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विक्षनरी:भारतीय इतिहास कोश (य से व)

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यंग-हस्बैण्ड, सर फ्रांसिस (१८६३-१९४२)  : वाइसराय लार्ड कर्जन (दे.) की आज्ञा द्वारा १९०३-१९०४ ई. में यंग-हस्बैण्ड के नेतृत्व में एक ब्रिटिश भारतीय अभियान दल तिब्बत गया। यंग-हस्बैण्ड जुलाई १९०३ ई. में तिब्बती क्षेत्र के अन्तर्गत सिक्किम सीमान्त से १५ मील उत्तर की ओर स्थित खम्बजेंग पहुँचा। किन्तु तिब्बतियों ने अंग्रेज अतिक्रमणकर्ताओं के साथ तबतक सन्धिवार्ता करने से इन्कार कर दिया जब तक वह उनके सीमान्त के उस पार न चला जाय। फलतः यंग-हस्बैण्ड भारत सरकार के अनुमोदन से तिब्बत के अन्दर ग्यान्तसे तक बढ़ गया और तिब्बत की सेना को गुरु नामक स्थान पर परास्तकर दिया। चूँकि तिब्बती अब भी सन्धि-वार्ता के लिए तैयार न थे, अतः यंग-हस्बैण्ड तिब्बत में और आगे बढ़ गया और दूसरी विशाल तिब्बती सेना को करो-ला-दर्रे के निकट युद्ध में परास्त किया और अभियानपूर्वक तिब्बत की राजधानी ल्हासा में ३ अगस्त १९०४ ई. को प्रविष्ट हो गया। यंग-हस्बैण्ड की विजयों के फलस्वरूप तिब्बतियों को संधि-वार्ता के लिए बाध्य होना पड़ा, फलस्वरूप ७ सितम्बर १९०४ ई. को ल्हासा की सन्धि (दे.) उनपर आरोपित की गयी और सोलह दिन बाद विजयोल्लास के साथ यंग-हस्बैण्ड वापस लौट आया। ल्हासा की संधि के अन्तर्गत, जो बाद में संशोधित की गयी, तिब्बत को तीन वर्ष मे पचीस लाख रुपये क्षतिपूर्ति रूप में देने पड़े, तीन वर्ष तक के लिए चुम्बीघाटी को छोड़ना पड़ा और एक ब्रिटिश एजेण्ट को ग्यान्तसे में रहने की अनुमति देनी पड़ी। यंग-हस्बैण्ड की वापसी पर वाइसराय लार्ड कर्जन ने उसकी बड़ी आवभगत की। (जी. एफ. सीवर- फ्रांसिस यंग हस्बैण्ड की वापसी पर वाइसराय लार्ड कर्जन ने उसकी बड़ी आवभगत की। (जी. एफ. सीवर- फ्रांसिस यंग हस्बैण्ड)

यजुर्वेद : चार वेदों में से एक। यजुर्वेद संहिता (दे.) में यज्ञ क्रियाओं के मंत्र और विधियां संग्रहीत हैं। इसमें केवल ऋग्वेद से लिये हुए मंत्र ही नहीं मिलते, किन्तु यज्ञानुष्ठान में सम्पादित की जानेवाली समस्त क्रियाओं का विधान भी मिलता है। यजुर्वेद दो हैं, तथा- (अ) कृष्ण यजुर्वेद (आ) शुक्ल यजुर्वेद

तैत्तिरीय ब्राह्मण, मैत्रायणी ब्राह्मण और काठक ब्राह्मण (दे.) कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित हैं और वाजसनेय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद से सम्बद्ध हैं। निम्नलिखित उपनिषद् भी यदुर्वेद से सम्बद्ध हैं- तैत्तिरीय, कठ, श्वेताश्वतर, वृहदारण्यक, ईश, प्रश्न, मुण्डक और माण्डूक्य। यजुर्वेद में यज्ञों और कर्मकाण्ड का प्राधान्य है।

यज्ञश्री, गौतमी पुत्र (१७०-२०० ई.)  : उत्तरकालीन सातवाहन (दे.) राजाओं में सबसे प्रतापी। उसने पश्चिमी अंचलवर्ती क्षत्रपों से सातवाहनों की भूमि पुनः छीन ली, जिसपर उन्होंने आधिपत्य जमा रखा था। उसने चाँदी, काँसे तथा सीसे के अनेक सिक्के प्रचलित किये, जिनमें से कुछ सिक्कों पर पोत का चित्र बना हुआ था। इससे सूचित होता है, उसका राज्य समुद्र पार के देशों तक विस्तृत था।

यदु : गण का उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। उत्तरकालीन साहित्यिक अनुश्रुतियों के अनुसार यदु लोग पश्चिमी भारत में प्रमास के निकट बस गये थे। कृष्ण, जिन्हें विष्णु का अवतार माना जाता है यदु गण के ही थे।

यन्दबू की संधि : यह १८२६ ई. में सम्पन्न हुई। इससे प्रथम बर्मा-युद्ध (दे.) की समाप्ति हुई। इस संधि के द्वारा बर्मा ने अंग्रेजों को एक करोड़ रुपया हर्जाना देना स्वीकार किया; अराकान और तेनासरीम के प्रान्त उन्हें सौंप दिये; आसाम, कछार और जयन्तिया में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करने का वायदा किया; (ये क्षेत्र अन्ततोगत्वा ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत चले गये) और आवा में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना भी स्वीकार कर लिया।

यम : एक वैदिक देवता, जिसके लोक में पितरों की आत्माओं का निवास माना जाता है। वह जीवों को उनके शुभाशुभ कर्मों के अनुसार पुरस्कार और दण्ड प्रदान करता है, इसीलिए वह 'धर्मराज' भी कहलाता है।

यवन : हिन्दू लेखकों ने मूलतः यह शब्द विदेशी यूनानियों के लिए इस्तेमाल किया, किन्तु बाद को यह शब्द मुसलमानों के लिए भी प्रयुक्त होने लगा। व्युत्पत्ति की दृष्टि से यह 'योंन' शब्द से बना है, जो आयोनिया का पर्याय है और मूलतः उसका तात्पर्य आयोनिया के निवासियों से है। (सरकार.-पृ. ३२१-२७)

यवन बाख्त्री राजवंश : इसका प्रवर्तन ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी में बैक्ट्रिया (बाख्त्री) के यूनानी (यवन) क्षत्रप डियोडोरस ने किया, जो सीरिया (शाम) के यूनानी राजा की अधीनता को त्यागकर स्वतन्त्र राजा बन बैठा। यह नया वंश ईसा-पूर्व १५५ में समाप्त हो गया। इस वंश में कई राजा हुए। इनमें डेमेट्रियस (लगभग २००-१९० ई. पू.) ने उत्तर भारत का काफी बड़ा भाग अपने आधिपत्य में कर लिया, जिसमें सम्भवतः काबुल पंजाब और सिंध भी शामिल था, लेकिन डेमेट्रियस को शीघ्र ही युक्रेटीदस ने पराजित कर दिया, बाद में युक्रेटीदस को उसके पुत्र अपोलोडोटस ने मार डाला। अपोलोडोटस को उसके भाई हेलियोक्लोज़ ने मारा। इस प्रकार यवन बाख्त्री राजवंश का अन्त हो गया। इस काल के लगभग ४० विभिन्न यवन राजाओं के नाम के सिक्के पाये गये हैं। इससे सिद्ध होता है कि पश्चिमोत्तर भारत की सीमा पर बहुत से छोटे-छोटे यवन राज्य रहे होंगे। इन यवन राजाओं में मिनान्डर का नाम बहुत प्रसिद्ध है। उसने बौदध धर्म अपना लिया था। 'मिलिन्दपन्हो' नामक प्रसिद्ध बौद्ध धर्म ग्रन्थ में उल्लिखित मिलिन्द यही मिनान्डर है।

यवन बौद्ध मूर्तिकला : बहुधा मूर्तिकला की इस शैली को 'गाँधार शैली' कहते हैं। इस शैली की बौद्ध मूर्तियों पर यूनानी कला का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इस शैली की बुद्ध की मूर्तियाँ यूनानी देवता अपोलो से मिलती जुलती हैं। इसी प्रकार यक्ष कुबेर की मूर्ति यूनानी देवता जीयस से मिलती जुलती है। इन मूर्तियों को जो परिधान पहनाया गया है, वह भी यूनानी ढंग का और आमतौर पर पारदर्शी है। सामान्यतः यूनानी देवी-देवताओं को भारतीय बौद्धों की पोशाक और आकृति में दिखाकर बौद्ध नामकरण कर दिया गया है। यवन बौद्ध मूर्तिकला (गाँधार शैली) वस्तृतः यूनानी-रोमन कला है जो ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में लघु एशिया तथा रोमन साम्राज्य में प्रचलित थी। द्वितीय शताब्दी में, जबकि पश्चिमोत्तर भारत में कुषाण राजा कनिष्क तथा हुविष्क का शासन था, इस गांधार शैली की मूर्तिकला का बहुत प्रचलन था।

यशोधरपुर : कम्बुज देश (कम्बोडिया) की प्राचीन राजधानी। नगर का आधुनिक नाम 'अंकोरथम' है। राजा यशोवर्मा (८८९-९०८ ई.) ने इसकी नींव डाली थी। आकार में नगर चौकोर तथा प्रत्येक ओर दो मील लम्बा था। यह ३३० फुट चौड़ी परिखा से घिरा हुआ और ऊँचे प्राकार से परिवेष्टित था। यह सुन्दर इमारतों और मन्दिरों से सुसज्जित था, जिनमें १५० फुट ऊँचा बयोन मन्दिर सर्वाधिक सुन्दर था। यशोधरपुर अपने समय में संसार के सबसे सुन्दर नगरों में गिना जाता था।

यशोधरा : राजकुमार सिद्धार्थ गौतम बुद्ध (दे.) की पत्नी, जो उनके एकमात्र पुत्र राहुल की माता बनीं। उनके नाम भद्द कच्चा, सुभद्रका, बिम्बा और गोपा भी मिलते हैं।

यशोधर्मा  : मालवा का राजा। हूण नेता मिहिरकुल (दे.) को ५२८ ई. में परास्त कर उसने भारतीय इतिहास में अपना ख्यातिपूर्ण स्थान बनाया। मिहिरकुल को हराने में नरसिंहगुप्त बालादित्य (दे.) ने सम्भवतः उसे सहायता पहुँचायी। उसके पूर्वजों और उत्तराधिकारियों के विषय में कुछ पता नहीं है। उसकी निश्चित शासन-अवधि भी ज्ञात नहीं है, किन्तु विश्वास किया जाता है कि उसने छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में शासन किया था। मन्दसौर में उसने दो कीर्ति-स्‍तंभों की स्थापना की और उनपर अंकित अभिलेखों के अनुसार वह ब्रह्मपुत्र से पश्चिमी समुद्रतक और हिमालय से त्रावनकोर प्रदेश के पश्चिमी घाट में स्थित महेन्द्रगिरि तक सम्पूर्ण भारत पर शासन करता था। यशोधर्मा की इन प्रशस्तियों में किये गये दावों के अनुपोषण में कोई ऐसा स्वतंत्र एवं पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिसके द्वारा यह सिद्ध होता है कि वह महान योद्धा और विजेता राजा था।

यशोमती : थानेश्वर के राजा प्रभाकरवर्धन (दे.) की रानी, जो प्रख्यात सम्राट् हर्षवर्धन (दे.) की माता थी।

यशोवर्मा  : कम्बुज (कम्बोडिया) का राजा, जिसने ८८९ से ९०८ ई. तक शासन किया। वह बड़ा शक्तिशाली था। उसने यशोधरपुर (दे.) नामक प्रख्यात नगर की नींव डाली। यशोवर्मा के अभिलेख बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। इनका मूल पाठ दो लिपियों में उपलब्ध है, एक तो कम्बूज देश की लिपि में, दूसरा उत्तरी भारत में प्रचलित देवनागरी लिपि में। दोनों पाठों की भाषा संस्कृत है।

यशोवर्मा  : जेजाकभुक्ति (दे.) अर्थात् आधुनिक बुन्देलखण्ड का एक चन्देल राजा। उसका शासनकाल लगभग दसवीं शताब्दी है। उसने प्रतिहार (दे.) से कालंजर का किला छीन लिया और प्रतिहार राजा देवपाल (दे.) को परास्त कर उससे विष्णु की बहुमूल्य प्रतिमा ले आया, जिसकी स्थापना उसने खजुराहो (दे.) के स्वनिर्मित मन्दिर में की थी। वह सम्भवतः ९५० ई. में स्वर्गवासी हुआ और धंग उसका उत्तराधिकारी बना।

यशोवर्मा  : कन्नौज का एक राजा, जो आठवीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश में शासन करता था। ७३१ ई. में उसने एक दूतमण्डल चीन भेजा। १० वर्ष के बाद कश्मीर के राजा ललितादित्य मुक्तापीड (दे.) ने उसका सिंहासन छीन लिया तथा उसका वध कर डाला। 'मालतीमाधव' नाटक के रचयिता प्रसिद्ध संस्कृत कवि भवभूति (दे.) और प्राकृत भाषा के प्रसिद्ध कवि वाक्पति का वह आश्रयदाता था।

यशस्कर : कश्मीर का एक ब्राह्मण राजा। दसवीं शताब्दी में ब्राह्मणों की एक सभा में उसे सिंहासनारूढ़ किया गया। उसका शासन अल्पकालिक रहा।

याकूत, जलालुद्दीन : एक हब्शी गुलाम जो रजिया सुल्ताना (दे.) का कृपापात्र बन गया। उसकी पदोन्नति करके उसे शाही घुड़साल का प्रधान अधिकारी बना दिया। रजिया ने उसपर और कृपादृष्टि भी की। इससे दरबार के अमीर उससे ईर्षया करने लगे। असंतुष्ट अमीरों ने भटिण्डा के सूबेदार अल्तूनिया के नेतृत्व में बेगम के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। युद्ध में याकूत परास्त हुआ तथा मारा गया और रजिया सुल्ताना को कैद कर लिया गया।

याकूब : कश्मीर के सुल्तान यूसुफशाह (दे.) का पुत्र व वारिस। वह १५८६ ई. में पिता के साथ मुगलों द्वारा परास्त हुआ और इस प्रकार राज्य से वंचित हो गया।

याकूब-इब्न-लैस : सिंध का प्रथम स्वतन्त्र मुसलमान शासक। ८७१ ई. में खलीफा ने इस प्रान्त का स्वामित्व भेंट के स्वरूप उसे प्रदान कर दिया।

याकूब खां : अमीर शेर अली (दे.) का पुत्र और उत्तराधिकारी। १८७९ ई. में पिता की मृत्यूपरांत अंग्रेजों ने उसे अफगानिस्तान का अमीर मान लिया। याकूब खाँ ने १८७९ ई. में अंग्रेजों के साथ गंदमक (दे.) की संधि की, जिसके द्वारा उसने अपने वैदेशिक सम्बन्ध अंग्रेजों के परामर्श से संचालित करना स्वीकार कर लिया। अंग्रेजों ने इसके बदले में विदेशी आक्रमणकारियों से उसकी सुरक्षा करने और ६ लाख रुपया वार्षिक सहायता देने का वचन दिया। उसके देशवासियों को इस प्रकार अपने देश की स्वतन्त्रता अंग्रेजों के हाथ बेच देना पसन्द नहीं आया और इस सन्धि के दो मास बाद ही अफगानों ने अमीर और उसके अंग्रेज संरक्षक, काबुल के अंग्रेज रेजीडेण्ट कवाग्नरी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और समस्त अंगरक्षकों सहित उसको मार डाला। इसके परिणामस्वरूप अफगानों और अंग्रेजों के बीच नयी जंग छिड़ गयी। याकूब खाँ को काबुल से खदेड़ दिया गया और उसने भागकर अंग्रेजों की शरण ली। बाद में उसे राजबन्दी के रूप में देहरादून भेजा गया, जहाँ वह १९२३ ई. में मृत्युपर्यन्त रहा। (देखिये, दूसरा अफगान-युद्ध)

याज्ञवल्क्य : एक प्रसिद्ध ऋषि। प्राचीन जनश्रुतियों के अनुसार वे मिथिला के राजर्षि जनक की, जो अपने अध्यात्मज्ञान के लिए प्रसिद्ध थे, राजसभा में उपस्थित होकर उनसे ब्रह्मचर्चा किया करते थे। प्राचीन ब्रह्मवेत्ता ऋषियों में उनका स्थान बहुत ऊँचा माना जाता है और उपनिषदों में भी उनका उल्लेख मिलता है।

यादव राजवंश : प्रवर्तन भिल्लम द्वारा ११९१ ई. में हुआ। उसने देवगिरि (दौलताबाद) को अपनी राजधानी बनाया। भिल्लम का पौत्र सिंघण इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था। वह १२१० ई. सिंहासन पर बैठा। उसने गुजरात और पासपड़ोस के अन्य राज्यों को जीता और कुछ समय के लिए यादव वंश का प्रताप चालक्यों से भी बढ़ गया। किन्तु उनका यह उत्कर्ष अधिक दिनों तक स्थिर न रह सका। १२९४ ई. में जब यादव राजा रामचंद्रदेव (दे.) शासन कर रहा था, सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (दे.) ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। उसने राजधानी देवगिरि को लूटा और राजा से छः सौ मन मोती, दे सौ मन हीरे, माणिक्य, मरकत मणियाँ, नीलम, बहुत-सा स्वर्ण और बहुत से हाथी उपहार में प्राप्त करके उसकी जान बख्श दी।

१३०९ ई. में अलाउद्दीन के सेनानायक मलिक काफूर (दे.) के नेतृत्व में मुसलमानों ने फिर यादव राज्य पर आक्रमण किया। रामचंद्रदेव ने (दे.), जो उस समय भी राज्य कर रहा था, सुल्तान की अधीनता स्वीकार करके अपने प्राणों की रक्षा की। वह यादव वंश का अंतिम स्वतंत्र शासक था। उसकी मृत्यु के बाद उसके जामाता और उत्तराधिकारी हरपालदेव ने १३१९ में दिल्ली के सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, परन्तु वह परास्त हुआ। उसे जीवित पकड़कर बंदी बना लिया गया। सुल्तान ने जीते जी उसकी खाल खिंचवा ली और सिर काट दिया। उसकी मृत्यु के साथ यादव वंश का अंत हो गया। यादव वंश के राजा हिन्दू धर्म, संस्कृत भाषा तथा साहित्य के संरक्षक थे। प्रसिद्ध धर्मशास्त्रकार हेमाद्रि रामचन्द्रदेव के काल में ही हुआ।

यमुनाचार्य : दक्षिण भारत के तमिल (द्रविड़) देश में उत्पन्न वैष्णव संप्रदाय के प्रमुख विद्वान्, जो बारहवीं शताब्दी में विद्यमान वैष्णवाचार्य रामानुज (दे.) के उपदेशकर्त्ता माने जाते हैं।

यास्क : निरुक्त के प्राचीन-कालिक ख्यातिप्राप्त रचयिता। निरुक्ति की गणना छः वेदांगों (दे.) में होती है। यास्क का काल अनिश्चित है, किन्तु वह यशस्वी वैयाकरण पाणिनि (दे.) का पूर्वकालिक माना जाता है।

याहिया-बिन-अहमद सरहिन्दी : दिली सल्तनत का एक प्रारम्भिक मुसलमान इतिहासकार।

यिल्दिज, ज्ञाजुद्दीन : सुल्तान इल्तुतमिश (दे.) का प्रतिद्वन्द्वी। मूलतः वह तुर्क गुलाम था। कुतबुद्दीन का देहान्त होने पर यिल्दिज ने गजनी पर अधिकार कर लिया और अपने को दिल्ली के तख्त का हकदार घोषित किया। १२१४ ई. में यिल्दिज़ ने थानेश्वर तथा पंजाब को विजित कर लिया और इल्तुतमिश से अपनी अधीनता स्वीकार कराने का प्रयत्न किया, परन्तु १२१६ ई. में तराइन के युद्ध में वह इल्तुतमिश से परास्त हुआ। यिल्दिज़ को बन्दी बनाकर बदायूँ भेज दिया गया।

युक्रेटीदस : बैक्ट्रिया का एक यूनानी सेनापति, जो १७५ ई. पूर्व में वहाँ का शासक बन गया। उसने डेमेट्रियस को जो अपने को भारतीयों का राजा कहता था, १६० ई. पू. से १५६ ई. पू. तक चलनेवाले लम्बे युद्ध में पराजित किया और अपना राज्यक्षेत्र पश्चिमी कुछ भाग तक प्रसारित किया। जब वह १५६ ई. पू. में भारत से बैक्ट्रिया वापस जा रहा था, सम्भवतः उसके पुत्र अपोलोडोटस ने उसे रास्ते में मार डाला। भारत में युक्रेटीदस के राज्यविस्तार का यह फल हुआ कि उसके बाद पश्चिमोत्तर भारत में अनेक छोटे-छोटे यवन राज्य स्थापित हो गये, जिनमें से एक का शासक मिनांडर (मिलिन्द) बहुत प्रसिद्ध हुआ।

युथिडिमास : बैक्टिया का तृतीय राजा। उसके पुत्र एवं उत्ताराधिकारी डेमेट्रियस ने सम्भवतः १७५ ई. पू. में भारत पर हमला किया, लेकिन शुंग राजा पुष्यमित्र (लगभग १८५ ई. पू. ) ने उसे परास्त कर दिया।

युधिष्ठिर : पांच पाण्डव राजकुमारों में सबसे ज्येष्ठ, जिसकी कौरवों के साथ युद्ध की कथा ही महाभारत की मुख्य कथा है। वह सत्यवादी और न्यायप्रिय था, इसीलिए उसे 'धर्मराज' कहा जाता था।

युहशि जाति : एक घुमक्कड़ जनजाति, जो मूलतः पश्चिमी चीन में रहती थी। १७४ ई. पू. और १६० ई. पू. के बीच उन्हें उस क्षेत्र से खदेड़ दिया गया और उन्होंने गोबी रेगिस्तान की ओर प्रस्थान किया। जैक्सर्ट्रीज की घाटी में पहुँचकर उन्होंने वहाँ से शकों को मार भगाया, जो वहाँ अधिकार किये हुए थे। परन्तु वू सुन ने यूहशियों को वहाँ से भी मार भगाया और वे अन्ततः आक्सस की घाटी तथा बैक्ट्रिया पहुँचे। कालान्तर में यूहशियों ने अपनी घुमक्कड़ीवृत्ति त्याग दी और पाँच राज्यों में विभक्त होकर बैक्ट्रिया में बस गये। एक शताब्दी के उपरान्त लगभग ४० ई. में युहशि जाति की एक शाखा कुषाणों ने कुजुल कदाफिस के नेतृत्व में युहशि जाति की अन्य शाखाओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया और उत्तरी पश्चिमी भारत पर अधिकार कर लिया। उनका नेता भारतीय इतिहास में कथफिश प्रथम के नाम से विख्यात हुआ जो कुषाण राजवंश का था। (मैकगवर्न.)

यूदेमास : एक यूनानी सेनापति जिसे सिकन्दर ने पश्चिमी पंजाब में यूनानी सेना का नेतृत्व करने के लिए फिलिप्योज के स्थान पर नियुक्त किया और जो ३२४ ई. पू. में भारतीयों द्वारा मारा गया। यूदेमास सिंधु घाटी के दक्षिणी भाग में ३१७ ई. पू. तक रहा, जबकि चन्द्रगुप्त मौर्य ने सिन्धुघाटी के उत्तरी भाग से ३२२ ई. पू. में ही यूनानियों को मार भगाया था। यूदेमास स्वदेश वापस लौटने पर सिकन्दर के सेनापतियों के बीच चलनेवाले गृहयुद्ध में फँस गया और इसके बाद भारत से उसका कोई सम्बन्ध न रहा।

यूनाइटेड ईस्ट इण्डिया कम्पनी आफ नीदरलैण्ड : हालैण्ड सरकार के सहयोग से डचों द्वारा १६०२ ई. में संगठित। उसका प्रधान कार्यालय बटाविया में था। उसने मसालेवाले द्वीपों के साथ मसाले के लाभदायक व्यापार पर अपना ध्यान केन्द्रित किया और अंग्रेजों को 'जावा' और 'मलक्का' द्वीपों से बाहर निकाल दिया। भारत में भी १६०९ ई. में उसने अपनी कोठियाँ मद्रास के उत्तर, पुलीकट में और बाद में मछलीपट्टम् और सूरत में स्थापित कीं। मसाले के व्यापार पर एकाधिकार डच बनाया। बंगाल में चिन्सुरा में बस गये और पलासी के युद्ध के पश्चात् बंगाल में अंग्रेजों के बढ़ते हुए राजनीतिक प्रभाव के कारण उनसे ईर्ष्या करने लगे। फलतः राबर्ट क्लाइव ने उन पर नवम्बर १७५९ ई. में आक्रमण किया तथा विदारि (दे.) के युद्ध में उन्हें परास्त कर दिया। इसके पश्चात् डचों ने भारत में राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों से कोई प्रतिद्वन्द्विता नहीं की और अपना ध्यान केवल व्यापार पर केन्द्रित रखा। इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच युद्ध प्रारम्भ होने पर १७९१ ई. में इंग्लैण्ड और हालैण्ड के बीच भी युद्ध घोषित कर दिया गया और भारत में डचों द्वारा अधिकृत समस्त क्षेत्र अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। अंग्रेजों ने १८१० ई. में जावा पर भी अधिकार कर लिया। किन्तु १८१६ ई. में उसे डचों को लौटा दिया।

यूनानी (यवन) : भारतीय इतिहास पर इनका बहुत अधिक प्रभाव है। इस बात का निश्चित प्रमाण है कि भारत पर सिकन्दर के आक्रमण (ईसा पूर्व ३२७-३२६) से शताब्दियों पहले भारत और यूनान के बीच सम्पर्क स्थापित था। सुप्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक पैथागोरस ने, जो ईसा पूर्व छठीं शताब्दी के अन्त में वर्तमान था और पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता था, निश्चय ही भारत के सांख्‍य-दर्शन से यह सिद्धांत लिया था। ऐसा उल्‍लेख मिलता है कि एक भारतीय विद्वान् एथेंस में यूनानी दार्शनिक सुकरात (ईसा पूर्व ४६९-३९९) से मिला था और उससे दर्शन पर बहस की थी। अफलातून अथवा प्लेटो (ईसा पूर्व ४२७-३४७) भारतीय दर्शन के कर्मसिद्धान्त से परिचित था। इसी प्रकार भारतीय दर्शन और इलीटिक्स तथा थेल्स द्वारा प्रतिपादित यूनानी दर्शन में जो अद्भुत साम्य मिलता है उससे जाहिर है कि सिकन्दर के पहले भारतीय और यूनानी दार्शनिकों के बीच निकट सम्पर्क हुए बिना वह नहीं घटित हो सकता। सिकन्दर ने भारत पर अकारण आक्रमण करके यहाँ बहुत सा रक्त बहाया, उसके साथ बहुत से यूनानी भी भारत आये। यद्यपि सिकन्दर के मरने के साथ भारत पर उसका प्रभुत्व समाप्त हो गया तथापि भारत और यूनानियों का सम्पर्क जारी रहा। सेनापति सेल्यूकस ने सिकन्दर के मरने के बाद साम्राज्य के पूर्वी भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया और ईसा पूर्व ३०५ में उसने भी भारत पर आक्रमण किया, लेकिन भारतीय सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य (दे.) (ईसा पूर्व ३२२-२९८) ने उसे पराजित कर दिया और उसकी लड़की से विवाह कर लिया।

सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त के दरबार में मेगस्थनीज नाम का दूत भेजा। चन्द्रगुप्त के बाद बिन्दुसार ने सीरिया के यूनानी राजा एँटियोकस से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम किया और उसको पत्र लिखकर एक यूनानी दार्शनिक भारत में भेजने के लिए अनुरोध किया। बिन्दुसार के पुत्र अशोक ने भी सीरिया, मिस्र, मकदूनिया और इपिरस के यूनानी राजाओं से सम्पर्क कायम किया। इन सभी देशों में अशोक ने बौद्ध भिक्षुओं को भेजा और वहाँ चिकित्सालय आदि खुलवाये और जड़ी-बूटियों के पेड़ लगवाये। कहा जाता है, इन देशों में बहुत से लोगों ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। भारत में भी बहुत से यूनानी लोग अशोक की सेवा में नियुक्त थे। उसने तुशाष्प नामक यूनानी को सौराष्ट्र का क्षत्रप नियुक्त किया था। अफगानिस्तान में, जो उन दिनों अशोक के साम्राज्य के अन्तर्गत था, बहुत से यूनानी रहते थे। शायद इसलिए कन्दहार के निकट जो शिलालेख मिला है, उसे अशोक ने दो भाषाओं-यूनानी और अरमइक में लिखवाया था। अशोक के बाद पश्चिमोत्तर भारत में बहुत से छोटे-छोटे यवन राज्य स्थापित हो गये, जो प्रथम शताब्दी ईसवी में कुषाण साम्राज्‍य की स्थापना होने तक, वर्तमान रहे। इसी जमाने में भारतीयों और यूनानियों के बीच निकट सांस्कृतिक संबंध स्थापित हुआ और हजारों यूनानियों ने या तो बौद्ध धर्म या ब्राह्मण धर्म (हिन्दू धर्म) ग्रहण कर लिया।

यूनानी राजा मिनान्डर (मिलिन्द) ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और यूनानी राजदूत हेलियोडोरस (हलधर) ने वैष्णव धर्म अंगीकार किया और वासुदेव के सम्मान में बेसनगर में गरुड़स्तम्भ की स्थापना की। इसी काल में मूर्ति कला की गांधार शैली का विकास हुआ और बुद्ध की असंख्य कलात्मक मूर्तियों का निर्माण हुआ, जिन पर यूनानी प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। वस्तुतः भारत और यूनान दोनों ने एक दूसरे को प्रभावित किया। यूनान ने भारत में दर्शन, धर्म, गणित और अन्य विज्ञान लिये। बदले में भारत ने यूनान से वास्तुकला, मुद्रा-निर्माण कला, साहित्य तथा ज्योतिष विद्या ली।

यूरोपीय यात्री, आरम्भिक : उन यूनानी यात्रियों से भिन्न थे जो ३२७ ई. पू. में भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के बाद भारत आये और जिन्होंने अपना यात्रा-विवरण भी प्रस्तुत किया। ये लोग अपने को यूरोपीय नहीं कहते थे। यूरोपीय यात्रियों में प्रथम था वेनिस (इटली) निवासी मार्कोपोलो, जो १२८८ और १२९३ ई. में भारत आया था। इसके बाद १४२० ई. में इटालियन यात्री निकोलो कोन्टी विजयनगर आया था। ५० वर्ष बाद रूसी यात्री अकानासी निकितन ने १४७० से १४७४ ई. तक बहमनी राज्य की यात्रा की। १५२२ ई. में पुर्तगाली यात्री डोमिंगोज पायस विजयनगर आया। १३ वर्ष पश्चात् दूसरा पुर्तगाली यात्री फर्नाओ नूनिज भी विजयनगर आया। टामस स्टेफेन्स पहला अंग्रेज था जो भारत आया। वह गोवा स्थित जेशुइट कालेज का रेक्टर था। उसने अपने पिता को जो पत्र लिखे, उनसे इंग्लैण्ड में भारत के प्रति बड़ी दिलचस्पी पैदा हुई।

तत्पश्चात् १५८३ ई. में अंग्रेज व्यापारी फिच अपने दो साथियों के साथ भारत आया। वह सात वर्ष तक भारत में रहा। १५९२ ई. में इंग्लैण्ड वापस जाकर उसने भारत का आँखों देखा हाल प्रकाशित किया। इससे इंग्लैण्ड के निवासियों में भारत के प्रति दिलचस्पी और भी बढ़ गयी। १५९९ ई. में तीसरा अंग्रेज यात्री जान मिडनाल अथवा मिल्डेनहाल स्थल मार्ग से भारत आया और सात वर्ष तक यहाँ रहा। वह अकबर के दरबार में आगरा भी गया। चूँकि उस समय तक उत्‍तमाशा अन्तरीप (द. अफ्रीका) होकर यूरोप और भारत के बीच समुद्री रास्ते की जानकारी हो चुकी थी, अतएव इस रास्ते बहुत से यूरोपीय यात्री भारत आने लगे। इन लोगों में कैप्टन विलियम हाकिन्स भी था। हाकिन्स भारत में १६०८ से १६१४ ई. तक रहा। उसने भारत का रोचक विवरण प्रस्तुत किया है। सर टामस रो तथा पादरी एडवर्ड टेरी १६१५ से १६१९ ई. तक भारत में रहे। फैक्वाय बर्नियर तथा जीन बैप्टिस्ट टैवर्नियर भारत में शाहजहाँ (१७२७-६० ई.) के शासन काल में आये और उस समय का दिलचस्प विवरण प्रस्तुत किया।

यूले, जार्ज : उन बिरले गैर-सरकारी अंग्रेज व्यापारियों में से एक, जो भारत की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं से सहानुभूति रखते थे। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थक था और १८८८ ई. में इलाहाबाद में सम्पन्न उसके चौथे अधिवेशन का सभापतित्व उसी ने किया था।

यूसुफ आदिल खाँ (शाह) : बीजापुर (दे.) के आदिलशाही वंश का प्रवर्तक। वह तुर्की के सुल्तान मुराद द्वितीय का पुत्र माना जाता है। उसे सुरक्षा की दृष्टि से गुप्त रूप से फारस लाया गया, और वहाँ दास के रूप में बहमनी सुल्तान मुहम्मद शाह तृतीय (दे.) के मंत्री मुहम्मद गवाँ (दे.) के हाथ बेच दिया गया। यूसुफ अपनी योग्यता के आधार पर अपना मार्ग प्रशस्त करके, उच्च पद पर पहुँच गया और बहमनी सुल्तान के द्वारा बीजापुर का हाकिम बना दिया गया, जहाँ वह १४८९-९० ई. में स्वतन्त्र शासक बन बैठा और मृत्युपर्यन्त वहाँ का शासन किया। उसकी मृत्यु १५१० ई. में हुई। उससे बीजापुर के आदिलशाही वंश की नींव पड़ी, जिसने १६८६ ई. तक शासन किया, अन्तिम सुल्तान सिकन्दर को सम्राट् औरंगजेब ने परास्त करके बंदी बनाया और अपदस्थ कर दिया। यूसुफ आदिलशाह वीर एवं सहिष्णु शासक था। उसने हिन्दुओं को ऊँचे पदों पर नियुक्त किया। वह शिया मत का था। उसने एक मराठा स्त्री से विवाह किया, जिसका नाम बूबूजी खानम रखा गया। वह उसके पुत्र और उत्तराधिकारी इस्माइल शाह की माता बनी। वह गोवा बन्दरगाह के महत्त्व को भली प्रकार समझता था और वहाँ अक्सर निवास करता था। १५१० ई. में पुर्तगाली एडमिरल एल्बुकर्क ने सुल्तान के स्थानीय अधिकारियों की लापरवाही से लाभ उठाकर बन्दरगाह पर कब्जा कर लिया, परन्तु यूसुफ आदिलशाह ने छः मास बाद उसे पुनः हस्तगत कर लिया। वह विद्वानों और गुणीजनों का संरक्षक था। ७४ वर्ष की अवस्था में उसका देहावसान हुआ।

युसुफजई कबीला : एक लड़ाकू प्रकृति का पठान कबीला। इस कबीले के लोगों ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया जो दबा दिया गया। १६६७ ई. में वे फिर मुगल बादशाह औरंगजेब के विरुद्ध उठ खड़े हुए और मुगल सूबेदार अमीर खाँ को १६७२ ई. में अली मस्जिद नामक स्थान पर मार डाला। बादशाह ने स्वयं पेशावर में उपस्थित होकर विद्रोह को कुचला, फिर भी वे क्षुब्ध बने रहे। ब्रिटिश शासनकाल में भी वे जब-तब विद्रोह कर बैठते थे।

यूसुफ शाह : कश्मीर का मुसलमान शासक। अकबर ने १५८६ ई. में उसके राज्य पर आक्रमण करके उसे परास्त कर दिया, कश्मीर को मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।

यूसुफ शाह : १४७४ से १४८१ ई. तक बंगाल का शासक। उसने शम्सुद्दीन अबुल मुजफ्फर युसुफ शाह की उपाधि धारण की थी। वह अपने पिता बर्बक शाह का उत्तराधिकारी बना। वह सद्गुणी, धर्मपरायण, योग्य और विद्वान व्यक्ति था। उसने सिलहट को विजित कर अपने राज्य में मिला लिया।

येन-काओ-चिंग अथवा येन : युइशि राजा कथफिश द्वितीय (दे.) का मूल नाम।

योगदर्शन : भारतीय षड्दर्शनों में से एक, जिसके प्रचारक पतंजलि माने जाते हैं। योगदर्शन व्यावहारिक आचरण का दर्शन है। यह चित्तवृत्तियों के निरोध का उपाय बतलाता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-ये योग के आठ अंग हैं। योगदर्शन ईश्वर में विश्वास करता है जो सर्वापेक्षया उत्तम अर्थात् निरतिशय परमगुरु, सर्वज्ञ, सर्वकर्ता है। योगी अभ्यास के द्वारा समाधिस्थ होने पर अनुभव करता है कि इस दृश्यमान जगत से परे भी अनेक ब्रह्मांड हैं जो स्थूल इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं हैं। इस प्रकार हम जिसे अलौकिक समझते हैं, वह योगी को सर्वथा स्वाभाविक अनुभूत होता है। योगी समाधिस्थ होकर परम सुख (ब्रह्मानन्द) में लीन हो जाता है। यही कारण है कि अति प्राचीन काल से आजतक योगमार्ग मुमुक्षुओं को आकर्षित करता रहा है।

योगवासिष्ठ रामायण : संस्कृत का प्रसिद्ध अध्यात्म-ग्रंथ शाहजादा दारा शिकोह (दे.) ने इसका फारसी भाषा में अनुवाद किया था।

योन- : अशोक के अभिलेखों में उल्लिखित एक सीमावर्ती जनपद। इस जनपद के बहुत से लोगों को अशोक ने बौद्ध धर्मानुयायी बनाया था। लोग मूलतः यूनानियों के वंशज थे और अशोक के साम्राज्यांतर्गत होने के कारण उसकी प्रजा बन गये थे। हाल में कंदहार में अशोक का एक शिलालेख मिला है जो दो लपियों में है। इससे भी इस बात की पुष्टि होती हैं कि उसके साम्राज्यांतर्गत यवन (योन) लोग भी बसते थे।

यौंधेय : गण के लोग, सम्भवतः क्षत्रिय थे। इनका उल्लेख समुद्रगुप्त (दे.) के प्रयाग स्तम्भलेख में मालव, मद्रक आदि गणराज्यों के साथ हुआ है, जिन्हें समुद्रगुप्त ने करदान तथा आज्ञापालन के लिए बाध्य किया था। पहले ये लोग सम्भवतः सतलज की घाटी में रहते थे परन्तु बाद में शूरसेन क्षेत्र तक फैल गये। (बी. सी. ला--सम एन्शियेण्ट मिड-इण्डियन क्षत्रिय ट्राइब्स)।

रंग प्रथम : विजयनगर (दे.) के चतुर्थ आरबिंदु वंश के शासक तिरुमल का पुत्र और उत्तराधिकारी। तिरुमल रामराज का भ्राता था, जो १५६५ ई. के तालीकोट (दे.) के युद्ध में मारा गया। इस युद्ध के परिणामस्वरूप विजयनगर राज्य की सीमाएँ अत्यधिक संकुचित हो गयीं और इसी बचे-खुचे भाग पर रंग प्रथम ने प्रायः १५७३ ई. से १५८५ ई. तक राज्य किया।

रंग द्वितीय : विजयनगर (दे.) के चतुर्थ राजवंश का अन्तिम शासक। उसने १६४२ से १६४६ ई. तक शासन किया, पर उन दिनों विजयनगर के शासकों की स्थिति सामंतों के समान हो गयी थी। यद्यपि उसके १६८४ ई. तक के अभिलेख प्राप्त हैं तथापि इनसे उसके शासनकाल की राजनीतिक घटनाओं की कोई जानकारी नहीं मिलती।

रघुजी भोंसला : नागपुर के भोंसला शासकों में प्रथम। जन्म एक मराठा ब्राह्मण परिवार में। वैवाहिक सम्बन्ध से वह राजा शाहू का सम्बन्धी भी था। वह पेशवा बाजीराव प्रथम (दे.) के प्रतिद्वन्द्वी दल का नेता था। पेशवा ने उसे बरार प्रान्त में मराठा शक्ति संघटित करने का पूर्ण अधिकार दे रखा था।

रघुजी महान् योद्धा और बाजीराव प्रथम द्वारा संगठित मराठा संघ का महत्त्वपूर्ण सदस्य था। उसने भारत के पूर्वीय क्षेत्रवर्ती उड़ीसा और बंगाल तक के भूभागों को अपने आक्रमणों से आतंकित कर दिया और बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ (दे.) से उड़ीसा पर मराठों का अधिकार संधि द्वारा मनवा लिया। उसके वंशजों ने नागपुर को राजधानी बनाकर बरार प्रान्त पर १८५३ ई. तक राज्य किया और उसी वर्ष लार्ड डलहौजी (दे.) ने पुत्रहीन रघुजी तृतीय की मृत्यु के उपरान्त बरार को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया।

रघुजी द्वितीय : रघुजी भोंसला (प्रथम) का पौत्र, जिसने १७८८ ई. से १८१६ ई. तक राज्य किया। वह द्वितीय मराठा-युद्ध (दे.) में भी सम्मिलित था, किन्तु असई (अगस्त १८०३) और आरगाँव (नवम्बर १८०३) के युद्धों में पराजित होने के कारण दिसम्बर १८०३ ई. में उसे अंग्रेजों से अलग संधि करनी पड़ी, जो देवगाँव की संधि के नाम से विख्यात है। संधि की शर्तों के अनुसार उसे भारत के पूर्वी समुद्रतट के कटक और बालासोर जिले तथा मध्य भारत में वारधा नदी के पश्चिम का अपने राज्य का समस्त भू-भाग अंग्रेजों को दे देना पड़ा। यद्यपि उन्होंने अंग्रेजों के साथ विधिवत् सहायक संधि नहीं की, तथापि अपने तथा निजाम और पेशवा के बीच होनेवाले विवादों में अंग्रेजों की मध्यस्थता स्वीकार कर ली। साथ ही अंग्रेजों की पूर्व अनुमति के बिना किसी यूरोपीय को अपने यहाँ नौकर न रखने और नागपुर में अंग्रेज रेजीडेण्ट रखने की शर्तों को भी स्वीकार कर लिया। आगे चलर पेंढारियों ने उसके राज्य में काफी लूटमार की और तबाही फैलायी। १८१६ ई. में तृतीय मराठा-युद्ध (दे.) प्रारंभ होने के पूर्व ही उसकी मृत्यु हो गयी। तत्पश्चात् उसका अयोग्य पुत्र परसोजी भोंसला (दे.) नागपुर का शासक बना।

रघुजी भोंसला, तृतीय (१८१८-५३ : एक दुर्बल शासक, जिसे अंग्रेजों ने नागपुर के सिंहासन पर अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए आसीन किया। उसकी कमजोरी का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने, भोंसला राज्य के नर्मदा नदी के उत्तरस्थित समस्त भू-भाग पर अपना अधिकार कर लिया। १८५३ ई. में उसकी निस्संतान मृत्यु हुई और गोद प्रथा के अन्त की नीति के अनुसार लार्ड डलहौजी ने उसके शेष राज्य को भी ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया।

रघुनन्दन (स्मार्त भट्टाचार्य) : प्रख्यात धर्मशास्त्रकार। जन्म सोलहवीं शताब्दी में बंगाल के नवद्वीप (नदिया) नामक स्थान पर। वे चैतन्यदेव (दे.) के समकालीन थे। पिता का नाम हरिहर भट्टाचार्य था। उन्होंने नव्य समृति की, जिनका बंगाल के हिन्दुओं के सामाजिक तथा धार्मिक जीवन पर गंभीर प्रभाव पड़ा। अपने स्मृति-सम्बन्धी प्रगाढ़ ज्ञान के कारण वे स्मार्त भट्टाचार्य के नाम से भी विख्यात हैं।

रघुनाथराव (उपनाम राघोबा) : द्वितीय पेशवा बाजीराव प्रथम (दे.) का द्वितीय पुत्र, जो कुशल सेनानायक था। अपने बड़े भाई बालाजी बाजीराव (दे.) के पेशवाकाल में उसने होल्कर के सहयोग से उत्तरी भारत में बृहत् सैनिक अभियान चलाया। १७५८ ई. में उसने अहमदशाह अब्दाली (दे.) के पुत्र तैमूरशाह (दे.) को पराजित कर सरहिन्द पर अधि‍कार कर लिया तथा पंजाब पर अधिकार करके मराठों (हिन्दुओं) की सत्ता अटक तक संस्थापित कर दी, किन्तु राजनीतिक तथा आर्थिक दृष्टियों से उक्त उपलब्धियाँ लाभकर सिद्ध न हुईं। तैमूरशाह को पंजाब से खदेड़ने के कारण उसके पिता अहमदशाह अब्दाली ने १७५९ ई. में भारत पर आक्रमण करके पंजाब में मराठा शक्ति का उन्मूलन कर दिया। उपरांत १७६१ ई. में पानीपत के तृतीय युद्ध (दे.) में मराठों को गहरी पराजय दी। इस युद्ध में भीषण नरसंहार हुआ, पर रघुनाथराव किसी प्रकार बच निकला।

रघुनाथराव अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी था। बड़े भाई बालाजी बाजीराव की मृत्यु के उपरान्त उसके पुत्र (और अपने भतीजे) माधवराव (दे.) के पेशवा बनने पर वह क्षुब्ध हो गया, किन्तु नवयुवक पेशवा (माधवराव) योग्य एवं चतुर निकला। उसने रघुनाथराव की समस्त चालों को विफल कर दिया। किन्तु १७७२ ई. में माधवराव की सहसा मृत्यु हो जाने के उपरान्त जब उसका छोटा भाई नारायणराव (दे.) पेशवा हुआ तो रघुनाथराव अपनी महत्त्वकांक्षा को अंकुश में न रख सका। उसने १७७३ ई. में षड्यंत्र करके नवयुवक पेशवा को अपनी आंखों के सामने ही मरवा डाला। मृत्यु के समय नारायणराव का कोई पुत्र न था। अतएव रघुनाथराव पेशवा पद का अकेला दावेदार रह गया और १७७३ ई. में उसे पेशवा घोषित भी कर दिया गया।

किन्तु नाना फड़नवीस के नेतृत्व में मराठों के एक शक्तिशाली दल ने पूना में उसके पदासीन होने का सबल विरोध किया। इस दल को नारायणराव के मरणोपरान्त १७७४ ई.में एक पुत्र उत्पन्न होने से और भी अधिक सहारा मिला। रघुनाथराव के विरोधियों ने अविलम्ब नवजात शिशु माधवराव नारायण को पेशवा घोषित कर दिया। उन्होंने एक संरक्षक समि‍ति बना ली तथा बालक पेशवा के नाम पर समस्त मराठा राज्य का शासन सँभाल लिया। इस प्रकार रघुनाथराव अब अकेला पड़ गया और उसे महाराष्ट्र से निकाल दिया गया। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं पर पानी फिर जाने से रघुनाथराव की समस्त देशभक्ति कुण्ठि‍त हो गयी और उसने बम्बई जाकर अंग्रेजों से सहायता की याचना की तथा १७७५ ई. में उनसे संधि भी कर ली, जो सूरत की संधि के नाम से विख्यात है। संधि के अन्तर्गत अंग्रेजों ने रघुनाथराव की सहायता के लिए २५०० सैनिक देने का वचन दिया, परन्तु इनका समस्त व्ययभार रघुनाथ राव को ही वहन करना था। इसके बदले में रघुनाथराव ने साष्टी और बसई तथा भड़ौच और सूरत जिलों की आय का कुछ भाग अंग्रेजों को देना स्वीकार किया। साथ ही उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी के शत्रुओं से किसी प्रकार की संधि न करने तथा पूना सरकार से संधि या समझौता करते समय अंग्रेजों को भी भागी बनाने का वचन दिया।

सन्धि के फलस्वरूप बम्बई के अंग्रेजों ने रघुनाथराव का पक्ष लिया और प्रथम मराठा-युद्ध प्रारंभ हो गया। यह युद्ध १७७५ ई. से १७८३ ई. तक चलता रहा और इसकी समाप्ति साल्बाई की संधि से हुई। अपनी देशद्रोहिता एवं घृणित स्वार्थपरता के परिणामस्वरूप रघुनाथराव को केवल पेंशन ही प्राप्त हुई, जिसका उपभोग वह अपने एकांकी जीवन में मृत्युपर्यन्त करता रहा।

रज़ि‍या, सुल्ताना : भारतीय इतिहास में एकमात्र महिला है, जिसे दिल्ली के सिंहासन पर बैठने का अवसर मिला। वह दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश की पुत्री थी। अपनी मृत्यु के पूर्व ही इल्तुतमिश ने रजिया को उत्तराधिकारी चुना था। किन्तु दिल्ली दरबार के सरदार और उमरा अपने ऊपर किसी स्त्री का शासन करना उचित नहीं समझते थे, अतएव उन्होंने मई १२३६ ई. में सुल्तान की मृत्यु होते ही रजिया के बड़े भाई रुकनुद्दीन को शासक नियुक्त किया। किन्तु रुकनुद्दीन अयोग्य सिद्ध हुआ। फलतः सिंहासनासीन होने के कुछ ही महीने उपरान्त उसे गद्दी से उतारकर मार डाला गया और रजिया को सिंहासनासीन किया गया। उसने चार वर्षों तक (१२३६-४० ई.) राज्य किया। रजिया राज्य के सम्मुख हाथी पर सवार होकर निकलती थी। उसने हिन्दू और मुसलमान विद्रोहियों के विरुद्ध स्वयं सैन्य संचालन किया और अपनी योग्यता एवं चतुरता से सिन्ध से बंगाल तक विस्तृत दिल्ली सल्तनत को अक्षुण्ण रखा।

किन्तु उसके सरदारों को स्त्री के शासन में रहना रुचिकर न लगा। उधर रजिया ने याकूत नामक एक हब्शी गुलाम को अपना अत्यधिक विश्वासपात्र बना लिया था। इसी बहाने सरदारों ने सिंध के सूबेदार अल्तूनिया के नेतृत्व में रजिया के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। विद्रोहियों ने उसे गद्दी से उतार दिया, किन्तु रजिया ने चतुराई की चाल चलकर अल्तूनिया से विवाह करके अपनी स्थिति सुधारने का प्रयास किया। विद्रोही सरदार इससे भी संतुष्ट न हुए। उन्होंने १२४० ई. में रजिया और उसके पति अल्तूनिया को युद्ध में परास्त कर मार डाला।

रणजीत सिंह, महाराज (१७८०-१८३१) : पंजाब के सिख राज्य का संस्‍थापक। उसका पिता महासिंह सुकर चकिया मिसल का मुखिया था। रणजीतसिंह की केवल १२ वर्ष की उम्र में ही उसके पिता का देहान्त हो गया और बाल्यावस्था में ही वह सिख मिसलों के एक छोटे से समूह का सरदार बनाया गया। आरम्भ में उसका शासन केवल एक छोटे से भू-खंड पर था और सैन्यबल भी सीमित था। १७९३ ई. से १७९८ ई.के बीच अफगान शासक जमानशाह के निरंतर आक्रमणों के फलस्वरूप पंजाब में इतनी अराजकता फैल गयी कि उन्नीस वर्षीय रणजीतसिंह ने १७९९ ई. के जुलाई मास में लाहौर पर अधिकार कर लिया और जमानशाह ने परिस्थितिवश उसको वहाँ का उपशासक स्वीकार करते हुए राजा की उपाधि प्रदान की। इसके उपरांत रणजीतसिंह को बराबर सैनिक एवं सामरिक सफलताएँ मिलती गयीं और उसने अफगानों की नाममात्र की अधीनता भी अस्वीकार कर दी तथा सतलज पार की सभी सिख मिसलों को अपने अधीन कर लिया। उसने अमृतसर पर अधिकार करके वहाँ की जमजमाँ नामक प्रसिद्ध तोप पर भी अधिकार कर लिया और जम्मू के शासक को अपनी अधीनता स्वीकार करने को विवश किया।

१८०५ ई. में जब लार्ड लेक यशवन्तराव होल्कर का पीछा कर रहे थे, होल्कर भागकर पंजाब में घुम आया। किन्तु रणजीतसिंह ने इस खतरे का निवारण बड़ी दूरदर्शिता और राजनीतिज्ञता से किया। उसने अँग्रेजों के साथ सन्धि कर ली, जिसके अनुसार पंजाब होल्कर के प्रभाव-क्षेत्र से मुक्त माना गया और अँग्रेजों ने सतलज नदी के उत्तर पंजाब के समस्त भू-भाग पर रणजीतसिंह की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली। उन दिनों सतलज के इस पार की छोटी-छोटी सिख रियासतों में परस्पर झगड़े होते रहते थे और उनमें से कुछ ने रणजीतसिंह से सहायता की याचना भी की। रणजीतसिंह भी इन समस्त सिख रियासतों को अपने नेतृत्व में संघबद्ध करना चाहता था। इस कारण उसने इन क्षेत्रों में कई सैनिक अभियान किये और १८०७ ई. में लुधियाना पर अधिकार कर लिया। उसका इस रीति से सतलज के इस पार की कुछ छोटी-छोटी सिख रियासतों पर सत्ता विस्तार अंग्रेजों को रुचिकर न हुआ। उस समय तक अंग्रेजों का राज्य-विस्तार दिल्ली तक हो चुका था। उन्होंने सर चार्ल्स मेटकाफ के नेतृत्व में एक दूतमंडल और उसके पीछे-पीछे डेविड आक्टरलोनी के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना रणजीतसिंह के राज्य में भेजी। इस बार भी रणजीतसिंह ने राजनीतिक सूझबूझ का परिचय दिया और अंग्रेजों से १८०९ ई. में चिरस्थायी मैत्री संधि कर ली, जो अमृतसर की संधि के नाम से विख्यात है। इसके अनुसार उसने लुधियाना पर से अधिकार हटा लिया और अपने राज्यक्षेत्र को सतलज नदी के उत्तर और पश्चिम तक ही सीमित रखना स्वीकार किया। साथ ही उसने सतलज को दक्षिणवर्ती रियासतों के झगड़ों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। परिणामस्वरूप ये सभी रियासतें अंग्रेजों के संरक्षण में आ गयीं।

रणजीतसिंह ने अब दूसरी दिशा में विजय यात्राएँ आरम्भ करते हुए १८११ ई. में कांगड़ा तथा १८१३ ई. में अटक पर अधिकार कर लिया और अफगानिस्तान के भगोड़े शासक शाहशुजा को शरण दी। शाहशुजा से हो १८१४ ई. में उसने प्रसिद्ध कोहेनूर हीरा प्राप्त किया था। उपरान्त १८१८ ई. में उसने सुल्तान और १८१९ ई. में काश्मीर को जीतकर १८२३ ई. में पेशावर को अपनी अधीनता स्वीकार करने पर बाध्य किया और १८३४ ई. में पेशावर के किले पर भी अधिकार कर लिया। उसकी दृष्टि सिन्ध पर भी लगी थी परन्तु इस दिशा में अंग्रेज पहले से घात लगाये हुए थे, क्योंकि वे रणजीतसिंह की विस्तारवादी नीति से सशंकित थे।

रणजीतसिंह यथार्थवादी राजनीतिज्ञ था, जिसे संभव और असंभव को भली परख थी। इसी कारण उसने १८३१ ई. में अंग्रेजों से पुनः संधि की, जिसमें चिरस्थायी मैत्रीसंधि की शर्तों को दुहराया गया। इस प्रकार रणजीतसिंह ने न तो अंग्रेजों से कभी कोई युद्ध किया और न उनकी सेनाओं को किसी भी बहाने से अपने राज्य के अन्दर घुसने दिया। ५९ वर्ष की उम्र में १८३९ ई. में अपनी मृत्यु के समय तक उसने एक ऐसे सुगठित सिख राज्य का निर्माण कर दिया था, जो पेशावर से सतलज तक और काश्मीर से सिन्ध तक विस्तृत था। किन्तु इस विस्तृत साम्राज्य में वह कोई मजबूत शासन-व्यवस्था प्रचलित न कर सका और न सिखों में वैसी राष्ट्रीय भावना का संचार कर सका, जैसी शिवाजी ने महाराष्ट्र में उत्पन्न कर दी थी। फलतः उसकी मृत्यु के केवल १० वर्ष उपरान्त ही यह साम्राज्य नष्ट हो गया। फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि अफगानों, अंग्रेजों तथा अपने कुछ सहधर्मी सिख सरदारों के विरोध के बावजूद रणजीतसिंह ने जो महान सफताएँ प्राप्त कीं, उनके आधार पर उसकी गणना उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की महान विभूतियों में की जानी चाहिए।

रफ़ी उद्दाराजात : सातवें मुगल सम्राट् बहादुरशाह (दे.) (शाह आलम प्रथम) का पौत्र तथा शाहजादा रफीउश्‍शान का पुत्र, जो मुगल वंश का दसवाँ बादशाह था। १७१९ ई. में सैयद बन्धुओँ ने (दे.) ने फर्रुखशियर (दे.) की हत्या करके रफी उद्दाराजात को बादशाह बनाया किन्तु कुछ हो महीनों के उपरान्त सैयद बन्धुओं ने उसे भी गद्दी से उतारकर उसकी हत्या कर दी।

रफ़ीउद्दौला : सैयद बन्धुओं ने इसके छोटे भाई रफी उद्दाराजात के उपरान्त १७१९ ई. में इसे दिल्ली के सिंहासन पर आसीन किया। यह ग्यारहवाँ मुगल बादशाह था। अपने भाई की भाँति यह भी सैयद बंधुओं के हाथों की कठपुतली था और सिंहासनासीन होने के थोड़े ही दिनों के उपरान्त उन्होंने इसे गद्दी से उतार दिया।

रमण, सर चन्द्रशेखर व्यंकट : अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक। इनकी गणना भौतिकीशास्त्र के मूर्धन्य विद्वानों में की जाती है। आधुनिक युग में डॉ. रमण ने समस्त विश्व में भारतीय विद्वानों तथा अन्वेषकों की प्रतिष्ठा में वृद्धि की है। १८८८ ई. में दक्षिण भारत में जन्म लेकर उन्होंने १९०७ ई. से १९१७ ई. तक भारतीय वित्त विभाग में कार्य किया। उनकी प्रतिभा छिपी न रह सकी। सर आशुतोष मुखर्जी महोदय का ध्यान इनकी ओर गया और वे इन्हें १९१८ ई. में विद्या के क्षेत्र में खींच लाये। मुखर्जी महोदय ने उनको कलकत्ता विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग में 'पालित प्राध्यापक' के पदपर प्रतिष्ठित किया और वही कार्य करते हुए १९२८ ई. में उन्होंने प्रकाश-किरणों की सूक्ष्म रचना के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक अनुसंधान किया, जिसे उन्हीं के नाम पर 'रमन्स इम्पेक्ट' की संज्ञा दी गयी।

१९३० ई. में उन्हें रायल एशियाटिक सोसाइटी का सदस्य मनोनीत होने का गौरव प्राप्त हुआ और उसी वर्ष उन्हें भौतिकी में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। वर्षों तक वे कलकत्ता स्थित वैज्ञानिक प्रगति संस्थान के अध्यक्ष रहे और कलकत्ता विश्वविद्यालय से अवकाश ग्रहण कर लेने के उपरान्त बंगालोर में स्थित 'विज्ञान संस्थान' (इंस्टीट्यूट आफ साइंस) के निदेशक रहे।

बंगलोर में ही उन्होंने रमण अनुसंधान केन्द्र स्थापित किया। यूरोप और अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में विशिष्ट रूप में आमंत्रित व्याख्यानदाता भी होते रहे। १९३० ई. में रायल सोसाइटी ने उन्हें 'मेटेन्काइ पदक' प्रदान किया और १९४१ ई. में अमेरिका के फ्रैंकलिन इन्स्टीट्यूट द्वारा 'फ्रैंकलिन पदक' प्रदान किया गया। १९५८ ई. में उन्हें सोवियत रूस द्वारा 'लेनिन पुरस्कार' प्राप्त हुआ। अंग्रेजों के शासन-काल में जब भारतीयों को अनुसंधान के क्षेत्र में पर्याप्त साधन-काल में जब भारतीयों को अनुसंधान के क्षेत्र में पर्याप्त साधन उपलब्ध न थे, श्रीरमण ने अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों से देश का गौरव बढ़ाया और सिद्ध किया कि भारतीय भी विश्व के वैज्ञानिक क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योग दे सकते हैं।

रमेशचन्द्र दत्त : जन्म १८४८ ई., कलकत्ता, रामबागान के दत्त परिवार में। इन्होंने इंडियन सिविल सर्विस के भारतीयकरण का एवं समाज-सुधार तथा राष्ट्रवाद के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा बिहारीलाल गुप्त के साथ लंदन में उन्होंने भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा १८६९ ई. में पास की। इसके दो वर्ष पश्चात् वे सिविल सर्विस में आये। भारतीय होने के नाते उन्हें बहुत दिन तक तरक्की नहीं दी गयी। अन्त में १८९४ ई. में उन्हें उड़ीसा के एक डिवीजन का कमिश्नर नियुक्त किया गया। तीन वर्ष पश्चात अवकाश ग्रहण कर वे गायकवाड़ बड़ोदा के दीवान नियुक्त हो गये। उन्होंने रियासत के प्रशासन को उदार बनाने तथा उसके आधुनिकीकरण के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाये। उन्होंने राष्ट्रीय आंन्दोलन में भी भाग लिया और लखनऊ में १८९९ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षता की।

वे उच्च कोटि के विद्वान् और लेखक थे। उन्होंने 'प्राचीन भारतीय सभ्यता' नामक पुस्तक अंग्रेजी में लिखी जो अपने ढंग की पहली रचना थी। इन्होंने 'ब्रिटिश भारत का आर्थिक इतिहास" (१७५७-१९०० ई.) दो खण्डों में लिखा, जिसमें बताया गया है कि अंग्रेजों ने १५० वर्षों में भारत का किस प्रकार शोषण किया। इन्होंने रामायण और महाभारत का भी अनुवाद अंग्रेजी में किया, ऋग्वेद का अनुवाद बंगला भाषा में किया। इसके अलावा देश में राष्ट्रवादी भावना का प्रसार करने के लिए बंगला भाषा में अनेक उपन्यास लिखे, जिनमें 'जीवन प्रभात' 'राजपूत जीवन संध्या', 'वंग विजेता', माधवी कंकण' और 'संसार' प्रमुख है। (ए. दत्त कृत लाइफ आफ रमेशचन्द्र दत्त)।

रहमतअली चौधरी : एक सुशिक्षित भारतीय मुसलमान, जिसने सर्वप्रथम १९३३ ई. में कैम्ब्रिज में 'पाकिस्तान' शब्द की रचना की। पाकिस्तान का विचार कवि इकबाल की उस विचारधारा का परिवर्द्धित प था, जिसमें उन्होंने मुसलिम-बहुल प्रान्तों के एक संघ की कल्पना की थी। इन प्रान्तों में उत्तर पश्चिमी सीमान्त प्रदेश, बलूचिस्तान, सिन्धु पंजाब और कश्मीर आते थे। आगे चलकर मुहम्मद अली जिन्ना ने इसी विचारधारा को अपनाया और १९४७ ई. में पाकिस्तान के स्वप्न को चरितार्थ कर दिया।

राक्षस : विशाखदत्त के 'मुद्राराक्षस' (दे.) नामक संस्कृत नाटक के अनुसार नन्दवंश के अन्तिम शासक का मंत्री और जाति का ब्राह्ण। नन्दों का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य (दे.) ने मौर्यवंश की नींव डाली और नाटक के अनुसार चन्द्रगुप्त के सहायक चाणक्य (कौटिल्य) ने राक्षस को उसका मंत्री बनने पर विवश किया।

राक्षस : इस जाति का उल्लेख संस्कृत साहित्य में अनेकशः आया है। रामायण के अनुसार वे लंका के निवासी थे और रावण (दे.) उनका राजा था। उनकी सभ्यता विशेष विकसित थी, जैसा कि रामायण में उनकी राजधानी लंका के वर्णन से स्पष्ट है।

राघोवा : देखिये, 'रघुनाथ राव'।

राजगोपालाचारी, चक्रवर्ती : इस ख्यातिलब्ध भारतीय राजनीतिज्ञ का जन्म दक्षिण भारत में १८७९ ई. में हुआ। १९०० ई. में इन्होंने वकालत प्रारम्भ की परन्तु शीघ्र ही छोड़ दी। महात्मा गांधी के सम्पर्क में आकर राजगोपालाचारी उनके अनुयायी बन गये और उपरान्त उनकी पुत्री का विवाह महात्मा गांधी के पुत्र देवदास से होने के कारण दोनों परिवारों में वैवाहिक सम्बन्ध भी हो गया। वे असहयोग आन्दोलन में भाग लेकर कई बार जेलयात्री हुए तथा १९२१-२२ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महामंत्री और कार्यकारिणी समिति के सदस्य बने। उन्होंने सुभाषचन्द्र बोस के लगातार दूसरी बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्‍यक्ष चुने जाने का विरोध किया। १९३७ ई.से १९३९ ई. और पुनः १९५२ ई. से १९५४ ई. तक वे मद्रास प्रान्त के मुख्यमंत्री रहे।अंग्रेजों से देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए उन्होंने पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन किया।

१९४६-४७ ई. की अन्तरिम सरकार में वे केन्द्रीय मंत्री और १९४७-४८ ई. में पश्चिम बंगाल के प्रथम भारतीय राज्यपाल हुए। १९४८ से १९५० ई. तक भारतवर्ष के प्रथम भारतीय गवर्नर-जनरल होने का श्रेय भी उन्हें प्राप्त हुआ। भारतीय गणतंत्र के नये संविधान के लागू होने पर १९५०-५१ ई. में वे गृहमंत्री भी रहे। उपरांत वे नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्य नहीं रहे तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से भी दूर होते गये १९५९ ई. में स्वतंत्र पार्टी की स्थापना में उनका प्रमुख हाथ रहा। राजगोपालाचारी केवल चतुर राजनीतिज्ञ और कुशल वक्ता ही नहीं, अपितु अच्छे लेखक भी थे। १९७२ ई. में उनकी मृत्यु हो गयी।

राजगृह : बिहार में पटना जिले के अन्तर्गत आधुनिक राजगीर नामक छोटे से नगर का प्राचीन नाम। इसका निर्माण राजा बिम्बिसार (ई. पू. छठीं शताब्दी) (दे.) तथा उसके पुत्र अजातशत्रु (दे.) ने कराया था। बुद्ध के महानिर्वाण के कुछ ही महीनों उपरान्त यहीं पर प्रथम बौद्ध संगीति (दे.) हुई थी। आजकल यह स्थान गरम जल के स्रोतों के कारण अधिक प्रसिद्ध है। इस नगर के समीप ही पौराणिक शासक जरासन्ध की राजधानी ने ध्वंसावशेष उपलब्ध हुए हैं।

राजतरंगिणी : इस सुप्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथ की रचना कश्मीर के विख्यात विद्वान् कल्हण (दे.) ने की, जो बारहवीं शताब्दी में हुआ था। इस ग्रंथ में अति प्राचीनकाल से चले आ रहे कश्मीर के राजाओं का पद्यबद्ध इतिहास है। यद्यपि राजतरंगिणी में वर्णित इतिहास है। यद्यपि राजतरंगिणी में वर्णित इतिहास भाग में परम्परागत जनश्रुतियों तथा अलौकिक घटनाओं का बाहुल्य है, पर जैसे-जैसे कल्हण अपने युग के निकट आते गये, वैसे ही वैसे उनका वर्णन विश्वसनीय होता गया है। बारहवीं शताब्दी की स्थानीय घटनाओं के वर्णन की ऐतिहासिक यथार्थता तो अब सभी विद्वानों को मान्य है। समस्त संस्कृत साहित्य में राजतरंगिणी सदृश ऐतिहासिक दृष्टि से रचा गया अन्य ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।

राजन्य : प्राचीन काल में इस शब्द का प्रयोग क्षत्रियों और राजपुत्रों के लिए होता था। सम्राट् अशोक के अभिलेखों में भी राजन्य शब्द का प्रयोग हुआ है।

राजपूत : सातवीं शताब्दी में सम्राट् हर्षवर्धन की मृत्यु से लेकर १२वीं शताब्दी के अन्त में मुसलमानों की भारत विजय तक के लगभग ५०० वर्षों के काल में भारतवर्ष के इतिहास में राजपूतों ने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। यह शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश है। पश्चात्कालीन ग्रंथों में राजपूतों की ३६ शाखाओं का उल्लेख मिलता है, जिनमें से गुर्जर-प्रतीहार (परिहार), चौहान (चाहमान), सोलंकी (चालुक्य), परमार, चन्देल, तोमर, कलचुरि, गहड़वाल (गाहडवाल, गहरवार या राठौर), राष्ट्रकूट और गुहिलोत (सिसोदिया) सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। वीरता, उदारता, स्वातंत्र्य-प्रेम, देशभक्ति जैसे सद्गुणों के साथ उनमें मिथ्या कुलाभिमान तथा एकताबद्ध होकर कार्य करने की क्षमता के अभाव के दुर्गुण भी थे। मुसलमानों के आक्रमण के समय राजपूत हिन्दू धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के रक्षक बनकर सामने आते रहे।

राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में किंचित् विवाद है और यह इस कारण और भी जटिल हो गया है कि प्रारम्भ में राजन्यवर्ग और युद्धोपजीवी लोगों को क्षत्रिय कहा जाता था और राजपूत (राजपूत्र) शब्द का प्रयोग सातवीं शताब्दी के उपरान्त ही प्रचलित हुआ। जनश्रुतियों के अनुसार राजपूत उन सूर्यवंशी एवं चन्द्रवंशी (सोमवंशी) क्षत्रियों के वंशज हैं, जिनकी यशोगाथा रामायण और महाभारत में वर्णित हैं किन्तु अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुहिलोत या सिसोदिया शाखा, जिसमें मेवाड़ के स्वनामधन्य राणा हुए और जो अपने को रामचन्द्रजी का वंशज मानती हैं, वस्तुतः एक ब्राह्मण द्वारा प्रवर्तित हुई थी। इसी प्रकार गुर्जर-प्रतीहार शाखा भी, जो अपने को रामचन्द्रजी के लघु भ्राता लक्ष्मण का वंशज मानती है, कुछ अभिलेखों के अनुसार गर्जरों से आरम्भ हुई थी, जिन्हें विदेशी माना जाता है और जो हूणों के साथ अथवा उनके कुछ ही बाद भारत में आकर गुजरात में बस गये थे। अभिलेखिक प्रमाणों से शकों और भारतीय राज्यवंशों में वैवाहिक सम्बन्ध सिद्ध होते हैं।

शकों के उपरान्त जितनी भी विदेशी जातियाँ पाचवीं और छठीं शताब्दी में भारत आयीं, उनको हिन्दुओं ने नष्ट न करके शकों और कुषाणों की भाँति क्रमशः अपने में आत्मसात् कर लिया। तत्कालीन हिन्दू समाज में उनकी स्थिति उनके पेशे के अनुसार निर्धारित हुई और उनमें से शस्त्रोपजीवी तथा शासक वर्ग क्षत्रिय माना जाकर राजपूत कहलाने लगा। इसी प्रकार भारत की मूलनिवासी जातियों में से गोंड, भर, कोल आदि के कुछ परिवारों ने अपने बाहुबल से छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिये। इनकी शक्ति और सत्ता में वृद्धि होने तथा क्षत्रियोचित शासनकर्मी होने के फलस्वरूप इनकी भी गणना क्षत्रियों में होने लगी और वे भी राजपूत कहलाये। चंदेलों के गोंड राजपरिवारों से, गहड़वालों के भरों से और राठौरों के गहड़वालों से घनिष्ठ वैवाहिक सम्बन्ध थे। सत्य तो यह है कि हिन्दू समाज में शताब्दियों तक जाति का निर्धारण जन्म और पेशे दोनों से होता रहा है। इस सिद्धान्त के अनुसार क्षत्रियों अथवा राजपूतों का वर्ग वस्तुतः देश का शस्त्रोपजीवी तथा शासक वर्ग था जो हिन्दू धर्म और कर्मकाण्ड में आस्था रखता था। इसी कारण राजपूतों के अन्तर्गत विभिन्न नसलों के लोग मिलते हैं।

राजपूतों ने मुसलमान आक्रमणकारियों से शताब्दियों तक वीरतापूर्वक युद्ध किया। यद्यपि उनमें परस्पर एकतः के अभाव के कारण भारत पर अंततः मुसलमानों का राज्य हो गया, तथापि उनके तीव्र विरोध के फलस्वरूप इस कार्य में मुसलमानों को बहुत समय लगा। दीर्घकाल तक मुसलमानों का विरोध और उनसे युद्ध करते रहने के कारण राजपूत शिथिल हो गये और उनकी देशभक्ति वीरता तथा आत्म बलिदान की भावनाएँ कुंठित हो गयीं। यही कारण है कि भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के विरुद्ध किसी भी महत्त्वपूर्ण राजपूत राज्य अथवा शासक ने कोई युद्ध नहीं किया। इसके विपरीत १८१७ और १८२० ई. के बीच सभी राजपूत राजाओं ने स्वेच्छा से अंग्रेजों की सर्वोपरि सत्ता स्वीकार करके अपनी तथा अपने राज्य की सुरक्षा का भार उन पर छोड़ दिया। विन्सेण्‍ट स्मिथ कृत अर्ली हिस्ट्री आफ इंडिया; गौरीशंकर हीरानन्द ओझा कृत राजपूताने का इतिहास तथा ए. सी. बनर्जी कृत दि राजपूत स्टेट्स एण्ड दि ईस्ट इंडिया कम्पनी)

राजपूताना : इस प्रदेश का आधुनि‍क नाम राजस्थान है, जो उत्तर भारत के पश्चिमी भाग में अरावली की पहाड़ियों के दोनों ओर फैला हुआ है। इसका अधिकांश भाग मरुस्थल है। यहाँ वर्षा अत्यल्प और वह भी विभिन्न क्षेत्रों में असमान रूप से होती है। राजपूतों की राजनीतिक सत्ता रहने के कारण इस प्रदेश का नाम राजपूताना पड़ा। भारत में मुसलमानों का राज्य स्थापित होने के पूर्व राजस्थान में कई शक्तिशाली राजपूत जातियों के वंश शासन कर रहे थे और उनमें सबसे प्राचीन चालुक्य और राष्ट्रकूट थे। उपरान्त कन्नौज के राठौरों (राष्ट्रकूट), अजमेर के चौहानों, अन्हिलवाड़ के सोलंकियों, मेवाड़ के गुहिलोतों या सिसोदियों और जयपुर के कछवाहों ने इस प्रदेश के भिन्न-भिन्न भागों में अपने राज्य स्थापित कर लिये। राजपूत जातियों में फूट और परस्पर युद्धों के फलस्वरूप वे शक्तिहीन हो गये। यद्यपि इनमें से अधिकांश ने बारहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में मुसलमान आक्रमणकारियों का वीरतापूर्वक सामना किया तथापि प्रायः सम्पूर्ण राजपूताने के राजवंशों को दिल्‍ली सल्तनत की सर्वोपरि सत्ता स्वीकार करनी पड़ी।

फिर भी मुसलमानों की यह प्रभुसत्ता राजपूत शासकों को सदैव खटकती रही और जब कभी दिल्ली सल्तनत में दुर्बलता के लक्षण अनुभूत होते, वे अधीनता से मुक्त होने को प्रयत्नशील हो उठते। १५२० ई. में बाबर के नेतृत्व में मुगलों के आक्रमण के समय राजपूताना दिल्ली के सुल्तानों के प्रभाव से मुक्त हो चला था और मेवाड़ के राणा संग्राम सिंह (राणा साँगा) ने बाबर के दिल्ली पर अधिकार का विरोध किया। १५२६ ई. में खानुआ के युद्ध में राणा की पराजय हुई और मुगलों ने दिल्ली के सुल्तानों का राजपूताने पर नाममात्र को बचा प्रभुत्व फिर से स्थापित कर लिया। कितु राजपूतों का विरोध शान्त न हुआ। अकबर की राजनीतिक सूझबूझ और दूरदर्शिता का प्रभाव इनपर अवश्य पड़ा और मेवाड़ के अतिरिक्त अन्य सभी राजपूत शासक मुगलों के समर्थक और भक्त बन गये। अंत में जहाँगीर के शासनकाल में मेवाड़ ने भी मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। औरंगजेब के सिंहासनारूढ़ होने तक राजपूताने के शासक मुगलों के स्वामिभक्त बने रहे। परन्तु औरंगजेब की धार्मिक असहिष्णुता की नीति के कारण दोनों पक्षों में युद्ध हुआ। बाद में एक समझौते के फलस्वरूप राजपूताने में शान्ति स्थापित हुई।

प्रतापी मुगलों के पतन से भी राजपूताने के राजपूत शासकों का कोई लाभ न हुआ, क्योंकि १७५६ ई. के लगभग राजपूताने में मराठों का शक्ति-विस्तार आरंभ हो गया। १८ वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में भारत की अव्यवस्थित राजनीतिक दशा में उलझने तथा मराठों एवं पिण्डारियों की लूटमार से त्रस्त होने के कारण राजपूताने के शासकों का इतनी मनोबल गिर गया कि उन्होंने अपनी सुरक्षा हेतु अंग्रेजों की शरण ली। भारतीय गणतंत्र की स्थापना के उपरान्त कुछ राजपूत रियासतें मार्च १९४८ ई. में और कुछ एक वर्ष बाद भारतीय संघ में सम्मिलित हो गयीं। इस प्रदेश का आधुनिक नाम राजस्थान और इसकी राजधानी जयपुर है। राजप्रमुख (अब राज्यपाल) का निवास तथा विधानसभा की वैठकें भी जयपुर में ही होती हैं ('राजपूत' भी देखिये)।

राजराज प्रथम : चोल सम्राट् जिसने ९८५ से १०१८ ई. तक राज्य किया। इतिहास में वह राजराज महान के नाम से विख्यात है। सर्वप्रथम उसने चेर राज्य (केरल) पर अधिकार किया और उपरान्त कई युद्धों में विजय प्राप्त करके दक्षिण भारत का सर्वशक्तिमान सम्राट् हो गया। उसके विशाल साम्राज्य में केवल मद्रास (तमिलनाडु) और मैसूर ही नहीं सम्मिलित थे वरन् उसने लम्बे सैनिक अभियानों के उपरान्त १००५ ई. में श्रीलंका पर भी अधिकार कर लिया। उसके पास विशाल और सुव्यवस्थित नौ सेना भी थी जिसकी सहायता से उसने कलिंग और पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्रों के अनेक द्वीप समूहों पर भी अपने राज्काल के २९ वें वर्ष में अधिकार कर लिया।

राजराज द्वितीय : उत्तरकालीन चोलवंश का शासक और कुलोत्तुंग चोल (दे.) द्वितीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। उसने ११४६ ई. से ११७३ ई. तक राज्य किया। उसके शासनकाल के पूर्व ही चोलों का पतन आरंभ हो गया था और सीधी वंश-परंपरा में वह उस वंश का अंतिम सम्राट् था।

राजवल्लभ सेन (१६९८-१७६३)  : पलासी के युद्ध के समय यह बंगाल के प्रभावशाली व्यक्तियों में गिना जाता था। जन्म बंगाल के फरीदपुर जिले के एक वैद्य परिवार में। अपनी योग्यता के बल पर वह बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला (दे.) की चाची घसीटी बेगम (दे.) का दीवान हो गया। नवाब अलीवर्दी खाँ ने उसको राजा की उपाधि दी, परन्तु इन उपकारों को भुला करके वह अलीवर्दी खाँ के पौत्र एवं उत्तराधिकारी सिराजुद्दौला का विरोधी बन गया और मीर जाफर तथा कुछ असंतृष्ट पदाधिकारियों सहित नवाब के खिलाफ अंग्रेजों के षड्यंत्र में सम्मिलित हो गया। उसका पुत्र कृष्णदास बंगाल के नवाब की सेवा में नियुक्त था। उसने ढाका में सरकारी धन की लम्बी राशि का गबन किया और भागकर कलकत्ता में अंग्रेजों की शरण ली। सिराजुद्दौला द्वारा १७५५ ई. में कलकत्ता पर आक्रमण और अधिकार कर लेने का एक कारण नवाब के न्याय दंड से भागे हुए कृष्णदास का अंग्रेजों की शरण लेना भी था।

इस प्रकार पिता और पुत्र दोनों ही नवाब के कोपभाजन बने, परंतु उनकी षड्यंत्रकारी योजना सफल रही। पलासी के युद्ध में सिराजुद्दौला की पराजय हुई और विजयी अंग्रेजों ने मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाया। राजवल्लभ की नियुक्ति नवाब मीर जाफर के परामर्शदाताओं में हुई। आगे चलकर उसे मुंगेर का सूबेदार नियुक्त किया गया। किन्तु मीर जाफर का शीघ्र ही पतन हो गया। मीर कासिम (दे.) बंगाल का नवाब हुआ। मीर कासिम भी सिराजुद्दौला की भाँति अंग्रेजों के विरुद्ध था। उसे राजवल्लभ के ऊपर अंग्रेजों के पक्षपाती होने का सन्देह हुआ। फलतः उसे गंगा में डुबा कर मरवा दिया गया।

राजशेखर : संस्कृत भाषा का प्रसिद्ध कवि और नाटककार। जन्म दक्षिण भारत में। कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार-शासकों का राजाश्रय प्राप्त था। वह प्रतिहार शासक महेन्द्रपाल (लगभग ८९०-९१० ई.) का गुरु था। यद्यपि उसने कई ग्रंथों की रचना की, तथापि चार नाटक -बालरामायण, विद्धशाल भंजिका, बाल भारत (उपनाम प्रचण्ड पाण्डव) तथा कर्पूरमंजरी ही उपलब्ध हैं। 'कर्पूरमंजरी' प्राकृत भाषा में है। काव्यशास्त्रीय प्रसिद्ध ग्रंथ 'काव्यमीमांसा' राजशेखर की उत्तम कृति है। इनके अतिरिक्त 'भुवनकोष' की भी उसने रचना की, परन्तु यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं। उसके 'हर-विलास' नामक एक अन्य ग्रंथ का भी उल्लेख मिलता है, पर वह भी अप्राप्य है। उसका विवाह चाहमान वंश की राजकुमारी अवन्ति सुन्दरी से हुआ था, जो स्वयं विदुषी महिला थी।

राजसिंह  : आठवीं शताब्दी में प्रचलित पल्लववंश का शासक और महान वास्तुनिर्माता। उसने अपनी राजधानी काँची और महाबलिपुरम में अनेक मंदिरों और रथों का निर्माण कराया था।

राजसिंह  : मेवाड़ का एक राणा, जिसने मुगलों की सेवा में रत मारवाड़ नरेश जसवंत सिंह के अबोध पुत्र अजीतसिंह और उसकी विधवा पत्नी को शरण दी। इस कारण वह औरंगजेब का कोपभाजन बन गया। औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर पुनः जजिया कर लगाये जाने का उसने विरोध किया और उससे युद्ध ठान लिया। यह युद्ध १६७९ से १६८१ ई. तक चला और राणा ने इसका संचालन इतनी सफलता से किया कि औरंगजेब को उससे संधि करनी पड़ी। संधि के अनुसार राणा के पुत्र और उत्तराधिकारी जयसिंह ने अपने राज्य के कुछ भाग मुगलों को दे दिये और औरंगजेब ने उससे जजिया वसूल करने का विचार त्याग दिया।

राजाधिराज, प्रथम : चोलवंशज प्रतापी सम्राट् राजेन्द्र प्रथम (दे.) का पुत्र और उत्तराधिकारी। १०१८ से १०४४ ई. तक वह युवराज के पद पर रहा और १०४४ से १०५४ ई. तक राज्य किया। अपने पिता की भांति वह भी सीमावर्ती राज्यों, विशेषतः कल्याणी के चालुक्यों से संघर्ष करता रहा। कोप्पम के युद्ध (१०५४ ई.) में वह चालुक्य सम्राट् सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल के हाथों मारा गया।

राजाधिराज द्वितीय : उत्तरकालीन चोलशासक, जिसने ११६३ ई. से ११७९ ई. तक राज्य किया।

राजाराम  : छत्रपति शिवाजी का द्वितीय पुत्र। जब इसका बड़ाभाई शम्भुजी मुगलों द्वारा बन्दी बनाकर मार डाला गया और उसका पुत्र शाहूजी भी १६८९ ई. में औरंगजेब का बंदी हो गया, तब राजाराम कर्नाटक में जिंजी नामक किले में चला गया और वहीं से उसने औरंगजेब के विरुद्ध मराठों के स्वातंत्र्य-युद्ध का नेतृत्व किया। इस प्रकार १६८९ ई. में वह मराठों का वास्तविक शासक बनकर मुगलों का वीरतापूर्वक सामना करने लगा। उसने ८ वर्षों तक उनके आक्रमणों से जिंजी की रक्षा की। तदुपरान्त जब १६९८ ई. में मुगलों का उस पर अधिकार हो गया तब वह सतारा भाग आया और मृत्युपर्यन्त (१७०० ई. में मृत्यु) मुगलों के विरुद्ध मराठों के स्वतन्त्रता-युद्ध का नेतृत्व करते हुए, उनका शासक बना रहा।

राजाराम  : जाटों का पराक्रमी नेता। १६८५ ई. में उसने औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह किया तथा १६८८ ई. में सिकन्दरा में बादशाह अकबर के मकबरे को लूटा। किन्तु १६९२ ई. में वह मुगलों द्वारा पराजित हुआ और मार डाला गया।

राजा विक्रम (विक्रमादित्य) : भारतीय जनश्रुतियों तथा दंतकथाओं में राजाविक्रम (विक्रमादित्य) का मुख्य स्थान है। इसके संबंध में 'बैतालपचीसी' (संस्कृत-बेताल-पंचविंशतिका) में अनेक कहानियाँ हैं, किन्तु इसकी ऐतिहासिकता अभी निश्चित रूप से स्थापित नहीं हो पायी है। विश्वास किया जाता है कि गुप्तवंश के तृतीय सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की उपलब्धियाँ ही इन दंतकथाओं में अतिरंजित होकर वर्णित हैं।

राजेन्द्र प्रथम : चोलसम्राट् राजराज महान् का पुत्र और उत्तराधिकारी। उसने १०१२ से १०४४ ई. तक राज्य किया। अपने पिता की भाँति राजेन्द्र प्रथम ने भी कई महत्त्वपूर्ण युद्धों में विजय प्राप्त की। अपनी सबल एवं व्यवस्थित नौसेना के सहयोग से उसने बर्मा के निचले भू-भागों तथा अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूहों पर १०२४-२७ ई. में अधिकार कर लिया। १०२३ ई. में उसने बंगाल पर आक्रमण कर वहाँ के तत्कालीन शासक महीपाल को पराजित किया और गंगा के तटों तक अपनी विजयपताका फहरायी। किसी भी दक्षिण भारतीय राजा के लिए यह अभूतपूर्व विजय थी। इसके उपलक्ष्य में उसने 'गंगैकोण्ड' की उपाधि धारण की। साथ ही उसने नयी राजधानी का निर्माण भी कराया, जिसका नाम गंगैकोण्डचोलपुरम् रखा गया। राजेन्द्र ने वहाँ एक विशाल राजप्रसाद, सुन्दर मंदिर तथा विस्तृत सरोवर का निर्माण कराया, जिसमें गंगानदी से पवित्र जल लाकर भरा गया था। राजेन्द्र का कल्याणी के चालुक्यों से सदैव संघर्ष चलता रहा और कई युद्धों में उसने चालुक्य सम्राट् जयसिंह को परास्त किया।

राजेन्द्र द्वितीय : चोलसम्राट् राजेन्द्र प्रथम का द्वितीय पुत्र, जिसने १०५२ से १०६४ ई. तक राज्य किया। १०५४ ई. के कोप्पम के प्रसिद्ध युद्ध में जब उसका बड़ा भाई राजाधिराज (दे.) कल्याणी का शासक सोमेश्वर आहवमल्ल द्वारा मारा गया, तब वहीं, युद्धक्षेत्र में ही राजेन्द्र द्वितीय ने अपना 'वीराभिषेक' करके चोलों की पराजय को विजय में परिणत कर दिया। राजेन्द्र ने चोलों की सत्ता और उनके विस्तृत साम्राज्य को पूर्ववत् बनाये रखा।

राजेन्द्र तृतीय (कुलोत्तुंग चोल प्रथम) : सका वास्तविक नाम कुलोत्‍तुंग था। उसकी माता चोलसम्राट् राजेन्द्र प्रथम की पुत्री अभ्यंगा देवी थी, जिसका विवाह पूर्वी चालुक्य वंश के राजकुमार राजराज प्रथम से हुआ था। विजयालय वंश के अन्तिम सम्राट् अधिराजेन्द्र (दे.) की १०७० ई. में मृत्यु हो जानेपर कुलोत्तुंग राजेन्द्र तृतीय के नाम से चोल सिंहसन पर बैठा और १०७० से ११२२ ई. तक शासक रहा। परवर्ती चोलचालुक्य शासकों में उसका स्थान सर्वोपरि है। उसके वंशजों ने ११७३ ई. तक राज्य किया, तदुपरान्त चोलवंश का पतन हो गया।

राजेन्द्र प्रसाद : भारतीय गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति। जन्म १८८४ ई. में जीरादेई, जि. छपरा, बिहार में हुआ, तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने अपना जीवन वकील के रूप में आरम्भ किया और शीघ्र ही पटना हाईकोर्ट के बड़े वकीलों में उनकी गणना होने लगी। १९१७ ई. में चम्पारन आन्दोलन की जाँच के सिलसिले में गांधीजी से उनकी प्रथम भेंट हुई। अंत में उन्होंने १९२० ई.में अपनी चलती हुई वकालत पर लात मार दी और असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित हो गये। वे अनेक वर्षों तक बिहार कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे। १९२२ ई. में कांग्रेस के महामंत्री नियुक्त हुए, तथा १९३४, १९३९ तथा १९४७ ई. में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गये। वे महात्मा गांधी के पक्के अनुयायी थे और अनेक वर्षों तक कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य रहे। १९४७ ई. में वे नेहरू मंत्रिमण्डल में सम्मिलित हुए, १९४६ से १९४९ ई. तक भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष रहे और भारत का संविधान बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। अपनी सज्जनता, धैर्यशीलता, खरी ईमानदारी के कारण वे १९५० ई. में भारतीय गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। उन्हें १९५२ तथा तत्पश्चात् १९५७ ई. में पुनः इस पद पर चुना गया। उन्होंने १९६२ ई. में अपने पद से अवकाश ग्रहण किया और इसके शीघ्र बाद पटना में उनकी मृत्यु हो गयी।

राज्यपाल : कन्नौज का उत्तरकालीन प्रतिहार शासक। मातृभूमि की रक्षा हेतु उसने गजनी के शासक अमीर सुबुक्तगीन के आक्रमण के समय भटिण्डा के शाही शासक जयपाल (दे.) का साथ दिया, परन्तु दोनों की सम्मिलित सेनाएँ परास्त हुईं। १०१९ ई. में सुल्तान महमूद गजनवी ने उसके राज्य पर आक्रमण किया और राज्यपाल ने महमूद की अधीनता स्वीकार कर ली। समीपवर्ती हिन्दू राजाओं को उसका यह आचरण कायरतापूर्ण लगा और शीघ्र ही उन्होंने चन्देल शासक विद्याधर के नेतृत्व में उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में राज्यपाल मारा गया।

राज्यमती : शालस्तंभ वंश के शासक हर्षदेव की पुत्री। हर्षदेव आठवीं शताब्दी में कामरूप का शासक था। राज्यमती का विवाह नेपाल के महाराज जयदेव से हुआ था।

राज्यश्री : थानेश्वर के शासक प्रभाकरवर्धन (दे.) की पुत्री और सम्राट् हर्षवर्धन की भगीनी। उसका विवाह कन्नौज के मौखरि वंशज शासक ग्रहवर्मा से हुआ था। पिता की मृत्यु के उपरान्त ही मालवा के शासक ने आक्रमण कर ग्रहवर्मा को मार डाला और राज्यश्री को बन्दी बनाकर कन्नौज के कारागार में डाल दिया। इसकी सूचना मिलते ही उसके ज्येष्ठ अग्रज राज्यवर्धन ने उसे कारागार से मुक्त कराने के लिए कन्नौज की ओर प्रस्थान किया। यद्यपि उसने मालव शासक देवगुहा को पराजित करके मार डाला पर वह स्वयं देवगुहा के सहायक और बंगाल के शासक शशांक (दे.) द्वारा मारा गया। इसी उथल-पुथल में राज्यश्री कारागार से निकल भागी और विंध्याचल के जंगलों में शरण ली। इस बीच उसका कनिष्ठ अग्रज हर्षवर्धन राज्यवर्धन का उत्तराधिकारी बन चुका था। उसने राज्यश्री को विन्ध्य के जंगलों से उस समय ढूँढ़ निकाला, जब वह निराश होकर चिता में प्रवेश करने ही वाली थी। हर्ष उसे कन्नौज लौटा लाया और आजीवन उसको सम्मान दिया। उसने कन्नौज से ही अपने विशाल साम्राज्य का शासन-कार्य किया, चीनी यात्री ह्रेनत्सांग के अनुसार वह प्रायः राज्यश्री से राज्यकार्य में परामर्श लेता था।

राढीय ब्राह्मण : जनश्रुतियों के अनुसार उन पाँच ब्राह्मणों की सन्तान हैं, जिन्हें राजा आदिशूर (दे.) ने कन्नौज से ले जाकर राढ अर्थात् पश्चिम बंगाल के उस भू-भाग में बसाया था, जो आजकल बर्दवान, हुगली और बीरभूम जिलों के अन्तर्गत है।

राधाकृष्णन्, डा., सर्वेपल्ली : भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति। उनका जन्म दक्षिण भारत में १८८८ ई. में हुआ और शिक्षक जीवन मद्रास के प्रेसीडेन्सी कालेज के दर्शनशास्त्र के प्राचार्य के रूप में प्रारम्भ हुआ। शीघ्र ही उन्होंने पाश्चात्य विद्वानों के सम्मुख हिन्दू जीवनदर्शन प्रस्तुत करके अन्तराष्ट्रींय ख्याति प्राप्त कर ली। १९२१ से १९३६ ई. तक कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के 'किंग जार्ज पंचम प्रोफेसर'के पद पर आसीन होकर भारतीय दर्शनशास्त्रियों में अग्रगण्य हुए और उपरान्त आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पूर्वी देशों के धर्म और दर्शन के 'स्पाल्डिंग प्रोफेसर' के गौरवपूर्ण पद पर उनकी नियुक्ति हुई। इस पद पर वे १९३६ से १९३९ ई. तक रहे। उपरान्त काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उपकुलपति नियुक्त हुए और १९३९ से १९४८ ई. तक इस पद पर कार्य करते रहे। इस प्रकार राजनीति एवं सार्वजनिक कार्यों में सक्रिय भाग लेने के पूर्व उन्होंने शिक्षाजगत् के कई महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया।

उन्हें १९४९ ई. में भारतीय राजदूत बनाकर सोवियत रूस भेजा गया, जहाँ १९५२ ई. तक कार्य करते रहे। रूस भेजे जानेवाले वे दूसरे राजदूत थे। परिचय पत्र देने पर मास्को में मार्शल स्तालिन ने उनका विशेष आदर तथा सम्मान किया और इस प्रकार भारत तथा सोवियत रूस में परस्पर मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का सूत्रपात किया। रूस से लौटने पर श्री राधाकृष्णन् भारतीय गणतन्त्र के उपराष्ट्रपति चुने गये और उक्त पद का कार्यभार उन्होंने इतनी कार्यपटुता एवं योग्यता से संभाला कि १९६२ ई. में वही भारत के राष्ट्रपति चुने गये। उन्होंने चीन और अमेरिका सहित विश्व के अनेक देशों का भ्रमण किया और अपनी प्रकाण्ड विद्वता, सरल स्वभाव तथा प्रभावशाली वक्तृत्वकला से समस्त देशों में भारत को गौरवान्वित किया। उनकी अन्तिम रूस यात्रा के फलस्वरूप सोवियत रूस ने भारत को और भी अधिक सामरिक सहायता देने की घोषणा की। उन्होंने अनेक पुस्तके लिखीं, जिनमें 'भारतीय दर्शनशास्त्र का इतिहास' सबसे प्रसिद्ध है। (१६, अप्रैल १९७५ को इनका देहान्त हुआ)।

राधाकान्त देव, राजा, सर (१७९४-१८६७ ई.)  : उन्नीसवीं शताब्‍दी में बंगाल के सनातनी हिंदुओं ख्‍यातिलब्‍ध नेता। वे पूर्वी और पाश्‍चात्‍य विद्याओं के उदारचेत्ता पोषक थे। उन्‍होंने यथेष्‍ट धन व्‍यय करके 'शब्‍द कल्‍पद्रुम' नामक संस्‍कृत का प्रसिद्ध कोश संकलित किया जिससे उनकी व्‍यक्तिगत प्रतिभा एवं विद्वता का परिचय मिलता है। साथ ही उन्‍होंने डेविड हेयर साहब को कलकत्‍ते में हिंदू स्‍कूल की स्‍थापना में पूर्ण सहयोग प्रदान किया जिसमें भारतीय विद्यार्थियों को पाश्‍चात्‍य विद्याओं, विशेषत: अंग्रेजी की शिक्षा दी जाती थी। इसके अतिरिक्‍त उन्‍होंने स्‍कूल बुक सोसायटी की स्‍थापना में भी प्रमुख भाग लिया, जिससे विद्यार्थियों को ऐसी सस्‍ती पाठ्यपुस्‍तकें उपलब्‍ध हो सकें, जो जनसाधारण में शिक्षा प्रसार हेतु उपयोगी सिद्ध हों। वे सामाजिक सुधार, ब्राह्म समाज और सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाने के विरोधी थे और इस हेतु उन्‍होंने इंग्‍लैंड की पार्लियामेंट को जनता के हस्‍ताक्षरों से युक्‍त एक याचिका भेजने की भी व्‍यवस्‍था की थी। वे उन कट्टर हिंदुओं के प्रतीक थे जिन्‍हें पाश्‍चात्‍य सभ्‍यता के उपयोगी तत्‍त्व स्‍वीकार करते हुए भी अपनी प्राचीन रीतियों में घोर आस्‍था थी।

रानाडे, महादेव गोविन्द (१८५२-१९०४)  : विख्यात जनसेवी, समाजसुधारक एवं विद्वान्। जन्म महाराष्ट्र के ब्राह्मण परिवार में। उन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन से ही अपनी मेधा का परिचय देना आरम्भ कर दिया। शिक्षा समाप्ति के उपरान्त उन्होंने वकालत प्रारम्भ की। शीघ्र ही बम्बई हाईकोर्ट के जज हो गये। तत्कालीन बम्बई प्रेसीडेन्सी के अधिकांश समाज सुधारक आन्दोलनों में उन्होंने प्रमुख भाग लिया। उनकी गणना पाश्चात्य सभ्यता तथा संस्कृति के सम्पर्क में आये हुए नयी पीढ़ी के भारतीयों में की जाती है। वे बम्बई के प्रार्थनासमाज के सक्रिय एवं निष्ठावान् सदस्य थे और उसके लक्ष्‍यों एवं उद्देश्यों की पूर्ति में सतत प्रयत्नशील रहे। विधवा पुनर्विवाह समिति एवं डेक्कन एजूकेशन सोसाइटी के संस्थापकों में प्रमुख थे।

रानाडे ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (दे.) की स्थापना का भी समर्थन किया तथा १८८५ ई. के बम्बई में आयोजित उसके प्रथम अधिवेशन में भाग लिया। उन्होंने कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों के साथ ही सामाजिक सम्मेलन के आयोजन की प्रथा चलायी। उनके विचार से मानव जाति की सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक एवं धार्मिक प्रगति परस्पर एक दूसरे पर आधारित है, इसीलिए उन्होंने एक ऐसे व्यापक सुधार आन्दोलन पर बल दिया, जो मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति में सहायक हो सके। उनका विचार था कि सामाजिक सुधारों की सफलता केवल पुरानी रूढ़ियों के विनाश से नहीं बल्कि रचनात्मक कार्य से ही संभव है। उन्होंने भारत में समाज सुधार आन्दोलन को नयी दिशा दी। रानाडे प्रकाण्ड विद्वान् थे। उनकी रचनाओं में विधवा पुनर्विवाह, मालगुजारी कानून, राजाराम मोहन राय की जीवनी, मराठों का उत्कर्ष, धार्मिक एवं सामाजिक सुधार मुख्य हैं।

राबर्ट्स, लार्ड फेडरिक स्ले (१८३२-१९१४)  : १८५२ ई. में बंगाल के रिसाले में नियुक्त। १८५७ ई. के सिपाही विद्रोह (दे.) में असाधारण वीरता दिखाने पर उसको 'विक्टोरिया क्रास' नामक सर्वोच्च सैनिक पदक प्रदान किया गया। १८१८ ई. के द्वितीय अफगान-युद्ध (दे.) काल में वह कुर्रम क्षेत्र में नियुक्त था और अफगान-युद्ध (दे.) काल में वह कुर्रम क्षेत्र में नियुक्त था और १८७९ ई. में सेना का नेतृत्व करते हुए काबुल तक पहुँच गया। वहाँ उसने याकूब खाँ (दे.) को आत्मसमर्पण करने पर विवशकर भारत भेज दिया। किन्तु १८८० ई. के जुलाई मास में मैबन्द के प्रसिद्ध युद्ध में अंग्रेजों की पराजय के उपरान्त वह अपनी सेनाओं सहित काबुल से कन्दहार तक का ३१३ मील का कठिन मार्ग केवल बाईस दिनों में तय कर कन्दहार पहुँचा और अयूब खाँ को सितम्बर १८८० ई. में पराजित कर अंग्रेजों की सामरिक प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की। १८८१ ई. में उसने दक्षिण अफ्रीका के युद्धों में भाग लिया और वहाँ से लौटकर मद्रास का और बाद में भारत का सेनाध्यक्ष नियुक्त हुआ। इस पद पर उसने १८८५ से १८९३ ई. तक कार्य किया और इंग्लैंड की सरकार ने उसे लार्ड की उपाधि से विभूषित किया। लार्ड राबर्ट्स बोअर युद्ध में भी सेनाध्यक्ष रहा और १९०० ई. में उसमें विजय प्राप्त की। प्रथम महायुद्ध में जब भारतीय सैनिक फ्रांस में लड़ने के लिए भेजे गये थे, तब उनके निरीक्षणार्थ वह फ्रांस गया और वहीं न्यूमोनिया के प्रकोप से उसकी मृत्यु हो गयी।

राम  : रामायण महाकाव्य के मुख्य नायक और कोशल के महाराज दशरथ और रानी कौशल्या के पुत्र। राम का आदर्श जीवनचरित हिन्दू धर्म और संस्कृति का प्राण है। समस्त हिन्दू समाज उन्हें भगवान् (विष्णु) का अवतार मानता और उनकी पूजा करता है।

राम का पुल  : अंग्रेजों के शासन काल में 'सेतुबंध रामेश्वर' शब्द का अंग्रेजी रूपान्तर 'राम का पुल' हो गया था। भारत के अन्ति‍म छोर पर स्थित रामेश्वरम् से लंका तक के समुद्र में जो पत्थरों के बड़े-बड़े खण्ड डूबे पड़े हैं, उन्हें ही सेतुबंध कहा जाता है। परंपरागत कथाओं और रामायण के अनुसार इस पत्थर के पुल का निर्माण राम की वानर सेना ने किया था। इसी पुल के द्वारा राम ने अपनी वानर सेना सहित लंका में प्रवेश कर राक्षसराज रावण का वध तथा सीता का उद्धार किया था।

रामकृष्ण परमहंस (१८३४-८६) : उच्च श्रेणी के सन्त एवं आधुनिक युग में हिन्दुओं के महान् अध्यात्मवादी पथ प्रदर्शक। इसीलिए अनेक व्यक्ति उन्हें ईश्वर का अवतार मानते हैं। उनका जन्म पश्चिमी बंगाल के हुगली जिले के एक दूरस्थ ग्राम में एक निर्धन पुरोहित परिवार में हुआ। उन्हें किसी-प्रकार की भी विधिवत् शिक्षा न मिली और अल्पायु में वे कलकत्ता के निकट दक्षिणेश्वर स्थित काली माता के मन्दिर में पुजारी के रूप में रहने लगे। वर्षों की लम्बी साधना के फलस्वरूप उनमें दैवी गुणों का समावेश हो गया। बुद्धि अलौकिक हो गयी और गहन दार्शनिक सिद्धान्तों को सरल भाषा में व्यक्त करने की क्षमता उत्पन्न हुई। सभी धर्मों के मूलभूत तत्त्वों में उनकी गहरी निष्ठा थी और उनकी धार्मिक सहिष्णुता तथा आध्यात्मिकता से प्रभावित होकर ब्राह्म-समाज के गणमान्य नेता केशव चन्द्र सेन तथा अनेक जिज्ञासु नवयुवक उनके प्रति आकर्षित हुए। इन नवयुवकों में नरेन्द्रनाथ दत्त प्रमुख थे, जो आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए।

स्वामी रामकृष्ण का कथन था कि जिस प्रकार एक ही तत्त्व जैसे जल, विभिन्न भाषाओं में आप, आब, ऐय आदि भिन्न-भिन्न शब्दों से व्यक्त होता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न लोग उसी सर्वशक्तिमान् ईश्वर की अल्ला, हरि, यीशु, कृष्ण आदि भिन्न-भिन्न नामों से आराधना करते हैं। वह एक में अनेक है, जो सगुण भी है और जिसकी कल्पना हम चाहे विराट् विश्वदेव के रूप में करें अथवा विभिन्न प्रतीकों द्वारा। इसके अतिरिक्त उनका विचार था कि मनुष्य चाहे कितनी भी उच्च श्रेणी का अथवा श्री-सम्पन्न हो, यदि दया करने के विचार से किसी दूसरे व्यक्ति की सहायता करता है तो वह तुच्छ है। उनके विचार से करुणा और दया तो मनुष्यमात्र में दैवी देन हैं। उसके बीच उपकार की भावना लाना हीनता है। अतएव व्यक्ति को सविनय मनुष्यमात्र की सेवा करना अपना धर्म मानना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य में परमात्मा का अंश विद्यमान है और इस विचारधारा से मनुष्य की सेवा ही परमात्मा की सेवा है। उनके विचार से ब्रह्मज्ञान मनुष्यमात्र की निःस्वार्थ सेवा से ही संभव है और यही हिन्दू धर्म का सार है। उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने उनकी शिक्षाओं और उपदेशों को सम्पूर्ण भारतवर्ष अमेरिका और इंग्लैंड आदि देशों तक पहुँचाया। उपर्युक्त विचार ही रामकृष्ण मिशन (दे.) के आधारभूत सिद्धात हैं और अब यह एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संगठित संस्था बन गयी है।

रामकृष्ण मिशन : की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने १ मई १८९७ ई. में की। उनका उद्देश्य ऐसे साधुओं और संन्यासियों को संगठित करने का था, जो रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं में गहरी आस्था रखें, उनके उपदेशों को जनसाधारण तक पहुँचा सकें और संतप्त, दुःखी एवं पीड़ित मानव जाति की निःस्वार्थ सेवा कर सकें। इस प्रकार के संगठन द्वारा वे वेदान्त दर्शन (दे.) के 'तत्त्वमसि' सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप देना चाहते थे। रामकृष्ण मिशन विकासोन्मुख संस्था है और इसके सिद्धान्तों में वैज्ञानिक प्रगति तथा चिन्तन के साथ प्राचीन भारतीय अध्यात्मवाद का समन्वय इस दृष्टि से किया गया है कि यह संस्था भी पाश्चात्य देशों की भाँति जनकल्याण करने में समर्थ हो। इसके द्वारा स्कूल, कालेज और अस्पताल चलाये जाते हैं और कृषि, कला एवं शिल्प के प्रशिक्षण के साथ-साथ पुस्तकें एवं पत्रिकाएँ भी प्रकाशित होती हैं। इसकी शाखाएँ समस्त भारत तथा विदेशों में हैं। इस संस्था ने भारत के वेदान्त दर्शन का संदेश पाश्चात्य देशों तक प्रसारित करने के साथ ही भारतीयों की दशा सुधारने की दिशा में भी प्रशंसनीय कार्य किया है।

रामगुप्त : गुप्तवंश के प्रतापी सम्राट् समुद्रगुप्त का पुत्र और उत्तराधिकारी। प्रारम्भ में इसकी ऐतिहासिकता पर विद्वानों में मतभेद था, किन्तु अभिलेखिक प्रमाणों की प्राप्ति से उसका समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी होना सिद्ध हो गया है। विशाखदत्त कृत 'देवीचन्द्रगुप्तम्' नामक नाटक के अनुसार रामगुप्त दुर्बल शासक था और प्राणरक्षा हेतु उसने अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को एक शकजातीय आक्रमणकारी को सौंप देना स्वीकार कर लिया था, किन्तु उसके छोटे भाई चन्द्रगुप्त (उपरान्त चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य) ने स्त्रीवेश में जाकर शकराज को मार डाला और रानी की रक्षा कर ली। तत्पश्चात् चन्द्रगुप्त ने अपने बड़े भाई (रामगुप्त) को मारकर ध्रुवदेवी से विवाह कर लिया और स्वयं सिंहासनारूढ़ हो गया। रामगुप्त की ऐतिहासिकता अब सभी विद्वानों को मान्य है।

रामचन्द्र : विजयनगर के देवराय द्वितीय (दे.) का पुत्र और उत्तराधिकारी। १४२२ ई .में उसने केवल कुछ ही महीनों तक राज्य किया।

रामचन्द्र देव : देवगिरि का यादव वंशीय शासक और कृष्ण का पुत्र। पिता की मृत्यु के समय वह अल्पायु था, अतएव उसका चाचा महादेव शासक बना। महादेव की मृत्यु के उपरान्त जब उसका पुत्र अय्यण सिंहासनासीन हुआ, तब रामचन्द्र ने १२७१ ई. में उसका वध कर स्वयं पैतृक राज्य ग्रहण कर लिया। उसका राज्यकाल १२७१ से १३०९ ई. तक रहा। १२९२ ई. में, दिल्ली में सिंहासनासीन होने से ४ वर्ष पूर्व अलाउद्दीन खिलजी ने, रामचन्द्र के राज्य पर आक्रमण किया। इसमें रामचन्द्र की पराजय हुई और उसे अत्यधिक धनराशि देकर सन्धि करनी पड़ी। साथ ही उसे एलिचपुर की वार्षिक आय भी कर रूप में देने को बाध्य होना पड़ा।

बाद में रामचन्द्र ने उक्त वार्षिक धनराशि देना बंद कर दिया, तब सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (१२९५-१३१६ ई.) ने १३०७ ई. में अपने सेनानायक मालिक काफूर के नेतृत्व में उसके राज्य पर आक्रमण हेतु विशाल मुस्लिम सेना भेजी। रामचन्द्र की पुनः पराजय हुई और उसने संधि की प्रार्थना की। उसे दिल्ली ले जाया गया और वहाँ सुल्तान अलाउद्दीन ने उसके साथ सहदयतापूर्ण व्यवहार किया और उसका राज्य वापस लौटा दिया। अगले दो वर्षों तक रामचन्द्र देव ने दिल्ली सल्तनत के अधीनस्थ शासक के रूप में राज्य किया और नियमित रूप से निश्चित वार्षिक कर दिल्ली भेजता रहा। १३०७ ई. में सुल्तान द्वारा वारंगल (दे.) पर किये गये आक्रमण में रामचन्द्र ने उसकी सहायता की थी।

रामचरित : सन्ध्याकर नन्दी द्वारा संस्कृत भाषा में रचित गीति काव्य। इसकी रचना उसने राजा मदनपाल (दे.) (११४०-५५ ई.) के राज्यकाल में की। मदनपालका पिता बंगाल और बिहार के पालवंशीय शासक रामपाल का महासन्धि विग्रहिक था, जिसने १०७७ से ११२० ई. तक राज्य किया। रामचरित विलक्षण कृति है, यह द्वयर्थक रचना है। विलोम पाठ द्वारा गूढ़ार्थ करने पर प्रकट रूप में इसमें रामायण की कथा है, किन्तु इससे पालशासक रामपाल देव के राज्यकाल का इतिहास विदित होता है। इस विलक्षण ग्रंथ की हस्तलिखित प्रति महामहोपाध्याय पण्डित हरप्रसाद शास्त्री को नेपाल में १८९७ ई. में प्राप्त हुई। (हरप्रसाद शास्त्री-मेमायर्स आफ रायल एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल, जिल्द ३, संख्या १; रमेशचन्द्र मजूमदार : बंगाल का इतिहास, अंग्रेजी, जिल्द १)।

रामचरित मानस : महाकवि गोस्वामी तुलसीदास (१५३२-१६२३ ई.) का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ। इस ग्रंथ में रामचन्द्रजी के जीवन का, जनसुलभ हिन्दी भाषा में वर्णन किया गया है। 'रामचरित मानस' भारत में हिन्दी भाषा भाषियों का पूज्य धर्मग्रन्थ हो गया है और इसे वही स्थान प्राप्त है, ईसाई धर्म में बाइबिल को।

रामदास, समर्थ गुरू : शिवाजी महाराज (१६२७-८० ई.) के गुरु। शिवाजी के चरित्र निर्माण और उनकी जीवनधारा पर समर्थ गुरु रामदास का गंभीर प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपने योग्य शिष्य के मस्तिष्क में मराठों को एकता के सूत्र में आबद्ध करने का विचार भलीभाँति बैठा दिया, जिससे हिन्दुओं पर मुसलमानों द्वारा किये जानेवाले अत्याचारों, गो-ब्राह्मण, देवी मूर्तियों और मंदिरों को नष्ट होने से बचाया जा सके तथा हिन्दू धर्म की रक्षा हो। समर्थ गुरुरामदास की प्रेरणा से ही शिवाजी ने अपने द्वारा संस्थापित मराठा राज्य को धार्मिक आधार दिया। इनकी उपदेश-वाणी 'दासबोध' नाम से प्रसिद्ध है।

रामनगर का युद्ध : द्वितीय सिख-युद्ध के दौरान १८४८ ई. में अंग्रेजों और सिखों के बीच हुआ। इसमें दोनों पक्षों की अत्यधिक हानि हुई और युद्ध अनिर्णीत रहा।

रामनारायण : अठारहवीं शताब्दी के मध्यकाल में विद्यमान्, बंगाल का प्रमुख व्यक्ति। प्लासी युद्ध के उपरान्त राबर्ट क्लाइव की दृष्टि उसपर पड़ी, और वह उसका कृपापात्र हो गया। मीर जाफर (दे.) के शासनकाल में उसे बिहार का प्रबन्ध सौंपा गया और उसका मुख्य कार्यालय पटना हुआ। पटना पर जब शाहजादा अली गौहर (उपरान्त शाह आलम द्वितीय) (दे.) ने आक्रमण किया, रामनारायण ने नगर की रक्षा करने में विशेष योग्यता दिखायी। किन्तु मीर जाफर के उपरान्त जब मीर कासिम नवाब हुआ, उसे रामनारायण की स्वामभक्ति पर संदेह हो गया। मीर कासिम ने उसे सेवामुक्त करके १७६३ ई. में अंग्रेजों का पक्षपाती एवं देशद्रोही होने के कारण मरवा दिया।

रामनारायण तर्करत्न (१८२२-८६)  : आधुनिक बंगला भाषा का प्रथम नाटककार। वह संस्कृत का भी अच्छा विद्वान् था और २७ वर्षों तक (१८५५-८२) कलकत्ता के संस्कृत कालेज में प्राचार्य रहा। उसने बंगला और संस्कृत में कई नाटक लिखे। उसका १८५४ ई. में प्रकाशित 'कुलीनकुल सर्वस्व' बँगला भाषा का सर्वप्रथम नाटक माना जाता है। वह समाज-सुधारक भी था। अन्य रचनाएँ वेणी संहार, रत्नावली, अभिज्ञान शाकुन्तल तथा नवनाटक बँगला में और 'आर्यशतकम्' तथा 'दक्षयज्ञम्' संस्कृत में है।

रामपाल : बंगाल तथा बिहार का १४वाँ पालवंशीय शासक, जिसने लगभग ४२ वर्षों (१०७७-११२० ई.) तक राज्य किया। रामपाल से पूर्व उसका ज्येष्ठ भ्राता महीपाल द्वितीय शासक था, किन्तु कैवर्तों के मुखिया दिव्य (दे.) अथवा दिव्योक के नेतृत्व में जनता द्वारा विद्रोह करने पर उसे सिंहासन और जीवन से भी हाथ धोना पड़ा। कुछ समय उपरान्त दिव्य का उत्तराधिकारी भीम सिंहासनासीन हुआ, किन्तु रामपाल ने उसे अपदस्थ करके परिवार के सभी सदस्यों सहित उसका वध कर डाला। तदुपरान्त रामपाल ने राज्य में फैली अव्यवस्था को दूर करके सर्वत्र शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित की। उसने आसाम और उड़ीसा पर विजय प्राप्त की और कन्नौज के गड़हवाल शासक को बिहार की ओर साम्राज्य-विस्तार करने से सफलतापूर्वक रोका। सन्ध्याकर नन्दी ने अपने विलक्षण काव्य-ग्रन्थ 'रामचरित' में रामपाल की उपलब्धियों का वर्णन किया है।

राममोहन राय, राजा : देखिये राय, राजा राममोहन।

रामराजा : शिवाजी तृतीय का पुत्र और राजाराम (दे.) का पौत्र। राजाराम छत्रपति शिवाजी (प्रथम) का द्वितीय पुत्र था। रामराजा को शाहूजी (दे.) ने गोद ले लिया और उसकी मृत्यु के उपरान्त रामराजा ही सतारा का शासक हुआ। रामराजा दुर्बल शासक सिद्ध हुआ और मराठा राजनीति में उसका प्रभाव नगण्यप्राय था।

राम राय (राम राजा) : विजयनगर राज्य के शासक सदाशिव राव (१५४२-६५ ई.) के शासनकाल में राम राय ही वास्तविक रूप से राज्य का सारा कार्य करता था। वह कुशल एवं योग्य राजनीतिज्ञ था। उसने विजयनगर साम्राज्य के खोये हुए गौरव को पुनः स्थापित करने का दृढ़ निश्चय किया। विजयनगर का प्रतिद्वन्द्वी बहमनी राज्य पाँच भागों में बँट चुका था और राम राय ने उन पाँचों सल्तनतों के आन्तरिक झगड़ों में हस्तक्षेप करने की नीति अपनायी। १५५८ ई. में उसने बीजापुर और गोलकुण्डा के सुल्तानों की सहायता से अहमदनगर पर आक्रमण कर दिया और उसे ध्वस्त कर दिया। उसके दुर्व्यवहार से क्रुद्ध होकर बरार के अतिरिक्त अन्य बहमनी सुल्तानों ने विजयनगर के विरुद्ध एक संघ की स्थापना की और उस पर आक्रमण कर दिया। तालीकोट के प्रसिद्ध युद्ध में बहमनी सुल्तानों ने राम राय को पराजित करके मार डाला और विजयनगर को ध्वस्त कर दिया।

रामसिंह : आमेरके राजा जयसिंह (दे.) का पुत्र, जिसने शिवाजी प्रथम को बादशाह औरंगजेब के कारागार से निकल भागने में मदद दी। जयसिंह से व्यक्तिगत सुरक्षा का आश्वासन प्राप्त होने पर ही शिवाजी ने बादशाह के दरबार में जाना स्वीकार किया था, परंतु वहाँ पहुँचने पर उन्हें छल-बल से कारागार में डाल दिया गया। तब रामसिंह ने उन्हें कारागार से निकल भागने में मदद दी।

रामसिंह ने अपनी राजपूत सेना सहित दारा का पक्ष लेकर सामूगढ़ (दे.) के युद्ध में असाधारण वीरता दिखायी थी, किंतु उसे पराजित होना पड़ा। १६८८ ई. में उसने आसाम के अहोम शासक गदाधर सिंह (दे.) के विरुद्ध मुगल सेना का नेतृत्व किया, किंतु गोहाटी के निकट नौकायुद्ध में पराजित होकर वापस लौट आया।

रामानन्द : भक्तिमार्ग के उत्तरकालीन प्रचारकों में इनका स्थान महत्त्वपूर्ण है। वे चौदहवीं शताब्दी में हुए थे। उनका जन्म प्रयाग में हुआ और उन्होंने उत्तरी भारत के समस्त तीर्थस्थलों की यात्रा करके जीवन के अंतिम वर्ष दक्षिण भारत में व्यतीत किये। वे श्रीराम के अनन्य भक्त थे और उन्होंने वर्ण, जाति आदि के भेदभाव से दूर रहकर जन सामान्य की बोलचाल की भाषा हिन्दी में भक्तिमार्ग का उपदेश दिया। उनके बारह प्रमुख शिष्यों में कबीर के अतिरिक्त पद्मावती नामक महिला भी थी।

रामानुजाचार्य : इनकी गणना प्रख्यात दार्शनिकों और दक्षिण भारतीय वैष्णव सम्प्रदाय के महान् आचार्यों में होती है। वे बारहवीं शताब्दी में हुए। उनकी शिक्षा दीक्षा दक्षिण के प्रसिद्ध विद्या-केन्द्र काँची में हुई थी और तिरुचिरापल्ली (त्रिचनापल्ली) के निकट श्रीरंगम् उनका निवास-स्थल था। तिरुचिरापल्ली उन दिनों चोल शासक अधिराजेन्द्र (दे.) के राज्य में था, जो कट्टर शैव था। चोल सम्राट् के उत्पीड़न के कारण रामानुज स्वामी होयसल वंश के जैन धर्मावलम्बी शासक बिट्टिग के राज्य में मैसूर चले आये और वहाँ उन्होंने बिट्टिग को वैष्णव धर्मावलम्बी बना लिया। बिट्टिग ने अपना नाम परिवर्तित करके विष्णुवर्धन (दे.) रखा और अपने शासनकाल (१९११-११४१ ई.में) बेल्लूर तथा हलेबिड के भव्य मन्दिरों का निर्माण कराकर उनमें विष्णु की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित कीं। कुछ समय के उपरान्त रामानुज स्वामी पुनः श्रीरंगम् वापस लौटे और वहीं उनका देहावसान हुआ। रामानुज शंकराचार्य के अद्वैतवाद के प्रमुख आलोचक थे और उनका मत विशिष्टाद्वैत मत के नाम से विख्यात है।

रामायण : संस्कृत साहित्य में दो अतिप्रसिद्ध महाकाव्य हैं रामायण और महाभारत। रामायण की प्राचीनता निर्विवाद है। इसकी रचना वाल्मीकि ने की थी। संस्कृत साहित्य में इसे आदिकाव्य माना जाता है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि रामायण की रचना मूल महाभारत (जय या भारत) के उपरान्त हुई और इसका रचना काल संभवतः ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दी है। किन्तु जिस रूप में महाभारत आज दिन उपलब्ध है उससे निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि रामायण की रचना उसके पूर्व ही हुई होगी। रामायण में रामचन्द्रजी की कथा है जो अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र थे। कैकेयी के प्रति प्रतिज्ञाबद्ध पिता के वचनों की पूर्ति हेतु राम अपनी पत्नी सीता और भ्रातृभक्त लक्ष्‍मण के साथ अवध का राज्य तथा सिंहासन का अधिकार छोड़कर १४ वर्षों के लिए वन को चले गये। सीता का रावण द्वारा हरण, हनुमान की सहायता से सीता की खोज, रावण का वध और सीता की अग्नि-परीक्षा आदि के अनेक प्रसंग इस महाकाव्य में वर्णित हैं। राम के अनुकरणीय चरित्र और हिन्दुओं के मान्य आदर्शों का रामायण में विशद् वर्णन है।

रायगढ़ : महाराष्ट्र का प्रसिद्ध दुर्ग, जिसका निर्माण छत्रपति शिवाजी ने कराया था। १६७४ ई. में शिवाजी का स्वतंत्र शासक (छत्रपति) के रूप में इसी दुर्ग में विधिवत् राज्याभिषेक हुआ था। उपरान्त १६८९-९० ई. में औरंगजेब ने इस पर अधिकार कर लिया।

रायचूर : अति प्राचीन काल से ही कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच का उपजाऊ भू-भाग रायचूर दोआब के नाम से प्रसिद्ध रहा है और रायचूर का नगर इन्हीं दोनों नदियों के बीच एक दुर्ग द्वारा सुरक्षित है। सामरिक महत्ता के कारण यह नगर शताब्दियों तक बहमनी और विजयनगर के राज्यों के बीच संघर्ष का कारण रहा। अधिकांशतया इसपर बहमनी वंश का ही अधिकार रहा, पर १५२० ई. में विजयनगर के प्रसिद्ध शासक कृष्णदेव राय (दे.) ने बीजापुर के शासक इस्माइल आदिलशाह को परास्त करके रायचूर पर अधिकार कर लिया। तब से लेकर १५६५ ई. में निजयनगर राज्य के नष्ट होने तक इस पर विजयनगर का अधिकार रहा।

राय दुर्लभ (दुर्लभ राय) : बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेवा में निरत एक सेनानायक। मीर जाफर नामक एक दूसरे सेनानायक से मिलकर इसने नवाब सिरादुद्दौला के विरुद्ध इस विचार से एक षड्यंत्र रचा कि अंग्रेजों की सहायता से नवाब को पदच्युत करके मीर जाफर को बंगाल की गद्दी पर बैठाया जाय। इसी षड्यंत्र के फलस्वरूप पलासी का युद्ध (दे.) हुआ, जिसमें राय दुर्लभ और मीर जाफर ने नवाब के साथ विश्वासघात किया और युद्ध में निश्चेष्ट रहे। फलतः अंग्रेजों को युद्ध में सफलता मिली और मीर जाफर बंगाल का नवाब तथा राय दुर्लभ उसका दीवान नियुक्त हुआ। किन्तु शीघ्र ही उससे मीर जाफर अप्रसन्न हो गया और राबर्ट क्लाइव (दे.) के हस्तक्षेप से ही उसके प्राण बचे। राय दुर्लभ की जिस समय मृत्यु हुई, लोग उसको विस्मृत कर चुके थे।

राय पिथौरा : देखिये 'पृथ्वीराज'।

राय, महाराज कृष्णचन्द्र (१७२८-८२) : जन्म बंगाल में नदिया के एक संभ्रान्त जमींदार परिवार में। वे हिन्दू धर्म और संस्कृत साहित्य के महान् पोषक थे। उन्होंने अनेक पण्डितों, मन्दिरों तथा धर्मार्थ पुण्‍यशालाओं को प्रभूत दान दिया। उन्होंने नवाब सिराजुद्दौला के विरुद्ध षड्यंत्रकारियों को अंग्रेजों से सहायता लेने का परामर्श दिया था, किन्तु पलासी के युद्ध में उन्होंने स्वयं कोई सक्रिय भाग नहीं लिया। उनके वंशजों में सातवीं पीढ़ी के महाराज क्षौणीशचन्द्र हुए जो बंगाल के गवर्नर की कार्यकारिणी परिषद् के १९२४ से १९२८ ई. तक सदस्य थे।

राय, राजा राममोहन (१७७२-१८३३) : भारतवर्ष में आधुनिक युग के जन्मदाता। जन्म पश्चिमी बँगाल के हुगली जिले के राधानगर स्थल पर ब्राहमण परिवार में। शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। संस्कृत, अरबी और फारसी का समुचित ज्ञान प्राप्त कर लेने के उपरान्त २२ वर्ष की अवस्था में उन्होंने अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया। वे कई भाषाओं के ज्ञाता थे। हिन्दू, मुसलमान तथा ईसाई धर्मग्रंथों के अध्ययन का उनके धार्मिक विचारों पर गम्भीर प्रभाव पड़ा। १८०४ ई. से १८१४ ई. तक ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में रहे और अन्तिम पाँच वर्षों (१८०९-१४) में उन्होंने रंगपुर (अब बंगला देश में) में तत्कालीन जिलाधीश डिग्बी महोदय के सरिश्तेदार के रूप में कार्य किया। १८१४ ई. में उन्होंने कम्पनी की सेवा से अवकाश ले लिया और १८१५ ई. में कलकत्ता आकर वहीं स्थायी रूप से रहने लगे।

१८०३ ई. में राममोहन राय ने फारसी भाषा में एक इश्तिहार प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने सभी धर्मों में प्रचलित अंधविश्वासों और मूर्तिपूजा आदि का विरोध किया। रंगपुर के प्रवासकाल में उनके धार्मिक विचार जनसाधारण के सम्मुख प्रकट होने लगे थे, किन्तु १८१५ ई. में स्थायी रूप से जब वे कलकत्ता में रहने लगे, तभी से उन्होंने अपने धार्मिक विचारों का नियमित रूप से पूर्ण निष्ठापूर्वक प्रचार प्रारम्भ किया, जिन्होंने १८२८ ई. में ब्रह्मवाद का रूप धारण किया। उन्होंने एकेश्वरवाद का प्रचार किया, हिन्दुओं के बहुदेववाद का, विविध कर्मकांडों तथा मूर्तिपूजा का खंडन किया। उनके विचारानूसार उपनिषदों और वेदान्तशास्त्रों में ही हिन्दू धर्म का सच्चा स्वरूप उपलब्ध है और केवल निर्गुण ब्रह्म की उपासना ही अभीष्ट है। उनका यह सिद्धान्त हिन्दू धर्मशास्त्रों पर ही आधारित था, फिर भी स्वाभाविक था कि तत्कालीन कट्टरपंथी हिन्दू समाज उनका घोर विरोध करता। फलतः राममोहन राय को सामाजिक बहिष्कार तथा विभिन्न उत्पीड़नों को सहना पड़ा। उनका धर्म निर्गुण एकात्मवाद अर्थात् ब्रह्मवाद था। उसमें पैगम्बरों तथा मूर्तिपूजा का कोई स्थान न था। अतएव उन्हें केवल हिन्दुओं का ही नहीं वरन् मुसलमानों और कट्टर ईसाइयों के भी तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा। उन्हें धमकियाँ और प्रलोभन दिये गये; किन्तु उन्होंने धीरता और साहस से काम लिया। वे अपने धार्मिक विश्वास तथा सिद्धान्तों पर अटल रहे। उन्होंने यह कभी अस्वीकार नहीं किया कि मैं हिन्दू हूँ। उनका ध्येय हिन्दू धर्मानुयायी रहकर ही उसमें सुधार करना था।

राजा राम मोहनराय मुख्यतः चिन्तनशील व्यक्ति थे। उनका उद्देश्य समस्त सामाजिक कुरीतियों को मिटाना था। इसी कारण उन्होंने जाति प्रथा, बहुविवाह, सतीप्रथा, स्त्रीसमाज में अज्ञान और विधवाओं के पुनर्विवाह पर प्रतिबन्ध तथा सामान्य जनसमुदाय के हेतु वैज्ञानिक शिक्षा-प्रणाली के अभाव आदि का घोर विरोध किया। वे इन समस्त बुराइयों को हटाने के पक्ष में थे और उनको अपने प्रयासों में प्रायः सभी दिशाओं, विशेषतः शिक्षा के क्षेत्र में, यथेष्ट सफलता मिली। स्वयं संस्कृत के विद्वान् होते हुए भी वे अपने समस्त समकालीन विद्वानों की अपेक्षा पाश्चात्य भाषाओं, विज्ञान एवं दर्शन के ज्ञान पर विशेष बल देते थे, जिससे पूर्व एवं पश्चिम के समन्वित ज्ञान से लाभ उठाकर भारतीयों की नयी पीढ़ी का विकास हो सके।

राय, राजा राममोहन (१७७२-१८३३) : राजनीति के क्षेत्र में भी समस्त भारतीयों में राममोहन राय अग्रणी थे। स्वाधीनता के प्रति अटूट प्रेम और देशवासियों में अपना शासन स्वयं कर लेने की क्षमता लाना उनके राजनीतिक दृष्टिकोण के मुख्य सिद्धान्त थे। उन्होंने संवैधानिक रीति से राजनीतिक आन्दोलनों को चलाने का मार्ग बताया और इस दृष्टि से उन्हे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीजवपन का श्रेय दिया जा सकता है। उन्होंने तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड हेस्टिंग्स द्वारा प्रचलित किये गये प्रेस सम्बन्धी निर्देशों और १८२७ ई. के जूरी ऐक्ट (अधिनियम) के विरुद्ध याचिकाएँ प्रस्तुत करके उनका विरोध किया। जूरी अधिनियम की विडम्‍बना यह थी कि हिन्दुओं और मुसलमानों को केवल ईसाइयों (चाहे वे भारतीय हों अथवा यूरोपीय) के ही नहीं बल्कि अपने धर्मानुयायियों के मुकदमों में भी जूरी के रूप में अभियोगों की सुनवाई करने का अधिकार न था और ईसाइयों को हिन्दुओं और मुसलमानों के वादों की सुनवाई में जूरी बनने का अधिकार था। उन्होंने कर-मुक्‍त जमीनों पर कर लगाने के सरकारी प्रस्ताव, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एकाधिकार तथा विशेषाधिकारों की अवधि बढ़ाने का भी विरोध किया। उनकी प्रबल इच्छा थी कि भूमिकर कम किया जाये, ताकि कृषकों की दशा में सुधार हो। वे चाहते थे कि देश का औद्योगिक विकास हो तथा अंग्रेजों की राजनीतिक प्रभुता और औद्योगिक उन्नति के कारण भारत की सम्पदा का प्रतिवर्ष इंग्लैण्ड निर्गमन बन्द हो।

राममोहन राय मानव स्वतंत्रता के प्रेमी थे और उसे जाति, धर्म अथवा क्षेत्र के आधार पर प्रतिबंधित करने के विरुद्ध थे। १८२१ ई. में नेपुल्स की क्रान्ति की असफलता का उन्हें उतनी ही मात्रा में दुःख हुआ जितनी मात्रा में १८२३ ई. की स्पेनिश अमेरिकन राज्य-क्रान्ति और १८३० ई. की फ्रांस की राज्य-क्रान्ति की सफलता से प्रसन्नता हुई। १८३० ई. से इंग्लैण्ड में होनेवाले सुधार आन्दोलन की प्रगति में वे विशेष रुचि लेते रहे और १८३२ ई. में प्रथम सुधार अधिनियम पारित होने पर उन्हें विशेष प्रसन्नता हुई। उस समय वे इंग्लैण्ड में ही थे। १८३० ई. में वे तत्कालीन मुगल सम्राट् अकबर द्वितीय (१८०६-३७) (दे.) की याचिका इंग्लैण्ड के शासक और वहाँ की संसद (पार्लियामेण्ट) के सम्मुख प्रस्तुत करने गये थे। मुगल सम्राट् ने उन्हें राजा की उपाधि दी थी। इंग्लैण्ड में अपने तीन वर्षों के प्रवासकाल में (१८३०-३३ ई.) उन्होंने मुगल सम्राट् का ही प्रतिनिधित्व नहीं किया, वरन् पाश्चात्य जगत में नवीन भारत का भी प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने अपने लेखों और भाषणों द्वारा इंग्लैण्ड को भारतीय आत्मा का परिचय दिया। उन्होंने इंग्लैण्ड तथा फ्रांस में जहाँ वे १८३२ ई. में गये थे, अनेक गण्यमान विद्वानों के सम्मुख योग्यतापूर्वक भारतीय दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया और उनके विचारों का सभी लोगों ने समुचित आदर भी किया। किन्तु इतना कठिन परिश्रम उनके स्वास्थ्य के हेतु अत्यन्त अहितकर सिद्ध हुआ और २७ सितम्बर १८३३ ई. को ब्रिस्टल में उनकी मृत्यु हो गयी।

राममोहन राय कुशल लेखक भी थे। उन्होंने फारसी, अंग्रेजी और बंगला में कई पुस्तकें लिखीं। बंगला साहित्य में तो उनकी सशक्त लेखनी का योगदान इतना महत्त्वपूर्ण है कि उन्हें आधुनिक बंगला गद्य साहित्य का जन्मदाता कहा जाता है। उन्होंने फारसी में 'तुहफ़ातुल मुबाहिदीन' और 'मनाज़रतुल आदियान' नामक दो पुस्तकें, अंग्रेजी में संक्षिप्त वेदान्त, यीशु के सिद्धान्त, ईसाई जनता से अपील तथा आप ब्रह्म के उपासनागृह में क्यों जाते हैं? तथा बंगाला में वेदान्त सूत्र, ईश, केन, मुण्डक तथा माण्डूक्य उपनिषदें आदि ग्रन्थ रचे। (विशेष विवरण हेतु देखिये: एस. वी. कालेट-लाइफ ऐण्ड लेटर्स आफ राममोहन राय तथा रामानन्द चटर्जी कृत राममोहन राय एण्ड माडर्न इंडिया)

रालिन्सन, लार्ड हेनरी सेमूर : १९२० से १९२५ ई. तक भारत का सेनाध्यक्ष। उसी के सेवाकाल में भारतीयों को ब्रिटिश भारतीय सेना में उच्च पद दिया जाना प्रारंभ हुआ। मार्च १९२५ ई. में दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गयी।

रालिन्सन, सर हेनरी क्रेसविंक (१८१०-९५)  : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सैनिक सेवा हेतु १८२७ ई. में भारत आया। किन्तु भारत आकर वह विख्यात प्राच्य-विद्याविद् बन गया और बहिस्तानी अभिलेख की लिपि को सर्वप्रथम पढ़ने का श्रेय उसी को है। बेबीलोनिया और असीरिया के प्राचीन इतिहास पर उसने कई उच्च कोटि के ग्रंथ लिखे हैं।

राल्फ फ्रिंच : एक अंग्रेज व्यापारी, जो १५८३ ई. में भारत आया। उसने उत्तरी भारत, बंगाल, बर्मा, मलक्का और श्रीलंका की यात्रा की और १५९१ ई. में सकुशल इंग्लैंड वापस लौट गया। उसने अपनी यात्रा का जो विवरण तैयार किया वह उन अभिलेखों में से एक है, जिनके आधार पर ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने प्रारंम्भिक व्यापार की योजनाएँ बनायीं।

रावण : रामायण महाकाव्य में रावण लंका के राक्षसों का राजा और खलनायक के रूप में चित्रित है। उसने राम की पत्नी सीता का छलपूर्वक हरण किया और अपने कुकृत्यों के कारण परिवार सहित राम के हाथों उसकी मृत्यु हुई।

राष्ट्रकूट वंश : इसका आरम्भ दन्तिदुर्ग से लगभग ७३६ ई. में हुआ। उसने नासिक (दे.) को अपनी राजधानी बनाया। उपरान्त इन शासकों ने मान्यखेत (आधुनिक मालखंड) को अपनी राजधानी बनाया। राष्ट्रकूटों ने ७३६ ई. से ९७३ ई. त राज्य किया और इस वंश में १४ शासक हुए, जो तिथिक्रमानुसार क्रमशः दन्तिदुर्ग (७३६-७५६ ई.), कृष्ण प्रथम (७५६-७२ ई.), गोविन्द द्वितीय (७७३-८०), ध्रुव धारावर्ष (७८०-९३), गोविन्द तृतीय (८९३-८१४), शर्व अमोघवर्ष प्रथम (८१४-७८), कृष्ण द्वितीय (९७८-९१४), इन्द्र तृतीय (९१४-२७), अमोघवर्ष द्वितीय (९२८-२९), गोविन्द चतुर्थ (९३०-३६), अमोघवर्ष तृतीय (९३६-३६), कृष्ण तृतीय (९३९-६७), खोद्रिग (९६७-७२) और कर्क्क द्वितीय (९७२-७३) थे।

दन्तिदुर्ग वातापी के चालुक्यों के अधीन सामन्त था। उसने अंतिम चालुक्य शासक कीर्तिवर्मा द्वितीय को पराजित करके दक्षिण में चालुक्यों की सत्ता समाप्तप्राय कर दी। तत्पश्चात् कृष्ण प्रथम ने चालुक्यों की रही सही शक्ति भी नष्ट कर दी और एलोरा के सुप्रसिद्ध कैलाशनाथ मन्दिर का निर्माण कराया जिसके फलस्वरूप भारतीय इतिहास में उनका नाम अमर हो गया है। चौथे शासक ध्रुव ने गुर्जर प्रतिहार शासक वत्सराज को पराजित किया और पाँचवे शासक गोविन्द तृतीय ने उत्तरी भारत पर आक्रमण करके गुर्जर प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय और पालशासक धर्मपाल को पराजित किया। उसने राष्ट्रकूटों के साम्राज्य को मालवप्रदेश से दक्षिण में कांची तक विस्तृत कर दिया। छठा शासक अमोघवर्ष धर्मभीरू और शांतिप्रिय था, जिसने लगभग ६४ वर्षों तक राज्य किया। उसी ने मान्यखेट (मालखेड) को राष्ट्रकूटों की राजधानी बनाया। उसकी शक्ति और वैभव से अरबयात्री सुलेमान इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने अमोघवर्ष की गणना विश्व के तत्कालीन चार महान् शासकों में की। सातवें और आठवें शासक, कृष्ण द्वितीय तथा इन्द्र तृतीय ने भी उत्तरी भारत पर आक्रमण किया था। इन्द्र तृतीय ने कन्नौज के तत्कालीन शासक महीपाल को पराजित करके भागने को विवश किया। बारहवें शासक कृष्ण तृतीय के शासनकाल में दक्षिण के चोलशासकों से एक दीर्घकालीन संघर्ष आरंभ हुआ, जो राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी चालुक्यों के राज्यकाल में भी चलता रहा।

राष्ट्रकूटों का पराभव कल्याणी के चालुक्यों द्वारा हुआ। चालुक्य शासक तैलप उपनाम तैल ने ९७३ ई. में इस वंश के अन्तिम शासक कर्क्क द्वितीय को पराजित करके मान्यखेट पर अधिकार कर लिया। राष्ट्रकूट शासक प्राचीन हिन्दूधर्म के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने कई भव्य भन्दिरों का निर्माण कराया। वे संस्कृत तथा कन्नड़ साहित्य के पोषक थे। उनका धार्मिक दृष्टिकोण उदार था। सिंध के मुसलमान अरब शासकों से उनके मैत्रीपूर्ण संबन्ध थे। अरबों ने इस वंश के शासकों को बल्हरा (बल्लराज) सम्बोधित किया है।

राष्ट्रीय कांग्रेस : देखिये, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस।

रासबिहारी घोष : कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रमुख वकील, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सूरत अधिवेशन (१९०७) के अध्यक्ष चुने गये थे। इस अधिवेशन में नरमदल और गरमदल वालों के बीच तीव्र संघर्ष हुआ और अधिवेशन भंग हो गया। इसके बाद कांग्रेस का अगला अधिवेशन मद्रास में हुआ। उसकी अध्यक्षता भी रासबिहारी घोष ने की। वे बहुत बड़े दानी भी थे। उन्हीं के दान से कलकत्ता विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षा की व्यवस्था संभव हो सकी थी।

राहुल : गौतमबुद्ध का पुत्र। बाल्यावस्था में ही उसके पिता (गौतमबुद्ध) ने उसे प्रवज्या देकर बौद्ध भिक्षु बना लिया था।

रिपन, लार्ड जार्ज फ़्रेडरिक सैमुअल राबिन्सन (१८२७-१९०९ ई.) : १८८० से १८८४ ई. तक भारत का गवर्नर जनरल तथा वाइसराय। ग्लैडस्टोन की भाँति रिपन का भी राजनीतिक दृष्टिकोण उदार था, जिसके कारण वह लोकप्रिय शासक सिद्ध हुआ। भारत में आते ही सर्वप्रथम उसने द्वितीय अफगान-युद्ध (दे.) समाप्त करा दिया और अब्दुर्रहमान को अफगानिस्तान का अमीर मानकर वहाँ से समस्त ब्रिटिश सेनाएँ वापस बुला लीं। भारत के आन्तरिक शासन में सुधार करने के विचार से उसने उदार दृष्टिकोण अपनाया। फलस्वरूप शराब, स्पिरिट, शस्त्र और गोलाबारूद सदृश कुछ थोड़ी सी वस्तुओं को छोड़कर उसने मुक्त व्यापार प्रणाली को प्रचलित किया तथा नमक पर लगे कर में भी कमी कर दी। उसने ब्रिटिश सरकार को इस बात पर राजी करने का असफल प्रयास किया कि जिन जिलों का सर्वेक्षण हो चुका हो वहाँ वस्तुओं की मूल्यवृद्धि को छोड़कर अन्‍य किसी दशा में कर वृद्धि न की जाय।

उसने प्रत्येक तहसील में ऐसी स्थानीय परिषदों का निर्माण कराया, जिनमें जनता द्वारा चुने प्रतिनिधि सरकारी अनुदान में प्राप्त धनराशि को स्थानीय सड़कों आदि की मरम्मत, पहरे की व्यवस्था तथा अन्य सार्वजनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगा सकें। उसने जिला बोर्डों की स्थापना करके उन्हें शिक्षा, सार्वजनिक निर्माण तथा अन्य सार्वजनिक कार्यों का प्रबन्ध-भार सौंप दिया। जिन नगरों में नगरपालिकाओं का गठन हो चुका था वहाँ उसने गैर-सरकारी अध्यक्ष चुने जाने की प्रथा चलायी। लार्ड लिटन (दे.) द्वारा १८७८ ई. में पारित वर्नाक्यूलर प्रेस-ऐक्ट रद्द कर दिया, जिससे देशी भाषाओं में प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्रों को भी अंग्रेजी पत्रों की भाँति स्वतंत्रता प्राप्त हुई। उसने शिक्षा क्षेत्र में हण्टर कमीशन के सुझावों के आधार पर प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में सुधार संबन्धी नीति को स्वीकृति दे दी। १८८१ ई. में रिपन ने मैसूर के बँटवारे को मान्यता दी और राज्य का शासन वहाँ के राजा को इस शर्त पर सौंप दिया कि शासन कार्य सुचारु एवं उत्तम रीति से चलाया जाय।

१८८१ ई. में ही भारतीय कारखानों के श्रमिकों की स्थिति सुधारने के लिए एक कानून बना, जिसके द्वारा नाबालिग बालकों की सुरक्षा हेतु अनेक कार्य के घंटों के निर्धारण एवं खतरनाक मशीनों के चारों ओर बचाव हेतु समुचित रक्षा-व्यवस्था तथा निरीक्षकों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया। किन्तु सुधारों की दृष्टि से उसका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य १८८३ ई. का इल्वर्ट बिल (दे.) था, जिसके द्वारा न्याय के क्षेत्र में रंगभेद को दूर करने का प्रयास किया गया था। इस बिल के द्वारा भारतीय न्यायाधीशों को भी यूरोपीय न्यायाधीशों की भाँति यूरोपियनों के फौजदारी वादों की सुनवाई का अधिकार दिये जाने का सुझाव था। किन्तु इस बिल (प्रस्ताव) का यूरोपियन तथा एंग्लोइंडियन समुदाय द्वारा इतना अधिक विरोध हुआ कि बिल की धाराओं में विशेष परिवर्तन करके ही उसे पारित किया गया और रंगभेद बना रहा। फिर भी ऐसा प्रस्ताव रखने मात्र से भारतीय जनता में लार्ड रिपन की लोकप्रियता काफी बढ़ गयी। १८८४ ई. में त्यागपत्र देकर प्रस्थान करते समय भारतीयों ने उसे सैकड़ों अभिनन्दन-पत्र देकर सम्मानित किया और शिमला से बम्बई तक की यात्रा के दौरान स्थान-स्थान पर उसे भावभीनी विदाई दी गयी।

रीड़िंग, लार्ड रुफ़स डेनियल आइजक्स (१८६०-१९३५) : १९२१ से १९२५ ई. तक भारत का वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल। उसने तत्कालीन भारतीय राजनीतिक परिस्थितियों में हिन्दू-मुस्लिम मतभेदों का यथेष्ट लाभ उठाया और महात्मा गाँधी को कारागार भेजकर असहयोग आन्दोलन को दबाने में सफलता प्राप्त की। भारतीय वैधानिक समस्याओं के समाधान में उसका कोई ठोस योगदान नहीं था।

रीमाकोस या डायमेचस : एक यूनानी राजदूत, जिसे सीरिया के सम्राट् ने द्वितीय मौर्य सम्राट् बिन्दुसार (दे.) (३०० से २७३ ई.पू.) के दरबार में भेजा था।

रुक्नुद्दीन : दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश का पुत्र। इल्तुतमिश द्वारा अपनी पुत्री रजिया को उत्तराधिकारी चुनने के बावजूद दरबार के अमीरों ने १४३६ ई. में रुक्नुद्दीन को ही शासक बनाया। किन्तु वह अयोग्य शासक निकला। कुछ ही महीनों के शासन के उपरान्त सिंहासन से उतारकर उसका वध कर दिया गया।

रुक्नुद्दीन इब्राहीम : दिल्ली के खिलजी वंशीय सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी का उसकी बेगम मलकाजहाँ से उत्पन्न छोटा पुत्र। जलालुद्दीन खिलजी की हत्या उसके भतीजे और दामाद अलाउद्दीन खिलजी द्वारा करा दिये जाने के उपरान्त मलकाजहाँ के प्रभाव से रुक्नुद्दीन ही जुलाई १२९६ ई. में सुल्तान घोषित हुआ। तत्पश्चात् अलाउद्दीन ने उसे सिंहासन से च्युत कर बन्दी बना लिया और उसकी आँखें भी निकलवा लीं। इस तरह नवम्बर, १२९६ ई. में अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान बना।

रुक्नुद्दीन बरबक : बंगाल का शासक, जिसने १४६० से १४७४ ई. तक राज्य किया। उसने अपने यहाँ बहुत से हब्शियों (अबीसीनियाँ से लाये गये गुलामों) को सेवा कार्य में लगा रखा था। इनमें से कुछ गुलाम शासन के उच्चपदों पर भी नियुक्त थे। उसकी गणना चतुर और न्यायप्रिय शासकों में होती है।

रुद्रदामा प्रथम : सौराष्ट्र के शक क्षत्रप जयदामा का पुत्र और इस शाखा के प्रवर्तक चष्टन का पौत्र। उसकी राजधानी उज्जयिनी (उज्जैन) थी। रुद्रदामा प्रथम ने प्रायः १२८ से १५० ई. तक राज्य किया। वह इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था। उसने अपने सम्बन्धी वासिष्ठी पुत्र पुलुमावि द्वितीय को पराजित करके पूरे सौराष्ट्र के अतिरिक्त मालवा, कच्छ, सिन्ध, कोंकण तथा अन्य भू-भागों पर भी अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। १५० ई. के लगभग उसने गिरनार के निकट सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार कराया। प्रारम्भ में इस झील का निर्माण सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य ने कराया था और उसके पौत्र अशोक ने इसमें से कई नहरें निकलवायी थीं।

रुद्रदामा द्वितीय  : परवर्ती पश्चिमी क्षत्रपों का एक शासक। मूल क्षत्रप शाखा से उसका सम्बन्ध स्थापित करना कठिन है। उसने सम्भवतः ३०१ से ३०५ ई. तक राज्य किया तो भी केवल नाम के अतिरिक्त उसका कोई विशेष ऐतिहासिक विवरण उपलब्ध नहीं है।

रुद्रदेव : उत्तरी भारत का एक शासक, जिसका उल्लेख प्रयोग स्तम्भ-लेख में हुआ है। समुद्रगुप्त (दे.) ने अपने राज्यकाल के प्रारम्भ में ही उसको पराजित करके उसका राज्य अपने साम्राज्य में मिला लिया था। रुद्रदेव और उसकी राज्य सीमाओं का ठीक निर्धारण नहीं हो सका है।

रुद्रम्मा देवी (रुद्रम्बा देवी अथवा रुद्रम् देवी) : वारंगल के काकतीय वंशज शासक गणपति (दे.) की पुत्री। उसने प्रायः १२५९ से १२९५ ई. तक राज्य किया। उसे कदाचित् अपने पिता के जीवनकाल में ही शासक नियुक्त कर दिया गया था। मार्कोपोलो (दे.) नामक प्रसिद्ध यात्री ने उसी के शासनकाल के मध्य १२ वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में उसके राज्य में भ्रमण किया तथा वह उसकी सुव्यवस्थित शासन-प्रणाली से अत्यधिक प्रभावित हुआ था।

रुद्रसिंह : चौथी शताब्दी में पश्चिमी क्षत्रप वंश के रुद्रसिंह द्वितीय तथा रुद्रसिंह तृतीय, दो शासक हुए। रुद्रसिंह द्वितीय ने प्रायः ३०४ ई. से राज्य किया था। उपरांत इस क्षत्रप (शक) वंश का अन्तिम शासक रुद्रसिंह तृतीय हुआ, जिसे चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने पराजित कर शकों का नाश कर दिया। सिक्कों पर प्राप्त तिथि की गणना के अनुसार उसका ३८८ ई. तक राज्य करना सिद्ध होता है।

रुद्रसेन प्रथम : वाकाटक वंशीय सम्राट् प्रवरसेन का पौत्र तथा उत्तराधिकारी। उसने प्रायः ३३५ से ३४० ई. तक राज्य किया।

रुद्रसेन द्वितीय : वाकाटक शासक पृथ्वीशेष प्रथम का पुत्र और उत्तराधिकारी तथा रुद्रसेन प्रथम का पौत्र। इसके समय वाकाटकों की शक्ति बढ़ी हुई थी। अतएव गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्ता का विवाह उसके साथ कर दिया, किन्तु दुर्भाग्यवश केवल ३८५ से ३९० ई. तक सफलतातूर्वक राज्य करने के उपरान्त रुद्रसेन की मृत्यु हो गयी।

रुम्मिनदेई (लुम्बिनी) : नेपाल की तराई में एक छोटा-सा गाँव। यह नेपाल के बिथरी जिले और उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले की सीमा के निकट है। अनुश्रुतियों के अनुसार बुद्ध का जन्म लुम्बिनी ग्राम में हुआ था। यहाँ पर सम्राट् अशोक का एक स्तम्भ पाया गया है। स्तम्भ-लेख के अनुसार सम्राट् अशोक ने अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुम्बनी ग्राम की यात्रा की और वहाँ भगवान् बुद्ध के जन्म-स्थान पर उक्त स्तम्भ की स्थापना करायी।

रुहेलखण्ड : अवध के उत्तर पश्चिम, गंगा नदी के उत्तर और कुमायूँ की पहाड़ियों के दक्षिण में स्थित भू-भाग। १७४० ई. में अफगानों की रोहिल्ला नामक जाति द्वारा अधिकार कर लेने के कारण इसका नाम रुहेलखण्ड पड़ा। यद्यपि इस भू-भाग में हिन्दू बहुसंख्यक थे, तथापि शासन रुहेलों का था। पानीपत के तृतीय युद्ध (दे.) (१७६१ ई.) में रुहेलों ने अहमदशाह अब्दाली का साथ दिया और १० वर्षों के बाद जब मराठों का पुनरुत्कर्ष हुआ उन्हें, मराठों से भय होने लगा। इस कारण उन्होंने अवध के तत्कालीन नवाब शुजाउद्दौला से १७७२ ई. में सुरक्षात्मक संधि की जिसके अनुसार मराठों के आक्रमण के समय नवाब द्वारा सैनिक सहायता किये जाने और बदले में रुहेलों की ओर से नवाब को ४० लाख रुपयों की धनराशि देना स्वीकार किया गया।

१७७३ ई. में मराठों ने रुहेलखण्ड पर आक्रमण करना चाहा, पर रुहेलों के सहायतार्थ अंग्रेजों के एक सैनिक दस्ते सहित नवाब की सेनाओं को आते देख वे पीछे हट गये। बाद में नवाब ने १७७२ ई. की संधि के अनुसार रुहेलों से ४० लाख रुपयों की धनराशि माँगी। किन्तु रुहेलों ने इस बहाने से उक्त धनराशि देना अस्वीकार कर दिया कि मराठे स्वयं लौट गये और नवाब की सेना को कोई युद्ध नहीं करना पड़ा। इस पर रुष्ट होकर नवाब ने १७७३ ई. में अंग्रेजों से एक सन्धि की जो बनारस की संधि के नाम से विख्यात है। इसके अनुसार अंग्रेजों ने नवाब को एक सैनिक टुकड़ी की सहायता देना स्वीकार किया, जिसके बल पर वह रुहेलों से उक्त धनराशि प्राप्त करने में समर्थ हो। इस प्रकार अंग्रेजी सेना के बल पर नवाब ने १७७४ ई. में आक्रमण करके रुहेला शासक हाफिज रहमत खाँ को मीरनपुर कटरा के युद्ध में मार डाला और केवल रामपुर के छोटे भू-भाग को छोड़कर समस्त रुहेलखंड पर अधिकार कर लिया।

अवध के नवाब और रुहेलों के युद्ध में अंग्रेजी सेना के इस प्रकार के अनुचित हस्तक्षेप की इंग्लैंड (पार्लियामेन्ट) में तीव्र आलोचना हुई। तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स के विरुद्ध लगाये गये आरोपों में एक आरोप इस अनौचित्य का भी था। यद्यपि वारेन हेस्टिंग्स इन आरोंपों से मुक्त कर दिया गया तथापि उसकी अत्यधिक भर्त्सना हुई। नवाब भी अधिक दिनों तक रुहेलखंड पर अपना अधिकार न रख सका और जब लार्ड वेलेजली गवर्नर-जनरल बनकर आया तब १८०१ ई. में रुहेलखण्ड अंग्रेजों को दे दिया गया।

रूप गोस्वामी : प्रारम्भ में बंगाल के शासक हुसैन शाह (दे.) (१४९२ से १५१७ ई.) का मंत्री। रूप गोस्वामी अपनी सन्त प्रकृति और विद्वता के कारण अधिक विख्यात हैं। उन्होंने व्रजभूमि में निवास करते हुए लगभग २५ ग्रन्थों की रचना की, जिनमें 'विदग्धमाधव' तथा 'ललितमाधव' अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। (यदुनाथ सरकार कृत हिस्ट्री आफ बंगाल, द्वितीय भाग)।

रूपमती : मालवा के शासक बाजबहादुर की विख्यात प्रेमिका। दोनों की प्रेम कथा हिन्दुओं और मुसलमानों की परंपरागत गाथाओं में विशेषरूप से वर्णित है। मांडू में स्थित दो सुन्दर इमारतें रूपमती और बाजबहादुर के महलों के नाम से विख्यात हैं।

रेग्यूलेटिंग ऐक्ट : १७७३ ई. में इंग्लैण्ड की पार्लियामेन्ट द्वारा पारित विधेयक। इसका मुख्य ध्येय उन भारतीय भू-भागों की शासन-व्यवस्था में सुधार करना था, जो ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकार में आ चुके थे। एक्ट के अनुसार कम्पनी का नया संविधान बनाया गया, जिसकी मुख्य धाराएँ थीं कि कम्पनी के निर्देशक ४ वर्षों के लिए चुने जाँय, उनमें से एक चौथाई प्रतिवर्ष अवकाश लें, तथा वे कम से कम एक वर्ष निदेशक के पद से पृथक् रहें। कम्पनी के निदेशक प्रतिवर्ष इंग्लैण्ड के सर्वोच्च राजकोषाधिकारी (चांसलर आफ एक्सचेकर) के सम्मुख ऐसे समस्त पत्र व्यवहार प्रस्तुत करें, जो भारत से होनेवाली आय से संबंधित हों। इसके साथ ही वे इंग्लैण्ड के एक मंत्री को भारत की सैनिक एवं शासन-व्यवस्था के विवरण से अवगत करायें। इसके अन्तर्गत बंगाल में गवर्नर जनरल की नियुक्ति की गयी, जिसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की कौंसिल का गठन हुआ और उसके बहुमत को ही मान्यता देने का प्रावधान रखा गया। समिति में बहुमत न होने पर गवर्नर-जनरल को निर्णायक मत देने का अधिकार दिया गया। साथ ही यह अधिकार भी दिया गया कि वे बम्बई और मद्रास प्रेसीडेन्सी की सरकारों की गतिविधियों और देशी राज्यों से उनके संबंधों पर नियंत्रण रखें।

इसके अनुसार वारेन हेस्टिंग्स गवर्नर-जनरल तथा सर जाँन क्लैवरिंग, मानसन, फिलिप फ्रांसिस और रिचर्ड बारबेल कौंसिल के सदस्य बनाये गये। इनका कार्यकाल पाँच वर्षों का नियत किया गया और भविष्य में इनकी नियुक्ति होना कम्पनी द्वारा निश्चित हुआ। गवर्नर जनरल का २५,००० पौण्ड और परामर्शदात्री समिति के सदस्यों का १०,००० पौण्ड वार्षिक वेतन भी स्वीकृत हुआ। कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायालय का गठन किया गया, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन सहायक न्यायाधीश नियुक्त हुए। सर एलिजा इम्पी मुख्य न्यायाधीश बने और उन्हें ८,००० पौण्ड वार्षिक वेतन देना स्वीकृत हुआ। यद्यपि रेग्यूलेटिंग ऐक्ट का मुख्य ध्येय शासन के समस्त कार्यों में एक ही व्यक्ति के आधिपत्य एवं तानाशाही को रकना था, तथापि इसमें कई दोष थे।

सर्व प्रथम दोष यह था कि कम्पनी द्वारा बंगाल के वास्तविक शासन को अपने हाथों में लेने के पश्चात् भी बंगाल के नवाब की सत्ता बनी ही रही, जिससे विधिविधान संबन्धी प्रभुता कम्पनी के हाथों में न रहकर बंगाल के नवाब के हाथों में ही रही। ऐक्ट का दूसरा दोष यह था कि कौंसिल का बहुमत यदि गवर्नर-जनरल के विरुद्ध रहा तो शासन-संचालन में गतिरोध उत्पन्न हो सकता था। गवर्नर-जनरल और कौंसिल का मद्रास और बम्बई की प्रेसीडेन्सियों पर नियंत्रण भी सीमित था। फलतः दोनों ही प्रेसीडेन्सियां गवर्नर-जनरल तथा उसकी कौंसिल की पूर्व अनुमति लिये बिना ही, देशी राज्यों से युद्ध में फंस गयी। सर्वोच्च न्यायालय की अधिकार-सीमा की भी कोई स्पष्ट व्याख्या ऐक्ट में न थी, जिसका परिणाम भविष्य में अत्यधिक अहितकर सिद्ध हुआ।

रेमाँ : एक प्रसिद्ध फ्रांसीसी सेनानायक। हैदराबाद के निजाम ने १७९५ ई. में अपनी सेना का पुनर्गठन करने के लिए उसकी नियुक्ति को। कुछ अन्य फ्रांसीसी पदाधिकारियों की सहायता से उसने यह कार्य बड़ी कुशलता से सम्पन्न किया, किन्तु १७९८ ई. में निजाम ने गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली के दवाब डालने पर उसे पद मुक्त कर दिया। निजाम शत्रुओं से अपनी रक्षा के लिए अंग्रेजों से सहायता-संधि करना चाहता था। लार्ड वेलेजली ने यह शर्त रखी कि निजाम पहले अपनी सेवा में नियुक्त सभी फ्रांसीसियों को निकाल दे।

रेलें, भारत में  : लार्ड हार्डिंज (१८४४-४८ ई.) शासनकाल में इसकी प्रारम्भिक योजना तैयार हुई, किन्तु रेल पटरी बिछाने का कार्य डलहौजी (१८४८-५६ ई.) के शासन-काल में बड़ी कठिनता से इंग्लैण्ड की सरकार की अनुमति मिलने पर १८५३ ई. में प्रारंभ हुआ। पहले इस कार्य की प्रगति धीमी थी। तथाकथित सिपाही विद्रोह के समय बंगाल में कलकत्ते से रानीगंज तक और बम्बई प्रेसीडेन्सी में बम्बई से थाणा तक, कुल २०० मील ही रेल-लाइन बिछायी जा सकी। ये दोनों लाइनें छोटी होते हुए भी इतनी उपयोगी सिद्ध हुईं कि १८५९ ई. में देशभर में ५००० मील लम्बी रेल लाइनें बिछाने की स्वीकृति दे दी गयी। प्राइवेट ब्रिटिश कम्पनियों ने इस कार्य में आवश्यक पूँजी लगाना स्वीकार किया। सरकार ने उन्हें कम से कम पाँच प्रतिशत वार्षिक लाभ की गारन्टी प्रदान की। इसके साथ ही इससे अधिक लाभ को सरकार तथा कम्पनियों के बीच बाँट लेने का निश्चय हुआ। सरकार की ओर से इस कार्य में कम्पनियों की हानि को पूरा करने का वचन भी दिया गया। इसके बदले में भारत सरकार ने इन कम्पनियों का नियंत्रण, कार्यविधि एवं व्यय आदि की जाँच का अधिकार अपने हाथों में सुरक्षित रखा। साथ ही यह शर्त भी रखी गयी कि २५ वर्षों के उपरांत सरकार चाहे तो उन कम्पनियों को खरीद सकती है।

सैनिकों को कम रेल भाड़े की सुविधा और डाक की निःशुल्क सेवा भी इसी अनुबन्ध के अन्तर्गत थी। फिर भी इस व्यवस्था में कई दोष थे, जिनके कारण ऐसी आर्थिक हानियों का भार भी सरकार पर आ पड़ा, जिन्हें वह अनुबन्ध की शर्तों के अधीन रोकने में असमर्थ थी। इस व्यवस्था से लाभ यह हुआ कि भारतवर्ष में यंत्रचालित यातायात व्यवस्था का प्रारंभ हुआ और इसी के द्वारा सम्पूर्ण देश में सरकारी रेलों का जाल बिछा देने का पथ प्रशस्त हुआ। डलहौजी ने सम्पूर्ण भारतवर्ष में एक ही प्रकार की रेल लाइन बिछाने का विचार किया था परन्तु योजना के कार्यान्वित होने पर तीन प्रकार की लाइनें बिछीं-बड़ी लाइन, छोटी लाइन और तीसरी सरकारी लाइन। १८७० ई. से प्रारंभ होनेवाले दशक में भारत सरकार ने स्वयं रेल बिछाने और चलाने का कार्य प्रारंभ किया।

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक भारतीय रेलों की व्यवस्था तीन प्रकार की थी। कुछ रेलें कम्पनि‍यों के व्यक्तिगत प्रबन्ध में चलती थीं, कुछ सरकारी प्रबन्ध में तथा कुछ सरकारी रेलें होने पर भी उनका प्रबन्ध कम्पनियों के हाथ में था। इसके बाद नयी कम्पनियों को रेल लाइनें बिछाने का कार्य देना प्रायः बन्द कर दिया गया और पुरानी कम्पनियों के पट्टे समाप्त होने पर सरकार उन कम्पनियों की रेलें खरीदती गयी। सभी रेलों पर समान नियंत्रण-व्यवस्था की आवश्यकता दिन-प्रति-दिन अनुभव की जाने लगी थी, अतः १९०५ ई. में रेलवे बोर्ड की स्थापना की गयी। प्रथम महायुद्ध के उपरान्त रेलवे बोर्ड का पुनर्गठन हुआ और रेल को राज्य-प्रबन्ध में लाने में शीघ्रता की गयी। १९२४-२६ ई. से रेलवे का अलग बजट बनाया जाने लगा। समस्त रेलों को सरकारी स्वामित्व और प्रबन्ध-व्यवस्था में लाने के कार्य की गति क्रमिक रीति से तेज कर दी गयी तथा नयी रेलवे-लाइन बिछाने का कार्य भी तेजी से आगे बढ़ाया गया। फलतः स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय सम्पूर्ण देश में ४३००० मील लम्बी रेल की लाइनें हो गयीं, किन्तु विभाजन के बाद भारतीय गणतंत्र में ३५३९५ मील लम्बी रेल लाइनें बची हैं।

वर्तमान रेलें प्रायः प्रतिदिन ४० लाख यात्री और ३ लाख ७० हजार टन माल देशभर में ढोती हैं। इस कार्य में १२०० करोड़ रुपयों की पूंजी लगायी गयी है और ११ लाख व्यक्ति सेवारत हैं। भारतीय रेलों से सरकार की साधारण आय में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रही है। १९५५-५६ ई. में ३६ करोड़, १९६०-६१ में ५६ करोड़, १९६१-६२ में ७६ करोड़ रुपयों का लाभ हुआ। रेलों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी विशेष प्रभाव पड़ा है। इनसे दुर्भिक्ष या अकाल के समय स्थिति सँभालने और उद्योग केन्द्रों तक कोयला पहुँचाने का कार्य सरल हो गया है। रेल व्यवस्था से कपास, जूट और चीनी उद्योगों को विशेष सहायता मिली है। देश के दूरस्थ भागों से कृषिजन्य वस्तुओं को बाजार में उचित मूल्य पर बेचना सुगम हो गया है। रेलों के द्वारा भारत में उद्योगीकरण की प्रक्रिया द्रुतगति से आगे बढ़ रही है। रेलों का राजनीतिक महत्त्व भी कम नहीं। इनके द्वारा लोग देश के एक भाग से दूसरे भाग तक सरलता, कम खर्च तथा शीघ्रता से आ-जा सकते हैं और उससे देश की एकता की चेतना बलवती होती है।

रेवेल, जेम्स : १७६४ ई. में नियुक्त बंगाल का भू-सर्वेक्षण अधिकारी, जिसने १७७९ ई.में बंगाल का मानचित्र प्रस्तुत किया। वह भारतीय भूगोल शास्त्र का जन्‍मदाता माना जाता है। उसने १७८३ ई. में अंग्रेजी में संस्मरण तथा 'भारत का मानचित्र' और 'भारतीय उप महाद्वीप में ब्रिटिश सेना की गतिविधियाँ' नामक पुस्तकें लिखीं।

रैफल्स, सर टामस स्टैम्फोर्ड (१७८१-१८२६) : प्रसिद्ध अंग्रेज प्रशासक, जिसने पूर्वी एशिया में यथेष्ट नाम कमाया। सिंगापुर की नींव उसी ने डाली थी। प्रारंभ में वह ईस्ट इण्डिया कम्पनी में लिपिक मात्र था। १८०५ ई. में उसे सहायक सचिव नियुक्त करके पेनांग भेजा गया और वहीं पर उसने १८०७ ई. में सचिव पद प्राप्त किया। १८०८ ई. में उसने मलक्का का महत्त्व बताते हुए यहाँ पर कम्पनी का अधिकार बनाये रखने का प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। पहले कम्पनी ने उक्त स्थल छोड़ देने का निश्चय कर लिया था। उसके प्रतिवेदन के आधार पर कम्पनी ने अपना पहला आदेश वापस ले लिया। १८१० ई. में उसने भारत के तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड मिण्टो प्रथम को जावा द्वीप की व्यापारिक महत्ता स्पष्ट करते हुए उस पर अधिकार कर लेने की सलाह दी।

जावा उन दिनों फ्रांसीसियों के अधिकार में था। अतः यहाँ पर अधिकार स्थापित कर लेने की योजना बनाने के लिए उसे मलक्का भेजा गया। उसने यह कार्य योग्यतापूर्वक सम्पन्न किया और १८११ ई. में जावा को जीतने के उपरान्त उसे ही वहाँ का लेफ्टिनेण्‍ट-गवर्नर नियुक्त किया गया। रैफल्स ने १८११ ई. से १८१६ ई. तक सुचारु रूप से उसका शासन किया और स्थानीय करों में कमी करने के पश्चात् भी वहाँ से कम्पनी को होनेवाली आय में आठ गुना वृद्धि कर दी। १८१८ ई. से १८२३ ई. तक वह सुमात्रा का शासक रहा और वहाँ भी उसे पूर्ववत् सफलता ली।

इसी बीच २९ जनवरी १८१९ ई. को उसने आधुनिक सिंगापुर तथा आसपास के भू-भागों पर भारतीय अंग्रेजी सरकार की अनुमति से अधिकार करके उक्त नगर की नींव डाली और वहाँ के बन्दरगाह की सुरक्षा का समुचित प्रबंध किया। सामरिक एवं व्यापारिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण इस नगर के विकास का श्रेय उसी को है, क्योंकि इसके द्वारा ही हिन्द महासागर से प्रशान्त महासागर तक के जलमार्ग पर अंग्रेजों का नियंत्रण स्थापित हो सका। रैफल्स विद्वान् भी था और उसने १८१७ ई. में 'जावा का इतिहास' नामक पुस्तक की रचना की। उसे जीव-वैज्ञानिक अध्ययन में भी विशेष रुचि थी। उसने १८२५-२६ ई. में लन्दन स्थित 'प्राणिविज्ञान समिति' (जुओलाजिकल सोसाइटी) की संस्थापना में विशेष सहायता दी। उसे एफ. आर. एस. तथा एल. एल. डी. की उपाधियाँ भी प्रदान की गयी थीं।

रैयत : रैयत' और 'रियाया' शब्दों का प्रयोग ऐसे कृषकों के लिए होता था, जो किसी जमींदार के असामी थे अथवा उसकी भूमि पर कृषि करके उसे निश्चित लगान देते थे।

रैयतवारी प्रथा : देखिये, 'भूमि व्यवस्था'।

रोज़, सर ह्यू : प्रसिद्ध ब्रिटिश सेनानायक, जिसे तथाकथित सिपाही-विद्रोह (दे.) का दमन करने के लिए भारत भेजा गया। १८५४ ई. के अन्त में वह भारत आया और मऊ की सैनिक छाँवनी को अपना मुख्य कार्यालय बनाकर मध्य भारत में सफल सैनिक अभियान चलाया। १८५८ ई. के प्रारंभ में उसने अलीगढ़ पर अधिकार कर लिया, सागर को मुक्त किया तथा तात्या टोपे (दे.) को बेतवा के युद्ध में परास्त कर झाँसी के किले पर भी अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् कोंच के युद्ध में विद्रोही सिपाहियों के एक दल को परास्त किया। उसकी इन सफलताओं से ऐसा जान पड़ा कि केवल छह महीनों में ही मध्य भारत में विद्रोह को कुँचल दिया जायगा, किन्तु इसी बीच झाँसी की रानी (दे.) और तात्या टोपे ने, जिनका पीछा अंग्रेजी सेना कर रही थी, ग्वालियर पर अधिकार कर लिया और वहाँ की तोपें हस्तगत करके नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया। इससे विद्रोहियों में नवस्फूर्ति आ गयी और विद्रोह की अग्नि दक्षिण की ओर बढ़ने की सम्भावना दिखने लगी। सर ह्यू रोज ने अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाते हुए ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया और विद्रोहियों को लगातार दो युद्धों में परास्त किया। इनमें से एक युद्ध में झाँसी की रानी पुरुष वेश में युद्ध करती हुई वीर-गति को प्राप्त हुई। जून १८५८ ई. में रोज ने ग्यालियर पर पुनः अधिकार कर लिया और मध्य भारत के विद्रोह को शान्त करके अपनी सैन्य-संचालन क्षमता का परिचय दिया।

रोनाल्डशे, अर्ल-(१९१७ ई. से १९२२ ई.)  : तक बंगाल का गवर्नर। देखिये, जेट लैण्ड, लार्ड।

रोशन आरा, बेगम : शाहजहाँ बादशाह और मुमताज महल की दूसरी पुत्री। उतराधिकार के युद्ध में उसने चारों भाइयों में से औरंगजेब का पक्ष लिया और राजधानी में होनेवाली समस्त गतिविधियों की सूचना गुप्त रूप से औरंगजेब को भेजकर उसे सिंहासन प्राप्त करने में सहायता दी। वह दारा की कट्टर शत्रु थी और उसे काफिर करार करके उसका वध कर देने के पक्ष में थी।

रो, सर टामस : इंग्लैंड के शासक जेम्स प्रथम द्वारा राजदूत नियुक्त होकर १६१५ ई. में बादशाह जहाँगीर के दरबार में भेजा गया। वह सूरत के बन्दरगाह पर उतरा और अजमेर में जहाँगीर के दरबार में उपस्थित हुआ। रो सुशि‍क्षित तथा दूतकार्य में निपुण व्यक्ति था। भारत के सम्राट् की ओर से अंग्रेजों को व्यापारिक सुविधा एवं सुरक्षा दिलाने के हेतु संधि करने के लिए उसको यहाँ भेजा गया गया था। रो शीघ्र ही जहाँगीर का कृपापात्र बन गया। वह अजमेर, मांडू तथा अहमदाबाद के दरबारों में ३० वर्षों तक रहा। यद्यपि पूर्वोक्त आशय की संधि कराने में उसे सफलता नहीं मिल सकी, तथापि उसके ही प्रयास से ही अंग्रेजी कम्पनी को मुगल साम्राज्य के कई नगरों में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित करने की अनुमति अवश्य मिल गयी। इसके साथ ही मुगल प्रशासकों की दृष्टि में अंग्रेजों की प्रतिष्ठा भी बढ़ गयी।

रो, हालैण्ड और पुर्तगाल निवासियों की सैन्यबल पर आधारित व्यापार-नीति के विरुद्ध था। फलतः उसने इंग्लैण्ड की कम्पनी को यही परामर्श दिया कि वह अपनी गतिविधियों को केवल वाणिज्य एवं व्यवसाय तक ही सीमित रखे। उसने कम्पनी की बड़े मनोयोग से सेवा की और १६१९ ई. में भारत से स्वदेश लौट गया।

रौलेट ऐक्ट : १९१९ ई. में ब्रिटिश भारत की केन्द्रीय विधान परिषद् के सभी गैर सरकारी भारतीय सदस्यों द्वारा विरोध करने पर भी दो अधिनियम पारित किये गये, जो 'रौलट ऐक्ट' कहलाये। रौलट कमेटी द्वारा १९१७ ई. में प्रस्तुत प्रतिवेदन में दिये गये सुझावों को कार्यान्वित करने के उद्देश्य से ये दोनों अधिनियम पारित किये गये थे। कमेटी ने कानूनों में कठोरता लाने की संस्तुति इस तर्क के साथ की थी कि उसे देश में व्यापक रूप से विध्वंसक कार्यवाहियों के प्रमाण मिले हैं। दोनों अधिनियमों में से एक के द्वारा प्रेस पर व्यापक एवं कठोर नियंत्रण लगाने की व्यवस्था थी और दूसरे अधिनियम द्वारा राजनीतिक बन्दियों के संबंध में बिना जूरी के केवल जज द्वारा ही निर्णय की व्यवस्था थी। इसके साथ ही प्रान्तीय सरकारों द्वारा ऐसे व्यक्तियों को नजरबन्द रखना न्याय-संगत माना गया, जिन पर विध्वंसक कार्यों में भाग लेने का संदेह हो।

रौलेट ऐक्ट (अधिनियम) बनने से समस्त देश में तीव्र असंतोष फैल गया और हड़तालें हुईं। कुछ स्थलों पर दंगे भी हुए। अन्त में जालियांवाला बाग (दे.) का पाशविक हत्याकाण्ड हुआ, जिसके फलस्वरूप १९२० ई. में असहयोग आन्दोलन आरम्भ हुआ। ये समस्त उपद्रव अधिकारियों की अदूरदर्शिता के प्रतिफल थे, क्योंकि ऐसी कोई आशंका न थी, जिसके लिए इतने कड़े अधिनियमों को पारित करने की आवश्यकता होती, जैसा कि इस तथ्य से सिद्ध है कि सरकार को दोनों अधिनियमों द्वारा जो व्यापक अधिकार प्राप्त हुए थे, उनको प्रयोग में लाने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ी।

लक्ष्मण : रामायण के नायक राम के छोटे भाई। चौदह वर्ष के वनवास काल में वे बड़े भाई के साथ रहे और आजीवन अपने बड़े भाई का अनुगमन किया। प्रतिहार (दे.) राजा अपने को उन्हीं का वंशज कहते थे।

लक्ष्‍मण सेन : बंगाल के राजा बल्लालसेन का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। वह या तो ११८४-८५ ई. में या कुछ वर्ष पहले ११७८-७९ ई. में गद्दी पर बैठा। उसने अपने राज्यकाल के प्रारम्भिक वर्षों में कामरूप (आसाम) को अपने अधीन किया और बनारस के गाहड्वाल राजा को हराया। वह विद्वानों का आश्रयदाता था। 'गीतगोविन्द' के रचयिता जयदेव तथा पवनदूत के रचयिता धोई उसके राजकवि थे। प्रसिद्ध हिन्दू धर्मशास्त्रकार हलायुध का भी वह आश्रयदाता था।

परंतु बाद के जीवन में वह पुरुषार्थहीन हो गया था। अपनी राजधानी नदिया में वह जिस समय दोपहर को भोजन कर रहा था, मलिक इख्तियारुद्दीन मुहम्मद खिलजी ने या तो ११९९ ई. में य १२०२ ई. में अचानक हमला कर दिया। मुसलमान इतिहासकारों के अनुसार खिलजी सरदार अपने साथ केवल अठारह घुड़सवार ले गया था। उसने अचानक नदिया पर हमला बोल दिया। लक्ष्मण सेन (जिसका नाम मुसलमान इतिहासकारों ने राय लक्ष्मनिया लिखा है) अपने महल के चोर दरवाजे से भाग गया और पूर्वी बंगाल चला गया, जहाँ उसके वंशजों ने अगले पचास वर्षों तक अपना स्वतंत्र राज्य कायम रखा।

लक्ष्मणावती : देखिये, 'गौड़'।

लक्ष्मनिया राय : देखिये, 'लक्ष्मण सेन'।

लक्ष्मी कर्ण : चेदि (बुन्देलखंड) के कलचुरि राजा गांगेय देव (दे.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी, जिसने लगभग १०४०-१०७० ई. तक राज्य किया। लक्ष्मीकर्ण ने समूचे दक्षिणी दोआब को जीता, बंगाल के पाल राजा से संधि कर कलिंग तक राज्य का विस्तार कर लिया। परन्तु गुजरात, मालवा तथा दक्षिण के राजाओं ने मिलकर उसे युद्ध में परास्त कर दिया और मार डाला।

लक्ष्मीबाई : झाँसी की रानी, (दे.) जो इस बात से बहुत कुपित थी कि १८५३ ई. में उसके पति के मरने पर लार्ड डलहौजी ने जब्ती का सिद्धांत लागू करके उसका राज्य हड़प लिया। अतएव सिपाही-विद्रोह शुरू होने पर वह विद्रोहियों से मिल गयी और सर ह्यू रोज के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज का हटकर वीरतापूर्वक मुकाबिला किया। जब अंग्रेजी फौज किले में घुस गयी, लक्ष्मीबाई किला छोड़कर कालपी चली गयी और वहाँ से युद्ध जारी रखा। जब कालपी छिन गयी तो रानी लक्ष्मीबाई ने तांत्या टोपे (दे.) के सहयोग से शिन्दे की राजधानी ग्वालियर पर हमला बोला, जो अपनी फौज के साथ कम्पनी का वफादार बना हुआ था। लक्ष्मीबाई के हमला करने पर वह अपने प्राणों की रक्षा के लिए आगरा भागा और वहाँ अंग्रेजों की शरण ली। लक्ष्मीबाई की वीरता देखकर शिन्दे की फौज विद्रोहियों से मिल गयी। रानी लक्ष्मीबाई तथा उसके सहयोगियों ने नाना साहब (दे.) को पेशवा घोषित किया और महाराष्ट्र की ओर धावा मारने का मनसूबा बाँधा, ताकि मराठों में भी विद्रोहाग्नि फैल जाय। इस संकटपूर्ण घड़ी में सर ह्यू रोज तथा उसकी फौज ने रानी लक्ष्मीबाई को और अधिक सफलताएँ प्राप्त करने से रोकने के लिए जी-तोड़ कोशिश की। उसने ग्वालियर फिर से ले लिया और मुरार तथा कोटा की दो लड़ाइयों में रानी की सेना को पराजित किया। १७ जून १८५८ ई. की लड़ाई में रानी, जो एक घुड़सवार की पोशाक में थी, मारी गयी। विद्रोही सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थी और उसकी मृत्यु से मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गयी।

लखनऊ : उत्तर प्रदेश में गोमती के तट पर स्थित एक प्रमुख नगर। यह अवध के नवाबों की राजधानी रहा है। उन्होंने यहाँ कई सुन्दर महल तथा मसजिदें बनावायीं। गदर (दे.) के समय लखनऊ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। कुछ समय तक इस पर विप्लवियों का अधिकार रहा। नवम्बर १८५७ ई. में सर कालिन कैम्पबेल के नेतृत्व में एक ब्रिटिश सेना ने इस पर फिर अधिकार कर लिया। यहाँ एक विश्वविद्यालय भी स्थित है और अब यह उत्तर प्रदेश की राजधानी है।

लखनऊ समझौता  : १९१६ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुसलिम लीग के बीच हुआ। इसके द्वारा मुसलिम लीग ने पृथक् निर्वाचन क्षेत्र तथा दोनों सम्प्रदायों के बीच सीटों के न्यायोचित बँटवारे के आधार पर भारत को स्वराज्य दिलाने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को सहयोग देना स्वीकार कर लिया।

लखनौती : देखिये, 'गौड़'।

लगमान (अथवा लमगान) : अफगानिस्तान में जलालाबाद और काबुल नदी के उत्तरी तट पर स्थित स्थानीय नगर। उसने पास ही पुले दुरन्ता में आरामाई भाषा में अशोक का एक शिलालेख मिला है। इससे प्रमाणित होता है कि लगमान अशोक के साम्राज्य के अंतर्गत था। उसके लगभग एक हजार वर्ष बाद यह जयपाल (दे.) के राज्य में सम्मिलित था। लगभग ९९० ई. में अमीर सुबुक्तगीन ने इसे जयपाल से छीन लिया। इसके बाद से यह अफगानिस्तान के राज्य का एक भाग है।

ललितादित्य : कश्‍मीर के कर्कोट वंश (दे.) का राजा। जिसने ७२४ से ७६० ई. तक राज्य किया। उसने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की, कन्नौज के यशोवर्मा (दे.) को पराजित किया और तिब्बतियों तथा सिन्धु नदी के तट पर तुर्कों पर भी विजय प्राप्त की। उसने बंगाल के एक राजा को भी हराया। उसने अनेक विहारों, मन्दिरों तथा भवनों का निर्माण कराया, जिनमें मार्तण्ड मंदिर सबसे विख्यात है।

लवणसेन : बंगाल के राजा देवपाल (लगभग ८१०-८५० ई.) का सेनापति। कहा जाता है कि उसने आसाम और कलिंगको जीता।

लाखा : १३८२ से १४१८ ई. तक मेवाड़ का राणा।

ला, जीन : एक फ्रेंच सैनिक जो अठारहवीं शताब्दी के मध्य में भारत आया। उसका परिचय शाहजादा से हो गया जो बाद में बादशाह शाह आलम द्वितीय (१७५९-१८०६ ई.) हुआ। उसने संस्मरणों में शाहजादे के बारे में अपने विचार व्यक्त किये हैं।

लाड मलिका  : चुनार के हाकिम ताज खाँ की पत्नी। १४२८ ई. में उसके सौतेले पुत्र ने उसके पति की हत्या कर दी। विधवा होने के बाद उसने शेर खाँ (बाद में शेरशाह) से शादी कर ली और न केवल चुनार के किले पर, बल्कि उसके खजाने पर भी उसका कब्जा करवा दिया। इस प्रकार उसने शेरशाह को उसके विजय पथपर अग्रसर किया, जिसके फलस्वरूप १५४० ई. में वह दिल्ली का बादशाह बन गया।

ला बोर्दने : भारत में पहला आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध (दे.) छिड़ने के समय मारीशस का फ्रांसीसी गवर्नर। उसमें नेतृत्व की सहज क्षमता थी। भारतीय समुद्रों में कोई फ्रांसीसी जंगी बेड़ा न होने पर उसने फ्रांसीसी व्यापारिक जहाजों और देशी नौकाओं का एक बेड़ा तैयार किया और कारोमंडल के तट पर पहुँचा। उसने पेयटन (दे.) के नेतृत्ववाले ब्रिटिश जंगी बेड़े को बंगाल की खाड़ी की ओर भगा दिया और सितम्बर १७४५ ई. में मद्रास पर अधिकार कर लिया। फ्रांसीसियों की यह एक उल्लेखनीय सफलता थी, परंतु ला बोर्द ने इसके बाद ही डूप्ले से झगड़ा कर बैठा। एक तूफान ने उसके बेड़े को तितर-बितर कर दिया। फिर भी १७४८ ई. में एक्स-ला शैपेले की संधि होने तक मद्रास फ्रांसीसी कब्जे में रहा। १७४८ ई. की संधि के अनुसार मद्रास अंग्रेजों को वापस मिल गया, १७५९ ई. में अवकाश ग्रहण करने पर ला बोर्दने ने अपने संस्मरण प्रकाशित कराये।

लायड जार्ज, डेविड (१८६३-१९४५ ई.) : ब्रिटेन का एक राजनेता, जिसने प्रथम विश्वयुद्ध में अपने देश को विजयी बनाया। वह छः साल (१९१६-२२ ई.) तक ब्रिटेन का प्रधानमंत्री रहा। १९४४ ई. में उसे 'पिअर' की पदवी प्रदान की गयी। वह लिबरल विचारधारा का नेता था और कोषागार-मंत्री की हैसियत से उसने ब्रिटेन में कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए भूमिका तैयार की। उसने प्रधानमंत्री की हैसियत से १९१८ ई. में इंग्लैंड को विजयी बनाया। वह सोलह वर्ष (१९०६-२२ ई.) तक ब्रिटिश राजनीति पर हावी रहा और बीसवीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश में शांति तथा युद्धकाल में ब्रिटेन का भाग्य-निर्णय यदि किसी एक व्यक्ति के हाथ में रहा तो वह व्यक्ति लायड जार्ज था। उसने भारत के संवैधानिक विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया। अगस्त १९१७ की प्रसिद्ध घोषणा उसी के प्रधानमंत्रित्वकाल में हुई, जिसमें कहा गया था कि क्रमिक रीति से स्वशासन की प्राप्ति भारत में ब्रिटिश शासन का लक्ष्य है। इस घोषणा के बाद ही उसने १९१९ ई. का गवर्नमेन्ट आफ इंडिया ऐक्ट पास कराया और इस प्रकार भारत को संसदीय लोकतंत्र के मार्ग पर आगे बढ़ाया।

लारेंस, कर्नल स्ट्रिंजर (१६९७ - १७७५ ई.) : एक प्रसिद्ध अंग्रेज जनरल, जिसने १७४८ ई. में भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौज में नौकरी की। उसने कुडलूर पर फ्रांसीसी हमला विफल कर दिया, परन्तु बाद में फ्रांसीसियों ने उसे बंदी बना लिया और एक्स-ला-शैपेले (दे.) की संधि के बाद वह रिहा हुआ। १७४९ ई. में देवीकोट छीनने के समय राबर्ट क्लाइव उसका अधीनस्थ अफसर था, उसी समय से दोनों जीवनभर के मित्र बन गये। स्ट्रिन्जर लारेंस ने राबर्ट क्लाइव की जीवन-दिशा को मोड़ देने में भारी सहायता की। १७५२ ई. में जब लारेंस के नेतृत्व में भारी सहायता की। १७५२ ई. में जब लारेंस के नेतृत्व में एक कुमुक त्रिचनापल्ली भेज़ी गयी, क्लाइव अधीनस्थ अफसर के रूप में उसके साथ था।

उसने क्लाइव को हर प्रकार से प्रोत्साहन प्रदान किया और युद्ध के अन्त में उसको आवश्यकता से अधिक श्रेय प्रदान किया। क्लाइव को जबकि बंगाल भेज दिया गया, वह दक्षिण में बना रहा। विन्दवाश (दे.) की लड़ाई में अंग्रेजों की विजय में उसका भी हाथ था। पांडिचेरी के फ्रांसीसी गवर्नर काउण्ट डी लाली (दे.) ने १७५८-५९ ई. में जब फोर्ट सेंट जार्ज पर घेरा डाला, वह वहाँ की सेनाओं का कमाण्डर था। उसने लाली की फौजों को खदेड़ दिया उसने १७६६ ई. में अवकाश ग्रहण किया। वह वीर और पराक्रमी अफसर था और कर्नाटक के युद्धों (दे.) में अंग्रेजों की विजय में उसका भारी योगदान रहा।

लारेंस, लार्ड जान (१८११-७९ ई.)  : भारत का १८६४-१८६९ ई. तक वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल। वह सर हेनरी लारेंस (दे.) का छोटा भाई था और कम्पनी की नौकरी के लिए १८३० ई. में कलकत्ता आया था। वह सबसे पहले दिल्ली का असिस्टेंट कलक्टर नियुक्त हुआ और फिर उन्नीस वर्ष (१८३०-४९ ई.) तक वहाँ का मजिस्ट्रेट तथा कलक्टर रहा। इस अवधि में उसने मालगुजारी व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया। वह स्थायी बन्दोबस्त के पक्ष में था, रैयत पर ताल्लुकेदारों के अत्याचारों का विरोधी था और रैयत की स्थिति सुधारना (दे.) चाहता था। प्रथम सिक्ख-युद्ध (दे.) में पंजाब में लड़नेवाली भारतीय-ब्रिटिश सेना को दिल्ली क्षेत्र से रसद भिजवाने में इसने विशेष तत्परता दिखायी। इसके पुरस्कारस्वरूप उसे ३५ वर्ष की अवस्था में ही जलंधर दोआब का कमिश्नर बना दिया गया। १८५३ ई. में वह पंजाब का चीफ़ कमिश्नर नियुक्त हुआ। उसने पंजाब के प्रशासन को ३२ जिलों तथा ३६ अधीनस्थ रियासतों में बाँटा, पुलिस दल संगठित किया, एक जिले को दूसरे जिले से मिलाने वाली सड़कों तथा नहरों का निर्माण कराया, न्याय की व्यवस्था की और अपराध-संख्या कम की। गदर छिड़ने पर उसने पंजाबी सेना की सहायता से हिन्दुस्तानी सिपाहियों के हथियार ले लिये। उसने पंजाब सेना की संख्या १२,००० से बढ़ाकर ५९००० कर दी, पंजाब को अंग्रेजों का वफादार बनाये रखा और दिल्ली की मदद के लिए सिक्ख पलटन भेजी। २० सितम्बर १८५८ को दिल्ली पर अधिकार कर लिया गया।

गदर के समय उसकी सेवाओं के उपलक्ष्य में उसे बैरन बना दिया गया और आजीवन पेन्शन प्रदान की गयी। बाद में इसके पुरस्कारस्वरूप उसे १८६४ ई. में भारत का वायसराय तथा गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया। उसने अगले पाँच वर्ष तक भारत का प्रशासन बड़ी योग्यता के साथ चलाया। उसने सामान्यजन की अवस्था सुधारने का प्रयास किया और भारतीयों में शिक्षा-प्रसार की योजनाओं में रुचि ली। वह उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत में अग्रसर नीति के विरुद्ध था। उसने १८६३ ई. में अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मुहम्मद (दे.) की मृत्यु होने पर उसकी गद्दी के लिए छिड़ जानेवाले गृहयुद्ध में अहस्तक्षेप की नीति बरती और इस प्रकार सरकार को अफगानिस्तान के आन्तरिक मामलों में उलझने से बचाया। बाद में उसकी यह नीति त्याग दिये जाने के फलस्वरूप दूसरा अफगान-युद्ध (दे.) हुआ। इस युद्ध में धन-जन की भारी क्षति हुई और यह प्रमाणित हो गया कि उसकी अहस्तक्षेपकी नीति उचित थी।

लारेंस, सर हेनरी मांटगोमरी (१८०६-५७ ई.) : एक प्रसिद्ध ब्रिटिश सैनिक तथा राजनेता। उसने ब्रिटिश शासन को विशेष रीति से पंजाब में मजबूत बनाने में योगदान किया। वह श्रीलंका में पैदा हुआ था, १८२३ ई. में बंगाल आर्टिलरी (तोपची पलटन) में भर्ती हुआ और प्रथम बर्मी-युद्ध (दे.) प्रथम अफगान-युद्ध (दे.) तथा प्रथम सिक्ख-युद्ध (दे.) प्रथम अफगान-युद्ध (दे.) तथा प्रथम सिक्ख-युद्ध (दे.) में भाग लिया। वह पंजाब को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में सम्मिलित करने के विरुद्ध और इसके पुनर्निर्माण की नीति के पक्ष में था। वह लाहौर में ब्रिटिश रेजीडेंट तथा महाराज दिलीपसिंह के बालिग होने तक शासन कार्य चलाने के लिए गठि‍त परिषद् का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। १८४९ ई. में दूसरे सिक्ख-युद्ध (दे.) के बाद, जिसके फलस्वरूप पंजाब ब्रिटिश भारत में मिला लिया गया, वह नये प्रान्त के प्रशासन बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उसके जिम्मे राजनीतिक मामले रखे गये तथा उसके भाई जान लारेंस को, जो उससे छः साल छोटा था, प्रांत के वित्तीय प्रशासन का भार सौंपा गया। हेनरी का मत था कि सिक्ख सरदारों को आजीवन पेन्शन तथा जागीरें देकर उनके साथ उदारतापूर्ण व्यवहार करना चाहिये, परंतु जान का मत था कि प्रांत के राजस्व को घटाकर तथा जमींदारों के अधिकारों को नियन्त्रि‍त करके सामान्य लोगों की अवस्था सुधारनी चाहिए। तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड डलहौजी ने जान की नीति ठीक समझी और हेनरी का तबादला ब्रिटिश रेजीडेंट के रूप में राजपूताना कर दिया गया। राजपूताना में कार्य करते समय उसने भारत की सेना में सुधार करने की आवश्यकता पर बल दिया और गदर की सम्भावना के विरुद्ध चेतावनी दी, परन्तु, उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया गया। मार्च १८५७ ई. में वह लखनऊ भेजा गया और दो महीने बाद मई १८५७ ई. में गदर शुरू हो गया। लखनऊ विल्पवियों का केन्द्र बन गया और २९ जून को लखनऊ रेजीडेन्सी पर घेरा डाल दिया गया। उसने रेजीडेन्सी की रक्षा की व्यवस्था की। २ जुलाई को एक गोला उसके ऊपर आकर गिरा, जिससे वह घायल हो गया। दो दिन बाद उनकी मृत्यु हो गयी।

लालकुर्ती आन्दोलन : इसका प्रारम्भ, उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रदेश में अब्दुल गफ़्फार खाँ ने १९३० ई. में किया। यह आन्दोलन अंग्रेजों के विरुद्ध था और इसमें भारतीय राष्ट्रवाद तथा इस्लाम के विश्व-बंधुत्व के सिद्धान्तों का सम्मिश्रण था। यद्यपि यह आन्दोलन अहिंसात्मक था, पर सीमान्त के पठानों के स्वभाव में हिंसा और प्रतिशोध की भावनाओं के प्रबल होने के कारण उसका अहिंसात्मक स्वरूप सरकार की दृष्टि में सदैव संदिग्ध बना रहा। फिर भी सीमान्त प्रदेश के निवासियों पर इस आन्दोलन का कुछ काल तक विशेष प्रभाव रहा और इसी से कांग्रेस दल को प्रान्तीय विधानसभा के चुनाव में सफलता मिली। १९४७ ई. में स्वतंत्रता-प्राप्ति एवं देश के विभाजन के समय वहाँ कांग्रेस दल सत्तारूढ़ था। सीमान्त प्रदेश के पाकिस्तान का भाग बन जाने के उपरांत लालकुर्ती आन्दोलन ने नया रूप धारण किया और पख्तूनिस्तान की स्थापना की मांग रखी, जिसमें सीमान्त के कबीलाई इलाकों का एक स्वतंत्र राज्य बनाने का सुझाव था। किन्तु पाकिस्तान की नयी सरकार ने इस आन्दोलन को गैर-कानूनी घोषित कर दिया।

लालमोहन घोष (१८४१-१९०९) : एक बैरिस्टर, जो कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत करते थे। जब १८७७ ई. में ब्रिटिश सरकार ने आई. सी. एस. की परीक्षा में बैठनेकी आयु सीमा २१ से घटाकर १९ करने का विचार किया, जिससे कि भारतीयों का उसमें प्रवेश कठिन हो जाय तो इंडियन एसोसिएशन, कलकत्ता ने भारतीयों की ओर से एक स्मृतिपत्र तैयार किया और १८७९-८० ई. में एक प्रतिनिधि मंडल लालमोहन घोष के नेतृत्व में ब्रिटेन भेजा। घोष ने भारतीयों का पक्ष प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया जिसका प्रभाव ब्रिटिश जनता पर पड़ा। उन्हीं के आग्रह पर ब्रिटिश सरकार ने विधि विहित सिविल सर्विस का निर्माण किया। इस सफलता से उत्साहित होकर वे पुनः ब्रिटेन गये और ब्रिटिश आम चुनाव में उदार दल के प्रत्याशी के रुप में खड़े हुए। वे चुनाव तो नहीं जीत सके लेकिन उनके प्रयत्नों से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को बल मिला। वे पक्के संविधानवादी थे और ब्रिटिश संरक्षण में औपनिवेशिक स्वराज्य के पक्ष में थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को उनसे बहुत बल प्राप्त हुआ।

लालसिंह : एक सिक्ख सरदार, जो १८४३ ई. में पंजाब के महाराज दिलीप सिंह की राजमाता रानी जिन्दा कौर का वजीर नियुक्त हुआ। दो साल बाद प्रथम सिक्ख-युद्ध शुरू होने पर उसने सिक्ख सेना का नेतृत्व सँभाल लिया, परंतु उसके अहदीपन के कारण मुदकी (१८४५ ई.) तथा फीरोज शाह (इस गाँव का वास्तविक नाम फीरूशहर था, जिसे अंग्रेजी में फीरोजशाह लिख दिया गया। -सं.) की लड़ाइयों में तथा अंत में सुबराहान की लड़ाई (१८४६ ई.) में सिक्खों की हार हुई, जिसके फलस्वरूप प्रथम सिक्ख-युद्ध समाप्त हो गया। लाहौर की संधि (१८४६ ई.) के द्वारा लाल सिंह वजीर बना रहा। परन्तु यह संदेह किया गया कि ब्रिटिश कठपुतली, कश्मीर के राजा गुलाब सिंह (द.) के ऊपर किये गये हमले के पीछे उसका हाथ था, इसलिए उसे पदच्युत कर दिया गया।

लालसोंट की लड़ाई : महादजी शिन्दे और मुगल सेना के बीच १७८७ ई. में छेड़ी गयी, जिसमें शिन्दे पराजित हुआ। इसके फलस्वरूप कुछ समय के लिए शिन्दे का उत्कर्ष रुक गया।

लाला लाजपत राय (१८५६-१९२८ ई.) : पंजाब में जन्म, पेशे से वकील और धर्म से आर्यसमाजी थे। उन्होंने कांग्रेस के उत्कर्ष में मुख्य सहयोग दिया और लोकमान्य तिलक (दे.) तथा विपिन चंद्र पाल (दे.) के साथ उसे नरम दल के पथ से हटा कर गरम दल के पथ पर चलाया। इसलिए ब्रिटिश सरकार उन पर कुपित हो गयी और १९०७ ई. में उन्हें रेग्युलेशन ३ के अंतर्गत बर्मा निर्वासित कर दिया। वे १९१९ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के अध्यक्ष बने तथा असहयोग आंदोलन में सम्मिलित हो गये और १९२८ ई.में साइमन कमीशन के बहिष्कार आंदोलन में प्रमुख भाग लिया। ३० अक्तूबर को पुलिस ने बेंतों से उनकी पिटाई की, जिससे २७ नवम्बर को उनकी मृत्यु हो गयी। उन्होंने अंग्रेजी में कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें से 'दुःखी भारत' में इस देश के ब्रिटिश प्रशासन की कड़ी निन्दा की गयी थी। वे देश के प्रमुख राजनीतिक नेताओं में गिने जाते थे और करोड़ों देशवासी उनके प्रति असीम प्रेम और श्रद्धा का भाव रखते थे। नयी दिल्ली में उनके नाम पर लाजपत नगर की स्थापना की गयी है।

लाली कावंट डी : एक फ्रांसीसी जनरल, जिसका पिता आयरिश था। फ्रांस की सरकार ने उसे डूप्ले (दे.) के स्थान पर गनर्वर बना कर भेजा। वह १७५८ ई. में पांडिचेरी पहुँचा और आते ही फोर्ट सेंट डेविड अंग्रेजों से छीन लिया। परंतु इसके अलावा उसे भारत में और कोई सफलता नहीं मिली। वह वीर, ईमानदार तथा कुशल सेनापति था, परंतु जल्द उत्तेजित हो जाने वाला तथा दूसरों की सलाह न माननेवाला था। उसने तंजौर के राजा को पुराना कर्ज चुकाने को विवश करने के लिए उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया, परंतु आक्रमण विफल रहा। इससे भारत में फ्रांसीसियों की प्रतिष्ठा को भारी धक्का लगा। इसके बाद उसने मद्रास पर घेरा डालकर उस पर दखल करने की कोशिश की। उसने हैदराबाद में निजाम के दरबार से बुसी (दे.) को वापस बुला लिया। मद्रास पर घेरा डालना सफल नहीं हुआ। बुसी के चले आने से निजाम के दरबार में फ्रांसीसियों का प्रभाव समाप्त हो गया। अंग्रेजों ने उत्तरी सरकार पर अधिकार कर लिया, जो अब तक फ्रांसीसियों के कब्जे में थी। अंत में अंग्रेजों ने १७६० ई. में विन्दवास की लड़ाई में लाली को हरा दिया और १७६१ ई. में पांडिचेरी उससे छीन लिया। अंग्रेजों ने युद्ध में बन्दी बनाकर उसे इंग्लैण्ड भेज दिया। इस बीच फ्रांस में लाली के विरुद्ध गम्भीर आरोप लगाये गये और लाली पेरोल पर छूट कर फ्रांस पहुँचा। वहाँ उसे अपराधी करार देकर मृत्यु दण्ड दिया गया और १७६३ ई. में उसे फांसी दे दी गयी।

लासवाड़ी की लड़ाई : दूसरे मराठा-युद्ध (दे.) के दौरान १८०३ ई. में हुई। इस लड़ाई में लार्ड लेक के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने शिन्दे की मराठा सेना को बुरी तरह पराजित कर दिया।

लाहौर : रावी के दाहिने तट पर बसा, पुराने पंजाब की राजधानी। यह प्राचीन नगर है और हिन्दू अनुश्रुतियों के अनुसार इसे रामायण के नायक राम के पुत्र लव ने बसाया था। इस नगर को संभवतः ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में बसाया गाया था और सातवीं शताब्दी ई. में यह इतना महत्त्वपूर्ण था कि उसका उल्लेख चीनी यात्री ह्युएनत्सांग ने किया है। इस पर पहले गजनी और फिर गोर के शासकों ने और फिर दिल्ली के सुल्तानों ने अधिकार कर लिया। मुगल काल में महत्त्वपूर्ण नगर हो गया और शाही निवासस्थान बन गया। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ, सभी को इस नगर में रहना अच्छा लगता था, इससे यह सुन्दर नगर बन गया था, जहाँ किला, अनेक खूबसूरत बाग थे। इसका शाहदरा बाग जहाँगीर ने और शालीमार बाग शाहजहाँ ने लगवाया। १७०७ से १७९९ ई. के बीच इस नगर पर बार-बार हमले हुए। पहले नादिर शाह (दे.) ने और फिर अहमद शाह अब्दाली (दे.) ने हमला कर इस पर दखल कर लिया। १७६८ ई. में इस पर सिक्खों का अधिकार हो गया और १७९९ ई. में यह रणजीत सिंह के अधिकार में आ गया। रणजीत सिंह ने इसे अपनी राजधानी बनाया। १८४९ ई. में दूसरे सिक्‍ख-युद्ध (दे.) की समाप्ति पर इसे ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया और १९४७ ई. तक पंजाब की राजधानी रहा। देश का विभाजन होने पर यह पश्चिमी पाकिस्तान की राजधानी बना। अब पाकिस्तान की राजधानी रावलपिण्डी है।

लिंगायत (अथवा वीर शैव) सम्प्रदाय : स्थापना बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में बासव ने की, जो विज्जल कलचूर्य (दे.) का मंत्री था। इस सम्प्रदाय के लोग शिव लिंग की पूजा करते हैं, इसलिए वे लिंगायत कहलाते हैं। वे वेदों को प्रमाण नहीं मानते, पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास नहीं करते, बाल-विवाह के विरोधी तथा विधवा विवाह के समर्थक हैं। वे ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करते। लिंगायत सम्प्रदाय अब भी कन्नड़ देश में बहुत शक्तिशाली है।

लिच्छवि गण : बिहार में गंगा के उत्तर मुजफ्फरपुर जिले में स्थित एक जनवर्ग, जिसकी राजधानी वैशाली (आधुनिक बसाढ़ के निकट) एक विशाल नगरी थी, जिसकी परिधि दस अथवा बारह मील थी। नगरी गगनचुम्बी अट्टालिकाओं से शोभायमान थी। लिच्छवियों का एक कुलीन गणतंत्रात्मक राज्य था, जिसमें सभी उच्च कुलों के मुखियों (राजाओं) को बराबर के अधिकार प्राप्त थे। गौतम बुद्ध के समकालीन समाज में उनको अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। विश्वास किया जाता है कि बुद्ध ने अपने भिक्षु संघ का संगठन लिच्छवियों के गणराज्य के आदर्शों के अनुसार ही किया था। ब्राह्मण ग्रंथों में लिच्छवियों को हीन जाति का क्षत्रिय बताया गया है।

वास्तव में लिच्छवि संभवतः किसी पहाड़ी कबीले अथवा कुल के थे, जिनको क्रमिक रीति से आर्यों के सामाजिक संगठन में सम्मिलित कर लिया गया। छठीं शताब्दी ई. पू. से चौथी शताब्दी ई. तक लिच्छवियों को अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं प्रतिष्ठापूर्ण स्थान प्राप्त रहा। चौथी शताब्दी ई. में लिच्छवि कुमारी कुमार देवी के साथ विवाह होने के कारण मगध के चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त साम्राज्य की स्थापना करने में सहायता मिली, द्वितीय गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त अपने को लिच्छवि-दौहित्र घोषित करने में गर्व का अनुभव करता था। चौथी शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष के बाद लिच्छवियों का नाम मिट गया।

लिटन, लार्ड, प्रथम  : भारत का (१८७६ से १८८० ई. तक) वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल। वह विद्वान् शासक था और उसका व्यक्तित्व बाहर से देखते ही विशिष्ट प्रतीत होता था। परंतु उसका प्रशासनकाल उज्ज्वल नहीं कहा जा सकता। जिस समय उसने शासनभार सँभाला, देश में भयंकर अकाल फैला था। सारा दक्षि‍ण भारत दो वर्ष, १८७६ से १८७८ ई. तक भयंकर रूप से पीड़ित रहा। दूसरे वर्ष अकाल मध्य-भारत तथा पंजाब में भी फैल गया। इसने लगभग पचास लाख व्यक्तियों को अपने अंक में समेट लिया। सरकार ने अकाल के मुँह से लोगों की जानें बचाने के लिए जो उपाय किये वे अपर्याप्त थे।

अकाल के ही समय वाइसराय ने १८७७ ई. में दिल्ली में एक अत्यन्त शानदार दरबार किया जिसमें महारानी विक्टोरिया को भारत की सम्राज्ञी घोषित किया गया। बाद में उसने जनरल रिचर्ड स्ट्रैची की अध्यक्षता में अकाल के कारणों तथा सहायता के प्रश्न पर विचार करने के लिए अकाल कमीशन नियुक्त किया। इसकी रिपोर्ट के आधार पर एक अकाल कोड का निर्माण किया गया जिसमें भविष्य में अकाल का सामना करने के लिए कुछ ठोस सिद्धान्त निर्धारित किये गये।

लार्ड लिटन के शासनकाल में सारे ब्रिटिश भारत तथा देशी रियासतों में एक समान नमक-कर निर्धारित किया गया। इससे नमक की तस्करी बंद हो गयी और सिंधु नदी पर स्थित अटक से लेकर दक्षिण में महानदी तक २५०० मील की दूरी में नागफनी की कँटीली झाड़ी चुंगी के बाड़ के रूप में खड़ी की गयी थी, उसे हटाना संभव हो गया। वस्तुतः लंकाशायर की सूती कपड़ा मिलों के हित में परंतु प्रकट रूप में मुक्त व्यापार के नाम लार्ड लिटन ने अपनी एक्जीक्यूटिव कौंसिल की अवहेलना करके, सूती कपड़ों के आयात पर लगाया गया ५ प्रतिशत कर हटा दिया और इस प्रकार भारत के सूती वस्त्र उद्योग का विस्तार रोक दिया। १८७८ ई. में उसने भारतीयों द्वारा अपने देशी भाषा के पत्रों में सरकार के कार्यों की प्रतिकूल आलोचनाओं को रोकने के लिए वर्नाकुलर प्रेस ऐक्ट (दे.) पास किया। यह प्रतिक्रियावादी कानून था जिसे चार वर्ष बाद उसके उत्तराधिकारी लार्ड रिपन ने रद्द कर दिया।

लार्ड लिटन का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण और अनुचित कार्य था १८७८ ई. में अफ़गानिस्तान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर देना। दूसरा अफ़गान-युद्ध (१८७८-८८ ई.) (दे.) साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए छेड़ा गया था और इसमें धन और जन की भारी हानि हुई। इस युद्ध का भारी खर्चा अधिकांश में भारतीय करदाता को उठाना पड़ा जो लार्ड लिटन के प्रशासन पर एक काला धब्बा छोड़ गया।

लिटन, लार्ड, द्वितीय : १९२२ ई. में बंगाल का गवर्नर होकर भारत आया और १० अप्रैल से ७ अगस्त १९२५ तक कार्यवाहक वाइसराय के रूप में कार्य किया। इस प्रकार जिस पद को कई वर्षों पूर्व उसके पिता ने सुशोभित किया था, उसे उसने भी सुशोभित किया। उसने पुनः बंगाल के गवर्नर का पद सँभाल लिया और १९२७ ई. में अवकाश ग्रहण किया। उसके प्रशासनकाल में कलकत्ता विश्वविद्यालय के ऊपर सरकारी नियंत्रण के प्रश्न पर सर आशुतोष मुखर्जी से एक विवाद हुआ, जिससे उसके प्रशासन की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ी।

लिनलिथगो, लार्ड : भारत का (१९३६ से १९४३ ई. तक) वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल। उसने १९३६ के गवर्नमेन्ट आफ इंडिया ऐक्ट (दे.) के पास होने के बाद पदग्रहण किया, जिसमें ब्रिटिश भारत की स्वशासनयुक्त प्रांतीय सरकारों तथा देशी रियासतों की एक संघ सरकार बनाने की व्यवस्था की गयी थी। अभी तक देशी रियासतों का सीधा संबन्ध ब्रिटिश सम्राट् से था। लार्ड लिनलिथगो ने केन्द्र में प्रस्तावित संघ सरकार तथा प्रांतों में उत्तरदायी स्वशासनयुक्त सरकारों की स्थापना करके समूचे ऐक्ट क़ो क्रियान्वित करने का प्रयास किया। प्रांतीय चुनाव १९३७ ई. में सम्पन्न हुए, जिनमें ग्यारह में से पाँच प्रांतों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ तथा दो अन्य प्रांतों में भी वह सरकार बना सकने की स्थिति में थी। इन परिस्थियों में नये संविधान के प्रांतों से सम्बन्धित भाग को क्रियान्वित कर दिया गया। किन्तु प्रस्तावित संघ सरकार में देशी रियासतों को सम्मिलित करने के प्रश्न पर वार्ता चलाने में काफी समय लग गया। इस बीच १९३९ ई. में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया और संविधान के संघ सरकार से सम्बन्धित भाग का क्रियान्वयन स्थगित कर दिया गया।

द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने पर लार्ड लिनलिथगो पर दोहरा कार्यभार आ पड़ा। एक ओर तो उसे भारत में जनमत को अपने पक्ष में बनाने का प्रयास करना पड़ा जो अत्यंत विक्षुब्ध हो गया था; दूसरी ओर उसे भारत में ब्रिटेन के पक्ष में युद्धप्रयत्नों को संगठित करना पड़ा। युद्ध में इंग्लैण्ड के विरुद्ध जापान के कूद पड़ने से उसकी कठिनाइयाँ और बढ़ गयीं। १९४१ ई. में जापान ने मलयेशिया पर आक्रमण कर सिंगापुर पर अधिकार कर लिया। इन प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद लार्ड लिनलिथगो ने भारत को न केवल आवश्यक युद्धसामग्री भेजने का केवल अड्डा बना दिया बल्कि ब्रिटिश भारतीय सेना की शक्ति १,७५,००० से बढ़ा कर बीस लाख से अधिक कर दी और इन सेनाओं को दक्षिण पूर्व एशिया तथा पश्चिम एशिया के युद्ध क्षेत्रों में भेज दिया, जिसकी वजह से ब्रिटिश पराजय धीरे-धीरे ब्रिटिश विजय में परवर्तित हो गयी। परंतु युद्धप्रयत्नों के फलस्वरूप जहाँ एक ओर खर्च में उत्तरोत्तर भारी वृद्धि होती गयी, वहीं दूसरी ओर बंगाल में सर्वक्षार नीति का अनुसरण करने के कारण १९४३ ई. में भयंकर अकाल पड़ गया। लार्ड लिनलिथगो की सरकार इस अकाल सामना करने में असफल रही और शीघ्र ही लार्ड लिनलिथगो का स्थान लार्ड वेवेल (दे.) ने ग्रहण कर लिया जिसने अपने फौजी अनुभव और चुस्ती से काम कर स्थिति का सामना किया।

लार्ड लिनलिथगो ने क्षुब्ध भारतीय जनमत को कौशलपूर्ण ढंग से शांत रखकर भारत में आंतरिक शांति बनाये रखने का जो प्रयत्न किया, उसमें उसे आंशिक सफलता मिली। अक्तूबर १९३९ ई. में उसने घोषणा कि भारत के संवैधानिक विकास का लक्ष्य औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना है। उसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा मुसलिम लीग की माँगों की परस्पर विरोधी बातों पर जोर देकर तथा भारत को क्रिप्स-प्रस्ताव स्वीकार कर लेने के लिए राजी करने के उद्देश्य से १९४२ ई. में सर स्ट्रेफर्ड क्रिप्स (दे.) को भारत आमंत्रित करके देश के अंदर कोई खुली बगावत नहीं होने दी। फिर भी ब्रिटिश सरकार ने भारत को स्वाधीनता प्रदान करने की कोई निश्चित तिथि की घोषणा करने से बार-बार इनकार करके महात्मा गांधी को 'भारत छोड़ो आंदोलन' शुरू करने के लिए विवश कर दिया। महात्म गांधी ने मांग की कि ब्रिटेन को तुरंत भारत पर अपनी प्रभुसत्ता का परित्याग करके यहाँ से चले जाना चाहिए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी इस माँग का समर्थन किया। जवाब में लार्ड लिनलिथगो ने महात्मा गांधी को कैद कर लिया और समूची कांग्रेस वर्किंग कमेटी को नजरबंद कर दिया। लार्ड लिनलिथगो ने १९४३ में भारत से अवकाश ग्रहण किया और चार वर्ष बाद भारत को स्वाधीन कर दिया गया। इससे प्रकट होता है कि उसने बलप्रयोग के द्वारा भारत में ब्रिटेन की प्रभुसत्ता को बनाये रखने का जो प्रयत्न किया, वह कितना व्यर्थ था।

लियाकत अली खां : मुसलिम लीग का एक नेता तथा मि. जिन्ना (दे.) का दाहिना हाथ। वह १९४६ ई. में गठित अंतरिम सरकार में अर्थ-सदस्य नियुक्त किया गया। जब १९४७ ई. में भारत का विभाजन करके पाकिस्तान की स्थापना की गयी, वह उसका पहला प्रधानमंत्री बनाया गया। उसने भारत और पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ किये जाने वाले व्यवहार के सम्बन्ध में पंडित नेहरू से एक समझौता किया। पाकिस्तान की स्थापना के बाद ही एक सार्वजनिक सभा में भाषण करते समय उसकी हत्या कर दी गयी। हत्यारे की भी घटनास्थल पर ही हत्या कर दी गयी। इसके फलस्वरूप हत्या के कारण का पता नहीं चल सका और न हत्यारे की निश्चित रीति से शिनाख़्त ही हो सकी।

लियाकत हुसेन : एक सच्चा राष्ट्रीयतावादी मुसलमान, जिसने बंग-भंग (१९०६-१९१२ ई.) (दे.) के विरुद्ध आंदोलन में प्रमुख भाग लिया।

ली कमीशन : इसकी नियुक्ति भारतमंत्री द्वारा १९२९ ई. में की गयी। इसका उद्देश्य उच्च सिविल सर्विस के वेतन एवं भत्ते के प्रश्न की तथा साथ-साथ उसके भारतीयकरण के प्रश्न की पड़ताल करना था। इसकी अध्यक्षता मार्ड ली ने की। इसके सदस्यों में तीन भारतीय भी थे। कमीशन ने अपनी रिपोर्ट मार्च १९२४ ई. में प्रस्तुत की। कमीशन ने इंडियन सिविल सर्विस के बुनियादी वेतन में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं प्रस्तावित किया। उसने उसके समुद्र पार के वेतन में भारी वृद्धि, फर्लो छुट्टी की अधिक सुविधाएँ तथा इंग्लैण्ड आने-जाने का पहले दर्जे का किराया देने की सिफारिश की। कमीशन की सिफारिशों के आधार पर इंडियन सिविल सर्विस के सदस्यों के वेतन में बारह प्रतिशत वृद्धि होती थी।

भारतीयकरण के प्रश्न पर ली कमीशन ने सिफारिश की कि अगले पन्द्रह वर्षों में सर्विस के सदस्यों में ३० प्रतिशत यूरोपीय तथा ५० प्रतिशत भारतीय का लक्ष्‍य होना चाहिए। इसके लिए २० प्रतिशत उच्च पदों पर नियुक्तियाँ प्रांतीय सिविल सर्विसों से पदोन्नति कर की जानी चाहिए तथा सीधी भर्ती में लिये जानेवाले सदस्यों में आधे भारतीय तथा आधे यूरोपीय होने चाहिए। ली कमीशन की रिपोर्ट का इम्पीरियल (केन्द्रीय) लेजिस्लेटिव असेम्बली में तीव्र विरोध किया गया, फिर भी सरकार ने उसे स्वीकार कर लिया। इसके फलस्वरूप उच्च सिविल सर्विसों के सदस्यों के वेतन और भते में काफी वृद्धि हो गयी, प्रगति बहुत धीमी रही।

लीड्स : एक अंग्रेज जौहरी, फिच (दे.) के साथ १५८३ ई. में भारत आया था और मुगल सरकार की ताबेदारी कर ली थी।

लीन्वायर : १७२० ई. से कई वर्षों तक पांडेचेरी का फ्रांसीसी गवर्नर। उसने पांडेचेरी को व्यापारिक केन्द्र के रूप में विकसित करने में भारी योगदान किया। वह राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं अथवा विजय अभिलाषा से प्रेरित नहीं था।

लीलावती  : भास्कराचार्य के वृहद ग्रंथ 'सिद्धान्तशिरोमणि' का एक भाग, जिसकी रचना ११५० ई. में हुई। इसमें गणित तथा बीजगणित के सिद्धान्तों का विवेचन है। लीलावती का फारसी अनुवाद (दे.) अकबर के दरबारी फैजी ने किया था।

लुम्बिनीग्राम : कपिलवस्तु (दे.) के निकट स्थित, जहाँ लगभग ५६६ ई. पू. गौतमबुद्ध (दे.) का जन्म हुआ था। अशोक ने अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में इस स्थान की यात्रा की थी और बुद्ध के जन्मस्थान पर एक शिलास्तम्भ स्थापित किया था। इस स्थान को अब सम्मिनदेई कहते हैं और यह नेपाल की तराई में हैं। अशोक का शिलास्तम्भ वहाँ अब भी वर्तमान है। इस स्थान की पवित्रता को ध्यान में ऱख कर अशोक ने इसे सभी प्रकार की बलि (कर) से मुक्त कर दिया था और भूमिकर भूमि की उपज के छठें भाग के बजाय आठवाँ भाग निर्धारित किया था।

लुत्फुन्निसा : बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला (दे.) (१७५६-५७ ई.) की बेगम। पलासी की लड़ाई (१७५७ ई.) के बाद नवाब के मुर्शियाबाद से भागने के समय उसके साथ थी। नवाब की हत्या कर दिये जाने के बाद वह शोकपूर्ण जीवन बिताने लगी।

लेक, लार्ड गेरार्ड (१७४४-१८०८ ई.)  : एक प्रसिद्ध ब्रिटिश जनरल, जिसने दूसरे मराठा-युद्ध (दे.) का नेतृत्व किया। फ्रांस तथा आयरलैंड की ब्रिटिश सेना में कई वर्ष तक योग्यता के साथ सेवा करने के बाद वह १८०० ई. में भारत की ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में प्रधान सेनापति नियुक्त हुआ। वह १८०२ ई. में कलकत्ता पहुँचा। उसे कम्पनी की सेना में सुधार करने का बहुत थोड़ा समय मिला। इसी बीच दूसरा मराठा-युद्ध शुरू हो गया। उसने उत्तरी भारत में ब्रिटिश सेना की कमान संभाल ली। यहाँ पर उसका मुख्य शत्रु शिन्दे था जिसको उसने कोपल की लड़ाई में हरा दिया। उसने अलीगढ़ पर चढ़ाई की, दिल्ली तथा आगरा पर कब्जा कर लिया तथा लासाड़ी (दे.) (१८०३ ई.) की लड़ाई में निर्णयात्मक विजय प्राप्त की, इसके फलस्वरूप शिन्दे अंग्रेजों से संधि करने के लिए विवश हो गया।

लेक ने इसके बाद होल्कर (दे.) से युद्ध किया और १८०४ ई. में उसे फर्रुखाबाद में हराया। परंतु वह १८०५ ई. में भरतपुर का किला नहीं ले सका और उसे वहाँ के राजा से संधि कर लेनी पड़ी। तदनुसार भरतपुर का किला और उसके आस-पास के क्षेत्र पर राजा का ही अधिकार बना रहा। इसके बाद लेक ने होल्कर का पंजाब तक पीछा करते हुए उसे संधि करने के लिए विवश किया। युद्ध की इन शानदार सफलताओं के उपलक्ष्य में लेक को 'पिअर' की पदवी प्रदान की गयी, परन्तु इसके कुछ समय बाद ही उसकी मृत्यु हो गयी।

लेजिस्लेटिव असेम्बली : अथवा केन्द्रीय असेम्बली की स्थापना १९१९ ई. के गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया ऐक्ट के द्वारा केन्द्रीय भारत सरकार के लिए की गयी। इस ऐक्ट के द्वारा केन्द्रीय विधान मंडल के दो सदन कर दिये गये। उच्च सदन को कौंसिल आफ स्टेट (राज्य परिषद्) कहते थे। केन्द्रीय असेम्बली में १०६ निर्वाचित तथा ४० मनोनीत सदस्य होते थे, जिनमें २५ सरकारी होते थे। उसका मताधिकार क्षेत्र कौंसिल आफ स्टेट से अधिक विस्तृत तथा कार्य काल तीन वर्ष था। केन्द्रीय असेम्बली को वित्त तथा कानूनों पर सामान्य नियंत्रण प्राप्त था। परंतु गवर्नर-जनरल अपने विवेक से, यदि वह किसी व्यय अथवा कानून को ब्रिटिश भारत की सुरक्षा अथवा शांति के लिए आवश्यक समझे तो इसे केन्द्रीय असेम्बली के विरोध के बावजूद अधिकृत अथवा पास कर सकता था।

लेजिस्‍लेटिव : १८६१ ई. के इंडियन कौंसिल्स ऐक्ट के द्वारा स्थापित केन्द्रीय सरकार तथा प्रांतीय सरकारों के विधान मण्डल का नाम। यह नामकरण १९१९ ई. तक प्रचलित रहा। १९१९ ई. के गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया ऐक्ट के द्वारा गवर्नर-जनरल की लेजिस्लेटिव कौंसिल कहा जने लगा। भारतीय गणराज्य के संविधान के अन्तर्गत प्रांतीय विधान मण्डल के उच्च सदन को विधान परिषद् तथा निम्न सदन को विधान सभा कहते हैं। (दे. ब्रिटिश प्रशासन के अन्तर्गत)

लेफ्टिनेंट गवर्नर का पद : बंगाल में लार्ड हलहौजी ने १८५४ ई. में स्थापित किया। जबतक बंगाल का प्रशासन सीधे गवर्नर-जनरल के अधीन रहा, उसकी बहुधा उपेक्षा होती रहती थी, क्योंकि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के साथ गवर्नर-जनरल का कार्यभार बहुत बढ़ गया था। १९१२ ई. में बंगभंग रद्द कर दिये जाने के बाद बंगाल के लेफ्टिनेण्ट-गवर्नर के अधीन हो गया।

लस्पिने, बेलैंगर डी : एक फ्रेंच सैनिक, जो फ्रांसीसी सामुद्रिक बेड़े के साथ १६८२ ई. में भारत आया। उसने फ्रांकोइस मार्टिन (दे.) के साथ वलिकोंडापुरम् के मुसलमान हाकिम से १६७३ ई. में पांडिच्चेरी का स्थान प्राप्त किया। इस प्रकार पांडचेरी नगर की स्थापना में उसका भी हाथ था।

लेस्ली, कर्नल ब्रेडफोर्ड : बंगाल में नियुक्त एक अंग्रेज सिविल इंजीनियर। उसने १८७४ ई. में कलकत्ता और हुगली के बीच हुगली पुल का तथा १८८१ ई. में नैहाटी में हुगली नदी के ऊपर जुबिली पुल का निर्माण किया।

लैंग, सैमुएल (१८१०-१७ ई.) : अर्थशास्त्र विषय की पुस्तकों का एक अंग्रेज लेखक और रेल प्रशासन का विशेषज्ञ। वह १८६० से १८६२ ई. तक वाइसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल का अर्थ-सदस्य रहा। अपने पूर्वाधिकारी जेम्स विलसन के कार्यों को आगे बढ़ाते हुए उसने गदर के फलस्वरूप असंतुलित हो गयी भारतीय अर्थव्यवस्था को संतुलित बनाया। उसने खर्चों में भारी कमी की, नमक कर बढ़ा दिया, १० प्रतिशत की सामान्य दर से सीमाशुल्क लगा दिया तथा कृषि से इतर सभी आमदनियों पर आयकर लगा दिया।

लैम्बर्ट, कमोडोर : इसे लार्ड डलहौजी ने जंगी जहाज का कमांडर बनाकर बर्मा के राजा पगान के पास भेजा और माँग की कि बर्मा सरकार की वजह से अंग्रेज व्यापारियों को जो हानि उठानी पड़ी है उसका वह हर्जाना दे। लैम्बर्ट का 'स्वभाव 'जल्दी भभक उठने' का था। वह इस बात से एकदम आगबबूला हो गया कि रंगून के बर्मा गवर्नर ने उसके कुछ नौसैनिक प्रतिनिधियों से मिलने से इंकार कर दिया। उसने रंगून की नाकेबन्दी की घोषणा कर दी और बर्मा के राजा का एक जहाज पकड़ लिया। इस पर बर्मियों ने लैम्बर्ट के जहाज पर गोलाबारी शुरू कर दी। लैम्बर्ट के आदेश से जहाज पर से भी जवाबी गोलाबारी की गयी। लार्ड डलहौजी ने इस घटना को बर्मी सरकार से हर्जाने के तौर पर एक बड़ी रकम माँगने का बहाना बनाया। बर्मी सरकार के इन्कार कर देने पर दूसरा बर्मा-युद्ध (दे.) छिड़ गया।

लैंसडौन, मारक्विस आफ : भारत का (१८८८ से १८९४ ई.तक) वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल। उसके प्रशासन काल में भारत में शांति रही। सिर्फ स्वतन्त्र मणिपुर राज्य में थोड़े समय के लिए बगावत हुई, जिसके लिए राज्य के प्रधान सेनापति टिकेन्द्रजीत को जिम्मेदार ठहराया गया। बगावत को कुचल दिया गया और टिकेन्द्रजीत को फाँसी दे दी गयी। कुछ समय से चाँदी का भाव गिरता जा रहा था और लार्ड लैंसडौन के प्रशासनकाल में इतनी मंदी आ गयी कि १८९३ ई. में टकसालों में चांदी और सोने के सिक्कों का निर्बाध रीति से ढालना बन्द कर दिया गया और सोना और चाँदी को रुपये से बदलने के लिए भाव प्रति गिन्नी दस रुपये के बजाय पन्द्रह रुपया कर दिया गया। इसके फलस्वरूप रुपये की विनिमय दर १ शिंलिंग ४ पेंस निर्धारित की गयी, जिससे भारत को भारी हानि हुई।

लार्ड लैंसडौन ने भारत के उत्तर-पूर्वी तथा उत्तर-पश्चिमी सीमांतों पर 'अग्रसर नीति' कुछ सीमातक जारी रखी। बर्मा पर की गयी ब्रिटिश विजय को चीन ने मान्यता प्रदान कर दी। सिक्किम का स्वतन्त्र राज्य १८८८ ई. में ब्रिटिश संरक्षण में ले लिया गया और तिब्बत के साथ उसकी सीमा का निर्धारण कर दिया गया। चटगाँव के उत्तर-पूर्व के पर्वतीय क्षेत्र में रहनेवाले लुशाइयों, उससे और पूर्व के जिन लोगों तथा इरावदी नदी के उस पार स्थित शान राज्यों को ब्रिटिश प्रभाव-क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया गया। उत्तर-पश्चिम में क्वेटा से बोलन दर्रे तक सामरिक महत्त्व की रेलवे लाइन का निर्माण किया गया, जिससे कंदहार तक बढ़ना सुगम हो गया। अफगान सीमा पर गिलगिट के निकट पहुँचा और नगर के दो छोटे छोटे राज्यों को १८९२ ई. में ले लिया गया। उसी वर्ष चित्राल की घाटी के मार्ग पर स्थित कलात राज्य को ब्रिटिश संरक्षण में ले लिया गया।

उत्तर-पश्चिम में ब्रिटिश शासन के इस विस्तार से अफगानिस्तान का अमीर अब्दुर्रहमान चिंतित हो उठा और उसे अंग्रेजों की नीयत में सन्देह होने लगा। अंत में १८९२ ई. में लार्ड लैंसडौन के कहने से अमीर अब्दुर्रहमान सर मार्टिमर डूरैण्ड को अफगानिस्तान में ब्रिटिश राजदूत के रूप में रखने के लिए राजी हो गया। डूरैण्ड बिना किसी रक्षक दल को साथ लिये अफगानिस्तान गया और अमीर अब्दुर्रहमान से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने में सफल हुआ। उसने कुछ विवादास्पद क्षेत्रों के सम्बन्ध में अमीर से समझौता कर लिया और अन्त में अफगानिस्तान और भारत के बीच जिन क्षेत्रों में सीमांकन करना सम्भव था, वहाँ सीमांकन करने में सफल हो गया। यह सीमा-रेखा उसके नाम पर 'डूरैण्ड सीमा-रेखा' कहलाती है।

लोदी वंश : इसकी स्थापना दिल्ली में बहलोल लोदी ने १४५१ ई. में , जिसने दिल्ली की सल्तनत पर १४५१ से १५२६ ई. तक शासन किया। इस वंश में तीन सुल्तान बहलोल लोदी (१४५१-१४८९ ई.), सिकन्दर लोदी १४८९-१५१७ ई.) तथा इब्राहीम लोदी (१५१७-२६ ई.) हुए। इस वंश को बाबर ने समाप्त कर दिया। उसने १५२६ ई. में पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहीम लोदी को पराजित कर मार डाला।

लोहर वंश  : इसकी स्थापना कश्मीर में १००३ ई. में संग्राम राज ने की। उसे अपनी चाची रानी दिद्दा (दे.) से कशमीर का राज्य अंतःपुर के षड्यंत्रों से इतना निर्बल हो गया था कि उत्तरी भारत पर मुसलमानों को अधिकार करने से रोकने के लिए वह कुछ नहीं कर सका। अंत में १३३९ ई. में एक मुसलमान सरदार शाह मिर्जा (दे.) ने, जो १३१५ ई. में कश्मीर के अंतिम लोहर राजा की नौकरी करने लगा था, लोहर वंश का उन्मूलन कर दिया।

लोहानी : एक अफगान कबीला, जो दरिया खाँ लोहानी के नेतृत्व में बिहार में बस गया। सुल्तान इब्राहीम लोदी (१५१७-२६ ई.) (दे.) के राज्यकाल में उसके साथ इतना निष्ठुरतापूर्ण व्यवहार किया गया कि उसने दिल्ली के खिलाफ बगावत कर दी और बिहार में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। बाद में बाबर (१५२६-३० ई.) ने उसे १५२९ ई. में घाघरा की लड़ाई में हराकर अपने अधीन किया।

ल्हासा : तिब्बत की राजधानी, जिसकी स्थापना ६३९ ई. में राजा स्रोंग-त्सान गम्पो (६२९-६९८ ई.) ने एक झील में पत्थर भरवा कर की। यह नगर चीन से भारत आने के मार्ग पर स्थित है। तिब्बती लोगों के अनुरोध करने पर अनेक बौद्ध भिक्षु भारत से यहाँ आये, जिनमें अतिशा (दे.) सबसे प्रसिद्ध था। बाद में तिब्बती लोग इस बात को नापसन्द करने लगे कि अंग्रेज लोग ल्हासा आयें। परंतु १९०४ ई. में सर फ्रांसिस यंगहस्बैण्ड (दे.) के नेतृत्व में एक ब्रिटिश सेना तिब्बत में जबर्दस्ती घुस गयी और यूरोपीय लोगों के लिए ल्हासा नगर का द्वार खोल दिया।

ल्‍हासा की संधि : १९०४ ई. में सर फ्रांसिस यंगहस्बैण्ड द्वारा तिब्बत पर थोपी गयी, जो एक ब्रिटिश सेना लेकर तिब्बत में घुस गया था। इस सन्धि में निम्न शर्तें थी; (१) भारत और तिब्बत के बीच व्यापार को बढ़ाने तथा प्रोत्साहन देने के लिए यातुङ्ग ग्यान्त्से तथा गरतोक में व्यापारिक केन्द्रों की स्थापना की जायगी; (२) ग्यान्त्से में एक ब्रिटिश व्यापारिक दूत नियुक्त किया गया जिसे ल्हासा तक जाने का अधिकार होगा; (३) तिब्बत ७५ वर्ष तक प्रति वर्ष एक लाख रुपया हर्जाना देगा; (४) जब तक सारा हर्जाना चुकता नहीं कर दिया जायगा चुम्बी घाटी पर ब्रिटिश फौजों का अधिकार रहेगा; (४) तिब्बती क्षेत्र का कोई भाग किसी विदेशी ताकत को हस्तांतरित नहीं किया जायगा; (६) किसी विदेशी ताकत या प्रजा को रेलवे लाइन बिछाने, सड़क बनाने, तार के खम्भे खड़े करने अथवा खानों से उत्खनन करने की कोई सुविधा तब तक नहीं प्रदान की जायगी। सन्धि की शर्तें बहुत कठोर थीं; अतएव उनका तीव्र विरोध हुआ। परिणामस्वरूप हर्जाने की रकम ७५ लाख से घटाकर २५ लाख कर दी गयी, चुम्बी घाटी पर अधिकार रखने की अवधि घटाकर तीन वर्ष कर दी गयी तथा ब्रिटिश व्यापारिक दूत के इच्छानुसार ल्हासा तक जाने के अधिकार की बात निकाल दी गयी। १९०६ ई. में चीन ने इस सन्धि का अनुमोदन कर दिया। चीन और इंग्लैण्ड दोनों तिब्बत की अखण्डता का सम्मान करने पर सहमत हो गये।

वजीर अली : अवध के नवाब आसफुद्दौला (१७७५-९७ ई.) का अवैध पुत्र। १७९७ ई. में पिता की मृत्यु के बाद उसे अवध का नवाब बनाया गया, परन्तु दूसरे ही वर्ष ब्रिटिश सरकार ने उसे पदच्युत कर दिया और उसके स्थान पर उसके चाचा सादत अली (१७९८-१८१४ ई.) को नवाब बनाया। बाद में वजीर अली ने ब्रिटिश रेजिडेंट मि. चेरी की हत्या करा दी और विद्रोह का प्रयास किया, किन्तु उसे दबा दिया गया।

वजीर खाँ : सरहिन्द का मुगल फौजदार, जो गुरु गोविन्दसिंह (दे.) के विरुद्ध लड़ा और जिसने उनके दो नाबालिग पुत्रों की हत्या कर दी। १७०८ ई. में गुरु गोविन्द सिंह के मरणोपरान्त वीर बंदा ने सरहिन्द पर आक्रमण किया और वजीर खां को परास्त कर मार डाला।

वजीरी : अविभाजित भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत का एक कबीला, जो ब्रिटिश शासन-काल में भारत-अफगान सीमा को विभाजित करनेवाली डूरंड रेखा के इस पार रहता था। वजीरी लोग स्वतन्त्रताप्रिय और लड़ाकू प्रकृति के होते हैं और उनको अपने अधीन रखने के लिए भारत की अंग्रेज सरकार को अनेक बार उनके विरुद्ध फौजी कार्रवाई करनी पड़ी।

वझिष्क : सम्भवतः कूषाण सम्राट् कनिष्क (दे.) का पिता था।

वनपाल, राणा : सन्तूर नामक छोटे से राज्य का शासक, जिसने सुल्तान नासिरुद्दीन (१२४६-६६) के विद्रोही और बयाना पूर्वी राजस्थान के शासक कुतलग खाँ को शरण दी थी। लिकिन कुतलग खाँ सुल्तान के प्रतिनिधि बलबन से वहाँ भी हार गया और उसे भागना पड़ा।

वनवासी (जिसे जयन्ती अथवा वैजयन्ती भी कहते हैं) : बम्बई राज्य के दक्षिणी भाग में तुङ्गभद्रा के उत्तरी तट पर स्थित प्रसिद्ध नगर। ई. तीसरी शताब्दी के मध्य में सातवाहनों की शक्ति क्षीण होने के बाद इस नगर का उत्कर्ष हुआ और कदम्ब राजवंश (दे.) की राजधानी के रूप में सुविख्यात हुआ, जिन्होंने इस क्षेत्र में तीसरी शताब्दी से लेकर छठीं शताब्दी तक शासन किया। यह नगर जयन्ती अथवा वैजयन्ती के नाम से भी जाना जाता है। कदम्ब वंश के पतन के बाद इसकी भी अवनति हो गयी।

वराहमिहिर : प्रसिद्ध हिन्दू खगोलवेत्ता, जो ५०७ से ५८७ ई. के मध्य हुआ। अनुश्रुति हे कि वह उज्जैन (दे.) के प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य के दरबार में था। उसके ग्रंथों में बहुत से यूनानी नाम मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि वह यूनानी ज्योतिष सिद्धान्तों से परिचित था।

वरुण : एक वैदिक देवता। आकाश अथवा द्यौ: के देवताओं में उनका मुख्य स्थान था। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में वरुण की कई स्तुतियाँ मिलती हैं।

वर्थेमा लुडोविको डि : एक इतालवी यात्री सुल्तान महमूद बेगढ़ा के राज्यकाल (१४५९-१५११ ई.) में उसने गुजरात का भ्रमण किया। उसने अपने यात्रा-विवरण में सुल्तान की आदतों के विषय में अनेक विचित्र एवं अनोखी बातें लिखी हैं।

वर्धमान महावीर : देखिये, 'महावीर'।

वर्नाक्यूलयर प्रेस ऐक्ट : वाइसराय लिटन (दे.) द्वारा १८७८ ई. में पास हुआ। इस ऐक्ट ने भारतीय भाषाओं में प्रकाशित समाचार पत्रों पर नियन्त्रण लगा दिया। किन्तु यह अंग्रेजी में प्रकाशित समाचार पत्रों पर लागू नहीं हुआ। फलस्वरूप भारतीयों ने बड़ा विद्रोह किया। यह १८८२ ई. में लार्ड रिपन (दे.) द्वारा निरस्त कर दिया गया।

वलजाह नबाव : देखिये, 'मुहम्मद अली'।

वलीउल्‍लाह शाह : (१७०३-६२) दिल्ली का एक प्रसिद्ध मुसलमान धर्माचार्य। उसने कुरान का फारसी में अनुवाद किया और इस्लाम में सुधार का आन्दोलन चलाया। उसके शिष्य बरेली के सैय्यद अहमद ने अन्ततः वहाबी आन्दोलन (दे.) में भाग लिया।

वल्‍लभी : (वल्लभी) नगर एवं राज्य का नाम। लगभग पाँचवीं शताब्दी में इसकी नींव मैत्रकों (दे.) ने डाली थी। इस राज्य के अन्तर्गत मूलतः पूर्वी काठि‍यावाड़ आता था। वल्लभी नगर अब बालाघाट गाँव बन गया है। इसका प्रथम राजा द्रोण सिंह था, जिसने महाराज की पदवी धारण करके छठीं शताब्दी के प्रारम्भ में शासन किया। इस राजवंश की एक शाखा मोला-पो अर्थात् पश्चिमी मालवा में स्थापित हुई। राजा शीलादित्य, धर्मादित्य इसी शाखा का था, जिसने सातवीं शताब्दी के प्रथम दशक में शासन किया। शीलादित्य के भतीजे ध्रुव सेन (जो ध्रुवभट भी कहलाता था) के शासनकाल में दोनों शाखाएँ संयुक्त हो गयीं। ध्रुवसेनका विवाह हर्षवर्धन की पुत्री से हुआ था।

हर्षवर्धन की मृत्यु के उपरान्त वल्लभी राज्य उत्तरोत्तर शक्तिशाली होता गया, किन्तु ७७० ई. में अरबों ने उसे ध्वस्त कर डाला। वल्लभी नगर धन-धान्य से सुसम्पन्न था और वहाँ अनेक ख्यातिप्राप्त बौद्ध आचार्य रहते थे। यह विद्या का महाकेन्द्र था और सातवीं शताब्दी में नालन्दा के समान प्रसिद्ध था। दूर-दूर से विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए यहाँ आते थे। चीनी यात्री ह्यएनसाँग भी यहाँ आया था।

वल्लाल सेन : बंगाल के सेन वंश (दे.) का दूसरा राजा (लगभग ११५८-७९ ई.)। वह अपने पिता विजयसेन का उत्तराधिकारी बना। उसने समभवतः मगधराज गोविन्द पाल को परास्त किया और मिथिला पर भी चढ़ाई की। उसके राज्य के अन्तर्गत वंग, वारेन्द्र, राढ, बाग्डी और मिथिला आते थे। उसने अनेक सामाजिक सुधार किय और बंगाल में वर्णाश्रम धर्म की पुनः प्रतिष्ठा करने के लिए कुलीनप्रथा का प्रचार किया। वह उद्भट विद्वान् तथा प्रसिद्ध लेखक था। उसने दो ग्रंथों की रचना की- 'दानसागर' और 'अद्भुत सागर'। दानसागर में विभिन्न प्रकार के दानों का उल्लेख है और अद्भुत सागर में शकुनों-अपशकुनों और पूर्वलक्षणों का वर्णन है।

वसिष्क : कुषाण सम्राट् कनिष्क (दे.) का ज्येष्ठ पुत्र। उसकी मृत्यु पिता के जीवनकाल में ही हो जाने से कनिष्क के बाद उसका कनिष्ठ पुत्र हुविष्क (दे.) उसका उत्तराधिकारी बना।

वसुमित्र : प्रख्यात बौद्ध दार्शनिक तथा लेखक, कनिष्क (दे.) का समकालिक। उसने चौथी बौद्ध संगीति (दे.) का सभापतित्व किया था, जो कनिष्क के राज्यकाल में कश्मीर में सम्पन्न हुई। महाविभाषा उसकी प्रमुख रचना है।

वहाबी आन्दोलन : पाश्चात्य संस्कृति और शासन के विरुद्ध भारतीय मुसलमानों का एक आन्दोलन। उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इसका प्रारम्भ हुआ और इसका प्रमुख केन्द्र उत्तरी पेशावर में स्थित सितना नामक स्थान था। नवीन अनुयायियों की भर्ती के लिए इसके केन्द्र पटना और बंगाल के कुछ स्थानों में स्थापित किये गये और गुप्त रीति से इसका प्रसार समग्र भारत में कर दिया गया। ब्रिटिश सैनिकों ने १८५८ ई. में वहाबियों को सितना से खदेड़ दिया, अत: वे मल्का में जम गये और १८६३ ई. में सारे पंजाब में उनका आंदोलन फैल जाने का खतरा उत्पन्न हो गया। सर नेवाइल चैम्बरलेन के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने दिसम्बर १८६३ ई. मल्का पर अधिकार करके उसे नष्ट-भ्रष्ट कर डाला और बहाबी आन्दोलन को कुचल दिया।

वांगह्यु एनत्से : एक चीनी राजदूत जिसने ६४३ ई., ६४६-४७ ई. और ६५७ ई. में तीन बार भारत-भ्रमण किया। उसकी पहली यात्रा के समय सम्राट् हर्षवर्धन जीवित था, किन्तु जब वह दूसरी बार आया, उसके राजधानी पहुँचने के पहले ही सम्राट् का निधन हो चुका था। हर्ष की मृत्युपरांत उसके मंत्री अर्जुन ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया। उसने चीनी दूतमंडल पर भी आक्रमण कर दिया और अंगरक्षकों की हत्या कर उसकी सम्पत्ति को लूट लिया। किन्तु वांग ह्यएनत्से तिब्बत भाग जाने में सफल हुआ, जहाँ के राजा स्रोङ्गचन्-साम् पो (दे.) ने उसे शरण दी और अपनी सेना उसके साथ कर दी। इस सेना की सहायता से वांगह्यु एनत्से ने तिरहुत पर आक्रमण किया और अर्जुन को परास्त करके बंदी बना लिया। इसके बाद वह विजयी बनकर चीन वापस लौट गया। वांगह्यु एनत्से ६५७ ई. में तीसरी और अंतिम बार तीर्थाटन के लिए भारत आया। उसने वैशाली एवं बोध गया सरीखे बौद्ध तीर्थस्थलों पर वस्त्र दान किया और अफगानिस्तान होकर पामीर के मार्ग से स्वदेश लौट गया।

वाइसराय : १८५८ ई. में इंग्लैण्ड की सम्राज्ञा द्वारा भारत का शासन-प्रबन्ध अपने हाथ में लेने के बाद भारत के गवर्नर जनरल की सरकारी पद संज्ञा 'वाइसराय' (राज-प्रतिनिध) कर दी गयी। लार्ड कैनिंग, जो उस समय गवर्नर-जनरल था, १ नवम्बर १८५८ ई. को प्रथम वाइसराय बना। गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया ऐक्ट १९३५ द्वारा इस पद का नया नामकरण 'सम्राट का प्रतिनिधि' कर दिया गया। लार्ड लिनलिथिगो अन्तिम वाइसराय था।

वाकाटक राजवंश  : चौथी शताब्दी के प्रारम्भ में बुन्देलखण्ड और पेनगंगा के बीच विंध्यशक्ति के पुत्र प्रवरसेन प्रथम द्वारा प्रवर्तित। प्रवरसेन शक्तिशाली राजा था जिसने बरार पर अधिकार कर लिया। उसकी मृत्यु के बाद उसका राज्य सम्भवतः बँट गया। दक्षिणी भाग उसके पुत्र शिवसेन और उत्तरी भाग उसके पौत्र रुद्रसेन प्रथम के अधिकार में चला गया। रुद्रसेन प्रथम का पुत्र और उत्तराधिकारी पृथ्वीसेन प्रथम, समुद्रगुप्त (दे.) का समकालिक था। कारण जो भी रहा हो, समुद्रगुप्त ने पृथ्वीसेन को तनिक भी क्षति नहीं पहुँचायी।

पृथ्वीसेन के पुत्र और उत्तराधिकारी रुद्रसेन द्वितीय का विवाह तृतीय गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त के साथ हुआ और वह सम्भवतः गुप्तों का मांडलिक राजा था। प्रभावती गुप्ता के तीन पुत्र थे, तथा दिवाकर सेन, दामोदर सेन और प्रवर सेन द्वितीय, जो सम्भवतः एक दूसरे के बाद सिंहासन पर बैठे। अंतिम राजा के विषय में जो लगभग ४१० ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ, अनुमान किया जाता है कि धीरे-धीरे उसने गुप्त सम्राट् के आधिपत्य से अपने को स्वतंत्र कर लिया। बाद में पाँचवी शताब्दी के उत्तरार्ध में वाकाटक नरेशों का अस्थायी रूप से मालवा पर आधिपत्य स्थापित हो गया और अन्तिम राजा हरिसेन ने दक्षिणा पथ तक राज्य विस्तार कर लिया। परन्तु सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में वाकाटक वंश का अंत हो गया। अजन्ता की कुछ गुफाएँ उनके उत्कर्षकाल में निर्मित हुई। (रायचौधरी. पृ. ५४१)

वाजिद अली शाह : अवध का अन्तिम नवाब (१८४७-५६ ई.)। कुशासन के आरोप में वह १८५६ ई. में लार्ड डलहौजी (दे.) द्वारा पदच्युत कर दिया गया और उसे निर्वासित कर कलकत्ता भेज दिया गया, जहाँ वह मृत्युपर्यन्त रहा। इस काल में उसको पेंशन के रूप में बारह लाख रुपये मिलते रहे।

वाटसन, एडमिरल : ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन एक नौसेना अधिकारी, जो १७५४ ई. में भारत आया और १७५६ ई. तक मद्रास के समुद्र क्षेत्र में तैनात रहा। फिर उसे पाँच युद्धपोतों तथा पाँच रसद के जलपोतों के साथ कलकत्ता (दे.) पर पुनः अधिकार करने में क्लाइव की सहायता के लिए बंगाल भेज दिया गया। नवाब सिराजुद्दौला (दे.) ने कलकत्ता से अंग्रेजों को निकाल बाहर कर दिया था। वाटसन ने बिना विरोध के, जनवरी १७५७ ई. में कलकत्ता पर पुनः अधिकार कर लिया और कुछ दिन बाद हुगली पर भी अधिकार कर लिया। इसके उपरान्त मार्च १७५७ ई. में उसने गंगा से अपना बेड़ा चंद्रनगर (दे.) तक ले जाकर फ्रांसीसी दुर्ग पर गोलाबारी की, जिसे अन्ततः आत्मसमर्पण के लिए बाध्य होना पड़ा। इसके बाद नवाब सिराजुद्दौला को उपदस्थ करने के लिए क्लाइव ने जो षड्यंत्र रचा उसमें वह भी सम्मिलित हो गया। परन्तु उसने अमीचन्द (दे.) को दिखाने के लिए नकली संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया, अतः राबर्ट क्लाइव ने उसके जाली हस्ताक्षर बना दिये।

वातापी (अथवा बादामी)  : चालुक्य वंश की राजधानी पुलकेशी प्रथम ने छठीं शताब्दी में डाली। यह आधुनिक बम्बई राज्य के बीजापुर जिले में स्थित था।

वायुपुराण : अठारह पुराणों (दे.) में से प्राचीनतम पुराण। संभवतः चतुर्थ शताब्दी ईसवी में इसे वर्तमान रूप प्राप्त हुआ। इसमें दी गयी प्राचीन राजवंशावलियाँ अन्य पौराणिक वंशावलियों की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय तथा पूर्ण मानी जाती हैं।

वारंगल : एक नगर और राज्य का भी नाम, जिसकी यह राजधानी था। यह काकतीय वंश (दे.) के राजाओं के शासनाधीन था और १३१० ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने इस पर चढ़ाई की और अन्ततः इसे दिल्ली सल्तनत में मिला लिया।

वाराणसी  : आधुनिक बनारस, जो गंगा के उत्तरी तट पर उसकी दो सहायक नदियों, वरुणा और अस्सी के बीच में स्थित है। यह गंगा के अर्धचन्द्राकार मोड़ के किनारे फैला हुआ है। इसका उल्लेख सर्वप्रथम अथर्ववेद में काशी राज्य की राजधानी के रूप में हुआ है। सनातनी हिन्दु सामान्यतः इसे काशी के ही नाम से पुकारते हैं। अति प्राचीनकाल से हिन्दुओं की सात पवित्र नगरियों में से एक के नाम से इसकी प्रसिद्ध रही है। काशी का राज्य कालांतर में कोशल के बड़े राज्य में विलीन हो गया किन्तु काशी अथवा वाराणसी नगर भारतीय इतिहास में, पवित्र नगरी तथा प्रमुख विद्याकेन्द्र के रूप में सदा ही फलता-फूलता रहा। गौतमबुद्ध के समय में वाराणसी धर्म, संस्कृति और ज्ञान का इतना महत्त्वपूर्ण केन्द्र था कि बुद्ध ने अपना प्रसिद्ध प्रथम धर्मोपदेश धर्मचक्र-प्रवर्तन यहाँ ही किया था। जैन भी इसे विद्या का महत्त्वपूर्ण केन्द्र मानते हैं और यह दावा करते हैं कि उनके धर्मप्रवर्तक स्वामी पार्श्वनाथ वाराणसी के ही एक राजकुमार थे। मध्यकाल के प्रारम्भ में वाराणसी कन्नौज के गहड़वाल राजाओं की अधीनता में था और मुसलमानों द्वारा कन्नौज जीत लेने पर यह भी उनके नियंत्रण में चला गया और दिल्ली की सल्तनत का एक हिस्सा बन गया। बाद में १७७५ ई. तक अवध के नवाब के राज्य का अंग बना रहा, जब स्थानीय हिन्दू राजा चेतसिंह (दे.) ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर अपने ऊपर उसका सार्वभौम प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। १७८१ ई. में राजा चेतसिंह को गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने अपदस्थ कर दिया और वाराणसी तब से ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का अभिन्न अंग बन गया।

तीर्थकेन्द्र के रूप में वाराणसी का मुख्य आकर्षण विश्वनाथ (शिव) मन्दिर है। यह ज्ञात नहीं है कि सर्व प्रथम इस देव मंदिर की स्थापना किसने की और मूल मन्दिर कैसा था। संभवतः प्राचीन देवस्थान विश्वेश्वर मन्दिर के पिछवाड़े था। बाद में स्थापित मुख्य मन्दिर को १६६९ ई. में औरंगजेब ने ढहा दिया और उसके स्थान पर नष्ट हुए मन्दिर के मलवे से एक मस्जिद बनावायी। आधुनिक मन्दिर का निर्माण अहल्याबाई होल्कर के प्रयास से बाद में हुआ। वाराणसी न केवल विद्याकेन्द्र वरन् औद्योगिक केन्द्र भी है। इसके सूती वस्त्र अपनी उत्कृष्टता के लिए कौटिलीय अर्थाशास्त्र के काल में भी (तीसरी शताब्दी ई. पू.) प्रसिद्ध थे। वाराणसी आज भी रेशमी, जरी, धातु के काम तथा सूती वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध है। वाराणसी को, जिसकी प्राचीन भारतीय संस्कृति और धार्मिक जीवन के केन्द्र के रूप में दीर्घकाल से प्रसिद्ध रही है, आज भी भारत के शैक्षिक मानचित्र में प्रमुख स्थान प्राप्त है। यहाँ अनेक आधुनिक शिक्षा संस्थाएँ हैं जिसमें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय सर्वाधिक प्रसिद्ध है। हाल के वर्षों में राजनीतिक क्षेत्र में वाराणसी का अधिक महत्त्व नहीं रहा है किन्तु इसी नगर में गोपालकृष्ण गोखले की अध्यक्षता में कांग्रेस का इक्कीसवाँ अधिवेशन हुआ था, जिसमें देश के लिए पूर्ण स्वाधीनता की माँग करनेवाले गरमदल का आविर्भाव हुआ था।

वाल्मीकि : प्रचेता के वंशज एक ऋषि। पारंपरिक रूप से यह विश्वास किया जाता है कि वे संस्कृत के प्रसिद्ध महाकाव्य रामायण (दे.) के रचयिता थे। उन्हें संस्कृत भाषा का आदिकवि माना जाता है।

वासव : कल्याणी के कलचुरि वंशी राजा विज्जल का मंत्री। राजा विज्जल ने ११६७ ई. में सिंहासन त्याग दिया, वासव लिंगायत अथवा वीरशैव सम्प्रदाय का प्रवर्तक था।

वासिष्ठी-पुत्र श्री पुलमावि : एक सातवाहन राजा, जिसने १३० ई. के बाद सिंहासन ग्रहण किया। गोदावरीपर स्थित पैठान अथवा प्रतिष्ठान उसकी राजधानी थी। उसने एक विशाल ज्यपर, जो कृष्णा-गोदावरी क्षेत्र और महाराष्ट्र तक विस्तृत था, शासन किया।

वासिष्ठी-पुत्र सातकर्णि : एक सातवाहन राजा। वंशानुक्रम में उसकी ठीक स्थिति का निर्धारण नहीं हो सका है। सम्भवतः यह वही सातवाहन राजा था जिसने प्रभावशाली महाक्षत्रप रुद्रामा (दे.) की पुत्री से ब्याह किया था। वह अपने श्वसुर द्वारा दोबारा परास्त हुआ, किन्तु निकट सम्बन्धी होने के कारण रुद्रदामा ने उसका सर्वनाश नहीं किया।

वासुदेव : एक देवता, जिसकी उपासना ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी में पाणिनि के काल में प्रचलित होने के प्रमाण मिलते हैं। वासुदेव विष्णु के अवतार माने जाते हैं।

वासुदेव  : पाटलिपुत्र के कण्ववंश का प्रवर्तक। कण्ववंशी राजा शुंगों (दे.) के उत्तराधिकारी थे। वासुदेव ब्राह्मण था, जो अन्तिम शुंग सम्राट् देवभूति अथवा देवभूमि का मंत्री रहा। देवभूति (दे.) की हत्या के बाद वह ७३ ई.पू. में सिंहासनारूढ़ हुआ। उसके द्वारा प्रवर्तित राजवंश में चार राजा हुए, तथा वासुदेव, जिसने नौ वर्ष शासन किया, उसके बाद उसका पुत्र भूमिमित्र, फिर उसका पुत्र नारायण और अंत में नारायण का पुत्र सुशर्मा। २८ ई.पू. में सातवाहन वंश के प्रवर्तक सिमुक (दे.) ने सुशर्मा को पदच्युत कर दिया।

वासुदेव प्रथम : कुषाण वंश (दे.) का अन्तिम महान शासक। सम्भवतः इसने १५५ से १७७ ई. तक शासन किया। सिंध, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में उसके बहुसंख्यक सिक्के मिले हैं। किंतु उसका कोई अभिलेख मथुरा के बाहर नहीं मिला, जिससे इंगित होता है कि उसका राज्यक्षेत्र अत्यन्त सीमित था। उसके नाम से प्रकट है, वह बौद्ध धर्म का अनुयायी न होकर ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। वह सम्भवतः शिवभक्त था, जिसकी प्रतिमा उसके अनेक सिक्कों पर मिलती है। वासुदेव प्रथम के उपरान्त कुषाण साम्राज्य का शीघ्रता से पतन हो गया। वासुदेव प्रथम की मुत्यु के बाद अन्तिम कुषाण राजाओं के विषय में कुछ पता नहीं चलता, केवल कुषाण राजाओं के नामों का पता चलता है, तथा वासुदेव द्वितीय और वासुदेव तृतीय।

वास्कोडिगामा : पहला पुर्तगाली, बल्कि पहला यूरोपीय नाविक, जो उत्तमाशा अन्तरीप को पारकर मई १४९८ ई. में कालीकट पहुँचा। तत्कालीन हिन्दू राजा जमोरिन ने उसका अच्छा सत्कार और स्वागत किया, यद्यपि तुर्की और अरब व्यापारियों ने उसका यथाशक्ति विरोध किया। इसके बावजूद वास्कोडिगामा कोचीन और कन्नौर की यात्रा करने में सफल हुआ। अगस्त १४९९ ई. में वह समुद्र के रास्ते सकुशल लिस्बन वापस पहुँच गया। इस प्रकार उसने यूरोप और भारत के बीच सीधे समुद्री मार्ग का आविष्कार किया।

विक्टोरिया, साम्राज्ञी (१८१९-१९०१) : १८३७ ई. में ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड की महारानी के रूप में सिंहासन पर आरूढ़ हुई। १८७७ ई. में वह भारत की सम्राज्ञी घोषित की गयी। भारत का शासन-प्रबन्ध १८५८ ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथ से निकलकर ब्रिटिश राज सत्ता को सौंप दिया गया। इसकी जो उद्घोषणा, महारानी के नाम से की गयी, उससे वह भारतीयों में जनप्रिय हो गयीं. क्योंकि ऐसा विश्वास किया जाता था कि उद्घोषणा में जो उदार विचार व्यक्त किये गये थे वे उनके निजी उदार विचारों के प्रतिबिम्ब (दे.) स्वरूप थे। महारानी विक्टोरिया ने कभी भारत-भ्रमण नहीं किया और भारतीय प्रशासन का संचालन संवैधानिक शासक की हैसियत से करते हुए उन्हीं नीतियों का अनुमोदन किया जिसकी सिफारिश उनके उत्तरदायी मंत्रियों ने की। फिर भी उन्होंने भारतीयों के बीच बड़ी लोकप्रियता अर्जित की और १९०१ ई. में जब उनकी मृत्यु हुई, तो सारे भारत में शोक मनाया गया।

विक्टोरिया मेमोरियल (कलकत्तामें) : यह लार्ड कर्जन (दे.) द्वारा अभिकल्पित होकर साकार रूप में प्रतिष्ठि‍त हुआ। उसने भारत में ब्रिटिश शासन की नींव को मजबूत करने के ख्याल से एक विशाल स्मारक बनाने का विचार किया। यह संगमरमर की भव्य इमारत है, जो कलकत्ता के मैदान में निर्मित की गयी है। परन्तु इसमें ताज (दे.) की सुन्दरता और भव्यता नहीं है। संभवतः कर्जन इसका निर्माण करके ताजमहल को मात देना चाहता था।

विक्रमशिला : प्रसिद्ध बौद्ध विद्यापीठ। यह बि‍हार में भागलपुर जिले के पठारघाट नामक स्थान में स्थित था। पाल राजा देवपाल (दे.) ने विक्रमशिला में पहले महाविहार की स्थापना की जो क्रमशः विद्या का प्रमुख केन्द्र बन गया। यहीं से प्रख्यात बौद्ध भिक्षु (दे.) अतिश (दीपंकर श्रीज्ञान) १०३८ ई. में तिब्बत गया था।

विक्रम संवत् : ईसा पूर्व ५८ और ५७ के मध्य से प्रचलित एक वर्ष गणना। ऐसा माना जाता है कि इसकी स्थापना विक्रमादित्‍य (दे.) नामक राजा ने की थी। (देखिये, संवत्, प्राचीन भारतीय)

विक्रमांक या विक्रमादित्य  : कल्याणी का एक चालुक्य राजा (१०७६-११२६), पराक्रमी योद्धा तथा साहित्य का संरक्षक था। उसके दरबारी कवि विल्हण ने 'विक्रमांकचरित' नाम से उसकी जीवनी लिखी है। प्रसिद्ध धर्भशास्त्रकार 'मिताक्षरा' के रचयिता विज्ञानेश्वर को भी उसका संरक्षण प्राप्त था। उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी।

विक्रमादित्य : एक उपाधि, जिसे अनेक प्राचीन भारतीय राजाओं ने धारण किया। देवकथाओं के अनुसार विक्रमादित्य उज्जयिनी का राजा था, जिसके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास (दे.) भी थे। कहा जाता है, वह बड़ा पराक्रमी था और उसने शकों को परास्त किया था। ईसा पूर्व ५८-५७ में प्रारम्भ विक्रम संवत् राजा विक्रमादित्य का चलाया हुआ माना जाता है। परन्तु इतिहास में ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पश्चिमी भारत में शासन करनेवाले ऐसे किसी पराक्रमी राजा का उल्लेख नहीं प्राप्त होता जिसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की हो।

इतिहास से प्रमाणित होता है कि विक्रमादित्य उपाधि अनेक शक्तिशाली सम्राटों ने धरण की, यथा चंद्रगुप्त द्वितीय (३८०-४१४ ई.), उसके पुत्र स्कन्दगुप्त (४५५-६७ ई.), और अनेक चालुक्य राजाओं ने; यथा विक्रमादित्य प्रथम (६५५-८० ई.), विक्रमादित्य द्वितीय (७३३-४६ ई.), त्रिभुवनमल्ल (१००९-१६ ई.) तथा विक्रमादित्य अथवा विक्रमांक (१०७६-११२६ ई.)। इन राजाओं में तृतीय गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय, जिसने शक क्षत्रपों को परास्त किया, उज्जैन जिसकी राजधानी थी और जिसका शासनकाल बौद्धि‍क उपलब्धियों तथा चतुर्दिक समृद्धि के कारण प्रसिद्ध है, और जिसके काल में सम्भवतः कालिदास भी हुआ था, उसी को मूल राजा विक्रमादित्य मानना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है। बाद में विक्रमादित्य को लेकर अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हो गयीं। (भण्डारकर-हिस्ट्री आफ द डेकन)

विग्रहराज : अजमेर के चौहान वंश के चार राजाओं ने यह नाम धारण किया। इन चार में से विग्रहराज द्वितीय ने दसवीं शताब्दी के तृतीय चतुर्थांश में शासन किया और विग्रहराज चतुर्थ ने बारहवीं शताब्दी के मध्यमें। उसने अपने पैतृक राज्य को पर्याप्त रूप से विस्तृत किया। वह संस्कृत साहित्य का संरक्षक और स्वयं नाटककार था, जिसने 'हरकेलि नाटक' की रचना की। वह पृथ्वीराज या रायपिथौरा (दे.) का चाचा और पूर्ववर्ती था।

विजगापट्टम् : कारोमण्डल तट का एक बन्दरगाह। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अंग्रेजों ने वहाँ एक व्यापारिक कोठी स्थापित की। बाद को यह भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का एक भाग बन गया। १९४२ ई. में जापानियों ने इस पर बम वर्षा की, किन्तु उससे अधिक क्षति नहीं पहुँची। अब इस बन्दरगाह को काफी विकसित कर दिया गया है, और यहाँ जहाज-निर्माण का कार्य भी होता है।

विजय नगर : एक नगर, साथ ही एक राज्य का भी नाम, जिसकी नींव दक्षिणी भारत में तुंगभद्रा नदी के पार लगभग १३३६ ई. में संगम के पुत्र हरिहर और बुक्क ने रखी। नगर का निर्माण १३४३ ई .में पूरा हुआ और दस वर्ष में ही राज्य का विस्तार दक्षिण भारत के पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र तक हो गया। हरिहर प्रथम ने अपनी मृत्युपर्यन्त १३५४-५५ ई. तक शासन किया। इसके बाद उसके भाई बुक्क प्रथम ने बाइस वर्ष (१३५५-७७ ई.) तक शासन-संचालन किया। इन शासकों में से किसी ने भी राजपदवी धारण नहीं की। बुक्क प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी हरिहर द्वितीय ने १३७७ ई. से महाराजाधिराज की पदवी के साथ १४०४ ई. तक शासन किया।

विजय नगर के राजा 'राय' कहलाते थे, जिन्होंने कई क्षेत्रों में सफलता और गौरव के साथ १५६५ ई. तक शासन किया। विजयनगर में तीन राजवंशों के राजा हुए, यथा, संगम राजवंश के अन्तर्गत हरिहर द्वितीय (१३७७-१४०४ ई), उसका पुत्र बुक्क द्वितीय (१४०४-१४०६ ई.), रामचन्द्र (१४२२ ई.), वीर विजय (१४२२-२५ ई.), देवराज द्वितीय (१४२५-४७ ई.), मल्लिकार्जुन (१४४७-६५ ई.), विरूपाक्ष (१४६५-८५ ई.), और प्रौढ़देव राय (१४८५ ई.) राजाओं ने राज्य किया। सालुव राजवंश की स्थापना सालुव नरसिंह द्वारा संगम वंश के विध्वंस के बाद की गयी। यह संगम राजवंश के अन्तिम राजाओं का मंत्री था। नरसिंह ने १४८६-१४९२ ई. तक शासन किया और उसका पुत्र इम्मादी नरसिंह (१४९२ से १५०३ ई.) उत्तराधिकारी बना, जो सालुव या द्वितीय राजवंश का दूसरा और अन्तिम राजा था। इसको तत्कालीन मंत्री नरसिंह नायक ने पद्च्युत कर एक नये राजवंश की स्थापना की, जो तुलुव राजवंश कहा जाता है। इसके अन्तर्गत छः राजा हुए, यथा नरेश नायक (१५०३ ई.), उसका पुत्र वीर नरसिंह (१५०३-१५०९ ई.), कृष्ण देव राय (१५०९-२९ ई.), अच्युत (१५२९-४२ ई.), व्यंकट (१५४२ ई.) और सदाशिव (१५४२-६५ ई.)। तालीकोट के युद्ध के उपरान्त इस वंश का भी उच्छेद हो गया। इस वंश के विनाश के साथ ही विजय नगर राजधानी भी विनष्ट हो गयी और सदाशिव वेनुगोंडा भाग गया, जहाँ १५७० ई. में तिरुमल्ल द्वारा वह पदच्युत कर दिया गया।

तिरुमल्ल से चौथा राजवंश का आरंभ हुआ। इसने १५७० से १६४२ ई. तक शासन किया। पहले इन लोगों की राजधानी पेनुगोण्डा थी, उसके बाद चंद्रगिरि हो गयी।

व्यावहारिक रूप से 'विजयनगर' राज्य का इतिहास विजय नगर के विनाश के साथ ही साथ समाप्त हो जाता है। राज्य के पतन का कारण, सीमा के मुसलमान बहमनी राज्य से निरन्तर युद्ध था। धार्मिक विरोध के कारण उत्पन्न द्वैषभाव के अतिरिक्त रायचूर दोआब भी दोनों राज्यों के बीच संघर्ष का कारण बना रहा और साधारण तथा बहमनी सुल्तान ही इसका लाभ उठाते रहे। केवल कृष्णदेव राय (दे.) के शासनकाल (१५०९-२९ ई.) में, जो सबसे प्रतापी राजा था, विजयनगर राज्य लाभ में रहा। उसने मुसलमान पड़ोसियों से रायचूर छीन कर बीदर तथा बीजापुर के सुल्तानों को भी परास्त किया। उसने अपने प्रभुत्व का विस्तार मद्रास राज्य तक ही नहीं, अपितु मैसूर तक कर लिया; किन्तु ये उपलब्धियाँ स्थायी न रह सकीं। बीजापुर, गोलकुण्डा, अहमद नगर और बीदर के सुल्तानों के संयुक्त प्रयास से विजयनगर १५६५ ई. में तालीकोट के युद्ध के पश्चात विनष्ट हो गया। सदाशिव को दुरस्थ राज्य पेनुगोण्डा भाग कर अपने प्राण बचाने पड़े।

विजय नगर : अपने उत्कर्ष-काल में विजय नगर अत्यन्त समृद्ध और धन-धान्य संपूर्ण नगर था। उसकी किलेबंदी अत्यंत मजबूत थी। निकोलो काण्टी (१४२० ई.), अब्दुरज्जाक (१४४३ ई.), पैस (१५२२ ई.) और नूनिज जैसे विदेशी यात्रियों ने उसका भूरि-भूरि प्रशंसा की है। अब्दुरज्जाक ने यहाँ तक लिखा है कि "यह नगर ऐसा है, जिसके समान धरती पर दूसरा नगर न तो आँखों से देखा गया है और न कानों से सुना गया है। यह एक दूसरे के भीतर सात परकोटों से घिरा था।" नगर की आबादी अत्यंत धनी थी और यह सब प्रकार के धन-धान्य से पूर्ण था। फिर भी यह दुर्दैव ही कहा जायगा कि जब मुसलमान आक्रमणकारियों ने तालीकोट की विजय के बाद नगर को ध्वस्त करना शुरू किया, तब यहाँ के नागरिकों ने न तो किसी प्रकार का प्रतिरोध किया और न संगठित होकर उसका सामना ही किया। इससे संकेत मिलता है कि राज्य के धन-वैभव संपन्न होने के बाबजूद जनता में शासक वर्ग के प्रति किसी प्रकार का प्रेम या अपनत्व नहीं था।

विजय नगर के राजा संस्कृत साहित्य और विद्या के पोषक थे। वेदों के सुप्रसिद्ध भाष्यकार सायण (दे.) और उनके भाई माधवाचार्य विजयनगर के राजाओं के मंत्री थे। विजयनगर के शासक ललित कलाओं के भी महान पोषक थे और उन्होंने अनेक भव्य मन्दिरों तथा भवनों का निर्माण कराया। उनके राज्यकाल में विजयनगर में वास्तुकला, चित्रकला तथा तक्षण कला की विशिष्ट शैली का विकास हुआ। (आर., ए. सेवेल कृत फारगाटन इम्पायर तथा बी. ए. सालेटोर कृत सोशल एण्ड पोलिटिकल लाइफ इन विजयनगर इम्पायर)

विजय प्रथम (वीर विजय)  : विजयनगर (दे.) के प्रथम राजवंश का शासक। उसने कुछ समय तक अपने पुत्र देवराय द्वितीय (दे.) के साथ मिलकर शासन किया, जिसका प्रारम्भ १४२५ . में हुआ। किन्तु शीघ्र ही देवराय ने शासन की सारी बागडोर सँभाल ली।

विजय द्वितीय : केवल एक वर्ष के लिए विजयनगरका राजा रहा (१४४६-४७ ई.)।

विज्जल कालचूर्य : दक्षिण में कल्याणी के चालुक्य वंश का अपने पुत्रों की सहायता से उच्छेद करके ११५६ से ११६७ ई. के बीच स्वयं सिंहासनारूढ हो जानेवाला एक शासक। ११६७ ई. में उसने स्वयं सिंहासन त्याग दिया। विज्जल ने कलचूरि वंश का सूत्रपात किया। वह जैन धर्मानुयायी था। उसके ब्राह्मण मंत्री वासव ने लिंगायत अथवा वीर शैव सम्प्रदाय की स्थापना की।

विज्ञानेश्वर : एक यशस्वी धर्मशास्त्रकार। ये विक्रमादित्य चालुक्य के शासन काल (१०७६-११२६ ई.) में चालुक्यों की राजधानी कल्याणी में रहते थे। उनकी रचना 'मिताक्षरा' बंगाल और आसाम को छोड़कर सारे भारतवर्ष में हिन्दू उत्तराधिकार नियम का सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है जो याज्ञवल्क्य स्मृति का भाष्य है। बंगाल और आसाम में रघुनन्दन (दे.) था 'दायभाग' प्रचलित है।

वितस्ता की लड़ाई : यह पुरु (दे.) और मकदूनिया (यूनान) के राजा सिकन्दर (अलक्सान्दर) के बीच हुई। पुरु का राज्य हाईडस्पीस (झेलम अथवा वितस्ता) और असिक्नी (चनाब) नदियों के बीच था। संभवतः जुलाई ३२५ ई. पू. में सिकन्दर ने अकारण उसके राज्य पर हमला कर दिया। पुरु आरम्भिक लड़ाई में हार गया, क्योंकि यूनानी सेनाओं ने चुपचाप बिना किसी युद्ध के नदी पार कर ली। पुरु मुख्यरूप से हाथियों की सेना पर निर्भर था। उसने हाथियों के पीछे ३०,००० पैदल सैनिक, ४०० अश्वारोही सैनिक तथा ३०० रथ लगा रखे थे। सिकन्दर को मख्यरूप से अपनी घुड़सवार सेना और घोड़े पर सवार तीरन्दाजों का भरोसा था। पुरु बड़ी वीरता से लड़ा, पर यूनानी सेना के अधिक फुर्तीली होने के कारण सिकन्दर की विजय हुई। पुरु युद्ध में घायल हुआ और बन्दी बना लिया गया। विजयी यवन राजा सिकन्दर ने उसके साथ सम्मान पूर्ण व्यवहार किया और उसका राज्य लौटा दिया। बाद में पुरु ने सिकन्दर को पंजाब के दूसरे राज्यों को जीतने में मदद दी।

विदर्भ : आधुनिक बरार (दे. का प्राचीन नाम।

विदिशा : एक प्राचीन नगर, जो अब भिलसा के नाम से विख्यात है और आधुनिक मध्यप्रदेश में साँची के निकट स्थित है।

विद्यासागर, पंडित ईश्वरचन्द्र : एक प्रख्यात शिक्षाविद् और समाज-सुधारक (१८२०-९१), जो बंगाल, मिदनापुर जिले के एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुए। गवर्नमेंट संस्कृत कालेज कलकत्ता में शिक्षा प्राप्त कर वे बाद को १८५१ ई. में उसी में प्रोफेसर हो गये और वहीं से १८५८ ई. में उन्होंने प्राचार्य के रूप में अवकाश प्राप्त किया। मूलतः वे संस्कृत के विद्वान् थे, किन्तु बाद में अंग्रेजी सीखी, जिसके वे आचार्य हो गये। १८४८ ई. में उन्होंने सर्वप्रथम 'वैताल पंचविंशति' नामक प्रथम बंगला गद्य रचना प्रकाशित की। इसके उपरान्त अन्य बंगला गद्य रचनाएँ प्रकाशित करायीं जिसके परिणामस्वरूप उन्हें बंगला गद्य साहित्य का पिता कहा जाता है। वे परम्परानिष्ठ हिन्दू थे, अतः ऐसे राजकीय समारोहों में भाग नहीं लेते थे, जिनमें धोती, चद्दर और चप्पल पहन कर जाना वर्जित था। सामाजिक जीवन सम्बन्धी उनके विचार उदार और प्रगतिशील थे। सामाजिक जीवन सम्बन्धी उनके विचार उदार और प्रगतिशील थे। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि ब्रिटिश शासन पर जोर डालकर हिन्दू विधवा पुनर्विवाह कानून पास करवाना था। वे बड़े दानशील और परोपकारी और स्वाभिमानी थे। उन्होंने अनेक स्कूलों के साथ साथ 'मेट्रोपोलिटन कालेज' की भी नींव डाली जो अब 'विद्यासागर कालेज' कलकत्ता के नाम से प्रसिद्ध है और जहाँ हिन्दू विद्यार्थी नाममात्र के शुल्क पर उसी प्रकार शिक्षा ग्रहण करते थे जिस प्रकार गवर्नमेन्ट कालेजों में मुसलमान विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। वे संस्कृतिनिष्ठ ब्राह्मण होते हुए भी पाश्चात्य शिक्षा के प्रबल समर्थक थे और गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज, कलकत्ता को केवल संस्कृत पढ़ाई तक ही सीमित रखने के विरोधी थे। उन्होंने पाश्चात्य दर्शन तथा व्यावहारिक विज्ञान के अध्ययन को विद्यालय पाठयक्रम में सम्मिलित करने पर बल दिया, जिससे देशवासी भौतिक ज्ञान के क्षेत्र में पीछे न रहें। वे बंगाला के उन सपूतों में थे, जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी में बंगला के पुनर्जागरण में प्रमुख योगदान किया।

विन, चार्ल्स डब्लू. डब्लू. : बोर्ड आफ कंट्रोल का अध्यक्ष, १८२७ ई. में जूरी ऐक्ट पास किया, जिसके द्वारा भारत की न्याय-व्यवस्था में धार्मिक भेदभाव प्रचलित किया गया। इस ऐक्ट में व्यवस्था थी कि यूरोपीय तथा भारतीय ईसाई जूरी बनकर ईसाइयों तथा गैरईसाइयों के मुकदमों की सुनवाई कर सकते हैं, परंतु गैरईसाइयों के, जैसे हिन्दू या मुसलमान जूरी बन कर ईसाइयों के मुकदमे की सुनवाई नहीं कर सकते। राजा राममोहन राय ने कानून की इस धारा के विरुद्ध याचिका प्रस्तुत की और अंततः यह धारा निरस्त कर दी गयी।

विनय पिटक : त्रिपिटक' नाम से प्रसिद्ध बौद्ध आगम ग्रंथों में से एक। विनय पिटक के अतिरिक्त अन्य पिटक ग्रंथ सुत्तपिटक और अभिधम्म पिटक हैं। विनय पिटक में बौद्ध भिक्षुओं के आचार-नियमों (विनय) का वर्णन है। यह तीन भागों में विभक्त है-सुत्तविभंग, परिवार और खन्धक। सुत्तविभंग में पातिमोक्ख (प्रातिमोक्ष) सम्मिलित है जिसमें उन अपराधों का वर्णन है जिनके करने से भिक्षु व भिक्षुणी पतित हो जाते हैं और उनके प्रायश्चित का विधान है। खन्धक भी दो भागों में विभक्त है- महावग्ग और चुल्लवग्ग।

विनिमय ३ (१८१८ ई. का) : भारतीयों का मूँह बन्द करने के लिए अंग्रेज सरकार द्वारा १८१८ ई. में प्रचलित। इस कानून के अन्तर्गत सरकार ऐसे किसी भी व्यक्ति को अनिश्चित काल के लिए कारागार में डाल सकती थी; जिसपर उसे सन्देह हो कि उस व्यक्ति के कार्यों से भारत में अंग्रेज सरकार की सुरक्षा और उसके हितों को हानि पहुँचेगी। प्रारम्भ में इसका उद्देश्य सशस्त्र विद्रोहों को दबाना था, परन्तु बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आन्दोलन को दबाने में इसका विशेष प्रयोग किया गया। लाला लाजपतराय, कृष्णकुमार मित्र, सुभाषचन्द्र बोस आदि कितने ही देशभक्त इस कानून के अन्तर्गत बन्दी बने गये और उन्हें बर्मा निर्वासित किया गया।

विन्दवास का युद्ध : सर आरकूट (दे.) के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना और काउण्ट डि लाली (दे.) के नेतृत्व में फ्रांसीसी सेना के बीच १७६० ई. में हुआ। इस युद्ध में फ्रांसीसी निर्णायक रूप से परास्त हो गये। बुसी (दे.) बन्दी बन गया और लाली पाण्डिचेरी भाग गया, जहाँ उसे जनवरी १७६१ ई. में आत्मसमर्पण करने के लिए विवश किया गया। इस प्रकार विन्दवास के युद्ध में अंग्रेजों की विजय ने लम्बे समय से चले आनेवाले आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध का पटाक्षेप कर दिया। इससे भारत में फ्रांस की सत्ता सदा के लिए समाप्त हो गयी।

विम : कथसिस द्वितीय का नाम था।

विरूपाक्ष प्रथम : विजय नगर के शासक हरिहर द्वितीय (दे.) का पुत्र। १४०४ ई. में पिता की मृत्यु के बाद उसने सिंहासन पर अधिकार कर लिया, परन्तु शीघ्र ही अपने भाई बुक्क द्वितीय (दे.) द्वारा अपदस्थ कर दिया गया।

विरूपाक्ष द्वितीय : विजय नगर के प्रथम राजवंश का उपान्तिम राजा। दुराचारी होने के कारण उसके सबसे बड़े पुत्र ने उसका वध कर दिया, जो स्वयं बाद में अपने छोटे भाई पौढ़ देवराय द्वारा मार डाला गया। प्रौढ़ देवराय संगम राजवंश का अन्तिम शासक था।

विलकिन्स, विलियम : वारेन हेस्टिंग्स के शासन-काल में बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक अंग्रेज अधिकारी, जो संस्कृत और फारसी का अच्छा विद्वान् था, जिसे गवर्नर-जनरल ने प्राच्यविद्याओं के अध्ययन के लिए उत्साहित किया। उसने भगवद्गीता का अंग्रेजी में अनुवाद किया था।

विलसन, जेम्स : वाइसरायी कार्याकारिणी परिषद् का प्रथम वित्तीय सदस्य। वह १८५९ ई. में इस परिषद् का सदस्य बना किन्तु नौ महीने काम करने के बाद अचानक उसकी मृत्यु हो गयी। वह सुयोग्य लेखाविद् और वित व्यवस्थापक था। अतः उसने भारत में वित्तीय शासन-पद्धति का पुनर्गठन किया, अर्थव्यवस्था को सुनिश्चित रूपरेखा प्रदान की, पाँच वर्ष के लिए आयकर लागू किया तथा वार्षिक बजट व लेखा विवरण तैयार करने की प्रथा चलायी।

विलसन, सर आर्कडेल : एक अंग्रेज सेनानायक, जिसने भारत में अंग्रेजी राज की सराहनीय सेवा की। सिपाही विद्रोह भड़क उठने के तुरन्त बाद उसके दो ज्येष्ठ सैन्य-अधिकारियों की हैजे से मृत्यु हो जाने तथा तीसरे अधिकारी के अस्वस्थ हो जाने पर उसे ब्रिटिश सेना का कमाण्डर बन जाना पड़ा। दिल्ली की पहाड़ी उस समय भी ब्रिटिश सेना के कब्जे में थी, किन्तु उसकी संख्या कम होने के कारण वह विद्रोहियों को दिल्ली पर अधिकार करने से रोकने में समर्थ नहीं हुई और स्वयं विप्‍लवियों के घेरे में फँस गयी, किन्तु विलसन तब तक निर्भीकता से मोर्चे पर हटा रहा, जब तक निकोलसन (दे.) दल बल सहित वहाँ सहायतार्थ पहुँच नहीं गया। छः दिन तक आमने-सामने के भीषण युद्ध के बाद सितम्बर १८५८ ई. को निकोलसन की सहायता से उसने दिल्ली को पुनः हस्तगत कर लिया।

विलसन, होरैस हेमैन : एक अंग्रेज इतिहासकार और प्राच्य संस्कृति प्रेमी तथा संस्कृत भाषाविद्। १८१६ ई. से १८३२ ई. तक वह कलकत्ता की टकसाल में काम करता रहा और बाईस वर्ष (१८११-१८३३) बंगाल में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के सचिव पद पर रहा। वह इस नीति के विरुद्ध था कि जनता के धन को केवल पाश्‍चात्‍य शिक्षा दीक्षा के प्रसार में व्यय किया जाय, जिसे मैकाले का वरदहस्त प्राप्त था। उसके रचे हुए अनेक ग्रन्थ हैं, यथा ऐंग्लो संस्कृत डिक्शनरी, 'थेटर आफ दि हिन्दूज़' और प्रसिद्ध संस्कृत नाटकों का अंग्रेजी में अनुवाद, तथा मृच्छकटिक, मालतीमाधव, उत्तररामचरित, विक्रमोर्वशीय, रत्नावलि तथा मुद्राराक्षस। भारतीयों के मध्य शिक्षा प्रसार में उसकी बड़ी रुचि थी, अतः अनेक वर्षों तक वह 'कमेटी आफ पब्लिक' एजुकेशन कलकत्ता का सदस्य रहा।

विलिंग्डन, लार्ड : लार्ड इरविन (दे.) के उत्तराधिकारी के रूप में १९३१ से १९३५ ई. तक भारत का वाइसराय और गवर्नर-जनरल। १९१३ से १९१९ ई. तक बम्बई का गवर्नर रहा और १९२४ ई. में भारत-सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राष्ट्रसंघ में भाग लिया। उसे भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ तनिक भी सहानुभूति न थी। उसने भारतीय राजनीति में लुई १४वें की भाँति उदारवादी निरंकुश शासक के रूप में कार्य किया। उसने समझौता करने की उस नीति को त्याग दिया, जिसका अनुसरण उसका पूर्ववर्ती लार्ड इरविन कर रहा था। जैसे ही गांधीजी गोलमेज कांग्रेस के दूसरे सत्र में भाग लेकर लन्दन से वापस आये, १९३२ ई. में उन्हें जेल में भाग लेकर लन्दन से वापस आये, १९३२ ई. में उन्हें जेल में बन्द कर दिया गया और सविनय-अवज्ञा आन्दोलन को बड़ी कठोरता के साथ दबा दिया गया। उसने भारतीय नेताओं के विरोध के बावजूद भारत पर १९३४ ई. का शासन विधान लादने का प्रयास किया, किन्तु वह इस कार्य में सफल नहीं हो सका।

विवेकानन्द, स्वामी (१८६३-१९०२)  : प्रसिद्ध हिन्दू संन्यासी और उपदेशक। अन्तरराष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त व्यक्ति थे। वे कलकत्ता के मध्यमवर्गीय बंगाली परिवार में उत्पन्न हुए थे और उनका मूल नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। जब वे कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी. ए. की उपाधि प्राप्त कर कानून का अध्ययन कर रहे थे उसी बीच रामकृष्ण परमहंस (दे.) के शिष्य बनकर संसार त्यागी संन्यासी हो गये, और हिमालय से कन्या कुमारी तक समग्र भारत का भ्रमण किया। राजाओं और जनसाधारण द्वारा उनका सर्वत्र हार्दिक स्वागत हुआ।

१८९३ ई. में वे शिकागो, संयुक्त राज्य अमेरिका में हो रहे विश्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये। उसमें अपने प्रथम भाषण से ही उन्होंने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया और फिर अमेरिका में अनेक स्थानों पर उन्होंने भाषण किये, जिसके फलस्वरूप उनकी कीर्ति फैलने लगी और अनेक लोग उनके प्रशंसक बन गये। अनेक अमरीकी नर-नारी उनके शिष्य हो गये और रामकृष्ण परमहंस की शिक्षा का अध्ययन करने के लिए अमेरिका में अनेक केन्द्र स्थापित हुए। १८९६ ई. में वे अमेरिका से इंग्लैण्ड गये जहाँ उनका बहुसंख्यक अंग्रेज स्त्री पुरुषों ने, जिनमें मार्गरेट नोबुल (सिस्टर निवेदिता) (दे.) भी शामिल थीं, सोत्साह भावभीना स्वागत किया। सिस्टर निवेदिता उनकी शिष्या बन गयीं। १८९६ ई. में भारत लौटने पर उनका भव्य स्वागत किया गया।

उन्होंने अपने देशवासियों के धार्मिक एवं सामाजिक विचारों पर गहरा प्रभाव डाला। उन्होंने श्रीरामकृष्ण परमहंस की सार्वभौम धार्मिक शिक्षाओं के साथ-साथ सामाजिक सेवा, तथा दीन-दुखियों की सेवा पर बल दिया तथा देशवासियों में फैले अज्ञान दूर करके उनकी आर्थिक उन्नति करने, नैतिक चरित्र ऊँचा उठाने तथा आत्मत्याग की भावना पैदा करने का प्रयास किया। इस कार्य के लिए उन्होंने रामकृष्ण मिशन का संगठन किया, जिसका स्थायी केन्द्र बेलूर में 'बेलूर मठ' के नाम से स्थापित किया गया। सम्पूर्ण भारत का पुनः भ्रमण करने के बाद वे १८९९ ई. में दुबारा अमेरिका गये और सैन-फ्रैंसिस्कों में वेदान्त अध्ययन केन्द्र तथा रामकृष्ण मिशन की शाखा खोली।

अमेरिका से वापस आते समय उन्होंने यूरोप के अनेक देशों का भ्रमण किया और स्वदेश आकर बनारस में एक स्कूल और अस्पताल सहित रामकृष्ण मिशन की शाखा स्थापित की। अथक परिश्रम, संन्यासी के कष्ट-साध्य जीवन और रामकृष्ण मिशन संगठन के भविष्य की चिन्ताओं के कारण उनका स्वास्थ्य जर्जर हो गया, फलतः उन्तालिस वर्ष की अल्पायु में १९०२ ई. में वे ब्रह्मलीन हो गये। उनके भाषणों एवं रचनाओं को एकत्र करके रामकृष्ण मिशन ने आठ जिल्दों में प्रकाशित किया है। प्रत्येक जिल्द में मुद्रित सामग्री के ६०० पृष्ठ हैं। उनकी रचनाओं में ज्ञानयोग, राजयोग और भक्तियोग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं, जो अंग्रेजी भाषा में लिखे गये हैं। उन्होंने 'प्राच्य और पाश्चात्य' नाम से एक पुस्तक बंगला भाषा में भी लिखी। यह कृति उनके गहन चिंतन तथा धार्मिक एवं सामाजिक आदर्शों का परिचय देती है। वे कुशल पत्र-लेखक भी थे और उनके सैकड़ों पत्र प्रकाशित हुए हैं। उनकी डायरी दुर्भाग्यवश अभी तक प्रकाशित नहीं हो सकी है।

विवेकानन्द, स्वामी (१८६३-१९०२)  : विवेकानन्द का गौरव इस बात में है कि उन्नीसवीं शताब्दी में जब भारत को पिछड़ा हुआ देश माना जाता था और यह समझा जाता था कि उसे यूरोप से बहुत कुछ सीखना है तब उन्होंने यूरोपवासियों के हृदय में यह बात उतारी कि भारत की संस्कृति उज्ज्वल और उसका धर्म उदार है, जिससे यूरोप को, और संसार को बहुत कुछ सीखना है। इस प्रकार उन्होंने भारतवासियों में नवस्फूर्ति तथा आत्मसम्मान की नवीन भावना भर दी। चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य ने ठीक है-- "स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्त्व की रक्षा कर भारत की रक्षा कर ली। यदि रामकृष्ण परमहंस न होते तो हमने अपने धर्म को भुला दिया होता और स्वतंत्रता की प्राप्ति न कर पाते। सारा देश स्वामी विवेकानन्द का ऋणी है।" (वर्क्स आफ स्वामी विवेकानन्द, आठ जिल्दों में; लाइफ आफ स्वामी विवेकानन्द, उनके भारतीय और यूरोपीय शिष्यों द्वारा, रमेशचन्द्र मजुमदार द्वारा सम्पादित स्वामी विवेकानन्द सेन्टनरी वाल्यूम)।

विश्वयुद्ध और भारत : १९१९ ई. में प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ होने के समय भारतीयों का अपने देश के शासन पर कोई नियंत्रण नहीं था। भारत के ब्रिटिश शासकों ने इंग्लैण्ड को सौ करोड़ रुपयों का अनुदान दिया और बहुत बड़ी संख्या में भारतीय सैनिकों तथा मजदूरों को विविध युद्ध मोर्चों पर भेजा। उन्होंने अपने कर्त्तव्यों का पालन इतनी निष्ठा से किया और ब्रिटेन की अंतिम विजय में इतना महत्त्वपूर्ण योगदान किया कि अंग्रेजों को स्वीकार करना पड़ा कि "भारत की सहायता के बिना युद्ध बहुत लम्बा चलता। विजयश्री का बहुत कुछ श्रेय भारत को प्राप्त है।" ब्रिटिश राजनेताओं ने बार-बार घोषणा की थी कि छोटे राज्यों की सुरक्षा के लिए युद्ध किया जा रहा है और ब्रिटेन के मित्रराष्ट्र, संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति विलसन ने भी घोषणा की थी कि युद्ध का उद्देश्य छोटे राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार प्रदान करना है। इस प्रकार की घोषणाओं से भारतीयों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का उद्वीप्त होना स्वाभाविक था।

प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति मित्रराष्ट्रों की विजय के साथ हुई। युद्ध के बाद ही यह बात स्पष्ट हो गयी कि ब्रिटेन अपनी उदार घोषणाओं को पूर्णतः क्रियान्वित करने का कोई इरादा नहीं रखता। ब्रिटेन ने भारत को जो कुछ प्रदान किया वह १९१९ ई. का भारतीय शासन विधान था। इसकी प्रस्तावना में घोषित किया गया था कि भारत में ब्रिटिश शासन का उद्देश्य स्वशासित संस्थाओं की क्रमिक रीति से प्रतिष्ठापना करना है ताकि वहाँ अंततः उत्तरदायी सरकार की स्थापना हो सके। किन्तु इसके बावजूद १९१९ ई. के शासन-विधान में केवल प्रांतों में द्वैध शासन और केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधान मंडलों में भारतीयों को अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया। इन सीमित संवैधानिक सुधारों से भारतीयों की आशाओं और आकांक्षाओं को तुष्ट नहीं किया जा सका और भारत में राष्ट्रीय दोलन अबाध गति से चलता रहा। १९२० ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने असहयोग आंदोलन आरम्भ कर दिया और प्रत्युत्तर में अंग्रेजों ने भारत में दमन-नीति का नुसरण किया। आर्थिक क्षेत्र में प्रथम विश्व-युद्ध ने ब्रिटेन को अनुभव करा दिया कि यह उसके स्वयं के हित में है कि भारत में उद्योगों का विकास किया जाय। फलतः उसने क्रमिक रीति से भारतीय उद्योगों को संरक्षण देने की नीति अपनायी, जिससे इस्पात, सूत्री वस्त्र तथा चीनी उद्योग लाभान्वित हुए।

सितम्बर १९३९ ई. में जब द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ा तब १९१४ ई. की अपेक्षा भारत में राजनीतिक चेतना कहीं अधिक जाग्रत हो चुकी थी। भारतीय राष्ट्रवादियों का एक वर्ग इस पक्ष में था कि ब्रिटेन की कठिनाइयों से लाभ उठाकर भारत के राजनीतिक हितों को अग्रसर किया जाय। कुछ लोग तो जर्मनी और जापान के साथ, जो अंग्रेजों के प्रधान शत्रु थे, गठबंधन करने और उनकी सैनिक सहायता से भारत में अंग्रेजी राज्य का अंत करने के पक्ष में भी थे। परन्तु महात्मा गांधी के आदर्शवादी नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को इस प्रकार की अवसरवादी नीति स्वीकार नहीं हुई। गांधीजी के मार्गदर्शन में कांग्रेस ने युद्ध-प्रयत्नों में भाग न लेने का निश्चय किया। किंतु भारत के ब्रिटिश शासनकों ने ब्रिटेन के सहायतार्थ विपुल धन भेजा और भारतीय सेनाएं विविध युद्ध-मोर्चों पर लड़ने के लिए भेजी गयीं। भारतीय सेनाएँ विशेष रूप से दक्षिण-पूर्व एशि‍या भेजी गयीं, जहाँ जापानी तेजी से आगे बढ़ रहे थे। जापानी सेनाओं ने न केवल मलय प्रायद्वीप पर, वरन बर्मा पर भी अधिकार कर लिया और उत्तर-पूर्वी सीमांत राज्य मणिपुर तक आ धमकीं जिससे आसाम के लिए खतरा पैदा हो गया। अंग्रेज बर्मा से हटते समय वहाँ बहुत बड़ी भारतीय सेना छोड़ आये थे, जिसे विजेता जापानियों ने बंदी बना लिया।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस युद्ध में ब्रिटेन की सहायता करने के प्रश्न पर कांग्रेसी नीति के विषय में महात्मा गांधी से खुला मतभेद रखते थे। वे चाहते थे कि ब्रिटेन की कठिनाइयों से पूरा-पूरा लाभ उठाया जाय और अंग्रेंजों की जेल से बचने के लिए वे जर्मनी भाग गये। वहाँ से जापान होते हुए वे बर्मा पहुँचे जहाँ उन्होंने उन भारतीय सैनिकों की सहायता से, जिन्हें अंग्रेज छोड़ आये थे, 'आजाद हिन्द फौज' का गठन किया तथा बर्मा में आजाद हिन्द सरकार की स्थापना करके अपने को उसका अंतरिम अध्यक्ष घोषित किया। उन्होंने जापानियों से गठबंधन करके आजाद हिन्द फौज को लेकर दिल्ली पर धावा मारने और वहाँ लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने की योजना बनायी। किंतु उनकी आजाद हिन्द फौज, जिसके पास पर्याप्त हथियार और रसद नहीं थी और जो वायु सेना से भी लैस नहीं थी, केवल मणिपुर के निकट कोहिमा तक पहुँच सकी और भारतीय ब्रिटिश सेना ने, जो उसके मुकाबले में संख्या में कहीं अधिक थी और बेहतर हथियारों से लैस थी और जिसके पास रसद की कोई कमी नहीं थी, उसे पीछे खदेड़ दिया। इसके बाद ही हिरोशिमा पर अमरिका द्वारा एटमबम गिराये जाने के बाद जापान को भी आत्मसमर्पण कर देना पड़ा और नेताजी का विदेशी सहायता से बाहर से आक्रमण करके भारत को आजाद कराने का प्रयास विफल हो गया।

विश्वयुद्ध और भारत : ब्रिटेन और उसके मित्रराष्ट्रों को युद्ध में पूर्ण विजय प्राप्त हुई, किंतु गांधीजी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को तुष्ट नहीं किया जा सका था। ब्रिटेन ने भारत की राजनीतिक आकांक्षाओं को तुष्ट करने के लिए घोषणा की कि उसे समय आने पर औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान किया जायगा। इसके साथ ही भारतीयों में फूट डालकर उन्हें कमजोर बनाने की नीयत से उसने मुसलमानों की साम्प्रदायिक महत्त्वाकांक्षाओं को भी प्रोत्साहित किया। कांग्रेस न केवल अपनी पूर्ण स्वाधीनता की मांगपर डटी रही, वरन् उसे पूरा कराने के लिए उसने 'भारत छोड़ो' आंदोलन भी आरम्भ कर दिया। इस आंदोलन को व्यापक जन-समर्थन मिला। अंग्रेज-विरोधी भावना न केवल भारतीय शासनतंत्र की सभी शाखाओं में, वरन् भारतीय नौसेना तक में व्याप्त हो गयी। युद्ध में ब्रिटेन विजयी अवश्य हुआ था, किंतु धन-जन की अपार क्षति के फलस्वरूप वह अत्यन्त जर्जर हो गया था। अतः उसने अगस्त १९४७ ई. में भारत को स्वाधीनता प्रदान करके यहाँ से हट जाने का निश्चय किया।

विश्वविद्यालय अधिनियम : लार्ड कर्जन (दे.) के शासन काल में १९०४ ई. में पारित। उसके अन्तर्गत एक आयोग गठित हुआ जिसकी अध्यक्षता वाइसराय की कार्यकारिणी समिति के कानून-सदस्य थामस रेले ने की। इस अधिनियम में सभासदों (सीनेट के सदस्यों) और विशिष्ट सदस्यों की संख्या सीमित तथा सीनेट के मनोनीत सदस्यों को बहुमत में करके भारतीय विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण और कठोर बना दिया गया। अतः इस अधिनियम के विरोध में व्यापक आन्दोलन हुआ, लेकिन इस अधिनियम में एक गुण था। इसका उद्देश्य भारतीय विश्वविद्यालयों को, जो तब तक केवल परीक्षा लेनेवाले संस्थान थे, शिक्षण संस्थाओं में बदल देना था, विशेषकर उनमें स्नातकोत्तर शिक्षण की व्यवस्था करना था। उसमें विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों और प्राध्यापकों की नियुक्ति और प्रयोगशालाओं तथा संग्रहालयों की व्यवस्था का प्राविधान किया गया। सर आशुतोष मुखर्जी १९०६ ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति बने। उनके निर्देशन में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने इस अधिनियम से लाभ उठाया और जनता के अर्थदान से शिक्षण विभाग खोला जिससे केवल बंगाल में ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण भारत में उच्च शिक्षा के प्रसार में बहुत सहायता मिली। १८५७ ई. में कलकत्ता में प्रथम भारतीय विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। तदनन्तर बम्बई और मद्रास में भी विश्वविद्यालयों की स्थापना शीघ्र ही हुई।

विश्वविद्यालय, भारतीय : लंदन विश्वविद्यालय को आदर्श बनाकर १८५७ ई. में सर्वप्रथम कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में विश्वविद्यालय स्थापित किये गये। प्रारम्भ में ये विश्वविद्यालय केवल परीक्षा-केन्द्र के रूप में थे, लेकिन १९१३ ई. में सर हरकोर्ट बटलर ने, जो वाइसराय की कार्यकारिणी समिति का प्रथम शिक्षा-सदस्य था, एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें शिक्षण और आवासीय विश्वविद्यालय स्थापित करने की व्यवस्था की गयी थी। प्रांतों में नयी जागृति के साथ-साथ साम्प्रदायिक चेतना के प्रसार के फलस्वरूप बीसवीं शताब्दी के द्वितीय चतुर्थांश में पटना, लखनऊ, अलीगढ़, बनारस, आगरा, दिल्ली, नागपुर, वाल्टेयर, ढाका, मैसूर, हैदराबाद, चिदम्बरम्, त्रिवेन्द्रम्, गौहाटी और पूना में विश्वविद्यालय स्थापित हुए। इनमें से कुछ आवासीय और अधिकांश शिक्षण विश्वविद्यालय हैं।

वर्तमान समय में रवीन्द्रनाथ ठाकूर द्वारा १९२१ ई. में स्थापित 'विश्वभारती' को मिलाकर साठ से अधिक विश्वविद्यालय भारत में हैं। इनकी संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है। एक स्वायत्तशासी निकाय जिसको 'विश्वविद्यालय अनुदान आयोग' कहा जाता है, गठित किया गया है और यह भारत में उच्च विश्वविद्यालयिक शिक्षा के लिए भारत सरकार जो धन देती है, उसको भारतीय विश्वविद्यालयों में वितरित करता है।

विश्व सिंह : १५१५ ई. के लगभग कोच राज्य का संस्थापक, जिसकी राजधानी आधुनिक कूचविहार थी। उसके द्वारा संचालित राजवंश के राजालोग कूचबिहार में आधुनिक काल तक शासन करते रहे हैं। (गेट, हिस्ट्री आफ आसाम, अध्याय चार)

विश्वास राव : पेशवा बालाजी बाजीराव का सबके बड़ा पुत्र और उत्तराधिकारी। सत्रह वर्ष की अवस्था में वह मराठा सेना का प्रधान सेनापति नियुक्त हुआ और अहमद शाह अब्दाली का आक्रमण रोकने के लिए उत्तरी भारत भेजा गया। किन्तु सेना का वास्तविक नियंत्रण उसके चाचा सदाशिव राव भाऊ के हाथों में था। इस अभियान का अंत १३ जनवरी १७६१ ई. को पानीपत के तृतीय युद्ध में हुआ, जिसमें विश्वास राव मारा गया और मराठों की भारी पराजय हुई।

विष्णु : हिन्दुओं का एक प्रधान देवता, जिनकी वैष्णव उपासना करते हैं। ब्रह्मा और महेश्वर (शिव) के साथ इनकी गणना हिन्दुओं के त्रिदेव में होती है।

विष्णु गुप्त  : देखिये, 'कौटिल्य'।

विष्णुपुराण : हिन्दुओं के अठारह पुराणों में से एक, जो अन्य सब पुराणों से प्राचीन माना जाता है। यह पुराण के पाँचों लक्षणों से यूक्त है और इसमें सृष्टि, मनुष्यों, देवों, विविध मन्वन्‍तरों और प्राचीन राजवंशों का इतिहास मिलता है। इसमें विशेष रूप से विष्णु की महिमा का वर्णन है।

विष्णुवर्धन (बिहि देव या बिहिग) : द्वारसमुद्र का होयसल राजा (१११०-४१ ई.)। इसने अनेक युद्ध किये और अपने राज्य का विस्तार किया। वह नाममात्र के लिए चालुक्यों का अधीनस्थ बना रहा। तत्कालीन धार्मिक इतिहास में उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। प्रारम्भ में वह जैन मतावलम्बी था किन्तु प्रख्यात वैष्णव आचार्य रामानुज के प्रभाव से वह वैष्णव मतावलम्बी हो गया। मत-परिवर्तन के बाद उसने अपना पहले का नाम विहिदेव या विहिग त्याग कर विष्णुवर्धन नाम धारण किया। उसने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए अनेक भव्य मन्दिरों का निर्माण कराया। इनमें से कुछ आज भी बेलूर और हलेविड में विद्यमान हैं। इनमें सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हलेविड के होयसलेश्वर मंदिर का है, जिसमें ग्यारह सज्जा पट्टियाँ हैं। प्रत्येक पट्टी सात सौ फुट या अधिक लम्बी है और हाथी, सिंह, अश्वारोही, वृक्षलता, पशु-पक्षी आदि विविध अलंकरणों से युक्त है। कुछ आलोचकों का विचार है कि यह मंदिर मानव श्रम और कौशल का सर्वाधिक अनूठा उदाहरण है।

वीर नरसिंह : विजयनगर का एक राजा (१५०५-१५०९ ई.), जिसने विजयनगर के सालुव या द्वितीय वंश के अन्तिम राजा इमादी नरसिंह को मारकर सिंहासन पर अधिकार कर लिया। उसका सौतेला भाई कृष्णदेव राय (दे.) उसका उत्तराधिकारी बना, जो विजयनगर राज्य का सबसे महान शासक था।

वीरनारायण : गोंडवाना का राजा। उसकी नाबालिगी अवस्था में राज्य पर अकबर का आक्रमण हुआ और आक्रमणकारियों का मुकाबला पहले उसकी साहसी माँ रानी दुर्गावती ने किया। युद्ध में उसकी मृत्यु हो जाने के बाद वीर नारायण ने अल्पवयस्क होते हुए भी मुगलों के विरुद्ध तबतक युद्ध जारी रखा जबतक लड़ाई में वह शहीद नहीं हो गया।

वीर बल्लाल : द्वारसमुद्र का एक होयसल राजा, जो प्रसिद्ध वैष्णव शासक विष्णुवर्द्धन (दे.) का पौत्र था। उसका राज्य मैसूर के उत्तर तक विस्तृत था। उसने देवगिरि के यादवों को परास्त कर होयसलों को दक्षिण भारत की एक प्रमुख शक्ति बना दिया।

वीर शैव (संप्रदाय) : देखिये 'लिंगायत मत।

वीरसिंह बुन्देला : बुन्देलों का सरदार, शाहजाद। सलीम के उकसाने पर उसने १६०२ ई. में अकबर के विश्वसनीय मित्र और परामर्शदाता अबुलफजल की हत्या कर दी। सलीम अबुलफजल से घृणा करता था और उससे डरता भी था। बाद में, जहाँगीर के नाम से सलीम के सिंहासनारूढ़ होने पर वीरसिंह को पुरस्कारस्वरूप तीन हजार घुड़सवारों की मनसबदारी मिली।

वीरसिंह ने ही मथुरा में ३३ लाख रुपये की लागत से कृष्ण जन्मभूमि के खँडहरों में केशवदेव का एक भव्य मन्दिर निर्मित कराया। उसका पुत्र जुझार सिंह उसके बाद जागीर का उत्तराधिकारी हुआ। उसका मथुरा स्थित मन्दिर इतना ऊँचा था कि उसका शिखर आगरा के शाही किले से देखा जा सकता था। इससे औरंगजेब का विद्वेष जाग्रत हो उठा। उसके आदेश से १६७० ई. में मन्दिर को धूल में मिला दिया गया और उसके स्थान पर मस्जिद खड़ी की गयी।

वीसलदेव : अजमेर का चौहान राजा। पंजाब के राजा आनन्दपाल (दे.) के अनुरोध पर उसने १००८ ई. में सुल्तान महमूद के आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए एकत्र भारतीय राजाओं की सेना का नेतृत्व किया। किन्तु युद्ध में उसे परास्त होना पड़ा।

वुड, सर चार्ल्स : १८५४ से १८५८ ई. तक बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का अध्यक्ष। इसी हैसियत से उसने १८५४ ई. का प्रसिद्ध खरीता भेजा, जिसमें शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार की नीति का निर्धारण किया गया। इस नीति के अन्तर्गत विद्यालयों को सहायक अनुदान देने की व्यवस्था का सूत्रपात किया गया और कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना की अनुमति प्रदान की गयी। इस खरीते में इस बात पर बल दिया गया कि शिक्षा भारतीय भाषाओं के माध्यम द्वारा दी जानी चाहिये, राजकीय शिक्षण संस्थाओं में दी जानेवाली शिक्षा धर्मनिरपेक्ष होनी चाहिये। सर चार्ल्स वुड के खरीते के फलस्वरूप सम्पूर्ण भारत में शैक्षणिक संस्थाओं प्राथमिक स्कूलों से लेकर उच्च माध्यमिक स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की स्थापना की व्यवस्था की गयी।

वृजि : एक प्राची गण, जो लिच्छिवियों के नाम से अधिक प्रख्यात था। उनके नाम के आधार पर उस प्रदेश का नाम भी वृजि पड़ा जो आजकल बिहार का मुजफ्फरपुर जिला कहलाता है। वृजियों की राजधानी वैशाली (दे.) थी। उन्होंने एक कुलीन गणतंत्र की स्थापना की, इस गणतंत्र का शासन कुछ कुलों के हाथ में था। प्रत्येक कुल को शासन का समान अधि‍कार प्राप्त था। उनकी शासन व्यवस्था इतनी प्रभावशाली थी कि गौतमबुद्ध ने वृजिसंघ के अनुरूप ही अपने भिक्षुसंघ का संगठन किया। ई. पू. पाँचवीं शती में अजातशत्रु ने वृज्जियों को पराजित किया, किन्तु इसके बाद भी ईसवी चौथी शताब्दी के प्रारम्भ तक भारतीय इतिहास में उनका सम्मानपूर्ण स्थान बना रहा। चन्द्रगुप्त प्रथम (दे.) ने लिच्छिवि राजकुमारी 'कुमारदेवी' से विवाह करके ही मगध राज्य का प्रताप बढ़ाया और शक्तिशाली गुप्त राजवंश की नींव डाली।

वेंकट : विजयनगर के अरविन्दु अथवा चौथे वंश का तीसरा राजा, जो १५६५ ई. में नष्ट हो गया। उसने पेनूगोंण्डा से हटाकर चंद्रगिरि में राजधानी बनायी। उसके शासन का श्रीगणेश १५८५ ई. में हुआ और उसके अन्त होने की तिथि अनिश्चित है। वह तेलुगु कवि और वैष्णव लेखकों का उदार संरक्षक था।

वेंकट प्रथम : विजयनगर के तुलुव वंश का एक राजा। वह १५४२ ई. में अपने पिता अच्युत का उत्तराधिकारी बना, किन्तु सिंहासनारूढ़ होने के बाद ही वह मार डाला गया।

वेंकटाद्रि : राम राजा का एक भाई। सदाशिव (१५४२-६५) के शासनकाल में विजयनगर का व्यावहारिक राजा वेंकटाद्रि ही था। कुशल सेनानायक होते हुए भी वह १५६५ ई. में तालीकोटा (दे.) के युद्ध में पराजित हो गया।

वेङ्गि का राज्य : गोदावरी और कृष्णा नदियों के बीच स्थित, जिसे चौथी शताब्दी ई. में समुद्रगुप्त (दे.) ने जीता था। उस समय सम्भवतः एक पल्लव राजा इसका शासक था। ६११ ई. में यह चालुक्य राजा पुलकेशी द्वारा विजित हुआ, जिसने अपने भाई कुब्ज विष्णुवर्धन को यहाँ का उपशासक नियुक्त किया। उसकी राजधानी गोदावरी जिसमें स्थित पिष्ठपुर (आधुनिक पीठापुरम्) थी। चार वर्ष बाद कुब्जावर्द्धन ने वेङ्गि को स्वतन्त्र राज्य बनाकर पूर्वी चालुक्य (दे.) वंश की नींव डाली, जो १०७० ई. तक सत्तारूढ रहा। इसके बाद यह राज्य चोल राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

वेडरबर्न, सर विलियम : एक प्रसिद्ध आई. सी. एस. अफसर। इंडियन सिविल सर्विस से अवकाश ग्रहण करने के बाद उसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में उत्साह के साथ योगदान किया और दिसम्बर १८८५ ई. में बम्बई में सम्पन्न कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में भाग लिया। इसके उपरान्त १८९९ तथा १९१० ई. में सम्पन्न कांग्रेस के दो अधिवेशनों का सभापतित्व भी उसने किया और मृत्युपर्यन्त भारतीयों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं का समर्थन किया।

वेद : हिन्दुओं के सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ और संभवतः विश्व की प्राचीनतम पुस्तक। सनातनी हिन्दू वेदों को नित्य, शाश्वत और अपौरुषेय मानते हैं। वैदिक मंत्रों के साथ जिन ऋषियों के नाम मिलते हैं, वे उनके रचयिता नहीं, द्रष्टा थे। वेदों की गणना 'श्रुति' (जो सुना गया हो) में की जाती है, क्योंकि उन्हें गुरु-शिष्‍य परंपरा से सुनकर कंठस्थ किया जाता था। वेद चार हैं। यथा, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेद हिन्दू धर्म के मूलाधार हैं। वर्तमान हिन्दू धर्म मूल वैदिक धर्म से काफी परिवर्तित हो चुका है, फिर भी वेदों को अब भी प्रमाण माना जाता है। प्रत्येक वेद चार भागों में विभक्त है। यथा, संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद्। संहिता-भाग में मंत्रों का संग्रह मिलता है और वह सूक्तों में विभाजित है। उदाहरणार्थ, ऋग्वेद संहिता में १०२८ सूक्त हैं जो १० मंडलों में विभक्त हैं। ब्राह्मण भाग में यज्ञानुष्ठान का विस्तृत विवरण मिलता है और वह प्रायः गद्य में होता है। मुख्य ब्राह्मण-ग्रंथों में ऋग्वेद से सम्बन्धित ऐतरेय और कौषीतकि, सामवेद से सम्बन्धित ताण्ड्य और जैमिनीय, यजुर्वेद से सम्बन्धित तैत्तिरीय और शतपथ और अथर्ववेद से सम्बन्धित गोपथ ब्राह्मण हैं।

आरण्यक-ग्रंथ अरण्य (वन) में रहनेवाले वानप्रस्थ लोगों के द्वारा पढ़े जाने के योग्य हैं। इनमें कर्मकांड की अपेक्षा आध्यात्मिक रहस्यों का विवेचन अधिक मिलता है। आरण्यक-ग्रंथ ब्राह्मण-ग्रंथों के ही भाग हैं, इसीलिए प्रत्येक ब्राह्मण-ग्रंथ के साथ उसका आरण्यक भी उसी नाम से मिलता है।

उपनिषद् ग्रंथों में ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन किया गया है। वे प्रायः गद्य में हैं। उनके उपदेशों को कर्मकांड-प्रधान धर्म की प्रतिक्रिया माना जाता है। उनमें परम तत्त्व का विवेचन है, जिसका ज्ञान मोक्ष-प्राप्ति के लिए आवश्यक माना जाता था।

चारो वेदों में ऋग्वेद सबसे प्राचीन माना जाता है, उसका निर्माण-काल अभी तक ठीक-ठीक निर्धारित नहीं हो सका है। कुछ विद्वान् उसका निर्माण-काल ईसवी सन् से ४००० वर्ष पूर्व मानते हैं। अन्य विद्वानों का मत है कि उसका निर्माण-काल बिहिस्तान अभिलेख (दे.) अथवा जरथुस्त्र को अपना पैगम्बर माननेवाले ईरानियों के धर्मग्रंथ अवेस्ता से ५०० वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं हो सकता। जो भी हो, इतना मानना होगा कि ऋग्वेद हिन्दुओं का प्राचीनतम ग्रंथ है और उससे हमें प्राचीन भारतीय आर्यों के धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के बारे में प्राचीनतम जानकारी मिलती है। (बाल गंगाधर तिलक कृत ओरियन; ए. बी. कीथ कृत रिलीजन एण्ड फिलासफी आफ दि वेदाज; आर. सी. मजूमदार कृत दि वेदिक एज, कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया, खंड १; आर. सी. दत्त कृत ऋग्वेद संहिता) )

वेदांग : वेदों के पूरक या सहायक अंग। ये ग्रंथ सूत्र-शैली में लिखे गये हैं और छः विषयों का निरूपण करते हैं, यथा शिक्षा (ध्वनि शास्त्र), कल्प (धार्मिक आचार), व्याकरण, छन्द, निरुक्त (व्युत्पत्ति शास्त्र) तथा ज्योतिष।

वेदान्त : उपनिषदों में प्रतिपादित दर्शन। वेद का अंतिम भाग होने से उपनिषद-ग्रंथों को वेदान्त भी कहा गया है और इसीलिए उसमें प्रतिपादित दर्शन सामान्यरूप से वेदान्त दर्शन कहा जाता है। इसका प्रतिपादन मुख्य रूप से बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र में किया है और उसके सबसे प्रसिद्ध व्याख्याकार शंकराचार्य (दे.) हैं। उन्होंने अपने अद्वैतवादी वेदान्त-दर्शन का सार निम्न श्लोकार्द्ध में दे दिया है-

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:।

(ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, यह जगत मिथ्या है। जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है।)

उनके कथनानुसार ईश्वर की उपासना करने अथवा उसका ध्यान करने से स्वर्ग-सुख की प्राप्ति हो सकती है, किंतु, मोक्ष की प्राप्ति उसी को होती है जो ब्रह्म विद्या को जानता है, जो जानता है कि जीवात्मा और ब्रह्म एक है।

भिन्न-भिन्न आचार्यों ने वेदान्तसूत्रों की व्याख्या भिन्न-भिन्न रीति से की है। उदाहरण के लिए रामानुजाचार्य (दे.) ने शंकराचार्य के अद्वैतवाद के स्थान पर विशिष्टाद्वैतवाद का प्रतिपादन किया है। उनके मतानुसार विष्णु अथवा नारायण ही परब्रह्म हैं जो जगत के प्रत्येक पदार्थ में तथा सभी जीवात्माओं में परिव्याप्त हैं। उनकी भक्ति तथा सत्कर्म करने से मुक्ति प्राप्त होती है। मुक्ति का अर्थ है ईश्वर का सामीप्य-लाभ करे उसके बैकुंठलोक में नित्य वास करना। उनका यह मत विशिष्टाद्वैत कहलाता है। वेदांत दर्शन के यही दो मुख्य सम्प्रदाय हैं, शंकर का अद्वैतवाद तथा रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद। इनके अलावा निम्बार्काचार्य तथा मध्वाचार्य आदि ने भी उसकी भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ की हैं:

वेन्तुरा, जनरल : एक इटालियन सेनानायक, जो महाराज रणजीत सिंह (दे.) की सेवा में नियुक्त था। उसने सिक्ख पैदल सेना का पुनर्गठन किया। रणजीत सिंह ने उसके साथ बड़ी उदारता का व्यवहार किया और उसे सूबेदार बना दिया तथा जागीर भी प्रदान की। किन्तु १८३९ ई. में रणजीत सिंह की मृत्यु हो जाने पर वह पंजाब छोड़कर चला गया। (एन. के. सिन्हा कृत रणजीत सिंह)।

वेरेलेस्ट, हेनरी : बंगाल का गवर्नर (१७६७-६९ ई.)। सामान्य योग्यता का व्यक्ति होते हुए भी वह पदोन्नति प्राप्त करने के गुर जानता था। वह कम्पनी की सेवा में लिपिक के रूप में बंगाल आया, किन्तु गवर्नर राबर्ट क्लाइव (दे.) के दूसरे कार्यकाल में उसकी चार सलाहकारों की प्रवर समिति का सदस्य बन गया। १७६७ ई. में क्लाइव के अवकाश ग्रहण करने पर वह उसका उत्तराधिकारी बना। निजी व्यापार चलाने के अतिरिक्त वह गवर्नर के रूप में प्रतिवर्ष २७०९३ पौण्ड का वेतन भी लेता था। उसके प्रशासन-काल में प्रजा को दोनों हाथ से लूटा गया। फलतः १७६९-७० ई. में बंगाल में भयंकर दुर्भिक्ष (दे.) फैला जिसके परिणामस्वरूप एक तिहाई जनसंख्या नष्ट हो गयी।

वेलेजली, आर्थर (बाद में ड्यूक आफ वेलिंगटन) (१७६१-१८५२) : भारत के गवर्नर-जनरल लार्ड वेलेजली (दे.) का छोटा भाई। वह १७९७ ई. में अर्थात् अपने भाई के आगमन से एक वर्ष पहले फौजी अधिकारी के रूप में भारत आया और १८०५ ई. तक कम्पनी की सैन्य सेवा में रहा। उसने तत्कालीन युद्धों में, विशेष रूप से दूसरे मराठा-युद्ध (दे.) में भाग लिया, जिसमें उसने १८०३ ई. में असई (दे.) तथा आरगाँव (दे.) के युद्धों में मराठों को पराजित करके विशेष नामवरी पायी। उसने भोंसला के साथ देवगाँव (दे.) की संधि तथा शिन्दे के साथ सुर्जी अर्जुनगाँव (दे.) की संधि करने में विशेष कूटनीतिक चातुर्य का परिचय दिया। भारत से वापस लौटने पर उसने स्पेन के प्रायद्वीप के युद्ध में विजय प्राप्त करके तथा वाटरलू के युद्ध में नैपोलियन को पराजित करके विशेष ख्याति प्राप्त की। १८२८ ई. में वह कुछ समय के लिए इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री बन गया। मृत्युपर्यन्त सैनिक मामलों में तथा भारत के मामलों में उससे बराबर परामर्श लिया जाता रहा। उसकी मृत्यु १८५२ ई. में हुई।

वेलेजली, मारक्विस रिचर्ड कोली : १७९८ ई. से १८०५ ई. तक भारत का गवर्नर-जनरल। वह भारत के ब्रिटिश शासकों में सबसे महान् माना जाता है। उसने युद्धों के द्वारा तथा शांति रीति से राज्यों का अधिग्रहण करके भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का अभूतपूर्व विस्तार किया। उसने अहस्तक्षेप (दे.) की नीति त्यागकर भारतीय राजाओं को अंग्रेजों का आश्रित बना देने के उद्देश्य से आक्रामक नीति अपनायी। उसने भारतीय राजाओं को अंग्रेजों से आश्रित संधि (इसे सहायक संधि भी कहते हैं) करने के लिए विवश किया। जो भारतीय राजे इस संधि को स्वीकार कर लेते थे उन्हें कम्पनी सरकार आश्वासन देती थी कि वह उनकी सभी भीतरी तथा बाहरी शत्रुओं से रक्षा करेगी। इसके बदले में उन्हें अपने राज्य में अंग्रेजी सेना तथा अपने दरबार में अंग्रेज रेजिडेंट रखने के लिए राजी होना पड़ता था। इसके साथ ही उन्हें प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी कि वे अंग्रेजों के सिवाय अन्‍य किसी विदेशी ताकत से कोई सम्बन्ध नहीं रखेंगे और ब्रिटिश सरकार की पूर्ण अनुमति के बिना किसी विदेशी को नौकर नहीं रखेंगे।

निजाम ने इस आश्रित संधि को स्वीकार कर लिया और इस प्रकार वह शांतिपूर्ण रीति से अंग्रेजों का पूर्णतया आश्रित बन गया। मैसूर के टीपू सुल्तान (दे.) ने इस प्रकार की संधि करने से इन्कार कर दिया। फलतः वेलेजली ने चौथा मैसूर-युद्ध (दे.) छेड़ दिया, जिसमें टीपू परास्त होकर वीरगति को प्राप्त हुआ। उसकी मृत्यु के उपरांत मैसूर तथा उसके आसपास के इलाकों को छोड़कर उसका समस्त राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। मैसूर की गद्दी पर एक हिन्दू राजा को बिठा दिया गया और उसे भी आश्रित संधि करने के लिए विवश किया गया।

वेलेजली, मारक्विस रिचर्ड कोली : पेशवा बाजीराव द्वितीय ने वसई (दे.) की संधि के द्वारा अंग्रेजों का आश्रित बनना स्वीकार कर लिया, परंतु अन्य मराठा सरदारों ने आश्रित संधि स्वीकार नहीं की। फलतः वेलेजली ने दूसरा मराठा-युद्ध (दे.) छेड़ दिया, जिसके परिणामस्वरूप भोंसला, शिन्दे तथा होल्कर के राज्यों का अधिकांश भाग ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। इस प्रकार मध्य भारत, मालवा, गुजरात तथा दिल्ली ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गये। वेलेजली ने कुशासन का आरोप लगाकर कर्नाटक, तंजौर तथा अवध के एक बड़े भू-भाग को भी ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।

वेलेजली की अनवरत युद्धों तथा राज्य-विस्तार की नीति से नाराज होकर कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स ने १८०५ ई. में उसे वापस बुला लिया। परंतु इसमें संदेह नहीं कि वेलेजली ने अपने कार्यकाल की समाप्ति पर भारत में अंग्रेजों का सार्वभौम प्रभुत्व स्थापित कर दिया था और पंजाब तथा सिंध को छोड़कर सारा भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत आ गया था।

वेल्लोर में भारतीय सैनिकों का विद्रोह : भारतीय सेना के प्रारम्भिक निष्फल विद्रोहों में से एक। १८०६ ई. में वेल्लोर में तैनात भारतीय सैनिकों ने कुछ नये नियमों के विरुद्ध वेल्लोर में विद्रोह कर दिया। यह नये नियम उनके धार्मिक विश्वासों का अतिक्रमण करते थे। इस विद्रोह को अल्पकाल में ही बलपूर्वक दबा दिया गया, परन्तु इससे मिलनेवाली शिक्षा की अवहेलना की गयी, जिसका आगे चलकर भयानक परिणाम निकला।

वेवेल, (लार्ड पहले सर आर्कोबाल्ड) (१८८३-१९५० ई.)  : लार्ड लिनलिथगो (दे.) के उत्तराधिकारी के रूप में १९४१ से १९४७ ई. तक भारत में गवर्नर-जनरल रहा। १९४३ से १९४३ ई. तक वह भारतीय सेना का प्रधान सेनापति भी रहा और जापानियों पर विजय प्राप्त कर उन्हें बर्मा और भारत से निकाला। उसका पहला प्रयास था युद्ध स्तर पर बंगाल के अकाल का सामना करना और खाद्य-स्थिति को सम्हालना। युद्ध की समाप्ति पर उसने कोशिश की कि १९३५ के भारतीय शासन विधान के अनुसार भारत की शासन सत्ता शांति‍पूर्ण ढंग से भारतीयों को हस्तांतरित कर दी जाय; किन्तु अंग्रेजों की नीयत के बारे में भारतीयों के मन में घुसे हुए संदेहों ने उसकी कार्य कठिन बना दिया। इसके साथ ही कांग्रेस और मुसलिम लीग के परस्पर अविश्वास के कारण भी उसके मार्ग में कठिनाइयाँ उत्पन्न हो गयीं।

वेवेल ने कांग्रेस और लीग के नेताओं की अनेक बैंठकें आयोजित कीं, फरवरी १९४६ ई. में बम्बई के नाविक विद्रोह का दमन किया, कैबिनेट मिशन (दे.) का स्वागत किया और उसकी योजना के विफल होने पर कांग्रेस की सहायता से जवाहरलाल नेहरू (दे.) के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार (दे.) का गठन किया।

मुस्लिम लीग ने इसका विरोध किया और १६ अगस्त १९४६ ई. को 'प्रत्यक्ष काररवाई दिवस' मनाया, जिसके फलस्वरूप भारत में भीषण साम्प्रदायिक दंगे हुए और वेवेल उन्हें शीघ्रता से दबाने में असफल रहा। फलतः १९४७ ई. में लार्ड वेवेल को वापस बुला लिया गया और उसकी जगह लार्ड माउंटबेटन (दे.) को भेजा गया। १९५० ई. में इंग्लैण्ड में वेवेल का देहान्त हो गया।

वैशाली : गौतमबुद्ध (दे.) के काल का एक प्रसिद्ध नगर, जो लिच्छिवि (दे.) गण की राजधानी था। इसके भग्नावशेष गंगा के उत्तरी किनारे पर हाजीपुर के निकट बसाढ़ गाँव में तथा उसके आसपास पाये जाते हैं। अपने उत्कर्ष काल में यह समृद्ध नगर था और दस-बारह मील के घेरे में फैला था। गौतम बुद्ध अनेक बार इस नगर में पधारे थे। मगध के राजा अजातशत्रु (दे.) द्वारा विजित होने पर यह उसके अधिकार में आ गया। पाँचवीं शताब्दी तक इस नगर का महत्त्व बना रहा। उस काल में गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (दे.) के राज्यपाल का कार्यालय इसी नगर में था।

वैश्य : हिन्दुओं की वर्ण-व्यवस्था में इनका तीसरा स्थान है। इस वर्ण के लोग मुख्यतया वाणिज्य-व्यवसाय और कृषि करते थे। (एन. के. दत्त कृत कास्ट्स इन इण्डिया)

वैष्णव मत : का प्रचार चार महान आचार्यों-निम्बार्काचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य तथा वल्लभाचार्य ने किया। उनकी उपासना-पद्धति भले ही भिन्न-भिन्न हो, परंतु वे सभी एक ईश्वर में विश्वास करते हैं, जिसकी उपासना वे राम कृष्ण अथवा वासुदेव के नाम से करने का उपदेश देते हैं। वे यज्ञादि के स्थान पर अपने उपास्यदेव की भक्ति के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने पर बल देते हैं। वे ईश्वर, जीव तथा प्रकृति में भेद करते हैं। जीव माया (प्रकृति) में लिप्त रहता है तथा ईश्वर के अनुग्रह से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। निम्बार्काचार्य के शिष्य उत्तरी भारत में, विशेष रूप से मथुरा में बड़ी संख्या में मिलते हैं जो कृष्ण और राधा के उपासक हैं। रामानुजाचार्य (दे.) के शिष्य दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में हैं जहाँ आलवार संतों ने भक्ति मार्ग का प्रचार पहले ही कर दिया था। रामानुजाचार्य नारायण को परब्रह्म मानते हैं। उनकी शिक्षाएँ अधिकांशतया भगवद्गीता पर आधारित है। वे ईश्वर को सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान तथा दयासागर मानते हैं। वे ईश्वर के सामीप्य-लाभ को ही मुक्ति मानते हैं और उनका कथन है कि ईश्वर को मानने से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। मध्‍वाचार्य का सम्प्रदाय विशेष रूप से दक्षिण कन्नड़ में प्रचलित है। वे ईश्वर को पितास्वरूप और जीवात्माओं को पुत्र-पुत्री स्वरूप मानते हैं। उनका उपासना का मार्ग अत्यन्त सात्त्विक है। वल्लभाचार्य के शिष्य गुजरात तथा ब्रजक्षेत्र में बड़ी संख्या में मिलते हैं। वे निवृत्ति मार्ग के बजाय प्रवृत्ति मार्ग का उपदेश देते हैं। उनका मार्ग ईश्वर के अनुग्रह (अथवा पुष्टि) पर आधारित होने के कारण पुष्टिमार्ग कहलाता है।

उत्तर भारत में वैष्णव धर्म के सबसे बड़े प्रचारक रामानन्द (दे.) थे जो १४ वीं शताब्दी में हुए। उन्होंने अपने मत का प्रचार करने के लिए 'भाषा' का सहारा लिया, जातिगत भेद-भावों की उपेक्षा की और सभी को ईश्वर की भक्ति करने का समान रूप से अधिकारी माना। वह नारायण या कृष्ण के स्थान पर राम को ही परब्रह्म मानते थे। रामानन्द ने सभी जातियों में अपने शिष्य बनाये। उनके १२ मुख्य शिष्यों में कबीर (दे.) मुसलमान जुलाहे थे तथा रैदास चमार थे। बंगाल तथा उड़ीसा में चैतन्य महाप्रभु (दे.) तथा आसाम में शंकरदेव (दे.) ने वैष्णव मत का प्रचार किया। दोनों के उपासनामार्ग में एक आधारभूत भेद है। चैतन्य ने जबकि कृष्ण और राधा की प्रेमलीला को भक्त के आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया, शंकरदेव ने कृष्ण के बाल-गोपाल रूप की उपासना पर बल दिया।

वैष्णव धर्म के प्रचार ने देशी भाषाओं में साहित्य के विकास में विशेष रूप से सहायता पहुँचायी, जैसा कि जयदेव (दे.), विद्यापति, चण्डीदास (दे.), मीराबाई तुलसीदास (दे.), कृत्तिवास तथा शंकरदेव (दे.) की रचनाओं से प्रकट है।

व्यंकाजी (वेंकाजी) : छत्रपति शिवाजी (दे.) का सौतेला छोटा भाई। वह बीजापुर राज्य की एक जागीर का स्वामी था, जो सुल्तान की ओर से उसके पिता शाहजी को दी गयी थी। उसकी माता का नाम तुकाबाई था। महाराष्ट्र में स्वराज्य की स्थापना के लिए अपने अग्रज शिवाजी की उसने तनिक भी सहायता नहीं की।

व्याघ्रराज : दक्षिणापथ के महाकान्तार नामक राज्य का स्वामी, जिसका उल्लेख समुद्रगुप्त (दे.) के प्रयाग-स्तम्भ लेख में हुआ है। वह दक्षिण भारत के उन राजाओं में से एक था जिनको गुप्त सम्राट् ने बन्दी बनाने के बाद कृपापूर्वक उनमुक्त कर दिया था।

व्यास (वेदव्यास) : एक प्रसिद्ध ऋषि। उन्हें महाभारत, अठारह पुराणों तथा वेदान्त सूत्र का रचयिता माना जाता है। उनका अस्तित्व केवल साहित्यिक अनुश्रुतियों से प्रमाणित होता है, जो इतनी प्राचीन हैं कि उनकी अवहेलना नहीं की जा सकती। यह सम्भव है कि महर्षि व्यास की प्रसिद्धि के कारण बाद के बहुत से लेखकों ने अपनी रचनाएँ उनके नाम से प्रचलित कर दीं।

व्यास  : सिन्धु की एक सहायक नदी, जिसे वैदिक काल में विपाशा पुकारते थे। यूनानी लेखकों ने इसे हिपासिस सम्बोधित किया है। यह लाहौर के निकट सतलज अथवा शतद्रु नदी में मिलती है। सिकन्दर की सेनाएँ पूर्व में इस नदी के तट तक आयी थीं।

ह्वीलर, कर्नल : बंगाल में कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक सैन्य अधिकारी। मोनसोन की मृत्यु के बाद वह १७७६ ई. में वारेन हेस्टिंग्स (दे.) की कौंसिल का सदस्य नियुक्त हुआ। ह्वीलर ने पहले फ्रांसिस का समर्थन किया, किन्तु बाद में वारेन हेस्टिंग्स को पूरा सहयोग एवं समर्थन दिया।

ह्वीलर, मेजर-जनरल : कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक सैन्य अधिकारी। सिपाही-विद्रोह के समय वह कानपुर की छांवनी का कमाण्डर था। उसकी अवस्था ७५ वर्ष की थी। जब विद्रोहियों ने कानपुर पर आक्रमण किया, तो वह जून १७५७ ई. में तीन सप्ताह तक मोर्चा लेता रहा। बाद को उसने इस आश्वासन पर आत्मसमर्पण कर दिया कि अंग्रेज सैनिकों को सुरक्षित रूप से इलाहाबाद चले जाने दिया जायगा। किन्तु अंग्रेज सैनिक जब नावों पर सवार होकर रवाना होने लगे तो विद्रोहियों ने उन पर हमला कर दिया और जनरल ह्वीलर के सहित उन सबको मौत के घाट उतार दिया।