विक्षनरी:हिन्दू धर्मकोश (अ से अ)

विक्षनरी से

अंश : (1) द्वादश आदित्यों में से एक। महाभारत में इनकी गणना इस प्रकार है :

धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणस्त्वंश एव च। भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा॥ एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुरेव च। जघन्यस्त्वेष सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः॥

(2) पुराणों के अनुसार यदुवंश के एक राजा का नाम है : 'ततः कुरुवत्सः। ततश्च अनुरथः। ततः पुरुहोत्रो जज्ञे। ततश्च अंश इति।' (श्रीमद्भागवत)

(3) धर्मशास्त्र के अनुसार पैतृक रिक्थ का विभागाङ्क : 'द्वावंशौ प्रतिपद्येत विभजन्नात्मनः पिता।'

(4) भगवद्गीता में जीवात्मा को ईश्वर का अंश कहा गया है : 'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।'

अंशक (अंशभाक्) : धर्मशास्त्र के अनुसार पैतृक सम्पत्ति में अंश (भाग) पाने वाला दायाद :

स्रवन्तीष्वनिरुद्धासु त्रयो वर्णा द्विजातयः।, प्रातरुत्त्थाय कर्तव्यं देवर्षिपितृतर्पणम्॥, निरुद्धासु न कुर्वीरन्‍नंशभाक् तत्र सेतुकृत्॥ (प्रायश्चित्ततत्त्व)

पारिवारिक, दैव तथा पितृकार्य करने का उसी को अधिकार होता है जिसे पैतृक सम्पत्ति में अंश मिलता है।

अंशी : पैतृक सम्पत्ति में अंश (भाग) पाने वाला दायाद :

विभागञ्चेत् पिता कुर्यात् स्वेच्छया विभजेत् सुताना। ज्येष्ठं वा श्रेष्ठभागेन सर्वे वा स्युः समांशिनः॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति)

[पिता अपनी सम्पत्ति का विभाग करते हुए स्वेच्छा से पुत्रों में विभाजन कर दे। ज्येष्ठ पुत्र को श्रेष्ठ भाग दे अथवा सभी पुत्र समानांशी हों।]

अंशुमान् : सूर्य का एक पर्याय (अंशवो विद्यन्ते अस्य इति)।

वंशावली के अनुसार सूर्यवंश के राजा असमञ्ज के पुत्र का नाम :

सगरस्यासमञ्जस्तु असमञ्जादयांशुमान्। दिलीपोंऽशुमतः पुत्रो दिलीपस्य भगीरथः॥ (रामायण, बालकाण्ड)

[सगर का पुत्र असमञ्ज, असमञ्ज का अंशुमान्, अंशुमान् का दिलीप और दिलीप का पुत्र भगीरथ हुआ।]

ब्रह्मवैवर्त-पुराण (प्रकृति खण्ड, अष्टम अध्याय) में गङ्गावतररण के सन्दर्भ में अंशुमान् की कथा मिलती है।

अंशुमाली : सूर्य का पर्याय (अंशूनां माला अस्ति यस्य इति)। विष्णुपुराण में आदित्य और अंशुमाली की अभिन्नता बतायी गयी है : 'आदित्य इवांशुमाली चचार।'

अः : स्वर वर्ण का षोडश अक्षर (किन्हीं के मत में यह 'अयोगवाह' है। माहेश्वर सूत्रों में इसका योग (पाठ) नहीं है)।

कामधेनुतन्त्र में इसका माहात्म्य निम्नांकित है :

अःकारं परमेशानि विसर्गसंहितं सदा। अःकारं परमेशानि रक्तविद्युत्प्रभामयम्॥ पञ्चदेवमयो वर्णः पञ्चप्राणमयः सदा। सर्वज्ञानमयो वर्ण आत्मादि तत्त्वसंयुतः॥ बिन्दुत्रयमयो वर्णः शक्तित्रयमयः सदा। किशोरवयसः सर्वे गीतावाद्यादितत्पराः॥

तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम हैं :

अः कण्ठको महासेनः कालापूर्णामृता हरिः। इच्छा भद्रा गणेशश्च रतिर्विद्यामुखी सुखम्॥ द्विबिन्दुरसना सोमोऽनिरुद्धो दुःखसूचकः। द्विजिह्वः कुण्डलं वक्रं सर्गः शक्तिर्निशाकरः॥ सुन्दरी सुयशानन्ता गणनाथो महेश्वरः॥

एकाक्षर कोश में इसका अर्थ महेश्वर किया गया है। महाभारत (13.17.126) में कथन है :

बिन्दुर्विसर्गः सुमुखः शरः सर्वायुधः सहः।

अकल : अखण्ड, एक मात्र परब्रह्म, जिसकी कला (अंश) या कलना (गणना, माप) नहीं है।

अकाली : सिक्खों में 'सहिजधारी' और 'सिंह' दो विभाग हैं। सहिजधारी वे हैं जो विशेष रूप या बाना नहीं धारण करते। इनकी नानकपंथी, उदासी, हन्दाली, मीन, रामरंज और सेवापन्थी छः शाखाएँ हैं। सिंह लोगों के तीन पंथ हैं-

(1) खालसा, जिसे गुरु गोविन्दसिंह ने चलाया,

(2) निर्मल, जिसे वीरसिंह ने चलाया और

(3) अकाली, जिसे मानसिंह ने चलाया। अकाली का अर्थ है 'अमरणशील', जो 'अकाल पुरुष' शब्द स्रे लिया गया है। अकाली सैनिक साधुओं का पंथ है, जिसकी स्थापनी सन् 1690 में हुई। उपर्युक्त नवों सिक्ख सम्प्रदाय नानकशाही 'पंजग्रंथी' से प्रार्थना आदि करते हैं। 'जपजी', 'रहरास', 'सोहिला', 'सुखमनी' एवं 'आसा- दी- वार' का संग्रह ही 'पंजग्रंथी' है।

अकाली सम्प्रदाय दूसरे सिक्ख सम्प्रदायों से भिन्न है, क्योंकि नागा तथा गोसाँइयों की तरह इनका यह सैनिक संगठन है। इसके संस्थापक मूलतः स्वयं गुरू गोविन्दसिंह थे। अकाली नीली धारीदार पोशाक पहनते हैं, कलाई पर लोहे का कड़ा, ऊँची तिकोनी नीली पगड़ी में तेज धारवाला लोहचक्र, कटार, छुरी तथा लोहे की जंजीर धारण करते हैं।

सैनिक की हैसियत से अकाली 'निहंग' कहे जाते हैं जिसका अर्थ है 'अनियंत्रित'। सिक्खों के इतिहास में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। सन् 1818 में मुट्ठीभर अकालियों ने मुलतान पर घेरा डाला तथा उस पर विजय प्राप्त की। फूलसिंह का चरित्र अकालियों के पराक्रम पर प्रकाश डालता है। फूलसिंह ने पहले-पहल अकालियों के नेता के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की जब उसने लार्ड मेट्कॉफ के अंगरक्षकों पर हमला बोल दिया था। फिर वह रणजीतसिंह की सेवा में आ गया। फूलसिंह के नेतृत्व में अकालियों ने सन् 1823 में यूसुफजइयों (पठानों) पर रणजीतसिंह को विजय दिलवायी। इस युद्ध में फूलसिंह को वीरगति प्राप्त हुई। उसका स्मारक नौशेरा में बना हुआ है, जो हिन्दू एवं मुसलमान तीर्थयात्रियों के लिए समान श्रद्धा का स्थान है।

अकालियों का मुख्य कार्यालय अमृतसर में 'अकाल बुंगा' है जो सिक्खों के कई पूज्य सिंहासनों में से एक है। अकाली लोग धार्मिक कृत्यों का निर्देश वहीं से ग्रहण करते हैं। ये अपने को खालसों का नेता समझते हैं। रणजीतसिंह के राज्यकाल में इनका मुख्य कार्यालय आनन्दपुर हो गया था, किन्तु अब इनका प्रभाव बहुत कम पड़ गया है।

अकाली संघ के सदस्य ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। उनका कोई नियमित मुखिया या शिष्य नहीं होता, किन्तु फिर भी वे अपने गुरू की आज्ञा का पालन करते हैं। गुरू की जूठन चेले (शिष्य) प्रसाद रूप में खाते हैं। वे दूसरे सिक्खों की तरह मांस एवं मदिरा का सेवन नहीं करते, किन्तु भाँग का सेवन अधिक मात्रा में करते हैं। दे. सिक्खा।

अक्रूरघाट : वृन्दावन से मथुरा जाते समय श्री कृष्ण ने अक्रूर को यमुनाजल में दिव्य दर्शन कराया था। इसीलिए इसका महत्त्व है। इसको 'ब्रह्मह्रद' भी कहते हैं। यह मथुरा-वृन्दावन के बीच कछार में स्थित है। समीप में गोपीनाथजी का मन्दिर है। वैशाख शुक्ल नवमी को यहाँ मेला होता है।

अक्षमाला : (1) अक्षों (रुद्राक्ष आदि) की माला, सुमिरनी या जपमाला। इसको अक्षसूत्र भी कहते हैं।

(2) वसिष्ठ की पत्नी का एक नाम भी अक्षमाला है। मनु ने कहा है :

अक्षमाला वसिष्ठेन संयुक्ताधमयोनिजा।

[नीच योनि में उत्पन्न अक्षमाला का वसिष्ठ के साथ विवाह हो गया।]

अक्षयचतुर्थी : मंगल के दिन पड़ने वाली चतुर्थी, जो विशेष पुण्यदायिनी होती है। इस दिन उपवास करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।

अक्षयफलावाप्ति (अक्षयतृतीया) : वैशाख शुक्ल तृतीया को विष्णुपूजा अक्षय फल प्राप्ति के लिए की जाती है। यदि कृतिका नक्षत्र इस तिथि को हो तब यह पूजा विशेष पुण्यप्रदायिनी होती है। दे. निर्णयसिन्धु, पृ. 92-94।

विष्णुमन्दिरों में इस पर्व पर विशेष समारोह होता है, जिसमें सर्वांग चन्दन की अर्चना और सत्तू का भोग लगाया जाता है।

अक्षयनवमी : कार्तिक शुक्ल नवमी। इस दिन भगवान विष्णु ने कूष्माण्ड नामक दैत्य का वध किया था। दे. व्रतराज, 34।

अक्षयवट : प्रयोग में गङ्गा-यमुना संगम के पास किले के भीतर अक्षयवट है। यह सनातन विश्ववृक्ष माना जाता है। असंख्य यात्री इसकी पूजा करने जाते हैं। काशी और गया में भी अक्षयवट हैं जिनकी पूजा-परिक्रमा की जाती है। अक्षयवट को जैन भी पवित्र मानते हैं। उनकी परम्परा के अनुसार इसके नीचे ऋषभदेवजी ने तप किया था।

अक्षर : (1) जो सर्वत्र व्याप्त हो। यह शिव तथा विष्णु का पर्याय है :

अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च।' (महाभारत) अज (जन्मरहित) जीव को भी अक्षर कहते हैं।

(2) जो क्षीण नहीं हो :

येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यम्, प्रोवाच तं तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्।' (वेदान्तसार में उद्धृत उपनिषद्)

[जिससे सत्य और अविनाशी पुरुष का ज्ञान होता है उस ब्रह्मविद्या को उसने यथार्थ रूप से कहा।] और भी कहा है :

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्‍चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥ (श्रीमद्भगवद्गीता)

[संसार में क्षर और अक्षर नाम के दो पुरुष हैं। सभी भूतों को क्षर कहते हैं। कूटस्थ को अक्षर कहते हैं।] ब्रह्मा से लेकर स्वथावर तक के शरीर को क्षर कहा गया है। अविवेकी लोग शरीर को ही पुरुष मानते हैं। भोक्ता को चेतन कहते हैं। उसे ही अक्षर पुरुष कहते हैं। वह सनातन और अविकारी है।

(3) 'न क्षरति इति अक्षरः' इस व्युत्पत्ति से विनाश-रहित, विशेषरहित, प्रणव नामक ब्रह्म को भी अक्षर कहते हैं। कूटस्थ, नित्य आत्मा को भी अक्षर कहते हैं :

क्षराद्विरुद्धधर्मत्वादक्षरं ब्रह्म भण्यते। कार्यकारणरूपं तु नश्वरं क्षरमुच्यते॥ यत्किञ्चिद्वस्तु लोकेस्मिन् वाचो गोचरतां गतम्। प्रमाणस्य च तत्सर्वमक्षरे प्रतिषिध्यते॥ यदप्रबोधात् कार्पण्यं बाह्मण्यं यत्प्रबोधतः। तदक्षरं प्रवोद्धव्यं यथोक्तेश्वरवर्त्‍मना ॥

[क्षर के विरोधी धर्म से युक्त होने के कारण अक्षर को ब्रह्म कहा गया है। कार्य-कारण रूप नश्वर को क्षर कहते हैं। इस विश्व में जो कुछ भी वस्तु वाणी से व्यवहृत होती है और जो प्रमेय है वह सब क्षर कहलाती है। जिसके अज्ञान से कृपणता और जिसके ज्ञान से ब्राह्मण्य है, उसे अक्षर जानना चाहिए।]

(4) अकार से लेकर क्षकार पर्यन्त 51 वर्ण होते हैं, ऐसा मेदिनीकोश में कहा गया है। उक्त वर्ण निम्नांकित हैं :

स्वर - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ॠ, ॡ, ए, ऐ, ओ, औ, अं अः। (15)

व्यञ्जन- क वर्ग से लेकर प वर्ग पर्यन्त। (25)

अन्तःस्थ, ऊष्म तथा संयुक्त - य,र, ल, व, श, ष, स, ह, क्ष, त्र, ज्ञ । (11)

षाण्मासिके तु सम्प्राप्ते भ्रान्तिः संजायते यतः। धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारुढान्यतः पुरा॥ (बृहस्पति)

[किसी घटना के छः मास बीत जाने पर भ्रम उत्पन्न हो जाता है, इसीलिए ब्रह्मा ने अक्षरों को बनाकर पत्रों में निबद्ध कर दिया है।]

लिपि पाँच प्रकार की है : मुद्रालिपिः शिल्पलिपिर्लिपिर्लेखनीसम्भवा। गुण्डिका घूर्णसम्भूता लिपयः पञ्चधा स्मृताः॥

[मुद्रालिपि, शिल्पलिपि, लेखनीसम्भव लिपि, गुण्डिकालिपि, घूर्णसम्भूत लिपि, ये पाँच प्रकार की लिपियाँ कही गयी हैं।] (वाराहीतन्त्र) दे. 'वर्ण'।

अक्षसूत्र : तान्त्रिक भाषा में 'अ' से लेकर 'क्ष' पर्यन्त वर्णमाला को अक्षसूत्र कहा गया है। यथा गौतमीय तन्त्र में :

पञ्चाशल्लिपिभिर्माला विहिता जपकर्मसु। अकारादिक्षकारान्ता अक्षमाला प्रकीर्तिता॥ क्षर्णं मेरुमुखं तत्र कल्पयेन्मुनिसत्तम। अनया सर्वमन्त्राणां जपः सर्वसमृद्धिदः ॥

[मुनिश्रेष्ठ ! जप कर्म में पचास लिपियों (अक्षरों) द्वारा माला बनायी जाती है। अकार से लेकर क्षकार तक को अक्षमाला कहा गया है। अक्षमाला में 'क्ष' को मेरुमुख बनाना चाहिए। इस माला से सब प्रकार की समृद्धियाँ प्राप्त होती हैं।] दे. 'माला' और 'वर्णमाला '।

अखण्ड द्वादशी  : (1) आश्विन शुक्ल एकादशी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। उस दिन उपवास किया जाता है और द्वादशी को विष्णु-पूजा की जाती है। एक वर्ष के लिए तिथिव्रत होता है।

(2) मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को भी अखण्ड द्वादशी कहते हैं। यह यज्ञों, उपवासों और व्रतों में वैकल्य दूर करती है। दे. हेमाद्रि, व्रतकाण्ड, पृ. 1118-1124।

अगम्या : समागम के अयोग्य स्त्री। गम्या और अगम्या का विवरण यम ने इस प्रकार किया है :

या अगम्या नृणामेव निबोध कथयामि ते। स्वस्त्री गम्या च सर्वेषामिति वेदे निरूपिता॥ अगम्या च तदन्या या इति वेदविदो विदुः। सामान्यं कथितं सर्वं विशेषं श्रृणु सुन्दरि॥ अगम्याश्चैव या याश्च निबोध कथयामि ताः। शूद्राणां विप्रपत्नी च विप्राणां शूद्रकामिनी॥ असत्यगम्या च निन्द्या च लोके वेदे पतिव्रते। शूद्रश्च ब्राह्मणीं गच्छेद् ब्रह्महत्याशतं लभेत्॥ तत्समं ब्राह्मणी चापि कुम्भीपाकं व्रजेद् ध्रुवम्। यदि शूद्रां व्रजेद् विप्रो वृषलीपतिरेव सः॥ स भ्रष्टो विप्रजातेश्च चाण्डालात् सोऽधमः स्मृतः। विष्ठासमश्च तत्पिण्डो मूत्रं तस्य च तर्पणम्। तत् पितृणां सुराणाञ्चा पूजने तत्समं सति। कोटिजन्मार्जितं पुण्यं सन्धयया तपसार्जितम॥ द्विजस्य वृषळीभोगान्नश्यत्येव न संशयः। ब्राह्मणश्च सुरापीतो विड्भोजी वृषलीपतिः॥ हरिवासरभोजी च कुम्भीपाकं व्रजेद् ध्रुवम्। गुरुपत्नीं राजपत्नीं सपत्नीमातरं प्रसूम्॥ सुतां पुत्रबंधु श्वश्रूं सगर्भां भगिनीं सति। सोदरभ्रातृजायाश्च भगिनीं भ्रातृकन्यकाम्॥ शिष्याञ्च शिष्यपत्नीञ्च भागिनेयस्य कामिनीम्। भ्रातृपुत्रप्रियाश्चैवात्यगम्यामाह पद्मजः॥ एतास्वेकामनेकां वा यो व्रजेन्मानवाधमः। स मातृगामी वेदेषु ब्रह्मत्याशतं लभेत्॥ अकर्मार्होऽपि सोऽस्पृंश्यो लोके वेदेऽतिनिन्दितः। स याति कुम्भीपाकं च महापापी सुदुष्करम्॥ (ब्ह्म पु., प्रकृतिखण्ड, अ. 28)

[पुरुषों के लिए अगम्या स्त्री के सम्बन्ध में मैं कहता हूँ, सुनो। सबके लिए अपनी स्त्री गम्या है, ऐसा वेद में कहा है। दूसरे की भार्या अगम्या है ऐसा वेदज्ञों ने कहा है। हे सुन्दरी ! सामान्य नियम कह दिया है, अब विशेष नियम सुनो। जो जो स्त्रियाँ समागम के योग्य नहीं हैं उनके विषय में कहता हूँ। सुनो -पतिव्रते ! शूद्रों का ब्राह्मणपत्नी के साथ और ब्राह्मण का शूद्र स्त्री के साथ संगम वर्जित है। ऐसा करने वाला लोक और वेद में निन्द्य कहा गया है । ब्राह्मणी के साथ समागम करनेवाला शूद्र सौ ब्रह्महत्याओं का फल पाता है। शूद्र के साथ समागम करने वाली ब्राह्मणी शीघ्र कुम्भीपाक नरक को जाती है। शूद्रा के साथ संभोग करने वाला ब्राह्मण शूद्रा-पति कहलाता है। वह जातिभ्रष्ट हो जाता है। उसे चाण्डाल से भी अधम कहते हैं। उसके द्वारा किया गया पिण्डदान विष्ठा के समान और तर्पण मूत्र के सदृश होता है। पितरों और देवताओं के पूजन में भी यही होता है। सन्ध्या, पूजा और तप द्वारा करोड़ों जन्मों में सञ्चित ब्राह्मण का पुण्य शूद्रा स्त्री के साथ सम्भोग करने से नष्ट हो जाता है इसमें संश्य नहीं है। मदिरा पीने वाला, वेश्यागामी के गृह में भोजन करने वाला, शूद्रा का पति तथा एकादशी के दिन भोजन करने वाला ब्राह्मण निश्चित ही कुम्भीपाक नरक प्राप्त करता है।

गुरु-स्त्री, राजा की स्त्री, सौतेली माता तथा उसकी कन्या, पुत्री, पुत्र की स्त्री, गर्भवती स्त्री, सास, बहिन, भाई की पत्नी, शिष्या, भतीजी, शिष्य की पत्नी, भांजी, भतीजे की स्त्री, इन्हें ब्रह्मा ने सर्वथा समागम के अयोग्य कहा है। जो अधम पुरुष इनमें से किसी एक अथवा अनेक के साथ समागम करता है वह मातृगामी कहा गया है और उसे सौ ब्रह्महत्याओं का पाप होता है। वह किसी प्रकार धर्मकार्य नहीं कर सकता। वह अस्पृश्य है और लोक-वेद में निन्दित माना गया है। वह कुम्भीपाक नरक को जाता है और महापापी है।]

अगस्ति (अगस्त्य) : कुछ वैदिक ऋचाओं के द्रष्टा ऋषि (ऋग्वेद 1.165.191)। ऋग्वेद में कहीं- कहीं इनका उल्लेख है, विशेष कर इनके आश्चर्यजनक प्रादुर्भाव एवं पत्नी लोपामुद्रा के सम्बन्ध के बारे में चर्चा है। ये दक्षिण भारत के संरक्षक ऋषि थे, जहाँ आज भी इनसे सम्बन्धित अनेक पवित्र स्थान हैं। प्रयाग के समीप यमुना-तट पर इनकी कुटी का स्मृति-अवशेष है।

इनकी उत्पत्ति मित्र एवं वरुण के द्वारा कुम्भ (कलश) से मानी जाती है। दो पिताओं के कारण इन्हें 'मैत्रावरुणि' कहते हैं एवं कलश से उत्पन्न होने के कारण ये 'कुम्भसम्भव' तथा 'घटयोनि' कलाते हैं। अगस्त्य का एक वैदिक नाम 'मान्य' भी है क्योंकि कुम्भ से जन्म लेने के बाद वे 'मान' से 'मित' (मापे गये) हुए थे।

संन्यासी के रूप में वृद्धावस्था में अपनी और पितरों की नरक से रक्षा करने के लिए अगस्त्य को एक पुत्र उत्पन्न करने की कामना हुई। अतएव उन्होंने तपोबल से एक स्त्री लोपामुद्रा की सृष्टि सभी जीवों के सर्वोत्तम भागों से की तथा उसे विदर्भ के राजा को कन्या के रूप में सौंप दिया। अलौकिक सौन्दर्य होते हुए भी राजा के भय से किसी का साहस उसका पाणिग्रहण करने का नहीं हुआ। अन्त में अगस्त्य ने उस कन्या के साथ विवाह करने का प्रस्ताव राजा से किया, मुनि के क्रोध के भय से राजा ने उसे मान लिया। लोपामुद्रा अगस्त्य मुनि की पत्नी बनी। गङ्गाद्वार में तपस्या करने के उपरान्त जब अगस्त्य ने अपनी पत्नी का आलिंगन करना चाहा तो उसने तब तक अस्वीकार किया जब तक उसे उसके पिता के घर के समान रत्नाभूषणों से न विभूषित किया जाय। लोपामुद्रा की इस इच्छापूर्ति के लिए अगस्त्य कई राजाओं के पास धन के लिए गये, किन्तु उनके कोषों में आय-व्यय समान था और वे सहायता न दे सके। तब वे मणिमती के दानव राजा इल्वल के यहाँ गये, जो अपने धन के लिए प्रसिद्ध था। इल्वल ब्राह्मणों का शत्रु था। उसका वातापी नामक भाई था। किसी ब्राह्मण के आगमन पर इल्वल अपने भाई वातापी को मारकर उसका मांस ब्राह्मण को खिलाता था। जब ब्राह्मण भोजन कर चुकता तो वह जादू की शक्ति से वातापी को पुकारता जो ब्राह्मण का पेट फाड़कर निकल आता। इस प्रकार अपने शत्रु ब्राह्मणों का वह नाश किया करता था। दानव ने अपना प्रयोग अगस्त्य पर भी किया किन्तु उसकी जादूशक्ति वातापी को जीवित न कर सकी। अगस्त्य उसको पले ही पचा चुके थे। इल्वल ने क्रोधित होने के कारण अगस्त्य को धन देने से इनकार किया। ऋषि ने अपने नेत्रों से अग्नि उत्पन्न कर उसको भस्म कर दिया। अन्ततोगत्वा ऋषि को लोपामुद्रा से एक पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ जिसका नाम 'दृधस्यु इध्मवाह' पड़ा। दे. 'इल्वल'।

अगस्त्य का दूसरा प्रसिद्ध कार्य नहुष को अभिशप्त कर सर्प बनाना था। नहुष इन्द्र का पद प्राप्त करके शची को ग्रहण करना चाहता था। शची की शर्त पूरी करने के लिए वह सात ऋषियों द्वारा ढोयी जाने वाली पालकी पर बैठ शची के पास जा रहा था। उसने रास्ते में अगस्त्य के सिर पर पैर रख दिया और शीघ्रता से चलने के लिए 'सर्प-सर्प' कहा। इस पर ऋषियों ने उसे 'सर्प' हो जाने का उस समय तक के लिए शाप दिया, जब तक युधिष्ठिर उसका उद्धार न करें। महाभारत का नहुषोपाख्यान इसी पुराकथा के आधार पर लिखा गया है।

संस्कृत ग्रन्थों में अगस्त्य का नाम विन्ध्य पर्वत-माला की असामान्य वृद्धि को रोकने एवं महासागर को पी जाने के सम्बन्ध में लिया जाता है। ये दक्षिणावर्त में आर्य संस्कृति के प्रथम प्रचारक थे।

शरीर-त्याग के बाद अगस्त्य को आकाश के दक्षिणी भाग में एक अत्यन्त प्रकाशमान तारे के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। इस नक्षत्र का उदय सूर्य के हस्त नक्षत्र में आने पर होता है, जब वर्षा ऋतु समाप्ति पर होती है। इस प्रकार अगस्त्य प्रकृति के उस रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं जो मानसून का अन्त करता है एवं विश्वास की भाषा में महासागर का जल पीता है (जो फिर से उस चमकीले सूर्य को लाता है, जो वर्षा काल में बादलों से छिप जाता है और पौराणिक भाषा में विन्ध्य की असामान्य वृद्धि को रोककर सूर्य को मार्ग प्रदान करता है)।

दक्षिण भारत में अगस्त्य का सम्मान विज्ञान एवं साहित्य के सर्वप्रथम उपदेशक के रूप में होता है। वे अनेक प्रसिद्ध तमिल ग्रन्थों के रचयिता कहे जाते हैं। प्रथम तमिल व्याकरण की रचना अगस्त्य ने ही की थी। वहाँ उन्हें अब भी जीवित माना जाता है जो साधारण आँखों से नहीं दीखते तथा त्रावनकोर की सुन्दर अगस्त्य पहाड़ी पर वास करते माने जाते हैं, जहाँ से तिन्नेवेली की पवित्र पोरुनेई अथवा ताम्रपर्णी नदी का उद्भव होता है।

हेमचन्द्र के अनुसार उनके पर्याय हैं (1) कुम्भसम्भव, (2) मित्रावरुणि, (3) अगस्ति, (4) पीताब्धि, (5) वातापिद्विट्, (6) आग्नेय, (7) आग्निमारुते, (8) घटोद्भव।

अगस्‍त्‍यदर्शन-पूजन : सूर्य जब राशि-चक्र के मध्य में अवस्थित होता है उस समय अगस्त्य तारे को देखने के पश्चात् रात्रि में उसका पूजन होता है। (नीलमत पुं., श्लोक 834 से 838।)

अगस्त्यार्घ्‍यदान : इस व्रत में अगस्त्य को अर्घ्‍य प्रदान किया जाता है। दे. मत्स्य पुं., अ. 61; अगस्त्योत्पत्ति के लिए दे. ग. पु., भाग 1; 118, 1-6। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अगस्त्य तारा भिन्न-भिन्न कालों में उदय होता है। सूर्य के कन्या राशि में प्रवेश करने से तीन दिन और बीस घटी पूर्व अर्घ्‍य प्रदान किया जाना चाहिए। दे. भोज का राजमार्तण्ड।

अग्नायी : अग्नि की पत्नी का एक नाम, परन्तु यह प्रसिद्ध नही है।

अग्नि : (1) हिन्दू देवमण्डल का प्राचीनतम सदस्य, वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य-रूप हैं- (1) व्योम में सूर्य, (2) अन्तरिक्ष (मध्याकाश) में विद्युत् और (3) पृथ्वी पर साधारण अग्नि। ऋग्वेद में सबसे अधिक सूक्त अग्नि की स्तुति में ही अर्पित किये गये हैं। अग्नि के आदिम रूप संसार के प्रायः सभी धर्मों में पाये जाते हैं। वह 'गृहपति' है और परिवार के सभी सदस्यों से उसका स्नेहपूर्ण घनिष्‍ठ सम्बन्ध है (ऋ., 2. 1. 8; 7.15.12; 1.1.8; 4.1.8; 3.1.7)। वह अन्धकार, निशाचर, जादू-टोना, राक्षस, और रोगों को दूर करने वाला है (ऋ., 3.5.1; 1.94.5; 8.43. 32; 10.88.2)। अग्नि का यज्ञीय स्वरूप मानव सभ्यता के विकास का लम्बा चरण है। पाचन और शक्ति-निर्माण की कल्पना इसमें निहित है। यज्ञीय अग्नि वेदिका में निवास करता है (ऋ. 1. 140.1)। वह समिधा, घृत और सोम से शक्तिमान होता है (ऋ. 3.5. 10; 1.94. 14); वह मानवों और देवों के बीच मध्यस्थ और सन्देशवाहक है (ऋ. वे. 1. 26.9; 1.94.3; 1. 59.3; 1.59.1; 8.2.1; 1.58.1; 8.2.5; 1.28.4; 3.1.17; 10.2.1; 1.12.4 आदि)। अग्नि की दिव्य उत्पत्ति का वर्णन भी वेदों में विस्तार से पाया जाता है (ऋ. 3.9.5; 6.8.4)। अग्नि दिव्य पुरोहित है (ऋ., 2.1.2; 1.1.1; 1.94.6)। वह देवताओं का पौरोहित्य करता है। वह यज्ञों का राजा है (राजा त्वम-ध्वराणाम्; ऋ. वे. 3.1.18; 8.11.4; 2.8.3; 8.43.24 आदि)।

नैतिक तत्त्वों से भी अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है। अग्नि सर्वदर्शी है। उस्की 100 अथवा 1000 आँखें हैं जिनसे वह मनुष्य के सभी कर्मों को देखता है (ऋ.10. 89.5)। उसके गुप्तचर हैं। वह मनुष्य के गुप्त जीवन को भी जानता है। वह ऋत का संरक्षक है (ऋ. 10. 8.5)। अग्नि पापों को देखता और पापियों को दण्‍ड देता है (ऋ. 4. 3. 5-8 ; 4.5. 4-5)। वह पाप को क्षमा भी करता है (ऋ. 7. 93. 7)।

अग्नि की तुलना बृहस्पति और ब्रमणस्पति से भी की गयी है। वह मन्त्र, धी (बुद्धि) और ब्रह्म का उत्पादक है। इस प्रकार का अभेद सूक्ष्मतम तत्व से दर्शाया गया है। वैदिक साहित्य में अग्नि के जिस रूप का वर्णन है उससे विश्व के वैज्ञानिक और दार्शनिक तत्त्वों पर काफी प्रकाश पड़ता है।

जैमिनि ने मीमांसामूत्र के 'हविःप्रक्षेपणाधिकरण' में अग्नि के छ: प्रकार बताये हैं : (1) गार्हपत्य, (2) आहवनीय, (3) दक्षिणाग्नि, (4) सभ्य, (5) आवसर्थ्य और औपासन।

अग्नि' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ इस प्रकार है : जो 'ऊपर की ओर जाता है' (अगि गतौ, अंगेर्नलोपश्च, अंग्+नि और नकार का लोप)।

अग्नि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पौराणिक गाथा इस प्रकार है- सर्वप्रथम धर्म की वसु नामक पत्नी से अग्नि उत्पन्न हुआ। उसकी पत्नी स्वाहा से उसके तीन पुत्र हुए - (1) पावक, (2) पवमान और (3) शुचि। छठे मन्वन्तर में अग्नि की वसुधारा नामक पत्नी से द्रविणक आदि पुत्र हुए, जिनमें 45 अग्नि-संतान उत्पन्न हुए। इस प्रकार सब मिलकर 49 अग्नि हैं। विभिन्न कर्मों में अग्नि के भिन्न-भिन्न नाम हैं। लौकिक कर्म में अग्नि का प्रथम नाम 'पावक' है। गृहप्रवेश आदि में निम्नांकित अन्य नाम प्रसिद्ध है :

अग्नेस्तु मारुतो नाम गर्भाधाने विधीयते। पुंसवने चन्द्रनामा शुङ्गाकर्मणि शोभनः॥ सीमन्ते मङ्गलो नाम प्रगल्भो जातकर्मणि। नाग्नि स्‍यात्‍प्रार्थिवो ह्मग्निः प्राश्ने व शुचिस्तथा॥ सत्यनामाथ चूडायां व्रतादेशे समुद्भवः। गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्मग्निरुच्यते॥ वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजकः स्मृतः। चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे॥ प्रायश्चिते बिधुश्चैव पाकयज्ञे तु साहसः। लक्षहोमे तु विह्निः स्यात् कोटिहोमे हुताशनः॥ पूर्णाहुत्यां मृडो नाम शान्तिके वरदस्तथा। पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारिके॥ वश्यर्थे शमनो नाम वरदानेऽभिदूषकः। कोष्ठे तु जठरो नाम क्रव्‍यादो मृतभक्षणे॥ (गोभिलपुत्रकृत संग्रह)

[गर्भाधान में अग्नि को 'मारुत' कहते हैं। पुंसवन में 'चन्द्रमा', शुङ्गाकर्म में 'शोभन', सीमन्त में 'मङ्गल', जात-कर्म में 'प्रगल्भ', नामकरण में 'पार्थिव', अन्नप्राशन में 'शुचि', चूड़ार्म में 'सत्य', 'समुद्भव', गोदान में 'सूर्य', केशान्त (समावर्तन) में 'अग्नि', विसर्ग (अर्थात् अग्निहोत्रादिक्रियाकलाप) में 'वैश्वानर', विवाह में 'योजक', चतुर्थी में 'शिखी', धृति में 'अग्नि', प्रायश्चित (अर्थात् प्रायश्चित्‍तात्‍मक महाव्याहृति होम) में 'विधु', पाकयज्ञ (अर्थात् पाकाङ्ग होम, वृषोत्सर्ग, गृहप्रतिष्ठा आदि में) 'साहस', लक्षहोम में 'वह्नि', कोटिहोम में 'हुताशन', पूर्णाहुति में 'मृड', शान्ति में 'वरद', पौष्टिक में 'बलद', आभिचारिक में 'क्रोधाग्नि'., वशीकरण में 'शमन', वरदान में 'अभिदूषक', कोष्ठ में 'जठर' और मृत-भक्षण में 'क्रव्याद' कहा गया है।]

अग्नि के रूप का वर्णन इस प्रकार है :, पिङ्गभ्रूश्मश्रुकेशाक्षः पीनाङ्गजठरोऽरुणः। छागस्थः साक्षमूत्रोऽग्निः सप्ताचिः शक्तिधारकः॥ (आदित्यपुराण)

[भौंहें, दाढ़ी, केश और आँखे पीली है, अङ्ग स्थूल है और उदर लाल है। बकरे पर आरूढ़ है, अक्षमाला लिये है। इसकी सात ज्वालाएँ हैं और शक्ति को धारण करता है।]

होम योग्य अग्नि के शुभ लक्षण निम्नांकित हैं : अर्चिष्मान् पिण्डितशिखः सर्पिःकाञ्चनसन्निभः। स्निग्धः प्रदक्षिणश्चैव वह्निः स्यात् कार्यसिद्धये॥ (वायुपुराण.)

[ज्वालायुक्त, पिण्डितशिख, घी एवं सुवर्ण के समान, चिकना और दाहिनी ओर गतिशील अग्नि सिद्धिदायक होता है।]

देहजन्‍य अग्नि में शब्द-उत्पादन की शक्ति होती है, जैसा कि 'सङ्गीतदर्पण' में कहा है :

आत्मना प्रेरितं चित्तं वह्निमाहन्ति देहजम्। ब्रह्मग्रन्थिस्थितं प्राणं स प्रेरयति पावकः॥ पावकप्रेरितः सोऽथ क्रमादूर्ध्वपथे चरन्। अतिसूक्ष्मध्वनिं नाभौ हृदि सूक्ष्मं गले पुनः॥ पुष्टं शीर्षे त्वपुष्टञ्ज कृत्रिमं वदने तथा। आविर्भावयतीत्येवं पञ्चधा कीर्त्यते बुधैः॥ नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विदुः। जातः प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते॥

[आत्मा के द्वारा प्रेरित चित्त देह में उत्पन्न अग्नि को आहत करता है। ब्रह्मग्रन्थि में स्थित प्राणवायु को वह अग्नि प्रेरित करता है। अग्नि के द्वारा प्रेरित वह प्राण क्रम से ऊपर चलता हुआ नाभि में अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि करता है तथा गले और हृदय में भी सूक्ष्म ध्वनि करता है। सिर में पुष्ट और अपुष्ट तथा मुख में कृत्रिम प्रकाश करता है। विद्वानों ने पाँच प्रकार का अग्नि बताया है। नकार प्राण का नाम है, दकार अग्नि का नाम है। प्राण और अग्नि के संयोग से नाद की उत्पत्ति होती है।]

सब देवताओं में इसका प्रथम आराध्यत्व ऋग्वेद के सर्वप्रथम मन्त्र ``अग्निमीले पुरोहितम्`` से प्रकट होता है।

(2) योगाग्नि अथवा ज्ञानाग्नि के रूप में भी 'अग्नि' का प्रयोग होता है। गीता में कथन है : 'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।' 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥'

अग्नितीर्थ : श्री बदरीनाथ मन्दिर के सिंहद्वार से 4-5 सीढ़ी उतरकर शङ्गराचार्य मन्दिर है। इसमें लिङ्गमूर्ति है। उससे 3-4 सीढ़ी नीचे आदि केदार का मन्दिर है। केदारनाथ से नीचे तप्तकुण्ड है। उसे 'अग्नितीर्थ' कहा जाता है।

अग्निदग्ध : अग्नि से जला हुआ। यह संज्ञा उनकी है जो मृतक चिता पर जलाये जाते हैं। साधारणतः शव की विसर्जन क्रिया में मृतकों के दो प्रकार थे, पहला अग्निदग्ध, दूसरा अनग्निदग्ध (जो अग्नि में न जलाया गया हो)। अथर्ववेद दो और प्रकार प्रस्तुत करता है, यथा (1) परोप्त (फेंका हुआ) तथा (2) उद्धृत (लटकाया हुआ)। इनका ठीक अर्थ बोधगम्य नहीं है। जिमर प्रथम का अर्थ उस ईरानी प्रणाली के सदृश बतलाता है, जिसमें शव को पशु-पक्षियों के भोज्यार्थ फेंक दिया जाता था तथा दूसरे के लिए उसका कथन है कि वृद्ध व्यक्ति असहाय होने पर वैसे ही छोड़ दिये जाते थे। किन्तु दूसरे के लिए ह्विटने का मत है कि मृतक को किसी प्रकार के चबूतरे पर छोड़ दिया जाता था।

ऋग्वेद-काल में शव को भूगर्भ में गाड़ने की भी प्रथा थी। एक पूरे मन्त्र में इसकी विधि का वर्णन है। अग्नि-दाह का भी समान रूप से प्रचार था। यह प्रणाली दिनों-दिन बढ़ती ही गयी। छान्दोग्य उपनिषद् में मृतक के शरीर की सजावट के उपादान आमिक्षा (दही), वस्त्र एवं आभूषण को, जो पूर्ववर्ती काल में स्वर्ग प्राप्ति के साधन समझे जाते थे, व्यर्थ बतलाया गया है। वाजसनेयी संहिता में दाह क्रिया के मन्त्रों में केवल अग्निदाह को प्रधानता दी गयी है एवं शव की राख को श्मशान भूमि में गाड़ने को कहा गया है। ऋग्वेद में मृतक शरीर पर घी लेपने एवं मृतक के साथ एक छाग (बकरे) को जलाने का वर्णन है, जो दूसरे लोक का पथप्रदर्शक समझा जाता था। अथर्ववेद में एक बोझ ढोने वाले बैल के जलाने का वर्णन है, जो दूसरे लोक में सवारी के काम आ सके। यह आशा की जाती थी कि मृतक अपने सम्पूर्ण शरीर, सभी अङ्गों से युक्त (सर्वतनुसङ्ग) पुनर्जन्म ग्रहण करेगा, यद्यपि यह भी कहा गया है कि आँख सूर्य में, श्वास पवन में चले जाते हैं। गाड़ने या जलाने के पूर्व शव को नहलाया जाता था तथा पैर में कूड़ी बाँध दी जाती थी ताकि मृतक फिर लौटकर पृथ्वी पर न आ जाय।

अग्निपुराण : विष्णुपुराण में पुराणों की जो सूची पायी जाती है उसमें अग्निपुराण आठवाँ है। अग्नि की महिमा का इसमें विशेष रूप से वर्णन है, और अग्नि ही इसके वक्ता हैं। अतः इसका नाम अग्निपुराण पड़ा। इसमें सब मिलाकर 383 अध्याय हैं। अठारह विद्याओं का इसमें संक्षेप रूप से वर्णन है। रामायण, महाभारत, हरिवंश आदि ग्रन्थों का सार इसमें संगृहीत है। इसमें वेदाङ्ग (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष) तथा उपवेदों (अर्थशास्त्र, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा आयुर्वेद) का वर्णन भी पाया जाता है। दर्शनों के विषय भी इसमें विवेचित हुए हैं। काव्यशास्त्र का भी समावेश है। कौमार-व्याकरण, एकाक्षर कोश तथा नामलिङ्गानुशासन भी इसमें समाविष्ट हैं। पुराण के पञ्चलक्षणों (सर्ग, प्रति-सर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित) के अतिरिक्त इसमें विविध सांस्कृतिक विषयों का भी वर्णन है। अतः यह पुराण एक प्रकार का विश्वकोश बन गया है। अन्य पुराणों में इसकी श्लोकसंख्या पन्द्रह सहस्त्र बतायी गयी है और वास्तव में है भी पन्द्रह सहस्र से कुछ अधिक। इस पुराण का दावा है : 'आग्नेये हि पुराणेऽअस्मिन सर्वा विद्याः प्रदर्शिताः' अर्थात् इस अग्निपुराण में समस्त विद्याएँ प्रदर्शित हैं।

अग्निपुराण का एक दूसरा नाम 'विह्नपुराण' भी है। डॉ० हाजरा को इसकी एक प्रति मिली थी। निबन्ध ग्रन्थों में अग्निपुराण के नाम से जो वचन उद्धृत किये गये हैं वे प्रायः सब इसमें पाये जाते हैं, जबकि 'अग्नि पुराण' के नाम से मुद्रित संस्करणों में वे नहीं मिलते। इसलिए कतिपय विद्वान् 'वह्निपुराण' को ही मूल अग्निपुराण मानते हैं। वह्निपुराण नामक संस्करण में शिव की जितनी महिमा गायी गयी है उतनी अग्निपुराण नामक संस्करण में नहीं। इस कारण भी वह्निपुराण प्राचीन माना जाता है।

अग्निवंश्यायन : एक आचार्य, जिनका उल्लेख यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में मिलता है।

अग्निव्रत : इस व्रत में फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी को उपवास करना चाहिए। इसमें एक वर्ष तक वासुदेव-पूजा नियमित रूप से करने का विधान है। दें. विष्णुधर्मोत्तर, जिल्द 3, पृ. 143।

अग्निशाला : यज्ञ मण्डप का एक भाग, जिसका अर्थ अथर्ववेद में साधारण गृह का एक भाग, विशेष कर मध्य का बड़ा कक्ष किया गया है। यहाँ अग्निकुण्ड होता था।

अग्निष्टोम : एक विशिष्ट यज्ञ। स्वर्ग के इच्छुक व्यक्ति को अग्निष्टोम यज्ञ करना चाहिए। ज्योतिष्टोम यज्ञ का विस्तार अग्निष्टोम है। इसका समय वसन्त ऋतु है। नित्य अग्निहोत्रकर्ता इस यज्ञ के अधिकारी हैं। इसमें सोम मुख्य द्रव्य और इन्द्र, वायु आदि देवता है। 16 ऋत्विजों के चार गण होते हैं - (1) होतृगण, (2) अधवर्युगण, (3) ब्रह्मगण और (4) उद्गातृगण। प्रत्येक गण में चार-चार व्यक्ति होते हैं : होतृगण में (1) होता, (2) प्रशास्ता, (3) अच्छावाक् (4) ग्रावस्तोता। अध्वर्युगण में (1) अध्वर्यु, (2) प्रतिप्रस्थाता, (3) नेष्ठा, (4) उन्नेता। ब्रह्मगण में (1) ब्रह्मा, (2) ब्राह्मणाच्छशी, (3) आग्नीध्र और (4) होता। उद्गातृगण में (1) उद्गाता (2) प्रस्तोता, (3) प्रतिहर्ता और (4) सुब्रह्मण्य। यह यज्ञ पाँच दिनों में समाप्त होता था।

प्रथम दिन दीक्षा, उसके दीक्षणीय आदि अङ्गों का अनुष्ठान; दूसरे दिन प्रायणीय याग और सोमलता का क्रय; तीसरे एवं चौथे दिनों में प्रातः काल और सायं काल में प्रवर्ग्‍थ उपसन्‍न नामक यज्ञ का अनुष्‍ठान और चौथे दिन में प्रवर्ग्‍य उद्वासन के अनन्तर अग्निषोमीय पशुयज्ञ का अनुष्ठान किया जाता था। जिस यजमान के घर में पिता, पितामह और प्रपितामह से किसी ने वेद का अध्ययन नहीं किया अथवा अग्निष्टोम याग भी नहीं किया हो उसे इस यज्ञ में दुब्रार्ह्मण कहा जाता था। जिस यजमान के पिता, पितामह अथवा प्रपितामह में से किसी ने सोमपान नहीं किया हो तो इस दोष के परिहारार्थ ऐन्द्राग्न्य पशुयज्ञ करना चाहिए। तीनों पशुओं को एक साथ मारने के लिए एक ही स्तम्भ में तीनों को बांधना चाहिए ।

चौथे दिन अथवा तीसरी रात्रि के भोर में तीसरे पहर उठकर प्रयोग का आरम्भ करना चाहिए। वहाँ पर पात्रों को फैलाना चाहिए। यज्ञ में ग्रहपात्र वितस्तिमात्र उलूखल के आकार का होना चाहिए। ऊर्ध्वपात्र चमस पात्र परिमिति मात्रा में एवं तिरछे आकार के होने चाहिए। ये चार कोणयुक्त एवं पकड़ने के लिए दण्ड युक्त होने चाहिये। थाली मिट्टी की बनी हुई होनी चाहिए। आरम्भ में सोमलता के डंठलों से रस निकाल कर ग्रह और चमसों के द्वारा होम करना चाहिए। सूर्योदय के पश्चात आग्नेय पशुयाग करना चाहिए। इस प्रकार सामगान करने के अनन्तर प्रातःसवन की समाप्ति होती है। इसके पश्चात् मध्याह्न का सवन होता है, तब दक्षिणा दी जाती है। दक्षिणा में एक सौ बारह गायें होती हैं। फिर तीसरा सवन होता है। इस प्रकार प्रातः सवन, मध्यन्दिन सवन, तृतीय (सायं) सवन रूप सवनत्रयात्मक अग्निष्टोम नामक प्रधान याग करना चाहिए।

दूसरे यज्ञ इसके अङ्ग हैं। तृतीय सवन की समाप्ति के पश्चात् अवभृथ नामक याग होता है। जल में वरुण देवता के लिए पुरोडाश का होम किया जाता है। इसके पश्चात् अनुबन्ध्य नामक पशुयज्ञ किया जाता है। वहाँ गाय को ही पशु माना जाता है। किन्तु कलियुग में गोबलि का निषेध होने के कारण यज्ञ के नाम से गाय को छोड़ दिया जाता है। इसके अनन्तर उदयनीय और उदवसनीय (41) कार्य किये जाते हैं। इन्हें पाँचवें दिन पूरी रात्रि तक करना चाहिए। इनके समाप्त होने पर अग्निष्टोम याग की भी समाप्ति हो जाती है।

अग्निस्वामी (भाष्यकार) : मनु-रचित 'मानव श्रौतसूत्र' पर भाष्‍य के लेखक। मानव श्रौतसूत्र के दूसरे भाष्‍यकार हैं - बालकृष्ण मिश्र एवं कुमारिल भट्ट।

अग्निहोत्र : एक दैनिक यज्ञ। यह दो प्रकार का होता है- एक महीने की अवधि तक करने योग्य और दूसरा जीवन पर्यन्त साध्य। दूसरे की यह विशेषता है कि अग्नि में जीवन पर्यन्त प्रतिदिन प्रातः-सायं हवन करना चाहिए। यज्ञ करने वाले का इसी अग्नि से दाह संस्कार भी होता है। इसका क्रम स्मृति में इस प्रकार है : विवाहित ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, जो काने, बहरे, अन्धे एवं पङ्गु नहीं हैं, उन्हें वर्ण-क्रम से वसन्त, ग्रीष्म और शरद् ऋतु में अग्नि को आधान करना चाहिए। अग्नि संख्या में तीन हैं - (1) गार्हपत्य, (2) दक्षिणाग्नि और (3) आहवनीय, इनकी स्थापना निश्चित वेदी पर विभिन्न मन्त्रों द्वारा हो जाने पर सायं तथा प्रातः अग्निहोत्र करना चाहिए। अग्निहोत्र होम का ही नाम है। इसमें दस द्रव्य होते हैं- (1) दूध, (2) दही, (3) लप्सी, (4) घी, (5) भात, (6) चावल, (7) सोमरस, (8) मांस, (9) तेल और (10) उरद। कलियुग में दूध, चावल, लप्सी के द्वारा एक ऋत्विज अथवा यजमान के माध्यम से प्रतिदिन होम का विधान है। अमावस की रात्रि में लप्सी द्वारा यजमान को होम करना चाहिए। जिस दिन अग्नि की स्थापन की जाती है उसी दिन प्रथम होम प्रातः-सायं आरम्भ करना चाहिए। उस दिन प्रातः सौ आहुतियों के होम का देवता सूर्य एवं सायं काल अग्नि होता है।

अग्न्याधान के पश्चात् प्रथम अमावास्या को दर्श और पूर्णमासी को पौर्णमास याग का आरम्भ करना चाहिए। इसमें छः प्रकार के याग होते हैं : पूर्णमासी के दिन तीन और अमावास के दिन तीन। पूर्णमासी के (1) आग्नेय, (2) अग्निषोमीय और (3) उपांशु याग हैं। अमावस के (1) आग्नेय, (2) ऐन्द्र और (3) दधिपय याग होते हैं। दर्श-पूर्णमास यज्ञ भी जीवनपर्यन्त करना चाहिए। इसमें भी यज्ञ के प्रतिबन्धक दोषों से रहित तीन वर्णों को सपत्नीक होकर यज्ञ करने का अधिकार है। सामान्यतः पर्व की प्रतिपदा को यज्ञ का आरम्भ करना चाहिए।

जिस यजमान ने सोमयाग नहीं किया हो उसे पूर्णमासी के दिन अग्निकोण में पुरोडाश याग और ऐन्द्र याग करना चाहिए। जो यजमान सोमयाग कर चुका है उसे पूर्णमासी के दिन अग्निकोण में घृतउपांशु याग और अग्निषोमीय पुरोडाश याग करना चाहिए। अमावस्या के दिन आग्नेय-पुरोडाश-याग, ऐन्द्र-पयो-याग, ऐन्द्र-दधि-याग ये तीन याग करने चाहिए। इसमें चार ऋत्त्विज होते हैं : (1) अध्वर्यु, (2) ब्रह्मा, (3) होता और (4) आग्नीध्र। यजुर्वेद-कर्म करने वाला 'अध्वर्यु' ऋक्, यजु, साम इन तीनों का कर्म करनेवाला 'ब्रह्मा' और ऋग्वेद के कर्म करनेवाला 'होता' है। आग्नीध्र प्रायः अध्वर्य का ही अनुयायी होता है, उसी की प्रेरणा से कार्य करता है। पुरोडाश चावल अथवा यव का बनाना चाहिए। अग्निहोत्र के समान यहाँ भी जिस द्रव्य से यज्ञ का आरम्भ करे उसी द्रव्य से जीवनपर्यन्त करते रहना चाहिए।

अग्निहोत्री : (1) नियमित रूप से अग्निहोत्र करनेवाला। ब्राह्मणों की एक शाखा की उपाधि भी अग्निहोत्री है। (2) कात्यायन सूत्र के एक भाष्यकार, जिनका पूरा नाम अग्निहोत्री मिश्र है।

अग्न्याधान : (अग्नि के लिए आधान)। वेदविहित अग्नि-संस्कार, अग्निरक्षण, अग्निहोत्र आदि इसके पर्याय हैं।

प्राचीन भारत में जब देवताओं की पूजा प्रत्येक गृहस्थ अग्निस्थान में करता था तब यह उसका पवित्र कर्त्तव्य होता था कि वेदी पर पवित्र अग्नि की स्थापना करे। यह कर्म 'अग्न्याधान' अर्थात् पवित्र अग्निस्थापना के दिन से प्रारम्भ होता था। अग्न्याधान करने वाला गृहस्थ चार पुरोहित चुनता था तथा गार्हपत्य एवं आहवनीय अग्नि के लिए वेदिकाएँ बनवाता था। गार्हपत्य अग्नि के लिए वृत्त एवं आहवनीय के लिए वर्ग चिह्नित किया जाता था। दक्षिणाग्नि के लिए अर्द्धवृत्त खींचा जाता था, यदि उसकी आवश्यकता हुई। तब अध्वर्यु घर्षण द्वारा या गाँव से तात्कालिक अग्नि प्राप्त करता था। फिर पञ्च भूसंस्कारों से पवित्र स्थान पर गार्हपत्य अग्नि रखता था तथा सायंकाल 'अरणी' नामक लकड़ी के दो टुकड़ें यज्ञ करनेवाले गृहस्थ एवं उसकी स्त्री को देता था, जिसके घर्षण से आगामी प्रातः वे आहवनीय अग्नि उत्पन्न करते थे।

अगोचरी : हठयोग की एक मुद्रा। 'गोरखबानी' की अष्ट-मुद्राओं में इसकी गणना है :

करण मध्ये अगोचरी मुद्रा सबद कुसबद ले उतपनी। सबद कुसबद समो कृतवा मुद्रा तौ भई अगोचरी॥

इस मुद्रा का अधिष्ठान कान माना जाता है। इसके द्वारा बाहरी शब्दों से कान को हटाकर अन्तःकरण के शब्दों की ओर लगाने का अभ्यास किया जाता है। वास्तव में गोचर (इन्द्रिय-विषय) से प्रत्याहार करके आत्मनिष्ठ होने का नाम ही अगोचरी मुद्रा है।

अग्रदास स्वामी : रामोपासक वैष्णव सन्त कवि। नाभाजी (नारायणदास), जो रामानन्दी वैष्णव सन्त कवि थे, जो रामानन्दी वैष्णव थे, अग्रदास के ही शिष्य थे एवं इन्हीं के कहने से नाभाजी ने 'भक्तमाल' की रचना की।

गलता (जयपुर, राजस्थान) की प्रसिद्ध गद्दी के ये अधिष्ठाता थे। इनका जीवन-काल सं. 1632 वि. के लगभग है। स्वामी रामानन्द के शिष्य स्वामी अनन्तानन्द और स्वामी अनन्तानन्द के शिष्य कृष्णदास पयहारी थे। ये वल्लभाचार्य के शिष्य और अष्टछाप के कवि कृष्णदास अधिकारी से भिन्न और उनके पूर्ववर्त्‍ती थे। इनके शिष्य स्वामी अग्रदास थे। ये धार्मिक कवि थे, इनकी निम्नांकित रचनाएँ पायी जाती हैं :

(1) हितोपदेश उपखाणाँ बाधनी, (2) ध्‍यानमञ्जरी, (3) रामध्यानमञ्चरी और (4) कुंडलिया।

अघमर्षण : सन्ध्योपासन के मध्य एक विशेष प्रकार की क्रिया। इसका अर्थ है 'सब पापों का नाश करनेवाला जाप।' उत्पन्न पाप को नाश करने के लिए, जैसे यज्ञों के अंङ्गभूत अवभृथ-स्‍नानमंन्त्र 'द्रुपदादिव' आदि हैं वैसे ही वैदिक सन्ध्या के अन्तर्गत मन्त्र के द्वारा शोधे गये जल को फेंकना पापनाशक क्रिया अघमर्षण है। तान्त्रिक सन्ध्या में भी इन्का विधान है :

षडङ्गन्यासमाचर्य्य वामहस्ते जलं ततः। गृहीत्वा दक्षिणेनैव संपुटं कारयेद् बुधः॥ शिव-वायु-जल-पृथ्वी-वह्नि-वीजैस्त्रिधा पुनः। अभिमन्त्र्य च मूलेन सप्तधा तत्त्वमुद्रया॥ निःक्षिपेत् तज्जलं मूर्ध्नि शेषं दक्षे निधाय च। इडयाकृष्य देहान्तःक्षालितं पापसञ्चयम्। कृष्णवर्णं तदुदकं दक्षनाड्या विरेचयेत्॥ दक्षहस्ते च तन्मन्त्री पापरूपं विचिन्त्य च। पुरतो वज्रपाषाणे निःक्षिपेद् अस्त्रमुच्चरन्॥ (तन्त्रसार)

[छः अङ्गन्यास करके बायें हाथ में जल लेकर दक्षिण हाथ से सम्पुट करे। शिव, वायु, जल, पृथ्वी और अग्निबीजों के द्वारा तीन बार फिर से अभिमन्त्रित करके और सात बार तत्त्व मुद्रा से मूलमन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके उस जल को सिर पर छोड़े और शेष जल को दक्षिण हाथ में रककर इडा नाड़ी के द्वारा संचित पाप को शरीर के भीतर धोकर काले वर्ण वाले उस जल को दक्षिण नाड़ी से विरेचन करे। दक्षिण हाथ में उस पापरूप जल को साधक विचार कर मन्त्ररूप अस्त्र का उच्चारण करते हुए सामने के पत्थर पर गिरा दे।]

अघमर्षणतीर्थ : मध्य प्रदेश, सतना की रघुराजनगर तहसील के अमुवा ग्राम में धार, कुण्डी तथा बेधक ये तीन स्थान पास-पास हैं। तीनों मिलाकर 'अभरखन' (अघमर्षण) कहे जाते हैं। धार में सिद्धेश्वर महादेव का मन्दिर, कुण्डी में तीर्थकुण्ड और बेधक में प्रजापति की यज्ञवेदी है। इन तीन स्थानों की यात्रा पापनाशक मानी जाती है।

अघोर : शिव का एक पर्याय। इसका शाब्दिक अर्थ है न+घोर (भयानक नहीं =सुन्दर)। श्वेताश्वतर उपनिषद् में शिव का 'अघोर' विशेषण मिलता है :

या ते रुद्र शिवा तनूरघोरा पापकाशिनी।'

परन्तु कालान्तर में शिव के इस रूप की उपासना के अन्तर्गत बीभत्स एवं घृणात्मक आचरण प्रचलित हो गया। इस रूप के उपासकों का एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय अघोर पंथ कहलाता है।

अघोरघण्ट : एक कापालिक संन्यासी। आठवीं शताब्दी के प्रथम चरण में भवभूति द्वारा रचित 'मालतीमाधव' नाटक का अघोरघण्ट एक मुख्य पात्र है और राजधानी में देवी चामुण्डा के पुजारी का काम करता है। वह आन्ध्र प्रदेश के एक बड़े शैव क्षेत्र श्रीशैल से सम्बन्धित है। कपालकुण्डला संन्यासिनी देवी चामुण्डा की उपासिका एवं अघोरघण्ट की शिष्या है। दोनों योग के अभ्यास द्वारा आश्चर्यजनक शक्ति अर्जित करते हैं। उनके विश्वास शाक्त विचारों से भरे हैं। नरमेध यज्ञ उनकी क्रियाओं में से एक है। अघोरघण्ट नाटक की नायिका मालती को बलि देवी चामुण्डा को देने की योजना करता है, किन्तु अन्त में नायक के द्वारा मारा जाता है।

अघोर पंथ : अघोर पंथ को कापालिक मत भी कहते हैं। इस पंथ को माननेवाले तन्त्रिक साधु होते हैं, जो मनुष्य की खोपड़ी लिये रहते हैं और मद्य, मांसादि का सेवन करते हैं। ये लोग भैरव या शक्ति को बलि चढ़ाते हैं। पहले ये नर-बलि भी किया करते थे। गृहस्थों में इस मत का प्रचार प्रायः नहीं देखा जाता। ये स्पष्ट ही वाममार्गी शैव होते हैं और श्मशान में रहकर बीभत्स रीति से उपासना करते हैं। इन में जाति-पांति का कोई विवेचन नहीं होता। इन्हें औघड़ भी कहते हैं। ये देवताओं की मूर्तिपूजा नहीं करते। अपने शवों को समाधि में गाड़ते हैं।

इस पंथ को 'अवधूत' अथवा 'सरभंग' मत भी कहते हैं। आजकल इसका सम्बन्ध नाथ पंथ के हठयोग तथा तान्त्रिक वाममार्ग से है। इसका मूलस्थान आबू पर्वत माना जाता है। किसी समय में बड़ोदा में अघोरेश्वरमठ इसका बहुत बड़ा केन्द्र था। काशी में कृमिकुंड भी इसका बहुत बड़ा संस्थान है। इस पंथ का सिद्धान्त निर्गुण अद्वैतवाद से मिलता-जुलता है। साधना में यह हठयोग तथा लययोग को विशेष महत्त्व देता है। आचार में, जैसा कि लिखा जा चुका है, यह वाममार्गी है। समत्व साधना के लिए विहित-अविहित, उचित-अनुचित आदि के विचार का त्याग यह आवश्यक मानता है। अघोरियों की वेश-भूषा में विविधता है। किन्हीं का वेश श्वेत और किन्हीं का रंगीन होता है। इनके दो वर्ग हैं- (1) निर्वाणी (अवधूत) तथा (2) गृहस्थ। परन्तु गृहस्थ प्रायः नहीं के बराबर हैं। अघोर पंथ के साहित्य का अभी पूरा संकलन नहीं हुआ है। किनारम का 'विवेकसार', 'भिनक-दर्शनमाला' तथा टेकमनराम कृत 'रत्नमाला' आदि ग्रन्थ इस सम्प्रदाय में प्रचलित हैं।

अघोर शिवाचार्य : श्रीकण्ठ-मत के अनुयायी। उन्होंने 'मृगेन्द्रसंहिता' की व्याख्या लिखी है। शैवमत में इनका ग्रन्थ प्रामाणिक माना जाता है। विद्यारण्य स्वामी ने सर्व-दर्शनसंग्रह में शैव दर्शन के प्रसंग में अघोर शिवाचार्य के मत को उद्धृत किया है। श्रीकण्ठ ने पाँचवी शताब्दी में जिस शैव मत को नव जीवन प्रदान किया था, उसी को पुष्ट करने की चेष्टा अघोर शिवाचार्य ने ग्यारहवीं- बारहवीं शताब्दी में की।

अघोरा : जिसकी मूर्ति भयानक नहीं है। ('अति भयानक' ऐसा इस व्युत्पत्ति का व्यंग्यार्थ है।) भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी अघोरा है :

भाद्रे मास्यसिते पक्षे अघोराख्या चतुर्दशी। तस्यामाराधितः स्थाणुर्नयेच्छिवपुरं ध्रुवम्॥

[भाद्रपद के कृष्णपक्ष की अघोरा नामक चतुर्दशी के दिन शंकर की आराधना करने पर उपासक अवश्य ही शिवपुरी को प्राप्त करता है।]

अघोरी : अघोरपंथ का अनुयायी। प्राचीन पाशुपत संप्रदाय का सम्प्रति लोप सा हो गया है। किन्तु कुछ अघोरी मिलते हैं, जो पुराने कापालिक हैं। अघोरी कबीर के प्रभाव से औघड़ साधु हुए। (विशेष विवरण के लिए दे. 'अघोर पंथ'।)

अङ्गद : (1) सिक्ख संप्रदाय में गुरू नानक के पश्चात् नौ गुरू हुए, उनमें प्रथम गुरु अङ्गद थे। इन्होंने गुरुमुखी लिपि चलायी जो अब पंजाबी भाषा की लिपि समझी जाती है। इनके लिखे कुछ पद भी पाये जाते हैं। इनके बाद गुरु अमरदास व गुरु रामदास हुए।

(2) रामायण का एक पात्र जो किष्किन्धा के राजा बाली का पुत्र था। राम का यह परम भक्त था। राम की ओर से रावण की सभा में इसका दौत्य-कर्म प्रसिद्ध है।

अङ्गमन्त्र : नरसिंह सम्प्रदाय की दो उपनिषदों में से प्रथम। 'नृसिंह-पूर्वतापनीय' के प्रथम भाग में नृसिंह के मन्त्रराज का परिचय दिया गया है तथा उसकी आराधना विधि दी गयी है। साथ ही चार 'अङ्गमन्त्रों' का भी विवेचन एवं परिचय दिया गया है।

अङ्गारक चतुर्थी : (1) किसी भी मास के मङ्गलवार को आनेवाली चतुर्थी मत्स्यपुराण के अनुसार 'अङ्गारक चतुर्थी' है। इसे जीवन में आठ बार, चार बार अथवा जीवन पर्यन्त करना चाहिए। इसमें मङ्गल की पूजा की जाती है। 'अग्निर्मूर्धा' (ऋ. वे. 8. 44. 16) इसका मन्त्र है। शूद्रों को केवल मङ्गल का स्मरण करना चाहिए। कुछ पुराणों में इसको सुखव्रत भी कहा गया है। इसका ध्यान-मन्त्र है :

अवन्तीसमुत्त्‍थं, सुमेषासनस्थं, धरानन्दनं रक्तवस्त्रं समीडे।'

दे. कृ. क., व्रतकाण्ड, 77-79; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, जिल्द 1, 508-509।

(2) यदि मंगलवार को चतुर्थी या चतुर्दशी पड़े तो वह एकशत सूर्यग्रहणों की अपेक्षा अधिक पुण्य तथा फलप्रदायिनी होती है। दे. गदाधर प., कालसार भाग, 610।

अङ्गिरस : आङ्गिरसों का उद्भव ऋग्वेद में अर्द्ध पौराणिक कुल के रूप में दृष्टिगोचर होता है। उन परिच्छेदों को, जो अङ्गिरस् को एक कुल का पूर्वज बतलाते हैं, ऐतिहासिक मूल्य नहीं दिया जा सकता। परवर्ती काल में आङ्गिरसों के निश्चित ही परिवार थे, जिनका याज्ञिक क्रियाविधियों (अयन, द्विरात्र आदि) में उद्धरण प्राप्त होता है।

अङ्गिरा : अथर्ववेद के रचयिता अथर्वा ऋषि अङ्गिरा एवं भृगु के वंशज माने जाते हैं। अङ्गिरा के वंशवालों को जो मन्त्र मिले उनके संग्रह का नाम 'अथर्वाङ्गिरस' पड़ा। भृगु के वंशवालों को जो मन्त्र मिले उनके संग्रह का नाम 'भृग्वाङ्गिरस' एवं दोनों संग्रहों की संहिता का संयुक्त नाम अथर्ववेद हुआ। पुराणों के अनुसार यह मुनिविशेष का नाम है जो ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए हैं। इनकी पत्नी कर्दम मुनि की कन्या श्रद्धा और पुत्र (1) उतथ्य तथा (2) बृहस्पति; कन्याएँ (1) सिनीवाली, (2) कुहू, (3) राका और (4) अनुमति हुईं।

अङ्गिराव्रत : कृष्ण पक्ष की दशमी को एक वर्षपर्यन्त दस देवों का पूजन 'अङ्गिराव्रत' कहलाता है। दे. विष्णुधर्म. पु., 3.117.1-3।

अचल : ईश्वर का एक विशेषण।

न स्वरूपान् न सामर्थ्यान् नच ज्ञानादिकाद् गुणात्। चलनं विद्यते यस्येत्यचलः कीर्त्तिताऽच्युतः॥

[जिसका स्वरूप, सामर्थ्य और ज्ञानादि गुण से चलन नहीं होता उसे अचल अर्थात् अच्युत (विष्णु) कहा गया है।]

अचला सप्तमी : माघ शुक्ला सप्तमी। इस दिन सूर्यपूजन होता है। इसकी विधि इस प्रकार है : व्रत करनेवाला षष्ठी को एक समय भोजन करता है, सप्तमी को उपवास करता है और रात्रि के उपरांत खड़े होकर सिर पर दीपक रखे हुए सूर्य को अर्घ्‍य देता है। दे. हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 643-649।

अचलेश्वर : अमृतसर-पठानकोट रेलमार्ग में बटाला स्टेशन से चार मील पर यह स्थान है। मन्दिर के समीप सुविस्तृत सरोवर है। यहाँ मुख्य मन्दिर में शिव तथा स्वामी कार्तिकेय एवं पार्वतीदेवी की मूर्तियाँ हैँ। सरोवर के मध्य में भी शिव-मन्दिर है। मन्दिर तक जाने के लिए पुल बना है। उत्तर भारत में यह कार्तिकेय का एक ही मन्दिर है। कहा जाता है कि एक बार परस्पर श्रेष्ठता के बारे में गणेशजी तथा कार्तिकेय में विवाद हो गया। भगवान् शङ्कर ने पृथ्वी-प्रदक्षिणा करके निर्णय कर लेने को कहा। गणेशजी ने माता-पिता की परिक्रमा कर ली और वे विजयी मान लिये गये। पृथ्वी-परिक्रमा को निकले कार्तिकेय को मार्ग में ही यह समाचार मिला। यात्रा स्थगित करके वे वहीं अचल रूप से स्थित हो गये। यहाँ वसुओं तथा सिद्ध गणों ने यज्ञ किया था। गुरु नानकदेव ने भी यहाँ कुछ काल तक साधना की थी। कार्तिक शुक्ला नवमी-दशमी को यहाँ मेला होता है।

अचिन्त्य भेदाभेद : अठारहवीं शती के आरम्भ में बलदेव विद्याभूषण ने चैतन्य सम्प्रदाय के लिए ब्रह्मसूत्रों पर 'गोविन्दभाष्य' लिखा, जिसमें 'अचिन्त्य भेदाभेद' मत (दर्शन) का दृष्टिकोण रखा गया है। इसमें प्रतिपादन किया गया है कि ब्रह्म एवं आत्मा का सम्बन्ध अन्तिम विश्लेषण में अचिन्त्य है। दोनों को भिन्‍न और अभिन्‍न दोनों कहा जा सकता है। इसके अनुसार ईश्‍वर शक्तिमान् तथा जीव-जगत् उसकी शक्ति हैं। दोनों में भेद अथवा अभेद मानना तर्क की दृष्टि से असंगत अथवा व्‍याघातक है। शक्तिमान् और शक्ति दोनों ही अचिन्‍त्‍य हैं। अत: उनका संबंध भी अचिन्‍त्‍य है।

इस सिद्धान्त का दूसरा पर्याय चैतन्यमत है। इसे गौडीय वैष्णव दर्शन भी कहते हैं। चैतन्य महाप्रभु इस सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक होने के साथ सम्प्रदाय के उपास्य देव भी हैं। इस सम्प्रदाय का विश्वास है कि चैतन्य भगवान् श्री कृष्ण के प्रेमावतार हैं। चैतन्य वल्लभाचार्य के समसामयिक थे और उनसे मिले भी थे। इनका जन्म नवद्वीप (वंगदेश) में सं. 1542 विक्रम में और शरीरत्याग सं. 1590 विक्रम में प्रायः 48 वर्ष की अवस्था में हुआ था।

चैतन्य ने जिस मत का प्रचार किया उस पर कोई ग्रन्थ स्वयं नहीं लिखा और न उनके सहकारी अद्वैत एवं नित्यानन्द ने ही कोई ग्रन्थ लिखा। उनके शिष्य रूप एवं सनातन गोस्वामी के कुछ ग्रन्थ मिलते हैं। उनके बाद जीव गोस्वामी दार्शनिक क्षेत्र में उतरे। इन्हीं तीन आचार्यों ने अचिन्य भेदाभेद मत का वर्णन किया है। परन्तु इन्होंने भी न तो वेदान्तसूत्र का कोई भाष्य लिखा और न वेदान्त के किसी प्रकरण ग्रन्थ की रचना कीं। अठारहवीं शताब्दी में बलदेव विद्याभूषण ने पहले-पहल अचिन्त्य भेदाभेद वाद के अनुसार ब्रह्मसूत्र पर गोविन्द-भाष्य जयपुर (राजस्थान) में लिखा। रूप, सनातन आदि आचार्यों के ग्रन्थों में भक्तिवाद की व्याख्या और वैष्णव साधना की पर्यालोचना की गयी है। फिर भी जीव गोस्वामी के ग्रन्थ में अचिन्त्य भेदाभेदवाद की स्थापना की चेष्टा हुई है। बलदेव विद्याभूषण के ग्रन्थ में ही चैतन्य का दार्शनिक मत स्पष्ट रूप में पाया जाता है।

इस मत के अनुसार हरि अथवा भगवान् परम तत्त्व अथवा अन्तिम सत् हैं । वे ही ईश्वर हैं। हरि की अङ्गकान्ति ही ब्रह्म है। उसका एक अंश मात्र परमात्मा है जो विश्व में अन्तर्यामी रूप से व्याप्त है। हरि में षट् ऐश्वर्यों का ऐक्य है, वे हैं- (1) पूर्ण श्री, (2) पूर्ण ऐश्वर्य, (3) पूर्ण वीर्य, (4) पूर्ण यश, (5) पूर्ण ज्ञान और (6) पूर्ण वैराग्य। इनमें पूर्ण श्री की प्रधानता है; शेष गौण हैं। राधा-कृष्ण की युगल मूर्ति में हरि का पूर्ण प्राकट्य है। राधा-कृष्ण में प्रेम और भक्ति का अनिवार्य बन्धन है।

हरि की अचिन्त्य शक्तियों में तीन प्रमुख हैं- (1) स्वरूप शक्ति, (2) तटस्थ शक्ति तथा (3) माया शक्ति। स्वरूप शक्ति को चित् शक्ति अथवा अन्तरङ्गा शक्ति भी कहते हैं। यह त्रिविध रूपों में व्यक्त होती है - (1) संधिनी, (1) संवित् तथा (3) ह्लादिनी। संधिनी शक्ति के आधार पर हरि स्वयं सत्ता प्रदान कर उनमें व्याप्त रहते हैं। संवित् शक्ति से हरि अपने को जानते तथा अन्य को ज्ञान प्रदान करते हैं। ह्लादिनी शक्ति से वे स्वयं आनन्दित होकर दूसरों को आनन्दित करते हैं। तटस्थ शक्ति को जीवशक्ति भी कहते हैं। इसके द्वारा परिच्छिन्न स्वभाव वाले अणुरूप जीवों का प्रादुर्भव होता है। हरि की माया शक्ति से दृश्य जगत् और प्रकृति का उद्भव होता है। इन तीन शक्तियों के समवाय को परा शक्ति कहते हैं।

जीवों के अज्ञान और अविद्या का कारण माया शक्ति है। इसी के द्वारा जीव ईश्वर से अपना सम्बन्ध भूलकर संसार के बन्धन में पड़ जाता है। हरि से जीव का पुनः सम्बन्ध स्थापन ही मुक्ति है। मुक्ति का साधन हरिभक्ति है। भक्ति हरि की संवित् तथा ह्लादिनी शक्ति के मिश्रण से उत्पन्न होती है। ये दोनों शक्तियाँ भगवद्रूपा हैं। अतः भक्ति भी भगवत्स्वरूपिणी ही है।

अच्चान दीक्षित : प्रसिद्ध आलंकारिक, वैयाकरण एवं दार्शनिक अप्पय्य दीक्षित के लघु भ्राता। इनके पितामह आचार्य दीक्षित एवं पिता रङ्गराजाध्वरी थे।

अच्युत कृष्णानन्द तीर्थ : अप्पय्य दीक्षित कृत 'सिद्धान्तलेश' के टीकाकार। इन्होंने छायाबल निवासी स्वयंप्रकाशानन्द सरस्वती से विद्या प्राप्त की थी। ये काबेरी तीरवर्त्‍ती नीलकण्ठेश्वर नामक स्थान में रहते थे और भगवान् कृष्ण के भक्त थे। इनके ग्रन्थों में कृष्णभक्ति की ओर इनकी यथेष्ट अभिरुचि मिलती है। 'सिद्धान्तलेश' की टीका का नाम 'कृष्णालङ्कार' है, जिसमें इन्हें अद्भुत सफलता प्राप्त हुई है। विद्वान् होने के साथ ही ये अत्यन्त विनयशील भी थे। कृष्णालङ्कार के आरम्भ में इन्होंने लिखा है :

आचार्यचरणद्वन्द्व-स्मृतिर्लेखकरूपिणम्। माँ कृत्वा कुरुते व्याख्यां नाहमत्र प्रभुर्यतः॥

[गुरुदेव के चरणों की स्मृति ही मुझे लेखक बनाकर यह व्याख्या करा रही है, क्योंकि मुझमें यह कार्य करने की सामर्थ्य नहीं है।]

इससे इनकी गुरुभक्ति और निरभिमानिता सुस्पष्ट है। कृष्णालंकार के सिवा इन्होंने शांकरभाष्य के ऊपर 'वनमाला' नामक टीका भी लिखी है। इससे भी इनकी कृष्णभक्ति का परिचय मिलता है।

अच्युतपक्षाचार्य : ये अद्वैतमत के संन्यासी एवं मध्वाचार्य के दीक्षागुरु थे। मध्वाचार्य ने ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही सनककुलोद्भव अच्युतपक्षाचार्य (नामान्तर शुद्धानन्द) से दीक्षा ली थी। संन्यास लेकर इन्होंने गुरु के पास वेदान्त पढ़ना आरम्भ किया, किन्तु गुरु की व्याख्या से इन्हें संतोष न होता था और उनके साथ ये प्रतिवाद करने लगते थे। कहते हैं कि मध्वाचार्य के प्रभाव से इनके गुरु अच्युतपक्षाचार्य भी बाद में द्वैतवादी वैष्णव हो गये।

अच्युतव्रत : पौष कृष्णा प्रतिपदा को यह व्रत किया जाता है। तिल तथा घृत के होम द्वारा अच्युतपूजा होती है। इस दिन 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र द्वारा तीस सपत्नीक ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। दे. अहल्या- का. धे. (पत्रात्मक), पृ. 230।

अच्युतशतक : एक स्तोत्रग्रन्थ। इसके रचयिता वेदान्ताचार्य वेङ्कटनाथ थे। रचनाकाल लगभग सं. 1350 विक्रमीय है।

अच्युतावास : अच्युत (विष्णु) का आवास (स्थान),' अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष।

अज : (1) ईश्वर का एक विशेषण। इसका अर्थ है अजन्मा। नहि जातो न जायेऽहं न जनिष्ये कदाचन ।

क्षेत्रज्ञः सर्वभूतानां तस्मादहमजः स्मृतः॥ महाभारत।

[मैं न उत्पन्न हुआ, न होता हूँ और न होऊँगा। सर्व प्राणियों का क्षेत्रज्ञ हूँ । इसीलिए मुझे लोग अज कहते हैं।]

ब्रह्मा, विष्णु, शिव और कामदेव को भी अज कहते हैं।

अज : (2) ऋग्वेद एवं परवर्ती साहित्य में यह साधारणतः बकरे का पर्याय है। इसके दूसरे नाम हैं- बस्त, छाग, छगल आदि। बकरे एवं भेड़ (अजावयः) का वर्णन प्रायः साथ-साथ हुआ है। शव-क्रिया में अज का महत्त्वपूर्ण स्थान था, क्योंकि वह पूषा का प्रतिनिधि और प्रेत का मार्गदर्शक माना जाता था। दे. अथर्ववेद का अन्त्येष्टि सूक्त।

अजगर : यह नाम अथर्ववेद में उद्धृत अश्वमेध यज्ञ के पशुओं की तालिका में आता है। पञ्चविंश-ब्राह्मण में वर्णित सर्पयज्ञ में इससे एक व्यक्ति का बोध होता है।

अजपा : जिसका उच्चारण नहीं किया जाता अपितु जो श्वास-प्रश्वास के गमन और आगमन से सम्पादित किया (हं-सः) जाता है, वह जप 'अजपा' कहलाता है। इसके देवता अर्धनारीश्वर हैं :

उद्यद्द्भानुस्फुरिततडिदाकारमर्द्धाम्बिकेशम्, पाशाभीतिं वरदपरशं संदधानं कराब्जैः। दिव्याकल्पैर्नवमणिमयैः शोभितं विश्वमूलम् सौम्याग्नेयं वपुरवतु नश्चन्द्रचूडं त्रिनेत्रम्।

[उदित होते हुए सूर्य के समान तथा चमकती हुई बिजली के तुल्य जिनकी अंगशोभा है, जो चार भुजाओं में अभय मुद्रा, पाश, वरदान मुद्रा तथा परशु को धारण किये हुए हैं, जो नूतन मणिमय दिव्य वस्तुओं से सुशोभित और विश्व के मूल कारण हैं, ऐसे अम्बिका के अर्ध भाग से संयुक्त, चन्द्रचूड़, त्रिनेत्र शंकरजी का सौभ्य और आग्नेय शरीर हमारी रक्षा करे।]

स्वाभाविक निःश्वास-प्रश्वास रूप से जीव के जपने के लिए हंस-मन्त्र निम्नांकित हैं :

अथ वक्ष्ये महेशानि प्रत्यंहं प्रजपेन्नरः। मोहबन्धं न जानाति मोक्षस्तस्य न विद्यते॥ श्रीगुरोः कृपया देवि ज्ञायते जप्यते यदा। उच्छवासनिःश्वासतया तदा बन्धक्षयो भवेत्॥ उच्छवासैरेव निःश्वासैर्हस इत्यक्षरद्वयम्। तस्मात् प्राणश्च हंसाख्य आत्माकारेण् संस्थितः॥ नाभेरुच्छ्वासनिःश्वासाद् हृदयाग्रे व्यवस्थितः। षष्टिश्वासैर्भवेत् प्राणः षट् प्राणा नाडिका मता॥ षष्टिनाड्या ह्यहोरात्रं जपसंख्याक्रमो मतः। एकविंशाति साहस्रं षट्शताधिकमीश्वरि॥ जपते प्रत्यहं प्राणी सान्द्रानन्दमयीं पराम्। उत्पत्तिर्जपमारम्भो मृत्युस्तत्र निवेदनम्॥ विना जपेन देवेशि जपो भवति मन्त्रिणः। अजपेयं ततः प्रोक्ता भवपाशनिकृन्तनी॥ (दक्षिणामूर्तिसंहिता)

[हे पार्वती ! अब एक उत्तम मन्त्र कहता हूँ, जिसका मनुष्य नित्य जप करे। इसका जप करने से मोह का बन्धन नहीं लगता और मोक्ष की आवश्यकता नहीं पड़ती है। हे देवी, श्री गुरु की कृपा से जब ज्ञान हो जाता है, तथा जब श्वास-प्रश्वास से मनुष्य जप करता है उस समय बन्धन का नाश हो जाता है। श्वास लेने और छोड़ने में ही ``हं-सः`` इन दो अक्षरों का उच्चारण होता है। इसीलिए प्राण को हंस कहते हैं और वह आत्मा के रूप में नाभि स्थान से उच्छवास-निश्वास के रूप में उठता हुआ हृदय के अग्रभाग में स्थित रहता है। साठ श्वासों का एक प्राण होता है, छः प्राणों की एक नाड़ी होती है, साठ नाडि़यों का एक अहोरात्र होता है। यह जपसंख्या का क्रम है। हे ईश्वरी, इस प्रकार इक्कीस हजार छः सौ श्वासों के रूप में आनन्द देने वाली पराशक्ति का प्राणी प्रतिदिन जप करता है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त यह जप माना जाता है। हे देवी, मन्त्रज्ञ के बिना जप करने से भी श्वास के द्वारा जप हो जाता है। इसीलिए इसे अजपा कहते हैं और यह भव (संसार) के पाश को दूर करने वाला है।] और भी कहा है :

षट्शतानि दिवा रात्रौ सहस्राण्येकविंशतिः। एतत्संख्यान्वितं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा॥ (महाभारत)

[रात-दिन इक्कीस हजार छः सौ संख्या तक मन्त्र को प्राणी सदा जप करता है।]

सिद्ध साहित्य में 'अजपा' की पर्याप्त चर्चा है। गोरखपंथ में भी एक दिन-रात में आने-जाने वाले 21600 श्वास-प्रश्वासों को 'अजपा जप' कहा गया है :

इकबीस सहस षटसा आदू पवन पुरिष जप माली। इला प्यङ्गुला सुषमन नारी अहनिसि बसै प्रनाली॥

गोरखपंथ का अनुसरण करते हुए कबीर ने श्वास को 'ओहं' तथा 'प्रश्वास' को 'सोहं' बतलाया है। इन्हीं का निरन्तर प्रवाह अजपाजप है। इसी को 'निःअक्षर' ध्यान भी कहा है :

निह अक्षर जाप तहँ जापै। उठत धुन सुन्न से आयै॥ (गोरखबानी)

अजा : अजा का अर्थ है 'जिसका जन्‍म न हो'। प्रकृति अथवा आदि शक्ति के अर्थ में इसका प्रयोग होता है। 'सांख्‍यतत्‍त्‍वकौमुदी' में कहा गया है : 'रक्त, शुक्ल और कृष्ण-वर्ण की एक अजा (प्रकृति) को नमस्कार करता हूँ।' पुराणों में माया के लिए इस शब्द प्रयोग हुआ है। उपनिषदों में अजा का निम्नांकित वर्णन है :

अजामेकां लोहितकृष्णशुक्लां, बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाम्। अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते, जहात्येनां भुक्त-भोगामजोऽन्यः॥ (श्वेताश्वतर 4.5)

[रक्त-शुक्ल-कृष्ण वर्ण वाली, बहुत प्रजाओं का सर्जन करनेवाली, सुन्दर स्वरूप युक्त अजा का एक पुरुष सेवन करता है तथा दूसरा अज पुरुष इसका उपभोग करके इसे छोड़ देता है।]

अजातशत्रु : काशी का एक प्राचीन राजा, जिसका बृहदारण्यक एवं कौषीतकि उपनिषद् में उल्लेख है। उसने आत्मा के सच्चे स्वरूप की शिक्षा अभिमानी ब्राह्मण बालाकि को दी थी। यह अग्निविद्या में भी परम प्रवीण था।

अजा शक्ति : एक ही अज पुरुष की अजा नामक महाशक्ति तीन रूपों में परिणत होकर सृष्टि, पालन और प्रलय की अधिष्ठात्री बनती है। श्वेताश्वतरोपनिषद् की (4.5) पंक्तियों में उसी अजा शक्ति के तीन रूपों की चर्चा है। प्रकारान्तर से ऋषियों ने इस सृष्टिविद्या को तीन भागों में बाँटा है। वे महाशक्तियाँ महासरस्वती, महालक्ष्मी एवं प्रलय की क्रियाएँ होती हैं।

अजिर : पञ्चविंश ब्राह्मण में वर्णित सर्पोत्सव में अजिर सुब्रह्मण्य पुरोहित का उल्लेख पाया जाता है।

अजैकपात् : एकादश रुद्रों के अन्तर्गत एक नाम। इसका शाब्दिक अर्थ है 'अज के समान जिसका एक पाँव है।'

अज्ञात (पाप) : पाप दो प्रकार के होते हैं, पहला अज्ञात, दूसरा ज्ञात। अज्ञात पाप का प्रायश्चित यज्ञादि से किया जा सकता है। प्रायश्चित्तकार्य यदि निष्काम भाव से किये गये हैं तो ये ईश्वर तक पहुँचते हैं, तथा अक्षय फल प्रदान करते हैं। ज्ञात पाप के सम्बन्ध में कहा गया है कि जब कोई भक्त निष्काम भक्ति में लगा हो तो वह ऐसा पाप करता ही नहीं, और यदि दैवात् उससे पापकर्म हो भी जाय तो ईश्वर उसे बुरे कर्मों के पाप से क्षमा प्रदान करता है।

अज्ञातवाद : जगत् और सृष्टि के सम्बन्ध में वेदान्तियों ने नैयायिकों के 'आरम्भवाद' (अर्थात् ईश्वर सृष्टि उत्पन्न करता है) और सांख्यों के 'परिणामवाद' (अर्थात् सृष्टि का विकास उत्तरोत्तर विकार या परिणाम द्वारा अव्यक्त प्रकृति से आप ही आप होता है) के स्थान पर 'विवर्तवाद' की स्थापना की है, जिसके अनुसार जगत् ब्रह्म का विवर्त या कल्पित रूप है। रस्सी को यदि हम सर्प समझें तो रस्सी सत्य वस्तु है और सर्प उसका विवर्त या भ्रान्तिजन्य प्रतीति है। इसी प्रकार ब्रह्म तो नित्य और वास्तविक सत्ता है और नामरूपात्मक जगत् उसका विवर्त है। यह विवर्त अध्यास के द्वारा होता है। जो नाम-रूपात्मक दृश्य हम देखते हैं वह न तो ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप है, न कार्य या परिणाम ही है, क्योंकि ब्रह्म निर्विकार और अपरिणामी है।

अध्यास के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि सर्प कोई अलग पदार्थ अवश्य है, तभी तो उसका आरोप होता है। अतः इस विषय को और स्पष्ट करने के लिए 'दृष्टि-सृष्टिवाद' उपस्थित किया जाता है, जिसके अनुसार माया अथवा नाम-रूप मन की वृत्ति हैं। इनकी सृष्टि मन ही करता है और मन ही देखता है। ये नाम-रूप उसी प्रकार मन या वृत्तियों के बाहर नहीं हैं, जिस प्रकार जड़-चित् के बाहर की कोई वस्तु नहीं है। इन वृत्तियों का शमन ही मोक्ष है।

इन दोनों वादों में त्रुटि देखकर कुछ वेदान्ती 'अवच्छेदवाद' का आश्रय लेते हैं। वे कहते हैं कि ब्रह्म के अतिरिक्त जगत् की जो प्रतीति होती है, वह एकरस अथवा अनवच्छिन्न सत्ता के भीतर माया द्वारा अवच्छेद या परिमिति के आरोप के कारण होती है। कुछ अन्य वेदान्ती इन तीनों वादों के स्थान पर 'विम्ब-प्रतिबिम्बवाद' उपस्थित करते हैं और कहते हैं कि ब्रह्म प्रकृति अथवा माया के बीच अनेक प्रकार से प्रतिबिम्बित होता है जिससे नाम-रूपात्मक दृश्यों की प्रतीति होती है। अन्तिम वाद 'अज्ञातवाद' है, जिसे 'प्रौढिवाद' भी कहते हैं। यह सब प्रकार की उत्पत्ति को, चाहे वह विवर्त के रूप में कही जाय चाहे दृष्टि-सृष्टि, अवच्छेद अथवा प्रतिबिम्ब के रूप में; अस्‍वीकार करता है और कहता है कि जो जैसा है वह वैसा ही है और सब ब्रह्म है। ब्रह्म अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन शब्दों द्वारा हो ही नहीं सकता, क्योंकि हमारे पास जो भाषा है वह द्वैत की ही है। अर्थात् जो कुछ भी हम कहते हैं, वह भेद के आधार पर ही। अतः मूल तत्त्व अज्ञात ही रहता है।

अज्ञान : ज्ञान का अभाव अथवा ज्ञान के विरुद्ध। अज्ञान के पर्याय हैं अविद्या, अहंमति आदि। श्रीमद्भागवत के अनुसार जगत के उत्पत्तिकाल में ब्रह्मा ने पाँच प्रकार के अज्ञान को बनाया : (1) तम, (2) मोह, (3) महामोह, (4) तामिस्र और (5) अन्धतामिस्र। वेदान्त के मत से अज्ञान सत् और असत् से अनिर्वचनीय और त्रिगुणात्मक भावरूप है। जो कुछ भी ज्ञान का विरोधी है उसे अज्ञान कहते हैं। मनु ने कहा है :

अज्ञानाद् वारुणीं पीत्वा संस्कारेणैव शुद्ध्यति।

[जो अज्ञान से मदिरा पी लेता है वह संस्कार करने पर ही शुद्ध होता है।]

अज्ञानाद् बालभावाच्च साक्ष्यं वितयमुच्यते।

[अज्ञान अथवा बालभाव के कारण जो भी साक्षी दी जाती है वह सब झूठ होती है।]

अणिमा : अष्ट सिद्धियों में से एक। अष्ट सिद्धियों के नाम ये हैं : अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व और कामावसायिता। अणिमा का अर्थ है अणु (सूक्ष्म) का भाव, जिसके प्रभाव से देवता, सिद्ध आदि सूक्ष्म रूप धारण करके सर्वत्र विचरण करते हैं और जिन्हें कोई भी नहीं देख सकता। आगमों में सिद्धियों की गणना इस प्रकार हैं :

अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा। ईशित्वञ्च वशित्वञ्च तथा कामावसायिता॥ दें. 'सिद्धि'।

अणु : (1) सबसे प्राचीन दार्शनिक ग्रन्थ उपनिषदों में अणुवाद अथवा अणु का उल्लेख अप्राप्य है। इसी कारण अणुवाद का उल्लेख वेदान्तसूत्रों भी नहीं हुआ है, क्योंकि उनकी दार्शनिक उद्गम-भूमि उपनिषद् ही हैं। अणुवाद का उल्लेख सांख्य एवं योग में भी नहीं मिलता। अणुवाद वैशेषिक दर्शन का एक प्रमुख अङ्ग है एवं न्याय ने भी इसे मान्यता प्रदान की है। जैनों ने भी इसे स्वीकार किया है एवं अभिधर्मकोश-व्याख्या के अनुसार आजीवकों ने भी। प्रारम्भिक बौद्धधर्म इससे परिचित नहीं है। पालि बौद्ध ग्रन्थों में इसका उल्लेख नहीं हुआ है, किन्तु वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक इसको पूर्ण रूपेण मानने वाले थे।

न्याय-वैशेषिक शास्त्र के अनुसार प्रथम चार द्रव्य वस्तुओं का सबसे छोटा अन्तिम कण, जिसका आगे विभाजन नहीं हो सकता, अणु (परमाणु) कहलाता है। इसमें गन्ध, स्पर्श, परिमाण, संयोग, गुरुत्व, द्रवत्व, वेग आदि विभिन्न गुण समाये रहते हैं। अत्यन्त सूक्ष्म होने से इसका इन्द्रिय-जन्य प्रत्यक्ष नहीं होता। इसकी सूक्ष्मता का आभास कराने के लिए कुछ स्थूल दृष्टान्त दिये जाते हैं, यथा-

जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः। तस्य षष्टितमो भागः परमाणुः स उच्यते॥

बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च।

[घर के भीतर छिद्रों से आते हुए सूर्यप्रकाश के बीच में उड़ने वाले कण का साठवाँ भाग; अथवा रोयें के अन्तिम सिरे का हजारवाँ भाग परमाणु कहा जाता है।] व्यवहारतः वैशेषिकों की शब्दावली में 'अणु' सबसे छोटा आकार कहलाता है। अणुसंयोग से द्वयणुक, त्रसरेणु आदि बड़े होते चले जाते हैं।

जैन मतानुसार आत्मा एवं देश को छोड़कर सभी वस्तुएं पुद्गल से उत्पन्न होती हैं। सभी पुद्गलों के परमाणु अथवा अणु होते हैं। प्रत्येक अणु एक प्रदेश अथवा स्थान घेरता है। पुद्गल स्थूल या सूक्ष्म रूप में रह सकता है। जब यह सूक्ष्म रूप में रहता है तो अगणित अणु एक स्थूल अणु को घेरे रहते हैं। अणु शाश्वत हैं। प्रत्येक अणु में एक प्रकार का रस, गन्ध, रूप और दो प्रकार का स्पर्श होता है। ये विशेषताएँ स्थिर नहीं हैं और न बहुत से अणुओं के लिए निश्चित हैं। दो अथवा अधिक अणु जो चिकनाहट या खुरदरापन के गुण में भिन्न होते हैं आपस में मिलकर 'स्कन्ध' बनाते हैं। प्रत्येक वस्तु एक ही प्रकार के अणुसमूह से निर्मित होती है। अणु अपने अन्दर गति का विकास कर सकता है एवं यह गति इतनी तीव्र हो सकती है कि एक क्षण में वह विश्व के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच सके।

अणु : (2) काश्मीर शैव सम्प्रदाय के शैव आगमों और शिवसूत्रों का दार्शनिक दृष्टिकोण अद्वैतवादी है। 'प्रत्यभिज्ञा' (मनुष्य की शिव से अभिन्नता का अनवरत ज्ञान) मुक्ति, का साधन बतायी गयी है। संसार को केवल माया नहीं समझा गया है। यह शिव का ही शक्ति के द्वारा प्रस्तुत स्वरूप है। सृष्टि के विकार की प्रणाली सांख्यमत के सदृश है, किन्तु इसकी कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। इस प्रणाली को 'त्रिक' कहते हैं, क्योंकि यह तीन सिद्धान्तों को व्यक्त करती है। वे सिद्धान्त हैं-शिव, शक्ति एवं अणु, अथवा पति, पाश एवं पशु। अणु का ही नाम पशु है।

अतिथि : हिन्दू धर्म में अतिथि पूजनीय व्यक्ति होता है। अथर्ववेद का एक मन्त्र आतिथ्य के गुणों का वर्णन करता है : 'आतिथेय को अतिथि के खा चुकने के बाद भोजन करना चाहिए। अतिथि को जल देना चाहिए' इत्यादि। तैत्तिरीय उपनिषद् भी आतिथ्य पर जोर देती हुई 'अतिथि देव' (अतिथि देवता) है कि घोषणा करती है। ऐतरेय आरण्यक में कहा गया है कि केवल सज्जन ही आतिथ्य के पात्र हैं। अतिथियज्ञ दैनिक गृहस्थजीवन का नियमित अङ्ग था। इसकी गणना पञ्च महायज्ञों में की जाती है।

पुराणों और स्मृतियों में अतिथि के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन पाये जाते हैं : जो निरन्तर चलता है, ठहरता नहीं उसे अतिथि कहते हैं (अत्+इथिन्)। घर पर आया हुआ, पहले से अज्ञात व्यक्ति भी अतिथि कहलाता है। इसके पर्याय हैं आगन्तुक, आवेशिक, गृहागत आदि। इसका लक्षण निम्नांकित है :

यस्य न ज्ञायते नाम नच गोत्रं नच स्थितिः। अकस्माद् गृहमायाति सोऽतिथिः प्रोच्यते बुधैः॥

[जिसका नाम, गोत्र, स्थिति नहीं ज्ञात है और जो अकस्मात घर में आता है, उसे अतिथि कहा जाता है।]

उसके विमुख लौट जाने पर गृहस्थ को दोष लगता है :

अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते। स तस्मै दुष्कृतं दत्त्वा पुण्यमादाय गच्छति॥

[जिसके घर से अतिथि निराश होकर चला जाता है वह उस गृहस्थ को पाप देकर और उसके पुण्य लेकर चला जाता है।] गौ के दुहने में जितना समय लगता है उतने समय तक घर के आँगन में अतिथि की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अपनी इच्छा से वह कई दिन भी रुक सकता है (विष्णु पुराण)। मुहूर्त का अष्टम भाग गोदोहन काल कहलाता है, उस समय में देखा गया व्यक्ति अतिथि कहलाता है (मार्कण्डेय पुराण)। अतिथि मूर्ख है अथवा विद्वान् यह विचार नहीं करना चाहिए :

प्रियो वा यदि वा द्वेष्यो मूर्खः पतित एव वा। सम्प्राप्ते वैश्वदेवान्तें सोऽतिथिः स्वर्गसंक्रमः॥

[चाहे प्रिय, विरोधी, मूर्ख, पतित कोई भी हो वैश्वदेव के अन्त में जो आता है वह अतिथि है और स्वर्ग को ले जाता है।] अतिथि से वेदादि नहीं पूछना चाहिए :

स्वाध्यायगोत्रचरणमपृष्ट्वापि तथा कुलम्। हिरण्यगर्भबुद्धया तं मन्येताभ्यागतं गृही॥

[स्वाध्याय, गोत्र, चरण, कुल बिना पूछे ही गृहस्थ अतिथि को विष्णु रूप माने।] (विष्णुपुराण)। उससे देश आदि पूछने पर दोष लगता है :

देशं नाम कुलं विद्यां पृष्टवा योऽन्नं प्रयच्छति। न स तत्फलमाप्नोति दत्त्वा स्वर्गं न गच्छति॥

[देश, नाम, विद्या, कुल पूछकर जो अन्न देता है उसे पुण्यफल नहीं मिलता और फिर वह स्वर्ग को भी नहीं प्राप्त करता।] अतिथि को शक्ति के अनुसार देना चाहिए :

भेजनं हन्तकारं वा अग्र भिक्षामथापि वा। अदत्त्वा नैव भोक्तव्यं यथा विभवमात्मनः॥

[भोजन, हन्तकार, अग्र ग्रास अथवा भिक्षा बिना दिये भोजन नहीं करना चाहिए। यथाशक्ति पहले देकर खाना चाहिए।] भिक्षा आदि का लक्षण इस प्रकार है :

ग्रासप्रमाणा भिक्षा स्यादग्रं ग्रासचतुष्टयम्। अग्राच्चतुर्गुणं प्राहुर्हन्तकारं द्विजोत्तमाः॥ (मार्कण्डेय पुराण)

[ग्रास भर को भिक्षा, ग्रास से चौगुने को अग्र, अग्र से चौगुने को हन्तकार कहते हैं।]

अतिविजयैकादशी : पुनर्वसु नक्षत्र से युक्त शुक्ल पक्षीय एकादशी। इस तिथि को एक वर्षपर्यन्त तिलों के प्रस्थ का दान किया जाता है। इस दिन विष्णु का व्रत किया जाता है। दे. हेमाद्रि; व्रत खण्ड,. 1147।

अतीन्द्रिय : नैयायिकों के मत से परमाणु अतीन्द्रिय है; ऐन्द्रिय नहीं। उन्हें ज्ञानेन्द्रियों से नहीं देखा अथवा जाना जा सकता है। वे केवल अनुमेय हैं। आत्मा, परमात्मा अथवा परम तत्त्व भी अतीन्द्रिय हैं।

अत्याश्रमी : प्रथम तीनों आश्रमों से श्रेष्ठ आश्रम में रहने वाला- संन्यासी। वह आत्मा को पूर्णतः जानता है तथा अपने व्यक्तिगत जीवन से मुक्त है; परिवार, सम्पदा एवं संसार से सम्बन्ध विच्छेद कर चुका है एवं वह उसे प्राप्त कर चुका है जिसकी केवल परिव्राजक योगी ही इच्छा. रखते हैं।

अत्रि : ऋग्वेद का पञ्चम मण्डल अत्रि-कुल द्वारा संगृहीत है। कदाचित् अत्र-परिवार का प्रियमेध, कण्व, गोतम एवं काक्षीवत कुलों से निकट सम्बन्ध था। ऋग्वेद के पञ्चम मण्डल के एक मन्त्र में परुष्णी एवं यमुना के उल्लेख से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह परिवार विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था। अत्रि गोत्रप्रवर्तक ऋषि भी थे। मुख्य स्मृतिकारों की तालिका में भी अत्रि का नाम आता है।

अत्रिस्मृति : यह ग्रन्थ प्राचीन स्मृतियों में है। इसका उल्लेख मनुस्मृति (3.13) में हुआ है। 'आत्रेय धर्म शास्त्र', 'अत्रिसंहिता' तथा अत्रिस्मृति नाम के ग्रन्थ भी पाये जाते हैं।

अथर्वा : वेदकालीन विभिन्न पुरोहितकुलों की तरह ही यह एक कुल था। एकवचन में अथर्वा नाम परिवार के अध्यक्ष का सूचक है, किन्तु बहुवचन में 'अथर्वाणः' शब्द से सम्पूर्ण परिवार का बोध होता है। कुछ स्थानों में एक निश्चित परिवार का उद्धरण प्राप्त होता है। दानस्तुति में इन्हें अश्वत्थ की दया का दान ग्रहण करने वाला कहा गया है एवं यज्ञ में इनके द्वारा मधुमिश्रित पय का प्रयोग करने का विवरण है।

अथर्व-प्रातिशाख्य : भिन्न-भिन्न वेदों के अनेक प्रकार के स्वरों के उच्चारण, पदों के क्रम और विच्छेद आदि का निर्णय शाखा के जिन ग्रन्थों द्वारा होता है, उन्हें 'प्रातिशाख्य' कहते हैं। अत्यन्त प्राचीन काल में ऋषियों ने वेदाध्ययन के स्वरादि का विशेषता से निश्चय करके अपनी अपनी शाखा की परम्परा चलायी थी। जिस व्यक्ति ने जिस शाखा में वेदपाठ सीखा वह उसी शाखा की वंश-परम्परा का सदस्य कहलाया। ब्राह्मणों की गोत्र-प्रवर-शाखा आदि की परम्परा इसी तरह चल पड़ी। बहुत काल बीतने पर इसे भेद को स्मरण रखने के लिए और अपनी-अपनी रीति की रक्षा के लिए प्रातिशाख्य ग्रन्थ बनाये गये। इन्हीं प्रातिशाख्यों में शिक्षा और व्याकरण दोनों पाये जाते हैं। 'अथर्व-प्रातिशाख्य' दो मिलते हैं, इनमें एक 'शौनकीय चतुरध्यायिका' है जिसमें (1) ग्रन्थ का उद्देश्य, परिचय और वृत्ति, (2) स्वर और व्यञ्जन-संयोग, उदात्तादि लक्षण, प्रगृह्य, अक्षर विन्यास, युक्त वर्ण, यम, अभिनिधान, नासिक्य, स्वरभक्ति, स्फोटन, कर्षण और वर्णक्रम (3) संहिताप्रकरण, (4) क्रम-निर्णय, (5) पद-निर्णय और (6) स्वाध्याय की आवश्यकता के सम्बन्ध में उपदेश, ये छः विषय बताये जाते हैं।

अथर्ववेद : चारों वेदों के क्रम में अथर्ववेद का नाम सबसे अन्त में आता है। यह प्रधानतः नौ संस्करणों में पाया जाता है- पैप्पलाद, शौनकीय, दामोद, तोत्रायन, जामल, ब्रह्मपालाश, कुनखा, देवदर्शी और चरणविद्या। अन्य मत से उन संस्करणों के नाम ये हैं- पैप्पलाद, आन्ध्र, प्रदात्त, स्नात, श्नौत, ब्रह्मदावन, शौनक, देवदर्शती और चरणविद्या। इनके अतिरिक्त तैत्तिरीयक नाम के दो प्रकार के भेद देख पड़ते हैं, यथा औरव्‍य और काण्डिकेय। काण्डिकेय भी पाँच भागों में विभक्त हैं- आपस्तम्ब, बौधायन, सत्यावाची, हिरण्यकेशी और औघेय।

अथर्ववेद की संहिता अर्थात् मन्त्रभाग में बीस काण्ड हैं। काण्डों को अड़तीस प्रपाठकों में विभक्त किया गया है। इसमें 760 सूक्त और 6000 मन्त्र हैं। किसी-किसी शाखा के ग्रन्थ में अनुवाक विभाग भी पाये जाते हैं। अनुवाकों की संख्या 80 है।

य़द्यपि अथर्ववेद का नाम सब वेदों के बाद आता है तथापि यह समझना भूल होगी कि यह वेद सबसे पीछे बना। वैदिक साहित्य में अन्यत्र भी 'आथर्वण' शब्द आया है और पुरुषसूक्त में छन्द शब्द से अथर्ववेद हो अभिप्रेत जान पड़ता है। कुछ लोगों का कहना है कि ऋक् यजु और साम ये ही त्रयी कहलाते हैं और अथर्ववेद त्रयी से बाहर है। पाश्चात्य विद्वान् कहते हैं कि अथर्ववेद अन्य वेदों से पीछे बना। परन्तु ऋक्, यजु और साम तीनों अलग ग्रन्थ नहीं मन्त्र-रचना की प्रणाली मात्र हैं। इनसे वेद के तीन संहिता विभागों की सूचना नही होती। यज्ञ कार्य को अच्छे प्रकार से चलाने के लिए ही चार संहिताओं का विभाग किया गया है। ऋग्वेद होता के लिए है, यजुर्वेद अध्वर्यु के लिए, सामवेद उदगाता के लिए और अथर्ववेद ब्रह्मा के लिए है।

इस वेद का साक्षात्कार अथर्वा नामक ऋषि ने किया। इसीलिए इसका नाम अथर्ववेद पड़ा। ब्रह्मा पुरोहित के लिए यह वेद काम में आता है इसलिए जैसे यजुर्वेद को आध्वर्यव कहते हैं, वैसे ही इसे ब्रह्मवेद भी कहते हैं। कहते हैं कि इस वेद में सब वेदों का सार तत्त्व निहित है, इसीलिए यह सब में श्रेष्ठ है। गोपथ ब्राह्मण में लिखा हैं :

श्रेष्ठ हि वेदस्तपसोऽधिजातो, ब्रह्मज्ञानं हृदये संबभूव। (1।9) एतद्वे भूयिष्ठं ब्रह्म यद् भृग्वंगिरसः। येऽङ्गिरसः स रस:। येऽथवार्णस्‍तद् भेषजम्। यद् भेषजम् तदमृतम्। यदमृतं तद् ब्रह्मा॥ (3।4)

ग्रिफिथ ने अपने अंग्रेजी पद्यानुवाद की भूमिका में लिखा है कि अथर्वा अत्यन्त पुराने ऋषि का नाम है, जिसके सम्बन्ध में ऋग्वेद में लिखा है कि इसी ऋषि ने सङ्घर्षण द्वारा अग्नि को उत्पन्न किया और पहले-पहल यज्ञों के द्वारा वह मार्ग तैयार किया जिससे मनुष्यों और देवताओं में सम्बन्ध स्थापित हो गया। इसी ऋषि ने पारलौकिक तथा अलौकिक शक्तियों के द्वारा विरोधी असुरों को वश में कर लिया। इसी अथर्वा ऋषि से अङ्गिरा और भृगु के वंश वालों को जो मन्त्र मिले उन्हीं की संहिता का नाम 'अथर्ववेद', 'भृग्वङ्गिरस वेद' अथवा 'अथर्वाङ्गिरस वेद' पड़ा। इसका नाम, जैसा कि पहले कहा गया है, ब्रह्मवेद भी है। ग्रिफिथ ने इस नामकरण के तीन कारण बताये हैं, जिनमें से एक का उल्लेख ऊपर हो चुका है। दूसरा कारण यह है कि इस वेद में मन्त्र हैं, टोटके हैं आशीर्वाद हैं, और प्रार्थनाएँ हैं, जिनसें देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है, उनका संरक्षण प्राप्त किया जा सकता है, मनुष्य, भूत-प्रेत, पिशाच आदि आसुरी शत्रुओं को शाप दिया जा सकता है और नष्ट किया जा सकता है। इन प्रार्थनात्मक स्तुतियों को 'ब्रह्माणि' कहा गया है। इनका ज्ञान-समुच्च्य होने से इसका नाम ब्रह्मवेद है। ब्रह्मवेद होने के तीसरी युक्ति यह है कि जहाँ तीनों वेद इस लोक और परलोक में सुखप्राप्ति के उपाय बताते हैं और धर्मपालन की शिक्षा देते हैं, वहाँ यह वेद ब्रह्मज्ञान भी सिखाता है और मोक्ष के उपाय बताता है।

अथर्ववेद के कम प्राचीन होने की युक्तियाँ देते हुए ग्रिफिथ यह मत प्रकट करते हैं कि जहाँ ऋग्वेद में जीवन के स्वाभाविक भाव हैं और प्रकृति के लिए प्रगाढ़ प्रेम है, वहाँ अथर्ववेद में प्रकृति के पिशाचों और उनकी अलौकिक शक्तियों का भय दिखाई पड़ता है। जहाँ ऋक् में स्वतन्त्र कर्मण्यता और स्वतन्त्रता की दशा है वहाँ अथर्ववेद में अन्धविश्वास दिखाई देता है। किन्तु उनकी यह युक्ति पाश्चात्य दृष्टि से उलटी जँचती है, क्योंकि अन्धविश्वास का युग पहले आता है, बुद्धि-विवेक का पीछे। अतः अथर्ववेद तीन वेदों से अपेक्षाकृत अधिक पुराना होना चाहिए।

अथर्ववेद में लगभग सात सौ साठ सूक्त हैं जिनमें छः हजार मन्त्र हैं। पहले काण्ड से लेकर सातवें तक किसी विषय के क्रम से मन्त्र नहीं दिये गये हैं। केवल मन्त्रों की संख्या के अनुसार सूक्तों का क्रम बाँधा गया है। पहले काण्ड में चार-चार मन्त्रों का क्रम है, दूसरे में पाँच-पाँच का, तीसरे में छः-छः का, चौथे में सात-सात का, पन्तु पाँचवें में आठ से अठारह मन्त्रों का क्रम है। छठे में तीन-तीन का क्रम है। सातवें में बहुत से अकेले मन्त्र हैं और ग्यारह-ग्यारह मन्त्रों तक का भी समावेश है। आठवें काण्ड से लेकर बीसवें तक लम्बे-लम्बे सूक्त हैं जो संख्या में पचास, साठ, सत्तर और अस्सी मन्त्रों तक चले गये हैं। तेरहवें काण्‍ड तक विषयों का कोई क्रम नहीं रखा गया है, विविध विषय मिले-जुले हैं। उनमें विशेष रूप से प्रार्थना है, मन्त्र हैं और प्रयोग तथा विधियाँ हैं, जिनसे सब तरह के भूत-प्रेत, पिशाच, असुर, राक्षस, डाकिनी, शाकिनी, वेताल आदि से रक्षा की जा सके। जादू-टोना करने वालों, सर्पों, नागों और हिंसक जन्तुओं से तथा रोगों से बचाव होता रहे, ऐसी विधियाँ हैं। सन्तान, सर्वसाधारण की रक्षा, विशेष प्रकार की ओषधियों में विशेष गुणों के आवाहन, मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि प्रयोगों, सौख्य, सम्पत्ति, व्यापार और जुए आदि की सफलता के लिए प्रार्थनाएँ भी हैं, और मन्त्र भी हैं। चौदहवें से अठारहवें तक पाँच काण्डों में विषयों का क्रम निश्चित है। चौदहवें काण्‍ड में विवाह की रीतियों का वर्णन है। पन्द्रहवें, सोलहवें और सत्रहवें काण्ड में कुछ विशेष मन्त्र हैं। अठारहवें में अन्त्येष्टि क्रिया की विधियाँ और पितरों के श्राद्ध की रीतियाँ हैं। उन्नीसवें में विविध मन्त्रों का संग्रह है। बीसवें में इन्द्र सम्बन्धी सूक्त हैं जो ऋग्वेद में भी प्रायः आते हैं। अथर्ववेद के बहुत से सूक्त, लगभग सप्तमांश, ऋग्वेद में भी मिलते हैं। कही-कहीं तो ज्यों-के-त्यों मिलते हैं और कहीं-कहीं महत्त्व के पाठांतर भी। सृष्टि और ब्रह्मविद्या के भी अनेक रहस्य इस वेद में जहाँ-तहाँ आये हैं जिनका विस्तार और विकास ब्राह्मणों तथा उपनिषदों में आगे चलकर हुआ है।

इस संहिता में अनेक स्थल दुरूह हैं। ऐसे शब्द समूह हैं जिनके अर्थ का पता नहीं लगता। बीसवें काण्ड में, एक सौ सत्ताईसवें से लेकर एक सौ छत्तीसवें सूक्त तक 'कुन्ताप' नामक विभाग में, विचित्र तरह के सूक्त और मन्त्र हैं जो ब्राह्मणाच्छंसी के द्वारा गाये जाते हैं। इसमें कौरम्, रुशम्, राजि, रौहिण, ऐतश, प्रातिसुत्व, मण्डूरिका आदि ऐसे नाम आये हैं जिसका ठीक-ठीक अर्थ नहीं लगता।

अथर्वशिरस्-उपनिषद् : (अ)-एक पाशुपत उपनिषद्। इसका रचनाकाल प्रायः महाभारत में उल्लिखित पाशुपत मत सम्बन्धी परिच्छेदों के रचनाकाल के लगभग है। इसमें पशुपति रुद्र को सभी तत्त्वों में प्रथम तत्त्व माना गया है तथा इन्हें ही अन्तिम गन्तव्य अथवा लक्ष्य भी बताया गया है। इसमें पति, पशु और पाश का भी उल्लेख है। 'ओम्' के पवित्र उच्चारण के साथ ध्यान करने की योगप्रणाली को इसमें मान्यता दी गयी है। शरीर पर भस्म लगाना पाशुपत मत का आदेश बताया गया है।

अथर्वशिरस्-उपनिषद् : (आ)-यह एक स्मार्त उपनिषद् है, जो पञ्चायतनपूजा के देवों (विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य, गणेश) पर लिखे गये पाँच प्रकरणों का संग्रह है। पञ्चायतनपूजा कब प्रारम्भ हुई, इसकी तिथि निश्चित नहीं की जा सकती। किन्तु इस पूजा में ब्रह्मा के स्थान न पाने से ज्ञात होता है कि उस समय तक ब्रह्मा का प्रभाव समाप्त हो चुका था तथा उनका स्थान गणेश ने ले लिया था। कुछ विद्वानों का मत है कि पञ्चायतन पूजा का प्रारम्भ शङ्कराचार्य ने किया, कुछ लोग कुमारिल भट्ट से इसका प्रारम्भ बताते हैं, जबकि अन्य विचारकों के अनुसार यह बहुत प्राचीन है। कुछ भी हो, अथर्वशिरस् उपनिषद् की रचना अवश्य पञ्चायतन पूजा के प्रचार के पश्चात् हुई।

अथर्वाऋषि : अथर्ववेद के द्रष्टा ऋषि। इन्हीं के नाम पर इस वेद का नाम अथर्ववेद पड़ा। अथर्वा-ऋषि के सम्बन्ध में एक किंवदन्ती भी है कि पूर्व काल में स्वयंभू ब्रह्मा ने सृष्टि के लिए दारुण तपस्या की। अन्त में उनके रोम-कूपों से पसीनें की धारा बह चली। इसमें उनका रेतस् भी था। यह जल दो धाराओं में विभक्त हो गया । उसकी एक धारा से भृगु महर्षि उत्पन्न हुए। अपने उत्पन्न करने वाले ऋषिप्रवर को देखने के लिए जब भृगु उत्सुक हुए, तब एक देववाणी हुई जो गोपथब्राह्मण (1।4) में दी हुई है : 'अथर्ववाग्' एवं 'एतग स्वेदाय स्वन्निचछ्'। इस तरह उनका नाम अथर्वा पड़ा। दूसरी धारा से अङ्गिरा नामक महर्षि का जन्म हुआ। उन्हीं से अथर्वाङ्गिरसों की उत्पत्ति हुई।

अथर्वज्योतिष : संस्कारों और यज्ञों की क्रियाएँ निश्चित मुहूर्तों पर निश्चित समयों में और निश्चित अवधियों के भीतर होनी चाहिए। मुहूर्त, समय और अवधि का निर्णय करने के लिए ज्योतिष शास्त्र का ही एक अवलम्ब है। इसलिए प्रत्येक वेद के सम्बन्ध का ज्योतिषाङ्ग अध्ययन का विषय होता है। ज्योतिर्वेदाङ्ग पर तीन पुस्तकें बहुत प्राचीन काल की मिलती हैं। पहली ऋक्-ज्यौतिष, दूसरी यजुः-ज्यौतिष और तीसरी अथर्व-ज्यौतिष। अथर्वज्योतिष के लेखक पितामह हैं। वराहमिहिर की लिखी पञ्चसिद्धान्तिका, जिसे पं. सुधाकर द्विवेदी और डा. थोबो ने मिलकर सम्पादित करके प्रकाशित करया था, 'पैतामह-सिद्धान्त' के नाम से प्रसिद्ध है। 'हिन्दुस्तान रिव्यू' के 1906 ई., नवम्बर के अंक में पृष्ठ 418 पर किसी अज्ञातनामा लेखक ने 'पितामह-ज्यौतिष' के 162 श्लोक बतलाये हैं।

अथर्वशीर्ष : शाक्त मत का एक ग्रन्थ, जिसमें शक्ति के ही स्तवन हैं।

अथर्वाणः : अथर्ववेद के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग 'अंङ्गिरसः' के समास के साथ होता है। इस प्रकार दोनों का यौगिक रूप 'अथर्वाङ्गिरसः' भी अथर्ववेद के ही अर्थ में व्यवहृत है।

अथर्वाङ्गिरसः : परवर्ती ब्राह्मणों के अनेक परिच्छेदों में अथर्ववेद के इस सामूहिक नाम का उल्लेख है। एक स्थान पर स्वयं अथर्ववेद में भी इसका उल्लेख है, जबकि सूत्र काल के पहले 'अथर्ववेद' शब्द नहीं पाया जाता। ब्लूम-फील्ड के मत से यह समास दो तत्त्वों का निरूपण करता है, जो अथर्ववेद की विषयवस्तु के निर्माणकर्ता हैं। इसका प्रथम भाग प्राणियों के शुभ कार्यों (भेषजानि) का निरूपण करता है, इसके विपरीत दूसरा जादू-टोना (यातु वा अभिचार) का। इस मत की पुष्टि दो पौराणिक व्यक्तियों 'घोर-आङ्गिरस' एवं 'भिषक्-आङ्गिरस' के नाम से एवं पञ्चविश ब्राह्मणं में उद्धृत 'अथर्वाणः' तथा 'आथर्वणानि' के भेषज के साथ सम्बन्ध निर्देश से होती है। अथर्ववेद में भेषज का तात्पर्य अथर्ववेद के अर्थ में एवं शतपथब्राह्मण में यातु का तात्पर्य अथर्ववेद लगाया गया है।

अथर्वोपनिषद् : इसका बहुभाषित नाम 'याज्ञिकी' तथा नारायणीयोपनिषद्' है। 'अथर्वोपनिषद्' नाम द्रविड देश, आन्ध्र प्रदेश, कर्णाटक आदि में प्रचलित है। तैत्तिरीय-आरण्यक का सातवाँ, आठवाँ, नवाँ एवं दसवाँ प्रपाठक ब्रह्मविद्या सम्बन्धी होने से 'उपनिषद्' कहलाता है। यह उपनिषद् दसवाँ प्रपाठक है। सायणाचार्य ने इस पर भाष्य लिखा है एवं विज्ञानात्मा ने एक स्वतन्त्र वृत्ति और 'वेद-शिरोभूषण' नाम की एक अलग व्याख्या लिखी है। याज्ञिकी 'नारायणीय-उपनिषद्' में ब्रह्मतत्त्व का विवरण है। शङ्कराचार्य ने भी इसका भाष्य लिखा है।

अदारिद्रय षष्ठी : स्कन्द पुराण के अनुसार एक वर्ष तक प्रत्येक षष्ठी को यह व्रत करना चाहिए। इसमें भास्कर (सूर्य) की पूजा की जाती है। व्रती को तेल एवं लवण त्यागना चाहिए तथा ब्राह्मण को खीर (दूध और चीनी में पका चावल) खिलाना चाहिए। इस व्रत से परिवार में न कोई दरिद्र उत्पन्न होता है और न दरिद्र बनता है।

अदिति : वरुण, मित्र एवं अर्यमा की माता अथवा देवमाता। इसको स्वाधीनता तथा निरपराधिता का स्वरूप कहा गया है। बारह आदित्य अदिति के पुत्र माने जाते हैं। अदिति का भौतिक आधार असीमित क्षितिज है जिसके और आकाश के बीच में बारहों आदित्य भ्रमण करते हैं। पुराणों में इस कल्पना का विस्तार से वर्णन है। कश्यप की दो पत्नियाँ थीं-अदिति और दिति। अदिति से देव और दिति से दैत्य उत्पन्न हुए। ऋग्वेद (1.89.10) के अनुसार अदिति निस्सीम है। वही आकाश, वही वायु, वही माता, वही पिता, वही सर्वदेवता, वही सर्व मानव, वही भूत, वर्तमान और भविष्य है।

अदितिकुण्ड तथा सूर्यकुण्ड : कुरुक्षेत्र से पाँच मील दूर दिल्ली-अम्बाला रेलवे लाइन पर अमीनग्राम के पूर्व में दो सरोवर हैं, जिनमें एक तो सूखा रहता है परन्तु दूसरे में जल भरा रहता है। इनमें पहला अदितिकुण्ड और दूसरा सूर्यकुण्‍ड कहलाता है। यहीं पर महर्षि कश्यप तथा उनकी पत्नी अदिति का आश्रम था और माता अदिति ने वामन भगवान् को पुत्र रूप मे पाया था।

अदुःखनवमी : सबके लिए, विशेषतः स्त्रियों के लिए, भाद्र शुक्ला नवमी को इस व्रत का विधान है। इसमें पार्वती का पूजन किया जाता है। दे. व्रतराज, 332, 337; स्क. पु.। बंगाली महिलाँ अवैधव्य के लिए इस व्रत का अनुष्ठान करती हैं।

अदृष्ट : ईश्‍वर की इच्‍छा, जो प्रत्‍येक आत्‍मा में गुप्‍त रूप से विराजमान है, अदृष्‍ट कहलाती है। भाग्‍य को भी अदृष्‍ट कहते हैं। मीमांसा दर्शन को छोड़ अन्‍य सभी हिंदू दर्शन प्रलय में आस्‍था रखते हैं। न्‍याय-वैशेषिक मतानुसार ईश्‍वर प्राणियों को विश्राम देने के लिए प्रलय उपस्थित करता है। आत्‍मा में, शरीर, ज्ञान एवं सभी तत्‍त्‍वों में विराजमान अदृष्‍ट शक्ति उस काल में काम करना बंद कर देती है ((शक्ति-प्रतिबंध)। फलत: कोई नया शरीर, ज्ञान अथवा अन्‍य सृष्टि नहीं होती। फिर प्रलय करन के लिए अदृष्‍ट सभी परमाणुओं में पार्थक्‍य उत्‍पन्‍न करता है तथा सभी स्‍थूल पदार्थ इस क्रिया से परमाणुओं के रूप में आ जाते हैं। इस प्रकार अलग हुए परमाणु तथा आत्‍मा अपने किए हुए धर्म, अधर्म तथा संस्‍कार के साथ निष्‍प्राण लटके रहते हैं।

पुनः सृष्टि के समय ईश्वर की इच्छा से फिर अदृष्ट लटके हुए परमाणुओं एवं आत्माओं में आन्दोलन उत्पन्न करता है। वे फिर संगठित होकर अपने किये हुए धर्म, अधर्म एवं संस्कारानुसार नया शरीर तथा रूप धारण करते हैं।

अदेश (आदेश) : इस शब्द का सम्बन्ध केशवचन्द्र सेन तथा ब्रह्मसमाज से है। केशवचन्द्र ब्रह्मसमाज के प्रमुख नेता थे, किन्तु तीन कारणों से समाज ने उनका विरोध किया- उनकी अहम्मन्यता, आदेश का सिद्धान्त एवं स्त्रियों को पूर्ण स्वाधीनता देने की नीति। उनके आदेश का अर्थ था ईश्वर का सीधा आदेश, जो उन्हें जीवन की विभिन्‍न घड़ियों में ईश्वर से विशेष रूप में प्राप्त होता था। अपने अनुयायियों द्वारा इन आदेशों का पालन वे आवश्यक समझते थे।

अद्भुत : शुभाशुभ शकुन का एक प्रकार। वैदिक विचार-प्रणाली में छः शुभारम्भ शकुन अथवा लक्षण उल्लिखित हैं-(1) अशुभ रूप तथा पशुओं के कृत्य, (2) अद्भुत्, अर्थात् प्रकृति के सामान्य रूप के साथ विभिन्न दूसरे उग्र रूप, (3) भौतिक चिह्न, (लक्षण), (4) ज्योतिषिक प्रकृति सम्बन्धी, (5) यज्ञ की घटनाओं से सम्बन्ध रखने वाले तथा (6) स्वप्न।

अद्भुत गीता : एक संस्कृत ग्रन्थ का नाम, जो सिक्ख गुरू नानकदेव (1469-1539) द्वारा रचित माना जाता है।

अद्भुत ब्राह्मण : अद्भुत ब्राह्मण का सम्बन्ध सामवेद से है। इसमें अपशकुन तथा उनके निवारण का वर्णन है।

अद्भुत रामायण : रामभक्ति शाखा का एक ग्रन्थ। इसकी रचना अध्यात्मरामायण के पूर्व की मानी जाती है, क्योंकि अध्यात्मरामायण का रचयिता अद्भुत रामायण, भुसुण्डिरामायण, योगवासिष्ठ आदि रामभक्ति विषयक ग्रन्थों से परिचित था। अद्भुत रामायण में अखिल विश्व की जननी सीताजी के परात्परा शक्ति वाले रूप की बहुत सुन्दर स्तुति की गयी है।

अद्वयवादी : भारतीय दार्शनिकों को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में रखा गया है : (1) आस्तिक, (2) नास्तिक और (3) अद्वयवादी। अद्वयवादी वे दार्शनिक हैं जो अद्वैत वाद में विश्वास रखते हैं। दे. 'अद्वैतवाद'।

अद्वैत : यह शब्द अ+द्वैत से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है द्वैत (दो के भाव) का अभाव। दर्शन में इसका प्रयोग 'मूल सत्ता' के निर्देश के लिए हुआ है। इसके अनुसार वस्तुतः एक ही सत्ता 'ब्रह्म' है। आत्मा और जगत् अथवा आत्मा और प्रकृति में जो द्वैत दिखाई पड़ता है वह वास्तविक नहीं है; वह माया अथवा अविद्या का परिणाम है। सम्पूर्ण विश्वप्रपञ्च अपने बदलते हुए दृश्यों के साथ मिथ्या है, केवल ब्रह्म सत्य है। अंतिम विश्लेषण में आत्मा और ब्रह्म भी एक ही हैं। इस सिद्धान्त का पोषण जो दर्शन करता है वह अद्वैत है। दे. 'वेदान्त' और 'शङ्कराचार्य'।

अद्वैतचिन्ताकौस्तुभ : अद्वैतवादी सिद्धान्त पर महादेव सरस्वती द्वारा लिखित 'तत्त्वानुसन्धान' के ऊपर उन्हीं के द्वारा लिखी गयी टीका। इस ग्रन्थ का रचनाकाल अठारहवीं शताब्दी है।

अद्वैतदीपिका : अद्वैत वेदान्त का एक युक्तिप्रधान ग्रन्थ। इसके रचयिता नृसिंहाश्रम सरस्वती अद्वैत सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्यों में गिने जाते हैं। इसका रचनाकाल सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध होना चाहिए।

अद्वैतब्रह्मसिद्धि : अद्वैत मत का एक प्रामाणिक ग्रन्थ। इसके रचयिता काश्मीरक सदानन्द यति कश्मीरदेशीय थे। रचनाकाल 17वीं शताब्दी है। इसमें प्रतिबिम्बवाद एवं अवच्छिन्नवाद सम्बन्धी मतभेदों की विशेष विवेचना में न पड़कर 'एकब्रह्मवाद' को ही वेदान्त का मुख्य सिद्धान्त बतलाया गया है। जब तक प्रबल साधना के द्वारा जिज्ञासु ऐकात्म्य का अनुभव नहीं कर लेता तब तक वह इस वाग्जाल में फँसा रहता है, अन्यथा 'ज्ञाते द्वैतं न विद्यते।'

अद्वैतरत्न : मल्लनाराध्य कृत सोलहवीं शताब्दी का एक प्रकरण ग्रन्थ। इसके ऊपर 'तत्‍त्‍वदीपन' नामक टीका स्वयं ग्रन्थकार ने लिखी है। मल्लनाराध्य ने द्वैतवादियों के मत का खण्डन करने के लिए इस ग्रन्थ की रचना की थी।

अद्वैतरत्नलक्षण : मधुसूधन सरस्वती रचित यह ग्रन्थ द्वैतवाद का खण्डन करते हुए अद्वैतवाद की स्थापना करता है। यह 18वीं शताब्दी में रचा गया था।

अद्वैतरसमञ्जरी : सदाशिवेन्द्र सरस्वती द्वारा अठारहवीं शताब्दी में लिखी गयी, यह सरल एवं बावपूर्ण रचना है। यह प्रकाशित हो चुकी है। सदाशिवेन्द्र महान योगी और अद्वैतनिष्ठ महात्मा थे। उनके उत्कृष्ट जीवन की छाप इस ग्रन्थ में परिलक्षित होती है।

अद्वैतवाद : विश्व के मूल में रहनेवाली सत्ता की खोज दर्शन का प्रमुख विषय है। यह सत्ता है अथवा नहीं अर्थात् यह सत् है या असत् भावात्मक है या अभावात्मक, एक है अथवा दो या अनेक ? ये सब प्रश्‍न दर्शन में उठाये गये हैं। इन समस्याओं के अन्वेषण तथा उत्तर के अनेक मार्ग और मत हैं, जिनसे अनेक दार्शनिक वादों का उदय हुआ है। जो सम्प्रदाय मूल सत्ता को एक मानते हैं उनको एकत्ववादी कहते हैं। जो मूल सत्ता को अनेक मानते हैं वे अनेकत्ववादी, बहुत्ववादी, वैपुल्यवादी आदि नामों से अभिहित हैं। दर्शन का इनसे भिन्न एक सम्प्रदाय है जिसको 'अद्वैतवाद' कहा जाता है। इसके अनुसार 'सत्' न एक है और न अनेक। वह अगम, अगोचर, निर्गुण, अचिन्त्य तथा अनिर्वचनीय है। इसका नाम अद्वैतवाद इसलिए है कि यह एकत्ववाद और द्वैतवाद दोनों का प्रत्याख्यान करता है । इसका सिद्धान्त है कि सत् का निर्वचन संख्या- एक, दो, अनेक- से नहीं हो सकता। इसलिए उपनिषदों में उसे 'नेति नेति' ('ऐसा नहीं', 'ऐसा नहीं') कहा गया है।

वह अद्वैत सत्ता क्या है ? इसके भी विभिन्न उत्तर हैं। माध्यमिक बौद्ध इसे 'शून्य'; विज्ञानवादी बौद्ध, 'विज्ञान'; शब्दाद्वैतवादी वैयाकरण 'स्फोट' अथवा 'शब्द'; शैव 'शैव'; शाक्त 'शक्ति' और अद्वैतवादी वेदान्ती' 'अद्वैत' (आत्मतत्त्व) कहते हैं। इन सभी सम्प्रदायों में सबसे प्रसिद्ध आचार्य शङ्कर का आत्माद्वैत अथवा ब्रह्माद्वैत वाद है। इसके अनुसार 'ब्रह्म' अथवा 'आत्मा' एकमात्र सत्ता है। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं (सर्व खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन।) अविद्या के कारण दृश्य जगत् ब्रह्म में आरोपित है। माया द्वारा वह ब्रह्म से विवर्तित होता है, उसी में स्थित रहता है और पुनः उसी में लीन हो जाता है। शाङ्कर अद्वैतवाद रामानुज के विशिष्टाद्वैत और वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत से भिन्न है।

अद्वैतवाद का उद्गम वेदों में ही प्राप्त होता है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सत् और असत् से विलक्षण सत्ता का स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। उपनिषदों में तो विस्तार से अद्वैतवाद का निरूपण किया गया है। छान्दोग्य उपनिषद् में केवल आत्मा और ब्रह्म को ही वास्तविक माना गया है और जगत् के समस्‍त प्रपञ्च को वाचारम्भण (निरर्थक शब्द मात्र) विकार का गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् में नानात्व का खण्डन करके (नेति नेति) केवल एकमात्र आत्मा को ही सत्य सिद्ध किया गया है। माण्डूक्य उपनिषद् में भी आत्म-ब्रह्मद्वैत प्रतिपादित किया गया है। उपनिषदों के पश्चात् बादरायण के 'ब्रह्मसूत्र में प्रथम वार अद्वैतवाद का क्रमबद्ध एवं शास्त्रीय प्रतिपादन किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने आत्मानुभूति के आधार पर अद्वैत का सारगर्भित विवेचन किया है। उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता ये ही तीन अद्वैतवाद के प्रस्थान हैं। इसके अतिरिक्त आचार्य शङ्कर के दादागुरु गौडपादाचार्य ने अपने माण्‍डूक्योपनिषद् के भाष्य में अद्वैतमत का समर्थन किया है। स्वयं शङ्कराचार्य ने तीनों प्रस्थानों-उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता पर भाष्य लिखा। ब्रह्मसूत्र पर शङ्कर का 'शारीरक भाष्य' अद्वैतवाद का सर्वप्रसिद्ध प्रामाणिक ग्रन्थ है। अद्वैत वाद का जो निखरा हुआ रूप है, वास्तव में उसके प्रवर्तक शङ्कराचार्य ही हैं। दे. 'शङ्कराचार्य'।

अद्वैतविद्यामुकुर : रङ्गराजाध्वरी लिखित 'अद्वैतविद्यामुकुर' न्याय-वैशेषिक एवं सांख्यादि मतों का खण्डन करके अद्वैतमत की स्थापना करता है। इसका रचनाकाल सोलहवीं शती है।

अद्वैतविद्याविजय : दोद्दयाचार्य द्वारा, जिनका पूरा नाम दोद्दयमहाचार्य रामानुजदास है, यह ग्रन्थ सोलहवीं शताब्दी में रचा गया था।

अद्वैतविद्याविलास : सदाशिव ब्रह्मेन्द्र रचित एक ग्रन्थ।

अद्वैतसिद्धि : मधुसूदन सरस्वती-विरचित सत्रहवीं शताब्दी का एक अत्यन्त उच्च कोटि का दार्शनिक ग्रन्थ। इसमें दस परिच्छेद हैं। ब्रह्मानन्द सरस्वती ने इसके ऊपर 'लघु चन्द्रिका' नाम की व्याख्या लिखी है। डॉ. गङ्गानाथ झा द्वारा इसका अंग्रेजी अनुवाद भी हो चुका है। यह ग्रन्थ अद्वैत सम्प्रदाय का अमूल्य रत्न है।

अद्वैताचार्य : श्री चैतन्य देव के सहयोगी एक वैष्णव विद्वान्। इनका कोई ग्रन्थ नहीं मिलता किन्तु आदर के साथ इनका कतिपय रचनाओं में उल्लेख हुआ है। इससे लगता है कि ये अद्वैत तत्त्व के प्रमुख प्रवक्ता थे।

अद्वैतानन्द : ब्रह्माविद्याभरण'-कार स्वामी अद्वैतानन्द का उल्लेख सदाशिव ब्रह्मेन्द्र रचित 'गुरुरत्ममालिका' नामक ग्रन्थ में हुआ है। स्वामी अद्वैतानन्द काञ्चीपीठ के शंकराचार्यपदासीन अधीश्वर थे।

अधर्म : धर्म का अभाव' अथवा धर्मविरोधी तत्त्व। भागवत पुराण के अनुसार यह ब्रह्मा के पृष्ठ से उत्पन्न हुआ है। वेद और पुराण के विरुद्ध आचार को अधर्म कहते हैं। इससे कुछ समय तक उन्नति होती हैं, परन्तु अन्त में अधर्मी नष्ट हो जाता है :

अधर्मेणैधते राजन् ततो भद्राणि पश्यति। ततः सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति॥

[हे राजन् ! मनुष्य अधर्म से बढ़ता है तब सम्पत्ति को पाता है। पश्चात् शत्रुओं को जीतता है। अन्त में समूल नष्ट हो जाता है।]

अधार्मिक : अधर्मी, अधर्मात्मा अथवा पापी :

यस्तु पञ्चमहायज्ञविहीनः स निराकृतः। अधार्मिकः स्याद् वृषलः अवकीर्णी क्षतव्रती॥

[जो पञ्च महायज्ञ नहीं करता वह पतित हो जाता है; अधार्मिक, वृषल, निन्दित और व्रत से क्षीण हो जाता है।] स्मृतियों के अनुसार अधार्मिक ग्राम में नहीं रहना चाहिए।

अधिमास : दो रविसंक्रान्तियों के मध्य में होने वाला चन्द्रमास। रविसंक्रान्ति से शून्य, शुक्ल प्रतिपदा से लेकर महीने की पूर्णिमा तक इसकी अवधि है। इसके पर्याय हैं अधिकमास, असंक्रान्तिमास, मलमास, मलिम्लुच और विनामक (मलमासतत्त्व)। इसको पुरुषोत्तममास भी कहा जाता है। इसमें कथा, वार्ता, धार्मिक क्रियाएँ की जाती हैं।

आधिवास : अन्यत्र जाकर रहना। धूपदानादि संस्कार द्वारा भावित करना भी अधिवास कहलाता है। उसके द्रव्य हैं : (1) मिट्टी, (2) चन्दन, (3) शिला, (4) धान्य (5) दूर्वा, (6) पुष्प, (7) फल, (8) दही (9) घी, (10) स्वस्तिक, (11) सिन्दूर, (12) शङ्ख, (13) कज्जल, (14) रोचना, (15) श्वेत सर्षप, (16) स्वर्ण, (17) चाँदी, (18) ताँबा, (19) चमर, (20) दर्पण, (21) दीप और (22) प्रशस्त पादप। किन्हीं ग्रन्थों में श्वेत सर्षप के स्थान पर तथा कहीं चमर के स्थान पर पका हुआ अन्न कहा गया है।

अध्यग्नि : विवाह के अवसर पर अग्नि के समीप पत्‍नी के लिए दिया गया धन :

विवाहकाले यत् स्त्रीभ्यो दीयते ह्यग्निसन्निधौ। तदध्यग्निकृतं सद्भिः स्त्रीधनन्तु प्रकीर्तितम्॥ (दायभाग में कात्यायन)

[विवाह के समय अग्नि के समीप स्त्री के लिए जो धन दिया जाता है उसे अध्यग्निकृत स्त्रीधन कहते हैं।]

अध्ययन : गुरु के मुख से यथाक्रम शास्त्रवचन सुनना। ब्राह्मणों के छः कर्मों के अन्तर्गत अध्ययन आता है। अन्य वर्णों के लिए भी अध्ययन कर्तव्य हैं।

अव्यात्मकल्पद्रुम : मुनिसुन्दरकृत 'अध्यात्मकल्पद्रुम' 13-80-1447 ई. के मध्य की रचना है। इसमें दार्शनिक प्रश्नों का सुन्दर विवेचन किया गया है।

अध्‍यात्‍म : यह शब्द अधि+आत्मन् दो शब्दों के योग से बना है। भगवद्गीता में इसका प्रयोग एकान्तिक सत्ता के लिए हुआ है (अ. 8 श्लोक 3)। अमेरिकी वेदान्ती इमर्सन ने इसका अर्थ अधीश्वर आत्मा (ओवर सोल) किया है। वास्तव में जो पदार्थ क्षर अथवा नश्वर जगत् से ऊपर अर्थात् परे है उसको अध्यात्म कहते हैं।

अनात्मवाद : आत्मा की सत्ता को स्वीकार न करना, अथवा शरीरान्त के साथ आत्मा का भी नाश मान लेना। जिस दर्शन में 'आत्मा' के अस्तित्व का निषेध किया गया हो उसको अनात्मवादी दर्शन कहते हैं। चार्वाक दर्शन आत्मा के अस्तित्व का सर्वथा विरोध करता है। अतः वह पूरा उच्छेदवादी है। परन्तु गौतम बुद्ध का अनात्मवाद इससे भिन्न है। वह वेदान्त के शाश्वत आत्मवाद और चार्वाकों के उच्छेदवाद दोनों को नहीं मानता है। शाश्वत आत्मवाद का अर्थ है कि आत्मा नित्य, कूटस्थ, चिरन्तन तथा एक रूप है। उच्छेदवाद के अनुसार आत्मा का अस्तित्व ही नहीं है। यह एक प्रकार का भौतिक आत्मवाद है। बुद्ध ने इन दोनों के बीच एक मध्यम मार्ग चलाया। उनका अनात्मवाद अभौतिक अनात्मवाद है। उपनिषदों का 'नेति नेति' सूत्र पकड़ कर उन्होंने कहा, "रूप आत्मा नहीं है। वेदना आत्मा नहीं है। संज्ञा आत्मा नहीं है। संस्कार आत्मा नहीं है। विज्ञान आत्मा नहीं है। ये पाँच स्कन्ध हैं, आत्मा नहीं।" भगवान् बुद्ध ने आत्मा का आत्यन्तिक निषेध नहीं किया, किन्तु उसे अव्याकृत प्रश्न माना।

अध्यात्मरामायण : वाल्मीकिरामायण के अतिरिक्त एक 'अध्यात्मरामायण' भी प्रसिद्ध है, जो शिवजी की रचना कही जाती है। कुछ विद्वान् इसे वेदव्यास की रचना बतलाते हैं। अठारहों पुराणों में रामायण की कथा आयी है। कहा जाता है कि ब्रह्माण्ड पुराण में जो रामायणी कथा है वही अलग करके 'अध्यात्मरामायण' के नाम से प्रकाशित की गयी है।

अध्यात्मोपनिषद् : हेमचन्द्ररचित 'योगशास्त्र' अथवा 'अध्यात्मोपनिषद्' ग्यारहवीं शताब्दी का दार्शनिक ग्रन्थ है।

अध्यापन : पाठन (विद्यादान या पढ़ाना)। यह ब्राह्मणों के छः कर्मों के अन्तर्गत एक है :

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा। दानं प्रतिग्रहश्चैव षट्कर्माण्‍यग्रजन्मनः॥ (मनुस्मृति)

[अध्यापन, अध्ययन, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना ये छः ब्राह्मणों के कर्म हैं।] यह ब्राह्मण का विशिष्ट कर्म है। अन्य वर्णों को इसका अधिकार नहीं है, यद्यपि ब्राह्मणेतर सन्त-महात्माओं को उपदेश का अधिकार है।

अध्यारोप : वस्तु में अवस्तु का आरोप। सच्चिदानन्द, अनन्त, अखण्ड ब्रह्म में अज्ञान और उसके कार्य समस्त जड़ समूह का आरोप करना अध्यारोप कहलाता है। सर्प न होते हुए भी रस्सी में सर्प का आरोप करने के समान यह प्रक्रिया है (वेदान्तसार)।

अध्यासवाद : आचार्य शङ्कर ने ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखते समय सबसे पहले आत्मा और अनात्मा का विवेचन किया है। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो सम्पूर्ण प्रपञ्च को दो प्रधान भागों में विभक्त किया जा सकता है- द्रष्टा और दृश्य। एक वह तत्त्व जो सम्पूर्ण प्रतीतियों का अनुभव करनेवाला है और दूसरा वह जो अनुभव का विषय है। इनमें समस्त प्रतीतियों के चरम साक्षी का नाम 'आत्मा' है और जो कुछ उसका विषय है वह सब 'अनात्मा' है। आत्मतत्त्व नित्य, निश्चल, निर्विकार, असङ्ग, कूटस्थ, एक और निर्विशेष है। बुद्धि से लेकर स्थूलभूत पर्यन्त जितना भी प्रपञ्च है उसका आत्मा से कुछ भी सम्बन्ध नही है। अज्ञान के कारण ही देह और इन्द्रियादि से अपना तादात्म्य स्वीकार कर जीव अपने को अन्धा, काना, मूर्ख, विद्वान्, सुखी-दुखी तथा कर्त्ता-भोक्ता मानता है। इस प्रकार बुद्धि आदि के साथ जो आत्मा का तादात्म्य हो रहा है उसे आचार्य ने 'अध्यास' शब्द से निरूपित किया है। आचार्य के सिद्धान्तानुसार सम्पूर्ण प्रपञ्च की सत्यत्वप्रतीति अध्यास अथवा माया के कारण होती है। इसी से अद्वैतावाद को अध्यासवाद अथवा मायावाद भी कहते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि जितना भी दृश्यवर्ग है वह सब माया के कारण ही सत्य-सा प्रतीत होता है, वस्तुतः एक, अखण्ड, शुद्ध, चिन्मात्र ब्रह्म ही सत्य है।

अध्वर : अध्व = सन्मार्ग, र = देनेवाला, अर्थात् यज्ञकर्म। अथवा जहाँ हिंसा, क्रोध आदि कुटल कर्म न हों (न + ध्वर (अध्वर) सरल, स्वच्छ, शुभ कर्म :

तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशम्' (रघ.)। 'इमं यज्ञमवतादध्वरं नः' (यजुः)।

अध्वर्यु : यज्ञों में देवताओं के स्तुतिमन्त्रों को जो पुरोहित गाता था उसे 'उद्गाता' कहते थे। जो पुरोहित यज्ञ का प्रधान होता था वह 'होता' कहलाता था। उसके सहायतार्थ एक तीसरा पुरोंहित होता था जो हाथ से यज्ञों की क्रियाएँ होता के निर्देशानुसार किया करता था। यही सदस्य 'अध्वर्यु' कहलाता था।

अनग्नि : जो श्रौत और स्मार्त अग्नियों में होम न करता हो। श्रौत और स्मार्त कर्महीन पुरुष को अनग्नि कहते हैं। संन्यासी को भी अनग्नि कहा गया है, जो गृहस्थ के लिए विहित कर्म को छोड़ देता है और केवल आत्मचिन्तन में रत रहता हैं :

अग्‍नीनात्मनि वैतानान् समारोप्य यथाविधि। अनग्निरनिकेतः स्यान्मुनिर्मूलफलाशनः॥ (मनुस्मृति)

[वैतानादि अग्नियों को आत्मा में विधिपूर्वक स्थापित करके अग्निरहित तथा घररहित होकर मुनि मूल-फल का सेवन करे।]

अनघाष्टमीव्रत : मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुष्‍ठान होता है। दर्भों के बने हुए अनघ तथा अनघी का पूजन, जो वासुदेव तथा लक्ष्मी के प्रतीक हैं, 'अतो देवा.....' (ऋक् 22-16) मन्त्र के साथ किया जाता है। शूद्रों के द्वारा नमस्कार मात्र किया जाता है। दे. भविष्योत्तर पुराण, 58, 1; हेमाद्रि, व्रखण्ड,. 1. 813-14।

अनङ्ग : अङ्गरहित, कामदेव का पर्याय है। काम का जन्म चित्त या मन में माना जाता है। उसे आत्मभू एवं चित्तजन्मा भी कहते हैं। साहित्य में काम को प्रेम का देवता कहा गया है। इसके मन्मथ, मदन, कन्दर्प, स्मर, अनङ्ग आदि पर्याय हैं। प्रारम्भ में काम का अर्थ 'इच्छा' लिया जाता था, वह भी न केवल शारीरिक अपितु साधारणतया सभी अच्छी वस्तुओं की इच्छा। अथर्ववेद (9.2) में काम को इच्छा के मानुषीकरण रूप में मानकर जगाया गया है। किन्तु उसी वेद के दूसरे मन्त्र में (3.25) उसे शारीरिक प्रेम का देवता माना गया है और इसी क्रिया के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग पुराणादि ग्रन्थों में हुआ है। उसके माता-पिता का विविधता से वर्णन है, किन्तु प्रायः उसे धर्म एवं लक्ष्मी की सन्तान कहा गया है। उसकी पत्नी का नाम 'रति' है जो शारीरिक भोग का प्रतीक है। उसका मित्र 'मधु' है जो वसन्त का प्रथम मास है। काम के दो पुत्रों का भी उल्लेख आता है, वे हैं हर्ष एवं यश।

काम सम्बन्धी सामग्री की पुष्टि उसके अस्त्र-शस्त्रों से भली-भाँति हो जाती है। वह पुष्पनिर्मित घनुष धारण करता है (पुष्पधन्वा)। इस धनुष की डोरी भ्रमरों की बनी होती है और बाण भी पुष्पों के ही होते हैं (कुसुम-शर)। ये बाण प्रेम के देवता के 'शोषण' एवं 'मोहन' आदि कर्मों के प्रतीक हैं। उसके ध्वज पर मत्स्य (मकर अतवा मत्स्यकेतु) है, जो 'प्रजनन' का प्रतीक है।

अनङ्ग की एक दूसरी पौराणिक व्याख्या कालिदास के 'कुमारसंभव' काव्य में पायी जाती है। कामदेव पहले अङ्गवान् (सशरीर) था। शिव को जीतने के लिए पार्वती के समक्ष जब वह अपना बाण उन पर छोड़ना चाहता था, तब शिव के तीसरे नेत्र की क्रोधाग्नि से वह जलकर भस्म हो गया :

क्रोधं प्रभो संहर संहरेति यावद् गिरः खे मरुतां चरन्ति। तावद्हि वह्निर्भवनेत्रजन्मा भस्मावशेषं मदनं चकार॥

इसके पश्चात् मदन (कामदेव) अनङ्ग (शरीररहित) हो गया। परन्तु उसकी शक्ति पहले से अधिक हो गयी। वह अब सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो गया।

अनङ्गत्रयोदशी : (1) मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी से प्रारम्भ कर एक वर्षपर्यन्त यह व्रत किया जाता है। इसमें शम्भु की पूजा होती है, उनको पञ्चामृत से स्नान कराया जाता है। अनङ्ग को शिवाजी का स्वरूप माना जाता है और भिन्न-भिन्न नामों से, भिन्न-भिन्न पुष्पों तथा नैवेद्य से उसका भी पूजन किया जाता है।

(2) किसी आचार्य के अनुसार चैत्र और भाद्र शुक्ल त्रयोदशी को यह व्रत होता है। एक बार अथवा वर्ष भर प्रत्येक मास बारह भिन्न-भिन्न नामों से चित्रफलक पर पूजा होती है। दे. हेमाद्रि का व्रतखण्ड, 2. 8-9: पुरुषार्थचिन्तामणि, 223; निर्णयसिन्धु, 88।

अनङ्गदानव्रत : वेश्या के लिए हस्त, पुष्य अथवा पुनर्वसु नक्षत्र युक्त रविवासरीय व्रत। इसमें विष्णु तथा कामदेव का पूजन होता है। दे. कामदेव की स्तुति के लिए आपस्तम्बस्मृति, श्लोक 13; मत्स्यपुराण, अध्याय 70; पद्मपुराण, 23, 74.146।

अनन्त : जिसका विनाश और अन्त नहीं होता। इसका पर्याय शेष भी है। बलदेव को भी अनन्त कहा गया है। अव्यक्त प्रकृति का नाम भी अनन्त है, जिस पर विष्णु भगवान् शयन करते हैं। इसीलिए उनको 'अनन्तशायी' भी कहते हैं।

अनन्त चतुर्दशी : भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी। भविष्य पुराण के अनुसार इसका व्रत 14 वर्ष तक करना चाहिए। अग्नि पुराण, भविष्योत्तर पुराण एवं तिथितत्त्व आदि में अनन्तपूजा का विवरण है। पूजा में सर्वप्रथम संकल्प, फिर 'सर्वतोभद्र मण्डल' का निर्माण, उस पर कलश की स्थापना, जिस पर एक नाग जिसके सात फण हों और जो दर्भ का बना हो, रखा जाता है। इसके समक्ष 14 गाँठों से युक्त डोरक रखा जाता है। कलश के ऊपर डोरक की पौराणिक मन्त्रों एवं पुरुषसूक्त के पाठ के साथ 16 उपचारों से पूजा की जाती है। डोरक के चतुर्दश देवता, विष्णु से लेकर वसु तक, जगाये जाते हैं। फिर अङ्गों की पूजा की जाती है, जो पाद से आरम्भ होकर ऊपर तक पहुँचती है। मन्त्र यह है : 'अनन्ताय नमः पादौ पूजयामि '। फिर एक अञ्जलि पुष्प विष्णु के मन्त्र के साथ चढ़ाये जाते हैं। फिर अनन्त की प्रार्थना सहित 'डोरक' को बाहु पर बाँधना, पुराने 'डोरक' को त्यागना आदि क्रियाएँ की जाती हैं।

इस व्रत में नमक का परित्याग करना पड़ता है। विश्वास किया जाता है कि इस व्रत को 14 वर्ष करने से 'विष्णुलोक' की प्राप्ति होती है।

अनन्‍तज्ञान : गौतमलिखित 'पितृमेधसूत्र' पर अनन्तज्ञान ने टीका लिखी है। कुछ विद्वानों के अनुसार ये गौतम न्यायसूत्र के रचने वाले महर्षि गौतम ही हैं।

अनन्‍त तृतीया : भाद्रपद, वैशाख अथवा मार्गशीर्ष शुक्ल को तृतीया से प्रारम्भ कर एक वर्ष पर्यन्त इसका व्रत किया जाता है। प्रत्येक मास में विभिन्न पुष्पों से गौरी-पूजन होता है। दे. हेमाद्रि का व्रतखण्ड, 422-426 ; पद्मपुराण; कृत्यरत्नाकर, 265-270।

अनन्त द्वादशी : इसके व्रत में भाद्र शुक्ल द्वादशी से प्रारम्भ कर एक वर्षपर्यन्त हरिपूजा की जाती है। दे. विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 3-14-1-5; हेमाद्रि, व्रतखण्ड 1, 1200-1201 (विष्णुरहस्य)।

अनन्तदेव : जीवनकाल 17वीं शताब्दी। इनके पिता 'आपदेव' थे जिन्होंने 'मीमांसान्यायप्रकाश' (दूसरा नाम आपोदेवी) की रचना की थी। अनन्तदेव रचित 'स्मृति कौस्तुभ' प्रकरण ग्रन्थ है, जो मीमांसा के सिद्धान्तों का प्रयोग बतलाता है। देश के विभिन्न भागों में इस ग्रन्थ का प्रचार है।

अनन्तदेव (भाष्यकार) : वाजसनेयी संहिता' के भाष्यकारों में अनन्तदेव भी एक हैं।

अनन्तनाग : कश्मीर का एक तीर्थ, जो पहलगाँव से सात मील पर स्थित है। यहाँ डाकबँगला है किन्तु मेले के दिनों में भीड़ अधिक होती है। उस समय तम्बू लगाकर ठहरना पड़ता है। तम्बू पहलगाँव से किराये पर ले जाना होता है। आगे चन्दनवाड़ी से शेषनाग की तीन मील कड़ी चढ़ाई है। शेषनाग झील का सौन्दर्य अद्भुत है।

अनन्तफला सप्तमी : इस व्रत में भाद्र शुक्ल सप्तमी से प्रारम्भ कर एक वर्षपर्यन्त सूर्य का पूजन किया जाता है। दे. हेमाद्रि, व्रतखण्ड 1, 751; भविष्यपुराणः कृत्यकल्पतरु; व्रतकाण्ड 148-149।

अनन्त मिश्र : उडि़या भाषा में महाभारत का भाषांतर करने वाले लोकप्रिय विद्वान। आज से एक हजार वर्ष पहले लोगों को यह आवश्‍यकता प्रतीत हो चुकी थी कि सद्धर्म एवं सदाचार तथा ज्ञान-विज्ञान की जो विधि संस्‍कृत में निहित है उसे उस काल की प्रकृति प्राकृत भाषाओं में जनता के लिए सुलभ बनाया जाय। यह काम भारत में सर्वत्र होने लगा। इस आन्‍दोलन के फलस्‍वरूप तमिल, तेलगु, कन्‍नड़, मलयालम, बँगला, मराठी आदि भाषाओं में संस्‍कृतग्रंथों का अनुवाद हुआ। उडि़या प्राकृत में महाभारत का रूपान्‍तर कई लेखकों ने किया। इनमें अनन्‍त मिश्र एक प्रसिद्ध भाषान्‍तरकार थे।

अनन्त व्रत : अनन्त देवता का व्रत। भाद्रपद की शुक्ल चतुर्दशी को अनन्तदेव का व्रत करना चाहिए। माहात्म्य निम्नाङ्कित है :

अनन्तव्रतमेतद्धि सर्वपापहरं शुभम्। सर्वकामप्रदं नृणां स्त्रीणाञ्चैव युधिष्ठिर॥ तथा शुक्लचतुर्दश्यां मासि भाद्रपदे भवेत्। तस्यानुष्ठानमात्रेण सर्वपापं प्रणश्यति॥

[यह अनन्त व्रत सब पापों का विनाश करने वाला तथा शुभ है। हे युधिष्ठिर ! यह पुरुषों तथा स्त्रियों को सब कामों की सिद्धि देता है। भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को व्रत करने मात्र से सब पाप नष्ट हो जाते हैं।]

एक अन्य मतानुसार यह मार्गशीर्ष मास में तब प्रारम्भ किया जाता है, जिस दिन मृगशिरा नक्षत्र हो। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होता है। प्रत्येक सास में भिन्न भिन्न नक्षत्रानुसार पूजन होता है। यथा, पौष में पुष्य नक्षत्र में तथा माघ में मघा नक्षत्र में। इसी तरह अन्य मासों में भी समझना चाहिए। यह व्रत पुत्रदायक है। दे. हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2, पृष्ठ 667-671; विष्णुधर्मोत्तर पुराण 173, 1-30।

अनन्ताचार्य : ये यादवगिरि के समीप मेलकोट में रहते थे तथा 'श्रुतप्रकाशिका' के रचयिता सुदर्शनसूरि के पश्चात् लगभग सोलहवीं शताब्दी में हुए थे। इन्होंने अपने ग्रन्थ 'ब्रह्मलक्षण निरूपण' में 'श्रुतप्रकाशिका' का उल्लेख किया है। इन्होंने रामानुज मत का समर्थन करने के लिए बहुत से ग्रन्थों की रचना कर अक्षय कीर्ति का अर्जन किया। इनके ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं- ज्ञानयथार्थवाद, प्रतिज्ञावादार्थ, ब्रह्मपदशक्तिवाद, ब्रह्मलक्षणनिरूपण, विषयतावाद, मोक्षकारणतावाद, शरीरवाद, शास्त्रारम्भ समर्थन, शास्त्रैक्यवाद, संविदेकत्वानुमाननिरासवादार्थ, समासवाद, समानाधिकरणवाद और सिद्धान्तसिद्धाञ्जन। इन सब ग्रन्थों से आचार्य की दार्शनिकता एवं पाण्डित्य का पूरा परिचय मिलता है।

अनन्दानवमी व्रत : इस व्रत में फाल्गुन शुक्ल नवमी से प्रारम्भ कर एक वर्षपर्यन्त देवी-पूजा की जाती है। दे. कृत्यकल्पतरू; व्रतकाण्ड, 299-301; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1, 948-950।

अनन्य : (1) परमात्मा अथवा विश्वजनीन चेतना से व्यक्तिगत आत्मा के अभेद के सिद्धान्त को अनन्यता कहते हैं।

(2) यह भक्ति का भी एक प्रकार है, जिसके अनुसार भक्त एक भगवान् के अतिरिक्त अन्य किसी पर अवलम्बित नहीं होता है।

अनन्यानुभव : एक सिद्ध संन्यासी महात्मा। इनका जीवनकाल दसवीं शताब्दी के पश्चात् तथा तेरहवीं शताब्दी के पहले माना जा सकता है। इनको ब्रह्म साक्षात्कार हुआ था- ऐसा इनके शिष्य प्रकाशात्मयति के अद्वैतवादी ग्रन्थ 'पञ्चपादिका-विवरण' से ज्ञात होता है। प्रकाशात्मयति ने लिखा है कि गुरु से ब्रह्मविद्या प्राप्त करके ग्रन्थ-रचना की है।

अनर्क व्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा को यह ऋतुव्रत किया जाता है। इसका अनुष्ठान दो ऋतुओं (हेमन्त तथा शिशिर) में होता है। इसमें केशवपूजा की जाती है। 'ओं नमः केशवाय' मन्त्र का 108 बार जप किया जाता है। दे. हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2, 839 -42; विष्णुरहस्य।

अनशन : (1) भोजन का अभाव, इसे उपवास भी कहते हैं। यह एक धार्मिक क्रिया है जो शरीर और मन की शुद्धि के लिए की जाती है। व्रत अथवा अनुष्ठान में अनशन किया जाता है। बहुत-से लोग मरने के कुछ दिन पूर्व से अनशन करते हैं। मरणान्त अनशन को 'प्रायोपवेशन' भी कहते हैं। यह जैन सम्प्रदाय में अधिक प्रचलित है।

(2) पुरुषसूक्त के चौथे मन्त्र में (ततो विश्वङ व्यक्रामत्, अर्थात् यह नाना प्रकार का जगत् उसी पुरुष के सामर्थ्य से उत्पन्न हुआ है) इस शब्द का उल्लेख है एवं इस जगत् के दो विभाग किये गये हैं : 'साशन' (चेतन) जो भोजनादि के लिए चेष्टा करता है और जीव से युक्त है और दूसरा 'अनशन' (जड़) जो अपने भोजन के लिए चेष्टा नहीं करता और स्वयं दूसरे का अशन (भोजन) है।

(3) आजकल राजनीतिक अथवा सामाजिक साधन के रूप में भी इसका उपयोग होता है। अपनी बात अथवा आग्रह मनवाने के जब अन्य साधन असफल हो जाते हैं तब इसका प्रयोग किया जाता है।

अनसूया : (1) एक धार्मिक गुण, असूया का अभाव। इसका लक्षण बृहस्पति ने दिया है :

न गुणान् गुणिनो हन्ति स्तौति मन्दगुणानपि। नान्यदोषेषु रमते सानसूया प्रकीर्तिता॥ (एकादशी तत्त्व)

[गुणियों के गुणों का विरोध न करना, अल्प गुण वालों की भी प्रशंसा करना, दूसरों के दोषों को न देखना अनसूया है।]

(2) अत्रि मुनि की पत्नी का नाम भी अनसूया है। भागवत के अनुसार ये कर्दम मुनि की कन्या थीं। वाल्मीकि-रामायण में सीता और अनसूया का अत्रि-आश्रम में संवाद पाया जाता है।

अन्नकूटोत्सव : कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा या द्वितीया को यह उत्सव मनाया जाता है। यह गोवर्धन पूजन का ही एक अङ्ग है। इस दिन मिष्ठान्न अथवा विविध पकवानों का कूट (पर्वत) प्रस्तुत कर उसका भगवान् को समर्पण किया जाता है।

अनादि : आदिरहित (अन् + आदि)। प्रकृति और पुरुष दोनों को अनादि कहा गया है :

प्रकृतिं पुरुषञ्चैव विद्धयनादी उभावपि। (गीता)

अनामा (अनामिका) : ब्रह्मा का सिर छेदन कर देने पर भी जिसका नाम निन्दित नहीं है उसे अनामा कहते हैं। पुराणों के अनुसार इस अंगुलि से शिव ने ब्रह्मा का शिरश्छेद किया था। यह पवित्र मानी जाती है, धार्मिक कृत्य करते समय इसी अंगुलि में पवित्री धारण की जाती है।

अनाहत : (1) जिस वस्त्र का खण्ड, धुलना और भोग नहीं हुआ है, कोरा। धार्मिक कृत्यों में ऐसे ही वस्त्र को धारण करने का विधान है।

(2) तन्त्रोक्त छः चक्रों के अन्तर्गत चतुर्थ चक्र, जो हृदय में स्थित, क से लेकर ठ तक के वर्णों से युक्त, उदित होते हुए सूर्य के समान प्रकाशमान, बारह पँखुड़ियों वाले कमल के आकार वाला, मध्य में हजारों सूर्यों के तुल्य प्रकाशमान और ब्रह्मध्वनि से शब्दायमान है :

शब्दो ब्रह्मयः शब्दोऽनाहतो यत्र दृश्यते। अनाहताख्यं तत्पद्मं मुनिभिः परिकीर्तितम्॥

[जहाँ पर शब्द ब्रह्ममय है और अनाहत दिखाई देता है, उस पद्म को मुनियों ने अनाहत कहा है।]

हठयोग में जब साधक कुण्डलिनी को जागृत कर उसे ऊर्ध्वमुखी कर लेता, है, उसके उद्गमन के समय जो विस्फोट होता है वह नाद कहलाता है। यह नाद अनाहत रूप से समस्त विश्व में व्याप्त है। यह पिण्ड में भी वर्तमान रहता है, किन्तु मूढ़ अज्ञानी पुरुष उसको सुन नहीं सकता। जब हठयोग की क्रिया से सुषुम्ना नाड़ी का मार्ग खुल जाता है तब यह नाद सुनाई पड़ने लगता है जो कई प्रकार से सुनाई देता है, जैसे समुद्रगर्जन, मेघ-गर्जन, शङ्गध्वनि, घण्टाध्वनि, किङ्किणी, वंशी, भ्रमरगुञ्जन आदि। उपाधि युक्त होने के कारण यह नाद सात स्वरों में विभक्त हो जाता है, जिनके द्वारा जगत् के विविध शब्द सुनाई पड़ते हैं। यह निरुपाधि होकर 'प्रणव' अथवा 'ओंकार' का रूप धारण करता है। इसी को शब्दब्रह्म भी कहते हैं। सन्तों ने इसको 'सोंहं' कहा है।

अनिरुद्ध : (1) प्रद्युम्न (कामदेव) का पुत्र। इसका पर्याय है उषापति। यह भगवान् के चार व्यूहों के अन्तर्गत एक व्यूह है। इससे सृष्टि होती है :

तमसो ब्रह्मसम्भूतं तमोमूलामृतात्मकम्। तद् विश्वभावसंज्ञान्तं पौरुषी तनुमाश्रितम्॥ सोऽनिरुद्ध इति प्रोक्तस्तत् प्रधानं प्रचक्षते। तदव्यक्तमिति ज्ञेयं त्रिगुणं नृपसत्तम॥ विद्यासहायवान् देवो विष्वक्सेनो हरिः प्रभुः। अप्स्वेव शयनञ्चके निद्रायोगमुपागतः॥ जगतश्चिन्तयन् सृष्टि महानात्मगुणः स्मृतः॥ (महाभारत, मोक्षधर्म.)

[तमोगुण के द्वारा ब्रह्म से उत्पन्न, तमोगुण मूलक, अमृत से युक्त, विश्व नामक वह पुरुष के शरीर में स्थित है। उसे अनिरुद्ध कहते हैं। उससे त्रिगुणात्मक अव्यक्त की उत्पत्ति हुई। विद्याओं के बल से युक्त देव विष्वक्सेन प्रभु हरि ने संसार के सर्जन की चिन्ता करते हुए जल में शयन किया और वे योगनिद्रा को प्राप्त हुए। यह महत्तत्त्व (बुद्धितत्त्व) आत्मा का गुण है।]

(2) महाभारत, मोक्षधर्म पर्व के नारायणीय खण्ड में व्यूह (प्रसार) सिद्धान्त का वर्णन है। इस सिद्धान्त के अनुसार वासुदेव (विष्णु) से संकर्षण, संकर्षण से प्रद्युम्न, प्रद्युम्न से अनिरुद्ध तथा अनिरुद्ध से ब्रह्मा का उद्भव हुआ है। संकर्षण तथा रूप में निरूपण होता है। वासुदेव को परम सत्य (परमात्मा), संकर्षण को प्रकृति, प्रद्युम्न को मनस्, अनिरुद्ध को अहंकार एवं ब्रह्मा को पंचभूतों के रूप में ग्रहण किया गया है।

यह कहना कठिन है कि इस सिद्धान्त के पीछे क्या अर्थ छिपा है। वासुदेव कृष्ण हैं, बलराम या सकर्षण उनके भाई हैं, प्रद्युम्न उनके पुत्र तथा अनिरुद्ध उनके पौत्र हैं। हो सकता है कि ये तीनों देवों के रूप में पूजे जाते रहे हों और पीछे इनका सम्बन्ध कृष्ण से स्थापित कर व्यूह-सिद्धान्त का निर्माण कर लिया गया हो। ऐतिहासिक पुरुषों के दैवीकरण का यह एक उदाहरण है।

अनिरुद्धवृत्ति : अनिरुद्ध रचित 'सांख्यसूत्रवृत्ति' का ही अन्य नाम 'अनिरुद्धवृत्ति' है। इसका रचनाकाल 1500 ई. के लगभग है।

अनिर्वचनीय : निर्वचन के अयोग्य, अनिर्वाच्य अथवा वाक्यागम्य। वेदान्तसार में कथन है :

सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं भावरूपं ज्ञान-विरोधि यत् किञ्चिदिति वदन्ति।'

[सत्-असत् के द्वारा अकथनीय, त्रिगुणात्मक भावरूप, ज्ञान का विरोधी जो कुछ है उसे अनिर्वचनीय कहते हैं।]

वेदान्त दर्शन में परमतत्त्व ब्रह्म को भी अनिर्वचनीय कहा गया है, जिसका निरूपण नहीं हो सकता। इस सिद्धान्त को अनिर्वचनीयतावाद कहते हैं। माध्यमिक बौद्धों के शून्यतासिद्धान्त से यह मिलता-जुलता है। इसीलिए आचार्य शङ्कर को प्रच्छन्न बौद्ध कहा जाने लगा।

अनिर्वचनीयतासर्वस्व : नैषधचरित महाकाव्य के रचयिता श्रीहर्ष द्वारा रचित 'खण्डनखण्डखाद्य' का ही अन्य नाम 'अनिर्वचनीयतासर्वस्व' है। इसमें अद्वैत वेदान्तमत के सिवा न्याय, सांख्य आदि सभी दर्शनों का खण्डन हुआ है, विशेष कर उदयनाचार्य के न्यायमत का। स्वामी शङ्कराचार्य का मायावाद अनिर्वचनीय ख्याति के ऊपर ही अवलम्बित है। उनके सिद्धान्तानुसार कार्य और कारण भिन्न, अभिन्न तथा भिन्नाभिन्न भी नहीं है, अपितु अनिर्वचनीय हैं। श्रीहर्ष ने खण्डनखण्डखाद्य में इस मत के सभी विपक्षों का बड़ी सफलता के साथ खण्डन किया है। साथ ही जिन प्रमाणों द्वारा वे लोग अपना पक्ष सिद्ध करते हैं उन प्रत्यक्षादि प्रमाणों का भी खण्डन करते हुए अप्रमेय, अद्वितीय एवं अखण्ड वस्तु की स्थापना उन्होंने की है।

अनीश्वरवाद (सांख्य का) : योगदर्शनकार पतञ्जलि ने आत्मा और जगत् के सम्बन्ध में सांख्यदर्शन के सिद्धान्तों का ही प्रतिपादन एवं समर्थन किया है। उन्होंने भी वे ही पचीस तत्त्व माने हैं जो सांख्यकार ने माने हैं। इसलिए योग एवं सांख्य दोनों दर्शन मोटे तौर पर एक ही समझे जाते हैं, किन्तु योगदर्शनकार ने कपिल की अपेक्षा एक और छब्बीसवाँ तत्त्व 'पुरुष विशेष' अथवा ईश्वर भी माना है। इस प्रकार ये सांख्य के अनीश्वरवाद से बच गये हैं। सांख्यदर्शन सत्कार्यवाद सिद्धान्त को मानता है। तदनुसार ऐसी कोई भी वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती, जो पहले से अस्तित्व में न हो। कारण का अर्थ केवल फल को स्पष्ट रूप देना है अथवा अपने में स्थित कुछ गुणों के रूप को व्यक्त करना। परिणाम की उत्पत्ति केवल कारण के भीतरी परिवर्तन से, उसके परमाणुओं की नयी व्यवस्था के कारण होती है। केवल कारण एवं परिणाम के मध्य की एक साधारण बाधा दूर करने मात्र से मनोवांछित फल प्राप्त होता है। कार्य सत् है, वह कारण में पहले से उपस्थित है, परिणाम लाने की चेष्टा के पूर्व भी परिणाम कारण में उपस्थित रहता है, यथा अलसी में तेल, पत्थर में मूर्ति, दूध में दही एवं दही में मक्खन। 'कारक व्यापार' केवल फल को आविर्भूत करता है, जो पहले तिरोहित था।

सांख्यमतानुसार सभी प्रवृत्तियाँ स्वार्थ (अपने वास्ते) होती हैं, या परार्थ (दूसरे के वास्ते)। प्रकृति तो जड़ है। इसको अपने प्रयोजन और दूसरे के प्रयोजन का कुछ ज्ञान नहीं है। तब इसकी प्रवृत्ति किस तरह होगी। यदि कहें कि चेतन जीवात्मा अधिष्ठाता होकर प्रवृत्ति करा देगा तो यह भी नहीं बनता, क्योंकि जीवात्मा प्रकृति के सम्पूर्ण रूप को जानता नहीं, फिर उसका अधिष्ठाता कैसे हो सकता है ? इसलिए प्रकृति की प्रवृत्ति के लिए सर्वज्ञ अधिष्ठाता ईश्वर मानना चाहिए। किन्तु इस तर्क से ईश्वर की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि पूर्णकाम ईश्वर का अपना कुछ प्रयोजन नहीं है, फिर वह अपने वास्ते, या दूसरे के लिए जगत् को क्यों रचेगा ? बुद्धिमान् पुरुष की प्रवृत्ति निज प्रयोजनार्थ, अपने ही लिए संभव है, अन्य के लिए नहीं। यदि कहें कि दया से निष्प्रयोजन प्रवृत्ति भी हो जाती है, तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि सृष्टि से पहले कोई प्राणी नहीं था, फिर किसके दुःख को देखकर करुणा हुई होगी ? यदि ईश्वर ने करुणा के वश होकर सृष्टि की होती तो वह सबको सुखी ही बनाता, दुःखी नहीं। पर ऐसा देखने में नहीं आता, अपितु जगत् की सृष्टि विचित्र देखी जाती है। यदि कहें कि जीवों के कर्माधीन होकर ईश्वर विचित्र सृष्टि करता है, तो कर्म की प्रधानता हुई, फिर बकरी के गले के निष्प्रयोजन स्तन की तरह ईश्वर मानने की कोई आवश्यकता नहीं। इस प्रकार सांख्य का सिद्धान्त है कि ईश्वर की सत्ता में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, अतः उसकी सिद्धि नहीं हो सकती (ईश्वरासिद्धेः)।

अनुक्रमणिका (कात्यायन की) : वेदों के विषयगत विभाजन को अनुक्रमणिका कहा जाता है। ऋग्वेद का दस मण्डलों में विभाजन ऐतरेय आरण्यक और आश्वलायन तथा शांखायन के गृह्यसूत्रों में सबसे पहले देखने में आता है। कात्यायन की अनुक्रमणिका में मण्डल विभाजन का उल्लेख नहीं है। कात्यायन ने दूसरे प्रकार के विभाजन का अनुसरण करके अष्टकों और अध्यायों में ऋग्वेद को विभक्त माना है।

अनुक्रमणिका और संहिता : अनुक्रमणिका में संहिता और ब्राह्मणग्रन्थों में कोई भेद नहीं किया गया है। किसी-किसी शाखा में जिन बातों का उल्लेख संहिता में नहीं है, ब्राह्मणग्रन्थों में उनका उल्लेख हुआ है। जैसे, नरमेध यज्ञ का उल्लेख संहिता में नहीं है, परन्तु ब्राह्मणग्रन्थों में है।

अनुक्रमणी : वैदिक साहित्य के अन्तर्गत एक तरह का ग्रन्थ। इससे छ्न्द, देवता और मन्त्र-द्रष्‍टा ऋषि का पर्यायक्रम से पता लगता है। ऋक्‍संहिता की अनुक्रमणियां अनेक हैं जिनमें शौनक की रची और कात्‍यायन की रची सर्वानुक्रमणी अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्‍हीं पर बहुत विस्‍तृत विस्तृत एवं सुलिखित टीकाएँ हैं। एक टीकाकार का नाम षड्गुरुशिष्य है। यह पता नहीं कि इनका वास्तविक नाम क्या था और इन्होंने कब यह ग्रन्थ लिखा।

अनुगीता : महाभारत में श्रीमद्भगद्गीता के अतिरिक्त अनुगीता भी पायी जाती है। यह गीता का सीधा अनुकरण है। इसके परिच्छेदों में अध्यात्म सम्बन्धी विज्ञान की कोई विशेषता परिलक्षित नहीं होता, किन्तु शेष, विष्णु, ब्रह्मा आदि के पौराणिक चित्रों के दर्शन यहाँ होते हैं। विष्णु के छः अवतारों- वराह, नृसिंह, वामन, मत्स्य, राम एवं कृष्ण का भी वर्णन पाया जाता है।

अनुग्रह : शिव की कृपा का नाम। पाशुपत सिद्धान्तानुसार पशु (जीव) पाश (बन्धन) में बँधा हुआ है। यह पाश तीन प्रकार का है-आणव (अज्ञान), कर्म (कार्य के परिणाम) और माया (जो इस सृष्टि के स्वरूप का कारण है)। शाङ्कर मत में जो माया वर्णित है उससे यह माया भिन्न है। यहाँ दृश्य जगत् के यथार्थ प्रभाव को दर्शाने, सत्य को ढँकने एवं धोखा देने के अर्थ में यह प्रयुक्त हुई है। इन बन्धनों में जकड़ा हुआ पशु सीमित है, अपने शरीर (आवरण) से घिरा हुआ है। 'शक्ति' इन सभी बन्धनों में व्याप्त है और इसी के माध्यम से पति का आत्मा को अन्धकार में रखने का व्यापार चलता है। शक्ति का व्यापकत्व पति की दया अथवा अनुग्रह में भी है। इस अनुग्रह से ही क्रमशः बन्धन कटते हैं तथा आत्मा की मुक्ति होती है ।

अनपदसूत्र (चतुर्थ साम) : इस ग्रन्थ में दस प्रपाठक हैं। इन सूत्रों का संग्रहकार ज्ञात नहीं है। पञ्चविंश ब्राह्मण के बहुत-से दुर्बोध वाक्यों की इसमें व्याख्या की गयी है। इसमें षड्विंश ब्राह्मण की भी चर्चा है। इस ग्रन्थ से बहुत-सी ऐतिहासिक सामग्री और प्राचीन ग्रन्थों के नाम भी ज्ञात होते हैं। जान पड़ता है कि इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से सामवेद के श्रौतसूत्रों के कई ग्रन्थ सगृहीत हुए थे।

अनुपातक : जो कृत्य निम्न मार्ग की ओर प्रेरित करता है वह पाप है। उसके समान कर्म अनुपातक हैं। वेदनिन्दा आदि से उत्पन्न पाप को भी अनुपातक कहते हैं। उन पापों की गणना विष्णुस्मृति में की गयी है। यज्ञ में दीक्षित क्षत्रिय अथवा वैश्य, रजस्वला, गर्भवती, अविज्ञातगर्भ एवं शरणागत का बध करना ब्रह्महत्या के अनुपातक माने गये हैं। इननके अतिरिक्त 35 प्रकार के अनुपातक होते हैं, यथा-

(1) उत्कर्ष में मिथ्यावचन कहना। यह दो प्रकार का है, आत्मगामी और निन्दा (असूया) पूर्वक परगामी। (2) राजगामी पैशुन्य (शासक से किसी की चुगली करना)। (3) पिता के मिथ्या दोष कहना। [ये तीनों ब्रह्महत्या के समान हैं।] (4) वेद का त्याग (पढ़े हुए वेद को भूल जाना तथा वेदनिन्दा)। (5) झूठा साक्ष्य देना। यह दो प्रकार का है, ज्ञात वस्तु को न कहना और असत्य कहना। (6) मित्र का वध। (7) ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य जाति के मित्र का वध। (8) ज्ञानपूर्वक बार-बार निन्द्य अन्न भक्षण करना। (9) ज्ञानपूर्वक बार-बार निन्दित छत्राक आदि का भक्षण करना।

[ये छः मदिरा पीने से उत्पन्न पातक के समान हैं।] (10) किसी की धरोहर का हरण। (11) मनुष्य का हरण। (12) घोड़े का हरण। (13) चाँदी का हरण। (14) भूमि का हरण। (15) हीरे का हरण। (16) मणि का हरण। [ये सात सोने की चोरी के समान हैं।] (17) परिवार की स्त्री के साथ गमन। (18) कुमारी-गमन। (19) नीच कुल की स्त्री के साथ गमन। (20) मित्र की स्त्री के साथ गमन। (21) अन्य वर्ण की स्त्री से उत्पन्न पुत्र की स्‍त्री के साथ गमन।

(22) पुत्र की असवर्ण जाति वाली स्त्री के साथ गमन। [ये छः विमातृ-गमन के समान हैं।] (23) माता की बहिन के साथ गमन। (24) पिता की बहिन के साथ गमन। (25) सास के साथ गमन। (26) मामी के साथ गमन। (27) शिष्य की स्त्री के साथ गमन। (28) बहिन के साथ गमन। (29) आचार्य की भार्या के साथ गमन) (30) शरणागत स्त्री के साथ गमन। (31) रानी के साथ गमन। (32) संन्यासिनी के साथ गमन। (33) धात्री के साथ गमन। (34) साध्वी के साथ गमन। (35) उत्कृष्ट वर्ण की स्त्री के साथ गमन। [ये तेरह गुरु-पत्नी- गमन के समान अनुपातक हैं।]

अनुब्राह्मणग्रन्थ : ऐतरेय ब्राह्मण के पूर्व भाग में श्रौत विधियाँ हैं। उत्तर भाग में अन्य विधियाँ हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी ऐसी ही व्यवस्थ देखी जाती है। उसके पहले भाग में श्रौत विधियाँ हैं। दूसरें में गृह्यमन्त्र एवं उपनिषद् भाग है। इस श्रेणीविभाग की कल्पना करने वालों के मत में साम-विधि का 'अनुब्राह्मण' नाम है। वे लोग कहते हैं कि पाणिनिसूत्र में अनुब्राह्मण का उल्लेख है (4।2।62 )। किन्तु सायण की विभाग-कल्पना में अनुब्राह्मण का उल्लेख नहीं है। साथ ही अनुब्राह्मण नाम के और किसी ग्रन्थ की कहीं चर्चा भी नहीं है । 'विधान' ग्रन्थों को 'अनुब्राह्मण ग्रन्थ' कहना सङ्गत जान पड़ता है।

अनुभवानन्द : अद्वैतमत के प्रतिपादक वेदान्तकल्पतरु, शास्त्रदर्पण, पञ्चपादिकादर्पण आदि के रचयिता आचार्य अमलानन्द के ये गुरु थे। इनका जीवनकाल तेरहवीं शताब्दी है।

अ(नु)णुभाष्य : ब्रह्मसूत्रों पर वल्लभाचार्य का रचा हुआ भाष्य। वल्लभाचार्य का मत शङ्कराचार्य एवं रामानुज से बहुत अंशों में भिन्न तथा मध्‍वाचार्य के मत से मिलता-जुलता है। आचार्य वल्लभ के मत में जीव अणु और परमात्मा का सेवक है। प्रपञ्चभेद (जगत्) सत्य है। ब्रह्म ही जगत् का निमित्त और उपादान कारण है। गोलोकाधिपति श्री कृष्ण ही परब्रह्म हैं, वही जीव के सेव्य हैं। जीवात्मा और परमात्मा दोनों शुद्ध हैं। इसी से इस मत का नाम शुद्धाद्वैत पड़ा है। वल्लभ के मतानुसार सेवा द्विविध है- फलरूपा एवं साधनरूपा। सर्वदा श्री कृष्ण की श्रवण-चिन्तन रूप मानसी सेवा फलरूपा एवं द्रव्यार्पण तथा शारीरिक सेवा साधनरूपा है। गोलोकस्थ परमानन्दसन्दोह श्री कृष्ण को गोपीभाव से प्राप्त करके उनकी सेवा करना ही मोक्ष है ('अनुभाष्य' नाम के लिए द्रष्टव्य 'अनुव्याख्यान '।)

अनुभूतिप्रकाश : माधवाचार्य अथवा स्वामी विद्यारण्य रचित 'अनुभूतिप्रकाश' में उपनिषदों की आख्यायिकाएँ श्लोकबद्ध कर संग्रह की गयी हैं। यह चौदहवीं शताब्दी का ग्रन्थ है।

अनुभूतिस्वरूपाचार्य : एक लोकप्रिय व्याकरण ग्रन्थकार। सरस्वतीप्रक्रिया नामक इनका लिखा 'सारस्वत' उपनामक ग्रन्थ पुराने पाठकों में अधिक प्रचलित रहा है। सिद्धान्तचन्द्रिका इसकी टीका है। इसमें सात सौ सूत्र हैं। कहते हैं कि सरस्वती के प्रसाद से यह ग्रन्थ इन आचार्य को प्राप्त हुआ था।

अनुमरण : पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी का मरण। पति के मर जाने पर उसकी खडाऊँ आदि लेकर जलती हुई चिता में बैठ पत्नी द्वारा प्राण त्याग करना अनुमरण कहलाता है :

देशान्तरमृते पत्यौ साध्वी तत्पादुकाद्वयम्। निधायोरसि संशुद्धा प्रविशेत् जातवेदसम्॥ (ब्रह्मपुराण)

[देशान्तर में पति के मृत हो जाने पर स्त्री उसकी दोनों खड़ाऊँ हृदय पर रखकर पवित्र हो अग्नि में प्रवेश करे।]

ब्राह्मणी के लिए अनुमरण वर्जित है :

पृथक्चितिं समारुह्य न विप्रा गन्तुमर्हति।'

[ब्राह्मणी को अलग चिता बनाकर नहीं मरना चाहिए।]

उसके लिए सहमरण (मृत पति के साथ जलती हुई चिता में बैठकर मरण) विहित है-

भर्वनुसरणं काले याः कुर्वन्ति तथाविधाः। कामात्क्रोधाद् भयान्मोहात् सर्वाः पूता भवन्ति ताः॥

[जो समय पर विधिपूर्वक काम, क्रोध, भय अथवा लोभ से पति के साथ सती होती हैं वे सब पवित्र हो जाती हैं।] दे. 'सती'।

अनुमान : ज्ञान-साधन प्रमाणों में से एक। न्याय (तर्क) का मुख्य विषय प्रमाण है। प्रमा यथार्थ ज्ञान को कहते हैं। यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो उसे प्रमाण कहते हैं। गौतम ने चार प्रमाण माने हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। वस्तु के साथ इन्द्रिय-संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है। लिङ्ग-लिङ्गी के प्रत्यक्ष ज्ञान से उत्पन्न ज्ञान को अनुमिति तथा उसके करण को अनुमान कहते हैं। जैसे, हमने बराबर देखा कि जहाँ धुआ रहता है वहाँ आग रहती है। इसी की व्याप्ति-ज्ञान कहते हैं जो अनुमान की पहली सीढ़ी है। कहीं धुआँ देखा गया, जो आग का लिङ्ग (चिह्न) है और मन में ध्यान आ गया कि 'जिस धुएँ के साथ सदा आग रहती है वह यहाँ है'- इसी को परामर्श ज्ञान या 'व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मता' कहते हैं। इसके अनन्तर यह ज्ञान या अनुमान उत्पन्न हुआ कि 'यहाँ आग है'। अपने समझने के लिए तो उपर्युक्त तीन खण्ड पर्याप्त हैं, परन्तु नैयायिकों का कार्य है दूसरे के मन में ज्ञान कराना। इससे वे अनुमान के पाँच खण्ड करते हैं जो अवयव कहलाते हैं :

(1) प्रतिज्ञा- साध्य का निर्देश करने वाला, अर्थात् अनुमान से जो बात सिद्ध करनी है उसका वर्णन करनेवाला वाक्य- जैसे, 'यहाँ पर आग है'। (2) हेतु- जिस लक्षण या चिह्न से बात प्रमाणित की जाती है- जैसे, 'क्योंकि यहाँ धुआँ हैं।' (3) उदाहरण- सिद्ध की जाने वाली वस्तु अपने चिह्न के साथ जहाँ देखी गयी है उसे बतलाने वाला वाक्य-जैसे, 'जहाँ-जहाँ धुआँ रहता है वहाँ-वहाँ आग रहती है', जैसे, 'रसोईधर में।' (4) उपनय- जो वाक्य बतलाये हुए चिह्न या लिङ्ग का होना प्रकट करे - जैसे, 'यहाँ पर धुआँ है।' (5) निगमन- सिद्ध की जानेवाली बात सिद्ध हो गयी, यह कथन। अतः अनुमान का पूरा रूप यों हुआ-

(1) यहाँ पर अग्नि है (प्रतिज्ञा)। (2) क्योंकि यहाँ धुआँ है (हेतु)। (3) जहाँ-जहाँ धुआँ रहता है वहाँ-वहाँ अग्नि रहती है- जैसे रसोई घर में (उदाहरण)। (4) यहाँ पर धुआँ है (उपनय)। (5) इसलिए यहाँ पर अग्नि है (निगमन)।

साधारणतः इन पाँच अवयवों से युक्त वाक्य को 'न्याय' कहते हैं। नवीन नैयायिक इन पाँचों अवयवों का मानना आवश्यक नहीं समझते। वे अनुमान प्रमाण के लिए प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त इन्हीं तीनों को पर्याप्त समझते हैं।

अनुराधा : अश्विनी से सत्रहवाँ नक्षत्र, जो विशाखा के बाद आता है। उसका रूप सर्पाकार सात ताराओं से युक्त और अधिदेवता मित्र है। इस नक्षत्र में उत्पन्न शिशु के लक्षण निम्नोक्त हैं -

सत्कीर्तिकान्तिश्च सदोत्सवः स्यात्, जेता रिपूणाञ्च कलाप्रवीणः। स्यात्सम्भवे यस्य किलानुराधा, सम्पत्प्रमोदौ विविधौ भवेताम्॥

[जिसके जन्मकाल में अनुराधा नक्षत्र हो वह यशस्वी, कान्तिमान्, सदा उत्सव से युक्त, शत्रुओं का विजेता, कलाओं में प्रवीण, सम्पत्तिशाली और अनेक प्रकार से प्रमोद करने वाला होता है।]

अनुलोम विवाह : उच्च वर्ण के वर तथा निम्न वर्ण की कन्या का विवाह। आजकल की अपेक्षा प्राचीन समाज अधिक उदार था। जातिबन्धन इतना जटिल नहीं था। विवाह अनुलोम और प्रतिलोम दोनों प्रकार के होते थे। अनुलोम के विपरीत निम्न वर्ण के पुरुष का उच्च वर्ण की कन्या से विवाह करना प्रतिलोम विवाह कहलाता था। आगे चलकर उत्‍तरोत्‍तर समाज में इस प्रकार के विवाह बन्द होते गये। इस प्रकार के सम्बन्ध से उत्पन्न सन्तान की गणना वर्णसंकर (मिश्र वर्ण) में होती थी और समाज में वह नीची दृष्टि से देखा जाता था।

अनुवाकानुक्रमणी : ऋक्संहिता की अनेक अनुक्रमणियों में से एक। यह शौनक की रची हुई है तथा इस पर षड्गुरुशिष्य द्वारा विस्तृत टीका लिखी गयी है।

अनुव्याख्यान : वेदान्तसूत्र पर लिखी गयी आचार्य मध्व की दो प्रमुख रचनाओं में से एक। यह तेरहवीं शताब्दी में रची गयी छन्दोबद्ध रचना है।

अनुव्रजन : शिष्ट अभ्यागतों के वापस जाने के समय कुछ दूर तक उनके पीछे पीछे जाने का शिष्टाचार :

आयान्तमग्रतो गच्छेद गच्छन्तं तमनुव्रजेत्।' (निगमकल्पद्रुम)

[कोई शिष्ट घर में आता हो तो उसकी अगवानी के लिए आगे चलना चाहिए। वह जब वापस जा रहा हो तो विदाई के लिए उसके पीछे जाना चाहिए।]

अनुशिख : पञ्चविंश ब्राह्मण में उल्लिखित नागयज्ञ के एक पोता (पुरोहित) का नाम।

अनुस्तरणी : प्राचीन हिन्दू शवयात्रा की विविध सामग्रियों के अंतर्गत एक गौ। अनुस्तरणी गौ बूढ़ी, बिना सींग की तथा बुरी आदतों वाली होनी चाहिए। जब यह गाय मृतक के पास लायी जाय तो मृतक के अनुचरों को तीन मुट्ठी धूल अपने कन्धों पर डालनी चाहिए। शवयात्रा में सर्वप्रथम गृह्य अग्नि का पात्र, फिर यज्ञ-अग्नि, फिर जलाने की सामग्री तथा उसके पीछे अनुस्तरणी गौ रहनी चाहिए और ठीक उसके पीछे मृत व्यक्ति विमान पर हो। फिर सम्बन्धियों का दल आयु के क्रम से हो। चिता तैयार हो जाने पर इस गौ को शव के आगे लाते तथा उसको मृतक के सम्बन्धी इस प्रकार घेर लेते थे कि सबसे छोटा पीछे और वय के क्रम दूसरे आगे हों। फिर इस गाय का वध किया जाता या छोड़ दिया जाता था। मृतक ने जीवन में पशु यज्ञ नहीं किया है तो उसे छोड़ना ही उचित होता था। क्रमशः छोड़ने के पूर्व गौ को अग्नि, चिता एवं शव की परिक्रमा कराते थे तथा कुछ मन्त्रों के पाठ के साथ उसे मुक्त कर देते थे।

अनुस्तोत्र सूत्र : ऋग्वेद के मन्त्र को सामगान में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्र ग्रन्थ हैं। अनुस्तोत्र सूत्र उनमें से एक हैं।

अनूचान : जिसने वेद का अनुवचन किया हो। विनयसम्पन्न के अर्थ में इसका प्रयोग होता है। अङ्गों सहित वेदों के ज्ञाता को भी अनूचान कहते हैं :

अनूचानो विनीतः स्याद् साङ्गवेदविचक्षणः।' ; इदमूचुरनूचानाः प्रीतिकण्टंकितत्वचः। (कुमारसम्भव)

[प्रेम से पुलकित शरीर वाले अनूचान ऋषियों ने ऐसा कहा।] मनु ने भी कहा है :

ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान्।

[ऋषियों ने यह धर्म बनाया कि वेदज्ञ व्यक्ति हमसे श्रेष्ठ है।]

अनृत : इसका शाब्दिक अर्थ है 'मिथ्या' अथवा 'झूठ'। जिस कर्म में असत्य अथवा हिंसा हो उसे भी अनृत कहते हैं। विवाह आदि पाँच कार्यों में झूठ बोलना पाप नहीं माना जाता है :

विवाहकाले रतिसंप्रयोगे, प्राणात्यये सर्वधनापहारे। विप्रस्‍य चार्थे ह्यनृतं वदेत पञ्चानृतान्याहुरपातकानि॥ (महाभारत, कर्णपर्व)

[यदि विवाह, रति, प्राण संकट, सम्पूर्ण धनापहरण के समय और ब्राह्मण के अर्थ के लिए असत्य बोलो तो ये पाँच अनृत पाप में नहीं गिने जाते।]

अन्तःकथासंग्रह : भक्तिविषयक कथाओं का संग्रह ग्रन्थ। इसके रचयिता 'प्रबन्ध कोष' के लेखक राजशेखर हैं। रचनाकाल है चौदहवीं शताब्दी का मध्य।

अन्तःकरण : भीतर की ज्ञानेन्द्रिय। इसका पर्याय मन है। कार्यभेद से इसके चार नाम हैं :

मनोबुद्धिरहङ्कारश्चितं करणमान्तरम्। संशयो निश्चयो गर्वः स्मरणं विषया अमी॥ (वेदान्तसार)

[मन, बुद्धि, अहंकार और चित ये चार अन्तःकरण हैं। संशय, निश्चय, गर्व और स्मरण ये चार क्रमशः इनके विषय हैं।] इन सबकों मिलाकर एक अन्तःकरण कहलाता है। पाँच महाभूतों में स्थित सूक्ष्म तन्मात्राओं के अंशों से अन्तःकरण बनता है।

अन्तःकरणप्रबोध : वल्लभाचार्य द्वारा रचित सोलहवीं शताब्दी का एक पुष्टिमार्गीय दार्शनिक ग्रन्थ।

अन्तक : यम का पर्याय, अन्त (विनाश) करने वाला।

अन्तरात्मा : सर्वप्रथम उपनिषदों में आभ्यन्तरिक चेतन (आत्मा) के लिए इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका समानार्थी शब्द है 'अन्तर्यामी'। यह अतिरेकी सत्ता का दूसरा छोर है जो घट-घट में व्याप्त है।

अन्तर्यामी : (1) 'श्रीसम्प्रदाय' भागवत सम्प्रदाय का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग है। शङ्कराचार्य के वेदान्तसिद्धान्त का तिरस्कार करता हुआ यह मत उपनिषदों के प्राचीन ब्रह्मवाद पर विश्वास रखता है। इसके अनुसार सगुण भगवान् को वैष्णव लोग उपनिषदों के ब्रह्मतुल्य बतलाते हैं और कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व उसी में है तथा वह सभी अच्छे गुणों से युक्त हैं। सभी पदार्थ तथा आत्मा उसी से उत्पन्न हुए हैं तथा वह अन्तर्यामी रूप में सभी वस्तुओं में व्याप्त है।

(2) यह ईश्वर का एक विशेषण है। हृदय में स्थित होकर जो इन्द्रियों को उनके कार्य में लगाता है वह अन्तर्यामी है। 'वेदान्तसार' के अनुसार विशुद्ध सत्त्वप्रधान ज्ञान से उपहित चैतन्य अन्तर्यामी कहलाता है :

अन्तराविश्य भुतानि यो बिभर्त्यात्मकेतुभिः। अन्तर्यामीश्वरः साक्षात् पातु नो यद्वशे स्फुटम्॥

[प्राणियों के अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर जो अपने ज्ञानरूपी केतु के द्वारा उनकी रक्षा करता है, वह साक्षात् ईश्वर अन्तर्यामी है। वह हम लोगों की रक्षा करे, जिसके वश में पूरा संसार है।]

अन्तेवासी : वेदाध्ययनार्थ गुरू के समीप रहने वाला छात्र। अन्तेवासी ब्रह्मचारी गुरुगृह में रहकर विद्याभ्यास करता था और उसके योग-क्षेम की पूरी व्यवस्था गुरू अथवा आचार्य को करनी पड़ती थी।

छान्दोग्य उपनिषद् (2.23.1) के अनुसार ब्रह्मचारी को अन्तेवासी की तरह गुरुगृह में रहना पड़ता था। रुचिसाम्य एवं बुद्धिवैचित्र्य में आचार्य के तुल्य हो जाने पर बहुत से ब्रह्मचारी गुरुगृह में आजीवन रह जाते थे। उन्हे गुरुसेवा, गुरु-आज्ञाओं का पालन, समिधा जुटाना, गौओं को चराना आदि काम करने पड़ते थे।

अन्त्यज : अन्त्य में उत्पन्न। संस्कृत (सभ्य) उपनिवेशों के बाहर जंगली औऱ पर्वतीय प्रदेशों को अन्त्य कहते थे और वहाँ बसने वालों को अन्त्यज। धीरे-धीरे समाज की निम्नतम जातियों में ये लोग मिलते जाते थे। इनमें से कुछ की गणना इस प्रकार हैं :

रजकश्चर्मकारश्च नटो वरुड एव च। कैवर्तमेदभिल्लाश्च सप्तैते अन्त्यजाः स्मृताः॥

[धोबी, चर्मकार, नट, वरुड, कैवर्त, मेद, भिल्ल ये सात अन्त्यज कहे गये हैं।]

आचार-विचार की अपवित्रता के कारण अन्त्यज अस्पृश्य भी माने जाते थे। इनके समाजीकरण का एक क्रम था, जिसके अनुसार इनका उत्थान होता था। सम्पर्क द्वारा पहले ये समाज में शूद्रवर्ण में प्रवेश पाते थे। शूद्र से सच्छूद्र, सच्छूद्र से वैश्य, वैश्य से क्षत्रिय और क्षत्रिय से ब्राह्मण- इस प्रकार अनेक पीढ़ियों में ब्राह्मण होने की प्रक्रिया वर्णोत्कर्ष के सिद्धान्त के अनुसार प्राचीन काल में मान्य थी। मध्ययुग में संकीर्णता तथा वर्जनशीलता के कारण इस प्रक्रिया में जड़ता आ गयी। अब नये ढंग से समतावादी सिद्धान्तों के आधार पर अन्त्यजों का समाजीकरण हो रहा है।

अन्त्येष्टिसंस्कार : हिन्दू जीवन के प्रसिद्ध सोलह संस्कारों में से यह अंतिम संस्कार है, जिसके द्वारा मृत व्यक्ति की दाहक्रिया आदि की जाती है। अन्त्येष्टि का अर्थ है 'अंतिम यज्ञ'। दूसरे शब्दों में जीवन-यज्ञ की यह अन्तिम प्रक्रिया है। प्रथम पन्द्रह संस्‍कार ऐहिक जीवन को पवित्र और सुखी बनाने के लिए हैं। बौधायनपितृमेधसूत्र (3.1.4) मे कहा गया हैं : 'जातसंस्कारेणेमं लोकमभिजयति मृत संस्कारेणामं लोकम्।' [जातकर्म आदि संस्कारों से मनुष्य इस लोक को जीतता है; मृतसंस्कार (अन्त्येष्टि) से परलोक को।]

यह अनिवार्य संस्कार है। रोगी को मृत्यु से बचाने के लिए अथक प्रयास करने पर भी समय अथवा असमय में उसकी मृत्यु होती ही है। इस स्थिति को स्वीकार करते हुए बौधायन (पितृमेध सूत्र, 33) ने पुनः कहा है :

जातस्य वै मनुष्यस्य ध्रुवं मरणमिति विजानीयात्। तस्माज्जाते न प्रह्यष्येन्मृते च न विषीदेत्। अकस्मादागतं भूतमकस्मादेव गच्छति। तस्माज्जातं मृतञ्चैव सम्पश्यन्ति सुचेतसः।

[उत्पन्न हुए मनुष्य का मरण ध्रुव है, ऐसा जानना चाहिए। इसलिए किसी के जन्म लेने पर न तो प्रसन्नता से फूल जाना चाहिए और न किसी के मरने पर अत्यन्त विषाद करना चाहिये। यह जीवधारी अकस्मात् कहीं से आता है और अकस्मात् कहीं चला जाता है। इसलिए बुद्धिमान् को जन्म और मरण को समान रूप से देखना चाहिए।]

तस्मान्मातरं पितरमाचार्यं पत्नीं पुत्रं शिष्‍यमन्तेवासिनं पितृव्यं मातुलं सगोत्रमसगोत्रं वा दायमुपयच्छेद्दहनं संस्कारेण संस्कुर्वन्ति।

[इसलिए यदि मृत्‍यु हो ही जाय तो माता, पिता, आचार्य, पत्नी, पुत्र, शिष्य (अन्तेवासी), पितृव्य (चाचा), मातुल (मामा), सगोत्र, असगोत्र का दाय (दायित्व) ग्रहण करना चाहिए और संस्कारपूर्वक उसका दाह करना चाहिए।]

अत्येष्टिक्रिया की विधियाँ कालक्रम से बदलती रही हैं। पहले शव को वैसा ही छोड़ दिया जाता था या जल में प्रवाहित कर दिया जाता था। बाद में उसे किसी वृक्ष की डाल से लटका देते थे। आगे चलकर समाधि (गाड़ने) की प्रथा चली। वैदिक काल में जब यज्ञ की प्रधानता हुई तो मृत शरीर भी यज्ञाग्नि द्वारा ही दग्ध होने लगा और दाहसंस्कार की प्रधानता हो गयी ('ये निखाता ये परोप्ता येदग्धा ये चोद्धिताः'- अथर्ववेद, 18.2.34)। हिन्दुओं में शव का दाह संस्कार ही बहुप्रचलित है : यद्यपि किन्हीं-किन्हीं अवस्थाओं में अपवाद रूप से जल-प्रवाह और समाधि की प्रथा भी अभी जीवित है।

सम्पूर्ण अन्त्येष्टिसंस्कार को निम्नांकित खण्डों में बाँटा जा सकता है :

(1) मृत्यु के आगमन के पूर्व की क्रिया - क. सम्बन्धियों से अंतिम विदाई ख. दान-पुण्य ग. वैतरणी (गाय का दान) घ. मृत्यु की तैयारी (2) प्राग्-दाह के विधि-विधान (3) अर्थी (4) शवोत्थान (5) शवयात्रा (6) अनुस्तरणी (राजगवी : श्मशान की गाय) (7) दाह की तैयारी (8) विधवा का चितारोहण (कलि में वर्जित) (9) दाहयज्ञ (10) प्रत्यावर्तन (श्मशान से लौटना) (11) उदककर्म (12) शौकतों को सान्त्वना (13) अशौच (सामयिक छूत : अस्पृश्यता) (14) अस्थिसञ्चयन (15) शान्तिकर्म (16) श्मशान (अवशेष पर समाधिनिर्माण)। आजकल अवशेष का जलप्रवाह और उसके कुछ अंश का गङ्गा अथवा अन्य किसी पवित्र नदी में प्रवाह होता है। (17) पिण्डदान (मृत के प्रेत जीवन में उनके लिए भोजन-दान) (18) सपिण्डीकरण (पितृलोक में पितरों के साथ प्रेत को मिलाना)। यह क्रिया बारहवें दिन सोन पक्ष के अन्त में अथवा एक वर्ष के अन्त में होती है। ऐसा विश्वास है कि प्रेत को पितृलोक में पहुँचने में एक वर्ष लगता है।

असामयिक अथवा असाधारण-स्थिति में मृत व्यक्तियों के अन्त्येष्टिसंस्कार में कई अपवाद अथवा विशेष क्रियाएँ होती हैं। आहिताग्नि, अनाहिताग्नि, शिशु, गर्भिणी, नवप्रसूता, रजस्वला, परिव्राजक-संन्यासी-वानप्रस्थ, प्रवासी और पतित के संस्कार विभिन्न विधियों से होते हैं।

हिन्दुओं में जीवच्छाद्ध की प्रथा भी प्रचलित है। धार्मिक हिन्दू का विश्वास है कि सद्गति (स्वर्ग अथवा मोक्ष) की प्राप्ति के लिए विधिपूर्वक अन्त्येष्टिसंस्कार आवश्यक है। यदि किसी का पुत्र न हो, अथवा यदि उसको इस बात का आश्वासन न हो कि मरने के पश्चात् उसकी सविधि अन्त्येष्टि क्रिया होगी, तो वह अपने जीते-जी अपना श्राद्धकर्म स्वयं कर सकता है। उसका पुतला बनाकर उसका दाह होता है। शेष क्रियाएँ सामान्य रूप से होती हैं। बहुत से लोग संन्यास आश्रम में प्रवेश के पूर्व अपना जीवच्छाद्ध कर लेते हैं।

अन्धक : (1) एक यदुवंशी व्यक्ति का नाम। यादवों के एक राजनीतिक गण का भी नाम अन्धक था। वृष्णि एक गणसंघ था :

सुदंष्ट्रं च सुचारुञ्च कृष्णमित्यन्धकास्त्रयः। (हरिवंश)

[सुदंष्ट्र, सुचारु और कृष्ण ये तीन अन्धक गण के सदस्य कहे गये हैं।]

(2) एक असुर का नाम, जिसका वध शिव ने किया था।

अन्धकरिपु : अन्धक दैत्य के शत्रु अर्थात् शिव। श्लेष आदि अलंकारों में अन्धकार का नाश करने वाले सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा को भी अन्धकरिपु कहा गया है।

अन्नकूट : कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट और गोवर्धन पूजा होती है। घरों देवालयों में छप्पन प्रकार (अनेकों भाँति) के व्यञ्जन बनते हैं और उनका कूट (शिखर या ढेर) भगवान् को भोग लगता है। यह त्यौहार भारतव्यापी है। दूसरे दिन यमद्वितीया होती है। यमद्वितीया को सबेरे चित्रगुप्तादि चौदह यमों की पूजा होती है। इसके बाद ही बहिनों के घर भाइयों के भोजन करने की प्रथा भी है जो बहुत प्राचीन काल से चली आती है।

अन्नपूर्णा : शिव की एक पत्नी अथवा शक्ति, जो अपने उपासकों को अन्न देकर पोषित करती है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'अन्न अथवा खाद्यसामग्री से पूर्ण।' काशी में अन्नपूर्णा का प्रसिद्ध मंदिर है। ऐसा विश्वास है कि अन्नपूर्णा के आवास के कारण काशी में कोई व्यक्ति भूखा नहीं रहता।

अन्नप्राशन : एक संस्कार, जिसमें शिशु को प्रथम बार अन्न चटाया जाता है। छठे अथवा आठवें महीने में बालक का, पाँचवें अथवा सातवें महीने में बालिका का अन्नप्राशन होता है। प्रायः इसी समय शिशु को दाँत निकलते हैं, जो इस बात के द्योतक हैं कि अब वह ठोस अन्न खाकर पचा सकता है। सुश्रुत (शारीर स्थान, 10.64) के अनुसार छठे महीने में शिशु को लघु (हलका) तथा हित (पोपणकारी) अन्न खिलाना चाहिए। मार्कण्डेय पुराण (वीरमित्रोदय, संस्कार काण्ड में उद्धृत) के अनुसार प्रथम बार शिशु को मधु-घी से युक्त खीर सोने के पात्र में खिलाना चाहिए (मध्वाज्यकनकोपेतं प्राशयेत् पायसन्तु तम्।)। संभवतः श्रीमन्तों के लिए यह विधान है।

अन्नप्रशासन संस्कार के दिन सबसे पहले यज्ञीय पदार्थ वैदिक मन्त्रों के साथ पकाये जाते हैं। उनके तैयार होने पर अग्नि में एक आहुति निम्नांकित मन्त्र से डाली जाती है :

देवताओं ने वाग्देवी को उत्पन्न किया है। उससे बहुसंख्यक पशु बोलते हैं। यह मधुर ध्वनि वाली अति प्रशंसित वाणी हमारे पास आये। स्वाहा (पारस्कर गृह्यसूत्र, 1.19.2)

द्वितीय आहुति ऊर्ज्जा (शक्ति) को दी जाती है :

आज हम ऊर्ज्जा प्राप्त करें। इन आहुतियों के पश्चात् शिशु का पिता चार आहुतियाँ निम्नलिखित मन्त्र से अग्नि में छोड़ता है :

मैं उत्प्राण द्वारा भोजन का उपभोग कर सकूँ, स्वाहा ! अपान द्वारा भोजन का उपभोग कर सकूँ, स्वाहा ! नेत्रों द्वारा दृश्य पदार्थों का उपभोग कर सकूं, स्वाहा ! श्रवणों द्वारा यश का उपभोग कर सकूँ, स्वाहा ! (पारस्कर गृह्यसूत्र, 1.19.3)

इसके पश्चात् 'हन्त' शब्द के साथ शिशु का भोजन कराया जाता है।

अन्नम् भट्ट : न्याय-वैशेषिक का मिश्रित बालबोध ग्रन्थ रचनेवालों में अन्नम् भट्ट का नाम सादर लिया जाता है। इनके द्वारा रचित ग्रन्थ 'तर्कसंग्रह' बहुत प्रसिद्ध है।

अन्नमय कोष : उपनिषदों के अनुसार शरीर में आत्मतत्त्व पाँच आवरणों से आच्छादित है, जिन्हें, 'पञ्चकोष' कहते हैं। ये हैं अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनन्दमय कोष। यहाँ 'मय' का प्रयोग विकार अर्थ में किया गया है। अन्न (भुक्त पदार्थ) के विकार अथवा संयोग से बना हुआ कोष 'अन्नमय' कहलाता है। यह आत्मा का सबसे बाहरी आवरण है। पशु और अविकसित-मानव भी, जो शरीर को ही आत्मा मानते हैं, इसी धरातल पर जीता है। दे. 'कोष' तथा 'पञ्चकोष '।

अन्नाद्य : अथर्ववेद तथा ऐतरेय ब्राह्मण में उद्धृत 'वाजपेय यज्ञ' एक प्रकार के राज्यारोहण का ही अङ्ग बताया गया है। किन्तु इसके उद्देश्य के बारे में विविध मत हैं। इसके विविध उद्देश्यों में से एक 'अन्नाद्य' है, जैसा कि शाङ्खायन के मत से प्रकट है। अधिक भोजन (अन्न) की इच्छा वाला इस यज्ञ को करता है। 'वाजपेय' का अर्थ उन्होंने भोजनपान माना है।

अन्‍यपूर्वा : जिसके पूर्व में अन्य है वह कन्या। वचन आदि के द्वारा एक को विवाहार्थ निश्चित किये जाने के बाद किसी अन्य के साथ विवाहित स्त्री को अन्यपूर्वा कहते हैं। ये सात प्रकार की होती हैं :

सप्तपौनर्भवाः कन्या वर्जनीयाः कुलाधमाः। वाचा दत्ता मनोदत्ता कृतकौतुकमङ्गला॥ उदकस्पर्शिता या च या च पाणिगृहीतिका। अग्निं परिगता या तु पुनर्भूप्रसवा च या॥ इत्येताः काश्यपेनोक्ता दहन्ति कुलमग्निवत्॥ (उद्वाहतत्त्व)

[सात पुनर्भवा कन्याएं कुल में अधम मानी गयी हैं। इनके साथ विवाह नहीं करना चाहिए। वचन से, मन से, विवाह मङ्गल रचाकर, जलस्पर्श पूर्वक, हाथ पकड़ कर, अग्नि की प्रदक्षिणा करके पहले किसी को दी गयी तथा एक पति को छोड़कर दुबारा विवाह करने वाली स्त्री से उत्पन्न कन्या- ये अग्नि के समान कुल को जला देती हैं। ऐसा काश्यप ने कहा है।]

अन्वयार्थप्रकाशिका : यह 'संक्षेप शारीरक' के ऊपर स्वामी रामतीर्थ लिखित टीका है। इसका रचनाकाल सत्रहवीं शताब्दी है।

अपराजितासप्तमी : भाद्र शुक्ल सप्तमी को इसका व्रत प्रारम्भ किया जाता है। इसमें एक वर्ष तक सूर्य-पूजन होता है। भाद्र शुक्ल की सप्तमी को अपराजिता कहा जाता है। चतुर्थी को एक समय भोजन पञ्चमी को रात्रि में भोजन तथा षष्ठी को उपवास करके सप्तमी को पारण होता है। दे. कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड, 132-135, हेमाद्रि का व्रत-खण्ड, 667-668।

अपराजिता : युद्ध में अपराजिता अर्थात् दुर्गा। दशमी (विशेष कर आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी) को अपराजिता की पूजा का विधान है :

दशम्यां च नरैः सम्यक् पूजनीयापराजिता। मोक्षार्थ विजयार्थञ्च पूर्वोक्त विधिना नरैः॥ नवमी शेष युक्तायां दशम्यामपराजिता। ददाति विजयं देवी पूजिता जयवर्द्धिनी॥

[मोक्ष अथवा विजय के लिए मनुष्य पूर्वोक्त विधि से दशमी के दिन अपराजिता देवी की अच्छे प्रकार से पूजा करे। वह दशमी नवमी से युक्त होनी चाहिए। इस प्रकार करने पर जय को बढ़ाने वाली देवी विजय प्रदान करती है।]

अपराजिता दशमी : आश्विन शुक्ल दशमी को यह व्रत होता है। विशेषतः राजा के लिए इसका विधान है। हेमाद्रि तथा स्मृतिकौस्तुभ के अनुसार श्री राम ने उसी दिन लंका पर आक्रमण किया था। उस दिन श्रवण नक्षत्र था। इसमें देवीपूजा होती है। दे. हेमाद्रि, व्रतखण्ड, पृष्ठ 968 से 973।

अपराधशत व्रत : मार्गशीर्ष द्वादशी से इसका प्रारम्भ होता है। इसमें विष्णु की पूजा होती है। सौ अपराधों की गणना भविष्योत्तर पुराण (146.6-21) में पायी जाती है। उपर्युक्त अपराध इस व्रत से नष्ट हो जाते हैं।

अपरोक्षानुभूति : (1) बिना किसी बौद्धिक माध्यम के साक्षात् ब्रह्मज्ञान हो जाने को ही अपरोक्षानुभूति कहते हैं।

(2) 'अपरोक्षानुभूति' शङ्कराचार्य के लिखे फुटकर ग्रन्थों में से एक है। इस पर माधवाचार्य ने बहुत सुन्दर टीका लिखी है जिसका नाम अपरोक्षानुभूतिप्रकाश है।

अपर्णा : जिसने तपस्या के समय में पत्ते भी नहीं खाये, वह पार्वती अपर्णा कही गयी है। यह दुर्गा का ही पर्याय है :

स्वयं विशीर्णद्रुमपर्णवृत्तिता, परा हि काष्ठा तपसस्तया पुनः। तदप्यपाकीर्णमितः प्रियंवदाम्। वदन्त्यपर्णेति च तां पुराविदः॥ (कुमारसम्भव)

[स्वयं गिरे हुए पत्तों का भक्षण करना, यह तपस्वियों के लिए तपस्या की अन्तिम सीमा है। किन्तु पार्वती ने उन गिरे हुए पत्तों का भी भक्षण नहीं किया। अतः उसे विद्वान् लोग अपर्णा कहते हैं।]

अपवर्ग  : (1) संसार से मुक्त मानवजीवन के चार पुरुषार्थों में, अर्थ, काम और मोक्ष-में से अन्तिम मोक्ष अपवर्ग कहलाता है।

(2) इसका एक अर्थ फलप्राप्ति या समाप्ति भी है :

क्रियापवर्गेष्वनुजीविसात्कृताः कृतज्ञतामस्य वदन्ति सम्पदः। (किरातार्जुनीय)

[क्रिया की सफल समाप्ति हो जाने पर पुरस्कार रूप में सेवकों को दी गयी सम्पत्ति दुर्योधन की कृतज्ञता को प्रकट करती है।]

अपविद्ध : धर्मशास्त्र में वर्णित बारह प्रकार के पुत्रों में एक। स्मृतियों ने इसकी स्थिति एवं अधिकार के बारे में प्रकाश डाला है। मनु (9.171) कहते हैं कि अविपद्ध अपने माता-पिता द्वारा त्याग हुआ पुत्र है। मनु के पुराने भाष्यकार मेधातिथि का कथन है कि इस पुत्रत्याग का कारण परिवार की अधिक गिरी दशा अथवा पुत्र के द्वारा किया हुआ कोई जघन्य अपराध होता था। ऐसे त्यागे हुए बालक पर द्रवित हो यदि कोई उसे पालता था तो उसका स्थान दूसरी श्रेणी के पुत्रों जैसा घटकर होता था। आजकल का पालित पुत्र उन्हीं प्राचीन प्रयोगों की स्मृति दिलाता है।

अपात्र : दान देने के लिए अयोग्य व्यक्ति। इसको कुपात्र अथवा असत्पात्र भी कहते हैं :

अपात्रे पातयेद्दत्तं सुवर्ण नरकार्णवे' (मलमासतत्त्व)

[अपात्र को दिया गया सुवर्णदान दाता को नरकरूपी समुद्र में गिरा देता है।]

अपापसङ्क्रान्ति व्रत : यह व्रत संक्रान्ति के दिन प्रारम्भ होकर एक वर्षपर्यन्त चलता है। इसके देवता सूर्य हैं। इसमें श्वेत तिल का समर्पण किया जाता है। दे. हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.728.740।

अपुनर्भव : पुनर्जन्म न होने की स्थिति। इसको मुक्ति, कैवल्य अथवा पुनर्जन्म का अभाव भी कहते हैं। मानव के चार पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में यह अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

अपूर्व : जो यज्ञादिक क्रियाएँ की जाती हैं, शास्त्रों में उनके बहुत से फल भी बतलाये गये हैं। किन्तु ये फल क्रिया के अन्त के साथ ही दृष्टिगोचर नहीं होते। कृत कर्म आत्‍मा में उस अदृश्य शक्ति को उत्पन्न करते हैं जो समय आने पर वेदविहित फल देती है। इस विचार की व्याख्या करते हुए पूर्वमीमांसा में कहा गया है कि धर्म आत्मा में अपूर्व नामक गुण उत्पन्न करता है जो स्वर्गीय सुख एवं मोक्ष का कारण है। कर्म और उसके फल के बीच में अपूर्व एक अदृश्य कड़ी है। विशेष विवरण के लिए दे. 'मीमांसादर्शन'।

अपवान : ऋग्वेद (यमप्नवानो भृगवो विरुरुचुः। 4.7.1) में अप्नवान का उल्लेख भृगुओं के साथ हुआ है। लुडविंग अप्नवान के भृगुकुल में उत्पन्न होने का अनुमान लगाते हैं।

अप्पण्णाचार्य : एक प्रसिद्ध वेदान्ती टीकाकार। तैत्तिरीयोपनिषद् के बहुत से भाष्य एवं वृत्तियाँ हैं। इनमें शङ्कराचार्य का भाष्य तो प्रसिद्ध है ही; आनन्दतीर्थ, रङ्गरामानुज, सायणाचार्य ने भी इस उपनिषद् के भाष्य लिखे हैं। अप्पण्णाचार्य, व्यासतीर्थ और श्रीनिवासाचार्य ने आनन्दतीर्थकृत भाष्य की टीका की है।

अप्पय दीक्षित : स्वामी शङ्कराचार्य द्वारा प्रतिष्ठापित अद्वैत सम्प्रदाय की परम्परा में जो उच्च कोटि के विद्वान् हुए हैं उनमें अप्पय दीक्षित भी बहुत प्रसिद्ध हैं। विद्वता की दृष्टि से इन्हें वाचस्पति मिश्र, श्रीहर्ष एवं मधुसूदन सरस्वती के समकक्ष रखा जा सकता है। ये एक साथ ही आलङ्कारिक, वैयाकरण एवं दार्शनिक थे। इन्हें 'सर्वतन्त्रस्वतन्त्र' कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।

इनका जीवन काल सं. 1608 -1680 वि. है। इनके पितामह आचार्य दीक्षित एवं पिता रङ्गराजाध्वरि थे। ऐसे पण्डितों का वंशधर होने के कारण इनमें अद्भुत प्रतिभा का विकास होना स्वाभाविक ही था। पिता और पितामह के संस्कारानुसार इन्हें अद्वैतमत की शिक्षा मिली थी। तथापि ये परम शिवभक्त थे। अतः शैवसिद्धान्त के लिए ग्रन्थ रचना करने में भी इनकी रुचि थी। तदनुसार इन्होंने 'शिवतत्त्वविवेक' आदि पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों की रचना की। इसी समय नमर्दा तीरनिवासी नृसिंहाश्रम स्वामी ने इन्हें अपने पिता के सिद्धान्त का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्हीं की प्रेरणा से इन्होंने परिमल, न्यायरक्षामणि एवं सिद्धान्तलेश नामक ग्रन्थों की रचना की।

अप्पय दीक्षित अपने पितामह के समान ही विजयनगर के राजाओं के सभापण्डित थे। कुछ काल तक भट्टोजिदीक्षित के साथ इन्होंने काशी में निवास किया था। अप्पय दीक्षित शिवभक्त थे एवं भट्टोजि वैष्णव, तो भी दोनों का सम्बन्ध अतिमधुर था। दोनों ही शास्त्रज्ञ थे। अतः उनकी दृष्टि में वस्तुतः शिव और विष्‍णु में कोई भेद नहीं था। शिवभक्त होते हुए भी इनकी रचनाओं में विष्णुभक्ति का प्रमाण मिलता है। कई स्थानों पर इन्होंने भक्तिभाव से विष्णु वन्दना की है।

इनके ग्रन्थों से सर्वतोमुखी प्रतिभा का परिचय मिलता है। मीमांसा के तो ये धुरन्धर पण्डित थे। इनकी 'शिवार्कमणिडीपिका' नाम की पुस्तक में इनका मीमांसा, न्याय, व्याकरण एवं अलङ्कार शास्त्र सम्बन्धी प्रगाढ़ पाण्डित्य पाया जाता है। इन्होंने अद्वैतवादी होकर भी श्रीकण्‍ठसम्प्रदायानुसार 'शिवार्कमणिदीपिका' में विशिष्टाद्वैत के पक्ष का पूर्णतया समर्थन किया है। इसी प्रकार शांकर सम्प्रदाय के समर्थन में विरचित 'सिद्धान्तलेश' में अद्वैत सिद्धान्त की पूर्णतया रक्षा की है तथा अद्वैतवादी, आचार्य के मतभेदों का दिग्दर्शन कराया है। आचार्यों के एकजीववाद, नाना जीववाद, विम्ब प्रतिबिम्बवाद, अवच्छेदवाद एवं साक्षित्व आदि विषयों में बहुत मतभेद हैं। उन सबका स्पष्टतया अनुभव कर दीक्षितजी ने अपना विचार प्रकट किया है। इनके लिखे हुए ग्रन्थों के नाम यहाँ दिये जाते हैं-

1. कुवलयानन्द 2. चित्रमीमांसा 3. वृत्तिवार्तिक 4. नामसंग्रहमाला (व्याकरण) 5. नक्षत्रवादावली वा पाणिनितन्त्रवादनक्षत्रमाला 6. प्राकृतचन्द्रिका (मीमांसा) 7. चित्रपुट 8. विधिरसायन 9. सुखोपजीवनी 10. उपक्रमपराक्रम 11. वादनक्षत्रमाला (वेदान्त) 12. परिमल 13. न्यायरक्षामणि 14. सिद्धान्तलेश 15. मतसारार्थसंग्रह (शाङ्कर सिद्धान्त) 16. न्यायमञ्जरी (माध्वमत) 17. न्यायमुक्तावली (रामानुजमत) 18. नियमयूथमालिका (श्रीकण्ठमत) 19. शिवार्कमणिदीपिका 20. रत्नत्रयपरीक्षा (शैवमत) 21. मणिमालिका 22. शिखरिणीमाला 23. शिवतत्वविवेक 24.शिवतर्कस्तव 25. ब्रह्मतर्कस्तव 26. शिवार्चनचन्द्रिका 26. शिवध्यानपद्धति 28. आदित्यस्तवरत्न 29. मध्वतन्त्रमुखमर्दन 30. यादवाभ्युदय व्याख्या। इसके अतिरिक्त शिवकर्णामृत, रामायणतात्पर्यसंग्रह, शिवाद्वैतविनिर्णय, पञ्चरत्नस्तव और उसकी व्याख्या, शिवानन्दलहरी, दुर्गाचन्द्रकलास्तुति और उसकी व्याख्या, कृष्णध्यानपद्धति और उसकी व्याख्या तथा आत्मार्पण आदि निबन्ध भी इनकी उत्कृष्ट कृतियाँ हैँ।

अप्पर : सातवीं, आठवीं तथा नवीं शताब्दियों में तमिल प्रदेश में शैव कवियों का अच्छा प्रचार था। सबसे पहले तीन के नाम आते हैं, जो प्रत्येक दृष्टि से वैष्णव आलवारों के समानान्तर ही समझे जा सकते हैं। इन्हें दूसरे धार्मिक नेताओं की तरह 'नयनार' कहते हैं, किन्तु अलग से उन्हें, 'तीन' की संज्ञा से जाना जाता है। उनके नाम हैं- नान सम्बन्धर, अप्पर एवं सुन्दरमूर्ति। पहले दो का उद्भव सप्तम शताब्दी में तथा अन्तिम का आठवीं या नवीं शताब्दी में हुआ। आलवारों के समान ये भी गायक कवि थे जो शिव की भक्ति में पगे हुए थे। ये एक मन्दिर से दूसरे में घूमा करते थे, अपनी रची स्तुतियों को गाते थे तथा नटराज व उनकी प्रिया उमा की मूर्ति के चारों ओर आत्मविभोर हो नाचते थे। इनके पीछे-पीछे लोगों का दल भी चला करता था। इन्होंने पुराणों के परम्परागत शैव सम्प्रदाय की भक्ति का अनुसरण किया है।

अप्रतिरथ : विपक्ष के महारथियों को हरानेवाला पराक्रमी वीर, जिसके रथ के सामने दूसरे का रथ न ठहर सके अर्थात् युद्ध में जिसका कोई जोड़ न हो। यह एक ऋषि का भी नाम है। ऐतरेय (8.10) तथा शतपथब्राह्मण (9.2.3.15) में इन्हें ऋग्वेद के एक सूक्त (10.103) का द्रष्टा बतलाया गया है, जिसमें इन्द्र की स्तुति अजेय योद्धा के रूप में की गयी है।

अप्सरा : अप्सरस् शब्द का सम्बन्ध जल से है (अप्जल)। किन्तु गन्धर्वों की स्त्रियों को अप्सरा कहते हैं, जो अपने अलौकिक सौन्दर्य के कारण स्वर्ग की नृत्यांगना कहलाती हैं। वे इन्द्र की सभा से भी सम्बन्धित थीं। जो ऋषि अपनी घोर तपस्या के कारण इन्द्र के सिंहासन के अधिकार की चेष्टा करते थे, उन्हें, इन्द्र इन्हीं अप्सराओं के द्वारा पथभ्रष्ट किया करता था। स्वर्ग की प्रधान अप्सराओं के कुछ नाम हैं तिलोत्तमा, रम्भा, उर्वशी, वृताची, मेनका आदि।

अपान : श्वास से सम्बन्ध रखने वाले सभी शब्द 'अन्' धातु से बनते हैं जिनका अर्थ है श्वास लेना अथवा प्राणवायु का नासिकारन्ध्रों से ग्रहण-विसर्जन करना। इसका लैटिन समानार्थक 'अनिमस' तथा गाथ समानार्थक 'उसनन' है। श्वास-क्रिया का प्रधान शब्द जो उपर्युक्त धातु से बना है, वह है 'प्राण' (प्रपूर्वक अन)। इसके अन्तर्गत पाँच शब्द आते हैं- प्राण, अपान, व्यान, उदान एवं समान। 'प्राण' दो प्रणालियों का द्योतक है, वायु का ग्रहण करना तथा निकालना। किन्तु प्रधानतया इसका अर्थ ग्रहण करना ही है, तथा 'अपान' का अर्थ वायु का छोड़ना 'निश्वास' है। प्राण तथा अपान द्वन्द्वसमास के रूप में अधिकतर व्यवहृत होते हैं। कहीं-कहीं अपान का अर्थ श्वास लेना एवं प्राण का अर्थ निश्वास है। विश्व की किसी भी जाति ने श्वासप्रणाली की भौतिक एवं आध्यात्मिक उपादेयता पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना प्राचीन भारतवासियों ने दिया। उन्होंने इसे एक विज्ञान माना तथा इसका प्रयोग यौगिक एवं याज्ञिक कर्मों में किया। आज भी यह कला भारतभू पर प्राणवान् है। दे. 'प्राण'।

अपान्तरतमा : महाभारत से यह बात स्पष्ट जाती है कि तत्त्वज्ञान के पहले आचार्य अपान्तरतमा थे। यथा-

अपान्तरतमाश्चैव वेदाचार्यः स उच्यते।' यहाँ वेद का अर्थ वेदान्त है। अपान्तरतमा की कथा इस प्रकार है :

नारायण के आह्वान करने पर सरस्वती से उत्पन्न हुआ अपान्तरतमा नाम का पुत्र सामने आ खड़ा हुआ। नारायण ने उसे वेद की व्याख्या करने की आज्ञा दी। उसने आज्ञानुसार स्वायम्भुव मन्वन्तर में वेदों का विभाग किया। तब भगवान् ने उसे वर दिया के 'वैवस्वत मन्वन्तर में भी वेद के प्रवर्तक तुम ही होगे। तुम्हारे वंश में कौरव उत्पन्न होंगे। उनकी आपस में कलह होगी और वे संहार के लिए तैयार होंगे। तब तुम अपने तपोबल से वेदों का विभाग करना. वसिष्ठ के कुल में पराशर ऋषि से तुम्हारा जन्म होगा।' इस कथा से स्पष्ट है कि इस ऋषि ने वेदों का विभाग किया। वेदान्तशास्त्र के आदि प्रवर्तक भी यही ऋषि हैं। वेदान्तशास्त्र पर इनका पहले कोई ग्रन्थ रहा हो, ऐसा भी सम्भव है। भगवद्गीता में कहा हुआ 'ब्रह्मसूत्र' इन्हीं का हो सकता है, क्योंकि बादरायण के ब्रह्मसूत्र गीता के बहुत बाद के हैं। उनकी चर्चा तो गीता में हो ही नहीं सकती।

अपांनपात् : ऋग्वेद के सूक्तों (7.47, 4.97 एवं 10.9, 30) में आपः अथवा आकाश के जल की स्तुति है। किन्तु कदाचित् पृथ्वी के जल को भी इसमें सम्मिलित समझा गया है। आपः का स्थान सूर्य के पार्श्व में है। वरुण उसके बीच घूमते हैं। इन्द्र ने अपने वज्र से खोदकर उनकी नहर तैयार की है। 'अपांनपात्' जल का पुत्र है, जो अग्नि का विद्युतरूप है, क्योंकि वह बिना ईंधन के चमकता है।

अपूप : हवन-सामग्री की एक वस्तु, जिसका ब्राह्मणों और श्रौतसूत्रों में प्रायः उल्लेख हुआ है। प्राचीन काल में रोट, मिठाइयों, भुने व तले अन्नों का यज्ञों में हवन किया जाता था। वेदों में देवों को यज्ञ में अपूप (पूप) देने का निर्देश है। आज भी छोटे-छोटे ग्रामदेवालयों में रोट, दूध व फूल देवता पर चढ़ाये जाते हैं। शिव को रोट व पिण्ड दिया जाता है। प्राचीन हिन्दुओं के पाक्षिक यज्ञों में चावल को पकाकर उसका गोला बनाया जाता था, फिर उसे कई टुकड़ों में काटकर उस पर घी छिड़क कर अग्नि में हवन किया जाता था। ये पिण्ड के टुकड़े भिन्न-भिन्न देवों के नाम पर अग्नि में दिये जाते थे जिनमें अग्नि भी एक देवता होता था। यह सारी क्रिया परिवार का स्वामी करता था। अवशेष टुकड़ों को परिवार के सदस्य श्रद्धापूर्वक (प्रसाद के रूप में) ग्रहण करते थे।

अभङ्ग : महाराष्ट्र के प्रधान तीर्थ पण्ढरपुर में विष्णु की पूजा बिट्ठल अथवा बिठोबा के नाम से की जाती है। वहाँ मन्दिर में जाने वाले यात्री एक प्रकार के पद गाते हैं जिन्हें अभङ्ग कहते हैं। ये अभङ्ग लोकभाषा में रचे गये हैं, संस्कृत में नहीं। मुक्ताबाई (1300 ई.), तुकाराम तथा नामदेव (1425 ई.) के अभङ्ग प्रसिद्ध हैं।

अभय : भय का अभाव, अथवा जिसे भय नहीं है। राजा के लिए अभयदान सबसे बड़ा धर्म कहा गया है :

नातः परतरो धर्मो नृपाणां यद् रणार्जितम्। विप्रेभ्यो दीयते द्रव्यं प्रजाभ्यश्चाभयं सदा॥ (याज्ञवल्क्य)

[राजाओं के लिए इससे बढ़कर कोई धर्म नहीं है कि वे युद्ध में प्राप्त धन ब्राह्मणों को दें तथा प्रजा को सदा के लिए अभय दान दे दें।]

अभयतिलक : न्यायदर्शन के एक आचार्य। इन्होंने 'न्यायवृत्ति' की रचना की है।

अभिक्रोशक : पुरुषमेध का एक बलि पुरुष। कदाचित् इसका अर्थ 'दूत' है। भाष्यकार महीधर ने इसका अर्थ 'निन्दक' बताया है।

अभिचार : शत्रु को मारने के लिए किया जानेवाला प्रयोग। अथर्ववेद में कहे गये मन्त्र-यन्त्र आदि द्वारा किया गया मारण, उच्चाटन आदि हिंसात्मक कार्य अभिचार कहलाता है। वह छः प्रकार का है : (1) मारण, (2) मोहन, (3) स्तम्भन, (4) विद्वेषण, (5) उच्चाटन और (6) वशीकरण। यह एक उपपातक है। श्येन आदि यज्ञों से अनपराधी को मारना पाप है।

अभिनवनारायण : शङ्कराचार्य द्वारा ऐतरेय एवं कौषीतकि उपनिषदों पर लिखे गये भाष्यों पर अनेक पण्डितों ने टीकाएँ लिखी हैं, जिनमें से एक अभिनवनारायण भी है।

अभिनिवेश : मन का संयोग-विशेष। इसके कई अर्थ हैं-मनोनिवेश, आवेश, शास्त्र आदि में प्रवेश आदि। मरण की आशंका से उत्पन्न भय के अर्थ में भी इसका प्रयोग होता है। इसकी गणना पञ्च क्लेशों में हैं :

अविद्यास्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः। (योगदर्शन)।

आसक्ति, अनुराग और अभिलाष के लिए भी यह शब्द प्रयुक्त होता है। 'बलीयान् खलु मे अभिनिवेशः।' (अभिज्ञानशाकुन्‍तल)

[मेरा अनुराग बहुत बलवान् है। ] दे. 'पञ्चक्लेश'।

अभिप्रश्नी : तैत्तिरीय ब्राह्मण एवं वाजसनेयी संहिता में वर्णित पुरुषमेध यज्ञ की बलिसूची में 'अभिप्रश्नी' का उल्लेख हुआ है। यह शब्द 'प्रश्नी' के बाद एवं 'प्राश्नविवेक' के पहले उद्धृत है। भाष्यकार सायण एवं महीधर ने इसे केवल जिज्ञासु के अर्थ में लिया है। किन्तु यहाँ इस शब्द से कुछ वैधानिकता का बोध होता है। न्यायालय में वाद उपस्थित करने वाले को प्रश्नी (प्रश्निन्), प्रतिवादी को अभिप्रश्नी (अभिप्रश्निन्) और न्यायाधीश को प्राश्नविवेक कहा जाता था।

अभिशाप : किसी अपराध के लिए क्रोध उत्पन्न होने पर रुष्ट व्यक्ति द्वारा अनिष्ट कथन करना। ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध एवं सिद्धों के अनिष्टकारक वचनों को शाप कहा जाता है :

यस्याभिशापाद् दुःखार्तो दुःख विन्दति नैषधः। (नलोपाख्यान)

[जिसके शाप से दुःखपीडित नल कष्ट पा रहा है।]

अभिश्री : यह शब्द उस दूध का बोध कराता है जो यज्ञ में सोमरस के साथ आहुति देने के पूर्व मिलाया जाता था।

अभिषेक : मन्त्रपाठ के साथ पवित्र जल-सिंचन या स्नान। यजुर्वेद अनेक ब्राह्मणों एवं चारों वेदों की श्रौत क्रियाओं में हम अभिषेचनीय कृत्य को राजसूय के एक अंग के रूप में पाते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में तो अभिषेक ही मुख्य विषय है। धार्मिक अभिषेक व्यक्ति अथवा वस्तुओं की शुद्धि के रूप में विश्व की अति प्राचीन पद्धति है। अन्य देशों में अनुमान लगाया जाता है कि अभिषेक रुधिर से होता था जो वीरता का सूचक समझा जाता था। शतपथ ब्राह्मण (5.4.2.2) के अनुसार इस क्रिया द्वारा तेजस्विता एवं शक्ति व्यक्ति विशेष में जागृत की जाती है।

ऐतरेय ब्राह्मण का मत है कि यह धार्मिक कृत्य साम्राज्य शक्ति की प्राप्ति के लिए किया जाता था। महाभारत में युधिष्ठिर का अभिषेक दो बार हुआ था, पहला सभापर्व की (33.45) दिग्विजयों के पश्चात् अधिकृत राजाओं की उपस्थिति में राजसूय के एक अंश के रूप में तथा दूसरा भारत युद्ध के पश्चात्। महाराज अशोक का अभिषेक राज्यारोहण के चार वर्ष बाद एवं हर्ष शीलादित्य का अभिषेक भी ऐसे ही विलम्ब से हुआ था। प्रायः सम्राटों का ही अभिषेक होता था। इसके उल्लेख बृहत्कथा, क्षेमेन्द्र (17), सोमदेव (15.110) तथा अभिलेखों में (एपिग्राफिया इंडिका, 1.4.5.6) पाये जाते हैं। साधारण राजाओं के अभिषेक के उदाहरण कम ही प्राप्त है, किन्तु स्वतन्त्र होने की स्थिति में ये भी अपना अभिषेक कराते थे। महाभारत (शा. प.) राजा के अभिषेक को किसी भी देश के लिए आवश्यक बतलाता है। युवराजों के अभिषेक के उदाहरण भी पर्याप्त प्राप्त होते हैं, यथा राम के 'यौवराज्यभिषेक' का रामायण में विशद वर्णन है, यद्यपि यह राम के अन्तिम राज्यारोहण के समय ही पूर्ण हुआ है। यह पुष्‍याभिषेक का उदाहरण है। अथर्ववेद परिशिष्‍ट (4), वराहमिहिर की बृहत्संहिता (48) एवं कालिकापुराण (49) में बताया गया है कि यह संस्कार चन्द्रमा तथा पुष्य नक्षत्र के संयोग काल (पौषमास) में होना चाहिए।

अभिषेक मन्त्रियों का भी होता था। हर्षचरित में राजपरिवार के सभासदों के अभिषेक (मूर्धाभिषिक्ता अमात्या राजानः) एवं पुरोहितों के लिए 'बृहस्पतिसव' का उल्लेख है। मूर्तियों का अभिषेक उनकी प्रतिष्ठा के समय होता था। इसके लिए दूध, जल (विविध प्रकार का), गाय का गोबर आदि पदार्थों का प्रयोग होता था।

बौद्धों ने अपनी दस भूमियों में से अन्तिम का नाम 'अभिषेकभूमि' अथवा पूर्णता की अवस्था कहा है। अभिषेक का अर्थ किसी भी धार्मिक स्नान के रूप में अग्निपुराण में किया गया है।

अभिषेक की सामग्रियों का वर्णन रामायण, महाभारत, अग्निपुराण एवं मानसार में प्राप्त है। रामायण एवं महाभारत से पता चलता है कि वैदिक अभिषेक संस्कार में तब यथेष्ट परिवर्तन हो चुका था। अग्निपुराण का तो वैदिक क्रिया से एकदम मेल नहीं है। तब तक बहुत से नये विश्वास इसमें भर गये थे, जिनका शतपथब्राह्मण में नाम भी नहीं है। अभिषेक के एक दिन पूर्व राजा की शुद्धि की जाती थी, जिसमें स्नान प्रधान था। यह निश्चय ही वैदिकी दीक्षा के समान था, यथा (1) मन्त्रियों की नियुक्ति, जो पहले अथवा अभिषेक के अवसर पर की जाती थी; (2) राज्य के रत्नों का चुनाव, इसमें एक रानी, एक हाथी, एक श्वेत अश्व, एक श्वेत वृषभ, एक अथवा दो; श्वेत छत्र, एक श्वेत चमर (3) एक आसन (भद्रासन, सिंहासन, भद्रपीठ, परमासन) जो सोने का बना होता था तथा व्याघ्रचर्म से आच्छादित रहता था; (4) एक या अनेक स्वर्णपात्र जो विभिन्न जलों, मधु, दुग्ध, घृत, उदुम्बरमूल तथा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं से परिपूर्ण होते थे। मुख्य स्नान के समय राजा रानी के साथ आसन पर बैठता था और केवल राजपुरोहित ही नहीं अपितु अन्य मन्त्री, सम्बन्धी एवं नागरिक आदि भी उसको अभिषिक्त करते थे। संस्कार इन्द्र की प्रार्थना के साथ पूरा होता था जिससे राजा को देवों के राजा इन्द्र के तुल्य समझा जाता था। राज्यारोहण के पश्चात् राजा उपहार वितरण करता था एवं पुरोहित तथा ब्राह्मण दक्षिणा पाते थे। अग्निपुराण एवं मानसार के अनुसार राजा नगर की प्रदक्षिणा द्वारा इस क्रिया को समाप्त करता था । अग्निपुराण इस अवसर पर बन्दियों की मुक्ति भी वर्णन करता हैं, जैसा कि दूसरे शुभ अवसरों पर भी होता था।

अभिषेचनीय : दे. 'अभिषेक'।

अभीष्ट तृतीया : यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को प्रारंभ होता है। इसमें गौरीपूजन किया जाता है। दे. स्कन्द पुराण, काशीखण्ड, 83, 1-18।

अभीष्ट सप्तमी : किसी भी मास की सप्तमी को यह व्रत किया जा सकता है। इसमें पाताल, पृथ्वी, द्वीपों तथा सागरों का पूजन होता है। दे. हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.791।

अ(भ्य)व्यङ्गसप्तमी : श्रावण शुक्ल सप्तमी। इसका कृत्य प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है, जिसमें सूर्य को `अव्यङ्ग` समर्पित किया जाता है। कृत्यकल्पतरु के व्रतकाण्ड (पृ० 150) में अव्यङ्ग की व्याख्या इस प्रकार की गयी है : ``सफेद सूत के धागे से साँप की केंचुली के समान पोला अव्यङ्ग बनाया जाय। इसकी लम्बाई अधिक से अधिक 122 अंगुल, मध्यम रूप से 120 अथवा कम से कम 108 अंगुल होनी चाहिए।`` इसकी तुलना आधुनिक पारसियों द्वारा पहनी जाने वाली `कुस्ती` से की जा सकती है। दे० भविष्य पुराण (ब्रह्मपर्व), 111.1-8 (कृत्यकल्पतरु के व्रतकाण्ड में उद्धृत); हेमाद्रि, व्रत-खण्ड, जिल्द प्रथम, 741-743; व्रतप्रकाश (पत्रात्मक 116)। भविष्यपुराण (ब्राह्म०) 142. 1-29 में हमें अव्य.ङ्गोत्पत्ति की कथा दृष्टिगोचर होती है। इसके अठारहवें पद्य में `सारसनः` शब्द आता है जो हमें `सारचे` (एक बाहरी जाति) की स्मृति दिलाता है। `अव्यङ्गाख्य व्रत` के लिए दे० नारदपुराण 1. 116, 29-31।

लगता है कि संस्कृत का अव्यङ्ग शब्द पारसी 'अवेस्ता' के 'ऐव्यङ्घन' का परिवर्तित रूप है। अवेस्ता के शब्द का अर्थ है 'कटिसूत्र', मेखला या करधनी। भविष्य पुराण के 16वें श्लोक में जो 'जदि राना' के प्रसंग में अव्यङ्ग शब्द आया है, वह लगता है, उन पारसी लोगों का कटिसूत्र ही है जो स्थानान्तरित होकर भारत आये थे और अपनी कमर पर ऊनी ‘कुश्ती’ सद्र नाम के वस्त्र पर बाँधते थे। पारसियों की ‘कुश्ती’ के दोनों छोर सर्प की मुखाकृति के होते हैं जिसमें बराबर की दूरी रखते हुए गाँठे लगायी जाती हैं। दे. एम. एम. मुरज-बान की ‘पारसीज इन इण्डिया’, प्रथम जिल्द, पृष्ठ 93। प्रतीत होता है कि सूर्य की यह पूजा यहाँ पर ईरान से आयी अथवा पारसियों की दैनिक चर्या से गृहीत हुई। वराहमिहिर की बृहत्संहिता (59.19) में लिखा है कि सूर्य के पुजारी या तो मग लोग हों अथवा शाकद्वीपीय ब्राह्मण। दे. इण्डियन एण्टिक्टी, जिल्‍द आठवीं, पृ. 328 तथा कृष्णदास मिश्र का ‘मग व्यक्ति’।

अभ्युत्थान : किसी अतिथि के आगमन पर संमानार्थ उठने की क्रिया :

अलमलमभ्युत्थानेन, ननु सर्वस्याभ्यागतो गुरुरिति भवानेवास्माक् पूज्यः। (नागानन्द)

[आप न उठिए। अभ्यागत निश्चय ही सबका गुरु होता है, आप ही हम लोगों के पूज्य हैं।]

अमङ्गल : जिससे शुभ नहीं होता। बहुत से अशुभसूचक पदार्थ अमाङ्गलिक माने जाते हैं। विवाह आदि उत्सव, यात्रा तथा किसी भी कार्यारम्भ के समय अमङ्गल को बचाया जाता है।

अमरकण्टक : मध्य प्रदेश का एक पवित्र और प्रसिद्ध तीर्थ स्थान। इसका शाब्दिक अर्थ है (अमर + कण्‍टक) 'देवताओं का शिखर'। यह विलासपुर जिले में मेकल की श्रृंखला पर स्थित है। यहीं पर नर्मदा का उद्गम है, जिसके कारण नर्मदा 'मेकल सुता' कहलाती है। प्रतिवर्ष सहस्रों तीर्थयात्री अमरकण्टक से चलकर नर्मदा के किनारे-किनारे खंभात की खाड़ी तक परिक्रमा करने जाते हैं जहाँ नर्मदा समुद्र में मिलती है।

अमरकण्टक मध्यभारत का जलविभाजक है। यहाँ से सोन उत्तरपूर्व की ओर, महानदी पूर्व की ओर और नर्मदा पश्चिम की ओर बहती है। आज भी अमरकण्टक जनाकीर्ण प्रदेशों से अलग एकान्त में स्थित है। अतः इसकी पवित्रता अधिक सुरक्षित है। कुछ विद्वानों के अनुसार मेघदूत (1.17) का आम्रकूट यही है। मार्कण्डेय पुराण (अ. 17) में इसका सोम पर्वत अथवा सुरयाद्रि कहा गया है। मत्स्यपुराण (22-28) कुरुक्षेत्र से भी अधिक पवित्रता अमरकण्टक को प्रदान करता है। दे. 'नर्मदा'।

अमरदास : सिक्खों के दस गुरुओं में इनका तीसरा क्रम है। ये गुरु अङ्गद के पश्चात् गद्दी पर बैठे। इन्होंने बहुत से भजन लिखे हैं जो 'गुरुग्रन्थ साहब' में संगृहीत हैं।

अमरनाथ : कश्मीर का प्रसिद्ध शैव तीर्थ, जो हिमालय की भैरव घाटी श्रृंखला में स्थित है। समुद्रस्तर से 16000 फुट की ऊँचाई पर पर्वत में यहाँ लगभग 16 फुट लम्बी 25 से 30 फुट चौड़ी और 15 फुट ऊँची प्राकृतिक गुफा है। उसमें हिम के प्राकृतिक पीठ पर हिमनिर्मित प्राकृतिक शिवलिङ्ग है। यह धारणा सच नहीं है कि यह शिवलिङ्ग अमावास्या को नहीं रहता और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से बनता हुआ पूर्णिमा को पूर्ण हो जाता है तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से क्रमशः घटता है। पूर्णिमा से भिन्न तिथियों में यात्रा करके इसे देख लिया गया है कि ऐसी कोई बात नहीं है। हिमनिर्मित शिवलिङ्ग जाड़ों में स्वतः बनता है और बहुत मन्दगति से घटता है परन्तु कभी पूर्ण लुप्त नहीं होता। अमरनाथगुफा में एक गणेशपीठ तथा एक पार्वतीपीठ हिम से बनता है। अवश्य ही, अमरनाथ की एक अद्भुत विशेषता है कि यह हिमलिङ्ग तथा पीठ ठोस पक्‍की बरफ का होता है, जबकि गुफा के बाहर मीलों तक सर्वत्र कच्ची बरफ मिलती है।

अमरनाथगुफा से नीचे सिन्धु की एक सहायक नदी अमरगंगा का प्रवाह है। यात्री इसमें स्नान करके गुफा में जाते हैं। सवारी के घोड़े अधिकतर एक या आध मील दूर ही रुक जाते हैं। अमरगङ्गा से लगभग दो फर्लांग ऊपर गुफा में जाना पड़ता है। गुफा में जहाँ-तहाँ बूँद-बूँद करके जल टपकते हैं। कहा जाता है कि गुफा के ऊपर पर्वत पर रामकुण्ड है और उसी का जल गुफा में टपकता है। गुफा के पास एक स्थान से सफेद भस्म-जैसी मिट्टी निकलती है, जिसे यात्री प्रसाद स्वरूप लाते हैं। गुफा में वन्य कबूतर भी दिखाई देते हैं। यदि वर्षा न होती हो, बादल न हों, धूप निकली हो तो गुफा में शीत का कोई भी अनुभव नहीं होता। प्रत्येक दशा में इस गुफा में यात्री अनिर्वचनीय अद्भुत सात्विकता तथा शान्ति का अनुभव करता है।

अमरलोक खण्डधाम : स्वामी चरणदास कृत 'अमरलोक खण्डधाम' अठारहवीं शताब्दी का एक वैष्णव योगमत का ग्रन्थ है।

अमलानन्द : आचार्य अमलानन्द का प्रादुर्भाव दक्षिण भारत में हुआ। वे यादव राजा महादेव और रामचन्द्र के समसामयिक थे। देवगिरि के राजा महादेव ने वि. सं. 1317-1328 तक शासन किया। वि. सं. 1354 में रामचन्द्र पर अलाउद्दीन ने आक्रमण किया था। अमलानन्द ने अपने ग्रन्थ 'वेदान्तंकल्पतरु' में ग्रन्थ रचना के काल के विषय में जो कुछ लिखा है, उससे मालूम होता है कि दोनों राजाओं के समय में ग्रन्थ लिखा गया था। जान पड़ता है कि अमलानन्द तेरहवीं शताब्दी के अन्त में हुए और उनका ग्रन्थ वि. सं. 1354 के पूर्व लिखा गया था, क्योंकि उसमें अलाउद्दीन के आक्रमण का उल्लेख नही मिलता। वे देवगिरि राज्य के अन्तर्गत किसी स्थान में रहते थे। उनके जन्मस्थान आदि के विषय में कुछ नहीं मालूम होता। उनके गुरु का नाम अनुभवानन्द था।

अमलानन्द अद्वैतमत के समर्थक थे। उनके लिखे तीन ग्रन्थ मिलते हैं : पहला 'वेदान्तकल्पतरू' है जिसमें वाचस्पति मिश्र की 'भामती' टीका की व्याख्या की गयी है। यह भी अद्वैत मत का प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है और बाद के आचार्यों ने इससे भी प्रमाण ग्रहण किया है। दूसरा है 'शास्त्रदर्पण'। इसमें ब्रह्मसूत्र के अधिकरणों की व्याख्या की गयी है। तीसरा ग्रन्थ है 'पञ्चपादिका दर्पण'। यह पद्मपादाचार्य की 'पञ्चपादिका' की व्याख्या है। इन तीनों ग्रन्थों की भाषा प्राञ्जल और भाव गम्भीर हैं।

अमरावती : (1) जिस नगरी में देवता लोग रहते हैं। इसे इन्द्रपुरी भी कहते हैं। इसके पर्याय हैं - (2) पूषभासा, (2) देवपूः, (3) महेन्द्रनगरी, (4) अमरा और (5) सुरपुरी।

(2) सीमान्त प्रदेश (पाकिस्तान) में जलालाबाद से दो मील पश्चिम नगरहार। फाहियान इसको 'नेकिये-लोहो' कहता है। पालि साहित्य की अमरावती यही है। कोण्डण्ण बुद्ध के समय में यह नगर अठारह 'ली' विस्तृत था। यहीं पर उनका प्रथम उपदेश हुआ था।

(3) अमरावती नामक स्तूप, जो दक्षिण भारत के कृष्णा जिले में बेजवाड़ा से पश्चिम और धरणीकोट के दक्षिण कृष्णा के दक्षिण तट पर स्थित है। हुयेनसांग का पूर्व शैल संघाराम यही है। यह स्तूप 370-380 ई. में आन्ध्रभृत्य राजाओं द्वारा निर्मित हुआ था। दे. जर्नल ऑफ् रायल एशियाटिक सोसायटी, जिल्द 3, पृ., 132।

अमा : चन्द्रमण्डल की सोलहवीं कला :

अमा षोडशभागेन देवि प्रोक्ता महाकला। संस्थिता परमा माया देहिनां देहधारिणी॥ (स्कन्द पुराण, प्रभास खण्ड)

[हे देवी, चन्द्रमा की सोलह कलाओं से युक्त आधारशक्ति रूप, क्षयं एवं उदय से रहित, नित्य फूलों की माला के समान सबमें गुँथी हुई अमा नाम की महाकला कही गयी है।]

अमावस्या : कृष्ण पक्ष की अन्तिम तिथि। इस तिथि में चन्द्रमा तथा सूर्य एक साथ रहते हैं। यह चन्द्रमण्डल की पन्द्रहवीं कला रूप है अथवा उस क्रिया से उपलक्षित काल है। सूर्य और चन्द्रमा का जो परस्पर मिलन होता है उसे अमावास्या कहते हैं (गोभिल)। उसके पर्याय हैं : अमावास्य, दर्श, सूर्यचन्द्र-संगम, पञ्चदशी, अमावसी, अमावासी, अमामसी, अमामासी। जिस अमावस्या की चन्द्रकला दिखाई दे वह 'सिनीवाली' और जिसकी चन्द्रकला न दिखाई दे वह 'कुहू' कहलाती है।

अमावास्यापयोव्रत : यह व्रत प्रत्येक अमावस्या को केवल दुग्ध पान के साथ किया जाता है और एक वर्ष तक चलता है। इसमें विष्णु-पूजन होता है। दे. हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 2, 254।

अमावस्याव्रत : कूर्मपुराण के अनुसार यह शिवजी का व्रत है। पुराणों के अनुसार अमावस्या यदि सोम, मङ्गल या गुरु को पड़े, साथ ही अनुराधा, विशाखा एवं स्वाति नक्षत्रों के साथ हो, तो विशेष पवित्र समझी जाती है। अमावस्या एवं प्रतिपदा के योग से अमावस्या तथा चतुर्दशी का योग अच्छा समझा जाता है।

अमृत : जिससे मरण नहीं होता। इसके पीने वालों की मृत्यु नहीं होती, इसीलिए इसे अमृत कहते हैं। यह समुद्र से निकला हुआ, देवताओं के पीने योग्य तथा अमरत्व प्रदान करने वाला द्रव्य विशेष है। महाभारत में अमृत की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है : ``जिस समय राजा पृथु के भय से पृथ्वी गो बन गयी उस समय देवताओं ने इन्द्र को बछड़ा बनाकर सोने के पात्र में अमृत रूप दूध दुहा। वह दुर्वासा के शाप से समुद्र में चला गया। इसके अनन्तर समुद्र के मन्थन द्वारा अमृत से पूर्ण कलश को लेकर धन्वन्तरि बाहर आये।`` उसके पर्याय हैं पीयूष, सुधा, निर्जर, समुद्रनवनीतक। जल, घृत, यज्ञशेष द्रव्य, अयाचित वस्तु, मुक्ति और आत्मा को भी अमृत कहते हैं।

मध्यंयुगीन तान्त्रिक साधनाओं में अमृत की पर्याप्त खोज हुई। वह रसरूप माना गया। पीछे उसके हठयोगपरक अर्थ किये गये। सिद्धों ने उसे महासुख अथवा सहजरस माना। तान्त्रिक क्रियाओं में वारुणी (मदिरा) इसका प्रतीक है। चन्द्रमा से जो अमृत झरता है उसे हठयोग में सच्चा अमृत कहा गया है। सन्तों ने तान्त्रिकों की वारुणी का निषेध कर हठयोगियों के सोमरस को स्वीकार किया। वैष्णव भक्तों ने भक्ति को ही रसायन अथवा अमृत माना ।

अमृतबिन्दु उपनिषद् : परवर्ती छोटी उपनिषदें, जो प्रायः दैनन्दिन जीवन की आचार नियमावली सदृश हैं, दो समूहों में बाँटी जा सकती हैं- एक संन्यासपरक और दूसरा योगपरक। अमृतबिंदु उपनिषद् दूसरी श्रेणी में में आती है तथा चूलिका का अनुसरण करती है।

अमृतसर : भारत के प्रसिद्ध तीर्थों में इसकी गणना है। सिक्ख संप्रदाय का तो यह प्रमुख तीर्थ और नगर है। यह वर्तमान पंजाब के पश्चिमोत्तर में लाहौर से बत्तीस मील पूर्व स्थित है। अमृतसर का अर्थ है 'अमृत का सरोवर।' यह प्राचीन पवित्र स्थल था, परन्तु सिक्ख गुरुओं के संपर्क से इसका महत्त्व बहुत बढ़ा। यहाँ सरोवर के बीच में सिक्ख धर्म का स्वर्णमंदिर है। सिक्ख परम्परा के अनुसार सर्वप्रथम गुरु नानक (1469-1538 ई.) ने यहाँ यात्रा की। तृतीय गुरू अमरदास भी यहाँ पधारे। सरोवर का विस्तार चतुर्थ गुरु रामदास के समय में हुआ। पंचम गुरु अर्जुन (1588 ई.) के समय देवालयों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। परवर्ती गुरुओं का ध्यान इधर आकृष्ट नहीं हुआ। बीच-बीच में मुसलमान आक्रमणकारियों ने इस स्थान को कई बार ध्वस्त और भ्रष्ट किया। किन्तु सिक्ख धर्मावलम्बियों ने इसकी पवित्रता सुरक्षित रखी और इसका पुनरुद्धार किया। 1766 ई. में वर्तमान मंदिर का पुनः निर्माण हुआ। फिर इसका उत्तरोत्तर शृंगार और निर्माण हुआ। फिर इसका उत्तरोत्तर श्रृंगार और विस्तार होता गया।

नगर में पाँच सरोवर हैं-अमृतसर, संतोषसर, रायसर, विवेकसर तथा कमलसर (कौलसर)। इनमें अमृतसर प्रमुख है, जिसके बीच में स्वर्णमंदिर स्थित है। इस मंदिर को ‘दरबार साहब’ (गुरु का दरबार) भी कहते हैं। दशम गुरु गोविंदसिंह ने गुरु का पद समाप्त कर उसके स्थान पर ‘ग्रन्थ साहब’ की प्रतिष्ठा की। ‘ग्रन्थ साहब’ ही इसमें पधराये जाते हैं। प्रतिदिन अकालबुंगा से ‘ग्रन्थ साहब’ यहाँ विधिवत् लाये जाते और रात्रि को वापस किये जाते हैं। इस तीर्थ में हरि की पौड़ी, अड़सठ तीर्थ, दुखभंजन वेरी आदि अन्य पवित्र स्थान हैं। जलियान वाला बाग में जनरल ओडायर द्वारा किये गये नरमेघ के कारण अमृतसर राष्ट्रीय तीर्थ भी बन गया है। गुरु नानक विश्वविद्यालय की स्थापना के पश्चात् यह प्रसिद्ध शिक्षाकेन्द्र के रूप में भी विकसित हो रहा है।

अमृतानुभव : महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त और नाथ सम्प्रदाय के आचार्य श्री ज्ञानेश्वर कृत त्रयोदश शताब्दी का मराठी पद्य में रचित, यह अद्वैत शैव दर्शन का अनूठा ग्रन्थ है।

अमृताहरण : गरुड़। वे अपनी माता विनता को सपत्नी की दासता से मुक्त करने के लिए सब देवताओं को जीतकर और अमृत की रक्षा करने वाले यन्त्रों को भी लाँघकर स्वर्ग से अमृत ले आये थे। पुराणों में यह कथा विस्तार से वर्णित है।

अम्बरनाथ : कोङ्कण प्रदेश स्थित शैव तीर्थ। यहाँ शिलाहार नरेश माम्बाणि का बनवाया, कोङ्कण प्रदेश का सबसे प्राचीन, मंदिर है। इस मन्दिर की कला उत्कृष्ट है। अम्बरनाथ शिव का दर्शन करने दूर-दूर से बहुत लोग आते हैं।

अम्बुवाची : वर्षा के सूचक लक्षणों से युक्त भूमि। पृथ्वी के दैवी रूप के दो पहलू है; एक उदार दूसरा विकराल। उदार पक्ष में देवी सभी जीवधारियों की माता और भोजन देने वाली कही जाती है। इस पक्ष में वह अनेकों नामों से पुकारी जाती है, यथा भूदेवी, धरतीमाता, वसुन्धरा, अम्बुवाची, वसुमती, ठकुरानी आदि।

अम्बा भवानी : अम्बा भवानी की पूजा महाराष्ट्र में 27 वीं शताब्दी में अधिक प्रचलित थी। गोन्धल नामक नृत्य देवी के सम्‍मान में होता था तथा देवी सम्बन्धी गीत भी साथा साथ गाये जाते थे।

अम्बिका : शिवपत्नी पार्वती के अनेकों नाम तथा स्वरूप हैं। हिन्दू विश्वासों में उनका स्थान शिव से कुछ ही घटकर, किन्तु अर्धनारीश्वर रूप में हम उन्हें शिव की समानता के पद पर पाते हैं। देवी, उमा, पार्वती, गौरी, दुर्गा, भवानी, काली, कपालिनी, चामुण्डा आदि उनके विविध गुणों के नाम हैं। इनका 'कुमारी' नाम कुमारियों का प्रतिनिधित्व करता है। वैसे ही इनका 'अम्बिका' (छोटी माता) नाम भी प्रतिनिधित्वसूचक ही है।

अम्बिकेय : अम्बिका का अपत्य पुरुष। कार्तिकेय, गणेश, धृतराष्ट्र। (पाणिनि के अनुसार आम्बिकेय।)

अम्बुवाचीव्रत : सौर आषाढ़ में जब सूर्य आर्द्रा नक्षत्र के प्रथम चरण में हो इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। दे. वर्षकृत्यकौमुदी, 283; भोज का राजमार्त्तण्ड।

अयम् आत्मा ब्रह्म : यह आत्मा ही ब्रह्म है' - सिद्धान्त वाक्य। यह बृहदारण्यकोपनिषद् (2.5.19) का मन्त्र है और उन महावाक्यों में से एक है जो उपनिषदों के केन्द्रीय विषय आत्मा और परमात्मा के अभेद पर प्रकाश डालते हैं।

अयन : काल-विभाजन में 'अवसर्पिणी' एवं 'उपसर्पिणी' अर्थ दो अयनों का है। यह सूर्य के छः मास उत्तर रहने से (उत्तरायण) तथा छः मास दक्षिण रहने से (दक्षिणायन) बनता है। प्रत्येक भाग के छः मासों का अर्थ एक अयन होता है।

अयनव्रत : अयन सूर्य की गति पर निर्भर होते हैं। इनमें अनेक व्रतों का विधान है। अयन दो हैं- उत्तरायण तथा दक्षिणायन। ये क्रमशः शान्त तथा क्रूर धार्मिक पूजाओं के लिए उपयुक्त हैं। दक्षिणायन में मातृदेवताओं की प्रतिमाओं के अतिरिक्त भैरव, वराह, नरसिंह, वामन तथा दुर्गादेवी की प्रतिमाओं की स्थापना होती है। दे. कृत्य-रत्नाकर, 218; हेमाद्रि, चतुवर्गचिन्तामणि, 16; समयमयूख, 173।

अयास्य आङ्गिरस : इस ऋषि का नाम ऋग्वेद के दो परिच्छेदों में उल्लिखित है तथा इन्हें अनुक्रमणी में अनेक मन्त्रों (9.44.6;10.67-68) का द्रष्टा कहा गया है। ब्राह्मण-परम्परा में ये उस राजसूय के उद्गाता थे, जिसमें शुनःशेप की बलि दी जानेवाली थी। इनके उद्गीथ (सामगान) दूसरे स्थानों में उद्धृत हैं। कई ग्रन्थों में इन्हें यज्ञक्रियाविधान का मान्य अधिकारी (पञ्चविंश ब्रा. 14.3, 22;12, 4; 11.8, 10; बृ. उ. 1.3.8, 19, 24; कौ. ब्रा. 30.6) बतलाया गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् की वंशावली में अयास्य आङ्गिरस को आभूति त्वाष्ट्र का शिष्य बताया गया है।

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अयोगू : वाजसनेयी संहिता में उद्धृत शिल्पकारों के साथ यह शब्द आया है, जिसका अर्थ संभवतः लोहार है। यह मिश्रित जाति (शूद्र पिता व वैश्य माता से उत्पन्न) का सदस्य हो सकता है। वेबर ने इसका अर्थ दुश्चरित्र स्त्री लगाया है, जब कि जिमर इसे भ्रातृहीन लड़की मानते हैं।

अयोध्या : सरयूतट पर बसी अति प्राचीन नगरी। यह इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की राजधानी एवं भगवान् राम का जन्म स्थान है। भारतवर्ष की सात पवित्र पुरियों में इसका प्रथम स्थान है :

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः॥ (ब्रह्मपुराण, 4.40.91; अग्निपुराण, 109.24)

यह मुख्यतः वैष्णव तीर्थ है। तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस की रचना लोकभाषा अवधी में यहीं प्रारम्भ की थी। यहाँ अनेक वैष्णव मन्दिर हैं, जिनमें रामजन्मस्थान, कनकभवन, हनुमानगढ़ी आदि प्रसिद्ध हैं।

स्कन्दपुराण (1.54.65) के अनुसार इसका आकार मत्स्य के समान है। इसका विस्तार एक योजन पूर्व, एक योजन पश्चिम, एक योजन सरयू के दक्षिण और एक योजन तमसा के उत्तर है। तीर्थकल्प (अ. 34) के अनुसार यह बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी है। योगिनीतन्त्र (24 पृ., 128-29) में भी इसका उल्लेख है। इसके अनुसार यह बारह योजन लम्बी और तीन योजन चौड़ी है। यह प्राचीन कोसल की राजधानी थी, जिसकी स्थापना मनु ने की थी।

जैन तीर्थङ्कर आदिनाथ का जन्म यहीं हुआ था। बौद्ध साहित्य का साकेत यहीं है। टोलेमी ने 'सुगद' और हुयेनसांग ने 'अयुते' नाम से इसका उल्लेख किया है (वैटर्स : युवा-च्‍वांग्स ट्रैवेल्स इन इण्डिया, पृ. 354)। विस्तृत वर्णन के लिए दे. डॉ. विमलचरण लाहा का अयोध्या पर निबन्ध (जर्नल ऑफ गंगानाथ झा रिसर्च इंस्टीट्यूट, जिल्द 1, पृ. 423-443)।

अरणि : यज्ञाग्नि उत्पन्न करने के लिए मन्थन करने वाली लकड़ी। घर्षण से उत्पन्न अग्नि को यज्ञ के लिए पवित्र माना जाता है। वास्तव में पार्थिव अग्नि भी मूल में वनों में घर्षण के द्वारा ही उत्‍पन्‍न हुई थी। यह मूल घटना अब तक यज्ञों के रूपक में सुरक्षित है।

अरण्य : आचार्य शङ्कर जैसे समर्थ दार्शनिक थे वैसे ही वेदान्तमत के संन्यासियों के सम्प्रदाय के योग्य व्यवस्थापक भी। उन्होंने संन्यासियों को दस श्रेणियों में बाँटा था। इनमें से 'अरण्य' एक श्रेणी है। प्रत्येक श्रेणी का नाम उसके नेता के नाम से उन्होंने रखा था। एक श्रेणी के नेता अरण्य थे।

अरण्यद्वादशी : मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी अथवा कार्तिक, माघ, चैत्र अथवा श्रावण शुक्ल एकादशी को प्रातःकाल स्नान-ध्यान से निवृत होकर यह व्रतारम्भ किया जाता है। यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता है। इसके देवता गोविन्द हैं। किन्हीं बारह सपत्नीक ब्राह्मणों, यतियों अथवा गृहस्थों को, जो सद्व्यवहारकुशल हों, उनकी पत्नियों सहित, अत्यन्त स्वादिष्ठ भोजन कराना चाहिए। दे. हेमाद्रि 1, 1091-1094। कुछ हस्तलिखित पोथियों में इसे 'अपरा द्वादशी' कहा गया है।

अरण्य-शिष्यपरम्परा : आचार्य शङ्कर की शिष्य परम्परा में एक उपनाम अरण्‍य है। उनके चार प्रधान शिष्‍य थे- पद्मपाद, हस्तामलक, सुरेश्वर और त्रोटक। इनमें प्रथम के दो शिष्य थे; तीर्थ और आश्रम। हस्तामलक के दो शिष्य थे; वन और अरण्य। सुरेश्वर के तीन शिष्य थे; गिरि, पर्वत और सागर। इसी प्रकार त्रोटक के तीन शिष्य थे; सरस्वती, भारती एवं पुरी। इस प्रकार चार मुख्य शिष्यों के सब मिलाकर दस शिष्य थे। इन्हीं दस शिष्य संन्यासियों के कारण इनका सम्प्रदाय 'दसनामी' कहलाया। शङ्कराचार्य ने चार मुख्य शिष्यों के चार मठ स्थापित किये, जिनमें उनके दस प्रशिष्यों की शिष्यपरम्परा चली आती है। चार मुख्य शिष्यों के प्रशिष्य क्रमशः शृंगेरी, शारदा, गोवर्द्धन और ज्योतिर्मठ के अधिकारी हैं। प्रत्येक दसनामी संन्यासी इन्हीं में से किसी न किसी मठ से सम्बन्धित रहता है। यद्यपि दसनामी ब्रह्म या निर्गुण उपासक प्रसिद्ध हैं पर उनमें से बहुतेरे शैव मत की दीक्षा लेते हैं। शङ्कर स्वामी के शिष्य संन्यासियों ने बौद्ध संन्यासियों की तरह भ्रमण कर सनातन धर्म के जागरण में बड़ी सहायता पहुँचायी।

अरण्यषष्ठी : जेष्ठ शुक्ल षष्ठी को इसका व्रत किया जाता है। राजमार्त्तण्ड (श्लोक सं. 1336) के अनुसार स्त्रियाँ हाथों में पंखे तथा तीर लेकर जंगलों में घूमती हैं। गदाधरपद्धति, पृष्ठ 83 के अनुसार यह व्रत ठीक वैसे ही है जैसे स्कन्दषष्ठी। इस तिथि पर विन्ध्यवसिनी देवी तथा स्कन्द भगवान् की पूजा की जाती है। व्रती लोगों को अपनी संतति के स्वास्थ्य की आशा से कमलदण्ड़ों अथवा कन्द-मूलों का आहार करना चाहिए। दे. कृत्यरत्नाकर, 184; वर्षकृत्यकौमदी, 279।

अरण्यानी : अरण्‍यानी (वनदेवी) का वर्णन ऋग्वेद (10.146) में प्राप्त होता है। वहाँ वनदेवी या वनकुमारी को, जो वन की निःशब्दता तथा एकान्त का प्रतीक है, सम्बोधित धन की निःशब्दता तथा एकान्त का प्रतीक है, सम्बोधित किया गया है। वह लज्जालु एवं भयभीत है तथा वन की भूलभुलैया में अपना पथ खो चुकी है। वह तबतक हानिप्रद नहीं है, जब तक कि कोई वन के बीहड़ प्रदेशों में प्रवेश करने तथा देवी के बच्चों (जंगली जन्तुओं) को छेड़ने का दुस्साहस न करे। वन में रात को जो एक हजार एक भयावनी ध्वनियाँ होती हैं उनका यहाँ विविधता से वर्णन है।

अरुण : सूर्य का सारथि। यह विनता का पुत्र और गरुड़ का जेष्ठ भ्राता है।

पौराणिक कल्पना के अनुसार यह पंगु (पाँवरहित) है। प्रायः सूर्यमन्दिरों के सामने अरुण-स्तम्भ स्थापित किया जाता है।

इसका भौतिक आधार है सूर्योदय के पूर्व अरुणिमा (लाली)। इसी का रूपक है अरुण।

अरुण औपवेशि गौतम : तैत्तरीय संहिता, मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण और बृहदारण्यक उपनिषद् में अरुण औपवेशि गौतम को सर्वगुण सम्पन्न अध्यापक (आचार्य) बतलाया गया है। इनका पुत्र प्रसिद्ध उद्दालक आरुणि था। वह उपवेश का शिष्य तथा राजकुमार अश्वपति का समसामयिक था, जिसकी संगति द्वारा उसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ।

अरुणोदय : रात्रि के अन्तिम प्रहर का अर्ध भाग। दे. हेमाद्रि, काल पर चतुर्वर्गचिन्ताणणि, 259, 272; कालनिर्णय, 241। इस काल का उपयोग सन्ध्या, भजन, पूजन आदि में करना चाहिए।

अरुन्धती : वसिष्ठपत्नी, इसका पर्याय है अक्षमाला। भागवत के अनुसार अरुन्धती कर्दममुनि की महासाध्वी कन्या थी। आकाश में सप्तर्षियों के मध्य वसिष्ठ के पास अरुन्धती का तारा रहता है। जिसकी आयु पूर्ण हो चुकी है, वह इसको नहीं देख पता :

दीपनिर्वाणगन्धञ्च सुहृद्वाक्यमरुन्धतीम्। न जिघ्रन्ति न श्रृण्वन्ति न पश्यन्ति गतायुषः॥

[दीपक बुझने की गन्ध, मित्रों के वचन और अरुन्धती तारे को व्यतीत आयु वाले न सूँघते, न सुनते और न देखते हैं।]

विवाह में सप्तपदी गमन के अनन्तर वर मन्त्र का उच्चारण करता हुआ बधू को अरुन्धती का दर्शन कराता है। अरुन्धती स्थायी विवाह सम्बन्ध का प्रतीक है।

अरुन्धतीव्रत : इसका विधान केवल महिलाओं के लिए है। वैधव्य से मुक्ति तथा सन्तान की प्राप्ति के लिए यह व्रत किया जाता है। इसमें वसन्त ऋतु प्रारम्भ होने के तीसरे दिन व्रतारम्भ और तीन रात्रि तक उपवास होता है। दे० हेमाद्रि, व्रत काण्ड, 2, 312 -315, व्रतराज, 89-93।

अर्कव्रत : मास के दोनों पक्षों में षष्ठी तथा सप्तमी के दिन केवल रात्रि में भोजन किया जाता है। यह व्रत एक वर्ष पर्यन्त चलता है। इसमें अर्क (सूर्य) का पूजन करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरू, 397; हेमाद्रि, 2.509।

अर्कसप्तमी : यह तिथिव्रत है। दो वर्ष पर्यन्त यह व्रत चलता है, सूर्य देवता है। केवल अर्क के पौधे के पत्तों के बने दोनों में जलपान करना चाहिए। दे०हेमाद्रि, 788--789; पद्मपुराण, 75, 8.6-106। यह व्रत सूर्य के उत्तरायण होने पर शुक्ल पक्ष में किसी रविवार को किया जाना चाहिए। पंचमी को एक समय और षष्ठी को रात्रि में भोजन, सप्तमी को उपवास तथा अष्टमी को व्रत का पारण करना चाहिए।

अर्कसम्पुट सप्तमी : फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को व्रताम्भ। एक वर्ष पर्यन्त व्रत का पालन। इसमें सूर्य की पूजा का विधान है। दे० भविष्य पुराण, 210--2-81।

अर्काष्टिमी : शुक्ल पक्ष की रविवासरीय अष्टमी को यह व्रत आचरणीय है। उमा तथा शिव की पूजा इसमें होनी चाहिए, जिनकी आँखों में सूर्य विश्राम करता है। दे० हेमाद्रि, 835-837।

अर्गलास्तोत्र : एक छोटा-सा दुर्गा स्तोत्र है। स्मार्तों की दक्षिणामार्गी शाखा के अनुयायी अपने घरों में साधारणतः यन्त्र के रूप में या कलश के रूप में देवी की स्थापना और पूजा करते हैं। पूजा में यन्त्र पर कुङ्कुम तथा पत्र-पुष्प चढ़ाते हैं। किन्तु देवी की पूजा का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है 'चण्डीपाठ' करना तथा उसके पूर्व एवं पश्चात् दूसरे पवित्र स्तोत्रों का पढ़ा जाना। उनके नाम हैं कीलक, कवच तथा अर्गलास्तोत्र। 'अर्गला-स्तोत्र' मार्कण्डेय तथा वाराह पुराण से लिया गया है।

अर्घ : वस्तुमूल्य और पूजाविधि। मनु के अनुसार :

कुर्युरर्घ यथापण्यं ततो विंशं नृपो हरेत्। मणिमुक्ताप्रवालानां लौहानां तान्तवस्य च। गन्धानाञ्च रसानाञ्च विद्यादर्धबलाबलम्॥

[क्रेय वस्तु के अनुसार मूल्य निश्चित करे। मूल्य का बीसवाँ भाग राजा ग्रहण कर ले। मणि, मोती, मूँगा, लोहे, तन्तु से निर्मित वस्तु, गन्ध एवं रसों के घटते-बढ़ते मूल्यों के अनुसार अपना भाग ले।]

इस शब्द को साम के उद्गाता सर्वत्र गान में यकार सहित नपुंसक लिङ्ग में प्रयोग करें। अन्य वेदों के लोगों को यकाररहित पुंल्लिङ्ग में प्रयोग करना चाहिए (श्राद्धतत्‍त्व)। दूर्वा, अक्षत, सर्षप, पुष्प आदि से रचित, देव तथा ब्राह्मण आदि सम्मानार्थ पूज-उपचार का यह एक भेद है। यथा उत्तररामचरित में :

अये वनदेवतेयं फलकुसुमपल्लवार्घेण मामुपतिष्ठते।'

[यह वनदेवता फल, पुष्प, पत्तों के अर्घ से मेरी पूजा कर रही है।] इसी प्रकार मेघदूत में :

स प्रत्यग्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घाय तस्मै।

[कुटज के ताजे फूलों से उसने उसे अर्घ दिया।]

अर्घ्य : पूजा के योग्य ('अर्घमर्हति' इस अर्थ में यत् प्रत्यय)। इसका सामान्य अर्थ है पूजार्थ दूर्वा, अक्षत, चन्दन, पुष्प जल आदि (अमरकोश)।

मध्यकाल के धर्मग्रन्थों में इसका बड़ा विशद वर्णन मिलता है। वर्षकृत्यकौमुदी (पृ० 142) के अनुसार समस्त देवी-देवताओं के लिए चन्दन लेप, पुष्प, अक्षत, कुशाओं के अग्रभाग, तिल, सरसों, दूर्वा का अर्घ्‍य में प्रयोग करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, 148; कृत्यरत्नाकर, 296।

अर्चक : मन्दिरों में देवप्रतिमा की सेवा-पूजा करनेवाला पुजारी।

अर्चन : पूजन। इसका माहात्म्य इस प्रकार कहा गया है :

धनधान्यकरं नित्यं गुरुदेवद्विजार्चनम्।

[नित्यप्रति गुरु, देव, ब्राह्मण की पूजा धन-धान्य को देने वाली है।]

यह नवधा भक्ति-प्रदर्शन का एक प्रकार है।

अर्चा : देवता आदि की पूजा :

अर्चा चेद् विधितश्च ते वद तदा किं मोक्षलाभक्लमैः। (शिवशतक)

[हे शिव! यदि आपकी विधिवत् पूजा की जाय तो फिर मोक्षप्राप्ति के लिए कष्ट उठाने से क्या लाभ है।]

अर्चिष्‍मान् : अर्चिष्मान्

अग्नि, सूर्य, प्रदीप्त, तेजविशिष्ट, प्रभावान्, स्वनामख्यात देवऋषिविशेष।

अर्जुन (गुरु) : सिक्खों के गुरु अर्जुन अकबर के समकालीन थे। ये कवि एवं व्यावहारिक भी थे। इन्होंने अमृतसर का स्वर्णमन्दिर बनवाया और कबीर आदि अन्य भक्तों के भजनों का संग्रह कर ग्रन्थसाहब को पूरा किया। इसमें 'जपजी' का प्रथम स्थान है, तत्पश्चात् 'सोदरु' का। फिर रागों के अनुसार शेष रचना के विभाग किये गये हैं। इस प्रकार ग्रन्थसाहब ही नानकपंथियों क वेद बन गया है। दसवें गुरु गोविन्दसिंह ने "सब सिक्खन कूँ हुकुम है, गुरु मानियों ग्रन्थ" यह फरमान निकाल कर गुरु नानक से चली आ रही गुरुपरम्परा अपने बाद समाप्त कर दी। अकबर के बाद जहाँगीर ने गुरु अर्जुन को बड़ी यातना दी, जिससे सिक्ख-मुसलमान संघर्ष की परम्परा प्रारम्भ हो गयी।

अर्थ : विषय, याच्ञा, धन, कारण, वस्तु, शब्द से प्रतिपाद्य, निवृत्ति, प्रयोजन, प्रकार आदि। यह धन के अर्थ में विशेष रूप से प्रयुक्त हुआ है और त्रिवर्ग के अन्तर्गत दूसरा पुरुषार्थ है :

कस्यार्थधर्मौ वद पीडयामि, सिन्धोस्तटावोघवतः प्रवृद्धः। (कुमारसम्भव)

[नदी का वेग जैसे अपने दोनों तटों को काट देता है वैसे ही कहो किसके धर्म-अर्थ को नष्ट कर दूँ।]

तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थ उच्यते। सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रेष्ठमेषां यथोत्तरम्॥ (मनुस्मृति)

[तम का लक्षण काम है। रज का लक्षण अर्थ है। सत्त्व का लक्षण धर्म है। ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं।]

अर्थ मानवजीवन का आवश्यक पुरुषार्थ है, किन्तु इसका अर्जन धर्मपूर्वक करना चाहिए।

अर्थपञ्चक : पाँच निर्णयों का संग्रह, संक्षिप्त, संस्कृतगर्भ, तमिल में लिखा गया तेरहवीं शताब्दी के अन्त वा चौदहवीं के प्रारम्भ का एक ग्रन्थ। इसे श्रीवैष्णवसिद्धान्त का संक्षिप्त सार कहा जा सकता है। इसके रचयिता श्रीरङ्गम् शाखा के प्रमुख पिल्लई लोकाचार्य थे।

अर्थवाद : प्राचीन काल में वेद अध्ययन करते समय विद्यार्थी अपने आचार्य से और भी व्यावहारिक शिक्षाएँ लेता था। जैसे वेदी की रचना, हविनिर्माण, याज्ञिककर्म आदि। इन क्रियाओं के आदेशवचन विधि कहलाते थे तथा उनकी व्याख्या करना अर्थवाद। बाद में अर्थवाद शब्द का व्यवहार प्रशंसा अथवा अतिरञ्चना के अर्थ में होने लगा। तब इसका तात्पर्य हुआ--- लक्षण के द्वारा स्तुति तथा निन्दा के अर्थ का वाद। वह तीन प्रकार का है-- 1. गुणवाद, 2. अनुवाद तथा 3. भूतार्थवाद। कहा गया है :

विरोधे गुणवादः स्यादनुवादोऽवधारिते। भूतार्थवादस्तद्धानावर्थवादस्त्रिधा मतः॥

[विरोध में गुणवाद, अवधारित में अनुवाद, उनके अभाव में भूतार्थवाद, इस प्रकार अर्थवाद तीन प्रकार का होता है।]

तत्त्वसम्बोधिनी के मत में यह सात प्रकार का है : 1. स्तुति-अर्थवाद, 2. फलार्थवाद, 3. सिद्धार्थवाद, 4. निन्दार्थवाद, 5. परकृति, 6. पुराकल्प तथा 7. मन्त्र। इनके उदाहरण वेद में पाये जाते हैं।

विशेष्य-विशेषण के विरोध में समानाधिकरण न होने पर गुणवाद होता है। अर्थात् इसमें अङ्गरूप कथन से विरोध का परिहार किया जाता है। जैसे 'यजमान प्रस्तर है', यहाँ प्रस्तर का अर्थ मुट्ठीभर कुश है। उसका यजमान के साथ अभेदान्वय नहीं हो सकता, अतः यहाँ यजमान का कुशमुष्टि धारणरूप अर्थवाद का प्रकार गुणवाद माना जाता है। अन्य प्रमाण द्वारा सिद्ध अर्थ का पुनः कथन अवधारित कहलाता है। जैसे 'अन्तरिक्ष में अग्नि का चयन नहीं करना चाहिए', अन्तरिक्ष में अग्नि का चयन नहीं हो सकता यह प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है, तो भी यहाँ उसका पुनः अनुवाद कर दिया गया है।

विरोध और अवधारण के अभाव में भूतार्थवाद होता है, जैसे 'इन्द्र वृत्र का घातक है।' भूतार्थवाद भी दो प्रकार का है--- 1. स्तुति-अर्थवाद और 2. निन्दार्थवाद। जैसे 'वह स्वर्ग को जाता है जो सन्ध्या-पूजन करता है' यह स्तुति-अर्थवाद है। 'पर्व के दिन मांस आदि का सेवन करने वाला मल-मूत्र से भरे हुए नरक में जाता है' यह निन्दार्थवाद हुआ। दे० श्राद्धविवेक-टीका में श्रीकृष्ण तर्कालङ्कार।

अर्थशास्त्र : प्राचीन हिन्दू राजनीति का प्रसिद्ध ग्रन्थ कौटिलीय अर्थशास्त्र। यद्यपि यह धार्मिक ग्रन्थ नहीं है, किन्तु स्थान-स्थान पर इसमें तत्कालीन धर्म एवं नैतिकता का वर्णन विशद रूप से प्राप्त होता है। राज्य, विधान, अपराध एवं उसके दण्ड, सामाजिक एवं आर्थिक दशा (जो उस समय देश में व्याप्त थी) का इसमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण वर्णन है। तत्कालीन धर्माचरण का भी यह ग्रन्थ सर्वोत्तम प्रमाण है।

अर्थशास्त्र' बहुत व्यापक शब्द है। इसमें समाजशास्त्र, दण्डनीति और सम्पत्तिशात्र तीनों का समावेश है। वार्ता अर्थात् व्यापार सन्बन्धी सभी बातें सम्पत्तिशास्त्र के विषय हैं। राजनीति सम्बन्धी सभा बातें दण्डनीति के विषय हैं। त्रयी में वर्णाश्रम विभाग और उनके सम्बन्ध में कर्त्तव्य-अकर्त्‍तव्‍य का विचार समाजशास्त्र का विषय है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में इन सभी विषयों का समाहार है।

अर्धनारीश : अर्धाङ्गिनी पार्वती और उनके ईश शंकर का संयुक्त रूप। उनका ध्यान इस प्रकार बताया गया है :

नीलप्रवालरुचिरं विलसत्त्रिनेत्रं, पाशारुणोत्पलकपालकशूलहस्तम्। अर्धाम्बिकेशमनिशं प्रविभक्तभूम्, बालेन्दुबद्धमुकुटं प्रणमामि रूपम्॥

[नीले प्रवाल के समान सुन्दर, तीन नेत्रों से सुशोभित, हाथ में पाश, लाल कमल, कपाल और त्रिशूल लिये हुए, अङ्गों मे भूषण धारण किये हुए, बालचन्द्रमा रूपी मुकुट पहने हुए शिव-पार्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।]

अर्धनारीश्वर : आधे-आधे रूप एक देह में संमिलित गौरी-शंकर। यह शिव का एक रूप है। तिथ्यादितत्त्व में कथन है :

अष्टमी नवमीयुक्ता नवमी चाष्टमीयुता। अर्धनारीश्वरप्राया उमामाहेश्वरी तिथिः॥

[अष्टमी नवमी से युक्त अथवा नवमी अष्टमी से युक्त हो, उसे अर्धनारीश्वरी या उमामाहेश्वरी तिथि कहते हैं।]

यह रूप शिव और शक्ति के मिलन का प्रतीक है। इसमें आधे पुरुष और आधी स्त्री का मिलन है। इससे आनन्द की उत्पत्ति होती है, और फिर सम्पूर्ण विश्व में इसकी अभिव्यक्ति।

अर्धलक्ष्मीहरि : आधे लक्ष्मी के आकार में तथा आधे हरि के आकार में जो हरि भगवान् हैं वे अर्धलक्ष्मीहरि हैं। यह विष्णु का एक स्वरूप है। गौतमीय तन्त्र में कथन है :

ऋषिः प्रजापतिश्छन्दो गायत्री देवता पुनः। अर्धलक्ष्मीहरिः प्रोक्तः श्रीबीजेन षडङ्गकम्॥

[प्रजापति ऋषि, छन्द गायत्री, देवता अर्धलक्ष्मीहरि कहे गये हैं। श्री बीज के द्वारा षडङ्गन्यास होता है।]

यह प्रतीक अर्धनारीश्वर (शिव) के समानान्तर है। यह भी सत् और चित् के मिलन का रूपक है, जिससे आनन्द की सृष्टि होती है।

अर्धश्रावणिका व्रत : श्रावण शुक्ल प्रतिपदा को व्रतारम्भ करके एक मास पर्यन्त उसका अनुष्ठान करना चाहिए। पार्वती की, जिन्हें अर्द्धश्रावणी भी कहा जाता है, पूजा होनी चाहिए। व्रती को एक मास तक एक समय अथवा दोनों समय विधि से आहार करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, 2. 753-754।

अर्धोदय व्रत : स्कन्दपुराण के अनुसार माघ मास की अमावस्या के दिन यदि रविवार, व्यतीपात योग और श्रवण नक्षत्र हो तो अर्धोदय योग होता है। इस योग के दिन यह व्रत किया जाता है। कदाचित् ही इन सबका मिलन संभव होता है और इसे पवित्रता में करोड़ों सूर्यग्रहणों के तुल्य समझा जाता है। अर्धोदय के दिन प्रयाग में प्रातः गंगा-स्नान का बड़ा माहात्म्य है। किन्तु कहा गया है कि इस दिन सभी नदियाँ गङ्गातुल्य हो जाती हैं। इस व्रत के तीन देवता हैं --ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर और वे इसी क्रम में पूजनीय होते हैं। पौराणिक मन्त्रों के अनुसार अग्नि में घृत का हवन करते हैं तथा 'प्रजापते' (ऋ० वे० 10.121.10) ब्रह्मा के लिए, 'इदम् विष्णुः' (ऋ० वे० 1.12.17) विष्णु के लिए एवं 'त्र्यम्वकम्' (ऋ० वे० 7.59.12) महेश्वर के लिए, तीन मन्त्रों का प्रयोग करते हैं।

व्रतार्क (पत्रात्मक, 348 अ--350 ब) में कथित है कि भट्ट नारायण के 'प्रयागसेतु' के अनुसार यह योग पौष मास में पड़ता है जब अमान्त का परिगणन किया गया हो, तथा पूर्णिमान्त का परिगणन किया गया हो तब माघ में। भुजबलनिबन्ध (पृ०364-365) के अनुसार सूर्य उस समय मकर राशि पर होना चाहिए। तिथितत्त्व, 177, एवं व्रतार्क के अनुसार यह योग तभी मान्य होगा जब दिन में पड़े; रात में नहीं। कृत्यसारसमुच्चय (पृ० 30) के अनुसार यदि उपर्युक्त समूह में से कोई एक (जैसे, पौष अथवा माघ, अमावास्या, व्यतीपात, श्रवण नक्षत्र, रविवार) अनुपस्थित हो तो यह महोदय पर्व कहलाता है। अर्द्धोदय के अवसर पर ब्राह्ममुहूर्त में नदी स्नान अत्यन्त पुण्यदायक होता है।

अर्पण : भक्तिभाव से पूजा की सामग्री देवता के समक्ष निवेदन करना। गीता के अष्टम अध्याय में कथन है :

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददाति यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥

[हे अर्जुन, जो काम करते, भोजन करते, हवन करते, दान देते, तप करते हो उसे मेरे प्रति अर्पण करो।]

कैलासगौरं वृषमारुरुक्षो: पादार्पणानुग्रहपूतपृष्ठम्॥ (रघुवंश)

[कैलास के समान गौर वर्णवाले नन्दी के ऊपर चढ़ने के लिए उद्यत शंकरजी के पैर रखने के कारण मेरी पीठ पवित्र हो गयी है।]

अर्बुद : (1) पञ्चविंश ब्राह्मण में वर्णित सूर्ययज्ञ में ग्रावस्तुत् पुरोहित के रूप में अर्बुद का उल्लेख है। स्पष्टतया इन्हें ऋषि अर्बुद काद्रवेय समझना चाहिए, जिनका वर्णन ऐतरेय ब्राह्मण (6.1) एवं कौशीतकि ब्राह्मण (29.1) में मन्त्रद्रष्टा के रूप में हुआ है।

(2) यह पर्वतविशेष (आबू) का नाम है। भारत के प्रसिद्ध तीर्थों में इसकी गणना है। सनातनी हिन्दू और जैन सम्प्रदाय वाले दोनों इसे पवित्र मानते हैं। यह राजस्थान में स्थित है।

अर्य : यह शब्द साहित्य में विशेष व्यवहृत नहीं है। वेदभाष्यकार महीधर इसका अर्थ वैश्य लगाते हैं, साधारणतः 'आर्य' नहीं लगाते। यद्यपि 'अर्य' का अर्थ वैश्य परवर्ती काल में प्रचलित रहा है, किन्तु यह निश्चित नहीं है कि यह मौलिक अर्थ है। फिर भी इसका बहुप्रचलित अर्थ 'वैश्य' ही है। वाजसनेयी संहिता में इसका प्रयोग इस अर्थ में मिलता है :

यथेमां वाचं कल्याणीमा वदानि जनेभ्यः ब्रह्मराजन्याभ्‍यां शूद्राय चार्याय च।

[इस कल्याणी वाणी को मैं सम्पूर्ण जनता के लिए बोलता हूँ--ब्राह्मण, राजन्य, शूद्र और अर्य (वैश्य) के लिए।]

अर्यक्त : पञ्चविंश ब्राह्मण में उल्लिखित वह परिवार जिसके सर्पयज्ञ में अर्यक गृहपति एवं आरुणि होता थे।

अर्यमा : वैदिक देवमण्डल का एक देवता। यह सूर्य का ही एक रूप है। वैदिक काल में अनेक आदित्य वर्ग के देवता थे। परवर्ती काल में उन सबका अवसान एक देवता सूर्य में हो गया, जो बिना किसी भेद के उन्हीं के नामों, यथा सूर्य, सविता, मित्र, अर्यमा, पूषा से कहे जाते हैं। आदित्य, विवस्वान् एवं विकर्तन आदि भी उन्हीं के नाम हैं।

काव्यों में भी अर्यमा का प्रयोग सूर्य के पर्याय के रूप में हुआ है :

प्रोषितार्यमणं मेरोरन्धकारस्तटीमिव। (किरात०)

[जिस प्रकार अर्यमा के अस्त होने पर अन्धकार मेरू की तटी में भर जाता है।]

अर्हन् : सम्मान्य, योग्य, समर्थ, अर्हता प्राप्त। प्रचलित अर्थ क्षपणक, बुद्ध, जिन भी है।

अलकनन्‍दा : (अलति =चारों ओर बहती हैं, अलका, अलका चासौ नन्दा च) कुमारी (त्रिकाण्डशेष)। भारतवर्ष की गङ्गा (शब्दमाला)। श्रीनगर (गढवाल) के समीप भागीरथी गङ्गा के साथ मिली हुई यह स्वनामख्यात नदी है। इसके किनारे कई पवित्र संगमस्थल हैं। जहाँ मन्दाकिनी इसमें मिलती है वहाँ नन्दप्रयाग है; जहाँ पिण्‍डर मिलती है वहाँ कर्णप्रयाग; जहाँ भागीरथी मिलती है वहाँ देवप्रयाग। इसके आगे यह गङ्गा कहलाने लगती है। यद्यपि अलकनन्दा का विस्तार धिक है फिर भी गङ्गा का उद्गम भागीरथी से ही माना जाता है। दे० 'गङ्गा'।

अलक्ष्मी : दरिद्रा देवी, लक्ष्मी की अग्रजा, जो लक्ष्मी नहीं है। यहाँ पर 'नञ्' विरोध अर्थ में है। यह नरकदेवता निर्ऋति, जेष्ठादेवी आदि भी कही जाती है (पद्मपुराण, उत्तर खण्‍ड)। उसका विवरण 'जेष्ठा' शब्द में देखना चाहिए। दीपावली की रात्रि को उसका विधिपूर्वक पूजन कर घर में से बिदा कर देना चाहिए।

अलक्ष्मीनाशक स्नान : पौष मास की पूर्णिमा के दिन जब पुष्य नक्षत्र हो, श्वेत सर्षप का तेल मर्दन कर मनुष्यों को यह स्नान करना चाहिए। इस प्रकार स्नान करने से दारिद्र्य दूर भागता है। तब भगवान् नारायण की मूर्ति का पूजन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त इन्द्र, चन्द्रमा, बृहस्पति तथा पुष्य की प्रतिमाओं का भी सर्वौषधि युक्त जल से स्नान कराकर पूजन करना चाहिए। दे० स्मृतिकौस्तुभ (तिथि तथा संवत्सर)।

अलवण तृतीया : किसी भी मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया, किन्तु वैशाख शुक्ल पक्ष, भाद्रपद अथवा माघ शुक्ल पक्ष की तृतीया इस व्रत में विशेष महत्वपूर्ण होती है। स्त्रियाँ ही इसका मुख्यतः आचरण करती हैं। द्वितीया को उपवास, तृतीया को नमक रहित भोजन, गौरी देवी का पूजन जीवन पर्यन्त भी किया सकता है। दे० कृत्यकल्पतरू का व्रतकाण्ड 48-51।

अलवार : दक्षिण भारत की उपासक-परम्परा से ज्ञात होता है कि अत्यन्त प्राचीन काल से उस प्रदेश में हरिभक्त का प्रचार था। कहा जाता है कि उस प्रदेश में कलियुग के प्रारम्भ में प्रसिद्ध अलवार भक्त गण उत्पन्न हुए थे। इनमें तीन आचार्य हुए -पोंहिये, पूदत्त एवं पे। पोंहिये का जन्म काञ्ची नगर में हुआ था। इनकी ध्यानावस्थित मूर्ति काञ्ची के एक मन्दिर में है, जो वहाँ के सरोवर के बीच जल में बना है। पूदत्त का जन्म तिरुवन्न मामलयि नामक स्थान में, जिसे पहले मल्ला पुरी कहते थे, हुआ था। पे का जन्म मद्रास के मलयपुर नामक स्थान में हुआ। ये सदा श्री हरि के प्रेम में उन्मत्त रहा करते थे। इसी से इनका नाम 'पे' अर्थात् उन्मत्त पड़ गया।

तदनन्तर पाण्ड्य देश में 'तिकमिडिशि' और 'शठारि' का जन्म हुआ, जिन्हें शठरिपु या शठकोप भी कहते हैं। शठरिपु के शिष्य मधुर कवि का जन्म शठरिपु के जन्मस्थान के पास ही हुआ था। वे बड़ी मधुर भाषा में कविता किया करते थे, इसी से उनका नाम 'मधुर कवि' पड़ा। केरल प्रान्त के प्रसिद्ध राजा 'कुलशेखर' भी एक प्रधान अलवार हो गये हैं। उन्होंने 'मुकुन्दमाला' नामक एक स्तोत्र की रचना की। इनके पश्चात् 'पेरिया आलवार' अर्थात् सर्वश्रेष्ठ भक्त का जन्म हुआ। उनकी पुत्री अण्डाल बहुत बड़ी भक्त थी। बहुत ही मधुरभाषिणी होने के कारण उसे गोदा कहते हैं। उसने तमिलभाषा में 'स्तोत्ररत्नावली' नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें तीन सौ स्तोत्र हैं। इन स्‍तोत्रों का भक्तों में बड़ा आदर है। इस तरह अनेक अलवारों का विवरण मिलता है।

इस प्रकार जहाँ एक ओर दार्शनिक विद्वान् विशिष्टाद्वैत मत की परम्परा बनाये हुए थे, वहाँ ये प्राचीन अलवार भी भक्त-गङ्गा बहा रहे थे। दसवीं शताब्दी में इस मत को अपनी प्रतिभा से यामुनाचार्य ने पुनः उद्दीप्त किया था, रामानुजाचार्य ने इसका सर्वतोमुखी प्रचार किया।

इस प्रकार तमिल देश में भक्तिमार्गी कवि-गायकों की एक शृंखला वर्तमान थी। ये गायक एक से दूसरे मन्दिर तक घूमा करते थे, स्तुतियाँ बनाते और आनन्दातिरेक में उनका गायन अपने आराध्य देव की प्रतिमा के सम्मुख किया करते थे। बारह वैष्णव गायकों के नाम मिलते हैं, जिन्हें अलवार के नाम से पुकारा जाता है। उनका धर्माचरण सबसे बढ़कर उन्मादपूर्ण भावना था। उनका सबसे बड़ा आनन्द था अपने आराध्य की मूर्ति की आँखों की ओर एकटक देखना तथा उनकी प्रशंसा संगीत में करना। गाते-गाते आत्मविभोर होकर देवालय की भूमि पर गिर जाना, रात भर देवता के अदर्शन के कारण रुग्ण तथा प्रातःकाल देवालय का द्वार खुलते ही देवदर्शन कर स्वास्थ्य लाभ करना आदि उनकी भक्ति के मधुर उदाहरण हैं। ये जाति से बहिष्कृत लोगों को शिक्षा देते थे तथा इनमें से कुछ अलवार स्वयं जाति से बहिष्कृत थे। इनकी रचनाओं में स्थानीय कथाओं, देवालय के देव की स्तुति, मूर्ति के आकार-प्रकार के अतिरिक्त रामायण-महाभारत एवं पुराणों का प्रभाव स्पष्ट दीख पड़ता है। ये अलवार श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के शिक्षक माने जाते हैं। इनकी स्तुतियों का सामाजिक पूजा तथा विद्वानों की शिक्षाविधि आदि के अर्थ में बड़ा सम्माननीय स्थान है।

अलीक : (1) मिथ्या; अवास्तविक; शशश्रृंग, आकाशपुष्प के सदृश, कल्पना मात्र; मृषा : 'ज्ञातेऽलीकनिमीलिते नयनयोः' (अमरुशतक)।

(2) अप्रिय : 'तद्यथा स महाराजो नालीकमधिगच्छति।' (रामायण)

अलौकिक : लौकिक प्रत्यक्ष का विषय नहीं, अथवा लोकव्यवहार में प्रचलित नहीं। स्वर्ग या दिव्य लोक की वस्तु। श्रीमद्भागवत में कहा गया है :

उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्।'

[हे विश्वात्मन्, अपने इस अलौकिक रूप को हटा लो।] भगवान् के नाम, रूप, लीला और धाम सभी अलौकिक हैं।

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अवगाहन : स्नान करना, गोता लगाना। इसके पर्याय हैं-- अवगाह, वगाह, मज्जन। जल में मज्जन (डुबकी लगाने) की विधि इस प्रकार है :

अङ्गुलीभिः पिधायैवं श्रोत्रदृङ्नासिकामुखम्। निमज्जेत प्रतिस्रोतस्त्रिः पठेदघमर्षणम्॥

[कान, आँख, नाक, मुख को अङ्गुली से दबाकर जल में प्रवाह के सामने स्नान करना तथा तीन बार अघमर्षण मन्त्र पढ़ना चाहिए।]

अवच्छेदवाद : इस सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्म के अतिरिक्त जगत् की जो प्रतीति होती है, वह एकरस वा अनवच्छिन्न सत्ता के भीतर माया द्वारा अवच्छेद अथवा परिमिति के आरोप के कारण होती है।

अवतार : ईश्वर का पृथ्वी पर अवतरण अथवा उतरना। हिन्दुओं का विश्वास है कि ईश्वर यद्यपि सर्वव्यापी, सर्वदा सर्वत्र वर्तमान है, तथापि समय-समय पर आवश्यकतानुसार पृथ्वी पर विशिष्ट रूपों में स्वयं अपनी योगमाया से उत्पन्न होता है। परमात्मा या विष्णु के मुख्य अवतार दस हैं : मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध एवं कल्कि। इनमें मुख्य, गौण, पूर्ण और अंश रूपों के और भी अनेक भेद हैं। अवतार का हेतु ईश्वर की इच्छा है। दुष्कृतों के विनाश और साधुओं के परित्राण के लिए अवतार होता है (भगवद्गीता 4।8)। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि कच्छप का रूप धारण कर प्रजापति ने शिशु को जन्म दिया। तैत्तिरीय ब्राह्मण के मतानुसार प्रजापति ने शूकर के रूप में महासागर के अन्तस्तल से पृथ्वी को ऊपर उठाया। किन्तु बहुमत में कच्छप एवं वराह दोनों रूप विष्णु के हैं। यहाँ हम प्रथम बार अवतारवाद का दर्शन पाते हैं, जो समय पाकर एक सर्वस्वीकृत सिद्धान्त बन गया। सम्भवतः कच्छप एवं वराह ही प्रारम्भिक देवरूप थे, जिनकी पूजा बहुमत द्वारा की जाती थी (जिसमें ब्राह्मणकुल भी सम्मिलित थे)। विशेष रूप से मत्स्य, कच्छप, वराह एवं नृसिंह ये चार अवतार भगवान् विष्णु के प्रारम्भिक रूप के प्रतीक हैं। पाँचवें अवतार वामनरूप में विष्णु ने विश्व को तीन पगों में नाप लिया था। इसकी प्रशंसा ऋग्वेद एवं ब्राह्मणों में है, यद्यपि वामन नाम नहीं लिया गया है। भगवान् विष्णु के आश्चर्य से भरे कार्य स्वाभाविक रूप में नहीं किन्तु अवतारों के रूप में ही हुए हैं। वे रूप धार्मिक विश्वास में महान् विष्णु से पृथक् नहीं समझे गये।

अन्य अवतार हैं-राम जामदग्न्य, राम दाशरथि, कृष्ण एवं बुद्ध। ये विभिन्न प्रकार एवं समय के हैं तथा भारतीय धर्मों में वैष्णव परम्परा का उद्घोष करते हैं। आगे चलकर राम और कृष्ण की पूजा वैष्णवों की दो शाखाओं के रूप में मान्य हुई। बुद्ध को विष्णु का अवतार मानना वैष्णव धर्म की व्याप्ति एवं उदारता का प्रतीक है।

विभिन्न ग्रन्थों मे अवतारों की संख्या विभिन्न है। कहीं आठ, कहीं दस, कहीं सोलह और कहीं चौबीस अवतार बताये गये हैं, किन्तु दस अवतार बहुमान्य हैं। कल्कि अवतार जिसे दसवाँ स्थान प्राप्त है वह भविष्य में होने वाला है। पुराणों में जिन चौबीस अवतारों का वर्णन है उनकी गणना इस प्रकार है :1. नारायण (विराट् पुरुष), 2. ब्रह्मा 3. सनक-सनन्दन-सनत्कुमार-सनातन 4. नर-नारायण 5. कपिल 6. दत्तात्रेय. 7. सुयश 8. हयग्रीव 9. ऋषभ 10. पृथु, 11. मत्स्य. 12. कूर्म 13. हंस 14. धन्वन्तरि 15. वामन 16. परशुराम 17. मोहिनी 18. नृसिंह 19. वेदव्यास 20. राम 21. बलराम 22. कृष्ण 23. बुद्ध 24. कल्कि।

किसी विशेष केन्द्र द्वारा सर्वव्यापक परमात्मा की शक्ति के प्रकट होने का नाम अवतार है। अवतार शब्द द्वारा अवतरण अर्थात् नीचे उतरने का भाव स्पष्ट होता है, जिसका तात्पर्य इस स्थल पर भावमूलक है।

परमात्मा की विशेष शक्ति का माया से सम्बन्धित होना एवं सम्बद्ध होकर प्रकट होना ही अवतरण कहा जा सकता है। कहीं से कहीं आ जाने अथवा उतरने का नाम अवतार नहीं होता।

इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेद ही प्रामाण्य रूप में सामने आते हैं। यथा-

प्रजापतिश्चरति गर्भेऽन्तरजायमानो बहुधा विजायते।'

[परमात्मा स्थूल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हुए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।]

ऋग्वेद भी अवतारवाद प्रस्तुत करता है, यथा ``रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय। इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दश।``

[भगवान् भक्तों के प्रार्थनानुसार प्रख्यात होने के लिए माया के संयोग से अनेक रूप धारण करते हैं। उनके शतशतरूप हैं।] इस प्रकार निखिल शास्त्रस्वीकृत अवतार ईश्वर के होते हैं, जो कि अपनी कुछ कलाओं से सुशोभित होते हैं, जिन्हें आंशिक अवतार एवं पूर्णावतार की संज्ञा दी जाती है। पूर्ण परमात्मा षोडशकला सम्पन्न माना जाता है।

परमात्मा की षोडश कलाशक्ति जड़-चेतनात्मक समस्त संसार में व्याप्त है। एक जीव जितनी मात्रा में अपनी योनि के अनुसार उन्नत होता है, उतनी ही मात्रा में परमात्मा की कला जीवाश्रय के माध्यम से विकसित होती है। अतः एक योनिज जीव अन्य योनि के जीव से उन्नत इसलिए है कि उसमें अन्य योनिज जीवों से भगवत्कला का विकास अधिक मात्रा में होता है। चेतन सृष्टि में उद्भिज्ज सृष्टि ईश्वर कीं प्रथम रचना है, इसलिए अन्नमयकोष-प्रधान उद्भिज्ज योनि में परमात्मा की षोडश कलाओं में से एक कला का विकास रहता है। इसमें श्रुतियाँ भी सहमत हैं, यथा

षोडशानां कलानामेका कलाऽतिशिष्टाभूत् साऽन्नेनोपसमाहिता प्रज्वालीत्।'

[परमात्मा की सोलह कलाओं में एक कला अन्न में मिलकर अन्नमश कोष के द्वारा प्रकट हुई।] अतः स्पष्ट है, उद्भिज्ज योनि द्वारा परमात्मा की एक कला का विकास होता है। इसी क्रम से परवर्ती जीवयोनि स्वेदज में ईश्वर की दो कला, अण्डज में तीन और जरायुज के अन्तर्गत पशु योनि में चार कलाओं का विकास होता है। इसके अनन्तर जरायुज मनुष्ययोनि में पाँच कलाओं का विकास होता है। किन्तु यह साधारण मनुष्य तक ही सीमित है। जिन मनुष्यों में पाँच से अधिक आठ कला तक का विकास होता है वे साधारण मनुष्यकोटि में न आकर विभूति कोटि में ही परिगणित होते हैं। क्योंकि पाँच कलाओं से मनुष्य की साधारण शक्ति का ही विकास होता है, और इससे अधिक छः से लकर आठ कलाओं का विकास होने पर विशेष शक्ति का विकास माना जाता है, जिसे विभूति कोटि में रखा गया है।

इस प्रकार एक कला से लेकर आठ कला तक शक्ति का विकास लौकिक रूप में होता है। नवम कला से लेकर षोडश कला तक का विकास अलौकिक विकास है, जिसे जीवकोटि नहीं अपितु अवतारकोटि कहते हैं। अतः जिन केन्द्रों द्वारा परमात्मा की शक्ति नवम कला से लेकर षोडश कला तक विकसित होती है, वे सभी केन्द्र जीव न कहला कर अवतार कहे जाते हैं। इनमें नवम कला से पन्द्रहवीं कला तक का विकास अंशावतार कहलाता है एवं षोडश कलाकेन्द्र पूर्ण अवतार का केन्द्र है। इसी कलाविकास के तारतम्य से चेतन जीवों में अनेक विशेषताएँ देखने में आती हैं। यथा पाँच कोषों में से अन्नमय कोष का उद्भिज्ज योनि में अपूर्व रूप से प्रकट होना एक कला विकास का ही प्रतिफल है। अतः ओषधि, वनस्पति, वृक्ष तथा लताओं में जो जीवों की प्राणाधायक एवं पुष्टिप्रदायक शक्ति है, यह सब एक कला के विकास का ही परिणाम है।

स्वदेज, अण्डज, पशु और मनुष्य तथा देवताओं तक की तृप्ति अन्नमय-कोष वाले उद्भिज्जों द्वारा ही होती है और इसी एक कला के विकास के परिणामस्वरूप उनकी इन्द्रियों की क्रियाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। यथा महाभारत (शान्ति पर्व) में कथन है :

ऊष्मतो म्लायते वर्ण त्वक्फलं पुष्पमेव च। म्लायते शीर्यते चापि स्पर्शस्तेनात्र विद्यते॥

[ग्रीष्मकाल में गर्मी के कारण वृक्षों के वर्ण, त्वचा, फल, पुष्पादि मलिन तथा शीर्ण हो जाते हैं, अतः वनस्पति में स्पर्शेन्द्रिय की सत्ता प्रमाणित होती है।] इसी प्रकार प्रवात, वायु, अग्नि., वज्र आदि के शब्द से वृक्षों के फल-पुष्प नष्ट हो जाते हैं। इससे उनकी श्रवणेन्द्रिय की सत्ता सत्यापित की जाती है। लता वृक्षों को आधार बना लेती है एवं उनमें लिपट जाती है, यह कृत्य बिना दर्शनेन्द्रिय के सम्भव नहीं। अतः वनस्पतियाँ दर्शनेन्द्रिय शक्तिसम्पन्न मानी जाती हैं। अच्छी बुरी गन्ध तथा नाना प्रकार की धूपों की गन्ध से वृक्ष निरोग तथा पुष्पित फलित होने लगते हैं। इससे वृक्षों में घ्राणेन्द्रिय की भी सत्ता समझी जाती है। इसी प्रकार वे रस अपनी टहनियों द्वारा ऊपर खींचते हैं, इससे उनकी रसनेन्द्रिय की सत्ता मानी जाती है। उद्भिज्जों में सुख-दुःख के अनुभव करने की शक्ति भी देखने में आती है। अतः निश्चित है कि ये चेतन शक्ति-सम्पन्न हैं। इस सम्बन्ध में मनु का भी यही अभिमत है :

तमसा बहुरूपेण वेष्टिता कर्महेतुना। अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः॥

[वृक्ष अनेक प्रकार के तमोभावों द्वारा आवृत रहते हुए भी भीतर ही भीतर सुख-दुख का अनुभव करते हैं।] अधिक दिनों तक यदि किसी वृक्ष के नीचे हरे वृक्षों को लाकर चीरा जाय तो वह वृक्ष कुछ दिनों के अनन्तर सूख जाता है। इससे वृक्षों के सुख-दुःखानुभव स्पष्ट हैं। वृक्षों का श्वासोच्छवास वैज्ञानिक जगत् में प्रत्यक्ष मान्य ही है। वे दिन-रात को आक्सिजन तथा कार्बन गैस का क्रम से त्याग-ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार अफ्रिका आदि के पशु-पक्षी-कीट-भक्षी लताएँ वृक्ष प्रख्यात ही हैं। अतः ये सभी क्रियाएँ भगवान् की एक कला मात्र की प्राप्ति से वनस्पति योनि में देखी जाती हैं।

अवतार-तिथिव्रत : अवतारों की वे सब जन्मतिथियाँ जो जयन्तियों के नाम से विख्यात हैं, व्रत के लिए विहित हैं। कृत्यसारसमुच्चय (पृ० 13) के अनुसार ये तिथियाँ निम्नलिखित हैं : मत्स्य चैत्र शुक्ल 3; कूर्म वैशाख पूर्णिमा; वराह भाद्र शुक्ल 3; नरसिंह वैशाख शुक्ल 14; वामन भाद्र शुक्ल 12; परशुराम वैशाख शुक्ल 3; राम चैत्र शुक्ल 9; बलराम भाद्र शुक्ल 6 ; कृष्ण भाद्र कृष्ण 8; बुद्ध ज्येष्ठ शुक्ल 2 या वैशाखी पूर्णिमा। कुछ ग्रन्थों के अनुसार कल्कि अवतार अभी होना शेष है जबकि कुछ ने श्रावण शुक्ल 6 को कल्किजयन्ती का उल्लेख किया है। कुछ ग्रन्थों में इन जयन्तियों अथवा जन्मतिथियों में अन्तर है।

अवधूत : सम्यक् प्रकार से धूत (परिष्कृत), निर्मुक्त। इस शब्द का प्रयोग शैव एवं वैष्णव दोनों प्रकार के साधुओं के अर्थ में होता है। शैव अवधूत वे संन्यासी हैं जो तपस्या का कठोर जीवन बिताते हैं, जो कम से कम कपड़े पहनते हैं और कपड़े की पूर्ति भस्म से करते हैं, तथा अपने केश जटा के रूप में बढ़ाते हैं। वे मौन रहते हैं, हर प्रकार से उनका जीवन बड़ा क्लेशसाध्य होता है। योगी सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ को इस श्रेणी के विचित्र अवधूत के नाम से पुकारा जाता है।

वैष्णव सम्प्रदाय में भी अवधूत का महत्त्व है। जब स्वामी रामानन्द ने सामान्य जनों को वैष्णवों में दीक्षित करने के लिए अपने धार्मिक सम्प्रदाय से जातिभेद हटा दिया तब उन्होंनें अपने शिष्यों को 'अवधूत' नाम दिया, जिसका अर्थ था कि उन्होंने अपने पुराने रूप (पूर्ववर्ती स्वेच्छाचार) को त्याग दिया है, उन्होंने धार्मिक जीवन स्वीकार कर अपनी व्यक्तिगत आदतों को त्याग दिया है, और इस प्रकार समाज एवं प्रकृति के बन्धनों को तोड़ दिया है। ऐसे रामानन्दी साधु दसनामी संन्यासियों से अधिक कड़ा अनुशासनमय धार्मिक जीवन यापन करते हैं।

अवध्य : बध के अयोग्य :

अवध्याश्च स्त्रियः प्राहुस्तिर्यग्योनिगता अपि।' (स्मृति)

[निम्न योनि की स्त्रियाँ भी अवध्य कही गयी हैं।]

ब्राह्मण भी अवध्य (वधदण्ड के अयोग्य) माना गया है।

अवनेजन : (1) चरण प्रक्षालन करना, पग धोना :

न कुर्याद् गुरुपुत्रस्य पादयोश्चावनेजनम्।' (मनु)

[गुरुपुत्र के पैर नहीं धोने चाहिए।]

(2) पिण्डदान के लिए बिछे हुए कुशों पर जल सींचना। ब्रह्मपुराण में लिखा है :

सपुष्प जलमादाय तेषां पृष्ठे पृथक् पृथक्। अप्रदक्षिणं नेनिज्याद् गोत्रनामानुमन्त्रितम्॥

[फूल-सहित जल लेकर पिण्डों के पृष्ठ भाग पर अलग-अलग बायीं ओर जल सींचना चाहिए।]

अवन्तिका : मालव देश की प्राचीन राजधानी। उज्जयिनी (उज्जैन) का वास्तव में यही मूल नाम था। यहीं से शिव ने त्रिपुर पर विजय प्राप्त की थी। तब से इसका नाम उज्जयिनी (विजय वाली) पड़ा। इसकी गणना भारत की सप्त पवित्र मोक्षदायिनी पुरियों में हैं :

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः॥ (स्कन्दपुराण)

[(1) अयोध्या, (2) मथुरा, (3) माया, (4) काशी, (5) काञ्ची, (6) अवन्तिका और (7) द्वारावती ये सातों पुरी मोक्षदायिका हैं।]

इसके पर्याय विशाला और पुष्पकरण्डिनी भी हैं। 'संस्कारतत्त्व' में कहा गया है :

उत्पन्नोर्कः कलिङ्गे तु यमुनायाञ्च चन्द्रमाः। अवन्त्यां च कुजो जातो मागधे च हिमांशुजः॥

[कलिङ्ग में सूर्य की, यमुना में चन्द्रमा की, अवन्ती में मङ्गल की और मगध में बुध की उत्पत्ति हुई।]

अवभृथ : दीक्षान्तस्नान; प्रधान यज्ञ समाप्त होने पर सामूहिक नदीस्नान; यज्ञादि के न्यूनाधिक दोष की शांति के निमित्त शेष कर्त्तव्य होम। स्नान इसका एक मुख्य अङ्ग है :

ततश्चकारावभृथं विधिदृष्टेन कर्मणा। (महाभारत)

[शास्त्रोक्त विधान के अनुसार उसने अवभृथ स्नान किया।]

भुवं कोष्णेन कुण्डोध्नी मेध्येनावभृथादपि। (रघुवंश)

[कुण्ड भर दूध देने वाली गौ ने अवभृथ से भी पवित्र अपने दूध से भूमि को सिंचित किया।]

अवमदिन : सप्ताह का ऐसा दिन, जिसमें दो तिथियों का अन्त हो। इस दिन की दूसरी तिथि की गणना नहीं की जाती और उसका क्षय होना कहा जाता है। प्रथम बार व्रत आचरण करने में इसको त्यक्त समझा जाता है।

अवरोधन : रोक, बाधा, किसी क्रिया की रुकावट। पाण्डव-गीता में कथन है :

कृष्ण त्वदीयपदपंकजपिञ्जरान्ते, अद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः। प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्‍तैः, कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते॥

[ हे कृष्ण! तुम्हारे चरणरूपी कमल के पिंजड़े के भीतर मेरा मनरूपी राजहंश आज ही प्रविष्ट हो जाय। क्योंकि प्राण-प्रयाण के समय कफ, बात और पित्त से कण्ठ के अवरुद्ध हो जाने पर तुम्हारा स्मरण कैसे हो सकता है?]

राजाओं के अन्तःपुर को अवरोध कहते हैं, जहाँ उनकी रानियाँ निवास करती हैं।

अवलिप्त : धन आदि से गर्वित मनुष्य। मनु (4।79) के अनुसार इसका साथ वर्जित है :

न संवसेच्च पतितैर्न चाण्डालैर्न पुक्कसैः। न मूर्खैर्नावलिप्तैश्च नान्त्यैः नान्त्यावसायिभिः॥

[पतित, चाण्डाल, पुक्कस, मूर्ख, धन से गर्वित, अन्त्यज और अन्त्यजों के पड़ोसियों के साथ नहीं रहना चाहिए।]

अविकृत परिणामवाद : वैष्णव भक्तों का एक दार्शनिक सिद्धान्त। ब्रह्म और जगत् के सम्बन्ध-निरूपण में इसका विकास हुआ। ब्रह्म की निर्विकारता तथा निरपेक्षता और जीव-जगत् की सत्यता सिद्ध करने के लिए इस मत का प्रतिपादन किया गया। यद्यपि ब्रह्म-जीव-जगत् का वास्तविक अद्वैत है परन्तु ब्रह्म में बिना विकार उत्‍पन्न हुए उसी से जीव और जगत् का प्रादुर्भाव होता है। अतः यह प्रक्रिया अविकृत परिणाम है। इसी मत को अविकृत परिणामवाद कहते हैं।

सांख्यदर्शन के अनुसार प्रकृति में जब परिणाम (परिवर्तन) होता है तब जगत् की उत्पत्ति होती है। इस मत को प्रकृतिपरिणामवाद कहते हैं। वेदान्तियों के अनुसार ब्रह्म का परिणाम ही जगत् है। इसे ब्रह्मपरिणामवाद कहते हैं। किन्तु वेदान्तियों के कई विभिन्न सांप्रदायिक मत हैं। शङ्कराचार्य ब्रह्म की निर्विकारता की रक्षा के लिए जगत् को ब्रह्म का परिणाम न मानकर उसको ब्रह्म का विवर्त मानते हैं। किन्तु इससे जगत् मिथ्या मान लिया गया। यह सिद्धान्त रामानुजाचार्य को मान्य नहीं था। अतः उन्होंनें जीव और जगत् (चित् और अचित्) को ब्रह्म के अन्तर्गत उसका विशेषण (गुणभूत) माना। मध्वाचार्य ने ब्रह्म को केवल निमित्त माना और प्रकृति को जगत् का उपादान कारण माना।

इस द्वैत दोष से बचने के लिए निम्बार्क ने प्रकृति को ब्रह्म की शक्ति माना, जिससे जगत् का प्रादुर्भाव होता है। इस मान्यता से ब्रह्म में विकार नहीं होता, परन्तु जगत् प्रक्षेप मात्र अथवा मिथ्या ही बन जाता है।

वल्लभाचार्य ने उपर्युक्त मतों की अपूर्णता स्वीकार करते हुए कहा कि जीव-जगत् ब्रह्म का परिणाम है, किन्तु एक विचित्र परिणाम है। इससे ब्रह्म में विकार नहीं उत्पन्न होता। उनके अनुसार जीव और जगत् ब्रह्म के वैसे ही परिणाम हैं, जैसे अनेक प्रकार के आभूषण सोने के, अथवा अनेक प्रकार के भाण्ड मृत्तिका के। अपने मत के समर्थन में इन्होंने उपनिषदों से बहुत से प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। इस मत में ब्रह्म सच्चिदानन्द (सत् +चित् +आनन्द) है जिससे जीव-जगत् प्रादुर्भूत होता है। सत् से जगत्; सत् और चित् से जीव और सत्, चित् और आनन्द से ईश्वर का आविर्भाव होता है। इस प्रकार अविकृत ब्रह्म से यह सम्पूर्ण जगत् उद्भूत होता है।

अविघ्नविनायक अथवा अविघ्‍नव्रत : (1) फाल्गुन, चतुर्थी तिथि से चार मासपर्यन्त गणेशपूजन। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, जिल्द 1, 524-525।

(2) मास के दोनों पक्षों की चतुर्थी, तीन वर्षपर्यन्त व्रत-अवधि और गणेश देवता। दे० निर्णयामृत, 43, भविष्योत्तर पुराण।

अविज्ञेय : जानने योग्य नहीं, दुर्ज्ञेय। मनु का कथन है :

आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्। अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्‍तमिव सर्वतः॥

[यह ब्रह्माण्ड अन्धकारपूर्ण, अप्रज्ञात, लक्षणहीन, अतर्कनीय, न जानने योग्य, सर्वत्र सोये हुए के समान था।]

मूल तत्त्व (ब्रह्म) भी अविज्ञेय कहा गया है। वह ज्ञान का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है। वास्तव में वह विषय मात्र नहीं है; अनिर्वचनीय है।

अविद्या : अद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है। आत्मा एवं विश्व, आत्मा एवं पदार्थ में द्वैत की स्थापना माया अथवा अविद्या का कार्य है। अविद्या का अर्थ है मानवबुद्धि की सीमा, जिसके कारण वह देश और काल के भीतर देखती और सोचती है। अविद्या वह शक्ति है जो मानव के लिए सम्पूर्ण दृश्य जगत् का सर्जन या भान कराती है। संपूर्ण दृश्‍यमान जगत अविद्या का साम्राज्य है। जब मनुष्य इससे ऊपर उठकर अन्तर्दृष्टि और अनुभव में प्रवेश करता है तब अविद्या का आवरण हट जाता है और अद्वैत सत्य ब्रह्म का साक्षात्कार होता है।

अविद्या के पर्याय अज्ञान, माया, अहङ्कारहेतुक अज्ञान, मिथ्या ज्ञान, विद्याविरोधिनी अयथार्थ बुद्धि आदि हैं। कथन है :

अविद्याया अविद्यात्वमिदमेव तु लक्षणम्। यत्प्रमाणासहिष्णुत्वमन्यथा वस्तु सा भवेत्॥

[अविद्या का लक्षण अविद्यात्व ही है। वह प्रमाण से सिद्ध नहीं होती, अन्यथा वह वस्तु सत्ता हो जायगी।]

अविधि : अविधान, अथवा शास्त्र के विरुद्ध आचरण। गीता (9।23) में कथन है :

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्‍त्‍यविधिपूर्वकम्॥

[हे अर्जुन! जो लोग अन्य देवताओं की श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वे भी अविधि पूर्वक मेरा ही यजन करते हैं।] याज्ञवल्‍कय् ने भी कहा है :

वसेत् स नरके घोरे दिनानि पशुरोमभिः। अमितानि दुराचारो यो हन्त्यविधिना पशून्॥

[जो दुष्ट मनुष्य बिना विधि के पशुओं का वध करता है वह पशु के रोम के बराबर असंख्य दिनों तक घोर नरक में वास करता है।]

अविनय : विनय का अभाव अथवा दुःशीलता। मनु (7.40.-41) का कथन है :

बहवोऽविनयान्नष्टा राजानः सपरिच्छदाः। वनस्था अपि राज्यानि विनयात् प्रतिपेदिरे॥

[विनय से रहित बहुत से राजा परिवार सहित नष्ट हो गये। विनय युक्त राजाओं ने वन में रहते हुए भी राज्य को प्राप्त किया।]

अविनीत : विनयरहित (व्यक्ति), समुद्धत। रामायण में कहा है:

न चापि प्रतिकूलेन नाविनीतेन रावण। राज्यं पालयितुं शक्यं राज्ञा तीक्ष्णेन वा पुनः॥

[हे रावण! कोई राजा प्रतिकूल, अविनीत, तीक्ष्‍ण आचरण के द्वारा राज्य का पालन नहीं कर सकता।]

अविमुक्त : वाराणसी क्षेत्र। काशीखण्ड (अ० 26) में लिखा है :

मुने प्रलयकालेपि नतत् क्षत्र कदाचन। विमुक्तं स्यात् शिवाभ्यां यदविमुक्तं ततो विदुः॥ अविमुक्तं तदारभ्य क्षेत्रमेतदुदीर्यते। अस्यानन्दवनं नाम पुराऽकारि पिनाकिना॥ क्षेत्रस्यानन्दहेतुत्वादविमुक्तमनन्तरम्। आनन्दकन्द बीजानामङ्कुराणि यतस्ततः॥ ज्ञेयानि सर्वलिङ्गानि तस्मिन्नानन्दकानने। अविमुक्तमिति ख्यातमासीदित्थं घटोद्भव॥

[हे मुने! प्रलय काल में भी शिव-पार्वती वाराणसी क्षेत्र को नहीं छोड़ते। इसीलिए इसे अविमुक्त कहते हैं। शिव ने पहले इसका नाम आनन्दवन रखा, क्योंकि यह क्षेत्र आनन्द का कारण है। इसके अनन्तर अविमुक्त नाम रखा। इस आनन्दवन में असंख्य शिवलिंगों के रूप में आनन्दकन्द बीजों के अङ्कुर इधर उधर बिखरे हुए हैं। हे अगस्त्य! इस प्रकार यह वाराणसी अविमुक्त नाम से विख्यात हुई।]

पद्मपुराण में काशी के चार विभाग किये गये हैं--

काशी, वाराणसी, अविमुक्त और अन्तर्गृही। विश्वनाथ मन्दिर के चारों ओर दो सौ धन्वा (एक धन्वा = 4 हाथ) का वृत्त अविमुक्त कहलाता है। दे० 'काशी' और 'वाराणसी'।

अवियोद्वादशी : भाद्र शुक्ल 12 तिथि। इस दिन शिव तथा गौरी, ब्रह्मा तथा सावित्री, विष्णु और लक्ष्मी, सूर्य तथा उनकी पत्नी विक्षुब्धा का पूजन होना चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1177-1180।

अवियोगव्रत अथवा अवियोगतृतीया : स्त्रियों के लिए विशेष व्रत। मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को प्रारम्भ होता है। तृतीया के दिन शर्करा मिश्रित खीर का सेवन, शम्भु तथा गौरी का पूजन विहित है। एक वर्ष पर्यन्त आटा तथा चावल की बनी हुई शम्भु तथा गौरी की मूर्तियों का बारहों महीनों में भिन्न-भिन्न नामों से भिन्न-भिन्न फूलों से पूजन करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रत काण्ड, 70-75; होमाद्रि, व्रतखण्ड, 439-444।

अविवाह्या : विवाह के अयोग्य। सुमन्तु के अनुसार माता-पिता से सम्बद्ध सात पीढ़ी तक की कन्याएं अविवाह्य होती हैं। दूसरों के मत में दोनों पक्षों की पाँच पीढ़ियों तक की कन्याओं के साथ विवाह नहीं करना चाहिए। नारद का भी मत है:

आ सप्तमात् पञ्चमाच्च बन्धुभ्यः पितृमातृतः। अविवाह्या सगोत्रा च समानप्रवरा तथा॥ सप्तमे पञ्चमें वापि येषां वैवाहिकी क्रिया। ते च सन्तानिनः सर्वे पतिता: शूद्रतां गताः॥

[पिता एवं माता की सात एवं पाँच पीढ़ियों तक की कन्याओं के साथ विवाह नहीं करना चाहिए। वे कन्याएँ अविवाह्य हैं। समान प्रवर और समान गोत्र वाली कन्याओं के साथ भी विवाह नहीं करना चाहिए। पाँच अथवा सात पीढ़ियों में विवाह करनेवाले लोग सन्तान सहित पतित होकर शूद्र हो जाते हैं।]

अवीचिमान् : एक नरक का नाम। उसके अन्य नाम हैं वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि, अयःपान। जो इस लोक में साक्ष्य, द्रव्य की अदला-बदली, दान आदि में किसी प्रकार का झूठ बोलता है वह मरकर अवीचिमान् नरक में नीचे सिर करके खुले स्थान में सौ योजन ऊँचे पर्वत से गिराया जाता है। यहाँ पर पापी मनुष्य गिराये जाने से तिल के समान विच्छिन्न शरीर हो जाता है। (भागवत्, 5.26)

अवेस्ता : पारसी (ईरानी) लोगों का मूल धर्मग्रन्थ, जिसका वेद से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अनेक देवताओं एवं धार्मिक कृत्यों का अवेस्ता एवं वेद के पाठों में साम्य है, जैसे अहुरमज्द का वरुण से, सोम का हओम से, ऋत का अश से। ये देवतानाम एवं धार्मिक विचारसाम्य भारतीय एवं ईरानी आर्यों की एकता के द्योतक हैं। सम्भवतः ये एक ही मूल स्थान के रहने वाले भाई-भाई थे।

अवैधव्य शुक्लैकादशी : चैत्र शुक्ल एकादशी। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, जिल्द 1, 115।

अव्यक्त : वेदान्त में 'ब्रह्म' और सांख्य में 'प्रकृति' दोनों के लिए इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'जो व्यक्त (प्रकट) नहीं है।' यह जगत् का वह मौलिक रूप है जो दृश्य अथवा प्रतीयमान नहीं है।

अव्यङ्ग : इसका शाब्दिक अर्थ है पूर्ण। यह एक पूजा-उपादान है, जिसे सूर्यमन्दिर का मग (अथवा शाकद्वीपीय ब्राह्मण) पुरोहित धारण करता है। भविष्यपुराण में उद्धृत है कि कृष्ण के पुत्र साम्ब ने सूर्योपासना से अपना कुष्ठ रोग निवारण किया तथा देवता के प्रति कृतज्ञ हो उन्होंने चन्द्रभागा तीर्थ में एक सूर्यमन्दिर बनवाया। फिर वे नारद के शिक्षानुसार शकद्वीप की आश्चर्यजनक यात्रा कर वहाँ से एक मग पुरोहित लाये। यह मग पुरोहित अन्य पूजा-सामग्रियों के साथ 'अव्यङ्ग' नामक उपादान पूजा के समय अपने हाथ में धारण करता था।

अव्यय : जिसका व्यय नहीं हो, अविनाशी, नित्यपुरुष। यह विष्णु का पर्याय है। मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है :

नमस्कृत्य सुरेशाय विष्णवे प्रभविष्णवे। पुरुषायाप्रमेयाय शाश्वतायाव्ययाय च॥

[सुरेश, विष्णु, प्रभविष्णु, पुरुष, अप्रमेय, शाश्वत, अव्यय को नमस्कार करके।]

तमसः परमापदव्ययं पुरुषं योगसमाधिना रघुः। (रघुवंश)

[योग समाधि के द्वारा रघु तम से परे अव्यय पुरुष को प्राप्त हुआ।]

अशून्य व्रत : इस व्रत में श्रावण मास से प्रारम्भ करके चार मासपर्यन्त प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीय के दिन अक्षत, दही तथा फलों सहिता चन्द्रमा को अर्घ्‍यदान किया जाता है। यदि द्वितीया तिथि तृतीया से विद्ध हो तो उसी दिन व्रत का आयोजन किया जाता है। दे० पुरुषार्थ चिन्तामणि, पृ० 83।

अशून्यशयन व्रत : श्रावण मास से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। इसमें लक्ष्मी तथा हरि का पूजन होता है। इसका उल्लेख विष्णुधर्मोत्तर, मत्स्य (71, 2-20), पद्मपुराण, विष्णुपुराण (24-1-19) आदि में हुआ है। स्त्रियों के अवैधव्य तथा पुरुषों के अवियोग (पत्नी से अवियोग) के लिए यह व्रत अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें भगवान् से यह प्रार्थना की जाती है :

लक्ष्म्या न शून्यं वरद यथा ते शयनं सदा। शय्या ममाप्यशून्यास्तु तथात्र मधुसूदन॥

[हे वरद, जैसे आपकी शेषशय्या लक्ष्मीजी से कभी भी सूनी नहीं होती, वैसे ही मेरी शय्या अपने पति या पत्नी से सूनी न हो।]

कृत्यरत्नाकर (पृष्ठ 228) में लिखा है कि जब यह कहा गया है कि व्रत श्रावण कृष्ण पक्ष से आरम्भ होता है तो प्रयोग से सिद्ध है कि मास पूर्णिमान्त है।

अशोकत्रिरात्र : ज्येष्ठ, भाद्र अथवा मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से लेकर तीन रात्रिपर्यन्त एक वर्ष के लिए यह व्रत किया जाता है। चाँदी के अशोक वृक्ष का पूजन तथा ब्रह्मा और सावित्रि की प्रतिमाओं का प्रथम दिन पूजन, उमा तथा महेश्वर का द्वितीय दिन, लक्ष्मी तथा नारायण का तृतीय दिन पूजन होता है। इसके पश्चात् प्रतिमाएँ दान कर दी जाती हैं। यह व्रत पापशामक, रोगनिवारक तथा दीर्घायुष्य, यश, समृद्धि, पुत्र तथा पौत्र आदि प्रदान करता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड,, 2.279-283; व्रतार्क (पत्रात्मक 261 ब--264)। यद्यपि साधारणतः यह व्रत महिलाओं के लिए निर्दिष्ट है किन्तु पुत्रों की समृद्धि के इच्छुक पुरुष भी इस व्रत का आचरण कर सकते हैं।

अशोकद्वादशी : विशोक द्वादशी की ही भाँति, आश्विन मास से एक वर्षपर्यन्त यह व्रत किया जाता है। दशमी के दिन हलका भोजन ग्रहण कर एकादशी को पूर्ण उपवास करके द्वादशी को व्रत की पारणा होती है। इसमें केशव का पूजन होता है। इसका फल है सुन्दर स्वास्थ्य, सौन्दर्य तथा शोक से मुक्ति। दे० मत्स्य पुराण, 81.1.-28; कृत्यकल्पतरु, व्रत काण्ड (पृ० 360--363)।

अशोकपूर्णिमा : फाल्गुन मास की पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए। प्रथम चार मासों में तथा उसके बाद के चार मासों में पृथ्वी का पूजन कर चन्द्रमा को अर्घ्‍य दिया जाता है। प्रथम चार मासों में पृथ्वी को 'धरणी' मानते हुए पूजन होता है। बाद के चार मासों में 'मेदिनी' नाम से तथा अन्तिम चार मासों में 'वसुन्धरा' नाम से पूजन होता है। दे० अग्निपुराण, 194.1; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.162-164।

अशोकाष्टमी : (1) चैत्र शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यदि कहीं उस दिन बुधवार तथा पुनर्वसु नक्षत्र हो तो उसका पुण्य बहुत बढ़ जाता है। इसमें अशोक के पुष्पों से दुर्गा का पूजन होता है। अशोक की आठ कलियों से युक्त जल ग्रहण किया जाना चाहिए। अशोक वृक्ष का मन्त्र बोलते हुए पूजन करना चाहिए :

त्वामशोक कराभीष्टं मधुमाससमुद्भवम्। पिवामि शोकसन्तप्तो मामशोकं सदा कुरु॥

दे० कालविवेक, पृ० 422; हेमाद्रि का चतुर्वर्ग चिन्तामणि, काल अंश, पृ० 626।

चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन सभी तीर्थ तथा नदियों का जल ब्रह्मपुत्र नदी में आ जाता है। इस दिन का ब्रह्मपुत्र में स्नान उन सभी पुण्यों को प्रदान करता है, जो वाजपेय यज्ञ करने से प्राप्त होते हैं।

अशोकिकाष्टमी : इस व्रत में उमा का पूजन होता है। नीलमत पुराण (पृष्ठ, 74, श्लोक 905-907) बतलाता है कि अशोक वृक्ष स्वयं देवी है।

अश्रद्धा : शास्त्र के अर्थ में अदृढ़ विश्वास। श्राद्धतत्त्व में कथन है :

विधिहीनं भावदुष्टं कृतमश्रद्धया च यत्। तद्धरन्त्यसुरास्तस्य मूढस्य दुष्कृतात्मनः॥

[मूढ़ एवं दुष्टात्मा पुरुष के विधिहीन, भावदूषित तथा अश्रद्धापूर्वक किये गये कार्य को असुर हर लेते हैं।] मानसिक वृत्तिभेद को भी अश्रद्धा कहते हैं :

कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत् सर्वं मन एव।

[काम, सङ्कल्प, विचिकित्सा, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, लज्जा, बुद्धि, भय ये सब मन ही हैं।]

गीता में कथन है : 'अश्रद्धया च यद्दत्तं तत्तामसमुदाह्यतम्'

[जो दान बिना श्रद्धा के दिया जाता है उसे तामस कहा है।]

अश्राद्धभोजी : श्राद्ध में भोजन न करने वाला, प्रशंसनीय ब्राह्मण। श्राद्ध का अन्न न खाने वाला ब्राह्मण पवित्र आचारवान् या त्यागी माना जाता है। कुछ श्राद्धों में भोजन करने के बदले प्रायश्चित करने का आदेश स्मृतियों में पाया जाता है।

अश्वग्रीव : विष्णु से द्वेष करनेवाला असुर। महाभारत में कहा है :

अश्वग्रीवश्च सूक्ष्मश्च तुहुण्डश्च महाबलः।'

[अश्वग्रीव, सूक्ष्म, तुहुण्ड, महाबल ये दैत्य हैं।]

वृष्णिवंशज चित्रक का एक पुत्र, जो राजा हो गया :

अश्वग्रीव इति ख्यातः पृथिव्यां सोऽभवन्नृपः।'

अश्वत्थ : हिन्दुओं का पूज्य पीपल वृक्ष। इसे विश्ववृक्ष भी कहते हैं। इसका एक नाम वासुदेव भी है। ऐसा विश्वास है कि इसके पत्ते-पत्ते में देवताओं का वास है।

काम-कर्मरूपी वायु के द्वारा प्रेरित, नित्य प्रचलित स्वभाव एवं शीघ्र विनाशी होने के कारण तथा कल भी रुकेगा ऐसा विश्वास न होने कारण, मायामय संसारवृक्ष को भी अश्वत्थ कहते हैं।

इसके पर्याय हैं-- (1) बोधिद्रुम, (2) चलदल (3) पिप्पल (4) कुञ्जराशन, (5) अच्युतावास, (6) चलपत्र, (7) पवित्रक (8) शुभद, (9) बोधिवृक्ष, (10) याज्ञिक, (11) गजभक्षक (12) श्रीमान्, (13) क्षीरद्रुम, (14) विप्र, (15) मङ्गल्य, (16) श्यामल, (17) गृह्यपुष्प, (18) सेव्य, (19) सत्य, (20) शुचिद्रुम और (21) धनवृक्ष।

ऋग्वेद में अश्वत्थ की लकड़ी के पात्रों का उल्लेख है। परवर्ती काल के ग्रन्थों में इस वृक्ष का अत्यधिक उल्लेख किया गया है। इसकी कठोर लकड़ी अग्नि जलाते समय शमी की लकड़ी के ऊपर रखी जाती थी। यह अपनी जड़ों को दूसरे वृक्ष के तने में स्थापित कर उन्हें नष्ट कर देता है, विशेष कर खदिर नामक वृक्ष को। इसी कारण इसे वैबाध भी कहते हैं। इसके फलों को मिष्टान्न के अर्थ में उद्धृत किया गया हैं। इसके फलों को मिष्टान्न के अर्थ में उद्धृत किया गया है, जिसे पक्षी खाते हैं, (ऋ० 1.164, 20)। देवता लोग इस वृक्ष के नीचे तीसरे स्वर्ग में निवास करते हैं (अ० वे० 5.4, 3; छा० उ० 8.5,3; कौ० उ० 9.3)।

अश्वत्थ एवं न्यग्रोध को शिखण्डी भी कहते हैं। इस वृक्ष की लकड़ी के पात्र यज्ञों में काम में लाये जाते हैं।

इस वृक्ष का धार्मिक महत्त्व अधिक है। गीता में भगवान् कृष्ण ने कहा है कि 'वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूँ।' विश्ववृक्ष से इसकी तुलना की गयी है।

इसको चैत्यवृक्ष भी कहते हैं। इसके नीचे पूजा-अर्चा आदि होती है।

अश्वत्थव्रत : अपशकुन, आक्रमण, संक्रामक बीमारियों, जैसे कुष्ठ आदि के फैलने, के समय अश्वत्थ का पूजन किया जाता है। दे० व्रतार्क, पत्रात्मक, पृ० 406, 408।

अश्वदीक्षा : आश्विन शुक्ल पक्ष में जब स्वाति नक्षत्र का चन्द्रमा हो उस दिन यह व्रत किया जाता है। इन्द्र के घोड़े (उच्चैःश्रवा) तथा अपने घोड़ों का इस समय सम्मान करना चाहिए। यदि नवमी तिथि हो तो शान्तिपाठ के साथ चार भिन्न रंगों में रंगे हुए धागों को घोड़ों की गर्दनों में बाँधना चाहिए। दे० नीलमत पुराण, पृष्ठ 77, पद्म 943-947।

अश्वपूजा : आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी पर्यन्त यह व्रत किया जाता है। दे० 'आश्विन'।

अश्वमुख : घोड़े के समान मुख वाला, किन्नर (स्त्री अश्वमुखी, किन्नरी)। किम्पुरुष इसका एक अन्य पर्याय है।

अश्वमेघ : वैदिक यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह महाक्रतुओं में से एक है। ऋग्वेद में इससे सम्बन्धित दो मन्त्र हैं। शतपथ ब्राह्मण (13.1--5) में इसका विशद वर्णन प्राप्त होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.8-9), कात्यायनीय श्रौतसूत्र (20), आपस्तम्ब (20), आश्वलायन (10.6), शांखायन (16) तथा दूसरे समान ग्रन्थों में इसका वर्णन प्राप्त होता है। महाभारत (10.71.14) में महाराज युधिष्ठिर द्वारा कौरवों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् पाप मोचनार्थ किये गये अश्वमेध यज्ञ का विशद वर्णन है। अश्वमेध मुख्यतः राजनीतिक यज्ञ था और इसे वही सम्राट कर सकता था, जिसका आधिपत्य अन्य सभी नरेश मानते थे। आपस्तम्ब ने लिखा है : 'राजा सार्वभौमः अश्वमेधेन यजेत्। नाप्यसार्वभौमः' [सार्वभौम राजा अश्वमेध यज्ञ करे असार्वभौम कदापि नहीं।] यह यज्ञ उसकी विस्तृत विजयों, सम्पूर्ण अभिलाषाओं की पूर्ति एवं शक्ति तथा साम्राज्य की वृद्धि का द्योतक होता था। दिग्विजय-यात्रा के पश्चात् साफल्यमण्डित होने पर इस यज्ञ का अनुष्ठान होता था। ऐतरेय ब्राह्मण (8.20) इस यज्ञ के करनेवाले महाराजों की सूची प्रस्तुत करता है, जिन्होंने अपने राज्यारोहण के पश्चात् पृथ्वी को जीता एवं इस यज्ञ को किया। इस प्रकार यह यज्ञ सम्राट का प्रमुख कर्तव्य समझा जाने लगा। जनता इसमें भाग लेने लगी एवं इसका पक्ष धार्मिक की अपेक्षा अधिक सामाजिक होता गया। वाक्चातुर्य, शास्त्रार्थ आदि के प्रदर्शन का इसमें समावेश हुआ। इस प्रकार इस यज्ञ ने दूसरे श्रौत यज्ञों से भिन्न रूप ग्रहण कर लिया।

यज्ञ का प्रारम्भ वसन्त अथवा ग्रीष्म ऋतु में होता था तथा इसके पूर्व प्रारम्भिक अनुष्ठानों में प्रायः एक वर्ष का समय लगता था। सर्वप्रथम एक अयुक्त अश्व चुना जाता था। यह शुद्ध जाति का, मूल्यवान् एवं विशिष्ट चिह्नों से युक्त होता था। यज्ञ स्तम्भ में बाँधने के प्रतीकात्मक कार्य से मुक्त कर इसे स्नान कराया जाता था तथा एक वर्ष तक अबन्ध दौड़ने तथा बूढ़े घोड़ो के साथ खेलने दिया जाता था। इसके पश्चात् इसकी दिग्विजय यात्रा प्रारम्भ होती थी। इसके सिर पर जयपत्र बाँधकर छोड़ा जाता था। एक सौ राजकुमार, एक सौ राजसभासद्, एक सौ उच्चाधिकारियों के पुत्र तथा एक सौ छोटे अधिकारियों के पुत्र इसकी रक्षा के लिए सशस्त्र पीछे-पीछे प्रस्थान करते थे। इसके स्वतन्त्र विचरण में कोई बाधा उपस्थित नहीं होने देते थे। इस अश्व के चुराने या इसे रोकने वाले नरेश से युद्ध होता था। यदि यह अश्व खो जाता तो दूसरे अश्व से यह क्रिया आरम्भ से पुनः की जाती थी।

जब यह अश्व दिग्विजय-यात्रा पर जाता था तो स्थानीय लोग इसके पुनरागमन की प्रतीक्षा करते थे। मध्यकाल में अनेकों प्रकार के उत्सव मनाये जाते थे। सवितृदेव को नित्य उपहार दिया जाता था। राजा के सम्मुख पुरोहित उत्सव के मध्य मन्त्रगान करता था। इस मन्त्रगान का चक्र प्रत्येक ग्यारहवें दिन दुहराया जाता था। इसमें गान, वंशीवादन तथा वेद के विशेष अध्यायों का पाठ होता था। इस अवसर पर राजकवि राजा की प्रशंसा में रचित गीतों को सुनाता था। मन्त्रगान नाटक के रूप में विविध प्रकार के पात्रों, वृद्ध, नवयुवक, सँपेरों, डाकू, मछुवा, आखेटक एवं ऋषियों के माध्यम से प्रस्तुत होता था। जब वर्ष समाप्त होता और अश्व वापस आ जाता, तब राजा की दीक्षा के साथ यज्ञ प्रारम्भ होता था।

वास्तविक यज्ञ तीन दिन चलता था, जिसमें अन्य पशुयज्ञ होते थे एवं सोमरस भी निचोड़ा जाता था। दूसरे दिन यज्ञ का अश्व स्वर्णाभरण से सुसज्जित कर, तीन अन्य अश्वों के साथ एक रथ में नाधा जाता था और उसे चारों ओर घुमाकर फिर स्नान कराते थे। फिर वह राजा की तीन प्रमुख रानियों द्वारा अभिषिक्त एवं सुसज्जित किया जाता था, जब कि होता एवं प्रमुख पुरोहित ब्रह्मोद्य करते थे। पुनः अश्व एक बकरे के साथ यज्ञस्तम्भ में बाँध दिया जाता था। दूसरे पशु जो सैकड़ों की संख्या में होते थे, बलि के लिए स्तम्भों में बाँधे जाते थे। कपड़ों से ढककर इनका श्वास फुलाया जाता था। पुनः मुख्य रानी अश्व के साथ वस्त्रावरण के भीतर प्रतीकात्मक रूप से लेटती थी। पुरोहितादि ब्राह्मण महिलाओं के साथ प्रमोदपूर्वक प्रश्नोत्तर करते थे (वाजसनेयी-संहिता, 23,22)। ज्यों ही मुख्य रानी उठ खड़ी होती, त्यों ही चातुरीपूर्वक यज्ञ-अश्व काट दिया जाता था। अनेकों अबोधगम्य कृत्यों के पश्चात्, जिसमें सभी पुरोहित एवं यज्ञ करनेवाले सम्मिलित होते थे, अश्व के विभिन्न भागों को भूनकर प्रजापति को आहुति दी जाती थी। तीसरे दिन यज्ञकर्त्ता को विशुद्धिस्नान कराया जाता, जिसके बाद वह यज्ञ कराने वाले पुरोहितों तथा ब्राह्मणों को दान देता था। दक्षिणा जीते हुए देशों से प्राप्त धन का एक भाग होती थी। कही-कहीं दासियों सहित रानियों को भी उपहार सामग्री के रूप में दिये जाने का उल्लेख पाया जाता हैं।

अश्वमेध ब्रह्महत्या आदि पापक्षय, स्वर्ग प्राप्ति एवं मोक्ष प्राप्ति के लिए भी किया जाता था।

गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद अश्वमेध प्रायः बन्द ही हो गया। इसके परवर्ती उल्लेख प्रायः परम्परागत हैं। इनमें भी इस यज्ञ के बहुत से श्रौत अङ्ग संपन्न नहीं होते थे।

अश्वमेधिक : अश्वमेध याग के उपयुक्त घोड़ा। देखिए 'अश्वमेध'।

अश्वयुज् (क्) : अश्विनी नक्षत्र; आश्विन मास।

अश्वल : विदेहराज जनक का पुरोहित जो बृहदारण्यक उपनिषद् में एक प्रामाणिक विद्वान कहा गया है। ऋग्वेद के श्रौत सूत्रों में सबसे प्रथम आश्वलायनश्रौतसूत्र समझा जाता है, जो बारह अध्यायों में विभक्त है। कुछ लोगों का कहना है कि अश्वल ऋषि ही उस सूत्रग्रन्थ के रचयिता हैं। ऐतरेय आरण्यक के चौथे काण्ड के प्रणेता का नाम भी आश्वलायन है।

अश्वव्रत : यह संवत्सर व्रत है। इसका इन्द्र देवता है। दे० मत्स्य पुराण, 101.71 तथा हेमाद्रि, व्रत खण्ड।

अश्विनौ (अश्विन्) : ये वैदिक आकाशीय देवता हैं और दो भाई हैं तथा इनका 'उषा' से समीपी सम्बन्ध है, क्योंकि तीनों का उदय एक साथ ही प्रातः काल होता है। निश्चय ही यह दिन-रात्रि का सन्धिकाल है क्योंकि अग्नि, उषा एवं सूर्य के उदय काल का अश्विन् के उदयकाल से साम्य है (ऋ० 1.157)। 'सूर्य की पुत्री तीन बैठकों से युक्त अश्विनौ के रथ में सवार होती है' (ऋ० 1.24.5 आदि)। आशय यह है कि उषा (पौ फटना) एवं सन्धिकालीन धीमा प्रकाश (प्रातःकालीन नक्षत्र अश्विनौ) दोनों एक ही काल में प्रकट होते हैं। इस प्रकार साथ-साथ उदय से उषा एवं अश्विनौ भाइयों में प्रेम का आरोपण किया गया गया है और उषा देवी ने दोनों अश्वारोहियों को अपना सयोगी चुना है। समस्या और भी उलझ जाती है जब कि सूर्यपत्री को अश्विनौ की बहिन तथा पत्नी दोनों कहा जाता है (ऋ० 1.180.2)। वास्तव में यह सम्पूर्ण वर्णन आलंकारिक और रुपकात्मक है।

अश्विनौ के वाहन अश्व ही नहीं, अपितु पक्षी भी कहे गये हैं। उनका रथ मधु हाँकता है। उसके हाथ में मधु का ही कोड़ा है। ओल्डेनवर्ग ने इसका अर्थ प्रातःकालीन ओस-बूँदें तथा ग्रिफिथ ने जीवनदायक प्रभात वायु लगाया है। उनके वाहन पक्षी रक्त वर्ण के हैं। उनका पथ रक्तवर्ण एवं स्वर्णवर्ण है। अश्विनौ का जो भी भौतिक आधार हो, वे स्पष्टतः उषा एवं दिन के अग्रदूत हैं।

इनका दूसरा पक्ष है दुःख से मुक्ति देना एवं आश्चर्यजनक कार्य करना। अश्विनौ विपत्ति में सहायता करते हैं। वे देवताओं के चिकित्सक हैं जो प्रत्येक रोग से मुक्ति देते हैं, खोयी हुई दृष्टि दान करते हैं, शारीरिक क्षतों को पूरते हैं और अस्वास्थ्यकारी एवं पीड़क बाणों से बचाते हैं। वे गौ एवं अश्व-धन से परिपूर्ण हैं एवं उनका रथ धन एवं भोजन से भरा रहता है। इनके दुःख से मुक्ति देने के चार उदाहरण ऋग्वेद (7.71.5) में दिये हुए हैं : उन्होने बूढ़े महर्षि च्यवन को युवक बना दिया, उनके जीवन को बढ़ा दिया तथा उन्हें अनेक कुमारियों का पति होने में समर्थ बनाया। इन्होंने जलते हुए अग्निकुण्ड से अत्रि का उद्धार किया।

अश्विनौ के वंश का विविधता से वर्णन मिलता है। कई बार उन्हें द्यौ की सन्तान कहा गया है। एक स्थान पर सिन्धु को उनकी जननी कहा गया है (निःसन्देह यह आकाशीय सिन्धु है और इसका सम्भवतः अर्थ है आकाश का पुत्र)। एक स्थान पर उन्हें विवस्वान् की जुड़वाँ सन्तान कहा गया है। अश्विनौ का निकट सम्बन्ध प्रेम, विवाह, पुरुषत्व एवं संतान से है। वे सोम एवं सूर्या के विवाह में वर के मध्यस्थ के रूप से प्रस्तुत किये गये हैं। वे सूर्या को अपने रथ पर लाये। इस प्रकार वे नवविवाहिताओं को वरगृह में लाने का कार्य करते हैं। वे सन्तान के निमित्त पूजित होते हैं (ऋ० 10.184.2)।

पौराणिक पुराकथाओं में अश्विनौ का उतना महत्त्व नहीं है, जितना वैदिक साहित्य में। फिर भी अश्विनीकुमार के नाम से इनकी बहुत सी कथाएं प्राचीन साहित्य में उपलब्ध होती हैं। दे० 'अश्विनीकुमार'।

अश्विनी : सत्ताईस नक्षत्रों के अन्तर्गत प्रथम नक्षत्र। अश्विनी से लेकर रेवती तक सत्ताईस तारागण दक्ष की कन्या होने के कारण 'दाक्षायणी' कहलाते हैं। अश्विनी चन्द्रमा की भार्या तथा नव-पादात्मक मेषराशि के आदि चार पाद रूप हैं, इसके स्वामी देवता अश्वारूढ़ अश्विनीकुमार हैं।

अश्विनीकुमार : आयुर्वेद के आचार्यों में अश्विनीकुमारों की गणना होती है। सुश्रुत ने लिखा है कि ब्रह्मा ने पहले पहल एक लाख श्लोकों का आयुर्वेद (ग्रन्थ) बनाया जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उसको प्रजापति ने पढ़ा प्रजापति से अश्वनीकुमारों ने और अश्विनीकुमारों से इन्द्र ने पढ़ा। इन्द्र से धन्वन्तरि ने और धन्वन्तरि से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की। अश्विनीकुमारों ने च्यवन ऋषि को यौवन प्रदान किया। अश्विनीकुमार वैदिक अश्विनौ ही हैं, जो पीछे पौराणिक रूप में इस नाम से चित्रित होने लगे।

ये अश्वरूपिणी संज्ञा नामक सूर्यपत्नी के युगल पुत्र तथा देवताओं के वैद्य हैं। हरिवंश पुराण में लिखा है :

विवस्वान् कश्यपाज्जज्ञे दाक्षायण्यामरिन्दम। तस्य भार्याभवत्संज्ञा त्वाष्ट्री देवी विवस्वतः॥ देवौ तस्यामजायेतामश्विनौ भिषजां वरौ।

[हे अरिन्दम! कश्यप से दक्ष प्रजापति की कन्या द्वारा विवस्वान् नामक पुत्र हुआ। उसकी पत्नी त्वष्टा की पुत्री संज्ञा थी। उससे अश्विनीकुमार नामक दो पुत्र हुए जो श्रेष्ठ वैद्य थे।] दे० 'अश्विन्'।

अष्टक : आठ का समूह, अष्ट संख्या से विशिष्ट। यथा गङ्गाष्टकं पठति यः प्रयतः प्रभाते

वाल्मीकिना विरचितं सुखदं मनुष्यः॥

[जो मनुष्य प्रभात समय में प्रेमपूर्वक सुख देने वाला, वाल्मीकि मुनि द्वारा रचित गङ्गष्टक पढ़ता है।]

अच्युतं केशवं विष्णुं हरिं सत्यं जनार्दनम्। हंसं नारायणञ्चैव एतन्नामाष्टकं शुभम्॥

[अच्युत, केशव, विष्णु, हरि, सत्य, जनार्दन, हंस, नारायण, ये आठ नाम शुभदायक हैं।]

अष्टका : श्राद्ध के योग्य कुछ अष्टमी तिथियाँ। आश्विन्, पौष, माघ, फाल्गुन मासों की कृष्णाष्टमी अष्टका कहलाती हैं। इनमें श्राद्ध करना आवश्यक है।

अष्टगन्ध : आठ सुगन्धित द्रव्य, जिनको मिलाकर देवपूजन, यन्त्रलेखन आदि के लिए सुगन्धित चन्दन तैयार किया जाता है। विभिन्न देवताओं के लिए इनमें कुछ वस्तुएँ अलग-अलग होती हैं। साधारणतया इनमें चन्दन, अगर, देवदारु, केसर, कपूर, शैलज. जटामांसी और गोरोचन माने जाते हैं।

अष्टछाप : पुष्टिमार्गीय आचार्य वल्लभ के काव्यकीर्तनकार चार प्रमुख शिष्य थे तथा उनके पुत्र विट्ठलनाथ के भी ऐसे ही चार शिष्य थे। आठों व्रजभूमि (मथुरा के चारों ओर के समीपी गाँवों) के निवासी थे और श्रीनाथजी के समक्ष गान रचकर गाया करते थे। उनके गीतों के संग्रह को 'अष्टछाप' कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ आठ मुद्राएं हैं। उन्होंने व्रजभाषा में श्रीकृष्ण विषयक भक्तिरसपूर्ण कविताएँ रचीं। उनके बाद सभी कृष्णभक्त कवि व्रजभाषा में ही कविता लिखने लगे। अष्टछाप के कवि निम्नलिखित हुए हैं--

(1) कुम्भनदास (1468--1582 ई०), (2) सूरदास (1478-1580 ई०) (3) कृष्णदास (1495-1575 ई०), (4) परमानन्ददास (1491-1583 ई०), (5) गोविन्ददास (1505-1585 ई०), (6) छीतस्वामी (1481-1585 ई०), (8) चतुर्भुजदास

इनमें सूरदास प्रमुख थे। अपनी निश्छल भक्ति के कारण ये लोग भगवान् कृष्ण के 'सखा' भी माने जाते हैं। परम भागवत होने के कारण ये 'भगवदीय' भी कहलाते हैं। ये लोग विभिन्न वर्णों के थे। परमानन्द कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। कृष्णदास शूद्रवर्ण के थे। कुम्भनदास क्षत्रिय थे किन्तु कृषक का काम करते थे। सूरदास जी किसी के मत में सारस्वत ब्राह्मण और छीतस्वामी माथुर चौबे थे। नन्ददास भी सनाढ्य ब्राह्मण थे। अष्टछाप के भक्तों में बड़ी उदारता पायी जाती है। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' तथा 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में इनका जीवनवृत्त विस्तार से पाया जाता है।

अष्टमङ्गल : आठ प्रकार के मङ्गलद्रव्य या शुभकारक वस्तुएँ। नन्दिकेश्वर पुराणोक्त दुर्गोत्सवपद्धति में कथन है :

मृगराजो वृषो नागः कलशो व्यजनं तथा। वैजयन्ती तथा भेरी दीप इत्यष्टमङ्गलम्॥

[सिंह, बैल, हाथी, कलश, पंखा, वैजयन्ती, ढोल तथा दीपक ये आठ मङ्गल कहे गये हैं।]

शुद्धितत्त्व में भिन्न प्रकार से कहा गया है :

लोकेस्मिन् मङ्गलान्यष्टौ ब्राह्मणों गौर्हुताशनः। हिरण्यं सर्पिरादित्य आपो राजा तथाष्टमः॥

[इस लोक में ब्राह्मण, गौ, अग्नि, सोना, घी, सूर्य, जल तथा राजा ये आठ मङ्गल कहे गये हैं।]

अष्टमी : आठवीं तिथि, यह चन्द्रमा की आठ कला-क्रियारूप है। शुक्ल पक्ष में अष्टमी नवमी से युक्त ग्रहण करनी चाहिए। कृष्ण पक्ष की अष्टमी सप्तमी से युक्त ग्रहण करनी चाहिए, यथा :

कृष्णपक्षेऽष्टमी चैव कृष्णपक्षे चतुर्दशी। पूर्वविद्धैव कर्तव्य परविद्धा न कुत्रचित्॥ उपवासादिकार्येषु एष धर्मः सनातनः॥

[उपवास आदि कार्यों में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तथा कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी पूर्वविद्धा ही लेनी चाहिए न कि पररविद्धा। यही परम्परागत रीति है।]

अष्टमीव्रत : लगभग तीस अष्टमीव्रत हैं, जिनका उचित स्थानों पर उल्लेख किया गया है। सामान्य नियम यह है कि शुक्ल पक्ष की नवमीविद्धा अष्टमी को प्राथमिकता प्रदान की जाय तथा कृष्ण पक्ष में सप्तमीसंयुक्त अष्टमी ली जाय। दे० तिथितत्त्व, 40, धर्मसिन्धु, 15; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.811-886।

अष्टमूर्ति : शिव का एक नाम। उनकी आठ मूर्तियों के निम्नांकित नाम हैं :

(1) क्षितिमूर्ति शर्व, (2) जलमूर्ति भव, (3) अग्निमूर्ति रुद्र, (5) वायुमूर्ति उग्र, (5) आकाशमूर्ति भीम, (6) यजमानमूर्ति पशुपति, (7) चन्द्रमूर्ति महादेव और (8) सूर्यमूर्ति ईशान। शरभरूपी शिव के ये आठ चरण भी कहे गये हैं। दे० कालिकापुराण और तन्त्रशास्त्र।

शिव की आठ मूर्तियाँ इस प्रकार भी कही गयी हैं :

अथाग्निः रविरिन्दुश्च भूमिरापः प्रभञ्जनः। यजमानः खमष्टौ च महादेवस्य मूर्तयः॥

[अग्नि, सूर्य चन्द्रमा, भूमि, जल, वायु, यजमान, आकाश ये आठ महादेव की मूर्तियाँ हैं।]

अष्टश्रवा : जिनके आठ कान हैं; ब्रह्मा का एक उपनाम। चार मुख वाले ब्रह्मा के प्रत्येक मुख के दो दो कान होने के कारण उनको आठ कानों वाला कहते हैं।

अष्टाकपाल : आठ कपालों (मिट्टी के तसलों) में पका हुआ होमान्न। यह एक यज्ञकर्म भी है, जिसमें आठ कपालों में पुरोडाश (रोट) पकाकर हवन किया जाता है।

अष्टाङ्ग : देवदर्शन की एक विधि, जिसमें शरीर के आठ अंगों से परिक्रमा या प्रणाम किया जाता है। आत्म उद्धार अथवा आत्मसमर्पण की रीतियों में 'अष्टाङ्ग प्रणिपात' भी एक है। इसका अर्थ है (1) आठों अङ्गों से (पेट के बल) गुरु या देवता के प्रसन्नतार्थ सामने लेट जाना। (2) इसी रूप में पुनः पुनः लेटते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। इसके अनुसार किसी पवित्र वस्तु की परिक्रमा या दण्डवत् प्रणाम उपर्युक्त रीति से किया जाता है। अष्टाङ्ग-परिक्रमा बहुत पुण्यदायिनी मानी जाती है। साधारण जन इसको 'डंडौती देना' कहते हैं। इसका विवरण यों है :

उरसा शिरसा दृष्ट्या मनसा वचसा तथा। पद्भ्यां कराभ्यां जानुभ्यां प्रणामोऽष्टांग उच्यते॥

[छाती, मस्तक, नेत्र, मन, वचन, पैर, जंघा और हाथ---आठ अंगों से झुकने पर अष्टांग प्रणाम होता है।]

(स्त्रियों को पञ्चांग प्रणाम करने का विधान है।)

अष्टाङ्गयोग : (1) पतञ्जलि के निर्देशानुसार आठ अंगों की योग साधना। इसके आठ अङ्ग निम्नांकित हैं :

1. यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह)

(2) नियम (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान)

(3) आसन (स्थिरता तथा सुख से बैठना)

(4) प्राणायाम (श्वास का नियमन--रेचक, पूरक तथा कुम्भक)

(5) प्रत्याहार (इन्द्रियों का अपने विषयों से प्रत्यावर्तन)

(6) धारणा (चित्त को किसी स्थान में स्थिर करना)

(7) ध्यान (किसी स्थान में ध्येय वस्तु का ज्ञान जब एक प्रवाह में संलग्न है, तब उसे ध्यान कहते हैं।

8. समाधि (जब ध्यान अपना स्वरूप छोड़कर ध्येय के आकार में भासित होता है तब उसे समाधि कहते हैं।) समाधि की अवस्था में ध्यान और ध्याता का भान नहीं रहता, केवल ध्येय रह जाता है। ध्येय के ही आकार को चित्त धारण कर लेता है। इस स्थिति में ध्यान, ध्याता और ध्येय की एक समान प्रतीति होती है।

(2) 'अष्टाङ्गयोग' नामक दो ग्रन्थों का भी पता चलता है। एक तो श्री चरनदास रचित है, जो चरनदासी पंथ के चलाने वाले थे। इस पंथ में योग की प्रधानता है, यद्यपि ये उपासना राधा-कृष्ण की करते हैं। रचना-काल अठारहवीं शती है। दूसरा 'अष्टाङ्गयोग' गुरु नानक का रचा बताया जाता है।

धारणा, ध्यान और समाधि योग के इन तीन अङ्गों को संयम कहते हैं। इनमें सफल होने से प्रज्ञा का उदय होता है। (योगसूत्र)

अष्टांङ्गार्घ्‍य : आठ द्रव्यों से बनाया गया पूजा का एक उपकरण। तन्त्र में कथन है :

आपः क्षीरं कुशाग्राणि दधि सर्पिः सतण्डुलाः। थवाः सिद्धार्थकश्चैव अष्टाङ्गर्घ्‍य: प्रकीर्तितः॥

[जल, दूध, कुश का अग्रभाग, दही, घी, चावल, जौ, सरसों ये मिलाकर अष्टाङ्गार्घ्‍य कहे गये हैं।]

स्कन्दपुराण (काशीखण्ड) में कथन है :

आपः क्षीरं कुशाग्राणि घृतं मधु तथा दधि। रक्तानि करवीराणि तथा रक्तं च चन्दनम्॥ अष्टाङ्ग एष अर्घ्‍यो वै मानवे परिकीर्तितः॥

[जल, दूध, कुश का अग्रभाग, धी, मधु, दही, करवीर के रक्तपुष्प तथा लालचन्दन सूर्य के लिए यह अष्टाङ्ग अर्घ्‍य कहा गया है।]

अष्टादशरहस्य : आचार्य रामानुजरचित एक ग्रन्थ।

अष्टादशलीलाकाण्ड : चैतन्यदेव के शिष्य एवं प्रकाण्ड विद्वान् रूप गोस्वामी का रचा हुआ एक ग्रन्थ।

अष्टादशस्मृति : इस नाम का एक प्रसिद्ध स्मृतिसंग्रह। इसमें मनु और याज्ञवल्क्य की स्मृतियाँ नहीँ हैं। इन दो के अतिरिक्त जिन स्मृतियों का संग्रह इसमें किया गया है, वे हैं :

1. अत्रिस्मृति, 2. विष्णुस्मृति, 3. हारीतस्मृति, 4. औशनसस्मृति, 5. आंगिरसस्मृति, 6. यमस्मृति, 7. आपस्तम्बस्मृति, 8. संवर्तस्मृति, 9. कात्यायनस्मृति, 10. बृहस्पतिस्मृति, 11. पराशरस्मृति, 12. व्यासस्मृति, 13. शङ्ख-लिखितस्मृति, 14. दक्षस्मृति, 15. गौतमस्मृति, 16. शातातपस्मृति, 17. वसिष्ठस्मृति और 18. स्मृतिकौस्तुभ।

इस संग्रह में विष्णुस्मृति भी सम्मिलित है, किन्तु उसके केवल पाँच अध्याय ही दिये गये हैं, जब कि वङ्गवासी प्रेस की छपी विष्णुसंहिता में कुल मिलाकर एक सौ अध्याय हैं।

अष्टाध्यायी : पाणिनिरचित संस्कृत व्याकरण का प्रसिद्ध ग्रन्थ। इसमें आठ अध्याय हैं। इसका भारतीय भाषाओं पर बहुत बड़ा प्रभाव है। साथ ही इसमें यथेष्ट इतिहास विषयक सामग्री भी उपलब्ध है। वैदिक भाषा को ज्ञेय, विश्वस्त, बोधगम्य एवं सुन्दर बनाने की परम्परा में पाणिनी अग्रणी हैं। संस्कृत भाषा का तो यह ग्रन्थ आधार ही है। उनके समय तक संस्कृत भाषा में कई परिवर्त्तन हुए थे, किन्तु अष्टाध्यायी के प्रणयन से संस्कृत भाषा में स्थिरता आ गयी तथा यह प्रायः अपरिवर्त्तनशील बन गयी।

अष्टाध्यायी में कुल सूत्रों की संख्या 3996 है। इसमें सन्धि, सुबन्त, कृदन्त, उणादि, आख्यात, निपात, उपसंख्यान, स्वरविधि, शिक्षा और तद्धित आदि विषयों का विचार है। अष्टाध्यायी के पारिभाषिक शब्दों में ऐसे अनेक शब्द हैं जो पाणिनि के अपने बनाये हैं और बहुत से ऐसे शब्द हैं जो पूर्वकाल से प्रचलित थे। पाणिनि ने अपने रचे शब्दों की व्याख्या की है और पहले के अनेक पारिभाषिक शब्दों की भी नयी व्याख्या करके उनके अर्थ और प्रयोग का विकास किया है। आरम्भ में उन्होंने चतुर्दश सूत्र दिये हैं। इन्हीं सूत्रों के आधार पर प्रत्याहार बनाये गये हैं, जिनका प्रयोग आदि से अन्त तक पाणिनि ने अपने सूत्रों के आधार पर प्रत्याहार बनाये गये हैं, जिनका प्रयोग आदि से अन्त तक पाणिनि ने अपने सूत्रों में किया है। प्रत्याहारों से सूत्रों की रचना में अति लाघव आ गया है। गणसमूह भी इनका अपना ही है। सूत्रों से ही यह भी पता चलता है कि पाणिनि के समय में पूर्व-अञ्चल और उत्तर-अञ्चलवासी दो श्रेणी वैयाकरणों की थीं जो पाणिनि की मण्डली से अतिरिक्त रही होंगी।

अष्टावक्र : एक ज्ञानी ऋषि। इनका शरीर आठ स्थानों में वक्र (टेढ़ा) था, अतः इनका नाम `अष्टावक्र` पड़ा। पुराकथा के अनुसार ये एक बार राजा जनक की सभा में गये। वहाँ सभासद् इनको देखकर हँस पड़े। अष्टावक्र क्रुद्ध होकर बोले, `यह चमारों की सभा है। मैं समझता था कि पण्डितों की सभा होगी।` जनक ने पूछा, भगवान्! ऐसा क्यों कहा गया? अष्टावक्र ने उत्तर दिया, ``आपकी सभा में बैठे लोग केवल चमड़े को पहचानते हैं, आत्मा और उसके गुण को नहीं।`` इस पर सभासद् बहुत लज्जित हुए। तब अष्टावक्र ने आत्मतत्‍त्व का निरूपण किया।

यह एक पण्डित का नाम भी है, जिन्होंने मानव गृह्यसूत्र पर वृत्ति लिखी है।

अष्टारचक्रवान् : जागृत अष्टकोण चक्रवाला, समाधिसिद्ध योगी, जिसकी कुण्डलिनी का अष्टदल कमल विकसित हो गया है। एक जैन आचार्य, जिनके पर्याय हैं--- (1) मञ्जुश्री, (2) ज्ञानदर्पण, (3) मञ्जुभद्र, (4) मञ्जुघोष, (5) कुमार, (6) स्थिरचक्र, (7) वज्रधर, (8) प्रज्ञाकाय, 99) वादिराज, (10) नीलोत्पली, (11) महाराज, (12) नील, (13) शार्दूलवाहन, (14) धियाम्पति, (15) पूर्वजिन, (16) खङ्गी, (17) दण्डी, (18) विभूषण, (19) बालव्रत, (20) पञ्चचीर, (21) सिंहकेलि, (22) शिखावर, (23) वागीश्वर।

अष्टाविंशतितत्त्व : वङ्ग प्रदेशवासी रघुनन्दन भट्टाचार्य कृत 'अष्टाविंशतितत्त्व' सोलहवीं शताब्दी का ग्रन्थ है, जिसको प्राचीनतावादी हिन्दू बड़े ही आदर की दृष्टि से देखते हैं। इस ग्रन्थ में हिन्दुओं के धार्मिक कर्त्तव्यों का विशद वर्णन किया गया है।

असती : दुराचारिणी, स्वैरिणी, व्यभिचारिणी। उसके पर्याय हैं- (1) पुंश्चली, (2) धर्षिणी, (3) बन्धकी, (4) कुलटा, (5) इत्वरी, (6) पांसुला, (7) धृष्टा, (8) दुष्टा, (9) धर्षिता, (10) लङ्का, (11) निशाचरी, (12) त्रपारण्डा।

असत्पथ : कुमार्ग, जो अच्छा मार्ग नहीं है, पाप का रास्ता।

(1) कुपथ, (2) कुपाथ, (3) दुरध्व, (4) अपथ, (5) कदध्वा, (6) विपथ और (7) कुत्सितवर्त्‍म।

असाध्वी : जो साध्वी नहीं, अपतिव्रता।

असि : जो स्नान से पापों को दूर करती है [अस्+इन्]। नदी विशेष। यह काशी की दक्षिण दिशा में स्थित बरसाती नदी है। जहाँ गङ्गा और असि का संगम होता है वह अस्सीघाट कहलाता है :

असिश्च वरणा यत्र क्षेत्ररक्षाकृतौ कृते। वाराणसीति विख्याता तदारभ्य महामुने॥

[असि और वरणा को नगरी की सीमा पर रख दिया गया, उनका सङ्गम प्राप्त करके काशिका उस समय से वाराणसी नाम से विख्यात है।]

असित : प्राचीन वेदान्ताचार्यों में एक, जो गीता के अनुसार व्यासजी के समकक्ष माने गये हैं : "असितो देवलो व्यासः" (गीता 10, 13)।

असितमृग : ऐतरेय ब्राह्मण में इसे कश्यप परिवार की उपाधि बताया गया है। ये जनमेजय के एक यज्ञ में सम्मिलित नहीं किये गये थे, किन्तु राजा ने जिस पुरोहित को यज्ञ करने के लिए नियुक्त किया, उस भूतवीर से असितमृग ने यज्ञ की परिचालना ले ली थी। जैमिनीय तथा षड्विंश ब्राह्मणों में असितमृगों को कश्यपों का पुत्र कहा गया है और उनमें से एक को 'कुसुरबिन्दु औद्दालकि' संज्ञा दी गयी है।

असिधाराव्रत : तलवारों की धार पर चलने के समान अति सतर्कता के साथ की जाने वाली साधना। इसमें व्रतकर्त्‍ता को आश्विन शुक्ल पूर्णिमा से लेकर पाँच अथवा दस दिनों तक अथवा कार्तिकी पूर्णिमा तक अथवा चार मास पर्यन्त, अथवा एक वर्ष पर्यन्त, अथवा बारह वर्ष तक बिछावन रहित भूमिशयन करना, गृह से बाहर स्नान, केवल रात्रि में भोजन तथा पत्नी के रहते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। क्रोधमुक्त होकर जप में निमग्न तथा हरि के ध्यान में तल्लीन रहना चाहिए। भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं को दान-पुण्य में दिया जाय। यह क्रम दीर्घ काल तक चले। बारह वर्ष पर्यन्त इस व्रत का आचरण करने वाला विश्वविजयी अथवा विश्वपूज्य हो सकता है। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 3.218, 1.25।

असिधाराव्रत : शब्द के अर्थानुसार इस व्रत का उतना कठिन तथा तीक्ष्ण होना है, जितना तलवार की धार पर चलना। कालिदास ने रघुवंश (77.13) में रामवनवास के समय भरत द्वारा समस्त राजकीय भोगों का परित्याग कर देने को इस उग्र व्रत का आचरण करना बतलाया है :

इयन्ति वर्षाणि तथा सहोग्रमभ्यस्यतीव व्रतमासिधारम्।' युवा युवत्या सार्धं यन्मुग्धभर्तृवदाचरेत्। अन्तर्विविक्तसंगः स्यादसिधाराव्रतं स्मृतम्॥

[युवती स्त्री के साथ एकान्त में किसी युवक का मन से भी असंग रहकर भोला आचरण करना असिधाराव्रत कहा गया है।-- मल्लिनाथ]

असिपत्रवन : असि (तलवार) के समान जिसके तीक्ष्ण पत्ते हैं, ऐसा वन- एक नरक, जहाँ पर तीक्ष्ण पत्तों के द्वारा पापियों के शरीर का विदारण किया जाता है (मनु)। जो इस लोक में विना विपत्ति के ही अपने मार्ग से विचलित हो जाता है तथा पाखण्डी है उसे यमदूत असिपत्रवन में प्रविष्ट करके कोड़ों से मारते हैं। वह जीव इधर-उधर दौड़ता हुआ दोनों ओर की धारों से तालवन के खङ्गसदृश पत्तों से सब अंगों में छिद जाने के कारण `हा मैं मारा गया` इस प्रकार शब्द करता हुआ मूर्च्छित होकर पग पग पर गिरता है और अपने धर्म से पतित होकर पाखंड करने का फल भोगता है। दे० भागवत पुराण। मार्कण्डेय पुराण में भी इसका वर्णन पाया जाता है :

असिपत्रवनं नाम नरकं श्रृणु चापरम्। योजनानां सहस्रं वै ज्वलदग्न्यास्तृतावनि॥ तत्पसूर्यकरैश्चण्डैः कल्पकालाग्नि दारुणैः। प्रतपन्ति सदा तत्र प्राणिनो नरकौकसः॥ तन्मध्ये च वनं शीतं स्निग्धपत्रं विभाव्यते। पत्राणि यत्र खङ्गानि फलानि द्विजसत्तम॥

[हे ब्राह्मण! दूसरा असिपत्र नाम का नरक सुनो। वहाँ एक हजार योजन तक विस्तृत पृथ्वी पर आग जलती है, ऊपर भयङ्कर सूर्य की किरणों से तथा नीचे प्रलयकालीन अग्नि से प्राणी तपाया जाता है, उसके मध्य भाग में चिकने पत्तों वाला शीतवन है, जिसके पत्ते एवं फल खङ्ग के समान हैं।]

असुनीति : असु= प्राण या जीवन की नीति =मार्गदर्शक उक्ति। ऋग्वेद (10.59.56) में असुनीति को मनुष्य की मृत्यु पर आत्मा की पथप्रदर्शक माना गया है। असुनीति की स्तुतियों से स्पष्टतया प्रकट होता है कि वे या तो इस लोक में शारीरिक स्वास्थ्य कामनार्थ अथवा स्वर्ग में शरीर एवं इसके दूसरे सुखों की प्राप्ति के लिए की गयी हैं।

असुर : असु =प्राण, र= वाला (प्राणवान् अथवा शक्तिमान्)। बाद में धीरे-धीरे यह भौतिक शक्ति का प्रतीक हो गया। ऋग्वेद में 'असुर' वरुण तथा दूसरे देवों के विशेषण रूप में व्यवहृत हुआ है, जिससे उनके रहस्यमय गुणों का पता लगता है। किन्तु परवर्ती युग में असुर का प्रयोग देवों (सुरों) के शत्रु रूप में प्रसिद्ध हो गया। असुर देवों के बड़े भ्राता हैं एवं दोनों प्रजापति के पुत्र हैं। असुरों ने लगातार देवों के साथ युद्ध किया और प्रायः विजयी होते रहे। उनमें से कुछ ने तो सारे विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया, जब तक कि उनका संहार इन्द्र, विष्णु, शिव आदि देवों ने नहीं किया। देवों के शत्रु होने के कारण उन्हें दुष्ट दैत्य कहा गया है, किन्तु सामान्य रूप से वे दुष्ट नहीं थे। उनके गुरु भृगुपुत्र शुक्र थे जो देवगुरु बृहस्पति के तुल्य ही ज्ञानी और राजनयिक थे।

महाभारत एवं प्रचलित दूसरी कथाओं के वर्णन में असुरों के गुणों पर प्रकाश डाला गया है। साधारण विश्वास में वे मानव से श्रेष्ठ गुणों वाले विद्याधरों की कोटि में आते हैं। कथासरित्सागर की आठवीं तरङ्ग में एक प्रेमपूर्ण कथा में किसी असुर का वर्ण नायक के साथ हुआ है। संस्कृत के धार्मिक ग्रन्थों में असुर, दैत्य एवं दानव में कोई अन्तर नहीं दिखाया गया है, किन्तु प्रारम्भिक अवस्था मैं 'दैत्य एवं दानव' असुर जाति के दो विभाग समझे गये थे। दैत्य 'दिति' के पुत्र एवं दानव 'दनु' पुत्र थे।

देवताओं के प्रतिद्वन्द्वी रूप में 'असुर' का अर्थ होगा--जो सुर नहीं है (विरोध में नञ्-तत्पुरुष); अथवा जिसके पास सुरा नहीं है; जो प्रकाशित करता है (सूर्य, उरन् प्रत्यय। सुरविरोधी। उनके पर्याय हैं :

(1) दैत्य, (2) दैतेय, (3) दनुज, (4) इन्द्रारि, (5) दानव, (6) शुक्रशिष्य, (7) दितिसुत, (8) पूर्वदेव, (9) सुरद्विट्, (10) देवरिपु, (11) देवारि।

रामायण में असुर की उत्पत्ति और प्रकार से बतायी गयी है :

सुराप्रतिग्रहाद् देवाः सुरा इत्यभिविश्रुताः। अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृताः॥

[सुरा= मादक तत्त्व का उपयोग करने के कारण देवता लोग सुर कहलाये, किन्तु ऐसा न करने से दैतेय लोग असुर कहलाये।]

असुविद्या : शाङ्खायन एवं आश्वलायन श्रौत-सूत्रों में असुरविद्या को शतपथ ब्राह्मण में प्रयुक्त 'माया' के अर्थ में लिया गया है। इसका प्रचलित अर्थ 'जादूगरी' है। परन्तु आश्चर्यजनक सभी भौतिक विद्याओं का समावेश इसमें हो सकता है। आसुरी (शुद्ध भौतिक) प्रवृत्ति से उत्पन्न सभी ज्ञान-विज्ञान असुरविद्या हैं। इसमें सुरविद्या अथवा दैवी विद्या (आध्यात्मिकता) को स्थान नहीं है।

अस्थिकुण्ड : हड्डियों से भरा एक नरक। ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड, अध्याय 27) में कहा गया है :

पितृणां यो विष्णुपदे पिण्डं नैव ददाति च। स च तिष्ठत्यस्थिकुण्डे स्वलोमाब्दं महेश्वरि॥

[हे पार्वति, जो विष्णुपद (गया) में पिता-प्रपितामहों को पिण्ड नहीं देता है वह व्यक्ति अपने रोमों के बराबर वर्षों तक अस्थिकुण्ड नामक नरक में रहता है।]

अस्थिधन्वा : हड्डियों से बना धनुष धारण करने वाला, शंकर। महर्षि दधीचि की हड्डियों से तीन धनुष बने, उनमें से शिव के लिए निर्मित धनुष का नाम 'पिनाक' था।

अस्थिमाली : हड्डियों (मुण्डों) की माला पहनने वाला। शंकर। दे० शिवशतक।

अस्पृहा : इच्छा या लालसा न होना, वितृष्णा। एकादशीतत्त्व में कथन है :

यथोत्पन्नेन सन्तोषः कर्तव्योऽत्यल्पवस्तुना। परस्याचिन्तयित्वार्थ सास्पृहा परिकीर्तिता॥

[मनुष्य को अत्यन्त स्वल्प वस्तु से संन्तोष कर लेना चाहिए। दूसरे के धन की कामना नहीं करनी चाहिए। उसे (इस स्थिति को) अस्पृहा कहा गया है।]

अस्वाध्याय : जिस काल में वेदाध्ययन नहीं होता। विधिपूर्वक वेद-अध्ययन न होना। अध्ययन के लिए निषिद्ध दिन। यथा, ग्रहणों का दिन। धर्मसूत्रों और स्मृतियों में अस्वाध्याय (अनध्याय) की लम्बी सूचियाँ दी हुई हैं। तदनुसार यदि सूर्य ग्रस्त दशा में अस्त हो जाय तो तीन दिन अनध्याय, अन्यथा एक दिन। सन्ध्या को मेघ गर्जन में एक दिन। माघ महीने से लेकर चार महीनों तक केवल मेघ गर्जन के दिन में। भूकम्प होने पर एक दिन। उल्कापात में एक दिन। महा-उल्कापात होने पर अकालिक अनध्याय। एक वेद समाप्ति के पश्चात् एक दिन। आरण्‍यक भाग की समाप्ति के पश्‍चात् एक दिन। पाँच वर्षों तक अध्ययन के बाद पाँच दिन। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, श्रावण शुक्ल प्रतिपदा तथा आग्रहायण शुक्ल प्रतिपाद को एक दिन। ये प्रतिपदाएँ नित्य हैं। अन्य प्रतिपदाओं में इच्छानुसार अध्ययन किया जा सकता है। चौदह मन्वन्तर की चौदह तिथियों, चार युगों के आदि चार दिनों ('मन्वादि' तथा 'युगादि' तिथि) तथा माघ के दोनों पक्षों की द्वितीया को दो दिन। चैत्र कृष्णपक्ष की द्वितीया को केवल एक दिन। कार्तिक के दोनों पक्षों की द्वितीया को दो दिन। अगहन महीने के दोनों पक्षों की द्वितीया को दो दिन। फाल्गुन महीने के दोनों पक्ष की द्वितीया को दो दिन अनध्याय होता है। सभी उत्‍सव दिनों में और अक्षय तृतीया को भी अस्वाध्याय होता है।

अस्वामिक : जिसका उत्तराधिकारी कोई न हो। स्वामिरहित वस्तु। अकर्तृक। यम ने कहा है :

अटव्यः पर्वताः पुण्या नद्यस्तीर्थानि यानि च। सर्वाण्यस्वामिकान्याहुर्न हि तेषु परिग्रहः॥

[अटवी, पर्वत, पुण्य नदी, जो भी तीर्थ स्थान हैं इन सबको अस्वामिक कहा गया है। इनका दान नहीं किया जा सकता।]

पुण्य' इस विशेषण से अटवी नैमिषारण्य आदि; पर्वत हिमालय आदि; नदी गङ्गा आदि; तीर्थ पुरुषोत्तम आदि; क्षेत्र वाराणसी आदि आते हैं। स्वामी (मालिक) के अभाव में इनका परिग्रह (कब्जा) नहीं किया जा सकता।

अस्वामिविक्रय : अनधिकारी के द्वारा किया गया विक्रय। अस्वामिकर्तृक विक्रय। अस्वामिविक्रय नामक व्यवहार-पद (अभियोग, मुकदमा) का लक्षण नारद ने कहा है :

निक्षिप्तं वा परद्रव्यं नष्टं लब्ध्वापहृत्य च। विक्रीयतेऽसमक्षं यत्स ज्ञेयोऽस्वामिविक्रयः॥

[गिरवी रखा हुआ दूसरे का धन, गिरा हुआ प्राप्त धन, अपहरण किया हुआ धन; इस प्रकार का धन यदि उसके स्वामी के समक्ष नहीं बेचा जाता तो उसे 'अस्वामिविक्रय' कहते हैं।]

अहंता : मैं हूँ' ऐसी चेतना, मैं पने का अभिमान। ज्ञान की प्रक्रिया में 'जानने वाले' की स्थिति के लिए इसका प्रयोग होता है। अहंकार से जीवात्मा की तन्मयता को ही 'अहंता' कहा गया है।

अहं ब्रह्मास्मि : मैं ब्रह्म हूँ' यह उपनिषद् का महावाक्य है, जो सर्वप्रथम वृहदारण्यकोपनिषद् (1.4.10) में आया है। यह आत्मा तथा ब्रह्म के अभेद का द्योतक है।

अहङ्कार : चित्त का एक घटक योग। दर्शन के अनुसार मन, बुद्धि और अहङ्कार से चित्त बनता है। अहङ्कार के द्वारा अहं का ज्ञान किया जाता है। यह तीन प्रकार का कहा गया है -- (1) सात्त्विक, (2) राजस और (3) तामस। सात्त्विक अहंकार से इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता और मन की उत्पत्ति हुई। राजस अहङ्कार से दस इन्द्रियाँ हुईं। तामस अहङ्कार से सूक्ष्म पञ्चभूत उत्पन्न हुए। वेदान्त के मत में यह अभिमानात्मक अन्तःकरण की वृत्ति है। अहं यह अभिमान शरीरादि विषयक मिथ्या ज्ञान कहा गया है।

व्यूह सिद्धान्त में विष्णु के चार रूपों में अनिरुद्ध को अहङ्कार कहा गया है। सांख्य दर्शन में दो मूल तत्त्व हैं जो बिल्कुल एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं---1. पुरुष (आत्मा) और 2. प्रकृति (मूल प्रकृति अथवा प्रधान)। प्रकृति तीन गुणों से युक्त है --तमस्, रजस् एवं सत्त्व। ये तीनों गुण प्रलय में संतुलित रूप में रहते हैं, किन्तु जब इनका सन्तुलन भंग होता है (पुरुष की उपस्थिति के कारण) तो प्रकृति से 'महान्' अथवा बुद्धि की उत्पत्ति होती है, जो सोचने वाला तत्त्व है और जिसमें 'सत्त्व' की मात्रा विशेष होती है। बुद्धि से 'अङ्कार' का जन्म होता है, जो 'व्यक्तिगत विचार' को जन्म देता है। अहङ्कार से मनस् एवं पाणच ज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। फिर पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है।

अहः (अहन्) : दिन, दिवस। इसके विभागों के भिन्न-भिन्न मत हैं--- उदाहरण के रूप में द्विधा, त्रिधा, चतुर्धा, पञ्चधा, अष्टधा अथवा पञ्चदशधा। दो तो मुख्य हैं : पूर्वाह्न तथा अपराह्न (मनुस्मृति, 3.278)। तीन विभाग भी प्रचलित हैं। चार भागों में भी विभाजन गोभिल गृह्यसूत्र में वर्णित है ---1. पूर्वाह्न (1 1/2 पहर), 2. मध्याह्न (एक पहर), 3. अपराह्न (तीसरे पहर के अन्त तक और इसके पश्चात्), 4. सायाह्न (दिन के अन्त तक)। दिवस का पञ्चधा विभाजन देखिए ऋग्वेद (76.3 युतायातं सङ्गवे प्रातराह्नो)। पाँच में से तीन नामों, यथा प्रातः, सङ्गव तथा मध्यन्दिन का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। दिवस का आठ भागों में विभाजन कौटिल्य (1.19), दक्षस्मृति (अध्याय 2) तथा कात्यायन ने किया है। कालिदास कृत विक्रमोर्वशीय (2.1) के प्रयोग से प्रतीत होता है कि उन्हें यह विभाजन ज्ञात था। दिवस तथा रात्रि के 15, 15 मुहूर्त होते हैं। देखिए बृहद्योगयात्रा, 4.2-4 (पन्द्रह मुहूर्तों के लिए)

भूमध्य रेखा को छोड़कर भिन्न-भिन्न ऋतुओं में भिन्न-भिन्न स्थानों में जैसे-जैसे रात्रि-दिवस घटते-बढ़ते हैं, वैसे-वैसे उन्हीं स्थानों पर मुहूर्त का काल भी घटता-बढ़ता है। इस प्रकार यदि दिन का विभाजन दो भागों में किया गया हो तब पूर्वाह्न अथवा प्रातःकाल 7½ मुहूर्त का होगा। यदि पाँच भागों में विभाजन किया गया हो तो प्रातः या पूर्वाह्न तीन मुहूर्त का ही होगा। माधव के कालनिर्णय (पृ० 112) में इस बात को बतलाया गया है कि दिन को पाँच भागों में विभाजित करना कई वैदिक ऋचाओं तथा स्मृतिग्रन्थों में विहित है, अतः यही विभाजन मुख्य है। यह विभाजन शास्त्रीय विधिवाचक तथा निषेधार्थक कृत्यों के लिए उल्लिखित है। दे० हेमाद्रि, चतुर्वर्ग-चिन्तामणि काल भाग, 325-329; वर्षकृत्यकौमुदी, पृ० 18-19; कालतत्त्वविवेचन, पृ० 6, 367।

अहल्या : गौतम मुनि की भार्या, जो महासाध्वी थी। प्रातःकाल उसका स्मरण करने से महापातक दूर होना कहा गया है---

अहल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा। पञ्च कन्याः स्मरेन्नित्यं मापातकनाशनम्॥

[अहल्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा, मन्दोदरी इन पाँच कन्याओं (महिलाओं) का प्रातःकाल स्मरण करने से महापातक का नाश होता है।]

कृतयुग में इन्द्र ने गौतम मुनि का रूप धारण कर अहल्या के सतीत्व को नष्ट कर दिया। इसके बाद गौतम के शाप से वह पत्नी शिला हो गयी। त्रेतायुग में श्री रामचन्द्र के चरण स्पर्श से शापविमुक्त होकर पुनः पहले के समान उसने मानुषी रूप धारण किया। दे० वाल्मीकिरामायण, बालकाण्ड।

अहल्या मैत्रेयी : व्यावहारिक रूप में यह एक रहस्यात्मक संज्ञा है, जिसका उद्धरण अनेक ब्राह्मणों (शतपथ ब्राह्मण, 3.3,4,18, जैमिनीय ब्रा०, 2.79, ,षड्विंश ब्रा०, 1.1) में पाया जाता है। यह उद्धरण इन्द्र की गुणावलि में से, जिसमें इन्द्र को अहल्याप्रेमी (अहल्यायै जार) कहा गया है, लिया गया है।

अहिंसा : सभी सजीव प्राणियों को मनसा, वाचा, कर्मणा दुःख न पहुँचाने का भारतीय सिद्धान्त। इसका सर्वप्रथम प्रतिपादन छान्दोग्य उपनिषद् (3.17) में हुआ है एवं अहिंसा को यज्ञ के एक भाग के समकक्ष कहा गया है। वैदिक साहित्य में यत्र-तत्र दया और दान देव और मानव दोनों के विशेष गुण बतलाये गये हैं। जैन धर्म ने अहिंसा को अपना प्रमुख सिद्धान्त बनाया। पञ्च महाव्रतों; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्र्मचर्य तथा अपरिग्रह में इसको प्रथम स्थान दिया गया। योगदर्शन के पञ्च यमों में भी अहिंसा को प्रमुख स्था दिया गया है :

तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।

यह सिद्धान्त सभी भारतीय सम्प्रदायों में समान रूप से मान्य था, किन्तु रूप इसके भिन्न-भिन्न थे। जैन धर्म ने ऐकान्तिक अहिंसा को स्वीकार किया, जिससे उसमें कृच्छाचार बढ़ा। प्रारम्भिक बौद्धों ने भी इसे स्वीकार किया, किन्तु, एक सीमारेखा खींचते हुए, जिसे हम साधारण की संज्ञा दे सकते हैं, अर्थात् तर्कसंगत एवं मानवता संगत अहिंसा। अशोक ने अपने प्रथम व द्वितीय शिलालेख में अहिंसा सिद्धान्त को उत्कीर्ण कराया तथा इसका प्रचार किया। उसने मांसभक्षण का क्रमशः परित्याग किया और विशेष पशुओं का तथा विशेष अवसरों पर सभी पशुओं का वध निषिद्ध कर दिया। कस्सप ने (आमगन्धसुत्त) में कहा है कि मांस भक्षण से नहीं, अपितु बुरे कार्यों से मनुष्य बुरा बनता है। बौद्धधर्म के एक लम्बे शासन के अन्त तक यज्ञों में पशुवध बन्द हो चुका था। एक बार फिर उसे सजीव करने की चेष्टा 'पशुयाग' करने वालों ने की, किन्तु वे असफल रहे।

वैष्णव धर्म पूर्णतया अहिंसावादी था। उसके आचार, आहार और व्यवहार में हिंसा का पूर्ण त्याग निहित था। इसके विधायक अंग थे क्षमा, दया करुणा, मैत्री आदि। धर्माचरण की शुद्धतावश मांसभक्षण का भारत के सब वर्णों ने प्रायः त्याग किया है। विश्व के किसी भी देश में इतने लम्बे काल तक अहिंसा सिद्धान्त का पालन नहीं हुआ है, जैसा कि भारतभू पर देखा गया है।

अहिंसाव्रत : इस व्रत में एक वर्ष के लिए मांसभक्षण निषिद्ध है, तदुपरान्त एक गौ तथा सुवर्ण मृग के दान का विधान है। यह संवत्सर व्रत है। दे० कृत्यकल्पतरु, व्रत खण्ड 444; हेमाद्रि, व्रत खण्ड 2.865।

अहिंस्र : अवध्य, जो मारने के योग्य नहीं है। वैदिक साहित्य में गौ (गाय) के लिए इस शब्द का तथा 'अघन्‍या' शब्द का बहुत प्रयोग हुआ है।

अहिच्छत्र (रामनगर) : (1) अर्जुन द्वारा जीता गया एक देश, जो उन्होंने द्रोणाचार्य को भेट कर दिया था। एक नगर; उक्त देश की बनी शक्कर; छत्राक पौधा; एक प्रकार का मोती।

(2) उत्तर रेलवे के आँवला स्टेशन से छः मील रामनगर तक पैदल या बैलगाड़ी से जाना पढ़ता है, यहाँ पार्श्वनाथजी पधारे थे। जब वे ध्यानस्थ थे तब धरणेन्द्र तथा पद्मावती नामक नागों ने उनके मस्तक पर अपने फणों से छन्न लगाया था। यहाँ की खुदाई में प्राचीन जैन मूर्तियाँ निकली हैं। यहाँ जैन मन्दिर है तथा कार्तिक में मेला लगता है।

अहिच्छत्रा : एक प्राचीन नगरी, इसके अवशेष उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में पाये जाते हैं। ज्योतिषतत्व में कथन है : "केशव, आनर्तपुर, पाटलिपुत्र, अहिच्छत्रा पुरी, दिति, अदिति-इनका क्षौर के समय स्मरण करने से कल्याण होता है।" इससे इस पुरी का धार्मिक महत्त्व प्रकट है। दे० अहिच्छत्र।

अहिर्बुध्न्य : निकटवर्ती आकाश का यह एक सर्प कहा गया है। ऋग्वेदोक्त देवता प्रकृति के विविध उपादानों के प्रतिरूप एवं उनके कार्यों के संचालक माने गये हैं। आकाशीय विद्युत एवं झंझावात के नियंत्रण के लिए एवं उनके प्रतीक स्वरूप जिन देवों की कल्पना की गयी है उनमें इन्द्र, त्रित आप्त्‍य, अपांनापात्, मातरिश्वा, अहिर्बुध्न्य, अज-एक-पाद, रुद्र एवं मरुतों का नाम आता है। विद्युत् के विविध नामों एवं झंझा के विविध वेशों का इन नामों के माध्यम से बड़ा ही सुन्दर चित्रण हुआ है। विद्युत् जो आकाशीय गौओं की मुक्ति के लिए योद्धा का रूप धारण करती है उसे 'इन्द्र' कहते हैं। यहीं तृतीय या वायवीय अग्नि है, अतएव इसे 'त्रित आप्त्य' कहते हैं। आकाशीय जल से यह उत्पन्न होती है, अतएव इसे 'अपानपांत्' कहते हैं। यह मेघमाता से उत्पन्न हो पृथ्वी पर अग्नि लाती है, अतएव मातरिश्वा एवं पृथ्वी की ओर तेजी से चलने के समय इसका रूप सर्पाकार होता है इसलिए इसे अहिर्बुध्न्य कहते हैं।

अहिर्बुध्न्यस्नान : हेमाद्रि, व्रत खण्ड, पृष्ठ 654-655 (विष्णुधर्मोत्तर पुराण से उद्धृत) के अनुसार जिस दिन उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र हो, उस दिन दो कलशों के जल से स्नान किया जाय, जिसमें उदुम्बर (गूलर) वृक्ष की पत्तियाँ, पञ्च गव्य (गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत, गोमूत्र तथा गोमय), कुश तथा घिसा हुआ चन्दन भी मिला हो। अहिर्बुध्न्य के पूजन के साथ सूर्य, वरुण, चन्द्र, रुद्र तथा विष्णु का पूजन भी विहित है। अहिर्बुध्न्य उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र का देवता है। इससे गोधन की वृद्धि तथा समृद्धि होती है। 'अहिर्बुध्न्य' ही इसका शुद्ध तथा पुरातन रूप है। ऋग्वेद की दस ऋचाओं में 'अहिर्बुध्न्य' शब्द (कदाचित् अग्नि या रुद्र) किसी देवता के लिए प्रयुक्त हुआ है। दे० ऋग्वेद 1.186; 2.31,6; 5.41,16; 6.49, 14; 6.50.14; 7.34.17; 7.34.13; 7.38.5 इत्यादि तथा निर्णयसिन्धु 10.44।

अहि-वृत्र : वृत्ररूपी सर्प। वृत्र इन्द्र का सबसे बड़ा शत्रु है तथा यह उन बादलों का प्रतिनिधि या प्रतीक है जो गरजते बहुत किन्तु बरसते कम हैं, या एकदम नहीं बरसते। वृत्र को 'नवन्तम् अहिम्' कहा गया है (ऋ० वे० 5.17.10)। उसकी माता 'दनु' है जो वर्षा के उन बादलों का नाम है जो कुछ ही बूँदें बरसाते हैं। ऋग्वेद (10.120.6) के अनुसार दनुगौ के सात पुत्र हैं जो अनावृष्टि के दानव कहलाते हैं और आकाश के विविध भागों में छाये रहते हैं। वृत्र आकाशीय जल को नष्ट करने वाला कहा गया है। इस प्रकार वृत्र झूठे बादल का रूप है जो पानी नहीं बरसाता। इन्द्र विद्युत् का रूप है जिसकी उपस्थिति के पश्चात् प्रभूत जलवृष्टि होती है। वृत्र को अहि भी कहते हैं, जैसा कि बाइबिल में शैतान को कहा गया है। यहाँ हम 'अहि-वृत्र' एवं 'अहि-र्बुध्न्य' की तुलना कर सकते हैं। दोनों का निवास आकाशीय सिन्धु में है। ऐसा जान पड़ता है कि दोनों एक ही समान हैं, केवल अन्तर यह है कि गहराई का साँप (अहि-र्बुध्न्य) इन्द्र का द्योतक है इसलिए देव है, किन्तु अवरोधक साँप (अहि-वृत्र) दानव है। अहि-वृत्र के पैर, हाथ, नाक नहीं हैं (ऋ० वे० 1. 32. 6-7; 3.30.8), किन्तु बादल, विद्युत् एवं माया जैसे आयुधों से युक्त वह भयंकर प्रतिद्वन्द्वी है। इन्द्र की सबसे बड़ी वीरता इसके वध एवं इस पर विजय प्राप्त करने में मानी गयी है। इन्द्र अपने वज्र से वृत्र द्वरा उपस्थित की गयी बाधा की दीवार चीरकर आकाशीय जल की धारा को उन्मुक्‍त कर देता है।

अहीन : अह: = एक या अनेक दिन तक होने वाला यज्ञ।

अहीना-आस्वस्थ्य : एक ऋषि, जिन्होंने सावित्र (तैत्तिरीय ब्राह्मण 3.10,.9.10) व्रत या क्रिया द्वारा अमरता प्राप्त की थी। नाम का पूर्वार्ध अहीना (अ+हीना) उपर्युक्त उपलब्धि का द्योतक है एवं उत्तरार्ध की तुलना अश्वत्थ से की जा सकती है।