विक्षनरी:संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश/वी-शस्य
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- मूलशब्द—व्याकरण—संधिरहित मूलशब्द—व्युत्पत्ति—हिन्दी अर्थ
- वी—अदा॰ पर॰< वेति>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- वी—अदा॰ पर॰< वेति>—-—-—पहुँचना
- वी—अदा॰ पर॰< वेति>—-—-—व्याप्त होना
- वी—अदा॰ पर॰< वेति>—-—-—लाना, पहुँचाना
- वी—अदा॰ पर॰< वेति>—-—-—फेंक देना, डालना
- वी—अदा॰ पर॰< वेति>—-—-—खाना, उपभोग करना
- वी—अदा॰ पर॰< वेति>—-—-—प्राप्त करना
- वी—अदा॰ पर॰< वेति>—-—-—गर्भधारण करना, उत्पन्न करना
- वी—अदा॰ पर॰< वेति>—-—-—पैदा होना, जन्म लेना
- वी—अदा॰ पर॰< वेति>—-—-—चमकना, सुन्दर होना
- वीकः—पुं॰—-—अज् + कन्, वी आदेशः—वायु
- वीकः—पुं॰—-—-—पक्षी
- वीकः—पुं॰—-—-—मन
- वीकाशः—पुं॰—-—-—प्रकटीकरण, प्रदर्शन, दिखलावा
- वीकाशः—पुं॰—-—-—खिलना, फूलना
- वीकाशः—पुं॰—-—-—खुला सीधा मार्ग
- वीकाशः—पुं॰—-—-—टेढ़ा मार्ग
- वीकाशः—पुं॰—-—-—हर्ष, आनन्द
- वीकाशः—पुं॰—-—-—उत्सुकता, प्रबल उत्कंठा
- वीकाशः—पुं॰—-—-—एकान्तवास, एकाकीपन, सूनापन
- वीक्षम्—नपुं॰—-—वि + ईक्ष् + अच्—दृश्य पदार्थ
- वीक्षम्—नपुं॰—-—-—अचम्भा, आश्चर्य
- वीक्षः—पुं॰—-—-—देखना, ताकना
- वीक्षा—स्त्री॰—-—-—देखना, ताकना
- वीक्षणम्—नपुं॰—-—वि + ईक्ष् + ल्युट्—देखना, निहारना, दृष्टि डालना
- वीक्षणा—स्त्री॰—-—-—देखना, निहारना, दृष्टि डालना
- वीक्षितम्—नपुं॰—-—वि + ईक्ष् + क्त—दृष्टि, झलक
- वीक्ष्य—वि॰—-—वि + ईक्ष् + ण्यत्—देखे जाने के योग्य
- वीक्ष्य—वि॰—-—-—दृश्य, दृष्टिगोचर
- वीक्ष्यः—पुं॰—-—-—नर्तक, नट, अभिनेता, पात्र
- वीक्ष्यः—पुं॰—-—-—घोड़ा
- वीक्ष्यम्—नपुं॰—-—-—देखे जाने के योग्य कोई भी वस्तु, दृश्यमान पदार्थ
- वीक्ष्यम्—नपुं॰—-—-—आश्चर्य, अचंभा
- वीङ्खा—स्त्री॰—-—वि + इङ्ख् + अ + टाप्—जाना, हिलना-जुलना, प्रगति
- वीङ्खा—स्त्री॰—-—-—घोड़े का कदम
- वीङ्खा—स्त्री॰—-—-—नाच
- वीङ्खा—स्त्री॰—-—-—संगम, मिलन
- वीचिः—पुं॰,स्त्री॰—-—वे + इचि, डिच्च—लहर
- वीचिः—पुं॰,स्त्री॰—-—-—असंगति, विचारशून्यता
- वीचिः—पुं॰,स्त्री॰—-—-—आनन्द, प्रसन्नता
- वीचिः—पुं॰,स्त्री॰—-—-—विश्राम, अवकाश
- वीचिः—पुं॰,स्त्री॰—-—-—प्रकाश की किरण
- वीचिः—पुं॰,स्त्री॰—-—-—स्वल्पता
- वीची—स्त्री॰—-—-—लहर
- वीची—स्त्री॰—-—-—असंगति, विचारशून्यता
- वीची—स्त्री॰—-—-—आनन्द, प्रसन्नता
- वीची—स्त्री॰—-—-—विश्राम, अवकाश
- वीची—स्त्री॰—-—-—प्रकाश की किरण
- वीची—स्त्री॰—-—-—स्वल्पता
- वीचिमालिन्—पुं॰—वीचिः-मालिन्—-—समुद्र
- वीज्—भ्वा॰ आ॰ <वीजते>—-—-—जाना
- वीज्—चुरा॰ उभ॰ <वीजयति>,<वीजयते>—-—-—पंखा करना, पंखा करके ठंडा करना
- अभिवीज्—चुरा॰ उभ॰—अभि-वीज्—-—पंखा करना
- उपवीज्—चुरा॰ उभ॰—उप-वीज्—-—पंखा करना
- परिवीज्—चुरा॰ उभ॰—परि-वीज्—-—पंखा करना
- वीजम्—नपुं॰—-—वि + जन् + ड उपसर्गस्य दीर्घः बवयोरभेदः—बीज, बीज का दाना, अनाज
- वीजम्—नपुं॰—-—वि + जन् + ड उपसर्गस्य दीर्घः बवयोरभेदः—जीवाणु, तत्त्व
- वीजम्—नपुं॰—-—वि + जन् + ड उपसर्गस्य दीर्घः बवयोरभेदः—मूल, स्रोत, कारण
- वीजम्—नपुं॰—-—वि + जन् + ड उपसर्गस्य दीर्घः बवयोरभेदः—वीर्य, शुक्र
- वीजम्—नपुं॰—-—वि + जन् + ड उपसर्गस्य दीर्घः बवयोरभेदः—किसी नाटक की कथावस्तु का बीज, कहानी आदि
- वीजम्—नपुं॰—-—वि + जन् + ड उपसर्गस्य दीर्घः बवयोरभेदः—गूदा
- वीजम्—नपुं॰—-—वि + जन् + ड उपसर्गस्य दीर्घः बवयोरभेदः—बीजगणित
- वीजम्—नपुं॰—-—वि + जन् + ड उपसर्गस्य दीर्घः बवयोरभेदः—बीजमंत्र
- वीजः—पुं॰—-—-—नींबू का पेड़
- वीजकः—पुं॰—-—वीज + कन्—सामान्य नींबू
- वीजकः—पुं॰—-—वीज + कन्—नींबू या चकोतरा
- वीजकः—पुं॰—-—वीज + कन्—जन्म के समय बच्चे को भुजाओं की स्थिति
- वीजकम्—नपुं॰—-—-—बीज
- वीजल—वि॰—-—वीज + लच्—बीजों से युक्त, बीजों वाला
- वीजिक—वि॰—-—बीज + ठन्—बीजों से भरा हुआ, जिसमें बहुत बीज हों
- वीजिन्—वि॰—-—बीज + इनि—बीजों से युक्त, बीज रखने वाला
- वीजिन्—पुं॰—-—-—वास्तविक पिता या प्रजनक (बीज का बोने वाला)
- वीजिन्—पुं॰—-—-—पिता
- वीजिन्—पुं॰—-—-—सूर्य
- वीज्य—वि॰—-—वीज + यत्—बीज से उत्पन्न
- वीज्य—वि॰—-—वीज + यत्—सम्मानित कुल का , सत्कुलोद्भव
- वीजनः—पुं॰—-—वीज् + ल्युट्—चक्रवाक
- वीजनः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का चकोर
- वीजनम्—नपुं॰—-—-—पंखा करना
- वीजनम्—नपुं॰—-—-—पंखा
- वीटा—स्त्री॰—-—वि + इट् + क + टाप्—लकड़ी का एक छोटा टुकड़ा, गुल्ली (लगभग एक बालिश्त) जिसको लड़के डंडा मार कर खेलते हैं, गुल्ली डंडा
- वीटिः—स्त्री॰—-—वि + इट् + इन्, स च कित्—पान की बेल
- वीटिः—स्त्री॰—-—-—पान लगाना
- वीटिः—स्त्री॰—-—-—बंधन, गाँठ, ग्रंथि (पहने जाने बाले वस्त्र की)
- वीटिः—स्त्री॰—-—-—चोली की तनी
- वीटिका—स्त्री॰—-—वीटि + कन् + टाप्—पान की बेल
- वीटिका—स्त्री॰—-—-—पान लगाना
- वीटिका—स्त्री॰—-—-—बंधन, गाँठ, ग्रंथि (पहने जाने बाले वस्त्र की)
- वीटिका—स्त्री॰—-—-—चोली की तनी
- वीटी—स्त्री॰—-—वीटि + ङीष् —पान की बेल
- वीटी—स्त्री॰—-—-—पान लगाना
- वीटी—स्त्री॰—-—-—बंधन, गाँठ, ग्रंथि (पहने जाने बाले वस्त्र की)
- वीटी—स्त्री॰—-—-—चोली की तनी
- वीणा—स्त्री॰—-—वेति वृद्धिमात्रमपगच्छति-वी + न, नि॰ णत्वम्—सारंगी, बीणा
- वीणा—स्त्री॰—-—-—बिजली
- वीणास्यः—पुं॰—वीणा-आस्यः—-—नारद का विशेषण
- वीणादण्डः—पुं॰—वीणा-दण्डः—-—वीणा की गर्दंन
- वीणावादः—पुं॰—वीणा-वादः—-—वीणा बजाने वाला
- वीणावादकः—पुं॰—वीणा-वादकः—-—वीणा बजाने वाला
- वीत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + इ + क्त—गया हुआ, अंतर्हित
- वीत—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—जो चला गया, बिदा हो गया
- वीत—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—जिसको जाने दिया गया, ढीला उन्मुक्त
- वीत—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—अलगाया हुआ, विमुक्त किया हुआ
- वीत—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—अनुमोदित, पसंद किया गया
- वीत—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—युद्ध के अयोग्य
- वीत—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—पालतू, शान्त
- वीत—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—मुक्त, शून्य
- वीतः—पुं॰—-—-—हाथी या घोड़ा जो युद्ध के अयोग्य हो या सधाया न गया हो
- वीतम्—नपुं॰—-—-—(हाथी को) अंकुश से गोदना तथा पैरों से प्रहार करना
- वीतदम्भ—वि॰—वीत-दम्भ—-—विनम्र, विनीत
- वीतभय—वि॰—वीत-भय—-—निर्भय, निडर
- वीतयः—पुं॰—वीत-यः—-—विष्णु का विशेषण
- वीतमल—वि॰—वीत-मल—-—पवित्र, निर्मल
- वीतराग—वि॰—वीत-राग—-—इच्छारहित
- वीतराग—वि॰—वीत-राग—-—निरावेश, सौम्य, शान्त
- वीतराग—वि॰—वीत-राग—-—विवर्ण, बिना रंग का
- वीतगः—पुं॰—वीत-गः—-—एक ऋषि जिसनें अपने रागों का दमन कर लिया था
- वीतशोकः—पुं॰—वीत-शोकः—-—अशोक वृक्ष
- वीतंसः—पुं॰—-—विशेषेण बहिरेव तस्यते भूष्यते-वि + तंस् + घञ्, उपसर्गस्य दीर्घः—पींजरा या जाल जिसमें पक्षी या अन्य वन्य पशु फंसाये जाते हैं
- वीतंसः—पुं॰—-—-—चिड़ियाघर, शिकार के पशुओं को पालने का स्थान
- वीतनौ—पुं॰—-—विशिष्टं तनोति-वि + तन् + अच्, पृषो॰ दीर्घः—गले के अगल बगल के पार्श्व
- वीतिः—पुं॰—-—वी + क्तिन्—घोड़ा
- वीतिः—स्त्री॰—-—-—गति, चाल
- वीतिः—स्त्री॰—-—-—पैदावार, उपज
- वीतिः—स्त्री॰—-—-—सुखोपभोग
- वीतिः—स्त्री॰—-—-—भोजन करना
- वीतिः—स्त्री॰—-—-—प्रकाश, कान्ति
- वीतिहोत्रः—पुं॰—वीतिः-होत्रः—-—अग्नि
- वीतिहोत्रः—पुं॰—वीतिः-होत्रः—-—सूर्य
- वीथिः—स्त्री॰—-—विथ + इन्—सड़क, मार्ग
- वीथिः—स्त्री॰—-—-—पंक्ति, कतार
- वीथिः—स्त्री॰—-—-—हाट, आपणिका, मंडी में दुकान
- वीथिः—स्त्री॰—-—-—नाटक का एक भेद
- वीथी—स्त्री॰—-—विथ + ङीप्, पृषो॰—सड़क, मार्ग
- वीथी—स्त्री॰—-—-—पंक्ति, कतार
- वीथी—स्त्री॰—-—-—हाट, आपणिका, मंडी में दुकान
- वीथी—स्त्री॰—-—-—नाटक का एक भेद
- वीथिका—स्त्री॰—-—वीथि + कन् + टाप्—सड़क आदि
- वीथिका—स्त्री॰—-—-—चित्रशाला, चित्रसारी (जिस पर चित्र चित्रित किये जाते हैं) चित्रागार, चित्रावली
- वीध्र—वि॰—-—विशेषेण इन्धते- वि + इन्ध् + क्रन्, उपसर्गस्य दीर्घः—निर्मल, स्वच्छ
- वीध्रम्—नपुं॰—-—-—आकाश
- वीध्रम्—नपुं॰—-—-—वायु, हवा
- वीध्रम्—नपुं॰—-—-—अग्नि
- वीनाहः—पुं॰—-—वि + नह् + घञ्, उपसर्गस्य दीर्घः—कुएँ का ढक्कन या मणि
- वीपा—स्त्री॰ —-—-—विद्युत्, बिजली
- वीप्सा—स्त्री॰—-—वि + आप् + सन् + अ + टाप्, ईत्वम्—परिव्याप्ति
- वीप्सा—स्त्री॰—-—-—(नैरंतर्य प्रकट करने के लिए) शब्द द्विरुक्ति
- वीप्सा—स्त्री॰—-—-—सामान्य पुनरुक्ति
- वीभ्—भ्वा॰ आ॰ <वीभते>—-—-—शेखी मारना, डींग मारना
- वीर—वि॰—-—अजेः रक् वीभावश्च—शूर, वीर
- वीर—वि॰—-—-—ताकतवर, शक्तिशाली
- वीरः—पुं॰—-—-—शूरवीर, योद्धा, प्रजेता
- वीरः—पुं॰—-—-—वीरभावना, वीररस, इसके चार भेद (दानवीर, धर्मवीर, दयावीर और युद्धवीर) किये गये हैं
- वीरः—पुं॰—-—-—अभिनेता
- वीरः—पुं॰—-—-—आग
- वीरः—पुं॰—-—-—यज्ञ की अग्नि
- वीरः—पुं॰—-—-—पुत्र
- वीरः—पुं॰—-—-—पति
- वीरः—पुं॰—-—-—अर्जुन वृक्ष
- वीरः—पुं॰—-—-—विष्णु का नाम
- वीरम्—नपुं॰—-—-—नरकुल
- वीरम्—नपुं॰—-—-—मिर्च
- वीरम्—नपुं॰—-—-—चावल का माड़
- वीरम्—नपुं॰—-—-—उशीर का जड़, खस
- वीराशंसनम्—नपुं॰—वीर-आशंसनम्—-—निगरानी रखना
- वीराशंसनम्—नपुं॰—वीर-आशंसनम्—-—युद्ध में जोखिम से भरा पद
- वीराशंसनम्—नपुं॰—वीर-आशंसनम्—-—छोड़ी हुई आशा
- वीरासनम्—नपुं॰—वीर-आसनम्—-—योगाभ्यास करते समय एक विशेष मुद्रा
- वीरासनम्—नपुं॰—वीर-आसनम्—-—एक घुटना मोड़ कर बैठना
- वीरासनम्—नपुं॰—वीर-आसनम्—-—संतरी की चौकी
- वीरीशः—पुं॰—वीर-ईशः—-—शिव के विशेषण
- वीरीशः—पुं॰—वीर-ईशः—-—महान् वीर
- वीरेश्वरः—पुं॰—वीर-ईश्वरः—-—शिव के विशेषण
- वीरेश्वरः—पुं॰—वीर-ईश्वरः—-—महान् वीर
- वीरुज्झः—पुं॰—वीर-उज्झः—-—वह ब्राह्मण जो यज्ञाग्नि में आहुति नहीं डालता, अग्निहोत्र न करने वाला ब्राह्मण
- वीरकीटः—पुं॰—वीर-कीटः—-—तुच्छ सैनिक
- वीरजयन्तिका—स्त्री॰—वीर-जयन्तिका—-—रणनृत्य
- वीरजयन्तिका—स्त्री॰—वीर-जयन्तिका—-—संग्राम, युद्ध
- वीरतरुः—पुं॰—वीर-तरुः—-—अर्जुन वृक्ष
- वीरधन्वन्—पुं॰—वीर-धन्वन्—-—कामदेव
- वीरपानम्—नपुं॰—वीर-पानम्—-—एक उत्तेजक या श्रमापहारक तेज जो सैनिक लोग युद्ध के आरम्भ या अवसान पर पीते हैं
- वीरपाणम्—नपुं॰—वीर-पाणम्—-—एक उत्तेजक या श्रमापहारक तेज जो सैनिक लोग युद्ध के आरम्भ या अवसान पर पीते हैं
- वीरभद्रः—पुं॰—वीर-भद्रः—-—एक शक्तिशाली शूरवीर जिसे शिव ने अपनी जटाओं से निकाला था
- वीरभद्रः—पुं॰—वीर-भद्रः—-—माना हुआ योद्धा
- वीरभद्रः—पुं॰—वीर-भद्रः—-—अश्वमेध यज्ञ के उपयुक्त घोड़ा
- वीरभद्रः—पुं॰—वीर-भद्रः—-—एक प्रकार का सुगन्धित घास
- वीरमुद्रिका—स्त्री॰—वीर-मुद्रिका—-—पैर की मध्यमा अंगुली में पहना जाने वाला छल्ला
- वीररजस्—नपुं॰—वीर-रजस्—-—सिन्दूर
- वीररस—वि॰—वीर-रस—-—वीरता का भाव
- वीररस—वि॰—वीर-रस—-—सामरिक भावना
- वीररेणुः—पुं॰—वीर-रेणुः—-—भीमसेन का नाम
- वीरविप्लावकः—पुं॰—वीर-विप्लावकः—-—शूद्र से धन लेकर हवन करने वाला
- वीरवृक्षः—पुं॰—वीर-वृक्षः—-—अर्जुन वृक्ष
- वीरवृक्षः—पुं॰—वीर-वृक्षः—-—भिलावें का वृक्ष
- वीरसूः—स्त्री॰ —वीर-सूः—-—शूरवीर पुरुष की माता
- वीरप्रसवा—स्त्री॰ —वीर-प्रसवा—-—शूरवीर पुरुष की माता
- वीरप्रसूः—स्त्री॰ —वीर-प्रसूः—-—शूरवीर पुरुष की माता
- वीर-प्रसविनी—स्त्री॰ —वीर-प्रसविनी—-—शूरवीर पुरुष की माता
- वीरसैन्यम्—नपुं॰—वीर-सैन्यम्—-—लहसुन
- वीरस्कन्धः—पुं॰—वीर-स्कन्धः—-—भैंसा
- वीरहन्—पुं॰—वीर-हन्—-—वह ब्राह्मण जिसने दैनिक अग्निहोत्र करना छोड़ दिया है
- वीरहन्—पुं॰—वीर-हन्—-—विष्णु
- वीरणम्—नपुं॰—-—वि + ईर् + ल्युट्—एक सुगन्धित घास, उशीर
- वीरणी—स्त्री॰ —-—वीरण + ङीष्—तिरछी चितवन, कटाक्ष
- वीरणी—स्त्री॰ —-—-—गहरा स्थान
- वीरतरः—पुं॰—-—वीर + तरप्—महान् वीर
- वीरतरः—पुं॰—-—-—बाण
- वीरतरम्—नपुं॰—-—-—एक प्रकार का सुगन्धित घास, उशीर
- वीरन्धरः—पुं॰—-—वीर + धृ + खच्, मुम्—मोर
- वीरन्धरः—पुं॰—-—-—वन्य पशुओं के साथ लड़ाई
- वीरन्धरः—पुं॰—-—-—चमड़े की जाकेट
- वीरवत्—वि॰—-—वीर + मतुप्—शूरवीरों से भरा हुआ
- वीरवती—स्त्री॰ —-—-—वह स्त्री जिसका पति और पुत्र जीवित हों
- वीरा—स्त्री॰ —-—वीर + टाप्—शूरवीर पुरुष की स्त्री
- वीरा—स्त्री॰ —-—-—पत्नी
- वीरा—स्त्री॰ —-—-—माता, गृहिणी
- वीरा—स्त्री॰ —-—-—मुरा नामक एक गन्धद्रव्य
- वीरा—स्त्री॰ —-—-—शराब
- वीरा—स्त्री॰ —-—-—अगर की लकड़ी
- वीरा—स्त्री॰ —-—-—केले का पेड़
- वीरिणम्—नपुं॰—-—-—मरुस्थल, बंजर
- वीरिणम्—नपुं॰—-—-—ऊसर, बंजर भूमि
- वीरुध्—पुं॰—-—विशेषेण रुणद्धि अन्यान् वृक्षान्-वि + रुध् + क्विप् पक्षे टाप्, उपसर्गस्य दीर्घः—लहलहाने वाली लता
- वीरुध्—पुं॰—-—-—शाखा, अङ्कुर
- वीरुध्—पुं॰—-—-—काटने पर ही बढ़ने वाला पौधा
- वीरुध्—पुं॰—-—-—बेल, लता, झाड़ी
- वीर्यम्—नपुं॰—-—वीर् + यत्—शूरवीरता, पराक्रम, बहादुरी
- वीर्यम्—नपुं॰—-—-—बल, सामर्थ्य
- वीर्यम्—नपुं॰—-—-—पुंस्त्व
- वीर्यम्—नपुं॰—-—-—ऊर्जा, दृढ़ता, साहस
- वीर्यम्—नपुं॰—-—-—शक्ति, क्षमता
- वीर्यम्—नपुं॰—-—-—(औषधियों की) अचूकता, अतिवीर्यवतीव भेषजे बहुरल्पीयसि दृश्यते गुणः @ कि॰ २/२४, @ कु॰ २/४८
- वीर्यम्—नपुं॰—-—-—शुक्र, वीर्य
- वीर्यम्—नपुं॰—-—-—आभा, कान्ति
- वीर्यम्—नपुं॰—-—-—गौरव, महिमा
- वीर्यजः—पुं॰—वीर्यम्-जः—-—पुत्र
- वीर्यप्रपातः—पुं॰—वीर्यम्-प्रपातः—-—वीर्य का क्षरण या स्खलन
- वीर्यवत्—वि॰—-—वीर्य + मतुप्—मजबूत, हृष्टपुष्ट, बलवान्
- वीर्यवत्—वि॰—-—-—अचूक, अमोघ
- वीवधः—पुं॰—-—वि + वध् + घञ्, वृद्ध्यभावो दीर्घश्च—बोझा ढोने के लिए जूआ, बहंगी
- वीवधः—पुं॰—-—-—बोझा
- वीवधः—पुं॰—-—-—अनाज का भंडार भरना
- वीवधः—पुं॰—-—-—मार्ग, सड़क
- वीवधिकः—पुं॰—-—वीवध + ठन्—बहंगी ढोने वाला
- वीहारः—पुं॰—-—वि + हृ + घञ्, उपसर्गस्य दीर्घः—जैन विहार या बौद्धमठ
- वीहारः—पुं॰—-—-—देवालय
- वुङ्ग्—भ्वा॰ पर॰ <वुङ्गति>—-—-—छोड़ना, परित्याग करना
- वुण्ट्—चुरा॰ उभ॰ <वुण्टयति>, <वुण्टयते>—-—-—चोट पहुँचाना वध करना
- वुण्ट्—चुरा॰ उभ॰ <वुण्टयति>, <वुण्टयते>—-—-—नष्ट करना
- वुवूर्षु—वि॰—-—वृ + सन् + उ—पसन्द करने का इच्छुक
- वुस्—दिवा॰पर॰—-—-—छोड़ना, उगलना, उडलना
- वूर्ण—वि॰—-—वृ + क्त—छांटा हुआ, चुना हुआ
- वृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ <वरति>, <वरते>, <वृणोति>, <वृणुते>, <वृणाति>, <वृणीते>, <वृत>, कर्मवा॰ <व्रियते>—-—-—छांटना, चुनना, पसन्द करना
- वृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ <वरति>, <वरते>, <वृणोति>, <वृणुते>, <वृणाति>, <वृणीते>, <वृत>, कर्मवा॰ <व्रियते>—-—-—अपने लिए चुनना
- वृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ <वरति>, <वरते>, <वृणोति>, <वृणुते>, <वृणाति>, <वृणीते>, <वृत>, कर्मवा॰ <व्रियते>—-—-—विवाह के लिए वरण करना, प्रणय-प्रार्थना करना, प्रणययाचना करना
- वृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ <वरति>, <वरते>, <वृणोति>, <वृणुते>, <वृणाति>, <वृणीते>, <वृत>, कर्मवा॰ <व्रियते>—-—-—प्रार्थना करना, निवेदन करना, याचना करना
- वृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ <वरति>, <वरते>, <वृणोति>, <वृणुते>, <वृणाति>, <वृणीते>, <वृत>, कर्मवा॰ <व्रियते>—-—-—ढकना, छिपाना गुप्त रखना, परदा डालना, लपेटना
- वृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ <वरति>, <वरते>, <वृणोति>, <वृणुते>, <वृणाति>, <वृणीते>, <वृत>, कर्मवा॰ <व्रियते>—-—-—घेरना, लपेटना
- वृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ <वरति>, <वरते>, <वृणोति>, <वृणुते>, <वृणाति>, <वृणीते>, <वृत>, कर्मवा॰ <व्रियते>—-—-—परे हटना, दूर करना, नियंत्रण करना, रोकना
- वृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ <वरति>, <वरते>, <वृणोति>, <वृणुते>, <वृणाति>, <वृणीते>, <वृत>, कर्मवा॰ <व्रियते>—-—-—विघ्न डालनाम् विरोध करना, अड़चन डालना
- वृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰, प्रेर॰ <वारयति>, <वारयते>—-—-—ढकना, छिपाना
- वृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰, प्रेर॰ <वारयति>, <वारयते>—-—-—(किसी वस्तु से) आँख फेर लेना
- वृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰, प्रेर॰ <वारयति>, <वारयते>—-—-—रोकना, हटाना, नियंत्रण करना, दबाना, जांच पड़ताल करना, विघ्न डालना
- वृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰, इच्छा॰ <वुवूर्षति>, <वुवूर्षते>, <विविरिषति>, <विविरिषते>, <विवरिषति>, <विवरिषते>—-—-—चुनने की इच्छा करना
- अपवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —अप-वृ—-—खोलना
- अपवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰, प्रेर॰ —अप-वृ—-—ढकना, छिपाना
- अपावृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —अपा-वृ—-—खोलना
- आवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —आ-वृ—-—ढकना, छिपाना, गुप्त रखना
- आवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —आ-वृ—-—चुनना, इच्छा करना
- आवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —आ-वृ—-—निवेदन करना, प्रार्थना करना
- आवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —आ-वृ—-—घेरना, नाके बंदी करना, रोकना
- आवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —आ-वृ—-—दूर रखना
- निवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —नि-वृ—-—घेरा डालना, घेरना
- निवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰, प्रेर॰ —नि-वृ—-—परे हटना, दूर करना, आँखें फेरना
- निर्वृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —निस्-वृ—-—(बहुधा क्तांत रूप) प्रसन्न होना, संतुष्ट या संतृप्त होना
- परिवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —परि-वृ—-—घेरना
- प्रवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —प्र-वृ—-—ढाकना, लपेटना
- प्रवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —प्र-वृ—-—पहनना, धारण करना
- प्रवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —प्र-वृ—-—चुनना, छाटना
- प्रावृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —प्रा-वृ—-—पहनना, धारण करना
- विवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —वि-वृ—-—ढक देना, ठहरना
- विवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —वि-वृ—-—खोलना
- विवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —वि-वृ—-—तह खोलना, भंडाफोड़ करना, भेद खोलना, प्रकट करना, प्रदर्शन
- विवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —वि-वृ—-—सिखाना, व्याख्या करना, स्पष्ट करना
- विवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —वि-वृ—-—फैलाना
- विवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —वि-वृ—-—चुनना
- विनिवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰, प्रेर॰ —विनि-वृ—-—रोकना, दूर हटाना, दबाना
- संवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —सम्-वृ—-—छिपाना, ढकना, प्रच्छन्न करना
- संवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —सम्-वृ—-—दबाना, नियंत्रित करना, विरोध करना
- संवृ—भ्वा॰, स्वा॰ , क्र्या॰ उभ॰ —सम्-वृ—-—बन्द करना
- वृ—चुरा॰ उभ॰ <वरयति>, <वरयते>—-—-—वरण करना, चुनना
- वृ—चुरा॰ उभ॰ <वरयति>, <वरयते>—-—-—विवाह के लिए पसंद करना
- वृ—चुरा॰ उभ॰ <वरयति>, <वरयते>—-—-—याचन करना, प्रार्थना करना, निवेदन करना
- वृंह्—भ्वा॰तुदा॰पर॰—-—-—बढ़ना, उगना
- वृंह्—भ्वा॰तुदा॰पर॰—-—-—दहाड़ना
- वृंह्—भ्वा॰तुदा॰पर॰—-—-—पालन-पोषण करना
- वृंहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—बृंह् + क्त—उगा हुआ, बढ़ा हुआ
- वृंहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—बृंह् + क्त—चिंघाड़ा हुआ
- वृंहितम्—नपुं॰—-—-—हाथी की चिंघाड़
- वृक्—भ्वा॰ आ॰ <वर्कंते>—-—-—पकड़ना, लेना, ग्रहण करना
- वृकः—पुं॰—-—वृ + कक् —भेड़िया
- वृकः—पुं॰—-—-—लकड़बग्धा
- वृकः—पुं॰—-—-—गीदड़
- वृकः—पुं॰—-—-—कौवा
- वृकः—पुं॰—-—-—उल्लू
- वृकः—पुं॰—-—-—लुटेरा
- वृकः—पुं॰—-—-—क्षत्रिय
- वृकः—पुं॰—-—-—तारपीन
- वृकः—पुं॰—-—-—गन्धद्रव्यों का मिश्रण
- वृकः—पुं॰—-—-—एक राक्षस का नाम
- वृकः—पुं॰—-—-—एक वृक्ष का नाम, बकवृक्ष
- वृकः—पुं॰—-—-—जठराग्नि
- वृकारातिः—पुं॰—वृकः-अरातिः—-—कुत्ता
- वृकारिः—पुं॰—वृकः-अरिः—-—कुत्ता
- वृकोदरः—पुं॰—वृकः-उदरः—-—ब्रह्मा का विशेषण
- वृकोदरः—पुं॰—वृकः-उदरः—-—द्वितीय पांडव राजकुमार भीम का विशेषण
- वृकदंशः—पुं॰—वृकः-दंशः—-—कुत्ता
- वृकधूपः—पुं॰—वृकः-धूपः—-—तारपीन
- वृकधूपः—पुं॰—वृकः-धूपः—-—मिश्रगंध
- वृकधूर्तः—पुं॰—वृकः-धूर्तः—-—गीदड़
- वृक्कः —पुं॰—-—-—हृदय
- वृक्कः —द्वि॰ व॰ —-—-—गुर्दा
- वृक्का—स्त्री॰—-—-—हृदय
- वृक्का—द्वि॰ व॰ —-—-—गुर्दा
- वृक्ण—भू॰ क॰ कृ॰—-—व्रश्च् + क्त—कटा हुआ, बांटा हुआ
- वृक्ण—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—फाड़ा हुआ
- वृक्ण—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—तोड़ा हुआ
- वृक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वृज् + क्त—स्वच्छ किया गया, साफ़ किया गया, निर्मल किया गया
- वृक्ष्—भ्वा॰ आ॰ <वृक्षते>—-—-—स्वीकार करना, चुनना
- वृक्ष्—भ्वा॰ आ॰ <वृक्षते>—-—-—ढकना
- वृक्षः—पुं॰—-—व्रश्च् + क्स्—पेड़
- वृक्षादनः—पुं॰—वृक्षः-अदनः—-—बढ़ई की चौरसी
- वृक्षादनः—पुं॰—वृक्षः-अदनः—-—कुल्हाड़ी
- वृक्षादनः—पुं॰—वृक्षः-अदनः—-—बड़ का पेड़
- वृक्षादनः—पुं॰—वृक्षः-अदनः—-—पियाल वृक्ष
- वृक्षाम्लः—पुं॰—वृक्षः-अम्लः—-—आमड़ा
- वृक्षालयः—पुं॰—वृक्षः-आलयः—-—एक पक्षी
- वृक्षावासः—पुं॰—वृक्षः-आवासः—-—एक पक्षी
- वृक्षावासः—पुं॰—वृक्षः-आवासः—-—संन्यासी
- वृक्षाश्रयिन्—पुं॰—वृक्षः-आश्रयिन्—-—एक प्रकार का छोटा उल्लू
- वृक्षकुक्कटः—पुं॰—वृक्षः-कुक्कुटः—-—जंगली मुर्गा
- वृक्षखंड—पुं॰—वृक्षः-खंड—-—निकुंज, वृक्षों का समूह
- वृक्षचरः—पुं॰—वृक्षः-चरः—-—बन्दर
- वृक्षछाया—स्त्री॰—वृक्षः-छाया—-—वृक्ष की छाया
- वृक्षछायम्—नपुं॰—वृक्षः-छायम्—-—सघन छाया, बहुत से वृक्षों की (गाढ़ी) छाया
- वृक्षधूपः—पुं॰—वृक्षः-धूपः—-—तारपीन
- वृक्षनाथः—पुं॰—वृक्षः-नाथः—-—बड़ का पेड़
- वृक्षनिर्यासः—पुं॰—वृक्षः-निर्यासः—-—गोंद, राल
- वृक्षपाकः—पुं॰—वृक्षः-पाकः—-—बड़ का पेड़
- वृक्षभिद्—स्त्री॰—वृक्षः-भिद्—-—कुल्हाड़ी
- वृक्षमर्कटिका—स्त्री॰—वृक्षः-मर्कटिका—-—गिलहरी
- वृक्षवाटिका—स्त्री॰—वृक्षः-वाटिका—-—उद्यान, उपवन
- वृक्षवाटी—स्त्री॰—वृक्षः-वाटी—-—उद्यान, उपवन
- वृक्षशः—पुं॰—वृक्षः-शः—-—छिपकली
- वृक्षशायिका—स्त्री॰—वृक्षः-शायिका—-—गिलहरी
- वृक्षकः—पुं॰—-—वृक्ष + कन्—छोटा पेड़
- वृक्षकः—पुं॰—-—-—पेड़
- वृच्—रुधा॰ पर॰ <वृणक्ति>—-—-—छांटना, चुनना
- वृज्—अदा॰ पर॰ <वृक्ते>—-—-—टाल जाना, कतराना, परित्याग करना
- वृज्—रुधा॰ पर॰ <वृणक्ति>—-—-—टाल जाना, कतराना, छोड़ देना, परित्याग करना
- वृज्—रुधा॰ पर॰ <वृणक्ति>—-—-—चुनना
- वृज्—रुधा॰ पर॰ <वृणक्ति>—-—-—प्रायश्चित करना, पोंछ डालना, निर्मल करना
- वृज्—रुधा॰ पर॰ <वृणक्ति>—-—-—मुड़ना, आँख फेरना
- वृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰ <वर्जति>, <वर्जयति>, <वर्जयते>, <वर्जित>—-—-—कतराना, टाल जाना
- वृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰ <वर्जति>, <वर्जयति>, <वर्जयते>, <वर्जित>—-—-—छोड़ना, परित्याग करना
- वृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰ <वर्जति>, <वर्जयति>, <वर्जयते>, <वर्जित>—-—-—निकाल देना, एक ओर रख देना
- वृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰ <वर्जति>, <वर्जयति>, <वर्जयते>, <वर्जित>—-—-—अलग रहना
- वृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰ <वर्जति>, <वर्जयति>, <वर्जयते>, <वर्जित>—-—-—टुकड़े टुकड़े कर देना
- अपवृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰—अप-वृज्—-—नष्ट करना
- अपवृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰—अप-वृज्—-—समाप्त करना
- अपवृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰—अप-वृज्—-—छोड़ना, त्याग देना
- अपवृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰—अप-वृज्—-—उडेलना, फेंकना
- आवृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰—आ-वृज्—-—झुकना, मुड़ना
- आवृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰—आ-वृज्—-—प्रस्तुत करना, देना
- आवृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰—आ-वृज्—-—परास्त करना, जीतना
- परिवृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰—परि-वृज्—-—टाल जाना, कतराना
- विवृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰—वि-वृज्—-—कतराना, टाल जाना
- विवृज्—भ्वा॰ पर॰, चुरा॰ उभ॰—वि-वृज्—-—विरहित करना, वञ्चित करना
- वृजनः—पुं॰—-—वृ्जेः क्युः—बाल
- वृजनः—पुं॰—-—-—घुंघराले बाल
- वृजनम्—नपुं॰—-—-—पाप
- वृजनम्—नपुं॰—-—-—संकट
- वृजनम्—नपुं॰—-—-—आकाश
- वृजनम्—नपुं॰—-—-—घेर, बाड़ा, विशेषतः एक गोचरभूमि
- वृजिन—वि॰—-—वृ्जेः इनज् कित् च—कुटिल, झुका हुआ, वक्र
- वृजिन—वि॰—-—-—दुष्ट, पापी
- वृजिनः—पुं॰—-—-—बाल, घुंघराले बाल
- वृजिनः—पुं॰—-—-—दुष्ट पुरुष
- वृजिनम्—नपुं॰—-—-—पाप
- वृजिनम्—नपुं॰—-—-—पीडा, दुःख
- वृजिनम्—पुं॰—-—-—पीडा, दुःख
- वृण्—तना॰ उभ॰ <वृणोति>, <वृणुते>—-—-—खाना, उपभोग करना
- वृत्—दिवा॰ आ॰ <वृत्यते>—-—-—चुनना, पसंद करना
- वृत्—दिवा॰ आ॰ <वृत्यते>—-—-—वितरण करना, बाँटना
- वृत्—चुरा॰ उभ॰ <वर्तयति>, <वर्तयते>—-—-—चमकना
- वृत्—भ्वा॰ आ॰ <वर्तते>—-—-—होना, विद्यमान होनाम् डटे रहना, मौजूद होना, जीते रहना, टिके रहना
- वृत्—भ्वा॰ आ॰ <वर्तते>—-—-—किसी विशेष दशा या परिस्थिति में होना
- वृत्—भ्वा॰ आ॰ <वर्तते>—-—-—होना, घटित होना, आ पड़ना, सामने आना
- वृत्—भ्वा॰ आ॰ <वर्तते>—-—-—चलते रहना, प्रगतिशील रहना
- वृत्—भ्वा॰ आ॰ <वर्तते>—-—-—संधारित या संपोषित
- वृत्—भ्वा॰ आ॰ <वर्तते>—-—-—मुड़ना, लुढकते रहना, चक्कर खाना
- वृत्—भ्वा॰ आ॰ <वर्तते>—-—-—अपने आप को कार्य में लगाना, काम में लगना, आरम्भ करना
- वृत्—भ्वा॰ आ॰ <वर्तते>—-—-—कर्तव्य निभाना, व्यवहार करना, आचरण करना, अनुष्ठान करना, अभ्यास करना
- वृत्—भ्वा॰ आ॰ <वर्तते>—-—-—कार्य करना, विशेष प्रकार का आचरण करना
- वृत्—भ्वा॰ आ॰ <वर्तते>—-—-—अर्थ रखना, अभिप्राय बतलाना, अर्थ में प्रयुक्त होना
- वृत्—भ्वा॰ आ॰ <वर्तते>—-—-—प्रवृत्त करना, प्रेरित करना
- वृत्—भ्वा॰ आ॰ <वर्तते>—-—-—सहारा लेना, आश्रित होना
- वृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰ <वर्तयति>, <वर्तयते>—-—-—प्रवृत्त कराना
- वृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰ <वर्तयति>, <वर्तयते>—-—-—घुमाना, चक्कर दिलाना
- वृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰ <वर्तयति>, <वर्तयते>—-—-—(अस्त्र-शस्त्र) घुमाना, पैंतरे बदलना, घुमा कर फेंकना
- वृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰ <वर्तयति>, <वर्तयते>—-—-—कार्य करना, अभ्यास करना, प्रदर्शित करना @ मा॰ ९/३३
- वृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰ <वर्तयति>, <वर्तयते>—-—-—सम्पन्न करना, निबटाना, ध्यान देना, नज़र डालना
- वृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰ <वर्तयति>, <वर्तयते>—-—-—बिताना, (समय आदि) गुज़ारना
- वृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰ <वर्तयति>, <वर्तयते>—-—-—जीवन निर्वाह करना जीते रहना @ कि॰ २/१८, @ रघु॰ १२/२०
- वृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰ <वर्तयति>, <वर्तयते>—-—-—वर्णन करना, बयान करना
- वृत्—भ्वा॰उभ॰, इच्छा॰ <विवृत्सति>, <विवृत्सते>—-—-—वर्णन करना, बयान करना
- अतिवृत्—भ्वा॰उभ॰—अति-वृत्—-—परे जाना, आगे बढ़ जाना
- अतिवृत्—भ्वा॰उभ॰—अति-वृत्—-—आगे निकल जाना, सर्वोत्कृष्ट होना
- अतिवृत्—भ्वा॰उभ॰—अति-वृत्—-—उल्लंघन करना, बाहर कदम रखना, अतिक्रमण करना
- अतिवृत्—भ्वा॰उभ॰—अति-वृत्—-—उपेक्षा करना, अवहेलना करना
- अतिवृत्—भ्वा॰उभ॰—अति-वृत्—-—चोट पहुँचाना, क्षतिग्रस्त करना, नाराज करना
- अतिवृत्—भ्वा॰उभ॰—अति-वृत्—-—पराजित करना, वशीभूत करना
- अतिवृत्—भ्वा॰उभ॰—अति-वृत्—-—(समय का) बिताना
- अतिवृत्—भ्वा॰उभ॰—अति-वृत्—-—विलंब करना, देरी करना
- अनुवृत्—भ्वा॰उभ॰—अनु-वृत्—-—अनुसरण करना, अनुरूप होना, अनुकूल कार्य करना
- अनुवृत्—भ्वा॰उभ॰—अनु-वृत्—-—अनुरंजन करना, दूसरे की इच्छा के अनुसार अपने आपको बनाना, दूसरे के द्वारा पथप्रदर्शन प्राप्त किया जाना
- अनुवृत्—भ्वा॰उभ॰—अनु-वृत्—-—आज्ञा मानना
- अनुवृत्—भ्वा॰उभ॰—अनु-वृत्—-—मिलना-जुलना, नकल करना
- अनुवृत्—भ्वा॰उभ॰—अनु-वृत्—-—प्रसन्न करना, खुश करना
- अनुवृत्—भ्वा॰उभ॰—अनु-वृत्—-—किसी पूर्ववर्ती सूत्र से आवृत्ति प्राप्त करना
- अनुवृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰—अनु-वृत्—-—मुड़ना
- अनुवृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰—अनु-वृत्—-—अनुगमन करना, आज्ञा मानना
- अपवृत्—भ्वा॰उभ॰—अप-वृत्—-—मुड़ जाना, पीठ मोड़ना
- अपवृत्—भ्वा॰उभ॰—अप-वृत्—-—व्यत्यस्त या व्युत्क्रान्त होना, उलटा हो जाना
- अपवृत्—भ्वा॰उभ॰—अप-वृत्—-—मुँह नीचे कर लेना
- अपवृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰—अप-वृत्—-—एक ओर हो जाना, झुकना
- अभिवृत्—भ्वा॰उभ॰—अभि-वृत्—-—पहुँचाना, जाना, निकट होना, समीप होना, मुड़ना
- अभिवृत्—भ्वा॰उभ॰—अभि-वृत्—-—आक्रमण करना, धावा बोलना, टूट पड़ना @ कि॰ १३/३
- अभिवृत्—भ्वा॰उभ॰—अभि-वृत्—-—आरम्भ करना, (दिन), निकलना
- अभिवृत्—भ्वा॰उभ॰—अभि-वृत्—-—सर्वोपरि होना, सबसे ऊपर होना
- अभिवृत्—भ्वा॰उभ॰—अभि-वृत्—-—होना, मौजूद होना, घटित होना
- आवृत्—भ्वा॰उभ॰—आ-वृत्—-—चक्कर खाना
- आवृत्—भ्वा॰उभ॰—आ-वृत्—-—वापिस आना
- आवृत्—भ्वा॰उभ॰—आ-वृत्—-—पास जाना
- आवृत्—भ्वा॰उभ॰—आ-वृत्—-—बेचैन होना, चक्कर खाना
- उद्वृत्—भ्वा॰उभ॰—उद्-वृत्—-—चढ़ना
- उद्वृत्—भ्वा॰उभ॰—उद्-वृत्—-—उदित होना, बढ़ना
- उद्वृत्—भ्वा॰उभ॰—उद्-वृत्—-—घमंडी या अभिमानी होना
- उद्वृत्—भ्वा॰उभ॰—उद्-वृत्—-—उमड़ना, बह निकलना
- उपवृत्—भ्वा॰उभ॰—उप-वृत्—-—पहुँचना
- उपवृत्—भ्वा॰उभ॰—उप-वृत्—-—लौटना
- निवृत्—भ्वा॰उभ॰—नि-वृत्—-—वापिस आना, लौटना
- निवृत्—भ्वा॰उभ॰—नि-वृत्—-—भाग जाना, पलायन करना
- निवृत्—भ्वा॰उभ॰—नि-वृत्—-—मुड़ जाना, आंखें फेर लेना
- निवृत्—भ्वा॰उभ॰—नि-वृत्—-—अलग रहना
- निवृत्—भ्वा॰उभ॰—नि-वृत्—-—मुक्त होना, बच निकलना
- निवृत्—भ्वा॰उभ॰—नि-वृत्—-—बोलना बन्द कर देना, रुक जाना, ठहर जाना
- निवृत्—भ्वा॰उभ॰—नि-वृत्—-—हट जाना, अन्त होना, बन्द हो जाना, अन्तर्धान होना
- निवृत्—भ्वा॰उभ॰—नि-वृत्—-—रुकवाना, निकलवाना
- निवृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰—नि-वृत्—-—लौटना, वापिस भेजना
- निवृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰—नि-वृत्—-—वापिस लेना, दूर रहना, मुड़ जाना, मन फेर लेना
- निर्वृत्—भ्वा॰उभ॰—निस्-वृत्—-—समाप्त होना, अन्त होना
- निर्वृत्—भ्वा॰उभ॰—निस्-वृत्—-—संपन्न होना
- निर्वृत्—भ्वा॰उभ॰—निस्-वृत्—-—रुक जाना, न होना
- निर्वृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰—निस्-वृत्—-—सम्पन्न करना, निष्पन्न करना, समाप्त करना, पूरा करना
- परावृत्—भ्वा॰उभ॰—परा-वृत्—-—लौटना, वापिस आना
- परिवृत्—भ्वा॰उभ॰—परि-वृत्—-—घूमना, चक्कर खाना
- परिवृत्—भ्वा॰उभ॰—परि-वृत्—-—इधर-उधर भ्रमण करना, इधर-उधर आना जाना
- परिवृत्—भ्वा॰उभ॰—परि-वृत्—-—बदलना, विनिमय करना, अदला-बदली करना
- परिवृत्—भ्वा॰उभ॰—परि-वृत्—-—पीठ मोड़ना
- परिवृत्—भ्वा॰उभ॰—परि-वृत्—-—होना, आ पड़ना
- परिवृत्—भ्वा॰उभ॰—परि-वृत्—-—क्षीण होना, नष्ट होना, लुप्त होना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्र-वृत्—-—आगे चलना, चलते जाना, प्रगति करना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्र-वृत्—-—उदित होना, उत्पन्न होना, फूट निकलना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्र-वृत्—-—होना, घटित होना, आ पड़ना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्र-वृत्—-—आरंभ करना, शुरू करना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्र-वृत्—-—प्रयत्न करना, जोर लगाना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्र-वृत्—-—अमल करना, अनुसरण करना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्र-वृत्—-—कार्य में लगना, व्यस्त होना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्र-वृत्—-—करना, कार्य में लगना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्र-वृत्—-—व्यवहार करना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्र-वृत्—-—व्याप्त होना, विद्यमान होना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्र-वृत्—-—ठीक उतरना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्र-वृत्—-—बिना रुकावट के प्रगति करना, फलना-फूलना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰—प्र-वृत्—-—प्रगति करना, जारी करना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰—प्र-वृत्—-—सूत्रपात करना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰—प्र-वृत्—-—जारी करना, स्थापित करना, बुनियाद रखना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰—प्र-वृत्—-—हांकना, प्रेरित करना, उकसाना, उद्दीप्त करना
- प्रवृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰—प्र-वृत्—-—उन्नति करना, प्रगति करना
- प्रतिनिवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्रतिनि-वृत्—-—पीठ मोड़ना, लौटना
- प्रतिनिवृत्—भ्वा॰उभ॰—प्रतिनि-वृत्—-—चक्कर काटना
- विवृत्—भ्वा॰उभ॰—वि-वृत्—-—मुड़ना, लूढ़कना, चक्कर काटना, घूमना
- विवृत्—भ्वा॰उभ॰—वि-वृत्—-—एक ओर हो जाना, झुकना
- विवृत्—भ्वा॰उभ॰—वि-वृत्—-—होना, घटित होना
- विनिवृत्—भ्वा॰उभ॰—विनि-वृत्—-—लौटना
- विनिवृत्—भ्वा॰उभ॰—विनि-वृत्—-—रुक जाना, अन्त होना
- विनिवृत्—भ्वा॰उभ॰—विनि-वृत्—-—हाथ खींचना, मुड़ जाना, अलग रहना
- विपरिवृत्—भ्वा॰उभ॰—विपरि-वृत्—-—चक्कर काटना
- व्यपवृत्—भ्वा॰उभ॰—व्यप-वृत्—-—लौटना, वापिस मुड़ना
- व्यपवृत्—भ्वा॰उभ॰—व्यप-वृत्—-—हाथ खींचना, छोड़ देना
- व्यावृत्—भ्वा॰उभ॰—व्या-वृत्—-—वापिस होना, मुड़ना
- व्यावृत्—भ्वा॰उभ॰—व्या-वृत्—-—मुड़ना, हटना, उलट होना
- व्यावृत्—भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰—व्या-वृत्—-—प्रतिबन्ध लगाना, सीमित करना, निकाल देना, गिरफ्तार करना
- संवृत्—भ्वा॰उभ॰—सम्-वृत्—-—होना, घटित होना
- संवृत्—भ्वा॰उभ॰—सम्-वृत्—-—पैदा होना, उदय होना, फूटना, निकलना
- संवृत्—भ्वा॰उभ॰—सम्-वृत्—-—घटित होना, आ पड़ना
- संवृत्—भ्वा॰उभ॰—सम्-वृत्—-—सम्पन्न होना
- वृत्—भू॰ क॰ कृ॰—-—वृ + क्त—छांटा गया, चुना गया
- वृत्—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—ढका गया, पर्दा डाला गया
- वृत्—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—छिपाया गया
- वृत्—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—घेरा गया, लपेटा गया
- वृत्—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—सहमत या सम्मत
- वृत्—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—किराये पर लिया गया
- वृत्—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—बिगाड़ा गया, विषाक्त किया गया
- वृत्—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—सेवित, सेवा किया गया
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—वृ + क्तिन्—छांटना, चुनना
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—छिपाना, ढकना,गुप्त रखना
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—याचना करना, निवेदन करना
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—अनुरोध, प्रार्थना
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—घेरना, लपेटना
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—झाड़बंदी, बाड़, बाड़ा
- वृतिंकर—वि॰—-—वृति + कृ + ट, मुम्—घेरने वाला, लपेटने वाला
- वृतिंकर—वि॰—-—-—विकंकत नाम का पेड़
- वृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वृत + क्त—जीवित, विद्यमान
- वृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—घटित, संभूत
- वृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—सम्पूरित, समाप्त
- वृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—अनुष्ठित, कृत, किया गया
- वृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—गुजरा हुआ, बीता हुआ
- वृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—गोल, वर्तुलाकार
- वृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—मृत, स्वर्गगत
- वृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—दृढ़, स्थिर
- वृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—पठित, अधीत
- वृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—व्युत्पन्न
- वृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—प्रसिद्ध
- वृत्तः—पुं॰—-—-—कछुवा
- वृत्तम्—नपुं॰—-—-—बात, घटना
- वृत्तम्—नपुं॰—-—-—इतिहास, वर्णन
- वृत्तम्—नपुं॰—-—-—समाचार, खबर
- वृत्तम्—नपुं॰—-—-—प्रवर्तन, पेशा, जीवनवृत्ति, व्यवसाय
- वृत्तम्—नपुं॰—-—-—आचरण, व्यवहार, रीति, कर्म, कृत्य
- वृत्तम्—नपुं॰—-—-—साधु या सत्य आचरण
- वृत्तम्—नपुं॰—-—-—माना हुआ नियम या प्रचलन का पालन करना, कर्तव्य
- वृत्तम्—नपुं॰—-—-—गोल घेरा, वृत्त की परिधि
- वृत्तम्—नपुं॰—-—-—छन्द, विशेषकर मात्राओं की गणना के आधार पर विनियमित
- वृत्तानुपूर्व—वि॰—वृत्त-अनुपूर्व—-—गोल शुंडाकार
- वृत्तानुसारः—पुं॰—वृत्त-अनुसारः—-—विहित नियमों की अनुरूपता
- वृत्तानुसारः—पुं॰—वृत्त-अनुसारः—-—छन्द की अनुरूपता
- वृत्तान्तः—पुं॰—वृत्त-अन्तः—-—अवसर, घटना, बात
- वृत्तान्तः—पुं॰—वृत्त-अन्तः—-—समाचार, ख़बर, गुप्तवार्ता
- वृत्तान्तः—पुं॰—वृत्त-अन्तः—-—वर्णन, इतिहास, कथा, आख्यान, कहानी
- वृत्तान्तः—पुं॰—वृत्त-अन्तः—-—बिषय, प्रकरण
- वृत्तान्तः—पुं॰—वृत्त-अन्तः—-—प्रकार, क़िस्म
- वृत्तान्तः—पुं॰—वृत्त-अन्तः—-—ढंग, रीति
- वृत्तान्तः—पुं॰—वृत्त-अन्तः—-—अवस्था, दशा
- वृत्तान्तः—पुं॰—वृत्त-अन्तः—-—कुलयोग, समष्टि
- वृत्तान्तः—पुं॰—वृत्त-अन्तः—-—विश्राम, अवकाश
- वृत्तान्तः—पुं॰—वृत्त-अन्तः—-—गुण, प्रकृति
- वृत्तिर्वारुः—पुं॰—वृत्त-इर्वारुः—-—तरवूज़, सरदा
- वृत्तकर्कटी—स्त्री॰—वृत्त-कर्कटी—-—तरवूज़, सरदा
- वृत्तगन्धि—नपुं॰—वृत्त-गन्धि—-—एक प्रकार का गद्य जो पढ़ने में पद्य जैसा आनन्द दे
- वृत्तचूड—वि॰—वृत्त-चूड—-—मुंडित, जिसका मुंडन संस्कार हो चुका हो
- वृत्तचौल—वि॰—वृत्त-चौल—-—मुंडित, जिसका मुंडन संस्कार हो चुका हो
- वृत्तपुष्पः—पुं॰—वृत्त-पुष्पः—-—बेत, बानीर
- वृत्तपुष्पः—पुं॰—वृत्त-पुष्पः—-—सिरस का पेड़
- वृत्तपुष्पः—पुं॰—वृत्त-पुष्पः—-—कदम्ब का पेड़
- वृत्तफलः—पुं॰—वृत्त-फलः—-—बेर, उन्नाव का पेड़
- वृत्तफलः—पुं॰—वृत्त-फलः—-—अनार का पेड़
- वृत्तशस्त्र—वि॰—वृत्त-शस्त्र—-—जिसने शस्त्र विज्ञान में पांडित्य प्राप्त कर लिया है
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—वृत् + क्तिन्—अस्तित्व, सत्ता
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—टिकना, रहना, रुख, किसी विशेष स्थिति में होना
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—अवस्था, दशा
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—कार्य, गति, कृत्य, कार्यवाही
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—क्रम, प्रणाली
- वृत्तिः—स्त्री॰—`—-—आचरण, व्यवहार, रीति, चालचलन, कार्यपद्धति
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—पेशा, व्यवसाय, काम-धंधा, रोज़गार, जीवनचर्या
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—जीविका, संपोषण, जीविका के उपाय
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—मज़दूरी, भाड़ा
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—क्रियाशीलता का कारण
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—सम्मानपूर्ण बर्ताव
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—भाष्य, टीका, विवृति
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—चक्कर काटना, मुड़ना
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—किसी वृत्त या पहिये की परिधि
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—जटिल रचना जिसकी व्याख्या करने की आवश्यकता पड़े
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—शब्द की वह शक्ति जिसके द्वारा किसी अर्थ का अभिधान, संकेत अथवा व्यंजना की जाय
- वृत्तिः—स्त्री॰—-—-—रचना की शैली
- वृत्तानुप्रासः—पुं॰—वृत्तिः-अनुप्रासः—-—एक प्रकार का अनुप्रास
- वृत्तोपायः—पुं॰—वृत्तिः-उपायः—-—जीविका का उपाय
- वृत्तिकर्षित—वि॰—वृत्तिः-कर्षित—-—जीविका के अभाव में अत्यन्त दुःखी
- वृत्तिचक्रम्—नपुं॰—वृत्तिः-चक्रम्—-—राज चक्र
- वृ्त्तिछेदः—पुं॰—वृत्तिः-छेदः—-—जीविका के साधनों से वञ्चित
- वृत्तिभगः—पुं॰—वृत्तिः-भगः—-—जीविका का अभाव
- वृत्तिवैकल्यम्—नपुं॰—वृत्तिः-वैकल्यम्—-—जीविका का अभाव
- वृत्तिस्थ—वि॰—वृत्तिः-स्थ—-—किसी भी स्थिति या नियुक्ति में रहने वाला
- वृत्तिस्थ—वि॰—वृत्तिः-स्थ—-—सदाचारी, अच्छा बर्ताव करने वाला
- वृत्तिस्थः—पुं॰—वृत्तिः-स्थः—-—छिपकली, गिरगिट
- वृत्रः—पुं॰—-—वृत् + रक्—एक राक्षस का नाम जिसे इन्द्र ने मार गिराया था
- वृत्रः—पुं॰—-—-—बादल
- वृत्रः—पुं॰—-—-—अन्धकार
- वृत्रः—पुं॰—-—-—शत्रु
- वृत्रः—पुं॰—-—-—ध्वनि
- वृत्रः—पुं॰—-—-—पर्वत
- वृत्रारिः—पुं॰—वृत्रः-अरिः—-—इन्द्र के विशेषण
- वृत्रद्विष्—पुं॰—वृत्रः-द्विष्—-—इन्द्र के विशेषण
- वृत्रशत्रुः—पुं॰—वृत्रः-शत्रुः—-—इन्द्र के विशेषण
- वृत्रहन्—पुं॰—वृत्रः-हन्—-—इन्द्र के विशेषण
- वृथा—अव्य॰—-—वृ + थाल् किच्च—बिना किसी अभिप्राय के, व्यर्थ, निरर्थक, बिना किसी लाभ के
- वृथा—अव्य॰—-—-—अनावश्यक रूप से
- वृथा—अव्य॰—-—-—मूर्खता से, आलस्य पूर्वक, बलगाम
- वृथा—अव्य॰—-—-—गलत तरीके से, अनुचित रूप से
- वृथाट्या—स्त्री॰—वृथा-अट्या—-—अलसत के साथ टहलना, सामोद भ्रमण करना
- वृथाकारः—पुं॰—वृथा-आकारः—-—मिथ्या रूप, खाली तमाशा
- वृथाकथा—स्त्री॰—वृथा-कथा—-—बेहूदी बात
- वृथाजन्मन्—नपुं॰—वृथा-जन्मन्—-—अलाभकर या व्यर्थ जन्म
- वृथादानम्—नपुं॰—वृथा-दानम्—-—वह उपहार जो प्रतिज्ञात होने पर भी न दिया गया हो
- वृथामति—वि॰—वृथा-मति—-—दुर्बृद्धि, मूर्ख
- वृथामांसम्—नपुं॰—वृथा-मांसम्—-—वह मांस जो देवताओं या पितरों के लिए अभिप्रेत न हो
- वृथावादिन्—वि॰—वृथा-वादिन्—-—मिथ्या भाषी
- वृथाश्रमः—पुं॰—वृथा-श्रमः—-—व्यर्थ चेष्टा या कष्ट उठाना
- वृद्ध—वि॰—-—वृध् + क्त—बढ़ा हुआ, वृद्धि को प्राप्त
- वृद्ध—वि॰—-—-—पूर्णविकसित, बड़ी उम्र का
- वृद्ध—वि॰—-—-—बूढ़ा, वयोवृद्ध, बहुत वर्षों का
- वृद्ध—वि॰—-—-—प्रगत या विकसित
- वृद्ध—वि॰—-—-—बड़ा, विशाल
- वृद्ध—वि॰—-—-—एकत्रित, संचित
- वृद्ध—वि॰—-—-—बुद्धिमान्, विद्वान्
- वृद्धः—पुं॰—-—-—बूढ़ा व्यक्ति
- वृद्धः—पुं॰—-—-—योग्य या आदरणीय पुरुष
- वृद्धः—पुं॰—-—-—मुनि, सन्त
- वृद्धः—पुं॰—-—-—वंशज
- वृद्धम्—नपुं॰—-—-—गुग्गुल
- वृद्धाङ्गुलिः—स्त्री॰—वृद्ध-अङ्गुलिः—-—पैर का अंगूठा
- वृद्धावस्था—स्त्री॰—वृद्ध-अवस्था—-—बुढ़ापा
- वृद्धाचारः—पुं॰—वृद्ध-आचारः—-—प्राचीन प्रथा
- वृद्धुक्षः—पुं॰—वृद्ध-उक्षः—-—बूढ़ा बैल
- वृद्धकाकः—पुं॰—वृद्ध-काकः—-—पहाड़ी कौवा
- वृद्धनाभि—वि॰—वृद्ध-नाभि—-—स्थूलकाय, मोटे पेट वाला
- वृद्धभावः—पुं॰—वृद्ध-भावः—-—बुढ़ापा
- वृद्धमतः—पुं॰—वृद्ध-मतः—-—प्राचीन ऋषियों का उपदेश
- वृद्धवाहनः—पुं॰—वृद्ध-वाहनः—-—आम का पेड़
- वृद्धश्रवस्—पुं॰—वृद्ध-श्रवस्—-—इन्द्र का विशेषण
- वृद्धसंघः—पुं॰—वृद्ध-संघः—-—वृद्धजनों की सभा
- वृद्धसूत्रकम्—नपुं॰—वृद्ध-सूत्रकम्—-—रूई का गल्हा, कपास का गाला, इन्द्रतूल
- वृद्धा—स्त्री॰—-—वृद्ध + टाप्—बूढ़ी स्त्री
- वृद्धा—स्त्री॰—-—-—वंशजा (स्त्री)
- वृद्धिः—स्त्री॰—-—वृध् + क्तिन्—विकास, वढ़ोत्तरी, वर्धन, सम्बर्धन
- वृद्धिः—स्त्री॰—-—-—(चन्द्रमा का) वर्धित होना, चन्द्रमा की कलाओं का बढ़ना
- वृद्धिः—स्त्री॰—-—-—धन की वृद्धि, समृद्धि, धनाढ्यता
- वृद्धिः—स्त्री॰—-—-—सफलता, बढ़ावत, उन्नति, प्रगति
- वृद्धिः—स्त्री॰—-—-—दौलत, जायदाद
- वृद्धिः—स्त्री॰—-—-—ढेर, परिमाण, समुच्चय
- वृद्धिः—स्त्री॰—-—-—सूद, व्याज,
- वृद्धिः—स्त्री॰—-—-—सूदखोरी
- वृद्धिः—स्त्री॰—-—-—लाभ फायदा
- वृद्धिः—स्त्री॰—-—-—अंडकोष की वृद्धि
- वृद्धिः—स्त्री॰—-—-—शक्ति या राजस्व का विस्तार
- वृद्धिः—स्त्री॰—-—-—स्वरों का लंबा करना या वृद्धि
- वृद्धिः—स्त्री॰—-—-—परिवार में, (प्रसव के कारण) उत्पन्न अशौच, जननाशौच
- वृद्ध्याजीवः—पुं॰—वृद्धिः-आजीवः—-—सूदखोर, साहुकार, व्याज पर रुपया उधार देनेवाला
- वृद्ध्याजीविन्—पुं॰—वृद्धिः-आजीविन्—-—सूदखोर, साहुकार, व्याज पर रुपया उधार देनेवाला
- वृद्धिजीवनम्—नपुं॰—वृद्धिः-जीवनम्—-—सूदखोरी, साहूकारी
- वृद्धिजीविका—स्त्री॰—वृद्धिः-जीविका—-—सूदखोरी, साहूकारी
- वृद्धिद—वि॰—वृद्धिः-द—-—समृ्द्धि को उन्नत करने वाला
- वृद्धिपत्रम्—नपुं॰—वृद्धिः-पत्रम्—-—एक प्रकार का उस्तरा
- वृद्धिश्राद्धम्—नपुं॰—वृद्धिः-श्राद्धम्—-—पुत्रजन्मादि के उत्सवों पर पितरों का श्राद्ध, नान्दीमुख श्राद्ध
- वृध्—भ्वा॰ आ॰ —-—-—विकसित होना, बढ़ना, विस्तृत होना, मजबूत या बलवान् होना, फलना, समृद्ध होना
- वृध्—भ्वा॰ आ॰ —-—-—जारी रखना, टिकाऊ रहना
- वृध्—भ्वा॰ आ॰ —-—-—उठना, चढ़ना
- वृध्—भ्वा॰ आ॰ —-—-—बधाई का कारण होना
- वृध्—भ्वा॰उभ॰प्रेर॰ <वर्धयति>, <वर्धयते>—-—-—विकसित कराना, बढ़ाना, वृद्धियुक्त करना, ऊँचा उठाना, ऊँचा करना, उन्नत करना
- वृध्—भ्वा॰उभ॰प्रेर॰ <वर्धयति>, <वर्धयते>—-—-—समृद्ध कराना, यशस्वी बनाना, विस्तीर्ण करना, बड़ाई करना
- वृध्—भ्वा॰उभ॰प्रेर॰ <वर्धयति>, <वर्धयते>—-—-—बधाई देना, अभिनन्दन करना
- वृध्—भ्वा॰उभ॰प्रेर॰ <वर्धयति>, <वर्धयते>—-—-—विकसित होना, बढ़ना
- परिवृध्—भ्वा॰उभ॰—परि-वृध्—-—विकसित होना, बढ़ना, समृद्ध होना
- प्रवृध्—भ्वा॰उभ॰—प्र-वृध्—-—विकसित होना, बढ़ना, समृद्ध होना
- विवृध्—भ्वा॰उभ॰—वि-वृध्—-—विकसित होना, बढ़ना, समृद्ध होना
- संवृध्—भ्वा॰उभ॰—सम्-वृध्—-—बढ़ना
- वृध्—चुरा॰ उभ॰ <वर्धयति>,<वर्धयते>—-—-—बोलना, चमकना
- वृधसानः—पुं॰—-—वृधेः छन्दसि असानच्, कित्—मनुष्य
- वृधसानुः—पुं॰—-—वृध् + असानुच्—मनुष्य
- वृधसानुः—पुं॰—-—-—पत्ता
- वृधसानुः—पुं॰—-—-—कर्म, कार्य
- वृन्तम्—नपुं॰—-—वृ + क्त, नि॰ मुम्—किसी फल या पत्ते का डंठल, डंडी
- वृन्तम्—नपुं॰—-—-—घड़ौंची
- वृन्तम्—नपुं॰—-—-—स्तन का बौंडा या अग्रभाग
- वृन्ताकः—पुं॰—-—वृन्त + अक् + अण्—बैंगन का पौधा
- वृन्ताकी—स्त्री॰—-—वृन्त + अक् + अण्—बैंगन का पौधा
- वृन्तिका—स्त्री॰—-—वृन्त + कन् + टाप्, इत्वम्—छोटा डंठल
- वृन्दम्—नपुं॰—-—वृ + दन्, नुम्, गुणाभावः—समुच्चय, समूह बड़ी संख्या, दल
- वृन्दम्—नपुं॰—-—-—ढेर, परिमाण
- वृन्दा—स्त्री॰—-—वृन्द + टाप्—पवित्र तुलसी
- वृन्दा—स्त्री॰—-—-—गोकुल के निकट एक वन
- वृन्दारण्यम्—नपुं॰—वृन्दा-अरण्यम्—-—गोकुल के निकट एक जंगल
- वृन्दावनी—स्त्री॰—वृन्दा-वनी—-—तुलसी का पौधा
- वृन्दार—वि॰—-—वृन्द + ऋ + अण्—अधिक, बड़ा, विशाल
- वृन्दार—वि॰—-—-—प्रमुख, उत्तम, श्रेष्ठ
- वृन्दार—वि॰—-—-—सुहावना, आकर्षक, सुन्दर
- वृन्दारक—वि॰—-—वृन्द + आरकन्, पक्षे टाप्, इत्वम् च—अधिक, बड़ा, बहुत
- वृन्दारक—वि॰—-—-—प्रमुख, उत्तम, श्रेष्ठ
- वृन्दारक—वि॰—-—-—सुहावना, आकर्षक, सुन्दर, मनोहर
- वृन्दारक—वि॰—-—-—आदरणीय, सम्माननीय
- वृन्दारकः—पुं॰—-—-—देव, सुर
- वृन्दारकः—पुं॰—-—-—किसी भी चीज़ का मुख्य
- वृन्दिष्ठ—वि॰ —-—अयमेषामतिशयेन वृन्दारकः-इष्ठन्, वृन्दादेशः—अत्यंत बड़ा या विशालतम
- वृन्दिष्ठ—वि॰ —-—-—अत्यंत मनोहर, सुन्दरतम
- वृन्दीयस्—वि॰ —-—`वृन्दारक' की म॰ अ॰ अयमनयोरतिशयेन वृन्दारकः + ईयसुन्, वृन्दादेशः—अपेक्षाकृत बड़ा, विशालतर
- वृन्दीयस्—वि॰ —-—-—अपेक्षाकृत मनोहर, सुन्दरतर
- वृश्—दिवा॰ पर॰ <वृश्यति>—-—-—छाँटना, चुनना
- वृशः—पुं॰—-—वृश् + क—चूहा
- वृशा—स्त्री॰—-—-—एक औषधि, अडूसा
- वृशम्—नपुं॰—-—-—अदरक
- वृश्चिकः—पुं॰—-—व्रश्च् + किकन्—बिच्छू
- वृश्चिकः—पुं॰—-—-—वृंश्चिक राशि
- वृश्चिकः—पुं॰—-—-—केंकड़ा
- वृश्चिकः—पुं॰—-—-—कानखजूरा
- वृश्चिकः—पुं॰—-—-—बसूंडवा, गोबर का कीड़ा
- वृश्चिकः—पुं॰—-—-—एक रोएंदार कीड़ा
- वृष्—भ्वा॰ पर॰ <वर्षति>, <वृष्ट>—-—-—बरसना
- वृष्—भ्वा॰ पर॰ <वर्षति>, <वृष्ट>—-—-—वारिश करना, उडेलना, बौछार करना
- वृष्—भ्वा॰ पर॰ <वर्षति>, <वृष्ट>—-—-—बरसाना ढलकाना
- वृष्—भ्वा॰ पर॰ <वर्षति>, <वृष्ट>—-—-—अनुदान देना, अर्पण करना
- वृष्—भ्वा॰ पर॰ <वर्षति>, <वृष्ट>—-—-—तर करना
- वृष्—भ्वा॰ पर॰ <वर्षति>, <वृष्ट>—-—-—पैदा करना, उत्पन्न करना
- वृष्—भ्वा॰ पर॰ <वर्षति>, <वृष्ट>—-—-—सर्वोपरि शवित रखना
- वृष्—भ्वा॰ पर॰ <वर्षति>, <वृष्ट>—-—-—प्रहार करना, चोट मारना
- अभिवृष्—भ्वा॰ पर॰—अभि-वृष्—-—बौछार करना, बरसाना, उडेलना, छिड़कना
- अभिवृष्—भ्वा॰ पर॰—अभि-वृष्—-—प्रदान करना, अर्पण करना
- प्रवृष्—भ्वा॰ पर॰—प्र-वृष्—-—बरसाना, बौछार करना
- वृष्—चुरा॰ आ॰ <वर्षयते>—-—-—शक्तिशाली या प्रमुख होना
- वृष्—चुरा॰ आ॰ <वर्षयते>—-—-—उत्पन्न करने की शक्ति रखना
- वृषः—पुं॰—-—वृष् + क—साँड
- वृषः—पुं॰—-—-—वृष राशि
- वृषः—पुं॰—-—-—किसी वर्ग का मुख्य या उत्तम, अपने दल का सर्वश्रेष्ठ
- वृषः—पुं॰—-—-—कामदेव
- वृषः—पुं॰—-—-—मज़बूत या व्यायाम शील व्यक्ति
- वृषः—पुं॰—-—-—कामातुर, रतिग्रंथों में वर्णित चार प्रकार के पुरुषों में से एक
- वृषः—पुं॰—-—-—शत्रु, विपक्षी
- वृषः—पुं॰—-—-—चूहा
- वृषः—पुं॰—-—-—शिव का नंदी बैल
- वृषः—पुं॰—-—-—नैतिकता, न्याय
- वृषः—पुं॰—-—-—गुण, सत्कर्म या पुण्यकार्य
- वृषः—पुं॰—-—-—कर्ण का नामान्तर
- वृषः—पुं॰—-—-—विष्णु का नाम
- वृषः—पुं॰—-—-—एक विशेष औषधि का नाम
- वृषम्—नपुं॰—-—-—मोर का पंख
- वृषाङ्कः—पुं॰—वृषः-अङ्कः—-—शिव का विशेषण
- वृषाङ्कः—पुं॰—वृषः-अङ्कः—-—पुण्यात्मा, सद्गुणी
- वृषाङ्कः—पुं॰—वृषः-अङ्कः—-—भिलावाँ
- वृषाङ्कः—पुं॰—वृषः-अङ्कः—-—षंढ
- वृषजः—पुं॰—वृषः-जः—-—छोटा ढोल
- वृषाञ्चनः—पुं॰—वृषः-अञ्चनः—-—शिव का विशेषण
- वृषान्तकः—पुं॰—वृषः-अन्तकः—-—विष्णु का विशेषण
- वृषाहारः—पुं॰—वृषः-आहारः—-—बिलाव
- वृषोत्सर्गः—पुं॰—वृषः-उत्सर्गः—-—मृत पुरुष के नाम पर दाग कर साँड़ छोड़ना
- वृषदंशः—पुं॰—वृषः-दंशः—-—बिलाव
- वृषदंशकः—पुं॰—वृषः-दंशकः—-—बिलाव
- वृषध्वजः—पुं॰—वृषः-ध्वजः—-—शिव का विशेषण
- वृषध्वजः—पुं॰—वृषः-ध्वजः—-—गणेश का विशेषण
- वृषध्वजः—पुं॰—वृषः-ध्वजः—-—सद्गुणी, पुण्यात्मा
- वृषपतिः—पुं॰—वृषः-पतिः—-—शिव का विशेषण
- वृषपर्वन्—पुं॰—वृषः-पर्वन्—-—शिव का विशेषण
- वृषपर्वन्—पुं॰—वृषः-पर्वन्—-—एक राक्षस का नाम
- वृषपर्वन्—पुं॰—वृषः-पर्वन्—-—वर्र, भिरड़
- वृषभासा—स्त्री॰—वृषः-भासा—-—इन्द्र और देवताओं का आवास
- वृषलोचनः—पुं॰—वृषः-लोचनः—-—बिलाव
- वृषवाहनः—पुं॰—वृषः-वाहनः—-—शिव का विशेषण
- वृषणः—पुं॰—-—वृष् + क्यु—अंडकोष, अंड या फोते
- वृषन्—पुं॰—-—वृष् + कनिन्—साँड
- वृषन्—पुं॰—-—-—वृषराशि
- वृषन्—पुं॰—-—-—किसी वर्ग का मु्खिया
- वृषन्—पुं॰—-—-—बीजाश्व, साँड, घोड़ा
- वृषन्—पुं॰—-—-—पीड़ा, शोक
- वृषन्—पुं॰—-—-—पीड़ा के प्रति असंवेद्यता
- वृषन्—पुं॰—-—-—इन्द्र का नाम
- वृषन्—पुं॰—-—-—कर्ण का नाम
- वृषन्—पुं॰—-—-—अग्नि का नाम
- वृषभः—पुं॰—-—वृष् + अभच् किच्च—साँड
- वृषभः—पुं॰—-—-—कोई भी नर जानवर
- वृषभः—पुं॰—-—-—अपने वर्ग का मुखिया
- वृषभः—पुं॰—-—-—वृषराशि
- वृषभः—पुं॰—-—-—एक प्रकार की औषधि
- वृषभः—पुं॰—-—-—हाथी का कान
- वृषभः—पुं॰—-—-—कान का विवर
- वृषभगतिः—पुं॰—वृषभः-गतिः—-—शिव के विशेषण
- वृषभध्वजः—पुं॰—वृषभः-ध्वजः—-—शिव के विशेषण
- वृषभी—स्त्री॰—-— वृषभ + ङीष्—विधवा
- वृषभी—स्त्री॰—-—-—कवच
- वृषलः—पुं॰—-—वृष् + कलच्—शूद्र
- वृषलः—पुं॰—-—-—घोड़ा
- वृषलः—पुं॰—-—-—लहसुन
- वृषलः—पुं॰—-—-—पापी, दुष्ट, अधर्मी
- वृषलः—पुं॰—-—-—जाति से बहिष्कृत
- वृषलः—पुं॰—-—-—चन्द्रगुप्त का नाम
- वृषलकः—पुं॰—-—वृषल + कन्—तिरस्करणीय शूद्र
- वृषली—स्त्री॰—-—वृषल + ङीष्—बारह वर्ष की अविवाहित कन्या, रजस्वला होने पर भी विवाह न होने के कारण पिता के घर रहने वाली कन्या
- वृषली—स्त्री॰—-—-—रजस्वला
- वृषली—स्त्री॰—-—-—बांझ स्त्री
- वृषली—स्त्री॰—-—-—सद्योजात बच्चे की माता
- वृषली—स्त्री॰—-—-—शूद्र की पत्नी या शूद्रा स्त्री
- वृषलीपतिः—पुं॰—वृषली-पतिः—-—शूद्र स्त्री का पति
- वृषलीसेवनम्—नपुं॰—वृषली-सेवनम्—-—शूद्रा स्त्री के साथ संभोग
- वृषसृक्की—स्त्री॰ —-—-—बर्र, भिरड़
- वृषस्यत्नी—स्त्री॰—-—वृष + क्यच्, सुक्, शतृ + ङीप्, नुम्—संभोग करने की इच्छा वाली स्त्री
- वृषस्यत्नी—स्त्री॰—-—-—कामासक्ता या कामातुरा स्त्री
- वृषस्यत्नी—स्त्री॰—-—-—गर्भायी हुई गाय
- वृषाकपायी—स्त्री॰—-—वृषाकपेः पत्नी-वृषाकपि + ङीष्, ऐ आदेशः—लक्ष्मी का विशेषण
- वृषाकपायी—स्त्री॰—-—-—गौरी का विशेषण
- वृषाकपायी—स्त्री॰—-—-—शची का विशेषण
- वृषाकपायी—स्त्री॰—-—-—अग्नि की पत्नी स्वाहा का विशेषण
- वृषाकपायी—स्त्री॰—-—-—सूर्य की पत्नी ऊषा का विशेषण
- वृषाकपिः—पुं॰—-—वृषः कपिः अस्य- ब॰ स॰, पूर्वपददीर्घः—सूर्य का विशेषण
- वृषाकपिः—पुं॰—-—-—विष्णु का विशेषण
- वृषाकपिः—पुं॰—-—-—शिव का विशेषण
- वृषाकपिः—पुं॰—-—-—इन्द्र का विशेषण
- वृषाकपिः—पुं॰—-—-—अग्नि का विशेषण
- वृषायणः—पुं॰—-—-—शिव का विशेषण
- वृषायणः—पुं॰—-—-—गोरैया चिड़िया
- वृषिन्—पुं॰—-—वृष् + इनि—मोर
- वृषी—स्त्री॰—-—-—संन्यासी या ब्रह्मचारी का आसन
- वृष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—वृष् + क्त—बरसा हुआ
- वृष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—बरसता हुआ
- वृष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—बौछार करता हुआ, उडेलता हुआ
- वृष्टिः—स्त्री॰—-—वृष् + क्तिन्—बारिश, बारिश की बौछार
- वृष्टिः—स्त्री॰—-—-—(किसी भी वस्तु की) बौछार
- वृष्टिकालः—पुं॰—वृष्टिः-कालः—-—बरसात का समय
- वृष्टिजीवन—वि॰—वृष्टिः-जीवन—-—बारिश द्वारा सिंचित (प्रदेश)
- वृष्टिभूः—पुं॰—वृष्टिः-भूः—-—मेंढक
- वृष्टिमत्—वि॰—-—वृष्टि + मतुप्—बरसने वाला, बरसाती
- वृष्टिमत्—पुं॰—-—-—बादल
- वृष्णि—वि॰—-—वृषेः निः किच्च—धर्मभ्रष्ट, पाखंडी
- वृष्णि—वि॰—-—-—क्रुद्ध, कोपाविष्ट
- वृष्णि—पुं॰—-—-—बादल
- वृष्णि—पुं॰—-—-—मेंढा
- वृष्णि—पुं॰—-—-—प्रकाश की किरण
- वृष्णि—पुं॰—-—-—कृष्ण के किसी पूर्वज का नाम
- वृष्णि—पुं॰—-—-—कृष्ण का नाम
- वृष्णि—पुं॰—-—-—इन्द्र
- वृष्णि—पुं॰—-—-—अग्नि
- वृष्णिगर्भः—पुं॰—वृष्णि-गर्भः—-—कृष्ण का विशेषण
- वृष्य—वि॰—-—वृष् + क्यप्—जिसके ऊपर बरस सके, बौछार की जा सके
- वृष्य—वि॰—-—-—कामोद्दीपक, वाजीकर, पुंस्त्व बढ़ाने वाला
- वृष्यः—पुं॰—-—-—माष, उड़द
- वृह्—भ्वा॰तुदा॰पर॰—-—-—उगना, बढ़ना, फैलाना
- वृह्—भ्वा॰तुदा॰पर॰—-—-—दहाड़ना
- उद्वृह्—भ्वा॰ पर॰—उद्-वृह्—-—उठाना, ऊपर को करना
- निवृह्—भ्वा॰ पर॰—नि-वृह्—-—नष्ट करना, हटाना
- वृहत्—वि॰—-—वृह् + अति—विस्तृत, विशाल, बड़ा, स्थूल
- वृहत्—वि॰—-—वृह् + अति—चौड़ा, प्रशस्त, विस्तृत, दूर तक फैला हुआ
- वृहत्—वि॰—-—वृह् + अति—विस्तृत, यथेष्ट, प्रचुर
- वृहत्—वि॰—-—वृह् + अति—मजबूत, शक्तिशाली
- वृहत्—वि॰—-—वृह् + अति—लम्बा, ऊँचा
- वृहत्—वि॰—-—वृह् + अति—पूर्णविकसित
- वृहत्—वि॰—-—वृह् + अति—सटा हुआ, सघन
- वृहत्—स्त्री॰—-—-—वाणी
- वृहत्—नपुं॰—-—-—वेद
- वृहत्—नपुं॰—-—-—सामवेद का मंत्र (साम)
- वृहत्—नपुं॰—-—-—ब्रह्म
- वृहतिका—स्त्री॰—-—वृहत् + ङीष् + कन् + टाप्, ह्रस्वः—उत्तरीय वस्त्र, दुपट्टा, चोगा, चादर
- वृहती—स्त्री॰—-—वृह् + अति + ङीष्—नारद की वीणा
- वृहती—स्त्री॰—-—-—छत्तीस की संख्य़ा
- वृहती—स्त्री॰—-—-—दुपट्टा, चोगा, आवरण
- वृहती—स्त्री॰—-—-—भाषण आशय
- वृहतीपतिः—पुं॰—वृहती-पतिः—-—बृहस्पति का विशेषण
- वृहस्पतिः—पुं॰—-—वृहतः वाचः पतिः-पारस्करादि॰—देवों के गुरु
- वृहस्पतिः—पुं॰—-—-—बृहस्पति ग्रह
- वृहस्पतिः—पुं॰—-—-—एक स्मृतिकार का नाम
- वृ—क्र्या॰ उभ॰ <वृणति>, <वृणोते>, <वूर्ण>, कर्मवा॰ <वूर्यते>, इच्छा॰ <वुवूर्षति>, <वुवूर्षते>, <विवरिषति>, <विवरिषते>—-—-—छांटना, चुनना
- वे—भ्वा॰ उभ॰ <वयति>, <वयते>, <उत>, प्रेर॰ <वाययति>, <वाययते>—-—-—बुनना
- वे—भ्वा॰ उभ॰ <वयति>, <वयते>, <उत>, प्रेर॰ <वाययति>, <वाययते>—-—-—बाल गूंथना, पौधे लगाना
- वे—भ्वा॰ उभ॰ <वयति>, <वयते>, <उत>, प्रेर॰ <वाययति>, <वाययते>—-—-—सीना
- वे—भ्वा॰ उभ॰ <वयति>, <वयते>, <उत>, प्रेर॰ <वाययति>, <वाययते>—-—-—बनाना, रचना, नत्थी करना
- प्रवे—भ्वा॰ उभ॰—प्र-वे—-—बुनना
- प्रवे—भ्वा॰ उभ॰—प्र-वे—-—बांधना, कसना
- प्रवे—भ्वा॰ उभ॰—प्र-वे—-—जमाना, स्थिर करना
- प्रवे—भ्वा॰ उभ॰—प्र-वे—-—परस्पर बुनना, संग्रथित करना
- वेकटः—पुं॰—-—-—हंसोकड़ा
- वेकटः—पुं॰—-—-—जौहरी
- वेकटः—पुं॰—-—-—युवा पुरुष
- वेगः—पुं॰—-—विज् + घञ्—आवेग, संवेग
- वेगः—पुं॰—-—-—गति, प्रवेग, शीघ्रता
- वेगः—पुं॰—-—-—विक्षोभ
- वेगः—पुं॰—-—-—अतिवेगशीलता, प्रचण्डता, बल
- वेगः—पुं॰—-—-—प्रवाह, धारा
- वेगः—पुं॰—-—-—तेज, क्रियाशीलता, संकल्प
- वेगः—पुं॰—-—-—शक्ति, सामर्थ्य
- वेगः—पुं॰—-—-—संचार, क्रिया (विष-आदि का) प्रभाव
- वेगः—पुं॰—-—-—शीघ्रता, जल्दबाजी, आकस्मिक आवेग
- वेगः—पुं॰—-—-—बाण की गति
- वेगः—पुं॰—-—-—प्रेम, प्रणयोन्माद
- वेगः—पुं॰—-—-—आन्तरिक भाव का बाहर प्रकट होना
- वेगः—पुं॰—-—-—आनन्द, प्रसन्नता
- वेगः—पुं॰—-—-—मलत्याग
- वेगः—पुं॰—-—-—शुक्र, वीर्य
- वेगानिलः—पुं॰—वेगः-अनिलः—-—आंधी का झोंका
- वेगानिलः—पुं॰—वेगः-अनिलः—-—प्रचण्ड वायु
- वेगाघातः—पुं॰—वेगः-आघातः—-—अकस्मात् वेग का अवरोध, गति को रोकना
- वेगाघातः—पुं॰—वेगः-आघातः—-—मलावरोध, कोष्ठबद्धता
- वेगनाशनः—पुं॰—वेगः-नाशनः—-—श्लेष्मा, कफ
- वेगवाहिन्—वि॰—वेगः-वाहिन्—-—स्फूर्त, तेज
- वेगविधारणम्—नपुं॰—वेगः-विधारणम्—-—गति का रोकना
- वेगसरः—पुं॰—वेगः-सरः—-—खच्चर
- वेगिन्—वि॰—-—वेग + इनि—तेज, चुस्त, द्रुतगामी, प्रचण्ड, फुर्तीला
- वेगिन्—पुं॰—-—-—हरकारा
- वेगिन्—पुं॰—-—-—बाज
- वेगिनी—स्त्री॰—-—-—नदी
- वेङ्कटः—पुं॰—-—-—एक पहाड़ का नाम, वेंकटाचल
- वेचा—स्त्री॰—-—विच् + अच् + टाप्—भाड़ा, मजदूरी
- वेडम्—नपुं॰—-—विड् + अच्—एक प्रकार का चन्दन
- वेडा—स्त्री॰—-—वेड + टाप्—किश्ती, नाव
- वेण्—भ्वा॰ उभ॰ <वेणति>, <वेणते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- वेण्—भ्वा॰ उभ॰ <वेणति>, <वेणते>—-—-—जानना, पहचानना, प्रत्यक्ष करना
- वेण्—भ्वा॰ उभ॰ <वेणति>, <वेणते>—-—-—विचारविमर्श करना, सोचना
- वेण्—भ्वा॰ उभ॰ <वेणति>, <वेणते>—-—-—लेना
- वेण्—भ्वा॰ उभ॰ <वेणति>, <वेणते>—-—-—बाजा वजाना
- वेन्—भ्वा॰ उभ॰ <वेनति>, <वेनते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- वेन्—भ्वा॰ उभ॰ <वेनति>, <वेनते>—-—-—जानना, पहचानना, प्रत्यक्ष करना
- वेन्—भ्वा॰ उभ॰ <वेनति>, <वेनते>—-—-—विचारविमर्श करना, सोचना
- वेन्—भ्वा॰ उभ॰ <वेनति>, <वेनते>—-—-—लेना
- वेन्—भ्वा॰ उभ॰ <वेनति>, <वेनते>—-—-—बाजा वजाना
- वेणः—पुं॰—-—वेण् + अच्—गायक जाति का पुरुष
- वेणः—पुं॰—-—-—एक राजा का नाम, अङ्ग का पुत्र और स्वायंभुव मनु का वंशज
- वेणा—स्त्री॰—-—वेण + टाप्—एक नदी का नाम (जो कृष्णा नदी में जाकर मिलती है)
- वेणिः—स्त्री॰—-—वेण् + इन्—गुंथे हुए बाल, बालो की मींढी
- वेणिः—स्त्री॰—-—वेण् + इन्—बालों की एक अनलंकृत चोटी जो पीठ पर लटकती रहती हैं
- वेणिः—स्त्री॰—-—वेण् + इन्—अनवच्छिन्न प्रवाह, धारा, सरिता
- वेणिः—स्त्री॰—-—वेण् + इन्—दो या अधिक नदिर्यों का संगम
- वेणिः—स्त्री॰—-—वेण् + इन्—गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम
- वेणिः—स्त्री॰—-—वेण् + इन्—एक नदी का नाम
- वेणी—स्त्री॰—-—वेण् + इन्+ ङीष्—गुंथे हुए बाल, बालो की मींढी
- वेणी—स्त्री॰—-—वेण् + इन्+ ङीष्—बालों की एक अनलंकृत चोटी जो पीठ पर लटकती रहती हैं
- वेणी—स्त्री॰—-—वेण् + इन्+ ङीष्—अनवच्छिन्न प्रवाह, धारा, सरिता
- वेणी—स्त्री॰—-—वेण् + इन्+ ङीष्—दो या अधिक नदिर्यों का संगम
- वेणी—स्त्री॰—-—वेण् + इन्+ ङीष्—गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम
- वेणी—स्त्री॰—-—वेण् + इन्+ ङीष्—एक नदी का नाम
- वेणीबन्धः—पुं॰—वेणी-बन्धः—-—गुथे हुए बाल, मींढी
- वेणीवेधनी—स्त्री॰—वेणी-वेधनी—-—जोक
- वेणीवेधिनी—स्त्री॰—वेणी-वेधिनी—-—कंघी
- वेणीसंहारः—पुं॰—वेणी-संहारः—-—बालों को गूंथ कर मींढी बनाना
- वेणीसंहारः—पुं॰—वेणी-संहारः—-—भट्टनारायणकृत एक नाटक का नाम
- वेणुः—पुं॰—-—वेण् + उण्—बाँस
- वेणुः—पुं॰—-—-—नरकुल
- वेणुः—पुं॰—-—-—बंसरी, मुरली
- वेणुजः—पुं॰—वेणुः-जः—-—बाँस का बीज
- वेणुध्मः—पुं॰—वेणुः-ध्मः—-—बाँसुरी बजाने वाला, मुरलीवाला
- वेणुनिस्रुतिः—पुं॰—वेणुः-निस्रुतिः—-—ईख
- वेणुयष्टिः—पुं॰—वेणुः-यष्टिः—-—बाँस की लकड़ी
- वेणुवादः—पुं॰—वेणुः-वादः—-—मुरली वाला, बाँसुरी बजाने वाला
- वेणुवादकः—पुं॰—वेणुः-वादकः—-—मुरली वाला, बाँसुरी बजाने वाला
- वेणुबीजम्—नपुं॰—वेणुः-बीजम्—-—बाँस का बीज
- वेणुकम्—नपुं॰—-—वेणु + कन्—बाँस की मूठ वाला अंकुश
- वेणुनम्—नपुं॰—-—वेण् + उनन्—काली मिर्च
- वेतंडः—पुं॰—-—-—हाथी
- वेदंडः—पुं॰—-—-—हाथी
- वेतनम्—नपुं॰—-—अज् + तनन् वीभावः—किराया, मज़दूरी, भृति, तनख्वाह, वृत्ति @ रघु॰ १७/६६
- वेतनम्—नपुं॰—-—-—आजीविका, जीवननिर्वाह का साधन
- वेतनादनम्—नपुं॰—वेतनम्-अदानम्—-—पारिश्रमिक या मजदूरी न देना
- वेतनादनम्—नपुं॰—वेतनम्-अदानम्—-—मजदूरी न मिलने के कारण किया गया प्रयत्न
- वेतनानपाकर्मन्—नपुं॰—वेतनम्-अनपकर्मन्—-—पारिश्रमिक या मजदूरी न देना
- वेतनानपाकर्मन्—नपुं॰—वेतनम्-अनपकर्मन्—-—मजदूरी न मिलने के कारण किया गया प्रयत्न
- वेतनानपक्रिया—स्त्री॰—वेतनम्-अनपक्रिया—-—पारिश्रमिक या मजदूरी न देना
- वेतनानपक्रिया—स्त्री॰—वेतनम्-अनपक्रिया—-—मजदूरी न मिलने के कारण किया गया प्रयत्न
- वेतनजीविन्—पुं॰—वेतनम्-जीविन्—-—वृत्ति पाने वाला, वैतनिक
- वेतसः—पुं॰—-—अज् + असुन् तुक् च, वीभावः—नरसल, नरकुल, बेत
- वेतसः—पुं॰—-—-—नींबू, बिजौरा
- वेतसी—स्त्री॰—-—वेतस् + ङीष्—नरसल
- वेतस्वत्—वि॰—-—वेतस् + ड मतुप्, मस्य वः—जहाँ नरकुल बहुतायत से पाये जायँ
- वेतालः—पुं॰—-—अज् + विच्, वी आदेशः, तल् + घञ् कर्म॰ स॰—एक प्रकार की भूतयोनि, विशाच, प्रेत, विशेषकर शव पर अधिकार रखने वाला भूत @ मा॰ ५/२३, @ शि॰ २०/६०
- वेतालः—पुं॰—-—-—द्वारपाल
- वेत्तृ—पुं॰—-—विद् + तृच्—ज्ञाता
- वेत्तृ—पुं॰—-—-—ऋषि, मुनि
- वेत्तृ—पुं॰—-—-—पति, पाणिग्रहीता
- वेत्रः—पुं॰—-—अज् + त्रल्, वी भावः—वेत, नरसल
- वेत्रः—पुं॰—-—-—लाठी, छड़ी, विशेष कर द्वारपाल की छड़ी
- वेत्रासनम्—नपुं॰—वेत्रः-आसनम्—-—बेंत की बनी गद्दी
- वेत्रधरः—पुं॰—वेत्रः-धरः—-—द्वारपाल
- वेत्रधरः—पुं॰—वेत्रः-धरः—-—आसाधारी, छड़ीबरदार
- वेत्रधारकः—पुं॰—वेत्रः-धारकः—-—द्वारपाल
- वेत्रधारकः—पुं॰—वेत्रः-धारकः—-—आसाधारी, छड़ीबरदार
- वेत्रकीय—वि॰—-—वेत्र + छ, कुक्—वेत्रबहुल, जहाँ नरकुल बहुत पाये जायँ
- वेत्रवती—स्त्री॰—-—वेत्र + मतुप् + ङीष्—स्त्री द्बारपाल
- वेत्रवती—स्त्री॰—-—-—एक नदी का नाम
- वेथ्—भ्वा॰ आ॰ <वेथन्ते>—-—-—प्रार्थना, निवेदन करना, कहना
- वेदः—पुं॰—-—विद् + घञ्, अच् वा—ज्ञान
- वेदः—पुं॰—-—-—आध्यात्मिक या धार्मिक ज्ञान, हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ
- वेदः—पुं॰—-—-—कुशा घास का गुच्छा
- वेदः—पुं॰—-—-—विष्णु का नाम
- वेदाङ्गम्—नपुं॰—वेदः-अङ्गम्—-—`वेद का अंग' एक प्रकार के ग्रन्थ जो वेदाध्ययन में सहायक हैं
- वेदाधिगमः—पुं॰—वेदः-अधिगमः—-—धार्मिक अध्ययन, वेदाध्ययन
- वेदाध्ययनम्—नपुं॰—वेदः-अध्ययनम्—-—धार्मिक अध्ययन, वेदाध्ययन
- वेदाध्यापकः—पुं॰—वेदः-अध्यापकः—-—वेद का पढ़ाने वाला, धर्मगुरु
- वेदान्तः—पुं॰—वेदः-अन्तः—-—`वेद का अन्त' (वेद के अन्त में आने वालीं) उपनिषद्
- वेदान्तः—पुं॰—वेदः-अन्तः—-—हिन्दुओं के छः मुख्य दर्शनों में अन्तिम दर्शन
- वेदगः—पुं॰—वेदः-गः—-—वेदान्त दर्शन का अनुयायी
- वेदज्ञः—पुं॰—वेदः-ज्ञः—-—वेदान्त दर्शन का अनुयायी
- वेदान्तिन्—पुं॰—वेदः-अन्तिन्—-—वेदान्त दर्शन का अनुयायी
- वेदार्थः—पुं॰—वेदः-अर्थः—-—वेदों का अर्थ
- वेदावतारः—पुं॰—वेदः-अवतारः—-—वेदों का प्रकटीकरण, अर्थात् ईश्वरीय संदेश
- वेदादि—नपुं॰—वेदः-आदि—-—`ओम् की पुनीत ध्वनि
- वेदादिवर्णः—पुं॰—वेदः-आदिवर्णः—-—`ओम् की पुनीत ध्वनि
- वेदादिबीजम्—नपुं॰—वेदः-आदिबीजम्—-—`ओम् की पुनीत ध्वनि
- वेदोक्त—वि॰—वेदः-उक्त—-—शास्त्रसम्मत, वेदविहित
- वेदकौलेयकः—पुं॰—वेदः-कौलेयकः—-—शिव का विशेषण
- वेदगर्भः—पुं॰—वेदः-गर्भः—-—ब्रह्म का विशेषण
- वेदगर्भः—पुं॰—वेदः-गर्भः—-—वेदों का ज्ञाता ब्राह्मण
- वेदज्ञः—पुं॰—वेदः-ज्ञः—-—वेदों को जानने वाला ब्राह्मण
- वेदत्रयम्—नपुं॰—वेदः-त्रयम्—-—सामूहिक रूप से तीनों वेद
- वेदत्रयी—स्त्री॰—वेदः-त्रयी—-—सामूहिक रूप से तीनों वेद
- वेदनिन्दकः—पुं॰—वेदः-निन्दकः—-—नास्तिक, पाखण्डी, श्रद्धाहीन
- वेदनिन्दा—स्त्री॰—वेदः-निन्दा—-—अविश्वास, पाखण्ड
- वेदपारगः—पुं॰—वेदः-पारगः—-—वेदों में पारंगत ब्राह्मण
- वेदमातृ—स्त्री॰—वेदः-मातृ—-—वैदिक पुनीत मंत्र, गायत्रीमंत्र
- वेदवचनम्—नपुं॰—वेदः-वचनम्—-—वेद का मूलपाठ
- वेदवाक्यम्—नपुं॰—वेदः-वाक्यम्—-—वेद का मूलपाठ
- वेदवदनम्—नपुं॰—वेदः-वदनम्—-—व्याकरण
- वेदवासः—पुं॰—वेदः-वासः—-—ब्राह्मण
- वेदबाह्य—वि॰—वेदः-बाह्य—-—वेद के विरुद्ध, जो वेद में उपलब्ध न हो
- वेदविद्—पुं॰—वेदः-विद्—-—वेदविशारद ब्राह्मण
- वेदव्यासः—पुं॰—वेदः-व्यासः—-—व्यास का विशेषण जिसने वेदों वर्तामान रूप दिया है
- वेदसंन्यासः—पुं॰—वेदः-संन्यासः—-—वेदों के कर्मकाण्ड का त्याग
- वेदनम्—नपुं॰—-—विद् + ल्युट्—ज्ञान, प्रत्यक्षज्ञान
- वेदनम्—नपुं॰—-—-—भावना, संवेदन
- वेदनम्—नपुं॰—-—-—पीडा, संताप, क्लेश, आधि
- वेदनम्—नपुं॰—-—-—अधिग्रहण, दौलत, जायदाद
- वेदनम्—नपुं॰—-—-—विवाह
- वेदना—स्त्री॰—-—विद् + ल्युट्—ज्ञान, प्रत्यक्षज्ञान
- वेदना—स्त्री॰—-—-—भावना, संवेदन
- वेदना—स्त्री॰—-—-—पीडा, संताप, क्लेश, आधि
- वेदना—स्त्री॰—-—-—अधिग्रहण, दौलत, जायदाद
- वेदना—स्त्री॰—-—-—विवाह
- वेदारः—पुं॰—-—वेद + ऋ + अण्—गिरगिट
- वेदिः—पुं॰—-—विद् + इन्—विद्वान् पुरुष, ऋषि, पंडित
- वेदिः—स्त्री॰—-—-—यज्ञकार्य के लिए तैयार की हुई भूमि, वेदी
- वेदिः—स्त्री॰—-—-—वेदी विशेष जिसके मध्यवर्ती किनारे परस्पर मिले हुए हों
- वेदिः—स्त्री॰—-—-—किसी मन्दिर या महल का चौकोर सहन
- वेदिः—स्त्री॰—-—-—मुद्रा-अंगूठी
- वेदिः—स्त्री॰—-—-—सरस्वती
- वेदिः—स्त्री॰—-—-—भूखण्ड, प्रदेश
- वेदी—स्त्री॰—-—-—यज्ञकार्य के लिए तैयार की हुई भूमि, वेदी
- वेदी—स्त्री॰—-—-—वेदी विशेष जिसके मध्यवर्ती किनारे परस्पर मिले हुए हों
- वेदी—स्त्री॰—-—-—किसी मन्दिर या महल का चौकोर सहन
- वेदी—स्त्री॰—-—-—मुद्रा-अंगूठी
- वेदी—स्त्री॰—-—-—सरस्वती
- वेदी—स्त्री॰—-—-—भूखण्ड, प्रदेश
- वेदीजा—स्त्री॰—वेदी-जा—-—द्रौपदी का विशेषण, क्योंकि वह राजा द्रुपद की यज्ञवेदी के मध्य से उत्पन्न हुई थी
- वेदिका—स्त्री॰—-—वेदी + कन् + टाप्, ह्रस्व—यज्ञभूमि या वेदी
- वेदिका—स्त्री॰—-—-—चबूतरा, उच्चसमतलभूमि
- वेदिका—स्त्री॰—-—-—आसन
- वेदिका—स्त्री॰—-—-—वेदी, ढेप, टीला
- वेदिका—स्त्री॰—-—-—आंगन में बीच में बना चौकर चबूतरा
- वेदिका—स्त्री॰—-—-—लतामंडप, निंकुज
- वेदिन्—वि॰—-—विद् + णिनि—ज्ञाता
- वेदिन्—वि॰—-—-—विवाह करने वाला
- वेदिन—पुं॰—-—-—जानकर
- वेदिन—पुं॰—-—-—अध्यापक
- वेदिन—पुं॰—-—-—विद्वान् पुरुष
- वेदिन—पुं॰—-—-—ब्राह्मण का विशेषण
- वेद्य—वि॰—-—विद् + ण्यत्—ज्ञात होने के योग्य
- वेद्य—वि॰—-—-—व्याख्येय या शिक्षणीय
- वेद्य—वि॰—-—-—विवाहित होने के योग्य
- वेधः—पुं॰—-—विध् + घञ्—छेद करना, बींधना, छिद्र युक्त करना
- वेधः—पुं॰—-—-—घायल करना, घाव
- वेधः—पुं॰—-—-—छिद्र, खुदाई या गर्त
- वेधः—पुं॰—-—-—(खुदाई की) गहराई
- वेधकः—पुं॰—-—विध् + ण्वुल्—नरक के एक प्रभाग का नाम
- वेधकः—पुं॰—-—-—कर्पूर
- वेधकम्—नपुं॰—-—-—बाल में विद्यमान चावल
- वेधनम्—नपुं॰—-—विध् + ल्युट्—छेदने या बींधने की क्रिया
- वेधनम्—नपुं॰—-—-—प्रवेशन, छेदन
- वेधनम्—नपुं॰—-—-—शून्यीकरण, वेधन
- वेधनम्—नपुं॰—-—-—चुभोना, घायल करना
- वेधनम्—नपुं॰—-—-—(खुदाई की) गहराई
- वेधनिका—स्त्री॰—-—वेधनी + कन् + टाप्, ह्रस्व—हाथी का कान बींधने वाला उपकरण
- वेधनिका—स्त्री॰—-—-—एक तेज नोक वाला उपकरण जिससे मणि या सीप व मणि आदि को बींधने वाला उपकरण, बर्मा
- वेधस्—पुं॰—-—विधा + असुन्, गुणः—स्रष्टा
- वेधस्—पुं॰—-—-—ब्रह्मा, विधाता
- वेधस्—पुं॰—-—-—गौण सृष्टिकर्ता
- वेधस्—पुं॰—-—-—शिव
- वेधस्—पुं॰—-—-—विष्णु
- वेधस्—पुं॰—-—-—सूर्य
- वेधस्—पुं॰—-—-—मदार का पौधा
- वेधस्—पुं॰—-—-—विद्वान् पुरुष्
- वेधसम्—नपुं॰—-—वेधस् + अच्—अंगूठे की जड़ के नीचे का हथेली का भाग
- वेधित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वेध + इतच्—बींधा हुआ, छिद्रित
- वेन्ना—स्त्री॰—-—-—एक नदी का नाम (जो कृष्णा नदी में जाकर मिलती है)
- वेप्—भ्वा॰ आ॰ <वेपते>, <वेपित>—-—-—कांपना, हिलना, थरथराना, लरजना
- प्रवेप्—भ्वा॰ आ॰—प्र-वेप्—-—थरथराना, धड़कना, कांपना
- वेपथुः—पुं॰—-—वेप् + अथुच्—थरथरी, कंपकपी, (स्तनों का) हिलना
- वेपनम्—नपुं॰—-—वेप् + ल्युट्—थरथरी, कंपकपी
- वेमः—पुं॰—-—वे + मन्—करघा, खंड्डी
- वेमन्—नपुं॰—-—वे + मनिन्—करघा, खंड्डी
- वेरः—पुं॰—-—अज् + रन्, वीभावः—शरीर
- वेरः—पुं॰—-—अज् + रन्, वीभावः—केसर ज़ाफरान
- वेरः—पुं॰—-—अज् + रन्, वीभावः—बैगन
- वेरम्—नपुं॰—-—-—शरीर
- वेरम्—नपुं॰—-—-—केसर ज़ाफरान
- वेरम्—नपुं॰—-—-—बैगन
- वेरटः—पुं॰—-—-—नीच पुरुष, छोटी जाति का पुरुष
- वेरटम्—नपुं॰—-—-—बेर का फल
- वेल्—भ्वा॰ पर॰ <वेलति>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- वेल्—भ्वा॰ पर॰ <वेलति>—-—-—हिलना, इधर उधर घूमना, काँपना
- वेल्—चुरा॰ उभ॰ <वेलयति>, <वेलयते>—-—-—समय की गणना करना
- वेलम्—नपुं॰—-—वेल् + अच्—उद्यान, वाटिका
- वेला—स्त्री॰—-—वेल + टाप्—समय
- वेला—स्त्री॰—-—-—ऋतु, अवसर
- वेला—स्त्री॰—-—-—विश्राम का अन्तराल, अवकाश
- वेला—स्त्री॰—-—-—लहर, प्रवाह, धारा
- वेला—स्त्री॰—-—-—समुद्र तट, समुद्री किनारा
- वेला—स्त्री॰—-—-—सीमा, हदबन्दी
- वेला—स्त्री॰—-—-—भाषण
- वेला—स्त्री॰—-—-—बीमारी
- वेला—स्त्री॰—-—-—सहज मृत्यु
- वेला—स्त्री॰—-—-—मसूड़े
- वेलाकुलम्—नपुं॰—वेला-कुलम्—-—ताम्रलिप्त नामक जिला
- वेलामूलम्—नपुं॰—वेला-मूलम्—-—समुद्र-तट
- वेलावनम्—नपुं॰—वेला-वनम्—-—समुद्रीकिनारे का जंगल
- वेल्ल्—भ्वा॰ पर॰ <वेल्लति>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- वेल्ल्—भ्वा॰ पर॰ <वेल्लति>—-—-—हिलाना, कांपना, इधर-उधर फिरना
- वेल्लः—पुं॰—-—वेल्ल् + घञ्—हिलना, गतिशील होना
- वेल्लः—पुं॰—-—-—(भूमि पर) लोटना
- वेल्लनम्—नपुं॰—-—-—हिलना, गतिशील होना
- वेल्लनम्—नपुं॰—-—-—(भूमि पर) लोटना
- वेल्लहलः—पुं॰—-—वेल्ल + हवल् + अच्, पृषो॰—लम्पट, दुराचारी
- वेल्लिः—स्त्री॰—-—वेल्ल् + इन्—लता, वेल
- वेल्लित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वेल्ल् + क्त—कंपायमान, थरथराने वाला, हिलाया हुआ
- वेल्लित—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—टेढ़ा-मेढ़ा
- वेल्लितम्—नपुं॰—-—-—जाना, चलना-फिरना
- वेल्लितम्—नपुं॰—-—-—हिलना
- वेवी—अदा॰ आ॰ <वेवीते>—-—-—जाना
- वेवी—अदा॰ आ॰ <वेवीते>—-—-—प्राप्त करना
- वेवी—अदा॰ आ॰ <वेवीते>—-—-—गर्भधारण करना, गर्भवति होना
- वेवी—अदा॰ आ॰ <वेवीते>—-—-—व्याप्त करना
- वेवी—अदा॰ आ॰ <वेवीते>—-—-—डाल देना, फेंकना
- वेवी—अदा॰ आ॰ <वेवीते>—-—-—खाना
- वेवी—अदा॰ आ॰ <वेवीते>—-—-—कामना करना, चाहना
- वेशः—पुं॰—-—विश् + घञ्—प्रवेशद्वार
- वेशः—पुं॰—-—-—अन्तः प्रवेश, पैठना
- वेशः—पुं॰—-—-—घर, आवासस्थल
- वेशः—पुं॰—-—-—वेश्याओं का घर, चकला
- वेशः—पुं॰—-—-—पोशाक, वस्त्र, कपड़े
- वेशदानम्—नपुं॰—वेशः-दानम्—-—सूरजमुखी फूल
- वेशधारिन्—वि॰—वेशः-धारिन्—-—छद्मवेशी, कपटरूपधारी
- वेशनारी—स्त्री॰—वेशः-नारी—-—वेश्या
- वेशवनिता—स्त्री॰—वेशः-वनिता—-—वेश्या
- वेशवासः—स्त्री॰—वेशः-वासः—-—वेश्याओं का घर, चकला
- वेशकः—पुं॰—-—वेश + कन्—घर
- वेशनम्—नपुं॰—-—विश् + ल्युट्—प्रवेश करना, प्रवेशद्वार
- वेशनम्—नपुं॰—-—-—घर
- वेशन्तः—पुं॰—-—विश् + झच्—छोटा तालाब, पोखर
- वेशन्तः—पुं॰—-—-—आग
- वेशरः—पुं॰—-—वेश + रा + क—खच्चर
- वेश्मन्—नपुं॰—-—विश् + मनिन्—घर, निवासस्थान, आवास, भवन, महल
- वेश्मकर्मन्—नपुं॰—वेश्मन्-कर्मन्—-—घर बनाना
- वेश्मकलिङ्गः—पुं॰—वेश्मन्-कलिङ्गः—-—एक प्रकार की चिड़िया
- वेश्मनकुलः—पुं॰—वेश्मन्-नकुलः—-—छछून्दर
- वेश्मभूः—स्त्री॰—वेश्मन्-भूः—-—वह स्थान जहाँ घर बनाना है, भवननिर्माण के लिए भूखण्ड
- वेश्यम्—नपुं॰—-—विश् + ण्यत्, वेशाय हितं वा यत्—वेश्याओं का घर, चकला
- वेश्या—स्त्री॰—-—वेशेन पण्ययोगेन जीवति-वेश् + यत् + टाप्—बाजारू स्त्री, रंडी, गणिका, रखैल
- वेश्याचार्यः—पुं॰—वेश्या-आचार्यः—-—वह पुरुष जो वेश्याओं का स्वामी हो, उन्हें रखता हो
- वेश्याचार्यः—पुं॰—वेश्या-आचार्यः—-—भड़वा
- वेश्याचार्यः—पुं॰—वेश्या-आचार्यः—-—लौंडा, गाँडू
- वेश्याश्रयः—पुं॰—वेश्या-आश्रयः—-—वेश्याओं का वासस्थल, चकला
- वेश्यागमनम्—नपुं॰—वेश्या-गमनम्—-—व्यभिचार, रंडीबाजी
- वेश्यागृहम्—नपुं॰—वेश्या-गृहम्—-—चकला
- वेश्याजनः—पुं॰—वेश्या-जनः—-—रंडी
- वेश्यापणः—पुं॰—वेश्या-पणः—-—भोग के लिए रंडी को दी जाने वाली मजदूरी
- वेश्वरः—पुं॰—-—-—खच्चर
- वेष—पुं॰—-—-—प्रवेशद्वार
- वेष—पुं॰—-—-—अन्तः प्रवेश, पैठना
- वेष—पुं॰—-—-—घर, आवासस्थल
- वेष—पुं॰—-—-—वेश्याओं का घर, चकला
- वेष—पुं॰—-—-—पोशाक, वस्त्र, कपड़े
- वेषणम्—नपुं॰—-—विष् + ल्युट्—अधिकृत वस्तु, स्वामित्व, कब्जा
- वेष्ट्—भ्वा॰ आ॰ <वेष्टते>—-—-—घेरना, अहाता बनाना, घेरा डालना, लपेटना
- वेष्ट्—भ्वा॰ आ॰ <वेष्टते>—-—-—चाबी देना, मरोड़ना
- वेष्ट्—भ्वा॰ आ॰ <वेष्टते>—-—-—वस्त्र पहनना
- वेष्ट्—भ्वा॰ उभ॰, प्रेर॰ <वेष्टयति>, <वेष्टयते>—-—-—घेरना
- वेष्ट्—भ्वा॰ उभ॰, प्रेर॰ <वेष्टयति>, <वेष्टयते>—-—-—घेराबन्दी डालना
- आवेष्ट्—भ्वा॰ आ॰—आ-वेष्ट्—-—तह करना
- परिवेष्ट्—भ्वा॰ आ॰—परि-वेष्ट्—-—परस्पर तह करना, लपेटना, मरोड़ना, उमेठना
- संवेष्ट—भ्वा॰ आ॰—सम्-वेष्ट्—-—परस्पर तह करना, लपेटना, मरोड़ना, उमेठना
- वेष्टः—पुं॰—-—वेष्ठ् + घञ्—घेरा, घिराव
- वेष्टः—पुं॰—-—-—बाड़ा, बाड़
- वेष्टः—पुं॰—-—-—पगड़ी
- वेष्टः—पुं॰—-—-—गोंद, राल, रस
- वेष्टः—पुं॰—-—-—तारपीन
- वेष्टवंशः—पुं॰—वेष्टः-वंशः—-—एक प्रकार का बाँस
- वेष्टसारः—पुं॰—वेष्टः-सारः—-—तारपीन
- वेष्टकः—पुं॰—-—वेष्ट् + ण्वुल्—बाड़ा, बाढ़
- वेष्टकः—पुं॰—-—-—लौकी
- वेष्टकम्—नपुं॰—-—-—पगड़ी
- वेष्टकम्—नपुं॰—-—-—चादर, लबादा
- वेष्टकम्—नपुं॰—-—-—गोंद, रस
- वेष्टकम्—नपुं॰—-—-—तारपीन
- वेष्टनम्—नपुं॰—-—वेष्ट् + ल्युट्—लपेटना, चारों ओर से घेरना, घेराबन्दी करना
- अङ्गुलिवेष्टनम्—नपुं॰—अङ्गुलि-वेष्टनम्—-—अंगूठी
- वेष्टनम्—नपुं॰—-—-—कुंडलित होना, गोल मरोड़ी लेना
- वेष्टनम्—नपुं॰—-—-—लिफा़फ़ा, लेपटन
- वेष्टनम्—नपुं॰—-—-—ओढ़नी, ढकना, संदूक
- वेष्टनम्—नपुं॰—-—-—पगड़ी, त्रिमुकुट
- वेष्टनम्—नपुं॰—-—-—बाड़ा, घेर
- वेष्टनम्—नपुं॰—-—-—तगड़ी, कमरबन्द
- वेष्टनम्—नपुं॰—-—-—पट्टी
- वेष्टनम्—नपुं॰—-—-—बाहरी कान
- वेष्टनम्—नपुं॰—-—-—गुग्गुल
- वेष्टनम्—नपुं॰—-—-—नृत्य की विशेष मुद्रा
- वेष्टनकः—पुं॰—-—वेष्टन + कन्—संभोग के अवसर की विशेष अंगस्थिति
- वेष्टित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वेष्ट् + क्स—घिरा हुआ, घेरा हुआ, चारों ओर से लपेटा हुआ, बन्द किया हुआ
- वेष्टित—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—लिपटा हुआ, वस्त्रों से सुसज्जित किया हुआ
- वेष्टित—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—ठहराया हुआ, रोका हुआ, विघ्न डाला हुआ
- वेष्टित—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—घेराबन्दी किया हुआ
- वेष्पः—पुं॰—-—विषेः पः—जल, पानी
- वेष्यः—पुं॰—-—विषेः पः—जल, पानी
- वेष्या—स्त्री॰—-—-—बाजारू स्त्री, रंडी, गणिका, रखैल
- वेसरः—पुं॰—-—वेस् + अरन्—खच्चर
- वेसवारः—पुं॰—-—वेस् + वृ + अण्—गर्म मसाला
- वेशवारः—पुं॰—-—-—गर्म मसाला
- वेह्—भ्वा॰ आ॰ <वेहते>—-—-—उद्योग करना, चेष्टा करना, प्रयत्न करना
- वेहत्—स्त्री॰—-—विशेषेण हन्ति गर्भम्-वि + हन् + अति—बांझ गौ
- वेहारः—पुं॰—-—विहारः, पृषो॰—एक देश का नाम, बिहार
- वेह्ल्—भ्वा॰ पर॰ <वेह्लते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- वै—भ्वा॰ पर॰ <वायति>—-—-—सूखना, शुष्क होना
- वै—भ्वा॰ पर॰ <वायति>—-—-—म्लान, निढाल, अवसन्न
- वै—अव्य॰—-—वा + डै—स्वीकृति या निश्चयवाचक अव्यय (निःसन्देह, सचमुच, वस्तुतः)
- वैशतिक—वि॰—-—विंशतिक + अण्—बीस मे मोल लिया हुआ
- वैकक्षम्—नपुं॰—-—विशेषेण कक्षति व्याप्नोति-अण्—एक माला जो यज्ञोपवीत की भांति एक कंधे के ऊपर से तथा दूसरे कंधे के नीचे से धारण की जाती है
- वैकक्षम्—नपुं॰—-—-—उत्तरीय वस्त्र, चोगा, ओढ़नी
- वैकक्षकम्—नपुं॰—-—वैकक्ष + कन्—यज्ञोपवीत की भांति बायें कन्धे के ऊपर तथा दायें कन्धे के नीचे से पहनी जाने वाली माला
- वैकक्षिकम्—नपुं॰—-—वैकक्ष + ठन्—यज्ञोपवीत की भांति बायें कन्धे के ऊपर तथा दायें कन्धे के नीचे से पहनी जाने वाली माला
- वैकटिकः—पुं॰—-—-—जौहरी
- वैकर्तनः—पुं॰—-—विकर्तनस्यापत्यम्-अण्—कर्ण का नाम
- वैकल्पम्—नपुं॰—-—विकल्प + अण्—ऐच्छिकता
- वैकल्पम्—नपुं॰—-—विकल्प + अण्—संशय, संदिग्धता
- वैकल्पम्—नपुं॰—-—विकल्प + अण्—अनिश्चय, असमंजस
- वैकल्पिक—वि॰—-—विकल्प + ठक्—ऐच्छिक
- वैकल्पिक—वि॰—-—विकल्प + ठक्—संदिग्ध, ससंशय, अनिश्चित, अनिर्णीत
- वैकल्यम्—नपुं॰—-—विकल + ष्यञ्—त्रुटि, कमी, अधूरापन्
- वैकल्यम्—नपुं॰—-—विकल + ष्यञ्—अङ्गभङ्ग, विकलाङ्ग या पंगु होना
- वैकल्यम्—नपुं॰—-—विकल + ष्यञ्—अक्षमता
- वैकल्यम्—नपुं॰—-—विकल + ष्यञ्—विक्षोभ, हड़बड़ी, उत्तेजना
- वैकल्यम्—नपुं॰—-—विकल + ष्यञ्—अनस्तित्व
- वैकारिक—वि॰—-—विकार + ठक्—विकारविषयक
- वैकारिक—वि॰—-—विकार + ठक्—विकारशील
- वैकारिक—वि॰—-—विकार + ठक्—विकृत
- वैकालः—पुं॰—-—विकाल + अण्— तीसरा पहर, मध्याह्नोत्तर काल, सांयकाल
- वैकालिक—वि॰—-—विकाल + ठक्—सायंकालसम्बन्धी या सायंकाल के समय घटित होने वाला
- वैकालीन—वि॰—-—विकाल + ख—सायंकालसम्बन्धी या सायंकाल के समय घटित होने वाला
- वैकुण्ठः—पुं॰—-—विकुण्ठायां मायायां भवः-अण्—विष्णु का विशेषण
- वैकुण्ठः—पुं॰—-—विकुण्ठायां मायायां भवः-अण्—इन्द्र का विशेषण
- वैकुण्ठः—पुं॰—-—विकुण्ठायां मायायां भवः-अण्—तुलसी का पौधा
- वैकुण्ठम्—नपुं॰—-—-—विष्णु का स्वर्ग
- वैकुण्ठम्—नपुं॰—-—-—अभ्रक
- वैकुण्ठचतुर्दशी—स्त्री॰—वैकुण्ठः-चतुर्दशी—-—कार्तिकशुक्ला चौदस
- वैकुण्ठलोकः—पुं॰—वैकुण्ठः-लोकः—-—विष्णु की दुनिया
- वैकृत—वि॰—-—विकृत + अण्—परिवर्तित
- वैकृत—वि॰—-—विकृत + अण्—बदला हुआ
- वैकृतम्—नपुं॰—-—-—परिवर्तन, अदल-बदल, हेर-फेर
- वैकृतम्—नपुं॰—-—-—अरुचि, जुगुप्सा, घिनौनापन
- वैकृतम्—नपुं॰—-—-—अवस्था या सूरत शक्ल में परिवर्तन, विरूपता आदि
- वैकृतम्—नपुं॰—-—-—अपशकुन, कोई भी अनिष्टसूचक घटना
- वैकृतविवर्तः—पुं॰—वैकृत-विवर्तः—-—दुर्दशा, दयनीय दशा, कष्टग्रस्त
- वैकृतिक—वि॰—-—विकृति + ठक्—परिवर्तित, संशोधित
- वैकृतिक—वि॰—-—विकृति + ठक्—विकृति सम्बन्धी
- वैकृत्यम्—नपुं॰—-—विकृत + ष्यञ्—परिवर्तन, अदल-बदल
- वैकृत्यम्—नपुं॰—-—विकृत + ष्यञ्—दुःखद स्थिति, दयनीय दशा
- वैकृत्यम्—नपुं॰—-—विकृत + ष्यञ्—जुगुप्सा
- वैक्रान्तम्—नपुं॰—-—विक्रान्त्या दीव्यति- विक्रान्ति + अण्—एक प्रकार का रत्न
- वैक्लवम्—नपुं॰—-—विक्लव + अण्—गड़बड़ी, विक्षोभ, घबराहट
- वैक्लवम्—नपुं॰—-—विक्लव + अण्—हुल्लड़, हलचल
- वैक्लवम्—नपुं॰—-—विक्लव + अण्—कष्ट, दुःख, शोक, रंज
- वैक्लव्यम्—नपुं॰—-—विक्लव + ष्यञ्—गड़बड़ी, विक्षोभ, घबराहट
- वैक्लव्यम्—नपुं॰—-—विक्लव + ष्यञ्—हुल्लड़, हलचल
- वैक्लव्यम्—नपुं॰—-—विक्लव + ष्यञ्—कष्ट, दुःख, शोक, रंज
- वैखरी—स्त्री॰—-—विशेषेण खं राति- रा + क + अण् + ङीप्—स्पष्ट-उच्चारण, ध्वनि-उत्पादन
- वैखरी—स्त्री॰—-—विशेषेण खं राति- रा + क + अण् + ङीप्—वाक्शक्ति
- वैखरी—स्त्री॰—-—विशेषेण खं राति- रा + क + अण् + ङीप्—वाणी, भाषण
- वैखानस—वि॰—-—वैखानसस्य इदम्-अण्—किसी वानप्रस्थ, सन्यासी, या भिक्षु आदि से सम्बद्ध
- वैखानसः—पुं॰—-—-—वैरागी, वानप्रस्थ, तीसरे आश्रम में वास करने वाला व्राह्मण
- वैगुण्यम्—नपुं॰—-—विगुण + ष्यञ्—गुण या विशेषण का अभाव
- वैगुण्यम्—नपुं॰—-—विगुण + ष्यञ्—सद्गुणों का अभाव, त्रुटि, दोष, कमी
- वैगुण्यम्—नपुं॰—-—विगुण + ष्यञ्—गुणों की भिन्नता, विविधता, विरोधिता
- वैगुण्यम्—नपुं॰—-—विगुण + ष्यञ्—घटियापन, तुच्छता
- वैगुण्यम्—नपुं॰—-—विगुण + ष्यञ्—अकुशलता
- वैचक्षण्यम्—नपुं॰—-—विचक्षण + ष्यञ्—कौशल, निपुणता, प्रवीणता
- वैचित्यम्—नपुं॰—-—विचित + ष्यञ्—शोक, मानसिक विकलता, अफसोस
- वैचित्र्यम्—नपुं॰—-—विचित्र + ष्यञ्—विविधता, विभिन्नता
- वैचित्र्यम्—नपुं॰—-—विचित्र + ष्यञ्—बहुविधता
- वैचित्र्यम्—नपुं॰—-—विचित्र + ष्यञ्—अचरज
- वैचित्र्यम्—नपुं॰—-—विचित्र + ष्यञ्—विस्मयोत्पादकता
- वैचित्र्यम्—नपुं॰—-—विचित्र + ष्यञ्—आश्चर्य
- वैजननम्—नपुं॰—-—विजनन + अण्—गर्भ का अन्तिम मास
- वैजयन्तः—पुं॰—-—वैजयन्ती + अण्—इन्द्र का महल
- वैजयन्तः—पुं॰—-—वैजयन्ती + अण्—इन्द्र का झण्डा
- वैजयन्तः—पुं॰—-—वैजयन्ती + अण्—ध्वज, पताका
- वैजयन्तः—पुं॰—-—वैजयन्ती + अण्—घर
- वैजयन्तिकः—पुं॰—-—वैजयन्ती + ठक्—झण्डा उठाने वाला
- वैजयन्तिका—स्त्री॰—-—वैजयन्ती + कन् + टाप्, ह्रस्व—झण्डा, पताका
- वैजयन्तिका—स्त्री॰—-—वैजयन्ती + कन् + टाप्, ह्रस्व—एक प्रकार का मोतियों की माला
- वैजयन्ती—स्त्री॰—-—वि + जि + झच् = विजयन्त + अण् + ङीप्—झंडा, पताका
- वैजयन्ती—स्त्री॰—-—वि + जि + झच् = विजयन्त + अण् + ङीप्—चिह्न
- वैजयन्ती—स्त्री॰—-—वि + जि + झच् = विजयन्त + अण् + ङीप्—माला, हार
- वैजयन्ती—स्त्री॰—-—वि + जि + झच् = विजयन्त + अण् + ङीप्—विष्णु का हार
- वैजयन्ती—स्त्री॰—-—वि + जि + झच् = विजयन्त + अण् + ङीप्—एक शब्दकोश का नाम
- वैजात्यम्—नपुं॰—-—विजात + ष्यञ्—जाति या प्रकार की भिन्नता
- वैजात्यम्—नपुं॰—-—विजात + ष्यञ्—जाति या वर्ण की भिन्नता
- वैजात्यम्—नपुं॰—-—विजात + ष्यञ्—अचरज
- वैजात्यम्—नपुं॰—-—विजात + ष्यञ्—जातिबहिष्कार
- वैजात्यम्—नपुं॰—-—विजात + ष्यञ्—बदचलनी, स्वेच्छाचारिता
- वैजिक—वि॰—-—वीज + ठक्—वीर्यसंबंधी
- वैजिक—वि॰—-—वीज + ठक्—मौलिक
- वैजिक—वि॰—-—वीज + ठक्—गर्भविषयक
- वैजिक—वि॰—-—वीज + ठक्—मैथुनसंबंधी
- वैजिकः—पुं॰—-—वीज + ठक्—अंखुवा, नया अंकुर
- वैजिकम्—नपुं॰—-—वीज + ठक्—कारण, स्रोत, मूल
- वैज्ञानिक—वि॰—-—विज्ञान + ठक्—चतुर, कुशल, प्रवीण
- वैडाल—वि॰—-—विडाल + अण्—बिलाव से संबंध रखने वाला
- वैडाल—वि॰—-—विडाल + अण्—बिलाव की विशिष्टता को रखने वाला
- वैणः—पुं॰—-—वेणु + अण्, उकारस्य लोपः—बाँस का कार्य करने वाला
- वैणव—वि॰—-—वेणु + अण्—बाँस से उत्पन्न या बाँस का बना हुआ
- वैणवः—पुं॰—-—-—बाँस की छड़ी
- वैणवः—पुं॰—-—-—बाँस का कार्य करने वाला, बँसोड़
- वैणवी—स्त्री॰—-—-—वंसलोचन
- वैणवम्—नपुं॰—-—-—बाँस का फल या बीज
- वैणविकः—पुं॰—-—वैणव + ठक्—मुरली बजाने वाला, बाँसुरी बजाने वाला
- वैणविन्—पुं॰—-—वैणव + इनि—शिव की उपाधि
- वैणिकः—पुं॰—-—वीणा + ठक्—वीणा बजाने वाला
- वैणुकः—पुं॰—-—वैणुक + अण्—मुरली बजाने वाला, बाँसुरी बजाने वाला
- वैणुकम्—नपुं॰—-—-—अंकुश
- वैतंसिकः—पुं॰—-—वितंस + ठक्—मांस विक्रेता
- वैतण्डिकः—पुं॰—-—वितण्डा + ठक्—वितंडावादी, व्यर्थ विवाद करने वाला, छिद्रान्वेषी
- वैतनिक—वि॰—-—वेतन + ठक्—वेतन से निर्वाह करने वाला
- वैतनिकः—पुं॰—-—-—वेतन लेकर काम करने वाला, श्रमिक
- वैतनिकः—पुं॰—-—-—वेतन भोगी (कर्मचारी)
- वैतरणिः—स्त्री॰—-—वितरेणन दानेन लंघ्यते, पक्षे पृषो॰ ह्रस्वः—नरक की नदी का नाम
- वैतरणिः—स्त्री॰—-—वितरेणन दानेन लंघ्यते, पक्षे पृषो॰ ह्रस्वः—कलिङ्ग देश की नदी का नाम
- वैतरणी—स्त्री॰—-—वितरेणन दानेन लंघ्यते-वितरण + अण् + ङीप्—नरक की नदी का नाम
- वैतरणी—स्त्री॰—-—वितरेणन दानेन लंघ्यते-वितरण + अण् + ङीप्—कलिङ्ग देश की नदी का नाम
- वैतस—वि॰—-—वेतस + अण्—बेंत से संबन्ध रखने वाला
- वैतस—वि॰—-—-—नरकुल जैसा अर्थात् अपने से अधिकशक्तिशाली शत्रु के सामने घुटने टेक देने वाला
- वैतान—वि॰—-—वितान + अण्—यज्ञीय, पवित्र
- वैतानम्—नपुं॰—-—-—यज्ञीय कृत्य
- वैतानम्—नपुं॰—-—-—यज्ञीय आहुति
- वैतानिक—वि॰—-—वितान + ठक्—यज्ञीय, पवित्र
- वैतालिकः—पुं॰—-—विविधस्तालस्तेन व्यवहरति-ठक्—भाट, चारण
- वैतालिकः—पुं॰—-—विविधस्तालस्तेन व्यवहरति-ठक्—जादूगर, बाजीगर, विशेषकर वह जो वेताल का भक्त हो
- वैत्रक—वि॰—-—वेत्र + वुञ्—बेंत से युक्त, नरकुल का
- वैदः—पुं॰—-—वेद + अण्—बुद्धिमान् मनुष्य, विद्वान् पुरुष
- वैदग्धम्—नपुं॰—-—विदग्ध + अण्—कौशल, दक्षता, प्रवीणता, निपुणता
- वैदग्धम्—नपुं॰—-—विदग्ध + अण्—क्रमस्थापन में कौशल, सौन्दर्य
- वैदग्धम्—नपुं॰—-—विदग्ध + अण्—बुद्धिमत्ता, स्फूर्ति, चतुराई @ रत्न॰ २
- वैदग्धम्—नपुं॰—-—विदग्ध + अण्—बुद्धि
- वैदग्धी—स्त्री॰—-—वैदग्ध + ङीप्—कौशल, दक्षता, प्रवीणता, निपुणता
- वैदग्धी—स्त्री॰—-—वैदग्ध + ङीप्—क्रमस्थापन में कौशल, सौन्दर्य
- वैदग्धी—स्त्री॰—-—वैदग्ध + ङीप्—बुद्धिमत्ता, स्फूर्ति, चतुराई @ रत्न॰ २
- वैदग्धी—स्त्री॰—-—वैदग्ध + ङीप्—बुद्धि
- वैदग्ध्यम्—नपुं॰—-—विदग्ध + ष्यञ्—कौशल, दक्षता, प्रवीणता, निपुणता
- वैदग्ध्यम्—नपुं॰—-—विदग्ध + ष्यञ्—क्रमस्थापन में कौशल, सौन्दर्य
- वैदग्ध्यम्—नपुं॰—-—विदग्ध + ष्यञ्—बुद्धिमत्ता, स्फूर्ति, चतुराई @ रत्न॰ २
- वैदग्ध्यम्—नपुं॰—-—विदग्ध + ष्यञ्—बुद्धि
- वैदर्भः—पुं॰—-—विदर्भ + अण्—विदर्भ देश का राजा
- वैदर्भी—स्त्री॰—-—-—दमयन्ती
- वैदर्भी—स्त्री॰—-—-—रुक्मिणी
- वैदर्भी—स्त्री॰—-—-—रचना की विशेष शैली
- वैदल—वि॰—-—विदलस्य विकारः विदल + अण्—बेंत या टहनियों से बनाया हुआ
- वैदलः—पुं॰—-—-—एक प्रकार की रोटी
- वैदलः—पुं॰—-—-—कोई भी दाल का अनाज
- वैदलम्—नपुं॰—-—-—भिक्षुओं का कामगहरा भिक्षापात्र
- वैदलम्—नपुं॰—-—-—बाँस या टहनियों की बनी डलिया, या आसन
- वैदिक—वि॰—-—वेदं वेत्त्यधीते वा ठञ् वेदेषु विहितः वेद + ठक्—वेदों से व्युत्पन्न या वेदों के समनुरूप, वेदविषयक
- वैदिक—वि॰—-—वेदं वेत्त्यधीते वा ठञ् वेदेषु विहितः वेद + ठक्—पवित्र, वेदविहित, धर्मात्मा
- वैदिकः—पुं॰—-—-—वेदों में निष्णात ब्राह्मण
- वैदिकपाशः—पुं॰—वैदिकः-पाशः—-—वेद का अल्पज्ञान रखने वाला, कठज्ञानी, जिसे वेद का अधूरा ज्ञान हो
- वैदुषी—स्त्री॰—-—विद्वस् + अण् + ङीप्—ज्ञान, अधिगम, बुद्धिमत्ता
- वैदुष्यम्—नपुं॰—-—विद्वस् + ष्यञ्—ज्ञान, अधिगम, बुद्धिमत्ता
- वैदूर्य—वि॰—-—विदूर + ष्यञ्—विदूर से उत्पन्न या लाया गया
- वैदूर्यम्—नपुं॰—-—-—वैदूर्य मणि, नीलम
- वैदशिक—वि॰—-—विदेश + ठञ्—दूसरे देश से संबंध रखने वाला, अन्य देश का, और देशों से लाया हुआ
- वैदशिकः—पुं॰—-—-—अन्य देश का व्यक्ति, विदेशी
- वैदेश्यम्—नपुं॰—-—विदेश + ष्यञ्—विदेशीपन, विदेशी होना
- वैदेहः—पुं॰—-—विदेह् + अण्—विदेह देश का राजा
- वैदेहः—पुं॰—-—विदेह् + अण्—विदेह का रहने वाला
- वैदेहः—पुं॰—-—विदेह् + अण्—व्यापारी वैश्य
- वैदेहः—पुं॰—-—विदेह् + अण्—ब्राह्मण स्त्री में वैश्य पुरुष से उत्पन्न सन्तान
- वैदही—स्त्री॰—-—-—सीता
- वैदहकः—पुं॰—-—वैदेह + कन्—व्यापारी
- वैदहकः—पुं॰—-—वैदेह + कन्—ब्राह्मण स्त्री में वैश्य पुरुष से उत्पन्न सन्तान
- वैदेहिकः—पुं॰—-—विदेह + ठक्—सौदागर
- वैद्य—वि॰ —-—वेद + यत्—वेद सम्बन्धी, आध्यात्मिक
- वैद्य—वि॰ —-—वेद + यत्—आयुर्वेद सम्बन्धी, आयुर्वेद विषयक
- वैद्यः—पुं॰—-—विद्या अस्ति अस्य-विद्या + अण्—विद्वान् पुरुष, विद्यावान्, पण्डित
- वैद्यः—पुं॰—-—विद्या अस्ति अस्य-विद्या + अण्—आयुर्वेदाचार्य, चिकित्सक
- वैद्यः—पुं॰—-—विद्या अस्ति अस्य-विद्या + अण्—वैद्य जाति का पुरुष, जो वर्णसङ्कर समझा जाता है
- वैद्यक्रिया—स्त्री॰—वैद्यः-क्रिया—-—वैद्य का व्यवसाय, चिकित्सक के रूप में अभ्यास
- वैद्यनाथः—पुं॰—वैद्यः - नाथः—-—धन्वन्तरि
- वैद्यनाथः—पुं॰—वैद्यः - नाथः—-—शिव
- वैद्यकः—पुं॰—-—वैद्य + कन्—वैद्य, चिकित्सक
- वैद्यकम्—नपुं॰—-—-—चिकित्साविज्ञान
- वैद्युत—वि॰—-—विद्युत + अण्—बिजली से सम्बद्ध या उत्पन्न, बिजली
- बैद्युताग्निः—पुं॰—बैद्युत-अग्निः—-—बिजली की आग
- बैद्युतानलः—पुं॰—बैद्युत-अनलः—-—बिजली की आग
- बैद्युतवह्निः—पुं॰—बैद्युत-वह्निः—-—बिजली की आग
- वैध—वि॰—-—विधि + अण्—नियम के अनुरूप, व्यवस्थित, निश्चित, कर्मकाण्डविषयक
- वैध—वि॰—-—विधि + अण्—क़ानूनी, विधि या क़ानून सम्मत
- वैधिक—वि॰—-—विधि + ठक्—नियम के अनुरूप, व्यवस्थित, निश्चित, कर्मकाण्डविषयक
- वैधिक—वि॰—-—विधि + ठक्—क़ानूनी, विधि या क़ानून सम्मत
- वैधर्म्यम्—नपुं॰—-—विधर्म + ष्यञ्—असमानता, भिन्नता
- वैधर्म्यम्—नपुं॰—-—विधर्म + ष्यञ्—लक्षण गुणों का अन्तर
- वैधर्म्यम्—नपुं॰—-—विधर्म + ष्यञ्—कर्तव्य या आभार का अन्तर
- वैधर्म्यम्—नपुं॰—-—विधर्म + ष्यञ्—वैपरीत्य
- वैधर्म्यम्—नपुं॰—-—विधर्म + ष्यञ्—अवैधता, अनौचित्य, अन्याय
- वैधर्म्यम्—नपुं॰—-—विधर्म + ष्यञ्—पाखण्ड
- वैधवेयः—पुं॰—-—विधवा + ढक्—विधवा का पुत्र
- वैधव्यम्—नपुं॰—-—विधवा + ष्यञ्—विधवापन
- वैधुर्यम्—नपुं॰—-—विधुर + ष्यञ्—शोकावस्था
- वैधुर्यम्—नपुं॰—-—विधुर + ष्यञ्—विक्षोभ थरथरी, सिहरन
- वैधेय—वि॰—-—विधि + ढक्—नियमानुकूल, विहित
- वैधेय—वि॰—-—विधि + ढक्—मूर्ख, बुद्धू, जड
- वैधेयः—पुं॰—-—-—मूढ, जडमति
- वैनतेयः—पुं॰—-—विनता + ढक्—गरुड
- वैनतेयः—पुं॰—-—विनता + ढक्—अरुण
- वैनयिक—वि॰—-—विनय + ठक्—शिष्टता, सौजन्य, सदाचरण या अनुशासनसम्बन्धी
- वैनयिक—वि॰—-—विनय + ठक्—शिष्टाचार का व्यवहार करने वाला
- वैनयिकः—पुं॰—-—-—सामरिक रथ
- वैनायक—वि॰—-—विनायक + अण्—गणेशसम्बन्धी
- वैनायिकः—पुं॰—-—विनायं खण्डनमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः - विनाय + ठक्—बौद्ध संप्रदाय के दर्शन-सिद्धान्त
- वैनायिकः—पुं॰—-—विनायं खण्डनमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः - विनाय + ठक्—उस सम्प्रदाय का अनुयायी
- वैनाशिकः—पुं॰—-—विनाश + ठक्—दास
- वैनाशिकः—पुं॰—-—विनाश + ठक्—मकड़ी
- वैनाशिकः—पुं॰—-—विनाश + ठक्—ज्योतिषी
- वैनाशिकः—पुं॰—-—विनाश + ठक्—बौद्धों के सिद्धान्त
- वैनाशिकः—पुं॰—-—विनाश + ठक्—उन सिद्धान्तों का अनुयायी
- वैनीतक—नपुं॰—-—-—गाड़ी, सवारी (डोली आदि)
- वैनीतक—नपुं॰—-—-—ले जाने वाला, वाहक
- वैपरीत्यम्—नपुं॰—-—विपरीत + ष्यञ्—विरोधिता, विरोध
- वैपरीत्यम्—नपुं॰—-—विपरीत + ष्यञ्—असंगति
- वैपुल्यम्—नपुं॰—-—विपुल + ष्यञ्—विस्तार, विशालता
- वैपुल्यम्—नपुं॰—-—विपुल + ष्यञ्—पुष्कलता, बहुतायत
- वैफल्यम्—नपुं॰—-—विफल + ष्यञ्—निरर्थकता, विफलता
- वैबोधिकः—पुं॰—-—विबोध + ठक्—चौकीदार
- वैबोधिकः—पुं॰—-—विबोध + ठक्—विशेषकर वह जो रात में सोने वालों को, पहरा देते समय, समय की घोषणा करके जगाता रहता है
- वैभवम्—नपुं॰—-—विभु + अण्—बड़प्पन, यश, महिमा, चमक-दमक, ठाठ-बाट, दौलत
- वैभवम्—नपुं॰—-—विभु + अण्—शक्ति, ताकत
- वैभाषिक—वि॰—-—विभाषा + ठक्—ऐच्छिक, वैकल्पिक
- वैभ्रम्—नपुं॰—-—-—विष्णु का वैकुण्ड
- वैमत्यम्—नपुं॰—-—विमत + ष्यञ्—मतभेद, अनबन
- वैमत्यम्—नपुं॰—-—विमत + ष्यञ्—नापसंदगी, अरुचि
- वैमनस्यम्—नपुं॰—-—विमनस् + ष्यञ्—मन का उचटना, मानसिक अवसाद, शोक, उदासी
- वैमनस्यम्—नपुं॰—-—विमनस् + ष्यञ्—रोग
- वैमात्रः—पुं॰—-—विमातृ + अण्—सौतेली माँ का बेटा
- वैमात्रेयी—स्त्री॰—-—विमातृ + ढक्—सौतेली माँ का बेटा
- वैमात्रा—स्त्री॰—-—वैमात्र + टाप्—सौतेली माँ का बेटी
- वैमात्री—स्त्री॰—-—वैमात्र + ङीप्—सौतेली माँ का बेटी
- वैमात्रेयी—स्त्री॰—-—वैमात्रेय + ङीप्—सौतेली माँ का बेटी
- वैमानिक—वि॰ —-—विमान + ठक्—देवयान में आसीन
- वैमानिकः—पुं॰—-—-—गगनविहारी
- वैमुख्यम्—नपुं॰—-—विमुख + ष्यञ्—मुँह मोड़ना, पलायन, प्रत्यावर्तन
- वैमुख्यम्—नपुं॰—-—विमुख + ष्यञ्—अरुचि, जुगुप्सा
- वैमेयः—पुं॰—-—विमेय + अण्—बदला, विनिमय
- वैयग्रम्—नपुं॰—-—व्यग्र + अण्—व्यग्रता, बेचैनी, घबराहट
- वैयग्रम्—नपुं॰—-—व्यग्र + अण्—अनन्य भक्ति, तल्लीनता
- वैयग्र्यम्—नपुं॰—-—व्यग्र + ष्यञ्—व्यग्रता, बेचैनी, घबराहट
- वैयग्र्यम्—नपुं॰—-—व्यग्र + ष्यञ्—अनन्य भक्ति, तल्लीनता
- वैयर्थ्यम्—नपुं॰—-—व्यर्थ + ष्यञ्—व्यर्थता, अनुत्पादकता
- वैयधिकरण्यम्—नपुं॰—-—व्यधिकरण + ष्यञ्—भिन्न स्थानों में होने का भाव
- वैयाकरण—वि॰—-—व्याकरणमधीते वेत्ति वा -अण्—व्याकरणविषयक, व्याकरणसंबन्धी
- वैयाकरणः—पुं॰—-—-—व्याकरण जानने वाला
- वैयाकरणपाशः—पुं॰—वैयाकरणः-पाशः—-—जिसे व्याकरण का अच्छा ज्ञान न हो
- वैयाकरणभार्यः—पुं॰—वैयाकरणः-भार्यः—-—जिसकी पत्नी व्याकरण को जानने वाली हो
- वैयाघ्र—वि॰—-—व्याघ्र + अञ्—चीते की तरह का
- वैयाघ्र—वि॰—-—व्याघ्र + अञ्—चीते की खाल से ढका हुआ
- वैयाघ्रः—पुं॰—-—व्याघ्र + अञ्—चीते की खाल से ढकी हुई गाड़ी
- वैयात्यम्—नपुं॰—-—वियात + ष्यञ्—साहस, अविनय, निर्लज्जता
- वैयात्यम्—नपुं॰—-—वियात + ष्यञ्—उजड्डपन, अक्खड़पन
- वैयासिकः—पुं॰—-—व्यासस्य अपत्यम्, व्यास + इञ्, अकङ् आदेशः, यकारात् पूर्व ऐच्—व्यास का पुत्र
- वैरम्—नपुं॰—-—वीरस्य भावः-अण्—विरोध, शत्रुता, दुश्मनी वैमनस्य, द्रोह, प्रतिपक्ष, कलह
- वैरम्—नपुं॰—-—वीरस्य भावः-अण्—घृणा, प्रतिहिंसा
- वैरम्—नपुं॰—-—वीरस्य भावः-अण्—शूरवीरता, पराक्रम
- वैरानुबन्धः—पुं॰—वैरम्-अनुबन्धः—-—शत्रुता का आरंभ
- वैरानुबन्धिन्—वि॰—वैरम्-अनुबन्धिन्—-—शत्रुता की ओर ले जाने वाला
- वैरातङ्कः—पुं॰—वैरम्-आतङ्कः—-—अर्जुनवृक्ष
- वैरानृण्यम्—स्त्री॰—वैरम्-आनृण्यम्—-—शत्रुता का बदला, बदला देना, प्रतिहिंसा
- वैरोद्धारः—स्त्री॰—वैरम्-उद्धारः—-—शत्रुता का बदला, बदला देना, प्रतिहिंसा
- वैरनिर्यातनम्—स्त्री॰—वैरम्-निर्यातनम्—-—शत्रुता का बदला, बदला देना, प्रतिहिंसा
- वैरप्रतिक्रिया—स्त्री॰—वैरम्-प्रतिक्रिया—-—शत्रुता का बदला, बदला देना, प्रतिहिंसा
- वैरप्रतीकारः—स्त्री॰—वैरम्-प्रतीकारः—-—शत्रुता का बदला, बदला देना, प्रतिहिंसा
- वैरयातना—स्त्री॰—वैरम्-यातना—-—शत्रुता का बदला, बदला देना, प्रतिहिंसा
- वैरशुद्धिः—स्त्री॰—वैरम्-शुद्धिः—-—शत्रुता का बदला, बदला देना, प्रतिहिंसा
- वैरसाधनम्—नपुं॰—वैरम्-साधनम्—-—शत्रुता का बदला, बदला देना, प्रतिहिंसा
- वैरकरः—पुं॰—वैरम्-करः—-—शत्रु
- वैरकारः—पुं॰—वैरम्-कारः—-—शत्रु
- वैरकृत्—पुं॰—वैरम्-कृत्—-—शत्रु
- वैरभावः—पुं॰—वैरम्-भावः—-—शत्रुतापूर्ण रवैया
- वैररिक्षिन्—वि॰—वैरम्-रक्षिन्—-—शत्रुता का निवारण करने वाला
- वैरक्तम्—नपुं॰—-—विरक्त + अण्—सांसारिक आसक्तियों के प्रति उदासीनता, इच्छा का अभाव
- वैरक्तम्—नपुं॰—-—विरक्त + अण्—अप्रसन्नता, नापसन्दगी, अरुचि
- वैरक्त्यम्—नपुं॰—-—विरक्त + ष्यञ्—सांसारिक आसक्तियों के प्रति उदासीनता, इच्छा का अभाव
- वैरक्त्यम्—नपुं॰—-—विरक्त + ष्यञ्—अप्रसन्नता, नापसन्दगी, अरुचि
- वैरङ्गिकः—पुं॰—-—विरङ्गं विरागं नित्यमर्हति ठक्—जिसने अपनी सब इच्छाओं एवं वासनाओं का दमन कर दिया है, संन्यासी, वैरागी
- वैरल्यम्—नपुं॰—-—विरल + ष्यञ्—न्यूनता, विरलता
- वैरल्यम्—नपुं॰—-—विरल + ष्यञ्—ढीलापन
- वैरल्यम्—नपुं॰—-—विरल + ष्यञ्—मृदुता
- वैरागम्—नपुं॰—-—-—सांसारिक वासनाओं व इच्छाओं का अभाव, सांसारिक बंधनों से उदासीनता, विरक्ति
- वैरागम्—नपुं॰—-—-—असंतृप्ति, अप्रसन्नता, असंतोष
- वैरागम्—नपुं॰—-—-—अरुचि, नापसन्दगी
- वैरागम्—नपुं॰—-—-—रंज, शोक, अफ़सोस
- वैरागिकः—पुं॰—-—विराग + ठक् —वह संन्यासी जिसने अपनी सब इच्छाओं और वासनाओं का दमन कर लिया है
- वैरागिन्—पुं॰—-—विराग + अण् + इनि—वह संन्यासी जिसने अपनी सब इच्छाओं और वासनाओं का दमन कर लिया है
- वैराग्यम्—नपुं॰—-—विरागस्य भावः-ष्यञ्—सांसारिक वासनाओं व इच्छाओं का अभाव, सांसारिक बंधनों से उदासीनता, विरक्ति
- वैराग्यम्—नपुं॰—-—विरागस्य भावः-ष्यञ्—असंतृप्ति, अप्रसन्नता, असंतोष
- वैराग्यम्—नपुं॰—-—विरागस्य भावः-ष्यञ्—अरुचि, नापसन्दगी
- वैराग्यम्—नपुं॰—-—विरागस्य भावः-ष्यञ्—रंज, शोक, अफ़सोस
- वैराज—वि॰—-—विराज् + अण्—ब्रह्मासंबंधी
- वैराट—वि॰—-—विराट + अण्—विराट संबंधी
- वैराटः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का मिट्टी का कीड़ा, इन्द्रगोप
- वैरिन्—वि॰—-—वैर + इनि—विरोधी, शत्रुतापूर्ण
- वैरिन्—पुं॰—-—-—शत्रु
- वैरूप्यम्—नपुं॰—-—विरूप + ष्यञ्—विरूपता, कुरूपता
- वैरोचनः—पुं॰—-—विरोचनस्यापत्यम् अण्—विरोचन के पुत्र बलि राक्षस के विशेषण
- वैरोचनिः—पुं॰—-—विरोचनस्यापत्यम् इञ्—विरोचन के पुत्र बलि राक्षस के विशेषण
- वैरोचिः—पुं॰—-—विरोच + घञ्—विरोचन के पुत्र बलि राक्षस के विशेषण
- वैलक्षण्यम्—नपुं॰—-—विलक्षणस्य भावः-ष्यञ्—आश्चर्य
- वैलक्षण्यम्—नपुं॰—-—विलक्षणस्य भावः-ष्यञ्—वैपरीत्य, विरोध
- वैलक्षण्यम्—नपुं॰—-—विलक्षणस्य भावः-ष्यञ्—अन्तर, भेद
- वैलक्ष्यम्—नपुं॰—-—विलक्ष + ष्यञ्—उलझन, गड़बड़ी
- वैलक्ष्यम्—नपुं॰—-—विलक्ष + ष्यञ्—अस्वाभाविकता, कृत्रिमता
- वैलक्ष्यम्—नपुं॰—-—विलक्ष + ष्यञ्—लज्जा
- वैलक्ष्यम्—नपुं॰—-—विलक्ष + ष्यञ्—वैपरीत्य, व्यत्क्रम्
- वैलोम्यम्—नपुं॰—-—विलोम + ष्यञ्—विरोध, व्युत्क्रम्, वैपरीत्य
- वैल्व—वि॰—-—विल्व + अण्—बेल के वृक्ष या लकड़ी से संबद्ध या निर्मित
- वैल्व—वि॰—-—विल्व + अण्—बेल के पेड़ों से ढका हुआ
- वैल्वम्—नपुं॰—-—विल्व + अण्—बेल के पेड़ का फल
- वैवधिकः—पुं॰—-—विवध + ठक्—फेरी वाला, आवाज लगा कर बेचने वाला
- वैवधिकः—पुं॰—-—विवध + ठक्—(बहँगो में रख कर) भार ढोने वाला
- वैवर्ण्यम्—नपुं॰—-—विवर्णस्यः भावः-ष्यञ्—रंग या चेहरे की आभा का परिवर्तन, फीकापन, निष्प्रभता
- वैवर्ण्यम्—नपुं॰—-—विवर्णस्यः भावः-ष्यञ्—विभिन्नता, विविधता
- वैवर्ण्यम्—नपुं॰—-—विवर्णस्यः भावः-ष्यञ्—जाति से विचलना
- वैवस्वतः—पुं॰—-—विवस्वतोऽपत्यम् अण्—सातवाँ
- वैवस्वतः—पुं॰—-—विवस्वतोऽपत्यम् अण्—यम
- वैवस्वतः—पुं॰—-—विवस्वतोऽपत्यम् अण्—शनिग्रह
- वैवस्वतम्—नपुं॰—-—-—विवस्वान् के पुत्र सातवें मनु, द्वारा अधिष्ठित वर्तमान युग या मन्वन्तर
- वैवस्वती—स्त्री॰—-—वैवस्वत + ङीप्—दक्षिण दिशा
- वैवस्वती—स्त्री॰—-—-—यमुना नदी
- वैवहिक—वि॰—-—विवाह + ठञ्—विवाहसंबंधी, विवाहविषयक, विवाह के कारण होने वाला
- वैवहिकः—पुं॰—-—-—विवाह, शादी
- वैवहिकम्—नपुं॰—-—-—विवाह, शादी
- वैवहिकः—पुं॰—-—-—पुत्र वधू का श्वसुर, या दामाद का श्वसुर
- वैशद्यम्—नपुं॰—-—विशद + ष्यञ्—स्वच्छता, निर्मलता
- वैशद्यम्—नपुं॰—-—विशद + ष्यञ्—स्पष्टता
- वैशद्यम्—नपुं॰—-—विशद + ष्यञ्—सफेदी
- वैशद्यम्—नपुं॰—-—विशद + ष्यञ्—शान्ति (मन की) स्वस्थता
- वैशसम्—नपुं॰—-—विशस + अण्—विनाश, हत्या, वध
- वैशसम्—नपुं॰—-—विशस + अण्—दुःख, सन्ताप, पीड़ा, कष्ट, कठिनाई
- वैशस्त्रम्—नपुं॰—-—विशस्त्र + अण्—असुरक्षा
- वैशस्त्रम्—नपुं॰—-—विशस्त्र + अण्—राजकीय शासन
- वैशाखः—पुं॰—-—विशाख + अण्—चान्द्रवर्ष का दूसरा महीना (अप्रैल-मई)
- वैशाखः—पुं॰—-—विशाख + अण्—रई का डण्डा
- वैशाखम्—नपुं॰—-—-—बाण चलते समय की एक मुद्रा
- वैशाखी—स्त्री॰—-—-—वैशाख मास की पूर्णिमा
- वैशिक—वि॰ —-—वेशेन जीवति-वेश + ठक्—वेश्याओं द्वारा अभ्यस्त
- वैशिकः—पुं॰—-—-—जो वेश्याओं के साहचर्य में रहता है, शृङ्गार-साहित्य में पाया जाने वाला एक नायक
- वैशिकम्—नपुं॰—-—-—वेश्यावृत्ति, वेश्याओं की कलाएँ
- वैशिष्ट्यम्—नपुं॰—-—विशिष्ट + ष्यञ्—भेद, अन्तर
- वैशिष्ट्यम्—नपुं॰—-—विशिष्ट + ष्यञ्—विशिष्टता, विशेषता, अनूठापन
- वैशिष्ट्यम्—नपुं॰—-—विशिष्ट + ष्यञ्—श्रेष्ठता
- वैशिष्ट्यम्—नपुं॰—-—विशिष्ट + ष्यञ्—विशिष्टलक्षणसम्पन्नता
- वैशेषिक—वि॰—-—विशेषं पदार्थभेदमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः-विशेष + ठक्— विशेषता युक्त
- वैशेषिक—वि॰—-—विशेषं पदार्थभेदमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः-विशेष + ठक्—वैशेषिक दर्शन के सिद्धान्तों से संबंध रखने वाला
- वैशेषिकम्—नपुं॰—-—-—छः हिन्दूदर्शनशास्त्रों में से एक दर्शन जिसके प्रणेता कणाद थे
- वैशेष्यम्—नपुं॰—-—विशेष + ष्यञ्—श्रेष्ठता, प्रमुखता, सर्वोंत्तमता
- वैश्यः—पुं॰—-—विश + ष्यञ्—तृतीय वर्ण का पुरुष, इसका व्यवसाय व्यापार और कृषि है
- वैश्यकर्मन्—नपुं॰—वैश्यः-कर्मन्—-—वैश्य का व्यवसाय या पेशा, व्यापार, खेती आदि
- वैश्यवृत्तिः—स्त्री॰—वैश्यः-वृत्तिः—-—वैश्य का व्यवसाय या पेशा, व्यापार, खेती आदि
- वैश्रवणः—पुं॰—-—विश्रवणस्यापत्यम्-अण्—धन का स्वामी कुबेर
- वैश्रवणः—पुं॰—-—विश्रवणस्यापत्यम्-अण्—रावण का नाम
- वैश्रवणालयः—पुं॰—वैश्रवणः-आलयः—-—कुबेर का आवासस्थल
- वैश्रवणालयः—पुं॰—वैश्रवणः-आलयः—-—बड़ का वृक्ष
- वैश्रवणावासः—पुं॰—वैश्रवणः-आवासः—-—कुबेर का आवासस्थल
- वैश्रवणावासः—पुं॰—वैश्रवणः-आवासः—-—बड़ का वृक्ष
- वैश्रवणोदयः—पुं॰—वैश्रवणः-उदयः—-—बड़ का पेड़
- वैश्वदेव—वि॰—-—विश्वदेव + अण्—विश्वेदेवों से सम्बन्ध रखने वाला
- वैश्वदेवम्—नपुं॰—-—-—विश्वेदेवों को प्रस्तुत किया गया उपहार
- वैश्वदेवम्—नपुं॰—-—-—सभी देवताओं को भेंट (भोजन करने से पूर्व विश्वदेव यज्ञ में आहुति देकर)
- वैश्वानरः—पुं॰—-—विश्वानर + अण्—अग्नि का विशेषण
- वैश्वानरः—पुं॰—-—विश्वानर + अण्—जठराग्नि
- वैश्वानरः—पुं॰—-—विश्वानर + अण्—परमात्मा
- वैश्वासिक—वि॰—-—विश्वास + ठक्—विश्वसनीय, गोपनीय
- वैषम्यम्—नपुं॰—-—विषम + ष्यञ्—असमता
- वैषम्यम्—नपुं॰—-—विषम + ष्यञ्—खुददरापना, कठोरता
- वैषम्यम्—नपुं॰—-—विषम + ष्यञ्—असमानता
- वैषम्यम्—नपुं॰—-—विषम + ष्यञ्—अन्याय
- वैषम्यम्—नपुं॰—-—विषम + ष्यञ्—कठिनाई, विपत्ति, संकट
- वैषम्यम्—नपुं॰—-—विषम + ष्यञ्—एकाकीपन
- वैषयिक—वि॰—-—विषय + ठक्—किसी पदार्थ - सम्बन्धी
- वैषयिक—वि॰—-—विषय + ठक्—विषयों से सम्बन्ध रखने वाला, वासनात्मक, शारीरिक
- वैषयिकः—पुं॰—-—-—कामी, लम्पट
- वैष्टुतम्—नपुं॰—-—विष्टुत्या निर्वृत्तम्-विष्टुति + अण्—भस्मीकृत आहुतियों की राख
- वैष्ट्रः—पुं॰—-—विश + ष्ट्रन्, वृद्धि—अन्तरिक्ष, आकाश
- वैष्ट्रः—पुं॰—-—विश + ष्ट्रन्, वृद्धि—हवा, वायु
- वैष्ट्रः—पुं॰—-—विश + ष्ट्रन्, वृद्धि—लोक, विश्व का एक प्रभाग
- वैष्णव—वि॰—-—विष्णु + अण्—विष्णु सम्बन्धी
- वैष्णव—वि॰—-—विष्णु + अण्—विष्णु की पूजा करने वाला
- वैष्णवः—पुं॰—-—-—तीन महत्त्वपूर्ण आधुनिक हिन्दू-संप्रदायों में से एक, दूसरे दो हैं शैव और शाक्त
- वैष्णवम्—नपुं॰—-—-—भस्मीकृत आहुतियों की राख
- वैष्णावपुराणम्—नपुं॰—वैष्णवम्-पुराणम्—-—अठारह पुराणों में से एक पुराण
- वैसारिणः—पुं॰—-—विशेषेण सरति विसारी मत्स्यः स एवं -विसा + रिन् + अण्—मछली
- वैहायस—वि॰—-—विहायस् + अण्—हवा में विद्यमान, हवाई
- वैहार्य—वि॰—-—विशेषेण ह्नियते-वि + हृ + ण्यत् + अण्—जिससे हंसी दिल्लगी की जाय, जिसे उपहास का विषय बनाया जाय
- वैहासिकः—पुं॰—-—विहासं करोति-विहास + ठक्—हंसोकड़ा, विदूषक
- वोड्रः—पुं॰—-—वा + उड्र—एक प्रकार का साँप
- वोड्रः—पुं॰—-—वा + उड्र—एक तरह की मछली
- वोड्री—स्त्री॰—-—वोड + ङीष्—पण का चौथा भाग
- वोदृ—पुं॰—-—वह् + तृच्—ढोने वाला, कुली
- वोदृ—पुं॰—-—वह् + तृच्—नेता
- वोदृ—पुं॰—-—वह् + तृच्—पति
- वोदृ—पुं॰—-—वह् + तृच्—साँड़
- वोदृ—पुं॰—-—वह् + तृच्—रथवान्
- वोदृ—पुं॰—-—वह् + तृच्—खींचने वाला घोड़ा
- वोंटः—पुं॰—-—-—डंठल, वृन्त
- वोद—वि॰—-—अवसिक्तमुदकं यत्र - प्रा॰ ब॰, उदकस्य उदादेशः, भागुरिमते अकार लोपः—तर, गीला, आर्द्र
- वोदालः—पुं॰—-—वोदः आर्द्रः सन् अलति-वोद + अल् + अच्—जर्मन-मछली
- वोरकः—पुं॰—-—अवनतं लेखन काले उरो यस्य-प्रा॰ ब॰, कप्, अवस्य अकारलोपः, पृषो॰ सलोपः—लिपिकार, लेखक
- वोलकः—पुं॰—-—अवनतं लेखन काले उरो यस्य-प्रा॰ ब॰, कप्, अवस्य अकारलोपः, पृषो॰ सलोपः, पक्षे रलयोरभेदः—लिपिकार, लेखक
- वोरटः—पुं॰—-—वो इति रटन्ति भृङ्गा यत्र- वो + रट् + क—कुंद का एक भेद
- वोलः—पुं॰—-—वुल् + अच्—गुग्गुल, रसगंध
- वोल्लाहः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का घोड़ा
- वौषट्—अव्य॰—-—उद्यतेऽनेन हविः-वह् + डौषट्—पितरों या देवों को आहुति देते समय प्रयुक्त किया जाने वाला उद्गार या सांकेतिक शब्द
- व्यंशकः—पुं॰—-—विशिष्टः अंशो यस्य-प्रा॰ ब॰, कप्—पहाड़
- व्यंशुकः—वि॰—-—विगतम् अंशुकं यस्य -प्रा॰ ब॰—वस्त्रहीन, विवस्त्र, नंगा
- व्यंसकः—पुं॰—-—वि + अंस् + ण्वुल्—धूर्त, ठग
- व्यंसनम्—नपुं॰—-—वि + अंस् + ल्युट्—ठगना, धोखा देना
- व्यक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अञ्ज + क्त—प्रकटीकृत, प्रदर्शित
- व्यक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अञ्ज + क्त—विकसित, रचित
- व्यक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अञ्ज + क्त—स्पष्ट, प्रकट, साफ, सरल, भिन्न, विशद रूप से विद्यमान
- व्यक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अञ्ज + क्त—विशिष्ट, विदित, विख्यात
- व्यक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अञ्ज + क्त—अकेला मनुष्य
- व्यक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अञ्ज + क्त—बुद्धिमान्, विद्वान्
- व्यक्तम्—अव्य॰—-—-—स्पष्ट, स्पष्ट रूप से, साफ़तौर पर, निश्चित रूप से
- व्यक्तगणितम्—नपुं॰—व्यक्त-गणितम्—-—अंकगणित
- व्यक्तदृष्टार्थः—पुं॰—व्यक्त-दृष्टार्थः—-—वह साथी जिसने घटना अपनी आँखों से देखी है, गवाह
- व्यक्तराशिः—पुं॰—व्यक्त-राशिः—-—ज्ञात अंक
- व्यक्तरूपः—पुं॰—व्यक्त-रूपः—-—विष्णु का विशेषण
- व्यक्तविक्रम—वि॰—व्यक्त-विक्रम—-—शक्ति प्रदर्शित करने वाला
- व्यक्तिः—स्त्री॰—-—वि + अञ्ज् + क्तिन्—प्रकटीकरण, दृश्यमानता, विशद प्रत्यक्षज्ञान
- व्यक्तिः—स्त्री॰—-—वि + अञ्ज् + क्तिन्—दृश्यमान सूरत, स्पष्टता, विशदता
- व्यक्तिः—स्त्री॰—-—वि + अञ्ज् + क्तिन्—भेद, विवेचन
- व्यक्तिः—स्त्री॰—-—वि + अञ्ज् + क्तिन्—वास्तविक रूप या प्रकृति, सच्चरित्र
- व्यक्तिः—स्त्री॰—-—वि + अञ्ज् + क्तिन्—वैयक्तिकता
- व्यक्तिः—स्त्री॰—-—वि + अञ्ज् + क्तिन्—अकेला मनुष्य, पुरुष
- व्यक्तिः—स्त्री॰—-—वि + अञ्ज् + क्तिन्—लिंग
- व्यग्र—वि॰—-—विरुद्धम् अगति-वि + अग् + रक्—व्याकुल, विस्मित, उचाट
- व्यग्र—वि॰—-—विरुद्धम् अगति-वि + अग् + रक्—आतङ्कित, भयभीत
- व्यग्र—वि॰—-—विरुद्धम् अगति-वि + अग् + रक्—किसी कार्य में साभिप्राय व्यस्त
- व्यङ्ग—वि॰—-—विगतं वा अङ्ग यस्य -प्रा॰ ब॰—देहहीन
- व्यङ्ग—वि॰—-—विगतं वा अङ्ग यस्य -प्रा॰ ब॰—अङ्गहीन, विरूप, विकलाङ्ग, अपाहज, लुञ्जा
- व्यङ्गः—पुं॰—-—-—लुञ्जा
- व्यङ्गः—पुं॰—-—-—मेंढक
- व्यङ्गः—पुं॰—-—-—गाल पर पड़े काले धब्बे
- व्यङ्गुलम्—नपुं॰—-—-—लम्बाई का अत्यन्त छोटा माप, अंगुल का ६० वां अंश
- व्यङ्य—वि॰—-—वि + अञ्ज् + ण्यत्—व्यञ्जना शक्ति द्वारा ध्वनित, परोक्षसंकेत द्वारा सूचित
- व्यङ्य—वि॰—-—वि + अञ्ज् + ण्यत्—ध्वनित (अर्थ)
- व्यङ्ग्यम्—नपुं॰—-—-—उपलक्षित अर्थ, व्यङ्ग्योक्ति, परोक्ष संकेत
- व्यच्—तुदा॰ पर॰ <विचति>, कर्मवा॰ <विच्यते>—-—-—ठगना, धोखा देना, चाल चलना
- व्यजः—पुं॰—-—वि + अज् + घञ्—पंखा
- व्यजनम्—नपुं॰—-—वि + अज् + ल्युट्—पंखा
- व्यञ्जक—वि॰—-—वि + अञ्ज् + ण्वुल्—स्पष्ट करने वाला, सङ्केतक, बतलाने वाला, प्रकट करने वाला
- व्यञ्जक—पुं॰—-—वि + अञ्ज् + ण्वुल्—अर्थ को उपलक्षित या ध्वनित करने वाला (शब्द)
- व्यञ्जकः—पुं॰—-—-—नाटकीय हावभाव, आन्तरिक भावों को उपयुक्त हावभाव द्वारा प्रकट करने वाला बाह्य सङ्केत
- व्यञ्जकः—पुं॰—-—-—सङ्केत, प्रतीक
- व्यञ्जनम्—नपुं॰—-—वि + अञ्ज् + ल्युट्—स्पष्ट करना, सङ्केत करना, प्रकट करना
- व्यञ्जनम्—नपुं॰—-—वि + अञ्ज् + ल्युट्—चिह्न, निशान, सङ्केत
- व्यञ्जनम्—नपुं॰—-—वि + अञ्ज् + ल्युट्—स्मारक
- व्यञ्जनम्—नपुं॰—-—वि + अञ्ज् + ल्युट्—छद्मवेश, परिधान
- व्यञ्जनम्—नपुं॰—-—वि + अञ्ज् + ल्युट्—व्यञ्जन अक्षर
- व्यञ्जनम्—नपुं॰—-—वि + अञ्ज् + ल्युट्—लिङ्गद्योतक चिह्न अर्थात स्त्री या पुरुष का परिचायक अङ्ग
- व्यञ्जनम्—नपुं॰—-—वि + अञ्ज् + ल्युट्—अधिकार-चिह्न, बिल्ला
- व्यञ्जनम्—नपुं॰—-—वि + अञ्ज् + ल्युट्—वयस्कता का चिह्न
- व्यञ्जनम्—नपुं॰—-—वि + अञ्ज् + ल्युट्—दाढ़ी
- व्यञ्जनम्—नपुं॰—-—वि + अञ्ज् + ल्युट्—अङ्ग, सदस्य
- व्यञ्जनम्—नपुं॰—-—वि + अञ्ज् + ल्युट्—मिर्च मसाला, चटनी, सिझाई हुई वस्तु
- व्यञ्जनम्—नपुं॰—-—वि + अञ्ज् + ल्युट्—तीनों शब्दशक्तियों में अन्तिम जिससे अर्थ उपलक्षित या ध्वनित होता है
- व्यञ्जनोदय—वि॰—व्यञ्जनम्-उदय—-—वह जिसके पश्चात् व्यञ्जन अक्षर आता हो
- व्यञ्जनसन्धिः—पुं॰—व्यञ्जनम्-सन्धिः—-—व्यञ्जन वर्णों का संयोग या संश्लेष
- व्यञ्जना—स्त्री॰—-—-—तीनों शब्दशक्तियों में अन्तिम जिससे अर्थ उपलक्षित या ध्वनित होता है
- व्यञ्जित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अञ्ज् + क्त—साफ किया गया, प्रकट किया गया, सङ्केत किया गया
- व्यञ्जित—वि॰—-—वि + अञ्ज् + क्त—चिह्नित, भिन्न, चित्रित
- व्यञ्जित—वि॰—-—वि + अञ्ज् + क्त—सुझाव दिया गया, ध्वनित
- व्यडम्बकः—पुं॰—-—डम्ब् + ण्वुल्—अरण्ड का पेड़
- व्यडम्बनः—पुं॰—-—डम्ब् + ल्युट्, विशेषेण न डम्बकः—अरण्ड का पेड़
- व्यतिकरः—पुं॰—-—वि + अति + कृ + अप्—मिश्रण, अन्तःमिश्रण, इकट्ठा मिला देना
- व्यतिकरः—पुं॰—-—वि + अति + कृ + अप्—सम्पर्क, मिलाप, सम्मिलन
- व्यतिकरः—पुं॰—-—वि + अति + कृ + अप्—रगड़ना
- व्यतिकरः—पुं॰—-—वि + अति + कृ + अप्—घटना, सम्भूति, वृत्तान्त, वस्तु, मामला
- व्यतिकरः—पुं॰—-—वि + अति + कृ + अप्—अवसर
- व्यतिकरः—पुं॰—-—वि + अति + कृ + अप्—मुसीबत, संकट
- व्यतिकरः—पुं॰—-—वि + अति + कृ + अप्—पारस्परिक सम्बन्ध, पारस्परिकता
- व्यतिकरः—पुं॰—-—वि + अति + कृ + अप्—विनिमय, अदलाबदली
- व्यतिकीर्ण—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + कृ + क्त—मिला हुआ, मिश्रित
- व्यतिकीर्ण—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—संयुक्त
- व्यतिक्रमः—पुं॰—-—वि + अति + क्रम् + घञ्—अतिक्रमण, विचलन, भटकना
- व्यतिक्रमः—पुं॰—-—वि + अति + क्रम् + घञ्—उल्लंघन, भंग, अननुष्ठान
- व्यतिक्रमः—पुं॰—-—वि + अति + क्रम् + घञ्—अवहेलना, उपेक्षा, भूल
- व्यतिक्रमः—पुं॰—-—वि + अति + क्रम् + घञ्—वैपरीत्य, उलट, व्यत्यास
- व्यतिक्रमः—पुं॰—-—वि + अति + क्रम् + घञ्—पाप, दुर्व्यसन, जुर्म
- व्यतिक्रमः—पुं॰—-—वि + अति + क्रम् + घञ्—आपत्काल, दुर्भाग्य
- व्यतुक्रान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + क्रम् + क्त—पार किया गया, अतिक्रमण किया गया, उल्लंघन किया गया, उपेक्षित
- व्यतुक्रान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + क्रम् + क्त—औंधा, विपर्यस्त
- व्यतुक्रान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + क्रम् + क्त—बीता हुआ, गुज़रा हुआ (समय)
- व्यतिरिक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + रिच् + क्त—वियुक्त, भिन्न
- व्यतिरिक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + रिच् + क्त—आगे बढ़ने वाला, सर्वोत्कृष्ट होने वाला, आगे निकल जाने वाला
- व्यतिरिक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + रिच् + क्त—प्रत्याहृत, रोका हुआ
- व्यतिरिक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + रिच् + क्त—अलगाया हुआ
- व्यतिरेकः—पुं॰—-—वि + अति + रिच् + घञ्—भेद, अन्तर
- व्यतिरेकः—पुं॰—-—वि + अति + रिच् + घञ्—वियोग
- व्यतिरेकः—पुं॰—-—वि + अति + रिच् + घञ्—निष्कासन, अपर्वजन
- व्यतिरेकः—पुं॰—-—वि + अति + रिच् + घञ्—श्रेष्ठता, आगे बढ़ जाना, आगे निकल जाना
- व्यतिरेकः—पुं॰—-—वि + अति + रिच् + घञ्—वैशषम्य, असमानता
- व्यतिरेकः—पुं॰—-—वि + अति + रिच् + घञ्—(तर्क में) अनन्वय
- व्यतिरेकः—पुं॰—-—वि + अति + रिच् + घञ्—एक अर्थालंकार जिसमें किन्हीं विशेष दशाओं में उपमान की अपेक्षा उपमेय को श्रेष्ठतर बताया जाता है
- व्यतिरेकिन्—वि॰—-—व्यतिरेक + इनि—भिन्न
- व्यतिरेकिन्—वि॰—-—व्यतिरेक + इनि—आगे बढ़ जाने वाला, आगे निकल जाने वाला
- व्यतिरेकिन्—वि॰—-—व्यतिरेक + इनि—बाहर निकालने वाला, अपवर्जन करने वाला
- व्यतिरेकिन्—वि॰—-—व्यतिरेक + इनि—अभाव या अनस्तित्व दर्शाने वाला
- व्यतिषक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + शञ्ज् + क्त—आपस में मिला हुआ, पारस्परिक संबंधयुक्त, शृंखलाबद्ध या एकत्र जुड़ा हुआ
- व्यतिषक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + शञ्ज् + क्त—अन्तः मिश्रित
- व्यतिषक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + शञ्ज् + क्त—अन्तर्जातीय विवाह करने वाला
- व्यतिषङ्गः—पुं॰—-—वि + अति + सञ्ज् + घञ्—पारस्परिक संबन्ध, अन्योन्यसम्बन्ध
- व्यतिषङ्गः—पुं॰—-—वि + अति + सञ्ज् + घञ्—अन्तःमिश्रण
- व्यतिषङ्गः—पुं॰—-—वि + अति + सञ्ज् + घञ्—संयोग, या मिलाप
- व्यतिहारः—पुं॰—-—वि + अति + हृ + घञ्—अदल-बदल, विनिमय
- व्यतिहारः—पुं॰—-—वि + अति + हृ + घञ्—पारस्परिकता, अन्तःपरिवर्तन
- व्यतीहारः—पुं॰—-—वि + अति + हृ + घञ्, पक्षे उपसर्गस्य इकारस्य दीर्घः—अदल-बदल, विनिमय
- व्यतीहारः—पुं॰—-—वि + अति + हृ + घञ्, पक्षे उपसर्गस्य इकारस्य दीर्घः—पारस्परिकता, अन्तःपरिवर्तन
- व्यतीत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + इ + क्त—गुजरा हुआ, गया हुआ, बीता हुआ, पार किया हुआ
- व्यतीत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + इ + क्त—मृत
- व्यतीत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + इ + क्त—छोड़ा हुआ, परित्यक्त, विसर्जित
- व्यतीत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + इ + क्त—अवज्ञात
- व्यतीपातः—पुं॰—-—वि + अति + पत् + घञ्, उपसर्गस्य दीर्घः—समूचा प्रयाण, सम्पूर्णविचलन
- व्यतीपातः—पुं॰—-—वि + अति + पत् + घञ्, उपसर्गस्य दीर्घः—भारी उत्पात, भारी संकट को सूचित करने वाला अपशकुन
- व्यतीपातः—पुं॰—-—वि + अति + पत् + घञ्, उपसर्गस्य दीर्घः—अनादर, तिरस्कार
- व्यत्ययः—पुं॰—-—वि + अति + इ + अच्—पार करना
- व्यत्ययः—पुं॰—-—वि + अति + इ + अच्—विरोध, वैपरीत्य
- व्यत्ययः—पुं॰—-—वि + अति + इ + अच्—व्यत्यस्त क्रम, व्युत्क्रान्ति
- व्यत्ययः—पुं॰—-—वि + अति + इ + अच्—अन्तःपरिवर्तन, रूपान्तरण
- व्यत्ययः—पुं॰—-—वि + अति + इ + अच्—अवरोध्, अड़चन
- व्यत्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + अस् + क्त—व्युत्क्रांत, विपर्यस्त
- व्यत्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + अस् + क्त—विपरीत, विरोधी
- व्यत्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + अस् + क्त—असंगत व्यत्यस्तं लपति
- व्यत्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अति + अस् + क्त—विरेखित, इस प्रकार रक्खी हुई (दो वस्तुएँ) जिसमें एक दूसरी को काटती हो
- व्यत्यासः—पुं॰—-—वि + अति + अस् + घञ्—व्युत्क्रांत स्थिति या क्रम
- व्यत्यासः—पुं॰—-—-—विरोध, वैपरीत्य
- व्यथ्—भ्वा॰ आ॰ <व्यथते>, <व्यथित>—-—-—शोकान्वित होना, पीडित होना, कष्टग्रस्त होना, विक्षुब्ध या अशांत होना
- व्यथ्—भ्वा॰ आ॰ <व्यथते>, <व्यथित>—-—-—आन्दोलित होना, दोलायमान होना
- व्यथ्—भ्वा॰ आ॰ <व्यथते>, <व्यथित>—-—-—कांपना
- व्यथ्—भ्वा॰ आ॰ <व्यथते>, <व्यथित>—-—-—भयभीत होना
- व्यथ्—भ्वा॰ आ॰ <व्यथते>, <व्यथित>—-—-—सूखना, शुष्क होना
- व्यथ्—भ्वा॰ उभ॰, प्रेर॰ <व्यथयति>, <व्यथयते>—-—-—पीडा देना, कष्ट देना, नाराज करना, दुःखी करना
- प्रव्यथ्—भ्वा॰ आ॰—प्र-व्यथ्—-—अत्यन्त क्रुद्ध होना
- व्यथक—वि॰—-—व्यथ् + णिच् + ण्वुल्—पीडाजनक, दुःखद, कष्टकर
- व्यथनम्—नपुं॰—-—व्यथ् + ल्युट्—पीडा देना, सताना
- व्यथा—स्त्री॰—-—व्यथ् + अङ् + टाप्—पीडा, वेदना, आधि
- व्यथा—स्त्री॰—-—व्यथ् + अङ् + टाप्—भय, आतंक, चिन्ता
- व्यथा—स्त्री॰—-—व्यथ् + अङ् + टाप्—विक्षोभ, अशान्ति
- व्यथा—स्त्री॰—-—व्यथ् + अङ् + टाप्—रोग
- व्यथित—भू॰ क॰ कृ॰—-—व्यथ् + क्त—कष्टग्रस्त, दुःखी, पीडित
- व्यथित—भू॰ क॰ कृ॰—-—व्यथ् + क्त—आतङ्कित
- व्यथित—भू॰ क॰ कृ॰—-—व्यथ् + क्त—विक्षुब्ध, अशान्त, बेचैन
- व्यध्—दिवा॰ पर॰ <विध्यति>, <विद्ध>—-—-—बींधना, चोट पहुँचाना, प्रहार करना, छुरा भौंकना, मार डालना
- व्यध्—दिवा॰ पर॰ <विध्यति>, <विद्ध>—-—-—सूराख़ करना, छिद्र करना, आरपार बींधना
- व्यध्—दिवा॰ पर॰ <विध्यति>, <विद्ध>—-—-—खोदना, गड्ढा करना
- अनुव्यध्—दिवा॰ पर॰—अनु-व्यध्—-—बींधना, चोट पहुँचाना, घायल करना
- अनुव्यध्—दिवा॰ पर॰—अनु-व्यध्—-—गूंथना, घेरना
- अनुव्यध्—दिवा॰ पर॰—अनु-व्यध्—-—जड़ना, जटित करना
- अपव्यध्—दिवा॰ पर॰—अप-व्यध्—-—फेंकना, डालना, उछालना
- अपव्यध्—दिवा॰ पर॰—अप-व्यध्—-—बींधना
- अपव्यध्—दिवा॰ पर॰—अप-व्यध्—-—त्यागना, परित्यक्त करना
- आव्यध्—दिवा॰ पर॰—आ-व्यध्—-—बींधना
- आव्यध्—दिवा॰ पर॰—आ-व्यध्—-—फेंकना, डालना
- परिव्यध्—दिवा॰ पर॰—परि-व्यध्—-—बींधना, घायल करना
- संव्यध्—दिवा॰ पर॰—सम्-व्यध्—-—बींधना, घायल करना
- व्यधः—पुं॰—-—व्यध् + अच्—बींधनअ, टुकड़े टुकड़े करना, प्रहार करना
- व्यधः—पुं॰—-—व्यध् + अच्—आघात करना, घायल करना, प्रहार
- व्यधः—पुं॰—-—व्यध् + अच्—छिद्र करना
- व्यधिकरणम्—नपुं॰—-—वि + अधि + कृ + ल्युट्—भिन्न आधार या स्तर पर जीवित रहना
- व्यध्यः—पुं॰—-—व्यध् + ण्यत्—चाँदमारी के पीछे का टीला, निशाना, लक्ष्य
- व्यध्वः—पुं॰—-—विरुद्धः अध्वा- प्रा॰ स॰—कुमार्ग, बुरी सड़क
- व्यनुनादः—पुं॰—-—विशिष्टः अनुनादः प्रा॰ स॰—प्रतिध्वनि, ऊँची गूँज
- व्यन्तरः—पुं॰—-—विशिष्टः अन्तरो यस्य-प्रा॰ ब॰—पिशाच, यक्ष आदि एक प्रकार का अतिप्राकृतिक प्राणी
- व्यप्—चुरा॰ उभ॰ <व्यपयति>, <व्यपयते>—-—-—फेंकना
- व्यप्—चुरा॰ उभ॰ <व्यपयति>, <व्यपयते>—-—-—घटाना, बरबाद करना, कम करना
- व्यपकृष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अप + कृष् + क्त—एक ओर खींचा हुआ, दूर किया हुआ, हटाया हुआ
- व्यपगत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अप + गम् + क्त—गया हुआ, विसर्जित, अन्तर्हित
- व्यपगत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अप + गम् + क्त—हटाया हुआ
- व्यपगत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अप + गम् + क्त—गिराया हुआ
- व्यपगमः—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अप + गम् + अप्—विसर्जन, अन्तर्धान
- व्यपत्रप—वि॰—-—विगता अपत्रपा यस्य-प्रा॰ ब॰ —निर्लज्ज, ढीठ
- व्यपदिष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अप + दिश् + क्त—नामाङ्कित
- व्यपदिष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अप + दिश् + क्त—बतलाया गया, प्रस्तुत किया गया, द्योतित
- व्यपदिष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अप + दिश् + क्त—बहाने या छल के रूप में प्रतिपादित किया गया
- व्यपदेशः—पुं॰—-—वि + अप + दिश् + घञ्— निरूपण, सन्देश, सूचना
- व्यपदेशः—पुं॰—-—वि + अप + दिश् + घञ्—नामकरण, नाम रखना
- व्यपदेशः—पुं॰—-—वि + अप + दिश् + घञ्—नाम, अभिधान, उपाधि
- व्यपदेशः—पुं॰—-—वि + अप + दिश् + घञ्—कीर्ति, यश, प्रसिद्धि
- व्यपदेशः—पुं॰—-—वि + अप + दिश् + घञ्—चाल, बहाना, दाँव, उपाय
- व्यपदेशः—पुं॰—-—वि + अप + दिश् + घञ्—जालसाजी, चालाकी
- व्यपदेष्टृ—पुं॰—-—वि + अप + दिश् + तृ़च्—छलिया, धोखेबाज़
- व्यपरोपणम्—नपुं॰—-—वि + अप + रुह् + णिच् + ल्युट्, हस्य पः —उन्मूलन, उखाड़ना
- व्यपरोपणम्—नपुं॰—-—वि + अप + रुह् + णिच् + ल्युट्, हस्य पः —भगाना, हटाना, दूर करना
- व्यपरोपणम्—नपुं॰—-—वि + अप + रुह् + णिच् + ल्युट्, हस्य पः —काट डालना, फाड़ डालना, तोड़ लेना
- व्पपाकृतिः—स्त्री॰—-—वि + अप + आ + कृ + क्तिन्—निष्कासन, दूरीकरण, निकाल देना
- व्पपाकृतिः—स्त्री॰—-—वि + अप + आ + कृ + क्तिन्—मुकरना
- व्यपायः—पुं॰—-—वि + अप + इ + घञ्—अन्त, लोप, समाप्ति
- व्यपाश्रयः—पुं॰—-—वि + अप + आ + श्रि + अप्—उत्तराधिकारिता
- व्यपाश्रयः—पुं॰—-—वि + अप + आ + श्रि + अप्—शरण लेना, सहारा लेना, भरोसा करना
- व्यपाश्रयः—पुं॰—-—वि + अप + आ + श्रि + अप्—निर्भर होना
- व्यपेक्षा—स्त्री॰—-—वि + अप + ईक्ष् + अङ् + टाप्—प्रत्याशा, आशा
- व्यपेक्षा—स्त्री॰—-—वि + अप + ईक्ष् + अङ् + टाप्—लिहाज़, विचार
- व्यपेक्षा—स्त्री॰—-—वि + अप + ईक्ष् + अङ् + टाप्—पारस्परिक सम्बन्ध, अन्योन्याश्रय
- व्यपेक्षा—स्त्री॰—-—वि + अप + ईक्ष् + अङ् + टाप्—पारस्परिक लिहाज़
- व्यपेक्षा—स्त्री॰—-—वि + अप + ईक्ष् + अङ् + टाप्—व्यवहार
- व्यपेक्षा—स्त्री॰—-—वि + अप + ईक्ष् + अङ् + टाप्—दो नियमों का पारस्परिक प्रयोग
- व्यपेत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अप + इ + क्त—वियुक्त अलगाया हुआ
- व्यपेत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अप + इ + क्त—गया हुआ, विसर्जित
- व्यपोढ—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अप + वह् + क्त—निकाला गया, हटाया गया
- व्यपोढ—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अप + वह् + क्त—विपरीत, विरोधी
- व्यपोढ—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अप + वह् + क्त—प्रकटीकृत, प्रदर्शित, बतलाया गया
- व्यपोहः—पुं॰—-—वि + अप + ऊह् + घञ्—निकालना, दूर करना, अलग रखना
- व्यभिचारः—पुं॰—-—वि + अभि + चर् + घञ्—दूर चले जाना, विचलन, सन्मार्ग छोड़ देना, कुमार्ग का अनुसरण करना
- व्यभिचारः—पुं॰—-—वि + अभि + चर् + घञ्— अतिक्रमण, उल्लंघन
- व्यभिचारः—पुं॰—-—वि + अभि + चर् + घञ्—अशुद्धि, जुर्म, पाप
- व्यभिचारः—पुं॰—-—वि + अभि + चर् + घञ्—विच्छेद्यता, अलग होने की सामर्थ्य
- व्यभिचारः—पुं॰—-—वि + अभि + चर् + घञ्—अभक्ति, अनास्था, पति-पत्नि में अविश्वास, पतिव्रत या पत्नीव्रत का अभाव
- व्यभिचारः—पुं॰—-—वि + अभि + चर् + घञ्—असंगति, अनियमितता, अपवाद
- व्यभिचारः—पुं॰—-—वि + अभि + चर् + घञ्—(तर्क में) आभासी हेतु, हेत्वाभास, साध्य के न होने पर भी हेतु की विद्यमानता
- व्यभीचारः—पुं॰—-—-—दूर चले जाना, विचलन, सन्मार्ग छोड़ देना, कुमार्ग का अनुसरण करना
- व्यभीचारः—पुं॰—-—-— अतिक्रमण, उल्लंघन
- व्यभीचारः—पुं॰—-—-—अशुद्धि, जुर्म, पाप
- व्यभीचारः—पुं॰—-—-—विच्छेद्यता, अलग होने की सामर्थ्य
- व्यभीचारः—पुं॰—-—-—अभक्ति, अनास्था, पति-पत्नि में अविश्वास, पतिव्रत या पत्नीव्रत का अभाव
- व्यभीचारः—पुं॰—-—-—असंगति, अनियमितता, अपवाद
- व्यभीचारः—पुं॰—-—-—(तर्क में) आभासी हेतु, हेत्वाभास, साध्य के न होने पर भी हेतु की विद्यमानता
- व्यभिचारिणी—स्त्री॰—-—व्यभिचारिन् + ङीप्—असती स्त्री, परपुरुषगामिनी स्त्री
- व्यभिचारिन्—वि॰—-—व्यभिचार + इनि—भटका हुआ, भूला हुआ, पथभ्रष्ट, भ्रान्त, नियम भंग करने वाला
- व्यभिचारिन्—वि॰—-—व्यभिचार + इनि—अनियमित, असंगत
- व्यभिचारिन्—वि॰—-—व्यभिचार + इनि—असत्य, मिथ्या
- व्यभिचारिन्—वि॰—-—व्यभिचार + इनि—श्रद्धाहीन, जो ब्रह्मचारी न हो, परस्त्रीगामी
- व्यभिचारिन्—पुं॰—-—-—संचारिभाव, सहकारी भाव
- व्यभिचारिभावः—पुं॰—-—-—संचारिभाव, सहकारी भाव
- व्यय्—चुरा॰ उभ॰ <व्यययति>, <व्यययते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- व्यय्—चुरा॰ उभ॰ <व्यययति>, <व्यययते>—-—-—व्यय करना, प्रदान करना, अर्पण करना
- व्यय्—भ्वा॰ उभ॰ <व्ययति>, <व्ययते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- व्यय्—चुरा॰ उभ॰ <व्याययति>, <व्याययते>—-—-—फेंकना, डालना
- व्यय्—चुरा॰ उभ॰ <व्याययति>, <व्याययते>—-—-—हाँकना
- व्यय—वि॰—-—वि + इ + अच्—परिवर्तनीय, परिणामशील, विकारवान्
- व्ययः—पुं॰—-—-—हानि, लोप, विनाश
- व्ययः—पुं॰—-—-—लागत लगाना, त्याग
- व्ययः—पुं॰—-—-—रुकावट, अड़चन
- व्ययः—पुं॰—-—-—क्षय, ह्रास, पराजय, अधःपतन
- व्ययः—पुं॰—-—-—खर्च, भूल्य, परिव्यय, विनियोग, प्रयोग
- व्ययः—पुं॰—-—-—अपव्यय, फिजू़लखर्ची
- व्ययपरः—वि॰—व्यय-पर—-—मुक्तहस्त से ख़र्च करने वाला
- व्ययपराङ्मुख—वि॰—व्यय-पराङ्मुख—-—कृपण, कंजू़स, मक्खीचूस
- व्ययशील—वि॰—व्यय-शील—-—अतिव्ययी, फिजू़लख़र्च
- व्ययशुद्धिः—स्त्री॰—व्यय-शुद्धिः—-—हिसाब चुकाना
- व्ययनम्—नपुं॰—-—व्यय् + ल्युट्—ख़र्च करना
- व्ययनम्—नपुं॰—-—व्यय् + ल्युट्—बर्बाद करना, विनष्ट करना
- व्ययित—भू॰ क॰ कृ॰—-—व्यय् + क्तु—व्यय किया गया, खर्च किया गया
- व्ययित—भू॰ क॰ कृ॰—-—व्यय् + क्तु—बर्बाद किया गया, क्षयग्रस्त
- व्यर्थ—वि॰—-—विगतोऽर्थो यस्मात्-प्रा॰ ब॰—अनुप्अयोगी, निरर्थक, विफल, अलाभकर
- व्यर्थ—वि॰—-—विगतोऽर्थो यस्मात्-प्रा॰ ब॰—अर्थहीन, निरर्थक, बेकारी
- व्यलीक—वि॰—-—विशेषेण अलति -वि + अल् + कीकन्—मिथ्या, झूठा
- व्यलीक—वि॰—-—विशेषेण अलति -वि + अल् + कीकन्—कुत्सित, अनभिमत, असुखद
- व्यलीक—वि॰—-—विशेषेण अलति -वि + अल् + कीकन्—ज़ो मिथ्या न हो
- व्यलीकः—पुं॰—-—-—स्वेच्छाचारी
- व्यलीकः—पुं॰—-—-—गांडू, लौण्डा
- व्यलीकम् —नपुं॰—-—-—कोई भी अप्रिय या असुखद वस्तु, अप्रियता
- व्यलीकम् —नपुं॰—-—-—बेचैनी का कारण, पीड़ा, शोक या रंज का कारण
- व्यलीकम् —नपुं॰—-—-—दोष, अपराध, अतिक्रमण, अनुचित कार्य
- व्यलीकम् —नपुं॰—-—-—जालसाज़ी, चाल, धोखा
- व्यलीकम् —नपुं॰—-—-—मिथ्यापन
- व्यलीकम् —नपुं॰—-—-—व्युत्क्रम, वैपरीत्य
- व्यवकलनम्—नपुं॰—-—वि + अव + कल् + ल्युट्—वियोग
- व्यवकलनम्—नपुं॰—-—वि + अव + कल् + ल्युट्—(गणि॰ में ) घटाना, एक राशि में से दूसरी राशि कम करना
- व्यवक्रोशनम्—नपुं॰—-—वि + अव + क्रुश् + ल्युट्—तू तू मैं मैं, आपस में गाली-गलौज
- व्यवछिन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + छिद् + क्त—काट डाला गया, चीरा गया, फाड़ा गया
- व्यवछिन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + छिद् + क्त—वियुक्त, विभक्त
- व्यवछिन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + छिद् + क्त—विशिष्ट किया गया, विशिष्ट
- व्यवछिन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + छिद् + क्त—अंकित, विलक्षण
- व्यवछिन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + छिद् + क्त—अवरुद्ध, बाधित
- व्यवच्छेदः—पुं॰—-—वि + अव + छिद् + घञ्—काट डालना, फाड़ देना
- व्यवच्छेदः—पुं॰—-—वि + अव + छिद् + घञ्—विभाजन, वियोजन
- व्यवच्छेदः—पुं॰—-—वि + अव + छिद् + घञ्—चीर-फाड़ करना
- व्यवच्छेदः—पुं॰—-—वि + अव + छिद् + घञ्—विशिष्टीकरण
- व्यवच्छेदः—पुं॰—-—वि + अव + छिद् + घञ्—विभेदक, विशिष्ट
- व्यवच्छेदः—पुं॰—-—वि + अव + छिद् + घञ्—वैषम्य, वैशिष्ट्य
- व्यवच्छेदः—पुं॰—-—वि + अव + छिद् + घञ्—निर्धारण
- व्यवच्छेदः—पुं॰—-—वि + अव + छिद् + घञ्—बन्दूक दागना, तीर छोड़ना
- व्यवच्छेदः—पुं॰—-—वि + अव + छिद् + घञ्—किसी पुस्तक का अध्याय या अनुभाग
- व्यवधा—स्त्री॰—-—वि + अव + धा + अङ् + टाप्—व्यवधायक
- व्यवधा—स्त्री॰—-—वि + अव + धा + अङ् + टाप्—आड़, पर्दा, व्यंशन
- व्यवधा—स्त्री॰—-—वि + अव + धा + अङ् + टाप्—छिपाव, दुराव
- व्यवधानम्—नपुं॰—-—वि + अव + धा + ल्युट्—हस्तक्षेप, अन्तःक्षेप, वियोग
- व्यवधानम्—नपुं॰—-—वि + अव + धा + ल्युट्—अवरोध, दृष्टि से गुप्त रखना
- व्यवधानम्—नपुं॰—-—वि + अव + धा + ल्युट्—छिपाना, अन्तर्धान
- व्यवधानम्—नपुं॰—-—वि + अव + धा + ल्युट्—पर्दा, व्यंशन
- व्यवधानम्—नपुं॰—-—वि + अव + धा + ल्युट्—ढकना, आवरण
- व्यवधानम्—नपुं॰—-—वि + अव + धा + ल्युट्—अन्तराल, अवकाश
- व्यवधानम्—नपुं॰—-—वि + अव + धा + ल्युट्—किसी अक्षर या मात्रा का बीच में आ पड़ना
- व्यवधायक—वि॰—-—वि + अव + धा + ण्वुल्—बीच में आ पड़ने वाला, आवरण, ढकने वाला
- व्यवधायक—वि॰—-—वि + अव + धा + ण्वुल्—अवरोध करने वाला, छिपाने वाला
- व्यवधायक—वि॰—-—वि + अव + धा + ण्वुल्—मध्यवर्ती
- व्यवधिः—पुं॰—-—वि + अव + धा + कि—आवरण, हस्तक्षेप आदि
- व्यवसायः—पुं॰—-—वि + अव + सो + घञ्—प्रयत्न, चेष्टा, ऊर्जा, उद्योग, धैर्य
- व्यवसायः—पुं॰—-—वि + अव + सो + घञ्—संकल्प, प्रस्ताव, निर्धारण
- व्यवसायः—पुं॰—-—वि + अव + सो + घञ्—कृत्य, कर्म, क्रिया
- व्यवसायः—पुं॰—-—वि + अव + सो + घञ्—व्यापार, नौकरी, वाणिज्य
- व्यवसायः—पुं॰—-—वि + अव + सो + घञ्—आचरण, व्यवहार
- व्यवसायः—पुं॰—-—वि + अव + सो + घञ्—उपाय, कूटयुक्ति, जुगत
- व्यवसायः—पुं॰—-—वि + अव + सो + घञ्—शेखी़ बधारना
- व्यवसायः—पुं॰—-—वि + अव + सो + घञ्—विष्णु
- व्यवसायिन्—वि॰—-—व्यवसाय + इनि—ऊर्जस्वी, उद्योगी, परिश्रमी
- व्यवसायिन्—वि॰—-—व्यवसाय + इनि—दृढ़ संकल्पी, धैर्यवान्
- व्यवसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + सो + क्त—प्रयास किया गया, कोशिश की गई
- व्यवसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + सो + क्त—जिम्मेवारी ली गई
- व्यवसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + सो + क्त—संकल्प किया गया, निर्धारित, निश्चित
- व्यवसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + सो + क्त—प्रकल्पित, आयोजित
- व्यवसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + सो + क्त—प्रयत्नशील, दृढ़ निश्चयी
- व्यवसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + सो + क्त—धयवान्, ऊर्जस्वी
- व्यवसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + सो + क्त—ठगा गया, छला गया
- व्यवसितम्—नपुं॰—-—-—निश्चयन, निर्धारण
- व्यवस्था—स्त्री॰—-—वि + अव + स्था + अङ् + टाप्—समंजन, क्रमस्थापन, निपटारा
- व्यवस्था—स्त्री॰—-—वि + अव + स्था + अङ् + टाप्—स्थिरता, निश्चितता
- व्यवस्था—स्त्री॰—-—वि + अव + स्था + अङ् + टाप्—दृढ़ता, दृढ़ आधार
- व्यवस्था—स्त्री॰—-—वि + अव + स्था + अङ् + टाप्—संबद्ध स्थिति
- व्यवस्था—स्त्री॰—-—वि + अव + स्था + अङ् + टाप्—निश्चित नियम, क़ानून, सविधि आदेश, निर्णय, क़ानूनी सलाह, क़ानून की लिखित घोषणा
- व्यवस्था—स्त्री॰—-—वि + अव + स्था + अङ् + टाप्—सहमति, संविदा
- व्यवस्था—स्त्री॰—-—वि + अव + स्था + अङ् + टाप्—अवस्था, दशा
- व्यवस्थानम्—नपुं॰—-—वि + अव + स्था + ल्युट्—क्रमबन्धन, समाधान, निर्धारण, फै़सला
- व्यवस्थानम्—नपुं॰—-—वि + अव + स्था + ल्युट्—नियम, विधान, निश्चय
- व्यवस्थानम्—नपुं॰—-—वि + अव + स्था + ल्युट्—स्थिरता, अचलता
- व्यवस्थानम्—नपुं॰—-—वि + अव + स्था + ल्युट्—दृढ़ता, धैर्य
- व्यवस्थानम्—नपुं॰—-—वि + अव + स्था + ल्युट्—वियोग
- व्यवस्थितिः—स्त्री॰—-—वि + अव + स्था + क्तिन्—क्रमबन्धन, समाधान, निर्धारण, फै़सला
- व्यवस्थितिः—स्त्री॰—-—वि + अव + स्था + क्तिन्—नियम, विधान, निश्चय
- व्यवस्थितिः—स्त्री॰—-—वि + अव + स्था + क्तिन्—स्थिरता, अचलता
- व्यवस्थितिः—स्त्री॰—-—वि + अव + स्था + क्तिन्—दृढ़ता, धैर्य
- व्यवस्थितिः—स्त्री॰—-—वि + अव + स्था + क्तिन्—वियोग
- व्यवस्थापक—वि॰—-—वि + अव + स्था + णिच् + ण्वुल्, पुक्—क्रमस्थापन करने वाला, उपयुक्त क्रम में रखने वाला, समंजन करने वाला, स्थिर करने वाला, व्यवस्था करने वाला, फै़सला करने वाला
- व्यवस्थापक—वि॰—-—वि + अव + स्था + णिच् + ण्वुल्, पुक्—वह जो कानूनी सलाह देता है
- व्यवस्थापक—वि॰—-—वि + अव + स्था + णिच् + ण्वुल्, पुक्—प्रबन्धक (वर्तमान प्रयोग)
- व्यवस्थापनम्—नपुं॰—-—वि + अव + स्था + णिच् + ल्युट्, पुक्—क्रमस्थापन, उपयुक्त समंजन
- व्यवस्थापनम्—नपुं॰—-—वि + अव + स्था + णिच् + ल्युट्, पुक्—स्थिर करना, निर्धारण, निश्वय करना, फै़सला करना
- व्यवस्थापित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + स्था + णिच् + क्त, पुक्—क्रमबद्ध, निश्चित
- व्यवस्थित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + स्था + क्त—क्रम में रक्खा हुआ, समंजित, क्रमविन्यस्त
- व्यवस्थित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + स्था + क्त—निश्चित, स्थिर
- व्यवस्थित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + स्था + क्त—फै़सला किया गया, निर्धारित, क़ानून द्वारा घोषित
- व्यवस्थित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + स्था + क्त—एक ओर रक्खा हुआ, वियुक्त
- व्यवस्थित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + स्था + क्त—निकाला हुआ (रस आदि)
- व्यवस्थित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + स्था + क्त—आधारित, अवलम्बित
- व्यवस्थितविभाषा—स्त्री॰—व्यवस्थित-विभाषा—-—निश्चित इच्छा
- व्यवहर्तृ—पुं॰—-—वि + अव + हृ + तृच्—किसी व्यवसाय का प्रबंधकर्ता
- व्यवहर्तृ—पुं॰—-—वि + अव + हृ + तृच्—नालिश करने वाला, अभियोक्ता, वादी या मुद्दई
- व्यवहर्तृ—पुं॰—-—वि + अव + हृ + तृच्—न्यायाधीश
- व्यवहर्तृ—पुं॰—-—वि + अव + हृ + तृच्—साथी, संगी
- व्यवहारः—पुं॰—-—वि + अव + हृ + घञ्—आचरण, बर्ताव, कर्म
- व्यवहारः—पुं॰—-—वि + अव + हृ + घञ्—मामला, व्यवसाय, काम
- व्यवहारः—पुं॰—-—वि + अव + हृ + घञ्—पेशा, धंधा
- व्यवहारः—पुं॰—-—वि + अव + हृ + घञ्—लेनदेन, काम-काज
- व्यवहारः—पुं॰—-—वि + अव + हृ + घञ्—वाणिज्य, तिजारत, सौदागरी
- व्यवहारः—पुं॰—-—वि + अव + हृ + घञ्—रुपये पैसे का लेनदेन, सूदख़ोरी
- व्यवहारः—पुं॰—-—वि + अव + हृ + घञ्—प्रचलन, प्रथा, दस्तूर, रिवाज
- व्यवहारः—पुं॰—-—वि + अव + हृ + घञ्—संबन्ध, मेलजोल
- व्यवहारः—पुं॰—-—वि + अव + हृ + घञ्—न्यायालयी या अदालती कार्यविधि, किसी अभियोग या मामले की छान-बीन, न्याय प्रशासन
- व्यवहारः—पुं॰—-—वि + अव + हृ + घञ्—क़ानूनी झगड़ा, अभियोग, नालिश, क़ानूनी मुक़दमा, मुकदमेबाजी़
- व्यवहारः—पुं॰—-—वि + अव + हृ + घञ्—क़ानूनी कार्यविधि का शीर्षक, मुक़दमेबाजी का अवसर
- व्यवहाराङ्गम्—नपुं॰—व्यवहारः-अङ्गम्—-—दीवानी और फ़ौजदारी क़ानूनों का समूह
- व्यवहाराभिशस्त—वि॰—व्यवहारः-अभिशस्त—-—अभियोजित, दोषारोपित
- व्यवहारासनम्—नपुं॰—व्यवहारः-आसनम्—-—न्यायाधिकरण, न्यायासन
- व्यवहारज्ञः—पुं॰—व्यवहारः-ज्ञः—-—जो व्यवसाय को समझता है
- व्यवहारज्ञः—पुं॰—व्यवहारः-ज्ञः—-—वयस्क युवा, बालिग़
- व्यवहारज्ञः—पुं॰—व्यवहारः-ज्ञः—-—जो न्यायालयीय कार्यविधि से परिचित हो
- व्यवहारतन्त्रम्—नपुं॰—व्यवहारः-तन्त्रम्—-—आचरणक्रम
- व्यवहारदर्शनम्—नपुं॰—व्यवहारः-दर्शनम्—-—जांच, न्यायिक जांच-पड़ताल
- व्यवहारपदम्—नपुं॰—व्यवहारः-पदम्—-—व्यवहार विषय
- व्यवहारपादः—पुं॰—व्यवहारः-पादः—-—क़ानूनी कार्यवाही कीचार अवस्थाओं में से कोई सी एक
- व्यवहारपादः—पुं॰—व्यवहारः-पादः—-—चौथी अवस्था अर्थात् निर्णयपाद जिसमें व्यवस्था या फ़ैसला बतलाया गया है
- व्यवहारमातृका—स्त्री॰—व्यवहारः-मातृका—-—क़ानूनी प्रक्रिया
- व्यवहारमातृका—स्त्री॰—व्यवहारः-मातृका—-—न्यायप्रशासन या न्यायालयों के निर्माण से सम्बन्ध रखने वाला कोई भी कर्म या विषय
- व्यवहारविधिः—पुं॰—व्यवहारः-विधिः—-—क़ानून का नियम, विधिसंहिता
- व्यवहारविषयः—पुं॰—व्यवहारः-विषयः—-—क़ानूनी कार्यविधि का शीर्षक या विषय, ऐसी बात जिसमें क़ानूनी कार्यवाही करनी चाहिए, वादयोग्य विषय
- व्यवहारपदम्—नपुं॰—व्यवहारः-पदम्—-—क़ानूनी कार्यविधि का शीर्षक या विषय, ऐसी बात जिसमें क़ानूनी कार्यवाही करनी चाहिए, वादयोग्य विषय
- व्यवहारमार्गः—पुं॰—व्यवहारः-मार्गः—-—क़ानूनी कार्यविधि का शीर्षक या विषय, ऐसी बात जिसमें क़ानूनी कार्यवाही करनी चाहिए, वादयोग्य विषय
- व्यवहारस्थानम्—नपुं॰—व्यवहारः-स्थानम्—-—क़ानूनी कार्यविधि का शीर्षक या विषय, ऐसी बात जिसमें क़ानूनी कार्यवाही करनी चाहिए, वादयोग्य विषय
- व्यवहारकः—पुं॰—-—वि + अव + हृ + ण्वुल्—विक्रेता, व्यापारी, सौदागर
- व्यवहारिक—वि॰—-—व्यवहार + ठन्—व्यवसाय सम्बन्धी
- व्यवहारिक—वि॰—-—व्यवहार + ठन्—व्यवसाय में लगा हुआ, अभ्यासप्राप्त
- व्यवहारिक—वि॰—-—व्यवहार + ठन्—न्यायालयसंबंधी, क़ानूनी
- व्यवहारिक—वि॰—-—व्यवहार + ठन्—मुक़दमेबाज़
- व्यवहारिक—वि॰—-—व्यवहार + ठन्—प्रचलित, रूढ़ या प्रथानुसार
- व्यवहारिका—स्त्री॰—-—वि + अव + हृ + ण्वुल् + टाप्, इत्वम्—रिवाज, प्रथा
- व्यवहारिका—स्त्री॰—-—वि + अव + हृ + ण्वुल् + टाप्, इत्वम्—झाडू
- व्यवहारिका—स्त्री॰—-—वि + अव + हृ + ण्वुल् + टाप्, इत्वम्—इंगुदी का वृक्ष
- व्यवहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + धा + क्त—अलग अलग रक्खा हुआ
- व्यवहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + धा + क्त—किसी अन्तःक्षिप्त वस्तु के कारण वियुक्त किया गया
- व्यवहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + धा + क्त—बाधित, रोका गया, अवरुद्ध, अड़चन से युक्त
- व्यवहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + धा + क्त—दृष्टि से ओझल, छिपाया हुआ, गुप्त
- व्यवहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + धा + क्त—जिसका निरन्तर सम्बन्ध न हो
- व्यवहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + धा + क्त—किया गया, सम्पन्न
- व्यवहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + धा + क्त—भूला हुआ, छोड़ा हुआ
- व्यवहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + धा + क्त—आगे बढ़ा हुआ, आगे निकला हुआ
- व्यवहित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + धा + क्त—विपक्षी, विरोधी
- व्यवहृतिः—स्त्री॰ —-—वि + अव + हृ + क्तिन्—अभ्यास, प्रक्रिया
- व्यवहृतिः—स्त्री॰ —-—वि + अव + हृ + क्तिन्—कर्म, सम्पादन
- व्यवायः—पुं॰—-—वि + अव + अय् + अच्—वियोजन, विश्लेषण (अवयवों का) पृथक्करण
- व्यवायः—पुं॰—-—वि + अव + अय् + अच्—विघटन
- व्यवायः—पुं॰—-—वि + अव + अय् + अच्—आवरण, छिपाव
- व्यवायः—पुं॰—-—वि + अव + अय् + अच्—हस्तक्षेप, अन्तराल
- व्यवायः—पुं॰—-—वि + अव + अय् + अच्—अड़चन, रुकावट
- व्यवायः—पुं॰—-—वि + अव + अय् + अच्—मैथुन, सम्भोग
- व्यवायः—पुं॰—-—वि + अव + अय् + अच्—पवित्रता
- व्यवायम्—नपुं॰—-—-—दीप्ति, आभा
- व्यवायिन्—पुं॰—-—व्यवाय + इनि—विलासी, स्वेच्छाचारी
- व्यवायिन्—पुं॰—-—व्यवाय + इनि—कामोद्दीपक, वाजीकरण
- व्यवेत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + इ + क्त—वियोजित, विश्लिष्ट
- व्यवेत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अव + इ + क्त—भिन्न
- व्यष्टि—स्त्री॰—-—वि + अश् + क्तिन्—वैयक्तिकता, एकाकीपन
- व्यष्टि—स्त्री॰—-—वि + अश् + क्तिन्—वितरणशील फैलाव
- व्यष्टि—स्त्री॰—-—वि + अश् + क्तिन्—(वेदान्त॰ में ) समष्टि को उसके पृथक्-पृथक अवयवों के रूप में देखना, एक अंश
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—फ़ेक देना, दूर कर देना
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—वियोजन, विभाजन
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—उल्लंघन, व्यतिक्रमण
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—हानि विनाश, पराजय, पतन, दोष, दुर्बलपक्ष
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—विपत्ति, दुर्भाग्य, दुःख, अनिष्ट, संकट, अभाग्य
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—आपत्काल, आवश्यकता
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—(सूर्य आदि का) अस्त होना
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—दुर्व्यसन, बुरीलत, बुरी आदत
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—संलग्नता, जुट जाना, परिश्रमपूर्वक आसक्ति
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—बहुत ज्यादा आदी होना
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—जुर्म, पाप
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—दण्ड
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—अयोग्यता, अक्षमता
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—निष्फल प्रयत्न
- व्यसनम्—नपुं॰—-—वि + अस् + ल्युट्—हवा, वायु
- व्यसनातिभारः—पुं॰—व्यसनम्-अतिभारः—-—भारी अनर्थ या संकट
- व्यसनान्वित—वि॰—व्यसनम्-अन्वित—-—संकटग्रस्त, दुःख में फंसा हुआ
- व्यसनार्त—वि॰—व्यसनम्-आर्त—-—संकटग्रस्त, दुःख में फंसा हुआ
- व्यसनपीडित—वि॰—व्यसनम्-पीडित—-—संकटग्रस्त दुःख में फंसा हुआ
- व्यसनिन्—वि॰—-—व्यसन + इनि—किसी दुर्व्यसन में ग्रस्त, दुश्वरित्र
- व्यसनिन्—वि॰—-—व्यसन + इनि—अभागा, भाग्यहीन
- व्यसनिन्—वि॰—-—व्यसन + इनि—किसी कार्य में अत्यन्त संलग्न
- व्यसु—वि॰—-—विगताः असवः प्राणाः यस्य -प्रा॰ ब॰—निर्जीव, मृतक
- व्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अस् + क्त—डाला हुआ, फेंका हुआ, उछाला हुआ
- व्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अस् + क्त—तितर-बितर किया हुआ, बिखेरा हुआ
- व्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अस् + क्त—हटाया हुआ, दूर फेंका हुआ
- व्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अस् + क्त—वियुक्त, विभक्त अलगाया हुआ
- व्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अस् + क्त—पृथक् रूप से विचारित, एक एक करके ग्रहण
- व्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अस् + क्त—सरल, समासरहित (शब्द आदि)
- व्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अस् + क्त—वहुविध
- व्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अस् + क्त—हटाया गया, निकाला गया
- व्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अस् + क्त—विक्षुब्ध, कष्टमय, अव्यवस्थित
- व्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अस् + क्त—क्रमरहित, भग्नक्रम, विशृंखलित
- व्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अस् + क्त—उलटाया हुआ, उलट-पुलट किया हुआ
- व्यस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + अस् + क्त—विपर्यास (अनुपात आदि)
- व्यस्तारः—पुं॰—-—-—हाथी के गंडस्थलों से मद का निकलना
- व्याकरणम्—नपुं॰—-—व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दाः येन - वि + आ + कृ + ल्युट्—विग्रह, विश्लेषण
- व्याकरणम्—नपुं॰—-—व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दाः येन - वि+ आ + कृ + ल्युट्—व्याकरण सम्बन्धी शब्द-पृथक्करण-प्रक्रिया, छः वेदांगों में से एक, व्याकरण
- व्याकारः—पुं॰—-—वि + आ + कृ + घञ्—रूपान्तरण, रूपपरिवर्तन
- व्याकारः—पुं॰—-—वि + आ + कृ + घञ्—विरूपता
- व्याकीर्ण—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + कृ + क्त—बिखेरा हुआ, इधर उधर फेंका हुआ
- व्याकीर्ण—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—अस्तव्यस्त किया हुआ
- व्याकुल—वि॰—-—विशेषेण आकुलः-प्रा॰ स॰ —विक्षुब्ध, विस्मित, घबराया हुआ, किंकर्तव्य विमूढ़, शोकव्याकुल
- व्याकुल—वि॰—-—-—आतंकित, उद्विग्न, भयभीत
- व्याकुल—वि॰—-—-—भरापूरा, घिरा हुआ
- व्याकुल—वि॰—-—-—संलग्न, व्यस्त
- व्याकुल—वि॰—-—-—दमकने वाला, इधर उधर हिलजुल करने वाला
- व्याकुलित—वि॰—-—वि + आ + कुल् + क्त—विश्लिष्ट, वियुक्त
- व्याकुलित—वि॰—-—वि + आ + कुल् + क्त—व्याख्यात, स्पष्ट किया गया
- व्याकुलित—वि॰—-—वि + आ + कुल् + क्त—विकृत, व्याकृष्ट, बिगाड़ा हुआ, विरूपित
- व्याकूतिः—स्त्री॰—-—विशिष्टा आकूतिः -प्रा॰ स॰—जालसाजी, छद्मवेश, धोखा
- व्याकृत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + कृ + क्त— विश्लिष्ट, वियुक्त
- व्याकृत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + कृ + क्त—व्याख्यात, स्पष्ट किया गया
- व्याकृत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + कृ + क्त—विकृत, व्याकृष्ट, बिगाड़ा हुआ, विरूपित
- व्याकृतिः—स्त्री॰—-—वि + आ + कृ + क्तिन्—विग्रह
- व्याकृतिः—स्त्री॰—-—वि + आ + कृ + क्तिन्—विश्लेषण, व्याख्या
- व्याकृतिः—स्त्री॰—-—वि + आ + कृ + क्तिन्—रूप परिवर्तन, विकास
- व्याकृतिः—स्त्री॰—-—वि + आ + कृ + क्तिन्—व्याकरण
- व्याक्रोश—वि॰—-—वि + आ + क्रुश् + अच्—फुलाया हुआ, प्रफुल्लित, पुष्पित, मुकुलित
- व्याक्रोश—वि॰—-—वि + आ + क्रुश् + अच्—विकसित
- व्याक्रोष—वि॰—-—वि + आ + क्रुष् + अच्—फुलाया हुआ, प्रफुल्लित, पुष्पित, मुकुलित
- व्याक्रोष—वि॰—-—वि + आ + क्रुष् + अच्—विकसित
- व्याक्षेपः—पुं॰—-—वि + आ + क्षिप् + घञ्—इधर उधर उछालना
- व्याक्षेपः—पुं॰—-—वि + आ + क्षिप् + घञ्—अवरोध, रुकावट
- व्याक्षेपः—पुं॰—-—वि + आ + क्षिप् + घञ्—विलम्ब
- व्याक्षेपः—पुं॰—-—वि + आ + क्षिप् + घञ्—उलझन
- व्याख्या—स्त्री॰—-—वि + आ + ख्या + अङ् + टाप्—वृत्तान्त, वर्णन
- व्याख्या—स्त्री॰—-—वि + आ + ख्या + अङ् + टाप्—स्पष्टीकरण, विवृति, टीका, भाष्य
- व्याख्यात—वि॰—-—वि + आ + ख्या + क्त—कथित, वर्णित
- व्याख्यात—वि॰—-—वि + आ + ख्या + क्त—स्पटीकृत, विवृत, टीकायुक्त
- व्याख्यातृ—पुं॰—-—वि + आ + ख्या + तृच्—व्याख्याकार, भाष्यकार
- व्याख्यानम्—नपुं॰—-—वि + आ + ख्या + ल्युट्—संसूचन, वर्णन
- व्याख्यानम्—नपुं॰—-—वि + आ + ख्या + ल्युट्—भाषण, वक्तृता
- व्याख्यानम्—नपुं॰—-—वि + आ + ख्या + ल्युट्—स्पष्टीकरण, विवृति, अर्थकरण, टीका
- व्याघट्टनम्—नपुं॰—-—वि + आ + घट् + ल्युट्—बिलोना, मथना
- व्याघट्टनम्—नपुं॰—-—वि + आ + घट् + ल्युट्—रगड़ना, घर्षण
- व्याघातः—पुं॰—-—वि + आ + हन् + क्त—रहड़ना
- व्याघातः—पुं॰—-—वि + आ + हन् + क्त—थप्पड़, प्रहार
- व्याघातः—पुं॰—-—वि + आ + हन् + क्त—विघ्न, रुकावट
- व्याघातः—पुं॰—-—वि + आ + हन् + क्त—वचन विरोध
- व्याघातः—पुं॰—-—वि + आ + हन् + क्त—एक अलंकार जिसमें परस्पर विरोधी फल एक ही कारण से उत्पन्न दिखाये जाते हैं
- व्याघ्रः—पुं॰—-—व्याजिघ्रति-वि + आ + घ्रा + क—बाघ, चीता
- व्याघ्रः—पुं॰—-—व्याजिघ्रति-वि + आ + घ्रा + क—सर्वोंत्तम, प्रमुख, मुख्य
- व्याघ्रः—पुं॰—-—व्याजिघ्रति-वि + आ + घ्रा + क—लालरंग का एरंड का पौधा
- व्याघ्री—स्त्री॰—-—-—मादा चीता
- व्याघ्रटः—पुं॰—व्याघ्रः-अटः—-—चातक पक्षी
- व्याघ्रास्यः—पुं॰—व्याघ्रः-आस्यः—-—बिलाव
- व्याघ्रनखः—पुं॰—व्याघ्रः-नखः—-—बाघ का पंजा
- व्याघ्रनखः—पुं॰—व्याघ्रः-नखः—-—एक प्रकार का गन्धद्रव्य
- व्याघ्रनखः—पुं॰—व्याघ्रः-नखः—-—खरौंच, नखक्षत
- व्याघ्रनखम्—नपुं॰—व्याघ्रः-नखम्—-—बाघ का पंजा
- व्याघ्रनखम्—नपुं॰—व्याघ्रः-नखम्—-—एक प्रकार का गन्धद्रव्य
- व्याघ्रनखम्—नपुं॰—व्याघ्रः-नखम्—-—खरौंच, नखक्षत
- व्याघ्रनायकः—पुं॰—व्याघ्रः-नायकः—-—गीदड़
- व्याजः—पुं॰—-—व्यजति यथार्थव्यवहारात् अपगच्छति अनेन-वि + अज् + घञ्—धोखा, चाल, छल, जालसाजी
- व्याजः—पुं॰—-—व्यजति यथार्थव्यवहारात् अपगच्छति अनेन-वि + अज् + घञ्—कला कौशल
- व्याजः—पुं॰—-—व्यजति यथार्थव्यवहारात् अपगच्छति अनेन-वि + अज् + घञ्—बहाना, व्यपदेश, आभास
- व्याजः—पुं॰—-—व्यजति यथार्थव्यवहारात् अपगच्छति अनेन-वि + अज् + घञ्—युक्ति, चाल, कूटयुक्ति
- व्याजोक्तिः—स्त्री॰—व्याजः-उक्तिः—-—एक अलङ्कार जिसमें किसी कारण के स्पष्ट फल का जानबूझ कर कोई दूसरा कारण बताया जाता है, जहाँ वास्तविक भावना को कोई दूसरा कारण बताकर छिपा लिया जाता है
- व्याजोक्तिः—स्त्री॰—व्याजः-उक्तिः—-—परोक्ष सङ्केत, व्यंग्योक्ति
- व्याजनिन्दा—स्त्री॰—व्याजः-निन्दा—-—छल या कपट से की गई निन्दा
- व्याजसुप्त—वि॰—व्याजः-सुप्त—-—झूठमूठ् सोया हुआ
- व्याजस्तुतिः—स्त्री॰—व्याजः-स्तुतिः—-—अंग्रेजी के `आइरनी' से मिलता जुलता एक अलङ्कार
- व्याडः—पुं॰—-—वि + आ + अड् + अच्—मांस भक्षी जानवर
- व्याडः—पुं॰—-—वि + आ + अड् + अच्—बदमाश, गुण्डा
- व्याडः—पुं॰—-—वि + आ + अड् + अच्—साँप
- व्याडः—पुं॰—-—वि + आ + अड् + अच्—इन्द्र
- व्याडिः—पुं॰—-—-—एक प्रसिद्ध वैयाकरण
- व्यात्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + दा + क—विवृत, फैलाया गया, फुलाया गया
- व्यात्युक्षी—स्त्री॰—-—वि + आ + अति + उक्ष् + णिच् + अञ् + ङीष्—जलविहार, जलक्रीडा
- व्यादानम्—नपुं॰—-—वि + आ + दा + ल्युट्—खोलना, उद्घाटन
- व्यादिशः—पुं॰—-—विशेषेण आदिशति स्वे स्वे कर्मणि नियोजयति -वि + आ + दिश् + क—विष्णु का विशेषन
- व्याधः—पुं॰—-—व्यध् + ण—शिकारी, बहेलिया (जाति से या पेशे के कारण)
- व्याधः—पुं॰—-—व्यध् + ण—दुष्ट मनुष्य, अधम पुरुष
- व्याधभीतः—पुं॰—व्याधः-भीतः—-—हरिण
- व्याधामः—पुं॰—-—व्याध + अम् + णिच् + अच्—इन्द्र का वज्र
- व्याधावः—पुं॰—-—-—इन्द्र का वज्र
- व्याधिः—पुं॰—-—वि + आ + धा + कि—बीमारी, रोग, रुजा, अस्वस्थता
- व्याधिः—पुं॰—-—वि + आ + धा + कि—कोढ़
- व्याधिकर—वि॰—व्याधिः-कर—-—अस्वास्थ्यकर
- व्याधिग्रस्त—वि॰—व्याधिः-ग्रस्त—-—रोगाक्रान्त, बीमार
- व्याधित—वि॰—-—व्याधिः सञ्जातोऽस्य इतच्—रोगाक्रान्त, बीमार
- व्याधूत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + धू + क्त—झंझोड़ा हुआ, काँपता हुआ, थरथराता हुआ
- व्यानः—पुं॰—-—व्यानिति सर्वशरीरं व्याप्नोति- वि + आ + अन् + अच्—शरीरस्थ पाँच प्राणों में से एक जो समस्त शरीर मे व्याप्त है
- व्यानतम्—नपुं॰—-—वि + आ + नम् + क्त—मैथुन का एक विशेष प्रकार, रतिबन्ध
- व्यापक—वि॰ —-—विशेषेण आप्नोति-वि + आप + ण्वुल्—फैला हुआ, बहुग्राही, प्रसारी, विस्तृत रूप से फैलने वाला, सर्वतोमुखी
- व्यापक—वि॰ —-—विशेषेण आप्नोति-वि + आप + ण्वुल्—नितान्त सहवर्ती
- व्यापकः—पुं॰—-—-—नितान्त सहवर्ती या अन्तर्हित विशेषण
- व्यापकम्—नपुं॰—-—-—नितान्त सहवर्ती या अन्तर्हित गुण
- व्यापत्तिः—स्त्री॰—-—वि + आ + पद् + क्तिन्—बर्बादी, संकट, दुर्भाग्य
- व्यापत्तिः—स्त्री॰—-—वि + आ + पद् + क्तिन्—स्थानापन्नता
- व्यापत्तिः—स्त्री॰—-—वि + आ + पद् + क्तिन्—मृत्यु
- व्यापद्—स्त्री॰—-—वि + आ + पद् + क्विप्—सङ्कट, दुर्भाग्य
- व्यापद्—स्त्री॰—-—वि + आ + पद् + क्विप्—रोग
- व्यापद्—स्त्री॰—-—वि + आ + पद् + क्विप्—विशृङ्खलता, चित्तविक्षेप
- व्यापद्—स्त्री॰—-—वि + आ + पद् + क्विप्—मृत्यु, निधन
- व्यापनम्—नपुं॰—-—वि + आप् + ल्युट्—फैलना, पैठना, सर्वत्र फैल जाना
- व्यापन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + क्त—दुर्भाग्यग्रस्त, बर्बाद
- व्यापन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + क्त—विफल, उलट गया (गर्भस्राव हो गया)
- व्यापन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + क्त—चोट लगा हुआ, घायल
- व्यापन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + क्त—मृत, उपरत, मरा हुआ
- व्यापन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + क्त—विक्षिप्त, विकृत
- व्यापन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + क्त—स्थानापन्न, परिवर्तित
- व्यापादः—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + णिच् + घञ्—हत्या, वध
- व्यापादः—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + णिच् + घञ्—बर्बादी, विनाश
- व्यापादः—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + णिच् + घञ्—दुर्भावना, द्वेष
- व्यापादनम्—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + णिच् + ल्युट्—हत्या, वध
- व्यापादनम्—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + णिच् + ल्युट्—बर्बादी, विनाश
- व्यापादनम्—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + णिच् + ल्युट्—दुर्भावना, द्वेष
- व्यापादित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + णिच् + क्त—वध किया हुआ, क़तल किया हुआ, विनष्ट किया हुआ
- व्यापादित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पद् + णिच् + क्त—बर्बाद, घायल, चोटिल
- व्यापारः—पुं॰—-—वि + आ + पृ + घञ्—नियोजन, संलग्नता, व्यावसाय, धन्धा
- व्यापारः—पुं॰—-—वि + आ + पृ + घञ्—प्रयोग, काम
- व्यापारः—पुं॰—-—वि + आ + पृ + घञ्—पेशा, वाणिज्य, व्यवसाय, कार्य
- व्यापारः—पुं॰—-—वि + आ + पृ + घञ्—कर्म, क्रिया, निष्पादन
- व्यापारः—पुं॰—-—वि + आ + पृ + घञ्—कार्यपद्धति, प्रक्रिया, कृत्य, प्रभाव
- व्यापारः—पुं॰—-—वि + आ + पृ + घञ्—ऊपर रक्खा जाने वाला
- व्यापारः—पुं॰—-—वि + आ + पृ + घञ्—उद्योग, प्रयत्न
- व्यापारं कृ——-—-—भाग लेना
- व्यापारं कृ——-—-—प्रभाव डालना
- व्यापारं कृ——-—-—हाथ डालना
- व्यापारित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पृ + णिच् + क्त—काम पर लगाया हुआ, स्थापित, नियोजित, नियुक्त
- व्यापारित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + पृ + णिच् + क्त—रक्खा हुआ, निश्चित, जमाया हुआ
- व्यापारिन्—पुं॰—-—व्यापार + इनि—विक्रेता, व्यापार करने वाला
- व्यापारिन्—पुं॰—-—व्यापार + इनि—व्यवसायी
- व्यापिन्—वि॰—-—वि + आप् + णिनि—व्याप्त होने वाला, अपूर्ण करने वाला, अधिकार करने वाला
- व्यापिन्—वि॰—-—वि + आप् + णिनि—सर्वव्यापक, सहविस्तृत, नितान्त सहवर्ती
- व्यापिन्—वि॰—-—वि + आप् + णिनि—आवरक
- व्यापिन्—पुं॰—-—-—विष्णु का विशेषन
- व्यापृत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आपृ + क्त—काम में लगा हुआ, व्यस्त, नियोजित
- व्यापृत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आपृ + क्त—स्थापित, स्थिर किया हुआ
- व्यापृत—पुं॰—-—-—कर्मचारी, मन्त्री
- व्यापृतिः—स्त्री॰—-—व्यापृ + क्तिन्—काम में लगाना, व्यस्त करना, व्यावसाय
- व्यापृतिः—स्त्री॰—-—व्यापृ + क्तिन्—प्रकार्य, कर्म
- व्यापृतिः—स्त्री॰—-—व्यापृ + क्तिन्—चेष्टा
- व्यापृतिः—स्त्री॰—-—व्यापृ + क्तिन्—पेशा, व्यावसाय
- व्याप्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आप् + क्त—चारों ओर फैला हुआ, पैठा हुआ, व्यापक, विस्तार किया हुआ, आच्छादित, ढका हुआ
- व्याप्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आप् + क्त—व्यापक, सर्वत्र फैला हुआ
- व्याप्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आप् + क्त—भरा हुआ, पूर्ण
- व्याप्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आप् + क्त—चारों ओर से लपेटा हुआ, घिरा हुआ
- व्याप्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आप् + क्त—स्थापित, जमाया हुआ
- व्याप्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आप् + क्त—प्राप्त किया हुआ, अधिकृत
- व्याप्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आप् + क्त—समझा हुआ, सम्मिलित
- व्याप्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आप् + क्त—नितांत ससक्त
- व्याप्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आप् + क्त—प्रसिद्ध, विख्यात
- व्याप्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आप् + क्त—फुलाया हुआ, बिछाया हुआ
- व्याप्तिः—स्त्री॰—-—वि + आप् + क्तिन्—प्रसार, फैलाव
- व्याप्तिः—स्त्री॰—-—वि + आप् + क्तिन्—विश्वतः फैलाव, नितांत सहवर्तिता, किसी एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ का पूर्ण रूप से मिला होना
- व्याप्तिः—स्त्री॰—-—वि + आप् + क्तिन्—सार्वजनिक नियम, विश्वव्यापकता
- व्याप्तिः—स्त्री॰—-—वि + आप् + क्तिन्—पूर्णता
- व्याप्तिः—स्त्री॰—-—वि + आप् + क्तिन्—प्राप्ति
- व्याप्तिग्रहः—पुं॰—व्याप्तिः-ग्रहः—-—सार्वजनिक सहवर्तिता का बोध
- व्याप्तिज्ञानम्—नपुं॰—व्याप्तिः-ज्ञानम्—-—सार्वजनिक सहवर्तिता की जानकारी
- व्याप्य—वि॰—-—वि + आप् + ण्यत्—व्यापकता के योग्य भरे जाने के योग्य
- व्याप्यम्—नपुं॰—-—-—अनुमान प्रक्रिया का चिह्न (हेतु, साधन)
- व्याप्यत्वम्—नपुं॰—-—व्याप्य + त्व—नित्यता
- व्याप्यत्वासिद्धिः—स्त्री॰—व्याप्यत्वम्-असिद्धिः—-—अधूरी अटकल, अपूर्ण अनुमान
- व्याभ्युक्षी—स्त्री॰—-—-—जलविहार, जलक्रीडा
- व्यामः—पुं॰—-—वि + आ + अम् + घञ्—एक माप विशेष, जब दोनों हाथ पूर्ण रूप से दोनों ओर फैलाये हों तो हाथों की अंगुलियों के कोरों के वीच की दूरी
- व्यामनम्—नपुं॰—-—वि + आ + अम् + ल्युट्—एक माप विशेष, जब दोनों हाथ पूर्ण रूप से दोनों ओर फैलाये हों तो हाथों की अंगुलियों के कोरों के वीच की दूरी
- व्यामिश्र—वि॰ —-—वि + आ + मिश्र + अच्—मिला हुआ मिश्रित, गड्ड-मड्ड किया हुआ
- व्यामोहः—पुं॰—-—वि + आ + मुह् + घञ्—प्रणयोन्माद
- व्यामोहः—पुं॰—-—वि + आ + मुह् + घञ्—व्याकुलता, परेशानी, बेचैनी
- व्यायत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + यम् + क्त—लम्बा, विस्तृत
- व्यायत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + यम् + क्त—फुलाया हुआ, खुला हुआ
- व्यायत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + यम् + क्त—जिसने व्यायाम किया है, अनुशिष्ट
- व्यायत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + यम् + क्त—व्यस्त, काम में लगा हुआ, अधिकृत
- व्यायत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + यम् + क्त—कठोर, दृढ़
- व्यायत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + यम् + क्त—मजबूत, गहन, अत्यधिक
- व्यायत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + यम् + क्त—ताकवर, शक्तिशाली
- व्यायत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + यम् + क्त—गहरा
- व्यायतत्वम्—नपुं॰—-—व्यायत + त्व—पुट्ठों का विकास
- व्यायामः—पुं॰—-—वि + आ + यम् + घञ्—विस्तार करना, फैलाना
- व्यायामः—पुं॰—-—वि + आ + यम् + घञ्—कसरत, शारीरिक, व्यायाभों का अभ्यास
- व्यायामः—पुं॰—-—वि + आ + यम् + घञ्—थकान, श्रम
- व्यायामः—पुं॰—-—वि + आ + यम् + घञ्—प्रयत्न, चेष्टा
- व्यायामः—पुं॰—-—वि + आ + यम् + घञ्—वाग्युद्ध, संघर्ष
- व्यायामः—पुं॰—-—वि + आ + यम् + घञ्—दूरी की माप विशेष
- व्यायामिक—वि॰—-—व्यायाम + ठक्—मल्लविद्या-विषयक, शारीरिक कसरत संबंधी
- व्यायोगः—पुं॰—-—वि + आ + युज् + घञ्—नाठ्यसाहित्य में एक प्रकार का एकांकी नाटक
- व्याल—वि॰—-—वि + आ + अल् + अच्—दुष्ट, दुर्व्यसनी
- व्याल—वि॰—-—वि + आ + अल् + अच्—बुरा, पापिष्ठ
- व्याल—वि॰—-—वि + आ + अल् + अच्—क्रूर, भीषण, बर्बर
- व्यालः—पुं॰—-—-—खूनी हाथी
- व्यालः—पुं॰—-—-—शिकार का जानवर
- व्यालः—पुं॰—-—-—साँप
- व्यालः—पुं॰—-—-—बाघ
- व्यालः—पुं॰—-—-—चीता
- व्यालः—पुं॰—-—-—राजा
- व्यालः—पुं॰—-—-—ठग, वदमाश
- व्यालः—पुं॰—-—-—विष्णु
- व्यालखङ्गः—पुं॰—व्याल-खङ्गः—-—एक प्रकार की बूटी
- व्यालनखः—पुं॰—व्याल-नखः—-—एक प्रकार की बूटी
- व्यालग्राहः—पुं॰—व्याल-ग्राहः—-—सपेरा
- व्यालग्राहिन्—पुं॰—व्याल-ग्राहिन्—-—सपेरा
- व्यालमृगः—पुं॰—व्याल-मृगः—-—जंगली जानवर
- व्यालमृगः—पुं॰—व्याल-मृगः—-—शिकारी चीता
- व्यालरूपः—पुं॰—व्याल-रूपः—-—शिव का विशेषण
- व्यालकः—पुं॰—-—व्याल + कन्—दुष्ट या खूनी हाथी
- व्यालम्बः—पुं॰—-—विशेषेण आलम्बते वि + आ + लम्ब् + अच्—एक प्रकार का एरंड का पौधा
- व्यालोल—वि॰ —-—वि + आ + लोड् + अच्, डस्यलः—कांपने वाला, थरथराने वाला
- व्यालोल—वि॰ —-—वि + आ + लोड् + अच्, डस्यलः—अव्यवस्थित, अस्तव्यस्त
- व्यावकलनम्—नपुं॰—-—वि + आ + अव + कल् + ल्युट्—घटाना
- व्यावक्रोशी—स्त्री॰—-—वि + आ + अव + क्रुश् + णिच् + अञ् + ङीप्—परस्पर दुर्वचन कहना, आपस की गालीगलौज
- व्यावभाषी—स्त्री॰—-—वि + आ + अव + भाष् + णिच् + अञ् + ङीप्—परस्पर दुर्वचन कहना, आपस की गालीगलौज
- व्यावर्तः—पुं॰—-—वि + आ + वृत् + घञ्—घेरना, लपेटना
- व्यावर्तः—पुं॰—-—वि + आ + वृत् + घञ्—क्रान्ति, भ्रमण, चक्कर खाना
- व्यावर्तः—पुं॰—-—वि + आ + वृत् + घञ्—फटी हुई अर्थात् आगे को निकली हुई नाभि
- व्यावर्तक—वि॰—-—वि + आ + वृत् + णिच् + ण्वुल्—लपेटने वाला, घेरा डालने वाला
- व्यावर्तक—वि॰—-—वि + आ + वृत् + णिच् + ण्वुल्—निकालने वाला, अपवर्जन करने वाला, वियुक्त करने वाला
- व्यावर्तक—वि॰—-—वि + आ + वृत् + णिच् + ण्वुल्—मुड़ने वाला
- व्यावर्तक—वि॰—-—वि + आ + वृत् + णिच् + ण्वुल्—मोड़ खाने वाला
- व्यावर्तनम्—नपुं॰—-—वि + आ + वृत् + ल्युट्—घेरना, लपेटना
- व्यावर्तनम्—नपुं॰—-—वि + आ + वृत् + ल्युट्—घूमना, मुड़ना चक्करखाना
- व्यावर्तनम्—नपुं॰—-—वि + आ + वृत् + ल्युट्—रस्सी आदि का गोल लपेट, पट्टी
- व्यावल्गित—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + वल्ग् + क्त—पसीजा हुआ, द्रवित, विक्षुब्ध
- व्यावहारिक—वि॰—-—व्यवहार + ठक्—व्यवसाय संबंधी, प्रयोगात्मक
- व्यावहारिक—वि॰—-—व्यवहार + ठक्—कानूनी, वैध
- व्यावहारिक—वि॰—-—व्यवहार + ठक्—प्रथागत, प्रचलित
- व्यावहारिक—वि॰—-—व्यवहार + ठक्—भ्रमात्मक
- व्यावहारिकः—पुं॰—-—-—परामर्शदाता, मंत्री
- व्यावहारी—स्त्री॰—-—वि + आ + अव + हृ + णिच् + अञ् + ङीप्—पारस्परिक बंधन, लेन देन
- व्यावहासी—स्त्री॰—-—वि + आ + अव + हस् + णिच् + अञ् + ङीप्—पारस्परिक अवज्ञा, एक दूसरे की हंसी उड़ाना
- व्यावृत्तिः—स्त्री॰—-—वि + आ + वृत् + क्तिन्—आवरण, परदा डालना
- व्यावृत्तिः—स्त्री॰—-—वि + आ + वृत् + क्तिन्—निकाल देना, निष्कासन
- व्यावृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + वृत् + क्त—हटाया हुआ, वापिस लिया हुआ
- व्यावृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + वृत् + क्त—वियुक्त किया गया, अलग हटाया हुआ
- व्यावृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + वृत् + क्त—निकाला हुआ, एक ओर रक्खा हुआ
- व्यावृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + वृत् + क्त—चक्कर खाया हुआ, मुड़ा हुआ
- व्यावृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + वृत् + क्त—लपेटा हुआ, घिरा हुआ
- व्यावृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + वृत् + क्त—रुका हुआ, उपरत
- व्यावृत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + वृत् + क्त—फाड़कर टुकड़े टुकड़े किया हुआ
- व्यासः—पुं॰—-—वि + अस् + घञ्—वितरण, विभाजन
- व्यासः—पुं॰—-—वि + अस् + घञ्—समास का विग्रह या विश्लेषण
- व्यासः—पुं॰—-—वि + अस् + घञ्—अलगाव, पृथक्ता
- व्यासः—पुं॰—-—वि + अस् + घञ्—प्रसार, फैलाव
- व्यासः—पुं॰—-—वि + अस् + घञ्—अर्ज, चौड़ाई
- व्यासः—पुं॰—-—वि + अस् + घञ्—वृत्त का व्यास
- व्यासः—पुं॰—-—वि + अस् + घञ्—उच्चारणदोष
- व्यासः—पुं॰—-—वि + अस् + घञ्—व्यवस्था, संकलन
- व्यासः—पुं॰—-—वि + अस् + घञ्—व्यवस्थापक, संकलयिता
- व्यासः—पुं॰—-—वि + अस् + घञ्—एक प्रसिद्ध ऋषि का नाम
- व्यासः—पुं॰—-—वि + अस् + घञ्—वह ब्राह्मण जो सार्वजनिक रूप से पुराणों की कथा करता है
- व्यासक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + सञ्ज् + क्त—जो दृढ़ता पूर्वक डटा रहे
- व्यासक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + सञ्ज् + क्त—जुड़ा हुआ, लगा हुआ, तुला हुआ व्यस्त
- व्यासक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + सञ्ज् + क्त—नियुक्त, पृथक् किया हुआ, अलग किया हुआ
- व्यासक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + सञ्ज् + क्त—परेशान, व्याकुल, घबड़ाया हुआ
- व्यासङ्गः—पुं॰—-—वि + आ + सञ्ज् + घञ्—सटा होना, डटे रहना, तुला रहना
- व्यासङ्गः—पुं॰—-—वि + आ + सञ्ज् + घञ्—एकनिष्ठता, भक्ति
- व्यासङ्गः—पुं॰—-—वि + आ + सञ्ज् + घञ्—सपरिश्रम अध्ययन
- व्यासङ्गः—पुं॰—-—वि + आ + सञ्ज् + घञ्—ध्यान
- व्यासङ्गः—पुं॰—-—वि + आ + सञ्ज् + घञ्—पृथक्ता, संयोग
- व्यासिद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + सिध् + क्त—प्रतिषिद्ध, वर्जित
- व्यासिद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + सिध् + क्त—निषिद्धपण्य, चोरी का माल
- व्याहत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + हन् + क्त—अवरुद्ध, रोका हुआ
- व्याहत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + हन् + क्त—हटाया हुआ, पीछे ढकेला हुआ
- व्याहत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + हन् + क्त—विफल किया हुआ, निराश
- व्याहत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + हन् + क्त—व्याकुल, घवड़ाया हुआ, आतंकित
- व्याहतार्थता—स्त्री॰—व्याहत-अर्थता—-—रचना का एक दोष
- व्याहरणम्—नपुं॰—-—वि + आ + हृ + ल्युट्—बोलना, उच्चारण करना
- व्याहरणम्—नपुं॰—-—वि + आ + हृ + ल्युट्—भाषण, वर्णन
- व्याहारः—पुं॰—-—वि + आ + हृ + घञ्— भाषण, बोलना, वचन
- व्याहारः—पुं॰—-—वि + आ + हृ + घञ्—आवाज़, स्वर, ध्वनि
- व्याहृत—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + आ + हृ + क्त —कहा हुआ, बोला हुआ, उच्चारण किया हुआ
- व्याहृतिः—स्त्री॰—-—वि + आ + हृ + क्तिन्—उच्चारण, भाषण, वचन
- व्याहृतिः—स्त्री॰—-—वि + आ + हृ + क्तिन्—वक्तव्य, अभिव्यक्ति
- व्याहृतिः—स्त्री॰—-—वि + आ + हृ + क्तिन्—सन्ध्या करते समय प्रतिदिन प्रत्येक ब्राह्मण द्वारा उच्चारित ईश्वर परक शब्द विशेष
- व्युच्छित्तिः—स्त्री॰—-—वि + उत् + छिद् + क्तिन्—काट डालना, उन्मूलन, पूर्ण विनाश
- व्युच्छेदः—पुं॰—-—वि + उत् + छिद् + घञ्—काट डालना, उन्मूलन, पूर्ण विनाश
- व्युत्क्रमः—पुं॰—-—वि + उत् + क्रम् + घञ्—अतिक्रमण, विचलन
- व्युत्क्रमः—पुं॰—-—वि + उत् + क्रम् + घञ्—उलटा क्रम, वैपरीत्य
- व्युत्क्रमः—पुं॰—-—वि + उत् + क्रम् + घञ्—अव्यवस्था, गड़बड़ी
- व्युत्क्रान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + उ + क्रम् + क्त—अतिक्रान्त, उल्लंघन किया गया
- व्युत्क्रान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + उ + क्रम् + क्त—जो बिदा हो गया हो, छोड़कर चला गया हो, बीत गया हो
- व्युत्थानम्—स्त्री॰—-—वि + उ + स्था + ल्युट्—महान् क्रियाकलाप
- व्युत्थानम्—स्त्री॰—-—वि + उ + स्था + ल्युट्—किसी के विरुद्ध खड़े होना, विरोध, रुकावट
- व्युत्थानम्—स्त्री॰—-—वि + उ + स्था + ल्युट्—स्वतन्त्र कर्म, मनोऽनुकूल कार्य
- व्युत्थानम्—स्त्री॰—-—वि + उ + स्था + ल्युट्—धार्मिक मनोयोग की पूर्ति या भावात्मक मनन
- व्युत्थानम्—स्त्री॰—-—वि + उ + स्था + ल्युट्—एक प्रकार का नृत्य
- व्युत्थानम्—स्त्री॰—-—वि + उ + स्था + ल्युट्—(हाथी को) उठाना
- व्युत्थितिः—स्त्री॰—-—वि + उ + स्था + क्तिन्—महान् क्रियाकलाप
- व्युत्थितिः—स्त्री॰—-—वि + उ + स्था + क्तिन्—किसी के विरुद्ध खड़े होना, विरोध, रुकावट
- व्युत्थितिः—स्त्री॰—-—वि + उ + स्था + क्तिन्—स्वतन्त्र कर्म, मनोऽनुकूल कार्य
- व्युत्थितिः—स्त्री॰—-—वि + उ + स्था + क्तिन्—धार्मिक मनोयोग की पूर्ति या भावात्मक मनन
- व्युत्थितिः—स्त्री॰—-—वि + उ + स्था + क्तिन्—एक प्रकार का नृत्य
- व्युत्थितिः—स्त्री॰—-—वि + उ + स्था + क्तिन्—(हाथी को) उठाना
- व्युत्पत्तिः—स्त्री॰—-—वि + उत् + पद + क्तिन्—मूल, उत्पत्ति
- व्युत्पत्तिः—स्त्री॰—-—वि + उत् + पद + क्तिन्—व्युत्पादन, निर्वचन
- व्युत्पत्तिः—स्त्री॰—-—वि + उत् + पद + क्तिन्—पू्री प्रवीणता, पूरी जानकारी
- व्युत्पत्तिः—स्त्री॰—-—वि + उत् + पद + क्तिन्—विद्वत्ता, ज्ञान
- व्युत्पन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + उत् + पद + क्त—उत्पादित, पैदा किया गया
- व्युत्पन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + उत् + पद + क्त—निर्वचन द्वारा निर्मित
- व्युत्पन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + उत् + पद + क्त—व्याकरण द्वारा निष्पन्न, निरुक्त, (शब्द) जिसके निर्वचन का पता लग गया हो (विप॰ अव्युत्पन्न या मूल)
- व्युत्पन्न—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + उत् + पद + क्त—पूरा किया गया, सम्पन्न किया गया
- व्युत्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + उन्द् + क्त—क्लिन्न, आर्द्र, भिगोया हुआ
- व्युदस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + उद् + अस् + क्त—एक ओर फेंका हुआ, अस्वीकृत, दूर किया हुआ
- व्युदासः—पुं॰—-—वि + उद् + अस् + घञ्—एक ओर फेंकना, अस्वीकृत
- व्युदासः—पुं॰—-—वि + उद् + अस् + घञ्—निकाल देना
- व्युदासः—पुं॰—-—वि + उद् + अस् + घञ्—प्रतिषेध
- व्युदासः—पुं॰—-—वि + उद् + अस् + घञ्—उपेक्षा, उदासीनता
- व्युदासः—पुं॰—-—वि + उद् + अस् + घञ्—हत्या, विनाश
- व्युपदेशः—पुं॰—-—वि + उप + दिश् + घञ्—व्याज, बहाना
- व्युपरमः—पुं॰—-—वि + उप + रम् + अप्—बिराम, यति, समाप्ति
- व्युपशमः—पुं॰—-—वि + उप + शम् + अच्—विराम का अभाव
- व्युपशमः—पुं॰—-—वि + उप + शम् + अच्—अशान्ति
- व्युपशमः—पुं॰—-—वि + उप + शम् + अच्—पूर्ण विराम
- व्युष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + उष् + क्त—जलाया गया
- व्युष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + उष् + क्त—पौफटी, प्रभात
- व्युष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + उष् + क्त—जो उज्ज्वल या स्वच्छ हो
- व्युष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + उष् + क्त—बसा हुआ
- व्युष्टम्—नपुं॰—-—-—पौ फटना, प्रभात
- व्युष्टम्—नपुं॰—-—-—दिन
- व्युष्टम्—नपुं॰—-—-—फल
- व्युष्टिः—स्त्री॰—-—वि + वस् + क्तिन्—प्रभात
- व्युष्टिः—स्त्री॰—-—वि + वस् + क्तिन्—समृद्धि
- व्युष्टिः—स्त्री॰—-—वि + वस् + क्तिन्—प्रशंसा
- व्युष्टिः—स्त्री॰—-—वि + वस् + क्तिन्—फल, परिणाम
- व्यूढ—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + वह् + क्त—फुलाया हुआ, विकसित, विशाल, व्यापक
- व्यूढ—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + वह् + क्त—दृढ़, सटा हुआ
- व्यूढ—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + वह् + क्त—क्रमबद्ध, व्यवस्थित, (सेना आदि) सुविन्यस्त
- व्यूढ—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + वह् + क्त—अव्यवस्थित, क्रमहीन
- व्यूढ—भू॰ क॰ कृ॰—-—वि + वह् + क्त—विवाहित
- व्यूढकङ्कट—वि॰—व्यूढ-कङ्कट—-—कवचित, जिरह वख्तर पहने हुए
- व्यूत—वि॰—-—वि + वे + क्त—अन्तर्वलित, सीया गया, गूँथा गया
- व्यूतिः—स्त्री॰—-—वि + वे + क्तिन्—बुनाई, सिलाई
- व्यूतिः—स्त्री॰—-—वि + वे + क्तिन्—बुनाई की मजदूरी
- व्यूहः—पुं॰—-—वि + ऊह + घञ्—सैनिक विन्यास
- व्यूहः—पुं॰—-—वि + ऊह + घञ्—सेना, दल, टुकड़ी
- व्यूहः—पुं॰—-—वि + ऊह + घञ्—बड़ीमात्रा, समवाय, समुच्चय, संग्रह
- व्यूहः—पुं॰—-—वि + ऊह + घञ्—भाग, अंश, उपशीर्ष
- व्यूहः—पुं॰—-—वि + ऊह + घञ्—शरीर
- व्यूहः—पुं॰—-—वि + ऊह + घञ्—संरचन, निर्माण
- व्यूहः—पुं॰—-—वि + ऊह + घञ्—तर्कना, तर्क
- व्यूहपार्ष्णिः—स्त्री॰—व्यूहः-पार्ष्णिः—-—सेना का पिछला भाग
- व्यूहभङ्गः—पुं॰—व्यूहः-भङ्गः—-—सैनिक व्यूह को तोड़ देना
- व्युहभेदः—पुं॰—व्यूहः-भेदः—-—सैनिक व्यूह को तोड़ देना
- व्यूहनम्—नपुं॰—-—वि + ऊह् + ल्युट्—सेना को व्यवस्थित करना, सेना को क्रमबद्ध करना
- व्यूहनम्—नपुं॰—-—वि + ऊह् + ल्युट्—शरीर के अंगों की संरचना
- व्यृद्धिः—स्त्री॰—-—विगता ऋद्धिः-प्रा॰ स॰—समृद्धि का अभाव, बुरी क़िस्मत, दुर्भाग्य
- व्ये—भ्वा॰ उभ॰ <व्ययति>, <व्ययते>, <ऊत>, प्रेर॰ <व्यायति>, <व्यायते>, इच्छा॰ <विव्यासति>—-—-—ढकना
- व्ये—भ्वा॰ उभ॰ <व्ययति>, <व्ययते>, <ऊत>, प्रेर॰ <व्यायति>, <व्यायते>, इच्छा॰ <विव्यासति>—-—-—सीना
- व्योकारः—पुं॰—-—व्यो + कृ + अण्—लुहार
- व्योमन्—नपुं॰—-—व्ये + मनिन्, पृषो॰—आकाश, अन्तरिक्ष
- व्योमन्—नपुं॰—-—व्ये + मनिन्, पृषो॰—जल
- व्योमन्—नपुं॰—-—व्ये + मनिन्, पृषो॰—सूर्य का मन्दिर
- व्योमन्—नपुं॰—-—व्ये + मनिन्, पृषो॰—अभ्रक
- व्योमोदकम्—नपुं॰—व्योमन्-उदकम्—-—बारिश का पानी, ओस
- व्योमकेशः—पुं॰—व्योमन्-केशः—-—शिव का विशेषण
- व्योमकेशिन्—पुं॰—व्योमन्-केशिन्—-—शिव का विशेषण
- व्योमगंगा—स्त्री॰—व्योमन्-गंगा—-—स्वर्गीय गंगा
- व्योमचारिन्—पुं॰—व्योमन्-चारिन्—-—देव
- व्योमचारिन्—पुं॰—व्योमन्-चारिन्—-—पक्षी
- व्योमचारिन्—पुं॰—व्योमन्-चारिन्—-—सन्त, महात्मा
- व्योमचारिन्—पुं॰—व्योमन्-चारिन्—-—ब्राह्मण
- व्योमचारिन्—पुं॰—व्योमन्-चारिन्—-—तारा, नक्षत्र
- व्योमधूमः—पुं॰—व्योमन्-धूमः—-—बादल
- व्योमनाशिका—स्त्री॰—व्योमन्-नाशिका—-—एक प्रकार की बटेर, लवा
- व्योममंजरम्—नपुं॰—व्योमन्-मंजरम्—-—झंडा, पताका
- व्योममंडलन्—नपुं॰—व्योमन्-मंडलन्—-—झंडा, पताका
- व्योममुद्गरः—पुं॰—व्योमन्-मुद्गरः—-—हवा का झोंका
- व्योमयानम्—नपुं॰—व्योमन्-यानम्—-—दिव्यसवारी, आकाशयान
- व्योमशद्—पुं॰—व्योमन् -शद्—-—देव, सुर
- व्योमशद्—पुं॰—व्योमन् -शद्—-—गन्धर्व
- व्योमशद्—पुं॰—व्योमन् -शद्—-—भूत-प्रेत
- व्योमस्थली—स्त्री॰—व्योमन् -स्थली—-—पृथ्वी
- व्योमस्पृश्—वि॰—व्योमन्-स्पृश्—-—गगनचुंबी, अत्यन्त ऊँचा
- व्रज्—भ्वा॰ पर॰ <व्रजति>—-—-—जाना, चलना, प्रगति करना
- व्रज्—भ्वा॰ पर॰ <व्रजति>—-—-—पधारना, पहुँचना दर्शन करना
- व्रज्—भ्वा॰ पर॰ <व्रजति>—-—-—बिदा होना, सेवा से निवृत्त होना, पीछे हटना
- व्रज्—भ्वा॰ पर॰ <व्रजति>—-—-—(समय का) बीतना
- अनुव्रज्—भ्वा॰ पर॰—अनु-व्रज्—-— बाद में जाना, अनुगमन करना
- अनुव्रज्—भ्वा॰ पर॰—अनु-व्रज्—-—अभ्यास करना, सम्पन्न करना
- अनुव्रज्—भ्वा॰ पर॰—अनु-व्रज्—-—सहारा लेना
- आव्रज्—भ्वा॰ पर॰—आ-व्रज्—-—आना, पहुँचना
- परिव्रज्—भ्वा॰ पर॰—परि-व्रज्—-—भिक्षु या साधु के रूप में इधर-उधर घूमना, संन्यासी या परिव्राजक हो जाना
- प्रव्रज्—भ्वा॰ पर॰—प्र-व्रज्—-—निर्वासित होना
- प्रव्रज्—भ्वा॰ पर॰—प्र-व्रज्—-—सांसारिक वासनाओं को छोड़ देना, चौथे आश्रम में प्रविष्ट होना, अर्थात् संन्यासी हो जाना
- व्रजः—पुं॰—-—व्रज् + क—समुच्चय, संग्रह, रेवड़, समूह
- व्रजः—पुं॰—-—व्रज् + क—ग्वालों के रहने का स्थान
- व्रजः—पुं॰—-—व्रज् + क—गोष्ठ, गौशाला
- व्रजः—पुं॰—-—व्रज् + क—आवास, विश्रामस्थल
- व्रजः—पुं॰—-—व्रज् + क—सड़क, मार्ग
- व्रजः—पुं॰—-—व्रज् + क—बादल
- व्रजः—पुं॰—-—व्रज् + क—मथुरा के निकट एक जिला
- व्रजाङ्गना—स्त्री॰—व्रजः-अङ्गना—-—व्रज में रहने वाली स्त्री, ग्वालन
- व्रजयुवतिः—स्त्री॰—व्रजः-युवतिः—-—व्रज में रहने वाली स्त्री, ग्वालन
- व्रजजिरम्—नपुं॰—व्रजः-अजिरम्—-—गोशाला
- व्रजकिशोरः—पुं॰—व्रजः-किशोरः—-—कृष्ण के विशेषण
- व्रजनाथः—पुं॰—व्रजः-नाथः—-—कृष्ण के विशेषण
- व्रजमोहनः—पुं॰—व्रजः-मोहनः—-—कृष्ण के विशेषण
- व्रजवरः—पुं॰—व्रजः-वरः—-—कृष्ण के विशेषण
- व्रजवल्लभः—पुं॰—व्रजः-वल्लभः—-—कृष्ण के विशेषण
- व्रजनम्—नपुं॰—-—व्रज् + ल्युट्—घूमना, फिरना, यात्रा करना
- व्रजनम्—नपुं॰—-—व्रज् + ल्युट्—निर्वासन, देश निकाला
- व्रज्या—स्त्री॰—-—व्रज् + क्यप् + टाप्—साधु या भिक्षु के रूप में इधर-उधर घूमना
- व्रज्या—स्त्री॰—-—व्रज् + क्यप् + टाप्—आक्रमण, हमला, प्रस्थान
- व्रज्या—स्त्री॰—-—व्रज् + क्यप् + टाप्—खेड़, समुदाय, जनजाति या क़बीला, संप्रदाय
- व्रज्या—स्त्री॰—-—व्रज् + क्यप् + टाप्—रंगभूमि, नाट्यशाला
- व्रण्—भ्वा॰ पर॰ <व्रजति>—-—-—ध्वनि करना
- व्रण्—चुरा॰ उभ॰ <व्रणयति>, <व्रणयते>—-—-—चोट पहुँचाना, घायल करना
- व्रणः—पुं॰—-—व्रण् + अच्—घाव, क्षत,ज़ख्म, चोट
- व्रणः—पुं॰—-—व्रण् + अच्—फोड़ा, नासूर
- व्रणम्—नपुं॰—-—-—घाव, क्षत,ज़ख्म, चोट
- व्रणम्—नपुं॰—-—-—फोड़ा, नासूर
- व्रणकृत्—वि॰—व्रणः-कृत्—-—घाव करने वाला
- व्रणकृत्—पुं॰—व्रणः-कृत्—-—ब्भिलावे का पेड़
- व्रणविरोपण—वि॰—व्रणः-विरोपण—-—घाव भरने वाला
- व्रणशोधनम्—नपुं॰—व्रणः-शोधनम्—-—घाव का साफ़ करना तथा पट्टी बाँधना
- व्रणहः—पुं॰—व्रणः-हः—-—एरंड का पौधा
- व्रणित—वि॰—-—व्रण + इतच्—घायल, जिसके खरोंच आ गई हो
- व्रतः—पुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—भक्ति या साधना का धार्मिक कृत्य, प्रतिज्ञात का पालन, प्रतिज्ञा, पण
- व्रतः—पुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—संकल्प, प्रतिज्ञा, दृढ़ निश्यय
- व्रतः—पुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—भक्ति या आस्था का पदार्थ, भक्ति,
- व्रतः—पुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—संस्कार अनुष्ठान, अभ्यास
- व्रतः—पुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—जीवनचर्या, आचरण, चालचलन
- व्रतः—पुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—अध्यादेश, विधि, नियम
- व्रतः—पुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—यज्ञ
- व्रतः—पुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—कर्म, करतब, कार्य
- व्रतम्—नपुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—भक्ति या साधना का धार्मिक कृत्य, प्रतिज्ञात का पालन, प्रतिज्ञा, पण
- व्रतम्—नपुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—संकल्प, प्रतिज्ञा, दृढ़ निश्यय
- व्रतम्—नपुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—भक्ति या आस्था का पदार्थ, भक्ति,
- व्रतम्—नपुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—संस्कार अनुष्ठान, अभ्यास
- व्रतम्—नपुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—जीवनचर्या, आचरण, चालचलन
- व्रतम्—नपुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—अध्यादेश, विधि, नियम
- व्रतम्—नपुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—यज्ञ
- व्रतम्—नपुं॰—-—व्रज् + घ, जस्य तः—कर्म, करतब, कार्य
- व्रताचरणम्—नपुं॰—व्रतः-आचरणम्—-—किसी प्रतिज्ञा का पालन करना
- व्रतादेशः—पुं॰—व्रतः-आदेशः—-—(किसी द्विज के) बालक का यज्ञोपवीत संस्कार
- व्रतोपवासः—पुं॰—व्रतः-उपवासः—-—किसी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए अनशन करना
- व्रतग्रहणम्—नपुं॰—व्रतः-ग्रहणम्—-—किसी धार्मिक अनुष्ठान को पूरा करने के लिए संकल्प लेना
- व्रतचर्यः—पुं॰—व्रतः- चर्यः—-—ब्रह्मचारी, वेदविद्यार्थी
- व्रतचर्या—स्त्री॰—व्रतः-चर्या—-—ब्रह्मचर्य का पालन करना
- व्रतपारणम्—नपुं॰—व्रतः-पारणम्—-—उपवास खोलना या प्रतिज्ञा की सफल समाप्ति
- व्रतपारणा—स्त्री॰—व्रतः-पारणा—-—उपवास खोलना या प्रतिज्ञा की सफल समाप्ति
- व्रतभङ्गः—पुं॰—व्रतः-भङ्गः—-—संकल्प तोड़ना
- व्रतभङ्गः—पुं॰—व्रतः-भङ्गः—-—प्रतिज्ञा तोड़ना
- व्रतभिक्षा—स्त्री॰—व्रतः-भिक्षा—-—उपनयन संस्कार के अवसर पर भिक्षा मांगना
- व्रतलोपनम्—नपुं॰—व्रतः-लोपनम्—-—प्रतिज्ञा को तोड़ना
- व्रतवैकल्पम्—नपुं॰—व्रतः-वैकल्पम्—-—किसी धार्मिक संकल्प का अधूरा रह जाना
- व्रतसंग्रहः—पुं॰—व्रतः-संग्रहः—-—व्रत की दीक्षा लेना
- व्रतस्नातकः—पुं॰—व्रतः-स्नातकः—-—वह ब्राह्मण जिसने ब्रह्मचर्य आश्रम की अवस्था को पूरा कर लिया हैइइ अर्थात् ब्रह्मचर्य नामक प्रथम आश्रम
- व्रतति—स्त्री॰—-—प्र + तन् + क्ति च, पृषो॰ पस्य वः—बेल, लता
- व्रतति—स्त्री॰—-—-—फैलाव, विस्तार
- व्रतती—स्त्री॰—-—-—बेल, लता
- व्रतती—स्त्री॰—-—-—फैलाव, विस्तार
- व्रतिन्—वि॰—-—व्रत + इनि—प्रतिज्ञा पालन करने वाला, भक्त, पुण्यात्मा
- व्रतिन्—पुं॰—-—व्रत + इनि—ब्रह्मचारी
- व्रतिन्—पुं॰—-—व्रत + इनि—संन्यासी, भक्त
- व्रतिन्—पुं॰—-—व्रत + इनि—जो यज्ञ का उपक्रम करता है
- व्रध्नः—पुं॰—-—-—सूर्य
- व्रध्नः—पुं॰—-—-—वृक्ष की जड़
- व्रध्नः—पुं॰—-—-—दिन
- व्रध्नः—पुं॰—-—-—मदार का पौधा
- व्रध्नः—पुं॰—-—-—सीसा
- व्रध्नः—पुं॰—-—-—घोड़ा
- व्रध्नः—पुं॰—-—-—शिव या ब्रह्मा का विशेषण
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—परमात्मा जो निराकार और निर्गुण समझा जाता है
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—स्तुतिपरक सूक्त
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—पुनीत पाठ
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—वेद
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—ईश्वरपरक पावन अक्षर,
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—पुरोहितवर्ग या ब्रह्मण समुदाय
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—ब्राह्मण की शक्ति या ऊर्जा
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—धार्मिक साधना या तपस्या
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—ब्रह्मचर्य, सतीत्व
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—मोक्ष या निर्वाण
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—ब्रह्मज्ञान, अध्यात्मविद्या
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—बेदों का ब्राह्मणभाग
- व्रह्मन्—नपुं॰—-—-—धनदौलत, संपत्ति
- व्रह्मन्—पुं॰—-—-—परमात्मा, ब्रह्मा, पावन त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में प्रथम जिनको संसार की रचना का कार्य सौंपा गया है
- व्रह्मन्—पुं॰—-—-—ब्राह्मण
- व्रह्मन्—पुं॰—-—-—भक्त
- व्रह्मन्—पुं॰—-—-—सोमयाग में नियुक्त चार ऋत्विजों (पुरोहितों) में से एक
- व्रह्मन्—पुं॰—-—-—धर्मज्ञान का ज्ञाता
- व्रह्मन्—पुं॰—-—-—सूर्य
- व्रह्मन्—पुं॰—-—-—प्रतिभा
- व्रह्मन्—पुं॰—-—-—सता प्रजापतियों (मरीचि, अत्रि, अंगिरस्, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और और वसिष्ठ ) का विशेषण
- व्रह्मन्—पुं॰—-—-—बृहस्पति का विशेषण
- व्रह्मन्—पुं॰—-—-—शिव का विशेषण
- व्रश्च्—तुदा॰ पर॰ <वृश्चति>, <वृक्ण्>, प्रेर॰ <व्रश्चयति>, <व्रश्चयते>, इच्छा॰ <विव्रश्चिषति>, <विव्रक्षति>—-—-—काटना, काट डालना, फाड़ना, चीरना
- व्रश्च्—तुदा॰ पर॰ <वृश्चति>, <वृक्ण्>, प्रेर॰ <व्रश्चयति>, <व्रश्चयते>, इच्छा॰ <विव्रश्चिषति>, <विव्रक्षति>—-—-—घायल करना
- व्रश्चनः—पुं॰—-—व्रश्च् + ल्युट्—छोटी आरी
- व्रश्चनः—पुं॰—-—व्रश्च् + ल्युट्—बारीक रेती जिसे सुनार काम में लाते हैं
- व्रश्चनम्—नपुं॰—-—-—काटना, फाड़ना घायल करना
- व्राजिः—स्त्री॰—-—व्रज् + इञ्—हवा का झोंका, तूफानी हवा, झंझावात
- व्रातः—पुं॰—-—वृ + अतच्, पृषो॰ साधुः—समुदाय, रेवड़, समुच्चय
- व्रातम्—नपुं॰—-—-—शारीरिक श्रम, मजदूरी
- व्रातम्—नपुं॰—-—-—दैनिक मजदूरी
- व्रातम्—नपुं॰—-—-—यदा-यदा कार्य में नियुक्ति
- व्रातीन—वि॰—-—व्रातेन जीवति - व्रात् + ख—दैनिक मजदूरी से जीविका चलाने वाला, किराये का मजदूर, बेलदार, झल्ली वाला
- व्रात्यः—पुं॰—-—व्रातात् समूहात् च्यवति-यत्—प्रथम तीन वर्णों में से किसी एक वर्ण का पुरुष जो मुख्य संस्कार या शोधक कृत्यों का अनुष्ठान न करने के कारण पतित हो गया है (जिसका उपनयन संस्कार नहीं हुआ); जातिबहिष्कृत-भवत्या हि व्रात्याघमपतितपाखण्ड परिषत्परित्राणस्नेहः @ गंगा॰ ३७
- व्रात्यः—पुं॰—-—-—नीच पुरुष, अधम पुरुष
- व्रात्यः—पुं॰—-—-—विशेष नीच जाति (शूद्रपिता और क्षत्रिय माता की सन्तान) का पुरुष
- व्रात्यब्रुव—वि॰—व्रात्यः-ब्रुव—-—जो अपने आपको `व्रात्य' कहता है
- व्रात्यस्तोमः—पुं॰—व्रात्यः-स्तोमः—-—उपयुक्त संस्कारों का अनुष्ठान न करने के कारण छीने गये अधिकारों को फिर से प्राप्त करने के लिए किया गया यज्ञ
- व्री—क्र्या॰ पर॰ <व्रिणाति>, <व्रीणाति>—-—-—छांटना, चुनना
- व्री—दिवा॰ आ॰ <व्रीयते>, <व्रीण>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- व्री—दिवा॰ आ॰ <व्रीयते>, <व्रीण>—-—-—चुना जाना
- व्रीड्—दिवा॰ पर॰ <व्रीड्यति>—-—-—लज्जित होना, शर्मिन्दा होना
- व्रीड्—दिवा॰ पर॰ <व्रीड्यति>—-—-—फेंकना, डालना, भेज देना
- व्रीडः—पुं॰—-—व्रीड् + घञ् —लज्जा
- व्रीडः—पुं॰—-—व्रीड् + घञ् —विनय, लज्जाशीलता
- व्रीडा—स्त्री॰—-—व्रीड् + अ + टाप्—लज्जा
- व्रीडा—स्त्री॰—-—व्रीड् + अ + टाप्—विनय, लज्जाशीलता
- व्रीडित—भू॰ क॰ कृ॰—-—व्रीड् + क्त—लज्जित किया गया, शर्मिन्दा, लज्जाशील
- व्रीस्—भ्वा॰ पर॰ <व्रीसति>, चुरा॰ उभ॰ <व्रीसयति>, <व्रीसयते>—-—-—क्षति पहुँचाना, हत्या करना
- ब्रीहिः—पुं॰—-—व्री + हि, किच्च—चावल
- ब्रीहिः—पुं॰—-—व्री + हि, किच्च—चावल का दाना
- ब्रीह्यगारम्—नपुं॰—ब्रीहिः-अगारम्—-—धान्यागार, खत्ती
- ब्रीहिकाञ्चनम्—नपुं॰—ब्रीहिः-काञ्चनम्—-—मसूर की दाल
- ब्रीहिराजिकम्—नपुं॰—ब्रीहिः-राजिकम्—-—चना, कंगू या कांगनी चावल
- व्रुड्—तुदा॰ पर॰ <व्रुडति>,—-—-—ढकना
- व्रुड्—तुदा॰ पर॰ <व्रुडति>,—-—-—इकट्ठा होना
- व्रुड्—तुदा॰ पर॰ <व्रुडति>,—-—-—एकत्र करना, संचय करना
- व्रुड्—तुदा॰ पर॰ <व्रुडति>,—-—-—डूबना, नीचे जाना
- व्रुस्—भ्वा॰ पर॰ , उभ॰—-—-—क्षति पहुँचाना, हत्या करना
- व्रैहेय—वि॰—-—व्रीहि + ढक्—चावलों के योग्य
- व्रैहेय—वि॰—-—व्रीहि + ढक्—चावल के साथ बोया हुआ
- व्रैहेयम्—नपुं॰—-—-—चावल का खेत, वह खेत जिसमें चावल बोये जाने चाहिए
- व्ली—क्र्या॰ पर॰ <व्लिनाति>, प्रेर॰ <व्लेपयति>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- व्ली—क्र्या॰ पर॰ <व्लिनाति>, प्रेर॰ <व्लेपयति>—-—-—भरण-पोषण करना, थामे रखना, निर्वाह करना
- व्ली—क्र्या॰ पर॰ <व्लिनाति>, प्रेर॰ <व्लेपयति>—-—-—छांटना, चुनना
- व्लेक्ष्—चुरा॰ उभ॰ <व्लेक्षयति>, <व्लेक्षयते>—-—-—देखना
- शः—पुं॰—-—शो + ड —काटने वाला, विनाशकर्ता
- शः—पुं॰—-—शो + ड —शस्त्र
- शः—पुं॰—-—शो + ड —शिव
- शम्—नपुं॰—-—-—आनन्द
- शंयु—वि॰—-—शं शुभम् अस्त्यस्य-शम् + युस —प्रसन्न ,समृद्ध
- शंवः—पुं॰—-—शम् + व —प्रसन्न, भाग्यशाली
- शंवः—पुं॰—-—शम् + व —ठीक दिशा में हल चलाना
- शंवः—पुं॰—-—शम् + व —इन्द्र का वज्र
- शंवः—पुं॰—-—शम् + व —मूसल का सिर जो लोहे का बना होता है
- शंस्—भ्वा॰ पर॰ <शंसति>, <शस्त> कर्मवा॰ <शस्यते> —-—-—प्रशंसा करना, स्तुति करना, अनुमोदन करना
- शंस्—भ्वा॰ पर॰ <शंसति>, <शस्त> कर्मवा॰ <शस्यते> —-—-—कहना, बयान करना, अभिव्यक्त करना, प्रकथन करना, संसूचित करना, घोषणा करना, विवरण देना (
- शंस्—भ्वा॰ पर॰ <शंसति>, <शस्त> कर्मवा॰ <शस्यते> —-—-—संकेत करना,कह रखना,जताना
- शंस्—भ्वा॰ पर॰ <शंसति>, <शस्त> कर्मवा॰ <शस्यते> —-—-—आवृत्ति करना,पाठ करना
- शंस्—भ्वा॰ पर॰ <शंसति>, <शस्त> कर्मवा॰ <शस्यते> —-—-—चोट मारना, क्षति पहुँचाना
- शंस्—भ्वा॰ पर॰ <शंसति>, <शस्त> कर्मवा॰ <शस्यते> —-—-—बुरा भला कहना, बदनाम करना
- अभिशंस्—भ्वा॰ पर॰—अभि-शंस्—-—अभिशाप देना
- अभिशंस्—भ्वा॰ पर॰—अभि-शंस्—-—दोषारोपण करना, निन्दा करना, बदनाम करना
- अभिशंस्—भ्वा॰ पर॰—अभि-शंस्—-—प्रशंसा करना,
- आशंस् —भ्वा॰ पर॰—आ-शंस् —-—आशा करना, प्रत्याशा करना, इच्छा करना,अभिलाषा करना
- आशंस् —भ्वा॰ पर॰—आ-शंस् —-—आशीर्वाद देना, सदिच्छा प्रकट करना, मंगलकामना करना
- आशंस् —भ्वा॰ पर॰—आ-शंस् —-—कहना, वर्णन करना
- आशंस् —भ्वा॰ पर॰—आ-शंस् —-—प्रशंसा करना
- आशंस् —भ्वा॰ पर॰—आ-शंस् —-—दोहरना
- प्रशंस्—भ्वा॰ पर॰—प्र-शंस्—-—सराहना, स्तुति करना, अनुमोदन करना, गुण-कथन करना, श्लाघा करना
- शंसनम्—नपुं॰—-—शंस् + ल्युट्—प्रशंसा करना,
- शंसनम्—नपुं॰—-—शंस् + ल्युट्—कहना, वर्णन करना
- शंसनम्—नपुं॰—-—शंस् + ल्युट्—पाठ करना
- शंसा—स्त्री॰—-—शंस् + अ + टाप्—श्लाघा
- शंसा—स्त्री॰—-—शंस् + अ + टाप्—अभिलाषा, इच्छा, आशा
- शंसा—स्त्री॰—-—शंस् + अ + टाप्—दोहराना, वर्णन करना
- शंसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शंस् + क्त—जिसकी श्लाघा की गई हो, स्तुति की गई हो
- शंसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शंस् + क्त—बोला गया, कहा गया, उक्त, घोषित
- शंसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शंस् + क्त—अभिलषित, इच्छित
- शंसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शंस् + क्त—निश्चय किया गया, स्थापित, निर्धारित
- शंसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शंस् + क्त—जिस पर मिथ्या दोषारोपण किया गया हो, कलंकित।
- शंसिन्—वि॰—-—शंस् + इनि—श्लाघा करने वाला
- शंसिन्—वि॰—-—शंस् + इनि—कहने वाला, घोषणा करने वाला, संसूचित करने वाला
- शंसिन्—वि॰—-—शंस् + इनि—संकेत करने वाला, पहले से कह रखने वाला
- शंसिन्—वि॰—-—शंस् + इनि—शकुन बताने वाला, भविष्य कथन करने वाला
- शक् —स्वा॰ पर॰ <शक्नोति>, <शक्त>—-—-—योग्य होना, सक्षम होना, सबल होना, अमल में लाना
- शक् —स्वा॰ पर॰ <शक्नोति>, <शक्त>—-—-—सहन करना, बर्दाश्त करना
- शक् —स्वा॰ पर॰ <शक्नोति>, <शक्त>—-—-—शक्तिशाली होना,
- शक् —कर्मवा॰—-—-—समर्थ होना, सम्भव होना, व्यवहार के योग्य होना
- शक् —इच्छा॰ <शिक्षति>—-—-—समर्थ होने की इच्छा करना
- शक् —इच्छा॰ <शिक्षति>—-—-—सीखना
- शक् —दिवा॰ उभ॰ <शक्यति>, <शक्यते>, <शक्त>—-—-—समर्थ होना, अमल में लाने की शक्ति रखना
- शक् —दिवा॰ उभ॰ <शक्यति>, <शक्यते>, <शक्त>—-—-—सहन करना,बर्दाश्त करना
- शकः—पुं॰—-—शक् + अच्—एक राजा
- शकः—पुं॰—-—शक् + अच्—काल, सम्वत्
- शकाः—पुं॰ ब॰ व॰—-—-—एक देश का नाम
- शकाः—पुं॰ ब॰ व॰—-—-—एक विशेष जन-जाति या राष्ट्र का नाम
- शकान्तकः—पुं॰—शक-अन्तकः—-—राजा विक्रमादित्य के विशेषण जिसने शकों क उन्मूलन किया
- शकारिः—पुं॰—शक-अरिः—-—राजा विक्रमादित्य के विशेषण जिसने शकों क उन्मूलन किया
- शकाब्दः—पुं॰—शक-अब्दः—-—शकसंवत् का वर्ष,
- शककर्तृ—पुं॰—शक-कर्तृ—-—संवत् का प्रवर्तक
- शककृत्—पुं॰—शक-कृत्—-—संवत् का प्रवर्तक
- शकटः—पुं॰—-—शक् + अटन्—गाडी,छकडा,भार ढोने की गाड़ी
- शकटम्—नपुं॰—-—शक् + अटन्—गाडी,छकडा,भार ढोने की गाड़ी
- शकटः—पुं॰—-—-—सैनिक व्यूह विशेषण
- शकटः—पुं॰—-—-—एक विशेष प्रकार की तोल जो एक गाडी-भर बोझ या २००० पल के बराबर है
- शकटः—पुं॰—-—-—एक राक्षस का नाम जिसे कृष्ण ने अपने बचपन में ही मार डाला था
- शकटः—पुं॰—-—-—तिनिश नामक पेड़
- शकटारिः—पुं॰—शकट-अरिः—-—कृष्ण के विशेषण
- शकटहन्—पुं॰—शकट-हन्—-—कृष्ण के विशेषण
- शकटाह्वा—स्त्री॰—शकट-आह्वा—-—रोहिणी नामक नक्षत्र (इसका आकार ’शकट’ जैसा होता है)
- शकटबिलः—पुं॰—शकट-बिलः—-—जलकुक्कुट
- शकटिका—स्त्री॰—-—शकट + ङीष् + कन् + टाप्, ह्र्स्वः—छोटी गाड़ी, खिलौना गाड़ी
- शकन्—नपुं॰—-—-—मल, विष्ठा, विशेषकर जानवरों का मल, लीद गोबर आदि
- शकलः—पुं॰—-—शक् + कलक्—भाग, अंश, हिस्सा, टुकडा, खण्ड
- शकलः—पुं॰—-—शक् + कलक्—बक्कल,छिलका
- शकलः—पुं॰—-—शक् + कलक्—(मछली की) खाल,परत
- शकलित—वि॰—-—शकल + इतच्—खण्ड-खण्ड किया हुआ, टुकड़े-टुकड़े किया हुआ
- शकलिन्—वि॰—-—शकल + इनि—मछली
- शकारः—पुं॰—-—-—राजा की रखैल का भाई, राजा की उस पत्नी का भाई जिससे विधिपूर्वक विवाह ना किया गया हो, अनूढा भ्राता
- शकुनः—पुं॰—-—शक् + उनन्—पक्षी
- शकुनः—पुं॰—-—शक् + उनन्—पक्षिविशेष, चील, गिद्ध
- शकुनम्—नपुं॰—-—-—सगुन, लक्षण, शुभाशुभ बतलाने वाला चिह्न
- शकुनम्—नपुं॰—-—-—शंकासूचक सगुन ।
- शकुनज्ञ—वि॰—शकुनः-ज्ञ—-—सगुनों को जानने वाला
- शकुनज्ञानम्—नपुं॰—शकुनः-ज्ञानम्—-—सगुनों का ज्ञान, भवितव्यता, होनहार
- शकुनशास्त्रम्—नपुं॰—शकुनः-शास्त्रम्—-—वह शास्त्र जिसमें सगुनसम्बन्धी विचार किये गये हैं, सगुन शास्त्र ।
- शकुनिः—पुं॰—-—शक् + उनि—पक्षी
- शकुनिः—पुं॰—-—शक् + उनि—गिद्ध, चील, बाज
- शकुनिः—पुं॰—-—शक् + उनि—मुर्गा
- शकुनिः—पुं॰—-—शक् + उनि—गांधारराज सुबल का एक पुत्र, धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी का भाई, इस प्रकार यह दुर्योधन का मामा था
- शकुनीश्वरः—पुं॰—शकुनि-ईश्वरः—-—गरुड़
- शकुनिप्रपा—पुं॰—शकुनि- प्रपा—-—पक्षियों को पानी पिलाने की कूँड
- शकुनिवादः—पुं॰—शकुनि-वादः—-—पक्षी की कूजन
- शकुनिवादः—पुं॰—शकुनि-वादः—-—मुर्गे की बाँग
- शकुनी—स्त्री॰—-—शकुन + ङीष्—चिड़िया, गोरैया
- शकुनी—स्त्री॰—-—शकुन + ङीष्—एक पक्षिविशेष
- शकुन्तः—पुं॰—-—शक् + उन्त—एक पक्षी
- शकुन्तः—पुं॰—-—शक् + उन्त—नीलकण्ठ पक्षी
- शकुन्तः—पुं॰—-—शक् + उन्त—पक्षिविशेष
- शकुन्तकः—पुं॰—-—शकुन्त + कन्—पक्षी
- शकुन्तला—स्त्री॰—-—शकु्न्तैः लायते- ला घञर्थे क + टाप्—विश्वामित्र ऋषि की तपस्या भंग करने के लिए इन्द्र द्वारा भेजी गई मेनका अप्सरा से उत्पन्न विश्वामित्र की पुत्री
- शकुन्तिः—पुं॰—-—शक् + उन्ति—पक्षी
- शकुन्तिका—स्त्री॰—-—शकुन्ति + कन् + टाप्—पक्षी
- शकुन्तिका—स्त्री॰—-—शकुन्ति + कन् + टाप्—पक्षिविशेष
- शकुन्तिका—स्त्री॰—-—शकुन्ति + कन् + टाप्—टिड्डी, झींगुर
- शकुलः—पुं॰—-—शक् + उलच्—एक प्रकार की मछली
- शकुली—स्त्री॰—-—शक् + उलच्—एक प्रकार की मछली
- शकुलादनी—स्त्री॰—शकुल-अदनी—-—एक जडीबूटी, कटकी या कुटकी
- शकुलार्भकः—पुं॰—शकुल-अर्भकः—-—एक प्रकार की मछली
- शकृत्—नपुं॰—-—शक् + ऋतन्—मल, विष्ठा, विशेषकर जानवरों की लीद,गोबर आदि ।
- शकृत्करिः—पुं॰ —शकृत्-करिः—-—बछड़ा
- शकृत्करिः—स्त्री॰—शकृत्-करिः—-—बछड़ा
- शकृत्करी—स्त्री॰—शकृत्-करी—-—बछड़ा
- शकृद्द्वारम्—नपुं॰—शकृत्-द्वारम्—-—गुदा, मलद्वार
- शकृत्पिण्डः—पुं॰ —शकृत्-पिण्डः—-—गोबर का गोला
- शकृत्पिण्डकः—पुं॰ —शकृत्- पिण्डकः—-—गोबर का गोला
- शक्करः —पुं॰ —-—शक् + क्विप् —बैल सांड़
- शक्करिः—पुं॰ —-—कृ + अच् कर्म॰ स॰—बैल सांड़
- शक्करी—स्त्री॰—-—शक्कर + ङीष्—नदी
- शक्करी—स्त्री॰—-—शक्कर + ङीष्—करधनी, मेखला,
- शक्करी—स्त्री॰—-—शक्कर + ङीष्—नीच जाति की स्त्री ।
- शक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शक् + क्त—योग्य, सक्षम, समर्थ
- शक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शक् + क्त—मजबूत, ताक़तवर, शक्तिशाली
- शक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शक् + क्त—धनाढय, समृद्धिशाली
- शक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शक् + क्त—सार्थक, अभिव्यञ्जक (शब्द)
- शक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शक् + क्त—चतुर, प्रज्ञावान्
- शक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शक् + क्त—प्रियवादी ।
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शक् + क्तिन्—बल, योग्यता, धारिता, सामर्थ्य, ऊर्जा, पराक्रम
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शक् + क्तिन्—रचनाशक्ति, काव्य शक्ति या प्रतिभा
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शक् + क्तिन्—देव की सक्रिय शक्ति, यह शक्ति देवपत्नी मानी जाती है, देवी, दिव्यता
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शक् + क्तिन्—एक प्रकार का अस्त्र
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शक् + क्तिन्—बर्छी, नेज़ा, शूल, भाला
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शक् + क्तिन्—किसी पदार्थ का उसके बोधक शब्द से सम्बन्ध
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शक् + क्तिन्—कारण की अन्तर्निहित शक्ति जिससे कार्य की उत्पत्ति होती है
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शक् + क्तिन्—(काव्य॰ में) शब्दशक्ति या शब्द की अर्थशक्ति
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शक् + क्तिन्—अभिधाशक्ति, शब्दसङ्केत
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शक् + क्तिन्—स्त्री की जननेन्द्रिय, भग, शाक्तसंप्रदाय के अनुयाइयों द्वारा पूजित शिवलिङ्ग की मूर्ति ।
- शक्त्यर्धः—पुं॰ —शक्तिः-अर्धः—-—उद्योग तथा श्रम के फ़लस्वरूप हांपना तथा शरीर का पसीने से तर होना
- शक्त्यपेक्ष—वि॰—शक्तिः- अपेक्ष—-—सामर्थ्य का ध्यान रखने वाला
- शक्त्यपेक्षिन्—वि॰—शक्तिः- अपेक्षिन्—-—सामर्थ्य का ध्यान रखने वाला
- शक्तिकुण्ठनम्—नपुं॰—शक्तिः-कुण्ठनम्—-—शक्ति को कुण्ठित करना
- शक्तिग्रह—वि॰—शक्तिः-ग्रह—-—बल या अर्थ को धारण करने वाला
- शक्तिग्रह—वि॰—शक्तिः-ग्रह—-—बर्छीधारी
- शक्तिग्रहः—पुं॰ —शक्तिः-ग्रहः—-—बल या अर्थ का बोध अथवा शब्दशक्ति का ज्ञान
- शक्तिग्रहः—पुं॰ —शक्तिः-ग्रहः—-—बर्छीधारी, भालाधारी
- शक्तिग्रहः—पुं॰ —शक्तिः-ग्रहः—-—शिव का विशेषण
- शक्तिग्रहः—पुं॰ —शक्तिः-ग्रहः—-—कार्तिकेय का विशेषण
- शक्तिग्राहक—वि॰—शक्तिः- ग्राहक—-—शब्द के अर्थ की स्थापना या निर्धारण करने वाला
- शक्तिग्राहकः—पुं॰ —शक्तिः- ग्राहकः—-—कार्तिकेय का विशेषण
- शक्तित्रयम्—नपुं॰—शक्तिः-त्रयम्—-—राज्यशक्ति के संघटक तीन तत्त्व
- शक्तिधर—वि॰—शक्तिः-धर—-—मज़बूत, शक्तिशाली
- शक्तिधरः—पुं॰ —शक्तिः-धरः—-—बर्छीधारी
- शक्तिधरः—पुं॰ —शक्तिः-धरः—-—कार्तिकेय का विशेषण
- शक्तिपाणिः—पुं॰—शक्तिः-पाणिः—-—बर्छीधारी
- शक्तिपाणिः—पुं॰—शक्तिः-पाणिः—-—कार्तिकेय का विशेषण
- शक्तिभृत्—पुं॰—शक्तिः-भृत्—-—बर्छीधारी
- शक्तिभृत्—पुं॰—शक्तिः-भृत्—-—कार्तिकेय का विशेषण
- शक्तिपातः—पुं॰ —शक्तिः-पातः—-—शक्तिक्षय, पराजय
- शक्तिपूजकः—पुं॰ —शक्तिः-पूजकः—-—शाक्त
- शक्तिपूजा—स्त्री॰—शक्तिः-पूजा—-—शक्ति की पूजा
- शक्तिवैकल्यम्—नपुं॰—शक्तिः-वैकल्यम्—-—शक्तिक्षय, दुर्बलता, अक्षमता
- शक्तिहीन—वि॰—शक्तिः-हीन—-—शक्तिहीन, निर्बल, बलरहित,नपुंसक,
- शक्तिहेतिकः—पुं॰ —शक्तिः-हेतिकः—-—भालाधारी, बर्छीधारी
- शक्तितः—अव्य॰—-—शक्ति + तसिल्—शक्ति के अनुसार, यथायोग्य, यथाशक्ति
- शक्न—वि॰—-—शक् + न—मिष्टभाषी, प्रियवादी
- शक्ल—वि॰—-—शक् + क्ल —मिष्टभाषी, प्रियवादी
- शक्य—सं॰ कृ॰—-—शक् + यत्—संभव, क्रियात्मक, किये जाने के योग्य
- शक्य—सं॰ कृ॰—-—शक् + यत्—कार्यान्वयन के योग्य
- शक्य—सं॰ कृ॰—-—शक् + यत्—कार्यान्वयन में सरल
- शक्य—सं॰ कृ॰—-—शक् + यत्—प्रत्यक्ष कहा गया, अभिहित ( शब्दार्थ आदि)
- शक्य—सं॰ कृ॰—-—शक् + यत्—संभाव्य
- शक्यार्थः—पुं॰ —शक्य-अर्थः—-—प्रत्यक्ष अभिहितार्थ
- शक्रः—पुं॰ —-—शक् + रक्—इन्द्र
- शक्रः—पुं॰ —-—शक् + रक्—अर्जुन का वृक्ष
- शक्रः—पुं॰ —-—शक् + रक्—कुटज का पेड़
- शक्रः—पुं॰ —-—शक् + रक्—उल्लू
- शक्रः—पुं॰ —-—शक् + रक्—ज्येष्ठा नक्षत्र
- शक्रः—पुं॰ —-—शक् + रक्—चौदह की संख्या
- शक्राशनः—पुं॰ —शक्रः-अशनः—-—कुटज का वृक्ष
- शक्राख्यः—पुं॰ —शक्रः-आख्यः—-—उल्लू
- शक्रात्मजः—पुं॰ —शक्रः-आत्मजः—-—इन्द्र का पुत्र जयन्त
- शक्रात्मजः—पुं॰ —शक्रः-आत्मजः—-—अर्जुन
- शक्रोत्थानम्—नपुं॰—शक्रः-उत्थानम्—-—भाद्रपदशुक्ला द्वादशी को इन्द्र के सम्मान में मनाया जाने वाला उत्सव, पर्व
- शक्रोत्सवः—पुं॰ —शक्रः-उत्सवः—-—भाद्रपदशुक्ला द्वादशी को इन्द्र के सम्मान में मनाया जाने वाला उत्सव, पर्व
- शक्रगोपः—पुं॰ —शक्रः-गोपः—-—एक प्रकार का लाल कीडा़
- शक्रजः—पुं॰ —शक्रः-जः—-—कौवा
- शक्रजातः—पुं॰ —शक्रः-जातः—-—कौवा
- शक्रजित्—पुं॰—शक्रः-जित्—-—रावण के पुत्र मेघनाद के विशेषण
- शक्रभिद्—पुं॰—शक्रः-भिद्—-—रावण के पुत्र मेघनाद के विशेषण
- शक्रद्रुमः—पुं॰ —शक्रः-द्रुमः—-—देवदारु का वृक्ष
- शक्रधनुस्—नपुं॰—शक्रः-धनुस्—-—इन्द्रधनुष
- शक्रशरासनम्—नपुं॰—शक्रः-शरासनम्—-—इन्द्रधनुष
- शक्रध्वजः—पुं॰ —शक्रः-ध्वजः—-—इन्द्र के सम्मान में स्थापित झंडा
- शक्रपर्यायः—पुं॰ —शक्रः-पर्यायः—-—कुटज का वृक्ष
- शक्रपादपः—पुं॰ —शक्रः-पादपः—-—कुटज का पेड़
- शक्रपादपः—पुं॰ —शक्रः-पादपः—-—देवदारु वृक्ष
- शक्रप्रस्थ—वि॰—शक्रः-प्रस्थ—-—इन्द्रप्रस्थ
- शक्रभवनम्—नपुं॰—शक्रः-भवनम्—-—स्वर्ग, वैकुण्ठ
- शक्रभुवनम्—नपुं॰—शक्रः-भुवनम्—-—स्वर्ग, वैकुण्ठ
- शक्रवासः—पुं॰ —शक्रः-वासः—-—स्वर्ग, वैकुण्ठ
- शक्रमूर्धन्—नपुं॰—शक्रः-मूर्धन्—-—बांबी,वल्मीक
- शक्रशिरस्—नपुं॰—शक्रः-शिरस्—-—बांबी,वल्मीक
- शक्रलोकः—पुं॰ —शक्रः-लोकः—-—इन्द्र का संसार
- शक्रवाहनम्—नपुं॰—शक्रः-वाहनम्—-—बादल
- शक्रशाखिन्—पुं॰—शक्रः-शाखिन्—-—कुटज का वृक्ष
- शक्रसारथिः—पुं॰—शक्रः-सारथिः—-—इन्द्र का रथवान्, मातलि का विशेषण,
- शक्रसुतः—पुं॰—शक्रः-सुतः—-—जयंत का विशेषण
- शक्रसुतः—पुं॰—शक्रः-सुतः—-—अर्जुन का विशेशण
- शक्रसुतः—पुं॰—शक्रः-सुतः—-—वालि का विशेषण
- शक्राणी—स्त्री॰—-—शक्र + ङीष, आनुक्—इन्द्र की पत्नी, शची
- शक्रिः—पुं॰—-—शक् + क्रिन्—बादल
- शक्रिः—पुं॰—-—शक् + क्रिन्—इन्द्र का वज्र
- शक्रिः—पुं॰—-—शक् + क्रिन्—पहाड़
- शक्रिः—पुं॰—-—शक् + क्रिन्—हाथी
- शक्वरः—पुं॰—-—शक्+वन् , र—साँड, बैल
- शङ्क्—भ्वा॰ आ॰ <शङ्कते>, <शङ्कित>—-—-—संदेह करना, अनिश्चित होना, संकोच करना, संदिग्ध होना
- शङ्क्—भ्वा॰ आ॰ <शङ्कते>, <शङ्कित>—-—-—डरना, भय होना, त्रस्त होना
- शङ्क्—भ्वा॰ आ॰ <शङ्कते>, <शङ्कित>—-—-—शंका करना, अविश्वास करना, भरोसा न करना
- शङ्क्—भ्वा॰ आ॰ <शङ्कते>, <शङ्कित>—-—-—सोचना, विश्वास करना, उत्प्रेक्षा करना, कल्पना करना, संभव समझना, शंका करना, डरना
- शङ्क्—भ्वा॰ आ॰ <शङ्कते>, <शङ्कित>—-—-—आक्षेप करना, अपनी शंका या ऐतराज उठाना
- अभिशङ्क्—भ्वा॰ आ॰—अभि-शङ्क्—-—शंका करना
- अभिशङ्क—भ्वा॰ आ॰—अभि-शङ्क्—-—संदिग्ध या अनिश्चयी होना
- आशङ्क्—भ्वा॰ आ॰—आ-शङ्क्—-—शङ्का करना, भरोसा न करना, संदेह रखना
- आशङ्क्—भ्वा॰ आ॰—आ-शङ्क्—-—संदेह करना, विश्वास करना, सोचना
- आशङ्क्—भ्वा॰ आ॰—आ-शङ्क्—-—डरना, आशंका करना
- आशङ्क्—भ्वा॰ आ॰—आ-शङ्क्—-—आक्षेप करना, संदेह करना -
- परिशङ्क्—भ्वा॰ आ॰—परि-शङ्क्—-—शंका करना, विश्वास करना, उत्प्रेक्षा करना
- परिशङ्क्—भ्वा॰ आ॰—परि-शङ्क्—-—संदेह करना, संदेहशील होना
- परिशङ्क्—भ्वा॰ आ॰—परि-शङ्क्—-—डरना, भयभीत होना
- विशङ्क्—भ्वा॰ आ॰—वि-शङ्क्—-—शंका करना, डरना, संदेहशील या शंकालु होना
- विशङ्क्—भ्वा॰ आ॰—वि-शङ्क्—-—सत्ता का चिन्तन करना, उत्प्रेक्षा करना, कल्पना करना
- शङ्कः—पुं॰—-—शङ्क + अच्—कर्षक बैल, (गाड़ी) खींचने वाला बैल ।
- शङ्कर—वि॰—-—शं सुखं करोति - कृ + अच्—आनन्द या समृद्धि देने वाला, शुभ, मङ्गलमय
- शङ्करः—पुं॰—-—-—शिव
- शङ्करः—पुं॰—-—-—विख्यात आचार्य और ग्रन्थप्रणेता शंकराचार्य
- शङ्करी—स्त्री॰—-—-—शिव की पत्नी पार्वती
- शङ्करी—स्त्री॰—-—-—मंजिष्ठा, मजीठ
- शङ्करी—स्त्री॰—-—-—शमीवृक्ष
- शङ्का—स्त्री॰—-—शङ्क् + अ + टाप्—संदेह, अनिश्चितता
- शङ्का—स्त्री॰—-—शङ्क् + अ + टाप्—संकल्प-विकल्प, दुविधा
- शङ्का—स्त्री॰—-—शङ्क् + अ + टाप्—आशंका, अविश्वास, अनिष्टशंका, अपायशंका, अरिष्टस्कंका आदि
- शङ्का—स्त्री॰—-—शङ्क् + अ + टाप्—डर, आशंका, त्रास, आतंक
- शङ्का—स्त्री॰—-—शङ्क् + अ + टाप्—आशा, प्रत्याशा
- शङ्का—स्त्री॰—-—शङ्क् + अ + टाप्—(भ्रान्त) विश्वास, आश्ंका, (मिथ्या) धारणा
- शङ्कित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शङ्क् + क्त—सन्दिग्ध, आशंकायुक्त, त्रस्त
- शङ्कित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शङ्क् + क्त—शंकालु, आशंका करने वाला, अविश्वासपूर्ण
- शङ्कित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शङ्क् + क्त—अनिश्चित, संदिग्ध
- शङ्कित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शङ्क् + क्त—भयपूर्ण, सशंक, आतंकित
- शङ्कितचित्त—वि॰—शङ्कित-चित्त—-—भीरु, कातरह्रदय
- शङ्कितचित्त—वि॰—शङ्कित-चित्त—-—शंकाकुल, अविश्वासपूर्ण
- शङ्कितचित्त—वि॰—शङ्कित-चित्त—-—संदिग्ध ।
- शङ्कितमनस्—वि॰—शङ्कित-मनस्—-—भीरु, कातरह्रदय
- शङ्कितमनस्—वि॰—शङ्कित-मनस्—-—शंकाकुल, अविश्वासपूर्ण
- शङ्कितमनस्—वि॰—शङ्कित-मनस्—-—संदिग्ध
- शङ्किन्—वि॰—-—शङ्का + इनि—सन्देह करने वाला, शंका करने वाला, डरने वाला, विश्वास करने वाला
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—नेज़ा, बर्छी, नुकीली कील, शक्ति, कटार
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—खूँटा, खम्बा, स्तम्भ, शूल या नोकदार छ्ड़
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—कील, मेख, खूँटी
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—बाण की तीखी नोक, काँटा या आँकड़ा
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—(कटे हुए वृक्ष का) तना,पेड़ का ठूँठ, मुंडा पेड़
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—घड़ी की सुई
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—बारह अंगुल की माप
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—गज, मापने का डंडा
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—लंबरेखा या ऊँचाई
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—सौ खरब या एक नील की संख्या
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—पत्तों के रेशे
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—वल्मीक, बमी
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—पुरुष की जननेन्द्रिय
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—एक प्रकार की मछली, तनुका
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—राक्षस
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—विष
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—पाप
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—जलचर, विशेषकर कलहंस
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—शिव
- शङ्कुः—पुं॰—-—शङ्क् + उण्—साल का पेड़
- शङ्कु्कर्ण—वि॰—शङ्कु्ः-कर्ण—-—जिसके कान शंकु के समान लंबे और नुकीले हों
- शङ्कुकर्णः—पुं॰—शङ्कु-कर्णः—-—गधा
- शङ्कुतरुः—पुं॰—शङ्कु-तरुः—-—साल का एक पेड़
- शङ्कुवृक्षः—पुं॰—शङ्कु-वृक्षः—-—साल का एक पेड़
- शङ्कुला—स्त्री॰—-—शङ्क् + उलच्—एक प्रकार का चाकू या दो धार वाला नश्तर
- शङ्कुला—स्त्री॰—-—शङ्क् + उलच्—सरौता
- शङ्कुलाखण्डः—पुं॰—शङ्कुला-खण्डः—-—सरौते से काटा हुआ टुकड़ा
- शङ्खः—पुं॰—-—शम् + ख—शंख, घोंघा
- शङ्खः—पुं॰—-—शम् + ख—मस्तक की हड्डी,
- शङ्खः—पुं॰—-—शम् + ख—कनपटी की हड्डी
- शङ्खः—पुं॰—-—शम् + ख—हाथी के दोनों दाँतों के बीच का भाग
- शङ्खः—पुं॰—-—शम् + ख—दस नील की संख्या
- शङ्खः—पुं॰—-—शम् + ख—सैनिक ढोल या मारूबाजा
- शङ्खः—पुं॰—-—शम् + ख—एक प्रकार का गन्धद्रव्य, नखी
- शङ्खः—पुं॰—-—शम् + ख—कुबेर की नवनिधियों में से एक
- शङ्खः—पुं॰—-—शम् + ख—एक राक्षस जिसको विष्णु ने मार डाला था
- शङ्खः—पुं॰—-—शम् + ख—एक स्मृतिकार
- शङ्खम् —नपुं॰—-—-—शंख, घोंघा
- शङ्खम् —नपुं॰—-—-—मस्तक की हड्डी,
- शङ्खम् —नपुं॰—-—-—कनपटी की हड्डी
- शङ्खम् —नपुं॰—-—-—हाथी के दोनों दाँतों के बीच का भाग
- शङ्खम् —नपुं॰—-—-—दस नील की संख्या
- शङ्खम् —नपुं॰—-—-—सैनिक ढोल या मारूबाजा
- शङ्खम् —नपुं॰—-—-—एक प्रकार का गन्धद्रव्य, नखी
- शङ्खम् —नपुं॰—-—-—कुबेर की नवनिधियों में से एक
- शङ्खम् —नपुं॰—-—-—एक राक्षस जिसको विष्णु ने मार डाला था
- शङ्खम् —नपुं॰—-—-—एक स्मृतिकार
- शङ्खोदकम्—नपुं॰—शङ्खः- उदकम्—-—शंख में डाला हुआ पानी
- शङ्खकारः—पुं॰—शङ्खः- कारः—-—शंखकार नाम की एक वर्णसंकर जाति
- शङ्खकारकः—पुं॰—शङ्खः- कारकः—-—शंखकार नाम की एक वर्णसंकर जाति
- शङ्खचरी—स्त्री॰—शङ्खः- चरी—-—(मस्तक पर लगाया गया) चन्दन का तिलक
- शङ्खचर्ची—स्त्री॰—शङ्खः- चर्ची—-—(मस्तक पर लगाया गया) चन्दन का तिलक
- शङ्खचूर्णम्—नपुं॰—शङ्खः- चूर्णम्—-—शंख को पीसकर बनाया गया चूरा
- शङ्खद्रावः—पुं॰—शङ्खः- द्रावः—-—एक प्रकार का घोल जिसमें शंख भी घुल जाता हैं
- शङ्खद्रावकः—पुं॰—शङ्खः- द्रावकः—-—एक प्रकार का घोल जिसमें शंख भी घुल जाता हैं
- शङ्खध्मः— पुं॰ —शङ्खः- ध्मः—-—शंख बजाने वाला
- शङ्खध्मा— पुं॰ —शङ्खः- ध्मा—-—शंख बजाने वाला
- शङ्खध्वनिः—पुं॰—शङ्खः- ध्वनिः—-—शंख की आवाज
- शङ्खप्रस्थः—पुं॰—शङ्खः- प्रस्थः—-—चन्द्रमा का कलंक
- शङ्खभृत्—पुं॰—शङ्खः- भृत्—-—विष्णु का विशेषण
- शङ्खमुखः—पुं॰—शङ्खः- मुखः—-—घड़ियाल, मगर
- शङ्खस्वनः—पुं॰—शङ्खः- स्वनः—-—शंखध्वनि
- शङ्खकः—पुं॰—-—शंख + कन्—शंख
- शङ्खकः—पुं॰—-—शंख + कन्—कनपटी की हड्डी
- शङ्खकम्—नपुं॰—-—शंख + कन्—शंख
- शङ्खकम्—नपुं॰—-—शंख + कन्—कनपटी की हड्डी
- शङ्खकः—पुं॰—-—-—(शङ्ख का बना) कड़ा
- शङ्खनकः —पुं॰—-—-—एक छोटा शंख या घोंघा
- शङ्खनखः—पुं॰—-—-—एक छोटा शंख या घोंघा
- शङ्खिन्—पुं॰—-—शङ्ख + इनि—समुद्र
- शङ्खिन्—पुं॰—-—शङ्ख + इनि—विष्णु
- शङ्खिन्—पुं॰—-—शङ्ख + इनि—शंख बजाने वाला
- शङ्खिनी—स्त्री॰—-—शङ्खिन् + ङीप्—काम शास्त्र के लेखकों के अनुसार स्त्रियों के किये गये चार भेदों में से एक
- शङ्खिनी—स्त्री॰—-—शङ्खिन् + ङीप्—प्रेतात्मा, अप्सरा, परी
- शच्—भ्वा॰ आ॰ <शचते>—-—-—बोलना, कहना, बतलाना
- शचिः —स्त्री॰—-—शच् + इन् —इन्द्र की पत्नी
- शची —स्त्री॰—-—शचि + ङीष्—इन्द्र की पत्नी
- शचीपतिः—पुं॰—शची-पतिः—-—इन्द्र के विशेषण
- शचीभर्तृ—पुं॰—शची-भर्तृ—-—इन्द्र के विशेषण
- शञ्च्—भ्वा॰ आ॰ <शञ्चते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- शट्—भ्वा॰ पर॰ <शटति>—-—-—बीमार होना
- शट्—भ्वा॰ पर॰ <शटति>—-—-—बांटना, वियुक्त होना
- शट—वि॰—-—शट् + अच्—खट्टा, अम्ल, कसैला
- शटा—स्त्री॰—-—शट् + टाप्—संन्यासी के उलझे बाल
- शटिः—स्त्री॰—-—शट् + इन्—कचूर का पौधा, आमा हल्दी
- शठ् —भ्वा॰ पर॰ <शठति>—-—-—धोखा देना,ठगना, जालसाजी करना
- शठ् —भ्वा॰ पर॰ <शठति>—-—-—चोट मारना, मार डालना
- शठ् —भ्वा॰ पर॰ <शठति>—-—-—कष्ट उठाना
- शठ् —चुरा॰ पर॰ <शाठयति>—-—-—समाप्त करना
- शठ् —चुरा॰ पर॰ <शाठयति>—-—-—असमाप्त छोड़ देना
- शठ् —चुरा॰ पर॰ <शाठयति>—-—-—जाना,हिलना-जुलना
- शठ् —चुरा॰ पर॰ <शाठयति>—-—-—आलसी या सुस्त होना
- शठ् —चुरा॰ पर॰ <शाठयति>—-—-—धोखा देना, ठगना
- शठ—वि॰—-—शठ् + अच्—चालाक, धोखेबाज, जालसाज, बेईमान, कपटी
- शठ—वि॰—-—शठ् + अच्—दुष्ट, दुर्वृत्त,
- शठः—पुं॰—-—-—बदमाश, ठग, धूर्त, मक्कार
- शठः—पुं॰—-—-—झूठा या धोखेबाज प्रेमी
- शठः—पुं॰—-—-—मूढ, बुद्धू
- शठः—पुं॰—-—-—मध्यस्त, बिवाचक
- शठः—पुं॰—-—-—धतूरे का पौधा
- शठः—पुं॰—-—-—आलसी पुरुष, सुस्त व्यक्ति
- शठम्—नपुं॰—-—-—लोहा
- शठम्—नपुं॰—-—-—केसर, जाफ़रान
- शणम्—नपुं॰—-—शण् + अच्—सन, पटसन
- शणसूत्रम्—नपुं॰—शणम्-सूत्रम्—-—सन की बनी डोरी या रस्सी
- शणसूत्रम्—नपुं॰—शणम्-सूत्रम्—-—सन का बना जाल
- शणसूत्रम्—नपुं॰—शणम्-सूत्रम्—-—रस्सियाँ, डोरियाँ
- शण्डः—पुं॰—-—शण्ड् + अच्—नपुंसक, हिजड़ा
- शण्डः—पुं॰—-—शण्ड् + अच्—साँड़
- शण्डः—पुं॰—-—शण्ड् + अच्—छोड़ा हुआ साँड़
- शण्डम्—नपुं॰—-—-—संग्रह, समुच्चय
- शण्ढः—पुं॰—-—शाम्यति ग्रामधर्मात् -शम् + ढ —हिजड़ा, नपुंसक
- शण्ढः—पुं॰—-—शाम्यति ग्रामधर्मात् -शम् + ढ —अन्तःपुर में रहने वाला टहलुआ, पुरुषसेवक
- शण्ढः—पुं॰—-—शाम्यति ग्रामधर्मात् -शम् + ढ —साँड़
- शण्ढः—पुं॰—-—शाम्यति ग्रामधर्मात् -शम् + ढ —छोड़ा हुआ साँड़
- शण्ढः—पुं॰—-—शाम्यति ग्रामधर्मात् -शम् + ढ —पागल आदमी
- शतम्—नपुं॰—-—दश दशतः परिमाणमस्य-दशन् + त, श आदेशः नि॰ साधुः—सौ की संख्या
- शतम्—नपुं॰—-—दश दशतः परिमाणमस्य-दशन् + त, श आदेशः नि॰ साधुः—कोई भी बड़ी संख्या ।
- शताक्षी—स्त्री॰—शतम्-अक्षी—-—रात्रि
- शताक्षी—स्त्री॰—शतम्-अक्षी—-—दुर्गादेवी
- शताङ्गः—पुं॰—शतम्-अङ्गः—-—गाड़ी, छकड़ा
- शतानीकः—पुं॰—शतम्-अनीकः—-—बूढ़ा आदमी
- शतारम्—नपुं॰—शतम्-अरम्—-—इन्द्र का वज्र
- शतारम्—नपुं॰—शतम्-आरम्—-—इन्द्र का वज्र
- शतानकम्—नपुं॰—शतम्-आनकम्—-—श्मशान, क़बरिस्तान,
- शतानन्दः—पुं॰—शतम्-आनन्दः—-—ब्रह्मा
- शतानन्दः—पुं॰—शतम्-आनन्दः—-—विष्णु, कृष्ण
- शतानन्दः—पुं॰—शतम्-आनन्दः—-—विष्णु का वाहन
- शतानन्दः—पुं॰—शतम्-आनन्दः—-—गौतम और अहिल्या का पुत्र, जनकराज का कुलपुरोहित
- शतायुस्—वि॰—शतम्-आयुस्—-—सौ वर्ष तक जीवित रहने वाला या टिकने वाला
- शतावर्तः—पुं॰—शतम्-आवर्तः—-—विष्णु
- शतावर्तिन्—पु॰—शतम्-आवर्तिन्—-—विष्णु
- शतेशः—पुं॰—शतम्-ईशः—-—सौ के ऊपर शासन करने वाला
- शतेशः—पुं॰—शतम्-ईशः—-—सौ गाँव का शासक
- शतकुम्भः—पुं॰—शतम्-कुम्भः—-—एक पहाड़ का नाम ( कहते हैं कि यहाँ पर सोना पाया जाता है )
- शतभम्—नपुं॰—शतम्-भम्—-—सोना
- शतकृत्वः—अव्य॰—शतम्-कृत्वः—-—सौ गुणा
- शतकोटि—वि॰—शतम्-कोटि—-—सौ धार वाला
- शतकोटिः—पुं॰—शतम्-कोटिः—-—इन्द्र का वज्र
- शतकोटिः—स्त्री॰—शतम्-कोटिः—-—एक अरब या सौ करोड़ की संख्या
- शतर्तुः—पुं॰—शतम्-ऋतुः—-—इन्द्र का विशेषण
- शतखण्डम्—नपुं॰—शतम्-खण्डम्—-—सोना
- शतगु—वि॰—शतम्-गु—-—सौ गायों का स्वामी
- शतगुण—वि॰—शतम्-गुण—-—सौगुणा बढ़ा हुआ
- शतगुणित—वि॰—शतम्-गुणित—-—सौगुणा बढ़ा हुआ
- शतग्रन्थिः—स्त्री॰—शतम्-ग्रन्थिः—-—दूर्वा घास
- शतघ्नी—स्त्री॰—शतम्-घ्नी—-—एक प्रकार का शस्त्र जो अस्त्र की भांति प्रयुक्त किया जाय
- शतघ्नी—स्त्री॰—शतम्-घ्नी—-—बिच्छू की मादा
- शतघ्नी—स्त्री॰—शतम्-घ्नी—-—गले का एक रोग
- शतजिह्वः—पुं॰—शतम्-जिह्वः—-—शिव का विशेषण
- शततारका—स्त्री॰—शतम्-तारका—-—सौ तारिकाओं का पुंज शतभिषा नामक नक्षत्र
- शतभिषज्—स्त्री॰—शतम्-भिषज्—-—सौ तारिकाओं का पुंज शतभिषा नामक नक्षत्र
- शतभिषा—स्त्री॰—शतम्-भिषा—-—सौ तारिकाओं का पुंज शतभिषा नामक नक्षत्र
- शतदला—स्त्री॰—शतम्-दला—-—सफ़ेद गुलाब
- शतद्रुः—स्त्री॰—शतम्-द्रुः—-—पंजाब की एक नदी जिसका वर्तमान नाम सतलज है
- शतधामन्—पुं॰—शतम्-धामन्—-—विष्णु का विशेषण
- शतधार—वि॰—शतम्- धार—-—सौ धारों वाला
- शतधारम्—नपुं॰—शतम्- धारम्—-—इन्द्र का वज्र
- शतधृतिः—पुं॰—शतम्- धृतिः—-—इन्द्र का विशेषण
- शतधृतिः—पुं॰—शतम्- धृतिः—-—ब्रह्मा का विशेषण
- शतधृतिः—पुं॰—शतम्- धृतिः—-—स्वर्ग
- शतपत्रः—पुं॰—शतम्-पत्रः—-—मोर
- शतपत्रः—पुं॰—शतम्-पत्रः—-—सारस
- शतपत्रः—पुं॰—शतम्-पत्रः—-—खुट-बढ़ई पक्षी
- शतपत्रः—पुं॰—शतम्-पत्रः—-—तोता या तोते की जाति
- शतपत्रा—स्त्री॰—शतम्-पत्रा—-—स्त्री
- शतपत्रम् —नपुं॰—शतम्-पत्रम् —-—कमल
- शतयोनिः—पुं॰—शतम्-योनिः—-—ब्रह्मा का विशेषण
- शतपत्रकः—पुं॰—शतम्-पत्रकः—-—खुटबढ़ई
- शतपद्—वि॰—शतम्-पद्—-—सौ पैरों वाला
- शतपाद्—वि॰—शतम्-पाद्—-—सौ पैरों वाला
- शतपदी—स्त्री॰—शतम्-पदी—-—कानखजूरा
- शतपद्मम्—नपुं॰—शतम्-पद्मम्—-—वह कमल जिसमें सौ पंखड़ियाँ हों
- शतपद्मम्—नपुं॰—शतम्-पद्मम्—-—श्वेत कमल
- शतपर्वन्—पुं॰—शतम्-पर्वन्—-—बाँस
- शतपर्वन्—स्त्री॰—शतम्-पर्वन्—-—आश्विन मास की पूर्णिमा
- शतपर्वन्—स्त्री॰—शतम्-पर्वन्—-—दूर्वा घास
- शतपर्वन्—स्त्री॰—शतम्-पर्वन्—-—कटुक का पौधा
- शतेशः—पुं॰—शतम्-ईशः—-—शुक्र, ग्रह
- शतभीरुः—स्त्री॰—शतम्-भीरुः—-—अरबदेश की चमेली
- शतमख—पुं॰—शतम्-मख—-—इन्द्र के विशेषण
- शतमख—पुं॰—शतम्-मख—-—उल्लू
- शतमन्युः—पुं॰—शतम्-मन्युः—-—इन्द्र के विशेषण
- शतमन्युः—पुं॰—शतम्-मन्युः—-—उल्लू
- शतमुख—वि॰—शतम्-मुख—-—जिसके सौ रास्ते हों
- शतमुख—वि॰—शतम्-मुख—-—सौ द्वार या मुँह वाला
- शतमुखम्—नपुं॰—शतम्-मुखम्—-—सौ रास्ते या द्वार
- शतमुखी—स्त्री॰—शतम्-मुखी—-—बुहारी, झाडू़
- शतमूला—स्त्री॰—शतम्-मूला—-—दूर्वा घास, दूबड़ा
- शतयज्वम्—पुं॰—शतम्-यज्वम्—-—इन्द्र का विशेषण,
- शतयष्टिकः—पुं॰—शतम्-यष्टिकः—-—सौ लड़ियों का हार
- शतरूपा—स्त्री॰—शतम्-रूपा—-—ब्रह्मा की एक पुत्री
- शतवर्षम्—नपुं॰—शतम्-वर्षम्—-—सौ बरस, शताब्दी
- शतवेधिन्—पुं॰—शतम्- वेधिन्—-—एक प्रकार का खटमिठा शाक, चोका
- शतसहस्रम्—नपुं॰—शतम्-सहस्रम्—-—सौ हज़ार
- शतसहस्रम्—नपुं॰—शतम्-सहस्रम्—-—कई हज़ार अर्थात् एक बड़ी संख्या
- शतसाहस्र—वि॰—शतम्-साहस्र—-—सौ हज़ार से युक्त
- शतसाहस्र—वि॰—शतम्-साहस्र—-—सौ हज़ार में मोल लिया हुआ
- शतह्रदा—स्त्री॰—शतम्-ह्रदा—-—बिजली
- शतह्रदा—स्त्री॰—शतम्-ह्रदा—-—इन्द्र का वज्र
- शतक—वि॰—-—शत + कन्—सौ
- शतक—वि॰—-—शत + कन्—सौ से युक्त
- शतकम्—नपुं॰—-—-—शताब्दी
- शतकम्—नपुं॰—-—-—सौ श्लोकों का संग्रह
- नीतिशतकम्—नपुं॰—नीति-शतकम्—-—नीति विषयक सौ श्लोकों का संग्रह
- वैराग्यशतकम्—नपुं॰—वैराग्य-शतकम्—-—वैराग्य विषयक सौ श्लोकों का संग्रह
- शृङ्गारशतकम्—नपुं॰—शृङ्गार-शतकम्—-—शृङ्गार विषयक सौ श्लोकों का संग्रह
- शततम—वि॰—-—शत + तमप्—सौवाँ
- शतधा—अव्य॰—-—शत + धाच्—सौ तरह से
- शतधा—अव्य॰—-—शत + धाच्—सौ भागों में या टुकड़ों में
- शतधा—अव्य॰—-—शत + धाच्—सौगुना
- शतशस्—अव्य॰—-—शत + शस्—सौ सौ करके
- शतशस्—अव्य॰—-—शत + शस्—सौ बार
- शतशस्—अव्य॰—-—शत + शस्—सौ तरह से, विविध प्रकार से, नाना प्रकार से
- शतिक—वि॰—-—शत + ठन् —सौ से युक्त
- शतिक—वि॰—-—शत + ठन् —सौ से सम्बन्ध रखने वाला
- शतिक—वि॰—-—शत + ठन् —सौ से प्रभावित
- शतिक—वि॰—-—शत + ठन् —सौ में मोल लिया
- शतिक—वि॰—-—शत + ठन् —सौ से बदला किया हुआ
- शतिक—वि॰—-—शत + ठन् —प्रतिशत शुल्क या ब्याज देने वाला
- शतिक—वि॰—-—शत + ठन् —सौ का सूचक
- शत्य—वि॰—-—शत + यत्—सौ से युक्त
- शत्य—वि॰—-—शत + यत्—सौ से सम्बन्ध रखने वाला
- शत्य—वि॰—-—शत + यत्—सौ से प्रभावित
- शत्य—वि॰—-—शत + यत्—सौ में मोल लिया
- शत्य—वि॰—-—शत + यत्—सौ से बदला किया हुआ
- शत्य—वि॰—-—शत + यत्—प्रतिशत शुल्क या ब्याज देने वाला
- शत्य—वि॰—-—शत + यत्—सौ का सूचक
- शतिन्—वि॰ —-—शत + इनि—सौगुणा
- शतिन्—वि॰ —-—शत + इनि—असंख्य
- शतिन्—पुं॰—-—शत + इनि—सौ का स्वामी
- शत्रिः—पुं॰—-—शद् + त्रिप्—हाथी ।
- शत्रुः—पुं॰—-—शद् + त्रुन्—परास्त करने वाला, विनाशक, विजेता
- शत्रुः—पुं॰—-—शद् + त्रुन्—दुश्मन, वैरी, प्रतिपक्षी
- शत्रुः—पुं॰—-—शद् + त्रुन्—राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी, पड़ौस का प्रतिद्वन्द्वी राजा
- शत्रूपजापः—पुं॰—शत्रु-उपजापः—-—दु्श्मन की गुपचुप कानाफूसी, शत्रु का विश्वासघाती प्रस्ताव
- शत्रुकर्षण—वि॰—शत्रु-कर्षण—-—शत्रु का दमन करने वाला, शत्रु को जीतने वाला या शत्रु को नष्ट करने वाला
- शत्रुदमन—वि॰—शत्रु-दमन—-—शत्रु का दमन करने वाला, शत्रु को जीतने वाला या शत्रु को नष्ट करने वाला
- शत्रुनिबर्हण—वि॰—शत्रु-निबर्हण—-—शत्रु का दमन करने वाला, शत्रु को जीतने वाला या शत्रु को नष्ट करने वाला
- शत्रुघ्नः—पुं॰—शत्रु-घ्नः—-—शत्रुओं को नष्ट करने वाला
- शत्रुपक्षः—पुं॰—शत्रु-पक्षः—-—शत्रु का पक्ष या दल
- शत्रुपक्षः—पुं॰—शत्रु-पक्षः—-—प्रतिपक्षी, विरोधी,
- शत्रुविनाशनः—पुं॰—शत्रु-विनाशनः—-—शिव का विशेषण
- शत्रुहत्या—स्त्री॰—शत्रु-हत्या—-—शत्रु की हत्या
- शत्रुहन्—वि॰—शत्रु-हन्—-—शत्रु का वध करने वाला
- शत्रुञ्जयः—पुं॰—-—शत्रु + जि + खच्, मुम्—अपने शत्रु को परास्त करने वाला या नष्ट करने वाला ।
- शत्वरी—स्त्री॰—-—-—रात
- शद् —भ्वा॰ पर॰ <शीयते>, <शन्न>—-—-—पतन होना, नष्ट होना, मुर्झाना, कुम्हलाना
- शद् —भ्वा॰ पर॰ <शीयते>, <शन्न>—-—-—जाना
- शद् —भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰ <शादयति>, <शादयते>—-—-—पहुँचाना, ठेलना
- शद् —भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰ <शादयति>, <शादयते>—-—-—गिराना, नीचे फेंक देना, काट डालना
- शद् —भ्वा॰उभ॰, प्रेर॰ <शादयति>, <शादयते>—-—-—वध करना, नष्ट करना
- शद् —भ्वा॰ पर॰ <शदति>—-—-—जाना
- शदः—पुं॰—-—शद् + अच्—खाद्य, शाकभाजी ( फल मूल आदि ) ।
- शद्रिः—पुं॰—-—शद् + क्रिन्—हाथी
- शद्रिः—पुं॰—-—शद् + क्रिन्—बादल
- शद्रिः—पुं॰—-—शद् + क्रिन्—अर्जुन
- शद्रिः—स्त्री॰—-—-—बिजली
- शद्रुः—वि॰—-—शद् + रु—जाने वाला, गतिशील
- शद्रुः—वि॰—-—शद् + रु—पतनशील, नश्वर, क्षय होने वाला ।
- शनकैः—अव्य॰—-—शनैः + अकच्—शनैः शनैः
- शनिः—पुं॰—-—शो + अनि किच्च—शनिग्रह
- शनिः—पुं॰—-—शो + अनि किच्च—शनिवार
- शनिः—पुं॰—-—शो + अनि किच्च—शिव ।
- शनिजम्—नपुं॰—शनि-जम्—-—काली मिर्च
- शनिप्रदोषः—पुं॰—शनि-प्रदोषः—-—शिव की ( सांध्यकालीन ) पूजा जो शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को शनिवार आ पड़ने पर की जाता है
- शनिप्रियम्—नपुं॰—शनि-प्रियम्—-—नीलमणि
- शनिवारः—पुं॰—शनि-वारः—-—शनिवार का दिन
- शनिवासरः—पुं॰—शनि-वासरः—-—शनिवार का दिन
- शनैस्—अव्य॰—-—शण् + डैस्, पृषो॰ नुक्—आहिस्ता से, धीमे, चुपचाप
- शनैस्—अव्य॰—-—शण् + डैस्, पृषो॰ नुक्—यथाक्रम क्रमशः, थोड़ा थोड़ा करके धर्म
- शनैस्—अव्य॰—-—शण् + डैस्, पृषो॰ नुक्—उत्तरोत्तर, उपयुक्त क्रम में
- शनैस्—अव्य॰—-—शण् + डैस्, पृषो॰ नुक्—मृदुता से, नरमी से
- शनैस्—अव्य॰—-—शण् + डैस्, पृषो॰ नुक्—सुस्ती के साथ, आलस्यपूर्वक
- शनैः शनैः—अव्य॰—-—-—आहिस्ता से, आहिस्ता आहिस्ता
- शनैश्चर—वि॰—शनैस्-चर—-—शनैः शनैः घूमने वाला या चलने वाला
- शनैश्चरः—पुं॰—शनैस्-चरः—-—शनिग्रह
- शन्तनुः—पुं॰—-—शं मंगलात्मका तनुर्यस्य ब॰ स॰— एक चन्द्रबंशी राजा
- शप्—भ्वा॰ <शपति> ,<शपते>, दिवा॰ उभ॰, <शप्यति>, <शप्यते>, <शप्त>—-— —अभिशाप देना, कोसना
- शप्—भ्वा॰ <शपति> ,<शपते>, दिवा॰ उभ॰, <शप्यति>, <शप्यते>, <शप्त>—-—-—शपथ लेना, कसम उठाना, शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करना, सौगंध खाना
- शप्—भ्वा॰ <शपति> ,<शपते>, दिवा॰ उभ॰, <शप्यति>, <शप्यते>, <शप्त>—-—-—कंलकित करना, धमकाना, बुरा-भला कहना, गाली देना
- शप्—भ्वा॰, प्रेर॰ <शापयति>, <शापयते>—-—-—शपथद्वारा बाँध लेना, शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करना
- शपः—पुं॰—-—शप् + अच्—अभिशाप, सरापना, कोसना
- शपः—पुं॰—-—शप् + अच्—शपथ, सौगन्ध
- शपथः—पुं॰—-—शप् + अथन्—कोसना
- शपथः—पुं॰—-—शप् + अथन्—अभिशाप, आक्रोश, फटकारा
- शपथः—पुं॰—-—शप् + अथन्—सौगन्ध, कसम खाना, शपथ लेना या दिलवाना, शपथोक्ति
- शपथः—पुं॰—-—शप् + अथन्—शपथपूर्वक अनुरोध, सौगन्ध से बाँधना
- शपनम्—नपुं॰—-—शप् + ल्युट्—कोसना
- शपनम्—नपुं॰—-—शप् + ल्युट्—अभिशाप, आक्रोश, फटकारा
- शपनम्—नपुं॰—-—शप् + ल्युट्—सौगन्ध, कसम खाना, शपथ लेना या दिलवाना, शपथोक्ति
- शपनम्—नपुं॰—-—शप् + ल्युट्—शपथपूर्वक अनुरोध, सौगन्ध से बाँधना
- शप्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शप् + क्त—अभिशप्त
- शप्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शप् + क्त—जिसने सौगन्ध खाली है
- शप्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शप् + क्त—बुरा भला कहा गया, दुर्वचन कहा गया ।
- शफः—पुं॰—-—शप् + अच्, पृषो॰ पस्य फः —सुम
- शफः—पुं॰—-—शप् + अच्, पृषो॰ पस्य फः —वृक्ष की जड़
- शफम्—नपुं॰—-—शप् + अच्, पृषो॰ पस्य फः —सुम
- शफम्—नपुं॰—-—शप् + अच्, पृषो॰ पस्य फः —वृक्ष की जड़
- शफरः—पुं॰—-—शफ राति- रा + क—एक प्रकार की छोटी चमकीली मछली
- शफराधिपः—पुं॰—शफर-अधिपः—-—`इलीश’ नामक मछली ।
- शबरः—पुं॰—-—-—पहाड़ी, असभ्य, भील, जंगली
- शबरः—पुं॰—-—-—शिव
- शबरः—पुं॰—-—-—हाथ
- शबरः—पुं॰—-—-—जल
- शबरः—पुं॰—-—-—एक शास्त्र विशेष या धार्मिक पुस्तक
- शबरः—पुं॰—-—-—मीमांसा के प्रसिद्ध भाष्यकार
- शवरः—पुं॰—-—शव् + अरन्—पहाड़ी, असभ्य, भील, जंगली
- शवरः—पुं॰—-—शव् + अरन्—शिव
- शवरः—पुं॰—-—शव् + अरन्—हाथ
- शवरः—पुं॰—-—शव् + अरन्—जल
- शवरः—पुं॰—-—शव् + अरन्—एक शास्त्र विशेष या धार्मिक पुस्तक
- शवरः—पुं॰—-—शव् + अरन्—मीमांसा के प्रसिद्ध भाष्यकार
- शबरीः—स्त्री॰—-—-—भीलनी
- शबरीः—स्त्री॰—-—-—राम की अनन्य भक्त एक भीलनी
- शबरालयः—पुं॰—शबर-आलयः—-—जंगली, पहाड़ियों और भीलों का निवासस्थान
- शबरलोध्र—पुं॰—शबर-लोध्र—-—जंगली लोध्र का वृक्ष
- शबल—वि॰—-—शप् + अल, बश्च—धब्वेदार, रंग-बिरंगा, चितकबरा
- शबल—वि॰—-—शप् + अल, बश्च—नानारूप, अनेक भागों में विभक्त
- शवल—वि॰—-—-—धब्वेदार, रंग-बिरंगा, चितकबरा
- शवल—वि॰—-—-—नानारूप, अनेक भागों में विभक्त
- शबलः—पुं॰—-—-—नानाप्रकार का रंग
- शबला—स्त्री॰—-—-—धब्बेदार या चितकबरी गाय
- शबला—स्त्री॰—-—-—कामधेनु
- शबली—स्त्री॰—-—-—धब्बेदार या चितकबरी गाय
- शबली—स्त्री॰—-—-—कामधेनु
- शबलम्—नपुं॰—-—-—पानी
- शब्द—चुरा॰ उभ॰ <शब्दयति>, <शब्दयते> , <शब्दित>—-—-—ध्वनि करना, शोर मचाना
- शब्द—चुरा॰ उभ॰ <शब्दयति>, <शब्दयते> , <शब्दित>—-—-—बोलना, बुलाना, आवाज़ देना
- शब्द—चुरा॰ उभ॰ <शब्दयति>, <शब्दयते> , <शब्दित>—-—-—नाम लेना, पुकारना
- अभिशब्द—चुरा॰ उभ॰—अभि-शब्द—-—नाम रखना
- प्रशब्द—चुरा॰ उभ॰—प्र-शब्द—-—व्याख्या करना
- संशब्द—चुरा॰ उभ॰—सम्-शब्द—-—बुलाना
- शब्दः—पुं॰—-—शब्द् + घञ्—ध्वनि (श्रोत्रेन्द्रिय का विषय ) आकाशगुण
- शब्दः—पुं॰—-—शब्द् + घञ्—आवाज़, कलरव (पक्षियों का या मनुष्यादिकों का), कोलाहल
- शब्दः—पुं॰—-—शब्द् + घञ्—बाजे की आवाज़
- शब्दः—पुं॰—-—शब्द् + घञ्—वचन, ध्वनि, सार्थक ध्वनि, शब्द
- शब्दः—पुं॰—-—शब्द् + घञ्—विकारीशब्द, संज्ञा, प्रतिपादक
- शब्दः—पुं॰—-—शब्द् + घञ्—उपाधि, विशेषण
- शब्दः—पुं॰—-—शब्द् + घञ्—नाम, केवल नाम
- शब्दः—पुं॰—-—शब्द् + घञ्—शाब्दिक प्रामाणिकता
- शब्दातीत—वि॰—शब्द-अतीत—-—शब्दों की शक्ति से परे, अनिर्वचनीय
- शब्दाधिष्ठानम्—नपुं॰—शब्द-अधिष्ठानम्—-—कान
- शब्दाध्याहारः—पुं॰—शब्द-अध्याहारः—-—(शब्दन्यूनता को पूरा करने के लिए) शब्दपूर्ति
- शब्दानुशासनम्—नपुं॰—शब्द-अनुशासनम्—-—शब्दों का शास्त्र अर्थात् व्याकरण
- शब्दार्थः—पुं॰—शब्द-अर्थः—-—शब्द के अर्थ
- शब्दार्थौ—पुं॰द्वि॰ व॰—शब्द-अर्थौ—-—शब्द और उसका अर्थ
- शब्दालङ्कारः—पुं॰—शब्द-अलङ्कारः—-—वह अलङ्कार जो अपने शब्द सौन्दर्य पर निर्भर करता है, तथा जब उसी अर्थ को प्रकट करने वाला दूसरा शब्द रख दिया जाता है तो उसका सौन्दर्य लुप्त हो जाता है )
- शब्दाख्येय—वि॰—शब्द-आख्येय—-—शब्दों में भेजा जाने वाला समाचार
- शब्दाख्येयम्—नपुं॰—शब्द- आख्येयम्—-—मौखिक या शाब्दिक सन्देश
- शब्दाडम्बरः—पुं॰—शब्द-आडम्बरः—-—वाग्जाल, वाक्प्रपंच, शब्दाधिक्य, अतिशयोक्तिपूर्ण शब्द
- शब्दादि—वि॰—शब्द-आदि—-—`शब्द’ से आरम्भ होने वाले ( ज्ञान के विषय )
- शब्दकोशः—पुं॰—शब्द-कोशः—-—अभिधान, शब्दसंग्रह
- शब्दगत—वि॰—शब्द-गत—-—शब्द के अन्दर रहने वाला
- शब्दग्रहः—पुं॰—शब्द-ग्रहः—-—शब्द पकड़ना
- शब्दग्रहः—पुं॰—शब्द-ग्रहः—-—कान
- शब्दचातुर्यम्—नपुं॰—शब्द-चातुर्यम्—-—शैली की निपुणता, वाक्पटुता
- शब्दचित्रम्—नपुं॰—शब्द-चित्रम्—-—कविता की अन्तिम श्रेणी के दो उपभेदों में से एक (अवर या अधम)
- शब्दचोरः—पुं॰—शब्द-चोरः—-—`शब्दचोर’ साहित्यचोर
- शब्दतन्मात्रम्—नपुं॰—शब्द-तन्मात्रम्—-—ध्वनि का सूक्ष्म तत्त्व
- शब्दपतिः—पुं॰—शब्द-पतिः—-—नाममात्र स्वामी, नाम का प्रभु
- शब्दपातिन्—वि॰—शब्द-पातिन्—-—शब्द सुनकर ही अदृश्य निशाना लगाने वाला, शब्दवेधी, निशाना लगाने वाला
- शब्दप्रमाणम्—नपुं॰—शब्द-प्रमाणम्—-—शाब्दिक या मौखिक प्रमाण
- शब्दबोधः—पुं॰—शब्द-बोधः—-—मौखिक साक्ष्य से प्राप्त ज्ञान
- शब्दब्रह्मन्—नपुं॰—शब्द-ब्रह्मन्—-—वेद
- शब्दब्रह्मन्—नपुं॰—शब्द-ब्रह्मन्—-—शब्दों में निहित आध्यात्मिक ज्ञान, आत्मा या परमात्मसम्बन्धी ज्ञान
- शब्दब्रह्मन्—नपुं॰—शब्द-ब्रह्मन्—-—शब्द का गुण, ’स्फोट’
- शब्दभेदिन्—वि॰—शब्द-भेदिन्—-—शब्दवेधी निशान लगाने वाला
- शब्दभेदिन्—पुं॰—शब्द-भेदिन्—-—अर्जुन का विशेषण
- शब्दभेदिन्—पुं॰—शब्द-भेदिन्—-—गुदा
- शब्दभेदिन्—पुं॰—शब्द-भेदिन्—-—एक प्रकार का बाण
- शब्दयोनिः—स्त्री॰—शब्द-योनिः—-— धातु, मूल शब्द
- शब्दविद्या—स्त्री॰—शब्द-विद्या—-—शब्दशास्त्र अर्थात् व्याकरण
- शब्दशासनम्—नपुं॰—शब्द-शासनम्—-—शब्दशास्त्र अर्थात् व्याकरण
- शब्दशास्त्रम—नपुं॰—शब्द-शास्त्रम—-—शब्दशास्त्र अर्थात् व्याकरण
- शब्दविरोधः—पुं॰—शब्द-विरोधः—-—(शास्त्र में) शब्दों का विरोध
- शब्दविशेषः—पुं॰—शब्द-विशेषः—-—ध्वनि का एक भेद
- शब्दवृत्तिः—स्त्री॰—शब्द-वृत्तिः—-—साहित्य शास्त्र में शब्द का प्रयोग
- शब्दवेधिन्—वि॰—शब्द-वेधिन्—-—ध्वनि सुनकर ही शब्दवेधी निशाना लगाने वाला
- शब्दवेधिन्—पुं॰—शब्द-वेधिन्—-—अर्जुन का विशेषण
- शब्दवेधिन्—पुं॰—शब्द-वेधिन्—-—एक प्रकार का बाण
- शब्दशक्तिः—स्त्री॰—शब्द-शक्तिः—-—शब्द की अभिव्यञ्जक शक्ति, शब्द की सार्थकता
- शब्दशुद्धिः—स्त्री॰—शब्द-शुद्धिः—-—शब्दों की पवित्रता
- शब्दशुद्धिः—स्त्री॰—शब्द-शुद्धिः—-—शब्दों का शुद्ध प्रयोग
- शब्दश्लेषः—पुं॰—शब्द-श्लेषः—-—शब्दों में अनेकार्थता, द्व्यर्थकता
- शब्दसंग्रहः—पुं॰—शब्द-संग्रहः—-—शब्दकोश, शब्दावली
- शब्दसौष्ठवम्—नपुं॰—शब्द-सौष्ठवम्—-—शब्दों का लालित्य, ललित और प्राञ्जल शैली
- शब्दसौकर्यम्—नपुं॰—शब्द-सौकर्यम्—-—अभिव्यक्ति की सरलता
- शब्दन—वि॰—-—शब्द + ल्युट—शब्द करने वाला, ध्वननशील
- शब्दनम्—नपुं॰—-—-—ध्वनन, कोलाहल करना, शब्द करना
- शब्दनम्—नपुं॰—-—-—आवाज, कोलाहल
- शब्दनम्—नपुं॰—-—-—पुकारना, बुलाना
- शब्दनम्—नपुं॰—-—-—नाम लेना
- शब्दायते—नामधातु आ॰—-—-—कोलाहल करना, शोर करना
- शब्दायते—नामधातु आ॰—-—-—क्रन्दन करना, दहाड़ना, चिल्लाना, चीं चीं करना
- शब्दायते—नामधातु आ॰—-—-—बुलाना, पुकारना
- शब्दित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शब्द + क्त—ध्वनित, आवाज निकाली गई ( वाद्ययंत्रादिक) बजाया गया
- शब्दित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शब्द + क्त—कहा गया, उच्चारण किया गया
- शब्दित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शब्द + क्त—बुलाया गया, पुकारा गया
- शब्दित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शब्द + क्त—नाम रक्खा गया, अभिहित
- शम्—अव्य॰—-—शम् + क्विप—कल्याण, आनन्द, समृद्धि, स्वास्थ्य को द्योतन करने वाला अव्यय, आशीर्वाद या मंगल कामना प्रकट करने के लिए प्रयुक्त
- शन्ताति—वि॰—शम्-ताति—-—आनन्द प्रदान करने वाला, मंगलमय, शुभ
- शम्पाकः—पुं॰—शम्-पाकः—-—लाख, महावर, लाल रंग
- शम्पाकः—पुं॰—शम्-पाकः—-—पकाना, परिपक्व करना
- शम्—दिवा॰ पर॰ <शाम्यन्ति>, < शान्त>—-—-—शान्त होना, चुप होना, संतुष्ट होना, प्रसन्न होना
- शम्—दिवा॰ पर॰ <शाम्यन्ति>, < शान्त>—-—-—थमना, ठहरना, समाप्त होना
- शम्—दिवा॰ पर॰ <शाम्यन्ति>, < शान्त>—-—-—शांत होना, बुझना
- शम्—दिवा॰ पर॰ <शाम्यन्ति>, < शान्त>—-—-—काम तमाम करना, नष्ट करना, मार डालना
- शम्—दिवा॰उभ॰, प्रेर॰ <शमयति>, <शमयते>—-—-—प्रसन्न करना, उपशमन करना, शान्त करना, धीरज देना, सांत्वना देना, ढाढस बंधाना
- शम्—दिवा॰उभ॰, प्रेर॰ <शमयति>, <शमयते>—-—-—अन्त करना, रोकना
- शम्—दिवा॰उभ॰, प्रेर॰ <शमयति>, <शमयते>—-—-—हटाना, परे करना
- शम्—दिवा॰उभ॰, प्रेर॰ <शमयति>, <शमयते>—-—-—दमन करना, पालतू बनाना, हराना, छीनना,परास्त करना
- शम्—दिवा॰उभ॰, प्रेर॰ <शमयति>, <शमयते>—-—-—मार डालना, नष्ट करना, वध करना
- शम्—दिवा॰उभ॰, प्रेर॰ <शमयति>, <शमयते>—-—-—शान्त करना, बुझाना
- शम्—दिवा॰उभ॰, प्रेर॰ <शमयति>, <शमयते>—-—-—त्याग देना, रुकना, थमना
- उपशम्—दिवा॰ पर॰—उप-शम्—-—शान्त करना
- उपशम्—दिवा॰ पर॰—उप-शम्—-—थमना, ठहरना, बुझाना
- उपशम्—दिवा॰ पर॰—उप-शम्—-—हट जाना, बोलना बन्द होना
- उपशम्—दिवा॰ पर॰—उप-शम्—-—परे रहना, बुझ जाना
- उपशम्—दिवा॰ पर॰—उप-शम्—-—मुर्झाना, कुम्हलाना
- उपशम्—दिवा॰उभ॰, प्रेर॰—उप-शम्—-—सांत्वना देना, प्रसन्न करना, शान्त करना
- उपशम्—दिवा॰उभ॰, प्रेर॰—उप-शम्—-—दूर करना, बुझाना, शीतल करना, दबा देना
- उपशम्—दिवा॰उभ॰, प्रेर॰—उप-शम्—-—हटाना, अन्त करना
- उपशम्—दिवा॰उभ॰, प्रेर॰—उप-शम्—-—जीतना, परास्त करना, वशीभूत करना
- उपशम्—दिवा॰उभ॰, प्रेर॰—उप-शम्—-—प्रतिष्ठित होना, समंजन करना, स्वस्थचित
- उपशम्—दिवा॰उभ॰, प्रेर॰—उप-शम्—-—होना
- संशम्—दिवा॰ पर॰—सम्-शम्—-—शान्त करना
- संशम्—दिवा॰ पर॰—सम्-शम्—-—निराकृत होना, बुझना, लुप्त होना
- संशम्—दिवा॰ पर॰—सम्-शम्—-—हट जाना
- शम्—चुरा॰ उभ॰ <शामयति>, <शामयते>—-—-—देखना, निगाह डालना, निरीक्षण करना
- शम्—चुरा॰ उभ॰ <शामयति>, <शामयते>—-—-—बतलाना, प्रदर्शन करना
- निशम्—चुरा॰ उभ॰—नि-शम्—-—देखना, अवलोकन करना
- निशम्—चुरा॰ उभ॰—नि-शम्—-—सुनना, कान देना
- शमः—पुं॰—-—शम् + घञ्—मूकता, शान्ति, धैर्य
- शमः—पुं॰—-—शम् + घञ्—विश्राम, ठहराव, आराम, निवृत्ति
- शमः—पुं॰—-—शम् + घञ्—वासनाओं पर प्रतिबन्ध या अभाव, मानसिक शान्ति, विरक्ति
- शमः—पुं॰—-—शम् + घञ्—निराकरण, लघूकरण, उन्नयन, सन्तोषीकरण (शोक, प्यास, भूख आदि का) प्रशमन
- शमः—पुं॰—-—शम् + घञ्—शान्ति
- शमः—पुं॰—-—शम् + घञ्—(संसार की समस्त भ्रान्तियों व आसक्तियों से) मोक्ष
- शमः—पुं॰—-—शम् + घञ्—हाथ
- शमान्तकः—पुं॰—शम-अन्तकः—-—कामदेव (मानसिक शान्ति को नष्ट करने वाला)
- शमपर—वि॰—शम-पर—-—शान्त, मूक, बिषयविरागी
- शमथः—पुं॰—-—शम् + अथच्—शान्ति, स्थिरता, विशेषतः मानसिक शान्ति, आवेशाभाव
- शमथः—पुं॰—-—शम् + अथच्—परामर्शदाता, मन्त्री
- शमन—वि॰—-—शम् + णिच् + ल्युट्—शमन करने वाला, दमन करने वाला, वशीभूत करने वाला आदि
- शमनम्—नपुं॰—-—-—प्रसन्न करना, निराकरण करना, ढाढस बंधाना, जीतना, उन्नयन करना
- शमनम्—नपुं॰—-—-—स्थैर्य, शान्ति
- शमनम्—नपुं॰—-—-—अन्त, ठहराव, समाप्ति, विनाश
- शमनम्—नपुं॰—-—-—चोट पहुँचाना, घायल करना
- शमनम्—नपुं॰—-—-—यज्ञ के लिए पशुवध करना, पशुमेध
- शमनम्—नपुं॰—-—-—निगल जाना, चबाना
- शमनः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का हरिण, बारहसिंगा
- शमनः—पुं॰—-—-—मृत्यु का देवता, यम
- शमनस्वभू—स्त्री॰—शमन-स्वभू—-—’यमस्वसा’ यमुना नदी का विशेषण
- शमनी—स्त्री॰—-—शमन + ङीप्—रात
- शमनीसदः—पुं॰—शमनी-सदः—-—राक्षस, पिशाच, भूत-प्रेत
- शमनीषदः—पुं॰—शमनी-षदः—-—राक्षस, पिशाच, भूत-प्रेत
- शमलम्—नपुं॰—-—शम् + कलच्—मल, लीद, विष्ठा
- शमलम्—नपुं॰—-—-—अपवित्रता, गाद, तलौंछ
- शमलम्—नपुं॰—-—-—पाप, नैतिक मलिनता
- शमित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + णिच् + क्त—प्रसन्न किया गया, निराकृत, ढाढस बंधाया गया, शान्त
- शमित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + णिच् + क्त—धीमा किया गया, चिकित्सा की गई, भारविमुक्त किया गया
- शमित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + णिच् + क्त—विश्राम दिया गया
- शमित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + णिच् + क्त—शान्त, सौम्य, परिमित किया गया, मृदु किया गया
- शमिन्—वि॰—-—शम् + इनि— सौम्य, शान्त, प्रशान्त
- शमिन्—वि॰—-—शम् + इनि—जिसने अपने आवेशों का दमन कर लिया ह
- शमी—स्त्री॰—-—शम् + इन्—एक वृक्ष (कहा जाता है कि इसमें आग रहती है)
- शमी—स्त्री॰—-—शम् + इन्—फली, छीमी, सेम
- शमि—स्त्री॰—-—शम् + ङीप् —एक वृक्ष (कहा जाता है कि इसमें आग रहती है)
- शमि—स्त्री॰—-—शम् + ङीप् —फली, छीमी, सेम
- शमीगर्भः—पुं॰—शमी-गर्भः—-—अग्नि का विशेषण
- शमीगर्भः—पुं॰—शमी-गर्भः—-—ब्राह्मण, अग्निहोत्री ब्राह्मण
- शमीधान्यम्—नपुं॰—शमी-धान्यम्—-—फलियों में उत्पन्न या दाल आदि, द्विदलीय अन्न
- शम्पा—स्त्री॰—-—शम् + पा + क—बिजली
- शम्ब्—भ्वा॰ पर॰ <शम्बति>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- शम्ब्—चुरा॰ पर॰ < शम्बयति>—-—-—संचय करना, ढेर लगाना
- शम्ब—वि॰—-—शम्ब् + अच्—प्रसन्न, भाग्यशाली
- शम्ब—वि॰—-—शम्ब् + अच्—बेचारा, अभागा
- शम्व—वि॰—-—शम्ब् + अच्—प्रसन्न, भाग्यशाली
- शम्व—वि॰—-—शम्ब् + अच्—बेचारा, अभागा
- शम्बः—पुं॰—-—-—इन्द्र का वज्र
- शम्बः—पुं॰—-—-—मूसली का लोहे का बना सिर
- शम्बः—पुं॰—-—-—लोहे की जञ्जीर जो कमर के चारों ओर पहनी जाय
- शम्बः—पुं॰—-—-—नियमित रूप से हल चलाना
- शम्बः—पुं॰—-—-—जुते हुए खेत में हल चलाना
- शम्बाकृ ——-—-—दोबारा हल चलाना
- शम्बरः—पुं॰—-—शम्ब् + अरच्— एक राक्षस का नाम जिसे प्रद्युम्न ने मार गिराया था
- शम्बरः—पुं॰—-—शम्ब् + अरच्—पहाड़
- शम्बरः—पुं॰—-—शम्ब् + अरच्—एक प्रकार का हरिण
- शम्बरः—पुं॰—-—शम्ब् + अरच्—एक प्रकार की मछली
- शम्बरः—पुं॰—-—शम्ब् + अरच्—युद्ध
- शम्बरम्—नपुं॰—-—-—जल
- शम्बरम्—नपुं॰—-—-—बादल
- शम्बरम्—नपुं॰—-—-—दौलत
- शम्बरम्—नपुं॰—-—-—संस्कार या कोई धार्मिक अनुष्ठान
- शम्बरारिः—पुं॰—शम्बर-अरिः—-—प्रद्युम्न या कामदेव के विशेषण
- शम्बरसूदनः—पुं॰—शम्बर-सूदनः—-—प्रद्युम्न या कामदेव के विशेषण
- शम्बरासुरः—पुं॰—शम्बर-असुरः—-—शंबर नामक राक्षस
- शम्बरी—स्त्री॰—-—शम्बर + ङीष्—माया, जादू
- शम्बरी—स्त्री॰—-—शम्बर + ङीष्—स्त्री जादूगरनी
- शम्बलः—पुं॰—-—शम्ब् + कलच्—तट, किनारा
- शम्बलः—पुं॰—-—शम्ब् + कलच्—पाथेय, मार्गव्यय, राहख़र्च
- शम्बलः—पुं॰—-—शम्ब् + कलच्—स्पर्धा, ईर्ष्या
- शम्बलम्—नपुं॰—-—शम्ब् + कलच्—तट, किनारा
- शम्बलम्—नपुं॰—-—शम्ब् + कलच्—पाथेय, मार्गव्यय, राहख़र्च
- शम्बलम्—नपुं॰—-—शम्ब् + कलच्—स्पर्धा, ईर्ष्या
- शम्बली—स्त्री॰—-—शम्बल + ङीष्—कुटनी
- शम्बुः—पुं॰—-—शम्ब् + उण्—द्विकोषीय घोंघा
- शम्बुकः—पुं॰—-—शम्बु + कन्—द्विकोषीय घोंघा
- शम्बुक्कः—पुं॰—-—शम्बु + कन्—द्विकोषीय घोंघा
- शम्बूकः—पुं॰—-—शम्ब् + ऊकः—द्विकोषीय घोंघा
- शम्बूकः—पुं॰—-—शम्ब् + ऊकः—शंख
- शम्बूकः—पुं॰—-—शम्ब् + ऊकः—घोंघा
- शम्बूकः—पुं॰—-—शम्ब् + ऊकः—हाथी की सूंड़ की नोक
- शम्बूकः—पुं॰—-—शम्ब् + ऊकः—एक शूद्र (इसे राम ने उसकी जाति के लिए वर्जित साधना का अभ्यास करने के कारण मार डाला था
- शम्भः—पुं॰—-—शम् + भ—प्रसन्न मनुष्य
- शम्भः—पुं॰—-—शम् + भ—इन्द्र का वज्र
- शम्भली—स्त्री॰—-—शम्भल + ङीष्—दूती, कुटनी
- शम्भु—वि॰—-—शम् + भू + डु—आनन्द देने वाला, समृद्धि प्रदान करने वाला
- शम्भुः—पुं॰—-—-—शिव
- शम्भुः—पुं॰—-—-—ब्रह्मा
- शम्भुः—पुं॰—-—-—ऋषि, श्रद्धेय पुरुष
- शम्भुः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का सिद्ध
- शम्भुतनयः—पुं॰—शम्भु-तनयः—-—कार्तिकेय या गणेश के विशेषण
- शम्भुनन्दनः—पुं॰—शम्भु-नन्दनः—-—कार्तिकेय या गणेश के विशेषण
- शम्भुसुतः—पुं॰—शम्भु-सुतः—-—कार्तिकेय या गणेश के विशेषण
- शम्भुप्रिया—स्त्री॰—शम्भु-प्रिया—-—दुर्गा
- शम्भुप्रिया—स्त्री॰—शम्भु-प्रिया—-—आमल की
- शम्भुवल्लभम्—नपुं॰—शम्भु-वल्लभम्—-—श्वेत कमल
- शम्या—स्त्री॰—-—शम् + यत् + टाप्—लकड़ी की छड़ी या थूणी
- शम्या—स्त्री॰—-—शम् + यत् + टाप्—डंडा
- शम्या—स्त्री॰—-—शम् + यत् + टाप्—जूए की कील, सिलम
- शम्या—स्त्री॰—-—शम् + यत् + टाप्—एक प्रकार की झाँझ
- शम्या—स्त्री॰—-—शम् + यत् + टाप्—यज्ञीय पात्र
- शय—वि॰—-—शी + अच्—लेटने वाला, सोने वाला
- शयः—पुं॰—-—-—नींद
- शयः—पुं॰—-—-—बिस्तरा, शय्या
- शयः—पुं॰—-—-—हाथ
- शयः—पुं॰—-—-—साँप विशेषतः अजगर
- शयः—पुं॰—-—-—दुर्वचन, कोसना, अभिशाप
- शयण्ड—वि॰—-—शी + अण्डन्—निद्रालु, सोने वाला
- शयथ—वि॰—-—शी + अथच्—निद्रालु, सोया हुआ
- शयथः—पुं॰—-—-—मृत्यु
- शयथः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का साँप, अजगर
- शयथः—पुं॰—-—-—मछली
- शयनम्—नपुं॰—-—शी + ल्युट्—सोना, निद्रा, लेटना
- शयनम्—नपुं॰—-—शी + ल्युट्—बिस्तरा, शय्या
- शयनम्—नपुं॰—-—शी + ल्युट्—मैथुन, संभोग
- शयनागारः—पुं॰—शयनम्-अगारः—-—शयनकक्ष, सोने का कमरा
- शयनागारः—पुं॰—शयनम्-आगारः—-—शयनकक्ष, सोने का कमरा
- शयनागारम्—नपुं॰—शयनम्-अगारम्—-—शयनकक्ष, सोने का कमरा
- शयनागारम्—नपुं॰—शयनम्-आगारम्—-—शयनकक्ष, सोने का कमरा
- शयनगृहम्—नपुं॰—शयनम्-गृहम्—-—शयनकक्ष, सोने का कमरा
- शयनैकादशी—स्त्री॰—शयनम्-एकादशी—-—आषाढ़ शुक्ला एकादशी (इस दिन विष्णु भगवान् चार मास तक विश्राम के लिए लेट जाते हैं )
- शयनसखी—स्त्री॰—शयनम्-सखी—-—एक शय्या पर साथ सोने वाली सहेली
- शयनस्थानम्—नपुं॰—शयनम्-स्थानम्—-—सोने का कमरा, शयनकक्ष
- शयनीयम्—नपुं॰—-—शी + अनीयर्— बिस्तरा, शय्या
- शयनीयकम् —नपुं॰—-—-— बिस्तरा, शय्या
- शयानकः—पुं॰—-—शी + शानच् + कन्—गिरगिट
- शयानकः—पुं॰—-—शी + शानच् + कन्—एक साँप, अजगर
- शयालु—वि॰—-—शी + आलुच्—निद्रालु, तन्द्रालु, आलसी
- शयालुः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का साँप, अजगर
- शयालुः—पुं॰—-—-—कुत्ता
- शयालुः—पुं॰—-—-—गीदड़
- शयित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शी कर्तरि क्त—सोने वाला, विश्रान्त, सुप्त
- शयित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शी कर्तरि क्त—लेटा हुआ
- शयुः—पुं॰—-—शी + उ—बड़ा साँप, अजगर
- शय्या—स्त्री॰—-—शी आधारे क्यप् + टाप्—बिस्तरा, बिछौना
- शय्या—स्त्री॰—-—शी आधारे क्यप् + टाप्—बाँधना, नत्थी करना
- शय्याध्यक्षः —पुं॰—शय्या-अध्यक्षः —-—राजा के शयनकक्ष का अधीक्षक
- शय्यापाल—वि॰—शय्या-पाल—-—राजा के शयनकक्ष का अधीक्षक
- शय्योत्सङ्गः—पुं॰—शय्या-उत्सङ्गः—-—पलंग का एक पार्श्व
- शय्यागत—वि॰—शय्या-गत—-—पलंग पर लेटा हुआ
- शय्यागत—वि॰—शय्या-गत—-—रोगी
- शय्यागृहम्—नपुं॰—शय्या-गृहम्—-—शयन-कक्ष
- शरः—पुं॰—-—शृ + अच्— बाण, तीर
- शरः—पुं॰—-—शृ + अच्—एक प्रकार का सफेद सरकंडा या घास
- शरः—पुं॰—-—शृ + अच्—कुछ जमे हुए दूध की मलाई, मलाई
- शरः—पुं॰—-—शृ + अच्—चोट, क्षति, घाव
- शरः—पुं॰—-—शृ + अच्—पाँच की संख्या
- शरम्—नपुं॰—-—-—पानी
- शराग्र्यः—पुं॰—शर-अग्र्यः—-—बढ़िया तीर
- शराभ्यासः—पुं॰—शर-अभ्यासः—-—तीरंदाजी
- शरासनम्—नपुं॰—शर-असनम्—-—धनुष, कमान
- शरास्यम्—नपुं॰—शर-आस्यम्—-—धनुष, कमान
- शराक्षेपः—पुं॰—शर-आक्षेपः—-—तीरों की वर्षा
- शरारोप—पुं॰—शर-आरोप—-—धनुष
- शरावापः—पुं॰—शर-आवापः—-—धनुष
- शराश्रय—वि॰—शर-आश्रय—-—तरकस
- शराहत—वि॰—शर-आहत—-—जिसके तीर लगा हो
- शरेषिका—स्त्री॰—शर-ईषिका—-—बाण
- शरेष्टः—पुं॰—शर-इष्टः—-—आम का वृक्ष
- शरौघः—पुं॰—शर-ओघः—-—बाणों का समूह, बाणवर्षा
- शरकाण्डः—पुं॰—शर-काण्डः—-—नरकुल की डंडी
- शरकाण्डः—पुं॰—शर-काण्डः—-—बाण की लकड़ी
- शराघातः—पुं॰—शर-घातः—-—बाण से लक्ष्यवेध करना, तीरंदाजी
- शरजम्—नपुं॰—शर-जम्—-—ताजा मक्खन
- शरजन्मन्—पुं॰—शर-जन्मन्—-—कार्तिकेय का विशेषण
- शरजालम्—नपुं॰—शर-जालम्—-—बाणों का समूह या ढेर
- शरधिः—पुं॰—शर-धिः—-—तरकस
- शरपातः—पुं॰—शर-पातः—-—बाण का छोड़ना
- शरस्थानम्—नपुं॰—शर-स्थानम्—-—बाण का निशाना
- शरपुङ्खः —पुं॰—शर-पुङ्खः —-—बाण का पंखदार किनारा
- शरपुङ्खा—स्त्री॰—शर- पुङ्खा—-—बाण का पंखदार किनारा
- शरफलम्—नपुं॰—शर-फलम्—-—बाण का फल
- शरभङ्गः—पुं॰—शर-भङ्गः—-—एक ऋषि जिसके दर्शन राम ने दण्डकारण्य में किये थे
- शरभूः—पुं॰—शर-भूः—-—कार्तिकेय
- शरमल्लः—पुं॰—शर-मल्लः—-—धनुर्धर, तीरंदाज़
- शरवनम्—नपुं॰—शर-वनम्—-—नरकुलों का झुरमुट
- शरवणम्—नपुं॰—शर-वणम्—-—नरकुलों का झुरमुट
- शरोद्भवः—पुं॰—शर-उद्भवः—-—कार्तिकेय के विशेषण
- शरभवः—पुं॰—शर-भवः—-—कार्तिकेय के विशेषण
- शरवर्षः—पुं॰—शर-वर्षः—-—बाणों की वर्षा या बौछार
- शरवाणिः—पुं॰—शर-वाणिः—-—बाण का सिरा
- शरवाणिः—पुं॰—शर-वाणिः—-—धनुर्धर
- शरवाणिः—पुं॰—शर-वाणिः—-—बाणनिर्माता
- शरवाणिः—पुं॰—शर-वाणिः—-—पदाति
- शरवृष्टिः—स्त्री॰—शर-वृष्टिः—-—बाणों की बौछार
- शरव्रातः—पुं॰—शर-व्रातः—-—बाणों का समूह
- शरसन्धानम्—वि॰—शर-सन्धानम्—-—बाण का निशाना लगाना
- शरसम्बाध—वि॰—शर-सम्बाध—-—बाणों से ढका हुआ
- शरस्तम्बः—पुं॰—शर-स्तम्बः—-—नरकुलों का गुच्छा
- शरटः—पुं॰—-—शॄ + अटन्—गिरगिट
- शरटः—पुं॰—-—शॄ + अटन्—कुसुम्भ
- शरणम्—नपुं॰—-—शॄ + ल्युट्—प्ररक्षा, सहायता, साहाय्य, प्रतिरक्षा
- शरणम्—नपुं॰—-—शॄ + ल्युट्—आसरा, आश्रयस्थान
- शरणम्—नपुं॰—-—शॄ + ल्युट्—ओट, सहारा, विश्रामस्थल (व्यक्तियों के लिए भी प्रयुक्त)
- शरणं गम्——-—-—शरण में जाना, आश्रय लेना, सहारा लेना
- शरणम् ई——-—-—शरण में जाना, आश्रय लेना, सहारा लेना
- शरणम् या——-—-—शरण में जाना, आश्रय लेना, सहारा लेना
- शरणम्—नपुं॰—-—-—देवालय, शौचागार, कक्ष
- शरणम्—नपुं॰—-—-—आवास, घर, निवासस्थल
- शरणम्—नपुं॰—-—-—भट, बिल, माँद
- शरणम्—नपुं॰—-—-—क्षति, हत्या
- शरणार्थिन्—वि॰—शरणम्-आर्थिन्—-—शरण या रक्षा ढूँढने वाला
- शरणैषिन्—वि॰—शरणम्-एषिन्—-—शरण या रक्षा ढूँढने वाला
- शरणागत—वि॰—शरणम्-आगत—-—प्ररक्षा या शरण में गया हुआ, आश्रय लेने वाला, आश्रयार्थी
- शरणापन्न—वि॰—शरणम्-आपन्न—-—प्ररक्षा या शरण में गया हुआ, आश्रय लेने वाला, आश्रयार्थी
- शरणोन्मुख—वि॰—शरणम्-उन्मुख—-—शरण या प्ररक्षा खोजने वाला
- शरण्डः—पुं॰—-—शॄ + अंडच्—पक्षी
- शरण्डः—पुं॰—-—शॄ + अंडच्—गिरगिट
- शरण्डः—पुं॰—-—शॄ + अंडच्—ठग, धूर्त
- शरण्डः—पुं॰—-—शॄ + अंडच्—लम्पट, स्वेच्छाचारी
- शरण्डः—पुं॰—-—शॄ + अंडच्—एक प्रकार का आभूषण
- शरण्य—वि॰—-—शरणे साधुः यत्—रक्षा करने के योग्य, शरण देने वाला, प्ररक्षक, आश्रय
- शरण्य—वि॰—-—शरणे साधुः यत्—जिसे रक्षा की आवश्यकता है, दीन, दयनीय,
- शरण्यः—पुं॰—-—-—शिव का विशेषण
- शरण्यम्—नपुं॰—-—-—आश्रयस्थल, शरणगृह
- शरण्यः—पुं॰—-—-—प्ररक्षक, जो शरणागत की रक्षा करता है
- शरण्यम्—नपुं॰—-—-—प्ररक्षा, प्रतिरक्षा
- शरण्यः—पुं॰—-—-—क्षति, चोट
- शरण्युः—पुं॰—-—शॄ् + अन्यु—प्ररक्षक
- शरण्युः—पुं॰—-—शॄ् + अन्यु—बादल
- शरण्युः—पुं॰—-—शॄ् + अन्यु—हवा
- शरद्—स्त्री॰—-—शॄ + अदि—पतझड़, शरदृतु (आश्विन तथा कार्तिक मास में होने वाली ऋतु)
- शरद्—स्त्री॰—-—शॄ + अदि—वर्ष
- शरदन्तः—पुं॰—शरद्-अन्तः—-—शरद् का अन्त, सर्दी का मौसम
- शरदम्बुधरः—पुं॰—शरद्- अम्बुधरः—-—शरद ऋतु का बादल
- शरदुदाशयः—पुं॰—शरद्- उदाशयः—-—शरत्कालीन सरोवर
- शरत्कामिन्—पुं॰—शरद्-कामिन् —-— कुत्ता
- शरत्कालः—पुं॰—शरद्-कालः—-—शरत् काल, पतझड़ का मौसम
- शरद्घनः—पुं॰—शरद्-घनः—-—शरद ऋतु का बादल
- शरन्मेघः—पुं॰—शरद्-मेघः—-—शरद ऋतु का बादल
- शरच्चन्द्रः —पुं॰—शरद्-चन्द्रः —-—शरत्कालीन चन्द्रमा
- शरत्त्रियामा—स्त्री॰—शरद्-त्रियामा—-—शरत्कालीन रात्रि
- शरत्पद्मः—पुं॰—शरद्-पद्मः—-—श्वेत कमल
- शरत्पद्मम्—नपु॰—शरद्-पद्मम्—-—श्वेत कमल
- शरत्पर्वन्—नपु॰—शरद्-पर्वन्—-—कोजागर नाम का उत्सव
- शरन्मुखम्—नपु॰—शरद्-मुखम्—-—शरद ऋतु का आरम्भ
- शरदा—स्त्री॰—-—शरद् + टाप्—पतझड़
- शरदा—स्त्री॰—-—शरद् + टाप्—वर्ष
- शरदिज—वि॰—-—शरदि जायते - जन् + ड, सप्तम्या अलुक्—पतझड़ या शरद ऋतु से सम्बन्ध रखने वाला
- शरभः—पुं॰—-—शॄ + अभच्—हाथी का बच्चा
- शरभः—पुं॰—-—शॄ + अभच्—आख्यायिकाओं में वर्णित आठ पैर का जन्तु जो सिंह से बलबान् होता है
- शरभः—पुं॰—-—शॄ + अभच्—ऊँट
- शरभः—पुं॰—-—शॄ + अभच्—टिड्डा
- शरभः—पुं॰—-—शॄ + अभच्—टिडडी
- शरयुः—स्त्री॰—-—शॄ + अयुः—एक नदी, सरयू
- शरयुः—पुं॰—-—शॄ + अयुः—वायु, हवा
- शरयुः—स्त्री॰—-—शॄ + अयुः—एक नदी का नाम जिसके तट पर अयोध्यानगरी स्थित है
- शरयूः—स्त्री॰—-—शॄ + अयुः, पक्षे ऊङ्—एक नदी का नाम जिसके तट पर अयोध्यानगरी स्थित है
- शरयूः—स्त्री॰—-—शॄ + अयुः, पक्षे ऊङ्—एक नदी, सरयू
- शरल—वि॰—-—शॄ + अलच्—सीधा, अवक्र
- शरल—वि॰—-—शॄ + अलच्—ईमानदार, खरा, निष्कपट, निश्छल
- शरल—वि॰—-—शॄ + अलच्—सीधासादा, भोलाभाला, स्वाभाविक
- शरलः—पुं॰—-—शॄ + अलच्—चीड़ का वृक्ष
- शरलः—पुं॰—-—शॄ + अलच्—आग
- शरलकम्—नपुं॰—-—शरल + कन्—पानी
- शरव्यम्—नपुं॰—-—शरवे शरशिक्षायै हितं-शरु + यत्—(तीर मारने का) निशाना, लक्ष्य
- शराटिः—पुं॰—-—शर + अट् + इन्—एक प्रकार का पक्षी
- शरातिः—पुं॰—-—शर + अत् + इन्—एक प्रकार का पक्षी
- शरारु—वि॰—-—शृ + आरुं—अहितकर, अनिष्टकर, क्षतिकारक
- शरावः—पुं॰—-—शरं दध्यादिसारभवति अव् + अण्—कम गहरा बर्तन, थाली, मिट्टी का तौला, कतोरा, तस्तरी
- शरावः—पुं॰—-—शरं दध्यादिसारभवति अव् + अण्—ढकना, ढक्कन
- शरावः—पुं॰—-—शरं दध्यादिसारभवति अव् + अण्—दो कुडव के बराबर नाप
- शरावम्—नपुं॰—-—शरं दध्यादिसारभवति अव् + अण्—कम गहरा बर्तन, थाली, मिट्टी का तौला, कतोरा, तस्तरी
- शरावम्—नपुं॰—-—शरं दध्यादिसारभवति अव् + अण्—ढकना, ढक्कन
- शरावम्—नपुं॰—-—शरं दध्यादिसारभवति अव् + अण्—दो कुडव के बराबर नाप
- शरावती—स्त्री॰—-—शर + मतुप् + ङीप्, दीर्घ वकारस्य—वह नगर जिसका शासक राम ने लव को बनाया था
- शरिमन्—पुं॰—-—शृ्णाति यौवनम् शृ + इमन्—पैदा करना, जन्म देना
- शरीरम्—नपुं॰—-—शृ + ईरन्—(जड चेतन पदार्थों की) काया, देह
- शरीरम्—नपुं॰—-—शृ + ईरन्—संघटक तत्त्व
- शरीरम्—नपुं॰—-—शृ + ईरन्—दैहिक शक्ति
- शरीरम्—नपुं॰—-—शृ + ईरन्—मृत शरीर, शव
- शरीरान्तरम्—नपुं॰—शरीरम्-अन्तरम्—-—शरीर का आन्तरिक भाग
- शरीरान्तरम्—नपुं॰—शरीरम्-अन्तरम्—-—दूसरा शरीर
- शरीरावरणम्—नपुं॰—शरीरम्-आवरणम्—-—खाल, चमड़ी
- शरीरकर्तृ—पुं॰—शरीरम्-कर्तृ—-—पिता
- शरीरकर्षणम्—नपुं॰—शरीरम्-कर्षणम्—-—शरीर की कृशता
- शरीरजः—पुं॰—शरीरम्-जः—-—रोग
- शरीरजः—पुं॰—शरीरम्-जः—-—काम, प्रणयोन्माद
- शरीरजः—पुं॰—शरीरम्-जः—-—कामदेव
- शरीरजः—पुं॰—शरीरम्-जः—-—पुत्र, सन्तान
- शरीरतुल्य—वि॰—शरीरम्-तुल्य—-—समान अर्थात् उतना प्रिय जितना अपना शरीर
- शरीरदण्डः—पुं॰—शरीरम्-दण्डः—-—शारीरिक दंड
- शरीरदण्डः—पुं॰—शरीरम्-दण्डः—-—कार्य-साधना
- शरीरधृक्—वि॰—शरीरम्-धृक्—-—शरीरधारी
- शरीरपतनम्—नपुं॰—शरीरम्-पतनम् पात्—-—मृत्यु, मौत
- शरीरपातः—पुं॰—शरीरम्-पातः—-—मृत्यु, मौत
- शरीरपाकः—पुं॰—शरीरम्-पाकः—-—(शरीर की) कृशता
- शरीरबद्ध—वि॰—शरीरम्-बद्ध—-—शरीर से युक्त, शरीरधारी, शरीरी
- शरीरबन्धः—पुं॰—शरीर-बन्धः—-—शारीरिक ढांचा
- शरीरबन्धः—पुं॰—शरीर-बन्धः—-—शरीर से युक्त होना अर्थात् शरीरधारी प्राणी का जन्म
- शरीरबन्धकः—वि॰—शरीरम्-बन्धकः—-—सशरीर प्रतिभू
- शरीरभाज्—वि॰—शरीरम्-भाज्—-—शरीरधारी, शरीरी
- शरीरभाज्—पुं॰—शरीरम्-भाज्—-—जन्तु, शरीरधारी प्राणी
- शरीरभेदः—पुं॰—शरीरम्-भेदः—-—(आत्मा से) शरीर का वियोग, मृत्यु
- शरीरयष्टिः—स्त्री॰—शरीरम्-यष्टिः—-—पतला शरीर, सुकुमार, दुबला-पतला
- शरीरयात्रा—स्त्री॰—शरीरम्-यात्रा—-—आजीविका
- शरीरविमोक्षणम्—नपुं॰—शरीरम्-विमोक्षणम्—-—आत्मा का शरीर से छुटकारा, मुक्ति
- शरीरवृत्तिः—स्त्री॰—शरीरम्-वृत्तिः—-—शरीर का पालन पोषण
- शरीरवैकल्यम्—नपुं॰—शरीरम्-वैकल्यम्—-—शारीरिक रोग, बीमारी, व्याधि
- शरीरशुश्रूषा—स्त्री॰—शरीरम्-शुश्रूषा—-—व्यक्तिगत सेवा
- शरीरसंस्कारः—पुं॰—शरीरम्-संस्कारः—-—व्यक्ति की सजावट
- शरीरसंस्कारः—पुं॰—शरीरम्-संस्कारः—-—नाना प्रकार के शुद्धिसंस्कारों के अनुष्ठान द्वारा शरीर को निर्मल करना
- शरीरसंपत्तिः—स्त्री॰—शरीरम्-संपत्तिः—-—शरीर की समृद्धि, (अच्छा) स्वास्थ्य
- शरीरपादः—पुं॰—शरीरम्-पादः—-—शरीर की दुर्बलता, कृशता
- शरीरस्थितिः—स्त्री॰—शरीरम्-स्थितिः—-—शरीर का पालन पोषण
- शरीरस्थितिः—स्त्री॰—शरीरम्-स्थितिः—-—भोजन करना, खाना
- शरीरकम्—नपुं॰—-—शरीर + कन्—देह
- शरीरकम्—नपुं॰—-—शरीर + कन्—छोटा शरीर
- शरीरकः—पुं॰—-—-—आत्मा
- शरीरिन्—वि॰—-—शरीर + इनि—शरीरधारी, शरीरयुक्त, शरीर
- शरीरिन्—वि॰—-—शरीर + इनि—जीवित
- शरीरिन्—पुं॰—-—-—कोई भी शरीरधारी वस्तु (चाहे जड़ हो चाहे चेतन)
- शरीरिन्—पुं॰—-—-—सजीव प्राणी
- शरीरिन्—पुं॰—-—-—मनुष्य आत्मा (शरीर से युक्त)
- शर्करजा—स्त्री॰—-—शृ + करन् + जन् + ड + टाप्—कंदयुक्त चीनी, मिश्री
- शर्करा—स्त्री॰—-—शृ + करन + टाप्—कंदयुक्त चीनी
- शर्करा—स्त्री॰—-—शृ + करन + टाप्—कंकड़ी, रोड़ी, बजरी
- शर्करा—स्त्री॰—-—शृ + करन + टाप्—कंकरीला रूप
- शर्करा—स्त्री॰—-—शृ + करन + टाप्—बालू से युक्त भूमि, रेत
- शर्करा—स्त्री॰—-—शृ + करन + टाप्—टुकड़ा, खण्ड
- शर्करा—स्त्री॰—-—शृ + करन + टाप्—ठींकरा
- शर्करा—स्त्री॰—-—शृ + करन + टाप्—कोई भी कड़ा कण
- शर्करा—स्त्री॰—-—शृ + करन + टाप्—पथरी का रोग
- शर्करोदकम्—नपुं॰—शर्करा-उदकम्—-—खांडमिश्रित जल, चीनी डाल कर मीठा किया हुआ पानी
- शर्करासप्तमी—स्त्री॰—शर्करा-सप्तमी—-—वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन मनाया जाने वाला अनुष्ठान
- शर्करिक—वि॰—-—शर्करा + ठक्—कंकरीला, बजरीदार, किरकिरा
- शर्करिल—वि॰—-—शर्करा + इलच्—कंकरीला, बजरीदार, किरकिरा
- शर्करी—स्त्री॰—-—-—नदी
- शर्करी—स्त्री॰—-—-—करघनी, मेखला
- शर्धः—पुं॰—-—शृध् + घञ्—अपानवायु का त्याग, अफारा
- शर्धः—पुं॰—-—शृध् + घञ्—दल, समूह
- शर्धः—पुं॰—-—शृध् + घञ्—सामर्थ्य, शक्ति
- शर्धजह—वि॰—-—शर्ध + हा + खश्, मुम्—अफारा उत्पन्न करने वाला
- शर्धजहः—पुं॰—-—शर्ध + हा + खश्, मुम्—उड़द या माष की दाल
- शर्धनम्—नपुं॰—-—शृध् + ल्युट्—अपानवायु् को छोडने की क्रिया
- शर्ब्—भ्वा॰ पर॰ <शर्बति>—-—-—जाना, हिलना-डुलना
- शर्ब्—भ्वा॰ पर॰ <शर्बति>—-—-—क्षतिग्रस्त करना, मार डालना ।
- शर्मन्—पुं॰—-—शृ + मनिन्—ब्राह्मण के नाम के आगे जोड़ी जाने वाली उपाधि यथा विष्णुशर्मन्
- शर्मन्—नपुं॰—-—शृ + मनिन्—प्रसन्नता, आनन्द, खुशी
- शर्मन्—नपुं॰—-—शृ + मनिन्—आशीर्वाद
- शर्मन्—नपुं॰—-—शृ + मनिन्—घर, आधार
- शर्मद—वि॰—शर्मन्-द—-—आनन्ददायक
- शर्मदः—पुं॰—शर्मन्-दः—-—विष्णु का विशेषण
- शर्मरः—पुं॰—-—शर्मन् + रा + क—एक प्रकार का परिधान, वस्त्र
- शर्या—स्त्री॰—-—शृ + यत् + टाप्—रात्रि
- शर्या—स्त्री॰—-—शृ + यत् + टाप्—अंगुली
- शर्व्—भ्वा॰ पर॰ <शर्वति>—-—-—जाना
- शर्व्—भ्वा॰ पर॰ <शर्वति>—-—-—चोट पहुँचाना, क्षति पहुँचाना, मार डालना
- शर्वः—पुं॰—-—शृ + व—शिव
- शर्वः—पुं॰—-—शृ + व—विष्णु्
- शर्वरः—पुं॰—-—शॄ + ष्वरच्— कामदेव
- शर्वरम्—नपुं॰—-—-—अन्धकार
- शर्वरी—स्त्री॰—-—शॄ + वनिप्, ङीप्, वनोर च—रात
- शर्वरी—स्त्री॰—-—शॄ + वनिप्, ङीप्, वनोर च—हल्दी
- शर्वरी—स्त्री॰—-—शॄ + वनिप्, ङीप्, वनोर च—स्त्री
- शर्वरीशः—पुं॰—शर्वरी-ईशः—-—चन्द्रमा
- शर्वाणी—स्त्री॰—-—शर्व + ङीष्, <आनुक्>—शिव की पत्नी पार्वती
- शर्शरीक—वि॰—-—शॄ + ईकन्, द्वित्वादि—उपद्रवी, क्रूर
- शर्शरीकः—पुं॰—-—-—धूर्त, पाजी, दुर्जन
- शल्—भ्वा॰ आ॰< शलते>—-—-—हिलाना, हरकत देना, क्षुब्ध करना
- शल्—भ्वा॰ आ॰< शलते>—-—-—काँपना
- शल्—भ्वा॰ पर॰ <शलति>—-—-—जाना
- शल्—भ्वा॰ पर॰ <शलति>—-—-—तेज़ दौड़ना
- शल्—चुरा॰ आ॰ <शालयते>—-—-—प्रशंसा करना
- शलः—पुं॰—-—शल् + अच्— साँग, बर्छी
- शलः—पुं॰—-—शल् + अच्—मेख
- शलः—पुं॰—-—शल् + अच्—भृंगी नाम का शिव का एक गण
- शलः—पुं॰—-—शल् + अच्—ब्रह्मा
- शलम्—नपुं॰—-—-—साही का कांटा
- शलकः—पुं॰—-—शल् + कन्—मक्कड़, मकड़ा
- शलङ्गः—पुं॰—-—शल् + अङ्गच्—राजा, प्रभु
- शलभः—पुं॰—-—शल् + अभच्—टिड्डा, टिड्डी
- शलभः—पुं॰—-—शल् + अभच्—पतंगा
- शललम्—नपुं॰—-—शल् + अलच्—साही का काटां
- शलली—स्त्री॰—-—-—साही का काटां
- शलली—स्त्री॰—-—-—छोटी साही
- शलाका—स्त्री॰—-—शल् + आकः, टाप्—छोटी छड़ी, खूँटी, डण्डा, कील, टुकड़ा, पतला सीखचा
- शलाका—स्त्री॰—-—शल् + आकः, टाप्—पेन्सिल ( आँख में सुर्मा आंजने की) सलाई
- शलाका—स्त्री॰—-—शल् + आकः, टाप्—बाण
- शलाका—स्त्री॰—-—शल् + आकः, टाप्—साँग, ने़जा
- शलाका—स्त्री॰—-—शल् + आकः, टाप्—एक नोकदार शल्योपकरण (घाव की गहराई नापने के लिए )
- शलाका—स्त्री॰—-—शल् + आकः, टाप्—छतरी की तीली
- शलाका—स्त्री॰—-—शल् + आकः, टाप्—(हाथ पैर की अंगुलियों की जड़ की ) हड्डी
- शलाका—स्त्री॰—-—शल् + आकः, टाप्—अंकुर, फुनगी, कोंपल
- शलाका—स्त्री॰—-—शल् + आकः, टाप्—रंग भरने की कूची
- शलाका—स्त्री॰—-—शल् + आकः, टाप्—दाँत साफ करने की कूची, दाँत-कुरेदनी
- शलाका—स्त्री॰—-—शल् + आकः, टाप्—साही
- शलाका—स्त्री॰—-—शल् + आकः, टाप्—हाथी दाँत या हड्डी का बना जूआ खेलने का आयताकार (पासा) टुकड़ा
- शलाकाधूर्तः—पुं॰—शलाका-धूर्तः—-—उचक्का, ठग
- परिशलाकम्—अव्य॰—शलाका-परि—-—जूए में मनहूस पासा पड़ना
- शलाटु—वि॰—-—शल् + आटु—अनपका
- शलाटुः—पुं॰—-—-—कन्दविशेष
- शलाभोलिः—पुं॰—-—-—ऊँट
- शल्कम्—नपुं॰—-—शल् + कन—मछली का वल्कल या छिलका
- शल्कम्—नपुं॰—-—शल् + कन—वल्कल, छाल (वृक्षों की)
- शल्कम्—नपुं॰—-—शल् + कन—भाग, अंश, खण्ड
- शल्कलम्—नपुं॰—-—शल् + कलच् —मछली का वल्कल या छिलका
- शल्कलम्—नपुं॰—-—शल् + कलच् —वल्कल, छाल (वृक्षों की)
- शल्कलम्—नपुं॰—-—शल् + कलच् —भाग, अंश, खण्ड
- शल्कलिन्—पुं॰—-—शल्कन + इनि—मछली
- शल्किन्—पुं॰—-—शल्क + इनि—मछली
- शल्भ्—भ्वा॰ आ॰< शल्भते>—-—-—प्रशंसा करना
- शल्मलिः—स्त्री॰—-—शल् + मलच् + इन् —रेशमी रूई का वृक्ष, सेमल
- शल्मली—स्त्री॰—-—शल् + मलच् + इन् पक्षे ङीप्—रेशमी रूई का वृक्ष, सेमल
- शल्यम्—नपुं॰—-—शल् + यत्—बर्छी, नेज़ा, सांग
- शल्यम्—नपुं॰—-—शल् + यत्—बाण, तीर
- शल्यम्—नपुं॰—-—शल् + यत्—काँटा, खपची
- शल्यम्—नपुं॰—-—शल् + यत्—मेख, खूंटी, थूणी
- शल्यम्—नपुं॰—-—शल् + यत्—शरीर में घुसा हुआ कोई पीड़ा कारक काँटा आदि
- शल्यम्—नपुं॰—-—शल् + यत्—ह्रदयविदारक शोक या किसी तीक्ष्ण पीड़ा का कारण
- शल्यम्—नपुं॰—-—शल् + यत्—हड्डी
- शल्यम्—नपुं॰—-—शल् + यत्—कठिनाई, कष्ट
- शल्यम्—नपुं॰—-—शल् + यत्—पाप, जुर्म
- शल्यम्—नपुं॰—-—शल् + यत्—विष
- शल्यः—पुं॰—-—-—साही, झाऊ चूहा
- शल्यः—पुं॰—-—-—काँटेदार झाड़ी
- शल्यः—पुं॰—-—-—शल्यचिकित्सा में खपचियों का उखेड़ना
- शल्यः—पुं॰—-—-—बाड़, सीमा
- शल्यः—पुं॰—-—-—एक प्रकार की मछली
- शल्यः—पुं॰—-—-—मद्रदेश का राजा, पांडु की द्वितीय पत्नी माद्री का भाई, नकुल और सहदेव का मामा
- शल्यारिः—पुं॰—शल्यम्-अरिः—-—युधिष्टिर का विशेषण
- शल्याहरणम्—नपुं॰—शल्यम्-आहरणम्—-—कांटा या फांस आदि निकालना, शल्यशास्त्र का वह भाग जो शरीर से असंगत सामग्री को उखाड़ फेंकने से संबंध रखता है
- शल्योद्धरणम्—नपुं॰—शल्यम्-उद्धरणम्—-—कांटा या फांस आदि निकालना, शल्यशास्त्र का वह भाग जो शरीर से असंगत सामग्री को उखाड़ फेंकने से संबंध रखता है
- शल्योद्धारः—पुं॰—शल्यम्-उद्धारः—-—कांटा या फांस आदि निकालना, शल्यशास्त्र का वह भाग जो शरीर से असंगत सामग्री को उखाड़ फेंकने से संबंध रखता है
- शल्यक्रिया—स्त्री॰—शल्यम्-क्रिया—-—कांटा या फांस आदि निकालना, शल्यशास्त्र का वह भाग जो शरीर से असंगत सामग्री को उखाड़ फेंकने से संबंध रखता है
- शल्यशास्त्रम्—नपुं॰—शल्यम्-शास्त्रम्—-—कांटा या फांस आदि निकालना, शल्यशास्त्र का वह भाग जो शरीर से असंगत सामग्री को उखाड़ फेंकने से संबंध रखता है
- शल्यकण्ठः—पुं॰—शल्यम्-कण्ठः—-—झाऊ चूहा
- शल्यलोमन्—नपुं॰—शल्यम-लोमन्—-—साही का काँटा
- शल्यहर्तृ—पुं॰—शल्यम्-हर्तृ—-—निरैया, निराने वाला
- शल्यकः—पुं॰—-—शल्य + कन्—साँग, नेज़ा, सलाख़
- शल्यकः—पुं॰—-—शल्य + कन्—खपची, फांस, कांटा
- शल्यकः—पुं॰—-—शल्य + कन्—झाऊ, चूहा, साही
- शल्लः—पुं॰—-—शल्ल् + अच्—मेंढक
- शल्लम्—पुं॰—-—-—बक्कल, छाल
- शल्लकः—पुं॰—-—शल्ल + कन्—वृक्ष, शोण वृक्ष
- शल्लकम्—नपुं॰—-—-—बक्कल, छाल
- शल्लकी—स्त्री॰—-—शल्लक + ङीष्—साही
- शल्लकी—स्त्री॰—-—-—एक वृक्ष विशेष जो हाथि़यों को बहुत प्रिय हैं
- शल्लकीद्रवः—पुं॰—शल्लकी-द्रवः—-—धूप, लोबान
- शल्वः—पुं॰—-—शल् + वन्—एक देश का नाम
- शव्—भ्वा॰ पर॰ <शवति>—-—-—जाना, पहुँचना
- शव्—भ्वा॰ पर॰ <शवति>—-—-—बदलना, परिवर्तन करना, रूपान्तर करना
- शवः—पुं॰—-—शव् + अच्—लाश, मुर्दा शरीर
- शवम्—नपुं॰—-—शव् + अच्—लाश, मुर्दा शरीर
- शवम्—नपुं॰—-—-—जल
- शवाच्छादनम्—नपुं॰—शव-आच्छादनम्—-—मृतक शरीर का आवरण, कफन
- शवाश—वि॰—शव- आश—-—मुर्दा खाकर जीने वाला
- शवकाम्यः—पुं॰—शव-काम्यः—-—कुत्ता
- शवयानम्—नपुं॰—शव-यानम्—-—मुर्दा ढोने की गाड़ी, अरथी, एक प्रकार की पालकी जिसमें मृतक शरीर रख कर श्मशान भूमि में ले जाते हैं
- शवरथः—पुं॰—शव-रथः—-—मुर्दा ढोने की गाड़ी, अरथी, एक प्रकार की पालकी जिसमें मृतक शरीर रख कर श्मशान भूमि में ले जाते हैं
- शवर—वि॰—-—-—
- शवल—वि॰—-—-—
- शवसानः—पुं॰—-—शव + असानच्—यात्री
- शवसानः—पुं॰—-—शव + असानच्—मार्ग, सड़क
- शवसानम्—नपुं॰—-—-—क़बरिस्तान, शवाधिस्थान
- शशः—पुं॰—-—शश् + अच्—ख़रगोश, खरहा
- शशः—पुं॰—-—शश् + अच्—चन्द्रमा का कलंक (जो खरगोश की आकृति का समझा जाता है)
- शशः—पुं॰—-—शश् + अच्—कामशास्त्र में वर्णित चार प्रकार के पुरुषों में से एक भेद
- शशः—पुं॰—-—शश् + अच्—लोध्र वृक्ष
- शशः—पुं॰—-—शश् + अच्—बोल नामक खुशबूदार गोंद
- शशाङ्कः—पुं॰—शश-अङ्कः—-—चाँद
- शशाङ्कः—पुं॰—शश-अङ्कः—-—कपूर
- शशार्धमुख—वि॰—शश-अर्धमुख—-—अर्धचन्द्राकार सिर वाला (बाण आदि)
- शशमूर्तिः—पुं॰—शश-मूर्तिः—-—चन्द्रमा का विशेषण
- शशलेखा—स्त्री॰—शश-लेखा—-—चाँद की कला, चन्द्रकला
- शशादः—पुं॰—शश-अदः—-—बाज़, श्येन
- शशादः—पुं॰—शश-अदः—-—पुरंजय के पिता इक्ष्वाकु का एक पुत्र
- शशादनः—पुं॰—शश-अदनः—-—बाज़, श्येन
- शशोर्णम्—नपुं॰—शश-ऊर्णम्—-—ख़रगोश के बाल, खरहे की त्वचा
- शशलोमम्—नपुं॰—शश-लोमम्—-—ख़रगोश के बाल, खरहे की त्वचा
- शशधरः—पुं॰—शश-धरः—-—चन्द्रमा
- शशधरः—पुं॰—शश-धरः—-—कपूर
- शशमौलिः—पुं॰—शश-मौलिः—-—शिव का विशेषण
- शशलुप्तकम्—नपुं॰—शश-लुप्तकम्—-—नखक्षत, नाखून का घाव
- शशभृत्—पुं॰—शश-भृत्—-—चाँद
- शशभृत्—पुं॰—शश-भृत्—-—शिव का विशेषण
- शशलक्ष्मणः—पुं॰—शश-लक्ष्मणः—-—चाँद का विशेषण
- शशलाञ्छनः—पुं॰—शश-लाञ्छनः—-—चन्द्रमा
- शशलाञ्छनः—पुं॰—शश-लाञ्छनः—-—कपूर
- शशबिन्दुः—पुं॰—शश-बिन्दुः—-—चाँद
- शशबिन्दुः—पुं॰—शश-बिन्दुः—-—विष्णु का विशेषण
- शशविन्दुः—पुं॰—शश-विन्दुः—-—चाँद
- शशविन्दुः—पुं॰—शश-विन्दुः—-—विष्णु का विशेषण
- शशविषाणम्—नपुं॰—शश-विषाणम्—-—खरगोश का सींग (असंभव बात का संकेत करने के लिए प्रयुक्त, नितान्त असंभावना)
- शशशृङ्गम्—नपुं॰—शश-शृङ्गम्—-—खरगोश का सींग (असंभव बात का संकेत करने के लिए प्रयुक्त, नितान्त असंभावना)
- शशस्थली—स्त्री॰—शश-स्थली—-—गंगा यमुना के बीच की भूमि, दोआबा
- शशकः—पुं॰—-—शश + कन्—खरगोश, खरहा
- शशकः—पुं॰—-—शश + कन्—शश
- शशिन्—पुं॰—-—शशोऽस्त्यस्य इनि—चाँद
- शशिन्—पुं॰—-—शशोऽस्त्यस्य इनि—कपूर
- शशीशः—पुं॰—शशिन्-ईशः—-—शिव का विशेषण
- शशिकला—स्त्री॰—शशिन्-कला—-—चन्द्र्ना की एक लेखा
- शशिकान्तः—पुं॰—शशिन्-कान्तः—-—चन्द्रकांतमणि
- शशिकान्तम्—नपुं॰—शशिन्-कान्तम्—-—कमल
- शशिकोटिः—पुं॰—शशिन्-कोटिः—-—चन्द्रशृङ्ग
- शशिग्रहः—पुं॰—शशिन्-ग्रहः—-—चन्द्रमा का ग्रहण
- शशिजः—पुं॰—शशिन्-जः—-—बुध का विशेषण (चन्द्रमा का पुत्र)
- शशिप्रभ—वि॰—शशिन्-प्रभ—-—चन्द्रमा की कांति वाला, चाँद जैसा उज्ज्वल और श्वेत
- शशिप्रभम्—नपुं॰—शशिन्-प्रभम्—-—कुमुदिनी
- शशिप्रभा—स्त्री॰—शशिन्-प्रभा—-—चाँद का प्रकाश
- शशिभूषणः—पुं॰—शशिन्-भूषणः—-—शिव के विशेषण
- शशिभृत्—पुं॰—शशिन्-भृत्—-—शिव के विशेषण
- शशिमौलिः—पुं॰—शशिन्-मौलिः—-—शिव के विशेषण
- शशिशेखरः—पुं॰—शशिन्-शेखरः—-—शिव के विशेषण
- शशिलेखा—स्त्री॰—शशिन्-लेखा—-—चन्द्रमा की कला
- शश्वत्—अव्य॰—-—शश् + वत्, वा—लगातार, अनादि काल से, सदा के लिए
- शश्वत्—अव्य॰—-—शश् + वत्, वा—सतत, बार-बार, सदैव, बहुशः, पुनः पुनः
- शश्वत्—अव्य॰—-—शश् + वत्, वा—समास में प्रयुक्त होने पर ’शश्वत्’ का अर्थ है ’टिकाऊ, नित्य’ यथा शश्वच्छान्ति अर्थात् नित्य शान्ति
- शष्कुली—स्त्री॰—-—शष् + कुलच् + ङीष्—कान का विवर, श्रवण-मार्ग
- शष्कुली—स्त्री॰—-—शष् + कुलच् + ङीष्—एक प्रकार की पकी हुई रोटी
- शष्कुली—स्त्री॰—-—शष् + कुलच् + ङीष्—चावल की कांजी
- शष्कुली—स्त्री॰—-—शष् + कुलच् + ङीष्—कान का एक रोग
- शस्कुली—स्त्री॰—-—शस् + कुलच् + ङीष्—कान का विवर, श्रवण-मार्ग
- शस्कुली—स्त्री॰—-—शस् + कुलच् + ङीष्—एक प्रकार की पकी हुई रोटी
- शस्कुली—स्त्री॰—-—शस् + कुलच् + ङीष्—चावल की कांजी
- शस्कुली—स्त्री॰—-—शस् + कुलच् + ङीष्—कान का एक रोग
- शष्पः—पुं॰—-—शष् + पक्—प्रतिभाक्षय, औसान का अभाव
- शस्पा—स्त्री॰—-—-—प्रतिभाक्षय, औसान का अभाव
- शष्पम्—स्त्री॰—-—-—नया घास
- शस्—भ्वा॰ पर॰ <शसति>—-—-—काटना, मार डालना, नष्ट करना
- विशस्—भ्वा॰ पर॰—वि-शस्—-—काट डालना, मार डालना
- शस्—अदा॰ पर॰ <शस्ति>—-—-—सोना
- शसनम्—नपुं॰—-—शस् + ल्युट्—घायल करना, मार डालना
- शसनम्—नपुं॰—-—शस् + ल्युट्—बलि, मेध, (यज्ञ में पशु का) ।
- शस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शंस् + क्त—प्रशंसा किया गया, स्तुति किया गया
- शस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शंस् + क्त—शुभ आनन्द प्रद
- शस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शंस् + क्त—यथार्थ, सर्वोत्तम
- शस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शंस् + क्त—क्षतिग्रस्त, घायल
- शस्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शंस् + क्त—वध किया हुआ
- शस्तम्—नपुं॰—-—-—आनन्द, कल्याण
- शस्तम्—नपुं॰—-—-—श्रेष्ठता, मांगलिकता
- शस्तम्—नपुं॰—-—-—शरीर
- शस्तम्—नपुं॰—-—-—अंगुलित्राण
- शस्तिः—स्त्री॰—-—शंस् + क्तिन्—प्रशंसा, स्तुति
- शस्त्रम्—नपुं॰—-—शस् + ष्ट्रन्—हथियार, आयुध
- शस्त्रम्—नपुं॰—-—शस् + ष्ट्रन्—उपकरण, औज़ार
- शस्त्रम्—नपुं॰—-—शस् + ष्ट्रन्—लोहा
- शस्त्रम्—नपुं॰—-—शस् + ष्ट्रन्—इस्पात
- शस्त्रम्—नपुं॰—-—शस् + ष्ट्रन्—स्तोत्र
- शस्त्राभ्यासः— पुं॰—शस्त्रम्-अभ्यासः—-—शस्त्रास्त्रों के चलाने का अभ्यास, सैनिक व्यायाम
- शस्त्रायसम्—नपुं॰—शस्त्रम्-अयसम्—-—इस्पात
- शस्त्रायसम्—नपुं॰—शस्त्रम्-अयसम्—-—लोहा
- शस्त्रास्त्रम्—नपुं॰—शस्त्रम्-अस्त्रम्—-—प्रहार करने और फेंक कर मारने वाले हथियार, आयुध और अस्त्र
- शस्त्रास्त्रम्—नपुं॰—शस्त्रम्-अस्त्रम्—-—आयुध या शस्त्र
- शस्त्राजीवः— पुं॰—शस्त्रम्-आजीवः—-—पेशेवर सिपाही
- शस्त्रोपजीविन्— पुं॰—शस्त्रम्-उपजीविन्—-—पेशेवर सिपाही
- शस्त्रोद्यमः— पुं॰—शस्त्रम्-उद्यमः—-—(प्रहार करने के लिए) शस्त्र उठाना
- शस्त्रोपकरणम्—नपुं॰—शस्त्रम्-उपकरणम्—-—युद्ध के उपकरण या शस्त्रास्त्र, सैनिक सामग्री
- शस्त्रकारः— पुं॰—शस्त्रम्-कारः—-—शस्त्रनिर्माता
- शस्त्रकोषः— पुं॰—शस्त्रम्-कोषः—-—किसी हथियार का म्यान, आवरण
- शस्त्रग्राहिन्—वि॰—शस्त्रम्-ग्राहिन्—-—(युद्ध के लिए) शस्त्रास्त्र धारण करने वाला
- शस्त्रजीविन्—पुं॰—शस्त्रम्-जीविन्—-—शस्त्र प्रयोग के द्वारा जीवन यापन करने वाला, व्यावसायिक सैनिक
- शस्त्रवृत्ति—पुं॰—शस्त्रम्-वृत्ति—-—शस्त्र प्रयोग के द्वारा जीवन यापन करने वाला, व्यावसायिक सैनिक
- शस्त्रदेवता—स्त्री॰—शस्त्रम्-देवता—-—आयुधों की अधिष्ठात्री देवता
- शस्त्रदेवता—स्त्री॰—शस्त्रम्-देवता—-—देवरूपकृत हथियार
- शस्त्रधरः—पुं॰—शस्त्रम्-धरः—-—शस्त्रभृत्
- शस्त्रन्यासः—पुं॰—शस्त्रम्-न्यासः—-—हथियार डाल देना
- शस्त्रपाणि—वि॰—शस्त्रम्-पाणि—-—शस्त्र धारण करने वाला, शस्त्रों से सुसज्जित
- शस्त्रपाणि—पुं॰—शस्त्रम्-पाणि—-—सशस्त्र योद्धा
- शस्त्रपूत—वि॰—शस्त्रम्-पूत—-—`शस्त्रों द्वारा पवित्रीकृत’ युद्धक्षेत्र में मारे जाने से मुक्त
- शस्त्रप्रहारः—पुं॰—शस्त्रम्-प्रहारः—-—हथियार से किया गया आघात
- शस्त्रभृत्—पुं॰—शस्त्रम्-भृत्—-—सैनिक, योद्धा
- शस्त्रमार्जः—पुं॰—शस्त्रम्-मार्जः—-—हथियार साफ़ करने वाला, शस्त्रनिर्माता, सिकलीगर
- शस्त्रविद्या—स्त्री॰—शस्त्रम्-विद्या—-—शस्त्र विज्ञान
- शस्त्रशास्त्रम्—नपुं॰—शस्त्रम्-शास्त्रम्—-—शस्त्र विज्ञान
- शस्त्रसंहतिः—स्त्री॰—शस्त्रम्-संहतिः—-—शस्त्रसंग्रह
- शस्त्रसंहतिः—पुं॰—शस्त्रम्-संहतिः—-—आयुधागार
- शस्त्रसंपातः—पुं॰—शस्त्रम्-संपातः—-—हथियारों का अकस्मात् गिरना
- शस्त्रहत—वि॰—शस्त्रम्-हत—-—हथियार से मारा गया
- शस्त्रहस्त—वि॰—शस्त्रम्-हस्त—-—शस्त्रधर
- शस्त्रहस्तः—पुं॰—शस्त्रम्-हस्तः—-—शस्त्रधारी मनुष्य ।
- शस्त्रकम्—नपुं॰—-—शस्त्र् + कन्—इस्पात
- शस्त्रकम्—नपुं॰—-—शस्त्र् + कन्—लोहा
- शस्त्रिका—स्त्री॰—-—शस्त्रक + टाप्, इत्वम्—चाकू
- शस्त्रिन्—वि॰—-—शस्त्र् + इनि—शस्त्रधारी, हथियारबंद, शस्त्रास्त्र से सुसज्जित
- शस्त्री—स्त्री॰—-—शस्त्र + ङीष्—चाकू
- शस्यम्—नपुं॰—-—शस् + यत्—अन्न, धान्य
- शस्यम्—नपुं॰—-—शस् + यत्—किसी वृक्ष या पौधे का फल या उपज
- शस्यम्—नपुं॰—-—शस् + यत्—गुण
- शस्यक्षेत्रम्—नपुं॰—शस्यम्-क्षेत्रम्—-—अन्न का खेत
- शस्यभक्षक—वि॰—शस्यम्-भक्षक—-—अन्नहारी, अनाज खाने वाला
- शस्यमञ्जरी—स्त्री॰—शस्यम्-मञ्जरी—-—अनाज की बाल
- शस्यमालिन्—वि॰—शस्यम्-मालिन्—-—जिसका खेत हरा भरा खड़ा हो
- शस्यशालिन्—वि॰—शस्यम्-शालिन्—-—अन्न या धान्य से परिपूर्ण
- शस्यसम्पन्न—वि॰—शस्यम्-सम्पन्न—-—अन्न या धान्य से परिपूर्ण
- शस्यशूकम्—नपुं॰—शस्यम्-शूकम्—-—अनाज का सिर्टा
- शस्यसम्पद्—स्त्री॰—शस्यम्-सम्पद्—-—अन्न या धान्य से अनाज की बहुतायत
- शस्यसम्बरः—पुं॰—शस्यम्-सम्बरः—-—शाल का वृक्ष, साल का पेड़
- शस्यसम्वरः—पुं॰—शस्यम्-सम्वरः—-—शाल का वृक्ष, साल का पेड़