विक्षनरी:संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश/आ
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- मूलशब्द—व्याकरण—संधिरहित मूलशब्द—व्युत्पत्ति—हिन्दी अर्थ
- आ—पुं॰—-—-—देवनागरी वर्णमाला का द्वितीय अक्षर
- आ—अव्य॰—-—-—स्वीकृति ‘हाँ'
- आ—अव्य॰—-—-—दया ‘आह'
- आ—अव्य॰—-—-—पीड़ा या खेद
- आ—अव्य॰—-—-—प्रत्यास्मरण
- आ—अव्य॰—-—-—कई बार केवल अनुपूरक के रूप में प्रयुक्त होता है-
- आ—अव्य॰—-—-—संज्ञा और क्रियाओं के उपसर्ग के रूप में
- आ—अव्य॰—-—-—‘निकट' ‘पार्श्व' ‘की ओर' ‘सब ओर से' ‘सब ओर'
- आ—अव्य॰—-—-—गत्यर्थक नयनार्थक, तथा स्थानान्तरणार्थक क्रियाओं से पूर्व लगकर विपरीतार्थक का बोध कराता है- यथा गम्=जाना, आगम्=आना, दा=देना, आदा=लेना,
- आ—अव्य॰—-—-—(अपा॰ के साथ वियुक्त निपात के रूप में प्रयुक्त होकर) निम्नांकित अर्थ प्रकट करता हैआरम्भिक सीमा, (अभिविधि) ‘से', ‘से लेकर' ‘से दूर' ‘में से'
- आ—अव्य॰—-—-—पृथक्करणीय या उपसंहारक सीमा (मर्यादा) को प्रकट करता है ‘तक' ‘जबतक की नहीं' ‘यथाशक्ति' ‘जबतक कि'
- आ—अव्य॰—-—-—पृथक्करणीय या उपसंहारक सीमा (मर्यादा) अर्थों को प्रकट करने में ‘आ' या तो अव्ययीभाव समास में अथवा सामासिक विशेषण का रूप धारण कर लेता है- आबालम् (आबालेभ्यः) हरिभक्तिः, कई बार इस प्रकार का बना हुआ समस्त पद अन्य समासों का प्रथम खण्ड बन जाता है-
- आ—अव्य॰—-—-—विशेषणों के साथ लगकर ‘आ' अल्पार्थवाची हो जाता है
- आः—पुं॰—-—-—अंगीकरण, स्वीकृति
- आः—पुं॰—-—-—प्रत्यास्मरण
- आः—पुं॰—-—-—निश्चयेन 'निश्चय ही' 'अवश्य ही'
- आः—पुं॰—-—-—उत्तर
- आः—स्त्री॰—-—-—लक्ष्मी
- आकत्थनम्—नपुं॰—-—आ-कत्थ्-ल्युट्—डींग मारना, शेखी बघारना
- आकम्पः—पुं॰—-—आ-कम्प्-घञ्—मृदु कंप
- आकम्पः—पुं॰—-—आ-कम्प्-घञ्—हिलना, काँपना
- आकम्पनम्—नपुं॰—-—आ-कम्प्-ल्युट्—कम्पयुक्त गति, हिलना
- आकम्पित —वि॰—-—आ-कम्प्-क्त,—हिलता हुआ, कांपता हुआ, हिला-डुला, विक्षुब्ध
- आकम्प्र—वि॰—-—आ-कम्प्- र —हिलता हुआ, कांपता हुआ, हिला-डुला, विक्षुब्ध
- आकरः—पुं॰—-—आकुर्वन्त्यस्मिन्- आ-कृ-घ—खान
- आकरः—पुं॰—-—आकुर्वन्त्यस्मिन्- आ-कृ-घ—खान या किसी वस्तु का समृद्ध साधन
- आकरः—पुं॰—-—आकुर्वन्त्यस्मिन्- आ-कृ-घ—सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ
- आकरिक—वि॰—-—आकर-ठन्—नियत व्यक्ति जो खान का अधीक्षण करता है
- आकरिन—वि॰—-—आकर-इनि—खान में उत्पन्न खनिज
- आकरिन—वि॰—-—आकर-इनि—अच्छी नसल का
- आकर्णनम्—नपुं॰—-—आ-कर्ण-ल्युट्—सुनना, कान लगाकर सुनना
- आकर्षः—पुं॰—-—आ-कृष्-घञ्—खिंचाव या खींचना
- आकर्षः—पुं॰—-—आ-कृष्-घञ्—खींच कर दूर ले जाना, पीछे हटाना
- आकर्षः—पुं॰—-—आ-कृष्-घञ्—(धनुष) तानना
- आकर्षः—पुं॰—-—आ-कृष्-घञ्—प्रलोभन, सम्मोहन
- आकर्षः—पुं॰—-—आ-कृष्-घञ्—पासे से खेलना
- आकर्षः—पुं॰—-—आ-कृष्-घञ्—पासा या चौसर
- आकर्षः—पुं॰—-—आ-कृष्-घञ्—पासों से खेलने का फलक, बिसात
- आकर्षः—पुं॰—-—आ-कृष्-घञ्—ज्ञानेन्द्रिय
- आकर्षः—पुं॰—-—आ-कृष्-घञ्—कसौटी
- आकर्षक—वि॰—-—आ-कृष्-ण्वुल्—खिंचाव करने वाला, प्रलोभक
- आकर्षकः—पुं॰—-—आ-कृष्-ण्वुल्—चुंबक, लोहचुंबक
- आकर्षणम्—नपुं॰—-—आ-कृष्-ल्युट्—खींचना, खींच लेना, सम्मोहन
- आकर्षणम्—नपुं॰—-—आ-कृष्-ल्युट्—पथभ्रष्ट करने के लिए फुसलाना
- आकर्षणी—स्त्री॰—-—आ-कृष्-ल्युट्-ङीप्—वृक्षों से फल फूल आदि से उतारने के लिए किनारे पर से मुड़ी हुई लकड़ी, लग्गी
- आकर्षिक—वि॰—-—आ-कृष्- ठन्—चुंबकीय,सम्मोहक
- आकर्षिन्—वि॰—-—आ-कृष्- णिनि—खींचने वाला
- आकलनम्—नपुं॰—-—आ-कल्-ल्युट्—हाथ रखना, पकड़ना, बन्दीगृह में रहना
- आकलनम्—नपुं॰—-—आ-कल्-ल्युट्—गिनना, हिसाब लगाना
- आकलनम्—नपुं॰—-—आ-कल्-ल्युट्—चाह इच्छा
- आकलनम्—नपुं॰—-—आ-कल्-ल्युट्—पूछताछ
- आकलनम्—नपुं॰—-—आ-कल्-ल्युट्—समझ-बूझ
- आकल्पः—पुं॰—-—आ-कृप्-णिच्-घञ्— आभूषण, अलंकार
- आकल्पः—पुं॰—-—आ-कृप्-णिच्-घञ्—वेशभूषा
- आकल्पः—पुं॰—-—आ-कृप्-णिच्-घञ्—रोग, बीमारी
- आकल्पकः—पुं॰—-—आ-कृप्-णिच्-ण्वुल्—दुःखपूर्ण स्मृति, स्मृति का लोप
- आकल्पकः—पुं॰—-—आ-कृप्-णिच्-ण्वुल्—मूर्च्छा
- आकल्पकः—पुं॰—-—आ-कृप्-णिच्-ण्वुल्—हर्ष या प्रसन्नता
- आकल्पकः—पुं॰—-—आ-कृप्-णिच्-ण्वुल्—अंधकार गांठ या जोड़
- आकषः—पुं॰—-—आ-कष्-अच्—कसौटी
- आकषिक—वि॰—-—आकषेण चरति- इति आकष-ष्ठल्—परखने वाला, कसौटी पर कसने वाला
- आकस्मिक—वि॰—-—अकस्मात्-ष्ठक् टिलोपः—अ चानक होने वाला, अचिंतित, अप्रत्याशित, सहसा
- आकस्मिक—वि॰—-—अकस्मात्-ष्ठक् टिलोपः—निष्कारण, निराधार
- आकाङ्क्षा—स्त्री॰—-—आ-काङ्क्ष्- अ-टाप्—इच्छा, चाह,
- आकाङ्क्षा—स्त्री॰—-—आ-काङ्क्ष्- अ-टाप्—(व्या॰में) अर्थ को पूरा करने के लिए आवश्यक शब्द की उपस्थिति
- आकाङ्क्षा—स्त्री॰—-—आ-काङ्क्ष्- अ-टाप्—अर्थ की पूर्ति का अभाव
- आकाङ्क्षा—स्त्री॰—-—आ-काङ्क्ष्- अ-टाप्—किसी की ओर देखना
- आकाङ्क्षा—स्त्री॰—-—आ-काङ्क्ष्- अ-टाप्—प्रयोजन, इरादा
- आकाङ्क्षा—स्त्री॰—-—आ-काङ्क्ष्- अ-टाप्—पूछ-ताछ
- आकाङ्क्षा—स्त्री॰—-—आ-काङ्क्ष्- अ-टाप्—शब्द की यथार्थता
- आकायः—पुं॰—-—आ-चि-कर्मणि घञ् चितौ कृत्वम्—चिता पर रखी हुई अग्नि
- आकायः—पुं॰—-—आ-चि-कर्मणि घञ् चितौ कृत्वम्—चिता
- आकारः—पुं॰—-— आ-कृञ्-घञ्—रूप, शक्ल, आकृति
- द्विधाकारः—पुं॰—द्विधा-आकारः—-—दो रूपों की या दो प्रकार की
- आकारः—पुं॰—-— आ-कृञ्-घञ्—पहलू सूरत, मुखाकृति, चेहरा
- आकारः—पुं॰—-— आ-कृञ्-घञ्—चेहरे का रंग ढंग- जिससे मनुष्य के आन्तरिक विचार तथा मनोवृत्ति का पता लग सके
- आकारः—पुं॰—-— आ-कृञ्-घञ्—इशारा, संकेत, निशानी
- आकरगुप्तिः—स्त्री॰—आकारः-गुप्तिः—-—छिपाव, मन के भावों को छिपाना
- आकारगोपनम्—नपुं॰—आकारः-गोपनम्—-—छिपाव, मन के भावों को छिपाना
- आकारगूहनम्—नपुं॰—आकारः-गूहनम्—-—छिपाव, मन के भावों को छिपाना
- आकारण —पुं॰—-—आ-कृ-णिच्- ल्युट्—आमन्त्रण, बुलावा
- आकारण —पुं॰—-—आ-कृ-णिच्- ल्युट्—आह्वान
- आकारण —स्त्री॰—-—आ-कृ-णिच्- ल्युट्, युच् वा, टाप्—आमन्त्रण, बुलावा
- आकारण —स्त्री॰—-—आ-कृ-णिच्- ल्युट्, युच् वा, टाप्—आह्वान
- आकरण—पुं॰—-—आ-कृ-णिच्- ल्युट्—आमन्त्रण, बुलावा
- आकरण—पुं॰—-—आ-कृ-णिच्- ल्युट्—आह्वान
- आकरण—स्त्री॰—-—आ-कृ-णिच्- ल्युट्, युच् वा, टाप्—आमन्त्रण, बुलावा
- आकरण—स्त्री॰—-—आ-कृ-णिच्- ल्युट्, युच् वा, टाप्—आह्वान
- आकालः—पुं॰—-—आ-कु-अल्-अच् कोः कादेशः—ठीक समय
- आकालिक—वि॰—-—अकाल-ठञ्—क्षणिक, अल्पकालिक
- आकालिक—वि॰—-—अकाल-ठञ्—बेमौसिम, अकालपक्व, असामयिक
- आकालिकी—स्त्री॰—-—अकाल-ठञ्-ङीप्—बिजली
- आकाशः —पुं॰—-—आ-काश्-घञ्—आसमान
- आकाशः —पुं॰—-—आ-काश्-घञ्—अन्तरिक्ष
- आकाशः —पुं॰—-—आ-काश्-घञ्—सूक्ष्म और वायविक द्रव्य जो समस्त विश्व में व्याप्त है, वैशेषिक द्वारा माने हुए ९ द्रव्यों में से एक, यह शब्द गुण का आधार है।
- आकाशः —पुं॰—-—आ-काश्-घञ्—मुक्त स्थान
- आकाशः —पुं॰—-—आ-काश्-घञ्—स्थान
- आकाशः —पुं॰—-—आ-काश्-घञ्—ब्रह्म
- आकाशः —पुं॰—-—आ-काश्-घञ्—प्रकाश, स्वच्छता, ‘वायु में' अर्थ को प्रकट करने वाला
- आकाशम् —नपुं॰—-—आ-काश्-घञ्—आसमान
- आकाशम् —नपुं॰—-—आ-काश्-घञ्—अन्तरिक्ष
- आकाशम् —नपुं॰—-—आ-काश्-घञ्—सूक्ष्म और वायविक द्रव्य जो समस्त विश्व में व्याप्त है, वैशेषिक द्वारा माने हुए ९ द्रव्यों में से एक, यह शब्द गुण का आधार है।
- आकाशम् —नपुं॰—-—आ-काश्-घञ्—मुक्त स्थान
- आकाशम् —नपुं॰—-—आ-काश्-घञ्—स्थान
- आकाशम् —नपुं॰—-—आ-काश्-घञ्—ब्रह्म
- आकाशम् —नपुं॰—-—आ-काश्-घञ्—प्रकाश, स्वच्छता, ‘वायु में' अर्थ को प्रकट करने वाला
- आकाशेशः—पुं॰—आकाशः-ईशः—-—इन्द्र
- आकाशेशः—पुं॰—आकाशः-ईशः—-—असहाय व्यक्ति जिसके पास वायु के अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है
- आकाशकक्षा—स्त्री॰—आकाशः-कक्षा—-—क्षितिज
- आकाशकल्पः—पुं॰—आकाशः -कल्पः—-—ब्रह्म
- आकाशगः—पुं॰—आकाशः -गः—-—पक्षी
- आकाशगा—स्त्री॰—आकाशः -गा—-—आकाशस्थित गङ्गा
- आकाशगङ्गा—स्त्री॰—आकाशः -गङ्गा—-—दिव्य गङ्गा
- आकाशचमसः—पुं॰—आकाशः -चमसः—-—चन्द्रमा
- आकाशजननिन्—पुं॰—आकाशः-जननिन्—-—झरोखा, प्राचीर में बना तोप का झरोखा, बन्दूक या तोप आदि चलाने के लिए भित्ति में बना छिद्र
- आकाशदीपः—पुं॰—आकाशः-दीपः—-—कार्तिक मास में दिवाली के अवसर पर लक्ष्मी या विष्णु का स्वागत करने के लिए हठड़ी पर रखा हुआ दीपक
- आकाशदीपः—पुं॰—आकाशः-दीपः—-—बाँस के सिरे पर बाँध कर जलाया जाने वाला दीया या लालटेन, प्रकाशस्तम्भ पर रखा हुआ दीया या लैम्प
- आकाशप्रदीपः—पुं॰—आकाशः-प्रदीपः—-—कार्तिक मास में दिवाली के अवसर पर लक्ष्मी या विष्णु का स्वागत करने के लिए हठड़ी पर रखा हुआ दीपक
- आकाशप्रदीपः—पुं॰—आकाशः-प्रदीपः—-—बाँस के सिरे पर बाँध कर जलाया जाने वाला दीया या लालटेन, प्रकाशस्तम्भ पर रक्खा हुआ दीया या लैम्प
- आकाशभाषितम्—नपुं॰—आकाशः-भाषितम्—-—रंगमंच पर अनुपस्थित व्यक्ति से भाषण करना, एक काल्पनिक भाश्ढण जिसका उत्तर इस प्रकार दिया जाय- मानो यह वात वस्तुतः कही और सुनी गई है-
- आकाशभाषितम्—नपुं॰—आकाशः-भाषितम्—-—आकाश में कही बात या शब्द
- आकाशमण्डलम्—नपुं॰—आकाशः-मण्डलम्—-—खगोल
- आकाशयानम्—नपुं॰—आकाशः-यानम्—-—हवाई जहाज, गुब्बारा
- आकाशयानम्—नपुं॰—आकाशः-यानम्—-—आकाश में घूमने वाला
- आकाशरक्षी—पुं॰—आकाशः-रक्षिन्—-—किले की बाहरी दिवारों की रक्षा करने वाला
- आकाशवचनम्—नपुं॰—आकाशः-वचनम्—-—रंगमंच पर अनुपस्थित व्यक्ति से भाषण करना, एक काल्पनिक भाश्ढण जिसका उत्तर इस प्रकार दिया जाय- मानो यह वात वस्तुतः कही और सुनी गई है-
- आकाशवचनम्—नपुं॰—आकाशः-वचनम्—-—आकाश में कही बात या शब्द
- आकाशवर्त्मन्—नपुं॰—आकाशः-वर्त्मन्—-—अन्तरिक्ष
- आकाशवर्त्मन्—नपुं॰—आकाशः-वर्त्मन्—-—वायुमंडलम्, वायु
- आकाशवाणी—स्त्री॰—आकाशः-वाणी—-—आकाश से आई हुई आवाज, अशरीरिणी वाणी
- आकाशसलिलम्—नपुं॰—आकाशः-सलिलम्—-—वर्षा, ओस
- आकाशस्फटिकः—पुं॰—आकाशः-स्फटिकः—-—ओला
- आकिञ्चनम्—नपुं॰—-—अकिञ्चन-अण्—गरीबी, धन का अभाव
- आकिञ्चन्यम्—नपुं॰—-—अकिञ्चन-ष्यञ्—गरीबी, धन का अभाव
- आकीर्ण—भू॰क॰कृ॰—-—आ-कॄ-क्त—बिखरा हुआ, फैला हुआ, भरा हुआ, व्याप्त, संकुल, खचाखच भरा हुआ, परिपूर्ण, भरपूर
- आकुञ्चनम्—नपुं॰—-—आ-कुञ्च्-ल्युट्—झुकना, सिकोड़ना, संकोचन
- आकुञ्चनम्—नपुं॰—-—आ-कुञ्च्-ल्युट्—पाँच कर्मों में से एक- सिकुड़न
- आकुञ्चनम्—नपुं॰—-—आ-कुञ्च्-ल्युट्—एकत्र करना, ढेर लगाना
- आकुञ्चनम्—नपुं॰—-—आ-कुञ्च्-ल्युट्—डेढ़ा होना
- आकुल—वि॰—-—आ-कुल्-क—भरपूर, भरा हुआ
- आकुल—वि॰—-—आ-कुल्-क—प्रभावित, प्रभावग्रस्त, पीड़ित, आहत
- आकुल—वि॰—-—आ-कुल्-क—घबराया हुआ, विक्षुब्ध, उद्विग्न
- आकुलाकुल—वि॰—आकुल-आकुल—-—अत्यन्त क्षुब्ध
- आकुल—वि॰—-—आ-कुल्-क—विखरे बाल वाला, अव्यस्थित
- आकुल—वि॰—-—आ-कुल्-क—असंगत, विरोधी
- आकुलम्—नपुं॰—-—आ-कुल्-क—आबाद जगह
- आकुलित—वि॰—-—आ-कुल-क्त—दुःखी, उद्विग्न, विक्षुब्ध
- आकुलित—वि॰—-—आ-कुल-क्त—फँसा हुआ
- आकुलित—वि॰—-—आ-कुल-क्त—मलिन, धूमिल
- आकुलित—वि॰—-—आ-कुल-क्त—अभिभूत, पीड़ित
- आकूणित—वि॰—-—आ-कूण-क्त—कुछ संकुचित
- आकूतम्—नपुं॰—-—आ-कू-क्त—अर्थ, इरादा, प्रयोजन
- आकूतम्—नपुं॰—-—आ-कू-क्त—भावना, हृदय की स्थिति, संवेग
- साकूतम्—नपुं॰—-—आ-कू-क्त—भावनापूर्वक, साभिप्राय
- आकूतम्—नपुं॰—-—आ-कू-क्त—आश्चर्य या जिज्ञासा
- आकूतम्—नपुं॰—-—आ-कू-क्त—चाह, इच्छा
- आकृतिः—स्त्री॰—-—आ-कृ-क्तिन्—रूप, प्रतिमा, शक्ल
- आकृतिः—स्त्री॰—-—आ-कृ-क्तिन्—शरीर, काया
- आकृतिः—स्त्री॰—-—आ-कृ-क्तिन्—दर्शन, सुन्दर रूप, भद्ररूप
- आकृतिः—स्त्री॰—-—आ-कृ-क्तिन्—नमूना, लक्षण
- आकृतिः—स्त्री॰—-—आ-कृ-क्तिन्—कबीला, जाति
- आकृतिगणः—पुं॰—आकृतिः-गणः—-—व्याकरण के किसी विशेष नियम से संबंध रखने वाले शब्दों की सूची- जो केवल नमूनों की सूची है, यथा अर्शादिगण, स्वरादिगण, चादिगण आदि
- आकृतिच्छत्रा—स्त्री॰—आकृतिः-छत्रा—-—घोषातकी नाम की लता
- आकृष्टिः—स्त्री॰—-—आ-कृष्-क्तिन्—आकर्षण
- आकृष्टिः—स्त्री॰—-—आ-कृष्-क्तिन्—खिंचाव, गुरुत्वाकर्षण
- आकृष्टिः—स्त्री॰—-—आ-कृष्-क्तिन्—धनुष का खींचना या झुकाना
- आकेकर—वि॰—-—आके अन्तिके कीर्यते इति आ-कृ-अप्-टाप्- आकेकरा दृष्टिः आ अस्ति अस्य इति- आकेकरा-अच्—अधमुंदा, अर्धनिमीलित (आँखें)
- आकोकेरः—पुं॰—-—-—मकर राशि
- आक्रन्दः—पुं॰—-—आ-क्रन्द्-घञ्—रोना, चिल्लाना
- आक्रन्दः—पुं॰—-—आ-क्रन्द्-घञ्—पुकारना, आह्वान करना
- आक्रन्दः—पुं॰—-—आ-क्रन्द्-घञ्—शब्द, चिल्लाहट
- आक्रन्दः—पुं॰—-—आ-क्रन्द्-घञ्—मित्र, रक्षक
- आक्रन्दः—पुं॰—-—आ-क्रन्द्-घञ्—भाई
- आक्रन्दः—पुं॰—-—आ-क्रन्द्-घञ्—रोने का स्थान
- आक्रन्दः—पुं॰—-—आ-क्रन्द्-घञ्—वह राजा जो अपने मित्र राजा की दूसरे की सहायता करने से रोके, वह राजा जिसकी राजधानी मिलती हुई किसी दूसरी राजधानी के पास है।
- आक्रन्दनम्—नपुं॰—-—आ-क्रन्द्-ल्युट्—विलाप, रुदन
- आक्रन्दनम्—नपुं॰—-—आ-क्रन्द्-ल्युट्—ऊँचे स्वर से पुकारना
- आक्रन्दिक—वि॰—-—आक्रन्दं धावति इति आक्रन्द-ठञ्—वह व्यक्ति जो किसी दुखिया के रोने को सुनकर दौड़ के उसके पास आता है
- आक्रन्दित—भू॰क॰कृ॰—-—आ-क्रन्द-क्त—दहाड़ने वाला, या फूट२ कर रोने वाला
- आक्रन्दित—भू॰क॰कृ॰—-—आ-क्रन्द-क्त—आहूत, बुलाया हुआ
- आक्रन्दितम्—नपुं॰—-—आ-क्रन्द-क्त—चिल्लाना, दहाड़ना
- आक्रमः—पुं॰—-—आ-क्रम्-घञ्—निकट आना, उपागमन
- आक्रमः—पुं॰—-—आ-क्रम्-घञ्—टूट पड़ना, आक्रमण करना, हमला
- आक्रमः—पुं॰—-—आ-क्रम्-घञ्—पकड़ना, ढकना, कब्जे में करना
- आक्रमः—पुं॰—-—आ-क्रम्-घञ्—पार करना, प्राप्त करना
- आक्रमः—पुं॰—-—आ-क्रम्-घञ्—विस्तार करना, चक्कर लगाना, बढ़-चढ़ कर होना
- आक्रमः—पुं॰—-—आ-क्रम्-घञ्—शक्ति से अधिक बोझा लादना
- आक्रमणम्—नपुं॰—-—आ-क्रम्-ल्युट्—निकट आना, उपागमन
- आक्रमणम्—नपुं॰—-—आ-क्रम्-ल्युट्—टूट पड़ना, आक्रमण करना, हमला
- आक्रमणम्—नपुं॰—-—आ-क्रम्-ल्युट्—पकड़ना, ढकना, कब्जे में करना
- आक्रमणम्—नपुं॰—-—आ-क्रम्-ल्युट्—पार करना, प्राप्त करना
- आक्रमणम्—नपुं॰—-—आ-क्रम्-ल्युट्—विस्तार करना, चक्कर लगाना, बढ़-चढ़ कर होना
- आक्रमणम्—नपुं॰—-—आ-क्रम्-ल्युट्—शक्ति से अधिक बोझा लादना
- आक्रान्त—भू॰क॰कृ॰—-—आ-क्रम्-क्त—पकड़ा हुआ, अधिकार में किया हुआ, पराजित, पराभूत
- आक्रान्त—भू॰क॰कृ॰—-—आ-क्रम्-क्त—लदा हुआ
- आक्रान्त—भू॰क॰कृ॰—-—आ-क्रम्-क्त—बढ़ा हुआ, ग्रहण लगा हुआ, आगे बढ़ा हुआ
- आक्रान्त—भू॰क॰कृ॰—-—आ-क्रम्-क्त—प्राप्त किया हुआ अधिकार में किया हुआ
- आक्रान्तिः—स्त्री॰—-—आ-क्रम्-क्तिन्—ऊपर रखना, अधिकार में करना, पददलित करना
- आक्रान्तिः—स्त्री॰—-—आ-क्रम्-क्तिन्—पराभूत करना, दबाना, लादना
- आक्रान्तिः—स्त्री॰—-—आ-क्रम्-क्तिन्—आरोहण, आगे बढ़ जाना
- आक्रान्तिः—स्त्री॰—-—आ-क्रम्-क्तिन्—शक्ति, शौर्य, बल
- आक्रानकः—पुं॰—-—आ-क्रम्-ण्वुल्—आक्रमणकर्ता, हमलावर
- आक्रीडः—पुं॰—-—आ-क्रीड्-घञ्— खेल, क्रीडा, आमोद
- आक्रीडः—पुं॰—-—आ-क्रीड्-घञ्—प्रमदवन, क्रीडोद्यान
- आक्रीडम्—नपुं॰—-—आ-क्रीड्-घञ्— खेल, क्रीडा, आमोद
- आक्रीडम्—नपुं॰—-—आ-क्रीड्-घञ्—प्रमदवन, क्रीडोद्यान
- आक्रुष्ट—भू॰क॰कृ॰—-—आ-क्रुश्-क्त—डांट-डपट किया हुआ, निन्दित, तिरस्कृत, कलंकित
- आक्रुष्ट—भू॰क॰कृ॰—-—आ-क्रुश्-क्त—ध्वनित, चीत्कारपूर्ण
- आक्रुष्ट—भू॰क॰कृ॰—-—आ-क्रुश्-क्त—अभिशप्त
- आक्रुष्टम्—नपुं॰—-—आ-क्रुश्-क्त—जोर की पुकार
- आक्रुष्टम्—नपुं॰—-—आ-क्रुश्-क्त—घोर शब्द या रुदन, गालीगलौज युक्त भाषण
- आक्रोशः—पुं॰—-—आ-क्रुश्-घञ्—पुकारना या जोर से चिल्लाना, उच्चस्वर से रोना या शब्द
- आक्रोशः—पुं॰—-—आ-क्रुश्-घञ्—निन्दा, कलंक, भर्त्सना करना, दुर्वचन कहना
- आक्रोशः—पुं॰—-—आ-क्रुश्-घञ्—अभिशाप, कोसना
- आक्रोशः—पुं॰—-—आ-क्रुश्-घञ्—शपथ लेना
- आक्रोशनम्—नपुं॰—-—आ-क्रुश्-ल्युट्—पुकारना या जोर से चिल्लाना, उच्चस्वर से रोना या शब्द
- आक्रोशनम्—नपुं॰—-—आ-क्रुश्-ल्युट्—निन्दा, कलंक, भर्त्सना करना, दुर्वचन कहना
- आक्रोशनम्—नपुं॰—-—आ-क्रुश्-ल्युट्—अभिशाप, कोसना
- आक्रोशनम्—नपुं॰—-—आ-क्रुश्-ल्युट्—शपथ लेना
- आक्लेदः—पुं॰—-—आ-क्लिद्-घञ्—आर्द्रता, गीलापन, छिड़काव
- आक्षद्यूतिक—वि॰—-—अक्षद्यूतेन निर्वृत्तम् इति ठक्—जुए से प्रभावित या समाप्त किया हुआ
- आक्षपणम्—नपुं॰—-—आ-क्षप्-ल्युट्—उपवास रखना, उपवास या व्रत द्वारा आत्मशुद्धि, संयम
- आक्षपाटिकः—पुं॰—-—अक्षपट-ठक्—द्यूतक्रीडा या निर्णायक, द्यूतगृह का अधीक्षक
- आक्षपाटिकः—पुं॰—-—अक्षपट-ठक्—न्यायाधीश
- आक्षपाद—वि॰—-—अक्षपाद-अण्—अक्षपाद या गौतम का शिष्य
- आक्षपादः—पुं॰—-—अक्षपाद-अण्—न्याय शास्त्र का अनुयायी, नैयायिक, तार्किक
- आक्षारः—पुं॰—-—आ-क्षर्-णिच्-घञ्—कलंक लगाना, दोषारोपण करना
- आक्षारणम्—नपुं॰—-—आ-क्षर्-णिच्-ल्युट्—कलंक, दोषारोपण करना
- आक्षारणा—स्त्री॰—-—आ-क्षर्-णिच्-ल्युट्-टाप्—कलंक, दोषारोपण करना
- आक्षारित—भू॰क॰कृ॰—-—आ-क्षर्-णिच्-क्त—कलंकित
- आक्षारित—भू॰क॰कृ॰—-—आ-क्षर्-णिच्-क्त—द्दोषी, अपराधी
- आक्षिक—वि॰—-—अक्षेण दीव्यति जयति जितं वा- अक्ष-ठक्—पासों से जूआ खेलने वाला
- आक्षिक—वि॰—-—अक्षेण दीव्यति जयति जितं वा- अक्ष-ठक्—जूए से जीता हुआ
- आक्षिक—वि॰—-—अक्षेण दीव्यति जयति जितं वा- अक्ष-ठक्—जूए से संबंध रखने वाला
- आक्षिक—वि॰—-—अक्षेण दीव्यति जयति जितं वा- अक्ष-ठक्—जूए में किया हुआ कर्जा
- आक्षिकम्—नपुं॰—-—अक्ष-ठक्—जूए में जीता हुआ धन
- आक्षिकम्—नपुं॰—-—अक्ष-ठक्—जूए का ऋण
- आक्षिप्तिका—स्त्री॰—-—आ-क्षिप्-क्त-टाप्, क, इत्वम्—रंगमंच पर आते हुए किसी पात्र के द्वारा गान विशेष
- आक्षीब—वि॰—-—आ-क्षीब्-क्त नि॰—जिसने कुछ मद्यपान किया हुआ हो
- आक्षीब—वि॰—-—आ-क्षीब्-क्त नि॰—मस्त, नशे में चूर
- आक्षेपः—पुं॰—-—आ-क्षिप्-घञ्—दूर फेंकना, उछालना, खींचकर दूर करना, छीन लेना
- आक्षेपः—पुं॰—-—आ-क्षिप्-घञ्—भर्त्सना,झिड़कना, कलंक लगाना, अपशब्द कहना, अवज्ञापूर्ण निन्दा
- आक्षेपः—पुं॰—-—आ-क्षिप्-घञ्—मन की उचाट, मन का खींचाव
- आक्षेपः—पुं॰—-—आ-क्षिप्-घञ्—प्रयुक्त करना, लगाना, भरना
- आक्षेपः—पुं॰—-—आ-क्षिप्-घञ्—संकेत करना, मान लेना, समझ लेना
- आक्षेपः—पुं॰—-—आ-क्षिप्-घञ्—अनुमान
- आक्षेपः—पुं॰—-—आ-क्षिप्-घञ्—धरोहर
- आक्षेपः—पुं॰—-—आ-क्षिप्-घञ्—आपत्ति या संदेह
- आक्षेपः—पुं॰—-—आ-क्षिप्-घञ्—(सा॰शा॰ में) एक अलंकार जिसमें विवक्षित वस्तु को एक विशेष अर्थ जतलाने के लिए प्रकटतः दबा दिया जाय या निषिद्ध कर दिया जाय
- आक्षेपकः—पुं॰—-—आ-क्षिप्-ण्वुल्—फेंकनेवाला
- आक्षेपकः—पुं॰—-—आ-क्षिप्-ण्वुल्—उचाट करने वाला, कलंक लगाने वाला, दोषारोपण करने वाला
- आक्षेपकः—पुं॰—-—आ-क्षिप्-ण्वुल्—शिकारी
- आक्षेपणम्—नपुं॰—-—आ-क्षिप्-ल्युट्—फेंकना, उछालना
- अक्षोटः—पुं॰—-—आ-अक्ष्-ओट् -अण्— अखरोट की लकड़ी
- अक्षोडः—पुं॰—-—आ-अक्ष्-ओड् -अण्— अखरोट की लकड़ी
- आक्षोदनम्—नपुं॰—-—-—आखेट, शिकार
- आखः—पुं॰—-—आ-खन्-ड, घ वा—फावड़ा, खुर्पा
- आखनः—पुं॰—-—आ-खन्-ड, घ वा—फावड़ा, खुर्पा
- आखण्डलः—पुं॰—-—आखण्डयति भेदयति पर्वतान्-आ-खण्ड्-डलच्, डस्य नेत्वम्-तारा॰—इन्द्र
- आखनिकः—पुं॰—-—आ-खन्-इकन्—खोदने वाला, खनिक
- आखनिकः—पुं॰—-—आ-खन्-इकन्—चूहा या मूसा
- आखनिकः—पुं॰—-—आ-खन्-इकन्—सूअर
- आखनिकः—पुं॰—-—आ-खन्-इकन्—चोर
- आखनिकः—पुं॰—-—आ-खन्-इकन्—कुदाल
- आखरः—पुं॰—-—आखन्-डर—फावड़ा
- आखरः—पुं॰—-—आखन्-डर—खोदन वाला, खनिक
- आखातः—पुं॰—-—आ-खन्-क्त—प्राकृतिक तालाब, या जलाशय, खाड़ी
- आखातम्—नपुं॰—-—आ-खन्-क्त—प्राकृतिक तालाब, या जलाशय, खाड़ी
- आखानः—पुं॰—-—आ-खन्-घञ्—चारों ओर से खोदना
- आखानः—पुं॰—-—आ-खन्-घञ्—फावड़ा
- आखानः—पुं॰—-—आ-खन्-घञ्—कुदाल,बेलदार
- आखुः—पुं॰—-—आ-खन्- कु- डिच्च—मूषिक,चूहा, छछुंदर
- आखुः—पुं॰—-—आ-खन्- कु- डिच्च—चोर
- आखुः—पुं॰—-—आ-खन्- कु- डिच्च—सूअर
- आखुः—पुं॰—-—आ-खन्- कु- डिच्च—फावड़ा
- आखुः—पुं॰—-—आ-खन्- कु- डिच्च—कंजूस
- आखूत्करः—पुं॰—आखुः-उत्करः—-—वल्मीक, बमी
- आखूत्थ—वि॰—आखुः-उत्थ—-—चूहों से उत्पन्न
- आखूत्थम्—नपुं॰—आखुः-उत्थम्—-—चूहों का निकलना, चूहों का समूह
- आखुगः—पुं॰—आखुः-गः—-—गणेश जिसका वाहन चूहा है
- आखुपत्रः—पुं॰—आखुः-पत्रः—-—गणेश जिसका वाहन चूहा है
- आखुरथः—पुं॰—आखुः-रथः—-—गणेश जिसका वाहन चूहा है
- आखुवाहनः—पुं॰—आखुः-वाहनः—-—गणेश जिसका वाहन चूहा है
- आखुघातः—पुं॰—आखुः-घातः—-—शूद्र, नीचजाति का पुरुष, (शा॰)चूहों को पकड़ने और मारने वाला,चूहड़ा
- आखुपाषाणः—पुं॰—आखुः-पाषाणः—-—चुम्बक पत्थर
- आखुभुज्—पुं॰—आखुः-भुज्—-—बिल्ला
- आखुभुजः—पुं॰—आखुः-भुजः—-—बिल्ला
- आखेटः—पुं॰—-—आखिट्यन्ते त्रास्यन्ते प्राणिनोऽत्र- आ-खिट्-घञ्, तारा॰—शिकार करना, पीछा करना
- आखेटशीर्षकम्—नपुं॰—आखेटः-शीर्षकम्—-—चिकना फ़र्श
- आखेटशीर्षकम्—नपुं॰—आखेटः-शीर्षकम्—-—खान, गुफा
- आखेटक—वि॰—-—आखेट-कन्—शिकार करने वाला
- आखेटकः—पुं॰—-—आखेट-कन्—शिकारी
- आखेटकम्—नपुं॰—-—आखेट-कन्—शिकार
- आखेटिकः—पुं॰—-—आखेटे कुशलः-ठक्—शिकारी
- आखेटिकः—पुं॰—-—आखेटे कुशलः-ठक्—शिकारी कुत्ता
- आखोटः—ब॰स॰—-—आखः खनित्रमिव उटानि पर्णानि अस्य—अखरोट का वृक्ष
- आख्या—स्त्री॰—-—आख्यायतेऽनया-आख्या-अङ्—नाम, अभिधान
- आख्या—स्त्री॰—-—आख्यायतेऽनया-आख्या-अङ्—नामक या नामवाला
- आख्यात—भू॰क॰कृ॰—-—आ-ख्या-क्त—कहा हुआ, बताया हुआ, घोषणा किया हुआ
- आख्यात—भू॰क॰कृ॰—-—आ-ख्या-क्त—गिना हुआ, पाठ किया हुआ, जतलाया हुआ
- आख्यात—भू॰क॰कृ॰—-—आ-ख्या-क्त—नामपद या क्रियापद
- आख्यातम्—नपुं॰—-—आ-ख्या-क्त—क्रिया
- आख्यातिः—स्त्री॰—-—आ-ख्या-क्तिन्—कहना, समाचार, प्रकाशन
- आख्यातिः—स्त्री॰—-—आ-ख्या-क्तिन्—यश
- आख्यातिः—स्त्री॰—-—आ-ख्या-क्तिन्—नाम
- आख्यानम्—नपुं॰—-—आ-ख्या-ल्युट्—बोलना, घोषणा करना, जतलाना, समाचार
- आख्यानम्—नपुं॰—-—आ-ख्या-ल्युट्—किसी पुरानी कहानी की ओर निर्देश करना
- आख्यानम्—नपुं॰—-—आ-ख्या-ल्युट्—कथा, कहानी विशेषरूप से काल्पनिक या पौराणिक, उपाख्यान
- आख्यानम्—नपुं॰—-—आ-ख्या-ल्युट्—उत्तर
- आख्यानम्—नपुं॰—-—आ-ख्या-ल्युट्—भेदक धर्म
- आख्यानकम्—नपुं॰—-—आख्यान-कन्—कथा, छोटी पौराणिक कहानी, कथानक
- आख्यायक—वि॰—-—आ-ख्या-ण्वुल्—कहने वाला, सूचना देने वाला
- आख्यायकः—पुं॰—-—आ-ख्या-ण्वुल्—दूत, हरकारा
- आख्यायकः—पुं॰—-—आ-ख्या-ण्वुल्—अग्रदूत, संदेशवाहक
- आख्यायिका—स्त्री॰—-—आख्यायक-टाप्,इत्वम्—गद्य रचना का नमूना, सुसंगत कहानी
- आख्यायिन्—वि॰—-—आ-ख्या- णिनि—जो व्यक्ति कहता है, सूचना या समाचार देता है
- आख्येय—स॰कृ॰—-—आ-ख्या-यत्—कहने या समाचार देने के योग्य
- शब्दाख्येय—वि॰—-—-—शब्दों में कहने के योग्य, मौलिक सन्देश
- आगतिः—स्त्री॰—-—आ-गम्-क्तिन्—पहुंचना, आगमन
- आगतिः—स्त्री॰—-—आ-गम्-क्तिन्—अधिग्रहण
- आगतिः—स्त्री॰—-—आ-गम्-क्तिन्—वापसी
- आगतिः—स्त्री॰—-—आ-गम्-क्तिन्—उद्गम
- आगन्तु—वि॰—-—आ-गम्-तुन्—आने वाला, पहुँचने वाला
- आगन्तु—वि॰—-—आ-गम्-तुन्—भटकने हुआ
- आगन्तु—वि॰—-—आ-गम्-तुन्—बाहर से आने वाला, बाह्य (कारण आदि)
- आगन्तु—वि॰—-—आ-गम्-तुन्—नैमित्तिक, आनुषंगिक, आकस्मिक
- आगन्तुः—पुं॰—-—आ-गम्-तुन्—नवागंतुक, अजनबी, अतिथि
- आगन्तुज—वि॰—आगन्तु-ज—-—आनुषंगिक रूप से या अकस्मात् उत्पन्न होने वाला
- आगन्तुक—वि॰—-—-—अपनी ईच्छा से आने वाला, बिना बुलाये आने वाला
- आगन्तुक—वि॰—-—-—भूला-भटका
- आगन्तुक—वि॰—-—-—आनुषंगिक आकस्मिक, नैमित्तिक
- आगन्तुक—वि॰—-—-—प्रक्षिप्त, क्षेपक (पाठ)
- आगन्तुकः—पुं॰—-—-—अन्तः क्षेपक, हस्तक्षेपक
- आगन्तुकः—पुं॰—-—-—अजनबी, अतिथि, नवागंतुक
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—आना, पहुँचना, दर्शन देना
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—अधिग्रहण
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—जन्म, मूल, उत्पत्ति
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—संकलन, संचय
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—प्रवाह, जलमार्ग, धारा
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—बीजक या प्रमाणक
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—ज्ञान
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—आय, राजस्व
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—किसी वस्तु का वैध अधिग्रहण
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—संपत्ति की वृद्धि
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—परंपरागत सिद्धांत या उपदेश, धार्मिक लेख, धर्मग्रन्थ, शास्त्र
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—शास्त्राध्ययन, वेदाध्ययन
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—विज्ञान, दर्शन
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—वेद, धर्मग्रन्थ
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—चार प्रकार के प्रमाणों में से अन्तिम जिसे नैयायिक ‘शब्द' या ‘आप्तवाक्य' कहते हैं
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—उपसर्ग या प्रत्यय
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—वर्ण की वृद्धि या अन्तःक्षेप
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—वृद्धि
- आगमः—पुं॰—-—आ-गम्-घञ्—सिद्धान्त का ज्ञान
- आगमनीत—वि॰—आगम-नीत—-—अधीत, पठित, परीक्षित
- आगमवृद्ध—वि॰—आगमः-वृद्ध—-—ज्ञान में बढ़ा हुआ, बहुत विद्वान् पुरुष
- आगमवेदिन्—वि॰—आगमः-वेदिन्—-—वेदों को जानने वाला
- आगमवेदिन्—वि॰—आगमः-वेदिन्—-—शास्त्रनिष्णात
- आगमसापेक्षः—वि॰—आगमः-सापेक्षः—-—प्रमाणकतापेक्षी, प्रमाणक से समर्थित
- आगमनम्—नपुं॰—-—आ-गम्-ल्युट्—आना,उपागमन, पहुँचना
- आगमनम्—नपुं॰—-—आ-गम्-ल्युट्—लौटना
- आगमनम्—नपुं॰—-—आ-गम्-ल्युट्—अधिग्रहण
- आगमनम्—नपुं॰—-—आ-गम्-ल्युट्—मैथुनेच्छा के लिए किसी स्त्री के पास पहुँचना
- आगमिन्—वि॰—-—आगम्-णिनि, वा ह्रस्वः—आने वाला, भावी
- आगमिन्—वि॰—-—आगम्-णिनि, वा ह्रस्वः—आसन्न, पहुँचने वाला
- आगामिन्—वि॰—-—आगम्-णिनि, वा ह्रस्वः—आने वाला, भावी
- आगामिन्—वि॰—-—आगम्-णिनि, वा ह्रस्वः—आसन्न, पहुँचने वाला
- आगस्—नपुं॰—-—इ-असुन्, आगादेशः—दोष, अपराध, उल्लंघन
- आगस्—नपुं॰—-—इ-असुन्, आगादेशः—पाप
- आगस्कृत्—वि॰—आगस्-कृत्—-—अपराध करने वाला, अपराधी, जुर्म करने वाला
- आगस्ती—स्त्री॰—-—अगस्त्यस्य इयम्, अण्- यलोपः—दक्षिण दिशा
- आगस्त्य—वि॰—-—अगस्त्यस्य इदम्, यञ्- यलोपः—दक्षिणी
- आगाध—वि॰—-—अगाध एव स्वार्थे अण्—बहुत गहरा, अथाह
- आगामिक—वि॰—-—आगाम-ठक्—भविष्यत्काल से संबन्ध रखने वाला
- आगामिक—वि॰—-—आगाम-ठक्—आसन्न, आने वाला
- आगामुक—वि॰—-—आ-गम्-उकञ्—आने वाला
- आगामुक—वि॰—-—आ-गम्-उकञ्—पहुँचने वाला
- आगामुक—वि॰—-—आ-गम्-उकञ्—भावी
- आगारम्—नपुं॰—-—आगमृच्छति- ऋ-अण्—घर, आवास
- आगारदाहः—पुं॰—आगारम्-दाहः—-—घर को आग लगा देना
- आगारदाहिन्—वि॰—आगारम्-दाहिन्—-—घर फूँक व्यक्ति, गृहदाहक
- आगारधूमः—पुं॰—आगारम्-धूमः—-—किसी घर से निकलने वाला धूआँ
- आगुर्—स्त्री॰—-—आ-गुर्-क्विप्—स्वीकृति,सहमति, प्रतिज्ञा
- आगुरणम्—नपुं॰—-—आ-गुर्-ल्युट्—गुप्त सुझाव
- आगूरणम्—नपुं॰—-—आ-गुर्-ल्युट्—गुप्त सुझाव
- आगूः—स्त्री॰—-—-—सहमति, प्रतिज्ञा
- आग्निक—वि॰—-—अग्नेरिदं बा॰ ठक्—अग्नि से संबन्ध रखने वाला, यज्ञाग्नि से संबद्ध
- आग्नीध्रम्—नपुं॰—-—अग्निमिन्धे अग्नीत्, तस्य शरणम्, रण् भत्वान्न जश्-क् तारा॰—यज्ञाग्नि जलाने का स्थान, हवनकुंड
- आग्नीध्रः—पुं॰—-—-—यज्ञाग्नि जलाने वाला पुरोहित
- आग्नेय—वि॰—-— —आग से संबन्ध रखने वाला, प्रचंड
- आग्नेय—वि॰—-— —अग्नि को अर्पित
- आग्नेयः—पुं॰—-—-—स्कंद या कार्तिकेय की उपाधि
- आग्नेयः—पुं॰—-—-—दक्षिण-पूर्वी दिशा
- आग्नेयम्—नपुं॰—-—-—कृत्तिका नक्षत्र
- आग्नेयम्—नपुं॰—-—-—सोना
- आग्नेयम्—नपुं॰—-—-—रुधिर
- आग्नेयम्—नपुं॰—-—-—घी
- आग्नेयम्—नपुं॰—-—-—आग्नेयास्त्र
- आग्रभोजनिकः—पुं॰—-—अग्रभोजनं नियतं दीयते अस्मै- ठक्—भोज में सर्वप्रथम या सबसे आगे आसन ग्रहण करने का अधिकारी ब्राह्मण
- आग्रयणः—पुं॰—-—अग्रे अयनं शस्यादेर्येन कर्मणा पृषो॰ ह्रस्व दीर्घ व्यत्ययः—अग्निष्टोम याग में सोम की प्रथम आहुति
- आग्रयणम्—नपुं॰—-—-—वर्षा ऋतु के अन्त में नये अन्न तथा फलादिक से युक्त हवि
- आग्रहः—पुं॰—-—आ-ग्रह्-अच्—पकड़ना, ग्रहण करना
- आग्रहः—पुं॰—-—आ-ग्रह्-अच्—आक्रमण
- आग्रहः—पुं॰—-—आ-ग्रह्-अच्—दृढ़ संकल्प, दृढ़भक्ति, दृढ़ता
- आग्रहः—पुं॰—-—आ-ग्रह्-अच्—कृपा, संरक्षण
- आग्रहायणः—पुं॰—-—अग्रहायण+अण्—मार्गशीर्ष का महीना
- आग्रहायणी—स्त्री॰—-—अग्रहायण+अण्+ङीप्—मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा
- आग्रहायणी—स्त्री॰—-—अग्रहायण+अण्+ङीप्—मृगशिरस् नाम का नक्षत्र-पुंज
- आग्रहायणकः—पुं॰—-—आग्रहायणी पौर्णमास्यस्मिन् मासे-ठक्—मार्गशीर्ष का महीना
- आग्रहायणिकः—पुं॰—-—आग्रहायणी पौर्णमास्यस्मिन् मासे-ठक्—मार्गशीर्ष का महीना
- आग्रहारिक—वि॰—-—-—अग्रहार प्राप्त करने का अधिकारी ब्राह्मण
- आघट्टना—स्त्री॰—-—आ+घट्ट+णिच्+युच्+टाप्—हिलना-डुलना, काँपना, किसी से रगड़ना
- आघट्टना—स्त्री॰—-—आ+घट्ट+णिच्+युच्+टाप्—घर्षण, रगण
- आघर्षः—पुं॰—-—आ+घृष्+घञ्—मालिश करना, रगड़, किसी से रगड़ना
- आघर्षणम्—नपुं॰—-—आ+घृष्+ल्युट्—मालिश करना, रगड़, किसी से रगड़ना
- आघाटः—पुं॰—-—आ+हन्+घञ्, निपात—हद, सीमा
- आघातः—पुं॰—-—आ+हन्+घञ्—प्रहार करना, मारना
- आघातः—पुं॰—-—आ+हन्+घञ्—चोट, प्रहार, घाव
- आघातः—पुं॰—-—आ+हन्+घञ्—बदकिस्मती, विपत्ति
- आघातः—पुं॰—-—आ+हन्+घञ्—कसाई-खाना
- आघारः—पुं॰—-—आ+घृ+घञ्—छिड़काव
- आघारः—पुं॰—-—आ+घृ+घञ्—विशेषकर यज्ञ की अग्नि में घी डालना
- आघारः—पुं॰—-—आ+घृ+घञ्—घी
- आघूर्णनम्—नपुं॰—-—आ+घूर्ण्+ल्युट्—लोटना
- आघूर्णनम्—नपुं॰—-—आ+घूर्ण्+ल्युट्—उछालना, घूमना, चक्कर खाना, तैरना
- आघोषः—पुं॰—-—आ+घुष्+घञ्—बुलावा, आवाहन
- आघोषणम्—नपुं॰—-—आ+घुष्+ल्युट्—उद्घोषणा, ढिंढोरा
- आघोषणा—स्त्री॰—-—आ+घुष्+ल्युट्+टाप्—उद्घोषणा, ढिंढोरा
- आघ्राणम्—नपुं॰—-—आ+घ्रा+ल्युट्—सूंघना
- आघ्राणम्—नपुं॰—-—आ+घ्रा+ल्युट्—संतोष, तृप्ति
- आङ्गारम्—नपुं॰—-—अङ्गाराणाम् समूहः- अण्—अंगारों का समूह
- आङ्गिक—वि॰—-—-—शारीरिक, कायिक
- आङ्गिक—वि॰—-—-—हाव-भाव से युक्त, शारीरिक चेष्टाओं से व्यक्त
- आङ्गिकः—पुं॰—-—-—तबलची या ढोलकिया
- आङ्गिरसः—पुं॰—-—अङ्गिरस्+अण्—बृहस्पति, अंगिरा की संतान
- आचक्षुस्—पुं॰—-—आ+चक्ष्+उसि बा॰—विद्वान् पुरुष
- आचमः—पुं॰—-—आ+चम्+घञ्—कुल्ला करना, आचमन करना
- आचमनम्—नपुं॰—-—आ+चम्+ल्युट्—कुल्ला करना, धार्मिक अनुष्ठानों से पूर्व तथा भोजन के पूर्व और पश्चात् हथेली में जल लेकर घूंट-घूंट करके पीना
- आचमनकम्—नपुं॰—-—आ+चम्+ल्युट्, स्वार्थे आधारे वा कन्—पीकदान
- आचयः—पुं॰—-—आ+चि+अच्—इकट्ठा करना, बीनना
- आचयः—पुं॰—-—आ+चि+अच्—समूह
- आचरणम्—नपुं॰—-—आ+चर्+ल्युट्—अभ्यास करना, अनुकरण करना, अनुष्ठान
- आचरणम्—नपुं॰—-—आ+चर्+ल्युट्—चाल-चलन, व्यवहार
- आचरणम्—नपुं॰—-—आ+चर्+ल्युट्—प्रथा, परिपाटी
- आचरणम्—नपुं॰—-—आ+चर्+ल्युट्—संस्था
- आचान्त—वि॰—-—आ+चम्+क्त—जिसने कुल्ला करके मुंह शुद्ध कर लिया है, या जिसने आचमन कर लिया है
- आचान्त—वि॰—-—आ+चम्+क्त—आचमन के योग्य
- आचामः—पुं॰—-—आ+चम्+घञ्—आचमन करना, कुल्ला करके मुंह साफ करना
- आचामः—पुं॰—-—आ+चम्+घञ्—पानी या गर्म पानी के झाग
- आचारः—पुं॰—-—आ+चर्+घञ्—आचरण, व्यवहार, काम करने की रीति, चालचलन
- आचारः—पुं॰—-—आ+चर्+घञ्—प्रथा, रिवाज, प्रचलन
- आचारः—पुं॰—-—आ+चर्+घञ्—लोकाचार, प्रथा संबन्धी कानून
- आचारः—पुं॰—-—आ+चर्+घञ्—रूप, उपचार
- आचारदीपः—पुं॰—आचारः-दीपः—-—आरती उतारने का दीप
- आचारधूमग्रहणम्—नपुं॰—आचारः-धूमग्रहणम्—-—सांस के द्वारा धूँआँ ग्रहण करने का संस्कार-विशेष जो कि यज्ञानुष्ठान के समय किया जाता है
- आचारपूत—वि॰—आचारः-पूत—-—शुद्धाचारी
- आचारभेदः—पुं॰—आचारः-भेदः—-—आचरण संबन्धी नियमों का अन्तर
- आचारभ्रष्ट—वि॰—आचारः-भ्रष्ट—-—स्वधर्म भ्रष्ट, जिसका आचार- व्यवहार विगड़ गया हो, या जो आचरण से पतित हो गया हो
- आचारपतित—वि॰—आचारः-पतित—-—स्वधर्म भ्रष्ट, जिसका आचार- व्यवहार विगड़ गया हो, या जो आचरण से पतित हो गया हो
- आचारलाज—पुं॰—आचारः-लाज—-—धान की खीलें जो कि सम्मान प्रदर्शित करने के लिए किसी राजा या प्रतिष्ठित महानुभाव पर फेंकी जाती हैं
- आचारवेदी—स्त्री॰—आचारः-वेदी—-—पुण्यभूमि आर्यावर्त
- आचारिक—वि॰—-—आचार+ठक्—प्रचलन या नियम के अनुरूप, अधिकृत
- आचार्यः—पुं॰—-—आ+चर्+ण्यत्— सामान्यतः अध्यापक या गुरु
- आचार्यः—पुं॰—-—आ+चर्+ण्यत्—आध्यात्मिक गुरु
- आचार्यः—पुं॰—-—आ+चर्+ण्यत्—विशिष्ट सिद्धान्त का प्रस्तोता
- आचार्यः—पुं॰—-—आ+चर्+ण्यत्—विद्वान्, पंडित
- आचार्या—स्त्री॰—-—आ+चर्+ण्यत्+टाप्—गुरु, आध्यात्मिक गुरुआनी
- आचार्योपासनम्—नपुं॰—आचार्यः-उपासनम्—-—धार्मिक गुरु की सेवा करना
- आचार्यमिश्र—वि॰—आचार्यः-मिश्र—-—प्रतिष्ठित, सम्माननीय
- आचार्यकम्—नपुं॰—-—आ+चर्+वुञ्—शिक्षण, अध्यापन, पढ़ाना
- आचार्यकम्—नपुं॰—-—आ+चर्+वुञ्—आध्यात्मिक गुरु की कुशलता
- आचार्यानी—स्त्री॰—-—आचार्य+ङीप्-आनुक्—आचार्य या धर्मगुरु की पत्नी
- आचित—भू॰क॰ कृ॰—-—आ+चि+क्त—पूर्ण, भरा हुआ, ढका हुआ
- आचित—भू॰क॰ कृ॰—-—आ+चि+क्त—बंधा हुआ, गुथा हुआ, बुना हुआ
- आचित—भू॰क॰ कृ॰—-—आ+चि+क्त—एकत्रित संचित, ढेर किया हुआ
- आचितः—पुं॰—-—आ+चि+क्त—गाड़ी भर बोझ
- आचितः—पुं॰—-—आ+चि+क्त—दस भार या गाड़ी भार की तोल
- आचूषणम्—नपुं॰—-—आ+चूष्+ल्युट्—चूसना, चूस लेना
- आचूषणम्—नपुं॰—-—आ+चूष्+ल्युट्—चूस कर बाहर निकाल देना, सिंगी लगाना
- आच्छादः—पुं॰—-—आ+च्छद्+णिच्+घञ्—कपड़ा, पहनने का वस्त्र
- आच्छादनम्—नपुं॰—-—आ+च्छद्+णिच्+ल्युट्—ढकना, छिपाना
- आच्छादनम्—नपुं॰—-—आ+च्छद्+णिच्+ल्युट्—ढक्कन, म्यान
- आच्छादनम्—नपुं॰—-—आ+च्छद्+णिच्+ल्युट्—कपड़ा, वस्त्र
- आच्छादनम्—नपुं॰—-—आ+च्छद्+णिच्+ल्युट्—छाजन
- आच्छुरित—वि॰—-—आ+छुर्+क्त—मिश्रित, मिलाया हुआ
- आच्छुरित—वि॰—-—आ+छुर्+क्त—खुरचा हुआ, खुजलाया हुआ
- आच्छुरितम्—नपुं॰—-—आ+छुर्+क्त—नखों को आपस में एक दूसरे से रगड़ कर एक प्रकार का शब्द पैदा करना, नखवाद्य
- आच्छुरितम्—नपुं॰—-—आ+छुर्+क्त—ठहाका मारकर हंसना, अट्टहास
- आच्छुरितकम्—नपुं॰—-—आच्छुरित+कन्—नाखून की खरोच
- आच्छुरितकम्—नपुं॰—-—आच्छुरित+कन्—अट्टहास
- आच्छेदः—पुं॰—-—आ+छिद्+घञ्—काट देना, अपच्छेदन
- आच्छेदः—पुं॰—-—आ+छिद्+घञ्—जरा सा काटना
- आच्छेदनम्—नपुं॰—-—आ+छिद्+ल्युट्—काट देना, अपच्छेदन
- आच्छेदनम्—नपुं॰—-—आ+छिद्+ल्युट्—जरा सा काटना
- आच्छोटनम्—नपुं॰—-—आ+स्फुट्+ल्युट् पृषो॰—अँगुलिया चटकाना
- आच्छोदनम्—नपुं॰—-—आ+छिद्+ल्युट् पृषो॰ इत् ओत्—शिकार करना, पीछा करना
- आजकम्—नपुं॰—-—अजानां समूहः,अज्+वुञ्—रेवड़, बकरों का झुण्ड
- आजगवम्—नपुं॰—-—अजगव+अण्—शिव का धनुष
- आजननम्—नपुं॰—-—आ+जन्+ल्युट्—ऊँचे कुल में जन्म होना, प्रसिद्ध या विख्यात कुल
- आजानः—पुं॰—-—आ+जन्+घञ्—जन्म, कूल
- आजानम्—नपुं॰—-—आ+जन्+घञ्—जन्मस्थान
- आजानेय—वि॰—-—आजे विक्षेपेऽपि आनेयः अश्ववाहो यथास्थानमस्य-ब॰स॰—अच्छी नस्ल का
- आजानेय—वि॰—-—आजे विक्षेपेऽपि आनेयः अश्ववाहो यथास्थानमस्य-ब॰स॰—निर्भय, निश्शंक
- आजानेयः—पुं॰—-—आजे विक्षेपेऽपि आनेयः अश्ववाहो यथास्थानमस्य-ब॰स॰—अच्छी नस्ल का घोड़ा
- आजिः—पुं॰—-—अजन्त्यस्याम्, अज्+इण्—युद्ध, लड़ाई, संघर्ष
- आजिः—पुं॰—-—अजन्त्यस्याम्, अज्+इण्—कुश्ती या दौड़ की प्रतियोगिता
- आजिः—पुं॰—-—अजन्त्यस्याम्, अज्+इण्—रणक्षेत्र
- आजीवः—पुं॰—-—आ+जीव्+घञ्—जीविका, जीवननिर्वाह का साधन, भरण
- आजीवः—पुं॰—-—आ+जीव्+घञ्—पेशा, वृत्ति
- आजीवः—पुं॰—-—-—जैनभिक्षुक
- आजीवनम्—नपुं॰—-—आ+जीव्+ल्युट्—जीविका, जीवननिर्वाह का साधन, भरण
- आजीवनम्—नपुं॰—-—आ+जीव्+ल्युट्—पेशा, वृत्ति
- आजीविका—स्त्री॰—-—आ+जीव्+अ+कन्+टाप्, अत इत्वम्—पेशा, जीवन निर्वाह का साधन, वृत्ति
- आजुर्—स्त्री॰—-—आ+ज्वर्+क्विप्—बेगार, बिना पारिश्रमिक प्राप्त किये काम करना
- आजुर्—स्त्री॰—-—आ+ज्वर्+क्विप्—बेगार में काम करने वाला
- आजुर्—स्त्री॰—-—आ+ज्वर्+क्विप्—नरक वास
- आजू—स्त्री॰—-—आ+ जू+ क्विप्—बेगार, बिना पारिश्रमिक प्राप्त किये काम करना
- आजू—स्त्री॰—-—आ+ जू+ क्विप्—बेगार में काम करने वाला
- आजू—स्त्री॰—-—आ+ जू+ क्विप्—नरक वास
- आज्ञप्तिः—स्त्री॰—-—आ+ज्ञा+णिच्+क्तिन्+, पुकागम, ह्रस्वश्च—आदेश, हुक्म, आज्ञा
- आज्ञा—स्त्री॰—-—आ+ज्ञा+अङ्+टाप्—आदेश, हुक्म
- आज्ञा—स्त्री॰—-—आ+ज्ञा+अङ्+टाप्—अनुज्ञा, अनुमति
- आज्ञानुग—वि॰—आज्ञा-अनुग—-—आज्ञाकारी, आज्ञानुवर्ती
- आज्ञानुगामिन्—वि॰—आज्ञा-अनुगामिन्—-—आज्ञाकारी, आज्ञानुवर्ती
- आज्ञानुयायिन्—वि॰—आज्ञा-अनुयायिन्—-—आज्ञाकारी, आज्ञानुवर्ती
- आज्ञानुवर्तिन्—वि॰—आज्ञा-अनुवर्तिन्—-—आज्ञाकारी, आज्ञानुवर्ती
- आज्ञानुसारिन्—वि॰—आज्ञा-अनुसारिन्—-—आज्ञाकारी, आज्ञानुवर्ती
- आज्ञासंपादक—वि॰—आज्ञा-संपादक—-—आज्ञाकारी, आज्ञानुवर्ती
- आज्ञावह—वि॰—आज्ञा-वह—-—आज्ञाकारी, आज्ञानुवर्ती
- आज्ञाकर—वि॰—आज्ञा-कर—-—आज्ञा मानने वाला, आदेश का पालन करने वाला, आज्ञाकारी,
- आज्ञाकारिन्—वि॰—आज्ञा-कारिन्—-—आज्ञा मानने वाला, आदेश का पालन करने वाला, आज्ञाकारी,
- आज्ञाकरः—पुं॰—आज्ञा-करः—-—सेवक
- आज्ञाकरणम्—नपुं॰—आज्ञा-करणम्—-—आज्ञा मानना, आदेश का पालन करना
- आज्ञापालनम्—नपुं॰—आज्ञा-पालनम्—-—आज्ञा मानना, आदेश का पालन करना
- आज्ञापत्रम्—नपुं॰—आज्ञा-पत्रम्—-—हुक्मनामा, लिखित आदेश
- आज्ञाप्रतिघातः—पुं॰—आज्ञा-प्रतिघातः—-—आज्ञा न मानना, आज्ञा के विरुद्ध कार्य करना
- आज्ञाभंगः—पुं॰—आज्ञा-भंगः—-—आज्ञा न मानना, आज्ञा के विरुद्ध कार्य करना
- आज्ञापनम्—नपुं॰—-—आ+ज्ञा+णिच्-ल्युट्, पुगागमः—आदेश देना, हुक्म देना
- आज्ञापनम्—नपुं॰—-—आ+ज्ञा+णिच्-ल्युट्, पुगागमः—जतलाना
- आज्यम्—नपुं॰—-—आज्यते- आ+अञ्ज्+क्यप्—पिघलाया हुआ घी
- आज्यपात्रम्—नपुं॰—आज्यम्-पात्रम्—-—पिघले हुए घी को रखने का बर्तन
- आज्यस्थाली—स्त्री॰—आज्यम्-स्थाली—-—पिघले हुए घी को रखने का बर्तन
- आज्यभुज्—पुं॰—आज्यम्-भुज्—-—अग्नि का विशेषण
- आज्यभुज्—पुं॰—आज्यम्-भुज्—-—देवता
- आञ्चनम्—नपुं॰—-—आ+अञ्च्+ल्युट्—सींग, तीर या किसी ऐसे ही और शस्त्र को थोड़ा खींच कर शरीर से बाहर निकालना
- आञ्छ्—भ्वा॰प॰<आञ्छति>, <आञ्छित>—-—-—लंबा करना, विस्तार करना
- आञ्छ्—भ्वा॰प॰<आञ्छति>, <आञ्छित>—-—-—विनियमित करना, ठीक बैठाना
- आञ्छनम्—नपुं॰—आञ्छ्+ल्युट्—-—ठीक बैठाना
- आञ्जनम्—नपुं॰—-—अञ्जनस्येदम्-अण्—मरहम, विशेषतः आंखों के लिए
- आञ्जनम्—नपुं॰—-—अञ्जनस्येदम्-अण्—चर्बी
- आञ्जनः—पुं॰—-—-—मारुति या हनुमान
- आञ्जनी—स्त्री॰—-—अञ्जनस्येदम्-अण्+,स्त्रियां ङीप्—आंखों में डालने का मरहम या अंजन
- आञ्जनीकारी—स्त्री॰—आञ्जनी-कारी—-—लेप या उबटन आदि तैयार करने वाली स्त्री
- आञ्जनेयः—पुं॰—-—अञ्जना+ढक्—हनुमान
- आटविकः—पुं॰—-—अटव्यां चरति भवो वा- ठक्—वनवासी जंगल में रहने वाला पुरुष
- आटविकः—पुं॰—-—अटव्यां चरति भवो वा- ठक्—मार्गदर्शक, अगुआ
- आटिः—पुं॰—-—आ+अट्+इण्—एक प्रकार का पक्षी
- आटीकनम्—नपुं॰—-—आटीक्+ल्युट्—बछड़े की उछल-कुद
- आटीकरः—पुं॰—-—आटी+कृ+अप्—साँड
- आटोपः—पुं॰—-—आ+तुप्+घञ्, पृषो॰ टत्वम्—घमंड, स्वाभिमान, हेकड़ी
- साटोपम्—नपुं॰—-—-—घमंड के साथ, राजकीय या शाही ढंग से
- आटोपः—पुं॰—-—आ+तुप्+घञ्, पृषो॰ टत्वम्— सूजन, फैलाव, विस्तार, फुलाना
- आडम्बरः—पुं॰—-—आ+डम्ब्+अरन्—घमंड, हेकड़ी
- आडम्बरः—पुं॰—-—आ+डम्ब्+अरन्—दिखावा, संपत्ति, बाहरी ठाठ-बाट
- आडम्बरः—पुं॰—-—आ+डम्ब्+अरन्—आक्रमण के संकेत स्वरूप बिगुल का बजना
- आडम्बरः—पुं॰—-—आ+डम्ब्+अरन्—आरम्भ
- आडम्बरः—पुं॰—-—आ+डम्ब्+अरन्—प्रचण्डता, रोष, आवेश
- आडम्बरः—पुं॰—-—आ+डम्ब्+अरन्—हर्ष, प्रसन्नता
- आडम्बरः—पुं॰—-—आ+डम्ब्+अरन्—बादलों की गरज, हाथियों की चिघाड़
- आडम्बरः—पुं॰—-—आ+डम्ब्+अरन्—युद्धभेरी
- आडम्बरः—पुं॰—-—आ+डम्ब्+अरन्—युद्ध का कोलाहल या शोर-गुल
- आडम्बरिन्—वि॰—-—आडम्बर+इनि—हेकड़, घमंडी
- आढकः—पुं॰—-—आ+ढौक्+घञ्, पृषो॰—अनाज की माप, चौथाई द्रोण
- आढकम्—पुं॰—-—आ+ढौक्+घञ्, पृषो॰—अनाज की माप, चौथाई द्रोण
- आढ्य—वि॰—-—आ+ध्यै+क, पृषो॰- तारा॰—धनी, धनवान
- आढ्य—वि॰—-—आ+ध्यै+क, पृषो॰- तारा॰—सम्पन्न, समृद्ध, सम्पन्नतायुक्त
- आढ्य—वि॰—-—आ+ध्यै+क, पृषो॰- तारा॰—बिल्कुल सच्चा
- आढ्य—वि॰—-—आ+ध्यै+क, पृषो॰- तारा॰—मिश्रित, सिंचित
- आढ्य—वि॰—-—आ+ध्यै+क, पृषो॰- तारा॰—प्रचुर, पर्याप्त
- आढ्यचर—वि॰—आढ्य-चर—-—जो कभी ऐश्वर्यशाली रहा हो
- आढ्यङ्करण—वि॰—-—-—समृद्ध करना
- आढ्यङ्करणम्—वि॰—-—-—समृद्ध करने का साधन, धन
- आढ्यम्भविष्णु—वि॰—-—आढ्यं-भू+इष्णुच्—धन सम्पन्न या प्रतिष्ठित होने वाला
- आड्यम्भावुक—वि॰—-—आढ्यं-भू + उकञ्—धन सम्पन्न या प्रतिष्ठित होने वाला
- आणक—वि॰—-—अणक्+अण्—नीच, ओछा, अधम
- आणकम्—नपुं॰—-—अणक्+अण्—विशेष आसन में होकर मैथुन करना, रतिबंध
- आणव—वि॰—-—अणु+अण्—अत्यंत छोटा
- आणवम्—नपुं॰—-—अणु+अण्—अत्यंत छोटापन, या सूक्ष्मता
- आणिः—पुं॰—-—अण्+इण्—गाड़ी के धुरे की कील, अक्षकील
- आणिः—पुं॰—-—अण्+इण्—घुटने के ऊपर का भाग
- आणिः—पुं॰—-—अण्+इण्—हद,सीमा
- आणिः—पुं॰—-—अण्+इण्—तलवार की धार
- आण्ड—वि॰—-—अण्डे भवः-अण्—अंडे से पैदा होने वाला
- आण्डः—पुं॰—-—अण्ड+ अण्—हिरण्यगर्भ या ब्रह्मा की उपाधि
- आण्डम्—नपुं॰—-—अण्ड+ अण्—अंडों का ढेर, पशु-पक्षियों का समूह, पक्षिशावक
- आण्डम्—नपुं॰—-—अण्ड+ अण्—अंडकोष, फोता
- आण्डीर—वि॰—-—आण्डमस्ति अस्य-ईरच्—बहुत अंडे रखने वाला
- आण्डीर—वि॰—-—आण्डमस्ति अस्य-ईरच्—वयस्क, पूर्णवयस्क
- आतङ्कः—पुं॰—-—आ+तङ्क+घञ्, कुत्वम्—रोग,शरीर की बीमारी
- आतङ्कः—पुं॰—-—आ+तङ्क+घञ्, कुत्वम्—पीड़ा, आधि, व्यथा, वेदना
- आतङ्कः—पुं॰—-—आ+तङ्क+घञ्, कुत्वम्—भीति, त्रास
- आतङ्कः—पुं॰—-—आ+तङ्क+घञ्, कुत्वम्—ढोल या तबले की आवाज
- आतञ्चनम्—नपुं॰—-—आ+तञ्च्+ल्युट्—जमाना, गाढ़ा करना
- आतञ्चनम्—नपुं॰—-—आ+तञ्च्+ल्युट्—जमा हुआ दूध
- आतञ्चनम्—नपुं॰—-—आ+तञ्च्+ल्युट्—एक प्रकार की छाछ
- आतञ्चनम्—नपुं॰—-—आ+तञ्च्+ल्युट्—प्रसन्न करना, सन्तुष्ट करना
- आतञ्चनम्—नपुं॰—-—आ+तञ्च्+ल्युट्—भय,संकट
- आतञ्चनम्—नपुं॰—-—आ+तञ्च्+ल्युट्—गति, वेग
- आतत—वि॰—-—आ+तन्+क्त—फैलाया हुआ, विस्तारित
- आतत—वि॰—-—आ+तन्+क्त—ताना हुआ
- आततायिन्—वि॰या संज्ञा—-—आततेन विस्तीर्णेन शस्त्रादिना अयितुं शीलमस्य- तारा॰—किसी का वध करने के लिए प्रयत्नशील, साहसी
- आततायिन्—वि॰या संज्ञा—-—आततेन विस्तीर्णेन शस्त्रादिना अयितुं शीलमस्य- तारा॰—जघन्य पाप करने वाला जैसे की चोर, अपहरणकर्ता, हत्यारा, आग लगाने वाला महापातकी आदि
- आतपः—पुं॰—-—आ+तप्+घञ्—गर्मी, धूप
- आतपः—पुं॰—-—आ+तप्+घञ्—प्रकाश
- आतपात्ययः—पुं॰—आतपः-अत्ययः—-—सूर्य की गर्मी (धूप) का गुजरना, या बीत जाना, सूर्यास्त
- आतपाभावः—पुं॰—आतपः-अभावः—-—छाया
- आतपोदकम्—नपुं॰—आतपः-उदकम्—-—मरीचिका
- आतपत्रम्—नपुं॰—आतपः-त्रम्—-—छाता
- आतपत्रकम्—नपुं॰—आतपः-त्रकम्—-—छाता
- आतपलङ्घनम्—नपुं॰—आतप-लङ्घनम्—-—गर्मी या धूप में रहना, लू लग जाना
- आतपवारणम्—नपुं॰—आतप-वारणम्—-—छाता छतरी
- आतपशुष्क—वि॰—आतप-शुष्क—-—धूप में सुखाया हुआ
- आतपनः—पुं॰—-—आ+तप्+णिच्+ल्युट्—शिव
- आतरः—पुं॰—-—आतरति अनेन आ+तृ+अप्—दरिया की उतराई, मार्गव्यय, भाड़ा
- आतारः—पुं॰—-—आतरति अनेन आ+तृ+घञ्—दरिया की उतराई, मार्गव्यय, भाड़ा
- आतर्पणम्—नपुं॰—-—आ+तृप्+ल्युट्—सन्तोष
- आतर्पणम्—नपुं॰—-—आ+तृप्+ल्युट्—प्रसन्न करना, सन्तुष्ट करना
- आतर्पणम्—नपुं॰—-—आ+तृप्+ल्युट्—दीवार या फर्श पर सफेदी करना
- आतापिन्—पुं॰—-—आ+तप्(ताय्)+णिनि—एक पक्षी, चील
- आतायिन्—पुं॰—-—आ+तप्(ताय्)+णिनि—एक पक्षी, चील
- आतिथेय—वि॰—-—अतिथिषु साधुः-ढञ् अतिथये इदं ढक् वा—अतिथियों की सेवा करने वाला, अतिथियो के उपयुक्त
- आतिथेय—वि॰—-—अतिथिषु साधुः-ढञ् अतिथये इदं ढक् वा—अतिथि के उचित या उपयुक्त
- आतिथेयम्—नपुं॰—-—अतिथिषु साधुः-ढञ् अतिथये इदं ढक् वा—अतिथि-सत्कार
- आतिथेयी—स्त्री॰—-—-—सत्कार, मेहमान नवाजी
- आतिथ्य—वि॰—-—अतिथि+ष्यञ्—सत्कारशील, अतिथि के लिए उपयुक्त
- आतिथ्यः—पुं॰—-—अतिथि+ष्यञ्—अतिथि
- आतिथ्यम्—नपुं॰—-—अतिथि+ष्यञ्—सत्कारपूर्वक स्वागत, अतिथि-सत्कार
- आतिदेशिक—वि॰—-—अतिदेश+ठक्—अतिदेश से सम्बद्ध-तु॰
- आतिरेक्यम्—नपुं॰—-—अतिरेक+ष्यञ् पक्षे उभयपद वृद्धिः—फालतूपन, अधिकता, बहुतायत
- आतिरैक्यम्—नपुं॰—-—अतिरेक+ष्यञ् पक्षे उभयपद वृद्धिः—फालतूपन, अधिकता, बहुतायत
- आतिशय्यम्—नपुं॰—-—अतिशय+ष्यञ्—अधिकता, बहुतायत, बृहत् परिमाण
- आतुः—पुं॰—-—अत्+उण्—लट्ठों का बना बेड़ा, घन्नई
- आतुर—वि॰—-—ईषदर्थे आ+अत्+उरच्—चोटिल, घायल
- आतुर—वि॰—-—ईषदर्थे आ+अत्+उरच्—ग्रस्त, प्रभावित, पीड़ित
- आतुर—वि॰—-—ईषदर्थे आ+अत्+उरच्—रुग्ण
- आतुर—वि॰—-—ईषदर्थे आ+अत्+उरच्—उत्सुक, उतावला
- आतुर—वि॰—-—ईषदर्थे आ+अत्+उरच्—दुर्बल, कमजोर
- आतुरः—पुं॰—-—-—रोगी
- आतुरशाला—स्त्री॰—आतुर-शाला—-—हस्पताल
- आतोद्यम्—नपुं॰—-—आ+तुद्+ण्यत्—एक प्रकार का वाद्ययंत्र
- आतोद्यकम्—नपुं॰—-—आ+तुद्+ण्यत्, स्वार्थे कन् च—एक प्रकार का वाद्ययंत्र
- आत्त—भू॰क॰कृ॰—-—आ+दा+क्त—लिया हुआ, प्राप्त किया हुआ, माना हुआ, स्वीकार हुआ,
- आत्त—भू॰क॰कृ॰—-—आ+दा+क्त—अगीकार हुआ, उत्तरदायित्व लिया हुआ
- आत्त—भू॰क॰कृ॰—-—आ+दा+क्त—आकृष्ट
- आत्त—भू॰क॰कृ॰—-—आ+दा+क्त—खिंचा हुआ, निस्सारित, ले जाया गया
- आत्तगन्ध—वि॰—आत्त-गन्ध—-—जिसका घमंड निकाल दिया गया हो, आक्रान्त, पराजित
- आत्तगन्ध—वि॰—आत्त-गन्ध—-—सूघां हुआ
- आत्तगर्व—वि॰—आत्त-गर्व—-—अवमानित, तिरस्कृत, अनादृत
- आत्त-दण्ड—वि॰—आत्त-दण्ड—-—राजकीय दण्ड को धारण करने वाला
- आत्तमनस्क—वि॰—आत्त-मनस्क—-—जिसका मन स्थानान्तरित हो गया हो
- आत्मक—वि॰—-—आत्मन्+कन्—से बना हुआ, से रचा हुआ, स्वभाव का , लक्षण का
- पञ्चात्मक—वि॰—पञ्च-आत्मक—-—पाँच तहों वाला
- संशयात्मक—वि॰—संशय-आत्मक—-—संदिग्ध स्वभाव का
- आत्मकीय—वि॰—-—आत्मक(न्)+छ्—अपनों से संबन्ध रखने वाला, अपना
- आत्मीय—वि॰—-—आत्मक(न्)+छ्—अपनों से संबन्ध रखने वाला, अपना
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—आत्मा, जीव
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—स्व, आत्म
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—परमात्मा, ब्रह्म
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—सार, प्रकृति
- आत्मन्—वि॰—-—अत्+मनिण्—से बना हुआ, से रचा हुआ, स्वभाव का , लक्षण का
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—चरित्र, विशेषता
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—नैसर्गिक प्रकृति या स्वभाव
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—व्यक्ति या समस्त शरीर
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—मन, बुद्धि
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—समझ
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—विचारणशक्ति, विचार और तर्कशक्ति
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—सप्राणता, जीवट, साहस
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—रूप, प्रतिमा
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—पुत्र
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—देखभाल, प्रयत्न
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—सूर्य
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—अग्नि
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—वायु
- आत्माधीन—वि॰—आत्मन्-अधीन—-—अपने ऊपर आश्रित, स्वाश्रित, निराश्रित
- आत्माधीनः—पुं॰—आत्मन्-अधीनः—-—पुत्र
- आत्माधीनः—पुं॰—आत्मन्-अधीनः—-—साला, पत्नी का भाई
- आत्माधीनः—पुं॰—आत्मन्-अधीनः—-—मसखरा या विदूषक
- आत्मानुगमनम्—नपुं॰—आत्मन्-अनुगमनम्—-—व्यक्तिगत सेवा
- आत्मापहारः—पुं॰—आत्मन्-अपहारः—-—अपने आप को छिपाना
- आत्मापहारकः—पुं॰—आत्मन्-अपहारकः—-—छद्मवेषी, कपटी
- आत्माराम—वि॰—आत्मन्-आराम—-—ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील, आत्मज्ञान का अन्वेषक
- आत्माराम—वि॰—आत्मन्-आराम—-—अपने आप में प्रसन्न
- आत्माशिन्—पुं॰—आत्मन्-आशिन्—-—मछली
- आत्माश्रयः—पुं॰—आत्मन्-आश्रयः—-—अपने ऊपर निर्भर करना
- आत्मेश्वर—वि॰—आत्मन्-ईश्वर—-—आत्मसात्कृत, अपना स्वामी आप
- आत्मोद्भवः—पुं॰—आत्मन्-उद्भवः—-—पुत्र
- आत्मोद्भवः—पुं॰—आत्मन्-उद्भवः—-—कामदेव
- आत्मोद्भवा—स्त्री॰—आत्मन्-उद्भवा—-—पुत्री
- आत्मोपजीवी—पुं॰—आत्मन्-उपजीविन्—-—जो अपने परिश्रम पर निर्भर करता है, श्रमिक
- आत्मोपजीवी—पुं॰—आत्मन्-उपजीविन्—-—मजदूर
- आत्मोपजीवी—पुं॰—आत्मन्-उपजीविन्—-—जो अपनी पत्नी के ऊपर आश्रित रहता है
- आत्मोपजीवी—पुं॰—आत्मन्-उपजीविन्—-—पात्र, सार्वजनिक अभिनेता
- आत्मकाम—वि॰—आत्मन्-काम—-—अपने आप को प्रेम करने वाला, अभिमान से युक्त, घमंडी
- आत्मकाम—वि॰—आत्मन्-काम—-—ब्रह्म या परमात्मा को प्रेम करने वाला
- आत्मगत—वि॰—आत्मन्-गत—-—मन में उपजा हुआ
- आत्मगतम्—अव्य॰—आत्मन्-गतम्—-—एक ओर, जो मन में कहा हुआ समझा जाय
- आत्मगुप्तिः—स्त्री॰—आत्मन्-गुप्तिः—-—गुफा, किसी जानवर के छिपने का स्थान
- आत्मग्राहिन्—वि॰—आत्मन्-ग्राहिन्—-—स्वार्थी, लालची
- आत्मघातः—पुं॰—आत्मन्-घातः—-—आत्महत्या
- आत्मघातः—पुं॰—आत्मन्-घातः—-—नास्तिकता
- आत्मघातकः—पुं॰—आत्मन्-घातकः—-—आत्महत्यारा अपने आप स्वयं मारने वाला
- आत्मघातकः—पुं॰—आत्मन्-घातकः—-—नास्तिक
- आत्मघाती—पुं॰—आत्मन्-घातिन्—-—आत्महत्यारा अपने आप को स्वयं मारने वाला
- आत्मघाती—पुं॰—आत्मन्-घातिन्—-—नास्तिक
- आत्मघोषः—पुं॰—आत्मन्-घोषः—-—मुर्गा
- आत्मघोषः—पुं॰—आत्मन्-घोषः—-—कौवा
- आत्मजः—पुं॰—आत्मन्-जः—-—पुत्र
- आत्मजः—पुं॰—आत्मन्-जः—-—कामदेव
- आत्मजन्मा—पुं॰—आत्मन्-जन्मन्—-—पुत्र
- आत्मजन्मा—पुं॰—आत्मन्-जन्मन्—-—कामदेव
- आत्मजातः—पुं॰—आत्मन्-जातः—-—पुत्र
- आत्मजातः—पुं॰—आत्मन्-जातः—-—कामदेव
- आत्मप्रभवः—पुं॰—आत्मन्-प्रभवः—-—पुत्र
- आत्मप्रभवः—पुं॰—आत्मन्-प्रभवः—-—कामदेव
- आत्मसम्भवः—पुं॰—आत्मन्-सम्भवः—-—पुत्र
- आत्मसम्भवः—पुं॰—आत्मन्-सम्भवः—-—कामदेव
- आत्मजा—स्त्री॰—आत्मन्-जा—-—पुत्री
- आत्मजा—स्त्री॰—आत्मन्-जा—-—तर्कशक्ति, समझ
- आत्मजयः—पुं॰—आत्मन्-जयः—-—अपने ऊपर विजय प्राप्त करना, आत्मत्याग, आत्मोत्सर्ग
- आत्मज्ञः—पुं॰—आत्मन्-ज्ञः—-—ऋषि, जो अपने आप को जानता है
- आत्मविद्—पुं॰—आत्मन्-विद्—-—ऋषि, जो अपने आप को जानता है
- आत्मज्ञानम्—नपुं॰—आत्मन्-ज्ञानम्—-—आत्मा या परमात्मा की जानकारी
- आत्मज्ञानम्—नपुं॰—आत्मन्-ज्ञानम्—-—अध्यात्म ज्ञान
- आत्मतत्त्वम्—नपुं॰—आत्मन्-तत्त्वम्—-—आत्मा या परमात्मा की वास्तविक प्रकृति
- आत्मत्यागः—पुं॰—आत्मन्-त्यागः—-—स्वार्थत्याग
- आत्मत्यागः—पुं॰—आत्मन्-त्यागः—-—दूसरे के भले के लिए अपनी हानि करना, आत्महत्या
- आत्मत्यागी—पुं॰—आत्मन्-त्यागिन्—-—आत्महत्या करने वाला
- आत्मत्यागी—पुं॰—आत्मन्-त्यागिन्—-—नास्तिक
- आत्मत्राणम्—नपुं॰—आत्मन्-त्राणम्—-—आत्मरक्षा
- आत्मत्राणम्—नपुं॰—आत्मन्-त्राणम्—-—शरीर-रक्षक
- आत्मदर्शः—पुं॰—आत्मन्-दर्शः—-—आईना
- आत्मदर्शनम्—नपुं॰—आत्मन्-दर्शनम्—-—अपने आप को देखना
- आत्मदर्शनम्—नपुं॰—आत्मन्-दर्शनम्—-—आध्यात्मिक ज्ञान
- आत्मद्रोहिन्—वि॰—आत्मन्-द्रोहिन्—-—अपने आपको पीड़ित करने वाला
- आत्मद्रोहिन्—वि॰—आत्मन्-द्रोहिन्—-—आत्महत्या करने वाला
- आत्मनित्य—वि॰—आत्मन्-नित्य—-—लगातार हृदय में होने वाला, अपने आपको अति प्रिय
- आत्मनिन्दा—स्त्री॰—आत्मन्-निन्दा—-—अपनी निन्दा
- आत्मनिवेदनम्—नपुं॰—आत्मन्-निवेदनम्—-—अपने आपको प्रस्तुत करना
- आत्मनिष्ठ—वि॰—आत्मन्-निष्ठ—-—आत्मज्ञान का अनवरत अन्वेषक
- आत्मप्रभ—वि॰—आत्मन्-प्रभ—-—स्वयं प्रकाशवान्
- आत्मप्रभवः—पुं॰—आत्मन्-प्रभवः—-—अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बनना
- आत्मप्रभवजः—पुं॰—आत्मन्-प्रभव-जः—-—अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बनना
- आत्मप्रशंसा—स्त्री॰—आत्मन्-प्रशंसा—-—अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बनना
- आत्मबन्धुः—पुं॰—आत्मन्-बन्धुः—-—अपना निजी सम्बन्धी
- आत्मबान्धवः—पुं॰—आत्मन्-बान्धवः—-—अपना निजी सम्बन्धी
- आत्मबोधः—पुं॰—आत्मन्-बोधः—-—आध्यात्मिक ज्ञान
- आत्मबोधः—पुं॰—आत्मन्-बोधः—-—आत्मा का ज्ञान
- आत्मभूः—पुं॰—आत्मन्-भूः—-—ब्रह्मा
- आत्मभूः—पुं॰—आत्मन्-भूः—-—विष्णु
- आत्मभूः—पुं॰—आत्मन्-भूः—-—शिव
- आत्मभूः—पुं॰—आत्मन्-भूः—-—कामदेव, प्रेम का देवता
- आत्मभूः—पुं॰—आत्मन्-भूः—-—पुत्र
- आत्मयोनिः—पुं॰—आत्मन्-योनिः—-—ब्रह्मा
- आत्मयोनिः—पुं॰—आत्मन्-योनिः—-—विष्णु
- आत्मयोनिः—पुं॰—आत्मन्-योनिः—-—शिव
- आत्मयोनिः—पुं॰—आत्मन्-योनिः—-—कामदेव, प्रेम का देवता
- आत्मयोनिः—पुं॰—आत्मन्-योनिः—-—पुत्र
- आत्मभूः—स्त्री॰—आत्मन्-भूः—-—पुत्री
- आत्मभूः—स्त्री॰—आत्मन्-भूः—-—बुद्धिवैभव, समझ
- आत्ममात्रा—स्त्री॰—आत्मन्-मात्रा—-—परमात्मा का अंश
- आत्ममानिन्—वि॰—आत्मन्-मानिन्—-—स्वाभिमानी, आदरणीय
- आत्ममानिन्—वि॰—आत्मन्-मानिन्—-—घमंडी
- आत्मयाजिन्—वि॰—आत्मन्-याजिन्—-—अपने लिए यज्ञ करने वाला
- आत्मयाजी—पुं॰—आत्मन्-याजिन्—-—विद्वान् पुरुष जो शाश्वत आनन्द प्राप्त करने के लिए अपने तथा दूसरे व्यक्तियों की आत्मा का अध्ययन करता है, जो सब प्राणियों को अपने समान समझता है
- आत्मयोनिः—पुं॰—आत्मन्-योनिः—-—
- आत्मयोनिभूः—पुं॰—आत्मन्-योनिः-भूः—-—
- आत्मरक्षा—स्त्री॰—आत्मन्-रक्षा—-—अपना बचाव
- आत्मलाभः—पुं॰—आत्मन्-लाभः—-—जन्म, उत्पत्ति, मूल
- आत्मवञ्चक—वि॰—आत्मन्-वञ्चक—-—अपने आप को धोखा देने वाला
- आत्मवञ्चना—स्त्री॰—आत्मन्-वञ्चना—-—आत्म-भ्रम, अपने को धोखा देना
- आत्मवधः—पुं॰—आत्मन्-वधः—-—अपनी हत्या स्वयं करना
- आत्मवध्या—स्त्री॰—आत्मन्-वध्या—-—अपनी हत्या स्वयं करना
- आत्महत्या—स्त्री॰—आत्मन्-हत्या—-—अपनी हत्या स्वयं करना
- आत्मवश—वि॰—आत्मन्-वश—-—अपनी इच्छा पर आश्रित रहने वाला
- आत्मवशः—पुं॰—आत्मन्-वशः—-—आत्मनियन्त्रण, आत्म-प्रशासन
- आत्मवशः—पुं॰—आत्मन्-वशः—-—अपना नियन्त्रण, अधीनता
- आत्मवशं नी——आत्मन्-वशं-नी—-—अधीन करना, विजय प्राप्त करना
- आत्मवशी कृ——आत्मन्-वशी-कृ—-—अधीन करना, विजय प्राप्त करना
- आत्मवश्य—वि॰—आत्मन्-वश्य—-—अपने ऊपर नियन्त्रण रखने वाला, आत्मसंयमी, अपने मन व इन्द्रियों को वश में रखने वाला
- आत्मविद्—पुं॰—आत्मन्-विद्—-—बुद्धिमान् पुरुष, ऋषि
- आत्मविद्या—स्त्री॰—आत्मन्-विद्या—-—आत्मा का ज्ञान, अध्यात्म-ज्ञान
- आत्मवीरः—पुं॰—आत्मन्-वीरः—-—पुत्र
- आत्मवीरः—पुं॰—आत्मन्-वीरः—-—पत्नी का भाई
- आत्मवीरः—पुं॰—आत्मन्-वीरः—-—विदूषक
- आत्मवृत्ति—वि॰—आत्मन्-वृत्ति—-—आत्मा में रहने वाला
- आत्मवृत्तिः—स्त्री॰—आत्मन्-वृत्तिः—-—हृदय की अवस्था, अपने से संबंध रखने वाली चेष्टाएँ, अपनी निजी अवस्था या परिस्थिति
- आत्मशक्तिः—स्त्री॰—आत्मन्-शक्तिः—-—अपनी निजी सामर्थ्य या योग्यता, अन्तर्हित शक्ति या बल
- आत्मश्लाघा—स्त्री॰—आत्मन्-श्लाघा—-—अपनी प्रशंसा स्वयं करना, शेखी बघारना, डींग मारना
- आत्मस्तुतिः—स्त्री॰—आत्मन्-स्तुतिः—-—अपनी प्रशंसा स्वयं करना, शेखी बघारना, डींग मारना
- आत्मसंयमः—पुं॰—आत्मन्-संयमः—-—अपनी इन्द्रियों पर काबू रखना
- आत्मसम्भवः—पुं॰—आत्मन्-सम्भवः—-—पुत्र
- आत्मसम्भवः—पुं॰—आत्मन्-सम्भवः—-—प्रेम का देवता, कामदेव
- आत्मसम्भवः—पुं॰—आत्मन्-सम्भवः—-—ब्रह्मा की उपाधि, शिव, विष्णु
- आत्मसमुद्भवः—पुं॰—आत्मन्-समुद्भवः—-—पुत्र
- आत्मसमुद्भवः—पुं॰—आत्मन्-समुद्भवः—-—प्रेम का देवता, कामदेव
- आत्मसमुद्भवः—पुं॰—आत्मन्-समुद्भवः—-—ब्रह्मा की उपाधि, शिव, विष्णु
- आत्मसम्भवा—स्त्री॰—आत्मन्-सम्भवा—-—पुत्री
- आत्मसम्भवा—स्त्री॰—आत्मन्-सम्भवा—-—समझ
- आत्मसमुद्भवा—स्त्री॰—आत्मन्-समुद्भवा—-—पुत्री
- आत्मसमुद्भवा—स्त्री॰—आत्मन्-समुद्भवा—-—समझ
- आत्मसम्पन्न—वि॰—आत्मन्-सम्पन्न—-—स्वस्थचित्त
- आत्मसम्पन्न—वि॰—आत्मन्-सम्पन्न—-—बुद्धिमान्,प्रतिभाशाली
- आत्महन्—वि॰—आत्मन्-हन्—-—आत्मघात
- आत्मघातिन्—वि॰—आत्मन्-घातिन्—-—आत्मघात
- आत्महननम्—नपुं॰—आत्मन्-हननम्—-—आत्मघात
- आत्महत्या—स्त्री॰—आत्मन्-हत्या—-—आत्मघात
- आत्महित—वि॰—आत्मन्-हित—-—अपने लिए हितकर
- आत्महितम्—नपुं॰—आत्मन्-हितम्—-—अपना निजी भला या कल्याण
- आत्मना—अव्य॰—-—आत्मन् का करण॰ ए॰ व॰—आत्मवाची कर्तृकारक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है
- आत्मनाद्वितीयः—पुं॰—आत्मना-द्वितीयः—-—आप सहित दूसरा अर्थात् वह तथा स्वयम्
- आत्मनीन—वि॰—-—आत्मन्+ख—अपने से संबंध रखने वाला, अपना निजी
- आत्मनीन—वि॰—-—आत्मन्+ख—अपने लिए हितकर
- आत्मनीनः—पुं॰—-—आत्मन्+ख—पुत्र
- आत्मनीनः—पुं॰—-—आत्मन्+ख—पत्नी का भाई
- आत्मनीनः—पुं॰—-—आत्मन्+ख—विदूषक
- आत्मनेपदम्—नपुं॰—-—आत्मने आत्मार्थ-फलबोधनाय पदम्-अलुक् स॰—आत्मवाची क्रियापद, दो प्रकार के क्रियापदों (परस्मैपद तथा आत्मनेपद) में से एक जिनमें कि संस्कृत भाषा की धातु- रूपावली पाई जाती है
- आत्मनेपदम्—नपुं॰—-—आत्मने आत्मार्थ-फलबोधनाय पदम्-अलुक् स॰—आत्मनेपद के प्रत्यय
- आत्मम्भरि—वि॰—-—आत्मानं बिभर्ति इति- आत्मन्+भू+खि, मुम् च—स्वार्थी, लालची
- आत्मवत्—वि॰—-—आत्मन्+मतुप्-मस्य वः—स्वस्थचित्त
- आत्मवत्—वि॰—-—आत्मन्+मतुप्-मस्य वः—शान्त,दूरदर्शी, बुद्धिमान
- आत्मवत्ता—स्त्री॰—-—आत्मवत्+तल्+टाप्—स्वस्थचित्तता, स्वनियंत्रण, बुद्धिमत्ता
- आत्मसात्—अव्य॰—-—आत्मन्+साति—अपने अधिकार में, अपना निजी
- आत्यन्तिक—वि॰—-—अत्यन्त+ठञ्—सतत, अनवरत, अनन्त, स्थायी, नित्यस्थायी
- आत्यन्तिक—वि॰—-—अत्यन्त+ठञ्—अत्यधिक, प्रचुर, सर्वाधिक
- आत्यन्तिक—वि॰—-—अत्यन्त+ठञ्—सर्वोच्च, पूर्ण
- आत्ययिक—वि॰—-—अत्यय+ठक्—नाशकारी, सर्वनाशकर
- आत्ययिक—वि॰—-—अत्यय+ठक्—पीड़ाकर, अमंगलकर, अशुभसूचक
- आत्ययिक—वि॰—-—अत्यय+ठक्—अत्यावश्यक, अपरिहार्य, आपाती
- आत्रेय—वि॰—-—अत्रि+ ढक्—अत्रि से संबन्ध रखने वाला, या अत्रि की संतान
- आत्रेयः—पुं॰—-—अत्रि+ ढक्—अत्रि का वंशज
- आत्रेयी—स्त्री॰—-—अत्रि+ ढक्—अत्रि की पुत्री
- आत्रेयी—स्त्री॰—-—अत्रि+ ढक्—अत्रि की पत्नी
- आत्रेयी—स्त्री॰—-—अत्रि+ ढक्—रजस्वला स्त्री
- आत्रेयिका—स्त्री॰—-—आत्रेयी+कन्+टाप्, ह्रस्वः—रजस्वला स्त्री
- आथर्वण—वि॰—-—अथर्वन्+अण्—अथर्ववेद या अथर्वा ऋषि से संबन्ध रखने वाला
- आथर्वणः—पुं॰—-—अथर्वन्+अण्—अथर्ववेद का अध्येता या ज्ञाता ब्राह्मण
- आथर्वणः—पुं॰—-—अथर्वन्+अण्—यज्ञ का पुरोहित जिससे संबद्ध यज्ञ कर्म पद्धति का विधान अथर्ववेद में निहित है
- आथर्वणः—पुं॰—-—अथर्वन्+अण्—स्वयं अथर्ववेद
- आथर्वणः—पुं॰—-—अथर्वन्+अण्—गृह पुरोहित
- आथर्वणिकः—पुं॰—-—अथर्वन्+ठक्—अथर्ववेद का अध्येता ब्राह्मण
- आदंशः—पुं॰—-—आ+दंश्+घञ्—डंक, डंक मारने से पैदा हुआ घाव
- आदंशः—पुं॰—-—आ+दंश्+घञ्—डंक, दांत
- आदरः—पुं॰—-—आ+दृ+अप्—आदर, पूज्यभाव, सम्मान
- आदरः—पुं॰—-—आ+दृ+अप्—अवधान, सावधानी, सम्मान्य व्यवहार
- आदरः—पुं॰—-—आ+दृ+अप्—उत्सुकता, इच्छा, स्नेह
- आदरः—पुं॰—-—आ+दृ+अप्—प्रयत्न चेष्टा
- आदरः—पुं॰—-—आ+दृ+अप्—उपक्रम, आरंभ
- आदरः—पुं॰—-—आ+दृ+अप्—प्रेम, आसक्ति
- आदरणम्—नपुं॰—-—आ+दृ+ल्युट्—सत्कार,इज्जत, सम्मान
- आदर्शः—पुं॰—-—आ+दृश्+घञ्—आईना, मुँह देखने का शीशा, दर्पण
- आदर्शः—पुं॰—-—आ+दृश्+घञ्—मूल पांडुलिपि जिससे प्रतिलिपि तैयार की जाय, नमूना, प्रतिकृति, प्रकार,
- आदर्शः—पुं॰—-—आ+दृश्+घञ्—कार्य की एक प्रतिलिपि
- आदर्शः—पुं॰—-—आ+दृश्+घञ्—टीका, भाष्य
- आदर्शकः—पुं॰—-—आदर्श+कन्—दर्पण, आईना
- आदर्शनम्—नपुं॰—-—आ+दृश्+ल्युट्—दिखलावा, प्रदर्शन
- आदर्शनम्—नपुं॰—-—आ+दृश्+ल्युट्—दर्पण
- आदहनम्—नपुं॰—-—आ+दह्+ल्युट्—जलन
- आदहनम्—नपुं॰—-—आ+दह्+ल्युट्—चोट पहुँचाना, हत्या करना
- आदहनम्—नपुं॰—-—आ+दह्+ल्युट्—खरी-खोटी सुनाना, घृणा करना
- आदहनम्—नपुं॰—-—आ+दह्+ल्युट्—श्मशान
- आदानम्—नपुं॰—-—आ+दा+ल्युट्—लेना,स्वीकार करना, पकड़ना
- आदानम्—नपुं॰—-—आ+दा+ल्युट्—उपार्जन, प्रापण
- आदानम्—नपुं॰—-—आ+दा+ल्युट्—लक्षण
- आदायिन—वि॰—-—आ+दा+णिनि—ग्रहण करने वाला, प्राप्त करने वाला
- आदि—वि॰—-—आ+दा+ कि—प्रथम, प्राथमिक, आदिम
- आदि—वि॰—-—आ+दा+ कि—मुख्य, पहला, प्रधान, प्रमुख
- आदि—वि॰—-—आ+दा+ कि—समय की दृष्टि से प्रथम
- आदिः—पुं॰—-—आ+दा+ कि—आरम्भ, उपक्रम
- आदिः—पुं॰—-—आ+दा+ कि—पहला भाग या खंड
- आदिः—पुं॰—-—आ+दा+ कि—मुख्य कारण
- आद्यन्त—वि॰—आदि-अन्त—-—जिसका आरम्भ और समाप्ति दोनों हों
- आद्यन्तम्—नपुं॰—आदि-अन्तम्—-—आरम्भ और अन्त
- आद्युदात्त—वि॰—आदि-उदात्त—-—वह शब्द जिसके आरम्भिक अक्षर पर स्वराघात हो
- आदिकरः—पुं॰—आदि-करः—-—सृष्टिकर्ता, ब्रह्मा का विशेषण
- आदिकर्तृ—पुं॰—आदि-कर्तृ—-—सृष्टिकर्ता, ब्रह्मा का विशेषण
- आदिकृत्—पुं॰—आदि-कृत्—-—सृष्टिकर्ता, ब्रह्मा का विशेषण
- आदिकविः—पुं॰—आदि-कविः—-—प्रथम कवि, ब्रह्मा की उपाधि क्योंकि उसी ने सर्वप्रथम कवियों का पथप्रदर्शन किया-जब कि उसने क्रौञ्च दम्पती के एक पक्षी को व्याध के द्वारा मारा जाता हुआ देखा, उसने उस दुष्ट व्याध को शाप दिया और उसका वही शोक अपने आप कविता के रूप में प्रकट हुआ। इसके पश्चात् ब्रह्मा ने वाल्मीकि को राम का चरित लिखने के लिए कहा, फलस्वरूप संस्कृत साहित्य में प्रथम काव्य ‘रामायण' के रूप में प्रकट हुआ।
- आदिकाण्डम्—नपुं॰—आदि-काण्डम्—-—रामायण का प्रथम खण्ड
- आदिकारणम्—नपुं॰—आदि-कारणम्—-—प्रथम या मुख्य कारण, जो कि वेदान्तियों के अनुसार ‘ब्रह्म' है, तथा नैयायिकों- विशेषतः वैशिषिकों के अनुसार विश्व का प्रथम या भौतिक कारण ‘अणु' है, परमात्मा नहीं।
- आदिकाव्यम्—नपुं॰—आदि-काव्यम्—-—प्रथम काव्य- अर्थात् बाल्मीकि रामायणम्
- आदिदेवः—पुं॰—आदि-देवः—-—प्रथम या सर्वोच्च परमात्मा
- आदिदेवः—पुं॰—आदि-देवः—-—नारायण या विष्णु
- आदिदेवः—पुं॰—आदि-देवः—-—शिव
- आदिदेवः—पुं॰—आदि-देवः—-—सूर्य
- आदिदैव्यः—पुं॰—आदि-दैव्यः—-—हिरण्यकशिपु की उपाधि
- आदिपर्वन्—नपुं॰—आदि-पर्वन्—-—महाभारत का प्रथम खंड
- आदिपुरुषः—पुं॰—आदि-पुरुषः—-—सर्वप्रथम या आदिम प्राणी, सृष्टि का स्वामी
- आदिपुरुषः—पुं॰—आदि-पुरुषः—-—विष्णु, कृष्ण या नारायण
- आदिबलम्—नपुं॰—आदि-बलम्—-—जननात्मक शक्ति, प्रथमवीर्य
- आदिभव—वि॰—आदि-भव—-—सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ
- आदिभवः—पुं॰—आदि-भवः—-—विष्णु
- आदिभवः—पुं॰—आदि-भवः—-—बड़ा भाई
- आदिभवः—पुं॰—आदि-भवः—-—‘आदिजन्मा' आदिम प्राणी, ब्रह्मा की उपाधि
- आदिभूत—वि॰—आदि-भूत—-—सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ
- आदिभूतः—पुं॰—आदि-भूतः—-—विष्णु
- आदिभूतः—पुं॰—आदि-भूतः—-—बड़ा भाई
- आदिभूतः—पुं॰—आदि-भूतः—-—‘आदिजन्मा' आदिम प्राणी, ब्रह्मा की उपाधि
- आदिमूलम्—नपुं॰—आदि-मूलम्—-—पहली नींव, आदिम कारण
- आदिवराहः—पुं॰—आदि-वराहः—-—‘प्रथमशूकर' विष्णु की उपाधि
- आदिशक्तिः—स्त्री॰—आदि-शक्तिः—-—माया की शक्ति
- आदिशक्तिः—स्त्री॰—आदि-शक्तिः—-—दुर्गा की उपाधि
- आदिसर्गः—पुं॰—आदि-सर्गः—-—प्रथम सृष्टि
- आदितः—अव्य॰—-—आदि+तसिल्, अधि॰ए॰व॰—आरम्भ से लेकर, सबसे पहले
- आदौ—अव्य॰—-—आदि+तसिल्, अधि॰ए॰व॰—आरम्भ से लेकर, सबसे पहले
- आदितेयः—पुं॰—-—अदिति+ढक्—अदिति का पुत्र
- आदितेयः—पुं॰—-—अदिति+ढक्—देवता, सामान्य देव
- आदित्यः—पुं॰—-—अदिति+ण्य—अदिति का पुत्र, देव, देवता
- आदित्यः—पुं॰—-—अदिति+ण्य—बारह आदित्यों (सूर्य के भाग) का समुदायवाचक नाम
- आदित्यः—पुं॰—-—अदिति+ण्य—सूर्य
- आदित्यः—पुं॰—-—अदिति+ण्य—विष्णु का पाँचवा अवतार, वामनावतार
- आदित्यमण्डलम्—नपुं॰—आदित्य-मण्डलम्—-—सूर्यमंडल
- आदित्यसूनुः—पुं॰—आदित्य-सूनुः—-—सूर्य का पुत्र, सुग्रीव, यम, शनि, कर्ण
- आदिनवः—पुं॰—-—आ+दी+क्त- आदीनस्य वानम्-वा+क—दुर्भाग्य, कष्ट
- आदिनवः—पुं॰—-—आ+दी+क्त- आदीनस्य वानम्-वा+क—दोष
- आदिनवः—पुं॰—-—-—निर्दोष
- आदीनवः—पुं॰—-—आ+दी+क्त- आदीनस्य वानम्-वा+क—दुर्भाग्य, कष्ट
- आदीनवः—पुं॰—-—आ+दी+क्त- आदीनस्य वानम्-वा+क—दोष
- आदीनवः—पुं॰—-—-—निर्दोष
- आदिनवम्—नपुं॰—-—आ+दी+क्त- आदीनस्य वानम्-वा+क—दुर्भाग्य, कष्ट
- आदिनवम्—नपुं॰—-—आ+दी+क्त- आदीनस्य वानम्-वा+क—दोष
- आदिनवम्—नपुं॰—-—-—निर्दोष
- आदीनवम्—नपुं॰—-—आ+दी+क्त- आदीनस्य वानम्-वा+क—दुर्भाग्य, कष्ट
- आदीनवम्—नपुं॰—-—आ+दी+क्त- आदीनस्य वानम्-वा+क—दोष
- आदीनवम्—नपुं॰—-—-—निर्दोष
- आदिम—वि॰—-—आदौ भवः- आदि+डिमच्—प्रथम, पुरातन, मौलिक
- आदीनव—पुं॰—-—आ+दी+क्त- आदीनस्य वानम्-वा+क—दुर्भाग्य, कष्ट
- आदीनव—पुं॰—-—-—निर्दोष
- आदीपनम्—नपुं॰—-—आ+दीप्+ल्युट्—आग लगाना
- आदीपनम्—नपुं॰—-—आ+दीप्+ल्युट्—भड़काना, संवारना
- आदीपनम्—नपुं॰—-—आ+दीप्+ल्युट्—उत्सवादिक अवसर पर दीवार फर्श आदि को चमका देना
- आदृत—भू॰क॰कृ॰—-—आ+दृ+क्त—सम्मानित, प्रतिष्ठित
- आदृत—भू॰क॰कृ॰—-—आ+दृ+क्त—उत्साही, परिश्रमी, दत्तचित्त, सावधान
- आदृत—भू॰क॰कृ॰—-—आ+दृ+क्त—सम्मान युक्त
- आदेवनम्—नपुं॰—-—आ+दिव्+ल्युट्—जूआ खेलना
- आदेवनम्—नपुं॰—-—आ+दिव्+ल्युट्—जूआ खेलने का पासा
- आदेवनम्—नपुं॰—-—आ+दिव्+ल्युट्—जूआ खेलने की बिसात, खेलने का स्थान
- आदेशः—पुं॰—-—आ+दिश्+घञ्—हुक्म, आज्ञा
- आदेशः—पुं॰—-—आ+दिश्+घञ्—सलाह, निर्देश, उपदेश, नियम
- आदेशः—पुं॰—-—आ+दिश्+घञ्—विवरण, सूचना, संकेत
- आदेशः—पुं॰—-—आ+दिश्+घञ्—भविष्यकथन
- आदेशः—पुं॰—-—आ+दिश्+घञ्—स्थानापन्न
- आदेशिन्—वि॰—-—आ+दिश्+णिनि—आदेश देने वाला, हुक्म देने वाला
- आदेशिन्—वि॰—-—आ+दिश्+णिनि—उत्तेजक, भड़काने वाला
- आदेशी—पुं॰—-—आ+दिश्+णिनि—सेनापति, आज्ञाप्ता
- आदेशी—पुं॰—-—आ+दिश्+णिनि—ज्योतिषी
- आद्य—वि॰—-—आदौ भवः-यत्—प्रथम, आदि कालीन
- आद्य—वि॰—-—आदौ भवः-यत्—मुखिया, प्रमुख, अगुआ
- आद्य—वि॰—-—आदौ भवः-यत्—आरम्भ करके, बगैरा
- आद्या—स्त्री॰—-—आदौ भवः-यत्+टाप्—दुर्गा की उपाधि
- आद्या—स्त्री॰—-—आदौ भवः-यत्+टाप्—मास का पहला दिन
- आद्यम्—नपुं॰—-—आदौ भवः-यत्—आरम्भ
- आद्यम्—नपुं॰—-—आदौ भवः-यत्—अनाज, आहार
- आद्यकविः—पुं॰—आद्य-कविः—-—आदि कवि ब्रह्मा या बाल्मीकि की उपाधि
- आद्यकविः—पुं॰—आद्य-कविः—-—प्रथम कवि, ब्रह्मा की उपाधि क्योंकि उसी ने सर्वप्रथम कवियों का पथप्रदर्शन किया-जब कि उसने क्रौञ्च दम्पती के एक पक्षी को व्याध के द्वारा मारा जाता हुआ देखा, उसने उस दुष्ट व्याध को शाप दिया और उसका वही शोक अपने आप कविता के रूप में प्रकट हुआ। इसके पश्चात् ब्रह्मा ने वाल्मीकि को राम का चरित लिखने के लिए कहा, फलस्वरूप संस्कृत साहित्य में प्रथम काव्य ‘रामायण' के रूप में प्रकट हुआ।
- आद्यबीजम्—नपुं॰—आद्य-बीजम्—-—विश्व का मुख्य या भौतिक कारण जो सांख्य मतानुसार ‘प्रधान' या जडनियम कहलाता है।
- आद्यून—वि॰—-—आ+दिव्+क्त, ऊठ्, नत्वं च, ‘अद्' खाना से व्युत्पन्न प्रतीत होता है—बहुभोजी,, घाउघप, पेटू, भुक्खड़
- आद्योतः—पुं॰—-—आ+द्युत्+घञ्—प्रकाश, चमक
- आधमनम्—नपुं॰—-—आ+ धा+ कमनन्—धरोहर, निक्षेप
- आधमनम्—नपुं॰—-—आ+ धा+ कमनन्—विक्री के सामान का धूर्तता के साथ मूल्य चढ़ाना
- आधमर्ण्यम्—नपुं॰—-—अधमर्ण+ष्यञ्—कर्जदारी
- आधर्मिक—वि॰—-—अधर्म+ठञ्—अन्यायी, बेईमान
- आधर्षः—पुं॰—-—आ+ धृष्+ घञ्—घृणा
- आधर्षः—पुं॰—-—आ+ धृष्+ घञ्—बलात् चोट पहुँचाना
- आधर्षणम्—नपुं॰—-—आ+ धृष्+ ल्युट्—दोष या अपराध का निश्चय, दण्डादेश
- आधर्षणम्—नपुं॰—-—आ+ धृष्+ ल्युट्—निराकरण
- आधर्षणम्—नपुं॰—-—आ+ धृष्+ ल्युट्—चोट पहुँचाना,सताना
- आधर्षित—भू॰क॰कृ॰—-—आ+ धृष्+क्त—चोट पहुँचाया हुआ
- आधर्षित—भू॰क॰कृ॰—-—आ+ धृष्+क्त—तर्क द्वारा निराकृत
- आधर्षित—भू॰क॰कृ॰—-—आ+ धृष्+क्त—दण्डाविष्ट, सिद्धदोष
- आधानम्—नपुं॰—-—आ+ धा+ल्युट्—रखना, ऊपर रख देना
- आधानम्—नपुं॰—-—आ+ धा+ल्युट्—लेना, मान लेना, प्राप्त करना, वापिस लेना
- आधानम्—नपुं॰—-—आ+ धा+ल्युट्—यज्ञाग्नि को स्थापित करना
- आधानम्—नपुं॰—-—आ+ धा+ल्युट्—करना कार्य में परिणत करना, निष्पन्न करना
- आधानम्—नपुं॰—-—आ+ धा+ल्युट्—बीच में रखना, रख देना
- आधानम्—नपुं॰—-—आ+ धा+ल्युट्—बीजारोपण, उत्पादन
- आधानम्—नपुं॰—-—आ+ धा+ल्युट्— निक्षेप, अधोहर
- अधानिकः—पुं॰—-—अधान+ठञ्—सहवास के पश्चात् गर्भाधान के निमित्त किया जाने वाला संस्कार
- आधारः—पुं॰—-—आ+ धृ+ घञ्—आश्रय, स्तंभ, टेक
- आधारः—पुं॰—-—आ+ धृ+ घञ्—(अतः) सँभाले रखने की शक्ति, सहायता, संरक्षण, मदद
- आधारः—पुं॰—-—आ+ धृ+ घञ्—भाजन, आशय
- आधारः—पुं॰—-—आ+ धृ+ घञ्—आलवाल
- आधारः—पुं॰—-—आ+ धृ+ घञ्—पुलिया, बाँध, पुश्ता
- आधारः—पुं॰—-—आ+ धृ+ घञ्—नहर,
- आधारः—पुं॰—-—आ+ धृ+ घञ्—अधिकरण कारक का भाव, स्थान
- आधिः—पुं॰—-—आ+ धा+ कि—मानसिक पीड़ा, वेदना, चिन्ता
- आधिः—पुं॰—-—आ+ धा+ कि—विपत्ति, अभिशाप, सन्ताप
- आधिः—पुं॰—-—आ+ धा+ कि—निक्षेप, धरोहर, गिरवी, रेहन
- आधिः—पुं॰—-—आ+ धा+ कि—स्थान, आवास
- आधिः—पुं॰—-—आ+ धा+ कि—अवस्थान, ठिकाना
- आधिः—पुं॰—-—आ+ धा+ कि—परिवार के भरण-पोषण के लिए चिन्तातुर
- आधिज्ञ—वि॰—आधिः+ज्ञ—-—पीड़ाग्रस्त
- आधिभोगः—पुं॰—आधिः+भोगः—-—धरोहर की चीज का उपयोग
- आधिस्तेनः—पुं॰—आधिः+स्तेनः—-—स्वामी के पूछे बिना धरोहर की राशि को खर्च करने वाला व्यक्ति
- आधिकरणिकः—पुं॰—-—अधिकरण+ठक्—न्यायाधीश
- आधिकारिक—वि॰—-—-—सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ
- आधिकारिक—वि॰—-—-—अधिकारी
- आधिक्यम्—नपुं॰—-—अधिक+ष्यञ्—अधिकता, बहुतायत, प्राचुर्य
- आधिदैविक—वि॰—-—अधिदेव+ठञ्—अधिदेव या इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देव से सम्बन्ध रखने वाला
- आधिदैविक—वि॰—-—अधिदेव+ठञ्—दैवकृत, भाग्य में लिखी हुई
- आधिपत्यम्—नपुं॰—-—अधिपति+यक्—सर्वोपरिता, शक्ति, प्रभुसत्ता
- आधिपत्यम्—नपुं॰—-—अधिपति+यक्—राजा का कर्तव्य
- आधिभौतिक—वि॰—-—अधिभूत+ठञ्—प्राणियों- पशुपक्षियों से उत्पन्न (पीड़ा आदि)
- आधिभौतिक—वि॰—-—अधिभूत+ठञ्—प्राणियों से सम्बन्ध रखने वाला
- आधिभौतिक—वि॰—-—अधिभूत+ठञ्—प्रारम्भिक, भौतिक
- आधिराज्यम्—नपुं॰—-—अधिराज+ष्यञ्—अधिराज का पद या अधिकार, प्रभुसत्ता, सर्वोपरि प्रभुत्व
- आधिवेदनिकम्—नपुं॰—-—अधिवेदनाय हितं - ठक्, तत्र काले दत्तं- ठञ् वा—सम्पत्ति, उपहार आदि जो दूसरा विवाह करने पर पहली पत्नी को सन्तोषार्थ दिया जाय
- आधुनिक—वि॰—-—अधुना+ठञ्—नया, आजकल का, अब का, हाल का
- आधोरणः—पुं॰—-—आ+ धोर्+ल्युट्- धोऋ गतिचातुर्ये—महावत, पीलवान
- आध्मानम्—नपुं॰—-—आ+ ध्मा+ल्युट्—फूँक मारना, फुलाव (आलं॰) वृद्धि
- आध्मानम्—नपुं॰—-—आ+ ध्मा+ल्युट्—शेखी बघारना
- आध्मानम्—नपुं॰—-—आ+ ध्मा+ल्युट्—धौंकनी
- आध्मानम्—नपुं॰—-—आ+ ध्मा+ल्युट्—पेट का फुलना, शरीर का फुलाव, जलोदर
- आध्यात्मिक—वि॰—-—अध्यात्म+ठञ्—परमात्मा से सम्बन्ध रखने वाला
- आध्यात्मिक—वि॰—-—अध्यात्म+ठञ्—आत्मा सम्बन्धी, पवित्र
- आध्यात्मिक—वि॰—-—अध्यात्म+ठञ्—मन से सम्बन्ध रखने वाला
- आध्यात्मिक—वि॰—-—अध्यात्म+ठञ्—मन से उत्पन्न
- आध्यानम्—नपुं॰—-—आ+ ध्यै+ल्युट्—चिन्ता
- आध्यानम्—नपुं॰—-—आ+ ध्यै+ल्युट्—दुःखपूर्ण प्रत्यास्मरण
- आध्यानम्—नपुं॰—-—आ+ ध्यै+ल्युट्—मनन
- आध्यापकः—पुं॰—-—अध्यापक+अण्—शिक्षक, धर्मोपदेष्टा, दीक्षा-गुरु
- आध्यासिक—वि॰—-—अध्यास+ठक्—अध्यास द्वारा उत्पन्न अर्थान् (वेदान्त में) एक वस्तु के गुण व प्रकृति को दूसरी वस्तु पर आरोप करके
- आध्वनिक—वि॰—-—अध्वन्+ठक्—यात्रा पर, यात्री
- आध्वर्यव—वि॰—-—अध्वर्यु+अञ्—अध्वर्यु या यजुर्वेद से सम्बन्ध रखने वाला
- आध्वर्यवम्—नपुं॰—-—अध्वर्यु+अञ्—यज्ञ में किया जाने वाला कार्य
- आध्वर्यवम्—नपुं॰—-—अध्वर्यु+अञ्—विशेषतः अध्वर्यु नामक पुरोहित का कार्य
- आनः—पुं॰—-—आ+अन्+क्विप्, ततः अण्—वायु भीतर खींचना
- आनः—पुं॰—-—आ+अन्+क्विप्, ततः अण्—श्वास लेना, फूंक मारना
- आनकः—पुं॰—-—आनयति उत्साहवतः करोति अण्+णिच्+ण्वुल्, तारा॰—बड़ा सैनिक ढोल- नगाड़ा
- आनकः—पुं॰—-—आनयति उत्साहवतः करोति अण्+णिच्+ण्वुल्, तारा॰—गरजने वाला बादल
- आनकदुन्दुभिः—पुं॰—आनकः-दुन्दुभिः—-—कृष्ण के पिता वासुदेव की उपाधि
- आनकदुन्दुभिः—पुं॰—आनकः-दुन्दुभिः—-—बड़ा ढोल, नगाड़ा
- आनतिः—स्त्री॰—-—आ+नम्+क्तिन्—झुकना, नमस्कार करना, झुकाव
- आनतिः—स्त्री॰—-—आ+नम्+क्तिन्—नमस्कार या अभिवादन
- आनतिः—स्त्री॰—-—आ+नम्+क्तिन्—श्रद्धांजलि, सत्कार, श्रद्धा
- आनद्ध—वि॰—-—आ+नह्+क्त—बांधा हुआ, मढ़ा हुआ
- आनद्ध—वि॰—-—आ+नह्+क्त—बद्धकोष्ठ, अवरुद्धमल
- आनद्धः—पुं॰—-—आ+नह्+क्त—ढोल
- आनद्धः—पुं॰—-—आ+नह्+क्त—वस्त्रों का पहनना, बनाव-सिंगार
- आननम्—नपुं॰—-—आ+अन्+ल्युट्—मुँह, चेहरा
- आननम्—नपुं॰—-—आ+अन्+ल्युट्—किसी ग्रन्थ या पुस्तक के बड़े२ खण्ड
- आनन्तर्यम्—नपुं॰—-—अनन्तर+ष्यञ्—अव्यवहित उत्तराधिकार
- आनन्तर्यम्—नपुं॰—-—अनन्तर+ष्यञ्—व्यवधान रहित आसन्नता
- आनन्त्यम्—नपुं॰—-—अनन्त+ष्यञ्—असमापकता, अनन्तता
- आनन्त्यम्—नपुं॰—-—अनन्त+ष्यञ्—असीमता
- आनन्त्यम्—नपुं॰—-—अनन्त+ष्यञ्—अनश्वरता, नित्यता
- आनन्त्यम्—नपुं॰—-—अनन्त+ष्यञ्—ऊर्ध्वलोक, स्वर्ग, भावो सुख
- आनन्दः—पुं॰—-—आ+नन्द्+घञ्—प्रसन्नता, हर्ष, खुशी, सुख
- आनन्दः—पुं॰—-—आ+नन्द्+घञ्—ईश्वर, परमात्मा
- आनन्दः—पुं॰—-—आ+नन्द्+घञ्—शिव
- आनन्दकाननम्—नपुं॰—आनन्दः-काननम्—-—काशी
- आनन्दवनम्—नपुं॰—आनन्दः-वनम्—-—काशी
- आनन्दपटः—पुं॰—आनन्दः-पटः—-—दुलहिन के वस्त्र
- आनन्दपूर्ण—वि॰—आनन्दः-पूर्ण—-—आनन्द से ओतप्रोत
- आनन्दपूर्णः—पुं॰—आनन्दः-पूर्णः—-—परमात्मा
- आनन्दप्रभवः—पुं॰—आनन्दः-प्रभवः—-—वीर्य
- आनन्दथु—वि॰—-—आ+नन्द्+अथुच्—प्रसन्न, हर्षोत्फुल्ल
- आनन्दथुः—पुं॰—-—आ+नन्द्+अथुच्—प्रसन्नता, हर्ष, सुख
- आनन्दन—वि॰—-—आ+नन्द्+ल्युट्—सुखकर, प्रसन्न करने वाला
- आनन्दनम्—नपुं॰—-—आ+नन्द्+ल्युट्—खुश करना, प्रसन्न करना
- आनन्दनम्—नपुं॰—-—आ+नन्द्+ल्युट्—प्रणाम करना
- आनन्दनम्—नपुं॰—-—आ+नन्द्+ल्युट्—मित्र या अतिथियों के साथ, मिलने पर अथवा होते समय सभ्योचित व्यवहार, सौजन्य, शिष्टता
- आनन्दमय—वि॰—-—आनन्द+मयट्—आनन्द से परिपूर्ण, सुख या हर्ष सहित
- आनन्दमयः—पुं॰—-—आनन्द+मयट्—परमात्मा
- आनन्दमयकोषः—पुं॰—आनन्दमयः-कोषः—-—अन्तस्तम आवरण या शरीर का परिधान
- आनन्दिः—पुं॰—-—आ+नन्द्+इन्—हर्ष, प्रसन्नता
- आनन्दिः—पुं॰—-—आ+नन्द्+इन्—जिज्ञासा
- आनन्दिन्—वि॰—-—आ+नन्द्+णिनि—प्रसन्न, खुश
- आनन्दिन्—वि॰—-—आ+नन्द्+णिनि—सुखकर
- आनर्तः—पुं॰—-—आ+नृत्+घञ्—रंगमंच, नाट्यशाला, नाचघर
- आनर्तः—पुं॰—-—आ+नृत्+घञ्—युद्ध, लड़ाई,
- आनर्तः—पुं॰—-—आ+नृत्+घञ्—देश का नाम
- आनर्थक्यम्—नपुं॰—-—अनर्थकस्य भावः-ष्यञ्—अनुपयुक्तता, निरर्थकता
- आनर्थक्यम्—नपुं॰—-—अनर्थकस्य भावः-ष्यञ्—अयोग्यता
- आनायः—पुं॰—-—आ+नी+घञ्—जाल
- आनायी—पुं॰—-—आनाय+इनि—मछुवा, धीवर
- आनाय्य—वि॰—-—आ+नी+ण्यत्, आयादेशः—निकट लाने के योग्य
- आनाय्यः—पुं॰—-—आ+नी+ण्यत्, आयादेशः—गार्हपत्याग्नि से ली हुई संस्कृत अग्नि
- आनाहः—पुं॰—-—आ+नह्+घञ्—बन्धन
- आनाहः—पुं॰—-—आ+नह्+घञ्—मलावरोध कब्ज
- आनाहः—पुं॰—-—आ+नह्+घञ्—लम्बाई
- आनिल—वि॰—-—अनिल+अण्—वायु से उत्पन्न
- आनिलः—पुं॰—-—अनिल+अण्—हनुमान, भीम
- आनिलिः—पुं॰—-—-—हनुमान, भीम
- आनील—वि॰ प्रा॰स॰—-—-—हल्का काला या नीला
- आनीलः—पुं॰—-—-—काला घोड़ा
- आनुकूलिक—वि॰—-—अनुकूल+ठक्—हितकर, अनुरूप
- आनुकूल्यम्—नपुं॰—-—अनुकूल+ष्यञ्—हितकारिता, उपयुक्तता
- आनुकूल्यम्—नपुं॰—-—अनुकूल+ष्यञ्—कृपा, अनुग्रह
- आनुगत्यम्—नपुं॰—-—अनुगत+ष्यञ्—जान-पहचान, परिचय
- आनुगुण्यम्—नपुं॰—-—अनुगुण+ष्यञ्—हितकारिता,उपयुक्तता, अनुरूपता
- आनुग्रामिक—वि॰—-—अनुग्राम+ठञ्—देहाती, ग्रामीण, गँवार
- आनुनासिक्यम्—नपुं॰—-—अनुनासिक+ष्यञ्—अनुनासिकता
- आनुपदिक—वि॰—-—अनुपद+ठक्—अनुसरण करने वाला, पीछा करने वाला, पदचिह्न या लीक के सहारे पीछा करने वाला, अध्ययन करने वाला
- आनुपूर्वम्—नपुं॰—-—अनुपूर्वस्य भावः ष्यञ्—क्रम, परम्परा, सिलसिला
- आनुपूर्वम्—नपुं॰—-—अनुपूर्वस्य भावः ष्यञ्—वर्णों का नियमित क्रम
- आनुपूर्व्यम्—नपुं॰—-—अनुपूर्वस्य भावः ष्यञ्—क्रम, परम्परा, सिलसिला
- आनुपूर्व्यम्—नपुं॰—-—अनुपूर्वस्य भावः ष्यञ्—वर्णों का नियमित क्रम
- आनुपूर्वी—पुं॰—-—अनुपूर्वस्य भावः ष्यञ्, ततो वा ङीषि य लोपः—क्रम, परम्परा, सिलसिला
- आनुपूर्वी—पुं॰—-—अनुपूर्वस्य भावः ष्यञ्, ततो वा ङीषि य लोपः—वर्णों का नियमित क्रम
- आनुपूर्वेण—अव्य॰—-—-—एक के बाद दूसरा, ठीक क्रमानुसार
- आनुपूर्व्येण—अव्य॰—-—-—एक के बाद दूसरा, ठीक क्रमानुसार
- आनुमानिक—वि॰—-—अनुमान+ठक्—उपसंहार से संबन्ध रखने वाला
- आनुमानिक—वि॰—-—अनुमान+ठक्—अनुमान प्राप्त
- आनुमानिकम्—नपुं॰—-—अनुमान+ठक्—सांख्यों का ‘प्रधान'
- आनुयात्रिकः—पुं॰—-—अनुयात्रा+ठक्—अनुयायी, सेवक, अनुचर
- अनुरक्तिः—स्त्री॰—-—आ+अनु+रञ्ज्+क्तिन्—राग, स्नेह, अनुराग
- आनुलोमिक—वि॰—-—अनुलोम+ठक्—नियमित, क्रमबद्ध
- आनुलोमिक—वि॰—-—अनुलोम+ठक्—अनुकूल
- आनुलोम्यम्—नपुं॰—-—अनुलोम+ष्यञ्—नैसर्गिक या सीधा क्रम, उपयुक्त व्यवस्था
- आनुलोम्यम्—नपुं॰—-—अनुलोम+ष्यञ्—नियमित सिलसिला या परंपरा
- आनुलोम्यम्—नपुं॰—-—अनुलोम+ष्यञ्—अनुकूलता
- आनुवेश्यः—पुं॰—-—अनुवेश+ष्यञ्—वह पड़ोसी जिसका घर अपने घर से एक छोड़कर हो
- आनुषङ्गिक—वि॰—-—अनुषङ्ग+ठक् स्त्रियां ङीप्—संबद्ध, सहवर्ती
- आनुषङ्गिक—वि॰—-—अनुषङ्ग+ठक् स्त्रियां ङीप्—ध्वनित
- आनुषङ्गिक—वि॰—-—अनुषङ्ग+ठक् स्त्रियां ङीप्—अनिवार्य, आवश्यक
- आनुषङ्गिक—वि॰—-—अनुषङ्ग+ठक् स्त्रियां ङीप्—अप्रधान, गौण
- आनुषङ्गिक—वि॰—-—अनुषङ्ग+ठक् स्त्रियां ङीप्—संलग्न, शौकिन
- आनुषङ्गिक—वि॰—-—अनुषङ्ग+ठक् स्त्रियां ङीप्—आपेक्षिप, आनुपातिक
- आनुषङ्गिक—वि॰—-—अनुषङ्ग+ठक् स्त्रियां ङीप्—अध्याहार्य
- आनूप—वि॰—-—अनूपदेशे भवः-अण्—जलीय, दलदलीय, आर्द्र
- आनूप—वि॰—-—अनूपदेशे भवः-अण्—दलदल-भूमि में उत्पन्न
- आनूपः—पुं॰—-—अनूपदेशे भवः-अण्—दलदली भूमि में घूमने वाला पशु
- आनृण्यम्—नपुं॰—-—अनृण+ष्यञ्—ऋणपरिशोध, दायित्व निभाना, उऋणता
- आनृशंस—वि॰—-—अनुशंस्+अण् —मृदु, कृपालु, दयालु
- आनृशंस्य—वि॰—-—अनुशंस्+स्वार्थे ष्यञ्—मृदु, कृपालु, दयालु
- आनृशंसम्—नपुं॰—-—अनुशंस्+अण् —मृदुता
- आनृशंसम्—नपुं॰—-—अनुशंस्+अण् —कृपा
- आनृशंसम्—नपुं॰—-—अनुशंस्+अण् —करुणा, दया, अनुकम्पा
- आनृशंस्यम्—नपुं॰—-—अनुशंस्+स्वार्थे ष्यञ्—मृदुता
- आनृशंस्यम्—नपुं॰—-—अनुशंस्+स्वार्थे ष्यञ्—कृपा
- आनृशंस्यम्—नपुं॰—-—अनुशंस्+स्वार्थे ष्यञ्—करुणा, दया, अनुकम्पा
- आनैपुणम्—नपुं॰—-—अनिपुण+अण्—भद्दापन, जाड्य
- आनैपुण्यम्—नपुं॰—-—अनिपुण+ष्यञ्—भद्दापन, जाड्य
- आन्त—वि॰—-—अन्त+अण् —अन्तिम, अन्त का
- आन्ती—वि॰—-—अन्त+अण्, स्त्रियां ङीप्—अन्तिम, अन्त का
- आन्तम्—अव्य॰—-—-—पूर्णरूप से अन्त तक
- आन्तर—वि॰—-—आन्तर+अण्—आंतरिक, गुप्त, छिपा हुआ
- आन्तर—वि॰—-—आन्तर+अण्—अन्तस्तम अन्तर्वर्ती
- आन्तरम्—नपुं॰—-—आन्तर+अण्—अन्तस्तम स्वभाव
- आन्तरिक्ष—वि॰—-—अन्तरिक्ष+अण्—वायव्य, स्वर्गीय, दिव्य
- आन्तरिक्ष—वि॰—-—अन्तरिक्ष+अण्—वायु में उत्पन्न
- आन्तरीक्ष—वि॰—-—अन्तरिक्ष+अण्—वायव्य, स्वर्गीय, दिव्य
- आन्तरीक्ष—वि॰—-—अन्तरिक्ष+अण्—वायु में उत्पन्न
- आन्तरिक्षी—वि॰—-—अन्तरिक्ष+अण्-स्त्रियां ङीप्—वायव्य, स्वर्गीय, दिव्य
- आन्तरिक्षी—वि॰—-—अन्तरिक्ष+अण्-स्त्रियां ङीप्—वायु में उत्पन्न
- आन्तरीक्षी—वि॰—-—अन्तरिक्ष+अण्-स्त्रियां ङीप्—वायव्य, स्वर्गीय, दिव्य
- आन्तरीक्षी—वि॰—-—अन्तरिक्ष+अण्-स्त्रियां ङीप्—वायु में उत्पन्न
- आन्तरिक्षम्—नपुं॰—-—अन्तरिक्ष+अण्—व्योम, पृथ्वी और आकाश के बीच का प्रदेश
- आन्तरीक्षम्—नपुं॰—-—अन्तरिक्ष+अण्—व्योम, पृथ्वी और आकाश के बीच का प्रदेश
- आन्तर्गणिक—वि॰—-—अन्तर्गण+ठक्—सम्मिलित
- आन्तर्गेहिक—वि॰—-—अन्तर्गेह+ठक्—घर में रहने वाला, या घर में उत्पन्न
- आन्तिका—स्त्री॰—-—अन्तिका+अण्+टाप्—बड़ी बहन
- आन्दोल्—भ्वा॰पर॰<दोलयति>, <दोलित>—-—-—झूलना, इधर से उधर या उधर से इधर स्पन्दन
- आन्दोल्—भ्वा॰पर॰<दोलयति>, <दोलित>—-—-—हिलाना, कंपकंपाना
- आन्दोलः—पुं॰—-—आम्+दोल्+घञ्—झूलना, झूला
- आन्दोलः—पुं॰—-—आम्+दोल्+घञ्—हिलना डुलना
- आन्दोलनम्—नपुं॰—-—आन्दोल+ल्युट्—झूलना
- आन्दोलनम्—नपुं॰—-—आन्दोल+ल्युट्—हिलना-डुलना, स्पंदन, कंपित होना
- आन्दोलनम्—नपुं॰—-—आन्दोल+ल्युट्—कांपना
- आन्धसः—पुं॰—-—अन्धस्+अण्—माँड
- आन्धसिकः—पुं॰—-—अन्धस्+ठक्—रसोइया
- आन्ध्यम्—नपुं॰—-—अन्ध+ष्यञ्—अंधापन
- आन्ध्र—वि॰—-—आ+अध्+रन्—आंध्र देश की
- आन्ध्राः—पुं॰ब॰व॰—-—-—तेलुगू देश, वर्तमान तेलंगाना
- आन्वयिक—वि॰—-—अन्वय+ठक्—प्रतिदिन होने वाला, प्रतिदिन किया जाने वाला
- आन्वीक्षिकी—स्त्री॰—-—अन्वीक्षा+ठञ्+ङीप्—तर्क, तर्कशास्त्र
- आन्वीक्षिकी—स्त्री॰—-—अन्वीक्षा+ठञ्+ङीप्—आत्मविद्या
- आप्—स्वा॰पर॰<आप्नोति>,<आप्त>—-—-—प्राप्त करना, उपलब्ध करना, हासिल करना
- आप्—स्वा॰पर॰<आप्नोति>,<आप्त>—-—-—पहुँचना, जाना, पकड़ लेना, मिलना
- आप्—स्वा॰पर॰<आप्नोति>,<आप्त>—-—-—व्याप्त होना, जगह घेरना
- आप्—स्वा॰पर॰<आप्नोति>,<आप्त>—-—-—भुगतना, कष्ट भोगना, कठिनाइयों का सामना करना
- अनुप्राप्—स्वा॰पर॰—अनुप्र-आप्—-—हासिल करना, प्राप्त करना
- अनुप्राप्—स्वा॰पर॰—अनुप्र-आप्—-—पहुँचना, जाना, पकड़ लेना
- अनुप्राप्—स्वा॰पर॰—अनुप्र-आप्—-—आ पहुँचना, आना
- अवाप्—स्वा॰पर॰—अव-आप्—-—हासिल करना, प्राप्त करना, उपलब्ध करना
- अवाप्—स्वा॰पर॰—अव-आप्—-—पहुँचना, पकड़ लेना
- परिवाप्—स्वा॰पर॰—परि-वाप्—-—समर्थ होना,
- परिवाप्—स्वा॰पर॰—परि-वाप्—-—योग्य होना
- परिवाप्—स्वा॰पर॰—परि-वाप्—-—पूरा होना
- परिवाप्—स्वा॰पर॰—परि-वाप्—-—बचाना, रक्षा करना, परिरक्षण करना
- परिवाप्—स्वा॰पर॰—परि-वाप्—-—काम तमाम करना, समाप्त करना
- प्रवाप्—स्वा॰पर॰—प्र-वाप्—-—हासिल करना, प्राप्त करना
- प्रवाप्—स्वा॰पर॰—प्र-वाप्—-—जाना, पहुँचना
- प्रवाप्—स्वा॰पर॰—प्र-वाप्—-—मिल जाना, पकड़ लेना
- विवाप्—स्वा॰पर॰—वि-वाप्—-—पू्री तरह से भर देना, व्याप्त हो जाना
- संवाप्—स्वा॰पर॰—सम्-वाप्—-—हासिल करना, प्राप्त करना
- संवाप्—स्वा॰पर॰—सम्-वाप्—-—समाप्त करना, पूरा करना
- आपकर—वि॰—-—अपकर + अण्, अञ् वा—अनिष्टकर, अमैत्रीपूर्ण, बुराई करने वाला
- आपक्व—वि॰—-—आ + पच् +क्त—अनपका, अधपका
- आपक्वम्—नपुं॰—-—आ + पच् +क्त—चपाती, रोटी
- आपगा—स्त्री॰—-—अपां समूहः आपम्, तेन गच्छति-गम्+ड—दरिया, नदी
- आपगेयः—पुं॰—-—आपगा+ढक्—दरिया का पुत्र, भीष्म या कृष्ण की उपाधि
- आपणः—पुं॰—-—आपण+घञ्—मंडी, दुकान
- आपणिक—वि॰—-—आपण+ठक्—व्यापार या मंडी से सम्बन्ध रखने वाला, व्यापारिक
- आपणिक—वि॰—-—आपण+ठक्—मंडी से प्राप्त किया हुआ
- आपणिकः—पुं॰—-—आपण+ठक्—दुकानदार, सौदागर, वितरक या विक्रेता
- आपतनम्—नपुं॰—-—आ+पत्+ल्युट्—निकट आना, टूट पड़ना
- आपतनम्—नपुं॰—-—आ+पत्+ल्युट्—घटित होना, घटना
- आपतनम्—नपुं॰—-—आ+पत्+ल्युट्—प्राप्त करना
- आपतनम्—नपुं॰—-—आ+पत्+ल्युट्—ज्ञान
- आपतनम्—नपुं॰—-—आ+पत्+ल्युट्—नैसर्गिक क्रम, स्वाभाविक परिणाम
- आपतिक—वि॰—-—आपत्+इकन्—आकस्मिक, अदृष्ट, दैवी
- आपतिकः—पुं॰—-—आपत्+इकन्—बाज, श्येन
- आपत्तिः—स्त्री॰—-—आ+पद्+क्तिन्—बदलना, परिवर्तित होना
- आपत्तिः—स्त्री॰—-—आ+पद्+क्तिन्—प्राप्त करना, उपलब्ध करना, हासिल करना
- आपत्तिः—स्त्री॰—-—आ+पद्+क्तिन्—मुसीबत, संकट
- आपत्तिः—स्त्री॰—-—आ+पद्+क्तिन्—अवांछित उपसंहार या अनिष्ट प्रसंग
- आपद्—स्त्री॰—-—आ+पद्+क्विप्—संकट, मुसीबत्, ख़तरा
- आपत्कालः—पुं॰—आपद्-कालः—-—विपत्ति के दिन, कष्ट का समय
- आपद्गत—वि॰—आपद्-गत—-—मुसीबत में पड़ा हुआ
- आपद्गत—वि॰—आपद्-गत—-—दुर्भाग्य-ग्रस्त, पीड़ित
- आपद्ग्रस्त—वि॰—आपद्-ग्रस्त—-—मुसीबत में पड़ा हुआ
- आपद्ग्रस्त—वि॰—आपद्-ग्रस्त—-—दुर्भाग्य-ग्रस्त, पीड़ित
- आपत्प्राप्त—वि॰—आपद्-प्राप्त—-—मुसीबत में पड़ा हुआ
- आपत्प्राप्त—वि॰—आपद्-प्राप्त—-—दुर्भाग्य-ग्रस्त, पीड़ित
- आपद्धर्मः—स्त्री॰—आपद्-धर्मः—-—अत्यन्त कष्ट या संकट के समय अनुमति दिये जाने योग्य आचरण या वृत्ति, या कोई कार्य विधि जो प्रायः किसी वर्ण या जाति के लिए उपयुक्त न हो
- आपदा—पुं॰—-—आपद्+टाप्—मुसीबत, संकट
- आपनिकः—पुं॰—-—आ+पन्+इकन्—पन्ना, नीलम्
- आपनिकः—पुं॰—-—आ+पन्+इकन्—किरात या असभ्य व्यक्ति
- आपन्न—भू॰क॰कृ॰—-—आ+पद्+क्त—लब्ध, प्राप्त
- आपन्न—भू॰क॰कृ॰—-—आ+पद्+क्त—गया हुआ, कम हुआ, ग्रस्त
- दुखापन्न—वि॰—दुख-आपन्न—-—पीड़ित, कष्टग्रस्त, कठिनाई में फँसा हुआ
- आपन्नसत्त्वा—वि॰—आपन्न-सत्त्वा—-—गर्भवती, गर्भगुर्वी, गर्भवती स्त्री
- आपमित्यक—वि॰—-—अपमित्य परिवर्त्य निर्वृत्तम्-कक्—विनिमय द्वारा प्राप्त
- आपमित्यकम्—नपुं॰—-—अपमित्य परिवर्त्य निर्वृत्तम्-कक्—विनिमय द्वारा प्राप्त वस्तु या सम्पत्ति
- आपराह्णिक—वि॰—-—अपराह्ण+ठञ्—तीसरे पहर होने वाला
- आपस्—नपुं॰—-—आप्+असुन—जल
- आपस्—नपुं॰—-—आप्+असुन—पाप
- आपातः—पुं॰—-—आ+पत्+घञ्—टूट पड़ना, गिर पड़ना, हमला करना, आ धमकना, उतरना
- आपातः—पुं॰—-—आ+पत्+घञ्—उतरना, गिरना, नीचे डालना
- आपातः—पुं॰—-—आ+पत्+घञ्—वर्तमान काल या क्षण
- आपातः—पुं॰—-—आ+पत्+घञ्—घटित होना, प्रकट होना
- आपाततः—अव्य॰—-—आपात+तसिल्—पहली निगाह में, हमला करते ही, तुरंत
- आपादः—पुं॰—-—आ+पद्+घञ्—अवाप्ति, प्राप्ति
- आपादः—पुं॰—-—आ+पद्+घञ्—पारितोषिक, पारिश्रमिक
- आपादनम्—नपुं॰—-—आ+पद्+णिच्+ल्युट्—पहुँचाना, प्रकाशित करना, झुकाव होना
- आपानम्—नपुं॰—-—आ+पा+ल्युट्—मद्यपों की मंडली, पानगोष्ठी
- आपानम्—नपुं॰—-—आ+पा+ल्युट्—मद्यशाला, मदिरालय
- आपानकम्—नपुं॰—-—आ+पा+ल्युट्—मद्यपों की मंडली, पानगोष्ठी
- आपानकम्—नपुं॰—-—आ+पा+ल्युट्—मद्यशाला, मदिरालय
- आपालिः—पुं॰—-—आ+पा+क्विप्=आपा, तदर्थमलति-अल्+इन्—जूँ
- आपीडः—पुं॰—-—आ+पीड्+घञ्, अच् वा—पीड़ा देना, चोट पहुँचाना
- आपीडः—पुं॰—-—आ+पीड्+घञ्, अच् वा—निचोड़ना, भींचना
- आपीडः—पुं॰—-—आ+पीड्+घञ्, अच् वा—कण्ठहार, माला
- आपीडः—पुं॰—-—आ+पीड्+घञ्, अच् वा—मुकुटमणि
- आपीन—भू॰क॰कृ॰—-—आ+प्यै+क्त—बलवान, मोटा, सबल
- आपीनः—पुं॰—-—आ+प्यै+क्त—कुआँ
- आपीनम्—नपुं॰—-—आ+प्यै+क्त—ऐन, थन का अग्रभाग
- आपूपिक—वि॰—-—अपूप+ठक्—अच्छे पूए बनाने वाला
- आपूपिक—वि॰—-—अपूप+ठक्—जिसे पूए अधिक पसंद हों
- आपूपिकः—पुं॰—-—अपूप+ठक्—पूए बनाने वाला, हलवाई
- आपूपिकम्—नपुं॰—-—अपूप+ठक्—पूओं का ढेर
- आपूप्यः—पुं॰—-—अपूपाय साधुः बा॰ य, अपूप+ञ्य वा—आटा
- आपूरः—पुं॰—-—आ+ पृ+घञ्—प्रवाह, धारा, परिमाण
- आपूरः—पुं॰—-—आ+ पृ+घञ्—भरना, पूरा भरना
- आपूरणम्—नपुं॰—-—आ+ पृ+ल्युट्—भरना, भर कर पूरा कर देना
- आपूषम्—नपुं॰—-—आ+पूष्+घञ्—धातु की एक प्रकार
- आपृच्छा—स्त्री॰—-—आ+प्रच्छ्+अङ्+टाप्—समालाप
- आपृच्छा—स्त्री॰—-—आ+प्रच्छ्+अङ्+टाप्—बिदा करना
- आपृच्छा—स्त्री॰—-—आ+प्रच्छ्+अङ्+टाप्—जिज्ञासा
- आपोशानः—पुं॰—-—आपसा जलेन अशानम् इति-अश्+आनच्—भोजन से पूर्व और पश्चात् आचमन करने के मंत्र
- आपोशानम्—नपुं॰—-—आपस्+अश्+आनच्—भोजन के लिए स्थान बनाना, तथा भोजन को ढक देना
- आप्त—भू॰क॰कृ॰—-—आप्+क्त—हासिल किया, प्राप्त किया, उपलब्ध किया
- आप्त—भू॰क॰कृ॰—-—आप्+क्त—पहुँचा हुआ, जो पकड़ा हुआ
- आप्त—भू॰क॰कृ॰—-—आप्+क्त—विश्वास योग्य, विश्वसनीय, प्रामाणिक
- आप्त—भू॰क॰कृ॰—-—आप्+क्त—विश्वस्त, गोपनीय, निष्ठावान्
- आप्त—भू॰क॰कृ॰—-—आप्+क्त—घनिष्ठ, सुपरिचित
- आप्त—भू॰क॰कृ॰—-—आप्+क्त—तर्कसंगत, समझदारी से युक्त
- आप्तः—पुं॰—-—आप्+क्त—विश्वास योग्य, विश्वसनीय, योग्य व्यक्ति, विश्वस्त पुरुष या साधन
- आप्तः—पुं॰—-—आप्+क्त—सम्बन्धी मित्र
- आप्तम्—नपुं॰—-—आप्+क्त—लब्धि
- आप्तम्—नपुं॰—-—आप्+क्त—आघातसाम्य
- आप्तकाम—वि॰—आप्तम्-काम— —जिसने अपनी इच्छा पूर्ण कर ली हो
- आप्तकाम—वि॰—आप्तम्-काम—-—जिसने सांसारिक इच्छाओं और आसक्तियों का त्याग कर दिया है
- आप्तकामः—पुं॰—-—-—परमात्मा
- आप्तगर्भा—स्त्री॰—आप्त-गर्भा—-—गर्भवती स्त्री
- आप्तवचनम्—नपुं॰—आप्त-वचनम्—-—किसी विश्वास योग्य या विश्वस्त व्यक्ति के शब्द
- आप्तवाच्—पुं॰—आप्त-वाच्—-—विश्वास के योग्य, जिसके शब्द प्रामाणिक और विश्वसनीय होते हैं
- आप्तवाच्—स्त्री॰—आप्त-वाच्—-—किसी मित्र या विश्वसनीय पुरुष की सलाह
- आप्तवाच्—स्त्री॰—आप्त-वाच्—-—वेद, श्रुति, प्रामाणिक वचन
- आप्तश्रुतिः—स्त्री॰—आप्त-श्रुतिः—-—वेद
- आप्तश्रुतिः—स्त्री॰—आप्त-श्रुतिः—-—स्मृतियाँ
- आप्तिः—स्त्री॰—-—आप्+क्तिन्—हासिल करना, प्राप्त करना, लाभ, अधिग्रहण
- आप्तिः—स्त्री॰—-—आप्+क्तिन्—जा पहुँचना, ग्रस्त होना
- आप्तिः—स्त्री॰—-—आप्+क्तिन्—योग्यता, अभिवृत्ति, औचित्य
- आप्तिः—स्त्री॰—-—आप्+क्तिन्—सम्पूर्ति पूरा करना
- आप्य—वि॰—-—अपाम् इदम्- अण्, ततः स्वार्थे ष्यञ्—जलमय
- आप्य—वि॰—-—आप्+ण्यत्—प्राप्त करने योग्य, प्राप्य
- आप्यान—भू॰क॰कृ॰—-—आ+प्याय्+क्त—मोटा, बलवान्, हृष्टपुष्ट, ताकतवर
- आप्यान—भू॰क॰कृ॰—-—आ+प्याय्+क्त—प्रसन्न, संतुष्ट
- आप्यानम्—नपुं॰—-—आ+प्याय्+क्त—प्रेम
- आप्यानम्—नपुं॰—-—आ+प्याय्+क्त—बृद्धि, बढ़ना
- आप्यायनम्—नपुं॰—-—आ+प्याय्+ल्युट्, युच् वा—पूरा भरना, मोटा करना
- आप्यायनम्—नपुं॰—-—आ+प्याय्+ल्युट्, युच् वा—संतोष, तृप्ति
- आप्यायनम्—नपुं॰—-—आ+प्याय्+ल्युट्, युच् वा—आगे बढ़ना, पदोन्नति करना
- आप्यायनम्—नपुं॰—-—आ+प्याय्+ल्युट्, युच् वा—मोटापा
- आप्यायनम्—नपुं॰—-—आ+प्याय्+ल्युट्, युच् वा—बल-वर्धक औषधि
- आप्रच्छनम्—नपुं॰—-—आ+प्रच्छ्+ल्युट्—बिदा करना, बिदा माँगना
- आप्रच्छनम्—नपुं॰—-—आ+प्रच्छ्+ल्युट्—स्वागत करना, सत्कार करना
- आप्रपदीन—वि॰—-—अप्रपदं व्याप्नोति-ख—पैरों तक पहुँचानेवाला
- आप्लवः—पुं॰—-—आ+प्लु+अप्, ल्युट् वा —स्नान करना, पानी में डुबा देना
- आप्लवः—पुं॰—-—आ+प्लु+अप्, ल्युट् वा —चारों ओर पानी का छिड़काव करना
- आप्लवनम्—नपुं॰—-—आ+प्लु+अप्, ल्युट् वा —स्नान करना, पानी में डुबा देना
- आप्लवनम्—नपुं॰—-—आ+प्लु+अप्, ल्युट् वा —चारों ओर पानी का छिड़काव करना
- आप्लवव्रतिन्—पुं॰—आप्लवः-व्रतिन्—-—दीक्षित गृहस्थ
- आप्लुतव्रतिन्—पुं॰—आप्लुत-व्रतिन्—-—दीक्षित गृहस्थ
- आप्लावः—पुं॰—-—आ+प्लु+घञ्—स्नान
- आप्लावः—पुं॰—-—आ+प्लु+घञ्—छिड़काव
- आप्लावः—पुं॰—-—आ+प्लु+घञ्—बाढ़, जल-प्लावन
- आफूकम्—नपुं॰—-—ईषत्फूत्कार इव फेनोऽत्र-पृषो॰—अफीम
- आबद्ध—भू॰क॰कृ॰—-—आ+बन्ध्+क्त—बाँधा हुआ, बँधा हुआ
- आबद्ध—भू॰क॰कृ॰—-—आ+बन्ध्+क्त—जमाया हुआ
- आबद्ध—भू॰क॰कृ॰—-—आ+बन्ध्+क्त—निर्मित, बना हुआ
- आबद्ध—भू॰क॰कृ॰—-—आ+बन्ध्+क्त—प्राप्त
- आबद्ध—भू॰क॰कृ॰—-—आ+बन्ध्+क्त—बाधित
- आबद्धः—पुं॰—-—आ+बन्ध्+क्त—बाँधना, जोड़ना
- आबद्धः—पुं॰—-—आ+बन्ध्+क्त—जूवा
- आबद्धः—पुं॰—-—आ+बन्ध्+क्त—आभूषणम्
- आबद्धः—पुं॰—-—आ+बन्ध्+क्त—स्नेह
- आबद्धम्—नपुं॰—-—आ+बन्ध्+क्त—बाँधना, जोड़ना
- आबद्धम्—नपुं॰—-—आ+बन्ध्+क्त—जूवा
- आबद्धम्—नपुं॰—-—आ+बन्ध्+क्त—आभूषणम्
- आबद्धम्—नपुं॰—-—आ+बन्ध्+क्त—स्नेह
- आबन्धः—पुं॰—-—आ+बन्ध्+घञ्,ल्युट् वा—बन्ध, बन्धान
- आबन्धः—पुं॰—-—आ+बन्ध्+घञ्,ल्युट् वा—जूवे की रस्सी
- आबन्धः—पुं॰—-—आ+बन्ध्+घञ्,ल्युट् वा—आभूषण, सजावट
- आबन्धः—पुं॰—-—आ+बन्ध्+घञ्,ल्युट् वा—स्नेह
- आबन्धनम्—नपुं॰—-—आ+बन्ध्+घञ्,ल्युट् वा—बन्ध, बन्धान
- आबन्धनम्—नपुं॰—-—आ+बन्ध्+घञ्,ल्युट् वा—जूवे की रस्सी
- आबन्धनम्—नपुं॰—-—आ+बन्ध्+घञ्,ल्युट् वा—आभूषण, सजावट
- आबन्धनम्—नपुं॰—-—आ+बन्ध्+घञ्,ल्युट् वा—स्नेह
- आबर्हः—पुं॰—-—आ+बर्ह्+घञ्—फाड़ डालना, खींचकर बाहर निकालना
- आबर्हः—पुं॰—-—आ+बर्ह्+घञ्—मार डालना
- आबाधः—पुं॰—-—आ+बाध्+घञ्—कष्ट, चोट, तकलीफ, सताना, हानि
- आबाधा—स्त्री॰—-—आ+बाध्+घञ्+टाप्—पीड़ा, दुःख
- आबाधा—स्त्री॰—-—आ+बाध्+घञ्+टाप्—मानसिक वेदना, आधि
- आबुत्त—पुं॰—-—आप्+क्विप्, आपमुत्तनोति इति उद्+तन्+ड—बहनोई, जीजा
- आबोधनम्—नपुं॰—-—आ+बुध्+ल्युट्—झान, समझदारी
- आबोधनम्—नपुं॰—-—आ+बुध्+ल्युट्—शिक्षण, सूचन
- आब्द—वि॰—-—अब्द+अण्—बादल संबंधी या बादल से उत्पन्न
- आब्दिक—वि॰—-—अब्द+ठञ्, स्त्रियां ङीप्—वार्षिक, सालाना
- आभरणम्—नपुं॰—-—आ+भृ+ल्युट्—आभूषण,सजावट
- आभरणम्—नपुं॰—-—आ+भृ+ल्युट्—पालन पोषण करना
- आभा—स्त्री॰—-—आ+भा+अङ्—प्रकाश, चमक, कान्ति
- आभा—स्त्री॰—-—आ+भा+अङ्—वर्ण, आभास, रूप
- आभा—स्त्री॰—-—आ+भा+अङ्—सादृश्य, मिलना-जुलना
- आभा—स्त्री॰—-—आ+भा+अङ्—प्रतिबिम्बित प्रतिमा, छाया, प्रतिबिम्ब
- आभाणकः—पुं॰—-—आ+भण्+ण्वुल्—कहावत, लोकोक्ति
- आभाषः—पुं॰—-—आ+भाष्+घञ्—सम्बोधन
- आभाषः—पुं॰—-—आ+भाष्+घञ्—प्रस्तावना, भूमिका
- आभाषणम्—नपुं॰—-—आ+भाष्+ल्युट्—सम्बोधित करना, सम्बोधन
- आभाषणम्—नपुं॰—-—आ+भाष्+ल्युट्—समालाप
- आभासः—पुं॰—-—आ+भास्+अच्—चमक, प्रकाश, कान्ति
- आभासः—पुं॰—-—आ+भास्+अच्—प्रतिबिम्ब
- आभासः—पुं॰—-—आ+भास्+अच्—मिलना-जुलना, समानता
- आभासः—पुं॰—-—आ+भास्+अच्—आकृति, छाया पुरुष
- आभासः—पुं॰—-—आ+भास्+अच्—अवास्तविक या आभासी रूप
- आभासः—पुं॰—-—आ+भास्+अच्—हेत्वाभास, तर्क का रूप
- आभासः—पुं॰—-—आ+भास्+अच्—आशय, प्रयोजन
- आभासुर—वि॰—-—-—शानदार, उज्ज्वल
- आभास्वर—वि॰—-—-—शानदार, उज्ज्वल
- आभासुरः—पुं॰—-—-—६४ उपदेवताओं का समुदाय वाचक नाम
- आभास्वरः—पुं॰—-—-—६४ उपदेवताओं का समुदाय वाचक नाम
- आभिचारिक—वि॰—-—अभिचार+ठक्—जादू सम्बन्धी
- आभिचारिक—वि॰—-—अभिचार+ठक्—अभिशापात्मक, अभिशापपूर्ण
- आभिचारिकम्—नपुं॰—-—अभिचार+ठक्—अभिचार, इन्द्रजाल, जादू
- आभिजन—वि॰—-—अभिजन+अण्—जन्म से संबन्ध रखने वाला, कुलसूचक
- आभिजनी—स्त्री॰—-—अभिजन+अण्, स्त्रियां ङीप्—जन्म से संबन्ध रखने वाला, कुलसूचक
- आभिजनम्—नपुं॰—-—-—कुलीनता, उच्च कुल में जन्म
- आभिजात्यम्—नपुं॰—-—अभिजात+ष्यञ्—जन्म की श्रेष्ठता
- आभिजात्यम्—नपुं॰—-—अभिजात+ष्यञ्—कुलीनता
- आभिजात्यम्—नपुं॰—-—अभिजात+ष्यञ्—पांडित्य
- आभिजात्यम्—नपुं॰—-—अभिजात+ष्यञ्—सौंदर्य
- आभिधा—स्त्री॰—-—अभिधा+अण्—ध्वनि, शब्द
- आभिधा—स्त्री॰—-—अभिधा+अण्—नाम, वर्णन
- आभिधा—स्त्री॰—-—अभिधा+अण्—शाब्दिक शक्ति या शब्दार्थ,संकेतन,शब्द की तीन शक्तियों में से एक
- आभिधानिक—वि॰—-—अभिधान+ठक्—जो किसी शब्द-कोश में हो
- आभिधानिकः—पुं॰—-—अभिधान+ठक्—कोशकार
- आभिमुख्यम्—नपुं॰—-—अभिमुख+ष्यञ्—किसी के संमुख होना
- आभिमुख्यम्—नपुं॰—-—अभिमुख+ष्यञ्—के सामने होना, आमने सामने
- आभिमुख्यम्—नपुं॰—-—अभिमुख+ष्यञ्—अनुकूलता
- आभिरूपकम्—नपुं॰—-—अभिरूप+वुञ्, ष्यञ् वा—सौंदर्य, लावण्य
- आभिरूप्यम्—नपुं॰—-—अभिरूप+वुञ्, ष्यञ् वा—सौंदर्य, लावण्य
- आभिषेचनिक—वि॰—-—अभिषेचन+ठञ्—राजतिलक से संबंध रखने वाला
- आभिहारिक—वि॰—-—अभिहार+ठञ्—उपहार के रूप में देय
- आभिहारिकम्—नपुं॰—-—अभिहार+ठञ्—भेंट, उपहार
- आभीक्ष्ण्यम्—नपुं॰—-—अभीक्ष्णस्य भावः-ष्यञ्—अनवरत आवृत्ति
- आभीरः—पुं॰—-—आ समन्तअत् भियं राति-रा+क तारा॰—ग्वाला
- आभीरः—पुं॰ब॰ व॰—-—-—एक देश तथा उसके निवासी
- आभीरी—स्त्री॰—-—-—ग्वाले की पत्नी
- आभीरी—स्त्री॰—-—-—आभीर जाति की स्त्री
- आभीरपल्लिः—स्त्री॰—आभीरः-पल्लिः—-—ग्वालों का आवासस्थान, ग्वालों के रहने का गाँव
- आभीरपल्ली—स्त्री॰—आभीरः-पल्ली—-—ग्वालों का आवासस्थान, ग्वालों के रहने का गाँव
- आभीरपल्लिका—स्त्री॰—आभीरः-पल्लिका—-—ग्वालों का आवासस्थान, ग्वालों के रहने का गाँव
- आभील—वि॰—-—आभियं लाति ददाति-ला+क—भयानक , भीषण
- आभीलम्—नपुं॰—-—आभियं लाति ददाति-ला+क—चोट, शारीरिक पीड़ा
- आभुग्न—वि॰—-—आ+भुज्+क्त—कुछ मुड़ा हुआ या झुका हुआ
- आभोगः—पुं॰—-—आ+भुज्+घञ्—घेरा, परिधि, विस्तार, विस्तारण, परिसर, पर्यावरण
- आभोगः—पुं॰—-—आ+भुज्+घञ्—लंबाई-चौड़ाई, परिमाण
- आभोगः—पुं॰—-—आ+भुज्+घञ्—प्रयत्न
- आभोगः—पुं॰—-—आ+भुज्+घञ्—साँप का विस्तृत फण
- आभोगः—पुं॰—-—आ+भुज्+घञ्—उपभोग, तृप्ति
- आभ्यान्तर—वि॰—-—अभ्यन्तर+अण्—भीतरी, आन्तरीक, अंदरूनी
- आभ्यवहारिक—वि॰—-—अभ्यवहार+ठक्—भोज्य, खाने के योग्य
- आभ्यासिक—वि॰—-—अभ्यास+ठक्—अभ्यासजनित
- आभ्यासिक—वि॰—-—अभ्यास+ठक्—अभ्यास करने वाला, दोहराने वाला
- आभ्यासिक—वि॰—-—अभ्यास+ठक्—निकटस्थ, पड़ौस में रहने वाला, संलग्न
- आभ्युदयिक—वि॰—-—अभ्युदय+ठक्—मङ्गलोन्मुख, समृद्धिजनक
- आभ्युदयिक—वि॰—-—अभ्युदय+ठक्—उन्नत, गौरवशाली, महत्त्वपूर्ण
- आभ्युदयिकम्—नपुं॰—-—अभ्युदय+ठक्—श्राद्ध या पितरों को भेंट या उपहार, हर्ष का अवसर
- आम्—अव्य॰—-—अम्+णिच्-बा॰ ह्रस्वाभावः-ततः क्विप्—अंगीकरण, स्वीकृति
- आम्—अव्य॰—-—-—प्रत्यास्मरण
- आम्—अव्य॰—-—-—निश्चयेन 'निश्चय ही' 'अवश्य ही'
- आम्—अव्य॰—-—-—उत्तर
- आम—वि॰—-—आम्यते ईषत् पच्यते - आ+अम्+कर्मणि घञ् - तारा॰—कच्चा, अनपका, अपक्व
- आम—वि॰—-—आम्यते ईषत् पच्यते - आ+अम्+कर्मणि घञ् - तारा॰—हरा, अपरिपक्व
- आम—वि॰—-—आम्यते ईषत् पच्यते - आ+अम्+कर्मणि घञ् - तारा॰—आवे में न पकाया हुआ अनाज
- आमाशयः—पुं॰—आम-आशयः—-—अनपचे भोजन का स्थान, उदर का ऊपरी भाग, पेट
- आमकुम्भः—पुं॰—आम-कुम्भः—-—कच्ची मिट्टी का घड़ा
- आमगन्धि—नपुं॰—आम-गन्धि—-—कच्चे मांस या शव की जलने की दुर्गंध
- आमज्वरः—पुं॰—आम-ज्वरः—-—एक प्रकार का बुखार
- आमत्वच्—वि॰—आम-त्वच्—-—कोमल त्वचा वाला
- आमपात्रम्—नपुं॰—आम-पात्रम्—-—बिना तपाया हुआ बर्तन
- आमरक्तम्—नपुं॰—आम-रक्तम्—-—पेचिश
- आमरसः—पुं॰—आम-रसः—-—आमाशय में बनने वाला भोजन का अम्ल
- आमवातः—पुं॰—आम-वातः—-—कब्ज
- आमशूलः—पुं॰—आम-शूलः—-—अजीर्ण की पीड़ा, गुर्दे का दर्द
- आमञ्जू—वि, पुं॰—-—-—प्रिय, मनोहर
- आमण्डः—पुं॰—-—-—एरंड का पौधा
- आमनस्यम्—नपुं॰—-—अमनस्+ष्यञ्—पीडा, शोक
- आमानस्यम्—नपुं॰—-—अमनस्+ष्यञ्—पीडा, शोक
- आमन्त्रणम्—नपुं॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—संबोधित करना, बुलाना, आवाज देना
- आमन्त्रणम्—नपुं॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—बिदा लेना, बिदा होना
- आमन्त्रणम्—नपुं॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—अभिवादन
- आमन्त्रणम्—नपुं॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—निमन्त्रण
- आमन्त्रणम्—नपुं॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—अनुमति
- आमन्त्रणम्—नपुं॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—समालाप
- आमन्त्रणम्—नपुं॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—संबोधन कारक
- आमन्त्रणा—स्त्री॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—संबोधित करना, बुलाना, आवाज देना
- आमन्त्रणा—स्त्री॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—बिदा लेना, बिदा होना
- आमन्त्रणा—स्त्री॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—अभिवादन
- आमन्त्रणा—स्त्री॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—निमन्त्रण
- आमन्त्रणा—स्त्री॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—अनुमति
- आमन्त्रणा—स्त्री॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—समालाप
- आमन्त्रणा—स्त्री॰—-—आ+मन्त्र+णिच्+ल्युट्, युच् वा—संबोधन कारक
- आमन्द्र—वि॰—-—आ+मन्द्र्+अच्—कुछ गम्भीर स्वर वाला, गड़गड़ाहट करने वाला
- आमन्द्रः—पुं॰—-—आ+मन्द्र्+अच्—जरा गंभीर स्वर, गड़गड़ाहट
- आमयः—पुं॰—-—आ+मी+करणे अच् - तारा॰, अअमेन वा अय्यते इति आमयः—रोग, बीमारी, मनोव्यथा
- आमयः—पुं॰—-—आ+मी+करणे अच् - तारा॰, अअमेन वा अय्यते इति आमयः—हानि, क्षति
- आमयाविन्—वि॰—-—आमय+विन् नि॰—बीमार, मंदाग्निपीडित, अग्निमांद्य रोग से ग्रस्त
- आमरणान्त—वि॰—-—प्रा॰ स॰ आमरणे अन्तो यस्य - ब॰ स॰—मृत्यु पर्यंत रहने वाला, आजीवन
- आमरणान्तिक—वि॰—-—प्रा॰ स॰ आमरणे अन्तो यस्य - ब॰ स॰—मृत्यु पर्यंत रहने वाला, आजीवन
- आमर्दः—पुं॰—-—आ+मृद्+घञ्—कुचलना, मसलना, निचोड़ना
- आमर्दः—पुं॰—-—आ+मृद्+घञ्—विषम व्यवहार
- आमर्शः—पुं॰—-—आ+मृश्+घञ्—स्पर्श करना, रगड़ना
- आमर्शः—पुं॰—-—आ+मृश्+घञ्—सलाह, परामर्श
- आमर्षः—पुं॰—-—आ+मृष्+घञ्—क्रोध, कोप, असहनशीलता
- आमर्षः—पुं॰—-—आ+मृष्+घञ्—असहिष्णुता,असहनशीलता,धैर्यशून्यता,ईर्ष्या, ईर्ष्यायुक्त क्रोध,
- आमर्षः—पुं॰—-—आ+मृष्+घञ्—आवेश
- आमर्षणम्—नपुं॰—-—आ+मृष्+ल्युट् —क्रोध, कोप, असहनशीलता
- आमलकः—पुं॰—-—आ+मल्+वुन्-स्त्रियां ङीप्—आँवले का वृक्ष
- आमलकी—स्त्री॰—-—आ+मल्+वुन्-स्त्रियां ङीप्—आँवले का वृक्ष
- आमलकम्—नपुं॰—-—आ+मल्+वुन्—आँवला
- आमात्यः—पुं॰—-—आमात्य+अण्—मंत्री, परामर्शदाता
- आमात्यः—पुं॰—-—आमात्य+अण्—राजा का सहचर,या अनुयायी,मंन्त्री,
- आमानस्यम्—नपुं॰—-—अमानस+ष्यञ्—पीड़ा, शोक
- आमिक्षा—स्त्री॰—-—आमिष्यते सिच्यते-मिष्+सक्-तारा॰—जमा हुआ दूध वा छाछ, उबले और फटे दूध का मिश्रण, छेना
- आमिषम्—नपुं॰—-—अम्+टिषच्, दीर्घश्च—मांस
- आमिषम्—नपुं॰—-—अम्+टिषच्, दीर्घश्च—शिकार, बलि, उपभोग्य वस्तु, शिकार को गया
- आमिषम्—नपुं॰—-—अम्+टिषच्, दीर्घश्च—आहार, शिकार के लिए चारा
- आमिषम्—नपुं॰—-—अम्+टिषच्, दीर्घश्च—रिश्वत
- आमिषम्—नपुं॰—-—अम्+टिषच्, दीर्घश्च—इच्छा, लालसा
- आमिषम्—नपुं॰—-—अम्+टिषच्, दीर्घश्च—उपभोग, सुखद और प्रिय वस्तु
- आमीलनम्—नपुं॰—-—आ+मील्+ल्युट्—आँखों का बन्द करना या मूंदना
- आमुक्तिः—स्त्री॰—-—आ+मुच्+क्तिन्—पहनना, धारण करना
- आमुखम्—नपुं॰—-—-—आरंभ
- आमुखम्—नपुं॰—-—-—प्राक्कथन, प्रस्तावना
- आमुखम्—अव्य॰—-—-—मुंह के सामने
- आमुष्मिक—वि॰—-—-—परलोक से संबंध रखने वाला
- आमुष्यायण—वि॰—-—अमुष्य ख्यातस्यापत्यं नडामुष्याअयण फक् अलुक्—सत्कुल में उत्पन्न, ऐसे उच्चवंशीय व्यक्ति का पुत्र या सुविख्यात कुल में उत्पन्न
- आमुष्यायणः—पुं॰—-—अमुष्य ख्यातस्यापत्यं नडामुष्याअयण फक् अलुक्—सत्कुल में उत्पन्न, ऐसे उच्चवंशीय व्यक्ति का पुत्र या सुविख्यात कुल में उत्पन्न
- आमोचनम्—नपुं॰—-—आ+मुच्+ल्युट्—ढीला करना, स्वतंत्र करना
- आमोचनम्—नपुं॰—-—आ+मुच्+ल्युट्—उत्सर्जन, निकालना, सेवामुक्त करना
- आमोचनम्—नपुं॰—-—आ+मुच्+ल्युट्—धारण करना, सांटना
- आमोटनम्—नपुं॰—-—आ+मुट्+ल्युट्—कुचलना
- आमोदः—पुं॰—-—आ+मुद्+घञ्—हर्ष, प्रसन्नता, खुशी
- आमोदः—पुं॰—-—आ+मुद्+घञ्—सुगंध, सौरभ
- आमोदन—वि॰—-—आ+मुद्+ल्युट्—खुश करने वाला, प्रसन्न करने वाला
- आमोदनम्—नपुं॰—-—आ+मुद्+ल्युट्—खुशी, प्रसन्नता
- आमोदनम्—नपुं॰—-—आ+मुद्+ल्युट्—सुगन्धित करना
- आमोदिन्—वि॰—-—आ+मुद्+णीनि—प्रसन्न
- आमोदिन्—वि॰—-—आ+मुद्+णीनि—सुगन्धित
- आमोषः—पुं॰—-—आ+मुष्+घञ्—चोरी, डाका
- आमोषिन्—पुं॰—-—आ+मुष्+णिनि—चोर
- आम्नात—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+म्ना+क्त—विचार किया हुआ, सोचा हुआ, कथित
- आम्नात—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+म्ना+क्त—अधीत, आवृत्त
- आम्नात—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+म्ना+क्त—प्रत्यास्मृत
- आम्नात—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+म्ना+क्त—परम्पराप्राप्त
- आम्नातम्—नपुं॰—-—आ+म्ना+क्त—अध्ययन
- आम्नानम्—नपुं॰—-—आ+म्ना+ल्युट्—वेद या धर्मग्रंथो का सस्वर पाठ
- आम्नानम्—नपुं॰—-—आ+म्ना+ल्युट्—उल्लेख, आवृत्ति
- आम्नायः—पुं॰—-—आ+म्ना+घञ्—पुण्य-परम्परा
- आम्नायः—पुं॰—-—आ+म्ना+घञ्—अतः वेद, सांगिपांग वेद
- आम्नायः—पुं॰—-—आ+म्ना+घञ्—परम्परा प्राप्त प्रचलन, कुल या राष्ट्रीय प्रथाएँआदत्त सिद्धान्त
- आम्नायः—पुं॰—-—आ+म्ना+घञ्—परामर्श या शिक्षण
- आम्बिकेयः—पुं॰—-—अम्बिका+ढक्—धृतराष्ट्र और कार्तिकेय की उपाधि
- आम्भसिक—वि॰—-—-—जलीय
- आम्भसिकः—पुं॰—-—-—मछली
- आम्रः—पुं॰—-—अम्+रम्+दीर्घः—आम का वृक्ष
- आम्रम्—नपुं॰—-—अम्+रम्+दीर्घः—आम का फल
- आम्रकूटः—पुं॰—आम्रः-कूटः—-—एक पहाड़ का नाम
- आम्रपेशी—स्त्री॰—आम्रः-पेशी—-—अमचूर, अमावट
- आम्रवणम्—नपुं॰—आम्रः-वणम्—-—आमों का बाग, अमराई
- आम्रातः—पुं॰—-—आम्रं आम्ररसं अतति - अति +अच् तारा॰—अमरे का पेड़
- आम्रातम्—नपुं॰—-—आम्रं आम्ररसं अतति - अति +अच् तारा॰—अमरे का फल
- आम्रातकः—पुं॰—-—आम्रात+कन्—अमरे का वृक्ष
- आम्रातकः—पुं॰—-—आम्रात+कन्—अमावट
- आम्रेडनम्—नपुं॰—-—आ+म्रिड्+णिच्+ल्युट्—पुनरुक्ति,
- आम्रेडितम्—नपुं॰—-—आ+म्रिड्+णिच्+क्त—शब्द या ध्वनि की आवृत्ति
- आम्रेडितम्—नपुं॰—-—आ+म्रिड्+णिच्+क्त—द्वित्व होना, दूसरा शब्द
- आम्लः—पुं॰—-—आ सम्यक् अम्लो रसो यस्य - ब॰ स॰ स्त्रियां टाप्—इमली का पेड़
- आम्ला—स्त्री॰—-—आ सम्यक् अम्लो रसो यस्य - ब॰ स॰ स्त्रियां टाप्—इमली का पेड़
- आम्लम्—नपुं॰—-—आ सम्यक् अम्लो रसो यस्य - ब॰ स॰—खटास, अम्लता
- आम्लिका—स्त्री॰—-—आम्ल+कन्+टाप्, इत्वम्, पक्षे पृषो दीर्घः—इमली का वृक्ष
- आम्लिका—स्त्री॰—-—आम्ल+कन्+टाप्, इत्वम्, पक्षे पृषो दीर्घः—पेट की अम्लता
- आम्लीका—स्त्री॰—-—आम्ल+कन्+टाप्, इत्वम्, पक्षे पृषो दीर्घः—इमली का वृक्ष
- आम्लीका—स्त्री॰—-—आम्ल+कन्+टाप्, इत्वम्, पक्षे पृषो दीर्घः—पेट की अम्लता
- आयः—पुं॰—-—आ+इ+अच्, अय+घञ् वा—पहुँचना, आ जाना
- आयः—पुं॰—-—आ+इ+अच्, अय+घञ् वा—धनागम, धनार्जन
- आयः—पुं॰—-—आ+इ+अच्, अय+घञ् वा—आमदनी, राजस्व, प्राप्त द्रव्य
- आयः—पुं॰—-—आ+इ+अच्, अय+घञ् वा—नफा, लाभ
- आयः—पुं॰—-—आ+इ+अच्, अय+घञ् वा—अन्तःपुर का रक्षक
- आयव्ययौ—पुं॰द्वि॰ व॰—आयः-व्ययौ—-—आय और व्यय
- आयःशूलिक—वि॰—-—अयःशूल+ठक्—सक्रिय, परिश्रमी, अथक
- आयःशूलिकः—पुं॰—-—अयःशूल+ठक्—जो अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए सबल उपायों का सहारा लेता है
- आयत—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+यम्+क्त—लम्बा
- आयत—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+यम्+क्त—विकीर्ण, अतिविस्तृत
- आयत—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+यम्+क्त—बड़ा, विस्तृत्, गम्भीर
- आयत—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+यम्+क्त—खींचा हुआ, आकृष्ट
- आयत—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+यम्+क्त—संयत, नियन्त्रित
- आयतः—पुं॰—-—आ+यम्+क्त—आयताकार
- आयताक्ष—वि॰—आयत-अक्ष—-—बड़ी आंखों वाला
- आयतेक्षण—वि॰—आयत-ईक्षण—-—बड़ी आंखों वाला
- आयतनेत्र—वि॰—आयत-नेत्र—-—बड़ी आंखों वाला
- आयतलोचन—वि॰—आयत-लोचन—-—बड़ी आंखों वाला
- आयतापाङ्ग—वि॰—आयत-अपाङ्ग—-—लम्बी कोर की आँखों वाला
- आयतायतिः—स्त्री॰—आयत-आयतिः—-—दीर्घ निरतरता, बहुत देर बाद आने वाला भविष्य
- आयतच्छ्दा —स्त्री॰—आयत-च्छ्दा —-—केले का पौधा
- आयतलेख—वि॰—आयत-लेख—-—दीर्घवक्राकार
- आयतस्तूः—पुं॰—आयत-स्तूः—-—चारण, भाट
- आयतनम्—नपुं॰—-—आयतन्तेऽत्र आयत्+ल्युट्—स्थान, आवास, घर, विश्रामस्थल, आश्रय, घर
- आयतनम्—नपुं॰—-—आयतन्तेऽत्र आयत्+ल्युट्—यज्ञ अग्नि कस्थान, वेदी
- आयतनम्—नपुं॰—-—आयतन्तेऽत्र आयत्+ल्युट्—पवित्र स्थान, पुण्यभूमि
- आयतनम्—नपुं॰—-—आयतन्तेऽत्र आयत्+ल्युट्—मकान बनाने का स्थान
- आयतिः—स्त्री॰—-—आ+या+डति—लम्बाई, विस्तार
- आयतिः—स्त्री॰—-—आ+या+डति—भावी समय, भविष्यत्
- आयतिः—स्त्री॰—-—आ+या+डति—भावी फल या परिणाम
- आयतिः—स्त्री॰—-—आ+या+डति—महमा, प्रताप
- आयतिः—स्त्री॰—-—आ+या+डति—हाथ फैलाना, स्वीकार करना, प्राप्त करना
- आयतिः—स्त्री॰—-—आ+या+डति—कर्म
- आयतिः—स्त्री॰—-—आ+या+डति—नियन्त्रण, निग्रह
- आयत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+यत्+क्त—अधीन, आश्रित, सहारा लिए हुए
- आयत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+यत्+क्त—वश्य, विनीत
- आयत्तिः—स्त्री॰—-—आ+यत्+क्तिन्—आश्रय, अधीनता
- आयत्तिः—स्त्री॰—-—आ+यत्+क्तिन्—स्नेह
- आयत्तिः—स्त्री॰—-—आ+यत्+क्तिन्—सामर्थ्य, शक्ति
- आयत्तिः—स्त्री॰—-—आ+यत्+क्तिन्—हद, सीमा
- आयत्तिः—स्त्री॰—-—आ+यत्+क्तिन्—युक्ति, उपाय
- आयत्तिः—स्त्री॰—-—आ+यत्+क्तिन्—महिमा, प्रताप
- आयत्तिः—स्त्री॰—-—आ+यत्+क्तिन्—आचरण की स्थिरता
- आयथातथ्यम्—नपुं॰—-—आयथातथ+ष्यञ्—अयोग्यता, अनुपयुक्तता, अनौचित्य
- आयनम्—नपुं॰—-—आ+यम्+ल्युट्—लम्बाई, विस्तार
- आयनम्—नपुं॰—-—आ+यम्+ल्युट्—नियंत्रण, निग्रह
- आयनम्—नपुं॰—-—आ+यम्+ल्युट्—तानना
- आयल्लकः—पुं॰—-—आयन्निव लीयते अत्र ली+ड (बा॰) संज्ञायां कन्—धैर्य का अभाव, प्रबल लालसा
- आयस—वि॰—-—आयसो विकारः अण्—लौह निर्मित, लोहा धातुनिर्मित
- आयसी—स्त्री॰—-—आयसो विकारः अण्-ङीप्—कवच, बख्तर
- आयसम्—नपुं॰—-—आयसो विकारः अण्—लोहा
- आयसम्—नपुं॰—-—आयसो विकारः अण्—लौहनिर्मित वस्तु
- आयसम्—नपुं॰—-—आयसो विकारः अण्—हथियार
- आयस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+यस्+क्त—पीड़ित, दुःखी
- आयस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+यस्+क्त—चोट खाया हुआ
- आयस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+यस्+क्त—क्रुद्ध, नाराज
- आयस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+यस्+क्त—तीक्ष्ण
- आयानम्—नपुं॰—-—आ+या+ल्युट्—आना, पहुँचना
- आयानम्—नपुं॰—-—आ+या+ल्युट्—नैसर्गिक मनोभाव, स्वभाव
- आयामः—पुं॰—-—आ+यम्+घञ्—लम्बाई
- आयामः—पुं॰—-—आ+यम्+घञ्—प्रसार, विस्तार
- आयामः—पुं॰—-—आ+यम्+घञ्—फैलाना, विस्तार करना, निग्रह, नियंत्रण, रोकथाम
- आयामवत्—वि॰—-—आयाम+मतुप्—विस्तारित, लम्बा
- आयासः—पुं॰—-—आ+यस्+घञ्—प्रयत्न, प्रयास, कष्ट, कठिनाई, श्रम
- आयासः—पुं॰—-—आ+यस्+घञ्—थकावट, थकन
- आयासिन्—वि॰—-—आ+यस्+णिनि—परिश्रान्त, थका हुआ
- आयासिन्—वि॰—-—आ+यस्+णिनि—प्रयास करने वाला, प्रबल उपयोग करने वाला
- आयुक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+युज्+क्त—नियुक्त, कार्यभार-युक्त
- आयुक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+युज्+क्त—संयुक्त, प्राप्त
- आयुक्तः—पुं॰—-—आ+युज्+क्त—मंत्री, अभिकर्त या कमिश्नर
- आयुधः—पुं॰—-—आ+युध्+घञ्—हथियार, ढाल, शस्त्र
- आयुधम्—नपुं॰—-—आ+युध्+घञ्—हथियार, ढाल, शस्त्र
- आयुधागारम्—नपुं॰—आयुधः-अगारम्—-—शस्त्रागार, हथियार, गोदाम
- आयुधागारम्—नपुं॰—आयुधः-आगारम्—-—शस्त्रागार, हथियार, गोदाम
- आयुधजीविन्—वि॰—आयुधः-जीविन्—-—शस्त्रास्त्र से जीवन-निर्वाह करने वाला
- आयुधजीविन्—पुं॰—आयुधः-जीविन्—-—योद्धा, सिपाही
- आयुधिक—वि॰—-—आयुध+ठञ्—शास्त्रास्त्रों से सम्बन्ध रखने वाला
- आयुधिकः—पुं॰—-—आयुध+ठञ्—सिपाही, सैनिक
- आयुधिन्—वि॰—-—आयुध+इनि—हथियारों को धारण करने वाला
- आयुधीय—वि॰—-—आयुध+ छ —हथियारों को धारण करने वाला
- आयुधी—पुं॰—-—आयुध+इनि—योद्धा
- आयुधीयः—पुं॰—-—आयुध+ छ —योद्धा
- आयुष्मत्—वि॰—-—आयुस्+मतुप्—जीवित, जीता हुआ
- आयुष्मत्—वि॰—-—आयुस्+मतुप्—दीर्घायु
- आयुष्य—वि॰—-—आयुस्+यत्—लम्बा जीवन करने वाला, जीवनप्रद, जीवनसंधारक
- आयुष्यम्—नपुं॰—-—आयुस्+यत्—जीवन प्रद शक्ति
- आयुस्—नपुं॰—-—आ+इ+उस्—जीवन, जीवनावधि
- आयुस्—नपुं॰—-—आ+इ+उस्—जीवन दायक शक्ति
- आयुस्—नपुं॰—-—आ+इ+उस्—आहार
- आयुष्कर—वि॰—आयुस्-कर—-—दीर्घ जीवन करने वाला
- आयुष्कम—नपुं॰—आयुस्-कम—-—दीर्घायु या स्वास्थ्य की कामना करने वाला
- आयुर्द्रव्यम्—नपुं॰—आयुस्-द्रव्यम्—-—औषधि
- आयुर्द्रव्यम्—नपुं॰—आयुस्-द्रव्यम्—-—घी
- आयुर्वृद्धिः—स्त्री॰—आयुस्-वृद्धिः—-—लम्बा जीवन, दीर्घायु
- आयुर्वेदः—पुं॰—आयुस्-वेदः—-—स्वास्थ्य या औषधि-विज्ञान
- आयुर्वेददृश्—वि॰—आयुस्-वेददृश्—-—औषध से सम्बन्ध रखने वाला
- आयुर्वेददृश्—पुं॰—आयुस्-वेददृश्—-—वैद्य, डाक्टर
- आयुर्वेदिक—वि॰—आयुस्-वेदिक—-—औषध से सम्बन्ध रखने वाला
- आयुर्वेदिक—पुं॰—आयुस्-वेदिक—-—वैद्य, डाक्टर
- आयुर्वेदिन्—वि॰—आयुस्-वेदिन्—-—औषध से सम्बन्ध रखने वाला
- आयुर्वेदिन्—पुं॰—आयुस्-वेदिन्—-—वैद्य, डाक्टर
- आयुश्शेषः—पुं॰—आयुस्-शेषः—-—जीवन का शेष भाग
- आयुःस्तोमः—पुं॰—आयुस्-स्तोमः—-—दीर्घायु पाने के लिए किया जाने वाला यज्ञ
- आये—अव्य॰, प्रा॰ स॰—-—-—स्नेहबोधक सम्बोधनात्मक अव्यय
- आयोगः—पुं॰—-—आ+युज्+घञ्—नियुक्ति
- आयोगः—पुं॰—-—आ+युज्+घञ्—क्रिया, कार्य-सम्पादन
- आयोगः—पुं॰—-—आ+युज्+घञ्—पुष्पोपहार
- आयोगः—पुं॰—-—आ+युज्+घञ्—समुद्रतट या नदी किनारा
- आयोगवः—पुं॰—-—आयोगव+अण्—शूद्र द्वारा वैश्य स्त्री से उत्पन्न पुत्र
- आयोगवी—स्त्री॰—-—आयोगव+अण्+ङीप्—इस जाति की स्त्री
- आयोजनम्—नपुं॰—-—आ+युज्+ल्युट्—सम्मिलित होना
- आयोजनम्—नपुं॰—-—आ+युज्+ल्युट्—पकड़ना, ग्रहण करना
- आयोजनम्—नपुं॰—-—आ+युज्+ल्युट्—प्रयास, प्रयत्न
- आयोधनम्—नपुं॰—-—आ+युध्+ल्युट्—युद्ध, लड़ाई, संग्राम
- आयोधनम्—नपुं॰—-—आ+युध्+ल्युट्—युद्धभूमि
- आरः—पुं॰—-—आ+ऋ+घञ्—पीतल
- आरः—पुं॰—-—आ+ऋ+घञ्—अशोधित लोहा
- आरः—पुं॰—-—आ+ऋ+घञ्—कोण, किनारा
- आरः—पुं॰—-—आ+ऋ+घञ्—मंगल ग्रह
- आरः—पुं॰—-—आ+ऋ+घञ्—शनि-ग्रह
- आरम्—नपुं॰—-—आ+ऋ+घञ्—पीतल
- आरम्—नपुं॰—-—आ+ऋ+घञ्—अशोधित लोहा
- आरम्—नपुं॰—-—आ+ऋ+घञ्—कोण, किनारा
- आरा—स्त्री॰—-—आ+ऋ+घञ्+ टाप्—मोची की रांपी
- आरा—स्त्री॰—-—आ+ऋ+घञ्+ टाप्—चाकू, क्षत-शलाका
- आरकूटः—पुं॰—आरः-कूटः—-—पीतल
- आरटम्—नपुं॰—आरः-टम्—-—पीतल
- आरक्ष—वि॰—-—आ+रक्ष्+अच्—परिरक्षित
- आरक्षः—पुं॰—-—आ+रक्ष्+अच्—प्ररक्षण, परिरक्षण, रक्षक
- आरक्षः—पुं॰—-—आ+रक्ष्+अच्—हाथी की कुंभसंधि
- आरक्षः—पुं॰—-—आ+रक्ष्+अच्—सेना
- आरक्षा—स्त्री॰—-—आ+रक्ष्+अच्+टाप्—प्ररक्षण, परिरक्षण, रक्षक
- आरक्षा—स्त्री॰—-—आ+रक्ष्+अच्+टाप्—हाथी की कुंभसंधि
- आरक्षा—स्त्री॰—-—आ+रक्ष्+अच्+टाप्—सेना
- आरक्षक—वि॰—-—आ+रक्ष्+ण्वुल्—पहरेदार, सन्तरी
- आरक्षक—वि॰—-—आ+रक्ष्+ण्वुल्—देहाती या पुलिस का दण्डाधिकारी
- आरक्षिक—वि॰—-—आरक्ष+ठञ् —पहरेदार, सन्तरी
- आरक्षिक—वि॰—-—आरक्ष+ठञ् —देहाती या पुलिस का दण्डाधिकारी
- आरटः—पुं॰—-—आ+रट्+अच्—नट, नाटक का पात्र
- आरणिः—पुं॰—-—आ+ऋ+अनि—भँवर, जलावर्त
- आरण्य—वि॰—-—अरण्य+अण्—जंगली, जंगल में उत्पन्न
- आरण्या—वि॰—-—अरण्य+अण्, स्त्रियां टाप्—जंगली, जंगल में उत्पन्न
- आरण्यी—वि॰—-—अरण्य+अण्, स्त्रियां ङीप् —जंगली, जंगल में उत्पन्न
- आरण्यक—वि॰—-—अरण्य+वुञ्—वन संबंधी, वन में उत्पन्न, जंगली, जंगल में उत्पन्न
- आरण्यकः—पुं॰—-—अरण्य+वुञ्—जंगल में रहनेवाला, जंगली, वनवासी
- आरण्यकम्—नपुं॰—-—अरण्य+वुञ्—आरण्यक ग्रंथ
- आरतिः—स्त्री॰—-—आ+रम्+क्तिन्—विराम, रोक
- आरतिः—स्त्री॰—-—आ+रम्+क्तिन्—प्रतिमा के सामने दीप-दान, या कपूर-दीपक घुमाना, आरती उतारना
- आरनालम्—नपुं॰—-—आ+ऋ+अच्, नल्+घञ् आरो नालो गंधो यस्य ब॰ स॰—माँड, चावल का पसाव
- आरब्धिः—स्त्री॰—-—आ+रभ्=क्तिन्—आरम्भ, शुरु
- आरभटः—पुं॰—-—आरभ्+अट—उपक्रमशील या साहसी पुरुष
- आरभटः—पुं॰—-—आरभ्+अट—दिलेरी, विश्वास
- आरभटी—स्त्री॰—-—आरभ्+अट+ङीप्—दिलेरी, विश्वास
- आरभटी—स्त्री॰—-—आरभ्+अट+ङीप्—नाट्यकला की शाखा
- आरभटी—स्त्री॰—-—आरभ्+अट+ङीप्—साहित्य की एक शैली
- आरभटी—स्त्री॰—-—आरभ्+अट+ङीप्—विशेष नृत्यशैली
- आरम्भः—पुं॰—-—आ+रभ्+घञ् मुम् च—आरम्भ, शुरू, प्रारंभिक योजना
- आरम्भः—पुं॰—-—आ+रभ्+घञ् मुम् च—प्रस्तावना
- आरम्भः—पुं॰—-—आ+रभ्+घञ् मुम् च—कार्य, व्यवसाय, कृत्य, काम
- आरम्भः—पुं॰—-—आ+रभ्+घञ् मुम् च—त्वरा, वेग
- आरम्भः—पुं॰—-—आ+रभ्+घञ् मुम् च—प्रयास, प्रयत्न
- आरम्भः—पुं॰—-—आ+रभ्+घञ् मुम् च—दृश्य, कर्म
- आरम्भः—पुं॰—-—आ+रभ्+घञ् मुम् च—मार डालना, हत्या करना
- आरम्भणम्—नपुं॰—-—आ+रभ्+ल्युट् मुम् च—काबू में करना, पकड़ना
- आरम्भणम्—नपुं॰—-—आ+रभ्+ल्युट् मुम् च—पकड़ने का स्थान, दस्ता, बींटा
- आरवः—पुं॰—-—आ+रु+अप्—आवाज
- आरवः—पुं॰—-—आ+रु+अप्—चिल्लाना, गुर्राना
- आरावः—पुं॰—-—आ+रु+घञ् —आवाज
- आरावः—पुं॰—-—आ+रु+घञ् —चिल्लाना, गुर्राना
- आरस्यम्—नपुं॰—-—अरस+ष्यञ्—नीरसता, स्वादहीनता
- आरात्—अव्य॰—-—आ+रा बा॰ आति - तारा॰ 'आर' का अपा॰ ए॰ व॰—निकट, के पास
- आरात्—अव्य॰—-—आ+रा बा॰ आति - तारा॰ 'आर' का अपा॰ ए॰ व॰—से दूर, दूर, दूरस्थ
- आरात्—अव्य॰—-—आ+रा बा॰ आति - तारा॰ 'आर' का अपा॰ ए॰ व॰—फासले पर, दूरी से
- आरातिः—पुं॰—-—आरा+क्तिच्—शत्रु
- आरातीय—वि॰—-—आरात्+छ—निकट, आसन्न
- आरातीय—वि॰—-—आरात्+छ—दूर का
- आरात्रिकम्—नपुं॰—-—अरात्रावपि निर्वृत्तम् - ठञ्—रात के समय भगवान की मूर्त्ति के सामने आरती उतारना
- आरात्रिकम्—नपुं॰—-—अरात्रावपि निर्वृत्तम् - ठञ्—आरती उतारने का दीपक
- आराधनम्—नपुं॰—-—आ+राध्+ल्युट्—प्रसन्नता, सन्तोष, सेवा
- आराधनम्—नपुं॰—-—आ+राध्+ल्युट्—सेवा, पूजन, उपासना, अर्चना
- आराधनम्—नपुं॰—-—आ+राध्+ल्युट्—प्रसन्न करने के उपाय
- आराधनम्—नपुं॰—-—आ+राध्+ल्युट्—सम्मान करना, आदर करना
- आराधनम्—नपुं॰—-—आ+राध्+ल्युट्—पकाना
- आराधनम्—नपुं॰—-—आ+राध्+ल्युट्—पूर्ति, दायित्व निभाना, निष्पत्ति
- आराधना—स्त्री॰—-—आ+राध्+ल्युट्—सेवा
- आराधनी—स्त्री॰—-—आ+राध्+ल्युट्—पूजा, उपासना, अर्चना
- आराधयितृ—वि॰—-—आ+राध्+णिच्+तृच्—उपासक, वनम्र सेवक, पूजक
- आरामः—पुं॰—-—आ+रम्+घञ्—खुशी, प्रसन्नता
- आरामः—पुं॰—-—आ+रम्+घञ्—बाग, उद्यान
- आरामिकः—पुं॰—-—आराम+ठक्—माली
- आरालिकः—पुं॰—-—अराल+ठक्—रसोइया
- आरुः—पुं॰—-—ऋ+उण्—सूअर
- आरुः—पुं॰—-—ऋ+उण्—केंकड़ा
- आरू—वि॰—-—ऋ+ऊ+णित्—भूरे रंग का
- आरूढ—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+रुह्+क्त—सवार, चढ़ा हुआ, ऊपर बैठा हुआ
- आरूढिः—स्त्री॰—-—आ+रुक्+क्तिन्—चढ़ाव, ऊपर उठना, उन्नयन
- आरेकः—पुं॰—-—आ+रिच्+घञ्—रिक्त करना
- आरेकः—पुं॰—-—आ+रिच्+घञ्—संकुचित करना
- आरेचित—वि॰—-—आ+रिच+णिच्+क्त—भींची हुई या सिकोड़ी हुई
- आरोग्यम्—नपुं॰—-—अरोग+ष्यञ्—आच्छा स्वास्थ्य
- आरोपः—पुं॰—-—आ+रुह्+णिच्+घञ्, पुकागमः—एक वस्तु के गुणों को दूसरी वस्तु में आरोपित करना, गले मढ़ना
- आरोपः—पुं॰—-—आ+रुह्+णिच्+घञ्, पुकागमः—मान लेना
- आरोपः—पुं॰—-—आ+रुह्+णिच्+घञ्, पुकागमः—अध्यारोपण
- आरोपः—पुं॰—-—आ+रुह्+णिच्+घञ्, पुकागमः—बोझा लादना, दोषारोपण करना, इलजाम लगाना
- आरोपणम्—नपुं॰—-—आ+रोह+णिच्+ल्युट्, पुकागमः—ऊपर रखना या जमाना, रखना, संस्थापन, जमा देना
- आरोपणम्—नपुं॰—-—आ+रोह+णिच्+ल्युट्, पुकागमः—पौधा लगाना
- आरोपणम्—नपुं॰—-—आ+रोह+णिच्+ल्युट्, पुकागमः—धनुष पर चिला चढ़ाना
- आरोहः—पुं॰—-—आ+रुह्+घञ्—चढ़ने वाला, सवार
- आरोहः—पुं॰—-—आ+रुह्+घञ्—चढ़ाव, ऊपर जाना, सवारी करना
- आरोहः—पुं॰—-—आ+रुह्+घञ्—ऊपर उठी हुई जगह, उभार, छाती, नितम्ब
- आरोहः—पुं॰—-—आ+रुह्+घञ्—लम्बाई
- आरोहः—पुं॰—-—आ+रुह्+घञ्—एक प्रकार की माप
- आरोहः—पुं॰—-—आ+रुह्+घञ्—खान
- आरोहकः—पुं॰—-—आ+रुह्+ण्वुल्—सवार, चालक
- आरोहणम्—नपुं॰—-—अ+रुह्+ल्युट्—सवार होने, ऊपर चढ़ने य उदय होने की क्रिया
- आरोहणम्—नपुं॰—-—अ+रुह्+ल्युट्—सवारी करना
- आरोहणम्—नपुं॰—-—अ+रुह्+ल्युट्—जीना, सीढ़ी
- आर्किः—पुं॰—-—अर्कस्यापत्यम्-इञ्—अर्क का पुत्र, यम की उपाधि, शनि ग्रह, कर्ण, सुग्रीव, वैवस्वत मनु
- आर्क्ष—वि॰—-—ऋक्ष+अण्—तारकीय, तारों द्वारा व्यवस्थित अथवा तारों से सम्बद्ध
- आर्घा—स्त्री॰—-—आ+अर्घ्+अच्+टाप्—एक प्रकार की पीली मधु-मक्खी
- आर्घ्यम्—नपुं॰—-—आर्घा+यत्—जंगली शहद
- आर्च—वि॰—-—अर्चा अस्त्यस्य ण—भक्त, पूजा करने वाला, पुण्यात्मा
- आर्चिक—वि॰—-—ऋच्+ठञ्—ऋग्वेद संबंधी, या ऋग्वेद की व्याख्या करने वाला
- आर्चिकम्—नपुं॰—-—ऋच्+ठञ्—सामवेद का विशेषण
- आर्जवम्—नपुं॰—-—ऋजु+अण्—सरलता
- आर्जवम्—नपुं॰—-—ऋजु+अण्—स्पष्टवादिता, सद्वतवि, खरापन, ईमानदारी, निष्कपटता, उदारहृदय होना
- आर्जवम्—नपुं॰—-—ऋजु+अण्—सादगी, विनम्रता
- आर्जुनिः—पुं॰—-—अर्जुनस्यापत्यम्-इञ्—अर्जुन का पुत्र, अभिमन्यु
- आर्त—वि॰—-—आ+ऋ+क्त—कष्ट प्राप्त, उपहत, पीड़ीत
- आर्त—वि॰—-—आ+ऋ+क्त—बीमार, रोगी
- आर्त—वि॰—-—आ+ऋ+क्त—दुःखित, कष्टप्राप्त, संकट-ग्रस्त, अत्याचार-पीड़ित, अप्रसन्न
- आर्तनादः—पुं॰—आर्त-नादः—-—दर्दभरी आवाज
- आर्तध्वनिः—पुं॰—आर्त-ध्वनिः—-—दर्दभरी आवाज
- आर्तस्वरः—पुं॰—आर्त-स्वरः—-—दर्दभरी आवाज
- आर्तबन्धुः—पुं॰—आर्त-बन्धुः—-—दुःखियों का मित्र
- आर्तसाधुः—पुं॰—आर्त-साधुः—-—दुःखियों का मित्र
- आर्तव—वि॰—-—ऋतुरस्य प्राप्तः-अण्—ऋतु के अनुरूप, ऋतुसम्बंधी, मौसमी
- आर्तव—वि॰—-—ऋतुरस्य प्राप्तः-अण्—मासिक स्राव सम्बन्धी
- आर्तवः—पुं॰—-—ऋतुरस्य प्राप्तः-अण्—वर्ष का अनुभाग, वर्ष
- आर्तवी—स्त्री॰—-—ऋतुरस्य प्राप्तः-अण्-ङीप्—घोड़ी
- आर्तवम्—नपुं॰—-—ऋतुरस्य प्राप्तः-अण्—मासिक स्राव
- आर्तवम्—नपुं॰—-—ऋतुरस्य प्राप्तः-अण्—मासिक स्राव के पश्चात् गर्भाधान के लिए उपयुक्त दिन
- आर्तवम्—नपुं॰—-—ऋतुरस्य प्राप्तः-अण्—फूल
- आर्तवेयी—स्त्री॰—-—-—रजस्वला स्त्री
- आर्तिः—स्त्री॰—-—आ+ऋ+क्तिन्—दुःख, कष्ट, व्यथा, पिड़ा, क्षति
- आर्तिः—स्त्री॰—-—आ+ऋ+क्तिन्—मानसिक वेदना, दारुण दुःख
- आर्तिः—स्त्री॰—-—आ+ऋ+क्तिन्—बीमारी, रोग
- आर्तिः—स्त्री॰—-—आ+ऋ+क्तिन्—धनुष की नोक
- आर्तिः—स्त्री॰—-—आ+ऋ+क्तिन्—विनाश, विध्वंस
- आर्त्विजीन—वि॰—-—ऋत्विजं तत्कर्मार्हति खञ्—ऋत्विज् क पद के उपयुक्त
- आर्त्विज्यम्—नपुं॰—-—ऋत्विज्+ष्यञ्—ऋत्विज् का पद, मर्यादा
- आर्थ—वि॰—-—-—किसी वस्तु या पदार्थ से संबंध रझने वाला
- आर्थ—वि॰—-—-—अर्थ सम्बन्धी, अर्थाश्रित
- आर्थिक—वि॰—-—अर्थ+ठक्—सार्थक
- आर्थिक—वि॰—-—अर्थ+ठक्—बुद्धिमा
- आर्थिक—वि॰—-—अर्थ+ठक्—धनवान
- आर्थिक—वि॰—-—अर्थ+ठक्—तथ्यपूर्ण, वास्तविक
- आर्द्र—वि॰—-—अर्द्र्+रक् दीर्घश्च—गीला, नमीदार, सीला
- आर्द्र—वि॰—-—अर्द्र्+रक् दीर्घश्च—अशुष्क, हरा, रसीला
- आर्द्र—वि॰—-—अर्द्र्+रक् दीर्घश्च—ताजा, नया
- आर्द्र—वि॰—-—अर्द्र्+रक् दीर्घश्च—मृदु, कोमल
- आर्द्रा—स्त्री॰—-—अर्द्र्+रक् दीर्घश्च+टाप्—छठा नक्षत्र
- आर्द्रकाष्ठम्—नपुं॰—आर्द्र-काष्ठम्—-—हरी लकड़ी
- आर्द्रपृष्ठ—वि॰—आर्द्र-पृष्ठ—-—सींचा हुआ, विश्रांत किया हुआ
- आर्द्रशाकम्—नपुं॰—आर्द्र-शाकम्—-—ताजा अदरक
- आर्दकम्—नपुं॰—-—आर्द्रा+वुन्—हरा अदरक, गीला अदरक
- आर्द्रयति—ना॰धा॰पर॰—-—-—गीला करना, तर करना
- आर्ध—वि॰—-—अर्ध+अण्—आधा
- आर्धधातुक—वि॰—आर्ध-धातुक—-—आधी वस्तुओं में लागू होने वाला
- आर्धधातुकम्—नपुं॰—आर्ध-धातुकम्—-—आर्धधातुक छः गणों सम्बन्ध रखने वाली विभक्तियाँ व प्रत्यय
- आर्धमासिक—वि॰—आर्ध-मासिक—-—आधे महीन रहने वाला
- आर्धिक—वि॰—-—अर्ध+ठक्—आधे का साझीदार, आधे से संबंध रखने वाला
- आर्धिकः—पुं॰—-—अर्ध+ठक्—जो आधी फसल के लिए खेत जोतता है, वैश्य स्त्री से उत्पन्न सन्तान जिसका पालन-पोषण ब्राह्मण के द्वारा होता है
- आर्य—वि॰—-—ऋ+ण्यत्—आर्यन, या अर्य के योग्य
- आर्य—वि॰—-—ऋ+ण्यत्—योग्य, आदरणीय, सम्माननीय, कुलीन, उच्चपदस्थ
- आर्य—वि॰—-—ऋ+ण्यत्—अत्युत्कृष्ट, मनोहर, श्रेष्ठ
- आर्यः—पुं॰—-—ऋ+ण्यत्—ईरान के लोग, हिन्दूजाति जो अनार्य, दस्यु तथा दास से भिन्न हैं
- आर्यः—पुं॰—-—ऋ+ण्यत्—जो अपने देश के नियम तथा धर्म के प्रति निष्ठावान हैं
- आर्यः—पुं॰—-—ऋ+ण्यत्—पहले तीन वर्ण
- आर्यः—पुं॰—-—ऋ+ण्यत्—सम्माननीय या आदरणीय पुरुष, प्रतिष्ठित व्यक्ति
- आर्यः—पुं॰—-—ऋ+ण्यत्—सकुलोत्पन्न पुरुष
- आर्यः—पुं॰—-—ऋ+ण्यत्—सच्चरित्र पुरुष
- आर्यः—पुं॰—-—ऋ+ण्यत्—स्वामी, मालिक
- आर्यः—पुं॰—-—ऋ+ण्यत्—गुरु, अध्यापक
- आर्यः—पुं॰—-—ऋ+ण्यत्—मित्र
- आर्यः—पुं॰—-—ऋ+ण्यत्—वैश्य
- आर्यः—पुं॰—-—ऋ+ण्यत्—श्वसुर
- आर्यः—पुं॰—-—ऋ+ण्यत्—बुद्ध भगवान
- आर्या—स्त्री॰—-—ऋ+ण्यत्+ टाप्—पार्वती
- आर्या—स्त्री॰—-—ऋ+ण्यत्+ टाप्—श्वश्रू
- आर्या—स्त्री॰—-—ऋ+ण्यत्+ टाप्—आदरणीय महिला
- आर्या—स्त्री॰—-—ऋ+ण्यत्+ टाप्—छन्द
- आर्यावर्तः—पुं॰—आर्य-आवर्तः—-—श्रेष्ठ और उत्तम लोगों का आवास, विशेषतः वह भूमि जो पूर्वी समुद्र से पश्चिमी स्दमुद्र तक फैली हुई है तथा जिसके उत्तर में हिमालय एवं दक्षिण में विन्ध्य पर्वत है
- आर्यगृह्य—वि॰—आर्य-गृह्य—-—श्रेष्ठ पुरुषों का मित्र, सम्माननीय व्यक्तियों के पास जिसकी पहुंच अनायास होती है
- आर्यगृह्य—वि॰—आर्य-गृह्य—-—आदरणीय, भद्र
- आर्यदेशः—पुं॰—आर्य-देशः—-—वह देश जहाँ आर्य लोग बसे हुए हैं
- आर्यपुत्रः—पुं॰—आर्य-पुत्रः—-—सम्माननीय व्यक्ति का बेटा
- आर्यपुत्रः—पुं॰—आर्य-पुत्रः—-—आध्यात्मिक गुरु का पुत्र
- आर्यपुत्रः—पुं॰—आर्य-पुत्रः—-—बड़े भाई के पुत्र का सम्मानसूचक पद, पत्नी का पति के लिए तथा सेनापति का राजा के लिए सम्म्मानसूचक पद
- आर्यपुत्रः—पुं॰—आर्य-पुत्रः—-—श्वसुर का पुत्र अर्थात् पति
- आर्यप्राय—वि॰—आर्य-प्राय—-—जहाँ आर्य लोग बसे हों
- आर्यप्राय—वि॰—आर्य-प्राय—-—जहाँ प्रतिष्ठित व्यक्ति रहते हों
- आर्यमिश्र—वि॰—आर्य-मिश्र—-—आदरणीय, योग्य, पूज्य
- आर्यमिश्रः—पुं॰—आर्य-मिश्रः—-—सज्जनपुरुष, गौरवशाली पुरुष
- आर्यमिश्रः—ब॰ व॰—आर्य-मिश्रः—-—योग्य और आदरणीय व्यक्ति, सभ्य या सम्माननीय व्यक्ति
- आर्यमिश्रः—ब॰ व॰—आर्य-मिश्रः—-—श्रद्धेय, मान्यवर
- आर्यलिङ्गिन्—पुं॰—आर्य-लिङ्गिन्—-—पाखंडी
- आर्यवृत्त—वि॰—आर्य-वृत्त—-—सदाचारी, भद्र
- आर्यवेश—वि॰—आर्य-वेश—-—अच्छी वेशभूषा में, आदरणीय वेश धारण किए हुए
- आर्यसत्यम्—नपुं॰—आर्य-सत्यम्—-—अत्युत्कृष्ट और अलौकिक सत्य
- आर्यहृद्य—वि॰—आर्य-हृद्य—-—जो श्रेष्ठ व्यक्तियों को रुचिकर हो
- आर्यकः—पुं॰—-—आर्य+स्वार्थे कन्—सम्माननीय या आदरणीय पुरुष
- आर्यकः—पुं॰—-—आर्य+स्वार्थे कन्—बाबा, दादा
- आर्यका—स्त्री॰—-—आर्या+कन् ह्रस्वः—आदरणीय महिला
- आर्यिका—स्त्री॰—-—आर्या+कन् ह्रस्वः,इत्वम्—आदरणीय महिला
- आर्ष—वि॰—-—ऋषेरिदम्-अण्—केवल ऋषि द्वारा प्रयुक्त, ऋषि संबंधी, आर्ष, वैदिक
- आर्ष—वि॰—-—ऋषेरिदम्-अण्—पवित्र, पावन; अति मानव
- आर्षः—पुं॰—-—ऋषेरिदम्-अण्—विवाह का एक प्रकार, आठ भेदों में से विवाह का एक भेद जिसमें दुलहिन का पिता वर महोदय से एक या दो जोड़ी गाय प्राप्त करता है
- आर्षम्—नपुं॰—-—ऋषेरिदम्-अण्—पावन पाठ, वेद
- आर्षभ्यः—पुं॰—-—ऋषभ+ञ्य—बछड़ा जो पर्याप्त बड़ा हो गया हो, काम में लाया जा सके या सांड़ बनाकर छोड़ा जा सके
- आर्षेय—वि॰—-—ऋषि+ढक्—ऋषि से संबंध रखने वाला
- आर्षेय—वि॰—-—ऋषि+ढक्—योग्य, महानुभाव, आदरणीय
- आर्हत—वि॰—-—अर्हत्+अण्—जैनधर्म के सिद्धांतों से संबंध रखने वाला
- आर्हतः—पुं॰—-—अर्हत्+अण्—जैन, जैनधर्म का अनुयायी
- आर्हतम्—नपुं॰—-—अर्हत्+अण्—जैनधर्म के सिद्धान्त
- आर्हन्ती—स्त्री॰—-—अर्हत्+ष्यञ्, नुम् च,ङीप्—योग्यता
- आर्हन्त्यम्—नपुं॰—-—अर्हत्+ष्यञ्, नुम् च—योग्यता
- आलः—पुं॰—-—आ+अल्+अच्—अंडों का ढेर, मछली आदि के अंडे
- आलः—पुं॰—-—आ+अल्+अच्—पीला संखिया
- आलम्—नपुं॰—-—आ+अल्+अच्—अंडों का ढेर, मछली आदि के अंडे
- आलम्—नपुं॰—-—आ+अल्+अच्—पीला संखिया
- आलगर्दः—पुं॰—-—अलगर्द+अण्—पनिया साँप
- आलभनम्—नपुं॰—-—आ+लभ्+ल्युट्—पकड़ना, कब्जा करना
- आलभनम्—नपुं॰—-—आ+लभ्+ल्युट्—छूना
- आलभनम्—नपुं॰—-—आ+लभ्+ल्युट्—मार डालना
- आलम्बः—पुं॰—-—आ+लम्ब्+घञ्—आश्रय
- आलम्बः—पुं॰—-—आ+लम्ब्+घञ्—थूना, टेक
- आलम्बः—पुं॰—-—आ+लम्ब्+घञ्—सहारा, रक्षा
- आलम्बः—पुं॰—-—आ+लम्ब्+घञ्—आशय
- आलम्बनम्—नपुं॰—-—आ+लम्ब्+ल्युट्—आश्रय
- आलम्बनम्—नपुं॰—-—आ+लम्ब्+ल्युट्—सहारा, थूनी, टेक, सहारा देते हुए
- आलम्बनम्—नपुं॰—-—आ+लम्ब्+ल्युट्—आशय, आवास
- आलम्बनम्—नपुं॰—-—आ+लम्ब्+ल्युट्—कारण हेतु
- आलम्बनम्—नपुं॰—-—आ+लम्ब्+ल्युट्—जिस पर रस आश्रित रहता है, वह पुरुष या वस्तु जिसके उल्लेख से रस की निष्पत्ति होती है, रस को उत्तेजित करने वाले कारण का रस से नैसर्गिक और अनिवार्य संबंध, रस की निष्पत्ति के कारण के दो भेद हैं -आलम्बन और उद्दीपन, उदा॰ बीभत्स में दुर्गंधयुक्त मांस रस का आलंबन है, तथा दूसरी प्रस्तुत परिस्थितियाँ जो मांसगत कीड़े आदि की घिनौनी भावनाओं को उत्तेजित करती हैं इसके उद्दीपन हैं
- आलम्बिन्—वि॰—-—आ+लम्ब्+णिनि—लटकता हुआ, सहारा लेता हुआ, झुकता हुआ
- आलम्बिन्—वि॰—-—आ+लम्ब्+णिनि—सहारा देने वाला, बनाये रखने वाला, थामने वाला
- आलम्बिन्—वि॰—-—आ+लम्ब्+णिनि—पहने हुए
- आलम्भः—पुं॰—-—आ+लभ्+घञ्, मुम् च पक्षे ल्युट्—पकड़ना, कब्जा करना, स्पर्श करना
- आलम्भः—पुं॰—-—आ+लभ्+घञ्, मुम् च पक्षे ल्युट्—फाड़ना
- आलम्भः—पुं॰—-—आ+लभ्+घञ्, मुम् च पक्षे ल्युट्—मार डालना, अश्वालम्भ, ग्वालम्भ
- आलम्भनम्—नपुं॰—-—आ+लभ्+घञ्, मुम् च पक्षे ल्युट्—पकड़ना, कब्जा करना, स्पर्श करना
- आलम्भनम्—नपुं॰—-—आ+लभ्+घञ्, मुम् च पक्षे ल्युट्—फाड़ना
- आलम्भनम्—नपुं॰—-—आ+लभ्+घञ्, मुम् च पक्षे ल्युट्—पकड़ना, कब्जा करना, स्पर्श करना
- आलयः—पुं॰—-—आ+ली+अच्—आवास, घर, निवास, गृह
- आलयः—पुं॰—-—आ+ली+अच्—आशय, आसन या जगह
- आलयम्—नपुं॰—-—आ+ली+अच्—आवास, घर, निवास, गृह
- आलयम्—नपुं॰—-—आ+ली+अच्—आशय, आसन या जगह
- आलर्क—वि॰—-—अलर्कस्येदम्-अण्—पागल कुत्ते से संबंध रखने वाला या उससे उत्पन्न
- आलवण्यम्—नपुं॰—-—अलवणस्य भावः-ष्यञ्—फीकापन, स्वादहीनता
- आलवण्यम्—नपुं॰—-—अलवणस्य भावः-ष्यञ्—कुरूपता
- आलवालम्—नपुं॰—-—आसमन्तात् लवं जललवम् आलति-आ+ला+क तारा॰—पानी भरने का स्थान, खाई
- आलस—वि॰—-—आलसति ईषत् व्याप्रियते-अच्—सुस्त, काहिल, ढीला-ढाला
- आलस्य—वि॰—-—अलसस्य भावः-ष्यञ्—सुस्त, ढीला-ढाला, काहिल
- आलस्य—वि॰—-—अलसस्य भावः-ष्यञ्—सुस्ती, शिथिलता, स्फूर्ति का अभाव; आलस्य
- आलातम्—नपुं॰—-—अलात्+अण्—जलती हुई लकड़ी
- आलानम्—नपुं॰—-—आ+ली+ल्युट्—वह स्तंभ जिससे हाथी बाँधा जाय, बाँधे जाने वाला खंबा, रस्सा भी जिससे हाथी बाँधा जाता है
- आलानम्—नपुं॰—-—आ+ली+ल्युट्—हथकड़ी, बँध
- आलानम्—नपुं॰—-—आ+ली+ल्युट्—जंजीर रस्सा
- आलानम्—नपुं॰—-—आ+ली+ल्युट्—बँधना, बाँधना
- आलानिक—वि॰—-—आलान+ठञ्—उस थूनी का काम देने वाली वस्तु जिसके सहारे हाथी बाँधा जाता है
- आलापः—पुं॰—-—आ+लप्+घञ्—बातचीत, भाषण, समालाप
- आलापः—पुं॰—-—आ+लप्+घञ्—कथन, उल्लेख
- आलापनम्—नपुं॰—-—आ+लप्+णिच्+ल्युट्—बोलना, बातचीत करना
- आलाबुः—स्त्री॰—-—-—घीया, पेठा, कद्दू, कुम्हड़ा
- आलाबूः—स्त्री॰—-—-—घीया, पेठा, कद्दू, कुम्हड़ा
- आलावर्तनम्—नपुं॰—-—आलं पर्याप्तमावर्त्यते इति-आल+आ+वृत्+णिच्+अच्—कपड़े का बना पंखा
- आलि—वि॰—-—आ+अल्+इन्—निकम्मा, सुस्त
- आलि—वि॰—-—आ+अल्+इन्—ईमानदार
- आलिः—स्त्री॰—-—आ+अल्+इन्—विच्छू
- आलिः—स्त्री॰—-—आ+अल्+इन्—मधूमक्खी
- आलिः—स्त्री॰—-—आ+अल्+इन्—सहेली
- आलिः—स्त्री॰—-—आ+अल्+इन्—पंक्ति, परास, अविच्छिन्न रेखा
- आलिः—स्त्री॰—-—आ+अल्+इन्—रेखा, लकीर
- आलिः—स्त्री॰—-—आ+अल्+इन्—पुल
- आलिः—स्त्री॰—-—आ+अल्+इन्—पुलिया, बांध
- आली—स्त्री॰—-—आ+अल्+ङीप्—सहेली
- आली—स्त्री॰—-—आ+अल्+ङीप्—पंक्ति, परास, अविच्छिन्न रेखा
- आली—स्त्री॰—-—आ+अल्+ङीप्—रेखा, लकीर
- आली—स्त्री॰—-—आ+अल्+ङीप्—पुल
- आली—स्त्री॰—-—आ+अल्+ङीप्—पुलिया, बांध
- आलिङ्गनम्—नपुं॰—-—आ+लिङ्ग्+ल्युट्—परिरंभण, गले लागाना, गलबाहीं देना
- आलिङ्गिन्—वि॰—-—आ+लिङ्ग्+इनि—गलबाहीं देने वाला
- आलिञ्जरः—पुं॰—-—अलिञ्जर एव स्वार्थे अण्—मिट्टी का बड़ा घड़ा
- आलिन्दः—पुं॰—-—आलिन्द+अण्, स्वार्थे कन् च—घर के सामने बना चौतरा, चबूतरा
- आलिन्दः—पुं॰—-—आलिन्द+अण्, स्वार्थे कन् च—सोने के लिए ऊँचा बनाया हुआ स्थान
- आलिन्दकः—पुं॰—-—आलिन्द+अण्, स्वार्थे कन् च—घर के सामने बना चौतरा, चबूतरा
- आलिन्दकः—पुं॰—-—आलिन्द+अण्, स्वार्थे कन् च—सोने के लिए ऊँचा बनाया हुआ स्थान
- आलिम्पनम्—नपुं॰—-—आ+लिप्+ल्युट्, मुम् च—उत्सवों के अवसर पर दीवारों पर सफेदी करना, फर्श लीपना आदि
- आलीढम्—नपुं॰—-—आ+लिह्+क्त—बन्दूक से निशाना लगाते समय दाहिने घुटने को आगे बढ़ा कर और बायें पैर को मोड़ कर बैठना
- आलुः—पुं॰—-—आ+लु+डु—उल्लू
- आलुः—पुं॰—-—आ+लु+डु—आबनूस, काला आबनूस
- आलुः—स्त्री॰—-—आ+लु+डु—घड़ा
- आल—नपुं॰—-—-—लट्ठों को बाँध कर बनाया गया बेड़ा, घन्नई
- आलुञ्चनम्—नपुं॰—-—आ+लुञ्च्+ल्युट्—फाड़ना, टुकड़े-टुकड़े करना
- आलेखनम्—नपुं॰—-—आ+लिख्+ल्युट्—लिखना
- आलेखनम्—नपुं॰—-—आ+लिख्+ल्युट्—चित्रण करना
- आलेखनम्—नपुं॰—-—आ+लिख्+ल्युट्—खुरचना
- आलेखनी—नपुं॰—-—आ+लिख्+ल्युट्+ ङीप्—कूंची, कलम
- आलेख्यम्—नपुं॰—-—आ+लिख्+ण्यत्—चित्रकारी, चित्र
- आलेख्यम्—नपुं॰—-—आ+लिख्+ण्यत्—लिखना
- आलेख्यमलेखा—स्त्री॰—आलेख्यम्-लेखा—-—बाहरी रूपरेखा, चित्रण
- आलेख्यशेष—वि॰—आलेख्यम्-शेष—-—चित्र को छोड़कर जिसका और कुछ शेष न रहा हो अर्थात् मृत, मरा हुआ
- आलेपः—पुं॰—-—आ+लिप्+घञ्—तेल या उबटन आदि का मलना, लीपना, पोतना
- आलेपः—पुं॰—-—आ+लिप्+घञ्—लेप
- आलेपनम्—नपुं॰—-—आ+लिप्+ल्युट्—तेल या उबटन आदि का मलना, लीपना, पोतना
- आलेपनम्—नपुं॰—-—आ+लिप्+ल्युट्—लेप
- आलोकः—पुं॰—-—आ+लोक+घञ्—दर्शन करना, देखना
- आलोकः—पुं॰—-—आ+लोक+घञ्—दृष्टि, पहलू, दर्शन
- आलोकः—पुं॰—-—आ+लोक+घञ्—दृष्टि-परास
- आलोकः—पुं॰—-—आ+लोक+घञ्—प्रकाश, प्रभा, कान्ति
- आलोकः—पुं॰—-—आ+लोक+घञ्—भाट, विशेषतः भाट द्वारा उच्चरित स्तुति-शब्द
- आलोकनम्—नपुं॰—-—आ+लोक+ल्युट्—दर्शन करना, देखना
- आलोकनम्—नपुं॰—-—आ+लोक+ल्युट्—दृष्टि, पहलू, दर्शन
- आलोकनम्—नपुं॰—-—आ+लोक+ल्युट्—दृष्टि-परास
- आलोकनम्—नपुं॰—-—आ+लोक+ल्युट्—प्रकाश, प्रभा, कान्ति
- आलोकनम्—नपुं॰—-—आ+लोक+ल्युट्—भाट, विशेषतः भाट द्वारा उच्चरित स्तुति-शब्द
- आलोचक—वि॰—-—आ+लोच्+ण्वुल्—आलोचना करने वाला, देखने वाला
- आलोचकम्—नपुं॰—-—आ+लोच्+ण्वुल्—दर्शन-शक्ति, दृष्टि का कारण
- आलोचनम्—नपुं॰—-—आ+लोच्+ल्युट्, युच् वा—दर्शन करना, देखना, सर्वेक्षण, समीक्षा
- आलोचनम्—नपुं॰—-—आ+लोच्+ल्युट्, युच् वा—विचार करना, विचार-विमर्श
- आलोचना—स्त्री॰—-—आ+लोच्+ल्युट्, युच् वा, टाप्—दर्शन करना, देखना, सर्वेक्षण, समीक्षा
- आलोचना—स्त्री॰—-—आ+लोच्+ल्युट्, युच् वा, टाप्—विचार करना, विचार-विमर्श
- आलोडनम्—नपुं॰—-—आ+लुड्+णिच्+ल्युट्—बिलोना, हिलाना, क्षुब्ध करना
- आलोडनम्—नपुं॰—-—आ+लुड्+णिच्+ल्युट्—मिश्रण करना
- आलोडना—स्त्री॰—-—आ+लुड्+णिच्+ल्युट्, टाप्—बिलोना, हिलाना, क्षुब्ध करना
- आलोडना—स्त्री॰—-—आ+लुड्+णिच्+ल्युट्, टाप्—मिश्रण करना
- आलोल—वि॰, प्रा॰स॰—-—-—कुछ कांपता हुआ, घुमाता हुआ
- आलोल—वि॰, प्रा॰स॰—-—-—हिलाया हुआ, विक्षुब्ध
- आवनयः—पुं॰—-—अवनि+ढक्—भूमिपुत्र, मंगल ग्रह की उपाधि
- आवन्त्य—वि॰—-—अवन्ति+ञ्यङ्—अवन्ति से आने वाला, या संबंध रखने वाला
- आवन्त्यः—पुं॰—-—अवन्ति+ञ्यङ्—अवन्ती का राजा, अवन्ती का निवासी, पतित ब्राह्मण की सन्तान
- आवपनम्—नपुं॰—-—आ+वप्+ल्युट्—बोना, फेंकना, बखेरना
- आवपनम्—नपुं॰—-—आ+वप्+ल्युट्—बीज बोना
- आवपनम्—नपुं॰—-—आ+वप्+ल्युट्—हजामत करना
- आवपनम्—नपुं॰—-—आ+वप्+ल्युट्—बर्तन, मर्तबान, पात्र
- आवरकम्—नपुं॰—-—आ+वृ+ण्वुल्—ढक्कन, पर्दा
- आवरणम्—नपुं॰—-—आ+वृ+ल्युट्—ढक्ना, छिपाना, मूँदना
- आवरणम्—नपुं॰—-—आ+वृ+ल्युट्—बंद करना, घेरना
- आवरणम्—नपुं॰—-—आ+वृ+ल्युट्—ढकना
- आवरणम्—नपुं॰—-—आ+वृ+ल्युट्—बाधा
- आवरणम्—नपुं॰—-—आ+वृ+ल्युट्—बाड़ा, अहाता, चहारदीवारी
- आवरणम्—नपुं॰—-—आ+वृ+ल्युट्—कपड़ा, वस्त्र
- आवरणम्—नपुं॰—-—आ+वृ+ल्युट्—ढाल
- आवरणशक्तिः—स्त्री॰—आवरणम्-शक्तिः—-—मानसिक अज्ञान
- आवर्तः—पुं॰—-—आ+वृत्+घञ्—चारों ओर मुड़ना, चक्कर काटना
- आवर्तः—पुं॰—-—आ+वृत्+घञ्—जलावर्त, भँवर
- आवर्तः—पुं॰—-—आ+वृत्+घञ्—पर्यालोचन, घूमना
- आवर्तः—पुं॰—-—आ+वृत्+घञ्—बालों के पट्ठे, अयाल
- आवर्तः—पुं॰—-—आ+वृत्+घञ्—घनीबस्ती
- आवर्तः—पुं॰—-—आ+वृत्+घञ्—एक प्रकार का रत्न
- आवर्तकः—पुं॰—-—आवर्त+कन्—मूर्त्त बादल का एक प्रकार
- आवर्तकः—पुं॰—-—आवर्त+कन्—जलावर्त
- आवर्तकः—पुं॰—-—आवर्त+कन्—क्रान्ति, घुमाव
- आवर्तकः—पुं॰—-—आवर्त+कन्—घुंघराले बाल
- आवर्तनम्—नपुं॰—-—आ+वृत्+ल्युट्—चारों ओर मुड़ना, चक्कर काटना
- आवर्तनम्—नपुं॰—-—आ+वृत्+ल्युट्—वृत्ताकार गति, घूर्णन
- आवर्तनम्—नपुं॰—-—आ+वृत्+ल्युट्—पिघलाना, गलाना
- आवर्तनम्—नपुं॰—-—आ+वृत्+ल्युट्—आवृत्ति करना
- आवर्तनः—पुं॰—-—आ+वृत्+ल्युट्—विष्णु
- आवर्तनी—स्त्री॰—-—आ+वृत्+ल्युट्+ङीप्—कुठाली
- आवलिः—स्त्री॰—-—आ+वल्+इन् —रेखा, पंक्ति, परास
- आवलिः—स्त्री॰—-—आ+वल्+इन् —सिलसिला, अविच्छिन्न लकीर
- आवली—स्त्री॰—-—आ+वल्+ङीष्—रेखा, पंक्ति, परास
- आवली—स्त्री॰—-—आ+वल्+ङीष्—सिलसिला, अविच्छिन्न लकीर
- आवलित—वि॰—-—आ+वल्+क्त—जरा सा मुड़ा हुआ
- आवश्यक—वि॰—-—अवश्य+वुञ्—अनिवार्य, जरूरी
- आवश्यकम्—नपुं॰—-—अवश्य+वुञ्—जरूरत, अनिवार्यता, कर्तव्य
- आवश्यकम्—नपुं॰—-—अवश्य+वुञ्—अनिवार्य फल
- आवसतिः—स्त्री॰, प्रा॰स॰—-—-—रात्रि , आधी रात
- आवसथः—पुं॰—-—आ+वस्+अथच्—आवास, आवास-स्थान, घर, निवास
- आवसथः—पुं॰—-—आ+वस्+अथच्—विश्राम करने का स्थान, विश्रामस्थल
- आवसथः—पुं॰—-—आ+वस्+अथच्—छात्रावास, सन्यासाश्रम
- आवसथ्य—वि॰—-—आवसथ+ञ्य—गृही, घर में विद्यमान
- आवसथ्यः—पुं॰—-—आवसथ+ञ्य—पावन अग्नि जो घर में रखी जाती है, यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली पंचाग्नियों में से एक
- आवसथ्यः—पुं॰—-—आवसथ+ञ्य—छात्रावास, सन्यासाश्रम
- आवसथ्यम्—नपुं॰—-—आवसथ+ञ्य—छात्रावास, सन्यासाश्रम
- आवसथ्यम्—नपुं॰—-—आवसथ+ञ्य—घर
- आवसित—वि॰—-—आ+अव+सो+क्त—समाप्त, पूर्ण किया गया
- आवसित—वि॰—-—आ+अव+सो+क्त—निर्णीत, निर्धारित, निश्चित
- आवसितम्—नपुं॰—-—आ+अव+सो+क्त—पका हुआ अनाज
- आवह—वि॰—-—आ+वह्+अच्—उत्पन्न करने वाला, राह दिखाने वाला, देखभाल करने वाला, लाने वाला
- आवापः—पुं॰—-—आ+वप्+घञ्—बीज बोना
- आवापः—पुं॰—-—आ+वप्+घञ्—बखेरना, फेंकना
- आवापः—पुं॰—-—आ+वप्+घञ्—आलवाल
- आवापः—पुं॰—-—आ+वप्+घञ्—बर्तन, अनाज रखने का मट्का
- आवापः—पुं॰—-—आ+वप्+घञ्—एक प्रकार का पेय
- आवापः—पुं॰—-—आ+वप्+घञ्—कंकण
- आवापः—पुं॰—-—आ+वप्+घञ्—ऊबड़-खाबड़ भूमि
- आवापकः—पुं॰—-—आवाप+कन्—कंकण
- आवापनम्—नपुं॰—-—आ+वप्+णिच्+ल्युट्—करघा, खड्डी
- आवालम्—नपुं॰—-—आ+वल्+णिच्+अच्—थांवला, आलवाल
- आवासः—पुं॰—-—आ+वस्+घञ्—घर, निवास
- आवासः—पुं॰—-—आ+वस्+घञ्—शरण-स्थान, मकान
- आवाहनम्—नपुं॰—-—आ+वह्+णिव्+ल्युट्—बुलवाना, निमंत्रण, पुकारना
- आवाहनम्—नपुं॰—-—आ+वह्+णिव्+ल्युट्—देवता का आवाहन करना
- आवाहनम्—नपुं॰—-—आ+वह्+णिव्+ल्युट्—अग्नि में आहुति डालना
- आविक—वि॰—-—अवि+ठक्—भेड़ से संबंध रखने वाला
- आविक—वि॰—-—अवि+ठक्—ऊनी
- आविकम्—नपुं॰—-—अवि+ठक्—ऊनी कपड़ा
- आविग्न—वि॰—-—आ+विज्+क्त—दुःखी, कष्टग्रस्त
- आविद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+व्यध्+क्त—बिधा हुआ, छेदा हुआ
- आविद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+व्यध्+क्त—मुड़ा हुआ, टेढ़ा
- आविद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+व्यध्+क्त—बलपूर्वक फेंका हुआ, गति दिया हुआ
- आविर्भावः—पुं॰—-—आविस्+भू+घञ्—अभिव्यक्ति, उपस्थिति, प्रकट होना
- आविर्भावः—पुं॰—-—आविस्+भू+घञ्—अवतार
- आविल—वि॰—-—आविलाति दृष्टिं स्तृणाति-विल्+क तारा॰—पंकिल, मैला, गदला
- आविल—वि॰—-—आविलाति दृष्टिं स्तृणाति-विल्+क तारा॰—अपवित्र, दूषित
- आविल—वि॰—-—आविलाति दृष्टिं स्तृणाति-विल्+क तारा॰—काले रंग का, हलके काले रंग का
- आविल—वि॰—-—आविलाति दृष्टिं स्तृणाति-विल्+क तारा॰—धुंधला, निष्प्रभ
- आविलयति—ना॰ धा॰ पर॰—-—-—धब्बा लगाना, कलंक लगाना
- आविष्करणम्—नपुं॰—-—आविस्+कृ+ल्युट्—अभिव्यक्ति, दर्शन देना, प्रकट करना
- आविष्कारः—पुं॰—-—आविस्+कृ+घञ् —अभिव्यक्ति, दर्शन देना, प्रकट करना
- आविष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+विश्+क्त—प्रविष्ट
- आविष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+विश्+क्त—ग्रस्त
- आविष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+विश्+क्त—संपन्न, भरा हुआ, वशीकृत, काबू पाया हुआ
- आविष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+विश्+क्त—निमग्न, लीन अधिकार में किया हुआ, जुटा हुआ
- आविस्—अव्य॰—-—आ+अव्+इस्—निम्नांकित अर्थ प्रकट करने वाला अव्यय - 'आंखों के सामने' 'खुले रूप में' 'प्रकटतः'
- आवीतम्—नपुं॰—-—आ+व्ये+क्त—यज्ञोपवीत
- आवुकः—पुं॰—-—-—पिता
- आवुत्तः—पुं॰—-—आप्+क्विप्, आपमुत्तनोति इति उद्+तन्+ड—बहनोई, जीजा
- आवृत्—स्त्री॰—-—आ+वृत्+क्विप्—मुड़ती हुई, प्रविष्ट होती हुई
- आवृत्—स्त्री॰—-—आ+वृत्+क्विप्—क्रम, आनुपूर्व्य, पद्धति, रीति
- आवृत्—स्त्री॰—-—आ+वृत्+क्विप्—रास्ते का मोड़, मार्ग, दिशा
- आवृत्—स्त्री॰—-—आ+वृत्+क्विप्—शुद्धिकरण संबंधी संस्कार
- आवृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+वृत्+क्त—मुड़ा हुआ, चक्कर खाया हुआ, लौटा हुआ
- आवृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+वृत्+क्त—दोहराया हुआ
- आवृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+वृत्+क्त—याद किया हुआ, अध्ययन किया हुआ
- आवृत्तिः—स्त्री॰—-—आ+वृत्+क्तिन्—मुड़ना, लौटना, वापिस आना
- आवृत्तिः—स्त्री॰—-—आ+वृत्+क्तिन्—प्रत्यावर्तन, प्रतिनिवर्तन
- आवृत्तिः—स्त्री॰—-—आ+वृत्+क्तिन्—चक्कर खाना, चारों ओर जाना
- आवृत्तिः—स्त्री॰—-—आ+वृत्+क्तिन्—उसी स्थान पर फिर लौटना
- आवृत्तिः—स्त्री॰—-—आ+वृत्+क्तिन्—जन्म-मरण का बार बार होना, सांसारिक जीवन
- आवृत्तिः—स्त्री॰—-—आ+वृत्+क्तिन्—आवृत्ति, दोहराना, संस्करण
- आवृत्तिः—स्त्री॰—-—आ+वृत्+क्तिन्—दोहराया हुआ पाठ, अध्ययन
- आवृष्टिः—स्त्री॰—-—आ+वृष्+क्तिन्—बरसना, बारिश की बौछार
- आवेगः—पुं॰—-—आ+विज्+घञ्—बेचैनी, चिन्ता, उत्तेजना, विक्षोभ, घबड़ाहट
- आवेगः—पुं॰—-—आ+विज्+घञ्—उतावली, हड़बड़ी
- आवेगः—पुं॰—-—आ+विज्+घञ्—क्षोभ
- आवेदनम्—नपुं॰—-—आ+विद्+णिच्+ल्युट्—समाचार देना, सूचना देना
- आवेदनम्—नपुं॰—-—आ+विद्+णिच्+ल्युट्—अभ्यावेदन
- आवेदनम्—नपुं॰—-—आ+विद्+णिच्+ल्युट्—अभियोग का वर्णन
- आवेदनम्—नपुं॰—-—आ+विद्+णिच्+ल्युट्—अभिवाचन, अर्जीदावा
- आवेशः—पुं॰—-—आ+विश्+घञ्—प्रविष्ट होना, प्रवेश
- आवेशः—पुं॰—-—आ+विश्+घञ्—अधिकार में करना, प्रभाव, अभ्यास, स्मयावेश, अभिमान का प्रभाव
- आवेशः—पुं॰—-—आ+विश्+घञ्—एकनिष्ठता, किसी पदार्थ के प्रति अनुरक्ति
- आवेशः—पुं॰—-—आ+विश्+घञ्—घमंड, हेकड़ी
- आवेशः—पुं॰—-—आ+विश्+घञ्—हड़बड़ी, क्षोभ, क्रोध, प्रकोप
- आवेशः—पुं॰—-—आ+विश्+घञ्—आसुरी भूतबाधा
- आवेशः—पुं॰—-—आ+विश्+घञ्—लकवे की बेहोशी या मिरगी की मूर्छा
- आवेशनम्—नपुं॰—-—आ+विश्+ल्युट्—प्रविष्ट होना, प्रवेश
- आवेशनम्—नपुं॰—-—आ+विश्+ल्युट्—आसुरी प्रेतबाधा
- आवेशनम्—नपुं॰—-—आ+विश्+ल्युट्—प्रकोप, क्रोध, प्रचण्डता
- आवेशनम्—नपुं॰—-—आ+विश्+ल्युट्—निर्माणी, कारखाना
- आवेशनम्—नपुं॰—-—आ+विश्+ल्युट्—घर
- आवेशिक—वि॰—-—-—विशिष्ट, निजी
- आवेशिक—वि॰—-—-—अन्तर्हित
- आवेशिकः—पुं॰—-—-—अतिथि, दर्शक
- आवेष्टकः—पुं॰—-—आ+वेष्ट्+णिच्+ण्वुल्—दीवार, बाड़, अहाता
- आवेष्टनम्—नपुं॰—-—आ+वेष्ट्+णिच्+ल्युट्—लपेटना, बँधना, बाँधना
- आवेष्टनम्—नपुं॰—-—आ+वेष्ट्+णिच्+ल्युट्—ढकना, लिफाफा
- आवेष्टनम्—नपुं॰—-—आ+वेष्ट्+णिच्+ल्युट्—दीवार, बाड़, अहाता
- आश—वि॰—-—अश्+अण्—खानेवाला, भोक्ता
- आशः—नपुं॰—-—अश्+घञ्—खाना
- आशंसनम्—नपुं॰—-—आ+शंस्+ल्युट्—प्रत्याशा, इच्छा
- आशंसनम्—नपुं॰—-—आ+शंस्+ल्युट्—कहना, घोषणा करना
- आशंसा—स्त्री॰—-—आ+शंस्+अ+टाप्—इच्छा, अभिलाषा, आशा
- आशंसा—स्त्री॰—-—आ+शंस्+अ+टाप्—भाषण, घोषणा
- आशंसा—स्त्री॰—-—आ+शंस्+अ+टाप्—कल्पना
- आशंसु—वि॰—-—आ+शंस्+उ—इच्छुक, आशावान्
- आशङ्का—स्त्री॰—-—आ+शङ्क+अ—भय, भय की सम्भावना
- आशङ्का—स्त्री॰—-—आ+शङ्क+अ—सन्देह, अनिश्चयात्मकता
- आशङ्का—स्त्री॰—-—आ+शङ्क+अ—अविश्वास, शक
- आशङ्कित—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+शङ्क+क्त—भीत, डरा हुआ
- आशङ्कितम्—नपुं॰—-—आ+शङ्क+क्त—भय
- आशङ्कितम्—नपुं॰—-—आ+शङ्क+क्त—सन्देह
- आशङ्कितम्—नपुं॰—-—आ+शङ्क+क्त—अनिश्चयात्मकता
- आशयः—पुं॰—-—आ+शी+अच्—शयनकक्ष, विश्रामस्थल, शरणागार
- आशयः—पुं॰—-—आ+शी+अच्—निवास-स्थान, आवास, आसन, आश्रय-स्थान
- आशयः—पुं॰—-—आ+शी+अच्—पात्र, आधार
- आशयः—पुं॰—-—आ+शी+अच्—पेट
- आशयः—पुं॰—-—आ+शी+अच्—अर्थ, इरादा, प्रयोजन, भाव
- आशयः—पुं॰—-—आ+शी+अच्—भावनाओं का स्थान, मन, हृदय
- आशयः—पुं॰—-—आ+शी+अच्—सम्पन्नता
- आशयः—पुं॰—-—आ+शी+अच्—कोठार
- आशयः—पुं॰—-—आ+शी+अच्—मन, इच्छा
- आशयः—पुं॰—-—आ+शी+अच्—भाग्य, किस्मत
- आशयः—पुं॰—-—आ+शी+अच्—गर्त
- आशयाशः—पुं॰—आशयः-आशः—-—अग्नि
- आशरः—पुं॰—-—आ+श्रृ+अच्—आग्नि
- आशरः—पुं॰—-—आ+श्रृ+अच्—असुर, राक्षस
- आशरः—पुं॰—-—आ+श्रृ+अच्—वायु
- आशवम्—नपुं॰—-—आशोर्भावः-अण्—वेग, फुर्ती
- आशवम्—नपुं॰—-—आशोर्भावः-अण्—खींची हुई शराब, अरिष्ट
- आशा—स्त्री॰—-—आ+अश्+अच्—उम्मीद, प्रत्याशा, भविष्य
- आशा—स्त्री॰—-—आ+अश्+अच्—मिथ्या आशा या प्रत्याशा
- आशा—स्त्री॰—-—आ+अश्+अच्—स्थान, प्रदेश, दिग्देश, दिशा
- आशान्वित—वि॰—आशा-अन्वित—-—आशावान्, आशा बढ़ाने वाला
- आशाजनन—वि॰—आशा-जनन—-—आशावान्, आशा बढ़ाने वाला
- आशागज—पुं॰—आशा-गज—-—दिग्गज
- आशातन्तुः—पुं॰—आशा-तन्तुः—-—आशा की डोर, क्षीण आशा
- आशापालः—पुं॰—आशा-पालः—-—दिक्पाल
- आशापिशाचिका—स्त्री॰—आशा-पिशाचिका—-—आशा की क्ल्पना-सृष्टि
- आशाबन्धः—पुं॰—आशा-बन्धः—-—आशा का बन्धन, विश्वास, भरोसा, प्रत्याशा
- आशाबन्धः—पुं॰—आशा-बन्धः—-—तसल्ली
- आशाबन्धः—पुं॰—आशा-बन्धः—-—मकड़ी का जाला
- आशाभङ्गः—पुं॰—आशा-भङ्गः—-—निराशा, नाउम्मीद
- आशाहीन—वि॰—आशा-हीन—-—निराश, हताश
- आशाढः—पुं॰—-—-—अषाढ़ का महीना
- आशाढः—पुं॰—-—-—हिन्दूओं का एक महीना
- आशाढः—पुं॰—-—-—ढाक की लकड़ी का दण्ड जिसे सन्यासी धारण करते हैं, अथाजिनाषाढ़घरः प्रगल्भवाक् @ कु॰ ६/३०
- आशास्य—स॰ कृ॰—-—आ+शास्+ण्यत्—वरदान द्वारा प्राप्य
- आशास्य—स॰ कृ॰—-—आ+शास्+ण्यत्—अभिलषणीय, वांछनीय
- आशास्यम्—नपुं॰—-—आ+शास्+ण्यत्—वाञ्छनीय, पदार्थ, चाह, इच्छा
- आशास्यम्—नपुं॰—-—आ+शास्+ण्यत्—आशीर्वाद, मंगलाचरण
- आशिञ्चित—वि॰—-—आ+शिञ्ज्+क्त—झनकार
- आशित—वि॰—-—आ+अश्+क्त—भुक्त, खाया हुआ
- आशित—वि॰—-—आ+अश्+क्त—खाकर, तृप्त
- आशितम्—नपुं॰—-—आ+अश्+क्त—भोजन करना
- आशितङ्गवीन—वि॰—-—आशिता अशनेन तृप्ता गावो यत्र, खञ् निपातनात् मुम्—पहले पशुओं द्वारा चरा हुआ
- आशितम्भव—वि॰—-—आशित+भू+खच्, मुम्—तृप्त होने वाला, संतृप्त होने वाला
- आशितम्भवम्—नपुं॰—-—आशित+भू+खच्, मुम्—आहार, भोज्य पदार्थ
- आशितम्भवम्—नपुं॰—-—आशित+भू+खच्, मुम्—अघाना, तृप्ति
- आशिर—वि॰—-—आ+अश्+इरच्—भोजनभट्ट
- आशिरः—पुं॰—-—आ+अश्+इरच्—अग्नि
- आशिरः—पुं॰—-—आ+अश्+इरच्—सूर्य
- आशिरः—पुं॰—-—आ+अश्+इरच्—राक्षस
- आशिस्—स्त्री॰—-—आ+शास्+क्विप्, इत्वम्—आशीर्वाद, मंगलकामना
- आशिस्—स्त्री॰—-—आ+शास्+क्विप्, इत्वम्—प्रार्थना, चाह, इच्छा
- आशिस्—स्त्री॰—-—आ+शास्+क्विप्, इत्वम्—सांप का विषैला दांत
- आशिर्वादः—पुं॰—आशिस्-वादः—-—आशीर्वाद, मंगलाचरण, किसी प्रार्थना या सद्भावना की अभिव्यक्ति
- आशिर्वचनम्—नपुं॰—आशिस्-वचनम्—-—आशीर्वाद, मंगलाचरण, किसी प्रार्थना या सद्भावना की अभिव्यक्ति
- आशिर्विषः—पुं॰—आशिस्-विषः—-—साँप
- आशी—स्त्री॰—-—आशीर्यते अनया आ+श+क्विप्—साँप का विषैला दांत
- आशी—स्त्री॰—-—आशीर्यते अनया आ+श+क्विप्—एक प्रकार का सर्पविष
- आशी—स्त्री॰—-—आशीर्यते अनया आ+श+क्विप्—आशीर्वाद, मंगलाचरण
- आशीविषः—पुं॰—आशी-विषः—-—साँप
- आशीविषः—पुं॰—आशी-विषः—-—एक विशेष प्रकार का साँप
- आशु—वि॰—-—अश्+उण्—तेज, फुर्तीला
- आशु—नपुं॰—-—अश्+उण्—चावल
- आशुः—पुं॰—-—अश्+उण्—चावल
- आशु—अव्य॰—-—-—तेजी से, जल्दी से, तुरन्त, सीधा
- आशुकारिन्—वि॰—आशु-कारिन्—-—जल्दी करने वाला, चुस्त, फुर्तीला
- आशुकृत्—वि॰—आशु-कृत्—-—जल्दी करने वाला, चुस्त, फुर्तीला
- आशुकोपिन्—वि॰—आशु-कोपिन्—-—गुस्सैला, चिड़चिड़ा
- आशुग—वि॰—आशु-ग—-—फुर्तीला, तेज
- आशुगः—पुं॰—आशु-गः—-—वायु
- आशुगः—पुं॰—आशु-गः—-—सूर्य
- आशुगः—पुं॰—आशु-गः—-—बाण
- आशुतोष—वि॰—आशु-तोष—-—अनायास प्रसन्न होने वाला
- आशुतोषः—पुं॰—आशु-तोषः—-—शिव की उपाधि
- आशुव्रीहिः—पुं॰—आशु-व्रीहिः—-—बरसात में ही पक जाने वाले चावल
- आशुशुक्षणिः—पुं॰—-—आ+शुष्+सन्+अनि—वायु, हवा
- आशुशुक्षणिः—पुं॰—-—आ+शुष्+सन्+अनि—अग्नि
- आशेकुटिन्—पुं॰—-—आशेतेऽस्मिन् इति-आ+शी+विच् स इव कुटति इति णिनि—पहाड़
- आशोषणम्—नपुं॰—-—आ+शुष्+णिच्+ल्युट्—सुखाना
- आशौचम्—नपुं॰—-—अशौच+अण्—अपवित्रता
- आश्चर्य—वि॰—-—आ+चर्+ण्यत् सुट्—चमत्कारपूर्ण, विलक्षण, असाधारण, आश्चर्यजनक, अद्भुत
- आश्चर्यम्—नपुं॰—-—आ+चर्+ण्यत् सुट्—अचम्भा, चमत्कार, कौतुक
- आश्चर्यम्—नपुं॰—-—आ+चर्+ण्यत् सुट्—अचरज, विस्मय, अचम्भा
- आश्चर्यम्—नपुं॰—-—आ+चर्+ण्यत् सुट्—आश्चर्य
- आश्चोतनम्—नपुं॰—-—आ+श्चुत्+ल्युट्—सिंचन, छिड़काव
- आश्चोतनम्—नपुं॰—-—आ+श्चुत्+ल्युट्—पलकों के घी चुपड़ना
- आश्च्योतनम्—नपुं॰—-—आ+श्च्यु+ल्युट्—सिंचन, छिड़काव
- आश्च्योतनम्—नपुं॰—-—आ+श्च्यु+ल्युट्—पलकों के घी चुपड़ना
- आश्म—वि॰—-—अश्मन्+अण्—पत्थर का बना हुआ, पथरीला
- आश्मन—वि॰—-—अश्मनो विकारः-अण्—पथरीला, पत्थर का बना हुआ
- आश्मनः—पुं॰—-—अश्मनो विकारः-अण्—पत्थर की बनी कोई वस्तु
- आश्मनः—पुं॰—-—-—सूर्य का सारथि अरुण
- आश्मिक—वि॰—-—अश्मन्+ठण्—पत्थर का बना हुआ
- आश्मिक—वि॰—-—अश्मन्+ठण्—पत्थर ढोने वाला
- आश्यान—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+श्यै+क्त—जमा हुआ, संघनित
- आश्यान—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+श्यै+क्त—कुछ सुखा
- आश्रपणम्—नपुं॰—-—आ+श्रा+णिच्+ल्युट्—पकाना, उबालना
- आश्रम्—नपुं॰—-—अश्रमेव-स्वार्थेऽण्—आँसू
- आश्रमः—पुं॰—-—आ+श्रम्+घञ्—पर्णशाला, कुटिया, कुटी, झोंपड़ी, सन्यासियों का आवास या कक्ष
- आश्रमः—पुं॰—-—आ+श्रम्+घञ्—अवस्था, सन्यासियों का धर्मसंघ, ब्राह्मण के धार्मिक जीवन की चार अवस्थाएँ, क्षत्रिय और वैश्य भी पहले तीन आश्रमों में पदार्पण कर सकते हैं, कुछ लोगों के विचारानुसार वह चौथे आश्रम में भी प्रविष्ट हो सकते हैं
- आश्रमः—पुं॰—-—आ+श्रम्+घञ्—महाविद्यालय, विद्यालय
- आश्रमः—पुं॰—-—आ+श्रम्+घञ्—जंगल, झाड़ी
- आश्रमम्—नपुं॰—-—आ+श्रम्+घञ्—पर्णशाला, कुटिया, कुटी, झोंपड़ी, सन्यासियों का आवास या कक्ष
- आश्रमम्—नपुं॰—-—आ+श्रम्+घञ्—अवस्था, सन्यासियों का धर्मसंघ, ब्राह्मण के धार्मिक जीवन की चार अवस्थाएँ, क्षत्रिय और वैश्य भी पहले तीन आश्रमों में पदार्पण कर सकते हैं, कुछ लोगों के विचारानुसार वह चौथे आश्रम में भी प्रविष्ट हो सकते हैं
- आश्रमम्—नपुं॰—-—आ+श्रम्+घञ्—महाविद्यालय, विद्यालय
- आश्रमम्—नपुं॰—-—आ+श्रम्+घञ्—जंगल, झाड़ी
- आश्रमगुरुः—पुं॰—आश्रमः-गुरुः—-—धर्मसंघ के प्रधान, प्रशिक्षक, आचार्य
- आश्रमधर्मः—पुं॰—आश्रमः-धर्मः—-—जीवन के प्रत्येक आश्रम के विशिष्ट कर्तव्य
- आश्रमधर्मः—पुं॰—आश्रमः-धर्मः—-—वानप्रस्थी के कर्तव्य
- आश्रमपदम्—नपुं॰—आश्रमः-पदम्—-—सन्यासाश्रम, तपोवन
- आश्रममण्डलम्—नपुं॰—आश्रमः-मण्डलम्—-—सन्यासाश्रम, तपोवन
- आश्रमस्थानम्—नपुं॰—आश्रमः-स्थानम्—-—सन्यासाश्रम, तपोवन
- आश्रमभ्रष्ट—वि॰—आश्रमः-भ्रष्ट—-—धर्मसंघ दे बहिष्कृत, स्वधर्मच्युत
- आश्रमवासिन्—पुं॰—आश्रमः-वासिन्—-—सन्यासी, वानप्रस्थ
- आश्रमालयः—पुं॰—आश्रमः-आलयः—-—सन्यासी, वानप्रस्थ
- आश्रमसद्—पुं॰—आश्रमः-सद्—-—सन्यासी, वानप्रस्थ
- आश्रमिक—वि॰—-—आश्रम+ठन्—धार्मक जीवन के चार काल या पदों में किसी एक से संबंध रखने वाला
- आश्रमिन्—वि॰—-—आश्रम+इनि—धार्मक जीवन के चार काल या पदों में किसी एक से संबंध रखने वाला
- आश्रयः—पुं॰—-—आ+श्रि+अच्—विश्रामस्थल, सदन, अधिष्ठान
- आश्रयः—पुं॰—-—आ+श्रि+अच्—जिसके ऊपर कोई वस्तु आश्रित रहती है
- आश्रयः—पुं॰—-—आ+श्रि+अच्—ग्रहण करने वाला, भाजन
- आश्रयः—पुं॰—-—आ+श्रि+अच्—शरणस्थान, शरणगृह
- आश्रयः—पुं॰—-—आ+श्रि+अच्—आवास, घर
- आश्रयः—पुं॰—-—आ+श्रि+अच्—सहारा लेने वाला
- आश्रयः—पुं॰—-—आ+श्रि+अच्—पालक, प्रतिपोषक
- आश्रयः—पुं॰—-—आ+श्रि+अच्—थूनी, स्तंभ
- आश्रयः—पुं॰—-—आ+श्रि+अच्—तरकस
- आश्रयः—पुं॰—-—आ+श्रि+अच्—अधिकार, संमोदन, प्रमाण, अधिकार पत्र
- आश्रयः—पुं॰—-—आ+श्रि+अच्—मेलजोल, संबंध , साहचर्य
- आश्रयः—पुं॰—-—आ+श्रि+अच्—दूसरे का सश्रय लेने वाला, छः गुणों में से एक
- आश्रयासिद्धः—स्त्री॰—आश्रयः-असिद्धः—-—हेत्वाभास का एक प्रकार, असिद्ध के तीन उपभागों में से एक
- आश्रयासिद्धः—स्त्री॰—आश्रयः-असिद्धिः—-—हेत्वाभास का एक प्रकार, असिद्ध के तीन उपभागों में से एक
- आश्रयाशः—वि॰—आश्रयः-आशः—-—संपर्क में आने वाली वस्तुओं का उपभोग करने वाला
- आश्रयभुज्—वि॰—आश्रयः-भुज्—-—संपर्क में आने वाली वस्तुओं का उपभोग करने वाला
- आश्रयशः—पुं॰—आश्रयः-शः—-—अग्नि
- आश्रयक्—पुं॰—आश्रयः-क्—-—अग्नि
- आश्रयलिङ्गम्—नपुं॰—आश्रयः-लिङ्गम्—-—विशेषण
- आश्रयणम्—नपुं॰—-—आ+श्रि+ल्युट्—दूसरे के संरक्षण में रहना, शरण लेना
- आश्रयणम्—नपुं॰—-—आ+श्रि+ल्युट्—स्वीकार करना, छांटना
- आश्रयणम्—नपुं॰—-—आ+श्रि+ल्युट्—शरण, शरणस्थान
- आश्रयिन्—वि॰—-—आश्रय+इनि—स्हारा लेने वाला, निर्भर करने वाला
- आश्रयिन्—वि॰—-—आश्रय+इनि—संबंद्ध, विषयक
- आश्रव—वि॰—-—आ+श्रु+अच्—आज्ञाकारी, आज्ञापालक
- आश्रवः—पुं॰—-—आ+श्रु+अच्—नदी, दरिया
- आश्रवः—पुं॰—-—आ+श्रु+अच्—प्रतिज्ञा, वादा
- आश्रवः—पुं॰—-—आ+श्रु+अच्—दोष, अतिक्रमण
- आश्रिः—स्त्री॰, प्रा॰स॰—-—-—तलवार की धार
- आश्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+श्रि+क्त—सहारा लेते हुए
- आश्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+श्रि+क्त—रहने वाला, वास करने वाला, किसी स्थान पर स्थिर रहने वाला
- आश्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+श्रि+क्त—काम में लाने वाला, सेवा में रखने वाला
- आश्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+श्रि+क्त—अनुसरण करने वाला, अभ्यास करने वाला, पालन करने वाला
- आश्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+श्रि+क्त—निर्भर करने वाला
- आश्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+श्रि+क्त—सहारा लिया ह्उआ, बसा हुआ
- आश्रितः—पुं॰—-—आ+श्रि+क्त—पराधीन, सेवक, अनुचर
- आश्रुत—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+श्रु+क्त—सुना हुआ
- आश्रुत—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+श्रु+क्त—प्रतिज्ञात, सहमत, स्वीकृत
- आश्रुतम्—नपुं॰—-—आ+श्रु+क्त—पुकार जो दूसरा सुन सके
- आश्रुतिः—स्त्री॰—-—आ+श्रु+क्तिन्—सुनना
- आश्रुतिः—स्त्री॰—-—आ+श्रु+क्तिन्—स्वीकार करना
- आश्लेषः—पुं॰—-—आ+श्लिष्+घञ्—आलिंगन, परिरम्भण, कोला-कोली
- आश्लेषः—पुं॰—-—आ+श्लिष्+घञ्—संपर्क, घनिष्ट संबंध, संबंध
- आश्लेषा—स्त्री॰—-—-—९वाँ नक्षत्र
- आश्व—वि॰—-—अश्व+अण्—घोड़े से सम्बन्ध रखने वाला, घोड़े के पास से आने वाला
- आश्वम्—नपुं॰—-—अश्व+अण्—घोड़ों का समूह
- आश्वत्थ—वि॰—-—अश्वत्थ+अण्—पीपल के वृक्ष से संबंध रखने वाला, या पीपल से बना हुआ
- आश्वत्थम्—नपुं॰—-—अश्वत्थ+अण्—पीपल का फल, बरबँटे
- आश्वयुज—वि॰—-—अश्वयुज्+अण्—आश्विन मास से संबंध रखने वाला
- आश्वयुजः—पुं॰—-—अश्वयुज्+अण्—आश्विन मास
- आश्वयुजी—स्त्री॰—-—अश्वयुज्+अण्—आश्विन की पूर्णिमा का दिन
- आश्वलक्षणिकः—पुं॰—-—अश्वलक्षण-ठक्—सलोतरी, अश्व-चिकित्सक, साइस
- आश्वासः—पुं॰—-—आ+श्वस्+घञ्—सांस लेना, मुक्त श्वास लेना, चेतना लाभ
- आश्वासः—पुं॰—-—आ+श्वस्+घञ्—तसल्ली, प्रोत्साहन
- आश्वासः—पुं॰—-—आ+श्वस्+घञ्—रक्षा और सुरक्षा की गारंटी
- आश्वासः—पुं॰—-—आ+श्वस्+घञ्—रोकथाम
- आश्वासः—पुं॰—-—आ+श्वस्+घञ्—किसी पुस्तक का पाठ या अनुभाग
- आश्वासनम्—नपुं॰—-—आ+श्वस्+णिच्+ल्युट्—प्रोत्साहन, दिलासा, तसल्ली
- आश्विकः—पुं॰—-—अश्व+ठञ्—घुड़सवार
- आश्विनः—पुं॰—-—अश्+विनि ततः अण्—मास का नाम
- आश्विनेयौ—पुं॰द्वि॰ व॰—-—अश्विनी+ढक्—दो अश्विनी कुमार
- आश्विनेयौ—पुं॰द्वि॰ व॰—-—अश्विनी+ढक्—नकुल और सहदेव के नाम, पाँच पांडवो में से अन्तिम दो
- आश्विन—वि॰—-—-—घोड़े द्वारा व्याप्त
- आषाढः—पुं॰—-—आषाढ़ी पूर्णिमा अस्मिन्मासे अण्—हिन्दूओं का एक महीना
- आषाढः—पुं॰—-—आषाढ़ी पूर्णिमा अस्मिन्मासे अण्—ढाक की लकड़ी का दण्ड जिसे सन्यासी धारण करते हैं, अथाजिनाषाढ़घरः प्रगल्भवाक् @ कु॰ ६/३०
- आषाढा—स्त्री॰—-—आषाढ़ी पूर्णिमा अस्मिन्मासे अण्—२० वाँ या २१ वाँ नक्षत्र
- आषाढी—स्त्री॰—-—आषाढ़ी पूर्णिमा अस्मिन्मासे अण्—आषाढ़ मास की पूर्णिमा
- आष्टमः—पुं॰—-—अष्टम+ञ्—आठवां भाग
- आस्—अव्य॰—-—-—निम्नांकित अर्थों को प्रकट करने वाला विस्मयादिद्योतक अव्यय -(क) प्रत्यास्मरण, ख) क्रोध, (ग) पीड़ा, (घ) अपाकरण, (ङ) शोक, खेद
- आः—अव्य॰—-—-—निम्नांकित अर्थों को प्रकट करने वाला विस्मयादिद्योतक अव्यय -(क) प्रत्यास्मरण, ख) क्रोध, (ग) पीड़ा, (घ) अपाकरण, (ङ) शोक, खेद
- आस्—अदा॰ आ॰<आस्ते>, <आसित>—-—-—बैठना, लेटना, आराम करना
- आस्—अदा॰ आ॰<आस्ते>, <आसित>—-—-—रहना, वास करना
- आस्—अदा॰ आ॰<आस्ते>, <आसित>—-—-—चुपचाप बैठे रहना, शत्रुतापूर्ण व्यवहार न करना, बेकार बैठना
- आस्—अदा॰ आ॰<आस्ते>, <आसित>—-—-—होना, अस्तित्व ता विद्यमानता होना
- आस्—अदा॰ आ॰<आस्ते>, <आसित>—-—-—स्थित होना, रक्खा होना
- आस्—अदा॰ आ॰<आस्ते>, <आसित>—-—-—मानना, टिके रहना, किसी अवस्था में ठहरना या निरन्तर रहना, फाड़ता रहा और गरजता रहा
- आस्—अदा॰ आ॰<आस्ते>, <आसित>—-—-—परिणत होना, परिणाम होना
- आस्—अदा॰ आ॰<आस्ते>, <आसित>—-—-—जाने देना, एक ओर कर देना या रख देना
- आस्—अदा॰ आ॰प्रेर॰—-—-—बिठाना, बिठलवाना, स्थिर करना
- अध्यास्—अदा॰ आ॰—अधि-आस्—-—लेटना, बसना, अधिकार करना, प्रविष्ट होना
- अन्वास्—अदा॰ आ॰—अनु-आस्—-—निकट बैठाया जाना
- अन्वास्—अदा॰ आ॰—अनु-आस्—-—सेवा करना, सेवा में प्रस्तुत रहना
- अन्वास्—अदा॰ आ॰—अनु-आस्—-—धरना देना
- उदास्—अदा॰ आ॰—उद्-आस्—-—उदासीन या बेलाग होना, निश्चिन्त या निरपेक्ष होना, निष्क्रिय या अकर्मण्य होना
- उपास्—अदा॰ आ॰—उप्-आस्—-—सेवा में प्रस्तुत होना, सेवा करना, पूजा करना
- उपास्—अदा॰ आ॰—उप्-आस्—-—उपागमन करना, की ओर जाना
- उपास्—अदा॰ आ॰—उप्-आस्—-—भाग लेना, अनुष्ठान करना
- उपास्—अदा॰ आ॰—उप्-आस्—-—बिताना
- उपास्—अदा॰ आ॰—उप्-आस्—-—भोगना, झेलना
- उपास्—अदा॰ आ॰—उप्-आस्—-—आश्रय लेना, काम में लगाना, प्रयोग करना
- उपास्—अदा॰ आ॰—उप्-आस्—-—धनुर्विद्य का अभ्यास करना
- उपास्—अदा॰ आ॰—उप्-आस्—-—प्रत्त्याशा करना, प्रतीक्षा करना
- पर्युपास्—अदा॰ आ॰—पर्युप-आस्—-—उपासना करना, पूजा करना, अर्चना करना
- पर्युपास्—अदा॰ आ॰—पर्युप-आस्—-—पहुँचना, शरण लेना, या संरक्षण में आना
- पर्युपास्—अदा॰ आ॰—पर्युप-आस्—-—घेरना, घेरा डालना
- पर्युपास्—अदा॰ आ॰—पर्युप-आस्—-—भाग लेना, हिस्सा लेना
- पर्युपास्—अदा॰ आ॰—पर्युप-आस्—-—आश्रय लेना
- समास्—अदा॰ आ॰—सम्-आस्—-—बैठ जाना
- समास्—अदा॰ आ॰—सम्-आस्—-—मिल कर बैठना
- समुपास्—अदा॰ आ॰—समुप्-आस्—-—सेवा के लिए प्रस्तुत रहना, पूजा करना, सेवा करना
- समुपास्—अदा॰ आ॰—समुप्-आस्—-—अनुष्ठान करना
- आसः—पुं॰—-—आस्+घञ्—आसन
- आसः—पुं॰—-—आस्+घञ्—धनुष
- आसक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+सञ्ज्+क्त—अत्यनुरक्त, कृतसंकल्प, जुटा हुआ, लगा हुआ
- आसक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+सञ्ज्+क्त—स्थिर, टिका हुआ
- आसक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+सञ्ज्+क्त—निरन्तर, अनवरत, शाश्वत
- आसक्तचित्त—वि॰—आसक्त-चित्त—-—एकनिष्ठ, एकाग्र
- आसक्तचेतस्—वि॰—आसक्त-चेतस्—-—एकनिष्ठ, एकाग्र
- आसक्तमानस्—वि॰—आसक्त-मानस्—-—एकनिष्ठ, एकाग्र
- आसक्तिः—स्त्री॰—-—आ+सञ्ज्+क्तिन्—अनुराग, भक्ति, लगाव
- आसक्तिः—स्त्री॰—-—आ+सञ्ज्+क्तिन्—उत्सुकता, लगाव
- आसङ्गः—पुं॰—-—आ+सञ्ज्+घञ्—अनुराग, भक्ति
- आसङ्गः—पुं॰—-—आ+सञ्ज्+घञ्—सम्पर्क, अनुरक्ति, चिपकाव
- आसङ्गः—पुं॰—-—आ+सञ्ज्+घञ्—साहचर्य, संयोग, सम्मिलन
- आसङ्गः—पुं॰—-—आ+सञ्ज्+घञ्—स्थिरीकरण, बन्धन
- आसङ्गिनी—स्त्री॰—-—आसङ्ग+इनि+ङीप्—चक्रवात, बगूला, हूला
- आसञ्जनम्—नपुं॰—-—आ+सञ्ज्+ल्युट्—बाँधना, जमाना, धारण करना
- आसञ्जनम्—नपुं॰—-—आ+सञ्ज्+ल्युट्—फँस जाना, चिपकना
- आसञ्जनम्—नपुं॰—-—आ+सञ्ज्+ल्युट्—अनुराग, भक्ति
- आसञ्जनम्—नपुं॰—-—आ+सञ्ज्+ल्युट्—सम्पर्क, सामीप्य
- आसत्तिः—स्त्री॰—-—आ+सद्+क्तिन्—मिलन, संयोग
- आसत्तिः—स्त्री॰—-—आ+सद्+क्तिन्—अंतरंग मेल, घनिष्ठ सम्पर्क
- आसत्तिः—स्त्री॰—-—आ+सद्+क्तिन्—उपलब्धि, लाभ, उपार्जन
- आसत्तिः—स्त्री॰—-—आ+सद्+क्तिन्—सामीप्य दो या दो अधिक निकस्थ राशियों का सम्बन्ध और उनके द्वारा अभिव्यक्त भाव
- आसन्—नपुं॰—-—-—मुख
- आसनम्—नपुं॰—-—आस्+ल्युट्—बैठना
- आसनम्—नपुं॰—-—आस्+ल्युट्—आसन, स्थान, स्टूल
- आसनम्—नपुं॰—-—आस्+ल्युट्—एक विशेष अंगविन्यास या बैठने का ढंग
- आसनम्—नपुं॰—-—आस्+ल्युट्—बैठ जाना या ठहरना
- आसनम्—नपुं॰—-—आस्+ल्युट्—रतिक्रिया की विशेष विधि
- आसनम्—नपुं॰—-—आस्+ल्युट्—शत्रु के विरुद्ध किसी स्थान पर डटे रहना, वेदेशनीति के ६ प्रकारों में से एक
- आसनम्—नपुं॰—-—आस्+ल्युट्—हाथी के शरीर का अगला भाग, घोड़े का कन्धा
- आसना—स्त्री॰—-—आस्+ल्युट्+टाप्—आसन, तिपाई जिस पर बैठा जाय, टेक
- आसना—स्त्री॰—-—आस्+ल्युट्+टाप्—बैठने का एक छोटा स्थान स्टूल
- आसना—स्त्री॰—-—आस्+ल्युट्+टाप्—दुकानम्, आपणिका
- आसनम्बन्धधीर—वि॰—आसनम्-बन्धधीर—-—बैठने के लिए दृढ़ संकल्पवाला, अपने आसन पर दृढ़
- आसन्दी—स्त्री॰—-—आसद्यतेऽस्याम्-आ+सद्+ट, नुम्, नि॰ ङीप्—तकियेदार आराम कुर्सी
- आसन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+सद्+क्त—उपागत, निकट
- आसन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+सद्+क्त—निकटवर्ती, सन्निहित
- आसन्नकालः—पुं॰—आसन्न-कालः—-—मृत्यु का समय
- आसन्नकालः—पुं॰—आसन्न-कालः—-—जिसकी मृत्यु निकट हो
- आसन्नपरिचारकः—पुं॰—आसन्न-परिचारकः—-—व्यक्तिगत सेवक, शरीर रक्षक
- आसन्नपरिचारिका—स्त्री॰—आसन्न-परिचारिका—-—व्यक्तिगत सेवक, शरीर रक्षक
- आसम्बाध—वि॰—-—आसमन्तात् सम्बाधा यत्र ब॰ स॰—समवरुद्ध, रोका हुआ, घेरा हुआ
- आसवः—पुं॰—-—आ+सु+अण्—अर्क
- आसवः—पुं॰—-—आ+सु+अण्—काढ़ा
- आसवः—पुं॰—-—आ+सु+अण्—मद्यनिष्कर्ष
- आसादनम्—नपुं॰—-—आ+सद्+णिच्+ल्युट्—प्राप्त करना, उपलब्ध करना
- आसादनम्—नपुं॰—-—आ+सद्+णिच्+ल्युट्—आक्रमण करना
- आसारः—पुं॰—-—आ+सृ+घञ्—मूसलाधार बौछार
- आसारः—पुं॰—-—आ+सृ+घञ्—शत्रु का घेरा डालना
- आसारः—पुं॰—-—आ+सृ+घञ्—आक्रमण, अचानक हमला
- आसारः—पुं॰—-—आ+सृ+घञ्—अपने किसी मित्र राजा की सेना
- आसारः—पुं॰—-—आ+सृ+घञ्—रसद, आहार
- आसिकः—पुं॰—-—असि+ठक्—खड्गधारी, तलवार लिए हुए
- आसिधारम्—नपुं॰—-—असिधारा इव अस्त्यत्र अण्—एक प्रकार का ब्रतविशेष
- आसुतिः—स्त्री॰—-—आ+सु+क्तिन्—अर्क
- आसुतिः—स्त्री॰—-—आ+सु+क्तिन्—काढ़ा
- आसुर—वि॰—-—असुर+अण्—असुरों से संबंध रखने वाला
- आसुर—वि॰—-—असुर+अण्—भूत-प्रेतों से संबंध रखने वाला
- आसुर—वि॰—-—असुर+अण्—नारकीय, राक्षसी
- आसुरः—पुं॰—-—असुर+अण्—राक्षस
- आसुरः—पुं॰—-—असुर+अण्—आठ प्रकार के विवाहों में से एक जिसमें कि वर, वधू को उसके पिता या पैतृकबांधवों से खरीद लेता है
- आसुरी—स्त्री॰—-—असुर+अण्—शल्यचिकित्सा, जर्राही
- आसुरी—स्त्री॰—-—असुर+अण्—राक्षसी
- आसूत्रित—वि॰—-—आ+सूत्र+क्त—माला पहने हुए या माला के रूप में
- आसूत्रित—वि॰—-—आ+सूत्र+क्त—अंतग्रर्थित
- आसेकः—पुं॰—-—आ+सिच्+घञ्—गीला करना, खींचना, ऊपर से उड़ेलना
- आसेचनम्—नपुं॰—-—आ+सिच्+ल्युट्—ऊपर से उड़ेलना, गीला करना, छिड़कना
- आसेधः—पुं॰—-—आ+सिध्+घञ्—गिरफ्तारी, हिरासत, कानूनी प्रतिबंध
- आसेवा—स्त्री॰—-—-—सोत्साह अभ्यास, किसी क्रियाका सतत अनुष्ठान
- आसेवा—स्त्री॰—-—-—बारंबार होना, आवृत्ति
- आसेवनम्—नपुं॰—-—-—सोत्साह अभ्यास, किसी क्रियाका सतत अनुष्ठान
- आसेवनम्—नपुं॰—-—-—बारंबार होना, आवृत्ति
- आस्कन्दः—पुं॰—-—आ+स्कन्द्+घञ्—आक्रमण, हमला, सतीत्वनाश
- आस्कन्दः—पुं॰—-—आ+स्कन्द्+घञ्—चढ़ना, सवारी करना, रौंदना
- आस्कन्दः—पुं॰—-—आ+स्कन्द्+घञ्—भर्त्सना, दुर्वचन
- आस्कन्दः—पुं॰—-—आ+स्कन्द्+घञ्—घोड़े की सरपट चाल
- आस्कन्दः—पुं॰—-—आ+स्कन्द्+घञ्—लड़ाई, युद्ध
- आस्कन्दनम्—नपुं॰—-—आ+स्कन्द्+ल्युट् —आक्रमण, हमला, सतीत्वनाश
- आस्कन्दनम्—नपुं॰—-—आ+स्कन्द्+ल्युट् —चढ़ना, सवारी करना, रौंदना
- आस्कन्दनम्—नपुं॰—-—आ+स्कन्द्+ल्युट् —भर्त्सना, दुर्वचन
- आस्कन्दनम्—नपुं॰—-—आ+स्कन्द्+ल्युट् —घोड़े की सरपट चाल
- आस्कन्दनम्—नपुं॰—-—आ+स्कन्द्+ल्युट् —लड़ाई, युद्ध
- आस्कन्दितम्—नपुं॰—-—आ+स्कन्द्+क्त—घोड़े की चाल, घोड़े की सरपट चाल
- आस्कन्दितकम्—नपुं॰—-—आ+स्कन्द्+क्त, स्वार्थे कन् —घोड़े की चाल, घोड़े की सरपट चाल
- आस्कन्दिन्—वि॰—-—आ+स्कन्द्+णिनि—चढ़ बैठने वाला, टूट पड़ने वाला
- आस्तरः—पुं॰—-—आ+स्तृ+अप्—चादर, ओढ़ने का वस्त्र
- आस्तरः—पुं॰—-—आ+स्तृ+अप्—दरी, बिस्तरा, चटाई
- आस्तरः—पुं॰—-—आ+स्तृ+अप्—विस्तरण, फैलाव
- आस्तरणम्—नपुं॰—-—आ+स्तृ+ल्युट्—विस्तरण, बिछावन
- आस्तरणम्—नपुं॰—-—आ+स्तृ+ल्युट्—बिस्तरा, तह
- आस्तरणम्—नपुं॰—-—आ+स्तृ+ल्युट्—गद्दा, रजाई, बिस्तर के कपडे
- आस्तरणम्—नपुं॰—-—आ+स्तृ+ल्युट्—दरी
- आस्तरणम्—नपुं॰—-—आ+स्तृ+ल्युट्—हाथी की जीनपोश, साज-समान, रंगीन झूल
- आस्तारः—पुं॰—-—आ+स्तृ+घञ्—फैलाना, बिछाना, बखेरना
- आस्तारपङ्क्तिः—स्त्री॰—आस्तारः-पङ्क्तिः—-—छन्द का नाम
- आस्तिक—वि॰—-—अस्ति+ठक्—जो ईश्वर और परलोक में विश्वास रखता है
- आस्तिक—वि॰—-—अस्ति+ठक्—अपनी धर्म-परंपरा में विश्वास रखने वाला
- आस्तिक—वि॰—-—अस्ति+ठक्—पवित्रात्मा, भक्त, श्रद्धालु
- आस्तिकता—स्त्री॰—-—आस्तिक+तल् —ईश्वर और परलोक में विश्वास
- आस्तिकता—स्त्री॰—-—आस्तिक+तल् —पवित्रता, भक्ति, श्रद्धा
- आस्तिकत्वम्—नपुं॰—-—आस्तिक+त्वल्—ईश्वर और परलोक में विश्वास
- आस्तिकत्वम्—नपुं॰—-—आस्तिक+त्वल्—पवित्रता, भक्ति, श्रद्धा
- आस्तिक्यम्—नपुं॰—-—आस्तिक+ष्यञ्—ईश्वर और परलोक में विश्वास
- आस्तिक्यम्—नपुं॰—-—आस्तिक+ष्यञ्—पवित्रता, भक्ति, श्रद्धा
- आस्तीकः—पुं॰—-—-—एक प्राचीन मुनि, जरत्कारु का पुत्र
- आस्था—स्त्री॰—-—आ+स्था+अङ्—श्रद्धा, देखभाल, आदर, विचार, ध्यान रखना
- आस्था—स्त्री॰—-—आ+स्था+अङ्—स्वीकिति, वादा
- आस्था—स्त्री॰—-—आ+स्था+अङ्—थूनी, सहारा, टेक
- आस्था—स्त्री॰—-—आ+स्था+अङ्—आशा, भरोसा
- आस्था—स्त्री॰—-—आ+स्था+अङ्—प्रयत्न
- आस्था—स्त्री॰—-—आ+स्था+अङ्—दशा, अवस्था
- आस्था—स्त्री॰—-—आ+स्था+अङ्—सभा
- आस्थानम्—नपुं॰—-—आ+स्था+ल्युट्—स्थान, जगह
- आस्थानम्—नपुं॰—-—आ+स्था+ल्युट्—नींव, आधार
- आस्थानम्—नपुं॰—-—आ+स्था+ल्युट्—सभा
- आस्थानम्—नपुं॰—-—आ+स्था+ल्युट्—देखभाल, श्रद्धा
- आस्थानम्—स्त्री॰—-—आ+स्था+ल्युट्—श्रद्धा, देखभाल, आदर, विचार, ध्यान रखना
- आस्थानम्—स्त्री॰—-—आ+स्था+ल्युट्—स्वीकृति, वादा
- आस्थानम्—स्त्री॰—-—आ+स्था+ल्युट्—थूनी, सहारा, टेक
- आस्थानम्—स्त्री॰—-—आ+स्था+ल्युट्—आशा, भरोसा
- आस्थानम्—स्त्री॰—-—आ+स्था+ल्युट्—प्रयत्न
- आस्थानम्—स्त्री॰—-—आ+स्था+ल्युट्—दशा, अवस्था
- आस्थानम्—नपुं॰—-—आ+स्था+ल्युट्—सभागृह
- आस्थानम्—नपुं॰—-—आ+स्था+ल्युट्—विश्रामस्थान
- आस्थानी—स्त्री॰—-—आ+स्था+ल्युट्+ङीप्—सभा-भवन
- आस्थानगृहम्—नपुं॰—आस्थानम्-गृहम्—-—सभा-भवन
- आस्थाननिकेतनम्—नपुं॰—आस्थानम्-निकेतनम्—-—सभा-भवन
- आस्थानमण्डपः—पुं॰—आस्थानम्-मण्डपः—-—सभा-भवन
- आस्थित—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—रहने वाला, बसने वाला, आश्रय लेने वाला, काम में लगने वाला, अभ्यास करने वाला, अपने आप को ढालने वाला
- आस्पदम्—नपुं॰—-—आ+पद्+घ सुट् च—स्थान, जगह, आसन, ठौर
- आस्पदम्—नपुं॰—-—आ+पद्+घ सुट् च—आवास, स्थल, आशय
- आस्पदम्—नपुं॰—-—आ+पद्+घ सुट् च—श्रेणी, दर्जा, केन्द्र-स्थान
- आस्पदम्—नपुं॰—-—आ+पद्+घ सुट् च—मर्यादा, प्रामाणिकत, पद
- आस्पदम्—नपुं॰—-—आ+पद्+घ सुट् च—व्यवसाय, काम
- आस्पदम्—नपुं॰—-—आ+पद्+घ सुट् च—थूनी, आश्रय
- आस्पन्दनम्—नपुं॰—-—आ+स्पन्द्+ल्युट्—धड़कना, काँपना
- आस्पर्धा—स्त्री॰—-—-—होड़, प्रतोद्वंद्विता
- आस्फालः—पुं॰—-—आ+स्फल्+णिच्+अच्—मारना, रगड़ना, शनैः शनैः चलाना
- आस्फालः—पुं॰—-—आ+स्फल्+णिच्+अच्—फड़फड़ाना
- आस्फालः—पुं॰—-—आ+स्फल्+णिच्+अच्—विशेष रूप से हाथी के कानों की फड़फड़ाहट
- आस्फालनम्—नपुं॰—-—आ+स्फल्+णिच्+ल्युट्—रगड़ना, दबा कर पकड़ना, हिलना, फड़फड़ाना
- आस्फालनम्—नपुं॰—-—आ+स्फल्+णिच्+ल्युट्—घमण्ड, हेकड़ी
- आस्फोटः—पुं॰—-—आ+स्फुट्+अच्—आक या मदार का पौधा
- आस्फोटः—पुं॰—-—आ+स्फुट्+अच्—ताल ठोकना
- आस्फोटा—स्त्री॰—-—-—नवमल्लिका का पौधा, जङ्गली चमेली
- आस्फोटनम्—नपुं॰—-—आ+स्फुट्+ल्युट्—फटकना
- आस्फोटनम्—नपुं॰—-—आ+स्फुट्+ल्युट्—कांपना
- आस्फोटनम्—नपुं॰—-—आ+स्फुट्+ल्युट्—फूंक मारना, फुलाना
- आस्फोटनम्—नपुं॰—-—आ+स्फुट्+ल्युट्—सिकोड़ना, बन्द करना
- आस्फोटनम्—नपुं॰—-—आ+स्फुट्+ल्युट्—ताल ठोकना
- आस्माक—वि॰—-—अस्मद्+अण्, खञ्, आस्माक आदेशः—हमारा, हम सब का
- आस्माकीन—वि॰—-—अस्मद्+अण्, खञ्, आस्माक आदेशः—हमारा, हम सब का
- आस्यम्—नपुं॰—-—अस्यते ग्रसोऽत्र-अस्+ण्यत्—मुँह, जबड़ा
- आस्यम्—नपुं॰—-—अस्यते ग्रसोऽत्र-अस्+ण्यत्—चेहरा, आस्यकमलम्
- आस्यम्—नपुं॰—-—अस्यते ग्रसोऽत्र-अस्+ण्यत्—मुख का वह भाग जिससे वर्णोच्चारण में काम लिया जाता है
- आस्यम्—नपुं॰—-—अस्यते ग्रसोऽत्र-अस्+ण्यत्—मुँह, विवर-ब्रणास्यम्, अङ्कास्यम् आदि
- आस्यासवः—पुं॰—आस्यम्-आसवः—-—लार, लुआब
- आस्यपत्रम्—नपुं॰—आस्यम्-पत्रम्—-—कमल
- आस्यलाङ्गलः—पुं॰—आस्यम्-लाङ्गलः—-—कुत्ता
- आस्यलाङ्गलः—पुं॰—आस्यम्-लाङ्गलः—-—सूअर
- आस्यलोमन्—नपुं॰—आस्यम्-लोमन्—-—दाढ़ी
- आस्यन्दम्—नपुं॰—-—आ+स्यन्द्+ल्युट्—बहना, रिसना
- आस्यन्धय—वि॰—-—आस्यं धयति-धे+ख मुम्—मुखचुम्बन करने वाला
- आस्या—स्त्री॰—-—आस्+क्यप्—आसन, तिपाई जिस पर बैठा जाय, टेक
- आस्या—स्त्री॰—-—आस्+क्यप्—बैठने का एक छोटा स्थान स्टूल
- आस्या—स्त्री॰—-—आस्+क्यप्—दुकानम्, आपणिका
- आस्रम्—नपुं॰—-—अस्र+अण्—रुधिर
- आस्रपः—पुं॰—आस्रम्-पः—-—खून पीने वाला राक्षस
- आस्रवः—पुं॰—-—आ+स्रु+अप्—पीडा, कष्ट, दुःख
- आस्रवः—पुं॰—-—आ+स्रु+अप्—बहाव, स्रवण
- आस्रवः—पुं॰—-—आ+स्रु+अप्—बहना, निकलना
- आस्रवः—पुं॰—-—आ+स्रु+अप्—अपराध, अतिक्रमण
- आस्रवः—पुं॰—-—आ+स्रु+अप्—उबलते हुए चावलों का झाग
- आस्रावः—पुं॰—-—आ+स्रु+घञ्—घाव
- आस्रावः—पुं॰—-—आ+स्रु+घञ्—बहाव, निकास
- आस्रावः—पुं॰—-—आ+स्रु+घञ्—लार
- आस्रावः—पुं॰—-—आ+स्रु+घञ्—पीड़ा, कष्ट
- आस्वादः—पुं॰—-—आ+स्वद्+घञ्—चखना, खाना
- आस्वादः—पुं॰—-—आ+स्वद्+घञ्—स्वाद लेना
- आस्वादः—पुं॰—-—आ+स्वद्+घञ्—सुखोपभोग करना, अनुभव करना
- आस्वादवत्—वि॰—-—-—स्वादिष्ट, रसीला
- आस्वादनम्—नपुं॰—-—आ+स्वद्+णिच्+ल्युट्—चखना, खाना
- आह—अव्य॰—-—आ+हन्+ड—निम्नांकित भावनाओं को द्योतन करने वाला विस्मयादिद्योतक अव्यय - (क) झिड़की (ख) कठोरता (ग) आज्ञा (घ) फेंकना, भेजना
- आह—अव्य॰—-—आ+हन्+ड—कहना' 'बोलना' अर्थ को प्रगट करने वाली सदोष क्रिया के वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन का अनियमित रूप
- आहत—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+हन्+क्त—जिस पर प्रहार या अघात किया गया हो, पीटा गया
- आहत—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+हन्+क्त—रौंदा गया
- आहत—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+हन्+क्त—घायल, मारा हुआ
- आहत—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+हन्+क्त—गुणित
- आहत—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+हन्+क्त—लुढ़काया हुआ
- आहत—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+हन्+क्त—मिथ्या कहा हुआ
- आहतः—पुं॰—-—आ+हन्+क्त—ढोल
- आहतम्—नपुं॰—-—-—नई पोशाक, नया वस्त्र
- आहतम्—नपुं॰—-—-—भावहीन या निरर्थक भाषण, असम्भावना की दृढ़ोक्ति
- आहतलक्षण—वि॰—आहतम्-लक्षण—-—आहितलक्षण
- आहतिः—स्त्री॰—-—आ+हन्+क्तिन्—हत्या करना
- आहतिः—स्त्री॰—-—आ+हन्+क्तिन्—प्रहार, चोट, मारना, पीटना
- आहतिः—स्त्री॰—-—आ+हन्+क्तिन्—यष्टि, छड़ी
- आहर—वि॰—-—आ+हृ+अच्—लाने वाला, ले आने वाला, ग्रहण करने वाला, पकड़ने वाला
- आहरः—पुं॰—-—आ+हृ+अच्—ग्रहण करना, पकड़ना
- आहरः—पुं॰—-—आ+हृ+अच्—पूरा करना, सम्पन्न करना
- आहरः—पुं॰—-—आ+हृ+अच्—यज्ञ करना
- आहरणम्—नपुं॰—-—आ+हृ+ल्युट्—ले आना, लाना
- आहरणम्—नपुं॰—-—आ+हृ+ल्युट्—पकड़ना, ग्रहण करना
- आहरणम्—नपुं॰—-—आ+हृ+ल्युट्—हटाना, निकालना
- आहरणम्—नपुं॰—-—आ+हृ+ल्युट्—सम्पन्न करना
- आहरणम्—नपुं॰—-—आ+हृ+ल्युट्—पूरा करना
- आहरणम्—नपुं॰—-—आ+हृ+ल्युट्—विवाह के समय दुलहिन को उपहार के रूप में दिया जाने वाला धन, दहेज
- आहवः—पुं॰—-—आ+ह्वे+अप्—युद्ध, संग्राम, लड़ाई
- आहवः—पुं॰—-—आ+ह्वे+अप्—ललकार, चुनौती, आह्वान
- आहवकाम्या—स्त्री॰—-—-—लड़ने की इच्छा
- आहवः—पुं॰—-—आ+ह्वे+अप्—यज्ञ
- आहवनम्—नपुं॰—-—आ+हु+ल्युट्—यज्ञ
- आहवनम्—नपुं॰—-—आ+हु+ल्युट्—आहुति
- आहवनीय—स॰ कृ॰—-—आ+हु+अनीयर्—आहुति देने के योग्य
- आहवनीयः—पुं॰—-—आ+हु+अनीयर्—गार्हपत्याग्नि से ली हुई अभिमन्त्रित अग्नि, तीन अग्नियों में से एक जो यज्ञ में प्रज्वलित की जाती हैं
- आहारः—पुं॰—-—आ+हृ+घञ्—लाना, ले आना, या निकट लाना
- आहारः—पुं॰—-—आ+हृ+घञ्—भोजन करना
- आहारः—पुं॰—-—आ+हृ+घञ्—भोजन
- आहारपाकः—पुं॰—आहारः-पाकः—-—भोजन का पचना
- आहारविरहः—पुं॰—आहारः-विरहः—-—भोजन की कमी
- आहारसम्भवः—पुं॰—आहारः-सम्भवः—-—शरीर का रस, लसीका
- आहार्य—स॰ कृ॰—-—आ+हृ+ण्यत्—ग्रहण करने या पकड़ने के योग्य
- आहार्य—स॰ कृ॰—-—आ+हृ+ण्यत्—लाने या ले आने के योग्य
- आहार्य—स॰ कृ॰—-—आ+हृ+ण्यत्—कृत्रिम, नैमित्तिक, बाह्य
- आहार्य—स॰ कृ॰—-—आ+हृ+ण्यत्—साभिप्राय, अभिप्रेत
- आहार्य—स॰ कृ॰—-—आ+हृ+ण्यत्—श्रृंगार या आभूषा से संप्रेषित या प्रभावित, अभिनय के चार प्र्कारों में से एक
- आहावः—पुं॰—-—आ+ह्वे+घञ्—पशुओं को पानी पिलाने के लिए कुएँ के पस बनी कूंड
- आहावः—पुं॰—-—आ+ह्वे+घञ्—संग्राम, युद्ध
- आहावः—पुं॰—-—आ+ह्वे+घञ्—आह्वान, ललकार
- आहावः—पुं॰—-—आ+ह्वे+घञ्—अग्नि
- आहिण्डिकः—पुं॰—-—आहिंड+ठक्—निषाद पिता और वैदेही माता से उत्पन्न वर्णसंकर
- आहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+धा+क्त—स्थापित, जड़ा गया, जमा किया गया
- आहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+धा+क्त—अनुभूत, सत्कृत
- आहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—आ+धा+क्त—सम्पन्न किया गया
- आहिताग्निः—पुं॰—आहित-अग्निः—-—ब्राह्मण जो यज्ञ की पावन अग्नि को अभिमंत्रित करता है
- आहिताङ्क—वि॰—आहित-अङ्क—-—चिह्नित, चित्तीदार
- आहितलक्षण—वि॰—आहित-लक्षण—-—परिचायक चिह्न वाला
- आहितुण्डिकः—पुं॰—-—अहितुण्डेन दीव्यति ठक्—बाजीगर, सपेरा, ऐंन्द्रजालिक या जादूगर
- आहुतिः—स्त्री॰—-—आ+हु+क्तिन्—किसी देवता को आहुति देना, पुण्यकृत्यों के उपलक्ष्य में किये जाने वाले यज्ञों में हवनसामग्री हवन कुंड में डालना
- आहुतिः—स्त्री॰—-—आ+हु+क्तिन्—किसी देवता को उदिष्ट करके दी गई आहुति
- आहुतिः—स्त्री॰—-—आ+ह्वे+क्तिन्—चुनौती, ललकार, आह्वान
- आहेय—वि॰—-—अहि+ढक्—साँपों से संबंध रखने वाला
- आहो—अव्य॰—-—-—निम्नांकित भावनाओं को व्यक्त करने वाला विस्मयादि द्योतक अव्यय (क) सन्देह या विकल्प, प्रायः 'किम्' का सहसंबंधी, (ख) प्रश्नवाचकता
- आहोपुरुषिका—स्त्री॰—आहो-पुरुषिका—-—अत्यधिक अहंमन्यता या घमंड
- आहोपुरुषिका—स्त्री॰—आहो-पुरुषिका—-—सैनिक आत्मश्लाघा, शेखी बघारना
- आहोपुरुषिका—स्त्री॰—आहो-पुरुषिका—-—अपने पराक्रम की डींग मारना
- आहोस्वित्—अव्य॰—आहो-स्वित्—-—संदेह' 'संभावना' 'संभाव्यता' आदि भावनाओं को प्रकट करने वाला अव्यय
- आह्नम्—नपुं॰—-—अह्नां समूहः-अञ्—दिनों का समूह, बहुत दिन
- आह्निक—वि॰—-—अह्नि भवः, अह्ना निर्वृत्तः साध्यः-ठञ्—दैनिक, प्रति दिन का , प्रतिदिन किया गया, दिन भर किया गया धार्मिक संस्कार या कर्तव्य जो प्रति दिन नियत समय पर किया जाने वाला है, प्रतिदिन किया जाने वाला कार्य, जैसे कि भोजन करना, स्नान क्लरना आदि
- आह्निक—वि॰—-—अह्नि भवः, अह्ना निर्वृत्तः साध्यः-ठञ्—दैनिक भोजन
- आह्निक—वि॰—-—अह्नि भवः, अह्ना निर्वृत्तः साध्यः-ठञ्—दैनिक कार्य या व्यवसाय
- आह्लादः—पुं॰—-—आ+ह्लाद्+घञ्—खुशी, हर्ष
- आहलादनम्—नपुं॰—-—आ+ह्लाद्+ल्युट्—प्रसन्न करना, खुश करना
- आह्वः—वि॰—-—आ+ह्वे+ड—जो पुकारता है, बुलाता है, बुलाने वाला
- आह्वा—स्त्री॰—-—आ+ह्वे+अङ्+टाप्—बुलाना, पुकारना
- आह्वा—स्त्री॰—-—आ+ह्वे+अङ्+टाप्—नाम, अभिधान
- आह्वयः—पुं॰—-—आ+ह्वे+श-बा॰—नाम, अभिधान
- आह्वयः—पुं॰—-—आ+ह्वे+श-बा॰—एक कानूनी अभियोग जो मुर्गों की लड़ाई जैसे पशु-खेलों में होने वाले झगड़ों से पैदा हो
- आह्वायनम्—नपुं॰—-—आ+ह्वे+णिच्+ल्युट्—नाम, अभिधान
- आह्वानम्—नपुं॰—-—आ+ह्वे+ल्युट्—ललकार, आमन्त्रण
- आह्वानम्—नपुं॰—-—आ+ह्वे+ल्युट्—बुलावा, निमन्त्रण, आमन्त्रित करना
- आह्वानम्—नपुं॰—-—आ+ह्वे+ल्युट्—कानून आमंत्रण
- आह्वानम्—नपुं॰—-—आ+ह्वे+ल्युट्—देवता का संबोधन
- आह्वानम्—नपुं॰—-—आ+ह्वे+ल्युट्—चुनौती
- आह्वानम्—नपुं॰—-—आ+ह्वे+ल्युट्—नाम, अभिधान
- आह्वायः—पुं॰—-—आ+ह्वे+घञ्—बुलावा
- आह्वायः—पुं॰—-—आ+ह्वे+घञ्—नाम
- आह्वायकः—पुं॰—-—आ+ह्वे+ण्वुल्—दूत, संदेशवाहक