सामग्री पर जाएँ

विक्षनरी:भारतीय इतिहास कोश (श से ह)

विक्षनरी से

शंकरदेव : देवगिरि के यादव शासक रामचन्द्र देव का उत्तराधिकारी। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को नियमित रूप से कर न दे सकने के कारण सुल्तान की सेनाओं ने १३१२ ई. में उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। शंकरदेव पराजित हुआ और मारा गया। तदुपरान्त उसका राज्य दिल्ली सल्तनत में सम्मिलित कर लिया गया।

शंकरदेव : आसाम के विख्यात वैष्णव धर्म-सुधारक। जन्म लगभग १४४९ ई. में और मृत्यु १५७९ ई. में हुई। उन्होंने जन-साधारण में वैष्णव धर्म के उदात्त रूप का प्रचार किया तथा तत्कालीन आसाम में अत्यधिक प्रचलित हिंसात्मक यज्ञों एवं बलि प्रथा के स्थान पर भक्ति की धारा बहायी। उन्हें कूच बिहार के शासक नर-नारायण (दे.) का संरक्षण प्राप्त था। फलतः उन्होंने बड़पेटा को ही अपना केन्द्र बनाया। आसाम प्रदेश में उनके द्वारा प्रचारित भक्ति मार्ग ने बड़ी लोकप्रियता प्राप्त की। शंकरदेव उच्च कोटि के कवि और नाटककार भी थे। उनके गीत और नाटक आज भी आसाम में अत्यधिक लोकप्रिय हैं।

शंकराचार्य : उत्तर गुप्त काल के सबसे महान् दार्शनिक हैं। जन्म दक्षिण भारत के कालटी नामक ग्राम के एक ब्राह्मण परिवार में आठवीं शताब्दी में। वे उपनिषदों, भगवद्गीता तथा बादरायण के ब्रह्म-सूत्रों पर रचे गये अपने भाष्य के लिए प्रसिद्ध है। उन्होंने बादरायण के ब्रह्मसूत्र के ही आधार पर अपन अद्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। अपने सिद्धान्तों के प्रतिपादनार्थ उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। वे महान् संगठनकर्ता भी थे। उन्होंने मैसूर में शृंगगिरि, काठियावाड़ में द्वारका, उड़ीसा में जगन्नाथपुरी और हिमालय में बद्रीनाथ के प्रसिद्ध पीठों की स्थापना की। ये चारों पीठ अब भी विद्यमान हैं तथा लाखों हिन्दुओं को धार्मिक प्रेरणा देते हैं। अल्पायु में ही उनका देहान्त हो गया, परन्तु आज भी हिन्दू समाज उनका स्मरण बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ करता है।

शम्भुजी, राजा : शिवाजी प्रथम का पुत्र और उत्तराधिकारी, जिसने १६८० से १६८९ ई. तक राज्य किया। उसमें अपने पिता की कर्मठता और दृढ़ संकल्प का अभाव था। वह विलासप्रिय था किन्तु उसमें शौर्य की कमी न थी। लगभग ९ वर्षों तक वह निरन्तर औरंगजेब की विशाल सेनाओं का सफलतापूर्वक सामना करता रहा। अपनी गलती से रत्नगिरि के निकट संगमेश्वर नामक स्थल पर वह अपने मंत्री कुलश सहित ११ फरवरी १६८९ ई. को मुगलों द्वारा बन्दी बना लिया गया। लगभग एक मास उपरान्त औरंगजेब ने निर्दयतापूर्वक उसका वध करवा डाला।

शम्भुजी काबजी : शिवाजी प्रथम का विश्वासपात्र अनुचर। जब शिवाजी अफजल खाँ से भेंट करने गये थे तब वह उनके साथ था। भेंट के समय जब शिवाजी ने अफ़जल को बघनखा से सांघातिक रूप से घायल कर दिया, तभी शम्भुजी काबजी ने उसका सिर काट लिया।

शक : मध्य एशिया के निवासी यायावर जाति के लोग। दूसरी शताब्दी ई. पू. में युइशि कबीले के लोगों द्वारा मध्य एशिया से निष्कासित होने पर दक्षिण की ओर भागने के लिए विवश हुए। उहोंने कई झुण्डों में भारत में प्रवेश किया और प्रथम शताब्दी ई. पू. के अंत तक वे गंधार, पंजाब, मथुरा, कठियावाड़ और दक्षिण में महाराष्ट्र तक के भू-भागों में फैल गये। शक शासकों ने 'क्षत्रप' और 'महाक्षत्रप' (दे.) की उपाधियाँ धारण कीं और प्रारंभ में वे पार्थियन शासकों तथा उपरांत कुषाणों (दे.) की सार्वभौम सत्ता स्वीकार करते रहे। भारतीय ग्रंथकारों ने प्रारंभ में उनकी गणना विदेशियों तथा यवनों में की, किन्तु उपरांत शक लोग स्थानीय हिन्दू समाज में पूर्णतया घुलमिल कर भारतीय हो गये। पश्चिमी भारत में शकों ने शताब्दियों तक राज्य किया। काठियावाड़ तथा उज्जैन के आसपास के क्षेत्र उनके अधिकार में रहे। अंतिम शक क्षत्रप रुद्रसिंह तृतीय को गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने लगभग ३८८ ई. में परास्त कर शक सत्ता का अन्त कर दिया।

शक संवत् : इसका प्रारंभ ७८ ई. माना जाता है। साधारणतया कुषाण शासक कनिष्ठ प्रथम को ही इस संवत् को चलाने का श्रेय प्राप्त है, पर कुछ विद्वानों ने इस मत की आलोचना की है और उसे किसी अन्य शासक द्वारा चलाया गया माना है। फिर भी समस्त व्यवहृत भारतीय संवतों (दे.) में शक संवत् अत्यधिक प्रचलित रहा है और भारतीय गणतंत्र ने इसे ही राष्ट्रीय संवत् के रूप में स्वीकार किया है।

शकुंतला नाटक (मूल नाम-अभिज्ञान शाकुन्तल) : महाकवि कालिदास (दे.) द्वारा रचित ख्यातिलब्ध नाटक। महाकवि गेटे तथा अन्य पाश्चात्य विद्वानों ने इस नाटक की भूरि-भूरि प्रशंसा की है और इसे विश्व की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में से एक माना है।

शत्रुंजय : गुजरात का एक प्रसिद्ध नगर। यहाँ दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में चालुक्य वंश के शासकों द्वारा निर्मित अनेक भव्य जैन मंदिर हैं।

शम्सुद्दीन (कश्मीर का सुल्तान) : सूरत का निवासी एक साहसी व्यक्ति। उसका प्रारंभिक नाम शाह मिर्जा या शाहमीर था। उसने कश्मीर जाकर वहाँ के हिन्दू शासक के यहाँ नौकरी कर ली। बाद में वह पदोन्नति करके मंत्री बन गया और लगभग १३४६ ई. में वहाँ के हिन्दू शासक को सिंहासन से उतारकर कश्मीर का शासक बन बैठा। उसने १३४९ ई. में अपनी मृत्युपर्यन्त बड़ी कुशलता से शासन किया और उसी से कश्मीर में मुसलमान सुल्तानों के उस वंश की शुरुआत हुई, जिसने १५८६ ई. में अकबर द्वारा कश्मीर जीत लेने तक वहाँ राज्य किया।

शम्सुद्दीन अतगा खाँ : इसको बादशाह अकबर ने १५६१ ई. में प्रधानमंत्री नियुक्त किया। किन्तु अकबर की दूध-माँ महम अनका और उसके पुत्र अदहम खाँ को यह नियुक्ति नागवार हुई। एक दिन अदहम खाँ आगा खाँ के कार्यालय में घुस गया और कटार से वार करके उसकी हत्या कर दी, पश्चात् उस दुष्ट ने स्वयं अकबर के ऊपर भी आक्रमण किया। किन्तु अकबर ने उसे एक ही मुक्के के प्रहार से धराशायी कर दिया। तदुपरान्त किले की दीवार से नीचे फेंक कर उसे मार डाला गया।

शम्सुद्दीन बहमनी : बहमनी वंश का सातवाँ सुल्तान। अपने भाई गयासुद्दीन के उपरान्त १३९७ ई. में वह सिंहासनासीन हुआ, किन्तु कुछ काल उपरान्त ही उसे गद्दी से उतार और अन्धा करके कारागार में डाल दिया गया।

शम्सुद्दीन मुजफ्फ़र शाह : अबीसीनिया का निवासी, जिसका मूल नाम सीदी बदर था। बंगाल में इलियास वंश के अन्तिम शासक नासिरुद्दीन महमूद द्वितीय के राज्यकाल में वह उच्च पदाधिकारी बना। १४९० ई. में अपने स्वामी नासिरुद्दीन द्वितीय की हत्या करके स्वयं गद्दी पर बैठा और उसने शम्सुद्दीन मुजफ्फर शाह की उपाधि धारण की। वह अत्याचारी शासक सिद्ध हुआ और समूचे राज्य में अराजता फैल गयी। स्थिति असह्य हो जाने पर बंगाल के सरदारों ने उसके मंत्री अलाउद्दीन हुसैन के नेतृत्व में शम्सुद्दीन को १४९३ ई. में लगभग चार महीने तक राजधानी गौड़ में घेरे रखा परन्तु इसी बीच उसकी मृत्यु हो गयी।

शम्से-सिराज, अफ़ीफ : फारसी में 'तारीखे फीरोजशाही' तुगलक (दे.) के राज्यकाल की ऐतिहासिक घटनाओं का समसामयिक वर्णन है। शम्से-‍िसराज फीरोजशाह की सेवा में उच्च पदाधिकारी था। उसका विवरण सुल्तान के राज्यकाल का आधिकारिक इतिहास माना जा सकता है।

शरत् चन्द्र दास (१८४९-१९१७)  : बंगाल के एक निर्धन परिवार में जन्म और सामान्य स्कूल-अध्यापक की भाँति जीवनारंभ। उन्हें दुस्साहसिक कार्य करना और ज्ञान अर्जित करना बहुत प्रिय था। इसी का फल था कि उन्होंने १८७९ ई. में तिब्‍बत की यात्रा की। यह उस समय की बात है जब किसी भी गैर-तिब्बती का तिब्‍बत में प्रवेश निषिद्ध था। सर फ्रांसिस यंगहस्बैण्ड जब तिब्बत गये, उससे २५ वर्ष पहले की यह घटना है। इस प्रकार शरत् चन्द्र को ही यह सौभाग्य प्राप्त है कि उन्होंने आधुनिक युग में लोगों को तिब्बत और उसकी राजधानी ल्हासा के बारे में जानकारी दी। वे १८८१ ई. में पुनः तिब्बत गये। इसके बाद १८८४ में सिक्किम तथा १८८५ में पेकिंग भी गये। उन्होंने तिब्बती भाषा सीखी और सुम्पा काहन लिखित 'पाग साम फोन जाग' पुस्तक का अनुवाद अंग्रेजी में किया। उन्होंने अंग्रेजी में सुप्रसिद्ध पुस्तक 'इंडियन पंडित्स इन लैण्ड आफ स्नो' (हिमाच्छादित देश में भारतीय पंडित) लिखी। इसी पुस्तक से दुनिया को मालूम हुआ कि मध्ययुग में किस प्रकार भारतीय बौद्ध भिक्षु तिब्बत गये और किस प्रकार वहाँ उन्होंने भारतीय धर्म एवं संस्कृति का प्रसार किया। शरत् चंद्र ने तिब्बती-अंग्रेजी कोश (१९०२) की भी रचना की जो एक मानक ग्रंथ माना जाता है।

शरिय तुल्ला, हाजी : बंगला देश के फरीदपुर जिले का मुसलमान नेता, जिसने १९ वीं शताब्दी के प्रारंभ में पूर्वी बंगाल में इस्लाम धर्म में सुधार करने के लिए आन्दोलन किया। उनका यह आन्दोलन फरायजी आन्दोलन के नाम से विख्यात हुआ। तदुपरांत इसने कृषक आन्दोलन का रूप धारण कर लिया, किन्तु साधारणतया यह शान्तिमय रहा। उनकी गणना पूर्वी बंगाल के मुसलमानों में सुधारवादी आन्दोलन के अग्रणी व्यक्तियों में की जाती है।

शशांक : बंगाल का यशस्वी शासक, जिसने उस प्रदेश की सीमाओं के बाहर अपना राज्य विस्तार किया। उसका वंश अज्ञात है और गुप्तवंश के साथ उसको सम्बन्धित करना केवल अनुमान मात्र है। उसकी उत्पत्ति चाहे जिस वंश में भी हुई हो, इतना निश्चय है कि ६०६ ई. के पूर्व ही वह गौड़ अथवा बंगाल का शासक बन चुका था और उसकी राजधानी कर्णसुवर्ण थी, जिसकी पहचान मुर्शिदाबाद जिले के अंतर्गत रांगामाटी नामक कसबे से की गयी है। यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि दक्षिणी और पूर्वी बंगाल उसके राज्य के अंतर्गत थे अथवा नहीं, पर पश्चिम में उसका राज्य मगध तक और दक्षिण में उड़ीसा की चिलका झील तक अवश्य था। पश्चिम की ओर साम्राज्य-विस्तार करने के प्रयास में शशांक को मौखरि शासकों से संघर्ष करना आवश्यक हो गया और उसने मौखरियों के शत्रु और मालवा के शासक देवगुप्त से संधि कर ली।

देवगुप्त ने अपने मौखरि प्रतिद्वन्द्वी ग्रहवर्मा को पराजित करके मार डाला और अपने मित्र के सहायतार्थ आगे बढ़कर शशांक ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया। इसपर राजवर्धन (दे.) ने, जो उन्हीं दिनों थानेश्वर का शासक हुआ था और जिसकी बहन रायश्री ग्रहवर्मा के मारे जाने के फलस्वरूप विधवा हो गयी थी, शशांक पर आक्रमण कर दिया। घटनाओं का क्रम क्या रहा, निश्चय करना कठिन है, पर राज्यवर्धन को शशांक अथवा उसके अनुचरों ने मार डाला। राज्यवर्धन के इस प्रकार मारे जाने पर उसके भ्राता और उत्तराधिकारी हर्षवर्धन ने कामरूप के शासक भास्कर वर्मा से सन्धि कर ली, जो शशांक की शक्ति से भयभीत तथा और उसके विरुद्ध हर्षवर्धन की सहायता का आकांक्षी था। इस प्रकार दोनों ओर से आक्रमण की आशंका से शशांक को पीछे हटकर अपनी राजधानी वापस जाना पड़ा और दोनों शत्रुओं ने उसके विजित राज्य को विशेष क्षति पहुँचायी।

हर्ष और भास्कर वर्मा को भी शीघ्र ही अपने-अपने राज्यों की स्थिति सँभालने के लिए वापस जाना पड़ा और शशांक का गौड़, मगध और चिल्का झील तक उत्कल (उड़ीसा) पर अधिकार मृत्युपर्यन्त बना रहा। उसकी मृत्यु ६१९ ई. के उपरान्त किन्तु ६३७ ई. के पूर्व कभी हुई होगी। उसके सिक्कों से स्पष्ट है कि वह शिव का उपासक था किन्तु चीनी यात्री ह्युएनत्सांग द्वारा वर्णित उसके बौद्ध धर्म से विद्वेष और बौद्धों पर अत्याचार की कहानियों में कितनी सत्यता है, यह निश्चय कर पाना कठिन है। (र. च. मजूमदार कृत हिस्ट्री आफ बंगाल, प्रथम भाग)

शहरयार : सम्राट् जहाँगीर का सबसे छोटा पुत्र। उसने नूरजहाँ की, उसके प्रथम पति शेर अफगन से उत्पन्न पुत्री से विवाह किया था। इसी कारण नूरजहाँ ने १६२७ ई. में जहाँगीर की मृत्यु के उपरान्त उसे ही दिल्ली के सिंहासन पर बैठाना चाहा। यद्यपि जहाँगीर की मृत्यु के उपरान्त उसे लाहौर में बादशाह घोषित कर दिया गया तथापि शहरयार में व्यक्तिगत प्रतिभा एवं योग्यता का अभाव था। शाहजहाँ के श्वसुर आसफ खां ने शहरयार को शीघ्र ही पराजित करके बंदी बना लिया और शाहजहाँ के मार्ग का काँटा सदा के लिए दूर कर देने के विचार से अंधा कर दिया।

शहाबुद्दीन : देखिये, 'मुहम्मद गोरी'।

शहाबुद्दीन : अकबर की दूध-माँ, महम अनका का सम्बन्धी। अकबर के सिंहासनारोहण के समय वह दिल्ली का हाकिम था। वह उन दरबारियों में से एक था, जिन्होंने अकबर को बैरम खाँ के विरुद्ध भड़काया था, जिसके फलस्वरूप बैरम खाँ को १५६० ई. में पदच्युत कर दिया गया।

शहाबुद्दीन गोरी : १४०१ से १४०५ ई. तक मालवा का सुल्तान। वह दिल्ली के प्रथम मुसलमान सुल्तान शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी का वंशज था। १३९८ ई. में तैमूर के आक्रमण के फलस्वरूप दिल्ली की सल्तनत में अव्यवस्था फैली, जिसका लाभ उठाकर शहाबुद्दीन ने, जो उन दिनों मालवा का शासक था, अपने को मालवा का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया और धार को राजधानी बनाया। उसके वंशजों ने १४३२ ई. तक मालवा में शासन किया।

शाक्य : गण छठीं शताब्दी ई.पू. में नेपाल की तराई और भारत-नेपाल की सीमा के भू-भागों में निवास करता था। इनकी राजधानी कपिलवस्तु (दे.) थी। शाक्यों में प्रमुख गौतमबुद्ध (दे.) के पिता शुद्धोदन थे। शाक्य लोग अपने को सूर्यवंशी तथा इक्ष्वाकु के वंशज मानते थे।

शाक्य मुनि : का शाब्दिक अर्थ है शाक्य जाति में उत्पन्न मुनि अथवा तपस्वी, किन्तु इसका प्रयोग मुख्यतः गौतम बुद्ध के लिए होता है।

शायस्ता खाँ : औरंगजेब का मामा। १६६० ई. में औरंगजेब ने उसे विशेष रूप से शिवाजी का दमन करने के लिए दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया। प्रारंभ में शायस्ता खाँ को कुछ सफलता मिली, किन्तु वर्षाकाल में जब वह पूना लौट गया तब शिवाजी ने रात्रि में अचानक उसपर आक्रमण कर दिया। बड़ी कठिनता से शायस्ता खाँ ने अपने प्राणों की रक्षा की, किंतु उसे अपनी तीन अंगुलियों से हाथ धोना पड़ा तथा उसका पुत्र भी मारा गया। उपरान्त उसका तबादला बंगाल को कर दिया गया, जहाँ उसने ३० वर्षों तक विशेष सफलतापूर्वक शासन किया। उसने बंगाल के समुद्रतटवर्ती भू-भागों में लूटमार करनेवाले पुर्तगाली समुद्री डाकुओं का दमन किया और अराकान के राजा से चिरगाँव जिला भी छीन लिया। १६९४ ई. में ९० वर्ष से भी अधिक आयु में वह आगरे में मर गया।

शारदा-कानून : राय साहब हरविलास शारदा द्वारा प्रस्तुत एक विधेयक। १९२९ ई. में यह भारतीय विधान मंडल द्वारा पारित किया गया। इस कानून का उद्देश्य विवाह की उग्र बढ़ा करके बाल-विवाह रोकना था।

शालिवाहन  : इसका उल्लेख परंपरागत भारतीय लोक गाथाओं में विशेषरूप से मिलता है, कितु मुद्राओं तथा अभिलेखीय प्रमाणों के अभाव में उसकी ऐतिहासिकता सिद्ध नहीं होती। दक्षिण के अनेक सातवाहन राजाओं की कृतियाँ उसके साथ सम्बद्ध हो गयी हैं और देश के कुछ भू-भागों में शक संवत् भी उन्हीं के द्वारा चलाया हुआ माना जाता है।

शालिशुक : परवर्ती मौर्य शासकों में से एक, जो सम्राट् अशोक के पौत्र सम्प्रति (दे.) के उपरान्त सिंहासनारूढ़ हुआ। उसे अनाचारी और अत्याचारी शासक कहा गया है।

शास्त्री, लालबहादुर (१९०४-१९६६ ई.)  : मई, १९६४ से ११ जनवरी १९६६ ई. को मृत्युपर्यन्त भारत के प्रधानमंत्री। जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में एक निर्धन परिवार में। वे स्वावलम्बी व्यक्ति थे और अपनी योग्यता, गुण तथा चरित्रबल के आधार पर अध्यापक के निम्नपद से उठकर पण्डित जवाहरलाल नेहरू के उपरान्त भारत के प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए। मात्र १९ महीनों के कार्यकाल में उनकी उपलब्धियाँ कुछ कम न थीं, जिनके प्रमाणस्वरूप उन्हें मरणोपरान्त 'भारतरत्न' की सर्वोच्च, उपाधि ससम्मान प्रदान की गयी। सीधे-सादे, शान्त प्रकृति एवं पक्के गांधीवादी देशभक्त थे। यद्यपि वे कद में छोटे थे, परन्तु उनका कृतित्त्व महान् था। उन्होंने भारत की खाद्य-समस्या एवं विषम आर्थिक स्थिति को ही सुलझाने का प्रयास नहीं किया, अपितु चीन के साथ चल रही युद्ध जैसी स्थिति में भी यथासंभव सुधार किया। उन्हें पाकिस्तान के साथ दो युद्ध करने पड़े। पहली बार पाकिस्तान ने कच्छ पर तथा दूसरी बार जम्मू और कश्मीर पर अधिकार करने की चेष्टा की।

जम्मू तथा कश्मीर पर पाकिस्तानी आक्रमणों के फलस्वरूप उन्होंने बड़ी वीरता और दृढ़तापूर्वक भारत का नेतृत्व किया और इस युद्ध में पाकिस्तान को मुँह की खानी पड़ी। इसके साथ ही उन्होंने चीनी सेनाओं को भी युद्ध में भाग लेने से रोक रखा। उन्होंने कच्छ-विवाद को अन्तर्राष्ट्रीय पंचनिर्णय से सुलझाना स्वीकार कर लिया तथा कश्मीर के मोर्चे पर भी संयुक्त राष्ट्रसंघ का युद्ध-विराम का अनुरोध स्वीकार कर लिया, हालांकि भारत का पलड़ा भारी था। तदुपरान्त रूस के आमंत्रण पर पाकिस्तान के साथ शान्तिपूर्ण समझौते की सम्भावनाओं पर विचार करने के लिए ताशकन्द गये। वहाँ रूस की मध्यस्थता से पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खाँ के साथ एक समझौता सम्पन्न हुआ जो 'ताशकन्द घाषणापत्र' के नाम से विख्‍यात है। अत्यधिक परिश्रम और मानसिक तनाव के कारण ताशकन्द में घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने के कुछ ही घण्टों के उपरान्त ११ जनवरी १९६६ ई. को उनका देहान्त हो गया। भारत और पाकिस्तान के बीच स्थायी शांति स्थापित करने के प्रयास में लालबहादुर शास्त्री ने अपने प्राणों की बलि चढ़ा दी।

शास्त्री, श्रीनिवास (१८६९-१९४९) : इस शताब्दी के दूसरे दशक में उदार (लिबरल) दल के प्रमुख नेता और प्रगल्भ वक्ता। उन्होंने अपना जीवन शिक्षक रूप में प्रारंभ किया और १९०७ ई. में वे '१९१३ ई. में उन्होंने भारत के राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश किया और मद्रास की विधान परिषद् के सदस्य हुए। अपनी प्रभावशालिनी वक्तृत्वशक्ति के कारण वे शीघ्र ही कांग्रेसी सदस्यों में अग्रगण्य हो गये और उन्होंने रौलट ऐक्ट (दे.) का घोर विरोध किया। १९२० ई. में वे तत्कालीन राज्य परिषद् के सदस्य बने और इम्पीरियल कान्फ्रेन्स तथा लीग आफ नेशन्स की बैठकों में भारत के प्रतिनिधि रहे। उन्होंने अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों की समस्याओं को सुलझाने का गहन प्रयास किया और कुछ दिनों तक वे भारतीय सरकार द्वारा वहाँ एजेन्ट जनरल के रूप में भी नियुक्त रहे। १९३५ से १९३५ से १९४० ई. तक वे अन्नामलाइ विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। शास्त्री जी महान् लेखक थे और उनके अंग्रेजी में रचित 'हिन्दू बालिकाओं के यौवनोपरान्त विवाह' (Post-Puberty Marriage of Hindu girls) नामक ग्रंथ से उनके समाज सुधार संबंधी विचारों पर प्रकाश पड़ता है।'

शाहजहाँ : दिल्ली के मुगल वंश का पाँचवाँ बादशाह (१६२८-५८), जिसका मूल नाम शाहजादा खुर्रम था। वह अपने पिता जहाँगीर के राज्यकाल के प्रारम्भिक वर्षों में उसका विशेष कृपापात्र था, क्योंकि उसके (शाहजहाँ) बड़े भाई खुसरो से जहाँगीर इस कारण अप्रसन्न था कि अकबर की मृत्यु के समय खुसरो दिल्ली की गद्दी पर बैठने के लिए उसका (जहाँगीर का) प्रतिद्वन्द्वी हो गया था। १६१२ ई. में शाहजादा खुर्रम ने नूरजहाँ (दे.) के भाई आसफ खाँ की, जो भुगल दरबार का सबसे धनी और शक्तिशाली सरदार था, पुत्री अर्जमन्द बानू बेगम (दे.) से विवाह कर लिया। किन्तु जब उसके सबसे छोटे भाई शहरयार का विवाह, नूरजहाँ की पहले पति से उत्पन्न पुत्री से हो गया तब शाहजहाँ (खुर्रम) सम्राज्ञी का कृपापात्र न रहा, क्योंकि नूरजहाँ शहरयार को जहाँगीर का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी। अब शाहजादा खुर्रम और जहाँगीर में मनमुटाव हो गया। जब अक्तूबर १६२७ ई. में जहाँगीर की मृत्यु हुई तब खुर्रम दक्षिण भारत में और प्रायः विद्रोह की स्थिति में था। किन्तु उसके राजधानी आने तक उसके श्वसुर आसफ खाँ ने उसके हितों की रक्षा की। फरवरी १६२८ ई. को शाहजहाँ की उपाधि धारण करके वह गद्दी पर बैठा। उसने १६५८ ई. (जिस वर्ष उसके विद्रोही पुत्र औरंगजेब ने उसे सिंहासन से च्युत कर दिया) तक राज्य किया। १६६६ ई. में बन्दी की स्थिति में उसकी मृत्यु हुई।

शाहजहाँ समस्त मुगल सम्राटों में सबसे अधिक वैभवशाली था। सिंहासनासीन होने के शीघ्र ही बाद उसने १ करोड़ रुपये की लागत से मयूर सिंहासन (दे.) बनवाया। उपरान्त उसने आगरे में, जो १६४८ ई. तक उसकी राजधानी थी, जुम्मा मस्जिद और मोती मस्जिद, लाल किला, दीवाने आम, दीवाने खास तथा ताजमहल का निर्माण कराया। ताजमहल के निर्माण में २२ वर्ष लगे। अपने ३० वर्षों के शासन-काल में उसने दक्षिण भारत में मुगल साम्राज्य का विस्तार किया। अहमदनगर पूर्ण रूप में साम्राज्य में मिला लिया गया और बीजापुर तथा गोलकुण्डा को अधीनता स्वीकार करने पर विवश होना पड़ा। साथ ही उसने १६३८ ई. में कंदहार पर पुनः अधिकार कर लिया, किन्तु १६४९ ई. में कंदहार पर पुनः अधिकार कर लिया, किन्तु १६४९ ई. में फारस ने उसको पुनः अपने आधिपत्य में कर लिया। यद्यपि शाहजहाँ ने तीन बार क्रमशः १६४९, १६५२ तथा १६५३ ई. में उसे पुनः जीतने का प्रयास किया, पर वह असफल रहा।

१६४८ ई. में शाहजहाँ ने आगरा के बदले दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया और वहाँ भी दीवाने आम और दीवाने खास सहित एक भव्य महल का निर्माण कराया। दीवाने खास बेलबूटों आदि से इतने सुन्दर रूप में चित्रित है कि उसपर अंकित उक्ति "यदि पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वह यही है, यही है, यही है।" पूर्ण रूप से चरितार्थ होती है। किन्तु शाहजहाँ के अन्तिम दिन बड़े ही दुःखमय थे। १६५७ ई. में वह गंभीर रूप से अस्वस्थ हुआ और ऐसा जान पड़ा कि अन्त निकट है। शीघ्र ही उसके चार पुत्रों- दारा, शुजा, औरंगजेब और मुराद में उत्तराधिकार का युद्ध प्रारम्भ हो गया। दारा को शाहजहाँ का साहाय्य प्राप्त था और उधर औरंगजेब तथा मुराद इस समझौते पर परस्पर एक हो गये कि साम्राज्य का दोनों में बँटवारा हो जायगा। शुजा ही अकेला लड़ता रहा। पहले उसे शाही सेनाओं ने फरवरी १६५८ ई. में बहादुरपुर के युद्ध में परास्त किया, तदुपरान्त औरंगजेब से जनवरी १६५९ ई. में खजुआ के युद्ध में पराजित होकर वह इधर-उधर फिरा ओर १६६० ई. में अराकान (बर्मा) में उसकी मृत्यु हो गयी। जो शाही सेना औरंगजेब और मुराद के विरुद्ध भेजी गयी थी, उसे इन राजकुमारों ने अप्रैल १६५८ ई. में धरमट के युद्ध में पराजित किया। तदुपरान्त दारा स्वयं सामूगढ़ के युद्ध में मई १६५८ ई. में औरंगजेब तथा मुराद की सम्मिलित सेनाओं द्वारा परास्त होकर भागने पर विवश हुआ। इसके बाद औरंगजेब ने मुराद को बन्दी बना लिया, आगे बढ़कर सरलता से आगरा पर अधिकार कर लिया और जून १६५८ ई. में शाहजहाँ को भी प्रायः बन्दी बना लिया। दूसरे ही महीने अनियमित रूप से वह भारत का सम्राट् घोषित हुआ। अंततः दारा भी अप्रैल १६५९ ई. में देवरई के युद्ध में औरंगजेब द्वारा पराजित हुआ। उसे धोखे से बन्दी बनाया गया और १६५९ ई. में ही उसे काफिर होने के अभियोग में मार डाला गया। तदुपरान्त जून १६५९ ई. में औरंगजेब विधिवत् आलमगीर की उपाधि धारण कर दिल्ली के सम्राट् रूप में सिंहासनासीन हुआ। दुर्भाग्‍यग्रस्‍त शाहजहाँ अपने पुत्र का बंदी होकर किसी प्रकार अपना शेष कष्‍टमय जीवन व्‍यतीत करता रहा। १६६६ ई. में उसकी मृत्‍यु हो गई।

शाहजी : मराठों की स्वतंत्रता के संस्थापक सुप्रसिद्ध शिवाजी का पिता। वह चतुर तथा नीति-कुशल व्यक्ति था। उसने अहमदनगर के सुल्तान की सेना में सैनिक के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ किया, योग्यता के बल पर धीरे-धीरे उच्चपद प्राप्त किया तथा निजामशाही शासन के अन्तिम वर्षों में राज-निर्माता की भूमिका निभायी। शाहजहाँ द्वारा अहमदनगर पर अधिकार कर लेने के उपरान्त उसने १६३६ ई. में बीजापुर में नौकरी कर ली तथा वहाँ भी यथेष्ट यश उपार्जित किया। कर्नाटक में उसको एक विशाल जागीर प्राप्त हुई। जब उसके पुत्र शिवाजी ने बीजापुर के राज्य में धावा मारना प्रारम्भ किया, शाहजी पर अपने पुत्र को उकसाने का संदेह किया गया। वह ४ वर्षों तक नजरबंद रखा गया और मुगल सम्राट् शाहजहाँ के हस्तक्षेप करने पर मुक्त हुआ। तदुपरान्त १६५९ ई. में उसने बीजापुर के सुल्तान और शिवाजी में एक अस्थायी समझौता करा दिया, जिसके फलस्वरूप शिवाजी को निश्चिन्त होकर मुगल साम्राज्य के भू-भागों पर आक्रमण करने का अवसर प्राप्त हो गया। अपने पुत्र के उत्कर्ष में वह केवल इतना ही योगदान कर सका, जिसका नाम इतिहास में अमर है।

शाहू : छत्रपति शिवाजी का पौत्र तथा शंभूजी का (दे.) पुत्र और उत्तराधिकारी। १६८९ ई. में औरंगजेब ने शंभूजी को बंदी बनाकर उसका वध करा दिया। उस समय शाहू बालक था और वह बन्दी बनाकर मुगल दरबार में लाया गया। उसका भी वास्तविक नाम शिवाजी था। औरंगजेब की दृष्टि में शिवाजी प्रथम कपटी थे। अतएव दोनों में भेद करने के लिए उसने शाहू को साधु कहना प्रारंभ किया और यही 'साधु' शब्द अपभ्रंश रूप में शाहू हो गया। १७०७ ई. में औरंगजेब की मृत्यु के उपरान्त सम्राट् बहादुरशाह ने उसे मुक्त कर दिया। अधिक समय तक मुगल दरबार में रहने के कारण शाहू का दृष्टिकोण मराठों-सा न होकर मुगलों जैसा हो गया था। उसके महाराष्ट्र लौटते ही मराठे दो दलों में विभक्त हो गये। एक दल इसका स्वयं का था तथा दूसरा दल इसके चाचा राजाराम (दे.) के पुत्र शिवाजी तृतीय का समर्थक था।

शाहू ने एक अत्यन्त सुयोग्य व्यक्ति बालाजी विश्वनाथ को पेशवा के पद पर आसीन किया। उसकी सहायता से शाहू ने शिवाजी तृतीय को अपनी अधीनता स्वीकार करने पर विवश किया जिससे वह मराठों का एकछत्र शासक बन गया। बाजीराव प्रथम तथा बालाजी बाजीराव ने, जो क्रमशः द्वितीय तथा तृतीय पेशवा हुए, शाहू की शक्ति एवं सत्ता का उत्तरी और दक्षिणी भारत में विशेष विस्तार किया। वस्तुतः शाहू ने पेशवा का पद बालाजी विश्वनाथ के वंशजों को पैतृक रूप में दे दिया और स्वयं राज्यकार्य में विशेष रुचि न लेकर शासन का समस्त भार पेशवाओं पर छोड़ दिया। इस नीति के फलस्वरूप राजा नहीं अपितु पेशवा ही मराठा राज्य के सर्वेसर्वा बन गये। १७४९ ई. में शाहू की मृत्यु के बाद पेशवा ही मूल रूप से मराठा साम्राज्य के शासक हो गये। शाहू ने राजाराम और ताराबाई के पुत्र को अपना दत्तक पुत्र बनाकर उसका नाम राम राजा रखा था। परम्परा के अनुकूल राम राजा ने सतारा में अपना दरबार स्थापित किया, किन्तु वह पेशवा के हाथों की कठपुतली ही सिद्ध हुआ।

शाह नवाज खाँ : एक तेजस्वी मुगल सरदार। उसकी पुत्री दिलराज बानू बेगम का 1637 ई. में शाहजादा औरंगजेब (उपरांत बादशाह) से विवाह हुआ था।

शिन्दे, दौलतराव : महादजी शिन्दे का पौत्र, जो १७९४ ई. में उसका उत्तराधिकारी हुआ। नवयुवक दौलतराव महत्त्वाकांक्षी था और पेशवा बाजीराव को अपने नियंत्रण में रखने की उसकी उत्कट अभिलाषा थी। इस प्रयास में जसवन्तराव होल्कर उसका प्रतिद्वन्द्वी था। यद्यपि पेशवा को उसकी महत्त्वाकांक्षा रुचिकर न थी, फिर भी २५ अक्तूबर १८०२ ई. को होल्कर के विरुद्ध पूना के युद्ध में उसने शिन्दे का साथ दिया। इसमें शिन्दे की पराजय हुई और इसके फलस्वरूप बाजीराव द्वितीय को भागकर वसई जाना पड़ा, जहाँ उसने अंग्रेजों के साथ एक सन्धि कर ली, जो वसई की सन्धि के नाम से विख्यात है। इसके अनुसार पेशवा ने अंग्रेजों का आश्रित होना इस शर्त पर स्वीकार कर लिया कि वे उसको पुनः सिंहासनासीन करा देंगे। इस प्रकार पेशवा ने केवल अपनी ही नहीं, बल्कि समस्त मराठों की स्वतंत्रता खो दी।

पेशवा बाजीराव द्वितीय की इस संधि से शिन्दे, भोंसला और होल्कर का क्रुद्ध होना स्वाभाविक था और और शिन्दे ने भोंसला के साथ मिलकर इसको अस्वीकार कर दिया। इसका परिणाम १८०३ ई. का द्वितीय मराठा-युद्ध (दे.) हुआ, जिसमें नवयुवक दौलतराव को दक्षिण में आर्थर वेलेजली और उत्तरी भारत में लार्ड लेक के हाथों थोड़े ही समय में दिल्ली, असई, लासवाड़ी और आरगाँव के युद्धों में पराजित होना पड़ा। विवश होकर शिन्दे को अंग्रेजों से ३० दिसम्बर १८२० ई. को संधि करनी पड़ी, जो सुर्जी अर्जुन गाँव की संधि के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अनुसार सिन्धिया को अंग्रेजों का अंग्रेजों का आश्रित होना स्वीकार करके ग्वालियर समेत बहुत से भू-भाग दे देने पड़े और साथ ही उसे राजपूताने में हस्तक्षेप करने के अधिकार से भी वंचित होना पड़ा। उपरांत दौलतराव शिन्दे को ग्वालियर पुनः दे दिया गया और राजपूताने की राजनीति में हस्तक्षेप करने का प्रतिबंध भी उठा लिया गया।

शिन्दे ने पुनः राजपूताने के छोटे राज्यों को सताना प्रारंभ कर दिया, जिसमें स्वयं उसकी क्षति हुई। वह पेंढारियों का संरक्षक बन गया, पेंढारी-युद्ध (दे.) के प्रारंभ में ही, जिसने आगे चलकर तृतीय मराठा-युद्ध (दे.) का रूप धारण कर लिया, शिन्दे को पूर्णतया अशक्त बना दिया गया। फलस्वरूप वह इस युद्ध में किसी प्रकार से न भाग ले सका, जिससे युद्ध के अन्त में अपने राज्य के अधिकांश भू-भागों को अपने अधि‍कार में बनाये रखने में समर्थ हुआ। उसने अपनी राजधानी ग्वालियर बनायी और अंग्रेजों के आश्रित के रूप में मृत्युपर्यन्त उन भूभागों पर राज्य करता रहा।

शिन्दे, महादजी : रणोजी सिंधिया (दे.) का अवैध पुत्र और उत्तराधिकारी। पेशवा बाजीराव प्रथम के शासनकाल में वह छोटे पद से पदोन्नति करते हुए उच्चपद तक पहुँच गया। १७६१ ई. के तृतीय युद्ध में उसने भाग लिया और घाव लगने के कारण सदैव के लिए लँगड़ा हो गया। महाराष्ट्र वापस लौटकर उसने अपने दायित्व का निर्वाह इतनी कुशलता से किया कि सरदारों में वही सबसे प्रमुख गिना जाने लगा। उसका मुख्य उद्देश्य पूना स्थित पेशवा को नाना फडनवीस (दे.) के संरक्षण से हटाकर अपने संरक्षण में लेना था। इस लक्ष्य में तो वह सफल न हो सका, पर शीघ्र ही उत्तर भारत में उसने अपनी प्रतिष्ठा में इतनी वृद्धि कर ली कि १७७१ ई. में शाह आलम द्वितीय (दे.) को दिल्ली के सिंहासन पर पुनः आसीन कर स्वयं उसका रक्षक बन गया।

तदुपरांत महादजी अंग्रेजों और मराठों के बीच हेने वाले प्रथम मराठा-युद्ध (१७७५-८२) में मध्यस्थ बना रहा और सालबाई की संधि (दे.) के द्वारा दोनों पक्षों में पुनः शान्ति स्थापित करा दी। इससे अंग्रेजों में भी उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गयी। अंग्रेजों के सैनिक संगठन की श्रेष्ठता को भली-भाँति परखकर उसने अपनी सेना को भी काउन्ट द ब्‍यांग सरीखे यूरोपीय पदाधिकारियों की सहायता से पुनर्गठित किया और उसमें एक शक्तिशाली तोपखाने की व्यवस्था करके उसे नियमित स्थायी सेना का रूप दिया। इसके बल पर उसने राजपूत और मुसलमान शासकों पर अपनी धाक जमा ली। १७९० ई. में पाटन नामक स्थान पर राजपूताने के इस्माइल बेग को, १७९१ ई. में मिर्था के युद्ध में राजपूत शासकों के सम्मिलित दल को और १७९२ ई. में लखेड़ी के युद्ध में होल्कर को परास्त किया।

इसके पूर्व ही उसने नाममात्र के सम्राट शाह आलम द्वितीय से पेशवा को 'वकीले मुतलक' अथवा साम्राज्य के उपप्रधान का खिताब दिलाया। १७९३ ई. में महादजी के संयोजन से ही पूना में एक विशेष समारोह में विधिवत यह उपाधि पेशवा को दी गयी। यद्यपि इससे पेशवा का केवल प्रतीकात्मक लाभ हुआ, तथापि महादजी के जीवन में यह समारोह उसकी सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि थी। १७९४ ई. में महादजी की मृत्यु हो गयी। (ग्राण्‍ट डफ कृत मराठों का इतिहास, जिल्द ३, (अंग्रेजी)।

शिन्दे, रणोजी (१७२६-५०) : ग्वालियर के शिन्दे (सिन्धिया) वंश का प्रवर्तक। उसका जन्म साधारण मराठा परिवार में हुआ, किन्तु पेशवा बाजीराव प्रथम के समय में उसने इतनी योग्यता दिखायी कि मालवा प्रदेश को मराठा राज्य में मिला लेने के उपरांत, उसका एक भाग पेशवा ने उसको प्रदान कर दिया। शिन्दे ने इसके बाद ग्वालियर को ही अपना मुख्य केन्द्र बनाया।

शिताब राय : बिहार का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति, जिसे राजा की उपाधि मिली थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दीवानी मिलने के उपरान्त राजा शिताब राय दो उपनायबों में से एक के पद पर नियुक्त हुआ और उसे बिहार में भुमिकर एकत्र करने का कार्य-भार सौंपा गया। कम्पनी के निर्देशकों की आज्ञा से वारेन हेस्टिंग्स ने १७७२ ई. में उसे पद मुक्त कर दिया। उसे बन्दी बनाकर उस पर गबन के आरोप में अभियोग भी चलाया गया, परन्तु निर्दोष सिद्ध होने पर उसे छोड़ दिया गया।

शिमला : एक पर्वतीय मनोरम स्थल तथा ब्रिटिश शासनकाल में भारत सरकार की ग्रीष्मकालीन राजधानी। १८१५-१६ ई. के गोरखा-युद्ध उपरांत यह स्थान आसपास के भू-भागों सहित अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। लार्ड एमहर्स्ट पहला गवर्नर-जनरल था, जिसने १८२७ ई. में शिमला में गर्मियां बितायीं। स्वतंत्रता-प्राप्ति के उपरांत अब यह हिमाचल प्रदेश की राजधानी है और भारत सरकार की ग्रीष्म-कालीन राजधानी नहीं रहा है।

शिया सम्प्रदाय : मुसलमानों का एक सम्प्रदाय है। शियाओं की मान्यता है कि हज़रत की मृत्यु के उपरांत उनके दामाद अली को, जिन्होंने हजरत की एकमात्र पुत्री फ़ातिमा से विवाह किया था, खलीफा होना चाहिए था। अतएव शिया लोग प्रथम दो खलीफाओं को अनुचित उत्तराधिकारी मानते तथा अपनी प्रार्थनाओं में उनके नाम नहीं लेते हैं। उनका यह भी विश्वास है कि अली के दो पुत्र इस्लाम के हित में शहीद हो गये। इसीलिए मुहर्रम के महीने में उनकी शहादत पर शोक प्रकट करते हैं। इस सम्प्रदाय का उद्भव फ़ारस में हुआ, जहाँ अब भी शिया लोगों की अत्यधिक प्रधानता है। भारत में अधिकांश मुसलमान सुन्नी मत (दे.) के ही अनुयायी है। दिल्ली के सभी शासनकों को छोड़कर बीजापुर और गोलकुण्डा के सुल्तान शिया थे और इसी कारण सुन्नी सम्राट् औरंगजेब ने धर्मान्धता के वशीभूत होकर इन दोनों राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाया। अवध और मुर्शिदाबाद के नवाब भी शिया थे, यद्यपि अवध और बंगाल की अधिकांश मुसलमान जनसंख्या सुन्नी है।

शिव : त्रिदेवों में से एक। उनकी उपासना कई नामों तथा रूपों में जाती है जिनमें शिवलिंग का पूजन सर्वाधिक प्रचलित है। शिवोपासना कितनी प्राचीन है यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है, क्योंकि लिंगपूजन के प्रमाण मोहेनजोदड़ो (दे.) के प्रागैतिहासिक सभ्यता के अवशेषों में प्राप्त हुए हैं। ऋग्वेद में उनका उल्लेख रुद्र के नाम से हुआ है और रुद्र की आकृति कतिपय कुषाण वंशी शासकों (दे.) के सिक्कों पर पायी जाती है। गुप्तकाल में शैव मत निश्चय ही अत्यधिक प्रचलित था। मगध के पालवंश के पाँचवें शासक नारायण पाल ने एक सहस्र शैव मंदिरों का निर्माण कराया था।

शिवाजी : स्वतंत्र मराठा राज्य के संस्थापक। जन्म १६२७ ई. में पूना में। वे शाहजी (दे.) तथा उनकी प्रथम पत्नी जीजाबाई के पुत्र थे। शाहजी बीजापुर राज्य में पदाधिकारी थे। उन्होंने शिवाजी के जन्म के उपरान्त ही अपनी पत्नी को प्रायः त्याग दिया था। बालक शिवाजी का लालन-पालन उनके स्थानीय संरक्षक दादाजी कोणदेव तथा जीजाबाई के गुरु समर्थ स्वामी रामदास की देखरेख में हुआ। माता जीजाबाई तथा गुरू रामदास ने कोरे पुस्तकीय ज्ञान के प्रशिक्षण पर अधिक बल न देकर शिवाजी के मस्तिष्क में यह भावना भर दी कि देश, समाज, गौ तथा ब्राह्मणों को मुसलमानों के उत्पीड़न से मुक्त करना उनका परम कर्तव्य है। शिवाजी स्थानीय मवाली लोगों के बीच रहकर शीघ्र ही उनमें अत्यधिक सर्वप्रिय हो गये। उनके साथ आस-पासके क्षेत्रों में भ्रमण करने से उनको स्थानीय दुर्गों और दर्रों की भली प्रकार व्यक्तिगत जानकारी प्राप्त हो गयी। कुछ स्वामिभक्त मवाली लोगों का एक दल बनाकर उन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु में पूना के निकट तोरण के दुर्ग पर अधिकार करके अपना जीवनक्रम आरम्भ किया।

शिवाजी : बीजापुर के सुल्तान की राज्य सीमाओं के अंतर्गत रायगढ़ (१६४६ ई.) चाकन, सिंहगढ़ और पुरन्दर सरीखे दुर्ग भी शीघ्र उनके अधिकार में आ गये। १६५५ ई. तक शिवाजी ने कोंकण में कल्याण और जावली के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। उन्होंने जावली के राजा चंद्रदेव का बलपूर्वक वध करवा दिया। शिवाजी की राज्यविस्तार की नीति से कुद्ध होकर बीजापुर के सुल्तान ने १६५९ ई. में अफजल खाँ नामक अपने एक वरिष्ठ सेनानायक को विशाल सैन्यबल सहित शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों को अपनी विजय का पूर्ण विश्वास नहीं था, अतः उन्होंने संधिवार्ता प्रारंभ कर दी। दोनों की भेंट के अवसर पर अफजल खाँ ने शिवाजी को दबोच कर मार डालने का प्रयत्न किया। किन्तु वे इसके प्रति पहले से ही सजग थे। उन्होंने अपने गुप्त शस्त्र बघनखा का प्रयोग करके मुसलमान सेनानी का पेट फाड़ डाला, जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गयी। तदुपरान्त शिवाजी ने एक विकट युद्ध में बीजापुर की सेनाओं को परास्त कर दिया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी का सामना करने का साहस नहीं किया।

अब उन्हें एक और प्रबल शत्रु मुगल सम्राट् औरंगजेब का सामना करना पड़ा। १६६० ई. में औरंगजेब ने अपने मामा शायस्ता खाँ नामक सेनाध्यक्ष को शिवाजी के विरुद्ध भेजा। शायस्ता खाँ ने शिवाजी के कुछ दुर्गों पर अधिकार करके उनके केनद्र-स्थल पूना पर भी अधिकार कर लिया। किन्तु शीघ्र ही शिवाजी ने अचानक रात्रि में शायस्ता खाँ पर आक्रमण कर दिया, जिससे उसको अपना एक पुत्र और अपने हाथ की तीन अँगुलियाँ गँवाकर अपने प्राण बचाने पड़े। शायस्ता खाँ वापस बुला लिया गया। फिर भी औरंगजेब ने शिवाजी के विरुद्ध नये सेनाध्यक्षों की संरक्षा में नवीन सैन्यदल भेजकर युद्ध जारी रखा। शिवाजी ने १६६४ ई. में मुगलों के अधीनस्थ सूरत को लूट लिया, किंतु मुगल सेनाध्यक्ष मिर्जा राजा जयसिंह ने उनके अधिकांश दुर्गों पर अधिकार कर लिया, जिससे शिवाजी को १६६५ ई. में पुरन्दर की संधि करनी पड़ी। उसके अनुसार उन्होंने केवल १२ दुर्ग अपने अधिकार में रखकर २३ दुर्ग मुगलों को दे दिये और राजा जयसिंह द्वारा अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होकर आगरा में मुगल दरबार में उपस्थित होने के लिए प्रस्थान किया।

मई १६६६ ई. में शाही दरबार में उपस्थित होने पर उनके साथ तृतीय श्रेणी के मनसबदारों सदृश व्यवहार किया गया और उन्हें नजरबन्द कर लिया गया। किन्तु शिवाजी चालाकी से अपने अल्पवयस्क पुत्र शम्भुजी और अपने विश्वास्त अनुचरों सहित नजरबन्दी से भाग निकले। संन्यासी के वेश में द्रुतगामी अश्वों की सहायता से वे दिसम्बर १६६६ ई. में अपने प्रदेश में पहुँच गये। अगले वर्ष औरंगजेब ने निरुपाय होकर शिवाजी को राजा की उपाधि प्रदान की, और इसके बाद दो वर्षों तक शिवाजी और मुगलों के बीच शान्ति रही। शिवाजी ने इन वर्षों में अपनी शासन-व्यवस्था संगठित की। १६७० ई. में उन्होंने मुगलों से पुनः संघर्ष प्रारंभ किया और खानदेश के कुछ भू-भागों के स्थानीय मुगल पदाधिकारियों को सुरक्षा का वचन देकर उनसे चौथ वसूल करने का लिखित इकरारनामा ले लिया और दूसरी बार सूरत का लूटा। १६७४ ई. में रायगढ़ के दुर्ग में महाराष्ट्र के स्वाधीन शासक के रूप में उनका राज्याभिषेक हुआ।

इस प्रकार मुगलों, बीजापुर के सुल्तान, गोआ के पुर्तगालियों और जंजीरा स्थित अबीसानिया के समुद्री डाकुओं के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद उन्होंने दक्षिण में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना की। ६ वर्षों के उपरान्त १६८० ई. में जब उनकी मृत्यु हुई, उनका राज्य बेलगांव से लेकर तुंगभद्रा नदी के तट तक समस्त पश्चिमी कर्नाटक में विस्तृत था। इस प्रकार शिवाजी एक साधारण जागीरदार के उपेक्षित पुत्र की स्थिति से अपने पुरुषार्थ द्वारा ऐसे स्वाधीन राज्य के शासक बने, जिसका निर्माण स्वयं उन्होंने ही किया था। उन्होंने उसे एक सुगठित शासन-प्रणाली एवं सैन्य-संगठन द्वारा सुदृढ़ करके जन साधारण का भी विश्वास प्राप्त किया। जिस स्वतन्त्रता की भावना से वे स्वयं प्रेरित हुए थे, उसे उन्होंने अपने देशवासियों के हृदय में भी इस प्रकार प्रज्वलित कर दिया कि उनके मरणोपरान्त औरंगजेब द्वारा उनके पुत्र का बध कर देने, पौत्र को कारागार में डाल देने तथा समस्त देश को अपनी सैन्य-शक्ति द्वारा रौंद डालने पर भी वे अपनी स्वतन्त्रता बनाये रखने में समर्थ हो सके। उसी से भविष्य में विशाल मराठा साम्राज्य की स्थापना हुई। शिवाजी यथार्थ में एक व्यावहारिक आदर्शवादी थे। वे शेरशाह और रणजीत सिंह से भी महान थे तथा ओलिवर क्रामवेल एवं नेपोलियन से भी उनकी महानता की तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि वे दोनों क्षुद्र अहं भावना से प्रेरित थे। (यदुनाथ सरकार द्वारा लिखित शिवाजी एण्ड हिज टाइम्स तया एस. एन. सेन कृत छत्रपति शिवाजी)

शिवि : एक प्राचीनगण, जो झग जिले के रेचना दोआब में निवास करता था। ग्रीक इतिहासकारों के अनुसार चमड़े के वस्त्र पहनते थे तथा गदा से युद्ध करते थे। जब मकदूनिया के राजा सिकन्दर ने उनके देश पर आक्रमण किया, तो उन्होंने यूनानियों की अधीनता स्वीकार कर ली।

शिशुनाग : पुराणों के अनुसार मगध के उस राजवंश का प्रवर्तक, जिसमें गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर का समकालीन बिम्बिसार (दे.) नामक शासक हुआ। शिशुनाग का काल सातवीं शताब्दी ई. पू. निर्धारित किया जाता है और इस राजवंश में नौ शासक हुए। उनके नाम काकवर्ण, क्षेमधर्म, क्षेमजित्, बिम्बिसार अथवा श्रेणिक, अजातशत्रु, दर्शक, उदयी, अथवा उदयन, नंदिवर्द्धन और महानंदी थे, जिनमें से अंतिम को प्रायः ४७० ई. पू. में नंदवंश के संस्थापक महापद्म नंद ने गद्दी से उतारकर मार डाला। किन्तु श्री सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार शिशुनाग के वंशजों ने हर्यक वंश के शासक बिम्बिसार और उसके उत्तराधिकारियों के उपरांत शासन किया। (स्मिथ. तथा रायचौधरी.)

शिशु हत्या का उन्मूलन : ब्रिटिश भारत में १७९५ ई. के बंगाल रेग्युलेशन द्वारा किया गया। इस आदेश के द्वारा कन्याओं को जन्मते ही मार डालना, ताकि बाद में उनके विवाह की झंझट न पैदा हो, दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया। इसी रीति से १८०२ ई. के रेग्युलेशन ६ के द्वारा किसी बांझ स्त्री के दीर्घकाल के वैवाहिक जीवन के बाद एक से अधिक संताने उत्पन्न होने पर पहली संतान को गंगा मैया की भेंट चढ़ा देने की प्रथा बंद कर दी गयी और इस कृत्य को दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया। ये सामाजिक कुरीतियाँ, विशेष रूप से कन्याओं को जन्मते ही मार डालने की कुप्रथा देशी रियासतों में इसके बाद भी प्रचलित रही और उसका अंतिम रीति से उन्मूलन लार्ड हार्डिज प्रथम (१८४४-४८ ई.) के शासनकाल में हुआ।

शुंग वंश : इसका आरम्भ लगभग १८५ ई. पू. में पुष्यमित्र (अथवा पुष्यमित्र) (दे.) से हुआ, जो अंतिम मौर्य राजा वृहद्रथ का प्रधान सेनापति था। उसने उसे मारकर सिंहासन पर अधिकार कर लिया। उसने १८५ ई. पू. से १५१ ई. पू. तक राज्य किया तथा उत्तरी भारत के मगध साम्राज्य को लगभग अखंडित रखा। परन्तु उसे कई आक्रमणों का सामना करना पड़ा। यदि यह मत स्वीकार न किया जाय कि कलिंग का राजा खारवेल उसका समसामयिक था और उसने उसे परास्त किया, तो भी यह निस्संदिग्ध है कि एक भारतीय यवन राजा, संभवतः मिनाण्डर (दे.) ने उसके राज्य पर आक्रमण किया, किन्तु उसने उस आक्रमण को विफल कर दिया। उसने कई युद्धों में विजय प्राप्त की और अपने राज्यकाल में दो बार अश्वमेध यज्ञ किया। इस प्रकार तीसरे मौर्य सम्राट् अशोक (दे.) के द्वारा बौदध धर्म के प्रचार-प्रसार के फलस्वरूप ह्रास को प्राप्त हुए हिन्दू धर्म को उसने पुनरुज्जीवित किया। विश्वास किया जाता है कि सुप्रसिद्ध संस्कृत वैयाकरण पतंजलि अश्वमेध यज्ञ में उसके पुरोहित थे।

पुष्यमित्र के बाद शुंगवंश में नौ राजा हुए, जिनके नाम थे-अग्निमित्र, ज्येष्ठमित्र, वसुमित्र, भद्रक (जिसकी पहचान बेसनगर में हेलियोडोरस (दे.) के द्वारा स्थापित गरुड़स्तम्भ पर उल्लिखित काशीपुत्र भागभद्र से की जाती है), तीन अज्ञातनामा राजा, फिर भागवत, जिसने बत्तीस वर्ष तक राज्य किया और अन्त में देवभूति, जिसे उसके अमात्य वासुदेव ने लगभग ७३ ई. पू. में सिंहासन से उतार दिया और मार डाला। इस प्रकार शुंगवंश ने १२० वर्ष तक राज्य किया।

शुजाउद्दौला (१७५४-७५)  : अवधका तृतीय स्वतंत्र नवाब और वहाँ के द्वितीय नवाब सफदरजंग का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। शुजाउद्दौला को आलमगीर द्वितीय (१७५४-५९ ई.) (दे.) तथा शाह आलम द्वितीय (१७५९-१८०६ ई.) (दे.) नामक मुगल सम्राटों से वजीर का ओहदा मिला। किन्तु उसने अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण के समय सम्राट् की कोई सहायता नहीं की, जब अब्दाली ने १७५६ ई. में दिल्ली को लूटा, १७५९ ई. में पंजाब पर पूर्ण अधिकार कर लिया और मुगल सम्राट् तथा उसके सहायक मराठों को १७६१ ई. में पानीपत के तृतीय युद्ध में परास्त किया। शुजाउद्दौला ने सदैव केवल अपने वंश के ही हितों पर ध्यान दिया। १७६४ ई. में उसने बंगाल से भागकर सहायतार्थ आनेवाले वहाँ के नवाब मीर कासिम तथा शाह आलम द्वितीय से कम्पनी के विरुद्ध एक संधि की, पर बक्सर के युद्ध में वह पराजित हुआ।

१७६५ ई. में उसने कड़ा और इलाहाबाद के जिलों सहित ५० लाख रुपयों की धनराशि हरजाने के रूप में देकर अंग्रेजों से संधि कर ली। साथ ही उसने अंग्रेजों से एक सुरक्षात्मक संधि भी की, जिसके अनुसार उसके राज्य की सीमाओं के रक्षार्थ कम्पनी ने उसे इस करार के अनुसार सहायता देना स्वीकार किया कि सेना का सम्पूर्ण व्यय भार उसे वहन करना होगा। १७७२ ई. में उसने रुहेलों से इस आशय की संधि की कि यदि मराठों ने उनपर आक्रमण किया तो वह मराठों को इधर न बढ़ने देगा और इसके बदले में रुहेले ४० लाख रुपयों की धनराशि देंगे।

१७७३ ई. में मराठों ने रुहेलखण्ड पर आक्रमण किया किन्तु वे बिना किसी युद्ध के ही वापस लौट गये। अब शुजाउद्दौला ने रुहेलों से ४० लाख रुपयों की निर्धारित धनराशि की मांग की और रुहेले उसे देने में आनाकानी करने लगे। अतएव शुजाउद्दौला ने कम्पनी के साथ बनारस की प्रसिद्ध संधि कर ली, जिसकी शर्तों के अनुसार ५० लाख रुपयों के बदले उन्हें कड़ा और इलाहाबाद के जिले पुनः प्राप्त हो गये तथा लखनऊ में कम्पनी की एक पलटन रखने के बदले उन्हें निश्चित धनराशि भी प्राप्त हुई। बनारस में ही उसे बंगाल के गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स द्वारा यह आश्वासन मिला कि कम्पनी रुहेलों से ४० लाख रुपये प्राप्त करने में शुजाउद्दौला की सहायता अंग्रेज पलटन द्वारा करेगी, क्योंकि शुजाउद्दौला की दृष्टि में रुहेलों से वह धनराशि उसको मिलनी थी। अतः १७७४ ई. में नवाब ने अंग्रेज पलटन की सहायता से रुहेलखण्ड पर आक्रमण किया, वहाँ के शासक हाफ़िज अहमद खाँ को मीरनपुर कटरा के युद्ध में पराजित किया और रुहेलखण्ड को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। दूसरे ही वर्ष शुजाउद्दौला की मृत्यु हो गयी।

शुजात खाँ : औरंगजेब का एक सेनापति, जिसकी नियुक्ति उत्तर-पश्चिमी सीमान्त पर हुई। १६७४ ई. में विद्रोही अफ्रीदियों ने कर्पा दर्रे के पास सेनाओं सहित उसका नाश कर दिया। इस दुर्घटना के उपरांत सम्राट् औरंगजेब ने पेशावर के निकट अपनी स्थिति पर विशेष ध्यान दिया और ऐसी व्यवस्था की, जिसके फलस्वरूप सीमाओं पर दीर्घकाल तक शांति स्थापित रही।

शुजा शाहजादा : शाहजहाँ का द्वितीय पुत्र। वह विलासी प्रकृति का था किन्तु अपने अन्य तीन भाइयों की भाँति ही उसमें भी महत्त्वाकांक्षा थी। १६५७ ई. में शाहजहाँ के गंभीर रूप में अस्वस्थ होने पर शुजा ने, जो उस समय बंगाल का सूबेदार था, पिता का सिंहासन पाने के लिए सब भाइयों के बीच अपना अधिकार घोषित किया। तदनुसार बंगाल की तत्कालीन राजधानी राजमहल में अपने को सम्राट् घोषित कर सेना सहित वह दिल्ली की ओर चल पड़ा, पर फरवरी १६५८ ई. में शाही सेना द्वारा बहादुरपुर के युद्ध में परास्त हो जाने पर वह पुनः बंगाल लौट आया। तदुपरांत धर्मट और सामूगढ़ के युद्धों में दारा की पराजय से उसका साहस बढ़ा और उसने पुनः युद्ध की ठानी। किन्तु औरंगजेब के सेनापति, मीर जुमला ने उसे पराजित किया और वह अराकान की ओर भाग गया, जहाँ वह सपरिवार कालकवलित हुआ।

शूद्र : हिन्दुओं के चार वर्णों में से अन्तिम वर्ण। (दे., जाति व्यवस्था)

शेर अफ़गन  : फारस का एक निवासी, जिसका प्रारंभिक नाम अली कुलीबेग इस्तझी था। वह अपने भाग्य के परीक्षार्थ मुगल दरबार में आया। उसने सत्रह वर्षीय मेहरुन्निसा से विवाह किया। जहाँगीर के राज्यकाल के प्रारंभिक दिनों में उसे बर्दवान की जागीर तथा शेर अफगन की उपाधि प्राप्त हुई। १६०७ ई. में उस पर बंगाल के विद्रोही अफगानों का गुप्त रीति से साथ देने का सन्देह हुआ। अतएव जहाँगीर ने बंगाल के तत्कालीन सूबेदार कुतुबुद्दीन कोका को शेर अफगन को बन्दी बनाकर दिल्ली भेजने का आदेश दिया। किन्तु शेरअफगन ने बन्दी बनाये जाने का प्रतिरोध किया। इस संघर्ष में कुतुबुद्दीन और शेरअफगन दोनों ही मारे गये। शेर अफगन की विधवा पत्नी मेहरुन्निसा और उसकी एकमात्र पुत्री को मुगल दरबार में भेज दिया गया। चार वर्षों के उपरान्त उसने जहाँगीर से विवाह कर लिया तथा शेर अफगन से उत्पन्न अपनी पुत्री का विवाह जहाँगीर के सबसे छोटे पुत्र शहरमीर से कर दिया।

शेरअली : दोस्त मुहम्मद (दे.) का पुत्र तथा उत्तराधिकारी, जो १८६३ ई. में अफगानिस्तान का अमीर बना, किन्तु १८६६ ई. में काबुल और १८६७ ई. में कन्दहार से खदेड़े जाने पर उसने हेरात में शरण ली। इसी बीच रूस ने अपने साम्राज्य की सीमाएँ कैस्पियन सागर के निकट के खानों की राज्य सीमाओं तक बढ़ाकर १८६५ ई. में ताशकन्द और १८६८ ई. में समरकन्द पर अधिकार कर लिया। अफगानिस्तान की ओर साम्राज्य विस्तार से शेरअली को रूस के भावी मनसूबों पर संदेह हुआ, फलतः १८६९ ई. में उसने भारत सरकार के तत्कालीन वाइसराय लार्ड मेयो से अम्बाला में भेंट की। उसने वाइसराय के सम्मुख कुछ ऐसे प्रस्ताव रखे जिनसे अफगानिस्तान में स्वयं अंग्रेजों की स्थिति सुदृढ़ हो जाती और वे भविष्य में अफगानिस्तान की सीमाओं की ओर रूसी विस्तार रोकने में समर्थ होते। किन्तु लन्दन के आदेश पर उसने इस प्रकार की कोई सन्धि करना स्वीकार न किया।

शेरअली : लगभग १८७० ई. से तुर्किस्तान में नियुक्त रूसी गवर्नर-जनरल काउफमैन ने शेरअली से पत्र व्यवहार प्रारंभ कर दिया। रूसियों द्वारा १८७३ ई. में खीव (कीव) पर अधिकार कर लेने पर शेरअली ने भारत सरकार से पुनः एक निश्चित संधि करने की प्रार्थना की, किन्तु उसे पुनः अस्वीकार कर दिया गया। लेकिन १८७६ ई. में जब लार्ड लिटन (१८७६-८०) भारत का वाइसराय हुआ, तब भारत सरकार ने अपनी अफगान नीति में अचानक परिवर्तन कर दिया और शेरअली से एक निश्चित सन्धि करने का प्रस्ताव रखा, जिसमें प्रतिबन्ध वह था कि अमीर अफगानों की मनोवृत्ति से भली-भाँति परिचित था। उसे पूरा विश्वास था कि अपने राज्य में अंग्रेज रेजीडेण्ट रखने का सुझाव मान लेने से अफगान प्रजा पूर्णतः असंतुष्ट हो जायगी और उसकी अपनी गद्दी भी संकट में पड़ जायगी। अतः उसने अंग्रेजों का उक्त प्रस्ताव ठुकरा दिया।

इसी बीच १८७८ ई. में बर्लिन कांग्रेस में अंग्रेजों की नीति से चिढ़कर रूस ने जनरल स्टोलिटाँफ (स्तोलियताफ) के नेतृत्व में एक दूतमण्डल अफगानि‍स्तान भेजा। शेरअली को विवश होकर उसका स्वागत करना पड़ा। अब लार्ड लिटन (प्रथम) की सरकार को एक और कारण मिल गया कि वह अंग्रेजों के दूतमण्डल को भी अपने यहाँ बुलावे। किन्तु शेरअली द्वारा इसे अस्वीकार करने पर नवम्बर १८७८ ई. में ब्रिटिश सरकार ने उसके विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। शेरअली अंग्रेजों की विशाल सेना को रोकने में असमर्थ रहा और वह रूसी तुर्किस्तान की ओर भागा, जहाँ फरवरी १८७९ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार शेरअली अपने दो प्रबल पड़ोसियों रूस और इंग्लैण्ड की निर्दय महत्त्वाकांक्षा एवं स्वार्थपूर्ण नीतियों का शिकार बन गया।

शेर अली खाँ : अफगानिस्तान का एक सरदार। १८७९ ई. में भारत की अंग्रेज सरकार ने उसको पश्चिमी अफगानिस्तान का स्वतंत्र शासक नियुक्त कर दिया। उसका मुख्यालय कन्दहार बना। वह १८९१ ई. तक वहाँ का शासक रहा। उसी वर्ष भारत सरकार के दबावपूर्ण अनुरोध के कारण उसने गद्दी छोड़ दी और भारत में आकर रहने लगा।

शेर खाँ सूर (१४७२-१५४५) : भारतीय इतिहास में शेरशाह नाम से विख्यात। वह १५३९ से १५४५ ई. तक भारत का बादशाह रहा। उसने सूरवंश की नींव डाली तथा १५५६ ई. तक उत्तर भारत पर राज्य किया। उसका प्रारंभिक नाम फरीद खाँ था। वह बिहार प्रान्त में सहसराम (सासाराम) के एक साधारण अफगान जागीरदार का पुत्र था। पिता की जागीर में ही उसे शासन प्रबन्ध का प्रशिक्षण मिला, किन्तु पिता के उदासीन व्यवहार के कारण शेर खाँ घर छोड़कर अपने भाग्य की परीक्षा के लिए चल पड़ा। १५२२ ई. में उसने बहार खाँ लोहानी के यहाँ नौकरी कर ली और अकेले ही एक शेर को मार देने के फलस्वरूप बहार खाँ से शेर खाँ की उपाधि प्राप्त की। इसके उपरान्त उसने बाबर के यहाँ सेवाकार्य प्रारंभ किया। बाबर ने उसे उसकी पैतृक सहसराम (सासाराम) की जागीरदारी देकर पुरस्कृत किया।

बिहार लौट कर शेर खाँ ने वहाँ के तत्कालीन शासक जलाल खाँ के यहाँ नौकरी कर ली तथा चुनार के शासक ताज खाँ की विधवा से विवाह करके चुनार का महत्त्वपूर्ण दुर्ग भी प्राप्त कर लिया। १५३१ ई. में जब हुमायूँ ने चुनार पर आक्रमण किया, शेर खाँ ने चतुरता से अपनी रक्षा की और दुर्ग का स्वामित्व भी सुरक्षित रखा। दो वर्षों के बाद उसने बंगाल के शासक महमूद शाह को सूरजगढ़ के युद्ध में पराजित किया और इस प्रकार उसका बिहार पर एक छत्र अधिकार हो गया। उपरान्त शेर खाँ ने बंगाल पर दो और आक्रमण किये। इसके फलस्वरूप १५३७ ई. में हुमायूँ ने उस पर आक्रमण कर दिया। शेर खाँ ने चतुराई से हुमायूँ को बंगाल तक अपना पीछा करने दिया और भारी रणकुशलता का परिचय देते हुए १५३९ ई. में बक्सर के निकट चौसा नामक स्थल पर हुमायूँ को बुरी तरह परास्त किया।

हुमायूँ ने बड़ी कठिनता से अपने प्राणों की रक्षा की और शेर खाँ कन्नौज से लेकर आसाम तक पूर्वी भारत का वास्तविक शासक बन गया। अब उसने शेरशाह की उपाधि धारण करके अपनी स्वतंत्र सत्ता की घोषणा कर दी। अगले वर्ष शेरशाह ने हुमायूँ को कन्नौज के निकट विलग्राम नामक स्थल पर पुनः पराजित किया और दिल्ली की ओर बढ़कर पंजाब पर भी अधिकार कर लिया। १५४२ ई. में मालवा और १५४३ ई. में रायसीन पर अधिकार करके उसने शीघ्र ही सिन्ध, मुल्तान और १५४४ ई. में मारवाड़ पर भी आधिपत्य जमाया, किन्तु कालिंजर के दुर्ग पर अधिकार करते समय बारूद में विस्फोट हो जाने के फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गयी। यद्यपि दुर्ग पर उका अधिकार हो गया, इस प्रकार इतने थोड़े दिनों में हो शेरशाह ने मुगलों को दिल्ली से खदेड़ बाहर किया और भारत का सम्राट् बन बैठा।

शेर खाँ सूर (१४७२-१५४५) : शेरशाह केवल वीर योद्धा ही नहीं, कुशल प्रशासक भी था। अपने केवल ५ वर्षों के अल्प शासनकाल में उसने कई विवेकपूर्ण प्रशासकीय सुधार किये। उसने अपने समस्त साम्राज्य को ४७ सरकारों अथवा जिलों में बाँटा और इन सरकारों का परगनों में उपविभाजन किया। उसने भूमि-सर्वेक्षण के उपरान्त करव्यवस्था में सुधार किया और कृषकों से सीधे भूमि-कर वसूलने की व्यवस्था की। साथ ही कृषकों से सीधे भू-स्वामित्व सम्बन्धी सनदें (कबूलियात) दीं, जिनमें उनके अधिकारों और भूमि-कर संबंधी और दायित्यों का विवरण रहता था।

उसने मुद्रा सम्बन्धी सुधार भी किये और टंक अथवा रुपये का अनुपात ताँबे के ६४ पैसों में निर्धारित किया। चुँगी-व्यवस्था में सुधार कर तथा अनेक अनुचित करों को हटाकर उसने वाणिज्य एवं व्यवसाय को प्रोत्साहन दिया तथा मुख्य सड़कों के निर्माण से यातायात की सुविधाओं में बुद्धि करके घोड़ों द्वारा डाक पहुँचाने की व्यवस्था चलायी। उसने देश से शांति और सुव्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए स्थानीय अपराधों की छानबीन करके अपराधियों को दंडित करने का भार गाँवों पर छोड़ दिया। उसका न्याय पक्षपातरहित होता था तथा हिन्दुओं के प्रति उसकी नीति उदार थी। ब्रह्मजीत गौड़ नामक एक हिन्दू उसका सेनाध्यक्ष भी था। अंततः सैन्य संगठन में भी उसने कई महत्त्वपूर्ण सुधार किये, जिससे सैनिकों की सीधी भरती होने लगी और उन्हें नगदी वेतन दिया जाने लगा। फलतः सेना का संगठन अयोग्य और निष्क्रिय जागीरदारों पर आधारित न होकर सीधे सम्राट् के नियंत्रण में आ गया। शेरशाह द्वारा किये गये अनेक प्रशासकीय सुधारों को मुगल सम्राट् अकबर ने भी अपनाया।

शेरसिंह : पंजाब के महाराज रणजीत सिंह का पुत्र। रणजीत सिंह के उपरान्त उसका ज्येष्ठ पुत्र खड़क सिंह और उसके बाद दूसरा पुत्र नौनिहाल सिंह शासक हुआ, जिसकी एक दुर्घटना में मृत्यु हो जाने से १८४० ई. में शेरसिंह सिंहासनासीन हुआ। उसने तीन वर्षों तक राज्य किया। १८४३ ई. में उसकी हत्या कर दी गयी।

शेरसिंह : छत्तरसिंह नामक एक सिख सरदार का पुत्र। प्रथम सिख-युद्ध (दे.) में जब अंग्रेजों ने सिखों को पराजित किया, वह अंग्रेजों का विश्वासपात्र बन गया। मुलतान के शासक मूलराज द्वारा विद्रोह कर देने पर १८४८ ई. में वह उसका दमन करने के लिए भेजा गया, परन्तु मुलतान पहुँचकर वह विद्रोही सिखों से मिल गया। इस प्रकार के दलबदल से कई सिख सरदार उसके पक्ष में हो गये और मूलराज का विद्रोह द्वितीय सिख-युद्ध (दे.) का कारण बना। १६ नवम्बर १८४८ ई. को शेरसिंह और अंग्रेजों के मध्य रामनगर नामक स्थान पर अनिर्णीत युद्ध हुआ। जनवरी १८४९ ई. के चिलियानवाला के प्रसिद्ध युद्ध में भी शेरसिंह ने भाग लिया, किन्तु वह सिख सेना का सफल नेतृत्व न कर सका। परिणाम यह हुआ कि वह अनिर्णीत युद्ध अंग्रेजों की विजय में परिणत हो गया। २१ फरवरी १८४९ ई. को गुजरात के युद्ध में सिखों की अंतिम बार पराजय होने के उपरान्त शेरसिंह ने अंग्रेजों के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया और उसके शेष दिन एक प्रकार से अज्ञातवास में कटे।

शैलेन्द्र वंश : इस वंश का आरम्भ दक्षिण-पूर्व एशिया में आठवीं शताब्दी में हुआ और इस वंश के शासक तेरहवीं शताब्दी तक वहाँ राज्य करते रहे। इस वंश के शासक जो भारतीयों की संतान थे न केवल समस्त मलय प्रायद्वीप पर, वरन् सुमात्रा, जावा, बाली और बोर्नियो सहित समस्त मलय द्वीपसमूह पर राज्य करते थे। अरब यात्रियों ने उनकी शक्ति, सम्पत्ति और ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि उन्हें महाराज पुकारा जाता था। शैलेन्द्र शासक बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय के अनुयायी थे। उनके द्वारा निर्मित स्तूपों और विहारों में जावा में स्थित बोरोबुदुर का महाचैत्य विशेष उल्लेखनीय है।

शैशुनाग वंश : पुराणों के अनुसार शैशुनाग वंश का प्रवर्तक शिशुनाग था, जो सातवीं शताब्दी ई. पू. मगध में राज्य करता था। आधुनिक विद्वानों के अनुसार इस वंश में दस राजा हुए जो क्रमशः शिशुनाग, काकवर्णी, क्षेमधर्मा, क्षेमजित, बिम्बिसार अथवा श्रेणिक, अजातशत्रु अथवा कूणिक, दर्शक, उदयी अथवा उदयन, नन्दिवर्धन और महानन्दी नाम से विख्यात हुए। इनमें से प्रथम चार राजाओं का शासन काल प्रायः ६५० ई. पू. से ५२२ ई. तक था, किन्तु उनके शासन-काल की किसी विशेष उल्लेखनीय घटना का विवरण उपलब्ध नहीं है। पुराणों की सूची के अनुसार पाँचवें शासक बिम्बिसार (४२२ ई. पू. से ४९४ ई. पू.) ने कुसुमपुर नामक नगर की स्थापना की, जो आगे चलकर सुप्रसिद्ध पाटलिपुत्र नाम से विख्यात हुआ। दसवें शासक महानन्दी का लगभग ३६२ ई. पू. में महापद्म ने वध कर दिया तथा मगध में नंद वंश की नींव डाली।

शैशुनाग वंश : किन्तु पुराणों का उपर्युक्त विवरण बौद्ध तथा जैन धर्मग्रंथों के विवरणों के सर्वथा विपरीत है। उनके अनुसार शैशुनाग, कालाशोक तथा कालाशोक के दस पुत्र ही शासक हुए। कुछ बौद्ध ग्रंथों में शिशुनाग, कालाशोक, काकवर्ण, क्षेमधर्मा और क्षेमजित नामक चार शासकों का उल्लेख बिम्बिसार के उपरान्त आया है। इस मत के अनुसार शिशुनाग के वंश में छः काकवर्ण अथवा कालाशोक और कालाशोक के पुत्र (३९५-३४५ ई. पू.)। कालाशोक के राज्यकाल में ही महापद्मनन्द ने उसकी हत्या करके शिशुनाग वंश की समाप्ति कर दी और नंदवंश की स्थापना की। (शिशुनाग वंश की स्थापना आधुनिक शोधों के अनुसार हरिवक वंश के उपरान्त ही हुई और इस संबंध में जैन तथा बौद्ध ग्रंथ अधिक प्रामाणिक जान पड़ते हैं।) - सं.

शोर, सर जान : १८९३ से १७९८ ई. तक भारत का गवर्नर-जनरल। उसने सर्वप्रथम बंगाल में कम्पनी की सेवा में निम्न पदाधिकारी के रूप में जीवन प्रारम्भ किया और जब लार्ड कार्नवालिस गवर्नर-जनरल था, तभी वह पदोन्‍नति करके कलकत्ता कौंसिल का सदस्य बन गया। उसने शासन-सुधार में कार्नवालिस की विशेष सहायता की और गवर्नर-जनरल बनने पर उसने कार्नवालिस के प्रशासकीय सुधारों को कार्यान्वित किया। उसने साधारणतया देशी राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनायी। निजाम और मराठों के युद्ध में भी वह तटस्थ रहा, जिसके फलस्वरूप १७९५ ई. के कर्दला के युद्ध (दे.) में निजाम की पराजय हुई। अवध के मामलों में उसने हस्तक्षेप करके, वहाँ के नवाब को नयी संधि करने पर विवश किया, जिसके फलस्वरूप कम्पनी का इलाहाबाद पर अधिकार हो गया।

शौकत अली, मौलाना : भारतीय मुसलमानों के नेता और प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ। जन्म वाराणसी के निकट रायपुर में १८७३ ई. में। उन्होंने अपना जीवनक्रम भारतीय अंग्रेज सरकार के आबकारी विभाग से प्रारम्भ किया। १५ वर्षों की नौकरी के उपरान्त वे राजनीतिक क्षेत्र में उतर आये और प्रथम महायुद्ध में सरकार ने उन्हें नजरबन्द रखा। छूटने पर अपने भाई मुहम्मद अली के साथ उन्होंने १९१९-२० ई. में खिलाफत आन्दोलन का नेतृत्व किया। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भी सदस्य हुए और असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। उपरान्त उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया ओर मुस्लिम लीग के सदस्य बनकर उसी के प्रतिनिधि के रूप में गोलमेज सम्मेलन (दे.) में भागलिया। १९३४ ई. में भारतीय केन्द्रीय असेम्बली के सदस्य चुने गये, किन्तु इसके बाद ही मुहम्मद अली जिन्ना (दे.) मुस्लिम राजनीतिक क्षितिज पर छा गये।

शौकतजंग : बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ का दौहित्र और अलीवर्दी खाँ (दे.) के उत्तराधिकारी सिराजुद्दौला (दे.) का चचेरा भाई। अप्रैल १७५६ ई. में नवाब अलीवर्दी खाँ की मृत्यु के समय वह पूर्णिया (पूर्निया) का सूबेदार (राज्यपाल) था। उसने बंगाल की सूबेदारी पर सिराजुद्दौला के हक को चुनौती देते हुए कुछ असंतुष्ट सरदारों के समर्थन से तत्कालीन मुगल सम्राट् से सूबेदारी की सनद अपने नाम प्राप्त कर ली। किन्तु स्वत्व जमाने के पूर्व ही सिराजुद्दौला ने आक्रमण कर उसे परास्त किया और १७५६ ई. में मार डाला।

श्रवण बेलगोला : मैसूर में स्थित एक धार्मिक स्थल। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य (दे.) सिंहासन त्याग कर यहाँ चला आया और यहीं उसने सल्लेखना व्रत करके जैन समाधिमरण की विधि से) प्राण त्याग दिये।

श्रावस्ती : प्राचीन कोशल राज्य (दे.) की राजधानी। गौतम बुद्ध यहाँ कई बार पधारे थे और नवीं शताब्दी तक यह स्थान एक प्रसिद्ध नगर रहा। यह राप्ती नदी के तट पर स्थित था और आजकल इसकी पहचान उत्तर प्रदेश के आधुनिक सहेट-महेट ग्रामों से की जाती हैं।

श्रीनगर : गढ़वाल के भूतपूर्व राजा की राजधानी। यहाँ के राजा ने १६५८ ई. में दारा के सबसे बड़े पुत्र शाहजादा सुलेमान (दे.) को शरण दी थी।

श्रीनगर : कश्मीर राज्य की राजधानी।

श्रीरंगम् : त्रिचनापल्ली के निकट स्थित। प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य रामानुज (दे.) बीच में कुछ समय को छोड़कर मृत्युपर्यंत यहीं रहे।

श्रीराम वाजपेयी : गोपालकृष्ण गोखले (दे.) द्वारा स्थापित सर्वेन्ट्स आफ इंडिया सोसाइटी के सदस्य। उन्होंने १९१४ ई. में 'सेवा समिति ब्वाय स्काउट एसोसियेशन' की स्थापना लार्ड बेडेन पावेल द्वारा इंग्लैण्ड में संगठित ब्वाय स्काउट एसोसियेशन के आधार पर की। सेवा समिति का उद्देश्य ब्वाय स्काउट एसोसियेशन का पूरा भारतीयकरण करना था और उन्हें इस उद्देश्य को पूरा करने में सफलता मिली थी।

श्रीलंका : भूगर्भशास्त्रीय दृष्टि से भारतीय प्रायद्वीप का दक्षिणी भाग, जो बाद में उससे अलग हो गया। भारत से इसके घनिष्ठ सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं, किन्तु राजनीतिक अस्तित्व अलग रहा है। भारतीय साहित्य के विभिन्न कालों में इसका वर्णन विभिन्न नामों से हुआ है। पालिग्रंथों और अशोक के अभिलेखों में इसका उल्लेख 'तपोवन' कहकर पुकारा है। रामायण में इसे लंका कहा गया है, जिसका शासक राक्षसराज रावण था और आधुनिक यूरोपवासियों ने इसे 'सीलोन' की संज्ञा दी, जो श्रीलंका शब्द का अपभ्रंश है। संस्कृत में इसका एक नाम सिंहल है और बंगाल में प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार यह नाम विजयसिंह नामक एक निर्वासित बंगाली राजकुमार के आधार पर रखा गया है, जिसने इस द्वीप पर विजय प्राप्त की थी। इतिहास में इस घटना का कोई प्रमाण नहीं मिलता है।

श्रीलंका और भारत के बीच सदैव घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध रहे हैं। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में इन दोनों देशों में उस समय सांस्कृति सम्बन्ध भी प्रगाढ़ हो गये जब मगध सम्राट् अशोक के पुत्र या भाई महेन्द्र ने श्रीलंका के नरेश देवानाम् प्रिय तिस्स (तिष्य) को सपरिवार बौद्धधर्म की दीक्षा दी। इसके बाद से श्रीलंका बौद्धधर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया। यहीं पर ८० ई. पू. में नरेश वत्तगमणि के शासनकाल में बौद्धों के धर्मग्रंथ 'त्रिपिटिक' को पहली बार लिपिबद्ध किया गया। अनुरुद्धपुर (अनुराधापुर) से बौद्ध धर्म का प्रचार और प्रसार न केवल सम्पूर्ण श्रीलंका में वरन् दक्षिण-पूर्व एशिया के विशाल भू-भाग में हुआ। यहाँ तक कि भारत के बौद्ध विद्वान् भी अपना अध्ययन पूरा करने के लिए श्रीलंका जाया करते थे। राजनीतिक परिवर्तनों के साथ स्थिति बदलती रही; ईसवी सन् की चौथी शताब्दी में श्रीलंका के नरेश मेघवर्मा के भारत के समकालीन यशस्वी सम्राट् समुद्रगुप्त (गुप्तकाल) के साथ सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध थे। उसने बोध गया में श्रीलंका के तीर्थयात्रियों के निवासार्थ एक विहार बनाने के लिए समुद्रगुप्त से अनुमति प्राप्त की थी। छठी शताब्दी के आरम्भ में पल्लव नरेशसिंह विष्णु और उसके पौत्र नरसिंह वर्मा ने श्रीलंका पर शासन किया। इसके बाद फिर दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दियों में चोलवंश के नरेश राजराज और राजेन्द्र प्रथम ने श्रीलंका पर शासन किया, लेकिन श्रीलंका शीघ्र ही पुनः स्वतंत्र हो गया। कुछ समय बाद श्रीविजय (दे.) के शैलेन्द्र राजाओं ने इसपर हमला कर दिया, लेकिन श्रीलंका ने हमले को विफल कर दिया।

श्रीलंका पर मुस्लिम शासकों का आधिपत्य कभी नहीं रहा। ऐसा प्रतीत होता है पन्द्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में उस पर विजयनगर नरेश देवराय द्वितीय (१४२५-४७ ई.) का शासन स्थापित हो गया था, किन्तु उसने शीघ्र ही फिर स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। किन्तु सोलहवीं शताब्दी के मध्य में श्रीलंका के अधिकांश समुद्र तटवर्ती भू-भाग पर पुर्तगालियों का आधिपत्य हो गया, जो १५१० ई. में गोआ में अपने पैर जमा चुके थे। १६५८ ई. में पुर्तगालियों को खदेड़ कर डच लोग श्रीलंका में आ डटे। नेपोलियन से युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने डचों को वहाँ से भगा दिया। वियना-संधि (१८१५) के अन्तर्गत श्रीलंका ब्रिटिश साम्राज्य का अंग हो गया। उसका शासन भारत के अधीन रखा गया। १९४७ ई. में भारत के स्वाधीन हो जाने पर भी श्रीलंका ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना रहा। बाद में उसे भी स्वाधीनता प्रदान कर दी गयी।

श्रीविजय : मलय द्वीपपुंज में भारतीयों ने जो राज्य स्थापित किया था, उसका भी नाम और उसके एक नगर का भी नाम। इसकी पहचान अब सुमात्रा के पलेमबांग नगर से की जाती है। (देखिये, 'प्रवासी भारतीय')।

श्रेणिक : मगध के सम्राट् बिम्बिसार (दे.) का दूसरा नाम।

श्वेत विद्रोह : भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के गोरे सैनिकों के विद्रोह को इस नाम से पुकारा जाता है। राबर्ट् क्लाइव जब दूसरी बार बंगाल का गवर्नर बनकर आया तो उसने कम्पनी के डाइरेक्टरों के आदेश से भारत में कम्पनी की सेवा में नियुक्त अंग्रेज सैनिकों का भत्ता घटा दिया। इसपर उन्होंने विद्रोह कर दिया। क्लाइव ने बड़ी तत्परता और दृढ़ता से इस विद्रोह का दमन कर दिया।

श्वेत हूण : हूणों की एक शाखा, जो ५ वीं शताब्दी के मध्य में वंक्षु (आक्सस) नदी की घाटी में आ बसी थी। इन लोगों ने ४५५ ई. में भारत के गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया, लेकिन तत्कालीन सम्राट् स्कन्दगुप्त (४५५-६७ ई.) ने उन्हें खदेड़ दिया। ४८४ ई. में वे फारस को रौंदने में सफल हो गये और अगले वर्षों में उन्होंने काबुल और कंधार पर अधिकार कर लिया। इतना ही नहीं, वे तोरमाण के नेतृत्व में आर्यावर्त तक घुस आये। उसके पुत्र मिहिरगुल (दे.) ने छठीं शताब्दी ई. के आरम्भ में गुप्त साम्राज्य को उखाड़ फेंका और पंजाब स्थित शाकल (सियालकोट) को राजधानी बनाकर उत्तरी भारत के एक भाग पर शासन करने लगा। हूणों का शासन अत्यंत नृशंस और बर्बर था।

५२८ ई. में मालवा के राजा यशोधर्मा (दे.) तथा गुप्त वंश के सम्राट् बालादित्य के नेतृत्व में कई राजाओं ने मिलकर मिहिरगुल को पराजित कर भारत में हूण-शासन का अंत कर दिया। भारतीय राज्य हाथ से निकल जाने पर श्वेत हूणों की शक्ति बहुत क्षीण हो गयी। अन्त में फारस के शाह खुसरो नौशेरवाँ ने ५६३ ई. और ५६७ ई. के बीच हूणों की रही-सही शक्ति को भी नष्ट कर दिया।

भारत में हूणों की शक्ति समाप्त हो जाने के बाद वे हिन्दुओं में घुल-मिल गये। विश्वास किया जाता है कि आठवीं शताब्दी में तथा उसके बाद जिन राजपूत वंशों का उत्कर्ष हुआ, उनके रक्त में हूणों का रक्त मिश्रित था। (मैकगवर्न. पृ. १०९ नोट)

श्वेताम्बर जैन : जैनों (दे.) का एक सम्प्रदाय। वर्धमान महावीर (दे.) की शिक्षाओं के बावजूद इस सम्प्रदाय के साधु श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।

षड्दर्शन : हिन्दू दर्शन के छः दार्शनिक सिद्धान्त, जो न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा अथवा वेदान्त कहलाते हैं। इन्हीं को सम्मिलित रूप से षड्दर्शन कहते हैं। इन दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादक क्रमशः गौतम, कणाद, कपिल, पतंजलि, जैमिनि और बादरायण थे। (देखिये, सं. राधाकृष्णन द्वारा अंग्रेजी में रचित 'भारतीय दर्शन का इतिहास)।

संगम : हरिहर और कुक्क (राय) का पिता। इन दोनों भाइयों ने ही १३३६ ई. में विजयनगर राज्य की स्थापना की थी। (दे. विजयनगर)

संग्राम सिंह (राणा साँगा)  : वायमल्ल का पुत्र और उत्तराधिकारी। इतिहास में वह मेवाड़ का राजा साँगा के नाम से प्रसिद्ध था, जिसने १५०८ से १५२९ ई. तक शासन किया। संग्राम सिंह महान् योद्धा था और तत्कालीन भारत के समस्त राज्यों में ऐसा कोई भी उल्लेखनीय शासक न था जो उससे लोहा ले सके। बाबर के भारत आक्रमण के समय राणा साँगा को आशा भी कि वह भी तैमूर की भाँति दिल्ली के लूट-पाट करने के उपरान्त स्वदेश लौट जायेगा। किन्तु जब उसने देखा कि १५२६ ई. में इब्राहीम लोदी को पानीपत के युद्ध में परास्त कर बाबर दिल्ली में शासन करने लगा है तो वह अपने १२० सहायक सामन्तों, ८० हजार अश्वरोहियों और ५०० हाथियों की विशाल सेना लेकर युद्ध के लिए चल पड़ा। १६ मार्च १५२७ ई. को खनुआ नामक स्‍थान पर बाबर से उसका घमासान युद्ध हुआ। यद्यपि इस युद्ध में राजपूतों ने अत्यधिक वीरता दिखायी, तथापि वे बाबर द्वारा पराजित हुए। इस युद्ध में राणा साँगा जीवित तो बच गये, किन्तु पराजय के आघात से दो वर्ष उपरांत ही उनकी मृत्यु हो गयी और भारतवर्ष में हिन्दू राज्य स्थापित करने का उसका स्वप्न भंग हो गया।

संघ : इस शब्द का प्रयोग बहुधा बौद्ध भिक्षु संघ के लिए होता है। भिक्षु संघ की गणना बौद्धधर्म के त्रिरत्नों (यथा बुद्ध, धर्म तथा संघ) में होती है। गौतम बुद्ध ने भिक्षु संघ का संगठन प्रजातान्त्रिक आदर्शों पर किया था।

संघमित्रा  : राजकुमार महेन्द्र (दे.) की भगिनी। उत्तर भारत की बुद्ध अनुश्रुतियों के आधार पर महेन्द्र को मौर्य सम्राट् अशोक का भाई माना गया है, यद्यपि सिंहली ग्रंथों और अनुश्रुतियों में संघमित्रा और महेन्द्र भाई-बहिन तथा अशोक की शाक्य रानी विदिशा देवी से उत्पन्न कहे गये हैं। सिंहली ग्रंथों के अनुसार महेन्द्र बौद्ध भिक्षुओं के एक दल का नेतृत्व करता हुआ श्रीलंका गया और वहाँ के सभी निवासियों को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। संघमित्रा भी महेन्द्र के साथ बौद्ध धर्म के प्रचार कार्य में सहयोग देने के लिए श्रीलंका गयी थी। उसने भी वहाँ के राजा तिष्य से समस्त परिवार के साथ ही अन्य स्त्रियों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी। आज भी लंका में उसका नाम आदर के साथ लिया जाता है।

संप्रति : कुणाल का पुत्र और सम्राट् अशोक का पौत्र। यद्यपि अभिलेखों में उसका कहीं उल्लेख नहीं है परन्तु प्राचीन अनुश्रुतियों के अनुसार अपने पितामह अशोक के उपरान्त कुणाल के अंधे होने के कारण वही सिंहासनासीन हुआ। वह जैनमतानुयायी था। कदाचित उसने सम्राट् अशोक के साम्राज्य के पश्चिमी भू-भागों पर ही राज्य किया। इस प्रदेश में उसे अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराने का श्रेय दिया जाता है।

संवत्, प्राचीन भारतीय  : अनेक हैं, जिनमें से कोई भी किसी भी काल में सम्पूर्ण भारत में प्रचलित नहीं रहा। बहुत से राजाओं ने अपने राज्याभि‍षेक के उपलक्ष्य में अपने नाम से नये संवत् प्रचलित किये। फलस्वरूप यह समझना कठिन है कि कौन संवत् ठीक-ठीक किस समय चला और किसने चलाया। फलतः किसी भी भारतीय संवत् की वास्तविक गणना तब हो पाती है जब उसमें उल्लिखित किसी घटना के सम्बन्ध में ईसवी सन् का भी कहीं उल्लेख मिल जाता है। प्राचीन मुख्य संवत् ये थे :

(१) कलियुग अथवा युधिष्ठिर संवत्, जो ईसा पूर्व ३१०२ से प्रारम्भ माना जाता है। यह संवत् प्रागैतिहासिक है और इसका प्रयोग केवल प्राचीन साहित्य में मिलता है। (२) विक्रम संवत्, जिसे सानन्द विक्रम संवत् अथवा संवत् विक्रम अथवा श्रीनृप विक्रम संवत् अथवा मालव संवत् भी कहा गया है और इसका प्रारंभ ५० ईसा पूर्व से माना जाता है। इसका कौन प्रवर्तक था और किस घटना की स्मृति में चलाया गया, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। (३) आनन्द विक्रम संवत् ३३ ई. में किसी अज्ञात शासक द्वारा चलाया गया। (४) शक संवत् अथवा शकाब्द संभवतः कुषाण वंश के राजा कनिष्क प्रथम द्वारा ७८ ई. में चलाया गया। (५) लिच्छवि संवत् १११ ई. में आरंभ किया गया। इसके प्रवर्तक का नाम भी अज्ञात है। (६) चेदि अथवा त्रकूटक कलचुरि संवत् २४८ ई. में शुरू किया गया। (७) गुप्त संवत् को गुप्त वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्याभिषेक की स्मृति में ३१९-२० ई. में प्रचारित किया। (८) हूण संवत् तोरमाण ने सन् ४४८ ई. में प्रारम्भ किया और अपने सिक्कों में प्रयुक्त किया। (९) हर्ष संवत् को महाराज हर्षवर्धन ने अपने राज्याभिषेक की स्मृति में ६०६ ई. में प्रचारित किया। (१०) कालम् अथवा मलाबार संवत् का आरम्भ ८२४ ई. से माना जाना है, जिसका प्रयोग चेर अथवा केरल के राजा करते थे। (११) नेपाली संवत् का आरम्भ ८७९ ई. से माना जाता है। (१२) विक्रमांक चालुक्य संवत् को चालुक्य नरेश विक्रमांक (दे.) ने अपने राज्याभिषेक की स्मृति में सन् १०७६ ई. में चलाया था। (१३) लक्ष्मण संवत् को बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन ने ११९० ई. में प्रचलित किया था। (कनिंघम रचित वुक आफ इण्डियन एराज; ज. रा. ए. सो. १९१३, पृष्ठ ६२७; कीलहार्न का लेख, ई. ए., खंड २०, (१८९१) तथा बनर्जी. पृष्ठ ४६५-७२)।

संविधान सभा : दे., 'भारतीय संविधान सभा'।

संसदीय घोषणाएं : भारत के संवैधानिक विकास के विभिन्न चरणों की सूचक, जिनकी अन्तिम परिणति स्वाधीनता के रूप में हुई। प्रथम संसदीय घोषणा २० अगस्त १९१७ ई. को तत्कालीन भारतमंत्री एडविन माण्टेगू द्वारा हुई, जिसमें कहा गया था कि ब्रिटिश सरकार की नीति, जिससे भारत सरकार पूर्णतः सहमत है, यह है कि ब्रिटिशः साम्राज्य के अखंड भाग के रूप में भारत में उत्तरदायी शासन की क्रमिक स्थापना के उद्देश्य से प्रशासन की प्रत्येक शाखा में भारतीयों को अधिकाधिक स्थान दिया जाय और स्वशासी संस्थाओं का क्रमिक विकास किया जाय। इस घोषणा के बाद १९१७-१८ ई. में माण्टेगू ने भारत का दौरा किया और १९१९ ई. में ब्रिटिश सरकार ने नया भारतीय शासन विधान पास कर दिया। इस संविधान के अन्तर्गत प्रान्तों में द्वैध शासन (आंशिक उत्तरदायी सरकार तथा निर्वाचित विधानसभाएँ) और केन्द्र में आंशिक निर्वाचित केन्द्रीय विधान सभा की स्थापना की गयी। इस प्रकार भारत में संसदीय शासन-प्रणाली की शुरूआत हुई।

दूसरी महत्त्वपूर्ण घोषणा अक्तूबर १९२९ ई. में हुई, जिसमें कहा गया कि भारत की संवैधानिक प्रगति का स्वाभाविक लक्ष्य देश में औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना है। इस घोषणा के परिणामस्वरूप भारतीय शासन विधान, १९३५ ई. स्वीकृत किया गया, जिसमें केन्द्र में संघीय उत्तरदायी शासन तथा प्रांतों में पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना की व्यवस्था की गयी।

तृतीय एवं अंतिम घोषणा ३ जून १९८४ ई. को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने हाउस आफ कामन्स में की, जिसमें कहा गया था कि ब्रिटिश सरकार ने भारतीय जनता को यथासम्भव शीघ्रातिशीघ्र सत्ता सौंप देने का निश्चय किया है। इस घोषणा के फलस्वरूप भारतीय स्वाधीनता अधिनियम (१९४७ ई.) बना जो १५ अगस्त १९४७ ई. से लागू हुआ और भारतीय स्वाधीनता का कानूनी आधार बना।

संस्कृत  : हिन्दुओं की प्राचीन भाषा। इसका अपना विशाल साहित्य-भंडार है, जिसमें ज्ञान की समस्त शाखाओं पर रचना हुई है। इसका व्याकरण वैज्ञानिक आधार पर निर्मित है। संस्कृत प्राचीन भारतकी राजभाषा भी थी। यद्यपि अशोक ने अपने अभिलेखों में इसका प्रयोग नहीं किया, किन्तु बाद के युगों में संस्कृत की प्रधानता पुनः स्थापित हो गयी और भारत के कई विदेशी शासकों ने भी अपनी उपलब्धियों को उत्कीर्ण कराने में इसी भाषा का प्रयोग किया। प्राचीन काल में देश की एकता बनाये रखने की इस भाषा में महान् शक्ति थी। आज दिन भी सम्पूर्ण देश के हिन्दुओं में पूजा, उपासना और कर्मकांडों के मंत्रों में इसी देवभाषा का प्रयोग होता है। साधारणतया इसे देवनागरी लिपि में लिखा जाता है, किन्तु इसे भारत की अन्य क्षेत्रीय लिपियों में भी लिखा और पढ़ा जाता है। भारत से बाहर मलयद्वीप समूह, कम्बोडिया तथा अनाम आदि देशों में उपनिवेश स्थापित करनेवाले भारतीयों ने इसे समुद्र के पार भी प्रतिष्ठित किया, जहाँ स्थानीय शासकों की यशोगाथाओं को अंकित करने के हेतु अभिलेखों में इसका प्रयोग हुआ है।

संस्कृत कालेज : ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा सर्वप्रथम १७९४ ई. में वाराणसी में संस्कृत कालेज की स्थापना हुई। इसके बाद १८२० ई. में दूसरा संस्कृत कालेज कलकत्ता में स्थापित हुआ।

सआदत अली : नवाब आसफउद्दौला (१७७५-१७९७ ई.) का भाई। आसफउद्दौला की मृत्यु के १ वर्ष बाद अंग्रेजों ने उसे अवध में सिंहासनासीन किया और वह १७९८ से १८१४ ई. तक अवध का नवाब रहा। तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली ने उसे नवाब बनाने के बाद ही जमान शाह (दे.) के आक्रमण का झूठा भय दिखाकर अपने राज्य में अंग्रेज पलटनों की संख्या बढ़ाने के लिए मजबूर किया। उसने उसका आधा राज्य यानी गंगा और यमुना का दोआब तथा रुहेलखंड हड़प लिया। अपने आधे राज्य से ही उसे संतोष करना पड़ा। उसकी मृत्यु १८१४ ई. में हुई। उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी गाजीउद्दीन हैदर था जिसने १८१४ से १८२७ ई. तक राज्य किया। गाजीउद्दीन हैदर को तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड हेस्टिंग्स के अनुमोदन से १८१९ ई. में बादशाह का खिताब दिया गया, परन्तु इससे उसकी सत्ता अथवा शक्ति में किसी प्रकार की वृदधि नहीं हुई।

सआदत खाँ : प्रारंभ में अवध में मुगल सम्राट् का प्रान्तीय शासक अथवा सूबेदार था, किन्तु केन्द्र की दुर्बलता का लाभ उठाकर उसने १७२४ ई. में अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया। उसने अपनी मृत्यु (१७३९ ई.) तक अवध पर स्वतंत्र रूप से शासन किया।

सचिव : प्राचीनकाल में इसका प्रयोग मंत्री अथवा परामर्शदाता के लिए होता था। शिवाजी प्रथम (दे.) की शासन व्यवस्था में जो अष्ट प्रधान अथवा आठ मंत्री थे उनमें सचिव का स्थान चौथा था। उसका कार्य राजा के समस्त पत्र-व्यवहार और राज्य के प्रत्येक महाल और परगने से होनेवाली आय के लेखे-जोखे की देखभाल करना था।

सतलज के इस पार के राज्य : या सिक्ख राज्य सतलज और यमुना नदियों के बीच में स्थित थे, जिनमें लगातार आपसी युद्ध होते रहते थे। उसकी फूट और कमजोरी का फायदा उठाकर १७८५ ई. के बाद महादजी शिन्दे के नेतृत्व में मराठों ने उन पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। बाद में अंग्रेजों ने मराठों को यहाँ से खदेड़ दिया और सतलज के इस पार के सिक्ख राज्यों को अनौपचारिक रूप से अपने संरक्षण में ले लिया। महाराज रणजीतसिंह की शक्ति उस समय तेजी से बढ़ रही थी। वह समस्त पंजाब को अपने शासन के अन्तर्गत संगठित करना चाहता था। उसने कुछ सिक्ख सरदारों के अनुरोध पर १८०६ और १८०७ ई. में सतलज क्षेत्र पर धावा बोल दिया और लुधियाना पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। रणजीत सिंह की शक्ति और सत्ता के इस विस्तार का कुछ सिक्ख राज्यों ने विरोध किया तथा अंग्रेजों ने भी इसे चिन्ता की दृष्टि से देखा।

१८०९ ई. में अंग्रेजों ने डेविड आक्टरलोनी के नेतृत्व में इन राज्यों में अपनी फौजें भेज दीं। रणजीत सिंह अंग्रेजों के साथ सशस्‍त्र संघर्ष में उलझना नहीं चाहता था, अतः उसने १८०९ ई. में अंग्रेजों के साथ अमृतसर में शान्ति संधि कर ली और वे सतलज के इस पार से हट गये। इसके बाद ये राज्य निश्चित रूप से भारत की ब्रिटिश सरकार के संरक्षण में आ गये। ब्रिटिश सरकार ने शीघ्र ही लुधियाना में अपनी फौंजें तैनात कर दीं। इस प्रकार सिक्खों का कुछ क्षेत्र रणजीत सिंह और कुछ अंग्रेजों की अधीनता में आ गया।

सतारा : बम्बई प्रेसीडेन्सी (वर्तमान महाराष्ट्र) का एक नगर, पहले यह एक राज्य (रियासत) भी था। सतारा शाहूजी के वंशजों की राजधानी रहा, यद्यपि मराठा राज्य की सत्ता पेशवाओं के हाथों में जाने के फलस्वरूप यह उनके अधीन था। १८१८ ई. में पेशवा बाजीराव द्वितीय की पराजय के उपरान्त अंग्रेजों ने इसे पुनः आश्रित राज्य बना दिया। १८४८ ई. में गोदप्रथा की समाप्ति का सिद्धान्त लागू किये जाने के फलस्वरूप इसे अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।

सतियपुत्र (सत्य पुत्र) : सम्राट् अशोक के द्वितीय शिलालेख में उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमाओं पर सतियपुत्रों के राज्य का उल्लेख हुआ है। इसकी निश्चित पहचान नहीं हो पायी है, किन्तु यह निश्चय ही केरल अथवा चेर (दे.) राज्य के सन्निकट था।

सती प्रथा  : इसके अनुसार विधवा स्त्री अपने मृत पति के साथ चिता पर जलकर भस्म हो जाती थी। यह प्रथा वैदिक युग में अज्ञात थी, किन्तु उपरान्त इसका प्रचलन हुआ। महाभारत के अनुसार इसका प्रचलन प्राचीन राजपरिवारों में था।

सिकन्दर के साथ आये हुए यूनानी लेखकों ने भी इसका उल्लेख किया है। सम्भवतः यह प्रथा राज-परिवारों से सामान्य वर्गों में फैली और मुसलमानों के आक्रमणों के कारण इसका प्रचलन व्यापक रूप से हो गया। मुगल सम्राट् अकबर ने इसे रोकने का प्रयास किया किन्तु वह असफल रहा। १८२९ ई. में भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलयम वेन्टिंग ने अंग्रेजों द्वारा अधिकृत भारतीय क्षेत्र में इस प्रथा पर रोक लगा दी, किन्तु पंजाब में इसका प्रचलन रहा। वहाँ यह तभी समाप्त हो सकी जब १८४८ ई. में पंजाब पर अग्रेजों का अधिकार हो गया।

सत्याग्रह आन्दोलन : इसका सूत्रपात सर्वप्रथम महात्मा गांधी (दे.) ने १८९४ ई. में दक्षिण अफ्रीका में किया। इसका अभिप्राय सामाजिक एवं राजनीतिक अन्यायों को दूर करने के लिए सत्य और अहिंसा पर आधारित आत्मिक बल का प्रयोग था। यह एक प्रकार का निष्क्रिय प्रतिरोध था, जो व्यक्तिगत अथवा सामुहिक रूप से कष्ट-सहन द्वारा विरोधी का हृदय परिवर्तन करने में सक्षम हो। दक्षिण अफ्रीका में इस आन्दोलन को अत्यधिक सफलता मिली। जनरल स्मट्स को प्रवासी भारतीयों के आंदोलन का औचित्य स्वीकार करना पड़ा और भारत के वाइसराय लार्ड हार्डिग्ज ने भी उनके प्रति सहानुभूति प्रकट की, अन्ततः इस आन्दोलन से दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की अनेक शिकायतें दूर हुईं।

१९२० ई. के राष्ट्रीय आन्दोलन में इसका प्रयोग भारत में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध अहिंसात्मक असहयोग आन्दोलन के रूप में हुआ। तत्पश्चात् इसका स्वरूप सविनय अवज्ञा आन्दोलन में परिवर्तित हो गया। निश्चित ही इस आन्दोलन ने भारतीयों को अंग्रेजी शासन का अन्त करने के लिए कृतसंकल्प किया। इस प्रकार भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में इसका ठोस योगदान रहा है।

सदर : मुगलकालीन शासन व्यवस्था के अन्तर्गत एक पद। इस पद पर नियुक्त कर्मचारी परगने में समस्त धार्मिक अनुदानों का प्रबंध करता था।

सदर दीवानी अदालत : इसकी स्थापना १७७२ ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने कलकत्ता में की। इसका कार्य नीचे की सभी दीवानी अदालतों द्वारा किये गये मुकदमों के निर्णयों की अपील पर विचार करना था। इसकी अध्यक्षता बंगाल कौंसिल का अध्यक्ष करता था और इसमें कौंसिल के दो अन्य सदस्य भी होते थे। १७७३ ई. में रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के अनुसार जब कलकत्ता में उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) की भी स्थापना हो गयी, तब सदर दीवानी अदालत और उच्चतम न्यायालय के बीच अधिकार-क्षेत्र सम्बन्धी विवादों को दूर करने के लिए गवर्नर-जनरल ने उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सर एलिजा इम्पी को ही सदर दीवानी अदालत का अध्यक्ष नियुक्त किया। हेस्टिंग्स के इस प्रबन्ध की तीव्र आलोचना हुई, फलतः उसे अपने इस निर्णय को निरस्त करना पड़ा।

दूसरी सदर दीवानी अदालत की स्थापना उत्तरी भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा अधिकृत भू-भागों में उत्तरोत्तर वृद्धि होने से १८३१ ई. में इलाहाबाद में हुई। १८६१ ई. में कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में उच्च न्यायालयों (हाईकोर्ट) की स्थापना हुई, तब सदर दीवानी अदालत और उच्चतम न्यायालय को भी कलकत्ता के उच्च न्यायालय में सम्मिलित कर दिया गया।

सदर निजामत अदालत : इसकी स्थापना १७७२ ई. में वारेन हेस्टिंग्स द्वारा कलकत्ता में की गयी। इस न्यायालय का कार्य फौजदारी की ऐसी अपीलों पर पुनर्विचार करना था, जिन पर नीचे की अदालतें और निम्न अधिकारीगण अपना निर्णय दे चुके हों। इस अदालत में भारतीय न्यायाधीश ही थे किन्तु उन पर कौंसिल के अध्यक्ष और सदस्यों का नियंत्रण रहता था। १७७५ ई. में सदर निजामत अदालत का स्थानान्तरण कलकत्ता से मुर्शिदाबाद करके उसे नायब के अधीन रख दिया गया। १७९० ई. में इसे पुनः कलकत्ता ले जाकर गवर्नर-जनरल की कौंसिल के ही अधीन कर दिया गया। १८३१ ई. में कलकत्ता की सदर निजामत अदालत को भी सदर दीवानी अदालत की भाँति वहाँ के उच्च न्यायालय में सम्मिलित कर दिया गया।

सदरुस्सदर : समस्त मुगल साम्राज्य के धार्मिक अनुदानों का मुख्य अधिकारी। उसका कार्यालय राजधानी में स्थित था और अन्य स्थानों पर नियुक्त सदर उसके अधीन थे।

सदाशिव : विजयनगर के तृतीय राजवंश का अंतिम शासक। उसने १५४२ से १५७० ई. तक राज्य किया। वह कृष्णदेव राय का छोटा पुत्र था। उसके अल्पवयस्क होने के कारण राज्य की समस्त सत्ता रामराजा के (दे.) हाथों में रही। रामराजा की परस्पर भेद नीति के फलस्वरूप पाँचों बहमनी सल्तनतें एक हो गयीं और उनके सम्मिलित आक्रमण के फलस्वरूप १५६५ ई. में तालीकोट का प्रसिद्ध युद्ध हुआ। रामराजा पराजित हुआ और मारा गया। सदाशिव विजयनगर छोड़ कर रामराजा के भाई तिंरुमल के संरक्षण में पेनुगोण्डा भाग गया, परन्तु १५७० ई. के लगभग तिरुमल ने उसकी हत्या कर दी और स्वयं सिंहासनासीन हुआ।

सदाशिव (राव) : भाऊ-पेशवा बालाजी बाजीराव (दे.) (१७४०-६१ ई.) का चचेरा भाई। वह शासन-प्रबंध में पटु था और मराठा साम्राज्य का समस्त शासन भार पेशवा ने उसी पर छोड़ दिया था। उसने मराठों की विशाल सेना को यूरोपियन सेना के ढंग पर व्यवस्थि‍त किया। उसके पास इब्राहीम खाँ गर्दी नामक मुसलमान सेनानायक के अधीन विशाल तोपखाना भी था। इसी सैन्यबल के आधार पर सदाशिव भाऊ ने हैदराबाद के निजाम सलावतजंग (दे.) को उदरगीर (दे.) के युद्ध में हरा कर भारी सफलता प्राप्त की। इस विजय से उसकी प्रतिष्ठा इतनी बढ़ गयी कि उसे शीघ्र ही पंजाब प्रान्त में अहमदशाह अब्दाली (दे.) की बढ़ती हुई शक्ति को नष्ट कर मराठों की सत्ता स्थापित करने के लिए भेजा गया। किन्तु सदाशिव कूटनीति एवं युद्ध-क्षेत्र दोनों में विफल रहा। उसके दम्भी स्वभाव के फलस्वरूप जाट लोग विमुख हो गये तथा राजपूतों ने भी सक्रिय सहयोग नहीं दिया। वह नवाब शुजाउद्दौला (दे.) को भी अपने पक्ष में नहीं कर सका, हालांकि मुगल बादशाह ने उसे अपना प्रतिनिधि बना रखा था।वह रणनीति में भी अब्दाली से मात खा गया। उसने भागे बढ़कर अब्दाली की फौजों पर हमला करने के बजाय स्वयं उसके हमले का इंतजार किया। इस प्रकार उसकी विशाल सेना को पानीपत के मैदान में, जहाँ उसने अपनी मोर्चेबंदी कर रखी थी, अब्दाली की फौजों ने घेर लिया था। १५ जनवरी १७६१ ई. को सदाशिव ने असाधारण वीरता दिखायी, किन्तु वह मारा गया। इस युद्ध में पराजय से मराठा शक्ति को गहरा धक्का लगा और इसी आघात से पेशवा की भी मृत्यु हो गयी।

सप्रू, सर तेजबहादुर : बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में उदार दल (लिबरल पार्टी) के ख्यातिलब्ध नेता। वे प्रयागनिवासी प्रतिष्ठित वकील थे और वाइसराय की कार्यकारिणी समिति में भी एक सत्र तक सदस्य रहे।

सफ़दर अली : कर्नाटक के नवाब दोस्त अली का पुत्र एवं उत्तराधिकारी। दोस्त अली को मराठों ने १७४१ ई. में मार डाला। सफदर अली भी थोड़े ही दिन नवाब रह सका, क्योंकि १७४२ ई. में चचेरे भाई मुर्तजा अली ने उसका वध कर दिया। सफदर अली के बहनोई चन्दा साहब (दे.) की नवाबी में द्वितीय कर्नाटक-युद्ध (दे.) छिड़ा।

सफ़दर जंग : अवध के प्रथम नवाब सआदत खाँ की बहिन का पुत्र। यह अपने मामा की मृत्यु के उपरान्त अवध का नवाब बना। तत्पश्चात् मुगल सम्राट् ने उसे वजीर नियुक्त किया किन्तु मराठों का सहायता से गाजीउद्दीन ने उसे अपदस्थ कर दिया। सफदर जंग पुनः अवध लौट आया फिर भी गाजीउद्दीन की शत्रुता ने उसका पीछा न छोड़ा। १७५३ ई. में गाजीउद्दीन ने उसे पुनः परास्त किया और अगले ही वर्ष सफदर जंग की मृत्यु हो गयी।

सबातजंग : फारसी भाषा की एक उपाधि, जिसका अर्थ 'युद्ध में अनुभव-प्राप्त' अथवा 'युद्ध-निपुण' होता है। नवाब मीरजाफर ने तत्कालीन मुगल सम्राट् से राबर्ट क्लाइव को १७५७-६० ई. के मध्य उक्त उपाधि प्रदान करायी थी।

समतट : प्रतापी गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त (दे.) के प्रयाग स्तम्भलेख में डवाक के साथ सीमावर्ती राज्य के रूप में उल्लिखित। वहाँ के तत्कालीन शासक को समुद्रगुप्त ने कर-दान, आज्ञा-पालन और राजधानी में आकर प्रणाम करने के लिए बाध्य किया। साधारणतया समतट प्रदेश का निर्धारण पूर्वी बंगाल अथवा बाँगला देश के समुद्र तटीय भू-भागों से किया गया है। इसकी राजधानी कदाचित् कोमिल्ला के निकट बड़काभता नामक स्थान पर थी, जो अब बाँगला देश में है।

समुद्रगुप्त : सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम का पुत्र, उत्तराधिकारी तथा गुप्त वंश का द्वितीय सम्राट्। उसके राज्यकाल का निश्चयपूर्वक निर्धारण करना कठिन है। संभवतः उसने ३३० से ३८० ई. तक राज्य किया। समुद्रगुप्त महान योद्धा और विजेता था। अशोक द्वारा स्थापित प्रयाग के शिला-स्तम्भ पर उसकी विजयगाथा उत्कीर्ण है। सर्वप्रथम उसने उत्तरी भारत में आर्यावर्त के कई राजाओं का उन्मूलन किया। उसने समतट (पूर्वी बंगाल), डुवाक (नौगांव, आसाम), कामरूप, नेपाल, कर्तृपुर (गढ़वाल और जालन्धर); पूर्वी और मध्य पंजाब, मालवा तथा पश्चिमी भारत के गणराज्यों तथा कुषाणों और शकों को अपनी प्रभुसत्ता स्वीकार करने पर विवश किया। इसके उपरान्त एक विशाल सैन्यबल लेकर उसने दिग्विजय के लिए दक्षिण की ओर प्रस्थान किया।

दक्षिणापथ के जिन बारह राजाओं को उसने परास्त किया, उनके नाम क्रमशः निम्न प्रकार थे-कोशल अथवा दक्षिण कोशल का महेन्द्र महाकान्तार अथवा विन्ध्या का व्याघ्रराज, कोशल (पहचान नहीं हो सकी) का मन्टराज, पिष्टपुर (पीठापुरम्) का महेन्द्रगिरि, कोट्टूर (कोढूर, मद्रास) का स्वामिदत्त, एरण्डपल्ल (संभवतः मद्रास प्रांत में) का दमन, कांची का विष्णुगोप, अवभुक्त का नीलराज, वेंगी (पेडू वेंगी) का हस्तिवर्मा, पालक्क (नेल्लोर) का उग्रसेन, देवराष्ट्र (विजगापट्टम जिला) का कुबेर और कुस्थलपुर (संभवतः उत्तरी अर्काट) का धनंजय। समुद्रगुप्त ने इन राजाओं को परास्त करके उनकी श्री अथवा कोष-धन लेकर उन्हें पुनः उनके राज्यपद पर आसीन किया।

इन विजयों के फलस्वरूप उसका साम्राज्य हिमालय के पादभाग से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक और पूर्व में ब्रह्मपुत्र से लेकर पश्चिम में यमुना और चम्बल नदियों तक विस्तृत हो गया। इतने विशाल साम्राज्य की स्थापना उसकी महान् उपलब्धि थी। इसके उपलक्ष्य में उसने अश्वमेध यज्ञ किया था। शीघ्र ही उसकी कीर्ति विदेशों तक फैल गयी। श्रीलंका के तत्कालीन शासक मेधवर्मा ने उसकी सेवा में दूतों के द्वारा उपहार भेजे तथा श्रीलंका से भारत आनेवाले बौद्ध भिक्षुओं के सुविधार्थ बोधगया में एक विहार बनवाने की अनुमति माँगी। समुद्रगुप्त ने श्रीलंकाधिपति का अनुरोध सहर्ष स्वीकार किया।

समुद्रगुप्त केवल महान् योद्धा और विजेता ही नहीं था बल्कि बहुमुखी प्रतिभाशाली व्यक्ति था। वह पराजित राजाओं के प्रति दयालु, विद्वानों का आश्रयदाता, सभी धर्मों का संरक्षक, विद्वान, विद्यानुसंगी, शास्त्रमर्मज्ञ, संगीतज्ञ एवं महान कवि था। उसको भारतीय नेपोलियन की उपाधि दी गयी है, किन्तु उसका व्यक्तित्व नेपोलियन से कहीं उच्च एवं महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि पराक्रम के साथ-साथ उसमें सुसंस्कृत व्यक्ति के सभी उच्च गुणों का समावेश था।

सम्राज्ञी (भारत की) : एक उपाधि, जो १८७६ ई. में इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया को ब्रिटिश संसद (पार्लियामेण्ट) द्वारा प्रदान की गयी। १८५८ ई. में ब्रिटिश सरकार ने जब कम्पनी से शासन-सत्ता ग्रहण की, तब भारतीय जनता और भारतीय राजाओं को ब्रिटिश सिंहासन के प्रति राजभक्त बनाने के उद्देश्य से इंग्लैण्ड की महारानी को यह पदवी प्रदान की गयी।

सयाजी राव प्रथम : १७७१ से १८७६ ई.में इंग्लैण्डकी महारानी विक्टोरियाको ब्रिटिश संसद (पार्लियामेण्ट) द्वारा प्रदान की गयी। १८५८ ई.में ब्रिटिश सरकारने जब कम्पनीसे शासन-सत्ता ग्रहण की, तब भारतीय जनता और भारतीय राजाओंको ब्रिटिश सिंहासनके प्रति राजभक्त बनानेके उद्देश्यसे इंग्लैण्डकी महारानीको यह पदवी प्रदान की गयी।

सयाजी राव प्रथम  : १७७१ से १७७८ ई. तक बड़ौदा रियासत का शासक। बड़ौदा की गद्दी के लिए उनके भाइयों ने विरोध खड़ा किया और इस पारस्परिक संघर्ष के फलस्वरूप वहाँ के शासन प्रबन्ध में अत्यधिक कुव्यवस्था फैल गयी।

सयाजी राव द्वितीय (गायकवाड) : १८१९ ई. से १८४७ ई. तक बड़ौदा का शासक।

सयाजी राव तृतीय (गायकवाड़) : १८७५ से १९३९ ई. तक बड़ौदा का शासक रहा। जब वह नितान्त बालक था, तभी १८७५ ई. में अंग्रेजी सरकार ने मल्हार राव गायकवाड़ को गद्दी से हटाकर उसको सिंहासनासीन किया। उसके शैशवकाल में सर टी. माधव राव ने राज्य का शासन भार संभाला। वयस्क होने पर सयाजीराव ने राज्य का सारा प्रबंध अपने हाथों में ले लिया। प्रशासकीय कुशलता के कारण उसकी गणना सबसे प्रतिभाशाली भारतीय नरेश के रूप में की जाती है। उसके कुशल निर्देशन में बड़ौदा समस्त देशी रियासतों में सबसे अधिक प्रगतिशील राज्य बन गया। उसने कई विख्यात भारतीयों को राज्य के सेवार्थ नियक्त किया जिनमें रमेशचन्द्र दत्त, जो कुछ वर्षों तक दीवान भी रहे, अरविन्द घोष, जो बड़ौदा कालेज के प्रधानाध्यापक थे, तथा सर कृष्णामाचारी जैसों के नाम उल्लेखनीय हैं। १९३९ ई. में सयाजी राव तृतीय की मृत्यु हुई।

सरकार : शेरशाह के शासनकाल की सबसे छोटी प्रशासकीय इकाई। शेरशाह ने अपने समस्त साम्राज्य को परगनों में विभक्त किया। अनेक परगनों को मिलाकर सरकार (जिला) बनती थी, जहाँ सेना रहती थी। सम्राट अकबर ने भी इस शासकीय इकाई को कायम रखा, किन्तु ऐसी कई इकाइयों अर्थात सरकारों को मिलाकर उसने सूबों का गठन किया। अंग्रेजों की शासकीय व्यवस्था में इन्हीं सरकारों को जिलों की संज्ञा दी गयी।

सरकार उत्तरी : कर्नाटक प्रदेश के एक जिले का नाम। निजाम सलावतजंग ने इसे फ्रांसीसियों के नियंत्रण में रख दिया था, पर १७५८ ई. में अंग्रेजों ने इस पर अधिकार लिया।

सरकार, सर जदुनाथ (१८७०-१९६१ ई.)  : सुप्रसिद्ध इतिहासकार। वे बंगाल में पैदा हुए और उनकी शिक्षा कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी कालेज में हुई थी। उन्होंने अध्यापन को ही अपने जीवन का मार्ग चुना और अपने जीवन का अधिकांश भाग पटना में इतिहास के प्राध्यापक पद पर आसीन रहकर व्यतीत किया। १९२६ ई. से एक सत्र तक वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे। उनकी कृतियों में शिवाजी, औरंगजेब का जीवनचरित और मुगल साम्राज्य का पतन (सभी अंग्रेजी में) विद्वत्समाज में प्रामाणिक ग्रंथ माने जाते हैं। उनकी विद्वत्ता और पाण्डित्य से प्रभावित होकर अंग्रेज सरकार ने उन्हें 'सर' की उपाधि प्रदान की थी। उनकी मृत्यु कलकत्ते में १९६१ ई. में हुई।

सरगौली (सगौली) की संधि : द्वारा १८१६ ई. में गोरखा अथवा नेपाल युद्ध (दे.) की समाप्ति हुई। इस संधि के अनुसार गोरखा दरबार ने काठमाण्डू में एक अंग्रेज रेजीडेन्ट रखना स्वीकार कर लिया और उन्हें कुमायूँ तथा गढ़वाल के जिले अंग्रेजों को देने पड़े।

सरदार बल्लभ भाई पटेल : देखिये, 'बल्लभ भाई'।

सर दिनकर राव : १९ वीं शताब्दी में हुए गवालियर के महाराज सिन्धया का दीवान। सिपाही-विद्रोह के समय दिनकर राव ने सिन्धिया और उसकी सेना को अंग्रेजों का भक्त बनाये रखा। इससे अंग्रेजों को बहुत सुविधा प्राप्त हुई।

सर पियरे कवागनरी : ब्रिटिश भारतीय सरकार का राजदूत, जिसे दूसरे अफगान-युद्ध (१८७८-८० ई.) का पहला चरण समाप्त होने पर कुर्रम संधि (१८७९ ई.) के बाद काबुल में नियुक्त किया गया। वह जुलाई १८७९ ई. में अपना पद सँभाल ने काबुल पहुँचा, लेकिन छः सप्ताह बाद ही अमीर की विद्रोही अफगान फौजों ने उसकी हत्या कर दी। इस कृत्य से शत्रुता फिर भड़क उठी और दूसरा अफगान-युद्ध एक वर्ष तक और चलता रहा।

सरफराज खाँ : नवाब मुर्शिदकुली खाँ (दे.) का दौहित्र, जो १७३९-४० ई. में बंगाल का नवाब रहा। १७४० ई. में वह अपने अधीनस्थ नायब अलीवर्दी खाँ द्वारा पराजित होकर मारा गया और अलीवर्दी खाँ (दे.) बंगाल का नवाब बना।

सरमैन, जान : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक नवयुवक लिपिक। वह जुलाई १७१५ ई. में बादशाह फर्रुखशियर (दे.) के दरबार में दूतमंडल को साथ लेकर गया, जिसमें एक आर्मीनियाई ख्वाजा सरहिंद तथा एक अंग्रेज एडवर्ड स्टीफेन्सन सम्मिलित था। हघबार्कर मंडल का सचिव था। ३० दिसम्बर १७१६ ई. को मुगल बादशाह ने दूतमंडल को तीन फरमान प्रदान किये, जो बंगाल, हैदराबाद तथा अहमदाबाद के मुगल सूबेदारों को सम्बोधित थे। इनके द्वारा कम्पनी को केवल तीन हजार रु. के वार्षिक खिराज पर निःशुल्क व्यापार करने का अधिकार दे दिया गया। इसके अतिरिक्त अन्य कई व्यापारिक सुविधाएँ भी प्रदान की गयीं। सरमैन ने बादशाह फर्रुखशियर से जो फरमान प्राप्त किया, वह इतना महत्त्वपूर्ण था कि उसे भारत में ब्रिटिश व्यापार का मैग्ना चार्टा (अधिकार पत्र) कहा जाता है।

सर विलियम जोन्स : (१७४६-९४)-एक प्रसिद्ध ब्रिटिश प्राच्यविद्याविद् तथा न्यायमूर्ति। जन्म इंग्लैंड में। उन्होंने आक्सफोर्ड में शिक्षा पायी तथा विविध यूरोपीय भाषाओं के अतिरिक्त अरबी, फारसी, यहूदी तथा चीनी भाषाएँ भी सीखीं। १७७० ई. में ही फारसी में लिखित नादिरशाह की जीवनी का अनुवाद फ्रेंच भाषा में किया। १७७४ ई. में बैरिस्टरी पास की और इंग्लैड के कानून के कुछ पहलुओं पर किताबें लिखीं, जिनकी काफी चर्चा हुई। १७८३ ई. में वे कलकत्ता में सुप्रीमकोर्ट के जज नियुक्त हुए और 'सर' की उपाधि से विभूषित किये गये।

बंगाल पहुँचते ही उन्होंने जनवरी १७८४ ई. में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की और कलकत्ता में १७९४ ई., जीवनान्तक उसके अध्यक्ष रहे। सुप्रीमकोर्ट के जज की हैसियत से वे शीघ्र इस बात की आवश्यकता अनुभव करने लगे कि हिन्दुओं के मामलों का निर्णय करने के लिए हिन्दू कानूनों के ग्रंथ देखने चाहिए। इसके लिए उन्होंने संस्कृत सीखना शुरू किया और शीघ्र ही उस भाषा पर इतना अधिकार कर लिया कि वे १७८९ ई. में कालिदास के 'शकुंतला' नाटक का अंग्रेजी अनुवाद करने में सफल हो गये और उन्होंने मनुसंहिता का (स्मृति) का भी अंग्रेजी में अनुवाद किया, जो १७९४ ई. में प्रकाशित हुआ। हितोपदेश (दे.) तथा गीतगोविन्द (दे.) का भी अंग्रेजी अनुवाद किया। साथ ही उन्होंने अंग्रेजी में फारसी भाषा का व्याकरण (१७७१ ई.), मुसलिम उत्तराधिकार कानून तथा मुसलिम दायाधिकार कानून (१७८२) ई. नामक ग्रन्थों की भी रचना की।

भारत में फारसी भाषा के विद्वान् तो बहुत से अंग्रेज हुए, परन्तु सर विलियम जोन्स पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बड़ी निष्ठा के साथ संस्कृत भाषा सीखी और हिन्दुओं की इस प्राचीन भाषा तथा साहित्य से यूरोपीय विद्वानों को परिचित कराया। उन्होंने इस कार्य द्वारा एक प्रकार से तुलनात्मक भाषा-विज्ञान की नींव डाली।

सरहिन्द : सिक्खों के इतिहास में ख्यातिप्राप्त पंजाब का एक नगर।

सर्वसेन : वाकाटक सम्राट् प्रवरसेन प्रथम का द्वितीय पुत्र। सम्राट् ने वत्सगुल्म अथवा वाशिय (आधुनिक बरार) का अधीनस्थ शासक नियुक्त किया और उसी के द्वारा वाकाटक राजवंश की वाशिय-शाखा की नींव पड़ी।

सर्वेन्ट्स आफ इण्डिया सोसाइटी : का संगठन गोपाल कृष्ण गोखले ने १९०५ ई. में किया। इसका उद्देश्य देश-सेवार्थ कर्मठ समाज-सेवियों को प्रशिक्षण देना तथा भारतीय जनसमुदाय के यथार्थ हितों की वैधानिक विधियों से उन्नति करना था। संस्था के सदस्यों को किसी न किसी प्रकार की निःस्वार्थ देशसेवा करने का प्रशिक्षण देकर उन्हें उसके योग्य बनाया जाता था। इसके प्रथम अध्यक्ष गोखले और उनके उत्तराधिकारी श्रीनिवास शास्त्री ने पूरे मनोयोग से अपने आपको भारत की राजनीतिक प्रगति को तीव्रतर करने में लगा दिया। इस संस्था के तीसरे विशिष्ट सदस्य नारायण मल्हार जोशी ने जनजीवन के सुधार एवं शिक्षा प्रसारार्थ १९१२ ई. में बम्बई में सामाजिक सेवा संघ की स्थापना की।

जोशी ने ही १९२० ई. में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की नींव डाली, किन्तु इसका झुकाव धीरे-धीरे साम्यवाद की ओर होने के कारण जोशी को सर्वेन्ट्स आफ इंडिया सोसाइटी से अलग होना पड़ा।

सर्वेन्ट्स आफ इंडिया सोसाइटी के चौथे उल्लेखनीय सदस्य पंडित हृदयनाथ कुंजरू थे। उन्होंने प्रयाग में सेवासमिति की स्थापना की। एक अन्य पाँचवें सदस्य श्रीराम बाजपेयी ने १९१४ ई. में सेवासमिति बालचर संघ का संगठन किया, जिसका उद्देश्य भारत में बालचर आन्दोलन का श्रीगणेश करना था। सर्वेन्ट्स आफ इंडिया सोसाइटी के इन पाँचों उल्लेखनीय सदस्यों के कार्यकलापों से स्पष्ट है कि भारत में राष्ट्रीय जीवन को विशिष्ट स्वरूप देने में इस संस्था ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया है।

सर्वोच्च न्यायालय : १९४९ ई. के भारतीय संविधान अधिनियम के अन्तर्गत इसकी स्थापना की गयी तथा २६ जनवरी १९५० ई. को इसका कार्य प्रारम्भ हुआ। भारत का प्रधान न्यायाधीश (सर हरिलाल कानिया भारत का पहला प्रधान न्यायाधीश था) इसका अध्यक्ष होता है। इसकी सहायता के लिए कई अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती है जो ६५ वर्ष की अवस्थात क पदासीन रहते हैं। इस न्यायालय में सीधे मुकदमें भी दायर होते हैं और अपीलें भी की जाती हैं। यह भारत की सबसे बड़ी अपील अदालत है और इसके निर्णयों पर कोई अपील नहीं की जा सकती। यह न्यायालय भारतीय संविधान में निरूपित किसी मूलभूत अधिकार का परिपालन कराने के लिए भी आदेश जारी कर सकता है।

सलावतजंग : हैदराबाद के शासक आसफ़जाह निज़ामुलमुल्क का तृतीय पुत्र। फ्रांसीसियों की सहायता से १७५१ ई. में वह निजाम बना तथा दस वर्षों तक शासन करता रहा। प्रारम्भ में उसकी सत्ता फ्रांसीसी सैनिकों के बलपर टिकी रही और फ्रांसीसी सेनानायक बुसी उसके दरबार में रहने लगा। सलावतजंग ने फ्रांसीसी सैनिकों पर होनेवाले व्यय के बदले उत्तरी-सरकार का जिला बुसी को दे रखा था। किन्तु १७४८ ई. में जब बुसी को हैदराबाद से वापस बुला लिया गया और फोर्ड के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना ने पूर्वी तट के मार्ग से आकर मसुलीपट्टम पर अधिकार कर लिया तब सलावतगंज अंग्रेजों से मिल गया और उनकी सहायता के आश्वासन पर उत्तरी सरकार का जिला उनको सैनिक व्यय के लिए दे दिया। फिर भी १७६० ई. में मराठों ने उद्गीर के युद्ध में सलावतजंग को बुरी तरह परास्त किया और उसे अपने राज्य के कई महत्त्वपूर्ण भू-भाग मराठों को दे देने पड़े। इस घटना के उपरान्त ही १७६१ में उसके भाई निजाम अली ने उसकी हत्या कर दी।

सलीम चिश्ती, शेख : प्रसिद्ध मुसलमान सूफी संत, जो आगरा के निकट सीकरी की सूखी चट्टानों पर निवास करता था। बादशाह अकबर पुत्र की लालसा से उसके चरणों पर जा गिरा। शेख ने उसको तीन पुत्रों का आशीर्वाद दिया। यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई और अकबर ने अपने ज्येष्ठ पुत्र का नाम शेख के नाम पर सलीम रखा। अकबर को विश्वास हो गया कि शेख के चरणों के निकट का स्थल उसके लिए भाग्यशाली सिद्ध होगा और इसी कारण उसने सीकरी में एक भव्य मस्जिद तथा नये नगर का निर्माण कराया। उसने इस स्थल का नाम फतेहपुर सीकरी रखा और उसे ही अपनी राजधानी बनाया।

सलीम, शाहजादा : अकबर के ज्येष्ठ पुत्र और उत्तराधिकारी का प्रारम्भिक नाम। सिंहासन पर बैठने के उपरान्त उसने जहाँगीर (दे.) की उपाधि ग्रहण की तथा इसी नाम से विख्यात भी हुआ।

सलीमा बेगम : बाबर की पुत्री और अकबर की फूफी। १५५७-५८ ई. में उसका विवाह पहले बैरम खाँ के साथ हुआ था, किन्तु बैरम खाँ के पतन और उसकी मृत्यु के उपरान्त अकबर ने स्वयं उससे विवाह कर लिया। वह अकबर की मृत्यु के बाद भी जीवित रही और उसका देहान्त १६१२ ई. में हुआ। वह सुसंस्कृत महिला थी तथा अकबर के हरम में उसका विशिष्ट स्थान था। अकबर और शाहजादा सलीम के प्रारम्भिक सम्बन्ध अच्छे न थे परन्तु उसके प्रयास से दोनों में १६०३ ई. में मेल हो गया।

सलीवान, लारेंस : ईस्ट इण्डिया कम्पनी का एक डाइरेक्टर तथा राबर्ट क्लाइव (दे.) का विरोधी।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन : ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस द्वारा चलाये गये जनआंदोलन में से एक। १९२९ ई. तक भारत को ब्रिटेन के इरादे पर शक होने लगा कि वह औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान करने की अपनी घोषणा पर अमल करेगा कि नहीं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन (१९२९) में घोषणा कर दी कि उसका लक्ष्य भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना है। महात्मा गांधी ने अपनी इस मांग पर जोर देने के लिए ६ अप्रैल १९३० ई. को सविनय अवज्ञा आन्दोलन छेड़ा, जिसका उद्देश्य कुछ विशिष्ट प्रकार के गैरकानूनी कार्य सामूहिक रूप से करके ब्रिटिश सरकार को झुका देना था।

कानूनों को जानबूझ कर तोड़ने की इस नीति का कार्यान्वयन औपचारिक रूप से उस समय हुआ जब महात्मा गांधी ने अपने कुछ चुने हुए अनुयायियों के साथ 'साबरमती आश्रम' से समुद्र तट पर स्थित डाँडी नामक स्थान तक कूच किया और वहाँ पर लागू नमक कानून को तोड़ा।

लिबरलों और मुसलमानों के बहुत बड़े वर्ग ने इस आन्दोलन में भाग नहीं लिया, किन्तु देश का सामान्य जन इस आंदोलन में कूद पड़ा। हजारों नर-नारी और आबाल-वृद्ध कानूनों को तोड़ने के लिए सड़कों पर आ गये। संपूर्ण देश गंभीर रूप से आंदोलित हो उठा। ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन को दबाने के लिए सख्त कदम उठाये और गांधीजी सहित अनेक कांग्रेसी नेताओं व उनके समर्थकों को जेल में डाल दिया। आन्दोलनकारियों और सरकारी सिपाहियों के बीच जगह-जगह जबरदस्त संघर्ष हुए। शोलापुर जैसे स्थानों पर औद्योगिक उपद्रव और कानपूर जैसे नगरों में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे। हिंसा के इस विस्फोट से गाँधी जी चिन्तित हो गये। वे इस आन्दोलन को बिलकुल अहिंसक ढंग से चलाना चाहते थे। सरकार ने भी गांधी जी व अन्य कांग्रेसी नेताओं को रिहा कर दिया और वाइसराय लार्ड इरविन और गांधी जी के बीच सीधी बातचीत का आयोजन करके समझौते की अभिलाषा प्रकट की। गांधी जी और लार्ड इरविन में समझौता हुआ, जिसके अन्तर्गत सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस ले लिया गया। हिंसा के दोषी लोगों को छोड़कर आंदोलन में भाग लेनेवाले सभी बंदियों को रिहाकर दिया गया और कांग्रेस गोलमेज सम्मेलन के दूसरे अधिवेशन (१९३१) में भाग लेने को सहमत हो गयी।

परन्तु गोलमेज सम्मेलन का यह अधिवेशन भारतीयों के लिए निराशा के साथ समाप्त हुआ। इंग्लैण्ड से लौटने के बाद तीन हफ्तों के अन्दर ही गांधीजी को गिरफ्तार कर जेल में ठूँस दिया गया और कांग्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इस काररवाई से १९३२ ई. में सविनय अवज्ञा आन्दोलन फिर भड़क उठा। आंदोलन में भाग लेने के लिए हजारों लोग फिर निकल पड़े, किंतु ब्रिटिश सरकार ने सविनय अवज्ञा आन्दोलनों के इस दूसरे चरण को बर्बरतापूर्वक कुचल दिया। आंदोलन तो कुचल दिया गया, लेकिन उसके पीछे छिपी विद्रोह की भावना जीवित रही, जो १९४२ ई. में तीसरी बार फिर भड़क उठी।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन : इस बार गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध 'भारत छोड़ो' -आन्दोलन छेड़ा। सरकार ने फिर ताकत का इस्तेमाल किया और गांधीजी सहित कांग्रेस कार्यसमिति के सभी सदस्यों को कैद कर लिया। इसके विरोध में देशभर में तोड़फोड़ और हिंसक आन्दोलन भड़क उठा। सरकार ने गोलियाँ बरसायीं, सैकड़ों व्यक्ति मारे गये और करोड़ों रुपये की सम्पत्ति नष्ट हुई। यह आन्दोलन फिर दबा दिया गया, लेकिन इस बार यह निष्फल नहीं रहा। इसने ब्रिटिश सरकार को यह दिखा दिया कि भारत की जनता अब उसकी सत्ता को ठुकराने और उसकी अवज्ञा के लिए कमर कस चुकी है और उस पर काबू पाना अब मुश्किल है। सन् ४२ में 'अंग्रेजों', भारत छोड़ो'- का जो नारा गांधीजी ने दिया था, उसके ठीक पांच वर्षों बाद अगस्त १९४७ में ब्रिटेन को भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।

सहकारिता आन्दोलन : मद्रास के एक सिविलियन (असैनिक अधिकारी) फ्रेडरिक निकल्सन के प्रस्ताव पर अपने देश में इसका आरम्भ हुआ। निकल्सन की सिफारिश पर सहकारिता प्रणाली की संभावनाओं और उपयोगिता का पता लगाने के लिए १९०१ ई. में एक समिति नियुक्त की गयी। १९०४ ई. में एक कानून पास हुआ, जिसका उद्देश्य सूदखोर महाजनों के फंदे से बचाकर लोगों को उचित दरों पर रुपया उधार दिलाने के वास्ते शहर और गाँवों में ऋण-समितियाँ गठित करना था। यहीं से भारत में सहकारिता आंदोलन का श्रीगणेश माना जाता है। शीघ्र ही इस आन्दोलन ने हर प्रांत में उल्लेखनीय प्रगति की। १९१२ ई. में आन्दोलन का विस्तार करने के विचार से सहकारिता कानून में संशोधन करके ऋण न देनेवाली सहकारी समितियों, केन्द्रीय वित्तीय समितियों और संघों को भी मान्यता दे दी गयी।

१९१९ ई. के शासन विधान के अन्तर्गत सहकारिता को प्रांतीय विषय बनाकर उसे भारतीय मंत्रियों के जिम्मे कर दिया गया। शनै:-शनै: सहकारिता आंदोलन की जड़ें जमने और कृषि ऋण समितियों, केन्द्रीय वित्तीय एजेन्सियों और प्रांतीय बैकों का गठन किया गया। कुछ प्रांतों में भूमि-बंधक बैकों की स्थापना हुई, जिनका उद्देश्य किसानों को पुराने कर्ज चुकाने के लिए उनकी भूमि बंधक बनाकर दीर्घकालिक ऋण देना है। १९२५ ई. के बाद अनाजों तथा अन्य फसलों के मूल्यों में भारी गिरावट आ जाने से सहकारिता आन्दोलन को गहरा धक्का लगा। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यद्यपि कीमतें ऊपर चढ़ीं, लेकिन फिर भी यह आन्दोलन आशानुरूप प्रगति नहीं कर सका। यदि उपभोक्ता बाण्डों, खासकर कृषि-उत्पादनों की खरीद-फरोख्त करने और मध्यमवर्गीय लोगों को मकान बना नेकी सुविधाएँ प्रदान करने की दिशा में सहकारिता आंदोलन को अग्रसर किया जाय तो इसका काफी विस्तार हो सकता है। (जे. पी. नियोगी कृत हिस्ट्री आफ दि कोआपरेटिव मूवमेंट इन इंडिया)

साइमन कमीशन : इसकी नियुति नवम्बर १९२७ ई. में हुई और अध्यक्ष सर जॉन (उपरांत वाई काउंट) साइमन के नाम पर उसका यह नाम पड़ा। इस कमीशन का उद्देश्य १९१९ ई. के भारतीय शासन-विधान की कार्यप्रणाली की जाँच करके उस पर एक रिपोर्ट देना था। इसके सभी सदस्य अंग्रेज होने तथा इसमें भारतीयों को न सम्मिलित किये जाने का तीव्र विरोध हुआ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसके बहिष्कार का निश्चय किया, फलतः जहाँ कहीं भी कमीशन गया वहाँ लोगों ने हड़ताल की। तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने इस अहिंसक आंदोलन को तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने इस अहिंसक आंदोलन को तोड़ने के लिए हिंसा का सहारा लिया, जिससे जनरोष उबल पड़ा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने १९२९ ई. के लाहौर अधिवेशन में अपना लक्ष्य पूर्ण स्वतन्त्रता घोषित किया।

साइमन कमीशन की रिपोर्ट मई १९३० ई. में प्रकाशित हुई। इससे अत्यधिक निराशा फैली, क्योंकि उसमें केवल प्रान्तों में ही पूर्ण उत्तरदायी सरकार बनाने की संस्‍तुति की गयी थी तथा केन्द्र में उस समय तक यथावत् अंग्रेज सरकार के नियंत्रण में शासन-व्यवस्था चालू रखने की सिफारिश की गयी थी, जब तक ब्रिटिश भारत तथा देशी रियासतों का एक संघ नहीं बन जाता और जिसकी निकट भविष्य में कोई आशा नहीं थी। राष्ट्रवादी भारतीयों ने कमीशन की संस्तुतियों को अस्वीकार कर दिया। इसका कुछ प्रभाव १९३५ ई. के भारतीय शासन-विधान पर पड़ा, जिनमें ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों के एक संघ का प्राविधान किया गया। संघीय संविधान की यह परिकल्पना १९४७ ई. में देश के स्वतंत्र होने पर भारतीय गणतन्त्र के संविधान में साकार हुई।

साइरस (कुसष अथवा क्रस) : फारस का बादशाह (५५८ से ४३० ईसापूर्व) कहा जाता है कि उसने गदरोशिया या बलूचिस्तान के रास्ते भारत पर चढ़ाई की, किन्तु असफल रहा। बताया जाता है उसने प्राचीन नगर कपिशा को ध्वस्त किया था जो आधुनिक अफगानिस्तान में स्थित है। यह भी कहा जाता है कि उस समय काबुल नदी की घाटी में बसे कुछ भारतीय गणराजाओं से उसने कर वसूल किया।

सातकर्णि प्रथम : सातवाहन वंश का तीसरा शासक तथा कृष्ण का पुत्र। कुछ विद्वान् उसे सिन्धुक अथवा सिभुक का पुत्र भी मानते हैं। उसने सम्पूर्ण दक्षिण तथा पूर्वी मालवा के भू-भागों पर राज्य किया। यद्यपि उसकी शक्ति एवं सत्ता को एक बार खारवेल (दे.) ने चुनौती दी थी, फिर भी उसने अश्वमेध यज्ञ किया। इस वंश का वह इतना प्रतापशाली शासक सिद्ध हुआ कि उसके उपरान्त के कई उत्तराधिकारी शासकों ने उसी के नाम (सातकर्णि) का विरुद धारण किया।

सातवाहन वंश : आंध्र (गोदावरी और कृष्णा नदियों की घाटी) में सिभुक अथवा सिन्धुक नामक व्यक्ति ने लगभग ६० ई. पू. में प्रचलित किया। सिभुक का आदि निवासस्थान मद्रास प्रान्त में स्थित बेलारी के निकट था, जहाँ सातवाहनों की एक बस्ती थी। अतः यह राजवंश आंध्र वंश और सातवाहन वंश के दो नामों से विख्यात है। इसके आरम्भ होने का संवत्, राजाओं की संख्या तथा उनका कुल राज्यकाल आदि प्रश्न अत्यंत विवादग्रस्त हैं। साधारणतया मान्य पौराणिक आख्यानों के अनुसार सातवाहन वंश का आरम्भ सिभुक ने शुंग काण्वों (दे.) की सत्ता नष्ट करने के पश्चात् किया। उसके वंश में प्रायः ३० शासक हुए, जिन्होंने लगभग ४०० वर्षों तक राज्य किया।

सिभुक का राज्यकाल लगभग ६० ई.पू. से ३७ ई. पू. तक माना जाता है। उसके उपरान्त उसका भाई कृष्ण और कृष्ण के उपरान्त उसका पुत्र सातकर्णि प्रथम शासक हुए। तीसरा शासक (सातकर्णि प्रथम) ही सातवाहन वंश की शक्ति एवं सत्ता का मूल संस्थापक था। वह खारवेल का समकालीन था, जिसने सातकर्णि की शक्ति की उपेक्षा की। किन्तु यह आघात अल्पकालिक सिद्ध हुआ होगा क्योंकि सातकर्णि (प्रथम) ने अश्वमेध यज्ञ किया और इसके द्वारा समस्त दक्षिण भारत पर अपनी सार्वभौम सत्ता स्थापित की। उसकी राजधानी गोदावरी नदी के तट पर प्रतिष्ठान (आधुनिक पैठन) नामक नगरी थी। उसकी महत्ता इसी से स्पष्ट है कि उसके वंशजों ने सातकर्णि का विरुद धारण किया।

सातकर्णि प्रथम की मृत्यु के कुछ समय उपरान्त शकों के आक्रमणों के फलस्वरूप सातवाहनों की शक्ति में ह्रास होने लगा और महाराष्ट्र में शक क्षत्रप वंश का शासन शुरू हुआ, जो साधारणतया पश्चिमी क्षत्रप वंश कहा जाता है। किन्तु सातवाहन वंश के तेईसवें शासक राजा गौतमीपुत्र श्रीसातकर्णि (दे.) ने पश्चिमी क्षत्रपों की शक्ति को नष्ट करके पुनः अपने वंश की शक्ति, समृद्धि और सत्ता दक्षिण भारत में स्थापित की। उसके पुत्र और उत्तराधिकारी राजा वासिष्ठी पुत्र पुलुभावि ने उज्जैन के शक महाक्षत्रप रुद्रदामा प्रथम की पुत्री से विवाह किया, किन्तु उसके श्वसुर रुद्रदामा ने उससे वह समस्त भू-भाग छीन लिया जिसे उसने पश्चिमी क्षत्रपों को पराजित करके जीता था। सातवाहन वंश के सत्ताइसवें शासक यज्ञ श्री (सातकर्णि) ने उज्जयिनी के क्षत्रपों से उन भू-भागों में से कुछ को पुनः अपने अधिकार में करके अपनी वंशकीर्ति पुनः स्थापित की।

यज्ञश्री ने कई प्रकार की मुद्राएँ (सिक्के) चलायीं, जिनमें से कुछ पर जलपोत भी अंकित है। इससे प्रतीत होता है कि उसका साम्राज्य समुद्रों तक विस्तृत था। अंतिम तीन शासक क्रमशः विजय, चन्दश्री और पुलुमावि थे।

सातवाहन वंश : सातवाहन वंश के पतन के कारण निश्चयपूर्वक ज्ञात नहीं हैं। इस वंश के सभी शासक हिन्दू धर्म के कट्टर अनुयायी थे। उन्होंने वैदिक यज्ञों और समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था को प्रतिष्छित किया तथा विदेशी आक्रमक यवनों और शकों से संघर्ष करते रहे। फिर भी उनका धार्मिक दृष्टिकोण उदार था और उन्होंने बौद्ध तथा जैन विहारों तथा उपाश्रयों को प्रभूत अनुदान दिये। उनके शासनकाल में वाणिज्य तथा व्यापार, कृषि एवं अन्य उद्योगों को विशेष प्रोत्साहन मिला तथा सोने, चाँदी और ताँबे की मुद्राओं का उनके शासन-काल में विशेष प्रचलन हुआ।

सादुल्ला खाँ : मुगल सम्राट् शाहजहाँ (दे.) का वजीर। शाहजादा औरंगजेब (दे.) साथ उसने कन्दहार दुर्ग के पहले और दूसरे घेरे में भाग लिया, पर दुर्ग पर अधिकार करने में सफलता न मिली। १६५४ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

सामवेद : चार वेदों में से एक। ऋग्वेद के उपरान्त इसी की रचना हुई मानी जाती है। इस वेद में कुल १५४९ ऋचाएँ हैं, जिनमें से ७५ को छोड़कर सभी ऋग्वेद संहिता से उद्धृत हैं। सामवेद की ऋग्वेद की ऋचाओं का गान विविध वैदिक यज्ञों के अवसर पर होता था। सामवेद से संबंधित पंचविंश ब्राह्मण तथा जैमिनीय ब्राह्मण हैं। सामवेद की उपनिषद् छान्दोग्य अति प्राचीन मानी जाती है और केन उपनिषद् जैमिनीय ब्राह्मण का एक भाग है।

सामूगढ़ का युद्ध : आगरा से लगभग ८ मील की दूरी पर रोगग्रस्त सम्राट् शाहजहाँ के पुत्र दाराशिकोह और उसके दो छोटे भाइयों, औरंगजेब तथा मुराद की समर्थक सेनाओं में २९ मई १६५८ ई. को सिंहासन के लिए हुआ। इस भाग्यनिर्णायक युद्ध में दारा की पूर्णतः पराजय हुई और विजयी औरंगजेब तथा मुराद ने युद्धक्षेत्र से प्रयाण कर आगरा के किले पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार दारा की अपने पिता के सिंहासन को प्राप्त करने की समस्त आशाएँ धूल में मिल गयीं।

साम्प्रदायिक निर्णय (कम्पूनल एवार्ड)- : ४ अगस्त १९३२ ई. को ब्रिटिश प्रधानमन्त्री रेमजे मेकडोनाल्ड द्वारा दिया गया। इसी निर्णय के आधार पर नया भारतीय शासन विधान बनने वाला था, जिस पर उस समय लंदन में गोलमेज़ सम्मेलन में विचार-विमर्श चल रहा था और जो बाद को १९३५ ई. में पास हुआ। साम्प्रदायिक निर्णय १९०९ ई. के भारतीय शासन-विधान में निहित साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त पर आधारित था। १९०६ ई. में जब यह स्‍पष्ट हो गया कि देश के प्रशासन में भारतीयों को अधिक प्रतिनिधित्व देने के लिए प्रचलित शासनविधान में शीघ्र संशोधन किया जायगा, तब भारत स्थित कुछ अंग्रेज अधिकारियों ने वाइसराय लार्ड मिण्टो द्वितीय की साठ-गाँठ से मुसलमानों को प्रेरित किया कि वे हिज हाईनेस सर आगा खाँ के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि-मण्डल वाइसराय के पास ले जायें।

इस प्रतिनिधिमण्डल ने वाइसराय से अनुरोध किया कि मुसलमानों के हितों की रक्षा और उनके समुचित प्रतिनिधित्व के लिए उनके वास्ते खासतौर से अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाये जायें। इन लोगों ने अपनी मांग का कारण यह बताया कि भारत में अधिकतर मुसलमान बहुत ज्यादा गरीब हैं, जिसकी वजह से वे सम्पत्ति सम्बन्धी अर्हताओं के आधार पर तैयार की गयी मतदाता सूची में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं पा सकेंगे। वाइसराय मिण्टो भारत में, खासकर बंगाल में बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की लहर को दबाने के लिए कोई न कोई उपाय खोज रहा था। उसने सोचा हिन्दू और मुसलमानों में फूट पैदा कर देना सरकार के लिए लाभदायक होगा। इसी नियत से लार्ड मिण्टो द्वितीय की सरकार ने मुसलमानों की माँग फौरन मान ली और १९०९ ई. के भारतीय शासन-विधान में इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के निर्वाचन के लिए छह विशेष मुस्लिम जमींदार निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था की। प्रांतों के लिए भी इसी तरह अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाये गये।

साम्प्रदायिक निर्णय (कम्पूनल एवार्ड)- : अंग्रेजों का यह कदम षड्यंत्र से भरा हुआ था और इसे ठीक ही 'पाकिस्तान का बीजारोपण' कहा गया है। अंग्रेजों का गुप्त समर्थन पाकर मुसलमानों की पृथक् साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की माँग आनेवाले वर्षों में जोर पकड़ती गयी और इसे स्वीकार कर लिया गया। तीसरे दशक में भारतीय शासनविधान में जब संशोधन किये जानेवाले थे, साम्प्रदायिकता के आधार पर विशेष प्रतिनिधित्व देने की माँग न केवल मुसलमानों वरन् सिख, ईसाई, जैन, पारसी और जनजातियों की तरफ से भी उठायी गयी। भारतीयों की एकता को नष्ट करनेवाली यह फूट उस समय सामने आ गयी। भारतीय आपस में कोई समझौता न कर सके।

लंदन में इस प्रश्न पर विचार करने के लिए लगातार तीन गोलमेज़ सम्मेलन हुए, जिनका कोई नतीजा नहीं निकला। ऐसी स्थिति में ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री रैमजे मैकडोनाल्ड को 'फूट डालो और शासन करो' के सिद्धांत को कार्यरूप में परिणत करने का उत्तम अवसर मिल गया। उसने ४ अगस्त १९३२ ई. को "साम्प्रदायिक निर्णय" घोषित किया। यह पंच-फैसला नहीं, भारतीय जनता पर थोपा गया आदेश था, क्योंकि कांग्रेस ने इसके लिए कभी माँग नहीं की थी। इस निर्णय में भारतीयों में न केवल धर्म, वरन् जाति के आधार पर भी विभाजन को मान्यता दी गयी और हिन्दुओं के दलित वर्गों को भी पृथक् प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया। यह व्यवस्था अत्यन्त शरारतपूर्ण थी, क्योंकि इसका उद्देश्य हिन्दुओं को हमेशा के लिए दो टुकड़ों में बाँट देना था।

महात्मा गांधीने इस निर्णय के विरुद्ध जब आमरण अनशन किया तब २४ सितम्बर १९३२ ई. को पूना पैक्ट (समझौता) के द्वारा उसमें संशोधन किया गया। इसके अनुसार दलित वर्गों को हिन्दुओं का अभिन्न अंग माना गया, लेकिन फिर भी देश के विधानमण्डलों में उन्हें सामान्य तथा विशिष्ट दोनों प्रकार का प्रतिनधित्व प्रदान किया गया। साम्प्रदायिक निर्णय ने जहाँ विभिन्न राज्य विधानमण्डलों में दलित वर्गों के लिए ७३ सीटें आवंटित कीं, वहां पूना पैक्ट ने उन्हें केन्द्रीय विधानमण्डल में १४८ विशिष्ट सीटें और १८ प्रतिशत सामान्य सीटें आवंटित कीं। मुसलमानों की सीटें अपरिवर्तित रहीं। इस प्रकार भारतीय निश्चित रूप से दो समुदायों में बँट गये और उसका परिणाम अंततः यह निकला कि १९४७ ई. में भारत का विभाजन करना पड़ा। (जे. मोर्ले कृत 'रिफलेक्शन्स', एम. एन. दास कृत "इंडिया अंडर मोर्ले एण्ड मिण्टो" -पांचवां अध्याय)

सायण : चारों वेदों का सर्वाधिक प्रसिद्ध मध्यकालीन भाष्यकार। वह महान राजनीतिज्ञ भी था और विजयनगर के शासक हरिहर द्वितीय का मन्त्री भी रहा। उसकी मृत्यु १३८७ ई. में हुई।

सारनाथ : वाराणसी के निकट स्थित बौद्धों का पवित्र तीर्थस्थान। गौतम बुद्ध ने अपना धर्मचक्र प्रवर्तन सारनाथ में ही किया था। उपरान्त सम्राट् अशोक ने उसी स्थल पर स्मारक रूप में उस भव्य प्रस्तर स्तम्भ की स्थापना की जिसका प्रसिद्ध सिंह शीर्ष अशोक-कालीन कला का अद्वितीय उदाहरण है और भारत सरकार ने उसे ही अपने राजचिह्न के रूप में अपनाया है। सारनाथ में अनेक बौद्ध बिहारों तथा स्तूपों के ध्वंसावशेष, विभिन्न देशों के और धर्मों के मन्दिर हैं और अनेक कलाकृतियाँ वहाँ के संग्रहालय में संगृहीत हैं।

सार्वजनिक निर्माण विभाग : इसकी स्थापना गवर्नर-जनरल लार्ड डलहौजी (१८४८-५६ ई.) ने की। उसने ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के अन्दर सभी निर्माण कार्य और सड़कों की मरम्मत का कार्य इसके जिम्मे कर दिया।

सालाबाई की संधि : मई १७८२ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी और मोहादजीं शिन्दे के बीच हुई। फरवरी १७८३ ई. में पेशवा की सरकार ने इसकी पुष्टि कर दी। इसके फलस्वरूप १७७५ ई. से चला आ रहा प्रथम मराठा-युद्ध समाप्त हो गया। सन्धि की शर्तों के अनुसार साष्टी टापू अंग्रेजों के अधिकार में ही रहा, परन्तु उन्होंने राघोवा (दे.) का पक्ष लेना छोड़ दिया और मराठा सरकार ने इसे पेंशन देना स्वीकार कर लिया। अंग्रेजों ने माधवराव नारायण को पेशवा मान लिया और यमुना नदी के पश्चिम का समस्त भू-भाग शिन्दे को लौटा दिया। अंग्रेजों और मराठों में यह सन्धि २० वर्षों तक शान्तिपूर्वक चलती रही, पर इससे अंग्रेजों को ही विशेष लाभ हुआ; क्योंकि अब उन्हें टीपू सुल्तान सदृश अन्य शत्रुओं से निश्चिन्ततापूर्वक निपटने तथा अपनी शक्ति एवं स्थिति सुदृढ़ करने का अवसर मिल गया।

सालारजंग, सर (१८२९-८३) : १८५७ ई. के सिपाही विद्रोह के दिनों में हैदराबाद के निजाम का प्रधानमन्त्री, जो विद्रोह के काल में अंग्रेज सरकार का पूर्ण भक्त रहा। इसी के फलस्वरूप उसे सरकार द्वारा 'सर' की उपाधि प्रदान हुई। सालारजंग कुशल प्रशासक भी था और उसने निजाम की शासन-व्यवस्था में अनेक सुधार किये। हैदराबाद में 'सालारगंज संग्रहालय' दर्शनीय है जिसमें विविध प्रकार की प्राचीन वस्तुएँ संगृहीत हैं।

सालुव तिम्म : विजयनगर के शासक कृष्णदेव राय (1503-30) का मंत्री और सेनापति। कृष्‍णदेव राय की सफलता में सालुव तिम्मकी नीति-कुशलता और रणचातुरी का बड़ा हाथ था। वह रामराजा (रामराय) (दे.) का पिता था जो 1565 ई. में तालीकोट के युद्ध में मारा गया था। सालुव तिम्म विद्वान् और लेखक भी था। उसने बाल भारत (दे.) नामक महाकाव्य पर 'मनोहर' (दे.) नामक टीका की रचना की थी।

सालुव नरसिंह : विजयनगर के सालुव अथवा द्वितीय राजवंश का संस्थापक तथा प्रथम शासक। नरसिंह विजय नगर के अधीनस्थ चन्द्रगिरि का अधिनायक था। वह संगम अथवा प्रथम राजवंश के अंतिम शासक प्रौढ़देव के काल में उच्च पदाधिकारी था। बहमनी वंश के सुल्तान और उड़ीसा के शासक की सेनाओं से निजयनगर राज्य की रक्षा करने में प्रौढ़देव को असमर्थ देखकर नरसिंह ने उसको अपदस्थ कर दिया और स्वयं सिंहासनासीन हो गया। उसने उड़ीसा के राजा और बहमनी सुल्तान द्वारा विजयनगर के अधिकृत भू-भागों में से अधिकांश को पुनः जीत लिया। सालुव नरसिंह दो पुत्रों को अपने विश्वासपात्र सेनापति नरेश नायक के संरक्षण में छोड़कर १४९०-९१ ई. में परलोकगामी हुआ।

सालुव वंश : विजयनगर का द्वितीय राजवंश। इसका शासनकाल अनुमानतः १४८६ से १५०३ ई. तक रहा। इसका प्रारम्भ लगभग १४८६ ई. में चन्द्रगिरि के नायक सालुव नरसिंह ने तत्कालीन अयोग्य शासक प्रौढ़देव को सिंहासनच्युत करके किया था। प्रौढ़देव के साथ ही विजयनगर के प्रथम अथवा संगम राजवंश का अन्त हो गया। सालुव नरसिंह के अतिरिक्त इस वंश में इम्मादी नरसिंह नामक केवल एक और शासक हुआ, जिसे लगभग १५०५ ई. में तुलुव के नरसा नरेश नायक के पुत्र वीर नरसिंह ने अपदस्थ कर दिया।

सावरकर, विनायक दामोदर (१८८३-१९६६)  : अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले विनायक दामोदर सावरकर साधारणतया वीर सावरकर के नाम से विख्यात थे। १९४० ई. में उन्होंने पूना में 'अभिनव भारती' नामक एक ऐसे क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य आवश्यकता पड़ने पर बल-प्रयोग द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करना था। जब वे विलायत में कानून की शिक्षा प्राप्त कर रह थे, तभी १९१० ई. में एक हत्याकांड में सहयोग देने के अभियोग में बन्दी बना लिये गये और विचाराधीन कैदी के रूप में एक जहाज द्वारा भारत रवाना कर दिये गये। परन्तु फ्रांस के मार्सेलीज़ बन्दरगाह के समीप जहाज से वे समुद्र में कूदकर भाग निकले, किन्तु पुनः पकड़े गये और भारत लाये गये। यहाँ एक विशेष न्यायालय द्वारा उनके अभियोग की सुनवाई हुई और उन्हें आजीवन कालेपानी की दुहरी सजा मिली। १९३७ ई. में उन्हें मुक्त कर दिया गया, परन्तु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को उनका समर्थन न प्राप्त हो सका और १९४८ ई. में महात्मा गांधी की हत्या में उनका हाथ होने का संदेह किया गया। बाद में वे निर्देष सिद्ध हुए और उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें 'भारतीय स्वातंत्र्य युद्ध', 'मेरा आजीवन कारावास' और 'अण्डमान की प्रतिध्वनियाँ' (सभी अंग्रेजी में) अधिक प्रसिद्ध हैं।

साष्टी : बम्बई के उत्तर एक द्वीप, जिसका क्षेत्रफल २४१ वर्गमील है। अब यह द्वीप बम्बई नगर से पुल तथा सड़कों द्वारा पूर्ण रूप से जुड़ गया है। साष्टी के प्राचीन गुहा-मन्दिर और भग्नावशेष दर्शनीय हैं। प्रथम मराठा युद्ध प्रारम्भ होने पर अंग्रेजों ने १७७५ ई. में साष्टी (दे.) पर अधिकार कर लिया और १७८३ ई. की साल्वाई की संधि के अनुसार यह द्वीप अंग्रेजों को दे दिया गया।

सि : कुषाण सम्राट् कथफिश द्वितीय (दे.) का राज प्रतिनिधि। उसने पामीर पार करके चीन पर आक्रमण किया, किन्तु पराजित हो गया।

सिंघण : देवगिरि के यादव वंश का सबसे शक्तिशाली शासक। १३ वीं शताब्दी के प्रारंभ में अपने पिता जैतुगी (जैत्रपाल) के उपरांत वह शासक हुआ तथा १२४६ ई. मृत्युपर्यन्त राज्य किया। उसने चारों दिशाओं में विजय यात्राएँ कीं। उसके राज्य में मध्य तथा पश्चिमी दक्षिणापथ के समस्त भू-भाग थे। वह साहित्य तथा कला का भी महान् पोषक था। उसके आश्रित विद्वान् शारंगधर ने संगीत पर 'संगीत संगीत रत्‍नाकर' नामक ग्रंथ लिखा, जिस पर सिंघण ने एक टीका लिखी। उसने भास्कराचार्य द्वारा रचित 'सिद्धान्तशिरोमणि' तथा ज्योतिष संबंधी अन्य ग्रंथों के अध्ययन के लिए एक विद्यालय की स्थापना की।

सिंह विष्णु, पल्लव : कांची के पल्लव वंश का प्रारंभिक शासक। उसने छठीं शताब्दी ई. के अंतिम चरण में राज्य किया। अभिलेखों के अनुसार उसने केवल पांड्य, चेर और चोल राजाओं को ही नहीं, बल्कि श्रीलंका के शासक को भी पराजित किया।

सिकन्दर महान : मैसिडोनिया (मकदूनिया) का राजा (३५६-३२३ ई. पू.)। उसने अपने दिग्विजय अभियान में फरवरी-मार्च ३२६ ई. पू. ओहिन्द के निकट नाँवों के पुल से सिन्धु नदी पारकर भारत पर आक्रमण किया। उस समय पंजाब और सिन्ध में अनेकानेक छोटे-छोटे राज्य थे जो आपस में लड़ा करते थे। उनमें कुछ में राजतंत्र था और कुछ गण या नगर राज्य थे। उनमें केवल एकता का ही अभाव न था, वरन वे परस्पर शत्रुता और प्रतिस्पर्द्धा भी रखते थे। उनमें से कुछ राज्य विस्तार अथवा अपने पड़ोसी राज्य से बदला लेने की आकांक्षा से विदेशी आक्रमणकारी से भी मिल जाने में संकोच नहीं करते थे। तक्षशिला का राजा आम्भि भी इन्हीं में से एक था जो सिकन्दर से मिल गया था। इससे सिकन्दर की सेना को एक तो विश्राम मिल गया, जिसकी उसे बड़ी आवश्यकता थी; इसके अलवा उसे हाथियों के युद्ध की कला सीखने का अवसर भी मिल गया, जिनसे यवन सैनिक बहुत डरते थे और जिस पर भारतीय सेना की रक्षा व्यवस्था मुख्यतया निर्भर थी।

तक्षशिला के राजा आम्भि ने भारत के द्वार-रक्षक के रूप में अपना कर्तव्य न निभाकर सिकन्दर को झेलम के तट तक पहुँचने में भारी मदद दी और इसी के फलस्वरूप उसने राजा पुरु (पोरस) को युद्ध में हरा दिया, जिसका राज्य झेलम और चनाब नदियों के बीच था। इस लड़ाई में सिकन्दर की जीत का मुख्य कारण यह था कि उसकी सेना अधिक गतिशील थी। उसके घुड़सवार और अश्वारोही तीरन्दाज सैनिकों ने कम गतिशील हाथी, पदाति और पैदल तीरन्दाज सैनिकों को हरा दिया। इसके बाद सिकन्दर पूर्व की ओर आगे बढ़ा और बनाब और रावी नदियों को पारकर व्यास (हाइफैसिस) नदी के किनारे पहुँचा, जिसके बाद प्रेसिआई (प्राच्य) अर्थात् मगध के नन्द राजा का राज्य शुरू हो जाता था। इसके पहले सिकन्दर ने पंजाब के उन राज्यों और गणों को पराजित कर दिया था जो सिन्धु और व्यास नदी के बीच में बसे थे। यद्यपि इन राज्यों और गणों ने सिकन्दर के हमले का मुकाबला संयुक्त होकर नहीं किया, तथापि इनमें से हर एक बड़ी वीरता से लड़ा था।

पोरस के शरीर में नौ घाव लगे थे, फिर भी वह लड़ाई के मैदान से भागा नहीं और सिकन्दर ने उसके साथ उदारता का व्यवहार किया। अस्सकेन लोगों ने अपने गढ़ मसग्ग में बड़ी वीरता से सिकन्दर का सामना किया था। सिकन्दर की उनका मसग्ग दुर्ग जीतने में लोहे के चने चबाने पड़े थे। वह दगाबाजी करके ही उनका दुर्ग जीत सका। उसने वादा किया था कि वह समग्ग दुर्ग छोड़ने पर सात हजार भारतीय सैनिकों को सकुशल चला जाने देगा, लेकिन दुर्ग से उसने निकलने पर उन सब सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। दियोदोरस के अनुसार मसग्ग में औरतों तक ने हथियार उठा लिए और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा भिड़ाकर सिकन्दर की सेना का मुकाबला किया।

हिन्दुस्तानियों की वीरता के इस अनुभव और इस सूचना से कि मगध का राजा बड़ा बलवान है, सिकन्दर के सैनिकों में आतंक फैल गया। प्लूटार्क ने लिखा है कि सिकन्दर के सैनिकों ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। इसीलिए सिकन्दर व्‍यास के तट पर रुक गया और वहाँ से झेलम तक लौटकर, नदी मार्ग से विशाल बेड़े के द्वारा सिन्धु नदी के मुहाने तक पहुँचा। रास्ते में अनेक राज्यों और दक्षिणी पंजाब और सिन्ध के लोगों से उसका घोर युद्ध हुआ। इन लोगों ने सिकन्दर का कड़ा मुकाबला किया लेकिन वे विदेशी शत्रु के विरुद्ध, संयुक्त मोर्चा नहीं बना सके। सिकन्दर ने मालव, क्षुद्रक, मूसिकनोई तथा ब्राह्मण गणों को पराजित किया। मालव (यूनानियों के अनुसार मल्लोइ) लोग मुल्तान से ९० मील पूर्वोत्तर दिशा में रहते थे। उन लोगों ने सिकन्दर को गम्भीर रूप से घायल कर दिया।

सिकन्दर महान : सिकन्दर ने प्रतिशोध में उस गण के सभी लोगों का संहार करा दिया, यहाँ तक कि औरतों और बच्चों तक को जीवित नहीं छोड़ा। सिन्धु नदी के मुहाने पर पहुँचकर सिकन्दर ने अपनी सेना को तीन हिस्सों में बाँटा। नौसेना को एडमिरल नियार्कस के नेतृत्व में फारस की खाड़ी में फरात नदी के मुहाने तक जाने का आदेश दिया गया। सेना के दूसरे हिस्से को क्रेटिरोस के नेतृत्व में समुद्र के किनारे-किनारे और तीसरे भाग को सिकन्दर की कमान में गदरोसिया (मकरान) होकर फारस वापस लौटने का आदेश दिया गया। सितम्बर ३२५ ई. पू. में सिकन्दर महान् हिन्दुस्तान में १९ महीने के अभियान के बाद वापस लौटा। उसका भारत में प्रवेश मार्च ३२६ ई. पू. में हुआ था। उसकी नौसेना और सेना के दोनों हिस्से मई ३२४ ई. पू. में फारस के सूसानगर पहुँच गये। इसके एक वर्ष बाद जून ३२३ ई. पू. में सिकन्दर की मृत्यु बेबीलोन नगर में हो गयी।

भारत पर सिकन्दर के आक्रमण को कभी-कभी अतिरंजित महत्त्व दिया जाता है। सैनिक दृष्टि से यह निःसंदेह एक बड़ी सफलता थी और समूचे पंजाब और सिन्ध को सिकन्दर ने १९ महीने के अभियान में जीत लिया। लेकिन इस बात को भी याद रखना चाहिए कि यह विजय इसलिए सम्भव हुई कि सिकन्दर के विरोध में खड़े होनेवाले भारतीयों में एकता नहीं थी। इसके बाद भी उसकी विजय अस्थायी सिद्ध हुई। जब सिकन्दर की सेना करमानिया होकर (३२४ ई. पू.) वापस लौट रही थी, उसी समय उत्तरी सिन्ध में उसके क्षत्रप फिलिप्पोस की हत्या कर दी गयी। इसके कुछ समय बाद ही भारतीय क्षेत्रों पर आधिपत्य करनेवाली यवन सेना पराजित कर दी गयी और ३२३ ई. पू. में अपनी मृत्यु होने से पूर्व स्वयं सिकन्दर उन क्षेत्रों पर दुबारा अधिकार नहीं कर सका। उसकी मृत्यु के बाद भारत में उसके विजित क्षेत्र उसके उत्तराधिकारियों के हाथ से निकल गये। उसने जहाँ-जहाँ यवन बस्तियाँ स्थापित की थीं, वे भी समाप्त हो गयीं। जैसा कि वी. ए. स्मिथ ने लिखा है- "सिकन्दर का अभियान एक सफल फौजी हमला मात्र था, जिसका भारत पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। केवल युद्ध की बर्बरता की एक याद बाकी रह गयी। भारत में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और उस पर यवनों की कोई छाप नहीं पड़ी।" भारत के हिन्दू, बौद्ध, जैन सभी लेखकों ने सिकन्दर की उपेक्षा की, क्योंकि भारत की दृष्टि से वह एक बर्बर लुटेरा मात्र था, जिसने दिग्विजय की आकांक्षा में बहुत से निर्दोष मर्द, औरतों और बच्चों की हत्या कर डाली। पर उसके आक्रमण से भारत और यूनान के बीच का रास्ता खुल गया और जो यवन बस्तियाँ भारत के पश्चिमोत्तर सीमा-क्षेत्र में स्थापित की गयीं वे भारतीय और यवन संस्कृति के बीच आदान-प्रदान का माध्यम बन गयीं।

सिकन्दर शाह (१४८९-१५२७)  : लोदी वंश के प्रवर्तक बहलोल लोदी (दे.) का पुत्र और उत्तराधिकारी। वह कुशल और कर्मठ शासक था। उसने चारों ओर फैली हुई अव्यवस्था को दूर करके विद्रोही प्रान्तीय शासकों, सरदारों तथा जमींदारों का दमन किया और इस प्रकार सुल्तान पद की मर्यादा और शक्ति को पुनः स्थापित किया। प्रमुख अफगान जागीरदारों के लेखे-जोखे की जाँच करके राज्य के राजस्व में वृद्धि की। बंगाल की सीमाओं तक अपनी सत्ता का विस्तार किया और वहाँ के तत्कालीन शासक अलाउद्दीन हुसेन खाँ से इस आशय की संधि की कि दोनों एक दूसरे के राज्य के भू-भागों पर अधिकार करने की चेष्टा न करेंगे। धौलपुर और चन्देरी के शासकों को अपनी अधीनता स्वीकार करने पर विवश किया तथा १५०४ ई. में जहाँ आधुनिक आगरा स्थित है, वहीं एक नगर की नींव डाली, जिससे निकटवर्ती शासकों पर नियंत्रण रखा जा सके। मृत्युपर्यन्त वह अपने राज्य की अव्यवस्था दूर करने का असफल प्रयास करता रहा। १५१७ ई. में आगरा में उसकी मृत्यु हुई।

सिकन्दर शाह  : शेरशाह का भतीजा और उसके द्वारा संस्थापित सूरवंश का पाँचवाँ तथा अन्तिम शासक। १५५५ ई. में जब वह पंजाब का सूबेदार था तब अफगानों ने उसे बादशाह घोषित कर दिया, किन्तु शीघ्र ही हुमायूँ ने उसे सरहिन्द के निकट एक युद्ध में परास्त कर दिया। पराजित होकर वह शिवालिक की पहाड़ियों की ओर चला गया, पर वहाँ से भी अकबर ने १५५७ ई. में उसे भगा दिया। तब वह भागकर बंगाल की ओर गया, जहाँ १५५८-५९ ई. के बीच उसकी मृत्यु हो गयी।

सिक्ख : गुरु नानक (दे.) (१४६९-१५३८ ई.) के अनुयायी। मुख्यतया पंजाब ही उनका निवास-स्थान है। प्रारम्भ में वे शान्तिप्रिय थे और उनमें परस्पर जाति-पाँति कोई भेद-भाव न था, हालाँकि उनमें से अधिकांश हिन्दू से सिक्ख बने थे। वे सभी धर्मों में निहित आधारभूत सत्य में विश्वास करते हैं और उनका दृष्टिकोण धार्मिक अथवा सम्प्रदायिक पक्षपात से रहित और उदार है। १५३८ ई. में गुरु नानक की मृत्यु के उपरांत सिक्खों का मुखिया गुरु कहलाने गा। उनके नौ गुरु क्रमशः अंगद (१५३८-१५५२ ई.), अमरदास (१५५२-१५७४ ई.), रामदास (१५७४-१५८१), अर्जुन (१५८१-१६०६ ई.), हरगोविन्द (१६०६-४५ ई.) हरराय (१६४५-६१ ई.), हरकिशन (१६६१-६४ ई.), तेज बहादुर (१६६४-७५ ई.) और गोविन्द सिंह (१६७५-१७०८ ई.) हुए।

सिक्ख : चौथे गुरु रामदास अत्यन्त साधु प्रकृति के व्यक्ति थे, इसलिए बादशाह अकबर भी उनका आदर करता था। उसने अमृतसर में एक जलाशय से युक्त भू-भाग उन्हें दान दिया, जिसपर आगे चलकर सिक्ख-स्वर्णमंदिर का निर्माण हुआ। पाँचवें गुरु अर्जुन ने सिक्खों के 'आदि ग्रंथ' नामक धर्म ग्रंथ का संकलन किया, जिसमें उनके पूर्व के चारों गुरुओं तथा कुछ हिन्दू और मुसलमान संतों की वाणी संकलित है। उन्होंने खालसा पंथ की आर्थिक स्थिति को दृढ़ता प्रदान करने के लिए प्रत्येक सिक्ख से धार्मिक चंदा वसूल करने की प्रथा चलायी। बादशाह जहाँगीर के आदेश पर गुरु अर्जुन का इस कारण वध कर दिया गया कि उन्होंने दया के वशीभूत होकर बादशाह के विद्रोही पुत्र शाहजादा खुसरो (दे.) को शरण दी थी।

गुरु अर्जुन के पुत्र गुरु हरगोविन्द ने सिक्खों का सैनिक संगठन किया, एक छोटी-सी सिक्खों की सेना एकत्र की। उन्होंने शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह करके एक युद्ध में शाही सेना को परास्त भी कर दिया। किन्तु अंत में उन्हें भागकर कश्मीर के पर्वतीय प्रदेश में शरण लेनी पड़ी। वहीं उनकी मृत्यु हुई। अगले दोनों गुरु हरराय और हरकिशन के काल में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं घटी। उन्होंने गुरु अर्जुन द्वारा प्रचलित धार्मिक चन्दे की प्रथा एवं उनके पुत्र हरगोविन्द की सैनिक-संगठन की नीति का अनुसरण करके खालसा पंथ को और शक्तिशाली बनाया। नवें गुरु तेग बहादुर को औरंगजेब का कोप-भाजन बनना पड़ा। उसने गुरु को बन्दी बनाकर उनके सम्मुख प्रस्ताव रखा कि या तो इस्लाम धर्म स्वीकार करो अथवा प्राण देने के लिए तैयार हो जाओ। बाद में उनका सिर उतार लिया गया। उनकी शहादत का समस्त सिक्ख सम्प्रदाय, उनके पुत्र तथा अगले गुरु गोविन्दसिंह (दे.) पर गंभीर प्रभाव पड़ा।

गुरु गोविंन्द सिंह ने भली-भाँति विचार करके शांति प्रिय सिक्ख सम्प्रदाय को सैनिक संगठन का रूप दिया, जो दृढ़तापूर्वक मुसलमानों के अतिक्रमण तथा अत्याचारों का सामना कर सके। साथ ही उन्होंने सिक्खों में ऐसी अनुशासन की भावना भरी कि वे लड़ाकू शक्ति बन गये। उन्होंने अपने पंथ का नाम खालसा (पवित्र) रखा। साथ ही समस्त सिक्ख समुदाय को एकता-सूत्र में आबद्ध करने के विचार से सिक्खों को केश, कच्छ, कड़ा, कृपाण और कंघा-पाँच वस्तुओं को आवश्यक रूप में धारण करने का आदेश दिया। उन्होंने स्थानीय मुगल हाकिमों से कई युद्ध किये, जिनमें उनके दो बालक पुत्र मारे गये, किन्तु वे हतोत्साहित न हुए। मृत्युपर्यन्त वे सिक्खों का संगठन करते रहे। १७०८ ई. में एक अफगान ने उनकी हत्या कर दी।

आगे चलकर गुरु गोविन्द सिंह की रचनाएँ भी संकलित हुईं और यह संकलन 'गुरु ग्रंथ साहब' का परिशिष्ट बना। समस्त सिक्ख समुदाय उनका इतना आदर करता था कि उनकी मृत्यु के उपरांत गुरु पद ही समाप्त कर दिया गया, यद्यपि उनके उपरांत ही बन्दा वीर (दे.) ने सिक्खों का नेतृत्‍व-भार सँभाल लिया। वीर बन्दा के नेतृत्व में १७०८ ई. से लेकर १७१६ ई. तक सिक्ख निरन्तर मुगलों से लोहा लेते रहे, पर १७१६ ई. में बन्दा बन्दी बनाया गया और बादशाह फर्रूखशियर (दे.) (१७१३-१९ ई.) की आज्ञा से हाथियों से रौंदवाकर उसकी निर्मम हत्या कर दी गयी। सैकड़ों सिक्खों को घोर यातनाएँ दी गयीं, फिर भी इन अत्याचारों से खालसा पंथ की सैनिक शक्ति को दबाया न जा सका। गुरु के अभाव में, व्‍यक्तिगत नेतृत्‍व के स्‍थान पर संगठन का भार कई व्यक्तियों के एक समूह पर आ पड़ा, जिन्होंने अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार अपने सहधर्मियों का संगठन किया।

सिक्ख : फेजुल्लापुर के कपूर सिंह ने खालसा दल अथवा सिक्ख राज्य की नींव डाली। अन्य सिक्ख सरदारों ने नादिरशाह के आक्रमण के उपरात पंजाब में फैली हुई अव्यवस्था का लाभ उठाकर सिक्खों का संगठन किया और रावी के तट पर डालीवाल में एक दुर्ग का निर्माण कराया तथा लाहौर तक धावे मारने शुरू कर दिये। अहमदशाह अब्दाली के बार-बार के आक्रमणों और विशेषकर १७६८ ई. के पानीपत के तृतीय युद्ध ने पंजाब में सिक्खों की शक्ति बढ़ाने में विशेष योग दिया, क्योंकि उनके प्रयास से पंजाब में मुगल शासन समाप्तप्राय हो गया था तथा सिक्खों में नवीन आशा एवं साहस का संचार हो रहा था। वे अब्दाली का पीछा करते रहे और छापामार युद्ध की नीति अपनाकर पंजाब में उसकी स्थिति को विषम बना दिया। अंततः १७६७ ई. में उसके भारत से अफगानिस्तान लौट जाने पर सिक्खों ने अपनी वीरता तथा अध्यवसाय से पंजाब के समस्त मैदानी भाग को अपने नियन्त्रण में ले लिया।

१७७३ ई. तक उनका अधिकार क्षेत्र पूर्व में सहारनपुर से पश्चिम में अटक तक तथा उत्तर में पहाड़ी भाग से लेकर दक्षिण में मुलतान तक विस्तृत हो गया। इस प्रकार सिक्ख अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने में सफल हुए, किन्तु उनमें एक शासकीय ईकाई का अभाव था। वे बारह मिसलों (टुकड़ियों) में विभक्त थे, जिनके नाम क्रमशः अहलूवालिया, भाँगी, डलवालिया, फैज्जुलापुरिया, कन्हैया, करोड़ा सिंहिया, नकाई, निहंग, निशानवाला, फुलकिया, रामगढ़िया और सुकरचकिया थे। अहमदशाह अब्दाली और मुगलों की सत्ता के पतन के उपरांत सिक्ख किसी भी बाह्य शक्ति के भय से रहित होकर परस्पर संघर्षरत हो गये। फलतः उपर्युक्त बारह मिसलों के छिन्न-भिन्न होने की स्थिति उत्पन्न हो गयी, किन्तु सुकरचकिया मिसल के नायक रणजीत सिंह ने अपनी योग्यता और बुद्धिमत्ता से इस आशंका को दूर कर दिया।

रणजीत सिंह (दे.) का जन्म १७८० ई. में हुआ और १७९९ ई. में उसने अफगानिस्तान के शासक जमानशाह से लाहौर के प्रान्तीय शासक का पद प्राप्त कर लिया, जिससे पंजाब के मुसलमानों को उसके आगे झुकना पड़ा। अगले छः वर्षों में उसने सतलज पार कर सभी मिसलों पर अना आधिपत्य स्थापित कर लिया। सतलज के इस पार अथवा पूर्वी क्षेत्र की मिसलों पर अधिकार जमाने में वह इस कारण असफ़ल रहा कि भारत में स्थित अंग्रेज सरकार इन मिसलों के सरदारों को उसका विरोध करने के लिए सहायता दे रही थी। फिर भी रणजीत सिंह ने १८३९ ई. में अपनी मृत्यु के पूर्व सिक्खों को संगठित शक्ति में परिवर्तित कर दिया, जिनके स्वतन्त्र राज्य की सीमाएँ सतलज से पेशावर तक और कश्मीर से मुलतान तक विस्तृत थीं। इसकी रक्षा के लिए यूरोपोय ढंग से प्रशिक्षित तथा शक्तिशाली तोपखाने से सज्जित विपुल सैन्यबल भी था। किन्तु दुर्भाग्यवश रणजीत सिंह का कोई सुयोग्य तथा वयस्क पुत्र न था, जो सिक्खों का नेतृत्व कर उनके कार्य को आगे बढ़ा सकता। फलतः उनके उत्तराधिकारी के रूप में कई निर्बल और कठपुतली शासक हुए और कुचक्री राजनीतिज्ञों तथा महत्त्वाकाँक्षी सेनापतियों के षड्यन्त्रों के फलस्वरूप १८४५ से ४९ ई. के चार वर्षों के अल्पकाल में ही सिक्खों को प्रथम तथा द्वितीय युद्ध में फँसना पड़ा जिससे उस स्वतन्त्र सिक्ख राज्य का नाश हो गया, जिसका निर्माण दीर्घकालीन बलिदानों के आधार पर हुआ था।

सिक्ख युद्ध : क्रमशः १८४५-४६ ई. और १८४८-४९ ई. में हुए। प्रथम सिक्ख युद्ध, जो १८३९ ई. में रणजीत सिंह की मृत्यु के छः वर्षों बाद प्रारम्भ हुआ, उसका एक कारण १८४३ ई. में अंग्रेजों द्वारा सिंध पर अधिकार करना था, जिससे उनकी आक्रामक नीति स्पष्ट हो गयी थी। दूसरा कारण सिक्ख सेना का नियन्त्रण के बाहर हो जाना था, जिसने अल्पवयस्क सिक्ख राजा दलीप सिंह की माता तथा संरक्षिका रानी जिन्दा कौर और उसके परामर्शदाताओं को इस बात के लिए विवश किया कि वे दिसम्बर १८४५ ई. में सतलज पार करके अंग्रेजों के राज्य पर आक्रमण करने की आज्ञा दें। प्रथम युद्ध अल्पकालिक तथा तीव्र हुआ और केवल तीन महीनों में ही चार मुठभेड़ें क्रमशः मुदकी (१८ दिसम्बर), फिरोजशाह (२१-२२ दिसम्बर), अलीबाल (२८ जनवरी १८४६ ई.) और सुबराहान (१० फरवरी १८४६ ई.) में हुई और इन सभी में सिक्ख पराजित हुए।

अन्तिम झड़प में सिक्खों की पराजय होने के फलस्वरूप लाहौर का मार्ग खुल गया और तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड हार्डीज के नेतृत्व में अंग्रेजों ने उस पर अधिकार भी कर लिया। हार्डिज ने ही पराजित सिक्खों के सम्मुख संधि की शर्तें रखीं। लाहौर की इस संधि के अनुसार सिक्खों ने अंग्रेजों को सतलज नदी के उस पार का समस्त भू-भाग तथा सतलज और व्‍यास नदियों के बीच का जालंधर का दोआब दे दिया और ५० लाख रुपयों की नकद घनराशि हर्जाने के रूप में दी। साथ ही एक करोड़ रुपयों के बदले में जम्मू-कश्मीर का इलाका भी अंग्रेजों को दे दिया, क्योंकि सिक्ख सरकार उक्त धनराशि नकद देने में असमर्थ थी। अंग्रेज सरकार ने जम्मू के तत्कालीन सूबेदार गुलाब सिंह को वह इलाका एक करोड़ रुपये में बेच दिया। सिक्ख सेना की शक्ति घटाकर २० हजार पैदल और १२ हजार अश्वारोही तक सीमित कर दी गयी। एक अंग्रेज रेजीडेण्ट (सर हेनरी लारेन्स) की भी लाहौर में नियुक्ति की गयी, जिस पर १८४६ ई. के अन्त तक अधिकार रखने के लिए अंग्रेजों की एक सेना तैनात थी। किन्तु वर्ष का अंत होने के पूर्व ही लाहौर की संधि में संशोधन करके अंग्रेज सेनाओं का नगर पर ८ वर्षों तक अथवा महाराज दलीप सिंह के वयस्क होने तक अधिकार बना रहने की व्यवस्था कर दी गयी।

सिक्ख युद्ध : तत्कालीन रेजीडेन्ट सर हेनरी लारेन्स, महाराज दलीप सिंह की संरक्षक परिषद् का अध्यक्ष नियुक्त हुआ। संरक्षक परिषद् में अन्य व्यक्तियों के साथ राजमाता जिंदा कौर को भी सम्मिलित किया गया। शीघ्र ही कई सिक्ख सरदारों में संधि की शर्तों तथा अंग्रेजों के निर्देशन में प्रान्त का शासन चलाये जाने पर तीव्र असंतोष उत्पन्न हो गया। विशेषकर राजमाता को यह संधि बहुत अखरी, उसने अंग्रेजों के विरुद्ध षड्यंत्र प्रारम्भ कर दिया, फलतः इसे राज्य से निष्कासित कर अन्यत्र भेज दिया गया। सेवामुक्त सिक्ख सैनिक भी राज्य में गड़बड़ी उत्पन्न करते रहते थे। अंग्रेजों के विरुद्ध असंतोष उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। यह असंतोष उस समय चरम सीमा पर पहुँच गया, जब मुलतान के शासक मूलराज ने आय-व्यय का लेखा प्रस्तुत करने में असमर्थता प्रकट कर त्यागपत्र दे दिया। शीघ्र ही मूलराज के स्थान पर एक सिक्ख उत्तराधिकारी की नियुक्ति हुई और उसे दो अंग्रेज अधिकारियों के संरक्षण में मुलतान भेजा गया। पर मार्ग में ही अचानक आक्रमण करके अप्रैल १८४८ ई. में दोनों अंग्रेजों को मार डाला गया।

इस घटना को अनुकूल अवसर मानकर मूलराज ने मुलतान और उसके दुर्ग पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने स्थानीय सेना खड़ी करके दुर्ग को घेर लिया। शेरसिंह की अधीनता में लाहौर से एक सिक्ख सेना भेजी गयी, किन्तु वह मूलराज से मिल गयी। इस प्रकार एक स्थानीय विद्रोह ने बृहत रूप ले लिया और द्वितीय सिक्ख-युद्ध प्रारम्भ हो गया।

प्रथम युद्ध की भाँति द्वितीय सिक्ख-युद्ध भी कुछ ही महीनों तक चला। १३ जनवरी १८४९ ई. को चिलियाँवाला नामक स्थान पर अंग्रेजों और सिक्खों में एक कठिन किन्तु अनिर्णीत युद्ध हुआ। ९ दिनों के उपरान्त मुलतान ने आत्मसमर्पण कर दिया तथा २१ फरवरी १८४९ ई. को गुजरात के युद्ध में सिक्खों की मुख्य सेना पूर्णरूप से परास्त हुई। इस प्रकार सम्पूर्ण पंजाब अंग्रेजों के सम्मुख नतमस्तक हो गया और तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड डलहौज़ी ने शीघ्र ही पंजाब को अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य में मिला लेने का आदेश दे दिया। अल्पवयस्क महाराज दलीप सिंह को ५० हजार पौण्ड की वार्षिक पेंशन स्वीकृत करके प्रशिक्षणार्थ इंग्लैंड भेज दिया गया और खालसा को भंग करके सिक्खों को एक कृपाण के अतिरिक्त अन्य कोई हथियार रखने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इस प्रकार भारत से अंग्रेजों का साम्राज्य अफगानिस्तान की सीमा तक विस्तृत हो गया। [गफ तथा इन्‍स कृत 'सिक्ख तथा सिक्ख युद्ध' (अंग्रेजी में) ]

सिन्हा, सत्येन्द्र प्रसन्न, रायपुर का प्रथम लार्ड (१८६३-१९३०) : प्रथम भारतीय, जिनको ब्रिटिश सरकार ने एक प्रान्त का गवर्नर नियुक्त किया। जन्म बंगाल के वीरभूमि जिले के एक मध्यम वर्ग के परिवार में। वकालत के पेशे में उन्हें विशेष सफलता प्राप्त हुई। प्रौढ़ावस्था में उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया और १९१४ ई. में बम्बई में होनेवाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मध्यक्ष हुए। वे पहले भारतीय थे, जो १९०९ ई. में वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य नियुक्त हुए तथा १९२० से १९२४ ई. तक बिहार और उड़ीसा प्रान्त के गवर्नर बनाये गये और उनको लार्ड की सम्मानित उपाधि प्राप्त हुई। भारतीय राजनीतिज्ञों में वे नरम दल के सदस्य थे। उन्होंने अपनी योग्यता से सिद्ध कर दिया कि भारतीय सर्वोच्च पदों पर नियुक्ति के अधिकारी हैं।

सिन्ध : सिन्धु नदी की वह घाटी जो झेलम नदी के संगम से दक्षिण में पड़ती है। इन प्रदेश में लगभग ३००० ई. पू. उस प्रागैतिहासिक सम्यता (दे.) का जन्म और विनाश हुआ, जिसके अवशेष लरकाना जिले के मोहनजोदड़ों नामक स्थल पर प्राप्त हुए हैं। सिकन्दर महान् के आक्रमण के समय यहाँ मुचिकर्णा अथवा मुषिक, साम्ब अथवा सबर तथा ब्राह्मण आदि गण निवास करते थे। यूनानी विजेता से इन सभी को अपनी अधीनता स्वीकार करने पर विवश किया और उसकी जल सेना सिंध नदी से होकर तथा स्थल सेना नदी के किनारे-किनारे कूच करके पाटल (पातानप्रस्थ) पहुँची, जो सिन्ध नदी के मुहाने पर स्थित था। वहाँ से सिकन्दर ने अपनी स्थल-सेनाओं सहित बलुचिस्तान के मार्ग से स्वदेश की ओर प्रस्थान किया और उसकी जलसेना बेवीलोन की ओर चल पड़ी।

सिन्ध, मौर्य साम्राज्य का एक भाग था और पाँचवीं शताब्दी ई. में यह चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के साम्राज्य में भी सम्मिलित था। तदुपरान्त इस प्रदेश में एक ब्राह्मण राजवंश का शासन रहा, जिसका अन्तिम राजा दाहिर था। ७११ ई. में मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में अरब मुसलमानों ने सिन्ध पर आक्रमण किया। उसने दाहिर को हराकर मौत के घाट उतार दिया और सिन्ध की राजधानी अलोर के दुर्ग पर अधिकार करके सिन्ध को अरब साम्राज्य में मिला लिया। अरबों का सिंध पर ११७६ ई. तक अधिकार रहा और उसी वर्ष शहाबुद्दीन गोरी (दे.) ने अरबों से इसे छीन लिया। इस प्रकार सिन्ध दिल्ली सल्तनत का एक अंग बन गया। सुल्तान मोहम्मद तुगलक के राज्यकाल में सिन्ध दिल्ली सल्तनत से अलग हो गया, यद्यपि मुहम्मद तुगलक पुनः विजय प्राप्ति की इच्छा से होनेवाले इस युद्ध में मारा गया। यद्यपि फिरोजशाह तुगलक ने १३६१-६२ ई. में सिन्ध को पुन: जीतने के दो प्रयास किये, परन्तु यह स्वतन्त्रप्राय रहा।

सिन्ध : सिन्ध का ऊपरी अथवा उत्तरी भाग बाबर की मुलतान-विजय से उसके अधिकार में आ गया। यही अमरकोट नामक स्थान पर १५४२ ई. में अकबर का जन्म हुआ। सिन्ध के निचले भाग अथवा दक्षिणी सिन्ध को, जिसकी राजधानी ठट्टा थी, अकबर ने १५९१ ई. में जीत लिया और इस प्रकार सम्पूर्ण सिन्ध पुनः दिल्ली साम्राज्य का एक भाग बन गया। १८ वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में मुगलों की शक्ति में ह्रास होने के कारण सिन्ध पर वहाँ के अमीरों का नियंत्रण हो गया। किन्तु १९ वीं शताब्दी में अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के साथ साथ सिन्ध और सिन्‍धु नदी की महत्ता के कारण अंग्रेज सरकार की ललचायी दृष्टि उस पर पड़ी। १८३२ ई. में अंग्रेजों ने सिंध के अमीरों (दे.) के साथ एक संधि कर ली, जिसके अनुसार सिन्धु नदी से अंग्रेजों का जहाजी व्यापार मार्ग सुलभ हो गया। दस वर्षों के उपरान्त तत्कालीन गवर्नर-जनरल एलेनवरो द्वारा प्रेरित किये जाने पर सर चार्ल्स नेपियर (दे.) ने अमीरों से युद्ध का एक बहाना ढूँढ़ लिया। अमीरों की मियानी और डबो के युद्ध में पराजय हुई और सिन्ध अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।

अप्रैल १९३६ ई. तक सिन्ध बम्बई प्रेसीडेन्सी का ही भाग बना रहा. पर उसी वर्ष सिन्ध का अलग प्रान्त बना दिया गया। १९४७ ई. में, भारत के विभाजन के उपरान्त सिन्ध पाकिस्तान का एक प्रान्त बन गया और उसको राजधानी कराँची ही पाकिस्तान की राजधानी हुई, यद्यपि बाद में राजधानी का स्थानान्तरण रावलपिंडी हो गया।

सिन्‍ध के अमीर : बलूचिस्तान के तालपुरा कबीले के सरदार, जो ईसवी १८ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सिन्ध के शासक बन बैठे थे। शीघ्र ही उसकी तीन मुख्य शाखाएँ हो गयीं-हैदराबाद, खैरपुर और मीरपुर। कानूनी तौर से वे लोग अफगानिस्तान के शाह के अधीन थे। १९ वीं शताब्दी ईसवी के शुरू होने पर उनलोगों ने अफगानिस्तानी शाहों के स्वामित्व की अवहेलना शुरू कर दी, लेकिन उस समय उनको पंजाब के राजा रणजीत सिंह तथा अंग्रेजों का सामना करना पड़ा, जो सिंध पर अपना प्रभुत्व जताना चाहते थे। सिन्ध के अमीर दोनों को सिन्ध से बाहर रखना चाहते थे, लेकिन क्रमिक रीति से अंग्रेजों ने अपनी कूटनीति से उनको अपने अधीन कर लिया।

१८३१ ई. में सिन्धु नदी का सबसे पहला सर्वेक्षण अंग्रेजी दस्ते ने एलेक्जेन्डर बर्न्स के नेतृत्व में किया। भारत की ब्रिटिश सरकार ने सिन्ध और सिन्धु नदी के जलमार्ग का महत्‍त्व केवल व्यापार के लिए ही नहीं वरन् साम्राज्य प्रसार के लिए भी अनुभव किया। १८३२ ई. में सिन्ध के अमीरों को अंग्रेज सरकार से सन्धि करने के लिए राजी कर लिया गया, जिसके द्वारा उन्होंने सिन्ध की नदियों और सड़कों को हिन्दुस्तान के व्यापारियों के लिए खोल दिया, लेकिन किसी प्रकार के फौजी सामान अशवा जंगी जहाजों को वहाँ ले जाने पर पाबंदी लगा दी। इस सन्धि में सिन्ध के अमीरों और अंग्रेजों दोनों को एक दूसरे की भूमि पर लुब्ध दृष्टि डालने से रोक दिया गया। संधि का १८३४ ई. में अभिनवीकरण किया गया और १८३८ ई. में भारत की ब्रिटिश सरकार ने रणजीत सिंह द्वारा सिन्ध पर कब्जा करने के प्रयास को विफल कर दिया। अंग्रेजों ने सिन्ध के अमीरों को संरक्षण देने के लिए उनसे काफी धन वसूला और सिन्ध में अंग्रेज रेजोडेण्ट रखने का अधिकार प्राप्त कर लिया। प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध (१८३८-४२ ई.) शुरू होने पर अंग्रेजों ने सिन्ध के अमीरों से १८३२ ई. की सन्धि की शर्तों को तोड़कर अपनी सेना सिन्ध के मार्ग से भेजी और अमीरों से अफगानिस्तान को दिये जानेवाली खिराज की बकाया रकम वसूल की, १८३९ ई. में उन्होंने सन्धि के अमीरों को नयी सन्धि करने पर मजबूर किया, जिसमें १८३२ ई. की सन्धि की अवहेलना की गयी।

नयी सन्धि के द्वारा अमीरों को तीन लाख रुपये वार्षिक नजराना देने के लिए बाध्य किया गया और सिन्ध को बाजाब्ता अंग्रेजों का संरक्षित राज्य बना दिया गया सिन्ध के अमीरों को यह सन्धि नापसन्द थी लेकिन इसके बावजूद उन्होंने प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध के संकट काल में इसका ईमानदारी से पालन किया और अंग्रेज सराकार ने सिन्ध का प्रयोग अपने फौजी अड्डे के रूप में निर्बाध रीति से किया। लड़ाई के बाद लार्ड एलिनबरो के कार्य काल में भारत की ब्रिटिश सरकार ने सिन्ध के अमीरों पर अंग्रेजों के प्रति अमैत्री और शत्रुता का भाव रखने का आरोप लगाया और सर चार्ल्स नेपियर को सिन्ध का रेजीडेन्ट बनाकर भेजा, जो अपने इसी स्वभाव के लिए बदनाम था। १८४२ ई. में सर चार्ल्स नेपियर ने सिन्ध के अमीरों को एक नयी सन्धि करने पर मजबूर किया जिसके द्वारा उनके कुछ क्षेत्रों को तीन लाख रुपया सालाना नजराने के बदले में अंग्रेजों ने अपने अधिकार में ले लिया। सिन्धु नदी में अंग्रेजों की नावों और जहाजों के आवागमन के लिए ईंधन का प्रबन्ध करने का भार अमीरों पर डाल दिया गया। सिन्ध के अमीरों से अपने सिक्कों की टकसाल चलाने का अधिकार छीन लिया गया।

सिन्‍ध के अमीर : नयी सन्धि का व्यावहारिक निष्कर्ष यह निकला कि अमीरों की आजादी खत्म हो गयी। सर चार्ल्स ने सन्धि की शर्तों का इतनी कड़ाई से पालन कराया कि अमीरों की लड़ाकू बलूची जनता ने हैदराबाद स्थित अंग्रेजों की रेजीडेन्सी पर हमला कर दिया। एलिनबरो की हुकूमत को इससे सुनहरा मौका मिला और उसने फरवरी १८४३ ई. में अमीरों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। यह युद्ध थोड़े दिन चला। सिन्ध के अमीर मियानी और डबो की लड़ाइयों (फरवरी-मार्च १८४३ ई.) में पराजित कर दिये गये और उनको सिन्ध से निष्कासित कर दिया गया। जून १८४३ ई. तक युद्ध समाप्त हो गया और पूरे सिन्ध क्षेत्र की भारत के ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।

सिन्ध नदी : सिन्ध अथवा काली सिन्ध नदी टोंक जिले से निकलकर मध्ययप्रदेश और बुन्देलखण्ड से बहती हुई यमुना नदी में मिलती है। पिण्डारी युद्ध में अंग्रेजों की रणनीति बहुत कुछ अंशों तक इसी नदी पर आधारित थी।

सिन्धु घाटी-सम्यता : इसका उद्घाटन सिंधु घाटी के विविध स्थानों में, विशेष रूप से सिंध के लरकाना जिले में मोहनजोदड़ो तथा पंजाब के मांटगोमरी जिले में हड़प्पा में हाल में की गयी खुदाइयों से हुआ। विश्वास किया जाता है कि यह सभ्यता २५०० ई. पू. से १५०० ई. पू. के बीच वर्तमान थी। हो सकता है कि यह इससे भी प्राचीन रही हो। यह सुसभ्य नागरिक सभ्यता थी और उस काल के लोग अनेक विकसित सुख-सुविधाओं का उपभोग करते थे, जैसे चौड़ी सड़कें, नालियों की उत्तम व्यवस्था और सार्वजनिक स्नानागार। नगरों में सभागार और पूजा-स्थान भी होते थे। मकान पक्की इँटों से बनाये जाते थे और उनमें से कुछ दो खण्डे भी होते थे। उनमें पानी तथा नालियों की व्यवस्था रहती थी। उस काल के लोग मूर्तियों की पूजा करते थे। शिवलिंग से मिलते-जुलते प्रस्तर भी मिले हैं। वे लोग ताँबा, काँसा, चाँदी, जस्ता और सोने का उपयोग करना जानते थे। सोने के आभूषण बनाये जाते थे। वे लोग सूती और ऊनी कपड़ा बुनना जानते थे, मिट्टी के अच्छे बरतन बनाते थे जिन पर बहुधा अलंकरण भी किया जाता था तथा खाने-पीने में दूध, गेहूँ, जौ, फल तथा मांस का प्रयोग करते थे।

वे लेखन कला भी जानते थे, परंतु उनकी लिपि अभी तक पढ़ी जा सकी है। यह लिपि उस काल की मिली बहुत-सी मुद्राओं पर अंकित है। लिपि के पढ़े न जाने से यह अनुमान लगाना कठिन है कि उनकी भाषा किस वर्ग की थी। वे मृतकों को गाड़ते थे और उनका दाह संस्कार भी करते थे। विश्वास किया जाता है कि उनकी सभ्यता फरात (ईराक) घाटी की सभ्यता से मिलती-जुलती थी और वैदिक सभ्यता की पूर्ववर्ती थी। प्रतीत होता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद आर्यों ने भारत में प्रवेश किया। सिंधु घाटी सभ्यता के ह्रास और पतन का कारण ज्ञात नहीं है।

सिन्धु नदी : आधुनिक पाकिस्तान में बहनेवाली नदी जो हिमालय के क्षेत्र में तिब्बत से निकलती है। काश्मीर और पंजाब की सोहन, झेलम, चिनाव, रावी, व्यास और सतलज नदियों का जल इसमें मिल जाता है। और महानद के रूप में यह समुद्र में मिल जाती है। उपर्युक्त प्रदेशों की, जिनके बीच से यह १८००० मील की लम्बाई में बहती है, आर्थिक दशा सँवारने में इसका बहुत बड़ा योगदान है। एक मत के अनुसार सिन्धु शब्द से ही 'हिन्दू' शब्द की उत्पत्ति हुई है। इसकी घाटी में २५०० ई. पू. से १५०० ई. पू. एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी।

सिपहिर शिकोह, शाहज़ादा : दाराशिकोह का सबसे छोटा पुत्र और शाहजहाँ का पौत्र। शिशु होने के कारण औरंगजेब ने उसके प्राण न लिये और बाद में अपनी तीसरी पुत्री का उससे विवाह भी कर दिया।

सिपाही विद्रोह : यद्यपि इसका प्रारंभ मेरठ से १० मई, १८५७ ई. को मंगल पांडे नामक सैनिक ने दिन-दहाड़े एक अंग्रेज पदाधिकारी को मार डाला था, परन्तु यह विद्रोह दबा दिया गया। फिर भी विद्रोहाग्नि भीतर ही भीतर धधकती रही और ग्रीष्म ऋतु के मध्य में इसकी ज्वाला भड़क उठी। इसके राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सैनिक कई कारण थे। डलहौजी द्वारा गोद प्रथा का अन्त तथा देशी राज्यों को कुशासन के बहाने हड़पने की नीति से भारतीय राज्यों के शासकों को अपना सिंहासन बचाने की चिन्ता पीड़ित करते लगी। दूसरी ओर गद्दी से हटाये गये शासक तथा उनके आश्रित बेकारी तथा अर्थाभाव से पीड़ित होकर अँग्रेजों से द्वेष करने लगे। ऐसे अपदस्थ शासकों में से पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब (दे.) और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई (दे.) ने विद्रोह को संगठित करने में प्रमुख एवं सक्रिय भाग लिया। झाँसी की रानी ने मृत्युपर्यन्त अंग्रेजों से वीरतापूर्वक युद्ध किया।

सिपाही विद्रोह : राज्यापहरण की नीति तथा अपहृत राज्यों, विशेषकर अवध में नयी भूमि-व्वस्था से जमींदारों और साधारण जनता में अत्यन्त असंतोष व्याप्त हुआ; इनमें से अधिकांश वे लोग थे, जो सैन्य सेवा से मुक्त होने के कारण बेकार हो गये थे। शिक्षित भारतीयों को उनकी योग्यता के अनुरूप नौकरियाँ, मैकाले सदृश पढ़े-लिखे अंग्रेजों द्वारा हिन्दुओं की खुली भर्त्सना, हिन्दूधर्म की ईसाई मिशनरियों द्वारा खुली आलोचना, सतीप्रथा और शिशुबलि का निषेध, हिन्दू विधवाओं के पुनर्विवाह को वैधानिक रूप देना, किसी हिन्दू द्वारा ईसाई धर्म स्वीकार कर लेने पर उत्तराधिकार से वंचित होने पर रोक तथा रेल, तार-डाक आदि का प्रसार इन सबके सम्मिलित प्रभाव ने हिन्दुओं के मस्तिष्क में यह भावना भर दी कि उनका धर्म संकट में है और अंग्रेजों द्वारा ऐसे कुत्सित प्रयास किये जा रहे हैं जिनसे विवश होकर उन्हें ईसाई धर्म स्वीकार करना पड़ेगा। अंततः जिस भारतीय सैन्यबल का ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना एवं निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान था, उसमें भी गहरा असंतोष व्याप्त हो गया।

भारतीय सैनिक का वेतन तथा भत्ता भारतीय सेना में नियुक्त अंग्रेज सैनिक की अपेक्षा बहुत ही कम था तथा उसकी पदोन्नति के मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ थीं। भारतीय सैनिक को बर्मा तथा अफगानिस्तान सदृश दूरस्थ देशों के युद्ध-क्षेत्रों तक अपना सामान आदि ले जाने का व्यय स्वयं वहन करना पड़ता था और ऐसे देश, धर्म तथा जाति-पाँति के नियमों और बन्धनों के कारण, हिन्दुओं के लिए वर्जित थे, क्योंकि इससे उनके जातिच्युत होने का भय था। एक ज्येष्ठतम सर्वोच्च भारतीय सैनिक को भी बहुधा कनिष्ठ अंग्रेज पदाधिकारी के अधीन कार्य करना पड़ता था। इन समस्त कारणों से भारतीय पदाति सेना में अत्यधिक असंतोष था, जबकि समस्त भारतीय सैन्य शक्ति में अंग्रेज सैनिकों की संख्या केवल पाँचवाँ भाग थी अर्थात् २३३,००० में से केवल ४५,३२२ अंग्रेज सैनिक थे। इससे स्पष्ट है कि भारतीय सिपाहियों को भारत में अंग्रेजी साम्राज्य बनाये रखने और अपनी शक्ति एवं महत्ता का गर्व था। किन्तु भारतीय सेना में सेवारत अंग्रेजों की तुलना में उनके प्रति जो हेय व्यवहार किया जाता था, उसने उनमें अंग्रेजों के प्रति तीव्र असंतोष उत्पन्न किया।

भारतीय पदाति सेना का यह असंतोष उस समय हताशा में परिवर्तित हुआ, जब उनपर चर्बी लगे कारतूसों के साथ एन्फील्ड रायफिलें (बन्दूकें) लादी गयीं, जिनसे हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्मों के सिपाहियों को धर्मभ्रष्ट होने का भय हुआ। इस प्रकार कुछ दिन पूर्व से ही सुलगती हुई असंतोष की अग्नि में चर्बी लगे कारतूसों ने आहुति का कार्य किया और फलतः विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी।

सिपाही विद्रोह : प्रारंभ में विद्रोहियों को विशेष सफलता मिली। १० मई, १८५७ ई. को मेरठ से चलकर दूसरे ही दिन उन्होंने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और बहादुरशाह द्वितीय को, जो केवल एक कठपुतली शासक मात्र था, दिल्ली का सम्राट् घोषित कर दिया गया। दिल्ली पर अधिकार कर लेने से विद्रोहियों की प्रतिष्ठा बढ़ गयी और अगले दो महीनों में यह विद्रोह अवध और रुहेलखण्ड में फैल गया। राजपूताने में स्थित नसीराबाद, ग्वालियर राज्य में नीमच, वर्तमान उत्तर प्रदेश में बरेली, लखनऊ, वाराणसी और कानपुर की छांवनियों के सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उधर बुन्देलखण्ड में विद्रोह का नेतृत्व करती हुई झाँसी की रानी ने उन सभी यूरोपियनों को, जो उसके हाथों में पड़ते गये, मार डाला। विद्रोह प्रारंभ होने पर सभी ओर से विद्रोही दिल्ली की ओर चल पड़े, केवल कानपुर में स्थित अंग्रेजी सैनिक छांवनी और लखनऊ में रेजीडेन्सी का घेरा डाल दिया गया। कानपुर के निकट बिठूर में नाना साहब को पेशवा घोषित किये जाने से स्पष्ट हो गया कि विद्रोहियों में किसी सुनिश्चित लक्ष्य का अभाव है। उनका लक्ष्य क्या था-मुगल सम्राट् को पुनः सिंहासनासीन करके भारत में मुसलमानी राज्य की पुनः स्थापना, अथवा ब्राह्मण पेशवा के अधीन हिंन्दू राज्य की स्थापना ? समस्त विद्रोह-काल में उद्देश्यों में यह अस्पष्टता बनी रही, जिससे उसकी शक्ति शिथिल होती गयी। प्रारम्भ में यह लक्ष्यहीनता स्पष्ट न थी और भारत में अंग्रेजी शासन के लिए वास्तविक भय उत्पन्न हो गया था। दिल्ली, कानपुर, लखनऊ और बुन्देलखंड इस विद्रोह के मुख्य केन्द्र बन गये थे। अंग्रेजी सत्ता, जो प्रारम्भिक प्रहारों से डाँवाडोल हो रही थी, धीरे-धीरे सिक्खों, गोरखों और दक्षिण भारत की सैनिक छावनियों से लाये गये सैनिकों द्वारा पुनः स्थापित हो गयी। १४ सितम्बर १८५७ ई. को दिल्ली पर उनका पुनः अधिकार हो गया और कानपुर पर २७ जून १८५७ को। २५ सितम्‍बर को लखनऊ का घेरा भी तोड़ दिया, किंतु शहर पूना विद्रोहियों के हाथों में पड़ जाने के कारण ५ नवम्बर को उस पर अधिकार हो सका। इसी बीच सर कालीन कैम्पबेल, सेनाध्यक्ष और सर ह्यूरोज सदृश दो विशेष अनुभवी अफसरों के नेतृत्व में अंग्रेजों की नयी सेना भी आ गयी।

सिपाही विद्रोह : कैम्पवेल ने अवध और रुहेलखण्ड में विद्रोह का दमन किया और सर ह्यूरोज ने बुन्देलखण्ड में। उसने झाँसी की रानी को लगातार कई युद्धों में परास्त किया, परन्तु रानी वीरतापूर्वक लड़ती हुई वीरगति को प्राप्त हुई। तात्या टोपे को, जो नाना साहब का सेनापति था, बन्दी बनाकर फाँसी दे दी गयी। १४ सितम्बर को जब दिल्ली पर अंग्रेजों का पुनः अधिकार हुआ, बहादुरशाह द्वितीय को बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया गया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी। उसके दो पुत्रों और पौत्रों को कर्नल हाड्सन ने बिना किसी न्यायिक जाँच के गोली से उड़ा दिया। नाना साहब नेपाल की तराई के जंगलों की ओर भाग गया और फिर उसका पता न लगा। ८ जुलाई १८५८ ई. को तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड कैनिंग ने विद्रोह की समाप्ति और शांति-स्थापना की घोषणा की।

विद्रोह काल में दोनों ही पक्षों की ओर से अत्यन्त अमानुषिक अत्याचार हुए। उस काल की कटु स्मृतियों ने यूरोपियनों और भारतीयों के बीच ऐसी खाई पैदा कर दी, जो दीर्घकाल तक पट नहीं सकी। इस विद्रोह के फलस्वरूप भारत में कम्पनी का राज्य समाप्त हो गया और भारत का प्रशासन कम्पनी से इंग्लैण्ड की महारानी के हाथों में आ गया। महारानी विक्टोरिया ने इस परिवर्तन की घोषणा की और सभी को क्षमा करने तथा धार्मिक स्वतंत्रता, देशी राजाओं के अधिकारों की रक्षा एवं गोद प्रथा के अंत की नीति को त्याग देने का वचन दिया।

अंग्रेजों की सफलता और विद्रोहियों की विफलता के कई कारण थे। सर्वप्रथम, विद्रोह कुछ वर्गों तक सीमित था। इस विद्रोह का क्षेत्र पश्चिम में पंजाब, पूर्व में बंगाल, उत्तर में अवध और दक्षिण में नर्मदा नदी तक ही सीमित था। यह विद्रोह केवल सैनिकों तक ही सीमित था, देशी नरेश और भारत की साधारण जनता इससे अलग रही। दूसरे, विद्रोहियों का कोई एक मूल उद्देश्य न था और न उन्हें किसी केन्द्रीभूत तथा कुशल नेतृत्व के संचालन का सुयोग प्राप्त था। तीसरे, वे भली प्रकार संगठित भी न थे। प्रत्येक दल का अपना नेता होता था, जो अपने ही बलपर युद्ध करता था। चौथे, सिक्खों ने अपनी थोड़े दिन पूर्व हुई पराजय के लिए विद्रोही सिपाहियों को कारण मानकर स्वामिभक्ति की भावना से अंग्रेजों का पूरा साथ दिया। वस्तुतः यह उन्हीं की सहायता का परिणाम था कि दिल्ली पर अंग्रेजों का पुनः अधिकार हुआ और विद्रोह की रीढ़ टूट गयी। पाँचवें, यद्यपि विद्रोही अत्यधिक वीरता से लड़े, पर उन्होंने अपने में से कोई सुयोग्य सेनानायक न चुना। इसके विपरीत अंग्रेजों में अनुशासन तथा एक व्यक्ति के निर्देशन में कार्य करने के गुण थे। उन्हें हैरलाक, निकोल्सन, औट्रम तथा लारेन्स सदृश अनेक प्रतिभाशाली पदाधिकारियों और सेनानायकों का निर्देशन प्राप्त था। अन्त में एक कारण यह भी दिया जा सकता है कि विद्रोही लोग भारतीय समाज के एक अल्पांश मात्र थे। अंग्रेजों की विजय भारतीय जनता के बहुत भारी अंश की सक्रिय एवं निष्क्रिय सहायता के फलस्वरूप हुई, क्योंकि उन्हें विद्रोही सिपाहियों के कार्यों एवं गतिविधियों में कोई ऐसी विशेषता नहीं दिखलाई दी, जिससे प्रेरित होकर सभी उनका साथ देते। (सिपाही विद्रोह पर अंग्रेजी में अनेक ग्रंथ रचे गये हैं। होम्स, मैलीसन, सेन, मजूमदार और वीर सावरकर के ग्रंथ उल्लेखनीय हैं।)

सिमुक (शिशुक) : सातवाहन वंश का प्रवर्तक। पुराणों के अनुसार वह शुग वंश के अंतिम शासक का समकालीन था, किन्तु उसकी तिथि अनिश्चित है। संभवतः वह दूसरी शताब्दी ई. पू. के प्रारंभ में हुआ होगा। उसका राज्य मद्रास (तामिलनाडु) के बेलारी जिले में था और उसमें पश्चिमी दक्षिणापंथ के कुछ भू-भाग भी सम्मिलित थे। उसके उपरांत उसका भाई कृष्ण सिंहासनासीन हुआ।

सिराजुद्दौला : अप्रैल १७५६ ई. से जून १७५७ ई. तक बंगाल का नवाब। वह अलीवर्दी खाँ (दे.) का प्रिय दोहता तथा उत्तराधिकारी था, किन्तु नाना की गद्दी पर उसके दावे का उसके मौसेरे भाई शौकतजंग ने जो उन दिनों पूर्णिया का सूबेदार था, विरोध किया। सिंहासनासीन होने के समय सिराजुद्दौला की उम्र केवल २० वर्ष की थी। उसकी बुद्धि अपरिपक्व थी, चरित्र भी निष्कलंक न था तथा उसे स्वार्थी, महात्त्वाकांक्षी और षड्यन्त्रकारी दरबारी घेरे रहते थे। तो भी अंग्रेजों द्वारा उसे जैसा क्रूर तथा दुश्चरित्र चित्रित किया गया है, वैसा वह कदापि न था। वह बंगाल की स्वाधीनता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए मर मिटनेवाले देशभक्तों में न था, जैसाकि कुछ राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है।

सिराजुद्दौला : सिराजुद्दौला का उद्यम अपने व्यक्तिगत हितों की रक्षा हेतु था, किन्तु चारित्रिक दृढ़ता के अभाव में उसे लक्ष्य प्राप्ति में असफलता मिली। वास्तव में वह न तो कायर था और न युद्धों से घबराता ही था। अपने मौसेरे भाई शौकतजंग से युद्ध में उसे निर्णायक सफलता मिली और इसी युद्ध में शौकतजंग मारा गया। उसके अंग्रेजों से अप्रसन्न रहने के यथेष्ट कारण थे, क्योंकि अंग्रेजों ने उसकी आज्ञा के बिना कलकत्ता के दुर्ग की किलेबन्दी कर ली थी और उसके न्याय दंड के भय से भागे हुए राजा राजवल्लभ के पुत्र कृष्णदास को शरण दे रखी थी। कलकत्ता पर उसका आक्रमण पूर्णतः नियोजित रूप में हुआ। फलतः केवल चार दिनों के घेरे (१६ जूनसे २० जून १७२६ ई.) के उपरांत ही कलकत्ता पर उसका अधिकार हो गया। कलकत्ता स्थित अधिकांश अंग्रेज जहाजों द्वारा नदी के मार्ग से इसके पूर्व ही भाग चुके थे और जो थोड़े से भागने में असफल रहे, बन्दी बना लिये गये। उन्हें किले के भीतर ही एक कोठरी में रखा गया, जो काल कोठरी के नाम से विख्यात है और जिसके विषय में नवाब पूर्णतया अनभिज्ञ था।

काल कोठरी (दे.) से जिन्दा निकले अंग्रेजबंदियों को सिराजुद्दौला ने मुक्त कर दिया। किन्तु कलकत्ता पर अधिकार करने के बाद से उसकी सफलताओं का अन्त हो गया। वह फाल्टा की ओर भागनेवाले अंग्रेजों का पीछा करने और उनका वहीं नाश कर देने के महत्त्व को न समझ सका, साथ ही उसने कलकत्ता की रक्षा के लिए उपयुक्त प्रबन्ध न किया, ताकि अंग्रेज उस पर दुबारा अधिकार न कर सकें। परिणाम यह हुआ कि क्लाइव और वाटसन ने नवाब की फौज की ओर से बिना किसी विरोध के कलकत्ता पर जनवरी १७५७ ई. में पुनः अधिकार कर लिया। सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों से समझौते की वार्ता प्रारंभ की, पर अंग्रेजों ने मार्च १७१७ ई. में पुनः उसकी सार्वभौम सत्ता की उपेक्षा की, और चन्द्रनगर पर, जहाँ फ्रांसीसियों का अधिकार था, आक्रमण करके अपना अधिकार कर लिया। सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों के साथ अलीनगर की संधि भी कर ली, किन्तु अंग्रेजों ने इस संधि की पूर्ण अवहेलना करके नवाब के विरुद्ध उसके असंतुष्ट दरबारियों से मिलकर षड्यंत्र रचना प्रारंभ किया और १२ जून को क्लाइव के नेतृत्व में एक सेना भेजी।

सिराजुद्दौला ने भी सेना एकत्र करके अंग्रेजों का मार्ग रोकने का प्रयास किया, किन्तु २३ जून १७५७ ई. को पलासी के युद्ध में अपने मुसलमान और हिन्दू सेनानायकों के विश्वासघात के फलस्वरूप वह पराजित हुआ। पलासी से वह राजधानी मुर्शिदाबाद को भागा और वहाँ भी किसी ने उसके रक्षार्थ शस्त्र न उठाया। वह पुनः भागने पर विवश हुआ, पर शीघ्र ही पकड़ा गया और उसका वध कर दिया गया। सिराजुद्दौला का पतन अवश्य हुआ किन्तु उसने क्लाइव, वाटसन, मीरजाफर और ईस्‍ट इंडिया कम्पनी की भाँति, जो उसके पतन के षड्यंत्र में सम्मिलित थे, न तो अपने किसी मित्र को ही कभी धोखा दिया और न शत्रु को।

सिविल सर्विस  : देखिये, 'इंडियन सिविल सर्विस'।

सीता : रामायण के कथानायक राम की पत्नी। उन्होंने हिन्दू स्त्रियों के सामने पतिव्रत धर्म का आदर्श प्रस्तुत किया।

सीताबल्डी का युद्ध : तृतीय मराठा-युद्ध (दे.) के दौरान नवम्बर १८१७ ई. में भोंसला शासक अप्पा साहब (दे.) तथा अंग्रेजों के बीच हुआ। इस युद्ध में भोंसला के नेतृत्व में मराठों की सेना पूर्णतया पराजित हुई और अप्पा साहब ने आत्मसमर्पण कर दिया।

सीथियन  : मध्य एशिया में स्थित सीथिया के निवासी साधारणतया सीथियन कहे जाते हैं। किन्तु भारतीय ऐतिहासिक शब्दावली में सीथियन शब्द का प्रयोग शक एवं कुषाण सरीखी उन विदेशी जातियों के लिए हुआ है, जो दूसरी शताब्दी ई. पू. से दूसरी शताब्दी ई. तक भारत में आती रहीं।

सीदी : ये लोग भारत के पश्चिमी समुद्रपट पर स्थित जंजीर नामक स्थल पर अबीसीनिया के समुद्री डाकुओं के सरदार थे। फलतः शिवाजी (दे.) को उनका दमन करना पड़ा।

सुदास : एक वेदकालीन राजा, जिसका उल्लेख भारत और जनमेजय के साथ ऋग्वेद में मिलता है।

सुन्नी : इस्लाम धर्म का एक सम्प्रदाय। भारत के अधिकांश मुसलमान सुन्नी हैं। शियाओं (दे.) के विपरीत सुन्नी पहले के तीन खलीफाओं को भी जायज तौर से चुने गये पैगम्बर के उत्तराधिकारी मानते हैं, और जुमे के खुतबे में उनका भी नाम लेते हैं। सुन्नी कट्टर मुसलमान होते हैं। दिल्ली के सभी सुल्तान तथा मुगल बादशाह सुन्नी थे और अक्सर शियाओं के खिलाफ जंग करते रहते थे, क्योंकि वे उन्हे सच्चा मुसलमान नहीं मानते थे।

सुप्रीम कोर्ट : इसकी स्थापना कलकत्ता में १७७४ ई. के रेग्यूलेटिंग ऐक्ट (दे.) द्वारा की गयी। ऐक्ट में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और अन्य तीन छोटे जजों के नाम और उनका वेतन भी निर्धारित कर दिया गया था। इस प्रकार ऐक्ट का उद्देश्य भारत में न्यायपालिका को कार्यपालिका से बिलकुल स्वतंत्र रखना था। ऐक्ट में निर्धारित कर दिया गया था कि समस्त ब्रिटिश प्रजा, जिसमें उच्चतम अधिकारी भी सम्मिलित थे तथा कलकत्ता के सभी निवासी, सुप्रीमकोर्ट के न्याय क्षेत्र में माने जायेंगे। ऐक्ट में यह उल्लेख नहीं किया गया था कि कोर्ट में जो फैसले दिये जायेंगे, वे किस कानून पर आधारित होंगे। अतएव चीफ जस्टिस सर एलिजा इम्पी (दे.) और अन्य तीन जजों ने निर्णय किया कि वे इंग्लैंडके कानूनों के अनुसार फैसले करेंगे। सुप्रीम कोर्ट के जज अपने अधिकारों का दृढ़ता से प्रयोग करते थे और सभी व्यक्तियों को अपने न्याय-क्षेत्र के अन्तर्गत मानते थे। वे कम्पनी की अदालतों की पूर्ण अवहेलना करते थे। उनके आदेश बड़े क्लेशदायी और दम्भपूर्ण प्रतीत होते थे।

सुप्रीम कोर्ट : उन्होंने जब जालसाली के आरोप में नन्दकुमार (दे.) को फाँसी की सजा दी, तो भारतीय लोग स्तम्भित रह गये, यद्यपि गवर्नर-जनरल और उसके मित्रों को खुशी हुई। किन्तु १७७९-८० ई. में काशी जोड़ा के कोर्ट ने गवर्नर-जनरल तथा उसकी कौंसिल पर अदालत के अवमान के अभियोग में मुकदमा चलाने की धमकी दी तो वे लोग भी स्तम्भित रह गये। वारेन हेस्टिंग्स ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सर एलिजा इम्पी को ऊँचे वेतन पर सदर दीवानी अदालत का अध्यक्ष नियुक्त करके बड़ी युक्तिपूर्वक गवर्नर-जनरल की कौंसिल और कोर्ट के बीच खुला संघर्ष टाल दिया। इस व्यवस्था के फलस्वरूप सदर दीवानी अदालत की कार्य-प्रणाली में भी सुधार हो गया। किंतु इसमें एक दोष था। इसके फलस्वरूप न्यायपालिका को कार्यपालिका के अधीन बना दिया गया। १७९७ ई. में जजों की संख्या घटाकर तीन कर दी गयी तथा १७८१ ई. में उसके न्यायक्षेत्र का स्पष्ट रीति से निर्धारण कर दिया।

१८०१ ई. में मद्रास में तथा १८२३ ई. में बम्बई में भी एक-एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना कर दी गयी। १८३३ ई. में तीनों सुप्रीम कोर्टों का न्यायक्षेत्र स्पष्ट रीति से (१) समस्त ब्रिटिश प्रजा, (२) तीनों नगरों में रहनेवाले निवासियों तथा (३) कम्पनी की परोक्ष अथवा अपरोक्ष रीति से नौकरी करनेवाले समस्त व्यक्तियों तक सीमित कर दिया गया। अंत में, १८६१ ई. के इंडियन हाईकोर्ट ऐक्ट के द्वारा सुप्रीमकोर्ट को सदर दीवानी अदालत में मिला दिया गया और दोनों को मिलाकर कलकत्ता हाईकोर्ट की स्थापना कर दी गयी, जिसके प्राथमिक न्याय-क्षेत्र में समस्त कलकत्ता नगर को रख दिया गया तथा बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की समस्त अपीलें सुनने का उसे अधिकार प्रदान किया गया। इसी प्रकार मद्रास तथा बम्बई प्रेसीडेंसी के सुप्रीम कोर्टों को भी अपने-अपने प्रांत का हाईकोर्ट बना दिया गया।

सुबराहान का युद्ध : प्रथम सिक्ख-युद्ध के क्रम में सिक्खों तथा अंग्रेजों की सेना में १० फरवरी १८४६ ई. को हुआ। इस युद्ध में अंग्रेज विजयी हुए और उनके लिए लाहौर का रास्ता खुल गया। अंग्रेजों ने शीघ्र ही लाहौर ले लिया और सिक्खों को एक सन्धि करने पर विवश किया, जो लाहौर की संधि के नाम से विख्यात है।

सुभागसेन : एक भारतीय राजा, जो काबुल की घाटी में राज्य करता था। लगभग २०८ ई. पू. में एन्टियोकस ने उसके राज्य पर आक्रमण किया। सुभागसेन ने हर्जाने के तौरपर उसे बहुत-सा धन और बहुत-से हाथी भेंट करके उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

सुर्जी अर्जुन गांव की संधि : १८०३ ई. में अंग्रेजों और दौलतराव शिन्दे के बीच हुई, जिसके फलस्वरूप दोनों के बीच चलनेवाला युद्ध समाप्त हो गया। संधि के अनुसार शिन्दे ने अपने दरबार में ब्रिटिश रेजीडेंट रखना मंजूर कर लिया, वसई की संधि (दे.) स्वीकार कर ली, निजाम के ऊपर अपने सारे दावे त्याग दिये और अंग्रेजों की सहमति के बिना अपनी नौकरी में किसी भी विदेशी को न रखने का वचन दिया। इसके अलावा उसने गंगा और यमुना के बीच का सारा दोआब, जिसमें दिल्ली और आगरा भी सम्मिलित था, अंग्रेजों को सौंप दिया। इस प्रकार उत्तरी भारत, दक्षिण तथा गुजरात में शिन्दे के समस्त राज्य पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। शिन्दे ने राजपूताना के अधिकांश राज्यों की राजनीति में भी कोई हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। इस प्रकार अर्जुन गाँव की संधि के द्वारा शिन्दे की स्वतंत्रता समाप्त हो गयी तथा उत्तरी भारत के अधिकांश भाग में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना साकार हुई।

सुलेमान : एक अरब व्यापारी (सौदागर)। वह राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष (दे.) (लगभग ८१५-७७ ई.) की राजसभा में आया और राजा के बल एवं ऐश्वर्य से बहुत प्रभावित हुआ। उसने नवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत की दशा का रोचक वर्णन किया है।

सुलेमान कर्रानी : अकबर (दे.) के राज्य के प्रारम्भिक काल में वर्तमान में बंगाल का पठान शासक। उसने अकबर की नाममात्र की अधीनता स्वीकार कर ली और अपनी स्वतंत्रता कायम रखी। उसके पुत्र दाऊद (दे.) ने अकबर के खिलाफ खुली बगावत की। उसे १५७५ ई. में और पुनः १५७६ ई. में पराजित किया गया और युद्ध-भूमि में मार डाला गया।

सुलेमान शिकोह, शाहजादा : दारा शिकोह का पुत्र। १६५७-५८ ई. में शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार युद्ध छिड़ जाने पर सुलेमान को पहले अपने चाचा शाहजादा शुजा के खिलाफ भेजा गया, जिसे उसने फरवरी १८५८ ई. में बनारस के निकट बहादुरपुर की लड़ाई में हरा दिया। परन्तु वह अपने पिता से इतना दूर था कि उसे न तो धर्मट (दे.) और न सामूगढ़ (दे.) की लड़ाई में कोई सहायता पहुँचा सका। अन्त में उसे गढ़वाल के पहाड़ों में भाग जाना पड़ा। परन्तु शीघ्र उसे पकड़वा दिया गया। औरंगजेब ने उसे १६६२ ई. में खाने में जहर देकर मरवा डाला।

सूज़ा, मैनुअल डी : १५३९ ई. में दिव नामक बन्दरगाह का पुर्त्तगाली कप्तान। गुजरात का सुल्तान बहादुर शाह (दे.), पुर्त्तगाली गवर्नर नूनो द कुन्हा से मिलने वहाँ गया। दोनों की भेंट बन्दरगाह में खड़े एक पुर्तगाली जलपोत पर हुई। वहाँ पुर्त्तगाली नाविकों ने छलपूर्वक बहादुरशाह पर आक्रमण कर दिया और मारधाड़ में बहादुरशाह और डी सूजा दोनों ही मारे गये।

सूत्र : ग्रंथों (कल्पशास्त्र) में वैदिक कर्मकाण्ड तथा विविध लौकिक कर्त्तव्यों एवं नियमों का निरूपण मिलता है। वे अत्यन्त संक्षिप्त एवं सारवान् शैली में लिखे गये हैं और टीकाओं तथा भाष्यों के बिना उनका अर्थ समझना कठिन हो जाता है। सूत्र तीन प्रकार के होते हैं (१) श्रौत सूत्रों में यज्ञादि विषयक, विधान और विवरण मिलता है। (२) गृह्यसूत्रों में गृहस्थ के कर्तव्यों तथा अनुष्ठानों का वर्णन मिलता है तथा (३) धर्मसूत्रों में विविध सामाजिक कर्तव्यों तथा विधि-नियमों (कानूनों) का विवरण पाया जाता है।

सूफीमत : इस्माल धर्म की एक शाखा। इस मत में दार्शनिक विचारों की प्रधानता है, अतएव यह दूसरे धर्मों के प्रति इस्लाम की अपेक्षा अधिक सहिष्णु रहा है।

सूफ्रां, डी एडिमरल : एक फ्रांसीसी नौसेनापति, जो १७८१ ई. में भारत आया। हवेज के नेतृत्वाली ब्रिटिश नौसेना से उसकी पाँच समुद्री लड़ाईयाँ हुईं। कुछ समय के लिए दक्षिण भारत के समुद्रों पर उसका प्रभुत्व स्थापित हो गया। उसने श्रीलंका में त्रिकोमलै पर अधिकार कर लिया। परन्तु आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध पर उसका कोई निर्णयात्यक प्रभाव पड़ने से पूर्व ही १७८३ ई. में इंग्लैंड और फ्रांस के बीच वर्सेलीज की संधि हो गयी।

सूरजमल : १७६१ ई. वाली पानीपत की तीसरी लड़ाई (दे.) के समय विद्यमान भरतपुर का जाट राजा। वह बड़ा चतुर राजनीतिज्ञ था और उसके पास बहुत अधिक दौलत थी। मराठा तथा अहमदशाह अब्दाली (दे.) दोनों ही उसकी सहायता चाहते थे। पहले वह मराठों की सहायता करने के लिए राजी हो गया, परन्तु बाद में मराठों के दम्भपूर्ण व्यवहार के कारण उसने अपने को लड़ाई से अलग कर लिया और भारत की उस भाग्य निर्णायक लड़ाई में कोई हिस्सा नहीं लिया। वह अपने ढंग का एक बहुत ही सफल शासक था। वह जाट सरदार बदन सिंह का गोद लिया हुआ लड़का तथा उत्तराधिकारी था। उसने १८५६ ई. से १७६३ ई. में मृत्यु होने तक जाटों का नेतृत्व और भरतपुर राज्य का विस्तार किया, जिसमें आगरा, धौलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, मेरठ, रोहतक, फर्रूखनगर, रेवाड़ी, गुड़गाँव तथा मथुरा जिला सम्मिलित थे। मुगलों की राजधानी दिल्ली के पड़ोंस में इतने बड़े हिन्दू राज्य की स्थापना से प्रकट होता है कि वह कितना कुशाग्र-बुद्धि, विवेकशील, दूरदर्शी तथा योग्य शासक था।

सूर वंश : इसका उद्भव शेरशाह सूर से हुआ। उसने १५४० ई. में दूसरे मुगल बादशाह हुमायूँ की पराजय से लेकर १५५५ ई. में हुमायूँ द्वारा दुबारा गद्दी प्राप्त किये जाने तक दिल्ली की सल्तनत पर हुकूमत की। पन्द्रह साल की इस छोटी-सी अवधि में इस वंश के तीन बादशाहों ने हुकूमत की- शेरशाह (दे.) (१५४०-४५ ई.), उसका लड़का इस्लाम अथवा सलीमशाह (१५४५-५४ ई.), तथा उसका चचेरा भाई आदिलशाह (१५५४-५६ ई.), जिसके सेनापति हेमू (दे.) अथवा हेमचन्द्र को अकबर ने १५५६ ई. में पानीपत की दूसरी लड़ाई में हरा दिया तथा मार डाला। इस प्रकार सूर वंश का अंत हो गया।

सूर वंश : इसका सम्बन्ध परम्परागत रीति से बंगाल से, विशेषकर दक्षिण-पश्चिम बंगाल से जोड़ा जाता है। अनुश्रुतियों के अनुसार इस वंश का प्रवर्तक आदिसूर (दे.) था। कहा जाता है, उसने कन्नौज से पाँच ब्राह्मणों को लाकर राढ़ (पश्चिमी बंगाल) तथा वरेन्द्र (उत्तरी बंगाल) में बसाया। परन्तु उसके अस्तित्व को सिद्ध करनेवाला कोई पुरालेख या सिक्का उपलब्ध नहीं है। उसका काल अत्यंत अनिश्चित है और आठवीं शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक माना जाता है। आदि‍सूर के ऐतिहासिक व्यक्ति होने के सम्बन्ध में चाहे जो कुछ कहा जाय, यह सत्य है कि बंगाल में सूरवंश ग्यारहवीं शताब्दी तक शक्तिशाली राजवंश रहा। उस समय इस वंश का राजा विजयसेन (दे.) राज्य करता था (लगभग १०९५-११५८ ई.)। उसके अभिलेख से प्रकट होता है कि उसने सूरवंश की राजकुमारी विलासदेवी से विवाह किया था। सम्भवतः रणसूर भी इसी वंश का पूर्ववर्ती राजा था। राजेन्द्र चोल (दे.) के आक्रमण के समय वह दक्षिण राढ़ देश पर राज्य कर कहा था। सेन वंश (दे.) का उदय होने पर सूर वंश का पतन हो गया।

सेक्रेटरी आफ स्टेट फार इण्डिया (भारत-मंत्री) : १८५२ ई. के गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया ऐक्ट के अनुसार, कम्पनी के बोर्ड आफ कन्ट्रोल के सभापति के स्थान पर भारत संबंधी मामलों के विचारार्थ एक विशेष मंत्री की नियुक्ति हुई। उक्त मंत्री ब्रिटिश मंत्रिमंडल का सदस्य होता था। जब १८५८ ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी से भारत का प्रशासन सम्राट् के हाथों में आ गया, तबसे भारत-मंत्री ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में भारतीय प्रशासन का उत्तरदायी बना। इसके सहायतार्थ १५ सदस्यों की एक परामर्शदात्री समिति थी, जिसके कुछ सदस्य भारत की स्थानीय जानकारी रखते थे। प्रारंभ में तो इस व्यवस्था से इंग्लैण्ड तथा भारत दोनों ही लाभान्वित हुए, परन्तु कुछ वर्षों के उपरान्त जब समिति के सदस्यों का दृष्टिकोण प्रतिक्रियावादी सिद्ध हुआ, तब भारतीय राजनीतिज्ञों ने भारत-मंत्री की इस समिति को अनावश्यक करार दिया।

भारतीय शासन-व्यावस्था के संचालन और निर्देशन के संबंध में भारत-मंत्री के अत्यंत व्यापक अधिकार थे। वह समिति के मत की अवहेलना भी कर सकता था। अतएव लार्ड मार्ले तथा एडविन मान्टेग्यू सदृश सबल मंत्री निरंकुश शासकों की भाँति व्यवहार करते थे। १९३५ ई. के भारतीय संविधान (दे.) [ गवर्नमेन्ट आफ इण्डिया एक्ट १९३५ ] की धाराओं के अनुसार भारत-मंत्री की समिति के स्थान पर कतिपय परामर्शदाताओं की नियुक्ति हुई। संविधान में केन्द्रीय शासन का दायित्व जिस सीमा तक क्रमशः भारतीयों को सौंपने का विचार किया गया, उस सीमा तक भारत-मंत्री के अधिकार और सीमित हो गये। १९४७ ई. में भारत की स्वतंत्रता घोषित होने के साथ ही इस पद की समाप्ति कर दी गयी।

सेठ (अथवा जगत सेठ) : मुर्शिदाबाद के एक प्रसिद्ध धनाढ्य परिवार की उपाधि, जो महाजनी का कार्य करता था। अट्ठारहवीं शताब्दी के मध्य से बंगाल की अर्थव्यवस्था पर उनका नियंत्रण था। (देखिये, 'जगत सेठ')।

सेनवंश : इसने बंगाल में लगभग १०९५ ई. से १२४५ ई. तक राज्य किया। इस वंश के शासक अपने को सामन्तसेन का वंशज मानते थे, जो पहले कर्नाटक (मैसूर) का निवासी था, फिर बंगाल आकर बस गया। सामन्तसेन के पुत्र हेमन्तसेन से इस वंश की शक्ति में विशेष वृद्धि हुई और उसके पुत्र विजयसेन ने सर्वप्रथम राजकीय उपाधि धारण की। उसने १०९५ से ११५८ ई. तक राज्य करते हुए पश्चि‍मी तथा उत्तरी बंगाल पर अपना अधिकार स्थापित किया। उसका पुत्र और उत्तराधिकारी वल्लालसेन (दे.) ११५९ से ११७९ ई. तक राज्यसीन रहा और उपरांत उसका पुत्र लक्ष्मणसेन सिंहासनासीन हुआ। लक्ष्मणसेन का राज समूचे बंगाल पर था और कुछ काल तक तो उसकी राज्य-सीमा दक्षिण पूर्व में उड़ीसा और पश्चिम में वाराणसी तक विस्तृत थी।

लगभग १२०२ ई. में जब बख्तियार खिलजी के पुत्र इख्तियारुद्दीन खिलजी के नेतृत्व में मुसलमानी सेना ने उसकी राजधानी नदिया (नवदीप) पर आक्रमण किया, लक्ष्मणसेन पूर्वी बंगाल की ओर भाग गया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी। उसके पुत्र विश्वरूपसेन तथा केशवसेन पूर्वी बंगाल पर १२४५ ई. तक राज्य करते रहे। उपरान्त पूर्वी बंगाल पर भी मुसलमानों का राज्य स्थापित हो गया।

सेनवंश का इतिहास कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस वंश के शासकों ने बंगाल को एकता के सूत्र में बाँधकर उसे एक शक्तिशाली राज्य का स्वरूप दिया, संस्कृत भाषा तथा साहित्य को प्रोत्साहन दिया और जयदेव सदृश कवि एवं हलायुध सरीखे धर्मशास्त्रकारों को राजाश्रय प्रदान किया। (र. च. मजूमदार-बंगाल का इतिहास, प्रथम भाग, अंग्रेजी में)।

सेन्ट टामस : ईसा मसीह का शिष्य और ईसाई धर्म प्रचारक। धार्मिक अनुश्रुतियों के अनुसार वह भारत के उत्तर पश्चिमी सीमा प्रदेश के शासक गुदनाफर के शासनकाल में दक्षिण भारत आया और मद्रास के निकट मैलापुर नामक स्थल पर शहीद हो गया। किन्तु कुछ विद्वानों ने इस परंपरा की सत्यता पर संदेह प्रकट किया है।

सेन्ट फ्रांसिस ज़ेवियर : इस सन्त की गणना ईसाई धर्म के जेसुइट भिक्षु संप्रदाय के संस्थापकों में की जाती है। परंपरानुसार वह १६ वीं शताब्दी में भारत आया। भारत की अनेक शिक्षा-संस्थाएँ उसके नाम से संबंधित हैं और उनमें कलकत्ता का सेन्ट जेवियर्स कालेज उल्लेखनीय है।

सेल, जनरल सर राबर्ट : एक सुप्रसिद्ध अंग्रेज सेनानायक, जिसने प्रथम अफगान-युद्ध (दे.) में भाग लिया। जब वह गण्डमक में भारतीय और अंग्रेज सेना का नायकत्व कर रहा था, नवम्बर १८४१ ई. में उसे काबुल की ओर प्रस्थान करने का आदेश मिला, किन्तु वह इसका पालन न कर सका। उसे पीछे हटकर जलालाबाद में शरण लेनी पड़ी, जहाँ शीघ्र ही अफगानों ने घेर लिया। किन्तु उसने जलालाबाद की सफलतापूर्वक रक्षा की और अफगानों को पीछे हटने पर विवश किया। सेल ने प्रथम सिक्ख-युद्ध (दे.) में भी भाग लिया। यद्यपि इस युद्ध में अंग्रेज़ों की विजय हुई, पर १८ दिसम्बर १८४५ ई. को मुदकी के युद्ध में वह मारा गया।

सेल्यूकस, नाइकेटर (निकेटर) : मकदूनिया के शासक सिकन्दर महान् का सेनापति। सिकन्दकर की मृत्यु के उपरान्त उसके विशाल साम्राज्य के पूर्वी भागों का वह स्वामी बना और ३०६ ई. पू. में उसने राजा की उपाधि धारण की। इसी बीच चन्द्रगुप्त मौर्य (दे.) ने सिकन्दर द्वारा विजित समस्त भारतीय प्रदेशों को यूनानी आधिपत्य से मुक्त कर लिया। इन प्रदेशों पर पुनः अधिकार के लिए सेल्यूकस ने ३०२ ई. के पूर्व भारत पर आक्रमण करना चाहा पर चन्द्रगुप्त ने उसके प्रयास को विफल कर दिया और विवश होकर सेल्यूकस को सन्धि करनी पड़ी। इसके अनुसार सेल्यूकस ने हिन्दूकुश पर्वत के पूर्वका समस्त भू-भाग, काबुल और आधुनिक बलूचिस्तान के प्रदेश चन्द्रगुप्त को दे दिये और चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को ५०० हाथी प्रदान किये। सेल्यूकस ने अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया। उसने मेगस्थानीज (दे.) नामक अपना राजदूत चन्द्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र भेजा। चन्द्रगुप्त मौर्य की इस विजय से भारत कुछ समय के लिए यवनों (ग्रीकों) के आक्रमण से बचा रहा।

सैयद अहमद खाँ, सर : भारतीय मुसलमानों के प्रमुख नेता। जन्म दिल्ली में। उन्होंने १८३७ ई. में भारत में स्थित अंग्रेजों के अधीन सेवाकार्य प्रारम्भ किया और क्रमशः सहायक न्यायाधीश के पद तक पहुँच गये। १८७६ ई. में उन्होंने सरकारी सेवा से अवकाश ग्रहण कर लिया और जीवन के शेष २२ वर्ष मुसलमानों की सेवा और उन्नति के प्रयासों में व्यतीत किये। सिपाही-विद्रोह के दिनों में वे अंग्रेजों के स्वामिभक्त बने रहे। पाश्चात्य संस्कृति के महत्त्व को वे भली-भॉति समझते तथा उसके प्रति आदरशील थे। इस कारण उन्होंने अपने आपको पूर्ण मनोयोग से भारतीय मुसलमानों के मध्य अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-कार्य में लगा दिया। १८७५ ई. में इन्होंने अलीगढ़ में मुहम्मडन ऐंग्लो-ओरियन्टल कालेज (एम. ए. ओ. कालेज) की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य इस्लामी और यूरोपीय विद्या तथा ज्ञानोपार्जन में समन्वय स्थापित करना था। १९२० में भारत सरकार ने उक्त कालेज को विश्वविद्यालय के रूप में मान्यता दी और उसका नाम अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी पड़ा। इस विश्वविद्यालय से कई योग्य एवं विद्वान् नवयुवक मुसलमान निकले।

वास्तव में सर सैयद मुसलमान पहले थे और भारतीय बाद में। उनका विचार था कि भारतीय मुसलमानों का हिन्दुओं से सर्वथा भिन्न और एक विशेष वर्ग है और उनका हिन्दुओं से कदापि मेलजोल न होना चाहिए। इसी कारण उन्होंने देश के मुसलमानों को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग रहने की राय दी थी, क्योंकि उसमें हिन्दू बहुसंख्यक थे। यद्यपि सर सैयद अहमद ने भारतीय मुसलमानों की स्थिति सुधारने का अत्यधिक प्रयास किया, पर सम्पूर्ण देश के हित में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता।

सैयद बन्धु  : भारतीय इतिहास में हुसैन अली और उसका भाई अब्दुल्ला सैयद बन्धुओं के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे अवध के एक उच्च परिवार में उत्पन्न हुए और सम्राट् बहादुरशाह प्रथम के राज्यकाल के अन्तिम वर्षों में उच्च पदाधिकारी हो गये। वे दोनों बादशाह बनानेवाले के रूप में प्रसिद्ध थे, क्योंकि १७२३ और १७२९ ई. के बीच उन्होंने कई व्यक्तियों को दिल्ली का बादशाह बनाया तथा अपदस्थ भी किया। सर्वप्रथम उन्होंने १७१३ ई. में फर्रूखशियर (दे.) को सिंहासन प्राप्त करने में सहायता की, तथा अब्दुल्ला उसका वजीर और हुसैन अली सेनापति बना। इस प्रकार दोनों भाई साम्राज्य की शासन सत्ता पर नियन्त्रण रखने की स्थिति में रहे। जब फर्रुखशियर ने उनके विरुद्ध षड्यंत्र रचा, उन्होंने उसे सिंहासन से उतारकर १७१९ ई. में उसका वध कर दिया। उपरान्त उन्होंने सिंहासन पर अपने हाथों की कठपुतली शासकों को असीन करके स्वतः राज्य करने का निश्चय किया। केवल १७१९ ई. में ही उन्होंने रफीउद्दाराजात, रफीउद्दौलत, नेकसियर और मुहम्मद इब्राहीम को दिल्ली के सिंहासन पर बैठाकर उतार दिया तथा उनका वध कर दिया। उनका बनाया छठा शासक मुहम्मद शाह था। वह इन अत्यन्त महात्त्वाकांक्षी बंधुओं से भी चतुर निकला। उसने सैयद बन्धुओं के सभी शत्रुओं को अपने पक्ष में मिला लिया, जिनमें मीर कमरुद्दीन, जो निजामुलमुल्क आसफजाह के नाम से विख्यात हुआ, प्रमुख था। उसकी सहायता से हुसैन अली का वध उस समय करवा दिया गया, जब वह निजाम को दण्ड देने मालवा जा रहा था। अब्दुल्ला को भी १७२० ई. में एक कठिन युद्ध में पराजित करके बंदी बनाया गया और १७२२ ई. में विष देकर मार डाला गया।

सैयद वंश : इसका आरम्भ तुगलक वंश के अन्तिम शासक सुल्‍तान महमूद (दे.) की मृत्यु के उपरान्त खिज्र खाँ से १४१४ ई. में हुआ। इस वंश में क्रमशः खिज्र खां (१४१४-१४२१ ई.), उनका पुत्र मुबारक शाह (१४२१-१४३४ ई.) उसका भतीजा मुहम्मद शाह (१४३४-१४४५ ई.) और आलम शाह (१४४५ से १४५१ ई.) नामक चार सुल्तान हुए। अंतिम सुल्तान इतना अशक्त और अहदी था कि उसने १४५१ ई. में बहलोल लोदी को सिंहासन समर्पित कर दिया। ३७ वर्षों के शासन काल में सैयद वंश के शासकों ने कोई भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया।

सोटर मेगस : इसका शाब्दिक अर्थ महान् त्राता होता है। यह उपाधि कुछ ऐसे सिक्कों पर पायी जाती है जिन्हें किसी अज्ञातनामा शासक ने चलाया था और जिसका राज्यकाल सम्भवतः कुषाण शासक कथफिश द्वितीय तथा कनिष्क (दे.) के बीच में रहा होगा।

सोपारा : प्राचीन काल में भारत के पश्चिमी तट पर स्थित एक प्रसिद्ध बन्दरगाह। इसके समुद्र मार्ग से अत्यधिक व्यापार होता था। इस शब्द का शुद्ध रूप शूर्पारक है।

सोमनाथ का मन्दिर : हिन्दुओं का सम्मान्य तीर्थ। यह सुप्रसिद्ध शिव मन्दिर, काठियावाड़ के प्रभास पट्टन नामक समुद्र तटीय स्थल पर गुजरात के चालुक्यों द्वारा निर्मित कराया गया था। इस मन्दिर में अपार धन-सम्पत्ति थी, क्योंकि दस सहस्त्र ग्रामों की आय इस मन्दिर को प्राप्त होती थी। मन्दिर के उपास्य देव की पूजा के लिए उत्तरी भारत से प्रतिदिन गंगाजल वहाँ ले जाया जाता था। इस मन्दिर में दैनिक पूजन कृत्य सम्पादनार्थ एक सहस्त्र ब्राह्मण पुजारी नियुक्त थे और ३५० गायकों एवं नर्तकियों की सेवा मन्दिर को समर्पित थी। प्रतिदिन वहाँ इतने भक्त एवं निष्ठावान् हिन्दू दर्शनार्थी आते थे कि तीन सौ नाई उनके क्षौर-कर्म के लिए नियुक्त थे।

इस प्रभूत धन-वैभव-सम्पन्न मन्दिर पर १०२४ ई. में सुल्तान महमूद गजनवी (दे.) ने आक्रमण किया और उसे ध्वस्त कर डाला। कहा जाता है कि इस मन्दिर की रक्षा करते हुए ५० सहस्त्र हिन्दू युद्ध में मारे गये। महमूद ने मन्दिर पर अधिकार कर लिया और उसके विशाल शिवलिंग के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। मन्दिर की अपार सम्पत्ति लूट करके महमूद स्वदेश लौट गया। उपरान्त मन्दिर का पुनर्निर्माण हुआ। (वहाँ पुनर्निर्मित मन्दिर भी कई बार नष्ट किये गये और भारत के स्वतंत्र होने पर सरदार पटेल के प्रोत्साहन से उसी स्थल पर पुनः एक मन्दिर का निर्माण हुआ है।)

सोमेश्वर प्रथम : उपनाम आहवमल्ल, कल्याणी के चालुक्य वंश का पाँचवाँ शासक, जिसने १०४१ से १०७२ ई. तक राज्य किया। उसने कल्याणी की नींव डाली और उसे ही अपनी राजधानी बनाया। उसे चोल सम्राट् राजेन्द्र प्रथम (दे.) से संघर्ष करना पड़ा, जिसे उसे कोप्‍पल युद्ध (दे.) में पराजित किया। राजेन्द्र प्रथम के उत्तराधिकारी वीर राजेन्द्र ने भी उसे कूडल संगमम् के युद्ध में हराया। इन पराजयों के बावजूद उसने चालुक्य वंश की शक्ति को सुरक्षित रखा।

सोमेश्वर द्वितीय : कल्याणी के चालुक्य सम्राट् सोमेश्वर प्रथम का पुत्र और उत्तराधिकारी। उसने केवल चार वर्ष (१०७२-७६ ई.) राज्य किया और तदुपरान्त उसके भाई विक्रमादित्य षष्ठ (दे.) ने उसको अपदस्थ कर दिया।

सोमेश्वर तृतीय : कल्याणी के चालुक्य वंश का आठवाँ शासक और सातवें शासक विक्रमादित्य षष्ठ का पुत्र तथा उत्तराधिकारी। उसने ११२६ से ११३८ ई. तक राज्य किया और उसका शासनकाल शान्तिपूर्ण रहा। वह राजशास्त्र, न्याय व्यवस्था, वैद्यक, ज्योतिष, शस्त्रास्त्र, रसायन तथा पिंगल सदृश विषयों पर अनेक ग्रन्थों का रचयिता बताया जाता है। किन्तु उसकी बहुमुखी प्रतिभा एवं विद्वत्ता उसकी सैन्य संगठन शक्ति में सहायक न हो सकी। उसी के शासनकाल में अधीनस्थ सामन्तों ने चालुक्यों की प्रभुता त्यागकर स्वतन्त्र शासन करना प्रारम्भ कर दिया, फलस्वरूप चालुक्य शक्ति का ह्रास होने लगा।

सोलंकी : राजपूतों की एक शाखा, जिन्हें चालुक्य भी कहा जाता है। (दे. 'चालुक्य')।

सोलिंगर का युद्ध : यह द्वितीय मैसूर-युद्ध (दे.) (१७८०-८४ ई.) के दौरान १७८१ ई. में मैसूर के शासक हैदरअली तथा अंग्रेजों के बीच हुआ था। इस युद्ध में अंग्रेजों की विजय हुई।

सौराष्ट्र (सुराष्ट्र) : देखिये, 'काठियावाड़'।

स्‍कन्‍द गुप्‍त : गुप्तवंश का अन्तिम महान् सम्राट्। ४५५ ई. में वह अपने पिता कुमारगुप्त का उत्तराधिकारी हुआ। जब वह राजकुमार था, तभी उसने पुष्यमित्रों के आक्रमण को विफल कर दिया और तदुपरान्त सिंहासनासीन होने पर उसने हूण आक्रामकों को भी मार भगाया। अपने १३ वर्षों के शासन काल (४५५-६८ ई.) में वह निरन्तर युद्धों में व्यस्त रहा, क्योंकि हूणों ने बार-बार आक्रमण किये, जिन्हें विफल करने में राज्य की आर्थिक स्थिति को भारी आघात पहुँचा।

अपने राज्यकाल के आरंभिक दिनों में उसने कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल के अन्तिम वर्षों में प्रचलित कम तौल के सिक्के गलवा करके प्रामाणिक भार के शुद्ध सोने, चाँदी तथा ताँबे के सिक्के प्रचलित किये। किन्तु हूणों से निरन्तर युद्ध करने के कारण उसे भी राज्यकाल के अन्तिम वर्षों में मुद्राओं में भारी मात्रा में मिलावट करनी पड़ी। फिर भी उसने काठियावाड़ की सुदर्शन झील के विशाल बाँध को पुनः निर्मित कराने के लिए धन उपलब्ध किया। इस झील का निर्माण सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त मौर्य (दे.) ने कराया था, उसके पौत्र अशोक (दे.) ने उस झील से सिंचाई के लिए नालियाँ बनवायीं। तदुपरान्त शक महाक्षत्रप रुद्रदामन (दे.) ने इसका जीर्णोद्धार कराया। स्कन्दगुप्त के राज्यकाल में काठियावाड़ में उसके प्रान्तीय शासक पर्णदत्त ने ४५६ ई. में उक्त बाँध का जर्णोद्धार कराकर उसे दृढ़तर किया और दो वर्षों के उपरान्त पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित ने इस बाँध पर एक विष्णु मन्दिर का निर्माण कराया। महान् गुप्त सम्राटों में स्कन्दगुप्त अन्तिम प्रतापी राजा था।

स्काटमान्क्रीफ कमीशन : इस आयोग की स्थापना १९०० ई. में तत्कालीन वाइसराय लार्ड कर्जन ने की। इसका उद्देश्य सम्पूर्ण भारतवर्ष में सिंचाई की सुविधा के लिए योजना बनाना था। लार्ड कर्जन ने आयोग के इस प्रस्ताव पर स्वीकृति दे दी कि ३,००,००,००० पौण्ड (तीन करोड़ पौण्ड के अनुमानित व्यय से ६५ लाख एकड़ भूमि की सिंचाई-व्यवस्था की जाय।

स्काटिश चर्च कालेज : कलकत्ता स्थित यह विद्यालय भारतीय शिक्षा में रेवरेन्ड डॉं. अलेक्जेन्डर डफ (दे.) नामक पादरी के प्रयासों का स्मारक है। प्रारम्भ में इसका नाम डफ कालेज था और इसकी स्थापना १७३० ई. में हुई। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इसका नाम स्काटिश चर्च कालेज पड़ा। भारत में पाश्चात्य शिक्षा के प्रसारार्थ ईसाई मिशनों और मिशनरियों के महत्त्वपूर्ण योगदान के ज्वलन्त उदाहरणों में यह विद्यालय भी है।

स्कूल बुक सोसाइटी : इस समिति की स्थापना १८१८ ई. में डेविड हेयर नामक अंग्रेज के प्रयास से कलकत्ता में हुई। इस समिति का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी पुस्तकों का भारत में ही मुद्रण, प्रकाशन तथा अल्प मूल्य में विक्रय करना था।

स्टीन, सर आरेल : एक विख्यात प्राचीन वस्तुओं का संग्रहकर्त्ता, पुरातत्त्वविद् तथा अन्वेषक। उसने मध्य एशिया में विस्तृत अन्वेषक कार्य किया और बहुत से बौद्ध स्तूपों और मठों के ध्वंसावशेष, बुद्ध और हिन्दू देवताओं की मूर्तियाँ तथा भारतीय भाषाओं और भारतीय लिपियों में लिखी हस्तलिखित पोथियाँ ढूँढ़ निकालीं। वह संस्कृत भाषा का प्रकांड विद्वान् था और उसने कल्हण (दे.) की राजतरंगिणी का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया है।

स्टीवर्ट, जनरल : दूसरे अफगान-युद्ध (१८७९-८० ई.) के समय अफगानिस्तान स्थित ब्रिटिश सेना का कमाण्डर। काबुल में ब्रिटिश दूत काकाक्‍री (दे.) की २४ जुलाई १८७९ ई. को हत्याकर दिये जाने के बाद, जनरल स्टीवर्ट ने शीघ्रता से कन्दहार पर अधिकार कर लिया, जो १८७९ ई. की गन्दमक की संधि (दे.) के द्वारा अमीर को लौटा दिया गया था। इस प्रकार बाद में ब्रिटिश सेना ने अफगानों से जो प्रतिशोध लिया, उसका पथ इस सफलता ने प्रशस्त कर दिया।

स्टुअर्ट, चार्ल्स : एक वाणिज्य विशेषज्ञ। लार्ड कार्नवालिस (दे.) ने उसी की सलाह पर भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के वाणिज्य-व्यापार का निर्देशन करनेवाले नियम बनाये।

स्टुअर्ट, जनरल : दूसरे मैसूर-युद्ध के दौरान इसने १७६१ ई. में पोर्टोनोवो की लड़ाई में प्रशंसनीय योगदान दिया। बाद में सर आयरकूट के स्थान पर उसे ब्रिटिश सेना का कमाण्डर बना दिया गया। किन्तु, १७८२ ई. में हैदर अली की मृत्यु से जो अवसर प्राप्त हुआ था, उसका लाभ उसने नहीं उठाया। बाद में मद्रास के गवर्नर लार्ड मैकार्टनी से उसका झगड़ा हो गया। इस झगड़े से अंग्रेजों के युद्ध संचालन में भारी बाधा पड़ी।

स्टोलटाफ, जनरल : १८७८ ई. में काबुल पहुँचनेवाले रूसी दूत-मण्डल का नेता। अमीर शेख अली(दे.) को पड़ोसी के नाते स्वाभाविक रीति से उसका स्वागत समारोह आयोजित करना पड़ा। वाइसराय लार्ड लिटन प्रथम ने अनुचित रीति से इसी घटना को बहाना बनाकार दूसरा अफगान युद्ध (दे.) छेड़ दिया जो १८७८ से १८८० तक चला।

स्ट्राची, सर जान : इंडियन सिविल सर्विस का एक ख्याति प्राप्त सदस्य। उसने तथा उसके भाई सर रिचर्ड ने वाइसराय लार्ड लैंसडौन (दे.), लार्ड मेयो (दे.) तथा लार्ड लिटन प्रथम के शासनकाल में उच्च पदों पर कार्य किया। सर जान ने भारत में केन्द्रीय तथा प्रान्तीय सरकारों के सम्बन्धों को निर्देशित करनेवाले नियमों का निर्धारण किया। सर रिचर्ड अकाल कमीशन का अध्यक्ष था, जिसने अकाल कोड (दे.) का निर्माण किया।

स्ट्राबो : एक यूनानी इतिहासकार। उसने सिकन्दर के आक्रमण के समय की भारत की दशा का वर्णन किया है और मेगस्थनीज (दे.) की 'इंडिका' से अनेक उद्धरण दिये हैं।

स्थानकवासी : श्वेताम्बर जैनों का एक सम्प्रदाय। इसकी उत्पत्ति आधुनिक काल में हुई है। मूर्ति-पूजा में इसका विश्वास नहीं है।

स्थानीय स्वशासन : भारत में किसी न किसी रूप में सभी युगों में वर्तमान था। प्राचीन काल में गाँवों में तथा नगरों में, जो छोटे-छोटे राज्यों के रूप में थे, सफाई, संचार, न्याय तथा शांति-व्यवस्था पंचायती संस्थाओं के हाथ में थी। चोल राज्य में इस व्यवस्था की सफलता के प्रमाण विशेषरूप से पाये गये हैं। अठारहवीं शताब्दी में देश में जो अव्यवस्था व्याप्त रही उसमें अधिकांश पंचायत व्यवस्था नष्ट हो गयी तथा सारी सत्ता तथा कर्त्तव्य सरकार के हाथ में केन्द्रित हो गये। प्रारम्भ में सरकार ने गाँवों के प्रशासन की कोई सुनिश्चित व्यवस्था नहीं की। घाट-उतराई तथा सड़कों एवं पुलों के निर्माण के लिए जो धन एकत्र किया जाता था, उसका प्रबन्ध जिला मजिस्ट्रेट स्थानीय कमेटियों की सहायता से करते थे।

स्थानीय स्वशासन की दिशा में पहला प्रयत्न बम्बई में हुआ। वहाँ १८६९ ई. में एक ऐक्ट पास किया गया, जिसके द्वारा मालगुजारी पर उपकर लगाने तथा उसका खर्च एक अलग कमेटी द्वारा करने का प्राविधान किया गया। यह कमेटी सारे जिले के लिए भी होती थी और उसके सब-डिवीजनों के लिए भी। बम्बई में इस व्यवस्था की सफलता से प्रोत्साहित होकर १८७० ई. में अन्य प्रांतों के जिलों में भी इसी प्रकार की कमेटियाँ गठित कर दी गयीं। इन कमेटियों ने स्थानीय सुख-सुविधाओं में काफी सुधार किया, परन्तु इन कमेटियों पर अधिकारियों का पूर्ण प्रभुत्व रहता था। फिर इनके अधीन पूरा जिला होता था, जो इतना बड़ा होता था कि उसकी सुचारु रीति से देखभाल संभव नहीं थी।

लार्ड रिपन (दे.) चाहता था कि स्थानीय संसथाओं को लोगों को स्वशासन की शिक्षा देने का केन्द्र बनाया जाय। १८८२ ई. में उसने आदेश दिया कि जिले के प्रत्येक सब-डिवीजन में स्थानीय संस्था का गठन किया जाय, उनमें निर्वाचित गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत रहे और उनकी अध्यक्षता एक गैर-सरकारी चेयरमैन करे। इस प्रकार स्थानीय स्वशासन की दिशा में ठोस कदम उठाया गया, यद्यपि लार्ड रिपन ने जो उदार सिद्धांत निरूपित किये थे, उनको नौकरशाही के विरोध के कारण अनेक वर्षों तक क्रियान्वित नहीं किया जा सका। १९२१ ई. के बाद जब स्थानीय स्वशासन हस्तांतरित विषय बना दिया गया और एक उत्तरदायी मंत्री के अधीन कर दिया गया, तभी जिला बोर्डों तथा स्थानीय बोर्डों पर निर्वाचित गैर-सरकारी जन-प्रतिनिधियों का पूर्ण नियंत्रण स्थापित हुआ।

लार्ड रिपन के ही प्रयास से कस्बों तथा शहरों का म्युनिसिपल प्रशासन, जो जिला मजिस्ट्रेटों के अधीन था, म्युनिसपलटियों को सौंपा गया, जिनमें नागरिकों के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि होते थे। इन प्रतिनिधियों को म्युनिसिपल कौंसिलर कहते थे, उन्हें अपना अपना अध्यक्ष चुनने का अधिकार था, जो गैरसरकारी व्यक्ति भी हो सकता था। म्युनिसपलटियों के जिम्मे सफाई, रोशनी, पेय जल, सड़कों का निर्माण तथा शिक्षा आदि अन्य नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था का भार सौंपा गया। नौकरशाही के विरोध के कारण इस व्यवस्था को १९२१ ई. से पूर्व तक पूर्ण रीति से क्रियान्वित नहीं किया जा सका।

स्थानीय स्वशासन : कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास के तीन प्रेसीडेन्सी नगरों का म्युनिसिपल प्रशासन अलग ढंग से विकसित हुआ और ग्रामीण क्षेत्रों का म्युनिसिपल प्रशासन अलग ढंग से। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक इन तीन नगरों का म्युनिसिपल प्रशासन गवर्नर-जनरल द्वारा जस्टिस आफ पीस की उपाधि से सम्मानित विशिष्ट नागरिकों की कमेटियों के हाथ में रहता था। उनके जिम्मे सफाई तथा पुलिस व्यवस्था थी। उन्हें नगर के भीतर मकानों के मालिकों तथा निवासियों से शुल्क लेकर धन संग्रह करने का भी अधिकार था। १८५६ ई. में इन तीन नगरों में सफाई की व्यवस्था बनाये रखने तथा सुधार के लिए तीन कमिश्नरों की नियुक्ति की गयी।

कलकत्ता में गैस की रोशनी करने तथा नालों का निर्माण करने के लिए विशेष प्रबंध किये गये। यह व्यवस्था अप्रभावशाली सिद्ध होने पर १८७६ ई. में कलकत्ता कारपोरेशन का पुनर्गठन किया गया। उसके ७२ सदस्यों में से ४२ को करदाताओं के निर्वाचित प्रतिनिधि बना दिया गया, किन्तु चेयरमैन सरकार द्वारा मनोनीत किया जाता था। १८८२ ई. में निर्वाचित सदस्यों की संख्या बढ़ाकर ५० कर दी गयी, परन्तु १८९९ ई. में उनकी संख्या घटाकर कारपोरेशन की कुल सदस्य-संख्या की आधी कर दी गयी और चेयरमैन को, जो सरकार द्वारा मनोनीत किया जाता था, विस्तृत अधिकार प्रदान कर दिये गये। निर्वाचित सदस्यों की संख्या घटाये जाने का कलकत्ता की जनता द्वारा तीव्र विरोध किया गया और विरोध-स्वरूप कलकत्ता कारपोरेशन के अट्ठाईस सदस्यों ने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में इस्तीफा दे दिया। चौबीस साल बाद उन्हीं सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्वमें, जो उस समय बंगाल के स्थानीय स्वशासन मंत्री थे, १८९९ ई. का प्रतिक्रियावादी कानून रद्द कर दिया गया और एक नया कानून बना, जिसके द्वारा कलकत्ता कारपोरेशन को नया रूप दिया गया। अब उसके लगभग सभी सदस्य करदाताओं द्वारा निर्वाचित किये जाते थे। इन सदस्यों को अपना मेयर (महापौर) चुनने तथा कारपोरेशन के एक्जीक्यूटिव अफसरों को नियुक्त करने का अधिकार होता था।

बम्बई में १८७२ ई. कारपोरेशन का नया संविधान बनाया गया, जिसके द्वारा उसका रूप बदल गया। अब उसमें सरकारी सदस्यों के बजाय, निर्वाचित सदस्यों की बहुलता रहने लगी। उसके चौसठ सदस्यों में केवल एक-चौथाई सदस्य सरकार के द्वारा मनोनीत किये जाते थे। उसका चेयरमैन सरकार के द्वारा नियुक्त किया जाता था और उसे कमिश्नर कहते थे। उसका यह संविधान कुछ आवश्यक संशोधनों के साथ, जिसके द्वारा निर्वाचित सदस्यों की संख्या और बढ़ा दी गयी, तब से आज तक कायम है। इसी प्रकार मद्रास कारपोरशन में १८८४ ई. में निर्वाचन का सिद्धान्त लागू किया गया। उसका चेयरमैन भी एक वैतनिक सरकारी अधिकारी होता है, जिसे सरकार नियुक्त करती है।

स्थायी बंदोबस्त : लार्ड कार्नवालिस (दे.) ने १७९३ ई. में बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में प्रचलित किया। यह भूमि-व्यवस्था तथा मालगुजारी वसूली (दे.) की एक प्रणाली थी। इसके अन्तर्गत जमींदार को इस शर्त पर जमीन का मालिक स्वीकार कर लिया गया कि वह वर्ष की एक नियत तिथि पर सरकारी खजाने में वार्षिक मालगुजारी जमा कर दे। यह जमींदार को रैयत से मिलनेवाले लगान का ९० प्रतिशत होती थी। इस प्रणाली के अन्तर्गत रैयत को जमींदार जब चाहे तब जमीन से बेदखल कर सकता था।

इस प्रणाली के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी मत प्रकट किये गये हैं। कुछ लोगों के विचार में यह व्यवस्था साहसपूर्ण तथा बुद्धिमत्तापूर्ण थी, जिससे सरकार, जमींदार तथा जनता, तीनों को लाभ हुआ। अन्य लोगों के विचार में यह एक भारी गलती थी जिससे काश्तकारों को कोई लाभ नहीं हुआ। यह स्वीकार करना होगा कि स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत काश्तकारों को पूरी तरह से जमींदारों की कृपा पर छोड़ दिया गया और इसके फलस्वरूप सरकार को मालगुजारी में भविष्य में होनेवाली वृद्धि को तिलांजलि दे देनी पड़ीं। किंतु, इसके साथ ही यह भी सत्य है कि इस व्यवस्था से ब्रिटिश सरकार को उस समय स्थायित्व प्राप्त हो गया, जब उसे इसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी। किन्तु, इस व्यवस्था के अन्तर्गत जमींदारों को अनुचित रीति से जो लाभ प्रदान किये गये थे तथा काश्तकारों को जो कठिनाइयां होती थीं, उनको ध्यान में रखते हुए हाल में जमींदारों को मुआवजा देकर यह व्यवस्था समाप्त कर दी गयी है।

स्रोंग ग्म्पम्-स्गम्-पो  : तिब्बत (भोट देश) का सबसे प्रसिद्ध राजा, जिसने ६२६ ई. से ६५० ई. तक राज्य किया। इस प्रकार वह आंशिक रूप में हर्षवर्धन (दे.) का समसामयिक था। उसने ६४६-४७ ई. में हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उसकी गद्दी पर अधिकार कर लेनेवाले अर्जुन पर अधिकार कर लिया। उसने बौद्ध-धर्म ग्रहण कर लिया और तिब्बत में उसका प्रचार किया। उसने ल्हासा नगर की स्थापना की और भारतीय लिपि के आधार पर भोट लिपि निर्मित करायी, जो आज भी तिब्बत में प्रचलित है।

स्लिम, सर विलियम : एक अंग्रेज सेनानायक, जो द्वितीय महायुद्ध में १४ वीं सेना का कमाण्डर था। उक्त सेना दक्षिण-पूर्व एशिया तथा भारत में जापानी आक्रमण को रोकने में लगी हुई थी। उसकी सेना की सातवीं टुकड़ी ने १९४४ ई. में मणिपुर के निकट कोहिमा नामक स्थल पर जापानियों को आगे बढ़ने से रोका। इस प्रकार उसने भारत में जापानियों के बढ़ाव को रोकने में पर्याप्त सफलता प्राप्त की।

स्लीमैन, सर विलियम : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक पदाधिकारी। लाई विलियम बेन्टिक के प्रशासन-काल में उसने ठगों के दमन में प्रमुख भाग लिया। उपरान्त वह अवध में रेजीडेन्ट के पद पर नियुक्त हुआ और इस पद पर १८४८ से १८५४ ई. तक रहा। अवध में फैली हुई प्रशासकीय दुर्व्यवस्था के सम्बन्ध में उसके द्वारा भेजी गयी रिपोर्टों के आधार पर १८५६ ई. में अवध अंग्रेजों के राज्य में मिला लिया गया।

स्वेज नहर : १८६९ ई. में तैयार की गयी, जिससे भूमध्य सागर लालसागर से मिल गया। इसके फलस्वरूप भारत और यूरोप के बीच समुद्री मार्ग काफी छोटा हो गया। इससे पूर्व और पश्चिम के बीच व्यापार को ही नहीं, भारत में यूरोपीय विचारों के प्रचार-प्रसारकों भी प्रोत्साहन मिला। यह नहर लेसेप्प नामक फ्रांसीसी इंजीनियर ने बनायी है।

स्वेन, क्लारा : पहली महिला डाक्टर के रूप में १८७४ ई. में भारत आयी। वह जन्म से अमेरीकी थी। छः वर्ष बाद दूसरी महिला डाक्टर का आगमन हुआ। वह अंग्रेज थी और उसका नाम फैनी बटलर था। पहली भारतीय महिला डाक्टर, एक बंगाली महिला, श्रीमती कादाम्बनी गांगुली थी।

हंटर शिक्षा कमीशन  : लार्ड रिपन (१८८०-८४ ई.) के प्रशासनकाल में १८८२ ई. में नियुक्त किया गया। कमीशन ने भारत की शिक्षा सम्बन्धी प्रगति का सिंहावलोकन किया और १८५४ ई. में निर्धारित पश्चिमी शिक्षा का प्रसार करने की नीति का पूरी तरह से अनुमोदन किया। कमीशन की सिफारिश थी कि जनता में प्राथमिक शिक्षा का विस्तार तथा सुधार करने के लिए विशेष उपाय किये जायँ। शिक्षा विभाग में अधिक अच्छे व्यक्तियों को आकर्षित करने के उद्देश्य से उसका पुनः संगठन किया जाय। उसने शिक्षण संस्थाओं को अनुदान देने की प्रणाली का अनुमोदन किया और सिफारिश की कि सभी स्तरों की शिक्षा अधिकाधिक निजी संस्थाओं के हाथ में छोड़ देनी चाहिए और सरकार को अनुदान द्वारा उनकी सहायता करनी चाहिए। सरकार ने रिपोर्ट स्वीकार कर ली और उसके फलस्वरूप देश में शिक्षण संस्थाओं की संख्या में स्थिर गति से वृद्धि होने लगी।

हंटर, सर विलियम विलसन-१८४०-१९०० ई.) : एक परिष्कृत शिक्षाविद, ग्रन्थकार, सांख्यिकीविज्ञ अधिकारी, जिसने ग्लासगो, पेरिस तथा बान में शिक्षा प्राप्तकर १८६२ ई. में इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश किया और बंगाल में नियुक्त हुआ। उसमें धारा-प्रवाह लिखने की शक्ति थी। १८६८ ई. में उसने 'ग्रामीण बंगाल का क्रमानुसार इतिहास' लिखकर राजनेता के रूप में अच्छा नाम कमाया। चार साल बाद 'भारत की अनार्य भाषाओं का तुलनात्मक कोश' प्रकाशित करके अपने पांडित्य का भी परिचय दिया। भारत के सांख्यिकीय सर्वेक्षण का प्रबंध किया और १८७५-७७ ई. में 'बंगाल का सांख्यिकीय विवरण' २० खंडों में प्रकाशित किया। इम्पीरियल गजेटियर आफ इंडिया भी २३ खण्डों में तैयार किया, जिससे उसकी विद्वत्ता तथा परिश्रमशीलता का प्रमाण मिलता है। १८८२-८३ में शिक्षा कमीशन (दे.) की अध्यक्षता की। कमीशन की रिपोर्ट ने देश की शिक्षा-नीति पर बहुत हद तक प्रभाव डाला। १८८७ ई. में अवकाश ग्रहण करने पर 'रूलर्स आफ इंडिया' (भारत के शासक) पुस्तकमाला का संपादन किया और स्वयं 'डलहौजी' और 'मेयो' पर पुस्तकें लिखीं। उसकी लेखन-शैली अत्यंत सुन्दर थी और उसकी पुस्तकें रोचक होने के साथ-साथ अत्यंत ज्ञानवर्द्धक थीं। उसकी पुस्तकों ने अंग्रेजी भाषा-भाषी संसार को भारत से परिचित कराने में काफी योगदान किया।

हकीम दवाई : फारसी का एक विद्वान् तथा शाहजादा खुर्रम (बाद में बादशाह शाहजहाँ) का उस्ताद।

हकीम, शाहजादा मुहम्मद : बादशाह हुमायूँ (१५३०-३६ ई.) का दूसरा लड़का और अकबर का भाई। अकबर ने उसे अफगानिस्तान का हाकिम बना दिया और वह काबुल में रहने लगा। १५८१ ई. में उसने अकबर के खिलाफ बगावत कर दी; परंतु वह कुचल दी गयी। अकबर ने उसे क्षमाकर दिया और वह अफगानिस्तान का हाकिम बना रहा। शाहजादा हकीम जबर्दस्त पियक्कड़ था। शराबखोरी की वजह से १५८४ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

हड़प्पा  : सिंधु घाटी-सभ्यता (दे.) का एक प्राचीन केन्द्र, जो अब पश्चिमी पाकिस्तान के अन्तर्गत पंजाब के मांटगोमरी जिले में है। यह लगभग तीन मील परिधि का विशाल नगर था पुरातत्त्व विभाग द्वारा की गयी खुदाई के फलस्वरूप यहाँ सुनियोजित ढंग से बने नगर के ध्वंसावशेष मिले हैं। नगर में अनाज के गोदाम, श्रमिकों के निवास स्थान, परिखा-प्राकार और द्वारों से युक्त दुर्ग तथा श्मशान भूमि के अवशेष ले हैं। बहुत-सी मोहरें भी मिली हैं जिन पर अंकित लिपि को अभी पढ़ा नहीं जा सका है। खुदाई में ले अवशेषों से प्रकट होता है कि यहाँ पर उन्नत सभ्यता वर्तमान थी।

हबीबुल्ला खाँ अमीर : सन् १९०१ ई. में अपने पिता अमीर अब्दुर्रहमान के मरने पर अफगानिस्तान की गद्दी पर बैठा। सन् १९१९ में उसकी हत्या कर दी गयी। उसने ब्रिटिश सरकार से हिज मैजेस्टी की उपाधि प्राप्त कर अफगानिस्तान की स्वाधीनता पर व्यावहारिक स्वीकृति प्राप्त की। जब सन् १९०७ में ब्रिटेन तथा रूस ने अफगानिस्तान के सम्‍बन्ध में अमीर से परामर्श किये बिना एक करार पर हस्ताक्षर किये, तो अमीर ने उस पर अपनी स्वीकृति देने से इनकार कर दिया। अमीर की नीति यह थी कि ब्रिटेन अथवा रूस की अधीनता स्वीकार किये बिना स्वतंत्रता कायम रखी जाय। प्रथम विश्वयुद्ध (१९१४-१८) में अमीर ने तटस्थ रहकर ब्रिटिश सरकार की बड़ी सेवा की। अमीर की हत्या हो जाने पर उसका बेटा अमानुल्ला खाँ गद्दी पर बैठा।

हमजा शाह, सैफुद्दीन : बंगाल का एक नबाब, जो इलि‍यास शाही वंश (दे.) का था। उसने केवल एक वर्ष और कुछ महीने (१४१०-१२ ई.) शासन किया और उसकी गद्दी राजा गणेश (दे.) ने छीन ली।

हमीद खाँ : सैयद वंश (दे.) के अंतिम सुल्तान आलमशाह (१४४५-५३ ई.) का दीवान। उसने बहलोल लोदी को दिल्ली की गद्दी पर कब्जा करने में मदद दी थी, परन्तु बहलोल ने गद्दी पर बैठने के बाद उसको जेल में डाल दिया, ताकि वह नये सुल्तान के मार्ग का काँटा न बन सके।

हमीदा बानू बेगम : बादशाह हुमायूँ की बेगम तथा उसके लड़के अकबर की माता। अकबर के राज्यकाल के प्रारम्भिक वर्षों में प्रशासन पर उसका काफी प्रभाव था।

हम्मीर : मेवाड़ का एक वीर राजपूत, जो राजवंश से सम्बन्धित था। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के शासन के अंतिम दिनों में, १३१६ ई. के आसपास उसने दिल्ली के सुल्तान से चित्तौड़ वापस छीन लिया। उसका शासनकाल लम्बा और गौरवपूर्ण था। उसने १३६४ ई. तक अपनी मृत्यु से पूर्व पूर्वजों का सारा राज्य फिर से जीत लिया था।

हम्मीर देव : रणथंभौर का चौहान राजा, जिसने १२८२ से १३०१ ई. तक अपनी मृत्युपर्यन्त राज्य किया। हम्मीर ने बड़ी आनबान के साथ अपना शासन आरम्भ किया। उसने मालवा का एक भाग तथा गढ़मंडल जीत लिया, अपने राज्य की सीमा मालवा में उज्जैन तक तथा राजपूताना में आबू पर्वत तक बढ़ा ली। वह इतना शक्तिशाली था कि सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने १२९१ ई. में रणथंभोर का किला सर करने का प्रयत्न त्याग दिया। बाद में उसने सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की सेना के बगावत करनेवाले सरदारों को शरण देकर उसकी खुली अवहेलना की। उसने सुल्तान की फौज के दी हमलों को विफल कर दिया। परंतु अंत में १३०१ ई. में सुल्तान ने स्वयं किला घेर लिया और उसे फतह कर लिया।

हरकिशन, हरगोविन्‍द : हरकिशन- सिक्खों के आठवें गुरु (१६६१-६४ ई.)। वे सातवें गुरु हरराम के पुत्र और उत्तराधिकारी थे। उन्होंने भी अपने पितामह गुरु हरगोविन्द सिंह की भाँति सिक्खों को शस्‍त्र् धारण करनेके लिए प्रेरित किया। हरगोविन्‍द- सिक्‍खों के छठें गुरु (१६०६-४५ ई.)। बादशाह जहांगीर के आदेश से पांचवें गुरु अर्जुन को फांसी दे दी जाने पर वे गद्दी पर बैठे। वे केवल र्ध्‍मोपदेशक ही नहीं, कुशल संगठनकर्ता भी थे और उन्‍होंने अपने अनुयायियों को शस्‍त्र धारण करने के लिए प्रेरित किया तथा छोटी सी सेना इकट्ठा कर ली। इससे कुपित होकर बादशाह जहाँगीर ने उनको बारह वर्ष तक कैद में डाले रखा। रिहा होने पर उन्होंने शाहजहाँ के खिलाफ बगावत कर दी, और १६२८ ई. में अमृतसर के निकट संग्राम में शाही फौज को हरा दिया। अंत में उन्हें कश्मीर के पहाड़ों में शरण लेनी पड़ी, जहाँ १६४५ ई. में उनकी मृत्यु हो गयी।

हरदत्त : बुलंदशहर अथवा बूरन का राजा, जिस पर सुल्तान महमूद ने १०१८ ई. में हमला किया। उसने सुल्तान की अधीनता स्वीकार करके सुलह कर ली और इस्लाम धर्म कबूल कर लिया।

हरदयाल : एक सुशिक्षित भारतीय क्रांतिकारी, जो दिल्ली के निवासी थे। पंजाब विश्वविद्यालय से ससम्मान बी. ए. पदवी प्राप्त करने के बाद वे आक्सफोर्ड जाकर पढ़ने लगे। वहाँ उनमें ब्रिटिश शासन-विरोधी तीव्र भावना उत्पन्न हो गयी। भारत लौटने पर उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों का प्रचार आरम्भ कर दिया। भारत सरकार ने जब उनके मार्ग में रुकावट खड़ी कर दी, तब १९०८ ई. में वे देश से बाहर चले गये तथा यूरोप का विस्तृत भ्रमण करते हुए अंत में अमरीका में जाकर बस गये। वहाँ उन्होंने गदर पार्टी का संगठन किया एवं भारत और जर्मनी के सहयोग की जोरदार वकालत करने लगे। इस कारण उन्हें अमरीका से निर्वासित कर दिया गया।

अन्त में वे यूरोप चले गये और बर्लिन को अपना मुख्यालय बना लिया। वहाँ से उन्होंने अफगानिस्तान में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कराने की कोशिश की, परन्तु उनकी कोशिशें नाकाम रहीं। जर्मनी की हार के बाद वे स्टाकहोम में बस गये और वहाँ भारतीय भाषाओं के प्रोफेसर बना दिये गये। उनकी मृत्यु मध्य अमरीका में हुई, जहाँ वे व्याख्यान देने गये थे। वे भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह संगठित करने के समर्थक तथा उग्र समाजवादी थे।

हरद्वार : उत्तर प्रदेश में हिन्दुओं का सबसे पवित्र तीर्थस्थान। यहाँ पर गंगा पहली बार पहाड़ से मैदान में उतरती हैं। यहाँ पर गंगा-स्नान अत्यंत पुण्यकारी माना जाता है। इसके निकट कॉगड़ी में गुरुकुल विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी है।

हरपाल देव : देवगिरि का यादव राजा था। वह राजा रामचन्द्र देव का दामाद और उत्तराधिकारी था जिसे अलाउद्दीन खिलजी ने १२९४ ई. में हराया था और खिराज देने के लिए विवश किया था। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का देहान्त हो जाने पर हरपाल देव ने खिराज देना बन्द कर दिया, और अपने को लगभग स्वतन्त्र कर लिया। परन्तु १३१७ ई. में सुल्तान मुबारक (दे.) ने उसे हरा दिया और कैद करने के बाद फाँसी दे दी।

हर राय : सिक्खों के सातवें गुरु (१६४६-६१ ई.) थे। उन्होंने अपने पितामह गुरु गोविन्द सिंह की वित्तीय नीति जारी रखी।

हरविजय : कश्मीरी कवि द्वारा लिखित काव्य जिसमें पचास सर्ग हैं। रत्नकरन का समय नौवीं शताब्दी का मध्य भाग माना जाता है। वह कश्मीर के राजा अवंती वर्मन (दे.) का समसामयिक था।

हरिनाथ : एक प्रसिद्ध हिन्दी लेखक था, जिसे बादशाह अकबर (१५६६-१६०५ ई.) का आश्रय प्राप्त था।

हरिपत फड़के : एक मराठा सेनापति, जिसने नाना फड़नवीस के आदेश से दिसम्बर १७८४ ई. में मैसूर के टीपू सुल्तान के विरुद्ध मराठा सेना का सेनापतित्त्व किया और टीपू को सुलह की बातचीत शुरू करने के लिए विवश किया। फलस्वरूप १७८७ ई. में संधि हुई, जिसके द्वारा टीपू ने मराठों को ४५ लाख रुपया और मराठों द्वारा अधिकृत इलाकों के बदले में बदामी, किठूर और नारगुड जिले देना मंजूर कर लिया।

हरि विजय सूरि : एक प्रमुख जैन मुनि थे, जो बादशाह अकबर (१५६६-१६०५ ई.) के समय में हुए। बादशाह अकबर ने फतेहपुर सीकरी के इबादतखाने में धार्मिक विषयों पर विचार-विनिमय के लिए जिन विद्वानों को आमंत्रित किया था, उनमें हरि विजय सूरि भी थे।

हरिषेण  : वाकाटक वंश (दे.) का अंतिम राजा था, जिसने चौथी से छठीं शताब्दी तक मध्य प्रदेश पर शासन किया।

हरिषेण  : गुप्तवंश के द्वितीय सम्राट समुद्रगुप्त (लगभग ३३०-८० ई.) का एक सेनापति तथा दरबारी कवि था, जिसने इलाहाबाद के स्तम्भ पर उत्कीर्ण समुद्रगुप्त की विजय यात्राओं का वर्णन करनेवाली प्रशस्ति की रचना की।

हरिसिंह : तिरहुत का राजा। उसने १३२१ ई. में नेपाल पर हमला किया और वहाँ के राजा जयसमुद्र मल्ल को परास्त करके तराई के सारे इलाके पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। उसने भात गाँव को अपनी राजधानी बनाया और चीन से दौत्य सम्बन्ध स्थापित किया। उसने स्थानीय राजाओं को अधिकारारूढ़ बनाये रखा। उसके उत्तराधिकारियों ने १४१८ ई. तक नेपाल पर शासन किया।

हरिसिंह नवला (नलवा) : पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह का सिक्ख सेनापति, जिसने मई १८३४ ई. में पेशावर का किला फतह कर लिया और वह महाराज रणजीत सिंह के कब्जे में आ गया। उसके पराक्रम का बड़ा दबदबा था।

हरिहर प्रथम  : संगम का पुत्र था। उसने अपने चार भाइयों की सहायता से, जिनमें बुक्का राय प्रथम मुख्य था, १३३६ ई. में तुंगभद्रा के दक्षिणी तट पर विजयनगर की स्थापना की और इस प्रकार उस क्षेत्र में विजयनगर साम्राज्य की नींव डाली। इस कार्य में उसे दो ब्राह्मण आचार्यों, माधव विद्याराय और उनके ख्यातनामा भाई, वेदों के भाष्यकार सायण से भी सहायता मिली। पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्र तट के बीच के सारे भू-भाग पर अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद हरिहर प्रथम की १३५४-५५ ई. में मृत्यु हो गयी।

हरिहर द्वितीय : बुक्क प्रथम का पुत्र तथा उत्तराधिकारी, जो विजयनगर साम्राज्य का दूसरा राजा हुआ। उरने १३७७ से १४०४ ई. तक राज्य किया। उसने विजयनगर साम्राज्य की सीमा दक्षिण में त्रिचनापल्ली तक फैला दी।

हर्शेल कमेटी : ब्रिटिश भारत में मुद्रा-सुधार पर विचार करने के लिए १८९२ ई. में यह नियुक्त की गयी। उसकी सिफारिशों के आधार पर भारत सरकार ने टकसालों में सोना और चाँदी ले जाकर जनता द्वारा मनचाही मात्रा में सिक्के ढलवाना बंद कर दिया। फिर भी टकसालों में १ शिलिंग ४ पेंस की विनिमय दर पर चाँदी के रुपयों के बदले में सोना ले लिया जाता था। सार्वजनिक ऋणों की अदागी के रूप में गिन्नियाँ स्वीकार कर ली जाती थीं। एक गिन्नी १५ रुपये के बराबर मानी जाती थी। इन सुधारों के फलस्वरूप सोना विनिमय मूल्य का आधार बन गया, फिर भी तब तक उसे कानूनी मान्‍यता नहीं मिली थी।

हर्ष : कामरूप का सालसतम्व-वंशी राजा। वह आठवीं शताब्दी के मध्य भाग में राज्य करता था। उसने अपनी पुत्री राज्यमती का विवाह नेपाल के राजा जयदेव से किया था।

हर्ष : कश्मीर का एक राजा, जिसने १०८९ से ११०१ ई. तक राज्य किया। वह बड़ा अत्याचारी था। क्रूरता में उसकी तुलना रोम के सम्राट् नीरो से की जाती है।

हर्ष चरित : हर्षवर्धन के राजकवि बाण की रचना है। इसमें हर्ष का प्रारम्भिक जीवन वृतान्त मिलता है जो विंध्याचल के जंगलों में उसकी बहिन राज्यश्री से भेंट होने के साथ समाप्त हो जाता है। इसमें हर्ष की राजसभा, सेना और उस काल के सामाजिक जीवन का विशद चित्र मिलता है।

हर्षवर्धन : कन्नौज और थानेश्वर का राजा (६०६-४७ई.)। वह थानेश्वर के राजा प्रभाकरवर्धन का दूसरा पुत्र था। बड़े भाई राज्यवर्धन की ६०६ ई. में मृत्यु हो जाने पर उसने राज्य का शासन-भार सँभाला। जिस समय हर्ष सिंहासन पर बैठा, स्थिति अत्यन्त संकटपूर्ण थी। गौड़ (बंगाल) के राजा शशांक ने उसके बड़े भाई का वध कर डाला था और उसकी छोटी बहिन राज्यश्री अपने प्राणों की रक्षा के लिए किसी अज्ञात स्थान में भाग गयी थी। इसके पति, कन्नौज के राजा ग्रहवर्मा को मालवा के राजा ने युद्ध में हराने के बाद मार डाला था।

हर्षवर्धन ने शीघ्र ही अपनी बहिन को ढूँढ़ निकाला और कामरूप के राजा भास्कर वर्मा से संधि करने के बाद गौड़ के शशांक के विरुद्ध एक बड़ी सेना भेज दी। वह शायद शशांक को गद्दी से उतार नहीं पाया, क्योंकि शशांक ६१९ ई. तक तो निश्चित रूप से राज्य करता रहा और उसके बाद भी शायद कई वर्ष तक जीवित रहा। फिर भी उसने एक बड़ी सेना एकत्र कर ली और सिंहासन पर बैठने के बाद वह लगातार छह वर्ष तक युद्ध करता रहा, जैसाकि उसके समसामयिक चीनी यात्री ह्युएनसांग अथवा युवान च्वांग ने लिखा है, उसने 'पंच हिन्‍दू' को जीत लिया। 'पंचहिन्दू' से युवान च्वाङ्ग का आशय भारत के किन-किन भागों से है, यह स्पष्ट नहीं है। फिर भी प्राचीन लेखों से सिद्ध होता है कि हर्षवर्धन ने वल्लभी, मगध, कश्मीर, गुजरात तथा सिंध को जीत लिया।

दक्षिण में इसकी सेनाओं को लगभग ६२० ई. में चालुक्य राजा पुलकेशीय द्वितीय ने नर्मदा के तट से पीछे खदेड़ दिया, परन्तु वस्तुतः वह अपने लम्बे राज्यकाल में बराबर युद्ध करता रहा और उसके द्वारा अंतिम लड़ाई ६४३ ई. में गंजाम में छेड़ने का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार उसने विशाल साम्राज्य की स्थापना की, जिसकी सीमाएँ उत्तर में हिमाच्छादित पर्वतों तक, दक्षिण में नर्मदा नदी के तट तक, पूर्व में गंजाम तथा पश्चिम में वल्लभी तक विस्तृत थीं। कन्नौज इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी।

हर्ष बड़ा योग्य शासक था और उसने महाराजाधिराज की पदवी धारण कर ली थी। उसने चीनी सम्राट् से दौत्य सम्बन्ध स्थापति कर रखा था। वह सभी धर्मों का आदर करता था, शिव और सूर्य के साथ-साथ बुद्ध की भी उपासना करता था। बाद में उसका झुकाव महायान बौद्ध धर्म की ओर अधिक हो गया। सम्राट् अशोक की भाँति उसने भी अपने साम्राज्य में यात्रियों, दीन-दुखियों तथा रोगियों की सेवा-सुविधा के लिए स्थान-स्थान पर धर्मशाला, कुआँ, चिकित्सालय आदि का प्रबन्ध कर रखा था। वह प्रचुर मात्रा में दान देता था और पाँच वर्षों में राज्यकोष में जो धन एकत्र होता था, उसे प्रयाग में गंगा और यमुना के संगम पर एक महोत्सव करके दान कर डालता था। चीनी यात्री ह्यएनत्सांग अथवा युवान च्वाङ्ग ६४३ ई. में इस प्रकार के छठे महोत्सव में सम्मिलित हुआ था। उसने महोत्सव का जो वर्णन किया है, उससे हर्षवर्धन के ऐश्वर्य और उसकी दानशीलता का स्पष्ट प्रमाण मिलता है।

हर्षवर्धन : हर्षवर्धन उच्च कोटि का कवि भी था। उसने संस्कृत में नागानंद, रत्नावली तथा प्रियदर्शिका नाम से तीन नाटकों की रचना की है। वह कवियों और विद्वानों का आश्रयदाता था, कादम्बरी और हर्षचरित के लेखक बाण, सुभाषितावली के रचयिता मयूर और विद्वान चीनी यात्री ह्युएनत्सांग (दे.) को उसने आश्रय प्रदान किया था।

हर्ष-संवत् : थानेश्वर और कन्नौज के महाराजाधिराज हर्षवर्धन के सिंहासनारूढ़ होने पर ६०६ ई. में यह प्रचलित हुआ।

हलेबिड : होयसल नरेश द्वारसमुद्र की राजधानी, जहाँ का होयसलेश्वर मन्दिर बहुत प्रसिद्ध है। यह मंदिर वास्तुकला की अत्यन्त उल्लेखनीय कृति है और सारे एशिया में मानवीय उद्यम का इससे उत्तम उदाहरण दूसरा नहीं मिलता है।

हल्‍दीघाट की लड़ाई : देखिये 'गोधूंदा की लड़ाई'।

हसन अली अब्दुल्ला  : सैयद बन्धुओं (दे.) में बड़ा भाई। छोटा भाई हुसेन अली (दे.) था।

हसन अली खाँ : बादशाह औरंगजेब (१६५८-१७०७ई.) का एक सेनापति। मथुरा के फौजदार की हैसियत से उसने १६६९ ई. गोकुला (दे.) के नेतृत्व में जाटों का बलवा दबाया था।

हसन-ए-देहलवी : शेख निजामुद्दीन हसन का नाम। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (१२९६-१३२६ ई.) के शासनकाल में फारसी के एक कवि के रूप में उसकी ख्याति भारत से बाहर तक फैल गयी थी।

हसन खाँ : बादशाह शेरशाह (१५४०-४५ ई.) का पिता। वह अपने पिता इब्राहीम के साथ पेशावर से आया और पंजाब के एक जागीरदार की सेवा में रहने लगा। वहीं उसका लड़का फरीद पैदा हुआ जो बाद में शेरशाह के नाम से मशहूर हुआ। बाद में हसन को जौनपुर के सूबेदार से बिहार के सासाराम में एक जागीर मिल गयी। वह अपनी पत्नी के प्रभाव में आकर जो शेरशाह की विमाता थी, अपने लड़के के साथ, अच्छा बर्ताव नहीं करता था। इसके फलस्वरूप शेरशाह अपने पिता से अलग हो गया। आगे चलकर उसने जो प्रसिद्ध प्राप्त की, उसमें उसके पिता का कोई हाथ नहीं था।

हसन खाँ मेवाती : एक अफगान सरदार, जिसने दिल्ली की सल्तनत पर लोदी वंश का अधिकार बनाये रखने की कोशिश की। बाबर को हराने के लिए वह मेवाड़ के राणा सांगा से जा मिला और १५२७ ई. में खानवा के युद्ध में राणा सांगा के साथ वह भी प्रथम मुगल बादशाह बाबर (१५२६-३० ई.) से पराजित हुआ।

हसन जफर खाँ  : बहमनी राज्य तथा वंश का संस्थापक। (देखिये, अलाउद्दीन हसन बहमन शाह)।

हसनुन-निजामी : एक मुस्लिम इतिहासकार। उसने ताजुलमासिर की रचना की, जिसमें दिल्ली की पहली सल्तनत (दे.) का प्रामाणिक विवरण मिलता है।

हस्ति वर्मा : वेङ्गी का राजा। द्वितीय सम्राट् समुद्रगुप्त (लगभग ३३०-३८० ई.) ने दक्षिण भारत के जिन राजाओं को हराने के बाद उनका राज्य लौटा दिया था, उनमें हस्ति वर्मा भी था। विश्वास किया जाता है कि वह सालंकायन वंश का था जो उस समय कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच एल्लोर के सात मील उत्तर में स्थित वेङ्गी अथवा पेद्दा-वेङ्गी में राज्य करता था।

हाई कोर्ट : भारत में हाईकोर्टों की स्थापना १८६१ ई. के इंडियन हाईकोर्टस् ऐक्ट के अंतर्गत की गयी। इससे पहले कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास में दो-दो उच्च न्यायालय थे। एक तो सुप्रीम कोर्ट, जिसकी स्थापना ब्रिटिश सरकार ने की थी, दूसरे सदर दीवानी अदालत तथा सदर निजामत अदालत, जिसकी स्थापना ईस्ट इंडिया कम्पनी ने की थी। यह दोहरी न्याय व्यवस्था न्याय में बाधक सिद्ध हो रही थी। इसलिए १८६१ ई. में तीनों नगरों में उनके स्थान पर एक-एक उच्च न्यायालय की स्थापना की गयी। बाद में एक उच्च न्यायालय की स्थापना इलाहाबाद में तथा १८६६ ई. में एक चीफ कोर्ट की स्थापना पंजाब में की गयी। इन न्यायालयों में एक ही जाब्ता दीवानी, जाब्ता फौजदारी तथा भारतीय दंड विधान के अनुसार न्याय किया जाता था। इन सब कानूनों का निर्माण १८५९ से १८६१ ई. के बीच किया गया। अब भारत के सभी मुख्य राज्यों में एक-एक उच्च न्यायालय है।

हाकिन्स, कैप्‍टेन विलियम : हेक्टर' नामक जहाज पर पूर्व की ओर ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तीसरी यात्रा का संचालक। बादशाह जहाँगीर के नाम इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम का पत्र लेकर वह १६०८ ई. में सूरत पहुँचा। हाकिन्स स्थल मार्ग से मुगल दरबार में गया और जहाँगीर से भेंट की। वह मुगल दरबार में १६११ ई. तक रहा। जहाँगीर उससे अक्सर मिलता था और उसे ४०० सवारों का मनसबदार बना दिया। बादशाह के कहने से उसने एक आरमनियाई ईसाई लड़की से विवाह कर लिया। उसने अंग्रेजों को व्यापार सम्बन्धी कुछ सुविधाएँ देने के लिए बादशाह को अनुकूल कर लिया, परंतु पुर्तगालियों के विरोध के कारण इन पर अमल नहीं हो सका। हाकिन्स १६११ ई. में मुगल दरबार से चला गया और १६१२ ई. में इंग्लैण्ड वापस हुआ। उसने भारत की अपनी यात्रा का वर्णन लिखा है।

हाग, सर स्टुअर्ट साण्डर्स : बीस वर्ष की अवस्था में १८४३ ई. में इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश। वह पुराने पश्चिमोत्तर प्रांत के राजनीतिक विभाग में नियुक्त हुआ और गदर के समय पंजाब में अच्छा कार्य किया। बाद में उसका तबादला बंगाल कर दिया गया, जहाँ वह कलकत्ता का पुलिस कमिश्नर तथा १८६३ से १८७७ ई. तक म्युनिसपल बोर्ड का चेयरमैन रहा। उसने कलकत्ता नगर के प्रबन्ध में सुधार की नीति चालू की और उसकी स्मृति में कलकत्ता में चौरंगी के निकट हाग मार्केट स्थापित किया गया।

हाजसन, ब्रायन हगटन (१८००-९४ ई.) : रेलीवरी कालेज में शिक्षा प्राप्त की और १८१८ ई. में इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश किया। उसका अधिकांश समय नेपाल में बीता जहाँ वह १८२० से १८३३ ई. तक असिस्टेण्ट रेजीडेण्ट रहा और उसके बाद मुख्य रेजीडेण्ट बना दिया गया। इस पद पर वह १८४४ ई. तक रहा। उसने नेपाल के धर्म, साहित्य तथा भाषा का अध्ययन किया एवं नेपाल की विविध जातियों, वहाँ के वन्य जीवों तथा भूगोल का भी अध्ययन किया। उसने नेपाल में उत्तरी भारत के बौद्ध ग्रंथों का अनुसंधान किया और उनके अध्ययन में इतना महत्त्वपूर्ण योग दिया कि महान् फ्रेंच प्राच्यविद्याविद् बरनाफ ने उसे "बौद्ध धर्म के वास्तविक अध्ययन का सूत्रपात करनेवाला" बताया है।

हाजी अहमद : बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ (१७४०-५६ ई.) (दे.) का भाई। १७४० ई. में गिरिया के युद्ध में सरफराज खाँ (दे.) को पराजित करने में अहमद ने अपने भाई अलीवर्दी की बड़ी मदद की और उसे बंगाल का नवाब बनाया। अहमद की सबसे छोटी लड़की ही नवाब सिराजुद्दौला (१७५६-५७) (दे.) की माँ थी।

हाजी इब्राहीम सरहिन्दी : एक बहुत बड़ा विद्वान् तथा संस्कृत का मर्मज्ञ। उसने सम्राट् अकबर की छत्रछाया में अपना जीवन व्यतीत किया। उसने अथर्ववेद का अनुवाद फारसी में किया।

हाजी इलियास : लगभग १३४५-५७ ई. में बंगाल का सुल्तान। उसने शम्सुद्दीन इलियास शाह की उपाधि ग्रहण की और पूर्वी बंगाल पर अधिकार करके उड़ीसा एवं तिरहुत से कर वसूल किया। फिर वह बनारस तक बढ़ आया। फलतः दिल्ली का सुल्तान फीरोजशाह तुगलक (१३५७ ई.) उसका मुकाबला करने के लिए आगे बढ़ा। लेकिन इलियास ने प्रतिरक्षा की ऐसी सुन्दर व्यवस्था की थी कि फीरोज़शाह उसे पराजित किये बिना ही दिल्ली लौट गया। इलियास १३५७ ई. में पाण्डुआ में मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसके वंशजों ने पश्चिमी बंगाल पर १४९० ई. तक शासन किया।

हाजी मौला : सुल्तान अलाउद्दीन (१२९६-१३१६ ई.) का एक असंतुष्ट राज्याधिकारी। कोतवाल के चुनाव में अपनी समय अलाउद्दीन रणथम्भोर की लड़ाई में लगा हुआ था, उसने दिल्ली में बगावत कर दी, कोतवाल को मार डाला, लाल महल पर कब्जा कर लिया, खजाने में घुस गया और वहाँ की दौलत लूटकर अपने समर्थकों में बाँट दी। उसने सुल्तान इल्तुतमिश के एक वंशज को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया। परन्तु बगावत का यह झंडा केवल चार दिन तक बुलंद रह सका। सुल्तान अलाउद्दीन के समर्थकों ने लाल महल पर फिर से कब्जा कर लिया और हाजी मौला और उसके द्वारा बैठाये गये शहजादे को मार डाला। इस बगावत के फलस्वरूप अलाउद्दीन का ध्यान अपने प्रशासन की त्रुटियों की ओर गया और उसने ऐसी व्यवस्था कर दी कि भविष्य में इस प्रकार की बगावतें न होने पायें। (देखिये, 'अलाउद्दीन खिलजी')

हाडसन, मेजर विलियम स्टीफेन रेकेस (१८२१-५८ ई.)  : कैम्ब्रिज का स्नातक, जो १८४५ ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा में आया। उसने प्रथम सिक्ख-युद्ध (१८४५ ई.) में भाग लिया और १८४९ ई. में पंजाब दखल कर लिये जाने पर असिस्टेंट कमिश्नर नियुक्त हुआ। किन्तु वह शीघ्र बेईमानी के आरोप में नौकरी से हटा दिया गया, बाद में उसे आरोपों से मुक्त कर दिया गया और नौकरी में फिर ले लिया गया। गदर शुरू होने के समय वह फौज में अफसर नियुक्त हुआ। उसने घुड़सवारों की एक पलटन तैयार की, जो हाडसन की घुड़सवार पलटन कहलाती थी। दिल्ली पर घेरा डाले जाने के समय वह भी अपनी पलटन के साथ मौजूद था। दिल्ली पर अधिकार होने के बाद वह हुमायूँ के मकबरे पहुँचा और वहाँ बूढ़े मुगल बादशाह बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लिया। उसने शाहजादा को भी गिरफ्तार किया और वहीं मार डाला। फिर उसने कानुपर के निकट होनेवाली लड़ाई में भाग लिया। लखनऊ पर फिर से दखल करने के लिए जो लड़ाई हुई, उसमें वह १२ मार्च १८५८ ई. को मारा गया। गदर के दौरान भारतीयों के प्रति अपने प्रतिहिंसापूर्ण व्यवहार के लिए वह कुख्यात है।

हाथीगुम्फा लेख : देखिये, 'खारवेल'।

हाफिज़ रहमत खाँ : १८ वीं शताब्दी के ७वें दशक के प्रारंभ में रुहेलखण्ड पर शासन करनेवाले रुहेला सरदारों का मुखिया। वह सरदार अली मुहम्मद के मरने पर उसके बेटों का संरक्षक बना, लेकिन बाद में स्वयं राज्य का मालिक बन बैठा। १७७२ ई. में रुहेलखंड पर मराठों के हमले की आशंका हुई। रहमत खाँ ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से समझौता किया कि वह मराठों को भगाने की जिम्‍मेदारी अपने ऊपर ले, इसके बदले में रहमत खाँ ४० लाख रुपया नवाब को देगा। यह समझौता ब्रिटिश सेनापति सर राबर्ट बार्कर की मध्यस्थता में हुआ था। उस समय तो मराठे रुहेलखण्ड की सीमा से दूर चले गये, लेकिन १७७३ ई. में वे फिर आ धमके और गंगा पार करके रुहेलखण्ड में राम घाट तक आ पहुँचे। अवध का नवाब अंग्रेजी फौज की सहायता लेकर, जिसका नेतृत्व सर राबर्ट बार्कर कर रहा था, आगे बढ़ा। मराठे लड़ने के पहले ही भाग खड़े हुए। नवाब ने रहमत खाँ से समझौते के अनुसार ४० लाख रुपयों की माँग की। रहमत खाँ ने रुपये नहीं दिये और यह बहाना था कि नवाब ने कोई लड़ाई नहीं लड़ी। नतीजा यह हुआ कि १७७४ ई. में नवाब की सेनाओं ने अंग्रेजी सेना को साथ लेकर रुहेलखण्ड पर धावा बोल दिया। मीरनपुर कटरा के युद्ध में रहमत खाँ बहादुरी से लड़ा, लेकिन मारा गया। वह योग्य, बहादुर और सुसंस्कृत शासक था, जो अपनी हिन्दू प्रजा का बहुत ध्यान रखता था। उसके शासन काल में रुहेलखण्ड ने बहुत उन्नति की।

हारमाओस : भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में राज्य करने वाला अंतिम यवन राजा। वह ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी में राज्य करता था। भारत में कुषाण साम्राज्य के संस्थापक कदफिसस प्रथम ने उसका राज्य छीन लिया।

हारीतिपुत्र : अर्थात् हारीति ऋषि के वंशज। सातकर्णि (दे.) और चालुक्य राजा अपनेको हारीतिपुत्र कहते थे।

हार्डिज, चार्ल्स, पेन्सहर्स्टका बैरन : १९१० से १९१६ ई. तक भारत का वाइसराय। वह लार्ड हार्डिज का पौत्र था जो १८४४ से १८४८ ई. तक भारत का गवर्नर-जनरल रहा। उसके प्रशासन काल में १९११ ई. में जार्ज पंचम सम्राज्ञी के साथ भारत आया और दिल्ली में एक शानदार दरबार में उसकी ताजपोशी हुई। उसी समय भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित किये जाने की घोषणा की गयी। इसके साथ ही पूर्वी बंगाल को फिर से पश्चिमी बंगाल में मिलाने और उसका शासन सपरिषद् गवर्नर द्वारा किये जाने, बिहार को उड़ीसा में मिलाकर लेफ्टिनेण्ट-गवर्नर के अधीन एक नया प्रान्त बनाये जाने तथा चीफ कमिश्नर के अधीन आसाम को पुनः अलग प्रांत बनाने की भी घोषणा की गयी।

१९१२ ई. में जब लार्ड हार्डिज औपचारिक रीति से नयी राजधानी (नयी दिल्ली) में प्रवेश कर रहा था, उसपर बम फेंका गया, जिससे वह गम्भीर रूप से घायल हो गया। इस काण्ड के बाद भी उसने अपने को शान्त रखा और प्रतिशोध की वैसी कोई नीति नहीं चलायी जैसी १९१९ ई. के उपद्रवों के बाद लार्ड चेम्सफोर्ड ने चलायी थी। १९१३ ई. में लार्ड हार्डिज ने मद्रास में एक सार्वजनिक सभा में भाषण करते हुए दक्षिण अफ्रीका की सरकार द्वारा पास किये गये भारतीय-विरोधी इमिग्रेशन ऐक्ट (भारतीय प्रवास कानून) की तीव्र आलोचना की और उसे द्वेषपूर्ण एवं अनुचित बताया। साथ ही गांधी जी ने इस सम्बन्ध में जो सत्याग्रह-आन्दोलन चला रखा था उससे सहानुभूति व्यक्त की और एक ऐसी जाँच कमेटी की नियुक्ति की माँग की जिसमें भारतीयों को भी सम्मिलित होने की अनुमति दी जाय। अन्त में दक्षिण अफ्रीका की सरकार को झुकना पड़ा और उसने एक कमीशन की नियुक्ति कर दी, जिसकी रिपोर्ट के आधार पर भारतीय प्रवास कानून में इस प्रकार के संशोधन कर दिये गये कि गांधी ने उसे दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की स्वाधीनता का मैग्ना चार्टा (घोषणापत्र) बताया।

लार्ड हार्डिज के प्रशासन-काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी अगस्त १९१४ ई. में प्रथम विश्व-युद्ध का छिड़ जाना तथा उसमें भारत को भी शामिल कर दिया जाना। लार्ड हार्डिज ने बड़े साहस का परिचय दिया और भारत में जितने भी ब्रिटिश सैनिक उपलब्ध थे उन्हें तथा बड़ी संख्या में भारतीय सैनिकों के दस्तों को लड़ने के लिए भेज दिया। लार्ड हार्डिज की लोकप्रियता तथा ब्रिटेन के प्रति भारत की निष्ठा का परिचय इस बात से मिलता है कि इसके प्रशासन के प्रारम्भिक वर्षों में राजनीतिक आन्दोलनों तथा आतंकवादी गतिविधियों का प्राबल्य होने के बावजूद भारत पूर्ण रूप से राजभक्त बना रहा और उसने १९१९ ई. की ब्रिटिश विजय में यथेष्ट योग दिया।

हार्डिज, हेनरी, वाइकाउण्ट : १८४४ से १८४८ ई. तक भारत का गवर्नर-जनरल। नियुक्ति के समय उसकी उम्र ५९ साल थी और उसने यूरोप के दक्षिण-पश्चिम में स्थित आइबेरियन प्रायद्वीप में नेपोलियन की फौजों से होनेवाली लड़ाइयों में हिस्सा लिया। उसने अपने प्रशासन के शुरू के डेढ़ वर्षों में भारत में रेल पथ बनाने की दिशा में प्रारम्भिक कदम उठाये, गंगा नहर की योजना को आगे बढ़ाया, सती-प्रथा (दे.), उड़ीसा के पर्वतीय क्षेत्रों में प्रचलित शिशुहत्या तथा मानव-बलि की सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के लिए प्रभावशाली कार्रवाइयाँ कीं।

हार्डिज, हेनरी, वाइकाउण्ट : उसके प्रशासन काल की सबसे मुख्य घटना पहला सिक्ख-युद्ध (दे.) (१८४५-४६ ई.) था, जिसमें सुबराहान की लड़ाई में अंग्रेजों की विजय हुई और लाहौर की संधि के द्वारा सतलज के उस पार की सारी भूमि तथा सतलज-ब्यास के बीच का जालंधर का सारा दोआब अंग्रेजों को सौंप दिया गया। इसके साथ ही सिक्खों ने अंग्रेजों को १५ लाख पौंड (डेढ़ करोड़ रुपया) हर्जाना अथवा कश्मीर का इलाका और पाँच लाख पौंड नकद हर्जाना देना मंजूर कर लिया। सिक्खों ने कश्मीर का इलाका सौंप देना पसंद किया और वह १० लाख पौंड में जम्मू के राजा गुलाब सिंह के हाथ बेच दिया गया। पहले सिक्ख-युद्ध की विजय के उपलक्ष्य में गवर्नर-जनरल को वाइकाउण्ट का पदक दिया गया। १८४८ ई. में भारत के गवर्नर-जनरल के पद से अवकाश ग्रहण करने पर लार्ड हार्डिज ब्रिटेन में ऊँचे पदों पर रहा। वह पहले ब्रिटिश सेना में तोपखाने का प्रधान और फिर प्रधान सेनापति हुआ। उसने ब्रिटिश सेना में कई सुधार किये। उसकी मृत्यु १८५६ ई. में हुई।

हाल : सातवाहन वंश (दे.) का सत्रहवाँ राजा। उसके राजकीय जीवन के बारे में कुछ पता नहीं है, परन्तु उसका नाम महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी शृंगार रस की कविताओं के संग्रह 'गाथा सप्तशती' के साथ जुड़ा हुआ है।

हालवेल, जान जेफानिया - (1711-98 ई.) : यह एक सर्जन का सहायक बनकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के जहाज से १७३२ ई. में कलकत्ता आया और कम्पनी के जहाजों में सर्जन नियुक्त हो गया। वह पटना, ढाका और कलकत्ता में रहा। कलकत्ता में वह प्रधान सर्जन बना दिया गया। बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने जब १८ जून १७५६ ई. में कलकत्ता पर हमला किया, वह कौंसिल का सातवाँ सदस्य था। गवर्नर ड्रेक और कौंसिल के सभी ज्येष्ठ सदस्य कलकत्ता से भाग गये और गंगा के मुहाने पर स्थित फुल्टा में शरण ली। किले की रक्षा का भार हालवेल पर आ पड़ा। वह केवल एक दिन डटा रह सका।

२० जून, १७५६ ई. को नवाब की फौजों ने किले पर कब्जा कर लिया। हालवेल के वर्णन के अनुसार १४६ अंग्रेज स्त्री और पुरुष, जिनमें वह भी सम्मिलित था, किले के अन्दर एक तंग अंधेरी कोठरी में, जिसमें हवा और पानी का कोई इंतजाम नहीं था, कैद कर दिये गये। दूसरे दिन सुबह उसमें केवल २३ कैदी, जिसमें वह भी था, जिंदा बचे। बाकी दम घुटने और प्यास से मर गये। हालवेल कैदी के रूप में मुर्सिदाबाद भेज दिया गया और १७ जलाई, १७५६ ई. को छोड़ा गया। अगले वर्ष फरवरी में वह छुट्टी पर इंग्लैंड चला गया और थोड़े समय बाद बंगाल कौंसिल का सदस्य बनकर वापस लौटा। २८ जनवरी से २७ जुलाई, १७६० ई. तक उसने गवर्नर की हैसियत से भी कार्य किया और वैन्सी टार्ट उसका उत्तराधिकारी बना। इसके बाद उसने कम्पनी की नौकरी से अवकाश ले लिया। १७६१ ई. में वैन्सी टार्ट के गवर्नर नियुक्त होने पर कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स को एक विरोध-पत्र भेजा गया जिस पर उसने भी हस्ताक्षर किया था। इसी पर उसे कम्पनी की नौकरी से निकाल दिया गया। हालवेल में लेखन प्रतिभा थी, परन्तु उसने 'अंधेरी कोठरी' की दुःखद कहानी का जो विवरण दिया है, उसकी सत्यता पर बहुत अधिक संदेह किया जाता है। (देखिये, 'अंधेरी कोठरी की दुखद घटना')

हालहेड का हिन्दू कानून : यह गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स के संरक्षण में तैयार किया गया। दस पंडितों के द्वारा स्मुतियों के आधार पर हिन्दू व्यवहार (कानून) पर एक ग्रंथ तैयार किया गया था और यह ग्रंथ उसी के फारसी रूपान्तरण का अंग्रेजी में अनुवाद था।

हिकी, जेम्स आगस्टस : भारत के प्रथम अंग्रेजी समाचार पत्र, बंगाल गजट का सम्पादक। यह पत्र १७८० ई. में प्रकाशित हुआ, परन्तु वारेन होस्टिंग्स ने १७८२ ई. में उसे बन्द कर दिया, क्योंकि उसमें सरकार और उसके अधिकारियों पर बराबर तीव्र आक्षेप किये जाते थे।

हिकी, थामस : एक चित्रकार, जो भारत चला आया। १७८८ ई. में उसने कलकत्ता से अंग्रेजी में 'चित्रकला और मूर्तिकला का इतिहास : प्राचीन वर्णनों के आधार पर' शीर्षक ग्रंथ प्रकाशित कराया। उसने १७९९ ई. में श्रीरंगपट्टम के ऐतिहासिक चित्र भी छापे। १८२२ ई. तक उसने बहुत से कलमी चित्र बनाये जो कलकत्ता के राजभवन में टँगे हैं।

हिजरी सन्  : मुसलमानी संवत्सर, जिसका प्रारम्भ ६२२ ई. में मुहम्मद साहब की हिज्रत से हुआ, जब वे मक्का छोड़कर मदीना जा बसे थे। यह चान्द्र वर्ष पर आधारित है जो ३५४ दिन का होता है और इसमें सौर वर्ष से ११ दिन कम होते हैं।

हिण्डाल, मिर्जा : मुगल बादशाह हुमायूँ (१५३०-३५ ई.) के तीन छोटे भाइयों में से एक। हुमायूँ उसके साथ उदारता का व्यवहार करता था, परन्तु वह अक्सर एहसान-फरामोश बन जाता था। जब हुमायूँ बंगाल में युद्ध कर रहा था, उस पर संचार मार्ग खुले रखने का भार डाला गया। परन्तु हिडाल ने अपना दायित्व पूरा नहीं किया। इस प्रकार १५३९ ई. में चौसा की लड़ाई में हुमायूँ की हार में उसका भी योगदान था। इसके बाद भी हुमायूँ ने उसे क्षमा कर दिया, परन्तु वह जब विपत्ति में पड़ा तो हिण्डाल ने उसकी मदद नहीं की। वह अपने बड़े भाई कामरान से मिल गया और हुमायूँ की सहायता करने से इनकार कर दिया। शीघ्र ही कामरान से भी वह झगड़ा कर बैठा और फिर हुमायूँ से आ मिला। हुमायूँ द्वारा दिल्ली की सल्तनत फिर से प्राप्त करने से पूर्व ही एक अफगान ने रात में हमला करके उसे मार डाला।

हिन्दी : भारतीय गणराज्य के संविधान में राष्ट्रभाषा घोषित और सर्वाधिक प्रचलित भारतीय भाषा। यह संस्कृत से निकली है और संस्कृत की तरह देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, परन्तु व्यवहार रूप में विभिन्न हिन्दी-भाषी क्षेत्रों में इसका अलग-अलग रूप प्रचलित है। यह बंगाल और आसाम को छोड़कर सारे उत्तरी भारत की बोलचाल की भाषा है। दक्षिण भारत में यह लोक-प्रचलित भाषा नहीं है, परन्तु वहाँ भी इसका शीघ्रता से प्रसार हो रहा है। इसका विशाल साहित्य है और हिन्दी का सबसे लोकप्रिय ग्रंथ तुलसीदास रचित 'रामचरितमानस' है। तुलसीदास सोलहवीं शताब्दी में हुए थे और बादशाह अकबर (१५५६-१६०५ ई.) के समकालीन थे।

हिन्दी लेखकों में प्रेमचंद (१८८०-१९३६) ने सबसे अधिक कथा-साहित्य लिखा है। हिन्दी के दो रूप हैं-एक पूर्वी हिन्दी, जो अवध तथा बघेलखंड में बोली जाती है; दूसरी पश्चिमी हिन्दी, जो गंगा के दोआब के मध्यवर्ती तथा उत्तरी भाग में बोली जाती है। भारतीय भाषा-भाषियों में हिन्दी-भाषियों की संख्या सबसे अधिक है।

हिन्दुस्तान : इसका अर्थ है हिन्दुओं का स्थान। इस शब्द का व्यवहार पेशावर से लेकर आसाम तक समस्त उत्तरी भारत के लिए किया जाता है। उत्तरी भारत पर मुसलमानों की विजय के बाद इसका प्रचलन हुआ। कभी कभी इस शब्द का व्यवहार व्यापक अर्थ में सारे भारत के लिए भी किया जाता है।

हिन्दू  : इसका अर्थ है हिन्दू धर्म को जाननेवाला। उसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह किसी विशेष मतमतान्तर का माननेवाला हो। सामाजिक जीवन में हिन्दू की बाहरी पहचान सिर्फ इस बात से होती है कि वह जाति-व्यवस्था को मानता है। परन्तु जाति-व्यवस्था की कड़ियाँ भी शीघ्रता से कमजोर पड़ती जा रही हैं।

हिन्दू कालेज : १८१६ ई. में कलकत्ता में राजा राममोहन राय और डेविड हेयर सदृश लोगों के प्रयत्न से इसकी स्थापना हुई इसका उद्देश्य देश के लोगों में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार करना था। यद्यपि लार्ड हेस्टिंग्स ने, जो उस समय गवर्नर-जनरल था, इस कालेज का संरक्षक होना स्वीकार कर लिया था, तथापि शुरू से इसकी स्थापना स्वदेश के लोगों के प्रयत्न से हुई थी। बाद में इसे सरकाऱ ने ले लिया और आगे चलकर यही प्रेसीडेंसी कालेज, बन गया।

हिन्दूकुश : हिमालय के पश्चिम में एक लम्बी और ऊँची पर्वतमाला। इसके उस पार मध्य एशिया का मैदान स्थित है। इसलिए इसे बहुधा भारत की प्राकृतिक सीमा माना जाता है, परन्तु ईसा पूर्व चौथी-तीसरी शताब्दी के थोड़े से काल को छोड़कर यह कभी भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत नहीं रहा।

हिन्दू धर्म : एक अनुपम धर्म। यह 'अपौरुषेय' कहा जाता है, अर्थात् किसी पुरुष विशेष ने इसकी स्थापना नहीं की। यह सनातन काल से चला आ रहा है। इसके मानने वालों के लिए किसी विशेष मत में विश्वास करना आवश्यक नहीं है। मूलतः यह एक ब्रह्म में विश्वास करता है जो सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है। परन्तु यह अपने अंक में उन लोगों को भी समेटे हुए है जो अनेक देवी-देवताओं में विश्वास करते हैं और उन लोगों को भी जो नास्तिक हैं। यह ईश्वर को निराकार मानता है, फिर भी मूर्ति पूजा को स्वीकार करता है। यह आत्मा में विश्वास करता है और मानता है कि कर्म के अनुसार उसका पुनर्जन्म होता रहता है। यह मोक्ष अथवा पुनर्जन्म से मुक्ति पा जाने में विश्वास करता है। यह मानता है कि ज्ञान तथा सत्कर्म से सभी दुःखों का अंत तथा मोक्ष की प्राति होती है। मोक्ष का अर्थ है आत्मा का परमात्मा से मिल जाना। यह मानता है कि यज्ञ से देवताओं को प्रसन्न करके उनका अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु यह यज्ञ से ज्ञान तथा भक्ति को श्रेष्ठ मानता है। यह सोsहं (जो वह है, मैं हूँ) की घोषणा करता है, परन्तु इसके साथ ही मनुष्य और ईश्वर के द्वैत भाव को भी स्वीकार करता है। हिन्दू धर्म की निष्ठा का बाह्य लक्षण जाति-व्यवस्था को स्वीकार करना तथा वेदों को अपौरुषेय मानना है। यद्यपि आधुनिक हिन्दू धर्म और प्राचीन वैदिक धर्म में बहुत अधिक अंतर है।

हिन्दू धर्म : यह प्रचलित धारणा ऐतिहासिक दृष्टि से गलत है कि हिन्दू धर्म दूसरे धर्मावलम्बियों को अपने में अंगीकृत नहीं करता। प्राचीन पुरातत्त्वपरक और साहित्यिक सामग्री से प्रकट होता है कि प्राचीन काल में भारत पर आक्रमण आक्रमण करनेवाले और यहाँ बस जानेवाले बहुत से यवनों, शकों, गुर्जरों तथा हूणों को हिन्दू धर्म में दीक्षित कर लिया गया। इधर हाल में अहोम लोगों को, जो तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ में भारत आये और आसाम में बस गये, सोलहवीं शताब्दी में सामूहिक रूप से हिन्दू धर्म में अंगीकृत कर लिया गया। ऐतिहासिक दृष्टि से यह कहना भी गलत है कि हिदू धर्म सदैव भारतवर्ष के भीतर सीमित रहा। अकाट्य प्रमाणों से सिद्ध होता है कि इस्लाम के आगमन से पूर्व हिन्दू धर्म पश्चिम में मैडागास्कर तक तथा पूर्व में मलय प्रायद्वीप, जावा, सुमात्रा, चम्पा (अनाम) तथा कम्बोडिया तक फैल गया था। इन देशों में हिन्दू प्रवासियों ने जाकर अपना राज्य स्थापित किया, और वहाँ अपने धर्म, अपने दर्शन, अपनी पवित्र संस्कृत भाषा और अपनी कला का प्रसार किया। जावा से लेकर कम्बोडिया तक भारतीय वास्तुकला के सुन्दर नमूने मिलते हैं।

हिन्दू धर्म अपने अंक में कई मतों को समेटे हुए है, जिनमें शैव, शाक्त और वैष्णव मुख्य हैं। ये सभी मतावलम्बी वेदों को प्रमाण मानते हैं। हिन्दू दर्शन का आधार उपनिषद् (दे.) हैं। भगवद्गीता में सभी-दर्शनों का सार मिल जाता है और षड्दर्शनों (दे.) में उसका विस्तार मिलता है। रामायण तथा महाभारत, इन दो महाकाव्यों में हिन्दू धर्म के धार्मिक और सामाजिक विचारों तथा आदर्शों का वर्णन मिलता है और प्रत्येक हिन्दू इन ग्रंथों का बड़ा आदर करता है।

हिन्दू धर्म की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता उसकी सहिष्णुता है। वह हर धर्म के प्रति सहिष्णुता का भाव रखता है और ईसाई धर्म के अंतर्गत रोमन कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेण्ट लोगों तथा इस्लाम धर्म और दूसरे धर्म के अनुयायियों के बीच जिस प्रकार की खूनी लड़ाइयाँ हुईँ, वह हिन्दू धर्म की भावना के विपरीत है। हिन्दू देवी देवताओं की उपासना के लिए सारे भारतवर्ष में अनेकानेक मंदिर निर्मित किये गये हैं, परन्तु हिन्दू धर्म में उपासना के लिए मंदिर की खास आवश्यकता नहीं है। हिन्दू धर्म में उपासना का आधार वैयक्तिक है, यद्यपि सामूहिक उपासना भी प्रचलित है। वस्तुतः हिन्दू धर्म अपने अनुयाययों को इस बात की बहुत अधिक छूट देता है कि चाहे जिस रूप में और चाहे जिस स्थान पर उपासना और प्रार्थना की जाय।

हिन्दू पद पादशाही : दूसरे पेशवा बाजीराव प्रथम (१७२०-४० ई.) का लक्ष्य इसकी स्थापना करना था। इसका अर्थ था भारत पर मुसलमानी शासन समाप्त करने के लिए सभी हिन्दू राजाओं का एक हो जाना। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक था कि मराठे, जो उस समय धीरे-धीरे प्रमुखता प्राप्त करते जा रहे थे, अन्य सभी हिन्दू राजाओं के साथ मैत्रीपूर्ण, उदारतापूर्ण तथा बराबरी का व्यवहार करते ताकि स्वराज्य की स्थापना में सभी हिन्दू भागीदार बन सकते। परन्तु तीसरे पेशवा बालाजी बाजीराव (१७४०-६१ ई.) ने इस नीति को जानबूझ कर त्याग दिया और उसने केवल मराठों की प्रमुखता स्थापित करने का प्रयास किया। उसने हिन्दू राजाओं और उनकी हिन्दू प्रजा को भी उसी प्रकार लूटना और उनके साथ निर्दयता का व्यवहार करना शुरू कर दिया, जिस प्रकार मुसलमान शासकों के साथ बर्ताव किया जाता था। फल यह हुआ कि हिन्दू पद-पादशाही की स्थापना का विचार समाप्त हो गया।

हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस : पंडित मदन मोहन मालवीय के प्रयत्नों से इसकी स्थापना १९१५ ई. में हुई। उन्होंने कुछ समय पूर्व एनी बेसेन्ट द्वारा स्थापित सेण्ट्रल हिन्दू कालेज को ही विश्वविद्यालय का रूप दे दिया। मालवीयजी ने विश्वविद्यालय के निर्माणार्थ रुपया इकठ्ठा करने के लिए सारे भारत का भ्रमण किया और देशी नरेशों से भी काफी आर्थिक सहायता प्राप्त की। यह भारत में गैर-सरकारी प्रयत्नों से स्थापित पहला विश्वविद्यालय था जिसका नाम एक सम्प्रदाय से जुड़ा था। अब इसे केन्द्रीय सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है।

हिमालय : भारत और तिब्बत के बीच की पर्वत्-श्रुंखलाओं का नाम है। इसके पश्चिमी बाजू पर सिंधु नद और पूर्वी बाजू पर ब्रह्मपुत्र नद है। इन पर्वत्-श्रुंखलाओं की लम्बाई १५०० मील और चौड़ाई १०० से १५० मील है। सबसे ऊँचा इसका शिखर एवरेस्ट (या सागरमाथा) है। इसका कुछ भाग वर्ष के बारहों महीने हिमाच्छादित रहता है। हिमालय कई नदियों का उद्गम-स्थल है, जिनमें सिन्धु, सतलज, गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, कोसी, गंडक तथा सुवर्णश्री मुख्य हैं। हिमालय प्रदेश में अत्यधिक गर्म-जलवायु से लेकर अत्यधिक ठंडी जलवायु मिलती है। यहाँ पर अनेक प्रकार के पशु और अनेक प्रकार की वनस्पस्तियाँ मिलती हैं। हिमालय ने भारतीय राजनीति, भारतीय दर्शन तथा भारतीय धर्म को सर्वाधिक प्रभावित किया है। उत्तर में इसने एक प्रकार से भारत की दुर्लंघ्‍य रक्षापंक्ति का निर्माण कर दिया है। इसकी धूसरता, गरिमा तथा विशालता के कारण हिन्दू लोग इसको देवताओं का वासस्थान मानने लगे और इसने हिन्दू दर्शन और धर्म को विशिष्ट दिशा प्रदान की। इसने सभी युगों के हिन्दू साहित्य को प्रभावित किया है।

हिम्मत बहादुर : शस्त्रधारी दशानामी गोसाँइयों के एक सम्प्रदाय का नेता, जिसने महादजी शिन्दे की सहायता की।

हिसलय, सर थामस : मद्रासी सेना का प्रधान सेनापति (१८१४-२० ई.) होकर भारत आया और पेंढारियों के युद्ध (१८१७-१८ ई.) में दक्षिण में अंग्रेजी सेना का सेनापतित्व किया। इस युद्ध में पेंढारियों को कुचल दिया गया। उसने महीदपुर की लड़ाई (१८१७ ई.) में होल्कर को भी हराया। वह चाहता था कि युद्ध में जो लूटपाट की गयी थी, उसका सारा हिस्सा दक्खिनी सेना को मिले। इसके फलस्वरूप मुकदमेबाजी हुई और उसे लूटपाट की सामग्री में उत्तरी भारत की सेना को भी हिस्सा देना पड़ा।

हीनयान : बौद्धधर्म के पश्चात्यकालीन महायान सम्प्रदाय से अन्तर दिखाने के लिए उसके प्रारम्भिक रूप को हीनयान कहते हैं। हीनयान के अनुसार बौद्धधर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध महामानव थे, जो हमारे आदर और सम्मान के पात्र हैं। परन्तु महायान की तरह वह उन्हें अलौकिक व अमानव रूप नहीं प्रदान करता। हीनयान में भिक्षु का चरम लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति माना जाता है और अष्टांगिक मार्ग पर आरूढ़ होकर चार आर्य सत्यों में विश्वास करते हुए उसकी प्राप्ति का प्रयत्न करना होता है। ('बौद्ध धर्म' के अंतर्गत भी देखिये)

हुगली : कलकत्ता से कुछ मील उत्तर, हुगली नदी के तट पर स्थित एक कसबा। इसके उत्तर में सतगाँव (सप्तग्राम) स्थित था जो सोलहवीं शताब्दी में बंगाल की एक मंडी थी। पुर्तगाली लोग १५५९ ई. में मुगलों ने हुगलीकी पुर्तगाली बस्ती को घेर कर उसपर कब्जा कर लिया। इसके बाद हुगली नगर की अवनति होने लगी। इसी के पास में बाद में डेनमार्कवालों ने श्रीरामपुर, डच लोगों ने चिनसुरा तथा फ्रेंच लोगों ने चन्द्रनगर की बस्तियाँ बनायीं।

हुगली : गंगा को बंगाल की खाड़ी से जोड़नेवाली नदी। इसे भागीरथी भी कहते हैं। इसके तट पर कलकत्ता, हुगली, चिनसुरा जैसे महत्त्वपूर्ण नगर स्थित हैं। इस नदी के दोनों तटों पर अब बहुत से कारखाने, विशेष रूप से जूट मिलें स्थापित हो गयी हैं।

हुमायूँ, बहमनी : बहमनी वंश (दे.) का ग्यारहवाँ सुलतान। उसने १४५७ से १४६१ ई. के बीच राज्य किया। वह इतना अत्याचारी था कि उसका उपनाम ही 'जालिम' पड़ गया।

हुमायूँ, बादशाह : मुगल वंश के प्रवर्तक बाबर का लड़का और उत्तराधिकारी। हुमायूँ ने १५३० ई. से १५४० ई. तक और फिर १५५५ से १५५६ ई. तक शासन किया। वह इतना बली और दृढ़-संकल्प नहीं था कि उसके पिताने भारत में जो साम्राज्य जीता था, उसपर वह अपना अधिकार मजबूत बना सकता। उसने अपना शासन अच्छे ढंग से प्रारम्भ किया और १५३५ ई. में मालवा और गुजरात पर स्वयं चढ़ाई करके उसे जीत लिया। परन्तु उसने मेवाड़ के राजपूतों का सुलह का प्रस्ताव नामंजूर करके बुद्धिमानी का कार्य नहीं किया। इतना ही नहीं, नये जीते हुए राज्यों पर अपना आधिपत्य मजबूती से स्थापित करने से पूर्व ही वह आगरा जाकर रंगरेलियों में डूब गया। इसका फल यह हुआ कि मालवा और गुजरात अगले ही साल उसके हाथ से निकल गये।

इस बीच बिहार और बंगाल में एक अफगान सरदार, शेर खाँ (दे.) प्रबल हो गया और १४३७ ई. में हुमायूँ ने उस पर हमला बोल दिया। परन्तु रणचातुरी तथा युद्ध की पैंतरेबाजी में उसने पूरी तरह मात खायी और शेर खाँ ने १५३९ ई. में गंगा के तट पर चौसा की लड़ाई में हुमायूँ को हरा दिया। फलस्वरूप बंगाल और बिहार हुमायूँ के हाथ से निकल गये। १५४० ई. में हुमायूँ ने शेर खाँ की ताकत को कुचलने का दूसरा प्रयत्न किया, परन्तु कन्नौज की लड़ाई में फिर उसकी हार हुई। हुमायूँ को अपनी राजधानी और गद्दी दोनों से हाथ धोकर भागना पड़ा। विजयी शेर खाँ की फौजें उसका पीछा करती रहीं। उसने अब शेरशाह के नाम से अपने को दिल्ली का बादशाह घोषित कर दिया।

हुमायूँ खानाबदोशों की तरह पहले सिंध की तरफ भागा और वहाँ समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया, फिर मेवाड़ की तरफ भागा और जब वहाँ भी समर्थन न मिला तो दुबारा सिंध की तरफ भागा। विपत्ति के इन्हीं दिनों में उसने हमीदा बानू बेगम से शादी की, और उसी के गर्भ से १५४२ ई. में उसका प्रसिद्ध पुत्र अकबर पैदा हुआ।

हुमायूँ बड़ी कठिनाई से १५४४ ई. में फारस पहुँचा और वहाँ के शाह ताहमस्प ने उसको शरण दी। हुमायूँ ने अपने को शिया (दे.) घोषित कर दिया और शाह ताहमस्प ने उसे फौजी सहायता प्रदान की। इस मदद से हुमायूँ ने १५४५ ई. में अपने बेवफा भाई कामरान से कन्दहार और काबुल छीन लिया। इस प्रकार अफगानिस्तान फिर से उसके आधिपत्य में आ गया। वह वहाँ उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करता रहा। १५५५ ई. में, जब शेरशाह के उत्तराधिकारी आपस में लड़ रहे थे, उसने भारत पर चढ़ाई कर दी और फरवरी में लाहौर पर कब्जा कर लिया। इसके बाद सरहिन्द की लड़ाई में पंजाब के बागी सूबेदार सिकन्दर सूर को हराने के बाद उसने उसी साल जुलाई में दिल्ली और आगरा ले लिया। परन्तु दिल्ली में अपने कुतुबखाने (पुस्तकालय) की सीढ़ियों से अकस्मात् गिर पड़ने से जनवरी १५५६ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

हुलागू : एक मंगोल सरदार, जिसका सुलतान मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१ ई.) ने पहले स्वागत किया और पंजाब में लाहौर में उसे एक जागीर प्रदान की। १३३५ ई. में जब सुल्तान दिल्ली से बाहर था, उसने बगावत कर दी और अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया। परन्तु शीघ्र ही सुल्तान की फौज ने, जिसका नेतृत्व उसका वजीर ख्वाजा जहाँ कर रहा था, उसे हरा दिया। हुलागू देश से बाहर भाग गया और उसके समर्थक निर्दयतापूर्वक मार डाले गये। यह बगावत मुहम्मद तुगलक की सल्तनत के टूटने की पहली निशानी थी।

हुविष्क : कुषाण राजा कनिष्क (लगभंग १२०-६२ ई.) का लड़का और उत्तराधिकारी। उसने लगभग १६२-१८० ई. तक राज्य किया। उसके सिक्के बहुत अधिक संख्या में और विविध प्रकार के मिलते हैं। इससे मालूम पड़ता है, वह कनिष्क द्वारा जीते गये विस्तृत साम्राज्य पर राज्य करता था। उसके सिक्कों पर यूनानी, ईरानी तथा भारतीय देवताओं के चित्र मिलते हैं। इससे संकेत मिलता है कि वह सभी धर्मों के प्रति आदरभाव रखता था। उसके राज्यकाल की घटनाओं का कोई विवरण प्राप्त नहीं है।

हुशंग शाह : मालवा का सुल्तान (१४०६-३५ ई.)। उसका मूल नाम अल्पशाह (दे.) था। उसने अपनी राजधानी मांडू में कई सुन्दर भवन बनवाये।

हुसेन, अमीर : मिस्र के उस बेड़े का कमांडर जो पुर्तगालियों से लोहा लेने में गुजरात के सुल्तान महमूद बेगड़ा (१४५९-१५११ ई.) की मदद करने के लिए आया। उसने सुल्तान के बेड़े के साथ मिलकर १५०८ ई. में चौल की लड़ाई में पुर्तगाली बेड़े को हरा दिया। परन्तु अगले साल उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा और ड्यू के निकट समुद्री लड़ाई में पुर्तगालियों ने उसका बेड़ा नष्ट कर दिया।

हुसेन अली : सैयद बंधुओं में छोटे भाई का नाम हुसेन अली और बड़े भाई का नाम हसन अली अब्दुल्ला था। उसने अपने चाचा जहाँदार शाह को हराकर उसके स्थान पर बादशाह फर्रुखशियर (१७१२-१३ ई.) को गद्दी पर बैठाने में मदद दी। दिल्ली की बादशाहत पर दोनों भाइयों का भारी प्रभाव था। हुसेन अली मीर बख्शी बना दिया गया। उसने मारवाड़ के विद्रोह का दमन किया और दक्खिन का सूबेदार नियुक्त हुआ। १७१८ ई. में यह सुनकर कि बादशाह उसे तथा उसके भाई को मरवा डालने की साजिश कर रहा है, वह दिल्ली लौट आया। सैयद बंधुओं ने फर्रुखशियर की आँखें फोड़ दीं और उसे गद्दी से हटा दिया (१७१९)। अगले सात महीनों में सैयद बंधु ने एक के बाद एक, चार कठपुतली शासकों को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया और थोड़े समय बाद उन्हें गद्दी से उतार दिया और मार डाला। इस तरह दिल्ली के बादशाह बनाना या बिगाड़ना वस्तुतः उनके हाथ में था। अन्त में जैसे को तैसा मिला। १७१९ ई. में हुसेन अली ने मुहम्मदशाह को बादशाह बनाया और उसने १७२० ई. में उसे मरवा डाला।

हुसेन निजाम शाह : अहमद नगर के निजाम शाही वंश (दे.) का तीसरा सुल्तान। उसने १५५३ से १५६५ ई. तक राज्य किया तथा विजय नगर साम्राज्य के विरुद्ध गोलकोंडा और बीजापुर के सुल्तानों से सुलह कर ली और १५६५ ई. में तालीकोट की लड़ाई में हिस्सा लिया। इस लड़ाई में मुसलमानी सेना की विजय हुई। परंतु हुसेन निजाम शाह की उसी साल मृत्यु हो गयी और वह इस विजय से कोई लाभ न उठा सका।

हुसेन शाह : अहमद नगर का एक शाहजादा, जिसे विश्वासघाती वजीर फतह खाँ ने १६३० ई. में अहमद नगर की गद्दी पर बैठाया। परन्तु १६३१ ई. में मुगलों ने अहमद नगर पर कब्जा कर लिया और उसे मुगल साम्रज्य में सम्मिलित कर ला। शाहजादा हुसेन शाह ग्वालियर के किले में कैद कर दिया गया और उसके पतन के बाद अहमद नगर के स्वतंत्र राज्य का अंत हो गया।

हुसेन शाह : बंगाल का सुल्तान, जिसने १४९३ से १५१९ ई. तक शासन किया। वह पहले बंगाल के सुल्तान शम्सुद्दीन (दे.) का बड़ा वजीर था। शम्सुद्दीन बड़ा जालिम था, इसलिए सरदारों ने उसे मार डाला और हुसेन शाह को बंगाल की गद्दी पर बैठाया। उसने अपना नाम सुल्तान अलाउद्दीन हुसेन शाह रखा तथा हुसेन शाह वंश का आरंभ किया, जो १४९३ से १५३९ ई. तक बंगाल पर शासन करता रहा।

हुसेन शाह  : जौनपुर के शर्की वंश का अंतिम सुल्तान (१४५७-७६ ई.)। उसने गद्दी पर बैठने के बाद ही दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी (दे.) से सुलह कर ली। इसके बाद उसने तिरहुत के जमींदारों का दमन किया, उड़ीसा में घुस कर लूटमार की और ग्वालि‍यर के राजा मान सिंह पर चढ़ाई कर दी और उससे भारी हर्जाना वसूल किया। परंतु १४७६ ई. में सुल्तान बहलोल लोदी ने उसे हरा दिया और जौनपुर से खदेड़ दिया। उसने बंगाल के सुल्तान हुसेन शाह की शरण ली और अपने अंतिम दिन बिहार में भागलपुर के निकट कोलगांग में बिताये। उसकी मृत्यु १५०० ई. में हुई।

हुगेल, बैरन कार्ल वान : एक जर्मन यात्री, जो १८३५ ई. में पंजाब के महाराज रणजीत सिंह (दे.) के दरबार में आया। वह रणजीत सिंह को एक शक्तिशाली राजा मानता था, क्योंकि अपने राज्य पर उसका पूरा नियंत्रण था और उसने आपसी लड़ाई-झगड़ों को समाप्त कर दिया था।

हूण : मध्य एशिया के यायावर (खानाबदोश), जिन्होंने पाँचवीं शताब्दी ईसवी में भारत पर आक्रमण आरंभ किये। हूणों का पहला बड़ा आक्रमण पांचवीं शताब्दी के मध्य में हुआ। स्कन्द गुप्त (४५५-६७ ई.) ने ४५५ ई. में उन्हें पीछे ढकेल दिया। परंतु बाद के वर्षों में उन्होंने और बड़ी संख्या में आक्रमण किया और गुप्त सम्राट् को इतने संकट में डाल दिया कि उसे अपने सिक्कों में मिलावट करनी पड़ी। हूणों के आक्रमण ने दुर्धर्ष रूप ले लिया और उनका नेता तोरमाण ५०० ई. के आसपास मालवा का स्वतंत्र शासक बन गया। उसका लड़का तथा उत्तराधिकारी एक पापाचारी कराल सेनापति था। उसने पंजाब में साकल अथवा स्‍यालकोट को अपनी राजधानी बनाया। उसने चारों ओर आतंक फैला दिया और सभी लोग उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगे। अंत में मालवा के राजा यशोधर्मा और बालादित्य (जिसकी पहचान मगध के गुप्त राजा नरसिंह से की जाती है) के संयुक्त प्रयत्न से ५२८ ई. के आसपास उसे परास्त कर दिया गया। पराजित हूण भारत में बस गये और भारतीय बन कर हिन्दू धर्म में दीक्षि‍त हो गये। आठवीं शताब्दी और उसके बाद जिन बहुत-सी राजपूत जातियों ने प्रमुखता प्राप्त की, उनके बारे में विश्वास किया जाता है कि उनकी उत्पत्ति हूणों से हुई थी।

हेमंत सेन : बंगाल के सेन वंश का दूसरा राजा। वह ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राज्य करता था। उसने 'महाराजाधिराज' की उपाधि धारण कर रखी थी, परंतु वह उतना शक्तिशाली नहीं था जितना इस उपाधि से सूचित होता है। उसकी गतिविधियों के बारे में हमें बहुत थोड़ी जानकारी प्राप्त है।

हेमचन्द्र : एक विशिष्ट विद्वान् और जैन आचार्य (१०८८-११७२ ई.), जिसके ग्रंथ 'त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र' में तिरसठ महापुरुषों की जीवनी दी गयी है। इसके परिशिष्ट भाग का नाम 'परिशिष्ट पर्व' है। इसमें जिन स्थविरों के नाम आये हैं, उन्हें कुछ हद तक ऐतिहासिक व्यक्ति माना जाता है।

हेमाद्रि : प्रसिद्ध धर्मशास्त्रकार, जो दक्षिण भारत में हुआ। उसे वारंगल के यादव राजाओं का आश्रय प्राप्त था। १२६० और १३०९ ई. के बीच किसी समय उसने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ 'चतुर्वर्गचिंतामणि' लिखा जिसमें व्रत, दान, तीर्थयात्रा, मोक्ष-प्राप्ति, श्राद्ध आदि के विशद नियम वर्णित हैं।

हेमू-बाद में राजा विक्रमाजीत : मेवात के रेवाड़ी नामक स्थान में एक वैश्य परिवार में उत्पन्न हुआ। अपनी योग्यता के कारण वह शेरशाह द्वारा स्थापित सूर वंश के तीसरे राजा आदिल शाह (१५५४-५६ ई.) का दीवान बन गया गया। हुमायूँ ने जब १५५५ ई. में दिल्ली पर फिर से दखल कर लिया, आदिलशाह चुनार में था और उसने उत्तरी भारत का सारा भार हेमू पर छोड़ रखा था। १५५५ ई. में हुमायूँ की मृत्यु हो जाने पर हेमू ने ग्वालियर से आगे बढ़ कर आगरा और दिल्ली पर कब्जा कर लिया। इससे उसकी महत्त्वाकांक्षा जाग्रत हो उठी और उसने राजा विक्रमाजीत के नाम से अपने को स्वतंत्र राजा घोषित कर दिया। इस प्रकार वह अकबर का सबसे बड़ा प्रतिद्वन्द्वी बन गया।

५ नवम्बर १५५६ ई. को पानीपत का दूसरा-युद्ध हुआ। हेमू बड़ी बहादुरी से लड़ा और उसने अपनी सेना का नायकत्व बड़ी कुशलता से किया। परंतु एक घटना के कारण अकबर विजयी हो गया। एक तीर हेमू की आँख में घुस गया और वह अचेत हो गया। उसके गिरते ही उसकी सेना में, जिसमें अफ़गान, पठान, और हिन्दू सैनिक थे और जिनको उसने अपने कुशल नेतृत्व तथा धन के बल पर संयुक्त कर रखा था, भगदड़ मच गयी और हेमू बंदी बना लिया गया। उसे किशोर अकबर के सम्मुख ले जाया गया, जिसने अपने संरक्षक बैराम खाँ के कहने से तलवार से उसका सिर धड़ से उड़ा कर उसे मार डाला।

हेयर, डेविड (१७७५-१८४२ ई.)  : भारत में रहनेवाले जिन मुट्ठीभर अंग्रेजों ने भारतीयों की भलाई में अपना समय और शक्ति लगायी, उनमें से एक था। उसने भारत में पश्चिमी शिक्षा का प्रसार करने के लिए विशेष उद्योग किया। वह स्काटलैंड का निवासी घड़ीसाज था, जो १८०० ई. में कलकत्ता आया और घड़ियों की मरम्मत के काम में दक्षता प्राप्‍त कर ली। १८१६ ई. में उसने अपना कारोबार एक सम्बन्धी को सौंप दिया और स्वयं अपना सारा समय कलकत्ता में रहनेवाले भारतीयों के बीच परोपकार में बिताने लगा। उसने एक अंग्रेजी स्कूल की स्थापना के लिए विशेष उद्यम किया और मुख्य रूप से उसी के प्रयत्नों से २० जनवरी १८१७ ई. को हिन्दू कालेज की स्थापना हुई। अगले साल उसने अंग्रेजी तथा बंगला पुस्तकों के मुद्रण तथा प्रकाशन के लिए 'स्कूल बुक सोसाइटी' की स्थापना की।

उसने समाचारपत्रों की स्वाधीनता के विरुद्ध बनाये गये नियमों को रद्द कराने के लिए भारी दौड़धूप की और १८३५ ई. में सर चार्ल्स मेटकाफ के प्रशासन-काल में उसे इस कार्य में सफलता मिली। उसने सुप्रीम कोर्ट में जूरियों की सहायता से मुकदमे की सुनवाई की प्रथा चलाने के लिए भी भारी प्रयत्न किया और उसका यह प्रयत्न भी बाद में सफल हुआ। १८४२ ई. में कलकत्ता में हैजे से उसकी मृत्यु हुई। उसकी परोपकारिता, दयालुता और उदारता ने कलकत्ता के लोगों को इस सीमा तक प्रभावित या कि उन्होंने चंदा करके उसकी संगमरमर की एक मूर्ति बनवायी, जो कलकत्ता के एक केन्द्रीय स्थान में स्थापित है। उसकी स्मृति में उसके नाम से एक स्कूल की भी स्थापना की गयी है।

हेरात : अफगानिस्तान का एक प्रान्तीय नगर। यह जिस प्रान्त की राजधानी था, उसे ग्रीक लोग एरिया कहते थे। यह प्रदेश हिन्दूकुश के ठीक पूर्व में है और सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उत्तर-पश्चिम में इसे भारतवर्ष की प्राकृतिक सीमा माना जाता है। ईसवी पूर्व छठीं शताब्‍दी में यह फारस के साम्राज्य के अन्तर्गत था। ईसवी पूर्व चौथी शताब्दी में सेलेउकस ने यह प्रदेश चन्द्रगुप्त मौर्य को दे दिया और मौर्य साम्राज्य के अन्त तक उसके अधीन रहा। इसके बाद ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में इस उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र पर यवन और पार्थियन राजाओं का राज्य हो गया। इसके बाद हेरात कभी भारतीय साम्राज्य के अन्तर्गत नहीं रहा। फारस और अफगानिस्तान के बीच इस प्रदेश के लिए बराबर लड़ाइयाँ होती रहीं। अन्त में १८६३ ई. में दोस्त मुहम्मद ने इसे अपने राज्य में मिला लिया। अंग्रेज राजनीतिज्ञों और युद्ध विशारदों का अग्रसर नीति का पोषक दल शुरू से इस पक्ष में रहा कि इस भू-भाग को अपने अधिकार में कर लेना चाहिए। इसी उद्देश्य से पहला और दूसरा अफगान-युद्ध (दे.) हुआ, परन्तु इस नीति में सफलता न मिल सकी। उत्तर-पश्चिम में प्राकृतिक सीमा की नीति के पोषकों का मनोरथ कभी पूरा नहीं हो सका।

हेलिओक्लीज : बैक्ट्रिया का अन्तिम यवन राजा। उसका काल लगभग १४०-१३० ई. पू. माना जाता है।

हेलियोडोरस : दिया (दियोन) का पुत्र और तक्षशिला का निवासी। पाँचवें शुङ्ग राजा काशीपुत भागभद्र के राज्यकाल के चौदहवें वर्ष में तक्षशिला के यवन राजा एण्टिआल्कीडस (लगभग १४०-१३० ई. पू.) का दूत बनकर वह विदिशा आया। हेलियोडोरस यवन होते हुए भी भागवत धर्म का अनुयायी हो गया था। उसने देवाधिदेव वासुदव (विष्णु) का एक गरुड़-स्तम्भ बनवाया। यह सारी सूचना उक्त स्तम्भ पर अंकित है, जिससे प्रकट होता है कि हेलियोडोरस को महाभारत का परिचय था। यह स्तम्भ-लेख महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इससे प्रकट होता है कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में यवनों ने हिन्दू धर्म अंगीकार कर लिया था। इससे वैष्णव धर्म के क्रमिक विकास पर भी प्रकाश पड़ता है।

हेविट, जनरल : मई १८५७ ई. में जब गदर शुरू हुआ, मेरठ की छांवनी में भारतीय और ब्रिटिश सेनाओं का कमाण्डर। यद्यपि उसके आधीन २,२०० यूरोपीय सैनिक थे, फिर भी उसने विप्लवियों का दमन करने का कोई प्रयत्न नहीं किया। विप्लवी पलटनों ने दिल्ली की ओर कूचकर उस पर कब्जा कर लिया।

हेस्टिंग्स : फ्रांसिस रावडन, अर्ल आफ मोयरा, मार्क्विस आफ हेस्टिंग्स, जो लार्ड हेस्टिंग्स के नाम से विख्यात है। लार्ड मिण्टो प्रथम के बाद १८१३ से १८२३ ई. तक वह भारत का गवर्नर-जनरल रहा। ५९ वर्ष की उम्र में उसने यह पद ग्रहण किया। वारेन हेस्टिंग्स (१७७४-१७८५ ई.) के बाद उसने सबसे दीर्घ कालतक शासन किया। उसके प्रशासन-काल में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार दक्षिण में केप कमोरिन से लेकर उत्तर-पश्चिम में सतलज नदी तक हो गया, अर्थात् पूर्व में आसाम तथा पश्चिम में सिंध तथा पंजाब को छोड़कर सारे भारत में वह विस्तृत हो गया। यह साम्राज्य-विस्तार तीन बड़ी लड़ाईयों नेपाल-युद्ध (१८१४-१६ ई.), पेंढारी-युद्ध (१८१७-१९ ई.) तथा तीसरे मराठा-युद्ध (१८१७-१९ ई.) की सफलता के फलस्वरूप हुआ। वह गवर्नर-जनरल होने के साथ-साथ भारत की ब्रिटिश सेना का प्रधान सेनापति भी था। उसने तीनों लड़ाइयों का संचालन बड़ी कुशलता से किया, जिससे उनमें भारी सफलता मिली।

हेस्टिंग्स : नेपाल-युद्ध (दे.) का अन्त सगौली की सन्धि से हुआ, जिसके फलस्वरूप शिमला तथा उसके आस-पास का क्षेत्र ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बन गया। इस सन्धि के बाद नेपाल के साथ जिन मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना हुई, वे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंत तक बने रहे। पेंढारी-युद्ध (दे.) के फलस्वरूप तीसरा मराठा-युद्ध (दे.) हुआ, जिसमें शिन्दे की सेनाओं को दूसरी मराठा सेनाओं से मिलने से रोककर शक्तिहीन बना दिया गया। पेशवा बाजीराव को १८१७ ई. में खड़की और १८१८ ई. में आष्टी की लड़ाइयों में, भोंसले राजा अप्पा साहब को १८१७ ई. में सीताबल्डी और नागपुर की लड़ाइयों में तथा शिन्दे को १८१७ ई. में महीदपुर की लड़ाइयों में हरा दिया गया तथा १८१८ ई. में असीरगढ़ सर कर लिया गया। इस युद्ध के फलस्वरूप पेंढारियों की शक्ति समाप्त हो गयी, पेशवाशाही का अन्त हो गया, शिवाजी के एक वंशज को सतारा का राजा तथा अंग्रेजों द्वारा मनोनीत एक बालक को भोंसले की गद्दी पर बिठा दिया गया, होल्कर तथा शिन्दे के राज्यों का बहुत-सा हिस्सा उनके आधिपत्य से ले लिया गया, उन्हें आदेश दिया गया कि वे राजपूत राज्यों में कोई हस्तक्षेप न करें और उन सभी राज्यों को अंग्रेजों से आश्रित संधियाँ करने पर विवश कि‍या गया। इन घटनाओं के फलस्वरूप सतलज तथा सिन्ध के पूर्व में अंग्रेजों का पूर्ण प्रभुत्व स्थापित हो गया। भारत में अंग्रेजों को जो नया रुतबा हासिल हो गया था, उसका पता इस बात से लगता है कि लार्ड हेस्टिंग्स ने दिल्ली के नाममात्र के मुगल सम्राट् को नजर पेश करने की प्रथा बन्द कर दी। लार्ड हेस्टिंग्स से पहले के सभी गवर्नर-जनरल दिल्ली के मुगल सम्राट् को नजर पेश करते थे। लार्ड हेस्टिंग्स ने समुद्री डाकुओं का भी दमन किया, जो भारत के पश्चिमी समुद्र तट पर तथा फारस की खाड़ी तथा लाल सागर में लूट-पाट किया करते थे। अन्त में १८१९ ई. में लार्ड हेस्टिंग्स ने मलय प्रायद्वीप के छोर पर स्थित सिंगापुर द्वीप पर कब्जा कर लिया, जिससे पूर्वी एशिया का सामरिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण प्रवेश-द्वार ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन हो गया।

लार्ड हेस्टिंग्स ने कलकत्ता में अनेक सुधार किये, दिल्ली में पानी की उत्तम व्यवस्था की, सड़कों और पुलों को दुरुस्त कराया, भारतीयों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया, लार्ड कार्नवालिस (दे.) ने मालगुजारी वसूली को न्याय कार्य से अलग करने के लिए कलक्टर और न्यायाधीश के पदों को जो अलग-अलग कर दिया था उसे समाप्त कर दिया, न्यायालयों की संख्या बढ़ा दी, मद्रास में मालगुजारी की वसूली के लिए रैयतवारी प्रथा चलायी, बंगाल में जहाँ स्थायी बन्दोबस्त के फलस्वरूप किसान पूरी तरह से जमींदारों की दया पर आश्रित थे, उन्हें कुछ सीमा तक सुरक्षा प्रदान की तथा १७९९ ई. में समाचार-पत्रों पर लागू की गयी सेंसर प्रथा समाप्त कर दी। लार्ड हेस्टिंग्स का प्रशासन-काल बड़ा गौरवपूर्ण रहा, परन्तु अन्त में उस पर कलंक का एक धब्बा लग गया। लार्ड हेस्टिंग्स की साहूकारी का काम करनेवाली पामर एण्ड कम्पनी पर बड़ी कृपादृष्टि रहती थी। उसके एक साझीदार की शादी जिस रमणी से हुई थी, गवर्नर-जनरल उसका अभिभावक था। यद्यपि कम्पनी के संचालकों ने निर्णय दिया कि लार्ड हेस्टिंग्स ने भ्रष्टाचार की नीयत से कोई कार्य नहीं किया तथापि उन्होंने उसके कार्यों की निन्दा अवश्य की। लार्ड हेस्टिंग्स ने इस्तीफा दे दिया और वह १८२३ ई. में इंग्लैंड वापस लौट गया। १८२६ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

हेस्टिंग्स, वारेन (१७३२-१८१८ ई.)  : बंगाल का पहला गवर्नर-जनरल था। उसका जन्म एक साधारण घराने में हुआ था। अपने चाचा की सहायता से उसने शिक्षा प्राप्त की। १८ साल की उम्र में एक लिपिक की हैसियत से ईस्ट इंडिया कम्पनी की नौकरी कर ली और १७५० ई. में कलकत्ता पहुँचा। कम्पनी की एक फैक्टरी में तीन वर्ष तक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उसकी नियुक्ति कासिम बाजार (दे.) में कर दी गयी। १७५६ ई. में जब नवाब सिराजुद्दौला (दे.) ने कासिम बाजार पर कब्जा किया तो उसे भी बन्दी बना लिया। बाद में उसे छोड़ दिया गया और दूसरे अंग्रेज भगोड़ों के साथ वह भी फुल्टा चला गया। १७५७ ई. में क्लाइव और वाटसन ने कलकत्ता पर फिर से कब्जा करने के लिए जो हमला किया, उसमें वह भी शामिल था। क्लाइव ने उसे मुर्शिदाबाद के दरबार में रेजिडेंट नियुक्त कर दिया। १७६१ ई. में वह वैन्सी टार्ट की अध्यक्षता में बंगाल कौंसिल का सदस्य नियुक्त किया गया। हेस्टिंग्स कम्पनी के नौकरों को खानगी व्यापार की छूट देने की नीति के विरुद्ध था। उसने उस नीति का भी विरोध किया जिसके फलस्वरूप नवाब मीर कासिम (दे.) से कम्पनी की लड़ाई हुई। १७६४ ई. में बक्सर की लड़ाई के बाद उसने इस्तीफा दे दिया और बंगाल में उसने दलालों के मार्फत लकड़ी का व्यापार करके जो दौलत इकट्ठी की थी, उसे लेकर इंग्लैंड वापस चला गया। १७६९ ई. में वह मद्रास कौंसिल का दूसरा प्रधान सदस्य बनकर पुनः भारत लौट आया। हेस्टिंग्स जिस जहाज से भारत आ रहा था उसमें बैरन इमहोफ की पत्नी मेरिया भी सवार थी। दोनों का परिचय हो गया। हेस्टिंग्स विधुर हो चुका था। बाद में उसने मेरिया से शादी कर ली। मद्रास में हेस्टिंग्स ने बड़ी योग्यता के साथ कार्य किया और १७७२ ई. में वह बंगाल कौंसिल का प्रेसीडेंट नियुक्त कर दिया गया। इस तरह ४० वर्ष की अवस्था में वारेन हेस्टिंग्स बंगाल का गवर्नर बन गया। १७७३ ई. का रेग्यूलेटिंग ऐक्ट पास होने पर वह बंगाल में फोर्ट विलियम का गवर्नर-जनरल अर्थात् भारत में ब्रिटिश राज्य का पहला गवर्नर-जनरल बन गया।

हेस्टिंग्स, वारेन (१७३२-१८१८ ई.)  : हेस्टिंग्स ने बंगाल में मालगुजारी का बंदोबस्त शुरू में पांच साल के ठेके पर किया, बाद में वार्षिक ठेका दिया जाने लगा। उसने बंगाल में पुलिस और फौज की नयी व्यवस्था की। उसने जिलों का प्रबंध करने तथा दीवानी मुकदमें सुनने के लिए अंग्रेज कलक्टर नियुक्त किये और उनके सहायक के रूप में भारतीयों की नियुक्ति की। उसने कलकत्ता में दो अपील अदालतें स्थापित कीं। एक सदर दीवनी अदालत कहलाती थी, जिसका काम दीवानी मुकदमों को सुनना था। इसकी अध्यक्षता गवर्नर-जनरल करता था और उसकी कौंसिल के चारों सदस्य उसके साथ बैठते थे। दूसरी सदर निजामत अदालत कहलाती थी, जिसकी अध्यक्षता नायब नाजिम करता था और वह फौजदारी के मामलों की अपील सुनती थी। इस प्रकार वारेन हेस्टिंग्स ने नागरिक प्रशासन की एक सुदृढ़ नींव रखी। बाद में लार्ड कार्नवालिस (दे.) ने उस नींव पर नागरिक प्रशासन की एक बुलन्द इमारत तैयार की।

रुहेला-युद्ध के बाद ही रेग्यूलेटिंग ऐक्ट (दे.) लागू हो गया और वारेन हेस्टिंग्स पहला गवर्नर-जनरल बन गया। उसकी कौंसिल में चार सदस्य थे, जिनमें तीन सदस्य-जनरल जान क्लेवरिंग, जार्ज मोनसन तथा सर फिलिप फ्रांसिस शुरू से उसके विरोधी थे। कौंसिलका चौथा सदस्य रिचर्ड बारवेल ही उसका एकमात्र समर्थक था। चूँकि कौंसिल के निर्णय बहुमत से लिये जाते थे, इसलिए वारेन हेस्टिंग्स को कौंसिल से बराबर संघर्ष करना पड़ता था। यह संघर्ष छह साल तक चलता रहा। इससे उसके लिए प्रशासन चलाना बड़ा कठिन हो गया था। यदि हेस्टिंग्स को छोड़ कर दूसरा आदमी होता तो वह अपना पद छोड़ कर भाग जाता। परन्तु हेस्टिंग्स असाधारण रूप से कर्मठ तथा धैर्यवान व्यक्ति था। अक्सर कौंसिल का बहुमत उसके विरुद्ध रहता था और उसे उन निर्णयों को स्वीकार करना पड़ता था जिन्हें वह उचित नहीं समझता था। फिर भी हेस्टिंग्स ने हार नहीं मानी। अंत में उसके दो विरोधियों- मोनसन और क्लेवरिंग को मौत ने हूरा दिया और तीसरे विरोधी फ्रांसिस को उसने एक द्वन्द्व-युद्ध में घायल कर दिया और वह १७८० ई. में भारत से चला गया। इसके बाद प्रशासन पर पूर्ण रूप से हेस्टिंग्स का नियंत्रण स्थापित हो गया। हेस्टिंग्स को दीर्घकाल तक कौंसिल के सदस्यों से जो संघर्ष करना पड़ा, उसके फलस्वरूप उसके चरित्र की अच्छाइयाँ और बुराइयाँ दोनों उभर कर सामने आयीं। महाराजा नन्दकुमार, बनारस के राजा चेतसिंह, अवध की बेगमों सदृश्य जिन-जिन लोगों ने उसके विरोधी सदस्यों का समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न किया, उन सब का वह घोर शत्रु हो गया और उन्हें उसकी प्रतिहिंसा का शिकार बनना पड़ा। नंदकुमार (दे.) को फांसी दे दी गयी; राजा चेतसिंह को पहले गैरकानूनी तथा अनुचित रीति से दंडित करके उससे विपुल धन और फौजों की मांग की गयी और अंत में उससे उसका राज्य छीन लिया गया; अवध की बेगमें (दे.) अपमानित की गयीं और बर्बादी से बचने के लिए उन्हें अनुचित रीति से अपनी निजी जायदाद से बहुत-सा धन देने के लिए विवश किया गया। इन सभी घटनाओं को बाद में हेस्टिंग्स के विरुद्ध महाभियोग में लगाये गये आरोपों का आधार बनाया गया। यद्यपि वह सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और उसके विरुद्ध महाभियोग की कार्रवाई सफल नहीं हो सकी, तथापि ब्रिटिश सरकार ने उसे 'पिअर' की पदवी नहीं प्रदान की, जिसके लिए वह अत्यन्त लालायित था। इससे मालूम पड़ता है कि ब्रिटिश जनमत उक्त घटनाओं के सम्बन्ध में वारेन हेस्टिंग्स का आचरण औचित्यपूर्ण नहीं मानता था।

यदि वारेन हेस्टिंग्स के चरित्र में धनलोलुपता और प्रतिहिंसात्मकता के रूप में दो बड़ी बुराइयाँ थीं तो उसमें दो बड़ी अच्छाइयाँ भी थीं। उसमें अदम्‍य मानसिक दृढ़ता थी। इसके साथ ही उसमें कार्यसाधक उपाय ढूँढ निकालने की गजब की सूझबूझ थी। उसके इन्हीं दोनों गुणों के कारण भारत में नवस्थापित ब्रिटिश साम्राज्य के अस्तित्व के लिए १७७५ से १७८२ ई. के बीच जो भयंकर खतरा उपस्थित हो गया था, वह टल गया। १७७४ ई. में मराठों से युद्ध शुरू हो गया; अगले वर्ष अमरीका का स्वाधीनता-संग्राम आरम्भ हो गया और उसके बाद ही फ्रांस, स्पेन तथा हालैण्ड से संघर्ष छिड़ गया। तीन साल बाद १७७९ ई. में निजाम ने मैसूर के हैदर अली तथा मराठों के साथ मिलकर अंग्रेजों को निकाल बाहर करने के लिए एक शक्तिशाली संघ बना लिया। १७७९ ई. में मराठों ने कर्नल कैमक की फौजों को इस तरह दबोच लिया कि उसे बड़गांव का समझौता (दे.) करना पड़ा। अगले साल हैदर अली ने कर्नाटक पर हमला बोल दिया, बेली के नेतृत्त्व में एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी काट डाली, कर्नाटक में जबर्दस्त लूटपाट की और आर्काट पर कब्जा कर लिया। हैदर अली की फौज को १७८१ ई. में पोर्टोनोवो में हार खानी पड़ी, परन्तु इसके बदले में हैदर अली के लड़के टीपू सुल्तान ने १७८२ ई. में तंजौर में ब्रेथवेट के नेतृत्व में एक अंग्रेजी फौज का सफाया कर दिया। उसी समय एडमिरल डी सूफ्रा के नेतृत्त्व में एक फ्रेंच जंगी बेड़ा भारतीय तट पर आ धमका। इन सब घटनाओं के कारण भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का अस्तित्त्व खतरे में पड़ गया था, परन्तु हेस्टिंग्स तनिक भी विचलित नहीं हुआ। उसने अदम्य पुरुषार्थ का परिचय दिया। उसने गोडार्ड (दे.) के नेतृत्त्व में एक फौज भेजी, जिसने १७८० ई. में मध्य भारत को पार करके वसई पर कब्जा कर लिया उसने एक दूसरी फौज पौफम के नेतृत्त्व में भेजी जिसने ग्वालियर का किला सर कर लिया। इससे अंग्रेजों को खोयी हुई प्रतिष्ठा फिर से मिल गयी। हेस्टिंग्स ने चतुरतापूर्ण कूटनीति के द्वारा भोंसले और शिंदे को अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित मराठा संघ से फोड़ लिया और शिन्दे की मध्यस्थता से मराठों के साथ साल्बाई की संधि कर ली। इस प्रकार पहला मराठा-युद्ध समाप्त हो गया और उसके फलस्वरूप साष्टी अंग्रेजों के कब्जे में आ गया।

हेस्टिंग्स, वारेन (१७३२-१८१८ ई.)  : हेस्टिंग्स ने दक्षिण भारत में भी इसी प्रकार का पुरुषार्थ दिखाया। उसने मद्रास के गवर्नर को निलम्बित कर दिया और सारे अपयश को धो डालने के लिए सर आयरकूट के नेतृत्व में एक कुमुक बंगाल से भेजी। उसने पियर्स के नेतृत्व में एक दूसरी फौज स्थल-मार्ग से बंगाल से मद्रास भेजी। उसने १७८० ई. में निजाम को गुन्टूर का इलाका देकर फोड़ लिया था। १७८२ ई. में मराठों के साथ साल्बाई की संधि करके उसने अंग्रेजों को निकाल बाहर करने के लिए निजाम द्वारा १७७९ ई. में बनाये गये संघ को एक प्रकार से समाप्त कर दिया। इस प्रकार अंग्रेजी फौजों को अकेले मैसूर की फौजों से लोहा लेना पड़ा। १७८२ ई. में हैदर अली की मृत्यु हो गयी और उसके उत्तराधिकारी टीपू सुल्तान ने १७८४ ई. तक अंग्रेजों से लड़ाई जारी रखी। १७८४ ई. में उसके साथ मंगलूर की संधि हो गयी, जिसके द्वारा दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए इलाके लौटा दिये। मंगलूर की संधि में हेस्टिंग्स का हाथ नहीं था और उसकी शर्तें उसे मंजूर नहीं थीं। यह संधि मद्रास सरकार के प्रयास से हुई थी, जो शांति-स्थापना के लिए अत्यधिक उत्सुक थी। इस लिए हेस्टिंग्स ने संधि का विरोध नहीं किया। सब मिलाकर हेस्टिंग्स ने युद्धकाल में जो कूटनीतिक तथा सैनिक सफलताएँ प्राप्त कीं, उनपर कोई भी प्रशासक उचित रीति से गर्व कर सकता था और इसी के आधार पर उसकी गणना भारत के सबसे महान गवर्नर-जनरलों में की जाती है।

हेस्टिंग्स, वारेन (१७३२-१८१८ ई.)  : हेस्टिंग्स को पिट का इण्डिया ऐक्ट (१७८४ ई.) पसंद नहीं था, इसलिए उसके पास होने के बाद उसने १७८५ ई. में गवर्नर-जनरल के पद से इस्तीफा दे दिया और इंग्लैण्ड वापस लौट गया। तीन साल बाद वारेन हेस्टिंग्स पर बीस आरोपों के आधार पर महाभियोग चलाया गया। इनमें से मुख्य आरोप बनारस के राजा चेतसिंह तथा अवध की बेगमों के साथ उसका दुर्व्यवहार तथा उपहार तथा घूस लेना था। महाभियोग की काररवाई सात वर्ष तक चली और अन्त में वारेन हेस्टिंग्स को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया। उसकी मृत्यु १८१८ ई. में ८६ वर्ष की आयु में इंग्लैण्ड में हुई।

हैदर अली खाँ : १८ वीं शताब्दी के मध्य का एक वीर योद्धा, जो अपनी योग्यता के बल पर मैसूर का शासक बन गया। वह मैसूर के शक्तिहीन हिन्दू राजा के प्रधानमन्त्री (दलबाई) नानराज की सेवा में नियुक्त था। बाद में हैदर अली ने दलबाई से शासन सत्ता अपने हाथ में ले ली। कुछ समय बाद उसने राजा को भी अपदस्थ कर दिया और १७६१ ई. में स्वयं मैसूर की गद्दी पर बैठ गया। उसने बहुत जल्दी ही बदनौर, कनारा तथा दक्षिण भारत की छोटी-छोटी रियासतों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। यद्यपि वह अनपढ़ था, तथापि बहुत कुशल शासक और योग्य सेनापति सिद्ध हुआ। वह राज्य के सारे काम अपने सामने बहुत द्रुत गति से निबटाता था। सभी लोग बड़ी आसानी से उससे भेंट कर सकते थे। उस जमाने के मुस्लिम शासकों में हैदरअली सबसे सहिष्णु शासक माना जाता था।

उसे बड़ी कठिन स्थिति का सामना करना पड़ा। हैदराबाद का निजाम, मराठे और अंग्रेज सभी उसके शत्रु हो गये। इन तीनों ने १७६६ ई. में इसके विरुद्ध संधि कर ली। किन्तु हैदरअली कठिनाइयों से घबड़ाता न था। उसने जल्द ही मराठों को अपनी ओर मिला लिया और फिर अंग्रेजों और निजाम से जमकर लोहा लिया। उसने मंगलौर पर पुनः कब्जा कर लिया, बम्बई स्थित अंग्रेजी सेना को पराजित किया, १७६८ ई. में मद्रास के पाँच मील निकट पहुँच गया तथा अंग्रेजों को अपने अनुकूल संधि करने पर बाध्य कर दिया। इस संधि के अनुसार अंग्रेजों ने हैदर अली के विजित प्रदेशों पर उसके आधिपत्य को मान लिया और यह वायदा किया कि जब कभी मैसूर पर हमला होगा, अंग्रेज हैदर अली की मदद करेंगे। इस प्रकार अंग्रेजों पर पहली विजय प्राप्त करने से हैदर अली की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी। १७७१ ई. में मराठों ने मैसूर राज्य पर हमला बोल दिया। अंग्रेजों ने अपना वायदा पूरा नहीं किया और हैदर अली की कोई सहायता नहीं की। हैदर अली और मराठों में संधि हो गयी। बाद में उसने मराठों और निजाम से समझौता किया कि ये तीनों मिलकर अंग्रेजों को मार भगायें। इस बीच अंग्रेजों ने फ्रांसीसी बस्ती माही पर भी कब्जा कर लिया था, जो हैदर अली के राज्य के अन्तर्गत था।

हैदर अली तूफान की भाँति कर्नाटक पर चढ़ बैठा, कर्नल बेली की सेना को चीर दिया और अर्काट पर कब्जा कर लिया। लेकिन मराठों और निजाम ने हैदर अली को धोखा दिया और अंग्रेजों के लालच में आ गये। फलतः हैदर अली अकेला पड़ गया और १७८१ ई. में पोर्टोनोवो के युद्ध में अंग्रेज जनरल सर आयरकूट से पराजित हुआ। लेकिन इसके बाद भी हैदर अली ने कर्नल बैथवेट की सेना को पराजित किया। हैदर अली कैंसर रोग से पीड़ित था। जब युद्ध चल रहा था, तभी ७ दिसम्बर १७८२ ई. को उसका देहान्त हो गया। उसके लड़के टीपू सुल्तान ने युद्ध जारी रखा और द्वितीय मैसूर-युद्ध में भी अंग्रेजों पर विजय प्राप्त की। हैदर अली को उसके देशवासियों ने सहायता नहीं दी, फिर भी उसने अकेले ही अंग्रेजों से डटकर लोहा लिया। (बाउरिंग लिखित हैदर अली और टीपू सुल्तान; एम. विलक्स लिखित दक्षिण भारत के ऐतिहासिक रेखाचित्र, अंग्रजी में)

हैदरशाह : कश्मीर के शासक जैनुल आब्दीन का द्वितीय पुत्र, जिसने १४७० से १४७२ ई. तक शासन किया। उसने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। वह अपने ही महल में शराब के नशे में गिरकर मर गया।

हैदराबाद : संप्रति आँध्र प्रदेश की राजधानी। यह पहले निजाम के राज्य की राजधानी था, जो भारत की सबसे बड़ी मुसलमानी रियासत थी। इस नगर की स्थापना १५८९ ई. में कुतुबशाही सुल्तानों में पाँचवे सुल्तान मुहम्मद कुली ने की। यह नगर कृष्णा नदी की एक शाखा मूसी के दाहिने तट पर स्थित है। नगर रमणीक स्थान पर बसा हुआ है। नगर में बहुत सी शानदार इमारतें हैं, जिनमें निजाम की कोठी, रेजीडेंसी और मक्का मसजिद उल्लेखनीय हैं। उस्मानिया विश्वविद्यालय, जिसकी स्थापना १९१८ ई. में हुई, यहीं स्थित है। यह पहला विश्वविद्यालय है, जिसमें किसी भारतीय भाषा अर्थात् उर्दू को शिक्षा का माध्यम बनाया गया। यहाँ पर अंग्रेजी द्वितीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है।

निजाम के राज्य की स्थापना १७१३ ई. में आसफजाह ने की। वह दक्खिन का सूबेदार होकर हैदराबाद आया और १७४७ ई. के आसपास स्वतंत्र शासक बन बैठा। १७४८ ई. में उसकी मृत्यु हो जाने पर इस रियासत को विपत्तियों के दौर से गुजरना पड़ा। अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने इस स्थिति से लाभ उठाने की चेष्टा की। निजाम को दक्षिण में हैदर अली तथा पश्चिम एवं उत्तर में मराठों की शक्ति का सामना करना पड़ रहा था। राज्य की अधिकांश प्रजा हिन्दू थी। ऐसी स्थिति में उसका शासन काफी डांवाडोल था। निजाम भारतीय राजाओं में पहला शासक था, जिसने लार्ड वेल्जली (१७९८-१८०५ई.) के प्रशासन-कालमें आश्रित सेना रखना स्वीकार कर लि‍या और इस प्रकार अपनी स्वतंत्रता का अंत कर दिया।

भारत के स्वाधीन होने पर निजाम ने कुछ समय तक अपने को स्वतन्त्र शासक बनाये रखने की कोशिश की, परन्तु इसमें उसे सफलता न मिली। १९४८ ई. में रियासत का भारतीय गणराज्य में विलयन कर लिया गया और १९५२ ई. में वहाँ लोकप्रिय सरकार की स्थापना हो गयी। निजाम को राजप्रमुख बना दिया गया और भत्ते के रूप में एक लम्बी रकम मिलने लगी।

हैदराबाद : सिंध का एक नगर तथा छांवनी, जो अब पश्चिमी पाकिस्तान में है। इस नगर की स्थापना १७६८ ई. में हुई और १८४३ ई. तक और फिर १९४८ से १९५५ ई. तक यह सिंध की राजधानी रहा। यह अब हैदराबाद कमिश्नरी का मुख्यालय है। उद्योग-धंधों का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। यहाँ पुराना किला और एक आधुनिक विश्वविद्यालय स्थित है।

हैमिल्टन, विलिमय : कलकत्ता में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का मातहत एक एक डाक्टर। १७१५ ई. में जान सरमैन जब मुगल राजदरबार में दूत नियुक्त हुआ, वह उसके साथ दिल्ली आया। उसने बादशाह फर्रूखशियर को एक दुखदायी बीमारी से छुटकारा दिलाया। इस पर बादशाह ने कृतज्ञतावश उसकी प्रार्थना पर १७१६ ई. में एक फरमान जारी करके उसकी मालिक ईस्ट इण्डिया कम्पनी को वाणिज्य-व्यापार की महत्त्वपूर्ण सुविधाएँ प्रदान कर दीं।

हैरिस, लार्ड जार्ज : ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में लग्न एक सेनापति। चौथे मैसूर-युद्ध (१७९७ ई.) में उसने टीपू सुल्तान को मलवल्ली की लड़ाई में मार्च १७९९ ई. में पराजित कर श्रीरंगपट्टम की ओर खदेड़ दिया। ४ मई १७९९ ई. को उसने श्रीरंगपट्टम को भी जीत लिया। युद्ध में विजय पाने के उपलक्ष्य में उसे १८१५ ई. में 'पीअर' का पद प्रदान किया गया।

हैलीडे, सर एफ. जे. : बंगाल, बिहार, उड़ीसा और आसाम का पहला लेफ्टिनेण्ट-गवर्नर। इन प्रान्तों का प्रशासन पहले सीधे सपरिषद् गवर्नर-जनरल के अधीन था। १८५३ ई. के चार्टर ऐक्ट में उसे एक लेफ्टिनेण्ट गवर्नर के अधीन कर दिया गया।

हैलीफैक्स, लार्ड : देखिये- लार्ड इरविन'।

हैलीबरी कालेज : इंग्लैण्ड में १८०५ में स्थापित। इसमें इंडियन सिविल सर्विस में भर्ती किये गये छात्र शिक्षा पाते थे। इसमें विधि शात्र, अर्थशास्त्र, प्रशासन तथा एक भारतीय भाषा सीखना अनिवार्य होता था। आरम्भ में ईस्ट इंडिया कम्पनी के डाइरेक्टरों द्वारा मनोनीत अभ्यर्थी ही भर्ती किये जाते थे, अतएव इसमें प्रतिभाशाली लोगों का अभाव था। १८५४ ई. में यह कालेज बंद कर दिया गया। उसी समय से आई. सी. एस. के लिए प्रतियोगिता परीक्षा होने लगी। हैलीबरी कालेज के शिक्षितों में जान लारेंस जान कालविन, जेम्स टाम्सन और रिचर्ड सेम्पिल आदि के नाम प्रमुख हैं। (एन. सी. राय लिखित 'सिविल सर्विस इन इंडिया')।

हैवलक, जनरल सर हेनरी (१७९५-१८५७ ई.) : १८१६ ई. में सेना में भर्ती हुआ और १८२३ ई. में कलकत्ता आया। उसने १८२४ ई. में बर्मा-युद्ध में भाग लिया और १८२८ ई. में आवा की लड़ाइयों पर अपनी पुस्तक प्रकाशित की। १८३८ से १८४२ ई. तक वह अफगानिस्तान में रहा और सर हग गफ़ के नेतृत्त्व में प्रथम सिक्ख-युद्ध (१८४५-४६ ई.) में भाग लिया। १८५६-५७ ई. में वह फारस में युद्ध कर रहा था। जून १८५७ ई. में उसे वहीं से इलाहाबाद में विप्लवी सैनिकों का मुकाबला करने के लिए भेज दिया गया। उसने कई लड़ाइयों का नायकत्व किया, नाना साहब को पराजित करके जुलाई १८५७ ई. में कानपुर ले लिया। इसके बाद वह लखनऊ में घिरी हुई ब्रिटिश फौजों की सहायता के लिए रवाना हुआ। तीन विफल प्रयत्नों के बाद सितम्बर १८५७ ई. में वह घेरा तोड़ने में सफल हुआ। दो महीने बाद बीमारी के कारण युद्ध-भूमि में ही उसकी मृत्यु हो गयी। ब्रिटिश सरकार ने उसे मरणोपरांत बैरन की पदवी प्रदान की और उसकी पेंशन बाँध दी।

होम रूल लीग : इसकी स्थापना बाल गंगाधर तिलक (दे.) ने अप्रैल १९१६ ई. में पूना में की। अगले सितम्बर में इसी नाम से एक दूसरी संस्था एनी बेसेंट (दे.) ने कलकत्ता में स्थापित की। भारतीयों को लीग-कांग्रेस योजना (दे.) के आधार पर, जो १९१६ ई. में लखनऊ में तैयार की गयी थी, होमरूल (स्वराज्य) दिलाने के लिए दोनों लीगों ने संयुक्त रीति से आंदोलन किया। होमरूल लीग बहुत थोड़े दिन चली, क्योंकि उसके नेतागण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थक थे और कांग्रेस ने जब तत्काल स्वराज्य की स्थापना को अपना ध्येय बना लिया, दोनों लीगों का कांग्रेस में विलयन हो गया।

होयसल वंश : ११११ ई. के आसपास मैसूर के प्रदेश में विट्टिग अथवा विट्टिदेव से इसका प्रारम्भ हुआ। उसने अपना नाम विष्णुवर्धन (दे.) रख लिया और ११४१ ई. तक राज्य किया। उसने द्वारसमुद्र (आधुनिक हलेविड) को अपनी राजधानी बनाया। वह पहले जैन धर्मानुयायी था, बाद में वैष्णव मतावलम्बी हो गया। उसने बहुत से राजाओं को जीता और हलेविड में सुन्दर विशाल मन्दिरों का निर्माण कराया। उसके पौत्र वीर बल्लाल (११७३-१२२० ई.)- ने देवगिरि के यादवों को परास्त किया और होयसलों को दक्षिण भारत का सबसे शक्तिशाली राजा बना दिया, जो १३१० ई. तक शक्तिशाली बने रहे। १३१० ई. में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (दे.) के सेनापति मलिक काफूर के नेतृत्व में मुसलमानों ने उनके राज्य पर हमला किया, राजधानी पर कब्जा कर लिया और राजा को बंदी बना लिया। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अंत में १३२६ ई. में इस वंश का अंत कर दिया।

होल्कर वंश तथा राज्य : इसकी स्थापना मल्हार राव ने की, जिसने दूसरे पेशवा बाजीराव प्रथम (१७२०-४० ई.) के सेनापति की हैसियत से अनेक लड़ाइयाँ जीतीं। मालवा का दक्षिण-पश्चिमी भाग उसके कब्जे में आ गया और उसने इन्दौर को अपनी राजधानी बनाया। उसकी मृत्यु १७६४ ई. में हुई। उसका एकमात्र पुत्र खाँडेराव दस साल पहले मर चुका था, इसलिए उसका पौत्र मल्लेराव (१७६४-६६ ई.) उत्तराधिकारी हुआ। परन्तु वह बहुत अयोग्य शासक सिद्ध हुआ और प्रशासन का भार खाँडे राव की विधवा महारानी अहिल्याबाई (दे.) ने सँभाल लिया।

अहिल्याबाई ने १७६४ से १७९४ ई. तक राज्य का शासन बड़ी सफलता के साथ चलाया। १७९५ ई. में उसकी मृत्यु होने पर, एक दूर के सम्बन्धी तुकोजी होल्कर को, जिसे अहिल्याबाई ने १७६७ ई. में सेनापति नियुक्त किया था, राज्य प्राप्त हुआ। तुकोजी ने केवल दो साल राज्य किया और उसकी मृत्यु के बाद उसका तीसरा लड़का जसवन्तराव प्रथम गद्दी पर बैठा, जिसने १७९८ से १८११ ई. तक राज्य किया। दौलत राव शिन्दे से प्रतिद्वन्विता के कारण, जसवंतराव होल्कर पहले तो दूसरे मराठा-युद्ध से अलग रहा, फिर अप्रैल १८०४ ई. में, जब पेशवा और शिन्दे हार चुके थे, उसने अबुद्धिमत्तापूर्वक अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। शुरू में उसने कर्नल मौन्सन के नेतृत्ववाली अंग्रेजी सेना पर विजय पायी, परन्तु वह दिल्ली पर कब्जा करने में विफल रहा। उसकी सेना दीग की लड़ाई में हार गयी और चार दिन बाद वह भी परास्त हुआ। परन्तु अंग्रेज सेना भरतपुर का किला सर न कर सकी। उधर लार्ड वेलेजली को भारत से वापस बुला लिया गया। इससे जसवंतराव अंग्रेजों के साथ अत्यंत अनुकूल शर्तों पर संधि कर लेने में सफल हो गया। उसे अपने राज्य का कोई हिसा गँवाना नहीं पड़ा और उसकी स्वतंत्रता बनी रही। परंतु, इसके बाद ही जसवंतराव पागल हो गया और १८११ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी मल्हारराव होल्कर द्वितीय (१८११-३३ ई.) तीसरे मराठा-युद्ध (१८१७-ई.) में सम्मिलित हुआ और दिसम्बर १८१७- ई.) में सम्मिलित हुआ और दिसम्बर १८१७ ई. में महीदपुर की लड़ाई में अग्रेजों से हार गया। उसे विवश होकर मंदसोर की संधि (जनवरी १८१८ ई.) करनी पड़ी, जिसके द्वारा उसने अपने राज्य में आश्रित सेना तथा राजधानी इंदौर में स्थायी रूप से ब्रिटिश रेजीडेंट रखना मंजूर कर लिया, राजपूताने के राज्य पर अपना सारा आधिपत्य छोड़ दिया तथा नर्मदा के दक्षिण का सारा प्रदेश अंग्रेजों को सौंप दिया। इस प्रकार होल्कर सारी स्वतन्त्रता खोकर एक रक्षित राजा बन गया। बाद में इंदौर की गद्दी पर जो होल्कर वंशज जा बैठे, वे सिर्फ अपने राग-रंग में डूबे रहते थे और उन्हें अपनी प्रजा की भलाई की कोई चिन्ता नहीं थी। उनमें से एक राजा कुख्यात हत्याकांड-सम्बन्धित हो गया और उसे अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी। होल्कर वंश के राजा लोग १९४८ ई. तक शासन अथवा कुशासन करते रहे, जब उनके राज्य का भारतीय गणराज्य में विलयन हो गया।

ह्युएनत्सांग अथवा युवानच्वाङ (६००-६४ ई.) : एक चीनी बौद्ध भिक्षु और विद्वान्, बौद्ध धर्म के ग्रंथों की खोज में ६३० ई. में भारत आया। वह चीन से गोबी रेगिस्तान के उत्तर से होकर आनेवाले ३००० मील लम्बे अत्यन्त दुर्गम मार्ग को पार कर काबुल पहुँचा जो भारत का प्रवेशद्वार है। उसने अपनी वापस की यात्रा दक्षिणी मार्ग से की, जो पामीर को पार करके काशगर, यारकंद, खोतान तथा लोप-नोर जाता है। उसने यात्रा में जिस प्रकार के खतरे उठाये, उनसे उसके साहस, धैर्य और दृढ़-संकल्प का परिचय मिलता है।

ह्युएनत्सांग अथवा युवानच्वाङ (६००-६४ ई.) : वह भारत में ६३० से ६४३ ई. तक रहा। उसने सारे भारत का भ्रमण किया और यहाँ के लगभग सभी राज्यों को देखा। वह हर्षवर्धन (दे.) के राज्य में आठ साल (६३५-४३ ई.) रहा। हर्षवर्धन का साम्राज्य उस समय सारे उत्तरी भारत में विस्तृत था। हर्ष ने उसका खुले हृदय से स्वागत किया और उसके प्रति अत्यधिक आदर भाव प्रकट किया। वह हर्ष से राजमहल के निकट मिला और उसके साथ कन्नौज और फिर प्रयाग गया। दोनों स्थानों पर उसने विराट धार्मिक महोत्सवों में भाग लिया। प्रयाग में महाराजाधिराज हर्षवर्धन हर पाँचवें वर्ष एक महोत्सव करता था। युवानच्वाङ ने प्रयाग के जिस महोत्सव में भाग लिया, वह इस प्रकार का छठा महोत्सव था।

ह्यएनत्सांग बौद्धधर्म के महायान सम्प्रदाय का अनुयायी था। उसका बौद्धधर्मका ज्ञान अत्यंत विशद था। उसने अपनी यात्रा का वृत्तांत लिखा है जो बारह खंडों में है। भारत की लम्बी यात्रा के दौरान उसने जो कुछ देखा उसका अत्यन्त विशद वर्णन किया है। उसकी पुस्तक से हमें सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में विद्यमान भारत की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक अवस्था के बारे में बहुमूल्य सूचनाएँ मिलती हैं। ह्युएनत्सांग कई साल तक नालंदा विश्वविद्यालय का विद्यार्थी रहा और उसने विश्वविद्यालय के जीवन का अत्यंत रोचक वर्णन किया है। हर्षवर्धन ने ह्युएनत्साँग को स्वदेश वापस लौटने के लिए विपुल धन दिया और सैनिकों की एक टुकड़ी साथ कर दी। ह्यएनत्सांग भगवान् बुद्ध के शरीर की १५० धातुएँ, उनकी सोने, चाँदी तथा चंदन की बहुत सी मूर्तियाँ और ६५७ हस्तलिखित ग्रंथ लेकर, जिनको ढोने के लिए बीस खच्चरों की आवश्यकता पड़ी थी, ६४५ ई. में चीन वापस लौटा। चीन में उसका शेष जीवन इन बौद्धग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद करने में बीता। वह ६६४ ई. के आसपास अपनी मृत्यु से पूर्व इनमें से ७४ ग्रंथों का अनुवाद पूरा कर चुका था।

ह्युजेस, एडमिरल सर एडवर्ड (१७२०-९४ ई.) : ब्रिटिश नौसेना का एक अफसर। वह भारत के पूर्वी तट पर १७७३ से १७७७ ई. तक और पुनः १७७९ से १७८३ ई. तक ब्रिटिश नौसेना का कमाण्डर रहा। उसने १७८० ई. में मंगलूर में हैदर अली की नौसेना नष्ट कर दी। १७८१ ई. में उसने डच लोगों से नागपट्टम् छीन लेने में मदद दी, १७८२ ई. में उसने डच लोगों से त्रिकोमलै छीन लिया। परन्तु फ्रेंच लोगों के खिलाफ उसे कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। १७८२ से ८३ ई. में उसने मद्रास और त्रिकोमलै के बीच एडमिरल डी सूफ्रां के नेतृत्ववाले फ्रेंच बेड़े से पाँच बार युद्ध किया, परन्तु उसका कोई निर्णयात्मक फल नहीं निकला। इसके बाद वह भारत में इकट्ठी की गयी बहुत बड़ी दौलत लेकर इंग्लैण्ड वापस लौट गया। उसने फिर किसी नौसैनिक बेड़े का नायकत्व नहीं किया।

ह्यूम, एलन आक्टेवियन (१८२९-१९१२ ई.) : हेलीबरी में शिक्षा प्राप्त की और १८४९ ई. में बंगाल में इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश किया। पदोन्नति करते हुए पश्चिमोत्तर प्रांत में वह रेवेन्यू बोर्ड का सदस्य नियुक्त हुआ। गदर के समय इटावा में मजिस्ट्रेट था। १८८२ ई. में इंडियन सिविल सर्विस से अवकाश ग्रहण किया, किन्तु भारतीय मामलों में दिलचस्पी लेता रहा। उसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संगठन का प्रयास किया। बम्बई में १८८५ ई. होनेवाले कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन का वह संयोजक था तथा जीवन भर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यों में दिलचस्पी लेता रहा। उसकी गणना कांग्रेस के संस्थापकों में की जाती है। पहले बीस वर्षों तक (१८८५-१९०६ ई.) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वह प्रधानमन्त्री रहा। उसको तेईसवें अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पिता और संस्‍थापक घोषित किया गया। पक्षी-विज्ञान का वह बहुत अच्छा जानकार था। इस विषय पर उसने कई पुस्तकें लिखी हैं।