विक्षनरी:भारतीय दर्शन परिभाषा कोश भाग-१

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अनुत्तर परमशिव। पर प्रकाश। पर तत्त्व। शिव शक्ति के सामरस्य भाव को द्योतित करने वाला वर्ण। अकुल का अभिव्यंजक वर्ण। पृथ्वी से लेकर शक्ति पर्यंत संपूर्ण कुल को प्रथन करने वाली कौलिकी नामक पराशक्ति से अभिन्न अकुल नामक अनुत्तर तत्त्व को अभिव्यक्त करने वाला वर्ण। शिव से सर्वथा अभिन्न स्वभाव वाली अनुत्तरा एवं कुलस्वरूपा शक्ति से युक्त शरीर वाले परमशिव को अभिव्यक्त करने वाला आद्यवर्ण। परावाणी में परमेश्वर का नाम। मातृका का पहला वर्ण। (तं, सा. पृ . 12, पटलत्रि.वि., पृ. 153)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अं अनुत्तरशक्ति से लेकर परिपूर्ण क्रियाशक्ति पर्यंत समस्त अंतः विमर्शन के पूरा होने पर जब अंतः विमर्श में आने वाली भिन्न भिन्न चौदह भूमिकाओं को द्योतित करने वाले अ से लेकर औ पर्यंत चौद्ह वर्ण अभिव्यक्त हो जाते हैं तो उस अवस्था में पहुँचने पर जब अभी बहिः सृष्टि होने वाली ही होती है तो परमेश्वर अपनी इच्छा द्वारा अपने पर आरूढ़ हुई उस समस्त अंतःसृष्टि का स्वरूपस्थतया विमर्शन करता है। उसके इस प्रकार के विमर्श को मातृका का पंद्रहवाँ वर्ण अं द्योतित करता है। परमेश्वर की अत्यंत आनंदाप्लावित अवस्था को अं परामर्श कहते हैं। इस अवस्था को द्योतित करने वाले वर्ण को भी अं कहते हैं। (तन्त्र सार पृ. 14,15; तन्त्रालोक आ. 3-110,111)। साधक योगी को भी अं की उपासना के द्वारा उसी आनंद से आप्लावित स्वस्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अः विसर्ग। विसर्ग का अर्थ होता है सृष्टि। परमेश्वर अपनी परिपूर्ण पारमेश्वरी शक्ति के विमर्शन के द्वारा अपने भीतर स्वात्मतया सतत विद्यमान स्रष्टव्य जगत् को बाहर इदंता के रूप में अर्थात् स्फुट-प्रमेयतया प्रकट करने के प्रति जब पूरी तरह से उन्मुख हो जाता है, तो विश्वसृष्टि के प्रति उसकी इस स्वाभाविक उन्मुखता को अभिव्यक्त करने वाले मातृका वर्ण को विसर्ग कहते हैं। उसी का शुद्ध स्वरूप अः है। सारी बाह्य सृष्टि ह वर्ण पर पूरी हो जाती हैं। उसका आरंभ अः से होता है। अतः अः को ही विसर्ग (सृष्टि) कहते हैं। इसीलिए इसे अर्धहकार भी कहते हैं। उच्चारण भी इन दोनों वर्णो का एक जैसा ही होता है। (तन्त्र सार पृ. 15)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अकर्म कर्म, विकर्म और अकर्म ये तीनों ही शब्द परस्पर सम्बन्धित अर्थ के बोधक हैं। यहाँ कर्म शब्द से श्रुतिविहित वैदिक कर्म विवक्षित है। श्रुति द्वारा निबिद्ध कर्म विकर्म है। श्रुतिविहित कर्म का विच्छेद अकर्म है। कर्म का बोधक श्रुतिवाक्य सीधे कर्म विधायक होता है। किन्तु अकर्म का बोधक श्रुतिवाक्य साक्षात् कर्म का विधायक न होने पर भी उस कर्म का विच्छेद करने वाले व्यक्ति की निन्दा द्वारा परोक्ष रूप से उस कर्म का विधायक होता है (अ.भा.पृ. 850)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अकल पूर्ण अभेद की भूमिका पर ठहरने वाले प्राणी। शिव तत्त्व और शक्ति तत्त्व में ठहरने वाले सर्वथा शुद्ध एवं निर्मल प्राणी। शिव तत्त्व में ठहरने वाले अकल प्राणी शांभव प्राणी तथा शक्ति तत्त्व में ठहरने वाले अकल प्राणी शाक्त प्राणी कहलाते हैं। (तन्त्र सार , पृ. 74,75)। शांभव प्राणियों में प्रकाशरूपता का अधिक चमत्कार रहता है और शाक्त प्राणियों में विमर्शरूपता का। ये दोनों प्रकार के प्राणी अपने आपको शुद्ध, असीम पारमैश्वर्य से युक्त एवं परिपूर्ण संविद्रूप ही समझते हैं जहाँ परिपूर्ण ‘अहं’ का ही स्फुट आभास होता है तथा ‘इदं’ अंश ‘अहं’ में ही सर्वथा विलीन होकर रहता है तथा ‘अहं’ के ही रूप में रहता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अकलुषमति कालुष्य रहित बुद्‍धि वाला। यहाँ पर कालुष्य भावों अथवा विचारों से संबंधित कलुषता है, अर्थात् किसी कलुषित (मलिन) वस्तु या व्यक्‍ति को देखने से अथवा उसके स्पर्श से बुद्‍धि द्‍वेष, इच्छा या क्रोध जैसी कलुषित भावना उत्पन्‍न होने पर बुद्‍धि कलुषित हो जाती है। पाशुपत संन्यासी का उद्‍देश्य अकलुषमति होना होता है। अतएव उसे उस प्रयोजन के लिए द्‍वेष, इच्छा व क्रोध रूपी कालुष्य को उत्पन्‍न करने वाली कलुषित वस्तुओं को नहीं देखना होता है।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अकल्यकाल काल का वह अति सूक्ष्म रूप जिसकी कलना का स्फुट आभास नहीं होता है। ऐसा काल जिसमें क्रम होने पर भी तीव्रतर वेग होने के कारण उसकी क्रमरूपता का किसी भी प्रकार से आभास नहीं हो पाता है। सुषुप्ति एवं तुरीया अवस्थाओं में काल की गति तीव्रतर होती है यद्यपि वहाँ भी क्रम रहता ही है परंतु उस क्रमरूपता का स्फुट आभास नहीं होता है। उनमें से तुरीया में स्थित सूक्ष्मतर क्रमरूपता को अकल्यकाल कहते हैं। (तन्त्र सार , पृ. 49, 56)। शास्त्रों में इस काल की गणना शुद्ध विद्या से सदाशिव तत्त्व तक की गई है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अकालकलित परमशिव का परस्वरूप – जहाँ किसी भी प्रकार के काल की स्थिति नहीं होती है। काल के न होने के कारण वहाँ किसी भी प्रकार की क्रमरूपता भी विद्यमान नहीं रहती है, क्योंकि उस संविद्रूप पर प्रकाश में प्रमाता, प्रमाण तथा प्रमेय की त्रिपुटी समरस होकर प्रकाश के ही रूप में विद्यमान रहती है। (त. आत्मविलास, पृ. 134)। काल की कलना वहाँ होती है जहाँ क्रमरूपता का आभास हो। क्रमरूपता द्वैत के ही क्षेत्र में संभव हो सकती है। अकल्यकाल की कलना भी भेदाभेद के क्षेत्र में ही होती है, अभेद के क्षेत्र में नहीं। अतः अभेदमय परमशिव अकालकलित है। देखिए अकल्यकाल।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अकुलकुण्डलिनी योगिनीह्रदय की अमृतानन्द योगी कृत दीपिका टीका तथा भास्कर राय कृत सेतुबन्ध टीका (पृ. 38-43) में उद्धृत स्वच्छन्दसंग्रह नामक अद्यावधि अनुपलब्ध ग्रंथ के अनुसार मानव लिंग शरीर में सुषुम्णा नाड़ी के सहारे 32 पद्मों की स्थिति मानी गई है। सबसे नीचे और सबसे ऊपर दो सहस्त्रार पद्म अवस्थित हैं। नीचे अकुल स्थान स्थित अरुण वर्ण का सहस्रार पद्म ऊर्ध्वमुख तथा ऊपर ब्रह्मरन्ध्र स्थित श्वेतवर्ण सहस्रार पद्म अधोमुख है। इनमें से अधःसहस्रार को कुल कुण्डलिनी तथा ऊर्ध्व सहस्रार को अकुल कुण्डलिनी कहा गया है। अकुल कुण्डलिनी प्रकाशात्मक अकार स्वरूपा मानी जाती है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अकुलशिव कुलार्णव तन्त्र (17/27) में अकुल शब्द का अर्थ शिव तथा कुल शब्द का अर्थ शक्ति किया गया है। तन्त्रालोक (3-67) और उसकी व्याख्या में भी यही विषय प्रतिपादित है। किन्तु यहाँ शक्ति को कौलिकी कहा गया है। जिस परम तत्त्व से विविध विचित्रताओं से परिपूर्ण यह सारा जगत उत्पन्न होता है और उसी में लीन भी हो जाता है, वह परम तत्त्व शिव और शक्ति से परे है। उसी परम तत्त्व से अकुल शिव और कुल शक्ति की सृष्टि होती है। इस कौलिकी शक्ति से अकुल शिव कभी जुदा नहीं रहता। शिव को शाक्त दर्शन में अनुत्तर तत्त्व माना गया है। अनुत्तर शब्द अकार का भी नाम है। यह अकार ऐतरेय आरण्यक (2/3/6) के अनुसार समस्त वाङ्मय का जनक है। भगवद्गीता (10/32) में अपनी उत्कृष्ट विभूतियों का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि अक्षरों में मैं अकार हूँ। इसीलिये अकार को अकुल अक्षर भी कहा जाता है। अनेक ग्रंथों में उद्धृत, किन्तु अद्यावधि अनुपलब्ध ग्रंथ संकेतपद्धति में अकार को प्रकाश और परम शिव का स्वरूप कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि प्रकाशात्मक अकुल शिव अकुल अकार के रूप में अभिव्यक्त होकर इस विविध विचित्रतामय जगत की सृष्टि करता है। महार्थमंजरी की परिमल व्याख्या (पृ. 89) में महेश्वरानंद ने कुल, कौल और अकुल विभाग की चर्चा की है। नित्याषोडशिकार्णव की अर्थरत्नावली टीका के लेखक विद्यानन्द ने अकुल, कुल और कुलाकुल (पृ. 67) तथा अकुल, कुल, कुलाकुल, कौल और शुद्धकौल (पृ. 74) नामक भेदों का उल्लेख किया है। ‘कौल मत’ शब्द के विवरण में इनकी चर्चा की गई है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अकुशलकर्म व्यासभाष्य में कर्म कुशल और अकुशल दो प्रकार के कहे गए हैं (1/24)। योगानुकूल कर्म कुशल हैं तथा संसार में बाँधने वाले कर्म अकुशल हैं। धर्मकर्म कुशल हैं, अधर्मकर्म अकुशल हैं – यह भी कहा जा सकता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अक्रोध क्रोध की अनुपस्थिति। पाशुपत योग के अनुसार अक्रोध दस यमों में से एक प्रकार है। (पा. सू. को. भा. पृ. 15)। क्रोध चार प्रकार का कहा गया है – भावलक्षणक्रोध, कर्मलक्षणक्रोध, वैकल्यकर क्रोध तथा उद्‍वेगकर क्रोध। भावलक्षण क्रोध में असूया, द्‍वेष, मद, मान, मात्सर्य आदि मानसिक भाव उत्थित होते हैं। कर्मलक्षणक्रोध में कलह, वैर, झगड़ा आदि कलहपूर्ण कर्म उत्पन्‍न होते हैं। वैकल्यकारक क्रोध में हाथ, पैर आदि अंगों पर प्रहार होने से उनकी क्षति हेती है तथा उद्‍वेगकारक क्रोध में अपनी अथवा शत्रु की प्राणहानि होती है जो उद्‍वेग को जन्म देती है। पाशुपत दर्शन में इस चार प्रकार के क्रोध का पूर्णत: निषेध किया गया है। क्रोध को मनुष्य का बहुत बड़ा शत्रु माना गया है। जिसके कारण व्यक्‍ति की हर एक बात तथा हर एक कृत्य निष्फल हो जाते हैं। अतः अक्रोध नामक यम को पाशुपत दर्शन में अवश्य पालनीय माना गया है। (पा. सू. कौ. भा. पृ 25-27)

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अक्लिष्टवृत्ति चित्त की वृत्ति (चित्त-सत्त्व का परिणाम) जब अविद्यादि-क्लेशपूर्वक उदित नहीं होती, तब वह अक्लिष्टा कहलाती है। जब कोई वृत्ति क्लेशपूर्वक उदित नहीं होती, तब वह क्लेशमय वृत्ति को उत्पन्न भी नहीं करती; अतः उससे क्लेशमूलक कर्माशय का निर्माण भी नहीं होता। यह सत्त्वप्रधान अक्लिष्टवृत्ति अपवर्ग की सहायक होती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अक्षय पाशुयोगी का एक लक्षण।

पाशुपत योगी क्षय को प्राप्‍त नहीं होता है, अर्थात् जगत् के प्रलय के समय भी उसका क्षय नहीं होता है, क्योंकि शिवतुल्य बनने के कारण उसका महेश्‍वर (शिव) के साथ परिपूर्ण ताद्रूप्य होता है। स्थूल शरीर का क्षय तो अवश्यम्भावी है, परंतु युक्‍त साधक की आत्मा पूर्ण ऐश्‍वर्य की प्राप्‍ति हो जाने पर महेश्‍वर के साथ तुल्य रूप होकर चमकती रहती है। (पा. सू. कौ, भा. पृ. 47, 50)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अक्षयत्व पाशुपत सिद्‍धि का लक्षण।

महेश्‍वर के अपार ऐश्‍वर्य के साथ परिपूर्ण व नित्य ताद्रूप्य अक्षयत्व कहलाता है। (ऐश्‍वर्येण नित्य संबंधित्वमक्षयत्वम् – ग . का. टी. पृ. 10)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अक्षर बिंदु रत्नत्रय (श्लो. 22, 39, 53) प्रभृति ग्रंथों में बताया गया है कि जिस प्रकार बिंदु क्षुब्ध होकर एक ओर शुद्ध देह, इन्द्रिय, भोग और भुवन के रूप में परिणत होता है, उसी प्रकार दूसरी ओर यही शब्द की भी उत्पत्ति करता है। शब्द सूक्ष्म नाद, अक्षर बिंदु और वर्ण के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें अक्षर बिंदु सूक्ष्म नाद का कार्य है। शास्त्रों में मयूराण्डरस न्याय से इसको समझाया गया है। जिस प्रकार मयूर के अण्डे के रस में उसके शरीर और पंख के तरह-तरह के रंग अभिन्न भाव से अव्यक्त रूप में रहते हैं, उसी तरह से अक्षर बिंदु में स्थूल वाणी का संपूर्ण वैचित्र्य अव्यक्त रूप में अभिन्न भाव से रहता है। इसी को पश्यंती वाणी भी कहते हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अखण्ड ब्रह्माद्वैत शुद्धाद्वैत मत में अखण्ड और सखण्ड भेद से अद्वैतब्रह्म दो प्रकार का है। केवल ‘ब्रह्म’ इस आकार वाले विशेषण शून्य ज्ञान का विषय अखण्ड ब्रहमाद्वैत है तथा ‘इदं ब्रह्म’ इस प्रकार के इदमर्थ (प्रपञ्च) सहित ज्ञान का विषय ब्रह्म सखण्ड ब्रह्माद्वैत है। विशेषणमुक्त वस्तुमात्र अखण्ड है और विशेषणयुक्त वस्तु सखण्ड है (अ.भा.प. 1194)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अख्याति ख्याति = ज्ञान। अख्याति = अज्ञान। अज्ञान ज्ञान का अभाव न होकर वह अपूर्ण ज्ञान होता है जहाँ स्वप्रकाश का सर्वथा नाश नहीं होता है, क्योंकि स्वप्रकाश के सर्वथा नाश हो जाने पर तो अज्ञान का भान होना भी संभव नहीं हो सकता है। अपूर्ण ज्ञान को ही सभी भ्रांतियों का मूल कारण माना गया है। अतः भेद का मूल कारण अपने स्वरूप की अख्याति ही है। (ईश्वर प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी 2, पृ. 113)। परम शिव में संवित रूप में स्थित संपूर्ण विश्व का व्यावहारिक दशाओं में जो स्फुट रूप से आभास होता है वह परमेश्वर के स्वरूप गोपन से ही होता है। इस स्वरूप गोपन को ही अख्याति कहते हैं। (प्रत्यभिज्ञाहृदय , पृ. 51)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अंग वीर-शैव-दर्शन में अंग शब्द दीक्षा-संपन्‍न शुद्‍ध जीव का वाचक है। ‘अं गच्छतीति = अंगम्’ इस व्युत्पत्‍ति के अनुसार ‘अंग’ शब्द बनता है। ‘अं’ का अर्थ है पर शिव और ‘गच्छति’ का अर्थ प्राप्‍त करना है। यह जीव अनाद्‍यनंत परमतत्व को समरस भाव से प्राप्‍त करने का अधिकार रखता है, अतः उसे अंग शब्द से संबोधित किया जाता है- (अनु.सू.4/4)। इतना ही नहीं, परशिव का अंग अथवा अंश होने के कारण भी यह जीव अंग कहलाता है।

यह अंग लिंगतत्व का उपासक है। अतः लिंग और अंग में उपास्य – उपासक का संबंध है। उपास्य लिगंतत्व अपनी लीला से ‘भावलिंग’, ‘प्राणलिंग’ तथा ‘इष्‍ट-लिंग’ के नाम से प्रसिद्‍ध होता है। तदनुसार उपासक अंग भी योगांग, भोगांग और त्यागांग के भेद से तीन प्रकार का हो जाता है (अनु.सू. 4/5,6)।
क. योगांग –
परशिव के साथ साक्षात् योग अथवा तादात्म्य प्राप्‍त करन वाले अंग को ‘योगांग’ कहते हैं (अन.सू.4/6) सुषुप्‍ति-अवस्था में कारण शरीराभिमानी जीव भी, जिसे अन्य दर्शनों में ‘प्राज्ञ’ कहते हैं, यहाँ पर योगांग शब्द से जाना जाता है (अनु.सू. 4/10)। वस्तुत: ‘शरण’ तथा ‘ऐक्य’ इन दोनों स्थलों के साधकों को ही योगांग कहा जाता है, क्योंकि ‘शरण’ तथा ‘ऐक्य’ अवस्था में जीव को साक्षात् परशिव-स्वरूप का अनुभव होता रहता है (अन.सू.4/12)।
ख. भोगांग –

यहाँ पर ‘भोग’ शब्द शिव-प्रसाद के अर्थ में प्रयुक्‍त है। अतः अपभोग की सभी वस्तुओं को शिव को समर्पित कर उनका प्रसाद रूप से उपभोग करने वाला अंग भोगांग कहलाता है (अनु. सू. 4/7)। ‘प्रसादी’ एवं ‘प्राणलिंगी’ इन दोनों अवस्थाओं के साधकों को ‘भोगांग’ कहा जाता है, क्योंकि इन दोनों स्थलों के साधक अपनी साधना के बल से इस प्रपंच को शिवस्वरूप देखने के साथ-साथ सभी उपभोग्य वस्तुओं में शिव के प्रसाद की दृष्‍टि रखते हैं। (अनु. सू. 4/12)।

स्वप्‍नावस्था में सूक्ष्म शरीराभिमानी जीव को, जिसे अन्य दर्शनों में ‘तेजस’ नाम से जाना जाता है, वीर शैव दर्शन में ‘भोगांग’ कहते हैं। इसी को ‘अंतरात्मा’ भी कहा जाता है (अनु.सू. 4/14/16)।
ग. त्यागांग –

गुरु-कृपा से तथा अपनी साधना के बल से जिस साधक ने संसार की भ्रांति को त्याग दिया है, अर्थात् जिसकी भ्रांति छूट गयी है, उस अंग को त्यागांग कहते हैं (अनु.सू. 4/7)। यह ‘भक्‍त’ और ‘महेश’ स्थल के साधक की अवस्था है, क्योंकि इन दोनों स्थलों के साधक ‘मैं’ तथा ‘मेरा’ इस सांसारिक भाव से अलग होकर रहते हैं। (अनु. सू. 4/13)।

जाग्रतावस्था में स्थूल शरीर से व्यवहार करने वाला जीव, जिसे दर्शनांतर में ‘विश्‍व’ नाम से जाना जाता है, यहाँ पर त्यागांग है और इसे ‘जीवात्मा’ भी कहते हैं (अनु.सू 4/15,16)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

अंग – स्थल लिंग-स्थल’ के उपासक जीव को वीरशैव दर्शन में ‘अंग-स्थल’ कहा गया है। ‘लिंग’ और ‘अंग’ ये दोनों ‘स्थल’ तत्व के ही दो रूप है। इन्हें उपास्य और उपासक कहते हैं (अनु.सू. 2/10-13)। यह ‘अंग-स्थल’, ‘भक्‍त’, ‘महेश्‍वर’ ‘प्रसादी’ ‘प्राण-लिंगी’, ‘शरण’ और ‘ऐक्य’ के भेद से छः प्रकार का है। इन्हीं को ‘षट्‍स्थल’ भी कहते हैं। यह षट्‍स्थल-क्रम इस दर्शन की विशेषता है। ये जीव के शिवत्व प्राप्‍त करने की क्रमिक अवस्थाएँ हैं। अंग इन षट्‍स्थलों के द्‍वारा लिंगस्वरूप बन जाता है। यही इस अंग-स्थल या षट्‍स्थल का उद्‍देश्य है। इनमें ‘भक्‍त’ ‘महेश्‍वर’ और ‘प्रसादी’ क्रियाप्रधान हैं और ‘प्राणलिंगी’, ‘शरण’ तथा ‘ऐक्य’ ज्ञानप्रधान हैं (अनु.सू.4/43)। इस तरह षट्‍स्थल-मार्ग ज्ञान-कर्म-समुच्‍चित माना जाता है।

क. भक्‍त –

किंकर-भाव से वीर-शैव धर्म में प्रतिपादित ‘अष्‍टावरण’ पंचाचारों में श्रद्‍धा रखकर ‘इष्‍टलिंग’ की आराधना करने वाला दीक्षा-संपन्‍न शुद्‍ध जीव ही ‘भक्‍त’ कहलाता है। यह शरीर आदि में अनात्मत्व का निश्‍चय करके उनमें ममत्व-शून्य होकर सांसारिक विषयों में विरक्‍त रहता है और सत्य तथा पवित्र भाव से कोई एक उद्‍योग करके उससे उपार्जित द्रव्य से यथाशक्‍ति गुरु, लिंग, जंगम को अन्‍न आदि से संतृप्‍त करके अवशिष्‍ट भाग को प्रसाद रूप में ग्रहण करता है। यह इस धर्म में प्रतिपादित ‘तप’, ‘कर्म’, ‘जप’, ‘ध्यान’ और ‘ज्ञान’ इन शिव-पंचयज्ञों का आचरण करता रहता है। ‘तप’ का अर्थ है- शरीर-शोषण अर्थात् शिवपूजा निमित्‍त होने वाला शारीरिक परिश्रम। ‘कर्म’ है इष्‍टलिंग की पूजा। ‘जप’ का अर्थ है शिवपंचाक्षरी मंत्र, श्रीरुद्र अथवा ॐकार की पुन: पुन: आवृत्‍ति। ‘ध्यान’ है निरंतर साकार शिव का ही चिंतन। ‘ज्ञान’ का अर्थ शैवागम-प्रतिपादित तत्व विमर्श है। इस तरह भक्त-स्थल में प्रतिपादित ‘शिवपंच-यज्ञ’ आदि का तत्परता से आचरण करने वाला ही ‘भक्‍त’ कहलाता है। इस साधक को ‘भक्‍त-स्थल’ भी कहते हैं (सि.शि. 9/21-25, पृष्‍ठ 1244, 145; अनु.सू 4/33; अ.वी.सा.सं. भाग 2 पृष्‍ठ 79-80)।

ख. महेश्‍वर –

यह षटस्थल-साधक की दूसरी भूमिका मानी जाती है। जब ‘भक्‍त-स्थल’ के साधक की इष्‍टलिंग आदि में रहने वाली श्रद्‍धा दृढ़ होकर ‘निष्‍ठा’ बन जाती है, तब वह भक्‍त ही ‘महेश्‍वर’ कहलाता है। यह ‘महेश्‍वर-स्थल’ के नाम से भी जाना जाता है। इसका चित्‍त अत्यंत निर्मल हुआ रहता है। अतएव इसमें नित्य और अनित्य वस्तुओं का विवेक एवं ऐहिक तथा पारलौकिक सुखों में निःस्पृहता उत्पन्‍न होती है (सि.शि. 10/2,3 पृष्ठ 167) साधक की यह अवस्था क्रियाप्रधान है। अतः यह शिव को स्वामी और अपने को सेवक समझता है। यह इष्‍टलिंग-पूजारूप व्रत का कदापि लोप नहीं करता। इस व्रत में भयानक बाधाओं (सिरच्छेदन, संपत्‍ति का अपहरण आदि) के प्राप्‍त होने पर भी उनसे भयग्रस्त होकर यह अपना व्रत नहीं छोड़ता। (सि.शि. 10/1,2 पृष्‍ठ 172,173)। यह परस्‍त्री, परधन आदि में निःस्पृह रहता है। यह अविद्‍या आदि पंच क्लेशों से रहित होने के कारण सदा संतुष्‍ट रहता है। सभी प्राणियों पर दया करने की भावना इसमें जाग्रत् रहती है। यह अन्य देवताओं की अपेक्षा शिव को ही सर्वश्रेष्‍ठ मानता है और कदाचित् शिवापकर्ष का प्रसंग आने पर निवारण में अपने प्राण त्याग देने में भी संकोच नहीं करता। साधक का यह सत्वगुण का उद्रेक है। शिव के प्रति एतादृश निष्‍ठायुक्‍त महेश्‍वर ही ‘वीर – माहेश्‍वर’ कहलाता है। अतः यह ‘वी – माहेश्‍वर’ महेश्‍वर – स्थल का ही उत्कृष्‍ट साधक है। सि.शि. 10/13-20, पृष्‍ठछ 170,171; अनु.सू. 4/32; अ.वी.सा.सं. पृष्‍ठ 118-119)।

ग. प्रसादी –

प्रसाद गुण’ वाला साधक ही ‘प्रसादी’ कहलाता है। मन की प्रसन्‍नता को ‘प्रसाद’ कहते हैं। य प्रसन्‍नता शिव के अनुग्रह से ही प्राप्‍त होती है। इस प्रकार शिवानुग्रह से प्राप्‍त प्रसन्‍न मन का साधक ही ‘प्रसादी’ है। ‘मन: प्रसादयोगेन प्रसादीत्येष कथ्यते’ इस आचार्योक्‍ति के अनुसार सदा प्रसन्‍नचित्‍त रहना ही इस साधक का असाधारण लक्षण है। शुद्‍ध अन्‍न का सेवन मन की शुद्ऍधि में कारण माना गया है। अन्‍न तभी शुद्‍ध हो सकता है, जब शिव को समर्पित किया जाता है। शिवार्पित अन्‍न आदि भोज्य पदार्थों को ‘शिव निर्माल्य’ कहा जाता है। इसके सेवन से मन निर्मल हो जाता है। मन की निर्मलता ही प्रसन्‍नता का कारण बनती है। इसलिये यह साधक अवधान – भक्‍ति से युक्‍त होकर अपनी उपभोग्य वस्तुओं को शिव को समर्पित करके उस शिव- निर्माल्य का सेवन करता है। इसी प्रकार यह गुरु तथा जंगम को उपभोग्य वस्तुओं को समर्पित करता है और उन दोनों का भी अनुग्रह प्राप्‍त करता है। इस साधक में क्रिया के साथ भावना का भी प्राचुर्थ रहता है। वह अपनी क्रियाओं को पवित्र भाव से युक्‍त होकर सदा करता रहता है। शिवार्पण बुद्‍धि से कर्म करने के कारण यह प्रपंच में रहता हुआ भी उससे उसी प्रकार निर्लिप्‍त रहता है, जैसे पानी में रहने वाला पद्‍मपत्र उससे निर्लिप्‍त रहता है. इस साधक को ‘प्रसादि – स्थल’ भी कहते हैं (सि.शि. 11/2-18 पृष।ठ 193-198; अ.वी.सा.सं.भाग 2 पृष्‍ठ 179-181; अनु. यू. 4/31)।

घ. प्राणलिंगी –

प्राण – लिंग’ के उपासक को ‘प्राणलिंगी’ कहा जाता है, इसी को ‘प्राण – लिंगी -स्थल’ भी कहते हैं। यह साधक की चतुर्थ भूमिका है। पूर्वोक्‍त ‘भक्‍त’, ‘महेश्‍वर’ और ‘प्रसादी’ साधकों में क्रिय का प्राधान्य था। इस साधक में ज्ञान – योग का प्राधान्य है (सि.शि. 12/2 पृष्‍ठ)। योग – मार्ग की सूक्ष्म अनुभूति इस स्थल के साधक में होती है। प्राण तथा अपान वायु के संघर्ष से मूलाधार से जिस ज्योति स्वरूप का उदय होता है, उसी को शिवयोगियों ने ‘प्राण – लिंग’ कहा है। जिस प्रकार सूर्योदय के होने पर तुहिन कण उस सूर्य के प्रकाश में लीन हो जाते हैं, उसी प्रकार इस चिद्रूप ज्योति में प्राणवायु का भी विलय हो जाता है। अतः प्राणशक्‍ति विशिष्‍ट इस ज्योति को ‘प्राण – लिंग’ कह गया है (सि. शि. 12/6,7 पृष्‍ठ 2,3)। यह हृदय – कमल में दीपक के समान स्फुरित होता है। यही अपने चिद्रूप का भान है। इस चिद्रूप के बोध से इस साधक का जीवत्व-भ्रम छूट जाता हे। वस्तुत: इसी स्थल में साधक को स्वस्वरूप का साक्षात्कार होता है। इस साधक में ‘अनुभव – भक्‍ति’ रहती है, अर्थात् शिव का अनुभव इसी स्थल में होता है। यह बाह् य पूजा आदि क्रियाओं से परांगमुख होकर ‘भ्रमर-कीट-न्याय’ से निरंतर अंतर्लिंगानुसंधान करता रहता हे। इसी को ‘संविल्लिंग – परामर्शी’ कहते हैं। इस ज्ञान – ज्योति से इसकी सभी वासनायें उसी प्रकार नष्‍ट हो जाती हैं, जैसे अग्‍नि काष्‍ठ को भस्म कर देती है. (सि.शि. 12/8-12 पृष्‍ठ 3-5; अनु.सू. 4/30; अ.वी.सा.सं. भाग 2 पृष्‍ठ 192-193)।

ड. शरण –

जो शिव को ही अपना शरण अर्थात् अनन्य रक्षक मानता है, उसे ही ‘शरण’ कहते हैं। षट्‍स्थल – साधना की यह पाँचवी भूमिक है। यह शिव को ‘पति’ और अपने को ‘सती’ मानता है। लोक में जैसे सती और पति अभिन होकर सांसारिक सुख का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार यह साधक भी अपने पति रूप शिव के साथ अभेद – भाव से युक्‍त होकर अलौकिक आनंद का अनुभव करता है। अतएव इस ‘शरण – स्थल’ को ‘सती – पति – न्याय’ स्थल कहते हैं। यह साधक भी अपनी सब क्रियाओं को शिव के संतोष के लिये ही करता रहता है और शिव के संतोष को ही अपना संतोष समझता है। इनका ज्ञान और क्रिया में समन्वय रहता है, अर्थात् लोगों को जिन उत्‍तम आचरणों का अपदेस करत है उनका स्वयं भी आचरण करता रहता है। शिवानंद को प्राप्‍त इस साधक को सांसाकिर वासना उसी प्रकार प्रलोभित नहीं कर सकती जैसे गंगाजल से संतृप्‍त व्यक्‍ति को मृगमरीचिका। यह निरंतर ‘शिवोടहं’ भाव में ही लीन रहता है (सि.शि. 13/2-12 पृष्‍ठ 19-22; अ.वी.सा.सं. भाग 2 पृष्‍ठ 210-211; अनु.सू. 4/29)।

च. ऐक्य –

शिव के साथ एकता को प्राप्‍त साधक को – ऐक्‍य’ कहत हैं। यह साधक की अंतिम भूमिका है। ‘शरण-स्थल’ के साधक में रहने वाली ‘शिवोടहं’ भावना जब अत्यंत दृढ़ हो जाती है, तब वह ‘शरण’ ही शिव के साथ एक होकर ‘ऐक्य’ कहलाता है। यही शिव और जीव की समरस अवस्था कहलाती है। इस अवस्था में साधक का ‘आणव – मल’ संपूर्ण रूप से निवृत्‍त हो जाता है और यह अपने ही मूल शिव – स्वरूप में ऐसे समरस हो जाता है, जैसे जल में जल, ज्योति में ज्योति और आकाश में आकाश समरस होता है। इसी अवस्था को ‘शिखि – कर्पूर – न्याय’ से भी शास्‍त्रों में समझाया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि जैसे अग्‍नि के संपर्क से जीव की पृथक् स्थिति नहीं रह जाती। यही वीरशैवों की मुक्‍ति है। एतादृश अवस्था को प्राप्‍त जीवन्मुक्‍त मनीषी को वीरशैव दर्शन में ‘शिवयोगी’ कहा जाता है (सि.शि.14/1-15 पृष्‍ठ 31-35; अ.वी.सा. सं. भाग 2 पृष्‍ठ 240-242; सि.शि. 20/2 पृष्‍ठ 210; अनु.सू. 5/56; अनु.सू. 4/28)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अंग -लिंग-ऐक्य- देखिए ‘लिंगांग-सामरस्य’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अंगमेजयत्व अंगमेजयत्व का अर्थ है – अंगकंपनकारी का भाव अर्थात् अंग का कंपन। जब तक विक्षेप रहता है तब तक यह अंगकंपन विद्यमान रहता है (द्र. योगसूत्र 1/30)। एकाग्र होकर परिदर्शन करने पर यह कंपन सभी को अनुभूत होगा। यह अंगमेजयत्व अथवा अंगमेजय आसन-प्राणायाम का अभ्यास करने के काल में विशेषतः दिखाई देता है। यह कंपन शरीरगत राजस-तामस भाव के प्राधान्य का ज्ञापक है और धीरे-धीरे इसका दूरीकरण होता रहता है। अंगमेजय के नष्ट हुए बिना आसन की सिद्धि नहीं होती। ‘प्रयत्नशैथिल्य’ के अभ्यास से इस कंपन -रूप अस्थैर्य का नाश होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अग्निषोमात्मिका परमेश्वर की, सृष्टि, स्थिति, संहार आदि करने वाली पराशक्ति। परमेश्वर की वह अभिन्न शक्ति जिसमें सदाशिव, ईश्वर आदि से लेकर पृथ्वीपर्यंत सभी तत्त्वों को अपने में संहृत करने की अपूर्व सामर्थ्य है तथा जो संहार किए हुए सभी तत्त्वों को स्वेच्छा से पुनः सृष्ट करने के सामर्थ्य से युक्त भी है। समस्त प्रपंच को भस्मीभूत करने की तथा भस्मीभूत हुए समस्त प्रपंच को पुनः चित्र विचित्र रूपों में प्रकट करने की अलौकिक सामर्थ्य के ही कारण पराशक्ति को अग्निषोमात्मिका कहा जाता है। (शि.सू.वि., पृ. 19)। इसमें अग्नि संहार का तथा सोम सृष्टि का द्योतक है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अघाश्लेष विनाश नये पाप का उत्पन्न न होना और पूर्व में उत्पन्न हुए पाप का विनाश हो जाना अघाश्लेष विनाश है। मर्यादा भक्तिमार्ग में भक्त को ब्रह्म ज्ञान हो जाने पर भविष्य में पाप का अश्लेष (अनुत्पाद) होता है, तथा पूर्वार्जित पाप का विनाश हो जाता है। इसी प्रकार नये पुण्य का उत्पन्न न होना तथा पूर्व पुण्य का विनाश होना पुण्याश्लेष विनाश है (भा.सु.चौ.पृ. 1285)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अघोर ईश्‍वर का नामांतर। पाशुपत दर्शन में भगवान महेश्‍वर को कई रूपों वाला कहा गया है। उसके विलक्षण व नाना रूपों में एक रूप अघोर है। अघोर, जो घोर अर्थात् भयंकर नहीं है, अपितु जो शांत, शिवमय एवं अनुग्रह कारक रूप है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 89)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अघोर स्वच्छंदनाथ (देखिए) के पाँच मंत्रात्मक स्वरूपों में से पाँचवाँ स्वरूप। इस रूप में अवतरित होकर शिव भेदात्मक शैव शास्त्र का उपदेश करता है। प्रक्रिया की दृष्टि से साधना के क्रम में विद्या तत्त्व को परमेश्वर की क्रिया शक्ति की अभिव्यक्ति माना गया है। इसके अनुसार अघोर को विद्या तत्त्व तथा क्रिया शक्ति का सशरीर रूप माना गया है। (तं. आत्मविलास, 7-18)। स्वच्छंदनाथ के पाँच मुखों में से दक्षिणाभिमुख चेहरे का नाम भी अघोर है। अघोर मुख का वर्ण कृष्ण माना गया है। यह क्रिया शक्ति प्रधान तथा ब्रह्मस्थानीय जाग्रत अवस्था है। (मा. वि. वा., 1-347 से 352, 358 से 368)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अघोर शक्तियाँ ज्येष्ठा शक्ति के व्यूहात्मक अनंत शक्ति समूहों को अघोर शक्तियाँ कहा जाता है। संसार के जीवों की संख्या के अनुसार ही ज्येष्ठा शक्ति भी असंख्य रूपों को धारण करती है। यह शक्ति समूह जीवों को शिवभाव पर पहुँचाने के लिए उन्हें मोक्षमार्ग के प्रति प्रवृत्त करता रहता है। इसी शक्ति समूह के प्रभाव से जीवों में सद्गुरू के पास जाने की तथा मोक्ष शास्त्रों को पढ़ने की इच्छा होती है। इन्हें परा शक्तियाँ भी कहा जाता है। (मा.वि.तं., 3-33)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अघोरत्व अघोर रूप भगवान शिव का अपने कल्याणकारी नाना विश्‍वमय रूपों पर अधिष्‍ठातृत्व ही उसका अघोरत्व है, अर्थात् ईश्‍वर जिस शक्‍ति से भिन्‍न – भिन्‍न शिवमय रूपों में प्रकट होकर विश्‍व का कल्याण करता है, उसकी शक्‍ति का वह रूप अघोरत्व कहलाता है। (ग. का. टी. पृ. 11)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अघोरेश देखिए अनंतनाथ।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अज पाशुपत योगी का लक्षण। पाशुपत दर्शन के अनुसार असंग योगी अथवा युक्‍त साधक अज (अजन्मा) होता है। यहाँ पर अज से मातृगर्भ से जन्म न लेने से तात्पर्य नहीं है। वह तो साधक क्या असाधक सभी ने लिया ही होता है; अपितु जैसा कि ‘गणकारिका टीका’ में कहा गया है कि युक्‍त साधक की चित्‍तवृत्‍तियों का प्रादुर्भाव किसी भी विषय के प्रति नहीं होता है। उसके चित्‍त में विषयोन्मुखी वृत्‍ति का जन्म नहीं होता है, अर्थात् उसका चित्‍त समस्त बाह्य वृत्‍तियों से शून्य हो जाता है। (ग. का. टी. पृ. 16)। ऐसी चित्‍तवृत्‍तियों से शून्य साधक अज कहलाता है।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अजत्व युक्‍त साधक की अज की अवस्था में पहुँचने की स्थिति अजत्व कहलाती है।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अजपा जप प्राण की उच्छ्वास दशा में स्वाभाविक रूप से ‘हं’ का तथा निश्वास दशा में ‘सः’ का उच्चारण होता है। इस प्रकार प्राण की श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया में ‘हंसः सो हं’ इस अजपा गायत्री का स्वाभाविक रूप से दिन-रात अनवरत जप चलता रहता है। इसी को अजपा जप कहा जाता है। इसको अजपा इसलिये कहा जाता है कि यद्यपि अपरा अवस्था में इसके वाच्य वर्ण हकार और सकार का उच्चारण स्पष्ट होता है, किन्तु जब परा देवी इसको अपने में समेटे हुए अपने बाह्य स्वरूप का संवरण करती है, उस समय हकार के मस्तक पर स्थित बिन्दु रूप अनुस्वार का केवल बिन्दु के रूप में जप नहीं किया जा सकता। इस तरह से यह प्राण वृत्ति जब बाहर निकलती है, तब सकार के आगे विसर्ग के रूप में स्थित दो बिंदुओं का बिना अकार के उच्चारण नहीं हो सकता। इसीलिये ‘हंसः’ इस मंत्र की अजपा गायत्री के रूप में ख्याति है।

  तन्त्रालोक (3/170) के व्याख्याकार जयरथ ने सकार और हकार के उच्चारण से उत्पन्न जप को सहज, अर्थात् अकृत्रिम (स्वाभाविक) बताया है। यहाँ क्षपा (रात्रि) और दिन से क्रमशः अपान और प्राण का निर्देश किया गया है। वीरावली तंत्र में भी क्षपा और दिन शब्द से इन्हीं का ग्रहण किया गया है। श्रृति और स्मृति ग्रंथों में दिन और रात्रि का, प्राण और अपान का यमराज के कुत्तों के रूप में वर्ण है। यमराज के ये दूत पकड़ने न पायें, इसीलिये साधक योगी अजपा के अभ्यास के द्वारा प्राण और अपान की गति पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेता है और मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है।
  दिन-रात, प्राण और अपान की इस निरंतर गतिशीलता के कारण हंस मंत्र का एक अहोरात्र में 21600 बार जप पूरा हो जाता है। शरीर से प्राण की बहिर्मुखी गति के पूरा होने के बाद और अपान के पुनः शरीर में प्रवेश न करने तक इस जप की विधि पूरी हो जाती है। प्राण जब निकलते हैं, उस समय भी इस अजपा जप के साथ अपनी तन्मयता को बनाये रखना अनेक जन्मों में अर्जित अतिशय तत्त्वशुद्धि के कारण ही संभव हो सकता है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

अजपागायत्री यह माना जाता है कि दिन-रात में जीव 21600 बार श्वास-प्रश्वास लेता है। प्रत्येक श्वास-प्रश्वास में जप करने पर 21600 बार जप होता है। प्रश्वास में ‘हं’ और श्वास में स: – इस प्रकार दो अक्षरों का जप अजपा-गायत्री जप कहलाता है। यह ‘हंसमन्त्र’ कहलाता है। विपरीतक्रम से ‘सः हम्’ रूप दो अक्षरों का जप भी श्वास-प्रश्वास से करने की परम्परा है। यह ‘सोहम्’ मन्त्र (अर्थात् सः+अहम्=सोहम् -मैं वही हूँ) कहलाता है। अहोरात्र इस जपक्रिया में मन को संलग्न रखने से चित्त निरोधाभिमुख हो जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अजर पाशुपत साधक का लक्षण। पाशुपत दर्शन के अनुसार युक्‍त योगी को जरा अर्थात् वृद्‍धावस्था स्पर्श नहीं करती है। वृद्‍धावस्था के साथ – साथ होने वाले शारीरिक परिवर्तन (जैसे इंद्रियों की शक्‍तिहीनता आदि) पाशुपत योगी को नहीं होते हैं; क्योंकि उसने इंद्रियों पर विजय प्राप्‍त कर ली होती है। वह इंद्रियों की सहायता के बिना ही अपनी स्वतंत्र इच्छा के अनुसार भिन्‍न – भिन्‍न रूपों को धारण करने में समर्थ होता है। अत : इंद्रियों के अधिष्‍ठानों की शिथिलता या आयु का क्रमिक क्षय उस योगी के लिए बाधक नहीं बनते हैं। अतएव पाशुपत योगी को अजर कहा गया है।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अजरत्व पाशुपत सिद्‍धि का लक्षण। शरीर व इंद्रियों के परिवर्तन से प्रभावित न होना अर्थात् जराभाव के प्रभाव से पूर्णरूपेण मुक्‍तता की अवस्था अजरत्व कहलाती है। (ग. का. टी. 10)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अज्ञान संकुचित ज्ञान। अपने आपको शुद्ध संवित् रूप की अपेक्षा शून्य, प्राण, बुद्धि, देह आदि जड़ पदार्थ तथा अपने में सर्वशक्तिमत्त्व की अपेक्षा अपने आपको अल्पज्ञता एवं अल्पकर्तृत्व वाला समझना अज्ञान कहलाता है। इस प्रकार से अज्ञान ज्ञान के अभाव को नहीं, अपितु ज्ञान के संकोच को कहते हैं। अज्ञान दो प्रकार का होता है :- पौरुष एवं बौद्ध (देखिए)। (तन्त्रालोक, 1-25, 26, 36)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अज्ञान हानि विशुद्‍धि का एक प्रकार। पाशुपत साधक के सभी मलों की हानि अर्थात् समाप्‍ति जब होती है तब वह अज्ञान हानि नामक विशुद्‍धि को प्राप्‍त कर लेता है। योग साधना से पूर्व वह अपने आप को अनीश्‍वर अर्थात् अल्पशक्‍ति, अल्पज्ञ, अल्पकर्ता आदि समझता रहता है। यही उसका अज्ञान कहलाता है। परंतु योग के परिपक्‍व हो जाने पर वह अपने को दिव्याति दिव्य ऐश्‍वर्य से युक्‍त जब समझने लगता है तो उसके पूर्वोक्‍त अज्ञान का नाश हो जाता है। यही उसकी अज्ञान हानि कहलाती है। (ग. का. टी. पृ. 7)

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अंड पृथ्वी इत्यादि पाँच भूतों से मंडित शक्ति तत्त्व से नीचे अनंत वैचित्र्य युक्त समस्त प्रपंच को ही अंड कहते हैं। एक एक व्यक्ति को पिंड कहते हैं। वस्तुतः अंड और पिंड में कोई भेद नहीं माना गया है। (महार्थमंजरी परिमल, पृ. 80)। काश्मीर शैव में अंड को भिन्न भिन्न तत्त्वों एवं भुवनों के विभाग का कारण माना गया है। सभी तत्त्वों और भुवनों को चार अंडों में विभक्त किया गया है। इस तरह से चार अंड प्रपंच के चार क्षेत्र हैं। चार अंड इस प्रकार हैं – पार्थिव, प्राकृत, मायीय तथा शाक्त। शक्ति अपने पूर्ण विश्वमय रूप में जब विकसित होती है तो उसका विश्वोत्तीर्ण रूप छिप जाता है। इस प्रकार से चार स्तरों में बँटा हुआ यह प्रपंच पराशक्ति का आवरण है। आवरण रूप होते हुए प्रपंच के चार स्तरों को चार अंड कहते हैं। चार अंडों का समीकरण प्रतिष्ठा आदि चार कलाओं से किया जाता है। ठोस पृथ्वी स्थूलतम अंड है। जल से मूल प्रकृति तक का आवरण सूक्ष्म अंड है। माया और कंचुक सूक्ष्मतर अंड है और सूक्ष्मतम अंड उससे ऊपर सदाशिवांत शुद्ध तत्त्वों वाला अंड है। इसलिए अंड को आवरण भी कहा गया है। (तन्त्र सार , पृ. 110)।

  चतुष्टय → पार्थिव अंड, प्राकृत अंड, मायीय अंड तथा शाक्त अंड।
दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अणु योगसूत्र-व्यासभाष्य (1/45) में ‘पार्थिव अणु’ शब्द आया है। व्याख्याकारों ने अणु को परमाणु कहा है जो पार्थिव, जलीय, आग्नेय, वायवीय एवं आकाशीय भेद से पाँच प्रकार का है; द्र. परमाणु शब्द। इसी प्रकार 1/43 भाष्य में ‘अणुप्रचय’ शब्द है, जहाँ अणु का अर्थ परमाणु है (द्र. टीकाएँ)। ‘अत्यन्त अल्प परिमाण से युक्त’ अर्थ में भी अणु शब्द विशेषण के रूप में योगग्रन्थों में प्रयुक्त हुआ है। ब्रह्माण्ड को प्रधान का ‘अणु-अवयव’ कहा गया है (व्यासभाष्य 3/26)। यहाँ अणु उपर्युक्त अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार सूक्ष्म या परम सूक्ष्म या दुरधिगम के अर्थ में भी विशेषण अणु शब्द का प्रयोग मिलता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अणु मायीय प्रमाता। संकुचित प्रमाता। अपने शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण अहंभाव का सतत् परामर्श करने में असमर्थ होने के कारण अपने आप को सदैव संकुचित ही समझने वाला जीव। जीव अपने आप को सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान् न समझता हुआ अपने को सीमित ही समझता रहता है, इसी कारण इसे अणु कहा जाता है। (महार्थमंजरी परिमल, पृ. 31, तन्त्र सार , पृ. 6)। इसके अन्य नाम हैं – पशु युमान्, पुरुष इत्यादि।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अणु सदाशिव अधिकार अवस्थापन्न शिव सकल है। वे बिन्दु से अवतीर्ण और अणु सदाशिवों से आवृत हैं। यह सब सदाशिव वस्तुतः पशु आत्मा हैं, शिवात्मा नहीं हैं। इनमें कुछ आणव मल शेष रहता है। इससे उस समय इनकी ज्ञान-शक्ति और क्रिया-शक्ति का कुछ संकोच रहता है। ये शिव के समान पूर्ण रूप से अनावृत शक्ति संपन्न नहीं होते। यद्यपि ये भी मुक्त पुरुष हैं, तथापि सर्वथा मलहीन न होने से अभी तक इन्हें परा मुक्ति या शिवसाम्य प्राप्त नहीं हुआ है। सदाशिव भुवन के अधिष्ठाता होने से परमेश्वर को भी सदाशिव कहा जाता है। वे स्वयं शिव हैं और पूर्वोक्त अणु सदाशिवों को अपने-अपने भुवन के भोग में नियोजित करते हैं। मृगेन्द्र तंत्र प्रभुति शैवागम के ग्रंथों के आधार पर इस विषय का वर्णन ‘भारतीय संस्कृति और साधना’ नामक ग्रंथ के प्रथम भाग (पृ. 28) में मिलता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अणुप्रचय अणुओं का प्रचय अर्थात् संगृहीत या एकत्रित होना। सांख्ययोगीय दृष्टि के अनुसार बाह्य विषय अणुप्रचय-विशेषात्मा (अणुओं के एक प्रकार का प्रचय ही जिसका स्वरूप है, वह अणुप्रचय विशेषात्मा) है। अणुओं के प्रचयविशेष के होने के कारण ही घट आदि स्थूल पदार्थ पार्थिव आदि परमाणुओं से परमार्थतः अभिन्न होने पर भी व्यवहारतः भिन्न होते हैं (वाचस्पति टीका 1/43)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अण्डघट अण्डघट’ इस पद से ब्रह्माण्ड गृहित होता है। यह अण्डघट प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन आठ आवरणों से ढँका है। घट शब्द शरीर का भी बोधक होता है। इस प्रकार यह ब्रह्माण्ड ब्रह्म का शरीर रूप है, जो उक्त आठ आवरणों से आवृत है (भा.सु. 10/14/11 वृंदावन प्रकाशन)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अंतःकरण करण (इन्द्रियाँ) दो प्रकार का माना जाता है – बाह्यकरण तथा आन्तर करण (या अंतःकरण)। जिसका विषय बाह्य वस्तु नहीं है, वह अंतःकरण है। (बाह्य विषय रूपादियुक्त एवं विस्तारयुक्त होते हैं)। बाह्य विषय से संबंधित स्मृति-कल्पना-चिंतनादि करना अंतःकरण का व्यापार है। सांख्य, योग तथा अन्यान्य कई शास्त्रों में अंतःकरण त्रिविध माना गया है – मन, अहंकार तथा बुद्धि (किसी-किसी संप्रदाय में चित्त को भी अंतःकरण माना जाता है; किसी-किसी का यह भी मत है कि अंतःकरण एक है, व्यापार-भेद से उनके तीन या चार भेद होते हैं)। (द्र. मन, बुद्धि तथा अहंकार शब्द)। बाह्य करणों को अंतःकरण का विषय भी माना जाता है (द्र. सांख्यकारिका 33), क्योंकि इन करणों के विषयों का उपभोग आन्तर करण ही करते हैं। किंतु बाह्य करण आन्तर द्वारा अधिष्ठित होकर ही स्व-स्व विषय के ग्रहण में समर्थ होता है। सर्वोच्च अंतःकरण बुद्धि है। सभी बाह्यकरण तथा मन एवं अहंकार बुद्धि को विषय-समर्पण करते हैं (सांख्यकारिका 36)। त्रिविध आन्तर करण त्रिकालव्यापी विषयों से संबंधित होते हैं – यह भी बाह्य करण से उनका भेद है। अंतःकरण की चिंतन-प्रक्रिया को छः भागों में बाँटा गया है, जो इस प्रकार है – ग्रहण=वस्तु-स्वरूप-ग्रहण मात्र; धारण=वस्तु-विषयक स्मृति या चिंतन; ऊह=वस्तुगत विशेषों को जानना; अपोह=समारोपित गुणों का अपनय या विचारपूर्वक कुछ गुणों का निराकरण; तत्त्वज्ञान=ऊहापोह द्वारा विषय-स्वरूप-विचार; अभिनिवेश=विषय की उपादेयता-हेयता से संबंधित विचार या तदाकारता-प्रतिपत्ति (मतान्तर में)। (स्वामी हरिहरानंद-कृत योगदर्शन व्याख्या में इनका स्वरूप कहीं-कहीं पृथक् रूप से दिखाया गया है)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अंतरंग योग संप्रज्ञात योग के साधन यद्यपि आठ योगांग ही हैं, तथापि अंतिम तीन योगांग (धारणा, ध्यान एवं समाधि) ही इसके अंतरंग साधन माने जाते हैं। यम आदि पाँच अंग – मुख्यतया शरीर, मन आदि को मलहीन करते हैं, अतः वे संप्रज्ञातयोग के बहिरंग साधन ही होते हैं। व्याख्याकारों का कहना है कि समान विषय होकर जो जिसका साधन होता है, वह साक्षात् उपकारक होने के कारण उसका अंतरंग साधन है। धारणादि-त्रय के साथ संप्रज्ञात का विषयसाम्य रहता है, अतः ये अंतरंग साधन होते हैं। ये तीन असंप्रज्ञात योग के अंतरंग नहीं हो सकते, क्योंकि धारणा-ध्यान-समाधि-समुदाय रूप जो संयम है, उसका अपगम होने पर ही असंप्रज्ञात समाधि का आविर्भाव होता है। चूंकि असंप्रज्ञात समाधि निर्विषय (=निरालंबन) है, अतः आलंबन -प्रतिष्ठ धारणा-ध्यान-समाधि असंप्रज्ञात योग का बहिरंग साधन ही हो सकते हैं। चूंकि संप्रज्ञात का अधिगम करने के बाद उसका अतिक्रमण करके ही कोई असंप्रज्ञात समाधि को सिद्ध कर सकता है, अतः धारणादि को असंप्रज्ञात का बहिरंग साधन मानना ही संगत है। (द्र. योग सू. 3/7 -8)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अंतराय चित्त को विक्षिप्त करने वाले विघ्न ‘अंतराय’ कहे जाते हैं। व्याधि आदि नौ अंतरायों की गणना 1/30 योगसूत्र में मिलती है। अन्यान्य योगग्रंथों में तथा पुराणादि में भी अंतरायों की चर्चा मिलती है। इनमें कहीं-कहीं योगसूत्रानुसारी विवरण मिलता है और कहीं-कहीं किंचित् पृथक विवरण भी मिलता है। योगसूत्र में जिन नौ अंतरायों की गणना है, उनसे अतिरिक्त कुछ अंतरायों के नाम इस प्रकार हैं – (कहीं-कहीं ‘विघ्न्’ शब्द भी प्रयुक्त हुआ है) – दूरदर्शन, दूरश्रवण, सिद्धियाँ, काम, क्रोध, भय, स्वप्न, स्नेह, अतिभोजन, अस्थैर्य, लौल्य, अश्रद्धा।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अंतर्धान यह सिद्धिविशेष का नाम है। योगी संयम के बल पर स्वशरीर-गत रूप, स्पर्श, शब्द, रस एवं गंध को इस रूप में स्तंभित कर सकते हैं कि वे किसी के द्वारा ग्राह्य न हो सके। योगसूत्र (3/21) में शरीरगत रूप के स्तंभन से अदृश्य हो जाने का विवरण दिया गया है। यह उपलक्षणमात्र है। रूप की तरह शरीरगत रसादि गुणों को भी स्तंभित कर उनको अन्य व्यक्तियों की इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य किया जा सकता है – यह व्याख्याकारों ने कहा है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अतिक्रान्तभावनीय योगांग-अभ्यास द्वारा जब वृत्तिनिरोघ वस्तुतः होता रहता है तथा योगज प्रज्ञा प्रकटित होती रहती है, तब साधक योगी कहलाता है। योगियों के चार भेद (उत्कर्षक्रम के अनुसार) योगपरम्परा में स्वीकृत हुए हैं – कल्पिक, मधुभूमिक, प्रज्ञाज्योतिः तथा अतिक्रान्तभावनीय (द्र. व्यासभाष्य 3/51)। अतिक्रान्तभावनीय सर्वोच्च स्तर के योगी को कहते हैं। ऐसे योगी में कुछ भी भावनीय (अर्थात् विचारणीय एवं संपादनीय) नहीं रह जाता। यह छिन्नसंशय, एवं हृदयग्रन्थिभेदकारी होता है। इसमें प्रान्तभूमि प्रज्ञा पूर्णतः रहती है, अतः इसका कर्म निवृत्त हो जाता है। स्वचित्त को चिरकाल के लिए प्रलीन करना (अर्थात् पुनरुत्थानशून्य करना) ही इनका अवशिष्ट कार्य रहता है। यही जीवन्मुक्त अवस्था है। अतः ऐसे योगी का वर्तमान देह ही अन्तिम देह होता है। (द्र. योगसूत्र 3/51 की भाष्य टीकायें)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अतिगति श्रेष्‍ठ अवस्था। अतिगति परिपक्‍व पाशुपत योगी का एक लक्षण है। यह पाशुपत योग से प्राप्‍त होनेवाली वह श्रेष्‍ठ अवस्था होती है जिसे शिव तुल्यता कहते हैं। पाशुपत मत के अनुसार सिद्‍ध साधक अतितप या तप के द्‍वारा अतिगति अथवा परदशा को प्राप्‍त कर लेता है अर्थात् मुक्‍ति की अवस्था को प्राप्‍त करता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 69)। स्वर्गादि प्राप्‍ति या देवयान आदि गतियाँ सब गतियाँ कहलाती हैं। कौडिन्य ने तो सांख्य की कैवल्य अवस्था को भी गतियों में ही गिना है, क्योंकि सांख्य साधक उस अवस्था में प्रवेश करता है। पाशुपत योगी तो इस संसार में रहता हुआ ही अपने दिव्यातिदिव्य ऐश्‍वर्य को जब हृदयंगम कर लेता है तो वह इसी संसार में रहते हुए ही शिवतुल्य बन जाता है। अतः उसकी ऐसी अवस्था सभी गतियों से अतिक्रांत होती हुई अति गति कहलाती है।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अतितप श्रेष्‍ठ तप का एक लक्षण। पाशुपत योग के अनुसार साधक को अतितप करना होता है। यह अतितप असाधारण अवस्थाओं की प्राप्‍ति में होता है। जैसे साधक का समस्त सुख, दुःख, दान, यज्ञ आदि से परे पहुँचना ही अतितप होता है। अर्थात् साधक को उस अवस्था में पहुँचना होता है जहाँ उसे सुख – दुःख आदि द्‍वंद्‍व स्पर्श नहीं करते हैं तथा उसे किसी यज्ञ या दानादि कृत्य करने की आवश्यकता नहीं रहती है। (पा. सूत्र कौ. भा. पृ. 69)। गणकारिका में अतितप को ताप कहा गया है और इसे चर्या का एक प्रकार माना गया है। समस्त द्‍वंद्‍वों का कोई प्रतीकार न करते हुए, उनको अति सहिष्णु होकर सहना ही ताप या अतितप होता है। (ग. का. टी. पृ 17)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अतिदत्‍तम् पर्याप्‍त से अधिक मात्रा में दान देना। अतिदत्‍तम् पाशुपत साधक के लिए सिद्‍धि का एक सोपान है, परंतु दान शब्द से यहाँ पर गोओं, भूमि, धन आदि के दान से तात्पर्य नहीं है; अपितु अपनी आत्मा का दान ही पाशुपत मत में सर्वश्रेष्‍ठ दान है। यह दान अन्य सभी दानों से अतिक्रांत होता हुआ अतिदत्‍तम् कहलाता है। यह दान चर्या का एक प्राकर है, जहाँ साधक को अपने आप को ही ईश्‍वर के प्रति दान करना होता है। साधक अपने अशक्‍त और संकुचित जीवभाव को सर्वशक्‍तिमान् परिपूर्ण ऐश्‍वर्यभाव में विलीन कर देता है। इस तरह से मानो वह अपने आपका ही दान करता है। भूमि, धन आदि के दान से तो अस्थायी पुण्यफल की प्राप्‍ति होती है, लेकिन आत्मदान में स्थायी फल अर्थात् सद्‍सायुज्य की प्राप्‍ति होती है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 58)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अतीतानागतज्ञान यह एक सिद्धि है। किसी त्रैगुणिक वस्तु की अतीत अवस्था एवं अनागत अवस्था का जो ज्ञान (प्रत्यक्षज्ञान) होता है, वह अतीतानागतज्ञान कहलाता है। परिणामत्रय (धर्म, लक्षण और अवस्था नामक तीन परिणाम) में संयम करने से यह ज्ञान होता है, यह योगसूत्र 3/16 में कहा गया है। कई व्याख्याकारों का कहना है कि इस सिद्धि के कारण वस्तु पर योगी की दृढ़ अनित्यताबुद्धि होती है, जिससे वे वैराग्य में सुप्रतिष्ठित होते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अतीष्‍टम् श्रेष्‍ठ यज्ञ। पाशुपत मत के अनुसार शिवमंदिर में भस्मस्‍नान या क्राथन, स्पंदन आदि कृत्य अतीष्‍ट अर्थात् अतियजन हैं। वैदिक प्रक्रिया के अनुसार होने वाले अग्‍निष्‍टोम आदि यज्ञों में तो हिंसा के अनुस्यूत रहने से उनसे मिलने वाला फल संकीर्ण तथा अस्थायी होता है जो शीघ्र ही क्षीण होनेवाला होता है, परंतु पाशुपत मत के अनुसार अपने आपके साथ ही क्राथन, मंदन आदि के द्‍वारा किया जाने वाला साधक का हिंसा आदि से रहित यज्ञ श्रेष्‍ठ यज्ञ है जिसे अतीष्‍टम् अर्थात् साधारण यज्ञों को अतिक्रमण करनेवाला याग कहते हैं। यह याग भी चर्या का एक प्रकार है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 68)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय (जाति-आयु-भोग का हेतु भूत संस्कार-विशेष) दो प्रकार का होता है दृष्टजन्मवेदनीय तथा अदृष्टजन्मवेदनीय। वर्तमान जन्म (शरीरधारणकाल) में जिसका फल अनुभूत नहीं होता, पर आगामी जन्म में अनुभूत होता है वह अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय है। जाति, आयु और भोग विपाक (फल) कहलाते हैं। अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय (जो जाति आदि तीन फल देते हैं) की तीन गतियाँ हो सकती हैं, (1) फल न देकर ही कर्मों का नाश हो जाना (यह नाश विरुद्ध कर्म से या ज्ञान से होता है), (2) प्रधान कर्म (जो स्वतन्त्र रूप से फलप्रसू होता है, वह) के साथ ही अप्रधान कर्मों का फलीभूत होना (इससे फल क्षीणबल हो जाता है) तथा (3) अधिकबलशाली कर्म द्वारा अभिभूत होने के कारण दीर्घकाल पर्यन्त (अर्थात् दो -तीन जन्म -पर्यन्त) फल देने में समर्थ न होना। अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय जीवन्मुक्तों का नहीं रहता, क्योंकि सभी प्रकार के क्लेशों की शक्ति (फलोत्पादनयोग्यता) नष्ट हो जाने के कारण उनको पुनः देहधारण नहीं करना पड़ता।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अद्वय / अद्वैत जहाँ द्वैत तथा द्वैताद्वैत एकरस रूप में चमकते हैं। जहाँ व्यावहारिक सत्ता एवं पारमार्थिक सत्ता अपने समस्त वैविध्य सहित, द्वैत रहित संवित् रूप में ही आभासित होती हैं। द्वय एवं द्वय के भाव से भी रहित शुद्ध तथा परिपूर्ण प्रकाश रूप अवस्था। किसी भी प्रकार के भेद से रहित अवस्था को ही अद्वय या अद्वैत कहते हैं। (मा.वि.वा., 1-621 से 629)। अद्वय और अद्वैत में मूलतः कोई अंतर नहीं है। केवल शब्दार्थ को ही दृष्टि में रखते हुए इन्हें क्रमशः दो के अभाव की अवस्था कहा जा सकता है। अभिनवगुप्त ने दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अवस्था को द्योतित करने के लिए किया है। (वही)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अधर्म मल का एक प्रकार। भासर्वज्ञ के अनुसार पाप का बीज किंवा पाप ही अधर्म कहलाता है (ग. का. टी. पृ. 22)। अधर्म मल का दूसरा प्रकार है। इसके प्रभाव से प्राणी को नरकवास आदि सहन करना पड़ता है और जीवन के दुखों को झेलना पड़ता है। ये सभी अवस्थाएँ शोधनीय होने के कारण मलों में गिनी गईं हैं।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अधर्महानि विशुद्‍धि का द्‍वितीय प्रकार। पाशुपत योगी में जब योग साधना के बल से समस्त अधर्मों का नाश होता है तो उसकी वह शुद्‍धि अधर्महानि कहलाती है। (ग. का .टी . पृ. 7)। साधक के संचित पापकर्मों के भंडारों के होते हुए भी वे उसे प्रभावित नहीं कर सकते हैं, न ही उसे पुन: संसृति में उलझा सकते हैं। उसकी ऐसी महिमा अधर्महानि कहलाती है।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अधिकार व्यासभाष्य (2/23) में अधिकार का अर्थ हैं – ‘गुणों का कार्यारंभ-सामर्थ्य’। ‘स्वकार्यजननक्षमता’ के अर्थ में अधिकार शब्द व्यासभाष्य के कई स्थलों में प्रयुक्त हुआ है (1/50 आदि)। महत्तत्त्व आदि परिणाम गुणों के कार्य हैं – इस दृष्टि से ‘परिणामविशेष’ के अर्थ में भी ‘अधिकार’ शब्द का प्रयोग होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अधिपति परमेश्‍वर का एक नामान्तर। ब्रह्मा आदि सभी देवगण अपने – अपने अधिकार क्षेत्र के पति हुआ करते हैं। भगवान शिव ब्रह्माण्ड के संचालक ब्रह्मा आदि देवाधिदेवों तथा इन्द्र आदि देवताओं के ऊपर भी शासन करता हुआ अपनी इच्छा से ठहराई हुई नियति के नियमों के अनुसार उन्हें चलाता रहता है, तथा उन पर भी निग्रह अनुग्रह आदि करता हुआ उन पतियों पर भी अपने उत्कृष्‍टतम आधिपत्य को निभाता हुआ सभी का अधिपति कहलाता है। (पा. सू. कौ. भा. प. 12)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अधिष्ठान कर्तृत्व शुद्ध ब्रह्म स्वतः कर्त्ता न होकर अधिष्ठाता के रूप में ही संपूर्ण कार्यजगत् का कर्ता होता है तथा ब्रह्म से अधिष्ठित होकर ही माया जगत् का उपादान कारण बनती है क्योंकि स्वयं अचेतन होने से माया स्वतः क्रियाशील नहीं हो सकती है। जैसे, सारथि से अधिष्ठित ही रथ क्रियाशील होता है। यही जगत् के प्रति ब्रह्म का अधिष्ठान कर्तृत्व है (भा,सु,वे,प्रे,पृ. 140)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अध्यवसाय सांख्य में बुद्धि (महत्तत्त्व) का असाधारण धर्म अध्यवसाय कहा गया है। अध्यवसाय को व्याख्याकारों ने ‘निश्चय रूप’ (‘यह ऐसा है’ अथवा ‘यह कर्तव्य है’ – इस प्रकार का निश्चय) कहा है। अध्यवसाय का उपर्युक्त लक्षण स्थूल है – ऐसा किन्हीं आचार्यों का कहना है। इन्द्रिय द्वारा अधिकृत विषय (=वैषयिक चांचल्य) का अवसाय (=समाप्ति) अर्थात् वैषयिक चांचल्य की ज्ञान रूप से परिणति ही अध्यवसाय (अधि+अवसाय) है – यह उनका मत है। व्यावहारिक आत्मभाव का सूक्ष्मतम रूप ही महत्तत्त्व है; अतः सभी वैषयिक ज्ञानों में अध्यवसाय सूक्ष्मतम है। मन और अहंकार का व्यापार रुद्ध होने पर जो ज्ञान उदित रहता है, वह महत्तत्त्व का अध्यवसाय है – यह योगियों का कहना है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अध्यात्मप्रसाद निर्विचार समापत्ति में जब कुशलता हो जाती है, तब अध्यात्मप्रसाद उत्पन्न होता है (योगसू. 1/47) प्रायः सभी व्याख्याकार इस अध्यात्मप्रसाद को प्रज्ञालोक की तरह मानते हैं, जो तत्त्व एवं तत्त्वनिर्मित पदार्थों के प्रकृत गुणादि को प्रकट करता है। यह ज्ञान क्रमिक नहीं होता बल्कि युगपत् सर्वार्थग्राही होता है। कुछ व्याख्याकारों का कहना है कि समापत्ति का अधिगम होने पर जो करण-प्रसाद (करण=सभी इन्द्रियाँ) होता है, वहीं अध्यात्मप्रसाद है। यह करणों का प्रशान्तभाव है, जो सात्त्विक प्रवाह से होता है। अध्यात्मप्रसाद से युक्त करणशक्ति ही वस्तु के सूक्ष्मतम अंशों को प्रकट करने में समर्थ होती है। कठ उपनिषद् में जो ‘अध्यात्मप्रसाद’ शब्द है (1/2/20) वही ‘धातुप्रसाद’ है, ऐसा कुछ विद्धान समझते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अध्यारोपापवाद न्याय अन्य में अन्य के तादात्म्य की बुद्धि या अन्य के धर्म की बुद्धि अध्यारोप है। इसे ही भ्रम शब्द से भी कहा जाता है। अधिष्ठान साक्षात्कार के अनन्तर अध्यारोप की निवृत्ति अपवाद है। जैसे, शुक्तित्व या रज्जुत्व का साक्षात्कार हो जाने पर रजतत्त्व या सर्पत्व का भ्रम निवृत्त हो जाता है। उक्त अध्यारोप और अपवाद की पद्धति ही अध्यारोपापवाद न्याय है (अ.भा.पृ. 507)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अध्यास जिसमें जो धर्म नहीं है, उसमें उस धर्म का बोध होना अध्यास है। यह आरोप भी कहलाता है। सांख्य में आत्मा-अनात्मा का अध्यास स्वीकृत हुआ है। वहाँ बुद्धि को जड़ और उसमें चेतन पुरुष का प्रतिबिम्बित होना माना गया है जिससे इनमें भेद प्रतीत नहीं होता और एक का धर्म अन्य में आरोपित होता है, अर्थात् जड़बुद्धिगत कर्तृत्व का आरोप अपरिणामी पुरुष में होता है तथा पुरुष की चेतनता का आरोप बुद्धि में होता है। अध्यास का उदाहरण योगसूत्र 3/17 में मिलता है – वह है शब्द, अर्थ और शब्दजन्य ज्ञान (प्रत्यय) का इतरेतराध्यास।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अध्वन् आणवोपाय के स्थान-कल्पना नामक योग में धारणा के आलंबन बनने वाले कालाध्वा एवं देशाद्धवा नामक बाह्य वस्तु की उपासना के मार्ग। तन्त्र सार , पृ. 47। अध्वन् (अशुद्ध) – आणवोपाय के भेदात्मक आलंबन जिन पर धारणा की जाती है। अशुद्ध अध्वन् को अशुद्ध सृष्टि भी कहते हैं। माया से लेकर पृथ्वी पर्यंत समस्त सृष्टि को अशुद्ध सृष्टि कहा जाता है, क्योंकि इसमें भेद दृष्टि की प्रधानता रहती है। इस सृष्टि में अभिव्यक्त होने वाले तत्त्व, तत्त्वेश्वर, भुवन, भुवनेश्वर तथा सभी जीव अशुद्ध अध्वा में आते हैं। (तन्त्र सार , पृ. 75)। अध्वन् (शुद्ध) – आणवोपाय में धारणा के आलंबन बनने वाले भेदा-भेदात्मक तथा अभेदात्मक तत्त्व तत्त्वेश्वर, प्राणी आदि। शुद्ध अध्वा को शुद्ध सृष्टि भी कहा जाता है। शिव तत्त्व से लेकर सुद्ध विद्या तत्त्व तक की सृष्टि को शुद्ध सृष्टि के अंतर्गत माना जाता है। इस सृष्टि के सभी तत्त्व और मंत्र, मंत्रेश्वर, मंत्रमहेश्वर तथा अकल नाम के प्राणी और इनके तत्त्वेश्वर शुद्ध अध्वा में गिने जाते हैं। (तन्त्र सार , पृ. 75)। अध्वन् (षट्) – आणवोपाय की बाह्य धारणा में कालाध्वा के वर्ण, मंत्र तथा पद और देशाध्वा के कला, तत्त्व और भुवन – इन छः आलंबनों को षडध्व कहते हैं। (तन्त्र सार , पृ. 47)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अनच्क कला सार्धत्रिवलया भुजगाकारा कुलात्मिका कुण्डलिनी मूलाधार में सोई रहती है। जाग्रत होने पर यह सुषुम्णा मार्ग से षट्चक्रों का भेदन कर सहस्रार स्थित अकुलचक्र में विराजमान शिव के साथ सामरस्य लाभ करती है। षट्चक्रों और उनमें विद्यामान वर्णों का पूर्णानन्द के षट्चक्रनिरूपण के षष्ठ प्रकाश में और सौंदर्यलहरी की लक्ष्मीधरा टीका में (श्लो. 36-41) तथा अन्यत्र भी विशद विवेचन मिलता है। नाडीचक्र प्रभृति षट्चक्रों का निरूपण नेत्रतंत्र (7/28-29) में भी है। विज्ञान भैरव में बारह चक्रों या क्रमों की चर्चा आई है। इन चक्रों की मूलाधार या हृदय से लेकर द्वादशांत पर्यन्त भावना की जाती है। मूलाधार में जैसे कुण्डलिनी का निवास है, उसी तरह से हृदय में भी सार्धत्रिवलया प्राणकुण्डलिनी रहती है। मध्य नाडी सुषुम्णा के भीतर चिदाकाश (बोधगमन) रूप शून्य का निवास है। उससे प्राणशक्ति निकलती है। इसी को अनच्क कला भी कहते हैं। इसमें अनच्क (अच्-स्वर से रहित) हकार का निरंतर नदन होता रहता है। यह नादभट्टारक की उन्मेष दशा है, जिससे कि प्राणकुण्डलिनी की गति ऊर्ध्वोन्मुख होती है, जो श्वास-प्रश्वास, प्राण-अपान को गति प्रदान करती है और जहाँ इनकी एकता का अनुसंधान किया जा सकता है। मध्य नाडी स्थित बिना क्रम के स्वाभाविक रूप से उच्चरित होने वाली यह प्राण शक्ति ही अनच्क कला कहलाती है। अजपा जप में इसी का स्फुरण होता है। प्राण और अपान व्यापार से भिन्न, श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया से अलग, स्वाभाविक रूप से निरंतर चल रहे प्राण (ह्दय) के स्पन्दन व्यापार (धड़कन) को ही यहाँ अनच्क कला कहा गया है। स्पन्दकारिका में प्रतिपादित स्पंद तत्त्व यही है। वामननाथ ने अद्वय संपत्ति वार्तिक में इसका वर्णन किया है। नेत्रतंत्र (सप्तम अधिकार) में सूक्ष्म उपाय के प्रसंग में प्राण – चार के नाम से इसकी व्याख्या की गई है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अनंतनाथ महामाया की दशा में उतरे हुए ईश्वर भट्टारक के अवतार। अघोरेशा शुद्धविद्या नामक भेदाभेद भूमिका में ठहरे हुए मंत्रप्राणियों / विद्येश्वर प्राणियों के उपास्य देव। माया तत्त्व को प्रक्षुब्ध करते हुए उसमें से कला आदि पाँच कंचुकों से लेकर मूल प्रकृति तत्त्व तक की सृष्टि, स्थिति, संहार आदि की लीला को अनंतनाथ ही चलाते हैं। भोगलोलुप प्राणियों के लिए ही अनंतनाथ मायीय तत्त्वों की सृष्टि करते हैं। (तन्त्र सार , पृ. 76)। इनका शरीर शुद्ध संवित् स्वरूप ही होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अनन्तसमापत्ति योग के तृतीय अंग आसन को यथाविधि निष्पन्न करने के लिए जिन दो उपायों की आवश्यकता होती है उनमें अनन्तसमापत्ति एक है (द्र. योगसूत्र 2/47)। इस समापत्ति के बिना आसन विशेषों का अभ्यास करने पर उन आसनों (पद्मासन आदि) में दीर्घकाल तक बैठा नहीं जा सकता; आसनानुकूल शारीरिक स्थैर्य इस समापत्ति का फल है। शरीर में आकाशवद् निरावरण भाव की धारणा करना (अर्थात् शरीर शून्यवत् हो गया है – अमूर्त आकाश की तरह हो गया है – ऐसी भावना) ही अनन्तसमापत्ति है (‘अनन्त’ ‘आकाश’ का पर्याय है)। इस भावना से शरीर में लघुता का बोध होता है। कोई-कोई व्याख्याकार ‘आनन्त्य -समापत्ति’ शब्द का भी प्रयोग करते हैं। (आनन्त्य=अनन्तभाव)। एक अन्य मतानुसार ‘अनन्त’ अर्थात् शेषनाग की भावना अनन्तसमापत्ति है। अनन्त विष्णु का तामस रूप है; तमोगुण विधारण करने वाला है। अतः अनन्त के ध्यान से स्थैर्य उत्पन्न हो सकता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अनन्याधिपति पुष्टिमार्ग में भगवान् भक्त से अनन्य होते हुए अधिपति कहे जाते हैं। क्योंकि पुष्टिमार्गीय भक्त भगवान से अनन्य होता है। कारण, पुष्टिमार्गीय भक्तों के हृदय में प्रभु ही साधन रूप में और फल रूप में भी स्थित हैं। अर्थात् भगवान् ही साधन रूप में अनन्य हैं और फल रूप में अधिपति हैं (अ.भा.पृ. 1404)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अनवस्थितत्व योगाभ्यास के नौ अंतरायों (विघ्नों) में यह एक है (योगसू. 1/30)। व्यासभाष्य के अनुसार इसका स्वरूप है – योग की भूमिविशेष (मधुमती आदि भूमियों में से किसी भी भूमि) की प्राप्ति होने पर भी उससे विच्युत हो जाना। जब तक समाधिजन्य पूर्ण साक्षात्कार न हो तब तक भूमि पर अवस्थित रहना आवश्यक है। साक्षात्कार से पहले ही यदि भूमि से भ्रंश हो जाय तो समाधिजन्य साक्षात्कार नहीं हो सकता। चित्त की भूमियाँ जब तक सुप्रतिष्ठित नहीं होतीं, तब तक उनसे विच्युति होती रहती है। भूमि से विच्युति होने पर पुनः उस भूमि की प्राप्ति जब नहीं होती तब यह अप्राप्ति ‘अनवस्थितत्व’ है – ऐसा कोई-कोई व्याख्याकार कहते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अनाख्या चक्र अनाख्या नामक चतुर्थ चक्र में तेरह शक्तियों के कार्य दिखाई पड़ते हैं। क्रमदर्शन में आख्या शब्द से पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी नामक वाणी के स्वभाव का बोध होता है। अतः आख्याहीन अनाख्या चक्र में ये वाक् प्रवृत्तियाँ नहीं रह सकतीं। संहार चक्र में नादरूपा पश्चन्तीवाक्, स्थिति चक्र में बिन्दु रूपा मध्यमा वाक् तथा सृष्टि चक्र में लिपिरूपा स्थूल या वैखरी वाक् कार्य करती है। ये तीनों प्रकार की वाणियाँ ही ऊर्ध्वा स्थित विमर्श अपथा परा वाक् के द्वारा अनुप्राणित तुरीयावस्था में प्रमाण, प्रमाता और प्रेमेय की त्रिपुटी को उपसंहृत करके अनाख्या चक्र में चिद्गिन रूप में पर्यवसित होती हैं। वस्तुतः यह अवस्था महासुषुप्ति के समान प्रतीत होने पर भी चिन्मय मुक्त अवस्था का ही नाम है। अनाख्या चक्र की तेरह कलाओं में से बारह इन्द्रियों का व्यष्टि भाव में और तेरहवीं कला का समष्टिभाव में स्फुरण होता है। सृष्टि के भीतर सृष्टि, स्थिति, संहार और तुरीय – ये चार अवस्थायें हैं। इसी प्रकार स्थिति और संहार में भी चारों अवस्थाएँ रहती हैं। सब मिलाकर ये बारह शक्तियाँ हैं। ये सब शक्तियाँ जिस महाशक्ति से निकलती हैं तथा जिसमें लीन होती हैं, उसी को ‘त्रयोदशी’ कहते हैं। वस्तुतः यह त्रयोदशी सबसे अनुस्यूत तुरीय के साथ सम्मिलित आद्या शक्ति ही है (महार्थमंजरी परिमल, पृ. 100-101)।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अनादि – पिंड देखिए ‘निरालंब – चित्’

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अनावेश्यत्व पाशुपत सिद्‍धि का एक लक्षण। पाशपुत साधक जब सर्वव्यापकता की अवस्था को प्राप्‍त कर लेता है तब वह अनावेश्यत्व भाव को प्राप्‍त करता है; अर्थात् ऐसा हो जाने पर उसकी ज्ञानशक्‍ति को कोई भी अभिभूत नहीं कर सकता है। वह सबसे उत्कृष्‍ट दशा को प्राप्‍त कर लेता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ 47, 48; ग. का. टी. पृ. 10)। ज्ञानप्राति से पूर्व इंद्र आदि देवता उसके चित्‍त को तथा उसकी आत्मा को व्याप्‍त करते हुए उसमें आविष्‍ट हो सकते थे और वह उनके द्‍वारा आवेश्य बना रहता था। परंतु ज्ञान की प्राप्‍ति हो जाने पर वह स्वयं त्रिलोकी का अंतर्यामी बनकर सभी में आविष्‍ट हो सकता है। उसमें कोई भी आविष्‍ट नहीं हो सकता। उसकी ऐसी महिमा अनावेश्यत्व कहलाती है।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अनाश्रित शिव शक्ति तत्त्व तथा सदाशिव तत्त्व के बीच की परमेश्वर की वह अवस्था, जहाँ विमर्श की अपेक्षा प्रकाश ही प्रधानतया चमकता है तथा जहाँ बाह्य प्रपंच का तनिक भी आभास न होने के कारण महाशून्य की सी स्थिति बनी रहती है। इस अवस्था में परमशिव अपने स्वातंत्र्य से किसी भी अन्य साधन का आश्रय लिए बिना ही अपने से भिन्न तथा स्रष्टव्य की सृष्टि के प्रति उद्यत होता हुआ केवल अपने शुद्ध प्रकाश रूप में ही प्रकाशित होने के कारण अनाश्रित शिव कहलाता है। (प्रत्यभिज्ञाहृदय पृ. 51; तन्त्रालोकविवेक5, पृ. 262)। सृष्टि के प्रति सफल प्रवृत्ति से पूर्व प्रकट होने वाली शिव की शुद्ध चिन्मयी अवस्था। इस अवस्था में शिव जगत् का स्रष्टव्यतया और अपना स्रष्टतया विमर्शन करता है कि ‘मैं जगत् का निर्माण करूँ।’ इस तरह से स्रष्टव्य जगत् से शून्य शुद्ध संविद्रूपतया ही अपने आपका विमर्शन करता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अनाहत चक्र मणिपुर चक्र के ऊपर ह्रदय में अनाहत चक्र की स्थिति है। इसका वर्ण बंधुक पुष्प के समान अरूण कांति वाला है। इसका आकार द्वादश दल कमल से बनता है। इन दलों में सिंदूर के समान रक्त वर्ण के ककारादि ठकरान्त 12 वर्णों की स्थिति मानी जाती है। इनके बीज में धूम्र वर्ण षट्कोणात्मक वायुमंडल है। इसके मध्य वायु बीज यं का ध्यान किया जाता है, जिसका कि वर्ण धूम के समान धूसर है। यह बीज भी चतुर्भुज है और इसका वाहन कृष्णसार मृग है। इस वायुबीज के अधिष्ठाता करुणामूर्ति ईश्वर हैं। इनका वर्ण शुक्ल है और अपने दोनों हाथों से ये तीनों लोकों को अभय और वर प्रदान करते हैं। इस चक्र की योगिनी का नाम काकिनी है। इस चक्र की कर्णिका में वायु बीज के नीचे त्रिकोणाकार शक्ति तथा उसके दाहिने भाग में बाण लिंग की स्थिति मानी गई है। इसके मस्तिष्क पर सूक्ष्म छिद्र युक्त मणि के समान एक बिंदु प्रकाशित है। शब्दब्रह्म के विलास अनाहत नाद की यहाँ अनुभूति होती है, अतः इसे अनाहत चक्र कहा जाता है (श्रीतत्त्वचिंतामणि, षट्चक्रनिरूपण, 6)।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अनाहत नाद चित्त के स्थैर्य की उच्च अवस्था में यह नाद योगी को सुनाई पड़ता है। यह नाद शरीर के अंदर ही उत्पन्न होता है। यह चूंकि आहत (आघात से उत्पन्न) नहीं है, अतः अनाहत कहलाता है। यह नाद कई प्रकार का है, वंशीनाद, घण्टानाद, मेघनाद, शङ्खनाद आदि। योगी को पहले पहले दक्षिण कर्ण में ये नाद सुनाई पड़ते हैं। अनाहत नाद का आविर्भाव होने पर चित्त में कोई भी बाह्य विक्षेप नहीं उठता। योगियों का कहना है कि इस अनाहत नाद के अन्तर्गत सूक्ष्म-सूक्ष्मतर ध्वनि में समाहित होने पर मन वृत्तिशून्य हो जाता है। अनाहतनाद में भी क्रमिक उत्कर्ष है। इसकी आरम्भ, घट, परिचय एवं निष्पत्ति रूप चार क्रमिक उत्कर्षयुक्त अवस्थाओं का विवरण हठयोग के ग्रन्थों में मिलता है। अनाहत नादों के साथ चक्रों का निकट सम्बन्ध माना जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अनिन्दितकर्मा प्रशंसा पूर्ण कर्मों का कर्ता। पाशुपत साधक जब मन्दन, स्पन्दन, क्राथन आदि निन्दनीय कार्य करते हुए लोक में घूमता है तो हर कोई उसकी अवमानना करता है, निन्दा करता है। लोगों के द्‍वारा इस तरह से अपमानित होते रहने से वह अनिन्दितकर्मा बन जाता है अर्थात् निन्दित होते रहने से उसके दोषों का क्षय हो जाता है तथा गुणों का वर्धन होता है क्योंकि पाशुपत मत में जितने भी निन्द्‍यमान कर्म करने को कहा गया है, वे साधक को मुख्य वृत्‍ति से नहीं करने होते हैं अपितु उसे निन्द्‍यमान आचरण का अभिनय मात्र करना होता है ताकि लोगों के द्‍वारा निन्दित होता रहे; परंतु तत्वत: गुप्‍त रूप से सत् आचरण करते – करते अनिन्दितकर्मा बना रहे। (पा. सू. कौ. भा. पृ 104)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अनियतपदार्थवाद जब यह कहा जाता है कि अमुक के मत में प्रमेय पदार्थों की संख्या निश्चित नहीं है, तब वह ‘अनियत-पदार्थवाद’ कहलाता है। इस मत का प्रसंग सांख्यसूत्र 1/26 में है जिसमें कहा गया है कि पदार्थ संख्या का निश्चय न हो यह तो कर्थंचित् माना जा सकता है, पर यह नहीं माना जा सकता है कि उसको युक्ति विरूद्ध पदार्थ (युक्ति से जिसकी सिद्धि न होती है, वह) मान लिया जाए। यह ‘अनियतपदार्थवाद’ किस शास्त्र का है, यह स्पष्ट नहीं है। कोई-कोई सांख्य को अनियतपदार्थवादी कहते हैं, पर यह भ्रान्तदृष्टि है, क्योंकि ‘पंचविंशति-तत्वज्ञान सांख्य हैं’, यह मत सभी प्राचीन आचार्यों ने एक स्वर से कहा है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अनुग्रह नित्यमुक्त एवं परमगुरू ईश्वर के विषय में योगियों की एक मान्यता यह है कि उनका कुछ प्रयोजन न रहने पर भी (अपने लिए कुछ प्राप्तव्य न रहने पर भी) भूतों के प्रति उनका अनुग्रह होता है, जिसके कारण वे कुछ विशेष कालों में (जैसे कल्पप्रलय और महाप्रलय में) निर्माणचित्त का आश्रय करके ज्ञानधर्म अर्थात् मोक्षविद्या का उपदेश करते हैं (व्यासभाष्य 1/25)। योगियों का कहना है कि यह अनुग्रह प्राणियों के अधिकार के अनुसार ही होता है (ईश्वर से प्रापणीय विवेकज्ञान उस ज्ञान के अधिकारी को ही मिलता है); सभी प्रक्रर के प्राणियों के प्रति विवेकज्ञान का उपदेश समानरूप से नहीं किया जाता। नित्यमुक्त ईश्वर से विवेकज्ञान के अतिरिक्त कुछ प्राप्तव्य भी नहीं है। चित्त के स्वभाव के अनुसार ही इस अनुग्रह का स्वरूप जानना चाहिए।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अनुग्रहकृत्य परमेश्वर के सृष्टि, स्थिति आदि पाँच कृत्यों में से एक कृत्य। पारमेश्वरी लीला का वह विलास जिसके प्रभाव से माया से अभिभूत जीव के समस्त संशयों का उच्छेद हो जाने पर उसे अपने वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। इसीलिए अनुग्रह को स्वात्मीकरण भी कहा गया है। (भास्करी 1, पृ. 27)। जीवों में मोक्षप्राप्ति एवं उसके उपायों को जानने के लिए सद्गुरु की शरण में जाने की अंतःप्रेरणा भी परमेश्वर के इसी कृत्य के प्रभाव से होती है। यह कृत्य पारमेश्वरी लीला का अंतिम अंग होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अनुत्तर सर्वोत्तीर्ण परमशिव तत्व को अनुत्तर कहते हैं। परात्रीशिका शास्त्र के विवरण में इस पद की सोलह प्रकारों से व्याख्या की गई है :-

1. जिससे बढ़ चढ़ कर और कोई तत्व नहीं है।

2. जिसके विषय में प्रश्न उत्तर आदि के लिए कोई अवकाश ही नहीं है।

3. जिस पद पर भेदवादियों द्वारा माने हुए आपेक्षिक मोक्ष अर्थात् अपवर्ग, कैवल्य, निर्वाण आदि का भी आभास नहीं रहता है।

4. नाभि, हृदय, कंठ आदि के क्रम से ऊपर की ओर गति भी जहाँ नहीं होती है।

5. पार करने के योग्य कोई बंधन जहाँ होता ही नहीं।

6. जहाँ पहुँचकर फिर किसी बंधन से मोक्ष भी नहीं होता है।

7. प्रकारता आदि व्यवच्छेदकों से रहित होने के कारण जिसके विषय में ‘ऐसा, वैसा’ आदि शब्दों का प्रयोग भी नहीं किया जा सकता है।

8. व्यवच्छेद हो जाने के बाद प्रकट होने वाली प्रमेयता का जहाँ नाम नहीं। अथवा – निर्विकल्प ज्ञान के अनंतर उदित होने वाले विशेष शब्द प्रयोग का विषय जो बन ही नहीं सकता है।

9. आणव आदि योग के पश्चात् उदित होने वाला भावनामय शाक्त योग भी जहाँ संभव नहीं।

10. त्रिक में नर, शक्ति, शिव आदि का जैसा परस्पर उत्तराधरता का भाव जहाँ सर्वथा है ही नहीं तथा जाग्रत आदि दशाओं की भी कोई उत्तरता या अधरता जहाँ है ही नहीं। उत्कृष्टता और निकृष्टता के भावों से प्रकट होने वाले द्वैत सम्मोह की भी जहाँ स्थिति नहीं है।

11. वर्णभेद कृत उच्चता और नीचता के भाव जहाँ पर हैं ही नहीं।

12. आगे प्रकट होने वाली पश्यंती आदि दशाएँ, अघोर आदि देवियाँ और परापर आदि अवस्थाएँ जहाँ हैं ही नहीं।

13. नुद से अर्थात् गुरूप्रेरणा से जहाँ पार जाना नहीं होता है।

14. संकुचित प्रमातृ भावों में और प्राण वृत्तियों में प्रधानतया आभासमान ज्ञान क्रियात्मक ऐश्वर्य ही जिसमें उत्कृष्टतया चमकता है, वह पर तत्त्व।

15. ‘अ’ रूपिणी कला की प्रेरणा से ही जिस में ऐश्वर्य तरंगें मारता है, वह पर तत्त्व।

16. क्रमात्मक क्रियामयी प्रेरणा के लिए जहाँ कोई भी अवकाश नहीं, वह सर्वथा अक्रम परतत्त्व। (परात्रीशिकाविवरण, पृ. 19 से 29 )।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अनुत्तरसंवित् प्रकाश और विमर्श का चरम सामरस्यात्मक चर-तत्त्व। समस्त विश्व को अपने भीतर शुद्ध प्रकाश रूप में धारण करने वाला अनुत्तर तत्त्व। विश्वोत्तीर्ण एवं विश्वमय दोनों अवस्थाओं में सर्वदा और सर्वथा संविद्रूप ही बना रहने वाला अनुत्तर चरमशिव। (देखिए परमशिव)। छत्तीस तत्त्वों से उत्तीर्ण शुद्ध, असीम और परिपूर्ण परमेश्वर जो समस्त विश्व का अपनी ही इच्छा से आभास करता हुआ भी सतत रूप से परिपूर्ण एवं शुद्ध संविद्रूप ही बना रहता है। (देखिएसंवित्)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अनुपाय अनुपाय शब्द का जयरथ (तंत्रा. वि. 2/2, पृ. 3) ने ‘अल्प उपाय’ अर्थ किया है, क्योंकि पर्युदास स्थल में नञ् अल्पार्थक माना जाता है, जैसा कि ‘अनुदरा कन्या’ इस प्रयोग में ‘अनुदरा’ शब्द का अर्थ ‘पतली कमर’ वाली होता है। सिद्ध साहित्य में प्रचलित ‘सहज’ शब्द को इस अनुपाय शब्द का पर्याय मान सकते हैं।

  तंत्रसार (पृ. 8-9) में अनुपाय प्रक्रिया का विवेचन इस तरह से किया गया है – तीव्र शक्तिपात के होने पर साधक गुरु के एक बार के उपदेश से ही नित्योदित समावेश दशा में लीन हो जाता है। उपाय के रूप में वह षडंग योग में प्रतिपादित तर्क नामक अंग का सहारा लेता है। वह सोचता है कि स्वयं प्रकाश, स्वात्मस्वरूप ही तो परमेश्वर है। इसके लिये किसी उपाय की क्या आवश्यकता है ? यह स्वात्मस्वरूप नित्य, स्वयं प्रकाश, निरावरण तत्त्व है। इसलिये किसी उपाय से इसके स्वरूप की प्राप्ति (लाभ) या प्रतीति (ज्ञाप्ति) होगी, अथवा किसी आवरण को हटाया जाएगा, इन सब बातों का कोई प्रसंग नहीं है। इस स्वात्मस्वरूप में लीन (अनुप्रवेश) होने का भी कोई प्रसंग नहीं है क्योंकि शुद्ध स्वात्मस्वरूप से अतिरिक्त उसमें प्रविष्ट होने वाले की अलग से कोई सत्ता नहीं है। फिर उपाय भी तो उससे अलग नहीं है। इसलिये यह सारा जगत् चिन्मात्र सार है। काल इसकी कल्पना नहीं कर सकता। देश इसको परिच्छिन्न नहीं कर सकता। उपाधि इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। इसकी कोई आकृति नहीं है। शब्दों की सहायता से इसको समझा नहीं जा सकता ओर न किसी प्रमाण की ही यहाँ प्रवृत्ति हो सकती है। स्वतंत्र आनन्दघन यह स्वात्मस्वरूप ही काल से लेकर प्रमाण पर्यन्त ऊपर बताये गये सभी तत्त्वों को स्वरूप प्रदान करने वाला है। मैं इस स्वात्मस्वरूप से भिन्न नहीं हूँ और इस अहमात्मक स्वात्मस्वरूप में ही यह सारा विश्व प्रतिबिंबित हो रहा है, इस तरह की प्रत्यभिज्ञा के जग जाने पर साधक नित्योदित परमेश्वर स्वरूप में समाविष्ट हो जाता है। इसके लिये मंत्र, पूजा, ध्यान, चर्या आदि की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती।
  इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए अभिनवगुप्त ने कहा है कि कोई भी लौकिक उपाय शिव को प्रकाशित नहीं कर सकता। क्या घट सूर्य को प्रकाशित कर सकता है? उदार दृष्टि वाला मनुष्य इस तरह से विचार करते-करते ही किसी समय स्वयंप्रकाश शिवस्वरूप में समाविष्ट हो जाता है। संवित्प्रकाश में भी बताया गया है कि आपका तत्त्व अर्थात् स्वरूप तो स्पष्ट रूप से सबकी आँखों के सामने विद्यमान है। ऐसी स्थिति में जो व्यक्ति आपको देखने के लिए भांति-भांति के उपायों की खोज में लगे हैं, वे निश्चित ही आपको नहीं जानते। श्रुति (वा. सा. 16/7, तै. सं. 4/5/1/3) ने इस बात को स्पष्ट किया है कि इसको ग्वालबाले जानते हैं, पनहारिनें इसको जानती हैं और विश्व के सारे प्राणी इसको जानते हैं। इसको देखकर कौन आनन्द-विभोर नहीं हो जाता। मालिनीविजय, स्वच्छन्दतन्त्र, संकेतपद्धति, तन्त्रालोक, महार्थमंजरी प्रभृति ग्रन्थों में इस अनुपाय प्रक्रिया का जो विशद विवेचन मिलता है, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह अनुपाय प्रक्रिया सहज योग से भिन्न नहीं है।
दर्शन : शाक्त दर्शन

अनुपाय आनंदयोग, आनंद-उपाय। बिना किसी अभ्यास से अपने वास्तविक स्वरूप के साक्षात्कार का उपाय। किसी उपाय के बिना ही अपने ही भीतर अपनी परमेश्वरता का स्वयमेव विमर्श करने का प्रकार। बिना किसी योग का अभ्यास किए अपने शिवभाव का स्वयमेव ही समावेश हो जाने का प्रकार। शांभव उपाय ही परिपक्व अवस्था में अनुपाय कहलाता है। (तं. आत्मविलास, 1-142)। त्रिक आचार का यह सर्वोत्तम योग कहलाता है। गुरु शिष्य को केवल समझाता है कि तू तो स्वयं परमेश्वर ही है, तुझे अपने परमेश्वर भाव को पहचान लेने के लिए किसी उपाय की क्या आवश्यकता है, इत्यादि। ऐसा उपदेश शिष्य को इतना हृदयंगम हो जाता है कि वह बिना किसी साधना का अभ्यास किए ही झट से अपने परिपूर्ण परमेश्वर भाव में समाविष्ट हो जाता है। (तन्त्र सार पृ. 7, 9)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अनुभव – भक्‍ति देखिए ‘भक्‍ति।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अनुभाव बारहवीं शताब्दी के वीरशैव – संतों के अनुसार अपनी साधना तथा ईश्‍वर के अनुग्रह से होने वाली स्वआत्मा की अनुभूति को ‘अनुभाव’ कहा जाता है। पंचज्ञानेन्द्रिय तथा मन से होने वाले लौकिक ज्ञान को ‘अनुभव’ और इनके बिना ही शुद्‍ध बुद्‍धि से होने वाली आत्मानुभूति को ‘अनुभाव’ कहते हैं। जाग्रत्, स्वप्‍न, सुषुप्‍ति तथा मूर्च्छा ये चार अवस्थायें कर्माधीन मानी जाती हैं और इनका अनुभव साधक और असाधक दोनों को समान रूप से होता है। इन चारों से विलक्षण एक तुर्य आत्मानुभूति- अवस्था है, जो कि केवल साधना से साध्य है। साधक को इंद्रिय आदि की अपेक्षा के बिना केवल शुद्‍ध बुद्‍धि से अपने सत्-चित्-आनंद-स्वरूप का साक्षात्कार होता है। यही अनुभाव कहलाता है। यह एक ऐसी अवस्था है, जब कि आत्मानुभूति के अतिरिक्‍त, और किसी का भी ज्ञान नहीं होता। (च.ब.व.841, 1030; ब.व. 918; श.अ.अ.अ. पृष्‍ठ 35-42; कि.सा.भाग 3 पृष्‍ठ 120)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अनुभाव भक्त के ऊपर भगवान् का प्रभाव ही अनुभाव है। भगवान् अपने अलौकिक प्रभाव को किसी विशिष्ट भक्त में प्रत्यक्ष दिखाते हैं। अर्थात् विशिष्ट भक्त स्पष्ट रूप से भगवत् प्रभाव से युक्त परिलक्षित होता है। इसीलिए ऐसा अलौकिक भगवत् प्रभाव वाला भक्त भी अपने भक्त का वैसे ही भजनीय होता है, जैसा कि भगवान् अपने उस विशिष्ट भक्त का भजनीय होता है (अ.भा.पृ. 1040)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अनुमान सांख्यकारिका (5) तथा सांख्यसूत्र (1/100) में अनुमान का स्वरूप बताया गया है। लिङ्ग-लिङ्गी-पूर्वक जो ज्ञान है (अर्थात् लिङ्ग-लिङ्गी के ज्ञान से उत्पन्न हुआ जो ज्ञान) वह अनुमान है। इसकी व्याख्या में वाचस्पति ने कहा है कि ‘व्याप्ति’ (व्याप्य-व्यापक-भाव) तथा पक्षधर्मता (लिङ्ग का पक्ष में रहना) के आधार पर अप्रत्यक्ष विषय का जो निश्चय होता है, वह अनुमान है। उदाहरणार्थ, पर्वत में धूम देखकर ‘जहाँ’ जहाँ धूम है वहाँ वहाँ अग्नि हैं इस व्याप्ति का स्मरण होने पर पर्वत में अप्रत्यक्ष अग्नि का जो निश्चय है वह अनुमान है। वाचस्पति ने इस प्रसंग में व्याप्ति के निर्दोष तथा सदोष रूप (उपाधियुक्त होना) की चर्चा की है – जिसका विशद विवेचन न्यायशास्त्र में मिलता है। उपर्युक्त ‘लिङ्ग-लिङ्गीपूर्वक’ शब्द में लिङ्ग=लिङ्ज्ञान तथा लिङ्गी=लिङ्गी का ज्ञान – ऐसा समझना चाहिए। कुछ व्याख्याकारों ने ‘लिङ्ग-लिङ्ग-पूर्वक’ की व्याख्या अन्य प्रकार से की है। उनके अनुसार इसका अर्थ है – कभी-कभी लिङ्गपूर्वक लिङ्गी (लिङ्गयुक्त) का ज्ञान होता है, जैसे हाथ में त्रिदण्ड को देखकर यह ज्ञान होता है कि यह व्यक्ति संन्यासी है। इसी प्रकार लिङ्गी-पूर्वक लिङ्ग का ज्ञान होता है, जैसे संन्यासी के समीप पड़े त्रिदण्ड को देखकर यह ज्ञान होता है कि यह त्रिदण्ड संन्यासी का है (क्योंकि संन्यासी ही त्रिदण्डधारण करते हैं)। लिङ्ग-लिङ्गी का जो सम्बन्ध है, वह सात प्रकार का है जिसके आधार पर कहा जाता है कि ‘सांख्य सात प्रकार की अनुमिति मानता है’ (द्र. जयमङ्गला आदि)। अनुमान रूप चित्तवृत्ति का पुरुष के साथ जो सम्बन्ध है (जो तात्त्विक नहीं है), वह प्रमाणफलरूप प्रमा है – यह ज्ञातव्य है। योगसूत्र के व्यासभाष्य (1/7) में यह कहा गया है कि अनुमान में वस्तु का प्रधानतः सामान्य ज्ञान ही होता है – विशेष धर्मों का ज्ञान नहीं, यद्यपि जिस वस्तु का ज्ञान होता है उसमें सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के धर्म रहते हैं। यहाँ अनुमान का स्वरूप इस प्रकार दिखाया गया है (सांख्यकारिकोक्त मत से वस्तुतः कोई भिन्नता या विरोध नहीं है) जो संबद्ध पदार्थ (जैसे धूम रूप हेतु) अनुमेय पदार्थों की तुल्यजातीय वस्तुओं में विद्यमान रहता है (जैसे पाकशाला आदि में जहाँ धूम भी है और वह्नि भी है) तथा भिन्नजातीय वस्तु में नहीं रहता है (जैसे हृद आदि में जहाँ वह्नि भी नहीं है, धूम भी नही है), उसका आश्रय करके अप्रत्यक्ष विषय में जो चित्तवृत्ति रूप ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अनुमान है। अनुमान के तीन भेद माने गए हैं – पूर्ववत, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट (द्र. सांख्यकारिका 5) (विस्तार ‘पूर्ववत्’ आदि प्रविष्टियों के अंतर्गत देखें।)

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अनुशासन योगसूत्र का प्रथम सूत्र है – अथ योगानुशासनम्। विधि, उपदेश, शास्त्र अथवा इस प्रकार के अन्य किसी शब्द का प्रयोग न करके जो ‘अनुशासन’ शब्द का प्रयोग किया गया है, उसका एक विशिष्ट उद्देश्य है। व्याख्याकार कहते हैं कि अनुशासन का अर्थ है -‘शिष्टस्य शासनम्’ – जो पहले से ही प्रतिपादित हुआ था (अतः जो पूर्वाचार्यों को सम्यक् ज्ञात था), उसका पुनः प्रतिपादन ‘अनुशासन’ है। यह कहना साभिप्राय है, क्योंकि योगसूत्रकार पंतजलि यह बताना चाहते हैं कि उनके द्वारा प्रतिपादित मतों के आविष्कर्ता वे नहीं हैं; सभी मत पूर्णतया पूर्वाचार्यों को ज्ञात थे और वे उन मतों का नूतन रूप से प्रतिपादन-मात्र कर रहे हैं, जिससे उनके काल के लोगों को योगविद्या समझने में सुविधा हो। जहाँ तक सिद्धान्तों का प्रश्न है, किसी भी आचार्य की कुछ भी मौलिकता नहीं है – समझाने की पद्धति में ही मौलिकता है। योगसूत्र से पहले इसके आधारभूत हिरण्यगर्भयोगशास्त्र प्रचलित था – यह भी व्याख्याकारों ने कहा है। यह बात काल्पनिक नहीं है, क्योंकि इस शास्त्र के वचन कई प्राचीन ग्रन्थों में उद्धृत हुए हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अनुस्‍नान पाशुपत विधि का एक अंग। दिन में तीन बार भस्म स्‍नान करने के अपरांत यदि कभी किसी कारणवश जैसे उच्छिष्‍ट वस्तु के छू जाने से, थूकने से अथवा मूत्र या पुरीष आदि के उत्सर्ग से योगी का शरीर अपवित्र हो जाए तो उसे पुन: भस्मस्‍नान करना होता है, अर्थात् शरीर पर पुन: भस्म मलना होता है। इस तरह से अवश्य रूप से विहित तीन भस्म स्‍नानों के अतिरिक्‍त किसी आगन्तुक अशुद्‍धि को दूर करने के लिए किए जाने वाले तीन से अधिक चौथे या पाँचवें आदि भस्म स्‍नान को अनुस्‍नान कहते हैं। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 10)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अन्तर्दीक्षा शक्तिपात का मुख्य लक्षण भगवद् भक्ति का उन्मेष है। वह प्रतिभावान् पुरुष में अवश्य ही रहता है। इसीलिये ऐसे पुरुष की दीक्षा तथा अभिषेक व्यापार स्वयं अपनी संविद्देवियों की सहायता से ही संपन्न हो जाते हैं। प्रातिभ ज्ञान का उदय हो जाने से साधक की अपनी इन्द्रिय वृत्तियाँ अन्तर्मुख होकर प्रमाता, अर्थात् आत्मा के साथ तादात्म्य लाभ करती हैं और शक्तिमय बन जाती हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि मंत्र, अर्थात् चित्त के बहिर्मुख होने पर जो वृत्तियाँ कही जाती हैं, वे ही उसके अन्तर्मुख होने पर शक्तियाँ कहलाती हैं। ये सब शक्तिभूत इन्द्रिय वृत्तियाँ पुरुष के चैतन्य को उत्तेजित करती हैं। इसी स्थिति को अन्तर्दीक्षा कहा जाता है। इसके प्रभाव से साधक स्वतः स्वातन्त्र्यलाभ कर लेता है। इसके लिये उसे गुरु या शास्त्र की भी अपेक्षा नहीं रहती। तंत्रशास्त्र का यह उद्घोष है कि गुरु कृपा से, शास्त्र के अध्ययन से अथवा स्वतः अपनी प्रतिभा से भी साधक निरावरण स्वात्मस्वरूप को पहचान सकता है। अन्तर्दीक्षा के माध्यम से यह कार्य संपन्न होता है। (भारतीय संस्कृति और साधना, भास्करी 2, पृ. 231)।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अन्योन्य-अभिभव त्रिगुण के जो चार व्यापार हैं, उनमें अन्योन्यअभिभव एक है (सांख्यकारिका 12; कोई-कोई पाँच व्यापार मानते हैं; द्र. जयमङ्गला आदि टीकायें)। प्रत्येक परिणाम में तीन गुण मिले रहते हैं और जो अधिक बलशाली होता है, वह अन्य दो को स्वभावतः अभिभूत करता है। अभिभूत दो गुण प्रधान गुण का अनुसरण करते हुए विद्यमान रहते हैं – विरुद्धाचरण नहीं करते। इस अभिभाव्य-अभिभावक-स्वभाव के कारण ही जागृत के बाद स्वप्न और निद्रा अवस्था आती हैं तथा सुख के बाद दुःख और मोह होते हैं। व्यक्तावस्था में सत्त्वादिगुण विषम-अवस्था में ही रहते हैं; इस वैषम्य का अर्थ ही है – किसी एक गुण का प्राधान्य और अन्य दो का अप्राधान्य। प्रधान गुण अप्रधानों का अभिभव करके ही अपना व्यापार करता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अन्योन्यजननवृत्ति गुणत्रय की जिन चार वृत्तियों (व्यापारों) का उल्लेख सांख्यशास्त्र में है (द्रं. सां. का. 12) उनमें यह अन्यतम है। जनन का अर्थ यद्यपि उत्पत्ति है, तथापि अन्योन्य-जनन का अर्थ तीन गुणों का एक-दूसरे से उत्पत्ति नहीं हो सकता, क्योंकि सत्त्वादिगुण किसी से उत्पन्न नहीं होते; वे अहेतुमान हैं। अन्योन्यजनन का अर्थ है – परिणाम के उत्पादन में एक-दूसरे का सहायक होना। अन्य दो गुणों की सहायता के बिना कोई भी एक गुण किसी भी परिणाम को उत्पन्न नहीं कर सकता। सांख्यशास्त्र में गुणों की एक वृत्ति ‘अन्योन्याश्रय’ भी है। ‘अन्योन्याश्रय’ से ‘अन्योन्यजनन’ का भेद दिखाने के लिए कोई-कोई व्याख्याकार यह कहते हैं कि ‘अन्योन्यजनन’ वृत्ति का सम्बन्ध ‘सदृशपरिणाम’ से है। यह परिणाम गुणसाम्यावस्था में होता है। इस परिणाम के होने पर भी त्रिगुण हेतुमान नहीं हो जाते, क्योंकि यह सदृश परिणाम प्रकृति ही है। विसदृश-परिणाम का ही वस्तुतः हेतु होता है, सदृश-परिणाम का नहीं। अन्योन्यजनन की अन्य व्याख्या भी है (द्र. माहरहन्ति)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अन्योन्याश्रयवृत्ति गुणत्रय के स्वाभाविक व्यापारों में यह अन्यतम है। प्रत्येक गुण दूसरे का आश्रय करके ही अपना कार्य निष्पन्न करता है – यही गुणों की अन्योन्याश्रयवृत्ति है। उदाहरणार्थ सत्त्वगुण रजोगुण की प्रवृत्ति और तमोगुण के नियमन रूप स्वभाव का आश्रय करके ही प्रकाशन रूप कार्य करता है। इसी प्रकार रजोगुण भी प्रकाश और नियमन का आश्रय करके प्रवर्तन रूप अपना कार्य करता है; तमोगुण भी प्रकाश और प्रवृत्ति का आश्रय करके अपना नियमन रूप कार्य करता है। इसी दृष्टि से कहा जाता है कि एक गुण अन्य गुण के सहकारी के रूप से कार्य करता है। व्यासभाष्य (2/18) के ‘इतरेतराश्रयेण उपार्जितमूर्तयः’ वाक्य में गुणों का यह स्वभाव दिखाया गया है। यही कारण है कि केवल सात्त्विक या केवल राजस या केवल तामस कोई वस्तु हो ही ही नहीं सकती। यह ध्यान देना चाहिए कि गुणों का गुणों के अतिरिक्त अन्य कोई आश्रय नहीं है। गुण अपने मूलस्वरूप में किसी पर आश्रित और प्रतिष्ठित नहीं हैं – यह सांख्यीय दृष्टि है। व्यक्तिभूत त्रिगुण चिद्रूप-पुरुष में आश्रित है – यह कहना संगत ही है। गुणों में आधार-आधेय भाव भी वस्तुतः नहीं है, यद्यपि परस्पर अपेक्षा है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अन्वय भूतजय एवं इन्द्रियजय करने के लिए भूत एवं इन्द्रिय के जिन पाँच रूपों में संयम करना पड़ता है, उनमें चतुर्थ रूप अन्वय है। इस अन्वय में संयम करने पर ईशितृत्व (या ईशिता) नामक सिद्धि होती है। जब सत्त्वादि त्रिगुण (जो यथाक्रम प्रकाश-क्रिया-स्थितिशील हैं) कार्यपदार्थों के स्वभाव के अनुपाती होते हैं, तब गुण के उस रूप को ‘अन्वय’ कहा जाता है। सभी कार्यद्रव्य त्रिगुण-सन्निवेश के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह ‘सन्निवेशित होने’ की अवस्था ही अन्वय है। प्रकाशक्रिया स्थितिशील त्रिगुण जब ‘व्यवसाय’ रूप का परिग्रह करते हैं, तब वह (इन्द्रिय के प्रसंग में) अन्वय रूप है। यह व्यवसायात्मक रूप इन्द्रिय, मन और अहंकार का उपादान है। द्र. भोगसूत्र 3/44, 3/47।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अपरा शुद्धविद्या शुद्ध विधा का वह अवांतर प्रकार, जिसे विद्येश्वरों (मंत्र प्राणियों) की शुद्ध विद्या भी कहते हैं। इस शुद्ध विद्या में रहने वाले प्राणियों को अपनी शुद्ध और ऐश्वर्ययुक्त संविद्रूपता पर पक्की निष्ठा तो होती है परंतु फिर भी उनमें किसी न किसी अंश में माया का दृष्टिकोण बना ही रहता है। परंतु माया की तिरोधान शक्ति का उन पर कोई प्रभाव नहीं होता है, इसलिए इस तत्त्व को महामाया भी कहा जाता है। (इ.प्र.वि. खं. 2, पृ. 200)। देखिए महामाया।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अपरान्तज्ञान अपरान्त (अपर+अन्त) का अर्थ है जीवन की अन्तिम अवस्था, अर्थात् मृत्यु। मृत्यु कब होगी – इसका ज्ञान (योगज ज्ञान) सोपक्रम (स-व्यापार) एवं निरुपक्रम कर्म में संयम करने पर होता है (योगसूत्र 3/22)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अपरावस्था / दशा पूर्ण भेद की दशा। वह अवस्था जिसमें प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय के बीच, एक प्रमाता और दूसरे प्रमाता के बीच तथा एक प्रमेय और दूसरे प्रमेय के बीच पूर्ण भेद की दृष्टि का विकास हो चुका होता है। इस अवस्था में माया से लेकर पृथ्वीपर्यंत सभी तत्त्व तथा उनमें रहने वाले भेद दृष्टि प्रधान सभी प्राणी आते हैं। अपूर्णमन्यता, भिन्नता तथा अत्यंत परतंत्रता इस द्वैत प्रधान अवस्था के प्रमुख लक्षण हैं। (शिवदृष्टिवृत्ति, पृ. 14, ईश्वर प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी, 2, पृ. 199)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अपरिग्रह द्रव्यों का अपने उपयोग के लिए ग्रहण करना परिग्रह है। ऐसा ग्रहण न करना अपरिग्रह है। वस्तुतः प्राणयात्रा के लिए आवश्यक वस्तुओं से अधिक वस्तुओं का ग्रहण न करना अपरिग्रह है। व्यासभाष्य (2/30) में कहा गया है कि विषयों का दोष देखकर उनको अस्वीकार करना (विषयों का स्वामी बनने की इच्छा का रोध करना) अपरिग्रह है। यह दोष विषयों के अर्जन, रक्षण, क्षय, संग तथा हिंसा में है। (इनमें अर्जनादि चार विषयग्रहीता से सम्बन्धित हैं; हिंसादोष, प्रधानतः विषयप्रदाता आदि से सम्बन्धित है)। अपरिग्रह में सम्यक् स्थैर्य होने पर जन्मकथन्तासम्बोध (विषय ज्ञाता एवं विषयों की पूर्वापरस्थिति का ज्ञान) होता है (योगसूत्र 2/39)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अपरिदृष्ट धर्म चित्तरूप धर्मी चक्र के धर्म दो प्रकार के हैं – परिदृष्ट और अपरिदृष्ट (वे धर्म जो लक्षित नहीं होते हैं)। अपरिदृष्ट धर्म सात हैं (योगसू. 3/15, व्यासभाष्य): (1) निरोध (=वृत्ति निरोध या निरोध समाधि), (2) धर्म (=पुण्य -अपुण्य अथवा अदृष्ट), (3) संस्कार (=वासनारूप संस्कार जिसका कार्य स्मृति है), (4) परिणाम (=चित्त का अलक्षित परिणाम), (5) जीवन (=प्राणधारण -रूप व्यापार जो प्राणी की इच्छा के आधीन नहीं है), (6) चेष्टा (=इन्द्रिय -चालित चित्तचेष्टा), (7) शक्ति (=वह अज्ञात सामर्थ्य जिससे कोई दृष्ट व्यापार निष्पन्न होता है; व्यक्त क्रिया या चेष्टा की सूक्ष्म अवस्था)। जिन अनुमानों से इन अपरिदृष्ट (=अलक्षित) पदार्थों की सत्ता सिद्ध होती है, उनको व्याख्याकारों ने दिखाया है। किसी-किसी का कहना है कि इन धर्मों की व्यासभाष्य में जो ‘अनुमान गम्य’ माना गया है, वहाँ अनुमान का तात्पर्य आगम से है, अर्थात् आगम (शास्त्र) से ही इन अपरिदृष्ट धर्मों की सत्ता सिद्ध होती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अपरोक्ष ज्ञान इंद्रिय अर्थ के सन्निकर्ष से जन्य ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, अनुमान, शब्द आदि से जन्य ज्ञान को परोक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान साक्षात् होता है। अपरोक्ष ज्ञान उस ज्ञान को कहते हैं जो प्रत्यक्ष की तरह साक्षात् होता है, जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय के बीच में कोई तीसरी वस्तु होती ही नहीं परंतु जो साक्षात् होता हुआ भी इंद्रियजन्य नहीं होता है। प्रत्येक प्राणी अपने आप को अपरेक्ष ज्ञान के द्वारा स्वयं साक्षात् जानता है कि मैं हूँ।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अपवर्ग दृश्य को भोगापवर्गार्थ माना गया है (योगसूत्र 1/18) – भोग और अपवर्ग जिसके प्रयोजन हैं – वह भोगापवर्गार्थ हैं। यह अर्थ या पुरुषार्थ रूप अपवर्ग कैवल्य-मोक्ष नहीं है। चित्त से भिन्न अपरिणामी दृष्टा पुरुष है – इस प्रकार का अवधारण (निश्चय) अपवर्ग है। यह एक प्रकार का ज्ञान है जैसा कि व्यासभाष्य में कहा गया है – भोक्ता का स्वरूप-अवधारण या दृष्टा की स्वरू -उपलब्धि अपवर्ग है (2/18, 23)। भोग एवं अपवर्ग दोनों बुद्धिस्थ, बुद्धिकृत हैं; दोनों अनादि भी हैं। भोग की समाप्ति अपवर्ग में और इन दोनों की समाप्ति कैवल्यावस्था में होती है। कैवल्य में चित्तवृत्तिरूप ज्ञान नहीं रहता, अतः पुरुषावधारण रूप ज्ञान (अपवर्ग) भी कैवल्य में नहीं रहता। अपवर्ग (पुरुषस्वरूपावधारण) होने पर कुछ प्राप्तव्य नहीं रह जाता। चूंकि पुरुषावधारण के बाद कुछ करणीय नहीं रहता, सभी फलों का त्याग हो जाता है, अतः यह अपवर्ग (अप+वृज् धातु; यह धातु वर्जनार्थक है) कहलाता है। अपवर्ग सिद्ध होने पर कैवल्य होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अपवेद्य सुषुप्ति देखिए सुषुप्ति।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अपसंहार दर्शन सामान्य अर्थ में प्राप्त का किसी विशेष अर्थ में संकोच का देखा जाना उपसंहार दर्शन है। अथवा सामान्यतः प्राप्त का किसी विशेष अर्थ में संपादन या निरूपण का देखा जाना या अपेक्षा का देखा जाना उपसंहार दर्शन है। जैसे, सामान्यतः कुलाल जाति में प्राप्त घटकर्तृत्व संकुचित होकर दंड चक्रचीवरादि से युक्त कुलाल में ही देखा जाता है, न कि सभी में, तो इसे उपसंहार दर्शन कहते हैं (अ.भा.पृ. 595)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अपहतपाप्या सभी पापों से रहित। साधक के पाशुपत विधि के अनुसार पाशुपत योग का पालन करने पर उसके समस्त पापों का क्षय हो जाता है। पाशुपत मत में पाप दो तरह के माने गए हैं – सुखलक्षण वाले तथा दुःखलक्षण वाले। उन्माद, मद, मोह, निद्रा, आलस्य, कोणता (कँपकँपी की बीमारी वाली अवस्था), लिङ्गरहित (पाशुपत मत को बताने वाले भस्मादि चिन्हरहित रहना), झूठ बोलना तथा बहुत भोजन करना आदि सुखलक्षण वाले पाप माने गए हैं; क्योंकि इन पापों को मनुष्य सुख प्राप्‍ति तथा आत्मतृप्‍ति के लिए करता है। शिरोवेदना, दंतपीड़ा, अक्षिपीड़ा आदि के कारणभूत पाप दुःखलक्षण वाले पाप माने गए हैं; क्योंकि यह शारीरिक पीड़ा देने वाले होते हैं और मनष्य का इन पर वश नहीं रहता है। पाशुपत साधक के इन सभी तरह के पापों के क्षय होने पर वह अपहत पाप्या अर्थात् पापों से पूर्णतया मुक्‍त हो जाता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 80)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अपान पंच प्राणों में से एक (प्राण वायु-विशेष या हवा नहीं है; इसको आज की भाषा में देहधारण-शक्ति कहा जा सकता है)। अपान का मुख्य स्थान वायु और उपस्थ है। वस्तु मल का अपनयन जिन शरीर-यंत्रों की क्रिया से अथवा जिन शरीरावयवों के माध्यम से होता है, वे सब अपान का स्थान हैं। जीर्ण खाद्य से मलांश को पृथक् करना मात्र अपान का व्यापार है; उस मल को शरीर से पृथक् निक्षिप्त करना वायु का व्यापार है – यह विवेक करना चाहिए। वायु के व्यापार में अपान सहायक है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अपान (प्राण) अपान शैव दर्शन में उपादान करने वाली प्राणवृत्ति को कहते हैं। प्राणी शरीर द्वारा, इंद्रियों द्वारा, अंतःकरणों द्वारा तथा प्राणवायु के द्वारा और उससे उत्पन्न होने वाली वाणी के द्वारा जिस जिस भी उपादान करने की अर्थात् ग्रहण या आत्मसात्करण की क्रिया को करता रहता है वह क्रिया उसका अपान कहलाता है। शैव योगाभ्यास में बाह्य आकाश से हृदय तक संचार करने वाले प्राण वायु को अपान कहते हैं। अपान प्राणन-क्रिया का अर्थात् जीवित रहने की क्रिया का वह स्वरूप है जिसके द्वारा विषयों का उपादान हुआ करता है। अपान नामक प्राण के सूक्ष्मतर स्वरूप का साक्षात्कार योगी को नाभिमंडल के पास और उससे नीचे होता है। अतः नाभि से गुदा द्वार तक अपान नामक प्राण की व्याप्ति मानी गई है। (तंत्र आत्मविलास, पृ. 54, वही. पृ. 56, वही, आ. 6-186, वही, वि. पृ. 155)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अपितत्करण पाशुपत योग की विशेष साधनाओं में से एक। इसका अर्थ है सभी निंदनीय क्रियाओं को करना। पाशुपत साधक को क्राथन आदि सभी निंदनीय क्रियाएँ करनी होती हैं। यह नहीं, कि वह क्राथन, स्पंदन, मंटन आदि में से कोई एक क्रिया ही करे, अपितु उसे सभी क्रियाओं को करना होता है। तब कहीं योग सिद्‍धि होती है। इन सभी क्रियाओं के करने पर लोग कहेंगे कि यह पुरुष अनुचित कार्यों का कर्ता है। इसे शुचि, अशुचि, कार्य अकार्य का ज्ञान नहीं है। इन निंदा से वह पापों से छुटकारा पाता हुआ पुण्यों का ही अर्जत करता रहेगा और अंतत: शुद्‍धि को प्राप्‍त करेगा। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 87)। गणकारिका की टीका के अनुसार पाशुपत साधक को कार्य और अकार्य के विवेक से शून्य होकर, अर्थात् क्या उचित है क्या नहीं इन बातों का ध्यान छोड़कर, ऐसे ऐसे कार्य करने होते हैं, जिनसे लोकनिंदा होती रहेगी। यही साधक की अपितत्करण नामक योग क्रिया है। (ग. का. टी. पृ. 19)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अपितद्‍ भाषण पाशुपत योग की विशेष साधना का एक प्रकार। पाशुपत मत में अपितद्‍भाषण भी एक साधना है जिसमें साधक को अनर्गल बोलते जाना होता है, ताकि लोग यह समझें कि यह पुरुष वक्‍तव्य तथा अवक्‍तव्य में अंतर नहीं जानता है, अनर्गल प्रलाप करता है। तब वे उसकी निंदा करने लग जाते हैं। ऐसी निंदा से साधक के सभी पापों का क्षय होता है (पा. सू. कौ. भा. पृ. 87)। क्योंकि परिभव के होने पर साधक श्रेष्‍ठ तप का अभ्यास करने वाला योगी बन जाता है। (परिभूयमानो हि विद्‍वान् कृत्स्‍नतपा भवति पा. सू. 3-19)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अपोहन परमार्थतः अपोहन व्यापार की कोई स्थिति नहीं है, किन्तु जागतिक व्यवहार का संचालन ज्ञान, स्मृति और अपोहन नाम की शक्ति के सहारे चलता है। “मतः स्मृतिर्ज्ञानमपोहन च” (भ. गी. 15/15), “स्यादेकश्चिद्वपुर्ज्ञानस्मृत्यपोहन-शक्तिमान्” (ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा 1/3/7) इत्यादि वचनों में इन्हीं व्यापारों की चर्चा की गई है। बौद्ध दर्शन में भी एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ को अलग करने के लिये, एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ का भेद बताने के लिये अपोह की कल्पना की गई है। महेश्वरानन्द ने महार्थमंजरी की स्वोपज्ञ परिमल व्याख्या (पृ. 135-136) में अपोहन व्यापार की विस्तृत व्याख्या की है। भगवद् गीता (15/15) के भाष्य में रामानुजाचार्य ने अपोहन शब्द को ऊह का पर्यायवाची माना है और इसकी परिभाषा यह की है – ऊह का कार्य यह देखना है कि किसी भी प्रमाण की प्रवृत्ति सही ढंग से हो रही है या नहीं ?

दर्शन : शाक्त दर्शन

अपोहनशक्ति परमेश्वर के परिपूर्ण एवं अखंड स्वरूप में भेद की स्थिति को आभासित करने वाली पारमेश्वरी शक्ति जो वस्तुतः समस्त आंतर एवं बाह्य संवित् में उससे अभिन्न एवं अखंड रूप में स्थित है। यही इसकी परिपूर्णता है। परंतु परमेश्वर अपने इस संविद्रूप में भेद का आभास करता हुआ अपने परिपूर्ण आनंद का उपभोग करता रहता है। परिपूर्ण तत्त्व में भेद का आभासन हो ही नहीं सकता। अतः परमेश्वर अपने परिपूर्ण स्वरूप के भीतर ही विच्छिन्नता या संकुचितता का अवभासन करता है, तब कहीं प्रमाता से प्रमेय को भिन्नतया अवभासित किया जाता है। परमेश्वर के भीतर ही इस प्रकार की विच्छिन्नता को अवभासित करने के प्रति जो स्वाभाविक उन्मुखता उसमें रहती है, वही उसकी अपोहनशक्ति कहलाती है। उसकी यही शक्ति भेद का आभासन करवाती है। परमेश्वर की यह शक्ति प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय में; प्रमाता-प्रमाता में, प्रमेय प्रमेय में सर्वथाभेद को आभासित कर देती है। ऐसा होने पर ही ज्ञातृ-ज्ञेय भाव और स्मर्तृ-स्मार्य भाव भी आभासित होते हैं। (ई, प्र. वि. खं. 1, पृ. 110)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अप्रकृति-अविकृति सांख्यकारिका (3) में पुरुष को ‘अप्रकृति-अविकृति’ कहा जाता है। पुरुष निष्क्रिय एवं अपरिणामी होने के कारण किसी का कारण (उपादान) नहीं है, अतः वह अप्रकृति है। निरवयव एवं असंहत होने के कारण पुरुष किसी का कार्य (विकार) भी नहीं है, अतः वह अविकृति है। पुरुष यद्यपि अप्रकृति है, पर वह बुद्धि आदि की व्यक्तता का निमित्त कारण है – यह ज्ञातव्य है। पुरुष को अप्रकृति कहने से यह ध्वनित होता है कि सांख्यीय दृष्टि में शुद्ध चेतन वस्तु जगत् का उपादान नहीं है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अप्रतीघात पाशुपत सिद्‍धि का एक लक्षण। पाशुपत मत के अनुसार युक्‍त साधक प्राप्‍त सिद्‍धियों के सामर्थ्य से अपने समस्त अभिप्रेत स्थानों व देशों में घूम फिर सकता है। उसको किसी तरह का कोई प्रतीघात (बाधा) नहीं पड़ता है। वह प्राकार के बीच में से संक्रमम करके बाहर जा सकता है; समुद्र के तल तक पहुँच सकता है; बिना किसी वायुयान के इच्छामात्र से देश देशांतरों का भ्रमण कर सकता है। उसे देश – काल का प्रतीघात अर्थात् रुकावट कहीं नहीं आती है। (ग. का. टी. प. 10)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अप्रबुद्ध अबुद्ध। वह जीवन जिसे स्वरूप साक्षात्कार के उद्देश्य से दिए गए किसी भी उपदेश से कोई लाभ नहीं होता है, जो सदा अज्ञान की ही स्थिति में पड़ा रहता है। इस प्रकार स्वरूप साक्षात्कार का उपदेश देने वाले शास्त्रों का भी उसके लिए कोई उपयोग नहीं होता है। ऐसा जीव यदि कोई अभ्यास कर भी ले, उससे भी उसे कोई अंतर नहीं पड़ता है। परिणामस्वरूप वह ईश्वर के शक्तिपात से वंचित रहता है और संसृति के चक्कर में फँसा रहता है। (स्पन्दविवृति पृ. 9, 58, 67)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अप्रमाद पाशुपत योग में यमों का एक प्रकार। पाशुपत योगी को सभी यमों का पालन करते हुए अप्रमादी रहना होता है; अर्थात् बहुत ध्यानपूर्वक रहना होता है; क्योंकि अप्रमाद, दम (संयम) तथा त्यागवृत्‍ति ब्राह्मण के घोड़े होते हैं, मन रथ होता है, शील लगाम होती है। मन रुपी ऐसे रथ पर साधक आरूढ होकर जन्म व जरा के पाशों का क्षय करके अप्रमादी बनकर ब्रह्मभाव को प्राप्‍त करता है। अतः अप्रमाद एक बहुत आवश्यक यम है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 33, 141)। भासर्वज्ञ ने अप्रमाद को पंचम प्रकार का बल माना है। जब पाशुपत साधक की निश्‍चल स्थिति केवल शुद्‍ध ज्ञान में ही रहती है, उसकी ऐसी अवस्था को उन्होंने अप्रमाद कहा है। (ग. का. टी. पृ. 7)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अंबा परमशिव की वह स्वभावभूत शक्ति जो सर्वथा पूर्ण अद्वैत पद पर ही आरूढ़ रहती है। समस्त प्रपंच में परमेश्वर की निग्रह तथा अनुग्रह लीलाओं एवं इस प्रपंच को टिकाए रखने की लीला का संचालन करने वाली परमेश्वर की चार शक्तियों में प्रमुख शक्ति। (मा. वि. तं., 3-5; शिवसूत्रवार्तिक (भास्कर), पृ. 7)। अंबा ही निग्रह और अनुग्रह लीलाओं को चलाने के लिए ज्येष्ठा, रौद्री और वामा नामक तीन रूपों में प्रकट होती है। ज्येष्ठा अनुग्रह लीला को तथा वामा निग्रह लीला को चलाती है। संसार को टिकाए रखने की लीला को रौद्री चलाती है। (तन्त्रालोक, 6-57)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अभयत्व पाशुपत सिद्‍धि का लक्षण। पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार मुक्‍त साधक को योग की उच्‍च भूमि पर अधिष्‍ठित होने के उपरांत किसी तरह का भय नहीं रहता है, अर्थात् भूत, वर्तमान व भविष्य संबंधी किसी भी बात का डर उसे नहीं रहता है। साधक की इस प्रकार की स्थिति अभयत्व कहलाती है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 49; ग. का. टी. पृ. 10)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अभाव सांख्ययोग चूंकि सत्कार्यवाद का प्रतिपादक है, इसलिए इस शास्त्र की दृष्टि में अभाव का अर्थ अस्तित्वहीनता न होकर अवस्थान्तरता है। त्रिगुण-परिणामभूत वस्तु निरन्तर परिणत होती रहती है अर्थात् एक अवस्था से दूसरी अवस्था में – स्थूल से सूक्ष्म में एवं सूक्ष्म से पुनः स्थूल अवस्था में – परिणत होती रहती है। मिट्टी जब घटाकार-अवस्था में है तब उसमें पिण्डाकार का अभाव है अर्थात् पिण्डाकार अतीत अवस्था में है। उसी प्रकार जब चित्त में क्रोध है तब रागधर्म का अभाव है – वह धर्म अनागत अवस्था में है, क्योंकि बाद में चित्त में रागधर्म आविर्भूत हो सकता है। इस दृष्टि से दुःखाभाव का अर्थ होगा – सदा के लिए दुःख की अव्यक्तावस्था-प्राप्ति। द्र. योगसूत्र 4/12 की टीकाएँ।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अभावप्रत्यय निद्रारूप वृत्ति के लक्षण में यह शब्द योगसूत्र (1/10) में प्रयुक्त हुआ है। प्रायः सभी व्याख्याकार प्रत्यय को कारण (हेतु) का वाचक समझते हैं। अतः अभावप्रत्यय का अर्थ होता है – अभाव का हेतु। निद्रा के प्रसंग में जाग्रतावस्था एवं स्वप्नावस्था का अभाव ही इस अभाव शब्द से लिया जाता है। तमः विशेष (सत्त्व-रजः का आच्छादक भाव-विशेष) के आविर्भाव से जाग्रत और स्वप्नावस्था नष्ट हो जाती है और सुषुप्ति अवस्था आती है, अतः यह तमः विशेष ही अभावप्रत्यय है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अभिनिवेश पाँच प्रकार के क्लेशों में अभिनिवेश एक है। इसका स्वरूप है मरणभय – ऐसा प्रायः कहा जाता है (द्र. योगसूत्र 2/9 की टीकाएँ)। यह भय स्वभावतः किसी हेतु के बिना – वासनावश सभी प्रकार के प्राणियों में विद्यमान रहता है और प्राणी को क्लिष्ट करता रहता है। व्याख्याकारगण कहते हैं कि इस मरणभय (नामान्तर ‘आत्माशी’: द्र. तत्ववै.) से अनुमित होता है कि प्राणी का पूर्वजन्म था (पहले कभी प्राणी जन्म लेकर मृत हुआ था)। यह मरण -भयरूप क्लेश श्रवण-मनन-जात प्रज्ञा से युक्त व्यक्तियों में भी रहता है – आत्म-साक्षात्कारी में नहीं रहता। कुछ व्याख्याकार कहते हैं कि मरणभय अभिनिवेश क्लेश का एक उत्कृष्ट उदाहरणमात्र है; वस्तुतः भयमात्र अभिनिवेश है। (कोई कहते हैं कि सुखदुःखः, विवेकहीन मोहविशेष अभिनिवेश है)। अभिनिवेश अज्ञानमूलक है, क्योंकि आत्मभाव का ध्वंस या परिणाम नहीं हो सकता।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अभिमान विभिन्न विषयों के साथ संपर्क होने के कारण ‘अहम्’ (महत्तत्त्व) का जो विकारी रूप होता है, वह ‘अहंकार’ कहलाता है और इस अहंकार का धर्म अभिमान है। यह अभिमान मुख्यतः दो प्रकार का है। अहन्ता (शरीरादि में) और ममता (धनादि में) ही ये दो प्रकार हैं। यह अहंकार रजः प्रधान है। (द्र. अहंकारशब्द)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अभिमानिव्यपदेश अभिमानी देवता का व्यवहार अभिमानिव्यपदेश है। “मृदब्रवीत् आपोЅब्रुवन्” इत्यादि श्रुतियों में अचेतन मिट्टी या जल में बोलने का व्यवहार नहीं बताया गया है अपितु मिट्टी या जल के अभिमानी देवता के लिए बोलने का व्यवहार प्रतिपादित हुआ है (अ.भा.पृ. 555)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अभिषेक पवित्र जल छिड़क कर अथवा उससे स्नान कराकर किसी योग्य व्यक्ति को योग्य पद पर प्रतिष्ठित करना ही अभिषेक पद का साधारण अर्थ है। शास्त्रीय विधि से देवता अथवा राजा को कराया जाने वाला स्नान भी अभिषेक ही कहलाता है। तन्त्रशास्त्र में दीक्षा के उपरान्त दीक्षित व्यक्ति को अभिषेक नामक संस्कार से संस्कृत किया जाता है। दीक्षा के प्रसंग में प्रायः सभी तंत्र ग्रन्थों में बताया गया हे कि समयी, प्रत्रक, साधक और आचार्य के भेद से दीक्षित व्यक्तियों की चार कोटियाँ होती हैं। इनमें से समयी का सेनापति के समान, पुत्रक का महामंत्री के समान, साधक का युवराज के समान और आचार्य का अभिषेक राजा के समान किया जाता है। अन्य आचार्यों का कथन है कि अभिषेक केवल आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होते समय ही किया जाता है। यह अभिषेक विविध औषधि, मृत्तिका, रत्न आदि से मिश्रित नदी, समुद्र आदि के पवित्र जल से भरे कलशों से संपादित होता है। इन कलशों की पूजा करके मण्डल निर्माण पूर्वक, जिसका अभिषेक करना हो उसको भद्र पीठ पर ईशानाभिमुख बैठाकर सकलीकरण क्रिया द्वारा संस्कृत किया जाता है और उक्त कलशों के अभिमन्त्रित जल से उसको स्नान कराया जाता है। इसी का नाम अभिषेक है। अभिषेक हो जाने के उपरान्त उसको अन्य व्यक्तियों को दीक्षा देने का अधिकार मिल जाता है। वह आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हो जाता है। विविध सम्प्रदायों में इसकी भी विभिन्न विधियाँ हैं। शाक्त तन्त्रों में पूर्णाभिषेक अथवा पट्टाभिषेक के नाम से तथा बौद्ध तन्त्रों में सेक के नाम से इसकी विधि विस्तार से वर्णित है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अभीत भयरहित। पाशुपत मत में सिद्‍ध साधक को अतीव उत्कृष्‍ट कोटि का माना गया है। उसके लिए भूत, वर्तमान अथवा भविष्य में कभी भी कोई भय नहीं होता है। संसार तथा प्रकृति के नियमों के अनुसार इस जगत् का ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यंत क्षय होता है, अतः यहाँ पर यह प्रश्‍न उठता है कि पाशुपत साधक का भी अंततोगत्वा क्षय तो होना ही है; तो क्या उसे उस क्षय का भय नहीं होता है? पाशुपात शास्‍त्र का उत्‍तर है, नहीं। पाशुपत साधक को विनाश का भय नहीं होता है; क्योंकि वह अक्षय होता है। अतः उसे मृत्युभीति नहीं होती है। यहाँ पर अक्षय से यह तात्पर्य नहीं है कि पाशुपत साधक के स्थूल शरीर का क्षय नहीं होता है। स्थूल शरीर तो किसी दिन जीर्ण शीर्ण होकर समाप्‍त होता ही है, परंतु मुक्‍त साधक को जब वास्तविक ज्ञान हो जाता है तो वह अपनी आत्मा को तत्वत: जानकर अक्षयी समझने लगता है। वह मृत्यु से भी अभीत बनकर रहता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 49)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अभेदोपाय देखिए शाम्भव-उपाय।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अभ्यास वह यत्न या चेष्टा जो ‘स्थिति’ के लिए की जाती है। अभ्यास को चित्तवृत्तिनिरोध का एक उपाय माना गया है (योगसू. 1/12)। योग के संदर्भ में ‘स्थिति’ का अर्थ है – चित्त की प्रशान्तवाहिता (योगसू. 1/13)। सात्विक एकाग्रता प्रशान्तवाहिता है; हर्ष-शोक आदि तरंग के न रहने के कारण ही ‘प्रशान्तवाहिता’ शब्द का प्रयोग किया गया है। वृत्तिरहित चित्त का जो स्वरूपनिष्ठ परिणाम है, वह स्थिति है – ऐसा भी कोई-कोई कहते हैं। यह वस्तुतः पूर्वोक्त सत्त्वप्रधान एकाग्रता का चरम रूप है और इस दृष्टि से चित्त-निरोघ का सभंग-प्रवाह (निरोध का बारबार उदित होते रहना) ही प्रशान्तवाहिता है। यह अभ्यास क्रमशः दृढ़ होता रहता है। दीर्घकाल तक श्रद्धापूर्वक निरन्तर चेष्टा करते रहने का अभ्यास दृढ़ हो जाता है। इस प्रकार का अभ्यास ‘दृढ़भूमि’ कहलाता है (योगसू. 1/14)। अभ्यास का क्षेत्र बहुत बड़ा है। योगसूत्रोक्त सभी परिकर्म (मैत्र्यादिभावना) तथा एकतत्त्वाम्यास (1/32) अभ्यास के ही अन्तर्गत हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अमनस्क योग अमनस्क योग का निरूपण करने वाला इसी नाम का एक छोटा-सा ग्रन्थ उपलब्ध होता है। यह पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में विभक्त है। पूर्वार्ध में तारक योग का तथा उत्तरार्ध में अमनस्क योग का प्रतिपादन है। इस ग्रन्थ के अनुसार योग के दो प्रकार हैं – पूर्व और उत्तर। पूर्व योग, अर्थात् तारक योग में मन विद्यमान रहता है, परन्तु उत्तर योग, अर्थात् अमनस्क योग में मन बिल्कुल नहीं रहता। इनकी तुलना पातंजल योग की संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात समाधि से की जा सकती है। किन्तु वस्तुतः यह अपने में एक स्वतंत्र योग पद्धति है। प्राण और मन का लय ही वस्तुतः अमनस्क योग का मुख्य लक्षण है। ग्रन्थ में बताया गया है कि जल में छोड़ा हुआ नमक का ढेला धीरे-धीरे जल में लीन हो जाता है, वैसे ही अमनस्क योग के अभ्यास से मन भी परब्रह्म में लीन हो जाता है। जैसे नमक जल के संपर्क से जलमय हो जाता है, वैसे ही ब्रह्म के संपर्क से मन भी ब्रह्ममय हो जाता है। अमनस्क योग के अभ्यास से इसी स्थिति को प्राप्त किया जाता है। इस लक्ष्य के प्राप्त हो जाने पर मन की कोई स्थिति नहीं रहती। इसीलिये इसको अमनस्क योग कहा जाता है। इस योग की विशेषता यह है कि यहाँ मन पर नियंत्रण स्थापित करने की अपेक्षा उसके लय पर जोर दिया जाता है। मन का लय हो जाने पर प्राण का लय अपने आप हो जाता है। शैव और शाक्त तन्त्रों में वर्णित उन्मनी स्थिति की हम इस योग से तुलना कर सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये दोनों स्थितियाँ अभिन्न हैं, क्योंकि उस प्रक्रिया के अनुसार समना पर्यन्त ही मन की स्थिति है। उन्मना में जाकर मन लीन हो जाता है। किन्तु तान्त्रिक प्रक्रिया में इसी को चरम लक्ष्य नहीं माना गया है। उन्मनी दशा में मन के लीन हो जाने पर भी उसकी किसी न किसी रूप में स्थिति रह जाती है। अतः वहाँ इस उन्मनी दशा से भी परे निष्कल महाबिंदु में प्रतिष्ठा ही योगी का परम और चरम लक्ष्य माना जाता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अमर सिद्‍ध साधक का एक लक्षण। पाशुपत मतानुसार सिद्‍ध साधक अमर होता है, अर्थात् उसकी मृत्यु नहीं होती है। इस स्थूल शरीर का प्राणों से वियोग तो अवश्यंभावी है, परंतु पाशुपत साधक को प्राण वियोग का भय नहीं होता है, अर्थात् प्राणों के वियोग से जन्य दुःख का संस्पर्श उसे नहीं होता है। उसका वास्तविक स्वरूप चमकता ही रहता है, अर्थात् उसकी शुद्‍ध आत्मा न कभी जन्मता है न कभी मरता है और उसे इस बात का ज्ञान होता है। अतएव उसे अमर कहा गया है। उसका वास्तविक स्वरूप में चमकते रहना ही अमरत्व होता है। (ग. का. टी. प. 10)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अमरत्व पाशुपत सिद्‍धि का एक लक्षण। पाशुपत साधक अमरत्व को प्राप्‍त करता है क्योंकि वह अपनी स्वतंत्र इच्छाशक्‍ति के बल से भिन्‍न भिन्‍न रूपों को धारण कर सकता है तथा उनका संहार भी कर सकता है। अतः ये स्थूल रूप उसके लिए कुछ अर्थ नहीं रखते। इनकी सृष्‍टि – संहार तो प्रकृति का नियम है। साधक की वास्तविक आत्मा अमर (मृत्यु रहित) होती है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 50)। जैसा कि गणकारिका में कहा गया है कि साधक को प्राणादि के वियोग से उत्पन्‍न दुःख स्पर्श नहीं करता है; अर्थात् स्थूल शरीर की मृत्यु तो प्रकृति के नियम के अनुसार अपने निश्‍चित समय पर हो जाती है परंतु युक्‍त साधक को प्राण त्यागते समय साधारण मनुष्य के समान दुःख नहीं होता है। वह इस प्रकार से अमरत्व को प्राप्‍त करता है। (प्राणादिवियोगज दुःखासंस्पर्शित्ममरत्वम् ग.का.टी.पृ. 10)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अमर्दक द्वैत शैवदर्शन के प्रवर्तक। श्रीकंठनाथ की आज्ञा से भेदमय दृष्टिकोण से शैवी साधना और शैवी सिद्धांतों के प्रचार प्रसार के लिए अवतरित सिद्ध पुरुष। (तन्त्रालोक, 36-13)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अमर्दक मठिका वर्तमान काल में इस मठिका की न किसी गुरु-शिष्य परंपरा का ही पता लग रहा है और न ही इस शाखा के किसी ग्रंथ की ही उपलब्धि हो रही है। अभिनवगुप्त ने अपने तंत्रालोक के अंतिम आह्मिवक में रस मठिका के तात्कालिक गुरु के नाम का उल्लेख किया है; इसलिए यह मठिका ग्यारहवीं शताब्दी तक किसी न किसी रूप में अवश्य प्रचलित थी। (तन्त्रालोक, 36-13)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अमा कला स्कन्द पुराण के प्रभास खण्ड के एक वचन में, जो कि शब्दकल्पद्रुम (भास्करी 01, पृ. 83) में उद्धृत है, बताया गया है कि चन्द्रमा की सोलहवीं कला को अमा कला कहा जाता है। आचार्य रघुनंदन ने (शब्दकल्पद्रुम, भास्करी 01, पृ. 83 पर उद्धृत) अमा कला की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह कला नित्य है, क्षय और उदय से रहित है। चन्द्रमा की अन्य कलाओं में यह उसी तरह से अनुस्यूत है, जैसे की पुष्पमाला के प्रत्येक पुष्प में सूत्र अनुस्यूत रहता है। यह आधार शक्ति का ही परम स्वरूप है। तन्त्रशास्त्र (तान्त्रिक वाङ्मय में शाक्तदृष्टि पृ. 309) में बिन्दु को पूर्णिमा कहा जाता है, किन्तु वह ठीक पूर्णिमा नहीं है। यथार्थ पूर्णिमा षोडशी है। बिंदु में 15 कलाएँ हैं, एक कला नहीं है अर्थात् अमृतकला अथवा षोडशी का वहाँ अभाव है। षोडशकला पुरुष में अमृत कला एक है। यही वास्तविक अमा कला है। योग की प्रक्रिया (भारतीय संस्कृति और साधना, भास्करी 1, पृ. 319) में उन्मना के उन्मीलन को ही अमाकला कहा गया है। मातृका के क्रम में अमा कला की एक दूसरी ही व्याख्या मिलती है। इस मत में अनुत्तर तत्त्व अकार को सप्तदशी या अमा कला के नाम से जाना जाता है। यह नित्योदित है, अर्थात् इसका कभी तिरोधान नहीं होता। यही अमृत कला है। अन्तःकरण आदि षोडश कलाओं का उद्भव इसी से होता है। यह अन्तरुन्मुख है। श्रीतत्त्वचिंतामणि (6/47) में बताया गया है कि सहस्त्रार चक्र के मध्य विराजमान त्रिकोण स्थान में अमा कला का निवास है, जो कि चन्द्रमा की सोलहवीं नित्य कला मानी जाती है। यह बाल सूर्य के समान प्रकाशमान है। यह कला नित्योदित है, अर्थात् क्षय और उदय से रहित है। सहस्त्रार के ही समान यह भी अधोमुख है और इससे निरन्तर अमृत की वर्षा होती रहती है। इस अमृत कला के भीतर निर्वाण कला का भी निवास है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अमानव पुरुष जो व्यक्ति सद्योमुक्ति का अधिकारी नहीं है, किन्तु क्रममुक्ति का ही अधिकारी है, वह व्यक्ति इस लोक में अपने प्रारब्ध कर्म का भोग कर चुकने के बाद अमानव पुरुष द्वारा पहले ब्रह्मलोक तक पहुँचाया जाता है। तदनन्तर वह मुक्ति को प्राप्त कर जाता है। इस प्रकार अमानव पुरुष मुमुक्षु के लिए ब्रह्मलोक तक पहुँचाने का एक माध्यम है। किन्तु सद्योमुक्ति में अमानव पुरुष की अपेक्षा नहीं होती है। (अ.भा.प्र. 1372)

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अमूर्त – सादाख्य देखिए ‘सादाख्य’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अमृत शरीर सामान्य जन का शरीर मरणशील होने से मृत्य कहा जाता है। किन्तु भगवान् की पुष्टि लीला में प्रवेश के अनन्तर भक्त को अमृत शरीर प्राप्त हो जाता है और वह भगवान् के नित्य लीला रस का अनुभव करता है (अ.भा.पृ. 1303)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अमृतद्रव श्रीमद्भागवत का अमृत द्रव शब्द श्री वल्लभाचार्य के अनुसार भक्ति रस का प्रतिपादक है क्योंकि उनके मतानुसार भक्तिरस अमृतपदवाच्य मोक्ष को भी द्रवित कर देने वाला है। अर्थात् भक्ति रस की तुलना में मोक्ष भी महत्त्वहीन है (भा.सु. 11टी. पृ. 48)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अमृतपाद चतुष्पाद ब्रह्म के तीन अमृतपाद हैं – पृथ्वी, शरीर और हृदय-अथवा भू: -भुवः और स्वः में सभी भूत समाविष्ट हैं, यह ब्रह्म का एक पाद है “पादोSस्य विश्वा भूतानि” तथा महर्लोक से ऊपर जन, तप और सत्य लोक अमृत, क्षेम और अभय नामक त्रिविध सुखरूप हैं। इस दृष्टि से यहाँ क्रमानुसार अमृत रूप होने से केवल जनलोक ही अमृतपाद होना चाहिए। किन्तु अमृतत्त्व गुण उक्त त्रिविध सुखों में अनुस्यूत है, अतः यहाँ अमृत शब्द उक्त तीनों सुखों का उपलक्षक है। इसलिए जन, तपः और सत्य ये तीनों ही लोक ब्रह्म के अमृतपाद हैं “त्रिपादस्याभृतं दिवि” (अ.भा.पृ. 254)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अमृतबीज 1. स। सोम, अमृतनाथ, सुधासार, सुधानिधि, षड्रसाधार आदि नामों से अभिहित परामृत धाम स्वरूपक सकार। (तन्त्रालोकविवेक2, पृ. 164)। 2. ऋ, ऋ, लृ, लृ – इन चार बीजों को भी अमृत वर्ण कहते हैं, क्योंकि ये आगे सृष्टि न करते हुए अपने ही चमत्कार में स्पंदमान होते रहते हैं। (तन्त्र सार त्र पृं. 16)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अमृतवर्ण देखिए अमृतबीज।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अमोक्ष सुषुप्ति अवस्था की वह अवांतरदशाएँ जिन्हें कोई कोई दर्शन गुरु मोक्ष की अवस्था मानते हैं। शैवशास्त्र में कहा गया है कि इन संकोच युक्त शास्त्रों पर निष्ठा रखने वालों को माया भ्रम में डाल कर उनके द्वारा उन दशाओं पर मोक्ष का अभिमान कराती है जो जो दशाएँ वस्तुतः मोक्ष की दशाएँ हैं ही नहीं। उन दशाओं में ‘कुतश्चिन्मुक्ति’ तो हुआ करती है, परंतु सर्वतो मुक्ति नहीं होती है। क्योंकि ऐसी मुक्ति में प्राणी कुछ समय के लिए जन्म मरण के कष्टों से बचा तो रहता है, परंतु सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता है। (तन्त्रालोक, खं 1, पृ. 54)। ये दशाएँ प्रायः सुबुद्धि अवस्था की अवांतर सीढ़ियाँ होती हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अमोहकारिणी शिव में रहने वाली शक्‍ति विपरीत ज्ञान के द्‍वार शिव को मोहित नहीं करती, अतः शिव की इस शक्‍ति को अमोहकारिणी कहा जाता है। इसे ‘शुद्‍धोपाधि’, ‘परामाया’, ‘ऊर्ध्वमाया’ भी कहते हैं। यह ‘सूक्ष्मचित्’ अर्थात् सर्वज्ञत्वरूपा और सूक्ष्म-अचित् अर्थात् सर्वकर्तृत्वरूपा है। इसी के कारण शिव सर्वज्ञ और सर्वकर्ता बन जाता है। काँच से आवृत वस्तुओं का स्वरूप जैसे तिरोहित नहीं होता, उसी प्रकार इस ऊर्ध्वमाया से आवृत होने पर भी शिव का स्वरूप तिरोहित नहीं होता। इसीलिये इसको शुद्‍धोपाधि कहा गया है। इस ऊर्ध्वमाया से उपहित शिव प्रपंच की उत्पत्‍ति में निमित्‍त कारण बनता है। यह शिव एक होने पर भी इस ऊर्ध्वमाया की महिमा से सद्‍योजात आदि अनेक मूर्तियों का रूपधारण करता है और आणव आदि अनादिमलों से रहित होकर सर्वज्ञत्व आदि षड्‍गुणों से संपन्‍न हो जाता है। (सि.शि. 5/44-46 पृष्‍ठ 69-70)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अम्बिका त्रिपुरा दर्शन में शान्ता नामक शक्ति को विश्व का कारण माना है। जब इस शक्ति में विश्व की सिसृक्षा उत्पन्न होती है, तो उसमें स्फुरता या स्पन्दन होता है और यह शान्ता शक्ति अम्बिका के रूप में परिणत हो जाती है। इसी को परा वाक् भी कहा जाता है। बीज में छिपे वृक्ष के समान इस अम्बिका शक्ति में ही सारा विश्व संनिहित रहता है। श्रृंगार के मध्य में स्थित बिन्दु में इसकी स्थिति मानी जाती है। (योगिनीहृदय, 1/36)।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अरिष्ट आसन्न मृत्यु के ज्ञापक चिह्न को ‘अरिष्ट’ कहते हैं। इन चिह्नों का विवरण योगग्रन्थों के अतिरिक्त इतिहास -पुराण के योगपरक अध्यायों में (यथा वायुपुराण, अ. 19) तथा आयुर्वेद के ग्रन्थों में (द्र. सुश्रुत सूत्रस्थान) भी मिलता है। योगियों के लिए ये चिह्न मृत्यु के सर्वथा निश्चायक होते हैं, पर साधारण जन के लिए ये मृत्यु-सम्बन्धी प्रबल संभावना बुद्धि के जनक होते हैं। अरिष्टों को तीन भागों में बाँटा गया है – (1) आध्यात्मिक (अर्थात् दैहिक एवं मानसिक विकार) जैसे – कान बंद करने पर शरीरगत शब्द न सुनना, आँखों के दबाने पर ज्योति का न दीखना, दीप के बुझने पर उसका गन्ध न पाना, स्वप्न में स्वमलमूत्रवमन का दर्शन, अरुन्धती नक्षत्र को न देख सकना, आदि; (2) आधिदैविक (=अमानुष सत्त्वादि का दर्शन), जैसे – अकस्मात् स्वर्ग का दर्शन, आकाश में इन्द्रजाल की तरह गन्धर्वनगर का दर्शन आदि; (3) आधिभौतिक, जैसे – मरे हुए पितरों को देखना, स्वप्न में महिषारोहण का दर्शन, मस्तक में कपोत, काक, पेचक का गिरना। किसी-किसी के अनुसार ‘विपरीतदर्शन’ (अर्थात् प्राकृतिक नियम के अनुसार जिसको जैसा होना चाहिए, उसको उससे विपरीत रूप से देखना) ही आधिदैविक है। अन्य आचार्य कहते हैं कि अरिष्टदर्शन का स्वरूप ही है – विपरीत-दर्शन। स्वप्न भविष्यत् अर्थ का सूचक है – यह मत प्रायः सभी दर्शनों को अनुमत है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अरुणान्याय “अरुणया पिङ्गाक्ष्या एकहायन्या गवा सोमं क्रीणाति”। इस ज्योतिष्टोम प्रकरणस्थ वाक्य में केवल अरुणत्व गुण अर्थात् रक्त रूप सोम के क्रयण का साधन नहीं बन सकता क्योंकि अरुणा शब्द में स्त्रीलिंगत्व बोधक टाप् प्रत्यय का योग होने से अरुणा शब्द आरुण्य विशिष्ट गो पदार्थ का बोधक होगा। अतः आरुण्य गुण विशिष्ट लाल गौ सोमक्रयण का साधन बन सकता है केवल आरुण्य गुण नहीं”। फिर भी यहाँ सोमक्रयण के प्रति आरुण्य धर्म की ही प्रधानता होती है, गौ की नहीं। यह अरुणान्याय है। इस न्याय से “देवाः श्रद्धां जुहवति” यहाँ पर भी श्रद्धा गुण का हवन असंभव होने से श्रद्धा धर्म वाले मन का हवन प्रतिपादित होता है। किन्तु ऐसा होने पर भी श्रद्धा ही हवनीय रूप में मुख्य मानी जाती है और मन गौण माना जाता है (अ.भा.पृ. 833)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अर्चन विष्णु की प्रीति के निमित्त प्रतिमा आदि पर गंध, पुष्प, अक्षत, नैवेद्य आदि का अर्पण रूप व्यापार अर्चन है। यह श्रवण कीर्तन आदि व्यापार से पृथक् है (शा.भ.सू.वृ.पृ. 160)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अर्चावतार मन्त्रादि द्वारा संस्कार की गयी मूर्ति को अर्चावतार कहते हैं। ऐसी मूर्ती पूजा के निमित्त हुआ भगवान का अवतार विशेष है (शा.भ.सू.वृ.पृ. 151)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अर्चिमार्ग ऊर्ध्व गति को या ब्रह्म गति को प्राप्त कराने वाला मार्ग अर्चिमार्ग है। यह मार्ग ज्ञानी भक्त को प्राप्त होता है। इसी मार्ग का वर्णन “अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्”, इस वचन द्वारा किया गया है। इसके विपरीत अज्ञानियों का मार्ग धूममार्ग है, जिससे पुनः अधोगति प्राप्त होती है। इसका वर्णन “धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्”, इस वचन से किया गया है (अ.भा.पृ. 822)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अर्थभावन अर्थभावन का सम्बन्ध जप से है। जप्य मन्त्र (प्रणव अर्थात् ओंकार प्रधान जप्य मन्त्र है) का जिस अर्थ में संकेत किया गया है (पूर्व-पूर्व आचार्यों के द्वारा) उस अर्थ का स्मरण करना तथा चित्त में उसका निवेशन करना अर्थभावन है। प्रणव मन्त्र अनादि, मुक्त ईश्वर के लिए संकेतित हुआ है। अतः योगशास्त्र में अर्थभावन से प्रणवार्थभावन (उपर्युक्त पद्धति के अनुसार) लिया जाता है। यह अर्थभावन स्वाध्यायरूप योगांग के अन्तर्गत है। इस भावन से साधक प्रत्यक् चेतन का अधिगम करने में समर्थ होता है (द्र. योगसूत्र 1/28 -29)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अर्थवत्त्व भूतों तथा इन्द्रियों के जिन पाँच रूपों में संयम करने से भूतजय तथा इन्द्रियजय होता है, ‘अर्थवत्त्व’ उन रूपों में एक है। यह भूत तथा इन्द्रिय का चरम रूप है (योगसूत्र 3/44)। व्यासभाष्य में भूत से सम्बन्धित अर्थवत्त्व के विषय में इतना ही कहा गया है कि ‘भोग और अपवर्ग रूप जो दो अर्थ हैं, वे गुणों में अन्वित रहते हैं और तन्मात्र, भूत एवं भौतिक-रूप पदार्थ गुणों के सन्निवेशमात्र हैं। इन्द्रिय से सम्बन्धित अर्थवत्त्व है – त्रिगुण में अनुगत पुरुषार्थता। भोग-अपवर्गजनन-रूप परार्थता ही यह अर्थवत्त्व है। भूतों के अर्थवत्त्वरूप में संयम करने पर यत्रकामावसायिता-रूप सिद्धि उत्पन्न होती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अर्धत्र्यम्बक मठिका त्र्यम्बकादित्य से अपनी पुत्री के द्वारा प्रतिष्ठित करवाई गई अद्वैत प्रधान शैवशास्त्र की मठिका। (तं. अ., 36-11, 12)। संभवतः पर्याप्त मात्रा में विकसित न हो सकने के कारण ही इस मठिका को अधूरी मठिका माना गया हो। वर्तमान काल में शैव दर्शन की अर्धत्र्यम्बक शाखा प्रचलन में नहीं है, परंतु अभिनवगुप्त के समय अर्थात् ग्यारहवीं शताब्दी तक, यह अवश्य ही प्रचलित थी। अभिनवगुप्त ने तंत्रालोक में इस मठिका के तत्कालीन प्रधानगुरु जालंधरपीठ (कांगड़ा) के निवासी श्री शंभुनाथ की भिन्न भिन्न संदर्भो में अत्यधिक प्रशंसा की है जिससे इस शाखा के महत्व पर भी प्रकाश पड़ता है। (तन्त्रालोक, 1-13; वही, 4-266 इत्यादि)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अर्धमात्रा “अर्धमात्रा स्थिता नित्या याsनुच्चार्या विशेषतः” (1/74) दुर्गा सप्तशती के इस श्लोक में अर्धमात्रा को अनुच्चार्य (जिसका उच्चारण नहीं किया जा सकता) माना है। हृस्व स्वर का उच्चारण काल ‘मात्रा’ कहलाता हैं योगिनी हृदय के टीकाकार अमृतानन्द योगी (दीपिका, पृ. 53) के अनुसार बिन्दु से लेकर समना पर्यन्त प्रणव कलाओं के उच्चारण का काल अर्धमात्रा है। दुर्गा सप्तशती के उक्त श्लोक की व्याख्या में भास्कर राय ने भी यही कहा है। वे इसको अनुच्चार्य इसलिये मानते हैं कि प्रणव अथवा पिण्ड मन्त्र में स्थित इन कलाओं का उच्चारण नहीं किया जा सकता। ये केवल भावना गम्य हैं, अतः केवल योगी ही इनका साक्षात्कार कर सकते हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अर्धसम्पत्ति मूर्छा आदि के अनन्तर मुग्ध भाव में रहने वाले जीवित व्यक्ति को हुई प्रतिपत्ति बुद्धि या ज्ञान अर्धसम्पत्ति है। यह प्रतिपत्ति अर्ध ही होती है, संपूर्ण नहीं अर्थात् मूर्छा आदि के अनन्तर की अवस्था में व्यक्ति की बुद्धि सामान्यात्मक होती है, विशेष का निश्चय नहीं कर पाती। इसीलिए फलेच्छा आदि विशेषण के न होने से उस व्यक्ति का काम्य यज्ञादि कर्म में अधिकार नहीं होता। केवल अधिकार के अन्यतम प्रयोजक जीवित्व के कारण पहले से प्रवृत्त अग्निहोम आदि कर्म ही कर पाता है। इसी प्रकार अन्य लौकिक व्यवहार भी उसका वही होता है जो पहले से प्रवृत्त है (अ.भा.पृ. 894)। वेदांत में प्रस्तुत इस प्रसंग से विद्ध किया गया है कि मुग्ध भाव के कारण ही व्यक्ति को हुई प्रतिपत्ति अर्धसम्पत्ति होती है। अर्थात् विशेष का निर्धारण न कर पाने वाली सामान्यात्मिका बुद्धि होती है। ऐसा नहीं है कि मुग्धावस्था में उसके शरीर में किसी अन्य जीव का प्रवेश होने के कारण अर्धसम्पत्ति होती है। इसीलिए कहीं पूर्वानुस्मृतिका हेतु प्राप्त हो जाने पर मुग्ध को भी संपूर्ण बुद्धि हो जाती है। भिन्न जीव का प्रवेश मानने पर ऐसा कथमपि नहीं होता। इसीलिए सुषुप्ति के पूर्व जो जीव रहता है, वही सुषुप्ति के बाद भी रहता है, यह वेदांत का मान्य सिद्धांत है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अलब्धभूमिकत्व यह योगाभ्यास के नौ अन्तरायों (=विघ्नों) में एक है (योगसू. 1/30)। व्यासभाष्य के अनुसार इसका लक्षण है – मधुमती आदि समाधि-भूमियों में से किसी की भी प्राप्ति न होना। किसी बाधक हेतु के कारण ही इन भूमियों की प्राप्ति नहीं होती है, यद्यपि भूमि की प्राप्ति के लिए प्रयास किया ही जाता है। दीर्घकाल तक प्राप्ति न होने पर साधक योगाभ्यास को छोड़ सकता है – इस दृष्टि से ही अलब्धभूमिकत्व को अन्तराय के रूप में माना गया है। भूमि का अर्थ है चित्त का वह धर्म जो अनायास उदित होकर दीर्घकाल तक वर्तमान रह सके। वितर्क आदि (योगसू. 1/17) को भी कोई-कोई भूमि कहते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अलिंग लिंग’ बुद्धि है। अतः बुद्धि का उपादानभूत त्रिगुण (जो साम्यावस्थापन्न है और ‘प्रधान’ शब्द से अभिहित होता है) अलिंग कहलाता है। चूंकि साम्यावस्था भी गुणत्रय की एक अवस्था है, अतः ‘अलिंग-परिणाम’ शब्द भी प्रयुक्त होता है। इसको अलिंग कहने का अभिप्राय यह है कि यह कहीं भी लीन नहीं होता – साम्यावस्था का कोई उपादान कारण नहीं है। यह स्पष्टतया ज्ञातव्य है कि इस अलिंगावस्था का हेतु पुरुषार्थ नहीं है। यह परिणामी -नित्य है। सभी व्यक्त पदार्थों का यह लयस्थान है। इसके तीन महत्वपूर्ण विशेषण ‘निःसत्तासत्त’, ‘निःसदसत्’ एवं ‘निरसत्’ व्यासभाष्य 2/19 में दिए गए हैं, जिनसे अलिंग अवस्था का पारमार्थिक स्वरूप ज्ञात होता है। द्र. ‘अव्यक्त;, ‘साम्यावस्था’।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अलिंगपरिणाम गुणत्रय का परिणाम चार प्रकार का होता है – विशेष, अविशेष, लिंगमात्र और अलिंग। इस अलिंग नामक परिणाम में लिंगमात्र का लय होता है। यह वस्तुतः गुणसाम्य की अवस्था है। चूंकि त्रिगुण परिणामशील है, अतः इस अवस्था में भी गुणपरिणाम नष्ट नहीं होता; इस अवस्था में जो परिणाम होता है, उसको ‘सदृश परिणाम’ कहा जाता है। गुणत्रय के प्रथम तीन परिणामों का हेतु है पुरुषार्थ। चूंकि इस अलिंगपरिणाम का कोई हेतु नहीं है, अतः यह अवस्था ‘नित्या’ मानी जाती है। इस अवस्था को ‘निःसत्त-असत्त’ कहा जाता है, क्योंकि यह अवस्था पुरुषार्थ -क्रिया को करने में समर्थ नहीं है तथा यह तुच्छ (सत्ताहीन) भी नहीं है (व्यासभाष्य 2/19)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अवतार (अवतरण) स्वसंकल्पपूर्वक भक्त वात्सल्य आदि अनेक गुणों से परिपूर्ण हो भगवान् इस प्रकार विग्रह को प्रक्रट करे कि मानो वह भक्तादि के पराधीन हो तो उसे अवतार कहते हैं। सभी अवतारों में ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज इन षड्गुणों की समान रूपता रहती है। अवतार के चार भेद हैं – (1) गुणावतार, (2) लीलावतार, (3) विभवावतार, (4) अर्चावतार।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अवतार (अवतरण) (1) सत्त्व, रज और तम गुणों को उपाधि बना कर हुआ अवतार गुणावतार है। जैसे, सत्त्वगुणोपाधिक विष्णु, रजो गुणोपाधिक ब्रह्मा एवं तमो गुणोपाधिक रुद्र, ये तीनों गुणोपाधिक अवतार गुणावतार हैं।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अवतार (अवतरण) (2) स्वेच्छा से ग्रहण किया हुआ लीला शरीर रूप अवतार लीलावतार है। जैसे, मत्स्यादि अवतार। लीलावतार कल्प भेद से अनन्त होते हैं।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अवतार (अवतरण) (3) स्वच्छन्दतापूर्वक गमनागमन एवं संश्लेष विश्लेष के योग्य दिव्य देह में प्रकटित अवतार विभवावतार है। विभवावतार के दो भेद हैं – स्वरूपावतार और आवेशावतार। सर्वेश्वरत्व एवं अपने अलौकिक रूप को अन्य सजातीय रूप में प्रकट कर स्थित अवतार स्वरूपावतार है। इसके भी दो भेद हैं – मनुजावतार, जैसे -राम -कृष्ण आदि। अमनुजावतार, जैसे -देव तिर्यक रूप में उपेन्द्र, मत्स्य आदि अवतार। आवेशावतार के दो भेद हैं – स्वरूपावेशावतार और शक्त्यावेशावतार। किसी चेतन में अपने स्वरूप से सन्निहित होकर स्थित अवतार स्वरूपावतार है। जैसे, कपिल, व्यास, परशुराम आदि। किसी चेतन में अपनी शक्ति से सन्निहित होकर स्थित अवतार शक्त्यावेशावतार है, जैसे, पृथुधन्वंतरि प्रभुति।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अवतार (अवतरण) (4) अर्चावतार वह है जहाँ मंत्र संकल्प आदि के वश भगवान् सन्निहित होते हैं। जैसे, मन्त्रादि से संस्कार की हुई शालग्राम आदि मूर्ति अर्चावतार है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अवतार (अवतरण) प्रकारांतर से अवतार के भी दो भेद हैं – अंशावतार और पूर्णावतार। जिसमें भगवान् की अल्प शक्ति प्रकट हो, वह अंशावतार है। जैसे, मत्स्यादि अवतार। ऐसा अवतार जिसमें भगवान् की अनेक शक्ति आविष्कृत हो, पूर्णावतार है। जैसे, राम-कृष्ण आदि अवतार (शा.भ.सू.वृ.पृ. 151 तथा भा.सु.वे.प्रे.पृ. 6)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अवधान – भक्‍ति- भक्‍ति’ के अंतर्गत देखिए (अनु.यू. 4/26; शि.श.को.पृष्‍ठ 51)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अवधूत अवधूतोपनिषद् में अवधूत के लक्षण आदि का वर्णन किया गया है। अवधूत गीता प्रभृति ग्रन्थों में भी यह विषय चर्चित है। तदनुसार अवधूत के प्रत्येक वाक्य में वेद निवास करते हैं, पद-पद में तीर्थ बसते हैं, इसकी कृपा दृष्टि में कैवल्य विराजमान है। इसके एक हाथ में त्याग है और दूसरे में भोग। फिर भी यह त्याग और भोग दोनों से अलिप्त रहता है। वह वर्णाश्रम से परे है, समस्त गुरुओं का गुरु है। न उससे कोई बड़ा है और न बराबर। पक्षपात विनिर्मुक्त मुनीश्वर को ही अवधूत कहा जाता है। उसे ही नाथ पद प्राप्त हो सकता है। इस अवधूत का परम पुरुषार्थ मुक्ति है, जो द्वैत और अद्वैत के द्वंद्व से परे है। यह मत वेदान्त, सांख्य, मीमांसा, बौद्ध, जैन प्रभृति सभी दर्शनों से विलक्षण है। नाथ सम्प्रदाय को ही अवधूत मत या अवधूत सम्प्रदाय के नाम से भी जाना जाता है, किन्तु वस्तुतः यह उससे विलक्षण है। नाथ सम्प्रदाय में अनेक उपादान अवधूत मत के स्वीकार किये गये हैं। इसके प्रवर्तक अवधूताचार्य दत्तात्रेय है। ‘आदि गुरु दत्तात्रेय और अवधूत दर्शन’ (भारतीय संस्कृति और साधना, भास्करी 1, पृ. 191-209) में इस विषय पर विशद प्रकाश डाला गया है।

  शक्तिसंगमतन्त्र (3/1/148-160) में अवधूतों के सात भेदों का वर्णन मिलता है। वीरावधूत, कोलावधूत, दिव्यावधूत आदि शब्दों का प्रयोग अन्यत्र भी मिलता है। महानिर्वाण तन्त्र में ब्रह्मावधूत, शैवावधूत, वीरावधूत और कुलावधूत का वर्णन उपलब्ध होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को ब्रह्मोपासक होने से यति या ब्रह्मावधूत कहते हैं। इस अवस्था में वे लोग गृहस्थाश्रम में रह सकते हैं अथवा संसार धर्म का त्याग कर संन्यासी हो सकते हैं। विधिपूर्वक पूर्णाभिषिक्त होने पर संन्यासी शौवावधूत कहा जाता है। वीरावधूतों के सिर पर लम्बे और अटपटे केश रहते हैं। ये रुद्राक्ष या महाशंख की माला पहनते हैं। इनके अंगों में भस्म या रक्त चन्दन लिप्त रहता है। कोई-कोई गेरुआ वस्त्र भी पहनते हैं। कुलाचार के अनुसार अभिषिक्त होकर जो साधक गृहस्थाश्रम में रहता है, उसे कुलावधूत कहते हैं।
  तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती एवं पुरी नामक दशनामी सम्प्रदाय के संन्यासियों का उल्लेख शक्तिसंगमतंत्र (4/8/104-108) प्रभृति ग्रन्थों में भी मिलता है। इन शब्दों के अर्थ भी वहाँ प्रदर्शित हैं। रामानन्द के शिष्यों में भी कुछ अवधूत हुए हैं। वंग देश में तथा अन्यत्र भी इनका निवास है। ये जाति-भेद को नहीं मानते और पान, भोजन आदि का भी इनका कोई नियम नहीं है। सिर पर बड़े-बड़े बाल, गले में स्फाटिक आदि की माला, कमर में कौपीन लपेटे ये लोग अत्यन्त अपरिष्कृत भाव से रहते हैं। लोग इन्हें बावला भी कहते हैं। इनका आचरण अत्यन्त उद्धत होता है। बागाल में स्थान-स्थान पर इनके अखाड़े हैं।
 अवधूत वर्ण और आश्रम की व्यवस्था से परे रहते हैं। अष्टविध पाशों से ये मुक्त रहते हैं। अघोरी भी एक प्रकार का अवधूत ही है। नाथ सम्प्रदाय के ग्रन्थों में भी इनका विवरण मिलता है। गोरक्षसिद्धांत संग्रह (पृ. 15-16) में अवधूत मत को सर्वश्रेष्ठ माना है।
दर्शन : शाक्त दर्शन

अवधूती मार्ग बौद्ध वज्रयान और सहजयान में इडा, पिंगला और सुषुम्णा को क्रमशः ललना, रसना और अवधूती कहा जाता है। यहाँ ललना को चन्द्र या प्रज्ञा का तथा रसना को सूर्य या उपाय का प्रतीक माना गया है। इन दोनों के बीच में जिस शक्ति की क्रिया होती है, एवं जो साधारण अवस्था में अवरुद्ध (सुप्त) रहती है, उसका पारिभाषिक नाम ‘अवधूती’ है। चन्द्र और सूर्य के मिलन अथवा प्रज्ञा और उपाय के आलिंगन से मध्य मार्ग का उन्मीलन होता है। क्लेश प्रभृति का यह अनायास नाश कर देती है, इसलिये इसे ‘अवधूती’ कहते हैं। अवधूती मार्ग ही अद्वय मार्ग, शून्य पथ और आनन्द स्थान है। यहाँ ग्राह्य और ग्राहक का भेद नहीं रहता, दोनों ही समरस होकर शून्याकार में विराजमान रहते हैं। यहीं उपशम रूप शान्तावस्था का उदय होता है, जो कि निर्वाण पदवी के नाम से प्रसिद्ध है (भारतीय संस्कृति और साधना, भास्करी 2, पृ. 258-259)।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अवध्यत्व पाशुपत सिद्‍धि का एक लक्षण।

पाशुपत साधक योग साधना में प्रौढ़ता प्राप्‍त करने पर भूतों का संहार कर सकता है परंतु उसका संहार कोई नहीं कर सकता, अर्थात् पाशुपत साधक में संहार सामर्थ्य आ जाती है। यमराज भी उसका अंत नहीं कर सकता है अपितु वह स्वयं अपनी सामर्थ्य से जीवित रहता है। प्राण के अधिष्‍ठातृदेवों की सहायता उसे नहीं पड़ती है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 48, 49)।
गणकारिका टीका में कहा गया है कि युक्‍त साधक का प्राण संबंध किसी दूसरे पर निर्भर नहीं रहता है, अर्थात् उसका जीवन और मृत्यु उसके अपने वश में होते हैं। (सत्त्वांतराधीन जीवित रहित्वअवध्यत्वम् – ग. का. टी. पृ. 10)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अवभास देखिए आभास।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अवमत अपमानित।

पाशुपत मत के अनुसार साधक निंदनीय कृत्यों का अभिनय करते करते अपमानित होता रहता है। लोग उसकी निंदा करते रहते हैं। इससे उसमें संसार के प्रति विरक्‍ति और त्यागवृत्‍ति उत्पन्‍न होती है। परिणामत: वह योग के पथ पर अग्रसर होता रहता है। पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार द्‍विज, श्रेष्‍ठ ब्राह्‍मण तथा साधक को प्रशंसा की इच्छा कभी भी नहीं करनी चाहिए; अपितु प्रशंसा को विष की तरह हानिकारक मानकर उससे घृणा करनी चाहिए। इसीलिए साधक को विडंबनीय कृत्यों का अभिनय करने के लिए कहा गया है ताकि वह प्रतिदिन अवमत (अपमानित) होता हुआ सभी सांसारिक संसर्गो से विरत होकर केवल योगवृत्‍ति का पालन करता रहे। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 79)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अवयक्त लिंग नर, शक्ति और शिव के स्वरूपों वाला लिंग (देखिए)। देह आदि के विषय में जब आत्मता का अभिमान गल जाता है तो इस अव्यक्त लिंग का उद्बोध हो जाता है। यह लिंग परिपूर्ण अहं परामर्शमय होता है। वही नर-शिव-शक्तिमयतया चमकता है। इसके अन्य नाम ‘योगिनीहृदय’ आदि हैं। यह मुक्तिप्रद लिंग होता है। (मा.वि.वि.,2-61)। इसमें वेद्य जगत् सर्वथा विलीन होकर रहता है। (तन्त्र सार , पृ. 40)। इस लिंग का साक्षात् अनुभव साधक को उच्चार योग के अभ्यास में होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अवरोह फल भोग के अनन्तर पुनः इस लोक में नीचे उतरना अवरोह है। इष्टादि कर्म से अतिरिक्त अनिष्ट कर्म करने वाले प्राणी का चन्द्रलोक में गमन नहीं होता है, किन्तु अपने अनिष्ट कर्मों का फल भोगने के लिए उसका यमलोक में आरोहण होता है और फल भोग के अनन्तर पुनः इस लोक में अवरोहण होता है। अर्थात् कर्मानुसार फलानुभव के लिए ऊपर आरोहण होता है और फल का भोग कर चुकने पर पुनः नीचे अवरोहण (उपरना) होता है, यही अवरोह है (अ.भा.पृ. 851)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अवरोहण लीला शिव का अकल से सकल तक सात प्रमातृ वर्गो की सीढ़ी से जीव भाव पर उतरने की क्रीड़ा का अभिनय। इस लीला में तीन भूमिकाओं की प्रधानता है। पहली भूमिका को शक्ति भूमिका (देखिए) कहते हैं। यह सर्वथा अभेद की भूमिका है। बीच वाली विद्या भूमिका (देखिए) है। यह भेदाभेद की भूमिका है। तीसरी माया भूमिका (देखिए) है। यह एक ओर से स्फुट भेद की भूमिका है और दूसरी ओर से इस भूमिका में ठहरने वाले प्रमातृगण शरीर आदि जड़ पदार्थों को ही अपना आप समझते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अवश्यत्व पाशुपत सिद्‍धि का एक लक्षण।

पाशुपत योग के अनुसार पाशुपत साधक को अनेकों सिद्‍धियों की प्राप्‍ति हो जाती है। युक्‍त साधक स्वतंत्र हो जाता है, अर्थात् उसमें ऐसे ऐश्‍वर्य का समावेश हो जाता है जिससे वह आगे किसी पर निर्भर नहीं रहता है; न ही किसी के अधीन रहता है; अपितु समस्त भूत उसके पराधीन हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि वह सबसे उत्कृष्‍ट तथा उच्‍चतम स्थान को प्राप्‍त करता है। साधक की ऐसी स्वातन्त्र्य शक्‍ति उसकी अवश्यत्व नामक सिद्‍धि कहलाती है (पा. सू. कौ. मा. पृ. 46, 47; ग. का. टी. पृ. 10)।)
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अवस्था दशाएँ।

पाशुपत साधक के तत्वप्राप्‍ति कर लेने पर उसकी भिन्‍न भिन्‍न उच्‍च दशाएँ अवस्थाएँ कहलाती हैं। पाशुपत साधना की प्रक्रिया में योगी जब आगे आगे बढ़ता है तो साधना अधिक अधिक तीव्र होती जाती है। उस साधना के पाँच सोपान माने गए हैं। उन्हें ही गणकारिका में ‘पंच अवस्था’ कहा गया है। अवस्थाएँ पंचविध हैं व्यक्‍ताव्यक्‍तं जयच्छेदो निष्‍टा चैवेह पंचमी।। 5।। (ग. का. 5)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अवस्था-परिणाम त्रिगुणजात धर्मी द्रव्य में तीन प्रकार का परिणाम होता है – धर्म, लक्षण और अवस्था। धर्मी के किसी धर्म-विशेष की अवस्थाओं से सम्बन्धित जो परिणाम होता है, वह अवस्था परिणाम कहलाता है। उदाहरणार्थ शान्त चित्त से क्रोधरूप धर्म का उदय धर्मपरिणाम है; इस क्रोधरूप धर्म के जो उत्कट, अत्युत्कट रूप होते हैं उनको अवस्थापरिणाम कहा जाता है। धर्म-परिणाम का ही अवस्था-परिणाम होता है। इसी प्रकार चित्त के संस्कारों का प्रबल-दुर्बल होना या घट आदि का नूतन-पुरातन होना अवस्था-परिणाम के उदाहरण हैं। इन्द्रियशक्ति का स्फुट-अस्फुट होना भी अवस्था-परिणाम में ही आता है। व्याख्याकारों का मुख्य मत यह है कि उदित (वर्तमान) धर्मों का ही अवस्था-परिणाम होता है। अनागत धर्मों का भी अवस्थापरिणाम होता है, जो अत्यन्त अस्फुट है। इस अस्फुटता के कारण ही उदित धर्म का ही अवस्था परिणाम होता है – ऐसा कहा जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अवस्थापंचक योगिनीहृदय (3/176-177) में बताया गया है कि मन्त्र के जप के समय शून्यषट्क, अवस्थापंचक और विषुवसप्तक की भावना करनी चाहिये। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुर्या (तुरीया) और तुर्यातीत (तुरीयातीत) ये पाँच अवस्थाएँ हैं। मालिनी विजय (2/36-38) तथा तन्त्रालोक (10/227-287) में इन अवस्थाओं का निरूपण पिण्ड, पद, रूप, रूपातीत तथा महाप्रचय अथवा सततोदित अवस्था के रूप में किया गया है। जिस अवस्था में दस इन्द्रियों (पाँच कर्मेन्द्रिय और पाँच ज्ञानेन्द्रिय) के द्वारा जागतिक व्यवहार सम्पन्न होते हैं, उसे जाग्रत् अवस्था कहते हैं। जिसमें आन्तर चतुर्विध करण द्वारा व्यवहार की निष्पत्ति होती है, उसे स्वप्नावस्था कहते हैं। स्वप्न में विद्यमान अन्तःकरण वृत्ति का लय होने पर सब इन्द्रियों का उपरम जिस अवस्था में होता है, उसका नाम सुषुप्ति है। सुषुप्ति की भावना का स्थान भ्रूमध्य स्थित बिन्दु है। इस बिन्दु को हृल्लेखा या ऊर्ध्व बिन्दु कहते हैं। स्वात्मचैतन्य की अभिव्यक्ति के हेतु नाद का आविर्भाव ही तुरीय का स्वरूप है। अर्धचन्द्र, रोधिनी और नाद में इसकी भावना करनी चाहिये। तुरीयातीत अवस्था परमानन्द स्वरूप है। यह मन और वाणी से अतीत है, तथापि मन और वाणी का आभास देह में किसी न किसी तरह रह ही जाता है। नादान्त से शक्ति, व्यापिनी और समना के बाद उन्मना पर्यन्त तुरीयातीत अवस्था व्याप्त रहती है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

अवांतर संबंध (अंतराल संबंध) सदशिव भट्टारक के अनुग्रह से शास्त्र तत्त्व का विमर्शन भगवान् अनंतनाथ को हुआ। भगवान अनंतनाथ को पश्यंती वाणी के एक मध्यम स्तर के माध्यम से शंका हुई और उसी वाणी के उत्कृष्ट स्तर के विमर्शन से उन्हें भगवान सदाशिव के अनुग्रह से समाधान हो गया। उत्कृष्टतर शिवयोगी को भी पश्यंती के मध्यम स्तर में जो शंका उठती है उसका समाधान उसे सदाशिव दशा पर आरूढ़ हो जाने पर पश्यंती के उत्कृष्ट स्तर के माध्यम से हो जाता है। इस तरह से प्रश्नकर्ता भगवान् अनंतनाथ बनते हैं और उत्तर देने वाले भगवान् सदाशिव। इस द्वितीय सोपान के गुरु-शिष्य संबंध को अंतराल या अवांतर संबंध कहते हैं। (च. त्री. वि., टि., पृ. 12)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अवासा वस्‍त्ररहित।

पाशुपत संन्यासी को संन्यास की उत्कृष्‍ट दशा में अवासा होना होता है, अर्थात् जब साधक ज्ञानदशा पर पूर्णरूपेण स्थित हो जाए, उसका कालुष्य क्षीण हो जाए तथा उसे हृदय में विद्‍यमान लज्‍जा का भाव पूर्णरूपेण समाप्‍त हो जाए, तब उसे वस्‍त्ररहित होकर रहना होता है। वह जिस रूप में इस संसार में आया है उसी वास्तविक रूप में उसे रहना होता है ताकि उसके पास कुछ भी न रहे जो उसको मोहबन्धन में डालकर कलुषित करे। वह पूर्णतया निष्परिग्रही होकर अपने शुद्‍ध स्वाभाविक रूप में ही रहे। (पा.सू.कौ.भा. पृ. 35)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अविकल्पोपाय देखिए शाम्भव-उपाय।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अविकृत परिणामवाद वीरशैव दर्शन में जगत् को सत्य माना गया है। परशिव के शक्‍ति-संकोच और विकास में ही यहाँ प्रलय और सृष्‍टि का व्यवहार होता है। तात्पर्य यह है कि यह जगत् प्रलय के समय परशिव की विमर्श-शक्‍ति में सूक्ष्म रूप से रहता है और सृष्‍टि के समय विकसित होकर बाहर आ जाता है। अतः शक्‍ति-विकास ही सृष्‍टि और शक्‍ति-संकोच ही प्रलय है। जैसे कछुवा एक समय में अपने पैरों को बाहर निकालकर पानी में चलता रहता है और दूसरे समय उन पैरों को अपने में छिपाकर चुपचाप बैठा रहता है, वैसे ही परशिव की सृष्‍टिलीला के समय विमर्श शक्‍ति अपने में नित्यसंबंध से रहने वाले जगत् का विकास करती है।

जैसे पट (वस्‍त्र) के गोलाकार में विकसित होकर तंबू बनने से, अथवा वृक्ष के काल की महिमा से पत्र, पुष्प और शाखा आदि रूपों से विकसित होने पर भी पट और वृक्ष में कोई विकार नहीं होता, वैसे ही परशिव के भी स्वात्म-शक्‍ति की महिमा से भूमि, जल, आकाश आदि रूपों से विकसित होने पर शिव या शक्‍ति में कोई विकार नहीं होता है। शिव-शक्ति के अविकार रूप इस विकासवाद को ही ‘अविकृत-परिणाम-वाद’ कहा जाता है। (सि.शि. 10/2-9 इन श्‍लोकों की तत्व-प्रदीपिका टीका भी देखें – पृष्‍ठ 187-190)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

अविकृति विकृति (या विकार) जिसकी नहीं है, वह अविकृति (या अविकार) है – यह इस शब्द का साधारण अर्थ है। इस अर्थ में पुरुषतत्त्व (निर्गुण आत्मा) अविकृति है। इसी दृष्टि से सांख्ययोगशास्त्र में पुरुष को ‘अपरिणामी’ कहा गया है। जो स्वयं किसी की विकृति या विकार नहीं है – इस अर्थ में मूल प्रकृति (या साम्यावस्था त्रिगुण) भी अविकृति कहलाती है, जैसा कि सांख्यकारिका में कहा गया है – मूलप्रकृतिरविकृतिः (का. 3)। प्रकृति अविकृति है, पर वह सभी विकारों की उपादान है – यह भी ज्ञातव्य है। चूंकि गुणसाम्य -रूप अवस्था का कोई उपादान नहीं हो सकता, इसलिए मूल प्रकृति को अविकृति कहना संगत ही है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अविच्छिन्न प्रकाश प्रकाश से यहाँ तात्पर्य चेतना का स्वयमेव प्रकट होते रहने से है। जीवचेतना भी स्वयमेव प्रकट होती रहती है, परंतु वह विच्छिन्न रूप में चमकती है, क्योंकि किसी सीमित शरीर प्राण आदि जड़ वस्तु को ही अपना आप समझती है। पारमेस्वरी चेतना में किसी भी प्रकार की कोई भी सीमितता प्रकट नहीं होती है। विच्छिन्न का अर्थ होता है कटा हुआ अर्थात् किसी सीमा के बीतर बँधा हुआ। अतः असीम चेतना को अविच्छिन्न चेतना कहते हैं। देखिए प्रकाश।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अविद्या भगवान् की मुख्य द्वादश शक्तियों में अन्यतम शक्ति अविद्या है। श्री, पुष्टि, गिरा, कान्ति, कीर्ति, तुष्टि, इला, ऊर्जा, विद्या, अविद्या, शक्ति और माया ये भगवान की मुख्य शक्तियाँ हैं। इनमें अविद्या शक्ति आवरण का काम करती है। माया शक्ति विक्षेप का काम करती है। अन्य शक्तियाँ भी अपने नाम के अनुरूप कार्य करती हैं। यह अविद्या शक्ति विद्या का अभाव रूप नहीं है किन्तु विद्या से विपरीत भाव रूप है (त.दी.नि.पृ. 78)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अविद्या द्रष्टा और दृश्य के जिस ‘संयोग’ के कारण दुःख होता है, उस संयोग का हेतु अविद्या है – यह योगसूत्र (2/24) में स्पष्टतया कहा गया है। यह अविद्या ‘विपर्ययज्ञान की वासनारूपा’ है। अविद्या अनादि है, अतः संयोग भी अनादि है – जीवभाव भी अनादि है। अनादि होने पर भी अविद्या का नाश होता है। नाश का हेतु विद्या (=विवेक) अर्थात् प्रकृति -पुरुष के भेद का ज्ञान है। विद्या द्वारा अविद्या का नाश होने पर बन्धाभाव होता है, वही कैवल्य या मुक्ति है। अविद्या का दूसरा नाम अदर्शन है (व्यासभाष्य 2/23)। यह अविद्या मूल ‘क्लेश’ है। अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश रूप चार क्लेशों की यह प्रसवभूमि है (योग सू. 2/4)। जिस विषय में अविद्या होती है, उस वस्तु के प्रति अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश की वृत्ति उत्पन्न होती है; अविद्या न हो तो राग आदि नहीं होते हैं। अविद्या रूप मिथ्याज्ञान संसारदुःख का हेतु है, अतः वह क्लेश (क्लिश्नाति इति क्लेशः) कहलाती है। योगसूत्र में कहा गया है कि अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्मा नित्य, शुचि, सुख और आत्मा का बोध होना अविद्या है (2/5)। यह स्पष्टतया ज्ञातव्य है कि यह अविद्या विद्या (विवेकज्ञान) का अभावरूप नहीं है; विद्या -विरोधी ज्ञान -विशेष अविद्या है; यह भावपदार्थ है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अविनाभाव – संबंध जगत् की सृष्‍टि के लिये परशिव में इच्छा आदि का होना आवश्यक है। परशिव में शक्‍ति के बिना इच्छा आदि का उदय नहीं हो सकता, अतः वीर शैव आचार्यो ने परशिव को शक्‍ति-विशिष्‍ट माना है। शिव और शक्‍ति दोनों के नित्य होने के कारण दोनों का संबंध भी जन्य न होकर नित्य ही होना चाहिये। इस तरह से शिव और शक्‍ति को जो अव्यभिचरित नित्य संबंध है, वही अविनाभाव संबंध कहलाता है। (सि.शि. 20/4, पृ.202; 2/12, पृ.14)।

शिव और शक्‍ति का यह संबंध भेदाടभेद – पर्यवसायी है, क्योंकि परशिव की केवलावस्था में सत्-चित्-आनंद के बोधरूप विमर्श-शक्‍ति पर-शिव के साथ तादात्म्य से रहती है और पर-शिव की लीलावस्था में (सृष्‍टि के समय में) यह शक्‍ति क्षुब्ध होकर इच्छा, ज्ञान आदि रूपों में विभक्‍त हो जाती है और विश्‍व-रचना में सहायक बनती है। अतः यह शक्‍ति परशिव के साथ सच्‍चिदानंद रूप से अभिन्‍न है और इच्छा आदि रूपों से भिन्‍न भी है। इस प्रकार शिव और शक्‍ति के इस अविनाभाव संबंध को भेदाടभेद नियामक माना जाता है (श.वि.द.पृ. 109-110; सि.शि. 1/11 पृ. 5)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

अविभाग-परामर्श जगत् की उत्पत्‍ति के पूर्व की विमर्श-शक्‍ति की अवस्था को अविभाग-परामर्श कहते हैं। इस अवस्था में परशिव को केवल ‘अहं’ (मैं) बोध रहता है। अभी ‘इदं’ (यह) इत्याकारक बोध विकसित नहीं हुआ होता। इस स्थिति में विमर्श-शक्‍ति में रहने वाली इच्छा, ज्ञान आदि शक्‍तियाँ परस्पर विभाग के बिना समरस भाव से रहती हैं। यह समरस भाव ‘मयूराण्डरस’ की तरह है। अर्थात् जिस प्रकार मयूराण्ड के रस में भावी पक्षी के पाद, पंख, वर्ण-वैचित्र्य आदि परस्पर विभाग के बिना एकाकार में रहते हैं, उसकी प्रकार जगत् की उत्पत्‍ति की कारणीभूत इच्छा, ज्ञान, क्रिया शक्‍तियाँ विमर्श-शक्‍ति में समरस भाव से रहती है। वस्तुत: इस अवस्था में सब कुछ एकाकार रहने के कारण इसको अविभाग-परामर्श कहते हैं। (सि.शि. 5-39. 5/39 तत्वप्रदीपिका टीकासहित देखें, पृ. 65-66)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अविरति योगाभ्यास के नौ अन्तरायों में यह एक है (योगसू. 1/30)। व्यासभाष्य में इसका लक्षण है – चित्त का वह गर्धतृष्णा जिसका निमित्त है – विषयसंप्रयोग, अर्थात् विषय का सन्निकर्ष होने के कारण जो विषयाभिलाषा विषयतृष्णा, या विषयासक्ति होती है, वह अविरति है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अविवेक सांख्ययोगशास्त्र में ‘अविवेक’ का अर्थ विवेक का अभाव न होकर ‘विवेकविरोधी ज्ञान विशेष’ है। अत्यन्त भिन्न बुद्धि और पुरुष को (या गुण -पुरुष को) भिन्न न समझकर एक समझना ही अविवेक है। यह ‘अभेद-अभिमान’ भी कहलाता है। इसका नामान्तर अज्ञान है। ज्ञान जिस प्रकार बुद्धि का एक (सात्त्विक) रूप है, यह अज्ञान भी उसी प्रकार बुद्धि का एक (तामस) रूप है। यह अविवेक कई रूपों में विद्यमान है। जिस प्रकार देह, इन्द्रिय आदि को आत्मा समझना अविवेक है, उसी प्रकार आत्मा को देह आदि समझना भी अविवेक है। कोई-कोई आचार्य ‘विवेक की उत्पत्ति न होना’ ही अविवेक है, ऐसा समझते हैं। द्र. विवेक, अविद्या, अज्ञान।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अविशेष परिणाम त्रिगुण के जो परिणाम (तात्त्विक परिणाम) होते हैं, उनके चार भेद माने जाते हैं – विशेष, अविशेष, लिंगमात्र और अलिंग। अविशेष परिणाम में पाँच तन्मात्र एवं एक अहंकार (नामान्तर, ‘अस्मिता’) – इस प्रकार छः पदार्थ गिने जाते हैं। प्रत्येक भूत में जो सुखकरत्व आदि विशेष है तथा जो स्वगतभेद हैं (जैसे तेजोभूत के लाल -नील आदि भेद) वे तन्मात्र में नहीं रहते; अतः वे अविशेष कहलाते हैं – यह व्याख्याकारों का कहना है। अहंकार (अस्मिता) इन्द्रियों की प्रकृति है। इन्द्रियों में रहने वाला स्वगत भेद इन्द्रियप्रकृतिभूत अहंकार में नहीं रहता – इस दृष्टि से अहंकार की गणना भी अविशेष में की जाती है। तन्मात्र एवं अहंकार दोनों के अविशेष होने पर भी अहंकार के तामस भाग (भूतादि नामक) से तन्मात्रों की उत्पत्ति होती है। यह उत्पत्ति कैसे होती है, इसका रहस्य योगपरम्परा से ज्ञातव्य है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अविहिता भक्ति काम, क्रोध, भय, स्नेह, ऐक्य या सौहृद रूप उपाधि के वश से उत्पन्न भगवद्विषयक स्नेहभाव अविहिता भक्ति है। यद्यपि द्वेष रूप उपाधि में भगवान के प्रति स्नेह नहीं होता, फिर भी कामादि के समान ही शास्त्र द्वारा अविहित होने के कारण तथा भगवद् विषयक तन्मयता के कारण द्वेष भाव में भी अविहित भक्ति है, क्योंकि द्वेषभाव भी भगवान में प्रवेश का हेतु होता है। माहात्म्य ज्ञान के साथ भगवान् के रूप में अपने प्रभु के प्रति निरुपाधिक (निर्व्याज) स्नेह विहिता भक्ति है। ऐसी भक्ति शास्त्र विहित होने से विहिता भक्ति कही जाती है (अ.भा.पृ. 1104)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अवीत सांख्याचार्यों ने अनुमान को वीत-अवीत-भेद से दो भागों में बाँटा था – यह प्रसिद्ध है, क्योंकि युक्तिदीपिका टीका में ‘वीतावीत -विषाणस्य सांख्यकरिणः’ (सांख्यरूप हस्ती के वीत-अवीत-रूप दो दाँत हैं) कहा गया है। वाचस्पति (सांख्यकारिक 5 की टीका में) कहते हैं कि जिसको शेषवत् अनुमान कहा जाता है, उसी का नामान्तर अवीत है। (पूर्ववत्-शेषवत्-सामान्यतोदृष्ट भेद से अनुमान का त्रिधा विभाग न्यायशास्त्र में प्रसिद्ध है; कुछ व्याख्याकार कहते हैं कि षष्टितन्त्र में भी ऐसा विभाग था; द्र. सांख्यकारिका की 5 कारिका की जयमङ्गला टीका)। द्र. अनुमान।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अव्यक्त अव्यक्त से ही व्यक्त की उत्पत्ति होती है, अतः इस व्यक्त जगत् की पूर्वावस्था को अव्यक्त कहते हैं। अव्यक्त शब्द का अर्थ भगवत्कृपा भी है, क्योंकि भगवत्कृपा का ही परिणाम यह संपूर्ण जगत् है (अ.भा.पृ. 480)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अव्यक्त सत्त्व-रजः-तमः नामक तीन गुणों का वैषम्यभाव जिस अवस्था में नहीं रहता अर्थात् जिस अवस्था में ये गुण साम्यावस्था में रहते हैं, वह ‘अव्यक्त’ कहलाती है। अव्यक्तावस्था मे त्रिगुण का जो परिणाम होता है, वह दो प्रकार का है – सदृशपरिणाम और विसदृशपरिणाम। प्रथम का अर्थ है – अव्यक्त का स्वरूपमात्र में अवस्थान जिसमें किसी भी गुण का प्राधान्य न हो; गुण चलस्वभाव है, अतः इस अवस्था में भी परिणाम अवश्य होता है, पर वह महदादितत्वों को उत्पन्न नहीं करता। द्वितीय का अर्थ है – तीन गुणों में अङ्ग-अङ्गी-भाव (अर्थात् अप्राधान्य-प्राधान्य भाव) का उत्पन्न होना, जिससे महत् आदि तत्वों का उदय होता है। अव्यक्त की यह द्विविध स्थिति पंचशिख के वाक्य में (3/23 व्यासभाष्य में उद्घृत) तथा सांख्यसूत्र (6/42) में स्पष्टतया कही गई है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अव्यक्‍तलिंगी अस्पष्‍ट चिह्नों वाला।

पाशुपत योग विधि के अनुसार पाशुपत साधक को साधना के ऊँचे स्तरों पर योग क्रियाओं की साधना अव्यक्‍त रूप से करनी होती है, अर्थात् योग साधना सबको दिखाते हुए नहीं करनी होती है। पाशुपत साधक साधना करता रहे परंतु उस साधना का कोई व्यक्‍त लिङ्ग (चिह्‍न) दूसरों को न दिखाई दे। इस तरह से पाशुपात साधक को योग साधना गुप्‍त रूप से करनी होती है। (पा. सू. सौ. भा. पृ. 78)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अव्यक्‍तावस्था अवस्था का दूसरा प्रकार।

पाशुपत योगी की साधना की द्‍वितीयावस्था अव्यक्‍तावस्था कहलाती है क्योंकि उस अवस्था में साधक को योग साधना के सभी चिह्‍नों का तथा विद्‍या आदि का गोपन करना होता है; अर्थात् सारी साधना गुप्‍त रूप से करनी होती है। शरीर पर ऐसा कोई चिह्न या द्रव्य धारण नहीं करना होता है जिससे उसका साधक होना व्यक्‍त या प्रकट हो जाए। अतः साधक की साधना के अप्रकट होने के कारण यह अवस्था अव्यक्‍तावस्था कहलाती है। प्रेतवत्, उन्मत्‍तवत् या मूढ़वत् जब साधक घूमता है तब भी वह अव्यक्‍तावस्था में ही होता है; क्योंकि तब भी उसका साधक होना व्यक्‍त नहीं होता है। (ग. का. पृ. 8)
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अशरीर मुक्ति देखिए मुक्ति (अशरीर)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अशुक्लाकृष्ण कर्म कर्म को जिन चार भागों में बाँटा गया है, उनमें अशुक्ल-अकृष्ण कर्म चतुर्थ है (प्रथम तीन हैं – कृष्ण, शुक्लकृष्ण और शुक्ल) (द्र. योगसू. 4/7)। यह कर्म जीवन्मुक्त अवस्था में स्थित चरमदेही योगियों द्वारा निष्पादित होता है। इन अभिमानशून्य योगियों के कर्म हिंसादिशून्य होते हैं, अतः वे अकृष्ण कहलाते हैं। यमनियम-ध्यानादि जो शुक्लकर्म हैं, जिसमें हिंसादि नहीं हैं, उनको ये योगी फलकामनाशून्य होकर करते हैं; अतः इन कर्मों के संस्कार विवेकमूलक ही होते हैं – अविद्यामूलक नहीं। इस प्रकार का कर्म बन्धन का हेतु नहीं होता। अतः शरीरधारण का संस्कार नष्ट होने पर इन योगियों का चित्त शाश्वत काल के लिए निरुद्ध हो जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अशुद्ध अध्वन् देखिए अध्वन्।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अशुद्ध विकल्प देखिए विकल्प।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अशुद्ध विद्या तत्त्व शुद्ध संवित् स्वरूप परमशिव की परिपूर्ण ज्ञानशक्ति को संकुचित अवस्था तक लाने वाला संकोचक तत्त्व। इसे विद्या तत्त्व भी कहते हैं। शिव की परिपूर्ण ज्ञान शक्ति पशु प्रमाता में इस आवरक तत्त्व के कारण संकुचित ज्ञानशक्ति का रूप धारण करती है। इसके प्रभाव से पशु प्रमाता अर्थात् जीव इच्छानुसार सभी कुछ नहीं जान सकता, अपितु उसमें किसी किसी विषय को ही जानने की सामर्थ्य रहती है। (शिवसूत्रवार्तिक (भास्कर), पृ. 44; तन्त्र सार , पृ. 81)। माया तत्त्व से विकसित होने वाले पाँच कंचुक तत्त्वों में से यह एक तत्त्व है। देखिए कंचुक तत्त्व।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अशुद्धि अविद्या आदि के वशीभूत रहकर कर्म करने से जो संस्कार होता है, वह अशुद्धि है अथवा अविद्या आदि क्लेश की अशुद्धि है (योगसूत्र 2/28)। अशुद्धि के कारण जो कर्म किया जाता है, वह अधर्म कहलाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अष्ट अतिग्रह प्राण, मन और वाक् सहित चक्षुरादि पंच ज्ञानेन्द्रियाँ अष्ट अतिग्रह हैं। इन्हें ही श्रुतियों में अष्ट ग्रह भी कहा गया है। विषय का ग्रहण करने के कारण ये ग्रह कहे जाते हैं तथा विषय के ग्रहण में इनका अतिशय योग होने से ये अतिग्रह शब्द से व्यवहृत होते हैं। प्राण श्वास-प्रश्वास क्रिया द्वारा जीवन प्रदान कर हर प्रकार के विषय ग्रहण में प्रयोजक है। मन भी विषय ग्रहण में सभी इन्द्रियों का सहायक होता है। वाक् शब्द को उत्पन्न कर श्रोतेन्द्रिय को विषय प्रदान करती है। इस प्रकार प्राण, मन और वाक् की सहायता से चक्षुरादि इन्द्रियाँ रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द को ग्रहण करती हैं। इसलिए ये आठों अतिग्रह हैं। वस्तुतः प्राण ही वृत्तिभेद से उक्त आठ भेदों में विभक्त है, क्योंकि प्राण सभी में अनुस्यूत है (अ.भा.पृ. 776)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अष्‍टशील सदाचार’ के अंतर्गत देखिए।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अष्‍टावरण 1. गुरु, 2. लिंग, 3. जंगम, 4. पादोदक, 5. प्रसाद, 6. विभूति, 7, रुद्राक्ष और 8. मंत्र – ये वीरशैव दर्शन में अष्‍टावरण कहे जाते हैं। यहाँ पर आवरण शब्द रक्षा के कवच के अर्थ में प्रयुक्‍त हुआ है। जैसे युद्‍ध-भूमि में योद्‍धा शत्रुओं के बाण से अपने शरीर की रक्षा के लिए कवच धारण करत हैं, अथवा जैसे फसल को जानवरों से सुरक्षित रखने के लिये चारों ओर घेरा लगाकर उसकी सुरक्षा की जाती है, वैसे ही दीक्षा प्राप्‍त भक्‍त की काम, क्रोध आदि वृत्‍तियों से रक्षा करने के कारण इन आठों को अष्‍टावरण कहा गया है।(चं. ज्ञा. आ. क्रियापाद. 2/2-3)। इनको इस दर्शन में लिंगांग-सामरस्य रूप मोक्ष के लिये सहकारी सामग्री के रूप में स्वीकार किया गया है। इनमें ‘गुरु’, ‘लिंग’, और ‘जंगम’ ये तीन पूजनीय है। ‘विभूति’, ‘रुद्राक्ष’ और ‘मंत्र’ ये तीन पूजा के साधन हैं। ‘पादोदक’ तथा ‘प्रसाद’ पूजा के फल कहे गये हैं (श.वि.द.पृ. 199)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अष्‍टावरण 1. गुरु – वीर शैव संप्रदाय में गुरु उसे कहते है, जिसका आचार्य पद पर पट्‍टाभिषेक किया जाता है और जिसकी ‘शिवाचार्य’ उपाधि होती है। प्राय: ‘वीरमाहेश्‍वर-वंश’ में उत्पन्‍न हुआ व्यक्‍ति ही गुरु-पद का अधिकारी होता है जिन्हें कि व्यवहार में ‘जंगम’ भी कहते हैं। इस गुरु परंपरा को ‘पुत्रवर्ग’ परंपरा कहते हैं। कदाचित् ‘वीर-माहेश्‍वर-वंश’ में योग्य व्यक्‍ति न मिलने पर ‘पंचम’ जिन्हें व्यवहार में ‘पंचमशाली’ कह जाता है, वंश में उत्पन्‍न योग्य व्यक्‍ति को भी ‘वीर-माहेश्‍वर-वंश’ (जंगमदीक्षा) देकर पट्‍टाधिकार दिया जाता है। इस गुरु परंपरा को ‘शिष्यवर्ग’ परंपरा कहते हैं (वी.स.सं. 14/1-16)। ये बाल्य से यावज्‍जीवन नैष्‍ठिक ब्रह्मचारी होते हैं। इन्हीं को दीक्षा एवं मंत्रोपदेश आदि धार्मिक क्रियाओं को करने का अधिकार प्राप्‍त रहता है। ये अपने-अपने ग्राम या नगर के मठों के अधिकारी होते हैं और इस संप्रदाय के धार्मिक कार्य इन्हीं के आदेश से चलते हैं (सि.शि.6/1-7 पृष्‍ठ 82, 83; क्रि. सा. भाग 3 पृष्‍ठ 133)।

एक ही गुरु, दीक्षा, शिक्षा आदि देने के कारण ‘दीक्षा-गुरु’ ‘शिक्षा-गुरु’ और ‘ज्ञान-गुरु’ के नाम से अभिहित होता है।
(क) दीक्षा-गुरु –

जो गुरु ऐसी दीक्षा प्रदान करता है, जिससे शिष्य को शिवज्ञान की प्राप्‍ति तथा उसके ‘आणव’ आदि मलत्रय का नाश होता है, उसे दीक्षा-गुरु कहते हैं (सि.शि. 15/7 पृ. 48)।

(ख) शिक्षा-गुरु –

जो दीक्षा के पश्‍चात् लिंगपूजा के नियम और इष्‍टलिंग को प्राण की तरह अत्यंत सावधानी से निरंतर शरीर पर धारण करने की शिक्षा देता है तथा इसके साथ ही मंत्र साधना, प्राणलिंगानु-संधान की पद्‍धति को सिखाता है और इसके नियम के अनुशासन पर जोर देता है, उसे ‘शिक्षा-गुरु’ कहते हैं। (सि.शि. 15/1-2 पृष्‍ठ 50-51)।

(ग) ज्ञान-गुरु –

जो वीरशैव-आगमों में प्रतिपादित विषयों को अपने अनुभव तथा अनेक युक्‍तियों द्‍वारा प्रतिपादन करके शिष्य के संशय को हटाकर जीवन्मुक्‍ति के हेतुभूत शिवाद्‍वैत-ज्ञान का उपदेश करता है, उसे ‘ज्ञान-गुरु’ कहा जाता है (सि.शि. 15/1-9 पृष्‍ठ 53-56)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अष्‍टावरण 2. लिंग – प्रपंच की उत्पत्‍ति, स्थिति और लय के कारणीभूत परशिव को वीरशैव आचार्यो ने ‘लिंग’ कहा है (अनु.सू.3/3-4)। बृहत् अर्थात् व्यापक स्वरूप का होने के कारण इसे ब्रह्म भी कहा जाता है अर्थात् ‘लिंग’ और ‘ब्रह्म’ दोनों पर्याय हैं (सि.शि. 6/6-17 प.93)। इस परमतत्व को ‘लिंग’ इसलिये भी कहा जाता है, कि ‘शिवयोगी’ अविद्‍या आदि पंचक्लेश और ‘आणव’ आदि मलत्रयरूप पाश से निर्मुक्‍त होकर अंत में इसी परमतत्व में लीन हो जाते हैं। यह ‘लिंग’ शक्‍ति विशिष्‍ट शिव का द्‍योतक है। स्थूल रूप से इस लिंग में ‘बाण’ और ‘पीठ’ ये दो भाग होते हैं। ‘बाण’ शिव का और ‘पीठ’ शक्‍ति का चिह्न है। इन दोनों का संयुक्‍त स्वरूप ही ‘लिंग’ कहलाता है (सि.शि. 11/7,8 पृ. 202)।

लिंग उपासकों की दृष्‍टि से ‘स्थूल’, ‘सूक्ष्म’ और ‘परात्पर’ तीन प्रकार का है। इन्हीं को वीरशैव दर्शन में ‘इष्‍ट-लिंग’, ‘प्राणलिंग’ और ‘भावलिंग’ का नाम दिया गया है (वी.स.सं. 7/69-70; सि.शि. 6/28 पृष्‍ठ 96)।
(क) इष्‍टलिंग –

यह लिंग’ का स्थूल स्वरूप है। स्फटिक या सामान्य शिला से इसका निर्माण करते हैं। इसको ‘पंचसूत्र’ के परिमाण से बनाया जाता है (वी.स.सं. 10/39)। इस ‘पंचसूत्र-लिंग’ को क्रिया-दीक्षा के समय गुरु अभिषेक आदि संस्कार से शुद्‍ध करके प्राण-प्रतिष्‍ठा के द्‍वारा पंचाक्षरी मंत्रोपदेश के साथ जब शिष्य को देता है, तब वह ‘इष्‍टलिंग’ कहलाता है (अनु. सू.5/85-59; सि.शि. 6/1-4 पृष्‍ठ 88-89; वी.स.सं. 10-37)। यह ध्यान में रखना जरूरी है कि यदि कोई गुरु के बिना ही ‘पंचसूत्र-लिंग’ को खरीद कर स्वयं ही धारण कर लेता है, तो वह ‘इष्‍टलिंग’ नहीं कहलायेगा (पा.स. 1/75-77)। गुरु से प्राप्‍त इस लिंग को ‘इष्‍टलिंग’ कहने का तात्पर्य यह है कि यह इष्‍ट, अर्थात् अभीष्‍ट की, जो कि लिंगांग-सामरस्य रूप मुक्‍ति है, प्राप्‍ति में साधन है और अनेक जन्म के हेतुभूत संचित-कर्म रूप अनिष्‍ट की भी निवृत्‍ति इसी से होती हे। (सि.शि. 6/29 पृ. 98; अनु.सू. 3/9-10; वी.आ.चं. पृ. 456)।

यह अंगुष्‍ठ मात्र (परिमाण) का होता है और इसको चांदी, स्वर्ण अथवा अन्य उत्‍तम धातुओं से बनी सज्‍जिका में, जो कि आम या बिल्वफल के आकार का एक छोटा सा मंदिर होता है, रखकर उसको शिवसूत्र (यज्ञोपवीत) से संलग्‍न करके मस्तक, कंठ, वक्षस्थल या बाहु आदि में निरंतर धारण करते हैं। नाभि के नीचे इसका धारण निषिद्‍ध है (सि.श. 6/30-31 पृष्‍ट 97; वी.मा.सं. 6/44-50; पा.सं. 2/33-43)। जैसे कोई सुंदर स्‍त्री दर्पण को देखती हुयी अपने ही सुंदर स्वरूप का साक्षात्कार करती है, उसी प्रकार वीरशैवों का यह इष्‍टलिंग एक प्रतीक अथवा मूर्ति न होकर आत्मदर्शन का ही एक साधन है (शि.शि.23)।
ख. प्राणलिंग –

मूलाधार में स्थित अपान-वायु के साथ जब प्राण-वायु का संघर्ष हो जाता है, तब एक दिव्य ज्योति का उदय होता है। मूलाधार से उत्पन्‍न वह ज्योति सुषुम्‍ना के मार्ग से चलकर ‘कुंडलिनी’ को ऊर्ध्वमुख करती हुयी हृदय के ‘अनाहत-चक्र’ की, जिसे ‘द्‍वादश-दल-कमल’ कहा गया है, मध्य-स्थित कर्णिका में रुक जाती है। यह ज्योति अंगुष्‍ठ परिमाण और विद्रुमवर्ण (अरुणवर्ण) की होती है। इसी ज्योति को वीरशैव शिवयोगियों ने प्राण-लिंग कहा है। इसको ‘प्राण-लिंग’ इसलिए कहा गया है कि जैसे सूर्य के उदित होने पर तुहिन-कण उसके प्रकाश में विलीन हो जाते हैं, वैसे ही हृदय-स्थित इस दिव्य ज्योति में प्राणवायु का भी विलय हो जाता है। अतः प्राणशक्‍ति विशिष्‍ट इस ज्योति को ‘प्राण-लिंग’ कहते हैं। देशकाल के संबंध के बिना ही ‘चिदहंता’, अर्थात् स्वकीय चिद्रूप का ज्ञान ही ‘प्राण-लिंग’ है। इसी को ‘संवित् लिंग’ भी कहा गया है। वस्तुत: यह ‘प्राण-लिंग’ योगगम्य है। सूक्ष्म आंतरिक उपासना से इसकी अवगति हो सकती है। (सि.शि. 12/6-8 पृ. 2-3; वी.आ.चं. पृष्‍ठ 456)।

ग. भावलिंग –

शिवोടहं’ (मै शिवस्वरूप हूँ) इस प्रकार की भावना से, अर्थात् तैलधारावत् निरंतर उसी के चिंतन रूप निदिध्यासन के बल पर साधक को अपने मस्तिष्क स्थित सहस्रार कमल में जिस दिव्य ज्योतिस्वरूप परशिव का स्वात्म रूप से साक्षात्कार होता है, उसी को ‘भावलिंग’ कहते हैं। यह निराकार है, अर्थात् इसका त्रिकोण, षट्‍कोण आदि कोई आकार नहीं है, किंतु इसे परिपूर्ण रूप कहा जाता है। बाह्य प्रमाणों से अगोचर होने पर भी निर्मल और शांत बुद्‍धि के द्‍वारा इसका साक्षात्कार होता है।

इसे भावलिंग इसलिये कहा जाता है कि ‘शिवोടहं’ इस प्रकार की शुद्‍ध बुद्‍धि वृत्‍ति से इसका साक्षात्कार होता है और इसकी अर्चना भी इसी वृत्‍ति से होती है, अर्थात् भाव-लिंग की अर्चना के लिये ‘शिवोടहं’ भावना के व्यतिरिक्‍त किसी सामग्री की आवश्यकता नहीं होती तथा अंत में वह भावना भी उसी ज्योति में लीन हो जाती है। इस प्रकार भावनामय व्यापार का ही विषय होने से इसे ‘भावलिंग’ कहा जाता है। इसी को ‘तृप्‍तिलिंग’ भी कहते है (सि.शि. 15/1-3, पृ. 59; वी.आ.चं.पृ. 457; वी.आ.चं.पृ.457; श.वि.द.पृ. 162-163)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

अष्‍टावरण 3. जगंम – इस शब्द की दार्शनिक तथा सांप्रदायिक दो परिभाषायें हैं। दार्शनिक परिभाषा – जिसके प्रकाश से सूर्य, चंद्र सहित यह समस्त प्रपंच प्रकाशित हो रहा है, उस स्वयं-ज्योति-स्वरूप परशिव को जो अपने आत्मस्वरूप से जानता है, अर्थात् शिव के साथ जिसे अभेद-बोध उत्पन्‍न हुआ है, उस आत्मज्ञानी को वीरशैव दर्शन में जंगम कहा गया है (सि.शि. 11/2 पृ. 204)। ‘जंगम’ शब्द में ‘जं’ का अर्थ है जनन-रहित, ‘ग’ का अर्थ है गमन-रहित और ‘म’ का अर्थ मरण रहित है। इस प्रकार जनन-मरण-रूप गमनागमन-रहित जीवन् ‍मुक्त महापुरुष ही ‘जंगम’ है (वी.स.सं. 15/6-8; वी.चिं.पृ. 67)। यह नि:स्पृह और निरहंकार भाव से लोककल्याणार्थ अपने अवशिष्‍ट जीवन को व्यतीत करता है। इसको ‘शिवयोगी’ नाम से भी जाना जाता है (सि.शि. 9/4, पृ. 156)।

इसकी सांप्रदायिक परिभाषा यह है- जैसे ब्राह्मण शब्द ‘ब्रह्मजानातीति ब्राह्मण:’ इस व्युत्पत्‍ति के अनुसार दार्शनिक दृष्‍टि से ब्रह्मज्ञानी का प्रतिपादक होने पर भी वर्ण-व्यवहार में एक जाति का भी वाचक है, उसी प्रकार जंगम शब्द दार्शनिक दृष्‍टि से शिवज्ञान-संपन्‍न जीवन्मुक्‍त का प्रतिपादक होते हुये भी सांप्रदायिक दृष्‍टि से जाति का भी वाचक है, अर्थात् ‘वीर-माहेश्‍वर-वंश’ में, जिसे ‘लिंगी-ब्राह्मण’ कहा जाता है, उत्पन्‍न लोगों को भी जंगम कहते हैं। (वी.स.सं. 11/45)।
पूर्वोक्‍त शिवज्ञान-संपन्‍न जीवन्मुक्‍त ‘जंगम’ की स्वय, चर और पर नाम की तीन अवस्थायें हैं। उन अवस्थाओं से संपन्‍न जंगम को ‘स्वय-जंगम’ ‘चर-जंगम’ और ‘पर-जंगम’ कहते हैं।
क. स्वय-जंगम –

अहंकार – ममकार से शून्य और पंच – क्लेश -रहित जीवन्मुक्‍त महापुरुष ही ‘स्वय-जंगम’ कहलाता है। यह स्वतंत्र स्वभाव का होता है, अर्थात् यह किसी के अधीन नहीं रहता। यह इष्‍ट-लिंग की पूजा के साथ ही मूलाधार, हृदय और भूमध्य में प्रकाशमान ज्योतिर्लिंगों की उपासना करता रहता है (सि.शि. 15/2-3 पृ. 64)। यह किसी ग्राम या नगर के मठ में निवास करता हुआ वहाँ के सद्‍भक्‍तों के गृह से भिक्षा मांगकर, उसी से अतिथियों का सत्कार करके स्वयं भी भिक्षा ग्रहण करता है और उस ग्राम के भक्‍तों को संमार्ग का उपदेश करता है (वी.स.सं. 15/15-21)। इसको ‘स्वय-जंगम’ कहने का तात्पर्य यह है कि सर्वत्र स्वयं को ही देखता है, अर्थात् सभी प्राणियों में अपने ही स्वरूप का साक्षात्कार करता है। अतएव यह न किसी से घृणा करता है और न किसी से द्‍वेष ही। राजा-रंक, मूर्ख-विद्‍वान सबमें इनकी समत्व-दृष्‍टि रहती है।

‘स्वय-जंगम’ के चार प्रमुख कार्य बताये गये हैं। वे हैं – निरंतर शिव-ध्यान, शिव से संबंधित ज्ञान की चर्चा, एकांत में निवास और भिक्षा से प्राप्‍त अन्‍न से शरीर का निर्वाह। (सि.शि.15/4-6, पृ. 65; वे.वी.चिं, उत्‍तरखंड, 12/201-205)।
ख. चर-जंगम –

स्वस्वरूप के ज्ञान और आनंद के उन्माद में ही संचरण करने वाले जीवन्मुक्‍त जंगम को ‘चर-जंगम’ कहते हैं। यह किसी एक निश्‍चित स्थान पर निवास नहीं करता है, किंतु बड़े नगर में पाँच दिन, और छोटे ग्राम में एक दिन, निवास करता हुआ, मान और अपमान में समता-भाव से युक्‍त होकर, प्राकृतिक संपत्‍ति में निःस्पृही, शम, दम आदि सद्‍गुणों से समन्वित होकर, सदा संतुष्‍ट हृदय से संचरणशील रहता है। यह अपने संचार में दर्शन, स्पर्शन तथा शिवज्ञान के उपदेश से शिवभक्‍तों का उद्‍धार करता रहता है। इस चर-जंगम में लोक-संग्रह की वासनायें अभी रहती हैं। लोकोद्‍धार करना ही इसके संचार का प्रयोजन है। इस तरह संचरणशील इस जंगम को ‘चर-पट्‍टाधिकारी’ भी कहते हैं। यही ‘चर-स्थल’ नाम से भी जाना जाता है (सि.शि. 15/1-7, पृ. 66-68; वी.स.सं. 15/22-31; वे.वी.चिं., उत्‍तरखंड, 12/206-211)।

ग. पर-जंगम –

‘पर’ का अर्थ है श्रेष्‍ठ और ‘जंगम’ का अर्थ जीवन्मुक्‍त है। अर्थात् जीवन्मुक्‍तों में ही जो अत्यंत श्रेष्‍ठ माना जाता है उसे ‘पर-जंगम’ कहते हैं। जीवन्मुक्‍ति की यही पराकाष्‍ठा है। इसे ‘तुर्य’ या ‘परमहंस’ अवस्था भी कह सकते हैं। इस जीवन्मुक्‍त के लिये वर्णाश्रम की कोई विधि-निषेध नहीं है। यह किसी एक स्थान पर निवास कर सकता है, नहीं तो संचार ही करता रह सकता है। इसको ‘पर-जंगम’ इसलिये भी कहा जाता है कि ‘पर’ यानी ‘विश्‍वोत्‍तीर्ण परशिव’ को स्वात्मरूप से जानने वाले इस जीवन्मुक्‍त की मनोवृत्‍ति भी ‘तैलधारावत्’ निरंतर उसी शिव-स्वरूप में लीन रहती है। इसलिये ‘पर-जंगम’ को ‘पर’ अर्थात् अपने से भिन्‍न दूसरे व्यक्‍ति या पदार्थ का बोध नहीं होता, किंतु सर्वत्र अपने स्वरूप का ही बोध रहता है। व्यावहारिक भेद का भी बोध न रहने के कारण इससे लोगों को तत्वोपदेश होना असंभव है, किंतु इस महापुरुष के दर्शन तथा स्पर्शन मात्र से ही प्राणियों का उद्‍धार होता है। यह देहधारी होते हुये भी निर्देही कहलाता है। इसका तात्पर्य यह है कि इसके शारीरिक भोजन आदि व्यवहार अपने से न होकर दूसरे से कराये जाते हैं। इसके पादस्पर्श से सामान्य नदियाँ भी ‘तीर्थ’ बन जाती हैं और इसके निवास का स्थान दिव्य-क्षेत्र बन जाता है (सि.शि.15/1-8 पृ. 68-71; वी.स.सं. 15/55-69; वे.वी.चिं. उत्‍तरखंड 12/212-220)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अष्‍टावरण 4. पादोदक – ‘परमानंदस्वरूप को ‘पाद’ कहते हैं और उस आनंद के ज्ञान को ‘उदक’ कहते हैं। अतः स्वस्वरूप के आनंद का ज्ञान ही ‘पादोदक’ कहलाता है – (सि.शि.19/8 पृ. 157)। यही इसका तात्विक अर्थ है।

वीरशैवों की पूजा-पद्‍धति के अनुसार पाद की पूजा से प्राप्‍त पवित्र चरणामृत को भी ‘पादोदक’ कहते हैं। चरणामृत को पादोदक इसलिये कहते हैं कि भक्‍ति से इसका सेवन करने से मन की मलिनता दूर हो जाती है और स्वस्वरूप के ज्ञान के उदय की योग्यता प्राप्‍त हो जाती है। चरणामृत को तैयार करने की विधि वीरशैव संप्रदाय में इस प्रकार बताई गयी है- गुरु या जंगम के पाद के अंगुष्‍ठ में रुद्र, तर्जनी में शंकर, मध्यमा में महादेव, अनामिका में त्रयंबक, कनिष्‍ठिका में ईशान; पाद के ऊपर के भाग में कपर्दि, पादतल में पंचवदन (सदाशिव), गुल्फों (टखनों) में रुद्र एवं भर्ग-इस प्रकार पाद की उंगुलियों में शिव की ही अनेक मूर्तियों की भावना करके भस्म, गंध आदि से पूजा की जाती है। तदनंतर पाद के अंगुष्‍ठ के ऊपर से शुद्‍ध जल से अभिषेक करके उस अभिषिक्‍त जल को अंगुष्‍ठ के नीचे एक पात्र में संग्रह करते हैं। इस प्रकार पाद-पूजा से प्राप्‍त चरणामृत को पादोदक कहते हैं। (पा.तं. 7/47-50)।
यह गुरु के पाद की पूजा से प्राप्‍त होने पर ‘गुरु-पादोदक’, जंगम के पाद की पूजा से प्राप्‍त होने पर ‘जंगम-पादोदक’ और इष्‍टलिंग की पूजा से प्राप्‍त होने पर ‘लिंग-पादोदक’ कहा जाता है। इन्हीं को क्रमशः ‘दीक्षा-पादोदक’, ‘शिक्षा-पादोदक’ और ‘ज्ञान-पादोदक’ भी कहते हैं। वीरशैव लोग प्रतिदिन गुरु अथवा जंगम के ‘पादोदक’ का सेवन करते हैं। कदाचित् इन दोनों के अभाव में अपने इष्‍टलिंग की पूजा से प्राप्‍त ‘लिंग-पादोदक’ का सेवन करते हैं (वी.आ.चं.पृष्‍ठ 119; चं.ज्ञा.आ. क्रियापाद. 5/4-19)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

अष्‍टावरण 5. प्रसाद – श्रद्‍धा से शिव को निवेदित वस्तुओं को प्रसाद कहते हैं। वस्तु भोग्य और धार्य के भेद से दो प्रकार की है। इनमें अन्‍न, जल आदि ‘भोग्य’ तथा वस्‍त्र, अलंकरण आदि ‘धार्य’ कहलाती हैं। वीरशैव धर्म में यह नियम है कि प्रत्येक व्यक्‍ति अपने ‘भोग्य’ और ‘धार्य’ वस्तुओं को गुरु, लिंग तथा जंगम को समर्पित करके अवशिष्‍ट भाग को ‘प्रसाद’ बुद्‍धि से स्वीकार करे। इससे मन में प्रसाद-गुण अर्थात् प्रसन्‍नता उत्पन्‍न होती है। मन की प्रसन्‍नता में निमित्‍त होने से इन शिवार्पित वस्तुओं को प्रसाद कहा गया है (च.ज्ञा.आ. क्रियापाद. 5/20-36; सि.शि. 11/6-7, पृष्‍ठ 194)।)

इस प्रसाद के सेवन से भक्‍ति का उदय होता है और भक्‍ति रहने पर ही शिवार्पित वस्तुओं में प्रसाद की बुद्‍धि होती है। इस तरह बीजाङ्. कुरवत् भक्‍ति और प्रसाद का अन्योन्य-संबंध है (सि.शि.9/11 पृष्‍ठ 140)। यह प्रसाद ‘शुद्‍ध’, ‘सिद्‍ध’ तथा ‘प्रसिद्‍ध’ के नाम से तीन प्रकार के हैं। गुरु को समर्पित किया हुआ ‘शुद्‍ध प्रसाद’, लिंग को समर्पित किया हुआ ‘सिद्‍ध प्रसाद’ और जंगम को समर्पित किया हुआ ‘प्रसिद्‍ध प्रसाद’ कहलाता है (वी.आ.चं.पृ.132)
दर्शन : वीरशैव दर्शन

अष्‍टावरण 6. विभूति – गोमय से इसका निर्माण होता है। इसको तैयार करने की कल्प, अनुकल्प, उपकल्प और अकल्प ये चार प्रक्रियायें हैं। घर में गाय के गोमय को देते समय, उसके भूमि में गिरने से पहले ही सद्‍योजात मंत्रोच्‍चारणपूर्वक उसको ग्रहण करके, वामदेव मंत्र से गोला बनाकर, तत्पुरुष मंत्र से उसको सुखाना चाहिये। सूखने के बाद एक स्थंडिल पर अग्‍नि तैयार करके, अघोर मंत्र से जलाकर, ईशान मंत्र से उसका संचय करके, एक बिल्व पात्र में रखकर पूजा के समय उपयोग करना चाहिये। यही ‘कल्प’ प्रक्रिया है और यह सर्वश्रेष्‍ठ है। अरण्य में प्राप्‍त शुष्क गोमय को अघोर मंत्र से जलाकर तैयार करने की विधि को ‘अनुकल्प’ प्रक्रिया कहते हैं। दूकान में मिलने वाली भस्म को वस्‍त्र से छानकर उसमें गोमूत्र मिश्रण करके सुखाना चाहिये। पुन: अघोर मंत्र से जलाकर तैयार करने की विधि ही ‘उपकल्प’ प्रक्रिया है। इन तीनों प्रक्रियाओं से रहित यथा कथंचित् तैयार करने की विधि को ‘अकल्प’ प्रक्रिया कहते हैं (सि.शि. 7/13-18, पृ. 104,105)।

वीरशैव संप्रदाय में इष्‍टलिंग की पूजा के समय अपने शरीर के मस्तक, ललाट, दोनों कानों, कंठ, कंधे, दोनों भुजाओं, दोनों बाहुओं, मणिबंधों, वक्षस्थल, नाभि और पृष्‍ठ पर जलमिश्रित विभूति का त्रिपुंड धारण करने का विधान है (सि.श. 7/31-33, पृ. 109)। यह पाँच प्रकार के गाय के गोमय से उत्पन्‍न होने के कारण विभूति, भसित, भस्म, क्षार और रक्षा के नाम से पाँच प्रकार की है।
क. विभूति –

कपिल वर्ण की नंदा नाम की गाय के, जो कि शिव के सद्‍योजात मुख से उत्पन्‍न मानी जाती है, गोमय से तैयार की गयी भस्म को ‘विभूति’ कहते हैं। इसका उपयोग नित्य कर्मों को करते समय किया जाता है। ‘विभूतिर्भूतिहेतुत्वात्’ इस उक्‍ति के अनुसार ‘भूति’ अर्थात् आठ ऐश्‍वर्यों को देने वाला है, अतः इसे ‘विभूति’ कहते हैं। सि.शि. 7/5,7,8,10, पृष्‍ठ 102-104; बृ.जा.उ.। ब्रह्‍मण; शै.र. 7/73)।

ख. भसित –

शिव के वामदेव मुख से उत्पन्‍न मानी जाने वाली कृष्‍णवर्ण की ‘भद्रा’ नाम की गाय के गोमय से तैयार की गयी भस्म को ‘भसित’ कहते हैं। इसका उपयोग नैमित्‍तिक कर्मों को करते समय किया जाता है। ‘भसितं तत्वभासनात्’ इस वाक्य के अनुसार इसके धारण करने वाले को पर-शिव-तत्व का भासन, अर्थात् प्रकाशन होने लगता है। अतः इसको ‘भसित’ कहते हैं (सि.शि. 7/5, 7,8,10 पृष्‍ठ 102-104; बृ.जा.उ.। ब्राह्मण; शै.र. 7/74)।

ग. भस्म –

शुभ्र वर्ण की गाय को ‘सुरभि’ कहा जाता है। इसे शिव के अघोर मुख से उत्पन्‍न मानते हैं। इस ‘सुरभि’ के गोमय से तैयार की गयी विभूति को ‘भस्म’ कहते हैं। इसका उपयोग सभी प्रकार के प्रायश्‍चित्‍त-कर्मों को करते समय किया जाता है। ‘पापानां भर्त्सनात् भस्म’ इस निरुक्‍ति के अनुसार जिससे मनो-वाक्-काय-जन्य पापों को भय उत्पन्‍न होता है, अर्थात् इसके धारण से सभी प्रकार के पाप भय से भाग जाते हैं, उसे भस्म कहा गया है (सि.शि. 7/5,7/9,11 पृष्‍ठ 102-104; बृ.जा.उ.। ब्रह्मण; शै.र. 7/75)।

घ. क्षार –

धूम्र वर्ण की ‘सुशीला’ नाम की गाय के, जो कि शिव के तत्पुरुष मुख से उत्पन्‍न मानी जाती है, गोमय से तैयार की हुई भस्म को ‘क्षार’ कहते हैं। इसका उपयोग सभी प्रकार के नित्य, नैमित्‍तिक कर्मों के करते समय किया जाता है। ‘क्षरणात्क्षारमापदाम्’ इस उक्‍ति के अनुसार इसके धारण से सभी प्रकार की आपत्‍तियों का क्षय होता है, अर्थात् इससे सभी प्रकार की आपत्‍तियाँ दूर हो जाती हैं, अतः इसको ‘क्षार’ कहते हैं (सि.शि. 7/5,7,9,10, पृ. 102-104; बृ.जा.उ.। ब्राह्मण; शै.र. 7/76)।

ड. रक्षा –

शिव के ईशान मुख से उत्पन्‍न मानी जाने वाली लाल रंग की ‘सुमना’ नाम की गाय के गोमय से तैयार की गई भस्म को ‘रक्षा’ कहते हैं। इसका उपयोग मोक्ष के हेतुभूत निष्काम कर्मों के करते समय किया जाता है। ‘रक्षणात्! सर्वभूतेभ्यो रक्षेति परिगीयते’ इस उक्‍ति के अनुसार इसको धारण करने वाले की भूत, प्रेत आदि से रक्षा करने के कारण इसे ‘रक्षा’ कहा गया है। (सि.शि. 7/6,7,9,11, पृष्‍ठ 102-104; बृ.जा. उ.। ब्राह्मण शै.र. 7/77)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

अष्‍टावरण 7. रूद्राक्ष – रूद्राक्ष के संबंध में एक प्रसिद्‍ध कथा है कि त्रिपुरासुर-संहार के लिए निर्निमेष दृष्‍टि से बैठे हुये रुद्र के नेत्रजल से इसकी उत्पत्‍ति हुई थी (सि. शि. 7/3,4, पृष्‍ठ 113; अ.वी.सा.सं. भाग 2 पृ. 57)। उत्पत्‍ति के भेद से रुद्राक्ष के 38 भेद होते हैं। भगवान् रुद्र के सूर्यनेत्र से कपिल वर्ण के 12, चंद्रनेत्र से शुभ्र वर्ण के 16 और अग्‍नि नेत्र से कृष्ण वर्ण के 10 प्रकार के रुद्राक्ष उत्पन्‍न हुये (सि.शि. 7/5-7 प. 114)। ये रुद्राक्ष एक मुख से चौदह मुख तक के होते हैं।

वीरशैवों के लिये अपने इष्‍टलिंग की पूजा करते समय शिखा के स्थान पर एक मुख का एक रुद्राक्ष, शिर पर दो मुख, तीन मुख और बारह मुख का एक-एक और इस प्रकार तीन रुद्राक्ष, शिर के चारों ओर ग्यारह मुख के छत्‍तीस रुद्राक्ष, दोनों कानों में पाँच मुख, सात मुख और दस मुख के दो-दो और इस तरह छः छः रुद्राक्ष, कण्ठ में छः मुख के सोलह और आठ मुख के सोलह और इस तरह बत्‍तीस रुद्राक्ष, वक्षस्थल पर चार मुख के पचास रुद्राक्ष, दोनों बाहुओं में तेरह मुख के सोलह-सोलह रुद्राक्ष, दोनों मणिबंधों (कलाइयों) में नौ मुख के बारह-बारह रुद्राक्ष और चौदह मुख के एक सौ आठ रुद्राक्ष यज्ञोपवीत के रूप में धारण करने का विधान है। (सि.शि. 7/10-14 पृष्‍ठ 115, 116; शै.र. 8/1 पृष्‍ठ 86, 87)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

अष्‍टावरण 8. मंत्र – शिव का साक्षात्कार कराने वाला ‘ऊँ नम: शिवाय’ यह पंचाक्षर मंत्र वीरशैवों का प्रमुख मंत्र है। ऊँकार से संयुक्‍त होने के कारण वेदागमों में इसे षडक्षरमंत्र भी कहा गया है। (सि.शि. 8/7, 17, पृष्‍ठ 123, 126)। यह सप्‍तकोटि मंत्रों में श्रेष्‍ठ है। इस मंत्र के ‘मूल’, ‘विद्‍या’, ‘शिव’, ‘शैवसूत्र’ और ‘पंचाक्षर’ ये पाँच नाम है। यह सप्‍तकोटि मंत्रों का मूल कारण होने से ‘मूल’ कहलाता है। इसके मनन से शिव और जीव की एकता की बोधक शुद्‍ध विद्‍या का उदय होता है। अतः इसे ‘विद्‍या’ कहते हैं। शिव के दर्शन का निमित्‍त होने से यह ‘शिव’ कहलाता है। शिव-संबंधी सभी विषय इन्हीं पाँच अक्षरों में अत्यंत संक्षेप से प्रतिपादित हैं, अतः इसे ‘शैव सूत्र’ कहते हैं। पाँच अक्षरों से संयुक्‍त होने के कारण यह ‘पंचाक्षर’ कहलाता है (सि.शि. 8/23 पृष्‍ठ 129)।

वीरशैव धर्म के आचार्य अपने गोत्र के अनुयायी भक्‍तों को ‘मंत्र दीक्षा’ करते समय पुरुषों को ऊँकार-सहित और स्‍त्रियों को ऊँकार रहित इस मंत्र का उपदेश करते हैं। इस मंत्र के ऋषि वामदेव हैं। यह पंक्‍ति छंद का मंत्र है। शिव ही इसका अधिष्‍ठातृ-देवता है। ऊँकार ही बीज है। उमा शक्‍ति है। इस प्रकार इस मंत्र के ऋषि आदि को तथा न्यास आदि क्रम को गुरु-मुख से जानकर, तीन बार प्राणायाम करके, पूर्व या उत्‍तर दिशा की ओर बैठकर अपने इष्‍टलिंग की साक्षी में इस मंत्र का 108 या इससे अधिक यथाशक्‍ति रुद्राक्ष माला से जप करते हैं। यह जप वाचिक, उपांशु तथा मानसिक भेद से तीन प्रकार के हैं। समीपस्थ व्यक्‍ति को यदि मंत्र का उच्‍चारण सुनाई देता है तो वह वाचिक कहलाता है। यदि समीपस्थ व्यक्‍ति को सुनाई तो नहीं देता है, किंतु ओठों का चलना दिखाई देता है तो वह उपांशु कहलाता है। ओठ और चिह्वा के संचलन के बिना ही इस मंत्र के अर्थस्वरूप परशिव का मन में चिंतन करना मानसिक जप है। इन सबमें मानसिक जप ही श्रेष्‍ठ है। चं.ज्ञा.आ.क्रियापाद 8/9-12 तथा 48-74; सि.शि. 8/25-29 पृष्‍ठ 130-131)।
यह पंचाक्षर मंत्र ही भिन्‍न भिन्‍न बीजाक्षरों से संयुक्‍त होकर ‘प्रसाद-पंचाक्षरी’, ‘माया-पंचाक्षरी’, ‘सूक्ष्म-पंचाक्षरी’, ‘स्थूल-पंचाक्षरी’ और ‘मूल-पंचाक्षरी’ के नाम से पाँच प्रकार का होता है। ये क्रमशः दस, नौ, आठ, सात और छः वर्ण के होते हैं। इनका स्वरूप गोपनीय होता है। बीजाक्षरों से संयुक्‍त इन पंचाक्षरी मंत्रों का उपदेश सर्वसाधारण को नहीं किया जाता, किंतु इस धर्म के आचार्य ही इनके अधिकारी होते हैं। इनमें वीरगोत्र के आचार्यों को ‘प्रसाद-पंचाक्षरी’ का, नंदिगोत्र के आचार्यों को ‘माया पंचाक्षरी’ का, भृंगि गोत्र के आचार्यों को “सूक्ष्म-पंचाक्षरी’ का, वृषभगोत्र के आचार्यों को स्थूल-पंचाक्षरी’ का और स्कंद गोत्र के आचार्यो को ‘मूल-पंचाक्षरी’ का उपदेश दिया जाता है। यह उपदेश गुरुस्थान पर पट्‍टाभिषेक करते समय उनको दिया जाता है। (वी.सं. सं. 5-14-40)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

असंग संगविहीन।

पाशुपत योग के अनुसार पाशुपत साधक को विषयों से पूर्णतया निवृत्‍त हो जाना चाहिए; क्योंकि विषयों में रागमयी प्रवृत्‍ति के कारण साधक के इष्‍ट ध्यान में भंग आता है और मन में अश्रद्‍धा उत्पन्‍न होती है। समस्त भूत, वर्तमान तथा भविष्‍य संबंधी विषयों से मन को खींच लेना असंगता होती है। साधक को असंगता को प्राप्‍त करना होता है। असंगता में महेश्‍वर के साथ ऐकात्म्य होता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 110); (तत्र लक्ष्यमाणस्य संगस्यात्यन्तव्यावृत्‍तिरसंगित्वम् – ग. का. टी. पृ. 16)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

असन्मान अभिमान का परित्याग।

असन्मान पाशुपत योग की एक विधि है जो सबसे उत्‍तम विधि मानी गई है। इसमें साधक को अभिमान का पूर्णरूपेण त्याग करना होता है। अभिमान दो तरह का माना जाता है – जाति का अभिमान तथा गृहस्थ जीवन का अभिमान। अपने कुल, वर्ण आदि का अभिमान जात्याभिमान होता है और स्‍त्री, पुत्र आदि के साथ संबंध का अभिमान तथा घर, भूमि, पशुधन आदि के स्वामित्व का अभिमान गृहस्थी का अभिमान होता है। इन दोनों तरह के अभिमानों का त्याग अति उत्‍तम माना गया है – (असन्मानो हि यंत्राणां सर्वेषामुत्‍तम: स्मृत: – पा. सू. 4-9; पा. सू. कौ. भा. पृ. 100)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

असंप्रज्ञातसमाधि असंप्रज्ञात वस्तुतः द्विविध योगों में एक है (द्वितीय है – संप्रज्ञात योग)। चित्त की निरोधभूमि में समाधि होने पर वह समाधि असंप्रज्ञातयोग कहलाती है। इस समाधि का उपाय विरामप्रत्यय (परवैराग्य) है। इस समाधि में चित्त में केवल संस्कार रहते हैं, वृत्तियों का पूर्णतः निरोध हो जाता है। इस असंप्रज्ञात के दो भेद हैं – भवप्रत्यय और उपायप्रत्यय (द्र. 1/19 का योगवार्त्तिक)। एक अन्य मत यह भी है कि निर्बीज समाधि दो प्रकार की है – असंप्रज्ञात और भवप्रत्यय। असंप्रज्ञात अवश्य ही कैवल्य का साधक है, भवप्रत्यय कैवल्यसाधक नहीं है। असंप्रज्ञातसमाधियुक्त चित्त को ‘निर्विषय’ कहा जाता है, क्योंकि कोई भी त्रैगुणिक वस्तु असंप्रज्ञात का आलम्बन नहीं होता। संप्रज्ञात का अधिगम करने के बाद ही यह असंप्रज्ञात समाधि साधनीय होती है – यह जानना चाहिए।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

असंप्रमोष स्मृति नामक वृत्ति के लक्षण में कहा गया है कि प्रमाण आदि वृत्तियों के द्वारा जो विषय अनुभूत होता है, उसका असंप्रमोष=अनपहरण (अपहृत न होना) स्मृति है (द्र. योगसू. 1/11)। ‘असंप्रमोष’ शब्द के ‘मुष स्तेय’ से बनता है; स्तेय=चोरी करना; संप्रमोष इस स्तेय की प्रकृष्ट अवस्था है; संप्रमोष का न होना असंप्रमोष है। अनुभव द्वारा अवभासित विषय से अधिक विषय का ग्रहण संप्रमोष है; इस अधिक विषय का ग्रहण न होना ही असंप्रमोष है। पहले जो विषय ज्ञात होता है, उसका ही संस्कार होता है। इस संस्कार का ही स्थूल परिणाम स्मृति है। स्मृति में पूर्वज्ञात विषय के अतिरिक्त अन्य किसी का भी ज्ञान नहीं होता, भले ही पूर्वज्ञात विषय से कम विषय का ज्ञान स्मृति में हो (पूर्वज्ञात विषय अंशतः विस्मृत हो जाए) – इस भाव को दिखाने के लिए ही अन्य किसी शब्द का प्रयोग न करके ‘मुष’ धातु घटित असंप्रमोष शब्द का प्रयोग किया गया है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

असंव्यवहार पाशुपत योग में यमों का एक प्रकार।

पाशुपत योगी को व्यवहार से रहित होना होता है। व्यवहार दो प्रकार का होता है – क्रय, विक्रय, व्यवसाय आदि जीवन निर्वाह का व्यवहार और राजनीति प्रशासन आदि अधिकारमय व्यवहार। इन दोनों प्रकारों के व्यवहारों से अपने को भी खेद होता रहता है और दूसरों को भी कष्‍ट दिया जाता है। पाशुपत योगी को जीवन निर्वाह आदि के समस्त व्यवहारों को छोड़कर एकमात्र साधना में लगा रहना होता है। उसकी साधना के इस अनुशासन को असंव्यवहार कहते हैं। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 22)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

असुर जो व्यक्ति श्रीकृष्ण को परम तत्त्व के रूप में न मान कर उनसे भिन्न किसी अन्य को ही परम तत्त्व मानता है, वह असुर है। पुराणों का वचन है – हे बुधजनों! यशोदा की गोद में लालित तत्त्व को ही परत तत्त्व समझो। उससे भिन्न को जो परम तत्त्व मानते हैं, उन्हें असुर समझो (अ.भा.पृ. 1439)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अस्तेय पाशुपत योग के अनुसार यमों का एक भेद।

पाशुपत योगी को उपहार के रूप में भोजन आदि के न मिलने पर किसी अन्य प्रकार से किसी अन्य वस्तु को ग्रहण करना स्तेय माना गया है। ऐसा न करना अस्तेय है। अर्थात् केवल वही वस्तु ग्रहण करनी होती है, जो उपहार के रूप में मिले, और कोई नहीं। स्तेय (चौर्य) छः प्राकर का माना गया है –
1. अदत्‍तादानम् – जो वस्तु नहीं दी गई हो फिर स्वयमेव ही उसे ले लेना।
2. अनतिसृष्‍टग्रहणम् – बालक, उन्मत्‍त (पागल) प्रमत्‍त (जो अपनी वस्तुओं को ध्यान से न रखता हो), वृद्‍ध अथवा निर्बल की वस्तु को ले लेना।
3. अनभिमतग्रहण – कीड़ों, भ्रमरों, पक्षियों आदि के काम आने वाली वस्तुओं का अपहरण।
4. अनुपालम्भ – जादू से, छल से या डांट फटकार आदि उपायों से किसी का सुवर्ण या वस्‍त्रों का हरण।
5. अनिवेदित उपयोग – गुरु को बिना अर्पण किए किसी भी भक्ष्य पदार्थ का पान या भोग।
पाशुपत शास्‍त्र में आचार्य इस छः प्रकार के स्तेय का निषेध करते है। चौर्य – पाप प्राणिवध के समान पाप होता है अतः पाशुपत धर्म के आचार में इसका सर्वथा निषेध किया गया है। (पा. सू. कौ भा. पृ. 24)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अस्तेय जिस द्रव्य का कोई अन्य स्वामी हो, उसे ग्रहण करना, अर्थात् उसको अपना स्व. समझना (स्वामी की अनुमति के बिना) स्तेय है। इस प्रकार किसी द्रव्य का ग्रहण न करना अस्तेय है। यह अस्तेय पंचविध यमों में से एक है (द्र. योगसू. 2/30)। हस्त आदि कर्मेन्द्रियों से ग्रहण न करना मात्र अस्तेय नहीं है। अस्तेय वस्तुतः स्पृहारूप है, अर्थात् परद्रव्य का स्वामी न होने की इच्छा ही अस्तेय है। यह ज्ञातव्य है कि धर्मशास्त्रोक्त प्रतिग्रह अस्तेय का विरोधी नहीं है, क्योंकि वह शास्त्रविहित है। जिसमें यह अस्तेय-बुद्धि सुप्रतिष्ठित हो जाती है उसके यहाँ चेतनरत्न (विचारक मनुष्य) और अचेतनरत्न स्वयं उपस्थित होते हैं (अचेतनरत्न दाताओं द्वारा उपहृत किए जाते हैं), यह योगशास्त्र का मत है (द्र. योगसू. 2/37)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अस्मिता (अविशेष) चार ‘गुणपर्वों’ में एक ‘अविशेष’ है (द्र. योगसूत्र 2/19); अन्य तीन हैं – विशेष, लिङ्गमात्र एवं अलिङ्ग। अविशेष छः हैं – पाँच तन्मात्र तथा छठा अस्मितारूप अविशेष (षष्ठश्च अविशेषोSस्मितामात्र; व्यासभाष्य 2/19)। इस अस्मिता रूप अविशेष से बाह्य एवं आन्तर इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। प्राचीन आचार्यों ने अस्मिता की व्याख्या ‘अस्मिभाव’ कहकर की है। यह सांख्य का अहंकार है, जो महत्तत्त्व का परिणामभूत है। इस अस्मिता (नामान्तर अस्मितामात्र) को उपादान बनाकर योगी निर्माणचित्त का निर्माण करते हैं (आत्मज्ञान का उपदेश शिष्यों के प्रति करने के लिए) (द्र. योगसूत्र 4/4)। इस अस्मिता के साथ विशोका -जयोतिष्मती प्रवृति का अच्छेद्य सम्बन्ध है। द्र. ज्योतिष्मती शब्द।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अस्मिता (क्लेश) पाँच प्रकार के ‘क्लेशों’ में अस्मिता एक है (अन्य चार हैं – अविद्या, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश)। अस्मिताक्लेश का नामान्तर ‘मोह’ है (द्र. सांख्यकारिका 47 की टीकाएँ)। अस्मिता-क्लेश का स्वरूप है – अपरिणामी कूटस्थ पुरुष तथा परिणामी बुद्धि – इन दोनों को (सादृश्य के आधार पर) एक की तरह समझना। इस क्लेश के कारण चिद्रूप आत्मा (निर्गुण पुरुष) में अनात्मवस्तु के धर्म आरोपित होते हैं और यह समझा जाता है कि पुरुष वस्तुतः बुद्धिधर्म सुखदुःखादि से पीड़ित होते हैं। यह अस्मिता वस्तुतः अविद्याप्रभव है; अविद्या ही इसका उपादान है। अविद्या के कारण वस्तु-विषयक अयथार्थ ज्ञान होने पर अस्मिता आदि क्लेश उदित होते हैं जिससे प्राणी ऐसा कर्म करता है जो अन्त में दुःखदायक होता है। इस अस्मिताक्लेश के आठ भेदों की बात सांख्याचार्यों ने विशेषतः कही है। अष्टविध ऐश्वर्य (अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व एवं यत्रकामावसायित्व) में आसक्ति होने के कारण योगी प्रायः मोक्षमार्ग से विमुख हो जाते हैं, अतः यह अस्मिता आत्मज्ञान -विरोधी अज्ञान ही है (द्र. सांख्यकारिका 48)। व्याख्याकारों ने कहा है कि यह अस्मिता अन्यान्य क्लेशों की तुलना में अधिक शाक्तिशाली है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अहंकार सांख्य में यह एक तत्त्व है जो महत्तत्त्व से उद्भूत होता है। इसका लक्षण या धर्म अभिमान (अहन्ता-ममता-रूप) है। युक्तिदीपिका में अभिमान को ‘स्वात्मप्रत्यविमर्श’ कहा गया है (सांख्यका. 24)। आचार्यों ने इसे रजःप्रधान माना है (बुद्धि या महत्तत्त्व सत्त्वप्रधान है)। यह अस्मिता अथवा अस्मितामात्र शब्द से भी अभिहित होता है। यह सात ‘प्रकृति-विकृतियों’ में से एक है (सांख्यका. 3) – इन्द्रियों का उपादान होने के कारण ‘प्रकृति’ और बुद्धि से उद्भूत होने के कारण ‘विकृति’ – ऐसा समझना चाहिए। योगसूत्र में यह अविशेषों में गिना गया है; भाष्यकार ने इसको षष्ठ अविशेष कहा है (2/19)। अहंकार के वैकारिकनामक सात्त्विक भाग से दश इन्द्रियाँ तथा मन और इसके तामस भाग भूतादि से पाँच तन्मात्र उद्भूत होते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अहंकार संकुचित अहम्। बुद्धि तत्त्व से प्रकट होने वाला दूसरा अंतःकरण। शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण ‘अहं’ का ही अतीव संकुचित रूप। ‘अहंकार’ में ‘कार’ को कृत्रिमता का वाचक मानकर अहंकार को कृत्रिम ‘अहं’ भी कहा जाता है। बुद्धि तत्त्व में प्रतिबिम्बित सभी प्रमेय पदार्थो के प्रति बुद्धि तत्त्व में ही प्रतिबिम्बित पुरुष का निश्चित रूप से संकुचित प्रमातृभाव का अभिमनन करना उसका अहंकार कहलाता है। वह इसी के द्वारा यह समझने लगता है कि ‘मैं यह देह आदि हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं चलता हूँ’ इत्यादि। संरंभ रूप अर्थात् क्रिया रूप होने के कारण अहंकार को प्राण, अपान आदि पाँचों प्राणों को प्रेरित करने वाला भी माना गया है। (तन्त्र सार , पृ. 89-8 ईश्वर प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी, 2, पृ. 212)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अहमंश विश्रांति अपनी शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण संवित् रूपता पर स्थिति। चैतन्यात्मक शुद्ध प्रकाश रूप अहं पर स्थिति। परिपूर्ण अहमंश में किसी भी प्रकार का द्वैताद्वैत या द्वैत भाव नहीं रहता है। यहाँ सभी प्रमेय पदार्थ शुद्ध प्रकाश रूप में ही चमकते हैं। इदंता का वहाँ आभास तक नहीं होता है। इस प्रकार संपूर्ण सृष्टि को अपनी ही शुद्ध प्रकाशरूपता का विकास समझते हुए उसी परिपूर्ण प्रकाशरूपता पर स्थिति ही अहमंश विश्रांति है। (भास्करी 1, पृ. 176-177)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अहमितिपूर्वापरानुसंधान किसी वस्तु विशेष, भाव या अवश्ता के स्मृति काल के प्रथम क्षण में ही होने वाला वह अतिसूक्ष्म संवेदन या परामर्श जिसमें यह विमर्श होता है कि अमुक वस्तु, भाव या अवस्था के प्रत्यक्ष ज्ञान के समय जो ‘अहम्’ अर्थात् ‘मैं’ था वही ‘अहम्’ उनके स्मृति काल की अवस्था में भी है। इस विमर्श के बिना किसी वस्तु आदि का स्मरण नहीं हो सकता है। यह विमर्श ही अनुभव और स्मृति को परस्पर जोड़ता है। (भास्करी 1, पृ. 136-137)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अहमिदम् सदाशिव तत्त्व के मंत्रमहेश्वर (देखिए) नामक प्राणियों का अपने शुद्ध अहं के प्रति तथा सृष्ट होने वाले समस्त प्रपंच के प्रति भेदाभेदात्मक दृष्टिकोण। अहमिदम अर्थात् ‘मैं यह प्रमेय तत्त्व हूँ’, मुझ में ही प्रमेयता का आभास स्थित है। इस विमर्श में प्रकाश रूपता की ही प्रधानता रहती है। इस प्रकार इस दृष्टिकोण में शुद्ध अहं में इदंता अर्थात् प्रम़ेयता का बहुत ही धीमा सा आभास होता है। इसी दृष्टिकोण को उत्कृष्टतर शुद्ध विद्या कहते हैं। (ईश्वर प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी, 2, पृ. 197-197)। देखिए इदम् अहम्।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अहम् प्रकाश की अपनी ही शुद्ध प्रकाशरूपता में विश्रांति अर्थात् अपनी शुद्ध संविद्रूपता का परामर्श। (अ. प्र. सि., 22)। जब अकारात्मक अनुत्तरतत्त्व ही हकारात्मक अपनी परा विसर्ग शक्तिरूपता में आभासित होता हुआ अपनी ही पर संविद्रूपता में बिंदु (देखिए) रूप से अविभागतया विश्रांति को प्राप्त करता है तो उसे अहं कहते हैं। (तन्त्रालोक 3-201, 202, वही पृ. 194)। अनुत्तरशिव तथा विसर्गात्मक शक्ति का सामरस्य रूप। अ से लेकर ह पर्यांत समस्त परामर्शो का एकरस स्वरूप। (वही, 3-203, 204)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अहम्परामर्श / अहम्प्रत्यवमर्श शुद्ध प्रकाश रूप ‘अहम्’ का अंतःविमर्शन। यह विमर्श पूर्ण स्वातंत्र्ययुक्त होता है। परमशिव में इस परिपूर्ण प्रकाश के विमर्श की अवस्था में किसी भी प्रकार की सृष्टि के प्रति किसी भी प्रकार की उन्मुखता या उमंग अभी उभरी नहीं होती है। इस प्रकार केवल अपने शुद्ध संविद्रूपता के आनंदमय सतत अंतःविमर्श को ही अहम्परामर्श या अहम्प्रत्यवमर्श कहते हैं। (ई, प्र. वि. 1-6-1)। प्रति से अभिप्राय प्रतीय या उल्टे से है। यह विमर्श बाह्य प्रमेय के प्रति न होता हुआ उल्टा अपने आपका ही विमर्शन करता है। यही इसकी प्रतीपता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अहम्महोरूप अपने असीम, परिपूर्ण एवं शुद्ध संवित् रूप ‘अहम्’ का एकघन सामरस्यात्मक स्वरूप। छत्तीस तत्त्वों एवं उनमें स्थित सभी सूक्ष्म एवं स्थूल भावों तथा भुवनों का शुद्ध प्रकाश रूप जिसमें सभी कुछ निर्विभागतया शुद्ध प्रकाश के ही रूप में विद्यमान रहता है। सच्चिदानंदकंद एवं सर्वथा स्वतंत्र, परिपूर्ण और शुद्ध अहंता का स्वविलास रूपी विमर्शात्मक प्रकाश। (आ.वि., 3-1)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अहम्महोविलास परमशिव की पारमेश्वरी लीला। अपने शुद्ध एवं परिपूर्ण चैतन्यात्मक अहम् का सतत विमर्शात्मक स्वरूप। संपूर्ण अंतः सृष्टि जब परमेश्वर के अपने ही आनंद से अपने में ही अपने ही आनंद के लिए बाह्य रूप धारण करने को उद्यत होती है, धारण कर रही होती है या धारण कर चुकी होती है तो इन सभी अवस्थाओं को उसका अहम्महोविलास कहा जाता है। (आत्मविलास, 3-1-, 3 )।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


अहल्लिक मिथ्या शरीर अहल्लिक कहा जाता है। “अहनि लीयते” इस व्युत्पत्ति के अनुसार दिन में-प्रकाश में-ज्ञान में जिसका लय हो जाए, वह अहल्लिक है। यह शब्द शाकल्य ब्राह्मण में आया है। “कस्मिन्नु हृदयं प्रतिष्ठितं भवतीति शाकल्यप्रश्ने याज्ञवल्क्यो अहल्लिक इति होवाच”। (द्रष्टव्य. अ. भा. प्रकाश की रश्मि व्याख्या) (अ.भा.पृ. 578)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

अहिंसा पंचविध यमों में अहिंसा एक है। अहिंसा का अर्थ है अनाभिद्रोह (=प्राणियों को पीड़ा न देना)। वस्तुतः प्राणियों को पीड़ा देकर सुखी होने की इच्छा का त्याग करना अहिंसा का मानस रूप है, जो प्रकृत अहिंसा है। अस्त्रादि साधनों से पीड़ा न देना अहिंसा का वाह्य रूप है। हिंसा के मूल में द्वेष है, अतः अहिंसा के साथ मैत्री -भावना का अविच्छेद्य संबंध है। यह मैत्री सत्त्वगुणप्रधान है। योगियों की अहिंसा सर्वप्रकार के प्राणियों के प्रति, सदैव, सर्वप्रकार से होती है। शरीर धारण जब तक रहेगा तब तक प्राणी को पीड़ा देना किसी न किसी रूप में अवश्यंभावी है। इस अवश्यंभावी हिंसा से होने वाले पाप का क्षालन प्राणायामादि से हो जाता है। जाति आदि से सीमित न होने पर अहिंसा ‘महाव्रत’-संज्ञक होती है। योगशास्त्र की मान्यता है कि अहिंसा -प्रतिष्ठ योगी के निकट शत्रुभावापन्न प्राणी भी कुछ समय के लिए वैरभाव का त्याग कर देते हैं। पूर्वाचार्यों ने कहा है कि (1) अन्यान्य सभी यमनियमों का आचरण अहिंसा को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए तथा (2) सभी यमनियम वस्तुतः अहिंसा को ही विकसित करते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अहिंसा पाशुपत योग के अनुसार यमों का एक प्रकार।

पाशुपत धर्म में हिंसा का पूर्णरूपेण निषेध किया गया है। हिंसा तीन प्रकार की कही गई है – दुःखोत्पादन, अण्डभेद (अण्डे फोड़ देना) तथा प्राणनिर्मोचन। दुःखोत्पत्‍ति क्रोधपूर्ण शब्दों से, डांटने से, मारने पीटने से तथा भर्त्सना से होती है। अतः पाशुपत साधक के लिए चारों प्रकार के जीवों (जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्‍भिज्‍ज) के प्रति दुःखोत्पादन रूपी हिंसा का पूर्ण निषेध किया गया है। अण्डभेद नामक हिंसा का भी पूर्णरूपेण निषेध किया गया है। पशुपत साधक के लिए अण्डों को ताप, अग्‍नि तथा धूम के पास लाने का तथा उन्हें जरा भी हिलाने डुलाने का पूर्ण निषेध किया गया है अर्थात् अण्डों को किसी भी कारणवश बिगाड़ना या फोड़ना निषिद्‍ध है। प्राणनिर्मोचन नामक हिंसा का भी निषेध किया गया है। पाशुपत साधक को खाने पीने के बर्तन, पहनने के कपड़े उचित ढंग से देखने होते हैं ताकि किसी भी सूक्ष्म जीव की प्राणहानि न हो, क्योंकि सूक्ष्म जीव बहुत तीव्रता से मर जाते हैं। अतः अपने प्रयोग की हर वस्तु का ध्यान से परीक्षण करना होता है। यदि सिद्‍ध साधक के द्‍वारा ज़रा सी भी हिंसा हो तो उसका उच्‍च पद से पात होता है; अर्थात् वह फिर से बंधन में पड़ जाता है। अतः पाशुपत साधक को जल छानकर पीना होता है तथा इस प्रकार से हर तरह की हिंसा से सावधान रहना होता है। पाशुपत दर्शन के अनुसार जो साधक अहिंसा का पालन करता है उसको अमरत्व प्राप्ति होती है। इस प्रकार से अहिंसा की बहुत महत्‍ता बताई गई है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 16-19)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

आनंद शक्ति (देखिए) को द्योतित करने वाला वर्ण। अ अर्थात् अनुत्तर शक्ति पर ही पूर्ण विश्रांति की स्थिति को अभिव्यक्त करने वाला आनंदशक्ति स्वरूप वर्ण। (तन्त्र सार , पृ. 12; तन्त्रालोक, 3-67,68)। अ अनुत्तर परम शिव है। आनंद उसका नैसर्गिक स्वभाव है। इसी स्वभाव के प्रभाव से परमशिव में जगत् सृष्टि के प्रति इच्छा होती है। अनुत्तर और इच्छा के बीच में आनंद की स्थिति है। इसी कारण अ और इ के बीच में आ ठहरता है। इस आ को पर विसर्ग भी कहते हैं क्योंकि सृष्टि का कारण बनने वाला पारमेश्वर विसर्ग का प्रारंभ यहीं से होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आकाशगमन एक सिद्धि जिसे प्राप्त करके योगी आलंबनहीन होकर विचरण कर सकता है (योगसूत्र 3/42)। इसके दो उपाय हैं – (1) शरीर और आकाश के सम्बन्ध में संयम करना तथा (2) लघुतूलसमापत्ति (अल्पभारयुक्त तूला आदि पर प्रक्रिया विशेष के अनुसार समाहित हो जाना)। ‘भारहीनता की भावना’ से शरीर -उपादान अपने गुरुत्व नामक धर्म से हीन हो जाता है, अतः शरीर लघु होता है, जिससे आकाश में चलना संभव होता है। इस सिद्धि में शरीर के अवयव यथावत् रहते हैं, उसका भार मात्र अत्यल्प हो जाता है या भार नहीं रहता – यह ज्ञातव्य है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आकूति कर्मेन्द्रियों का एक धर्म आकूति है। इसी के कारण वागिन्द्रिय द्वारा वचन क्रिया, हाथ द्वारा आदान (ग्रहण) क्रिया, पैर द्वारा गमन क्रिया, गुदेन्द्रिय द्वारा मल विसर्ग क्रिया तथा जननेन्द्रिय द्वारा आनंद क्रिया की उत्पत्ति होती है (कर्मेन्द्रिय से संबद्ध होने के कारण आकूति बाह्य प्रयत्न रूप है (अ.भा.पृ. 500, 782)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

आगति परलोक से जीव का इस लोक में आना आगति है तथा इस लोक से जीव का परलोक में गमन शास्त्रों में गति शब्द से कहा गया है (अ.भा.पृ. 710)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

आगम 1. दिव्य ज्ञान। आ = चारों ओर से, गम = वस्तु तत्त्व का बोध कराने वाला ज्ञान। पराशक्ति के स्फार रूप ज्ञान या शास्त्र को आगम कहते हैं। (स्वच्छन्दतंत्र उद्योत, खं. 2, पृ0. 214)। 2. साक्षात्कारी सिद्ध की अपनी उत्कृष्टतर योगज अनुभूति को आगम कहते हैं। उसी से उन तत्त्वों का प्रकाशन होता है जिन्हें प्राणी लौकिक प्रमाणों के द्वारा जान नहीं सकते। (वही)। 3. साक्षात्कारी सिद्ध अपनी योगज अनुभूति को उसके अनुकूल शब्दों के माध्यम से जब प्रकट करता है तो उसकी वह शब्दावली भी आगम ही कहलाती है। इस तरह से सारे आर्ष ग्रंथ और देवताओं द्वारा उपदिष्ट शास्त्र भी आगम कहलाते हैं। ये शब्दात्मक आगम द्वितीय कोटि के आगम होते हैं। मुख्य आगम तो योगियों की स्वानुभूति ही है। 4. शिव और पार्वती के संवाद।

आगम (त्रिक) –

1. नामक तंत्र, सिद्ध तंत्र और मालिनी तंत्र। 2. स्वच्छंद तंत्र, विज्ञान भैरव, चरात्रीशिका, शिवसूत्र आदि।

आगम (शैव)

ईशान, तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव और अघोर – इन पाँच मंत्रों के द्वारा उपदिष्ट आगम। भैरवों, रुद्रों आदि के द्वारा उपदिष्ट आगम। दस भेदप्रधान शिवआगम, अठारह भेदाभेद प्रधान रुद्र आगम और चौसठ अभेदप्रधान भैरव आगम। (भास्करीवि.वा., 1-391, 392)। इस समय उपलब्ध आगमों में से मालिनी विजयोत्तर तंत्र, स्वच्छंद तंत्र, शिव सूत्र, विज्ञान भैरव और परात्रीशिका अद्वैत प्रधान शैवागम हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आगम-प्रमाण (=आप्तवचन) सांख्य-योग में स्वीकृत तीन प्रमाणों में से यह एक है। ‘आगम’ शब्द योगसूत्र (1/7) में है; सांख्यकारिका में ‘आप्तवचन’ शब्द का इस अर्थ में प्रयोग हुआ है। यह स्पष्टतया ज्ञातव्य है कि इस शास्त्र में आगम या आप्तवचन प्रमाणरूप बुद्धिवृत्ति (चित्तवृति) का एक भेद है – यह शब्द विशेष-रूप नहीं है, यद्यपि गौण दृष्टि से शब्दविशेष को भी आगम प्रमाण या आप्तवचन कहा जाता है। माठरवृत्ति (सां. का. 4 -5) वाक्यविशेष को ही आप्तवचन समझती है – ऐसा प्रतीत होता है। आप्तवचन की परिभाषा में सांख्यकारिका में ‘आप्तश्रुति’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। वाचस्पति के अनुसार (श्रुति = वाक्यार्थज्ञान तथा आप्त = युक्त = सर्वदोषहीन)। इसका अर्थ दोषहीन वाक्यार्थज्ञान है जो तभी संभव होता है जब वह अपौरुषेय वेदवाक्य से उत्पन्न हो। अन्यान्य शास्त्रों से होने वाला ज्ञान तभी प्रमाण होगा, जब वे वेदमूलक हों। कपिलादि आचार्यों का ज्ञान भी वस्तुतः वेदमूलक है। जो शास्त्र वेदमूलक नहीं हैं, वह प्रमाण नहीं हैं। युक्तिदीपिका भी आप्तश्रुति से वेदवाक्यजनित ज्ञान तथा वेदमूलक शास्त्रवाक्यजनित ज्ञान – यह द्विविध ज्ञान समझती है। कोई आप्त-श्रुति का अर्थ आप्त (सनत्कुमारादि व्यक्ति) तथा श्रुति (वेद) करते हैं अर्थात् प्रमाणभूत व्यक्ति के वाक्य को सुनने पर अथवा वेदवाक्य (जो पुरुषवाक्यविशेष नहीं है), को सुनने पर जो निश्चय-ज्ञान होता है, वह आप्तवचन है। ब्रह्मा के आप्त होने के कारण उनका वेदरूप वचन तथा मन्वादि के आप्त होने के कारण उनके स्मृति रूप वचन=आप्तवचन है यह भी कोई कहते हैं। सांख्य सूत्र (1/101) में ‘आप्तोपदेशः शब्द’ कहा गया है। भिक्षु ने आप्तोपदेश का अर्थ – ‘निर्दोष शब्दजन्य ज्ञान’ किया है। इस प्रमाण का मुख्य विषय वह है जो अत्यन्त परोक्ष है अर्थात् जो प्रत्यक्ष और अनुमान से सिद्ध नहीं होता (जैसे स्वर्ग आदि की सत्ता)। अन्य प्रमाण से ज्ञेय विषय भी आगमप्रमाण से ज्ञात हो सकते हैं। इस संदर्भ में योगसूत्र (1/7) और उसके भाष्य की व्याख्या में कुछ और विशेष बातें इस प्रकार बताई गई हैं – आगम का संबंध वस्तु के सामान्य धर्मों से है, विशेष धर्म से नहीं, क्योंकि विशेष धर्मों के साथ शब्दों का संकेत नहीं है। आगम प्रमाण में वक्ता और श्रोता की विद्यमानता अपरिहार्य है – ग्रंथपाठ गौण आगमप्रमाण है। वक्ता यदि आप्त अर्थात् यथार्थज्ञाता न हो तो उनके उपदेश को सुनकर जो ज्ञान होगा वह सदोष आगम होगा। निर्दोष वक्ता ईश्वर है अथवा अपौरुषेय वेदवाक्य सर्वथा निर्दोष है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आचार शास्‍त्रविहित कर्मों के आचरण से शिवभक्‍ति की उत्पत्‍ति होती है। इन कर्मों का अनुष्‍ठान ही ‘आचार’ कहलाता है। यह आचार जिज्ञासु तथा ज्ञानी दोनों के लिये अलंकार बन जाता है। अतः वीरशैव दर्शन में ज्ञान के साथ शास्‍त्रविहित कर्मों के अनुष्‍ठान रूप ‘आचार’ को अधिक महत्व दिया गया है। (चं.ज्ञा.आ. क्रियापाद. 9/16-18)। (वीरशैव दर्शन में ‘पंचाचार’ और ‘सप्‍ताचार’ प्रसिद्‍ध हैं। इनकी परिभाषा यथास्थान देखिए।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

आचार तान्त्रिक संम्प्रदाय सात प्रकार के आचारों में विभक्त हैं। कुलार्णव तन्त्र (2/7-8) में बताया गया है कि वेदाचार सबसे श्रेष्ठ है। वेदाचार से वैष्णवाचार महान् है। वैष्णवाचार से शैवाचार उत्कृष्ट है। शैवाचार से दक्षिणाचार उत्तम है। दक्षिणाचार से वामाचार श्रेष्ठ है। वामाचार से सिद्धान्ताचार उत्तम है और सिद्धान्ताचार की अपेक्षा कौलाचार श्रेष्ठ है। इस संसार में कौलाचार से बढ़कर और कुछ भी नहीं है। प्राणतोषिणी (पृ. 965-966) में उद्धृत नित्यातन्त्र प्रभृति ग्रन्थों में इन सातों आचारों का वर्णन मिलता है। इनका विवरण नीचे अकारादि क्रम से स्थापित इन शब्दों की व्याख्या में देखना चाहिये। (क) कौलाचार कौलाचार का वर्णन करते हुए प्राणतोषिणी (पृ. 1027) में उद्धृत नित्यातन्त्र के वचनों में बताया गया है कि इस कौलाचार का आचारण करने वाले के लिये दिशा अथवा काल का भी कोई प्रतिबन्ध नहीं है। तिथि आदि के नियमों को मानना भी जरूरी नहीं है। महामन्त्र के साधन की भी कोई आवश्यकता नहीं है। कभी शिष्ट कभी भ्रष्ट और कभी भूत, पिशाच आदि के समान वह नाना प्रकार के वेष धारण कर इस पृथ्वी पर निःशंक विचरण करता है। जो साधक कर्दम और चन्दन में, मित्र और शत्रु में, श्मशान और गृह में, स्वर्ण और तृण में कोई भेद नहीं देखता, उसको कौल कहते हैं। उसका आचारण ही वास्तविक कौलाचार है। कुलाचार या कौलाचार के नाम से इस विषय का शास्त्रों में विस्तार से वर्णन मिलता है। अर्थरत्नावली टीका (पृ. 134-135) में विद्यानन्द ने कुलाचार का लक्षण बताते हुए लिखा है कि पर, सहज, कुलज और अन्त्यज क्रम से सोलह, आठ, चार और एक योगिनियों को आमंत्रित करना, उनके उपवास आदि का अनुष्ठान कर पवित्र हो जाने पर सुवर्ण, वस्त्र, माला, चन्दन, धूप, दीप, भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य, चर्वण द्रव्य, पात्रासादन तथा दक्षिणा दान आदि से उनको संतुष्ट करना। यही वास्तविक कुलाचार है। (ख) दक्षिणाचार दक्षिणाचार का वर्णन करते हुए प्राणतोषिणी (पृ. 965) में उद्धृत एक वचन में बताया गया है कि दक्षिणाचार का पालन करने वालों को चाहिये कि वे वेदाचार के अनुसार आद्या शक्ति की पूजा करें और रात को संवित् (विजया) का ग्रहण करके एकाग्र चित्त से जप करें।

  यद्यपि नित्यातन्त्र और कुलार्णव में सात प्रकार के आचारों का उल्लेख है, तथापि प्रधानतः दक्षिणाचार और वामाचार ये दो प्रकार के आचार ही देखने में आते हैं। दक्षिणाचार तन्त्र में लिखा है कि इस तन्त्र में जिस प्रकार की कर्मपद्धति वर्णित है, वह शुद्ध वैदिक है। वास्तव में दक्षिणाचारी लोग वेदोक्त विधि के अनुसार ही भगवती की अर्चना करते हैं। वे वामाचारियों की तरह मद्य, मांस का सेवन तथा शक्ति साधन आदि नहीं करते। दक्षिणाचार तन्त्र में रक्त, मांस आदि से रहित सात्त्विक बलि ही ब्राह्मण के लिये विहित है। दक्षिणामूर्ति द्वारा प्रवृत्त होने से इसको दक्षिणाचार कहा जाता है।

(ग) वामाचार वामाचार का वर्णन करते हुए प्राणतोषिणी (पृ. 965) में उद्धृत आचार भेद तन्त्र के अनुसार वामाचार की परिभाषा यह दी गई है कि पंचतत्त्व अर्थात् पंचमकार, खपुष्प अर्थात् रजस्वला का रज और कुलस्त्री का पूजन प्रभृति के माध्यम से आद्या शक्ति की उपासना करने वाली विधि को वामाचार कहते हैं। इसमें साधक अपने में वामा भाव को जगाता है और इसी रूप में वह परा शक्ति की उपासना करता है। बंगाल में तान्त्रिक शब्द से प्रधानतः वामाचारियों का ही बोध होता है। किसी के मत से ये वेदविरुद्ध आचरण करने से वामाचारी के नाम से प्रसिद्ध है। बंगाल के तान्त्रिकों में वामाचार और दक्षिणाचार दोनों ही मिश्रित हैं। उनके मत से मनुष्य जन्ममात्र से दक्षिणाचारी तथा दीक्षा और अभिषेक के बाद वामाचारी कहलाता है। (घ) वेदाचार वेदाचार का वर्णन करते हुए प्राणतोषिणी (पृ. 280-283) में उद्धृत नित्यातन्त्र में बताया गया है कि साधक को चाहिये कि वह ब्रह्म मुहूर्त में उठे और गुरु के नाम के अंत में आनंदनाथ बोल कर उनको प्रणाम करे। फिर सहस्त्र दल पद्म में ध्यान करके पंचोपचार पूजा करे और वाग्भव बीज का जप करके परम शक्ति का ध्यान करे। संक्षेप में यही विधि वेदाचार के नाम से प्रसिद्ध है। उक्त ग्रन्थ में रुद्रयामल, विश्वसार तन्त्र प्रभृति के आधार पर इस विषय को विस्तार से समझाया गया है। उस सारे प्रकरण का सार यह है कि सौन्दर्यलहरी के टीकाकार लक्ष्मीधर ने आन्तर वरिवस्था के माध्यम से जिस समयाचार का प्रतिपादन किया है, उसी का नामान्तर वेदाचार है। (च) वैष्णवाचार वैष्णवाचार का वर्णन करते हुए प्राणतोषिणी (पृ. 965) में उद्धृत नित्यातन्त्र में बताया गया है कि वैष्णवाचार का पालन करने वाले को वेदाचार की विधि के अनुसार सर्वदा नियम तत्पर होना चाहिये। मैथुन या उसका कथा प्रसंग भी कभी नहीं करना चाहिये। मांस भोजन का परित्याग करना चाहिये। रात्रि में कभी भी माला या यन्त्र को नहीं छूना चाहिये। भगवान् विष्णु की ही सदा पूजा करे तथा उन्हीं को सब कुछ निवेदित कर दे। वैष्णवाचार का पालन करने वाला इस सारे जगत् को विष्णुमय ही मानता है। (छ) शैवाचार शैवाचार का वर्णन करते हुए प्राणतोषिणी (पृ. 965) में उद्धृत नित्यातन्त्र के एक वचन में कहा गया है कि शैवाचार और शाक्ताचार का पालन करने वालों के लिये भी वही व्यवस्था है, जो कि वेदाचार का पालन करने वालों के लिए विहित है। शैवाचार में विशेषता यह है कि यहाँ पशु बलि का भी विधान है। इस आचार में पशु बलि को निषिद्ध घोषित नहीं किया गया है। शैवागम और शैवतन्त्र प्रतिपादित आचार विधि का पालन करना ही वस्तुतः शैवाचार पद का अभिप्राय है। (ज) सिद्धान्ताचार सिद्धान्ताचार का वर्णन करते हुए प्राणतोषिणी (पृ. 965) में उद्धृत एक वचन में बताया गया है कि सिद्धान्ताचार में शुद्ध या अशुद्ध सभी प्रकार की वस्तुएँ शास्त्रोक्त विधि से शुद्ध कर ली जाती हैं। प्राणतोषिणी (पृ. 965) में ही उद्धृत समयाचारतंत्र में सिद्धान्ताचारियों के विषय में बताया गया है कि वे सर्वदा देव पूजा में निरत रहते हैं। दिन में तो ये वैष्णवाचार विधि से जीवन-यापन करते हैं, किन्तु रास्त्रि में मिल जाने पर ये भक्ति-भाव से मद्य आदि का भी सेवन कर अपने को कृतकृत्य, आप्तकाम मानते हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन

आचार तन्त्र शास्त्र में ऋ ऋृ लृ लृृ ये चार स्वर षण्ढ (नपुंसक) कहे गये हैं। अतः ध्यान आदि में इनका उपयोग नहीं किया जाता। सोलह स्वरों में से इन चार षण्ढ स्वरों को निकाल देने पर उनकी संख्या बारह रह जाती है। इन बारह स्वरों की जन्माग्र, मूल, कन्द, नाभि, हृदय, कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य, ललाट, ब्रह्मरन्ध्र शक्ति और व्यापिती – इन बारह चक्रों या आधारों में भावना का विधान विज्ञान भैरव (श्लो. 30) प्रभृति ग्रन्थों में मिलता है। कहीं कहीं नामों में कुछ अंतर मिल जाता है। शास्त्रों में मतभेद से हृदय या जन्माधार के द्वादशान्त पर्यन्त, कन्द से ब्रह्मरन्ध्र तक, जन्माग्र से द्वादशान्त तक अथवा आचार से द्वादशान्त तक प्राण शक्ति की गति मानी गई है। इनमें जन्माग्र और जन्म तथा मूल और गुदाधार शब्द पर्यायवाची है। नेत्रतन्त्र (7/1-5) की व्याख्या में क्षेमराज ने अंगुष्ठ, गुल्फ, जंतु, मैढ्, पायु, कन्द, नाडि (नाभि), जठर, हृदय, कूर्मनाडी, कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य, ललाट, ब्रह्मरन्ध्र और द्वादशान्त- ये सोलह आधार गिनाये हैं। इसके अनुसार जन्माग्र या जन्म मेढ् का तथा मूल या गुदाधार पायु का पर्यायवाची है। योगिनीहृदय के टीकाकार अमृतानन्द (पृ. 59) और भास्कर राय ने कन्द को सुषुम्ना नाडी का मूल स्थान और उसमें रहने वाली कुण्डलिनी शक्ति का पर्यायवाची माना है। ब्रह्मरन्ध्र के ऊपर यहाँ शक्ति और व्यापिनी का स्थान माना गया है। योगिनीहृदय (1/25-34) में अकुल, विष, वहृि, शक्ति, नाभि, अनाहत (हृदय) विशुद्धि, लम्बिकाग्र, भुमध्य (आज्ञा) के ऊपर ललाट में क्रमशः एक दूसरे के ऊपर बिन्दु, अर्धचन्द्र, रोधिनी, नाद, नादान्त, शक्ति, व्यापिनी, समना और उन्मना की स्थिति मानी गई है। विज्ञान भैरव के टीकाकार शिवोपाध्याय ने 42वें श्लोक की व्याख्या में सोलह भूमियों का उल्लेख किया है। ऊपर गिनाये गये सोलह आधारों से इनकी कोई संगति नहीं बैठती। कुलागमसंमत सोलह आधारों का वर्णन नेत्रतन्त्र (7/1-5) की क्षेमराज कृत व्याख्या में मिलता है। नामों में भिन्नता होते हुए भी इनका क्रम योगिनीहृदय से मिलता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

आचारलिंग देखिए ‘लिंग-स्थल’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

आचार्य उत्कृष्‍ट गुरु।

गुरु दो प्रकार का होता है – साधक और आचार्य। उत्कृष्‍ट गुरु को आचार्य कहते हैं। पाशुपत दर्शन के नौ गणों के तत्व को सामान्यतया जानने वाला और शिष्य का संस्कार करने वाला गुरु होता है। साधक गुरु अपने गुरु से पाशुपत शास्‍त्र के तत्वों के सामान्य ज्ञान को प्राप्‍त करके पाशुपत योग का अभ्यास पूरी दिलचस्पी से करता है और उसके फलस्वरूप अपवर्ग को प्राप्‍त कर लेता है। परंतु आचार्य वह गुरू होता है जो पाशुपत दर्शन के सभी तत्वों अर्थात् लाभ, मल, उपाय आदि को ठीक तरह से और विशेष ढंग से जानने वाला हो और शिष्य को उनके तत्वों का रहस्य समझा सके। इस तरह से वह परिपूर्ण शास्‍त्र ज्ञान को अच्छी तरह जानकर पाशुपत साधना के द्‍वारा अपवर्ग को प्राप्‍त करता है। आचार्य को पर गुरु भी कहा गया है। (ग. का. टी. पृ. 3)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

आचार्याभास वस्तुत: गुरु न होने पर गुरु का आभास मात्र।

पाशुपत मत के अनुसार जो गुरु आगमों में से तत्वज्ञान को जानकार ही तृप्‍त होकर, आगे उस तत्वज्ञान का लाभ किसी को करा नहीं सकता है, उसे आचार्य नहीं, आचार्याभास कहते हैं। उसे अपर गुरु भी कहा गया है। आचार्याभास को तो शास्‍त्र का केवल पद – पदार्थ ज्ञानमात्र ही होता है, उस पर श्रद्‍धा नहीं होती है। नहीं तो यदि श्रद्‍धा हो भी तो फिर भी उसे योग साधना के द्‍वारा लाभ आदि तत्वों का साक्षात् अनुभव नहीं होता है। संक्षेप में केवल पढ़ने पढ़ाने वाला अध्यापक आचार्याभास कहलाता है। (ग. का. टी. पृ. 4)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

आज्ञाचक्र विशुद्धि चक्र के ऊपर भ्रूमध्य में हिम के सदृश श्वेत वर्ण का आज्ञाचक्र अवस्थित है। यह द्विदल पद्म है। इसको आज्ञाचक्र इसलिये कहते हैं कि यहाँ गुरु की आज्ञा शिष्य में पूर्ण रूप से संक्रांत हो जाती है। इस द्विदल पद्म के दलों पर अर्धचन्द्र और बिन्दु से अलंकृत हकार और सकार वर्ण अंकित हैं। इनका भी वर्ण श्वेत ही है। इस पद्म की कर्णिका में चन्द्रिका के समान धवल वर्ण की छः मुँह वाली हाकिनी शक्ति विराजमान है। यह अपने छः हाथों में विद्या, वरमुद्रा, अभय मुद्रा, कपाल, डमरु और जपमाला को धारण किये हुए हैं। इस कमल की कर्णिका में मन का निवास है और यहीं त्रिकोण स्थान में इतर लिंग की भी स्थिति है। यहीं प्रणव का ध्यान किया जाता है। अकार, उकार, मकार, नाद और बिंदुमय- यह प्रणव अन्तरात्मा का प्रतिबिम्ब माना गया है। इसका वर्ण दीपशिखा के समान भास्वर है। इसमें चित्त के लीन हो जाने पर योगी बाह्य विषयों से संबंध का विच्छेद करा देने वाली योनिमुद्रा अथवा खेचरी मुद्रा में प्रतिष्ठित हो जाता है और वह प्रणव की अन्य कलाओं के साक्षात्कार में भी समर्थ हो जाता है। सहस्रार स्थित, चन्द्र और सूर्य मंडल में जैसे परम शिव का निवास है, उसी तरह इस भ्रूमध्य स्थित चक्र में भी भगवान् शिव अपने तृतीय ज्ञाननेत्र का उन्मीलन कर पूर्ण वैभव के साथ निवास करते हैं। इस आज्ञाचक्र में प्राणों को समारोपित कर योगी वेदान्तवैद्य परम पद में प्रवेश पा सकता है। इसके ऊपर महानाद की स्थिति है। गुरु चरणों की कृपा होने पर ही योगी इसका साक्षात्कार कर सकता है। इस महानाद में आकार वायु लीन हो जाती है। यह महानाद शिव शक्तिमय है। (श्री तत्त्वचिन्तामणि, षट्चक्रनिरुपण, 6)।

दर्शन : शाक्त दर्शन

आणव (वी) साधना देखिए आणव उपाय।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आणव उपाय उच्चार, करण, ध्यान, वर्ण और स्थान कल्पना का अभ्यास आणव उपाय है। इनमें से किसी भी एक उपाय के अभ्यास से प्राप्त होने वाली एकाग्रता को आणव समावेश दशा कहते हैं। अणु अर्थात् परिमित प्रमाता परिमित स्वरूप वाले बुद्धि, प्राण, देह, देश प्रभृति को उपाय के रूप में स्वीकार करता है, इसलिये इसको आणव उपाय कहा जाता है।

  इनमें से ध्यान बुद्धि का व्यापार है। प्राण स्थूल और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार का होता है। स्थूल प्राण का व्यापार उच्चार है। यह प्राण आदि की वृत्तियों के रूप में प्रकट होता है। सूक्ष्म प्राण को वर्ण शब्द से कहा जाता है। शरीर के अंगों को किसी विशेष प्रकार की स्थिति में रखने का नाम करण है। घट-स्थापन, मण्डल-निर्माण, मंदिर, मूर्ति, चित्र आदि की रचना जैसी विधियों का समावेश स्थान-कल्पना में होता है। अपि च, सगुण स्वरूप में चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं। प्राण, अपान आदि वायु की श्वास-प्रश्वास, क्षुत् (छींक) प्रभृति वृत्तियाँ उच्चार कहलाती हैं। स्वच्छन्द तन्त्र की टीका (पृ. 7, पृ. 306) में क्षेमराज ने किसी मुद्रा (करण) या बन्ध में बैठकर मन्त्र के जप करने को उच्चार बताया है। प्राण के उच्चार के साथ स्वाभाविक रूप से उच्चरित होने वाले सकार और हकार वर्ण कहे जाते हैं। इस स्थिति को शास्त्रों में अजपा जप कहा गया है। ये सभी वर्णों और मंत्रों का बोध कराते हैं। अथवा वर्ण शब्द काले-पीले आदि रंगों का भी बोधक है। विज्ञानभैरव की धारणा संख्या 63 में कृष्ण वर्ण की भावना वर्णित है। तिमिर भावना (60-62 धारणाएँ) का भी इसी में समावेश किया जा सकता है। बौद्ध योगशास्त्र में कसिण भावना के अन्तर्गत नील, पीत प्रभृति कसिणों का उल्लेख मिलता है (द्रष्टव्य – बौद्ध धर्म दर्शन, पृ. 76)।
  त्रिशिरोभैरव के आधार पर तन्त्रालोक (भास्करी 3, आ. 5, पृ. 438-443) में करण के सात भेद बताये गये हैं। इनके नाम हैं – ग्राह्य, ग्राहक, संवित्ति, संनिवेश, व्याप्ति, आक्षेप और त्याग। तन्त्रालोक के 16वें आह्निक में ग्राह्य और ग्राहक का, 11वें आह्निक में संवित्ति का, 15वें आह्निक में व्याप्ति का, 29वें आह्निक में त्याग और आक्षेप का और 32 वें आह्निक में संनिवेश (मुद्रा) का विस्तार से वर्णन किया गया है। जिज्ञासु जनों को इनका वहीं अवलोकन करना चाहिये।
  प्राण शक्ति, अर्थात् हृदय के स्पन्दनात्मक सामान्य व्यापार में, शरीर में विद्यमान नाडियों तथा चक्रों में तथा बाहर लिंग, चत्वर, प्रतिमा प्रभृति में स्थान कल्पना की विधि सम्पन्न की जाती है। सामान्य स्पन्द तत्त्व के उन्मेष के बाद ही उसमें षडध्व का स्फुरण होता है। कार्यकारण स्थल में क्रम से और कुहन प्रयोग (इन्द्रजाल से निर्मित पदार्थ) आदि में अक्रम से सभी पदार्थों की कलना करने वाला परमेश्वर का काल नामक स्वरूप सबसे पहले भासित होता है। भगवान् का यह स्वरूप अभेदावस्था में काली शक्ति और भेदावस्था में प्राण शक्ति के नाम से जाना जाता है। संवित्स्वरूपा काली शक्ति में अपनी इच्छा से क्रम और अक्रम रूप से नाना रूपों में भासित होने के लिए क्रिया शक्ति का उन्मेष होता है। इस क्रिया शक्ति का प्रथम उन्मेष प्राण व्यापार है। ‘प्राक् संवित् प्राणे परिणता’ कल्लट के इस वचन में यही बात प्रतिपादित है। यह प्राण शक्ति अपने प्राण, अपान आदि पाँच रूपों में जीव को आप्यायित किये रहती है। इसी के रहने पर यह चेतन कहलाता है। इस क्रिया शक्ति के पूर्व भाग में कालाध्वा और उत्तर भाग में देशाध्वा की स्थिति है। कालाध्वा में पर, शूक्ष्म और स्थूल रूप वर्ण, मन्त्र और पद की तथा देशाध्वा में कला, तत्त्व और भुवन की स्थिति है। शब्द और अर्थ स्वरूप शिव और शक्ति में व्याप्य व्यापक भाव से पर, सूक्ष्म और स्थूल रूप से विद्यमान वर्ण, पद, मन्त्र और कला, तत्तव, भुवन-षडध्व के नाम से अभिहित होते हैं। यह सारा जगत् षडध्वमय है। इसका उन्मेष क्रिया शक्ति से होता है। सारे षडध्वात्मक जगत् में बाहर-भीतर सब जगह प्राण शक्ति का स्पन्दन सतत प्रवृत है, तो भी हृदय प्रभृति स्थानों में ही इसके स्फुरण की अनुभूति होती है। प्राण शक्ति के स्फुरण में ईश्वर की शक्ति, जीव की शक्ति और उसका प्रयत्न इन तीनों की उपयोगिता है। हृदय प्रभृति स्थानों में स्पन्दमान इस प्राण शक्ति में चित्त को विलीन कर देना भी स्थान-कल्पना नामक आणव उपाय का अंग है। इसी तरह से शरीर के भीतर विद्यमान नाडी, चक्र प्रभृति स्थानों में और बाहर लिंग, चत्वर, प्रतिमा आदि में चित्त को नियोजित करना भी स्थान-कल्पना के अंतर्गत है। वस्तुतः बुद्धि, प्राण, देह, देश प्रभृति की कोई पारमार्थिक सत्ता नहीं है। ये सब विकल्पात्मक हैं। तो भी इनके सहारे परमार्थ स्वरूप तक पहुँचा जा सकता है (तन्त्रालोक 5/7 विवेक 5/10)। इन विकल्पात्मक स्थूल उपायों को ही आणव उपाय कहा जाता है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

आणव उपाय आणव योग। शैवी साधना के त्रिक आचार का वह उपाय जिसमें साधक अपने चित्त को प्रमेय पदार्थो पर स्थिर करके भावना के द्वारा उन सभी पदार्थो को परिपूर्ण शिवरूप में ही देखने का सतत अभ्यास करता है। (भास्करी वि. तं., 2-21)। इस उपाय में ज्ञान की अपेक्षा कल्पनात्मक क्रिया की प्रधानता होने के कारण इसे क्रियायोग या क्रियोपाय भी कहा जाता है तथा साधन में अपने से भिन्न प्रमेय पदार्थों को आलंबन बनाने के कारण इसे भेदोपाय भी कहा जाता है। जब साधक को अपने शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण संविद्रूपता पर स्थिति नहीं हो पाती है तथा शुद्ध विकल्पों द्वारा चित्त का निर्मलीकरण भी नहीं हो पाता है तब उसे अपने शिवभाव को पहचानने के लिए आणव योग की दीक्षा दी जाती है। (तन्त्र सार , पृ. 35)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आणव मल स्वरूप संकोचक अज्ञान। अपने शुद्ध संवित्स्वरूपता के परिपूर्ण प्रकाशात्मक स्वरूप को एवं उसके विमर्शात्मक स्वातंत्र्य को संकुचित रूप में प्रकट करने वाले अल्प ज्ञान को आणव मल कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है – 1. प्रथम प्रकार का आणव मल शुद्ध प्रमाता के परिपूर्ण प्रकाशात्मक स्वरूप को संकुचित कर देता है। इस संकोच से प्रमाता अपनी असीम प्रकाशात्मकता को भूलकर संकुचित् संवित् को अर्थात् शून्य को, प्राण को या बुद्धि को ही अपने आप समझने लगता है। ये सभी पदार्थ जड़ होते हैं तो प्रमाता जड़ात्मा जैसा बन जाता है। आणव मल का यह प्रकार प्रलयाकलों में तथा सकलों में हुआ करता है। 2. दूसरे प्रकार के आणव मल के कारण शुद्ध प्रमाता के विमर्शात्मक स्वातंत्र्य में संकोच आ जाता है जिससे वह अपने आपको क्रिया के ऐश्वर्य से विहीन प्रकाशमात्र ही समझने लगता है। इस मल से प्रमाता का क्रिया स्वातंत्र्य संकोच को प्राप्त कर जाता है। आणव मल का यह प्रकार विज्ञानाकलों में हुआ करता है। (ई, प्र., 3-2-4,5)। (आणव मल के ये दोनों प्रकार जब अधिक स्थूलता को प्राप्त कर जाते हैं तो इन्हें ही क्रम से माया मल तथा कार्ममल कहा जा सकता है। (देखिए माया मल तथा कार्मकल)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आणव योग देखिए आणव उपाय।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आणव समावेश शैवी साधना के आणव उपाय के सतत अभ्यास से होने वाला अपने भीतर शिवभाव का समावेश। आणव उपाय में अपने साधक स्वरूप से भिन्न आभ्यंतर या बाह्य प्रमेय पदार्थो को साधना का आलम्बन बनाया जाता है। इसमें उच्चार, करण आदि भिन्न-भिन्न धारणाओं द्वारा प्रत्येक प्रमेय पदार्थ को इन धारणाओं में ठहराकर भावना के द्वारा उन्हें अपनी स्वभावभूत शिवता से अभिन्न रूप में देखना है। इसी प्रकार प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय को भी संघट्टात्मक रूप में ही देखना होता है। इस प्रकार के सतत अभ्यास से जब भिन्न भिन्न पदार्थो में, परिपूर्ण परमेश्वर में तथा अपनी साधक स्वरूपता में कोई भी भेद शेष नहीं रहता है तो उस अवस्था में जिस प्रकार का समावेश होता है उसे आणव समावेश कहते हैं। (मा.वि.तं., 2-21)। इस स्थिति के दृढ़तर अभ्यास से साधक शाक्त उपाय के योग्य बन जाता है। देखिए शाक्त उपाय, शाक्त समावेश।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आणवमल देखिए ‘मल’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

आंतर द्वादशांत देखिए द्वादशांत (आंतर)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आतिवाहिक शरीर आतिवाहिक शरीर यद्यपि सूक्ष्म है, (भौतिक शरीर की तुलना में) पर सूक्ष्मशरीर से यह भिन्न है। मृत्यु के उपरांत कर्मोचित लोकों में जाने के लिए जिस शरीर की आवश्यकता तत्काल होती है, वह शरीर आतिवाहिक कहलाता है। इस शरीर की सहायता से मृत जीव का सूक्ष्मशरीर वाहित होता है (अन्य लोक में जाने के लिए) – अतः यह आतिवाहिक कहलाता है। यह शरीर तन्मात्रनिर्मित नहीं है – यह पंचभूतों से निर्मित भौतिक शरीर ही है। भौतिक होने पर भी यह चर्मचक्षु द्वारा अग्राह्य है – भौतिक के अन्तर्गत सूक्ष्म है। शास्त्रकारों ने भोगदेह से पृथक् कर आतिवाहिक शरीर का उल्लेख किया है। कहीं-कहीं आतिवाहिक शरीर को अंगुष्ठ पर्वमात्र कहा गया है। कोई-कोई इसको वायवीय मानते हैं। कर्मोचित्त लोक की प्राप्ति के साथ-साथ यह आतिवाहिक शरीर स्वतः परित्यक्त हो जाता है – इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि यह शरीर मरणोपरान्त कुछ काल पर्यन्त ही सूक्ष्मशरीरधारी जीव के आधारभूत शरीर के रूप में रहता है (द्र. सूक्ष्मशरीर)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आत्म कला त्रिकला कल्पना में पृथ्वी तत्त्व से लेकर माया तत्त्व तक तथा उनमें रहने वाले सकल से लेकर विज्ञानाकल पर्यांत सभी प्राणियों, भावों, भुवनों को व्याप्त करके ठहरने वाली कला को आत्म कला कहते हैं। आणवोपाय-कलाध्वा धारणा में आत्मकला द्वारा व्याप्त सभी कुछ को क्रम से अपना ही रूप समझते हुए भावना द्वारा व्याप्त करना होता है। इससे साधक को अपने शिवभाव का आणव समावेश (देखिए) हो जाता है। (तन्त्र सार , पृ. 111)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आत्म तत्त्व त्रितत्त्व कल्पना में पृथ्वी तत्त्व से लेकर माया तत्त्व पर्यंत समस्त तत्त्व वर्ग को आत्म तत्त्व कहा जाता है। इस तत्त्व वर्ग में आने वाले सभी तत्त्व, भाव तथा भुवन तथा सकल से लेकर विज्ञानकल पर्यंत सारा प्राणिवर्ग आत्म तत्त्व में गिना जाता है। आणवोपाय की तत्त्वाध्वा धारणा में आत्म तत्त्व में आने वाले सभी तत्त्वों पर क्रम से धारणा करते समय उन्हें अपना ही रूप समझते हुए अपने में शिवभाव का समावेश प्राप्त किया जाता है। (भास्करीवि.तं., 2-47; तं. आत्मविलास, खं. 1, पृ. 297)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आत्मगृहीति आत्मा का अर्थात् ब्रह्म का ग्रहण आत्मगृहीति है। “तस्यैष एव शारीर आत्मा यः पूर्वस्य” यहाँ आनंदमय की आत्मा के रूप में ब्रह्म ही गृहीत किया गया है, जीव नहीं। अर्थात् जैसे अन्नमयादिकी आत्मा आनंदमय है, वैसे आनंदमय की भी आत्मा आनंदमय ही है और यह आंनदमय सर्वत्र ब्रह्म ही विवक्षित है (अ.भा.प. 1028)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

आत्मभावभावना आत्मभाव (= आत्मा का शरीरादिसंबंध) के विषय में जो भावना (=जिज्ञासा) होती है, वह आत्मभावभावना कहलाती है। इस भावना का विवरण 2/39 व्यासभाष्य में दिया गया है। मैं अतीत में कैसा तथा किस रूप से था, भविष्य में कैसा तथा किस रूप में रहूँगा, शरीर रूप जड़ वस्तु की अतीत -अनागत अवस्थाएँ किस प्रकार की होती हैं, उन अवस्थाओं की विभिन्नताओं का हेतु क्या है – इस प्रकार शरीरी आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं के विषय में एवं ज्ञेय शरीर रूप वस्तु के विषय में जो जिज्ञासा होती है, वह आत्मभावभावना है। यह भावना बुद्धि और पुरुष के भेद को जानने वाले व्यक्ति में निवृत हो जाती है – यह योगसूत्र 4/25 में कहा गया है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आत्ममाया आत्मा पद से भगवान् का ग्रहण होने से भगवान की माया आत्ममाया है। माया भगवान् का स्वरूपभूत एवं उनकी चिच्छक्तिरूप है। यह माया सर्वभवन सामर्थ्य रूपा है, जिससे संपूर्ण जगत का उद्भव, स्थिति और लय होता है (भा.सु. 10/2/30)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

आत्मविलास शुद्ध असीम एवं परिपूर्ण संवित् के विमर्शात्मक स्वरूप की लीलामयी सतत क्रीड़ा। परमेश्वर की परमेश्वरता। विलास ही के कारण समस्त प्रपंच का अंतःविमर्शन और बहिःविमर्शन होता है। यही परमेश्वर की शक्तिस्वरूपता है। विश्वोत्तीर्ण एवं विश्वमय – इन दोनों रूपों में अपने ही विलास से अपने आप को चमकाता हुआ भी वह इसी विलास के कारण सदैव अपने परम अद्वैत रूप में ही स्थित रहता है, उससे ज़रा सा भी च्युत नहीं होता है। यही उसका आत्म विलास है। (आ.वि., 2-1, 2, 23)। यह विलास ही उसकी परमेश्वरता को जतलाता है। यदि उसमें यह विलास नहीं होता तो वह शून्यप्राय जड़ तत्त्व की स्थिति पर ही ठहरा रहता, चेतनोचित व्यवहारों का आधार तथा प्रवर्तक बनता ही नहीं। (तं.आ., 3-101)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आत्मव्याप्ति ज्ञान और क्रिया के सामरस्य रूप अपनी शुद्ध बोधात्मक आत्मस्वरूपता में स्थित होना। इस अवस्था में स्थित होने पर जीव लगभग सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है तथा शुद्ध विज्ञान केवल की दशा में पहुँच जाता है। इसे परा पर अवस्था भी कहा गया है, क्योंकि इस अवस्था में पहुँचने पर साधक माया के प्रभाव से मुक्त हो जाता है परंतु अभी शिवरूपता को प्राप्त नहीं हुआ होता है। (स्वच्छन्द तंत्र, 4-388 से 390, 434)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आत्मा देखिए चैतन्य।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आदर्श स्वार्थसंयम से उत्पन्न सिद्धियों में से एक (योगसूत्र 3/36)। इस सिद्धि से दिव्यरूप की उपलब्धि होती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आदिपिण्ड देखिए ‘पिण्ड’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

आदिशक्‍ति देखिए ‘शक्‍ति’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

आधार हठयोगादि के ग्रन्थों में कहा गया है कि योगी के लिए ‘षोडश आधार’ का ज्ञान आवश्यक है। कई ग्रन्थों में इन आधारों (धारणा-देश अर्थात् मन को एकाग्र करने के लिए निर्धारित स्थान) के नाम इस प्रकार हैं – 1. अंगुष्ठ, 2. गुल्फ (=पैर का टखना) 3. जानु, 4. ऊरु, 5. सीवनी (लिंगमूल से पायुपर्यन्त स्थान), 6. लिंग, 7. नाभि, 8. हृदय, 9. ग्रीवा, 10. कण्ठ, 11. लम्बिका (गले का कौआ), 12. नासा, 13. भूमध्य, 14. ललाट, 15. मूर्धा, 16. ब्रहमरन्ध्र। इस आधारों के नामों के विषय में मतभेद भी हैं। जैसे, नेत्र, नासा के अतिरिक्त नासामूल, गुद, दंत या ऊर्ध्वदन्त की गणना कहीं-कहीं मिलती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आधिकारिक फल ध्रुव आदि के समान जिन्हें ब्रह्मादि लोक का अधिकार प्राप्त हो, वे आधिकारिक कहे जाते हैं तथा उन्हें प्राप्त होने वाला फल आधिकारिक फल है। भगवान् अपने मर्यादा पुष्टि भक्त को आधिकारिक फल और अधिकार भी प्रदान नहीं करते हैं, क्योंकि अधिकार और आधिकारिक फल दोनों ही पतनशील हैं। अर्थात् इसकी अवधि पूरी होने के अनन्तर पुनः इस लोक में पतन निश्चित है (अ.भा.पृ. 1233)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

आधिकारिक रूप भगवान् द्वारा देशकाल भेद से अनेक रूप धारण कर अनेक प्रकार की लीलायें की जाती हैं। उनमें जिस-जिस लीला में जो भक्त अधिकृत होते हैं, उनके भी उतने ही रूप होते हैं, जितने भगवान के। भगवान द्वारा प्रदत्त भक्त के वे रूप आधिकारिक रूप हैं (अ.भा.पृ. 1424)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

आनंद (परमेश्वर का लक्षण) परमशिव के स्वात्म विश्रांति रूप विमर्शात्मक चमत्कार को आनंद कहा जाता है। (ई.प्र.वि., 2, पृ. 257)। चित् परमेश्वर का स्वरूप है और आनंद उसका स्वभाव है। इस स्वभाव ही के कारण परमेश्वर सृष्टि-संहारमयी जगत् लीला का अभिनय सदा करता रहता है। यही उसकी परमेश्वरता की बहिराभिव्यक्ति का एकमात्र मूल कारण है। आनंद की लहरें ही इच्छा के रूप को धारण करती हैं। पारमेश्वरी इच्छा ज्ञानमयी और क्रियामयी स्थितियों में अभिव्यक्त होती हुई जगत् सृष्टि करती है। इसीलिए परमेश्वर को ‘निर्वृतचिद्विभुः’ कहा गया है। (शि.दृ., 1-2)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आनंद (योग सिद्धि का लक्षण) आणव उपाय के उच्चार योग में जिन छः आनंद भूमिकाओं की अनुभूति होती है उनमें से प्रत्येक भूमिका में प्रवेश के समय जो पाँच लक्षण प्रकट होते हैं उनमें से पहला लक्षण ही आनंद की अनुभूति होता है। यह आनंद की अनुभूति किसी भी प्राण धारणा पर पूर्ण विश्रांति से पूर्व ज्यों ही अभ्यास की पूर्णता का स्पर्श किया जा रहा होता है, तब होती है। (तं.सा., पृ. 39, 40; तन्त्रालोक, 5-101)। अन्य आणव धारणाओं में भी तथा शाक्तोपाय में भी आनंद आदि पाँच लक्षणों का उदय साधक में कभी कभी हो जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आनंद भूमिका (उच्चार योग में) आणव उपाय के उच्चार योग में भिन्न भिन्न प्राणवृत्तियों पर विश्रांति प्राप्त करने पर साधक जिन जिन चमत्कारों का अनुभव करता रहता है उन्हें आनंद भूमिका कहा जाता है। प्रत्येक आनंद भूमिका का अपना नाम है। प्रमातृ तत्त्व, विषय शून्यता, प्राण तथा अपान, समान, उदान और व्यान – इन छः पर भावना द्वारा विश्रांति के अभ्यास के क्रमशः निजानंद, निरानंद, परानंद, ब्रह्मानंद, महानंद और चिदानंद की अनुभूति होती है। अंत में आनंद की इन सभी भूमिकाओं की परिणति परिपूर्ण परमेश्वरात्मक निज स्वरूप पर विश्रांति के परमार्थ रूप जगदानंद में हो जाती है। उस आनंद की कोई भी सीमा कहीं से भी नहीं है। (तन्त्र सार , पृ. 38 से 40)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आनंद योग देखिए अनुपाय।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आनंद शक्ति निर्वृति शक्ति। परमशिव की पाँच प्रमुख शक्तियों में से दूसरी शक्ति। यह शक्ति उसके परिपूर्ण एवं अपरिमित स्वातंत्र्य के विलास का प्रथम स्पंदन है। यह परमेश्वर का नैसर्गिक स्वभाव है। इसी शक्ति के कारण परमशिव सतत रूप से आनंदघन बना रहता है। समस्त सृष्टि का मूल ही आनंद है। इस शक्ति की अभिव्यक्ति शिव तत्त्व में मानी गई है। (तं.सा., पृ.6; शिव दृष्टिवृ.,पृ. 23)। परंतु साधना के क्रम में शक्ति तत्त्व में आनंद शक्ति की अभिव्यक्ति मानी गई है। (पटल सा., 14)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आनंद-उपाय देखिए अनुपाय।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आनंदभक्‍ति देखिए ‘भक्‍ति’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

आनन्द आनन्द – सुख है जो प्रीति शब्द से भी अभिहित होता है (सांख्यका. 12)। इसी दृष्टि से योगसूत्र में 1/17 आनन्द को भाष्यकार ने ह्लाद कहा है। यह आनन्द सत्त्वबहुल भाव है – दुःखाभावरूप नहीं है। त्रिगुण से संबद्ध होने के कारण आनन्द चित्स्वरूप अपरिणामी पुरुष का न स्वरूप हो सकता है और न धर्म या लक्षण। सांख्यसूत्र (5/66) में स्पष्टतया कहा गया है कि एक ही वस्तु में आनन्द और चिद्-रूपत्व साथ-साथ नहीं रह सकते। सांख्यसूत्र का यह भी कहना है कि आनन्द की अभिव्यक्ति मुक्ति नहीं है (5/74)। अंतिम योगसूत्र की व्याख्या में भोजराज ने विस्तार के साथ यह दिखाया है कि चिद्रूप आत्मा आनन्दमय (प्रचुर-आनन्दस्वभाव) नहीं हो सकता।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आनन्दभैरव-आनन्दभैरवी रुद्रयामल तन्त्र का उपदेश आनंदभैरव ने आनन्दभैरवी को किया है। इस तरह से आनन्दभैरव शिव के अवतार और आनन्दभैरवी शक्ति के अवतार के रूप में तन्त्रशास्त्र में मान्य हैं। शक्तिसंगमतन्त्र में अनेक स्थानों पर विभिन्न विधि-विधानों के संबंध में आनंद भैरव के मत का उल्लेख मिलता है। योगिनी हृदय (3/105-106) में अर्ध्य के प्रकरण में नवात्म मन्त्र से अमृतेशी (आनन्द भैरवी) के साथ आनन्द भैरव की पूजा करने की विधि बताई गई है। दीपिका (पृ. 257) और सेतुबन्ध (पृ. 260) टीका में नवात्म मन्त्र का उद्धार भी प्रदर्शित है। इस नवात्म मन्त्र का उच्चारण करने के उपरान्त ‘आनन्दभैरवाय वौषट्’ वह कर आनन्दभैरव और अमृतेशी (आनन्दभैरवी) को अर्ध्यप्रदान द्वारा तृप्त करना चाहिये। इनका ध्यान प्राणतोषिणी तन्त्र (पृ. 989) में वर्णित है।

  अभिनवगुप्तकृत देहस्य देवताचक्रस्तोत्र (श्लो. 4,5) में हृदयकमल में प्रतिष्ठित चैतन्य को आनन्दभैरव और उसकी अहंविमर्शमयी शक्ति को आनन्दभैरवी कहा गया है।
दर्शन : शाक्त दर्शन

आप्यायन प्राणायाम के प्रसंग में सलिल बीज के उच्चारण के साथ प्राणायाम के अभ्यास से साधक शरीर को आप्यापित करने वाली आप्यायन विधि का वर्णन किया गया है। शिष्य को मन्त्र दीक्षा देते समय गुरु मन्त्र को दशविध संस्कार से संस्कृत करता है। ये दशविध संस्कार शारदातिलक (2/112-113) में इस प्रकार वर्णित है – जनन, जीवन, ताडन, बोधन, अभिषेक, विमलीकरण, आप्यायन, तर्पण, दीपन और गोपन। इन शब्दों की व्याख्या भी नहीं (3/114-122) की गई है। तदनुसार ‘ऊँ हौं’ इस ज्योति मन्त्र के उच्चारण के साथ मन्त्र के प्रत्येक अक्षर को कुशोदक से प्रौक्षित करने की क्रिया को आप्यायन कहा गया है। नेत्रतन्त्र (18/6-8) में मन्त्रों के नवविध संस्कार ही वर्णित हैं। बांकार से मन्त्र के प्रत्येक वर्ण को संपुटित करने की क्रिया को वहाँ आप्यायन बताया गया है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

आबुद्ध देखिए अप्रबुद्ध।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आभास (आभासन) परमेश्वर की पराशक्ति एक ही है, परंतु उसके फल अनंत हैं। इन फलों की अपेक्षा से उसको अनंत नाम दिए जाते हैं। परमेश्वर अपने ही शुद्ध प्रकाशमय दर्पण में अपनी ही अनंत शक्तियों के प्रतिबिंबों को प्रकट करता रहता है। वे ही प्रतिबिम्ब समस्त विश्व के रूप में प्रकट होते रहते हैं। पारमेश्वरी पराशक्ति के इन विविध प्रतिबिम्बों की अभिव्यक्ति को आभास कहते हैं। इस तरह से छत्तीसों तत्त्व, सभी प्रमातृवर्ग, सारे भुवन, समस्त कलाएँ और सभी अंड तथा उनमें प्रकट होने वाले अनंत भाव, अनंत प्रमाता, अनंत प्रमाण, अनंत प्रमेय आदि सब के सब प्रतिबिंबात्मक आभास हैं। एक परमेश्वर ही स्वयं इस आभासमय प्रपंच से उत्तीर्ण है। शेष सब कुछ उसके प्रकाश में प्रतिबिम्बवत् प्रकट होता है। अतः सारा विश्व शक्ति का आभास है। (श्री विंशतिका शास्त्र, 7 से 10; ईश्वर प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी, खं. 1, पृ. 1187 से 191)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आभासवाद शैव दर्शन समस्त प्रपंच को, यहाँ तक कि सभी तत्त्वेश्वरों को और ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर, सदाशिव और अनाश्रित शिव को भी पारमेश्वरी पराशक्ति के प्रतिबिम्बात्मक आभास (देखिए) ही मानता है। अतः इस सारे प्रपंच की आभासमयी सत्त्ता ही प्रकट होती है। स्वयं प्रकाशात्मक परमेश्वर ही अपनी ही लीला से समस्त प्रपंच के रूप में आभासमान होता रहता है। इस प्रकार यह सिद्धांत आभासवाद कहलाता है। शैवदर्शन के आभासवाद में इस प्रपंच के दो स्वरूप माने गए हैं। एक है शक्तिस्वरूप, जिस स्वरूप में यह परमेश्वर के भीतर उस तरह से सदा विद्यामान रहता है जिस तरह से बीज में पौधा रहता है। दूसरा है इसका आभासमान प्रतिबिम्बात्मक स्वरूप जिसका समय समय पर उदय और लय होता है। इस प्रकार प्रपंच सर्वथा मिथ्या भी नहीं है। (ईश्वर प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी, खं. 1, पृ. 124; वही. खं 2, पृ. 161)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आम्नाय विभाग तान्त्रिक वाङ्मय का स्त्रोतोविभाग और आम्नाय विभाग प्रसिद्ध है। इनमें पहला विभाग शैव तन्त्रों के लिये और दूसरा विभाग शाक्त तन्त्रों के लिये मान्य है। कुलार्णवतन्त्र (3/7) में बताया गया है कि शिव के तत्पुरुष, सद्योजात, अघोर, वामदेव और ईशान नामक पाँच मुरवों से क्रमशः पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर और ऊर्ध्व आम्नायों का, तदन्तर्गत तन्त्रों का आविर्भाव हुआ। यह आम्नाय विभाग परशुराम कल्पसूत्र (1/2) में भी प्रदर्शित है, किन्तु उसका क्रम कुछ भिन्न है। नित्याषोडशिकार्णव प्रभृति ग्रन्थों में चार ही आम्नाय स्वीकृत है। प्रायः सभी टीकाकार इससे सहमत भी हैं। किन्तु भास्कर राय का कहना है कि चतुः पद ऊर्ध्वाम्नाय का भी द्योतक है। इन ग्रन्थों में आम्नाय के स्थान पर समय तथा अन्वय पद भी प्रयुक्त है। सौन्दर्य लहरी (1/10) में छः आम्नाय सूचित हैं। टीकाकार कैवल्याश्रम अनुत्तराम्नाय को छठा आम्नाय मानते हैं। नेत्रतन्त्र (16/76) और तन्त्रालोक (15/204-206) में षष्ठ आम्नाय का उल्लेख रहस्यस्त्रोतस्, ज्येष्ठ, अधोवक्त्र, पातालवक्त्र अथवा पिचुवक्त्र के नाम से हुआ है। इन षडाम्नाय तन्त्रों का विस्तार से वर्णन शक्तिसंगत तन्त्र प्रभृति ग्रन्थों में मिलता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

आयतनवासी घर में अथवा मंदिर में रहने वाला।

पाशुपत धर्म के अनुसार साधना के प्रारंभिक स्तर में समस्त धार्मिक विधियाँ आयतन अर्थात् घर में या देव मंदिर में करनी होती है, क्योंकि दोनों धार्मिक कृत्यों के लिए उपयुक्‍त स्थान होते हैं। आयतन का अर्थ देव मंदिर अथवा घर होता है। पाशुपत योगी को आरंभ में भस्म स्‍नान, अनुष्‍ठान आदि सभी धार्मिक विधियों को आयतन में करना होता है। क्योंकि पाशुपत सूत्र कौडिन्य भाष्य में कहा गया है कि यदि शूलपाणि महेश्‍वर का कोई मंदिर (पुण्य स्थान) हो तो वह धार्मिकों का उपयुक्‍त आवास होता है तथा वहाँ धार्मिक कृत्य करने से सद्‍य: सिद्‍धि होती है। ग्राम से बाहर वृक्ष मूल आदि में रहने वाला साधक भी आयतनवासी कहलाता है। जिस पवित्र और शुद्‍ध स्थल में शिवोपासना सफलता से की जा सके वही आयतन माना गया है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 13)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

आयाम शब्द आत्मा के व्यापकत्व का बोध कराने वाला श्रुति वाक्य आयाम शब्द है। जैसे – “आकाशवत् सर्वगतश्च नित्यः, ज्यायान् दिवो ज्यायान् आकाशात् वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येक स्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्” इत्यादि श्रुतिवाक्य आत्मा के व्यापकत्व को बताने वाले हैं, अतः ये वाक्य आयाम शब्द हैं (अ.भा.पृ. 968)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

आराध्य वीरशैव धर्म के संस्थापक रेवणाराध्य, मरुलाराध्य, एकोरामाराध्य, पंडिताराध्य और विश्‍वाराध्य इन पाँच आचार्यों को ‘आराध्य’ कहते हैं। ये पाँचों कलियुग के आचार्य हैं। इन्हीं को ‘पंचाचार्य’ भी कहते हैं। (इनके संबंध में विशेष जानकारी के लिए ‘पंचाचार्य’ शब्द की परिभाषा देखिए (वी.स.सं. 1/34; सु.पं.पं.प्र.पृ.2)।)

दर्शन : वीरशैव दर्शन

आरोहण क्षुद्र जीव के रूप में प्रकट होकर संसृति के समुद्रों में स्वयं विचरण करता हुआ शिव अपनी ही अनुग्रह लीला के अभिनय द्वारा क्षुद्रतम प्राणी की अवस्था से आरोहण करता हुआ मानव शरीर को प्राप्त करता है। वहाँ पहुँच कर विशेष पारमेश्वर अनुग्रह लीला के प्रभाव से सद्गुरु से दीक्षा प्राप्त करके शिवयोग के अभ्यास के द्वारा सात प्रमातृ भूमिकाओं की सीढ़ी से क्रम से या अक्रम से ऊपर ऊपर वाली दशाओं पर पहुँचता हुआ अंततोगत्वा परिपूर्ण परमेश्वरभाव को पुनः प्राप्त करता है। इस तरह से वह मायाभूमि में से ऊपर उभर कर शुद्ध विद्या भूमि में संक्रमण करता हुआ अंत में परिपूर्ण शक्ति भूमिका पर पहुँच जाता है। इस तरह की उसकी इस ऊर्ध्वगति को आरोहण कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आर्थक्रम प्रयोजन वश स्वीकार किया गया क्रम आर्थक्रम है। जैसे “अग्निहोत्रजुहोति” का पाठ पहले होने पर भी बाद में पठित “यवागूं पचति”। इस वाक्य द्वारा विहित यवागू पाक ही पूर्व में अनुष्ठित होता है। क्योंकि पहले अग्निहोत्र हो चुकने पर यवागू का पाक निरर्थक हो जाएगा। इसी प्रकार “दृष्टव्यः श्रोत व्यः” इस वाक्य में भी शब्द क्रम का परित्याग कर आर्थक्रम द्वारा श्रवण का ही प्रथम अनुष्ठान होता है और दर्शन का बाद में (अ.भा.पृ. 1262)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

आलम्ब आश्रय अथवा आधार को ‘आलम्ब’ कहते हैं। जैसे पृथ्वी सभी प्राणियों का आलम्ब है, उसी प्रकार शिव ही इस विश्‍व का आलम्ब, अर्थात् आश्रय है।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

आलम्बन भावना अथवा एकाग्रता को निष्पन्न करने के लिए जिस विषय को ध्येय के रूप में लिया जाता है, वह आलम्बन कहलाता है। स्वेच्छया प्रयत्नपूर्वक वृत्ति को ध्येय में लगाना और उस भाव में स्थित करना एक प्रधान योगाभ्यास है। इस आलम्बन के बिना योगाभ्यास नहीं किया जा सकता। जिन समाधियों में आलम्बन रहता है, वे ‘सबीज’ कहलाती हैं। निर्गुण पुरुष चित्त का आलंबन नहीं होते, सगुण पुरुष तथा बुद्धि-अहंकार आदि तत्त्व प्रधान आलंबन हैं। निर्बीज समाधि अर्थशून्य अर्थात् आलम्बनहीन है – यह योगशास्त्र की मान्यता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आलय वल्लभ सम्प्रदाय के अनुसार आलय शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया गया है – एक भगवान् के अर्थ में और दूसरा भागवत रस के अर्थ में। क्योंकि भगवान् समस्त जगत के आधारभूत हैं तथा समस्त प्रपंच के लय के हेतुभूत हैं, इसलिए वे आलय हैं। एवं लय अर्थात् मोक्ष भी जिसकी तुलना में ‘आ’ अर्थात् ‘ईषत’, (अल्प) है, वह भागवत रस भी आलय है (भा.सु. 11 टी.पृ. 48)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

आलस्य योगसूत्रोक्त नौ प्रकार के अन्तरायों (योगाभ्यास के विघ्नों) में आलस्य अन्यतम है (योगसूत्र 1/30)। मोक्षतत्त्व के श्रवणादि में या योगांगों के अनुष्ठान में किसी की जो अप्रवृति होती है, वह आलस्य कहलाती है। तमोगुणजात गुरुत्व ही इस अप्रवृति का हेतु है। कफ आदि से काय में गुरुत्व (भारीपन का बोध) उत्पन्न होता है तथा तामस भाव से चित्त में गुरुत्व (स्तब्धीभाव तथा इसके अनुरूप भाव) उत्पन्न होता है। वाक् में भी गुरुत्व के कारण आलस्य का बोध होता है, यह किसी-किसी व्याख्याकार का कहना है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आलोचन शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध रूप विषयों में कर्ण, त्वक्, चक्षु, जिह्वा और नासिका रूप पाँच ज्ञानेन्द्रियों की जो वृत्ति है, वह ‘आलोचनमात्र’ है, ऐसा सांख्यकारिका (28) में कहा गया है। वाचस्पति के अनुसार यह आलोचन ‘संमुग्धवस्तुमात्रदर्शन’ है, जो नैयायिकों का निर्विकल्प ज्ञान है। आलोचनमात्र में जो मात्र शब्द है, उससे ज्ञापित होता है कि आलोचनज्ञान में सामान्य -विशेष के विवेचन का अभाव रहता है। यह विवेचन आलोचनज्ञान के बाद उत्पन्न सविकल्प ज्ञान में होता है। आलोचन अथवा निर्विकल्प प्रत्यक्ष का स्पष्टीकरण यह है – वस्तु के साथ इन्द्रिय-सन्निकर्ष होने पर जो बोध होता है, वह निर्विकल्प प्रत्यक्ष है। जलरूप वस्तु में सन्निकर्ष होने पर ‘यह जलत्वविशिष्ट जल है’ यह बोध जब नहीं होता है तब वह आलोचन कहलाता है। यह ‘अविशिष्ट प्रत्यक्ष’ है – इसमें जल और जलत्व का ज्ञान तो होता है, पर उनके सम्बन्ध का ज्ञान नहीं होता। यह विशेषणहीन ज्ञान है। विशेष्य-विशेषण-भाव का ज्ञान न होने के कारण ही यह ‘निर्विकल्प’ कहलाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आवरण योगशास्त्र में आवरण से वह पदार्थ लिया जाता है जो किसी को आवृत करता है। इस शब्द से ‘अशुद्धि’ (मलविशेष) ही प्रायेण लक्षित होती है। (द्र. व्यासभाष्य 1/47, 2/27)। यह मल मुख्यतया तामस होता है, कदाचित् राजस भी। प्रायेण यह राजस-तामस होता है। अशुद्धिरूप आवरण के अपगत हुए बिना ज्ञान या क्रिया का उत्कर्ष नहीं होता।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आवेश देखिए समावेश।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आशी [संस्कृत में आशिस् सकारान्त प्रातिपदिक है, इसका पदरूप है – आशीः, हिन्दी में आशी भी लिखा जाता है]। आशीः को ‘आत्मविषयक प्रार्थना’ कहा जाता है। ‘मेरा अभाव न हो, बल्कि मैं सदा रहूँ’, इस प्रकार का मनोभाव आशीः कहलाता है। पूर्वाचार्यो ने इस आशीः को नित्य अर्थात् ‘प्राणी के सभी जन्मों में नियतरूप से विद्यमान’ कहा है। आशीः की इस नित्यता के कारण वासना की अनादिता सिद्ध होती है। इस आशीः के आधार पर पुनर्जन्मवाद की सिद्धि होती है। यह आशीः स्वाभाविक नहीं है। जिसने मरण का अनुभव नहीं किया है, उसमें यह आत्मप्रार्थना रूप आशीः नहीं हो सकता। अतः आशीः का होना सिद्ध करता है कि प्राणी की मुत्यु पहले कभी हुई थी। इस प्रकार पुनर्जन्मवाद सिद्ध होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आश्यानभाव आश्यान ठोस को कहते हैं। जिस तरह से वाष्प पवनात्मक होता है, वही जलात्मक द्रवरूप को प्राप्त करता है, जम जाने पर वही हिमरूप ठोस भाव को ग्रहण करता है, उसी तरह से परमेश्वर पराशक्ति रूप में अतीव सूक्ष्मतर अवस्था में चमकता रहता है। शुद्ध विद्या भूमि में जरा सी स्थूलता को ग्रहण करता हुआ जब माया भूमिका में जगद्रूप बनता हुआ जड़रूपतया प्रकट होता है तो इसी को शिव का घनीभाव या ठोस बन जाना कहते हैं। तो यह दृश्यमान प्रपंच स्वयं परमेश्वर ही है जो अपनी ही लीला में अपने ही सामर्थ्य से स्वयं आश्यान भाव में अर्थात् स्थूलतम दशा में आभासमान हो रहा है। आश्यानभाव को प्राप्त होने पर ही प्रमाता या प्राणी शून्य को, प्राण को, बुद्धि को तथा स्थूल शरीर को अपना आप समझने लगता है यद्यपि वह वस्तुतः सदा शुद्ध संवित्स्वरूप ही होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


आसक्ति पुष्टिमार्ग में आसक्ति एक प्रकार का भगवद्विषयक भाव है। इसके आविर्भूत होने पर भक्त के हृदय में भगवत् संबंध से रहित सभी गृहसम्बन्धी विषय बाधक हैं – ऐसा भासित होने लगता है (प्र.र.पृ. 125)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

आसन प्राणायाम आदि योगांगों को उचित रूप से करने के लिए एक निश्चित रूप से (योगशास्त्रोक्त निगमों के अनुसार) उपवेशन करना (=बैठना) आवश्यक होता है। यह उपवेशन ही आसन है (आस् धातु का अर्थ उपवेशन है)। योगांगभूत आसन के अभ्यास के लिए कई बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है शरीर को त्रिरुन्नत रखना (वक्ष, कण्ठ और शिर को उन्नत रखना अर्थात् समरेखा में रखना) आवश्यक है। प्रयत्न -शैथिल्य एवं अनन्तसमापत्ति पूर्वक आसन का अभ्यास करना चाहिए (द्र. योगसूत्र 2/47)। पूर्वाचार्यों ने कहा है कि आसनाभ्यासी को यह सदैव देखना चाहिए कि आसन का अभ्यास अत्यन्त पीड़ाकारक न हो और वह आसन मानसिक स्थैर्य का विघातक भी न हो (द्र. योगसू. 2/46)। आसन दो प्रकार के हैं – (क) योगांग रूप आसन जो एकाग्रतादि के सहायक होते हैं तथा (ख) शारीरिक अवयवों को सबल बनाने एवं शारीरिक रोगों का नाश करने में समर्थ हठयोग शास्त्रोचित आसन। पद्मासन, सिद्धासन आदि प्रथम प्रकार के हैं। कुक्कुटासन, मयूरासन आदि द्वितीय प्रकार के हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आसीन भक्त के समक्ष भगवान् का प्रकट होना आसीन होना है। आदित्य आदि देवताओं की उपासना उन्हें भगवान का अंग समझ कर करने से ही भक्त के प्रति भगवान् को उत्कट स्नेह होना संभव है और तभी भगवान् उस उपासक के समक्ष आसीन अर्थात् प्रकट होते हैं। इसके विपरीत ज्ञानमार्गियों के प्रति भगवान् का ऐसा स्नेह नहीं होने से भगवान् उसके लिए परोक्ष ज्ञान के ही विषय होते हैं, प्रकट नहीं होते (अ.भा.पृ. 1281)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

आस्वाद स्वार्थसंयम से पुरुष ज्ञान का आविर्भाव होने से पहले जो सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं, आस्वाद उनमें से एक है (योगसूत्र 3/36)। इस सिद्धि से दिव्य रस -संविद् होती है। कुछ व्याख्याकार कहते हैं कि 3/36 सूत्रोक्त प्रातिभ, श्रावण आदि सिद्धियाँ विवेकजज्ञान के आविर्भाव से पहले आविर्भूत होती हैं। अन्यों के अनुसार ये सिद्धियाँ पुरुष -साक्षात्कार होने पर ही होती हैं। इस दृष्टि से ये सिद्धियाँ पुरुषज्ञान की सूचक हैं। विषयवती प्रवृत्ति (योगसूत्र 1/35) के प्रसंग में भी रस -संविद् का उल्लेख है (द्र. भार्ष्य)। यद्यपि दोनों ही रस दिव्य हैं, तथापि दोनों में अवान्तर भेद हैं – ऐसा प्रतीत होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

आहारलाघव पाशुपत योग में यमों का एक प्रकार।

पाशुपत धर्म में पाशुपत संन्यासी के लिए भोजन प्राप्‍त करने की विशेष विधि प्रस्तुत की गई है। पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार दूषित उपायों से अर्जित भोजन की न्यून मात्रा भी लघु नहीं होती है और उचित उपायों से गृहीत भोजन की विपुल मात्रा भी लघु ही होती है। अर्थात् भोजन के परिमाण, मात्रा लाघव के नियामक नहीं है, अपितु भोजन अर्जित करने के उपाय नियामक है। उचित उपायों पर ही लाघव निर्भर रहता है। उचित घर से उचित रीति से यदि बहुत मात्रा में भी भोजन प्राप्‍त किया हो उसमें आहार लाघव ही होता है; परंतु अनुचित रीति से अर्जित अल्पमात्रा का भोजन भी आहार लाघव नहीं होता है। अतएव भोजन प्राप्‍त करने के ढंग में आहार लाघव रहता है। (पा. सू. कौ. वा. पृ. 31)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

आनंद शक्ति की चमत्कार स्वरूपा इच्छाशक्ति को द्योतित करने वाला वर्ण। (तन्त्र सार , पृ. 6)। इच्छाशक्ति का आद्य स्पंद। विश्व सृष्टि के प्रति केवल शुद्धतम एवं सूक्ष्मतम इच्छा को ही द्योतित करने वाला वर्ण। (तं. आत्मविलास, 2, नृ. 84)। परमेश्वर की स्वभावभूत परमेश्वरता को अर्थात् उसकी सृष्टि, संहार आदि करने की सामर्थ्य और नैसर्गिक प्रवृत्ति को द्योतित करने वाला मातृका का तीसरा वर्ण। देखिए इच्छाशक्ति।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


इच्छा – उपाय / इच्छा योग देखिए शाम्भव-उपाय।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


इच्छाशक्‍ति देखिए ‘शक्‍ति’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

इच्छाशक्ति परमशिव की आनंदशक्ति का चमत्कार। परिपूर्ण स्वातंत्र्य स्वरूप आनंदशक्ति में ही जब बाहर प्रकट होने के प्रति एक सूक्ष्मतर तरंग सी उभरती है तो उसे उसका चमत्कार कहते हैं और यही चमत्कार इच्छाशक्ति कहलाता है। (तन्त्र सार , पृ.6)। परमशिव की पाँच अंतरण शक्तियों में से यह तीसरी शक्ति है। इसकी अभिव्यक्ति शक्ति तत्त्व में मानी गई है। ज्ञान तथा क्रिया शक्तियाँ इसमें अनभिव्यक्त रूप में ही रहती हैं। (शिवदृष्टिवृत्ति, पृ. 24)। साधना क्रम में सदाशिव तत्त्व में इच्छाशक्ति की अभिव्यक्ति मानी गई है, क्योंकि इच्छाशक्ति का ही बहिर्मुख विकास सदाशिव तत्त्व के रूप में प्रकट होता है। (चं. सा., 14)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


इज्यज्ञान ब्रह्म का यजनीय रूप में ज्ञान होना इज्यज्ञान है। ब्रह्म यज्ञ में ब्रह्म ही यजनीय (जिसको उद्देश्य कर यज्ञ किया जाए) देवता है और यजनीय ब्रह्म का ज्ञान उस ब्रह्म यज्ञ का पूर्ववर्ती अंग है। ऐसी स्थिति में ब्रह्म उस यज्ञ का शेषभूत अंग होगा। जिसका ज्ञान जिस यागका पूर्वांग होता है, वह उस भाग का शेष कहा जाता है, यह नियम है। अतः ब्रह्म ब्रह्मयज्ञ का शेष होगा। किन्तु सिद्धांत पक्ष में ब्रह्म किसी का भी शेष (अङ्ग) नहीं है (अ.भा.पृ. 1180)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

इडा नाडी नाडी शब्द के विवरण में बताया गया है कि शरीर स्थित अनन्त नाडियों में से तीन नाडियाँ मुख्य हैं – इडा, पिंगला और सुषुम्ना। इनमें से इडा नाडी शरीर के वाम भाग में स्थित है, जो कि सोमात्मक मानी जाती है। इडा नाडी वाम मुष्क से उठ कर धनुष की तरह तिरछे आकार में बायें गुर्दे और हंसुली में से होती हुई वाम नासिका तक गतिशील रहती है। इडा नाडी शंख और कुन्द के समान श्वेत वर्ण की है। इसमें चन्द्रमा का संचार होता है। यह ऊर्ध्वगामिनी नाडी है। ज्ञानसंकलिनी (11-12 श्लो.) में इडा नाडी को गंगा बताया गया है। सकाम कर्मों का अनुष्ठान करने वाले जीवों को यह नाडी धूम मार्ग, अर्थात् पितृयाण मार्ग से पितृलोक में ले जाती है, जो कि पुनर्जन्म का कारण बनता है। इन नाडियों का शोधन किये बिना साधक कभी भी स्वात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं हो सकता। पूरक प्राणायाम करते समय इडा नाडी से ही वायु को ऊपर उठाया जाता है। जब इडा नाडी से स्वर चलता है, तब प्रत्येक शुभ कार्य करने में सफलता मिलती है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

इतरेतर संबंध जिस गुरु शिष्य संबंध में शास्त्र तत्वों का उपदेश ऋषियों से योगियों को, उनसे आचार्यो को, उनसे व्याख्याकारों को पहुँचता हुआ आगे आगे चलता रहता है, इस संबंध को इतरेतर संबंध कहते हैं। इस संबंध में परंपराएँ प्रायः बहुत लम्बी होती है। अनेकों आचार्यो ने अपनी अपनी उन परम्पराओं को अपने ग्रंथों में लिखकर रखा है। संसार में यह इतरेतर संबंध ही प्रचुर मात्रा में चला करता है। इसमें भी मूलतः पर संबंध ही चमकता है। उसी का विस्तार पाँचों अपर संबंधों में वस्तुतः चलता रहता है। (पटलत्री. वि., टि. पृ. 12)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


इदम् अहम् ईश्वर तत्त्व में ठहरे हुए मंत्रेश्वर नामक प्राणियों का इदन्ता के अर्थात् प्रमेयता के प्रति, और अहंता के अर्थात् प्रमातृता के प्रति परस्पर भेदाभेदात्मक दृष्टिकोण। इस दृष्टिकोण को शुद्ध विद्या भी कहा जाता है। इस दृष्टिकोण में प्रकाशरूपता की अपेक्षा विमर्शरूपता की ही प्रधानता रहती है। मंत्रेश्वर प्राणी (देखिए) ‘इदम् अहम्’ अर्थात् यह समस्त प्रमेय पदार्थ मैं ही हूँ, मेरी ही संविद्रूपता का यह विस्तार है, ऐसी भेदाभेदी दृष्टि को लेकर ही चलते हैं। इस ‘इदमहम्’ विमर्श में इदम् अंश प्रधानतया अभिव्यक्त होता है और अहम् अंश उसका विशेषण जैसा प्रकट होता है। इदम् उद्देश्य बनता है और अह्म विधेय। (ई, प्र. वि., खं. 2, पृ. 196-197)। देखिए अहमिदम्।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


इंदु देखिए चंद्र।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


इन्द्रिय बाह्य एवं आन्तरविषयों से व्यवहार करने के लिए बुद्धि को जिन साधनों (कारणों) की आवश्यकता होती है, वे इन्द्रिय कहलाते हैं। विषय के द्वैविध्य के कारण इन्द्रिय भी द्विविध हैं – आन्तर इन्द्रिय (अर्थात् मन) और बाह्य इन्द्रिय जो ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रिय के नाम से द्विधा विभक्त हैं। ज्ञानेन्द्रिय का व्यापार है – विषयप्रकाशन और कर्मेन्द्रिय का व्यापार है – विषयों का स्वेच्छया चालन। (द्र. ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय शब्द)। स्वरूपतः इन्दियाँ भौतिक (भूत द्वारा निर्मित, अर्थात् शारीरिक यन्त्र रूप) नहीं हैं – ये अभौतिक हैं – अहंकार से उत्पन्न होने के कारण आहंकारिक कहलाती हैं। स्थल अंग-विशेष इन्द्रियों के अधिष्ठानमात्र हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

इन्द्रिय-प्रवृत्ति आन्तर इन्द्रिय तथा बाह्य इन्द्रियों की जो प्रवृत्ति (अपने-अपने विषयों में) होती हैं, वह क्रमशः भी होती है, युगपद् भी (द्र. सांख्यकारिका 30; सांख्यसूत्र 2/32)। तात्पर्य यह है कि ज्ञानेन्द्रिय की वृत्ति में इन्द्रिय के साथ-साथ मन, अहंकार एवं बुद्धि के भी व्यापार होते हैं। उदाहरणार्थ रूप के ज्ञान में चक्षुरूप ज्ञानेन्द्रिय के साथ उपर्युक्त तीन अंतःकरण के संकल्प, अभिमान एवं अध्यवसाय रूप व्यापार भी होते हैं। ये चार कभी-कभी युगपद् होते हैं (जैसा कि व्याघ्रदर्शनमात्र से पलायन करना) और कभी-कभी क्रमशः (जैसा कि मन्द आलोक में किसी पदार्थ को यह समझकर कि यह चोर है, अतः यह हत्या करेगा, यह समझकर पलायन करना)। ज्ञानेन्द्रिय के साथ विषय का साक्षात् योग होता है, अतः दृष्ट विषय में यह द्विविधता होती है, यह माना जाता है। टीकाकारों ने कहा है कि यह युगपद्वृति भी वस्तुतः युगपद् नहीं है, युगपद् की तरह प्रतीत होती है – वृत्तियों का क्रम लक्षित नहीं होता। स्मृति, चिन्तन आदि अन्तःकरण के व्यापार हैं; ये परोक्ष विषय में प्रवृत्त होते हैं, क्योंकि स्मृति आदि के लिए विषय को विद्यमान (इन्द्रिय संबंध मुक्त) रहना आवश्यक नहीं है। परोक्ष विषय में केवल आन्तर इन्द्रियों की वृत्ति होती है। यह वृत्ति युगपद् भी होती है, क्रमशः भी, यद्यपि यह वृत्ति पूर्वदृष्ट विषय को लेकर ही उठती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

इन्द्रियजय योगशास्त्र में इन्द्रियों (बाह्य एवं आन्तर) की जय का प्रसंग दो स्थलों में किया गया है – प्रत्याहार के प्रसंग में तथा विभूति के प्रसंग में। दोनों प्रकार की जयों का फल भिन्न है। प्रत्याहार का अभ्यास करने पर जो इन्द्रियजय होती है, वह इन्द्रिय -वश्यता (इन्द्रिय को वश में रखता) है। श्रेष्ठ इन्द्रिय वश्यता वह है जिसमें चित्त की एकाग्रता के कारण इन्द्रियाँ विषयसंपर्क से शून्य हो जाती हैं – विषयाकारा इन्द्रियवृत्ति नहीं होती है। कई प्रकार के गौण इन्द्रियजय भी हैं, जैसे शास्त्र द्वारा विहित विषयमात्र का ग्रहण करना। गौण इन्द्रियजय सदोष हैं क्योंकि इनमें प्रवृत्ति रहती है (द्र. योगसूत्र 2/54 -55)। इन्द्रियों के पाँच रूपों (ग्रहण, स्वरूप, अस्मिता, अन्वय एवं अर्थतत्त्व) पर संयम करने पर भी इन्द्रियजय होता है (द्र. योगसू. 3/47)। इस जय से मनोजवित्व, विकरणभाव एवं प्रधानजय नाम की तीन सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं (इन सिद्धियों का पारिभाषिक नाम ‘मधुप्रतीक’ है (द्र. योगसू. 3/48)। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि इस इन्द्रियजय में इन्द्रिय का अर्थ महत् तत्त्व एवं अहंकार भी है (द्र. योगवार्त्तिक 3/48)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

इन्द्रियवध सांख्य शास्त्र में जो चार प्रकार का प्रत्ययसर्ग माना गया है, उसमें अशक्ति नामक सर्ग के साथ इन्द्रियवध का सम्बन्ध है। सांख्य-कारिका (का. 46, 49) में कहा गया है कि यह अशक्ति 28 प्रकार की है जिसमें 11 इन्द्रियवध हैं, और 17 बुद्धिवध हैं। वध वह दोष है जिससे इन्द्रिय -व्यापार की अपटुता होती है। इन्द्रियाँ 11 हैं (5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ तथा 1 मन); अतः वध भी 11 प्रकार का है। पूर्वाचार्यों ने 11 वधों के नाम इस प्रकार दिखाए हैं – वाधिर्य = वधिरता (कर्ण की अशक्ति, शब्द श्रवण में), कुष्ठिता (स्पर्शग्रहण में त्वक् की अशक्ति), अन्धत्व (चक्षु की अशक्ति), जड़ता (रसना की अशक्ति), अजिघ्रता (नासिका की अशक्ति), मूकता (वाक् की अशक्ति), कोण्यता -कुणिता (पाणि की अशक्ति), पंगुत्व (पाद की अशक्ति), उदावर्त (वायु की अशक्ति), क्लैव्य (उपस्थ की अशक्ति), मन्दता या विक्षिप्तता अथवा मुग्धता (मन की अशक्ति)। वस्तुतः ये अशक्तियाँ बुद्धि की हैं; बुद्धि का अध्यवसाय इन इन्द्रियदोषों के कारण कुंठित हो जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

इष्ट देवता स्वाध्याय अर्थात् जप से इष्ट देवता का संप्रयोग होता है – ऐसा योगसूत्र (2/44) में कहा गया है। देवता के साथ योग अर्थात् देवता सत्ता की प्रत्यक्ष उपलब्धि होना ही संप्रयोग है। जिस देवता के प्रति एकाग्र होकर मन्त्र जप किया जाता है, वह इष्ट देवता है। मुख्यतया ये इष्ट देवता वे हैं, जो भूतों, तन्मात्रों एवं इन्द्रियों के अभिभावी (भूत आदि को आत्मभाव के अंगरूप से उपासना करने के कारण) कहलाते हैं। ये अभिभावी देव योगसाधक को उच्चतर साधना मार्ग की सूचना भी दे सकते हैं। इन देवों से पृथक् जो प्रजापति हिरण्यगर्भ रूप ब्रह्मांडाधीश हैं, वे भी उच्च साधकों के इष्ट देवता हो सकते हैं और उनसे भी आत्मविद्या का उपदेश प्राप्त होता है। यह उपदेश भाषाश्रित नहीं है। योगसूत्रोक्त अनादिमुक्त ईश्वर भी इष्ट देवता हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

इष्‍टलिंग देखिए ‘अष्‍टावरण’ शब्द के अंतर्गत – लिंग’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

ईशना। इ अर्थात् सूक्ष्मतम इच्छाशक्ति पर ही पूर्ण विश्रांति से अभिव्यक्त होने वाली स्फुट इच्छा का द्योतक वर्ण। (तन्त्र सार , पृ. 12)। यह वर्ण, इच्छाशक्ति में ही क्षोभ के उत्पन्न हो जाने पर विश्वसृष्टि के प्रति स्फुट परंतु सूक्ष्मतम इच्छा को द्योतित करता है। ईशना ईश्वरता का सूक्ष्मतर रूप होता है। इच्छा एक प्रकार की आध्यात्मिक उमंग है और ईशना ईश्वरता के स्फुट उपभोग के प्रति उन्मुख बनी हुई उमंग है। इ उमंग मात्र है और ई उमंग विशेष है। (तन्त्रालोक, 3-72,73)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ईश ईश्‍वर का नामांतर।

ईश्‍वर समस्त जगत् का प्रभु होने के कारण ईश कहलाता है। कार्य रूप जगत् की सृष्‍टि, स्थिति, संहार आदि और जीवों के बंधन और मोक्ष सभी ईश्‍वर के ही हाथ में होते हैं। सभी उसकी इच्छा के अनुसार हुआ करते हैं। सभी का मूल संचालक वही हे। अतः सभी पर ईशन (प्रशासन) करता हुआ वह ईश कहलाता है। (श. का. टी. पृ. 92)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

ईश प्रसाद लाभों के उपायों में एक अत्युत्‍तम उपाय।

भासर्वज्ञ के अनुसार ईश प्रसाद साधना के उपायों का एक प्रकार है। पाशुपत दर्शन में मुक्‍ति के कई साधन बताए गए हैं। परंतु पाशुपत सूत्र भाष्य में कौडिन्य ने अंत में ईश प्रसाद को ही मुक्‍ति का अंतिम व चरम साधन माना है। युक्‍त साधक का व्यक्‍तिगत प्रयत्‍न तो होना ही चाहिए, लेकिन ईश प्रसाद अधिक आवश्यक है। ईश्‍वर का शक्‍तिपात न होगा तो व्यक्‍तिगत प्रयत्‍न निष्फल होगा। यह ईश्‍वर की स्वतंत्र इच्छा मानी गई है कि वह किस जीव पर कब शक्‍तिपात करे। अंतत: ईश प्रसाद से ही दुःखों का का पूरी तरह से अंत हो जाता है और रुद्रसायुज्य की प्राप्‍ति होती है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 143)। ईश्‍वर साधक को भी अपने सर्वज्ञत्व आदि शक्‍तियों को देना चाहता है। ईश्‍वर की इस इच्छा को ही ईश प्रसाद कहते हैं। (कारणस्य स्वगुण दित्सा प्रसाद इत्युच्यते – ग. का. टी. पृ. 22)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

ईशान ईश्‍वर का नामांतर।

समस्त विधाओं का ईश्‍वर होने के कारण ईश्‍वर ईशान कहलाता है। (पा. सू. 5-42; ग. का. टी. पृ. 12)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

ईशान स्वच्छंदनाथ (देखिए) के मंत्रात्मक पाँच स्वरूपों में से सर्वोच्च तथा प्रथम स्वरूप। इसे परमेश्वर की चित्शक्ति का सशरीर रूप माना गया है। साधनाक्रम में शिव तत्त्व को ही प्रथम तत्त्व मान लेने पर यह माना गया है कि शिव ही ईशान के स्वरूप में आकर अभेदात्मक शैवशास्त्रों के उपदेशक के रूप में अवतरित होता है। (तं.आ.वि., 1, पृ. 36-39)। स्वच्छंदनाथ के पाँच मुखों में से ऊर्ध्वाभिमुख चेहरे का नाम भी ईशान है। ईशान मुख का वर्ण मिश्रित माना गया है। इसे उम्मेष शक्ति प्रधान सदाशिवी दशा माना गया है। इसी कारण इसे तुर्यदशा प्रधान भी माना है। (मा.वि.वा., 1-171 से 173, 212 से 213, 252)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ईशित्व अणिमादि अष्टसिद्धियों में ईशित्व या ईशिता षष्ठ सिद्धि है (द्र. व्यासभाष्य 3/45)। ‘ईशितृत्व’ शब्द का भी प्रयोग होता है। भूत और भौतिक (भूतनिर्मित पाँच भौतिक द्रव्य) के उत्पत्ति-नाश-अवयवसंस्थान को संकल्पानुसार नियंत्रित करने की शक्ति ईशित्व है – यह व्यासभाष्य से जाना जाता है। शरीर एवं अन्तःकरण को अपने वश में रखना भी ईशित्व के अन्तर्गत है – ऐसा व्याख्याकारों ने कहा है। भूत -भौतिक पदार्थों की शक्ति का यथेच्छ उपयोग करने की शक्ति ही ईशित्व है – ऐसा भी कहा जाता है। कोई-कोई भूत-स्रष्टत्व-मात्र को ईशित्व कहते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ईश्‍वर भगवान पशुपति का नामांतर।

वह समस्त भूतों के कार्यों का अधिष्‍ठाता होने के कारण ईश्‍वर कहलाता है। समस्त चराचर जगत् का स्वामी होने के कारण तथा उन पर उसका ईशत्व होने के कारण वह ईश्‍वर कहलाता है। इस संसार के समस्त व्यवहारों पर उसे छोड़कर और किसी का भी पूरा अधिकार नहीं है। वही कर्तुम्, अकर्तुम्, अन्यथाकर्तुम् समर्थ होने के कारण एकमात्र ईश्‍वर है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 145, ग. का. टी. पृ. 12)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

ईश्वर सांख्ययोग का मूल दृष्टिकोण यह है कि ईश्वरादि सभी पदार्थ प्रकृति-पुरुष के मिलन के फल है। इस शास्त्र के अनुसार ईश्वर का स्वरूप है – ईश्वरता-विशिष्ट अन्तःकरण या बुद्धितत्त्व या चित्त तथा उसके द्रष्टा-रूप निर्गुण पुरुष तत्त्व – इन दोनों का समष्टिभूत पदार्थ। ईश्वरता (जो ऐश्वर्य भी कहलाता है) अन्तःकरण का धर्म है, जिसके कई अवान्तर भेद हो सकते हैं, अतः ऐश (ऐश्वर्य-युक्त) चित्त भी कई प्रकार के होते हैं और इस प्रकार सांख्ययोगीय दृष्टि में ईश्वर कई प्रकार के हो सकते हैं। ऐश चित्त प्रधानतः तीन प्रकार का हो सकता है – (1) अनादि-मुक्त चित्त, (2) अणिमादिसिद्धियुक्त चित्त जो ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने में समर्थ है, तथा (3) विभिन्न प्रकार के अभिमानों से युक्त चित्त, जिनके उदाहरण हैं भूताभिमानी, तन्मात्राभिमानी देव आदि। इनमें तृतीय प्रकार को ईश्वर के रूप में प्रायः नहीं माना जाता; ये ब्रह्माण्डसृष्टिकारी प्रजापति हिरण्यगर्भ से निम्न कोटि में आते हैं और ब्रह्माण्ड के स्थूल विकास में इनके अभिमान का सहयोग रहने के कारण इनको भी ईश्वरकल्प माना जाता है। प्रथम प्रकार के सोपाधिक पुरुष का चित्त अनादिकाल से ही क्लेशादि-शून्य है, अतः उनमें सृष्टि करने का संस्कार नहीं रहता। यही कारण है कि योगसूत्रोक्त अनादिमुक्त ईश्वर (1/24 -26) सृष्टिकर्त्ता नहीं है। वह अनादिकाल से प्रचलित मोक्षविद्या का अंतिम आधार है। यही कारण है कि यह ईश्वर गुरुओं का भी गुरु माना जाता है। इस ईश्वर के द्वारा प्रकृति-पुरुष का संयोग कराए जाने की बात सर्वथा भ्रान्त है। इच्छा स्वयं संयोगज है, अतः वह संयोग का हेतु नहीं हो सकती। प्रकृति-पुरुष-संयोग किसी के द्वारा कराया नहीं जाता – वह अनादि है। अनादिमुक्त ऐश चित्तों की संख्या बताई नहीं जा सकती। उन चित्तों की मुक्तता चूंकि अनादि है अतः उनमें भेद करने का उपाय भी नहीं है। ये चित्त यद्यपि अव्यक्तिभूत नहीं हैं तथापि क्लेशादिशून्य होने के कारण मुक्त हैं, इनकी सर्वज्ञता की कोई सीमा न होने से ये ‘निरतिशय सर्वज्ञ’ हैं। सृष्टिकर्त्ता ईश्वर (प्रजापति हिरण्यगर्भ) सृष्टि करने के संस्कार से युक्त है, अतः उसमें विवेकख्याति अपनी पराकाष्ठा में नहीं होती, यद्यपि अणिमादि ऐश्वर्य (धर्म, ज्ञान, वैराग्य के साथ) का असीम -प्राय विकास उसमें है। सांख्यकारिका में इसको ‘ब्रह्मा’ कहा गया है (54)। सांख्यसूत्र (3/56 -57) में इस ईश्वर का शब्दतः उल्लेख है तथा शान्तिपर्वस्थ सांख्यप्रकरणों में इस ईश्वर के गुणकर्मों का प्रतिपादन किया गया है। सांख्य चूंकि अन्तःकरण के चार धर्मों में ऐश्वर्य (या ईश्वरता) की गणना करता है, तथा यह कहता है कि किसी सोपाधिक पुरुष के भूतादि अहंकार से तन्मात्र सृष्ट होता है जो ब्रह्माण्ड का उपादान है, अतः सांख्य सदैव ईश्वरवादी है; यह सर्वथा संभव है कि ईश्वरविषयक सांख्यीय दृष्टि अन्य ईश्वर -वादियों की दृष्टि के अनुरूप न हो। यह सत्य है कि सांख्य ईश्वर को अन्तिम तत्त्व नहीं मानता, क्योंकि ईश्वर भी प्रकृति -पुरुष में विश्लिष्ट हो जाता है। ईश्वर साम्यावस्था त्रिगुण का आश्रय भी नहीं है और न उससे त्रिगुण की सृष्टि होती है। ईश्वर का ऐशचित त्रैगुणिक है – त्रिगुणातीत नहीं है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ईश्वर ज्ञान और क्रिया में परिपूर्ण स्वातंत्र्य से युक्त भगवान। काश्मीर शैवदर्शन के अनुसार परम शिव ही जब अपने स्वातंत्र्य के विलास द्वारा अपनी पारमेश्वरी लीला के बहिर्मुखी विकास के कार्य को संपन्न करने के लिए स्वयमेव स्पष्ट भेद से युक्त अभेद दशा पर अवतरित होता है तब उसी को ईश्वर कहते हैं। (ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा, 3-1-2)। इस दर्शन के अनुसार ईश्वर ही सृष्टि, स्थिति, संहार, विधान एवं अनुग्रह – इन पाँचों कृत्यों को स्वयमेव करता है या अपने भिन्न-भिन्न अवतारों से संपन्न करवाता है। परिपूर्ण अभेद दशा में परमेश्वर की परमेश्वरता की बहिर्मुख अभिव्यक्ति हो ही नहीं सकती है। इस कारण परमेश्वर भेदाभेद की दशा में उतर कर ही अपनी परमेश्वरता को स्फुटतया निभाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ईश्वर तत्त्व अभेदात्मक शुद्ध और असीम चित् प्रकाश के भीतर भेद के स्फुट अवभास वाली भेदाभेद-दशा। वह दशा जिसमें प्रमातृ अंश अर्थात् ‘अहं’ अंश की अपेक्षा प्रमेयता का अर्थात् ‘इदंता’ का अंश अधिक स्फुट रूप में चमकने लगता है। वह दशा जिसमें शुद्ध चैतन्य रूपी प्रमाता के भीतर प्रमेयता या ज्ञेयता का स्फुट या ज्ञेयता का स्फुट आभास होने पर ‘इदम् अहम्’ अर्थात् ‘यह मैं हूँ’ ऐसा विमर्श होता है। (ई.प्र.वि., खं. 2, पृ. 196-197)। इसी दशा को ईश्वर तत्त्व कहा जाता है। इस तत्त्व में परमेश्वर की क्रियाशक्ति की स्फुट अभिव्यक्ति मानी गई है। (शि.दृ.वृ., पृ. 37)। योगराज ने परमार्थसार की टीका में ईश्वर तत्त्व में ज्ञानशक्ति की ही अभिव्यक्ति को माना है। (पटलसा.वि., पृ. 41-43)। उसकी ऐसी दृष्टि त्रिक साधना की प्रक्रिया का अनुसरण करती है और उपरोक्त व्याख्या शिवदृष्टि, ईश्वर प्रत्यभिज्ञा आदि सिद्धांत ग्रंथों के अनुसार की गई है। ईश्वर तत्त्व में भेदाभेद दृष्टिकोण वाले मंत्रेश्वर प्राणी ठहरते हैं। (ई. पटल वि., खं. 2, पृ. 193)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ईश्वर भट्टारक ईश्वर तत्त्व (देखिए) पर शासन करने वाले तत्त्वेश्वर। प्रमेय अंश को ‘इदम् अहम्’ अर्थात् ‘यह मैं हूँ’ इस प्रकार की भेदाभेद की ही दृष्टि से देखने वाले मंत्रेश्वर प्राणियों के उपास्य देवता। (तन्त्र सार , पृ. 74, 75, 94)। पारमेश्वरी अवरोहण-लीला में सृष्टि, स्थिति आदि पाँच कृत्यों को करने के लिए भिन्न-भिन्न तत्त्वों में ईश्वर भट्टारक ही अनंतनाथ (देखिए), श्रीकंठनाथ (देखिए), उमापति नाथ (देखिए) आदि अपने भिन्न भिन्न रूपों में अवतार रूप में प्रकट होते हैं। ऐसा करते हुए अपनी ईश्वरता की लीला को परिपूर्णतया और सुस्फुटतया अभिव्यक्त करते रहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ईश्वरप्रणिधान समाधिलाभ के वैकल्पिक उपाय के रूप में ईश्वर प्रणिधान का उल्लेख योगसूत्र (1/23) में किया गया है। ये प्रणिधान उपाय मात्र है, अंतिम लक्ष्य नहीं है। योगसूत्रकार की दृष्टि में ईश्वर प्रणिधान का स्थान बहुत ही उच्च है। ईश्वरप्रणिधान को क्रियायोग के अन्तर्गत माना गया है, जिसका साक्षात् फल है समाधि की प्राप्ति तथा क्लेशों का क्षय (योगस. 2/1 -2)। ईश्वरप्रणिधान पाँच प्रकार के नियमों में से एक है और कहा गया है कि इससे समाधिसिद्धि सरलता से होती है (योगसू. 2/45)। यह प्रणिधान भक्ति का एक रूप है (द्र. व्यासभाष्य 1/23)। ईश्वर को परम गुरु के रूप में समझकर उनमें सब कर्मों का अर्पण करना तथा कर्मफल का त्याग करना ही ईश्वर-प्रणिधान है (द्र. व्यासभाष्य 2/1, 2/32)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रथम स्पंद, उन्मेष, शुद्ध एवं परिपूर्ण प्रकाश की विमर्श स्वरूपा ज्ञानशक्ति को द्योतित करने वाला वर्ण। (तन्त्र सार , पृ. 6; तन्त्रालोक, 3-73, 74)। मातृका (देखिए) का पंचम वर्ण। परमेश्वर के भीतर विश्वमयी सृष्टि संहार आदि की लीला के विकास के प्रति होने वाली उन्मुखता को अभिव्यक्त करने वाला मातृका का वर्ण। यदि परमेश्वर में यह स्वभावभूत उन्मेष नहीं होता तो जगत् सृष्टि ही नहीं होती। (तन्त्रालोकवि., खं. 3, पृ. 87-88)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


उच्चार योग आणव उपाय की प्राण-वृत्ति पर की जाने वाली धारणा का योग। जीवन क्रिया रूपी प्राण की वृत्तियों को ही धारणा का आलम्बन बनाए जाने के कारण इसे प्राण योग भी कहते हैं। इस योग में प्राण, अपान आदि प्राण की पाँच वृत्तियों का आश्रय लेते हुए अपने शुद्ध संवित् रूप में प्रवेश किया जाता है। इस धारणा में निजानंद, निरानंद, परानंद आदि आनंद की छः भूमिकाओं की अनुभूति होती है और अंततः साधक को शुद्ध एवं परिपूर्ण स्वात्मानंद रूपी जगदानंद की अनुभूति होती है। इसी साधना को उच्चार योग कहते हैं। (तन्त्र सार , पृ. 38, 39)। आनंद, प्लुति, कंप, निद्रा और घूर्णि नाम के योग सिद्धि के बाह्य लक्षण उच्चार योग में बहुलतया अनुभव में आते हैं। (तन्त्रालोक, 5-101 से 105)। यथास्थान देखिए।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


उच्छलत्ता / अच्छलन् देखिए समुच्छलन।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


उच्छूनता जिस प्रकार आक्सीजन आदि गैस जलरूप बनकर अधिक शैत्य के प्रभाव से हिमशिलात्मक रूप में प्रकट होकर अतीव घन रूप को धारण करते हैं, कुछ इस प्रकार की ही जैसी प्रक्रिया से परमेश्वर की सूक्ष्मातिसूक्ष्म विमर्श शक्ति ही क्रम से शुद्ध तत्त्वों, सूक्ष्मतर मापीय तत्त्वों, सूक्ष्म प्राकृत तत्त्वों और स्थूल, स्थूलतर तथा स्थूलतम भूत तत्त्वों के रूप में दर्पणनगर न्याय से प्रकट होती रहती है। उस सूक्ष्मतम शक्ति की इस स्थूलतामयी अभिव्यक्ति को उसकी उच्छूनता की अवस्था कहते हैं। यह उस शुद्ध चेतनामयी पराशक्ति का घनीभाव जैसा है, परंतु इस घनीभाव में भी पराशक्ति किसी विकार या परिणाम का पात्र नहीं बनती है, क्योंकि ऐसा आभास केवल प्रतिबिम्ब न्याय से ही होता है, परिणाम न्याय से नहीं। (शिव दृष्टि, 1-13 से 16)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


उत्क्रमण मृत्यु के उपरांत इस लोक का परित्याग कर जीव का अपने कर्म के अनुसार चन्द्रलोक, सूर्यलोक या ब्रह्मलोक आदि में जाना श्रुतियों में उत्क्रमण शब्द से कहा गया हैं। उत्क्रांति भी यही है। उत्क्रमण करता हुआ जीव पूर्व से प्राप्त प्राण इन्द्रिय आदि के साथ ही उत्क्रमण करता है। इसमें श्रुति प्रमाण है (अ.भा.पृ. 471)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

उत्क्रांति मरणकाल में अर्चिरादिमार्ग से गमन उत्क्रान्ति कहलाता है (उद् = ऊर्ध्व; क्रान्ति = गमन)। उदान नामक प्राण को वश में करने वाले योगी की ही ऐसी उत्क्रान्ति होती है (द्र. 3/39 योगसूत्रभाष्य)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

उत्सृष्‍ट वृत्‍ति का एक प्रकार।

साधक के जीवन निर्वाह के उपाय को वृत्‍ति कहते हैं। उत्सृष्‍ट वृत्‍ति का एक प्रकार है। पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार देवता या मातृका आदि के उद्‍देश्य से जो अन्‍न भेंट चढ़ाकर कहीं रखा गया हो अथवा कहीं छोड़ा गया हो वह अन्‍न उत्सृष्‍ट कहलाता है। पाशुपत साधक को साधना के मध्यम स्तर पर वही उत्सृष्‍ट अन्‍न खाना होता है, भिक्षा नहीं मांगनी होती है। उत्सृष्‍ट के रूप में जो भी मिले उसी पर निर्वाह करना होता है। यह उत्सृष्‍ट वृत्‍ति का द्‍वितीय भेद है। (ग. का. टी. पृ. 5)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

उदान उदान वायु के पाँच प्रकारों में से एक है (योगसू. भाष्य 3.39)। उन्नयन करने के कारण यह उदान कहलाता है। उन्नयन का सरल अर्थ है – रस आदि पदार्थों को ऊर्ध्वगामी करना, पर यह अस्पष्ट कथन है। योगग्रन्थों में उदानसंबंधी वचनों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि (1) उदान मेरुदण्ड के अभ्यन्तरस्थ बोधवाही स्रोतों में प्रधानतः स्थित है, (2) उदान तेज अर्थात् शरीर ऊष्मा का नियन्त्रक है, (3) उदान मरणव्यापार का साधक है, (4) स्वस्थता बोध और पीड़ा बोध उदान पर आश्रित है। शरीरधातुगत सभी नाड़ियाँ उदान के स्थान हैं, यद्यपि हृदय, कण्ठ, तालु और भ्रूमध्य में इसका व्यापार विशेष रूप से लक्षित होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

उदान प्राण का एक उत्कृष्ट प्रकार। उदान उस प्राणवृत्ति को कहते हैं जिसमें साधक को अपने निर्विकल्प आत्म स्वरूप का दर्शन उत्तरोत्तर स्फुट होता जाता है और विकल्पनात्मक चित्तवृत्ति का क्रम से क्षय होता जाता है। उदान प्राण की अनुभूति साधक को तब होती है जब उसकी प्राणशक्ति सुषुम्ना के बीच में से उत्तरोत्तर ऊर्ध्व गति से संचरण करती है। उदान नामक प्राण का व्यापार तुर्यादशा में अभिव्यक्त होता है। उदान प्राण के द्वारा ही समस्त जीवन व्यवहार को निभाने वाले प्राणी विज्ञानाकल, मंत्र, मंत्रेश्वर और मंत्रमहेश्वर होते हैं। इनमें क्रम से अधिक अधिक शुद्ध उदान वृत्ति की अभिव्यक्ति हुआ करती है। (ईश्वर प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी, खं, 2, पृ. 247)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


उदार अविद्या से उत्पन्न अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश नामक जो चार क्लेश हैं, उनकी चार अवस्थाएँ हैं – प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार। उदार वह अवस्था है जो विषय में लब्धवृत्ति (अर्थात् स्वभावतः विषय -व्यवहार के साथ संयुक्त) है। क्लेश की सर्वाधिक स्फुट अभिव्यक्ति इस अवस्था में होती है। सहकारी का सान्निध्य पाकर ये क्लेश प्रबल रूप से अपने-अपने कार्य को निष्पन्न करते हैं। व्युत्थान-दशा में ही इस अवस्था का उदाहरण देखा जा सकता है। उदाहरण के रूप में कहा जा सकता है कि क्रोध रूप वृत्ति के काल में द्वेष रूप क्लेश उदार अवस्था में रहता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

उद्गाता गान द्वारा वागिन्द्रिय निमित्तक भोग (सुख विशेष) को देवों तक प्राप्त कराने वाला तथा शास्त्रानुसारी कल्याण को गान द्वारा अपने में प्राप्त कराने वाला उद्गाता कहा जाता है एवं गान द्वारा देवों को सुख तथा अपने को कल्याण प्राप्त कराना उद्गान है (अ.भा.पृ. 680)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

उद्बुभूषा आद्यकोटि या प्राक्कोटि। परमशिव की परिपूर्ण आनंदात्मक संविद्रूपता में, अपने ही स्वातंत्र्य से, अपने ही आनंद के विलास के रूप में अपने वास्तविक स्वरूप से तनिक भी विचलित हुए बिना ही, संपूर्ण विश्व को अभिव्यक्त करने के प्रति अतीव सूक्ष्म इच्छा या उमंग। इस प्रकार की अति सूक्ष्म उमंग को आद्यकोटि इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह समस्त शुद्ध तथा अशुद्ध सृष्टि के सर्वप्रथम उन्मेष का कारण बनती है। (शिवसूत्रवार्तिक (भास्कर), पृ. 8)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


उद्भव उच्चार योग की प्राण धारणा में छः में से किसी भी आनंद की भूमिका में पूरी तरह से प्रवेश करने से पूर्व स्फुट रूप से बाहर लक्षित होने वाले पाँच लक्षणों में से दूसरा लक्षण। किसी भी प्रकार की उच्चार योग की धारणा पर विश्रांति होने के प्रथम चरण में आनंद की अनुभूति होती है। तदनंतर साधक देह विषयक अहं भाव के अभाव की दशा पर आरुढ़ हो जाता है। इस दशा पर आरुढ़ होने पर ही वह परधाम में प्रवेश कर पाता है। यहाँ उस परधाम का मानो उदय होता है। इस कारण इस लक्षण के उद्भव हैं। एकदम बिजली की तरह चमकते हुए देह आदि से शून्य, शुद्ध संवित् स्वरूप परधाम में प्रवेश करते समय साधक का शरीर उछलने लगता है, उसे मानो अकस्मात झटके से लग जाते हैं। अतः इसे प्लुति भी कहते हैं। यह लक्षण पाँचों लक्षणों में से विशेष स्फुटतया प्रकट होता है। (तन्त्र सार , पृ. 4.; तन्त्रालोक, 5-102)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


उद्यम / उद्योग उन्मेष (देखिए), भाव, स्पंद (देखिए) आदि। परमशिव परिपूर्ण, असीम एवं शुद्ध संवित् तत्त्व है। उसकी इसी परिपूर्ण आनंदात्मक संविद्रूपता में ही विश्व सृष्टि के प्रति अतिसूक्ष्म सा जो स्पंदन होता रहता है या उमंग सी उठती रहती है उसे ही उद्यम, उद्योग आदि शब्दों से अभिव्यक्त किया जाता है। विश्व की सृष्टि आदि का कारण बनने के कारण परमशिव के इसी उद्यम को शार्व तत्त्व, भैरव (देखिए) आदि नामों से भी कहा जाता है। (शिवसूत्रवार्तिक (भास्कर), पृ. 8)। साधक को भी शैव योग के अभ्यास से इस पारमेश्वरी स्पंदशक्ति की अनुभूति अपने में हुआ करती है और उससे वह अपने आप को भैरवात्मक परमेश्वर ही के रूप में पहचान लेता है। (शि.सू. 1-5)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


उद्वाप-आवाप उद्वाप और आवाप एक प्रकार का पदसंबंधी विधान है। उद्वाप वह विधि है जिसमें प्रकरणगत अर्थ में प्रतीयमान पद को उससे भिन्न अन्यार्थपरक रूप में आपादित किया जाए तथा आवाप वह विधि है जिसमें अन्य अर्थ में प्रतीत हो रहे पद को प्रकृत अर्थ परक रूप में आपादित किया जाए। अर्थात् प्रकृत अर्थ का परित्याग कर देना उद्वाप है और अप्रकृत अर्थ का समावेश कर लेना आवाप है। सामान्यतः किसी समूह, किसी अंश को निकाल देना उद्वाप क्रिया है और उस समूह में किसी अन्य का प्रक्षेप कर देना आवाप है (अ.भा.पृ. 274)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

उन्मत्‍तवद् विचरण पागल की भाँति विचरण।

पाशुपत साधक को पाशुपत योग करते करते भिन्‍न भिन्‍न आचारों का आचरण करना होता है। उनमें से साधना की उत्कृष्‍ट भूमिका में एक उन्मत्‍तवद्‍ विचरण नामक आचार है। इसमें साधक को उन्मत्‍त की तरह घूमना और व्यवहार करना होता है। उसको अपने अंतःकरणों और बाह्यकरणों में वृत्‍ति विभ्रम का अभिनय करना होता है। ऐसे उन्मत्‍त की तरह घूमते रहने से लोग उसको मूढ़ उन्मत्‍त कहकर निंदित करते हैं जिससे उसके पुण्य बढ़ते हैं तथा पाप घटते हैं क्योंकि साधक की प्रशंसा करने वाला उसके पापों को ले लेता है और फलत: साधक के सभी संचित कर्म दूसरों के लेखे में चले जाते हैं। साधक को कर्मों से छुटकारा मिलता है। यह बात मनुस्मृति में भी कही गई है। (मनु स्मृति 6-79)। संभवत: पाशुपत साधकों ने भी इसी सिद्‍धांत का अनुसरण करते हुए इस बात पर अत्यधिक बल दिया है। (पा. सू. कौ. मा. पृ. 96, 97)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

उन्मना / उन्मनस् सूक्ष्मतर अकल्यकाल के स्पर्श से भी रहित ऐसी अवस्था, जहाँ किसी भी प्रकार की काल कलना हो ही नहीं सकती है तथा जहाँ मन के संस्कारों का भी पूर्णतया क्षय हो जाता है। ऐसी अवस्था जहाँ समना (देखिए) भी विलीन हो जाती है तथा जहाँ अपने सभी संकुचित संवेदनात्मक भावों से उत्क्रमण करता हुआ चित्तपूर्ण उत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है। (स्व.तं. 3, व. उ., पृ. 163; वही खं. 2, पृ. 149, 249)। देखिए औन्मनस् धाम।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


उन्मानव्यपदेश परिमाणमूलक साम्य का प्रतिपादन उन्मानव्यपदेश है। “यावान् वा अयमाकाशस्तावनिष अन्तर्हृदय आकाशः”। इस श्रुति में बाह्य आकाश के समान ही हृदयवर्ती दहराकाश को परिच्छिन्न (सीमित) बताते हुए दोनों की समता बतायी गयी है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

उन्मेष उन्मेष का शब्दार्थ है खिलना, विकास। यह शैव और शाक्त तन्त्रों में प्रयुक्त एक पारिभाषिक शब्द है। स्पन्दकारिक (श्लो. 41) में इसका लक्षण दिया गया है। उसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य जब किसी एक चिन्ता में पड़ा रहता है, तभी उसके मन में दूसरी चिन्ता (विचार) का आविर्भाव हो जाता है। जिस क्षण में एक चिन्ता से दूसरी चिन्ता में चित्त प्रविष्ट होता है, संवेदन का यही सन्धि-बिन्दु ‘उन्मेष’ कहलाता है। साधक को चाहिये कि वह इस उन्मेष दशा का साक्षात्कार करे। चित्त का स्वभाव है कि वह एक विचार से दूसरे विचार की ओर दौड़ता रहता है। यदि कोई साधक एक विचार के समाप्त होते ही दूसरे विचार के उदय होने से ठीक पहले चित्त की वृत्ति को शान्त कर दे, तो वह इस उन्मेष दशा में प्रविष्ट हो सकता है। क्योंकि ऐसा करने से आगे की चिन्ता का उत्थान ही नहीं होगा और पहली चिन्ता के विलीन हो जाने से चित्त उस क्षण में वृत्ति-शून्य हो जायेगा। इस उन्मेष दशा में चित्त को स्थिर कर देने से सारी इच्छाएँ जहाँ से उत्पन्न होती हैं, वहीं विलीन हो जाती है अर्थात् जिस उन्मेष स्वरूप स्पंद तत्त्व से ये इच्छाएँ पैदा होती हैं, उसी में ये विलीन भी हो जाती हैं और इस प्रकार साधक योगी स्वात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

उन्मेष 1. प्रथम स्पंद (देखिए)। संपूर्ण सूक्ष्म एवं स्थूल प्रपंच की सृष्टि से पूर्व अनुत्तर तत्व परिपूर्ण आनंद में ही रहता है। उसके अपने नैसर्गिक स्वभाव से ही उसी के भीतर सृष्टि के प्रति अतिसूक्ष्म सी जो उमंग उठती है, उसके प्रथम परिस्पंद को उन्मेष कहते हैं। (तं. आत्मविलास, खं. 2, पृ. 86)। 2. अपने वास्तविक स्वरूप की प्रत्यभिज्ञा का प्रथम क्षण अर्थात् जिस अवस्था में अपने वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार होता है उसके प्रथम स्पंद को भी उन्मेष कहते हैं। (स्पंदकारिका वृ., पृ. 115)। 3. दो विचारों के बीच की अवस्था अर्थात् वह शुद्ध चेतना जिसमें एक विचार विलीन हो जाता है तथा जहाँ से दूसरे विचार का उदय होता है तथा जो प्रत्येक विचार का मूलभूत कारण बनती है। इसी कारण उन्मेष को विशुद्ध चिन्मात्र स्वरूप वाला भी कहते हैं। (स्पंदकारिका, 41; स्पंदकारिका वृ., पृ. 117)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


उपगमन ज्ञानमार्ग के अनुसार ब्रह्म के समीप गमन या अक्षरात्मक ब्रह्म में प्रवेश करना उपगमन है तथा भक्तिमार्ग के अनुसार भजन के निमित्त साक्षात् प्रकट हुए पुरुषोत्तम के समीप जाना उपगमन है (अ.भा.पृ. 1266)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

उपचरितार्थत्व किसी पद की लाक्षणिकता, अर्थात् अभिधायक न होकर उसका लाक्षणिक होना उपचरितार्थत्व है। अर्थात् जब कोई पद अपने अभिधेयार्थ (वाच्यार्थ) के बाधित होने के कारण वाच्यार्थ का बोध न कराकर लक्ष्यार्थ का बोध कराने लगता है, तब वह पद अभिधायक (वाचक) न होकर उपचरितार्थक या लाक्षणिक हो जाता है। जैसे, ‘गंगायाँ घोषः’ यहाँ पर गंगापद प्रवाह रूप अपने अभिधेयार्थ को इसलिए नहीं बोधित कराता है कि प्रवाह में घोष बाधित है। अतः यहाँ गंगापद तीररूप लक्ष्यार्थ का बोध कराने के कारण लाक्षणिक या उपचरितार्थक कहा जाता है। अभिधावृति से बोध कराने के कारण पद अभिधायक होता है और लक्षणावृत्ति से बोध कराने की स्थिति में वही पद लाक्षणिक या उपचरितार्थक कहा जाता है। जहाँ पद लाक्षणिक या उपचरितार्थक कहा जाता है, वहाँ अर्थ लक्ष्यार्थ, लक्षितार्थ या उपचरितार्थ कहा जाता है। इस प्रकार पद उपचरितार्थक (उपचरित अर्थ वाला) कहा जाता है और अर्थ उपचरितार्थ (उपचरि अर्थ) होता है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

उपजीव्य किसी वस्तु की उपपत्ति के लिए जो अपेक्षणीय है, वह उपजीव्य है तथा जो अपेक्षा करे वह उपजीवक है। अर्थात् जिस पर निर्भर रहा जाए वह उपजीव्य है और जो निर्भर रहे वह उपजीवक है। जैसे, प्रत्यक्ष के बिना अनुमान नहीं हो सकता, इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण अनुमान प्रमाण का उपजीव्य है और अनुमान प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण का उपजीवक है (अ. भा.पृ. 691)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

उपपतन भक्त विशेष की दृष्टि से आधिकारिक फल भी हेय है और उसमें हेयत्व का प्रयोजक उपपतन है। अर्थात् भक्ति भाव से च्युति का कारण होने से आधिकारिक फल उपपतन है, इसीलिए वह हेय है। (द्रष्टव्य – आधिकारिक फल शब्द की परिभाषा) (अ.भा.पृ. 1234)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

उपभोग सुख-दुःख बोध या कर्म फलभोग के अर्थ में ‘उपभोग’ शब्द का प्रयोग सांख्य योगशास्त्र में प्रायः मिलता है। सांख्य सू. 3/5 तथा 3/77 के अनुसार उपभोग अविवेकी तथा मध्यविवेकी को होता है। सांख्यशास्त्र का कहना है कि लिंग (सूक्ष्म शरीर) उपभोगहीन रहकर ही संसरण करता रहता है (सा. का. 40) तथा स्थूलशरीर के साथ संयुक्त होने पर ही उपभोग को प्राप्त करता है। सांख्ययोग शास्त्र में ‘उपभोगदेह’ की बात आयी है; द्र. देह शब्द।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

उपभोगदेह जिस शरीर में पाप-पुण्य कर्मजनित दुःख-सुख भोग मात्र किया जाता है – पुरुषकारपूर्वक नूतन कर्म करने की संभावना नहीं रहती, उस देह को उपभोगदेह कहा जाता है; जैसे नारकीयों का देह उपभोगदेह है, क्योंकि नारकी प्राणी नरक में दुःख भोगमात्र करता रहता है। वहाँ न दुःख का प्रतीकार किया जा सकता है और न अन्य प्रकार का नूतन कर्म ही, जिससे आगामी जन्म में उस कर्म का फल मिले। सांख्यसूत्र 5/124 में कर्मदेह, उपभोगदेह एवं उभयदेह की चर्चा है। उपभोग-शरीरी प्राणियों के अन्तर्गत किसी विशेष प्रकार के प्राणी में अल्पाधिक मात्रा में पुरुषकारपूर्वक कर्म करने की शक्ति रहती है – ऐसा शास्त्रों से जाना जाता है। यह उपभोगदेह स्थूल शरीर नहीं है – एक प्रकार का सूक्ष्म शरीर है पर यह लिंगदेह नहीं है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

उपराग

‘बाह्य वस्तु के साथ चित्त का संबन्ध इन्दियों के माध्यम से होने पर वस्तु का उपराग होता है’। व्यासभाष्य (17) के इस कथन से तथा ‘विषय के साथ संपर्क होने पर चित्त का उपरंजन विषय करता है’ – इस योगसूत्र (4/17) से ‘उपराग’ चित्त की अर्थाकारता (अर्थ के आकार में आकारित होना) है – यह जाना जाता है।
दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

उपष्टम्भ रजोगुण को उपष्टम्भ कहा गया है (सांख्यका. 13)। उपष्टम्भ का अर्थ है – उत्तेजन अर्थात् वह गुण (सामर्थ्य) जो शिथिलीभूत को प्रवृत्त करता है या अवसन्न को प्रेरित करता है। व्यासभाष्य में ‘रजसा प्रवर्तितम् उद्घाटितम्’ कहा गया है (4/31)। यह उद्घाटन रजोगुण का व्यापार है। इस उद्घाटन-सामर्थ्य के कारण ही तमोगुण से आवृत वस्तु का प्रकटन होता है। इस उपष्टम्भ शक्ति के प्रावल्य के अनुसार ही अन्य दो गुण अपने -अपने कार्यों में प्रवृत्त होते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

उपसर्ग उपसर्ग’ शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होता है (i) योगविघ्नकारक व्याधि आदि के अर्थ में तथा (ii) सिद्धि के अर्थ में। सिद्धियाँ योगाभ्यास से उत्पन्न होने पर भी योग के चरमलक्ष्य कैवल्य की विरोधिनी हो सकती हैं, अतः सिद्धियाँ ‘उपसर्ग’ कहलाती हैं (द्र. योगसूत्र 3/37)। व्याधि आदि (योगसू. 1/30) सदैव योगाभ्यास की विरोधिनी हैं, अतः वे उपसर्ग कहलाती हैं। अनभीष्ट पदार्थ को भी ‘उपसर्ग’ कहा जाता है; दुःख या ताप भी ‘उपसर्ग’ शब्द से अभिहित होता है (द्र. 1/29 की विवरण -टीका)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

उपस्पर्शन विधि का एक प्रकार।

पाशुपत साधक को आगंतुक मल (कलुष) निवृत्‍ति के लिए भस्म का स्पर्श करना होता है। उपस्पर्शन यहाँ पर स्‍नान के पर्याय के रूप में प्रयुक्‍त हुआ है। एक बार भस्म स्‍नान के बाद यदि कुछ उच्छिष्‍ट वस्तु छू जाए अथवा उच्छिष्‍ट व्यक्‍ति या पदार्थ पर दृष्‍टी पड़े तो साधक को फिर से दुबारा भस्म का स्पर्श करना उपस्पर्शन कहलाता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 37)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

उपहार पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।

पाशुपत विधि के अनुसार व्रत या नियम को उपहार कहते हैं। पाशुपत साधक को अपने आप को उपहार रूप में भगवान महेश्‍वर को अर्पण करना होता है। अपनी समस्त इंद्रियों का प्रत्याहार करके, समस्त कायिक, वाचिक तथा मानसिक व्यापारों को महेश्‍वर को उपहार स्वरूप में अर्पित करके स्वयं भृत्यवत् व्यवहार करना होता है; अर्थात् पाशुपत साधक का कोई भी व्यापार अपने इस क्षुद्र सीमित व्यक्‍तित्व से संबंधित नहीं रखना होता है। अपितु समस्त व्यापारों को, यहाँ तक कि अपने आप को भी महेश्‍वर को दासवत् अर्पण करना होता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 14)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

उपादानयोग्यता पदार्थमात्र उपादानकारण नहीं हो सकता; किसी पदार्थ को उपादानकारण होने के लिए उस पदार्थ को गुणयुक्त (रूपादिगुणयुक्त) एवं सङ्गवान् होना चाहिए (द्र. सांख्यसूत्र 6/33 का भिक्षुभाष्य)। जो पदार्थ ऐसा नहीं है, वह किसी का उपादान नहीं हो सकता। पुरुष (तत्त्व) में न कोई गुण है और न वह सङ्गवान् ही है (वह निर्गुण और असंग है), अतः पुरुष रूप उपादान से कोई कार्य उत्पन्न नहीं होता। पुरुष उपादानकारण (अन्वयिकारण) नहीं होते, वे निमित्त कारण होते हैं – यह व्यासभाष्य (1/45) में भी कहा गया है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

उपाधिमाट देखिए ‘माट’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

उपाय मालिनी विजय तन्त्र (2/21-23) में स्वस्वरूप की अधिगति के लिये संक्षेप में आणव, शाक्त और शाम्भव नामक त्रिविध उपाय तथा उनकी सहायता से प्राप्त होने वाली त्रिविध समावेश (समाधि) दशाओं का वर्णन किया गया है। अभिनवगुप्त ने तन्त्रालोक में तृतीय से लेकर द्वादश आह्निक तक अत्यन्त विस्तार से और तन्त्रसार (पृ. 10-114) में अपेक्षाकृत कम विस्तार से, महेश्वरानन्द ने महार्थमंजरी की चार कारिकाओं (56-59) तथा उनकी परिमल व्याख्या (पृ. 138-153) में संक्षेप में इस विषय को समझाया है। इन तीनों उपायों को समझाने के लिये विज्ञान भैरव के 24वें श्लोक की षड्विध व्याख्या की जाती है। इनके अतिरिक्त अनुपाय प्रक्रिया का भी इसी में समावेश किया जाता है। अभिनवगुप्त प्रभृति ने इन उपायों का जिस तरह का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है, उसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि उन्होंने आणव उपाय में क्रम और कुल दर्शन से भिन्न समस्त तान्त्रिक और यौगिक विधियों का समावेश किया है। शाक्त उपाय के रूप में क्रम दर्शन की, शाम्भव उपाय के रूप में उन्होंने कुल दर्शन की व्याख्या की है और प्रत्यभिज्ञा दर्शन को अनुपाय प्रक्रिया माना है। इन चारों उपायों का वर्णन यथास्थान किया गया है।

 इनके अतिरिक्त स्थूल, सूक्ष्म और पर पद्धति से त्रिविध उपाय मृत्युंजयभट्टारक (नेत्र तन्त्र) के 6-8 अधिकारों में विस्तार से वर्णित हैं। याग, होम, जप, ध्यान, मुद्रा, यंत्र मन्त्र – ये सब स्थूल उपाय हैं। षटचक्र, षोडश आधार आदि में प्राण-चार की भावना को सूक्ष्म उपाय बताया गया है। अष्टांग योग के अभ्यास से प्राप्त होने वाली सर्वात्म भाव की स्थिति को पर उपाय माना गया है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

उपाय साधन।

ज्ञान, तप आदि पाँच लाभों के प्राप्‍ति के पाँच साधन पाशुपत दर्शन में उपाय कहलाते हैं। इस तरह से इस साधना के साधकतम साधन उपाय हैं अर्थात् वे साधनाएँ जिनके अभ्यास से साधक शुद्‍धि को प्राप्त करता है। (ग. का. टी. पृ. 4)। उपाय पंचविध हैं –
      वासश्‍चर्या जपध्यानं सदा रूद्रस्मृतिस्तथा।
      प्रसादश्‍चैव लाभानामुपायाः पंच निश्‍चिताः।।
                        (ग. का. 7 )।
इस तरह से उपायों के भीतर सभी स्तरों पर की जाने वाली पाशुपत साधना आती है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

उपायप्रत्यय यह शब्द योगसूत्र में नहीं है, भाष्य (1/20) में है। श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि एवं प्रज्ञा को उपाय -प्रत्यय कहा जाता है – ‘उपायेन प्रतीयते प्राप्यते इति उपाय -प्रत्ययः’। यहाँ समाधि का अर्थ संप्रज्ञात समाधि है। सूत्र 1/20 में श्रद्धा आदि का पाठ-क्रम कार्यकारण-भाव के अनुसार है। अर्थात् श्रद्धा से वीर्य होता है, वीर्य से स्मृति होती है, ऐसा जानना चाहिए। व्याख्याकार कहते हैं कि उपायप्रत्यय और भवप्रत्यय असंप्रज्ञात समाधि के दो भेद हैं। (प्रसंगतः यह ज्ञातव्य है कि ये श्रद्धा आदि पाँच पदार्थ बौद्धसंप्रदाय में भी इसी रूप से ज्ञात थे (द्र. मज्जिमनिकायान्तर्गत अरियपरियेसन सुत्त, 26)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

उपेक्षा मैत्र्यादि चार परिकर्मों में से एक (योग सू. 1/33)। उपेक्षा या औदासीन्य की भावना पापकर्मकारियों के प्रति की जाती है। यह भावना विद्वेष-शून्य है – यह ज्ञातव्य है। वस्तुतः पापशीलों के पापकर्म को लेकर मन में कोई द्वेषादियुक्त विचार न करना ही उपेक्षा है, यही कारण है किसी-किसी टीकाकार ने उपेक्षा को स्पष्ट रूप से अभाव रूप माना है। जो उपेक्षा को मध्यस्थता रूप (किसी एक पक्ष की ओर न होना), मानते हैं, वे भी उसे अभाव रूप ही मानते हैं। उपेक्षा के इस स्वभाव के कारण ही उपेक्षा में संयम नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि जिस प्रकार मैत्री -करुणा -मुदिता पर संयम करके मैत्री-बल आदि बल प्राप्त किए जा सकते हैं, उपेक्षा पर संयम करके उसी प्रकार उपेक्षा बल प्राप्त नहीं किया जा सकता (द्र. व्यासभाष्य 3/23)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

उमापतिनाथ श्रीकंठनाथ के शिष्य। पुराणों एवं महाभारत आदि में वर्णित उमापति नाम से विख्यात तथा तंत्रों के प्रवक्ता कैलासवासी शिव। (स्व.उद्. 8-35)। गुणतत्त्व अर्थात् प्रक्षुब्ध प्रकृति तत्त्व में सूक्ष्मतर शरीर को धारण करके अवतरित हुए ईश्वर भट्टारक (देखिए) के ही एक अवतार। इन्हीं कैलासवासी शिव के ही ईशान, तत्पुरुष आदि पाँच मुखों वाले एक विशिष्ट रूप को स्वच्छंदनाथ (देखिए) कहते हैं। इस रूप में आकर इन्होंने शैव शास्त्रों का उपदेश दिया है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन

1. ऊनता (देखिए), ऊर्मि (देखिए)। उ अर्थात् उन्मेष पर ही पूर्ण विश्रांति से अभिव्यक्त हुई ऊनता या ज्ञेयांश के आधिक्य को द्योतित करने वाला वर्ण। (तन्त्र सार , पृ. 13)। परमेश्वर के नैसर्गिक स्वभाव से ही उसी के भीतर विश्वसृष्टि को करने के प्रति इच्छा और उस सृष्टि पर ऐश्वर्यात्मक प्रशासन करने की ईशना के उदित होते ही उसी के भीतर स्रष्टव्य विश्व का उन्मेष भी हो जाता है। ऐसा होने पर परमेश्वर स्वयमेव स्रष्टा और स्रष्टव्य के रूप में जब अपना विमर्शन करता है तो उसका वैसा स्वरूप मानो शुद्ध चैतन्य जैसा नहीं रहता है। इस तरह से स्रष्टव्य विश्व से सम्भिन्न जैसी चमकने वाली पारमेश्वरी संवित् को प्रकट करने वाला ऊ वर्ण इस प्रकार की ऊनता की कलना को अभिव्यक्त करता है। (तन्त्रालोक, 3-75, 76)। 2. रुद्रबीज। (स्व.तं.उ., 1, पृ. 56)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन

ऊनता ऊ परामर्श। ज्ञानशक्ति का दूसरा रूप जिसमें ज्ञान अंश में ज्ञेय अंश का आधिक्य होता है। शुद्ध ज्ञान प्रधान उन्मेष (देखिए) का उल्लास होता है। ऐसा होने पर सूक्ष्मतम रूप से ज्ञेयता का आभास स्फुट होने की स्थिति में परमशिव की शुद्ध एवं परिपूर्ण संविद्रूपता में जो संकोच का धीमा सा आभास जैसा आने लगता है, या आ सा जाता है, उसे ऊनता कहते हैं। यहीं से संकोच के आभास का प्रारंभ हो जाता है और अपूर्णता का आभास स्फुटतया उभरने लगता है। (तन्त्रालोक, 3-75, 76; वही, पृ. 87)। देखिए ऊ।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन

ऊर्ध्वरेता शारीरिक शुक्र (वीर्य) की अधोगति जिस योगी में चिरकाल के लिए रूद्ध हो जाती है – कभी भी किसी भी प्रकार से जब शुक्र का स्खलन नहीं होता तब वह योगी ऊर्ध्वरेता कहलाता है। वीर्य या रेतस् ऊर्ध्वगामी होकर ओजस् रूप से परिणत हो जाता है – इस दृष्टि से ‘ऊर्ध्व’ शब्द का प्रयोग किया गया है। ऊर्ध्वरेता के लिए ऊर्ध्वस्रोता शब्द भी प्रयुक्त होता है। (कदाचित् ‘आयमितरेता’ शब्द भी प्रयुक्त होता है)। योगियों की तरह देवजाति-विशेष भी ऊर्ध्वरेता होती है, यह व्यासभाष्य (3/26) में कहा गया है। जिस प्रकार केवल ज्ञानयोग मार्ग का अवलम्ब करके कोई ध्यानबल से ही ऊर्ध्वरेता हो सकता है, उसी प्रकार हठयोगीय प्रक्रिया विशेष से भी ऊर्ध्वरेता हुआ जा सकता है। हठयोगीय प्रक्रिया का विशद ज्ञान परम्परागम्य है। ऊर्ध्वरेता के शरीर में सुगन्ध की उत्पत्ति होती है, इत्यादि बातें हठयोगीय ग्रन्थों में कही गई हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ऊर्ध्वसर्ग ऊर्ध्वसर्ग सत्त्व विशाल (= सत्त्वप्रचुर) है – यह सांख्य का मत है (सांख्यका. 54)। इसमें ऊर्ध्व स्वः, मह, जन, तपः और सत्य लोक आते हैं। किसी-किसी के अनुसार भुवः लोक भी ऊर्ध्व में आता है। इन लोकों में सत्त्वगुण का क्रमिक उत्कर्ष है और चित्तगत सत्त्वोत्कर्ष के अनुसार प्राणी इन लोकों में जा सकते हैं। ये सूक्ष्म लोक हैं अतः दैशिक परिमाण के अनुसार इन लोकों की दूरी है, ऐसा नहीं समझना चाहिए। ऊर्ध्वसर्ग देवसर्ग भी कहलाता है। देवयोनि के आठ अवान्तर भेद माने जाते हैं। आठों प्रकार के देवों का निवास-स्थान इन ऊर्ध्व लोकों में है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ऊर्ध्वाग्नाय स्वच्छंदनाथ (देखिए) के ऊर्ध्वमुख ईशान (देखिए) से प्रकट हुआ शास्त्र। दस शिव आगमों में से दो आगम ईशान के मुख से आविर्भूत हुए हैं। इस कारण इन आगमों को ऊर्ध्व-आग्नाय या ऊर्ध्व-आगम कहते हैं। एक आगम ईशान आदि तीनों के द्वारा कहा गया और दो और आगम ईशान तथा तत्पुरुष और ईशान तथा सद्योजात के द्वारा मिलकर कहे गए। ये सभी आगम शास्त्र ऊर्ध्व आग्नाय कहलाते हैं। वैसे शैव सिद्धांत के समस्त शिव आगमकों का और समस्त भैरव आगमकों का ऊर्ध्व आग्नाय नाम पड़ा है। (मा.वि.वा., टि., पृ. 36)। ऊर्ध्वता से यहाँ गुणों का उत्कर्ष ही अभीष्ट है, दिशा का विचार नहीं। (मा.वि.वा., 1-212)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ऊर्मि स्पंद। परिपूर्ण एवं अचल परमशिव में अतिसूक्ष्म गतिशीलता की सी अवस्था। (पटलत्री.वि.पृ. 207)। देखिए स्पंद। परमशिव चित्शक्तिस्वरूप है। उस चित् का स्वभाव आनंद है। चिदानंद अपने अत्यंत अतिशय से लहरें जैसे मारता रहता है। उस आनंद की प्रथम लहर को ऊर्मि कहते हैं। यही इच्छाशक्ति के रूप को धारण करती है और इस लहर के प्रभाव से विश्वसृष्टि का विकास होने लगता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ऋत-सत्य ऋत और सत्य ये दोनों ही शब्द धर्म के वाचक हैं। इनमें प्रमात्मक ज्ञान का विषय जो धर्म है, वह ऋत कहलाता है तथा अनुष्ठान का विषय जो धर्म है, वह सत्य कहलाता है। तात्पर्यतः आत्मादि तत्त्व ऋत हैं तथा यज्ञादि कर्म सत्य हैं। अर्थात् ज्ञायमान तत्त्व ऋत है और अनुष्ठीयमान तत्त्व सत्य है (अ. भा. पृ. 206)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

ऋतम्भरा एक प्रकार की प्रज्ञा का नाम ऋतम्भरा है (योगसूत्र 1/48)। निर्विचारा समापत्ति में जो प्रज्ञा होती है, वह ऋतम्भरा है – यह कई व्याख्याकारों का कहना है। निर्विचार में कुशलता होने पर जो अध्यात्मप्रसाद होता है, उसमें होने वाली प्रज्ञा ऋतम्भरा है – यह भी कोई-कोई कहते हैं। इन दोनों मतों में भिन्न भी एक मत है जो भिक्षु का है। वे कहते हैं कि केवल निर्विचारा नहीं, सभी सबीज योगों (समापत्तियों) में जो प्रज्ञा होती है, वह ऋतम्भरा है। इस प्रज्ञा में विपर्यय अणुमात्रा में भी नहीं रहता, अतः यह वस्तुयाथात्म्य-विषयक ज्ञान है – यह कहा जा सकता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ऋषि ईश्‍वर का नामांतर।

ईश्‍वर स्वतंत्र क्रियाशक्‍ति संपन्‍न होने के कारण ऋषि कहलाता है। (ग. का. टी. पृ. 11)। ईश्‍वर को समस्त क्रिया व विद्‍या का ईश होने के कारण ऋषि नाम से अभिहित किया गया है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 136, 127)। ऋषि शब्द की ऐसी व्याख्या कौडिन्य ने की है। यद्‍यपि यह व्याख्या निरुक्‍त या व्याकरण से सहमत नहीं है फिर भी पाशुपत दर्शन में ऐसा माना गया है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

अ या आ अर्थात् अनुत्तरशक्ति या आनंदशक्ति के अभिमुख इ या ई अर्थात् इच्छाशक्ति या ईशना के आने पर उनके संघट्ट से अभिव्यक्त होने वाली अवस्था को द्योतित करने वाला वर्ण। (तंत्रसा., पृ.12)। अनुत्तर परमशिव अ या आनंदमय शिव आ अपनी विश्व-सिसृक्षात्मिका शक्ति इ या विश्व-ईशनाशक्ति ई के प्रति अभिमुख होकर जब अपना विमर्शन करता है तो उसकी परमेश्वरता के एक विशेष रूप की अभिव्यक्ति होती है। उसी का मातृकात्मक नाम ए है। (तन्त्रालोक, 3-94, 95; वही. वि., नृ. 103, 104)। मातृका का अभ्यास करने वाले साधक को भी एकार की उपासना से परमेश्वरता के उसी भाव की अभिव्यक्ति अपने भीतर होती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


एक युक्‍त साधक का लक्षण।

पाशुपत योग के अनुसार युक्‍त योगी विषयों से असंपृक्‍त होकर रुद्र में चित्‍त को पूरी तरह से संलग्‍न करके निष्कल रूप धारण करता है अर्थात् इंद्रियाँ और सांसारिक विषय उस साधक की चित्‍तवृत्‍ति से स्वयमेव छूट जाते हैं और वह रुद्र के साथ ऐकात्म्य प्राप्‍ति करके एक बन जाता हे। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 139)। शरीर तथा इंद्रियों से असंपृक्‍त हो जाने के अनंतर महेश्‍वर में तादात्म्य ही ‘एकत्व’ कहलाता है। (शरीरादि वियुक्‍तत्वम् एकत्वम् – ग. का. टी. पृ. 16)। यहाँ ऐकात्मका या ऐक्य से सायुज्य ही अभिप्रेत है, अद्‍वैत नहीं।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

एकतत्त्वाभ्यास यह एक अभ्यास-विशेष है। योगसूत्र (1/32) का कहना है कि विक्षेपों के प्रतिषेध के लिए एकतत्त्व का अभ्यास करना चाहिए। यह ‘एकतत्त्व’ क्या है – यह अस्पष्ट है। भाष्यकार ने “एकतत्त्वावलम्बन चित्त का अभ्यास करना चाहिए”, इतना ही कहा है। वाचस्पति और रामानन्द यति कहते हैं कि एकतत्त्व का अर्थ ईश्वर है। यह अर्थ सांशयिक है, क्योंकि ईश्वराभ्यास “ईश्वरप्रणिधान” से पृथक् कुछ नहीं हो सकता। चूंकि ईश्वरप्रणिधान को पहले ही एक उपाय कहा जा चुका है (1/23 सूत्र में), अतः एकतत्त्वाभ्यास को पृथक् रूप से कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। अन्य टीकाकारों ने एकतत्त्व का अर्थ “कोई भी एक अर्थ” ऐसा किया है, जो सर्वथा अस्पष्ट है। अवश्य ही इस अभ्यास का स्वरूप संप्रदाय में विज्ञात रहा होगा। स्वामी हरिहरानन्द आरण्य ने योगसूत्र की हिन्दी टीका में तथा संस्कृत टीका ‘भास्वती’ में इस अभ्यास के स्वरूप को स्पष्ट किया है : जिस आलम्बन की भावना की जाए (ध्येय के रूप में) उसके किसी एक गुण या अंश पर ही चित्त को स्थिर रखने का अभ्यास ‘एकतत्त्वाभ्यास’ है। दूसरे शब्दों में एक विषय के अन्तर्गत अवान्तर विषयों से चित्त को हटाकर एक ही तत्त्व के रूप में आलम्बन को देखने का अभ्यास एकतत्त्वाभ्यास है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

एकतत्व धारणा शुद्ध एवं परिपूर्ण परमशिव को ही आलंबन बनाकर की जाने वाली आणवोपाय की तत्वाध्वा नामक धारणा। परमशिव सभी तत्त्वों से उत्तीर्ण है। उसमें छत्तीस तत्त्व उसी की संवित्स्वरूपता के रूप में रहते हैं। पंचदश तत्त्व धारणा आदि सात प्रकार की तत्त्व-धारणाओं में स्थिति प्राप्त कर लेने के पश्चात् साधक एकतत्त्व धारणा के अभ्यास को करता हुआ अपने को ही दृढ़तर भावना द्वारा परिपूर्ण परमशिव स्वरूप समझने लगता है। इससे उसे पूर्ण परमेश्वरता का आणव समावेश हो जाता है। (तन्त्रालोक, 10-5; वही, वि. पृ. 6; मा. वि. तं., 2-7)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


एकलिंग शक्ति संगम (1/6) प्रभृति शाक्त तंत्रों में दीक्षा के लिये उपयुक्त स्थानों में पर्वत, शून्यगृह, मंदिर अथवा अरण्य, श्मशान, नदी-समुद्र संगम, चक्रपाणि (कुम्हार) गृह, एकलिंग आदि का समावेश है। इनमें से एकलिंग का लक्षण शक्तिसंगमतन्त्र (1/8/110-111) में इस प्रकार दिया है – जिस मंदिर में पश्चिमाभिमुख पुरातन शिवलिंग हो, उसके सामने नन्दी की मूर्ति न हो तथा जिसके चार-पाँच कोस के घेरे में अन्य कोई लिंग न दिखाई पड़े, उस स्थान को एकलिंग कहते हैं। यहाँ इष्ट की आराधना करने से अनुत्तम सिद्धि प्राप्त होती है। राजस्थान राज्य में उदयपुर से नाथद्वारा जाते समय बीच में एकलिंग जी का मंदिर पड़ता है। किन्तु यह लिंग पाशुपत मत के अनुसार पंचमुख शिव का है। कौलज्ञान निर्णय मे संगृहीत ज्ञानकारिका (3/7-9) में कौलिक लिंग अर्थात् देहज लिंग को एकलिंग बताया गया है। तन्त्रालोक (15/82-96) में बताया गया है कि कामरूप, पूर्णगिरि और उड्डियान पीठ से पर्वताग्र, नदीतीर और एकलिंग का प्रादुर्भाव होता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

एकवासा एक वस्‍त्र को पहनने वाला।

पाशुपत संन्यासी को संन्यास की प्रथम अवस्था में केवल एक वस्‍त्र पहनना होता है। वह वस्‍त्र बैल की खाल या कोशों से निर्मित अथवा भूर्ज निर्मित वल्कल अथवा चर्म से निर्मित होता है। पाशुपत सूत्र के कौडिन्य भाष्य के अनुसार एक वस्‍त्र कौपीन रूप में केवल लज्‍जा के प्रतीकार के लिए पहनना होता है और इस वस्‍त्र को भिक्षा में ही प्राप्‍त करना होता है। इस सब का यही तात्पर्य निकलता है कि साधक किसी भी तरह से वस्तु संग्रह न करे और सांसारिक बंधनों में न फँसे। जितना उससे हो सकता है, वह उतनी मात्रा में अपरिग्रही बने। किसी भी वस्तु के स्वामी होने का अभिमान उसमें न रहे। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 34)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

एकवीरक परिपूर्ण सामरस्यात्मक स्थिति का परामर्श। विश्वसृष्टि के प्रति स्फुट इच्छा के अभिव्यक्त होने पर जो पारमैश्वर्यात्मक क्षोभ की स्थिति उत्पन्न होती है उस स्थिति से पूर्व होने वाला द्वैत परामर्श से रहित अपनी शुद्ध एवं परिपूर्ण प्रकाशरूपता का परामर्श। (तं.आ.वि., 2, पृ. 86)। केवल परमेश्वरात्मकता के कारण इसे ‘एक’ शब्द से कहा गया है। परंतु सृष्टि संहारादि सामर्थ्य के कारण और उस सामर्थ्य की बहिर अभिव्यक्ति का एकमात्र कारण होने के कारण इस दुर्घट कार्य को भी सुघट बना सकने के विचार से उसे ‘वीर’ शब्द से भी कहा गया है, अन्यथा वह शून्य तुल्य ही सिद्ध हो जाता। (वही, पृ. 86, 87)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


एकाग्रता एकाग्र का अर्थ है – एक ही अग्र (= अवलम्बन) है जिसका। चित्त जब एक ही आलम्बन को जानता रहता है तब उस चित्त को एकाग्र कहा जाता है। यह प्रयत्नपूर्वक साध्य है, क्योंकि स्वभावतः प्राणी का चित्त प्रतिक्षण नाना आलम्बनों में विचरण करता रहता है। पिछले क्षण में जो प्रत्यय (= आलम्बन प्रतिष्ठ वृत्ति) होता है, यदि उसके सदृश प्रत्यय अगले क्षण में भी हो, तो वह एकाग्रता का उदाहरण है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

एकाग्रभूमि जिस चित्त की भूमि एकाग्र है, वह एकाग्रभूमि है। चित्त सहज रूप से जिस अवस्था में रह सकता है, वह भूमि कहलाती है। जब चित्त अनायास से सदैव एकाग्र रह सकता है तब वह चित्त एकाग्रभूमि कहलाता है। एकाग्रभूमि चित्त में यदि समाधि होती है तो उसे संप्रज्ञात समाधि कहा जाता है। क्षिप्त, मूढ एवं विक्षिप्त भूमि में भी कदाचित् समाधि हो सकती है, पर उसमें योग (अर्थात् संप्रज्ञात या असंप्रज्ञात नामक योग) का सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि इस प्रकार की समाधि विक्षेप के द्वारा आसानी से नष्ट हो जाती है। क्षिप्त आदि भूमियों में उत्पन्न समाधि से विभूति उत्पन्न नहीं होती। एकाग्रभूमि में आलम्बन (=अग्र) रहता है, अतः एकाग्रभूमि में उत्पन्न समाधि चाहे कितनी ही उत्कृष्ठ क्यों न हो, वह सबीज ही होती है। यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि एकाग्रभूमि में चित्त प्रतिष्ठित होने पर कभी-कभी विक्षेप (आत्मज्ञान का अभिभवकारी) उत्पन्न नहीं होता। निद्रा आदि अवस्थाओं में भी ऐसे चित्त में आत्मज्ञान अविलुप्त ही रहता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

एकादशतत्त्व धारणा पाँच प्रमातृ तत्त्वों तथा इनकी पाँच शक्तियों को आलंबन बनाकर की जाने वाली आणवोपाय की तत्त्वाध्वा नामक धारणा। साधक प्रलयाकल प्राणी को धारणा का आलंबन बनाकर उसी को भावना के द्वारा अकल से लेकर विज्ञानाकल तक के पाँच प्रमाताओं के रूप में और उनकी पाँच शक्तियों के रूप में व्यापक भाव से ठहरा हुआ देखता देखता उसी को परिपूर्ण परमेश्वर के रूप में पहचानता हुआ स्वयं उसी में समा जाता है और अपने भीतर उसी आणवी परमेश्वरता के आवेश का अनुभव करता है। इस धारणा को एकादशी विद्या भी कहते हैं। (तन्त्रालोक, 10-107 से 113, 125, 126)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन

एकायन लय का एकमात्र आधार ब्रह्म एकायन है। जैसे, जलादि रूप अंशों का एकायन जलाशय समुद्रादि होता है, वैसे ही सदात्मक समस्त कार्यों का लयाधार सदात्मक ब्रह्म है। इससे सब पदार्थ शुद्ध ब्रह्म रूप सिद्ध होता है अथवा जिसका एकमात्र प्रकृति या अक्षर आश्रय है, ऐसा संसार वृक्ष भी एकायन है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

एष ईश्‍वर का नामांतर।

ईश्‍वर के सदा व सर्वदा अविचलित पर स्वभाव में रहने के कारण ‘एष’ नाम से उसे अभिहित किया गया है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 127; ग. का. टी. पृ. 11)। एष शब्द की ऐसी व्याख्या यद्‍यपि निरुक्‍त या व्याकरण के आधार पर ठहराई नहीं गई है, फिर भी कौडिन्य आदि ने एष शब्द का ऐसा अर्थ माना है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

परमेश्वर अपने अनुत्तर और आनंदमय स्वरूप के अभिमुख अपनी इच्छा के एक और विशेष चमत्कार की अभिव्यक्ति होती है जिसे मातृका का ‘ए’ नामक वर्ण अभिव्यक्त करता है। मातृका के उपासक साधक को भी ऐकार की उपासना के द्वारा अपने ही भीतर परमेश्वरता के उसी भाव का साक्षात् दर्शन होता है जिसके फलस्वरूप उसे सद्यः शिवभाव का शाम्भव समावेश हो जाता है। (तन्त्र सार पृ. 12, तन्त्रालोकविवेकखं. 2, पृ. 103)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ऐक्य देखिए ‘अंग-स्थल’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

ऐक्य भक्‍त ऐक्य अर्थात् जीवन्मुक्‍त अवस्था को प्राप्‍त होकर जो व्यक्‍ति भक्‍तस्थल के साधक के द्‍वारा किये जाने वाले इष्‍टलिंग की पूजा, पंचाक्षरमंत्र का जप, पंचाचारों का पालन आदि नित्य-कर्मों को करता रहता है, उसे ‘ऐक्य-भक्‍त’ कहते हैं। शिव-स्वरूप का ज्ञान होने पर भी वह भक्‍त की क्रियाओं को इसलिये करता रहता है कि लोक में बड़े व्यक्‍तियों के आचरण को देखकर छोटे लोग उसका अनुकरण करते हैं। ज्ञानी स्वयं कृतकृत्य होने से इष्‍टलिंग की पूजा आदि को यदि छोड़ देता है, तो अज्ञानी लोग भी उसे देखकर पूजा आदि के अनुष्‍ठान का परित्याग कर सकते हैं। अतः अज्ञानियों के मार्गदर्शन के लिये ज्ञानी को भी धर्माचरण करना आवश्यक है और वीरशैव दर्शन में उसके लिये धर्माचरण करने का विधान भी है (सि.शि. 16/7-8 पृष्‍ठ 92)।

जीवन्मुक्‍त होकर भी कर्म करने से ज्ञानी को कोई हानि नहीं है। जैसे जल में खींची गयी रेखा जल में अंकित नहीं होती, अथवा जैसे दग्धबीज पुन: अंकुरित नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञानी के द्‍वारा किये गये कर्म उसके जन्मातंर के कारण नहीं बन पाते (अ.वी.सा.सं. 27/19-23)। इस प्रकार लोक संग्रहार्थ नित्यकर्म आदि का अनुष्‍ठान करने वाले इस जीवन्मुक्‍त को ‘ऐक्य भक्‍त’ कहते हैं।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

ऐक्य-स्थल देखिए ‘अंग-स्थल’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

ऐश्वर्य बुद्धि के चार सात्त्विक रूपों में से एक (सांख्यकारिका, 23) ऐश्वर्य (ईश्वरता) का स्वरूप है – इच्छा का बाधाहीन होना। अतः सभी सिद्धियों का अन्तर्भाव ऐश्वर्य में हो जाता है। यह ऐश्वर्य आवश्यक भी है, अनावश्यक भी। इन ऐश्वर्यों (=सिद्धियों) से यह ज्ञात होता है कि योग का अभ्यास यथोचित्त रूप से किया जा रहा है क्योंकि योगांग-अभ्यास के फलस्वरूप सिद्धियों का आविर्भाव होना स्वाभाविक है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

अ या आ अर्थात् अनुत्तरशक्ति या आनंदशक्ति के समक्ष उ या ऊ अर्थात् उन्मेष या ऊनता के आ जाने पर उनके संयोग से उत्पन्न होने वाली अवस्था को द्योतित करने वाला वर्ण। (तं.आ.वि.2, पृ. 106)। परमेश्वर अपनी उन्मेषशक्ति और ऊनता को अपने अनुत्तर या आनंदमय स्वरूप के अभिमुख लाकर जब अपना विमर्शन करता है तो उसकी परमेश्वरता के एक अतिविशेष चमत्कार की अभिव्यक्ति उसी के भीतर हो जाती है। उसी को ‘ओ’ यह वर्ण अभिव्यक्त करता है। मातृका की उपासना करने वाले साधक को भी ओकार की उपासना से परमेश्वरता के उसी चमत्कार की साक्षात् अनुभूति हो जाती है और उससे उसे शिवभाव का शाम्भव समावेश सद्यः हो जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ओंकार ईश्‍वर का नामांतर।

साधक दुःखान्त प्राप्‍ति के लिए परम-सत्‍ता का ध्यान करता है। ध्यान नामरुपात्मक होता है, उसका नाम ओंकार माना गया है। परमशिव एकमात्र स्वतंत्र तत्व है और ऊँकार के जप के साथ भगवान शिव की स्मृति का अभ्यास किया जाता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 125, ज.का.टी.पृ. 11)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

ओघ तन्त्रशास्त्र में ज्ञान की परम्परा को ओघ (प्रवाह) के नाम से जाना जाता है। दिव्यौघ, सिद्धौघ और मानवौघ के भेद से यह तीन तरह की होती है . देवताओं की परम्परा दिव्यौघ, सिद्धों की परम्परा सिद्धौघ और मानव गुरुओं की परम्परा मानवौघ के नाम से प्रसिद्ध है। तन्त्र की प्रत्येक शाखा का ज्ञान पहले देवताओं को प्राप्त हुआ। देवताओं से सिद्धों को और सिद्धों से वह मानवों को प्राप्त हुआ। यह गुरु-परम्परा शास्त्रों में क्रमोदय, गुरुमण्डल या गुरुपंक्ति के नाम से भी अभिहित हुई है। हादिविद्या के दिव्यौघ, सिद्धौघ और मानवौघ गुरुओं की नामावली ऋजुविमर्शिनी, अर्थरत्नावली, ज्ञानदीप विमर्शिनी, सौभाग्य सुधोदय प्रभृति ग्रन्थों में मिलती है। प्रत्येक सम्प्रदाय की गुरुपंक्ति का परिचय दीक्षित शिष्य को अपने गुरु से प्राप्त होता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

ओवल्लि कौल संप्रदाय की साधना में उपास्य गुरुओं और उनकी शक्तियों तथा अन्य सभी प्रकार की उपास्य देवियों के रहस्यात्मक नामों को ओवल्लि कहते हैं। इनका विस्तारपूर्वक निरूपण कुलक्रीड़ा-अवतार आदि कौलिक आगमों में मिल सकता है। तंत्रालोक के उनत्तीसवें आह्मिक में तथा जयरथ कृत टीका में भी इनका थोड़ा सा उल्लेख आया है। तद्नुसार इल्लाई, कुल्लाई, सिल्लाई, विज्जा, एरूणा, बोधई, मेखला इत्यादि रहस्यात्मक नाम ओवल्लि शब्द से अभिप्रेत है। चक्रात्मक मंडलपूजा में इनके स्थान नियत होते हैं। (तन्त्रालोक आ. 29-29 से 39)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ओवल्ली तन्त्रशास्त्र में ज्ञान की परम्परा (प्रवाह) को औवल्ली के नाम से भी जाना जाता है। तन्त्रालोक (29/36) में बताया गया है कि मत्स्येन्द्रनाथ ने अपना ज्ञान छः राजपुत्रों को दिया और उनका नाम आनन्द, आवलि, बोधि, प्रभु, पाद और योगी शब्दान्त रखा, अर्थात उनको यह निर्देश दिया कि अपने शिष्यों के नामों के अन्त में इन शब्दों को जोड़ें। मत्स्येन्द्रनाथ के इन षड्विध शिष्यों की यह परपरा (प्रवाह) ही औवल्ली के नाम से अभिहित है। मत्स्येन्द्रनाथ कौल शास्त्र के आद्य प्रवर्तक माने जाते हैं। बौद्ध और जैन योग पर भी इसका प्रभाव परिलक्षित होता है। बौद्ध तन्त्रशास्त्र (वज्रयान) के अनेक प्रसिद्ध आचार्यों के नाम बोधि, प्रभु और पाद नामक ओवल्लियों से संबद्ध हैं। स्पष्ट है कि इन नामों से अंकित आचार्यगण मत्स्येन्द्रनाथ के ही ज्ञानप्रवाह से किसी न किसी प्रकार से जुड़े हुए हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन

स्फुट क्रियाशक्ति। अ या आ अर्थात् अनुत्तरशक्ति या आनंदशक्ति के समक्ष ओ या औ के आ जाने पर उनके संयोग से अभिव्यक्त होने वाली, स्फुट क्रियाशक्ति को द्योतित करने वाला वर्ण। (तं.आ., 3-96, वही पृ. 106)। ओकार से अभिव्यक्त होने वाली परमेश्वरता को जब परमशिव या शिव पुनःस्वाभिमुखता में ठहराकर विमर्शन करते हैं तो उनकी क्रियाशक्ति रूपिणी परमेश्वरता के परिपूर्ण स्वरूप के चमत्कार की अभिव्यक्ति हो जाती है। साधक को भी औकार की उपासना के द्वारा अपने भीतर परमेश्वरता के उसी परिपूर्ण चमत्कार की या साक्षात् अनुभूति हो जाती है। लिपि के आकार को दृष्टि में रखते हुए इस वर्ण को श्रृंगाटक अर्थात् सिंघाडा नाम दिया गया है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


औन्मनस धाम 1. प्रलयलीला में पृथ्वी तत्त्व से लेकर सदाशिव तत्त्व तक समस्त निचले निचले तत्त्व वर्ग ऊपरी ऊपर के तत्त्वों में विलीन हो जाते हैं। समस्त तत्त्वों, प्राणियों और तत्त्वेश्वरों समेत सदाशिव आपके जीवन के अंत में शक्ति तत्त्व में विलीन होता है। शक्ति व्यापिनी में और व्यापिनी अनाश्रित शिव में। अनाश्रित भी अपने समय पर समना नामक परतरशक्ति में विलीन होता है। उस पद को सामनस्य पद कहते हैं। यहाँ तक कालगणना की जा सकती है। समना भी जिस पद में विलीन हो जाती है और जिस पद में किसी भी प्रकार की कालगणना हो ही नहीं सकती, जहाँ सूक्ष्मतर अकल्प काल का स्पर्श भी शेष नहीं रहता, उस पद को औन्मनस धाम कहते हैं। (तं.आ.वि. ख 5, पृ. 257-260)। 2. प्रणव की उपासना में सूक्ष्मतर अवधान शक्ति के प्रयोग से मात्राकाल के भी सूक्ष्म सूक्ष्मतर अंशों को अनुभव में लाते हुए एकमात्र ऊँकार की ध्वनि के बारह अंशों का साक्षात्कार किया जाता है। बिंदु (अनुस्वार) उनमें चौथा अंश होता है। उससे आगे आठ अंश और होते हैं। बिंदु का उच्चारण काल आधी मात्रा का होता है। उत्तर उत्तर अंश का उच्चारण काल पूर्व पूर्व अंश के उच्चारण काल का आधा आधा भाग होता है। इस तरह से समना अंश का उच्चारण काल मात्रा का 256वाँ भाग होता है उससे ऊपर वाले उन्मना नामक अंश काल स्पर्श से रहित है। ऐसी सूक्षमतर अवस्थाओं का दर्शन तीव्रतर अवधानशक्ति से संपन्न महायोगी ही कर सकते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


औन्मुख्य शक्ति शुद्ध एवं परिपूर्ण संवित्-रूपता में विश्वरचना के प्रति जो तनिक सी सूक्ष्मातिसूक्ष्म तरंग या उमंग अभी उठने को ही होती है तो उसी अतिसूक्ष्म स्पंदन की अवस्था को औन्मुख्य कहते हैं। यही परमेश्वर की औन्मुख्य शक्ति कहलाती है। उदाहरणार्थ शांत रूप से स्थित जल में जब एकाएक तीव्र तरंग उभरने को ही होती है तो उसकी तीव्रता के उदय से पहले ही जल के भीतर जो एक अदृश्य सी अतिसूक्ष्म हलचल होती है उसे औन्मुख्य कहा जा सकता है। परमेश्वर में रहने वाली परमेश्वरता की गतिशीलता के वैसे ही प्रथम स्पंदन को औन्मुख्य कहते हैं। इसी को उच्छूनता, तरंग, ऊर्मि आदि शब्दों से अभिव्यक्त किया गया है। (शि.दृ.वृ.पृ. 116)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


औपपादिक देह माता-पिता से उत्पन्न न होकर जो शरीर स्वतः प्रकट होता है, वह औपपादिक देह कहलाता है (व्यासभाष्य 3/26)। यह दिव्य शरीर है। पालिबौद्धशास्त्र में ‘औपपातिक’ शब्द इन महासत्त्वशाली जीवों के लिए प्रयुक्त होता है। कुछ विद्धान समझते हैं कि पालि शब्द का मूल संस्कृत शब्द उपपादुक या औपपादुक है। ‘औपपादुक’ शब्द चरकसंहिता (शारीर 3/33; 3/19) में मिलता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

औपसद कर्म उपसद् नामक कर्म से सम्बद्ध तानूनप्त्र घृत का स्पर्श नामक कर्म औपसद कर्म है। यह औपसद कर्म उपसद् दीक्षा नामक यज्ञांग से सम्बद्ध है। आतिथ्या इष्टि में ध्रौव पात्र से सुक् या चमस में रखा हुआ घृत तानूनप्त्र है। उस घृत का स्पर्श यजमान के साथ सोलह ऋत्विक् करते हैं। उन ऋत्विजों में यजमान जिसे चाहेगा, वही पहले उस घृत का स्पर्श करेगा। यह यजमान की इच्छा पर निर्भर है। इसी प्रकार अक्षर ब्रह्म के उपासकों में भगवान् जिसे चाहेगा, उसे उस अक्षर ब्रह्म में ही लय कर देगा और जिसे चाहेगा, उसे परप्राप्ति का साधन भूत भक्ति का लाभ करा देगा। यह भगवान् की इच्छा के अधीन है (अ.भा. 3/3/33)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

कंचुक तत्त्व पाश। परिपूर्ण एवं शुद्ध संवित्स्वरूप परमशिव को उसी के स्वातंत्र्य से पशुभाव तक पूरी तरह से ले आने वाले संकोचक तत्त्व। कला, विधा, राग, नियति एवं काल नामक ये पाँच आवरक तत्त्व माया तत्त्व के ही परिणाम है। इन्हें पंच कंचुक कहते हैं। माया सहित इन आवरक तत्त्वों की संख्या छः मानी गई है। इसी मायादिषट्क को कंचुकषट्क कहा जाता है। इनके प्रभाव से परमशिव की सर्वज्ञता, सर्वकर्तृता आदि शक्तियाँ किंचिज्ज्ञता, किंचित्कर्तृता आदि में परिणत हो जाती हैं। इस प्रकार जीवभाव में आने पर वह इन संकोचक तत्त्वों के प्रभाव से यह विश्वास कर बैठता है कि वह केवल अमुक अमुक कार्य को ही इतनी ही मात्रा में जानता हुआ आसक्त या अनासक्त बना हुआ, इतने समय में कर सकता है। (तं.सा.पृ. 81 से 83)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कंद 1. विश्व सृष्टि का मूल शक्तिमय स्वरूप। (स्व.तं. पृ. 2, 57)। 2. पद्म स्वरूप समस्त सृष्टि को अपने ही सामर्थ्य से अपने में ही अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली पारमेश्वरी इच्छाशक्ति का विश्रांति स्थान। कंद के उन्मेष अर्थात् प्रसार से ही अंकुर एवं नालस्वरूपा क्रमशः महामाया पर्यंत समस्त विशुद्ध सृष्टि तथा माया से पृथ्वी पर्यंत समस्त अशुद्ध सृष्टि की अभिव्यक्ति होती है। (वही 37)। 3. साधना के क्रम में शरीर में ही अभ्यास का आलंबन बनने वाला वह मूल स्थान जिस पर ध्यान केंद्रित करने पर शक्ति उद्बुद्ध होती है और जिसके ब्रह्मरंध तक पहुँचने पर साधक को अपने चिदानंद स्वरूप का साक्षात्कार होता है। (वही)

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कंप उच्चार योग की प्राण, अपान आदि पर की जाने वाली धारणा में आनंद की छः भूमिकाओं में से किसी भी भूमिका में प्रवेश करने से पूर्व प्रकट होने वाले पाँच लक्षणों में से तीसरा लक्षण। उच्चार योग की किसी भी धारणा में विश्रांति होने के साथ ही साथ पहले अपूर्व आनंद की अनुभूति होती है फिर देह उछलने लगता है। इन दो लक्षणों के पश्चात् प्रकट होने वाला लक्षण कंप कहलाता है। उच्चार योग के अभ्यास के तीसरे सोपान में जब देह का अभिमान पूर्णतया शांत होने लगता है तथा ऐसा होने पर जब अपने अंतः बल पर स्थिति प्राप्त होती है तो उस समय सारे शरीर में जो एक प्रकार की थरथराहट स्पष्टतया झलकती हुई अनुभव में आती है, उसे यहाँ कंप कहते हैं। (तन्त्र सार पृ. 40; तन्त्रालोक 5-103)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


करण करणं दैहसंनिवैशविशेषात्मा मुद्रादिव्यापारः’ (पृ. 35) शिवसूत्र विमर्शिनी के परिशिष्ट (टि. 19) में करण का यह लक्षण बताया गया है। योग शास्त्र के ग्रन्थों में वर्णित खेचरी प्रभृति मुद्राओं और जालन्धर प्रभृति बन्धों का इसी में समावेश किया जाता है। इनमें शरीर के अंगों को किसी विशेष प्रकार की स्थिति में रखने का अभ्यास किया जाता है। करण की गणना आणव उपाय में की जाती है। त्रिशिरोभैरव के आधार पर तन्त्रालोक के पंचम आह्निक (पृ. 438-443) में करण के सात भेद बताये गये हैं। इनके नाम हैं – ग्राह्य, ग्राहक, संवित्ति, संनिवेश, व्याप्ति, आक्षेप और त्याग। तन्त्रालोक के 16वें आह्निक में ग्राह्य और ग्राहक का, 11वें आह्निक में संवित्ति का, 15 वें आह्निक में व्याप्ति का, 29वें आह्निक में त्याग और आक्षेप का और 32वें आह्निक में संनिवेश (मुद्रा) का संकेत भाव से वर्णन मिलता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

करण-हसिगे यहाँ पर ‘करण’ का अर्थ है स्थूल, सूक्ष्म आदि शरीर में रहने वाले सभी तत्व और ‘हसिगे’ का अर्थ होता है विभाग, अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म शरीर में रहने वाले सभी तत्वों को विभक्‍त करके उनके स्वरूप को यथार्थ रूप से जान लेना ही ‘करण-हसिगे’ कहलाता है। वस्तुत: दर्शनांतर में जिसे ‘पंचीकरण’ कहते हैं, उसे ही यहाँ ‘करण-हसिगे’ कहा गया है। जैसे परमात्मा को जानने के लिए ब्रह्माण्ड का ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार आत्मा को जानने के लिये पिण्डाण्डस्थित सभी तत्वों का यथार्थ ज्ञान आवश्यक है। पिण्डाण्ड के यथार्थ ज्ञान से ही उससे भिन्‍न रहने वाली आत्मा का भी यथार्थ ज्ञान होता है।

वीरशैव संत साहित्य में इस पिण्डाण्ड-विज्ञान के प्रतिपादक ग्रंथ को भी ‘करण-हसिगे’ कहा गया है। श्री चन्‍नबसवेश्‍वर अपने ‘करण-हसिगे’ नामक लघु ग्रंथ में ऊँकार से पंचमहाभूतों की उत्पत्‍ति बता कर उन भूतों से स्थूल, सूक्ष्म आदि शरीरों के सभी तत्वों की उत्पत्‍ति को विस्तार रूप से आगम की दृष्‍टि से समझाया है। स्थूल शरीर में रहने वाले अस्थि, मांस, चर्म, नाड़ी और रोम ये पाँच गुण पृथ्वी के हैं; क्षुधा, तृष्‍णा, निद्रा, आलस्य और संग ये पाँच गुण तेज के हैं; धावन, बलन, आकुंचन, प्रसारण तथा वियोग ये पाँच गुण वायु के हैं। इस प्रकार पंचीकृत पंचमहाभूतों के पच्‍चीस गुणों से इस स्थूल शरीर की उत्पत्‍ति बताई गयी है। उसके बाद सूक्ष्म शरीर में रहने वाले श्रोत्र आदि पंच ज्ञानेन्द्रियों की; वाक् आदि पंच कर्मेन्द्रियों की; प्राण, अपान आदि दशविध वायुओं की; मन, बुद्‍धि आदि अंतःकरण की उक्‍त पंचमहाभूतों के ही परस्पर मिश्रण से उत्पत्‍ति बताकर, शरीर में उनसे होने वाले कार्य, उनके अधिष्‍ठातृदेवता का स्वरूप एवं तत्‍तत् इंद्रियों के विषयों का भी प्रतिपादन किया गया है। इसके बाद आत्मा का निरूपण आता है। पंचमहाभूत, पंचप्राण, दशविध इंद्रियाँ तथा अंतःकरण-चतुष्‍टय इन चौबीस अनात्मतत्वों से भिन्‍न जो पच्‍चीसवाँ तत्व है और जिसके कारण इन सब में चेतन का व्यवहार होता है वह चिद्रूप ‘आत्मा’ ही है। यह आत्मा ज्ञानस्वरूप है। परशिव ही इसके अधिष्‍ठातृदेवता है।
यह आत्मा जब देह से संपृक्‍त होता है, तो उसको अष्‍टमद, सप्‍तव्यसन, षडर्मियाँ, अरिषड्वर्ग, षड्विकार, पंचक्लेश, तापत्रय इत्यादि की प्राप्‍ति किस प्रकार होती है, इसका विस्तार से यहाँ वर्णन किया गया है। इस प्रकार शरीर आदि की उत्पत्‍ति, उससे आत्मा का संपर्क तथा शरीर के संपर्क से आत्मा में होने वाले विकारों का विवरण बताकर पिण्डाण्ड का संपूर्ण विज्ञान इस ग्रंथ में प्रतिपादित है। इसके अध्ययन से अनात्मतत्वों को पंचमहाभूतों के विकार जानने से निर्विकार आत्मा का यथार्थ बोध उत्पन्‍न होता है। इस प्रकार देह के सभी तत्वों का विभाग करके उनके स्वरूप का बोध कराने वाले इस ग्रंथ को ‘करण-हसिगे’ कहा गया है। (च.ब.व. पृष्‍ठ 669-685; व.वी.ध. पृष्‍ठ 113-115)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

करणयोग शैवी साधना के आणव उपाय में देह धारणा को ही करणयोग कहते हैं। आणवोपाय में ध्यानयोग और उच्चार योग से नीचे करणयोग का स्थान आता है। इस योग कमें साधक देह के सूक्ष्म, स्थूल तथा करण – इन तीनों प्रकारों को क्रम से धारणा का आलंबन बनाता हुआ उन्हीं के साथ संपूर्ण प्रमेय जगत् के तादात्म्य को तीव्र भावना के द्वारा स्थापित करता है। इस धारणा को करणयोग कहते हैं। करण साधन को कहते हैं। साधक का शरीर ही उसकी साधना का करण होता है। अतः यह योग करण योग कहलाता है। इस योग पर स्थिति हो जाने से साधक अपनी सर्वव्यापकता के भाव के अनुभव को प्राप्त करता हुआ और प्रमेय जगत् के साथ देह धारण से प्राप्त हुई संघट्टात्मकता को अपने संवित् स्वरूप में विलीन करता हुआ सभी कुछ को उसी परिपूर्ण रूप में ही देखने लग जाता है। ऐसा होने पर उसे शिवभाव का आणव समावेश हो जाता है। (तं.आ.वि.आ. 5-129)। इस करणयोग के अभ्यास से सद्यः ऐसी घटनाएँ चित्त में घटती हैं जिनसे साधक पथभ्रष्ट भी हो सकता है। अतः इसे अत्यंत रहस्यात्मक कहा गया है। इसी कारण इसका स्फुट प्रतिपादन तंत्रालोक आदि में किया ही नहीं गया है। मुद्राओं का अभ्यास करणयोग ही होता है। कुंडलिनी योग को भी इसी कोटि में गिना जा सकता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


करणवैकल्य करण (=इन्द्रियाँ) कभी-कभी अपने विषय के ग्रहण में या स्वव्यापार के निष्पादन में असमर्थ हो जाते हैं (यह असमर्थता ‘अशक्ति’ नाम से सांख्य में कही जाती है, द्र. सांख्यकारिका 46)। यह असामर्थ्य वैकल्य-हेतुक है – ऐसा पूर्वाचार्यों का कहना है – वैकल्पाद् असामर्थ्य ‘अशक्ति’: (युक्तिदीपिका 46)। सांख्यकारिका के व्याख्याकारों ने जैसी व्याख्या की है, उससे यह ज्ञात होता है कि यह विकलता इन्द्रियों के शरीरस्थ के अधिष्ठानों की है, इन्द्रियतत्त्व की नहीं। स्वरूपतः इन्द्रियाँ आभिमानिक (=अस्मिता से उद्भूत) हैं, भौतिक नहीं हैं; अतः उनमें विकलता संभव नहीं है। पर इन्द्रियों के शरीरस्थ अधिष्ठानों के विकल होने पर स्थूलविषय का ग्रहण या स्थूल विषय का व्यवहार अवरूद्ध हो जाता है, अतः गौणदृष्टि से यह शारीरिक असमर्थता इन्द्रिय की असमर्थता कही जाती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

करुणा चार परिकर्मों में करुणा द्वितीय है। करुणा = परदुःख को दूर करने की इच्छा। करुणा-वृत्ति का विषय वह प्राणी है जो दुःखी है। दुःखी प्राणियों पर करुणा-भावना करने से चित्त प्रसन्न होता है और वह क्रमशः ‘स्थिति’ को प्राप्त करता है। ‘कोई भी दुःख मुझमें न हो’ यह इच्छा सभी को रहती है। पर शत्रुओं के रहते ऐसा होना कभी भी संभव नहीं है। अतः शत्रुओं के प्रति अकरुणा की भावना या द्वेष की भावना होती है, जिससे चित्त अधिक विक्षिप्त होता रहता है। दुःखी शत्रु को भी दुःख न हो – इस प्रकार की करुणाभावना से चित्त अक्षुब्ध होकर एकाग्र हो जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

कर्ता सांख्यीय दृष्टि में कर्तृत्व त्रिगुण में ही रहता है, गुणातीत पुरुष कर्ता नहीं हो सकते। आचार्य पंचशिख का एक वचन व्यासभाष्य (2/18) में उद्धृत है, जिसमें ‘त्रिषु गुणेषु कर्तृषु’ (तीन गुणों के कर्त्ता होने के कारण) कहा गया है। कर्तृत्व गुणों में रहने के कारण गुणविकारभूत बुद्धि आदि करणों में भी कर्तृत्व रहता है। त्रिगुण में ही कर्तृत्व रहने के कारण पुरुष ‘अकर्ता’ कहलाते हैं (सांख्यकारिका 19 में अकर्तृभाव शब्द प्रयुक्त हुआ है)। किसी-किसी आचार्य ने कर्तृत्व को दो प्रकार का माना है – प्रयोकर्तृत्व -रूप तथा स्वयंकारित्व-रूप। यद्यपि उदासीन पुरुष में किसी प्रकार का भी कर्तृत्व नहीं है, तथापि उन पर अविवेक के कारण बुद्धिगत कर्तृत्व का आरोप होता है। पुरुष को कर्ता कहना औपचारिक (गौण) प्रयोग है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

कर्तृ- सादाख्य देखिए ‘सादाख्य’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

कर्म योगशास्त्र में कर्म को कभी दो भागों में बाँटा जाता है – कुशल – अकुशल रूप से (व्यासभाष्य 1/24), कभी चार भागों में – शुक्ल आदि भेदों से (योगसूत्र 4/7)।। आत्मज्ञान के साधक या विवेकमूलक कर्म कुशल हैं तथा उसके विपरीत कर्म अकुशल हैं। (शुक्ल, शुक्लकृष्ण, कृष्ण एवं अशुक्ल -अकृष्ण कर्मों के स्वरूप के लिए शुक्ल आदि शब्द द्रष्टव्य हैं)। कर्म यद्यपि क्लेश + (अविद्या, अस्मिता आदि) – मूलक हैं, तथापि क्लेश की तरह वह अनादि हैं। जीव सदैव उपयोगी शरीर में रहकर स्थूल -सूक्ष्म कर्म करते रहते हैं। प्रलयकाल में कर्मसंस्कार सुप्तस्थिति में रहता है, पर नष्ट नहीं होता, अतः ब्रह्माण्ड व्यक्त होने पर जीव स्वाभाविक रूप से कर्म करते रहते हैं। कर्म की आत्यन्तिक निवृत्ति चित्त का आत्यन्तिक निरोध होने पर ही होती है। सांख्यीय दृष्टि में प्राणी की कर्मप्रवृत्ति ईश्वरादिहेतुक नहीं होती। बुद्धिगत भोग एवं अपवर्ग ही कर्म के हेतु हैं। गीता (18/13 -15) में कर्मसम्बन्धी एक सांख्यीय सिद्धान्त का उल्लेख हुआ है। अधिष्ठान (शरीर), कर्त्ता (उपाधियुक्त भोक्ता), करण (इन्द्रियाँ), चेष्टा (प्राणापानादि -व्यापार) तथा दैव – इन पाँचों को शरीर-वाक्य-मन द्वारा निष्पाद्य कर्मों का हेतु माना गया है। यद्यपि प्रचलित सांख्यीय ग्रन्थों में यह मत नहीं मिलता, तथापि सांख्यीय मूल दृष्टि के साथ इस मत का कोई विरोध नहीं है। किसी-किसी का कहना है कि ‘पंचकर्मयोनि’ का जो उल्लेख तत्त्वसमाससूत्र में है (सू. 11), वह इन पाँचों को ही लक्ष्य करता है। सभी प्रकार के कर्मों से उनके अनुरूप संस्कार उत्पन्न होते हैं – अशुक्ल – अकृष्ण कर्मों का ऐसा फल नहीं होता। कर्मसम्बन्धी अन्यान्य विचारों के लिए कर्माशय, वासना, संस्कार एवं क्लेश शब्द द्रष्टव्य हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

कर्म – सादाख्य देखिए ‘सादाख्य’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

कर्म मिश्रा भक्ति गृहस्थ के लिए अधिकृत भक्ति कर्म मिश्रा भक्ति है। यह भक्ति सात्त्विकी, राजसी और तामसी भेद से तीन प्रकार की होती है (शा.भ.सू.वृ.पृ. 162)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

कर्मज्ञान मिश्रा भक्ति वानप्रस्थाश्रयी के लिए अधिकृत भक्ति कर्मज्ञान मिश्रा भक्ति है। यह भक्ति सत्त्व गुण के तारतम्य से तीन प्रकार के भक्तों के भेद से (क) उत्तम भक्ति (ख) मध्यम भक्ति और (ग) प्राकृत भक्ति तीन प्रकार की होती है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

कर्मज्ञान मिश्रा भक्ति (क) उत्तम भक्ति किसी भी प्राणी का इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होने पर चित्त की द्रवावस्था के कारण उस प्राणी में प्रविष्ट भगवदाकारता के कारण सर्वत्र भगवद् भावनामय हो जाना उत्तम भक्ति है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

कर्मज्ञान मिश्रा भक्ति (ख) मध्यम भक्ति ईश्वर प्रभृति में प्रेम आदि से युक्त भक्त के चित्त की किंचित द्रवावस्था मध्यम भक्ति है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

कर्मज्ञान मिश्रा भक्ति (ग) प्राकृत भक्ति चित्त की द्रवावस्था से रहित होने पर भगवान् के निमित्त श्रवणादि भागवत धर्म के अनुष्ठान में संलग्न रहना प्राकृत भक्ति है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

कर्मभेदक शब्दान्तर, अभ्यास (आवृत्ति), संख्या, गुण, प्रक्रिया और नामधेय ये छः कर्म के भेदक होते हैं, यह बात पूर्वमीमांसा में कही गयी है और यह नियम सर्वमान्य है। इस नियम के अनुसार अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय से भिन्न आनंदमय परमात्मा है। यह बात अन्नमयादि शब्द से भिन्न आनन्दमय के प्रयोग से सिद्ध है। इसी प्रकार कर्मभेदक अभ्यास के समान ही “को हयेवान्यात् कः प्राण्यात् यदेष आकाश आनंदों न स्यात्, एष हयेवानन्दयाति” इत्यादि विभिन्न स्तुति वाक्यों में अन्नमयादि शब्द की आवृत्ति न कर आनन्द पद की बार-बार आवृत्ति किए जाने से भी अन्नमय आदि से भिन्न आनंदमय है – यह सिद्ध है। संख्यादि कर्मभेदकों के उदाहरण मीमांसा शास्त्र में वर्णित हैं।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

कर्मयोग देखिए ‘कायक’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

कर्मविपाक कर्मविपाक का अर्थ है – कर्मफल। वस्तुतः कर्मविपाक का अभिप्राय है कर्माशय के तीन विपाक : 1. जाति (जन्म, शरीर-ग्रहण) 2. आयु (इस गृहीत शरीर का स्थितिकाल) और 3. भोग (सुख-दुःख-बोध)। कर्म चाहे कुशल हो या अकुशल – सभी के विपाक होते हैं। दूसरे शब्दों में, कृष्ण (परपीड़ाकर), शुक्ल (तपःस्वाध्यायादि), और कृष्णशुक्ल (कृषि आदि, जिनमें परापकार-परोपकार दोनों होते हैं), कर्मों के विपाक अवश्य होते हैं; अशुक्ल – अकृष्ण (निरोधफलक) कर्म का विपाक (जाति आदि रूप) नहीं होता। अविद्या का प्राबल्य जब तक रहेगा तब तक यह विपाक चलता ही रहेगा। विपाक वासना का निमित्त है। जिस संस्कार के जाति आदि विपाक होते हैं, वह कर्माशय कहलाता है (कर्माशय अनेक संस्कारों का समूह है)। विपाकों के अनुभवमात्र से जो संस्कार होता है, वह वासना है। वासना का विपाक नहीं होता, पर कर्माशय का विपाक वासना के बिना नहीं होता – यह भेद विशेष रूप से ज्ञातव्य है। ये तीन विपाक सदैव होते हों, ऐसी बात नहीं है। दुष्टजन्मवेदनीय कर्माशय का एक ही विपाक (आयु या भोग के रूप में) होता है, या कभी-कभी आयु तथा भोग दो भी होते हैं। कर्माशय नियतविपाक भी होता है, अनियत विपाक भी होता है। जिसका विपाक अनियत हो, उसकी तीन गतियाँ हैं, (द्र. ‘अदृष्टजन्मवेदनीय’)। चूंकि योगज प्रज्ञा के बिना विपाक के देश, काल और निमित्तों का सम्यक् अवधारण नहीं होता, अतः कर्म की गति को दुर्बोध माना गया है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

कर्माशय योगशास्त्र में कर्माशय का अर्थ वह पिण्डीभूत संस्कार है जो धर्माधर्म रूप कर्मों से निष्पादित होता है। कर्म चूंकि क्लेश के बिना नहीं होता, अतः कर्माशय को क्लेशमूलक कहा जाता है (योग सू. 2/12)। कर्माशय के अनुसार जाति, आयु और भोग की प्राप्ति होती है। कर्माशय के कारण ही चित्त शरीर में बद्ध रहता है (व्यासभाष्य 3/38)। कर्माशय दो प्रकार का है। जिस कर्माशय का फल वर्तमान जीवन में अनुभूत होता है वह दृष्टजन्मवेदनीय है; जिसका फल आगामी जीवन में अनुभूत होता है वह अदृष्टजन्मवेदनीय है। दृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय एक विपाक (भोग अथवा आयु रूप फल देने वाला) अथवा द्विविपाक (भोग तथा आयु रूप दो फल देने वाला) होता है। जो कर्माशय पूर्णतः फल देता है, वह नियतविपाक कहलाता है; जो कर्माशय अन्य हेतु से नियन्त्रित होने के कारण अपना फल पूर्णतः नहीं दे पाता, वह अनियत विपाक है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

कर्मेन्द्रिय जिस प्रकार ज्ञानेन्द्रिय (=बुद्धीन्द्रिय) का अर्थ है – विषय-ज्ञान की साधनभूत इन्द्रिय, उसी प्रकार कर्मन्द्रिय का अर्थ है – विषय-सम्बन्धी कर्म की साधनभूत इन्द्रिय। कई आचार्यों ने इस कर्म को ‘आहरण’ शब्द से अभिहित किया है (सां. का. 33)। किसी प्रयोजनसिद्धि के लिए बाह्य विषयों को स्वेच्छया चालित करना ही आहरण है – ऐसा प्रतीत होता है। ज्ञानेन्द्रिय के व्यापार के साथ इच्छा का सम्बन्ध नहीं है; इच्छा न रहने पर भी रूपादि -ज्ञान उत्पन्न हो ही सकता है। सांख्य में ज्ञानेन्द्रियों की तरह कर्मेन्द्रियाँ भी अभौतिक हैं तथा अहंकार के सात्त्विक अंश से उद्भूत हैं। संबंधित शारीरिक अवयव इन इन्द्रियों के अधिष्ठानमात्र हैं। कर्मेन्द्रियाँ पाँच हैं – वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ तथा पायु। वाक् इन्द्रिय का कर्म (=व्यापार) है वचन अर्थात् वर्णादि का उच्चारण करना। तालु आदि शरीरांग इसके अधिष्ठान हैं। पाणि का व्यापार है – आदान, (जो कहीं-कहीं शिल्प भी कहलाता है) अर्थात् बाह्य विषयों का ग्रहण (ग्रहणपूर्वक अभीष्ट देश में स्थापन भी)। हाथ, चंचु (पक्षियों का) आदि इसके अधिष्ठान हैं। पाद का व्यापार है – विहरण = गमन। गमनसाधक सभी शरीरांगों में पाद का अधिष्ठान है। उपस्थ का व्यापार है – प्रजनन (=बीजसेक तथा प्रसव); यह व्यापार आनन्द शब्द से प्रायः अभिहित होता है। यहाँ आनन्द आनन्दन क्रिया अर्थात् मैथुन -क्रिया – ऐसा कोई-कोई कहते हैं। औपस्थिक क्रिया के साथ सुख के बहुल साहचर्य के कारण यह क्रिया आनन्द शब्द से कथित हुई है – ऐसा भी कोई-कोई कहते हैं। पायु का व्यापार है – उत्सर्ग (=निःक्षेप करना) अर्थात् पूर्वगृहीत आहारादि के मलांश का शरीर से बाहर निःक्षेप करना। लोमकूप, गुदा आदि शरीरांग इसके अधिष्ठान हैं (द्र. सां. का. 26 की टीकायें)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

कलविकरण ईश्‍वर का नामांतर।

ईश्‍वर को कलविकरण कहा गया है क्योंकि वह क्षेत्रज्ञों (जीवों) को भिन्‍न-भिन्‍न कलाओं (कार्याख्या – पृथ्वी आदि तथा कारणाख्या – शब्द आदि) से संपृक्‍त कर लेता है। अर्थात् जीवों को भिन्‍न-भिन्‍न स्थानों से संपृक्‍त करके उन्हें विविध गुणों (धर्म, ज्ञान, वैराग्य ऐश्‍वर्य, अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्‍वर्य) से युक्‍त बना देता है। इस तरह से कलाओं का विविधतया करण (निर्माण) करता हुआ वह कलविकरण कहलता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 74)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

कला परशिवनिष्‍ठ शक्‍ति का ही दूसरा रूप कला है। जब परशिव अपने में ही उपास्य-उपासक-लीला की इच्छा करता है, तब स्वयं ही ‘लिंग’ और ‘अंग’ बन जाता है। तब वह शक्‍ति भी अपने स्वातंत्र्य से ‘कला’ और ‘भक्‍ति’ का रूप धारण करती है। ‘कला’ लिंग के आश्रित रहती है और ‘भक्‍ति’ अंग के। इस तरह लिंग-स्थल में आश्रित शक्‍ति ही कला कहलाती है। (अनु.सू. 2/13, 22,23)।

यह कला ‘निवृत्‍ति’, ‘प्रतिष्‍ठा’, ‘विद्‍या’, ‘शांति’, ‘शांत्यतीत’ और ‘शांत्यतीतोत्‍तरा’ के नाम से छः प्रकार की है। यह कलाओं का आरोहण-क्रम है। जब अंग (जीव) इन कलाओं के आश्रयभूत लिंगरूपी शिव की उपासना करता है, तब शिव इन कलाओं के द्‍वारा उस जीव में प्रसुप्‍त सर्वज्ञत्व आदि शक्‍तियों को जाग्रत् करके अपने स्वरूप में समरस कर लेता है। इस प्रकार ये कलाएँ उपासक जीव की अमृतत्व की प्राप्ति में सहायक बनती हैं (सि.शि. 1/10, 12 तत्व प्रदीपिका टीका सहित पृ. 4; सू.सं. भाग 2 पृष्‍ठ 456; त.ज्ञा. पृ. 41)।
क. निवृत्‍ति कला –

जिस कला की सहायता से साधक का कर्मभोग निवृत्‍त हो जाता है, उसको निवृत्‍ति कला कहते हैं। निवृत्‍ति कला का पर्याय क्रियाशक्‍ति है, अर्थात् क्रियाशक्‍ति का ही दूसरा रूप निवृत्‍ति कला है (अनु. सू. 3/26; सू.सं. बाग 2 पृष्‍ठ 456; त.ज्ञा. 41)।

ख. प्रतिष्‍ठा-कला –

जिसके द्‍वारा अचेतन तत्वों की चेतन तत्व में प्रतिष्‍ठा होती है, उसको प्रतिष्‍ठा – कला कहते हैं। यह एक तरफ प्रपंच की स्थिति में सहायक बनती है और दूसरी तरफ साधकों में शिव के प्रति अनुराग की ऐसी भावनाओं को स्थापित करती है, जिनसे साधकों का संसार के प्रति राग निवृत्‍त हो जाता है। इसी कला का पर्याय ज्ञानशक्‍ति है (अनु.सू. 3/25; सू.सं भाग 2 पृष्‍ठ 456;त.ज्ञा. पृष्‍ठ 42)।

ग. विद्या-कला –

जिसकी सहायता से साधक माया और उसके कार्यभूत इस प्रपंच से विविक्त आत्मतत्व को जानता है, उसको विद्या-कला कहते हैं। इच्छा-शक्ति इस विद्या-कला का पर्याय है (अनु. सू. 3/25; सू. सं. भाग 2 पृ. 457; त ज्ञा. पृ. 42)

घ. शांतिकला –

जिस कला की सहायता से साधक के मल, आणव, मायीय और कर्मरूपी पाश, उपशांत हो जाते हैं, उसको शांतिकला कहते हैं। इस कला का पर्याय ‘आदि शक्‍ति’ है (अनु.सू. 3/25; सू.सं. भाग-2 पृष्‍ठ 457; त. ज्ञा. पृष्‍ठ 42)।

ड. शांत्यतीत-कला –

पाश-जाल के उपशम के अनंतर अद्‍वितीय सत्-चित्-आनंदैकरस रूप परशिव का बोध जिस कला से साधक को प्राप्‍त होता है, उसको शांत्यतीत कला कहते हैं। इसका पर्याय ‘पराशक्‍ति’ है (अनु.सू. 3/25; सू.सं. भाग 2 पृष्‍ठ 457; त.ज्ञा. पृष्‍ठ 42)।

च. शांत्यतीतोत्‍तरा कला –

सच्‍चिदानन्दैकरस-रूप परशिव का जो बोध है, उससे भी अतीत अत्यंत सूक्ष्म परमतत्व में साधक जिस कला के द्‍वारा समरस हो जाता है उसको शान्त्यतीतोत्‍तरा कला कहते हैं। इसका पर्याय है चिच्छक्‍ति (अनु.सू. 3/24)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

कला कार्य का एक प्रकार।

कला अचेतन है और चेतन कारण पर ही पूर्णत: निर्भर है। पञ्‍चभूत, उनमें रहने वाले गुण तथा कर्मेन्द्रियाँ कला कहलाते हैं। कला द्‍विविध है- कार्याख्याकला तथा कारणाख्याकला। कार्याख्याकला दस प्रकार की कही गई है – पञ्‍चभूत – पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा उनमें रहने वाले पाँच गुण – गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द। कारणाख्या कला में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ घ्राण, रसना, चक्षु, त्वक् और श्रोत्र; पाँच कर्मेन्द्रियाँ- हाथ, पैर, वाणी, गुदा और उपस्थ तथा तीन अंतःकरण मन, बुद्‍धि और अहंकार आते हैं। इस तरह से कारणाख्याकला तेरह प्रकार की हुई। (सर्वदर्शन संग्रह, पृ. 168)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

कला (पंचक) तत्त्वों के सूक्ष्म रूपों को कला कहते हैं। प्रत्येक कला प्रायः कई एक तत्त्वों को व्याप्त करके ठहरती है। आणव-उपाय की कला-अध्वा की धारणा में जिन पाँच कलाओं का आश्रय लेकर शिवभाव के आणव समावेश का अभ्यास किया जाता है वे इस प्रकार हैं :- निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, शांता या शांति तथा शांतातीता या शांत्यातीता कला। इनमें से प्रथम चार कलाओं को क्रमशः पार्थिव, प्राकृत, मायीय और शाक्त अंड भी कहते हैं। (तन्त्र सार पृ. 109, 110)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कला तत्त्व परिपूर्ण ऐश्वर्यशाली परमेश्वर की क्रियाशक्ति के संकोचक तत्त्व को कला तत्त्व कहते हैं। इस संकोचक तत्त्व के प्रभाव से पशु प्रमाता में किंचित् कर्तृत्व सामर्थ्य अर्थात् कुछ ही कर सकने की सामर्थ्य रहती है, वह किसी किसी ही क्रिया को कर सकता है, सभी कुछ नहीं कर सकता है। (शि.स.वा., पृ. 43)। यह तत्त्व माया तत्त्व से विकास को प्राप्त हुए पाँच कंचुक तत्त्वों में पहला तत्त्व है। इसे ही जीव की संकुचित क्रिया सामर्थ्य कहा जाता है। (ई.प्र.वि.2, पृ. 208-9)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कला-अध्वन् छत्तीस तत्त्वों को व्याप्त करके ठहरने वाली निवृत्ति, प्रतिष्ठा आदि पाँच कलाओं को क्रम से आलम्बन बनाकर अपने शिवभाव के समावेश को प्राप्त करने का योग मार्ग। तत्त्व के सूक्ष्म रूप को कला कहते हैं। एक एक कला कई एक तत्त्वों को व्याप्त करके ठहरती है। कला अध्वा नामक साधना आणवोपाय की देशाध्वा नामक धारणा में आती है। (तन्त्र सार पृ. 109, 111)। इसे पंचकला विधि या धारणा भी कहते हैं। देखिए पंचकला विधि। एक एक कला में विद्यमान वर्णों को मंत्रों को, पदों को, तत्त्वों को तथा भुवनों को साधक भावना के द्वारा अपने देह के भीतर समा लेने के अभ्यास से अपने विश्वात्मक शिवभाव के समावेश का अनुभव करता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कलातीत निवृत्ति, प्रतिष्ठा आदि सभी पाँचों कलाओं की कलना से भी परे ठहरने वाला परतत्त्व। परतत्त्व पूर्णतया शुद्ध, असीम एवं स्वतंत्र है। इस प्रकार के परतत्त्व के शुद्ध संवित् स्वरूप को ही कलातीत कहा जाता है। शिव तत्त्व से ऊपर सैंतीसवाँ परमशिव तत्त्व कलाओं की कलना से परे ठहरता है, उसे ही कलातीत कहा जाता है। (तन्त्र सार पृ. 110)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कलितासनम् ईश्‍वर का नामांतर।

ईश्‍वर कार्य से कलित अथवा विभूषित होने के कारण कार्य का आसन है। जैसे आकाश तारों से कलित होताहै ठीक उसी प्रकार ईश्‍वर तीन प्रकार के कार्य – विद्‍या, कला तथा पशु से विभूषित होता है क्योंकि इस तीन प्रकार की वही सृष्‍टि, स्थिति व संहार करता है। ‘आसन’ शब्द से यहाँ पर पद्‍मासन आदि से तात्पर्य नहीं है अपितु आसन शब्द यहाँ पर ईश्‍वर की शक्‍ति के लिए प्रयुक्‍त हुआ है। ईश्‍वर कार्य में स्थित है- (आस्ते ട अस्मिन् आसनम् कार्यमनेव वा अध्यास्त इत्यासन मित्यर्थ :- पा. सू. कौ. भा. पृ. 58)। अव्यय या अमृतस्वरूप ईश्‍वर अपनी स्वतंत्र इच्छा से समस्त कार्य में स्थित रहता है और वह कार्य उसकी अपनी ही शक्‍ति में सदा ठहरा रहता है। अतः कार्य सदा कारण में स्थित रहता है। पर सत्‍तारूप पशुपति व्यापक है, कार्य व्याप्य है। वह अपनी स्वतंत्र इच्छा से समस्त कार्य की बहीः सृष्‍टि करता है। अतः कलितासनम् कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 58,59,60)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

कादि-हादि-कहादि मत शक्तिसंगम तन्त्र (1/1/9-10, 2/58/78-79) में बताया गया है कि तन्त्रराज तन्त्र में आठ खण्ड हैं। चार खण्ड पूर्वार्ध में और चार खण्ड उत्तरार्ध में हैं। पूर्वार्ध में कादिमत का और उत्तरार्ध में हादि मत का प्रतिपादन किया गया है। काली के मन्त्र का प्रथम अक्षर ककार है और सुन्दरी के मन्त्र का पहला वर्ण हकार है। अतः काली का सम्प्रदाय कादिमत के नाम से और सुन्दरी का सम्प्रदाय हादिमत के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। ककार ब्रह्मरूप है और हकार शिव स्वरूप। यहीं अन्यत्र (1/2/98-99) बताया गया है कि उक्त उभय मतों का प्रतिपादक होने से ही तन्त्रराज तन्त्र को विराण्मत के नाम से भी जाना जाता है। उक्त दो मतों के अतिरिक्त इस तन्त्र (2/6/35) में कहादि मत का उल्लेख कर उसकी व्याख्या की गई है कि इस मत में तारिणी (तारा) विद्या की आराधना की जाती है। वहीं इसको उत्तराम्नाय विद्या भी कहा गया है। इस विषय की विशेष जानकारी उक्त ग्रन्थ के चतुर्थ खण्ड के उपोद्धात (पृ. 28-30) से प्राप्त की जा सकती है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

कापालिक पाशुपत संन्यासियों का एक संप्रदाय।

कापालिक पाशुपत मत का ही अवान्तर भेद है। कापाली संन्यासी शिव के कपाली रूप को ही अधिकतर पूजते हैं। इसी कारण कापालिक कहलाते हैं। लिंग पुराण के नौवें अध्याय तथा कर्मपुराण के सोलहवें अध्याय में कापालिक मत को वेदबाह्य कहा गया है। कुछ अभिलेखों में कापालिकों को सोमसिद्‍धांती तथा शिवशासन, इन नामों से अभिहित किया गया है।
मैत्रायणीय उपनिषद में सोमसिद्‍धान्तियों का उल्लेख आया है। बृहत् संहिता के 86 वें अध्याय के बाइसवें श्‍लोक में कापालिकों का ऐसा उल्लेख हुआ है कि वे मानव हड्‍डियों की मालाएँ पहनते हैं, मानवखोपड़ी में भोजन खाते हैं और ब्राह्‍मण की खोपड़ी की हड्‍डी में सुरापान करते हैं तथा अग्‍नि में मानवमांस की बलि देते हैं। यह कापालिक मत प्राय: समस्त भारत में फैल गया था। भवभूति (आठवीं शती) के नाटक मालतीमाधव में कापालिकों का लंबा चौड़ा वृतांत आया है। जैन राजा महेंद्रवर्मन (छटी शती) के मत्‍तविलासप्रहसन में कापालिकों के आचार विचार का स्पष्‍ट वर्णन है। दण्डी के दशकुमार चरित में भी कापलिक संन्यासी का वर्णन है। कथासरित्सागर में कापालिकों संबंधी कई एक आख्यान आए हैं। यमुनाचार्य के आगमप्राभाष्य में भी इनका संक्षिप्‍त वर्णन आया है। कापालिकों के मत में निम्‍नलिखित छः मुद्राओं को धारण करने से ही मुक्‍ति की प्राप्‍ति होती है। वे छः मुद्राएँ हैं – कर्णिका, रुचक, कुण्डल, शिखामणि, भस्म और यज्ञोपवीत। इनके अतिरिक्‍त कुछ गुप्‍त क्रियाओं का भी विधान किया जाता था।
इस तरह से पाशुपतों में से ही कोई अत्युग्र साधना में लगे हुए साधु साधक कापालिक कहलाते थे। इन्हें अतिमार्गी भी कहा गया है, क्योंकि इनकी साधना सभी शास्‍त्रीय मार्गों का अतिक्रमण करती है। इन्हें महाव्रती भी कहा जाता था, क्योंकि ये अतीव उग्र व्रतों का पालन करते रहे। वर्तमान आनन्दमार्गी साधुओं ने भी कापालिक मत के कई एक उग्र अंशों को ग्रहण किया है। महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में भी कापालिकों का वर्णन आता है। अग्रतर कापालिकों को कालामुख नाम दिया गया है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

कामकला अकार रूप प्रकाश के साथ हकाररूप विमर्श का, अर्थात् अग्नि के साथ सोम का साम्य भाव ही काम अथवा रवि के नाम से प्रसिद्ध है। शास्त्रों में जिस अग्नीषोमात्मक बिन्दु का उल्लेख पाया जाता है, वह भी यही है। शिव ही अकार और शक्ति ही हकार है। बिन्दु रूप में यही अहम् अथवा अहन्ता है। साम्य के भंग होने पर यह बिन्दु प्रस्पन्दित होकर शुक्ल और रक्त बिन्दु के रूप में आविर्भूत होता है। इसमें प्रकाश शुक्ल बिन्दु और विमर्श रक्त बिन्दु है। दोनों ही परस्पर अनुप्रवेशात्मक साम्यावस्था मिश्र बिन्दु है। शुक्ल बिन्दु अग्नि का, रक्त बिन्दु सोम का और मिश्र बिन्दु रवि या काम का प्रतिनिधित्व करता है। अग्नीषोमात्मक बिन्दु भी रवि या काम के ही कलाविशेष हैं। अतः कामकला के नाम से उक्त तीनों बिन्दुओं का बोध होता है। इन तीन बिन्दुओं की समष्टि ही भगवती त्रिपुरा का अपना स्वरूप है। इसका ऊर्ध्व बिन्दु (रवि) देवी के मुख के रूप में अग्नि और सोम बिन्दु स्तनद्वय के रूप में तथा हकार की अर्धकला योनि के रूप में ध्येय है। कामकला का यही स्वरूप है। नित्याषोडशिकार्णव (1/185-186), कामकला-विलास (1-6 श्लो.) प्रभृति ग्रन्थों में इसका वर्णन मिलता है। ‘हर’ इस पद का आधा भाग ‘र’ अक्षर है। इसी को अक्षरोवासना के क्रम में हराध कहा गया है। इसका आकार प्राचीनतर लिपि में जैसा है उसी के ऊपर यदि दो बिन्दुओं को और उन दो के ऊपर एक और बिन्दु को लगा दिया जाए तो निष्कला कामकला का अक्षरमय रूप बन जाता है। इसी अक्षररूपिणी कामकला का वर्णन ‘मुखं बिन्दुं कृत्वा’ इत्यादि श्लोक के द्वारा सौन्दर्यलहरी में किया गया है। परन्तु इस रहस्य को और प्राचीन लिपियों को न जानने के कारण चिद्विलास टीका आदि ग्रन्थों में बड़े-बड़े विद्वानों ने भी पाठकों के सामने भ्रान्त धारणाओं को उपस्थित किया है। मातृका-उपासना कश्मीर में बहुत प्रचलित थी। शारदा लिपि में अब भी कामकला भगवती के निष्फल रूप को बिन्दुत्रय युक्त हरार्ध में स्पष्ट देखा जा सकता है। वही सौन्दर्यलहरी में वर्णित मन्मथकला का लिपिमय आकार है। आगे ‘हार्धकला’ शब्द की व्याख्या को भी देखिए।

दर्शन : शाक्त दर्शन

कामकार विधिवचन से प्रयुक्त न होकर केवल परानुग्रह की दृष्टि से इच्छा मात्र से करना कामकार है। इसके अनुसार “कामेन इच्छामात्रेण कारः करणम्’ ऐसी कामकार शब्द की व्युत्पत्ति है अथवा ‘कामेन काऐ यस्य स कामकारः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार परानुग्रह के लिए इच्छा मात्र से किया गया कर्म कामकार है। जो ब्रह्मविद् है, उसमें ऐसे कर्म से गुण या दोष का संश्लेष नहीं होता है (अ.भा.वृ. 1282)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

कामराज विद्या कामराज संतान और लोपामुद्रा सन्तान के नाम से त्रिपुरा सम्प्रदाय के दो मुख्य विभाग हैं। कामराज सन्तान के प्रवर्तक क्लीमानन्द, अर्थात् रति के पति कामदेव हैं। इन्होंने ही सर्वप्रथम लोक में कादि विद्या को प्रवृत्त किया। इसीलिये इस विद्या का नाम कामराज विद्या पड़ा। कादि विद्या का अभिप्राय त्रिपुरा भगवती के उस मन्त्र से है, जिसका आरंभ ककार से होता है। दिव्यौघ, सिद्धौघ और मानवौघ क्रम से यह विद्या आज भी लोक में प्रवृत्त है। प्रपंचसार, सौन्दर्यलहरी नित्याषौडशिकार्णव प्रभृति ग्रन्थों में इस विद्या का उद्धार और उपासना विधि विस्तार से वर्णित है। ज्ञानार्णव, श्रीविद्यार्णव प्रभृति ग्रन्थों में इस विद्या के अनेक भेदों और उपभेदों का वर्णन मिलता है। भास्कर राय इस विद्या की परम्परा के उज्जवल रत्न हैं। नित्याषोडशिकार्णव की टीका सेतुबन्ध, ललितासहस्त्रनामभाष्य, वरिवस्यारहस्य प्रभृति ग्रन्थों में इस विद्या के गरिमामय दर्शन का उन्होंने बड़ी ही ओजपूर्ण भाषा में प्रतिपादन किया है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

कामरुपित्व इच्छानुसार भिन्‍न-भिन्‍न रूपों को धारण करने की शक्‍ति।

कामरुपित्व उद्‍बुद्‍ध क्रियाशक्‍ति का दूसरा प्रकार होता है। सिद्‍ध साधक का अपनी स्वतंत्र इच्छा के अनुसार भिन्‍न-भिन्‍न रूपों को धारण कर पाना उसका कामरुपित्व होता है। ‘काम’ यहाँ पर इच्छा अर्थ में प्रयुक्‍त हुआ है तथा ‘रुपित्व’ भिन्‍न-भिन्‍न रूपों के अर्थ में। सिद्‍ध साधक का अधिकार सृष्‍टिकृत्य पर हो जाता है। जैसे गणकारिकाव्याख्या में कहा गया है कि कर्मादि से निरपेक्ष होकर स्वेच्छा से अनन्त रूपों को धारण करना ही कामरुपित्व होता है। (ग. का. टी. पृ. 10)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

कामेश्वर-कामेश्वरी शिव और शक्ति ही त्रिपुरा सिद्धांत में कामेश्वर और कामेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध हैं। वस्तुतः परम शिव ही प्रकाश और विमर्श के रूप में विभक्त होकर कामेश्वर और कामेश्वरी का रूप धारण करते हैं। श्रृंगाट के मध्य स्थित महाबिन्दु में, जो कि ओड्याण पीठ का प्रतीक है, इनकी उपासना की जाती है। त्रिपुरा विद्या का प्रथम उपदेश भगवान् कामेश्वर भगवती कामेश्वरी को ही करते हैं। ये ही कृतयुग में चर्यानाथ और त्रिपुरसुन्दरी के रूप में अवतीर्ण होते हैं। त्रेता, द्वापर और कलियुग में भी ये विभिन्न नामों से मिथुन भाग में अवतीर्ण होते हैं। इन्का विवरण नित्याषोडशिकार्णव प्रभृति ग्रन्थों में मिलता है। त्रिकोण के बाहर पश्चिम, उत्तर, पूर्व और दक्षिण दिशाओं मे बाण, धनुष, पाश और अंकुश नामक आयुधों की पूजा का विधान है। (नि.षो. 1/179-180)। योगिनी-हृदय (1/54) में आश्रय और आश्रयी (कामेश्वर और कामेश्वरी) के भेद से इनकी संख्या आठ बताई गई है। इसका तात्पर्य यह है कि साधक स्त्री को साध्य मान कर यदि प्रयोग करना चाहे तो उक्त चार आयुधों से संवलित कामेश्वरी का द्यान करे। त्रिपुरा सम्प्रदाय में कामेश्वरी पद का प्रयोग षोडश नित्याओं में से द्वितीय नित्या, वशिनी प्रभृति आठ आवरण देवताओं में द्वितीय देवता तथा कामरूप पीठ की अधिष्ठात्री के लिये भी होता है। किन्तु इनमें से किसी का भी संबंध कामेश्वर के साथ नहीं है, अर्थात् सदाशिवाय बैन्दव चक्र में बैन्दवासन पर तो कोमश्वरांक निलया कामेश्वरी की ही उपासना होती है, जो कि कामेश्वर के साथ वहाँ नित्या समरसभाव में अवस्थित रहती हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन

कायक सत्य और पवित्र भाव से जीविकोपार्जन करना अनिवार्य है। इस प्रकार की जीविका के लिए किये गये उद्‍योग को ‘कायक’ कहते हैं। इस उद्‍योग को करने का प्रधान उद्‍देश्य व्यक्‍तिगत उपभोग और भोगविलास न होकर गुरु, लिंग, जंगम आदि अतिथियों का सत्कार करना है। इस अतिथि-सत्कार को ‘दासोടहं’ भाव से करना चाहिए, अर्थात् ‘मैं सब सत्पुरुषों का तथा शिव का दास हूँ’, इस पवित्र भाव को मन में रखकर करना चाहिए। इस तरह की अतिथि-सेवा से अवशिष्‍ट अन्‍न को प्रसाद के रूप में ग्रहण करना चाहिए। अतिथि-सत्कार रूप इस महान् उद्‍देश्य को सामने रखकर किया जाने वाला शरीरिक या बौद्‍धिक परिश्रम ‘कायक’ कहलाता है और इसे ‘कर्मयोग’ भी कहते हैं।

प्रतिदिन संपादिंत द्रव्य उसी दिन इस महान् उद्‍देश्य के लिए लगाना चाहिए और इसके लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। इस तरह कायक-तत्व में ‘असंग्रह’ और ‘अपरिग्रह’ ये दो महत्वपूर्ण अंश हैं। इसमें अतिथि-सत्कार और स्वावलंबन का समन्वय है।
12 वीं शताब्दी के वीरशैव संतों ने ‘कायक’ तत्व पर ज्यादा जोर दिया। कायक को उपासना का एक अंग माना, क्योंकि अहंकार-रहित भाव से किये गये सब कार्य-कलाप भगवान की तरफ से जाने में सहायक होते हैं। ‘कायक’ का यह संदेश है कि उद्‍योग के बिना जीने, रहने तथा पूजा करने का अधिकार नहीं है। कायक के बिना पूजाविधि पूरी नहीं होती, अतः यह पूजा का ही एक अंग है। समाज और व्यक्‍ति इन दोनों के उद्‍धार की कल्पना इस कायक-तत्व में निगूढ है। (व.वी.धर्म पृष्‍ठ 150, 158, 185; शू.सं.प. पृष्‍ठ 674-711)।)
दर्शन : वीरशैव दर्शन

कायव्यूहज्ञान यह एक विभूति है। योगसूत्र (3/29) में कहा गया है कि नाभिचक्र में संयम करने पर यह ज्ञान उदित होता है। काय=शरीर; व्यूह=अवयवों या उपादानों का संनिवेश जो शरीर के रूप में निष्पन्न होता है। व्याख्याकारों ने इस प्रसंग में शरीर के तीन दोषों (वात -पित्त -कफ) रक्त आदि सात धातुओं (शरीर के उपादान) का उल्लेख किया है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

कायसपंद् काय (= शरीर) का एक विशेष प्रकार का विकास या परिणाम कायसपंद् है। रूप (=अंगों की आकर्षकता), लावण्य (=कान्ति), बल, तथा शरीर का वज्रवत् दृढ़ एवं अभेद्य होना – ये चार कायसपंद् कहे जाते हैं (योगसूत्र सं. 3/46)। यह भूतजय का एक फल है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

कायसिद्धि तप से जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वे दो प्रकार की हैं – कायसिद्धि तथा इन्द्रियसिद्धि (योगसूत्र 2/43)। शरीरसम्बन्धी सिद्धियाँ कायसिद्धि हें – ऐसा प्रतीत होता है। प्राचीन सांख्याचार्य देवल के अनुसार अणिमा, महिमा और लघिमा – ये तीन कायसिद्धियाँ हैं। 2/43 योगसूत्र की व्याख्या में वाचस्पति ने उपर्युक्त तीनों के अतिरिक्त ‘प्राप्ति’ सिद्धि को भी (द्र. अणिमादि सिद्धियों का विवरण) कायसिद्धि में गिना है। कायसिद्धि अर्थात् देहसिद्धि का विशिष्ट उल्लेख हठयोगशास्त्र में (विशेषकर नाथयोग शाखा में) मिलता है। योगाग्नि से पवित्र होने के कारण शरीर में जो जरादिहीनता होती है, वह कायसिद्धि है – यह इन शास्त्रों का कहना है। ऐसा शरीर काठिन्य आदि भौतिक धर्मों से बाधित नहीं होता, ऐसा माना जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

कारण हेतु।

पाशुपत दर्शन के अनुसार ईश्‍वर अथवा पति ही वास्तविक कारण पदार्थ है। ईश्‍वर ही समस्त कार्य अथवा सृष्‍टि का परम कारण है, भवोद्‍भव है। (पा. सू. 1.44)। ईश्‍वर समस्त सृष्‍टजगत का एकमात्र उद्‍भव है। वह इस सृष्‍ट जगत को केवल उत्पन्‍न ही नहीं करता है अपितु इस जगत की स्थिति व संहार भी करता है तथा इन कृत्यत्रय को करने में पति पूर्णरूपेण स्वतंत्र है। उसे और किसी बाह्य वस्तु या कारण की अपेक्षा नहीं होती है। पति ही जीवों को बंधन में डालता है तथा वहीं उनको मुक्‍ति देता है। अतः समस्त कार्य का एकमात्र आधारभूत कारण पति है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 54, 55)। जन्म के कारणभूत प्राक्‍तन कर्म तभी सफल होते हैं जब पति उन्हें सफल बनाएँ। अतः मूल कारण वही है। मूल प्रकृति तेईस तत्वों का उपादान कारण है, परंतु उसे परिणामशील बना देने वाला पति ही वास्तविक कारण है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

कारण कारण पंचक सृष्टि, स्थिति, संहार, विधान तथा अनुग्रह नामक पाँच पारमेश्वरी कृत्यों को क्रियान्वित करने वाले ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर तथा सदाशिव नामक पाँच कारणों को कारण पंचक कहते हैं। कारण षट्क ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर, सदाशिव तथा अनाश्रित शिव को कारण षट्क कहते हैं। (तं.सा.पृ. 57)। बहिर्मुख स्पंदन के उन्मेष मात्र की अवस्था में स्थित शिव को ही अनाश्रित नाम दिया गया है। इसे शून्यातिशून्य दशा का अधिपति माना गया है। सृष्टि आदि करने में किसी का भी आसरा न लेने के कारण इसे अनाश्रित नाम दिया गया है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कारण बिन्दु भास्कर राय आगम और तन्त्रशास्त्र के अंतिम महान् आचार्य माने जाते हैं। नित्याषोडशिकार्णव की सेतुबंध टीका, वरिवस्या रहस्य और ललिता सहस्त्र नाम की सौभाग्य भास्कर व्याख्या इनके प्रसिद्धतम ग्रन्थ हैं। सौभाग्य भास्कर में प्रसंगवश इन्होंने प्रपंचसार में प्रतिपादित सृष्टि प्रक्रिया की व्याख्या की है। वे लिखते हैं कि प्रलयावस्था में ब्रह्म घनीभूत दशा में अवस्थित रहता है। उस समय आगे जिन प्राणियों की सृष्टि की जाने वाली है, उनके कर्मों के साथ ब्रह्मा की माया शक्ति भी प्रसुप्तावस्था में रहती है। समय के अनुसार कर्मों का परिपाक होने पर ब्रह्म की विचिकीर्षा उत्पन्न होती है। उस समय माया शक्ति प्रबुद्ध हो उठती है। ब्रह्म की यह शक्ति अवयक्त के नाम से अभिहित होती है, क्योंकि इस दशा में यद्यपि कर्मों का परिपाक हो जाता है और उसकी शक्ति भी प्रबुद्ध हो जाती है, किन्तु वह अभी अव्यक्त रहती है। इसी को कारण बिन्दु कहते हैं, क्योंकि यह जगत रूपी अंकुर का कन्द भाग है। कन्द भाग, अर्थात् जड़ के विकसित होने के बाद ही जैसे अंकुर फूटकर ऊपर आता है, उसी तरह से इस कारण बिन्दु के विकास के बाद ही आगे की सृष्टि चलती है ‘विचिकीर्षुर्घनीभूता सा चिदम्योति बिन्दुताम्’ प्रपंचसार के इस वचन में बिन्दु पद कारण बिन्दु का बोधक है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

कारवण पाशुपत मत का उद्‍भव स्थान।

पुराणों और अभिलेखों के आधार पर कारवण उस स्थान विशेष का नाम है, जहाँ पर महेश्‍वर ने लकुलीश के रूप में मानव अवतार धारण किया। उस समय उस स्थान का नाम कायावरोहण या कायारोहण पड़ गया। यह स्थान बड़ौदा नगर से उन्‍नीस मील दूर स्थित वर्तमान कारवन नाम गाँव से अभिन्‍न है। कायावरोहण का अर्थ काया का अवरोहण अर्थात् उतरना तथा कायारोहण का अर्थ काया का उठना या चढ़ना है। दोनों शब्द विपरीतार्थक हैं, परंतु इन दोनों नामों का औचित्य यों सिद्‍ध होता है। जब महेश्‍वर की काया का अवरोहण श्मशान में पड़े शव में हुआ तो उस स्थान का नाम कायावरोहण पड़ गया। उस शव में अवतरित काया उस शरीर या काया के माध्यम से ही उठी तो स्थान का नाम कायारोहण पड़ गया। इस स्थान कायावरोहण अथवा कायारोहण का विस्तृत वर्णन कारवन माहात्म्य में मिलता है जो ईश्‍वर, देवी तथा ऋषियों आदि का संवाद है तथा गणकारिका के परिशिष्‍ट के रूप में ओरियंटल इंस्टीट्‍यूट, बड़ौदा से छपा है। इसमें कारवन का महात्म्य गाया गया है तथा लकुलीश के अवतार लेने के बारे में लंबा चौड़ा वर्णन किया गया है। इसमें लकुलीश का मुनि अत्रि के वंश में विश्‍वराज के पुत्र के रूप में जन्म का वर्णन है। (ग.का कारवन माहात्म्य पृ. 51)। इसमें कहा गया है कि इस स्थान पर शंकर स्वयं निवास करते हैं तथा इस स्थान के चार युगों में चार नाम गिनाए गए हैं। वे हैं – कृतयुग (सत्ययुग) में इच्छापुरी, त्रेतायुग में मायापुरी, द्‍वापरयुग में मेघावती तथा कलियुग में कायावरोहण। इस तरह से कारवण – माहात्म्य में कायावरोहण अथवा कायारोहण को पुष्यस्थली माना है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

कार्ममल देखिए ‘मल’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

कार्ममल संकुचित कर्तृत्व या कर्मकर्तृत्व का अपरिपूर्ण अभिमान तथा कर्मवासना रूपी मल। कार्ममल को संसृति का मूल कारण माना गया है। आणव तथा मायीय मलों द्वारा अपने पूर्ण प्रकाशात्मक तथा विमर्शात्मक स्वातंत्र्य से रहित हो जाने पर तथा द्वैत दृष्टिकोण के प्रकट हो जाने पर प्रमाता कार्ममल का भागी बनता है। कार्ममल के कारण प्रमाता को अपने शुद्ध स्वरूप से भिन्न जड़ स्वभाव देह, बुद्धि आदि पर अहंता का तथा इनकी क्रियाओं पर अपने संकुचित कर्तृत्व का अभिमान हो जाता है। उसका यही अभिमान कर्मवासना में परिणत हो जाता है। परिणामस्वरूप वह संसृति के भंवर में फंस जाता है। वस्तुतः परम शिव ही सर्वकर्ता है। परंतु इसके विपरीत अपने संकुचित स्वरूप पर ही संकुचित कर्तृत्व का अभिमान होना कार्ममल है। (ई.प्र. 3-2-4, 5, 10; मा.वि.वा. 1-314,15)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कार्य जगत्।

पाशुपत दर्शन के मुख्य पाँच पदार्थों में प्रथम पदार्थ कार्य है। इस दर्शन में जगत् को कार्य (फल) कहा गया है। कार्य को अस्वतंत्र माना गया है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 147)। गणकारिका टीका में भी कार्य की यही व्याख्या है कि जो कुछ भी अस्वतंत्र है वह कार्य है। (यदस्वतंत्रं तत्सर्वंकार्यं-ग.का.टी.पृ. 10)। वहाँ पर कार्य को द्रव्य भी कहा गया है। माधव के अनुसार जो तत्व ईश्‍वर पर निर्भर है वह कार्य है। (सर्वदर्शनसंग्रह प-.167)। कार्य त्रिविध होता है – विद्‍या, कला तथा पशु। इस तीन तरह के कार्य का एकमात्र कारण ईश्‍वर है। उसी में कार्य उत्पन्‍न होते हैं, उसी में लीन होते हैं।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

कार्य बिन्दु कारण बिन्दु से क्रमशः कार्य बिन्दु, नाद और बीज की उत्पत्ति होती है, जो कि पदार्थों की पर, सूक्ष्म और स्थूल दशा के प्रतीक हैं। ये क्रमशः चित्स्वरूप, चिदचिन्मिश्रित स्वरूप और अचित्स्वरूप होते हैं। ये ही कारण बिन्दु प्रभृति चार तत्त्व अधिदैवत अवस्था में अव्यक्त, ईश्वर, हिरण्यगर्भ और विराट् के, शान्ता, वामा, ज्येष्ठा, रौद्री शक्ति के तथा अम्बका, इच्छा, ज्ञाना, क्रिया शक्ति के रूप में विकसित होते हैं। अधिभूत अवस्था में ये कामरूप, पूर्णगिरि, जालन्धर और ओड्याण पीठ का रूप धारण करते हैं और अध्यात्म पक्ष में कारण बिन्दु, शक्ति, पिण्ड, कुण्डली प्रभृति शब्दों से अभिहित होते हैं, जिनकी कि स्थिति मूलाधार में रहती है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

काल दीक्षा का अंग।

दीक्षा को देने का कोई विशेष समय होता है। वह पूर्वाह्न अथवा पूर्वसंध्या का समय या दिन का पूर्व भाग होता है। (ग.का.टी.पृ.8)। काल दीक्षा का द्‍वितीय अंग है। उचित काल पर दी हुई दीक्षा शिष्य के लिए सफल हो जाती है, अतः उचित काल पर ही दीक्षा देने का विधान पाशुपत साधना में माना गया है। इसीलिए गणकारिका में काल को दीक्षा का एक अंग माना गया है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

काल ईश्‍वर का नामांतर।

पाशुपत शास्‍त्र में ईश्‍वर को ‘काल’ नाम से अभिहित किया गया है क्योंकि वह समस्त चराचर जगत् (ब्रह्मा से लेकर कीट पर्यन्त) का सृष्‍टि संहार करता है।
ब्रह्मादिभूर्जपर्यन्तं जगदेतच्‍चराचरम्

यत: कलयते रुद्रः कालरूपी ततः स्मृतः। काल्यात् कलयते यस्मात् कलाभ्यः कालपर्यपात् कलनात् कालनाच्‍चापि काल इत्यभिधीयते।।

                    (पा. सू. कौ. भा. पृ. 73)।
महेश्‍वर भिन्‍न-भिन्‍न जीवों को भिन्‍न-भिन्‍न शरीरों में भिन्‍न-भिन्‍न स्थानों पर उत्पन्‍न करता है तथा संहार करता है, अतः उनका विविध रूपों में कलन करता हुआ वह काल भी कहलाता है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

काल तत्त्व क्रमरूपता को आभासित करने वाला संकोचक तत्त्व। माया तत्त्व से ही विकास को प्राप्त हुए पाँच कंचुक तत्त्वों में से यह पाँचवाँ कंचुक तत्त्व है। यह तत्त्व कला, विद्या आदि कंचुक तत्त्वों के प्रभाव से संकोच को प्राप्त हुई ज्ञान और क्रिया शक्तियों को और अधिक संकुचित करता हुआ उनमें क्रमरूपता के आभास को प्रकट कर देता है। इससे प्रमाता ऐसा सोचने लगता है कि उसने अमुक कार्य किया, कर रहा है या करेगा, वह था, वह यह या वह होगा आदि। इसी प्रकार प्रमेय पदार्थो में भी यह तत्त्व क्रमरूपता को प्रकट करता हुआ प्रमाता के व्यवहार को बहुत अधिक संकुचित कर देता है। (ई.प्र.वि., 2, पृ.208, तं.सा.पृ. 80)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


काल संकर्षिणी शिव से लेकर पृथ्वी पर्यंत समस्त सूक्ष्म एवं स्थूल सृष्टि का सृजन करने के कारण भैरव रूप वाली तथा इस प्रकार के पर-भैरव के साथ अभिन्न तथा अवभासित होने वाली परमशिव की नैसर्गिक पराशक्ति। इस शक्ति की स्पंदमानता के बिना कुछ भी आभासित नहीं हो सकता है। यही शक्ति समस्त विश्व की सारी कलना का स्रोत बनती हुई उसको स्फुटता प्रकट करती हुई पुनः उसे अपने में पूर्णतया आत्मसात् करती हुई शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण संवित् रूप में चमकती रहती है। (तं.आ. 3-234, वही वि. पृ. 223)। परमेश्वर की परा, परापरी तथा अपरा नामक तीन मुख्य शक्तियों को व्याप्त करके ठहरने वाली उसकी स्वभावभूता पराकलनात्मिका शक्ति। (तन्त्र सार पृ. 1.28)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


काल-अध्वन् आणवोपाय की स्थान – कल्पना नामक धारणा में वर्ण, मंत्र और पद को आलंब न बनाकर की जाने वाली शैवी साधना में शिवभाव में समाविष्ट करने वाला एक आणव मार्ग। कालाध्वा की धारणा में साधक पद, मंत्र और वर्ण को क्रम से आलंबन बनाता हुआ समस्त काल परिमाणों को अपने श्वास प्रश्वास रूप प्राण के ही एक एक संचार के भीतर भावना के द्वारा देखता हुआ समस्त काल तत्त्व को व्याप्त कर लेता है। इसके सतत अभ्यास से वह काल के संकोच से मुक्त हो जाता है तथा परमशिव के कालातीत रूप के समावेश को प्राप्त करता है। (तन्त्र सार पृ. 57, 61)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कालचक्र कालचक्र शब्द का सामान्य अर्थ समय का चक्र है, जो कि निरन्तर गतिशील है, रात-दिन घूमता रहता है। किन्तु बौद्ध तन्त्रों में यह एक विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वहाँ इसका अर्थ अद्वय, अक्षर, परम तत्त्व है। काल करुणा से अभिन्न शून्यता की मूर्ति है। चक्र पद का अर्थ संवृति रूप शून्यता है। बौद्ध तन्त्रों में बताया गया है कि जाग्रत् अवस्था के क्षीण होने के कारण बोधिचित काय शान्त या विकल्पहीन होता है, यही ‘का’ से अभिप्रेत है। कायबिन्दु के निरोध से ललाट में निर्माणकाय नाम का बुद्धकाय प्रकट होता है। स्वप्नावस्था का जो क्षय होता है, यही प्राण का लय है। इस अवस्था में वाग्बिन्दु का विरोध होता है। इससे कण्ठ में संभोगकाय का उदय होता है, जो ‘ल’ से अभिप्रेत है। सुषुप्ति के क्षय होने पर चित्त बिन्दु का निरोध होता है। उस समय हृदय में धर्मकाय का उदय होता है। जाग्रत् तथा स्वप्नावस्था में चित शब्द आदि विषयों में विचारण करता है। इसीलिये चंचल रहता है और तम से अभिभूत हो जाता है। अठारह प्रकार के धातु विकारों से यह विकृत रहता है। इनका अपसारण करने पर चित्त निरुद्ध हो जाता है। यही ‘च’ का अभिप्राय है। इसके बाद तुरीयावस्था का भी क्षय हो जाता है। तब काय आदि सभी बिन्दु सहज सुख के द्वारा अच्युत हो जाते हैं। उसी समय तुरीयावस्था का भी नाश हो जाता है। स्वरगत ज्ञानबिन्दु के निरोध से नाभि में सहजकाय का अविर्भाव होता है। यही ‘क्र’ का अभिप्राय है। इस तरह से इस कालचक्र में चार बुद्धकायों का समाहार है। इसी को प्रज्ञा और उपाय का सामरस्य कहते हैं। वज्रयान और सहजयान के समान कालचक्रयान भी बौद्ध तन्त्रों की एक विशिष्ट उपासना विधि है। इसका विपुल साहित्य उपलब्ध है (भारतीय साधना और संस्कृति, भास्करी 2, पृ. 540)।

दर्शन : शाक्त दर्शन

कालमुख पाशुपत मत का अवान्तर भेद।

कालमुख पाशुपत मत का ही अवान्तर भेद है। वास्तव में कापालिक ही दो तरह के थे। वेद विहित विधि का पालन करने वाले ब्राह्‍मण कापालिक मतावलंबी थे। ब्राह्मणेतर तथा वेद विरोधी कालमुख मतावलंबी थे। ये अपने विधि विधानों में पूर्णरूपेण स्वतंत्र थे तथा कापालिकों से और आगे बढ़े हुए थे। रामानुज ने ब्रह्मसूत्र के शारीरक मीमांसाभाष्य ग्रंथ में कालमुखों के मत के बारे में थोड़ा बहुत परिचय दिया है। वे कहते हैं कि कालमुख मत के अनुसार जीवन सुख व मोक्ष दोनों की प्राप्‍ति विशेष विधानों के पालन करने से होती है। विशेष विधान हैं – मानवखोपड़ी को पान भाजन के रूप में प्रयोग करना, शव के भस्म को शरीर पर मलना, शव के मांस को खाना, लगुड धारण करना, रूद्राक्ष का वलय बाँह पर धारण करना आदि। (श्रीभाष्य अथवा शारीरक मीमांसाभाष्य 2-2, 35-37)।
कालमुखों के विधि विधान अधिक उग्रवादी हैं। इन्हें अतिवादी भी कहा जा सकता है। इन्हीं के एक संप्रदाय को अघोरंपथी कहते हैं जो शिव के अघोर रूप को पूजते हैं। कापालिक और कालमुख दोनों मतों के सिद्‍धांत कोई नए नहीं थे अपितु साधना के विधि विधान ही कुछ नए अपनाए गए थे। कालमुखों को कई बार कालामुख भी कहा गया है। टी.ए.जी. राव कहते हैं कि इन संन्यासियों को माथे पर काला तिलक लगाने के कारण कालामुख नाम पड़ा हो। (एलीमेंट्स ऑफ़ हिंदू आइकोनोग्राफी, भाग 1, 25)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

कालशक्ति क्रमरूपता का आभास करवाने वाली पारमेश्वरी शक्ति। (तं.आ. 6-8)। परमेश्वर अपनी इसी शक्ति से अपनी परिपूर्ण अभेद दशा में भी भेद की सी दशा को आभासित करता हुआ काल को अवभासित करता है। पारमेश्वरी शक्ति जब क्रिया का अवभासन करती है तो एक क्रिया के अंगों में परस्पर तथा अनेकों क्रियाओं में परस्पर जो वैचित्र्य प्रकट होता है उसके आधार पर मापीय प्रमाता क्रमरूपतामय संबंध की कल्पना करता हुआ क्रमात्मक काल की कल्पना करता रहता है। ऐसी कल्पना का बीज परमेश्वर की जिस शक्ति में विद्यामान रहता है उसे कालशक्ति कहते हैं। (मा.वि.वा. 1-99, 100)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


काली परमेश्वर की कलन सामर्थ्य रूपिणी परमेश्वरता। कलना जिन कई एक प्रकारों से होती है, उन्हें – 1. क्षेप, 2. ज्ञान, 3. संख्यान, 4. गति, 5. नाद इत्यादि कहते हैं। (1) क्षेप अपने से भिन्नतया अवभासन करने को कहते हैं। (2) भिन्नतया अवभासित वस्तु के निर्विकल्प अवभासन को ज्ञान कहते हैं। (3) विकल्पन व्यापार को संख्यान कहते हैं। (4) प्रकाशस्वरूप पर प्रतिबिम्बवत् आरोपण करने को गति कहते हैं। (5) आभासित वस्तु को आत्म विमर्शन में ही विलीन करना नाद कहलाता है। इस प्रकार की पाँच प्रकार की कलना समस्त प्राणियों के विचित्र व्यवहारों में जिस शक्ति के द्वारा परमेश्वर चलाता रहता है उसे काली कहते हैं। तात्पर्य यह है कि लोकव्यवहार में उच्चतम से लेकर निम्नतम प्राणियों से सम्बद्ध प्रमातृ-प्रमेय-प्रमाण के परस्पर व्यापारों को चलाने वाली परमेश्वरी शक्ति का नाम काली है। इसीलिए इसको एक दूसरा नाम ‘मातृ सद्भाव’ भी दिया गया है, क्योंकि सभी स्तरों में चलने वाला सारा प्रमातृ व्यापार काली के द्वादश स्वरूपों के अधिकार क्षेत्र में ही पूरा हो जाता है। काली को कालसंकर्षिणी भी कहते हैं। आगमों में इसे वामेश्वरी भी कहा गया है। व्यवहार में इसके बारह प्रकार प्रकट होते हैं जिन्हें द्वादश काली कहते हैं। (तन्त्रालोक, 3-234, वही. वि., पृ. 223,तन्त्र सार , पृ. 28, 30)। देखिए वामेश्वरी चक्र, काली द्वादश।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


काली द्वादश परमेश्वर समस्त प्रमातृ-प्रमेय-प्रमाण व्यापारों को भेद, अभेद और भेदाभेद के क्षेत्रों में अपनी जिस शक्ति से चलता है उसे इन व्यवहारों की कलना कराने के कारण काली (देखिए) कहते हैं। अभेदात्मक शक्ति क्षेत्र में इन व्यवहारों को चलाने वाली काली को परा देवी कहते हैं। विद्यादशा के भेदाभेदमय क्षेत्र में इन्हें परापरा देवी नामक काली चलाती है और मायादशा के भेदात्मक क्षेत्र में अपरा देवी नामक काली। ये तीन देवियाँ उपरोक्त व्यवहारों समेत इन तीन क्षेत्रों के प्रपंचों को धारण करती हैं। फिर जिस पराशक्ति के द्वारा परमेश्वर इन समस्त कलनात्मक व्यापारों की धारणात्मक क्रिया को अपने भीतर ही समाते हुए उसका अभेदमय विमर्शन करता है उसे काल संकर्षिणी (देखिए) देवी कहा जाता है। यह चार काली नामक देवियाँ अपने स्वातंत्र्य से अपने अपने क्षेत्रों में सृष्टि, स्थिति और संहार को करती हुई तीन तीन रूपों में प्रकट होकर विविध वैचित्र्यपूर्ण कलनाओं को करती रहती हैं। इस प्रकार से एक एक के तीन तीन रूप बनते हैं और उसके फलस्वरूप इन कालियों की संख्या बारह बन जाती है। किसी किसी उपासना क्रम में इन बारह के एक समष्टि रूप को भी मानकर तेरह कालियों की उपासना होती है। इन कालियों की उपासना के द्वारा साधक अपने में इन कालियों को उद्बुद्ध करता है। तब ये कालियाँ समस्त प्रमातृ व्यापारों को अपने में इस तरह से धारण करती हैं कि मानों उनका ग्रसन करती हों। बारह कालियों में से पहली चार प्रमेय प्रपंचों का ग्रसन करती हैं। मध्य वाली चार कालियाँ प्रमाण व्यापारों का और अंतिम चार प्रमातृ व्यापारों का। ऐसी ग्रसन लीला का अभ्यास करता हुआ योगी परिपूर्ण भैरव भाव से समाविष्ट होता हुआ उत्कृष्ट प्रकार के शाक्त समावेशों का अनुभव करता है। इस प्रकार से काश्मीर के शैवों की काली उपासना कोई बाह्य पूजा न होकर शाक्त योग का एक उत्कृष्टतर प्रकार है। (तन्त्र सार , पृ. 28, 30)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कालोपाय देखिए काल-अध्वन्।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


काश्मीर सम्प्रदाय शक्ति संगम तन्त्र में पूरे भारतवर्ष को कादि और हादि के भेद से 56 देशों में बाँटा गया है और बताया गया है कि मरुदेश से नेपाल तक काश्मीर सम्प्रदाय को मान्यता प्राप्त है। हादि मत के अनुसार काश्मीर में त्रिपुरा की और कादि मत के अनुसार तारिणी की उपासना की जाती है। इस सम्प्रदाय में शक्तिपात के अनुसार ऊर्ध्वाम्नाय दीक्षा प्राप्त होती है। प्रथमतः यह ऋक्काश्मीर, यजुःकाश्मीर, सामकाश्मीर और अथर्वकाश्मीर के रूप में चतुर्धा विभक्त है। शैवकाश्मीर, शाक्तकाश्मीर और शिवशक्तिकाश्मीर विभागों को शुद्ध, उग्र और गुप्त भेदों में विभक्त करने पर इसके 9 भेद होते हैं। काश्मीर सम्प्रदाय को सर्वदिव्य नाम यहाँ दिया गया है और फिर उसके भावनाथ, क्रियानाथ, ज्ञाननाथ, चित्पर, चेतनेश, सिद्धनाथ और ऋद्धिनाथ नामक भेद गिनाये गये हैं। भावदिव्य और क्रियादिव्य के भेद से भी काश्मीर सम्प्रदाय के दो भेद होते हैं। पूजा विधि और पात्रासादन विधि के भेद के अनुसार ही उक्त भेद प्रदर्शित हैं। वस्तुतः देखा जाए तो इनमें परस्पर कोई भेद नहीं है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

कुंडलिनी अपने तीन रूपों द्वारा विश्व को धारण करने वाली चित् शक्ति। तीन रूप इस प्रकार हैं :- 1. शक्ति कुंडलिनी ‘परमेश्वर की वह पराशक्ति जिसके द्वारा वह अपनी परमेश्वरता को निभाता रहता है। 2. विश्व कुंडलिनी – जगत् के व्यवहार में प्रवृत्त वह पारमेश्वरी शक्ति जो समस्त ब्रह्मांड को भीतर से और बाहर से धारण करती हुई इसे सतत गति से चलाती रहती है। 3. प्राण कुंडलिनी- प्राणन-क्रिया की आधारभूत वह शक्ति जिससे प्राणियों के समस्त चेतनोचित व्यापार चलते रहते हैं। यह मुख्यतया ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के रूपों में अभिव्यक्त होती रहती है। यह कीटाणु से लेकर ब्रह्मा तक सभी प्राणियों में सदैव जागती ही रहती है। (तन्त्रालोक, खं. 2, पृ. 140 से 142)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कुंडलिनी प्रबोध साधक की प्राण कुंडलिनी के सामर्थ्य में सद्यः एक विशेष वृद्धि का हो जाना। वह विशेष वृद्धि इतनी आश्चर्यकारिणी होती है कि साधक यह समझ बैठता है कि मानो उसके भीतर कोई सोई हुई शक्ति जाग पड़ी हो। यह प्रबोध क्रिया-योग से भी होता है, ज्ञान योग से भी और इच्छा योग से भी। उत्तरोत्तर योग में प्रबोध सुगमता से, आयास राहित्य से होता है और दुष्परिणाम से मुक्त रहता है। क्रिया-योग द्वारा यत्नपर्वूक और आयास पूर्वक होता है, परंतु ज्ञानयोग और इच्छायोग के अभ्यास में स्वयमेव हो जाता है और कुंडलिनी की ऊपर नीचे गति भी वैसे ही हो जाती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कुण्डलिनी कुण्डलिनी को कुलकुण्डलिनी अथवा शक्तिकुण्डलिनी भी कहते हैं। कुल चक्र में कुण्डलाकार अवस्थित होने से इसको कुलकुण्डलिनी कहते हैं। अथवा कु अर्थात् पृथ्वी तत्त्व के आधार मूलाधार में लीन रहने से इसको कुलकुण्डलिनी कहते हैं। तन्त्रशास्त्र में मूलाधार में सर्पतुल्य कुण्डलाकार स्थित शक्ति का नाम कुण्डलिनी है, अतः इसको शक्तिकुण्डलिनी भी कहते हैं। इसको कुण्डलिनी इसलिये कहते हैं कि यह कुण्डलाकार स्थित है। कुण्डलिनी शक्ति निद्रित नागिन के समान आकृति वाली है। वह स्वयंभू लिंग को वेष्टित किये रहती है। कोटि विद्युत् के समान दीप्तिमती, नाना प्रकार के वस्त्र और अलंकार से विभूषित है। यह श्रृंगार रस से ओत-प्रोत है और इसको कारण द्रव्य प्रिय है। कारण द्रव्य को कुल द्रव्य कहा जाता है। इसलिये भी इसको कुलकुण्डलिनी कहते हैं। यह सर्वमन्त्रमयी और सर्वतत्त्वस्वरूपिणी है। रुद्रयामल आदि तन्त्रों में इसकी उपासना विस्तार से वर्णित है। संमोहन तन्त्र में इसको कुण्डली कहा गया है। वहाँ बताया गया है कि यह मनोहर शक्तिपीठ त्रिकोणाकार है। उसके गह्वर में जीव रूपी अतिचंचल कामवायु स्थित है। उसमें अधोमुख लिंग रूपी स्वयंभू भगवान् निवास करते हैं। इसमें नीवार धान्य के अग्रभाग तुल्य सूक्ष्म शंख वर्ण और साढ़े तीन बलय युक्त श्रेष्ठ देवता कुण्डली का निवास है। वह अपने मुख से ब्रह्ममुख को आच्छादित किये रहती है। जो साधक इस कुण्डलिनी शक्ति को अपने वश में कर लेता है, वह मानव नहीं, देवता बन जाता है। तन्त्रसार (शब्दकल्पद्रुम, भास्करी 2, पृ. 140 पर उद्धृत) में बताया गया है कि मूलधार निवासिनी, इष्ट देवता स्वरूपिणी, सार्धत्रिवलयवेष्टिता, विद्युत् के समान कान्तिवाली, स्वयंभू लिंग को वेष्टित कर स्थित, उदयोन्मुख दिनकर के समान कान्ति वाली कुण्डलिनी शक्ति का ध्यान कर उसको प्राण मन्त्र द्वारा उत्थापित करना चाहिये। समस्त अशुभ क्रमों की शान्ति के लिये साधक को एकाग्रचित्त होकर दृढ़ संकल्प के साथ इस बात की भावना करनी चाहिये कि मेरा समस्त शरीर उस शक्ति के प्रभा पटल से व्याप्त है। जाग्रत् होने पर यह कुण्डलिनी शक्ति षट्चक्र का भेदन कर सहस्रार चक्र में शिव के साथ समरस हो जाती है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

कुण्डलिनी योग यह सत्य है कि पातंजल योगसूत्र में कुण्डलिनी अथवा षट्चक्र आदि में से किसी एक का भी उल्लेख नहीं है, किन्तु यह निश्चित है कि कुण्डलिनी योग एक प्राचीन भारतीय योग की विशेष पद्धति है। आगम और तन्त्रशास्त्र की विभिन्न शाखाओं में इसका वर्णन मिलता है। कहा जा सकता है कि यह एक तान्त्रिक योगपद्धति है। कुछ आचार्य “अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या” (10/2/31) इस अथर्ववेद के मन्त्र में कुण्डलिनी का उल्लेख मानते हैं। प्रायः सभी आगमिक और तान्त्रिक आचार्य प्रसुप्तभुजागाकारा, सार्धत्रिवलयाकृति, मूलाधार स्थित शक्ति को कुण्डलिनी के नाम से जानते हैं। जिस योगपद्धति की सहायता से इस कुण्डलिनी शक्ति को जगा कर सुषुम्ना मार्ग द्वारा षट्चक्र का भेदन कर सहस्त्रार चक्र तक पहुँचाया जाता है और वहाँ उसका अकुल शिव से सामरस्य सम्पादन कराया जाता है, उसी का नाम कुण्डलिनी योग है। आधारों अथवा चक्रों आदि के विषय में मतभेद होते हुए भी मूलाधार स्थिति कुण्डलिनी शक्ति का सहस्त्रार स्थित शिव से सामरस्य सम्पादन सभी मतों में निर्विवाद रूप से मान्य है। सम्प्रति षट्चक्र भेदन का पूर्णानन्द यति विरचित श्रीतत्त्वचिन्तामणि के षष्ठ प्रकाश में वर्णित क्रम ही प्रायः सर्वमान्य है। अतः तदनुसार ही यहाँ इस विषय का निरूपण किया गया है। यम और नियम के नित्य नियमित आदरपूर्वक निरन्तर अभ्यास में लगा हुआ योगी गुरुमुख के मूलाधार से सहस्त्रार पर्यन्त कुण्डलिनी के उत्थापन के क्रम को ठीक से जान लेने के उपरान्त पवन और दहन के आक्रमण से प्रतप्त कुण्डलिनी शक्ति को, जो कि स्वयंभू लिंग को वेष्टित कर सार्धत्रिवलयाकार में अवस्थित है, हूंकार बीज का उच्चारण करते हुए जगाता है और स्वयंभू लिंग के छिद्र से निकाल कर उसको ब्रह्म द्वार तक पहुँचा देता है। कुण्डलिनी पहले मूलाधार चक्र स्थित स्वयंभू लिंग का, तब अनाहत चक्र स्थित बाण लिंग का और अन्त में आज्ञाचक्र स्थित इतर लिंग का भेदन करती हुई ब्रह्मनाडी की सहायता से सहस्त्र दल में प्रविष्ट होकर परमानन्दमय शिवपद में प्रतिष्ठित हो जाती है। योगी अपने जीवभाव के साथ इस कुलकुण्डलिनी को मूलाधार से उठाकर सहस्त्रार चक्र तक ले आता है और वहाँ उसको पर बिन्दु स्थान में स्थित शिव (पर लिंग) के साथ समरस कर देता है। समरसभावापन्न यह कुण्डलिनी शक्ति सहस्त्रार चक्र में लाक्षा के वर्ण के समान परमामृत का पान कर तृप्त हो जाती है और इस परमानन्द की अनुभूति को मन में सजोये वह पुनः मूलाधार चक्र में लौट आती है। यही है कुण्डलिनी योग की इतिकर्तव्यता। इसके सिद्ध हो जाने पर योगी जीवन्मुक्त हो जाता है, शिवभावापन्न बन जाता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

कुमारी 1. सतत रूप से क्रीडनशील परा शक्ति। 2. पूर्ण भेदात्मक दृष्टिकोण के कारण कुत्सित बनी हुई संसृति को मारने वाली (कु : मारी) अर्थात् शांत करनेवाली प्रभुशक्ति। 3. सर्वज्ञता तथा सर्वकर्तृता से सर्वथा पूर्ण होने के कारण समस्त विशुद्ध एवं अशुद्ध सृष्टि को व्याप्त करने वाली तथा इस कार्य में सहायक बनने वाली सभी शक्तियों की सामरस्यस्वरूप होने के कारण संपूर्ण कुत्सित संसृति को अपने में पूर्णतया विलीन कर देनेवाली पारमेश्वरी इच्छाशक्ति। (देखिए) (शि.सू.वा.पृ. 16)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कुल कुण्डलिनी अकुल कुण्डलिनी शब्द का विवरण देते हुए बताया गया है कि नीचे अकुल स्थान स्थित अरुण वर्ण के ऊर्ध्वमुख सहस्त्रार पद्म को कुल कुण्डलिनी कहा जाता है। यह विमर्शात्मक हकार स्वरूपा है। नित्याषोडशिकार्णव (4/14) में इसको कुलयोषित तथा त्रिपुरसुन्दरी दण्डक (26 अनु.) में कूलवधू कहा गया है। उक्त दोनों ग्रन्थों में बताया गया है कि यह कुलवधू (कुलेश्वरी = कुलाभिमानिनी संवित्) मूलाधारगत चतुर्दल कमल के मध्य में स्थित त्रिकोणात्मक कुल स्थान, अर्थात् श्रृंगाट पीठ से उठ कर कुटिल मार्ग पर, अर्थात् स्वाभाविक सृष्टि मार्ग को छोड़कर गुरु प्रदर्शित युक्ति के सहारे संहार मार्ग पर चल कर सूक्ष्म रूप से सुषुम्ना मार्ग के भीतर प्रविष्ट हो आगे बढ़ती है। वह अनाहत स्थान स्थित सूर्यमण्डल को भेदती हुई अकुल कुण्डलिनी से जा मिलती है। वहाँ यह शिव और शक्ति के सामरस्य से समुद्रभूत अमृतमय परमानन्द में डूब जाती है, निर्लक्षण, निर्गुण, कुल और रूप से रहित पर-पुरूष को प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार सृष्टि प्रक्रिया में यह कुण्डलिनी अकुल स्थान से कुल स्थान की ओर गतिशील होती है और संहार प्रक्रिया में कुल स्थान से अकुल स्थान तक आती है। इसकी अकुल स्थान से कुल स्थान की ओर गति ही सृष्टि, अर्थात् बन्ध का तथा कुल स्थान से अकुल स्थान तक की गति संहार, अर्थात् मोक्ष का कारण बनती है। शैव सिद्धान्त (अघोरशिवाचार्य कृत मृगेन्द्र वृत्ति – दीपिका, पृ. 349) में कुण्डलिनी को महामाया कहा गया है।

   पूर्णानन्द की श्रीतत्त्वचिन्तामणि (6/11-14) में कुल कुण्डलिनी का वर्णन इस प्रकार किया गया है – चतुष्कोणात्मक मूलाधार चक्र के मध्य में स्थित त्रिकोणाकार कामरूप पीठ के बीच स्वयंभू लिंग का निवास माना जाता है। इस स्वयंभू लिंग के ऊपर विषतन्तु के समान अत्यंत सूक्ष्म, ब्रह्मरन्ध्र के द्वार को अपने मुँह में पकड़े हुए, शंख के आवर्त के समान आकार वाली, सोये हुए सर्प के समान सार्धत्रिवलयाकृति कुण्डलिनी शक्ति सोई रहती है। यह कुण्डलिनी शक्ति वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक शब्दों की जननी है और यहीं से प्राण और अपान, श्वास और प्रश्वास की भी उत्पत्ति होती है। इसी के मध्य में वह पराशक्ति अवस्थित है, जिससे कि इस पूरे विश्व की उत्पत्ति होती है। योगी के हृदय में इसी की कृपा से ब्रह्मज्ञान का उदय होता है। इसका अभिप्राय यह है कि स्वयंभू लिंग के ऊपर प्रसुप्त सार्धत्रिवलया कुण्डलिनी शक्ति के ऊर्ध्व भाग में नादात्मक परा शक्ति का निवास है। यही कुल कुण्डलिनी के नाम से प्रसिद्ध है। मूलाधार चक्र में इसका ध्यान किया जाता है।
दर्शन : शाक्त दर्शन

कुल शक्ति कुलार्णव तन्त्र (17/27) में कुल शब्द का अर्थ शक्ति तथा अकुल शब्द का अर्थ शिव किया है। इस संबंध में अकुल शब्द की व्याख्या करते समय कुछ लिखा जा चुका है। शाक्त दर्शन में शक्ति को विमर्श के नाम से अभिहित किया गया है। लिपि (हकार) इसकी वाचिका है। प्रकाशात्मक अकुल शिव के बोधक अकार के साथ विमर्शात्मक कुल शक्ति के बोधक हकार को मिलाने से ‘अहम्’ पद बनता है। प्रकाश विमर्शात्मक इस अहंतत्त्व से ही शब्दार्थात्मक षडध्वमय जगत् की सृष्टि होती है। तन्त्रालोक (3/67) में कुल शक्ति को कौलिकी कहा है। इस कौलिकी शक्ति से अकुल शिव कभी जुड़ा नहीं रहता। नित्याषोडशिकार्णव (4/6-7) और सौन्दर्य लहरी के प्रथम श्लोक में बताया गया है कि बिना शक्ति के शिव कुछ भी नहीं कर सकता, वह शव के तुल्य है। शक्तिसंवलित शिव ही जगत् की रचना करने में समर्थ हो सकता है। इसीलिये विज्ञानभैरव (श्लो. 20) में शक्ति को शिव का मुख कहा गया है, क्योंकि इस शक्ति की सहायता से ही शिव स्वरूप की अभिव्यक्ति हो सकती है।

 शक्ति के अतिरिक्त कुल शब्द के अन्य भी अनेक अर्थ शास्त्रों में मिलते हैं। अकारादि हकारान्त वर्णमातृका को आठ वर्गों में बाँटा गया है। इन आठ वर्गों की ब्रह्माणी प्रभृति महालक्ष्मी पर्यन्त आठ अधिष्ठातृ देवियाँ हैं। इस समूह को कुल कहा गया है (नि. अ. पृ. 26)। षट्त्रिंशतत्त्वात्मक जगत् को तथा शरीर को भी कुल कहा जाता है (नि . कृ. पृय 27, 213)। शैव और शाक्त दर्शन में कुल नाम का एक स्वतन्त्र शास्त्र है (नि. अ. पृ. 74)। भैरव को भी कुल कहते हैं (नि. अ. पृ. 139)। मेय, माता और मिति लक्षण जगत को भी कुल कहा गया है (चि. च श्लो. 72)। देह से संबद्ध दस इन्द्रियाँ भी कुल कही गई हैं (यो. दी. पृ. 295)। अर्ध्यभट्टारक को भी कुल बताया गया है (भ. म. पृ. 115)। महानिर्वाणतन्त्र में जीव, प्रकृति, दिक्, काल, आकाश, क्षिति, जल, तेज और वायु इन नौ पदार्थों को कुल शब्द से अभिहित किया गया है। कुल रत्न में आचार, विनय, विद्या, प्रतिष्ठा, तीर्थदर्शन, निष्ठा (श्रद्धा), वृत्ति, तप और दान – इन नौ पदार्थों को कुल की संज्ञा दी है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

कुलचक्र कुलाचार की रहस्यमयी साधना का गुप्त स्थान। किसी भवन में केवल कुलाचार के साधक उनकी शक्तियाँ, कुलगुरु और उसकी दूती प्रवेश करते हैं। वहाँ कुल प्रक्रिया की साधना के अनुकूल विविध मंडलों से सुशोभित एक विशाल मंडप को सजाकर उसके भीतर तांत्रिक प्रक्रिया से पंचमकारमयी रहस्य चर्या के द्वारा शक्ति की उपासना की जाती है जिससे साधकों को सद्यः शिवभाव की अभिव्यक्ति के साथ ही साथ विविध ऐश्वर्यों की भी प्राप्ति होती है। शक्तिपूजा के अनुकूल उस सजे हुए और समस्त उपयोगी सामग्री से युक्त तथा विविध मंडलों से सुशोभित साधना मंडप को कुलचक्र कहते हैं। उसी के भीतर चक्रयाग किया जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कुलयाग संपूर्ण भावजात को शिवशक्ति के स्फार के रूप में अनुभव करना, देखना तथा इसी के अनुसार व्यवहार करना। कुल को परमेश्वर की परमाशक्ति, स्वातंत्र्य, ओज, वीर्य इत्यादि कहा जाता है। समस्त विश्व इसी परमाशक्ति का ही विविध रूपों में प्रसार है। योगी समस्त विश्व को कुल के ही रूप में देखता हुआ जिस व्यवहार को करता है उस व्यवहार को कुलयाग कहते हैं। (तं.आ.आ. 29, 4 से 6)। इस याग की प्रायोगिक प्रक्रिया को रहस्य चर्चा कहा जाता है। उसका उपदेश गुरु से अधिकारवान् शिष्य को ही मिलता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कुलाचार एक विशेष प्रकार का साधना मार्ग। मोक्षप्राप्ति के अनेकों मार्ग माने गए हैं। उनमें उत्तरोत्तर उत्कृष्ट मार्ग यह हैं – वेदाचार, शैवाचार (सिद्धांत शैव का भक्ति प्रधानमार्ग) वामाचार, दक्षिणाचार, कुलाचार, मताचार, कौलाचार और त्रिकाचार। (तं.आ.वि. 1 पृ. 48, 49)। कुलाचार में भी उपासना पंचमकारों की सहायता से की जाती है। उससे त्वरित तन्मयता हो जाती है और सद्यः मुक्ति और मुक्ति दोनों ही फलों का लाभ होता है। कुलाचार का यह उपासना मार्ग एक रहस्य मार्ग है और कोई कोई विरले इंद्रियजयी वीर साधक ही इसको ग्रहण कर सकते हैं। वर्तमान युग में शायद ही कोई उसे अपना सके।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


कूटस्थनित्यता नित्यता दो प्रकार की है – कूटस्थ-नित्यता और परिणामी-नित्यता। जिस पदार्थ में परिणाम नहीं होता, उसकी नित्यता कूटस्थनित्यता कहलाती है। ऐसी नित्यता केवल पुरुष (तत्त्व) में होती है। कूटस्थ नित्य पदार्थ कालातीत होता है, अतः अतीत-अनागत-वर्तमान काल का बोधक ‘था-रहेगा-है’ शब्दों का प्रयोग भी पुरुष के लिए करना असंगत है, यद्यपि व्यवहार-सिद्धि के लिए हम बद्धजीव (अविद्यावान् जीव) ऐसा कहते रहते हैं। ऐसा व्यवहार विकल्पवृत्ति में परिगणित होता है। कूट का अर्थ वह कठिन लौह निर्मित हथौड़ा है, जिससे लौहकार लौहनिर्मित अस्त्रादि का निर्माण करता है। जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के अस्त्रादि के परिवर्तन होते रहते हैं, पर ‘कूट’ अर्थात् लौह हथौड़ा का परिवर्तन नहीं होता, उसी प्रकार चित्त के परिणाम होते रहने पर भी चित्तसाक्षी पुरुष का परिणाम नहीं होता – इस सादृश्य से ‘कूट’ शब्द नित्यता के प्रसंग में प्रयुक्त होता है। कूट को पर्वत शिखरवाचक मानकर ‘जो शिखरवत् अचंचल रहता है वह कूटस्थनित्य है’ ऐसा भी कहा जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

कृतात्यय कृत के सोमभाव का अत्यय नाश कृतात्यय है। द्युलोक, पर्जन्य, पृथ्वी, पुरुष और योषित् इनका वर्णन विभिन्न आहुतियों के निक्षेपार्थ पंचाग्नि के रूप में छान्दोग्य उपनिषद् में किया गया है। इनमें पर्जन्य रूप द्वितीय अग्नि में सोम भाव को प्राप्त अप् (जल) की आहुति होने पर अप् का सोमभाव नष्ट हो जाता है और वह अप् वृष्टि भाव को प्राप्त कर जाता है। यही कृत का अत्यय है अर्थात् सोम भाव का नाश है। यही अप् क्रमशः योषित् रूप पंचम अग्नि में आहुति रूप में निक्षिप्त होकर गर्भक्रम से पुरुष भाव को धारण कर लेता है (अ.भा. 3/118)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

कृष्ण यद्यपि कृष्ण शब्द वासुदेव के अर्थ में सुप्रसिद्ध है, तथापि वल्लभ वेदांत में श्री कृष्ण साक्षात् ब्रह्म हैं। इसीलिए वल्लभ सम्प्रदायानुसार नित्य सत् एवं नित्य आनंद रूप पर ब्रह्म का बोधक है। कृष् धातु में ‘ण’ के योग से कृष्ण शब्द बना है। इसमें कृष् धातु सत्ता का वाचक है, तथा ‘ण’ निर्वृत्ति का (आनंद का) वाचक है एवं दोनों का ऐक्य रूप जो पर ब्रह्म है, वही कृष्ण है (त.दी.नि.पृ. 20)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

कृष्णकर्म चार प्रकार के कर्मों में से एक। दुरात्मा के कर्म कृष्णकर्म होते हैं – यह सामान्यतया कहा जाता है (व्यासभाष्य 4/7)। परपीड़न ही कृष्णकर्म का मुख्य लक्षण है। कृष्णकर्म मुख्यतः बाह्यसाधनों के अधीन रहता है; यह तामस भाव का वर्धक है; दुःख ही इस कर्म का प्रधान फल है। कृष्ण कर्म के संस्कार का नाश शुक्लकर्म के संस्कार से ही होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

केरल सम्प्रदाय शक्ति संगत तन्त्र में पूरे भारतवर्ष को कादि और हादि के भेद से 56 देशों में बाँटा गया है तथा बताया गया है कि अंग से मालव पर्यन्त केरल सम्प्रदाय को मान्यता प्राप्त है। हादि मत के अनुसार केरल सम्प्रदाय में कालिका की और कादि मत के अनुसार त्रिपुरा की उपासना की जाती है। यह उपासना षट्शाम्भव पद्धति से होती है और इसमें साधक सर्वोत्कृष्ट मेधा दीक्षा भी प्राप्त कर सकता है। प्रथमतः यह सम्प्रदाय ऋक्केरली, यजुःकेरली, सामकेरली और अथर्वकेरली नाम से चार भागों में विभक्त है। इस सम्प्रदाय के पुनः शैवकेरल, शक्तिकेरल और शिवशक्तिकेरल के विभाग होते हैं और इन तीनों को शुद्ध, उग्र और गुप्त भेदों में विभक्त करने पर इसके 9 भेद हो जाते हैं। द्रविड़ सम्प्रदाय का भी केरल में ही अन्तर्भाव होता है। भवसिद्ध, हरसिद्ध, कलहट्ट, गोमुख, विज्ञानी, पूर्वकेरल उत्तरकेलर, दिव्य, सत्य, चैतन्य, चिद्धन, सर्वज्ञ, ईश, माहेश्वर, विश्वरूप, ज्ञानकेरल, व्यंकटेशाख्यकेरल प्रभृति भी केरल सम्प्रदाय के ही अंग हैं। इस सम्प्रदाय के दिव्य, कौल और वाम भेद भी इसी ग्रन्थ में प्रदर्शित हैं, किन्तु वहीं यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि केरल सम्प्रदाय में दक्षिणाचार की प्रधानता है और यह वेद मार्ग का अनुवर्तन करता है। इसीलिये इसको शुद्ध मार्ग भी कहा जाता है। सम्प्रदायों के भेद का मुख्य कारण पूजाविधि और पात्रासादन विधि का अन्तर है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

केवल प्रकृति “केवल प्रकृति” “मूल प्रकृति” भी कहलाती है। यह वह प्रकृति है जो साक्षात् रूप से या परंपराक्रम से सब अनात्मवस्तुओं का उपादान तो है, पर स्वयं किसी का कार्य नहीं है। यह प्रकृति साम्यावस्थापन्न त्रिगुण है, जो नित्य (परिणामी -नित्य) है और हेतुहीन है। यह “अलिंग” भी कहलाता है। मूल प्रकृति, प्रकृतिविकृति, केवल विकृति एवं अप्रकृति अविष्कृत रूप विभाग तत्त्वदृष्टि से हैं – यह ज्ञातव्य है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

केवलविकृति सांख्यशास्त्र में तत्त्वरूप प्रमेय पदार्थों को चार भागों में बाँटा गया है – केवल प्रकृति या मूलप्रकृति, प्रकृति-विकृति, विकृति या केवल विकृति तथा अप्रकृति-अविकृति। (द्र. ‘मूलप्रकृति’ आदि शब्द)। ‘केवल विकृति’ वह वस्तु (तत्त्व) है, जिससे कोई तत्त्व उद्भूत नहीं होता – जो किसी तत्त्व का उपादान नहीं है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन तथा पाँच भूत – ये सोलह पदार्थ ‘केवल विकृति’ में गिने जाते हैं। पाँच भूतों से घट आदि जो भौतिक पदार्थ बनते हैं, वे तत्त्व नहीं हैं – यह ज्ञातव्य है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

केशव क + ईश + व के योग से केशव पद बनता है। क शब्द का अर्थ ब्रह्मा है, ईश का अर्थ शंकर है तथा व का अर्थ सुख है। पहले केश शब्द में द्वन्द्व समास होकर पुनः व शब्द के साथ अन्य पदार्थ प्रधान बहुव्रीहि समास से केशव शब्द बना है। इसके अनुसार ब्रह्मा और शंकर को भी जिससे सुख प्राप्त होता है, वह केशव है। अर्थात् अन्तर्यामी रूप में ब्रह्मा और शिव को भी सुख प्रदान करने वाले भगवान् श्री कृष्ण ही केशव हैं (भा.सु 11टी.पृ. 216)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

कैमुतिक न्याय किमुत-सुष्ठु, तत्संबंधी न्याय कैमुतिक न्याय है। वेदांतों में उपास्य रूप में प्रतिपादित होने से आसन्य (आस्य में हुआ) प्राण भी ब्रह्मातिरिक्त नहीं है। इसीलिए सामगों ने उसे पापवेध से रहित कहा है। इस प्रकार प्राणादि रूप ब्रह्म की विभूति में जब निर्दोषत्व है, तब मूलभूत ब्रह्म की निर्दोषता को क्या कहना है? अर्थात् ब्रह्म की निर्दोषता तो सुष्ठु भांति अर्थात् अनायास सिद्ध है। यही कैमुतिक न्याय है (अ.भा.पृ. 1051)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

कैवल्य कैवल्य का अर्थ है – केवल (असहाय, अद्वितीय) का भाव। सांख्ययोग में कैवल्य का अर्थ है – स्वरूपतः गुणातीत जो पुरुष है (अर्थात् केवल पुरुष), उसका गुणों के साथ अमिश्रित रूप से अवस्थान। बुद्धि -आदि गुणविकारों के साथ संबंधित रहने पर पुरुष अ-केवल होता है, अतः बुद्धि या चित्त का शाश्वत लय होने पर चित्तसाक्षी पुरुष की जो स्थिति होती है, वहीं कैवल्य है। भोग-अपवर्ग रूप पुरुषार्थ के चरितार्थ होने पर ही गुणविकारभूत बुद्धि आदि स्वकारण में लीन होते हैं। यह केवलीभाव जिस प्रकार पुरुष का है, उसी प्रकार (दृष्टिभेद से) बुद्धि का भी है। यही कारण है कि वाचस्पति ने कैवल्य प्रतिपादक योगसूत्र (4/34) की व्याख्या में ‘पुरुषस्य मोक्षः’ के साथ-साथ ‘प्रधानस्य मोक्षः’ भी कहा है। भिक्षु ने भी ‘बुद्धेः कैवल्यम्’ के साथ-साथ ‘पुरुषस्य कैवल्यम्’ भी कहा है। चूंकि पुरुष स्वरूपतः अपरिणामी हैं, अतः उनका केवलीभाव रूप कैवल्य गौणदृष्टि से ही कहा जाता है – अविद्या के कारण ही पुरुष गुणमिश्रित (अर्थात् अ -केवल) है – ऐसा प्रतीत होता है। बुद्धि और पुरुष – दोनों का कैवल्य होता है – ऐसा व्यासभाष्य (2/6) में स्पष्टतः प्रतिपादित हुआ है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

कौल मत श्रीचक्र को वियच्चक्र भी कहा जाता है। दहराकाश और बाह्याकाश में भी इसकी पूजा होती है, अतः इसको वियच्चक्र कहा जाता है। बाह्याकाश का अभिप्राय यह है कि बाह्य आकाश, अर्थात् अवकास में स्थित पीठ, भूर्जपत्र, शुद्ध पट अथवा सुवर्ण, रजत आदि से निर्मित पट्ट पर श्रीचक्र को अंकित कर उसकी पूजा की जाए। इसी को कौल पूजा कहते हैं। पाँच शक्ति चक्र और चार वह्नि (शिव) चक्रों के संयोग से श्रीचक्र बनता है। यहाँ समय मत के विपरीत चार शिव चक्रों की स्थिति अधोमुख और पाँच शक्ति चक्रों की स्थिति ऊर्ध्वमुख मानी गई है। कौल मत में संहार क्रम से श्रीचक्र लिखा जाता है। सौन्दर्यलहरी के टीकाकार लक्ष्मीधर ने (श्लो. 34, पृ. 161) कौल मत के दो भेद बताये हैं – पूर्वकौल और उत्तर कौल। पूर्व कौल पीठ प्रभृति में अंकित श्रीचक्र की पूजा करते हैं और उत्तर कौल तरुणी की प्रत्यक्ष योनि में श्रीचक्र की भावना कर उसकी सविधि उपासना करते हैं। उत्तर कौल सिद्धान्त में शक्ति तत्त्व से पृथक् शिव तत्त्व नहीं है, वह शक्ति में ही अन्तर्भूत है। अतः यहाँ शक्ति की ही उपासना की जाती है। अर्थरत्नावली (पृ. 74) में विद्यानन्द ने कुलपंचक शास्त्र का उल्लेख करते हुए उसके कुल, अकुल, कुलाकुल, कौल और शुद्ध कौल नामक भेद गिनाये हैं। कौलज्ञाननिर्णय में पदोत्तिष्ठ कौल, महाकौल, मूलकौल, योगिनीकौल, बह्निकौल, वृषणोत्थकौल, सिद्धकौल नामक सात भेद कौलों के मिलते हैं। इनमें से योगिनीकौल और सिद्धकौलों का उल्लेख मृगेन्द्रागम के चर्यापाद में (पृ. 221) भी आया है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

कौलिक योग नेत्रतन्त्र के सप्तम अधिकार में सूक्ष्म ध्यान का वर्ण मिलता है . व्याख्याकार क्षेमराज ने इसको कुलप्रक्रिया, अर्थात् कौलिक योग कहा है। कुलागम, कुलतन्त्र, अर्थात् शिवोक्त शास्त्रविशेष में वर्णित योग का नाम है कौलिक योग। तदनुसार छः चक्र, षोडश आधार, तीन लक्ष्य, पाँच व्योम, बारह ग्रंथि, तीन शक्ति, तीन धाम, तीन और दस नाडी तथा दस प्राणों से समन्वित व्याधिग्रस्त इस पिण्ड (शरीर) को सूक्ष्म ध्यान के माध्यम से आप्यायित करने पर योगी को दिव्य देह की प्राप्ति होती है। जन्म, नाभि, हृदय, तालु, बिंदु और नाद स्थान में नाड़ी, माया, योग, भेदन, दीप्ति और शान्त नामक छः चक्र स्थित हैं। अंगुष्ठ, गुल्फ, जानु, मेढ्, पायु, कन्द, नाभि, जठर, हृदय, कूर्मनाडी, कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य, ललाट, ब्रह्मरन्ध्र और द्वादशान्त ये सोलह आधार है। अथवा कुल, विष, शाक्त, वह्नि, घट, सर्वकाम, संजीवन, कूर्म, लोल, सुधाधार, सौम्य, विद्याकमल, रौद्र, चिन्तामणि, तुर्याधार, नाड्याधार नामक कुलप्रक्रियासंमत सोलह आधारों को यहाँ ग्रहण किया जा सकता है। अंतर्लक्ष्य, बहिर्लक्ष्य और उभयविध लक्ष्य ये तीन लक्ष्य हैं। माया, पाशव, ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, ईश्वर, सदाशिव, इन्धिका, दीपिका, बैन्दव, नाद और शक्ति ये बारह ग्रंथियाँ कर्थात् पाश हैं। इच्छा, ज्ञान और क्रिया ये तीन शक्तियाँ हैं। सोम, सूर्य और वह्नि ये तीन धाम हैं। सव्य, अपसव्य और मध्य पवन स्थित इडा, पिंगला और सुषुम्णा नामक तीन नाडियों तथा इनके साथ गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पूषा, यशा, अलम्बुषा, कुहू और शंखिनी नाडी को जोड़ देने पर दस नाडियों और इनके माध्यम से बहने वाले प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त, धनंजय नामक दस प्राणों से यह शरीर आवृत है। वस्तुतः यह शरीर 72 हजार अथवा साढ़े तीन करोड़ नाडियों से जकड़ा हुआ है और आणव, मायीय और कार्म मलों के कारण मलिन भी हो गया है। अतः दिव्य देह की प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि साधक योगी कन्द स्थान में चित्त को एकाग्र कर संकोच और विकास का अभ्यास करें। मध्यविकास की प्रतीक्षा करता हुआ वह मतगन्ध स्थान को दबावे, जिससे कि मध्यधाम सुषुम्णा की ऊर्ध्व गति उन्मुक्त हो जाए। कन्द भूमि में जब यह शक्ति जग जाती है, तो साधक को खेचरी मुद्रा प्राप्त हो जाती है। इसके प्राप्त होने से प्राण उसके अधीन हो जाता है और मन्त्र के प्रभाव से उसकी गति द्वादशान्त की तरफ मुड़ जाती है। पहले उसका प्राण समना धाम में प्रविष्ट होता है। वहाँ उसे अपान के उल्लास के लिये चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। चन्द्रोदय हो जाने पर योगी उससे प्राप्त अमृत से शरीरवर्ती चक्र, आधार प्रभृति को सिंचित करता है और इस प्रकार अपने पूरे शरीर को दिव्य बना लेता है, अर्थात् उसका स्वात्मस्वरूप प्रस्फुटित हो उठता है। नित्याषोडशिकार्णव (4/12-14) में भी इस स्थिति का वर्णन मिलता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

कौलिकी शक्ति अकुल परमशिव में ही समस्त कुलों को अभिव्यक्त करनेवाली उसकी नैसर्गिक स्वभावरूपा अभिन्नपराशक्ति। इसी को अनंदशक्ति, विसर्गशक्ति परिपूर्ण स्वातंत्र्यशक्ति आदि कहा जाता है। परमशिव को अकुल कहते हैं क्योंकि उसकी परा संविद्रूपता में समस्त शक्ति समूह, छत्तीस तत्त्व, संपूर्ण सूक्ष्म तथा स्थूल सृष्टि आदि केवल उसकी संवित् के ही रूप में चमकते रहते हैं। वहाँ किसी भी प्रकार के भेदाभेद या भेद का आभास नहीं होता है। परंतु परमशिव अपने निरतिशय आनंद से उद्वेलित होकर अपने में ही उन बाह्य रूपों में प्रतिबिम्ब न्याय से स्फुटित होता रहता है। यही उसका स्वरूप विमर्शन है। उसके इस अविदुर्घट कार्य को संपन्न करने वाली उसकी स्वभावभूता शक्ति को कौलिकी शक्ति कहते हैं। (तं.आ.आ. 3, 67 से 79)

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


क्रम क्रमरूपता का आभास। क्रमरूपता क्रियाशक्ति के व्यापार में प्रकट होती है। वहाँ वस्तुओं का या घटनाओं का क्रम नियत होता है। अतः क्रियाशक्ति को भी क्रम कहते हैं। (ई.प्र. 2-1-1, 2, 3)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


क्रम दर्शन क्रम दर्शन को कालीनम भी कहते हैं। इसमें शाक्त उपाय का सहारा लिया जाता है। तन्त्रालोक के चतुर्थ आह्निक में और महार्थमंजरी प्रभृति ग्रन्थों में क्रमदर्शन का अच्छा विश्लेषण किया गया है। इन ग्रन्थों के आधार पर स्वर्गीय डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय ने और विशेष कर उनके प्रिय शिष्य डॉ. नवजीवन रस्तोगी ने क्रमदर्शन पर सराहनीय कार्य किया है। अन्य दर्शनों की अपेक्षा इसकी विशेषता यह है कि इसके आगम ग्रन्थों का उपदेश भगवती ने किया है और श्रोता भगवान् शिव हैं। पंचकृत्यों में निग्रह और अनुग्रह के स्थान पर अनाख्या और भासा का समावेश है। इस दर्शन में द्वादश या त्रयोदश काली की वृन्दचक्र में पंचवाह पद्धति से उपासना की जाती है। पंचवाह क्रम में ज्ञान सिद्ध, मन्त्रसिद्ध, मेलापसिद्ध, शाक्तसिद्ध और शाम्भवसिद्ध समाविष्ट हैं। धाम, मुद्रा, वर्ण, कला, संवित्, भाव, पात और अनिकेत – इनसे वृन्दचक्र बनता है। यह शुद्ध अद्वैतवादी दर्शन है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

क्रम मुक्ति क्रम से मुक्ति प्राप्त करने को क्रम मुक्ति कहते हैं। जो साधक सद्यःमुक्ति की अपेक्षा लोकांतरों के अभिष्ट ऐश्वर्यों का आस्वाद लेता हुआ ही पूर्ण मुक्ति की इच्छा रखे, वह क्रम से मुक्ति को प्राप्त करता है। ऐसे साधकों में किसी न किसी अंश में बहिर्मुखता के संस्कार बने रहते हैं। इस कारण ये अपने वैभव का आस्वाद भी लेते रहते हैं तथा पूर्ण मुक्ति को प्राप्त करने का प्रयास भी करते रहते हैं। ऐसे साधक ऊर्ध्व भुवनों में ऐश्वर्य का भोग करते करते ही परमार्थ मुक्ति की ओर आगे बढ़ते जाते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


क्रम योग 1. क्रियायोग के अभ्यास से किया जाने वाला स्वरूप साक्षात्कार का एक उपाय। इस अभ्यास की परिपक्वता पर साधक को अपने शिवभाव पर आणव समावेश हो जाता है। देखिए आणव समावेश। 2. क्रियायोग की सहायता से किया जाने वाला वह ज्ञानयोग, जिसमें द्वादश महाकालियों की उपासना के द्वारा अपने भीतर समस्त प्रमातृ-प्रमाण-प्रमेय रूप विश्व का संहरण किया जाता है और उससे अपने परिपूर्ण शिवभाव का शाक्त समावेश हो जाता है। इसे क्रमनय भी कहते हैं। यह त्रिक साधना का ही एक विशेष अंग है। यद्यपि जयरथ ने भक्ति विशेष और रुचि विशेष के कारण इसे पृथक् क्रम दर्शन नाम दिया है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


क्रमनय देखिए क्रम योग।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


क्रमशः वृत्ति बाह्य वस्तु के विषय में जो ज्ञानरूप वृत्ति होती है, उसमें तीन अन्तःकरणों (मन, अहंकार, बुद्धि) के व्यापारों के साथ किसी एक ज्ञानेन्द्रिय का व्यापार रहता है, क्योंकि बाह्य ज्ञान ज्ञानेन्द्रिय के बिना नहीं होता। इन चारों करणों (तीन अन्तःकरण एवं पाँच ज्ञानेन्द्रियों में से कोई एक ज्ञानेन्द्रिय) के व्यापार एक साथ (युगपत्) भी होते हैं और क्रमशः भी – यह सांख्यशास्त्र का मत है (द्र. सां. का. 30)। तत्त्ववैशारदी में वाचस्पति ने कहा है कि जब कोई व्यक्ति मन्द प्रकाश में किसी वस्तु को देखता है (यह आलोचन ज्ञान है जो चक्षु रूप ज्ञानेन्द्रिय का है), बाद में ध्यानपूर्वक यह सोचता है कि यह चोर ही है (यह मन का संकल्प रूप व्यापार है) और उसके बाद यह देखकर कि यह बाण का निक्षेप कर मुझे मारने वाला ही है (यह अभिमान है जो अहंकार का व्यापार है) भागने का निश्चय करता है (यह बुद्धि का अध्यवसाय रूप व्यापार है) तब यह क्रमशः वृत्ति का उदाहरण होता है। अप्रत्यक्ष पदार्थ में अन्तःकरणों की ही वृत्तियाँ होती हैं; ये वृत्तियाँ युगपत् भी होती हैं, क्रमशः भी। पर ये वृत्तियाँ चाहे जैसी भी हों, बाह्यकरणवृत्ति -पूर्वक ही होती हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

क्राथन पाशुपत योग की एक विशेष साधना।

जगते हुए ही नींद का अभिनय करना क्राथन कहलाता है। जब पाशुपत साधक को साधना का काफी अभ्यास हो जाता है तो उसे फिर किसी शहर या गाँव में जाकर लोगों से थोड़ी दूर (ताकि वे केवल उसे देख सकें) सो जाने या ऊँघने का अभिनय करना होता है, जबकि वास्तव में वह जाग रहा होता है, फिर उसे ज़ोर ज़ोर से ऊँघना होता है। लोग जब उस साधक को ऐसे बीच मार्ग में ऊँघते हुए देखते हैं तो निंदा करते हैं। इस तरह से उनके निंदा करने से साधक के पाप उन लोगों को लगते हैं तथा उनके पुण्यों का संक्रमण इस योगी में होता है। इस तरह से क्राथन पाशुपत मत की एक विशेष योग क्रिया है। (पा. सू. कौ. पृ 83, 84) गणकारिकाटीका में भी क्राथन की यही व्याख्या हुई है। (तन्त्राऽसुप्‍तस्येव सुप्‍तलिंग – प्रदर्शन क्राथनम् – ग.का.टी.पृ 19)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

क्रिया दीक्षा का एक अंग।

शिवलिङ्ग के तथा शिष्य (जिसको दीक्षा देनी हो) – उसके संस्कार कर्म क्रिया कहलाते हैं। क्रिया दीक्षा का तृतीय अंग है, (ग.का.टी.पृ. 8,9)। क्रिया, नामक दीक्षा का विस्तार इस समय किसी ग्रंथ में नहीं मिलता है। गणकारिका की रत्‍नटीका में लिखा है कि इसका विस्तार संस्कारकारिका में देखना चाहिए। संस्कारकारिका से या तो किसी अन्य ग्रंथ को लिया जा सकता है, जो कहीं इस समय उपलब्ध नहीं है। अन्यथा गणकारिका में से ही संस्कारों से संबद्‍ध कारिका को लिया जा सकता है जिसका स्पष्‍टीकरण सुकर नहीं। गणकारिका के अनुसार क्रिया के द्‍वारा लिंङ्ग का भी संस्कार किया जाता है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

क्रिया स्वातंत्र्य परिपूर्ण परमेश्वरता। स्वेच्छा से अपने ही आनंद के लिए प्रत्येक कार्य को करने में पूर्ण स्वातंत्र्य। देखिए क्रिया शक्ति, स्वातंत्र्य शक्ति।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


क्रियाचार देखिए ‘सप्‍ताचार’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

क्रियादीक्षा देखिए ‘दीक्षा’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

क्रियाफलाश्रय सत्यप्रतिष्ठा से ‘क्रियाफलाश्रयत्व’ रूप फल का लाभ होता है – यह योगसूत्र (2/36) में कहा गया है। क्रिया = धर्माधर्म रूप क्रिया। फल = धर्माधर्म के फलभूत स्वर्गनरकादि। योगी किसी को धार्मिक होने के लिए वर दें तो वह धार्मिक हो जाता है – यह क्रियाश्रयत्त्व का उदाहरण है। उसी प्रकार स्वर्गलाभ के लिए किसी को वर दें तो उसको जो स्वर्गलाभ होता है – यह फलाश्रयत्त्व का उदाहरण है। यह ज्ञातव्य है कि ‘आग पानी हो जाए’, ऐसा विपरिणाम सत्यप्रतिष्ठा से नहीं होता। चेतन प्राणी के मन पर ही सत्यप्रतिष्ठा की शक्ति कार्य करती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

क्रियायोग जिनके चित्त स्वभावतः व्युत्थित (व्युत्थानधर्म से युक्त) रहते हैं, उनके लिए क्रियायोगमार्ग का विधान किया गया है (द्र. योग सू. 2/1 -2)। इस मार्ग में चूंकि कर्मों की सहायता से चित्तवृत्तिनिरोध-रूप योग की प्राप्ति की जाती है, इसलिए यह क्रियायोग कहलाता है। इस क्रियायोग के तीन भाग हैं – तपः, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान। क्रियायोग का साक्षात् फल है समाधि का अधिगम तथा अविद्या आदि क्लेशों का क्षीणीकरण। क्रियायोग के द्वारा क्षीण होने पर ही अविद्या आदि क्लेशों को ध्यान विशेष की सहायता से नष्ट किया जा सकता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

क्रियायोग देखिए आणव-उपाय।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


क्रियाशक्‍ति देखिए ‘शक्‍ति’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

क्रियाशक्ति परमशिव की पाँचवीं अंतरंग शक्ति। उसकी वह शक्ति, जिसके द्वारा उसमें ‘इदम्’ अर्थात् प्रमेय अंश का स्फुट आभास हो जाता है और वह आगे की सृष्टि करने के लिए तैयार हो जाता है। इस शक्ति से अहंता के भीतर इदंता विशेष स्फुटतया चमकने लगती है। (तं.सा.पृ.6)। यह शक्ति ईश्वर तत्व में अभिव्यक्त होती है। (शि.दृ.वृ.पृ. 37)। परंतु साधना क्रम में उसकी अभिव्यक्ति विद्या तत्व में मानी जाती है। (पटलसा.14)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


क्लिष्टवृत्ति चित्त-परिणाम-रूप जो वृत्ति है, उसके दो भेद हैं – क्लिष्ट और अक्लिष्ट। जिस वृत्ति के उदय में अविद्या आदि क्लेशों का प्राधान्य है, वह वृत्ति क्लिष्ट कहलाती है। क्लिष्ट वृत्ति प्राणी को रागद्वेषादिपूर्वक कर्म करने के लिए बाध्य करती है और क्लिष्ट संस्कार को बढ़ाती है। प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति – ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ क्लिष्ट भी होती हैं, अक्लिष्ट भी। उदाहरणार्थ – क्लिष्ट प्रमाण रूप वृत्ति वह है जो विवेकज्ञान के अनुकूल नहीं होती है; क्लिष्ट प्रमाण रूप वृत्ति वह है जो योगाभ्यास की विरोधिनी है; विवेक की साधक जो नहीं है, वह क्लिष्ट स्मृति है। यह ज्ञातव्य है कि क्लिष्ट वृत्तियों में उत्कर्ष -अपकर्ष होते हैं तथा क्लिष्टवृत्ति के साथ अक्लिष्टवृत्ति अंशतः संयुक्त रहती है जैसा कि व्यासभाष्य में कहा गया है – ‘क्लिष्ट वृत्ति के छिद्र में अक्लिष्ट वृत्ति रहती है’ (1/5 सूत्रभाष्य)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

क्लेश आत्मविषयक अज्ञान (विपर्ययज्ञान) का संस्कार (जिसके कारण प्राणी का संसरण होता रहता है) क्लेश है (योगसूत्र 2.3)। यह क्लेश वृत्तिरूप नहीं है; मुख्यतः वासनारूप है। वृत्तियों को जो क्लेश रूप कहा जाता है, वह गौण दृष्टि से है। क्लेश प्राणी को कर्म करने के लिए बाध्य करता है, इसलिए कर्माशय को क्लेशमूलक कहा जाता है। प्रधान क्लेश अविद्या है; इस अविद्या के ही स्थूल रूप अन्य चार क्लेश हैं, जिनके नाम हैं – अस्मिता राग, द्वेष और अभिनिवेश। क्लेशों का नाश पहले क्रियायोग से, बाद में ध्यानविशेष से किया जाता है। चित्त के नाश (स्वकारण में लय) के साथ ही क्लेश का आत्यन्तिक नाश होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

क्ष क अर्थात् पृथ्वी तत्त्व एवं ष अर्थात् सदाशिव तत्त्व के संयोग से बनने वाला कूटस्थ बीज। यह मातृका का पच्चासवाँ वर्ण है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


क्षण क्षण शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है। क्षण मुहूर्तवाची है – एक क्षण = दो घटिका = 48 मिनट। एक अन्य मत यह है – 18 निमेष में एक काष्ठा; 30 काष्ठा में एक कला; 30 कला में एक क्षण। इस प्रकार के क्षणों से सांख्ययोग के क्षण का सम्बन्ध नहीं है। यह स्पष्टतया ज्ञातव्य है कि योगशास्त्रीय क्षण का कालपरिमाण लौकिक दृष्टि से निर्धार्य नहीं हो सकता, अर्थात् यह नहीं कहा जा सकता कि क्षण एक सैकेन्ड का कितना भाग है। योगशास्त्र की दृष्टि में क्षण काल का अणुपरिमाण है, अर्थात् क्षण वह काल-परिमाण है जिसमें तन्मात्र पूर्व देश को छोड़कर उत्तरदेश में जाता है। इस काल-परिमाण की उपलब्धि चित्त की स्थिरता विशेष के द्वारा की जा सकती है। तान्मात्रिक ज्ञान धारा का एक-एक खण्ड परिमाण जिस काल में होता है – वह एक क्षण है। इन क्षणों का जो क्रम है, वही वस्तुतः काल है (योगियों की दृष्टि में)। क्षणपरिमाण काल्पनिक नहीं है, बल्कि योगियों का अनुभवगम्य है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

क्षण मनुष्य को पलक झपकने में जितना समय लगता है उसका आठवाँ अंश क्षण कहलाता है। दो क्षणों को तुटि कहते हैं। (स्व.तं. 11-199, 200)। वह सूक्ष्म अवधि, जिसमें एक विचार चित्त में ठहरता है, को भी क्षण कहते हैं। (तं.आ.7-25)। भिन्न भिन्न स्तरों के प्राणियों के तथा भिन्न भिन्न जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओं में क्षण का परिमाण भिन्न भिन्न ही हुआ करता है। चित्त में क्रम से उदय होने वाले ज्ञानांशों से यही क्षणों की गणना की जाती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


क्षार देखिए ‘अष्‍टावरण’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

क्षिप्तभूमि यह चित्त (= अन्तःकरण) की पाँच भूमियों में एक है (भूमि = सहज अवस्था)। जिस अवस्था में चित्त विषय-संपर्क से निरन्तर चंचल होता रहता है, वह क्षिप्तभूमि है। यह अवस्था रजः-प्रधान है। इस अवस्था में चित्त पारमार्थिक विषय सोच ही नहीं पाता तथा वैषयिक चिन्ता ही उसको प्रिय लगती है। क्षिप्त-अवस्था में क्लेशों की (विशेषतः राग-द्वेषों की) प्रबलता रहती है। हिंसा आदि की भावना से ऐसे चित्त में भी समाधि हो सकती है। शत्रुओं की हत्या करने के उद्देश्य से लोग अभीष्ट देवता में समाहित होते हैं; यह समाहित होना क्षिप्तभूमि में समाधि होने का उदाहरण है। यह योगसम्मत समाधि नहीं है, यद्यपि इसमें भी कभी-कभी थोड़ी देर के लिए असाधारण शक्ति आ जाती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

क्षेमी मुक्‍त जीव का लक्षण।

पाशुपत दर्शन के अनुसार युक्‍त साधक क्षेमी (निर्भय या अनन्त सुखी) हो जाता है, क्योंकि उसके समस्त अधर्म, जो योगसाधना में बाधक होते हैं, निवृत्‍त हो जाते हैं। अतः रुद्र में स्थित साधक क्षेमी होकर ठहरता है। जैसे भयंकर कांतार को पार करके मनुष्य शांत व स्वस्थ होकर ठहरता है, ठीक उसी प्रकार मुक्‍तात्मा इस सांसरिक कांतार को पार करके रूद्रतत्व में शांत व स्वस्थ होकर ठहरता है। (पा.सू.कौ.भा.पु. 139)। साधक की समस्थ शंकाएं जब अतिक्रांत या निवृत्‍ति हो जाती हैं, तो उसकी वह अवस्था क्षेमित्व की होती है। (सर्वाशङ्कास्थाना तिक्रान्तित्वं क्षेमित्वम् – ग.का.टी.पृ. 16)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

क्षोभ ज्ञेयधर्मता, उद्भव, उद्यंतृभाव अर्थात् बाह्य रूप में भासित होने की तीव्र इच्छा। प्रकाश एवं विमर्श की शुद्ध एवं परिपूर्ण सामरस्यात्मक अवस्था के बाद की तथा पूर्ण भेदात्मक विश्व के रूप में प्रकट होने से पूर्व का बाह्य रूप तथा आभासित होने की उत्कट इच्छा। परमशिव जब अपनी विमर्शात्मक आनंद शक्ति से पूर्णतया उद्वेलित होकर अपने ही स्वातंत्र्य से बाह्य रूप में आभासित होने के प्रति तीव्र इच्छायुक्त हो जाता है, तब उसमें उसकी सभी शक्तियाँ उद्वेलित हो जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप सृष्टि की रचना होती है। उसकी इस सर्वशक्तिविलोलता वाली अवस्था को क्षोभ कहते हैं, यद्यपि वस्तुतः यह क्षोभ न होता हुआ ही उस जैसा कहने मात्र में आता है। (त.आ.वि.2, पृ. 93, 94)। 2. प्राण, बुद्धि, देह आदि को अपना वास्तविक स्वरूप समझना। (स्पंदकारिकावि.पृ. 39)। ऐसा क्षोभ वाणी के व्यवहार में क्षोभ ही कहला सकता है। 3. मूल प्रकृति में गुण वैषम्य से पहली हो जाने वाली वह हलचल, जिसके फलस्वरूप प्रकृति महत्तत्त्व में परिणत हो जाती है। यह क्षोभ भी वस्तुतः क्षोभ ही होता है। प्रकृति में यह क्षोभ भगवान श्रीकंठनाथ की प्रेरणा से आता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


खेचरी 1. हठयोग की एक प्रक्रिया जिसके अभ्यास के सिद्ध हो जाने पर योगी आकाशचारी बन सकता है। 2. प्रबुद्ध साधक में जागी हुई शिव की परा शक्ति। यह शुद्ध बोध गगन में ही विचरण करती रहती है। शिवसूत्र वार्तिक में खेचरी अवस्था को शिवावस्था कहा गया है क्योंकि सिद्ध साधक इस अवस्था को प्राप्त करने पर शुद्ध चिदाकाश में विचरण करता रहता है (खे स्वचिद्गगनाभोगे चरणात्खेच रीति सा-शि.स.वा.पृ. 34) अर्थात् शुद्ध संवित् रूपता के ऐश्वर्य में ही विचरण करता रहता है अतः शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार करवाने वाली अवस्था होने के कारण खेचरी अवस्था शिवावस्था कहलाती है। (वही)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


खेचरी मुद्रा ऋजुविमर्शिनीकार शिवानन्द ने (पृ. 184-185) खेचरी मुद्रा के तीन भेद बताये हैं – अंगुलिविरचनात्मा, बोधगगनरूपा और संस्थानविशेष-रूपा। प्रथम प्रकार की खेचरी मुद्रा में अंगुलियों का उपयोग किया जाता है। तन्त्रसार (वाचस्पत्य, पृ. 2478) में इसकी विधि यह बताई गई है – बायें हाथ को दाहिनी ओर तथा दाहिने हाथ को बाईं ओर कर लें। फिर अनामिका को मिलाकर तर्जनी से लगायें और बीच की अंगुली को सटाकर अंगूठे पर जमायें। इसी से मिलती-जुलती विधि नित्याषोडशिकार्णव (3/15-17) में भी वर्णित हैं। इसको संहार मुद्रा या समय मुद्रा भी कहा जाता है। विसर्जन के समय इसका उपयोग किया जाता है।

  बोधगगन में विचारण करने वाली खेचरी को शिवानन्द ने अख्याख्येय माना है, किन्तु क्षेमराज ने शिवसूत्रविमर्शिनी (2/5) में इसकी व्याख्या की है कि यह स्वात्मस्वरूप में उछलती हुई आनन्द की लहरी है। तन्त्रसद्भाव (शि. वि. 2/5) में इसका परसंवित्ति के रूप में वर्णन किया गया है।
 तृतीय प्रकार की खेचरी का वर्णन यहाँ भिन्न-भिन्न ग्रन्थों के वचनों के आधार पर किया गया है। यह वर्णन विज्ञानभैरव, विवेकमार्तण्ड, स्कन्दपुराण काशीखण्ड तथा हठयोगप्रदीपिका प्रभृति ग्रन्थों में वर्णित क्रम से मिलता-जुलता है। तदनुसार जीभ को उलट कर कपाल के कुहर में तथा दृष्टि को ऊपर उठाकर भौंहों के बीच में लगाने का नाम खेचरी मुद्रा है। इसके अभ्यास से सभी रोग और कर्म फल नष्ट हो जाते हैं। चित्त और जिह्वा दोनों के आकाश में अवस्थान करने से ही इसको खेचरी मुद्रा कहते हैं। इस मुद्रा के अभ्यास से बिन्दु स्थिर हो जाता है। अतः इसका अभ्यास करने वाले योगी को मृत्यु का भय नहीं रहता। वह सदा अमर वारुणी का पान करता रहता है। यह साधक को उन्मना अवस्था में प्रतिष्ठित कर देती है। आकाश में गमन का सामर्थ्य भी उसको प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार इसकी यह अन्वर्थक (सार्थक) संज्ञा है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

खेचरी शक्तियाँ (अपरा) माया द्वारा मोहित साधकों के आनंद का व्यपोहन करते हुए उन्हें शून्यप्रमातृ भूमि में ही टिकाए रखने वाली शिव की शक्तियाँ। ये शक्तियाँ ख तुल्य अर्थात् आकाशतुल्य शून्य प्रमाताओं को घेर कर रखती हैं। इनका स्थान तथा कार्य क्षेत्र शून्य जीव तत्त्व ही है। उसी में ये विचारण करती हैं अतः खेचरी कहलाती हैं। (स्पंदकारिकासं.पृ. 20)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


खेचरी शक्तियाँ (परा) परमेश्वर की शक्तियों का एक वर्ग। खे अर्थात् आकाशतुल्य शुद्ध बोधस्वरूप प्रमातृतत्त्व में विचरण करने वाली शिव की विशेष शक्तियाँ। ये शक्तियाँ सदैव जीव की संवित् रूपता में ही विचरण करती रहती हैं तथा तीव्र शक्तिपात से पवित्र बने हुए सुप्रबुद्ध साधकों को उनके सर्वकर्तृत्व तथा सर्वज्ञत्व से युक्त शुद्ध संवित्स्वरूपता का बोध करवाती रहती हैं। (स्पंदकारिकासं.पृ.20)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ख्याति साधारणतया ‘ख्याति’ का अर्थ प्रकाश या ज्ञान है। इस अर्थ में ‘ख्याति’ शब्द शब्दान्तर के साथ योगशास्त्र में बहुधा प्रयुक्त होता है। ‘सत्वपुरुषान्यता ख्याति’ अथवा ‘विवेकख्याति’ शब्द इसका प्रमुख उदाहरण हैं। [विवेक (= पृथग्भाव) की ख्याति (= ज्ञान)]। विवेकख्याति के लिए भी केवल ख्याति शब्द प्रयुक्त होता है जो ‘प्रत्युदितख्याति’ (व्यासभाष्य 4/33) आदि शब्दों में देखा जाता है। चित्त की उदयव्ययधर्मिणी वृत्ति ख्याति है, ऐसा प्राचीन सांख्याचार्य पंचशिख के ‘एकमेव दर्शन ख्यातिरेव दर्शनम्’ वाक्य (व्यासभाष्य 1/4 में उद्धृत) से जाना जाता है। सत्वगुण का धर्म जो प्रकाश है, उसके लिए भी ख्याति शब्द प्रयुक्त होता है (ख्याति क्रियास्थितिशीला गुणाः; व्यासभाष्य 3/44)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ख्याति

दर्शन शास्त्र में ख्याति शब्द प्रतीति या ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अभेद ख्याति का अर्थ है अद्वय बोध। सब कुछ शिवमय है, उससे भिन्न कुछ भी नहीं है, इस तरह की एकाकार निःशङ्क प्रतीति ही यहाँ अभेद ख्याति कही गई है। भ्रान्त ज्ञान के अर्थ में भी ख्याति शब्द प्रयुक्त होता है। अपूर्णता ख्याति का अर्थ है भ्रमवश अपने पूर्ण स्वरूप का ज्ञान न होना। भारतीय दर्शन में छः प्रकार की ख्याति मानी गई है। विज्ञानाद्वैतवादी योगाचार बौद्ध आत्मख्याति को और शून्यवादी माध्यमिक असत् ख्याति को मानते हैं। प्रभाकर मीमांसक अख्यातिवादी है और नैयायिक अन्यथाख्याति को मानते हैं। ब्रह्माद्वैतवादी शांकर वेदान्त के अनुयायी अनिर्वचनीय ख्याति और रामानुज प्रभृति आचार्य सत्ख्याति को स्वीकार करते हैं। अभिनवगुप्त प्रभृति सभी तान्त्रिक आचार्य अपूर्णख्याति के पोषक हैं उनके अनुसार परिमित प्रमाता को अपने अपरिमित स्वरूप का बोध नहीं होने पाता।
दर्शन : शाक्त दर्शन

गण पाशुपत दर्शन के दार्शनिक विषयों का वर्ग भेद।

गणकारिका में पाशुपत दर्शन के मुख्य विषयों को नवगणों में वर्गीकृत किया गया है। आठ गणों में पाँच पाँच विषय हैं तथा एक गण में तीन विषय हैं। इस तरह से आठ पंचकों और एक त्रिक के सर्वयोग से तेंतालीस विषय बनते हैं। (पंचकास्त्वष्ट विज्ञेया गणश्‍चेकस्‍त्रिकात्मक: – ग.का.टी.पृ. 3)। इन नव गणों के नाम हैं- लाभ, मल, उपाय, देश, अवस्था, विशुद्‍धियाँ, दीक्षा, बल और वृत्‍तियाँ। इन्हीं का निरुपण गणकारिका तथा उसकी टीका में किया गया है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

गणाचार देखिए ‘पंचाचार’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

गति तप का चिह्न।

पाशुपत साधक की योग साधना में योग की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में गमन गति कहलाता है। (ग.का.टी.पृ. 15)। पाशुपत योग की सफलता के तीन या चार उत्‍तरोत्‍तर उत्कृष्‍टतर सोपान माने गए हैं। उनमें से सामान्य पूजा आदि के स्तर पर सफलता को प्राप्‍त करके साधक द्‍वितीय स्तर में संक्रमण करता है। वहाँ भी सफलता को प्राप्‍त करता हुआ साधना के तीसरे व चौथे उत्कृष्‍टतर स्तरों में प्रवेश करता है। इस तरह का उत्‍तरोत्‍तर स्तरों पर उसका जो पहुँचना है, वही इस शास्‍त्र में गति कहलाता है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

गतोपाय देखिए अनुपाय।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


गरिमा योगसिद्धियों में से एक। इससे योगी अपने शरीर को महाभारवान् बना सकता है। शरीर बाह्य किसी पदार्थ को अत्यन्त भारवान् बनाना भी गरिमा-सिद्धि में आता है। पूर्वाचार्यों ने ‘मेरुवद् गुरुत्वं गरिमा’, ‘गरिमा गुरुत्व प्राप्तिः’ कहकर इस सिद्धि के स्वरूप को स्पष्ट किया है। योगसूत्र की संप्रदायशुद्ध परंपरा में गरिमा को अष्टसिद्धियों (द्र. योग -सू. 3/45) में गिना नही जाता, जैसा कि व्यासभाष्य, तत्ववैशारदी तथा अन्यान्य व्याख्याग्रन्थों को देखने से ज्ञात होता है। तन्त्र एवं कुछ अ-पातंजलीय ग्रन्थों में गरिमा को अष्टसिद्धियों में गिना गया है। इस गणना में यत्रकामावसायित्व नहीं आता।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

गर्भलिंग-धारण स्‍त्रियों के गर्भधारण के आठवें महीने में किया जाने वाला लिंग-धारण संस्कार ही ‘गर्भ-लिंग-धारण’ कहलाता है। यह वीरशैवों का एक महत्वपूर्ण संस्कार है। शास्‍त्रों में बताया गया है कि गर्भ के आठवें महीने में गर्भस्थ शिशु के शरीर के संपूर्ण अवयवों का विकास होकर उसमें प्राण का प्रवेश होता है। अतः गर्भ के आठवें महीने में अपने गोत्र के आचार्य को आमंत्रित करके उनके द्‍वारा पंचामृत-प्रोक्षण और भस्म आदि के धारण से गर्भ का संस्कार कराते हैं। यह संस्कार परंपरा गर्भस्थ शिशु का ही माना जाता है। अनंतर एक अंगुष्‍ठ परिमाण के ‘पंचसूत्र’लिंग’ को अभिषेक आदि से संस्कृत करके आचार्य उस सुसंस्कृत लिंग को गर्भिणी स्‍त्री के हाथ में देते हैं। वह स्‍त्री उस लिंग का अपने पेट से स्पर्श करा के शिशु के जनन पर्यन्त अपने गले में उसे धारण किये रहती है और उसकी अपने इष्‍टलिंग के साथ प्रतिदिन पूजा करती है। इस प्रकार गर्भस्थ शिशु के निमित्‍त गर्भिणी स्‍त्रियों के द्‍वारा लिंग का धारण ही ‘गर्भ-लिंग-धारण’ कहलाता है (वी.आ.प्र. 1/82)।

शिशु-जनन के अनंतर आचार्य पुनः आकर उस लिंग का पुनः संस्कार करते हैं और उसे शिशु के गले में पहनाकर उसके कर्ण में पंचाक्षरी मंत्र का उपदेश करते हैं। जनन के अनंतर होने वाला यह संस्कार ‘लिंग-धारण’ कहलाता है। इसे शिशु के जन्म के दिन ही किया जाता है। अतः वीरशैव धर्म में यह ‘लिंग-धारण’ ‘जातकर्म-संस्कार’ का ही एक अंग माना गया है (वी.आ.प्र. 1/94-128)।
जायमान शिशु शिव-संस्कार से संपन्‍न होकर ही जन्म ग्रहण करे और जन्म के अनंतर भी शिव-संस्कार से संयुक्‍त रहे, इस उद्‍देश्य से वीरशैव आचार्यों ने ‘गर्भ-लिंग-धारण’ और ‘लिंग-धारण’ नाम के दो संस्कारों का विधान किया है।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

गायत्री जप मंत्र विशेष।

गायत्री रौद्री का ही नामांतर है, क्योंकि रौद्री (गातारं त्रायते) मंत्र के गाने वाले का त्राण (रक्षा) करती है, अतः गायत्री कहलाती है। अथवा रौद्री गायत्री छंद में निर्मित होती है इस कारण भी गायत्री कहलाती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 39)। प्रसिद्‍ध सामवेदीय गायत्री मंत्र के अनुसार प्रत्येक शैव, वैष्णव, शाक्‍त आदि देवताओं की गायत्री का निर्माण हुआ है। पाशुपत सत्रों में तत्पुरुष की गायत्री को ही रौद्री गायत्री के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वह मंत्र निम्‍नलिखित है –

तत् पुरुषाय विद्‍महे महादेवाय धीमहि तन्‍नो रुद्र: प्रचोदयात् – पा.सू. 4-22, 23,24)

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

गीत पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।

पाशुपत योगी को महेश्‍वर की मूर्ति के सामने महेश्‍वर संबंधी गीत गाने होते हैं। उन गीतों में महेश्‍वर का गुणगान, उसके भिन्‍न भिन्‍न नामों का संकीर्तन तथा उसकी अपार महिमा की प्रशंसा समाहित होती है। ये गीत संगीतशास्‍त्र (गंधर्वशास्‍त्र) के अनुसार रचे होने चाहिए अर्थात् संगीतशास्‍त्र के नियमों के अनुसार इन गीतों की ताल व लय होने चाहिए। इन गीतों द्‍वारा साधक आत्मनिवेदन करता हुआ पशुपति के साथ तन्मयता को प्राप्‍त करता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.13)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

गुण सत्त्व, रजस् और तमस् को गुण कहते हैं। यह ‘गुण’ शब्द वैशेषिकशास्त्रोक्त गुण से सर्वथा भिन्न है। चूंकि त्रिगुण पदार्थ हैं अर्थात् दूसरे यानी पुरुष के प्रयोजन (भोग और मोक्ष) के साधन हैं अतः स्वयं अप्रधान हैं। गुण = रज्जु; गुण पुरुष को संसार से बाँधने वाली रस्सी है; इस दृष्टि से सत्त्व आदि को गुण कहा गया है – यह एक और मत है जो अधिक संगत है। सांख्ययोगशास्त्र में त्रिगुण सर्वाधिक महत्वपूर्ण पदार्थ हैं। योगसूत्र 2/18 -19 (भाष्य-टीकादिसहित), सांख्यसूत्र (1/126 -128) एवं सांख्यकारिका (12 -13) में त्रिगुण के स्वरूप की सूक्ष्म चर्चा की गई है। शान्तिपर्व के कई अध्यायों में, अश्वमेघपर्वान्तर्गत अनुगीता में, भगवत्गीता में त्रिगुण के स्वभावादि का विशद विवरण मिलता है। ये तीन गुण सभी अनात्म वस्तुओं (भूत, तन्मात्र, इन्द्रिय, मन, अहंकार तथा बुद्धि रूप तत्त्वों) के अंतिम उपादान हैं। सांख्यकारिका (12 -13) में तीन गुणों का विवरण दिया गया है। वाचस्पति आदि के अनुसार कारिका का तात्पर्य यह है – सत्त्व, रजस् और तमस् क्रमशः सुख-दुःख और मोह-स्वरूप हैं। प्रकाश करना, सत्त्व का प्रवर्तन करना एवं रजस् का नियमन करना तमस् का प्रयोजन है। इनकी चार वृत्तियाँ (व्यापार) हैं – एक-दूसरे का अभिभव करना, एक-दूसरे का आश्रय करना, परस्पर मिलकर कार्य को उत्पन्न करना एवं परस्पर संयुक्त रहना। रजस् के द्वारा प्रवर्तित होकर तथा तमस् के द्वारा नियमित होकर सत्त्व ससीम प्रकाशनकर्म करता है। सत्त्वगुण प्रकाशक होने के साथ-साथ लघु भी है; रजोगुण उपष्टम्भक (उद्घाटक, उत्तेजक) होने के साथ-साथ चल (चंचल) भी है; तमोगुण आवरक (आच्छादक) होने के साथ-साथ गुरु (जड़ता -युक्त) भी है। परस्पर विरुद्ध स्वभाव होने पर भी ये गुण पुरुष के हितार्थ एक-दूसरे का अनुवर्तन करके, एक-दूसरे को सहायता करते हुए कार्य उत्पन्न करते हैं। सात्त्विक सुखादि के प्रादुर्भाव में धर्मापेक्ष सत्त्व हेतु होता है। इसी प्रकार राजस दुःखादि के एवं तामस मोहादि के प्रादुर्भाव में क्रमशः अधर्मापेक्ष रजः एवं अविद्यापेक्ष तमः हेतु होता है। त्रिगुण की सुख-दुःख-मोहरूपता के विषय में व्याख्याकारों ने कुछ विशेष बातें कही हैं। उनका कहना है कि बाह्य विषय यदि सुखादिमय न होता तो उसके अनुभव में सुखादि न होता। इसलिए जिसके कारण सुखादि का बोध अन्तःकरण में होता है, वह स्वयं सुखादिमय है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सभी वस्तुयें, सुख-दुःख-मोह द्वारा निर्मित हैं। प्रकाश, लाघव और प्रसाद भी सत्त्वगुण स्वभाव का है। इसी प्रकार प्रवर्तना, चांचल्य आदि भी रजेन्द्रिय स्वभाव है और जाड्य, आवरण आदि भी तमोगुण का स्वभाव है। गुणों की दो स्थितियाँ – साम्यावस्था तथा वैषम्यावस्था होती हैं। जब सभी गुण समान बलशाली होते हैं तब साम्यावस्था होती हैं। इस अवस्था में भी गुणों का परिणाम होता है, जो सदृश्यपरिणाम कहलाता है। विषम -अवस्था में त्रिगुण का परिणाम विसदृष -परिणाम कहलाता है, क्योंकि इसमें किसी एक गुण का आधिक्य (अन्य दो की अपेक्षा) होता है। इस विसदृश -परिणाम का ही फल महदादि तत्त्वों का उदय है। प्रस्तुत टिप्पणीकार का परम्परागत मत उपर्युक्त प्रचलित मत से अंशतः भिन्न है। हमारे मत में सुख-दुःख -मोह गुणों का स्वरूप नहीं है – ये गुणविकार हैं – वस्तुतः ये गुणवृत्तियाँ हैं। त्रिगुण का निर्धारण जिस प्रकार से किया गया है, वह यह है – त्रिगुण अनात्मवस्तु का उपादान है। अनात्मवस्तु त्रिविध है – ग्राहय्, ग्रहण एवं ग्रहीता। ग्राह्य त्रिविध है – भौतिक, भूत एवं तन्मात्र। ग्रहण त्रिविध है – ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय एवं प्राण। ग्रहीता त्रिविध है – मन, अहंकार एवं बुद्धि। ग्राह्य में तीन धर्म हैं – प्रकाश्य, कार्य (= आहार्य) तथा धार्य; ग्रहण में भी त्रिविध धर्म हैं – प्रकाशन, करण (या आहरण) एवं विधारण। ग्रहीता में भी त्रिविध धर्म है – प्रकाशकत्व, कारकत्व या आहरकत्व एवं विधारकत्व। प्रकाश्य -प्रकाशन -प्रकाशकत्व का सामान्य धर्म है प्रकाश जो सत्त्वगुण का शील है। इसी प्रकार कार्य-करण-कारकत्व का सामान्य धर्म है क्रिया जो रजोगुण का शील है। इसी प्रकार धार्य-धारण-धारकत्व का सामान्य धर्म है धृति या स्थिति, जो तमोगुण का शील है। गुण की विषम -अवस्था में प्रकाश-क्रिया-स्थिति सत्त्व आदि के धर्म हैं – ऐसा कहा जाता है; पर साम्यावस्था में धर्म-धर्मी-भेद (गुण-गुणी-भेद) नहीं रहता; उस अवस्था में प्रकाश-क्रिया-स्थिति ही चरम वस्तु हैं – ऐसा कहना पड़ता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

गुण शुद्ध संवित् स्वरूप परमशिव में उसकी स्वभावभूत ज्ञान, क्रिया एवं माया नामक तीन सर्वप्रमुख शक्तियाँ शुद्ध प्रकाश के ही रूप में रहती हैं। इस पूर्ण अभेद की दशा में शक्ति एवं शक्तिमान में अंशमात्र भी भेद नहीं रहता है। परंतु जीवभाव की दशा में आने पर ये शक्तियाँ जब मायातत्त्व तथा उसके कंचुक तत्त्वों के कारण अत्यधिक संकोच को प्राप्त कर जाती हैं और भेदभाव को लेकर के प्रकट हो जाती हैं तो इन्हें जीव की शक्तियाँ कहकर उसके गुण कहा जाता है। (ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा 4-1-4, 5)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


गुण तत्त्व अंतःकरण एवं इससे आगे के तत्त्वों की सृष्टि होने से पूर्व प्रकृति की उस प्रक्षुब्ध अवस्था को गुणतत्त्व कहते हैं, जिसमें सत्त्व आदि तीनों गुण सामान्य रूप से ऐसे क्षोभ को प्राप्त करते हैं जिससे उनमें विषमता आ जाती है। समता और विषमता के बीच में स्थित क्षोभ की दशा को गुण तत्त्व कहा गया है। गुण तत्त्व के प्रकट होने के अनंतर महत्तत्त्व प्रकट होता है। (तं.सा.पृ. 84, 5)। इस गुण तत्त्व के प्रेरक भगवान् श्री कंठनाथ हैं। देखिए गुण।

ज्ञानी और योगी आचार्य। उत्कृष्ट गुरु वह और जिसे योग सिद्धियां भी प्राप्त हुई हों। देकर बंधन से मुक्त कर सकता है।
योगसिद्ध गुरु शिष्य को तरह तरह के ऐश्वर्यो का उपभोग करा सकता है। केवल ज्ञानी गुरु को द्वितीय श्रेणी का माना गया है और केवल योग सिद्धियों से संपन्न गुरू को तृतीय श्रेणी का। (तं.आ.14)।
दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


गुण त्रय सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण का समूह। ये तीनों गुण परमेश्वर की ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति, तथा मायासक्ति के ही क्रमशः अति संकुचित रूप होते हैं। (ई.प्र. 4-1-4)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


गुणकर्तृत्व सत्य, शौच, दया और क्षान्ति (क्षमा) ये गुण सृष्टि के हेतु हैं और इन गुणों के अधिष्ठाता ब्रह्मा आदि देव सगुण होकर सृष्टिकर्त्ता कहे जाते हैं। किन्तु ब्रह्म तो शुद्ध ही रूप में जगत् का कर्त्ता है। इस प्रकार ब्रह्मादि का कर्तृव्त गुणकर्तृत्व है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

गुणपर्व सत्त्व आदि तीन गुणों की चार विशिष्ट अवस्थाएँ – विशेष, अविशेष, लिङ्गमात्र और अलिङ्ग (योगसूत्र 2.19)। यह विभाग उपादान दृष्टि से है अर्थात् विशेष का उपादान अविशेष है, अविशेष का लिङ्गमात्र और लिङ्गमात्र का अलिङ्ग। उपादानकारण चूंकि कार्य से सूक्ष्म एवं व्यापक होता है, अतः अविशेष विशेष से सूक्ष्म और व्यापक है। अन्यान्य पर्वों के विषय में भी यही ज्ञातव्य है। विशेष आदि सभी भेद अपनी विशिष्टता के कारण एक -दूसरे से भिन्न एवं स्फुट रूप से ज्ञात होते हैं – यह दिखाने के लिए ‘पर्व’ शब्द का प्रयोग किया गया है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

गुणवृत्ति सत्त्व, रजस् और तमस् नामक तीन गुणों का व्यापार जो (सांख्यकारिका 12 के अनुसार) चार प्रकार का है – अन्योन्य-अभिभव, अन्योन्य-आश्रय, अन्योन्य-जनन और अन्योन्य मिथुन (द्र. अन्योन्याभिभव आदि शब्द)। यद्यपि तीन गुण परस्पर सर्वथा पृथक् हैं और कोई भी गुण किसी अन्य गुण का कारण या कार्य नहीं है, तथापि ये परस्पर के सहायक होकर ही कार्य को उत्पन्न करते हैं। गुणों की इस वृत्ति को समझाने के लिए ‘प्रदीप’ की उपमा पूर्वाचार्यों ने दी है – तेल, बत्ती और आग जिस प्रकार परस्पर भिन्न होकर भी रूप प्रकाशन का कार्य करते हैं, उसी प्रकार तीन गुण मिलकर परिणाम उत्पन्न करते हैं। एक अन्य दृष्टि से सुख, दुःख और मोह भी क्रमशः सत्व्, रजस् और तमस् की वृत्तियाँ माने जाते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

गुणातीत प्रपंच दृश्यमान प्रपंच से भिन्न अलौकिक प्रपंच गुणातीत प्रपंच है। दृश्यमान प्रपंच प्राकृत गुणमय है और गुणातीत प्रपंच उससे भिन्न है तथा साक्षात् भगवत् लीला में उपयोगी होने से अलौकिक प्रपंच रूप है (अ.भा.पृ. 189)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

गुणोपसंहार सामान्यतः प्राप्त का विशेष अर्थ में संकोचन रूप व्यापार विशेष उपसंहार है। यह व्यापार विशेष कहीं कथन रूप, कहीं अनुसंधान रूप और कहीं भावना रूप में होता है। उक्त प्रकार से गुणों का अनुसंधान करना या भावना करना गुणोपसंहार है। वेदांत के प्रसंग में अन्य देवता की उपासना में अन्य देवों के गुणों का अनुसंधान करना और उसी रूप में उपासना करना गुणोपसंहार शब्द से विवक्षित है (अ.भा.पृ. 991)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

गुरु दार्शनिक विषयों का ज्ञाता तथा शिक्षक।

पाशुपत दर्शन के दार्शनिक विषयों का ज्ञाता तथा शिष्य के संस्कारों को करने वाला शिक्षक गुरु कहलाता। (वेत्‍ता नवगणस्यास्य संस्कर्ता गुरुरूच्यते – ग. का.टी.पृ. 3)। जो पाशुपत दर्शन के नवगण (दार्शनिक विषयों) का वेत्‍ता (ज्ञाता) अथवा विचारक हो, चिंतक हो तथा इन विषयों की शिष्यों को दीक्षा दे सकता हो वह गुरु कहलाता है।
भासर्वज्ञ ने गुरु को ‘देश’ का एक प्रकार भी माना है। योगाभ्यास करते समय पाशुपत साधक के लिए विशेष निवासस्थान निर्दिष्‍ट किए गए हैं। उसके अनुसार योगाभ्यास की प्रथम अवस्था में गुरु के पास निवास करना होता है। (ग.का.टी.पृ. 16)। गणकारिका में ही गुरु को दीक्षा का पंचम अंग भी माना गया है, जो दीक्षा देता है। यह गुरु दो तरह का होता है – पर गुरु तथा अपर गुरु। पर गुरु को आचार्य कहा गया है तथा अपर गुरु को आचार्याभास कहा गया है। (ग.का.टी.पृ.3)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

गुरु देखिए ‘अष्‍टावरण’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

गुरु भक्‍ति पाँच बलों में से एक भेद।

पाशुपत मत के अनुसार गुरु साधक के लिए पंचार्थ का उपदेष्‍टा होता है, अर्थात् उनके रहस्य का उपदेशक होता है। साधक अपने को मलों के कारण होने वाले तीव्र दुःखों का पात्र समझता है और उसे यह विश्‍वास होता है कि मेरा गुरु मुझे इन सभी कष्‍टों से पार ले जाकर वांछनीय लाभों का पात्र बना सकता है। साधक का गुरु के प्रति जो ऐसा भाव होता है, उसी को यहाँ गुरू भक्‍ति कहा जाता है। (ग.का.टी.पृ. 5)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

गुरु-लिंग-जंगम वीरशैवधर्म में गुरु, लिंग और जंगम ये तीनों पूजनीय माने जाते है। दीक्षा, शिक्षा तथा ज्ञान का उपदेश करने वाला गुरु कहलाता है। दीक्षा में गुरु से प्राप्‍त शिव का चिह्न ही ‘लिंग’ है, जो कि वीरशैव उपासना का एक प्रमुख साधन है। जीवन्मुक्‍त महापुरुष को ‘जंगम’ कहते हैं। वीरशैव धर्म में इन तीनों को भिन्‍न नहीं माना जाता। ये शिव के ही तीन रूप हैं, अर्थात् शिव ही स्वयं अपने भक्‍तों के कल्याणार्थ इन तीन रूपों में अवतरित होते हैं। अतः इन तीनों की अभेद रूप से उपासना की जाती है (सि.शि.त्र 9/1, 2 पृष्‍ठ 155)। (इन तीनों का विस्तृत विवरण ‘अष्‍टावरण’ शब्द के अंतर्गत देखिये)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

गुरुलिंग देखिए ‘लिंग-स्थल’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

गुरुवक्त्र विसर्ग पद, शक्ति चक्र (देखिए)। (पटलत्री.वि.पृ. 182)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


गुरुशुश्रूषा पाशु योग के अनुसार यमों का एक प्रकार।

पाशुपत योग के अनुसार योगी के लिए गुरु-शुश्रूषा नामक यम का पालन करना आवश्यक होता है। क्योंकि उस योग में गुरु को अत्यधिक महत्‍ता प्रदान की गई है। गुरु के हर एक कृत्य का छाया की तरह अनुसरण करना ही गुरु शुश्रूषा होती है। जैसे – शिष्य गुरु से पहले ही निद्रा से जागे और गुरु के सोने के पश्‍चात् सोए। गुरु ने किसी कार्य के लिए नियोजित किया हो अथवा न किया हो, शिष्य उसके किसी भी कार्य को करने के लिए सदैव तत्पर रहे। अपना सर्वस्व अर्पण करने को तत्पर रहे और भस्म स्‍नान आदि क्रियाओं को करने में गुरु का अनुसरण छाया की भांति करे। शिष्य का नित्य आचार हो कि गुरु की सेवा में सदा प्रस्तुत रहकर यह विचार रखे कि यह कार्य कर लिया है, अमुक कार्य करूँगा और क्या क्या कार्य करना है। गुरु की दी हुई शिक्षा का आगे प्रचार करना भी गुरु शुश्रूषा होती है। ब्रह्मचर्य अवस्था के अवसानोपरांत गुरू का सम्मान व श्रद्‍धा ही ब्रह्मचर्य होता है। गुरू मोक्ष का ज्ञान करवाता है, योग का दर्शन करवाता है। अतएव गुरु पूजा शिव पूजा के समान श्रेयस्कर होती है। अतः जो गुरु को पूजता है मानो वह शिव को ही पूजता है। (पा.सू.कौ.भा.प. 27,28)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

गुहावासी गुफा में निवास करने वाला।

पाशुपत योग में साधना के एक मध्यम स्तर पर पहुँचने पर पाशुपत साधक के निवास के लिए शून्य घर या गुहा का उपदेश दिया गया है, अर्थात् साधक को किसी पर्वत की गुफा में निवास करना होता है, ताकि वह निर्बाध रूप से संग आदि दोषों से पूर्णरूपेण मुक्‍त होकर साधना का अभ्यास कर सके। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 116)।
भासर्वज्ञ ने गुहा को देश का एक प्राकर माना है। साधक को साधना के तृतीय चरण में गुहा में निवास करना होता है। (ग.का.टी.पृ. 16)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

गूढ़ पवित्रवाणि पवित्र वाणी का गोपन।

पाशुपत विधि के अनुसार साधक के लिए एक विधि होती है कि वह संस्कृत मंत्र, भजन रूपी पवित्र वाणी (जो वाणी पूजन आदि में प्रयुक्‍त होती है) को गुप्‍त रखे, क्योंकि सुंदर, संस्कृत व पवित्र वाणी को स्पष्‍टतया प्रकट करने पर साधक की विद्‍या का स्फुट प्रकाशन होगा और लोग उस साधक की विद्‍याबुद्‍धि की प्रशंसा करेंगे। प्रशंसा को पाशुपत शास्‍त्र में बंधकारक माना गया हे। क्योंकि प्रशंसा से आदमी में गर्व तथा अभिमान आता है, जिसके कारण उसमें पापों व दोषों का समावेश हो जाता है। अतः पाशुपत योग में बारंबार इस बात पर बल दिया गया है कि पाशुपत साधक प्रशंसा से दूर रहे। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 94,95)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

गूढ़विद्‍या विद्‍या का गोपन।

पाशुपत योग में विद्‍या का संगोपन करना भी एक तरह की विधि है। वहाँ साधक को अर्जित ज्ञान को संगुप्‍त रखना होता है अर्थात् अर्जित ज्ञान का प्रकाशन नहीं करना होता है। विद्‍या को गुप्‍त रखने से वह तप: स्वरूप बन जाती है और अंतत: परम उद्‍देश्य की प्राप्‍ति करवाती है। बहि: प्रकाशन से विद्‍या क्षीण हो जाती है। (पा.सू.कौ.भा. पृ. 92)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

गूढ़व्रत व्रतों का गोपन।

पाशुवत मत के अनुसार साधक को सभी धार्मिक कृत्यों (व्रतों) को गुप्‍त रखना होता है। व्रत से यहाँ पर भस्मस्‍नान, भस्मशयन, उपहार, जप, प्रदक्षिणा आदि से तात्पर्य है। पाशुपत मत के अनुसार ये सभी कृत्य एकांत में गुप्‍त रूप से करने होते हैं। इन्हें प्रकट रूप में करने से लोग साधक की प्रशंसा करेंगे, जिससे उसको गर्व होगा, जो उसकी आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डाल सकता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 94)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

गृहिणोपसंहार गृहस्थ भी क्रमशः ब्रह्मलोक की प्राप्ति कर सकता है, इस बात का निष्कर्ष के रूप में प्रतिपादन करना गृहिणोपसंहार है। जैसे, “आचार्यकुलाद् वेदमधीत्य यथाविधानं गुरोः कर्मातिशेषेणाभिसमावृत्य कुटुम्बे शुचौ देशे स्वाध्यायमधीयानो धार्मिकान् विदधत् आत्मनि सर्वेन्द्रियाणि सम्प्रतिष्ठाप्याहिंसन् सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्यः स खल्वेवं वर्तयन् यावदायुषं ब्रह्म लोकम मिनिष्पद्यते न च पुनरावर्तते” (छा.उ.) इस मंत्र द्वारा कहा गया है। इस मंत्र में गृहस्थ के लिए ब्रह्मलोक प्राप्ति का मार्ग बताया गया है (अ.भा.पृ. 1243)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

गोकुलपरत्व पुष्टिमार्ग में बैकुंठ से भी गोकुल का श्रेष्ठत्व अभिप्रेत है। “ता वां वास्तून्युष्मसि गमध्यै यम गावो भूरिश्रृंगा अयासः तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि”। यह श्रुति गोकुल को परम पद प्रतिपादित करती है क्योंकि गोकुल में ही हृदय और बाहर उभयत्र लीलारसात्मक भगवान् का प्राकट्य होता है। यद्यपि बैकुंठ प्रकृति-काल आदि से अतीत है, तथापि उसमें भगवान की लीलायें नहीं हैं। अतः बैकुंठ से भी गोकुल का उत्कृष्टत्व है (अ.भा.पृ. 1323)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

गोचरी वामेश्वरी शक्ति के वह समूह जो जीवों की बुद्धि, अहंकार और मन की भूमिकाओं में अर्थात् अंतःकरणों में विचरण करते रहते हैं। अतःकरण में विचरण करने के कारण ये शक्तियाँ शक्तिपात से पवित्र हुए साधक के अंतःकरण को शुद्ध संकल्पों वाला बनाती हैं तथा शक्तिपात से विहीन साधकों को नीचे ही नीचे टिकाए रखती हैं। (स्पंदकारिकास.पृ.20)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


गौड सम्प्रदाय शक्तिसंगम तन्त्र में पूरे भारतवर्ष को कादि और हादि के भेद से 56 देशों में बाँटा गया है और बताया गया है कि सिलहट्ट से सिन्धु देश तक गौड सम्प्रदाय को मान्यता प्राप्त है। हादिमत के अनुसार गौड सम्प्रदाय में तारा की और कादिमत के अनुसार काली की उपासना की जाती है। इस सम्प्रदाय में पूर्णभिषेक की प्रधानता है। प्रथमतः यह ऋग्गौड, यजुर्गौड, सामगौड और अथर्वगौड के भेद से चतुर्धा विभक्त है। शिवगौड, शक्तिगौड और शिवशक्तिगौड भेदों को शुद्ध, उग्र और गुप्त भेदों में विभक्त कर पुनः इसके 9 भेद बताये गये हैं। गौड सम्प्रदाय के वाम और दक्षिण भेद भी यहाँ वर्णित हैं, किन्तु प्रधानतः गौड सम्प्रदाय वाममार्गी ही माना जाता है। इस सम्प्रदाय का आविर्भाव निगम, अर्थात् तंत्रशास्त्र से माना गया है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

गौण सिद्धि सिद्धि का गौण-मुख्य रूप विभाग किसी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं है। तत्त्वकौमुदी की टीका (51 का.) में वाचस्पति ने इस विभाग का उल्लेख किया है। यह ‘सिद्धि’ योगशास्त्रीय विभूति नहीं है; सांख्यशास्त्र में जो चतुर्विध प्रत्ययसर्ग उल्लिखित हुआ है (का. 46), सिद्धि उसमें एक है। ऊह आदि भेदों से यह सिद्धि आठ प्रकार की है (का. 51)। इन आठों में पाँच गौण सिद्धियाँ हैं, जिनके नाम है – ऊह, शब्द, अध्ययन, सुहृतप्राप्ति तथा दान। ये गौण सिद्धियाँ मुख्य तीन सिद्धियों (दुःखों का त्रिविध नाश) की हेतुरूपा हैं – यह भी वाचस्पति ने कहा है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ग्रहण सांख्ययोगशास्त्र में ‘ग्रहण’ शब्द प्रधानतया इन्द्रियों का वाचक है (जिसके द्वारा विषय गृहीत होता है, वह ग्रहण है – इस व्युत्पत्ति के अनुसार)। योगशास्त्र में जो ग्रहणसमापत्ति है (योदसूत्र 1/41) उसका विषय इन्द्रियाँ ही हैं। योगसूत्र में इन्द्रियों के जिन पाँच रूपों का उल्लेख है, उनमें प्रथम ग्रहण है (द्र. 3/47)। इसका लक्षण है – ग्राहय् शब्दादि-विषयों में इन्द्रियों की वृत्ति। यह ‘ग्रहण’ ‘आलोचन’ भी कहलाता है। वस्तुतः इन्द्रियों की विषयाकार परिणति ही ग्रहण है। ये शब्दादि रूप विषय सामान्य-रूप भी होते है, विशेष-रूप भी। बुद्धि के जो छः मूलभूत व्यापार हैं, उनमें ग्रहण एक है (ग्रहण के बाद धारण, ऊह, अपोह, तत्त्वज्ञान और अभिनिवेश होते हैं)। इन्द्रिय द्वारा विषय-ग्रहण-मात्र यह ग्रहण है (द्र. व्यासभाष्य 2/18)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ग्रहणसमापत्ति संप्रज्ञात-समाधिजात प्रज्ञा का नाम समापत्ति है। यह प्रज्ञा ग्राहय-विषयक, ग्रहणविषयक एवं ग्रहीत-विषयक होती है (योगसूत्र 1.41)। ग्रहण वह स्थूल या सूक्ष्म इन्द्रिय है जिसके द्वारा विषयों का ग्रहण किया जाता है। व्याख्याकारों का कहना है कि आनन्दानुगत संप्रज्ञातसमाधि के क्षेत्र में ग्रहण रूप विषय आता है। समापत्ति की प्रकृति के भेद के अनुसार जो भेद होते हैं, तदनुसार ग्रहण-विषयक समापत्ति के भी भेद होंगे – यह ज्ञातव्य है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ग्रहीतृसमापत्ति जिस समापत्ति का विषय ग्रहीता है, वह ‘ग्रहीतृ-समापत्ति’ कहलाती है। ग्रहीता केवल पुरुष तत्व नहीं है। ग्रहीता चित्स्वरूप आत्मा तथा महत्तत्त्व दोनों का समाहारभूत पदार्थ है। इसको बुद्धिप्रतिबिम्बित आत्मा या बुद्धिबोधक आत्मा भी कहा जाता है। सांख्यीय तत्त्वदृष्टि के अनुसार यह विषय का प्रकाशक आत्मा है। यह व्यावहारिक आत्मभाव है। ग्रहीता में मुक्त पुरुष का भी समावेश होता है। विवेकख्याति का दृष्टा पुरुष ही मुक्त पुरुष है – यह क्लेशादिहीन चित्त की स्थिति है। यह ज्ञातव्य है कि पुरुष (तत्त्व) -विषयक समापत्ति या अव्यक्त विषयक समापत्ति नहीं होती।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ग्राह्यसमापत्ति जिस समापत्ति का विषय ‘ग्राह्य’ पदार्थ है, वह ग्राह्यसमापत्ति कहलाती है। आलम्बन के भेद से इस समापत्ति के तीन अवान्तर भेद होते हैं – 1. भौतिक या विश्वभेद; 2. भूततत्त्व या स्थूलभूत तथा 3. तन्मात्र या सूक्ष्म भूत (द्र. व्यासभाष्य 1/41)। ग्राह्यविषयों में जो स्थूल है वह सवितर्का और निर्वितर्का समापत्ति का विषय है तथा जो सूक्ष्म है वह सविचारा और निर्विचारा का विषय है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

घूर्णि उच्चार योग की प्राण धारणा में छः में से किसी भी आनंद की भूमिका में पूर्ण विश्रांति पाने से पूर्व जिन पाँच बाह्य लक्षणों का उदय होता है उनमें से अंतिम लक्षण। घूर्ण किसी भी आनंद की भूमिका पर पूर्ण विश्रांति की ही स्थिति होती है। इस स्थिति में पहुँचने पर साधक सभी अनात्म पदार्थो को अपनी संवित् रूपता में विलीन करके अपने सर्वात्मक स्वभाव को देखकर तन्मय हो जाता है। इस अवस्था में जो लक्षण प्रकट होता है उसे घूर्णि अर्थात् झूमना कहते हैं। सर्वव्यापक स्वभाव वाला होने के कारण इसे महाव्याप्ति भी कहते हैं। (तं.सा.पृ. 40, तं.आ. 5-105)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


घोर ईश्‍वर का नामांतर।

पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार ईश्‍वर केवल अघोर रूप ही नहीं है अर्थात् वह केवल कल्याणमय रूपों को ही धारण नहीं करता है, अपितु अशिव तथा अशांत रूपों को भी वही शिव धारण करता है, जो कल्याणमय रूपों को धारण करता है। घोर रूपों पर अधिष्‍ठातृ रूप बनने की उसकी शक्‍ति को घोरत्व कहते हैं। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 89)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

घोर भेदाभेद दृष्टिकोण प्रधान सदाशिव, ईश्वर तथा विद्या नाम के तीन तत्त्वों, तीन तत्त्वेश्वरों, उन तत्त्वों में क्रमशः रहने वाले मंत्र महेश्वरों, मंत्रेश्वरों तथा मंत्र नामक प्रमाताओं और यहाँ की समस्त विशुद्ध सृष्टि को अभिव्यक्त करने वाला परमशिव का परापर रूप। (स्व.तं.उ. 1 प1. 36)। उपनिषदों के मंत्रों में शिव के घोर, अघोर और घोरतर रूपों की स्तुति की गई है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


घोर शक्तियाँ रौद्री नामक शक्ति के अनंत शक्ति समूह, जिन्हें परापरा शक्तियाँ भी कहा जाता है। संसार में जीवों की संख्या के अनुसार ही रौद्री अनंत रूपों में प्रकट हो जाती है। ये शक्तियाँ जीवों को इस संसार में ही टिकाए रखने के लिए विचित्र प्रकार के सांसारिक सुखों को उनके लिए सुलभ बनाती रहती हैं। ये उन्हें धार्मिक कर्मों में भी प्रवृत्त करती रहती हैं, परंतु वे कर्म सकाम और भोगप्रद और निष्काम नहीं होते हैं। इसी के साथ ये शक्तियाँ जीवों को मोक्ष मार्ग से हटाती ही रहती हैं। (मा.वि.तं., 3-32)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


घोरतर ईश्‍वर का नामांतर।

पाशुपत मत के अनुसार ईश्‍वर भिन्‍न भिन्‍न प्राणियों को भिन्‍न भिन्‍न शरीरों से युक्‍त करता है। जो शरीर दुःखकारक बनते हैं वे घोरतर कहलाते हैं। (ग.का.टी.पृ. 11)। परमेश्‍वर ही उन घोरतर रूपों को धारण करता हुआ घोरतर कहलाता है। ऐसे शरीरों पर अधिष्ठातृ रूप बनने की उसकी शक्‍ति को घोरतरत्व कहते हैं। नारायणीय उपनिषद के एक मंत्र में भी पशुपति के अघोर, घोर और घोरतर रूपों का उल्लेख आता है –
अघोरेभ्योടथघोरेभ्यो घोरघोर तरेभ्यश्‍च।

सर्वेभ्य: सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेട स्तु रुद्ररुपेभ्य:।

                      (नारायणीय अपनिषद 19)
ईश्‍वर को अघोर, घोर तथा घोरतर रूपों का अधिष्‍ठाता बताने का तात्पर्य है कि भगवान् सर्वसामर्थ्यपूर्ण है। विश्‍व के कण कण का अधिष्‍ठाता एकमात्र शिव ही है। उसी की एकमात्र इच्छा के कारण अघोर, घोर, तथा घोरतर रूप प्रकट होते हैं। (वा. सू. कौ. भा. पृ. 89)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

घोरतरी शक्तियाँ अंबा नामक पराशक्ति के एक रूप वामाशक्ति के अनंत शक्ति समूहों को घोरतरी शक्तियाँ कहा जाता है। इन्हें अपरा शक्ति भी कहा जाता है। ये शक्तियाँ जीवों को विषयभोग के प्रति ही प्रेरित करती रहती हैं और जब जीव उनमें अत्यधिक रूप से फँस जाते हैं तो उन्हें और नीचे गिराती रहती हैं। ये परमेश्वर की बंधक शक्तियाँ हैं। (मा.वि.तंत्र, 3-31)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


चक्र तन्त्र, हठयोग आदि शास्त्रों में चक्रसम्बन्धी विवरण विशेष रूप से मिलता है। कभी-कभी ‘पद्म’ शब्द भी प्रयुक्त होता है। इन शब्दों से शरीर के विभिन्न मर्मस्थल लक्षित होते हैं, जिनको लक्ष्य कर या जिनका आश्रय कर भावना -विशेष या ध्यान -विशेष का अभ्यास किया जाता है। ये चक्र वस्तुतः चक्राधार या पद्माकार नहीं हैं। ध्यान करने की सुविधा के लिए उन आकारों की कल्पना की गई है। ध्यानादि के समय चक्रगत बोधविशेष ही आलम्बन होता है – मांसादिमय शरीरांश नहीं। शरीरविद्या की दृष्टि से देखने पर ये चक्र वस्तुतः शास्त्रवर्णित रूप में शरीर में प्राप्त नहीं होते हैं। सर्वनिम्नस्थ मूलाधार चक्र में स्थित अधोगामी कुण्डलिनी नामक शक्ति (यह वस्तुतः देहाभिमान का काल्पनिक रूप है) को अभ्यास विशेष के बल पर ऊर्ध्वस्थ चक्रों में क्रमशः उठा कर मस्तिष्कस्थ सहस्रार पद्म में स्थित शिवरूपी परमात्मा में लीन करना षट्चक्र -मार्ग का मुख्य उद्देश्य है। शारीरिक क्रियाओं का रोध इस अभ्यास में अवश्य ही अपेक्षित होता है। इन चक्रों के साथ पृथ्वी आदि तत्व, भूः आदि लोक तथा अन्यान्य आध्यात्मिक पदार्थों का संबंध है। चक्रों की संख्या में मतभेद है। षट्चक्र प्रसिद्ध हैं – (1) मूलाधार, (गुह्यदेशस्थित), (2) स्वाधिष्ठान (उपस्थदेश स्थित), (3) मणिपूर (नाभिदेश स्थिति), (4) अनाहत (हृदयदेशस्थित), (5) विशुद्ध (कण्ठदेशस्थित) तथा (6) आज्ञा (भ्रूमध्यस्थित)। मस्तिष्कस्थ सहस्रारिचक्र इनसे भिन्न है। नाथयोग आदि के ग्रन्थों में राजदन्तचक्र, तालुचक्र, घण्टिकाचक्र आदि चक्रों का उल्लेख भी मिलता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

चतुर्थावस्था पाशुपत साधक की एक अवस्था।

पाशुपत साधना की इस अवस्था में साधक को यथालब्ध से, अर्थात् बिना मांगे जो स्वयमेव ही भिक्षा रूप में मिले उसी से जीविका का निर्वाह करना होता है। यह साधक की वृत्‍ति हुई। साधक का देश अर्थात् निवास स्थान इस अवस्था में श्‍मशान होता है। अर्थात् साधक को साधना की इस उत्कृष्‍ट अवस्था में पहुँचकर श्मशान में निवास करना होता है। साधना की यह चौथी अवस्था चतुर्थावस्था कहलाती है। (ग.का.टी.पृ.5)। इस अवस्था में साधक का पाशुपत व्रत तीव्रता की ओर बढ़ता है। इस चतुर्थावस्था की साधना के अभ्यास से साधक को रुद्र सालोक्य की प्राप्‍ति होती है। (पा.सू. 4-19.20)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

चतुर्विध पुष्टि भक्ति पुष्टि भक्ति चार प्रकार की होती है –

1. पुष्टि पुष्टि भक्ति, 2. प्रवाह पुष्टि भक्ति, 3. मर्यादा पुष्टि भक्ति और 4. शुद्ध पुष्टि भक्ति।
दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

चतुर्विध पुष्टि भक्ति 1. जो पुष्टि भक्त पुष्टि से अर्थात् भजनोपयोगी भगवान् के विशिष्ट अनुग्रह से युक्त होते हैं; उनकी पुष्टि पुष्टि भक्ति होती है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

चतुर्विध पुष्टि भक्ति 2. शास्त्र विहित क्रिया में निरत भक्तों की प्रवाह पुष्टि भक्ति है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

चतुर्विध पुष्टि भक्ति 3. भगवत् गुण ज्ञान से युक्त भक्तों की मर्यादा पुष्टि भक्ति है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

चतुर्विध पुष्टि भक्ति 4. भगवत् प्रेम से युक्त भक्तों की शुद्ध पुष्टि भक्ति है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

चतुर्विध पुष्टि भक्ति (प्र.र.पृ. 83)

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

चतुर्विध मूल रूप 1. श्री कृष्ण शब्द का वाच्य जो पुरुषोत्तम स्वरूप है, वह भगवान् का ही एक मूल रूप है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

चतुर्विध मूल रूप 2. अक्षर शब्द का वाच्यार्थ भूत व्यापक बैकुण्ठ रूप जो पुरुषोत्तम का धाम है, वह भी भगवान् का ही एक मूल रूप है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

चतुर्विध मूल रूप 3. भगवान् का एक मूल रूप वह भी है, जिसमें भगवान् की समस्त शक्तियाँ तिरोहित होकर रहती हैं, अर्थात् प्रकट रूप में नहीं रहती हैं तथा भगवान का वह मूल रूप सभी व्यवहारों से अतीत रहता है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

चतुर्विध मूल रूप 4. भगवान् का वह भी एक मूल रूप है जिस स्वरूप से वह अंतर्यामी होकर सभी पदार्थों में रहता है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

चतुर्विध मूल रूप उक्त चारों ही भगवान् के मूल स्वरूप माने गए हैं।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

चतुष्पात्त्व चतुष्पात्त्व भगवान का एक विशेषण है। भगवान के एक पाद के रूप में समस्त भूत भौतिक जगत्-तत्त्व है, तथा तीन अमृत पाद हैं, ये हैं – जनलोक, तपःलोक और सत्य लोक। (द्रष्टव्य अमृतपाद शब्द की परिभाषा) (अ.भा.पृ. 963)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

चंद्र देखिए सोम।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


चर-जंगम

  

देखिए ‘अष्‍टावरण’ के अंतर्गत ‘जंगम’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

चर-लिंग


देखिए ‘लिंग-स्थल’ शब्द के अंतर्गत ‘जंगम-लिंग’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

चर-स्थल

  

देखिए ‘चर-जंगम’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

चर्या उपाय का एक प्रकार।

पाशुपत धर्म की भस्मस्‍नान, भस्मशयन आदि क्रियाओं को चर्या कहते हैं। (ग.का.टी.पृ. 17)। चर्या त्रिविध कही गई है- दान, याग और तप। इनमें से दान ‘अतिदत्‍तम्’, याग ‘अतीष्‍टम्’ तथा तप ‘अतितप्‍तम्’, इन शीर्षकों के अंतर्गत आए हैं। चर्या के इन तीन प्रकारों के भी दो दो अंग होते हैं – व्रत तथा द्‍वार। व्रत गूढ़ व्रत के अंतर्गत आया है तथा द्‍वार क्राथन, स्पंदन मंदन आदि पाशुपत साधना के विशेष प्रकारों को कहते हैं।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

चर्या सिद्धांत शैव में चर्या मंदिरों में की जाने वाली सेवा को कहते हैं और अट्ठाईस आगम शास्त्रों के चर्यापादों में उसी का सांगोपांग वर्णन मिलता है। परंतु काश्मीर शैव दर्शन में चर्या पद से पंचमकारों के सदुपयोग वाली तांत्रिक साधना ही को लिया जाता है। चर्यामार्ग एक तलवार की धार पर चलने का मार्ग होता है। लाखों में कोई एक साधक इस पर चल सकता है। (पटलत्री.वि.पृ. 281)। चर्या का प्रयोजन विषय भोग न होकर स्वचित्त परीक्षण ही होता है जब चर्या के पाँचों अंगों का सेवन करते हुए भी साधक का चित्त तत्त्व से विचलित नहीं होने पाता है तो आगे संसार का कोई भी विषय उसे ज़रा भर भी विचलित नहीं कर सकता है। वह संसार के समस्त व्यवहारों को करता हुआ भी अहोरात्र आत्मस्वरूप में ही रमण करता रहता है। भगवान कृष्ण जैसे साधक इस बात के उदाहरण हैं। (तं.आ.वि.3,पृ. 269)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


चिच्छक्‍ति

 

देखिए ‘शक्‍ति’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

चिच्छायापत्ति विषयों के साथ साक्षात् सम्बन्ध बुद्धि का है, पुरुष का नहीं। यह बुद्धि पुरुष के प्रकाश से प्रकाशित होती है। बुद्धिगत इस पौरुष प्रकाश को ‘चित्-छाया का पतन’ कहा जाता है। चित् -रूप पुरुष चूंकि प्रतिसंचारशून्य है – निर्विकार है, अतः ‘छाया’ शब्द प्रयुक्त होता है; कभी-कभी प्रतिबिम्ब शब्द भी प्रयुक्त होता है। चित्-छायापत्ति चैतन्याध्यास, चिदावेश आदि शब्दों से भी अभिहित होता है। बुद्धिगत इस चित्-छाया के कारण अचेतन बुद्धि और बुद्धिधर्म अध्यवसाय – दोनों चेतनसदृश प्रतिभात होते हैं। व्याख्याकारों का कहना है कि चित्त इन्द्रिय माध्यम से विषयाकार में आकारित होने पर (यह विषयाकार-परिणाम की वृत्ति कहलाता है) विषयविशिषिट चित्तवृत्ति पुरुष में प्रतिफलित होती है। यह प्रतिफलित होना प्रमा है और चित्तवृत्ति प्रमाण है। अन्य मत के अनुसार पुरुष चित्तवृत्ति में प्रतिबिम्बित होता है। यह प्रतिबिम्बित होना ही पुरुष छायापत्ति है। चैतन्य में बुद्धि का भी प्रतिबिम्ब पड़ता है – यह भिक्षु ने कहा है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

चिति चिति एवं चितिशक्ति शब्द अविकारी पुरुषतत्व के लिए प्रयुक्त होते हैं। चिति के साथ ‘शक्ति’ शब्द का जो प्रयोग किया जाता है, उससे यह प्रकट होता है कि चिति अविकृत रूप में रहकर ही चित्त की विषयी होती है। चिति के जो पाँच विशेषण व्यास-भाष्य (1/2) में दिए गए हैं (अपरिणामिनी, अप्रतिसंक्रमा, दर्शितविषया, शुद्धा और अनन्ता) उनसे पुरुष (चिति) का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। ‘चिति’ शब्द के साथ ‘शक्ति’ शब्द के प्रयोग की तरह ‘भोक्ता’ एवं ‘दृक्’ शब्द के साथ भी ‘शक्ति’ शब्द प्रयुक्त होता है जिसकी सार्थक्य व्याख्या ग्रन्थों में दिखायी गई है। ‘चिति’ के लिए ‘चित्’ शब्द भी प्रयुक्त होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

चितिशक्ति चितिशक्ति’ या ‘चिति’ पुरुष (तत्व) का समानार्थक है। ‘चिति’ शब्द पुरुष के स्वप्रकाश स्वभाव को प्रकट करने के लिए प्रयुक्त हुआ है। पुरुष के द्वारा बुद्धि प्रकाशित होती है – यह अभिप्राय भी ‘चिति’ से ध्वनित होता है। चिति रूप पुरुष अविकृत रूप में रहकर ही ‘विषयी’ होता है – इसको सूचित करने के लिए चिति शब्द के साथ शक्ति शब्द का भी प्रयोग किया गया है (द्र. विवरण टीका)। उपनिषद् में जो ‘चेता’ शब्द है (द्र. श्वेताश्वतर 6/11) वह चिति का समानार्थक है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

चित् कला

 

देखिए ‘निरालंब-चित्’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

चित् शक्ति परमशिव की शुद्ध प्रकाशरूपता। उसकी प्रमुख पाँच अंतरंग शक्तियों में से प्रथम तथा समीपस्थ शक्ति। यह शक्ति परिपूर्ण, असीम एवं शुद्ध संविद्रूप परमशिव में केवल परिपूर्ण प्रकाशरूपतया ही चमकती रहती है। उसकी अन्य समस्त शक्तियाँ भी इस शक्ति में प्रकाशरूपता में ही सदा चमकती रहती है। (तन्त्र सार पृ. 6)। काश्मीर शैव दर्शन के मुख्य ग्रंथों में परमशिव में चित्शक्ति की अभिव्यक्ति मानी गई है। (शि.दृ.वृ.पृ. 23)। परंतु कहीं कहीं साधना के क्रम में उन तत्त्वों की मूल कारणभूत शक्तियों को ही उन उन तत्त्वों का आंतरिक स्वरूप मानते हुए भावना के अभ्यास का उपदेश किया गया है। तदनुसार परमार्थसार, तंत्रसार आदि में शिवतत्त्व के साथ ही चित्शक्ति को जोड़ा गया है। (पटलसा.14)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


चित्-पिण्ड देखिए ‘निरालंब-चित्’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

चित्त चित्त शब्द यद्यपि मन का पर्याय है और इस अर्थ में यह कभी-कभी पांतजल योग के ग्रन्थ में भी प्रयुक्त होता है (द्र. 4/2 योगवा.) तथापि यह स्पष्टतया ज्ञातव्य है कि योगसूत्र में जो चित्त शब्द है (चित्तवृत्तिनिरोध के प्रसंग में), वह मन नहीं है। यह चित्त प्रत्यय और संस्कार रूप धर्मों का धर्मी द्रव्य है; यह द्रष्टा और दृश्य से उपरक्त रहता है (योगसूत्र 4/23); इसकी वृत्तियाँ सदैव ज्ञात रहती हैं (योगसूत्र 4/22)। यह सत्त्वप्रधान है (इसीलिए चित्तसत्व शब्द प्रायः प्रयुक्त भी होता है)। धर्मज्ञान-वैराग्यादि इसके ही धर्म माने गए हें (व्यासभाष्य 1/2)। प्रतीत होता है कि योगसूत्र का चित्त सांख्य की बुद्धि या महतत्त्व है अर्थात् व्यावहारिक आत्मभाव ही चित्त है जो विषय से साक्षात् संबद्ध है। ‘चित्तं महदात्मकम्’ इस प्रकार के जो वचन मिलते हैं, उनसे भी उपर्युक्त मत सिद्ध होता है। योग में संस्कार को चित्त का धर्म माना गया है (3/15 भाष्य) और सांख्यसूत्र (2/42) कहता है – ‘तथाशेषसंस्कारधारत्वात्’ अर्थात् बुद्धितत्व सभी संस्कारों का आधार है – संस्काररूप धर्म का धर्मी है – यह भी उपर्युक्त मत की पुष्टि करता है। इस चित्तसत्त्व की पाँच वृत्तियाँ हैं – प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति (द्र. प्रमाणादि शब्द)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

चित्तप्रसादन इसका अर्थ है – प्रसन्न अवस्था में चित्त का होना। यह प्रसन्नता एकाग्रता का सोपान है। प्रसन्न चित्त ही योगशास्त्रोक्त विशिष्ट उपायों (योग सू. 1/34 आदि में उक्त) की सहायता से स्थिति को प्राप्त कर सकता है। श्रद्धा आदि उपायों (द्र. योगसू. 1/20) का भी सफल अभ्यास तभी किया जा सकता है, जब चित्तप्रसादन उत्पन्न हो। गीता एवं योगग्रन्थों में ‘प्रसन्नमनाः’, ‘प्रसन्नचेताः’ आदि जो विशेषणपद योगी के लिए दिए गए हैं, वे इस चित्तप्रसादन को ही लक्ष्य करते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

चित्तभूमि जो अवस्था (धर्मविशेष) चित्त में अनायास उदित रहती है, वह भूमि कहलाती है। व्यासभाष्य (1/1) के अनुसार चित्त की पाँच भूमियाँ हैं – क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध (द्र. क्षिप्त आदि शब्द)। प्रत्येक भूमि में समाधि हो सकती है, अतः समाधि को ‘चित्त का सार्वभौम धर्म’ कहा जाता है। व्यासभाष्य का कहना है कि प्रथम तीन भूमियों में समाधि होने पर वह योग के पक्ष में नहीं होती, क्योंकि वह विक्षेप के द्वारा सहज रूप से अभिभूत हो जाती है। एकाग्र एवं निरुद्ध भूमि में होने वाली समाधि ही योग (=कैवल्य) के लिए उपकारक होती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

चित्तसंविद् हृदय में संयम करने पर चित्तसंविद् होता है – यह योगसूत्र (3/34) में कहा गया है। चित्तसंविद् = चित्तसाक्षात्कार – ऐसा प्राचीन टीकाकारों का कहना है; पर हमारी दृष्टि में यह व्याख्या स्थूल है। भास्वती टीकाकार कहते हैं कि जिस अवस्था में ग्रहणस्मृति का प्राधान्य होता है (अर्थात् जिस अवस्था में ग्राह्य विषय की ओर लक्ष्य न कर विषय के ज्ञाता की ओर प्रधानतः लक्ष्य किया जाता है) इस प्रकाशबहुल ग्रहण -स्मृति का प्रवाह ही चित्तसंविद् है। यह बोध आनन्दबहुल होता है। यह चित्तसंविद् पुरुषज्ञान का सोपान रूप है; यही कारण है कि पुरुषज्ञानविषयक सूत्र इस सूत्र के अनंतर आया है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

चित्प्रतिबिम्बता परमशिव के परम प्रकाशरूप चित् के भीतर परिपूर्ण संविद्रूप में स्थित समस्त विश्व का प्रतिबिम्ब रूप में बाह्यरूपतया प्रकट होना। संपूर्ण विश्व परमशिव के ही संविद्रूप चित् में प्रतिबिम्बित होता है। इस प्रकार प्रतिबिम्ब, प्रतिबिम्बित होने की क्रिया तथा चित् रूप दर्पण ये सभी उसी की लीला की भिन्न भिन्न भूमिकाएँ हैं। अतः संपूर्ण विश्व के वैचित्र्य का उल्लास उसी की शुद्ध विद्रूपता में प्रतिबिम्बतया चमकता हुआ उसी में ठहरता है। इसे ही चित्प्रतिबिम्बता कहते हैं। (तं.आ.वि.खं.2,पृ.4)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


चित्र तांडव यह एक प्रकार का नृत्य विशेष है। इसका अनुष्ठान भगवान् कृष्ण ने किया था। चित्र तांडव का तन्योक्त लक्षण निम्नलिखित है –

“धाधा धुक् धुक् णङ णिङ णङ -णिङ् ङण्णिङां ङण्णिङांणाम्”।
“तुक् तुक् तुं तुं किडगुड् किडगुड् द्रां गुडु द्रां गुडुड्राम्”।।
धिक् धिक् धोंधों किटकिट किटधां दम्मिधां दम्मिधां धाम्।
आगत्यैवं मुहुरिह तु सदः श्रीमदीशो ननर्त।। (भा.सु.वे.प्रे.पृ. 57)।
दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

चिदानंद 1. देखिए चिदाह्लाद। 2. उच्चार योग की प्राण धारणा में अभिव्यक्त होने वाली आनंद की छः भूमिकाओं में से छठी भूमिका।सभी प्रमाण एवं प्रमेयों से संबंधित संपूर्ण विकल्पात्मक आभासों को उदान नामक प्राण के तेज में पूर्णतया शांत कर देने पर जब सभी आभासों सहित वह तेज भी प्रशमित हो जाता है, तब व्यान नामक प्राण-वृत्ति का उदय हो जाता है, जो व्यापक होने के कारण सभी व्यवच्छेदों से स्वतंत्र तथा सभी उपाधियों से परे होती हैं। इस प्रकार के व्यान नामक प्राण को आलंबन बनाकर जब उस पर विश्रांति प्राप्त कर ली जाती है तो चिदानंद की अनुभूति होती है। (तं.सा.पृ. 38; तं.आ.आ. 5-49)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


चिदानंद

  

देखिए ‘निरालंब-चित्’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

चिदाह्लाद परमशिव के प्रकाश एवं विमर्श का पूर्ण संघट्टात्मक स्वरूप। परमशिव का वह स्वभावभूत स्वरूप, जिसमें चित्, निवृति (आनंद), इच्छा ज्ञान तथा क्रिया – इन पाँचों शक्तियों का परिपूर्ण सामरस्य हो। सभी अवस्थाओं से परे परिपूर्ण परमशिव में ये पाँचों शक्तियाँ एकरस होकर चमकती हैं। परंतु शिवतत्त्व की अवस्था में शुद्ध एवं परिपूर्ण अहं, जिसके प्रकाश तथा विमर्श नैसर्गिक स्वभाव हैं, उसे ही चित् एवं आह्लाद का अर्थात् आनंद का समरस रूप माना जाता है। दूसरे किसी की भी अपेक्षा न होने के कारण यही पूर्ण स्वतंत्र स्वभाव वाले परमशिव की मुख्य परमेश्वरता है। इच्छा, ज्ञान एवं क्रिया इसी के भिन्न भिन्न रूप हैं। अतः चित् और आनंद की ही प्रमुखता होने के कारण परमशिव के स्वभावभूत स्वरूप के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया है। (शि.दृ. 1-3, 4; शि.दृ.वृ., पृ. 6,7)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


चिद्‍बिंदु

 

देखिए ‘निरालंब-चित्’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

चिन्‍नाद देखिए ‘निरालंब-चित्’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

चीनाचार शक्तिसंगम तन्त्र (3/7/47-49) में भूटान, चीन और महाचीन देशों की सीमा बताई गई है। तदनुसार भूटान के पास ही चीन और महाचीन देश स्थित हैं। इनकी सीमा मानसरोवर और कैलाश पर्वत के आस-पास मानी गई है। इनमें कभी तान्त्रिक धर्म का विशेष प्रचार था। आज भी तिब्बत में प्रचलित धर्म प्रधानतः तान्त्रिक ही है। चीन और महाचीन देश में प्रचलित तान्त्रिक आचार-विचार ही क्रमशः चीनाचार और महाचीनाचार के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। शक्तिसंगम तन्त्र (1/8/11-12) में चीनाचार का वर्णन करते हुए बताया गया है कि इसमें स्नान-दान, शौच-अशौच, जप, तपस्या आदि का कोई नियम नहीं है। सकल और निष्कल के भेद से यह दो प्रकार का होता है। वहीं द्वितीय खण्ड (21/1-4) में ब्रह्मचीन, दिव्यचीन, वीरचीन, महाचीन और निष्कलचीन के भेद से इसके पाँच प्रकार बताए गए हैं और कहा गया है कि महाचीनाचार के अनुसार तारा विद्या की उपासना शीघ्र फल देती है। महाचीनाचार के भी दो भेद किये गये हैं- सकल और निष्कल। इनमें से सकल उपासना बौद्धों के लिये और निष्कल उपासना ब्राह्मणों के लिये विहित है। चीनाचार में विहित स्नान, नमस्कार, वेष आदि का भी यहाँ वर्णन मिलता है। चीनाचार, महाचीनाचार के प्रतिपादक स्वतंत्र तन्त्र ग्रंथ भी उपलब्ध हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन

चूलिकार्थ चूलिकार्थ को कभी-कभी मूलिकार्थ (मूलभूत विचार्य विषय) भी कहा जाता है। तत्त्वसमाससूत्र का सूत्र है – दश मूलिकार्थाः (18) अर्थात् सांख्यशास्त्र में दस मूलभूत विचार्य विषय हैं, जो ये हैं – (1) प्रधान और पुरुष का अस्तित्व, (2) प्रधान का एकत्व, (3) भोग -अपवर्ग रूप दो अर्थ = प्रयोजन; (4) प्रकृति -पुरुष -भेद; (5) प्रधान की परार्थता = पुरुष के लिए उपकारक होना; (6) पुरुष का बहुत्व; (7) पुरुष -प्रकृति का वियोग, (8) पुरुष -प्रकृति का संयोग; (9) स्थूल -सूक्ष्म रूप से प्रकृति की स्थिति अथवा (मतान्तर में) जीवन्मुक्त अवस्था, (10) पुरुष का अकर्तृत्व। (युक्तिदीपिका के मंगलाचरण श्लोक (11) में ‘चूलिकार्थ’ मूलपाठ है और मूलिकार्थ पाठान्तर के रूप में माना गया है – यह ज्ञातव्य है)। सांख्यकारिका की चन्द्रिका -टीका में मौलिकार्थ गणनापरक एक श्लोक हैं, जिसमें ये पदार्थ गिनाए गए हैं – प्रधान, प्रकृति, बुद्धि, अहंकार, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, तन्मात्र, इन्द्रियाँ तथा भूत। यह अर्वाचीन काल की दृष्टि है – ऐसा स्पष्टतया प्रतीत होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

चैतन्य सांख्ययोगशास्त्र में ‘चैतन्य’ और ‘चेतन’ समानार्थक हैं। दोनों शब्द चित्-स्वरूप पुरुष के वाचक हैं। ‘चेतन का भाव’ – इस अर्थ में चैतन्य शब्द इस शास्त्र में प्रयुक्त नहीं होता। ‘चैतन्यलक्षणः पुरुषः’ आदि शास्त्रवाक्यों में चैतन्य तथा पुरुष एक ही पदार्थ हैं – लक्षण को स्वरूप मानकर ऐसा प्रयोग किया गया है। चैतन्य और पुरुष एक पदार्थ होने पर भी ‘चैतन्य पुरुष का स्वरूप है’ ऐसा भेदपरक वाक्य प्रयुक्त होता है ‘ यह वाक्य विकल्पवृत्ति का उदाहरण है – ऐसा योगशास्त्र का कहना है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

चैतन्य आत्मा। (शि.सू. 1-9)। शरीर, प्राण, बुद्धि, शून्य आदि से उत्तीर्ण केवल परिपूर्ण तथा शुद्ध आत्मस्वरूप। संपूर्ण ज्ञानों और क्रियाओं में अपने परिपूर्ण स्वातंत्र्य से विचरण करने में समर्थ शुद्ध चेतनामय आत्म का ही चैतन्य कहलाता है। (शि.सू.वृ.पृ.1)। चैतन्य चिति रूपसंवेदना है। यह संवेदना ज्ञानशक्ति तथा क्रियाशक्ति रूप स्वातंत्र्य से युक्त होती है। चैतन्य ही भाव का प्राणदायक होता है। चैतन्य वह सारतत्त्व है जिसके कारण वस्तु चेतन होती है। अतएव हर एक भाव की आत्मा, अर्थात् उसकी भावता का मूल-आधार, चैतन्य होता है। समस्त प्रमेय जगत् का वास्तविक स्वरूप यह चैतन्य ही है। (शि.सू.वा.पृ. 3)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


च्युति मल का एक प्रकार।

पाशुपत दर्शन के अनुसार जब साधक का चित्‍त रुद्र तत्व में न लगकर वहाँ से च्युत हो जाए, अर्थात् ध्येय में से चित्‍त की स्थिर निश्‍चल स्थिति हट जाए, तो चित्‍त के ऐसे च्यवन को च्युति कहा गया है जो कि मलों का एक प्राकर है; क्योंकि इस तरह की च्युति से साधक बंधन में पड़ जाता है तथा उसकी मुक्‍ति में बाधा पड़ती है। (ग.का.टी.पृ. 22)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

च्युतिहानि विशुद्‍धि का एक प्रकार।

पाशुपत दर्शन के अनुसार च्युतिहानि विशुद्‍धि का चतुर्थ भेद है। जब पाशुपत साधक की योग में इतनी दृढ़ स्थिति हो जाती है कि उस परावस्था से फिर च्युति (अध:पतन) नहीं होती है, तब वह च्युतिहानि रूप शुद्‍धि की प्राप्‍ति अंतत: साधक को मुक्‍ति प्रदान करने में सहायक बनती है क्योंकि उसका चित्‍त पर ध्यान में सतत रूप से समाहित रहता है। (ग.का.टी.पृ. 7)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

छुम्म (छुम्मक) कौलप्रक्रिया की साधना में उपयुक्त होने वाले रहस्यात्मक द्रव्यों आदि को जतलाने के वास्ते प्रयुक्त होने वाली रहस्यमयी आगमिक संज्ञाएँ। उन रहस्य संज्ञाओं से ही जब उन चर्याक्रम मे उपयुक्त होने वाले द्रव्य आदि का निर्देश किया जाता है तो दीक्षित साधक ही उनके तात्पर्य को समझते हैं, जनसाधारण उन्हें समझता नहीं। इस तरह से वह रहस्यचर्यामयी साधनाएँ केवल अधिकारियों के ही हाथ में आती हुई दुरूपयोग से सुरक्षित रहा करती हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


छेदावस्था अवस्था का एक भेद।

पाशुपत योगी के योग की चतुर्थावस्था छेदावस्था कहलाती है। जब साधक को किसी बाह्य क्रियाकलाप की आवश्यकता ही नहीं रहती है, अर्थात् इन सभी क्रियाओं का अवसान अथवा छेद हो जाता है। तात्पर्य यह है कि पाशुपत साधना के द्‍वारा जब साधक को अपनी वास्तविक परमेश्‍वरता रूप शक्‍ति का साक्षात्कार होने लगता है तो उसकी बाह्य क्रियाएं धीरे – धीरे छूटने लगती हैं। उन बाह्य क्रियाओं का छूट जाना ही यहाँ छेद शब्द से अभिप्रेत है। (ग.का.टी. पृ. 8)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

जगदानंद आणव उपाय के उच्चार योग में प्राण की भिन्न भिन्न धारणाओं पर विश्रांति प्राप्त करने पर अनुभव में आने वाली आनंद की छः भूमिकाओं से उत्तीर्ण अपने परमार्थ स्वरूप का सर्वथा असीम और अनवच्छिन्न आनंद। जगदानंद परमेश्वर की उस अनुपम विशेषता को कहते हैं जिसकी महिमा से वह सदैव सृष्टि आदि पंचकृत्यों की लीला के अवभासन के प्रति उन्मुख बना रहता है। स्वात्म स्वरूप में सर्वथा पूर्ण विश्रांति को ही जगदानंद कहा जाता है। निजानंद, निरानंद आदि आनंद की छहों भूमिकाओं में ओतप्रोत भाव से स्थित, उदय और लय से विहीन, व्यवच्छेद रहित, सर्वव्यापक, शुद्ध, असीम एवं परम अमृत से परिपूर्ण अंतः विश्रांति का परमार्थ रूप ही जगदानंद कहलाता है।। (तन्त्र सार पृ. 38, 39; तन्त्रालोक आ. 5, 50 से 52)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


जंगम देखिए ‘अष्‍टावरण’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

जन देश का एख प्रकार।

भासर्वज्ञ ने जन को देश का एक प्रकार माना है। पाशुपत साधक को साधना की द्‍वितीयावस्था में जन अर्थात् लोक में निवास करना होता है। जहाँ वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले जन (लोग) रहते हों वही जन साधक का देश होता है। तात्पर्य यह है कि साधना के द्‍वितीय सोपान पर साधक प्राय: ग्राम में रहता है जहाँ लोग उसकी भिन्‍न भिन्‍न प्रकार की साधनाओं को देखते हुए उसकी निंदा अवहेलना आदि करते रहते हैं। उससे साधक में त्यागवृत्‍ति का वर्धन होता है और वह योग में परिपक्‍व बनता जाता है। (ग. का. टी. पृ. 16)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

जप पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।

सद्‍योजातादि मंत्रों के अक्षरों से युक्‍त पंक्‍तियों पर मन का समस्त ध्यान लगाना जप कहलाता है। (पा.सू.कौ. भा.पृ. 14)। यह जप दो तरह का कहा गया है – प्रत्याहार फल जप तथा समाधि फल जप। प्रत्याहार फल जप में साधक का ध्यान विषयों से खिंचकर परतत्व की साधना में लग जाता है। समाधि फल जप प्रत्याहार फल जप की निष्पत्‍ति के बाद ही संपन्‍न होता है। उसमें साधक परतत्व पर समाधिस्थ हो जाता है, अथात् जिस जप का परम फल समाधि है। (ग.का.टी.पृ. 20)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

जप पवित्र मन्त्र (अक्षरमय या ध्वनिमय) का बार-बार उच्चारण करना जप-शब्द का अर्थ है। मन्त्रों में प्रणव (= ओंकार) मुख्य है। कठ आदि उपनिषदों में भी ओंकार-जप की श्रेष्ठता कही गई है। योगाङ्गभूत जप के लिए आवृत्ति अर्थात् बार-बार उच्चारण करना ही पर्याप्त नहीं है। मन्त्रार्थ (मन्त्रप्रतिपाद्य अर्थ) की भावना यदि न हो तो वह योगाङ्गभूत जप नहीं होगा। यह मन्त्रार्थ गुरुपरम्परा के माध्यम से ही विज्ञेय होता है। जपरूप स्वाध्याय के द्वारा इष्ट देवता के साथ सम्प्रयोग (अर्थात् देवता का साक्षात्कार तथा देवता से उपदेश की प्राप्ति) होता है (योगसू. 2/44)। जप के तीन भेद कहे गए हैं – (1) वाचिक या वाचनिक, (2) उपांशु तथा (3) मानस। वाचिक जप वह है जिसमें वाक्यों का स्पष्ट उच्चारण होता है – यह परश्रवणयोग्य उच्चारण है; उपांशुजप वह है जिसमें ओष्ठ आदि का कम्पनमात्र होता है – उच्चारित ध्वनि अन्यों को सुनाई नहीं पड़ती; मानस जप मन में अर्थस्मरण रूप जप है। मानस जप की पराकाष्ठा मन्त्रचैतन्य में है; इस अवस्था में अर्थ स्मरण निरन्तर अनायास रूप से चलता रहता है। ये तीन प्रकार क्रमशः अधम, मध्यम और उत्तम है। जप्यमन्त्र के उच्चारण में नाना प्रकार का विभाग करके विभक्त अंशों के द्वारा अभीष्ट तत्त्व का स्मरण करके की नाना प्रकार की पद्धतियाँ विभिन्न योगग्रन्थों में मिलती हैं। जप-क्रिया से संबन्धित अनेक विषयों का विशद विवरण (जपमाला, जपसंख्या, जपकाल में वर्जनीय, जपकाल में विहित आसन आदि) तन्त्र ग्रन्थों में द्रष्टव्य है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

जप मन्त्र की पुनः पुनः आवृत्ति, उसका बार-बार उच्चारण जप कहलाता है। मन्त्र का जप करते समय उसके अर्थ की भी भावना करनी चाहिये। ऐसा करने से मन्त्रवीर्य, मन्त्रचैतन्य का आविर्भाव शीघ्र होता है। जप तीन प्रकार का होता है – मानस, उपांशु और वाचिक (भाष्य)। मन्त्रार्थ का विचार करते हुए उसकी मन ही मन आवृत्ति करना मानस जप है। देवता का चिन्तन करते हुए जिह्वा और दोनों होठों को थोड़ा हिलाते हुए किंचित् श्रवण योग्य जप उपांशु कहलाता है। जो दूसरे व्यक्ति को भी स्पष्ट सुनाई पड़े, ऐसा उच्च स्वर से किया गया जप वाचिक (भाष्य) कहलाता है। वाचिक से उपांशु दस गुना और मानस जप सहस्त्र गुना फल देने वाला है। उत्तम सिद्धि के लिये मानस, मध्यम सिद्धि के लिये उपांशु और क्षुद्र सिद्धि के लिये वाचिक जप किया जाता है। उत्तम मन्त्रों का जप मानस, मध्यम मन्त्रों का उपांशु और अधम मन्त्रों का जप वाचिक विधि से किया जाना चाहिये। इसीलिये कुलार्णव तन्त्र में मानस को उत्तम, उपांशु को मध्यम तथा वाचिक जप को अधम बताया है। जप की सिद्धि हो जाने पर मन्त्र में चैतन्य का आविर्भाव होता है और ऐसा होने पर साधक उसकी सहायता से अनायास सिद्धि लाभ कर सकता है। जप के लिये पद्म, स्वस्तिक आदि आसनों का, पुण्य क्षेत्र, नदीतीर प्रभृति स्थलों का, ग्रहण प्रभृति कालों का भी शास्त्रों में विधान है। गुरुमुख से प्राप्त मन्त्र का जप ही फलदायक होता है। पुस्तक में लिखे मन्त्र का जप करने से कोई सिद्धि नहीं मिलता। स्वप्नलब्ध मन्त्र का जप भी सिद्धिकर माना गया है।

    योगिनी हृदय (3/176-189) में शून्यषट्क, अवस्थापंचक और विषुवसप्तक की भावना के साथ मानस जप की विधि विस्तार से वर्णित है। स्थान, ध्यान और वर्ण की कल्पना के साथ मानसिक जप का विधान नित्याशोडशिकार्णव की व्याख्या ऋजुविमर्शिनी और अर्थरत्नावली (पृ. 268) में उद्धृत सिद्धनाथ पाद के एक वचन में मिलता है।  
दर्शन : शाक्त दर्शन

जप अपने इष्टदेव से तादात्म्य स्थापित करने के लिए मंत्र के बारबार दोहराए जाने को जप कहते हैं। यह तीन प्रकार से किया जाता है – उपांशु, मानस तथा सशब्द। जप उपांशु वह जप, जो जप करने वाले को ही सुनाई देता है, पास बैठा कोई व्यक्ति ऐसे जप को सुन नहीं पाता है। यह जप मुख के भीतर ही किया जाता है। (स्वच्छन्द तंत्र पटल 2-146)। जप मानस् ऐसा जप जो जप करने वाले को भी नहीं सुनाई देता है। केवल मन में मानस विचार के द्वारा ही किया जाने वाला जप। (वही)। जप सशब्द मुख से बाहर प्रसार करने वाले स्वर में किया जाने वाला जप, जिसे पास बैठे दूसरे व्यक्ति भी सुन सकते हैं। (वही 147)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


जप (ज्ञानयोग) शैवी साधना के त्रिक आचार के ज्ञानयोग की वह साधना, जिसमें साधक को यह विमर्श करना होता है कि ‘समस्त विश्व में मैं ही व्याप्त हूँ, मैं ही यह सब कुछ हूँ तथा यह सभी कुछ मुझ में ही स्थित है।’ इसी प्रकार अपने आपको शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण संविद्रपू मानने तथा शुद्ध संविद्रूपता को अपना ही वास्तविक स्वरूप मानने के पुनः पुनः परामर्श को जप कहते हैं। (तं.सा.पृ. 26)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


जपपूर्वक ध्यान पाशुपत योगी के ध्यान की एक अवस्था।

इस अवस्था में साधक मंत्र जप से रुद्र तत्व में ही अपनी समस्त चिंतन शक्‍ति को लगाता है। अर्थात् भगवान – रुद्र का ध्यान करते हुए तत्पुरुष आदि से संबधित मंत्रों का तन्मयतापूर्वक सतत निर्बाध रूप से जप करता रहता है। ऐसे सतत जप की अवस्था जपपूर्वक ध्यान रूप अवस्था कहलाती है। (ग. का. टी. पृ. 20)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

जपमाला जप की परिभाषा अलग से की गई है। जप की संख्या को जानने के लिये माला का उपयोग किया जाता है। इसी को जपमाला कहते हैं। यह तीन प्रकार की होती है – करमाला, वर्णमाला और अक्षमाला। तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा तथा इनके पर्वों को ही माला के रूप में कल्पित कर उन पर जप किया जाता है। विभिन्न सम्प्रदायों और विभिन्न मन्त्रों के लिये इसके विभिन्न प्रकार शास्त्रों में निर्दिष्ट हैं। शक्तिसंगम, सनत्कुमार, विश्वसार प्रभृति तन्त्रों में इनका वर्णन मिलता है। अकार से क्षकार पर्यन्त वणों की माला के रूप में कल्पना ही वर्णमाला है। ककार का भी इसमें समावेश करने पर इनकी संख्या 51 हो जाती है। यह ऋग्वेद के अग्निमीले आदि मन्त्रों में प्रयुक्त होने वाला अक्षर है। मराठी में यह अक्षर अब भी प्रचलित है। रुद्राक्ष, स्फटिक, तुलसी, कमलगट्टा तथा विभिन्न धातुओं और रत्नों के मनकों से बनी माला को अक्षमाला कहते हैं। विभिन्न प्रकार के मनकों की मालाओं पर जप करने से विभिन्न काम्य कर्मों की सिद्धि होती है। शास्त्रों में बताया गया है कि रुद्राक्ष की माला से जप करने पर अनन्तगुण फल मिलता है। त्रिपुरा के जप में रक्त चन्दन की, गणेश के जप में गजदन्त की, वैष्णव जप में तुलसी की, छिन्नमस्ता आदि के जप में रुद्राक्ष की, नीलसरस्वती, काली तारा आदि के जप में महाशंख की माला विहित है। अक्षमाला के ग्रथन के उपयोग में आने वाले सूत्रों के लिए भी विभिन्न काम्य क्रमों में विभिन्न द्रव्यों और वर्णों का विधान है। माला के संस्कार की भी विभिन्न विधियाँ हैं। साथ ही यह भी बताया गया है कि इन पर कब जप करना चाहिये और कब नहीं। सभी धर्मों में जपमाला का विधान है। यह भी आवश्यक माना गया है कि माला को वस्त्र आदि से ढँककर ही जप किया जाए। शक्तिसंगमतन्त्र के द्वितीय तारा खण्ड में इस विषय का अवलोकन करना चाहिये।

दर्शन : शाक्त दर्शन

जयावस्था अवस्था का एक प्रकार।

पाशुपत योगी की साधना की तृतीय अवस्था जयावस्था कहलाती है। जब साधक अपनी समस्त इंद्रियों पर विजय पा लेता है तथा उसका ध्यान सदैव विषयों से पूर्णत: खिंचकर केवल रुद्र में ही लगा रहता है। उसकी वह अवस्था जयावस्था कहलाती है। यह अवस्था उसे रुद्र सायुज्य की प्राप्‍ति के प्रति अग्रसर बना देती है। (ग. का. टी. पृ. 8)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

जाग्रत् अवस्था वह अवस्था, जिसमें प्राणी स्थूल शरीरों के द्वारा बाह्य इंद्रियों और अंतःकरणों से स्थूल विषयों के साथ व्यवहार करते हैं। इस अवस्था में पुरुष अपनी श्रोत्रादि इंद्रियों के द्वारा शब्दादि इंद्रिय-विषयों के प्रति प्रसृत होता हुआ अर्थात् उन्हीं से समस्त व्यवहार को करता हुआ परिस्पंदित होता रहता है। (स्पंदकारिकावि.पृ. 20)। इस प्रकार समस्त दृश्यमान प्रपंच जाग्रत् संसार है। शैवशास्त्र में जाग्रत् अवस्था को मेयभूमि कहा गया है। (तन्त्रालोक 10-240)। योगी जनों ने इसे पिंडस्थ नाम दिया है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


जातिविपाक प्राणी का कर्माशय जब तक प्रबल क्लेशों के अधीन रहता है, तब तक उससे तीन प्रकार के फल उत्पन्न होते रहते हैं, जिनका नाम है, जाति, आयु और भोग। ये फल विपाक कहलाते हैं। जाति का अर्थ है जन्म; किसी जाति की देह का धारण करना ही जातिरूप विपाक है। सांख्यशास्त्र में प्राणी की जातियाँ मुख्यतः 14 मानी गई हैं – आठ प्रकार की देवयोनियाँ, पाँच प्रकार की तिर्यग्योनियाँ तथा एक प्रकार की मनुष्ययोनि। दृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय का जाति रूप विपाक अवश्य होता है। किसी एक शरीर में जिस प्रकार का कर्म अधिक परिमाण में रुचि के साथ किया जायेगा, वह कर्म जिस जाति के शरीर के लिए सहज है, उस जाति में वह प्राणी (मृत्यु के बाद) जन्म ग्रहण करेगा।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

जाल प्रयोग दीक्षा त्रिक साधना की एक विशेष प्रकार की दीक्षा, जिसके द्वारा सामर्थ्यवान् गुरु किसी मरे हुए शिष्य को परलोक में ढूँढ निकालकर स्वयं यहाँ बैठा हुआ ही उसके पाशों का क्षय करता हुआ उसे मोक्ष मार्ग के प्रति प्रवृत्त करता हुआ अंततोगत्वा उसे पाशविमुक्त कर ही देता है। इस दीक्षा से आकृष्ट जीव याग स्थान पर रखी हुई कुशामयी प्रतिमा में या फल में प्रवेश करता है। इस प्रतिमा में स्पंदन भी होता है। उसी में शिष्य को ठहराकर गुरू उसके सभी पाशों को धो डालता है। तदनंतर पूर्णाहुति में उस प्रतिमा का जब होम कर देता है तो शिष्य मुक्त हो जाता है। (तन्त्र सार पृ. 168)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


जितेंद्रित इंद्रिय विजयी।

पाशुपत दर्शन के अनुसार सिद्‍ध साधक इंद्रियों पर पूर्ण विजय पा लेता है। उसकी इंद्रियाँ किसी भी विषय के प्रति आसक्‍त नहीं होती हैं। बुद्‍धि आदि करणगण जब अपनी तीव्र इच्छा के बल से दोषों से निवृत्‍त करके धर्म वृत्‍ति में लगाए जाते हैं तो वे दर्वीकर सर्प की तरह विषविहीन हो जाते हैं और साधक निरंतर महेश्‍वर ध्यान में स्थित रहता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 117)।
गणकारिका व्याख्या में जितेंद्रिय को इंद्रियजयी कहा गया है। तथा इंद्रियजयत्व पाशुपत साधक के लक्षण के रूप में आया है। (लक्षण भेदादिन्द्रियोत्सर्ग ग्रह्यो: प्रभुत्वभिन्द्रिय जय: – ग.का.टी.पृ. 22)। योग की उच्‍च भूमिका पर पहुँचने के उपरांत साधक इंद्रियों के द्‍वारा ग्रहण व उत्सर्ग अपनी स्वतंत्र इच्छानुसार कर सकता है, अर्थात् वह इंद्रियों का स्वामी बन जाता है और अपनी इच्छानुसार सभी विषयों को इंद्रियों के द्‍वारा जान सकता है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

जीव अपने को सीमित और अल्पज्ञ तथा अल्पशक्ति माननेवाला मायीय प्रमाता। अपनी प्रकाश रूपता से भिन्न प्रमेय पदार्थ को अर्थात् शून्य, प्राण, बुद्धि, स्थूल शरीर आदि में से ही किसी एक को अपना वास्तविक स्वरूप माननेवाला प्राणी। आणव, कार्म तथा मायीय नामक तीनों मलों से पूर्णतया आवेष्टित सातवीं एवं सबसे निचली भूमिका का सकल प्राणी। (ई.प्र.वि., 2, पृ. 228, 234-37)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


जीवघन मुक्त जीवों के पिण्डी भाव का अर्थात् पिण्डी भूत मुक्त जीवों का आधारभूत ब्रह्मलोक ही जीवघन है (अ.भा.पृ. 390)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

जीवन्मुक्त धर्ममेघसमाधि के द्वारा क्लेश और कर्मों की निवृत्ति होने पर ही कोई व्यक्ति जीवन्मुक्त होता है। इस अवस्था में क्लेश की स्थिति ‘दग्धबीजवत्’ हो जाती है, अर्थात् जीवन्मुक्त क्लेश के अधीन होकर कोई कर्म नहीं करते। नूतन विपाक को उत्पन्न करने में कर्माशय असमर्थ हो जाता है, केवल प्रारब्ध कर्म का भोग होता रहता है और योगी अनासक्त होकर इस भोग का अनुभव करते रहते हैं (द्र. योगसू. 4/30)। जीवन्मुक्त का स्वेच्छासाध्य मुख्य कर्म है – मोक्ष विद्या का उपदेश जिसको वे निर्माणचित्त का आश्रय करके करते हैं। किसी-किसी का मत है कि जीवन्मुक्त अवस्था में जाति-आयु-भोग रूप त्रिविध विपाकों में केवल आयुविपाक ही सक्रिय रहता है। जीवन्मुक्त अवस्था कैवल्यप्राप्ति की पूर्वावस्था है। जीवन्मुक्ति के बाद पुनः संसारबन्धन नहीं हो सकता। इस अवस्था के बाद विदेहमुक्ति (शरीरत्यागपूर्वक कैवल्यप्राप्ति) होने में कुछ काल लगता है जो अवश्यंभावी है। इस काल की उपमा कुम्भकार -चक्र का भ्रमण है। नूतन वेग-कारक क्रिया न करने पर भी प्राक्तन वेग के संस्कार से जिस प्रकार चक्र कुछ काल तक घूमता रहता है, उसी प्रकार देहधारण -संस्कार के कारण नूतन कर्म संकल्प से शून्य जीवन्मुक्त का शरीर कुछ काल के लिए जीवित रहता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

जीवन्मुक्त 1. अपनी शुद्ध, असीम एवं शिवरूपता का सतत विमर्श करने के कारण नियत देह आदि धारण करता हुआ ही सभी बंधनों से मुक्त रहने वाला प्राणी। वह समस्त विश्व को तथा इसके समस्त व्यवहार को एक नाट्य के दृश्य के तुल्य मानता है, अथवा इसे अपनी ही परिपूर्ण शक्ति का विलास समझता है। इस प्रकार वह समस्त सांसारिक व्यवहारों को करता हुआ भी उनसे मुक्त ही बना रहता है। (स्पन्दविवृति पृ. 86)। यह ज्ञानी की जीवन्मुक्ति होती है। 2. शिवभाव के परिपूर्ण समावेश के अभ्यास से उत्कृष्ट शिवयोगी शरीर में ठहरते हुए ही मुक्त हो जाने पर अपनी परिपूर्ण परमेश्वरता को भी प्राप्त कर लेता है। ऐसी अवस्था में पहुँचने पर उसमें किसी किसी विषय के सृष्टि संहार आदि को कर सकने की शक्ति भी उदित हो जाती है। उससे वह अपनी परमेश्वरता का आनंद लेता रहता है। यह जीवन्मुक्ति ऐश्वर्यमयी होती है और योगसिद्ध ज्ञानी को प्राप्त होती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


जीवन्मुक्ति अद्वैतवादी शाक्त दर्शन में बन्ध और मोक्ष को भी विकल्प का व्यापार माना गया है। भोग और मोक्ष की समरसता का यहाँ प्रतिपादन किया गया है। इसकी अनुभूति जीवन्मुक्ति दसा में होती है। प्रत्यभिज्ञा हृदय (सू. 16) में बताया गया है कि चिदानन्दात्मक स्वस्वरूप की अनुभूति हो जाने पर शरीर, इन्द्रिय प्रभृति की चेष्टाओं के चलते रहने पर भी साधक योगी चिदेकात्मस्वभाव से विचलित नहीं होता। इसी स्थिति को जीवन्मुक्ति दशा कहते हैं। अपनी विश्वात्मकता का अनुसंधान करने वाले साधकों का यह स्वभाव है। यह कोई आगन्तुक विशेषता नहीं है। रत्नमाला शास्त्र में बताया गया है कि जिस क्षण गुरु निर्विकल्प स्वरूप को प्रकाशित कर देते हैं, तभी शिष्य मुक्त हो जाता है। क्रम दर्शन की दृष्टि से यह स्थिति क्रमपरामर्श की पद्धति से उन्मीलित होती है। योगवासिष्ठ में अनेक कथानकों के माध्यम से इस स्थिति को समझाया गया है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

जीवावस्थात्रय शुद्धावस्था, संसारी अवस्था और मुक्तावस्था के भेद से जीव की तीन अवस्थायें हैं।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

जीवावस्थात्रय 1. सच्चिदानंदात्मक अणु रूप शुद्धावस्था है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

जीवावस्थात्रय 2. पञ्चपर्वात्मक अविद्या से बद्ध और दुःखित अवस्था जीव की संसारी अवस्था है। देहाध्यास, इन्द्रियाध्यास, प्राणाध्यास, अन्तःकरणाध्यास तथा स्वरूप विस्मृति ये ही अविद्या के पाँच पर्व हैं।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

जीवावस्थात्रय 3. जन्म-मरण आदि संसारी धर्मों का अनुभव करता हुआ भी भगवत् कृपा से प्राप्त सत्संग द्वारा पंच पर्वात्मक विद्या पाकर परमानंद स्वरूप मुक्ति जीव की मुक्तावस्था है। वैराग्य, ज्ञान, योग, तप और केशव में भक्ति ये ही विद्या के पाँच पर्व हैं (प्र.र.पृ. 57)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

ज्ञान लाभ का एक प्रकार।

पाशुपत साधक को साधना करने से जो विशेष लाभ या उपलब्धियाँ प्राप्‍त होती हैं, ज्ञान उनमें से प्रथम है। साधक जब दुःखांत प्राप्‍ति कर लेता है तो उसे सिद्‍धि की प्राप्‍ति होती है। वह सिद्‍धि दो प्रकार की होती है – ज्ञानशक्‍तिमयी और क्रियाशक्‍तिमयी। ज्ञानशक्‍तिमयी सिद्‍धि ही प्रथम प्रकार का लाभ है जिसके प्रभाव से साधक में दूरदर्शन, दूरश्रवण आदि शक्‍तियों का आविर्भाव हो जाता है। (ग.का.टी.पृ. 10)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

ज्ञान बुद्धितत्त्व के आठ रूपों में ज्ञान एक है (सांख्यका. 23)। यह बुद्धि का सात्त्विक रूप है। प्रमाण आदि ज्ञान इस ज्ञान के ही विभिन्न रूप हैं। टीकाकारों ने बुद्धि के इस सात्त्विक ज्ञान को तत्त्वज्ञान (25 तत्त्वों का ज्ञान) कहा है, जिसका सर्वोच्च रूप है – गुणपुरुषभेदज्ञानरूप विवेकज्ञान। कुछ व्याख्याकार कहते हैं कि यह ज्ञान दो प्रकार का है – बाह्य (वेदादिशास्त्रों का ज्ञान) तथा आन्तर (पूर्वोक्त तत्त्वज्ञान एवं विवेकज्ञान)। वस्तुतः शब्दादि -ज्ञान रूप भोग एवं गुणपुरुषभेदज्ञान रूप अपवर्ग – यह द्विविध ज्ञान ही उपयुक्त ज्ञान का स्वरूप है (युक्तिदीपिका) – यही मानना युक्तियुक्त है। द्र. प्रमाण, प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम शब्द।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ज्ञान सच्चा ज्ञान ही मोक्ष है। अपनी शुद्ध, परिपूर्ण, असीम तथा ऐश्वर्यमयी संविद्रूपता का बोध ज्ञान कहलाता है। ज्ञान को बंधन स्वरूप अज्ञान (देखिए) का विरोधी भाव कह कर भी अभिव्यक्त किया गया है। (तं.सा.पृ.2)। अज्ञान और ज्ञान दोनों दो दो प्रकार के होते हैं ‘पौरुष एवं बौद्ध। अपने वास्तविक स्वरूप की पूर्ण प्रत्यभिज्ञा के लिए पौरुष एवं बौद्ध, दोनों प्रकार के ज्ञान का होना आवश्यक माना गया है। (देखिए पौरुष एवं बौद्ध ज्ञान)। ‘

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ज्ञानगुरु

 

देखिए ‘अष्‍टावरण’ शब्द के अंतर्गत ‘गुरु’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

ज्ञानयोग शैवी साधना के त्रिकयोग का वह प्रकार, जिसमें साधक परमेश्वर के शुद्ध एवं परिपूर्ण परमेश्वरात्मक स्वरूप का बारबार विकल्पात्मक निश्चय रूपी ज्ञान का अभ्यास करते करते उस ज्ञान को अपने चित्त पर इतना गहरा अंकित करता है कि आगे बिना वैसे विकल्प ज्ञान अभ्यास के स्वयमेव उसे वैसा ही दीखता है। इस शुद्ध और सच्चे विकल्प ज्ञान के अभ्यास से जन्म जन्मांतरों से रुढ़ बने हुए अशुद्ध विकल्पों का क्षय हो जाता है और शुद्ध विकल्प ज्ञान पक्का हो जाता है। इस ज्ञानयोग को विकल्प संस्कार भी कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ज्ञानशक्ति परमशिव की पंच अंतरंग शक्तियों में से चौथी शक्ति, उसकी आमर्शात्मक शक्ति। उसकी वह शक्ति, जिसके द्वारा वह शुद्ध संवित् स्वरूपता का शुद्ध ‘अहं’ के रूप में विमर्शन करने लग जाता है। इस विमर्शन में अतीव सूक्ष्म रूप से ‘इदम्’ अर्थात् प्रमेय अंश का धीमा सा आभास भी उभरने लगता है। इस तरह से शुद्ध चैतन्य के प्रकाश के भीतर प्रमेयांश का आभासन करने वाली परमेश्वर की शक्ति ज्ञान शक्ति कहलाती है। (तन्त्र सार पृ. 6)। इस शक्ति की स्फुट अभिव्यक्ति सदाशिव तत्त्व में होती है। (शि.दृ.वृ. पृ. 37)। परंतु साधना क्रम में इसकी अभिव्यक्ति ईश्वर तत्त्व में मानी जाती है। (पटलसा.1-18)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ज्ञानाचार

 

देखिए ‘सप्‍ताचार’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

ज्ञानावेश “मैं सर्वरूप हूँ” इस प्रकार का बोध प्रकट होना ज्ञानावेश है। उक्त ज्ञानावेश “अहंमनुरभवं सूर्यश्चाहम्” इत्यादि श्रुति वाक्यों में प्रतिपादित है (अ.भा.पृ. 262)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

ज्ञानी (न्) शैव साधक दो प्रकार के होते हैं। ज्ञानी (ज्ञानिन्) और योगी (योगिन्)। ज्ञानी अपने चित के संशयों को पूरी तरह से शांत करते हुए वास्तविकता के निश्चय को ठहरा कर उस पर पक्का विश्वास रखते हुए जीवन्मुक्त बन जाते हैं। प्रारब्ध कर्मों की समाप्ति पर जब उनका शरीर छूट जाता है तो वे शिवभाव में स्थित हो जाते हैं। उन्हें जीते जी शिवभाव के ऐश्वर्यो की अनुभूति नहीं होती है, वह तो योगियों को ही होती है। इस तरह से ज्ञानी सिद्धांत पक्ष के सच्चे निश्चय वाले साधक को कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ज्ञानेन्द्रिय ज्ञानेन्द्रिय का तात्पर्य है वह इन्द्रिय जो ज्ञान का साधन हो। यहाँ ज्ञान का अर्थ बाह्य ज्ञान है। बाह्य ज्ञान पाँच प्रकार के हैं – शब्दज्ञान, स्पर्शज्ञान, रूपज्ञान, रसज्ञान तथा गन्धज्ञान। अतः ज्ञानेन्द्रियाँ भी पाँच हैं – शब्दग्राहक कर्ण (श्रोत्र), स्पर्शग्राहक त्वक् (स्पर्श का अभिप्राय शीत-ऊष्ण स्पर्श से है, कठिनस्पर्श, कोमलस्पर्श आदि नहीं – यह ज्ञातव्य है), रूपाग्राहक चक्षु, रसग्राहक जिह्वा तथा गन्धग्राहक नासा (नासिका)। सांख्यीय दृष्टि के अनुसार ज्ञानेन्द्रियाँ वस्तुतः अहंकार की विकारभूत (स्थूलरूप) हैं; संबद्ध शारीरिक अवयव प्रकृति इन्द्रियों के अघिष्ठान हैं। यही कारण है कि ज्ञानेन्द्रियाँ (तथा कर्मेन्द्रियाँ भी) आहंकारिक कहलाती हैं। शास्त्रीय दृष्टि में प्रत्येक प्रकार के जीव (प्राणी) में पाँच प्रकार की ज्ञानेन्द्रियाँ रहती हैं, यद्यपि उनकी विद्यमानता सर्वथा स्फुट रूप से ज्ञात नहीं होती। योगज प्रत्याहार के द्वारा इन ज्ञानेन्द्रियों को निरुद्ध किया जा सकता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ज्ञानोपाय देखिए शाक्त-उपाय।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ज्ञान्यक्षर विज्ञान सच्चिदानंदत्व, देशकालापरिच्छिन्नत्व, स्वयंप्रकाशत्व, गुणातीतत्व आदि धर्मों से विशिष्ट भगवद् विषयक ज्ञान ज्ञानियों का अक्षर विज्ञान है तथा पुरुषोत्तम भगवान् के अधिष्ठान के रूप में भगवद्धाम विषयक ज्ञान भक्तों का अक्षर विज्ञान है (अ.भा. 3/3/55)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

ज्येष्‍ठ ईश्‍वर का नामांतर।

ईश्‍वर समस्त कार्य पदार्थों से परे है। अतः ज्येष्‍ठ कहलाता है। सिद्‍ध साधक ऐश्‍वर्यप्राप्‍ति व मुक्‍तिप्राप्‍ति कर लेते हैं। पर फिर भी ईश्‍वर ही सबका अधिष्‍ठाता बना रहता है, सिद्‍धों का भी तथा असिद्‍धों का भी। सिद्‍धजन शिवतुल्यता की अवस्था को प्राप्‍त करके सर्वज्ञ और सर्वशक्‍तिमान् बन जाते हैं। परंतु फिर भी इस ब्रह्मांड के सृष्‍टि, स्थिति, संहार आदि का संचालन भगवान् पशुपति ही करता रहता है। ईश्‍वर ही साधक की सिद्‍धि का कारण बनता है, अतः वह सबसे परे है। फिर उसका ऐश्‍वर्य उसका नैसर्गिक स्वभाव है, अतः वह सबसे बड़ा ऐश्‍वर्यवान् होता हुआ ज्येष्‍ठ कहलाता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 57)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

ज्येष्ठा पश्यन्ती के रूप में अभिव्यक्त वामा और इच्छा शक्ति का अगला विकास ज्येष्ठा शक्ति के रूप में होता है। ज्ञान शक्ति के साथ मिलकर यह ज्येष्ठा शक्ति सृष्ट विश्व की रक्षा का कार्य करती है। ऋजु (सीधी) रेखा के रूप में यह स्थित है। इससे श्रृंगाट की ऊर्ध्व रेखा बनती है। इसी को मध्यमा वाक् भी कहा जाता है (योगिनीहृदय, 1/38-39)।

दर्शन : शाक्त दर्शन

ज्येष्ठा शक्ति परमेश्वर की अनुग्रह लीला को चलाने वाली शक्ति। अंबा परमेश्वर की स्वभावभूत शक्ति है। ज्येष्ठा अंबा का ही एक रूप है। यह शक्ति प्राणियों को उनके मूलभूत परमेश्वर भाव को पुनः पहचानने के लिए सतत प्रेरणा करती रहती है। इसीलिए इसे अनुग्राहिका शक्ति भी कहा जाता है। यह शक्ति जीवों के मोक्ष के सारे व्यवहार को चलाती रहती है। जीवों को शिवभाव पर पहुँचा देने वाली ज्येष्ठा के अनंत शक्ति समूहों को अघोर शक्तियाँ कहा जाता है। (तं.आ. 6-47; मा. वि. तं. 3-33)

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ज्योतिष्मती प्रवृत्ति जिन उपायों से मन स्थिति (= प्रशान्तवाहिता) को प्राप्त कर सकता है, उन उपायों का विवरण योगसूत्र 1/33 -39 में दिया गया है। ज्योतिष्मती प्रवृत्ति इनमें से एक है (द्र. 1/36)। इसका नामान्तर विशोका भी है। यह एक प्रकार का ह्लादयुक्त ज्ञान है जिसके उदय होने पर चित्त बाह्य विषयजनित विक्षेपों से चंचल नहीं होता और आत्मभाव के सूक्ष्मतम रूप में समाहित होने के लिए समर्थ हो जाता है। इस प्रवृत्ति के दो अंश हैं। प्रथम अंश का नाम विषयवती है, इसमें अस्मिता का ध्यान उसके वैकल्पिक रूप (सूर्य आदि की प्रभा) की सहायता से किया जाता है; द्वितीय अंश का नाम अस्मितामात्रा है; इसमें हृदय में अस्मिता का ध्यान किया जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

डुंडुंकार पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।

डुडुंकार डुंडुंकरण को कहते हैं, अर्थात् जिह् वागत से तालु का स्पर्श करके शब्दविशेष निकालना डुंडुंकार होता है। इसे पुण्य शब्द कहा गया है और यह शब्द बैल के शब्द के सदृश होता है। हुडुक्‍कार भी इसी का नामांतर है। पाशुपत योगी को डुंडुंकार शब्द का उच्‍चारण पूजा के अंग के रूप में करना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 14)। शैव साधकों में ऐसी प्रसिद्‍धि है कि दक्ष प्रजापति ने बकरे का सिर लग जाने पर बकरे की वाणी से, जो भगवान् पशुपति की स्तुति की थी उससे भगवान् अतीव प्रसन्‍न होकर उसके प्राक्‍तन अपराधों को भूल गए थे। उसी स्तुति का अनुकरण अब भी शैवसाधक शिवजी की पूजा में करते हैं।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

तत्त्व सामान्य भाव। भिन्न भिन्न पदार्थों में सामान्य रूप से रहने वाला तथा इस कारण उन्हें एक ही वर्ग में लाने वाला तथा उन सभी में व्याप्त होकर ठहरने वाला रूप। भुवन का अनुगामी सूक्ष्म रूप। (तं.सा.पृ. 109; ईश्वर प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी, खं. 2, पृ. 192)। तत्त्व (एक) सभी तत्त्वों से उत्तीर्ण तथा उन सभी का एकाकार सामरस्यात्मक परमशिव तत्त्व। तत्त्व (छत्तीस) शैव दर्शन के रहस्य को समझाने के लिए तथा इस दर्शन के आणवोपाय की तत्त्वाध्वा नामक धारणा में उपयोग में लाने के लिए छत्तीस तत्त्वों की कल्पना की गई है, जो इस प्रकार हैं – शिव, शक्ति, सदाशिव, ईश्वर, शुद्ध विद्या, माया, कला, विद्या, राग, काल, नियति तथा पुरुष से लेकर पृथ्वीपर्यंत पच्चीस तत्त्व जो सांख्य दर्शन के अनुसार ही हैं। (शि.सू.वा.पृ. 44-45)

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तत्त्व-अध्वन् आणवोपाय की देशाध्वा नामक धारणा में आलम्बन बनने वाला दूसरा तथा मध्यम मार्ग। भुवन अध्वा की भाँति तत्त्व अध्वा भी प्रमेय अंशप्रधान ही है परंतु अपेक्षाकृत सूक्ष्म रूप वाला है। इस धारणा में छत्तीस तत्त्वों को क्रम से अपने शुद्ध स्वरूप से भावना द्वारा व्याप्त करेत हुए अपने शिवभाव का समावेश प्राप्त किया जाता है। (तं.सा.पृ. 109-111)। एक एक तत्त्व को लेकर के उसे ही भावना के द्वारा सर्वभावमय समझने का पुनः पुनः अभ्यास किया जाता है। उससे सर्वव्यापक परिपूर्ण परमेश्वर भाव का आणव समावेश अपने में हो जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तत्त्वत्रय काश्मीर शैव दर्शन में तत्त्वों का वर्गीकरण केवल वास्तविक वस्तुस्थिति को समझाने के लिए और तत्त्व-अध्वा नामक आणव योग की साधना के लिए किया जाता है। सूक्ष्मतर विश्लेषण से तत्त्वों की संख्या में वृद्धि होती है और एकीकरण की प्रक्रियाओं से या अतिस्थूल विश्लेषण से तत्त्वों की संख्या घट भी सकती है। तदनुसार त्रितत्त्व धारणा के अनुसार भी तत्त्व कल्पना निम्नलिखित प्रकारों से की जा सकती है। 1. नर तत्त्व शक्ति तत्त्व और शिव तत्त्व। (पटलत्री.वि.पृ. 1)। 2. आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्व। (मा.वि.तं.2-4)। यथास्थान दे।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तत्त्वशुद्धि गुरु दीक्षा द्वारा शिष्य को पाशों से छुटकारा देता हुआ जब उनका शोधन करता है तो पहले पृथ्वी तत्त्व से लेकर माया तत्त्व तक सभी का शोधन करता हुआ उन इकत्तीस तत्त्वों के पाशों से उसे छुड़ाता है। तदनंतर विद्या स्तर के तीनों तत्त्वों से उसे पार ले जाकर शक्ति तत्त्व पर पहुँचाकर शिव तत्त्व के साथ उसका एकीकरण कर देता है। क्रियामयी दीक्षा की इस प्रक्रिया को तत्त्वशुद्धि कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तत्त्वसर्ग सांख्य में तीन प्रकार का सर्ग माना गया है – तत्त्वसर्ग, भूतसर्ग एवं भावसर्ग। तत्त्वसर्ग = तत्त्वों का सर्ग = सृष्टि। तत्त्व = महत – अहंकार – तन्मात्र – इन्द्रिय – मन – भूत। इन तत्त्वों के मूल उपादान अव्यक्त (साम्यावस्था प्राप्त त्रिगुण) हैं और मूल निमित्त अपरिणामी चेतन पुरुष है। इन तत्त्वों की सृष्टि का क्रम नियत है। क्रम यह है – प्रकृति से महत्तत्त्व, महत् से अहंकार, अहंकार के सात्त्विक भाग से दस इन्द्रियाँ तथा मन एवं उसके तामस भाग से पाँच तन्मात्र; पाँच तन्मात्रों से पाँच भूत। कहीं-कहीं क्रम का यथावत् निर्देश न करते हुए भी तत्त्वों का उद्भव कहा गया है, जैसे महत्तत्त्व से ही तन्मात्र हुए हैं – ऐसा भी कहा गया है पर इससे व्यवस्थित क्रम अप्रामाणिक नहीं हो जाता।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

तत्पुरुष ईश्‍वर का नामांतर।

पाशुपत शास्‍त्रों में ईश्‍वर को तत्पुरुष नाम से भी अभिहित किया गया है। क्योंकि वह आदि पुरुष है, जो समस्त जगत का कारणभूत तत्व है तथा जो समस्त विश्‍व के कण कण में व्याप्त होते हुए विविध रूपों में चमकता है (पा. सू.कौ.भा. पृ. 107)।
पाशुपत साधना में वेदोक्‍त तत्पुरुष के मंत्रों का भी प्रयोग किया जाता है। (तत् पुरुषाय विद्‍महे, महादेवाय धीमहि, तन्‍नो रुद्र: प्रचोदयात्) – पा. सू. 4-22, 23,24)। ऐसे मंत्र शैवी साधना में प्रयुक्‍त होते हैं। नारायणीय उपनिषद में भी ऐसे बहुत सारे शिवमंत्र दिए गए हैं।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

तत्पुरुष स्वच्छंदनाथ (देखिए) के पाँच मंत्रात्मक रूपों में से दूसरा रूप। प्रक्रिया मार्ग की दृष्टि से साधना के क्रम में शक्ति तत्त्व को आनंद शक्ति की अभिव्यक्ति का स्थान माना गया है। उस दृष्टि के अनुसार तत्पुरुष को शक्ति तत्त्व तथा उसकी आनंद शक्ति का स्फुट रूप माना गया है। (तं.आ.वि. 1 पृ. 36-39)। पंचमुख स्वच्छंदनाथ के पूर्वाभिमुख रक्तवर्णमुख को तत्पुरुष मुख कहा जाता है। यह परमेश्वर का ईश्वर भट्टारक स्थानीय मंत्रात्मक रूप होता है। इस अवस्था को सौषुप्तवत् माना गया है। इसके उपासक साधक श्मशान में वास करने वाले विरक्त कापालिक होते हैं। (मा.वि.वा. 1-206 से 211, 213 से 2176, 230 से 233, 251)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तनु अस्मिता आदि क्लेशों की चतुर्विध अवस्थाओं में यह एक है। तनु (=क्षीण) – अवस्था वह है जिसमें क्लेशों की कार्य करने की शक्ति प्रतिपक्ष-भावना के कारण शिथिल हो गई हो। इस अवस्था में स्थित क्लेश तभी सान्द्रिय हो सकते हैं (अर्थात् अपने अनुरूप वृत्ति को उत्पन्न कर सकते हैं) जब उद्बोधक सामग्री अधिक शक्तिशाली हो। क्रिया-योग (द्र. योगसू. 2/1) के द्वारा यह अवस्था उत्पन्न होती है। योगाभ्यास के बिना जो तनुत्व देखा जाता है, वह कृत्रिम है। तनु -अवस्था में स्थित क्लेश विवेक का सर्वथा अभिभव नहीं कर सकता। तनु-अवस्था को कभी-कभी सूक्ष्म-अवस्था भी कहा जाता है, यद्यपि ‘सूक्ष्मावस्था’ शब्द का प्रायः दग्धबीज अवस्था के लिए ही प्रयोग होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

तन्मात्र तन्मात्र अकारान्त शब्द है। आकारान्त तन्मात्रा शब्द आधुनिक लेखकों के द्वारा भ्रमवश प्रयुक्त होता है; ‘तस्य मात्रा’ इस विग्रह में तन्मात्रा शब्द निष्पन्न हो सकता है, पर इसका अर्थ तन्मात्र रूप द्रव्यविशेष नहीं होगा। सांख्य में तन्मात्र नित्य नपुंसकलिङ्ग है – तद्एव तन्मात्रम्; यही कारण है कि शब्दतन्मात्र, स्पर्शतन्मात्र आदि शब्दों की तरह शब्दमात्र, स्पर्शमात्र आदि शब्द भी प्रचलित हैं। शब्द-स्पर्शादि भेद से तन्मात्र पाँच हैं। तन्मात्र के लिए भूत शब्द का प्रयोग भी कुछ प्राचीन आचार्यों ने किया है; वे भूत के लिए महाभूत शब्द का प्रयोग करते हैं। तन्मात्र को कदाचित् परमाणु भी कहा गया है, यद्यपि परमाणु शब्द तन्मात्र से स्थूल पदार्थ के लिए भी प्रयुक्त होता है। तन्मात्र के कई पर्याय शब्द (अविशेष आदि) टीकाग्रन्थों में दिए गए हैं। तन्मात्र का उपादान भूतादि (अर्थात् अहंकार का तामस भाग) है। इस अहंकार से तन्मात्र का प्रादुर्भाव कैसे होता है, यह योगीपरम्परा से ज्ञातव्य है। प्रतिजीवगत अहंकार से तन्मात्र नहीं होता; महाशक्तिशाली पुरुष विशेष के अहंकार से तन्मात्र प्रकटित होता है। तन्मात्र ही ब्रह्माण्ड की बाह्यदृष्टि से अन्तिम उपादान है। तन्मात्र का स्थूल रूप भूत है। भूतों में शब्दादि अपनी चरम सूक्ष्मता में नहीं होते (द्र. भूत शब्द)। यह स्पष्टतया ज्ञातव्य है कि तन्मात्र छोटे -छोटे कण रूप वस्तु नहीं है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध जब चरम सूक्ष्म अवस्था में पहुँच जाते हैं, तब वे शब्द आदि तन्मात्र कहलाते हैं (शब्दादि गुणों से उनके गुणी द्रव्य ग्राह्य होते हैं – सांख्यीय दृष्टि के अनुसार)। योगी कहते हैं कि क्षणमात्रव्यापी एक-एक क्रिया से जो शब्द, स्पर्श, रूप आदि उद्भूत होते हैं, वे तन्मात्र हैं। तन्मात्र से सूक्ष्मतर भाव बाह्य रूप से प्रत्यक्ष नहीं होता। तन्मात्र का विचारानुगत संप्रज्ञात समाधि द्वारा ही साक्षात्करण संभव है; किसी भी मन्त्रादि की सहायता से तन्मात्रों का साक्षात्कार नहीं होता।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

तन्मात्र शुद्ध प्रकाशरूप प्रमातृ अंश के पारमेश्वरी मायाशक्ति के द्वारा आच्छादित हो जाने पर तमः प्रधान अहंकार से प्रमेयात्मक अति सूक्ष्म पाँच विषयों की सृष्टि हो जाती है। वे शब्द, स्पर्श आदि पाँच सूक्ष्म विषय पाँच तन्मात्र कहलाते हैं। तन्मात्र का शब्दार्थ है ‘केवल उतना ही’ अर्थात् सर्वथा विभागरहित सामान्याकार सूक्ष्मतर विषय मात्र। जब ये ही सूक्ष्मतर विषय क्षोभ के कारण स्थूलता को प्राप्त करते हैं तो क्रमशः आकाश, वायु आदि पाँच महाभूतों के रूपों में प्रकट हो जाते हैं। (तं.सा.पृ. 89-90)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तप लाभ का एक प्रकार।

तप लाभ का दूसरा प्रकार है। पाशुपत साधक की भस्मस्‍नान, भस्मशयन आदि क्रियाओं से उसमें जो धर्म उद्‍बुद्‍ध होता है, वह तप कहलाता है। इस तप के कई चिह्न होते हैं जैसे गति, प्रीति, प्राप्‍ति, धर्मशक्‍ति तथा अतिगति। (ग.का.टी.पृ. 15)। जैसे कोतवाल नगर की सम्पत्‍ति की रक्षा करता है, उसी तरह से तप धर्म की रक्षा करता है। अधर्म रूपी चोर से साधक को तप ही बचाए रखता है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

तप पंचविध नियमों में तप अन्यतम है। योगसू. 2/1 में क्रियायोग का भी यह एक अंग माना गया है। योगियों का कहना है कि विषय -व्यासभाष्य (2/32) में तप का लक्षण है – द्वन्द्वों (=विरूद्ध भावों, जैसे शीत -ऊष्ण अथवा क्षुधा -पिपासा) का सहन करना (अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति के लिए)। योग में तप का विधान वृत्तिनिरोधार्थ के लिए ही है। योगी को यह देखना आवश्यक होता है कि तप शरीर को अनावश्यक रूप से पीड़ित न करे – शरीरधातु का क्षयकारक न हो। एकाग्रता-प्रसन्नता की वृद्धि तप के साथ होना आवश्यक है। क्लेशों को क्षीण करने में तप की असाधारण शक्ति है। तप से इन्द्रियसिद्धि (दूरश्रवण, दूरदर्शन आदि) तथा कायसिद्धि (अणिमा आदि) होती है (योगसू. 2/43)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

तमोगुण सांख्योक्त तीन प्रसिद्ध गुणों में से यह एक है। अन्य दो हैं – सत्त्व और रजस्। तमोगुण के लक्षणादि के विषय में ‘गुण’ शब्द के अंतर्गत देखें। तमोगुण के कारण सत्त्व की प्रकाशन-क्रिया एवं रजस् की उद्घाटन-क्रिया नियमित होती है। बाह्य-आभ्यन्तर पदार्थों में तमोगुण किस रूप में रहता है (प्रधान भाव से), इसका एक लघु विवरण यहाँ दिया जा रहा है। शब्दादि पाँच गुणों (साधारण अर्थ में) में गन्ध तामस है। उसी प्रकार ज्ञानेन्द्रियों में नासिका, कर्मेन्द्रियों में पायु, पंच प्राणों में अपान, अवस्थात्रय में सुषुप्ति, देवादिप्राणियों में तिर्यक्प्राणी तामस हैं। यह तमोगुण स्वभावतः अदृश्य अवस्था में रहता है; यही कारण है कि कभी-कभी तमस् शब्द का त्रिगुण के लिए भी प्रयोग होता है, क्योंकि यह अवस्था भी अदृश्य है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

तमोगुण परमेश्वर में भेदावभासन के प्रति जो स्वभावभूत उन्मुखता रहती है उसे उनकी परामायाशक्ति कहते हैं। जब वही मायाशक्ति मायातत्त्व तथा उससे विकसित पाँच कंचुकों के प्रभाव से अत्यधिक संकुचित बने हुए भेदमय दृष्टिकोण वाले संकुचित प्रमाता में आकर प्रकट हो जाती है तो उस अवस्था में उसे तमोगुण कहते हैं। शक्ति और शक्तिमान् ऐसा शब्द-प्रयोग अभेद दृष्टि से किया जाता है। मायीय प्रमाता भेद दृष्टि ही रखता है; अतः यहाँ गुण और गुणी इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग होता है। मूर्च्छा, निद्रा आदि अवस्थाओं में संकुचित जीव में जब कभी अपने स्वरूप की सत्ता के आनंद के आभास का भी अभाव बना रहता है, तो उस अवस्था में उसका ऐसा मोह रूपी स्वभाव ही तमोगुण कहलाता है। (ईश्वर-प्रत्यभिज्ञावि. 4-1-4,6)। इस गुण के शेष स्वभाव सांख्य दर्शन के अनुसार ही माने गए हैं। परंतु सांख्य में इसे एक मात्र प्रकृति का गुण माना गया है। जबकि काश्मीर शैव में यह मूलतः परुष का ही गुण है और वही इसे प्रकृति पर संक्रांत कर देता है, जब गुणमय दृष्टिकोण से उसका विमर्शन करता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तान्त्रिक साधना तन्त्र शब्द की व्युत्पत्ति और इसकी ऐतिहासिक प्रवृत्ति के संबंध में इस विषय के प्रायः सभी ग्रंथों में विस्तार अथवा संक्षेप में लिखा गया है। यह शब्द आजकल भारतीय वाङ्मय की एक शाखा-विशेष में रूढ़ है, जो पहले आगम और बाद में तन्त्र शब्द से अभिहित हुई। प्रो. विण्टरनित्ज के अनुसार संहिताएँ वैष्णवों के, आगम शैवों के तथा तन्त्र शाक्तों के पवित्र ग्रन्थ हैं, किन्तु आगम शब्द से जैसे आजकल शैव और वैष्णव दोनों प्रकार के आगम ग्रंथों की अभिव्यक्ति होती है, वैसे ही संहिता शब्द से केवल वैष्णवागमों का बोध नहीं होता। वैदिक संहिताओं के अतिरिक्त आयुर्वेद, ज्योतिष, पुराण में भी संहिता ग्रन्थ विद्यमान हैं। अतः आगम अथवा तन्त्र शब्द ही इस पूरे वाङ्मय का प्रतिनिधित्व करता है। इन सारे ग्रन्थों की कुछ समान विशेषताएँ हैं। ये पवित्र ग्रन्थ द्विजाति के लिये ही नहीं, बल्कि शूद्रों और स्त्रियों के लिये भी हैं।

  आगम अथवा तन्त्र शास्त्र के ग्रन्थों में प्रतिपाद्य विषय को चार भागों में बाँटा गया है – ज्ञान, क्रिया, चर्या और योग। बौद्ध तन्त्रों में ज्ञान के स्थान पर अनुत्तर नाम मिलता है। यह सही है कि केवल शैवागम और कुछ पाँचरात्र संहिताएँ ही उक्त नाम के चार पादों में विभक्त हैं, किन्तु बिना पाद विभाग के ये सभी विषय प्रायः सभी तन्त्र ग्रन्थों में प्रतिपादित हैं। इस प्रकार आगम अथवा तन्त्र शब्द से समान प्रकृति वाले एक विशाल भारतीय वाङ्मय का बोध होता है।
  भागवतों (पाँचरात्र) और पाशुपतों ने एक ऐसी साधना पद्धति का आविष्कार किया था, जिसमें आराधक आराध्य के साथ आन्तर और बाह्य वरिवस्या (पूजा) के द्वारा तादात्म्य स्थापित करने के उद्देश्य से भूतशुद्धि, प्राणप्रतिष्ठा, न्यास और मुद्रा की सहायता से स्वयं देवस्वरूप हो जाता है। स्वयं देवस्वरूप होकर वह अपने आराध्य को भी इसी विधि से मूर्ति, पट, मन्त्र, मण्डल, यन्त्र आदि में प्रतिष्ठित करता है और इस प्रकार अपने इष्टदेव की बाह्य वरिवस्या सम्पादित करता है। बाह्य वरिवस्या की पूर्णता के लिये यहाँ व्रत, उपवास, उत्सव, पर्व आदि का विधान है और आन्तर वरिवस्या के लिये वह कुण्डलिनी योग का सहारा लेता है। वैदिक कर्मकाण्ड से विलक्षण इस कर्मकाण्ड की निष्पत्ति के लिये जिस शास्त्र का आविर्भाव हुआ, वही आज आगम अथवा तन्त्रशास्त्र के नाम से अभिहित है। अपने आराध्य की आन्तर वरिवस्या के लिये इसका अपना दर्शन है, योग पद्धति है और बाह्य वरिवस्या के लिये मंदिरों और मूर्तियों का निर्माण तथा उनकी आराधना की विशिष्ट पद्धति इसमें वर्णित है। उक्त विषयों के प्रतिपादन के लिये ही प्रत्येक ग्रन्थ में विद्या (ज्ञान), योग, क्रिया और चर्या नामक चार पादों का विधान किया गया था। शिव, विष्णु, बुद्ध और महावीर के अतिरिक्त शक्ति, सूर्य, गणेश और स्कन्द प्रभृति देवताओं की आराधना इसी पद्धति से होने लगी थी। इन पूर्ववर्ती शैव और वैष्णव आगमों की तथा परवर्ती शैव, शाक्त, बौद्ध, जैन तन्त्रों की साधना पद्धति में कोई अन्तर नहीं है।
  आगम अथवा तन्त्रशास्त्र पूरी मानव जाति के उद्धार के लिये प्रवृत्त हैं। इसकी साधना पद्धति की दीक्षा प्राप्त कर लेने के बाद गुरु की सहायता से समझा जा सकता है। तान्त्रिक साधना अधिकतर रहस्यात्मक अथवा संस्कारयुक्त मातृकाओं और वर्णों के, मन्त्रों और संकेतों के यथार्थ प्रयोग पर आधृत है। इसका मूल लक्ष्य यह है कि भगवान् के पास पहुँचने की अपेक्षा भगवान् को ही पूजक के पास लाने का प्रयत्न किया जाए। तान्त्रिक साधना का दूसरा लक्ष्य है- भक्तों को भगवान् के साथ संयुक्त करना और वास्तव में उनको रूपांतरित कर भगवान् बना देना। मनुष्य विश्वातीत के साथ संबंध रखते हुए विश्व के साथ भी संबद्ध रहता है। तान्त्रिक दर्शन में इस स्थिति को विश्वाहन्ता नाम दिया गया है। यह मानव शरीर विश्व की व्यापक और स्पन्दात्मक शक्तियों का छोटा प्रतिरूप है। इस विश्व के छोटे-बड़े सभी अंशों में ये शक्तियाँ समान रूप से कार्यरत हैं।
  आगम और तन्त्रशास्त्र के नाम से अभिहित होने वाले पूरे वाङ्मय में उक्त विषयों का समान रूप से प्रतिपादन किया गया है। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि आगम नाम से जानी जाने वाली धारा का प्रादुर्भाव पहले और तन्त्र के नाम से अभिहित होने वाली धारा का प्रादुर्भाव बाद में हुआ। आश्चर्य की बात है कि भारतीय विद्या के प्रायः सभी विद्वानों ने तन्त्रशास्त्र के अध्ययन के प्रसंग में आगम शास्त्र की एकदम उपेक्षा कर दी है। इसीलिये वे अनेक असंगतियों के शिकार हो गये हैं। वस्तुतः कहा जा सकता है कि न केवल तन्त्र शास्त्र ने, अपितु इनसे पहले आगम शास्त्र ने पुराणों पर गहरा प्रभाव डाला और प्रत्यक्ष रूप से तथा पुराणों के द्वारा भी न केवल मध्यकालीन, अपितु बुद्धोत्तरकालीन भारतीय धार्मिक रीतियों तथा व्यवहारों (आचारों) को भी प्रभावित किया। आज के हिन्दू धर्म पर वैदिक धारा की अपेक्षा इस तान्त्रिक साधना पद्धति का अधिक गहरा प्रभाव है।
  वैदिक उपासना अभी लुप्तप्राय हो गई है। वैदिक मन्त्रों का अर्थ समझना तो दूर रहा, उनका ठीक तरीके से उच्चारण कर पाना भी कठिन हो गया है। यही स्थिति वैदिक यज्ञ-याग आदि की भी है। उनको जानने वाले अब विरल ही लोग बचे हैं। अभी सर्वत्र तान्त्रिक और पौराणिक साधना पद्धति का ही प्रचार है। पौराणिक पद्धति पर भी तांत्रिक प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है, यह अभी बताया जा चुका है।
  इस वाङ्मय की विशालता का कुछ परिचय पर्यायसप्तक शब्द की व्याख्या के अन्तर्गत दिखाये गये विभागों और उपविभागों से मिलता है। साधना पद्धति की विचित्रताओं का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि अकेले शक्तिसंगम तन्त्र में मत, क्रम और मार्ग के भेद से 160 से ऊपर मत-मतान्तरों का उल्लेख मिलता है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

तापदुःखता दार्शनिक दुःखवाद को सिद्ध करने के लिए 2/15 योगसूत्र में जो आधारभूत तथ्य उल्लिखित हैं, ‘तापदुःख’ (= तापहेतुक या तापजनि दुःख) उनमें से एक है : “तापदुःख के कारण सभी दुःख ही हैं”। द्वेषनामक क्लेश (जो दुःख का अनुशयी होता है) द्वारा अभिभूत होकर जो कर्म किया जाता है, वह जिसे कर्माशय को निष्पन्न करता है, वह परपीड़ाकारक कर्मों को करने के लिए प्राणी को प्रेरित करता है। इन कर्मों से बाद में प्राणी को दुःख ही प्राप्त होता है तथा दुःखभोग के समय रागमूलक एवं मोहमूलक कर्म भी अनुष्ठित होते रहते हैं, जो दुःख के कारण होते हैं। यह तापदुःख पूर्व-उत्तर दोनों कालों में दुःख देने वाला होता है। कोई-कोई व्याख्याकार कहते हैं कि तापदुःख का संबंध वर्तमान काल से ही है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

तारक ज्ञान 3/33 योगसूत्र में प्रातिभ नामक ज्ञान को सभी सिद्धियों की प्राप्ति कराने वाला कहा गया है। यही ज्ञान ‘तारक’ है, क्योंकि यह संसार से तरने का हेतु है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

तीव्र-तीव्र शक्तिपात परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला अनुग्रहात्मक अंतःप्रेरणा का सर्वोत्कृष्ट प्रकार (देखिएशक्तिपात)। इस उत्कृष्ट शक्तिपात के माध्यम से जीव को सहजता में ही अपने शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण नैसर्गिक स्वभाव का ज्ञान हो जाता है और वह अपने भौतिक शरीर को तत्काल छोड़ देता है और अपनी परिपूर्ण परमेश्वरता को प्राप्त कर लेता है। (तं.आ. 13-920; त. सा. तृ. 120)। इस अत्युत्कृष्ट शक्तिपात का पात्र बना हुआ साधक क्षणभर के लिए भी अपने जीवभाव के आभा समान संकोच को सहन न करता हुआ तत्क्षण सर्वथा मुक्त हो जाता है। (तन्त्रालोक 13-200)। कभी कभी कोई कोई साधक इस प्रकार के शक्तिपात का पात्र बनकर अपने शिवभाव को पूरी तरह पहचानकर कुछ समय के लिए जीवन्मुक्त दशा में भी ठहरा रहता है। कोई चिरकाल तक भी उस अवस्था में ठहरा रहता है। इस तरह से इस शक्तिपात के भी तीन प्रकार माने गए हैं। (तं.आ.13-131; तन्त्र सार पृ. 120)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तीव्र-मंद शक्तिपात यह मंद शक्तिपात का सर्वोत्कृष्ट प्रकार है। यह परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला अनुग्रहात्मक अंतःप्रेरणा (देखिए शक्तिपात) का वह प्रकार है, जिसके प्रभाव से प्राणी में अपनी शिवरूपता को प्राप्त करने की अपेक्षा ऐश्वर्यमय भोगों को भोगने की इच्छा अधिक प्रबल होती है। ऐसा प्राणी किसी उत्कृष्ट गुरु द्वारा दी गई दीक्षा के सामर्थ्य से ही इस देह का त्याग करने के पश्चात् अपने अभिमत भोगों को भोगने के लिए तदनुकूल लोक को उत्क्रमण कर जाता है। वहाँ इच्छित भोगों को भोग लेने के पश्चात् अपनी शिवरूपता को क्रम से पूर्णतया पहचान लेता है। (तं.सा.पृ. 123, 124; तन्त्रालोक 13-245, 246; तन्त्रालोकविवेक8, पृ. 152)। तीव्र मंद शक्तिपात वाले साधक को भोगों की इच्छा बहुत अधिक नहीं होती है। अतः थोड़े समय में ही उस इच्छा को सफल बनाकर वह मोक्ष के प्रति अग्रसर हो जाता है। उसे इस लोक के गुरु के अनुग्रह से ही मुक्तिलाभ होता है। पुनः किसी अनय गुरु के अनुग्रह की आवश्यकता उसे नहीं पड़ती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तीव्र-मध्य शक्तिपात यह मध्य शक्तिपात का उत्कृष्ट प्रकार है। इससे साधक को अपने शुद्ध आत्मस्वरूप के प्रति उत्पन्न हुए संशयों को सर्वथा शांत करने के लिए किसी उत्कृष्ट गुरु के पास जाने की उत्कंठा तो होती है परंतु दीक्षा प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी उसमें इतनी शीघ्रता से अपने शिवभाव का दृढ़ता से निश्चय नहीं हो पाता है। जब उसे बार बार के अभ्यास से अपने शिवभाव का दृढ़तया निश्चय हो भी जाता है तो फिर भी उसे शिवभाव की साक्षात् अनुभूति तब तक नहीं हो पाती जब तक प्रारब्ध कर्मवशात् उसका शरीर टिका रहता है। वह स्फुट अनुभूति उसे देह को त्याग देने पर ही प्राप्त होती है और तभी वह सर्वथा मुक्त हो जाता है। ऐसा साधक पुत्रक दीक्षा का पात्र बनता है। (तं.आ.वि; 8, पृ. 151; तन्त्र सार पृ. 123; तन्त्रालोक 13-240, 241)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तुटि 1. दो क्षणों (देखिए) को तुटि कहते हैं। (स्व.तं. 11-199)। 2. प्रथम स्पंद। भट्ट कल्लट के अनुसार तुटिपात हो जाने से सर्वज्ञता तथा सर्वकर्तृता जैसी शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। (शि.दृ. 1-8; मा.नि.वा. – 177)। परमशिव में जब सृष्टि के प्रति अति सूक्ष्म सी उमंग उठती है परंतु अभी सृष्टि नहीं हुई होती है उस प्रथम परिस्पंद को भी प्रथम तुटि कहते हैं। (शि.दृ.वृ.पृ. 10)। उसी तुटि के साक्षात्कार से साधक को सर्वज्ञता और सर्वकर्तृता की प्राप्ति हो जाती है। परमेश्वर की परमेश्वरता भी अनुत्तर पद की अपेक्षा इस प्रथम तुटि में ही अभिव्यक्त होने लग जाती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तुर्य भू / तुरीया देखिए तुर्यदशा।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तुर्यदशा शुद्ध ज्ञानमयी अवस्था। वास्तविक आत्मसाक्षात्कार की आनंदमयी दशा। यह अवस्था शुद्ध चैतन्यमयी होती है। इस अवस्था में आनंदमयी शुद्ध चेतना को ही प्राणी अपने आप समझता रहता है। उसे शून्य, प्राण, बुद्धि आदि जड़ पदार्थों के प्रति आत्मता का अभिमान नहीं रहता है। वह इन सभी को तथा बाह्य जगत को भी शुद्ध संविद्रूपता से ही सना हुआ और व्याप्त हुआ देखता है। इस अवस्था के ऊपरी स्तरों पर आत्मा को अपने स्वभावभूत ऐश्वर्य की साक्षात् अनुभूति हुआ करती है। विज्ञानाकल से लेकर अकल प्राणी तक इसका उत्तरोत्तर विकास होता है। ये सभी प्राणी तुर्या की भिन्न भिन्न भूमियों में ठहरते हैं। (इ. प्र. 3-2-15; तन्त्रालोक 10-264, 265)। जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं में यह अवस्था चैतन्यरूपता से व्याप्त होकर विद्यमान रहती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तुर्यद्वार तुर्यदशा के अनुभव का स्थान तथा तुर्यातीत दशा में प्रवेश करने के लिए द्वार का कार्य करने वाला ब्रह्मरंध्र ही तुर्यद्वार कहलाता है। (स्व.तं.उ, 2, पृ. 281)। इस तुर्यद्वार को साधना का आलम्बन बनाकर अभ्यास करने वाला योगी तुर्यदशा में प्रवेश कर जाता है, इसी कारण इसे तुर्यदशा का द्वार कहा गया है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तुर्या सृष्टि शुद्ध अध्वा (देखिए) की सृष्टि। विज्ञानाकल से लेकर अकलपर्यंत शुद्ध विद्या दशा और शक्ति दशा के सभी प्राणी इसी सृष्टि के अंतर्गत आते हैं। इस सृष्टि के प्राणी प्रायः संवित् स्वरूप ही होते हैं। इस सृष्टि का संपूर्ण व्यवहार तुर्या दशा में होने वाले व्यवहार की भाँति होता है। इस सृष्टि में ठहरने वाले प्राणियों का दृष्टिकोण भेदाभेद या पूर्ण अभेद वाला होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तुर्यातीत तुर्यादशा (देखिए) से भी उत्तीर्ण पद। अनुत्तर एवं आनंद का परिपूर्ण सामरस्यात्मक परम पद। तुर्यदशा में शुद्ध एवं परिपूर्ण संविद्रूपता की अभिव्यक्ति मात्र होती है परंतु तुर्यातीत में तो शिव एवं शक्ति अर्थात् प्रकाश एवं विमर्श के परम समरस रूप परिपूर्ण आनंदात्मक संविद्रूपता की स्फुट अभिव्यक्ति होती है। यहाँ किसी भी प्रकार का कोई भी भेद संस्कार भी शेष नहीं रहता है, केवल पूर्ण एवं अनवच्छिन्न आनंद पर ही विश्रांति होती है। (तन्त्रालोक 10-278 से 281, 297)। तुर्या में समस्त प्रमेय-प्रमाणात्मक जगत् के अवभास से सर्वथा शून्य एकमात्र शुद्ध शिवरूपता ही चमकती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तुर्यादशा देखिए तुर्यदशा।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


तुष्टि सांख्यसम्मत ‘प्रत्ययसर्ग’ के जो चार भेद हैं, तुष्टि उनमें से एक है (द्र. सां. का. 46 तथा 50)। अभीष्ट विषय की प्राप्ति होने से पहले किसी के भ्रान्त वाक्य को सुनकर जो यह मिथ्या सन्तोष होता है कि उचित उपाय का अवलम्बन करने की आवश्यकता नहीं है, अभीष्ट फल स्वतः प्राप्त हो जाएगा, तुष्टि है। इस तुष्टि के कारण प्राणी न केवल चेष्टा से विरत हो जाता है, बल्कि संशय की निवृत्ति के लिए भी यत्न नहीं करता। यह तुष्टि नौ प्रकार की है – चार आध्यात्मिक तुष्टियाँ तथा पाँच बाह्य तुष्टियाँ। प्रकृति स्वयं ही विवेकख्याति को उत्पन्न करेगी, ऐसा समझकर ध्यान आदि उपायों को छोड़ देना ‘प्रकृति’ तुष्टि है। प्रवज्या का ग्रहण करना ही विवेकख्याति के लिए पर्याप्त है – ऐसा समझकर ध्यानादि न करना ‘उपादान’ तुष्टि है। कालानुसार अथवा भाग्यानुसार स्वतः विवेकख्याति उत्पन्न होगी, यह समझकर ध्यानादि का अभ्यास न करना क्रमशः ‘कालतुष्टि’ और ‘भाग्यतुष्टि’ है। ये चार आध्यात्मिक तुष्टियाँ हैं। (कई व्याख्याकारों ने तुष्टि का संबंध विवेकख्याति के प्रकटीकरण से जोड़ा है। अन्य विषयों में भी कृत्रिम सन्तोष -रूप तुष्टि उद्भूत होती है, यह ज्ञातव्य है)। बाह्य विषयों से संबंधित जो अर्जन, रक्षण, क्षय, संग या भोग तथा हिंसा है, उनमें दोष देखकर (उदाहरणार्थ अर्थोपार्जन दुःखकर है, अतः त्याज्य है, ऐसा सोचकर अर्जन आदि से विरत होना पाँच प्रकार की बाह्य तुष्टियाँ हैं (‘भोग के स्थल पर कहीं-कहीं अतृप्ति’ पाठ है, तात्पर्य दोनों का समान है)। प्राचीनतर आचार्यों के द्वारा ये नौ तुष्टियाँ अम्भः, सलिल आदि नामों से अभिहित होती थीं – यह सांख्यकारिका (50 का.) के टीकाकारों ने कहा है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

तृतीयावस्था पाशुपत साधक की एक अवस्था।

पाशुपत साधना की जिस अवस्था में साधक को भिक्षावृत्‍ति से जीविका का निर्वाह करना होता है, वह साधना की तीसरी अवस्था तृतीयावस्था कहलाती है। इस अवस्था में साधक की तपस्या में दिन प्रतिदिन वृद्‍धि हो जाती है और उसके मल साफ होते जाते हैं। उससे वह अपने ऐश्‍वर्य के साक्षात् अनुभव के योग्य बन जाता है, जो अनुभव उसे चतुर्थावस्था में प्राप्‍त होता है। (ग.का.टी.पृ.5)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

तौष्टिक तुष्टि (द्र. ‘तुष्टि’ शब्द) जिनका प्रयोजन है, वे तौष्टिक कहलाते हैं। ये अनात्मभूत ‘अव्यक्त’ आदि को आत्मा समझते हैं अथवा अज्ञानवश विषयत्याग को ही प्रकृत त्याग समझते हैं। कुछ तौष्टिक प्रकृतिलीन होते हैं; (द्र. प्रकृतिलय शब्द)। किसी-किसी के अनुसार तौष्टिक वे हैं, जो ‘आत्मतुष्टि’ (द्र. मनुसंहिता 2/6) को ही प्रमाण मानकर चलते हैं। ऐसे लोगों में भी अनात्मा में आत्मबुद्धि होती है, यह निश्चित है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

त्यागांग

 
देखिए ‘अंग’।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

त्रयोदश तत्त्व धारणा तेरह तत्त्वों को साधना का आलम्बन बनाकर की जाने वाली आणवोपाय की तत्त्वाध्वा नामक धारणा। इसे त्रयोदशी विद्या भी कहते हैं। साधक इस धारणा में सकल को आलम्बन बनाकर उसी के स्वरूप को अकल, मंत्रमहेश्वर, मंत्रेश्वर, मंत्र (विद्येश्वर) विज्ञानाकल तथा प्रलयाकल नामक छः प्रमाताओं के रूप में और उनकी छः शक्तियों के रूप में सभी को मिलाकर बारह तत्त्वों में तथा आलम्बनभूत सकल स्वरूप में व्याप्त होकर ठहरे हुए देखता है। इस प्रकार से उसे परिपूर्ण शिवरूपतया देखता हुआ अपने को भी तद्रूप ही देखता है। इस प्रकार के भावनात्मक अभ्यास से उसे परिपूर्ण शिवभाव का आणव समावेश प्राप्त हो जाता है जिसके अभ्यास से उसे पहले जीवन्मुक्ति और फिर विदेहमुक्ति का लाभ होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


त्रिक (अपर) नर, शक्ति तथा शिव नामक तीन तत्त्व। (पटलजी.वि. पृ. 2)। यह समस्त प्रपंच इन तीन तत्त्वों के त्रिक से बना हुआ है। यह निचला सांसारिक त्रिक है जिसमें साधक ठहरा है। (तं.आ.वि. 1 पृ. 20) नर जीव और जड़ जगत को कहते हैं। शिव इसका उद्गम-स्थान है। शक्ति इसके अवरोहण का और आरोहण का मार्ग है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


त्रिक (पर) प्रकाश, विमर्श तथा इन दोनों की अनुत्तर समरसता। ई.प्र.वि. 1-8-10, 11)। परतत्त्व अर्थात् परमशिव का स्वरूप यही परत्रिक है। यह वह सर्वोत्तीर्ण त्रिक है जिसे साधक को प्राप्त करना होता है। (तं.आ.वि., 1, पृ. 7)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


त्रिक (परापर) परमेश्वर की इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया नामक तीन सर्वप्रमुख शक्तियाँ। (शि.दृ. 1-3, 4)। जब साधक इन शक्तियों को अपने में अभिव्यक्त करके देख पाता है तो तभी उसे अपने परमशिवभाव पर पक्का विश्वास स्थिरतया जम सकता है। इस तरह से यह त्रिक नर को शिवपदवी तक पहुँचा देने वाला मध्यम त्रिक है, जिसे परापर त्रिक कहते हैं। (तं.आ.वि. 1, पृ. 16)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


त्रिक आगम देखिए आगम (त्रिक)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


त्रिक आचार यह आचार ज्ञान प्रधान और योग प्रधान साधना मार्ग है। इस आचार में एक उत्कृष्ट अभेदमयी समता की दृष्टि को अपनाना होता है। अतः इसमें समस्त विधिनिषेधों के प्रपंच ढीले पड़ जाते है। कुल-आचार की चर्यामयी साधना को यहाँ अत्यंत आवश्यक नहीं माना गया है। परंतु सर्वशिवतामयी दृष्टि के कारण उसका निषेध भी इस आचार में नहीं किया गया है। इस आचार को सर्वोत्कृष्ट आचार माना गया है, क्योंकि इसके उत्कृष्ट स्तर पर न तो मुद्रा, मंडल, होम आदि क्रियाकलापों की आवश्यकता पड़ती है और न ही मकारों के सेवन की। यहाँ तक कि अष्टांग योग की या हठ योग की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। साधक सहज योग के और सच्चे तत्त्व ज्ञान के अभ्यास के द्वारा अनायास ही अपने परमेश्वरात्मक स्वभाव को त्रिक आचार के द्वारा पहचान सकता है। (पटलत्री.वि.पृ. 91.92;163)

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


त्रिक दर्शन काश्मीर का शैव (प्रत्यभिज्ञा) दर्शन त्रिक दर्शन कहलाता है। त्रिक शब्द की अनेक व्याख्याएँ मिलती हें, किन्तु इसमें कुल, क्रम और प्रत्यभिज्ञा इन तीनों अद्वैतवादी दर्शनों के तत्त्वों की समष्टि होने से इसको यह नाम दिया गया है। तन्त्रालोक के टीकाकार जयरथ ने (1/18, पृ. 49) त्रिकशास्त्र को सिद्धा, नामक और मालिनी नाम के तीन खण्डों में विभक्त किया है। इनमें क्रिया-प्रधान तन्त्र को सिद्धा और ज्ञान-प्रधान तन्त्र को नामक बताया गया है। मालिनीमत में क्रिया और ज्ञान दोनों प्रतिपादित हैं। अभिनवगुप्त ने स्वयं ‘तत्सारं त्रिकशास्त्रं हि तत्सारं मालिनीमतम्’ (1/18) ऐसा कहकर इनमें मालिनीमत को प्रधानता दी है। क्षेमराज अपने विज्ञानोद्योत (पृ. 4) में सिद्धा, मालिनी और उत्तर यह नाम देकर इनका उत्तरोत्तर उत्कर्ष बताते हैं। नामक नाम का कोई तन्त्र हमारी दृष्टि में नहीं आया। क्षेमराज के ‘उत्तर’ नाम के आधार पर ऐसी कल्पना की जा सकती है कि जयरथ के ग्रन्थ में ‘नामक’ न होकर ‘वामक’ पाठ होना चाहिये। वामतन्त्र शिव के उत्तर मुख से उद्भूत माने जाते हैं। वामक के नाम से वामकेश्वर तन्त्र का भी ग्रहण किया जा सकता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

त्रिक-शास्त्र देखिए आगम (त्रिक)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


त्रिकोण बीज ए (देखिए)। अनुत्तर, आनंद तथा इच्छा के संघट्ट से बना हुआ एकार स्वरूप बीज। एकार में अनुत्तर तत्त्व की प्रधानता रहती है तथा इसमें इच्छा, ज्ञान एवं क्रिया नामक तीन शक्तियाँ समरस अवस्था में ही रहती हैं। (शि.सू.वि.पृ. 30)। इसको इसलिए भी त्रिकोण बीज कहते हैं कि प्राचीन शारदा लिपि में इसका आकार एक ओर से त्रिकोणात्मक ही होता था। त्रिकोण जैसे आकार के कारण इसका नाम योनिबीज भी है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


त्रितत्त्व धारणा 1. आणवोपाय की तत्त्व अध्वा की धारणा का वह प्रकार, जिसमें साधक मंत्र महेश्वर को धारणा का आलंबन बनाकर उसी को अकल प्रमाता के रूप में तथा उसकी शक्ति के रूप में तथा उसके अपने स्वरूप में व्याप्त होकर ठहरा हुआ देखा करता है। इससे वह उसे परिपूर्ण परमेश्वरमय देखता हुआ सद्यः अपने शिवभाव के समावेश को प्राप्त करता है। (तं.आ. 10-5, वही वि. पृ. 6; मा.वि.तं. 2-7)। 2. आणवोपाय में अपने शिवभाव का समावेश प्राप्त करने के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली वह धारणा, जिसमें नर, शक्ति तथा शिव को क्रम से आधार बनाया जाता है। इस धारणा में नरभाव से शिवभाव में पहुँचने के लिए शक्ति ही प्रमुख साधन बनती है। 3. आणवोपाय की ही एक और धारणा, जिसमें अपने शिवभाव के समावेश को प्राप्त करने के लिए आत्मकला, विद्याकला तथा शिवकला (देखिए) को क्रम से अपने ही शुद्ध स्वरूप में देखते हुए भावना द्वारा व्याप्त करना होता है। (तं.सा.पृ. 111)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


त्रिपुरा वामकेश्वर दर्शन में (नि.षो.उ.पृ. 85) त्रिपुरा ही परा संवित् अथवा परब्रह्म है। प्रपंचसार (9/2) में बताया गया है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश से भी पहले उसकी स्थिति है। यही इस त्रिमूर्ति की जननी है। यह त्रयीमय है और प्रलयावस्था में त्रिलोकी की इसी में स्थिति रहती है। इसीलिये इस अम्बिका का नाम त्रिपुरा है। विवरणकार द्वारा उद्धृत श्लोक में (पृ. 571) वहीं बताया गया है कि शिव, शक्ति और आत्मा – इन तीनों तत्त्वों की पूरिका और त्रिलोकी की जननी होने से यह त्रिपुरा कहलाती है। नित्याषोडशिकार्णव (4/4-16) में भगवती त्रिपुरा का यह स्वरूप विस्तार से वर्णित है। वहाँ बताया गया है कि शक्ति से रहित परम पुरुष कुछ भी नहीं कर सकता। टीकाकारों ने त्रिपुरा पद की अनेक प्रकार की निरुक्तियाँ बताईं हैं। तीन शक्ति, तीन चक्र, तीन धाम, तीन बीज, तीन तत्त्व, तीन गुण, तीन कोण, तीन पीठ, तीन लिंग प्रभृति सभी तीन संख्या वाली वस्तुओं की यह जननी है, इन सबसे पहले इसकी स्थिति होने से यह त्रिपुरा कहलाती है। वामा, ज्येष्ठा और रौद्री शक्तिरूप त्रिपुर (श्रृंगार, त्रिकोण) की भी यह जननी है। औपनिषद त्रिवृत्करण प्रक्रिया के प्रधान आधार तेज, जल और अन्न नामक तीनों तत्त्वों की यह पूरिका है। अथवा पुर शब्द का अर्थ शरीर भी किया जा सकता है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव नामक शरीरों को यही धारण करती है। लघुस्तव (श्लो. 16) में बताया गया है कि देवत्रय, अग्नित्रय, शक्तित्रय, लोकत्रय प्रभृति सभी तीन संख्या वाले पदार्थ भगवती त्रिपुरा के ही स्वरूप हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन

त्रिब्रह्म शाम्भवोपाय की मातृका की उपासना के क्रम में श, ष, और स, ये तीन वर्ण क्रम से शुद्ध विद्या तत्त्व, ईश्वरतत्व और सदाशिव तत्त्व के साक्षात्कार की अभिव्यंजना करते है। शुद्ध विद्या के अधिपति भगवान् अनंतनाथ हैं और शेष दो के ईश्वर भट्टारक और सदाशिव भट्टारक। ये तीनों ही इस प्रंपच का बृहंण अर्थात् विकास करते हैं अतः ब्रह्म कहलाते हैं। इनके साक्षात्कार के अभिव्यंजक ये तीन उष्म वर्ण इसीलिए त्रिब्रह्म कहलाते हैं। किसी किसी साधना में इन तीन वर्णो को महामाया, शुद्धविद्या और ईश्वर तत्त्व के अभिव्यंजक माना गया है। तब भी ये तीनों ब्रह्म ही हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


त्रिविध निरोध अपनी शक्तियों से युक्त भगवान् द्वारा जगत में की जाने वाली क्रीडाएँ निरोध हैं। तामस, राजस, सात्त्विक तीन प्रकार के निरोध्य भक्तों के अनुसार निरोध भी तीन हैं – तामस, राजस और सात्त्विक। इन विविध निरोधों के द्वारा भक्तजन प्रपञ्च की ओर से निरोध पाकर भगवान् में आसक्ति प्राप्त कर लेते हैं (प्र.र.पृ. 159)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

त्रिविध भगवत्तनु शांत, अशांत, मूढ़योनि ये तीन प्रकार के भगवत्तनु (शरीर) हैं। शांत शरीर सात्त्विक है, अशांत शरीर राजस है तथा मूढ़योनि शरीर तामस है। ये तीनों ही शरीर भगवान् की लीलाओं के साधन होने से भगवान् के ही तनु हैं (भा.सु. 11टी. पृ. 626)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

त्रिविधाक्षर ब्रह्म अक्षर ब्रह्म तीन हैं। प्रथम – पुरुषोत्तम का व्यापि बैकुण्ठादि स्वरूप धाम अक्षर ब्रह्म हैं। “अव्यकतोSक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्। यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।” (गीता) द्वितीय – जिसकी संपूर्ण शक्तियाँ तिरोहित हैं, ऐसा सर्वव्यवहारातीत द्वितीय अक्षर ब्रह्म है। तृतीय – पुरुषोत्तम शब्द वाच्य श्रीकृष्ण स्वरूप तृतीय अक्षर ब्रह्म है (प्र.र.पृ. 55)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

त्रिविधात्मा सामान्य जीव रूप, अंतर्यामी भगवद् रूप तथा विभूति रूप ये आत्मा के तीन भेद हैं (भा.सु.11 टी. पृ. 500)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

त्रिवृत्करण तेज, अप् (जल) और पृथ्वी इन तीनों के प्रत्येक में अपने से भिन्न दो तत्त्वों का सम्मिश्रण त्रिवृत्करण है। जैसे, तेजस्तत्त्व में अप् और पृथ्वी तत्त्व का मिश्रण, अप् तत्त्व (जल) में तेजः और अप् तत्त्व का मिश्रण तथा पृथ्वी में तेजः और अप् तत्त्व का मिश्रण। इस प्रकार त्रिवृत्करण प्रक्रिया द्वारा प्रत्येक तत्त्व निरूपात्मक बन जाते हैं (अ.भा.पृ. 806)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

त्रिवृत्जन्म शुक्ल, सावित्र और दैक्ष (याज्ञिक) ये त्रिवृत् जन्म हैं। ब्राह्मणादि के रूप में जन्म शुक्ल है। गायत्री में अधिकार की प्राप्ति सावित्र जन्म है तथा यज्ञ में दीक्षा प्राप्त हुए का दैक्ष जन्म है (भा.सु.पृ 74)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

त्रिसत्य भूः, भुवः, और स्वःरूप तीनों लोक अथवा जीव, अन्तर्यामी और विभूति रूप त्रिविध आत्मा सत्य हैं जिसके, ऐसे भगवान् त्रिसत्य हैं। अथवा ज्ञान, बल और क्रियारूप त्रिविध शक्तियों से युक्त होने के कारण भगवान् त्रिसत्य हैं (त.दी.नि.पृ. 78)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

त्रिसर्ग तीनों गुणों का कार्य देह सर्ग, इन्द्रिय सर्ग और अन्तःकरण सर्ग, ये त्रिसर्द हैं। भगवान् इन त्रिविध सृष्टि कल्पना के अधिष्ठानमात्र हैं, उन्हें वस्तुतः देहादि नहीं है। अथवा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक भेद से त्रिविध सृष्टि त्रिसर्ग है (भा.सु.11 टी. पृ. 22)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

त्र्यंबक मठिका त्र्यंबकादित्य के द्वारा स्थापित की गई अद्वैत प्रधान शैव शास्त्र की मठिका। पंद्रहवें त्र्यंबकादित्य के पुत्र संगमादित्य के आठवीं शताब्दी में कश्मीर में ही स्थिरवास करने पर यह मठिका कैलास से आकर कश्मीर में ही स्थापित हो गई। (शि.दृ. 7, 114-119)। इस मठिका में भिन्न भिन्न आचार्य, ग्रंथकार और भाष्यकार प्रकट हुए, जिनमें से वसुगुप्त, भट्टकल्लट, सोमानंद, उत्पलदेव और अभिनव गुप्त प्रमुख हैं। अंतिम तीन गुरु अपने अपने समय में इस त्र्यंबकमठिका के प्रधान गुरु भी थे। इस मठिका के गुरु मुख्यतः त्रिक आचार के ही उपासक थे। शैवदर्शन की यह त्र्यंबक शाखा वर्तमान समय में भी किसी न किसी रूप में चल ही रही है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


त्र्यंबकादित्य काश्मीर शैव दर्शन के प्रवर्तक। कलियुग में अभेद दृष्टि को लेकर श्रीकंठनाथ की ही आज्ञा से अवताररूप में प्रकट हुए सिद्ध पुरुष। (तं.आ.36-13)। इन्हें त्र्यंबक भी कहते हैं। आचार्य सोमानंद के अनुसार कलियुग के आगमन पर जिन सिद्ध पुरुषों के पास शैव दर्शन सुरक्षित था, वे कलापि ग्राम आदि अदृश्य स्थानों को चले गए, जिससे इस विद्या का उच्छेद हो गया। तत्पश्चात् अद्वैत शैव दर्शन को जनसाधारण को पुनः सुलभ करवाने के उद्देश्य से कैलास पर्वत पर विचरण कर रहे भगवान् श्रीकंठनाथ की प्रेरणा से मुनीश्वर दुर्वासा ने अपने मानस पुत्र त्र्यंबकादित्य द्वारा इस दर्शन के शिक्षण क्रम को पुनर्जीवित कर दिया। प्रथम त्र्यंबकादित्य कुछ समय तक कैलास पर्वत पर इस विद्या का प्रचार करते रहे। बाद में अपने ही मानस पुत्र द्वितीय त्र्यंबकादित्य को यह कार्य सौंप कर स्वयं सिद्धलोक के प्रति उत्क्रमण कर गए। यही क्रम चौदहवीं पीढ़ी तक इसी प्रकार चलता रहा। पंद्रहवीं पीढ़ी के त्र्यंबकादित्य ने बर्हिर्मुखतावश किसी ब्राह्मण कन्या का वरण कर संगमादित्य नामक पुत्र को उत्पन्न किया। (शिव दृष्टि 7, 107-119) देखिए त्र्यंबकमठिका। इस अद्वैत शैव दर्शन का पूर्ण विकास काश्मीर मंडल में ही होने के कारण इस दर्शन का नाम काश्मीर शैव दर्शन पड़ा है। वस्तुतः इस दर्शन का प्राचीन नाम त्र्यंबक-शैव-दर्शन है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


दग्धबीजवद्भाव अस्मिता, रोग, द्वेष और अभिनिवेश नामक क्लेशों की चार प्रसिद्ध अवस्थाएँ हैं – प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार (योगसूत्र 2/4)। इन चारों के अतिरिक्त एक पाँचवी अवस्था भी है, जो प्रसुप्त अवस्था (क्लेशों का शक्ति रूप में रहना, जिससे उचित अवलम्बन मिलने पर वे सक्रिय होकर कर्म को प्रभावित करते हैं) से भी सूक्ष्म तथा उससे विलक्षण स्वभाव की है। यह पाँचवीं अवस्था दग्धबीजावस्था कहलाती है। इस अवस्था में आलम्बन के साथ संयोग होने पर भी क्लेश सर्वथा निष्क्रिय ही रहता है। दग्धबीज की उपमा से यह भी ध्वनित होता है कि जिस प्रकार जले बीज का बाह्य आकार मात्र रह जाता है, इसी प्रकार इस अवस्था में भी बाह्यदृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि योगी का कर्म क्लेशपूर्वक हो रहा है – पर वस्तुतः ऐसा नहीं होता।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

दर्शनशक्‍ति दूर देखने की शक्‍ति।

पाशुपत साधक को योग के बल से कई दिव्य शक्‍तियों की प्राप्‍ति होती हैं। दर्शनशक्‍ति भी उन्हीं शक्‍तियों में से एक है। इस शक्‍ति को प्राप्‍त कर लेने के उपरांत सिद्‍ध साधक अथवा द्रष्‍टा को दृश्य (समस्त जगत) का दर्शन हो जाता है। उसे जगत् के एक कोने में बैठे बैठे ही समस्त जगत् के अणु अणु का दर्शन हो जाता है। उसक दृष्‍टि के सामने किसी भी प्रकार का प्रतीघात नहीं रहता। प्रतीघातकारी पदार्थ अकिंचितकर हो जाते हैं। (पा.सू.कौ.भा.पृ.42)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

दशात्मक भगवान् भगवान् दश दिशात्मक, दश देवात्मक, दश इन्द्रियात्मक, दश लीलात्मक या दश अवतारात्मक हैं। इससे भगवान् की सर्वात्मकता विदित होती है (त.दी.नि.पृ. 130)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

दासोടहं भावना वीरशैव धर्म का यह नियम है कि अपने तन, मन, धन को यथाशक्‍ति क्रमशः गुरु, लिंग एवं जंगम की सेवा में समर्पित करना चाहिये। समर्पण करते समय ‘मैं करता हूँ’ इस प्रकार के अहंकार को त्यागकर मैं गुरु, लिंग एवं जंगम का दास हूँ, इस भाव से युक्‍त होना ही ‘दासोടहं भावना’ है। वीरशैव संतों ने ‘शिवोടहं’ तथा ‘सोടहं’ इन दोनों भावनाओं से इस ‘दासोടहं भावना’ को अधिक महत्व दिया है। उनका कहना है- ‘शिवोടहं’ तथा ‘सोടहं’ इन दोनों भावनाओं से साधक के मन में सूक्ष्म रूप से अहंकार प्रवेश कर सकता है। अतः उस ज्ञानजन्य अहंकार से भी दूर रहने के लिये इस ‘दासोടहं’ भावना’ की आवश्यकता है।

शिवोടहं-भावना के अनंतर उत्पन्‍न यह दास-भावना वीरशैव दर्शन में एक हेय या निकृष्‍ट भावना न होकर एक ऐसी उत्कृष्‍ट भावना मानी जाती है, जिससे आत्मज्ञानी अपने में ही सेव्य-सेवक भाव के आनंद का अनुभव करता है। इसी को ज्ञानोत्‍तरा भक्‍ति कहते हैं (अनु.सू. 7/61; सि.रा.व. 306; व.वी.ध. पृष्‍ठ 184-185)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

दिक्चरी वामेश्वरी शक्ति के अधीन कार्य करने वाली वे शक्तियाँ, जो दिक् अर्थात् दिशाओं में या बाह्येन्द्रियों में विचरण करती रहती हैं। ये शक्तियाँ शक्तिपात से अनुगृहीत साधकों को अभेद भाव का ज्ञान करवाती हैं और स्वरूप साक्षात्कार करने में उनकी सहायक बनती हैं तथा अंततोगत्वा उन को अभेदी भाव का पूरा ज्ञान करवाती हैं और स्वरूप साक्षात्कार करने में उनकी सहायक बनती हैं परंतु शक्तिपात से विहीन प्राणियों को लोक व्यवहार रूपी भेद भाव में ही टिकाए रखती हैं। (स्पंदकारिकासं., पृ. 20)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


दिव्य संबंध भगवान अनंतनाथ (देखिए) के अनुग्रह से शास्त्र तत्त्व का विमर्शन भगवान श्रीकंठनाथ (देखिए) और भगवान नंदी को हो जाता है। यह शास्त्र के अवतरण का तीसरा सोपान है। इस गुरु शिष्य संबंध को दिव्य संबंध कहते हैं। श्रीकंठनाथ और नंदी को शंकाएँ मध्यमा वाणी से होती हैं और भगवान अनंतनाथ उनके समाधान का उद्बोधन उनमें पश्यंती वाणी के स्तर से करा देते हैं। उत्कृष्ट शिवयोगी को भी मध्यमा वाणी के माध्यम से स्वप्नतुल्य चिंतन की दशा में जो शंकाएँ उभरती हैं उनका समाधान उसे तुर्यादशा में आरूढ़ हो जाने पर पश्यंती के माध्यम से मिल जाता है। भगवान श्रीकंठनाथ की दशा पर आरूढ़ होकर वे अपने से ही प्रश्न करते हैं और भगवान अनंतनाथ की दशा के समावेश से उन्हें समाधान मिल जाता है। शास्त्र के ऐसे गुरु शिष्यात्मक अवतरण क्रम को दिव्य संबंध कहते हैं। (पटलत्री.वि., टि., पृ. 12)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


दिव्यश्रोत्र योगसूत्र (3/41) में कहा गया है कि श्रोत्र (=कर्ण इन्द्रिय) और आकाश (=शब्दगुणक द्रव्य; पंचभूतों में से एक) में संयम (यह योगशास्त्रीय प्रक्रिया विशेष है) करने पर दिव्यश्रोत्र की अभिव्यक्ति होती है। यह श्रोत दिव्य शब्द श्रवण का द्वार है। दिव्य शब्द सत्त्वप्रधान (अत्यन्त सुखकर) है, जो साधारण इन्द्रिय द्वारा श्रोतव्य नहीं है। योगियों का कहना है कि दिव्य शब्द शब्दतन्मात्र नहीं है, क्योंकि शब्दतन्मात्र अविशेष है और सुखकर नहीं है (सुख-दुःख-मोहकर नहीं है)। दिव्यश्रोत्र देवजाति के प्राणी में स्वाभाविक रूप से होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

दिव्यादिव्य संबंध भगवान् श्रीकंठनाथ अनुग्रहपूर्वक ऋषियों को मध्यमा वाणी द्वारा जिस उपदेश को करते हैं उसमें जो गुरु शिष्य संबंध बनता है उसे दिव्यादिव्य संबंध कहते हैं। इस गुरु शिष्य संबंध से शास्त्रतत्व ऋषियों तक पहुँच जाता है। ऋषि लोग जिस तत्त्व का दर्शन मध्यमा वाणी के माध्यम से करते हैं उसी को आगे वैखरी द्वारा दूसरों को सुना देते हैं और लिपिबद्ध भी कर लेते हैं। शैवदर्शन के ऋषि प्रायः शिवयोगी ही होते हैं। उन्हें या तो भगवान् श्रीकंठनाथ के दर्शन होते हैं और उनके उपदेशों को वे सुन लेते हैं, नहीं तो भगवान् श्रीकंठनाथ के अनुग्रह से उन्हें उस दशा के समावेश से स्वयं शास्त्र तत्त्वों का उद्बोध हो जाता है। इस सीढ़ी पर पहुँचे हुए शास्त्रोपदेश के गुरु शिष्य क्रम को दिव्यादिव्य संबंध कहते हैं। इस संबंध द्वारा शास्त्र तत्त्व श्रीकंठनाथ से भी नंदिरुद्र, स्कंद आदि उच्चतर देवगणों को प्राप्त हो सकता है। उसका माध्यम मध्यमा वाणी ही होती है, जिसका प्रयोग इन देवगणों के स्वप्न संसार में होता है। (पटलत्री.वि.,टि.पृ.12)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


दीक्षा वेदाध्ययन और द्विजत्व संपादन के लिये जैसे उपनयन संस्कार आवश्यक है, उसी तरह से तान्त्रिक उपासना में अधिकार की प्राप्ति के लिये दीक्षा की आवश्यकता मानी गई है। पूर्णाभिषिक्त गुरु ही दीक्षा देने का अधिकारी होता है। दीक्षा से दिव्य भाव और दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है और सभी प्रकार की पाप वासनाएँ क्षीण हो जाती हैं। यह शिव से, इष्ट से तादात्म्य स्थापित करने का प्रधान साधन है और इससे मायीय, कार्म और आणव तीनों प्रकार के मल तथा मनसा, वाचा, कर्मणा किये गये पाप दूर हो जाते हैं। दीक्षा के विषय में बताया गया है कि यह विज्ञानफलदा, लयकारिका और मुक्तिदा है। बिना दीक्षा के कोई सिद्धि नहीं मिल सकती। उसके जप, पूजा आदि सब निष्फल जाते हैं। अतः मनुष्य को चाहिये कि वह योग्य गुरु से दीक्षा अवश्य ग्रहण करे। कुलार्णव तन्त्र (14/89-98) में बताया गया है कि पारद से विद्ध लोहा जैसे सुवर्ण बन जाता है, उसी तरह से दीक्षा से संस्कृत जीव, स्त्री, शूद्र, श्वपच प्रभृति भी संस्कृत होकर शिवभाव को प्राप्त कर लेते हैं। दीक्षा वस्तुतः आत्मसंस्कार का ही नाम है। इससे पूर्णता प्राप्त होती है। दीक्षा प्राप्ति से पूर्णत्वलाभ पर्यन्त अवस्थाओं का क्रम इस प्रकार है – दीक्षा, पौरुष अज्ञान का ध्वंस, शास्त्र श्रवण में अभिरुचि, बौद्ध ज्ञान का उदय, बौद्ध अज्ञान की निवृत्ति, जीवन्मुक्ति, भोग आदि के द्वारा प्रारब्ध कर्म का नाश, देहत्याग के अनन्तर पौरुष ज्ञान का उदय, मोक्ष अथवा परमेश्वरत्व की प्राप्ति।

  उपनयन संस्कार के समान दीक्षा से भी मनुष्य को द्विजत्व की प्राप्ति होती है, वागीशी गर्भ से उसका नया जन्म होता है। दीक्षा की विशेषता यह है कि इसके बाद उसकी पूर्व जाति नहीं रह जाती। दीक्षित होने के उपरान्त पूर्व जाति का स्मरण प्रायश्चित का हेतु माना गया है। किससे दीक्षा ली जाए और किसको दी जाए, इसके लिये शास्त्रों में गुरु और शिष्य दोनों की योग्यताएँ निर्धारित हैं। स्त्री को दीक्षा देने और उससे दीक्षा लेने के भी विशेष नियम हैं। पति-पत्नी को दीक्षा दे या न दे, इस विषय पर भी शास्त्रों में विचार किया गया है।
  तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि का दीक्षा देते समय पूरा विचार किया जाता है। काल के साथ ही देश का भी विचार किया जाता है  कि किस स्थान पर दीक्षा दी जाए। शैव, वैष्णव, शाक्त, सौर, गाणपत्य, कौल, बौद्ध प्रभृति सम्प्रदायों में दीक्षा की अपनी स्वतंत्र विधियाँ हैं।
  दीक्षा सामान्य तथा विशेष के भेद से दो प्रकार की होती है। सामान्य दीक्षा साधारणतः समय दीक्षा कही जाती है। इसमें दीक्षित हो जाने पर शिष्य को समयी धर्मों का पालन करना पड़ता है। इसको समयी कहा जाता है। विशेष दीक्षा के अनेक प्रकार हैं। मनुष्य भोग और मोक्ष दोनों को चाहता है। रुचि के अनुसार वह भोग के लिये अथवा मोक्ष के लिये दीक्षा लेता है। इन्हीं विभागों के अन्तर्गत दीक्षा के शताधिक प्रकार शास्त्रों में वर्णित हैं। शैव शास्त्रों में आणवी, शाक्ती और शाम्भवी दीक्षाएँ वर्णित हैं। इनका निरूपण उपायों के अन्तर्गत किया गया है। आणवी दीक्षा को ही मान्त्री दीक्षा भी कहा जाता है। इसी का क्रिया अथवा क्रियावती के नाम से भी शास्त्रों में वर्णन है। शारदा-तिलक (4/2-3) में चार प्रकार की दीक्षा वर्णित है – क्रियावती, वर्णमयी, कलावती और वेधमयी। तन्त्रालोकविवेक (भास्करी 8, पृ. 182) में बताया गया है कि सिद्धान्त शास्त्र में होत्री, तन्त्रशास्त्र में योजन्तिका, त्रिकाशास्त्र में समावेशमयी, कुलशास्त्र में स्तोभात्मिका और कौल शास्त्र में सामरस्यमयी दीक्षा का विधान है। कुलार्णवतन्त्र (14/39-41) में दीक्षा के सप्तविध भेद तथा पुनः क्रिया दीक्षा के अष्टविध भेद वर्णित हैं। इनमें से कुछ मुख्य दीक्षाओं का यहाँ अलग से संक्षिप्त वर्णन किया जायेगा।
  दीक्षित व्यक्ति को भी शास्त्रों में चार कोटियों में बाँटा गया है – समयी, पुत्रक, साधक और आचार्य। दीक्षित होने के उपरान्त साधक एक के बाद दूसरी कोटि में प्रविष्ट होता है। इनके कर्तव्यों का शास्त्रों में विस्तार से वर्णन मिलता है। आचार्य पद पर अभिषिक्त व्यक्ति ही प्रतिष्ठित हो सकता है। अभिषिक्त आचार्य को ही दूसरे को दीक्षा देने का अधिकार है।

(क) कला दीक्षा शारदातिलक (4/2-3), तन्त्रसार (शब्दकल्पद्रुम, भास्करी 2, पृ. 59-60) प्रभृति के अनुसार इस दीक्षा में आवाहन पूर्वक सकल कलाओं की पूजा की जाती है। प्रथमतः प्राणप्रतिष्ठापूर्वक अग्नि की धूम्रार्चि प्रभृति दस कलाएँ पूजी जाती हैं। इसके बाद सूर्य की तपिनी आदि द्वादश और चन्द्र की अमृता आदि षोडश कलाओं का आवाहन कर उनका विधिवत् पूजन किया जाता है। अन्त में पचास कलाओं का पूजन अकार आदि वर्ण मातृका में निवृत्ति प्रभृति पाँच कलाओं के अन्तर्गत किया जाता है।

 स्वच्छन्दतन्त्र चतुर्थ पटल में कला दीक्षा का प्रकारान्तर से वर्णन मिलता है। वहाँ षडध्व दीक्षा में कला दीक्षा को प्रधान मानकर वाच्यवाचक भाव के क्रम से अन्य अध्वों का इसी में समावेश माना गया है। वागीश्वरी के गर्भ से जन्म लेने के कारण जिसके संसार का उपशम हो गया है, उसको तान्त्रिक भाषा में ‘पुत्रक’ कहा जाता है। पृथ्वी से कला तत्त्व पर्यन्त माया का अधिकार है। इसी का नाम संसारमण्डल है। इसके बाद शुद्ध विद्या का राज्य है। शुद्ध विद्या ही वागीश्वरी है। इसके गर्भ से जन्म लेने पर विशुद्ध भुवनों में अवस्थान और संचार का अधिकार प्राप्त होता है। यह जन्म वस्तुतः बैन्दवदेह अथवा मन्त्रदेह प्राप्ति का ही नामान्तर है। इक्कीस अवान्तर संस्कारों के द्वारा यह जन्म-व्यापार निष्पन्न होता है। इससे द्विजत्व का आपादन (प्राप्ति) होती है। इसके पश्चात् अधिकार, भोग, लय, निष्कृति तथा विश्लेष ये पाँच संस्कार और भी किये जाते हैं। इन छः संस्कारों से पशु के पाशों का विनाश किया जाता है। पाश-क्षषण के अतिरिक्त दीक्षा के द्वितीय अंग का नाम शिवत्वयोजन है। इसके लिये तेरह पदार्थों का ज्ञान आवश्यक है। सद्गुरु से दीक्षा प्राप्त होने पर पाशक्षपण और शिवत्वाभिव्यक्ति दोनों ही पूर्णतया निष्पन्न होते हैं। जिन तेरह विषयों का ज्ञान आवश्यक है, उनके नाम ये हैं – चार-प्रमाण, प्राणसंचार, षडघ्व विभाग, हंसोच्चार, वर्णोच्चार, कारणत्याग, शून्य, सामरस्य, त्याग संयोग तथा उद्भव, पदार्थभेदन, आत्मव्याप्ति, विद्याव्याप्ति और शिवव्याप्ति। इनका विशेष विवरण स्वच्छन्दतन्त्र के चतुर्थ पटल में देना चाहिये।

(ख) क्रिया दीक्षा आणवी अथवा मान्त्री दीक्षा को ही क्रिया दीक्षा कहा जाता है, जो कि कुण्ड, मण्डल आदि के निर्माण के माध्यम से सम्पन्न होती है। दीक्षा क्रिया और ज्ञान के भेद से दो प्रकार की है। क्रिया दीक्षा छः अध्वाओं के भेद से भिन्न प्रकार ही है; जैसे, कला दीक्षा, तत्त्व दीक्षा, पद, मन्त्र, वर्ण और भुवन दीक्षा। तत्त्व दीक्षा साधारणतः चार प्रकार की है – षट्त्रिंशत्तत्त्व दीक्षा, नवतत्त्व दीक्षा, पंचतत्त्व दीक्षा और चितत्त्व दीक्षा। इनके सिवा एकतत्त्व दीक्षा का भी वर्णन मिलता है। छतीस तत्त्वों को नौ तत्त्वों में परिणत करने से नवतत्त्व दीक्षा, उन्हीं को पाँच अथवा तीन तत्त्वों में परिणत कर लेने पर पंचतत्त्व अथवा त्रितत्त्व दीक्षा की प्रक्रिया निष्पन्न होती है। एकतत्त्व दीक्षा में छत्तीस तत्त्वों को समष्टि रूप से एकतत्त्व रूप में ग्रहण किया जाता है। स्वच्छन्दतन्त्र तथा अन्य शैव-शाक्त तन्त्र ग्रन्थों में ‘सर्व सर्वात्मकम्’ इस सिद्धांत के आधार पर एकतत्त्व के शोधन से सभी तत्त्व शुद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार अध्वा के वैचित्र्य से क्रिया दीक्षा के ग्यारह प्रकार बनते हैं। ज्ञान दीक्षा में वैचित्र्य नहीं है। इस पद्धति से मूलतः दीक्षा के 12 भेद होते हैं। तन्त्रालोक प्रभृति ग्रन्थों में सकल, निष्कल और अधोरेश्वरी प्रभृति अनुष्ठानों के भेद, लोकधर्मी और शिवधर्मी साधकों के अवान्तर वैचित्र्य तथा भौतिक, नैष्ठिक आदि आचार्यों के भेद के आधार पर दीक्षा के प्रायः असंख्य प्रकार निरूपित हुए हैं। इनमें से अधिकांश प्रकारों का अन्तर्भाव क्रिया दीक्षा में ही होता है। (ग) पञ्चतत्त्व दीक्षा पञ्चतत्त्व के नाम से पंचमहाभूत तो शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं ही, इसके अतिरिक्त शाक्त, विशेषकर कौल सम्प्रदाय में मत्स्य, मांस, मुद्रा, मद्य और मैथुन इन पाँच पदार्थों को पंचतत्त्व कहा जाता है तथा वैष्णव सम्प्रदाय में गुरु, मन्त्र, मन, देव और ध्यान को पंचतत्त्व के नाम से अभिहित किया जाता है।

  कुलकुण्ड में कुल द्रव्यों से कुलचक्र की पूजा करने से कौलिकी दीक्षा सम्पन्न होती है। इस दीक्षा में दीक्षित व्यक्ति को कुलाचार का पालन करना पड़ता है। कुलद्रव्य अर्थात् उक्त पाँच तत्त्वों का उपयोग शोधनविधि के अनुसार ही किया जाता है। कुलार्णवतन्त्र (5/108-112) में इनकी आध्यात्मिक व्याख्या मिलती है। अवधूत सिद्ध ही इस दीक्षा का अधिकारी माना जाता है।
  पंचमहाभूतात्मक पंचतत्त्व की उपासना की भी तन्त्रशास्त्र में विधि मिलती है। वहाँ बताया गया है कि पंचतत्त्व का उदय स्थिर करके शांति प्रभृति षट्कर्म करने चाहिये। शान्ति कार्य में जल तत्त्व, वशीकरण में वह्नि तत्त्व, स्तंभन में पृथ्वी तत्त्व, विद्वेषण में आकाश तत्त्व, उच्चाटन में वायु तत्त्व और मारण कर्म में वह्नि तत्त्व का उदय सिद्धिकर माना गया है। भूमि तत्त्व का उदय होने पर दोनों नासापुटों से दण्डाकार में श्वास निकलता है। जल तत्त्व और अग्नि तत्त्व के उदय काल में नासिका के ऊर्ध्व भाग से होकर श्वास प्रवाहित होता है। वायु तत्त्व के उदय के समय वक्रभाव से तथा आकाश तत्त्व के उदय होने पर नासिका के अग्रभाग से होकर श्वास निकला करता है। इन सब श्वास-निर्गमन की प्रणालियों के सूक्ष्म निरीक्षण से ही किस समय किस तत्त्व का उदय होता है, इसका निश्चय करना पड़ता है।
  अन्यत्र बताया गया है कि पृथ्वी तत्त्व के उदय में स्तंभन और वशीकरण, जल तत्त्व के उदय में शान्ति और पुष्टि कर्म, वायु तत्त्व के उदय में मारण प्रभृति क्रूर कर्म तथा आकाश तत्त्व के उदय के समय विष प्रभृति नाशकारी द्रव्यों का उपयोग प्रशस्त है। जिस तत्त्व के उदय के समय जिस कार्य को सम्पन्न किया जाता है, तब उस तत्त्व के मण्डल का निर्माण भी आवश्यक माना गया है। आकाश तत्त्व में छः बिन्दुयुक्त मण्डल, वायु तत्त्व में स्वस्तिक के साथ त्रिकोणाकार मण्डल, अग्नि तत्त्व में अर्धचन्द्र के आकार का, जल तत्त्व में पद्माकार और पृथ्वी तत्त्व में चतुरस्त्र मण्डल बना कर कार्य सिद्धि किया जाता है।
  निर्वाण तन्त्र के बारहवें पटल में वैष्णवों के लिये गुरुतत्त्व, मन्त्रतत्त्व, मनस्तत्त्व, देवतत्त्व और ध्यानतत्त्व नामक पंचतत्त्वों का विधान मिलता है। तदनुसार पहले गुरुतत्त्व शिष्य को मन्त्रतत्त्व का साक्षात्कार कराता है। इससे देव स्थित ब्रह्मतेज उद्दीप्त होता है। बाद में मन्त्र के प्रभाव से इष्ट देवता का शरीर उत्पन्न होता है। इष्ट देवता के सभी मन्त्र वर्णमय है। इन वर्णों में ईश्वर का अक्षय वीर्य निहित है। उक्त मन्त्र से मन ही मन मैं स्वयं देवता स्वरूप हूँ, इस तरह की चिन्ता की जाती है। तब उस मन्त्र का ध्यान किया जाता है। मन्त्र का ध्यान करते-करते सब प्रकार की सिद्धियाँ प्रकट होने लगती हैं। इनसे विमुख व्यक्ति विष्णु रूप हो जाता है। उसको फिर कभी यमराज के मंदिर में नहीं जाना पड़ता।

घ) वेध दीक्षा वेध का अर्थ है बींधना, सूक्ष्म निरीक्षण करना। शक्तिसंगम तन्त्र (1/6/101, 2/34/11) में इसके पाँच प्रकार बताये गये हैं – वाग् वेध, श्रुतिवेध, दृष्टिवेध, स्पर्शवेध और क्रिया वेध। कुलार्णवतन्त्र (14/78) में बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दीक्षा के दो प्रकार बताये हैं। इनमें क्रिया दीक्षा को बाह्य और वेध दीक्षा को आभ्यन्तर कहा गया है। बाह्य और आभ्यन्तर शुद्धि इनके प्रयोजन हैं। स्पर्श दीक्षा, वाग्-दीक्षा, दृग्दीक्षा, मनोदीक्षा, तीव्र और तीव्रतर दीक्षा के भेद से वहाँ (14/53-66) इस वेध दीक्षा के विभिन्न प्रकार वर्णित हैं। इनकी शक्तिसंगमतन्त्र में प्रदर्शित वेधों से तुलना की जा सकती है। तीव्रतर वेध दीक्षा में शिष्य साक्षात शिवमय हो जाता है। वेध दीक्षा को देने वाला गुरु और प्राप्त करने वाला शिष्य दोनों दुर्लभ माने गये हैं। आनन्द, कम्प, उद्भव घूर्णि, निद्रा और मूर्छा – ये छः वेध की अवस्थाएँ हैं। अभिनवगुप्त ने तन्त्रवटधानिका (2/13) में आनन्द, उद्भव, कम्प, निद्रा और घूर्णि – इन पाँच अवस्थाओं को ही स्वीकार किया है। मालिनीविजयतन्त्र (11/35) में भी इन्हीं का उल्लेख मिलता है। कुलार्णव वर्णित मूर्छा की यहाँ गणना नहीं है। वेध दीक्षा का अभिप्राय यह है कि सद्गुरु द्वारा दृष्टि, स्पर्श अथवा शब्द आदि से विद्ध शिष्य के सभी पाश क्षीण हो जाते हैं और वह आनन्द से लेकर घूर्णि पर्यन्त दशाओं से आविष्ट हो जाता है, निर्मल स्वच्छ स्वात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

दीक्षा अपने शुद्ध संवित् स्वरूप का ज्ञान करवाने वाला तथा पशुभाव अर्थात् भेदमय प्रपंच को ही वास्तविक रूप मानकर उसी से लिप्त रहने के भाव को नाश करने वाला गुरु कृत उपदेश संस्कार आदि की क्रिया तथा इस प्रकार से ज्ञान का दान। ज्ञान प्राप्ति के उपाय का गुरु द्वारा दिया गया उपदेश। काश्मीर शैव दर्शन में दीक्षा के बहुत से ऐसे प्रकारों का वर्णन मिलता है जिनकी सहायता से गुरु शिष्य के अंतस्तल में जमे हुए मलों को धो डालता है और उसे यथार्थ ज्ञान का उपदेश कराता है। दीक्षा के कुछ प्रकार ये हैं – समयदीक्षा, पुत्रकदीक्षा, निर्वाणदीक्षा, प्राणोत्क्रमणदीक्षा, जालप्रयोगदीक्षा आदि।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


दीक्षा जिस संस्कार विशेष से शिवज्ञान की प्राप्‍ति और पाश (बंधन) का नाश हो जाता है, उसे दीक्षा कहते हैं (सि.शि. 6/11 पृष्‍ठ 85)। वीरशैव धर्म में सभी व्यक्‍तियों को दीक्षा लेना अनिवार्य हे। इस दीक्षा में पट्‍टाभिषिक्‍त आचार्य अपने गोत्र के शिष्यों को ‘इष्‍टलिंग’ प्रदान करके पंचाक्षरी मंत्र का उपदेश करते हैं। इस दीक्षा का पुरुष तथा स्‍त्रियों के समान अधिकार है।

जन्म के आठवें वर्ष में दी जाने वाली दीक्षा उत्‍तम मानी जाती है। सोलहवें वर्ष में दी जाने वाली दीक्षा मध्यम और उसके बाद दी जाने वाली को अधम कहा गया है (वी.स.सं. 11/2)।
दीक्षा के बिना कोई भी वीर-शैव लिंगांग सामरस्यात्मक मोक्ष के लिये अधिकारी नहीं बन सकता है। अतः ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ इस व्यास-सूत्र की व्याख्या में वीरशैव आचार्यो ने ‘अथ’ शब्द का ‘दीक्षा द्‍वारा इष्‍टलिंग धारण आदि अष्‍टावरण प्राप्‍ति के अनंतर’ इस प्रकार अर्थ किया है (श्रीकर.भा. 1-1-1) (क्रि.सा.1/66,84; ब्र.सू.वृ. पृष्‍ठ 17-34)।)
जैसे स्वाति नक्षत्र में शुक्‍ति (सीप) में गिरा हुआ जल मोती बन जाता है, पुन: पानी नहीं बनता, उसी प्रकार दीक्षित जीव पुन: भवचक्र में नहीं आता। उसका यही जन्म अंतिम है (वी.स.सं. 11/3-7)। यह दीक्षा ‘वेध’, ‘मंत्र’ और ‘क्रिया’ इस तरह से तीन प्रकार की होती है (सि.शि. 6/12 पृष्‍ठ 85)।)
दर्शन : वीरशैव दर्शन

दीक्षा क. वेध दीक्षा- गुरु प्रथमत: शिष्य को अपनी शिवावह दृष्‍टि से देखता है और अपने हस्त से शिष्य के मस्तक का स्पर्श करता है। इस स्पर्श का मूल उद्‍देश्य शिष्य में शिवत्व समावेश करना रहता है। इस हस्त-मस्तक-संयोग-रूप क्रिया से उस समय शिष्य को क्षणभर के लिये शिव स्वरूप का आभास मिलता है, अर्थात् उसको ‘मैं शिव हूँ’ यह अनुभव होता है। वस्तुत: यह ‘शिवोടहं’ भावना ही भावलिंग है। गुरु-कृपा से प्राप्‍त इस भावलिंगानुभव को शिष्य पुन: अपनी साधना के द्‍वारा दृढ़ कर लेता है। इससे उसके आणव-मल की निवृत्‍ति हो जाती है। गुरु द्‍वारा किया जाने वाला आणव मल निवारक चिन्मय शिवस्वरूप का उपदेश ही ‘वेध दीक्षा’ है (सि.शि. 6/13 पृष्‍ठ 86; अनु.सू. 5/40, 57; वी.स.सं. 11/10)।)

दर्शन : वीरशैव दर्शन

दीक्षा ख. मंत्र दीक्षा शिष्य के दाहिने कर्ण में अत्यंत गोपनीयता से शिवमय पंचाक्षर मंत्र का उपदेश देना ही मंत्र दीक्षा कहलाती है। यह लक्ष्य में रखना है कि जिसको वेध दीक्षा दी जाती है, उसी को मंत्रोपदेश दिया जाता है। यहाँ उपासना या मनन करने के लिये शिव के मंत्रमय स्वरूप का उपदेश होता है। ‘शिव’ पंचाक्षरी मंत्र स्वरूप ही है। अतः उस मंत्र की आवृत्‍ति से तथा तदाकार मनन करने से मन के माया-मल की निवृत्‍ति हो जाती है। मंत्रोपदेश के अनंतर गुरु शिष्य के हृदय में प्रकाश रूप प्राणलिंग का बोध कराता है। इस तरह माया-मल की निवृत्‍ति तथा ‘प्राणलिंग’ का बोध ही इस दीक्षा का फल है (सि.शि. 6/14 पृष्‍ठ 86) (अनु.स. 5/41,58) (वी.स.सं. 11/11)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

दीक्षा ग. क्रिया दीक्षा शुभ मुहूर्त में मठ या मंदिर आदि पवित्र स्थानों में मंडप तैयार करके उसमें कलश-स्थापन-पूर्वक मंडल-रचना, मूर्तिपूजा आदि की जाती है। वीरशैव मत में पंच कलश स्थापन करने का विधान है। गुरु अपने आम्‍नाय के अनुसार प्रथमत: उन पाँच कलशों में वीरशैवों के पंच-सूत्र तथा गोत्र के मूल प्रवर्तक रेणुक, दारुक, घंटाकर्ण, धेनुकर्ण तथा विश्‍वकर्ण इन पाँच आचार्यो का आह्वान करके उनकी साक्षी में शिष्य को अपने सम्मुख बिठाकर पंचगव्य प्राशन, अभिषेक आदि से उसके शरीर को शुद्‍ध करता है (सि.शि. 6/15-19 पृष्‍ठ 86,87)। इस शुद्‍ध शरीर को मंत्रपिंड कहते हैं। इस प्रकार अंग-शुद्‍धि के अनंतर शिलामय पंचसूत्र समन्वित शिवलिंग में से शिलात्व की निवृत्‍ति के लिये जलाधिवास, धान्याधिवास आदि अधिवास् क्रियायें संपन्‍न की जाती हैं। इसके बाद उस लिंग में शिवकला-नियोजन द्‍वारा प्राणप्रतिष्‍ठा करते हैं (वी.स.सं. 10/47-68)। तब उस सुसंस्कृत शिवलिंग को शिष्य के हाथ में देकर गुरु यह शिक्षा देता है कि इसको अपने प्राण की तरह सदा गले में धारण करना चाहिये (सि.शि. 6/5 पृष्‍ठ 90)। अनंतर गुरु पंचाक्षरी मंत्र का उपदेश करते हैं तथा उस मंत्र के छंद, ऋषि और देवता का ज्ञान कराकर न्यास-पद्‍धति को भी सिखाते हैं (सि.शि. 6/20,21 पृष्‍ठ 87, 88)। इस तरह इष्‍ट लिंग-धारण के लिये किया जाने वाला संस्कार ही ‘क्रियादीक्षा’ है। इस दीक्षा से जीव के कार्मिक-मल (संचित कर्म) नष्‍ट हो जाते हैं (अनु.सू. 5/41, 58, 59)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

दीक्षाकारि दीक्षा के अंग।

पाशुपत साधक की दीक्षा के भिन्‍न भिन्‍न अंग दीक्षाकारि कहलाते हैं। दीक्षाकारि पंचविध हैं – द्रव्य, काल, क्रिया, मूर्ति तथा गुरु। (ग.का.5)। इन सभी अंगों का विधिवत् पालन किया जाए तो साधक को दी हुई दीक्षा प्राय: सफल हो जाती है और उसके लिए रुद्र सायुज्य की प्राप्‍ति का उपाय बन जाती है। इन अंगों में विकलता आए तो दीक्षा की सफलता भी संशयग्रस्त बनी रहती है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

दीक्षागुरु देखिए ‘अष्‍टावरण’ शब्द के अंतर्गत ‘गुरु’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

दुःख क्लेश।

पाशुपत दर्शन में जीवन का परम उद्‍देश्य दुःखों की निवृत्‍ति है। पाशुपत शास्‍त्र में कई तरह के दुःखों की व्याख्या की गई है। पहले तीन तरह के दुःखों को लेते हैं, जो काफी प्रसिद्‍ध हैं – आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक। आध्यात्मिक दुःख दो तरह का कहा गया है – शारीरिक व मानसिक। मानसिक दुःख, जो मन में उत्पन्‍न हों जैसे क्रोध, लोभ, मोह, भय, विषाद, ईर्ष्या, असूया, द्‍वेष, मद, मान, मात्सर्य, रति आदि के कारण। शारीरिक दुःख जैसे शिरोरोग, दंतरोग, अक्षिरोग, ज्वर, कास (खांसी), उदरपीड़ा आदि के कारण से होने वाले।
इनके अतिरिक्‍त पाँच प्रकार के अन्य दुःख गिनाए गए हैं। वे हैं – गर्भ दुःख, जन्म दुःख, अज्ञान दुःख, जरा दुःख तथा मरण दुःख। गर्भ दुःख में जब जीव का शरीर माता के गर्भ में बंद होता है। वहाँ आकुंचन या प्रसारण के लिए बहुत कम अवकाश होने के कारण जीव की सभी क्रियाएं अवरुद्‍ध रहती हैं और वह मूढ़वत् पीड़ा का अनुभव करता रहता है।
जन्म दुःख में जीवन जब जन्म लेता है तो जन्म लेने की प्रक्रिया में अत्यधिक पीड़ा का अनुभव करता है और जब बाह्य वातावरण में आता है तो और भी दुःखी होकर जन्म लेते ही रोता है। जन्म लेने की इस समस्त दुःखदायी प्रक्रिया से वह पूर्व संस्कारों को भूल जाता है और जन्म दुःख का भागी बनता है।
अज्ञान दुःख में जीव मिथ्या अहंकार के कारण वास्तविकता को जान नहीं पाता है कि ‘मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, किसका हूँ, किस बंधन से बंधा हूँ, क्या कारण है, क्या कारण नहीं है, क्या भक्ष्य है, क्या अभक्ष्य है, क्या पेय है, क्या अपेय है, क्या सत्य है, क्या असत्य है, क्या ज्ञान है, क्या अज्ञान है’ आदि इस तरह के अज्ञान में फंसकर अज्ञान दुःख को भोगता है।
जरा दुःख में पुरुष की वृद्‍धावस्था होने के कारण शरीर कृश हो जाता है। उसके शरीर के समस्त अंग शिथिल तथा असमर्थ हो जाते हैं। कटे पंखों वाले पक्षी की तरह शिथिल अंगों के कारण वह दौड़ नहीं सकता, भाग नहीं सकता और पूर्व अनुभूत स्वास्थ्य व सुखों की याद करते करते दुःखी होता रहता है। अंततोगत्वा उसकी स्मृति भी क्षीण हो जाती है। इस तरह से पुरुष जरा दुःख का भोक्‍ता बनता है।
मरण दुःख में मृत्यु के समय पुरुष की सभी इंद्रियाँ शिथिल हो जाती है। श्‍वास रुकने लगता है और अपनी समस्त अर्जित वस्तुओं के बारे में सोचने लगता है तथा उत्कट दुःख का अनुभव करते हुए मृत्युजन्य क्लेश को भोगता है।
कौडिन्य ने इन दुःखों के अतिरिक्‍त और पाँच तरह के दुःखों को गिनाया है। वे हैं ‘इहलोक भय, परलोक भय, अहितकारी विषयों के साथ संपृक्‍तता, हितकारी विषयों से विप्रयोग और इच्छापूर्ति में व्याघात। पाशुपत साधक का चरम उद्‍देश्य इन समस्त प्रकार के दुःखों से मुक्‍ति पाना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 141, 142, 143)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

दुःख दुःख वह है जिससे आक्रांत होकर प्राणी उसका प्रतिकार करने के लिए उद्यत हो जाते हैं (व्यासभाष्य 1.31)। सांख्ययोग में दुःख को तीन भागों में बाँटा गया है – आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक। आत्मा अर्थात् शरीर और मन के कारण उत्पन्न दुःख आध्यात्मिक है, जैसे व्याधि (शारीरिक दुःख) और क्रोधादि (मानसिक दुःख)। वृष्टि, भूकम्प आदि प्राकृतिक कारणों से जात दुःख आधिदैविक है (प्राकृतिक वस्तु अभिमानी देव के अधीन है; उनके कारण यह नाम पड़ा है) भूतों अर्थात् प्राणियों के द्वारा जो पीड़ा दी जाती है, वह आधिभौतिक है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

दुःखांत क्लेशों की समाप्‍ति।

(सर्वदुःखा पोहो दुःखांत – ग.का.टी.पृ.12) अर्थात् समस्त दुःखों का अपोह दुःखांत है और पाशुपत दर्शन के अनुसार मुक्ति का स्वरूप दुःखांत है, परंतु यह दुःखांत केवल क्लेशों का नाश ही नहीं है, अपितु इस दुःखांत में परमैश्‍वर्य की प्राप्‍ति ही मुख्य फल है। पाशुपत दर्शन के अनुसार सांसारिक दुःखों की निवृत्ति तथा ईश्‍वर के जैसे ऐश्‍वर्य की प्राप्‍ति ही मुक्‍ति है। (तथाहि शास्‍त्रांतरे दुःख निवृत्‍तिरेव दुःखांत: इह तु परमैश्‍वर्य प्राप्‍तिश्‍च – ज.का.टी.पृ. 14,15)।
इसी कारण पाशुपत मत में दुःखांत को दो प्रकार का माना गया है – अनात्मक तथा सात्मक। अनात्मक दुःखांत में क्लेशों की पूर्ण निवृत्‍ति होती है, अर्थात् समस्त दुःखों का अत्यंत उच्छेद होता है। परंतु सात्मक दुःखांत में समस्त क्लेशों के अत्यंत उच्छेद के साथ साथ ही साधक में ज्ञान और क्रियाशक्‍ति जागृत हो जाती है। ज्ञानशक्‍ति पाँच प्रकार की कही गई है – दर्शन, श्रवण, मनन, विज्ञान और सर्वज्ञत्व तथा क्रियाशक्‍ति तीन प्रकार की कही गई है – मनोजीवत्व, कामरुपित्व तथा विकरणधर्मित्व। (ग.का.टी.पृ. 9,10)। इनकी व्याख्या अन्यत्र की गई है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

दुर्वासा वर्तमान कलियुग में अद्वैत शैव दर्शन के शिक्षण क्रम को पुनः प्रचलित करने वाले महामुनीश्वर भगवान् श्रीकंठनाथ के एक साक्षात् शिष्य। सोमानंद के अनुसार अति प्राचीन काल से चली आ रही शैवदर्शन की रहस्य विद्या के कलियुग में लुप्तप्राय हो जाने के कारण श्रीकंठनाथ की आज्ञा से दुर्वासा ने अपने त्र्यंबकादित्य नामक शिष्य के द्वारा इस दर्शन की सिद्धांत विद्या और साधनाक्रम को पुनः प्रवर्तित करवाया। (शि.दृ. 7-107 से 111)। देखिए त्र्यंबकादित्य।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


दूती कौल साधना में कुलगुरु जिस विविध गुण-गणों से विभूषित साधिका को अपनी शक्ति के रूप में अपनाकर उसकी सहायता से चर्याक्रम की साधना का अभ्यास करता है और उस अभ्यास के द्वारा त्वरित गति से ऐश्वर्य और मोक्ष दोनों फलों को अनायास ही प्राप्त करता है वही दूती है। दूती के सहयोग के बिना कौलिक साधना की सिद्धि में बहुत अधिक समय लगता है। अपने परिपूर्ण शिवभाव के ज्ञान को शिष्यों में संक्रांत करने में भी दूती का सहयोग सद्यः फलप्रद बनता है। गुरु उस ज्ञान को दूती में संक्रांत कर देता है और दूती उसे शिष्यों में संक्रांत करती है। स्त्री में ज्ञान को सद्यः ग्रहण करने की सामर्थ्य होती है और उसे दूसरों को सद्यः ग्रहण करवाने की सामर्थ्य भी होती है। अतः कौल गुरु शिष्यों में ज्ञान को स्वयं अपने से संक्रांत करने के बदले दूती के माध्यम से ही ऐसा करता है। (तं.आ.वि. 1 पृ. 32-35)। त्रिक साधना में दूतीयाग किया जाए तो निषेध भी नहीं; न भी किया जाए तो उसके बिना भी शिष्य पर तीव्र अनुग्रह किया जा सकता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


दृक् चेतना। चित्शक्ति। ज्ञान। चेतना सदा स्वयं अपने ही प्रकाश से चमकती रहती है। तभी तो एक अबोध प्राणी भी अपनी सत्ता को अवश्य जानता है और उस पर अटल विश्वास को बनाए रखता है। इस तरह से चेतना का स्वयं अपना दर्शन भी होता है और साथ ही अपने भीतर प्रतिबिंबित विषयों का भी दर्शन उसे होता रहता है। उसके इस दर्शन सामर्थ्य के कारण उसे दृक् कहते हैं। विषय ज्ञान चेतना का ही स्पंदन होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


दृढ़भूमिक यह शब्द अभ्यास की एक उन्नत अवस्था का वाचक है [‘दृढ़भूमि’ शब्द भी प्रयुक्त हो सकता है]। योगसूत्र (1/14) के अनुसार दीर्घकालपर्यन्त, निरन्तर, सत्कार (श्रद्धाबुद्धि) – पूर्वक अभ्यास (प्रयत्न विशेष) का अनुष्ठान किया जाए, तो वह दृढ़भूमि होता है। अभ्यास दृढ़भूमि होने पर व्युत्थानसंस्कार से सहसा अभिभूत नहीं होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

दृशि योगसूत्र में द्रष्टा (पुरुषतत्व) के लक्षण में दृशिमात्र (दृशिः मात्रा – मानं यस्य) कहा गया है (2/20)। दृशि = दर्शन, उपलब्धि। दृशिमात्र कहने का अभिप्राय यह है कि पुरुष रूप ‘दर्शन’ किसी भी विशेषण से विशेषित नहीं हो सकता – वह निर्धर्मक है – गुण-गुणीभाव या धर्मधर्मीभाव उसमें नहीं है। ‘दृशि’ रूप जो उपलब्धि, दर्शन या ज्ञान है, वह चित्तवृत्तिरूप ज्ञान नहीं है। जिस ज्ञान का कोई विषय होता है, जिस ज्ञान का कोई पृथक् ज्ञाता होता है – वह ज्ञान दृशिरूप ज्ञान नहीं है। इसको ‘स्वप्रकाश’ रूप ज्ञान जानना चाहिए (स्वप्रकाश का कोई शुद्ध उदाहरण त्रैगुणिक जगत् में नहीं है)। दृशि अपरिणामी ज्ञाता या द्रष्टा है। दृशि समानार्थक दृक् शब्द भी योगग्रन्थों में प्रयुक्त हुआ है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

दृश्य योगसूत्र (2/17; 2/18) के अनुसार दृश्य त्रिगुण की व्यक्तावस्था है। चूंकि द्रष्टा से संयुक्त होने पर अव्यक्त त्रिगुण व्यक्त होता है, अतः दृश्य (अर्थात् द्रष्टा का जो दृश्य होगा, वह) व्यक्त त्रिगुण होगा। अतः दृश्य का अर्थ ‘महत्तत्त्व से शुरु कर भूतपर्यन्त सभी पदार्थ’ है। अव्यक्त प्रकृति के लिए यदि ‘दृश्य’ का प्रयोग हो तो वहाँ दृश्य का अर्थ ‘द्रष्टा के द्वारा प्रकाशित होने योग्य’ होगा।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

दृष्ट उपाय त्रिविध दुःख के नाशक उपाय दो प्रकार के हैं – दृष्ट एवं आनुश्रविक। दृष्ट वह उपाय है जो लौकिक (=लोकविदित) है। शास्त्रकारों का कहना है कि ऐसा उपाय कभी भी दुःखों का न एकान्त (अनिवार्यतः) नाश कर सकता है और न अत्यन्त नाश (=पुनः उत्पत्तिहीन नाश)। उदाहरणार्थ, आयुर्वेदशास्त्र के द्वारा शारीरिक रोगों का नाश होने पर भी मानस रोगों का नाश नहीं होता; दुःखों का नाश होने पर भी पुनः उनकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि दृष्ट उपाय दुःखों का अंशतः नाशक है तथा यह नाश भी चिरस्थायी नहीं है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

दृष्टजन्मवेदनीय जिस कर्माशय का विपाक (फल) दृष्ट जन्म (वर्तमान जीवन) में ही पूर्णतः होता है, वह दृष्टजन्मवेदनीय कहलाता है (योगसूत्र 2/12)। जो कर्म तीव्र क्लेश या संवेग से किए जाते हैं, जो कर्म देवता आदि की उपासना, सेवा आदि पहले करके किए जाते हैं, और जो तपस्वी आदि का अपकार या हिंसा आदि करके किए जाते हैं, उनका फल इस जीवन में ही मिलता है। उपर्युक्त कर्मों से जो कर्माशय बनता है, वह ‘दृष्ट-जन्म-वेदनीय’ है। जीवविशेष में (जैसे नरकस्थ जीवों में) दृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय नहीं होता – ऐसा योगियों की मान्यता है। नारक शरीर में पुरुषकार रूप कर्म करना संभव नहीं है, अतः इस शरीर को भोगशरीर कहा जाता है। देवजाति के प्राणियों में कुछ ऐसे हैं, जो पुरुषकार कर सकते हैं, अतः उनमें दृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय है – यह स्वीकार्य होता है। कर्माशय का विपाक त्रिविध है, जाति, आयु और सुखदुःखभोग।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

देव ईश्‍वर का नामांतर।

पाशुपत शास्‍त्र में ईश्‍वर का नाम देव भी आया है। देव शब्द दिवु क्रीड़ायाम् से बना है। ईश्‍वर स्वभावत: क्रीड़नशील है। वह अपने स्वतंत्र क्रीड़नशील स्वभाव के कारण ही कार्य की उत्पत्‍ति, स्थिति तथा संहार करता है, अतः देव कहलाता है। इस तरह से यह जगत उसकी क्रीड़ा का प्रसार है। यह सत्य है। मिथ्या नहीं है। इस जगत में प्रत्येक पदार्थ जो प्रकट होता है वह शिव की ही लीला से प्रकट होता है। अनादि अविद्‍या से प्रकट नहीं होता। तो पाशुपत दर्शन परमैश्‍वर्य सिद्‍धांत का पोषक है, विवर्तवाद का पोषक नहीं है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.56)। शिव की ऐसी लीलामय शक्‍ति ही उसका देवत्व कहलाती है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

देवनित्य भगवान के साथ नित्य ऐकात्म्य।

पाशुपत दर्शन के अनुसार युक्‍त साधक जब अध्ययन व ध्यान के द्‍वारा महेश्‍वर तादात्म्य को प्राप्‍त करता है तो वह निरंतर, नित्य ईश्‍वर चैतन्य में ही निवास करता है, अर्थात् किसी और विषय के विचार से यदि स्वल्प व्यवधान आ भी जाए परंतु फिर भी उसका योगाभ्यास इतना दृढ़ होता है कि व्यवधान वास्तविक नहीं होता है, तथा महश्‍वेर प्राप्‍ति निरंतर होती ही रहती है। इस तरह से सिद्‍ध योगी देवनित्यत्व अवस्था में रहता है। उसकी दृष्‍टि के सामने से परमेश्‍वर ओझल नहीं होने पाता है। (वा.सू.कौ.भा.पृ. 116, ग.का.टी.पृ. 15)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

देवमधु आदित्य ही देवमधु है। वसु आदि देवों का मोदन (आनंद) करने के कारण तथा मधु के समान छत्राकार होने से आदित्य देवमधु है। (अ.भा.पृ. 1278)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

देवीचक्र देखिए शक्ति चक्र।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


देश स्थान।

पाशुपत साधक के रहने के लिए जिन विशिष्‍ट स्थानों का निर्देशन दिया गया है, वे स्थान देश कहलाते हैं। देश पाँच प्रकार का कहा गया है – गुरु, जन, गुहा, श्मशान और रुद्र। (ग.का.टी.पृ. 16)। इन स्थानों में बैठकर ही साधक पाशुपत योग के अभ्यास में सफलता को प्राप्‍त कर सकता है। अतः देश शब्द से उसका भौगोलिक अर्थ इस शास्‍त्र में अभिप्रेत नहीं है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

देश-अध्वन् आणवोपाय में स्थान कल्पना नामक धारणा में आलंबन बनने वाले कला, तत्त्व और भुवन – इन तीन को देशाध्वा कहते हैं। कला तत्त्व के सूक्ष्म रूप तथा एक एक तत्त्व में कई कई भुवन आते हैं। स्थान कल्पना की इस देशाध्वा-धारणा में भुवन, तत्त्व और कला को क्रम से आलंबन बनाते हुए स्थूल रूप को भावना द्वारा सूक्ष्म रूप में विलीन करने की धारणा का अभ्यास किया जाता है। तदनंतर सारे देशाध्वा को अपने ही शरीर में विलीन करने की धारणा का अभ्यास किया जाता है फिर देह को प्राण में, प्राण को बुद्धि में, बुद्धि को शून्य में तथा उसे भी संवित् में विलीन करने के अभ्यास से परिपूर्ण संवित् रूपता का आणव समावेश हो जाता है। (तं.सा.पृ. 63)। इस अभ्यास से साधक देशकृत संकोच से मुक्त हो जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


देशबन्ध चित्त का देशबन्ध धारणा है – यह योगसूत्र (3/1) का मत है। ध्येय की चिन्ता करना किसी देश में ही संभव होता है, इसलिए धारणा को ‘देशबन्ध’ कहा जाता है। देश दो प्रकार का है – बाह्य तथा आभ्यन्तर। आभ्यन्तर देश आध्यात्मिक देश कहलाता है, जो शरीर के अन्तर्गत विशिष्ट स्थान प्रधानतः मर्म स्थान हैं। नाभि, हृदय, मूर्छा, नासिकाग्र, जिह्वाग्र, तालु, वक्ष, मुख, कण्ठ, भ्रूमध्य, नेत्र आदि प्रसिद्ध आध्यात्मिक देश हैं। सूर्य, चन्द्र, अग्नि या देवमूर्तिविशेष बाह्य देश हैं। इन देशों के साथ चित्त का बन्धन ज्ञान या वृत्ति के माध्यम से किया जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

देशोपाय देखिए देश-अध्वन्।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


देह देह वह भूतनिर्मित वस्तु है, जो लिंग (सूक्ष्म शरीर) का आश्रय है। इस देह रूप आश्रय के बिना लिंग सक्रिय रहकर भोग-अपवर्ग का साधन नहीं कर सकता। देह का विभाग नाना दृष्टियों से सांख्ययोगशास्त्र में किया गया है, जैसे योनिज-अयोनिज देह। कोई-कोई भोगदेह-कर्मदेह-उभयदेह रूप भेद को मानते हैं (सांख्यसू. 5/124)। जिस शरीर में स्वेच्छया पुरुषकारपूर्वक कर्म करना अधिक मात्रा में संभव है, वह कर्मदेह है; भोग का भोगना ही जिस देह में प्रधान रूप में होता है, वह उपभोग देह या भोगदेह है; जिसमें भोग और कर्म दोनों ही समभाव में हो सकते हैं – वह उभयदेह है। देवयोनि, तिर्यक्योनि एवं मनुष्ययोनि रूप त्रिविध जीवों के तीन प्रकार की देह की अपनी विशिष्टता है। (इस विशिष्टता के विवरण के लिए देवल के वचन द्रष्टव्य; ये वचन कृत्यकल्पतरु, मोक्षकाण्ड, पृ. 109 में उद्धृत हैं)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

देह प्रमाता देखिए सकल।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


दैवसर्ग दैव (=देवयोनि में उत्पन्न) प्राणियों का सर्ग – दैवसर्ग (प्राणी चूंकि अनुत्पन्न है, अतः सर्ग का अर्थ प्रकट होना मात्र है – ऐसा समझना चाहिए)। सांख्यशास्त्र में प्राणी की तीन योनियाँ मानी गई हैं – देवयोनि, तिर्यक्योनि और मनुष्ययोनि। देवयोनि के प्राणियों के आठ अवान्तर भेद हैं – ब्रह्मा, प्रजापति, इन्द्र, पितृ (पितर), गन्धर्व, यक्ष, रक्षः और पिशाच (द्र. सांख्यकारिका 53)। इस गणना में क्वचित् मतभेद भी हैं, जैसे इन्द्र के स्थान पर चन्द्र। इन योनियों की पहचान इतिहासपुराण -शास्त्र के आधार पर करनी चाहिए। इन योनियों के निवासस्थान चर्मचक्षु के द्वारा अग्राह्य सूक्ष्म लोक हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

दोष पतंजलि कहते हैं कि दोष-बीज का क्षय होने पर कैवल्य होता है (योगसूत्र 3/50)। व्याख्याकारों ने दोष का अर्थ क्लेश (अविद्या आदि) किया है, जो संगत प्रतीत होता है। “दोष के कारण ही मोक्षमार्ग पर शंका होती है” (4/25 व्यासभाष्य में उद्धृत) – इस पूर्वाचार्यवचन में भी दोष का अर्थ अस्मितारागादि क्लेश ही हैं। अशुद्धि -अर्थ में दोष शब्द प्रायः प्रयुक्त होता है, जैसे विषयदोष (विषय में रहने वाला दोष जिससे वह मन को चंचल करता है), संगदोष (अनभीष्ट वस्तु या व्यक्ति के साथ संसर्ग जो चित्त को एकाग्र नहीं होने देता) आदि शब्द इस अर्थ के उदाहरण हैं। आयुर्वेद के वात -पित्त -कफ को दोष कहा जाता है; योगग्रन्थों में भी ऐसा कथन उपलब्ध होता है (व्यासभाष्य 3/29)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

दौतविधि दूतीयाग। रहस्यचर्या। कुल आचार में शिष्यों को अनुग्रह द्वारा सद्यः शिवभाव का साक्षात्कार जिस विधान से किया जाता है उसे दौतविधि या दूतीयाग कहते हैं। कुलगुरु अपनी शक्ति के समेत और समस्त अनुग्राह्य शिष्यों और उनकी शक्तियों के समेत एक गुप्त भवन में याग का प्रबंध करते हैं। उसे कुलचक्र कहते हैं। उस कुलचक्र में शक्तियों की पूजा देवी मानकर की जाती है और उस पूजा में पंचमकारों की भेंट और सेवन किए जाते हैं। गुरु अपने दिव्य ज्ञान को अपनी शक्ति में संक्रांत करता है और उसकी प्रेरणा से शक्ति उस ज्ञान को शिष्यों के अंतःकरण में संक्रांत करती है। इस तरह से शिष्यों को अपने शिवभाव का साक्षात्कार करा देने की विधि को दौतविधि कहते हैं। (तं.आ.आ. 29)

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


दौर्मनस्य योगविघ्नों में से एक (द्र. योगसू. 1/31)। इच्छा के विघात होने पर चित्त में जो क्षोभ (= चांचल्य) उत्पन्न होता है, वह दौर्मनस्य कहलाता है। यह क्षोभ या चांचल्य समाहित चित्त में उत्पन्न नहीं होता। दौर्मनस्य रजः प्रधान है और इसके मूल में रागद्वेषादिमूलक संस्कार हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

द्रव्य दीक्षा का अंग।

भासर्वज्ञ ने त्रिविध कार्य (पशु, कला, विधा) को दीक्षा निमित्‍त द्रव्य माना है, जिसकी दीक्षा होनी होती है। विद्‍या दीक्षांत है जिसके द्‍वारा दीक्षा दी जाती है। विद्‍या के द्‍वारा शिष्य दीक्षणीय बन जाता है और गुरु दीक्षा देने में समर्थ बनता है। कला में दर्भ, भस्म, चंदन, सूत्र, पुष्प, धूप तथा मंत्र आदि विविध वस्तुएं आती हैं। द्रव्य दीक्षा का प्रथम अंग है। (ग.का.टी.पृ. 8)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

द्रष्टा बुद्धि के साक्षीभूत जो पुरुष (तत्त्व) हैं; वे ‘द्रष्टा’ कहलाते हैं। ये अपरिणामी कूटस्थ एवं निर्धर्मक हैं। दृश्य (बुद्धि) की अपेक्षा से ही पुरुष द्रष्टा कहलाते हैं। दृश्य सम्बन्धहीन पुरुष के लिए भी द्रष्टा शब्द प्रयुक्त होता है, यद्यपि यहाँ ‘चित्त’, ‘चित्ति’ आदि शब्द अधिक संगत हैं। ‘द्रष्टा’ का शब्दार्थ यद्यपि ‘दर्शनक्रिया का कर्त्ता’ है, तथापि पुरुष-रूप द्रष्टा में किसी भी प्रकार का कर्तृत्व नहीं है। सर्वविशेषणशून्य, विषयहीन, परिणामहीन ज्ञातामात्र द्रष्टा है। क्रियाकारकशून्यता को दिखाने के लिए ही योगसूत्रकार ने द्रष्टा के लक्षण में ‘दृशिमात्र’ शब्द का प्रयोग किया है (2/20)। इस द्रष्टा के योग से ही अचेतन त्रिगुणजात बुद्धि चेतन-सी होती है और भोग-अपवर्ग का साधन करती रहती है। योगसूत्र 2/20 में द्रष्टा को प्रत्ययानुपश्य कहा गया है, अर्थात् परिणामी बुद्धिवृत्ति में प्रतिबिम्बित होकर वह वृत्तिसाक्षी के रूप में रहता है, वृत्तियों के आकार में परिणत नहीं होता (जैसे चित्त एवं उसकी वृत्तियाँ स्व-स्व विषयाकार से आकारित होती हैं)। बुद्धि का द्रष्टा होने के कारण ही अविवेकियों को पुरुष द्रष्टा -सदृश प्रतीत होता है और यह भ्रम ही बन्धन का हेतु है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

द्वंद्व द्वंद्व का अर्थ है – युगल, जोड़ी। पर योगशास्त्र में द्वंद्व का अभिप्राय विशिष्ट युगलों से है। कुछ युगल परस्पर विरोधी होते हैं, जैसे – शीत-ऊष्ण; स्थान-आसन (उठना-बैठना)। कुछ ऐसे भी युगल हैं, जो परस्पर विरोधी के रूप में प्रसिद्ध नहीं हैं, पर दोनों का एक साथ कथन होता है, जैसे भूख-प्यास। द्वंद्वों का सहन करना ही तपः का स्वरूप है – ‘तपो द्वंद्वसहन्म्’ (व्यासभाष्य 2/32)। योगशास्त्र की मान्यता है कि प्राणायाम करने पर योगी इन द्वंद्वों से अभिहत नहीं होता। यहाँ उपर्युक्त दो प्रकार के द्वंद्वों का ग्रहण अभीष्ट है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

द्‍वंद्‍वजय बल का भेद।

आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक दुःखों तथा सुख – दुःख, ज्ञान, अज्ञान आदि समस्त द्‍वंद्‍वों पर जय प्राप्‍ति द्‍वंद्‍वजय कहलाता है। द्‍वंद्‍वजय बल का तृतीय भेद है तथा द्‍विविध होता है – अपर द्‍वंद्‍वजय तथा पर द्‍वंद्‍वजय। (ज.का.टी.पृ.6)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

द्‍वंद्‍वजय अपर पाशुपत साधक के द्‍वारा योगाभ्यास के आरंभ किए जाने पर मृदु या मध्य प्रकार का आतप व शीत आदि द्‍वंद्‍वों को सहन करते रहने पर अपर द्‍वंद्‍वजय की अवस्था होती है। (ग.का.टी.पृ.6)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

द्‌वंद्‍वजय पर पाशुपत साधक के योग की काफी उच्‍च भूमि पर पहुँच जाने के अनंतर अति तीव्र शीत तथा आतप आदि सहन कर सकने पर पर द्‍वंद्‍वजय होता है, जो अधिक उत्कृष्‍ट होता है। (ग.का.टी.पृ.6)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

द्वादशकाली देखिए काली (द्वादश)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


द्वादशांत प्राणशक्ति के उदय एवं विश्रांति का स्थान। (तं.आ.वि. 4 पृ. 157)। द्वादशांत आंतर अपान नामक प्राण का नासिका छिद्र से बारह अंगुल भीतर हृदय में विश्रांति का स्थान। साधना के क्रम में इस विश्रांति के क्षण में शून्य भाव की भावना की जाती है। (वि.भै.51)। द्वादशांत उर्ध्व प्राणशक्ति का ब्रह्मरंध्र से बारह अंगुल ऊपर विश्रांति का स्थान। (वि.भै. 22)। इसकी अनुभूति योगियों को ही होती है। द्वादशांत बाह्य नासिका छिद्र से बारह अंगुल बाहर प्राणवायु का विश्रांति स्थान।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


द्वादशान्त प्राण और अपान की गति की जिस स्थान पर उत्पत्ति होती है, अथवा जाकर जहाँ रुक जाती है, उसको हृदय और द्वादशान्त कहते हैं। बाह्य और आन्तर शिव द्वादशान्त और शक्ति द्वादशान्त के भेद से द्वादशान्त की द्विविध स्थिति मानी गई है। कभी-कभी शून्यातिशून्य मध्यधाम, अर्थात् सुषुम्ना नाडी को भी द्वादशान्त कहा जाता है। तंत्रालोक की टीका (5/71) में सभी नाडियों के अग्रभाग में द्वादशान्त की स्थिति मानी गई है। द्वादशान्त पद की व्याख्या करते हुए शिवोपाध्याय (विज्ञान भैरव. पृ. 43) कहते हैं कि शरीर के प्रत्येक रोमकूप में द्वादशान्त की स्थिति है। यहाँ द्वादशान्त पद का प्रयोग लाक्षणिक है। जैसे मुख्य द्वादशान्त की स्थिति द्वादश आधारों के अन्त में है, उसी तरह से सभी नाडियों के अन्त (रोमकूप) में भी प्राण शक्ति की स्थिति है। अतः यहाँ विद्यमान प्राणशक्ति को भी द्वादशान्त कह दिया जाए तो कोई अनौचित्य नहीं है। हकार की उत्पत्ति हृदय में और सकार की उत्पत्ति द्वादशान्त में मानी जाती है।

  हृदय स्थित कमलकोश में प्राण का उदय होता है। नासिका मार्ग से बाहर निकल कर यह बारह अंगुल चलकर अन्त में आकाश में विलीन हो जाता है। इसीलिये बाह्य आकाश योगशास्त्र में द्वादशान्त के नाम से प्रसिद्ध है। द्विषटकान्त, मुष्टित्रयान्त या शिरवान्त शब्द द्वादशान्त के पर्यायवाची हैं। नेत्रतन्त्र (8/41) की टीका में क्षेमराज ने तथा तन्त्रालोक (5/89-91) की टीका में जयरथ ने द्वादशान्त पद का अर्थ ऊर्ध्व द्वादशान्त किया है, जिसकी कि स्थिति शिखा के अन्त में है। इसमें उन्मना शक्ति का निवास है। इस प्रकार द्वादशान्त की स्थिति ब्रह्मरन्ध्र से पृथक मानी गई है। इसको द्वादशान्त इसलिये कहते हैं कि द्वादश आधारों के अन्त में इसकी स्थिति है।
  निर्विकल्प महायोगी द्वादशान्त के भी ऊपर स्थित परमाकाश में जब पहुँच जाता है, तो उस स्थिति में सर्वात्मता का विकास होने से वह अनुत्तर शून्य में लीन हो जाता है। योगिनीहृदय (1/27, 34) में इसको महाबिन्दु कहा गया है। वहाँ आज्ञाचक्र तक की स्थिति को सकल, उन्मना पर्यन्त स्थिति को सकल-निष्कल और महाबिन्दु को निष्कल माना गया है। इस निष्कल स्वरूप में भगवती त्रिपुरसुन्दरी निवास करती है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

द्‍वार चर्या के प्रकारों का एक अंग।

द्‍वार से यहाँ पर यह तात्पर्य है कि जिन कृत्यों के द्‍वारा पुरुष पाशुपत साधना के क्षेत्र में प्रवेश करता है तथा रुद्रतत्व की प्राप्‍ति के जो द्‍वार स्वरूप होते हैं, वे द्‍वार कहलाते हैं। (ग.का.टी.पृ.18)। ये द्‍वार हैं- क्राथन, स्पंदन, मंदन, श्रृंगारण, अपितत्करण और अपितत्भाषण। ये द्‍वार ही पाशुपत साधना के विशेष अंग है। इन द्‍वारों का अभ्यास केवल पाशुपत साधक ही करते हैं। अन्य किसी भी साधनाक्रम में इन्हें स्थान नहीं मिला है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

द्‍वितीयावस्था पाशुपत साधक की मध्यमा अवस्था।

पाशुपत साधना की जिस अवस्था में साधक भिक्षा मांगनी भी छोड़ देता है और उस अन्‍न पर निर्वाह करता है, जिसे लोगों ने बलि के रूप में वृक्षमूलों पर, देवस्थानों पर या चतुष्पथों पर छोड़ दिया होता है। उसे उत्सृष्‍ट कहते हैं। यदि करुणावशात् कोई स्वयमेव कुछ खाने को दे तो वह भी उत्सृष्‍ट ही कहलाता है। साधक को उसी से जीविका का निर्वाह करना होता है तथा एकांतवास को छोड़कर लोगों के बीच में निवास करना होता है। साधना की इस दूसरी अवस्था को द्‍वितीयावस्था कहते हें। (ग.का.टी.पृ.5)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

द्वेष पाँच क्लेशों में से एक (द्र. योगसू. 2/3)। दुःख का अनुभव करने वाले प्राणी को दुःख की स्मृति के कारण दुःख में या दुःख के साधन में जो प्रतिघ (= अभीष्टप्राप्तिबाधा-जनित दुःख के विनाश की इच्छा), मन्यु (= मानसिक दृढ़ क्षोभ), जिघांसा (=हनन करने की इच्छा) या क्रोध (=मन्यु का बाह्य रूप) होता है वह द्वेष है (योगसू. 2/8)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

द्वैत आगम शैव आगमों के तीन वर्ग हैं। उनमें से दस आगम, जो दक्षिण भारत में अधिक प्रचलित हैं, शिव आगम कहलाते हैं। इन आगमों का उपदेश ईशान आदि यंत्र शरीरों के द्वारा स्वच्छंदनाथ शिव ने किया है। अवर अधिकारियों के हित के लिए भेदमयी दृष्टि को लेकर के इन आगमों का उपदेश किया गया। इन्हें दक्षिण में भी शिव आगम ही कहते हैं परंतु मालिनी विजया वार्तिक में पृ. 38 इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि ये आगम द्वैतदृष्टि प्रधान हैं। इन आगमों के आधार पर जिस सिद्धांत शैव का विकास तमिल देश में हुआ, उसे द्वैत शैव कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


द्वैत-शैव 1. पाशुपत शैव दर्शन पशु,पति और पाश इन तीन तत्त्वों की स्वतंत्र सत्ता को मानता है और मोक्ष दशा में भी जीव की पृथक् सत्ता को स्वीकार करता है, अतः यह शैव दर्शन द्वैत शैव है। 2. सिद्धांत शैव में भी मोक्ष दशा में जीव की अपनी पृथक् सत्ता को माना गया है। शिव में जीव के लय को नहीं माना गया है, अतः वह शैवदर्शन भी द्वैत शैव है, यद्यपि द्वैताद्वैत की ओर झुकता है। 3. कलियुग में भगवान् श्रीकंठनाथ की आज्ञा से शैव शास्त्र के पुनःप्रचार के लिए जो तीन सिद्ध पृथ्वी पर अवतार लेकर प्रकट हुए, उनमें से अमर्दक नामक सिद्ध ने अवर कोटि के अधिकारियों के लिए भेदमयी दृष्टि से जिस शैव दर्शन का उपदेश किया उसे द्वैत शैव कहते हैं। (तं.आ.वि. 1 पृ. 26)। इस समय उसका न तो कोई वाङ्मय ही मिलता है और न कोई संप्रदाय या मठ ही। अभिनवगुप्त के समय उस मठिका के प्रधान गुरु वामनाथ थे (तं.आ.37-60)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


द्वैताद्वैत आगम भगवान स्वच्छंदनाथ के ईशान आदि मंत्र शरीरों के द्वारा अट्ठाईस रुद्र आगमों का उपदेश किया गया। उन्हें दक्षिण भारत में भी रुद्र आगम ही कहते हैं। काश्मीर शैव शास्त्र के अनुसार इन आगमों का उपदेश भेदाभेदमयी दृष्टि से मध्यम अधिकारियों के लिए किया गया है, अतः ये ही द्वैताद्वैत आगम हैं। इनके नाम तंत्रालोक की टीका में प्रथम खंड के पृ. 40 पर दिए गए हैं। इनमें से बहुत से अब भी दक्षिण भारत में प्रचलित हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


द्वैताद्वैत शैव 1. कलिकाल में इस संसार में शैव दर्शन को पुनः प्रचलित करने के लिए भगवान् श्रीकंठनाथ ने जिन तीन सिद्धजनों को अवतार के रूप में पृथ्वी पर उतार दिया, उनमें से श्रीनाथ नामक सिद्ध ने मध्यम बुद्धि वाले अधिकारियों के हित के लिए द्वैताद्वैतमयी दृष्टि को अपनाते हुए जिस शैवदर्शन का उपदेश किया उसे द्वैताद्वैत शैव या भेदाभेद शैव कहते हैं। उस दर्शन की परंपरा अभिनवगुप्त के युग तक चलती रही। उस समय उस संप्रदाय के प्रधानगुरु महेंद्र राज थे (त. आ. 37-60)। आजकल वह शाखा लुप्त हो चुकी है। 2. श्रीकंठ शिवाचार्य के अभेदी परिणामवाद को भी द्वैताद्वैत शैव माना जा सकता है क्योंकि वह एक प्रकार का शैव विशिष्टाद्वैत है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


द्‍वैताद्‍वैतात्मक-विशेषाद्‍वैत वीरशैव दर्शन के अनेक नामों में यह भी एक नाम है। इस नाम से वीरशैव-सिद्‍धांत का प्रतिपाद्‍य विषय ज्ञात होता है। ‘विश्‍चशेषश्‍च = विशेषौ = ईशजीवौ, तयोरद्‍वैतं = विशेषाद्‍वैतम्’ यह इस शब्द की व्युत्पत्‍ति है। ‘वि:’ शब्द का पक्षी और परमात्मा, ये दो अर्थ होते हैं। ‘द्‍वासुपर्ण सयुजा सखाया — अभिचाकशीति’ (मु. 3-1-1)’ इस मंत्र में शिव का पक्षी के रूप में वर्णन किया गया है। अतः इस प्रमाण के आधार पर यहाँ ‘वि:’ शब्द का अर्थ परमात्मा अर्थात् ‘शिव’ लिया गया है। ‘शेष’ शब्द का अर्थ होता है ‘अंश’। ‘यथा सुदीप्‍तात्पावकाद्‍विस्फुलिङ् गा: सहस्रश: प्रभवंते सरूपा: —- तत्र चैवापियंति (मुं. 2-1-1)’ इस मंत्र में अग्‍निकणों के दृष्‍टांत से जीवों को शिव का अंश कहा गया है। अतः इस मंत्र के प्रमाण से यहाँ ‘शेष’ शब्द का अर्त शिव का अंशभूत जीव लिया जाता है। इस प्रकार ‘वि:’ का अर्थ ‘शिव’ और ‘शेष’ का अर्थ ‘जीव’ है। अतः शिव और जीव इन दोनों का अद्‍वैत ही ‘विशेषाद्‍वैत’ कहलाता है।

यहाँ पर शिव और जीव का अद्‍वैत ‘यथा नद्‍य: स्यंदमाना: समुद्रടस्तं गच्छंति नाम रूपे विहाय —- तथा —- पुरुषमुपैतिदिव्यग् (मु. 3-2-8)’ इस श्रुति के अनुसार समुद्र और नदी के दृष्‍टांत से प्रतिपादिप किया गया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जैसे समुद्र से भिन्‍न स्वरूपवाली नदियाँ समुद्र से मिलकर समुद्रस्वरूप हो जाती हैं, उसी प्रकार संसार-दशा में वस्तुत: शिव से भिन्‍न स्वरूप वाला जीव मुक्‍तावस्था में शिव के साथ सर्वथा अभिन्‍न अर्थात् समरस हो जाता है। अतः इस दर्शन में शिव और जीव के भेद तथा अभेद इन दोनों को सत्य मानते हैं। द्‍वैत तथा अद्‍वैत प्रतिपादक दोनों प्रकार की श्रुतियों का समन्वय करने के लिए इस दर्शन में भेद और अभेद दोनों को सत्य माना गया है। इसीलिये द्‍वैत श्रुतियों के आधार पर मुक्‍तावस्था में उन दोनों के अभेद के प्रतिपादक इस दर्शन को ‘द्‍वैताद्‍वैतात्मक-विशेषाद्‍वैत’ कहते हैं। (श्रीकर. भा. मंगलश्‍लोक 14,15 पृष्‍ठ 2)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

धर्म बल का एक प्रकार।

पाशुपत शास्‍त्र में पाशुपत धर्म की निर्धारित विधि का सदैव पालन करना धर्म कहलाता है। धर्म बल का चतुर्थ भेद है। क्योंकि धर्म पर स्थित होने से बल आता है (ग.का.टी.पृ.7)। धर्म से पूजापाठ आदि प्रसिद्‍ध लोकप्रिय धर्म तथा यम नियम आदि विशेष साधक धर्म यहाँ अभिप्रेत हैं। इन धार्मिक कृत्यों के अनुष्‍ठान से चित्‍त शोधन होता है और उससे साधना सफल होती है। इस तरह से धर्म रूपी बल साधना में सफलता प्राप्‍त करने में सहायक बनता है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

धर्म बुद्धि के चार सात्विक रूपों में यह एक है। अन्य तीन हैं – ज्ञान, विराग (वैराग्य) और ऐश्वर्य (सिद्धि)। (द्र. सांख्यका. 23)। यह धर्म यम-नियम ही है – ऐसा माठर आदि वृत्तिकार कहते हैं। अन्य व्याख्याकार कहते हैं कि विवेकज्ञान के साक्षात् साधनभूत कर्म (जो भोग की निवृत्ति करते हैं) तथा यज्ञादिकर्म – ये दो धर्म के भेद हैं। यज्ञादिकर्मों में यमादि का जो पालन किया जाता है, वह यज्ञादि के अनुष्ठान की तुलना में अधिकतर सात्त्विक हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

धर्मपरिणाम धर्मी द्रव्य के जो तीन प्रकार के परिणाम होते हैं – धर्म -परिणाम उनमें से एक है (लक्षण और अवस्था अन्य दो परिणाम हैं)। धर्मपरिणाम का अर्थ है – धर्मी द्रव्य में एक धर्म का उदय। उसके बाद वह धर्म लीन होता है एवं अन्य धर्म उदित होता है (जो उदित होता है, वही इन्द्रिय द्वारा साक्षात् विज्ञेय होता है)। यथा – सुवर्ण रूप धर्मी का पिंडाकार एक धर्म है; पिंडाकार परिवर्तित होकर जब कोई अलंकार-विशेष बनता है तब धर्मान्तर का उदय होता है (पिंडाकार का नाश होने के अनन्तर)। यह ज्ञातव्य है कि धर्मपरिणाम किसी एक धर्मी का ही होता है, धर्मी से सर्वथा निरपेक्ष कोई परिणाम नहीं होता। विभिन्न अलंकार सुवर्णपिंडा के ही धर्म हैं, क्योंकि उन धर्मरूप अलंकारों में सुवर्णरूप धर्मी का अन्वय देखा जाता है। धर्मपरिणाम में धर्मी अपने स्वरूप में ही रहता है – यह माना जाता है। धर्मी का जो धर्म है, वह अन्य धर्म की तुलना में धर्मी भी होता है। जब एक धर्म का पुनः परिणाम होता है तो वहाँ वह धर्म उदित परिणाम की दृष्टि में धर्मी होगा। धर्मों का परिणाम लक्षण (कालभेद) की अन्यता से होता है – यह पूर्वाचार्यों ने कहा है (द्र. लक्षण-परिणाम)। सांख्ययोग की मान्यता है कि धर्मी और धर्म यद्यपि परमार्थतः अभिन्न हैं (धर्मसमष्टि ही धर्मी है) तथापि व्यवहारतः भिन्न ही माने जाते हैं। प्रसंगतः यह जानना चाहिए कि धर्म शब्द कभी-कभी लक्षण-परिणाम और अवस्था-परिणाम का भी वाचक होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

धर्ममेघसमाधि जिस समाधि के द्वारा क्लेशों एवं कर्मों की निवृत्ति होती है, वह धर्ममेघसमाधि है। सर्वज्ञता -रूप प्रसंख्यान पर भी जब योगी का वैराग्य होता है, तभी यह समाधि आविर्भूत होती है (योगसू. 4/29)। इस अवस्था में विवेकख्याति की पूर्णता हो जाती है और योगी इस ख्याति को भी निरुद्ध करने के लिए उद्यत हो जाता है। धर्ममेघ रूप ध्यान को ‘पर प्रसंख्यान’ कहा जाता है। आत्मज्ञान रूप धर्म का ही मेहन (= वर्षण) करने के कारण ही इस समाधि का ‘धर्ममेघ’ नाम है। योगियों का कहना है कि इस समाधि का लाभ होने पर अनायास कैवल्य की प्राप्ति होती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

धर्मशक्‍ति तप का चतुर्थ लक्षण।

पाशुपत दर्शन के अनुसार जिस शक्‍ति के बल से साधक का योगनिष्ठ चित्‍त किसी भी बाह्य स्थूल विषय की ओर आकृष्‍ट न हो, अर्थात् किसी भी प्रकार के मोह से मोहित न हो, वह सामर्थ्य धर्मशक्‍ति कहलाती है। (ग.का.टी.पृ.15)। इसी शक्‍ति से योगी काम, क्रोध, लोभ आदि से अस्पृष्‍ट रहता हुआ स्थिरता से अपने अभ्यास में ही लगा रहता है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

धर्माचार देखिए ‘सप्‍ताचार’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

धर्मात्मा युक्‍त साधक का लक्षण।

पाशुपत मत के अनुसार साधक समस्त द्‍वंद्‍वों पर विजय पाकर ‘धर्मात्मा’ बन जाता है। यमों व नियमों के अभ्यास से श्रेष्‍ठ कर्मों की प्राप्‍ति करता है जिससे इस लोक में उसे अभ्युदय की प्राप्‍ति होती है तथा परलोक में मोक्ष को पा लेता है। तात्पर्य यह है कि योगी उत्कृष्‍ट अवस्था में पहुँच कर भी यम नियम आदि धर्मों को तथा भस्म-स्‍नान आदि क्रियाओं को छोड़ता नहीं और उससे उसका माहात्म्य बढ़ता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.131)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

धर्मिग्राहक मान धर्मिस्वरूप का ग्रहण कराने वाला प्रमाण धर्मिग्राहक मान है एवं जो प्रमाण धर्मिस्वरूप का ग्रहण कराने वाला होता है, उसी से धर्मिगत अनेक धर्मों की भी सिद्धि हो जाती है। जैसे – जिस प्रमाण से जगत् के कर्त्ता ईश्वर की सिद्धि होती है, उसी प्रमाण से ईश्वर में सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता आदि धर्मों की भी सिद्धि हो जाती है। क्योंकि बिना सर्वज्ञत्व, सर्वशक्तिमत्त्व के ईश्वर में जगत्कर्तृत्व बन ही नहीं सकता है। यही धर्मिग्राहक मान की विशेषता है (अ.भा.पृ. 989)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

धर्मी सांख्ययोग शास्त्र के अनुसार धर्मों के समाहारभूत पदार्थ धर्मी हैं – धर्मों का आश्रयभूत पदार्थ नहीं, जैसा कि वैशेषिक शास्त्र में माना जाता है। एक धर्मी के धर्म बहुसंख्यक होते हैं, जो कालभेद की दृष्टि से त्रिधा विभक्त हैं – शान्त (जो धर्म नष्ट हो गया), उदित (जो धर्म वर्तमान है – इन्द्रियवेद्यरूप में अवस्थित है) तथा अव्यपदेश्य (अर्थात् जो विशेष रूप से ज्ञातव्य नहीं है; यह अनागत है)। धर्मी के जो शान्त एवं अव्यपदेश्य धर्म हैं, वे सामान्य धर्म कहलाते हैं और जो उदित धर्म हैं, वे विशेष धर्म कहलाते है। यही कारण है कि धर्मी को सामान्य -विशेषात्मा कहा जाता है (धर्मी के लिए कभी-कभी ‘द्रव्य’ अथवा ‘अर्थ’ शब्द प्रयुक्त होता है)। प्रत्येक धर्म में धर्मी का अनुगम रहता है – रुचक, स्वस्तिक आदि अलंकारों में सुवर्ण रूप धर्मी के अनुगम की तरह धर्मों की भिन्नता होने पर भी उनमें धर्मी अभिन्न रूप से रहता है – यही धर्मी का अनुगम या अन्वय है (भिन्नेषु अभिन्नात्मा धर्मी, विवरणटीका 3/13)। धर्म -धर्मी में भेद व्यावहारिक है; पारमार्थिक नहीं; परमार्थतः धर्म -धर्मी में अभेद है। यही कारण है कि धर्म -धर्मी के सम्बन्ध में सांख्य एकान्तवादी (भेदवादी या अभेदवादी) नहीं है (द्र. व्यासभाष्य 3/13 का वाक्य एकान्तानम्भुपगमात्)। इसी दृष्टि के कारण व्याख्याकारगण सदैव कहते हैं कि धर्म -धर्मी में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है। प्रत्येक धर्म की अपनी योग्यता होती है, जो धर्मी में नहीं देखा जाता। मृत्पिंड से उत्पन्न घट में जल-आहरण की योग्यता है, जो मृत्पिंड में नहीं है। इस योग्यता के कारण ही धर्म-धर्मी में भेद मानना पड़ता है। धर्मी में धर्म की योग्यता सूक्ष्म रूप से रहती है, पर उस सूक्ष्म भाव से व्यक्त धर्म द्वारा निष्पन्न होने वाला कार्य निष्पन्न नहीं होता। यह सूक्ष्म रूप या अनभिव्यक्त रूप से रहना शक्ति कहलाता है। धर्मी में जो एसी शक्तियाँ रहती हैं, यह विभिन्न प्रकार के व्यक्त फलों को देखकर अनुमित होता है – ऐसा माना जाता है। यदि धर्म -धर्मी -भाव न माना जाए (अर्थात् प्रत्येक धर्म स्वप्रतिष्ठ है, परस्पर असंबद्ध है – ऐसा माना जाए, तो दार्शनिक दृष्टि से कई दोष होते हैं, द्र. व्यासभाष्य 3/14)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

धातु शरीर के उपादानभूत (शरीर के मुख्य घटक) धातुओं की चर्चा योगग्रन्थों में मिलती है। यह विषय आयुर्वेदशास्त्र में मुख्यतया प्रतिपादित हुआ है। धातु सात हैं – (1) रस (आहार का प्रथम परिणाम), (2) लोहित या रक्त, (3) मांस, (4) स्नायु, (5) अस्थि, (6) मज्जा तथा (7) शुक्र। कहीं-कहीं रस के स्थान पर त्वक् शब्द का प्रयोग मिलता है; ऐसे स्थलों में त्वक् का लक्ष्यार्थ रस ही समझना चाहिए; त्वक् या चमड़ा कोई धातु नहीं है। ये सात उत्तरोत्तर अधिक आभ्यंतर हैं – रस सर्वाधिक बाह्य है और शुक्र सर्वाधिक अन्तस्तल में अवस्थित है (द्र. व्यासभाष्य 3/21)। धातु का शब्दार्थ है – धारण करने वाला। योगग्रन्थों में कदाचित् उपधातुओं की चर्चा मिलती है; स्तनदुग्ध, आर्तव आदि सात उपधातु हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

धारणा मन को दृढ़रूपेण ध्यान में स्थापित करना।

पाशुपत योग के अनुसार हृदय में ओंकार की धारणा करनी होती है। धारणा वह उत्कृष्‍ट योग है जहाँ आत्म तत्व में लगाए हुए ध्यान को स्थिरता दी जाती है। ध्यान जब दीर्घ काल के लिए साधक के मन में स्थिर रहता है तो वह धारणा कहलाती है। इसको पर ध्यान भी कहा गया है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.126)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

धारणा धारणा योग का छठा अंग है। किसी बाह्य देश या आध्यात्मिक देश (द्र. ‘देशबंध’) में चित्त को बाँधना धारणा है (योगसू. 3/1)। जिस चित्तबन्धन में उस देश से अतिरिक्त अन्य किसी देश में चित्त का संचरण नहीं होता है (यह प्रत्याहार के द्वारा ही संभव होता है) वही धारण योगशास्त्रीय धारणा है (‘धारणा’ शब्द का प्रयोग भावना के अर्थ में भी होता है)। प्रकृत विभूति का आरंभ भी धारणा-क्षेत्र से ही होता है। विभिन्न योगग्रन्थों में नाना प्रकार की धारणा एवं उनके फलों का विशद विवरण मिलता है, जैसे ‘आग्नेयी धारणा’ के द्वारा शरीर को भस्मीभूत करना (बाह्य अग्नि के बिना)। स्थूल-सूक्ष्म रूपों में या सगुण-निर्गुण-रूपों में नाना प्रकार के धारणाभेदों का विवरण योगग्रन्थों में मिलता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

धारणापूर्वक ध्यान ध्यान की पर अवस्था।

पाशुपत मत के अनुसार जहाँ साधक चित्‍त को पूर्णरूपेण निरालंबन बनाकर अर्थात् चित्‍त के ध्यान का विषय किसी भी स्थूल या सूक्ष्म वस्तु को न रखते हुए तथा निर्मल बनाकर केवल रुद्र तत्व में ही अपने आपको स्थापित करता है। साधक की यह अवस्था पाशुपत योग की पर (उत्कृष्‍टतर) दशा होती है। (ग.का.टी.पृ.20)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

धी तत्त्व देखिए बुद्धि तत्त्व।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ध्यान परस्वरूप महेश्‍वर का चिंतन। (ध्यानं चिंतनमित्यर्थ:)

ध्यै चिंतालक्षणं ध्यानं ब्रह्म चोंकार लक्षणम्।

धीयते लीयते वापि तस्मांद् ध्यानमिति स्मृतम्।।

                      (पा.सू.कौ.भा.पृ. 115)।
ध्येय ब्रह्म है तथा ओंकार है क्योंकि पाशुपत ध्यान में परब्रह्म के ओंकार स्वरूप का ध्यान (चिंतन) किया जाता है तथा उसी ध्यान में लीन होना होता है।
(रुद्रतत्वे सदृश चिंता प्रवाहो ध्यानम् – ग.का.टी.पृ. 20)।
भासर्वज्ञ के अनुसार ध्यान दो तरह का होता है – जपपूर्वक ध्यान तथा धारणापूर्वक ध्यान। (ग.का.टी.पृ.20)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

ध्यान यह सातवाँ योगांग है। धारणा का ही उन्नततर रूप ध्यान है। धारणा देश में ध्येय विषयक प्रत्यय (=ज्ञानवृत्ति) की जो एकतानता (=अविच्छिन्न रूप से प्रवाह) है, वह ध्यान है (योगसू. 3/2)। धारणा में एकविषयिणी वृत्ति रहती है, पर उसकी धारा अविच्छिन्न रूप से नहीं चलती। धारणा में देश का ज्ञान रहता है, ध्यान में देशज्ञान नहीं रहता। धारणा में देश-विशेष में चित्तबन्धन होने पर भी प्रत्ययों का प्रवाह सर्वथा सदृश नहीं होता। ध्यान में वृत्तियों की सदृशता तथा अविच्छिन्नता आवश्यक है। ध्यान के नाना प्रकार के भेदों का उल्लेख योगियाज्ञवल्क्य आदि ग्रन्थों में मिलता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ध्यान (ज्ञानयोग) शैवी साधना के ज्ञानयोग के उस उपाय को भी ध्यान कहते हैं जिसमें साधक भावना या इंद्रियों द्वारा देखे गए सभी भावों तथा अभावों को सभी के रूप में अभेद भाव की दृष्टि से देखता है। जिस किसी भी भाव या पदार्थ को जो कोई भी इंद्रिय देखती है इस देखने या भाव ग्रहण करने की प्रक्रिया में शिवता ही लक्षित होती है। इसी प्रकार से प्रत्येक प्रकार की भावना में तथा सभी आभासों में शिवता का ही पुनः पुनः अंतःविमर्शन करना ही ज्ञानयोग वाला ध्यान है। (शि.दृ. 7-78 से 80)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ध्यानयोग (आणव योग) शैवी साधना के आणव-उपाय में बुद्धि को आलंबन बनाकर जिस धारणा का अभ्यास किया जाता है उसे ध्यानयोग कहते हैं। यह आणव उपाय का सर्वोच्च योग है। इस धारणा में साधक को प्रमाता, प्रमाण एवं प्रमेय को अपने अनुत्तर संवित् स्वरूप में भावना द्वारा एक रूप करके सारे प्रपंच को उसी परिपूर्ण संवित् के द्वारा सृष्ट, स्थित, संहृत आदि रूपों में देखना होता है (तं.सा.पृ.36)। इस योग के अभ्यास से अपने पंचकृत्यात्मक ऐश्वर्य पर साधक को पक्का विश्वास भी हो जाता है और शिव भाव का आणव समावेश भी हो जाता है। वह परिपूर्ण संवित् द्वादश (बारह) काली नामक शक्ति चक्र की स्वामिनी होती है और जलती हुई आग की तरह प्रत्येक प्रमेय विषय को अपने साथ एक कर देती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ध्यामल अस्फुट। ईश्वर दशा और सदाशिव दशा, दोनों में ही प्रमाता को अपने अहं स्वरूप चित् प्रकाश के भीतर ही इदं अंश रूप प्रमेय का भी आभास हो जाता है और वह ‘अहमिदम्’ या ‘इदमहम्’ ऐसा विमर्श करता है। अंतर इतना होता है कि ईश्वर दशा में इदं अंश अतीव स्फुटतया प्रकट हो जाता है जबकि सदाशिव दशा में अहं अंश के प्रकाश के भीतर उसकी एक अस्फुट छाया जैसी झलकती है। प्रमेय तत्त्व के इस अस्फुट आभास को ध्यामल आभास कहते हैं। (इ.प्र.वि. 31-3; ई.प्र.वि. 2, पृ. 196)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ध्वनियोग आणवोपाय में करणयोग के नीचे ध्वनि योग का स्थान है। इसे वर्ण योग भी कहते हैं , क्योंकि इस योग में संपूर्ण वर्णो की सामरस्यात्मक ध्वनि को आलंबन बनाकर साधक शिवभाव का समावेश प्राप्त करता है। इस सामरस्यात्मक ध्वनि को नाद कहते हैं। इस नादात्मक ध्वनि में वर्णो की स्वतंत्र सत्ता पूर्णतया शांत हो जाती है। क से म पर्यंत सभी वर्ण एवं उनसे संबंधित आभासों को समरस रूप में भावना द्वारा देखने के अभ्यास से जब इन्हें अपनी शुद्ध संवित् रूपता में विलीन कर दिया जाता है तो साधक अनुत्तर संवित्स्पर्श का अनुभव करता हुआ शिवभाव के आणव समावेश को प्राप्त करता है। (तं.सा.पृ. 42)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


नकुलीश पाशुमत मत का संस्थापक।

नकुलीश पाशुपत मत के संस्थापक लकुलीश का ही नामांतर है। शिव पुराण वायवीय संहिता के नौवे अध्याय में तथा कूर्म पुराण के तिरपनवें (53वें) अध्याय में नकुलीश को कलियुग में पाशुपत मत का आदि गुरु बताया गया है। माधवाचार्य ने सर्वदर्शन संग्रह में पाशुपत मत को नकुलीश – मत कहा है। परंतु काशमीर के शैव आगमों के इस मत के संस्थापक को लकुलीश या लाकुल कहा गया है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

नमस्कार पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।

पाशुपत धर्म के अनुसार नमस्कार महेश्‍वर के प्रति मानसिक नमस्करण होता है। यह नमस्कार मुह से, शब्द विशेष से या शरीर की किसी मुद्रा से नहीं किया जाता है, अपितु पाशुपत योगी को मन ही मन महेश्‍वर के प्रति नमस्करण करके नमस्कार नामक विधि के इस अंग का पालन करना होता हे। ऐसा नमस्कार ही सर्वोत्‍तम नमस्कार होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 14)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

नर तत्त्व त्रिकशास्त्र की त्रितत्त्व कल्पना में जड़ तत्त्व को नर तत्त्व कहते हैं। नर का अर्थ है मायीय प्रमाता। मायीय प्रमाता या तो स्थूल शरीर को, या प्राण को, या बुद्धि को या शून्य को जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति में अपना आप समझता है। ये सभी पदार्थ जड़ हैं। अतः इस मायीय प्रमाता को जड़ तत्त्व में गिनते हुए नर तत्त्व कहा जाता है। यह सारा जड़ जगत् भी नर तत्त्व में ही गिना जाता है। इस तरह से जीव और उसका जगत् नर तत्त्व कहलाता है। (पटलत्री.वि.पृ. 73, 74)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


नरोपाय आणवोपाय का एक और नाम। जीव के समेत सभी जड़ तत्वों को त्रिक प्रक्रिया में नर तत्त्व कहते हैं। आणव उपाय में इन तत्त्वों को ही धारणा का आलंबन बनाया जाता है, इस कारण इस उपया को नरोपाय भी कहते हैं। नर तत्त्व का स्फुट आभास इस भूमिका में होता है। आणव योग को भी प्रारंभ में भेद का आश्रय लेकर ही अभ्यास का विषय बनाया जाता है। इस कारण से भी इसे नरोपाय भी कहते हैं। भेदोपाय भी इसका एक और नाम है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


नवतत्त्वधारणा 1. आणवोपाय की तत्त्व-अध्वा नामक धारणा में नौ तत्त्वों को आलम्बन बनाकर की जाने वाली साधना। इस धारणा में विज्ञानाकल को आलंबन बनाकर उसी को अकल, मंत्रमहेश्वर, मंत्रेश्वर तथा मंत्र (विधेश्वर) नामक चार प्रमातृ तत्त्वों के रूप में तथा इनकी चार शक्तियों के रूप में देखना होता है। उससे ये आठ तथा आलंबन का स्वरूप सभी एकमात्र शिवरूपतया चमक उठते हैं। उससे साधक को शिवभाव का आणव समावेश हो जाता है। इस धारणा को नवमी विद्या भी कहते हैं। (तं.आ. 10-110 से 113, 125, 126)। 2. आणवोपाय की तत्त्व अध्वा नामक धारणा का ही एक और प्रकार, जिसमें प्रकृति, पुरुष, नियति, काल, माया, विद्या, ईश्वर, सदाशिव तथा शिव नामक नौ तत्त्वों को क्रम से साधना का आलंबन बनाते हुए साधक अपने शिवभाव के समावेश में प्रवेश पाता है। (तं.सा.टि.पृ. 111)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


नवमुण्डी आसन कुशासन, कम्बल, गलीचा, अजिन (मृगचर्म), व्याघ्रचर्म आदि आसनों से सभी परिचित हैं, सुखदायक आसन पर बैठकर योगांग आसन का अनायास अभ्यास किया जा सकता है एवं उससे प्राणायाम और चित्त की एकाग्रता सहज सिद्ध हो सकती है। शक्तिसंगमतन्त्र के द्वितीय ताराखण्ड (4/27) में 32 प्रकार के आसनों का उल्लेख है। उनमें से मृदु, समारूढ़, कोमल, अचूलक, योनित्वक्, विष्टर, अस्थिमूमि, कुश, सुरत, मुण्ड, पंचमुण्ड, त्रिमुण्ड, एकमुण्ड, चिता, श्मशान, शव, मृत महाशव, वीर, महावीर और योनि नामक आसनों का वहाँ (2/9/2-6) नामोल्लेख किया गया है। नवम और दशम पटल में मुण्डरहस्य तथा कालिका परिशिष्ट के आधार पर कुछ विशिष्ट आसनों का संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है। इसी तरह से 20, 27, 47-50, 60, 67-68, 71 पटलों में इन्ही में से कुछ आसनों का विस्तृत परिचय मिलता है। अन्त में बताया गया है कि इन आसनों की भी संख्या 84 होती है।

  यहाँ यह अवश्य जान लेना चाहिये कि योगशास्त्र में वर्णित आसनों से ये सर्वथा भिन्न हैं। योगासनों से शरीर की विभिन्न स्थितियों में सुविधाजनक स्थिरता प्राप्त की जाती है, जब कि प्रस्तुत आसनों का उपयोग साधना में बैठते समय स्थिर और सुखदायक आधार के रूप में किया जाता है। बंगदेश में एकमुण्डी, त्रिमुण्डी और पंचमुण्डी आसन तन्त्रसाधना में प्रसिद्ध हैं। परमहंस रामकृष्ण, साधक रामप्रसाद, कमलाकान्त आदि ने पंचमुण्डी आसन पर बैठकर ही सिद्धि प्राप्त की थी। इस समय भी बंगदेश तथा काशी प्रभृति स्थानों में भी किसी न किसी साधक का पंचमुण्डी आसन प्रसिद्ध है।
  नवमुण्डी आसन का रहस्य अब तक रहस्य ही बना हुआ था। परमाराध्यपाद श्री श्री विशुद्धानन्द परमहंस द्वारा श्री काशीधाम स्थित अपने आश्रम में श्री श्री नवमुण्डी आसन की स्थापना होने के अनन्तर आध्यात्मिक मात्रा में इस आसन का रहस्य कुछ-कुछ उन्मीलित हुआ। इस नवमुण्डी आसन के आध्यात्मिक रहस्य को समझाने का प्रयत्न स्वयं श्रद्धैयचरण गुरुप्रवर श्री श्री गोपीनाथ कविराज महोदय ने अपने ग्रन्थ ‘तान्त्रिकवाङ्मय में शाक्तदृष्टि’ के ‘श्री श्री नवमुण्डी महासन’ शीर्वक निबन्ध (पृ. 261-278) में किया है। जिज्ञासु जनों को इस रहस्य को वहीं समझने का प्रयत्न करना चाहिये। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

नाडी तोडलतन्त्र (8/1) में बताया गया है कि मानव देह में साढ़े तीन करोड़ नाडियाँ हैं। शारदातिलककार (1/39-43) इस देह को अग्नीषोमात्मक मानते हैं, क्योंकि देह का कारणभूत शुक्लबिन्दु अग्निस्वरूप और रक्त बिन्दु सोमात्मक है। इसका दक्षिण भाग सूर्यात्मक और वाम भाग सोमात्मक है। इसमें अनन्त नाडियों का निवास है। इनमें दस नाडियाँ मुख्य हैं और उनमें भी तीन नाड़ियाँ प्रधान हैं। शरीर के वाम भाग में इडा, मध्य में सुषुम्णा और दक्षिण में पिंगला नाडी स्थित है। इन तीन नाडियों में भी मध्य नाडी सुषुम्णा मुख्य हैं। यह अग्निषोमात्मक है। इनके अतिरिक्त गान्धारी, हस्त-जिह्वा, पूषा, अलम्बुषा, यशस्विनी, शंखिनी और कुहू ये सात नाडियाँ और हैं। इस तरह से इनकी संख्या दस हो जाती है। नैत्रतन्त्र (7/1-5) की टीका में क्षेमराज ने भी इन्हीं दस नाडियों की नामावली दी है। अन्तर केवल इतना है कि वहाँ यशस्विनी को यशा कहा गया है। ज्ञानसंकलिनी तन्त्र (76 श्लो.) में भी इसका यश ही नाम है।

  शारदातिलक के टीकाकार राघवभट्ट शरीर के विभिन्न संस्थानों में इनकी स्थिति और स्वरूप का वर्णन करते हैं। वह यह भी कहते हैं कि अन्य आचार्य इनके अतिरिक्त पयस्विनी, वारणा, विश्वोदरी और सरस्वती इन चार नाडियों को भी प्रधान मान कर इनकी संख्या 14 बताते हैं। तोडलतन्त्र (8/5-6) में 11 नाडियाँ प्रदर्शित हैं। उनके नाम हैं – इडा, पिंगला, सुषुम्ना, चित्रिणी, ब्रह्मनाडी, कुहू, शंखिनी, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, नर्दिनी और निद्रा। इनमें से चित्रिणी, ब्रह्मनाडी, नर्दिनी और निद्रा को छोड़कर बाकी नाम पूर्वोक्त ही हैं। संगीतदर्पण में सुषुम्णा, इडा, पिंगला, कुहू, पयस्विनी, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, वारणा और यशस्विनी नाडियाँ वर्णित हैं। इनमें पयस्विनी और वारणा नाडियों के नाम 14 नाडियों में समाविष्ट हैं।
 पांचरात्र आगम की पारमेश्वर संहिता (3/90-106) में नाडी चक्र का वर्णन करते हुए बताया गया है कि शरीर में 72 हजार नाडियाँ विद्यमान हैं। ये सब आग्नेय, सौम्य और सौम्याग्नेय वर्ण में विभक्त हैं। आग्नेय नाडियाँ ऊर्ध्वमुख, सौम्य नाडियाँ अधोमुख और सौम्याग्नेय नाडियाँ तिरछी हैं। इन नाडियों में दस नाडियाँ प्रधान हैं। इनके नाम हैं – इडा, पिंगला, सुषुम्ना, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुषा, कुहू और कोशिनी। इनमें से कोशिनी नाम अन्यत्र नहीं आया है। इडा, पिंगला और सुषम्ना नामक प्रमुख नाड़ियों का विवरण अलग से दिया गया है। सुषुम्ना नाडी के अग्र भाग में गान्धारी और हस्तिजिह्वा नाडियाँ कन्द देश के वाम और दक्षिण भाग से उठकर नेत्रपर्यन्त तथा पूषा और यशस्विनी नाडियाँ सुषुम्ना नाडी के पृष्ठ भाग से कन्द देश से उठकर वाम और दक्षिण कर्णपर्यन्त स्थित हैं, अलम्बुषा नाडी कन्द से पादमूल, पर्यन्त, कुहू मेढ़ के अन्तिम भाग में और कोशिनी पैर के अंगूठे में स्थित है। गान्धारी का वर्णपीत, हस्तिजिह्वा का कृष्ण, पूषा का कृष्णपीत, यशस्विनी का श्याम, अलम्बुषा का चितकबरा, कुहू का अरुण और कोशिनी का वर्ण अंजन के समान है। इन दस नाडियों में यहाँ दस प्राणों की भी स्थिति बताई गई है। इडा नाडी प्राण की, गान्धारी अपान की, अलम्बुषा समान की, कुहू व्यान की, सुषुम्ना उदान की, पिंगला नाग की, पूषा कूर्म की, यशस्विनी कृकर को, हस्तिजिह्वा देवदत्त की और कोशिनी धनंजय नामक पवन की वाहिका है। इस संहिता में इस तरह से दशविध प्राणों का और साथ ही इनके वर्णों का भी वर्णन किया गया है।
  पारमेश्वर संहिता के ही समान नेत्रतन्त्र (7/1-5) के व्याख्याकार क्षेमराज भी दस नाडियों का उक्त दशविध प्राणों से संबंध बताते हैं। पारमेश्वर संहिता के ही समान शारदातिलक के टीकाकार ने भी योगार्णव नामक ग्रन्थ के प्रमाण पर इन दशविध नाडियों के स्थान और वर्ण का वर्णन किया है, किन्तु इनमें कोई समानता नहीं है। यहाँ गान्धारी की स्थिति इडा के पृष्ठ भाग में पाद से नेत्र पर्यन्त मानी गई है और इसका वर्ण मयूर के कण्ठ के समान चितकबरा है। इडा के अग्र भाग में उत्पल वर्ण हस्तिजिह्वा नाडी वाम भाग में सिर से पादांगुष्ठ पर्यन्त है। नीलमेघ सदृश पूषा नाडी पिंगला के पृष्ठ भाग में दक्षिण भाग के नेत्रान्त से पादतल पर्यन्त स्थित है। पीत वर्ण अलम्बुषा कण्ठ के मध्य में और शंख वर्ण यशस्विनी पिंगला के पूर्व देश में है। शंखिनी सुवर्ण वर्ण की है और इसकी स्थिति गान्धारी और सरस्वती के मध्य भाग में है। शरीर के वाम भाग में पैर से लेकर कर्ण पर्यन्त और दक्षिण भाग में पादांगुष्ठ से लेकर शिरोभाग पर्यन्त कुहू नाडी स्थित है।
   श्रीतत्त्वचिन्तामणि (6/1-4) में षट्चक्र का निरूपण करते समय नाडियों के संबंध में बताया है कि मेरुदण्ड के बाहर वाम भाग में चन्द्रात्मक इडा और दक्षिण भाग में सूर्यात्मक पिंगला नाडी अवस्थित है तथा मेरुदण्ड के मध्य भाग में वज्रा और चित्रिणी नाडी से मिली हुई त्रिगुणात्मिका सुषुम्ना नाडी का निवास है। इनमें सत्वगुणात्मिका चित्रिणी चन्द्र रूपा, रजोगुणात्मिका वज्रा सूर्य रूपा और तमोगुणात्मिका सुषुम्ना नाडी अग्नि रूपा मानी गई है। यह त्रिगुणात्मिका नाडी कन्द के मध्य भाग से सहस्त्रार पर्यन्त विस्तृत है। इसका आकार खिले हुए धतूरे के पुष्प के सदृश है। इस सुषुम्ना नाडी के मध्य भाग में लिंग से सिर तक दीपशिखा के समान प्रकाशमान वज्रा नाडी स्थित है। इस वज्रा नाडी के मध्य में चित्रिणी नाडी का निवास है। यह प्रणव से विभूषित है और मकड़ी के जाले के समान अत्यन्त सूक्ष्म आकार की है। योगीगण ही इसको अपने योगज ज्ञान से देख सकते हैं। मेरु दण्ड के मध्य में स्थित सुषुम्ना और ब्रह्मनाडी के बीच में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा चक्रों को भेदकर यह नाडी सहस्त्रार चक्र में प्रकाशमान होती है। इस चित्रिणी नाडी के बीच में शुद्ध ज्ञान को प्रकाशित करने वाली ब्रह्म नाडी स्थिति है। यह नाडी मूलाधार स्थित स्वयंभू लिंग के छिद्र से सस्त्रार में विलास करने वाले परम शिव पर्यन्त व्याप्त है। यह नाडी विद्युत् के समान प्रकाशमान है। मुनिगण इसके कमलनाल स्थित तन्तुओं के समान अत्यन्त सूक्ष्म आकार का मानस प्रत्यक्ष ही कर सकते हैं। इस नाडी के मुख में ही ब्रह्म द्वार स्थित है और इसी को योगी गण सुषुम्ना नाडी का भी प्रवेश द्वार मानते हैं।
  इनके अतिरिक्त शास्त्रों में प्राणवहा, मनोवहा, अश्विनी, गुह्यिनी, चित्रा, वारुणी, शूरा, नैरात्म्ययोगिनी प्रभृति नाडियों का भी वर्णन मिलता है। इनका विवरण “तान्त्रिक साधना और संस्कृति” नामक ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में 17, 139, 263, 291-292 पृष्ठों पर देखना चाहिये। वहाँ (पृ. 263) बताया गया है कि सहजियों की सांकेतिक भाषा में सभी नाड़ियों को ‘योगिनी’ कहा जाता है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

नाडी संधान अपनी शुद्ध स्वरूपता का आवेश प्राप्त करने के लिए साधक जब अपनी द्वैतपरक भिन्न भिन्न मनोवृत्तियों को इडा आदि नाडीत्रय (देखिए) में शांत करने से पूर्व जो अभ्यास करता है उसे नाडी संधान कहते हैं। रेचक द्वारा बाह्य द्वाद्वशांत (देखिए) में स्थिति होने के पश्चात् कुंभक द्वारा आंतर द्वाद्वशांत (देखिए) में स्थिति प्राप्त करके साधक जब अपने हृदय में ही विश्रांति प्राप्त करता है तो उसे नाड़ी संधान कहते हैं। इस अभ्यास से वह नाडीत्रय में प्रवेश पाने के योग्य बन जाता है। (स्वत्रतं. पटल 3-52,53; वही उ.पटल3 पृ. 180)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


नाड़ीत्रय मेरुदंड में स्थित सुषुम्ना, पिंगला तथा इड़ा नामक तीन नाड़ी स्वरूप मार्ग जिन्हें क्रमशः इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया प्रधान माना गया है। इन्हें क्रमशः वह्नि, सूर्य तथा सोमात्मक भी माना जाता है। सुषुम्ना मेरुदंड के मध्य में, पिंगला दाईं ओर तथा इड़ा बाईं ओर स्थित होती है। (स्व.तं. पटल 2.250; स्व.तं.उ.प 2. पृ. 133, 134)। परंतु स्वच्छंद तंत्र में ही पिंगला को मध्यमा नाड़ी भी माना गया है। (स्व.तं.पटल 3-22, 149)। धारणा भेद के कारण ऐसा कहा गया है। ये नाडियाँ भी तो धारणा का विषय बनती ही हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


नाड़ीशुद्धि प्राणायाम विशेष के अभ्यास से नाडियों में जो शुद्धि होती है, वह नाडीशुद्धि कहलाती है। मल के कारण शरीर योगाभ्यास के लिए समर्थ नहीं होता या अत्यल्प योगाभ्यास से ही कातर हो जाता है। शीत, ग्रीष्म, जल, हवा आदि से अत्यधिक पीड़ित होते रहना भी नाडीगत मल के कारण होता है। विभिन्न प्रकार के प्राणायामों द्वारा नाडीशुद्धि होने पर शरीर रोगहीन, उज्जवलकान्तिमय, लघुतायुक्त, सौम्यदर्शन होता है। नाडी शुद्धिकारक प्राणायामों का विशद विवरण हठयोग के ग्रन्थों में (हठयोगप्रदीपिका, घेरण्डसंहिता आदि में) मिलता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

नाडीसंहार इडा, पिंगला एवं सुषुम्ना नामक तीन नाडियों का आधार प्राण, अपान नामक प्राणवायु को माना गया है तथा इस प्राणवायु के आधार को चिद्विभु कहते हैं। इस प्रकार चिदाकाश को तीनों नाडियों का मुख कहा जाता है। साधक भिन्न भिन्न अभ्यासों द्वारा प्राणवायु से उद्भूत सभी वृत्तियों को इन नाडियों में लीन करता है। इस अभ्यास में स्थिति हो जाने पर तीनों नाडियों को शांत हुई वृत्तियों समेत चिदाकाश में विलीन कर देने को नाडी संहार कहते हैं। (शि.सू.वा.पृ. 48)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


नाद प्रपंचसार, शारदातिलक, रत्नत्रय प्रभृति ग्रन्थों में नाद और बिन्दु को शिव और शक्ति से उसी तरह से अभिन्न माना गया है, जैसे कि प्रकाश और विमर्शात्मक शिव तथा शक्ति से शब्द और अर्थ को अभिन्न माना गया है। प्रणव की 12 कलाओं में भी बिन्दु और नाद की स्थिति है। आगम और तन्त्र की विभिन्न शाखाओं में नाद और बिन्दु की अपनी-अपनी व्याख्याएँ हैं। विज्ञानभैरवोद्द्योत (पृ. 3) और स्वच्छन्दोद्द्योत (1/3; पृ. 6 ) में ‘अदृष्टविग्रहात’ प्रभृतिश्लोक उद्धृत है। कुछ पाठ भेदों के साथ यह स्वच्छन्दतंत्र (8/27-28), श्रीकण्ठीसंहिता (स्वच्छन्दोद्द्योत, वहीं, पृ. 19) और पौष्करागम (श.र.सं., पृ. 7) में उपलब्ध होता है। इस श्लोक के प्रमाण पर इन सभी स्थलों में शास्त्रों की नादरूपता का प्रतिपादन किया गया है।

  नादकारिका (श.र.सं., पृ. 40) में नाद को मालिनी, महामाया, समना, अनाहत बिन्दु, अघोषा वाक् और ब्रह्मकुण्डलिनी बताया है। नादभट्टारक और प्राणशक्ति के नदन व्यापार को भी नाद कहा जाता है। ‘हकारस्तु स्मृतः प्राणः स्वप्रवृत्तो हलाकृतिः’ (4/257) स्वच्छन्दतन्त्र के इस वचन के अनुसार स्वाभाविक रूप से निरन्तर नदन करने वाले हलाकृति प्राण को ही हकार कहा गया है। अनच्क हकार की आकृति वाले प्राण का यह नदन व्यापार ही हंसोच्चार कहलाता है। इसी को अनाहत ध्वनि अथवा नादभट्टारक भी कहा जाता है। भट्टारक शब्द अतिशय आदर का सूचक है। यह नादभट्टारक शब्द ब्रह्म का ही व्यापार है। यह दस प्रकार का होता है।
  तन्त्रालोक (5/59) में ब्रह्मयामल के प्रमाण पर दस प्रकार के राव का प्रतिपादन किया गया है। टीकाकार जयरथ ने (खं. 3 पृ. 410) राव शब्द को नाद का पर्यायवाची मानकार दस प्रकार के नाद का परिचय दिया है। स्वच्छन्दतन्त्र (11/6-7) में इसके आठ भेद माने गये हैं। क्षेमराज ने अपनी टीका में धर्मशिवाचार्य की पद्धति को उद्धृत कर इनका विवरण दिया है। अर्थरत्नावली (पृ. 36) में उद्धृत संकेत पद्धति में भी अनाहत नाद के आठ ही भेद माने गये हैं। स्वच्छन्दतन्त्र (11/7) में महाशब्द के नाम से नवम नाद भी माना गया है। अर्थरत्नावली (पृ. 36) में उद्धृत हंसनिर्णय में नवम नाद को निर्विशेष विशेषण दिया गया है।
  दस प्रकार के नाद में धारणा, ध्यान और समाधि का अभ्यास करने पर योगी शब्दब्रह्म के स्वरूप को भली-भांति समझ लेता है। वह यह जान लेता है कि शब्दब्रह्म से ही परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी – इन चार प्रकार की वाणियों का विकास होता है। यह नाद तत्त्व परा और पश्यन्ती के क्रम से विकसित होता हुआ मध्यमा में आकर योगाभ्यास द्वारा श्रवणेन्द्रिय के अन्तर्मुख होने पर सुनाई पड़ता है। अन्तर्मुखता की ओर बढ़ते-बढ़ते, अर्थात् इस नाद के सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम स्वरूप का अन्वेषण करते-करते योगी शब्दब्रह्म के स्वरूप को भली-भांति समझने में समर्थ हो जाता है, निष्णात हो जाता है। शब्द ब्रह्म के स्वरूप को ठीक से पहचान लेने पर साधक अनायास परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् इस निरन्तर नदन करती अनाहत ध्वनि में चित्त को एकाग्र कर लेने पर योगी का परमाकाश स्वभाव, चिदाकाशमय प्रकाशात्मक स्वरूप प्रकट हो जाता है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

नाद 1. अव्यक्त ध्वनि। हकारात्मक अवाहत ध्वनि। पर बीज। भ्रूमध्य में अभिव्यक्त होने वाला हंस स्वरूप बीज। (स्व.तं.उ.खं. 2, पृ. 161, 164; तन्त्रालोकविवेक2 पृ. 193)। 2. अपने शुद्ध संवित् स्वरूप में ही अभेद रूप से होने वाले समस्त प्रपंच के परामर्श को भी नाद कहते हैं। 3. परिपूर्ण स्वातंत्र्य से युक्त तथा परिपूर्ण कर्तृत्व लक्षणों वाले शुद्ध विमर्श को भी नाद कहते हैं। (तं.आ.वि. 5 पृ. 194)। 4. नाद वाणी का निर्विकल्पक रूप होता है। (स्व.तं.पटल 4 पृ. 162)। 5. हकारात्मक शक्ति को भी नाद कहते हैं। (तं.आ.वि. 2, पृ. 193)। 6. सदाशिव दशा से भी परे रहने वाले स्वात्म विमर्श को भी नाद कहते हैं। 7. प्रणव उपासनारूपी योग की सातवीं कला को भी नाद कहा जाता है। इस प्रकार से नाद शब्द का प्रयोग शैव शास्त्र में अनेकों अर्थो में हुआ है। नाद का विशेष अर्थ स्वात्म विमर्श है। उसी को इस शास्त्र में शब्द तत्त्व कहा गया है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


नाद (प्रणव कला) त्रिकयोगमयी प्रणव की उपासना में अकार, उकार, मकार, बिंदु, अर्धचंद्र के अनंतर योगियों के साक्षात्कार में अभिव्यक्त होने वाली (प्रणव की) सातवीं कला का नाम भी नाद है। बिंदु का उच्चारण काल आधी मात्रा, अर्धचंद्र का एक चौथाई मात्रा, निरोधी का 1/8 मात्रा और नाद का 1/16 मात्रा होता है। शिवयोगियों की अवधानमयी दृष्टि इतनी पैनी बन जाती है कि प्रणव की ध्वनि की गूंज का इतना सूक्ष्म विश्लेषण कर पाती है। (स्व.तं.पटल 4-258, 259)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


नादानुसन्धान लययोग के प्रसंग में बताया गया है कि लय नाद पर आश्रित है, अतः लययोग की सिद्धि के लिये नाद का अनुसंधान आवश्यक है। आदिनाथ ने चित्त के लय के सवा करोड़ उपाय बताये हैं, उनमें नादानुसन्धान ही प्रमुख है। इसके लिये साधक को चाहिये कि वह सुखपूर्वक आसन पर बैठकर शारीरिक शाम्भवी मुद्रा के माध्यम से अन्तर्मुख होकर दाहिने कान से अन्तःस्थ नाद का श्रवण करे। ऐसा करते समय उसको कान, आँख, नाक और मुँह को अंगूठे और अंगुलियों की सहायता से बन्द कर लेना चाहिये। इस अभ्यास के सिद्ध हो जाने पर उसको सुषुम्ना मार्ग में नदन करता हुआ नाद सुनाई पड़ने लगता है। इसकी आरम्भ, घट, परिचय और निष्पत्ति नामक चार अवस्थाएँ होती हैं। निष्पत्ति अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते योगी अखण्ड आनन्द का अनुभव करने लगता है। मुक्ति होती हो अथवा न होती हो, किन्तु नादानुसन्धान प्रयत्न की निष्पत्ति दशा तक पहुँच जाने पर योगी को इसी शरीर में अखण्ड आनन्द की अनुभूति होने लगती है।

  योगी को चाहिये कि कान बन्द कर वह जिस नाद को सुनता है, उसमें अपने चित्त को स्थिर करने का अभ्यास करे। ऐसा करने से उसकी चित्त-वृत्ति अन्तर्मुख हो जाती है, वह बाहरी कोलाहल को नहीं सुनता। नादानुसन्धान की प्रारंभिक दशा में उसे नाना प्रकार की समुद्र, बादल, मर्दल, शंख, घंटा, किंकिणी, वंश, वीणा, भ्रमर आदि की ध्वनि सुनाई पड़ती है और उसकी चित्त-वृत्ति सूक्ष्म से सूक्ष्मतर नाद की ओर उन्मुख होती जाती है। नाद की जिस किसी अवस्था में योगी का मन रमता हो, उसी का वह अभ्यास करे। इस नादानुसन्धान की प्रक्रिया के अन्त में उसी नाद के साथ साधक का चित्त लीन हो जाता है। मकरन्द का पान करने वाला भ्रमर जैसे गन्ध की अपेक्षा नहीं रखता, उसी तरह से नाद में लीन हुआ चित्त फिर विषयों की ओर नहीं लौटता। इस नादानुसन्धान की प्रक्रिया का वर्णन हठयोगप्रदीपिका प्रभृति ग्रन्थों में मिलता है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

नामलीला नामरूपात्मक भगवान् की दो लीलाओं में एक लीला नामलीला है। इस नामलीला के अंतर्गत ही वेद सहित संपूर्ण शब्दात्मक लीलायें समाविष्ट हैं। रूपलीला के समान ही नामलीला भी प्रपञ्च के अंतर्गत ही है और भगवान् द्वारा की गयी है (अ.भा.पृ. 63)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

नारायण नार अर्थात् जीव समूह को प्रेरित करने वाला या जीव समूह में प्रविष्ट हुआ परमात्मा नारायण है। अथवा सब कुछ जिसमें प्रविष्ट हो, ऐसा जो जगत का आधार है, वह नारायण है। “नराज्जातानि तत्त्वानि नाराणीति विदुर्बुधाः। तस्य तान्ययनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।। अथवा आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः। तस्य ता अयनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।। (भ.सु.11 टी. पृ. 218/480)

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

नासा अंतर्द्वाद्वशांत। नासिका के द्वार के बारह अंगुल भीतर अपान का विश्रांति स्थान। (शि.सू.वा.पृ. 86)। देखिए द्वाद्वशांत (आंतर)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


नि:शून्य-वस्तु देखिए ‘सर्वशून्य-निरालंब’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

निग्रह कृत्य विधान कृत्य। शुद्ध स्वरूप को छिपा लेने की पारमेश्वरी लीला। देखिए विधान कृत्य।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


निजानंद आणव उपाय के उच्चार योग में प्रथम भूमिका का आनंद। उच्चार योग की प्राण धारणा में जब उस प्राणशक्ति को आलंबन बनाकर अभ्यास किया जाता है जो कि प्राण के उद्गम की अवस्था होती है तो उस प्राणशक्ति पर स्थिति हो जाने से जो आनंद अभिव्यक्त होता है, उसे निजानंद कहते हैं। (तन्त्र सार पृ. 38)। उच्चार योग की इस प्रथम भूमिका में प्राणशक्ति के रूप में प्रमातृ तत्त्व अथवा पुरुष तत्त्व पर ही विश्रांति होने पर निजानंद की अभिव्यक्ति होती है। (तं.आ. 5-44)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


नित्याचार देखिए ‘सप्‍ताचार’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

नित्यात्मा आत्मतत्व के साथ शाश्‍वत योग।

पाशुपत मत के अनुसार युक्‍त साधक को आत्मा के साथ निरंतर योग होता है, अर्थात् वह आत्म तत्व के साथ सदैव एकाकार बनकर ही रहता है। सर्वदा चित्‍तवृत्‍ति का आत्मतत्व में ही समाधिस्थ होकर रहना नित्यात्मत्व कहलाता है। (अनुरूध्यमान चितवृत्‍तित्वं नित्यात्मत्वम्- ग.का.टी.पृ. 16)। नित्यात्मत्व अवस्था को प्राप्‍त साधक नित्यात्मा कहलाता है। (पा.सू.पृ. 5.3)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

नित्योदित-शान्तोदित उदित शब्द का अर्थ है ऊपर गया हुआ, उठा हुआ, उगा हुआ। नित्योदित का अर्थ है जिसका नित्य उदय ही हो। संसार में जिसका उदय होता है, वह अस्त भी हो जाता है। इस प्रकार की उदित वस्तु को शान्तोदित कहते हैं। किन्तु जिसका सदा उदय ही हो, जो कभी अस्त न हो, वह नित्योदित है। स्वसंवित्ति अथवा आत्म चेतना के प्रकाशन की दो स्थितियाँ होती हैं – शान्तोदित और नित्योदित। शान्तोदित वह स्थिति है, जिसमें आत्मचेतना का आविर्भाव होता है, किन्तु फिर उसका तिरोभाव भी हो जाता है। नित्योदित स्थिति में आत्मचेतना का सदा आविर्भाव ही बना रहता है, कभी तिरोभाव नहीं होता। आत्मा तो नित्योदित है ही, उसमें हमारी संवेदना की स्थिति बराबर नहीं रहती। शक्तिसंकोच के सिद्ध हो जाने पर हमारी चेतना की नित्योदित स्थिति हो जाती है। मालिनीविजय (2/36-45) तथा तंत्रालोक (10//277-287) में महाप्रचय अथवा सततोदित दशा के रूप मे इसका वर्णन हुआ है। प्रत्यभिज्ञाहृदय (19-20 सू.) में नित्योदित समाधि और उससे प्राप्त होने वाली पूर्ण समावेश दशा की चर्चा भी इसी विषय को स्पष्ट करती है।

  पांचरात्र आगम के ग्रन्थों में पर वासुदेव के स्वरूप को नित्योदित माना गया है। इसमें आविर्भाव और तिरोभाव, काल की कलना तथा परिणाम कुछ भी नहीं है। इसमें परम आनन्द सर्वदा विराजमान रहता है। व्यूह वासुदेव का स्वरूप शान्तोदित माना जाता है। इसका उदय होता है और अस्त भी होता है। सृष्टि आदि व्यापारों की निष्पत्ति, जीवों की रक्षा और उपासकों पर अनुग्रह करने के लिये व्यूह वासुदेव की अभिव्यक्ति होती है। सात्वतसंहिता के अलशिंग भाष्य (1/33-34) में बताया गया है कि ईश्वर की दो दशाएँ हैं – नित्योदित और शान्तोदित। नित्योदित दशा में वह केवल स्वात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित रहता है और शान्तोदित दशा में वह अपनी विभूतियों का विस्तार करता है। इस व्याख्या से यह सिद्ध हो जाता है, कि शैव, शाक्त और वैष्णव सभी सम्प्रदायों में प्रयुक्त ये दोनों शब्द सर्वत्र समान अर्थ की ही अभिव्यक्ति करते हैं। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

निद्रा पाँच प्रकार की वृत्तियों में निद्रा एक है। वृत्ति चित्तसत्व का परिणाम है, अतः वृत्ति वस्तुतः एक प्रकार का ज्ञान है। योगसूत्रोक्त निद्रा सुषुप्ति-अवस्था नहीं है। इस अवस्था में जो ज्ञानवृत्ति रहती है, उसका नाम निद्रा है। जाग्रत् और स्वप्न रूप दो अवस्थाओं का अभाव होता है – तमोगुण के प्राबल्य के कारण। सुषुप्ति अवस्था आने से पूर्व जो तामस आच्छन्न भाव चित्तेन्द्रिय में उद्भूत होता है (जिससे प्राणी सुप्त हो जाता है) उस आच्छन्न भाव या जड़ता का ज्ञान ही निद्रारूप वृत्ति है। यह निद्रारूप ज्ञान विशेष ज्ञान है न निर्विशेष ज्ञान है, जिसका वर्णन ‘मैं कुछ नहीं जानता था’ इस रूप से किया जाता है। सुषुप्ति-अवस्था में एक प्रकार की ज्ञानवृत्ति रहती है – यह अनुमान से सिद्ध होता है – जैसा कि व्याख्याकारों ने दिखाया हैं चित्तस्थैर्यकारी योगी निद्रावृत्ति का अनुभव प्रत्यक्षादि वृत्तियों की तरह ही करते हैं। मूर्छा आदि अवस्थाओं में भी जिस वृत्ति की सत्ता रहती है – वह भी यह ‘निद्रा’ ही है – यह वर्तमान लेखक का मत है, क्योंकि वह वृत्ति ‘अभावप्रत्ययालम्बना’ है (द्र. योगसूत्र 1/10)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

निद्रा उच्चार योग में अनुभव में आने वाली छः आनंद की भूमिकाओं में से किसी भी भूमिका में प्रवेश करने से पूर्व जिन पाँच बाह्य लक्षणों का उदय होता है, उनमें से चौथा लक्षण। आनंद, उद्भव (प्लुति) तथा कंप इन तीनों लक्षणों के स्फुट होने के पश्चात् जब बहिर्मुखी सभी वृत्तियाँ शांत हो जाती हैं, तब परिणामस्वरूप ज्यों ही अपने अंतर्मुखी स्वभाव पर विश्रांति होने लगती है, तो जिस लक्षण का उदय होता है उसे निद्रा कहते हैं। साधक अभी अपनी संवित् रूपता में रूढ़ नहीं हुआ होता है अपितु अभी उसमें प्रवेश ही नहीं पा रहा होता है। इसी स्थिति में लगता है जैसे बहुत ही आनंददायक नींद आ रही हो। (तं.सा.पृ. 40; तं.आ.5-104)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


निमेष 1. क्षेमराज के अनुसार वह अवस्था, जिसमें समस्त प्रपंच शांत हो जाता है तथा शिवभाव पूर्णतया चमकने लगता है। उनके अनुसार जब शिवभाव का उन्मेष (देखिए) हो जाता है तो संपूर्ण जगत् का बाह्य रूप शांत हो जाता है और सभी कुछ प्रकाश के ही रूप में चमकने लगता है। (स्व.सं. पृ. 5, 9, 11)। 2. भट्टकल्लट एवं रामकंठ के अनुसार शिवभाव के बहिर उन्मेष से जगत् का उदय होता है तथा अंतः निमेष से जगत् का संहार होता है। (स्पंदकारिकावृ,पृ,. 1; स्पन्दविवृतिपृ. 7)। ईश्वर प्रत्यभिज्ञा के आगमाधिकार में ईश्वर तत्त्व की अवस्था को बहिर् उन्मेष और सदाशिव तत्त्व को अंतर निमेष कहा गया है। (ई.प्र. 3-1-3)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


नियत धर्म जीववाद ब्रह्मवाद का ही एकवेशीवाद नियत धर्म जीववाद है। जैसे, भगवान् ने अपने भोग की निष्पत्ति के लिए अग्नि के विस्फुलिंग (चिंगारी) के समान अपने अंश के रूप में जीवों को बनाया – यह आश्मरथ्य का जीव संबंधी सिद्धान्त है। शरीरादि संघात में प्रविष्ट चैतन्यमात्र अनादिसिद्ध जीव है – यह औडुलोमी आचार्य का मत है। इनके अनुसार साक्षात् चैतन्य ही शरीरादि संघात में प्रविष्ट हुआ जीव है। भगवान् का ही विषय भोक्तृ स्वरूप जीव है – यह काशकत्स्न का जीववाद है। अर्थात् भगवान् ही विषय भोक्ता के रूप में जीव कहलाता है (अ.भा.पृ. 525)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

नियति तत्त्व नियत कार्यकारण भाव, नियत ज्ञातृज्ञेय भाव, नियत कार्यकर्तृत्व भाव, नियत कर्मफल भोग, नियम आदि को अभिव्यक्त करने वाला संकोचक तत्त्व। माया तत्त्व से विकास को प्राप्त हुए पाँच कंचुक तत्त्वों में से यह चौथा कंचुक तत्त्व है। इस तत्त्व के प्रभाव से पशु प्रमाता की संकुचित ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति और भी संकुचित हो जाती हैं जिसके कारण वह किसी नियत वस्तु को किसी नियत सीमा तक ही जान सकता है और किसी नियत कार्य को किसी नियत सीमा तक ही कर सकता है। इस प्रकार सभी कुछ के विषय में सभी कुछ न जान सकने और सभी कुछ न कर सकने की अति संकुचित अवस्था तक जो तत्त्व पहुँचाता है तथा किसी भी वस्तु या भाव के प्रति प्रमाता की आसक्ति या अनासक्ति के भाव को भी जो तत्त्व किसी विशेष अवधि में ही बाँधकर रखता है और इस तरह से माया प्रमाता की कला के विधा के और राग के क्षेत्रों को भी सीमित बना देता है, उसे नियति तत्त्व कहते हैं। (ई.प्र.वि.2 पृ. 209; तं.सा.पृ. 83)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


नियम योग के आठ अंगों में नियम द्वितीय है (द्र. योगसूत्र 2/29)। नियम पाँच हैं – शौच, सन्तोष, तपः, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान (योगसूत्र 2/32)। यम मुख्यतया निषेधरूप है (हिंसा न करना, मिथ्या न कहना इत्यादि), नियम मुख्यतया विधिरूप है। वितर्कों के कारण नियम विरोधी भाव (अशौच, असन्तोष आदि) यदि चित्त में न उठे तो नियम स्थैर्य को प्राप्त होता है। इस प्रकार के स्थैर्यप्राप्त नियमों के कुछ असाधारण फल भी हैं; द्र. शौच आदि शब्द।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

निरंजन मुण्डकोपनिषद् (3/1/3) में कहा गया है कि निरंजन परम साम्य को प्राप्त कर लेता है। यहाँ निरंजन पद मुक्त जीव के लिये प्रयुक्त है। पाशुपत मत में पशु (जीव) के दो भेद बताये गये हैं – सांजन और निरंजन। उनमें से शरीर इन्द्रिय आदि से संबद्ध पशु सांजन और इनसे रहित पशु को निरंजन कहा गया है। तिर्यक् आदि के भेद से सांजन पशु के 14 प्रकार और निरंजन पशु के तीन प्रकार वहाँ निर्दिष्ट हैं। इनमें से उक्त मुण्डकोपनिषद् का वाक्य तृतीय प्रकार के निरंजन पशु से ही संबद्ध है। अन्य शैव आगमों में भी इनका उल्लेख मिलता है। वहाँ माया में पड़ा हुआ जीव सांजन और उससे अतीत निरंजन कहा जाता है। उपनिषदों में ही अन्यत्र (त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषद्, 7/9) निरंजन पद परब्रह्म के पर्याय के रूप में व्यवहृत है। इस उपनिषद् में वैष्णव सिद्धान्त के अनुरूप ही परब्रहम का निरूपण किया गया है। अन्य वैष्णव आगमों में भी इसी अर्थ में यह शब्द प्रयुक्त है।

 नाथ सम्प्रदाय के ग्रन्थों में अपर, पर, सूक्ष्म, निरंजन और परमात्मा नामक पाँच तत्त्व या पद वर्णित हैं। इनमें से निरंजन पद में सहजत्व, सामरस्य, सत्यत्व, सावधानता और सवंगत्व नामक गुणों की स्थिति मानी गई है। ये सब शिव के विविध रूप हैं। बौद्ध शास्त्रों में शून्य अथवा निर्वाण पद को निरंजन कहा जाता है। परवर्ती सन्त साहित्य में नाथ सम्प्रदाय अथवा बौद्ध सम्प्रदाय में मान्य अर्थ में ही इस पद का प्रयोग हुआ है।
  गोरक्षनाथ सिद्ध विरचित अमरौघशासन (पृ. 8-9) में काम, विष और निरंजन तत्त्वों की चर्चा है। ब्रह्मदण्ड के मूलांकुर में इनकी स्थिति मानी गई है। इन्हीं तीन तत्त्वों का निरूपण तन्त्रालोक के तृतीयाह्निक (पृ. 112, 115, 170) में भी मिलता है। वहाँ इन तत्त्वों को क्रमशः इच्छा, ज्ञान और क्रिया शक्त्यात्मक माना है। इन शक्तियों के द्वारा अंजित होकर ही ब्रह्म नाना रूपों में प्रकट होता है। इन शक्तियों में समरसता स्थापित कर योगी निरंजन पद में प्रतिष्ठित हो जाता है।
  विज्ञानभैरव की टीकाओं में निरंजन पद का अर्थ द्वादशान्त किया गया है। योगिनीहृदय के टीकाकार अमृतानन्द योगी रूपातीत स्थिति को निरंजन पद कहते हैं। हठयोगप्रदीपिकाकार स्वात्माराम योगी निरंजन शब्द को समाधि का पर्याय मानते हैं। इन सब प्रकार के अर्थों में प्रयुक्त होने वाला यह पद सम्प्रति प्रधानतः बौद्ध शास्त्र में स्वीकृत शून्यता अथवा निर्वाण तथा नाथ सम्प्रदाय में अभिमत शिव के निष्कल निरंजन पद के लिये ही व्यवहृत होता है। हिन्दी और मराठी आदि भाषाओं के कवियों ने इन्हीं अर्थों में इस शब्द का प्रयोग किया है। नेत्रतन्त्र (7/38) में भी सूक्ष्म ध्यान के द्वारा निरंजन परम पद की अभिव्यक्ति का उल्लेख मिलता है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

निरानंद आणव उपाय में प्राण धारणा की भिन्न भिन्न स्थितियों के आनंद की छः भूमिकाओं में दूसरी भूमिका का आनंद। पुरुष तत्व या प्रमातृ-तत्त्व पर विश्रांति हो जाने के अनंतर जब उसकी विषयशून्यता पर भी भावना द्वारा सतत अभ्यास किया जाता है तो निरानंद नामक आनंद की दूसरी भूमिका की अभिव्यक्ति होती है। (तं.सा.य पृ. 38; तं.आ. 5-44)। यहाँ विषयशून्यता से प्रमातृ तत्त्व संबंधित सभी विषयों के अभाव से है। इस भूमिका में ऐसी ही शून्यता पर पुनः पुनः अभ्यास करना होता है। जिसकी परिणति निरानंद में होती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


निरालम्ब चित् वीरशैव संतों ने शून्य तत्व की ‘सर्वशून्य-निरालम्ब’, ‘शून्यलिंग’ और ‘निष्कल-लिंग’ के नाम से तीन अवस्थाओं को माना है। ये तीनों अवस्थाएँ विश्‍व की उत्पत्‍ति की कारणावस्था से परे हैं। जब निष्कल-लिंग में कारणावस्था का उदय होने लगता है, तब उस निष्कल-लिंग से एक प्रकाश निकलता है। इस प्रकाश को ‘चित्’ कहते हैं। इस चित् का कोई अन्य आलम्ब अर्थात् आधार नहीं है, वह स्वतंत्र है। अतः उसे ‘निरालम्ब-चित्’ कहा जाता है। इसको ज्ञानस्वरूप होने से ‘ज्ञान-चित्’ और विश्‍व की उत्पत्‍ति का मूल कारण होने से ‘मूल चित्’ भी कहते हैं।

इस निरालम्ब चित् से सर्वप्रथम ‘अ’, ‘उ’ और ‘म’ इन तीन वर्णो की सृष्‍टि होती है। इन तीनों को ‘नाद’, ‘बिंदु’ और ‘कला’ कहते हैं। चिद्रूप निरालम्ब चित् से उत्पन्‍न होने के कारण ये तीनों भी चिद्रूप ही हैं। अतः इनको चिन्‍नाद, चिद्‍बिंदु, चित्कला कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ‘अ’ कार ही ‘चिन्‍नाद’, ‘उ’ कार ही ‘चिद्बिंदु’ और ‘म’ कार ही ‘चित्कला’ कहा जाता है।
अ, उ, म ये तीनों वर्ण जब अपने कारणीभूत ‘निरालम्ब-चित्’ से संयुक्‍त हो जाते हैं, तब ऊँकाररूपी मूल प्रणव की उत्पत्‍ति होती है। यह ऊँकार उस अखंड ‘चित्’ का एक व्यक्‍त स्वरूप होने से ‘चित् पिंड’ कहा जाता है। इस चित् पिंड को ही वीरशैव संतों ने ‘अनादि-पिंड’ कहा है। इस चित् पिंड में आनंदस्वरूप की भी अभिव्यक्‍ति होती है, अतः उस ऊँकार को ‘चिदानंद’ भी कहते है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ‘चित् पिंड’, ‘अनादिपिंड’, और ‘चिदानंद’ ये तीनों ऊँकार के ही पर्याय हैं। वीरशैव दर्शन में इस ऊँकार से ही समस्त विश्‍व की सृष्‍टि मानी जाती है। (शि.श.को.पृ. 14,15; तों.व.को.पृ.17)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

निरालम्बनचित्त जो चित्त आलम्बन से शून्य होता है, वह निरालम्बन कहलाता है। वैराग्य की पराकाष्ठा रूप जो परवैराग्य है, उसके अभ्यास से ही यह आलम्बन-हीनता होती है। चूंकि आलम्बन के कारण ही चित्त सक्रिय होता है (अर्थात् चित्त की सत्ता ज्ञात होती है), अतः जब चित्त आलम्बनहीन हो जाता है तब वह ‘अभाव प्राप्त की तरह’ हो जाता है (अभावप्राप्तमिव, व्यासभाष्य 1/18)। यह निर्बीजसमाधि की अवस्था है। परवैराग्य के बिना अन्य किसी भी उपाय से चित्त की यह अवस्था नहीं हो सकती।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

निराशंस किसी भी प्रकार की आकांक्षा से रहित शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण संवित्-स्वरूप परमशिव। किसी भी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा से रहित शुद्ध चैतन्य तत्त्व। आकांक्षा, द्वैत भाव में ही संभव है। परमशिव शुद्ध प्रकाशात्मक शिव तथा शुद्ध विमर्शात्मक शक्ति का परिपूर्ण सामरस्यात्मक अनुत्तर संवित्स्वरूप है, जो पूर्ण अभेद की दशा है। समस्त प्रपंच उसी में उसी के रूप में स्थित है। परमशिव को इसी परिपूर्णता की दृष्टि से निराशंस कहा जाता है। (ई.प्र.वि. 1-1)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


निरुद्ध भूमि निरुद्ध भूमि पाँच चित्तभूमियों में एक है (द्र. व्यासभाष्य 1/1)। यह प्रत्ययशून्य अवस्था है। व्याख्याकारों ने इस भूमि को ‘निरुद्धसकलवृत्तिक’ तथा ‘संस्कारमात्रशेष’ बताया है। निरोधसमाधि (1/18 योगसूत्र में उक्त) के अभ्यास से जब चित्त सरलता से दीर्घकाल -पर्यन्त प्रत्ययहीन होकर रहने में समर्थ हो जाता है, तब वह अवस्था निरुद्धभूमि कहलाती है। इस निरुद्धभूमि में समाधि होने पर वह असंप्रज्ञात समाधि कहलाती है, जिस प्रकार एकाग्रभूमि में समाधि होने पर वह संप्रज्ञात समाधि कहलाती है। ‘संस्कार शेष’ का अभिप्राय यह है कि इस अवस्था में संस्कार ही रहते हैं। निरोध एवं व्युत्थान-दोनों के संस्कार ही यहाँ ग्राह्य हैं। चूंकि निरोध-संस्कार के द्वारा व्युत्थान-संस्कार अभिभूत रहता है, अतः वह सक्रिय होकर प्रत्ययों का उत्पादन नहीं करता।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

निरुपक्रम कर्म जिस कर्म का विपाक (= फल) आयु है, वह सोपक्रम अथवा निरुपक्रम होता है। निरुपक्रम कर्म वह है जो मन्द वेग से फल देता है। (उपक्रम=व्यापार)। निरुपक्रम कर्म में संयम करने पर संयमी को अपरान्त (=मरण) का ज्ञान होता है (योगसू. 3/22)। प्रसंगतः यह ज्ञातव्य है कि आयुष्कर कर्म ऐकभविक (=प्रधानतः एक जन्म में ही निष्पन्न) होते हैं। व्याख्याकारों ने कहा है कि अन्य व्यक्ति के आयुष्कर कर्म में संयम करने पर उसके मरण का भी ज्ञान होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

निरुपाधि-माट देखिए ‘माट’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

निरोध-संस्कार निरोध का संस्कार चित्त का अपरिदृष्ट धर्म है। निरोध (= वृत्तियों का उदय न होना) काल में चूंकि ह्रास-वृद्धि देखी जाती है, अतः यह स्वीकार करना होगा कि निरोध का भी संस्कार होता है। चूंकि यह संस्कार चित्त का धर्म है, अतः इसका प्रवाह भी संभव होता है, जिसको प्रशान्तवाहिता कहा जाता है। निरोध-संस्कार के साथ व्युत्थान-संस्कार का विरोध है; एक के द्वारा दूसरा अभिभूत होता रहता है; जिस समय व्युत्थान-संस्कार का अभिभव करके प्रबल निरोध-संस्कार उत्पन्न होता है, वह समय ‘निरोध-क्षण’ कहलाता है (योगसू. 3/9) और उस समय चित्त का जो परिणाम (यह अलक्ष्य है) होता है वह ‘निरोध-परिणाम’ कहलाता है। निरोध एवं निरोध-संस्कार दोनों ही अलक्ष्य हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

निरोधपरिणाम चित्त (वृत्ति -संस्कार-धर्मों के धर्मी) के जो त्रिविध परिणाम हैं, उनमें निरोध एक है (अन्य दो हैं – समाधिपरिणाम तथा एकाग्रतापरिणाम)। 3/9 योगसूत्र में इसका लक्षण इस प्रकार दिया गया है – जिस समय व्युत्थानसंस्कार अभिभूत होते रहते हैं और निरोधसंस्कार प्रादुर्भूत (बलशाली होकर प्रकट) होते रहते हैं, उस समय चित्त-रूप धर्मी में जो परिणाम होता है, वह निरोधपरिणाम कहलाता है। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि निरोधपरिणाम का सम्बन्ध संस्कार के साथ ही है, वृत्तियों के साथ नहीं तथा वृत्तियों में जिस प्रकार प्राबल्य-दौर्बल्य होते हैं, संस्कारों में भी तथैव प्राबल्य-दौर्बल्य होते हैं। व्युत्थान और निरोध – दोनों ही एक चित्तरूप धर्मी के धर्म हैं। चूंकि व्युत्थान के बाद निरोध होता है और निरोध भी गुणस्वभाव के कारण कालान्तर में टूट जाता है, अतः निरोध स्वयं परिणामी है। परिणामी होने के कारण निरोध के भी उत्कर्ष -अपकर्ष होते हैं – यह भी सिद्ध होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

निरोधभूमि चित्त की पाँच भूमियों में निरोधभूमि पंचम है। जब निरुद्ध रहना ही चित्त की सहज अवस्था हो जाता है, तब वह निरोधभूमि की अवस्था है। इस निरोधभूमि में समाधि होने पर वह निरोध समाधि कहलाता है। यह निरोधसमाधि दो प्रकार की है – भवप्रत्यय (यह कैवल्यसाधक नहीं होता) तथा उपायप्रत्यय (यह कैवल्यसाधक होता है)। उपायप्रत्यय निरोधसमाधि का नामान्तर असंप्रज्ञात समाधि है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

निरोधलीला भक्तों को प्रपञ्च की स्फूर्ति से रहित बना देने वाली भगवान् की लीला निरोधलीला है। इस लीला में प्रविष्ट भक्त सारे प्रपञ्च को भूल जाता है और भगवान के लीलारस का साक्षात् अनुभव करता है। (दृष्टव्य त्रिविध निरोध शब्द की परिभाषा) (भा.सु.11टी. पृ. 285)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

निरोधी / निरोधिनी प्रणव की सूक्ष्मतर उपासना में अवधान दृष्टि में उसकी अत्यंत सूक्ष्म बारह कलाओं को लाना होता है। उनमें से निरोधी छठी कला है। इसका काल एक मात्रा का आठवाँ भाग होता है। बिंदु से आगे की आठों कलाएँ बिंदु का अनुरणन मात्र होती हैं। उस अनुरणन के भीतर अर्धचंद्र, निरोधी आदि कलाओं को अवधान की दृष्टि से साक्षात् पृथक् पृथक् अनुभव में लाना होता है। ऐसी अवधान दृष्टि का उन्मेष शिवयोगियों ही को होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


निर्बयलु देखिए ‘सर्वशून्य-निरालंब’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

निर्बीजसमाधि निर्बीजसमाधि वह है जिसमें संप्रज्ञातसमाधिजात प्रज्ञा और प्रज्ञाजात संस्कारों का भी निरोध हो जाता है। बीज का अर्थ क्लेश या आलम्बन है। इस अवस्था में संस्कारों का भी निरोध हो जाने के कारण क्लेश (जो मुख्यतः मिथ्याज्ञान का वासना रूप है) सर्वथा उत्थानशक्तिशून्य हो जाता है। कोई भी प्राकृत पदार्थ चित्त के आलम्बन के रूप में इस अवस्था में नहीं रहता, अतः इस समाधि का ‘निर्बीज’ नाम सार्थक है। यह निर्बीज समाधि दो प्रकार की है – असंप्रज्ञात और भवप्रत्यय। भवप्रत्यय कैवल्य का अवश्यंभावी साधक नहीं है। किसी-किसी के अनुसार असंप्रज्ञात का ही एक भेद निर्बीज समाधि है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

निर्माणचित्त निर्माणचित्त वह चित्त है जिसको वे योगी निष्पादित कर सकते हैं जो अस्मितामात्र (यह षष्ठ अविशेष है) में समापन्न होने की शक्ति रखते हैं। सास्मित-समाधि सिद्ध योगी ही ऐसे चित्त का निर्माण (अपनी अस्मिता से) कर सकते हैं। ब्रह्मविद्या का उपदेश देने के समय सिद्ध योगी निर्माणचित्त का उपयोग करते हैं, जिससे उनका उपदेश शिष्य के मन को पूर्णतः भावित कर सके। यह चित्त अभीष्ट कार्य के बाद स्वतः निरुद्ध हो जाता है – यह चित्त आशयहीन होता है (योगसूत्र 4/6)। ‘निर्माणचित्त’ शब्द में चित्त का अर्थ मन है, क्योंकि अस्मितामात्र को इसका उपादान कहा गया है। कोई योगी एक साथ एकाधिक निर्माणचित्त उत्पन्न कर सकते हैं। वे प्रत्येक चित्त के लिए पृथक् -पृथक् शरीर निर्माण भी कर सकते हैं। पर ये सशरीर चित्त योगी के मूल चित्त के अधीन ही रहते हैं। समाधिज निर्माणचित्त की तरह औषधि, मन्त्र आदि से भी निर्माणचित्त का निर्माण किया जा सकता है, पर इन चित्तों में आशय (= वासना) रह जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

निर्माल्यम् पाशुपत विधि का एक अंग।

मूर्ति विशेष पर चढ़ाई हुई पुष्पमाला को निर्माल्य कहते हैं। पुष्पों की माला बनाकर आराध्य देव की मूर्ति पर चढ़ाकर, फिर वहाँ से ग्रहण करके, उसको अपने शरीर पर धारण करना निर्माल्यधारण होता है। निर्माल्यधारण पाशुपत योगी की भक्‍ति की वृद्‍धि में सहायक बनता है और उसके पाशुपत धर्म के अनुयायी होने का चिह्न भी होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 11)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

निर्वाण कला श्रीतत्त्वचिन्तामणि (6/48-50) में बताया गया है कि अमा कला के भीतर निर्वाण कला स्थित है। यह साधक को मुक्ति प्रदान करने वाली है, अतः इसे निर्वाण कला कहा जाता है। मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण, कैवल्य प्रभृति शब्द पर्यायवाची हैं। निर्वाण कला केश के अग्र भाग के हजारवें भाग से भी सूक्ष्म है, अतएव दुर्ज्ञेय है। यह प्राणियों की चैतन्य शक्ति है। इसी की सहायता से साधक योगी के चित्त में ब्रह्म ज्ञान का उदय होता है। ध्यान में इसका आकार अर्धचन्द्र के समान तिरछा है। इस निर्वाण कला के भीतर निर्वाण शक्ति का निवास है। बिन्दु-स्वरूपा यह निर्वाण शक्ति जीव को सामरस्यावस्था से उत्पन्न परम प्रेम की धारा से सदा आप्यायित करती रहती है। इस निर्वाण शक्ति के मध्य में स्थित सूक्ष्म स्थान में निर्मल शिवपद, परब्रह्म का स्थान है। योगी ही इसका साक्षात्कार कर सकते हैं। यह पद नित्यानन्दमय है। इसी को ब्रह्मपद, वैष्णव परमपद, हंसपद और मोक्षपद भी कहते हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन

निर्वाण दीक्षा इस दीक्षा के द्वारा शिष्य के अंतस्तल में गुरु अपनी अनुग्रह शक्ति के द्वारा वास्तविक स्वरूप बोध की ज्योति को जगा देता है। इस दीक्षा को सूक्ष्मा दीक्षा भी कहा जाता। इसमें न तो बाह्य साधन अर्थात् मंत्र, मंडल, मुद्रा, द्रव्य आदि का ही उपयोग होता है और न ही प्राणायाम, प्रत्याहार आदि का अभ्यास ही करना पड़ता है। सयम दीक्षा (देखिए) के बाह्य आचार की भी यहाँ आवश्यकता नहीं रहती है। एक मात्र अनुग्रह ही यहाँ अपने प्रभाव से शुद्ध स्वरूप साक्षात्कार को जगा देता है। इस दीक्षा से साक्षात् शिवभाव की अभिव्यक्ति होती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


निर्विचारा समापत्ति सूक्ष्म विषय पर जो दो समापत्तियाँ होती हैं, उनमें निर्विचारा एक है। 1/44 व्यासभाष्य में निर्विचारा का स्वरूप इस प्रकार दिखाया गया है – अतीत, अनागत और वर्तमान इन त्रिविध धर्मों से अनवच्छिन्न (सीमित न होकर), सर्वधर्मों का अनुपाती, तथा सर्वप्रकार से युक्त जो समापत्ति होती है, वह निर्विचारा है। सविचारा समापत्ति में कुशलता होने पर ही निर्विचारा समापत्ति होती है। यह समापत्ति शब्दार्थज्ञान के विकल्प से शून्य है। इस समापत्ति का स्पष्टीकरण लौकिक प्रज्ञा से संभव नहीं है। ग्राह्य, ग्रहण और ग्रहीता – इन तीन पदार्थों में यथामय रूप से निर्विचारा समापत्ति हो सकती है। अव्यक्त प्रकृति को लेकर निर्विचारा समापत्ति नहीं होती, पर चित्त लीन होने पर इस लीनावस्था की अनुस्मृतिपूर्वक अव्यक्त-विषयक सविचारा समापत्ति हो सकती है – यह किसी-किसी व्याख्याकार का मत है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

निर्वितर्कासमापत्ति स्थूलविषय में जो दो प्रकार की समापत्तियाँ होती हैं, उनमें निर्वितर्का द्वितीय है, जो सवितर्का से सूक्ष्म है। योगसूत्र में (1/43) कहा गया है कि स्मृति की परिशुद्धि होने पर स्वरूपशून्य की तरह जो पदार्थमात्र-निर्भासक समापत्ति होती है, वह निर्वितर्का है। भाषाव्यवहार के कारण जो विकल्पवृत्ति होती है, उस वृत्ति से शून्य होना ही स्मृतिपरिशुद्धि है। योगी की ज्ञानशक्ति ध्येय विषय में जब इतनी अधिक निविष्ट हो जाती है कि ज्ञान अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को मानो खो देता है, तब वह स्थिति ‘स्वरूपशून्य की तरह’ (स्वरूपशून्या इव) हो जाती है। पदार्थमात्रनिर्भास कहने का तात्पर्य है – सभी प्रकार की काल्पनिक धारणा से सर्वथा शून्य। समापत्ति आदि इस प्रकार के विषय हैं कि लोकिक प्रज्ञा से उनका कुछ भी स्पष्टीकरण नहीं होता। यही कारण है कि निर्विचारा समापत्ति को व्यासभाष्य में यद्यपि निस्तार के साथ समझाया गया है, पर उससे कुछ भी स्पष्ट धारणा नहीं होती। इस समापत्ति के विषय में दो बातें विशेष रूप से ज्ञातव्य हैं – (1) स्थूलविषयक चरम सत्यज्ञान इस समापत्ति के द्वारा होता है; तथा (2) इसमें समाधिज तत्त्वज्ञान भाषाज्ञान की सहायता के बिना होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

निर्वृत्ति शक्ति देखिए आनंद शक्ति।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


निवृत्‍ति कला देखिए ‘कला’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

निवृत्ति कला तत्त्वों के सूक्ष्म रूपों को कला कहते हैं। एक एक कला कई एक तत्त्वों को व्याप्त कर लेती है। पृथ्वी तत्त्व को व्याप्त करने वाली कला को निवृत्ति कला कहते हैं। पृथ्वी तत्त्व तक पहुँचने पर ही परमेश्वर की तत्त्वों को विकास में लाने की प्रक्रिया निवृत्त होती है और इसके आगे किसी भी अन्य तत्त्व की सृष्टि नहीं होती है। (त.सा.पृ. 109)। निवृत्ति कला को पार्थिव अंड भी कहते हैं। (तं.सा.पृ. 110)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


निष्कल जप प्रणवांग अर्थात् ऊँ का परामर्श। जप (देखिए) चार प्रकार का होता है – निष्कल, हंस, पौद्गल तथा शाक्त। निष्कल को सर्वप्रथम एवं सर्वोत्कृष्ट जप माना गया है। यह न तो सशब्द होता है और न उपांशु। पूर्णतया मानस जप होने के ही कारण इसे निष्कल जप कहा जाता है। ऐसा होने के कारण ही इसकी अधिक महत्ता है। (शि.सू.वा.पृ. 68-9)

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


निष्कल लिंग देखिए ‘शून्य’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

निष्काम गति ब्रह्मानुभूति के अभाव में होने वाली जीव की शुभ गति निष्काम गति है। इसके दो भेद हैं – यम गति और सोम गति। दम्भरहित होकर गृह्य सूत्रों में प्रतिपादित स्मार्तकर्मों के अनुष्ठान से प्राप्त होने वाली गति यम गति है तथा श्रौत कर्मों के अनुष्ठान से प्राप्त होने वाली गति सोम गति है। ये दोनों ही निष्काम गति हैं और शुभ हैं। ब्रह्मानुभूति से होने वाली गति इससे भी उत्कृष्ट है और वह मुक्ति रूप है (अ.भा.पृ. 852)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

निष्‍ठा भक्‍ति देखिए ‘भक्‍ति’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

निष्‍ठावस्था अवस्था का एक प्रकार। पाशुपत योगी की साधना की पंचमावस्था निष्‍ठावस्था कहलाती है, जिसे सिद्‍धावस्था भी कहा गया है। जिस अवस्था में बाह्य साधना की सभी क्रियाएं पूर्ण रूपेण शांत हो चुकी हों, वह अंतिम अचल अवस्था निष्‍ठावस्था कहलाती है। (ग.का.टी.पृ. 8)। इस अवस्था में साधक को आत्मा का पूर्ण बोध होता है। अतः न ही कोई मल शेष रहता है और न ही किन्हीं उपायों की आवश्यकता रहती है।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

नृत्य पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।

पाशुपत संन्यासी को भगवान महेश्‍वर को प्रसन्‍न करने के लिए उसकी मूर्ति के सामने नृत्यशास्‍त्रानुसारी नृत्य करना होता है, अर्थात् हाथों पैरों व भिन्‍न – भिन्‍न अंगों का चालन व आकुञ्‍चन रूपी नृत्य गान के साथ-साथ करना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.13)। इस नृत्य को शैवधर्म की अनेकों शाखाओं में पूजा का एक विशेष अङ्ग माना जाता रहा है। अब भी दक्षिण में शिवमंदिरों में आरती के समय नृत्य किया जाता है। कालिदास ने भी महाकालनाथ के मंदिर में होने वाले नृत्य का उल्लेख किया है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

नेत्रत्रय भगवान् शिव को त्र्यम्बक कहा जाता है। इनके तीनों नेत्र सदा उन्मीलित रहते हैं, किन्तु जीव दशा में तृतीय नेत्र निमीलित हो जाता है। इसकी स्थिति भाल, अर्थात् भ्रूमध्य में मानी जाती है। क्रम दर्शन में इसको मूर्तिचक्र की संज्ञा दी गई है और दक्षिण तथा वाम नेत्रों को क्रमशः प्रकाशचक्र और आनन्दचक्र कहा जाता है। ये तीनों चक्र क्रमशः प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय भाव के प्रतीक हैं। मूर्तिचक्र में मूर्धना, मोह और समुच्छ्राय की स्थिति रहती है। यह मूर्ति अन्दर और बाहर अहन्ता और इदन्ता के रूप में स्फरित होती हैं जब अहन्ता का भाव प्रबल होता है, तो इदन्ता का भाव तिरोहित हो जाता है और जब इदन्ता का भाव प्रबल होता है, तो अहन्ता का भाव तिरोहित हो जाता है। ये दोनों ही स्थितियाँ मोह के अन्तर्गत आती हैं। इसी प्रक्रिया से प्रमाता अथवा वह्निस्वरूप का परम प्रकाशमय परभैरव की संवित्ति पर्यन्त उत्कर्ष तथा पाषाण प्रभृति जड़ संवित्ति पर्यन्त अपकर्ष, अपनी महती स्वातंत्र्य शक्ति के कारण ही होता है। यही स्वातंत्र्य शक्ति यहाँ मूर्तिचक्र शब्द से बोधित हुई है। दक्षिण नेत्र प्रकाशचक्र का प्रतीक है। प्रमेय पदार्थ को प्रकाशित करने वाला प्रमाण यहाँ प्रकाशचक्र के नाम से जाना जाता है। यह प्रमाण स्वरूप प्रकाशात्मक सूर्य द्वादशधा विभक्त है। बुद्धि के साथ कर्मन्द्रियाँ तथा मन के साथ बुद्धिन्द्रियाँ मिलकर इस विभाग को पूरा करती हैं। अहंकार की उक्त दोनों स्थतियो में अनुस्यूति रहती है। द्वादशधा विभक्त इस प्रमाण व्यापार से ही सारे प्रमेय प्रकाशित होते हैं। अतः यह प्रमाण व्यापार प्रकाशचक्र के नाम से अभिहित हुआ है।

  वामनेत्र आनन्दचक्र का प्रतीक है। स्वात्मस्वरूप परमेश्वर जब इदन्ता के रूप में स्फरित होता है, तो वह प्रमेय (विषय), अर्थात् भोग सामग्री के रूप में प्रकट होकर सर्वत्र आनन्द की सृष्टि करने लगता है। यह सोम (चन्द्रमा) का अंश है। शब्द, स्पर्श आदि सभी वैद्य विषयों का इसमें अन्तर्भाव होता है।
  इन्हीं तीन चक्रों से इच्छा, ज्ञान, क्रियात्मक शक्तियाँ, अग्नि, सूर्य, सोम नामक बिन्दु, भूः, भूवः, स्वः नामक व्याहृतियाँ, प्राण, अपान, उदान नामक वायु, पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग नामक स्थान; सत्त्व, रज, तम नामक गुण; इडा, पिंगला, सुषुम्ना नामक नाडिया; देवयान, पितृयान और महायान नामक यान; स्थूल, सूक्ष्म, पर नामक अवस्थाएँ; कुल, कौल, अकुल नामक विभाग; मन्त्र, मुद्रा, निरीहा नामक रहस्यों की ही नहीं, त्रित्व संख्या विशिष्ट समस्त पदार्थों की सृष्टि होती है (महार्थमंजरी, पृ. 87-89)। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

नेनहु यह कन्‍नड़ शब्द है। वीरशैव संत-साहित्य में इसका प्रयोग मिलता है। ‘नेनहु’ शब्द का अर्थ होता है ‘महासंकल्प’, अर्थात् इस विश्‍व की उत्पत्‍ति के पूर्व परशिव में ‘एकोടहं बहु स्यां प्रजायेय’ (मैं अकेला ही अनंतरूप में हो जाऊं) इस प्रकार के जिस ‘महासंकल्प’ का उदय होता है, उसे वीरशैव संतों ने ‘नेनहु’ कहा है। इस संकल्प से ही वह शिव स्वयं अनंतरूपों में हो जाता है। (तों.व.को. पृष्‍ठ 200) इस शब्द का एक दूसरे अर्थ में भी प्रयोग होता है। वह है साधक का चिंतन, अर्थात् निश्‍चल मन से साधक जब शिव का चिंतन करता है, तब उस चिंतन को भी ‘नेनहु’ कहा जाता है। किंतु प्रधानतया यह शब्द शिव के उक्‍त संकल्प के अर्थ में ही रूढ़ है (तों.व.को.पृ. 201)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

नैष्कर्म्य समस्त ऐहिक और आमुष्मिक उपाधियों से निरपेक्ष होकर भगवान् में ही अंतःकरण को लगा देना नैष्कर्म्य है। लौकिक फल की कामना आदि ऐहिक उपाधि है तथा स्वर्गादि की कामना आदि आमुष्मिक उपाधि है। इनसे रहित होकर भगवदनुरक्ति नैष्कर्म्य है (अ.भा.पृ. 1062, 1240)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

नैष्‍ठिक-भक्‍ति देखिए ‘भक्‍ति’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

न्यास तन्त्रशास्त्र में बताया गया है कि साधक स्वयं देवस्वरूप बनकर इष्टदेव की उपासना करे। एतदर्थ भूतशुद्धि, प्राणप्रतिष्ठा, शोष, दाह और आय्यायन विधि के ही समान विविध न्यासों का भी विधान है। देवता अथवा साधक के शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों में इष्ट मन्त्र स्थित वर्णों का न्यास किया जाता है। तन्त्र और पुराण वाङ्मय में अनेक प्रकार के न्यासों का विवरण मिलता है। वर्ण विन्यास की पद्धति में अंगन्यास और करन्यास प्रमुख हैं। षडंग न्यास के नाम से ये प्रसिद्ध है। व्यापक न्यास में सिर से पैर तक तथा पैर से सिर तक अपने सम्पूर्ण इष्ट मन्त्र का विन्यास किया जाता है। जीव न्यास की विधि से प्राणप्रतिष्ठा की जाती है। त्रिपुरा सम्प्रदाय में गणेश, ग्रह, नक्षत्र, योगिनी, राशि और पीठ- इन षौढा न्यासों का विधान है। अतर्मातृका और बहिर्मातृका न्यासों का भी यहाँ विस्तार से वर्णन मिलता है। इनके अतिरिक्त ऋष्यादि न्यास, सृष्ट्यादि न्यास मन्त्र, मूर्ति, दशांग, पंचाङ्ग, आयुघ, भूषण, श्रीकण्ठ, वशिनी प्रभृति न्यास भी विभिन्न प्रयोजनों के लिये उद्दिष्ट हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन