विक्षनरी:संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश/अ-अप
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- मूलशब्द—व्याकरण—संधिरहित मूलशब्द—व्युत्पत्ति—हिन्दी अर्थ
- अ—अव्य॰—-—अव्+ड—नागरी वर्णमाला का प्रथम अक्षर
- अः—पुं॰—-—अव्+ड—विष्णु, पवित्र, 'ओम्' को प्रकट करने वाले तीन ध्वनियों मे से पहली ध्वनि
- अः—पुं॰—-—अव्+ड—शिव, ब्रह्मा, वायु, या वैश्वानर
- अः—अव्य॰—-—अव्+ड—निषेधात्मक अव्यय
- 'न' के सामान्यतया छः अर्थ गिनाये गये हैं : - (क) सादृश्य = समानता या सरूपता यथा 'अब्राह्मणः' ब्राह्मण के समान जनेऊ आदि पहने हुए परन्तु ब्राह्मण न होकर्, क्षत्रिय वैश्य आदि। (ख) अभाव = अनुपस्थिति, निषेध, अभाव, अविद्यमानता यथा अज्ञानम् ज्ञान का न होना, इसी प्रकार, अक्रोधः, अनंगः, अकंटकः, अघटः आदि। (ग) भिन्नता = अन्तर या भेद यथा 'अपटः' कपड़ा नहीं, कपड़े से भिन्न या अन्य कोई वस्तु। (घ) अल्पता = लघुता, न्यूनता, अल्पार्थवाची अव्यय के रूप में प्र्युक्त होता है-यथा 'अनुदरा' पतली कमर वाली कृशोदरी या तनुमध्यमा । (च) अप्राशअत्य = बुराई, अयोग्यता तथा लघूकरण का अर्थ प्रकट करना - यथा 'अकालः' गलत या अनुपयुक्त समय; 'अकार्यम्' न करने य्प्ग्य, अनुचित, अयोग्य या बुरा काम। (छ) विरोध = विरोधी प्रतिक्रिया, वैपरीत्य यथा 'अनीतिः' नीति-विरुद्धता, अनैतिकता, 'असित' जो श्वेत न हो, काला। उपर्युक्त छः अर्थ निम्नांकित श्लोक में एकत्र संकलित हैं - तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता। अप्राशस्त्यं विरोधश्च नञर्थाः षट् प्रकीर्तिताः॥ दे॰ 'न' भी। कृदन्त शब्दों के सथ इसका अर्थ समान्यतः नहीं होता है यथा 'अदग्ध्वा' न जलाकर, 'अपश्यन्' न देखते हुए। इसी प्रकार 'असकृत्' एक बार नहीं। कभी-कभी 'अ' उत्तरपद के अर्थ को प्रभावित नहीं करता यथा 'अमूल्य', 'अनुत्तम', यथास्थान।
- अः—अव्य॰—-—अव्+ड—विस्मयादि द्योतक अव्यय
- अः—अव्य॰—-—अव्+ड—रूप रचना के समय धातु के पूर्व आगम
- अऋणिन्—वि॰—-—नास्ति ऋणं यस्य न॰ ब॰—जो कर्जदार न हो, ऋणमुक्त
- अंश्—चुरा॰ उभ॰ <अंशयति>, <अंशते>—-—-—बांटना, वितरण करना, आपस में हिस्सा बांटना,
- व्यंश्—चुरा॰ उभ॰ —वि-अंश्—-—बांटना
- व्यंश्—चुरा॰ उभ॰ —वि-अंश्—-—धोखा देना
- अंशः—पुं॰—-—अंश्+अच्—हिस्सा, भाग, टुकड़ा, अंशतः
- अंशः—पुं॰—-—अंश्+अच्—संपत्ति में हिस्सा, दाय
- अंशः—पुं॰—-—अंश्+अच्—भिन्न की संख्या, कभी-कभी भिन्न के लिए भी प्रयुक्त
- अंशः—पुं॰—-—अंश्+अच्—अक्षांश या रेखांश की कोटि
- अंशः—पुं॰—-—अंश्+अच्—कंधा
- अंशांशः—पुं॰—अंशः-अंशः—-—अंशावतार, हिस्से का हिस्सा
- अंशांशि—क्रि॰वि॰—अंशः-अंशि—-—हिस्सेदार
- अंशावतरणम्—नपुं॰—अंशः-अवतरणम्—-—पृथ्वी पर देवताओं के अंश को लेकर जन्म लेना, आंशिक अवतार
- अंशावतारः—पुं॰—अंशः-अवतारः—-—पृथ्वी पर देवताओं के अंश को लेकर जन्म लेना, आंशिक अवतार
- अंशभाज्—वि॰—अंश-भाज्—-—उत्तराधिकारी, सहदायभागी
- अंशहर—वि॰—अंश-हर—-—उत्तराधिकारी, सहदायभागी
- अंशहारी—वि॰—अंश-हारिन्—-—उत्तराधिकारी, सहदायभागी
- अंशसवर्णम्—नपुं॰—अंश-सवर्णम्—-—भिन्नों को एक समान हर में लाना
- अंशस्वरः—पुं॰—अंश-स्वरः—-—मुख्य स्वर, मूलस्वर
- अंशकः—पुं॰—-—अंश्+ण्वुल्, स्त्रियां <अंशिका>—हिस्सेदार, सहदायभागी, संबंधी
- अंशकः—पुं॰—-—अंश्+ण्वुल्, स्त्रियां <अंशिका>—हिस्सा, खण्ड, भाग
- अंशकम्—नपुं॰—-—अंश्+ण्वुल्—सौर दिवस
- अंशनम्—नपुं॰—-—अंश्+ल्युट्—बांटने की क्रिया
- अंशयितृ—वि॰—-—अंश्+णिच्+तृच्—विभाजक, बांटने वाला
- अंशल—वि॰—-—अंशं लाति - ला+क—साझीदार, हिस्सा पाने का अधिकारी
- अंशल—वि॰—-—अंश+ला+क—बलवान्, हृष्टपुष्ट, शक्तिशाली मजबूत कंधों वाला
- अंशिन्—वि॰—-—अंश्+इनि—हिस्सेदार, सहदायभागी
- अंशिन्—वि॰—-—अंश्+इनि—भागों वाला, साझीदार
- अंशुः—पुं॰—-—अंश्+कु—किरण, प्रकाशकिरण
- चण्डांशुः—पुं॰—चण्ड-अंशुः—-—गरम किरणों वाला, सूर्य, चमक, दमक
- धर्मांशुः—पुं॰—धर्म-अंशुः—-—गरम किरणों वाला, सूर्य, चमक, दमक
- अंशुः—पुं॰—-—अंश्+कु—बिन्दु या किनारा
- अंशुः—पुं॰—-—अंश्+कु—एक छोटा या सूक्ष्म कण
- अंशुः—पुं॰—-—अंश्+कु—धागे का छोर
- अंशुः—पुं॰—-—अंश्+कु—पोशाक, सजावट, परिधान
- अंशुः—पुं॰—-—अंश्+कु—गति
- अंशूदकम्—नपुं॰—अंशु-उदकम्—-—ओस का पानी
- अंशूजालम्—नपुं॰—अंशु-जालम्—-—रश्मिपुंज या प्रभामण्डल
- अंशुधरः—पुं॰—अंशु-धरः—-—सूर्य
- अंशुपतिः—पुं॰—अंशु-पतिः—-—सूर्य
- अंशुभृत्—पुं॰—अंशु-भृत्—-—सूर्य
- अंशुबाणः—पुं॰—अंशु-बाणः—-—सूर्य
- अंशुभर्तृ—पुं॰—अंशु-भर्तृ—-—सूर्य
- अंशुस्वामी—पुं॰—अंशु-स्वामिन्—-—सूर्य
- अंशुहस्तः—पुं॰—अंशु-हस्तः—-—सूर्य
- अंशुपट्ट्म्—नपुं॰—अंशु-पट्ट्म्—-—एक प्रकार का रेशमी कपड़ा
- अंशुमाला—स्त्री॰—अंशु-माला—-—प्रकाश की माला, प्रभामण्डल
- अंशुमाली—पुं॰—अंशु-मालिन्—-—सूर्य
- अंशुकम्—नपुं॰—-—अंशु+क - अंशवः सूत्राणि विषया यस्य—कपड़ा, सामान्यतः पोशाक
- अंशुकम्—नपुं॰—-—अंशु+क - अंशवः सूत्राणि विषया यस्य—महीन या सफेद कपड़ा
- अंशुकम्—नपुं॰—-—अंशु+क - अंशवः सूत्राणि विषया यस्य—ऊपर ओढ़ा जाने वाला वस्त्र, लबादा, अधोवस्त्र भी
- अंशुकम्—नपुं॰—-—अंशु+क - अंशवः सूत्राणि विषया यस्य—पत्ता
- अंशुकम्—नपुं॰—-—अंशु+क - अंशवः सूत्राणि विषया यस्य—प्रकाश की मन्द लौ
- अंशुमत्—वि॰—-—अंशु+मतुप्—प्रभायुक्त, चमकदार
- अंशुमत्—वि॰—-—अंशु+मतुप्—नोकदार
- अंशुमान्—पुं॰—-—अंशु+मतुप्—सूर्य
- अंशुमान्—पुं॰—-—अंशु+मतुप्—सगर का पौत्र, दिलीप का पिता और असमंजस का पुत्र
- अंशुमत्फला—स्त्री॰—-—-—केले का पौधा
- अंशुल—वि॰—-—अंशुं प्रभां प्रतिभां वा लाति-ला+क—चमकदार, प्रभायुक्त
- अंशुलः—पुं॰—-—अंशु+ला+क—चाणक्य मुनि
- अंस्—चु॰ पर॰ <अंसयति>,<अंसापयति>—-—-—बांटना, वितरण करना, आपस में हिस्सा बांटना,
- अंसः—पुं॰—-—अंस्+अच्—भाग, खंड
- अंसः—पुं॰—-—अंस्+अच्—कंधा, अंसफलक, कंधे की हड्डी
- अंसकूटः—पुं॰—अंसः-कूटः—-—बैल या साँड का डिल्ल अथवा कुब्ब, कंघों के बीच का उभार
- अंसत्रम्—नपुं॰—अंसः-त्रम्—-—कंधों की रक्षा के लिए कवच
- अंसत्रम्—नपुं॰—अंसः-त्रम्—-—धनुष
- अंसफलकः—पुं॰—अंसः-फलकः—-—रीढ़ का ऊपरी भाग
- अंसभारः—पुं॰—अंसः-भारः—-—कंधे पर रखा गया भार या जूआ
- अंसभारिक—वि॰—अंसः-भारिक—-—कंधे पर जूआ या भार ढोने वाला
- अंसभारि्न्—वि॰—अंसः-भारि्न्—-—कंधे पर जूआ या भार ढोने वाला
- अंसविवर्तिन्—वि॰—अंसः-विवर्तिन्—-—कंधों की ओर मुड़ा हुआ
- अंसल—वि॰—-—अंस्+लच्—बलवान्, हृष्टपुष्ट, शक्तिशाली मजबूत कंधों वाला
- अंह्—भ्वा॰ आ॰ <अंहते>, <अंहितुं>, <अंहित>—-—-—जाना, समीप जाना, प्रयाण करना, आरम्भ करना
- अंह्—भ्वा॰ आ॰ <अंहते>, <अंहितुं>, <अंहित>—-—-—भेजना
- अंह्—भ्वा॰ आ॰ <अंहते>, <अंहितुं>, <अंहित>—-—-—चमकना
- अंह्—भ्वा॰ आ॰ <अंहते>, <अंहितुं>, <अंहित>—-—-—बोलना
- अंहतिः—स्त्री॰—-—हन्+अति-अंहादेशश्च—भेंट, उपहार
- अंहतिः—स्त्री॰—-—हन्+अति-अंहादेशश्च—व्याकुलता, कष्ट, चिन्ता, दुःख, बीमारी
- अंहती—स्त्री॰—-—हन्+अति-अंहादेशश्च—भेंट, उपहार
- अंहती—स्त्री॰—-—हन्+अति-अंहादेशश्च—व्याकुलता, कष्ट, चिन्ता, दुःख, बीमारी
- अंहस्—नपुं॰—-—अंहः- हसी आदि, अम्+असुन् हुक् च—पाप
- अंहस्—नपुं॰—-—अंहः- हसी आदि, अम्+असुन् हुक् च—व्याकुलता, कष्ट, चिन्ता
- अंहितिः—स्त्री॰—-—अंह्+क्तिन् ग्रहादित्वात् इट्—उपहार, दान
- अंहिती—स्त्री॰—-—अंह्+क्तिन् ग्रहादित्वात् इट्—उपहार, दान
- अंह्रिः—पुं॰—-—अंह्+क्रिन्-अंहति गच्छत्यनेन—पैर
- अंह्रिः—पुं॰—-—अंह्+क्रिन्-अंहति गच्छत्यनेन—पेड़ की जड़
- अंह्रिः—पुं॰—-—अंह्+क्रिन्-अंहति गच्छत्यनेन—चार की संख्या
- अंह्रिपः—पुं॰—अंह्रिः-पः—-—जड़् से पीने वाला, वृक्ष
- अंह्रिस्कन्धः—पुं॰—अंह्रिः-स्कन्धः—-—पैर के तलवे का ऊपरी हिस्सा
- अक्—भ्वा॰ पर॰ <अकति>, <अकित>—-—-—जाना, सांप की तरह टेढ़ा-मेढ़ा चलना
- अकम्—नपुं॰—-—न कम्-सुखम्—सुख का अभाव, पीड़ा, विपत्ति, पाप
- अकच्—वि॰,न॰ ब॰—-—-—गंजा
- अकचः—पुं॰—-—-—केतु
- अकनिष्ठ—वि॰,न॰ त॰—-—न अकनिष्ठ—जो सबसे छोटा न हो, बड़ा, श्रेष्ठ
- अकनिष्ठः—पुं॰—-—न अकनिष्ठः—गौतम बुद्ध
- अकन्या—स्त्री॰,न॰त॰—-—-—जो कुमारी न हो, जो अब कुमारी न रही हो
- अकर—वि॰,न॰ ब॰—-—-—लूला, अपाहिज
- अकर—वि॰,न॰ ब॰—-—-—कर या चुंगी से मुक्त
- अकर—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अक्रिय, निकम्मा, अकर्मण्य
- अकरणम्—नपुं॰—-—कृ भावे ल्युट् —अक्रिया, कार्य का अभाव
- अकरणिः—स्त्री॰—-—नञ्+कृ+अनिः—असफलता, निराशा, अप्राप्ति, अधिकांशतः कोसने या शाप देने में प्रयुक्त
- अकर्ण—वि॰,न॰ ब॰—-—-—जिसके कान न हों, बहरा
- अकर्ण—वि॰न॰ ब॰—-—-—कर्णरहित
- अकर्णः—पुं॰—-—-—साँप
- अकर्तन—वि॰—-—नञ्+कृत्+ल्युट् न॰ ब॰—ठिंगना
- अकर्मन्—वि॰,न॰ ब॰—-—-—निष्क्रिय, आलसी, निकम्मा
- अकर्मन्—वि॰,न॰ ब॰—-—-—दुष्ट, पतित
- अकर्मन्—व्या॰—-—-—अकर्मक
- अकर्म—नपुं॰—-—-—कार्य का अभाव
- अकर्म—नपुं॰—-—-—अनुचित कार्य, दोष, पाप
- अकर्मान्वित—वि॰—अकर्मन्-अन्वित—-—जिसके पास काम न हो, खाली, निठल्ला
- अकर्मान्वित—वि॰—अकर्मन्-अन्वित—-—अपराधी
- अकर्मकृत्—वि॰—अकर्मन्-कृत्—-—कर्म से मुक्त या अनुचित कार्य करनेवाला
- अकर्मभोगः—पुं॰—अकर्मन्-भोगः—-—कर्मफल भोगने से मुक्ति का अनुभव
- अकर्मक—वि॰—-—नास्ति कर्म यस्य, ब॰कप्—वह क्रिया जिसका कर्म न हो
- अकल—वि॰—-—नास्ति कला अवयवो यस्य, न॰ ब॰ —अखंड, भागरहित, परब्रह्म की उपाधि
- अकल्क—वि॰,न॰ ब॰—-—-—तलछट रहित, शुद्ध
- अकल्का—स्त्री॰—-—-—निष्पाप चाँदनी, चन्द्रमा का प्रकाश
- अकल्प—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अनियंत्रित, जिस पर कोई नियंत्रण न हो
- अकल्प—वि॰,न॰ ब॰—-—-—दुर्बल, अयोग्य
- अकल्प—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अतुलनीय
- अकस्मात्—अव्य॰,न॰ त॰—-—न कस्मात् —अचानक, एकाएक, सहसा आकस्मिक रूप से, अकारण, बिना किसी कारण के, व्यर्थ ही
- अकाण्ड—वि॰,न॰ ब॰—-—-—आकस्मिक, अप्रत्याशित
- अकाण्ड—वि॰,न॰ ब॰—-—-—जिसमें तना या डाली न हो
- अकाण्डजात—वि॰—अकाण्ड-जात—-—सहसा उत्पन्न या उत्पादित
- अकाण्डताण्डवम्—नपुं॰—अकाण्ड-ताण्डवम्—-—क्रोध पांडित्य का अप्रासंगिक प्रदर्शन
- अकाण्डपातः—पुं॰—अकाण्ड-पातः—-—आकस्मिक घटना
- अकाण्डपातजात—वि॰—अकाण्ड-पातजात—-—जन्म होते ही मर जाने वाला
- अकाण्डशूलम्—नपुं॰—अकाण्ड-शूलम्—-—अचानक गुर्दे का दर्द
- अकाण्डे—क्रि॰ वि॰—-—-—अप्रत्याशित रूप से, एकाएक, सहसा
- अकाम—वि॰,न॰ ब॰—-—-—इच्छा, राग या प्रेम से मुक्त
- अकाम—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अनिच्छुक, अनभिलाषी
- अकाम—वि॰,न॰ ब॰—-—-—प्रेम से अप्रभावित, प्रेम की अधीनता से मुक्त
- अकाम—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अचेतन, अनभिप्रेत
- अकामतः—क्रि॰ वि॰—-—अकाम-तसिल्—अनिच्छापूर्वक, बेमन से, बिना इरादे के, अनजानपन में
- अकाय—वि॰,न॰ ब॰—-—-—शरीररहित, अशरीरी
- अकाय—वि॰,न॰ ब॰—-—-—राहु की एक उपाधि
- अकाय—वि॰,न॰ ब॰—-—-—परब्रह्म की उपाधि
- अकारण—वि॰,न॰ ब॰—-—-—कारणरहित, निराधार, स्वतः-स्फूर्त
- अकारणम्—नपुं॰—-—-—कारण प्रयोजन या आधार का अभाव
- अकारणम्—कृ॰ वि॰—-—-—बिना कारण के, संयोगवश, व्यर्थ
- अकारणात्—कृ॰ वि॰—-—-—बिना कारण के, संयोगवश, व्यर्थ
- अकारणे—कृ॰ वि॰—-—-—बिना कारण के, संयोगवश, व्यर्थ
- अकार्य—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अनुपयुक्त
- अकार्यम्—नपुं॰—-—-—अनुचित या बुरा काम, अपराधपूर्ण कार्य
- अकार्यकारिन्—वि॰—अकार्य-कारिन्—-—बुरा काम करने वाला, जो बुरा काम करे, कर्त्तव्य विमुख
- अकाल—वि॰,न॰ ब॰—-—-—असामयिक, प्राक्कालिक
- अकालः—पुं॰—-—-—गलत समय, अशुभ या कुसमय, अनुपयुक्त समय
- अकालकुसुमम्—नपुं॰—अकालः-कुसुमम्—-—असमय पर खिलने वाला फूल
- अकालपुष्पम्—नपुं॰—अकालः-पुष्पम्—-—असमय पर खिलने वाला फूल
- अकालकूष्माण्डः—पुं॰—अकालः-कूष्माण्डः—-—बिना ऋतु के उपजा हुआ कुम्हड़ा, ब्यर्थ जन्म
- अकालज—वि॰—अकालः-ज—-—बिना ऋतु के उपजा हुआ, प्राक्कालिक
- अकालोत्पन्न—वि॰—अकालः-उत्पन्न—-—बिना ऋतु के उपजा हुआ, प्राक्कालिक
- अकालजात—वि॰—अकालः-जात—-—बिना ऋतु के उपजा हुआ, प्राक्कालिक
- अकालजलदोदयः—पुं॰—अकालः-जलदोदयः—-—असमय में बादलों का इकठ्ठा होना
- अकालजलदोदयः—पुं॰—अकालः-जलदोदयः—-—कुहरा, धुंध
- अकालमेघोदयः—पुं॰—अकालः-मेघोदयः—-—असमय में बादलों का इकठ्ठा होना
- अकालमेघोदयः—पुं॰—अकालः-मेघोदयः—-—कुहरा, धुंध
- अकालवेला—स्त्री॰—अकालः-वेला—-—ऋतु के विपरीत या अनुपयुक्त समय
- अकालसह—वि॰—अकालः-सह—-—समय की हानि या देरी को सहन न करने वाला, अधीर
- अकालसह—वि॰—अकालः-सह—-—गढ़ की भाँति दृढ़ता के साथ अधिक समय तक न टिकने वाला
- अकिञ्चन—वि॰—-—नास्ति किंचन यस्य न॰ ब॰—जिसके पास कुछ भी न हो, बिल्कुल गरीब, नितांत निर्धन
- अकिञ्चिज्ज्ञ—वि॰—-—अकिंचित्+ज्ञा+क—कुछ न जानने वाला, निपट अज्ञानी
- अकिञ्चित्कर—वि॰,उप॰ स॰—-—-—अर्थहीन
- अकिञ्चित्कर—वि॰—-—-—भोला, सीधा
- अकुण्ठ—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो ठंठा न हो, जिसकी गति अबाध हो
- अकुण्ठ—वि॰,न॰ त॰—-—-—प्रबल, काम करने योग्य
- अकुण्ठ—वि॰,न॰ त॰—-—-—स्थिर
- अकुण्ठ—वि॰,न॰ त॰—-—-—अत्यधिक
- अकुतः—क्रि॰ वि॰—-—-—कहीं से नहीं
- अकुतचलः—पुं॰—अकुतः-चलः—-—शिव का नाम
- अकुतभय—वि॰—अकुतः-भय—-—सुरक्षित, जिसे कहीं से भी भय न हो
- अकुप्यम्—नपुं॰—-—-—बिना खोट की धातु, सोना चाँदी
- अकुप्यम्—नपुं॰—-—-—कोई भी खोट की धातु
- अकुशल—वि॰,न॰ त॰—-—-—अशुभ, दुर्भाग्यग्रस्त
- अकुशल—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो चतुर या होशियार न हो
- अकुशलम्—नपुं॰—-—-—अमंगल, दुर्भाग्य
- अकूपारः—पुं॰—-—नञ्+कूप+ऋ+अण्—समुद्र
- अकूपारः—पुं॰—-—नञ्+कूप+ऋ+अण्—सूर्य
- अकूपारः—पुं॰—-—नञ्+कूप+ऋ+अण्—कछुआ
- अकूपारः—पुं॰—-—नञ्+कूप+ऋ+अण्—कछुओं का राजा जिस पर पृथ्वी का भार है
- अकूपारः—पुं॰—-—नञ्+कूप+ऋ+अण्—पत्थर या चट्टान
- अकृच्छ्र—वि॰,न॰ ब॰—-—-—कठिनाई से मुक्त
- अकृच्छ्र्म्—नपुं॰—-—-—कठिनाई का अभाव, सरलता, सुविधा
- अकृत—वि॰—-—नञ्+कृ+क्त—जो किया न गया हो
- अकृत—वि॰—-—नञ्+कृ+क्त—गलत या भिन्न तरीके से किया गया
- अकृत—वि॰—-—नञ्+कृ+क्त—अधूरा, जो तैयार न हो
- अकृत—वि॰—-—नञ्+कृ+क्त—अनिर्मित
- अकृत—वि॰—-—नञ्+कृ+क्त—जिसने कोई काम न किया हो
- अकृत—वि॰—-—नञ्+कृ+क्त—अपक्व, कच्चा
- अकृता—स्त्री॰—-—-—जो बेटी होने पर भी बेटी न मानी जाकर पुत्रों के समकक्ष समझी जाय
- अकृतम्—नपुं॰—-—-—कार्य जो किया न गया हो, काम का न किया जाना, जो काम कभी सुना न गया हो
- अकृतार्थ—वि॰—अकृत-अर्थ—-—असफल
- अकृतास्त्र—वि॰—अकृत-अस्त्र—-—जिसे हथियार चलाने का अभ्यास न हो
- अकृतात्मन्—वि॰—अकृत-आत्मन्—-—अज्ञानी, मूर्ख, असंतुलित मस्तिष्क का
- अकृतात्मन्—वि॰—अकृत-आत्मन्—-—परब्रह्म या ब्रह्मा के स्वरूप से भिन्न
- अकृतोद्वाह—वि॰—अकृत-उद्वाह—-—अविवाहित
- अकृतैनस्—वि॰—अकृत-एनस्—-—अनपराधी
- अकृतज्ञ—वि॰—अकृत-ज्ञ—-—कृतघ्न
- अकृतधी—वि॰—अकृत-धी—-—अज्ञानी
- अकृतबुद्धि—वि॰—अकृत-बुद्धि—-—अज्ञानी
- अकृष्ट—वि॰—-—नञ्+कृष्+क्त—जो जोता न गया हो
- अकृष्टपच्य—वि॰—अकृष्ट-पच्य—-—बिना जुते खेत में बढ़ने वाला या पकने वाला, बहुतायत से बढ़ने वाला
- अकृष्टरोहिन्—वि॰—अकृष्ट-रोहिन्—-—बिना जुते खेत में बढ़ने वाला या पकने वाला, बहुतायत से बढ़ने वाला
- अक्का—स्त्री॰—-—अक्+कन्+टाप्—माता, माँ
- अक्त—वि॰—-—अक्+क्त—सना हुआ, अभिषिक्त
- अक्ता—स्त्री॰—-—अक्+क्त+टाप्—रात
- अक्त्रम्—नपुं॰—-—अञ्च्+क्त्र्—कवच
- अक्रम—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति क्रमो यस्य—अव्यवस्थित
- अक्रमः—न॰ त॰—-—न क्रमः —क्रम या व्यवस्था का अभाव, गड़बड़ी, अनियमितता
- अक्रमः—न॰ त॰—-—न क्रमः—औचित्य का उल्लंघन
- अक्रिय—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति क्रिया यस्य—क्रिया शून्य, सुस्त
- अक्रिया—न॰ त॰—-—नास्ति क्रिया यस्य—क्रियाशून्यता, कर्त्तव्य की उपेक्षा
- अक्रूर—वि॰, न॰ त॰—-—न क्रूरः—जो निर्दय न हो
- अक्रूरः—पुं॰—-—न+क्रूर+सु—एक यादव जो कृष्ण का मित्र और चाचा था
- अक्रोध—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति क्रोधो यस्य—क्रोध रहित
- अक्रोधः—न॰ त॰—-—न क्रोधः—क्रोध का अभाव या उसका दमन
- अक्लिष्ट—वि॰—-—नञ्+क्लिश्+क्त—न थका हुआ, क्लेश रहित, अनथक
- अक्लिष्ट—वि॰—-—नञ्+क्लिश्+क्त—जो बिगड़ा न हो, अविकल
- अक्ष्—भ्वा॰ स्वा॰ पर॰ अक॰ सेट्<अक्षति>, <अक्ष्णोति>, <अक्षित>—-—-—पहुँचना
- अक्ष्—भ्वा॰ स्वा॰ पर॰ अक॰ सेट्<अक्षति>, <अक्ष्णोति>, <अक्षित>—-—-—व्याप्त होना, पैठना
- अक्ष्—भ्वा॰ स्वा॰ पर॰ अक॰ सेट्<अक्षति>, <अक्ष्णोति>, <अक्षित>—-—-—संचित होना
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—धुरी, धुरा
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—गाड़ी के बीच में लगा लकड़ी का वह भाग जिसमें लोदे या लकड़ी की वह छड़ फंसाई हुई होती है जिस पर पहिया चलता है
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—गाड़ी, छकड़ा, पहिया
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—तराजू की डंडी
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—भौमिक अक्षांश
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—चौसर, चौसर का पासा
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—रुद्राक्ष
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—कर्ष नामक १६ माशे की एक तोल
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—बहेड़े का पौधा
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—साँप
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—गरुड़
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—आत्मा
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—ज्ञान
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—कानूनी कार्य विधि, मुकदमा
- अक्षः—पुं॰—-—अक्ष्+अच्, अश्+सः वा—जन्मांध
- अक्षम्—नपुं॰—-—अक्ष्+अच्—इन्द्रिय, इन्द्रिय-विषय
- अक्षम्—नपुं॰—-—अक्ष्+अच्—सामुद्रिक लवण
- अक्षम्—नपुं॰—-—अक्ष्+अच्—नीला थोथा
- अक्षाग्रकील—नपुं॰—अक्षः-अग्रकील—-—धुरे की कील
- अक्षाग्रकीलकः—पुं॰—अक्षः-अग्रकीलकः—-—धुरे की कील
- अक्षावपनम्—नपुं॰—अक्षः-आवपनम्—-—चौसर का तख्ता
- अक्षावपः—पुं॰—अक्षः-आवपः—-—जुआरी
- अक्षकर्णः—पुं॰—अक्षः-कर्णः—-—सम त्रिकोण में सामने की रेखा
- अक्षकुशल—वि॰—अक्षः-कुशल—-—जुआ खेलने में निपुण
- अक्षशौण्ड—वि॰—अक्षः-शौण्ड—-—जुआ खेलने में निपुण
- अक्षकूटः—पुं॰—अक्षः-कूटः—-—आंख की पुतली
- अक्षकोविद—वि॰—अक्षः-कोविद—-—चौसर खेलने में कुशल
- अक्षज्ञ—वि॰—अक्षः-ज्ञ—-—चौसर खेलने में कुशल
- अक्षग्लहः—पुं॰—अक्षः-ग्लहः—-—जुआ खेलना, चौसर खेलना
- अक्षजम्—नपुं॰—अक्षः-जम्—-—प्रत्यक्ष ज्ञान, संज्ञान
- अक्षजम्—नपुं॰—अक्षः-जम्—-—वज्र
- अक्षजम्—नपुं॰—अक्षः-जम्—-—हीरा
- अक्षजः—पुं॰—अक्षः-जः—-—विष्णु
- अक्षतत्त्वम्—नपुं॰—अक्षः-तत्त्वम्—-—जुआ खेलने की कला या विद्या
- अक्षविद्या—स्त्री॰—अक्षः-विद्या—-—जुआ खेलने की कला या विद्या
- अक्षदर्शकः—पुं॰—अक्षः-दर्शकः—-—न्यायाधीश
- अक्षदर्शकः—पुं॰—अक्षः-दर्शकः—-—जुए का अधीक्षक
- अक्षदृश्—पुं॰—अक्षः-दृश्—-—न्यायाधीश
- अक्षदृश्—पुं॰—अक्षः-दृश्—-—जुए का अधीक्षक
- अक्षदेवी—पुं॰—अक्षः-देविन्—-—जुआरी, जुएबाज
- अक्षद्यूतम्—नपुं॰—अक्षः-द्यूतम्—-—चौसर का खेल, जुआ
- अक्षधूर्तः—पुं॰—अक्षः-धूर्तः—-—जुएबाज, जुआरी
- अक्षधूर्तिलः—पुं॰—अक्षः-धूर्तिलः—-—गाड़ी में जुता हुआ बैल या सांड
- अक्षपटलम्—नपुं॰—अक्षः-पटलम्—-—न्यायालय
- अक्षपटलम्—नपुं॰—अक्षः-पटलम्—-—कानूनी दस्तावेजों के रखने का स्थान
- अक्षपाटकः—पुं॰—अक्षः-पाटकः—-—कानून का पंडित, न्यायाधीश
- अक्षपातः—पुं॰—अक्षः-पातः—-—पासा फेंकना
- अक्षपादः—पुं॰—अक्षः-पादः—-—गौतम ऋषि, न्यायदर्शन के प्रवर्तक या उशके अनुयायी
- अक्षभागः—पुं॰—अक्षः-भागः—-—अक्षरेखा, अक्षांश
- अक्षांशः—पुं॰—अक्षः-अंशः—-—अक्षरेखा, अक्षांश
- अक्षभारः—पुं॰—अक्षः-भारः—-—गाड़ीभर बोझ
- अक्षमाला—स्त्री॰—अक्षः-माला—-—रुद्राक्षमाला, हार
- अक्षसूत्रम्—नपुं॰—अक्षः-सूत्रम्—-—रुद्राक्षमाला, हार
- अक्षराजः—पुं॰—अक्षः-राजः—-—जुए का व्यसनी, पासों का प्रधान, कलि नामक पासा
- अक्षवाटः—पुं॰—अक्षः-वाटः—-—जुआ-खाना, जुए की मेज
- अक्षह्रदयम्—नपुं॰—अक्षः-ह्रदयम्—-— जुए में पूर्ण दक्षता या निपुणता
- अक्षणिक—वि॰,न॰ त॰—-—-—स्थिर, दृढ़, जो चंचल न हो, जो थोड़ी देर रहने वाला न हो दृढ़तापूर्वक जमा हुआ
- अक्षत—वि॰, न॰ त॰—-—नञ्+क्षण्+क्त—जिसे चोट न लगी हो
- अक्षत—वि॰,न॰ त॰—-—नञ्+क्षण्+क्त —जो टूटा न हो, सम्पूर्ण, अविभक्त
- अक्षतः—पुं॰—-—नञ्+क्षण्+क्त —शिव
- अक्षतः—पुं॰—-—नञ्+क्षण्+क्त —कूट-फटक कर धूप में सूखाए गए चावल
- अक्षताः—ब॰व॰—-—नञ्+क्षण्+क्त —अनटूटा अनाज, सब प्रकार के धार्मिक उत्सवों में काम आने वाले पिछोड़े, कूटे तथा जल से धोए हुए चावल
- अक्षताः—ब॰व॰—-—नञ्+क्षण्+क्त —जौ, यव
- अक्षतम्—नपुं॰—-—नञ्+क्षण्+क्त —धान्य, किसी भी प्रकार का अनाज
- अक्षतम्—नपुं॰—-—नञ्+क्षण्+क्त —हिजड़ा
- अक्षता—स्त्री॰—-—नञ्+क्षण्+क्त +टाप्—कुमारी कन्या
- अक्षतयोनिः—स्त्री॰—अक्षत-योनिः—-—बह कन्या जिसके साथ संभोग न किया गया हो
- अक्षम—वि॰,न॰ त॰—-—-—अयोग्य, असमर्थ, असहिष्णु, अधीर
- अक्षमा—स्त्री॰—-—-—अधैर्य, ईर्ष्या
- अक्षमा—स्त्री॰—-—-—क्रोध, आवेश
- अक्षय—वि॰,न॰ ब॰—-—-—जिसका नाश न हो, अनश्वर,अचूक
- अक्षयतृतीया—स्त्री॰—अक्षय-तृतीया—-—वैशाख मास के शुक्लपक्ष की तीज
- अक्षय्य—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो क्षय न हो सके,अविनाशी
- अक्षर—वि॰,न॰ त॰—-—-—अविनाशी, अनश्वर
- अक्षर—वि॰,न॰ त॰—-—-—स्थिर, दृढ़
- अक्षरः—पुं॰—-—-—शिव
- अक्षरः—पुं॰—-—-—विष्णु
- अक्षरम्—नपुं॰—-—-—वर्णमाला का एक अक्षर,त्र्यक्षर आदि
- अक्षरम्—नपुं॰—-—-—कोई एक ध्वनि
- अक्षरम्—नपुं॰—-—-—एक या अनेक वर्ण, समष्टि रूप से भाषा
- अक्षरम्—नपुं॰—-—-—दस्तावेज, लिखावट
- अक्षरम्—नपुं॰—-—-—अविनाशी, आत्मा, ब्रह्म
- अक्षरम्—नपुं॰—-—-—पानी
- अक्षरम्—नपुं॰—-—-—आकाश
- अक्षरम्—नपुं॰—-—-—परमानन्द, मोक्ष
- अक्षरार्थ—पुं॰—अक्षर-अर्थ—-—शब्दों का अर्थ
- अक्षरचम्—नपुं॰—अक्षर-चम्—-—लिपिक, लेखक, नकलनवीस
- अक्षरचुम्—नपुं॰—अक्षर-चुम्—-—लिपिक, लेखक, नकलनवीस
- अक्षरचुः—पुं॰—अक्षर-चुः—-—लिपिक, लेखक, नकलनवीस
- अक्षरचणः—पुं॰—अक्षर-चणः—-—लिपिक, लेखक, नकलनवीस
- अक्षरचनः—पुं॰—अक्षर-चनः—-—लिपिक, लेखक, नकलनवीस
- अक्षरजीवकः—पुं॰—अक्षर-जीवकः—-—पेशेवर लेखक
- अक्षरजीवी—पुं॰—अक्षर-जीवी—-—पेशेवर लेखक
- अक्षरजीविकः—पुं॰—अक्षर-जीविकः—-—पेशेवर लेखक
- अक्षरच्युतकम्—नपुं॰—अक्षर-च्युतकम्—-—किसी अक्षर के लुप्त होने के कारण दूसरा ही अर्थ निकलना
- अक्षरछन्दस्—नपुं॰—अक्षरछन्दस्—-—वर्णों की संख्या से बद्ध छंद या वृत्त
- अक्षरवृत्तम्—नपुं॰—अक्षर-वृत्तम्—-—वर्णों की संख्या से बद्ध छंद या वृत्त
- अक्षरजननी—स्त्री॰—अक्षर-जननी—-—सरकंडा या कलम
- अक्षरतूलिका—स्त्री॰—अक्षर-तूलिका—-—सरकंडा या कलम
- अक्षरन्यास—पुं॰—अक्षर-न्यास—-—लिखना, वर्णक्रम
- अक्षरन्यास—पुं॰—अक्षर-न्यास—-—वर्णमाला
- अक्षरन्यास—पुं॰—अक्षर-न्यास—-—वेद
- अक्षरविन्यास—पुं॰—अक्षर-विन्यास—-—लिखना, वर्णक्रम
- अक्षरविन्यास—पुं॰—अक्षर-विन्यास—-—वर्णमाला
- अक्षरविन्यास—पुं॰—अक्षर-विन्यास—-—वेद
- अक्षरभूमिका—स्त्री॰—अक्षर-भूमिका—-—तख्ती
- अक्षरमुखः—पुं॰—अक्षर-मुखः—-—विद्वान विद्यार्थी
- अक्षरवर्जित—वि॰—अक्षर-वर्जित—-—अशिक्षित, बिना पढ़ा-लिखा
- अक्षरशिक्षा—स्त्री॰—अक्षर-शिक्षा—-—गुह्य अक्षरों की विद्या
- अक्षरसंस्थानम्—नपुं॰—अक्षर-संस्थानम्—-—वर्णविन्यास, लिखना, वर्णमाला
- अक्षरकम्—नपुं॰—-—अक्षर+स्वार्थे कन्—स्वर, अक्षर
- अक्षरशः—पुं॰—-—अक्षर+शस्—एक-एक अक्षर करके
- अक्षरशः—पुं॰—-—अक्षर+शस्—शब्दशः, शब्द शब्द करके
- अक्षवती—स्त्री॰—-—अक्ष+मतुप्+ङीप्—खेल, पासे द्वारा खेल, जुए का खेल
- अक्षान्तिः—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—अहिष्णुता, स्पर्धा,ईर्ष्या
- अक्षार—वि॰,न॰ ब॰—-—-—कृत्रिम लवणरहित
- अक्षारः—पुं॰—-—-—प्राकृतिक लवण
- अक्षि—नपुं॰—-—अश्नुते विषयान् - अश्+क्सि—आँख
- अक्षि—नपुं॰—-—अश्नुते विषयान् - अश्+क्सि—दो की संख्या
- अक्षिकम्पः—पुं॰—अक्षि-कम्पः—-—झपकी
- अक्षिकूटः—पुं॰—अक्षि-कूटः—-—आँख का डेला, आँख की पुतली
- अक्षिकूटकः—पुं॰—अक्षि-कूटकः—-—आँख का डेला, आँख की पुतली
- अक्षिगोलः—पुं॰—अक्षि-गोलः—-—आँख का डेला, आँख की पुतली
- अक्षितारा—स्त्री॰—अक्षि-तारा—-—आँख का डेला, आँख की पुतली
- अक्षिगत—वि॰—अक्षि-गत—-—दृश्यमान, उपस्थित
- अक्षिगत—वि॰—अक्षि-गत—-—आँख में रड़कने वाला, आँख का काँटा, घृणित
- अक्षिपक्ष्मन्—नपुं॰—अक्षि-पक्ष्मन्—-—पलक
- अक्षिलोमन्—नपुं॰—अक्षि-लोमन्—-—पलक
- अक्षिपटलम्—नपुं॰—अक्षि-पटलम्—-—आँख की झिल्ली
- अक्षिपटलम्—नपुं॰—अक्षि-पटलम्—-—झिल्ली से संबंधित आँख का रोग
- अक्षिविकूणितम्—नपुं॰—अक्षि-विकूणितम्—-—तिरछी नजर, अधखुली आँखों से देखना
- अक्षिविकूशितम्—नपुं॰—अक्षि-विकूशितम्—-—तिरछी नजर, अधखुली आँखों से देखना
- अक्षुण्ण—वि॰,न॰ त॰—-—-—न टूटा हुआ, अखण्ड
- अक्षुण्ण—वि॰,न॰ त॰—-—-—अविजित, सफल
- अक्षुण्ण—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो कूटा पीटा न गया हो, असाधारण
- अक्षेत्र—वि॰,न॰ ब॰—-—-—खेतों से रहित, बिना जुता हुआ
- अक्षेत्रम्—नपुं॰—-—-—खराब खेत
- अक्षेत्रम्—नपुं॰—-—-—बुरा विद्यार्थी, कुपात्र
- अक्षेत्रवाद—वि॰—अक्षेत्र-वाद—-—आत्मज्ञान से विरहित
- अक्षोटः—पुं॰—-—अक्ष्+ओट—अखरोट
- अक्षोभ्यः—वि॰,न॰ त॰—-—-—स्थिर, धीर
- अक्षौहिणी—स्त्री॰—-—अक्षाणां रथानां सर्वेषामिन्द्रियाणां वा ऊहिनी - ष॰ त॰ अक्ष्+ऊह+णिनि+ड़ीप्—पूरी चतुरंगिणी सेना
- अखण्ड—वि॰,न॰ ब॰—-—-—जो टूटा न हो, सम्पूर्ण, समस्त
- अखण्डम्—नपुं॰—-—-—निरन्तर, अविराम
- अखण्डन—वि॰,न॰ ब॰—-—-—जो टूटा न हो, टूट न सके, पूरा, संपूर्ण
- अखण्डनम्—नपुं॰—-—-—न टूटना, निराकरण न करना
- अखण्डनः—पुं॰—-—-—समय
- अखण्डित—वि॰,न॰ त॰—-—न खंडितः—न टूटा हुआ
- अखण्डित—वि॰, न॰ त॰—-—न खंडितः —विघ्नरहित, बाधारहित
- अखण्डितोत्सव—वि॰—अखण्डित-उत्सव—-—सदा आमोदप्रिय
- अखण्डितर्तुः—पुं॰—अखण्डित-ऋतुः—-—वह समय या ऋतु जिसमें सदा की भाँति पुष्पादि उत्पन्न हों
- अखण्डितर्तुः—वि॰—अखण्डित-ऋतुः—-—फलदायी
- अखर्व—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो बौना या छोटे कद का न हो, जिसकी शारीरिक वृद्धि न रुकी हो
- अखर्व—वि॰,न॰ त॰—-—-—अनल्प, बड़ा
- अखात—वि॰,न॰ त॰—-—-—न खुदा हुआ, न दफनाया हुआ
- अखातः—पुं॰—-—-—प्राकृतिक झील
- अखातम्—नपुं॰—-—-—मंदिर के सामने का पोखर
- अखिल—वि॰,न॰ ब॰—-—नास्ति खिलम् अवशिष्टम् यस्य —सम्पूर्ण, समस्त, पूरा
- अखिलेन—क्रि॰ वि॰—-—-—पूर्ण रूप से
- अखिलेन—क्रि॰ वि॰—-—-—भूमि जो परत की न हो, जुती हुई हो
- अखेटिकः—पुं॰—-—नञ्+खिट्+षिकन् —वृक्ष-मात्र
- अखेटिकः—पुं॰—-—नञ्+खिट्+षिकन्—शिकारी कुत्ता
- अख्याति—न॰ त॰—-—-—अपकीर्ति, अपयश
- अख्यातिकर—वि॰—अख्याति-कर—-—अपकीर्तिकर, लज्जाजनक
- अग्—भ्वा॰ पर॰ अक॰ सेट् - <अगति>, <आगीत>, <अगिष्यति>, <अगित>—-—-—सर्पिल गति से जाना, टेढ़े मेढ़े चलना
- अग्—भ्वा॰ पर॰ अक॰ सेट् - <अगति>, <आगीत>, <अगिष्यति>, <अगित>—-—-—जाना
- अग—वि॰,न॰ त॰—-—न गच्छतीति-गम्+ड —चलने में असमर्थ, अगम्य
- अगः—पुं॰—-—न+गम्+ड—वृक्ष
- अगः—पुं॰—-—न+गम्+ड—पहाड़, पत्थर
- अगः—पुं॰—-—न+गम्+ड—साँप
- अगः—पुं॰—-—न+गम्+ड—सूर्य
- अगः—पुं॰—-—न+गम्+ड—सात की संख्या
- अगात्मजा—स्त्री॰—अग-आत्मजा—-—पर्वत की पुत्री, पार्वती
- अगौकस्—पुं॰—अग-ओकस्—-—पहाड़ी
- अगौकस्—पुं॰—अग-ओकस्—-—पक्षी
- अगौकस्—पुं॰—अग-ओकस्—-—शरभ' नामक जन्तु जिसकी आठ टांगें मानी जाती हैं
- अगौकस्—पुं॰—अग-ओकस्—-—सिंह
- अगज—वि॰—अग-ज—-—पहाड़ों में घूमने वाला, जंगली
- अगजम्—नपुं॰—अग-जम्—-—शिलाजीत
- अगच्छ—वि॰, न॰ त॰—-—गम्-बाहुलकात् श—न जाने वाला
- अगच्छः—पुं॰—-—अ+गम्+श—वृक्ष
- अगतिः—स्त्री, न॰ त॰॰—-—-—आश्रय या उपाय का अभाव, आवश्यकता
- अगतिः—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—प्रवेश न होना
- अगतिक—वि॰,न॰ ब॰—-—-—निस्सहाय, निरुपाय, निराश्रय
- अगतीक—वि॰,न॰ ब॰—-—-—निस्सहाय, निरुपाय, निराश्रय
- अगद—वि॰,न॰ ब॰—-—-—नीरोग, स्वस्थ, रोगरहित
- अगदः—पुं॰—-—-—औषधि, दवाई
- अगदः—पुं॰—-—-—स्वास्थ्य
- अगदः—पुं॰—-—-—विषहरण विज्ञान
- अगदङ्कारः—पुं॰—-—अगदं करोति - अगद+कृ+अण् मुमागमश्च—वैद्य, चिकीत्सक
- अगम्य—वि॰—-—न गन्तुमर्हति - गम्+यत् न॰ त॰—दुर्गम, न जाने योग्य, पहुँच के बाहर
- अगम्य—वि॰—-—न गन्तुमर्हति - गम्+यत् न॰ त॰—अकल्पनीय, अबोध्य
- अगम्यरूप—वि॰—अगम्य-रूप—-—अकल्पनीय तथा अनतिक्रांत रूप या स्वभाव वाला
- अगम्या—स्त्री॰—-—-—वह स्त्री जिसके पास मैथुन के लिए जाना उचित नहीं, एक नीची जाति
- अगम्यागमनम्—नपुं॰—अगम्या-गमनम्—-—अनुचित मैथुन, व्यभिचार
- अगम्यागामिन्—वि॰—अगम्या-गामिन्—-—अनुचित मैथुन करने वाला, व्यभिचारी
- अगरु—नपुं॰—-—न गिरति; ग+उ —अगर - एक प्रकार का चन्दन
- अगस्तिः—पुं॰—-—बिन्ध्याख्यम् अगम् अस्यति; अस्+क्तिच् - शक॰—कुम्भज' एक् प्रसिद्ध ऋषि का नाम
- अगस्तिः—पुं॰—-—बिन्ध्याख्यम् अगम् अस्यति; अस्+क्तिच् - शक॰—एक नक्षत्र का नाम
- अगस्त्यः—पुं॰—-—अगं विन्ध्याचलं स्त्यायतिस्तभ्नाति - स्त्यै+क, वा अगः कुंभः तत्र स्त्यानः संहतः इत्यगस्त्यः—कुम्भज' एक प्रसिद्ध ऋषि का नाम
- अगस्त्यः—पुं॰—-—अगं विन्ध्याचलं स्त्यायतिस्तभ्नाति - स्त्यै+क, वा अगः कुंभः तत्र स्त्यानः संहतः इत्यगस्त्यः—एक नक्षत्र का नाम
- अगस्त्यः—पुं॰—-—अगं विन्ध्याचलं स्त्यायतिस्तभ्नाति - स्त्यै+क, वा अगः कुंभः तत्र स्त्यानः संहतः इत्यगस्त्यः—अगस्ति
- अगाध—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अथाह, बहुत गहरा, अतल गम्भीर, सविवेक, अबोध्य
- अगाधः—पुं॰—-—-—गहरा छेद या दरार
- अगाधम्—नपुं॰—-—-—गहरा छेद या दरार
- अगाधजलः—पुं॰—अगाध-जलः—-—गहरा तालाब, गहरी झील
- अगारम्—नपुं॰—-—अगं न गच्छन्तम् ऋच्छति प्राप्नोति - अग+ऋ+अण्—घर
- अगारदाही—पुं॰—अगारम्-दाहिन्—-—घरफूक आदमी
- अगिरः—पुं॰—-—न गीर्यते दुःखेन - गृ बा॰ क —स्वर्ग
- अगिरौकस्—वि॰—अगिरः-ओकस्—-—स्वर्ग में रहने वाला
- अगुण—वि॰,न॰ ब॰—-—नास्ति गुणः यस्मिन् सः—निर्गुण
- अगुण—वि॰,न॰ ब॰—-—नास्ति गुणः यस्मिन् सः—जिसमें अच्छे गुण न हों गुणहीन
- अगुणः—पुं॰—-—-—दोष, अवगुण
- अगुरु—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो भारी न हो, हल्का
- अगुरु—वि॰,न॰ त॰—-—-—लघु
- अगुरु—वि॰,न॰ त॰—-—-—जिसका कोई शिक्षक न हो
- अगुरुः—पुं॰—-—-—अगर की सुगन्धित लकड़ी और पेड़
- अगृहः—वि॰, न॰ ब॰—-—-—बिना घर बार का घुमक्कड़, साधु
- अगोचर—वि॰,न॰ ब॰—-—नास्ति गोचरो यस्य—जो इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष न हो, अस्पष्ट
- अगोचरम्—वि॰,न॰ ब॰—-—नास्ति गोचरो यस्य—अतीन्द्रिय
- अगोचरम्—वि॰,न॰ ब॰—-—नास्ति गोचरो यस्य—अदृश्य, अज्ञेय
- अगोचरम्—नपुं॰—-—नास्ति गोचरो यस्य—ब्रह्म
- अग्नायी—स्त्री॰—-—अग्न+एङ्+ड़ीष्—अग्नि की पत्नी, अग्नि देवी, स्वाहा
- अग्नायी—स्त्री॰—-—अग्न+एङ्+ड़ीष्—त्रेता युग
- अग्निः—पुं॰—-—अंगति उर्ध्वं गच्छति - अङ्ग्+नि नलोपश्च—आग, कोपाग्नि, चिताग्नि
- अग्निः—पुं॰—-—-—आग का देवता
- अग्निः—पुं॰—-—-—तीन प्रकार की यज्ञीय अग्नि - गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिण
- अग्निः—पुं॰—-—-—जठराग्नि, पाचनशक्ति
- अग्निः—पुं॰—-—-—पित्त
- अग्निः—पुं॰—-—-—सोना
- अग्निः—पुं॰—-—-—तीन की संख्या
- अग्न्यगारम्—नपुं॰—अग्निः-अगारम्—-—अग्नि का मन्दिर,
- अग्न्यागारम्—नपुं॰—अग्निः-आगारम्—-—अग्नि का मन्दिर,
- अग्न्यगारः—पुं॰—अग्निः-अगारः—-—अग्नि का मन्दिर,
- अग्न्यागारः—पुं॰—अग्निः-आगारः—-—अग्नि का मन्दिर,
- अग्न्यालयः—पुं॰—अग्निः-आलयः—-—अग्नि का मन्दिर,
- अग्निगृहम्—नपुं॰—अग्निः-गृहम्—-—अग्नि का मन्दिर,
- अग्न्यस्त्रम्—नपुं॰—अग्निः-अस्त्रम्—-—आग बरसाने वाला अस्त्र, रॉकेट
- अग्निबाणः—पुं॰—अग्निः-बाणः—-—अग्नि की प्रतिष्ठा करना
- अग्न्याधानम्—नपुं॰—अग्निः-आधानम्—-—अग्नि की प्रतिष्ठा करना
- अग्न्याहितिः—पुं॰—अग्निः-आहितिः—-—वह ब्राह्मण जो अग्नि को प्रतिष्ठित रखता है
- अग्न्याहितिः—पुं॰—अग्निः-आहितिः—-—ब्राह्मण जो यज्ञ की पावन अग्नि को अभिमंत्रित करता है
- अग्न्याधेयः—पुं॰—अग्निः-आधेयः—-—वह ब्राह्मण जो अग्नि को प्रतिष्ठित रखता है
- अग्न्युत्पातः—पुं॰—अग्निः-उत्पातः—-—अग्निसंबंधी उत्पात, उल्का या धूमकेतु आदि
- अग्न्युपस्थानम्—नपुं॰—अग्निः-उपस्थानम्—-—अग्नि की पूजा, अग्निपूजा का सूक्त या मंत्र
- अग्निकणः—पुं॰—अग्निः-कणः—-—चिंनगारी
- अग्निस्तोकः—पुं॰—अग्निः-स्तोकः—-—चिंनगारी
- अग्निकर्मन्—नपुं॰—अग्निः-कर्मन्—-—अग्नि क्रिया
- अग्निकर्मन्—नपुं॰—अग्निः-कर्मन्—-—अग्नि में आहुति, अग्नि की पूजा
- अग्निकारिका—स्त्री॰—अग्निः-कारिका—-—पवित्र अग्नि को प्रतिष्ठित करने का साधन, 'अग्नीध्र' नामक ऋचा
- अग्निकारिका—स्त्री॰—अग्निः-कारिका—-—अग्नि कार्य
- अग्निकाष्ठम्—नपुं॰—अग्निः-काष्ठम्—-—अगरु
- अग्निकुक्कुटः—पुं॰—अग्निः-कुक्कुटः—-—अग्नि-शलाका
- अग्निकुण्डम्—नपुं॰—अग्निः-कुण्डम्—-—अग्नि को स्थापित रखने के लिए स्थान
- अग्निकुमारः—पुं॰—अग्निः-कुमारः—-—कार्तिकेय जो अग्नि से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं
- अग्निकुमारः—पुं॰—अग्निः-कुमारः—-—स्कन्द
- अग्नितनयः—पुं॰—अग्निः-तनयः—-—कार्तिकेय जो अग्नि से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं
- अग्निसूतः—पुं॰—अग्निः-सूतः—-—कार्तिकेय जो अग्नि से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं
- अग्निकेतुः—पुं॰—अग्निः-केतुः—-—धूआँ
- अग्निकोणः—पुं॰—अग्निः-कोणः—-—दक्षिण-पूर्वी कोना जिसका देवता अग्नि है
- अग्निदिक्—स्त्री॰—अग्निः-दिक्—-—दक्षिण-पूर्वी कोना जिसका देवता अग्नि है
- अग्निक्रिया—स्त्री॰—अग्निः-क्रिया—-—अन्त्येष्टिक्रिया, और्ध्वदैहिक संस्कार
- अग्निक्रिया—स्त्री॰—अग्निः-क्रिया—-—दाह क्रिया
- अग्निक्रीडा—स्त्री॰—अग्निः-क्रीडा—-—आतिशबाजी, रौशनी
- अग्निगर्भ—वि॰—अग्निः-गर्भ—-—आभ्यन्तर में आग रखते हुए
- अग्निगर्भः—पुं॰—अग्निः-गर्भः—-—सूर्यकान्त मणि जिसे सूर्य की किरणों के स्पर्श से आग उगलने वाला माना जाता है
- अग्निगर्भा—स्त्री॰—अग्निः-गर्भा—-—शमी वृक्ष
- अग्निगर्भा—स्त्री॰—अग्निः-गर्भा—-—पृथ्वी
- अग्निचित्—पुं॰—अग्निः-चित्—-—अग्नि को प्रज्वलित रखने वाला
- अग्निचयः—पुं॰—अग्निः-चयः—-—अग्नि को प्रतिष्ठित रखना, अग्न्याधान
- अग्निचयनम्—नपुं॰—अग्निः-चयनम्—-—अग्नि को प्रतिष्ठित रखना, अग्न्याधान
- अग्निचित्या—स्त्री॰—अग्निः-चित्या—-—अग्नि को प्रतिष्ठित रखना, अग्न्याधान
- अग्निज—वि॰—अग्निः-ज—-—अग्नि से उत्पन्न होने वाला
- अग्निजः—पुं॰—अग्निः-जः—-—कार्तिकेय
- अग्निजः—पुं॰—अग्निः-जः—-—विष्णु
- अग्निजातः—पुं॰—अग्निः-जातः—-—कार्तिकेय
- अग्निजातः—पुं॰—अग्निः-जातः—-—विष्णु
- अग्निजम्—नपुं॰—अग्निः-जम्—-—सोना
- अग्निजातम्—नपुं॰—अग्निः-जातम्—-—सोना
- अग्निजिह्वा—स्त्री॰—अग्निः-जिह्वा—-—आग की लपट, अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक
- अग्नितपस्—वि॰—अग्निः-तपस्—-—बढ़ता आहु आग के समान चमकने या चलने वाला
- अग्नित्रयम्—स्त्री॰—अग्निः-त्रयम्—-—तीन अग्नियां
- अग्नित्रेता—स्त्री॰—अग्निः-त्रेता—-—तीन अग्नियां
- अग्निद—वि॰—अग्निः-द—-—पौष्टिक, क्षुधावर्धक
- अग्निद—वि॰—अग्निः-द—-—दाहक
- अग्निदातृ—पुं॰—अग्निः-दातृ—-—मनुष्य का दाहकर्म करने वाला
- अग्निदीपन—पुं॰—अग्निः-दीपन—-—क्षुधावर्धक, पौष्टिक
- अग्निदीप्तिः—स्त्री॰—अग्निः-दीप्तिः—-—बढ़ी हुई पाचन शक्ति, अच्छी भूख
- अग्निवृद्धिः—स्त्री॰—अग्निः-वृद्धिः—-—बढ़ी हुई पाचन शक्ति, अच्छी भूख
- अग्निदेवा—स्त्री॰—अग्निः-देवा—-—कृत्तिका नक्षत्र
- अग्निधानम्—नपुं॰—अग्निः-धानम्—-—पवित्र अग्नि को रखने का पात्र या स्थान, अग्निहोत्र का घर
- अग्निधारणम्—नपुं॰—अग्निः-धारणम्—-—अग्नि को सदा प्रतिष्ठित रखना
- अग्निपरिक्रिया—स्त्री॰—अग्निः-परिक्रिया—-—अग्नि-पूजा
- अग्निपरिष्क्रिया—स्त्री॰—अग्निः-परिष्क्रिया—-—अग्नि-पूजा
- अग्निपरिच्छ्दः—पुं॰—अग्निः-परिच्छ्दः—-—यज्ञ के सारे उपकरण
- अग्निपरीक्षा—स्त्री॰—अग्निः-परीक्षा—-—अग्नि द्वारा परीक्षा
- अग्निपर्वतः—पुं॰—अग्निः-पर्वतः—-—ज्वालामुखी पहाड़, १८ पुराणों में से एक
- अग्निप्रतिष्ठा—स्त्री॰—अग्निः-प्रतिष्ठा—-—अग्नि की स्थापना, विशेष कर विवाह संस्कार की
- अग्निप्रवेशः—पुं॰—अग्निः-प्रवेशः—-—अग्नि में उतरना, अपने पति की चिता पर किसी विधवा का सती होना
- अग्निप्रवेशनम्—नपुं॰—अग्निः-प्रवेशनम्—-—अग्नि में उतरना, अपने पति की चिता पर किसी विधवा का सती होना
- अग्निप्रस्तरः—पुं॰—अग्निः-प्रस्तरः—-—फलीता, चकमक पत्थर
- अग्निबाहुः—पुं॰—अग्निः-बाहुः—-—धुआँ
- अग्निभम्—नपुं॰—अग्निः-भम्—-—कृतिका
- अग्निभम्—नपुं॰—अग्निः-भम्—-—सोना
- अग्निभु—नपुं॰—अग्निः-भु—-—जल
- अग्निभु—नपुं॰—अग्निः-भु—-—सोना
- अग्निभूः—स्त्री॰—अग्निः-भूः—-—अग्नि से उत्पन्न कार्तिकेय
- अग्निमणिः—पुं॰—अग्निः-मणिः—-—सूर्यकान्त मणि, फलीता
- अग्निमन्थः—पुं॰—अग्निः-मन्थः—-—घर्षण या रगड़ द्वारा आग पैदा करना
- अग्निमन्थनम्—नपुं॰—अग्निः-मन्थनम्—-—घर्षण या रगड़ द्वारा आग पैदा करना
- अग्निमान्द्यम्—नपुं॰—अग्निः-मान्द्यम्—-—पाचनशक्ति का मंद होना, भूख न लगना
- अग्निमुखः—पुं॰—अग्निः-मुखः—-—देवता
- अग्निमुखः—पुं॰—अग्निः-मुखः—-—ब्राह्मणमात्र
- अग्निमुखः—पुं॰—अग्निः-मुखः—-—मुंह में आग रखने वाला, जोर से काटने वाला, खटमल का विशेषण
- अग्निमुखी—स्त्री॰—अग्निः-मुखी—-—रसोई घर
- अग्निरक्षणम्—नपुं॰—अग्निः-रक्षणम्—-—पवित्र गार्हपत्य या अग्निहोत्र की अग्नि को प्रतिष्ठित रखना
- अग्निरजः—पुं॰—अग्निः-रजः—-—इंद्रगोप नामक एक सिंदूरी कीड़ा
- अग्निरजः—पुं॰—अग्निः-रजः—-—अग्नि की शक्ति
- अग्निरजः—पुं॰—अग्निः-रजः—-—लोक
- अग्निरजस्—पुं॰—अग्निः-रजस्—-—इंद्रगोप नामक एक सिंदूरी कीड़ा
- अग्निरजस्—पुं॰—अग्निः-रजस्—-—अग्नि की शक्ति
- अग्निरजस्—पुं॰—अग्निः-रजस्—-—लोक
- अग्निलोकः—पुं॰—अग्निः-लोकः—-—अग्नि का वह संसार जो मेरु शिखर के नीचे स्थित है
- अग्निवधू—स्त्री॰—अग्निः-वधू—-—स्वाहा, दक्ष की पुत्री और अग्नि की पत्नी
- अग्निवर्धक—वि॰—अग्निः-वर्धक—-—पौष्टिक
- अग्निवाहः—पुं॰—अग्निः-वाहः—-—धूआँ
- अग्निवाहः—पुं॰—अग्निः-वाहः—-—बकरी
- अग्निवीर्य—पुं॰—अग्निः-वीर्य—-—अग्नि की शक्ति
- अग्निवीर्य—पुं॰—अग्निः-वीर्य—-—सोना
- अग्निशरणम्—नपुं॰—अग्निः-शरणम्—-—अग्नि का मन्दिर, वह स्थान या घर जहाँ पवित्र अग्नि रक्खी जाय
- अग्निशाला—स्त्री॰—अग्निः-शाला—-—अग्नि का मन्दिर, वह स्थान या घर जहाँ पवित्र अग्नि रक्खी जाय
- अग्निशालम्—नपुं॰—अग्निः-शालम्—-—अग्नि का मन्दिर, वह स्थान या घर जहाँ पवित्र अग्नि रक्खी जाय
- अग्निशिखः—पुं॰—अग्निः-शिखः—-—दीपक, रॉकेट
- अग्निशिखः—पुं॰—अग्निः-शिखः—-—अग्निमय बाण
- अग्निशिखः—पुं॰—अग्निः-शिखः—-—बाणमात्र
- अग्निशिखः—पुं॰—अग्निः-शिखः—-—कुसुम या केसर का पौधा
- अग्निशिखः—पुं॰—अग्निः-शिखः—-—केसर
- अग्निशिखम्—नपुं॰—अग्निः-शिखम्—-—केसर
- अग्निशिखम्—नपुं॰—अग्निः-शिखम्—-—सोना
- अग्निष्टुत्—पुं॰—अग्निः-ष्टुत्—-—एक दिन से अधिक चलने वाले यज्ञ का एक भाग
- अग्निष्टुभ्—पुं॰—अग्निः-ष्टुभ्—-—वसन्त में कई दिन तक चलने वाला यज्ञीय अनुष्ठान या दीर्घकालिक संस्कार जो ज्योतिष्टोम का एक आवश्यक अंग है
- अग्निष्टोम—पुं॰—अग्निः-ष्टोम—-—वसन्त में कई दिन तक चलने वाला यज्ञीय अनुष्ठान या दीर्घकालिक संस्कार जो ज्योतिष्टोम का एक आवश्यक अंग है
- अग्निसंस्कारः—पुं॰—अग्निः-संस्कारः—-—अग्नि की प्रतिष्ठा
- अग्निसंस्कारः—पुं॰—अग्निः-संस्कारः—-—चिता पर शव दाह की क्रिया
- अग्निसखः—पुं॰—अग्निः-सखः—-—हवा
- अग्निसखः—पुं॰—अग्निः-सखः—-—जंगली कबूतर
- अग्निसखः—पुं॰—अग्निः-सखः—-—धुआँ
- अग्निसहायः—पुं॰—अग्निः-सहायः—-—हवा
- अग्निसहायः—पुं॰—अग्निः-सहायः—-—जंगली कबूतर
- अग्निसहायः—पुं॰—अग्निः-सहायः—-—धुआँ
- अग्निसाक्षिक—वि॰ या क्रि॰ वि॰—अग्निः-साक्षिक—-—अग्नि को साक्षी बनाना, अग्नि के सामने
- अग्निस्तुत्—पुं॰—अग्निः-स्तुत्—-—एक दिन से अधिक चलने वाले यज्ञ का एक भाग
- अग्निष्टोमः—नपुं॰—अग्निः-स्तोमम्—-—वसन्त में कई दिन तक चलने वाला यज्ञीय अनुष्ठान या दीर्घकालिक संस्कार जो ज्योतिष्टोम का एक आवश्यक अंग है
- अग्निहोत्रम्—नपुं॰—अग्निः-होत्रम्—-—अग्नि में आहुति देना
- अग्निहोत्रम्—नपुं॰—अग्निः-होत्रम्—-—होम की अग्नि को स्थापित रखना और उसमें आहुति देना
- अग्निहोत्रिन्—वि॰—अग्निः-होत्रिन्—-—अग्निहोत्र करने वाला, या वह व्यक्ति जो अग्निहोत्र द्वारा होमाग्नि को सुरक्षित रखता है
- अग्निसात्—अ॰—-—-—अग्नि की दशा तक
- अग्निसात्भू—स्त्री॰—अग्निसात्-भू—-—जलाया जाना
- अग्र—वि॰—-—अङ्ग+रन्, नलोपश्च—प्रथम, सर्वोपरि,मुख्य, सर्वोत्तम, प्रमुख
- अग्रमहिषी —स्त्री॰—अग्र-महिषी —-—मुख्य रानी
- अग्र—वि॰—-—-—अत्यधिक
- अग्रम्—नपुं॰—-—-—सर्वोपरि स्थल या उच्चतम बिन्दु
- अग्रम्—आलं॰—-—-—तीक्ष्णता, प्रखरता
- नासिकाग्रम्—नपुं॰—नासिका-अग्रम्—-—नाक का अग्र भाग
- नासिकाग्रम्—नपुं॰—नासिका-अग्रम्—-—चोटी, शिखर, सतह
- अग्रम्—नपुं॰—-—-—सामने
- अग्रम्—नपुं॰—-—-—किसी भी प्रकार में सर्वोत्तम
- अग्रम्—नपुं॰—-—-—लक्ष्य, उद्देश्य
- अग्रम्—नपुं॰—-—-—आरम्भ
- अग्रम्—नपुं॰—-—-—आधिक्य, अतिरेक
- अग्राणीकः—पुं॰—अग्र-अनीकः—-—सैन्यमुख
- अग्राणीकम्—नपुं॰—अग्र-अनीकम्—-—सैन्यमुख
- अग्रासनम्—नपुं॰—अग्र-आसनम्—-—प्रमुख आसन, मान-आसन
- अग्रकरः—पुं॰—अग्र-करः—-—नेता, मार्गदर्शक, सबसे आगे चलने वाला
- अग्रगः—पुं॰—अग्र-गः—-—नेता, मार्गदर्शक, सबसे आगे चलने वाला
- अग्रगण्य—वि॰—अग्र-गण्य—-—श्रेष्ठ, प्रथम श्रेणी में रखे जाने योग्य
- अग्रज—वि॰—अग्र-ज—-—पहले पैदा या उत्पन्न हुआ
- अग्रजः—पुं॰—अग्र-जः—-—अग्रजन्मा, बड़ा भाई
- अग्रजः—पुं॰—अग्र-जः—-—ब्राह्मण
- अग्रजा—स्त्री॰—अग्र-जा—-—बड़ी बहन
- अग्रजन्मा—पुं॰—अग्र-जन्मन्—-—पहले जन्मा हुआ, बड़ा भाई
- अग्रजन्मा—पुं॰—अग्र-जन्मन्—-—ब्राह्मण
- अग्रजिह्वा—स्त्री॰—अग्र-जिह्वा—-—जिह्वा की नोंक
- अग्रदानिन्—वि॰—अग्र-दानिन्—-—पतित ब्राह्मण जो मृतक श्राद्ध में दान लेता है
- अग्रदूतः—पुं॰—अग्र-दूतः—-—आगे-आगे जाने वाला दूत
- अग्रणीः—पुं॰—अग्र-नीः—-—प्रमुख नेता
- अग्रपादः—पुं॰—अग्र-पादः—-—पैर का अगला हिस्सा, पैर का अगला पंजा
- अग्रपूजा—स्त्री॰—अग्र-पूजा—-—आदर या सम्मन का सर्वोच्च या प्रथम चिह्न
- अग्रपेयम्—नपुं॰—अग्र-पेयम्—-—पीने में प्राथमिकता
- अग्रभागः—पुं॰—अग्र-भागः—-—प्रथम या सर्वोत्तम भाग
- अग्रभागः—पुं॰—अग्र-भागः—-—शेष, शेष भाग
- अग्रभागः—पुं॰—अग्र-भागः—-—नोक, सिरा
- अग्रभागिन्—वि॰—अग्र-भागिन्—-—(शेषभाग) को पहले प्राप्त करने का अधिकार प्रकट करने वाला
- अग्रभूमिः—स्त्री॰—अग्र-भूमिः—-—महत्त्वाकांक्षा का लक्ष्य या उद्दिष्ट पदार्थ
- अग्रमांसम्—नपुं॰—अग्र-मांसम्—-—हृदय का मांस, हृदय
- अग्रयायिन्—वि॰—अग्र-यायिन्—-—नेतृत्व करना, सेना के आगे चलना
- अग्रयोधिन्—पुं॰—अग्र-योधिन्—-—मुख्य वीर, मुख्य योद्धा
- अग्रसन्धानी—स्त्री॰—अग्र-सन्धानी—-—यम द्वारा मनुष्यों के कार्यों का लेखा-जोखा रखने की बही
- अग्रसन्ध्या—स्त्री॰—अग्र-सन्ध्या—-—प्रभात काल
- अग्रसर—वि॰—अग्र-सर—-—नेतृत्व करने वाला
- अग्रयायी—वि॰—अग्र-यायिन्—-—नेतृत्व करने वाला
- अग्रहस्तः—पुं॰—अग्र-हस्तः—-—हाथ या भुजा का अगला भाग, हाथी की सूंड़ का सिरा, दाहिना हाथ
- अग्रकरः—पुं॰—अग्र-करः—-—हाथ या भुजा का अगला भाग, हाथी की सूंड़ का सिरा, दाहिना हाथ
- अग्रपाणिः—पुं॰—अग्र-पाणिः—-—हाथ या भुजा का अगला भाग, हाथी की सूंड़ का सिरा, दाहिना हाथ
- अग्रहायणः—पुं॰—अग्र-हायनः—-—वर्ष का आरम्भ, मार्गशीष महीने का नाम
- अग्रहारः—पुं॰—अग्र-हारः—-—राजाओं द्वारा ब्राह्मणों को जीवननिर्वाहार्थ दी गी भूमि
- अग्रतः—क्रि॰ वि॰—-—अग्रे अग्राद्वा - तसिल्—सामने, के आगे, के ऊपर, आगे
- अग्रतः—क्रि॰ वि॰—-—अग्रे अग्राद्वा - तसिल्—की उपस्थिति में
- अग्रतः—क्रि॰ वि॰—-—अग्रे अग्राद्वा - तसिल्—प्रथम
- अग्रतसरः—पुं॰—अग्रतः-सरः—-—नेता
- अग्रिम—वि॰—-—अग्रे भवः - अग्र+डिमच्—प्रथम, प्रमुख, मुख्य
- अग्रिम—वि॰—-—अग्रे भवः - अग्र+डिमच्—बड़ा, ज्येष्ठ
- अग्रिमः—पुं॰—-—अग्र+डिमच्—बड़ा भाई
- अग्रिय—वि॰—-—अग्रे भवः - अग्र+घ—प्रमुख आदि
- अग्रियः—पुं॰—-—अग्र+घ—बड़ा भाई
- अग्रीय—वि॰—-—अग्रे भवः - अग्र+छ—प्रमुख, सर्वोत्तम
- अग्रीय—वि॰—-—अग्रे भवः - अग्र+छ—प्रथम, प्रमुख, मुख्य
- अग्रीय—वि॰—-—अग्रे भवः - अग्र+छ—बड़ा, ज्येष्ठ
- अग्रे—क्रि॰ वि॰—-—अग्रे भवः - अग्र+छ—के सामने, पहले
- अग्रे—क्रि॰ वि॰—-—अग्रे भवः - अग्र+छ—की उपस्थिति में
- अग्रे—क्रि॰ वि॰—-—अग्रे भवः - अग्र+छ—के ऊपर
- अग्रे—क्रि॰ वि॰—-—अग्रे भवः - अग्र+छ—बाद में
- अग्रे—क्रि॰ वि॰—-—अग्रे भवः - अग्र+छ—सबसे पहले, पहले
- अग्रे—क्रि॰ वि॰—-—अग्रे भवः - अग्र+छ—औरों से पहले
- अग्रेगः—पुं॰—अग्रे-गः—-—नेता
- अग्रेदिधिषुः—पुं॰—अग्रे-दिधिषुः—-—पहले तीन वर्णों में से कोई एक पुरुष जो विवाहित स्त्री से विवाह करता है
- अग्रेदिधिषूः—पुं॰—अग्रे-दिधिषूः—-—पहले तीन वर्णों में से कोई एक पुरुष जो विवाहित स्त्री से विवाह करता है
- अग्रेदिधिषूः—स्त्री॰—अग्रे-दिधिषूः—-—एक विवाहित स्त्री जिसकी बड़ी बहन अभी अविवाहित है
- अग्रेपतिः—पुं॰—अग्रे-पतिः—-—अग्रेदिधिषू स्त्री का पति
- अग्रेवणम्—नपुं॰—अग्रे-वनम्—-—जंगल की सीमा या अन्तिम सिरा
- अग्रेसर—वि॰—अग्रे-सर—-—आगे २ चलने वाला, नेता
- अग्र्य—वि॰—-—अग्रे जातः - अग्र+यत्—प्रमुख, सर्वोत्तम, उत्कृष्ट, सर्वोच्च, प्रथम, अधिकरण के साथ भी
- अग्र्यः—पुं॰—-—-—बड़ा भाई
- अघ्—चु॰ उभ॰—-—-—बुरा करना, पाप करना
- अघ्—चु॰ उभ॰—-—-—जाना
- अघ्—चु॰ उभ॰—-—-—आरंभ करना
- अघ्—चु॰ उभ॰—-—-—शीघ्रता करना
- अघ्—चु॰ उभ॰—-—-—धमकाना
- अघम्—नपुं॰—-—अघ्+अच्—पाप, अघं मर्षण आदि
- अघम्—नपुं॰—-—अघ्+अच्—कुकृत्य, अपराध, दोष
- अघम्—नपुं॰—-—अघ्+अच्—अपकृत्य, दुर्घटना, विपत्ति
- अघम्—नपुं॰—-—अघ्+अच्—अपवित्रता
- अघम्—नपुं॰—-—अघ्+अच्—व्यथा, कष्ट
- अघः—पुं॰—-—अघ्+अच्—एक राक्षस का नाम, बक और पूतना का भाई जो कंस के यहां मुख्य सेनापति था
- अघासुरः—पुं॰—अघम्-असुरः—-—बुरा व पाप करना
- अघाहः—नपुं॰—अघम्-अहः—-—अपवित्रता का दिन, अशौच दिन
- अघहन्—नपुं॰—अघम्-अहन्—-—अपवित्रता का दिन, अशौच दिन
- अघायुस्—वि॰—अघम्-आयुस्—-—गर्हित जीवन बिताने वाला
- अघनाश—वि॰—अघम्-नाश—-—परिमार्जक, पापनाशक
- अघनाशन—वि॰—अघम्-नाशन—-—परिमार्जक, पापनाशक
- अघमर्षण—वि॰—अघम्-मर्षण—-—विशोधक, पाप को हटाने वाला, ऋग्वेद के मन्त्र जिनका सन्ध्या-प्रार्थना के समय प्रायः ब्राह्मणों द्वारा पाठ होता है
- अघविषः—पुं॰—अघम्-विषः—-—साँप
- अघशंसः—पुं॰—अघम्-शंसः—-—दुष्ट आदमी
- अघशंसिन्—वि॰—अघम्-शंसिन्—-—किसी के पाप या अपराध को बतलाने वाला
- अघर्म—वि॰—-—-—जो गरम न हो, ठंडा
- अघर्मांशु—वि॰—अघर्म-अंशु—-—चन्द्रमा जिसकी किरणें ठण्डी होती हैं
- अघर्मधामन्—वि॰—अघर्म-धामन्—-—चन्द्रमा जिसकी किरणें ठण्डी होती हैं
- अघोर—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो भयानक न हो, भीषण न हो
- अघोरः—पुं॰—-—-—शिव या शिव का कोई रूप जिसमें अघोर = घोर हो
- अघोरपथः—पुं॰—अघोर-पथः—-—शिव का अनुयायी
- अघोरमार्गः—पुं॰—अघोर-मार्गः—-—शिव का अनुयायी
- अघोरप्रमाणम्—नपुं॰—अघोर-प्रमाणम्—-—भीषण शपथ या अग्नि परीक्षा
- अघोष—वि॰,न॰ ब॰—-—नास्ति घोषो यस्य यत्र वा —ध्वनिहीन, निःशब्द
- अघोषः—पुं॰—-—-—प्रत्येक वर्ग के दो प्रथम दो अक्षर, श, ष, तथा स
- अङ्क्—भ्वा॰ आ॰—-—-—टेढ़ा-मेढ़ा चलना
- अङ्क्—चु॰ उभ॰ -<अङ्कयति>, अङ्कते>, <अङ्कयितु>, <अङ्कित>—-—-—चिह्नित करना, छाप लगाना
- अङ्क्—चु॰ उभ॰ -<अङ्कयति>, अङ्कते>, <अङ्कयितु>, <अङ्कित>—-—-—गिनना
- अङ्क्—चु॰ उभ॰ -<अङ्कयति>, अङ्कते>, <अङ्कयितु>, <अङ्कित>—-—-—धब्बा लगाना, कलङ्कित करना
- अङ्क्—चु॰ उभ॰ -<अङ्कयति>, अङ्कते>, <अङ्कयितु>, <अङ्कित>—-—-—चलना,इठलाना, जाना
- अङ्कः—पुं॰—-—अङ्क+अच्—गोद
- अङ्कः—पुं॰—-—अङ्क+अच्—चिह्न, संकेत, धब्बा, लांछन, कलङ्क, दाग
- अङ्कः—पुं॰—-—अङ्क+अच्—अङ्क, संख्या, ९ की संख्या
- अङ्कः—पुं॰—-—अङ्क+अच्—पार्श्व, पक्ष, सान्निध्य, पहुँच
- अङ्कः—पुं॰—-—अङ्क+अच्—नाटक का एक खंड
- अङ्कः—पुं॰—-—अङ्क+अच्—कँटिया या मुड़ा हुआ उपकरण
- अङ्कः—पुं॰—-—अङ्क+अच्—नाट्य-रचना का एक प्रकार, रूपक के दस भेदों में से एक
- अङ्कः—पुं॰—-—अङ्क+अच्—पंक्ति, मुड़ी हुई पंक्ति, सामान्यतः एक मोड़, भुजा में मोड़
- अङ्कावतारः—पुं॰—अङ्कः-अवतारः—-—जब नाट्क के आगामी अङ्क से सातत्य प्रकट करता हुआ, पूर्वाङ्क के अंत में -अङ्क-संकेत किया जाता है उसे अङ्कावतार कहते हैं
- अङ्कतन्त्र—नपुं॰—अङ्कः-तन्त्र—-—संख्या-विज्ञान
- अङ्कधारणम्—नपुं॰—अङ्कः-धारणम्—-—चिह्न लगाना या संकेत करना
- अङ्कधारणम्—नपुं॰—अङ्कः-धारणम्—-—आकृति या मनुष्य को आंकने की रीति
- अङ्कधारणा—स्त्री॰—अङ्कः-धारणा—-—चिह्न लगाना या संकेत करना
- अङ्कधारणा—स्त्री॰—अङ्कः-धारणा—-—आकृति या मनुष्य को आंकने की रीति
- अङ्कपरिवर्तः—पुं॰—अङ्कः-परिवर्तः—-—दूसरी ओर मुड़ना
- अङ्कपरिवर्तः—पुं॰—अङ्कः-परिवर्तः—-—किसी की गोद में लुढ़कना या प्रेम के हाव-भाव दिखाना
- अङ्कपालिः—स्त्री॰—अङ्कः-पालिः—-—आलिंगन
- अङ्कपालिः—स्त्री॰—अङ्कः-पालिः—-—दाई, नर्स
- अङ्कपाली—स्त्री॰—अङ्कः-पाली—-—आलिंगन
- अङ्कपाली—स्त्री॰—अङ्कः-पाली—-—दाई, नर्स
- अङ्कपाशः—पुं॰—अङ्कः-पाशः—-—अंकगणित में एक प्रकार की प्रक्रिया जिसमें १-२ आदि संख्याओं के अदल-बदल से एक विचित्र शृंखला सी बन जाती है
- अङ्कभाज्—वि॰—अङ्कः-भाज्—-—गोद में बैठा हुआ या लिया हुआ जैसे कि एक बच्चा
- अङ्कभाज्—वि॰—अङ्कः-भाज्—-—सुगम, निकटस्थ, सुलभ
- अङ्कमुखम्—नपुं॰—अङ्कः-मुखम्—-—अङ्क का वह भाग जहाँ सब अङ्कों का विषय सूचित किया गया हो अङ्कमुख कहलाता है, इसी से बीज और फल का संकेत होता है
- अङ्कविद्या—स्त्री॰—अङ्कः-विद्या—-—संख्या-विज्ञान, अंकगणित
- अङ्कनम्—नपुं॰—-—अङ्क्+ल्युट्—चिह्न, प्रतीक
- अङ्कनम्—नपुं॰—-—अङ्क्+ल्युट्—चिह्नित करने की क्रिया
- अङ्कनम्—नपुं॰—-—अङ्क्+ल्युट्—चिह्न लगाने के साधन, मुहर लगाना आदि
- अङ्कतिः—पुं॰—-—अञ्च्+अति, कुत्वम्-अञ्चेः को वा—हवा
- अङ्कतिः—पुं॰—-—अञ्च्+अति, कुत्वम्-अञ्चेः को वा—अग्नि
- अङ्कतिः—पुं॰—-—अञ्च्+अति, कुत्वम्-अञ्चेः को वा—ब्रह्मा
- अङ्कतिः—पुं॰—-—अञ्च्+अति, कुत्वम्-अञ्चेः को वा—वह ब्राह्मण जो अग्निहोत्र करता है
- अञ्चतिः—पुं॰—-—अञ्च्+अति, अञ्चेः को वा—हवा
- अञ्चतिः—पुं॰—-—अञ्च्+अति, अञ्चेः को वा—अग्नि
- अञ्चतिः—पुं॰—-—अञ्च्+अति, अञ्चेः को वा—ब्रह्मा
- अञ्चतिः—पुं॰—-—अञ्च्+अति, अञ्चेः को वा—वह ब्राह्मण जो अग्निहोत्र करता है
- अङ्कुटः—पुं॰—-—अङ्क्+उटच्—ताली, कुंजी
- अङ्कुरः—पुं॰—-—अङ्क्+उरच्—अंखुवा, किसलय, कोंपल, नुकीली दाढ़, कलम, संतान, प्रजा
- अङ्कुरः—पुं॰—-—अङ्क्+उरच्—पानी
- अङ्कुरः—पुं॰—-—अङ्क्+उरच्—रुधिर
- अङ्कुरः—पुं॰—-—अङ्क्+उरच्—बाल
- अङ्कुरः—पुं॰—-—अङ्क्+उरच्—रसौली, सूजन
- अङ्कुरित—वि॰—-—अङ्कुर+इतच्—नवपल्लवित, उत्पन्न, मानों काम ने किसलय पैदा कर् दिये हैं
- अङ्कुशः—पुं॰—-—अङ्क+उशच्—काँटा या हाँकने की छ्ड़ी, नियंत्रक, संशोधक, प्रशासक, निदेशक, दबाव या रोक
- अङ्कुशग्रहः—पुं॰—अङ्कुशः-ग्रहः—-—पीलवान
- अङ्कुशदुर्धरः—पुं॰—अङ्कुशः-दुर्धरः—-—दुर्दांन्त
- अङ्कुशधारी—पुं॰—अङ्कुशः-धारिन्—-—हाथीवान
- अङ्कुशित—वि॰—-—अङ्कुश+इतच्—अङ्कुश से हांका गया
- अङ्कुशिन्—वि॰—-—अङ्कुश+णिनि—अङ्कुश रखने वाला
- अङ्कूरः—पुं॰—-—-—अंखुवा
- अङ्कूषः—पुं॰—-—-—काँटा या हाँकने की छ्ड़ी, नियंत्रक, संशोधक, प्रशासक, निदेशक, दबाव या रोक
- अङ्कोटः—पुं॰—-—अङ्क+ओट—पिस्ते का वृक्ष
- अङ्कोठः—पुं॰—-—अङ्क+ओठ—पिस्ते का वृक्ष
- अङ्कोलः—पुं॰—-—अङ्क+ओल—पिस्ते का वृक्ष
- अङ्कोलिका—स्त्री॰—-—अङ्क्अ+उल+क+टाप् या अङ्क - पालिका का अपभ्रंश—आलिंगन
- अङ्क्य—वि॰—-—अङ्क्+ण्यत्—दागने योग्य, चिह्नित या अंकित करने योग्य
- अङ्क्यः—पुं॰—-—अङ्क्+ण्यत्—एक प्रकार का ढोल या मृदंग
- अङ्ख्—चु॰ पर॰ अक॰ सेट्, <अङ्खयति>, <अङ्खित> —-—-—पेट के बल सरकना
- अङ्ख्—चु॰ पर॰ अक॰ सेट्, <अङ्खयति>, <अङ्खित> —-—-—चिपटना
- अङ्ख्—चु॰ पर॰ अक॰ सेट्, <अङ्खयति>, <अङ्खित> —-—-—रोकना
- अङ्ग—भ्वा॰ पर॰ अक॰ सेट्, <अङ्गति>, <आनङ्ग>, <अङ्गितुम्>, <अङ्गित>—-—-—जाना, चलना
- अङ्ग—चु॰ पर॰—-—-—चलना, चक्कर काटना
- अङ्ग—चु॰ पर॰—-—-—चिह्न लगाना
- अङ्ग—अव्य॰—-—अङ्ग्+अच्—संबोधक अव्यय, जिसका अर्थ है अच्छा
- अङ्गम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्—शरीर
- अङ्गम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्—अंग या शरीर का अवयव
- अङ्गम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्—किसी संपूर्ण वस्तु का प्रभाग या विभाग, एक खण्ड या अंश
- अङ्गम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्—संपूरक या सहायक खण्ड, पूरक
- अङ्गम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्—अवयव, सारभूत घटक
- अङ्गम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्—विशेषणात्मक या गौणभाग, गौण, सहायक या आश्रित अंग
- अङ्गम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्—सहायक साधन या युक्ति
- अङ्गम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्—शब्द का मूल रूप
- अङ्गम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्—नाटकों में पांचों सन्धियों के उपभाग
- अङ्गम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्—गौण लक्षणों से युक्त समस्त शरीर
- अङ्गम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्—छः की संख्या के लिए आलंकारिक कथन
- अङ्गम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्—मन
- अङ्गाः—पुं॰—-—अङ्ग्+अच्—एक देश का नाम, उस देश के वासी
- अङ्गाङ्गि—पुं॰—अङ्ग-अङ्गि—-—शरीर के अंगों का संबंध, गौण अंगों का मुख्य अंगों से संबंध या पोष्य अंग का पोषक अंग से संबंध
- अङ्गाङ्गीभावः—पुं॰—अङ्ग-अङ्गीभावः—-—शरीर के अंगों का संबंध, गौण अंगों का मुख्य अंगों से संबंध या पोष्य अंग का पोषक अंग से संबंध
- अङ्गाधीपः—पुं॰—अङ्ग-अधीपः—-—अंगों का स्वामी, कर्ण
- अङ्गाधीशः—पुं॰—अङ्ग-अधीशः—-—अंगों का स्वामी, कर्ण
- अङ्गग्रहः—पुं॰—अङ्ग-ग्रहः—-—ऐंठन
- अङ्गज—वि॰—अङ्ग-ज—-—शरीर पर उपजा हुआ या शरीर में जन्मा हुआ, शारीरिक
- अङ्गज—वि॰—अङ्ग-ज—-—सुन्दर, अलंकृत
- अङ्गजात—वि॰—अङ्ग-जात—-—शरीर पर उपजा हुआ या शरीर में जन्मा हुआ, शारीरिक
- अङ्गजात—वि॰—अङ्ग-जात—-—सुन्दर, अलंकृत
- अङ्गजः—पुं॰—अङ्ग-जः—-—पुत्र
- अङ्गजः—पुं॰—अङ्ग-जः—-—शरीर के बाल
- अङ्गजः—पुं॰—अङ्ग-जः—-—प्रेम, काम, प्रेमावेश
- अङ्गजः—पुं॰—अङ्ग-जः—-—शराबखोरी, मस्ती
- अङ्गजः—पुं॰—अङ्ग-जः—-—एक रोग
- अङ्गजनुस्—पुं॰—अङ्ग-जनुस्—-—पुत्र
- अङ्गजनुस्—पुं॰—अङ्ग-जनुस्—-—शरीर के बाल
- अङ्गजनुस्—पुं॰—अङ्ग-जनुस्—-—प्रेम, काम, प्रेमावेश
- अङ्गजनुस्—पुं॰—अङ्ग-जनुस्—-—शराबखोरी, मस्ती
- अङ्गजनुस्—पुं॰—अङ्ग-जनुस्—-—एक रोग
- अङ्गजा—स्त्री॰—अङ्ग-जा—-—पुत्री
- अङ्गजम्—नपुं॰—अङ्ग-जम्—-—रुधिर
- अङ्गद्वीपः—पुं॰—अङ्ग-द्वीपः—-—छोटे छः द्वीपों में से एक
- अङ्गन्यासः—पुं॰—अङ्ग-न्यासः—-—उपयुक्त मंत्रों के साथ हाथ से शरीर को स्पर्श करना
- अङ्गपालिः—स्त्री॰—अङ्ग-पालिः—-—आलिंगन
- अङ्गपालिका—स्त्री॰—अङ्ग-पालिका—-—आलिंगन
- अङ्गपालिका—स्त्री॰—अङ्ग-पालिका—-—दाई, नर्स
- अङ्गप्रत्यङ्गम्—नपुं॰—अङ्ग-प्रत्यङ्गम्—-—छोटे बड़े सब अंग
- अङ्गभूः—पुं॰—अङ्ग-भूः—-—पुत्र
- अङ्गभूः—पुं॰—अङ्ग-भूः—-—कामदेव
- अङ्गभङ्गः—पुं॰—अङ्ग-भङ्गः—-—गात्रोपघात, लकवा
- अङ्गभङ्गः—पुं॰—अङ्ग-भङ्गः—-—अंगड़ाई लेना
- अङ्गमन्त्रः—पुं॰—अङ्ग-मन्त्रः—-—एक मंत्र का नाम
- अङ्गमर्दः—पुं॰—अङ्ग-मर्दः—-—जो अपने स्वामी के शरीर पर मालिश करता है
- अङ्गमर्दः—पुं॰—अङ्ग-मर्दः—-—मालिश करने की क्रिया
- अङ्गमर्षः—पुं॰—अङ्ग-मर्षः—-—गठिया रोग
- अङ्गयज्ञः—पुं॰—अङ्ग-यज्ञः—-—यज्ञ से संबद्ध गौण क्रिया
- अङ्गयागः—पुं॰—अङ्ग-यागः—-—यज्ञ से संबद्ध गौण क्रिया
- अङ्गरक्षकः—पुं॰—अङ्ग-रक्षकः—-—शरीर रक्षक, व्यक्तिगत सेवक
- अङ्गरक्षणम्—नपुं॰—अङ्ग-रक्षणम्—-—किसी व्यक्ति की रक्षा
- अङ्गरक्षणी—स्त्री॰—अङ्ग-रक्षणी—-—कवच, पोशाक
- अङ्गरागः—पुं॰—अङ्ग-रागः—-—सुगन्धित लेप, शरीर पर सुगन्धित उबटन का लेप, सुगन्धित उबटन
- अङ्गरागः—पुं॰—अङ्ग-रागः—-—लेपन क्रिया
- अङ्गविकल—वि॰—अङ्ग-विकल—-—अपाहिज, लकवा मारा हुआ
- अङ्गविकल—वि॰—अङ्ग-विकल—-—मूर्छित
- अङ्गविकृतिः—स्त्री॰—अङ्ग-विकृतिः—-—शरीर में कोई विकार होना, अवसाद
- अङ्गविकृतिः—स्त्री॰—अङ्ग-विकृतिः—-—मिरगी का दौरा, मिरगी
- अङ्गविकारः—पुं॰—अङ्ग-विकारः—-—शारीरिक देष
- अङ्गविक्षेपः—पुं॰—अङ्ग-विक्षेपः—-—अंगों का हिलाना, शारीरिक चेष्टा
- अङ्गविद्या—स्त्री॰—अङ्ग-विद्या—-—ज्ञान के साधनभूत व्याकरण आदि शास्त्र
- अङ्गविद्या—स्त्री॰—अङ्ग-विद्या—-—अंगों की चेष्टा चिन्हों को देखकर शुभाशुभ कहने की विद्या
- अङ्गविधिः—पुं॰—अङ्ग-विधिः—-—गौण या सहायक अधिनियम जो कि मुख्य नियम का सहकारी है
- अङ्गवीरः —पुं॰—अङ्ग-वीरः —-—मुख्य या प्रधान नायक
- अङ्गवैकृतम्—नपुं॰—अङ्ग-वैकृतम्—-—संकेत इंगित या इशारा
- अङ्गवैकृतम्—नपुं॰—अङ्ग-वैकृतम्—-—सिर हिलाना, आँख झपकाना
- अङ्गवैकृतम्—नपुं॰—अङ्ग-वैकृतम्—-—परिवर्तित शारीरिक रूप
- अङ्गसंस्कारः—पुं॰—अङ्ग-संस्कारः—-—शरीर को आभूषणों से सुशोभित करना, शारीरिक अलंकरण
- अङ्गसंस्क्रिया—स्त्री॰—अङ्ग-संस्क्रिया—-—शरीर को आभूषणों से सुशोभित करना, शारीरिक अलंकरण
- अङ्गसंहतिः—स्त्री॰—अङ्ग-संहतिः—-—अंगसमष्टि, अंगों का सामंजस्य, शरीर, देहशक्ति
- अङ्गसङ्गः—पुं॰—अङ्ग-सङ्गः—-—शारीरिक संपर्क, मैथुन, संभोग
- अङ्गसेवकः—पुं॰—अङ्ग-सेवकः—-—निजी नौकर
- अङ्गहारः—पुं॰—अङ्ग-हारः—-—हाव भाव, नृत्य
- अङ्गहारिः—पुं॰—अङ्ग-हारिः—-—हावभाव
- अङ्गहारिः—पुं॰—अङ्ग-हारिः—-—रंगभूमि, रंगशाला
- अङ्गहीन—वि॰—अङ्ग-हीन—-—अपाहिज, विकलांग
- अङ्गहीन—वि॰—अङ्ग-हीन—-—विकृत अंगवाला
- अङ्गकम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्, स्वार्थे कन्—अङ्ग
- अङ्गकम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+अच्, स्वार्थे कन्—शरीर
- अङ्गणम्—नपुं॰—-—अङ्ग+ल्युट्, उणादित्वात् णत्व—जाना, चलना आदि
- अङ्गतिः—पुं॰—-—अङ्ग+अति—सवारी, यान
- अङ्गतिः—पुं॰—-—अङ्ग+अति—अग्नि
- अङ्गतिः—पुं॰—-—अङ्ग+अति—ब्रह्मा
- अङ्गतिः—पुं॰—-—अङ्ग+अति—अग्निहोत्री ब्राह्मण
- अङ्गदम्—नपुं॰—-—अंगं दायति द्यति वा, दै - दो+क—आभूषण, कंकण जो कोहनी के ऊपर भुजा में पहना जाता है, बाजूबन्द
- अङ्गदः—पुं॰—-—अङ्ग+दो+क—किष्किंधा के वानरराज बालि का पुत्र
- अङ्गदः—पुं॰—-—अङ्ग+दो+क—ऊर्मिला से उत्पन्न लक्ष्मण का पुत्र
- अङ्गनम्—नपुं॰—-—अङ्ग+ल्युट्—टहलने का स्थान, आंगन, चौक, सहन, बगड़
- गृहाङ्गणम् —नपुं॰—गृह-अङ्गनम् —-—व्यापक अन्तरिक्ष
- गगनाङ्गनम्—नपुं॰—गगन-अङ्गनम्—-—व्यापक अन्तरिक्ष
- अङ्गनम्—नपुं॰—-—अङ्ग+ल्युट्—सवारी
- अङ्गनम्—नपुं॰—-—अङ्ग+ल्युट्—जाना, चलना आदि
- अङ्गणम्—नपुं॰—-—अङ्ग+ल्युट्—टहलने का स्थान, आंगन, चौक, सहन, बगड़
- अङ्गणम्—नपुं॰—-—अङ्ग+ल्युट्—सवारी
- अङ्गणम्—नपुं॰—-—अङ्ग+ल्युट्—जाना, चलना आदि
- अङ्गना—स्त्री॰—-—प्रशस्तम् अङ्गम् अस्ति यस्याः - अङ्ग+न+टाप्—स्त्रीमात्र
- अङ्गना—स्त्री॰—-—प्रशस्तम् अङ्गम् अस्ति यस्याः - अङ्ग+न+टाप्—सुन्दर स्त्री
- अङ्गना—स्त्री॰—-—प्रशस्तम् अङ्गम् अस्ति यस्याः - अङ्ग+न+टाप्—कन्या राशि
- अङ्गनाजनः—पुं॰—अङ्गना-जनः—-—स्त्री जाति
- अङ्गनाजनः—पुं॰—अङ्गना-जनः—-—स्त्रियां
- अङ्गनाप्रिय—वि॰—अङ्गना-प्रिय—-—स्त्रियों का प्रिय
- अङ्गनाप्रियः—पुं॰—अङ्गना-प्रियः—-—अशोकवृक्ष
- अङ्गस्—पुं॰—-—अञ्ज्+असुन् कुत्वम्—पक्षी
- अङ्गारः—पुं॰—-—अङ्ग्+आरन्—कोयला
- अङ्गारः—पुं॰—-—अङ्ग्+आरन्—मंगल ग्रह
- अङ्गारम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+आरन्—लाल रंग
- अङ्गारधानिका—स्त्री॰—अङ्गारः-धानिका—-—अंगीठी, कांगड़ी
- अङ्गारपात्री—स्त्री॰—अङ्गारः-पात्री—-—अंगीठी, कांगड़ी
- अङ्गारशकटी—स्त्री॰—अङ्गारः-शकटी—-—अंगीठी, कांगड़ी
- अङ्गारवल्लरी—स्त्री॰—अङ्गारः-वल्लरी—-—नाना प्रकार के पौधों का नाम विशेषतः 'गुंजा', घुंघची
- अङ्गारवल्ली—स्त्री॰—अङ्गारः-वल्ली—-—नाना प्रकार के पौधों का नाम विशेषतः 'गुंजा', घुंघची
- अङ्गारकः—पुं॰—-—अङ्गार+स्वार्थे कन्—कोयला
- अङ्गारकः—पुं॰—-—अङ्गार+स्वार्थे कन्—मंगल ग्रह
- अङ्गारकचारः—पुं॰—अङ्गारकः-चारः—-—मंगल ग्रह का मार्ग
- अङ्गारकः—पुं॰—-—अङ्गार+स्वार्थे कन्—मंगलवार
- अङ्गारकदिनम्—नपुं॰—अङ्गारकः-दिनम्—-—मंगलवार
- अङ्गारकवासरः—पुं॰—अङ्गारकः-वासरः—-—मंगलवार
- अङ्गारकम्—नपुं॰—-—अङ्गार+स्वार्थे कन्—एक छोटी चिंगारी
- अङ्गारकमणिः—पुं॰—अङ्गारकः-मणिः—-—मूंगा
- अङ्गारकित—वि॰—-—अङ्गारक+इतच्—झुलसा हुआ, भूना हुआ
- अङ्गारिः—स्त्री॰—-—अंगार-मत्वर्थे ठन्-पृषो॰ कलोपः—कांगड़ी, अंगीठी
- अङ्गारिका—स्त्री॰—-—अंगार-मत्वर्थे ठन्-कप् च—कांगड़ी
- अङ्गारिका—स्त्री॰—-—अंगार-मत्वर्थे ठन्-कप् च—गन्ने की पोरी
- अङ्गारिका—स्त्री॰—-—अंगार-मत्वर्थे ठन्-कप् च—किंशुक वृक्ष की कली
- अङ्गारिणी—स्त्री॰—-—अंगार+इन्+ङीप्—छोटी अंगीठी
- अङ्गारिणी—स्त्री॰—-—अंगार+इन्+ङीप्—लता
- अङ्गारित—वि॰—-—अङगार+इतच्—झुलसा हुआ, भुना हुआ, अधजला
- अङ्गारितः—पुं॰—-—अङगार+इतच्—पलाश वृक्ष की कली
- अङ्गारितम्—नपुं॰—-—अङगार+इतच्+ टाप्—पलाश वृक्ष की कली
- अङ्गारिता—स्त्री॰—-—अङगार+इतच्+ टाप्—अंगीठी, कांगड़ी
- अङ्गारिता—स्त्री॰—-—अङगार+इतच्+ टाप्—कली
- अङ्गारिता—स्त्री॰—-—अङगार+इतच्+ टाप्—लता
- अङ्गारीय—वि॰—-—अङ्गार+छ—कोयला तैयार करने की सामग्री
- आङ्गिका—स्त्री॰—-—अङ्ग+क+टाप्—चोली, अंगिया
- अङ्गिन्—वि॰—-—अङ्ग+इन्—शारीरिक, देहधारी
- अङ्गिन्—वि॰—-—अङ्ग+इन्—गौण अंगों वाला, मुख्य, प्रधान
- अङ्गिरः—पुं॰—-—अङ्ग+अस्+इरुट्—ऋग्वेद के अनेक सूक्तों का द्रष्टा एक प्रसिद्ध ऋषि, अंगिरा ऋषि की सन्तान
- अङ्गिरस्—पुं॰—-—अङ्ग+अस्+इरुट्—ऋग्वेद के अनेक सूक्तों का द्रष्टा एक प्रसिद्ध ऋषि, अंगिरा ऋषि की सन्तान
- अङ्गीकरणम्—नपुं॰—-—अङ्ग+च्वि+कृ+ल्युट—स्वीकृति
- अङ्गीकरणम्—नपुं॰—-—अङ्ग+च्वि+कृ+ल्युट—सहमति, प्रतिज्ञा, जिम्मेदारी आदि
- अङ्गीकारः—पुं॰—-—अङ्ग+च्वि+कृ+घञ्—स्वीकृति
- अङ्गीकारः—पुं॰—-—अङ्ग+च्वि+कृ+घञ्—सहमति, प्रतिज्ञा, जिम्मेदारी आदि
- अङ्गीकृतिः—स्त्री॰—-—अङ्ग+कृ+क्तिन्—स्वीकृति
- अङ्गीकृतिः—स्त्री॰—-—अङ्ग+कृ+क्तिन्—सहमति, प्रतिज्ञा, जिम्मेदारी आदि
- अङ्गीय—वि॰—-—अङ्ग+छ—शरीर संबंधी
- अङ्गुः—पुं॰—-—अङ्ग्+उन्—हाथ
- अङ्गुरिः—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् रत्वम्—अंगुली
- अङ्गुरी—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् रत्वम्—अंगुली
- अङ्गुलः—पुं॰—-—अङ्ग्+उलच्—अंगुली
- अङ्गुलः—पुं॰—-—अङ्ग्+उलच्—अंगूठा
- अङ्गुलः—पुं॰—-—अङ्ग्+उलच्—अंगुल भर की नाप जो ८ जौ के बराबर होती है, १२ अंगुलियों की एक 'वितस्ति' या बालिस्त और २४ अंगुलियों का एक 'हाथ' का नअप होता है
- अङ्गुलिः—स्त्री॰—-—अंग्+उलि—अंगुली
- अङ्गुलिः—स्त्री॰—-—अंग्+उलि—अंगूठा, पैर का अंगूठा
- अङ्गुलिः—स्त्री॰—-—अंग्+उलि—हाथी की सूंड की नोंक
- अङ्गुलिः—स्त्री॰—-—अंग्+उलि—अंगुल, नाप विशेष
- अङ्गुली—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् दीर्घः—अंगुली
- अङ्गुली—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् दीर्घः—अंगूठा, पैर का अंगूठा
- अङ्गुली—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् दीर्घः—हाथी की सूंड की नोंक
- अङ्गुली—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् दीर्घः—अंगुल, नाप विशेष
- अङ्गुरिः—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् रत्वम्—अंगुली
- अङ्गुरिः—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् रत्वम्—अंगूठा, पैर का अंगूठा
- अङ्गुरिः—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् रत्वम्—हाथी की सूंड की नोंक
- अङ्गुरिः—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् रत्वम्—अंगुल, नाप विशेष
- अङ्गुरी—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् रत्वं दीर्घश्च—अंगुली
- अङ्गुरी—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् रत्वं दीर्घश्च—अंगूठा, पैर का अंगूठा
- अङ्गुरी—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् रत्वं दीर्घश्च—हाथी की सूंड की नोंक
- अङ्गुरी—स्त्री॰—-—अंग्+उलि, निपातनात् रत्वं दीर्घश्च—अंगुल, नाप विशेष
- अङ्गुलितोरणम्—नपुं॰—अङ्गुलिः-तोरणम्—-—मस्तक पर चन्दन का अर्ध चन्द्राकार तिलक
- अङ्गुलीतोरणम्—नपुं॰—अङ्गुली-तोरणम्—-—मस्तक पर चन्दन का अर्ध चन्द्राकार तिलक
- अङ्गुरितोरणम्—नपुं॰—अङ्गुरिः-तोरणम्—-—मस्तक पर चन्दन का अर्ध चन्द्राकार तिलक
- अङ्गुरीतोरणम्—नपुं॰—अङ्गुरी-तोरणम्—-—मस्तक पर चन्दन का अर्ध चन्द्राकार तिलक
- अङ्गुलित्रम्—नपुं॰—अङ्गुलिः-त्रम्—-—अंगूठे की रक्षा के निमित्त बना एक प्रकार का दस्ताना जिसे धनुर्धर पहनते हैं
- अङ्गुलीत्रम्—नपुं॰—अङ्गुली-त्रम्—-—अंगूठे की रक्षा के निमित्त बना एक प्रकार का दस्ताना जिसे धनुर्धर पहनते हैं
- अङ्गुरित्रम्—नपुं॰—अङ्गुरिः-त्रम्—-—अंगूठे की रक्षा के निमित्त बना एक प्रकार का दस्ताना जिसे धनुर्धर पहनते हैं
- अङ्गुरीत्रम्—नपुं॰—अङ्गुरी-त्रम्—-—अंगूठे की रक्षा के निमित्त बना एक प्रकार का दस्ताना जिसे धनुर्धर पहनते हैं
- अङ्गुलित्राणम्—नपुं॰—अङ्गुलिः-त्राणम्—-—अंगूठे की रक्षा के निमित्त बना एक प्रकार का दस्ताना जिसे धनुर्धर पहनते हैं
- अङ्गुलीत्राणम्—नपुं॰—अङ्गुली-त्राणम्—-—अंगूठे की रक्षा के निमित्त बना एक प्रकार का दस्ताना जिसे धनुर्धर पहनते हैं
- अङ्गुरित्राणम्—नपुं॰—अङ्गुरिः-त्राणम्—-—अंगूठे की रक्षा के निमित्त बना एक प्रकार का दस्ताना जिसे धनुर्धर पहनते हैं
- अङ्गुरीत्राणम्—नपुं॰—अङ्गुरी-त्राणम्—-—अंगूठे की रक्षा के निमित्त बना एक प्रकार का दस्ताना जिसे धनुर्धर पहनते हैं
- अङ्गुलिमुद्रा—स्त्री॰—अङ्गुलिः-मुद्रा—-—मोहर लगाने की अंगूठी
- अङ्गुलीमुद्रा—स्त्री॰—अङ्गुली-मुद्रा—-—मोहर लगाने की अंगूठी
- अङ्गुरिमुद्रा—स्त्री॰—अङ्गुरिः-मुद्रा—-—मोहर लगाने की अंगूठी
- अङ्गुरीमुद्रा—स्त्री॰—अङ्गुरी-मुद्रा—-—मोहर लगाने की अंगूठी
- अङ्गुलिमुद्रिका—स्त्री॰—अङ्गुलिः-मुद्रिका—-—मोहर लगाने की अंगूठी
- अङ्गुलीमुद्रिका—स्त्री॰—अङ्गुली-मुद्रिका—-—मोहर लगाने की अंगूठी
- अङ्गुरिमुद्रिका—स्त्री॰—अङ्गुरिः-मुद्रिका—-—मोहर लगाने की अंगूठी
- अङ्गुरीमुद्रिका—स्त्री॰—अङ्गुरी-मुद्रिका—-—मोहर लगाने की अंगूठी
- अङ्गुलिमोटनम्—नपुं॰—अङ्गुलिः-मोटनम्—-—चुटकी बजाना, अंगुली चटकाना
- अङ्गुलीमोटनम्—नपुं॰—अङ्गुली-मोटनम्—-—चुटकी बजाना, अंगुली चटकाना
- अङ्गुरिमोटनम्—नपुं॰—अङ्गुरिः-मोटनम्—-—चुटकी बजाना, अंगुली चटकाना
- अङ्गुरीमोटनम्—नपुं॰—अङ्गुरी-मोटनम्—-—चुटकी बजाना, अंगुली चटकाना
- अङ्गुलिस्फोटनम्—नपुं॰—अङ्गुलिः-स्फोटनम्—-—चुटकी बजाना, अंगुली चटकाना
- अङ्गुलीस्फोटनम्—नपुं॰—अङ्गुली-स्फोटनम्—-—चुटकी बजाना, अंगुली चटकाना
- अङ्गुरिस्फोटनम्—नपुं॰—अङ्गुरिः-स्फोटनम्—-—चुटकी बजाना, अंगुली चटकाना
- अङ्गुरीस्फोटनम्—नपुं॰—अङ्गुरी-स्फोटनम्—-—चुटकी बजाना, अंगुली चटकाना
- अङ्गुलिसंज्ञा—स्त्री॰—अङ्गुलिः-संज्ञा—-—अंगुलियों से संकेत
- अङ्गुलीसंज्ञा—स्त्री॰—अङ्गुली-संज्ञा—-—अंगुलियों से संकेत
- अङ्गुरिसंज्ञा—स्त्री॰—अङ्गुरिः-संज्ञा—-—अंगुलियों से संकेत
- अङ्गुरीसंज्ञा—स्त्री॰—अङ्गुरी-संज्ञा—-—अंगुलियों से संकेत
- अङ्गुलिसन्देशः—पुं॰—अङ्गुलिः-सन्देशः—-—अंगुलियों के इशारे से संकेत करना
- अङ्गुलीसन्देशः—पुं॰—अङ्गुली-सन्देशः—-—अंगुलियों के इशारे से संकेत करना
- अङ्गुरिसन्देशः—पुं॰—अङ्गुरिः-सन्देशः—-—अंगुलियों के इशारे से संकेत करना
- अङ्गुरीसन्देशः—पुं॰—अङ्गुरी-सन्देशः—-—अंगुलियों के इशारे से संकेत करना
- अङ्गुलिसम्भूतः—पुं॰—अङ्गुलिः-सम्भूतः—-—नाखून
- अङ्गुलीसम्भूतः—पुं॰—अङ्गुली-सम्भूतः—-—नाखून
- अङ्गुरिसम्भूतः—पुं॰—अङ्गुरिः-सम्भूतः—-—नाखून
- अङ्गुरीसम्भूतः—पुं॰—अङ्गुरी-सम्भूतः—-—नाखून
- अङ्गुलिका—स्त्री॰—-—-—अंगुलिः
- अङ्गुली—स्त्री॰—-—अंगुरि (लि) + छ - स्वार्थे कन्—अंगुठी
- अङ्गुरी—स्त्री॰—-—अंगुरि (लि) + छ - स्वार्थे कन्—अंगुठी
- अङ्गुलीयम्—नपुं॰—-—अंगुरि (लि) + छ—अंगुठी
- अङ्गुलीकम्—नपुं॰—-—अंगुरि (लि) + स्वार्थे कन्—अंगुठी
- अङ्गुलीयकम्—नपुं॰—-—अंगुरि (लि) + छ - स्वार्थे कन्—अंगुठी
- अङ्गुष्ठः—पुं॰—-—अंगु+स्था+क—अंगूठा, पैर का अंगूठा
- अङ्गुष्ठः—पुं॰—-—अंगु+स्था+क—अंगूठा भर' नाप विशेष जो अंगुल के समान होती है
- अङ्गुष्ठमात्र—वि॰—अङ्गुष्ठः-मात्र—-—अंगूठे की लम्बाई के बराबर
- अङ्गुष्ठ्यः—पुं॰—-—अंङ्गुष्ठे भवः - यत्—अंगूठे का नाखून
- अङ्गूषः—पुं॰—-—अङ्ग्+ऊषन्—नेवला
- अङ्गूषः—पुं॰—-—अङ्ग्+ऊषन्—तीर
- अङ्घ्—भ्वा॰ आ॰ अक॰ सेट् <अङ्घते>, <अङ्घित>—-—-—जाना
- अङ्घ्—भ्वा॰ आ॰ अक॰ सेट् <अङ्घते>, <अङ्घित>—-—-—आरंभ करना
- अङ्घ्—भ्वा॰ आ॰ अक॰ सेट् <अङ्घते>, <अङ्घित>—-—-—शीघ्रता करना
- अङ्घ्—भ्वा॰ आ॰ अक॰ सेट् <अङ्घते>, <अङ्घित>—-—-—धमकाना
- अङ्घस्—नपुं॰—-—अङ्घ्+असुन्—पाप
- अङ्घ्रिः—पुं॰—-—अङ्घ्+क्रिन्—पैर
- अङ्घ्रिः—पुं॰—-—अङ्घ्+क्रिन्—वृक्ष की जड़
- अङ्घ्रिः—पुं॰—-—अङ्घ्+क्रिन्—श्लोक का चौथा चरण
- अंह्रिः—पुं॰—-—अङ्घ्+क्रिन्—पैर
- अंह्रिः—पुं॰—-—अङ्घ्+क्रिन्—वृक्ष की जड़
- अंह्रिः—पुं॰—-—अङ्घ्+क्रिन्—श्लोक का चौथा चरण
- अङ्घ्रिपः—पुं॰—अङ्घ्रिः-पः—-—वृक्ष की जड़
- अंह्रिपः—पुं॰—अंह्रिः-पः—-—वृक्ष की जड़
- अङ्घ्रिपान—वि॰—अङ्घ्रिः-पान—-—बच्चे की भाँति अपने पैर का अंगुठा चुसने वाला
- अंह्रिपान—वि॰—अंह्रिः-पान—-—बच्चे की भाँति अपने पैर का अंगुठा चुसने वाला
- अङ्घ्रिस्कन्धः—पुं॰—अङ्घ्रिः-स्कन्धः—-—टखना
- अंह्रिःस्कन्धः—पुं॰—अंह्रिःस्कन्धः—-—टखना
- अच्—भ्वा॰ उभ॰ इदित् अक॰ वेट् <अचति>, <अचते>, <अञ्चति>, <आनञ्च>, <अञ्चित>, <अक्त> —-—-—जाना, हिलना
- अच्—भ्वा॰ उभ॰ इदित् अक॰ वेट् <अचति>, <अचते>, <अञ्चति>, <आनञ्च>, <अञ्चित>, <अक्त> —-—-—सम्मान करना, प्रार्थना करना आदि
- अच्—पुं॰—-—-—स्वरों के लिए प्रयुक्त शब्द
- अचक्षुस्—वि॰,न॰ ब॰—-—-—नेत्रहीन, अंधा
- अचक्षुविषय —वि॰—अचक्षुस्-विषय —-—अदृश्य
- अचक्षुस्—नपुं॰—-—-—खराब आँख, रोगी आँख
- अचण्ड—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो क्रोधी स्वभाव का न हो, शान्त, सौम्य
- अचतुर—वि॰,न॰ ब॰—-—-—चार' की संख्या से रहित
- अचतुर—वि॰,न॰ त॰—-—-—अनाड़ी
- अचर—वि॰,न॰ त॰—-—-—स्थिर
- अचल—वि॰,न॰ त॰—-—-—दृढ़, स्थिर, निश्चित, स्थायी
- अचलः—पुं॰—-—-—पहाड़, चट्टान
- अचलः—पुं॰—-—-—काबला या कील
- अचलः—पुं॰—-—-—सात की संख्या
- अचला—स्त्री॰—-—-—पृथ्वी
- अचलम्—नपुं॰—-—-—ब्रह्म
- अचलकन्यका—स्त्री॰—अचल-कन्यका—-—हिमालय पर्वत की पुत्री 'पार्वती'
- अचलतनया—स्त्री॰—अचल-तनया—-—हिमालय पर्वत की पुत्री 'पार्वती'
- अचलदुहिता—स्त्री॰—अचल-दुहिता—-—हिमालय पर्वत की पुत्री 'पार्वती'
- अचलसुता—स्त्री॰—अचल-सुता—-—हिमालय पर्वत की पुत्री 'पार्वती'
- अचलकीला—स्त्री॰—अचल-कीला—-—पृथ्वी
- अचलज—वि॰—अचल-ज—-—पहाड़ पर उत्पन्न
- अचलजात—वि॰—अचल-जात—-—पहाड़ पर उत्पन्न
- अचलजा—स्त्री॰—अचल-जा—-—पार्वती
- अचलजाता—स्त्री॰—अचल-जाता—-—पार्वती
- अचलत्विष्—पुं॰—अचल-त्विष्—-—कोयल
- अचलद्विष्—पुं॰—अचल-द्विष्—-—पर्वतों का शत्रु, इन्द्र का विशेषण जिसने पहाड़ों के पंख काट दिए थे
- अचापल—वि॰,न॰ ब॰—-—-—चंचलतारहित, स्थिर
- अचापल्य—वि॰,न॰ ब॰—-—-—चंचलतारहित, स्थिर
- अचापलम्—नपुं॰—-—-—स्थिरता
- अचापल्यम्—नपुं॰—-—-—स्थिरता
- अचित्—वि॰,न॰ त॰—-—नञ्+चित्+क्विप् —समझदारी से रहित
- अचित्—वि॰,न॰ त॰—-—नञ्+चित्+क्विप् —धर्मशून्य
- अचित्—वि॰,न॰ त॰—-—नञ्+चित्+क्विप् —जड़
- अचित—वि॰,न॰ त॰—-—न चित इति—गया हुआ
- अचित—वि॰,न॰ त॰—-—न चित इति—अविचारित
- अचित—वि॰,न॰ त॰—-—न चित इति—एकत्र न किया हुआ
- अचित्त—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अकल्पनीय
- अचित्त—वि॰,न॰ ब॰—-—-—बुद्धिरहित, अज्ञान, मूर्ख
- अचित्त—वि॰,न॰ ब॰—-—-—न सोचा हुआ
- अचिन्तनीय—वि॰—-—नञ्+चिन्त्+अनीयर्—जो सोचा भी न जा सके, समझ से परे
- अचिन्त्य—वि॰—-—नञ्+चिन्त्+यत्—जो सोचा भी न जा सके, समझ से परे
- अचिन्तित—वि॰,न॰ त॰—-—-—अप्रत्याशित, आकस्मिक
- अचिर—वि॰,न॰ त॰—-—-—संक्षिप्त, क्षणिक, क्षणस्थायी
- अचिर—वि॰,न॰ त॰—-—-—नया
- अचिरप्रसूता—स्त्री॰—अचिर-प्रसूता—-—अभी-अभी जिसने बच्चे को पैदा किया है अथवा गाय जिसने बछड़े को जन्म दिया है
- अचिरम्—क्रि॰ वि॰—-—-—बहुत देर नहीं हुई, अभी कुछ पहले
- अचिरम्—नपुं॰—-—-—हाल ही में, अभी
- अचिरम्—नपुं॰—-—-—शीघ्र, जल्दी, बहुत देर न करके
- अचिरांशु—स्त्री॰—अचिर-अंशु—-—बिजली
- अचिराभा—स्त्री॰—अचिर-आभा—-—बिजली
- अचिरद्युति—स्त्री॰—अचिर-द्युति—-—बिजली
- अचिरप्रभा—स्त्री॰—अचिर-प्रभा—-—बिजली
- अचिरभास्—स्त्री॰—अचिर-भास्—-—बिजली
- अचिररोचिस्—स्त्री॰—अचिर-रोचिस्—-—बिजली
- अचेतन—वि॰,न॰ ब॰—-—-—निर्जीव, अबोध
- अचेतन—वि॰,न॰ ब॰—-—-—बोधरहित, अज्ञानी
- अच्छ—वि॰—-—नञ्+छो+क—स्वच्छ, निर्मल, पारदर्शक, विशुद्ध
- अच्छः—पुं॰—-—नञ्+छो+क—स्फटिक
- अच्छः—पुं॰—-—नञ्+छो+क—भालू
- अच्छोदन—वि॰—अच्छ-उदन—-—स्वच्छ जल वाला
- अच्छोदम्—नपुं॰—-—-—कादम्बरी में वर्णित हिमालय पर्वत पर स्थित एक झील
- अच्छभल्लः—पुं॰—अच्छ-भल्लः—-—रीछ
- अच्छ—अव्य॰—-—-—की ओर, की तरफ
- अच्छा—अव्य॰—-—-—की ओर, की तरफ
- अच्छन्दस्—वि॰,न॰ ब॰—-—-—उपनीत न होने के कारण या शूद्र होने के कारण वेद को न पढ़ने वाला
- अच्छन्दस्—वि॰, न॰ ब॰—-—-—छन्दरहित रचना
- अच्छावाकः—पुं॰—-—अच्छ+वच्+घञ्—सोमयाग का ऋत्विक् जो होता का सहायक होता है
- अच्छिद्र—वि,न॰ ब॰—-—-—छिद्ररहित, अक्षत, निर्दोष, दोषरहित
- अच्छिद्रम्—नपुं॰—-—-—निर्दोष कार्य या दशा, दोष का अभाव,
- अच्छिद्रेण—नपुं॰—-—-—बिना रुके, आदि से अन्त तक
- अच्छिन्न—वि॰, न॰ त॰—-—-—अटूट, लगातार चलने वाला, अनवरत
- अच्छिन्न—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो कटा न हो, अविभक्त, अक्षत, अखंड्य
- अच्छोटनम्—नपुं॰—-—नञ्-छुट्+णिच्+ल्युट्—आखेट, शिकार
- अच्युत—वि॰,न॰ त॰ —-—-—अपने स्वरूप से न गिरा हुआ, दृढ़, स्थिर, निर्विकार, अचल
- अच्युत—वि॰,न॰ त॰ —-—-—अनश्वर, स्थायी
- अच्युतः—पुं॰—-—-—विष्णु, सर्वशक्तिमान् प्रभु
- अच्युताग्रजः—पुं॰—अच्युत-अग्रजः—-—बलराम या इन्द्र
- अच्युताङ्गजः—पुं॰—अच्युत-अङ्गजः—-—कामदेव, कृष्ण और रुक्मिणी का पुत्र
- अच्युतात्मजः—पुं॰—अच्युत-आत्मजः—-—कामदेव, कृष्ण और रुक्मिणी का पुत्र
- अच्युतपुत्रः—पुं॰—अच्युत-पुत्रः—-—कामदेव, कृष्ण और रुक्मिणी का पुत्र
- अच्युतावासः—पुं॰—अच्युत-आवासः—-—पीपल का वृक्ष
- अच्युतवासः—पुं॰—अच्युत-वासः—-—पीपल का वृक्ष
- अज्—भ्वा॰ पर॰ अक॰ सेट्॰-<अजति>, <आजीत्>, <अजितुम्>, <अजित्>, <वीत>—-—-—जाना
- अज्—भ्वा॰ पर॰ अक॰ सेट्॰-<अजति>, <आजीत्>, <अजितुम्>, <अजित्>, <वीत>—-—अजति, आजीत्, अजितुम्, अजित् - वीत—हांकना, नेतृत्व करना
- अज्—भ्वा॰ पर॰ अक॰ सेट्॰-<अजति>, <आजीत्>, <अजितुम्>, <अजित्>, <वीत>—-—अजति, आजीत्, अजितुम्, अजित् - वीत—फेंकना
- अज—वि॰,न॰ त॰ —-—न जायते नञ् - जन्+ड—अजन्मा, अनादि
- अजः—वि॰,न॰ त॰ —-—न जायते नञ् - जन्+ड—अज' सर्वशक्तिमान प्रभु का विशेषण, विष्णु, शिव, ब्रह्मा
- अजः—वि॰,न॰ त॰ —-—न जायते नञ् - जन्+ड—आत्मा, जीव
- अजः—वि॰,न॰ त॰ —-—नञ् - जन्+ड—मेंढा, बकरा
- अजः—वि॰,न॰ त॰ —-—नञ् - जन्+ड—मेषराशि
- अजः—वि॰,न॰ त॰ —-—नञ् - जन्+ड—अन्न का एक प्रकार
- अजः—वि॰,न॰ त॰ —-—नञ् - जन्+ड—चन्द्रमा, कामदेव
- अजादनी—स्त्री॰—अज-अदनी—-—कटीली, काकमाची, धमासा
- अजाविकम्—नपुं॰—अज-अविकम्—-—छोटा पशु
- अजाश्वम्—नपुं॰—अज-अश्वम्—-—बकरे और घोड़े
- अजैडकम्—नपुं॰—अज-एडकम्—-—बकरे और मेंढे
- अजगरः—पुं॰—अज-गरः—-—अजगर नामक भारी साँप जो, कहते हैं बकरियों को निगल जाता है
- अजगरी—स्त्री॰—अज-गरी—-—एक पौधे का नाम
- अजगल—पुं॰—अज-गल—-—बकरियों का गला
- अजजीवः—पुं॰—अज-जीवः—-—गड़रिया
- अजजीविकः—पुं॰—अज-जीविकः—-—गड़रिया
- अजपः—पुं॰—अज-पः—-—कसाई
- अजपः—पुं॰—अज-पः—-—एकप्रदेश का नाम
- अजपालः—पुं॰—अज-पालः—-—कसाई
- अजपालः—पुं॰—अज-पालः—-—एकप्रदेश का नाम
- अजमारः—पुं॰—अज-मारः—-—कसाई
- अजमारः—पुं॰—अज-मारः—-—एकप्रदेश का नाम
- अजमीढः—पुं॰—अज-मीढः—-—अजमेर नामक स्थान का नाम
- अजमीढः—पुं॰—अज-मीढः—-—युधिष्ठिर की उपाधि
- अजमोदा—स्त्री॰—अज-मोदा—-—अजमोद - एक औषध का नाम जिसे मराठी में 'ओंवा' कहते हैं
- अजमोदिका—स्त्री॰—अज-मोदिका—-—अजमोद - एक औषध का नाम जिसे मराठी में 'ओंवा' कहते हैं
- अजशृङ्गी—स्त्री॰—अज-शृङ्गी—-—मेढासिंगी' पौधे का नाम
- अजकवः—पुं॰—-—अजं विष्णुं कं ब्रह्माणं वातीति - वा+क—शिव का धनुष
- अजकवम्—नपुं॰—-—अजं विष्णुं कं ब्रह्माणं वातीति - वा+क—शिव का धनुष
- अजका—स्त्री॰—-—स्वार्थे कन्+टाप्—छोटी बकरी, बकरी का बच्चा
- अजिका—स्त्री॰—-—स्वार्थे कन्+टाप्—छोटी बकरी, बकरी का बच्चा
- अजकावः—पुं॰—-—अजं विष्णुं कं ब्रह्माणम् अवति इति अव्+अण् —शिव का धनुष, पिनाक
- अजकावम्—नपुं॰—-—अजं विष्णुं कं ब्रह्माणम् अवति इति अव्+अण् —शिव का धनुष, पिनाक
- अजगवम्—नपुं॰—-—अजगो विष्णुस्तं वातीति - वा+क—शिव का धनुष, पिनाक
- अजगावः—पुं॰—-—अजगो विष्णुस्तमवतीति - अव+अण्—शिव का धनुष, पिनाक
- अजड—वि॰, न॰ ब॰—-—-—जो जड न हो , समझदार
- अजन—वि॰, न॰ ब॰—-—-—जनशून्य, बियाबान
- अजनिः—स्त्री॰—-—अज्+अनि—पथ, मार्ग
- अजन्मन्—वि॰—-—-—अनुत्पन्न, 'अजन्मा' प्रभु का विशेषण
- अजन्मन्—पुं॰—-—-—परमानन्द, छुटकारा, अपमुक्ति
- अजन्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—उत्पन्न होने के अयोग्य, मानव जाति के प्रतिकूल
- अजन्यम्—नपुं॰—-—-—अपशकुनसूचक अशुभ घटना जैसे कि भूचाल
- अजपः—पुं॰—-—-—वह ब्राह्मण जो सन्ध्योपासना उचित रूप से नहीं करता है
- अजम्भ—वि॰, न॰ ब॰—-—-—दांत रहित
- अजम्भः—पुं॰—-—-—मेढक
- अजम्भः—पुं॰—-—-—सूर्य
- अजम्भः—पुं॰—-—-—बच्चे की वह अवस्था जब उसके दांत नहीं निकले हैं
- अजय—वि॰,न॰ ब॰—-—-—जो जीता न जा सके, जो हराया न जा सके, नाय
- अजयः—पुं॰—-—-—हार, पराजय
- अजया—स्त्री॰—-—-—भांग
- अजय्य—वि॰, न॰ त॰—-—नञ्+जि+यत्—जो जीता न जा सके
- अजर—वि॰, न॰ त॰—-—-—जिसे कभी बुढ़ापा न आवे, सदा जवान
- अजर—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो कभी न मुर्झावे, अनश्वर
- अजरः—पुं॰—-—-—देवता
- अजरम्—नपुं॰—-—-—परमात्मा
- अजर्यम्—नपुं॰—-—नञ्+जृ+यत् —मित्रता
- अजस्र—वि॰, न॰ त॰—-—नञ्+जस्+र—अविच्छिन्न, अनवरत, लगातार रहने वाला
- अजस्रम्—अव्य॰—-—-—सदा, अनवरत, लगातार
- अजहत्स्वार्था—स्त्री॰, न॰ ब॰—-—न जहत् स्वार्थोऽत्र - हा+शतृ—लक्षणा शक्ति का एक भेद जिसमें मुख्यार्थ पद - शून्यता के कारण नष्ट नहीं होता;
- अजहल्लिङ्गम्—नपुं॰—-—न जहत् लिङ्ग यत्, हा+शतृ —संज्ञा शब्द जिसका रूप नहीं बदलता चाहे वह विशेषण की भांति ही क्यों न प्रयुक्त किया जाय
- अजा—स्त्री॰—-—नञ्+जन्+ड+टाप्—प्रकृति या माया
- अजा—स्त्री॰—-—नञ्+जन्+ड+टाप्—बकरी
- अजागलस्तनः—पुं॰—अजा-गलस्तनः—-—बकरियों के गल में लटकने वाला थन
- अजाजीवः—पुं॰—अजा-जीवः—-—गडरिया
- अजापालकः—पुं॰—अजा-पालकः—-—गडरिया
- अजाजिः—स्त्री॰—-—अजेन आजः त्यागः यस्याम् - अज+आज+इन्—सफेद या काला जीरा
- अजात—वि॰, न॰ त॰—-—-—अनुत्पन्न, जो अभी उत्पन्न न हुआ हो, पैदा न किया गया हो, अविकसित हो
- अजातारि—वि॰—अजात-अरि—-—जिसका कोई श्त्रु न हो, जो किसी का श्त्रु न हो
- अजातशत्रु—वि॰—अजात-शत्रु—-—जिसका कोई श्त्रु न हो, जो किसी का श्त्रु न हो
- अजातारिः—पुं॰—अजात-अरिः—-—युधिष्ठिर' की उपाधियाँ, शिव तथा दूसरे अनेक देवताओं की उपाधि
- अजातशत्रुः—पुं॰—अजात-शत्रुः—-—युधिष्ठिर' की उपाधियाँ, शिव तथा दूसरे अनेक देवताओं की उपाधि
- अजातककुत्—पुं॰—अजात-ककुत्—-—थोड़ी उम्र का बैल जिसका कुब्ब अभी न निकला हो
- अजातककुद्—पुं॰—अजात-ककुद्—-—थोड़ी उम्र का बैल जिसका कुब्ब अभी न निकला हो
- अजातव्यञ्जन—वि॰—अजात-व्यञ्जन—-—जिसके दाढ़ी आदि अभिज्ञान चिह्न न हों
- अजातव्यवहारः—पुं॰—अजात-व्यवहारः—-—अवयस्क, नाबालिग जिसको अभी तक वयस्कता न मिली हो
- अजानिः—पुं॰—-—नास्ति जाया यस्य - जायाया निङादेशः—जिसकए स्त्री न हो, पत्नीहीन, विधुर
- अजानिकः—पुं॰—-—अजेन आनो जीवनं यस्य - ठन्—गडरिया, बकरियों का व्यापारी
- अजानेय—वि॰—-—अजेऽपि आनेयः - यथास्थानं प्रापणीयः इति अज्+अप - आ+नी +यत्—उत्तम कुल का, निर्भय
- अजित —वि॰—-—नञ्+जि+क्त—जो जीता न जा सके, अजेय, दुर्धर
- अजित —वि॰—-—नञ्+जि+क्त—न जीता हुआ, अनियन्त्रित, अनिरुद्ध
- अजितात्मन् —वि॰—अजित-आत्मन् —-—जिसने अपने मन या इन्द्रियों का दमन नहीं किया है
- अजितेन्द्रिय—वि॰—अजित -इन्द्रिय—-—जिसने अपने मन या इन्द्रियों का दमन नहीं किया है
- अजितः —पुं॰—-—-—विष्णु, शिव या बुद्ध
- अजिनम्—नपुं॰—-—अज्+इनच्—बाघ, सिंह या हाथी आदि, विशेषकर काले हिरण की रोएँदार खाल जिसके आसन बनते हैं या जो पहनने के काम में आती है
- अजिनम्—नपुं॰—-—अज्+इनच्—चमड़े का थैला या धौंकनी
- अजिनपत्रा—स्त्री॰—अजिनम्-पत्रा—-—चमगादड़
- अजिनपत्री—स्त्री॰—अजिनम्-पत्री—-—चमगादड़
- अजिनपत्रिका—स्त्री॰—अजिनम्-पत्रिका—-—चमगादड़
- अजिनयोनिः—स्त्री॰—अजिनम्-योनिः—-—हरिण, कृष्णसार, मृग
- अजिनवासिन्—वि॰—अजिनम्-वासिन्—-—मृग-चर्म पहनने वाला
- अजिनसन्धः—पुं॰—अजिनम्-सन्धः—-—मृगचर्म का व्यवसाय करने वाला
- अजिर—वि॰—-—अज्+किरन्—शीघ्रगामी, स्फूर्तिवान्
- अजिरम्—नपुं॰—-—अज्+किरन्—आंगन, अहाता, अखाड़ा
- अजिरम्—नपुं॰—-—अज्+किरन्—शरीर
- अजिरम्—नपुं॰—-—अज्+किरन्—इन्द्रियगम्य पदार्थ
- अजिरम्—नपुं॰—-—अज्+किरन्—वायु
- अजिरम्—नपुं॰—-—अज्+किरन्—मेंढक
- अजिरा—स्त्री॰—-—अज्+किरन्+ टाप्—एक नदी का नाम
- अजिरा—स्त्री॰—-—अज्+किरन्+ टाप्—दुर्गा का नाम
- अजिह्म—वि॰, न॰ त॰—-—-—सीधा
- अजिह्म—वि॰, न॰ त॰—-—-—सच्चा, खरा, ईमानदार, बेलाग और खरा
- अजिह्मः—पुं॰—-—-—मेंढक
- अजिह्मग—वि॰—अजिह्म-ग—-—सीधा चलने वाला
- अजिह्मगः—पुं॰—अजिह्म-गः—-—तीर
- अजिह्वः—पुं॰—-—-—मेंढक
- अजीकवम्—नपुं॰—-—अज्या शरक्षेपेण कं ब्राह्मणं वाति प्रीणाति वा+क—शिव का धनुष
- अजीगर्तः—पुं॰—-—अज्यै गमनाय गर्तं यस्य—साँप
- अजीर्ण—वि॰, न॰ त॰—-—-—न पचा हुआ, न सड़ा हुआ
- अजीर्णम्—नपुं॰—-—-—अपच
- अजीर्णिः—स्त्री॰—-—नञ्+जॄ+क्तिन्—मन्दाग्नि
- अजीर्णिः—स्त्री॰—-—नञ्+जॄ+क्तिन्—बल, शक्ति, क्षय का अभाव
- अजीव—वि॰, न॰ ब॰—-—-—निर्जीव, जीव रहित
- अजीवः—पुं॰—-—-—सत्ता का अभाव, मृत्यु
- अजीवनिः—स्त्री॰—-—नञ्+जीव्+अनि—मृत्यु, सत्ता का अभाव
- अज्झलम्—नपुं॰—-—-—ढाल
- अज्झलम्—नपुं॰—-—-—जलता हुआ कोयला
- अज्ञ—वि॰, न॰ त॰—-—नञ्+ज्ञा+क—न जानने वाला, ज्ञान रहित, अनुभवहीन
- अज्ञ—वि॰, न॰ त॰—-—नञ्+ज्ञा+क—अज्ञानी, अनसमझ, मूर्ख, मूढ, जड़
- अज्ञ—वि॰, न॰ त॰—-—नञ्+ज्ञा+क—अजान, समझ की शक्ति से हीन
- अज्ञात—वि॰, न॰ त॰—-—-—न्अ जाना हुआ, अप्रत्याशित, अनजान
- अज्ञातचर्या—स्त्री॰—अज्ञात-चर्या—-—छिप कर रहना
- अज्ञातवासः—पुं॰—अज्ञात-वासः—-—छिप कर रहना
- अज्ञान—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अनजान, बेसमझ
- अज्ञानम्—नपुं॰—-—-—अनजानपना
- अज्ञानम्—नपुं॰—-—-—विशेष करके आध्यात्मिक अज्ञान
- अञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्-<अञ्चति>, <अञ्चते>, <आनञ्च>, <अञ्चितुं>, <अञ्च्यात्>, <अच्यात्>, <अक्त>, <अञ्चित>—-—-—झुकाना
- अञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्-<अञ्चति>, <अञ्चते>, <आनञ्च>, <अञ्चितुं>, <अञ्च्यात्>, <अच्यात्>, <अक्त>, <अञ्चित>—-—-—जाना, हिलना, झुकाव होना, लालायित होना
- अञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्-<अञ्चति>, <अञ्चते>, <आनञ्च>, <अञ्चितुं>, <अञ्च्यात्>, <अच्यात्>, <अक्त>, <अञ्चित>—-—-—पूजा करना, सम्मान करना, आदर करना, सुशोभित करना, सम्मानित करना
- अञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्-<अञ्चति>, <अञ्चते>, <आनञ्च>, <अञ्चितुं>, <अञ्च्यात्>, <अच्यात्>, <अक्त>, <अञ्चित>—-—-—मुड़ा हुआ, झुका हुआ
- अञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्-<अञ्चति>, <अञ्चते>, <आनञ्च>, <अञ्चितुं>, <अञ्च्यात्>, <अच्यात्>, <अक्त>, <अञ्चित>—-—-—धनुषाकार, सुन्दर, छल्लेदार, घुंघराले
- अञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्-<अञ्चति>, <अञ्चते>, <आनञ्च>, <अञ्चितुं>, <अञ्च्यात्>, <अच्यात्>, <अक्त>, <अञ्चित>—-—-—सम्मानित, अलंकृत, सुशोभित, शोभायमान, सुन्दर
- अञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्-<अञ्चति>, <अञ्चते>, <आनञ्च>, <अञ्चितुं>, <अञ्च्यात्>, <अच्यात्>, <अक्त>, <अञ्चित>—-—-—सीला हुआ, बुना हुआ, व्यवस्थित, अर्धगुम्फित या पिरोया हुआ
- अञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्-<अञ्चति>, <अञ्चते>, <आनञ्च>, <अञ्चितुं>, <अञ्च्यात्>, <अच्यात्>, <अक्त>, <अञ्चित>—-—-—प्रार्थना करना, इच्छा करना
- अञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्-<अञ्चति>, <अञ्चते>, <आनञ्च>, <अञ्चितुं>, <अञ्च्यात्>, <अच्यात्>, <अक्त>, <अञ्चित>—-—-—बुड़बुड़ाना, अस्पष्ट बोलना
- अञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ प्रेर॰, चु॰ उभ॰—-—-—प्रकट करना, प्रकाशित करना
- अपञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्—अप्-अञ्च्—-—दूर करना, हटाना, हट जाना
- आञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्—आ-अञ्च्—-—झुकाना
- उदञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्—उत्-अञ्च्—-—ऊपर उठना
- उदञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्—उत्-अञ्च्—-—उन्नत होना, प्रकट होना
- उपञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्—उप्-अञ्च्—-—खींचना, ऊपर निकालना
- न्यञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्—नि-अञ्च्—-—झुकाना, इच्छा करना
- न्यञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्—नि-अञ्च्—-—कम करना, अपेक्षा करना
- पराञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्—परा-अञ्च्—-—मोड़ना, मुड़ना
- पर्यञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्—परि-अञ्च्—-—घुमाना, भंवर में डालना, मरोड़ना
- व्यञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्—वि-अञ्च्—-—खींचना, नीचे को झुकना, फैलना, फैलाना
- समञ्च्—भ्वा॰ उभ॰ सक॰ वेट्—सम्-अञ्च्—-—भीड़ करना, इकट्ठे हांकना, इकट्ठे झुकना
- अञ्चलः—पुं॰—-—अञ्च+अलच्—वस्त्र का छोर या किनारा, गोट या झालर
- अञ्चलः—पुं॰—-—अञ्च+अलच्—कोना या आँख का बाहरी कोण
- अञ्चलम्—नपुं॰—-—अञ्च+अलच्—वस्त्र का छोर या किनारा, गोट या झालर
- अञ्चलम्—नपुं॰—-—अञ्च+अलच्—कोना या आँख का बाहरी कोण
- अञ्चित—वि॰,भू॰ क॰ कृ॰—-—अञ्च्+क्त—मुड़ा हुआ, झुका हुआ
- अञ्चित—वि॰,भू॰ क॰ कृ॰—-—अञ्च्+क्त—धनुषाकार, सुन्दर, छल्लेदार, घुंघराले
- अञ्चित—वि॰,भू॰ क॰ कृ॰—-—अञ्च्+क्त—सम्मानित, अलंकृत, सुशोभित, शोभायमान, सुन्दर
- अञ्चित—वि॰,भू॰ क॰ कृ॰—-—अञ्च्+क्त—सीला हुआ, बुना हुआ, व्यवस्थित, अर्धगुम्फित या पिरोया हुआ
- अञ्चितभ्रूः—स्त्री॰—अञ्चित-भ्रूः—-—धनुषाकार या सुन्दर भौओं वाली स्त्री
- अञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्-<अनक्ति>, <अंक्ते>, <अक्त>—-—-—लेपना, सानना, रंग पोतना
- अञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्-<अनक्ति>, <अंक्ते>, <अक्त>—-—-—स्पष्ट करना, प्रस्तुत करना, चित्रण करना
- अञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्-<अनक्ति>, <अंक्ते>, <अक्त>—-—-—जाना
- अञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्-<अनक्ति>, <अंक्ते>, <अक्त>—-—-—चमकना
- अञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्-<अनक्ति>, <अंक्ते>, <अक्त>—-—-—स्म्मानित करना, समारंभ करना
- अञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्-<अनक्ति>, <अंक्ते>, <अक्त>—-—-—सजाना
- अञ्ज्—पुं॰—-—-—सानना
- अञ्ज्—पुं॰—-—-—बोलना, चमकना, उपसर्गों के साथ
- अध्यञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्—अधि-अञ्ज्—-—उपकरण जुटाना, सुसज्जित करना
- अभ्यञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्—अभि-अञ्ज्—-—लीपना, सानना
- अभ्यञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्—अभि-अञ्ज्—-—कलुषित करना
- अभिव्यञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्—अभिवि-अञ्ज्—-—प्रकट करना, व्यक्त करना
- आञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्—आ-अञ्ज्—-—लेप करना
- आञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्—आ-अञ्ज्—-—सरल बनाना, तैयार करना
- आञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्—आ-अञ्ज्—-—सम्मानित करना
- व्यञ्ज्—रुधा॰ पर॰ सक॰ अनिट्—वि-अञ्ज्—-—प्रकट करना, व्यक्त करना, जाहिर करना
- अञ्जनः—पुं॰—-—अञ्ज्+ल्युट्—रक्षक हाथी
- अञ्जनम्—नपुं॰—-—अञ्ज्+ल्युट्—लीपना-पोतना, मिलाना
- अञ्जनम्—नपुं॰—-—अञ्ज्+ल्युट्—प्रकट करना, व्यक्त करना
- अञ्जनम्—नपुं॰—-—अञ्ज्+ल्युट्—काजल या सुरमा जो आँखों में लगाया जाता है
- अञ्जनम्—नपुं॰—-—अञ्ज्+ल्युट्—लेप, सौंदर्य-वर्धक उबटन
- अञ्जनम्—नपुं॰—-—अञ्ज्+ल्युट्—मसी
- अञ्जनम्—नपुं॰—-—अञ्ज्+ल्युट्—आग
- अञ्जनम्—नपुं॰—-—अञ्ज्+ल्युट्—रात्रि
- अञ्जनम्—नपुं॰—-—अञ्ज्+ल्युट्—व्यंग्यार्थ, व्यंग्यार्थ के प्रकट होने की प्रक्रिया, अनेकार्थक शब्द का प्रयोग जिसका प्रसंगतः विशेष अर्थ होता है
- अञ्जना—स्त्री॰—-—अञ्ज्+ल्युट्+टाप्—व्यंग्यार्थ, व्यंग्यार्थ के प्रकट होने की प्रक्रिया, अनेकार्थक शब्द का प्रयोग जिसका प्रसंगतः विशेष अर्थ होता है
- अञ्जनाम्भस्—नपुं॰—अञ्जनः-अम्भस्—-—आँख का पानी
- अञ्जनशलाका—स्त्री॰—अञ्जनः-शलाका—-—सुरमा लगाने की सलाई
- अञ्जना—स्त्री॰—-—अञ्ज्+ल्युट्+टाप्—उत्तर भारत की हथिनी
- अञ्जना—स्त्री॰—-—अञ्ज्+ल्युट्+टाप्—हनुमान या मारुति की माता
- अञ्जलिः—पुं॰—-—अञ्ज्+अलि—दोनों खुले हाथों को मिलाकर बनाया हुआ कटोरा, करसंपुट, अंजलिभर वस्तु, अंजलि भर फूल,दस अंजलियां अर्थात् जल से तर्पण
- अञ्जलिंरच्——-—-—हाथ जोड़कर नमस्कार करना
- अञ्जलिंरच्——-—-—अत एव सम्मान या नमस्कार का चिह्न
- अञ्जलिंरच्——-—-—अनाज की माप = कुडव
- अञ्जलिम्बन्ध्——-—-—हाथ जोड़कर नमस्कार करना
- अञ्जलिम्बन्ध्——-—-—अत एव सम्मान या नमस्कार का चिह्न
- अञ्जलिम्बन्ध्——-—-—अनाज की माप = कुडव
- अञ्जलिंकृ——-—-—हाथ जोड़कर नमस्कार करना
- अञ्जलिंकृ——-—-—अत एव सम्मान या नमस्कार का चिह्न
- अञ्जलिंकृ——-—-—अनाज की माप = कुडव
- अञ्जल्याधा—पुं॰—-—-—हाथ जोड़कर नमस्कार करना
- अञ्जल्याधा—पुं॰—-—-—अत एव सम्मान या नमस्कार का चिह्न
- अञ्जल्याधा—पुं॰—-—-—अनाज की माप = कुडव
- अञ्जलिकर्मन्—नपुं॰—अञ्जलिः-कर्मन्—-—हाथ जोड़ना, आदरयुत नमस्कार
- अञ्जलिकारिका—स्त्री॰—अञ्जलिः-कारिका—-—मिट्टी की गुड़िया
- अञ्जलिपुटः—पुं॰—अञ्जलिः-पुटः—-—दोनों खुले हाथों को जोड़ने से बने कटोरे के आकार का गर्त, हाथ की खुली हथेलियाँ
- अञ्जलिपुटम्—नपुं॰—अञ्जलिः-पुटम्—-—दोनों खुले हाथों को जोड़ने से बने कटोरे के आकार का गर्त, हाथ की खुली हथेलियाँ
- अञ्जलिका—स्त्री॰—-—अञ्जलिरिव कायते प्रकाशते - कै+क+टाप्—एक छोटा चूहा
- अञ्जस—वि॰—-—अञ्ज्+असच्—अकुटिल, सीधा, ईमानदार, खरा
- अञ्जसा—अव्य॰—-—अञ्ज्+असच्—सीधी तरह से
- अञ्जसा—अव्य॰—-—अञ्ज्+असच्—यथावत्, उचित रूप से, ठीक तरह से
- अञ्जसा—अव्य॰—-—अञ्ज्+असच्—शीघ्र, जल्दी, तुरन्त
- अञ्जिष्ठः—पुं॰—-—अञ्ज्+इष्ठच् —सूर्य
- अञ्जिष्णुः—पुं॰—-—अञ्ज्+इष्णुच्—सूर्य
- अञ्जीरः—पुं॰—-—अञ्ज+ईरन्—अंजीर वृक्ष की जातियाँ और उसके फल
- अञ्जीरम्—नपुं॰—-—अञ्ज+ईरन्—अंजीर वृक्ष की जातियाँ और उसके फल
- अट्—भ्वा॰ पर॰ अक॰ सेट्, आ॰ विरल-<अटति>,<अटित>—-—-—इधर उधर घूमना, स्वभावतः इधर उधर घूमना जैसे कि कोई साधू संत घूमता है
- अट—वि॰—-—अट्+अङ्—घूमने वाला
- अटनम्—नपुं॰—-—अट्+ल्युट्—घूमना, भ्रमण करना
- अटनिः—स्त्री॰—-—अट्+अनि—धनुष का खाँचेदार सिरा
- अटनी—स्त्री॰—-—अट्+अनि, ङीप्—धनुष का खाँचेदार सिरा
- अटा—स्त्री॰—-—अट्+अङ्+टाप्—साधू संतों की भांति इधर उधर घूमने की आदत
- अटरुषः—पुं॰—-—अट+रुष्+क—अडूसा, वासक का पौधा
- अटरूषः—पुं॰—-—अट+रुष्+क—अडूसा, वासक का पौधा
- अटविः—स्त्री॰—-—अट्+अवि—वन, जंगल
- अटवी—स्त्री॰—-—अट्+अवि+ङीष् —वन, जंगल
- अटविकः—पुं॰—-—अटवि+ठन्—बन में काम करने वाला
- अटविकः—पुं॰—-—अटवि+ठन्—वनवासी जंगल में रहने वाला पुरुष
- अटविकः—पुं॰—-—अटवि+ठन्—मार्गदर्शक, अगुआ
- अट्ट्—भ्वा॰ आ॰—-—-—वध करना
- अट्ट्—भ्वा॰ आ॰—-—-—अतिक्रमण करना, परे जाना
- अट्ट्—पुं॰—-—-—घटाना, कम करना
- अट्ट्—पुं॰—-—-—घृणा करना, तिरस्कृत करना
- अट्ट—वि॰—-—अट्ट्+अच्—ऊंचा, उच्चस्वरयुक्त
- अट्ट—वि॰—-—अट्ट्+अच्—बार-बार होनेवाला, लगातार आने वाला
- अट्ट—वि॰—-—अट्ट्+अच्—शूष्क, सूखा
- अट्टः—पुं॰—-—अट्ट्+घञ्—अटारी
- अट्टः—पुं॰—-—अट्ट्+घञ्—कंगूरा, मीनार, बुर्ज
- अट्टः—पुं॰—-—अट्ट्+घञ्—हाट, मंडी
- अट्टः—पुं॰—-—अट्ट्+घञ्—महल, विशाल भवन
- अट्टम्—नपुं॰—-—-—भोजन, भात,
- अट्टहासः—पुं॰—अट्ट-हासः—-—जोर की हंसी या ठहाका, शिव का अट्टहास
- अट्टहसितम्—नपुं॰—अट्ट-हसितम्—-—जोर की हंसी या ठहाका, शिव का अट्टहास
- अट्टहास्यम्—नपुं॰—अट्ट-हास्यम्—-—जोर की हंसी या ठहाका, शिव का अट्टहास
- अट्टहासी—पुं॰—अट्ट-हासिन्—-—शिव
- अट्टहासी—पुं॰—अट्ट-हासिन्—-—ठहाका लगाकर हंसने वाला
- अट्ट्कः—पुं॰—-—अट्ट्+अच् स्वार्थे कन्+टाप्—चौबारा, महल
- अट्टालः—पुं॰—-—अट्ट इव अलति - अल्+अच् स्वार्थे कन्—अटारी, बालाखाना, चौबारा, महल
- अट्टालकः—पुं॰—-—अट्ट इव अलति - अल्+अच् स्वार्थे कन्—अटारी, बालाखाना, चौबारा, महल
- अट्टालिका—स्त्री॰—-—अट्टाल्+स्वार्थे कन्—महल, उत्तुंग भवन
- अट्टालिकाकारः—पुं॰—अट्टालिका-कारः—-—राज, चिनाई करने वाला
- अड्डनम्—नपुं॰—-—अड्ड्+ल्युट्—ढाल
- अण्—भ्वा॰ पर॰—-—-—शब्द करना
- अण्—दिवा॰ आ॰—-—-—सांस लेना, जीना
- अणक—वि॰—-—अण् - अच् कुत्सायां कप् च—बहुत छोटा, तुच्छ, नगण्य, अधम इत्यादि
- अनक—वि॰—-—अण् - अच् कुत्सायां कप् च—बहुत छोटा, तुच्छ, नगण्य, अधम इत्यादि
- अणिः—पुं॰—-—अण्+इन् ङीष् वा—सूई की नोंक
- अणिः—पुं॰—-—अण्+इन् —धूरे की कील, कील या काबला जो गाड़ी के बांक को रोकने के लिए लगाया जाय
- अणिः—पुं॰—-—अण्+इन् —सीमा
- अणिमा—पुं॰—-—अणु+इमनिच्—सूक्ष्मता
- अणिमा—पुं॰—-—अणु+इमनिच्—आणव प्रकृति
- अणिमा—पुं॰—-—अणु+इमनिच्—आठ सिद्धियों में से एक दैवीशक्ति जिसके बल से मनुष्य 'अणु' जैसा छोटा बन सकता है
- अणुता—स्त्री॰—-—अणु+ता—सूक्ष्मता
- अणुता—स्त्री॰—-—अणु+ता—आणव प्रकृति
- अणुता—स्त्री॰—-—अणु+ता—आठ सिद्धियों में से एक दैवीशक्ति जिसके बल से मनुष्य 'अणु' जैसा छोटा बन सकता है
- अणुत्वम्—नपुं॰—-—अणु+त्व—सूक्ष्मता
- अणुत्वम्—नपुं॰—-—अणु+त्व—आणव प्रकृति
- अणुत्वम्—नपुं॰—-—अणु+त्व—आठ सिद्धियों में से एक दैवीशक्ति जिसके बल से मनुष्य 'अणु' जैसा छोटा बन सकता है
- अणु—वि॰—-—अण्+उन्—सूक्ष्म, बारीक, नन्हा, लघु, परमाणु-संबंधी
- अणुः—पुं॰—-—अण्+उन्—अणु, बढ़ा देना
- अणुः—पुं॰—-—अण्+उन्—समय का अंश
- अणुः—पुं॰—-—अण्+उन्—शिव का नाम
- अणुभा—पुं॰—अणु-भा—-—बिजली
- अणुरेणु—पुं॰—अणु-रेणु—-—आणव, धूल
- अणुवादः—पुं॰—अणु-वादः—-—अणु-सिद्धान्त, अणुवाद
- अणुक—वि॰—-—अणु + स्वार्थे कन्—अतितुच्छ, अत्यन्तह्र्स्व
- अणुक—वि॰—-—अणु + स्वार्थे कन्—सूक्ष्म, अत्यन्त बारीक
- अणुक—वि॰—-—अणु + स्वार्थे कन्—तीक्ष्ण
- अणीयस्—वि॰—-—अणु+ईयसुन्—तुच्छ्तर, तुच्छ्तम, अत्यंत तुच्छ
- अणिष्ठ—वि॰—-—अणु+इष्ठन्—तुच्छ्तर, तुच्छ्तम, अत्यंत तुच्छ
- अण्डः—पुं॰—-—अम्+ड—अण्डकोष
- अण्डः—पुं॰—-—अम्+ड—फोता
- अण्डः—पुं॰—-—अम्+ड—अंडा
- अण्डः—पुं॰—-—अम्+ड—मृगनाभि या कस्तूरी
- अण्डः—पुं॰—-—अम्+ड—वीर्य
- अण्डः—पुं॰—-—अम्+ड—शिव
- अण्डम्—नपुं॰—-—अम्+ड—अण्डकोष
- अण्डम्—नपुं॰—-—अम्+ड—फोता
- अण्डम्—नपुं॰—-—अम्+ड—अंडा
- अण्डम्—नपुं॰—-—अम्+ड—मृगनाभि या कस्तूरी
- अण्डम्—नपुं॰—-—अम्+ड—वीर्य
- अण्डम्—नपुं॰—-—अम्+ड—शिव
- अण्डाकर्षणम्—नपुं॰—अण्डः-आकर्षणम्—-—बधिया करना
- अण्डाकार—वि॰—अण्डः-आकार—-—अंडे के आकार का, अंडाकार, अंडवृत्ताकार
- अण्डाकृति—वि॰—अण्डः-आकृति—-—अंडे के आकार का, अंडाकार, अंडवृत्ताकार
- अण्डाकारः—पुं॰—अण्डः-आकारः—-—अंडवृत्त
- अण्डाकृतिः—स्त्री॰—अण्डः-आकृतिः—-—अंडवृत्त
- अण्डकोशः—पुं॰—अण्डः-कोशः—-—फोते
- अण्डकोषः—पुं॰—अण्डः-कोषः—-—फोते
- अण्डकोषकः—पुं॰—अण्डः-कोषकः—-—फोते
- अण्डज—वि॰—अण्डः-ज—-—अंडे से उत्पन्न
- अण्डजः—पुं॰—अण्डः-जः—-—पक्षी, पंखदार जन्तु
- अण्डजः—पुं॰—अण्डः-जः—-—मछली
- अण्डजः—पुं॰—अण्डः-जः—-—सांप
- अण्डजः—पुं॰—अण्डः-जः—-—छिपकली
- अण्डजः—पुं॰—अण्डः-जः—-—ब्रह्मा
- अण्डजा—स्त्री॰—अण्डः-जा—-—कस्तूरी
- अण्डधरः—पुं॰—अण्डः-धरः—-—शिव का नाम
- अण्डवर्धनम्—नपुं॰—अण्डः-वर्धनम्—-—फोतों का बढ़ जाना
- अण्डवृद्धिः—स्त्री॰—अण्डः-वृद्धिः—-—फोतों का बढ़ जाना
- अण्डसू—वि॰—अण्डः-सू—-—पंखदार जन्तु
- अण्डकः—पुं॰—-—अण्ड-स्वार्थे कन्—फोता
- अण्डकम्—नपुं॰—-—अण्ड-स्वार्थे कन्—छोट अंडा
- अण्डालुः—पुं॰—-—अण्ड+आलुच्—मछली
- अण्डीरः—पुं॰—-—अण्ड+ईरच्—पूर्ण विकसित पुरुष, बलवान्, हृष्टपुष्ट पुरुष
- अत्—भ्वा॰ पर॰ अक॰ वेट्-<अतति>, <अत्त>,<अतित>—-—-—जाना, चलना, घूमना, लगातार चलते रहना
- अत्—भ्वा॰ पर॰ अक॰ वेट्-<अतति>, <अत्त>,<अतित>—-—-—प्राप्त करना
- अत्—भ्वा॰ पर॰ अक॰ वेट्-<अतति>, <अत्त>,<अतित>—-—-—बांधना
- अतट—वि॰, न॰ ब॰—-—-—तटरहित, खड़ी ढाल वाला
- अतटः—पुं॰—-—-—चट्टान, ढलवा चट्टान
- अतथा—अव्य॰—-—नञ्+तत्+था—ऐसा नहीं
- अतथोचित—वि॰—अतथा-उचित—-—अनधिकारी, अनभ्यस्त
- अतदर्हम्—अव्य॰, न॰ त—-—नञ्+तदर्हम्—अनुचित रूप से, अनाधिकृत रूप से
- अतद्गुणः—पुं॰—-—-—अतद्ग्राही', एक अलंकार का नाम जिसमें कि प्रतिपाद्य पदार्थ -कारण के विद्यमान रहते हुए भी दूसरे गुण को ग्रहण नहीं करता
- अतन्त्र—वि॰—-—न॰ ब॰—बिना डोरी का, या बिना संगीत के तार का
- अतन्त्र—वि॰—-—न॰ ब॰—बिना लगाम का
- अतन्त्र—वि॰—-—न॰ ब॰—विचारणीय नियम की कोटि से बाहर की वस्तु जो अनिवार्य रूप से बंधन की कोटि में न हो
- अतन्त्र—वि॰—-—न॰ ब॰—सूत्र अनुभव सिद्ध क्रिया
- अतन्द्र—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति तन्द्र यस्य —सावधान, अम्लान, सतर्क, जागरूक
- अतन्द्रित—वि॰, न॰ त॰—-—न तन्द्रितः —सावधान, अम्लान, सतर्क, जागरूक
- अतन्द्रिन्—वि॰, न॰ त॰—-—-—सावधान, अम्लान, सतर्क, जागरूक
- अतन्द्रिल—वि॰, न॰ त॰—-—-—सावधान, अम्लान, सतर्क, जागरूक
- अतपस्—वि॰, न॰ ब॰—-—-—धार्मिक तपश्चर्या की अवहेलना करने वाला
- अतपस्क—वि॰, न॰ ब॰—-—-—धार्मिक तपश्चर्या की अवहेलना करने वाला
- अतर्क—वि॰, न॰ ब॰—-—-—तर्कहीन, युक्तिरहित
- अतर्कः—वि॰,न॰ त॰—-—-—युक्ति या तर्क का अभाव, बुरा तर्क
- अतर्कः—वि॰,न॰ त॰—-—-—तर्कहीन बहस करने वाला
- अतर्कित—वि॰,न॰ त॰—-—-—न सोचा हुआ, अप्रत्याशित
- अतर्कितम्—क्रि॰ वि॰—-—-—अप्रत्याशित रूप से
- अतर्कितागत—वि॰—अतर्कित-आगत—-—अप्रत्याशित रूप से होने वाला, अकस्मात् होने वाला
- अतर्कितोपनत—वि॰—अतर्कित-उपनत—-—अप्रत्याशित रूप से होने वाला, अकस्मात् होने वाला
- अतल—वि॰,न॰ ब॰—-—-—तल रहित
- अतलम्—नपुं॰—-—-—पाताल
- अतलः—पुं॰—-—-—शिव
- अतलस्पृश—वि॰—अतल-स्पृश—-—तल रहित, बहुत गहरा, अथाह
- अतलस्पर्श—वि॰—अतल-स्पर्श—-—तल रहित, बहुत गहरा, अथाह
- अतस्—अव्य॰—-—इदम्+तसिल्—इसकी अपेक्षा, इससे
- अतस्—अव्य॰—-—इदम्+तसिल्—इस या उस कारण से, फलतः, सो, इस लिए
- अतस्—अव्य॰—-—इदम्+तसिल्—यहाँ से, अब से या इस स्थान से
- अतःपरम्—नपुं॰—अतस्-परम्—-—इसके पश्चात्
- अत ऊर्ध्वम्—नपुं॰—अतस्-ऊर्ध्वम्—-—इसके पश्चात्
- अतोऽर्थम्—नपुं॰—अतस्-अर्थम्—-—इस कारण, फलतः, इस कारण से
- अतोनिमित्तम्—नपुं॰—अतस्-निमित्तम्—-—इस कारण, फलतः, इस कारण से
- अत एव—अव्य॰—अतस्-एव—-—इस ही लिए
- अत ऊर्ध्वम्—नपुं॰—अतस्-ऊर्ध्वम्—-—अब से लेकर, इसके बाद
- अतःपरम्—नपुं॰—अतस्-परम्—-—इसके आगे, और फिर, इसके पश्चात्
- अतःपरम्—नपुं॰—अतस्-परम्—-—इसके परे, इससे आगे
- अतसः—पुं॰—-—अत्+असच्—हवा, वायु
- अतसः—पुं॰—-—अत्+असच्—आत्मा
- अतसः—पुं॰—-—अत्+असच्—अतसी के रेशों से बना हुआ कपड़ा
- अतसी—स्त्री॰—-—अत्+असिच्+ङीप्—सन
- अतसी—स्त्री॰—-—अत्+असिच्+ङीप्—पटसन
- अतसी—स्त्री॰—-—अत्+असिच्+ङीप्—अलसी
- अति—अव्य॰—-—अत्+इ—विशेषण और क्रिया - विशेषणों से पूर्व प्रयुक्त होने वाला उपसर्ग - बहुत, अधिक, अतिशय, अत्यधिक उत्कर्ष को भी यह शब्द प्रकट करता है
- अति—अव्य॰—-—अत्+इ—ऊपर, परे
- अति—अव्य॰—-—अत्+इ—परे, पार करते हुए, श्रेष्ठतर, प्रमुख, पूज्य, उच्चतर, ऊपर, कर्मप्रवचनीय के रूप में द्वितीया विभक्ति के साथ, या बहुब्रीहि के प्रथम पद के रूप में, अथवा तत्पुरुष समास में पसामान्यतः उच्चता और प्रमुखता के अर्थ को प्रकट करता है
- अतिराजन्—पुं॰—अति-राजन्—-—बढ़िया राजा
- अति—अव्य॰—-—अत्+इ—अतिरंजित, अत्यधिक, अतिमात्र
- अत्यादरः—पुं॰—अति-आदरः—अतिशयः आदरः—अत्यधिक आदर
- अत्याशा —स्त्री॰—अति-आशा —अतिशया आशा—अतिरंजित आशा
- अति—अव्य॰—-—अत्+इ—अयोग्य, अनुचित, असंप्रति तथा क्षेप (निन्दा) के अर्थ में,
- अतिकथा—स्त्री॰—-—-—अतिरंजित कहानी
- अतिकथा—स्त्री॰—-—-—निरर्थक भाषण
- अतिकर्षणम्—नपुं॰—-—अति+कृष्+ल्युट्—बहुत अधिक परिश्रम, अत्यधिक मेहनत
- अतिकश—वि॰, अ॰ स॰—-—अतिक्रअन्तः कशाम् —कोड़े को न मानने वाला, घोड़े की भांति वश में न आने वाला
- अतिकाय—वि॰, ब॰ स॰—-—अत्युत्कटःकायो यस्य —भारी डील डौल वाला, विशालकाय
- अतिकृच्छ—वि॰, पुं॰—-—अत्युत्कटः कृच्छः —अति कठिन
- अतिकृच्छम्—नपुं॰—-—अत्यन्तं कृच्छ्रम्—बहुत बड़ा कष्ट, १२ रात्रियों तक कठिन तपस्या करने का व्रत
- अतिक्रमः—पुं॰—-—अति+क्रम्+घञ्—सीमा या मर्यादा का उल्लंघन, हद से आगे बढ़ना
- अतिक्रमः—पुं॰—-—अति+क्रम्+घञ्—कर्तव्य या औचित्य का भंग, उल्लंघन, मर्यादा का अतिक्रमण, अवैध प्रवेश, अवज्ञा, चोट, विरोध
- अतिक्रमः—पुं॰—-—अति+क्रम्+घञ्—बीतना
- अतिक्रमः—पुं॰—-—अति+क्रम्+घञ्—जीत लेना, बढ़ जाना
- अतिक्रमः—पुं॰—-—अति+क्रम्+घञ्—उपेक्षा, भूल,अप्रतिष्ठा
- अतिक्रमः—पुं॰—-—अति+क्रम्+घञ्—भारी आक्रमण
- अतिक्रमः—पुं॰—-—अति+क्रम्+घञ्—आधिक्य
- अतिक्रमः—पुं॰—-—अति+क्रम्+घञ्—दुरुपयोग
- अतिक्रमः—पुं॰—-—अति+क्रम्+घञ्—दुर्व्यवहार
- अतिक्रमणम्—नपुं॰—-—अति+क्रम्+ल्युट्—आगे बढ़ जाना, समय का बीतना, आधिक्य, दोष, अपराध
- अतिक्रमणीय—वि॰—-—अति+क्रम्+अनीयर्—मर्यादा भंग करने के योग्य, उपेक्षा करने के योग्य अथवा उल्लंघन करने के योग्य
- अतिक्रान्त—वि॰—-—अति+क्रम्+क्त—आगे बढ़ा हुआ, आगे गया हुआ, परे पहुंचा हुआ, बीता हुआ, गया हुआ, पहला
- अतिक्रान्तम्—नपुं॰—-—अति+क्रम्+क्त—अतीत विषय, अतीत की बात, अतीत
- अतिखट्व—वि॰, पुं॰—-—अतिक्रान्तः खट्वाम् —चारपाई रहित, चारपाई के बिना काम चलाने वाला
- अतिग—वि॰—-—अति+गम्+ड—बढ़ने वाला, बढ़चढ़कर काम करने वाला, सर्वोत्कृष्ट रहने वाला
- अतिगन्ध—वि॰, ब॰ स॰—-—अतिशयतो गन्धो यस्य—अत्यन्त तीक्ष्ण गंध वाला
- अतिगन्धः—पुं॰—-—अतिशयतो गन्धः—गंधक
- अतिगव—वि॰, पुं॰—-—गामतिक्रान्तः —अत्यन्त मूर्ख, बिल्कुल जड
- अतिगव—वि॰, पुं॰—-—गामतिक्रान्तः —वर्णनातीत
- अतिगुण—वि॰, पुं॰—-—गामतिक्रान्तः —बढ़े चढ़े गुणों वाला
- अतिगुण—वि॰, पुं॰—-—गामतिक्रान्तः —गुणरहित, निकम्मा
- अतिगुणः—पुं॰—-—अतिशयः गुणः—अत्यंत अच्छे गुण
- अतिगो—स्त्री॰—-—गामतिक्राम्य तिष्ठति—अत्यंत बढ़िया गाय
- अतिग्रह—वि॰, पुं॰—-—ग्रहम् अतिक्रान्तः —दुर्बोध
- अतिग्रहः—पुं॰—-—-—ज्ञानेन्द्रियों के विषय - जैसे त्वचा का स्पर्श, जिह्वा का रस आदि
- अतिग्रहः—पुं॰—-—-—सत्य ज्ञान
- अतिग्रहः—पुं॰—-—-—आगे बढ़ जाना, दूसरों को पीछे छोड़ देना
- अतिग्राहः—पुं॰—-—-—ज्ञानेन्द्रियों के विषय - जैसे त्वचा का स्पर्श, जिह्वा का रस आदि
- अतिग्राहः—पुं॰—-—-—सत्य ज्ञान
- अतिग्राहः—पुं॰—-—-—आगे बढ़ जाना, दूसरों को पीछे छोड़ देना
- अतिचमू—वि॰, पुं॰—-—चमूमतिक्रान्तः —सेनाओं के ऊपर विजय प्राप्त करने वाला
- अतिचर—वि॰—-—अति+चर्+अच्—बहुत परिवर्तनशील, क्षणभंगुर
- अतिचरा—स्त्री॰—-—अति+चर्+अच्+टाप्—कमलिनी का पौधा, पद्मिनी, स्थल-पद्मिनी, पद्मचारिणी लता
- अतिचरणम्—नपुं॰—-—अति+चर्+ल्युट्—अत्यधिक अभ्यास, शक्ति से अधिक करना
- अतिचारः—पुं॰—-—अति+चर्+घञ्—मर्यादा का उल्लंघन
- अतिचारः—पुं॰—-—अति+चर्+घञ्—आगे बढ़ जाना
- अतिचारः—पुं॰—-—अति+चर्+घञ्—अतिक्रमण
- अतिचारः—पुं॰—-—अति+चर्+घञ्—ग्रहों की त्वरित गति, ग्रहों का एक राशि पर भोगफल समाप्त हुए बिना दूसरी राशि पर चले जाना
- अतिच्छत्रः—पुं॰—-—अतिक्रान्तः छत्रम्—कुकुरमुत्ता, खुंब; सोया, सौंफ का पौधा
- अतिच्छत्रा—स्त्री॰—-—अतिक्रान्तः छत्रां या—कुकुरमुत्ता, खुंब; सोया, सौंफ का पौधा
- अतिच्छत्रका—स्त्री॰—-—अतिक्रान्तछत्रा स्वार्थे कन्—कुकुरमुत्ता, खुंब; सोया, सौंफ का पौधा
- अतिजन—वि॰—-—अतिक्रान्तो जनम्—अनुषित, जो आबाद नहो
- अतिजात—वि॰—-—अतिक्रान्तः जातं,जातिं, जनकं वा —पिता से बढ़ा हुआ
- अतिडीनम्—नपुं॰—-—अति+डीङ्+क्त—असाधारण उड़ान
- अतितराम्—अव्य॰—-—अति+तरप्+आम्—अधिक, उच्चतर
- अतितराम्—अव्य॰—-—अति+तरप्+आम्—अत्यधिक, अत्यंत, बहुत अधिक, बहुत
- अतितमाम्—अव्य॰—-—अति+तमप्+आम्—अधिक, उच्चतर
- अतितमाम्—अव्य॰—-—अति+तमप्+आम्—अत्यधिक, अत्यंत, बहुत अधिक, बहुत
- अतितृष्णा—स्त्री॰,पुं॰—-—तृष्णामतिक्रम्य—गृध्नुता, अत्यधिक लालच या लालसा
- अतिथिः—पुं॰—-—अतति गच्छति, न तिष्ठति - अत्+इथिन्—मनु के अनुसार 'यात्री' का शब्दार्थ, अभ्यागत, प्रिय अथवा स्वागत के योग्य अभ्यागत
- अतिथिक्रिया—स्त्री॰—अतिथिः-क्रिया—-—अभ्यागतों का सत्कारयुक्त स्वागत, आतिथ्यक्रिया, अभ्यागतों की सेवा
- अतिथिपूजा—स्त्री॰—अतिथिः-पूजा—-—अभ्यागतों का सत्कारयुक्त स्वागत, आतिथ्यक्रिया, अभ्यागतों की सेवा
- अतिथिसत्कारः—पुं॰—अतिथिः-सत्कारः—-—अभ्यागतों का सत्कारयुक्त स्वागत, आतिथ्यक्रिया, अभ्यागतों की सेवा
- अतिथिसत्क्रिया—स्त्री॰—अतिथिः-सत्क्रिया—-—अभ्यागतों का सत्कारयुक्त स्वागत, आतिथ्यक्रिया, अभ्यागतों की सेवा
- अतिथिसेवा—स्त्री॰—अतिथिः-सेवा—-—अभ्यागतों का सत्कारयुक्त स्वागत, आतिथ्यक्रिया, अभ्यागतों की सेवा
- अतिथिधर्मः—पुं॰—अतिथिः-धर्मः—-—आतिथ्य करने का अधिकार, अभ्यागतों का सत्कार
- अतिदानम्—नपुं॰—-—अति+दा+ल्युट्—बहुत अधिक दान, अत्यधिक उदारता
- अतिदेशः—पुं॰—-—अति+दिश+घञ्—हस्तान्तरण, समर्पण, सुपुर्द करना
- अतिदेशः—पुं॰—-—अति+दिश+घञ्—अन्यत्र लागू होने वाली प्रक्रिया, एक वस्तु के धर्म का दूसरी वस्तु पर आरोपण
- अतिद्वय—वि॰, पुं॰—-—द्वयमतिक्रान्तः—दोनों से बढ़ा हुआ, अद्वितीय, अनुपम, अतुलनीय, बेजोड़
- अतिधन्वा—पुं॰—-—अत्युत्कृष्टं धनुर्यस्य—अप्रतिद्वन्द्वी धनुर्धर या योद्धा
- अतिनिद्र—वि॰, पुं॰—-—निद्रामतिक्रान्तः —बहुत सोने वाला
- अतिनिद्र—वि॰, पुं॰—-—निद्रामतिक्रान्तः —निद्रा से वंचित , निद्रारहित
- अतिनिद्रम्—नपुं॰—-—निद्रामतिक्रान्तम् —निद्रा के समय से परे
- अतिनिद्रा—स्त्री॰—-—अतिशया निद्रा—बहुत अधिक सोना
- अतिनु—वि॰, पुं॰—-—अतिक्रान्तः नावम् —नाव से उतरा हुआ, नाव से भूमि पर आया हुआ
- अतिनौ—वि॰, पुं॰—-—अतिक्रान्तः नावम् —नाव से उतरा हुआ, नाव से भूमि पर आया हुआ
- अतिपञ्चा—स्त्री॰, पुं॰—-—पञ्चवर्षमतिक्रान्ता —पाँच वर्ष से अधिक अवस्था की लड़की
- अतिपतनम्—नपुं॰—-—अति+पत्+ल्युट्—उड़कर आगे निकल जाना, भूल, उपेक्षा, अतिक्रमण, अत्यधिक, सीमा से बाहर जाना
- अतिपत्तिः—स्त्री॰—-—अति+पत्+क्तिन्—सीमा से परे जाना, समय का बीतना
- अतिपत्तिः—स्त्री॰—-—अति+पत्+क्तिन्—कार्य का पूरा न होना, असफलता
- अतिपत्रः—पुं॰—-—अतिरिक्तं बृहत् पत्रं यस्य—सागौन का वृक्ष
- अतिपथिन्—पुं॰—-—पन्थानमतिक्रान्तः —सामान्य सड़कों की अपेक्षा अच्छा मार्ग
- अतिपर—वि॰, पुं॰—-—अतिक्रान्तः परान् —जिसने अपने शत्रुओं को परजित कर दिया है
- अतिपरः—पुं॰—-—अतिशयः परः= शत्रुः—वह शत्रु जो शक्ति में बढ़ा चढ़ा हो
- अतिपरिचयः—पुं॰—-—अतिशयः परिचयः—अत्यधिक जान पहचान या घनिष्टता
- अतिपातः—पुं॰—-—अति+पत्+घञ्—बीत जाना
- अतिपातः—पुं॰—-—अति+पत्+घञ्—उपेक्षा, भूल,अतिक्रमण
- अतिपातः—पुं॰—-—अति+पत्+घञ्—आ पड़ना, घटना
- अतिपातः—पुं॰—-—अति+पत्+घञ्—दुर्व्यवहार या दुष्प्रयोग
- अतिपातः—पुं॰—-—अति+पत्+घञ्—विरोध, वैपरीत्य
- अतिपातकः—पुं॰—-—अतिपात - स्वार्थे कन्—बड़ा जघन्य पाप, व्यभिचार
- अतिपातिन्—वि॰—-—अति+पत्+णिच्+णिनि—गति में आगे बढ़ जाने वाला, क्षिप्रतर
- अतिपात्य—वि॰—-—अति+पत्+णिच्+यत्—विलम्बित या स्थगित करने योग्य
- अतिप्रबन्धः—पुं॰—-—अतिशयितः प्रबन्धः—अत्यंत सातत्य, बिल्कुल लगा होना
- अतिप्रगे—अव्य॰—-—अति+प्र+गै+के—प्रभात में बहुत तड़के, प्रभात काल में
- अतिप्रश्नः—पुं॰—-—अति+प्रच्छ्+नङ्—इन्द्रियातीत सत्यता के विषय में प्रश्न, तंग करने वाला तर्कहीन प्रश्न
- अतिप्रसङ्गः—पुं॰—-—अति+प्र+संज्+घञ् —अत्यधिक लगाव
- अतिप्रसङ्गः—पुं॰—-—अति+प्र+संज्+घञ् —धृष्टता
- अतिप्रसङ्गः—पुं॰—-—अति+प्र+संज्+घञ् —किसी नियम का व्यर्थ अधिक विस्तार अर्थात् अतिव्याप्ति
- अतिप्रसङ्गः—पुं॰—-—अति+प्र+संज्+घञ् —बहुत घना संपर्क
- अतिप्रसङ्गः—पुं॰—-—अति+प्र+संज्+घञ् —प्रपञ्च
- अतिप्रसक्तिः—स्त्री॰—-—अति+प्र+संज्+ क्तिन्—अत्यधिक लगाव
- अतिप्रसक्तिः—स्त्री॰—-—अति+प्र+संज्+ क्तिन्—धृष्टता
- अतिप्रसक्तिः—स्त्री॰—-—अति+प्र+संज्+ क्तिन्—किसी नियम का व्यर्थ अधिक विस्तार अर्थात् अतिव्याप्ति
- अतिप्रसक्तिः—स्त्री॰—-—अति+प्र+संज्+ क्तिन्—बहुत घना संपर्क
- अतिप्रसक्तिः—स्त्री॰—-—अति+प्र+संज्+ क्तिन्—प्रपञ्च
- अतिबल—वि॰,ब॰ स॰—-—अतिशयं बलं यस्य—बहुत बलवान या शक्तिशाली
- अतिबलः—पुं॰—-—अतिशयं बलं यस्य—अग्रगण्य या बेजोड़ योद्धा
- अतिबलम्—नपुं॰—-—अतिशयं बलं —बड़ा बल, भारी शक्ति
- अतिबला—स्त्री॰—-—अतिशयं बलं यस्या सा—एक शक्तिशाली मंत्र या विद्या जिसे विश्वामित्र ने राम को सिखाया
- अतिबाला—स्त्री॰, पुं॰—-—अतिक्रान्ता बालां बाल्यावस्थाम्—दो वर्ष की अवस्था की गाय
- अतिभरः—पुं॰—-—अतिशयः भारः—अत्यधिक बोझ, भारी वजन
- अतिभारः—पुं॰—-—अतिशयः भारः—अत्यधिक बोझ, भारी वजन
- अतिभरगः—पुं॰—अतिभरः-गः—-—खच्चर
- अतिभारगः—पुं॰—अतिभारः-गः—-—खच्चर
- अतिभवः—पुं॰—-—अति+भू+णिच्+अच्—उत्कृष्टता
- अतिभीः—स्त्री॰—-—अति+भी+क्विप्—बिजली, इन्द्र के वज्र की कौंध
- अतिभूमिः—स्त्री॰, पुं॰—-—अतिशयिता भूमिः—आधिक्य, पराकाष्ठा, उच्चतम स्वर, दूर तक प्रसिद्ध
- अतिभूमिः—स्त्री॰, पुं॰—-—भूमिमतिक्रान्ता—साहसिकता, अनौचित्य, औचित्य की सीमाओं का उल्लंघन करना
- अतिभूमिः—स्त्री॰, पुं॰—-—अतिशयिता भूमिः—प्रमुखता, उत्कृष्टता
- अतिमतिः—स्त्री॰, पुं॰—-—अतिशया मतिः—मानः, अहंकार, बहुत अधिक घमण्ड
- अतिमर्त्य—वि॰—-—मर्त्यमतिक्रान्तः—अतिमानव
- अतिमानुष—वि॰—-—मानुषमतिक्रान्तः—अतिमानव
- अतिमात्र—वि॰, पुं॰—-—अतिक्रान्तो मात्राम् —मात्रा से अधिक, अत्यधिक, अतिशय जिसका बिल्कुल समर्थन न किया जा सके
- अतिमात्रम्—अव्य॰—-—अतिक्रान्तो मात्राम् —मत्रा से अधिक, अतिशय, अत्यधिक
- अत्तिमात्रशः—अव्य॰—-—अतिक्रान्तो मात्राम् —मत्रा से अधिक, अतिशय, अत्यधिक
- अतिमाय—वि॰, पुं॰—-—अतिक्रान्तो मायाम्—पूर्णतः मुक्त, सांसारिक माया से मुक्त
- अतिमुक्त—वि॰, पुं॰—-—अतिशयेन मुक्तः —पूर्ण रूप से मुक्त
- अतिमुक्त—वि॰, पुं॰—-—अतिशयेन मुक्तः —बंजर
- अतिमुक्त—वि॰, पुं॰—-—अतिशयेन मुक्तः —मोतियों से बढ़कर
- अतिमुक्तः—पुं॰—-—अतिशयेन मुक्तः —एक प्रकार की लता जो आम की प्रिया के रूप में आम के वृक्ष पर लिपटी रहती है
- अतिमुक्तकः—पुं॰—-—अतिमुक्त एव स्वार्थे कन् —एक प्रकार की लता जो आम की प्रिया के रूप में आम के वृक्ष पर लिपटी रहती है
- अतिमुक्तिः—स्त्री॰—-—अतिशयिता मुक्तिः—बिल्कुल छुटकारा
- अतिमोक्षः—पुं॰—-—अतिशयो मोक्षः—बिल्कुल छुटकारा
- अतिरंहस्—वि॰, ब॰ स॰—-—अतिशयितं रंहो यस्मिन् —बहुत फुर्तीला या क्षिप्रतर
- अतिरथः—पुं॰—-—अतिक्रान्तो रथम् —एक अद्वितीय योद्धा जो अपने रथ में बैठा हुआ ही युद्ध करता है
- अतिरभसः—पुं॰—-—अतिशयो रभसः—बड़ी चाल, द्रुत गमन, हड़बड़ी
- अतिराजन्—पुं॰—-—अतिशयो राजा—असाधारण या उत्कृष्ट राजा
- अतिराजन्—पुं॰—-—अतिशयो राजा—राजा से बढ़-चढ़ कर
- अतिरात्रः—पुं॰—-—रात्रिमतिक्रान्तः—ज्योतिष्टोम यज्ञ का ऐच्छिक भाग
- अतिरात्रः—पुं॰—-—रात्रिमतिक्रान्तः—रात्रि का मध्य भाग
- अतिरिक्त—वि॰—-—अति+रिच्+क्त—आगे बढ़ा हुआ
- अतिरिक्त—वि॰—-—अति+रिच्+क्त—फालतू
- अतिरिक्त—वि॰—-—अति+रिच्+क्त—अत्यधिक
- अतिरिक्त—वि॰—-—अति+रिच्+क्त—अद्वितीय, उत्तुंग
- अतिरेकः—पुं॰—-—अति+रिच्+घञ्—आधिक्य, अतिशयता, महत्ता, गौरव
- अतिरेकः—पुं॰—-—अति+रिच्+घञ्—समधिकता, अधिशेष, बाहुल्य
- अतिरेकः—पुं॰—-—अति+रिच्+घञ्—अन्तर
- अतीरेकः—पुं॰—-—अति+रिच्+घञ्—आधिक्य, अतिशयता, महत्ता, गौरव
- अतीरेकः—पुं॰—-—अति+रिच्+घञ्—समधिकता, अधिशेष, बाहुल्य
- अतीरेकः—पुं॰—-—अति+रिच्+घञ्—अन्तर
- अतिरुच्—पुं॰—-—अति+रुच्+क्विप्—घुटना, एक अत्यन्त सुन्दरी स्त्री
- अतिरोमश—वि॰—-—अति+रो मन्+श—बहुत बालों वाला, बहुत रोम वाला
- अतिरोमशः—पुं॰—-—अति+रो मन्+श—एक जंगली बकरा
- अतिरोमशः—पुं॰—-—अति+रो मन्+श—बड़ा बन्दर
- अतिलोमश—वि॰—-—अति+लो मन्+श—बहुत बालों वाला, बहुत रोम वाला
- अतिलोमशः—पुं॰—-—अति+लो मन्+श—एक जंगली बकरा
- अतिलोमशः—पुं॰—-—अति+लो मन्+श—बड़ा बन्दर
- अतिलङ्घनम्—नपुं॰—-—अति+लंघ्+ल्युट्—अत्यधिक उपवास रखना
- अतिलङ्घनम्—नपुं॰—-—अति+लंघ्+ल्युट्—अतिक्रमण
- अतिलङ्घिन्—वि॰—-—अति+लंघ्+णिनि—गलतियां या भूलें करने वाला
- अतिवयस्—वि॰, ब॰ स॰—-—अतिशयितं वयः यस्य —बहुत बूढ़ा, वृद्ध, अधिक आयु का
- अतिवर्णाश्रमी—पुं॰—-—वर्णाश्रमं अतिक्रान्तः—जो वर्ण और आश्रमों की मर्यादा से परे हो
- अतिवर्तनम्—नपुं॰—-—अति+वृत्+ल्युट्—क्षम्य अपराध, सामान्य अपराध, दण्ड से मुक्ति
- अतिवर्तिन्—वि॰—-—अति+वृत्+इन्—पार करने वाला, दूसरों से आगे निकलने वाला, आगे बढ़ने वाला, अतिक्रमण करने वाला, उल्लंघन करने वाला
- अतिवादः—पुं॰—-—अति+वद्+घञ्—अतिकठोर, गाली और अपमान युक्त वचन, भर्त्सना, झिड़की
- अतिवादी—पुं॰—-—अति+वद्+णिनि—बहुत बोलने वाला, वाग्मी
- अतिवाहनम्—नपुं॰—-—अति+वह्+णिच्+ल्युट्—बिताना, यापन
- अतिवाहनम्—नपुं॰—-—अति+वह्+णिच्+ल्युट्—बहुत अधिक परिश्रम करना या बहुत बोझ उठाना
- अतिवाहनम्—नपुं॰—-—अति+वह्+णिच्+ल्युट्—प्रेषण, भेजना, छुटकारा पाना
- अतिविकट—वि॰, पुं॰—-—-—भीषण
- अतिविकटः—पुं॰—-—-—दुष्ट हाथी
- अतिविषा—स्त्री॰, पुं॰—-—-—अतीस नामक विषैली औषधि का पौधा
- अतिविस्तरः—पुं॰—-—-—बहुत अधिक फैलाव, व्यापकता
- अतिवृत्तिः—स्त्री॰—-—अति+वृत्+क्तिन्—आगे बढ़ जाना, अतिक्रमण, अतिरंजना
- अतिवृष्टिः—स्त्री॰—-—अति+वृष्+क्तिन्—अत्यधिक या भारी वर्षा, ऋतु विषयक ६ विपत्तियों में से एक
- अतिवेल—वि॰, पुं॰—-—अतिक्रान्तो वलां मर्यादां कूलं वा—अत्यधिक, फालतू, सीमारहित
- अतिवेलम्—नपुं॰—-—-—अत्यधिकता से
- अतिवेलम्—नपुं॰—-—-—बिना ऋतु के, बिना मौसम के
- अतिव्याप्तिः—स्त्री॰—-—अति-वि आप+क्तिन्—किसी नियम या सिद्धांत का अनुचित विस्तार
- अतिव्याप्तिः—स्त्री॰—-—अति-वि आप+क्तिन्—प्रतिज्ञा में अनभिप्रेत वस्तु का मिला लेना
- अतिव्याप्तिः—स्त्री॰—-—अति-वि आप+क्तिन्—लक्षण में लक्ष्य के अतिरिक्त अन्य अनभिप्रेत वस्तु का भी आ जाना, जिसके फलस्वरूप वह वस्तुएँ भी सम्मिलित हो जायँ जो लक्षण के अनुसार नहीं आनी चाहिए, लक्षण के तीनों दोषों में से एक
- अतिशयः—पुं॰—-—अति+शी+अच्—आधिक्य, प्रमुखता, उत्कृष्टता
- अतिशयः—पुं॰—-—अति+शी+अच्—श्रेष्ठता
- अतिशय—वि॰—-—अति+शी+अच्—श्रेष्ठ, प्रमुख, अत्यधिक, बहुत बड़ा, बहुल
- अतिशयोक्तिः—स्त्री॰—अतिशयः-उक्तिः—-—बढ़ाकर या अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से कहे हुए वचन, अतिरंजना
- अतिशयोक्तिः—स्त्री॰—अतिशयः-उक्तिः—-—अलंकार जिसके सा॰ द॰ कार ने ५ भेद तथा काव्यप्रकाशकार ने ४ भेद माने हैं
- अतिशयन—वि॰—-—अति+शी+ल्युट्—आगे बढ़ने वाला, बड़ा, प्रमुख, बहुल
- अतिशयनम्—नपुं॰—-—अति+शी+ल्युट्—आधिक्य, बहुतायत, बहुलता
- अतिशयालु—वि॰—-—अति+शी+आलुच्—आगे बढ़ जाने या बढ़-चढ़ कर रहने की प्रवृत्ति वाला
- अतिशयिन्—वि॰—-—अति+शी+णिनि—श्रेष्ठ, बढ़िया, प्रमुख
- अतिशयिन्—वि॰—-—अति+शी+णिनि—अत्यधिक, बहुल
- अतिशायनम्—नपुं॰—-—अति+शी+ल्युट्—उत्कृष्टता, श्रेष्ठता
- अतिशायिन्—वि॰—-—अति+शी+णिनि—आगे रहने वाला, आगे बढ़ जाने वाला
- अतिशायिन्—वि॰—-—अति+शी+णिनि—अत्यधिक
- अतिशेषः—पुं॰—-—अति+शिष्+अच्—अवशिष्ट भाग, बचा हुआ भाग, कुछ अवशेष
- अतिश्रेयसिः—पुं॰—-—श्रेयसीमतिक्रान्तः —सर्वोत्तम स्त्री से श्रेष्ठ पुरुष
- अतिश्व—वि॰, पुं॰—-—श्वानमतिक्रान्तः —बल में कुत्ते से बढ़ा हुआ
- अतिश्व—वि॰, पुं॰—-—श्वानमतिक्रान्तः —कुत्ते से भी गया बीता
- अतिश्वा—स्त्री॰—-—-—सेवा
- अतिसक्तिः—स्त्री॰—-—अति+षंज्+क्तिन्—घनिष्ठ संपर्क या सान्निध्य, भारी आसक्ति
- अतिसन्धानम्—नपुं॰—-—अति+सं+धा+ल्युट्—छल करना, धोखा देना, चालाकी, जालसाजी
- अतिसारः—पुं॰—-—अति+सृ+अच्—आगे बढ़ने वाला
- अतिसारः—पुं॰—-—अति+सृ+अच्—नेता
- अतिसर्गः—पुं॰—-—अति+सृज्+घञ्—स्वीकार करना, देना
- अतिसर्गः—पुं॰—-—अति+सृज्+घञ्—अनुमति देना
- अतिसर्गः—पुं॰—-—अति+सृज्+घञ्—पृथक् करना, कार्यभार से मुक्त करना
- अतिसर्जनम्—नपुं॰—-—अति+सृज्+ल्युट्—देना, स्वीकार करना, सौंपना
- अतिसर्जनम्—नपुं॰—-—अति+सृज्+ल्युट्—उदारता, दानशीलता
- अतिसर्जनम्—नपुं॰—-—अति+सृज्+ल्युट्—वध करना
- अतिसर्जनम्—नपुं॰—-—अति+सृज्+ल्युट्—वियोग
- अतिसर्व—वि॰, पुं॰—-—-—सर्वोत्तम या सर्वश्रेष्ठ
- अतिसर्वः—पुं॰—-—-—परब्रह्म
- अतिसारः—पुं॰—-—अति - सृ+णिच्+अच्—पेचिश, मरोड़ो के साथ दस्तों का आना
- अतीसारः—पुं॰—-—अति - सृ+णिच्+अच्—पेचिश, मरोड़ो के साथ दस्तों का आना
- अतिसारी—पुं॰—-—अति - सृ+णिच्+ङीप्—अतिसार नाम का रोग जिसमें बारबार शौच जाना पड़ता है
- अतीसारी—पुं॰—-—अति - सृ+णिच्+ङीप्—अतिसार नाम का रोग जिसमें बारबार शौच जाना पड़ता है
- अतिसारकिन्—वि॰—-—अतिसारो यस्यास्ति- इनि, कुक् च—अतिसार रोग से पीड़ित, पेचिश रोग से ग्रस्त
- अतीसारकिन्—वि॰—-—अतिसारो यस्यास्ति- इनि, कुक् च—अतिसार रोग से पीड़ित, पेचिश रोग से ग्रस्त
- अतिस्नेहः—पुं॰—-—अतिशयः स्नेहः—अत्यधिक अनुराग
- अतिस्पर्शः—पुं॰—-—-—अर्धस्वर तथा स्वरों के लिए पारिभाषिक शब्द
- अतीत—वि॰—-—अति+इ+क्त—परे गया हुआ, पार गया हुआ
- अतीत—वि॰—-—अति+इ+क्त—आगे बढ़ने वाला, परे जाने वाला, गत, बीता हुआ आदि; मृत
- अतीन्द्रिय—वि॰, पुं॰—-—इन्द्रियमतिक्रान्तः—ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच के बाहर
- अतीन्द्रियः—पुं॰—-—इन्द्रियमतिक्रान्तः—आत्मा या पुरुष, परमात्मा
- अतीन्द्रियम्—नपुं॰—-—इन्द्रियमतिक्रान्तः—प्रधान या प्रकृति
- अतीन्द्रियम्—नपुं॰—-—इन्द्रियमतिक्रान्तः—मन
- अतीव—अव्य॰—अति-इव—-—खूब, अधिकता के साथ, बहुत अधिक, बिल्कुल, बहुत ही
- अतुल—वि॰, न॰ त॰—-—-—अनुपम, बेजोड़, अद्वितीय, अतुलनीय
- अतुलः—पुं॰—-—-—तिल' का पौधा, तिल
- अतुल्य—वि॰,न॰ त॰—-—-—अनुपम, बेजोड़
- अतुषार—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो ठंडा न हो
- अतुषारकरः—पुं॰—अतुषार-करः—-—सूर्य
- अतृण्या—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—थोड़ा सा घास
- अतेजस्—वि॰, न॰ ब॰—-—-—जो चमकीला न हो, धुंधला
- अतेजस्—वि॰, न॰ ब॰—-—-—दुर्बल, निर्बल
- अतेजस्—वि॰, न॰ ब॰—-—-—निरर्थक
- अतेजस्क—पुं॰—-—-—धुंधलापन, छाया, अंधकार
- अतेजस्विन्—पुं॰—-—-—धुंधलापन, छाया, अंधकार
- अतेजस्—पुं॰—-—-—धुंधलापन, छाया, अंधकार
- अत्ता—स्त्री॰—-—अत्+तक्+टाप्—माता
- अत्ता—स्त्री॰—-—अत्+तक्+टाप्—बड़ी बहन
- अत्ता—स्त्री॰—-—अत्+तक्+टाप्—सास
- अत्तिः—स्त्री॰—-—अत्+क्तिन्—बड़ी बहन आदि
- अत्तिका—स्त्री॰—-—अत्+क्तिन्, स्वार्थे कन् च—बड़ी बहन आदि
- अत्नः—पुं॰—-—अतति सततं गच्छति - अत्+न—हवा
- अत्नः—पुं॰—-—अतति सततं गच्छति - अत्+न—सूर्य
- अत्नुः—पुं॰—-—अतति सततं गच्छति - अत्+नु—हवा
- अत्नुः—पुं॰—-—अतति सततं गच्छति - अत्+नु—सूर्य
- अत्यग्निः—पुं॰—-—अतिशयोऽग्निः—पाचन शक्ति की बहुत अधिकता
- अत्यग्निष्टोमः—पुं॰—-—-—ज्योतिष्टोम यज्ञ का दूसरा ऐच्छिक भाग
- अत्यङ्कुश—वि॰, पुं॰—-—अङ्कुशमतिक्रान्त—निरंकुश, नियन्त्रण में रहने के अयोग्य, उच्छृंखल जैसे हाथी
- अत्यन्त—वि॰, पुं॰—-—अतिक्रान्तः अन्तम् सीमाम्—अत्यधिक, अधिक, बहुत बड़ा, बहुत बलवान
- अत्यन्तवैरम्—नपुं॰—अत्यन्त-वैरम्—-—बड़ी शत्रुता
- अत्यन्त—वि॰—-—-—संपूर्ण्, पूरा, नितान्त
- अत्यन्त—वि॰—-—-—अनन्त, नित्य, चिरस्थायी
- अत्यन्तम्—अव्य॰—-—-—अत्यधिक, बहुत अधिक
- अत्यन्तम्—अव्य॰—-—-—हमेशा के लिए, आजीवन, जीवनभर
- अत्यन्ताभावः—पुं॰—अत्यन्त-अभावः—-—नितान्त या पूर्ण सत्ताहीनता, नितान्त अनस्तित्व
- अत्यन्तगत—वि॰—अत्यन्त-गत—-—सदा के लिए गया हुआ, जो फिर कभी न आवेगा
- अत्यन्तगामिन्—वि॰—अत्यन्त-गामिन्—-—बहुत अधिक चलने वाला, बहुत तेज या शीघ्र चलने वाला
- अत्यन्तगामिन्—वि॰—अत्यन्त-गामिन्—-—अत्यधिक, अधिक
- अत्यन्तवासिन्—पुं॰—अत्यन्त-वासिन्—-—जो विद्यार्थी की भाँति लगातार अपने गुरु के साथ रहता है
- अत्यन्तसंयोगः—पुं॰—अत्यन्त-संयोगः—-—घनिष्ट सामीप्य, अबाध नैरन्तर्य
- अत्यन्तसंयोगः—पुं॰—अत्यन्त-संयोगः—-—अवियोज्य, सहस्तित्व
- अत्यन्तिक—वि॰—-—अत्यन्त+ठन्—बहुत अधिक या बहुत तेज चलने वाला
- अत्यन्तिक—वि॰—-—अत्यन्त+ठन्—बहुत निकट
- अत्यन्तिक—वि॰—-—अत्यन्त+ठन्—जो समीप न हो, दूर
- अत्यन्तिकम्—नपुं॰—-—अत्यन्त+ठन्—घनिष्ट सामीप्य, अव्यवहित पड़ौस या अत्यंत समीप होना
- अत्यन्तीन—वि॰—-—अत्यंत+ख—बहुत अधिक चलने वाला, बहुत तेज चलने वाला
- अत्ययः—पुं॰—-—अति+इ+अच्—चला जाना, बीत जाना
- अत्ययः—पुं॰—-—अति+इ+अच्—समाप्ति, उपसंहार, अवसान, अनुपस्थिति, अन्तर्धान
- अत्ययः—पुं॰—-—अति+इ+अच्—मृत्यु, नाश
- अत्ययः—पुं॰—-—अति+इ+अच्—भय, चोट, बुराई
- अत्ययः—पुं॰—-—अति+इ+अच्—दुःख
- अत्ययः—पुं॰—-—अति+इ+अच्—दोष, अपराध, अतोक्रमण
- अत्ययः—पुं॰—-—अति+इ+अच्—आक्रमण, अभियान
- अत्ययिक—वि॰—-—अति+इ+अच्+ठक्—नाशकारी, सर्वनाशकर
- अत्ययिक—वि॰—-—अति+इ+अच्+ठक्—पीड़ाकर, अमंगलकर, अशुभसूचक
- अत्ययिक—वि॰—-—अति+इ+अच्+ठक्—अत्यावश्यक, अपरिहार्य, आपाती
- अत्ययित—वि॰—-—अत्यय+इतच्—बढ़ा हुआ, आगे निकला हुआ
- अत्ययित—वि॰—-—अत्यय+इतच्—उल्लंघन किया हुआ, जिस पर अत्याचार किया गया है
- अत्ययिन्—वि॰—-—अति+इ+णिनि—बढ़ने वाला, आगे निकलने वाला
- अत्यर्थ—वि॰—-—-—अत्यधिक, बहुत बड़ा, बेहद
- अत्यर्थम्—नपुं॰—-—-—बहुत अधिक, निहायत, अत्यन्त
- अत्यह्न—वि॰, पुं॰—-—अह्नमतिक्रान्तः—अवधि में एक दिन से अधिक रहने वाला
- अत्याकारः—पुं॰—-—-—घृणा, कलंक, निन्दा
- अत्याकारः—पुं॰—-—-—बड़ा डील डौल, विशाल शरीर
- अत्याचार—वि॰—-—आचारमतिक्रान्तः—मानी हुई प्रथाओं और आचारों के विपरीत चलने वाला, उपेक्षक
- अत्याचारः—पुं॰—-—आचारमतिक्रान्तः—आचारानुमोदित कार्यों को न करना, धर्म के विपरीत आचरण
- अत्यादित्य—वि॰ पुं॰—-—आदित्यमतिक्रान्तः—सूर्य की ज्योति से अधिक चमकने वाला
- अत्यानन्दा—पुं॰—-—-—मैथुन के प्रति उदासीनता
- अत्यायः—पुं॰—-—-—अतिक्रमण, उल्लंघन
- अत्यायः—पुं॰—-—-—आधिक्य
- अत्यारूढ—वि॰ पुं॰—-—-—बहुत बढ़ा हुआ
- अत्यारूढम् —नपुं॰—-—-—बहुत ऊँची पदवी, अभ्युदय
- अत्यारुढिः—स्त्री॰—-—-—बहुत ऊँची पदवी, अभ्युदय
- अत्याश्रमः—पुं॰—-—-—जीवन का सबसे बड़ा आश्रम -संन्यास
- अत्याश्रमः—पुं॰—-—-—संन्यासी
- अत्याहितम्—नपुं॰—-—अति-आ-घा-क्त—बड़ी विपत्ति, भय, दुर्भाग्य, अनर्थ, दुर्घटना
- अत्याहितम्—नपुं॰—-—अति-आ-घा-क्त—उद्दंड तथा साहसिक कार्य
- अत्युक्तिः—स्त्री॰—-—अति-वच्-क्तिन्—बढ़ा चढ़ा कर कहना, अतिशयोक्ति, अधिकृष्ट, रंगीन चित्रण
- अत्युपध—वि॰, पुं॰—-—उपधामतिक्रान्तः—परीक्षित, विश्वस्त
- अत्यूहः—पुं॰—-—-—गहन चिन्तन या मनन, गंभीर तर्कना
- अत्यूहः—पुं॰—-—-—जलकुक्कुट
- अत्र—अव्य॰—-—इदम्-त्रल्- प्रकृतेः अश्भावश्च—इस स्थान पर, यहाँ
- अत्र—अव्य॰—-—इदम्-त्रल्- प्रकृतेः अश्भावश्च—इस विषय में, बात में, मामले में, इस सम्बन्ध में
- अत्रान्तरे—क्रि॰ वि॰—अत्र-अन्तरे—-—इसी बीच में
- अत्रभवान्—पुं॰—अत्र-भवत्—-—आदरणीय, मान्यवर, श्रीमान्
- अत्रभवती—स्त्री॰—अत्र-भवती—-—आदरणीया, श्रीमती
- अत्रत्य—वि० —-—अत्रभवः - अत्र-त्यप्—इस स्थान का, या यहाँ से सम्बन्ध रखने वाला
- अत्रत्य—वि० —-—अत्रभवः - अत्र-त्यप्—यहाँ उत्पन्न, यहाँ पाया गया, इस स्थान का, स्थानीय
- अत्रप—वि॰, न॰ ब॰—-—-—निर्लज्ज, अविनीत, अशिष्ट
- अत्रिः—पुं॰—-—अद्-त्रिन्—अत्रि ऋषि
- अत्रिजः—पुं॰—अत्रि-जः—-—चन्द्रमा
- अत्रिजातः—पुं॰—अत्रि-जातः—-—चन्द्रमा
- अत्रिदृग्जः—पुं॰—अत्रि-दृग्जः—-—चन्द्रमा
- अत्रिनेत्रप्रसूतः—पुं॰—अत्रि-नेत्रप्रसूतः—-—चन्द्रमा
- अत्रिप्रभवः—पुं॰—अत्रि-प्रभवः—-—चन्द्रमा
- अत्रिभवः—पुं॰—अत्रि-भवः—-—चन्द्रमा
- अथ—अव्य॰—-—अर्थ-ड पृषो. रलोपः—यहाँ, अब, मंगल, आरम्भ, अधिकार
- अथ—अव्य॰—-—अर्थ-ड पृषो. रलोपः—तब, उसके पश्चात्
- अथ—अव्य॰—-—अर्थ-ड पृषो. रलोपः—यदि, कल्पना करते हुए, अच्छा तो, ऐसी स्थिति में, परन्तु यदि
- अथ—अव्य॰—-—अर्थ-ड पृषो. रलोपः—और, इसी से तो और भी, इसी भाँति
- अथ—अव्य॰—-—अर्थ-ड पृषो. रलोपः—प्रश्न आरम्भ करते समय और पूछते समय, बहुधा प्रश्नवाचक शब्द के साथ
- अथ—अव्य॰—-—अर्थ-ड पृषो. रलोपः—समष्टि, सम्पूर्णता
- अथ—अव्य॰—-—अर्थ-ड पृषो. रलोपः—संदेह, अनिश्चितता
- अथापि—अव्य॰—अथ-अपि—-—और भी, और फिर
- अथकिम्—अव्य॰—अथ-किम्—-—और क्या, हाँ, ठीक ऐसा ही, बिल्कुल ऐसा ही, अवश्य ही
- अथच—अव्य॰—अथ-च—-—और भी, इसी प्रकार
- अथवा—अव्य॰—अथ-वा—-—या
- अथवा—अव्य॰—अथ-वा—-—अधिकतर, क्यों, कदाचित्
- अथवा—अव्य॰—अथ-वा—-—पिछली बात को संशुद्ध करते हुए
- अथर्वन्—पुं॰—-—अथ-ॠ-वनिप्—अग्नि और सोम का उपासक पुरोहित
- अथर्वन्—पुं॰—-—अथ-ॠ-वनिप्—अथर्वा ऋषि की सन्तान-ब्राह्मण, अथर्ववेद के सूक़्त
- अथर्ववेदः—पुं॰—-—-—चौथा वेद
- अथर्वनिधिः—पुं॰—-—-—अथर्ववेद के ज्ञान का भंडार, अथर्व-ज्ञान से संपन्न
- अथर्वविद्—पुं॰—-—-—अथर्ववेद के ज्ञान का भंडार, अथर्व-ज्ञान से संपन्न
- अथर्वणिः—पुं॰—-—अथर्वन्-इस्, न टिलोपः—अथर्ववेद में निष्णात, इनमें निर्दिष्ट संस्कारों के अनुष्ठान में कुशल ब्राह्मण
- अथर्वाणम्—नपुं॰—-—अथर्वन्-अच्-पृषो. दीर्घः—अथर्ववेद की अनुष्ठान पद्धति
- अथवा—अव्य॰—-—-—या
- अथवा—अव्य॰—-—-—अधिकतर, क्यों, कदाचित्
- अथवा—अव्य॰—-—-—पिछली बात को संशुद्ध करते हुए
- अद्—अदा॰ पर॰ सक॰ अनिट्-<अत्ति>, <अन्न>,<जग्ध>—-—-—खाना, निगलना
- अद्—अदा॰ पर॰ सक॰ अनिट्-<अत्ति>, <अन्न>,<जग्ध>—-—-—नष्ट करना
- अद्—अदा॰ प्रेर॰—-—-—खिलवाना
- अद्—अदा॰ पर॰<जिघत्सति>—-—-—खाने की इच्छा करना
- अद् —वि॰—-—अद्-क्विप्—खाने वाला, निगलने वाला
- अद—वि॰—-—अद्-अच्—खाने वाला, निगलने वाला
- अदंष्ट्र—वि॰, न॰ ब॰—-—-—दन्तहीन
- अदंष्ट्रः—पुं॰—-—-—वह साँप जिसके जहरीले दाँत तोड़ दिये गये हैं
- अदक्षिण—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो दायाँ न हो, बायाँ
- अदक्षिण—वि॰, न॰ त॰—-—-—जिसमें पुरोहितों को दक्षिणा न दी जाय, बिना दक्षिणा का
- अदक्षिण—वि॰, न॰ त॰—-—-—सरल, दुर्बलमना, मूर्ख
- अदक्षिण—वि॰, न॰ त॰—-—-—अनुपस्थित, अदक्ष, अपटु, गंवार
- अदक्षिण—वि॰, न॰ त॰—-—-—प्रतिकूल
- अदण्ड्य —वि॰, न॰ त॰—-—-—दण्ड का अनधिकारी
- अदण्ड्य —वि॰, न॰ त॰—-—-—दण्ड से मुक्त, बरी
- अदत्—वि॰, न॰ त॰—-—-—दन्त रहित, बिना दाँतों का
- अदत्त—वि॰, न॰ त॰—-—-—न दिया हुआ
- अदत्त—वि॰, न॰ त॰—-—-—अनुचित तरीके से दिया हुआ
- अदत्त—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो विवाह में न दिया गया हो
- अदत्ता—स्त्री॰—-—-—अविवाहित कन्या
- अदत्तम्—नपुं॰—-—-—वह दान जो रद्द कर दिया गया हो
- अदत्तादायिन्—वि॰—अदत्त-आदायिन्—-—जो न दी हुई वस्तुओं को उठा ले जाता है
- अदत्तपूर्वा—स्त्री॰—अदत्त-पूर्वा—-—वह कन्या जिसकी सगाई न हुई हो
- अदन्त—वि॰ न॰ त॰—-— —अन्त रहित
- अदन्त—वि॰, न॰ब॰—-—-—वह शब्द जिसके अन्त में ‘अत्’ या ‘अ’ हो
- अदन्तः—नपुं॰—-—-—जोंक
- अदन्त्य—वि॰ न॰ त॰—-—-—जो दाँतों से सम्बन्ध न रखता हो
- अदन्त्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—दांतों के लिये अनुपयुक्त, दाँतों के लिये हानिकारक
- अदभ्र—वि॰, न॰ व॰—-—-—अनल्प, प्रचुर, पुष्कल
- अदर्शनम्—न॰ त॰—-—-—न दिखना, अनवलोकन, अनुपस्थिति, दिखाई न देना
- अदर्शनम्—न॰ त॰—-—-—अन्तर्धान, लोप, लुप्ति
- अदस्—सर्व॰, पुं॰—-—-—वह
- अदस्—सर्व॰, पुं॰—-—-—यह, यहाँ, सामने
- अदातृ—वि॰, न॰ त॰—-—-—न देनेवाला, कृपण
- अदातृ—वि॰, न॰ त॰—-—-—लड़की का विवाह न करने वाला
- अदादि—वि॰, न॰ ब॰—-—-—दूसरे गण की धातुओं का समूह, जो ‘अद्’ से आरम्भ होता है
- अदाय—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति दायो यस्य—जो (संपत्ति में) हिस्से का अधिकारी न हो।
- अदायाद—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो उत्तराधिकारी न बन सके
- अदायाद—वि॰, न॰ त॰—-—-—जिसके कोई उत्तराधिकारी न हो
- अदायिक—वि॰, न॰ ब॰—-—न दायमर्हति- नञ्+दाय+ठक् —जिसका कोई उत्तराधिकारी दावेदार न हो, जिसके कोई उत्तराधिकारी न हों
- अदायिक—वि॰, न॰ त॰—-—-—उत्तराधिकार से संबंध न रखने वाला
- अदितिः—स्त्री॰—-—दातुं छेत्तुम् अयोग्या- दो+क्तिन्—पृथ्वी
- अदितिः—स्त्री॰—-—दातुं छेत्तुम् अयोग्या- दो+क्तिन्—अदिति देवता, आदित्यों की माता, पुराणों में इसका वर्णन देवों की माता के रुप में किया गया है
- अदितिः—स्त्री॰—-—दातुं छेत्तुम् अयोग्या- दो+क्तिन्—वाणी
- अदितिः—स्त्री॰—-—दातुं छेत्तुम् अयोग्या- दो+क्तिन्—गाय
- अदितिजः—पुं॰—अदिति-जः—-—देवता, दिव्य प्राणी
- अदितिनन्दनः—पुं॰—अदिति-नन्दनः—-—देवता, दिव्य प्राणी
- अदुर्ग—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो दुर्गम न हो, जहाँ पहुँचना कठिन न हो
- अदुर्ग—वि॰, न॰ ब॰—-—-—वह स्थान जहाँ किले न हों
- अदुर्गविषयः—पुं॰—अदुर्ग-विषयः—-—एक दुर्ग रहित देश
- अदूर—वि॰, न॰ त॰—-—-—समीप
- अदूरम्—नपुं॰—-—-—सामीप्य, पड़ोस
- अदूरे—नपुं॰—-—-—अधिक दूर नहीं, बहुत दूर नहीं
- अदूरम्—नपुं॰—-—-—अधिक दूर नहीं, बहुत दूर नहीं
- अदूरतः—नपुं॰—-—-—अधिक दूर नहीं, बहुत दूर नहीं
- अदूरात्—नपुं॰—-—-—अधिक दूर नहीं, बहुत दूर नहीं
- अदूरेण—नपुं॰—-—-—अधिक दूर नहीं, बहुत दूर नहीं
- अदृश्—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति दृग् अक्षि यस्य—दृष्टिहीन, अंधा
- अदृष्ट—वि॰—-—नञ्- दृश्+क्त—अदृश्य, अनदेखा
- अदृष्टपूर्व—वि॰—अदृष्ट-पूर्व—-—जो पहले न देखा गया हो
- अदृष्ट—वि॰—-—नञ्- दृश्+क्त—अननुभूत
- अदृष्ट—वि॰—-—नञ्- दृश्+क्त—अदृष्टपूर्व, अनवलोकित, बिना सोचा हुआ, अज्ञात
- अदृष्ट—वि॰—-—नञ्- दृश्+क्त—अननुमत, अस्वीकृत, अवैध
- अदृष्टम्—नपुं॰—-—नञ्- दृश्+क्त—अदॄश्य
- अदृष्टम्—नपुं॰—-—नञ्- दृश्+क्त—नियति, भाग्य, प्रारब्ध
- अदृष्टम्—नपुं॰—-—नञ्- दृश्+क्त—गुण तथा अवगुण जो कि सुख तथा दुःख के अनुवर्ती कारण हैं
- अदृष्टम्—नपुं॰—-—नञ्- दृश्+क्त—दैवी विपत्ति, दैवीय भय
- अदृष्टार्थ—वि॰—अदृष्ट-अर्थ—-—गूढ़ अर्थ वाला, आध्यात्मिक
- अदृष्टकर्मन्—वि॰—अदृष्ट-कर्मन्—-—अव्यावहारिक, अनुभवहीन
- अदृष्टफल—वि॰—-—-—जिसके परिणाम अदॄश्य हों
- अदृष्टफलम्—नपुं॰—-—-—शुभाशुभ कर्मों का आगे आने वाला फल
- अदृष्टिः—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—बुरी या द्वेषपूर्ण दॄष्टि, कुदॄष्टि
- अदृष्टि—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अंधा
- अदेय—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो देने के लिये न हो, जो दिया न जा सके, जो दिया न जाना चाहिए
- अदेयम्—वि॰, न॰ त॰—-—-—जिसका देना न उचित है और न आवश्यक है, इस श्रेणी में पत्नी, पुत्र, धरोहर और कुछ अन्य वस्तुएँ आती हैं
- अदेव—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो देवताओं की भाँति न हो, दिव्य न हो
- अदेव—वि॰, न॰ त॰—-—-—देवविहीन, अपवित्र, अधार्मिक
- अदेवः—पुं॰—-—-—जो देवता न हो
- अदेवमातृक—वि॰—अदेव-मातृक—-—जहाँ वर्षा न हुई हो; माता की भाँति दूध पिलाने या पानी देने के लिये जहाँ वर्षा का देवता काम न करता हो
- अदेशः—पुं॰—-—-—अनुपयुक्त स्थान
- अदेशः—पुं॰—-—-—बुरा देश
- अदेशकालः—पुं॰—अदेश-कालः—-—अनुपयुक्त स्थान और अनुपयुक्त समय
- अदेशस्थ—वि॰—अदेश-स्थ—-—अनुपयुक्त स्थान पर ठहरा हुआ, उपयुक्त स्थान से विरहित
- अदोष—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति दोषो यस्य—दोष, बुराई और त्रुटि आदियों से मुक्त
- अदोष—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति दोषो यस्य—अश्लीलता, ग्राम्यता आदि साहित्य के दोषों से मुक्त
- अदोहः—पुं॰—-—नास्ति दोहस्य कालः—वह समय जो दोहने के लिये व्यावहरिक न हो
- अदोहः—पुं॰—-—-—न दुहा जाना
- अद्धा—अव्य॰—-—-—सचमुच, बिल्कुल, अवश्य, निस्सन्देह
- अद्धा—अव्य॰—-—-—प्रकटतः, स्पष्ट रुप से
- अद्भुत—वि॰—-—अद्+भू+डुतच्- न भूतम् इति वा—आश्चर्यजनक, विचित्र, गुढ, अलौकिक
- अद्भुतम्—नपुं॰—-—अद्+भू+डुतच्- न भूतम् इति वा—आश्चर्य, आश्चर्यजनक बात या घटना, विलक्षण घटना, चमत्कार
- अद्भुतम्—नपुं॰—-—अद्+भू+डुतच्- न भूतम् इति वा—अचम्भा, अचरज, आश्चर्य
- अद्भुतः—पुं॰—-—अद्+भू+डुतच्—आठ या नौ रसों में से एक, अद्भुत रस
- अद्भुतसारः—पुं॰—अद्भुत-सारः—-—खदिर या खैर की आश्चर्यजनक राल
- अद्भुतस्वनः—पुं॰—अद्भुत-स्वनः—-—शिव का नाम
- अद्मनिः—पुं॰—-—अद्+मनिन्—अग्नि
- अद्मर—वि॰—-—अद्+क्मरच्—बहुत अधिक खानेवाला, पेटू
- अद्य—वि॰—-—अद्+यत्—खाने के योग्य
- अद्यम्—नपुं॰—-—अद्+यत्—भोजन, खाने के योग्य पदार्थ
- अद्यम्—अव्य॰—-—-—आज, इस दिन
- अद्यरात्रौ —अव्य॰—अद्य-रात्रौ —-—आज की रात, यह रात
- अद्यापि—अव्य॰—अद्य-अपि—-—अभी, अब तक, आज तक, अभी नहीं
- अद्यावधि—अव्य॰—अद्य-अवधि—-—आज से लेकर
- अद्यावधि—अव्य॰—अद्य-अवधि—-—आज तक
- अद्यपूर्वम्—नपुं॰—अद्य-पूर्वम्—-—पहले, अब
- अद्यप्रभृति—अव्य॰—अद्य-प्रभृति—-—आज से, इस दिन से लेकर
- अद्यश्वीना—वि॰—अद्य-श्वीना—-—आसन्नप्रसवा, वह स्त्री जिसका प्रसव काल निकट है
- अद्यतन—वि॰—-—अद्य+ष्ट्यु, तुट् च—आज से संबंध रखते हुए, संकेत करते हुए या विस्तॄत होते हुए
- अद्यतन—वि॰—-—अद्य+ष्ट्यु, तुट् च—आधुनिक
- अद्यतनः—पुं॰—-—अद्य+ष्ट्यु, तुट् च—चालू दिन, यह दिन, चालू दिन की अवधि
- अनद्यतनी—स्त्री॰—-—-—लुङ् लकार का नाम
- अद्यतनीय—वि॰—-—-—आज का
- अद्यतनीय—वि॰—-—-—आधुनिक
- अद्रव्यम्—नपुं॰—-—-—तुच्छ वस्तु, निकम्मा पदार्थ, निकम्मा छात्र, अकर्मण्य विद्यार्थी
- अद्रिः—पुं॰—-—अद्+क्रिन्—पहाड़
- अद्रिः—पुं॰—-—अद्+क्रिन्—पत्थर
- अद्रिः—पुं॰—-—अद्+क्रिन्—वज्र
- अद्रिः—पुं॰—-—अद्+क्रिन्—वॄक्ष
- अद्रिः—पुं॰—-—अद्+क्रिन्—सूर्य
- अद्रिः—पुं॰—-—अद्+क्रिन्—मेघ-राशि, बादल
- अद्रिः—पुं॰—-—अद्+क्रिन्—एक प्रकार का माप
- अद्रिः—पुं॰—-—अद्+क्रिन्—सात की संख्या
- अद्रीशः—पुं॰—अद्रि-ईशः—-—पर्वतों का स्वामी, हिमालय
- अद्रीशः—पुं॰—अद्रि-ईशः—-—शिव, कैलाशपति
- अद्रिनाथः—पुं॰—अद्रि-नाथः—-—पर्वतों का स्वामी, हिमालय
- अद्रिनाथः—पुं॰—अद्रि-नाथः—-—शिव, कैलाशपति
- अद्रिपतिः—पुं॰—अद्रि-पतिः—-—पर्वतों का स्वामी, हिमालय
- अद्रिपतिः—पुं॰—अद्रि-पतिः—-—शिव, कैलाशपति
- अद्रिराजः—पुं॰—अद्रि-राजः—-—पर्वतों का स्वामी, हिमालय
- अद्रिराजः—पुं॰—अद्रि-राजः—-—शिव, कैलाशपति
- अद्रिकीला—स्त्री॰—अद्रि-कीला—-—पृथ्वी
- अद्रिकन्या —स्त्री॰—अद्रि-कन्या —-—पार्वती
- अद्रितनया—स्त्री॰—अद्रि-तनया—-—पार्वती
- अद्रिनन्दिनी—स्त्री॰—अद्रि-नन्दिनी—-—पार्वती
- अद्रिसुता—स्त्री॰—अद्रि-सुता—-—पार्वती
- अद्रिजम्—नपुं॰—अद्रि-जम्—-—लाल खड़िया
- अद्रिद्विष्—वि॰—अद्रि-द्विष्—-—पहाड़ों को तोड़ने वाला, पहाड़ों का शत्रु, इन्द्र का विशेषण
- अद्रिभिद्—वि॰—अद्रि-भिद्—-—पहाड़ों को तोड़ने वाला, पहाड़ों का शत्रु, इन्द्र का विशेषण
- अद्रिद्रोणि—स्त्री॰—अद्रि-द्रोणि—-—पहाड़ की घाटी
- अद्रिद्रोणि—स्त्री॰—अद्रि-द्रोणि—-—पर्वत से निकलने वाली नदी
- अद्रिद्रोणी—स्त्री॰—अद्रि-द्रोणी—-—पहाड़ की घाटी
- अद्रिद्रोणी—स्त्री॰—अद्रि-द्रोणी—-—पर्वत से निकलने वाली नदी
- अद्रिशय्यः—पुं॰—अद्रि-शय्यः—-—शिव
- अद्रिशृङ्गम् —नपुं॰—अद्रि-शृङ्गम् —-—पहाड़ की चोटी
- अद्रिसानु—नपुं॰—अद्रि-सानु—-—पहाड़ की चोटी
- अद्रिसारः—पुं॰—अद्रि-सारः—-—पहाड़ों का सत्व, लोहा
- अद्रोहः—न॰ त॰ —-—न द्रोहः अद्रोहः—द्वेषराहित्य, बुराई न होना, परिमितता, मृदुता
- अद्वय—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति द्वयं यस्य—दो नहीं
- अद्वय—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति द्वयं यस्य—अद्वितीय, अनुपम, एकमात्र
- अद्वयः—पुं॰—-—-—बुद्ध का नाम
- अद्वयम्—नपुं॰—-—-—द्वैत का अभाव, एकता, तादात्म्य विशेषतया ब्रह्म और विश्व का तादात्म्य या प्रकृति और आत्मा का तादात्म्य, परम सत्य
- अद्वयवादी—वि॰—अद्वय-वादिन्—-—विश्व और ब्रह्म तथा प्रकृति एवं आत्मा के तादात्म्य का प्रतिपादक
- अद्वयवादी—वि॰—अद्वय-वादिन्—-—बुद्ध
- अद्वारम्—पुं॰—-—न द्वारम् अद्वारम्—जो दरवाजा न हो, मार्ग या रास्ता जो नियमित रुप से द्वार न हो
- अद्वितीय—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति द्वितीयो यस्य—जिसके समान कोई दूसरा न हो, बेजोड़, लासानी
- अद्वितीय—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति द्वितीयो यस्य—बिना साथी के, अकेला
- अद्वितीयम्—नपुं॰—-—-—ब्रह्मा
- अद्वैत—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति द्वैतं यस्य—द्वैत हीन, एकस्वरुप, एकस्वभाव, समभाव, अपरिवर्तनशील
- अद्वैत—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति द्वैतं यस्य—बेजोड़, लासानी, एकमात्र, अनन्य
- अद्वैतम्—नपुं॰—-—नास्ति द्वैतं यस्य—द्वैत का अभाव, तादात्म्य, विशेषतया ब्रह्म का विश्व या आत्मा के साथ, या प्रकृति का अत्मा के साथ
- अद्वैतम्—नपुं॰—-—नास्ति द्वैतं यस्य—परमसत्य, स्वयं ब्रह्म
- अद्वैतवादिन्—वि॰—अद्वैत-वादिन्—-—अद्वयवादिन्, वेदान्त का अनुयायी
- अधम—वि॰—-—अव्+अम, वस्य स्थाने धादेशः—निम्नतम, जघन्यतम, अत्यन्त कमीना, बहुत बुरा, नीच, निकृष्ट
- अधमः— पुं॰—-—अव्+अम, वस्य स्थाने धादेशः—निर्लज्ज, लम्पट
- अधमा—स्त्री॰—-—अव्+अम, वस्य स्थाने धादेशः—निकम्मी गृहस्वामिनी
- अधमांगम्—नपुं॰—अधम-अङ्गम्—-—पैर
- अधमार्धम्—नपुं॰—अधम-अर्धम्—-—नाभि से नीचे का शरीर
- अधमर्णः—पुं॰—अधम-ऋणः—-—कर्जदार
- अधमर्णिकः—पुं॰—अधम-ऋणिकः—-—कर्जदार
- अधमभृतः—पुं॰—अधम-भृतः—-—कुली, साइस
- अधमभृतकः—पुं॰—अधम-भृतकः—-—कुली, साइस
- अधर—वि॰—-—नञ्+धृ+अच्—नीचे का, अवर, निचला
- अधर—वि॰—-—नञ्+धृ+अच्—नीच, कमीना, जघन्य, गुणों में नीचे दर्जे का, घटिया
- अधर—वि॰—-—नञ्+धृ+अच्—निरुत्तर, दलित
- अधरः—पुं॰—-—नञ्+धृ+अच्—नीचे का ओष्ठ, ओष्ठमात्र
- अधरम्—नपुं॰—-—नञ्+धृ+अच्—शरीर का निम्नतर भाग
- अधरम्—नपुं॰—-—नञ्+धृ+अच्—अभिभाषण, व्याख्यान, कभी-कभी उत्तर के लिये भी प्रयुक़्त होता है
- अधरोत्तर—वि॰—अधर-उत्तर—-—उच्चतर और निम्नतर, अच्छा और बुरा
- अधरोत्तर—वि॰—अधर-उत्तर—-—शीघ्रता से, विलम्ब से
- अधरोत्तर—वि॰—अधर-उत्तर—-—उलटे ढंग से, उलट-पलट
- अधरोत्तर—वि॰—अधर-उत्तर—-—निकटतर और दूरतर
- अधरोष्ठः—पुं॰—अधर-ओष्ठः—-—नीचे का ओष्ठ
- अधरकण्ठः—पुं॰—अधर-कण्ठः—-—ग्रीवा का निचला भाग
- अधरपानम्—नपुं॰—अधर-पानम्—-—चुम्बन, अधरोष्ठ को पीना
- अधरमधु—नपुं॰—अधर-मधु —-—ओष्ठों का अमॄत
- अधरामृतम्—नपुं॰—अधर-अमृतम्—-—ओष्ठों का अमॄत
- अधरस्वस्तिकम्—नपुं॰—अधर-स्वस्तिकम्—-—अधोबिन्दु
- अधरस्मात्—अव्य॰—-—-—नीचे, तले, निचले प्रदेश में
- अधरतः—अव्य॰—-—-—नीचे, तले, निचले प्रदेश में
- अधरस्तात्—अव्य॰—-—-—नीचे, तले, निचले प्रदेश में
- अधरात्—अव्य॰—-—-—नीचे, तले, निचले प्रदेश में
- अधरतात्—अव्य॰—-—-—नीचे, तले, निचले प्रदेश में
- अधरेण—अव्य॰—-—-—नीचे, तले, निचले प्रदेश में
- अधरीकृ—तना॰ उभ॰—-—अधर+च्वि+कृ—आगे बढ़ जाना, पटक देना, पराजित करना.
- अधरीण—वि॰—-—अधर+ख—नीचे का
- अधरीण—वि॰—-—अधर+ख—निंदित, कलंकित, तिरस्कृत
- अधरेद्युः—अव्य॰—-—अधर+एद्युस्—पहले दिन
- अधरेद्युः—अव्य॰—-—अधर+एद्युस्—परसों
- अधर्मः—पुं॰—-—-—बेईमानी, दुष्टता, अन्याय; अधर्मेण- अन्यायपूर्वक
- अधर्मः—पुं॰—-—-—अन्याय्य कर्म, अपराध य दुष्कृत्य, पाप. धर्म या अधर्म, न्यायशास्त्र में वर्णित २४ गुणों में दो गुण हैं और यह आत्मा से संबंध रखते हैं, ये दोनों क्रमशः सुख और दुख के विशिष्ट कारण हैं, यह इन इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं हैं, परन्तु इनका अनुमान पुनर्जन्म तथा तर्कना के द्वारा लगाया जाता है
- अधर्मः—पुं॰—-—-—प्रजापति या सूर्य के एक अनुचर का नाम
- अधर्मा—स्त्री॰—-—-—साकार बेईमानी
- अधर्मम्—नपुं॰—-—-—विशेषणों से रहित, ब्रह्मा की उपाधि
- अधर्मात्मन्—वि॰—-—-—दुष्ट, पापी
- अधर्मचारिन्—वि॰—-—-—दुष्ट, पापी
- अधवा—स्त्री, न॰ ब॰—-—-—विधवा स्त्री
- अधस्—अव्य॰—-—अधर+असि, अधरशब्दस्य स्थाने अधादेशः—तले, नीचे, निम्नप्रदेश मे, नारकीय प्रदेशों में या नरक में
- अधस्—अव्य॰—-—अधर+असि, अधरशब्दस्य स्थाने अधादेशः—संबंधकारक के साथ 'संबंधबोधक अव्ययों' की भांति प्रयुक्त 'के नीचे' 'के तले' अर्थ को प्रकट करते हैं, नीचे-नीचे, तले-तले, नीचे से, नीचे ही नीचे
- अधः—अव्य॰—-—अधर+असि, अधरशब्दस्य स्थाने अधादेशः—तले, नीचे, निम्नप्रदेश मे, नारकीय प्रदेशों में या नरक में
- अधः—अव्य॰—-—अधर+असि, अधरशब्दस्य स्थाने अधादेशः—संबंधकारक के साथ 'संबंधबोधक अव्ययों' की भांति प्रयुक्त 'के नीचे' 'के तले' अर्थ को प्रकट करते हैं, नीचे-नीचे, तले-तले, नीचे से, नीचे ही नीचे
- अधोंऽशुकम्—नपुं॰—अधस्-अंशुकम्—-—अधोवस्त्र
- अधोऽक्षजः—पुं॰—अधस्-अक्षजः—-—विष्णु
- अधोऽधस्—अव्य॰—अधस्-अधस्—-—नीचे-नीचे, तले-तले, नीचे से, नीचे ही नीचे
- अध उपासनम्—नपुं॰—अधस्-उपासनम्—-—मैथुन
- अधस्करः—पुं॰—अधस्-करः—-—हाथ का निचला भाग
- अधस्करणम्—नपुं॰—अधस्-करणम्—-—आगे बढ़ जाना, हरा देना, अपमानित करना
- अधःखननम्—नपुं॰—अधस्-खननम्—-—अंदर-अंदर सुरंग खोदना
- अधोगतिः —स्त्री॰—अधस्-गतिः—-—नीचे की ओर गिरना या जाना, उतरना
- अधोगतिः —स्त्री॰—अधस्-गतिः—-—अधःपतन, हार
- अधोगमनम्—नपुं॰—अधस्-गमनम्—-—नीचे की ओर गिरना या जाना, उतरना
- अधोगमनम्—नपुं॰—अधस्-गमनम्—-—अधःपतन, हार
- अधःपातः—पुं॰—अधस्-पातः—-—नीचे की ओर गिरना या जाना, उतरना
- अधःपातः—पुं॰—अधस्-पातः—-—अधःपतन, हार
- अधोगन्तृ—पुं॰—अधस्-गन्तृ—-—चूहा
- अधश्चरः—पुं॰—अधस्-चरः—-—चोर
- अधोजिह्विका—स्त्री॰—अधस्-जिह्विका—-—उपजिह्वा
- अधोदिश्—स्त्री॰—अधस्-दिश्—-—अधोबिन्दु, दक्षिण की दिशा
- अधोदॄष्टिः—स्त्री॰—अधस्-दृष्टिः—-—नीचे की ओर देखना
- अधस्पातः—पुं॰—अधस्-पातः—-—नीचे की ओर गिरना या जाना, उतरना
- अधस्पातः—पुं॰—अधस्-पातः—-—अधःपतन, हार
- अधस्प्रस्तरः—पुं॰—अधस्-प्रस्तरः—-—घास का बना आसन विलाप करने वाले व्यक़्तियों के बैठने के लिये
- अधोभागः—पुं॰—अधस्-भागः—-—शरीर का निचला भाग
- अधोभागः—पुं॰—अधस्-भागः—-—किसी चीज का निचला हिस्सा
- अधोभुवनम्—नपुं॰—अधस्-भुवनम्—-—पाताल लोक, निम्नतर प्रदेश
- अधोलोकः—पुं॰—अधस्-लोकः—-—पाताल लोक, निम्नतर प्रदेश
- अधोमुख—वि॰—अधस्-मुख—-—नीचे को मुख किये हुए
- अधोवदन—वि॰—अधस्-वदन—-—नीचे को मुख किये हुए
- अधोलम्बः—पुं॰—अधस्-लम्बः—-—पंसाल, साहुल
- अधोलम्बः—पुं॰—अधस्-लम्बः—-—खड़ी सरल रेखा
- अधोवायुः—पुं॰—अधस्-वायुः—-—अपानवायु, अफ़ारा
- अधः स्वास्तिकम्—नपुं॰—अधस्-स्वास्तिकम्—-—अधोबिन्दु
- अधस्तन—वि॰—-—अधस्+ट्यु, तुट् च—निचला, निम्न स्थान पर स्थित.
- अधस्तात्—क्रि॰ वि॰ या सं॰ बो॰ अव्य॰—-—-—नीचे, तले, अवर, के नीचे, के तले आदि
- अधामार्गवः—पुं॰—-—-—अपामार्गः
- अधारणक—वि॰, न॰ ब॰—-—स्वार्थे कन् —जो लाभदायक न हो
- अधि—अव्य॰—-—आ+धा+कि पृषो॰ ह्रस्वः—ऊर्ध्व, ऊपर
- अधि—अव्य॰—-—आ+धा+कि पृषो॰ ह्रस्वः—आगे बढ़ कर, ऊपर
- अधि—अव्य॰—-—आ+धा+कि पृषो॰ ह्रस्वः— (क) ऊपर, आगे, पर, में (ख) संकेत करते हुए, के संबंध में, के विषय में (ग) आगे, ऊपर
- अधि—अव्य॰—-—आ+धा+कि पृषो॰ ह्रस्वः— (क) मुख्य, प्रमुख, प्रधान (ख) व्यतिरिक़्त, फ़ालतू.
- अधिदेवता—स्त्री॰—अधि-देवता—-—प्रमुख देवता
- अधिदन्तः—पुं॰—अधि-दन्तः—-—अध्यारुढ़ः दन्तः, अधिक
- अध्यधिक्षेपः—पुं॰—अधि-अधिक्षेपः—-—अत्यधिक, परिनिन्दन
- अधिक—वि॰—-—अधि+क—बहुत, अतिरिक़्त, बॄहत्तर, घन, से अधिक
- अधिक—वि॰—-—अधि+क—परिमाप में बढ़कर, अधिक संख्यावाला, यथेष्ट, अधिक, बहुल- समास में या करण कारक के साथ (ख) अतिमात्र, बढ़ा हुआ, से भरा हुआ, पूर्ण, कुशल- बड़ा, अधिक आयु का
- अधिक—वि॰—-—अधि+क—बहुत, अधिकतर, बलवत्तर बलवत्तर जन्तु ने अपने से दुर्बल जन्तु का शिकार नहीं किया
- अधिक—वि॰—-—अधि+क—प्रमुख, असाधारण, विशेष, विशिष्ट- इज्याध्ययनदानानि वैश्यस्य क्षत्रियस्य च, प्रतिग्रहोऽधिको विप्रे याजनाध्यापने तथा । @ या॰ १/११८, @ श॰ ७
- अधिक—वि॰—-—अधि+क—व्यतिरिक्त, फालतू
- अधिकाङ्ग—वि॰—अधिक-अङ्ग—-—व्यतिरिक्त अंग वाला
- अधिकम्—नपुं॰—-—-—अधिशेष, अधिक बहुत
- अधिकम्—नपुं॰—-—-—व्यतिरिक्तता, फालतू होना
- अधिकम्—नपुं॰—-—-—अतिशयोक्ति के समान अलंकार
- अधिकम्—नपुं॰—-—-—अधिकतर, अधिक मात्रा में, समास में
- अधिकम्—नपुं॰—-—-—अत्यन्त, बहुत अधिक
- अधिकाङ्ग—वि॰—अधिक-अङ्ग—-—व्यतिरिक्त अंग रखने वाला
- अधिकार्थ—वि॰—अधिक-अर्थ—-—बढ़ा कर कहा हुआ
- अधिकवचनम्—नपुं॰—अधिक-वचनम्—-—अतिशय कथन, अतिशयोक्ति वक्त्यव्य या वचन
- अधिकर्द्धि—वि॰—अधिक-ऋद्धि—-—प्रचुर पुष्कल
- अधिकतिथिः—स्त्री॰—अधिक-तिथिः—-—बढ़ा हुआ चांद्र दिवस, बढ़ा चढ़ाकर कहना, अतिशयोक्ति अलंकार
- अधिकदिनम्—नपुं॰—अधिक-दिनम्—-—बढ़ा हुआ चांद्र दिवस
- अधिकदिवसः—पुं॰—अधिक-दिवसः—-—बढ़ा हुआ चांद्र दिवस
- अधिकरणम्—नपुं॰—-—अधि+कृ+ल्युट्—प्रधान स्थान पर रखना, नियुक्ति
- अधिकरणम्—नपुं॰—-—अधि+कृ+ल्युट्—संबंध, उल्लेख, संपर्क
- अधिकरणम्—नपुं॰—-—अधि+कृ+ल्युट्—अनुरूपता, लिंग, वचन, कारक और पुरुष की समानता, अनय, कारक चिह्नों का इतर शब्दों से संबंध
- अधिकरणम्—नपुं॰—-—अधि+कृ+ल्युट्—आशय, विषय, उपस्तर
- अधिकरणम्—नपुं॰—-—अधि+कृ+ल्युट्—अधिष्ठान, स्थान, अधिकरण कारक का अर्थ
- अधिकरणम्—नपुं॰—-—अधि+कृ+ल्युट्—प्रस्ताव, विषय, किसी विषय पर पूर्ण तर्क
- अधिकरणम्—नपुं॰—-—अधि+कृ+ल्युट्—न्यायालय, कचहरी, न्यायाधिकरण
- अधिकरणम्—नपुं॰—-—अधि+कृ+ल्युट्—दावा
- अधिकरणम्—नपुं॰—-—अधि+कृ+ल्युट्—प्रभुता
- अधिकरणभोजकः—पुं॰—अधिकरणम्-भोजकः—-—न्यायाधीश
- अधिकरणमण्डपः—पुं॰—अधिकरणम्-मण्डपः—-—कचहरी या न्यायभवन
- अधिकरणसिद्धान्तः—पुं॰—अधिकरणम्-सिद्धान्तः—-—ऐसा उपहार जिसका प्रभाव औरों पर भी पड़े
- अधिकरणिकः—पुं॰—-—अधिकरण+ठन्—न्यायाधीश, दण्डाधिकारी
- अधिकरणिकः—पुं॰—-—अधिकरण+ठन्—राजकीय अधिकारी
- अधिकर्मन्—नपुं॰—-—-—उच्चतर या बढ़िया कार्य
- अधिकर्मन्—नपुं॰—-—-—अधीक्षण
- अधिकर्मा—पुं॰—-—-—जिसके ऊपर अधीक्षण का कार्य भार हो
- अधिकर्मकरः—पुं॰—अधिकर्मन्-करः—-—एक प्रकार का सेवक, कर्मचारियों का अध्यवेक्षक
- अधिकर्मकृत्—पुं॰—अधिकर्मन्-कृत्—-—एक प्रकार का सेवक, कर्मचारियों का अध्यवेक्षक
- अधिकर्मिकः—पुं॰—-—अधिकर्मन्+ठ—किसी मंडी का अध्वेक्षक जिसका कार्य व्यापारियों से कर उगाहने का हो
- अधिकाम—वि॰—-—अधिकः कामो यस्य—उत्कट अभिलाषी, आवेशपूर्ण, कामातुर
- अधिकामः—पुं॰—-—अधिकः कामो यस्य—उत्कट अभिलाषा
- अधिकारः—पुं॰—-—अधि+कृ+घञ्—अधीक्षण, देखभाल करना
- अधिकारः—पुं॰—-—अधि+कृ+घञ्—कर्तव्य, कार्यभार, सत्ताधिकार का पद, प्रभुत्व
- अधिकारः—पुं॰—-—अधि+कृ+घञ्—प्रभुसत्ता, सरकार या प्रशासन, न्यायक्षेत्र, शासन
- अधिकारः—पुं॰—-—अधि+कृ+घञ्—हक, प्राधिकार, दावा, स्वत्व, स्वामित्व या कब्जे का अधिकार
- अधिकारः—पुं॰—-—अधि+कृ+घञ्—विशेषाधिकार
- अधिकारः—पुं॰—-—अधि+कृ+घञ्—प्रकरण, अनुच्छेद या अनुभाग
- अधिकारः—पुं॰—-—अधि+कृ+घञ्—प्रधान या शासनात्मक नियम
- अधिकारविधिः—पुं॰—अधिकारः-विधिः—-—किसी विशेष कार्य को करने के लिए पात्रता का कथन
- अधिकारस्थ—वि॰—अधिकारः-स्थ—-—पद पर विराजमान
- अधिकाराढ्य—वि॰—अधिकारः-आढ्य—-—पद पर विराजमान
- अधिकारिन्—वि॰—-—अधिकार+णिनि—अधिकार सम्पन्न, शक्तिसम्पन्न
- अधिकारिन्—वि॰—-—अधिकार+णिनि—स्वत्व सम्पन्न, हकदार
- अधिकारिन्—वि॰—-—अधिकार+णिनि—स्वामी, मालिक
- अधिकारिन्—वि॰—-—अधिकार+णिनि—उपयुक्त
- अधिकारवत्—वि॰—-—अधिकार+मतुप्—अधिकार सम्पन्न, शक्तिसम्पन्न
- अधिकारवत्—वि॰—-—अधिकार+मतुप्—स्वत्व सम्पन्न, हकदार
- अधिकारवत्—वि॰—-—अधिकार+मतुप्—स्वामी, मालिक
- अधिकारवत्—वि॰—-—अधिकार+मतुप्—उपयुक्त
- अधिकारी—पुं॰—-—अधिकार+णिनि—राजपुरुष, पदाधिकारी कार्यकर्ता, अधीक्षक, प्रधान, निर्देशक, शासक
- अधिकारी—पुं॰—-—अधिकार+णिनि—सही दावेदार, मालिक, स्वामी
- अधिकारवान्—पुं॰—-—अधिकार+मतुप्—राजपुरुष, पदाधिकारी कार्यकर्ता, अधीक्षक, प्रधान, निर्देशक, शासक
- अधिकारवान्—पुं॰—-—अधिकार+मतुप्—सही दावेदार, मालिक, स्वामी
- अधिकृत—वि॰—-—अधि+कृ+क्त—अधिकार प्राप्त, नियुक्त आदि
- अधिकृतः—पुं॰—-—अधि+कृ+क्त—राजपुरुष, पदाधिकारी, किसी पद के कार्यभार को संभालने वाला
- अधिकृतिः—स्त्री॰—-—अधि+कृ+क्तिन—हक, प्राधिकार, स्वामित्व
- अधिकृत्य—अव्य॰—-—अ+कृ+(क्त्वा)ल्यप्—उल्लेख करके, के विषय में, के संबंध में
- अधिक्रमः—पुं॰—-—अधि+क्रम्+घञ् —हमला, चढ़ाई
- अधिक्रमणम्—नपुं॰—-—अधि+क्रम्+ ल्युट् —हमला, चढ़ाई
- अधिक्षेपः—पुं॰—-—अधि+क्षिप्+घञ्—गाली, दोषारोपण, अपमान
- अधिक्षेपः—पुं॰—-—अधि+क्षिप्+घञ्—पदच्युत करना
- अधिगत—वि॰—-—अधि+गम्+क्त—अर्जित, प्राप्त आदि
- अधिगत—वि॰—-—अधि+गम्+क्त—अधीत, ज्ञात, सीखा हुआ
- अधिगमः—पुं॰—-—अधि+गम्+घञ्—अर्जन, प्रापण
- अधिगमः—पुं॰—-—अधि+गम्+घञ्—पारंगति, अध्ययन, ज्ञान
- अधिगमः—पुं॰—-—अधि+गम्+घञ्—व्यपारिक लाभ, लाभ, संपत्ति प्राप्त करना
- अधिगमः—पुं॰—-—अधि+गम्+घञ्—स्वीकृति
- अधिगमः—पुं॰—-—अधि+गम्+घञ्—मैथुन
- अधिगमनम्—नपुं॰—-—अधि+गम्+ल्युट्—अर्जन, प्रापण
- अधिगमनम्—नपुं॰—-—अधि+गम्+ल्युट्—पारंगति, अध्ययन, ज्ञान
- अधिगमनम्—नपुं॰—-—अधि+गम्+ल्युट्—व्यपारिक लाभ, लाभ, संपत्ति प्राप्त करना
- अधिगमनम्—नपुं॰—-—अधि+गम्+ल्युट्—स्वीकृति
- अधिगमनम्—नपुं॰—-—अधि+गम्+ल्युट्—मैथुन
- अधिगुण—वि॰—-—अधिका गुणा यस्य—श्रेष्ठ गुण रखने वाला, योग्य, गुणी
- अधिगुण—वि॰—-—अधिका गुणा यस्य—जिसकी डोर कसकर खिंची हो
- अधिचरणम्—नपुं॰—-—अधि+चर्+ल्युट्—किसी के ऊपर चलना
- अधिजननम्—नपुं॰—-—अधि+जन्+ल्युट्—जन्म
- अधिजिह्वः—पुं॰—-—-—सांप
- अधिजिह्वा—स्त्री॰—-—-—ताल जिह्वा
- अधिजिह्वा—स्त्री॰—-—-—जिह्वा की सूजन
- अधिजिह्विका—स्त्री॰—-—-—ताल जिह्वा
- अधिजिह्विका—स्त्री॰—-—-—जिह्वा की सूजन
- अधिज्य—वि॰—-—अध्यारूढा ज्या यत्र, अधिगतं ज्यां वा—धनुष की डोरी को कस कर खींचे हुए, या कस कर खिंची हुई डोरी वाला
- अधिज्यधन्वन्—वि॰—अधिज्य-धन्वन्—-—धनुष की डोरी को ताने हुए
- अधिज्यकार्मुक—वि॰—अधिज्य-कार्मुक—-—धनुष की डोरी को ताने हुए
- अधित्यका—स्त्री॰—-—अधि+त्यकन्+टाप्—गिरिप्रस्थ, उच्चसमभूमि
- अधिदन्तः—पुं॰—-—अध्यारूढो दन्तः —दांत के ऊपर निकलने वाला दांत
- अधिदेवः—पुं॰—-—अधिष्ठाता - त्री देवः देवता वा—इष्टदेव प्रधान देव, अभिरक्षक देवता
- अधिदेवता—स्त्री॰, पुं॰—-—अधिष्ठाता - त्री देवः देवता वा—इष्टदेव प्रधान देव, अभिरक्षक देवता
- अधिदैवम्—नपुं॰—-—अधिष्ठातृ दैवं दैवतं वा—किसी वस्तु की अधिष्ठात्री देवता
- अधिदैवतम्—नपुं॰—-—अधिष्ठातृ दैवं दैवतं वा—किसी वस्तु की अधिष्ठात्री देवता
- अधिनाथः—पुं॰—-—-—प्रमेश्वर
- अधिनायः—पुं॰—-—अधि+नी+घञ्—गन्ध, महक
- अधिपः—पुं॰—-—अधि+पा+क, डति वा—स्वामी, शासक, राजा, प्रभु, प्रधान
- अधिपतिः—पुं॰—-—अधि+पा+क, डति वा—स्वामी, शासक, राजा, प्रभु, प्रधान
- अधिपत्नी—स्त्री॰, पुं॰—-—-—शासिका, स्वामिनी
- अधिपुरुषः—पुं॰—-—-—पुरुषोत्तम, परमेश्वर
- अधिपूरुषः—पुं॰—-—-—पुरुषोत्तम, परमेश्वर
- अधिप्रज—वि॰, ब॰ स॰—-—अधिका प्रजा यस्य —बहुत संतान वाला
- अधिभूः—पुं॰—-—अधि+भू+क्विप्—स्वामी, श्रेष्ठ, प्रमुख
- अधिभूतम्—पुं॰—-—अधि+भू+क्त - भूतं प्राणिमात्रमधिकृत्य वर्तमानम्—परमेंश्वर, परमात्मा या तत्संबंधी समस्त व्यापक प्रभाव
- अधिमात्र—वि॰, ब॰ स॰ —-—अधिका मात्रा यस्य —मान से अधिक, बहुत अधिक, अपरिमित
- अधिमासः—पुं॰—-—-—लौंद का महीना, मलमास
- अधियज्ञः—पुं॰—-—-—प्रधान यज्ञ
- अधियज्ञः—पुं॰—-—-—ऐसे यज्ञ का अभिकर्ता
- अधिरथ—वि॰—-—अध्यारूढो रथं रथिनं वा—रथारूढ
- अधिरथः—पुं॰—-—-—सूत, सारथि
- अधिरथः—पुं॰—-—-—सूत का नाम जो अंगदेश का राजा तथा कर्ण का पालक पिता था
- अधिराज्—पुं॰—-—अधि+राज्+क्विप् राजन्+टच् वा—प्रभुसत्ता प्राप्त या परमशासक, सम्राट, राजा, प्रधान, स्वामी
- अधिराजः—पुं॰—-—अधि+राज्+क्विप् राजन्+टच् वा—प्रभुसत्ता प्राप्त या परमशासक, सम्राट, राजा, प्रधान, स्वामी
- अधिराज्यम्—नपुं॰—-—अधिकृतं राज्यं राष्ट्रम् अत्र—शाही हकूमत या सम्राट का शासन, सर्वोच्चता, शही मर्यादा
- अधिराज्यम्—नपुं॰—-—अधिकृतं राज्यं राष्ट्रम् अत्र—साम्राज्य
- अधिराज्यम्—नपुं॰—-—अधिकृतं राज्यं राष्ट्रम् अत्र—देश का नाम
- अधिराष्ट्रम्—नपुं॰—-—अधिकृतं राज्यं राष्ट्रम् अत्र—शाही हकूमत या सम्राट का शासन, सर्वोच्चता, शही मर्यादा
- अधिराष्ट्रम्—नपुं॰—-—अधिकृतं राज्यं राष्ट्रम् अत्र—साम्राज्य
- अधिराष्ट्रम्—नपुं॰—-—अधिकृतं राज्यं राष्ट्रम् अत्र—देश का नाम
- अधिरूढ—वि॰—-—अधि+रुह्+क्त—सवार, चढ़ा हुआ
- अधिरूढ—वि॰—-—अधि+रुह्+क्त—बढ़ा हुआ
- अधिरोहः—पुं॰—-—अधि+रुह्+घञ्—गजारोही
- अधिरोहः—पुं॰—-—अधि+रुह्+घञ्—सवार होना, चढ़ना
- अधिरोहणम्—नपुं॰—-—अधि+रुह्+ल्युट्—चढ़ना, सवार होना
- अधिरोहणी—स्त्री॰—-—अधि+रुह्+ल्युट्+ङीप्—सीढ़ी, सीढ़ी का डंडा
- अधिरोहिन्—वि॰—-—अधि+रुह्+णिनि—चढ़ने वाला, सवार होने वाला, ऊपर उठने वाला
- अधिरोहिणी—पुं॰—-—अधि+रुह्+णिनि—सीढ़ी, जीने की पौड़ी या डंडा
- अधिलोकम्—अव्य॰ पुं॰—-—-—विश्व से संबंध रखने वाला
- अधिलोकम्—अव्य॰ पुं॰—-—-—विश्व
- अधिवचनम्—नपुं॰—-—अधि+वच्+ल्युट्—पक्षसमर्थन, पक्ष में बोलना
- अधिवचनम्—नपुं॰—-—अधि+वच्+ल्युट्—नाम, उपनाम, अभिधान
- अधिवासः—पुं॰—-—अधि+वस्+णिच्+घञ्—आवास, निवास, वास, बसति, बसना
- अधिवासः—पुं॰—-—अधि+वस्+णिच्+घञ्—धरना देना
- अधिवासः—पुं॰—-—अधि+वस्+णिच्+घञ्—यज्ञारंभ के पूर्व देवता का आवाहन पूजन आदि
- अधिवासः—पुं॰—-—अधि+वस्+णिच्+घञ्—पोशाक, परावरण, लबादा
- अधिवासः—पुं॰—-—अधि+वस्+णिच्+घञ्—सुवासित और सुगंधित उबटन लगाना, सुगंध्युक़्त तथा महकदार पदार्थों का सेवन
- अधिवासनम्—नपुं॰—-—अधि+वस्+णिच्+ल्युट्—सुगंध से बसाना, मूर्ति की प्रारंभिक प्रतिष्ठा, मूर्ति में देवता की प्राण प्रतिष्ठा करना.
- अधिविन्ना—स्त्री॰—-—अधि+विद्+क्त—वह स्त्री जिसके रहते हुए पति दूसरा विवाह करले @ या॰ १/७३-४, @ मनु॰ ९/८०-८३
- अधिवेत्तृ—पुं॰—-—अधि+विद्+तृच्—एक स्त्री के रहते हुए दूसरा विवाह करने वाला
- अधिवेदः—पुं॰—-—अधि+विद्+घञ्—एक स्त्री के रहते अतिरिक्त स्त्री से विवाह करना
- अधिवेदनम्—नपुं॰—-—अधि+विद्+ल्युट्—एक स्त्री के रहते अतिरिक्त स्त्री से विवाह करना
- अधिश्रयः—पुं॰—-—अधि+श्रि+अच्—आधार
- अधिश्रयः—पुं॰—-—अधि+श्रि+अच्—उबालना, गर्म करना
- अधिश्रयणम् —नपुं॰—-—अधि+श्रि(श्री)+ल्युट्—गरम करना, उबालना
- अधिश्रपणम्—नपुं॰—-—अधि+श्रि(श्री)+ल्युट्—गरम करना, उबालना
- अधिश्रयणी—स्त्री॰—-—अधिश्रीयते पच्यतेऽत्र - आधारे ल्युट्+ङीप्—चूल्हा, अंगीठी
- अधिश्रपणी—स्त्री॰—-—अधिश्रीयते पच्यतेऽत्र - आधारे ल्युट्+ङीप्—चूल्हा, अंगीठी
- अधिश्री—वि॰—-—अधिका श्रीर्यस्थ—ऊँची प्रतिष्ठा वाला, सर्वश्रेष्ठ, बड़ा धनाढ्य, प्रभुतासम्पन्न स्वामी
- अधिष्ठानम्—नपुं॰—-—अधि+स्था+ल्युट्—निकट होना, पास में स्थित होना, पहुँच
- अधिष्ठानम्—नपुं॰—-—अधि+स्था+ल्युट्—पद, स्थान, अधार, आसन, जगह, नगर
- अधिष्ठानम्—नपुं॰—-—अधि+स्था+ल्युट्—निवास स्थान, आवास
- अधिष्ठानम्—नपुं॰—-—अधि+स्था+ल्युट्—अधिकार, शक़्ति, नियंत्रणशक़्ति
- अधिष्ठानम्—नपुं॰—-—अधि+स्था+ल्युट्—सरकार, उपनिवेश
- अधिष्ठानम्—नपुं॰—-—अधि+स्था+ल्युट्—चक्र, पहिया
- अधिष्ठानम्—नपुं॰—-—अधि+स्था+ल्युट्—दॄष्टांत, निर्दिष्ट, नियम,
- अधिष्ठानम्—नपुं॰—-—अधि+स्था+ल्युट्—आशीर्वाद
- अधिष्ठित—वि॰—-—अधि+स्था+क्त—स्थित, विद्यमान, अधिकृत, निदेशन, प्रधानता करना
- अधिष्ठित—वि॰—-—अधि+स्था+क्त—व्यस्त, अधिकृत, भरा हुआ, ग्रस्त, अभिभूत , परिरक्षित, सुरक्षा प्राप्त, अधीक्षित, नीत, संचालित, आदिष्ट, प्रधानता किया गया
- अधीकारः—पुं॰—-—-—अधीक्षण, देखभाल करना
- अधीकारः—पुं॰—-—-—कर्तव्य, कार्यभार, सत्ताधिकार का पद, प्रभुत्व
- अधीकारः—पुं॰—-—-—प्रभुसत्ता, सरकार या प्रशासन, न्यायक्षेत्र, शासन
- अधीकारः—पुं॰—-—-—हक, प्राधिकार, दावा, स्वत्व, स्वामित्व या कब्जे का अधिकार
- अधीकारः—पुं॰—-—-—विशेषाधिकार
- अधीकारः—पुं॰—-—-—प्रकरण, अनुच्छेद या अनुभाग
- अधीकारः—पुं॰—-—-—प्रधान या शासनात्मक नियम
- अधीतिन्—वि॰—-—अधीत+इनि—खूब पढा लिखा, निष्णात
- अधीतिः—स्त्री॰—-—अधि+इ+क्तिन्—अध्ययन, अनुशीलन
- अधीतिः—स्त्री॰—-—अधि+इ+क्तिन्—स्मरण, प्रत्यास्मरण
- अधीन—वि॰, पुं॰—-—अधिगतम् इनम् प्रभुम् —आश्रित,मातहत,निर्भर
- अधीयानः —कृ॰ वि॰—-—अधि+इ+ शानच्—विद्यार्थी, वेदपाठी
- अधीर—वि॰, न॰ त॰—-—-—साहसहीन,भीरु
- अधीर—वि॰, न॰ त॰—-—-—उद्विग्न,उत्तेजित,उतावला
- अधीर—वि॰, न॰ त॰—-—-—अस्थिर
- अधीर—वि॰, न॰ त॰—-—-—धैर्यरहित, चंचल
- अधीरा—स्त्री॰—-—-—बिजली
- अधीरा—स्त्री॰—-—-—सनकी या झगड़ालू स्त्री
- अधीवासः—पुं॰—-—अधि+वस्+घञ्-उपसर्गस्य दीर्घत्वम्—एक लंबा कोट जिससे सारा शरीर ढक जाय, लबादा
- अधीशः—पुं॰—-—-—स्वामी, सर्वोच्च स्वामी या मालिक, प्रभुतासंपन्न राजा
- अधीश्वरः—पुं॰—-—-—सर्वोच्च स्वामी या नियोक्ता
- अधीष्ट—वि॰—-—अधि+इष्+क्त—अवैतनिक, प्रार्थित
- अधीष्टः—पुं॰—-—अधि+इष्+क्त—अवैतनिक पद या कर्तव्य, ऐसा कार्य जिसमें सामर्थ्य का उपयोग हो सके
- अधुना—अव्य॰—-—इदमोऽधुनादेशः @ पा॰ ५।३।१७—अब, इस समय
- अधुनातन—वि॰—-—अधुना+ट्युल्-तुट्च—वर्तमान काल से सम्बन्ध रखने वाला, आधुनिक
- अधूमकः—पुं॰—-—-—जलती हुई आग
- अधृतिः—स्त्री॰—-—नञ्+धृ+क्तिन्—दॄढ़ता, या संयम का अभाव , शिथिलता
- अधृतिः—स्त्री॰—-—नञ्+धृ+क्तिन्—असंयम
- अधृतिः—स्त्री॰—-—नञ्+धृ+क्तिन्—दुःख
- अधृष्य—वि॰, न॰ त॰—-— —अजेय, दुर्धष, अनभिगम्य
- अधृष्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—लजीला, शर्मीला
- अधृष्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—घमंडी
- अधोक्ष—नपुं॰—-—-—नीचे की ओर देखना
- अधोक्षज—पुं॰—-—-—विष्णु
- अधोंऽशुक —नपुं॰—-—-—अधोवस्त्र
- अध्यक्ष—वि॰, पुं॰—-—अधिगतम् अक्षम् इन्द्रियम्, अध्यक्ष्णोति व्याप्नोति इति-अधि+अक्ष+अच्—गोचर,दृश्य
- अध्यक्ष—वि॰, पुं॰—-—अधिगतम् अक्षम् इन्द्रियम्, अध्यक्ष्णोति व्याप्नोति इति-अधि+अक्ष+अच्—निरीक्षक, अधिष्ठाता
- अध्यक्षः —पुं॰—-—अधिगतम् अक्षम् इन्द्रियम्, अध्यक्ष्णोति व्याप्नोति इति-अधि+अक्ष+अच्—अधीक्षक,प्रधान,मुख्य
- अध्यक्षरम्—नपुं॰—-—-—रहस्यमय अक्षर ‘ओम्’
- अध्यग्नि—अव्य॰—-—अग्नौ अग्नि समीपे वा—विवाह संस्कार की अग्नि के निकट या ऊपर
- अध्यग्नि—अव्य॰—-—अग्नौ अग्नि समीपे वा—विवाह के अवसर पर अग्नि को साक्षी करके स्त्री को दिया जाने वाला उपहार ,धन
- अध्यधि—अव्य॰—-—अधि+अधि—ऊपर,ऊँचे
- अध्यधिक्षेपः—पुं॰—-—-—अत्यन्त अपशब्द या दुर्ववचन ,कुत्सित गालियां
- अध्यधीन—वि॰, पुं॰—-—-—नितान्त अधीन,बिल्कुल वशीभूत , जैसे कि दास सेवक
- अध्ययः—पुं॰—-—अधि+इ+अच्—ज्ञान,अध्ययन, स्मरण
- अध्ययः—पुं॰—-—अधि+इ+अच्—ज्ञान,अध्ययन, स्मरण
- अध्ययनम्—नपुं॰—-—अधि+इ+ल्युट्—सीखना,जानना, पढ़ना, ब्राहमण के षट्कर्मों में से एक
- अध्यर्ध—वि॰—-—अधिकमर्धं यस्य—जिसके पास अतिरिक्त आधा हो
- अध्यवसानम्—नपुं॰—-—अधि+अव+सो+ल्युट्—प्रयत्न,दृढ़ निश्चय आदि
- अध्यवसानम्—नपुं॰—-—अधि+अव+सो+ल्युट्—प्रकृत और अप्रकृत दोनों वस्तुओं का इस ढंग से एक रूप करना जिससे कि एक वस्तु दूसरी में विलीन हो जाय, इसी प्रकार की एकरूपता पर अतिशयोक्ति अलंकार और साध्यावसाना लक्षणा आश्रित हैं।
- अध्यवसायः—पुं॰—-—अधि+अव+सो+घञ्—प्रयास,प्रयत्न,परिश्रम
- अध्यवसायः—पुं॰—-—अधि+अव+सो+घञ्—दृढ़निश्चय,संकल्प,मानस प्रयत्न या विचारों का ग्रहण
- अध्यवसायः—पुं॰—-—अधि+अव+सो+घञ्—धैर्य,उद्यम,लगातार कोशिश
- अध्यवसायिन्—वि॰—-—अधि+अव+सो+णिनि—प्रयत्नशील,दृढ़्संकल्प वाला,धैर्यशील,उत्साही।
- अध्यशनम्—नपुं॰—-—अधि+अश्+ल्युट्—अधिक खाना,एक बार का खाना पचे बिना फिर खा लेना।
- अध्यात्म—वि॰—-—आत्मनः संबद्धम्—आत्मा या व्यक्ति से संबंध रखने वाला
- अध्यात्मम्—अव्य॰—-—आत्मनि इति—आत्मा से संबद्ध
- अध्यात्मम्—अव्य॰—-—आत्मनि इति—परब्रह्म या आत्मा और परमात्मा का संबंध
- अध्यात्मज्ञानम्—नपुं॰—अध्यात्म-ज्ञानम्—-—आत्मा या परमात्मा संबन्धी ज्ञान अर्थात् ब्रह्म एवं आत्म-विषयक जानकारी
- अध्यात्मविद्या—स्त्री॰—अध्यात्म-विद्या—-—आत्मा या परमात्मा संबन्धी ज्ञान अर्थात् ब्रह्म एवं आत्म-विषयक जानकारी
- अध्यात्मरति—वि॰—अध्यात्म-रति—-—जो परमात्मा चिन्तन में सुख का अनुभव करे
- अध्यात्मिक—वि॰—-—-—अध्यात्म से संबन्ध रखने वाला
- अध्यापकः—पुं॰—-—अधि+इ+णिच्+ण्वुल्—पढ़ाने वाला,गुरु,शिक्षक विशेषतया वेदों का, भृतक अर्थार्थी अध्यापक
- अध्यापनम्—नपुं॰—-—अधि+इ+णिच्+ल्युट्—पढ़ाना,सिखाना,व्याख्यान देना
- अध्यापयितृ—पुं॰—-—अधि+इ+णिच्+तृच्—अध्यापक,शिक्षक
- अध्यायः—पुं॰—-—अधि+इ+घञ्—पढ़ना,अध्यापन,विशेषतः वेदों का
- अध्यायः—पुं॰—-—अधि+इ+घञ्—पाठ या पढ़्ने के लिये उचित समय
- अध्यायः—पुं॰—-—अधि+इ+घञ्—पाठ व्याख्यान
- अध्यायः—पुं॰—-—अधि+इ+घञ्—खण्ड,किसी रचना के भाग
- अध्यायिन्—वि॰—-—अध्याय+णिनि—अध्ययन करने वाला,अध्ययनशील
- अध्यारूढ़—वि॰—-—अधि+आ+रुह्+क्त—सवार चढ़ा हुआ
- अध्यारूढ़—वि॰—-—अधि+आ+रुह्+क्त—ऊपर उठा हुआ, उन्नत
- अध्यारूढ़—वि॰—-—अधि+आ+रुह्+क्त—ऊँचा, श्रेष्ठ, नीचा, निम्नतर
- अध्यारोपः—पुं॰—-—अधि+आ+रुह्+णिच्+पुक्+घञ्—उठना, उन्नत होना आदि
- अध्यारोपः—पुं॰—-—अधि+आ+रुह्+णिच्+पुक्+घञ्—भ्रमवश एक वस्तु को अन्यवस्तु समझना,भ्रम के कारण एक वस्तु के गुण दूसरी वस्तु में जोड़ना,भ्रमवश रस्सी को साँप समझना
- अध्यारोपः—पुं॰—-—अधि+आ+रुह्+णिच्+पुक्+घञ्—भ्रान्तिपूर्ण ज्ञान
- अध्यारोपणम्—नपुं॰—-—अधि+आ+रुह्+णिच्+पुक्+ल्युट्—उठना आदि
- अध्यारोपणम्—नपुं॰—-—अधि+आ+रुह्+णिच्+पुक्+ल्युट्—बोना
- अध्यावापः—पुं॰—-—अधि+आ+वप्+घञ्—बीजादिक बखेरना या बोना
- अध्यावापः—पुं॰—-—अधि+आ+वप्+घञ्—वह खेत जिसमें बीजादिक बो दिया गया हो
- अध्यावाहनिकम्—नपुं॰—-—अध्यावाहनं (पितृगृहात्पतिगृहगमनम्) लब्धार्थे ठन्)—छः प्रकार के स्त्री धनों में से एक
- अध्यासः—पुं॰—-—अधि+आस्+घञ्—ऊपर बैठना,अधिकार में करना,प्रधानता करना
- अध्यासः—पुं॰—-—अधि+आस्+घञ्—आसन,स्थान
- अध्यासनम्—नपुं॰—-—अधि+आस्+ल्युट्—ऊपर बैठना,अधिकार में करना,प्रधानता करना
- अध्यासनम्—नपुं॰—-—अधि+आस्+ल्युट्—आसन,स्थान
- अध्यासः—पुं॰—-—अधि+आस्+घञ्—मिथ्या आरोपण, मिथ्या ज्ञान
- अध्यासः—पुं॰—-—अधि+आस्+घञ्—परिशिष्ट
- अध्यासः—पुं॰—-—अधि+आस्+घञ्—कुचलना
- अध्याहारः—पुं॰—-—अधि+आ+हृ+घञ्—न्यूनपदता को पूरा करना
- अध्याहारः—पुं॰—-—अधि+आ+हृ+घञ्—तर्क करना,अनुमान करना,नई कल्पना,अन्दाजा या अनुमान
- अध्याहरणम्—नपुं॰—-—अधि+आ+हृ+ल्युट्—न्यूनपदता को पूरा करना
- अध्याहरणम्—नपुं॰—-—अधि+आ+हृ+ल्युट्—तर्क करना,अनुमान करना,नई कल्पना,अन्दाजा या अनुमान
- अध्युष्ट्रः—पुं॰—-—अधिगतः उष्ट्रं वाहनत्वेन—ऊँटगाड़ी
- अध्यूढः—पुं॰—-—अधि+वह्+क्त—उठा हुआ,उन्नत
- अध्यूढः—पुं॰—-—अधि+वह्+क्त—शिव
- अध्यूढा—स्त्री॰—-—अधि+वह्+क्त+ टाप्—वह स्त्री जिसके रहते हुए उसके पति ने दूसरा विवाह कर लिया हो
- अध्येषणम्—नपुं॰—-—अधि+इष्+ल्युट्—किसी कार्य को करने की प्रेरणा देना,विशेषतःआचार्य के द्वारा, अर्थात आदरपूर्वक किसी कार्य में प्रवृत्त करना
- अध्येषणा—स्त्री॰—-—अधि+इष्+ल्युट्+टाप्—निवेदन,याचना
- अध्रुव—वि॰, न॰ त॰—-—न ध्रुवं —अनिश्चित,सन्दिग्ध
- अध्रुव—वि॰, न॰ त॰—-—न ध्रुवं —अस्थिर,चंचल,पृथक्करणीय
- अध्रुवम्—नपुं॰—-—न ध्रुवं अध्रुवं—अनिश्चितता
- अध्वन्—पुं॰—-—अद्+क्वनिप् दकारस्य धकारः—रास्ता,सड़क,मार्ग,नक्षत्र मार्ग
- अध्वन्—पुं॰—-—अद्+क्वनिप् दकारस्य धकारः—(क)दूरी,स्थान, (ख) यात्रा,भ्रमण,प्रसरण,प्रस्थान
- अध्वन्—पुं॰—-—अद्+क्वनिप् दकारस्य धकारः—समय, मूर्तकाल
- अध्वन्—पुं॰—-—अद्+क्वनिप् दकारस्य धकारः—आकाश,अन्तरिक्ष
- अध्वन्—पुं॰—-—अद्+क्वनिप् दकारस्य धकारः—उपाय साधन,प्रणाली
- अध्वन्—पुं॰—-—अद्+क्वनिप् दकारस्य धकारः—आक्रमण
- अध्वगः—पुं॰—अध्वन्-गः—-—मार्ग चलने वाला,यात्री,बटोही
- अध्वगः—पुं॰—अध्वन्-गः—-—ऊँट
- अध्वगः—पुं॰—अध्वन्-गः—-—खच्चर
- अध्वगः—पुं॰—अध्वन्-गः—-—सूर्य
- अध्वगा—स्त्री॰—अध्वन्-गा—-—गंगा
- अध्वपतिः—पुं॰—अध्वन्-पतिः—-—सूर्य
- अध्वरथः—पुं॰—अध्वन्-रथः—-—यात्रा करने के लिये गाड़ी
- अध्वरथः—पुं॰—अध्वन्-रथः—-—हरकारा जो चलने में चतुर हो
- अध्वनीन—वि॰—-—अध्वन्+ख—यात्रा पर जाने के योग्य,तेज चलने वाला
- अध्वन्य—वि॰—-—अध्वन्+यत् —यात्रा पर जाने के योग्य,तेज चलने वाला
- अध्वनीनः—पुं॰—-—अध्वन्+ख—तेज चलने वाला यात्री,बटोही।
- अध्वन्यः—पुं॰—-—अध्वन्+यत् —तेज चलने वाला यात्री,बटोही।
- अध्वरः—पुं॰—-—अध्वानं सत्पथं राति-इतिअध्वन्+रा+क अथवा न ध्वरति कुटिलो न भवति नच्+ध्वृ+अच्,ध्वरतिहिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधो निपातः अहिंस्र-निरु॰—यज्ञ,धार्मिक संस्कार,सोमयाग
- अध्वरः—पुं॰—-—अध्वानं सत्पथं राति-इति अध्वन्+रा+क अथवा न ध्वरति कुटिलो न भवति नच्+ध्वृ+अच्,ध्वरतिहिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधो निपातः अहिंस्र-निरु॰—आकाश या वायु
- अध्वरम्—नपुं॰—-—अध्वानं सत्पथं राति-इति अध्वन्+रा+क अथवा न ध्वरति कुटिलो न भवति नच्+ध्वृ+अच्,ध्वरतिहिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधो निपातः अहिंस्र-निरु॰—आकाश या वायु
- अध्वरदीक्षणीया—स्त्री॰—अध्वरः-दीक्षणीया—-—अध्वर संबंधी संस्कार
- अध्वरप्रायश्चित्तिः—स्त्री॰—अध्वरः-प्रायश्चित्तिः—-—प्रायश्चित्त,पापनिष्कृत्ति
- अध्वरमीमांसा—स्त्री॰—अध्वरः-मीमांसा—-—जैमिनि की पूर्वमीमांसा
- अध्वर्युः—पुं॰—-—अध्वर+क्यच्+युच्—ऋत्विक्,पुरोहित,पारिभाषिक रूप से ’होतृ’ ’उद्गातृ’ तथा’ब्रह्मन्’ से अतिरिक्त ऋत्विक्
- अध्वर्युः—पुं॰—-—अध्वर+क्यच्+युच्—यजुर्वेद
- अध्वर्युर्वेदः—पुं॰—अध्वर्युः-वेदः—-—यजुर्वेद
- अध्वाति—पुं॰—-—-—अध्वग
- अध्वान्तम्—नपुं॰—-—-—संध्या, अन्धकार
- अन्—अदा॰ पर॰ सेट् <अनिति>,<अनित>—-—-—सांस लेना,प्रेर० आनयति,सन्नन्त०अनिनिषति।(दिवा० आ०) जीना,’प्र’ उपसर्ग के साथ-जीवित रहना-यदहं पुनरेव प्राणिमि-का०३५,प्राणिमस्तव मानार्थं-भामि०४/३८।
- अन्—अदा॰ पर॰ सेट् <अनिति>,<अनित>—-—-—किलना,जीना
- अनः—वि॰—-—अन्+अच्—साँस,प्रश्वास
- अनंश—वि॰, न॰ ब॰—-—-—जिसका पैतृक सम्पत्ति पर कोई अधिकार न हो
- अनकदन्दुभिः—पुं॰—-—-—कृष्ण के पिता वासुदेव की उपाधि
- अनकदन्दुभिः—पुं॰—-—-—बड़ा ढोल, नगाड़ा
- अनक्षः—वि॰, न॰ ब॰—-—-—दृष्टिहीन,अंधा
- अनक्षरः—वि॰, न॰ ब॰—-—-—बोलने में असमर्थ,मूक,गूँगा
- अनक्षरः—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अशिक्षित
- अनक्षरः—वि॰, न॰ ब॰—-—-—बोलने के अयोग्य
- अनक्षरम्—नपुं॰—-—-—दुर्वचन,गाली निन्दा या अपशब्द व्यंजित दौर्हृदेन रघु०१४/२६।
- अनक्षरम्—नपुं॰—-—-—बिना शब्दों के
- अनग्निः—पुं॰—-—न अग्निः—अग्नि का न होना, अग्नि के बजाय कोई दूसरी वस्तु
- अनग्निः—पुं॰—-—न अग्निः—अग्नि का अभाव
- अनग्निः—वि॰, न॰ ब॰—-—-—जिसे अग्नि की आवश्यक्ता न हो,
- अनग्निः—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अग्निहोत्र न करने वाला
- अनग्निः—वि॰, न॰ ब॰—-—-—श्रौतस्मार्त कर्म से विरहित,अधार्मिक
- अनग्निः—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अग्निमांद्य रोग से ग्रस्त
- अनग्निः—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अविवाहित
- अनघ—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अघो पापः दोषो वा यस्य—निष्पाप,निरपराध
- अनघ—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अघो पापः दोषो वा यस्य—निर्दोष,सुन्दर
- अनघ—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अघो पापः दोषो वा यस्य—सकुशल, घातरहित, अक्षत,सुरक्षितजिसका प्रसव सकुशल हो चुका हो या जो प्रसव के पश्चात् सकुशल शय्या पर लेटी हो
- अनघ—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अघो पापः दोषो वा यस्य—पवित्र,निष्कलंक
- अनघः—पुं॰—-—-—सफेद सरसों
- अनघः—पुं॰—-—-—विष्णु या शिव का नाम
- अनङ्कुश—वि॰, न॰ ब॰—-—-—उद्दंड, उच्छृंखल
- अनङ्कुश—वि॰, न॰ ब॰—-—-—स्वच्छन्द
- अनङ्ग—वि॰, न॰ ब॰—-—न अङ्गं अनङ्गम्—देहरहित, अशरीरी, आकृतिहीन
- अनङ्गः—पुं॰—-—न अङ्गं अनङ्गः—कामदेव
- अनङ्गम्—नपुं॰—-—न अङ्गं अनङ्गम्—आकाश,वायु,अन्तरिक्ष
- अनङ्गम्—नपुं॰—-—न अङ्गं अनङ्गम्—मन
- अनङ्गक्रीडा—स्त्री॰—अनङ्ग-क्रीडा—-—कामक्रीडा
- अनङ्गलेख—पुं॰—अनङ्ग-लेख—-—मदन लेख,प्रेमपत्र
- अनङ्गशत्रुः—पुं॰—अनङ्ग-शत्रुः—-—शिव जी के नाम
- अनङ्गासुहृत—पुं॰—अनङ्ग-असुहृत—-—शिव जी के नाम
- अनञ्जन—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अञ्जनं यस्य—बिना अंजन,वर्णक या काजल के
- अनञ्जनम्—नपुं॰—-—नास्ति अञ्जनं यस्य—आकाश,वातावरण
- अनञ्जनम्—नपुं॰—-—नास्ति अञ्जनं यस्य—परब्रह्म विष्णु या नारायण
- अनडुह्—पुं॰—-—अनः शकटं वहति- नि॰- <अनड्वान, <अनड्वाहौ>, <अनडुद्भ्याम्> आदि॰—बैल,सांड
- अनडुह्—पुं॰—-—अनः शकटं वहति- नि॰- <अनड्वान, <अनड्वाहौ>, <अनडुद्भ्याम्> आदि॰)—वृषराशि
- अनडुही—स्त्री॰—-—अनः शकटं वहति, अनुडुह्+ङीप्—गाय
- अनति—अव्य॰, न॰ त॰—-—-—बहुत अधिक नहीं
- अनतिविलम्बिता—स्त्री॰—-—-—विलम्ब का अभाव,व्याख्यानदाता का एक गुण धाराप्रवाहिता,३५ वाग्गुणों में से एक
- अनद्यतन—वि॰, न॰ त॰—-—-—आज या चालू दिन से संबंध न रखने वाला,पाणिनि का एक पारिभाषिक शब्द जो लङ् और लुट् लकार के अर्थ को प्रकट करता है
- अनद्यतनः—पुं॰—-—-—जो चालू दिन न हो
- अनधिक—वि॰, न॰ त॰—-—न अधिकः—जो अधिक न हो
- अनधिक—वि॰, न॰ त॰—-—न अधिकः—असीम पूर्ण
- अनधीनः—पुं॰—-—न अधीनः—अपनी इच्छा से कार्य करने वाला,स्वाधीन बढ़ई,कौटतक्ष
- अनध्यक्ष—वि॰, न॰ त॰—-—न अध्यक्षः—अप्रत्यक्ष, अदृश्य
- अनध्यक्ष—वि॰, न॰ त॰—-—न अध्यक्षः—शासकहीन
- अनध्यायः —पुं॰—-—न अध्यायः—न पढ़ना,पढ़ाई में विराम,वह समय जबकि इस प्रकार का विराम होता है या होना चाहिए,एक अवकाश का दिन, किसी पूज्य अतिथि के सम्मान में दिया गया अवकाश
- अनध्ययनम्—नपुं॰—-—न अध्ययनम्—न पढ़ना,पढ़ाई में विराम,वह समय जबकि इस प्रकार अक विराम होता है या होना चाहिए,एक अवकाश का दिन, किसी पूज्य अतिथि के सम्मान में दिया गया अवकाश
- अननम्—नपुं॰—-—अन्+ल्युट्—सांस लेना,जीना
- अननुभावुक—वि॰—-—-—जो समझने के अयोग्य हो्
- अनन्त—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अन्तो यस्य—अन्तरहित,अपरिमित,निस्सीम,अक्षय
- अनन्तः—पुं॰—-—-—विष्णु की शय्या शेषनाग,कृष्ण,बलराम,शिव,नागों का पति वासुकि
- अनन्तः—पुं॰—-—-—बादल
- अनन्तः—पुं॰—-—-—कहानी
- अनन्तः—पुं॰—-—-—चौदह ग्रन्थियों से युक्त रेशमी डोरा जो अनन्त चतुर्दशी के दिन दक्षिण भुजा पर बांधा जाता है
- अनन्ता—स्त्री॰—-—-—पृथ्वी
- अनन्ता—स्त्री॰—-—-—एक की संख्या
- अनन्ता—स्त्री॰—-—-—पार्वती
- अनन्ता—स्त्री॰—-—-—शारिवा,अनंतमूल,दूर्वा आदि पौधे
- अनन्तम्—नपुं॰—-—-—आकाश,वातावरण
- अनन्तम्—नपुं॰—-—-—असीमता
- अनन्तम्—नपुं॰—-—-—मोक्ष
- अनन्तम्—नपुं॰—-—-—परब्रह्म
- अनन्ततृतीया—स्त्री॰—अनन्त-तृतीया—-—वैशाख,भाद्रपद और मार्गशीर्ष मास की शुक्लपक्ष की तीज
- अनन्तदृष्टिः—स्त्री॰—अनन्त-दृष्टिः—-—शिव, इन्द्र
- अनन्तदेवः—पुं॰—अनन्त-देवः—-—शेषनाग
- अनन्तदेवः—पुं॰—अनन्त-देवः—-—नारायण जो शेषनाग के ऊपर सोता है
- अनन्तपार—वि॰—अनन्त-पार—-—असीम विस्तारयुक्त,निस्सीम
- अनन्तरूप—वि॰—अनन्त-रूप—-—अगणित रूपवाला, विष्णु
- अनन्तविजयः—पुं॰—अनन्त-विजयः—-—युधिष्ठिर का शंख
- अनन्तर—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अंतरं यस्य —अन्तररहित,सीमारहित
- अनन्तर—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अंतरं यस्य —जिसके बीच देशकाल का कोई अन्तर न हो,सटा हुआ,लगा हुआ
- अनन्तर—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अंतरं यस्य —संसक्त,पड़ोस का,बिल्कुल मिला हुआ,निकटवर्ती
- अनन्तर—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अंतरं यस्य —अनुवर्ती, सन्निहित होना
- अनन्तर—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अंतरं यस्य —अपने से ठीक नीचे के वर्ण का
- अनन्तरम्—नपुं॰—-—नास्ति अंतरं यस्य —संसक्तता,सन्निकटता
- अनन्तरम्—नपुं॰—-—-—ब्रह्म,परमात्मा
- अनन्तरम्—अव्य॰—-—नास्ति अंतरं यस्य —तुरन्त बाद,पश्चात्
- अनन्तरम्—अव्य॰—-—नास्ति अंतरं यस्य —बाद में
- अनन्तरज—वि॰—अनन्तर-ज—-—क्षत्रिय या वैश्य माता में,अपने से ठीक ऊपर के वर्ण के पिता के द्वारा उत्पन्न सन्तान
- अनन्तरज—वि॰—अनन्तर-ज—-—तरपरिया भाई बहन
- अनन्तरजा—स्त्री॰—अनन्तर-जा—-—क्षत्रिय या वैश्य माता में,अपने से ठीक ऊपर के वर्ण के पिता के द्वारा उत्पन्न सन्तान
- अनन्तरजा—स्त्री॰—अनन्तर-जा—-—तरपरिया भाई बहन
- अनन्तरजा—स्त्री॰—अनन्तर-जा—-—छोटी या बड़ी बहन
- अनन्तरीय—वि॰—-—अनंतर+छ—वंशक्रम में ठीक बाद का
- अनन्य—वि॰, न॰ त॰—-—न अन्यः—अभिन्न,समरूप,वही,अद्वितीय
- अनन्य—वि॰, न॰ त॰—-—न अन्यः—एकमात्र,अनुपम,जिसके साथ और दूसरा न हो
- अनन्य—वि॰, न॰ त॰—-—न अन्यः—अविभक्त,एकाग्र,अन्य की ओर न जाने वाला,-अनन्याश्चिन्ययन्तो मां ये जनाः पर्युपासते-भग०९/२२,समास में’अनन्य’ शब्द का,अनुवाद किया जा सकता है-’दूसरे के द्वारा नहीं’ और किसी ओर लग्न या निर्दित नहीं ’एकाश्रयी’।
- अनन्यगतिः—स्त्री॰—अनन्य-गतिः—-—एकमात्र सहारे वाला
- अनन्यचित्त—वि॰—अनन्य-चित्त—-—एकाग्रचित्त,जिसका मन कहीं और न हो
- अनन्यचिंत—वि॰—अनन्य-चिंत—-—एकाग्रचित्त,जिसका मन कहीं और न हो
- अनन्यचेतस्—वि॰—अनन्य-चेतस्—-—एकाग्रचित्त,जिसका मन कहीं और न हो
- अनन्यमनस्—वि॰—अनन्य-मनस्—-—एकाग्रचित्त,जिसका मन कहीं और न हो
- अनन्यमानस—वि॰—अनन्य-मानस—-—एकाग्रचित्त,जिसका मन कहीं और न हो
- अनन्यहृदय—वि॰—अनन्य-हृदय—-—एकाग्रचित्त,जिसका मन कहीं और न हो
- अनन्यजः—पुं॰—अनन्य-जः—-—कामदेव प्रेम का देवता
- अनन्यजन्मन्—पुं॰—अनन्य-जन्मन्—-—कामदेव प्रेम का देवता
- अनन्यपूर्वः—पुं॰—अनन्य-पूर्वः—-—वह पुरुष जिसके कोई और स्त्री न हो
- अनन्यपूर्वा—स्त्री॰—अनन्य-पूर्वा—-—कुमारी,बिनब्याही स्त्री
- अनन्यभाज्—वि॰—अनन्य-भाज्—-—किसी और व्यक्ति की ओर लगाव न रखने वाला
- अनन्यविषय—वि॰—अनन्य-विषय—-—किसी और से संबंध न रखने वाला
- अनन्यवृत्ति—वि॰—अनन्य-वृत्ति—-—वैसे ही स्वभाव का
- अनन्यवृत्ति—वि॰—अनन्य-वृत्ति—-—जिसकी दूसरी जीविका न हो
- अनन्यवृत्ति—वि॰—अनन्य-वृत्ति—-—एकनिष्ठ मनोवृत्ति वाला
- अनन्यसामान्य—वि॰—अनन्य-सामान्य—-—दूसरे से न मिलने वाला,असाधारण,ऐकान्तिक रूप से लगा हुआ,बेलगाव
- अनन्यसाधारण—वि॰—अनन्य-साधारण—-—दूसरे से न मिलने वाला,असाधारण,ऐकान्तिक रूप से लगा हुआ,बेलगाव
- अनन्यसदृश—वि॰—अनन्य-सदृश—-—बेजोड़,अनुपम
- अनन्वयः—पुं॰—-—-—संबंध का अभाव
- अनन्वयः—पुं॰—-—-—एक अलंकार जिसमें किसी वस्तु की तुलना उसी से की जाय-और उसको ऐसा बेजोड़ सिद्ध किया जाय जिसका कोई और उपमान ही न हो। जैसे गगनं गगनाकारं सागरः सागरोपमः,रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव॥
- अनप—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति आपो यस्य यत्र वा—जलहीन
- अनपकारणम् —नपुं॰—-—न अपकारणम्—चोट न पहुंचाना
- अनपकारणम् —नपुं॰—-—न अपकारणम्—सुपुर्दगी का अभाव
- अनपकारणम् —नपुं॰—-—न अपकारणम्—ऋण न चुकाना
- अनपकर्मन्—वि॰, न॰ त॰—-—नापकर्मन् अनपकर्मन्—चोट न पहुंचाना
- अनपकर्मन्—वि॰, न॰ त॰—-—नापकर्मन् अनपकर्मन्—सुपुर्दगी का अभाव
- अनपकर्मन्—वि॰, न॰ त॰—-—नापकर्मन् अनपकर्मन्—ऋण न चुकाना
- अनपक्रिया—स्त्री॰, न॰ त॰—-—नाप्रक्रिया अनप्रक्रिया—चोट न पहुंचाना
- अनपक्रिया—स्त्री॰, न॰ त॰—-—नाप्रक्रिया अनप्रक्रिया—सुपुर्दगी का अभाव
- अनपक्रिया—स्त्री॰, न॰ त॰—-—नाप्रक्रिया अनप्रक्रिया—ऋण न चुकाना
- अनपकारः—पुं॰—-—न अपकारः अनपकारः—अहित का अभाव
- अनपकारिन्—वि॰—-—-—अहित न करने वाला,निर्दोष
- अनपत्य—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अपत्यं यस्य—सन्तानहीन,निस्सनतान,जिसका कोई उत्तराधिकारी न हो
- अनपत्रप—वि॰, न॰ ब॰—-—-—धृष्ट,निर्लज्ज
- अनपभ्रंशः—पुं॰—-—-—वह शब्द जो भ्रष्ट न हो,व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध शब्द
- अनपसर—वि॰, न॰ब॰—-—-—जिसमें से निकलने का कोई मार्ग न हो,अन्यायोचित,अक्षम्य
- अनपसरः—पुं॰—-—-—बलपूर्वक अधिकार करने वाला।
- अनपाय—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अपायः यस्य—हानि या क्षय से रहित
- अनपाय—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति अपायः यस्य—अनश्वर,अक्षीण,अक्षयी
- अनपायः—पुं॰—-—न अपायः अनपायः—अनश्वरता,स्थायिता
- अनपायः—पुं॰—-—-—शिव
- अनपायिन्—वि॰—-—अनपाय+णिनि—अनश्वर,दृढ़,स्थिर,अचूक,सतत टिकाऊ,अचल
- अनपेक्ष—वि॰, न॰ ब॰,न॰ त॰—-—-—असावधान
- अनपेक्ष—वि॰, न॰ ब॰,न॰ त॰—-—-—लापरवाह,परवाह न करने वाला,उदासीन
- अनपेक्ष—वि॰, न॰ ब॰,न॰ त॰—-—-—स्वतंत्र,दूसरे की उपेक्षा अन् रखने वाला
- अनपेक्ष—वि॰, न॰ ब॰,न॰ त॰—-—-—निष्पक्ष
- अनपेक्ष—वि॰, न॰ ब॰,न॰ त॰—-—-—असंबद्ध
- अनपेक्षिन्—वि॰, न॰ ब॰,न॰ त॰—-—-—असावधान
- अनपेक्षिन्—वि॰, न॰ ब॰,न॰ त॰—-—-—लापरवाह,परवाह न करने वाला,उदासीन
- अनपेक्षिन्—वि॰, न॰ ब॰,न॰ त॰—-—-—स्वतंत्र,दूसरे की उपेक्षा अन् रखने वाला
- अनपेक्षिन्—वि॰, न॰ ब॰,न॰ त॰—-—-—निष्पक्ष
- अनपेक्षिन्—वि॰, न॰ ब॰,न॰ त॰—-—-—असंबद्ध
- अनपेक्षा—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—असावधानी,उदासीनता
- अनपेक्षम्—क्रि॰ वि॰—-—-—बिना ध्यान के,स्वतंत्र रूप से,परवाह न करते हुए,बेपरवाही से
- अनपेत—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो दूर न गया हो,बीता न हो
- अनपेत—वि॰, न॰ त॰—-—-—विचलित न हुआ हो
- अनपेत—वि॰, न॰ त॰—-—-—अविरहित,सम्पन्न
- अनभिज्ञ—वि॰, न॰ त॰—-—-—अनजान,अपरिचित
- अनभ्यावृत्ति—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—पुनरुक्ति का अभाव
- अनभ्याश—वि॰, न॰ ब॰ —-—-—जो निकटस्थ न हो, दूरस्थ आदि समित्य दूर से ही बिदकने वाला
- अनभ्यास—वि॰, न॰ ब॰ —-—-—जो निकटस्थ न हो, दूरस्थ आदि समित्य दूर से ही बिदकने वाला
- अनभ्र—वि॰, न॰ ब॰ —-—-—बिना बादलों के
- अनमः—पुं॰—-—-—वह ब्राह्मण जो दूसरों को न तो नमस्कार करता है और न उनके नमस्कार का उत्तर देता है
- अनमितम्पच—वि॰, न॰त॰—-—-—कंजूस,मक्खीचूस
- अनम्बर—वि॰, न॰ ब॰ —-—-—वस्त्र न पहने हुए,नंगा
- अनम्बरः—पुं॰—-—-—बौद्धभिक्षु
- अनयः—पुं॰—-—-—दुर्व्यवस्था,दुराचरण,अन्याय,अनीति
- अनयः—पुं॰—-—-—दुर्नीति,दुराचार,कुमार्ग
- अनयः—पुं॰—-—-—विपत्ति,दुःख
- अनयः—पुं॰—-—-—दुर्भाग्य,बुरी किस्मत
- अनयः—पुं॰—-—-—जूआ खेलना
- अनर्गल—वि॰, न॰ ब॰—-—-—स्वेच्छाचारी,अनियंत्रित
- अनर्गल—वि॰, न॰ ब॰—-—-—जिसमें ताला न लगा हो
- अनर्घ—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अनमोल, अमूल्य, जिसके मूल्य का अनुमान न लगाया जा सके
- अनर्घः—पुं॰—-—-—गलत या अनुचित मूल्य
- अनर्घ्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—अमूल्य,सर्वाधिक सामान्य
- अनर्थ—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अनुपयुक्त,निकम्मा
- अनर्थ—वि॰, न॰ ब॰—-—-—भाग्यहीन,सुखरहित
- अनर्थ—वि॰, न॰ ब॰—-—-—हानिकारक
- अनर्थ—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अर्थहीन,निरर्थक
- अनर्थः—पुं॰—-—-—उपयोग या मूल्य का न होना
- अनर्थः—पुं॰—-—-—निकम्मी या अनुपयुक्त वस्तु
- अनर्थः—पुं॰—-—-—विपत्ति,दुर्भाग्य
- अनर्थः—पुं॰—-—-—अर्थ का नहोना,अर्थ का अभाव
- अनर्थकर—वि॰—अनर्थ-कर—-—अनिष्टकर,हानिकर
- अनर्थ्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—अनुपयुक्त,निरर्थक
- अनर्थ्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—सारहीन
- अनर्थ्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—अर्थहीन
- अनर्थ्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—लाभरहित
- अनर्थ्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—दुर्भाग्यपूर्ण
- अनर्थक—वि॰, न॰ त॰—-—-—अनुपयुक्त,निरर्थक
- अनर्थक—वि॰, न॰ त॰—-—-—सारहीन
- अनर्थक—वि॰, न॰ त॰—-—-—अर्थहीन
- अनर्थक—वि॰, न॰ त॰—-—-—लाभरहित
- अनर्थक—वि॰, न॰ त॰—-—-—दुर्भाग्यपूर्ण
- अनर्थकम्—नपुं॰—-—-—अर्थहीन या असंगत बात
- अनर्ह—वि॰, न॰त॰—-—-—अनधिकारी,अयोग्य
- अनर्ह—वि॰, न॰ त॰—-—-—अनुपयुक्त
- अनलः—पुं॰—-—नास्तिः अलः पर्याप्तिर्यस्य—आग
- अनलः—पुं॰—-—नास्तिः अलः पर्याप्तिर्यस्य—अग्नि या अग्निदेवता
- अनलः—पुं॰—-—नास्तिः अलः पर्याप्तिर्यस्य—पाचनशक्ति
- अनलः—पुं॰—-—नास्तिः अलः पर्याप्तिर्यस्य—पित्त
- अनलद—वि॰—अनलः-द—अनलं द्यति—गर्मी या आग को नष्ट करने वाला
- अनलद—वि॰—अनलः-द—अनलं द्यति—पौष्टिक, क्षुधावर्धक
- अनलद—वि॰—अनलः-द—अनलं द्यति—दाहक
- अनलदीपन—वि॰—अनलः-दीपन—-—जठराग्नि या पाचनशक्ति को बढ़ाने वाला
- अनलप्रिया—स्त्री॰—अनलः-प्रिया—-—अग्नि की पत्नी स्वाहा
- अनलसादः—पुं॰—अनलः-सादः—-—क्षुधा का नाश,अग्निमांद्य
- अनलस—वि॰, न॰ त॰—-—-—आलस्य रहित, चुस्त, परिश्रमी
- अनलस—वि॰, न॰ त॰—-—-—अयोग्य, असमर्थ
- अनल्प—वि॰न॰त॰—-—-—बहुसंख्यक
- अनल्प—वि॰न॰त॰—-—-—जो थोड़ा न हो, उदाराशय, उदार अधिक
- अनवकाश—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अनाहूत
- अनवकाश—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अप्रयोज्य
- अनवकाश—वि॰, न॰ ब॰—-—-—जिसके लिये कोई गुंजायश या मौका न हो
- अनवकाशः—पुं॰—-—-—स्थान या कार्यक्षेत्र का अभाव
- अनवग्रह—वि॰, न॰ ब॰—-—-—जो रोका न जा सके
- अनवच्छिन्न—वि॰, न॰ ब॰—-—-—सीमांकन रहित,अपृथक्कृत
- अनवच्छिन्न—वि॰, न॰ ब॰—-—-—सीमारहित,अधिक
- अनवच्छिन्न—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अनिर्दिष्ट,अविविक्त,अविकृत
- अनवच्छिन्न—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अबाधित
- अनवद्य—वि॰, न॰ ब॰—-—-—निर्दोष, कलंकरहित
- अनवद्यांग—वि॰—अनवद्य-अंग—-—निर्दोष य नितान्त सुन्दर अंगों वाला
- अनवद्यरूप—वि॰—अनवद्य-रूप—-—निर्दोष य नितान्त सुन्दर अंगों वाला
- अनवद्यांगी—स्त्री॰—अनवद्य-अंगी—-—रूपवती स्त्री
- अनवधान—वि॰, न॰ ब॰—-—-—निरपेक्ष,ध्यान न देने वाला
- अनवधानम्—नपुं॰—-—-—प्रमाद,असावधानताता
- अनवधानता—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—लापरवाही
- अनवधि—वि॰, न॰ ब॰—-—-—असीमित,अपरिमित
- अनवम—वि॰, न॰ ब॰—-—-—जो नीच या तुच्छ न हो,बड़ा,श्रेष्ठ
- अनवरत—वि॰, न॰ त॰—-—-—अविराम,निरंतर
- अनवरतम्—नपुं॰—-—-—बिना रुके,लगातार
- अनवरार्ध्य—वि॰, न॰ त॰—-—अवरस्मिन् अर्धे भवः-इत्यर्थे नञ्+अवरार्ध+यत् —मुख्य,सर्वोत्त्म,सर्वश्रेष्ठ
- अनवलंब—वि॰, न॰ त॰—-—-—अवलंबहीन,निराश्रित
- अनलंबन—वि॰, न॰ त॰—-—-—अवलंबहीन,निराश्रित
- अनवलंबः— पुं॰—-—-—स्वतंत्रता
- अनवलंबनम्—नपुं॰—-—-—स्वतंत्रता
- अनवलोभनम्—नपुं॰—-—-—गर्भ के तीसरे मास किया जाने वाला एक संस्कार
- अनवसर—वि॰, न॰ ब॰—-—-—व्यस्त
- अनवसर—वि॰, न॰ ब॰—-—-—निरवकाश
- अनवसरः—पुं॰—-—-—अवकाश का अभाव,कुसमय होना,असामयिकता
- अनवस्कर—वि॰, न॰ ब॰—-—-—मलरहित,स्वच्छ,साफ
- अनवस्थ—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अस्थिर
- अनवस्था—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—अस्थिरता
- अनवस्था—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—अनिश्चित अवस्था
- अनवस्था—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—चरित्रभ्रष्टता,लम्पटता
- अनवस्था—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—किसी अन्तिम निर्णय पर न पहुँचना,कार्य-कारण की ऐसी परम्परा जिसका अन्त न हो,तर्क का एक दोष
- अनवस्थान—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अस्थायी,अस्थिर,चंचल
- अनवस्थानः—पुं॰—-—-—वायु
- अनवस्थानम्—नपुं॰—-—-—अस्थिरता
- अनवस्थानम्—नपुं॰—-—-—आचारभ्रष्टता,लम्पटता
- अनवस्थित—वि॰, न॰ त॰—-—-—अस्थिर,अस्थिरचित्त
- अनवस्थित—वि॰, न॰ त॰—-—-—परिवर्तित
- अनवस्थित—वि॰, न॰ त॰—-—-—आवारा
- अनवेक्षक—वि॰, न॰ त॰—-—-—असावधान,बेपरवाह,उदासीन
- अनवेक्ष—वि॰—-—-—असावधान
- अनवेक्ष—वि॰—-—-—लापरवाह,परवाह न करने वाला,उदासीन
- अनवेक्ष—वि॰—-—-—स्वतंत्र,दूसरे की उपेक्षा अन् रखने वाला
- अनवेक्ष—वि॰—-—-—निष्पक्ष
- अनवेक्ष—वि॰—-—-—असंबद्ध
- अनवेक्षा—स्त्री॰—-—-—असावधानी,उदासीनता
- अनवेक्षणम्—नपुं॰—-—नञ्+अव्+ईक्ष+ल्युट्—लापरवाही,अनवधानता
- अनशनम्—नपुं॰—-—नञ्+अश्+ल्युट्—उपवास,आमरण उपवास
- अनश्वर—वि॰, न॰ त॰—-—-—अविनाशी
- अनस्—पुं॰—-—अन्+असुन्—गाड़ी
- अनस्—पुं॰—-—अन्+असुन्—भोजन,भात
- अनस्—पुं॰—-—अन्+असुन्—जन्म
- अनस्—पुं॰—-—अन्+असुन्—प्राणी
- अनस्—पुं॰—-—अन्+असुन्—रसोईघर
- अनसूय—वि॰, न॰ ब॰—-—-—द्वेषरहित,ईर्ष्यारहित
- अनसूयक्—वि॰, न॰ ब॰—-—-—द्वेषरहित,ईर्ष्यारहित
- अनसूया—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—ईर्ष्या का अभाव
- अनसूया—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—अत्रि की पत्नी,स्त्रियोचित पतिभक्ति और सतीत्व का ऊँचा नमूना
- अनहन्—नपुं॰—-—-—बुरा दिन,दुर्दिन
- अनाकालः—न॰ न॰ नि॰—-—-—कुसमय
- अनाकालः—न॰ न॰ नि॰—-—-—दुर्भिक्ष
- अनाकालभृतः—पुं॰—अनाकालः-भृतः—-—जो व्यक्ति दुर्भिक्ष में भूख से अपने आपको बचाने के लिये स्वयं दूसरे का दास बन जाता है
- अनाकुल—वि॰, न॰ त॰—-—-—शान्त,प्रकृतिस्थ,स्वस्थ
- अनाकुल—वि॰, न॰ त॰—-—-—अटल
- अनागत—वि॰, न॰ त॰—-—-—न आया हुआ,न पहुंचा हुआ
- अनागत—वि॰, न॰ त॰—-—-—अप्राप्त,जो न मिला हो
- अनागत—वि॰, न॰ त॰—-—-—भविष्यत्, आने वाल
- अनागत—वि॰, न॰ त॰—-—-—अज्ञात
- अनागतम्—नपुं॰—-—-—भविष्यत्काल,भविष्य
- अनागतावेक्षणम्—नपुं॰—अनागत-अवेक्षणम्—-—भविष्य की ओर देखना,आगे की ओर दृष्टि रखना
- अनागताबाधः—पुं॰—अनागत-अबाधः—-—आने वाला भौतिक कष्ट या विपत्ति
- अनागतार्तवा—स्त्री॰—अनागत-आर्तवा—-—वह कन्या जिसका मासिक स्राव अभी आरम्भ न हुआ हो,अरजस्का
- अनागतविधातृ—पुं॰—अनागत-विधातृ—-—आने वाले अनिष्ट का पहले ही से निराकरण अक्रने वाला,भविष्य के विषय में सावधान,दूरदर्शी
- अनागमः—पुं॰—-—-—न आना
- अनागमः—पुं॰—-—-—अप्राप्ति
- अनागस्—वि॰, न॰ ब॰—-—-—निरपराध,निर्दोष
- अनाचारः—पुं॰—-—-—अनुचित आचरण,दुराचरण,कुरीति
- अनातप—वि॰, न॰ ब॰—-—-—धूप या गर्मी से युक्त,तापरहित,ठंडा
- अनातुर—वि॰, ब॰ त॰—-—-—अनुत्सुक,उदासीन
- अनातुर—वि॰, ब॰ त॰—-—-—न थका हुआ
- अनातुर—वि॰, ब॰ त॰—-—-—अच्छा,स्वस्थ
- अनात्मन्—वि॰, न॰ ब॰—-—-—आत्मा या मन से रहित
- अनात्मन्—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अनात्मिक
- अनात्मन्—वि॰, न॰ ब॰—-—-—जिसमें अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रखा है
- अनात्मा—पुं॰—-—-—जो आत्मिक न हो,आत्मा से भिन्न अर्थात् नश्वर शरीर
- अनात्मज्ञ—वि॰—अनात्मन्-ज्ञ—-—अपने आपको न जानने वाला,मूर्ख,जड
- अनात्मवेदिन्—वि॰—अनात्मन्-वेदिन्—-—अपने आपको न जानने वाला,मूर्ख,जड
- अनात्मसंपन्न—वि॰—अनात्मन्-संपन्न—-—मूर्ख
- अनात्मनीन—वि॰—-—नञ्+आत्मन्+ख—जो अपने ही लाभ के लिए कार्य करने का अभ्यस्त न हो,निःस्वार्थ,स्वार्थरहित
- अनात्मवत्—वि॰, न॰ त॰—-—आत्मा वश्यत्वेन नास्ति इत्यर्थे - नञ्+आत्मन्+मतुप् —असंयमी,इन्द्रिय परायण
- अनाथ—वि॰, न॰ ब॰—-—-—असहाय,निर्धन,त्यक्त,मातृ-पितृहीन,बिना मां बाप का बच्चा,विधवा स्त्री,सामान्यतः जिसका कोई रक्षक न हो
- अनाथसभा—स्त्री॰—अनाथ-सभा—-—अनाथालय
- अनादर—वि॰, न॰ ब॰—-—-—उदासीन,उपेक्षावान
- अनादरः—पुं॰—-—-—अवहेलना,तिरस्कार,अवज्ञा
- अनादि—वि॰, न॰ ब॰—-—-—आदिरहित,नित्य, अनादिकाल से चला आता हुआ
- अनाद्यनन्त—वि॰—अनादि-अनन्त—-—आदि और अन्त रहित,नित्य
- अनाद्यनन्तः—पुं॰—अनादि-अनन्तः—-—शिव
- अनाद्यन्त—वि॰—अनादि-अन्त—-—आदि और अन्त रहित,नित्य
- अनाद्यन्तः—पुं॰—अनादि-अन्तः—-—शिव
- अनादिनिधन—वि॰—अनादि-निधन—-—जिसका आरंभ और समाप्ति न हो, शाश्वत
- अनादिमध्यान्त—वि॰—अनादि-मध्यान्त—-—जिसका आदि, मध्य और अन्त कुछ भी न हो,नित्य
- अनादीनव—वि॰, न॰ ब॰—-—-—निर्दोष
- अनाद्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—आदिरहित,नित्य, अनादिकाल से चला आता हुआ
- अनाद्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—अभक्ष्य, खाने के अयोग्य
- अनानुपूर्व्यम्—नपुं॰—-—-—दूसरे पदों के बीच में आ जाने के कारण समास के विभिन्न पदों का पृथक्करण
- अनानुपूर्व्यम्—नपुं॰—-—-—नियत क्रम में न आना
- अनाप्त—वि॰, न॰ त॰—-—-—अप्राप्त
- अनाप्त—वि॰, न॰ त॰—-—-—अयोग्य,अकुशल
- अनाप्तः—पुं॰—-—-—अजनबी
- अनामक—वि॰, न॰ ब॰ —-—स्वार्थे कन्—बिना नाम का, अप्रसिद्ध
- अनामक—वि॰, न॰ ब॰ —-—स्वार्थे कन्—मलमास
- अनामक—वि॰, न॰ ब॰ —-—स्वार्थे कन्—कनिष्ठिका तथा मध्यमा के बीच की अंगुली
- अनामक—वि॰, न॰ ब॰ —-—स्वार्थे कन्—बवासीर
- अनामन्—वि॰, न॰ ब॰ —-—-—बिना नाम का, अप्रसिद्ध
- अनामन्—पुं॰—-—-—मलमास
- अनामन्—पुं॰—-—-—कनिष्ठिका तथा मध्यमा के बीच की अंगुली
- अनामन्—नपुं॰—-—-—बवासीर
- अनामय—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति आमयः रोगो यस्य —स्वस्थ,तंदुरुस्त
- अनामयः—पुं॰—-—नास्ति आमयः रोगो यस्य —स्वास्थ्य अच्छा होना
- अनामयः—पुं॰—-—नास्ति आमयः रोगो यस्य —विष्णु
- अनामयम्—नपुं॰—-—नास्ति आमयः रोगो यस्य —स्वास्थ्य अच्छा होना
- अनामा—स्त्री॰, न॰ब॰—-—नास्ति नाम अन्यांगुलिवत् यस्याः - स्वार्थे कन्—कनिष्ठिका तथा मध्यमा के बीच की अंगुली - इसका यह नाम इसलिए पड़ा कि दूसरी अंगुलियों की भाँति इसका कोई नाम नहीं
- अनामिका—स्त्री॰, न॰ब॰—-—नास्ति नाम अन्यांगुलिवत् यस्याः - स्वार्थे कन्—कनिष्ठिका तथा मध्यमा के बीच की अंगुली - इसका यह नाम इसलिए पड़ा कि दूसरी अंगुलियों की भाँति इसका कोई नाम नहीं
- अनायत्त—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो दूसरे के वशीभूत न हो, जो क्रोध के वशीभूत न हो,स्वतंत्र, स्वतंत्र जीविका
- अनायास—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो कष्टप्रद या कठिन न हो, आसान
- अनायासः—पुं॰—-—-—सरलता, कठिनाई का अभाव
- अनायासेन—क्रि॰ वि॰—-—अनायास+टा—आसानी से,बिना किसी कठिनाई के
- अनारत—वि॰, न॰ त॰—-—-—अनवरत,निरन्तर,अबाध
- अनारत—वि॰, न॰ त॰—-—-—नित्य
- अनारतम्—अव्य॰—-—-—लगातार,नित्यरूप से
- अनारम्भः—न॰ त॰—-—-—आरम्भ न होना
- अनार्जव—वि॰, न॰ त॰—-—-—कुटिल,बेइमान
- अनार्जवम्—नपुं॰—-—-—कुटिलता, कपट
- अनार्जवम्—नपुं॰—-—-—रोग
- अनार्तव—वि॰, न॰ त॰—-—-—असामयिक
- अनार्तवा—स्त्री॰, न॰त॰—-—-—वह कन्या जो अभी तक रजस्वला न हुई हो
- अनार्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—अप्रतिष्ठित,नीच, अधम
- अनार्यः—पुं॰—-—-—जो आर्य न हो
- अनार्यः—पुं॰—-—-—वह देश जहाँ आर्य न हों
- अनार्यः—पुं॰—-—-—शूद्र
- अनार्यः—पुं॰—-—-—म्लेच्छ
- अनार्यः—पुं॰—-—-—कमीना
- अनार्यकम्—नपुं॰—-—अनार्य देशे भवम्-अनार्य+क—अगर की लकड़ी
- अनार्ष—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो ऋषियों से संबन्ध न रखता हो, अवैदिक
- अनार्ष—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो ऋषि प्रोक्त न हो
- अनालम्ब—वि॰, न॰ ब॰—-—-—असहाय,अवलंबहीन
- अनालम्बः—पुं॰—-—-—अवलंब का अभाव, नैराश्य
- अनालम्बी—स्त्री॰—-—-—शिव की वीणा
- अनालम्बुका—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—रजस्वला स्त्री
- अनालम्भुका—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—रजस्वला स्त्री
- अनावर्तिन्—वि॰, न॰ त॰—-—-—फिर न होने वाला,फिर न लौटने वाला
- अनाविद्ध—वि॰, न॰ त॰—-—-—न बिधा हुआ,जिसमें छिद्र न किया गया हो
- अनावृत्तिः—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—फिर न लौटना
- अनावृत्तिः—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—फिर जन्म न होना,मोक्ष
- अनावृष्टिः—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—सूखा पड़ना, 'ईति’ का एक भेद
- अनाश्रमी—पुं॰—-—-—जो जीवन के चार आश्रमों में से किसी को न मानता हो,न किसी से संबन्ध रखता हो
- अनाश्रव—वि॰—-—नञ्+आ+श्रु+अच्—जो किसी की न सुने, ढीठ, किसी की बात पर कान न दे
- अनाश्वस्—वि॰—-—नञ्+अश्+क्वसु नि॰—जिसने भोजन न किया हो,उपवास रखने वाला
- अनास्था—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—उदासीनता,तटस्थता,आस्था का अभाव
- अनास्था—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—श्रद्धा या विश्वास का अभाव,अनादर
- अनाहत—वि॰, न॰त॰—-—-—आघातरहित
- अनाहत—वि॰, न॰त॰—-—-—कोरा या अन्या
- अनाहार—वि॰, न॰ब॰—-—-—बिना भोजन के रहने वाला,उपवास करने वाला
- अनाहारः—पुं॰—-—-—भोजन न करना,उपवास रखना
- अनाहुतिः—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—होम का न होना,कोई होम जो होम कहलाने के योग्य भी न हो
- अनाहुतिः—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—एक अनुचित आहुति
- अनाहूत—वि॰, न॰ब॰—-—-—न बुलाया हुआ,अनिमन्त्रित
- अनाहूतोपजल्पिन्—पुं॰—अनाहूत-उपजल्पिन्—-—बिना बुलाया वक्ता
- अनाहूतोपविष्ट—वि॰—अनाहूत-उपविष्ट—-—अनिमंत्रित अभ्यागत के रूप में बैठा हुआ
- अनिकेत—वि॰, न॰ ब॰—-—-—गृहहीन, आवारागर्द, जिसका कोई नियत वासस्थान न हो
- अनिर्गीण—वि॰, न॰ त॰—-—-—न निगला हुआ
- अनिर्गीण—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो गुप्त या छिपा हुआ न हो, प्रस्तुत,व्यक्त
- अनिच्छ—वि॰, न॰ त॰—-—नास्ति इच्छा यस्य ,नञ्+इच्छुक,नञ्+इष्+शतृ —न चाहता हुआ,इच्छारहित,बिना इच्चा के
- अनिच्छक—वि॰, न॰ त॰—-—नास्ति इच्छा यस्य ,नञ्+इच्छुक,नञ्+इष्+शतृ —न चाहता हुआ,इच्छारहित,बिना इच्चा के
- अनिच्छु—वि॰, न॰ त॰—-—नास्ति इच्छा यस्य ,नञ्+इच्छुक,नञ्+इष्+शतृ —न चाहता हुआ,इच्छारहित,बिना इच्चा के
- अनिच्छुक—वि॰, न॰ त॰—-—नास्ति इच्छा यस्य ,नञ्+इच्छुक,नञ्+इष्+शतृ —न चाहता हुआ,इच्छारहित,बिना इच्चा के
- अनिच्छत्—वि॰, न॰ त॰—-—नास्ति इच्छा यस्य ,नञ्+इच्छुक,नञ्+इष्+शतृ —न चाहता हुआ,इच्छारहित,बिना इच्चा के
- अनित्य—वि॰, न॰ त॰—-—न नित्यः, नञ्+नित्य+सु—जो नित्य न हो, सदा रहने वाला न हो,क्षणभंगुर,अशाश्वत,नश्वर
- अनित्य—वि॰, न॰ त॰—-—न नित्यः, नञ्+नित्य+सु—क्षणस्थायी आकस्मिक,जो नियमतः अनिवार्य न हो,विशेष
- अनित्य—वि॰, न॰ त॰—-—न नित्यः, नञ्+नित्य+सु—असाधारण,अनियमित
- अनित्य—वि॰, न॰ त॰—-—न नित्यः, नञ्+नित्य+सु—अस्थिर,चंचल
- अनित्य—वि॰, न॰ त॰—-—न नित्यः, नञ्+नित्य+सु—अनिश्चित,संदिग्ध
- अनित्यम्—नपुं॰—-—न नित्यः, नञ्+नित्य+सु—कदाचित्,अकस्मात्
- अनित्यकर्मन्—पुं॰—अनित्य-कर्मन्—-—आकस्मिक कार्य जैसा कि किसी विशेष निमित्त से किया जाने वाला यज्ञ,ऐच्छिक या सामयिक अनुष्ठान
- अनित्यक्रिया—स्त्री॰—अनित्य-क्रिया—-—आकस्मिक कार्य जैसा कि किसी विशेष निमित्त से किया जाने वाला यज्ञ,ऐच्छिक या सामयिक अनुष्ठान
- अनित्यदत्तः—पुं॰—अनित्य-दत्तः—-—माता पिता के द्वारा अस्थायी रूप से किसी को दिया गया पुत्र
- अनित्यदत्तकः—पुं॰—अनित्य-दत्तकः—-—माता पिता के द्वारा अस्थायी रूप से किसी को दिया गया पुत्र
- अनित्यदत्रिमः—पुं॰—अनित्य-दत्रिमः—-—माता पिता के द्वारा अस्थायी रूप से किसी को दिया गया पुत्र
- अनित्यभावः—पुं॰—अनित्य-भावः—-—क्षणभंगुरता,क्षणभंगुर स्थिति
- अनित्यसमासः—पुं॰—अनित्य-समासः—-—वह समास जो प्रत्येक स्थिति में अनिवार्य न हो
- अनिद्र—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति निद्रा यस्य—निद्रारहित,जागने वाला, जागरूक
- अनिन्द्रियम्—नपुं॰—-—न इन्द्रियं —तर्क
- अनिन्द्रियम्—नपुं॰—-—न इन्द्रियं —जो इन्द्रिय का विषय न हो,मन
- अनिभृत—वि॰, न॰ त॰—-—न निभृतम्—सार्वजनिक,प्रकाशित,जो छिपा न हो
- अनिभृत—वि॰, न॰ त॰—-—न निभृतम्—धृष्ट,साहसी
- अनिभृत—वि॰, न॰ त॰—-—न निभृतम्—अस्थिर,अदृढ़
- अनिभृत—वि॰, न॰ त॰—-—न निभृतम्—जो कोमल न हो, प्रचंड, दृढ़
- अनिमकः—पुं॰—-—अन्+इमन्-अनिमः=जीवनं तेन कायते प्रकाशते कै+क—मेंढक
- अनिमकः—पुं॰—-—अन्+इमन्-अनिमः=जीवनं तेन कायते प्रकाशते कै+क—कोयला
- अनिमकः—पुं॰—-—अन्+इमन्-अनिमः=जीवनं तेन कायते प्रकाशते कै+क—मधुमक्खी
- अनिमित्त—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति निमित्तं यस्य—निष्कारण,निराधार,आकस्मिक,
- अनिमित्तम्—नपुं॰—-—नास्ति निमित्तं यस्य—पर्याप्त कारण का अभाव
- अनिमित्तम्—नपुं॰—-—नास्ति निमित्तं यस्य—अपशकुन,बुरा शकुन,-(क्रि० वि०)
- अनिमित्तः—पुं॰—-—नास्ति निमित्तं यस्य—अकारण,बिना हेतु के
- अनिमित्तनिराक्रिया—स्त्री॰—अनिमित्त-निराक्रिया—-—अपशकुनों का निराकरण
- अनिमिष—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति निमिषं यस्य—टकटकी लगाये एक स्थान पर जमा रहने वाला,बिना आँख झपके
- अनिमेष—वि॰, न॰ ब॰—-—नास्ति निमिषं यस्य—टकटकी लगाये एक स्थान पर जमा रहने वाला,बिना आँख झपके
- अनिमिषः—पुं॰—-—नास्ति निमिषं यस्य—देवता
- अनिमिषः—पुं॰—-—नास्ति निमिषं यस्य—मछली
- अनिमिषः—पुं॰—-—नास्ति निमिषं यस्य—विष्णु
- अनिमेषः—पुं॰—-—नास्ति निमिषं यस्य—देवता
- अनिमेषः—पुं॰—-—नास्ति निमिषं यस्य—मछली
- अनिमेषः—पुं॰—-—नास्ति निमिषं यस्य—विष्णु
- अनिमिषदृष्टि—वि॰—अनिमिष-दृष्टि—-—टकटकी लगाकर या स्थिर दृष्टि से देखने वाला
- अनिमेषदृष्टि—वि॰—अनिमेष-दृष्टि—-—टकटकी लगाकर या स्थिर दृष्टि से देखने वाला
- अनिमिषलोचन—वि॰—अनिमिष-लोचन—-—टकटकी लगाकर या स्थिर दृष्टि से देखने वाला
- अनिमेषलोचन—वि॰—अनिमेष-लोचन—-—टकटकी लगाकर या स्थिर दृष्टि से देखने वाला
- अनियत—वि॰, न॰ त॰—-—न नियतम्—अनियंत्रित
- अनियत—वि॰, न॰ त॰—-—न नियतम्—अनिश्चित,संदिग्ध,अनियमित
- अनियत—वि॰, न॰ त॰—-—न नियतम्—कारणरहित,आकस्मिक
- अनियत—वि॰, न॰ त॰—-—न नियतम्—नश्वर
- अनियतांकः—पुं॰—अनियत-अंकः—-—अनिश्चित अंक
- अनियतात्मन्—वि॰—अनियत-आत्मन्—-—जिसका मन अपने वश में न हो
- अनियतापुंस्का—स्त्री॰—अनियत-पुंस्का—-—दुश्चरणशील स्त्री,व्यभिचारिणी
- अनियतवृत्ति—वि॰—अनियत-वृत्ति—-—बंधा काम करने वाला,जिसका प्रयोग निश्चित न हो,जिसकी आय नियत न हो
- अनियंत्रण—वि॰, न॰ ब॰—-—-—असंयत,अनियंत्रित,स्वतंत्र
- अनियमः—पुं॰—-—-—नियम का अभाव,नियंत्रण, अधिनियम या निश्चित क्रम का अभाव, निदेश या व्यवस्थित नियम का अभाव
- अनियमः—पुं॰—-—-—अनिश्चितता,निश्चयाभाव,संदेह
- अनियमः—पुं॰—-—-—अनुचित आचरण
- अनिरुक्त—वि॰, न॰ त॰—-—-—स्पष्ट रूप से न कहा हुआ
- अनिरुक्त—वि॰, न॰ त॰—-—-—स्पष्ट रूप से व्याख्या न किया हुआ,जिसकी परिभाषा स्पष्ट न दी गई हो,अस्पष्ट निर्वचन सहित
- अनिरुद्ध—वि॰, न॰ त॰—-—-—बिना रोकटोक वाला,स्वतंत्र,अनियंत्रित,स्वच्छंद,उच्छृंखल,उद्दाम
- अनिरुद्धः—पुं॰—-—-—गुप्तचर
- अनिरुद्धः—पुं॰—-—-—प्रद्युम्न के एक पुत्र का नाम
- अनिरुद्धपथम्—नपुं॰—अनिरुद्ध-पथम्—-—ऐसा मार्ग जहाँ कोई रोक न हो
- अनिरुद्धपथम्—नपुं॰—अनिरुद्ध-पथम्—-—आकाश,अन्तरिक्ष
- अनिरुद्धभाविनी—स्त्री॰—अनिरुद्ध-भाविनी—-—अनिरुद्ध की पत्नी उषा
- अनिर्णयः—पुं॰—-—-—अनिश्चितता,निर्णय का अभाव
- अनिदर्श—वि॰—-—न निर्गतानि दशाहानि यस्य—बच्चे के जन्म या मरण के फलस्वरूप अशौच के दश दिन जिसके न बीते हों
- अनिदर्शाह—वि॰—-—न निर्गतानि दशाहानि यस्य—बच्चे के जन्म या मरण के फलस्वरूप अशौच के दश दिन जिसके न बीते हों
- अनिर्देशः—पुं॰—-—न निर्देशः—निश्चित नियम या निदेश का अभाव
- अनिर्देश्य—वि॰, न॰ त॰—-—न निर्देष्टुं योग्यः—अपरिभाषणीय,अवर्णनीय
- अनिर्देश्यं—नपुं॰—-—-—परब्रह्म की उपाधि
- अनिर्धारित—वि॰, न॰ त॰—-—न निर्धारतम्—जिसका कोई निर्णय या निश्चय न हुआ हो
- अनिर्वचनीय—वि॰, न॰ त॰—-—न वचनीयम्—कहने के अयोग्य, अवर्णनीय
- अनिर्वचनीय—वि॰, न॰ त॰—-—न वचनीयम्—वर्णन करने के अयोग्य
- अनिर्वचनीयम्—वि॰, न॰ त॰—-—न वचनीयम्—माया,भ्रम,अज्ञान
- अनिर्वचनीयम्—वि॰, न॰ त॰—-—न वचनीयम्—संसार
- अनिर्वाण—वि॰—-—-—अनधुला,जिसने अभी स्नान नहीं किया
- अनिर्वेदः—पुं॰—-—न निर्वेदः—अनवसाद,विषाद या नैराश्य का अभाव,स्वावलंबन,उत्साह
- अनिर्वृत्त—वि॰, न॰ त॰—-—न निर्वेदः—खिन्न,अशान्त,दुःखी
- अनिर्वृत्तिः—स्त्री॰, न॰ त॰—-—न निर्वृत्तिः—बेचैनी,विकलता
- अनिर्वृत्तिः—स्त्री॰, न॰ त॰—-—न निर्वृत्तिः—निर्धनता
- अनिलः—पुं॰—-—अन्+इलच्—वायु
- अनिलः—पुं॰—-—अन्+इलच्—वायुदेवता
- अनिलः—पुं॰—-—अन्+इलच्—उपदेवता,जो संख्या में ४९ हैं तथा वायु की श्रेणी में आते हैं
- अनिलः—पुं॰—-—अन्+इलच्—शरीर में रहने वाली वायु-त्रिदोषों में से एक-वात
- अनिलः—पुं॰—-—अन्+इलच्—गठिया या और कोई रोग जो वातप्रकोप के कारण उत्पन्न माना जाता है।
- अनिलायनम्—नपुं॰—अनिलः-अयनम्—-—वायु का मार्ग
- अनिलाशन—वि॰—अनिलः-अशन—-—वायुभक्षी,उपवास करने वाला
- अनिलाशीन्—वि॰—अनिलः-अशीन्—-—वायुभक्षी,उपवास करने वाला
- अनिलाशीन्—पुं॰—अनिलः-अशीन्—-—साँप
- अनिलात्मजः—पुं॰—अनिलः-आत्मजः—-—वायु का पुत्र,हनुमान् और भीम की उपाधि
- अनिलामयः—पुं॰—अनिलः-आमयः—-—वातरोग
- अनिलामयः—पुं॰—अनिलः-आमयः—-—गठिया
- अनिलसखः—पुं॰—अनिलः-सखः—-—अग्नि
- अनिर्लोडित—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो सुविचारित न हो,सुनिर्णीत न हो
- अनिशम्—अव्य॰, न॰ब॰—-—-—लगातार,निरन्तर
- अनिष्ट—वि॰, न॰ त॰—-—-—न चाहा हुआ,जिसकी इच्छा न हो,अननुकूल
- अनिष्ट—वि॰, न॰ त॰—-—-—अनर्थ
- अनिष्ट—वि॰, न॰ त॰—-—-—बुरा,दुर्भाग्यपूर्न,अमंगलसूचक
- अनिष्ट—वि॰, न॰ त॰—-—-—यज्ञ द्वारा असम्मानित
- अनिष्टम्—नपुं॰—-—न इष्टम्—बुराई,दुर्भाग्य,विपत्ति
- अनिष्टम्—नपुं॰—-—न इष्टम्—असुविधा,अहित
- अनिष्टापत्तिः—स्त्री॰—अनिष्ट-आपत्तिः—-—अवांछित पदार्थ का प्राप्त करना,अवांछित घटना
- अनिष्टापादनम्—नपुं॰—अनिष्ट-आपादनम्—-—अवांछित पदार्थ का प्राप्त करना,अवांछित घटना
- अनिष्टग्रहः—पुं॰—अनिष्ट-ग्रहः—-—बुरा या हानिकारक ग्रह
- अनिष्टप्रसंगः—पुं॰—अनिष्ट-प्रसंगः—-—अनीप्सित घटना
- अनिष्टप्रसंगः—पुं॰—अनिष्ट-प्रसंगः—-—सदोष पदार्थ,तर्क या नियम से संबंध
- अनिष्टफलम्—नपुं॰—अनिष्ट-फलम्—-—बुरा परिणाम
- अनिष्टशंका—स्त्री॰—अनिष्ट-शंका—-—बुराई की आशंका
- अनिष्टहेतुः—पुं॰—अनिष्ट-हेतुः—-—अपशकुन
- अनिष्पत्रम्—अव्य॰, न॰ त॰—-—-—इस प्रकार जिससे कि तीर का पंखयुक्त पक्ष दूसरी ओर न निकले-अर्थात् बहुत बलपूर्वक नहीं
- अनिस्तीर्ण—वि॰—-—-—जो पार न किया गया हो,जिससे छुटकारा न मिला हो
- अनिस्तीर्ण—वि॰—-—-—जिसका उत्तर न दिया गया हो, जिसका उत्तर न दिया गया हो,जिसका निराकरण न किया गया हो
- अनीकः—पुं॰—-—अन्+ईकन्—सेना,सैन्यपंक्ति,सैनिक दस्ता ,दल
- अनीकः—पुं॰—-—अन्+ईकन्—समूह,वर्ग
- अनीकः—पुं॰—-—अन्+ईकन्—संग्राम,लड़ाई,युद्ध
- अनीकः—पुं॰—-—अन्+ईकन्—पंक्ति,श्रेणी,चलती हुई सेना की टुकड़ी
- अनीकः—पुं॰—-—अन्+ईकन्—अग्रभाग,प्रधान,मुख्य
- अनीकम्—नपुं॰—-—अन्+ईकन्—सेना,सैन्यपंक्ति,सैनिक दस्ता ,दल
- अनीकम्—नपुं॰—-—अन्+ईकन्—समूह,वर्ग
- अनीकम्—नपुं॰—-—अन्+ईकन्—संग्राम,लड़ाई,युद्ध
- अनीकम्—नपुं॰—-—अन्+ईकन्—पंक्ति,श्रेणी,चलती हुई सेना की टुकड़ी
- अनीकम्—नपुं॰—-—अन्+ईकन्—अग्रभाग,प्रधान,मुख्य
- अनीकस्थः—पुं॰—अनीकः-स्थः—-—योद्धा
- अनीकस्थः—पुं॰—अनीकः-स्थः—-—सिपाही,पहरेदार
- अनीकस्थः—पुं॰—अनीकः-स्थः—-—महावत या हाथी का प्रशिक्षक
- अनीकस्थः—पुं॰—अनीकः-स्थः—-—युद्धभेरी या बिगुल
- अनीकस्थः—पुं॰—अनीकः-स्थः—-—संकेतक,चिह्न,संकेत
- अनीकिनी—स्त्री॰—-—अनीकानां संघः-अनीक+इनि+ङीप्—सेना,सैन्य दल,सैन्य श्रेणी
- अनीकिनी—स्त्री॰—-—अनीकानां संघः-अनीक+इनि+ङीप्—तीन सेनाएँ या पूर्न सेना का दशम भाग
- अनील—वि॰, न॰ त॰—-—न नीलः—जो नीला न हो,श्वेत
- अनीलवाजिन्—पुं॰—अनील-वाजिन्—-—श्वेत घोड़े वाला,अर्जुन
- अनीश—वि॰, न॰ त॰—-—-—प्रमुख,सर्वोच्च
- अनीश—वि॰, न॰ त॰—-—-—स्वामी या नियंता न होना
- अनीशः—पुं॰—-—-—विष्णु
- अनीश्वर—वि॰, न॰ त॰—-—-—जिसके ऊपर कोई न हो,अनियंत्रित
- अनीश्वर—वि॰, न॰ त॰—-—-—असमर्थ
- अनीश्वर—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो ईश्वर से संबंध न रखे
- अनीश्वर—वि॰, न॰ त॰—-—-—नास्तिक
- अनीश्वरवादः—पुं॰—अनीश्वर-वादः—-—नास्तिकवाद; ईश्वर को सर्वोच्च शासक न मानने वाला,नास्तिक
- अनीह—वि॰, न॰ त॰—-—-—उदासीन,इच्छारहित
- अनीहा—स्त्री॰, न॰त॰—-—-—अवहेलना,उदासीनता
- अनु—अव्य॰—-—-—पश्चात्,पीछे
- अनु—अव्य॰—-—-—साथ-साथ, पास-पास
- अनु—अव्य॰—-—-—के बाद, फलस्वरूप, संकेत किया जाता हुआ
- अनु—अव्य॰—-—-—के साथ, साथ ही, संबद्ध
- अनु—अव्य॰—-—-—घटिया या निम्न दर्जे का
- अनु—अव्य॰—-—-—किसी विशेष स्थिति या संबंध में
- अनु—अव्य॰—-—-—भाग, हिस्सा, या साझा रखने वाला
- अनु—अव्य॰—-—-—पुनरावृत्ति
- अनुदिवसम्—नपुं॰—अनु-दिवसम्—-—दिन-ब-दिन, प्रतिदिन
- अनु—अव्य॰—-—-—की ओर, दिशा में , के निकट, पर
- अनुनदि—अव्य॰—अनु-नदि—-—नदि, नदी के निकट
- अनु—अव्य॰—-—-—क्रमानुसार, के अनुसार
- अनु—अव्य॰—-—-—की भांति, के अनुकरण में
- अनु—अव्य॰—-—-—अनुरूप
- अनुक—वि॰—-—अनु+कन्—लालची,लोलुप
- अनुक—वि॰—-—अनु+कन्—कामुक,विलासी
- अनुकथनम्—नपुं॰—-—अनु+कथ्+ल्युट्—बाद का कथन
- अनुकथनम्—नपुं॰—-—अनु+कथ्+ल्युट्—संबंध,प्रवचन,वार्तालाप
- अनुकनीयस्—वि॰—-—अनु+अल्प+ईयसुन् कनादेशः—छोटे से बाद का,सबसे छोटा
- अनुकंपक—वि॰—-—अनु+कंप+ण्वुल्—दयालु,करुणा करने वाला
- अनुकंपनम्—नपुं॰—-—अनु+कंप+ल्युट्—करुणा,तरस,दयालुता,सहानुभूति
- अनुकंपा—स्त्री॰—-—अनु+कंप्+अच्+टाप्—करुणा,दया
- अनुकंप्य—वि॰—-—अनुकंप्+यत्—दयनीय,सहानुभूति का पात्र
- अनुकंप्यः—पुं॰—-—अनुकंप्+यत्—हरकारा,ग्रुतगामी,दूत
- अनुकरणम्—नपुं॰—-—अनुकृ+ल्युट्—नकल करना,प्रतिलिपि,अनुरूपता,समानता
- अनुकृतिः—स्त्री॰—-—अनुकृ+क्तिन् —नकल करना,प्रतिलिपि,अनुरूपता,समानता
- अनुकर्षः—पुं॰—-—अनु+कृष्+अच्—खिंचाव,आकर्षण
- अनुकर्षः—पुं॰—-—अनु+कृष्+अच्—पूर्व नियम में आगे वाले नियम का प्रयोग
- अनुकर्षः—पुं॰—-—अनु+कृष्+अच्—गाड़ी का तला या धुरे का लट्ठा
- अनुकर्षः—पुं॰—-—अनु+कृष्+अच्—कर्तव्य का विलंब से पालन,अनुकर्षन् भी
- अनुकर्षणम्—नपुं॰—-—अनु+कृष्+ल्युट् —खिंचाव,आकर्षण
- अनुकर्षणम्—नपुं॰—-—अनु+कृष्+ल्युट् —पूर्व नियम में आगे वाले नियम का प्रयोग
- अनुकर्षणम्—नपुं॰—-—अनु+कृष्+ल्युट् —गाड़ी का तला या धुरे का लट्ठा
- अनुकर्षणम्—नपुं॰—-—अनु+कृष्+ल्युट् —कर्तव्य का विलंब से पालन,अनुकर्षन् भी
- अनुकल्पः—पुं॰—-—अनु+कल्प्+अच्—गुरु का गौण अनुदेश जो आवश्यकता होने पर उस समय प्रयुक्त किया जाता है जब कि मुख्य निदेश का प्रयोग संभव नहीं
- अनुकामीन—वि॰—-—अनुकाम+ख—अपनी इच्छा के अनुसार काम करने वाला;-अनुकामीनतां त्यज-भट्टि०।
- अनुकारः—पुं॰—-—-—नकल करना,प्रतिलिपि,अनुरूपता,समानता
- अनुकाल—वि॰—-—-—समयोचित,सामयिक
- अनुकीर्तनम्—नपुं॰—-—अनु+कृत्+ल्युट्—कथन,प्रकाशन
- अनुकूल—वि॰—-—अनु+कूल्+अच्—मनोवांछित,अभिमत,जैसे कि वायु,भाग्य आदि
- अनुकूल—वि॰—-—अनु+कूल्+अच्—मित्रतापूर्ण, कृपापूर्ण
- अनुकूल—वि॰—-—अनु+कूल्+अच्—अनुरूप
- अनुकूलः—पुं॰—-—अनु+कूल्+अच्—निष्ठावान तथा कृपालु पति नायक का एक भेद
- अनुकूलम्—नपुं॰—-—अनु+कूल्+अच्—अनुग्रह,कृपा
- अनुकूलयति—ना॰धा॰—-—-—अनुकूल या मुआफिक होना,प्रसन्न होना
- अनुक्रकच—वि॰, पुं॰—-—-—दंतुरित, दांतेदार जैसा कि आरा
- अनुक्रमः—पुं॰—-—अनु+क्रम्+अच्—उत्तराधिकार,क्रम,तांता,क्रमस्थापन,क्रमबद्धता,उचियक्रम
- अनुक्रमः—पुं॰—-—अनु+क्रम्+अच्—विषयसूची,विषयतालिका
- अनुक्रमणम्—नपुं॰—-—अनु+क्रम्+ल्युट्—क्रम पूर्वक आगे बढ़ाना
- अनुक्रमणम्—नपुं॰—-—अनु+क्रम्+ल्युट्—अनुग्मन
- अनुक्रमणी—स्त्री॰—-—अनु+क्रम्+ल्युट्+ङीप्—विषयसूची,विषयतालिका जो किसी ग्रन्थ के क्रमबद्ध विषयों का दिग्दर्शन कराये
- अनुक्रमणिका—स्त्री॰—-—अनु+क्रम्+ल्युट्+ङीप्+कन्—विषयसूची,विषयतालिका जो किसी ग्रन्थ के क्रमबद्ध विषयों का दिग्दर्शन कराये
- अनुक्रिया—स्त्री॰—-—-—नकल करना,प्रतिलिपि,अनुरूपता,समानता
- अनुक्रोशः—पुं॰—-—अनु+क्रुश्+घञ्—दया,करुणा,दयालुता
- अनुक्षणम्—अव्य॰—-—-—प्रतिक्षण,लगातार,बारबार
- अनुक्षतृ—पुं॰—-—-—द्वारपाल या सारथि का टहलुआ।
- अनुक्षेत्रम्—नपुं॰—-—-—उड़ीसा के कुछ मन्दिरों में पुजारियों को दी जाने वाली वृत्ति
- अनुख्यातिः—स्त्री॰—-—अनु+ख्या+क्तिन्—पता लगाना, विवरण देना,प्रकट करना।
- अनुख्यातिः—स्त्री॰—-—अनु+ख्या+क्तिन्—विवरण देना,प्रकट करना।
- अनुग—वि॰—-—अनु+गम्+ड—पीछे चलने वाला,मिलान करने वाला
- अनुगः—पुं॰—-—अनु+गम्+ड—अनुचर,आज्ञाकारी सेवक,साथी
- अनुगतिः—स्त्री॰—-—अनु+गम्+क्तिन्—पीछे चलना
- अनुगमः—पुं॰—-—अनु+गम्+अप्—अनुसरण
- अनुगमः—पुं॰—-—अनु+गम्+अप्—सहमरण,अपने स्वर्गीय पिता की चिता पर विधवा स्त्री का सती होना
- अनुगमः—पुं॰—-—अनु+गम्+अप्—नकल करना,समीपतर आना
- अनुगमः—पुं॰—-—अनु+गम्+अप्—समरूपता,अनुरूपता
- अनुगमनम्—नपुं॰—-—अनु+गम्+ल्युट्—अनुसरण
- अनुगमनम्—नपुं॰—-—अनु+गम्+ल्युट्—सहमरण,अपने स्वर्गीय पिता की चिता पर विधवा स्त्री का सती होना
- अनुगमनम्—नपुं॰—-—अनु+गम्+ल्युट्—नकल करना,समीपतर आना
- अनुगमनम्—नपुं॰—-—अनु+गम्+ल्युट्—समरूपता,अनुरूपता
- अनुगर्जित—वि॰—-—अनु+गर्ज्+क्त—दहाड़ा हुआ
- अनुगर्जितम्—नपुं॰—-—अनु+गर्ज्+क्त—दहाड़
- अनुगवीनः—पुं॰—-—अनु+गु+ख—गोपाल,ग्वाला
- अनुगामी—पुं॰—-—अनु+गम्+णिच्+णिनि—अनुयायी,सहचर
- अनुगुण—वि॰, ब॰ स॰—-—-—समान गुण रखने वाला,उसी स्वभाव का,अनुकूल या रुचिकर,उपयुक्त,रुचिकर,उपयुक्त,अनुरूप,समानशील;-(वीणा)उत्कंठितस्य हृदयानुगुणा वयस्या-मृच्छ०३/३ मन को सुखकर,अभिमत,मनोनुकूल(ता० वा० के अनुसार यहाँ णा से अभिप्राय ’तंत्रीयुक्त वीणा’ से है)
- अनुगुणम्—नपुं॰—-—-—अनुकूल,इच्छाओं के समरूप
- अनुगुणम्—नपुं॰—-—-—अभिमतिपूर्वक या समरूपता के साथ
- अनुगुणम्—नपुं॰—-—-—स्वभावतः
- अनुग्रहः—पुं॰—-—अनु+ग्रह्+अप्—प्रसाद,कृपा,उपकार,आभार
- अनुग्रहः—पुं॰—-—अनु+ग्रह्+अप्—स्वीकृति
- अनुग्रहः—पुं॰—-—अनु+ग्रह्+अप्—सेना के पृष्ठ भाग की रक्षा करने वाला दल
- अनुग्रहणम्—नपुं॰—-—अनु+ग्रह्+ल्युट् —प्रसाद,कृपा,उपकार,आभार
- अनुग्रहणम्—नपुं॰—-—अनु+ग्रह्+ल्युट् —स्वीकृति
- अनुग्रहणम्—नपुं॰—-—अनु+ग्रह्+ल्युट् —सेना के पृष्ठ भाग की रक्षा करने वाला दल
- अनुग्रासकः—पुं॰—-—-—कौर,निवाला
- अनुचरः—पुं॰—-—अनु+चर्+ट्—सहचर,अनुयायी,नौकर,सेवक
- अनुचरा—स्त्री॰—-—अनु+चर्+ट्+ टाप्—दासी,सेविका
- अनुचरी—स्त्री॰—-—अनु+चर्+ट्+ङीप्—दासी,सेविका
- अनुचारकः—पुं॰—-—अनु+चर्+ण्वुल्—अनुचर,सेवक
- अनुचारिका—स्त्री॰—-—-—दासी सेविका
- अनुचित—वि॰, न॰ त॰—-—-—गलत,अनुपयुक्त
- अनुचित—वि॰, न॰ त॰—-—-—निराला,अयोग्य
- अनुचिन्ता—स्त्री॰—-—अनु+चिंत्+अ+टाप् —याद करना,सोचना,मनन करना
- अनुचिन्ता—स्त्री॰—-—अनु+चिंत्+अ+टाप् —प्रत्यास्मरण,फिर से ध्यान में लाना
- अनुचिन्ता—स्त्री॰—-—अनु+चिंत्+अ+टाप् —अनवरत,सोच,चिन्ता
- अनुचिन्तनम्—नपुं॰—-—अनु+चिंत्+अ+ल्युट्—याद करना,सोचना,मनन करना
- अनुचिन्तनम्—नपुं॰—-—अनु+चिंत्+अ+ल्युट्—प्रत्यास्मरण,फिर से ध्यान में लाना
- अनुचिन्तनम्—नपुं॰—-—अनु+चिंत्+अ+ल्युट्—अनवरत,सोच,चिन्ता
- अनुच्छादः—पुं॰—-—अनु+छद्+णिच्+घञ्—साड़ी या धोती का वह छोर जो कंधे के ऊपर होकर छाती पर लटकता रहता है
- अनुच्छित्तिः—स्त्री॰—-—अनु+छिद्+क्तिन्—कटकर अलग न होना,नाश न होना,अनश्वरता।
- अनच्छेदः—पुं॰—-—अनु+छिद्+घञ् —कटकर अलग न होना,नाश न होना,अनश्वरता।
- अनुज—वि॰—-—अनु+जन्+ड्—बाद में उत्पन्न,पीछे जन्मा हुआ,छोटा भाई
- अनुजात—वि॰—-—अनु+जन्+क्त—बाद में उत्पन्न,पीछे जन्मा हुआ,छोटा भाई
- अनुजः—पुं॰—-—अनु+जन्+ड्—छोटा भाई
- अनुजातः—पुं॰—-—अनु+जन्+क्त—छोटा भाई
- अनुजा—स्त्री॰—-—अनु+जन्+ड्+टाप्—छोटी बहन
- अनुजाता—स्त्री॰—-—अनु+जन्+क्त+टाप्—छोटी बहन
- अनुजन्मा—पुं॰—-—-—छोटा भाई
- अनुजीविन्—वि॰—-—अनुजीव+णिनि—आश्रित,परोपजीवी
- अनुजीवी—पुं॰—-—अनुजीव+णिनि—परावलम्बी,सेवक,अनुचर
- अनुज्ञा—स्त्री॰—-—अनु+ज्ञा+अङ्—अनुमति,सहमति,स्वीकृति
- अनुज्ञा—स्त्री॰—-—अनु+ज्ञा+अङ्—जाने की अनुमति या छुट्टी
- अनुज्ञा—स्त्री॰—-—अनु+ज्ञा+अङ्—बहाना
- अनुज्ञा—स्त्री॰—-—अनु+ज्ञा+अङ्—आज्ञा, आदेश
- अनुज्ञानम्—नपुं॰—-—अनु+ज्ञा+ल्युट् —अनुमति,सहमति,स्वीकृति
- अनुज्ञानम्—नपुं॰—-—अनु+ज्ञा+ल्युट् —जाने की अनुमति या छुट्टी
- अनुज्ञानम्—नपुं॰—-—अनु+ज्ञा+ल्युट् —बहाना
- अनुज्ञानम्—नपुं॰—-—अनु+ज्ञा+ल्युट् —आज्ञा, आदेश
- अनुज्ञापकः—पुं॰—-—अनु+ज्ञा+णिच्+ण्वुल्—आज्ञा देने वाला,हुक्म देने वाला।
- अनुज्ञापनम्—नपुं॰—-—अनु+ज्ञा+णिच्+ल्युट्—अधिकृत बनाना
- अनुज्ञापनम्—नपुं॰—-—अनु+ज्ञा+णिच्+ल्युट्—आज्ञा या आदेश जारी करना
- अनुज्ञप्तिः—स्त्री॰—-—अनु+ज्ञा+णिच्+क्तिन् —अधिकृत बनाना
- अनुज्ञप्तिः—स्त्री॰—-—अनु+ज्ञा+णिच्+क्तिन् —आज्ञा या आदेश जारी करना
- अनुज्येष्ठम्—अव्य॰—-—ज्येष्ठस्य पश्चात्—ज्येष्ठता की दृष्टि के अनुसार
- अनुतर्षः—पुं॰—-—अनु+तृष्+घञ्—प्यास
- अनुतर्षः—पुं॰—-—अनु+तृष्+घञ्—कामना,इच्छा
- अनुतर्षः—पुं॰—-—अनु+तृष्+घञ्—जल पीने का पात्र
- अनुतर्षः—पुं॰—-—अनु+तृष्+घञ्—मद्य
- अनुतापः—पुं॰—-—अनु+तप्+घञ्—पश्चात्ताप,संताप
- अनुतर्षणम्—नपुं॰—-—-—जल पीने का पात्र, मद्य
- अनुतिलम्—अव्य॰ स॰—-—तिलस्यानुपूर्व्येण—दाना दाना करके अर्थात् कण कण करके, अत्यन्त सूक्ष्मता से
- अनुत्क—वि॰, न॰ त॰—-—न उत्कः—जो अधिक उत्सुक न हो, जो पश्चात्तापकारी या खेदयुक्त न हो
- अनुत्तम—वि॰, न॰ त॰—-—न उत्तमः—जिससे अच्छा कोई और न हो,जिससे बढ़िया कोई और न हो,सबसे अच्छा,सबसे बढ़िया,प्रमुख रूप से सर्वोपरि
- अनुत्तम—वि॰, न॰ त॰—-—न उत्तमः—जो उत्तम पुरुष में प्रयुक्त न किया जाय
- अनुत्तर—वि॰, न॰ त॰—-—न उत्तरः—प्रधान,मुख्य
- अनुत्तर—वि॰, न॰ त॰—-—न उत्तरः—बढ़िया,सर्वोत्तम
- अनुत्तर—वि॰, न॰ त॰—-—न उत्तरः—बिना उत्तर का,मूक,उत्तर देने में असमर्थ
- अनुत्तर—वि॰, न॰ त॰—-—न उत्तरः—निश्चित,स्थिर
- अनुत्तर—वि॰, न॰ त॰—-—न उत्तरः—निम्न,घटिया,खोता कमीना
- अनुत्तर—वि॰, न॰ त॰—-—न उत्तरः—दक्षिणी
- अनुत्तरम्—नपुं॰—-—न उत्तरम्—उत्तर का अभाव
- अनुत्तरा—स्त्री॰—-—न उत्तरा—दक्षिण दिशा
- अनुत्तरंग—वि॰, न॰ ब॰—-—-—स्थिर,अनुद्वेलित,अविक्षुब्ध
- अनुत्थानम्—नपुं॰—-—-—प्रयत्न या सरगर्मी का अभाव
- अनुत्सूत्र—वि॰, न॰ त॰—-—-—पाणिनि या नैतिकता के सूत्रों से अविरुद्ध,अविश्रृंखल,नियमित
- अनुत्सेकः—पुं॰—-—-—घमंड या अहंकार का अभाव शालीनता।
- अनुत्सेकिन्—वि॰—-—अनुत्सेक+णिनि—जो घमंड के कारण फूला हुआ न हो
- अनुदर—वि॰, न॰ ब॰—-—-—पतली कमर वाला,पतला,कृश,क्षीण
- अनुदर्शनम्—नपुं॰—-—अनु+दृश्+ल्युट्—निरीक्षण
- अनुदात्त—वि॰, न॰ त॰—-—-—गुरुस्वर,जो उदात्त स्वर की भाँति उच्च स्वर से उच्चरित न होता हो,स्वराघातहीन
- अनुदात्तः—पुं॰—-—-—गुरुस्वर
- अनुदार—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो उदार न हो,कंजूस,अनुत्तम,अभद्र
- अनुदार—वि॰, न॰ त॰—-—-—उपयुक्त और योग्य पत्नी वाला।
- अनुदार—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो अपनी पत्नी के अनुकूल चलने वाला हो या वह जिसकी पत्नी पति के अनुकूल चलने वाली हो
- अनुदिनम्—अव्य॰ स॰—-—-—प्रतिदिन,दिन-ब-दिन
- अनुदिवसम्—अव्य॰ स॰—-—-—प्रतिदिन,दिन-ब-दिन
- अनुदेशः—पुं॰—-—अनु+दिश्+घञ्—पीछे संकेत करना,
- अनुदेशः—पुं॰—-—अनु+दिश्+घञ्—निदेश,आदेश
- अनुद्धत—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो अहंकारी या गर्वयुक्त न हो
- अनुद्भट—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो साहसी न हो,विनीत,सौम्य
- अनुद्भट—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो उन्नत या बहुत ऊँचा न हो
- अनुद्रुत—वि॰—-—अनु+द्रु+क्त—अनुगत,पीछा किया गया
- अनुद्रुत—वि॰—-—अनु+द्रु+क्त—भेजा हुआ या लौटाया हुआ
- अनुद्रुतम्—नपुं॰—-—अनु+द्रु+क्त—संगीत में काल की माप=आधा द्रुत
- अनुद्वाहः—पुं॰—-—अनु+उद्+वह्+घञ्—विवाह न होना,ब्रह्मचर्य पालन
- अनुधावनम्—नपुं॰—-—अनु+धाव्+ल्युट्—पीछे जाना या भागना,पीछा करना,अनुसरण करना###
- अनुधावनम्—नपुं॰—-—अनु+धाव्+ल्युट्—किसी पदार्थ का अत्यंत पीछा करना,अनुसंधान ,गवेषणा
- अनुधावनम्—नपुं॰—-—अनु+धाव्+ल्युट्—किसी स्त्री को पाने का असफल प्रयत्न करना
- अनुधावनम्—नपुं॰—-—अनु+धाव्+ल्युट्—सफाई,पवित्रीकरण
- अनुध्यानम्—नपुं॰—-—अनु+ध्या+ल्युट्—विचार,मनन,धार्मिक चिंतन
- अनुध्यानम्—नपुं॰—-—अनु+ध्या+ल्युट्—सोचविचार,याद
- अनुध्यानम्—नपुं॰—-—अनु+ध्या+ल्युट्—हितचिंतन,स्निग्धचिंतन।
- अनुनयः—पुं॰—-—अनु+नी+अच्—मनावन,प्रार्थना
- अनुनयः—पुं॰—-—अनु+नी+अच्—शालीनता,शिष्टता,सान्त्वनायुक्त आचरण
- अनुनयः—पुं॰—-—अनु+नी+अच्—नम्रनिवेदन,मिन्नत,प्रार्थना
- अनुनयामन्त्रणम्—नपुं॰—अनुनयः-आमन्त्रणम्—-—विनीत संबोधन
- अनुनयः—पुं॰—-—अनु+नी+अच्—अनुशासन,प्रशिक्षण,आचरण के अधिनियम
- अनुनादः—पुं॰—-—अनु+नद्+घञ्—शब्द,कोलाहल,गूँज,प्रतिध्वनि
- अनुनायक—वि॰—-—अनु+नी+ण्वुल्—सुशील,विनम्र,विनीत
- अनुनायिक—वि॰—-—अनु+नय+ठक्—मैत्रीपूर्ण
- अनुनायिका—स्त्री॰—-—अनु+नय+ठक्+टाप्—नाटक की मुख्य पात्र नायिका की अनुचरी जैसे कि सखी,धात्री या दासी आदि
- अनुनासिक—वि॰—-—अनु+नासा+ठ—नासिक्य,नासिका से उच्चरित
- अनुनासिकम्—नपुं॰—-—अनु+नासा+ठ—गुनगुनाना
- अनुनासिकादिः—पुं॰—अनुनासिक-आदिः—-—अनुनासिक वर्णसे आरम्भ होने वाला संयुक्त व्यंजन
- अनुनिर्देशः—पुं॰—-—अनु+निर्+दिश्+घञ्—पूर्ववर्ती अनुक्रम के अनुसार वर्णन
- अनुनीतिः—पुं॰—-—-—मनावन,प्रार्थना
- अनुनीतिः—पुं॰—-—-—शालीनता,शिष्टता,सान्त्वनायुक्त आचरण
- अनुनीतिः—पुं॰—-—-—नम्रनिवेदन,मिन्नत,प्रार्थना
- अनुनीतिः—पुं॰—-—-—अनुशासन,प्रशिक्षण,आचरण के अधिनियम
- अनुपघातः—पुं॰—-—-—उपघात या क्षति का अभाव
- अनुपघातार्जित—वि॰—अनुपघातः-अर्जित—-—बिना किसी क्षति के प्राप्त किया।
- अनुपतनम्—नपुं॰—-—अनु+पत्+ल्युट्—ऊपर पड़ना,एक के बाद दूसरे का गिरना
- अनुपतनम्—नपुं॰—-—अनु+पत्+ल्युट्—पीछा करना,अनुसरण
- अनुपतनम्—नपुं॰—-—अनु+पत्+ल्युट्—भाग
- अनुपतनम्—नपुं॰—-—अनु+पत्+ल्युट्—त्रैराशिक
- अनुपातः—पुं॰—-—अनु+पत्+घञ् —ऊपर पड़ना,एक के बाद दूसरे का गिरना
- अनुपातः—पुं॰—-—अनु+पत्+घञ् —पीछा करना,अनुसरण
- अनुपातः—पुं॰—-—अनु+पत्+घञ् —भाग
- अनुपातः—पुं॰—-—अनु+पत्+घञ् —त्रैराशिक
- अनुपातम्—अव्य॰—-—अनु+पत्+णमुल्—क्रमिक अनुसरण,अनुगमन
- अनुपथ—वि॰, पुं॰—-—-—मार्ग का अनुसरण करने वाला
- अनुपथम्—नपुं॰—-—-—सड़क के साथ-साथ
- अनुपद—वि॰, पुं॰—-—-—नितान्त कदम-कदम अनुसरण करता हुआ
- अनुपदम्—नपुं॰—-—-—सम्मिलित गायन,गीत का टेक
- अनुपदम्—अव्य॰—-—-—कदम के साथ-साथ,पैरों के निकट
- अनुपदम्—अव्य॰—-—-—कदम-कदम करके,प्रति पद
- अनुपदम्—अव्य॰—-—-—शब्दशः
- अनुपदम्—अव्य॰—-—-—एड़ियों पर,बिल्कुल पीछे,तुरन्त बाद
- अनुपदवी—पुं॰—-—-—मार्ग,सड़क
- अनुपदिन्—वि॰—-—अनुपद्+णिनि—अनुसरण करने वाला ढूंढने वाला अर्थात् अन्वेषक,या पृच्छक
- अनुपदीना—स्त्री॰—-—अनुपद्+ख+टाप्—जूता,बूट,ऊँची एडि़यों का जूता,या चप्पल
- अनुपधः—पुं॰—-—-—उपधारहित,ऐसा अक्षर जिसके पूर्व कोई दूसरा अक्षर न हो
- अनुपधि—वि॰, न॰ ब॰—-—-—छलरहित,कपटरहित
- अनुपन्यासः—पुं॰—-—-—वर्णन न करना,बयान न देना
- अनुपन्यासः—पुं॰—-—-—अनिश्चितता,सन्देह ,प्रमाणाभाव
- अनुपपत्तिः—स्त्री॰, न॰ अ॰—-—-—असफलता,असिद्धि,तात्पर्य उद्दिष्ट या किसी संबद्ध अर्थ को प्राप्त करने में असफलता
- अनुपपत्तिः—स्त्री॰, न॰ अ॰—-—-—अव्यावहारिकता,व्यावहारिक न होना
- अनुपपत्तिः—स्त्री॰, न॰ अ॰—-—-—अधूरीयुक्ति,तर्कयुक्त कारण का अभाव
- अनुपम—वि॰, न॰ ब॰—-—-—अतुलनीय बेजोड़,सर्वोत्तम,अत्यंत श्रेष्ठ
- अनुपमा—स्त्री॰—-—-—दक्षिण पश्चिम प्रदेश की हथिनी
- अनुपमित—वि॰—-—नञ्+उप+मा+क्त—बेजोड़,अतुलनीय
- अनुपमेय—वि॰—-—अनुपमा+य—बेजोड़,अतुलनीय
- अनुपलब्धिः—स्त्री॰, न॰ त॰—-—-—पहचान न होना,प्रत्यक्ष न होना,मीमांसको की दृष्टि में ज्ञान का एक साधन,परन्तु नैयायिकों की दृष्टि में नहीं
- अनुपलम्भः—पुं॰—-—नञ्+उप+लभ्+णिच्+घञ्—बोध का अभाव,अप्रत्यक्ष होना
- अनुपवीती—पुं॰—-—-—अपने वर्ण के अनुसार यज्ञोपवीत धारण न करने वाला
- अनुपशयः—पुं॰—-—-—रोग को उभाड़ने या भड़काने वाली परिस्थिति
- अनुपसंहारिन्—पुं॰—-—-—न्यायशास्त्र में हेत्वाभास का एक भेद जिसके अन्तर्गत पक्षसंबन्धी सभी ज्ञात बातें आ जाती हैं,और दृष्टान्त द्वारा,चाहे वह विधेयात्मक हो या निषेधात्मक,कार्यकारण-सिद्धांत को सामान्य नियम का समर्थन नहीं हो पाता
- अनुपसर्गः—पुं॰—-—-—उपसर्ग की शक्ति से विरहित शब्द
- अनुपसर्गः—पुं॰—-—-—जिसमें कोई उपसर्ग न हो।
- अनुपस्थानम्—नपुं॰—-—अनुप+स्था+ल्युट्—अभाव,निकट न होना
- अनुपस्थित—वि॰—-—नञ्+उप+स्था+क्त—जो उपस्थित नहीं,अप्रस्तुत
- अनुपस्थितिः—स्त्री॰—-—अनुप+स्था+क्तिन्—गैरहाजरी
- अनुपस्थितिः—स्त्री॰—-—अनुप+स्था+क्तिन्—याद करने की अयोग्यता
- अनुपहत—वि॰, न॰ त॰—-—-—जिसे चोट नहीं लगी
- अनुपहत—वि॰, न॰ त॰—-—-—अप्रयुक्त,कोरा,नया
- अनुपाख्य—वि॰, न॰ ब॰—-—-—जो स्पष्ट रूप से दिखलाई न दे या पहचान अन जा सके
- अनुपातकम्—नपुं॰—-—अनु+पत्+णिच्+ण्वुल्—जघन्य पातक,जैसे चोरी,हत्या,व्यभिचार आदि,विष्णुस्मृति में ऐसे३५ तथा मनुस्मृति में ३० पातक गिनाये गये हैं।
- अनुपानम्—नपुं॰—-—अनु+पा+ल्युट्—दवा के साथ या पीछे पी जाने वाली वस्तु;औषधि लेने की मात्रा।
- अनुपालनम्—नपुं॰—-—अनु+पाल्+ल्युट्—प्ररक्षण,सुरक्षण,आज्ञापालन
- अनुपुरुषः—पुं॰—-—-—अनुयायी
- अनुपूर्व—वि॰, पुं॰—-—-—नियमित,उपयुक्त मान रखने वाला,क्रमबद्धइसी प्रकार दंष्ट्र,नाभि,पाणि
- अनुपूर्वकेश—वि॰—अनुपूर्व-केश—-—जिसके बाल यथाक्रम हैं
- अनुपूर्वगात्र—वि॰—अनुपूर्व-गात्र—-—जिसके अंग सुगठित हैं
- अनुपूर्व—वि॰, पुं॰—-—-—क्रमबद्ध सिलसिलेवार
- अनुपूर्वज—वि॰—अनुपूर्व-ज—-—नियमित परम्परा में उत्पन्न
- अनुपूर्ववत्सा—स्त्री॰—अनुपूर्व-वत्सा—-—नियमित रूप से बच्छे देने वाली गाय
- अनुपूर्वशः—पुं॰—-—-—नियमित क्रम में ,क्रमागत रीति से
- अनुपूर्वेण —पुं॰—-—-—नियमित क्रम में ,क्रमागत रीति से
- अनुपेत—वि॰, न॰ त॰—-—-—विरहित
- अनुपेत—वि॰, न॰ त॰—-—-—यज्ञोपवीत धारण न किये हुए
- अनुप्रज्ञानम्—नपुं॰—-—अनु+प्र+ज्ञा+ल्युट्—पदचिह्नों का अनुसरण,टोह लगाना
- अनुप्रपातम्—अव्य॰ स॰—-—-—क्रमागत रीतिपूर्वक
- अनुप्रपादम्—अव्य॰ स॰—-—-—क्रमागत रीतिपूर्वक
- अनुप्रयोगः—पुं॰—-—-—अतिरिक्त उपयोग,आवृत्ति
- अनुप्रवेशः—पुं॰—-—अनु+प्र+विश्+घञ्—दाखला
- अनुप्रवेशः—पुं॰—-—अनु+प्र+विश्+घञ्—अनुकरण-अपने को दूसरे की इच्छा के अनुकूल ढालना
- अनुप्रश्नः—पुं॰—-—-—बाद में किया जाने वाला प्रश्न
- अनुप्रसक्तिः—स्त्री॰—-—अनु+प्र+संज्+क्तिन्—प्रगाढ़ संबन्ध
- अनुप्रसक्तिः—स्त्री॰—-—अनु+प्र+संज्+क्तिन्—शब्दों का अत्यधिक तर्क संगत सम्बन्ध
- अनुप्रसादनम्—नपुं॰—-—अनु+प्र+सद्+णिच्+ल्युट्—आराधन,संराधन
- अनुप्राप्तिः—स्त्री॰—-—अनु+प्र+आप्+क्तिन्—प्राप्त करना,पहुँचना
- अनुप्लवः—पुं॰—-—अनु+प्लु+अच्—अनुयायी, सेवक
- अनुप्रासः—पुं॰—-—अनु+प्र+अस्+घञ्—एक समान ध्वनियों अक्षरों या वर्णों की पुनरावृत्ति
- अनुबद्ध—वि॰—-—अनु+बंध्+क्त—बँधा हुआ,जकड़ा हुआ
- अनुबद्ध—वि॰—-—अनु+बंध्+क्त—यथाक्रम अनुसरण करने वाला,फलस्वरूप आने वाला
- अनुबद्ध—वि॰—-—अनु+बंध्+क्त—संबद्ध
- अनुबद्ध—वि॰—-—अनु+बंध्+क्त—अनवरत चिपका हुआ,लगातार
- अनुबंधः—पुं॰—-—अनु+बंध्+घञ्—बंधन,कसना,संबंध,आसक्ति,बंधान
- अनुबंधः—पुं॰—-—अनु+बंध्+घञ्—अबाध परम्परा, सातत्य, श्रेणी, शृंखला
- अनुबंधः—पुं॰—-—अनु+बंध्+घञ्—अनुक्रम, फल
- अनुबंधः—पुं॰—-—अनु+बंध्+घञ्—इरादा,योजना,प्रयोजान्,कारण
- अनुबंधः—पुं॰—-—अनु+बंध्+घञ्—संबंध जोड़ने वाला,गौण
- अनुबंधः—पुं॰—-—अनु+बंध्+घञ्—आरंभिक तर्क
- अनुबंधः—पुं॰—-—अनु+बंध्+घञ्—एक संकेतक अक्षर जोकि इस शब्द के स्वर या विभक्ति में कुछ विशेषता का द्योतक हो जिसके साथ वह जुड़ा हो-जैसेकि ’गम्लृ’ में लृ
- अनुबंधः—पुं॰—-—अनु+बंध्+घञ्—बाधा,रुकावट
- अनुबंधः—पुं॰—-—अनु+बंध्+घञ्—आरंभ,उपक्रम
- अनुबंधः—पुं॰—-—अनु+बंध्+घञ्—मार्ग,अनुगमन
- अनुबंधनम्—नपुं॰—-—अनु+बंध्+ल्युट्—संबंध,परम्परा,सिलसिला आदि
- अनुबंधिन्—वि॰—-—अनुबंध+णिनि—संबद्ध,संसक्त,संयुक्त
- अनुबंधिन्—वि॰—-—अनुबंध+णिनि—क्रम,परिणामी,फलस्वरूप, एक दुःख के बाद दूसरा दुःख या दुःख कभी अकेला नहीं आता
- अनुबंधिन्—वि॰—-—अनुबंध+णिनि—फलता-फूलता हुआ,सम्पन्न,अबाध, अबाध या सर्वव्यापक
- अनुबंध्य—वि॰—-—अनु+बंध्+ण्यन्—प्रधान,मुख्य
- अनुबंध्य—वि॰—-—अनु+बंध्+ण्यन्— मारे जाने के लिये
- अनुबलम्—नपुं॰—-—-—पीछे स्थित सैन्यदल,मुख्य सेना की रक्षा के लिए पीछे आती हुई सहायक सेना
- अनुबोधः—पुं॰—-—अनु+बुध्+णिच्+घञ्—बाद का विचार,प्रत्यास्मरण
- अनुबोधः—पुं॰—-—अनु+बुध्+णिच्+घञ्—कम पड़ी हुई सुगंध को पुनर्जीवित करना
- अनुबोधनम्—नपुं॰—-—अनु+बुध्+ल्युट्—प्रत्यास्मरण,पुनःस्मरण
- अनुभवः—पुं॰—-—अनु+भू+अप्—साक्षात् प्रत्यक्ष ज्ञान,व्यक्तिगत निरीक्षण और प्रयोग से प्राप्त ज्ञान,मन के संस्कार जो स्मृतिजन्य न हों ज्ञान काएक भेद
- अनुभवः—पुं॰—-—अनु+भू+अप्—तजुर्बा
- अनुभवः—पुं॰—-—अनु+भू+अप्—समझ
- अनुभवः—पुं॰—-—अनु+भू+अप्—फल,परिणाम
- अनुभवसिद्ध—वि॰—अनुभव-सिद्ध—-—अनुभव द्वारा ज्ञात
- अनुभावः—पुं॰—-—अनु-भू+णिच्+घञ्—मर्यादा,व्यक्ति की मर्यादा या गौरव राजसी चमक दमक,वैभवशक्ति,बल,अधिकारअनुभाव
- अनुभावः—पुं॰—-—अनु-भू+णिच्+घञ्—दृष्टि,संकेत आदि उपयुक्त लक्षणों द्वारा भावना का प्रकट करना
- अनुभावः—पुं॰—-—अनु-भू+णिच्+घञ्—दृढ़ संकल्प विश्वास
- अनुभावक—वि॰—-—अन्+भू+णिच्+ण्वुल्—अनुभव कराने वाला,द्योतक
- अनुभावनम्—नपुं॰—-—अनु+भू+णिच्+ल्युट्—संकेत और इंगितों द्वारा भावनाओं का द्योतक
- अनुभाषणम्—नपुं॰—-—अनु+भाष्+ल्युट्—कही हुई बात को खंडन के लिए फिर से कहना
- अनुभाषणम्—नपुं॰—-—अनु+भाष्+ल्युट्—कही हुई बात की पुनरावृत्ति
- अनुभूतिः—पुं॰—-—-—साक्षात् प्रत्यक्ष ज्ञान,व्यक्तिगत निरीक्षण और प्रयोग से प्राप्त ज्ञान,मन के संस्कार जो स्मृतिजन्य न हों ज्ञान काएक भेद
- अनुभूतिः—पुं॰—-—-—तजुर्बा
- अनुभूतिः—पुं॰—-—-—समझ
- अनुभूतिः—पुं॰—-—-—फल,परिणाम
- अनुभोगः—पुं॰—-—अनु+भुज्+घञ्—उपभोग
- अनुभोगः—पुं॰—-—अनु+भुज्+घञ्—की हुई सेवा के बदले मिलने वाली माफी जमीन
- अनुभ्रातृ—पुं॰—-—-—छोटा भाई
- अनुमत—वि॰—-—अनु+मन्+क्त—सम्मत,अनुज्ञात,इजाजत दिया हुआ,स्वीकृत
- अनुमतगमना—स्त्री॰—अनुमत-गमना—-—जाने के लिए अनुज्ञप्त
- अनुमत—वि॰—-—अनु+मन्+क्त—चाहा हुआ,प्रिय
- अनुमतः—पुं॰—-—अनु+मन्+क्त—स्वीकृति,अनुमोदन,अनुज्ञप्ति
- अनुमतम्—नपुं॰—-—अनु+मन्+क्त—स्वीकृति,अनुमोदन,अनुज्ञप्ति
- अनुमतिः—स्त्री॰—-—मन्+क्तिन्—अनुज्ञा,स्वीकृति,अनुमोदन
- अनुमतिः—स्त्री॰—-—मन्+क्तिन्—चतुर्दशी युक्त पूर्णिमा
- अनुमतिपत्रम्—नपुं॰—अनुमति-पत्रम्—-—स्वीकृति सूचक पत्र या लेख
- अनुमननम्—नपुं॰—-—अनु+मन्+ल्युट्—स्वीकृति,रजामंदी
- अनुमननम्—नपुं॰—-—अनु+मन्+ल्युट्—स्वतंत्रता
- अनुमंत्रणम्—नपुं॰—-—अनु+मन्त्र+णिच्+ल्युट्—मंत्रों द्वारा आवाहन या प्रतिष्ठा
- अनुमरणम्—नपुं॰—-—अनु+मृ+ल्युट्—पीछे मरना, विधवा का सती होना
- अनुमा—पुं॰—-—मा+अङ्—अनुमिति,दिये हुए कारणों से अनुमान
- अनुमानम्—नपुं॰—-—अनु+मा+ल्युट्—अनुमिति के साधन द्वारा किसी और निर्णय पर पहुँचना,दिये हुए कारणों से अनुमान लगाना,अनुमान,उपसंहार,न्याय शास्त्र के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के चार साधनों में से एक
- अनुमानम्—नपुं॰—-—अनु+मा+ल्युट्—अटकल,अन्दाजा
- अनुमानम्—नपुं॰—-—अनु+मा+ल्युट्—सादृश्य
- अनुमानम्—नपुं॰—-—अनु+मा+ल्युट्—एक अलंकार जिसमें प्रमाण निर्धारित वस्तु का भाव अनोखे ढंग से प्रकट किया जाता है
- अनुमानोक्तिः—स्त्री॰—अनुमानम्-उक्तिः—-—तर्कना,तर्कसंगत अनुमान
- अनुमापक—वि॰—-—-—अनुमान कराने वाला ,जो अनुमान करने का आधार बन सके
- अनुमासः—पुं॰—-—-—आगामी महीना
- अनुमासम्—अव्य॰—-—-—प्रतिमास
- अनुमितिः—स्त्री॰—-—अनु+मा+क्तिन्—दिये हुए कारणों से किसी निर्णय पर पहुँचना,वह ज्ञान जो निगमन द्वारा या न्यायसंगत तर्क द्वारा प्राप्त हो
- अनुमेय—वि॰—-—अनु+मा+यत्—अनुमान के योग्य,अनुमान किया जाने वाला
- अनुमोदनम्—नपुं॰—-—अनु+मुद्+ल्युट्—सहमति,समर्थन,स्वीकृति,सम्मति
- अनुयाजः—पुं॰—-—अनु+यज्+घञ्—यज्ञीय अनुष्ठान का एक अंग,गौण या पूरक यज्ञानुष्ठान,[प्रायः’अनूयाजः’ लिखा जाता है ’अनुयाज्ञ’ भी।
- अनुयातृ—पुं॰—-—अनु+या+तृच्—अनुगामी
- अनुयात्रम्—नपुं॰—-—अनु+यातृ+अण् —परिजन,अनुचर वर्ग,सेवा करना,अनुसरण
- अनुयात्रा—स्त्री॰—-—अनु+यातृ+अण् स्त्रियां टाप्—परिजन,अनुचर वर्ग,सेवा करना,अनुसरण
- अनुयात्रिकः—पुं॰—-—अनुयात्रा+ठन्—अनुचर,सेवक
- अनुयानम्—नपुं॰—-—अनु+या+ल्युट्—अनुसरण
- अनुयायिन्—वि०—-—अनु+या+णिनि—अनुगामी,सेवक,अनुवर्ती
- अनुयायी—पुं॰—-—अनु+या+णिनि—पीछे चलने वाला
- अनुयोक्तृ—पुं॰—-—अनु+युज्+तृच्—परीक्षक,जिज्ञासु,अध्यापक
- अनुयोगः—पुं॰—-—अनु+युज्+घञ्—प्रश्न,पृच्छा,परीक्षा
- अनुयोगः—पुं॰—-—अनु+युज्+घञ्—निंदा,झिड़की
- अनुयोगः—पुं॰—-—अनु+युज्+घञ्—याचना
- अनुयोगः—पुं॰—-—अनु+युज्+घञ्—प्रयास
- अनुयोगः—पुं॰—-—अनु+युज्+घञ्—धार्मिक चिन्तन, टीका-टिप्पण
- अनुयोगकृत्—पुं॰—अनुयोग-कृत्—-—प्रश्नकर्ता
- अनुयोगकृत्—पुं॰—अनुयोग-कृत्—-—अध्यापक,अध्यात्म गुरु
- अनुयोजनम्—नपुं॰—-—अनु+युज्+ल्युट्—प्रश्न
- अनुयोजनम्—नपुं॰—-—अनु+युज्+ल्युट्—पॄच्छा
- अनुयोज्यः—पुं॰—-—अनु + युज् +ण्यत्—सेवक
- अनुरक्त—वि॰—-—अनु +रंज् +क्त—लाल किया हुआ, रंगीन
- अनुरक्त—वि॰—-—अनु +रंज् +क्त—प्रसन्न, संतुष्ट, निष्ठावान्
- अनुरक्तिः—स्त्री॰—-—अनु + रंज् +क्तिन् —प्रेम, आसक्ति, अनुराग, स्नेह
- अनुरंजक—वि॰—-—अनु + रंज् + ण्वुल् —प्रसन्न करने वाला, सन्तुष्ट करने वाला
- अनुरंजनम् —नपुं॰—-—अनु + रंज् + ल्युट् —संराधन, सन्तुष्ट करना,सुख देना,प्रसन्न करना,सन्तुष्ट रखना
- अनुरणनम् —नपुं॰—-—अनु + रण् + ल्युट् —अनुरूप लगना,नूपुर या घूंघरुओं की आवाज से उत्पन्न अनवरत प्रतिध्वनि
- अनुरणनम् —नपुं॰—-—अनु + रण् + ल्युट् —व्यंजना नामक शब्द शक्ति
- अनुरतिः —स्त्री॰—-—अनु + रम् +क्तिन् —प्रेम,आसक्ति
- अनुरथ्या —स्त्री॰, पुं॰—-—-—पगडंडी, उपमार्ग
- अनुरसः—पुं॰—-—-—गूंज, प्रतिध्वनि
- अनुरसितम्—नपुं॰—-—-—गूंज, प्रतिध्वनि
- अनुरहस—वि॰, पुं॰—-—-—गुप्त,एकान्तप्रिय,निजी
- अनुरहसम्—क्रि॰ वि॰—-—-—एकान्त में
- अनुरागः —पुं॰—-—अनु + रंज् + घञ्—लालिमा
- अनुरागः —पुं॰—-—अनु + रंज् + घञ्—भक्ति,आसक्ति,निष्ठा,प्रेम,स्नेह
- अनुरागेङ्गित—वि॰—अनुरागः-इङ्गित—-—संकेत या प्रेम को प्रकट करने वाला एक बाह्यसंकेत
- अनुरागिन् —वि॰—-—अनुराग+णिनि—आसक्त, प्रेम से उत्तेजित
- अनुरागवत् —वि॰—-—अनुराग+मतुप्—आसक्त, प्रेम से उत्तेजित
- अनुरात्रम्—क्रि॰ वि॰, अव्य॰ स॰—-—-—रात में, हर रात, प्रति रात्रि
- अनुराधा—पुं॰—-—-—२७ नक्षत्रों में से सतरहवाँ नक्षत्र, यह चार नक्षत्रों का समूह है
- अनुरूप—वि॰, पुं॰—-—-—सदॄश, मिलता-जुलता, तदनुरुप, योग्य
- अनुरूप—वि॰, पुं॰—-—-—उपयुक्त या योग्य,अनुकूल
- अनुरूपम्—क्रि॰ वि॰—-—-—समनुरूपता या अभिमति-पूर्वक
- अनुरूपतः—क्रि॰ वि॰—-—-—समनुरूपता या अभिमति-पूर्वक
- अनुरूपेण—क्रि॰ वि॰—-—-—समनुरूपता या अभिमति-पूर्वक
- अनुरूपशः—क्रि॰ वि॰—-—-—समनुरूपता या अभिमति-पूर्वक
- अनुरोधः—पुं॰—-—अनु+रूध्+घञ्—विनय, आराधना, इच्छापूर्ति करना
- अनुरोधः—पुं॰—-—अनु+रूध्+घञ्—समरूपता, आज्ञापालन,लिहाज, विचार
- अनुरोधः—पुं॰—-—अनु+रूध्+घञ्—आग्रहपूर्वक प्रार्थना, याचना, निवेदन
- अनुरोधः—पुं॰—-—अनु+रूध्+घञ्—नियम का पालन
- अनुरोधनम्—नपुं॰—-—अनु+रूध्+ल्युट् —विनय, आराधना, इच्छापूर्ति करना
- अनुरोधनम्—नपुं॰—-—अनु+रूध्+ल्युट् —समरूपता, आज्ञापालन,लिहाज, विचार
- अनुरोधनम्—नपुं॰—-—अनु+रूध्+ल्युट् —आग्रहपूर्वक प्रार्थना, याचना, निवेदन
- अनुरोधनम्—नपुं॰—-—अनु+रूध्+ल्युट् —नियम का पालन
- अनुरोधिन्—वि॰—-—अनुरोध+णिनि—विनयी
- अनुरोधक—वि॰—-—अनिरुध्+ण्वुल्—विनयी
- अनुलापः—पुं॰—-—अनु+लप्+घञ्—आवृत्ति,पुनरुक्ति
- अनुलासः—पुं॰—-—अनुलस्+घञ् —मोर
- अनुलास्यः—पुं॰—-—अनुलस्+घञ् —मोर
- अनुलेपः—पुं॰—-—अनु+लिप्+घञ्—अभिषेक,तेलमर्दन
- अनुलेपः—पुं॰—-—अनु+लिप्+ल्युट् —सुगंधित लेप,उबटन
- अनुलेपनम्—नपुं॰—-—अनु+लिप्+ल्युट् —अभिषेक,तेलमर्दन
- अनुलेपनम्—नपुं॰—-—अनु+लिप्+ल्युट् —सुगंधित लेप,उबटन
- अनुलोम—वि॰, पुं॰—-—-—बालों से'-ऊपर से नीचे की ओर आने वाला-नियमित, स्वाभाविक क्रमानुसार, अनुकूल
- अनुलोम—वि॰, पुं॰—-—-—मिश्रित
- अनुलोमम्—नपुं॰—-—-—स्वाभावित या नियमित क्रम में
- अनुलोमाः—पुं॰—-—-—मिश्रित जातियां
- अनुलोमार्थ—वि॰—अनुलोम-अर्थ—-—पक्ष में बोलनें वाला
- अनुलोमज—वि॰—अनुलोम-ज—-—ठीक क्रम में उत्पन्न, उच्चवर्ण के पिता तथा नीचवर्ण की माता से उत्पन्न सन्तान,मिश्रित जाति का
- अनुलोमजन्मन्—वि॰—अनुलोम-जन्मन्—-—ठीक क्रम में उत्पन्न, उच्चवर्ण के पिता तथा नीचवर्ण की माता से उत्पन्न सन्तान,मिश्रित जाति का
- अनुल्वण—वि॰—-—-—अधिक नहीं, न कम न अधिक
- अनुल्वण—वि॰—-—-—स्पष्ट या साफ नहीं ।
- अनुवंशः—पुं॰—-—-—वंशतालिका
- अनुवक्र—वि॰—-—-—अत्यंत टेढ़ा, कुछ टेढ़ा या तिरछा
- अनुवचनम् —नपुं॰—-—अनु+वच्+ल्युट्—आवॄत्ति, सस्वर पाठ, अध्यापन
- अनुवत्सरः —पुं॰—-—-—वर्ष
- अनुवर्तनम् —नपुं॰—-—अनु+वृत्+ णिनि—अनुगमन,अनुवर्तिता,आज्ञाकारिता,अनुरूपता
- अनुवर्तनम् —नपुं॰—-—अनु+वृत्+ णिनि—प्रसन्न करना,अनुग्रह करना
- अनुवर्तनम् —नपुं॰—-—अनु+वृत्+ णिनि—स्वीकृति
- अनुवर्तनम् —नपुं॰—-—अनु+वृत्+ णिनि—फल,परिणाम
- अनुवर्तनम् —नपुं॰—-—अनु+वृत्+ णिनि—पूर्वसूत्र से पूर्ति करना
- अनुवर्तिन्—वि॰—-—अनु+वृत्+ णिनि—अनुगामी, आज्ञाकारी
- अनुवर्तिन्—वि॰—-—अनु+वृत्+ णिनि—अनुरुप
- अनुवश—वि॰—-—-—दूसरे की इच्छा के अधीन, आज्ञाकारी
- अनुवशः—पुं॰—-—-—अधीनता,आज्ञाकारिता
- अनुवाकः —पुं॰—-—अनु+वच्+घञ्—आवॄत्ति करना
- अनुवाकः —पुं॰—-—अनु+वच्+घञ्—वेद के उपभाग , अनुभाग, अध्याय
- अनुवाचनम् —नपुं॰—-—अनु+वच्+णिच्+ल्युट् —सस्वर पाठ कराना, अध्यापन, शिक्षण
- अनुवाचनम् —नपुं॰—-—अनु+वच्+णिच्+ल्युट् —स्वयं पाठ करना
- अनुवातः —पुं॰—-—-—वह दिशा जिस ओर की हवा हो
- अनुवादः —पुं॰—-—अनु+वद्+घञ् —सामान्य रुप से आवॄत्ति
- अनुवादः —पुं॰—-—अनु+वद्+घञ् —व्याख्या उदाहरण, या समर्थन की दॄष्टि से आवॄत्ति
- अनुवादः —पुं॰—-—अनु+वद्+घञ् —व्याख्यात्मक आवॄत्ति या पूर्वकथित बात का उल्लेख,
- अनुवादः —पुं॰—-—अनु+वद्+घञ् —समर्थन
- अनुवादः —पुं॰—-—अनु+वद्+घञ् —विवरण,अफवाह
- अनुवादक—वि॰—-—अनु+वद्+ण्वुल्—व्याख्यापरक
- अनुवादक—वि॰—-—अनु+वद्+ण्वुल्—समरुप, समस्वर
- अनुवादिन्—वि॰—-—अनु+वद्+णिनि—व्याख्यापरक
- अनुवादिन्—वि॰—-—अनु+वद्+णिनि—समरुप, समस्वर
- अनुवाद्य—वि०—-—अनु+वद्+ णिच्+यत्—व्याख्येय, उदाहरणसापेक्ष
- अनुवाद्य—वि०—-—अनु+वद्+ णिच्+यत्—वाक्य में किसी उक्ति का कर्ता,-अनुवाद्यमनुक्त्वैव विधेयमुदीरयेत्
- अनुवारम् —अव्य॰—-—-—समय समय पर, बार बार, फिर दोबारा
- अनुवासः—पुं॰—-—अनु+वास्+घञ् —सामान्यतः धूप आदि सुगंधित द्रव्यों से सुवासित करना
- अनुवासः—पुं॰—-—अनु+वास्+घञ् —कपड़ों के किनारे डुबोकर सुगब्ंधित बनाना
- अनुवासः—पुं॰—-—अनु+वास्+घञ् —पिचकारी, तेल का एनिमा कर्ना, या स्निग्ध बनाना
- अनुवासनम्—नपुं॰—-—अनु+वास्+ ल्युट् —सामान्यतः धूप आदि सुगंधित द्रव्यों से सुवासित करना
- अनुवासनम्—नपुं॰—-—अनु+वास्+ ल्युट् —कपड़ों के किनारे डुबोकर सुगब्ंधित बनाना
- अनुवासनम्—नपुं॰—-—अनु+वास्+ ल्युट् —पिचकारी, तेल का एनिमा कर्ना, या स्निग्ध बनाना
- अनुवासित —वि॰—-—अनु+वास्+क्त—धूपित, धूनी दिया हुआ, सुगन्धित किया हुआ
- अनुवित्तिः —वि॰—-—अनु+विद्+क्तिन्—निष्कर्ष, प्राप्ति
- अनुविद्ध—वि॰—-—अनु+व्यध्+क्त—छिदा हुआ सुराख किया हुआ
- अनुविद्ध—वि॰—-—अनु+व्यध्+क्त—ऊपर फैला हुआ, अन्तर्जटित, पूर्ण, व्याप्त, मिश्रित, मिलावटवाला, अन्तर्मिश्रित
- अनुविद्ध—वि॰—-—अनु+व्यध्+क्त—संयुक्त, स्अम्बद्ध
- अनुविद्ध—वि॰—-—अनु+व्यध्+क्त—स्थापित, जरा हुआ, चित्रित
- अनुविधानम्—नपुं॰—-—अनु+ वि+धा+ल्युट्—आज्ञाकारिता
- अनुविधानम्—नपुं॰—-—अनु+ वि+धा+ल्युट्—आदेशादि के अनुरुप कार्य करना
- अनविधायिन् —वि॰—-—अनु+वि०+धा+णिनि—आज्ञाकारी, विनीत
- अनुविनाशः —पुं॰—-—अनु+ वि०+नश्+घञ्—बाद में नष्ट होना
- अनुविष्टंभः—पुं॰—-—अनु+ वि०+स्तंभ्+घञ्—फलस्वरुप बाधा का होना
- अनुवृत्त—वि॰—-—अनु+वृत्+क्त —आज्ञाकारी, अनुगामी
- अनुवृत्त—वि॰—-—अनु+वृत्+क्त —अबाध, निरन्तर
- अनुवृत्तिः —स्त्री॰—-—अनु+वृत्+क्तिन् —स्वीकृति
- अनुवृत्तिः —स्त्री॰—-—अनु+वृत्+क्तिन् —आज्ञाकारिता, अनुरुपता, अनुगामिता, नैरन्तर्य
- अनुवृत्तिः —स्त्री॰—-—अनु+वृत्+क्तिन् —अनुकूल या उपयुक्त कार्य करना, आज्ञापालन, मौन सहमति, सन्तुष्ट करना, प्रसन्न करना
- अनुवृत्तिः —स्त्री॰—-—अनु+वृत्+क्तिन् —(व्या०)आगामी नियम में पिछले नियम की पुनरुक्ति या पूर्ति ,पिछले नियम का आगामी नियम पर निरन्तर प्रभाव
- अनुवृत्तिः —स्त्री॰—-—अनु+वृत्+क्तिन् —पुनरुक्ति
- अनुवेलम्—अव्य॰—-—-—कभी-कभी, बारंबार
- अनुवेशः—पुं॰—-—अनु+ विश्+घञ्,ल्युट् वा—अनुगमन, बाद में दाखिल होना
- अनुवेशः—पुं॰—-—अनु+ विश्+घञ्,ल्युट् वा—बड़े भाई के विवाह से पहले छोटे भाई का विवाह
- अनुवेशनम्—नपुं॰—-—अनु+ विश्+घञ्,ल्युट् वा—अनुगमन, बाद में दाखिल होना
- अनुवेशनम्—नपुं॰—-—अनु+ विश्+घञ्,ल्युट् वा—बड़े भाई के विवाह से पहले छोटे भाई का विवाह
- अनुव्यंजनम् —नपुं॰—-—अनु+ वि+अंज्+ल्युट् —गौण लक्षण या चिन्ह
- अनुव्यवसायः—पुं॰—-—अनु+ वि+अव+सै+घञ्— प्रत्यक्ष का बोध या चेतना, मनोभाव या निर्णय का प्रत्यक्षीकरण ।
- अनुव्याधः—पुं॰—-—अनु+व्यध्+घञ्,विध्+घञ् वा —चोट पहुँचाना,छेदना, सूराख करना
- अनुव्याधः—पुं॰—-—अनु+व्यध्+घञ्,विध्+घञ् वा —संपर्क,मेल
- अनुव्याधः—पुं॰—-—अनु+व्यध्+घञ्,विध्+घञ् वा —मिश्रण
- अनुव्याधः—पुं॰—-—अनु+व्यध्+घञ्,विध्+घञ् वा —बाधा डालना
- अनुवेधः—पुं॰—-—अनु+व्यध्+घञ्,विध्+घञ् वा —चोट पहुँचाना,छेदना, सूराख करना
- अनुवेधः—पुं॰—-—अनु+व्यध्+घञ्,विध्+घञ् वा —संपर्क,मेल
- अनुवेधः—पुं॰—-—अनु+व्यध्+घञ्,विध्+घञ् वा —मिश्रण
- अनुवेधः—पुं॰—-—अनु+व्यध्+घञ्,विध्+घञ् वा —बाधा डालना
- अनुव्याहरणम्—नपुं॰—-—अनुव्या+हृ+ल्युट्,घञ् वा—पुनरुक्ति, बारंबार कथन
- अनुव्याहरणम्—पुं॰—-—अनुव्या+हृ+ल्युट्,घञ् वा—अभिशाप, कोसना
- अनुव्याहारः—पुं॰—-—अनुव्या+हृ+ल्युट्,घञ् वा—पुनरुक्ति, बारंबार कथन
- अनुव्याहारः—पुं॰—-—अनुव्या+हृ+ल्युट्,घञ् वा—अभिशाप, कोसना
- अनुव्रजनम्—नपुं॰—-—अनु+व्रज्+ल्युट्—अनुसरण, अनुगमन,
- अनुव्रज्या—स्त्री॰—-—अनु+व्रज्+क्यप्+टाप् —अनुसरण, अनुगमन,
- अनुव्रत—वि॰ —-—-—भक्त, निष्ठावान्,संलग्न
- अनुशतिक—वि॰ —-—अनु+शत+ठन् — सौ के साथ या सौ में मोल लिया हुआ
- अनुशयः —पुं॰—-—अनु+शी+अच् —पश्चात्ताप, मनस्ताप, खेद, रंज
- अनुशयः —पुं॰—-—अनु+शी+अच् —अति वैर या क्रोध
- अनुशयः —पुं॰—-—अनु+शी+अच् —घृणा
- अनुशयः —पुं॰—-—अनु+शी+अच् —गहरा संबन्ध, जैसा कि क्रमागत,गहन आसक्ति
- अनुशयः —पुं॰—-—अनु+शी+अच् —दुष्कर्मों का परिणाम या फल जो कि उनके साथ संयुक्त रहता है और पुनर्जन्म से अस्थायी मुक्ति का उपभोग कराके फिर जीव को शरीरों में प्रविष्ट करता है
- अनुशयः —पुं॰—-—अनु+शी+अच् —क्रय के मामलों में खेद जिसे पारिभाषिक रूप में `उत्सादन' कहते हैं
- अनुशयान—वि॰—-—अनु+शी+शानच्—खेद प्रकट करता हुआ,
- अनुशयाना—स्त्री॰—-—अनु+शी+शानच्+टाप्—नायिका का एक भेद,यह नायिका अपने प्रेमी के वियोग का खयाल करके उदास और खिन्न रहती है
- अनुशयिन्—वि॰—-—अनुशय+णिनि—अनुरक्त, भक्त, श्रद्धालु
- अनुशयिन्—वि॰—-—अनुशय+णिनि—पश्चात्तप करने वाला, पछतानेवाला
- अनुशयिन्—वि॰—-—अनुशय+णिनि—अत्यधिक घॄणा करने वाला
- अनुशयिन्—वि॰—-—अनुशय+णिनि—मानों किसी फल के कारण संबद्ध
- अनुशरः—पुं॰—-—अनु+शृ+अच्—भूत प्रेत, राक्षस
- अनुशासक—वि॰—-—अनु+शास्+ण्वुल् —निदेशक, शिक्षक, शासन करने वाला, दंड देने वाला
- अनुशासिन्—वि॰—-—अनु+शास्+णिनि —निदेशक, शिक्षक, शासन करने वाला, दंड देने वाला
- अनुशास्तृ—वि॰—-—अनु+शास्+ तॄच् —निदेशक, शिक्षक, शासन करने वाला, दंड देने वाला
- अनुशासितृ—वि॰—-—अनु+शास्+ तॄच् —निदेशक, शिक्षक, शासन करने वाला, दंड देने वाला
- अनुशासनम्—पुं॰—-—अनु+शास्+ल्युट् —आदेश, प्रोत्साहन, शिक्षण, नियमों विधियों का बनाना,नामर्मिगं,संज्ञाओं के लिंग संबंधी नियमों का निर्धारण तथा व्याख्य-शब्दानुशासनम्-सिद्धा० ।
- नामलिङ्गानुशासनम्—नपुं॰—नामलिङ्ग-अनुशासनम्—-—संज्ञाओं के लिंग संबंधी नियमों का निर्धारण तथा व्याख्या
- अनुशिक्षिन्—पुं॰—-—अनुशिक्ष्+णिनि—क्रियाशील, सीखने वाला
- अनुशिष्टिः —स्त्री॰—-—अनुशास्+क्तिन् —शिक्षण, अध्यापन, आदेश, आज्ञा
- अनुशीलनम्—नपुं॰—-—अनु+शील्+ल्युट् —अभिप्रेत तथा श्रमपूर्ण प्रयोग, सतत प्रयत्न या अभ्यास, सतत या बारंवार अभ्यास या अध्ययन
- अनुशोकः,—पुं॰—-—अनु+शुच्+घञ् —रंज, पश्चाताप, खेद
- अनुशोचनम्—नपुं॰—-—अनु+शुच्+ल्युट् —रंज, पश्चाताप, खेद
- अनुश्रवः —पुं॰—-—अनु+श्रु+अच्—वैदिक परंपरा
- अनुषक्त —वि॰—-—अनु+ षंज्+क्त—संबद्ध
- अनुषक्त —वि॰—-—अनु+ षंज्+क्त—संलग्न या संसक्त
- अनुषङ्गः —पुं॰—-—अनु+ षंज्+घञ्—गहन लगाव, संबंध, संयोग, साहचर्य
- अनुषङ्गः —पुं॰—-—अनु+ षंज्+घञ्—मेल
- अनुषङ्गः —पुं॰—-—अनु+ षंज्+घञ्—शब्दों का पारस्परिक संबंध
- अनुषङ्गः —पुं॰—-—अनु+ षंज्+घञ्—आवश्यक परिमाण
- अनुषङ्गः —पुं॰—-—अनु+ षंज्+घञ्—दया,तरस
- अनुषाङ्गिक —वि॰—-—अनुषंग-ठ—अनिवार्य फलस्वरुप, सहवर्ती
- अनुषाङ्गिन्—वि॰—-—अनु+ षंज्+णिनि —संबद्ध, अनुरक्त, संसक्त
- अनुषाङ्गिन्—वि॰—-—अनु+ षंज्+णिनि —अनिवार्य परिणाम के रुप में आने वाला
- अनुषाङ्गिन्—वि॰—-—अनु+ षंज्+णिनि —व्यावहारिक, सामान्य, छा जाने वाला
- अनुषञ्जनीय—वि॰—-—अनु+ षंज्+अनीय — पूर्ववाक्य से ग्राह्य
- अनुषेकः—पुं॰—-—अनु+सिच्+घञ्—दोबारा पानी देना, फिर से जल छिड़कना
- अनुसेचनम्—नपुं॰—-—अनु+सिच्+ल्युट् —दोबारा पानी देना, फिर से जल छिड़कना
- अनुष्टुतिः—स्त्री॰—-—अनु+स्तु+क्तिन्—प्रशंसा, सिफारिश
- अनुष्टुभ्—स्त्री॰—-—अनु+स्तुभ्+क्विप् —प्रशंसा में अनुगमन, वाणी
- अनुष्टुभ्—स्त्री॰—-—अनु+स्तुभ्+क्विप् —सरस्वती
- अनुष्टुभ्—स्त्री॰—-—अनु+स्तुभ्+क्विप् —बत्तीस अक्षरों का एक छंद जिसमें आठ २ अक्षरों के चार-चार पाद होते हैं
- अनुष्ठातृ—वि॰—-—अनु+स्था+तृच्—कार्य करने वाला, अनुष्ठान करने वाला
- अनुशष्ठायिन्—वि॰—-—अनु+स्था+णिनि—कार्य करने वाला, अनुष्ठान करने वाला
- अनुष्ठानम्—नपुं॰—-—अनु+स्था+ल्युट् —कार्य करना, धर्मकृत्य करना, कार्य में परिणत करना,कार्यनिष्पादन,आज्ञापालन
- अनुष्ठानम्—नपुं॰—-—अनु+स्था+ल्युट् —आरंभ,उत्तरदायित्व,कार्य में व्यस्तता
- अनुष्ठानम्—नपुं॰—-—अनु+स्था+ल्युट् —आचरणपद्धति,कार्यपद्धति
- अनुष्ठानम्—नपुं॰—-—अनु+स्था+ल्युट् —धार्मिक संस्कारों या कृत्यों का प्रयोग
- अनुष्ठापनम्—नपुं॰—-—अनु+स्था+णिच्+ल्युट् —कार्य कराना
- अनुष्ण—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो गर्म न हो, ठंडा
- अनुष्ण—वि॰, न॰ त॰—-—-—वीतराग, सुस्त, शिथिल
- अनुष्णः—पुं॰—-—-—शीतस्पर्श
- अनुष्णम्—नपुं॰—-—-—कुमुद,नील कमल
- अनुष्यन्दः —पुं॰—-—अनु+स्यन्द्+घञ्—पिछला पहिया
- अनुसन्धानम् —नपुं॰—-—अनुसम्+धा+ल्युट् —पृच्छा, गवेषण, गहन निरीक्षण या परीक्षण, जांच
- अनुसन्धानम् —नपुं॰—-—अनुसम्+धा+ल्युट् —उद्देश्य
- अनुसन्धानम् —नपुं॰—-—अनुसम्+धा+ल्युट् —योजना, क्रमबद्ध करना, तत्पर होना
- अनुसन्धानम् —नपुं॰—-—अनुसम्+धा+ल्युट् —उपयुक्त संयोग
- अनुसंहित—वि॰—-—अनु+सम्+धा+क्त—पूछताछ किया गया, जांच पड़ताल किया गया
- अनुसंहितम्—नपुं॰—-—-—संहिता-पाठ में, संहिता-पाठ के अनुसार
- अनुसमयः—पुं॰—-—-—नियमित और उचित संयोग जैसे कि शब्दों का
- अनुसमापनम्—नपुं॰—-—अनु+सम्+आप्+ल्युट्—नियमितरूप से किसी कार्य की समाप्ति
- अनुसम्बद्ध—वि॰—-—अनु+सम्+बंध्+क्त—संयुक्त
- अनुसरः —पुं॰—-—अनु+सृ+अच्—अनुगामी, साथी, अनुचर
- अनुसरणम् —नपुं॰—-—अनु+सृ+ल्युट् —अनुगमन, पीछा करना, पीछे जाना
- अनुसरणम् —नपुं॰—-—अनु+सृ+ल्युट् —समनुरूपता
- अनुसर्पः—पुं॰—-—अनु+सृप्+अच्—सर्पसदृश जन्तु, सरीसॄप्
- अनुसवनम्—अव्य॰—-—-—यज्ञ के पश्चात्
- अनुसवनम्—अव्य॰—-—-—प्रत्येक यज्ञ में
- अनुसवनम्—अव्य॰—-—-—प्रतिक्षण
- अनुसाम—वि॰—-—-—मनाया हुआ, मित्र सदृश, अनुकूल
- अनुसायम्—अव्य॰—-—-—प्रति सांयकाल
- अनुसूचनम्—नपुं॰—-—अनु+सूच्+ल्युट्—संकेत करना, इशारा करना
- अनुसारः —पुं॰—-—अनु+सृ+घञ्—पीछे जाना, अनुगमन ,पीछा करना
- अनुसारः —पुं॰—-—अनु+सृ+घञ्—समनुरूपता,के अनुसार,प्रयोग के अनुरूप
- अनुसारः —पुं॰—-—अनु+सृ+घञ्—प्रथा,रिवाज,रस्म
- अनुसारः —पुं॰—-—अनु+सृ+घञ्—माना हुआ अधिकार
- अनुसारक—वि॰—-—अनु+सृ+ण्वुल् —अनुगामी, पीछा करने वाला, पीछे जाने वाला, सेवा करने वाला
- अनुसारक—वि॰—-—अनु+सृ+ण्वुल् —के अनुकूल या समनुरूप,बाद में आने वाला
- अनुसारक—वि॰—-—अनु+सृ+ण्वुल् —तलाश करना,ढ़ूंढ़ना,खोजना,जाँच करना
- अनुसारिन्—वि॰—-—अनु+सृ+णिनि —अनुगामी, पीछा करने वाला, पीछे जाने वाला, सेवा करने वाला
- अनुसारिन्—वि॰—-—अनु+सृ+णिनि —के अनुकूल या समनुरूप,बाद में आने वाला
- अनुसारिन्—वि॰—-—अनु+सृ+णिनि —तलाश करना,ढ़ूंढ़ना,खोजना,जाँच करना
- अनुसारणा —स्त्री॰—-—अनु+सृ+ णिच्+यच्+टाप्—पीछे जाना, पीछा करना
- अनुसूचक—वि॰—-—अनु+सूच्+ण्वुल्—संकेत करने वाला, इशारा करने वाला
- अनुसृतिः—स्त्री॰—-—अनु+सृ+क्तिन्—पीछे जाना, अनुगमन, अनुरुप होना, अनुसार होना
- अनुसैन्यम् —नपुं॰—-—-—सेना का पिछला भाग, अनुरक्षक सेना
- अनुस्कन्दम्—नपुं॰—-—-—क्रमशः प्रविष्ट होकर क्रमानुसार अन्दर जाकर
- अनुस्तरणम्—नपुं॰—-—अनु+स्तृ+ल्युट् —चारों ओर बखेरना या फैलाना
- अनुस्तरणी—स्त्री॰—-—अनु+स्तृ+ल्युट्+ङीप्—गाय,विशेषतया वह गाय जिसका बलिदान अंत्येष्ट संस्कार के समय किया जाय
- अनुस्मरणम् —नपुं॰—-—अनु+स्मृ+ल्युट् —फिर से ध्यान में लाना, स्मरण करना
- अनुस्मरणम् —नपुं॰—-—अनु+स्मृ+ल्युट् —बारंबार स्मरण करना
- अनुस्मृतिः —स्त्री॰—-—अनु+स्मृ+क्तिन्—वह स्मृति या स्मरण जो प्रिय हो
- अनुस्मृतिः —स्त्री॰—-—अनु+स्मृ+क्तिन्—अन्य विषयों को छोड़कर केवल एक ही बात का चिन्तन करना
- अनुस्यूत—वि०—-—अनु+सिव्+क्त्-ऊठ्—नियमित तथा निर्बाध रुप से मिला कर वुना हुआ
- अनुस्यूत—वि०—-—अनु+सिव्+क्त्-ऊठ्—सिला हुआ, बंधा हुआ
- अनुस्यूत—वि०—-—अनु+सिव्+क्त्-ऊठ्—सुपक्त और सुश्रॄंखलित ।
- अनुस्वानः—पुं॰—-—अनु+स्वन्+घञ् —अनुरुप शब्द करना
- अनुस्वानः—पुं॰—-—अनु+स्वन्+घञ् —बाद में शब्द करना, गूंज
- अनुस्वारः —पुं॰—-—अनु+स्वृ+घञ्—नासिक्य ध्वनि जो पंक्ति के ऊपर एक बिंदु लगा कर प्रकट की जाती है और जो सदैव पूर्ववर्ती स्वर से संबद्ध होती है
- अनुहरणम्—नपुं॰—-—अनु+हृ+ल्युट्—नकल, मिलना-जुलना, समानता
- अनुहारः—पुं॰—-—अनु+हृ+घञ् —नकल, मिलना-जुलना, समानता
- अनूकः—पुं॰—-—अनु+उच्+क, कुत्वम् नि॰—कुल, वंश
- अनूकः—पुं॰—-—अनु+उच्+क, कुत्वम् नि॰—मनोवृत्ति, स्वभाव, चरित्र, वंश की विशेषता
- अनूकम्—नपुं॰—-—अनु+उच्+क, कुत्वम् नि॰—कुल, वंश
- अनूकम्—नपुं॰—-—अनु+उच्+क, कुत्वम् नि॰—मनोवृत्ति, स्वभाव, चरित्र, वंश की विशेषता
- अनूचान—वि॰—-—अनु+वच्+कान नि॰—अध्ययनशील, विद्वान् विशेषतया वेद, वेदांगों में ऐसा पारंगत विद्वान् जो उन्हें सुना सके और पढ़ा सके
- अनूचान—वि॰—-—अनु+वच्+कान नि॰—सुशील
- अनूचानः—पुं॰—-—अनु+वच्+कान नि॰—अध्ययनशील, विद्वान् विशेषतया वेद, वेदांगों में ऐसा पारंगत विद्वान् जो उन्हें सुना सके और पढ़ा सके
- अनूचानः—पुं॰—-—अनु+वच्+कान नि॰—सुशील
- अनुढ—वि॰, न॰ त॰—-—-—न ले जाया गया
- अनुढ—वि॰, न॰ त॰—-—-—अविवाहित
- अनूढा—स्त्री॰—-—-—अविवाहित स्त्री
- अनुढमान—वि॰—अनुढ-मान—-—लज्जालु
- अनुढगमनम्—नपुं॰—अनुढ-गमनम्—-—कुमारी कन्या से संभोग
- अनुढभ्राता—पुं॰—अनुढ-भ्राता—-—अविवाहित स्त्री का भाई
- अनुढभ्राता—पुं॰—अनुढ-भ्राता—-—राजा की उपपत्नी का भाई
- अनूदकम् —नपुं॰—-—उदकस्य अभावः—जल का अभाव, सूखा पड़ना
- अनूद्देशः —पुं॰—-—अनु+उत्+दिश्+घञ्—सापेक्ष क्रम एक अलंकार का नाम जिसमें कि यथा क्रम पूर्ववर्ती शब्दों का उल्लेख होता है
- अनून —वि॰, न॰ त॰—-—-—जो घटिया न हो, कम न हो, अभाव वाला न हो
- अनून —वि॰, न॰ त॰—-—-—पूर्ण,समस्त,सकल,बड़ा,महान्
- अनूप—वि॰—-—अनु+अप्+अच्—जलीय, जलबहुल अथवा दलदल वाला प्रदेश
- अनूपः—पुं॰—-—अनु+अप्+अच्—जलबहुल स्थान या देश
- अनूपः—पुं॰—-—अनु+अप्+अच्—एक देश का नाम
- अनूपः—पुं॰—-—अनु+अप्+अच्—दलदल,कीचड़
- अनूपः—पुं॰—-—अनु+अप्+अच्—पानी का तालाब
- अनूपः—पुं॰—-—अनु+अप्+अच्—नदी का किनारा,पर्वत का पहलू
- अनूपः—पुं॰—-—अनु+अप्+अच्—भैंस
- अनूपः—पुं॰—-—अनु+अप्+अच्—मेंढक
- अनूपः—पुं॰—-—अनु+अप्+अच्—एक प्रकार का तीतर
- अनूपः—पुं॰—-—अनु+अप्+अच्—हाथी
- अनूपम्—नपुं॰—-—अनु+अप्+अच्—जलबहुल स्थान या देश
- अनूपम्—नपुं॰—-—अनु+अप्+अच्—एक देश का नाम
- अनूपम्—नपुं॰—-—अनु+अप्+अच्—दलदल,कीचड़
- अनूपम्—नपुं॰—-—अनु+अप्+अच्—पानी का तालाब
- अनूपम्—नपुं॰—-—अनु+अप्+अच्—नदी का किनारा,पर्वत का पहलू
- अनूपम्—नपुं॰—-—अनु+अप्+अच्—भैंस
- अनूपम्—नपुं॰—-—अनु+अप्+अच्—मेंढक
- अनूपम्—नपुं॰—-—अनु+अप्+अच्—एक प्रकार का तीतर
- अनूपम्—नपुं॰—-—अनु+अप्+अच्—हाथी
- अनूपजम्—नपुं॰—अनूप-जम्—-—आर्द्र,अदरक
- अनूपप्राय—वि॰—अनुप-प्राय—-—दलदल वाला,कीचड़ से भरा हुआ
- अनूराधा—स्त्री॰—-—-—अनुयाज, अनुराधा
- अनूरु—वि॰, न॰ ब॰—-—-—जिसके जंघा न हो
- अनुरुः—पुं॰—-—-—सूर्य का सारथि अरुणउषा
- अनुरुसारथि—वि॰—अनुरु-सारथि—-—सूर्य,
- अनूर्जित—वि॰ —-—-—अशक्त, दुर्बल, शक्तिहीन
- अनूर्जित—वि॰ —-—-—दर्परहित
- अनूषर —वि॰ —-—-—रेहीला, बंजर जैसी
- अनूषर —वि॰ —-—-—जिसमें रेह न हो
- अनृच्—वि॰ , न॰ ब॰—-—-—बिना ॠचा का
- अनृच्—वि॰ , न॰ ब॰—-—-—जो ॠग्वेद का ज्ञाता न हो, या ॠग्वेद का अध्येता न हो,यज्ञोपवीत न होने के कारण जिसे वेदाध्ययन का अधिकार न हो
- अनृच—वि॰ , न॰ ब॰—-—-—बिना ॠचा का
- अनृच—वि॰ , न॰ ब॰—-—-—जो ॠग्वेद का ज्ञाता न हो, या ॠग्वेद का अध्येता न हो,यज्ञोपवीत न होने के कारण जिसे वेदाध्ययन का अधिकार न हो
- अनृजु—वि॰—-—-—जो सरल न हो्, कुटिल, अयोग्य, दुष्ट, बेईमान
- अनृणं —वि॰—-—-—जो कर्जदार न हो
- अनृणिन्—वि॰, न॰ त॰—-—-—अनृण
- अनृत—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो सत्य न हो,
- अनृतम्—नपुं॰—-—-—असत्यता,झठ बोलना, धोखा,जालसाजी
- अनृतम्—नपुं॰—-—-—कृषि
- अनृतवदनम्—नपुं॰—अनृत-वदनम्—-—झूठ कहना,मिथ्या भाषण
- अनृतभाषणम्—नपुं॰—अनृत-भाषणम्—-—झूठ कहना,मिथ्या भाषण
- अनृताख्यानम्—नपुं॰—अनृत-आख्यानम्—-—झूठ कहना,मिथ्या भाषण
- अनृतवादिन्—वि॰—अनृत-वादिन्—-—झूठ बोलने वाला
- अनृतवाच्—वि॰—अनृत-वाच्—-—झूठ बोलने वाला
- अनृतव्रत—वि॰—अनृत-व्रत—-—अपने वचन या प्रतिज्ञा का पालना न करने वाला
- अनृतुः —पुं॰—-—-—अनुपयुक्त ॠतु, अनुचित समय, असमय
- अनृतुकन्या—स्त्री॰—अनृतु-कन्या—-—वह कन्या जो रजस्वला न हुई हो
- अनेक—वि॰, न॰ त॰—-— —जो एक न हो, एक से अधिक, बहुत से
- अनेक—वि॰, न॰ त॰—-—-—अलग-अलग, भिन्न भिन्न
- अनेकाक्षर—वि॰—अनेक-अक्षर—-—एक से अधिक अक्षर या स्वर वाला, नाना अक्षर सहित
- अनेकाच्—वि॰—अनेक-अच्—-—एक से अधिक अक्षर या स्वर वाला, नाना अक्षर सहित
- अनेकान्त—वि॰—अनेक-न्त—-—अनिश्चित, संदिग्ध
- अनेकान्त—वि॰, न॰त॰—अनेक-न्त—-— अस्थिर,जो बहुत आवश्यक न हो।
- अनेकान्त—वि॰, न॰त॰—अनेक-न्त—-—हेत्वाभास के मुख्य पाँच भागों मे से एक,
- अनेकान्तः—पुं॰—अनेक-अन्तः—-—अनिश्चित अवस्था, स्थायित्व का अभाव
- अनेकान्तः—पुं॰—अनेक-अन्तः—-—अनिश्चितता, अनावश्यक अंश, जैसे कि कई 'अनुबंध'
- अनेकवादः—पुं॰—अनेक-वादः—-—संशयवाद, स्यादवाद
- अनेकवादी—पुं॰—अनेक-वादिन्—-—स्याद्वादी, जैनियों के स्याद्वाद को मानने वाला
- अनेकार्थ—वि॰—अनेक-अर्थ—-—एक से अधिक अर्थ वाला , समनाम जैसे कि गो, अमृत, अक्ष आदि
- अनेकार्थ—वि॰—अनेक-अर्थ—-—अनेक' शब्द के एक अर्थ वाला
- अनेकार्थः—पुं॰—अनेक-अर्थः—-—पदार्थों का बाहुल्य, विषयों की विविधता
- अनेकाआश्रय—वि॰—अनेक-आश्रय—-—एक से अधिक स्थानों पर रहने वाला
- अनेकाआश्रित—वि॰—अनेक-आश्रित—-—एक से अधिक स्थानों पर रहने वाला
- अनेकगुण—वि॰—अनेक-गुण—-—बहुत प्रकार का, विविध प्रकार का, विभिन्न भेदों का
- अनेकगोत्र—वि॰—अनेक-गोत्र—-—दो कुलों से संबंध रखने वाला, एक तो अपने कुल से तथा गोद लिये जाने पर गोद लेने वाले पिता के कुल से
- अनेकचित्त—वि॰—अनेक-चित्त—-—चंचलमना
- अनेकज—वि॰—अनेक-ज—-—एक से अधिक बार उत्पन्न
- अनेकजः—पुं॰—अनेक-जः—-—पक्षी
- अनेकपः—पुं॰—अनेक-पः—-—हाथी
- अनेकमुख—वि॰—अनेक-मुख—-—बहत मुंह वाला
- अनेकमुख—वि॰—अनेक-मुख—-—तितर बितर, बहुत सी दिशाओं में फैलने वाला
- अनेकयुद्धविजयिन्—वि॰—अनेक-युद्धविजयिन्—-—बहुत से युद्धों का विजेता
- अनेकविजयिन्—वि॰—अनेक-विजयिन्—-—बहुत से युद्धों का विजेता
- अनेकरूप—वि॰—अनेक-रूप—-—नाना रूपों का, बहुत रूपों वाला
- अनेकरूप—वि॰—अनेक-रूप—-—नाना प्रकार का
- अनेकरूप—वि॰—अनेक-रूप—-—चंचल, परिवर्तनीय विविध स्वभाव वाला
- अनेकलोचनः— पुं॰—अनेक-लोचनः—-—शिवजी, इन्द्र
- अनेकवचनम्—नपुं॰—अनेक-वचनम्—-—बहुवचन, द्विवचन
- अनेकवर्ण—वि॰—अनेक-वर्ण—-—एक से अधिक राशियों वाला
- अनेकविध—वि॰—अनेक-विध—-—विविध, विभिन्न
- अनेकशफ—वि॰—अनेक-शफ—-—फटे हुए खुरों वाला
- अनेकसाधारण—वि॰—अनेक-साधारण—-—बहुतों के लिए सामान्य
- अनेकधा —अव्य॰—-—नञ्+एक+धा—विविध रीति से नाना प्रकार से
- अनेकशः —अव्य॰—-—-—कई बार, बारंबार
- अनेकशः —अव्य॰—-—-—विविध रीति से
- अनेकशः —अव्य॰—-—-—बड़ी संख्या में या बड़े परिमाण में
- अनेडः —पुं॰—-—न एडः—मूर्ख पुरुष, अज्ञानी व्यक्ति, मूढ़
- अनेडमूक—वि॰—अनेडः-मूक—-—गूंगा और वहरा
- अनेडमूक—वि॰—अनेडः-मूक—-—अंधा
- अनेडमूक—वि॰—अनेडः-मूक—-—बेईमान दुष्ट,दुःशील
- अनेनस् —वि॰, न॰ ब॰—-—-—निष्पाप, कलंकरहित
- अनेहस्—पुं॰—-—न हन्यते-हन्+असि धातोःएहादेशः-नञ्+एह+अस् —समय , काल
- अनैकांत—वि॰, न॰ त॰—-—-—परिवर्त्य, अनिश्चित, अस्थिर, सामयिक
- अनैकांतिक—वि॰, न॰त॰—-—नञ्+एकांत+ठक्— अस्थिर,जो बहुत आवश्यक न हो।
- अनैकांतिक—वि॰, न॰त॰—-—नञ्+एकांत+ठक्—हेत्वाभास के मुख्य पाँच भागों मे से एक,
- अनैक्यम् —नपुं॰—-—-—एकता का अभाव, बहुवचनता
- अनैक्यम् —नपुं॰—-—-—एकत्व की कमी, अव्यवस्था
- अनैक्यम् —नपुं॰—-—-—अशान्ति, अराजकता
- अनैतिह्यम्—नपुं॰—-—-—परंपरागत प्रामाणिकता का अभाव, या जहां इस प्रकार की स्वीकृति अपेक्षित है
- अनो—अव्य॰, न॰ त॰ —-—-—नहीं, न ।
- अनोकशायी —पुं॰—-—-—घर में न सोने वाला, भिक्षूक
- अनोकहः —पुं॰—-—अनसः शकटस्य अकं गति हन्ति-हन् +ड—वृक्ष
- अनौचित्यम्—नपुं॰—-—नञ्+उचित+ष्यञ्—अनुपयुक्तता,अनुचितता
- अनौजस्यम्—नपुं॰—-—नञ्+ओजस्+ष्यञ् —शक्ति सामर्थ्य या बल का अभाव
- अनौद्धत्यम्—नपुं॰—-—नञ्+उद्धत+ष्यञ् —अहंकार से मुक्ति, शालीनता, विनय
- अनौद्धत्यम्—नपुं॰—-—नञ्+उद्धत+ष्यञ् —शान्ति
- अनौरस—वि॰, न॰ त॰—-—-—जो औरस-अर्थात् विवाहिता पत्नी से उत्पन्न न हो, अपना भी न हो, गोद लिया हुआ
- अन्त—वि॰—-—अम्+तन्—निकट
- अन्त—वि॰—-—अम्+तन्—अन्तिम
- अन्त—वि॰—-—अम्+तन्—सुन्दर, मनोहर
- अन्त—वि॰—-—अम्+तन्—नीचतम, निकृष्टतम
- अन्त—वि॰—-—अम्+तन्—सबसे छोटा
- अन्तः—वि॰—-—अम्+तन्—छोर, मर्यादा, सीमा, चरम सीमा, अन्तिम बिन्दु या पराकाष्ठा
- अन्तः—पुं॰—-—अम्+तन्—छोर, सरहद, किनारा, पारिसर, सामान्य रूप से स्थान या भूमि
- अन्तः—पुं॰—-—अम्+तन्—बुनी हुई किनारी का पल्ला
- अन्तः—पुं॰—-—अम्+तन्—सामीप्य, सन्निकटता, पड़ौस, विद्यमानता
- अन्तः—पुं॰—-—अम्+तन्—समप्ति, उपसंहार, अवसान
- अन्तः—पुं॰—-—अम्+तन्—मृत्यु, नाश, जीवन का अन्त
- अन्तः—पुं॰—-—अम्+तन्—शब्द का अन्तिम अक्षर
- अन्तः—पुं॰—-—अम्+तन्—समास में अंतिम शब्द
- अन्तः—पुं॰—-—अम्+तन्—निश्चय, निर्णीत या अंतिम निश्चय
- अन्तः—पुं॰—-—अम्+तन्—अंतिम अंश, अवशेष
- अन्तः—पुं॰—-—अम्+तन्—प्रकृति, दशा, प्रकार,जाति
- अन्तः—पुं॰—-—अम्+तन्—वृत्ति, तत्त्व शुद्धांतः
- अन्तावशायी—पुं॰—अन्त-अवशायिन्—-—चांडाल
- अन्तावसायी—पुं॰—अन्त-अवसायिन्—-—नाई
- अन्तावसायी—पुं॰—अन्त-अवसायिन्—-—चांडाल, नीच जाति का
- अन्तकर—वि॰—अन्त-कर—-—घातक, मारक, संहारक
- अन्तकरण—वि॰—अन्त-करण—-—घातक, मारक, संहारक
- अन्तकारिन्—वि॰—अन्त-कारिन्—-—घातक, मारक, संहारक
- अन्तकर्मन्—नपुं॰—अन्त-कर्मन्—-—मृत्यु
- अन्तकालः—पुं॰—अन्त-कालः—-—मृत्यु का समय
- अन्तवेला—स्त्री॰—अन्त-वेला—-—मृत्यु का समय
- अन्तकृत्—पुं॰—अन्त-कृत्—-—मृत्यु
- अन्तग—वि॰—अन्त-ग—-—किनारे तक जाने वाला, पूरी तरह से जानकार या परिचित
- अन्तगति—वि॰—अन्त-गति—-—नाश होने वाला
- अन्तगामिन्—वि॰—अन्त-गामिन्—-—नाश होने वाला
- अन्तगमनम्—नपुं॰—अन्त-गमनम्—-—समाप्त करना, पूरा करना
- अन्तगमनम्—नपुं॰—अन्त-गमनम्—-—मृत्यु
- अन्तदीपकम्—नपुं॰—अन्त-दीपकम्—-—सा॰ शा॰ में एक अलंकार
- अन्तपालः—पुं॰—अन्त-पालः—-—सीमा की रक्षा करने वाला
- अन्तपालः—पुं॰—अन्त-पालः—-—द्वारपाल
- अन्तलीन—वि॰—अन्त-लीन—-—गुप्त, छिपा हुआ
- अन्तलोपः—पुं॰—अन्त-लोपः—-—शब्द के अन्तिम अक्षर को निकाल देना
- अन्तेवासिन्—वि॰—अन्त-वासिन्—-—सीमान्त प्रदेश के निकट रहने वाला, निकट ही रहने वाला
- अन्तेवासिन्—पुं॰—अन्त-वासिन्—-—विद्यार्थी, चांडाल
- अन्तवेला—स्त्री॰—अन्त-वेला—-—मृत्यु का समय
- अन्तशय्या—स्त्री॰—अन्त-शय्या—-—भूमिशय्या
- अन्तशय्या—स्त्री॰—अन्त-शय्या—-—अंतिम शय्या, मृत्युशय्या
- अन्तशय्या—स्त्री॰—अन्त-शय्या—-—कब्रिस्तान या श्मशान भूमि
- अन्तसत्क्रिया—स्त्री॰—अन्त-सत्क्रिया—-—अन्त्येष्टि संस्कार
- अन्तसद्—पुं॰—अन्त-सद्—-—विद्यार्थी
- अन्तक—वि॰—-—अन्तयति-अन्तं करोति-ण्वुल् —मारने वाला, नाश करने वाला,घातक
- अन्तकः—पुं॰—-—अन्तं करोति-ण्वुल् —मृत्यु
- अन्तकः—पुं॰—-—अन्तं करोति-ण्वुल् —साकार मृत्यु,संहारक,यम,मॄत्यु का देवता्
- अन्ततः —अव्य॰—-—अन्त+तसिल् —किनारे से
- अन्ततः —अव्य॰—-—अन्त+तसिल् —आखिर कार, अन्त में, अंततोगत्वा, निदान
- अन्ततः —अव्य॰—-—अन्त+तसिल् —अंशतः, कुछ
- अन्ततः —अव्य॰—-—अन्त+तसिल् —भीतर, अन्दर
- अन्ततः —अव्य॰—-—अन्त+तसिल् —अघम रीति से
- अन्ते—अव्य॰—-—अन्त का अधि॰,क्रि॰वि॰ में प्रयोग —भीतर
- अन्ते—अव्य॰—-—अन्त का अधि॰,क्रि॰वि॰ में प्रयोग —अन्त में, आखिरकार
- अन्ते—अव्य॰—-—अन्त का अधि॰,क्रि॰वि॰ में प्रयोग —उपस्थिति में, निकट, पास ही
- अन्तेवासः—पुं॰—अन्ते-वासः—-—पड़ोसी,साथी।
- अन्तेवासः—पुं॰—अन्ते-वासः—-—छात्र
- अन्तेवासिन्—वि॰—अन्ते-वासिन्—-—सीमान्त प्रदेश के निकट रहने वाला, निकट ही रहने वाला
- अन्तेवासिन्—पुं॰—अन्ते-वासिन्—-—विद्यार्थी, चांडाल
- अन्तर्—अव्य॰—-—अम्+अरम् तुडागमश्च —(क) बीच में, के मध्य, में, के अन्दर , (ख) के नीचे
- अन्तर्—अव्य॰—-—अम्+अरम् तुडागमश्च —(क) के मध्य, के बीच, के दरम्यान, के अन्दर, मध्य में या अंदर, भीतर, आंतरिक रूप से, मन में, (ख) ग्रहण करके या पकड़कर
- अन्तर्—अव्य॰—-—अम्+अरम् तुडागमश्च —(क) में, के मध्य, बीच में, के अन्दर, (ख) के मध्य, (ग) में, के अन्दर, भीतर, बीच में
- अन्तर्—अव्य॰—-—अम्+अरम् तुडागमश्च —आंतरिक रूप से, के अन्दर की ओर, आंतरिक, गुप्त
- अन्तराग्निः—पुं॰—अन्तर्-अग्निः—-—आन्तरिक आग, वह अग्नि जो पाचन शक्ति को उत्तेजित करे
- अन्तरङ्ग—वि॰—अन्तर्-अङ्ग—-—अंदर की ओर, आन्तरिक, अन्तर्गत
- अन्तरङ्ग—वि॰—अन्तर्-अङ्ग—-—शब्द के मूलरूप या अंग के आवश्यक भाग से संबद्ध, या अंग के आवश्यक भाग से संबद्ध, या उसका उल्लेख करने वाला
- अन्तरङ्ग—वि॰—अन्तर्-अङ्ग—-—प्रिय, प्रियतम
- अन्तर्गम्—नपुं॰—अन्तर्-गम्—-—अंतस्तम अंग, हृदय, मन
- अन्तर्गम्—नपुं॰—अन्तर्-गम्—-—घनिष्ठ मित्र, या विश्वस्त व्यक्ति
- अन्तराकाशः—पुं॰—अन्तर्-आकाशः—-—तेजोवह् तत्त्व या ब्रह्म जो मनुष्य के हृदय में रहता है
- अन्तराकूतम्—नपुं॰—अन्तर्-आकूतम्—-—गुप्त और छिपा हुआ प्रयोजन
- अन्तरात्मा—पुं॰—अन्तर्-आत्मा—-—अंतस्तम प्राण या आत्मा, मन या आत्मा, आन्तरिक भावना, हृदय
- अन्तरात्मा—पुं॰—अन्तर्-आत्मा—-—अन्तर्हित सर्वोपरि प्राण या आत्मा
- अन्तराराम—वि॰—अन्तर्-आराम—-—अपने आप में मस्त, अपने आत्मा या हृदय में ही सुख ढूंढने वाला
- अन्तरेन्द्रियम्—नपुं॰—अन्तर्-इन्द्रियम्—-—आन्तरिक अंग या ज्ञानेन्द्रिय
- अन्तःकरणम्—नपुं॰—अन्तर्-करणम्—-—हृदय, आत्मा, विचार और भावना का स्थान, विचार शक्ति, मन, चेतना
- अन्तःकुटिल—वि॰—अन्तर्-कुटिल—-—अन्दर से कपटी
- अन्तःकुटिल—पुं॰—अन्तर्-कुटिलः—-—सीप
- अन्तर्कोणः—पुं॰—अन्तर्-कोणः—-—अन्दर का कोण
- अन्तर्कोपः—पुं॰—अन्तर्-कोपः—-—गुप्त क्रोध, अन्दरूनी गुस्सा
- अन्तर्गडु—वि॰—अन्तर्-गडु—-—व्यर्थ, अनावश्यक, निष्फल
- अन्तर्गत—नपुं॰—अन्तर्-गत—-—अंतस्तम अंग, हृदय, मन
- अन्तर्गत—वि॰—अन्तर्-गत—-—घनिष्ठ मित्र या विश्वस्त व्यक्ति
- अन्तर्गर्भ—वि॰—अन्तर्-गर्भ—-—पेट वाली गर्भवती
- अन्तःगिरम्—अव्य॰—अन्तर्-गिरम्—-—पहाड़ों में
- अन्तर्गिरि—अव्य॰—अन्तर्-गिरि—-—पहाड़ों में
- अन्तर्गूढ—वि॰—अन्तर्-गूढ—-—अन्दर से छिपा हुआ
- अन्तर्विषः—पुं॰—अन्तर्-विषः—-—हृदय में जहर छिपाए हुए
- अन्तःगृहम्—नपुं॰—अन्तर्-गृहम्—-—घर का भीतरी भाग
- अन्तःगेहम्—नपुं॰—अन्तर्-गेहम्—-—घर का भीतरी भाग
- अन्तर्भवनम्—नपुं॰—अन्तर्-भवनम्—-—घर का भीतरी भाग
- अन्तर्घणः—पुं॰—अन्तर्-घणः—-—घर के अन्दर की खुली जगह
- अन्तर्घणम्—नपुं॰—अन्तर्-घणम्—-—घर के अन्दर की खुली जगह
- अन्तर्चर—वि॰—अन्तर्-चर—-—शरीर में व्याप्त
- अन्तर्जठरम्—नपुं॰—अन्तर्-जठरम्—-—पेट
- अन्तर्ज्वलनम्—नपुं॰—अन्तर्-ज्वलनम्—-—जलन या सूजन
- अन्तर्ताप—वि॰—अन्तर्-ताप—-—अन्तर्दाह से युक्त
- अन्तर्तापः—पुं॰—अन्तर्-तापः—-—अन्दरूनी ज्वर या गर्मी
- अन्तर्दहनम्—नपुं॰—अन्तर्-दहनम्—-—अन्दरूनी जलन
- अन्तर्दहनम्—नपुं॰—अन्तर्-दहनम्—-—सूजन
- अन्तर्दाहः—पुं॰—अन्तर्-दाहः—-—अन्दरूनी जलन
- अन्तर्दाहः—पुं॰—अन्तर्-दाहः—-—सूजन
- अन्तर्देशः—पुं॰—अन्तर्-देशः—-—परिधि के बीच का प्रदेश
- अन्तर्द्वारम्—नपुं॰—अन्तर्-द्वारम्—-—घर के अन्दर निजी या गुप्त दरवाजा
- अन्तर्पटः—पुं॰—अन्तर्-पटः—-—दो व्यक्तियों के बीच में कपड़े का परदा
- अन्तर्पटम्—नपुं॰—अन्तर्-पटम्—-—दो व्यक्तियों के बीच में कपड़े का परदा
- अन्तर्पदम्—अव्य॰—अन्तर्-पदम्—-—पद के भीतर
- अन्तःपरिधानम्—नपुं॰—अन्तर्-परिधानम्—-—सबसे नीचे पहना जाने वाला कपड़ा
- अन्तर्पातः—पुं॰—अन्तर्-पातः—-—बीच में अक्षर रखना
- अन्तर्पातः—पुं॰—अन्तर्-पातः—-—भूमि के मध्य में जमाया हुआ स्तम्भ
- अन्तर्पात्यः—पुं॰—अन्तर्-पात्यः—-—बीच में अक्षर रखना
- अन्तर्पात्यः—पुं॰—अन्तर्-पात्यः—-—भूमि के मध्य में जमाया हुआ स्तम्भ
- अन्तर्पातित—वि॰—अन्तर्-पातित—-—बीच में समाविष्ट
- अन्तर्पातित—वि॰—अन्तर्-पातित—-—सम्मिलित या समाविष्ट, अन्तर्गत होने वाला
- अन्तर्पातिन्—वि॰—अन्तर्-पातिन्—-—बीच में समाविष्ट
- अन्तर्पातिन्—वि॰—अन्तर्-पातिन्—-—सम्मिलित या समाविष्ट, अन्तर्गत होने वाला
- अन्तःपुरम्—नपुं॰—अन्तर्-पुरम्—-—महल का अन्दरूनी भाग जो महिलाओं के उपयोग के लिये नियत किया गया हो, स्त्रियो के रहने का कमरा, रनवास
- अन्तःपुरम्—नपुं॰—अन्तर्-पुरम्—-—रनवास में रहने वाली स्त्रियां, रानी या रानियाँ, स्त्रियों का समुदाय
- अन्तःपुराध्यक्षः—पुं॰—अन्तर्-पुरम्-अध्यक्षः—-—अन्तःपुर का अधीक्षक या संरक्षक
- अन्तःपुररक्षकः—पुं॰—अन्तर्-पुरम्-रक्षकः—-—अन्तःपुर का अधीक्षक या संरक्षक
- अन्तःपुरवर्ती—पुं॰—अन्तर्-पुरम्-वर्ती—-—अन्तःपुर का अधीक्षक या संरक्षक
- अन्तपुरचरः—पुं॰—अन्तर्-पुरम्-चरः—-—कञ्चुकी
- अन्तःपुरजनः—पुं॰—अन्तर्-पुरम्-जनः—-—महल की स्त्रियां रनवास की महिलाएँ
- अन्तःपुरप्रचारः—पुं॰—अन्तर्-पुरम्-प्रचारः—-—अन्तःपुर की गप्पें
- अन्तःपुरसहायः—पुं॰—अन्तर्-पुरम्-सहायः—-—अन्तःपुर से संबंध रखने वाला
- अन्तःपुरिकः—पुं॰—अन्तर्-पुरिकः—-—कंचुकी
- अन्तःप्रकृतिः—स्त्री॰—अन्तर्-प्रकृतिः—-—मनुष्य का शरीर या उसका आन्तरिक स्वभाव
- अन्तःप्रकृतिः—स्त्री॰—अन्तर्-प्रकृतिः—-—राजा का मंत्रालय या मंत्रीमंडल
- अन्तःप्रकृतिः—स्त्री॰—अन्तर्-प्रकृतिः—-—हृदय या आत्मा
- अन्तःप्रकोपनम्—नपुं॰—अन्तर्-प्रकोपनम्—-—आन्तरिक विरोध का जमाना
- अन्तःप्रतिष्ठानम्—नपुं॰—अन्तर्-प्रतिष्ठानम्—-—भीतरी आवास
- अन्तर्बाष्पः—वि॰—अन्तर्-बाष्पः—-—जिसने आंसुओं को रोका हुआ हो
- अन्तर्बाष्पः—वि॰—अन्तर्-बाष्पः—-—जिसके आंसु अन्दर ही अन्दर निकल रहे हों
- अन्तर्भावः—पुं॰—अन्तर्-भावः—-—अन्तर्भूत या अन्तर्मिलित होना , अन्तर्गत होना
- अन्तर्भावना—स्त्री॰—अन्तर्-भावना—-—अन्तर्भूत या अन्तर्मिलित होना , अन्तर्गत होना
- अन्तर्भूमिः—स्त्री॰—अन्तर्-भूमिः—-—भूमि का भीतरी भाग
- अन्तर्भेदः—पुं॰—अन्तर्-भेदः—-—वैमनस्य, आन्तरिक विरोध
- अन्तर्भौम—वि॰—अन्तर्-भौम—-—भूमि के नीचे रहने वाला
- अन्तर्मनस्—वि॰—अन्तर्-मनस्—-—उदास, व्याकुल
- अन्तर्मृत—वि॰—अन्तर्-मृत—-—गर्भ में ही मर जाने वाला
- अन्तर्यामः—पुं॰—अन्तर्-यामः—-—वाणी और श्वास को रोकना
- अन्तर्लीन—वि॰—अन्तर्-लीन—-—निहित, गुप्त, अन्दर छिपा हुआ
- अन्तर्लीन—वि॰—अन्तर्-लीन—-—अन्तर्निहित
- अन्तर्वंशः—पुं॰—अन्तर्-वंशः—-—महल का अन्दरूनी भाग जो महिलाओं के उपयोग के लिये नियत किया गया हो, स्त्रियो के रहने का कमरा, रनवास
- अन्तर्वंशः—पुं॰—अन्तर्-वंशः—-—रनवास में रहने वाली स्त्रियां, रानी या रानियाँ, स्त्रियों का समुदाय
- अन्तर्वंशिकः—पुं॰—अन्तर्-वंशिकः—-—अंतःपुर का अधीक्षक
- अन्तर्वासिकः—पुं॰—अन्तर्-वासिकः—-—अंतःपुर का अधीक्षक
- अन्तर्वत्नी—स्त्री॰—अन्तर्-वत्नी—-—गर्भवती स्त्री
- अन्तर्वस्त्रम्—नपुं॰—अन्तर्-वस्त्रम्—-—अधोवस्त्र
- अन्तर्वासस्—नपुं॰—अन्तर्-वासस्—-—अधोवस्त्र
- अन्तर्वाणि—वि॰—अन्तर्-वाणि—-—बड़ा विद्वान्
- अन्तर्वेगः—पुं॰—अन्तर्-वेगः—-—आन्तरिक बेचैनी या चिन्ता, आन्तरिक ज्वर
- अन्तर्वेदिः—स्त्री॰—अन्तर्-वेदिः—-—गंगा और यमुना के बीच का भूभाग
- अन्तर्वेदी—स्त्री॰—अन्तर्-वेदी—-—गंगा और यमुना के बीच का भूभाग
- अन्तर्वेश्मन्—नपुं॰—अन्तर्-वेश्मन्—-—घर के अन्दर का कमरा, भीतरी कोठा
- अन्तर्वेश्मिकः—पुं॰—अन्तर्-वेश्मिकः—-—कंचुकी
- अन्तःशरीरम्—नपुं॰—अन्तर्-शरीरम्—-—मनुष्य का आत्मीक या आन्तरीक भाग, शरीर का भीतरी भाग
- अन्तर्शिला—स्त्री॰—अन्तर्-शिला—-—विन्ध्य पहाड़ से निकलने वाली नदी
- अन्तःसंज्ञ—वि॰—अन्तर्-संज्ञ—-—अन्तश्चेतन
- अन्तर्सत्त्वा—स्त्री॰—अन्तर्-सत्त्वा—-—गर्भवती स्त्री
- अन्तर्सन्तापः—पुं॰—अन्तर्-सन्तापः—-—आन्तरीक पीड़ा, शोक, खेद
- अन्तःसलिल—वि॰—अन्तर्-सलिल—-—जिसका पानी भूमि के अन्दर बहता हो
- अन्तरसार—वि॰—अन्तर्-सार—-—अन्दर से भरा हुआ, या शक्तिशाली, बलवान्, भारी और जटिल
- अन्तरसार—पुं॰—अन्तर्-सारः—-—आन्तरिक कोष या भंडार, आन्तरिक निधि या तत्त्व
- अन्तरसेनम्—अव्य॰—अन्तर्-सेनम्—-—सेनाओं के बीच में
- अन्तस्थः—पुं॰—अन्तर्-स्थः—-—अर्धस्वर, क्योंकि वे स्वर और व्यंजनों क्के बीच में स्थित हैं और वागिन्द्रिय के जरा से संपर्क से बोले जाते हैं
- अन्तर्स्वेदः—पुं॰—अन्तर्-स्वेदः—-—मस्त हाथी
- अन्तर्हासः—पुं॰—अन्तर्-हासः—-—गुप्त या दबाई हुई हँसी
- अन्तर्हृदयम्—नपुं॰—अन्तर्-हृदयम्—-—हृदय का भीतरी भाग
- अन्तर —वि॰—-—अन्तं राति ददाति-रा+क—अंदर होने वाला, भीतर का
- अन्तर —वि॰—-—अन्तं राति ददाति-रा+क—निकट, समीप
- अन्तर —वि॰—-—अन्तं राति ददाति-रा+क—संबद्ध, घनिष्ठ, प्रिय
- अन्तर —वि॰—-—अन्तं राति ददाति-रा+क—समान
- अन्तर —वि॰—-—अन्तं राति ददाति-रा+क—से भिन्न, अन्य
- अन्तर —वि॰—-—अन्तं राति ददाति-रा+क—बाहर का, बाह्यस्थित, बाहर रहने वाला
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—(क) भीतर का, अन्दर का, (ख) छिद्र, सुराख
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—आत्मा, हृदय, मन
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—परमात्मा
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—अन्तराल, मध्यवर्ती काल या देश
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—पहुंच, अन्दर जाना, प्रवेश, कदम रखना
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—अवधि, निर्दिष्ट अवधि
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—अवसर, संयोग, समय
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—भेद
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—भिन्नता, शेष
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—(क) भेद, अन्य, दूसरा, परिवर्तित, बदला हुआ, परिवर्तित दशा, (ख) विविध, विभिन्न
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—विशेषता, प्रकार, विभेद, या किस्म
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—दुर्बलता, आलोच्य, स्थल, असफलता, दोष, सदोष, स्थल
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—जमानत, प्रत्याभूति, प्रतिभूति
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—सर्व श्रेष्ठता
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—वस्त्र
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—प्रयोजन, आशय
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—प्रतिनिधि, स्थानापत्ति
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—स्थानापत्ति
- अन्तरम् —नपुं॰—-—-—हीन होना
- अन्तरापत्या—स्त्री॰—अन्तरम् -अपत्या—-—गर्भवती स्त्री
- अन्तरज्ञ—वि॰—अन्तरम् -ज्ञ—-—अन्दर का रहस्य जानने वाला, प्राज्ञ, दूरदर्शी
- अन्तरदिशा—स्त्री॰—अन्तरम् -दिशा—-—परिधि का मध्यवर्ती प्रदेश या दिशा
- अन्तरपुरुषः—पुं॰—अन्तरम् -पुरुषः—-—आन्तरिक मानव, आत्मा
- अन्तरपूरुषः—पुं॰—अन्तरम् -पूरुषः—-—आन्तरिक मानव, आत्मा
- अन्तरप्रभवः—पुं॰—अन्तरम् -प्रभवः—-—मिश्रित जाति में जन्म लेने वाला
- अन्तरस्थ—वि॰—अन्तरम् -स्थ—-—आभ्यान्तरिक, आंतरिक, अन्तर्हित
- अन्तरस्थ—वि॰—अन्तरम् -स्थ—-—अन्तःक्षिप्तः, अन्तर्वर्ती
- अन्तरस्थायिन्—वि॰—अन्तरम् -स्थायिन्—-—आभ्यान्तरिक, आंतरिक, अन्तर्हित
- अन्तरस्थायिन्—वि॰—अन्तरम् -स्थायिन्—-—अन्तःक्षिप्तः, अन्तर्वर्ती
- अन्तरस्थित—वि॰—अन्तरम् -स्थित—-—आभ्यान्तरिक, आंतरिक, अन्तर्हित
- अन्तरस्थित—वि॰—अन्तरम् -स्थित—-—अन्तःक्षिप्तः, अन्तर्वर्ती
- अन्तरतः—अव्य॰—-—अन्तर+तसिल्—भीतर, आंतरिक रुप में, मध्य
- अन्तरतः—अव्य॰—-—अन्तर+तसिल्—के अन्दर
- अन्तरतम —वि॰—-—अन्तर+तमप्—अत्यन्त निकट, आंतरिक, निकटतम, घनिष्ठतम, सदृशतम
- अन्तरतमः —पुं॰—-—अन्तर+तमप्—उसी श्रेणी का अक्षर
- अन्तरयः—पुं॰—-—अन्तर+अय्+अच्—अवरोध, बाधा, रुकावट
- अन्तरायः—पुं॰—-—अन्तर+अय्+अच्—अवरोध, बाधा, रुकावट
- अन्तरयति—ना॰ धा॰ पर॰—-—-—बीच में डालना, हटाना, स्थगित करना,विरोध करना,
- अन्तरयति—ना॰ धा॰ पर॰—-—-—विरोध करना,
- अन्तरयति—ना॰ धा॰ पर॰—-—-—दूर हटाना,पीछे से धकेलना
- अन्तरयण——-—-—अवरोध, बाधा, रुकावट
- अन्तरा —अव्य॰, क्रि॰ वि॰—-—अन्तरेति-इण्+डा—(क) भीतर, अन्दर, भीतर की ओर (ख) मध्य में बीच में (ग) मार्ग में, बीच में (घ) पड़ौस में ,निकट ही,लगभग (ड़) इसी बीच में (च) समय समय पर,यहाँ वहाँ,कभी कभी,कुछ समय तक,अब अभी
- अन्तरा —अव्य॰—-—अन्तरेति-इण्+डा—के बिना, सिवाय
- अन्तरांसः—पुं॰—अन्तरा-अंसः—-— छाती
- अन्तराभवदेहः—पुं॰—अन्तरा-भवदेहः—-—आत्मा या जीवात्मा,जो जन्म और मरण की अवस्थाओं के बीच में रहता है
- अन्तराभवसत्त्वम्—नपुं॰—अन्तरा-भवसत्त्वम्—-—आत्मा या जीवात्मा,जो जन्म और मरण की अवस्थाओं के बीच में रहता है
- अन्तरादिश्—स्त्री॰—अन्तरा-दिश्—-—परिधि का मध्यवर्ती प्रदेश या दिशा
- अन्तरावेदिः—स्त्री॰—अन्तरा-वेदिः—-—स्तंभाश्रित वरांडा, दहलीज, ड्योढ़ी
- अन्तरावेदिः—स्त्री॰—अन्तरा-वेदिः—-—एक प्रकार की दीवार
- अन्तरावेदी—स्त्री॰—अन्तरा-वेदी—-—स्तंभाश्रित वरांडा, दहलीज, ड्योढ़ी
- अन्तरावेदी—स्त्री॰—अन्तरा-वेदी—-—एक प्रकार की दीवार
- अन्तराशृङ्गम्—अव्य॰—अन्तरा-शृङ्गम्—-—सींगों के बीच में
- अन्तरालम्—नपुं॰—-—अन्तरं व्यवधानसीमाम् आराति गृह्णाति - अन्तर+आ+रा+क रस्य लत्वम्) —मध्यवर्ती प्रदेश, स्थान या काल, अवकाश, बीच में, के मध्य, के बीच, अवकाश के समय
- अन्तरालम्—नपुं॰—-—अन्तरं व्यवधानसीमाम् आराति गृह्णाति - अन्तर+आ+रा+क रस्य लत्वम्) —भीतर,अन्दर,भीतर या मध्यभाग
- अन्तरालम्—नपुं॰—-—अन्तरं व्यवधानसीमाम् आराति गृह्णाति - अन्तर+आ+रा+क रस्य लत्वम्) —मिश्रित जाति या समुदाय
- अन्तरालकम् —नपुं॰—-—अन्तरं व्यवधानसीमाम् आराति गृह्णाति - अन्तर+आ+रा+क रस्य लत्वम्) —मध्यवर्ती प्रदेश, स्थान या काल, अवकाश, बीच में, के मध्य, के बीच, अवकाश के समय
- अन्तरालकम् —नपुं॰—-—अन्तरं व्यवधानसीमाम् आराति गृह्णाति - अन्तर+आ+रा+क रस्य लत्वम्) —भीतर,अन्दर,भीतर या मध्यभाग
- अन्तरालकम् —नपुं॰—-—अन्तरं व्यवधानसीमाम् आराति गृह्णाति - अन्तर+आ+रा+क रस्य लत्वम्) —मिश्रित जाति या समुदाय
- अन्तरिक्षम्—नपुं॰—-—अन्तर्+ईक्ष+घञ् पृषो॰ ह्र्स्वः वा —आकाश और पॄथ्वी के बीच का मध्यवर्ती प्रदेश, वायु, वातावरण आकाश
- अन्तरीक्षम्—नपुं॰—-—अन्तर्+ईक्ष+घञ् पृषो॰ ह्र्स्वः वा —आकाश और पॄथ्वी के बीच का मध्यवर्ती प्रदेश, वायु, वातावरण आकाश
- अन्तरिक्षोदरम्—नपुं॰—अन्तरिक्षम्-उदरम्—-—वातावरण का मध्य
- अन्तरीक्षोदरम्—नपुं॰—अन्तरीक्षम्-उदरम्—-—वातावरण का मध्य
- अन्तरिक्षगः—पुं॰—अन्तरिक्षम्-गः—-—पक्षी
- अन्तरीक्षगः—पुं॰—अन्तरीक्षम्-गः—-—पक्षी
- अन्तरिक्षचरः—पुं॰—अन्तरिक्षम्-चरः—-—पक्षी
- अन्तरीक्षचरः—पुं॰—अन्तरीक्षम्-चरः—-—पक्षी
- अन्तरिक्षजलम्—नपुं॰—अन्तरिक्षम्-जलम्—-—ओस
- अन्तरीक्षजलम्—नपुं॰—अन्तरीक्षम्-जलम्—-—ओस
- अन्तरिक्षलोकः—पुं॰—अन्तरिक्षम्-लोकः—-—मध्यवर्ती प्रदेश जो कि एक स्वतंत्र लोक समझा जाता है
- अन्तरीक्षलोकः—पुं॰—अन्तरीक्षम्-लोकः—-—मध्यवर्ती प्रदेश जो कि एक स्वतंत्र लोक समझा जाता है
- अन्तरित—वि॰—-—अन्तः+इ+क्त —बीच में गया हुआ, अन्तर्वर्ती
- अन्तरित—वि॰—-—अन्तः+इ+क्त —अन्दर गया हुआ, गुप्त, ढका हुआ पॄथक किया हुआ, अदृश्य, लता के पीछे छिपा हुआ, पर्दे के पीछे छिपा हुआ
- अन्तरित—वि॰—-—अन्तः+इ+क्त —अंदर गया हुआ प्रतिबिंबित (क) अवरुद्ध, बाधित, रोका गया (ख) पॄथक्कृत, अदॄश्य, रुद्धदॄष्टि, मुहूर्तान्तरितमाधवा दुर्मनायमाना माल०,#मेघैरन्तरितः प्रिये तव मुखच्छायानुकारी शशी-सा० द०(ग)डूबा हुआ,तिरोहित
- अन्तरित—वि॰—-—अन्तः+इ+क्त —ओझल,नष्ट,वियुक्त,संहृत
- अन्तरित—वि॰—-—अन्तः+इ+क्त —अतिक्रांत,भूला हुआ
- अन्तरीपः —पुं॰—-—अन्तर्मध्ये गता आपो यस्य , आत ईत्वम्—भूमि का टुकड़ा जो समुद्र के भीतर चला गया हो, भूनासिका, द्वीप
- अन्तरीयम् —नपुं॰—-—अन्तर+ छ— अधोवस्त्र ।
- अन्तरेण —अव्य॰—-—अन्तर्+इण्+ण—(क) सिवाय , के बिना (ख) के विषय में ,संकेत करते हुए,के संबंध में , (ग) के बीच में
- अन्तरेण —क्रि॰ वि॰—-—अन्तर्+इण्+ण—(क) के बीच में, के मध्य (ख) ह्रदय में
- अन्तर्गत—क्रि॰ वि॰—-—अन्तः+गम्+क्त्—बीच में , मध्य में, गया हुआ, बीच में आया हुआ
- अन्तर्गत—क्रि॰ वि॰—-—अन्तः+गम्+क्त्—अन्तःस्थित, अन्तःसम्मिलित,विद्यमान,संबद्ध
- अन्तर्गत—क्रि॰ वि॰—-—अन्तः+गम्+क्त्—गुप्त,आन्तरिक,अन्दर की ओर ,रहस्य,गूढ़
- अन्तर्गत—क्रि॰ वि॰—-—अन्तः+गम्+क्त्—स्मृतिपथ से गया हुआ्,भूला हुआ
- अन्तर्गत—क्रि॰ वि॰—-—अन्तः+गम्+क्त्—नष्ट हुआ,ओझल
- अन्तर्गत—क्रि॰ वि॰—-—अन्तः+गम्+क्त्—अदृष्ट
- अन्तर्गामिन्—वि॰—-—अन्तः+गम्+णिनिः—बीच में , मध्य में, गया हुआ, बीच में आया हुआ
- अन्तर्गामिन्—वि॰—-—अन्तः+गम्+णिनिः—अन्तःस्थित, अन्तःसम्मिलित,विद्यमान,संबद्ध
- अन्तर्गामिन्—वि॰—-—अन्तः+गम्+णिनिः—गुप्त,आन्तरिक,अन्दर की ओर ,रहस्य,गूढ़
- अन्तर्गामिन्—वि॰—-—अन्तः+गम्+णिनिः—स्मृतिपथ से गया हुआ्,भूला हुआ
- अन्तर्गामिन्—वि॰—-—अन्तः+गम्+णिनिः—नष्ट हुआ,ओझल
- अन्तर्गामिन्—वि॰—-—अन्तः+गम्+णिनिः—अदृष्ट
- अन्तर्गतोपमा—स्त्री॰—अन्तर्गत-उपमा—-—गुप्त उपमा
- अन्तर्गाम्युपमा—स्त्री॰—अन्तर्गामिन्-उपमा—-—गुप्त उपमा
- अन्तर्गतमनस्—नपुं॰—अन्तर्गत-मनस्—-—उदास, व्याकुल
- अन्तर्गामिनमनस्—नपुं॰—अन्तर्गामन्-मनस्—-—उदास, व्याकुल
- अन्तर्धा—स्त्री॰—-—अन्तर्+धा+अङ्, —आच्छादन, गोपन
- अन्तर्धानम्—नपुं॰—-—अन्तर्+धा+ल्युट् —अदृश्य होना, ओझलपना, दृष्टि से चूक जाना
- अन्तर्धानगम्—नपुं॰—अन्तर्धानम्-गम्—-—अदृश्य होना, ओझल होना
- अन्तर्धानी—पुं॰—अन्तर्धानम्-इ—-—अदृश्य होना, ओझल होना
- अन्तर्धिः —स्त्री॰—-—अन्तर्+धा+कि —ओझल होना, गोपन
- अन्तर्भवः —वि॰—-—अन्तर् भवतीति-भू+अच्—अन्दर की ओर, आन्तरिक
- अन्तर्भावः —पुं॰—-—अन्तर्+भू+घञ्—अन्तर्भूत या अन्तर्मिलित होना , अन्तर्गत होना
- अन्तर्भावः —पुं॰—-—अन्तर्+भू+घञ्—अन्तर्हित भाव
- अन्तर्भावना—स्त्री॰—-—अन्तर्+भू+णिच् ल्युट्—सम्मिलित करना
- अन्तर्भावना—स्त्री॰—-—अन्तर्+भू+णिच् ल्युट्—अन्तश्चिन्तन या चिन्ता
- अन्तर्य—वि॰ —-—अन्तर+यत्—आन्तरिक, बीच में
- अन्तर्हित—वि॰—-—अन्तर्+धा+क्त—बीच में रक्खा हुआ, पृथक्कृत, दृष्टिरुद्ध, गुप्त, छिपा हुआ
- अन्तर्हित—वि॰—-—अन्तर्+धा+क्त—ओझल हुआ, नष्ट,अदृश्य
- अन्तर्हितात्मन्—पुं॰—अन्तर्हित-आत्मन्—-—शिव
- अन्ति—अव्य॰—-—अन्त+इ —पास में
- अन्तिः—स्त्री॰—-—अन्त+इ —बड़ी बहन
- अन्तिका—स्त्री॰—-—अन्त+इ स्वार्थे कन् टाप्—बड़ी बहन
- अन्तिका—स्त्री॰—-—अन्त+इ स्वार्थे कन् टाप्—चूल्हा, अंगीठी
- अन्तिका—स्त्री॰—-—अन्त+इ स्वार्थे कन् टाप्—एक पौधे का नाम
- अन्तिक—वि॰—-—अन्तः सामीप्यमस्यातीति-अन्त+ठन् —निकट, समीप
- अन्तिक—वि॰—-—अन्तः सामीप्यमस्यातीति-अन्त+ठन् —पहुंचने वाला
- अन्तिक—वि॰—-—अन्तः सामीप्यमस्यातीति-अन्त+ठन् —टिकाऊ, तक
- अन्तिकम्—नपुं॰—-—-—निकटता,सामीप्य, पड़ौस,उपस्थिति, निकट, पड़ौस में
- अन्तिकन्यस्त—क्रि॰ वि॰—अन्तिक-न्यस्त—-—कर्ण
- अन्तिकचर—क्रि॰ वि॰—अन्तिक-चर—-—निकट, पड़ौस में
- अन्तिकेन—संब॰ के साथ —-—-—निकट
- अन्तिकात्—अपा॰ या संब॰—-—-—निकट,पास से
- अन्तिके—अव्य॰—-—-—निकट
- अन्तिकाश्रयः—पुं॰—अन्तिक-आश्रयः—-—पास की वस्तु का सहारा लेने वाला,लगातार सहारा
- अन्तिम—वि॰—-—अन्त-डिमच्—तुरन्त बाद आनेवाला
- अन्तिम—वि॰—-—अन्त-डिमच्—आखरी, अन्त का,चरम
- अन्तिमाङ्कः—पुं॰—अन्तिम-अंकः—-—आखरी अंक, नौ की संख्या
- अन्तिमाङ्गुलिः—पुं॰—अन्तिम-अङ्गुलिः—-—छोटी अंगुली
- अन्ती—स्त्री॰—-—अन्त+इ+ङीप्—चूल्हा, अंगीठी
- अन्त्य—वि॰—-—अन्त+यत्—अन्तिम, चरम, अन्त में जैसे कि नक्षत्रों में 'रेवती' , बूढ़ी अवस्था में, अन्तिम ऋण
- अन्त्य—वि॰—-—अन्त+यत्—तुरन्त, बाद में
- अन्त्य—वि॰—-—अन्त+यत्—निम्नतम, अधम, घटिया, नीच
- अन्त्यः—पुं॰—-—अन्त+यत्—अधम जति का मनुष्य
- अन्त्यः—पुं॰—-—अन्त+यत्—शब्द का अंतिम अक्षर
- अन्त्यः—पुं॰—-—अन्त+यत्—अंतिम चांद्र मास अर्थात् फाल्गुन
- अन्त्यः—पुं॰—-—अन्त+यत्—म्लेच्छ
- अन्त्या—स्त्री॰—-—अन्त+यत्—अधम जाति की स्त्री
- अन्त्यम्—नपुं॰—-—अन्त+यत्—सौ नील की संख्या
- अन्त्यम्—नपुं॰—-—अन्त+यत्—मीन राशि
- अन्त्यम्—नपुं॰—-—अन्त+यत्—प्रगति अन्तिम अंग
- अन्त्यावसायी—पुं॰—अन्त्य-अवसायिन्—-—अधम जाति का पुरुष, निम्नांकित जाति इसी श्रेणी से संबंध रखने वाले समझे जाते हैं
- अन्त्याहुतिः—स्त्री॰—अन्त्य-आहुतिः—-—अन्त्येष्टि संस्कार की आहुतियाँ या और्ध्वदैहिक संस्कार
- अन्त्येष्टिः—स्त्री॰—अन्त्य-इष्टिः—-—अन्त्येष्टि संस्कार की आहुतियाँ या और्ध्वदैहिक संस्कार
- अन्त्यकर्मन्—वि॰—अन्त्य-कर्मन्—-—अन्त्येष्टि संस्कार की आहुतियाँ या और्ध्वदैहिक संस्कार
- अन्त्यक्रिया—स्त्री॰—अन्त्य-क्रिया—-—अन्त्येष्टि संस्कार की आहुतियाँ या और्ध्वदैहिक संस्कार
- अन्त्यऋणम्—नपुं॰—अन्त्य-ऋणम्—-—तीन ऋणों में से अन्तिम जिससे कि प्रत्येकव्यक्ति को उऋण होना है अर्थात् सन्तानोत्पत्ति करना
- अन्त्यजः—पुं॰—अन्त्य-जः—-—शूद्र
- अन्त्यजः—पुं॰—अन्त्य-जः—-—सात नीच जातोयों में से एक
- अन्त्यजन्मन्—वि॰—अन्त्य-जन्मन्—-—शूद्र
- अन्त्यजन्मन्—वि॰—अन्त्य-जन्मन्—-—सात नीच जातोयों में से एक
- अन्त्यजन्मन्—वि॰—अन्त्य-जन्मन्—-—नीच जाति में उत्पन्न होनेवाला
- अन्त्यजन्मन्—वि॰—अन्त्य-जन्मन्—-—शूद्र
- अन्त्यजन्मन्—वि॰—अन्त्य-जन्मन्—-—चांडाल
- अन्त्यजाति—वि॰—अन्त्य-जाति—-—नीच जाति में उत्पन्न होनेवाला
- अन्त्यजाति—वि॰—अन्त्य-जाति—-—शूद्र
- अन्त्यजाति—वि॰—अन्त्य-जाति—-—चांडाल
- अन्त्यजातीय—वि॰—अन्त्य-जातीय—-—नीच जाति में उत्पन्न होनेवाला
- अन्त्यजातीय—वि॰—अन्त्य-जातीय—-—शूद्र
- अन्त्यजातीय—वि॰—अन्त्य-जातीय—-—चांडाल
- अन्त्यभम्—नपुं॰—अन्त्य-भम्—-—अन्तिम चान्द्र नक्षत्र - रेवती
- अन्त्ययुगम्—नपुं॰—अन्त्य-युगम्—-—अन्तिम अर्थात् कलियुग
- अन्त्ययोनि—वि॰—अन्त्य-योनि—-—नीच वंश का
- अन्त्यलोपः—पुं॰—अन्त्य-लोपः—-—शब्द के अन्तिम अक्षर का लोप करना
- अन्त्यवर्णः—पुं॰—अन्त्य-वर्णः—-—नीच जाति का पुरुष या स्त्री, शूद्र या शूद्रा
- अन्त्यवर्णा—स्त्री॰—अन्त्य-वर्णा—-—नीच जाति का पुरुष या स्त्री, शूद्र या शूद्रा
- अन्त्यकः—पुं॰—-—अन्त्य एवेति स्वार्थे कन्—नीच जाति का पुरुष
- अन्त्रम् —नपुं॰—-—अन्त्+ष्ट्रन्-अम्+क्त वा —आँत, अंतड़ी
- अन्त्रकूजः—पुं॰—अन्त्रम्-कूजः—-—आंतों में होने वाली गड़-गड़ाहट की आवाज
- अन्त्रकूजनम्—नपुं॰—अन्त्रम्-कूजनम्—-—आंतों में होने वाली गड़-गड़ाहट की आवाज
- अन्त्रविकूजनम्—नपुं॰—अन्त्रम्-विकूजनम्—-—आंतों में होने वाली गड़-गड़ाहट की आवाज
- अन्त्रवृद्धिः—स्त्री॰—अन्त्रम्-वृद्धि—-—आंत उतरने की बीमारी, हरणिया,अंडकोश बढ़ने का रोग
- अन्त्रशिला—स्त्री॰—अन्त्रम्-शिला—-—विन्ध्य पहाड़ से निकलने वाली एक नदी
- अन्त्रस्रज्—स्त्री॰—अन्त्रम्-स्रज्—-—अंतड़ियों की माला
- अन्त्रन्धमिः —स्त्री॰—-—-—अजीर्ण, अफारा
- अन्दुः—पुं॰—-—अन्द्+कु —शृंखला,या हथकड़ी बेड़ी
- अन्दुः—पुं॰—-—अन्द्+कु —हाथी के पैरों को बांधने के लिए जंजीर
- अन्दुः—पुं॰—-—अन्द्+कु —नूपुर
- अन्दूः—स्त्री॰—-—अन्द्+कु, ऊङ्—शृंखला,या हथकड़ी बेड़ी
- अन्दूः—स्त्री॰—-—अन्द्+कु, ऊङ्—हाथी के पैरों को बांधने के लिए जंजीर
- अन्दूः—स्त्री॰—-—अन्द्+कु, ऊङ्—नूपुर
- अन्दुकः —पुं॰—-—अन्द्+कु,स्वार्थे कन्—शृंखला,या हथकड़ी बेड़ी
- अन्दुकः —पुं॰—-—अन्द्+कु,स्वार्थे कन्—हाथी के पैरों को बांधने के लिए जंजीर
- अन्दुकः —पुं॰—-—अन्द्+कु,स्वार्थे कन्—नूपुर
- अन्दूकः—स्त्री॰—-—अन्द्+कु,ऊङ्,स्वार्थे कन्—शृंखला,या हथकड़ी बेड़ी
- अन्दूकः—स्त्री॰—-—अन्द्+कु,ऊङ्,स्वार्थे कन्—हाथी के पैरों को बांधने के लिए जंजीर
- अन्दूकः—स्त्री॰—-—अन्द्+कु,ऊङ्,स्वार्थे कन्—नूपुर
- अन्दोलनम्—नपुं॰—-—अन्दोल्+ल्युट् —झूलना, घुमाऊ, कंपनशील
- अन्ध् —चु॰ उभ॰—-—-—अंधा बनाना, अंधा करना
- अन्ध् —चु॰ उभ॰—-—-—अंधा होना
- अन्ध—वि॰—-— अन्ध्+अच् —अंधा, दृष्टिहीन, देखने में असमर्थ,अंधा किया हुआ
- मदान्धः—पुं॰—-— अन्ध्+अच् —नशे में अंधा
- अन्ध—वि॰—-— अन्ध्+अच् —अंधा बनाने वाला , दृष्टि को रोकने वाला , नितांत पूर्ण अंधकार
- अन्धम्—नपुं॰—-— अन्ध्+अच् —अंधकार
- अन्धम्—नपुं॰—-— अन्ध्+अच् —जल,पंकिल जल
- अन्धकारः—पुं॰—अन्ध-कारः—-—अंधेरा
- अन्धकूपः—पुं॰—अन्ध-कूपः—-—कुआँ जिसका मुंह ढँका हुआ होता है ,ऐसा कुआँ जिसके ऊपर घास उगा हुआ हो
- अन्धकूपः—पुं॰—अन्ध-कूपः—-—एक नरक का नाम
- अन्धतमसम्—नपुं॰—अन्ध-तमसम्—-—गहन अंधकार,पूरा अंधेरा
- अन्धतामसम्—नपुं॰—अन्ध-तामसम्—-—गहन अंधकार,पूरा अंधेरा
- अन्धातमसम्—नपुं॰—अन्ध-अतमसम्—-—गहन अंधकार,पूरा अंधेरा
- अन्धतामिस्रः—पुं॰—अन्ध-तामिस्रः—-—नितांत गहन अंधकार
- अन्धतामिश्रः—पुं॰—अन्ध-तामिश्रः—-—नितांत गहन अंधकार
- अन्धधी—वि॰—अन्ध-धी—-—मानसिक रूप से अंधा
- अन्धपूतना—स्त्री॰—अन्ध-पूतना—-—राक्षसी जो बच्चों में रोग फैलाने वाली मानी जाती है ।
- अन्धकरण—वि॰—-— अन्धकृ +ल्युट् —अंधा करने वाला
- अन्धम्भविष्णु—वि॰—-— अन्धंभू+इष्णु —अंधा होने वाला
- अन्धभावुक—वि॰—-— अन्धंभू+उकञ् —अंधा होने वाला
- अन्धक—वि॰—-— अन्ध+कन् —अंधा
- अन्धकः—पुं॰—-— अन्ध+कन् —कश्यप और दिति का पुत्र राक्षस था और शिव के हाथों मारा गया था
- अन्धकरिः—पुं॰—अन्धक-अरिः—-—अंधक को मारने वाला ,शिव की उपाधि
- अन्धकरिपुः—पुं॰—अन्धक-रिपुः—-—अंधक को मारने वाला ,शिव की उपाधि
- अन्धकशत्रुः—पुं॰—अन्धक-शत्रुः—-—अंधक को मारने वाला ,शिव की उपाधि
- अन्धकघाती—पुं॰—अन्धक-घाती—-—अंधक को मारने वाला ,शिव की उपाधि
- अन्धकासुहृद्—पुं॰—अन्धक-असुहृद्—-—अंधक को मारने वाला ,शिव की उपाधि
- अन्धकवर्तः—पुं॰—अन्धक-वर्तः—-—पहाड़ का नाम
- अन्धकवृष्णि—पुं॰—अन्धक-वृष्णि—-—अंधक और वॄष्णि के वंशज
- अन्धस्—नपुं॰—-—अद्+असुन् नुम् घश्च—भोजन
- अन्धिका—स्त्री॰—-—अन्ध्+ण्वुल् इत्वम् टाप् च —रात्रि
- अन्धिका—स्त्री॰—-—अन्ध्+ण्वुल् इत्वम् टाप् च —एक प्रकार का खेल,आंखमिचौनी,जूआ
- अन्धिका—स्त्री॰—-—अन्ध्+ण्वुल् इत्वम् टाप् च —आँख का रोग
- अन्धुः —पुं॰—-—अन्धुः+कु —कुआँ
- अन्ध्राः —पुं॰—-—अन्ध्+र —एकदेश तथा उसके निवासी
- अन्ध्राः —पुं॰—-—अन्ध्+र —एक राजवंश का नाम
- अन्ध्राः —पुं॰—-—अन्ध्+र —संकर वर्ण का पुरुष
- अन्नम्—नपुं॰—-—अद्+क्त+,अन्+नन् वा —सामान्यतः भोजन
- अन्नम्—नपुं॰—-—अद्+क्त+,अन्+नन् वा —अन्नमयकोश
- अन्नम्—नपुं॰—-—अद्+क्त+,अन्+नन् वा —भात
- अन्नः—पुं॰—-—अद्+क्त+,अन्+नन् वा —सूर्य
- अन्नमाद्यम्—नपुं॰—अन्नम्-अद्यम्—-—उपयुक्त आहार, समान्य भोजन
- अन्नमाच्छादनम्—नपुं॰—अन्नम्-आच्छादनम्—-—भोजन वस्त्र
- अन्नवस्त्रम्—नपुं॰—अन्नम्-वस्त्रम्—-—भोजन वस्त्र
- अन्नकालः—पुं॰—अन्नम्-कालः—-—भोजन करने का समय
- अन्नकिट्टः—पुं॰—अन्नम्-किट्टः—-—विष्ठा
- अन्नकूटः—पुं॰—अन्नम्-कूटः—-—भात का बड़ा ढेर
- अन्नकोष्ठकः—पुं॰—अन्नम्-कोष्ठकः—-—डोली, अनाज की कोठी
- अन्नकोष्ठकः—पुं॰—अन्नम्-कोष्ठकः—-—विष्णु
- अन्नकोष्ठकः—पुं॰—अन्नम्-कोष्ठकः—-—सूर्य
- अन्नगन्धिः—पुं॰—अन्नम्-गन्धिः—-—पेचिश दस्तों की बीमारी
- अन्नजलम्—पुं॰—अन्नम्-जलम्—-—अन्न और जल
- अन्नदासः—पुं॰—अन्नम्-दासः—-—भोजन मात्र पाकर सेवा करने वाला दास या नौकर
- अन्नदेवता—स्त्री॰—अन्नम्-देवता—-—आहार की सामग्री की अधिष्ठात्री देवी
- अन्नदोषः—पुं॰—अन्नम्-दोषः—-—निषिद्ध भोजन के खाने से उत्पन्न पाप
- अन्नद्वेषः—पुं॰—अन्नम्-द्वेषः—-—भोजन में अरुचि, भूख का अभाव
- अन्नपूर्णा—स्त्री॰—अन्नम्-पूर्णा—-—दुर्गा देवी का एक रूप
- अन्नप्राशः—पुं॰—अन्नम्-प्राशः—-—१६ संस्कारों में से एक संस्कार जबकि नवजात बालक को पहली बार विधिवत् भोजन देने की क्रिया सम्पादित की जाती है, यह संस्कार ५ से ८ महीने के मध्य किया जाता है
- अन्नप्राशनम्—नपुं॰—अन्नम्-प्राशनम्—-—१७ संस्कारों में से एक संस्कार जबकि नवजात बालक को पहली बार विधिवत् भोजन देने की क्रिया सम्पादित की जाती है, यह संस्कार ५ से ८ महीने के मध्य किया जाता है
- अन्नब्रह्मा—पुं॰—अन्नम्-ब्रह्मन्—-—आहार का प्रतिनिधित्व करने वाला ब्रह्म
- अन्नमात्मा—पुं॰—अन्नम-आत्मन्—-—आहार का प्रतिनिधित्व करने वाला ब्रह्म
- अन्नभुज्—वि॰—अन्नम्-भुज्—-—भोजन करने वाला, शिव की उपाधि
- अन्नमय—वि॰—अन्नम्-मय—-—अन्न वाला या अन्न से बना पदार्थ
- अन्नमलम्—नपुं॰—अन्नम्-मलम्—-—विष्ठा
- अन्नमलम्—नपुं॰—अन्नम्-मलम्—-—मदिरा
- अन्नरक्षा—स्त्री॰—अन्नम्-रक्षा—-—भोजन करने में सावधानी
- अन्नरसः—पुं॰—अन्नम्-रसः—-—आहार का सत्, पक जाने पर अन्न के भीतरी गूदे से बना रस
- अन्नवस्त्रम्—नपुं॰—अन्नम्-वस्त्रम्—-—भोजन वस्त्र
- अन्नव्यवहारः—पुं॰—अन्नम्-व्यवहारः—-—खानपान संबंधी प्रथा या विधि अर्थात् दूसरों के साथ मिलकर खाना या न खाना
- अन्नशेषः—पुं॰—अन्नम्-शेषः—-—जूठन, उच्छिष्ट
- अन्नसंस्कारः—पुं॰—अन्नम्-संस्कारः—-—देवताओं के निमित्त अन्न का समर्पण
- अन्नमय—वि॰—-—अन्न+मयट् —अन्न वाला या अन्न से बना पदार्थ
- अन्नमयकोशः—पुं॰—अन्नमय-कोशः—-—भौतिक शरीर,स्थूलशरीर ,जो अन्न पर ही आधारित है तथा जो कि आत्मा का पाचवाँ वस्त्र या परिधान है ,भौतिक संसार ,स्थूलतम तथा निम्नतम रूप जिसके द्वारा ब्रह्म अपने आपको सांसारिक सत्ता के रूप् में प्रकट करने वाला माना जाता है
- अन्नमयकोषः—पुं॰—अन्नमय-कोषः—-—भौतिक शरीर,स्थूलशरीर ,जो अन्न पर ही आधारित है तथा जो कि आत्मा का पाचवाँ वस्त्र या परिधान है ,भौतिक संसार ,स्थूलतम तथा निम्नतम रूप जिसके द्वारा ब्रह्म अपने आपको सांसारिक सत्ता के रूप् में प्रकट करने वाला माना जाता है
- अन्नमयम्—नपुं॰—-—-—अन्न की बहुतायत
- अन्य—वि॰—-—-—दूसरा, भिन्न, और सामान्यतः दूसरा, और
- अन्य—वि॰—-—-—अपेक्षाकृत दूसरा, से भिन्न, की अपेक्षा और
- अन्य—वि॰—-—-—अनोखा, असाधारण, विशेष
- अन्य—वि॰—-—-—तुच्छ, कोई
- अन्य—वि॰—-—-—अतिरिक्त, नया, अधिक
- अन्यच्च—अव्य॰—-—-—इसके अतिरिक्त, इसके साथ ही, तो फिर
- एकान्य—वि॰—एक-अन्य—-—एक-दूसरा, एक के नीचे भी
- अन्यान्य—वि॰—अन्य-अन्य—-—और, और
- अन्यासाधारण—वि॰—अन्य-असाधारण—-—जो दूसरों के प्रति सामान्य न हो, विशेष
- अन्योदर्य—वि॰—अन्य-उदर्य—-—दूसरे से उत्पन्न
- अन्योदर्यः—पुं॰—अन्य-उदर्यः—-—सौतेली माता का पुत्र, अर्धभ्राता
- अन्योदर्या—स्त्री॰—अन्य-उदर्या—-—अर्ध-भगिनी
- अन्योढा—वि॰—अन्य-ऊढा—-—दूसरे से विवाहित, दूसरे की पत्नी
- अन्यक्षेत्रम्—नपुं॰—अन्य-क्षेत्रम्—-—दूसरा खेत
- अन्यक्षेत्रम्—नपुं॰—अन्य-क्षेत्रम्—-—दूसरा देश या विदेश
- अन्यक्षेत्रम्—नपुं॰—अन्य-क्षेत्रम्—-—दूसरे की पत्नी
- अन्यग—वि॰—अन्य-ग—-—और के पास जाने वाला
- अन्यग—वि॰—अन्य-ग—-—व्यभिचारी, लम्पट
- अन्यगामिन्—वि॰—अन्य-गामिन्—-—और के पास जाने वाला
- अन्यगामिन्—वि॰—अन्य-गामिन्—-—व्यभिचारी, लम्पट
- अन्यगोत्र—वि॰—अन्य-गोत्र—-—दूसरे कल या वंश का
- अन्यचित्त—वि॰—अन्य-चित्त—-—किसी और पदार्थ पर ध्यान लगाने वाला
- अन्यज—वि॰—अन्य-ज—-—भिन्न कुल में उत्पन्न
- अन्यजात—वि॰—अन्य-जात—-—भिन्न कुल में उत्पन्न
- अन्यजन्मन्—नपुं॰—अन्य-जन्मन्—-—दूसरा जीवन, पुनर्जन्म, आवागमन
- अन्यदुर्वह—वि॰—अन्य-दुर्वह—-—जो दूसरे को सहन न कर सके
- अन्यदेवत—वि॰—अन्य-देवत—-—दूसरे किसी देवता को संबोधित करने वाला या मंत्र द्वारा उल्लेख करने वाला
- अन्यदैवत्य—वि॰—अन्य-दैवत्य—-—दूसरे किसी देवता को संबोधित करने वाला या मंत्र द्वारा उल्लेख करने वाला
- अन्यनाभि—वि॰—अन्य-नाभि—-—किसी दूसरे कुल से संबंध रखने वाला
- अन्यपदार्थः—पुं॰—अन्य-पदार्थः—-—दूसरी वस्तु
- अन्यपदार्थः—पुं॰—अन्य-पदार्थः—-—दूसरे शब्द का भाव
- अन्यपर—वि॰—अन्य-पर—-—दूसरों का भक्त
- अन्यपर—वि॰—अन्य-पर—-—किसी दूसरे का उल्लेख करने वाला
- अन्यपुष्टः—पुं॰—अन्य-पुष्टः—-—दूसरे से पाला हुआ या पाली हुई, कोयल की उपधि, जो कि कौवे के द्वारा पालि हुई समझी जाती है अत एव 'अन्यभृत्' कहलाती है
- अन्यपुष्टा—स्त्री॰—अन्य-पुष्टा—-—दूसरे से पाला हुआ या पाली हुई, कोयल की उपधि, जो कि कौवे के द्वारा पालि हुई समझी जाती है अत एव 'अन्यभृत्' कहलाती है
- अन्यभृतः—पुं॰—अन्य-भृतः—-—दूसरे से पाला हुआ या पाली हुई, कोयल की उपधि, जो कि कौवे के द्वारा पालि हुई समझी जाती है अत एव 'अन्यभृत्' कहलाती है
- अन्यभृता—स्त्री॰—अन्य-भृता—-—दूसरे से पाला हुआ या पाली हुई, कोयल की उपधि, जो कि कौवे के द्वारा पालि हुई समझी जाती है अत एव 'अन्यभृत्' कहलाती है
- अन्यपूर्वा—स्त्री॰—अन्य-पूर्वा—-—व्ह स्त्री जिसका वाग्दान किसी और के साथ हो चुका है
- अन्यपूर्वा—स्त्री॰—अन्य-पूर्वा—-—पुनर्विवाहित विधवा
- अन्यबीजः—पुं॰—अन्य-बीजः—-—गोद लिया हुआ पुत्र , वह जो कि औरस पुत्र के अभाव में गोद लिया जा सके
- अन्यबीजसमुद्भवः—पुं॰—अन्य-बीजसमुद्भवः—-—गोद लिया हुआ पुत्र , वह जो कि औरस पुत्र के अभाव में गोद लिया जा सके
- अन्यसमुत्पन्नः—पुं॰—अन्य-समुत्पन्नः—-—गोद लिया हुआ पुत्र , वह जो कि औरस पुत्र के अभाव में गोद लिया जा सके
- अन्यभृत्—पुं॰—अन्य-भृत्—-—कौवा
- अन्यमनस्—वि॰—अन्य-मनस्—-—अवधानहीन
- अन्यमनस्—वि॰—अन्य-मनस्—-—चंचल, अस्थिर
- अन्यमनस्क—वि॰—अन्य-मनस्क—-—अवधानहीन
- अन्यमनस्क—वि॰—अन्य-मनस्क—-—चंचल, अस्थिर
- अन्यमानस—वि॰—अन्य-मानस—-—अवधानहीन
- अन्यमानस—वि॰—अन्य-मानस—-—चंचल, अस्थिर
- अन्यमातृजः—पुं॰—अन्य-मातृजः—-—अर्धभ्राता
- अन्यरूप—वि॰—अन्य-रूप—-—परिवर्तित या बदले हुए रूप वाला
- अन्यलिंग—वि॰—अन्य-लिंग—-—दूसरे शब्द के लिंग वाला अर्थात् नामशब्द, विशेषण
- अन्यगक्—वि॰—अन्य-गक्—-—दूसरे शब्द के लिंग वाला अर्थात् नामशब्द, विशेषण
- अन्यवापः—पुं॰—अन्य-वापः—-—कोयल
- अन्यविवर्धित—वि॰—अन्य-विवर्धित—-—कोयल
- अन्यपुष्ट—वि॰—अन्य-पुष्ट—-—कोयल
- अन्यसंगमः —पुं॰—अन्य-संगमः —-—दूसरी स्त्री से रति क्रिया, अवैध मैथुन
- अन्यसाधारण—वि॰—अन्य-साधारण—-—बहुतों के लिए सामान्य
- अन्यस्त्री—स्त्री॰—अन्य-स्त्री—-—दूसरे की पत्नी, जो अपनी पत्नी न हो
- अन्यगः—पुं॰—अन्य-गः—-—व्यभिचारी
- अन्यक —वि॰—-—-—अन्य
- अन्यतम—वि॰—-—अन्य+डतमच्— बहुतों में से एक, बड़ी संख्या में से कोई एक
- अन्यतर—वि॰—-—अन्य+तरप् —दो में से एक,दोनों में से कोई सा एक,
- अन्यतरस्याम्—अन्यतरा का अधि॰ ए॰ व॰—-—-—किसी तरह, दोनो तरह,इच्छानुरूप
- अन्यतरतः —क्रि॰ वि॰—-—अन्यतर+तसिल् —दो में से एक ओर
- अन्यतरेद्युः—अव्य॰—-—अन्यतरस्मिन्नहनि-अन्यतर+एद्युः नि॰—दो में से किसी एक दिन, एक दिन, दूसरे दिन
- अन्यतः—अव्य॰—-—अन्य+तसिल्—दूसरे से
- अन्यतः—अव्य॰—-—अन्य+तसिल्—एक ओर
- अन्यतान्यतः—अव्य॰—अन्यतः-अन्यतः—-—एक ओर - दूसरी ओर
- एकतान्यतः—अव्य॰—एकतः-अन्यतः—-—एक ओर - दूसरी ओर
- अन्यतः—अव्य॰—-—अन्य+तसिल्—किसी दूसरे कारण या प्रयोजन से
- अन्यत्र—अव्य॰—-—अन्य+त्रल्—और जगह, दूसरे स्थान पर
- अन्यत्र—अव्य॰—-—अन्य+त्रल्—किसी दूसरे अवसर पर
- अन्यत्र—अव्य॰—-—अन्य+त्रल्—सिवाय, के बिना
- अन्यत्र—अव्य॰—-—अन्य+त्रल्—अन्यथा, दूसरी अवस्था में
- अन्यथा—अव्य॰—-—अन्य+ थाल्— वरना, दूसरी रीति से, भिन्न तरीके से
- अन्यथान्यथा—अव्य॰—अन्यथा-अन्यथा—-—एक प्रकार से, दूसरे ढंग से
- अन्यथाकृ——-—-—दूसरी तरह करना, परिवर्तन करना, बदलना, बिगाड़ना, मिथ्या करना
- अन्यथा—अव्य॰—-—-—नहीं तो, वरना, इसके विपरीत
- अन्यथा—अव्य॰—-—-—इसके विपरीत
- अन्यथा—अव्य॰—-—-—मिथ्यापन से, झूठपने से
- अन्यथा—अव्य॰—-—-—गलती से, भूल से, बुरे ढंग से
- अन्यथानुपपत्तिः—स्त्री॰—अन्यथा- अनुपपत्तिः—-—परिस्थितियों के आधार पर अनुमान लगाना, अनुमानित वस्तु, फलितार्थ
- अन्यथानुपपत्तिः—स्त्री॰—अन्यथा- अनुपपत्तिः—-—एक अलंकार
- अन्यथाकारः—पुं॰—अन्यथा-कारः—-—पर्रिवर्तन, अदल-बदल
- अन्यथाकारम्—क्रि॰ वि॰—अन्यथा-कारम्—-—भिन्न तरीके से, भिन्न ढंग से
- अन्यथाख्यातिः—स्त्री॰—अन्यथा-ख्यातिः—-—शक्ति की गलत अवधारणा, सामान्य रूप से मिथ्या अवधारणा
- अन्यथाभावः—पुं॰—अन्यथा-भावः—-—अदलबदल, परिवर्तन, भिन्नता
- अन्यथावादिन्—वि॰—अन्यथा-वादिन्—-—भिन्न रूप से या मिथ्या बोलने वला, अपलापी साक्षी
- अन्यथावृत्ति—वि॰—अन्यथा-वृत्ति—-—परिवर्तित
- अन्यथावृत्ति—वि॰—अन्यथा-वृत्ति—-—बदला हुआ
- अन्यथावृत्ति—वि॰—अन्यथा-वृत्ति—-—भावाविष्ट, सबल संवेगो से विक्षुब्ध
- अन्यथासिद्ध—वि॰—अन्यथा-सिद्ध—-—जो मिथ्या ढंग से प्रदर्शित या प्रमाणित किया गया हो, उस कारण को कहते हैं जो सत्य न हो, तथा जो केवल मात्र आकस्मिक एवं दूरगामी परिस्थितियों का उल्लेख करे
- अन्यथासिद्धम्—स्त्री॰—अन्यथा-सिद्धम्—-—मिथ्या प्रदर्शन, अनावश्यक कारण, आकस्मिक या केवल मात्र सहवर्ती परिस्थिति
- अन्यथासिद्धिः—स्त्री॰—अन्यथा-सिद्धिः—-—मिथ्या प्रदर्शन, अनावश्यक कारण, आकस्मिक या केवल मात्र सहवर्ती परिस्थिति
- अन्यथास्तोत्रम्—नपुं॰—अन्यथा-स्तोत्रम्—-—व्यंग्योक्ति, ताना, व्यंग्य
- अन्यदा —अव्य॰—-—अन्य+दा—किसी दूसरे समय, दूसरे अवसर पर, किसी दूसरे मामले में#एक बार,एक समय पर,एक अवसर पर,#किसी समय ।
- अन्यदीय—वि॰—-—अन्यदा+छ—किसी दूसरे से संबंध रखने वाला
- अन्यदीय—वि॰—-—अन्यदा+छ—दूसरे में रहने वाला
- अन्यर्हि—अव्य॰—-—अन्य+र्हिल्—किसी दूसरे समय
- अन्यादृक्ष्—वि॰—-—अन्यदृश्+क्स, आत्वम् च—परिवर्त्तित,असाधारण,अनोखा ।
- अन्यादृकश्—वि॰—-—अन्यदृश्+क्विन् कञ् वा आत्वम् च—परिवर्त्तित,असाधारण,अनोखा ।
- अन्यादृश—वि॰—-—अन्यदृश्+ कञ् आत्वम् च—परिवर्त्तित,असाधारण,अनोखा ।
- अन्याय—वि॰, न॰ ब॰—-—-—न्यायरहित,अनुपयुक्त
- अन्यायः—पुं॰—-—-—कोई न्याय रहित या अवैधत्य
- अन्यायः—पुं॰—-—-—न्याय का अभाव, औचित्य का अभाव
- अन्यायः—पुं॰—-—-—अनियमितता
- अन्यायिन्—वि॰—-—अन्याय+णिनि—न्यायरहित, अनुचित
- अन्याय्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—न्याय रहित, अवैध
- अन्याय्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—अनुचित, अशोभनीय
- अन्याय्य—वि॰, न॰ त॰—-—-—अप्रामाणिक
- अन्यून—वि॰, न॰ त॰—-—-—दोषरहित, त्रुटिहीन, पूर्ण, समस्त सकल
- अन्यूनाधिक—वि॰—अन्यून-अधिक—-—न त्रुटिपूर्ण न आवश्यकता से अधिक
- अन्यूनाङ्ग—वि॰—अन्यून-अङ्ग—-—निर्दोष अंगों वाला
- अन्येद्युः—अव्य॰—-—अन्य+एद्युः नि॰—दूसरे दिन, अगले दिन
- अन्येद्युः—अव्य॰—-—अन्य+एद्युः नि॰—एक दिन,एक बार
- अन्योन्य—वि॰—-—अन्य-कर्मव्यतिहारे द्वित्वम्, पूर्वपदे सुश्च—एक दूसरे को, परस्पर, प्रायः समस्त पदों में
- अन्योन्यकलहः—पुं॰—अन्योन्य-कलहः—-—पारस्परिक झगड़ा, इसी प्रकार
- अन्योन्यघातः—पुं॰—अन्योन्य-घातः—-—आपस में
- अन्योन्यम्—अव्य॰—-—-—आपस में
- अन्योन्याभावः—पुं॰—अन्योन्य-अभावः—-—पारस्परिक सत्ता का न होना ,अभाव के दो प्रकारों में से एक
- अन्योन्याश्रय—वि॰—अन्योन्य-आश्रय—-—आपस में एक दूसरे पर निर्भर
- अन्योन्याश्रयः—वि॰—अन्योन्य-आश्रयः—-—आपस में या बदले की निर्भरता,कार्यकारण का इतरेतर संबंध
- अन्योक्तिः—स्त्री॰—अन्योन्य-उक्तिः—-—वार्तालाप
- अन्योन्यभेदः—पुं॰—अन्योन्य-भेदः—-—पारस्परिक द्वेष या शत्रुता
- अन्योन्यविभागः—पुं॰—अन्योन्य-विभागः—-—साझीदारों द्वारा रिक्थ का पारस्परिक विभाजन
- अन्योन्यवृत्तिः—स्त्री॰—अन्योन्य-वृत्तिः—-—किसी वस्तु का दूसरे पर पारस्परिक प्रभाव
- अन्योन्यव्यतिकरः—पुं॰—अन्योन्य-व्यतिकरः—-—इतरेतर क्रिया या प्रभाव,कार्य कारण का पारस्परिक संबंध
- अन्योन्यसंश्रयः—पुं॰—अन्योन्य-संश्रयः—-—इतरेतर क्रिया या प्रभाव,कार्य कारण का पारस्परिक संबंध
- अन्वक्ष—वि॰—-—अनुगतः अक्षम् इन्द्रियम्-ग॰ स॰—दृश्य
- अन्वक्ष—वि॰—-—अनुगतः अक्षम् इन्द्रियम्-ग॰ स॰—तुरन्त बाद में आनेवाला
- अन्वक्षम्—अव्य॰—-—-—बाद में,पश्चात्
- अन्वक्षम्—नपुं॰—-—-—तुरंत बाद में,सामने,सीधे
- अन्वक् —अव्य॰—-—-—बाद में
- अन्वक् —अव्य॰—-—-—पीछे से
- अन्वक् —अव्य॰—-—-—मैत्रीभाव से व्यवह्रत,अनुकूल रूप में
- अन्वक् —अव्य॰—-—-—पश्चात्
- अन्वक् —नपुं॰ ए॰ व॰—-—अनु+अञ्च्+क्विप् —बाद में
- अन्वक् —नपुं॰ ए॰ व॰—-—अनु+अञ्च्+क्विप् —पीछे से
- अन्वक् —नपुं॰ ए॰ व॰—-—अनु+अञ्च्+क्विप् —मैत्रीभाव से व्यवह्रत,अनुकूल रूप में
- अन्वक् —नपुं॰ ए॰ व॰—-—अनु+अञ्च्+क्विप् —पश्चात्
- अन्वञ्च्—वि॰—-—अनु+अञ्च्+ क्विप्—पीछे जाने वाला, पीछा करने वाला
- अन्वयः—पुं॰—-—अनु+इ+अच्—पीछे जाना, अनुगमन, अनुगामी, परिजन,सेवकवर्ग
- अन्वयः—पुं॰—-—अनु+इ+अच्—साहचर्य,मेलजोल, संबंध
- अन्वयः—पुं॰—-—अनु+इ+अच्—वाक्य में शब्दों का स्वाभाविक क्रम या संबंध, व्याकरण विषयक क्रम या संबंध, शब्दों का युक्तियुक्त संबंध
- अन्वयः—पुं॰—-—अनु+इ+अच्—तात्पर्य,अभिप्राय, प्रयोजन
- अन्वयः—पुं॰—-—अनु+इ+अच्—जाति,कुल,वंश
- अन्वयः—पुं॰—-—अनु+इ+अच्—वंशज, सन्तति,बाद में आने वाली सन्तान
- अन्वयः—पुं॰—-—अनु+इ+अच्—कार्यकारण का तर्कसंगत नैरन्तर्य,भारतीय अनुमितिवाद में साध्य और हेतु की सतत तथा अपरिवर्त्य सहवर्तिता का वर्णन
- अन्वयागत—वि॰—अन्वयः-आगत—-—आनुवंशिक
- अन्वयज्ञः—पुं॰—अन्वयः-ज्ञः—-—वंशावली प्रणेता
- अन्वयव्यतिरेकः—पुं॰—अन्वयः-व्यतिरेकः—-—विधायक और निषेधात्मक प्रतिज्ञा,सहमति और वैपरीत्य अर्थात भिन्नता
- अन्वयव्यतिरेकः—पुं॰—अन्वयः-व्यतिरेकः—-—नियम और अपवाद
- अन्वयव्याप्तिः—स्त्री॰—अन्वयः-व्याप्तिः—-—स्वीकारात्मक प्रतिज्ञा या सहमति,अंगीकारसूचक सामान्यपद
- अन्वर्थ—वि॰—-—-—शब्द की व्युत्पत्ति के द्वारा ही लिसका अर्थ आसानी से जाना जा सके,भाव के अनुकूल,सार्थक
- अन्वर्थग्रहणम्—नपुं॰—अन्वर्थ-ग्रहणम्—-—शब्द क्ए अर्थ को शब्दशः स्वीकार करना
- अन्वर्थसंज्ञा—स्त्री॰—अन्वर्थ-संज्ञा—-—उपयुक्त नाम, एक पारिभाषिक नाम जो अपन अर्थ स्वयं प्रकट करता है
- अन्वर्थसंज्ञा—स्त्री॰—अन्वर्थ-संज्ञा—-—यथार्थ नाम जिसका अर्थ स्पष्ट है
- अन्ववकिरणम्—नपुं॰—-—अनु+अव+कृ+ल्युट्—क्रमपूर्वक चारों ओर बखेरना
- अन्ववसर्गः—पुं॰—-—अनु+अव+सृज्+घञ्—शिथिल करना
- अन्ववसर्गः—पुं॰—-—अनु+अव+सृज्+घञ्—इच्छानुसार व्यवहार करने देना, कामचारानुज्ञा
- अन्ववसर्गः—पुं॰—-—अनु+अव+सृज्+घञ्—स्वेच्छाचारिता
- अन्ववसित—वि॰—-—अनु+अव+सो+क्त—संयुक्त, संबद्ध, बंधा हुआ
- अन्ववायः—पुं॰—-—अनु+अव+अय्+घञ्—जाति, कुल, वशं
- अन्ववेक्षा—स्त्री॰—-—अनु+अव+ईक्ष्+अङ्+टाप्—लिहाज, विचार
- अन्वष्टका—स्त्री॰प्रा॰ स॰—-— —मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा के पश्चात् आने वाले पौष, माघ और फाल्गुन के कृष्णपक्ष की नवमी
- अन्वष्टक्यम्—नपुं॰—-—अन्वष्टका+यत्—अन्वष्टका के दिन होने वाला श्राद्ध या ऐसा ही कोई दूसरा अनुष्टान
- अन्वष्टमदिशम्—अव्य॰प्रा॰ स॰—-— —उत्तर पश्चिम दिशा की ओर
- अन्वहम्—अव्य॰प्रा॰ स॰—-—अनु+अहन्—दिन-ब-दिन, प्रति दिन
- अन्वाख्यानम्—नपुं॰—-—अनु+आ+ख्या+ल्युट्—बाद में उल्लेख करना, या गिनना, पूर्वोक्त का उल्लेख करते हुए व्याख्या करना
- अन्वाचयः—पुं॰—-—अनु+आ+ चि+अच्—प्राधान कार्य का कथन करके गौण कार्य की उक्ति, मुख्य पदार्थ के साथ गौण पदार्थ का जोड़ना,
- अन्वाचयः—पुं॰—-—अनु+आ+ चि+अच्—इस प्रकार का स्वंय एक पदार्थ
- अन्वाजे—अव्य॰—-—अनु+आजि+डे—दुर्बल की सहायता करना
- अन्वादिष्ट—वि॰—-—अनु+आ+दिश्+क्त—बाद में या के अनुसार, कहा हुआ, पुनः काम पर लगाया हुआ
- अन्वादिष्ट—वि॰—-—अनु+आ+दिश्+क्त—घटिया, गौण महत्त्व का
- अन्वादेशः—पुं॰—-—अनु+आ+दिश्+घञ्—एक कथन के पश्चात् दूसरा कथन, पूर्वोक्त की पुनरुक्ति
- अन्वाधानम्—नपुं॰—-—अनु+आ+धा+ल्युट्—अग्निहोत्र की अग्नि में समिधाएँ रखना ।
- अन्वाधिः—स्त्री॰—-—अनु+आ+धा+कि—जमानत, किसी तीसरे व्यक्ति के पास धरोहर या प्रतिभूति जमा करना
- अन्वाधिः—स्त्री॰—-—अनु+आ+धा+कि—दूसरी धरोहर
- अन्वाधिः—स्त्री॰—-—अनु+आ+धा+कि—अनवरत चिन्ता, खेद, पश्चात्तप
- अन्वाधेयम्—नपुं॰—-—अनु+आ+धा+यत्—एक प्रकार का स्त्री-धन जो विवाह के पश्चात् पितॄकुल या पतिकुल की ओर से उपहार स्वरुप दिया जाय
- अन्वाधेयकम्—नपुं॰—-—अनु+आ+धा+यत्—एक प्रकार का स्त्री-धन जो विवाह के पश्चात् पितॄकुल या पतिकुल की ओर से उपहार स्वरुप दिया जाय
- अन्वारम्भः—पुं॰—-—अनु+आ+रभ्+घञ्—स्पर्श, संपर्क, विशेषतया यजमान को पुनीत संस्कार के सुफल का अधिकारी बनाने के लिए स्पर्श करना
- अन्वारम्भणम्—नपुं॰—-—अनु+आ+रभ्+ल्युट्—स्पर्श, संपर्क, विशेषतया यजमान को पुनीत संस्कार के सुफल का अधिकारी बनाने के लिए स्पर्श करना
- अन्वारोहणम्—नपुं॰—-—अनु+आ+रुह+ल्युट्—स्त्री का अपने पति के शव के साथ चिता पर बैठना
- अन्वासनम्—नपुं॰—-—अनु+आस्+ल्युट्—सेवा, परिचर्या, पूजा
- अन्वासनम्—नपुं॰—-—अनु+आस्+ल्युट्—दूसरे के पीछे आसनग्रहण करना
- अन्वासनम्—नपुं॰—-—अनु+आस्+ल्युट्—खेद, शोक
- अन्वाहार्यः —पुं॰—-—अनु+आ+हॄ+ण्यत् स्वार्थे—पितरों के सम्मान में अमावस्या के दिन किया जाने वाला मासिक श्राद्ध
- अन्वाहार्यम्—नपुं॰—-—अनु+आ+हृ+ण्यत् स्वार्थे—पितरों के सम्मान में अमावस्या के दिन किया जाने वाला मासिक श्राद्ध
- अन्वाहार्यकम्—नपुं॰—-—अनु+आ+हृ+ण्यत् स्वार्थे—पितरों के सम्मान में अमावस्या के दिन किया जाने वाला मासिक श्राद्ध
- अन्वाहिक—वि॰—-—-—दैनिक, प्रतिदिन का
- अन्वाहित—वि॰—-—-—एक प्रकार का स्त्री-धन जो विवाह के पश्चात् पितॄकुल या पतिकुल की ओर से उपहार स्वरुप दिया जाय
- अन्वित—वि॰—-—अनु+इ+क्त—अनुगत, अनुष्ठित, सहित, युक्त
- अन्वित—वि॰—-—अनु+इ+क्त—अधिकार प्राप्त, रखने वाला, आहत, प्रभावित
- अन्वित—वि॰—-—अनु+इ+क्त—संयुक्त, जोड़ा हुआ, क्रमागत
- अन्वित—वि॰—-—अनु+इ+क्त—व्याकरण की दृष्टि से संयुक्त
- अन्वितार्थ—वि॰—अन्वित-अर्थ—-—प्रकरण से ही जिसके अर्थ आसानी से समझ में आ सकें
- अन्वितार्थवादः—पुं॰—अन्वित-अर्थवादः—-—मीमां सकों का एक सिद्धांत जिसके अनुसार वाक्य में शब्दों का अर्थ सामान्य या स्वतंत्र रूप से नहीं होता, बल्कि किसी विशेष वाक्य में एक दूसरे से संबद्ध होकर शब्द का जो अर्थ निकलता है, वही होता है
- अन्विताभिधानवादः—पुं॰—अन्वित-अभिधानवादः—-—मीमां सकों का एक सिद्धांत जिसके अनुसार वाक्य में शब्दों का अर्थ सामान्य या स्वतंत्र रूप से नहीं होता, बल्कि किसी विशेष वाक्य में एक दूसरे से संबद्ध होकर शब्द का जो अर्थ निकलता है, वही होता है
- अन्वीक्षणम्—नपुं॰—-—अनु+ईक्ष्+ल्युट्—खोज, ढूंढना, गवेषणा
- अन्वीक्षणम्—नपुं॰—-—अनु+ईक्ष्+ल्युट्—प्रतिबिंब
- अन्वीक्षा—स्त्री॰—-—अनु+ईक्ष्+अच्+टाप्—खोज, ढूंढना, गवेषणा
- अन्वीक्षा—स्त्री॰—-—अनु+ईक्ष्+अच्+टाप्—प्रतिबिंब
- अन्वीत—वि॰—-—-—अनुगत, अनुष्ठित, सहित, युक्त
- अन्वीत—वि॰—-—-—अधिकार प्राप्त, रखने वाला, आहत, प्रभावित
- अन्वीत—वि॰—-—-—संयुक्त, जोड़ा हुआ, क्रमागत
- अन्वीत—वि॰—-—-—व्याकरण की दृष्टि से संयुक्त
- अन्वृचम्—अव्य॰—-—-—एक ऋचा के पश्चात् दूसरी ऋचा
- अन्वेषः—पुं॰—-—अनु+इष्+घञ्, ल्युट् वा, स्त्रियां टाप्—ढूढ़ना, खोजना, देखभाल करना
- अन्वेषक—वि॰—-—अनु+इष्+घञ्,ल्युट् वा —ढूंढने वाला, खोजने वाला, पूछ ताछ करने वाला
- अन्वेषिन्—वि॰—-—अनु+इष्+घञ्,ल्युट् वा —ढूंढने वाला, खोजने वाला, पूछ ताछ करने वाला
- अन्वेष्ट्ट—वि॰—-—अनु+इष्+घञ्,ल्युट् वा —ढूंढने वाला, खोजने वाला, पूछ ताछ करने वाला
- अप्—स्त्री॰—-—आप्+क्विप्+ह्रस्वश्च—पानी
- अपचरः—पुं॰—अप्-चरः—-—जलचर, जलीय जन्तु
- अपपतिः—पुं॰—अप्-पतिः—-—जल का स्वामी वरुण
- अपपतिः—पुं॰—अप्-पतिः—-—समुद्र
- अप—अव्य॰—-—-—(क) से दूर, (ख) ह्रास, बुरी तरह से या गलत ढंग से करता है, (ग) विरोध, निषेध, प्रत्याख्यान(घ) वर्जन
- अप—अव्य॰—-—-—त॰ और ब॰ स॰ का प्रथम पद होने पर इसके उपर्युक्त सभी अर्थ होते हैं- एक बुरा या भ्रष्ट शब्द,
- अपभी—वि॰—अप-भी—-—निडर
- अपरागः —पुं॰—अपरागः —-—असन्तुष्ट
- अप—अव्य॰—-—-—पृथक्करणीय अव्यय, के रूप में, से दूर, के बिना, के बाहर, के अपवाद, के साथ, सिवाय, छोड़कर
- अपकरणम्—नपुं॰—-—अप+कृ+ल्युट्—अनुचित रीति से कार्य करना
- अपकरणम्—नपुं॰—-—अप+कृ+ल्युट्—अनुपयुक्त काम करना, चोट पहुंचाना, दुर्व्यवहार करना, कष्ट पहुंचाना
- अपकर्तृ—वि॰—-—अप+कृ+तृच्—हानिकारक, कष्टदायक
- अपकर्ता—पुं॰—-—अप+कृ+तृच्—शत्रु
- अपकर्मन्—नपुं॰—-—प्रा॰ स॰ —ऋण से निस्तार
- अपकर्मन्—नपुं॰—-—प्रा॰ स॰ —ऋणपरिशोध
- अपकर्मन्—नपुं॰—-—प्रा॰ स॰ —अनुचित, अनुपयुक्त कार्य, दुष्कर्म, दुष्कृत्य
- अपकर्मन्—नपुं॰—-—प्रा॰ स॰ —दुष्टता, हिंसा, उत्पीडन
- अपकर्षः—पुं॰—-—अप+कृष्+घञ्—(क) नीचे की ओर खींचना, कम करना, घटाना, हानि, नाश, ह्रास, (ख) अनादर, अपमान
- अपकर्षः—पुं॰—-—अप+कृष्+घञ्—बाद में आने वाले शब्दों का पूर्व-विचार
- अपकर्षक—वि॰—-—अप+कृष्+ण्वुल्—कम करने वाला, घटाने वाला, से निकालने वाला
- अपकर्षणम्—नपुं॰—-—अप+कृष्+ल्युट्—दूर करना, खींचकर दूर करना या नीचे ले जाना, वञ्चित करना, निकाल देना
- अपकर्षणम्—नपुं॰—-—अप+कृष्+ल्युट्—कम करना, घटाना
- अपकर्षणम्—नपुं॰—-—अप+कृष्+ल्युट्—दूसरे का स्थान ले लेना
- अपकारः—पुं॰—-—अप+कृ+घञ्—हानि, चोट, आघात, कष्ट
- अपकारः—पुं॰—-—अप+कृ+घञ्—दूसरे का बुरा चिन्तन, दूसरे को चोट पहुँचाना
- अपकारः—पुं॰—-—अप+कृ+घञ्—दुष्टता, हिंसा, उत्पीडन
- अपकारः—पुं॰—-—अप+कृ+घञ्—गिरा हुआ, नीच कर्म
- अपकारार्थिन्—वि॰—अपकारः-अर्थिन्—-—द्वेषी, दुरात्मा
- अपकारगिर्—पुं॰—अपकारः-गिर्—-—गालियाँ, भर्त्सना दायक तथा अपमानजनक शब्द
- अपकारशब्दः—पुं॰—अपकारःशब्दः—-—गालियाँ, भर्त्सना दायक तथा अपमानजनक शब्द
- अपकारक—वि॰—-—अप+कृ+ण्वुल् —क्षति पहुँचाने वाला, अनिष्टकारी, कष्टप्रद, अहितकारी
- अपकारिन्—वि॰—-—अप+कृ+ णिनि —क्षति पहुँचाने वाला, अनिष्टकारी, कष्टप्रद, अहितकारी
- अपकारकः—पुं॰—-—अप+कृ+ण्वुल् —बुरा करने वाला
- अपकारी—पुं॰—-—-—बुरा करने वाला
- अपकृति—स्त्री॰—-—-—हानि, चोट, आघात, कष्ट
- अपकृति—स्त्री॰—-—-—दूसरे का बुरा चिन्तन, दूसरे को चोट पहुँचाना
- अपकृति—स्त्री॰—-—-—दुष्टता, हिंसा, उत्पीडन
- अपकृति—स्त्री॰—-—-—गिरा हुआ, नीच कर्म
- अपक्रिया—स्त्री॰—-—-—आघात, चोट, अनिष्ट, कुकृत्य, ऋणप्रिशोध
- अपकृष्ट—वि॰—-—अप+कृष्+क्त—खींच कर बाहर किया गया, दूर हटाया गया
- अपकृष्ट—वि॰—-—अप+कृष्+क्त—नीच, कमीना, अधम
- अपकृष्टः—पुं॰—-—अप+कृष्+क्त—कौवा
- अपकौशली—स्त्री॰—-—-—समाचार, सूचना
- अपक्तिः—स्त्री॰—-—नञ्+पच्+क्तिन्—कच्चापन, परिपक्वता का अभाव
- अपक्तिः—स्त्री॰—-—नञ्+पच्+क्तिन्—अपच,अजीर्ण
- अपक्रमः—पुं॰—-—अप+क्रम्+घञ्—दूर चले जाना, पलायन, पीठ दिखाना
- अपक्रमः—पुं॰—-—अप+क्रम्+घञ्—बीतना
- अपक्रमः—पुं॰—-—अप+क्रम्+घञ्—क्रमरहित
- अपक्रमः—पुं॰—-—अप+क्रम्+घञ्—अनियमित, गलत क्रम वाला
- अपक्रमणम्—नपुं॰—-—अप्+क्रम्+ल्युट्, घञ् वा—पीछे मुड़ना, हटना, उड़ना, भागना
- अपक्रामः—पुं॰—-—अप्+क्रम्+ल्युट्, घञ् वा—पीछे मुड़ना, हटना, उड़ना, भागना
- अपक्रोशः—पुं॰—-—अप+क्रुश्+घञ्—गाली, भर्त्सना
- अपक्ष—वि॰,न॰ ब॰—-—-—पंखों से या उड़ान की शक्ति से रहित
- अपक्ष—वि॰,न॰ ब॰—-—-—किसी पक्ष या दल से संबंध न रखने वाला
- अपक्ष—वि॰,न॰ ब॰—-—-—जिनके मित्र समर्थक न हों
- अपक्ष—वि॰—-—-—निष्पक्ष, पक्षरहित
- अपक्षपातः—पुं॰—अपक्ष-पातः—-—निष्पक्षता
- अपक्षपातिन्—वि॰—अपक्ष-पातिन्—-—पक्षपात रहित
- अपक्षयः—पुं॰—-—अप+क्षि+अव्—छीजना, ह्रास, नाश
- अपक्षेपः—पुं॰—-—अप+क्षिप्+घञ् —दूर करना या नीचे फेंकना
- अपक्षेपः—पुं॰—-—अप+क्षिप्+घञ् —फेंक देना, नीचे रखना, वैशेषिक दर्शन में निर्दिष्ट पांच कर्मों में से एक कर्म
- अपक्षेपणम्—नपुं॰—-—अप+क्षिप्+ ल्युट् —दूर करना या नीचे फेंकना
- अपक्षेपणम्—नपुं॰—-—अप+क्षिप्+ ल्युट् —फेंक देना, नीचे रखना, वैशेषिक दर्शन में निर्दिष्ट पांच कर्मों में से एक कर्म
- अपगण्डः—पुं॰—-—अपसि (वैध) कर्मणि गंडःत्याज्यः—जिसने वयस्कता प्राप्त कर ली है
- अपगमः—पुं॰—-—अप+गम्+अप्—दूर जाना, हट जाना, वियोग
- अपगमः—पुं॰—-—अप+गम्+अप्—गिरना, हटना, ओझल होना
- अपगमः—पुं॰—-—अप+गम्+अप्—मृत्यु, मरण
- अपगमनम्—नपुं॰—-—अप+गम्+ल्युट् —दूर जाना, हट जाना, वियोग
- अपगमनम्—नपुं॰—-—अप+गम्+ल्युट् —गिरना, हटना, ओझल होना
- अपगमनम्—नपुं॰—-—अप+गम्+ल्युट् —मृत्यु, मरण
- अपगतिः—स्त्री॰—-—अप+गम्+क्तिन् —दुर्भाग्य
- अपगरः—पुं॰—-—अप+गृ+अप्—निंदा , भर्त्सना
- अपगरः—पुं॰—-—अप+गृ+अप्—निन्दक, भर्त्सक
- अपगर्जित—वि॰—-—अप+गर्ज+क्त—गर्जनाशून्य
- अपचयः—पुं॰—-—अप+चि+अच्—न्यूनता, कमी, ह्रास, छीजन, गिरावट
- अपचयः—पुं॰—-—अप+चि+अच्—नाश, असफलता, दोष
- अपचरितम्—नपुं॰—-—अप+चर्+क्त—दोष, दुष्कृत्य, दुष्कर्म
- अपचारः —पुं॰—-—अप+चर्+घञ्—प्रस्थान, मृत्यु
- अपचारः —पुं॰—-—अप+चर्+घञ्—कमी, अभाव
- अपचारः —पुं॰—-—अप+चर्+घञ्—दोष, अपराध, दुष्कर्म, दुराचरण, जुर्म
- अपचारः —पुं॰—-—अप+चर्+घञ्—हानिकर या कष्टप्रद आचरण, क्षति
- अपचारः —पुं॰—-—अप+चर्+घञ्—दोष या कमी
- अपचारः —पुं॰—-—अप+चर्+घञ्—अस्वास्थ्यकर या अपथ्य
- अपचारिन्—वि॰—-—अप+चर्+णिनि—कष्ट पहुँचाने वाला, दुष्कर्म करने वाला, दुष्ट, बुरा
- अपचितिः—स्त्री॰—-—अप+चि+क्तिन्—हानि, छीजन, नाश
- अपचितिः—स्त्री॰—-—अप+चि+क्तिन्—व्यय
- अपचितिः—स्त्री॰—-—अप+चि+क्तिन्—प्रायश्चित, सम्पूर्ति, पाप का प्रायश्चित
- अपचितिः—स्त्री॰—-—अप+चि+क्तिन्—सम्मान, पूजन, आदर प्रदर्शन, पूजा
- अपच्छत्र—वि॰,ब॰ स॰—-—-—बिना छाते के, छतरी के बिना
- अपच्छाय—वि॰,ब॰ स॰—-—-—छायारहित
- अपच्छाय—वि॰,ब॰ स॰—-—-—चमकरहित, धुंधला
- अपच्छायः—पुं॰—-—-—जिसकी छाया न होती हो, अर्थात् परमात्मा
- अपच्छेदः—पुं॰—-—अप+छिद्+घञ्—काट कर दूर कर देना
- अपच्छेदः—पुं॰—-—अप+छिद्+घञ्—हानि
- अपच्छेदः—पुं॰—-—अप+छिद्+घञ्—बाधा
- अपच्छेदनम्—नपुं॰—-—अप+छिद्+ल्युट्—काट कर दूर कर देना
- अपच्छेदनम्—नपुं॰—-—अप+छिद्+ल्युट्—हानि
- अपच्छेदनम्—नपुं॰—-—अप+छिद्+ल्युट्—बाधा
- अपजयः—पुं॰—-—अप+जि+अच्—हार, पराजय
- अपजातः—पुं॰—-—अप+जन्+क्त—कुपुत्र जो गुणों की दृष्टि से माता पिता से हीन हो
- अपज्ञानम्—नपुं॰—-—अप+ज्ञा+ल्युट्—मुकरना, गुप्त रखना
- अपञ्चीकृतम्—नपुं॰—-— —जिसका पंजीकरण न हुआ हो, पंचमहाभूतों का सूक्ष्म रुप
- अपटी—पुं॰—-—अल्पः पटः पटी-न॰ त॰—कपड़े का पर्दा या दीवार विशेष रुप से कनात जो तम्बू को चारों ओर से घेर लेती है
- अपटी—पुं॰—-—अल्पः पटः पटी-न॰ त॰—पर्दा
- अपटक्षेपः—पुं॰—अपटी-क्षेपः—-—पर्दे के एक ओर गायक
- अपटक्षेपेण—पुं॰—अपटी-क्षेपेण—-—जल्दी से पर्दे को एक ओर करके
- अपटु—वि॰,न॰ त॰—-—-—अनिपुण, अदक्ष, मंदबुद्धि, भोंदू
- अपटु—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो बोलने में चतुर न हो
- अपटु—वि॰,न॰ त॰—-—-—रोगी
- अपठ—वि॰,न॰ त॰—-— नञ्+पठ्+अच् —पढ़ने में असमर्थ, न पढ़ने वाला, दुष्पाठक
- अपण्डित—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो विद्वान् या बुद्धिमान् न हो, मूर्ख, अनाड़ी
- अपण्डित—वि॰,न॰ त॰—-—-—जिसमें कुशलता, रुचि तथा गुणों की सराहना करने का अभाव हो
- अपण्य—वि॰—-—-—जो बिक्री के लिए न हो
- अपतर्पणम्—नपुं॰—-—अप+तृप्+ल्युट्—उपवास रखना
- अपतर्पणम्—नपुं॰—-—अप+तृप्+ल्युट्—तृप्ति का अभाव
- अपतानकः —पुं॰—-—अप+तन्+ण्वुल्—एक प्रकार का रोग
- अपति—वि॰—-—-—जिसका स्वामी न हो, जिसका पति न हो, अविवाहित
- अपतिक—वि॰—-—-—जिसका स्वामी न हो, जिसका पति न हो, अविवाहित
- अपत्नीक—वि॰—-—-—जिसकी पत्नी न हो
- अपतीर्यम्—नपुं॰—-—प्रा॰ स॰-अपकृष्टं तीर्थम्—बुरा तीर्थस्थान
- अपत्यम्—नपुं॰—-—न पतन्ति पितरोप्ऽनेन-नञ्+पत्+यत्—सन्तान, बच्चे, प्रजा, संतति, बेटा या बेटी; एक ही कुल में उत्पन्न पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र
- अपत्यम्—नपुं॰—-—न पतन्ति पितरोप्ऽनेन-नञ्+पत्+यत्—अपत्यवाचक प्रत्यय
- अपत्यकाम—वि॰—अपत्यम्-काम—-—सन्तान का इच्छुक
- अपत्यपथः—पुं॰—अपत्यम्-पथः—-—योनि
- अपत्यप्रत्ययः—पुं॰—अपत्यम्-प्रत्ययः—-—अप्त्यवाची प्रत्यय
- अपत्यविक्रयिन्—पुं॰—अपत्यम्-विक्रयिन्—-—सन्तान का विक्रेता, वह पिता जो धन के लालच से अपनी कन्या को भावी जामाता के हाथ बेच देता है
- अपत्यशत्रुः—पुं॰—अपत्यम्-शत्रुः—-—केंकड़ा
- अपत्यशत्रुः—पुं॰—अपत्यम्-शत्रुः—-—साँप
- अपत्रप—वि॰,ब॰ स॰—-—-—निर्लज्ज, बेहया
- अपत्रपा—स्त्री॰—-—-—लज्जा, हया
- अपत्रपणम्—नपुं॰—-—-—लज्जा, हया
- अपत्रपिष्णु—वि॰—-—अप+त्रप्+इष्णुच्—शर्मीला, लजीला
- अपत्रस्त—वि॰—-—अप+त्रस्+क्त—डरा हुआ, अपभीत
- अपथ—वि॰,न॰ ब॰—-—-—मार्गरहित, बिना सड़क के
- अपथम्—नपुं॰—-—-—जो मार्ग न हो, मार्ग का अभाव, कुमार्ग, नैतिक अनियमितता या स्खलन, दुष्पथ या कुमार्ग
- अपन्थाः—पुं॰—-—-—जो मार्ग न हो, मार्ग का अभाव, कुमार्ग, नैतिक अनियमितता या स्खलन, दुष्पथ या कुमार्ग
- अपथगामिन्—वि॰—अपथ-गामिन्—-—कुमार्ग पर चलने वाला, विधर्मगामी
- अपथ्य—वि॰,न॰ त॰—-—-—अयोग्य, अनुचित, असंगत, घृणित
- अपथ्य—वि॰,न॰ त॰—-—-—अस्वास्थ्यकर, रोगजनक
- अपथ्य—वि॰,न॰ त॰—-—-—बुरा, दुर्भाग्यपूर्ण
- अपथ्यकारिन्—वि॰—अपथ्य-कारिन्—-—कष्टप्रद
- अपदः—पुं॰—-—-—बिना पैर का
- अपदम्—नपुं॰—-—-—आवास या स्थान का अभाव
- अपदम्—नपुं॰—-—-—सदोष स्थान या अनुपयुक्त आवास
- अपदम्—नपुं॰—-—-—ऐसा शब्द जिसाके साथ अभी विभक्ति-चिह्न न जुड़ा हो
- अपदम्—नपुं॰—-—-—अन्तरिक्ष
- अपदान्तर—वि॰—अपदः-अन्तर—-—संलग्न, संसक्त, समीपस्थ
- अपदान्तरम्—वि॰—अपदः-अन्तरम्—-—सामीप्य, संसक्तता
- अपदक्षिणम्—अव्य॰ स॰—-—-—बाई ओर
- अपदम—वि॰,ब॰ स॰—-—-—आत्मसंयम से हीन
- अपदश—वि॰,ब॰ स॰—-—-—दस की संख्या से दूर
- अपदानम्—नपुं॰—-—अप+दा+ल्युट् स्वार्थे कन् च—पवित्राचरण, मान्य जीवनचर्या
- अपदानम्—नपुं॰—-—अप+दा+ल्युट् स्वार्थे कन् च—उत्तम कार्य, सर्वोत्तम कार्य
- अपदानम्—नपुं॰—-—अप+दा+ल्युट् स्वार्थे कन् च—भलीभाँति पूर्ण रुप से किया गया कार्य, निष्पन्न कार्य
- अपदानकम्—नपुं॰—-—अप+दा+ल्युट् स्वार्थे कन् च—पवित्राचरण, मान्य जीवनचर्या
- अपदानकम्—नपुं॰—-—अप+दा+ल्युट् स्वार्थे कन् च—उत्तम कार्य, सर्वोत्तम कार्य
- अपदानकम्—नपुं॰—-—अप+दा+ल्युट् स्वार्थे कन् च—पवित्राचरण, मान्य जीवनचर्या
- अपदार्थः—पुं॰—-—-—कुछ नहीं, सत्ता का अभाव
- अपदार्थः—पुं॰—-—-—वाक्य में प्रयुक्त शब्दों का अर्थ न होना
- अपदिशम्—अव्य॰ स॰—-—-—मध्यवर्ती प्रदेश में, परिधि के दोनों प्रदेशों के बीच
- अपदेवता—स्त्री॰,पुं॰—-—-—पिशाच, भूत प्रेत
- अपदेशः—पुं॰—-—अप+दिश्+घञ्—वक्तव्य, उपदेश, नाम का उल्लेख करते हुए संकेत करना
- अपदेशः—पुं॰—-—अप+दिश्+घञ्—बहाना, छल, कारण, व्याज
- अपदेशः—पुं॰—-—अप+दिश्+घञ्—कारणों का वर्णन, तर्क प्रस्तुत करना, भारतीय न्यायवाद के पाँच अंगों में से दूसरा-हेतु
- अपदेशः—पुं॰—-—अप+दिश्+घञ्—निशाना, चिह्न
- अपदेशः—पुं॰—-—अप+दिश्+घञ्—स्तथान, दिशा
- अपदेशः—पुं॰—-—अप+दिश्+घञ्—अस्वीकृति
- अपदेशः—पुं॰—-—अप+दिश्+घञ्—प्रसिद्धि, यश
- अपदेशः—पुं॰—-—अप+दिश्+घञ्—छल
- अपद्रव्यम्—नपुं॰—-—-—बुरा द्रव्य, बुरी वस्तु
- अपद्वारम्—नपुं॰—-—-—बगल का दरवाजा, असली द्धार के अतिरिक्त कोई दूसरा प्रवेश द्धार
- अपधूम—वि॰,ब॰ स॰—-—-—जिसमें धूआं न हो, धूमरहित
- अपध्यानम्—नपुं॰—-—-—बुरे विचार, अनिष्ट चिन्तन, मन ही मन कोसना
- अपध्वंसः—पुं॰—-—-—अधःपतन, गिरावट, लांछन
- अपध्वंसजः—पुं॰—अपध्वंसः-जः—-—मिश्रित पतित तथा निन्द्य जाति में उत्पन्न
- अपध्वंसजा—स्त्री॰—अपध्वंसः-जा—-—मिश्रित पतित तथा निन्द्य जाति में उत्पन्न
- अपध्वस्त—वि॰—-—अप+ध्वंस्+क्त—झिड़का गया, अभिशप्त, घृणित
- अपध्वस्त—वि॰—-—अप+ध्वंस्+क्त—अपूर्ण रूप से या बुरी तरह पीसा हुआ
- अपध्वस्त—वि॰—-—अप+ध्वंस्+क्त—त्यक्त
- अपध्वस्तः—पुं॰—-—अप+ध्वंस्+क्त—दुष्ट, पाजी, जिसमें बुरे भले की समझ न हो
- अपनयः—पुं॰—-—अप+नी+अच्—ले जाना, हटाना, निराकरण करना
- अपनयः—पुं॰—-—अप+नी+अच्—दुर्नीति या दुराचरण
- अपनयः—पुं॰—-—अप+नी+अच्—क्षति, अपकार
- अपनयनम्—नपुं॰—-—अप+नी+ल्युट्—ले जाना, हटाना
- अपनस—वि॰,ब॰ स॰—-—-—बिना नाक का
- अपनुत्तिः—स्त्री॰—-—-—हटाना, ले जाना, नष्ट करना, प्रायश्चित्त, परिशोधन
- अपनोदः—स्त्री॰—-—-—हटाना, ले जाना, नष्ट करना, प्रायश्चित्त, परिशोधन
- अपनोदनम्—स्त्री॰—-—-—हटाना, ले जाना, नष्ट करना, प्रायश्चित्त, परिशोधन
- अपपाठः—पुं॰—-—-—अशुद्ध पठन, बुरी तरह पढ़ना, पढ़ने में अशुद्धि
- अपपात्र—वि॰—-—-—सामान्य पात्रों के उपयोग से वंचित#नीची जाति का ।
- अपपात्रितः—पुं॰—-—अपपात्र+इतच्—किसी बड़े पाप या अपराध के कारण जाति से बहिष्कृत होकर जो अपने संबंधियों के साथ सामान्य पात्रों में खान-पान के योग्य नहीं है ।
- अपपानम्—नपुं॰—-—अप+पा+ल्युट्—अपेय, बुरा पेय
- अपपूत—वि॰,ब॰ स॰—-—-—जिसके नितंबों या कूल्हों की बनावट सुडोल न हो
- अपप्रजाता—स्त्री—-—अपगतः प्रजातो यस्याः ब॰ स॰—वह स्त्री जिसका गर्भपात हो गया हो
- अपप्रदानम्—नपुं॰—-—अप+प्र+दा+ल्युट्—घूस, रिश्वत
- अपभय—वि॰—-—-—निडर, निर्भय, निश्शंक
- अपभरणी—स्त्री—-—अप+भृ+ल्युट्+ङीप्—अन्तिम नक्षत्रपुंज
- अपभाषणम्—नपुं॰—-—अप+भाष्+ल्युट्—भर्त्सना, अपयश
- अपभ्रंशः—पुं॰—-—अप+भ्रंश्+घञ्—नीचे गिरना, पतन
- अपभ्रंशः—पुं॰—-—अप+भ्रंश्+घञ्—भ्रष्ट शब्द, भ्रष्टाचार अशुद्ध शब्द चाहे वह व्याकरण के नियमों के विपरीत हो और चाहे वह ऐसे अर्थ में प्रयुक्त हुआ हो जो संस्कृत न हो
- अपभ्रंशः—पुं॰—-—अप+भ्रंश्+घञ्—भ्रष्ट भाषा, गड़रियों आदि के द्वारा प्रयुक्त प्राकृत बोली का निम्नतम रूप, संस्कृत से भिन्न कोई भी भाषा
- अपमः—पुं॰—-—अपकृष्टं मीयते-मा+क बा॰—कुतुबनुमा नें सुई का उत्तर से ठीक पूर्व या पश्चिम की ओर घुमाव, क्रान्तिवलय
- अपमर्दः —पुं॰—-—अप+मृद्+घञ्—जो बुहारा जाता है, धूल, गर्दा
- अपमर्शः—पुं॰—-—अप+मृश+घञ्—छूना, चरना
- अपमानः—पुं॰—-—अप+मन्+घञ्—अनादर, सम्मान का न होना लांछन
- अपमार्गः —पुं॰—-—अप+मृग्+घञ्—छोटा रास्ता, बगल का मार्ग, बुरा रास्ता
- अपमार्जनम्—नपुं॰—-—अप+मार्ज्+ल्युट्—धोकर साफ करना, माँजना, साफ करना
- अपमार्जनम्—नपुं॰—-—अप+मार्ज्+ल्युट्—हजामत बनवाना, नाखून कटाना
- अपमुख—वि॰,ब॰ स॰—-—-—औधे मुंह वाला
- अपमुख—वि॰,ब॰ स॰—-—-—विरूप, कुरूप
- अपमूर्धन्—वि॰,ब॰ स॰—-—-—जिसके सिर न हो
- अपमृत्युः—पुं॰—-—-—आकस्मिक या असामयिक मरण, दुर्घटना के कारण मृत्यु
- अपमृत्युः—पुं॰—-—-—कोई भारी भय या रोग जिससे कि रोगी आशा के विपरीत स्वस्थ हो जाता है
- अपमृषित—वि॰—-—अप+मृप्+क्त—जो समझ में न आ सके, अस्पष्ट जैसे कि कोई वाक्य या वक्तृता
- अपमृषित—वि॰—-—अप+मृप्+क्त—जो सह्य न हो, जिसे कोई पसन्द न करे
- अपयशस्—वि॰,पुं॰—-— —बदनामी, कलंक, अपकीर्ति
- अपयानम्—नपुं॰—-—अप+या+ल्युट्—दूर जाना, वापिस मुड़ना, भागना
- अपर—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अप्रतिद्वन्द्वी, वेजोड़
- अपर—वि॰,न॰त॰—-—-—(क) दूसरा, अन्य, (ख) और, अतिरिक्त, (ग) दूसरा, और, (घ) भिन्न, अन्य, (ङ) तुच्छ, मध्यम
- अपर—वि॰—-—-—किसी और से संबंध रखने वाला, जो अपना निजी न हो
- अपर—वि॰—-—-—पिछला, बाद का, दूसरा, बाद में, अन्तिम
- अपरपक्षः—पुं॰—अपर-पक्षः—-—मास का उत्तरार्ध
- अपरहेमन्तः—पुं॰—अपर-हेमन्तः—-—सर्दियों का उत्तरार्ध
- अपरकायः—पुं॰—अपर-कायः—-—शरीर का पिछला भाग, आदि
- अपरवर्षा—स्त्री—अपर-वर्षा—-—बरसात या पतझड़ का उत्तरार्ध
- अपरशरद—स्त्री—अपर-शरद—-—बरसात या पतझड़ का उत्तरार्ध
- अपर—वि॰—-—-—आगामी, अगला
- अपर—वि॰—-—-—पश्चिमी
- अपर—वि॰—-—-—घटिया, निम्नतर
- अपर—वि॰—-—-—अविस्तृत, अधिक न ढकने वाला
- अपरः—पुं॰—-—-—हाथी का पिछला पैर
- अपरः—पुं॰—-—-—शत्रु
- अपरा—स्त्री॰—-—-—पश्चिमी दिशा
- अपरा—स्त्री॰—-—-—हाथी का पिछला भाग
- अपरा—स्त्री॰—-—-—गर्भाशय, गर्भ की झिल्ली
- अपरा—स्त्री॰—-—-—गर्भावस्था में रुका हुआ रजोधर्म
- अपरम्—नपुं॰—-—-—भविष्य
- अपरम्—नपुं॰—-—-—हाथी का पिछला हिस्सा
- अपरम्—क्रि॰ वि॰—-—-—पुनः भविष्य में
- अपरञ्च—अव्य॰—-—-—इसके अतिरिक्त
- अपरेण—अव्य॰—-—-—पीछे, पश्चिम में
- अपराग्नि—पुं॰—अपर-अग्नि—-—दक्षिण और पश्चिमी अग्नित्यां
- अपराङ्गम्—नपुं॰—अपर-अङ्गम्—-—काव्य के द्वितीय प्रकार गुणीभूतव्यंग्य के आठ भेदों में से एक भेद, काव्य ५, इसमें व्यंग्यार्थ किसी और का गौण अर्थ है
- अपरान्त—वि॰—अपर-अन्त—-—पश्चिमी सीमा पर रहने वाला
- अपरान्तः—पुं॰—अपर-अन्तः—-—पश्चिमी सीमा या किनारा, अन्तिम छोर, पश्चिमी छोर, पश्चिमी तट
- अपरान्तः—पुं॰—अपर-अन्तः—-—सह्य पर्वत का निकटवर्ती पश्चिमी सीमा प्रदेश या वहां के निवासी
- अपरान्तः—पुं॰—अपर-अन्तः—-—इस देश के राजा
- अपरान्तः—पुं॰—अपर-अन्तः—-—मृत्यु
- अपरान्तकः—पुं॰—अपर-अन्तकः—-—दूसरे और दूसरे, कई, बहुत
- अपरान्तः—पुं॰—अपर-अन्तः—-—दूसरे और दूसरे, कई, बहुत
- अपरापराः—स्त्री—अपर-अपराः—-—दूसरे और दूसरे, कई, बहुत
- अपरापरे—पुं॰—अपर-अपरे—-—दूसरे और दूसरे, कई, बहुत
- अपरापराणि—नपुं॰—अपर-अपराणि—-—दूसरे और दूसरे, कई, बहुत
- अपरार्धम्—नपुं॰—अपर-अर्धम्—-—उत्तरार्ध
- अपराह्णः—पुं॰—अपर-अह्नः—-—दोपहर बाद, दिन का अन्तिम या समापक पहर
- अपरेतरा—स्त्री—अपर-इतरा—-—पूर्व दिशा
- अपरकालः—पुं॰—अपर-कालः—-—बाद का समय
- अपरजनः—पुं॰—अपर-जनः—-—पश्चिम देश का वासी, पश्चिमी लोग
- अपरदक्षिणम्—अव्य॰—अपर-दक्षिणम्—-—दक्षिण पश्चिम में
- अपरपक्षः—पुं॰—अपर-पक्षः—-—मास का दूसरा या कृष्ण पक्ष
- अपरपक्षः—पुं॰—अपर-पक्षः—-—दूसरी या विपरीत दिशा, प्रतिवादी
- अपरपर—वि॰—अपर-पर—-—कई एक, बहुत से, विविध
- अपरपाणिनीयाः—पुं॰—अपर-पाणिनीयाः—-—पश्चिम के निवासी पाणिनी के शिष्य
- अपरप्रणेय—वि॰—अपर-प्रणेय—-—जो दूसरों के द्वारा आसानी से प्रभावित हो सके, विधेय
- अपररात्रः—पुं॰—अपर-रात्रः—-—रात्रि का उत्तरार्ध या रात का अन्तिम पहर
- अपरलोकः—पुं॰—अपर-लोकः—-—दूसरी दुनिया, अगला लोक, स्वर्ग
- अपरस्वस्तिकम्—नपुं॰—अपर-स्वस्तिकम्—-—क्षितिज में पश्चिमी बिन्दु
- अपरहैमन—वि॰—अपर-हैमन—-—सर्दी के उत्तरार्ध से संबंध रखने वाला
- अपरक्त—वि॰—-—अप+रञ्ज्+क्त—रंगहीन, रुधिर-रहित, पीला
- अपरक्त—वि॰—-—अप+रञ्ज्+क्त—असन्तुष्ट, सन्तोषरहित
- अपरता—स्त्री॰—-—अपर+तल्—दूसरा या भिन्न होना, भिन्नता, विपर्यय, आपेक्षिकता
- अपरत्वम्—नपुं॰—-—अपर+ त्वल्वा—दूसरा या भिन्न होना, भिन्नता, विपर्यय, आपेक्षिकता
- अपरतिः—स्त्री॰—-—अप्+रम्+क्तिन्—विच्छेद
- अपरतिः—स्त्री॰—-—अप्+रम्+क्तिन्—असन्तोष
- अपरत्र—क्रि॰ वि॰—-—अपर+त्रल्—दूसरे स्थान पर, और कहीं
- अपरवः—पुं॰—-—-—झगड़ा, विवाद
- अपरवोज्झित—वि॰—अपरवः-उज्झित—-—बिना झगड़े के, बिना विवाद के
- अपरवोज्झित—वि॰—अपरवः-उज्झित—-—बदनामी
- अपरस्पर —वि॰,द्व॰ स॰—-—अपरंच परं च, पूर्वपदे सुश्च—एक के बाद दूसरा, निर्बाध, अनवरत
- अपराग—वि॰,ब॰ स॰—-—-—रंगहीन
- अपरागः—पुं॰—-—-—असंतोष, संतोष का अभाव, अनुराग का अभाव
- अपरागः—पुं॰—-—-—विराग, शत्रुता
- अपराञ्च्—वि॰—-—अपर+अञ्च्+क्विप्—दूर न किया गया, मुंह न फेरा हुआ,संमुख होने वाला सामने होने वाला
- अपराक्—अव्य॰—-—-—के सामने
- अपराङ्मुख—वि॰—अपराञ्च्-मुख—-—मुंह न मोड़े हुए, मुंह सामने किये हुए
- अपराङ्मुख—वि॰—अपराञ्च्-मुख—-—साहसपूर्ण पग रखते हुए
- अपराजित —वि॰,न॰ त॰—-—-—जो जीता न गया हो, अजेय
- अपराजितः —पुं॰—-—-—विषैला जन्तु
- अपराजितः —पुं॰—-—-—विष्णु, शिव
- अपराजितः —पुं॰—-—-—उत्तर पूर्व दिशा
- अपराजिता—स्त्री—-—-—दुर्गादेवी जिसकी पूजा विजया दशमी के दिन की जाती है, एक प्रकार की औषधि जो कि ताबीज के रूप में भुजा में बांधी जाती है
- अपराद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—अप्+राध्+क्त—जिसने पाप किया है, किसी को कष्ट दिया है्,अपराध करने वाला, कष्ट देने वाला
- अपराद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—अप्+राध्+क्त—जो चूक गया हो, निशाने पर न लगने वाला
- अपराद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—अप्+राध्+क्त—जिसने उल्लंघन किया है, अतिक्रान्त
- अपराद्धम्—भू॰ क॰ कृ॰—-—अप्+राध्+क्त—अपराध, कष्ट
- अपराद्धिः—स्त्री॰—-—अप+राध्+क्तिन्—दोष, अपराध
- अपराद्धिः—स्त्री॰—-—अप+राध्+क्तिन्—पाप
- अपराधः—पुं॰—-—अप+राध्+घञ्—अपराध, दोष, जुर्म, पाप
- अपराधिन्—वि॰—-—अप्+राध्+णिनि—कष्टकर, दोषी
- अपरिग्रहः—पुं॰—-—-—जिसके पास न कोई सामान हो, न नौकर चाकर; जो सब प्रकार से हीन हो
- अपरिग्रहः—पुं॰—-—-—अस्वीकृति, इंकारी
- अपरिग्रहः—पुं॰—-—-—दरिद्रता, गरीबी
- अपरिच्छद—वि॰,न॰ ब॰—-—-—गरीब, दरिद्र
- अपरिच्छिन्न—वि॰,न॰ त॰—-—-—जिसका अंतर न पहचाना गया हो
- अपरिच्छिन्न—वि॰,न॰ त॰—-—-—सीमा रहित
- अपरिणयः—पुं॰—-—-—चिरकौमार्य, ब्रह्मचर्य
- अपरिणीता—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—अविवाहित कन्या
- अपरिसंख्यानम्—नपुं॰—-—-—असीमता, असंख्यता
- अपरीक्षित—वि॰,न॰ त॰—-—-—बिना परीक्षा लिया हुआ, बिना जांचा हुआ, अप्रमाणित
- अपरीक्षित—वि॰,न॰ त॰—-—-—अविचारित, मूर्खतापूर्ण, विचारहीन
- अपरीक्षित—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो स्पष्ट रूप से स्थापित या सिद्ध न हुआ हो
- अपरुष्—वि॰,न॰ त॰—-—-—क्रोधशून्य
- अपरूप—वि॰,ब॰ स॰—-—-—कुरूप, विरूप, बेढंगी शक्ल वाला
- अपरूपम्—नपुं॰—-—-—विरूपता
- अपरेद्युः—अव्य॰—-—अपर+एद्युस्—अगले दिन
- अपरोक्ष—वि॰,न॰ त॰—-—-—दृश्य
- अपरोक्ष—वि॰,न॰ त॰—-—-—प्रत्यक्ष
- अपरोक्ष—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो दूर न हो
- अपरोक्षम्—क्रि॰ वि॰—-—-—की उपस्थिति में
- अपरोक्षात्—क्रि॰ वि॰—-—-—प्रत्यक्ष रूप से, दृश्यतापूर्वक
- अपरोधः—पुं॰—-—अप+रुध्+घञ्—वर्जन, निषेध
- अपर्ण—वि॰,न॰ ब॰—-—-—बिना पत्तों का
- अपर्णा—स्त्री—-—-—पार्वती या दुर्गादेवी
- अपर्याप्त—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो यथेष्ट या काफी न हो, अपूर्ण, जो पर्याप्त न हो
- अपर्याप्त—वि॰,न॰ त॰—-—-—असीमित
- अपर्याप्त—वि॰,न॰ त॰—-—-—अयोग्य, असमर्थ
- अपर्याप्तिः—स्त्री॰—-—नञ्+परि+आप्+क्तिन्—यथेष्टता का अभाव
- अपर्याय—वि॰,न॰ ब॰—-—-—क्रमरहित
- अपर्यायः—पुं॰—-—-—क्रम या प्रणाली का अभाव
- अपर्युषित—वि॰—-—नञ्+परि+वस्+क्त—जो रात का रक्खा हुआ हो, ताजा, नूतन
- अपर्वन्—वि॰,न॰ ब॰—-—-—जिसमें जोड़ न लगा हो
- अपर्वन्—नपुं॰—-—-—जोड़ या संयोग बिन्दू का अभाव
- अपर्वन्—नपुं॰—-—-—जो पर्व का दिन न हो अर्थात् अनुपयुक्त समय या ऋतु
- अपल—वि॰,न॰ ब॰—-—-—बिना मांस का
- अपलम्—नपुं॰—-—-—कील या कुंडी
- अपलपनम्—नपुं॰—-—अप+लप्+ल्युट्—छिपाना, गोपन
- अपलपनम्—नपुं॰—-—अप+लप्+ल्युट्—छिपाव या जानकारी से मुकर जाना, टालमटोल
- अपलपनम्—नपुं॰—-—अप+लप्+ल्युट्—सत्यता, विचार व भावनाओं को छिपाना, घटाकर बतलाना
- अपलापः—पुं॰—-—अप+लप्+घञ्—छिपाना, गोपन
- अपलापः—पुं॰—-—अप+लप्+घञ्—छिपाव या जानकारी से मुकर जाना, टालमटोल
- अपलापः—पुं॰—-—अप+लप्+घञ्—सत्यता, विचार व भावनाओं को छिपाना, घटाकर बतलाना
- अपलपनदण्डः—पुं॰—-—-—उस व्यक्ति पर किया जाने वाल जुर्माना जो दोष सिद्ध होने पर भी दोष को स्वीकार नहीं करता
- अपलापदण्डः—पुं॰—-—-—उस व्यक्ति पर किया जाने वाल जुर्माना जो दोष सिद्ध होने पर भी दोष को स्वीकार नहीं करता
- अपलापिन् —वि॰—-—अप+लप्+णिनि—मुकरने वाला, दोष को स्वीकार न करने वाला, छिपाने वाला
- अपलाषिका—स्त्री॰—-—अप+लष+ण्वुल् स्त्रियां टाप्—अत्यधिक प्यास या इच्छा या सामान्य तृषा
- अपलाषिन्—वि॰—-—अप+लष्+णिनि—प्यासा
- अपलाषिन्—वि॰—-—अप+लष्+णिनि—प्यास या इच्छा से रहित
- अपलाषुक—वि॰—-—अप+लष्+उकञ्—प्यासा
- अपलाषुक—वि॰—-—अप+लष्+उकञ्—प्यास या इच्छा से रहित
- अपवन —वि॰,न॰ ब॰—-—-—बिना वायु या हवा के, हवा से सुरक्षित
- अपवनम् —नपुं॰—-—-—नगर के निकट लग्आया हुआ बाग वाटिका या उपवन
- अपवरकः—पुं॰—-—अप+वृ+वुन् स्त्रियां टाप् —भीतर का कमरा, शयनागार
- अपवरकः—पुं॰—-—अप+वृ+वुन् स्त्रियां टाप् —वातायन, मोघा
- अपवरका—स्त्री॰—-—अप+वृ+वुन् स्त्रियां टाप् —भीतर का कमरा, शयनागार
- अपवरका—स्त्री॰—-—अप+वृ+वुन् स्त्रियां टाप् —वातायन, मोघा
- अपवरणम्—नपुं॰—-—अप+वृ+ल्युट्—आच्छादन, पर्दा
- अपवरणम्—नपुं॰—-—अप+वृ+ल्युट्—पोशाक, वस्त्र
- अपवर्गः—पुं॰—-—अप+वृ+घञ्—पूर्ति, समाप्ति, किसी कार्य की पूर्णता या निष्पन्नता
- अपवर्गः—पुं॰—-—अप+वृ+घञ्—अपवाद, विशिष्ट नियम
- अपवर्गः—पुं॰—-—अप+वृ+घञ्—मोक्ष, परमगति
- अपवर्गः—पुं॰—-—अप+वृ+घञ्—उपहार, दान
- अपवर्गः—पुं॰—-—अप+वृ+घञ्—त्याग
- अपवर्गः—पुं॰—-—अप+वृ+घञ्—छोड़ना
- अपवर्जनम्—नपुं॰—-—अप+वृज्+ल्युट्—त्याग, पालन, परिशोध
- अपवर्जनम्—नपुं॰—-—अप+वृज्+ल्युट्—उपहार या दान
- अपवर्जनम्—नपुं॰—-—अप+वृज्+ल्युट्—परमगति
- अपवर्तः—पुं॰—-—अप+वृत्+घञ्—निकाल लेना, दूर करना
- अपवर्तः—पुं॰—-—अप+वृत्+घञ्—सामान्यविभाजक जो दोनों साम्यराशियों में व्यवहृत होता है
- अपवर्तनम्—नपुं॰—-—अप+वृत्+ल्युट्—दूर करना
- स्थानापवर्तनम्—नपुं॰—स्थान-अपवर्तनम्—-—स्थानान्तरण
- अपवर्तनम्—नपुं॰—-—अप+वृत्+ल्युट्—निकाल देना, वञ्चित करना
- अपवादः—पुं॰—-—अप+वद्+घञ्—निन्दा, भर्त्सना, कलंक
- अपवादः—पुं॰—-—अप+वद्+घञ्—सामान्य नियम को बाधित करने वाला विशेष नियम
- अपवादः—पुं॰—-—अप+वद्+घञ्—आदेश, आज्ञा
- अपवादः—पुं॰—-—अप+वद्+घञ्—निराकरण, मिथ्यारोपण या मिथ्याविश्वास का निराकरण
- अपवादः—पुं॰—-—अप+वद्+घञ्—भरोसा
- अपवादः—पुं॰—-—अप+वद्+घञ्—प्रेम, घनिष्ठता
- अपवादक—वि॰—-—अप+वद्+ण्वुल्—कलंक लगाने वाला, निन्दक, बदनाम करने वाला
- अपवादक—वि॰—-—अप+वद्+ण्वुल्—विरोध करने वाला, एक ओर रखने वाला, निकाल देने वाला
- अपवादिन्—वि॰—-—प्+वद्+णिनि—कलंक लगाने वाला, निन्दक, बदनाम करने वाला
- अपवादिन्—वि॰—-—प्+वद्+णिनि—विरोध करने वाला, एक ओर रखने वाला, निकाल देने वाला
- अपवारणम्—नपुं॰—-—अप+वृ+णिच्+ल्युट्—आच्छादन, छिपाव
- अपवारणम्—नपुं॰—-—अप+वृ+णिच्+ल्युट्—ओझल होना
- अपवारित—भू॰ क॰ कृ॰—-—अप+वृ+णिच्+क्त—ढका हुआ, छिपा हुआ
- अपवारितम्—भू॰ क॰ कृ॰—-—अप+वृ+णिच्+क्त—छिपा हुआ या गुप्त ढंग से
- अपवारितकम्—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—छिपा हुआ या गुप्त ढंग से
- अपवारितम्—नपुं॰—-—-—पृथक', 'एक ओर' अर्थ प्रकट करने वाला अव्यय, यह इस ढंग से बोलने को कहते हैं कि केवल वही सुने जिसे कहा गया है
- अपवारितकेन—अव्य॰—-—-—पृथक', 'एक ओर' अर्थ प्रकट करने वाला अव्यय, यह इस ढंग से बोलने को कहते हैं कि केवल वही सुने जिसे कहा गया है
- अपवार्य—अव्य॰—-—-—पृथक', 'एक ओर' अर्थ प्रकट करने वाला अव्यय, यह इस ढंग से बोलने को कहते हैं कि केवल वही सुने जिसे कहा गया है
- अपवाहः—पुं॰—-—अप+वह्+णिच+घञ्—दूर ले जाना, हटाना
- अपवाहः—पुं॰—-—अप+वह्+णिच+घञ्—घटाना, एक राशि नें से दूसरी राशि को निकालना
- अपवाहनम्—नपुं॰—-—अप+वह्+णिच+ल्युट्—दूर ले जाना, हटाना
- अपवाहनम्—नपुं॰—-—अप+वह्+णिच+ल्युट्—घटाना, एक राशि नें से दूसरी राशि को निकालना
- अपविघ्न—वि॰,ब॰ स॰—-—-—निर्बाध, बाधारहित
- अपविद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—अप+व्यध्+क्त—दूर फेंका हुआ, त्यक्त, अस्वीकृत, उपेक्षित, दूरीकृत, मुक्त, विरहित
- अपविद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—अप+व्यध्+क्त—नीच, कमीना
- अपविद्धः—पुं॰—-—-—माता या पिता दोनों से त्यागा हुआपुत्र जिसे किसी अपरिचित व्यक्ति ने गोद ले लिया हो, हिन्दुओं में १२ प्रकार के पुत्रों में से एक
- अपपुत्रः—पुं॰—अप-पुत्रः—-—माता या पिता दोनों से त्यागा हुआपुत्र जिसे किसी अपरिचित व्यक्ति ने गोद ले लिया हो, हिन्दुओं में १२ प्रकार के पुत्रों में से एक
- अपविद्या—स्त्री॰,पुं॰—-— —अज्ञान, आध्यात्मिक अज्ञान, माया या भ्रम
- अपवीण—वि॰,ब॰ स॰—-—-—जिसके पास वीणा न हो या खराब वीणा हो
- अपवीणा—स्त्री॰,पुं॰—-—-—खराब वीणा
- अपवृक्तिः—स्त्री॰—-—अप+वृज्+क्तिन् —पूर्णता, निष्पन्नता, पूर्ति
- अपवृतिः—स्त्री॰—-—अप+वृत्+क्तिन्—सूराख, छिद्र, रंध्र
- अपवृत्तिः—स्त्री॰—-—अप+वृत्+क्तिन्—अन्त, समाप्ति
- अपवेधः—पुं॰—-— —गलत जगह या बुरे ढंग से छेद करना
- अपव्ययः—पुं॰—-—-—अत्यधिक खर्च, अपव्यय
- अपशकुनम्—नपुं॰—-— —असगुन, बुरा सगुन
- अपशङ्क—वि॰,ब॰ स॰—-—-—निर्भय, निश्शंक
- अपशङ्कम्—क्रि॰ वि॰—-—-—निडरता के साथ
- अपशदः—पुं॰—-—-—जाति के बहिष्कृत, नीच पुरुष,प्रायः समास के अन्त में प्रयुक्त होकर अर्थ होता है -दुष्ट, पाजी, अभिशप्त
- अपशदः—पुं॰—-—-—छः प्रकार की अनुलोम सन्तान-अर्थात् पकले तीन वर्णों के मनुष्यों द्वारा अपने से नीच वर्ण की स्त्री में उत्पन्न
- अपशब्दः—पुं॰—-— —अशुद्ध शब्द, भ्रष्ट शब्द
- अपशब्दः—पुं॰—-—-—ग्राम्य शब्द
- अपशब्दः—पुं॰—-—-—व्या॰ की दृष्टि से अशुद्ध भाषा
- अपशब्दः—पुं॰—-—-—झिड़की वाला शब्द, गाली, दुर्वचन, निंदा
- अपशिरस् —वि॰—-—अपगतं शिरः शीर्षं वा यस्य-ब॰ स॰—सिर रहित, बे सिर का
- अपशीर्ष—वि॰—-—अपगतं शिरः शीर्षं वा यस्य-ब॰ स॰—सिर रहित, बे सिर का
- अपशीर्षन्—वि॰—-—अपगतं शिरः शीर्षं वा यस्य-ब॰ स॰—सिर रहित, बे सिर का
- अपशुच्—वि॰,ब॰ स॰—-—-—शोकरहित
- अपशुच्—पुं॰—-—-—आत्मा
- अपशोक—वि॰,ब॰ स॰—-—-—शोकरहित
- अपशोकः—पुं॰—-—-—अशोक वृक्ष
- अपश्चिम—वि॰,न॰ त॰—-—-—जिसके पीछे कोई न हो, अंतिम
- अपश्चिम—वि॰,न॰ त॰—-—-—अनन्तिम, प्रथम, सर्वप्रथम
- अपश्चिम—वि॰,न॰ त॰—-—-—चरम
- अपश्रयः—पुं॰—-—अप+श्रि+अच्—गद्दी, तकिया
- अपश्री—वि॰,ब॰ स॰—-—-—सौन्दर्य से वञ्चित
- अपश्वासः—पुं॰—-—-—श्वास बाहर निकलना,श्वास लेने की क्रिया, शरीर में रहने वाले पांच पवनों में से एक जो कि नीचे की ओर जाता है त्तथा गुदा के मार्ग से बाहर निकलता है
- अपष्ठम्—नपुं॰—-—अप+स्था+क—हाथी के अंकुश की नोक
- अपष्ठु—वि॰—-—अप+स्था+कु—विरुद्ध, विपरीत
- अपष्ठु—वि॰—-—अप+स्था+कु—अनुकूल, प्रतिकूल
- अपष्ठु—वि॰—-—अप+स्था+कु—बायाँ
- अपष्ठु—क्रि॰ वि॰—-—अप+स्था+कु—विरुद्ध
- अपष्ठु—क्रि॰ वि॰—-—अप+स्था+कु—असत्यतापूर्वक
- अपष्ठु—क्रि॰ वि॰—-—अप+स्था+कु—निर्दोषता के साथ भली-भांति, ठीक तरह से
- अपष्ठुर—वि॰—-—अप+स्था+कुरच्—विरुद्ध, विपरीत
- अपष्ठुल—वि॰—-—अप+स्था+कुलच्—विरुद्ध, विपरीत
- अपसदः—पुं॰—-—अप+सद्+अच्—जाति के बहिष्कृत, नीच पुरुष,प्रायः समास के अन्त में प्रयुक्त होकर अर्थ होता है -दुष्ट, पाजी, अभिशप्त
- अपसदः—पुं॰—-—अप+सद्+अच्—छः प्रकार की अनुलोम सन्तान-अर्थात् पकले तीन वर्णों के मनुष्यों द्वारा अपने से नीच वर्ण की स्त्री में उत्पन्न
- अपसरः—पुं॰—-—अप+सृ+अच्—प्रस्थान,पलायन
- अपसरः—पुं॰—-—अप+सृ+अच्—उचित कारण
- अपसरणम्—नपुं॰—-—अप+सृ+ल्युट्—जाना,वापिस मुडना,पलायन
- अपर्सजनम्—नपुं॰—-—अप+सृज्+ल्युट्—त्याग,उत्सर्ग॑
- अपर्सजनम्—नपुं॰—-—अप+सृज्+ल्युट्—उपहार या दान
- अपर्सजनम्—नपुं॰—-—अप+सृज्+ल्युट्—मोक्ष
- अपसर्पः—पुं॰—-—अप+सृप्+ल्युट्,स्वार्थे कन् च—गुप्तचर,जासूस,भेदिया
- अपसर्पकः—पुं॰—-—अप+सृप्+ल्युट्,स्वार्थे कन् च—गुप्तचर,जासूस,भेदिया
- अपसर्पणम्—नपुं॰—-—अप+सृप्+ल्युट्—पीछे हटना, लौटाना, जासूसी करना
- अपसव्य—वि॰,ब॰ स॰—-—-—जो बायां न हो, दायां
- अपसव्य—वि॰,ब॰ स॰—-—-—विरुद्ध,विपरीत
- अपसव्यक—वि॰,ब॰ स॰—-—-—जो बायां न हो, दायां
- अपसव्यक—वि॰,ब॰ स॰—-—-—विरुद्ध,विपरीत
- अपसव्यम्—अव्य॰—-—-—दाई ओर, दाहिने कंधे के ऊपर से जनेऊ को शरीर के वाम भाग पर लटकाना
- अपसव्यम् कृ——-—-—दाहिनी ओर रखते हुए किसी की परिक्रमा करना, जनेऊ को दायें कंधे से लटकाना
- अपसव्यत्—वि॰—-—अपसव्य+मतुप्—दाहिने कंधे पर से यज्ञोपवीत पहनने वाला
- अपसारः—पुं॰—-—अप+सृ+घञ्—बाहर जाना,लौटना
- अपसारः—पुं॰—-—अप+सृ+घञ्—निर्गमस्थान निकास
- अपसारणम्—नपुं॰—-—अप+सृ+ल्युट्,स्त्रियां टाप्—हटाकर दूर करना, हांकना,बाहर निकलना , स्थान देना
- अपसारणा—स्त्री॰—-—अप+सृ+ल्युट्,स्त्रियां टाप्—हटाकर दूर करना, हांकना,बाहर निकलना , स्थान देना
- अपसिद्धान्तः—पुं॰—-—प्रा॰ स॰ —गलत या भ्रमयुक्त निर्णय
- अपसृप्तिः—स्त्री॰—-—अप+सृप्+क्तिन्—दूर चले जाना
- अपस्करः—पुं॰—-—अप+कृ+अप् सुडागमः—पहिये को छोडकर गाडी का कोई भाग
- अपस्करः—पुं॰—-—अप+कृ+अप् सुडागमः—विष्ठा, मल
- अपस्करः—पुं॰—-—अप+कृ+अप् सुडागमः—योनि
- अपस्करः—पुं॰—-—अप+कृ+अप् सुडागमः—गुदा
- अपस्करम्—नपुं॰—-—अप+कृ+अप् सुडागमः—विष्ठा, मल
- अपस्करम्—नपुं॰—-—अप+कृ+अप् सुडागमः—योनि
- अपस्करम्—नपुं॰—-—अप+कृ+अप् सुडागमः—गुदा
- अपस्नानम्—नपुं॰—-—अप्+स्ना+ल्युट्—किसी संबंधी की मृत्यु के उपरांत किया जाने वाला स्नान
- अपस्नानम्—नपुं॰—-—अप्+स्ना+ल्युट्—मृतक स्नान,स्नान किये हुए पानी में स्नान करना
- अपस्पश—वि॰,ब॰ स॰—-—-—जिसके पास भेदिये न हो
- अपस्पर्श—वि॰,ब॰ स॰—-—-—संज्ञाहीन
- अपस्मारः—पुं॰—-—अपस्मृ+घञ्—स्मरण शक्ति का अभाव
- अपस्मारः—पुं॰—-—अपस्मृ+घञ्—मिरगी रोग,मूर्छा रोग
- अपस्मृतिः—स्त्री॰—-—अपस्मृ+क्तिन् —स्मरण शक्ति का अभाव
- अपस्मृतिः—स्त्री॰—-—अपस्मृ+क्तिन् —मिरगी रोग,मूर्छा रोग
- अपस्मारिन्—वि॰—-—अप्+स्मृ+णिनि—मिरगी रोग ग्रस्त
- अपस्मृति—वि॰,ब॰ स॰—-—-—विस्मरणशील
- अपह—वि॰—-—अप+हा+ड—दूर हटाना,दूर करना,नष्ट करना
- अपहतिः—स्त्री॰—-—अप+हन्+क्तिन्—दूर करना,नष्ट करना
- अपहननम्—नपुं॰—-—अप+हन्+ल्युट्—दूर हटाना,निवारण करना
- अपहरणम्—नपुं॰—-—अप+हृ+ल्युट्—दूर ले जाना,उड़ा ले जाना दूर करना
- अपहरणम्—नपुं॰—-—अप+हृ+ल्युट्—चुराना
- अपहसितम्—नपुं॰—-—अप+हस्+क्त—अकारण हंसी,मूर्खता पूर्ण हंसी,ऐसी हंसी जिससे आंखो में आसू आ जायँ
- अपहासः—पुं॰—-—अप+हस्+घञ्—अकारण हंसी,मूर्खता पूर्ण हंसी,ऐसी हंसी जिससे आंखो में आसू आ जायँ
- अपहस्तित—वि॰—-—अपहस्त+इतच्—दूर फेंका हुआ,रद्दी किया हुआ,परित्यक्त
- अपहानिः—स्त्री॰—-—अप+हा+क्तिन्—त्याग,छोड देना
- अपहानिः—स्त्री॰—-—अप+हा+क्तिन्—रुक जाना,ओझल होना
- अपहानिः—स्त्री॰—-—अप+हा+क्तिन्—अपवाद,निकाल देना
- अपहारः—पुं॰—-—अप+हृ+घञ्—उड़ा ले जाना,दूर ले जाना,चुरा लेना,नष्ट कर देना
- अपहारः—पुं॰—-—अप+हृ+घञ्—छिपाना,मालूम न पड़ने देना
- अपह्रवः—पुं॰—-—अप+ह्नु+अप्—छिपाव,गोहन,अपनी भावना ज्ञान आदि को छिपाना
- अपह्रवः—पुं॰—-—अप+ह्नु+अप्—सचाई से मुकर जाना,दुराव
- अपह्रवः—पुं॰—-—अप+ह्नु+अप्—प्रेम,स्नेह
- अपह्नुतिः—स्त्री॰—-—अप+ह्नु+क्तिन्—सत्य को छिपाना,मुकरना
- अपह्नुतिः—स्त्री॰—-—अप+ह्नु+क्तिन्—एक अलंकार जिसमें प्रस्तुत वस्तु के वास्तविक चरित्र को छिपा कर कोई और काल्पनिक या असत्य स्थापना की जाय
- अपह्रासः—पुं॰—-—अप+ह्रस्+घञ्—घटाना,कमी करना
- अपाक्—अव्य॰—-—-—पीछे की ओर जाने वाला,या पीछे स्थित
- अपाक्—अव्य॰—-—-—अमुक्त, अस्पष्ट
- अपाक्—अव्य॰—-—-—पश्चिमी
- अपाक्—अव्य॰—-—-—दक्षिणी
- अपाकः—पुं॰—-—-—अपच,अजीर्णता
- अपाकः—पुं॰—-—-—अपरिपक्वता
- अपाकरणम्—नपुं॰—-—अप+आ+कृ+ल्युट्—दूर कर देना, हटाना
- अपाकरणम्—नपुं॰—-—अप+आ+कृ+ल्युट्—अस्वीकृति,निराकरण
- अपाकरणम्—नपुं॰—-—अप+आ+कृ+ल्युट्—अदायगी,कारवार का समेट लेना
- अपाकर्मन्—नपुं॰—-—अप+आ+कृ+मनिन्—चुकता कर देना,कारवार उठा देना
- अपाकृतिः—स्त्री॰—-—अप+आ+कृ+क्तिन्—अस्वीकृति,दूर करना
- अपाकृतिः—स्त्री॰—-—अप+आ+कृ+क्तिन्—क्रोध से उत्पन्न संवेग,भय आदि
- अपाक्ष —वि॰—-—अपनतः अक्षमिन्द्रियम्—विद्यमान,प्रत्यक्ष
- अपाक्ष —वि॰,ब॰ स॰—-—-—नेत्रहीन, खराब आंखो वाला
- अपाङक्त—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो समान पंक्ति में न हो, विशेषतः वह व्यक्ति जो बिरादरी में अपने बन्धु-बान्धवो के साथ एक पंक्ति में बैठने का अधिकरी न हो, जाति बहिष्कृत
- अपाङक्तेय—वि॰—-—-—जो समान पंक्ति में न हो, विशेषतः वह व्यक्ति जो बिरादरी में अपने बन्धु-बान्धवो के साथ एक पंक्ति में बैठने का अधिकरी न हो, जाति बहिष्कृत
- अपाङक्त्य—वि॰—-—-—जो समान पंक्ति में न हो, विशेषतः वह व्यक्ति जो बिरादरी में अपने बन्धु-बान्धवो के साथ एक पंक्ति में बैठने का अधिकरी न हो, जाति बहिष्कृत
- अपाङ्गः—पुं॰—-—अपाङ्गं तिर्यक् चलति नेत्रं यत्र अप+अङ्ग घञ्, कन् च—आंखो की बाहरी कोर,या आंख की कोण
- अपाङ्गः—पुं॰—-—अपाङ्गं तिर्यक् चलति नेत्रं यत्र अप+अङ्ग घञ्, कन् च—सम्प्रदाय सूचक माथे का तिलक
- अपाङ्गः—पुं॰—-—अपाङ्गं तिर्यक् चलति नेत्रं यत्र अप+अङ्ग घञ्, कन् च—कामदेव, प्रेम का देवता
- अपाङ्गकः—पुं॰—-—अपाङ्गं तिर्यक् चलति नेत्रं यत्र अप+अङ्ग घञ्, कन् च—आंखो की बाहरी कोर,या आंख की कोण
- अपाङ्गकः—पुं॰—-—अपाङ्गं तिर्यक् चलति नेत्रं यत्र अप+अङ्ग घञ्, कन् च—सम्प्रदाय सूचक माथे का तिलक
- अपाङ्गकः—पुं॰—-—अपाङ्गं तिर्यक् चलति नेत्रं यत्र अप+अङ्ग घञ्, कन् च—कामदेव, प्रेम का देवता
- अपाङ्गदर्शनम्—नपुं॰—अपाङ्गः-दर्शनम्—-—तिरछी चितवन,कनखयों से देखना,पलक झपकना
- अपाङ्गदृष्टिः—स्त्री॰—अपाङ्गः-दृष्टिः—-—तिरछी चितवन,कनखयों से देखना,पलक झपकना
- अपाङ्गविलोकितम्—नपुं॰—अपाङ्गः-विलोकितम्—-—तिरछी चितवन,कनखयों से देखना,पलक झपकना
- अपाङ्गवीक्षणम्—नपुं॰—अपाङ्गः-वीक्षणम्—-—तिरछी चितवन,कनखयों से देखना,पलक झपकना
- अपाङ्गदेशः—पुं॰—अपाङ्गः-देशः—-—आंख की कोर
- अपाङ्गनेत्र—वि॰—अपाङ्गः-नेत्र—-—सुन्दर कनखियों से युक्त आँखों वाला
- अपाच् —वि॰—-—अपाञ्चति-अञ्च्+क्विप्—पीछे की ओर जाने वाला,या पीछे स्थित
- अपाच् —वि॰—-—अपाञ्चति-अञ्च्+क्विप्—अमुक्त, अस्पष्ट
- अपाच् —वि॰—-—अपाञ्चति-अञ्च्+क्विप्—पश्चिमी
- अपाच् —वि॰—-—अपाञ्चति-अञ्च्+क्विप्—दक्षिणी
- अपाञ्च्—वि॰—-—अपाञ्चति-अञ्च्+क्विप्—पीछे की ओर जाने वाला,या पीछे स्थित
- अपाञ्च्—वि॰—-—अपाञ्चति-अञ्च्+क्विप्—अमुक्त, अस्पष्ट
- अपाञ्च्—वि॰—-—अपाञ्चति-अञ्च्+क्विप्—पश्चिमी
- अपाञ्च्—वि॰—-—अपाञ्चति-अञ्च्+क्विप्—दक्षिणी
- अपाक्—अव्य॰—-—-—पीछे, पीछे की ओर
- अपाक्—अव्य॰—-—-—पश्चिम की ओर या दक्षिण की ओर
- अपाङ्क्—अव्य॰—-—-—पीछे, पीछे की ओर
- अपाङ्क्—अव्य॰—-—-—पश्चिम की ओर या दक्षिण की ओर
- अपाची —स्त्री॰—-—अप+अञ्च्+क्तिन् स्त्रीयां ङीप्—दक्षीण या पश्चिम दिशा
- अपाचीतरा—स्त्री॰—अपाची-इतरा—-—उत्तर दिशा
- अपाचीन—वि॰—-—अपाची+ख—पीछे की ओर स्थित,पीछे की ओर मुड़ा हुआ
- अपाचीन—वि॰—-—अपाची+ख—अदृश्य,अप्रत्यक्ष
- अपाचीन—वि॰—-—अपाची+ख—दक्षिणी
- अपाचीन—वि॰—-—अपाची+ख—पश्चिमी
- अपाचीन—वि॰—-—अपाची+ख—विरोधी
- अपाच्य—वि॰—-—अपाची+यत्—पश्चिमी और दक्षिणी
- अपाणिनीय—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो पाणिनी के नियमों के अनुकूल न हो
- अपाणिनीय—वि॰,न॰ त॰—-—-—जिसने पाणिनी-व्याकरण को भली भांति नहीं पढ़ा हो,पल्लवग्राही विद्वान्,संस्कृत का अल्पज्ञान रखने वाला
- अपात्रम्—नपुं॰—-—-—निकम्मा बर्तन
- अपात्रम्—नपुं॰—-—-—अयोग्य या अनधिकारी पुरुष, दान लेने के लिए अयोग्य
- अपात्रम्—नपुं॰—-—-—कुपात्र, जो उपहार दान आदि का अधिकारी न हो
- अपात्रकृत्या—स्त्री॰—अपात्रम्-कृत्या—-—अनुचित तथा निर्मर्याद कर्म करना,अपात्रता
- अपात्रकरणम्—नपुं॰—अपात्रम्-करणम्—-—अनुचित तथा निर्मर्याद कर्म करना,अपात्रता
- अपात्रदायिन्—वि॰—अपात्रम्-दायिन्—-—अयोग्य पुरुषों को देने वाला
- अपात्रभृत—वि॰—अपात्रम्-भृत्—-—अयोग्य और निकम्मे व्यक्तियों क भरणपोषण करने वाला
- अपादानम्—नपुं॰—-—अप+आ+दा+ल्युट्—ले जाना,दूर करना,अपसारण
- अपादानम्—नपुं॰—-—अप+आ+दा+ल्युट्—अपा॰ का अर्थ
- अपाध्वन्—पुं॰—-—अपकृष्टःअध्वा —कुमार्ग, बुरामार्ग
- अपानः—पुं॰—-—अप+अन्+अच्, अपानयति मूत्रादिकम्-अप+आ+नी+ड वा—श्वास बाहर निकलना,श्वास लेने की क्रिया, शरीर में रहने वाले पांच पवनों में से एक जो कि नीचे की ओर जाता है त्तथा गुदा के मार्ग से बाहर निकलता है
- अपानः—पुं॰—-—अप+अन्+अच्, अपानयति मूत्रादिकम्-अप+आ+नी+ड वा—गुदा
- अपानम्—नपुं॰—-—अप+अन्+अच्, अपानयति मूत्रादिकम्-अप+आ+नी+ड वा—गुदा
- अपानद्वारम्—नपुं॰—अपानः-द्वारम्—-—गुदा
- अपानपवनः—पुं॰—अपानः-पवनः—-—प्राणवायु-जिसे अपान कहते है
- अपानवायुः—पुं॰—अपानः-वायुः—-—प्राणवायु-जिसे अपान कहते है
- अपानृत—वि॰,ब॰ स॰—-—-—मिथ्यात्व से रहित, सत्य
- अपाप—वि॰—-—-—निष्पाप,पवित्र पुण्यात्मा
- अपापिन्—वि॰,ब॰ स॰—-—णिनि —निष्पाप,पवित्र पुण्यात्मा
- अपाम्—नपुं॰—-—अप्-जल-का संबं॰—समास में प्रथम पद के रुप में प्रयुक्त
- अपाज्योतिस्—नपुं॰—अपाम्-ज्योतिस्—-—बिजली
- अपानपात्—नपुं॰—अपाम्-नपात्—-—अग्नि और सावित्री की उपाधि
- अपानाथः—पुं॰—अपाम्-नाथः—-—समुद्र
- अपानाथः—पुं॰—अपाम्-नाथः—-—वरुण
- अपापतिः—पुं॰—अपाम्-पतिः—-—समुद्र
- अपापतिः—पुं॰—अपाम्-पतिः—-—वरुण
- अपानिधिः—पुं॰—अपाम्-निधिः—-—समुद्र
- अपानिधिः—पुं॰—अपाम्-निधिः—-—विष्णु
- अपापाथस्—नपुं॰—अपाम्-पाथस्—-—भोजन
- अपापित्तम्—पुं॰—अपाम्-पित्तम्—-—अग्नि
- अपायोनिः—पुं॰—अपाम्-योनिः—-—समुद्र
- अपामार्गः—पुं॰—-—अप+मृज्+घञ् कुत्वदीर्घौ—चिचिड़ा,एक बूटी
- अपामार्जनम्—नपुं॰—-—अप+मृज्+ल्युट्—सफ़ाई करना,शुद्धि करना,को दूर करना
- अपायः—पुं॰—-—अप+इ+अच्—चले जाना,विदाई
- अपायः—पुं॰—-—अप+इ+अच्—वियोग
- अपायः—पुं॰—-—अप+इ+अच्—ओझल होना,लोप,अभाव
- अपायः—पुं॰—-—अप+इ+अच्—नाश,हानि,संहार
- अपायः—पुं॰—-—अप+इ+अच्—अनिष्ट,दुर्भाग्य,विपत्ति,भयकायःसंनिहितापायः-हि० ४।६५,
- अपायः—पुं॰—-—अप+इ+अच्—हानि,क्षति
- अपार—वि॰,न॰ त॰—-—-—जिसका पार न हो
- अपार—वि॰,न॰ त॰—-—-—असीम,सीमारहित
- अपार—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो समाप्त न हो,अत्यधिक
- अपार—वि॰,न॰ त॰—-—-—पहुंच के बाहर
- अपार—वि॰,न॰ त॰—-—-—जिसे पार करना कठिन हो,जिस पर विजय न पाई जा सके
- अपारम्—नपुं॰—-—-—नदी का दूसरा तट
- अपार्ण—वि॰—-—अप्+अर्द्+क्त—दूरस्थ,दूरवर्ती
- अपार्ण—वि॰—-—अप्+अर्द्+क्त—निकटस्थ
- अपार्थ —वि॰,ब॰ स॰—-—अपगतः अर्थः यस्मात्—व्यर्थ,अलाभकर,निकम्मा
- अपार्थ —वि॰,ब॰ स॰—-—-—निरर्थक,अर्थहीन
- अपार्थक—वि॰,ब॰ स॰—-—-—व्यर्थ,अलाभकर,निकम्मा
- अपार्थक—वि॰,ब॰ स॰—-—-—निरर्थक,अर्थहीन
- अपार्थम्—नपुं॰—-—-—अर्थहीन,या असंगत बात या तर्क
- अपावरणम्—नपुं॰—-—अप+आ+वृ+ल्युट्—उद्घाटन
- अपावरणम्—नपुं॰—-—अप+आ+वृ+ल्युट्—ढकना,लपेटना,घेरना
- अपावरणम्—नपुं॰—-—अप+आ+वृ+ल्युट्—छिपना,गोपन करना
- अपावृतिः—स्त्री॰—-—अप+आ+वृ+क्तिन् —उद्घाटन
- अपावृतिः—स्त्री॰—-—अप+आ+वृ+क्तिन् —ढकना,लपेटना,घेरना
- अपावृतिः—स्त्री॰—-—अप+आ+वृ+क्तिन् —छिपना,गोपन करना
- अपावर्तनम्—नपुं॰—-—अप+आ+वृत्+ल्युट्—लौटना,पीछे हटना,अपकर्षण
- अपावर्तनम्—नपुं॰—-—अप+आ+वृत्+ल्युट्—घूमना
- अपावृत्तिः—स्त्री॰—-—अप+आ+वृत्+क्तिन् —लौटना,पीछे हटना,अपकर्षण
- अपावृत्तिः—स्त्री॰—-—अप+आ+वृत्+क्तिन् —घूमना
- अपाश्रय—वि॰,ब॰ स॰—-—-—आश्रयहीन,निरवलंब,असहाय
- अपाश्रयः—पुं॰—-—-—शरण,सहारा,जिसका सहारा लिया जाय
- अपाश्रयः—पुं॰—-—-—चंदोवा,शामियाना
- अपाश्रयः—पुं॰—-—-—सिरहाना
- अपासङ्गः—पुं॰—-—अप+आ+संज्+घञ्—तरकस ।
- अपासनम्—नपुं॰—-—अप+अस्+ल्युट्—फेंक देना,रद्दी कर देना
- अपासनम्—नपुं॰—-—अप+अस्+ल्युट्—छोड देना
- अपासनम्—नपुं॰—-—अप+अस्+ल्युट्—वध करना
- अपासरणम्—नपुं॰—-—अप+आ+सृ+ल्युट्—विदाई,लौटना,दूर हटना
- अपासु—वि॰,ब॰ स॰—-—-—निर्जीव,मृत
- अपि—अव्य॰—-—-—निकट या ऊपर रखना, की ओर ले जाना,तक पहुंचना,सामीप्य सन्निकटता आदि
- अपि—अव्य॰—-—-—और,भी,एवम्,पुनश्व,इसके अलावा,इसके अतिरिक्त, अपनी ओर से तो,अपनी बारी आने पर
- अपि—अव्य॰—-—-—भीअतिबहुत'शब्दों के अर्थ पर बल देने के लिए भी बहुधा इसका प्रयोग होता है
- अपि—अव्य॰—-—-—अगर्चे, चाहे ऊपर से ढका हुआ
- अपि—अव्य॰—-—-—प्रश्न सूचक
- अपि—अव्य॰—-—-—आशा,प्रत्याशा, शायद, समभवतः
- अपि—अव्य॰—-—-—कोई, कुछ
- कोऽपि—अव्य॰—-—-—कोई
- किमपि—अव्य॰—-—-—कुछ
- कुत्रापि—अव्य॰—-—-—कहीं,
- अपि—अव्य॰—-—-—कार्त्स्न्यऔर समसतता
- अपि—अव्य॰—-—-—संदेह
- अपि—अव्य॰—-—-—संभावना
- अपि—अव्य॰—-—-—घृणा, निन्दा,
- अपि—अव्य॰—-—-—लोट् लकार के साथ प्रयुक्त होकर 'वक्ता की उदासीनता' प्रकट करता है और दूसरे को यथारुचि कार्य करने देता है, स्तुति करें
- अपि—अव्य॰—-—-—कभी विस्मयादि द्योतक अव्यय के रूप में भी प्रयुक्त होता है
- अपि—अव्य॰—-—-—इसलिए' 'फ़लतः' के अर्थ में कभी ही प्रयुक्त होता है ।
- अपि—अव्य॰—-—-—संबं॰ के साथ प्रयुक्त होकर 'अध्याहार' के भाव को प्रकट करता हैउदा॰-सर्पिषोऽपि स्यात्,-यहां जैसा कोई शब्द अध्याहृत किया जाता है,संभवतः 'एक बूंद घी' अभिप्रेत है ।
- अपिगीर्ण—वि॰—-—अपि+गृ+क्त—स्तुति किया गया, यशस्वी
- अपिगीर्ण—वि॰—-—अपि+गृ+क्त—कथित,वर्णित
- अपिच्छिल—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो गदला न हो, स्वच्छ अपंकिल
- अपिच्छिल—वि॰,न॰ त॰—-—-—गहरा
- अपितृक—वि॰,न॰ त॰—-—-—जिसका पिता जीवित न हो
- अपितृक—वि॰,न॰ त॰—-—-—अपैतृक
- अपित्र्य—वि॰,न॰ त॰—-—-—अपैतृक
- अपिधानम्—नपुं॰—-—अपि+धा+ल्युट्,भगुरि के मत में विकल्प से 'अ' लोप —ढकना,छिपाना
- अपिधानम्—नपुं॰—-—अपि+धा+ल्युट्,भगुरि के मत में विकल्प से 'अ' लोप —चादर, ढक्कन,आच्छादन
- अपिधिः—स्त्री॰—-—अपि+धा+कि—छिपाव
- अपिव्रत —वि॰,ब॰ स॰—-—अपि संसृष्टं व्रतं भोजनं नियमो वा यस्य—धार्मिक कृत्य का सहभागी,रक्त द्वारा संबद्ध
- अपिहित—वि॰—-—अपि+धा+क्त-भगुरिमतेन अकार लोपः—बंद,बंद किया हुआ,छिपाया हुआ
- वाष्पापिहित—वि॰—-—-—आंसुओं से ढका हुआ
- वाष्पापिहित—वि॰—-—-—जो छिपा न हो,सरल, स्पष्ट
- अपीतिः—स्त्री॰—-—अपि+इ+क्तिन्—प्रवेश,उपागम
- अपीतिः—स्त्री॰—-—अपि+इ+क्तिन्—विघटन,नाश,हानि
- अपीतिः—स्त्री॰—-—अपि+इ+क्तिन्—प्रलय
- अपीनसः—पुं॰—-—अपीनाय,अपीनत्वाय सीयते कल्पते कर्मकर्तरिक-तारा॰—नाक की शुष्कता,जुकाम
- अपुंस्का —स्त्री॰,न॰ ब॰—-—नास्ति पुमान् यस्याः—बिना पति की स्त्री
- अपुत्रः—पुं॰—-—-—जो पुत्र न हो
- अपुत्रक—वि॰—-—-—जिसके कोई पुत्र य उत्तराधिकारी न हो
- अपुत्रिका—स्त्री॰—-—-—जिसके कोई पुत्र य उत्तराधिकारी न हो
- अपुत्रिका—स्त्री॰,न॰ ब॰ —-—कप्,टाप् इत्वं च—पुत्रहीन पिता की ऐसी कन्या जिसके कोई पुत्र न हो; जो पुत्राभाव की स्थिति में पिता द्वारा पुत्रोत्पति के लिए नियत न की हो
- अपुनर्—अव्य॰,न॰ त॰—-—-—फिर नहीं,एक बार,सदा के लिए
- अपुनरन्वय—वि॰—अपुनर्-अन्वय—-—न लौटने वाला,मृत
- अपुनरादानम्—नपुं॰—अपुनर्-आदानम्—-—फिर न लेना, वापिस न लेना
- अपुनरावृत्तिः—स्त्री्॰—अपुनर्-आवृत्तिः—-—फिर न लौटना,परम गति
- अपुनर्प्राप्य—वि॰—अपुनर्-प्राप्य—-—जो फिर प्राप्त न हो सके
- अपुनर्भवः—पुं॰—अपुनर्-भवः—-—जो फिर उत्पन्न न हो
- अपुनर्भवः—पुं॰—अपुनर्-भवः—-—मोक्ष या परमगति
- अपुष्ट—वि॰,न॰ त॰—-—-—जिसका पोषण ठीक तरह से न हुआ हो,दुबला पतला,जो स्थूल न हो
- अपुष्ट—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो ऊंचा या भीषण न हो, मृदु,मन्द
- अपुष्ट—वि॰,न॰ त॰—-—-— जो पोषक या सहायक न हो असंबद्ध, अर्थदोषो में से एक
- अपूपः—पुं॰—-—न पूयते विशीर्यते-पू+प,तारा॰—मालपुआ,शर्करादिक डाल कर बनाया गया रोटी से मोटा पदार्थ,इसे 'पूड़ा' कहते हैं
- अपूपीय—वि॰—-—अपूपाय हितम्-छ—अपूप संबंधी
- अपूप्य—वि॰—-—अपूपाय हितम् यत् —अपूप संबंधी
- अपूप्यम्—नपुं॰—-—अपूपाय हितम् यत् —आटा,भोजन
- अपूरणी—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—सेमल का पेड़
- अपूर्ण—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो पूरा या भरा न हो,अधूरा असम्पन्न
- अपूर्व —वि॰,न॰ब॰—-—-—जैसा पहले न हुआ हो, जो पहले विद्यमान न था, बिल्कुल नया
- अपूर्व —वि॰,न॰ब॰—-—-—अनोखा,असाधारण,अद्भुत;निराला,अनुद्यम्, अभूतपूर्वअप्रतिम नृशंसता करने वाली
- अपूर्व —वि॰,न॰ब॰—-—-—अज्ञात
- अपूर्व —वि॰,न॰ब॰—-—-—अप्रथम
- अपूर्वम्—नपुं॰—-—-—किसी कार्य का दूरवर्ती फल जैसा कि सत्कार्यो के फलस्वरूप स्वर्गप्राप्ति
- अपूर्वम्—नपुं॰—-—-—इष्ट और अनिष्ट जो भावी सुख दुःख के अन्तिम कारण है
- अपूर्वः—पुं॰—-—-—परब्रह्म
- अपूर्वपतिः—स्त्री॰—अपूर्व-पतिः—-—जिसे अभी तक प्राप्त नहीं हुआ, कुमारी कन्या
- अपूर्वविधिः —स्त्री॰—अपूर्व-विधिः —-—नया आधिकारिक निर्देश या आज्ञा
- अपृथक्—अव्य॰,न॰ त॰—-—-—अलग से नहीं, साथ-साथ, समष्टि रूप से
- अपेक्षणम् —नपुं॰—-—अप्+ईक्ष्+ल्युट्—प्रत्याशा,आशा,चाह
- अपेक्षणम् —नपुं॰—-—अप्+ईक्ष्+ल्युट्—आवश्यकता,जरूरत,कारण, प्रायः समास में
- अपेक्षणम् —नपुं॰—-—अप्+ईक्ष्+ल्युट्—विचार उल्लेख,लिहाज-कर्म के साथ अधि॰ में, प्रायः समास में; करण० या कभी-कभी अधि॰ में,समास में बहुधा प्रयुक्त का अर्थ-'का उल्लेख करते हुए' 'लिहाज करके' 'के निमित्त' इसकी तुलना में
- अपेक्षणम् —नपुं॰—-—अप्+ईक्ष्+ल्युट्—मेलजोल, संबंध
- अपेक्षणम् —नपुं॰—-—अप्+ईक्ष्+ल्युट्—देखभाल,ध्यान,सावधानी
- अपेक्षणम् —नपुं॰—-—अप्+ईक्ष्+ल्युट्—सम्मान, समादर
- अपेक्षणम् —नपुं॰—-—अप्+ईक्ष्+ल्युट्—आकांक्षा
- अपेक्षा—स्त्री॰—-—अप+ईक्ष्+अ—प्रत्याशा,आशा,चाह
- अपेक्षा—स्त्री॰—-—अप+ईक्ष्+अ—आवश्यकता,जरूरत,कारण, प्रायः समास में
- अपेक्षा—स्त्री॰—-—अप+ईक्ष्+अ—विचार उल्लेख,लिहाज-कर्म के साथ अधि॰ में, प्रायः समास में; करण० या कभी-कभी अधि॰ में,समास में बहुधा प्रयुक्त का अर्थ-'का उल्लेख करते हुए' 'लिहाज करके' 'के निमित्त' इसकी तुलना में
- अपेक्षा—स्त्री॰—-—अप+ईक्ष्+अ—मेलजोल, संबंध
- अपेक्षा—स्त्री॰—-—अप+ईक्ष्+अ—देखभाल,ध्यान,सावधानी
- अपेक्षा—स्त्री॰—-—अप+ईक्ष्+अ—सम्मान, समादर
- अपेक्षा—स्त्री॰—-—अप+ईक्ष्+अ—आकांक्षा
- अपेक्षणीय —वि॰—-—अप+ईक्ष+अनीयर—अपेक्षा करने के योग्य, जिसकी आवश्यकता या आशा हो, जिसका प्रत्याशा या विचार किया जा सके, वाञ्छनीय
- अपेक्षितव्य—वि॰—-—अप+ईक्ष+ तव्यत्—अपेक्षा करने के योग्य, जिसकी आवश्यकता या आशा हो, जिसका प्रत्याशा या विचार किया जा सके, वाञ्छनीय
- अपेक्ष्य—वि॰—-—अप+ईक्ष+ ण्यट् —अपेक्षा करने के योग्य, जिसकी आवश्यकता या आशा हो, जिसका प्रत्याशा या विचार किया जा सके, वाञ्छनीय
- अपेक्षित—भू॰ क॰ कृ॰—-—अप+ईक्ष+क्त—जिसकी तलाश की गई हो, जिसकी आशा की गई हो, जिसकी आवश्यकता हो, जिसका विचार किया गया हो
- अपेक्षितम्—भू॰ क॰ कृ॰—-—अप+ईक्ष+क्त—चाह, इच्छा, लिहाज, उल्लेख
- अपेत—भू॰ क॰ कृ॰—-—अप+इ+क्त—गया हुआ, ओझल हुआ
- अपेत—भू॰ क॰ कृ॰—-—अप+इ+क्त—वियुक्त या विचलित, विरूद्ध
- अपेत—भू॰ क॰ कृ॰—-—अप+इ+क्त—मुक्त,वंचित निर्दोष
- अपेहि—लोट् म॰ पुं॰—-—-—इस शब्द का अर्थ होता है के बिना निकाल कर सम्मिलत न करके
- अपेहिवाणिजा—स्त्री॰—अपेहि-वाणिजा—-—इस प्रकार का समारोह जहां व्यापारियों को संमिलित न किया जाय
- अपोगण्डः—पुं॰—-—अषसि (वैधकर्मणि) गंडः त्याज्यः-तारा॰—अधिक अंगों वाला, या कम अंगों वाला
- अपोगण्डः—पुं॰—-—अषसि (वैधकर्मणि) गंडः त्याज्यः-तारा॰—जो सोलह बरस से कम आयु का न हो
- अपोगण्डः—पुं॰—-—अषसि (वैधकर्मणि) गंडः त्याज्यः-तारा॰—शिशु
- अपोगण्डः—पुं॰—-—अषसि (वैधकर्मणि) गंडः त्याज्यः-तारा॰—अतिभीरु
- अपोगण्डः—पुं॰—-—अषसि (वैधकर्मणि) गंडः त्याज्यः-तारा॰—झुर्रीदार
- अपोढ—वि॰—-—अप+वह्+क्त—दूर ह्टाया गया
- अपोहः—पुं॰—-—अप+वह्+घञ्—हटाना,दूर करना,विरोपण
- अपोहः—पुं॰—-—अप+वह्+घञ्—तर्क शक्ति के प्रयोग द्वारा शङ्कानिवारण
- अपोहः—पुं॰—-—अप+वह्+घञ्—तर्क देना,युक्ति देना
- अपोहः—पुं॰—-—अप+वह्+घञ्—निषेधात्मक तर्कना , अतः ऊहापोह=किसी प्रश्न से संबद्ध पूर्ण चर्चा
- अपोहः—पुं॰—-—अप+वह्+घञ्—प्रसंगानुकूल वर्ग के अन्दर न आने वाली बातों को विचार-कोटि से निकाल देना;-तद्वानपोहो वा शब्दार्थः
- अपोहनम्—नपुं॰—-—अप+वह्+ल्युट्—हटाना=अपोह
- अपोहनम्—नपुं॰—-—अप+वह्+ल्युट्—तर्कशक्ति
- अपोहनीय—वि॰—-—अप+वह्+अनीयर्—दूर हटाने या ले जाने के योग्य,प्रायश्चित्ति करने के योग्य; तर्क द्वारा स्थापित करने के योग्य ।
- अपोह्य—वि॰—-—अप+वह्+ण्यत् —दूर हटाने या ले जाने के योग्य,प्रायश्चित्ति करने के योग्य; तर्क द्वारा स्थापित करने के योग्य ।
- अपौरुष—वि॰—-—नास्ति पौरुषं यस्मिन् न॰ ब॰ न पौरुषेयः-न॰ त॰—पुरुषार्थहीन,कायर,भीरु
- अपौरुष—वि॰—-—नास्ति पौरुषं यस्मिन् न॰ ब॰ न पौरुषेयः-न॰ त॰—अलौकिक,अपुरुषोचित्त,ईश्वरकृत
- अपौरुषेय—वि॰,न॰ ब॰ —-—नास्ति पौरुषं यस्मिन्—पुरुषार्थहीन,कायर,भीरु
- अपौरुषेय—वि॰,न॰ त॰—-—न पौरुषेयः—अलौकिक,अपुरुषोचित्त,ईश्वरकृत
- अपौरुषम्—नपुं॰—-—नास्ति पौरुषं यस्मिन् न॰ ब॰ न पौरुषेयः-न॰ त॰—कायरता
- अपौरुषम्—नपुं॰—-—नास्ति पौरुषं यस्मिन् न॰ ब॰ न पौरुषेयः-न॰ त॰—ईश्वरीय शक्ति
- अपौरुषेयम्—नपुं॰—-—नास्ति पौरुषं यस्मिन्—कायरता
- अपौरुषेयम्—नपुं॰—-—न पौरुषेयः—ईश्वरीय शक्ति
- अप्तोर्यामः—पुं॰—-—अप्तोःशरीरस्य पावकत्वात् याम इव—एक यज्ञ का नाम, सामदेव के एक मंत्र का नाम जो उक्त यज्ञ की समाप्ति पर बोला जाता है; ज्योतिष्टोम यज्ञ क अंतिम या सातवां भाग
- अप्तोर्यामन्—वि॰,अलु॰स॰—-—अप्तोःशरीरस्य पावकत्वात् याम इव—एक यज्ञ का नाम, सामदेव के एक मंत्र का नाम जो उक्त यज्ञ की समाप्ति पर बोला जाता है; ज्योतिष्टोम यज्ञ क अंतिम या सातवां भाग
- अप्ययः—पुं॰—-—अपि+इ+अच्—उपागमन, सम्मिलत
- अप्ययः—पुं॰—-—अपि+इ+अच्—उमड़ना
- अप्ययः—पुं॰—-—अपि+इ+अच्—प्रवेश,नष्ट होना,अन्तर्धान,लय,किसी एक में लीन हो जाना
- अप्ययः—पुं॰—-—अपि+इ+अच्—नाश
- अप्रकरणम्—नपुं॰—-—-—जो मुख्य या प्रधान विषय न हो,अंप्रासंगिक या असंबंद्ध विषय
- अप्रकाश—वि॰,न॰ ब॰—-—-—न चमकने वाला,अंधकारपूर्ण,प्रकाशरहित
- अप्रकाश—वि॰,न॰ ब॰—-—-—स्वतः प्रकाशित
- अप्रकाश—वि॰,न॰ ब॰—-—-—गुप्त,रहस्य
- अप्रकाशम्—नपुं॰—-—-—गुप्तरुप से, अप्रकट
- अप्रकाशे—अव्य॰—-—-—गुप्तरुप से, अप्रकट
- अप्रकृत—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो मुख्य या प्रधान न हो, आनुषंगिक
- अप्रकृत—वि॰,न॰ त॰—-—-—अप्रस्तुत,विषय से असंबंद्ध
- अप्रकृतमनुसंधा—पुं॰—-—-—इधर-उधर की बातें बनाना, विषयानुकूल बात न करना
- अप्रकृतम्—नपुं॰—-—-—उपमान अर्थात् तुलना का मानक
- अप्रगम—वि॰,न॰ ब॰—-—-—इतनी तेजी से जाने वाला कि दूसरे जिसका अनुसरण न कर सकें
- अप्रगल्भ—वि॰,न॰ त॰—-—-—साहसहीन,शर्मीला,विनीत
- अप्रगुण—वि॰,न॰ ब॰—-—-—विस्मित,व्याकुल
- अप्रज—वि॰,न॰ ब॰—-—-—निस्संतान, संतान रहित
- अप्रज—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अजात
- अप्रज—वि॰,न॰ ब॰—-—-—जहाँ बस्ती न हो, बिना बसा
- अप्रजस्—वि॰—-—-—संतान रहित, जिसके कोई बच्चा या संतान न हो
- अप्रजात—वि॰—-—-—संतान रहित, जिसके कोई बच्चा या संतान न हो
- अप्रजाता—स्त्री॰—-—-—निस्संतान स्त्री, बांझ स्त्री
- अप्रतिकर्मन्—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अनुपम कार्य करने वाला
- अप्रतिकर्मन्—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अनिवार्य
- अप्रतिकार—वि॰,न॰ ब॰—-—-—लाइलाज,असहाय
- अप्रतीकार—वि॰,न॰ ब॰—-—-—लाइलाज,असहाय
- अप्रतिघ—वि॰,न॰ ब॰—-—-—जिसे हराया न जा सके,अजेय
- अप्रतिघ—वि॰,न॰ ब॰—-—-—जिसे रोका न जा सके
- अप्रतिघ—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अक्रुद्ध
- अप्रतिद्वन्द्व—वि॰,न॰ ब॰—-—-—युद्ध में जिसका कोई प्रतिद्वंद्वी न हो, अप्रतिरोध्य
- अप्रतिद्वन्द्व—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अनूठा,लाजबाब
- अप्रतिपक्ष—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अप्रतियोगी,विपक्षशून्य
- अप्रतिपक्ष—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अनूपम
- अप्रतिपत्तिः—स्त्री॰,न॰ ब॰—-—-—कार्य का सम्पन्न न होना,अस्वीकृति
- अप्रतिपत्तिः—स्त्री॰,न॰ ब॰—-—-—उपेक्षा,अवहेलना
- अप्रतिपत्तिः—स्त्री॰,न॰ ब॰—-—-—समझदारी का अभाव
- अप्रतिपत्तिः—स्त्री॰,न॰ ब॰—-—-—निश्चय का अभाव, अव्यवस्था,विह्ललता
- अप्रतिपत्तिः—स्त्री॰,न॰ ब॰—-—-—स्फूर्ति का अभावो
- अप्रतिबन्ध—वि॰,न॰ ब॰—-—-—निर्बाध,बेरोकटोक
- अप्रतिबन्ध—वि॰,न॰ ब॰—-—-—बिना झगड़े के जन्म से प्राप्त,जिसमें किसी दूसरे का भाग न हो
- अप्रतिबल—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अप्रतिरोध्य शक्ति वाला,अनुपम बलशाली
- अप्रतिभ—वि॰,न॰ ब॰—-—-—विनीत, सलज्ज
- अप्रतिभ—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अप्रत्युत्पन्नमति, मंदबुद्धि
- अप्रतिभट—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अप्रतिद्वन्द्वी
- अप्रतिभटः—पुं॰—-—-—बेजोड़ योद्धा
- अप्रतिम—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अतुलनीय,बेजोड़,अप्रतिद्वन्द्वी
- अप्रतिरथ—वि॰,न॰ ब॰—-—-—ऐसा वीर पुरुष जिसके मुकबले का योद्धा और कोई न हो,बेजोड़,अप्रतिद्वन्द्वी योद्धा
- अप्रतिरव—वि॰,न॰ ब॰—-—-—निर्विरोध, निर्विवाद
- अप्रतिरूप—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अननुरूप,अयोग्य
- अप्रतिरूप—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अनुपम रूप वाला
- अप्रतिरूप—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अनूठा
- अप्रतिवीर्य—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अतुलशक्तिशाली
- अप्रतिशासन—वि॰,न॰ ब॰—-—-—जिसका प्रतिद्वन्द्व शासक न हो, जहां एक ही व्यक्ति का राज्य हो
- अप्रतिष्ठ—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अस्थिर,अदृढ,अस्थायी
- अप्रतिष्ठ—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अलाभकर,व्यर्थ
- अप्रतिष्ठ—वि॰,न॰ ब॰—-—-—बदनाम
- अप्रतिष्ठानम्—नपुं॰—-—-—अस्थिरता,दृढ़ता का अभाव
- अप्रतिहत—वि॰,न॰ त॰—-—-—निर्बाध,बाधा रहित,अप्रतिरोध्य
- अप्रतिहतशक्ति—वि॰—अप्रतिहत-शक्ति—-—बेजोड़ शक्तिसम्पन्न
- अप्रतिहत—वि॰—-—-—अक्षुण्ण,अक्षत,अप्रभावित
- अप्रतिहत—वि॰—-—-—जो निराश न हो
- अप्रतिहतनेत्र—वि॰—अप्रतिहत-नेत्र—-—स्वस्थ आंखों वाला
- अप्रतीत—वि॰,न॰ त॰—-—-—अप्रसन्न,अप्रह्रष्ट
- अप्रतीत—वि॰,न॰ त॰—-—-— जो स्पष्ट रुप से न समझा जा सके, एक प्रकार का शब्ददोष
- अप्रत्ता—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—कुमारी कन्या, जिसका दान न किया गया हो
- अप्रत्यक्ष—वि॰,न॰ त॰—-—-—अदृश्य,अगोचर
- अप्रत्यक्ष—वि॰,न॰ त॰—-—-—अज्ञात अनुपस्थित
- अप्रत्यय—वि॰,न॰ त॰—-—-—आत्मविश्वास रहित,अविश्वासी
- अप्रत्यय—वि॰,न॰ त॰—-—-—अनभिज्ञ
- अप्रत्यय—वि॰,न॰ त॰—-—-—प्रत्यय रहित
- अप्रत्ययः—पुं॰—-—-—आशंका,अविश्वास,विश्वास का अभाव
- अप्रत्ययः—पुं॰—-—-—समझ में न आने वाला
- अप्रत्ययः—पुं॰—-—-—जो प्रत्यय न हो
- अप्रदक्षिणम्—अव्य॰,न॰ त॰—-—-—बाएं से दाहिनी ओर
- अप्रधान—वि॰,न॰ त॰—-—-—अधीन,गौण,घटिया
- अप्रधानम्—नपुं॰—-—-—अधीनता,गौणस्थिति,घटियापन
- अप्रधानम्—नपुं॰—-—-—गौण या अमुख्य कार्य
- अप्रधानता—स्त्री॰ भावे क्त—-—-—अधीनता,गौणस्थिति,घटियापन
- अप्रधानता—स्त्री॰ भावे क्त—-—-—गौण या अमुख्य कार्य
- अप्रधानत्वम्—नपुं॰—-—-—अधीनता,गौणस्थिति,घटियापन
- अप्रधानत्वम्—नपुं॰—-—-—गौण या अमुख्य कार्य
- अप्रधृष्य—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो जीता न जा सके, अजेय
- अप्रभु—वि॰,न॰ त॰—-—-—शक्तिहीन,अशक्त
- अप्रभु—वि॰,न॰ त॰—-—-—असमर्थ,अयोग्य,अक्षमः
- अप्रमत्त—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो प्रमादी न हो, खबरदार, सावधान, जागरुक
- अप्रमद—वि॰न॰ ब॰—-—-—आमोद-प्रमोद से विरत,उदास, अप्रसन्न
- अप्रमा—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—भ्रांत ज्ञान
- अप्रमाण—वि॰,न॰ ब॰—-—-—असीमित, अपरिमित
- अप्रमाण—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अन्धिकृत
- अप्रमाण—वि॰,न॰ ब॰—-—-—अप्रामाणिक,अविश्वस्त
- अप्रमाणन्—वि॰,न॰ त॰—-—-—जो किसी कार्य में प्रमाण रूप से प्रस्तुत न किया जा असके; अर्थात् वह कार्य जो अपरिहार्य न समझा जाय
- अप्रमाणन्—वि॰,न॰ त॰—-—-—असंबद्धता
- अप्रमाद—वि॰,न॰ ब॰—-—-—खबरदार, जागरूक
- अप्रमादः—पुं॰—-—-—खबरदारी, अनवधान, जागरूकता
- अप्रमेय—वि॰,न॰त॰—-—-—अपरिमित,असीमीत,सीमारहित
- अप्रमेय—वि॰,न॰त॰—-—-—जिसका भलीभांति निश्चय न किया जा सके,न समझा जा सके; अज्ञेय
- अप्रमेयम्—नपुं॰—-—-—ब्रह्म
- अप्रयाणिः—स्त्री॰—-—नञ्+प्र+या+अनि—न जाना, प्रगति न करना,
- अप्रयुक्त —वि॰,न॰त॰—-—-—जो इस्तेमाल न किया गया हो, जो काम में न लाया गया हो, अव्यवहृत
- अप्रयुक्त —वि॰,न॰त॰—-—-—गलत तरीके से काम में लाया गया शब्द
- अप्रयुक्त —वि॰,न॰त॰—-—-—विरल,असामान्य
- अप्रवृत्तिः—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—कार्य में न लगना, प्रगति न करना, किसी बात का न होना
- अप्रवृत्तिः—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—आलस्य, क्रियाशून्यता, उत्तेजन या प्रोत्साहन का अभाव
- अप्रसङ्गः—पुं॰—-—-—आसक्ति का अभाव
- अप्रसङ्गः—पुं॰—-—-—संबंध का अभाव
- अप्रसङ्गः—पुं॰—-—-—अनपयुक्त समय या अवसर
- अप्रसिद्ध—वि॰,न॰त॰—-—-—अज्ञात,तुच्छ
- अप्रसिद्ध—वि॰,न॰त॰—-—-—असाधारण, असामान्य
- अप्रस्ताविक—वि॰,न॰त॰—-—-—विषय से संबंध न रखने वाला, असंगत
- अप्रस्तुत—वि॰,न॰त॰—-—-—जो समय या विषय के उपयुक्त न हो, जो प्रसंगानुकूल न हो, असंगत
- अप्रस्तुत—वि॰,न॰त॰—-—-—बेहदा,मूर्खतापूर्ण
- अप्रस्तुत—वि॰,न॰त॰—-—-—आकस्मिक,असंबद्ध
- अप्रस्तुतप्रशंसा—स्त्री॰—अप्रस्तुत-प्रशंसा—-—एक अलंकार जिसमें विषय से भिन्न अर्थात् अप्रस्तुत का वर्णन करने से प्रस्तुत अर्थात् विषय का संकेत हो जाता है,
- अप्रहत—वि॰,न॰त॰—-—-—जिसे चोट न लगी हो
- अप्रहत—वि॰,न॰त॰—-—-—परत की भूमि,अनजुती
- अप्रहत—वि॰,न॰त॰—-—-—नया या कोरा कपड़ा
- अप्राकरणिक—वि॰,न॰त॰—-—-—जो प्रकरण से संबंद्ध न रखता हो्
- अप्राकृत—वि॰,न॰त॰—-—-—जो गंवारू ने हो
- अप्राकृत—वि॰,न॰त॰—-—-—जो मौलिक न हो
- अप्राकृत—वि॰,न॰त॰—-—-—जो साधारण न हो, असाधारण
- अप्राकृत—वि॰,न॰त॰—-—-—विशेष
- अप्राग्र्य—वि॰,न॰त॰—-—-—गौण, अधीन, घटिया
- अप्राप्त—वि॰,न॰त॰—-—-—जो प्राप्त न किया गया हो
- अप्राप्त—वि॰,न॰त॰—-—-—जो न पहुंचा हो या जो न आया हो
- अप्राप्त—वि॰,न॰त॰—-—-—नियमतः अनधिकृत, अननुगामी
- अप्राप्त—वि॰,न॰त॰—-—-—न आया हुआ, न पहुंचा हुआ
- अप्राप्तावसर—वि॰—अप्राप्त-अवसर—-—बुरे समय का, असामयिक,जो ऋतु के अनुकूल न हो
- अप्राप्तकाल—वि॰—अप्राप्त-काल—-—बुरे समय का, असामयिक,जो ऋतु के अनुकूल न हो
- अप्राप्तयौवन —वि॰—अप्राप्त-यौवन —-—अव्यस्क, नाबालिग
- अप्राप्तव्यवहार—वि॰—अप्राप्त-व्यवहार—-—अल्पव्यस्क,सार्वजनिक कार्यो में अपने उत्तरदायित्व के भरोसे भाग लेने के लिए जिस की आयु न हो
- अप्राप्तवयस्—वि॰—अप्राप्त-वयस्—-—अल्पव्यस्क,सार्वजनिक कार्यो में अपने उत्तरदायित्व के भरोसे भाग लेने के लिए जिस की आयु न हो
- अप्राप्ति—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—न मिलना
- अप्राप्ति—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—जो किसी नियम से सिद्ध या स्थापित न हुआ हो
- अप्राप्ति—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—किसी बात का न होना, किसी घटना का घटित न होना
- अप्रामाणिक—वि॰,न॰त॰—-—-—जो प्रामाणिक न हो, अयुक्तियुक्त
- अप्रामाणिक—वि॰,न॰त॰—-—-—अविश्वसनीय, जिस पर भरोसा न किया जा सके
- अप्रिय—वि॰,न॰त॰—-—-—नापसंद,अनभिमत,अरुचिकर
- अप्रिय—वि॰,न॰त॰—-—-—निष्ठुर,अमित्र
- अप्रियः —पुं॰—-—-—शत्रु दुश्मन
- अप्रियम्—नपुं॰—-—-—शत्रुतापूर्ण या अनिष्टकर कर्म
- अप्रियकर—वि॰—अप्रिय-कर—-—अनिष्टकर, अरुचिकर
- अप्रियकारिन्—वि॰—अप्रिय-कारिन्—-—अनिष्टकर, अरुचिकर
- अप्रियकारक—वि॰—अप्रिय-कारक—-—अनिष्टकर, अरुचिकर
- अप्रियवद—वि॰—अप्रिय-वद—-—निष्ठुर और कठोर शब्द बोलनें वाला
- अप्रियवादिन्—वि॰—अप्रिय-वादिन्—-—निष्ठुर और कठोर शब्द बोलनें वाला
- अप्रीतिः—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—नापसंदगी,अरुचि
- अप्रीतिः—स्त्री॰,न॰ त॰—-—-—शत्रुता
- अप्रौढ—वि॰,न॰त॰—-—-—जो ढीठ न हो
- अप्रौढ—वि॰,न॰त॰—-—-—भीरु, नम्र, असाहसी
- अप्रौढ—वि॰,न॰त॰—-—-—जो व्यस्क न हो
- अपौढा—स्त्री॰—-—-—अविवाहित कन्या
- अपौढा—स्त्री॰—-—-—वह कन्या जिसका विवाह तो हो गया हो, परन्तु अभी तक वयस्क न हुई हो
- अप्लुत—वि॰,न॰ त॰—-—-—वह स्वर जो आवाज की दृष्टि से लंबा न किया गया हो
- अप्सरस्—स्त्री॰—-—अद्भ्यः सरन्ति उद्गच्छन्ति-अप्+सृ+असुन्, तु॰ रामा॰ अप्सुनिर्मथनादेव रसात्तस्माद्वरस्त्रियः, उत्पेतुर्मनुजश्रष्ठ तस्मादप्सरसोऽभवन्—आकाश में रहने वाली देवांगनाएं जो गन्धर्वों की पत्निया समझी जाती है;
- अप्सराः—स्त्री॰—-—अद्भ्यः सरन्ति उद्गच्छन्ति-अप्+सृ+असुन्, तु॰ रामा॰ अप्सुनिर्मथनादेव रसात्तस्माद्वरस्त्रियः, उत्पेतुर्मनुजश्रष्ठ तस्मादप्सरसोऽभवन्—आकाश में रहने वाली देवांगनाएं जो गन्धर्वों की पत्निया समझी जाती है;
- अप्सरा—स्त्री॰—-—अद्भ्यः सरन्ति उद्गच्छन्ति-अप्+सृ+असुन्, तु॰ रामा॰ अप्सुनिर्मथनादेव रसात्तस्माद्वरस्त्रियः, उत्पेतुर्मनुजश्रष्ठ तस्मादप्सरसोऽभवन्—आकाश में रहने वाली देवांगनाएं जो गन्धर्वों की पत्निया समझी जाती है;
- अप्सरतीर्थम्—नपुं॰—अप्सरस्-तीर्थम्—-—अप्सराओं के नहाने के लिए पवित्र तालाब, यह संभवतः किसी स्थान का नाम है
- अप्सरपतिः—स्त्री॰—अप्सरस्-पतिः—-—अप्सराओं का स्वामी इन्द्र की उपाधि