकुलपति रहे।

उस विश्वविद्यालय से उनका जीवन की अंतिम घड़ी तक सम्बन्ध बना रहा। लार्ड कर्जन ने भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, भारत में उच्च शिक्षा का प्रसार रोकने के उद्देश्य से बनाया था, किंतु आशुतोष मुखर्जी ने उसी के माध्यम से बंगाल में उच्चशि‍क्षा का प्रसार कर दिया और कलकत्ता विश्वविद्यालय को परीक्षा की व्यवस्था करनेवाली संस्था मात्र से उठाकर उच्चतम स्नातकोत्तर शिक्षण देनेवाली संस्था बना दिया। उन्होंने केवल कला संकाय में ही विभिन्न विषयों में एम. ए. की कक्षाएँ नहीं खोलीं, प्रयोगात्मक एवं प्रयुक्त विज्ञानों (Applied Sciences) के प्रशिक्षण हेतु भी स्नातकोत्तर शिक्षा का प्रबन्ध किया, जिसके लिए इसके पूर्व कोई प्राविधान न था। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के लिए महाराज दरभंगा, सर तारकनाथ पालित एवं रास बिहारी घोष से प्रचुर दान प्राप्त किया और इस धनराशि से उन्होंने विश्वविद्यालय में पुस्तकालय और विज्ञान कालेजों के विशाल भवनों का निर्माण कराया जो प्रयोगशालाओं से युक्त थे। इस प्रकार उन्होंने देश में शिक्षा की धारा को एक नया मोड़ दि‍या। उन्होंने बंगला तथा भारतीय भाषाओं को एम. ए. की उच्चतम डिग्री के लिए अध्ययन का विषय बनाया। उनकी वेशभूषा और आचार-व्यवहार में भारतीयता झलकती थी। कदाचित् वह प्रथम भारतीय थे, जिन्होंने रॉयल कमीशन (सैडलर समिति) के सदस्य की हैसियत से सम्पूर्ण भारत में धोती और कोट पहन कर भ्रमण किया। वह कभी इंग्लैण्ड नहीं गये और उन्होंने अपने जीवन तथा कार्यकलापों से सिद्ध कर दिया कि किस प्रकार एक सच्चा भारतीय अपने विचारों में सनातनपंथी, कार्यों में प्रगतिशील तथा विश्‍वविद्यालय के हेतु अध्‍यापकों के चयन में अंतरराष्‍ट्रीयतावादी हो सकता है। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में भारतीय ही नहीं, अंग्रेज, जर्मन और अमरीकी प्रोफेसर को भी रखा और उसे पूर्व का अग्रगण्य विश्वविद्यालय बना दिया।

मुखर्जी, धनगोपाल : प्रसिद्ध बंगाली साहित्यकार जो अमेरिका में जाकर बस गये। उन्होंने अंग्रेजी भाषा में कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें 'मेरे भाई का व्यक्तित्व' (Portrait of My Brother) नामक पुस्तक में उन्होंने अपने भाई और बंगाल के सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी नेता जदुगोपाल की जीवनी दी है। उनकी रचनाओं ने उन्हें साहित्य के क्षेत्र में अच्छी ख्याति प्रदान की।

मुगल राजवंश : राज बाबर से आरम्भ, जिसने १५२६ ई. में अन्तिम लोदी सुल्तान इब्रीम लोदी को पानीपत के प्रथम युद्ध में पराजित किया। इस विजय से बाबर का दिल्ली और आगरा पर अधिकार हो गया। १५२७ ई. में बाबर ने मेवाड़ के शासक राणा साँगा को खनुआ के युद्ध में पराजित कर राजपूतों के प्रतिरोध का भी अन्त कर दिया। अंततः १५२८ ई. में उसने घाघरा के युद्ध में अफगानों को पराजित कर अपना शासन बिहार और बंगाल तक विस्तृत कर लिया। इन विजयों ने बाबर को उत्तरी भारत का सम्राट् बना दिया। उसके द्वारा प्रचलित मुगल राज्यवंश ने भारत में १५२६ से १८५८ ई. तक राज्य किया।

मुगल राज्यवंश में उन्नीस शासक हुए, जिनमें प्रथम छः बाबर (१५२६-३०), हुमायूँ (१५३०-४० तथा १५५५-५६), अकबर (१५५६-१६०५), जहाँगीर (१६०५-२७), शाहजहाँ (१६२७-५८) तथा औरंगजेब (१६५८-१७०७) प्राय: महान् मुगल सम्राट् गिने जाते हैं। इनमें से अकबर ने सम्पूर्ण उत्तरी भारत तथा दक्षिण के खानदेश और बरार को अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया था। साम्राज्य-विस्तार की यह प्रक्रिया उसके बाद वाले तीन शासकों के काल में भी चलती रही। फलतः औरंगजेब के राज्यकाल में मुगल साम्राज्य का विस्तार हिमालय के निचले भूभागों से लेकर कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत में हो गया। किन्तु उसके समय घटित घटनाओं से यह भी स्पष्ट हो गया कि उसने अजगर की भाँति अपनी पाचनशक्ति से अधिक निगलने का प्रयास किया है। इसके अतिरिक्त उसने जानबूझकर धार्मिक उदारता की उस नीति के परित्याग का भी दुस्साहस किया, जिस पर अकबर का विशाल साम्राज्य आधारित था। इस प्रकार औरंगजेब ने भारतवर्ष को इस्लाम-प्रधान साम्राज्य का रूप देने का प्रयास किया, जिसके फलस्वरूप हिन्दुओं के विद्रोह हुए, जिनका सूत्रपात महाराष्ट्र में शिवाजी ने किया था और पंजाब में सिखों, बुन्देलखण्ड और राजपूताने के राजपूतों तथा जाटों में भी, जो अकबर के स्वामिभक्त समर्थक थे, विद्रोह की अग्नि भड़क उठी।

मुगल राजवंश : दूसरी ओर पुर्तगाल, हालैण्ड, इंग्लैण्ड और फ्रांस के व्यापारियों की उपस्थिति ने और भी कठिनाइयाँ उत्पन्न कीं, क्योंकि उनकी राजनीतिक अभिलाषाएँ, व्यापार सम्बन्धी गतिविधियों के आवरणमें ढकी हुई थीं और उनकी सामरिक सामग्री एवं संगठन तथा जहाजीशक्ति मृगलों की अपेक्षा कहीं श्रेष्ठतर थी। अन्ततः उत्तराधिकार के युद्ध जहाँगीर के राज्यकाल के अन्तिम वर्षों से मुगलवंश के शासन पर मर्मान्तक विपत्ति के रूप में बराबर घहराने लगे, जिनसे राजशक्ति में विशेष दूर्बलता आ गयी। परिणामस्वरूप अन्तिम तेरह मुगलशासक, जो उत्तराकालीन मुगल समाट् कहे जाते हैं, अयोग्य शासक सिद्ध हुए। अठारहवीं शताब्दी से क्रमशः उनकी राज्य सीमाएँ क्षीण होती गयीं। नादिरशाह दुर्रानी के १७३९ ई. वाले तथा अहमदशाह अब्दाली के १७५१ से १७६१ ई. तक होनेवाले आक्रमणों ने इस क्रम को विशेष गति प्रदान की।

बहादुरशाह प्रथम अथवा शाह आलम (१७०७-१२), जहाँदार शाह (१७१२-१३), फर्रुखशियर (१७१३-१९), रफीदुदर्जत (१७१९), रफीउद्दौलत (१७१९), इब्राहीम (१७१९), मुहम्मदशाह (१७१९-४८), अहमदशाह (१८४८-५४) आलमगीर द्वितीय (१७५४-५९),), शाहआलम द्वितीय (१७५९-१८०६), अकबर द्वितीय (१८०६-३७) और बहादूर शाह द्वितीय (१८३७-५८) उत्तर-कालीन मुगल सम्राट् माने जाते हैं। जिस मुगल वंश की प्रतिष्ठा बाबर द्वारा पानीपत के प्रथम युद्ध के उपरान्त हुई तथा जिसकी परिपुष्टि अकबर ने पानीपत के १५५६ ई. वाले युद्ध में की, उसे १७६१ ई. के तृतीय पानीपत युद्ध से भीषण आघात लगा, जिसमें अवध के नवाब शुजाउद्दौला की सहायता से अहमदशाह अब्दाली ने मुगल सम्राट् शाह आलम द्वितीय और उसके संरक्षक एवं सहायक मराठों को पराजित किया। इतने पर भी उसका क्षीणप्राय अस्तित्व अपनी शक्ति एवं प्रभुता के कारण नहीं, अपितु उसके संभाव्य उत्तराधिकारियों, स्वतंत्र हो जानेवाले मुस्लिम सूबेदारों, विद्रोही हिन्दू राज्यों और चतुर अंग्रेज व्यापारियों की पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता के कारण, किसी प्रकार बना रहा। अन्ततः अंग्रेजों ने अपने हिन्दू और मुसलमान प्रतिद्वद्न्वियों के आपसी ईर्ष्या-द्वेष एवं संघर्षों का अनुचित लाभ उठाकर मुगल वंश के स्थानपर अपना साम्राज्य स्थापित कर दिया। अन्तिम मुगल सम्राट् बहादुरशाह द्वितीय, जो प्रायः अपने राज्यकाल के प्रारम्भ से ही अंग्रेजों का एक प्रकार से पेंशन-प्राप्त शासक बन गया था, १८५८ ई. के तथाकथित सिपाही-विद्रोह में सहयोग देने के कारण सिंहासन से उतार कर रंगून भेज दिया गया और १८६२ ई. में वहीं उसकी मृत्यु हो गयी।

मुगल शासन-प्रणाली : मुगल राजवंश के तृतीय सम्राट् अकबर (१५५६-१६०५ ई.) ने इसका संगठन किया, क्योंकि उसके पिता हुमायूँ और पितामह बाबर को न इतना अवसर ही मिला और न उनमें इस कार्य हेतु पर्याप्त क्षमता ही थी। इस शासन-व्यवस्था का केन्द्रबिन्दु सम्राट् होता था, जिसकी शक्ति असीमित थी और उसका आदेश ही कानून था। सम्राट् ही राज्य की सर्वोच्च सत्ता, राज्य का प्रमुख, सेना का सर्वोच्च संचालक, न्याय का स्रोत और मुख्य कानून-निर्माता था। इन समस्त शक्तियों का सफलतातूर्वक संचालन करने हेतु सम्राट् के लिए यह आवश्यक था कि वह शारीरिक दृष्टि से बलवान और मानसिक दृष्टि से जागरूक हो। किन्तु मुगल शासन-व्यवस्था में, जो वंशानुक्रम की परंपरा पर आधारित थी, इस प्रकार के शक्तिशाली शासकों की अटूट परंपरा असंभव प्रायः थी। अतः छः पीढ़ियों तक शक्तिशाली सम्राटों की शासन-अवधि के उपरान्त मुगल शासनव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी।

मुगल सम्राटों के कई मंत्री होते थे, जिनमें से क्रमशः चार मुख्य थे। दीवान-माल और वित्त विभाग का प्रधान-मीर बख्शी; सैनिक विभाग का प्रधान-मीर सामान; कारखानों एवं भाण्डारों का अध्यक्ष तथा सदरुल सदर- धार्मिक और न्याय विभागों का अध्यक्ष। इन चार मंत्रियों के अतिरिक्त राज्य के कई अन्य मुख्य पदाधिकारी भी होते थे, जो व्यावहारिक रूप से मंत्रियों के पदों के समकक्ष थे; किन्तु इन मंत्रियों द्वारा किसी मंत्रिमंडल की संरचना नहीं होती थी तथा उनकी नियुक्ति एवं पदच्युति सम्राट् की इच्छा पर निर्भर रहती थी। साथ ही मुगल शासन-प्रणाली में ऐसी कोई सभा या समिति न थी, जो कानूनी तौर पर मुगल सम्राटों तक उसकी मुसलमान और हिन्दू प्रजा की भावनाओं को पहुँचा सके। इस प्रकार मुगल शासन-व्यवस्था में शासन के दोषों को दूर करनेवाली किसी ऐसी सुधारक संस्था का सर्वथा अभाव था, जैसी इंग्लैण्ड के तत्कालीन ट्यूडर और स्टुअर्ट राजाओं के काल में पार्लियामेण्ट के रूप में वर्तमान थी। ऐसी सुधारक संस्था के अभाव में मुगल शासन-व्यवस्था सम्राटों की स्वेच्छाचारिता पर तब तक चलती रही जब तक वे मानसिक रूप से अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहे। उपरान्त जब मुगल शासक दुर्बल हो गये, यह शासन-प्रणाली ऐसे महत्त्वाकांक्षी और अनैतिक मंत्रियों के हाथों का खिलौना बन गयी, जो अपनी स्वेच्छा से सम्राटों को स्थानापन्न एवं पदच्युत करते थे।

मुगल शासन-प्रणाली : मुगल शासन-प्रणाली नौकरशाही पद्धति पर आधारित थी, जिसमें नागरिक और सैनिक विभागों में कोई भेद नहीं था। सभी उच्चाधिकारी मनसबदारों की तैंतीस कोटियों में श्रेणीबद्ध थे, जो दस से लेकर दस हजार तक सैनिकों के नायक होते थे। इनमें से सभी को फौजदारी और दीवानी के अधिकार प्राप्त थे और प्रत्येक को नकद वेतन दिया जाता था। आगे चलकर उन्हें यह वेतन जागीर अथवा किसी भू-भाग की मालगुजारी वसूल करने के अधिकार के रूप में दिया जाने लगा। मनसबदारी प्रथा मुगल शासन-व्यवस्था की नींव थी और उसी के द्वारा कर्मचारियों के ओहदे और उनका वेतन निश्चित होता था। यह प्रथा कुछ-कुछ ब्रिटिश शासनकाल की इंडियन सिविल तथा मिलटरी सर्विस के अनुरूप थी। मौलिक अंतर केवल इतना ही था कि १८५३ ई. के उपरान्त इंडियन सिविल सर्विस के सदस्यों के समान इसके सदस्यों का चयन किसी सार्वजनिक परीक्षा के द्वारा नहीं होता था, वरन् अकबर सदृश उदार शासकों के काल में भी, इसमें मुख्यतः मुसलमानों और वह भी विदेशी मुसलमानों की भर्ती की जाती थी। इस प्रकार मुगलों की केंद्रीय शासन-व्यवस्था, जो मूलतः संचालित थी, कभी जनता का समर्थन प्राप्त न कर सकी।

मुगलों ने एक ऐसी प्रान्तीय शासन-व्यवस्था को विकसित किया, जो दिल्ली की सल्तनत-कालीन व्यवस्था से सुधरी हुई थी। अकबर ने अपने साम्राज्य का विभाजन १५ सूबों में किया था, जिनकी संख्या साम्राज्य विस्तार के साथ, जहाँगीर के राज्यकाल में १७ और औरंगजेब के शासनकाल में २१ हो गयी। प्रत्येक सूबे का पुनः कई सरकारों में विभाजन होता था, जो ब्रिटिशकालीन जिलों के समकक्ष थे। प्रत्येक सरकार का कई परगनों में उपविभाजन होता था; जिन्हें ग्रामों का समूह कहा जा सकता है। मुगलों की प्रांतीय शासन-व्यवस्था केन्द्र के ही अनुरूप थी। केवल एक महत्त्वपूर्ण अंतर था। प्रान्तीय शासन-व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकार, नाजिम या सिपहसालार अथवा सूबेदार में, जो शासन का अधिशासी था, तथा दीवान में जो प्रान्त के माल विभाग का अधिष्ठाता था, विभाजित रहता था। इनमें से दोनों की ही नियुक्ति सम्राट् द्वारा होती थी और दोनों उसी के प्रति उत्तरदायी थे। दोनों एक दूसरे की गतिविधि पर भी ध्यान रखते थे। फलतः प्रान्तों में विद्रोह यदि असंभव नहीं तो कठिन अवश्य था।

मुगल शासन-प्रणाली : दीवान के अतिरिक्त सूबेदार को बख्शी नामक पदाधिकारी से, जो सैनिकों का वेतन-वितरक होता था तथा न्यायकर्ता काजी और सदर से भी सहायता मिलती थी। प्रत्येक सरकार में एक फौजदार नियुक्त था, जो अपने क्षेत्र में शान्ति एवं मुख्यव्यवस्था बनाये रखने के अतिरिक्त फौजदारी के मुकदमों में न्याय करता था तथा पुलिस और स्थानीय सैनिक दस्ते का नायक भी होता था। प्रत्येक महत्त्वपूर्ण नगर में कोतवाल नामक एक अधिशासी नियुक्त रहता था। प्रत्येक प्रान्त में केन्द्रीय शासन द्वारा प्रत्यक्ष एवं गुप्त रूप से वाकयानबीस (सूचना-वाहक) नियुक्त थे, जिनका कार्य केन्द्रीय सरकार को प्रान्तों में होनेवाली सभी घटनाओं की सूचना देना था। केन्द्र में इन सूचनाओं पर ध्यानपूर्वक विचार होता था और वे नियमित रूप से सम्राट् के सम्मुख रखी जाती थी। इस व्यवस्था से प्रान्तीय शासकों की विद्रोही प्रवृत्तियों पर अतिरिक्त नियंत्रण रहता था।

मुगल सम्राटों की आय का मूलस्रोत भूमिकर था। आय के अन्य साधन सीमाकर, टकसाल, युद्धों में विजित सम्पत्ति तथा हर्जाने की राशि, भेंट-उपहार, एकाधिकार (मुगलराज्य सैनिक तथा अन्य उपभोग्य वस्तुओं का प्रमुख निर्माता था) और चुंगी के थे। पूरे उत्पादन का एक तिहाई भाग भूमिकर के रूप में निर्धारित था और कर संग्रह राज्य द्वारा नियुक्त वैतनिक अधिकारियों द्वारा प्रजा से सीधा वसूल किया जाता था।

भूमि का विभाजन उर्वराशक्ति के आधार पर चार श्रेणियों में किया गया था और प्रत्येक श्रेणी की सही-सही उपज का पता लगाने के लिए विशेष व्यवस्था की गयी थी। भूमिकर यद्यपि नकदी और उपज दोनों ही रूपों में लिया जाता था, किन्तु नकदी प्रथा को प्रोत्साहन प्राप्त था। उपज का नकदी मूल्यांकन पिछले ३ या १० वर्षों के प्रचलित मूल्यों के आधार पर सावधानी से किया जाता था। इस पर भी सम्पूर्ण राज्य में समान व्यवस्था प्रचलित न थी। सिन्ध के निचले काँठे और कश्मीर सदृश भू भागों में राज्य का अंश खड़ी फ़सल के वास्तविक विभाजन के उपरान्त निर्धारित किया जाता था। मुलतान से लेकर बिहार तक के विस्तृत भू-भागों में एक अन्य विशिष्ट प्रथा प्रचलित थी, जिसके अन्तर्गत भूमि के सर्वेक्षण और समान स्तर के मानदण्ड से पैमायश तथा उपज के अनुसार श्रेणी-निर्धारण एवं औसत उपज और उसके आधार पर एक तिहाई अंश के नकद मूल्य का निर्धारण होता था, किन्तु बंगाल में कानूनगो नामक राजस्व अधिकारियों की रिपोर्ट के आधार पर राज्य का अंश निर्धारित होता था।

मुगल शासन-प्रणाली : मुगल सेना के मुख्य अंग अश्वारोही, पदाति, तोपखाना और जहाजी बेड़ा थे। इन चारों अंगों में अश्वारोही दल सबसे महत्त्वपूर्ण था। पैदल सेना, जिसमें नगरों एवं गाँवों से यथा अवसर भर्ती की जाती थी, प्रायः नगण्य थी। तोपखाना भारत में बनी अथवा विदेशों से आयात की गयी तोपों से सुसज्जित था। यद्यपि मुगल तोपखाना तत्कालीन हिन्दू राज्यों के तोपखानों से श्रेष्ठ था, तथापि वह यूरोपीय शक्तियों से निम्न स्तर का था। उसकी तोपें न तो उतनी दूर तक मार कर सकती थीं और न उसके गोले निशाने पर उतने सही गिरते थे। मुगलों की जल-सेना में बड़ी और छोटी नावें थी, जो नदियों के यातायात का संरक्षण करती थीं। वे समुद्रों की यात्राओं के हेतु नितान्त अनुपयुक्त थीं। वस्तुतः अकबर और औरंगजेब सहित समस्त मुगलशासकों ने व्यापार तथा आक्रमण के विचार से समुद्री मार्ग के महत्त्व को कभी नहीं समझा और इसी कारण उन्होंने एक ऐसी विशाल जल-सेना का निर्माण नहीं किया, जो यूरोपीय शक्तियों से समुद्रों में लोहा ले सके और उन्हें भारत भूमि पर उतरने से रोके।

मुगल शासक जल-सेना के लिए एक यूरोपीय जाति के मुकाबले में दूसरी जाति की सहायता पर निर्भर रहे और इस प्रकार अंततोगत्वा स्वयं उनके शिकार बन गये। इसी प्रकार मनसबदारी प्रथा में भी, जिस पर मुगल सैन्य शक्ति संगठित थी, झूठे आँकड़े भरे जाने लगे और उनमें नियमित प्रशिक्षण एवं अनुशासन का अभाव हो गया। इसके अतिरिक्त युद्ध के लिए प्रयाण करते समय तथा युद्धभूमि में मुगल सेना के साथ इतना अधिक लाव-लश्कर रहता था कि औरंगजेब के काल में ही वह द्रुतगामी और हलके शस्त्रास्त्र से सज्जित मराठा सेनाओं का मुकाबला नहीं कर पाती थी। १७३९ ई. में नादिरशाह दुर्रानी द्वारा और उपरान्त अहमदशाह अब्दाली द्वारा उसे बारम्बार पराजय उठानी पड़ी और अन्ततः उसका दुःखद पराभव हुआ।

मुगल शासन-प्रणाली : अन्त में यह बताना उचित है कि मुगल सैनिक शक्ति और क्षमता में इस कारण भी ह्रास हुआ कि उसने अपनी विजयों से मिलनेवाली शिक्षाओं की पूर्ण अवहेलना की। शस्त्रास्त्रों की श्रेष्ठता ने ही बाबर को पानीपत और खनुआ में तथा अकबर को हल्दीघाटी के युद्धों में विजय दिलायी थी, किन्तु १८ वीं शताब्दी में यह सैनिक श्रेष्ठता अंग्रेजों के हाथों चली गयी, जिनके हथियारों और सैन्य-संघठन की शक्ति के समझ कोई भी भारतीय सेना नहीं ठहर पाती थी। इस प्रकार मुगल सैनिक-व्यवस्था की विफलता एक ऐसा दृष्टान्त प्रस्तुत करती है जिसकी अवहेलना भारतीय गणतंत्र की सरकार को अपनी सुरक्षा की दृष्टि से कभी नहीं करनी चाहिए। राज्य का अस्तित्व तभी संभव है, जब वह अपने शस्त्रास्त्र और सैन्य सामग्री का समयानुकूल आधुनिकीकरण करता रहे।

मुजफ्फर जंग : निजामुल-मुल्क चिन-किलिच खाँ का दौहित्र (नवाषा)। निजाम की मृत्यु के उपरान्त १७४८ ई. में वह अपने मामा नासिरजंग के स्थान पर हैदराबाद की गद्दी का दावेदार बना। उसने डूपले के अधीन फ्रांसीसियों का समर्थन प्राप्त किया तथा उसे चन्दा साहब सदृश मित्र भी मिला, जो अर्काट की गद्दी का दावेदार था। प्रारम्भ में युद्ध का परिणाम उसके विपरीत रहा, परन्तु १७५० ई. में नासिरजंग की हत्या कर दी गयी और फ्रांसीसियों की सहायता से मुजफ्फर जंग को निजामत मिल गयी, जिसके बदले उन्हें विशेष सुविधाएँ प्रदान की गयीं। किन्तु १७५१ ई. में हुई एक आकस्मिक मुठभेड़ में मुजफ्फर जंग भी मारा गया और हैदराबाद की गद्दी उसके तीसरे मामा सलावत जंग के अधिकार में आ गयी।

मुज्जहिद होने की घोषणा : (धार्मिक विषयों में भी विवेकपूर्ण निर्णयकर्ता होने की घोषणा) बादशाह अकबर द्वारा १५७९ ई. में की गयी। एक व्यवस्था-पत्र के द्वारा अल्लाह की शान और इसलाम के प्रचार के लिए बादशाह को इसलाम धर्म से सम्बन्धित किसी भी विवाद में अन्तिम निर्णयकर्ता घोषित कर दिया गया। इस व्यवस्था-पत्र के द्वारा मुगल बादशाह को मुज्जहिद बना दिया गया और उसकी शक्ति बहुत अधिक बढ़ गयी।

मुजाहिद : बहमनी वंश का तृतीय सुल्तान। वह अत्यधिक मदिरा पान करता था, फलतः उसका चचेरा भाई दाऊद उसका वध करके सिंहासन पर बैठ गया। दाऊद भी अपने सिंहासनारोहण से एक वर्ष के भीतर ही एक गुलाम द्वारा मार डाला गया।

मुडीमैन कमेटी : भारत सरकार द्वारा १९२४ ई. में नियुक्त की गयी। उसका सरकारी नाम सुधार जाँच कमेटी था किन्तु सामान्य रूप से वह अपने अध्यक्ष सर अलेक्जेण्डर मुडीमैन के नाम पर मुडीमैन कमेटी कही जाती थी। मुडीमैन उस काल में भारत सरकार का गृह सदस्य था। कमेटी के सदस्यों में सर तेज बहादुर सप्रू जैसे प्रमुख गैर सरकारी व्यक्ति भी थे। उसका कार्य १९१९ के गवर्नमेण्‍ट आफ इंडिया एक्‍ट के अनुसार १९२१ ई. में जो संविधान सुधार प्रचलित किया गया था उसके दोषों की जाँच करना था। कमेटी ने दिसम्बर १९२४ ई. में रिपोर्ट प्रस्तुत की। सदस्यों ने दो प्रकार की राय व्यक्त की थी। बहुमत से ऐक्ट में केवल मामूली परिवर्तन करने की सिफारिश की गयी थी। परन्तु अल्पसंख्क गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों ने द्वैध शासन (दे.) की अपरोक्ष रीति से निन्दा करते हुए ऐक्ट में आधारभूत परिवर्तन करने की सिफारिश की थी। इन सिफारिशों पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी।

मुतब्बर खाँ : औरंगजेब के राज्यकाल के अन्तिम वर्षों में उसकी सेना का एक पदाधिकारी। उसने नासिक जिले में मराठों के कई पहाड़ी दुर्गों पर अधिकार करने में विशेष योग्यता दिखलायी और फिर कोंकण की ओर बढ़कर कल्याण आदि कई स्थलों पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार वह पश्चिमी समुद्र-तटीय प्रदेशों को मुगल शासन के अधीन कराने में सफल हुआ। मुतब्बर खाँ कल्याण में कई वर्षों तक रहा और उक्त नगर में कई सुन्दर इमारतें बनवायीं।

मुदकी की लड़ाई : १८४५ ई. में अंग्रेजों और सिखों के बीच हुई। इसमें सिखों की हार हुई।

मुदगल : कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के दोआब में स्थित पर कोटे से घिरा एक नगर। इसके लिए बहमनी (दे.) और विजयनगर साम्राज्यों (दे.) के बीच बराबर लड़ाई होती रहती थी और वह किसी एक राज्य के अधीन हो जाता था और कभी दूसरे राज्य के अधीन। अन्त में विजयनगर के राजा अच्युत राय (दे.) (१५२९-४२ ई.) से इसे बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिलशाह (दे.) (१५१०-३४ ई.) ने अन्तिम रूप से छीन लिया।

मुद्रा प्रणाली : भारत में इसका इतिहास बहुत पुराना है। सबसे पुराने भारतीय सिक्के चाँदी या ताँबे के हुआ करते थे। इनका आकार सामान्यतः चौकोर या आयत होता था। ऐसे सिक्के ईसापूर्व कम से कम चौथी शताब्दी के हैं जिनका प्रचलन कई शताब्दियों बाद तक बना रहा। ईसापूर्व दूसरी शती से भारतीय सिक्कों पर यूनानी प्रभाव पड़ने लगा और उनमें तदनुरूप कुछ सुधार किया गया। भारतीय-वाख्त्री नरेशों ने अधिक सुन्दर सिक्के जारी किये जिन पर ग्रीक और प्राकृत भाषाओं में लेख अंकित थे। ईसा बाद प्रथम शताब्दी से कुषाण राजाओं (दे.) ने सोने और ताँबे के सिक्के जारी किये, जिनके एक पार्श्व पर बलि चढ़ाते हुए एक राजा की छवि अंकित होती थी और दूसरे पार्श्व पर तत्कालीन सभी धर्मों के देवी-देवताओं की आकृति। इस प्रकार के सिक्के बाद की कई शताब्दियों तक उत्तरी भारत में प्रचलित रहे। गुप्त सम्राटों ने चौथी ई. में सुधरी हुई किस्म के सिक्के भारी संख्या में जारी किये, उनके ऊपर संस्कृत भाषा के लेख के साथ-साथ सिक्‍का चलानेवाले राजा का नाम और उसकी विभिन्न भाव मुद्राएँ अंकित होती थीं। उदाहरण के लिए समुद्रगुप्त के जो सोने के सिक्के मिले हैं, उनमें उसे पर्यंक पर बैठकर वीणा बजाते हुए अथवा अश्वमेध करते हुए चित्रित किया गया है। पश्चिमी क्षत्रपों ने चाँदी के सिक्के चलाये, जिन पर नाम सहित उनकी आवक्ष प्रतिमा अंकित होती थी।

छठीं शताब्दी में हूणों के आक्रमण के परिणामस्वरूप सिक्कों में ह्रास हुआ। किन्तु दसवीं शताब्दी में गांधार के शाही शासकों ने फिर शुद्ध चाँदी के सिक्का ढालने शुरू कर दिये। इन्हीं सिक्कों की नकल बाद को भारत के तुर्क विजेताओं ने की। दिल्ली के सुल्तानों ने अपने समय में विभिन्न प्रकार के सिक्के जारी किये। इनमें १७८ ग्रेन वाले सोने और चाँदी के टंक (रुपये) मुख्य थे। ये आकार में बड़े और मोटे थे जिनके एक तरफ 'कलमा' और दूसरी तरफ सिक्का प्रचलित करनेवाले बादशाह व सिक्का ढालनेवाली टंकसाल का नाम और तिथि अंकित रहती थी। मुहम्मद तुगलक ने वित्तीय संकट पर विजय पाने के उद्देश्य से स्वर्ण मुद्राओं के स्थान पर ताँबे के सिक्के प्रचलित किये। यह प्रयोग विफल रहा और भारत में किसी अन्‍य मुस्लिम शासक ने इस प्रकार की प्रतीक मुद्रा का प्रचलन नहीं किया। किन्तु सिक्कों का गुण-स्तर शेरशाह के समय तक गिरता गया। शेरशाह ने सोने और चाँदी के टंक (अथवा रुपया) जारी करके मुद्रा प्रणाली को फिर स्थिरता प्रदान की। शेरशाह ने चाँदी के रुपये और ताँबे के सिक्के के बीच १: ६४ का अनुपात निर्धारित किया। चाँदी का यह सिक्का एक महत्तवपूर्ण परिवर्तन के साथ सम्पूर्ण मुगल शासनकाल में भारतीय मुद्राप्रणाली का मानदण्ड माना जाता रहा। औरंगजेब (दे.) ने 'कलमा' के स्थान पर टंकशाला का नाम और मुद्रा जारी करने की तिथि अंकित की। औरंगजेब के उत्तराधिकारियों ने भी इसी प्रथा का अनुगमन किया।

मुद्रा प्रणाली : सिक्कों के मामले में अंग्रेजों ने भी १८३५ ई. तक मुगलों की परम्परा का ही पालन किया। सिर्फ शाहआलम द्वितीय के शासन के उन्नीसवें वर्ष में ही उन्होंने एक नया सिक्‍का जारी किया। इस सिक्के पर पुराने लेखों को हटाकर अंग्रेज सम्राट् का चित्र अंकित किया गया। आगे चलकर विभिन्न मूल्यों के चाँदी और ताँबे के सिक्के जारी किये गये और जालसाजी रोकने के लिए पर्याप्त उपाय किये गये। प्रथम विश्वयुद्ध के काल में सोने के सिक्कों का प्रचलन बन्द करना पड़ा और दूसरे विश्वयुद्ध में चाँदी के रुपये तथा अन्य छोटे सिक्कों में चाँदी की मात्रा कम कर दी गयी। चाँदी के रुपये के स्थान पर एक रुपये का प्रतीक रूप कागजी नोट चलाया गया जो वैध मुद्रा बन गया। भारत जबसे आजाद हुआ है, वह बराबर नये सिक्के जारी करता रहा है। ये सिक्के न तो सोने-चाँदी के हैं और न ताँबे के। एक रुपये से नीचे एक पैसे तक ये सिक्के मिश्रित धातु के हैं। दशमिक प्रणाली के अनुसार एक रुपया और एक पैसे का अनुपात १:१०० निर्धारित किया गया। इन सिक्कों पर स्वतन्त्र भारत के नये पद के अनुरूप नये राजचिह्न उत्कीर्ण किये गये। स्वतन्त्र भारत ने एक रुपये और उससे ऊपर के विभिन्न मूल्यों के कागजी नोट छापने की परम्परा भी जारी रखी। (ए. कनिंघम कृत क्वायंस आफ एंशियेंट इंडिया, क्वायंस आफ मेडीवल इंडिया; बी. ए. स्मिथ कृत कैटेलाग आफ इंडियन क्वायंस; जे. एलन कृत क्वायंस आफ दि गुप्ताज)

मुद्राराक्षस : एक संस्कृत नाटक, जिसकी रचना विशाखदत्त ने की। विशाखदत्त का सही-सही काल ज्ञात नहीं है, किन्तु यह माना जाता है कि वह गुप्तकाल के उत्तरार्ध में हुआ। इस नाटक में चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा आर्य चाणक्य की सहायता से अन्तिम नन्द राजा से मगध का राजसिंहासन छीन लिए जाने की ऐतिहासिक घटना का उल्लेख है।

मुनीम खाँ : हुमायूँ का वीर और साहसी पदाधिकारी, जो अकबर के प्रारंभिक शासन-काल में काबुल में ऊँचे पद पर आसीन था। बैरम खाँ के पतन के उपरान्त उसे ख़ानख़ाना पद पर नियुक्त किया गया। मुनीम खाँ ने बंगाल में १५७३ ई. के मुगल सैनिक अभियान का संचालन किया और वहाँ के अफ़गान शासक दाऊद (दे.) को १५७५ ई. में पराजित कर अपनी अधीनता स्वीकार करने पर विवश किया। किन्तु कुछ ही समय उपरान्त बीमारी के कारण उसकी मृत्यु हो गयी।

मुनीम खाँ : सुलतान बेग का पुत्र और तत्कालीन अफ़गानिस्तान सूबे के प्रान्तीय शासक शाहज़ादा मुअज्जम का राजस्व मंत्री। १७०७ ई. में अपने पिता औरंगजेब की मृत्यु के समय शाहजादा मुअज्जम जमरूद में था। मुनीम खाँ ने बड़ी ही तत्परता से शाहज़ादा मुअज्जम को यथेष्ट धनराशि दी और यातायात के साधनों तथा सैन्यबल संग्रहीत करने में सहायता पहुँचायी। इससे वह जमरूद से शीघ्र ही आगरा आने में समर्थ हुआ और अपने आपको बहादुरशाह के नाम से सम्राट् घोषित कर दिया। उपरान्त मुनीम खाँ ने कामबख्श (दे.) को पराजित किया जो युद्धक्षेत्र में ही मारा गया, १७१० ई. में बन्दा बहादुर तथा विद्रोही सिखों को पराजित करने में बड़ा हाथ रहा। यद्यपि बहादुरशाह मुनीम खाँ का विशेष रूप से कृतज्ञ था, तथापि उसको प्रधानमंत्री का पद न मिला और उसे राजस्वमंत्री के पद से ही संतोष करना पड़ा।

मुन्नी बेगम : बंगाल के नवाब मीर ज़ाफर की विधवा। प्रारंभ में वह एक नर्तकी थी, जिससे मीर ज़ाफर ने विवाह कर लिया। वारेन हेस्टिंग्स ने उसे नवाब के हरम की अधिष्ठाता नियुक्त किया और बाद में उसे अल्पवयस्क नवाब मुबारकुद्दौला का अभिभावक बना दिया। १७७५ ई. में नंदकुमार ने वारेन हेस्टिंग्स पर यह दोषारोपण किया कि उसने इन नियुक्तियों के बदले लम्बी धनराशि घूस के रूप में ली है। किन्तु इन अभियोगों की कोई जाँच न हुई और मुन्नी बेगम अपने पद पर यथापूर्व बनी रही।

मुबारक शाह : दिल्ली का निवासी एक आर्मीनियाई ईसाई। बादशाह जहाँगीर उससे परिचित था। बादशाह के कहने से उसने अपनी लड़की का विवाह कैप्टेन हाकिन्स (दे.) से कर दिया था।

मुबारकशाह शर्की : जौनपुर का पहला सुल्तान। उसने केवल तीन वर्ष (१३९९-१४०२ ई.) तक शासन किया।

मुबारक शेख : देखिये, 'शेख मुबारक'।

मुबारुकुद्दौला  : बंगाल का एक नाबालिग नवाब। १७७५ ई. में नंदकुमार (दे.) ने आरोप लगाया कि वारेन हेस्टिंग्स ने मुन्नी बेगम को नाबालिग नवाब का अभिभावक नियुक्त करने के लिए उससे घूस के रूप में बड़ी रकम ली है। इस आरोप की कभी पूरी तरह से जाँच नहीं की गयी।

मुमताज महल : नूरजहाँ के भाई आसफ़ खाँ की पुत्री, जो जहाँगीर के शासनकाल में सबसे धनवान् और शक्तिशाली सरदार था। उसका प्रारम्भिक नाम बानू बेगम था और १६१२ ई. में जहाँगीर के पुत्र खुर्रम (उपरांत सम्राट् शाहजहाँ) से विवाह हुआ और उसका नाम मुमताज महल (रनिवास का रत्न) रखा गया। यह विवाह सम्बन्ध अत्यन्त सुखद रहा। शाहजहाँ और मुमताज के १४ बच्चे हुए, जिनमें दारा, शुजा, औरंगेब और मुराद-चार पुत्र थे। १६३१ ई. में मुमताज महल की मृत्यु प्रसवकाल में बुरहानपुर में हो गयी। उसका शव आगरा लाया गया, जहाँ शाहजहाँ ने उसकी कब्र पर ताजमहल (दे.) नामक विश्वविख्यात अद्वितीय स्मारक बनवाया।

मुराद बख्श : शाहजहाँ और मुमताज महल का सबसे छोटा पुत्र। जन्म १६२४ ई. में हुआ। युवावस्था प्राप्त होने पर वह वीर साहसी एवं युद्धप्रिय नवयुवक सिद्ध हुआ। उसने काँगड़ा घाटी में एक विद्रोह को दबाया और बलख पर अधिकार कर लिया, यद्यपि बाद में उसे वहाँ से लौट आना पड़ा। १६५७ ई. में जब शाहजहाँ अस्वस्थ हुआ, मुराद गुजरात का प्रान्तीय शासक था। वह दुस्साहसी और अधीर था। अपने सबसे बड़े भाई दारा को उत्तराधिकार से वंचित रखने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ होकर उसने सूरत को लूटा और अपने को सम्राट् घोषित कर दिया तथा अपने नाम से सिक्के भी ढलवाये। किन्तु शीघ्र ही बड़े भाई औरंगजेब के समझाने पर उसने इस आधार पर उसका साथ दिया कि साम्राज्य का विभाजन औरंगजेब और उसके मध्य होगा। फलतः उसने अपनी सेनाओं को औरंगजेब की सेनाओं में सम्मिलित कर दिया और धर्मट तथा सामूगढ़ के युद्धों में प्राप्त होनेवाली विजयों में यश का भागीदार बना। अंतिम युद्ध के उपरांत शीघ्र ही दोनों भाई आगरा की ओर बढ़े। वहाँ मुराद को औरंगजेब के वचनों से शंका उत्पन्न हुई जिससे वह औरंगजेब के विरुद्ध अपनी शक्तिवृद्धि में प्रयत्नशील हुआ। किन्तु धूर्त औरंगजेब ने मुराद को अपने डेरे में बुलाया और वहीं बन्दी बना लिया। वह ग्वालियर के दुर्ग में रखा गया, जहाँ गुजरात के भूतपूर्व दीवान की हत्या के अभियोग में अदालत के निर्णयानुसार उसे फाँसी दे दी गयी।

मुराद, शाहजादा : अकबर का सलीमा बेगम से १७५७ ई. में उत्पन्न द्वितीय पुत्र। वह काबुल तथा दक्षिण में कई महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन हुआ तथा दक्षिण में अहमदनगर सल्तनत से बरार प्रान्त को प्राप्त करने में सफल रहा। मुराद अत्यधिक मदिरा पीता था, फलस्वरूप १५९९ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

मुरारि राव : दक्खिन की ओर स्थित गूटी का एक मराठा सरदार। उसने चाँदा साहब के विरुद्ध पहले कर्नाटक-युद्ध (दे.) में अंग्रेजों तथा क्लाइव की सहायता की। १७५२ ई. में त्रिचनापल्ली का घेरा खत्म करवाने में तथा उसी वर्ष चाँदा साहब को हराने में वह क्लाइव का दाहिना हाथ बना रहा।

मुर्तजा अली : कर्नाटक का नवाब। १७४३ ई. में निजाम आसफजाह ने उसे गद्दी से उतार कर अनवरुद्दीन को कर्नाटक के सिंहासन पर बैठा दिया।

मुर्तजा निजाम शाह, प्रथम : अहमदनगर के निजामशाही वंश का चौथा सुल्तान, जिसने १५६५ से १५८६ ई. तक राज्य किया। अपने राज्यकाल के प्रथम ६ वर्षों में उसने सारा शासन-प्रबन्ध अपनी माता के हाथों में छोड़ रखा। बाद में उसने यथेष्ट सक्रियता दिखालायी और बरार को विजय कर लिया, किन्तु बीदर पर अधिकार करने में वह असफल रहा। उपरांत वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठा और उसके पुत्र हुसैन ने, जो उसके बाद सिंहासनासीन हुआ, उसका वध कर दिया।

मुर्तजा निजाम शाह द्वितीय : अहमदनगर का दसवाँ सुल्‍तान। उसने १६०३ से १६३० ई. तक शासन किया। शासन प्रबंध में मलिक अम्बर (दे.) उसका प्रधान सहायक था। उसके राज्य का अधिकांश भू-भाग मुगलों ने छीन लिया, जिनके साथ उसका युद्ध बराबर चलता रहा। १६३० ई. में उसके मन्त्री फतेह खाँ (दे.) ने उसका वध कर दिया। फतेह खाँ अम्बर का पुत्र था और १६२६ ई. में अपने पिता के मरने पर उसके पद पर आरूढ़ हुआ था।

मुर्शिद कुली खाँ : रुस्तमे जंग की उपाधि से विभूषित, मुर्शिद कुली जाफर खाँ (दे.) के दामाद एवं उत्तराधिकारी नवाब शुजाउद्दीन का उड़ीसा में नायब। १७४० ई. में जब अलीवर्दी खाँ ने मुर्शिद कुली जाफर खाँ के वंशजों को मार कर उनसे बंगाल की गद्दी छीन ली, तब भी वह उड़ीसा में पदासीन रहा। १७४१ ई. में अलीवर्दी खाँ ने उसे पराजित कर उड़ीसा से खदेड़ दिया।

मुर्शिद कुली जाफर खाँ : फारस का निवासी, जो मुगलों की सेवा में आने पर दीवान बनाकर औरंगजेब के साथ दक्षिण भेजा गया। १६५६ ई. में उसकी पदोन्नति समस्त दक्षिण के दीवान के रूप में हुई। इस पद पर रह कर उसने यथासंभव एक ही प्रकार के मापदंड द्वारा भूमि की पैमाइश, अनुमानित उपज पर कर-निर्धारण एवं भूमिकर की नकद या उपज के रूप में वसूली आदि सिद्धांतों के आधार पर दक्षिण में राजस्व-संग्रह तथा भूमि-व्यवस्था को सुनियोजित किया। राजस्व नकदी में देना ही श्रेष्ठ माना गया।

दक्षिण में उसे इतनी सफलता प्राप्त हुई कि १७०१ ई. में बंगाल का दीवान नियुक्त किया गया। वहाँ भी उसने प्रांत के वित्तीय विभाग को इतने सुचारु रूप से संचालित किया कि उसे बेदार की अधीनता से स्वतंत्र कर दिया गया और प्रांतीय राजधानी ढाका से समस्त राजस्व संबंधी कार्यालयों को यही स्थान पर ले जाने की अनुमति दे दी गयी। यही स्थान आगे मुर्शिदाबाद कहलाया। औरंगजेब की मृत्यु के उपरांत वह बंगाल, बिहार और उड़ीसा का सूबेदार नियुक्त किया गया। इन भू-भागों पर १७२६ ई. में मृत्युपर्यन्त वह सुचारु रूप से शासन करता रहा।

मुर्शिदाबाद : बंगाल में भागीरथी नदी के तट पर स्थित नगर। इसकी नींव १७०४ ई. के प्रारंभ में मुर्शिद कुली जाफर खाँ ने डाली। प्रारंभ में यह नगर केवल दीवान का मुख्य कार्यालय था। किन्तु जब मुर्शिद कुली खाँ क्रमशः पदोन्नति करके दीवान से बंगाल का नवाब बन गया, तब मुर्शिदाबाद भी उन्नति करके बंगाल की राजधानी बन गया। यह नगर १७७३ ई. तक बंगाल की राजधानी रहा, जब उसका यह गौरव कलकत्ता ने छीन लिया। नगर में नवाब का महल अत्यंत भव्य है। यह हजार दुआरी के नाम से विख्यात है। इसका नर्माण १८३७-४० ई. के मध्य हुआ। जहाँ पद्मा नदी मुर्शिदाबाद जिले और बंगला देश की सीमाओं को विभक्त करती है, वहाँ भागीरथी नदी ने इस जिले को दो भागों में बाँट दिया है। पश्चिमी भाग राढ़ कहलाता है, जो कुछ ऊँचाई पर है और जहाँ हिन्दुओं की जनसंख्या अधिक है। इसका पूर्वी भाग बगड़ी कहलाता है, जिसकी भूमि नीची है और जहाँ मुसलमानों की संख्या अधिक है। यहाँ कोई बड़े-बड़े उद्योग धंधे तो नहीं हैं, किन्तु यहाँ के आम के बाग प्रसिद्ध हैं।

मुलतान : आधुनिक पाकिस्तान में चिनाव नदी के तटपर स्थित पश्चिमी पंजाब का एक महत्त्वपूर्ण नगर। यह सिन्ध से पंजाब जानेवाले राजमार्ग पर है। सैनिक दृष्टि से इसकी स्थिति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सुल्तान महमूद (गजनी) (दे.) ने उसे जीत कर अपने राज में मिला लिया था। उपरान्त उसे शहाबुद्दीन गोरी (दे.) ने गजनवियों से छीन लिया, जो शताब्दियों तक दिल्ली साम्राज्य का एक भाग रहा। अहमदशाह अब्दाली (दे.) ने उसे अफगानों से छीन लिया। उस प्रदेश के सिख सूबेदार मूलराज ने १८४८-४९ ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, जो अन्त में द्वितीय सिख-युद्ध (दे.) में परिणत हो गया। इसमें अंग्रेजों की विजय हुई और मुलतान ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।

मुस्लिम लीग : ढाका के नवाब सलीमउल्ला के प्रयास से १९०६ ई. में स्थापना हुई। इसकी योजना उस प्रोत्साहन के आधार पर हुई थी, जो लार्ड मिण्टो द्वितीय की सरकार द्वारा मुसलमानों को दिया गया था। प्रारम्‍भ से ही इस संस्था का ध्येय भारतीय मुसलमानों के राजनीतिक हितों की रक्षा, समर्थन और परिवर्द्धन था और यह ब्रिटिश सरकार के समर्थन पर सदैव आधारित रही; क्योंकि सरकार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिकार करने के लिए, जिसमें हिनदुओं की संख्या अधिक थी, इसे उपयोगी समझती थी। मुस्लिम लीग ने केवल एक बार १९१६ ई. में लखनऊ समझौते के आधार पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन करने के अतिरिक्त कभी भारतीयों के राजनीतिक अधिकारों की माँग नहीं की। किन्तु दोनों का यह सहयोग शीघ्र ही समाप्त हो गया और मुस्लिम लीग पुनः मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए ब्रिटिश सरकार की सहायता और समर्थन पर निर्भर करने लगी। इस संस्था की मुख्य दलील थी कि स्वतन्त्र भारत की जनता द्वारा चुनी गयी जनतान्त्रिक व्यवस्था में मुसलमान, हिन्दू बहुमत द्वारा शासित होंगे। अतएव देश के अतीत काल के इतिहास की शिक्षाओं को भुलाकर तथा इस सत्य की उपेक्षा कर कि भारत में ब्रिटिश राज्य हिन्दुओं के मुसलमानी शासन के विरोधस्वरूप नहीं, अपितु मुसलमानों की सहायता से स्थापित हुआ, मुस्लिम लीग ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ दिया, जबकि कांग्रेस सभी भारतीय हिन्दुओं और मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों का समर्थन करती थी।

समय की गति के साथ इस शताब्दी के तीसरे दशक तक, जब ब्रिटिश राज्य की सत्ता में कुछ दुर्बलता के लक्षण प्रकट होने लगे थे, मुस्लिम लीग में इतनी हिन्दू-विरोधी भावना भर गयी कि उसने नारा लगाना आरम्भ कर दिया कि देश को विभाजन करके मुस्लिम-बहुल भाग में पाकिस्तान और हिन्दू-बहुल भाग में हिन्दुस्तान की स्थापना की जानी चाहिए। यह अल्पदृष्टि-युक्ति एवं पूर्णतः साम्प्रदायिक माँग अंग्रजों के द्वारा स्वीकार कर ली गयी, और उन्होंने भारत छोड़ते समय देश का विभाजन करके सम्प्रदायवादी भारतीय मुसलमानों को पाकिस्तान प्रदान कर दिया। देश के इस विभाजन से हिन्दू और मुसलमान दोनों को अत्यधिक कष्ट सहन करना पड़ा और भयंकर रक्तपात हुआ। इस प्रकार विभाजित और दुर्बल भारत देशवासियों को मुस्लिम लीग की देन है।

मुहम्मद अली : कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन (दे.) का पुत्र। १७४९ ई. में आम्बूर के युद्ध में चन्दा साहब, मुजफ्फर जंग और फ्रांसीसियों की सम्मिलित सेनाओं ने जब उसके पिता को पराजित किया तो उसने भागकर त्रिचनापल्ली के दुर्ग में शरण ली। वहाँ से अंग्रेजों की सहायता के बल पर उसने अपने शत्रुओं को पराजित किया और १७५२ ई. में वह कर्नाटक का वास्तविक शासक बन बैठा। उसकी सत्ता पूर्णतया मद्रास ने स्थित अंग्रेजी सेना के समर्थन पर निर्भर थी और अपनी मृत्युपर्यन्त वह कर्नाटक में अंग्रेजों के कठपुतली शासक के रूप में राज्य करता रहा।

मुहम्मद अली, मौलाना : प्रसिद्ध मुसलमान विद्वान और नेता। उन्होंने कुरान का सबसे प्रामाणिक अनुवाद किया। अपने भाई शौकत अली के साथ मिलकर मौलाना ने प्रथम महायुद्ध के समाप्त होने के बाद भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के नेता थे। यह आन्दोलन प्रथम महायुद्ध के बाद अंग्रेजों की तुर्की साम्राज्य को भंग कर देने की नीति के विरोध में चलाया गया था। उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा संचालित असहयोग आन्दोलन (१९२०-२४ ई.) में भी हिस्सा लिया। १९२३ ई. में उनको भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन जब महात्मा गाँधी ने १९३० ई. में दुबारा असहयोग आन्दोलन शुरू किया तो वे उससे अलग हो गये। मुत्युपर्यन्त वे राष्ट्रीयतादी मुसलमान नेता बने रहे।

मुहम्मद आदिलशाह (१६२६-५६) : बीजापुर के आदिलशाही वंश का सातवाँ सुल्तान। उसका दीर्घकालीन शासन, मराठों तथा मुगलों के निरन्तर आक्रमणों के लिए उल्लेखनीय है। उसे १६३६ ई. में शाहजहाँ की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। उसका राज्य दक्षि‍ण-भारत में आसमुद्र विस्तृत था और अत्‍यंत शक्तिशाली एवं वैभवपूर्ण था।

मुहम्मद आदिलशाह सूर : शेरशाह (दे.) का भतीजा और सूर वंश का तृतीय शासक। उसने दिल्ली में केवल दो वर्षों तक (१५५४-५६ ई.) शासन किया और १५५६ ई. में मुंगेर के युद्ध में मारा गया। वह हेमू (दे.) का आश्रयदाता था और शासन का सारा भार उसके हाथों में सौंप दिया था।

मुहम्मद कुतुब : गोलकुण्डा के पाँचवें सुल्तान मुहम्मद कुली का भतीजा और दामाद। १६२१ ई. में सुल्तान की मृत्यु के उपरान्त वह शासक हुआ और १६२६ ई. तक अपनी मृत्युपर्यन्त शासन करता रहा।

मुहम्मद कुली : गोलकुण्डा के कुतुबशाही वंश का पाँचवाँ शासक। १५८० ई. से १६१२ ई. तक वह राज्य करता रहा। उसकी अधिकांश शक्ति का अपव्यय कर्नाटक, उड़ीसा और बस्तर के भू-भागों पर अधिकार करने में हुआ। उसने मुगल साम्राज्य का विस्तार रोकने के लए दक्षिणी राज्यों का संघ बनाने की बात नहीं सोची। हयात बख्श बेगम नामक उसकी एक पुत्री थी, जिसका विवाह उसके भतीजे तथा उत्तराधिकारी मुहम्मद कुतुब (दे.) के साथ हुआ था।

मुहम्मद खिलजी : (बख्तियार खिलजी का पुत्र) देखिये, इख्तियारुद्दीन खिलजी।

मुहम्मद गोरी (उपनाम शहाबुद्दीन गोरी या मुईजुद्दीन गोरी) : भारत में मुसलमानी राज्य और दिल्ली सल्तनत का संस्थापक। वह गोर के शासक गयासुद्दीनका भाई था, जिसने उसे ११३७ ई. में, विजित भारतीय प्रदेशों का शासक नियुक्त किया। मुहम्मद गोरी महान् विजेता और कुशल सैन्‍य-संचालक था। ११७५ ई. में उसने मुलतान और अगले ही वर्ष उच्च पर विजय प्राप्त की। ११७८ ई. में गुजरात के चालुक्य शासक भीमदेव द्वितीय द्वारा खदेड़ दिये जाने पर उसने ११८६ ई. में खुसरों मलिक (दे.) को पराजित करके पंजाब पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार उत्तरी भारत के मैदानी भू-भागों में बढ़ने के लिए उसका पथ प्रशस्त हो गया। किन्तु उसका प्रथम प्रयास विफल रहा, क्योंकि ११९१ ई. में तराइन के प्रथम युद्ध में उसे दिल्ली और अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज के नेतृत्व में संगठित राजपूत राजाओं से परास्त होना पड़ा। मुहम्मद गोरी ने युद्ध-क्षेत्र से भागकर अपने प्राण बचाये; किन्तु दूसरे ही वर्ष उसने पुनः चढ़ाई की और पृथ्वीराज से तराइन के मैदान में ही उसका द्वितीय युद्ध हुआ। इस बार गोरी ने अपनी सेना में १०,००० धनुर्धर अश्वारोहियों को सम्मिलित करके पृथ्वीराज की भारी-भरकम भारतीय सेना के मुकाबले में अपनी शक्ति में भारी वृद्धि कर ली थी। फलतः पथ्‍वीराज पराजित हुआ और युद्धक्षेत्र में ही मारा गया।

तराइन के द्वितीय युद्ध की विजय के फलस्वरूप दिल्ली के निकट तक उत्तरी भारत पर गोरी का अधिकार हो गया और ११९३ ई. में उसके गुलाम और सिपहसालार कुतुबुद्दीन ऐबक (दे.) ने दिल्ली को भी जीत लिया। दूसरे ही वर्ष गोरी ने कन्नौज के शासक जयचन्द्र को चन्दावर के युद्ध में पराजित कर मार डाला। अगले कुछ वर्षों तक मुहम्मद गोरी भारत की अपेक्षा गजनी के पर्वतीय क्षेत्रों में ही अधिक व्यस्त रहा और कुतुबुद्दीन (दे.) तथा उसके अधीनस्थ सरदार मुहम्मद खिलजी गंगा की घाटी, बिहार और बंगाल में उसका विजय अभियान चलाते रहे। १२०३ ई. में सुलतान गयासुद्दीन की मृत्यु के उपरान्त मुहम्मद गोरी, गोर-गजनी और उत्तरी भारत का शासक बना। किन्तु वह अधिक दिनों तक शासन न कर सका, क्योंकि १२०६ ई. में लाहौर से गजनी जाते समय विद्रोही खोकरों ने छुरा मारकर उसकी हत्या कर दी। मुहम्मद गोरी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि उसने भारत में मुसलमानी राज्य की स्थापना की, जो अगले ६०० वर्षों तक यहाँ कायम रहा।

मुहम्मद बिन कासिम : एक नवयुवक अरब सेनापति, जिसे ईराक के प्रान्तपति अल हज्जाज ने, जो उसका चाचा और श्वसुर भी था, सिन्ध के शासक दाहिर को दण्ड देने के लिए भेजा था। मुहम्मद बिन कासिम ने देबल को ध्वस्त करके नेरुन पर अधिकार कर लिया और सिन्धु नदी पार करके दाहिर को ७१२ ई. में राओर के युद्ध में पराजित कर मार डाला। उपरान्त उसने राओर के दुर्ग को ध्वस्त करके राजधानी आलोर तथा सुल्तानपर भी अधिकार कर लिया। पश्चात् उसने सिन्धघाटी के सम्पूर्ण निचले काँठे में अरब शासन स्थापित कर दिया। शासक के रूप में भी उसने यथेष्ट कुशलता का परिचय दिया और समस्त नव-विजित प्रदेश में एक ऐसी शासनव्यवस्था स्थापित की, जिससे राज्य में शान्ति रहे। किन्तु खलीफा सुलेमान ने असंतुष्ट होकर उसे शासक पद से हटा दिया और विरोधियों के हाथों उसका वध करा दिया।

मुहम्मद बिन तुगलक : १३२५ से १३५१ ई. तक तुगलक वंश का शासक। वह तुगलक वंश की नींव डालनेवाले गयासुद्दीन तुगलक का पुत्र और उत्तराधिकारी था। कुछ विद्वानों के अनुसार गयासुद्दीन की आकस्मिक मृत्यु मुहम्मद तुगलक के षड्यंत्र से हुई थी। मुहम्मद तुगलक का व्यक्तित्व अत्यंत जटिल था। अपनी सनक-भरी योजनाओं, क्रूरकृत्यों और दूसरों के सुख-दुख के प्रति पूर्ण उपेक्षा भाव के कारण उसे पागल और रक्तपिपासु भी कहा जाता है। वह दिल्ली के सभी सुल्तानों से अधिक विद्वान् और सुसंस्कृत तथा योग्य सेनापति था और अधिकांश युद्धों में उसे विजय प्राप्त हुई। बहुत कम अवसरों पर उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। उसमें ज्ञानार्जन की अदम्य लालसा रहती थी। उसने मुसलमान होते हुए भी मुल्लाओं की उपेक्षा करके राज्य का शासन प्रबंध करने का प्रयास किया और कुछ ऐसी मौलिक योजनाएँ प्रचलित कीं, जो साम्राज्य के हित में थीं। इसीलिए कुछ विद्वानों ने उसे असाधारण प्रतिभाशाली शासक माना है जिसके विचार अपने युग से काफी आगे बढ़े हुए थे, और इसीलिए वह प्रतिक्रियावादियों का शिकार हुआ। कदाचित् सत्यता दोनों ही मतों में है। वास्तव में मुहम्मद तुगलक न तो पागल था और न असाधारण प्रतिभाशाली शासक ही। वह अवश्य मौलिक योजनाएँ बनाता था परन्तु उसमें व्यावहारिकता और धैर्य की कमी थी। इसलिए उसे असफलताएँ ही हाथ लगीं।

मुहम्मद तुगलक का शासनकाल महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों से आरम्भ हुआ। १३२७ ई. में उसके चचेरे भाई ने दक्षिण में और १३२८ ई. में उसके चचेरे भाई ने दक्षिण में और १३२८ ई. में मुलतान के हाकिम ने विद्रोह कर दिया, परंतु दोनों ही विद्रोह दबा दिये गये। उपरांत वारंगल, मअबर और द्वारसमुद्र को जीत कर दिल्ली सल्तनत की सीमा मदुरा तक विस्तृत कर दी गयी। सभी प्रान्तों के राजस्व-संबंधी कागज-पत्र दुरुस्त कराये गये, स्थान-स्थान पर अस्‍पताल और खैरातखाने खोले गये और इब्नबतूता (दे.) सहित अनेक विद्वानों को राज्याश्रय प्रदान करके सब तरह से सम्मानित किया गया। परन्तु जैसे-जैसे शासनकाल लम्बा होता गया वैसे-वैसे कठिनाइयों में वृद्धि होने लगी। १३२७ ई. में सुल्तान ने आदेश दिया कि राजधानी का स्थानान्तरण दिल्ली से देवगिरि किया जाय, जो साम्राज्य के केन्द्र में पड़ता था। देवगिरि का नाम बदलकर दौलताबाद रखा गया। सुल्तान ने दिल्ली से दौलताबाद जानेवालों को अनेक सुविधाएँ भी प्रदान कीं, किन्तु उसकी यह योजना इस हठधर्मी के कारण असफल रही कि उसने राजकर्मचारियों के साथ दिल्ली के साधारण नागरिकों को भी वहाँ जाने के लिए विवश किया। १३३० ई. में सुल्तान ने प्रतीकात्मक मुद्राप्रणाली का प्रचलन किया, जैसी कि आजकल विश्व के समस्त देशों में प्रचलित है। उसने ताँबे के सिक्के चलाये, जिनका मूल्य सोने-चाँदी के सिक्कों के बराबर ठहराया गया। उसकी यह योजना भी विफल रही, क्योंकि उसने जाली सिक्कों की रोकथाम का समुचित प्रबंध नहीं किया।

१३३२ ई. में उसने फारस पर आक्रमण करने के लिए विशाल सेना का संग्रह किया, जिसपर अत्यधिक धन व्यय हुआ। इसके बाद यह योजना त्याग दी गयी। उपरांत उसने कूर्मांचल अथवा कुमायूँ (न कि चीन जैसा फरिश्ता का कथन है) को जीतने के लिए सेना भेजी, यद्यपि इस अभियान में वह कुछ पर्वतीय राजाओं का दमन करने में अवश्य सफल हुआ परंतु इसमें धन-जन की अत्यधिक हानि हुई। आर्थिक कठिनाइयों के कारण सुलतान को करों की दरें, विशेषकर दोआब के भू-भाग में, अत्यधिक बढ़ा देनी पड़ी थीं। जब लोग कर अदा नहीं कर पाते थे तो उन्हें वन्य पशुओं की भाँति खदेड़-खदेड़ कर मारा जाता था। साम्राज्य के कई भागों में दुर्भिक्ष फैल गया और सुलतान के अत्याचार और भी बढ़ गये। फलस्वरूप १३३४-३५ में मअबर में विद्रोह हुआ जो बाद में दक्षिण के अन्य भू-भागों, उत्तरी भारत, बंगाल, गुजरात और सिंध में भी फैल गया। १३५१ ई. में जब सुलतान सिंध में विद्रोह का दमन करने में व्यस्त था तभी विषम ज्वर के कारण उसकी मृत्यु हो गयी।

मुहम्मद रज़ा खाँ : १७६५ ई. में नवाब मीर जाफर की मृत्यु के उपरान्त ईस्ट इंडिया कम्पनी की कलकत्ता कौंसिल के समर्थन से बंगाल का नायब नवाब नियुक्त किया गया। मीर जाफर के द्वितीय पुत्र नजमुद्दौला के सिंहासनारोहण के समय यह शर्त रखी गयी थी कि बंगाल का शासन नये नवाब द्वारा न होकर मुहम्मद रजा खाँ के द्वारा हो। इस प्रकार रजा खाँ नाममात्र को नये नवाब नजमुद्दौला के नाम पर, परन्तु वास्तविक रूप से ईस्ट इंडिया कम्पनी की ओर से नियुक्त शासक था। उसकी नियुक्ति से बंगाल में मुसलमानी शासन का व्यावहारिक रूप से अंत हो गया। उपरान्त कम्पनी ने उसे उपदीवान नियुक्त किया, जिससे बंगाल सूबे के फौजदारी, शान्ति और सुरक्षा विभाग के अतिरिक्त राजस्व विभाग का नियंत्रण भी उसके हाथों में आ गया। इस प्रकार उसके माध्यम से बंगाल का सामान्य शासन कम्पनी के नियंत्रण में हो गया। रजा खाँ ने यथेष्ट धनोपार्जन किया। बंगाल के १७६९ -७० ई. के भीषण अकाल में, जब प्रायः एक तिहाई आबादी का नाश हो गया, उसने अकालग्रस्त लोगों की दुर्दशा पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया। १७७२ ई. में कम्पनी ने उसे उपदीवान के पद से हटाकर राजस्व विभाग स्वयं अपने हाथों में ले लिया। उस पर गबन के अभियोग में मुकदमा भी चलाया गया, पर वह निर्दोष सिद्ध हुआ। वह सदर निजामत (अदालत) का प्रधान बना रहा, पर लार्ड कार्नवालिस के शासनकाल में उससे यह पद भी छीन लिया गया।

मुहम्मदशाह : मुगलवंश का २४ वाँ बादशाह, जिसने १७१९ से १७४८ ई. तक राज्य किया। सैयद बन्धुओं (दे.) ने उसे सिंहासनासीन किया था और उसने उनको फाँसी देकर उनसे अपना पिण्ड छुड़ाया। इस कृत्य से उसे शासन पर पूर्ण नियंत्रण पा लेने की आशा थी किन्तु १७२४ ई. में दक्षिण के विद्रोह और उपरान्त बंगाल, अवध और रुहेलखण्ड के विद्रोहों के कारण वह मुगल साम्राज्य को छिन्न भिन्न होने से न रोक सका। १७३७ ई. में उसे बाजीराव पेशवा प्रथम को मालवा प्रान्त भी दे देना पड़ा। इन क्षतियों के कारण मुगल साम्राज्य इतना दुर्बल हो गया कि जब १७३९ ई. में नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली को बुरी तरह लूटा, मुहम्मदशाह उसका कोई समुचित प्रतिकार न कर सका और उसका शासन साम्राज्य के एक छोटे से भाग पर ही सीमित रह गया। एक सफलता उसे अवश्य मिली। मृत्यु के कुछ ही समय पूर्व १७४८ ई. में जब अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर पहला आक्रमण किया, मुहम्मदशाह ने उसे खदेड़ दिया।

मुहम्मदशाह प्रथम : बहमनी वंश का द्वितीय सुलतान, जिसने १३५८ से १३७३ ई. तक शासन किया। उसके शासन का अधिकांश समय दक्षिण के विजयनगर और उत्तर में वारंगल के काकतीय हिन्दू राजवंशों से युद्धों में ही बीता। वह कठोर शासक था और अपने सारे राज्य में उसने चोरी-डकैती, लूटमार की अराजकता को पूर्णतया दबा दिया। उसने नयी शासन-व्यवस्था चलायी जिसका संचालन केन्द्र के आठ मंत्रियों द्वारा होता था। उसने महल के रक्षकों की गारद का पुनर्गठन किया। उसने प्रांतों के वार्षिक शाही दौरे की प्रथा भी प्रचलित की, जिससे उनपर प्रभावशाली नियंत्रण बना रहे। उसकी मृत्यु अत्यधिक मद्यपान के कारण हुई।

मुहम्मदशाह द्वितीय : बहमनी वंश का पाँचवाँ सुल्तान; जिसने १३७८ से १३९७ ई. तक राज्य किया। मुहम्मदशाह शान्तिप्रिय और विद्याप्रेमी था और उसने अन्य राज्यों से कोई युद्ध नहीं किया। उसने कई मस्जिदें बनवायीं और अनाथों के लिए निःशुल्क विद्यालयों की स्थापना की। वह विद्वानों का आश्रयदाता था। बहमनी शासकों से भिन्न उसकी मृत्यु प्राकृतिक कारणों से हुई।

मुहम्मदशाह तृतीय : बहमनी राज्य का तेरहवाँ (१४६३-८२ ई.) सुल्तान। सिंहासनासीन होने के समय उसकी उम्र केवल ९ वर्ष की थी और राज्य का सारा प्रबंध बड़े ही व्यवस्थित रूप से उसके मंत्री मुहम्मद गवाँ (दे.) द्वारा संचालित होता था, जिसने कोंकण और गोवा के हिन्दू शासकों को पराजित किया था। मुहम्मदशाह (तृतीय) ने १४७८ ई. में उड़ीसा को ध्वस्त कर डाला और १४८१ ई. में सुदूर दक्षिण के काँची या कांजीवरम् नगर को भी लूटा। यद्यपि उसका शासनकाल सैनिक सफलताओं से पूर्ण था, परन्तु उसका अन्त दुःखद हुआ। मुहम्मदशाह अत्यधिक मद्यपान करता था और जाली चिट्ठियों के आधार पर मुहम्मद गवाँ की स्वामिभक्ति पर संदेह उत्पन्न कराकर १४८१ ई. में उसका वध करा दिया गया। इन जाली चिट्ठियों का शीघ्र ही भंडाफोड़ हो गया किन्तु अगले ही वर्ष शोक और मदिरापान के कारण सुलतान की मृत्यु हो गयी।

मुहम्मद, शाहजादा : सुल्तान गयासुद्दीन बलबन का पुत्र और उत्तराधिकारी। जब मंगोलों ने १२८५ ई. में पंजाब पर आक्रमण किया, वह मुलतान का प्रान्तीय शासक था। मंगोलों से युद्ध में उसकी मृत्यु हो गयी। मरणोपरान्त उसे 'शहीद' की उपाधि प्रदान की गयी।

मुहम्मद साहब (इस्लामके पैगम्बर) : जन्म ६ठीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में अरब के मक्का नामक नगर में। उन्होंने अरब देशवासियों में एक नये धर्म का प्रचार किया, जिसका आधारभूत सिद्धान्त मानव जाति में बन्धुत्व भाव और एकेश्वरवाद था। इस धर्म के अनुयायी स्वयं मुहम्मद साहब को ईश्वर का दूत (पैगम्बर) मानते थे। प्रारम्भ में मक्का के निवासियों ने मुहम्मद साहब की शिक्षाओं पर ध्यान न दिया और उनके इतने विरुद्ध हो गये कि ६२२ ई. में उन्हें जन्मभूमि छोड़कर निकटस्थ मदीना में शरण लेनी पड़ी। यह घटना हिजरत के नाम से विख्यात है और मुसलमानी सन् अथवा हिजरी सन् इसी घटना पर आधारित है।

हजरत मुहम्मद केवल विलक्षण धर्म-प्रचारक ही नहीं, बल्कि अत्यंत व्यवहार-कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने मक्का के अपने बन्धु-बान्धवों से सुलह करके काबा को अपने नये धर्म का भी पवित्र तीर्थस्थान मान लिया और इसके बाद मक्का लौट आये। मक्का और मदीना के लोगों के संयुक्त समर्थन से उन्हें अपने नवीन धर्म के प्रचार में द्रुत सफलता प्राप्त हुई और सभी ने उन्हें पैगम्बर स्वीकार कर लिया। वे लौटकर मक्का में १० वर्ष रहे। इन थोड़े से वर्षों में सम्पूर्ण अरब देश ने उनके धर्म को स्वीकार कर लिया और वे अरब-निवासियों का एकछत्र धार्मिक और राजनीतिक नेतृत्व करने लगे। उन्होंने अरब निवासियों को इस प्रकार एकता के सूत्र में बांध दिया कि ६३२ ई. में उनकी मृत्यु के उपरान्त केवल ८० वर्षों में ही उनके अनुयायियों ने अपना नूतन धर्म फारस, सीरिया, पश्चिमी तुर्किस्तान, मिस्र, दक्षिणी स्पेन, सिन्ध और भारत के भू-भागों तक फैला कर अपनी विजयपताका चतुर्दिक फहरायी। इस प्रकार अरब में हजरत मुहम्मद के आविर्भाव के फलस्वरूप भारत में भी एक नवीन-धर्म और राजनीतिक शक्ति का उदय हुआ।

मुहम्मद सुल्तान, शाहजादा : औरंगजेब का ज्येष्ठ पुत्र। औरंगजेब ने उसे शासन के कई महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया था। मुहम्मद राजपूतों में भी सर्वप्रिय था। इस कारण उसे अपने शंकालु पिता का कोपभाजन बनना पड़ा। १६७६ ई. में पिता की मृत्यु के बहुत पहले ही उसकी मृत्यु हो गयी।

मुहम्मद हकीम, मिर्जा, शाहजादा : हुमायूँ (दे.) का द्वितीय पुत्र और अकबर का छोटा भाई। पिता की मृत्यु के समय उसकी अवस्था ११ वर्ष की थी और वह केवल नाममात्र को काबुल प्रदेश का शासक मान लिया गया था। बड़े होने पर उसे अत्यधिक मदिरापान की लत पड़ गयी तथापि वह कट्टर मुसलमान बना रहा। अकबर की धार्मिक उदारता की नीतियों से जब मुल्ला लोग उसके खिलाफ भड़क उठे तो उसने इस अवसर से लाभ उठाना चाहा और १५८० ई. में पंजाब पर आक्रमण कर दिया। अकबर ने स्वयं विशाल सेना लेकर उसका सामना किया। हकीम भाग खड़ा हुआ और उसे अकबर की अधीनता फिर से स्वीकार करनी पड़ी। उपरांत हकीम अपनी मृत्युपर्यन्त (१५८५ ई. तक) काबुल प्रदेश पर शासन करता रहा।

मूलराज : एक सिख सरदार, जो १८४७ ई. में मुल्तान का प्रान्तीय शासक था। अपने जिले की राजस्व से प्राप्त होनेवाली आय में कमी हो जाने के कारण उसे आर्थिक कठिनाइयों में फँसना पड़ा। लाहौर के दरबार में जब उस पर एक करोड़ से भी अधिक अप्राप्त धनराशि भेजने के लिए दबाव डाला गया, उसने त्यागपत्र दे दिया। जब उसका उत्तराधिकारी, दो नवयुवक अंग्रेज पदाधिकारियों के साथ वहाँ पहुँचा तब कदाचित् मूलराज के उकसाने से उन दोनों अंग्रेजों की हत्या कर दी गयी। उपरांत मूलराज ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह थोड़े ही दिनों में द्वितीय सिख-युद्ध में (दे.) के रूप में परिणत हो गया। १८४९ ई. में अंग्रेजों ने मूलराज पर आक्रमण किया और वह बन्दी बना लिया गया। उसके अभियोग की सुनवाई सैनिक न्यायालय में हुई और उसे आजीवन कालेपानी का दण्ड दिया गया। उसकी मृत्यु देश से बाहर हुई।

मूलराज : दसवीं शताब्दी के मध्य गुजरात में अन्हिलवाड़ (अणहिल्लवाड़) के सोलंकी (चालुक्य) राज्यवंश का प्रवर्तक। उसका शासनकाल प्रायः ९४२ ई. से ९९७ ई. तक रहा। कदाचित् वह कन्नौज के शासक महिपाल (९१०-९४० ई.) का पुत्र था। परन्तु उसने स्वतंत्र राज्यसत्ता स्थापित की। अन्त में अजमेर के चौहान शासक विग्रहराज द्वितीय द्वारा वह युद्ध में मार डाला गया।

मृच्छकटिक : राजा शूद्रक द्वारा लिखित संस्कृत साहित्य का एक नाटक। शूद्रक के बारे में हमें और कोई जानकारी प्राप्त नहीं है। मृच्छकटिक (मृत्-शकटिक या मिट्टी की गाड़ी) में गुप्तकालिक उज्जयिनी का एक चित्र मिलता है। विश्वास किया जाता है कि इसकी रचना छठीं शताब्दी ई. में की गयी। संस्कृत साहित्य के नाटकों में इस नाटक को बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है और इसका वही सम्मान है जो अंग्रेजी साहित्य में शेक्सपियर के नाटकों का।

मेण्डोसा, डोम एण्ड्रिबयाज डी : १६०९ ई. में लगभग पाँच महीने तक भारत स्थित पुर्तगाली प्रतिनिधि रहा। बादशाह जहाँगीर ने कैप्टेन विलियम हाकिन्स के कहने से अंग्रेजों की ईस्‍ट इंडिया कम्पनी को जो सुविधाएँ प्रदान की थीं, उसने उनका विरोध करने की गुस्ताखी की। जहाँगीर ने उन सुविधाओं को रद्द कर दिया, किन्तु पुर्तगालियों और मुगलों के बीच लड़ाई छिड़ गयी, जो पुर्तगाली पादरी पिन्हेरो की मध्यस्थता से बन्द हुई। इसके फलस्वरूप मेण्डोसा को वापस बुला लिया गया।

मेगस : इसका उल्लेख अशोक (दे.) ने अपने शिलालेख में मक के नाम से किया है। उसका राज्य एण्टियोकस (अन्तियोक) के राज्य के बाद था। मेगस साइरिनि का राजा था और उसने ३०० ई. पू. से २५० ई. पू. तक राज्य किया। उक्त शिलालेख में बताया गया है कि अशोक ने उसके राज्य में धर्म विजय की अर्थात् बहुत से लोगों को बौद्ध धर्म का अनुयायी बनाया।

मेगस्थनीज : यूनानी (यवन) राजदूत, जिसे सेलेउकस निकेटर ने लगभग ३०२ ई. पू. पाटलिपुत्र में चन्द्रगुप्त मौर्य की राजसभा में भेजा था। उसने उत्तर-पश्चिमी सीमांत से मगध के पाटलिपुत्र तक समस्त उत्तरी भारत की यात्रा की और जो कुछ देखा और सुना, उसका वर्णन अपने 'इंडिका' नामक ग्रंथ में किया। मूल ग्रंथ अब अप्राप्य है, किन्तु एरियन, डिओडोरस आदि बाद के यूनानी इतिहासकारों ने अपने ग्रंथों में उसके उद्धरण लिए हैं और आधुनिक काल में मैक्रिन्डल ने उनका संकलन किया है। मौर्यकालीन भारत के बारे में जानकारी के लिए मेगस्थनीज का वृत्तांत महत्त्वपूर्ण स्रोत-ग्रंथ है, क्योंकि इसमें पहली बार उस काल का तिथिवार विवरण मिलता है। इसमें अनेक त्रुटियाँ हैं, फिर भी यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।

मेघदूत : संस्कृत भाषा में महाकवि कालिदास (दे.) लिखित खंडकाव्य। कुबेर के कोप से रामगिरि पर निर्वासित एक पक्ष को वर्षाऋतु के आगमन पर अपनी अलकापुर-वासिनी विरहिणी प्रिया का स्मरण हो आता है और वह मेघ को दूत बनाकर प्राणवल्लभा के पास प्रेममय कुशल-सन्देश भेजता है। इस खंडकाव्य में भारत के दक्षिणी छोर से उत्तरी छोर तक मेघ की यात्रा और विरहिणी प्रिया का वियोग वर्णन सर्वथा अनूठा है। शब्दलाघव, रसमाधुर्य और संवेदनशीलता की दृष्टि से यह रचना महाकवि कालिदास की कृतियों में सर्वोत्तम मानी जाती है।

मेघवर्ण : सिंहल (श्रीलंका) का राजा (लगभग ३५२-७९ ई.) और द्वितीय गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त (लगभग ३३०-८० ई.) का समसामयिक। राजा मेघवर्ण ने एक दूतमंडल महाराजाधिराज समुद्रगुप्त के दरबार में भेजा था और बौध गया (दे.) के उत्तर में सिंहलीयात्रियों के ठहरने के लिए एक भव्य वि‍हार बनवाने के लिए उसकी अनुमति प्राप्त की थी। समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भलेख में उत्कीर्ण हुआ है कि उसे सैंहलक से आदरसूचक उपहार प्राप्त हुए थे।

मेटकाफ, सर चार्ल्स, बाद में लार्ड : (१७८५-१८४६ ई.) मार्च १८३५ से मार्च १८३६ ई. तक भारत का गवर्नर जनरल। जन्म कलकत्ता में हुआ। यह मेजर थामसन मेटकाफ का पुत्र था, जो भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में एक फौजी अफसर था। शिक्षा ईटन में हुई और वह १८०१ ई. में लिपिक की हैसियत से कम्पनी की सेवा में आया और १८०८ ई. तक विभिन्न राजनीतिक पदों पर रहा। उस वर्ष उसे महाराज रणजीत सिंह के दरबार में विशेष दूत बनाकर लाहौर भेजा गया। उसने १८०९ ई. में अमृतसर की संधि (दे.) के द्वारा पहली महान् राजनीतिक सफलता प्राप्त की। इस संधि के पूर्व की सभी सिख रियासतों को ब्रिटिश संरक्षण में दे दिया।

वह १८१० ई. में ग्वालियर में, १८११ से १८१९ ई. तक दिल्ली में तथा १८२० से १८२२ ई. तक हैदराबाद में रेजिडेंट रहा। १८२७ ई. से १८३४ ई. तक गवर्नर-जनरल की कौंसिल का सदस्य रहा। १८३४ ई. में आगरा का गवर्नर नियुक्त हुआ और १८३४ से १८३५ ई. तक भारत का कार्यवाहक गवर्नर-जनरल रहा। उसने भारत के समाचार पत्रों पर लगी पाबंदिया हटाकर उन्हें स्वाधीनता प्रदान की। इससे कम्पनी के डाइरेक्टर उससे नाखुश हो गये और उन्होंने गवर्नर जनरल के पद पर उसकी पुष्टि नहीं की। इसके बजाय उसे पश्चिमोत्तर प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) का लेफ्टिनेंट गवर्नर बना दिया गया, जिस पद पर वह १८३६ से १८३८ ई. तक रहा। इसके बाद मद्रास का गवर्नर बनाये जाने पर उसे भारी निराशा हुई और त्यागपत्र दे दिया। अवकाश ग्रहण करके इंग्लैंड लौट जाने के बाद वह जमायका और कनाडा का गवर्नर नियुक्त हुआ। १८४५ ई. में उसे 'पिअर'की पदवी प्रदान की गयी। १८४६ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। वह एक सफल राजनेता था और अनेक ऊँचे-ऊँचे पदों पर रहा। इन सभी पदों पर वह अत्यन्त सफल हुआ। समाचार पत्रों को स्वाधीनता प्रदान करने से वह भारतीयों में बहुत लोकप्रिय हो गया और उन्होंने कलकत्ता में उसके सम्मान में मेटकाफ हाल का निर्माण कराया।

मेदिनीराय : मेवाड़ के राणा संग्रामसिंह (दे.) का एक स्वामिभक्त सामन्त। बाबरने जब १५२८ ई. में चन्देरी के किले पर हमला किया, किला उसीके अधीन था। युद्ध में मेदिनीराय मारा गया और मुगलों ने किला फतह कर लिया।

मेयो, लार्ड : १८६९ से १८७२ ई. तक भारत का वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल। वह बड़ा मिलनसार तथा राजनीतिज्ञ था। अमीर शेर अली (दे.) उससे १८६९ ई. में अम्बाला में मिला और उसका प्रशंसक बन गया। अमीर अली चाहता था कि ब्रिटिश सरकार उससे निश्चित संधि कर ले और उसके पुत्र अब्दुल्ला जान को उत्तराधिकारी स्वीकार कर ले। परंतु लार्ड मेयो ने अफगानिस्तान के सम्बन्ध में अपने पूर्वाधिकारी लार्ड लारेन्स की अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया।

लार्ड मेयो ने जब प्रशासन भार सँभाला, भारत की आर्थिक स्थिति बड़ी खराब थी। सरकार के बजट में भारी घाटा रहता था और पूर्वानुमान विश्वसनीय नहीं होते थे। लार्ड मेयो ने नमक कर में वृद्धि, सरकारी खर्चों में कटौती, केन्द्रीय तथा प्रांतीय सरकारों के बीच धन के बँटवारे की नयी प्रणाली शुरू करके देश की वित्तीय व्यवस्थ में काफी सुधार किया। फलस्वरूप घाटे का बजट बचत के बजट में परिवर्तित हो गया। उसके शासनकाल में १८७० ई. में भारत में पहली जनगणना हुई। उसने देश के सांख्यिकी सर्वेक्षण की व्यवस्था की और वाणिज्य तथा कृषि विभाग की स्थापना की। १८७२ ई. में जब वह अंडमान द्वीप के पोर्ट ब्लेयर का दौरा कर रहा था, एक पठान कैदी ने उसकी हत्या कर दी।

मेरठ-पश्चिमी : उत्तर प्रदेश में स्थित एक नगर। १८५७ ई. में यहाँ छांवनी थी और १० मई १८५७ को गदर की शुरूआत यहीं से हुई। विद्रोही सिपाही छांवनी की जेलों में घुस गये, अपने बंदी साथियों को छुड़ा लिया, गोरे अफसरों को मार डाला और दूसरे दिन दिल्ली की ओर कूच कर दिया। इस प्रकार १८५७ ई. का सिपाही विद्रोह आरम्भ हो गया।

मेव : दिल्ली के दक्षिण में बसनेवाली एक बलिष्ठ जाति। ये पहले हिन्दू थे, जिन्होंने दिल्ली में नवस्थापित मुस्लिम सल्तनत के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। फलस्वरूप १२६० ई. में बलबन ने, जो अपने दामाद सुल्तान नासिरुद्दीन (दे.) की ओर से शासन कर रहा था, मेवों पर चढ़ाई कर दी, बहुतों का संहार कर डाला और उनका देश लूट लिया। उनके ढाई सौ नेताओं को बंदी बनाकर दिल्ली ले जाया गया और हाथियों के पैरों के नीचे डालकर मार डाला गया। बहुतों की खाल उधेड़वाकर भूसा भर दिया गया और दिल्ली के हर फाटक पर उन्हें लटका दिया गया। मेव वीर इन बर्बरताओं से दमित नहीं हुए और मुसलमान आक्रमणकारियों का विरोध जारी रखा। अतएव १२६० ई. के अंत में बलबन ने दूसरी बार उनपर चढ़ाई की। इस बार उसने उनपर अचानक धावा बोला, १२,००० मेव स्त्री, पुरुष एवं बालकों को पकड़ लिया और उन सबको मार डाला। मेव लोग बड़े बहादुर थे और उन्हें मुसलिम बर्बरता का शिकार होना पड़ा।

मेवाड़ : देखिये, 'उदयपुर'।

मेसोपोटामिया की लड़ाई : प्रथम विश्वयुद्ध (१९१४-१८ ई.) के फलस्वरूप, जिसमें तुर्की ने मध्य यूरोप की शक्तियों का साथ दिया। मेसोपोटामिया पर उस समय तुर्की का शासन था। इसलिए १९१५ ई. में मेसोपोटामिया में ब्रिटिश तथा भारतीय सेनाएं भेजी गयीं। इन सेनाओं का सीमित उद्देश्य (१) आंग्ल-ईरानी तेलकूपों की रक्षा करना, (२) बसरा तथा फारस की खाड़ी के मोहाने पर उसके आसपास के क्षेत्र पर अधिकार करना तथा (३) उस क्षेत्र के अरबों को विद्रोह करने के लिए भड़काना था। यह सेना ब्रिटिश भारतीय सरकार ने संगठित करके भेजी थी। प्रारम्भ में इसे भारी सफलता मिली। यह मेसोपोटामिया के अंदर घुस गयी और सितम्बर १९१५ ई. में इसने कूट पर कब्जा कर लिया। इसके बाद इसने बगदाद पर चढ़ाई करने का फैसला किया, परंतु इसे सिटेशाहफन से वापस कूट खदेड़ दिया गया और इसके बाद कूट को घेर लिया गया। कूट का घेरा ८ दिसम्बर १९१५ ई. से २४ अप्रैल १९१९ ई. तक चला जबकि उसका पतन हो गया। जनरल टाउनशेंड के नेतृत्व में ९,००० ब्रिटिश तथा भारतीय सेनाओं ने आत्मसमर्पण कर दिया।

इस युद्ध में २४,००० सैनिक हताहत हुए। इस पराजय के बाद ही उसके कारणों की जाँच के लिए शाही कमीशन नियुक्त किया गया। उसकी सिफारिशों के अनुसार अधिक बड़े पैमाने पर फौजी तैयारियाँ की गयीं, नये जनरलों की नियुक्ति की गयी, और दिसम्बर १९१६ ई. में नयी चढ़ाई शुरू हुई। २६ फरवरी १९१६ ई. में नयी चढ़ाई शुरू हुई। २६ फरवरी १९१७ ई. को कूट पर दुबारा अधिकार कर लिया गया और ११ मार्च १९१७ ई. को बगदाद पर भी अधिकार कर लिया गया। विजयी जनरल माड नवम्बर १९१७ ई. में हैजे से मर गया, किंतु उसके उत्तराधिकारी जनरल सर विलियम मार्शल ने युद्ध सरगर्मी से जारी रखा, किर्कुक में तुर्क सेनाओं को पराजित किया और १९१८ ई. के युद्धविराम से पहले मोसुल पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार मेसोपोटामिया की लम्बी लड़ाई में अंत में ब्रिटिश तथा भारतीय सेनाओं की विजय हुई।

मैकडोनाल्ड, जेम्स रैमजे (१८६६-१९३७ ई.)  : दो बार इंग्लैंड का प्रधानमंत्री हुआ, पहली बार १९२४ में, फिर १९२९ से १९३५ ई. तक। उसका पिता एक मजदूर था। जेम्स रैमजे मैकडोनाल्ड ने १८ वर्ष की अवस्था में १२ शिलिंग ६ पेंस के साप्ताहिक वेतन पर क्लर्की से जीवन आरम्भ किया और क्रमिक रीति से उन्नति करके इंगलैंड का प्रधानमंत्री बन गया। वह १८९४ ई. में मजदूर दल में सम्मिलित हो गया और १९०६ ई. में पहली बार ब्रिटिश पार्लियामेण्ट का सदस्य निर्वाचित हुआ। उसने एक प्रकार से पार्लियामेण्टरी मजदूर पार्टी की स्थापना की और १९११ ई. में उसका नेता चुना गया। उसने १९१४ ई. में ब्रिटेन की युद्धनीति का समर्थन करने से इनकार कर दिया, जिसके लिए सार्वजनिक रूप से उसकी तीव्र निन्दा की गयी। १९१८ ई. में वह पार्लियामेण्ट का चुनाव हार गया और १९२२ ई. तक पदविहीन रहा। १९२२ ई. में वह पुनः पार्लियामेण्ट का सदस्य चुना गया और इंग्लैंड के मजदूर दल ने रूस की तरह हिंसा के मार्ग से नहीं, बल्कि संसदीय मार्ग से समाजवाद की स्थापना के लिए प्रयत्न करना स्वीकार कर लिया। दूसरे शब्दों में वह संसदीय एवं लोकतांत्रिक समाजवाद का समर्थक था। युद्धोत्तर काल में, उसने यूरोप में शांति-स्थापना का प्रयास किया और १९२४ ई. में हर्जाने के प्रश्न पर दीर्घकालीन विवाद तय करने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया। उसने पहला मंत्रिमंडल जनवरी १९२४ ई. में बनाया जो मुश्किल से ग्यारह महीने चला। उसका दूसरा मंत्रिमंडल १९२९ से १९३१ ई. तक चला। १९३१ ई. में उसकी राष्ट्रीय सरकार का रूप दे दिया गया।

वह भारत के मामलों में बराबर दिलचस्पी लेता रहा और दो बार भारत की यात्रा की, पहली बार १९१० ई. में और दूसरी बार १९१३-१४ ई. में। उसने १९११ ई. में भारत के सम्बन्ध में अपनी पहली पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक था- 'भारत का जागरण'। राष्ट्रीय विचारों के भारतीयों ने यह पुस्तक बहुत पसन्द की। आठ साल बाद उसने भारत के विषय में अपनी दूसरी पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक था- 'गवर्नमेण्ट आफ इंडिया'। भारत के सांविधानिक विकास की समस्या तय करने के लिए इंग्लैंड में जो गोलमेज सम्मेलन (दे.) हुआ, उसकी उसने अध्‍यक्षता की। इस समस्या के साथ साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की समस्या घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित थी। जब इस प्रश्न पर भारत के दो मुख्य सम्प्रदायों में समझौता नहीं हो सका, तीसरे गोलमेज सम्मेलन की समाप्ति पर उसने अपना साम्प्रदायिक निर्णय दिया, जिसमें दलित जातियों के हिन्दुओं के लिए पृथक् साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की सिफारिश की गयी थी। इसके विरोध में गांधीजी ने अनशन शुरू कर दिया और पूना समझौता (दे.) हुआ। रैमजे मैकडोनाल्ड ने पूना समझौते के अनुसार अपने साम्प्रदायिक निर्णय में संशोधन कर दिया। भारत के सम्बन्ध में उसका यह अन्तिम कार्य था।

मैकडोनेल, सर एन्थोनी : वाइसराय लार्ड कर्जन ने १९०० ई. में जो अकाल कमीशन नियुक्त किया था उसका अध्यक्ष। (दे., 'अकाल कमीशन')।

मैकनाघटेन, सर विलिमय हे (१७९३-१८४१ ई.) : १८०९ ई. में कम्पनी की फौजी सेवा में आया, कई प्राच्य भाषाएँ सीखीं और १८३३ ई. में राजनीतिक विभाग का सेक्रटरी बना दिया गया। उसने जून १८३८ ई. में रणजीतसिंह तथा शाहशुजा से त्रिपक्षीय संधि की। फिर वह अफगानिस्तान के शाहशुजा के दरबार में ब्रिटिश राजदूत नियुक्त होकर कंदहार तथा गजनी के मार्ग से काबुल को भेजी जानेवाली ब्रिटिश सेना के साथ गया और उसके सामने शाहशुजा को फिर से गद्दी पर बिठलाया गया। मैकनाघटेन को पुरस्कारस्वरूप १८४० ई. में 'बैरन' बना दिया गया, परन्तु इसके बाद ही अफगानिस्तान में फिर अशांति फैल गयी। अफगानों ने विद्रोह कर दिया और २ नवम्बर १८४१ ई. को बर्न्स (दे.) को मार डाला। इसके बाद भी मैकनाघटेन ने मूर्खता का प्रदर्शन करते हुए अफगानों से संधि कर ली और बंधक के रूप में बंदी बनाये गये व्यक्तियों को लौटा दिया। संतुष्टीकरण की इस नीति से अफगान और उद्दंड हो गये। उन्होंने दोस्त मोहम्मद के लड़के अकबर खाँ के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत कर दी और २३ दिसम्बर १८४१ ई. को जब मैकनाघटेन अकबर खाँ से मिलने के लिए गया, उसने उसकी हत्या कर दी। मैकनाघटेन अफगान-युद्ध (१९३९-४२ ई.) की समूची नीति के लिए अधिकांश रूप में जिम्मेदार था और अंत में अपनी इस गलत नीति के कारण स्वयं अपनी जान से हाथ धो बैठा।

मैकफर्सन, सर जान (१७४५-१८२१) : भारत का फरवरी १७८५ ई. से सितम्बर १७८६ ई. तक गवर्नर-जनरल। वह १७६७ ई. में एक जहाज का खजांची तथा भंडारी बनकर भारत आया और १७७० ई. में मद्रास में ईस्ट इंडिया कम्पनी का लिपिक हो गया। १७७७ ई. में उसे नौकरी से निकाल दिया गया, परन्तु कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स ने उसकी नौकरी फि‍र से बहाल कर दी और वह धीरे-धीरे उन्नति करके गवर्नर-जनरल के पद तक पहुँच गया, यद्यपि उस पद पर केवल बीस महीने रहा। उसके प्रशासन काल में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया था।

मैकमोहन, सर हेनरी : जन्म १८६२ ई. में। १८८५ ई. में भारत के फौजी स्टाफ में नियुक्त हुआ और १८९० ई. में राजनीतिक विभाग में नियुक्त हुआ और १८९० ई. में राजनीतिक विभाग में स्थानांतरित कर दिया गया। १८९३ ई. में सर मार्टिअर डूरैण्ड के साथ काबुल गया और बाद में बलूचिस्तान तथा अफगानिस्तान के बीच सीमा चिह्नांकित करायी। उसने १९०३ ई. में फारस और अफगानिस्तान के बीच की सीमा तय करने में भी भाग लिया। उसका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य उत्तर-पूर्व में भारत और तिब्बत तथा चीन के बीच सीमा निर्धारित करना था।

मैकमोहन सीमारेखा : उत्तर-पूवी सीमा एजेंसी तथा तिब्बत एवं चीन के बीच की सीमा-रेखा। इसका निर्धारण सर हेनरी मैकमोहन (दे.) ने किया।

मैकार्टनी, लार्ड : १७८१ ई. में मद्रास का गवर्नर होकर आया। वह उद्यमी एवं ईमानदार व्यक्ति था। उसने मद्रास के आंतरिक प्रशासन में काफी सुधार किया। वह शांति-स्थापना के लिए अत्यधिक उत्सुक था और उसने १७८४ ई. में मंगलूर की संधि करके दूसरा मैसूर-युद्ध समाप्त कर दिया। इस संधि के द्वारा दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए क्षेत्र और युद्धबंदी वापस लौटा दिये। उसने १७८५ ई. में कर्नाटक में जिसे नवाब ने कम्पनी को सौंप दिया था, मालगुजारी वसूल करने के उपाय के सम्बन्ध में मतभेद हो जाने पर, इस्तीफा दे दिया। १७८५ ई. में वारेन हेस्टिंग्‍स के इस्तीफा देने पर गवर्नर-जनरल के पद के लिए उसके नाम पर विचार नहीं किया गया और वह भारत वापस नहीं लौटा।

मैकाले, थामस बैबिंगटन, बैरन (१८००-५९)  : प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि, निबन्धकार, इतिहासकार तथा राजनीतिज्ञ। १८२६ ई. में वह बैरिस्टर बना, परन्तु उसने बैरिस्टरी करने की अपेक्षा सार्वजनिक जीवन पसंद किया। वह १८३० ई. में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट का सदस्य चुना गया, और १८३४ ई. में गवर्नर-जनरल की एक्जीक्यूटिव कौंसिल का पहला कानून-सदस्य नियुक्त होकर भारत आया। भारत का प्रशासन उस समय तक 'जातीय द्वेष तथा भेदभाव पर आधारित तथा दमनकारी' था। उसने ठोस उदार सिद्धांतों पर प्रशासन चलाने की कोशिश की। उसने भारत में समाचारपत्रों की स्वाधीनता का आन्दोलन किया, कानून के समक्ष यूरोपीयों और भारतीयों की समानता का समर्थन किया, अंग्रेजी के माध्यम से पश्चिमी ढंग की उदार शिक्षा-पद्धति आरम्भ की और दंड विधान का मसविदा तैयार किया जो बाद में भारतीय दंड संहिता का आधार बना।

अवकाश ग्रहण करने के बाद भी वह भारत के मामलों में दिलचस्पी लेता रहा और १८५५ ई. में इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश के लिए प्रतियोगिता परीक्षा आरम्भ करने के पक्ष में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में भाषण किया। वह आजीवन साहित्य सेवा करता रहा और १८५७ ई. में उसे 'पिअर' की पदवी प्रदान की गयी। दो साल बाद १८५९ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। उसने अंग्रेजी भाषा में अनेक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें 'अर्भाडा' (१८३३ ई.) 'प्राचीन रोम के गीतिकाव्य' (१८४२ ई.), 'निबन्ध' (१८२५-४३ ई.) तथा चार खंडों में 'इंग्लैंड का इतिहास' (१८४८-५८ ई.) सबसे सहत्त्वपूर्ण हैं। अंतिम पुस्तक बहुत अधिक बिकी और उससे २० हजार पौंड की आय हुई। इसका यूरोप की विविध भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

मैक्समूलर : (१८२३-१९०० ई.) अपने युग का सबसे महान् प्राच्यविद्याविद्। जर्मनी में जर्मन माता-पिता से जन्म। मैक्समूलर ने १८४१ ई. में लाइपजिंग (विश्वविद्यालय) में संस्कृत का अध्ययन प्रारम्भ किया, फलतः तुलनात्मक भाषाविज्ञान एवं तुलनात्मक धर्म के प्रति उसकी रुचि बढ़ती गयी। १८४५ ई. में उसने ऋग्वेद का अनुवाद एवं सम्पादन प्रारम्भ किया। इसी सन्दर्भ में वह इंग्लैण्ड जा कर बस गया और ब्रिटिश नागरिकता प्राप्त कर ली। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने ऋग्वेद के मुद्रण एवं प्रकाशन का भार अपने ऊपर ले लिया। वह वहीं १८६२ ई. में तुलनात्मक भाषा-विज्ञान का अध्यापक भी नियुक्त हुआ, यद्यपि १८६० ई. में विदेशी होने के कारण उसे संस्कृत के प्राध्यापक पद से वंचित कर दिया गया था। ऋग्वेद के अतिरिक्त उसके अन्य निबन्ध 'चिप्स फ्राम ए जर्मन वर्कशाप' नामक ग्रंथ में संग्रहीत हैं। १८५९ ई. में संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखा और पूर्व की धार्मिक पुस्तकों (Sacred Books of the East) को ५१ जिल्दों में सम्पादित किया। उसकी अन्य रचनाओं में 'भाषा का विज्ञान' (Science of Language) तथा 'धर्म की वैज्ञानिक भूमिका' (Introduction to the Science of Religion) मुख्य हैं। उसने तुलनात्मक भाषा विज्ञान का अध्ययन प्रारम्भ किया और केल्टिक, संस्कृत एवं फारसी सदृश आर्यभाषाओं की मूलभूत एकता का प्रतिपादन किया। यूरोप को प्राचीन भारतीयों की साहित्यिक तथा सांस्कृतिक उपलब्धियों से अवगत कराया।

मैत्रक वंश : एक राजपूत वंश। इस वंश के नायक सेनापति भटार्क ने पाँचवीं शताब्दी के अंत में पूर्वी सौराष्ट्रवर्ती वलभी (दे.) में एक राजवंश का आरम्भ किया। मैत्रक वंश की एक शाखा छठीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मो-ला-पो अर्थात् पश्चिमी मालवा में चली आयी और विंध्यक्षेत्र में अपनी राज्यशक्ति का विस्तार किया। सातवीं शताब्दी में मैत्रक राजा ध्रुवसेन द्वितीय ने (जिसे ध्रुवभट भी कहते हैं) कन्नौज के महाराजाधिराज की एक पुत्री से विवाह किया। उसके पुत्र धरसेन चतुर्थ (६४५-४९ ई.) ने 'परमभट्टारक परमेश्वर चक्रवर्ती' की पदवी धारण की। लगभग ७७० ई. में अरबों ने मैत्रक वंश का उच्छेदन कर दिया, जिन्होंने ७१२ ई. में सिंध पर अधिकार कर लिया था।

मैनरिक्वे, सेबस्तियान : एक स्पेनिश पादरी, जो सत्रहवीं शताब्दी के तीसरे दशक में भारत आया। उसने १६३२ ई. में शाहजहाँ की फौजों द्वारा हुगली स्थित पुर्तगाली कोठी पर घेरा डाले जाने तथा उस पर अधिकार कर लिये जाने का पूरा विवरण लिखा है।

मैनुकी, निक्कोलो : वेनिस का एक यात्री, जो सत्रहवीं शताब्दी में भारत आया। वह औरंगजेब के लगभग पूरे शासनकाल (१६५९-१७०७ ई.) में भारत रहा। उसने 'स्टोरिया डो मोगोर' नामक एक विशालकाय ग्रंथ में मुगल भारत का वृत्तांत लिखा है। यह ग्रंथ चार खंडों में है।

मैलकम, सर जान (१७६९-१८३३)  : ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक प्रमुख अधिकारी, जिसने १७८२ ई. में कम्पनी की सेवा आरम्भ की और १७८३ ई. में भारत आया। वह १८३० ई. में अवकाश ग्रहण ग्रहण करने तक भारत में रहा। वह १७९२ ई. में श्रीरंगपट्टम् के घेरे के समय तथा १७९९ ई. में उस पर अधिकार किये जाने के समय उपस्थित था। १८०३ ई. में दूसरा मराठा-युद्ध (दे.) शुरू होने के समय तक वह उच्च राजनीतिक पदों पर रहा। दूसरे मराठा-युद्ध में उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की और पराजित शिन्दे के साथ की जाने वाली सुर्जी-अर्जुन गाँव की संधि का प्रारूप बनाया। इसके बाद उसने होल्कर (दे.) के साथ चलनेवाले युद्ध में लार्ड लेक की अधीनता में कार्य किया। उसने तीसरे मराठा-युद्ध (दे.) (१८१७-१८ ई.) में भी प्रमुख भाग लिया, महोदपुर (दे.) की लड़ाई जीती और पेशवा बाजीराव द्वितीय को गद्दी छोड़ने के लिए विवश किया। गद्दी त्याग देने पर पेशवा को जीवनभर के लिए पेन्शन प्रदान कर दी गयी। इसके बाद उसे मध्य भारत के प्रशासन का भार सौंपा गया। मालवा भी इसी में सम्मि‍लित था। १८२७ ई. में उसे बम्बई प्रांत का गवर्नर बनाया गया। इस पद से उसने १८३० ई. में अवकाश ग्रहण किया। वह अच्छा लेखक भी था और उसने कई ऐतिहासिक पुस्तकें लिखी है। इनमें अंग्रेजी में लिखी 'सिखों का एक शब्दचित्र' तथा 'मध्य भारत' शीर्षक पुस्तकें उल्लेखनीय हैं।

मैलापुर : मद्रास के निकट स्थित है। प्राचीन ईसाई अनुश्रुतियों के अनुसार संत थामस ने मैलापुर में शहादत पायी थी। किन्तु अनुश्रुतियों की पुष्टि में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता।

मैसन, चार्ल्स : उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में पंजाब के महाराज रणजीत सिंह से मिला। उसने रणजीत सिंह की आकृति तथा आदतों का रोचक वर्णन किया है। उसने कोई तारीख नहीं दी है, फिर भी जहाँ-तहाँ मनोरंजक विवरण लिखे हैं।

मैसूर : भारतीय गणतंत्र में सम्मिलित एक राज्य तथा नगर, जो मैसूर (अब कर्नाटक) राज्य की राजधानी भी है। इस राज्य की सीमा उत्तर-पश्चिम में बम्बई, पूर्व में आन्ध्रप्रदेश दक्षिण-पूर्व में तमिलनाडू और दक्षिण-पश्चिम में केरल राज्यों से घिरी हुई है। इसका इतिहास अत्यंत प्राचीन है। इसके प्राचीनतम शासक कदम्ब वंश के थे, जिनका उल्लेख टॉलमी ने किया है। कदम्ब को, चेरों, पल्लवों और चालुक्यों से युद्ध करना पड़ा। १२ वीं शताब्दी में जाकर मैसूर का शासन कदम्बों के हाथों से होयसलों के हाथों में आया, जिन्होंने द्वारासमुद्र अथवा आधुनिक हलेविड को अपनी राजधानी बनाया था। होयसल राजा रायचन्द्र से ही अलाउद्दीन ने मैसूर जीतकर अपने राज्य में सम्मिलित किया था। उपरांत मैसूर विजयनगर राज्य में सम्मिलित कर लिया गया और उसके विघटन के उपरांत १६१० ई. में वह पुनः स्थानीय हिन्दू राजा के अधिकार में आ गया।

इस राजवंश के चौथे उत्तराधिकारी चिक्क देवराज ने मैसूर की शक्ति और सत्ता में उल्लेखनीय वृद्धि की। किन्तु १८ वीं शताब्दी के मध्य में उसका राजवंश हैदरअली द्वारा अपदस्थ कर दिया गया और उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने १७९९ ई. तक उसपर राज्य किया। टीपू की पराजय और मृत्यु के उपरांत विजयी अंग्रेजों ने मैसूर को संरक्षित राज्य बनाकर वहाँ एक पंचवर्षीय बालक कृष्णराज वाडियर को सिंहासन पर बैठाया। कृष्णराज अत्यंत अयोग्य शासक सिद्ध हुआ, फलतः १८२१ ई. में ब्रिटिश सरकार ने शासनप्रबंध अपने हाथों में ले लिया, परंतु १८६७ ई. में कृष्ण के उत्तराधिकारी चाम राजेन्द्र को पुनः शासन सौंप दिया। उस समय से इस सुशासित राज्य का १९४७ ई. में भारतीय संघ में विलयन कर दिया गया। मैसूर अति सुन्दर परिष्कृत नगर है। वहाँ एक विश्वविद्यालय भी है, जिसकी स्थापना १९१६ ई. में हुई थी।

मैसूर-युद्ध : अंग्रेजों और हैदरअली तथा उसके पुत्र टीपू सुल्तान के बीच समय-समय पर हुए। ३२ वर्षों (१७६७ से १७९९ ई.) के मध्य युद्ध छेड़े गये। प्रथम मैसूर युद्ध १७६७ से १७६९ ई. के बीच हुआ, जिसका कारण मद्रास में अंग्रेजों की आक्रामक नीतियाँ थी। १७६६ ई. में जब हैदर अली मराठों से एक युद्ध में उलझा था, मद्रास के अंग्रेज अधिकारियों ने निजाम की सेवा में एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी भेज दी, जिसकी सहायता से निजाम ने मैसूर के भूभागों पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों की इस अकारण शत्रुता से हैदर अली को बड़ा क्रोध आया। उसने मराठों से संधि कर ली, अस्थिर बुद्धि निजाम को अपनी ओर मिला लिया और निजाम की सहायता से कर्नाटक पर, जो उस समय अंग्रेजों के नियंत्रण में था, आक्रमण दिया। इस प्रकार प्रथम मैसूर-युद्ध का सूत्रपात हुआ। यह युद्ध दो वर्षों तक चलता रहा और १७६९ ई. में जब हैदर अली का अचानक धावा मद्रास के किले की दीवालों तक पहुँच गया, उसका अंत हुआ। मद्रास कौंसिल के सदस्य भयाकुल हो उठे और उन्होंने हैदर अली द्वारा रखी गयी सुलह की शर्तें स्वीकार कर लीं। इसके अनुसार दोनों पक्षों ने जीते गये भू-भाग लौटा दिये और हैदर अली तथा अंग्रेजों के बीच एक रक्षात्मक संधि हो गयी।

द्वितीय मैसूर-युद्ध : अंग्रेजों ने १७६९ ई. की संधि की शर्तों के अनुसार आचरण न किया और १७७० ई. में हैदर अली को, समझौते के अनुसार उस समय सहायता न दी जब मराठों ने उसपर आक्रमण किया। अंग्रेजों के इस विश्वासघात से हैदर अली को अत्यधिक क्षोभ हुआ। उसका क्रोध उस समय और भी बढ़ गया, जब अंग्रेजों ने हैदर अली की राज्य सीमाओं के अंतर्गत माही की फ्रांसीसी बस्ती पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। उसने मराठा और निजाम के साथ १७८० ई. में त्रिपक्षीय संधि कर ली जिससे द्वितीय मैसूर-युद्ध प्रारंभ हुआ।

अंग्रेजों ने निजाम को अपनी ओर फोड़ लिया और १७८२ ई. में सालबाई की संधि करके मराठों से युद्ध समाप्त कर दिया। फिर भी हैदर अली भग्नोत्साह न होकर युद्ध करता रहा और एक विशाल सेना लेकर कर्नाटक में घुस गया, उसे नष्ट-भ्रष्ट कर डाला तथा मद्रास के चारों ओर के इलाके उजाड़ डाले। उसने बेली के अधिनायकत्व वाली अंग्रेजी फौज की एक टुकड़ी को घेर लिया। परन्तु १७८१ ई.में वह सर आयरकूट द्वारा पोर्टोनोवो, पोलिलूर और शोलिंगलूर के तीन युद्धों में परास्त हुआ; क्योंकि उसे फ्रांसीसियों से प्रत्याशित सहायता न मिल सकी। फिर भी वह डटा और १७८२ ई. में उसके पुत्र टीपू ने कर्नल व्रेथवेट के नायकत्ववाली ब्रिटिश सेना से तंजौर में आत्मसमर्पण करा लिया।

इस युद्ध के बीच हैदर अली की मृत्यु हो गयी। किन्तु उत्तराधिकारी टीपू सुल्तान ने युद्ध जारी रखा और बेदनूर पर अंग्रेजों के आक्रमण को असफल करके मंगलोर जा घेरा। अब मद्रास की सरकार ने समझ लिया कि आगे युद्ध बढ़ाना उसकी सामर्थ्‍य के बाहर है। अतः उसने १७८४ ई. में संधि कर ली, जो मंगलोर की संधि कहलाती है और जिसके आधार पर दोनों पक्षों ने एक दूसरे के भूभाग वापस कर दिये।

तृतीय मैसूर-युद्ध (१७९०-९२ ई.) : इसका कारण भी अंग्रेजों की दोहरी नीति थी। १७६९ ई. में हैदर अली और १७८४ ई. में टीपू सुल्तान के साथ की गयी संधि की शर्तों के विरुद्ध अंग्रेजों ने १७८८ ई. में निजाम को इस आशय का पत्र लिखा कि हम लोग टीपू सुल्तान से उन भूभागों को छीन लेने में आपकी सहायता करेंगे जो निजाम के राज्य के अंग रहे हैं। अंग्रेजों की इस विश्वासघाती नीति को देखकर टीपू के मन में उनके शत्रुतापूर्ण अभिप्राय के संबन्ध में कोई संशय न रहा। अतः उसने १७८९ ई. में अचानक ट्रावनकोर (त्रिवंकुर) पर आक्रमण कर दिया, और उस भू-भाग को तहस-नहस कर डाला। अंग्रेजों ने इस आक्रमण को युद्ध का कारण बना लिया और पेशवा तथा निजाम से इस शर्त पर गुटबन्दी कर ली कि वे दोनों विजित प्रदेशों का बराबर भागों में बँटवारा कर लेंगे। इस प्रकार प्रारंभ हुआ तृतीय मैसूर युद्ध १७९० से १७९२ ई. तक चलता रहा।

इस युद्ध में तीन संघर्ष हुए। १७९० ई. में तीन अंग्रेजी सेनाएँ मैसूर की ओर बढ़ी, उन्होंने डिंडीगल, कोयम्बतूर तथा पालघाट पर अधिकार कर लिया, फिर भी उनको टीपू के प्रबल प्रतिरोध के कारण कोई महत्त्व की विजय प्राप्त न हो सकी। इस विफलता के कारण स्वयं लार्ड कार्नवालिस ने, जो गवर्नर-जनरल भी था, दिसम्बर १७९० ई. में प्रारंभ हुए अभियान का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। वेल्लोर और अम्बर की ओर से बढ़ते हुए कार्नवालिस ने मार्च १७९१ में में बंगलोर पर अधिकार कर लिया और टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्टनम् की ओर बढ़ा। लेकिन टीपू की नियोजित ध्वसंक भूनीति के कारण अंग्रेजों की सेना को अनाज का एक दाना न मिल सका और कार्नवालिस को अपनी तोपें कीलकर पीछे लौटना पडा। तीसरा अभियान, जो १७९१ ई. की गर्मियों में प्रारंभ हुआ, अधिक सफल रहा। अंग्रेजी सेनाओं का नेतृत्व करते हुए कार्नवालिस ने पुनः टीपू की कई पहाड़ी चौकियों पर अधिकार कर लिया और १७९१ ई. की गर्मियों में प्रारंभ हुआ, अधिक सफल रहा। अंग्रेजी सेनाओं का नेतृत्व करते हुए कार्नवालिस ने पुनः टीपू की कई पहाड़ी चौकियों पर अधिकार कर लिया और १७९२ ई. में एक विशाल सेना के साथ श्रीरंगपट्टनम् पर घेरा डाल दिया। राजधानी की बाह्य प्राचीरों पर शत्रुओं का अधिकार हो जानेपर टीपू ने आत्मसमर्पण कर दिया और मार्च १७९२ ई. में श्रीरंगपट्टनम् की संधि के द्वारा युद्ध समाप्त हुआ। इसके अनुसार टीपू ने अपने दो पुत्रों को बंधक के रूप में अंग्रेजों को सौंप दिया और तीन करोड़ रुपये युद्ध के हरजाने के रूप में दिये, जो तीनों मित्रों (अंग्रेज-निजाम-मराठा) में बराबर बाँट लिये गये। साथ ही टीपू ने अपने राज्य का आधा भाग भी सौंप दिया, जिसमें से अंग्रेजों ने डिंडीगल, बारा महाल, कुर्ग और मलावार अपने अधिकार में रख कर टीपू के राज्य का समुद्र से संबंध काट दिया और उन पहाड़ी दर्रों को छीन लिया, जो दक्षिण भारत के पठारी भूभाग के द्वार थे। मराठों को वर्धा (वरदा) और कृष्णा नदियों तथा निजाम को कृष्णा और पनार नदियों के बीच के भूखण्ड मिले।

चतुर्थ मैसूर युद्ध (मार्च से मई १७९९ ई.) : अल्पकालिक, परन्तु भयानक सिद्ध हुआ। इसका कारण टीपू सुल्तान द्वारा अंग्रेजों के आश्रित बन जाने के संधि प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना था, तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड वेलेजली को टीपू की ब्रिटिश-विरोधी गतिविधियों का पूर्ण विश्वास हो गया था। उसे पता चला कि १७९२ ई. की पराजय के उपरांत टीपू ने फ्रांस, कुस्तुनतुनियाँ और अफगानिस्तान के शासकों के साथ इस अभिप्राय से संधि का प्रयास किया था कि भारत से अंग्रेजों को निकाल दिया जाय। वेलेजली ने टीपू द्वारा आश्रित संधि के प्रस्ताव को अस्वीकार करना युद्ध का कारण बना लिया। उसने निजाम और पेशवा के साथ इस आधार पर एक गठबंधन किया कि युद्ध में जो लाभ होगा, उसका तीनों में बराबर बँटवारा हो जायगा। अंग्रेजों की तीन सेनाएँ क्रमशः जनरल हेरिस, जनरल स्टीवर्ट और गवर्नर जनरल के भाई वेलेजली (जो आगे चलकर ड्यूक आफ वेलिंगटन हुआ) के नेतृत्व में तीन दिशाओं से टीपू के राज्य की ओर बढ़ीं। दो घमासान युद्धों में टीपू की पराजय हुई और उसे श्रीरंगपट्टनम् के दुर्ग में टीपू की पराजय हुई और उसे श्रीरंगपट्टनम् के दुर्ग में शरण लेनी पड़ी। दुर्ग १७ अप्रैल को घेर लिया गया और ४ मई १७९९ ई. को उसपर अधिकार हो गया। वीरतापूर्वक दुर्ग की रक्षा करते हुए टीपू युद्ध में मारा गया। उसके पुत्र ने आत्मसमर्पण कर दिया। विजयी अंग्रेज टीपू के राज्य को बराबर-बराबर तीन भागों में अपने मित्रों में नहीं बांटना चाहते थे. अतः उन्होंने मैसुर के मुख्य और मध्यवर्ती भाग पर कृष्णराज को सिंहासनासीन किया, जो मैसूर के उस पूराने राजा का वंशज था, जिसे हैदर अली ने अपदस्थ किया था। टीपू के राज्य के बचे हुए भृ-भागों में से कनास (कन्नड़), कोयम्बतूर और श्रीरंगपट्टनम् कम्पनी के राज्य में मिला लिये गये। मराठों ने, जिन्होंने इस युद्ध में कोई भी सक्रिय भाग न लिया था, हिस्सा लेना अस्वीकार कर दिया। निजाम को टीपू के राज्य का उत्तर पूर्ववाला कुछ भू-भाग मिला, जिसे उसने १८०० ई. में कम्पनी को सौंप दिया। इस प्रकार चतुर्थ मैसूरृ-युद्ध की समाप्ति पर मैसूर का सम्पूर्ण राज्य अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया।

मोअस : एक शक अथवा पार्थियन राजा, जो लगभग ९० ई. पू. में आर्कोशिया तथा पंजाब पर राज्य करता था। उसका नाम केवल सिक्कों से ज्ञात होता है।

मोग्गलिपुत्त तिसन : अर्थात् मोग्गलि (मौदगलायन) का पुत्र तिस्स (तिष्य) एक सिंहली भिक्षु। सिंहली ग्रंथ महावंश के अनुसार उसने अशोक को बौद्धधर्म में दीक्षित किया। उत्तरी भारत में प्रचलित बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार मौर्य सम्राट् को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय बनारस के एक गंधी, गुप्त के पुत्र स्थविर उपगुप्त को प्राप्त था। कुछ लोगों का मत है कि दोनों व्यक्ति एक ही हैं।

मोनसेरेत, पादरी अन्तोनियो : एक जेशूइट साधु, जो बादशाह अकबर के निमंत्रण पर गोआ के पुर्तगाली अधिकारियों द्वारा १५८० ई. में मुगल दरबार में भेजा गया। साधु मोनसेरेत और उसके सहयोगी अकविना दोनों का अकबर ने भारी स्वागत किया। उसने अपने दूसरे पुत्र मुराद को पुर्तगाली भाषा सीखने के लिए साधु मोनसेरेत के सुपुर्द कर दिया। वह कई वर्ष तक अकबर के दरबार में रहा और उसने लेटिन भाषा में जेशूइट मिशन का पूरा वृत्तांत लिखा, जिसका वह सदस्य था। यह विवरण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और अकबर के राज्यकाल के बारे में एक समसामयिक स्रोतग्रंथ है।

मोपला : मलाबार में बसनेवाने कट्टर मुसलनानों का एक समुदाय। विश्वास किया जाता है कि नवीं शताब्दी ई. में जो अरब भारत आकर बस गये और यहीं शादी कर ली, वे उन्हीं के वंशज हैं। वे अक्सर अपने हिन्दू पड़ोसियों से झगड़ा कर बैठते थे। १९२५ ई. में भी उन्होंने भारी विद्रोह कर दिया था।

मोहेनजोदरो : सिंध (अब पाकिस्तान में) के लरकाना जिले में खोद निकाला गया प्राचीन ध्वंसावशेष। इस स्थान पर एक प्रागैतिहासिक सभ्यता के स्मृति-चिह्न मिले हैं, जो लगभग २५०० ई. पू. से १५०० ई. पू. में सिंधु नदी की घाटी में वर्तमान थी।

मौखरि वंश : ईशानवर्मा ने ५५४ ई. में अथवा उसके आसपास एक गुप्त राजा को परास्त कर इस वंश का आरम्भ किया तथा महाराजाधिराज की पदवी धारण की। उसका राज्य उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग तथा मगध के गया क्षेत्र में विस्तृत था। अगले पचीस वर्षों तक उत्तरी गंगा के मैदान में मौखरि वंश की प्रधान सत्ता रही। ईशानवर्मा के बाद सर्ववर्मा, अवन्तिवर्मा तथा ग्रहवर्मा उसके उत्तराधिकारी हुए। ग्रहवर्मा इस वंश का अंतिम राजा था। उसने थानेश्वर के प्रभाकरवर्धन की पुत्री राज्यश्री से विवाह किया। उसकी राजधानी कन्नौज थी। ग्रहवर्मा को मालवा के राजा देवगुप्त ने लगभग ६०६ ई. में परास्त कर मार डाला। वह निस्संतान था, अतएव उसके वंश का अंत हो गया और कन्नौज उसके साले हर्षवर्धन (६०६-४७ ई.) के अधिकार में आ गया।

मौर्य वंश : 321 ई. पू. में चंद्रगुप्त मौर्य (दे.) से इसका आरम्भ हुआ, जब मकदूनिया के राजा सिकन्दर की ३२३ ई. पू. में मृत्यु हो चुकी थी। उसने तक्षशिला के स्नातक आचार्य चाणक्य की सहायता से मगध शासक नंदवंश के अंतिम राजा का वध कर दिया। चन्द्रगुप्त की राजधानी भी पाटलिपुत्र हुई और उसने २९८ ई. पू. तक राज्य किया। इस अवधि में उसने २९८ ई. पू. तक राज्य किया। इस अवधि में उसने पंजाब तथा तक्षशिला से यवनों (यूनानियों) को मार भगाया और अपना साम्राज्य पूरे उत्तरी भारत तथा पश्चिम में सौराष्ट्र तक विस्तृत कर लिया। लगभग ३०५ ई. पू. में उसने सेलेउकस का आक्रमण विफल कर दिया, जिसे सिकन्दर के साम्राज्य का पूर्वी भाग प्राप्त हुआ था। सेल्यूकस चन्द्रगुप्त मौर्य से पराजित होने के बाद हिन्दूकुश के उस पार तक के अपने सभी पूर्वी प्रदेश देकर उससे संधि कर लेने के लिए विवश हुआ। उसने अपनी कन्या का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया और अपना राजदूत मेगस्थनीज (दे.) उसकी राजसभा में भेजा। मेगस्थनीज ने उस काल के भारत का रोचक वृत्तांत लिखा है।

चन्द्रगुप्त की माता का नाम मुरा था। इस आधार पर उसका राजवंश 'मौर्य' कहलाता है। चन्द्रगुप्त के बाद उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी बिन्‍दुसार (दे.) ने २९८ ई. पू. से २७३ ई. पू. तक राज्य किया। उसने 'अमित्रघात' (शत्रुओं के घातक) की पदवी धारण की और सम्भवतः दक्षिण भारत भी विजय किया।

तीसरा मौर्य सम्राट् बिन्दुसार का पुत्र अशोक (दे.) था, जिसने लगभग २७३ ई. पू. से २३२ ई. पू. तक राज्य किया। संभवतः अशोक को मगध का सिंहासन प्राप्त करने के लिए युद्ध करना पड़ा, क्योंकि राज्याभिषेक राज्यारोहण के चार वर्ष बाद हुआ। राज्याभिषेक के आठवें वर्ष में उसने भारी रक्तपात के बाद कलिंग विजय किया। इस युद्ध में होनेवाले नरसंहार ने अशोक की मानसिक वृत्ति बदल दी और भारी खेद से अभिभूत होकर उसने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया और युद्ध को तिलांजलि दे दी। बौद्ध होने के बाद उसने शेष राज्यकाल विशाल साम्राज्य के समस्त साधनों को केन्द्रीभूत करके भारत और भारत से बाहर बौद्ध धर्म का प्रचार करने तथा मनुष्यों और पशुओं के हित में सड़कें बनवाने, कुएं खुदवाने, धर्मशालाएं बनवाने, प्याऊ बिठाने, चिकित्सालय खुलवाने आदि में बिताया। उसने सारे भारत में शिलाओं तथा स्तम्भों पर अनेक लेख खुदवाये जिनमें प्रजा को दया, दान, सत्य, माता-पिता की सेवा, गुरुओं का आदर, प्राणियों की अहिंसा तथा सब मतों के प्रति सहिष्णुता का उपदेश दिया गया है। उसने बौद्ध भिक्षुओं को धर्म-प्रचार के लिए सिंहल (श्रीलंका) तथा पश्चिम के देशों में भेजा, जिसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म का विश्वव्यापी प्रसार हुआ।

मौर्य वंश : अशोक के उत्तराधिकारी योग्य नहीं सिद्ध हुए और उसकी मृत्यु पर साम्राज्य संभवतः उसके एक पुत्र जालौक तथा पौत्र दशरथ के बीच विभाजित हो गया। इनमें से किसी में बौद्ध धर्म के प्रति अशोक जैसा अनुराग नहीं दिखाई पड़ा और ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक की मृत्यु के बाद ही बौद्ध धर्म को मिलनेवाला राज्याश्रय समाप्त हो गया। अशोक के उत्तराधिकारी राजा शक्तिहीन थे और उनमें से अंतिम राजा बृहद्रथ की लगभग १८५ ई. पू. में उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने हत्या कर डाली, जिससे शुंगवंश का आरम्भ हुआ।