विक्षनरी:हिन्दू धर्मकोश (आ से औ)

विक्षनरी से

 : स्वर वर्णों का द्वितीय अक्षर कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक महत्त्व निम्नांकित बतलाया गया है :

आकारं परमाश्चर्यं शङ्खज्योतिर्मयं प्रिये। ब्रह्म (विष्णु) मयं वर्ण तथा रुद्रमयं प्रिये॥ पञ्चप्राणमयं वर्णं स्वयं परमकुण्डली॥

[हे प्रिये! आ अक्षर परम आश्चर्यमय है। यह शङ्ख के समान ज्योतिर्मय तथा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रमय है। यह पाँच प्राणों से संयुक्त तथा स्वयं परम कुण्डलिनी शक्ति है।] वर्णाभिधान तन्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं---

आकारो विजयानन्तो दीर्घच्छायो विनायकः। क्षीरोर्दाधः पयोदश्च पाशो दीर्घास्यवृत्तकौ॥ प्रचण्ड एकजो रुद्रो नारायण इनेश्वरः। प्रतिष्ठा मानदा कान्तो विश्वान्तकगजान्तकः॥ पितामहो दिगन्तो भूः क्रिया कान्तिश्च सम्भवः। द्वितीया मानदा काशी विघ्नराजः कुजो वियत्॥

आकाश : वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्य--पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन माने गये हैं। इनमें पाँचवाँ द्रव्य आकाश है, यह विभु अर्थात् सर्वव्यापी द्रव्य है और सब कालों में स्थित रहता है। इसका गुण शब्द है तथा यह उसका समवायी कारण है।

आकाशदीप : कार्तिक मास में घी अथवा तेल से भरा हुआ दीपक देवता को उद्देश्य करते हुए किसी मन्दिर अथवा चौरस्ते पर खम्भे के सहारे आकाश में जलाया जाता है। दे० अपरार्क, 370, 372; भोज का राजमार्त्तण्ड, पृष्ठ 330; निर्णयसिन्धु, 195।

आकाशमुखी : एक प्रकार के शैव साधु, जो गरदन को पीछे झुकाकर आकाश में दृष्टि तब तक केन्द्रित रखते हैं, जब तक मांसपेशियाँ सूख न जायँ। आकाश की ओर मुख करने की साधना के कारण ये साधु 'आकाशमुखी' कहलाते हैं।

आगम : परम्परानुसार शिवप्रणीत तन्त्रशास्त्र तीन भागों में विभक्त है-- आगम, यामल और मुख्य तन्त्र। वाराहीतन्त्र के अनुसार जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, सब कार्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्मसाधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो उसे आगम कहते हैं। महानिर्वाणतन्त्र में महादेव ने कहा है :

कलिकल्मषदीनानां द्विजातीनां सुरेश्वरि। मेध्यामेध्यविचाराणां न शुद्धिः श्रौतकर्मणा॥ न संहिताभिः स्मृतिभिरिष्टसिद्धिर्नृणां भवेत्। सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्यं सत्यं ह्यथोच्यते॥ विना ह्यागममार्गेण कलौ नास्ति गतिः प्रिये। श्रुतिस्मृतिपुराणादौ मयैवोक्तं पुरा शिवे। आगमोक्तविधानेन कलौ देवान् यजेत् सुधीः॥

[कलि के दोष से दीन ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य को पवित्र-अपवित्र का विचार न रहेगा। इसलिए वेदविहित कर्म द्वारा वे किस तरह सिद्धि लाभ करेंगे? ऐसी अवस्था में स्मृति-संहितादि के द्वारा भी मानवों की इष्टसिद्धि नहीं होगी। मैं सत्य कहता हूँ, कलियुग में आगम मार्ग के अतिरिक्त कोई गति नहीं है। मैंने वेद-स्मृति-पुराणादि में कहा है कि कलियुग में साधक तन्त्रोक्त विधान द्वारा ही देवों की पूजा करेंगे।]

आगमों की रचना कब हुई, यह निर्णय करना कठिन है। अनुमान किया जाता है कि वेदों की दुरूहता और मंत्रों के कीलित होने से महाभारत काल से लेकर कलि के आरम्भ तक अनेक आगमों का निर्माण हुआ होगा। आगम अति प्राचीन एवं अति नवीन दोनों प्रकार के हो सकते हैं।

आगमों से ही शैव, वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदायों के आचार, विचार, शील, विशेषता और विस्तार का पता लगता है। पुराणों में इन सम्प्रदायों का सूत्र रूप से कहीं-कहीं वर्णन हुआ है, परन्तु आगमों में इनका विस्तार से वर्णन है। आजकल जितनें सम्प्रदाय हैं प्रायः सभी आगम ग्रन्थों पर अवलम्बित हैं।

मध्यकालीन शैवों को दो मोटे विभागों में बाँटा जा सकता है-- पाशुपत एवं आगमिक। आगमिक शैवों की चार शाखाएँ हैं, जो बहुत कुछ मिलती-जुलती और आगमों को स्वीकार करती हैं। वे हैं-- (1) शैव सिद्धान्त की संस्कृत शाखा, (2) तमिल शैव, (3) कश्मीर शैव और (4) वीर शैव। तमिल एवं वीर शैव अपने को माहेश्वर कहते हैं, पाशुपत नहीं, यद्यपि उनका सिद्धान्त महाभारत में वर्णित पाशुपत सिद्धान्तानुकूल है।

आगमों की रचना शैवमत के इतिहास की बहुत ही महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटना है। आगम अट्ठाईस हैं जो दो भागों में विभक्त हैं। इनका क्रम निम्नांकित है :

(1) शैविक--कामिक, योगज, चिन्त्य, करण, अजित, दीप्त, सूक्ष्म, सहस्र, अंशुमान् और सप्रभ (सुप्रभेद)।

(2) रौद्रिक-- विजय, निश्वास, स्वायम्भुव, आग्नेयक, भद्र, रौरव, मकुट, विमल, चन्द्रहास (चन्द्रज्ञान), मुख्य युगबिन्दु (मुखबिम्ब), उद्गीता (प्रोद्गीता), ललित, सिद्ध, सन्तान, नारसिंह (सवोक्त या सवोत्तर), परमेश्वर, किरण और पर (वातुल)।

प्रत्येक आगम के अनेक उपागम हैं, जिनकी संख्या 198 तक पहुँचती है।

प्राचीनतम आगमों की तिथि का ठीक पता नहीं चलता, किन्तु मध्यकालीन कुछ आगमों की तिथियों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है। तमिल कवि तिरमूलर (800 ई०), सुन्दर्र (लगभग 800 ई०) तथा माणिक्क वाचकर (900 ई० के लगभग) ने आगमों को उद्धृत किया है। श्री जगदीशचन्द्र चटर्जी का कथन है कि शिवसूत्रों की रचना कश्मीर में वसुगुप्त द्वारा 850 ई० के लगभग हुई, जिनका उद्देश्य अद्वैत दर्शन के स्थान पर आगमों की द्वैतशिक्षा की स्थापना करना था। इस कथन की पुष्टि मतङ्ग (परमेश्वर-आगम का एक उपागम) एवं स्वायम्भुव द्वारा होती है। नवीं शताब्दी के अन्त के कश्मीरी लेखक सोमानन्द एवं क्षेमराज के अनेक उद्धरणों से उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है। किरण आगम की प्राचीनतम पाण्डुलिपि 924 ई० की है।

आगमों के प्रचलन से शैवों में शाक्त विचारों का उद्भव हुआ है एवं उन्हीं के प्रभाव से उनकी मन्दिर-निर्माण, मूर्तिनिर्माण तथा धार्मिक क्रिया सम्बन्धी नियमावली भी तैयार हुई। मृगेन्द्र आगम (जो कामिक आगम का प्रथम अध्याय है) के प्रथम श्लोक में ही सबका निचोड़ रख दिया गया है : `शिव अनादि हैं, अवगुणों से मुक्त हैं, सर्वज्ञ हैं; वे अनन्त आत्माओं के बन्धनजाल काटने वाले हैं। वे क्रमशः एवं एकाएक दोनों प्रकार से सृष्टि कर सकते है; उनके पास इस कार्य के लिए एक अमोघ साधन है `शक्ति`, जो चेतन है एवं स्वयं शिव का शरीर है; उनका शरीर सम्पूर्ण `शक्ति` है।` .....इत्यादि।

सनातनी हिन्दुओं के तन्त्र जिस प्रकार शिवोक्त हैं उसी प्रकार बौद्धों के तन्त्र या आगम बुद्ध द्वारा वर्णित हैं। बौद्धों के तन्त्र भी संस्कृत भाषा में रचे गये हैं। क्या सनातनी और क्या बौद्ध दोनों ही सम्प्रदायों में तन्त्र अतिगुह्य तत्त्व समझा जाता है। माना जाता है कि यथार्थतः दीक्षित एवं अभिषिक्त के अतिरिक्त अन्य किसी के सामने यह शास्त्र प्रकट नहीं करना चाहिए। कुलार्णवतन्त्र में लिखा है कि धन देना, स्त्री देना, अपने प्राण तक देना पर यह गुह्य शास्त्र अन्य किसी अदीक्षित के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए।

शैव आगमों के समान वैष्णव आगम भी अनेक हैं, जिनको 'संहिता' भी कहते हैं। इनमें नारदपंचरात्र अधिक प्रसिद्ध है।

आगमप्रकाश : गुजराती भाषा में विरचित 'आगमप्रकाश' तान्त्रिक ग्रन्थ है। इसमें लिखा है कि हिन्दुओं के राज्य काल में वङ्ग के तान्त्रिकों ने गुजरात के डभोई, पावागढ़, अहमदाबाद, पाटन आदि स्थानों में आकर कालिकामूर्ति की स्थापना की। बहुत से हिन्दु राजाओं ने उनसे दीक्षा ग्रहण की थी, (आ० प्र० 12)। आधुनिक युग में प्रचलित मन्त्रगुरु की प्रथा वास्तव में तान्त्रिकों के प्राधान्य काल से ही आरम्भ हुई।

आगमप्रामाण्य : श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के यामुनाचार्य द्वारा विरचित यह ग्रन्थ वैष्णव आगम अथवा संहिताओं के अधिकारों पर प्रकाश डालता है। यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है। इसका रचनाकाल ग्यारहवीं शताब्दी है।

आगस्त्य : ऐतरेय (3.1.1) एवं शाङ्खायन आरण्यक (7.2) में उल्लिखित यह एक आचार्य का नाम है।

आग्नेयक : शैव-आगमों में एक रौद्रिक आगम है।

आग्नेय व्रत : इस व्रत में केवल एक बार किसी भी नवमी के दिन पुष्पों से भगवती विन्ध्यवासिनी का पूजन (पाँच उपचारों के साथ) होता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 958-59 (भविष्योत्तर पुराण से उद्धृत)।

आङ्गिरस : यह अङ्गिरस्-परिवार की उपाधि है, जिसे बहुत से आचार्यों ने ग्रहण किया था। इस उपाधि के धारण करने वाले कुछ आचार्यों के नाम है, कृष्ण, आजीगर्ति, च्यवन, अयास्य, सुधन्वा इत्यादि।

आङ्गिरस कल्पसूत्र : अथर्ववेद का एक वेदांग। इसमें अभिचारकर्मकाल में कर्त्ता और कारयिता सदस्यों की आत्मरक्षा करने की विधि बतायी गयी है। उसके पश्चात् अभिचार के उपयुक्त देशकाल, मंडप रचना, साधक के दीक्षादि धर्म, समिधा और आज्यादि के संरक्षण का निरूपण है। फिर अभिचार-कर्मसमूह तथा प्राकृताभिचार-निवारण और अन्यान्य कर्मों का उल्लेख हैं।

आङ्गिरसस्मृति : पं० जीवानन्द द्वारा प्रकाशित स्मृति-संग्रह (भाग 1, पृ० 557-560) में 72 श्लोकों की यह एक संक्षिप्त स्मृति संगृहीत है। इसमें चार वर्णों और चार आश्रमों के कर्त्तव्यों, प्रायश्चित्तविधि आदि का निरूपण है। अन्त्यजों के हाथ से भोजन और पेय ग्रहण करने, गौ को मारने और आघात पहुँचाने आदि के विस्तृत प्रायश्चितों का विधान और नीलवस्त्र-धारण के नियम भी इसमें पाये जाते हैं। स्त्रीधन का अपहरण इसके मत से निषिद्ध है।

याज्ञवल्क्यस्मृति में जिन धर्मशास्त्रकारों के नाम दिये गये हैं, उनमें अङ्गिरा भी हैं। उसके टीकाकार विश्वरूप ने कई स्थलों पर अङ्गिरा का मत उद्धृत किया है। यथा, अङ्गिरा के अनुसार परिषद् के सदस्यों की संख्या 121 होनी चाहिए (या० स्मृ० 1.9)। इसी प्रकार अङ्गिरा के मत में शास्त्र के विरुद्ध 'आत्मतुष्टि' का प्रमाण अमान्य है। (या० स्मृ० 1.50)। याज्ञवल्क्यस्मृति के दूसरे टीकाकार अपरार्क न अङ्गिरा के अनेक वचनों को उद्धृत किया है। मनु के टीकाकार मेधातिथि ने सतीप्रथा पर अङ्गिरा का अवतरण देकर उसका विरोध किया है (म० स्मृ० 5.151)। मिताक्षरा आदि अन्य टीकाओं और निबन्ध ग्रन्थों में अङ्गिरा के अवतरण पाये जाते हैं। लगता है कि कभी धर्मशास्त्र का आङ्गिरस सम्प्रदाय बहुप्रचलित था जो धीरे धीरे लुप्त होता गया।

आचार : शिष्ट व्यक्तियों द्वारा अनुमोदित एवं बहुमान्य रीति-रिवाजों को 'आचार' कहते हैं। स्मृति या विधि सम्बन्धी संस्कृत ग्रन्थों में आचार का महत्त्व भली भाँति दर्शाया गया है। मनुस्मृति (1.109) में कहा गया है कि आचार, आत्म अनुभूतिजन्य एक प्रकार की विधि है एवं द्विजों को इसका पालन अवश्य करना चाहिए। धर्म के स्रोतों में श्रुति और स्मृति के पश्चात् आचार का तीसरा स्थान है। कुछ विद्वान् तो उसको प्रथम स्थान देते हैं; क्योंकि उनके विचार में धर्म आचार से ही उत्पन्न होता है---'आचारप्रभवो धर्मः'। इस प्रकार के लोकसंग्राहक धर्म को तीन भागों में बाँटा गया है-- 'आचार', 'व्यवहार' और 'प्रायश्चित'। (याज्ञवल्क्यस्मृति का प्रकरण-विभाजन इन्हीं तीन रूपों में हैं।) याज्ञवल्क्य ने आचार के अन्तर्गत निम्नलिखित विषय सम्मिलित किया है: (1) संस्कार (2) वेदपाठी ब्रह्मचारियों के चारित्रिक नियम (3) विवाह एवं पत्नी के कर्त्तव्य (4) चार वर्ण एवं वर्णसंकर (5) ब्राह्मण गृहपति के कर्त्तव्य (6) विद्यार्थी-जीवन समाप्ति के बाद कुछ पालनीय नियम (7) विधिसंमत भोजन एवं निषिद्ध भोजन के नियम (8) वस्तुओं की धार्मिक पवित्रता (9) श्राद्ध (10) गणपति की पूजा (11) ग्रहों की शान्ति के नियम एवं (12) राजा के कर्त्तव्य आदि।

स्मृतियों में आचार के तीन विभाग किये गये हैं : (1) देशाचार (2) जात्याचार और (3) कुलाचार। दे० 'सदाचार'। देश विदेश में जो आचार प्रचलित होते हैं उनको देशाचार कहते हैं, जैसे दक्षिण में मातुलकन्या से विवाह। इसी प्रकार जातिविशेष में जो आचार प्रचलित होते हैं, उन्हें जात्याचार कहा जाता है, जैसे कुछ जातियों में सगोत्र विवाह। कुल विशेष में प्रचलित आचार को कुलाचार कहा जाता है। धर्मशास्त्र में इस बात का राजा को आदेश दिया गया है कि वह आचारों को मान्यता प्रदान करे। ऐसा न करने से प्रजा क्षुब्ध होती है।

आचार्यकारिका : महाप्रभु वल्लभाचार्य रचित यह ग्रन्थ सोलहवीं शताब्दी का है।

आचार्यपद : हिन्दू संस्कृति में मौखिक व्याख्यान द्वारा बड़े जनसमूह के सामने प्रचार करने की प्रथा न थी। यहाँ के जितने आचार्य हुए हैं सबने स्वयं के व्यक्तिगत कर्त्तव्य पालन द्वारा लोगों पर प्रभाव डालते हुए आदर्श आचरण अथवा चरित्र के ऊपर बहुत जोर दिया है। समाज का प्रकृत सुधार चरित्र के सुधार से ही संभव है। विचारों के कोरे प्रचार से आचार संगठित नहीं हो सकता। इसी कारण आचार का आदर्श स्थापित करने वाले शिक्षक आचार्य कहलाते थे। उपदेशक उनका नाम नहीं था। इनकी परिभाषा निम्नाङ्कित है :

आचिनोति हि शास्त्रार्थान् आचरते स्थापयत्यपि। स्वयं आचरते यस्तु आचार्य: स उच्यते॥

[जो शास्त्र के अर्थों का चयन करता है और (उनका) आचार के रूप में कार्यान्वय करता है तथा स्वयं भी उनका आचरण करता है, वह आचार्य कहा जाता है।]

आचार्यपरिचर्या : श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य रामानुज स्वामी की जीवनी, जिसे काशी के पं० राममिश्र शास्त्री ने लिखा है।

आजकेशिक : जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण' (1.9.3) के अनुसार एक परिवार का नाम, जिसके एक सदस्य बक ने इन्द्र पर आक्रमण किया था।

आचार (सप्त) : कुछ तन्त्र ग्रन्थों में वेद, वैष्णव, शैव, दक्षिण, वाम, सिद्धान्त और कुल ये सात प्रकार के आचार बतलाये गये हैं। ये सातों आचार तीनों यानों (देवयान, पितृयान एवं महायान) के अन्तर्गत माने जाते हैं। महाराष्ट्र के वैदिकों में वेदाचार, रामानुज और इतर वैष्णवों में वैष्णवाचार, शङ्करस्वामी के अनुयायी दाक्षिणात्य शैवों में दक्षिणाचार, वीर शैवों में शैवाचार और वीराचार तथा केरल, गौड़, नेपाल और कामरूप के शाक्तों में क्रमशः वीराचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार एवं कौलाचार, चार प्रकार के आचार देखे जाते हैं। पहले तीन आचारों के प्रतिपादक थोड़े ही तन्त्र हैं, पर पिछले चार आचारों के प्रतिपादक तन्त्रों की तो गिनती नहीं है। पहले तीनों के तन्त्रों में पिछले चारों आचारों की निन्दा की गयी है।

आजि : अथर्ववेद (117.7), ऐतरेय ब्राह्मण एवं श्रौत सूत्रों में वर्णित वाजपेय यज्ञ के अन्तर्गत तीन मुख्य क्रियाएँ होती थीं-- 1. आजि (दौड़), 2. रोह (चढ़ना) और 3. संख्या। अन्तिम दिन दोपहर को एक धावरनरथ यज्ञमण्डप में घुमाया जाता था, जिसमें चार अश्व जुते होते थे, जिन्हें विशेष भोजन दिया जाता था। मण्डप के बाहर अन्य सोलह रथ सजाये जाते, सत्रह नगाड़े बजाये जाते तथा एक गूलर की शाखा निर्दिष्ट सीमा का बोध कराती थी। रथों की दौड़ होती थी, जिसमें यज्ञकर्त्ता विजयी होता था। सभी रथों के घोड़ों को भोजन दिया जाता था एवं रथ घोड़ों सहित पुरोहितों को दान कर दिये जाते थे।

आज्यकम्बल विधि : भुवनेश्वर की चौदह य़ात्राओं में से एक। जिस समय सूर्य मकर राशि में प्रविष्ट हो रहा हो उस समय यह विधि की जाती है। दे० गदाधरपद्धति, कालसारभाग, 191।

आज्ञा : योगसाधना के अन्तर्गत कुण्डलिनी उत्थापन का छठा स्थान या चक्र, जिसकी स्थिति भ्रूमध्य में मानी गयी है। दक्षिणाचारी विद्वा लक्ष्मीधर ने 'सौन्दर्यलहरी' के 31 वें श्लोक की टीका में 64 तन्त्रों की चर्चा करते हुए 8 मिश्रित एवं 5 समय या शुभ तन्त्रों की भी गणना की है। मिश्रित तन्त्रों के अनुसार देवी की अर्चना करने पर साधक के दोनों उद्देश्य (भोग एवं मोक्ष, पार्थिव सुख एवं मुक्त) पूरे होते हैं, जब कि समय या शुभ तन्त्रानुसारी अर्चना से ध्यान एवं योग की उन क्रियाओं तथा अभ्यासों की पूर्णता होती है, जिनके द्वारा साधक 'मूलाधार' चक्र से ऊपर उठता हुआ चार दूसरे चक्रों के माध्यम से 'आज्ञा' एवं आज्ञा से 'सहस्रार' की अवस्था को प्राप्त होता है। इस अभ्यास को 'श्रीविद्या' की उपासना कहते हैं। दुर्भाग्यवश उक्त पाँचों शुभ तन्त्रों का अभी तक पता नहीं चला है और इसी कारण यह साधना रहस्यावृत बनी हुई है।

आज्ञासंक्रान्ति : संक्रान्ति व्रत। यह किसी भी पवित्र संक्रान्ति के दिन आरम्भ किया जा सकता है। इसका देवता सूर्य है। व्रत के अन्त में अरुण सारथि तथा सात अश्वों सहित सूर्य की सुवर्ण की मूर्ति का दान विहित है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 2.738 (स्कन्द पुराण से उद्धृत)।

आडम्बर : (1) घौंसा या नगाड़ा बजाने का एक प्रकार। एक आडम्बराघात का उल्लेख वाजसनेयी संहिता (30.19) के पुरुषमेधयज्ञ की बलि के प्रसंग में हुआ है।

(2) साररहित धर्म के बाह्याचार (दिखावट) को भी आडम्बर कहते हैं।

आणव : जीवात्मा का एक प्रकार का बन्धन, जिसके द्वारा वह संसार में फँसता है। यह अज्ञानमूलक है। आगमिक शैव दर्शन में शिव को पशुपति तथा जीवात्मा को 'पशु' कहा गया है। उसका शरीर अचेतन है, वह स्वयं चेतन है। पशु स्वभावतः अनन्त, सर्वव्यापी चित् शक्ति का अंश है किन्तु वह पाश से बँधा हुआ है। यह पाश (बन्धन) तीन प्रकार का है-- आणव (अज्ञान), कर्म (क्रियाफल) तथा माया (दृश्य जगत् का जाल)। दे० 'अणु'।

आत्मा : आत्मन्' शब्द की व्युत्पत्ति से इस (आत्मा) की कल्पना पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। यास्क ने इसकी व्युत्पत्ति करते हुए कहा है---

आत्मा 'अत्' धातु से व्युत्पन्न होता है जिसका अर्थ है 'सतत चलना,' अथवा यह 'आप्' धातु से निकला है, जिसका अर्थ 'व्याप्त होना' है। आचार्य शङ्कर 'आत्मा' शब्द की व्याख्या करते हुए लिङ्ग पुराण (1.70.96) से निम्नांकित श्लोक उद्धृत करते हैं :

यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह। यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति कीर्त्यते॥

[जो व्याप्त करता है; ग्रहण करता है; सम्पूर्ण विषयों का भोग करता है; और जिसकी सदैव सत्ता बनी रहती है उसको आत्मा कहा जाता है।]

आत्मा' शब्द का प्रयोग विश्वात्मा और व्यक्तिगत आत्मा दोनों अर्थों में होता है। उपनिषदों में आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से आत्मतत्त्व पर विचार हुआ है। ऐतरेयोपनिषद् में विश्वात्मा के अर्थ में आत्मा को विश्व का आधार और उसका मूल कारण माना गया है। इस स्थिति में अद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म से उसका अभेद स्वीकार किया गया है। 'तत्त्वमसि' वाक्य का यही तात्पर्य है। 'अहं ब्रह्मास्मि' भी यही प्रकट करता है।

आत्मा' शब्द का अधिक प्रयोग व्यक्तिगत आत्मा के लिए ही होता है। विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों में इसकी विभिन्न कल्पनाएँ हैं। वैशेषिक दर्शन के अनुसार यह अणु है। न्याय के अनुसार यह कर्म का वाहक है। उपनिषदों में इसे 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' कहा गया है। अद्वैत वेदान्त में यह सच्चिदानन्द और ब्रह्म से अभिन्न है।

आचार्य शङ्कर ने आत्मा के अस्तित्व के समर्थन में प्रबल प्रमाण उपस्थित किया है। उनका सबसे बड़ा प्रमाण है 'आत्मा की स्वयं सिद्धि' अर्थात् आत्मा अपना स्वतः प्रमाण है; उसको सिद्ध करने के लिए किसी बाहरी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। वह प्रत्यगात्मा में अर्थात् उसी से विश्व के समस्त पदार्थों का प्रत्यय होता है; प्रमाण भी उसी के ज्ञान के विषय हैं; अतः उसको जानने में बाहरी प्रमाण असमर्थ हैं। परन्तु यदि किसी प्रमाण की आवश्यकता हो तो इसके लिए ऐसा कोई नहीं कहता कि 'मैं नहीं हूँ।' ऐसा कहने वाला अपने अस्तित्व का ही निराकरण कर बैठेगा। वास्तव में जो कहता है कि 'मैं नहीं हूँ' वही आत्मा है ('योऽस्य निराकर्ता तदस्य तद्रूपम्')।

आत्मा वास्तव में ब्रह्म से अभिन्न और सच्चिदानन्द है। परन्तु माया अथवा अविद्या के कारण वह उपाधियों में लिप्त रहता है। ये उपाधियाँ हैं :

(1) मुख्य प्राण (अचेतन श्वास-प्रश्वास), (2) मन (इन्द्रियों की संवेदना का ग्रहण करने का केन्द्र या माध्यम), (3) इन्द्रियाँ (कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रिय) (4) स्थूल शरीर और, (5) इन्द्रियों का विषय स्थूल जगत्।

ज्ञान के द्वारा बाह्य जगत् का मिथ्यात्व तथा ब्रह्म से अपना अभेद समझने पर उपाधियों से आत्मा मुक्त होकर पुनः अपने शुद्ध रूप को प्राप्त कर लेता है।

आत्मा (सोपाधिक) पाँच आवरणों से वेष्टित रहता है, जिन्हें कोष कहते हैं। उपनिषदों में इनका विस्तृत वर्णन है। ये निम्नाङ्कित हैं :

(1) अन्नमय कोष (स्थूल शरीर), (2) प्राणमय कोष (श्वास-प्रश्वास जो शरीर में गति उत्पन्न करता है), (3) मनोमय कोष (संकल्प-विकल्प करने वाला), (4) विज्ञानमय कोष (विवेक करने वाला) और (5) आनन्दमय कोष (दुःखों से मुक्त और प्रसाद उत्पन्न करने वाला)।

आत्मचेतना में आत्मा की गति स्थूल कोषों से सूक्ष्म कोषों की ओर होती है। किन्तु वह सूक्ष्मतम आनन्दमय कोष में नहीं, बल्कि स्वयं आनन्दमय है। इसी प्रकार चेतना की दृष्टि से आत्मा की 'चार' अवस्थाएँ होती हैं :

(1) जाग्रत् (जागने की स्थिति, जिसमें सब इन्द्रियाँ अपने विषयों में रमण करती रहती हैं)

(2) स्वप्न (वह स्थिति जिसमें इन्द्रियाँ तो सो जाती हैं, किन्तु मन काम करता रहता है और अपने संसार की स्वयं सृष्टि कर लेता है)

(3) सुषुप्ति (वह स्थिति, जिसमें मन भी सो जाता, स्वप्न नहीं आता किन्तु जागने पर यह स्मृति बनी रहती है कि नींद अच्छी तरह आयी) और

(4) तुरीया (वह स्थिति, जिसमें सोपाधिक अथवा कोषावेष्टित जीवन की सम्पूर्ण स्मृतियाँ समाप्त हो जाती हैं।)

आत्मा की तीन मुख्य स्थितियाँ हैं-- (1) बद्ध, (2) मुमुक्षु और (3) मुक्त। बद्धावस्था में वह संसार से लिप्त रहता है। मुमुक्षु की अवस्था में वह संसार से विरक्त और मोक्ष की ओर उन्मुख रहता है। मुक्तावस्था में वह अविद्या और अज्ञान से छूटकर अपने स्वरूप की उपलब्धि कर लेता है। किन्तु मुक्तावस्था की भी दो स्थितियाँ हैं-- (1) जीवन्मुक्ति, (2)विदेहमुक्ति। जब तक मनुष्य का शरीर है वह प्रारब्ध कर्मों का फल भोगता है, जब तक भोग समाप्त नहीं होते, शरीर चलता है। इस स्थिति में मनुष्य अपने सांसारिक कर्तव्यों का अनासक्ति के साथ पालन करता रहता है; ज्ञानमूलक होने से वे आत्मा के लिए बन्धन नहीं उत्पन्न करते।

सगुणोपासक भक्त दार्शनिकों की माया, बन्ध और मोक्ष सम्बन्धीं कल्पनाएँ निर्गुणोपासक ज्ञानमार्गियों से भिन्न हैं। भगवान् से जीवात्मा का वियोग बन्ध है। भक्ति द्वारा जब भगवान का प्रसाद प्राप्त होता है और जब भक्त का भगवान् से सायुज्य हो जाता है तब बन्ध समाप्त हो जाता है। वे सायुज्य, सामीप्य अथवा सालोक्य चाहते हैं, अपना पूर्णविलय नहीं, क्योंकि विलय होने पर भगवान् के सायुज्य का आनन्द कौन उठायेगा? उनके मत में भगवन्निष्ठ होना ही आत्मनिष्ठ होना है।

आत्मपुराण : परिव्राजकाचार्य स्वामी शङ्करानन्दकृत यह ग्रन्थ अद्वैत साहित्य-जगत् का अमूल्य रत्न है। इसमें अद्वैतवाद के प्रायः सभी सिद्धान्त और श्रुति-रहस्य, योग-साधनरहस्य आदि बातें बड़ी सरल और श्लोकबद्ध भाषा में संवाद रूप से समझायी गयी हैं। सुप्रसिद्ध 'पंचदशी' ग्रन्थ के आरम्भ में विद्यारण्य स्वामी गुरु रूप में जिनका स्मरण करते हैं, संभवतः ये वही महात्मा शंकरानन्द हैं। आत्मपुराण में कावेरी तट का उल्लेख है, अतः ये दाक्षिणात्य रहे होंगे। इस रोचक ग्रन्थ की विशद व्याख्या भी काशी के प्रौढ़ विद्वान् पं० काकाराम शास्त्री (कश्मीरी) ने प्रायः सवा सौ वर्ष पूर्व रची थी।

आत्मबोध : स्वामी शङ्कराचार्यरचित एक छोटा सा प्राथमिक अद्वैतवादी ग्रन्थ।

आत्मबोधोपनिषद् : इस उपनिषद् में अष्टाक्षर 'ओम् नमो नारायणाय' मन्त्र की व्याख्या की गयी है। आत्मानुभूति की सभी प्रक्रियाओं का विशद वर्णन इसमें पाया जाता है।

आत्मविद्याविलास : श्री सदाशिवेन्द्र सरस्वती-रचित अठारहवीं शताब्दी का एक ग्रन्थ। इसकी भाषा सरल एवं भावपूर्ण है। अध्यात्मविद्या का इसमें विस्तृत और विशद विवेचन किया गया है।

आत्मस्वरूप : नरसिंहस्वरूप के शिष्य तथा प्रसिद्ध दार्शनिक आचार्य। इन्होंने पद्मपादकृत 'पञ्चपादिका' के ऊपर 'प्रबोधपरिशोधिनी' नामक टीका लिखी, जो अपनी तार्किक युक्तियों के लिए प्रसिद्ध है।

आत्मानन्द : ये ऋक्संहिता के एक भाष्यकार हैं।

आत्मानात्मविवेक : शङ्कराचार्य के प्रथम शिष्य पद्मपादाचार्य की रचनाओं में एक। इसमें आत्मा तथा अनात्मा के भेद को विशद रूप से समझाया गया है।

आत्मार्पण : अप्पय दीक्षित रचित उत्कृष्ट कृतियों में से एक निबन्ध। इसमें आत्मानुभूति का विशद विवेचन है।

आत्मोपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्। इसमें आत्मतत्त्व का निरूपण किया गया है।

आत्रेय : बृहदारण्यक उपनिषद् (2.6.3) में वर्णित माण्टि के एक शिष्य की पैतृक उपाधि। ऐतरेय ब्राह्मण में आत्रेय अङ्ग के पुरोहित कहे गये हैं। शतपथ ब्रह्मण में एक आत्रेय को कुछ यज्ञों का नियमतः पुरोहित कहा गया है। उसी में अन्यत्र एक अस्पष्ट वचन के अन्तर्गत आत्रेयी शब्द का भी प्रयोग हुआ है।

आत्रेयी : गर्भिणी या रजस्वला महिला। प्रथम अर्थ के लिए 'अत्र' (यहाँ है) से इस शब्द की व्युत्पत्ति होती है; द्वितीय अर्थ के लिए 'अ-त्रि' (तीन दिन स्पर्श के योग्य नहीं) से इसकी व्युत्पत्ति होती है। अत्रि गोत्र में उत्पन्न भी आत्रेयी कही गयी है, जैसा कि उत्तरामचरित में भवभूति ने एक वेदपाठिनी ब्रह्मचारिणी आत्रेयी का वर्णन किया है।

आत्रेय ऋषि : कृष्ण यजुर्वेद के चरक सम्प्रदाय की बारह शाखाओं में से एक शाखा मैत्रायणी है। पुनः मैत्रायणी की सात शाखाएँ हुई, जिनमें 'आत्रेय' एक शाखा है।

आचार्य आत्रेय के मत का उल्लेख (ब्र० सू० 3.4.44) करके ब्रह्मसूत्रकार ने उसका खण्डन किया है। उनका मत है कि यजमान को ही यज्ञ की अङ्गभूत उपासना का फल प्राप्त होता है, ऋत्विज् को नहीं। अतएव सभी उपासनाएँ स्वयं यजमान को करनी चाहिए, पुरोहित के द्वारा नहीं करानी चाहिए। इसके विरोध में सूत्रकार ने आचार्य औडुलोमि के मत को प्रमाणस्वरूप उद्धृत किया है। मीमांसादर्शन में जैमिनि ने वेदान्ती आचार्य कार्ष्णाजिनि के मत के विरुद्ध सिद्धान्त रूप से आत्रेय के मत का उल्लेख किया है। फिर कर्म के सर्वाधिकार मत का खण्डन करने के लिए भी जैमिनी ने आत्रेय का प्रमाण दिया है। इससे ज्ञात होता है कि ये पूर्वमीमांसा के आचार्य थे।

आथवर्ण : अथर्वा ऋषि द्वारा संगृहीत वेद; उक्त वेद का मंत्र; आथर्वण का पाठक, परम्परागत अध्येता अथवा विधि विधान।

आथर्वण उपनिषदें : दूसरे वेदों की अपेक्षा अथर्ववेदीय उपनिषदों की संख्या अधिक है। ब्रह्मतत्त्व का प्रकाश ही इनका उद्देश्य है। इसलिए अथर्ववेद को 'ब्रह्मवेद' भी कहते हैं। विद्यारण्य स्वामी ने 'अनुभूतिप्रकाश' नामक ग्रन्थ में मुण्डक, प्रश्न और नृसिंहोत्तरतापनीय इन तीन उपनिषदों को ही प्रारम्भिक अथर्ववेदीय उपनिषद माना है। किन्तु शङ्कराचार्य माण्डूक्य को भी इनके अन्तर्गत मानते हैं, क्योंकि बादरायण ने वेदान्तसूत्र में इन्हीं चारों के प्रमाण अनेक बार दिये हैं। जो संन्यासी प्रायः सिर मुड़ाये रहते हैं, उन्हें मुण्डक कहते हैं। इसी से पहली रचना का 'मुण्डकोपनिषद्' नाम पड़ा। ब्रह्म क्या है, उसे किस प्रकार समझा जाता है, इस उपनिषद् में इन्हीं बातों का वर्णन है। प्रश्नोपनिषद् गद्य में है। ऋषि पिप्पलाद के छः ब्रह्म जिज्ञासु शिष्यों ने वेदान्त के मूल छः तत्त्वों पर प्रश्‍न किये हैं। उन्हीं छः प्रश्नोत्तरों पर यह प्रश्नोपनिषद् आधारित है। माण्‍डूक्योपनिषद् एक बहुत छोटा गद्यसंग्रह है, परन्तु सबसे प्रधान समझा जाता है। नृसिंहतापिनी पूर्व और उत्तर दो भागों में विभक्त है। इन चारों के अतिरिक्त मुक्तिकोपनिषद् में अन्य 93 आथर्वण उपनिषदों के भी नाम मिलते हैं।

आदि उपदेश : साधमत' के संस्थापक बीरभान अपनी शिक्षाएँ कबीर की भाँति दिया करते थे। वे दोहे और भजन के रूप में हुआ करती थीं। उन्हीं के संग्रह को 'आदि उपदेश' कहते हैं।

आदिकेदार : उत्तराखण्ड में स्थित मुख्य तीर्थों में से एक। बदरीनाथ मन्दिर के सिंहद्वार से 4-5 सीढ़ी नीचे शङ्कराचार्य का मन्दिर है। उससे 3--4 सीढ़ी उतरने के बाद आदिकेदार मन्दिर स्थित है।

आदिग्रन्थ : सिक्खों का यह धार्मिक ग्रन्थ है, जिसमें गुरुनानक तथा दूसरे गुरुओं के उपदेशों का संग्रह है। इसका पढ़ना तथा इसके बताये मार्ग पर चलना प्रत्येक सिक्ख अपना कर्त्तव्य समझता है। 'आदिग्रन्थ' को 'गुरु ग्रन्थ साहब' या केवल 'ग्रन्थ साहब' भी कहा जाता है, क्योंकि दसवें गुरु गोन्विदसिंह ने सिक्खों की इस गुरुप्रणाली को अनुपयुक्त समझा एवं उन्होंने 'खड्ग-दी-पहुल' (खङ्ग-संस्कार) के द्वारा 'खालसा' दल बनाया, जो धार्मिक जीवन के साथ तलवार का व्यवहार करने में भी कुशल हुआ। गुरु गोविन्दसिंह के बाद सिक्ख 'आदिग्रन्थ' को ही गुरु मानने लगे और यह 'गुरु ग्रन्थ साहब' कहलाने लगा।

आदित्य उपपुराण : अठारह महापुराणों की तरह ही कम से कम उन्नीस उपपुराण भी प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक उपपुराण किसी न किसी महापुराण से निकला हुआ माना जाता है। बहुतों का मत है कि उपपुराण बाद की रचनाएँ हैं, परन्तु अनेक उपपुराणों से यह प्रकट होता है कि वे अतिप्राचीन काल में संगृहीत हुए होंगे। 'आदित्य उपपुराण' एक प्राचीन रचना है, जिसका उद्धरण अल-बीरुनी (सखाऊ, 1.130), मध्व के ग्रन्थों एवं वेदान्तसूत्र के भाष्यों में प्राप्त होता है।

आदित्यदर्शन : अन्नप्राशन संस्कार के पश्चात् शिशु का 'निष्क्रमण' (पहली बार घर से निकालना) संस्कार होता है। इसी संस्कार का अन्य नाम आदित्यदर्शन भी है, क्योंकि सूर्य का दर्शन बालक उस दिन पहली ही बार करता है। दे० 'निष्क्रमण'।

आदित्यमण्डलविधि : इस व्रत में रक्त चन्दन अथवा केसर से बनाये हुए वृत्त पर गेहूँ अथवा जौ के आटे का घी-गुड़ से संयुक्त खाद्य पदार्थ रखा जाता है। लाल फूलों से सूर्य का पूजन होता है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 753, 754 (भविष्योत्तर पुराण 44.1-9 से उद्धृत)।

आदित्यवार : सूर्य के व्रत का दिन। जब यह कुछ तिथियों, नक्षत्रों एवं मासों से युक्त होता है तो इसके कई नाम (कुल 12) होते हैं। माघ शु० 6 को यह 'नन्द' कहलाता है, जब व्यक्ति केवल रात्रि में खाता है (नक्त), सूर्य प्रतिमा पर घी से लेप करता है और अगस्ति वृक्ष के फूल, श्वेत चन्दन, गुग्गुल धूप एवं अपूप (पूआ) का नैवेद्य चढ़ाता है (हे०, व्र० 2, 522-23)। रोहिणी नक्षत्र से युक्त रविवार 'सौम्य' कहलाता है। अन्य नाम हैं 'कामद' '(मार्गशीर्ष शु० 6); 'जय' (दक्षिणायन का रविवार); 'जयन्त' (उत्तरायण का रविवार); 'विजय' (शु० 7 को रोहिणी के साथ रविवार); 'पुत्रद' (रोहिणी या हस्त के साथ रविवार, उपवास एवं पिण्डों के साथ श्राद्ध हेतु); 'आदित्याभिमुख' (माघ कृ० 7 को रविवार, एकभक्त, प्रातः से सायं तक महाश्वेता मंत्र का जप हेतु); 'हृदय' (संक्रान्ति के साथ रविवार, नक्त, सूर्यमन्दिर में सूर्याभिमुख होना, आदित्य-हृदय मन्त्र का 108 बार जप); 'रोगपा' (पूर्वाफाल्गुनी को रविवार, अर्क के दोने में एकत्र किये हुए अर्कफूलों से पूजा); ‘महाश्वेताप्रिय’ (रविवार एवं सूर्य ग्रहण, उपवास, महाश्वेता का जप)। मन्त्र है—‘ह्रा ह्रीं सः’ इति, दे० हे० (व्रत 2, 12-23), हे० (व्र० 2,524-28)।

आदित्यवार नक्तव्रत : हस्त नक्षत्र से युक्त रविवार को इस व्रत का आचरण होता है, यह रात्रि अथवा वार व्रत है, जिसका देवता सूर्य है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड 2.538-541; कृत्य--रत्नाकर, पृ० 608--610।

आदित्यवारव्रत : इसमें मार्गशीर्ष मास से एक वर्षपर्यन्त सूर्य का पूजन होता है। भिन्न-भिन्न मासों में सूर्य का भिन्न-भिन्न नामों से स्मरण करते हुए भिन्न-भिन्न फल अर्पित किये जाते हैं। जैसे, मार्गशीर्ष में सूर्य का नाम होगा 'मित्र' और उन्हें नारिकेल अर्पित किया जायगा। पौष में 'विष्णु' नाम से सम्बोधित होंगे तथा 'बीजपूर' फल अर्पित किया जायगा। इसी प्रकार अन्य मासों में भी। दे० व्रतार्क, पत्रात्मक (375 व--377अ)। इस व्रत के पुण्य से समस्त रोगों का निवारण होता है।

आदित्यव्रत : पुरुषों और महिलाओं के लिए आश्विन मास से प्रारम्भ कर एक वर्ष तक रविवार को यह व्रत चलता है। सूर्य देवता का पूजन होता है। व्रताक (पत्रात्मक, पृ० 378 अ) में स्कन्द पुराण से एक कथा लेकर इस बात का उल्लेख किया गया है कि किस प्रकार साम्ब श्री कृष्ण के शाप से कोढ़ी हो गया था और अन्त में इसी व्रत के आचरण से पूर्णरूप से स्वस्थ हुआ।

आदित्यस्तव : अप्पय दीक्षित कृत शैव मत का एक ग्रन्थ। इसके अनुसार सूर्य के माध्यम से अन्तर्यामी शिव का ही जप किया जाता है।

आदित्यशयन : हस्त नक्षत्र युक्त रविवासरीय सप्तमी, अथवा सूर्य की संक्रान्ति से युक्त रविवासरीय सप्तमी हो, उस दिन उमा तथा शङ्कर की प्रतिमाओं का पूजन विहित है (सूर्य शिव से भिन्न नहीं हैं)। इसमें देवताओं के चरणों से प्रारम्भ कर ऊपर के अङ्गों का नामोच्चारण करते हुए हस्त नक्षत्र से प्रारम्भ कर आगे के नक्षत्रों को अङ्गों के नाम के साथ जोड़ते हुए नमस्कार किया जाता है। पाँच चादरों तथा एक तकिया से युक्त शय्या तथा एक सौ मुद्राओं का दान होता है। दे० पद्मपुराण 5.24,64-93 (हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 2.680--684 से उद्धृत)।

आदित्यशान्तिव्रत : हस्त नक्षत्र युक्त रविवार को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। आक वृक्ष की लकड़ियों से सूर्य का पूजन विहित है (संख्या में 108 या 28)। इन्हीं लकड़ियों से हवन किया जाता है, जिसमें प्रथम मधु तथा घी अथवा दधि और घी की सात आहुतियाँ दी जाती हैं। दे० हेमाद्रि का व्रतखण्ड 537-38 (भविष्य पुराण से)।

आदित्यहृदय-विधि : रविवार को जब संक्रान्ति हो, उस दिन सूर्य के मन्दिर में बैठकर 108 बार आदित्यहृदयमन्त्र का जप और नक्त-भोजन का आचरण करना चाहिए। रामायण (युद्ध काण्ड, 107) में अगस्त्य ऋषि ने राम के पास आकर उपदेश दिया कि वे सूर्य की पद्यात्मक 'आदित्यहृदय' नामक स्तुति करें, जिससे रावण के साथ होने वाले युद्ध में विजयी हो सकें। कृत्यकल्पतरु (व्रतकाण्ड, 19-20) में उपर्युक्त कथा का उल्लेख है। एक बात स्पष्ट है कि यदि रविवार को संक्रान्ति हो तो 'आदित्यहृदय' का पाठ करना चाहिए।

आदित्याभिमुख--विधि : प्रातःकालीन स्नानोपरान्त व्रतेच्छु को उदित सूर्य की ओर मुँह करके खड़ा होना चाहिए, तदुपरान्त जैसे जैसे सूर्य पश्चिमाभिमुख हो, वह भी उसके घूमने के साथ सूर्यास्तपर्यन्त स्वयं घूमता जाय। फिर एक स्तम्भ के सम्मुख महाश्वेता का जप करके गन्ध, पुष्प तथा अक्षत इत्यादि से सूर्य का पूजन कर दक्षिणा दे। सबके पश्चात् स्वयं भोजन ग्रहण करे।

आदिबदरी : (1) बदरीनाथजी की मूर्ति पहले तिब्बतीय क्षेत्र में थी। उस स्थान को आदि बदरी माना जाता है। वर्तमान बदरीनाथपुरी से माना घाटी होकर उस स्थान का रास्ता जाता है, जो बहुत ही कठिन है। कैलास जाने के लिए नीति घाटी से उसकी ओर जाते हैं। उस मार्ग से शिवचुलम् जाकर वहाँ से थुलिंगमठ (आदिबदरी) जा सकते हैं। यह स्थान अब भी बड़ा रमणीक है। तिब्बती उसे थुलिंगमठ कहते हैं। कहा जाता है कि वहाँ से उक्त मूर्ति को आदि शंकराचार्य ने वर्तमान पुरी में लाकर स्थापित किया था।

(2) कपालमोचन तीर्थ से 12 मील पर दूसरा आदि बदरी मन्दिर है। कहते हैं कि यहाँ दर्शन करना बदरीनाथदर्शन करने के बराबर है। पैदल का मार्ग है। यह मंदिर पर्वत पर है। यहाँ ठहरने की व्यवस्था नहीं है।

(3) श्यामसुन्दर ने भी गोपों को आदिबदरी नारायण के दर्शन कराये थे। वह स्थान ब्रजमंडल के कामवन क्षेत्र में है।

आदियामलतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में जो चौंसठ तन्त्रों की नामावली दी हुई है, उसमें आदियामल तन्त्र भी एक है।

आदि रामायण : (1) ऐसा प्रवाद है कि वाल्मीकि रामायण आदि रामायण नहीं है और आदि रामायण भगवान् शंकर का रचा हुआ बहुत बृहत् ग्रन्थ था, जो अब उपलब्ध नहीं है। इसका नाम महारामायण भी बतलाया जाता है। कहते हैं कि इसको स्वायम्भुव मन्वतर के पहले सतयुग में भगवान् शङ्कर ने पार्वती को सुनाया था।

(2) एक दूसरा आदि रामायण उपलब्ध हुआ है जो अवश्य ही परवर्ती है। अयोध्या के एक मठ से भुशुण्डि रामायण अथवा आदि रामायण प्राप्त हुआ है। इस पर कृष्णभक्ति के माधुर्य भाव का गहरा प्रभाव प्रतीत होता है।

आधिपत्यकाम : यह वाजपेय यज्ञ के उद्देश्यों में से एक उद्देश्य है, जिसका उल्लेख आश्वलायन श्रौतसूत्र (9.9.1) में आता है। इसके अनुसार आधिपत्य की कामना रखने वाले नरेश को वाजपेय यज्ञ करना चाहिए।

आध्वर्यव : यज्ञक्रिया के मध्य किये जानेवाले यजुर्वेदानुसारी कर्म; यजुर्वेद। यज्ञ के चार पुरोहितों के लिए चार अलग अलग वेद हैं। ऋग्वेद होता के लिए, यजुर्वेद अध्वर्यु के लिए, सामवेद उदगाता के लिए एवं अथर्ववेद ब्रह्मा के लिए है। इसलिए यजुर्वेद को आध्वर्यव भी कहते हैं।

आनर्तीय : शांखायन सूत्र के एक व्याख्याकार। आनर्तीय (सौराष्ट्रदेशवासी) वरदपुत्र पण्डित ने शाङ्खायन सूत्र की जो टीका रची, उसमें से नवें, दसवें और ग्यारहवें अध्याय का भाग लुप्त हो गया है।

आनन्तर्यव्रत : यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को प्रारंभ होता है। फिर प्रत्येक मास के दोनों पक्षों की द्वितीया की रात्रि तथा तृतीया के दिन उपवास एक वर्ष तक करना होता है। भगवती उमा का प्रत्येक तृतीया को भिन्न-भिन्न नामों से पूजन विहित है। नैवेद्य भी परिवर्तित होते रहने चाहिए। व्रती को भिन्न-भिन्न भोज्य पदार्थों से व्रत की पारणा करनी चाहिए। यह व्रत स्त्रियोपयोगी है। इसका यह नाम इसलिए पड़ा कि यह कर्ता के लिए पुत्रों एवं निकटसम्बन्धियों का अन्तर (वियोग) नहीं होने देता। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 1.405--413।

आनन्द : आत्मा अथवा परमात्मा के अनिवार्य गुणों (सत् + चित्+आनन्द) में से एक। इसका शाब्दिक अर्थ है सम्यक् प्रकार से प्रसन्नता (आ +नन्द)। यह पूर्णता अथवा मोक्ष की अवस्था का द्योतक है। जिन कोषों में आत्मा वेष्टित होता है उनमें से एक 'आनन्दमय कोष' भी है, परन्तु पूर्ण आनन्द तो कोष से परे है।

आनन्दगिरि : शङ्कराचार्यकृत भाष्य ग्रन्थों के प्रसिद्ध टीकाकार। वेदान्तसूत्र के शाङ्कर भाष्य वाली इनकी टीका का नाम 'न्यायनिर्णय' है। भाष्य के भाव को हृदयङ्गम कराने में यह बहुत ही सहायक है। इनकी टीका में भामती, विवरण, कल्पतरु आदि टीकाओं की छाया दिखाई पड़ती है तथा इन्होंने स्वयं भी अन्य टीकाओं का आश्रय लेने की बात लिखी है। इन्होंने 'शङ्करदिग्विजय' नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना भी की, जो विद्यारण्य स्वामी के 'शङ्करदिग्विजय' के बाद लिखा गया। इससे सिद्ध होता है कि ये विद्यारण्य स्वामी के परवर्त्ती और अप्पय दीक्षित के पूर्ववर्त्ती थे, क्योंकि अप्पय दीक्षित ने 'सिद्धान्तलेश' में 'न्यायनिर्णय' टीका का उल्लेख किया है। विद्यारण्य स्वामी का काल चौदहवीं शताब्दी है और अप्पय दीक्षित का सोलहवीं या सत्रहवीं शताब्दी का पूर्व भाग है। आनन्दगिरि का काल पन्द्रहवीं शताब्दी है।

आनन्दगिरि का दूसरा नाम आनन्दज्ञान भी है। इनके पूर्वाश्रम और जीवन चरित्र के विषय में किसी प्रकार का परिचय नहीं मिलता। इन्होंने शङ्कराचार्यकृत उपनिषद्भाष्य, गीताभाष्य, शारीरकभाष्य और शतश्लोकी पर तथा सुरेश्वराचार्य कृत तैत्तिरीयोपनिषद्वार्तिक एवं बृहदारण्यकोपनिषद्वार्तिक पर भी टीकाएँ लिखी हैं।

आनन्दतारतम्यखण्डन : श्रीनिवासाचार्य (द्वितीय) ने मध्वाचार्य के मत में दोष दिखलाने के उद्देश्य से 'आनन्दतारतम्यखण्डन' नामक प्रबन्ध की रचना की। इसमें मध्वाचार्य प्रतिपादित द्वैत मत की आलोचना है।

आनन्दतीर्थ : प्रसिद्ध द्वैतवादी आचार्य मध्व का दूसरा नाम। इन्होंने वेदान्त के प्रस्थानत्रय (उपनिषद्-ब्रह्मसूत्र--गीता) पर तर्कपूर्ण भाष्य रचना की है। इनका जीवन-काल बारहवीं शताब्दी और उडूपी (कर्नाटक) निवास स्थान माना जाता है। वैष्णवों के चार संप्रदायों में एक 'माध्व संप्रदाय' आनन्द तीर्थ से ही प्रचारित हुआ।

आनन्दनवमी : यह व्रत फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन प्रारम्भ होकर एक वर्षपर्यन्त चलता है। पञ्चमी को एकभक्त, षष्ठी को नक्त, सप्तमी को अयाचित्, अष्टमी तथा नवमी के दिन उपवास और देवी का पूजन होना चाहिए। वर्ष को तीन भागों में विभाजित कर पुष्प, नैवेद्य, देवी के नाम इत्यादि का चार-चार मास के प्रत्येक भाग में परिवर्तन कर देना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु, व्रत काण्ड, 299-301; हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 1.948--150 में इसका नाम 'अनन्दा' है।

आनन्दपञ्चमी : नागों को पञ्चमी तिथी अत्यन्त प्रिय है। इस तिथि को नागप्रतिमाओं का पूजन होता है। दूध में स्नान करती हुई ये प्रतिमाएँ भय से मुक्ति प्रदान करती हैं। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, जिल्द 1, पृ० 557 560।

आनन्‍दबोधाचार्य : श्री आनन्दबोध भट्टारकाचार्य बारहवीं शताब्दी में वर्तमान थे। उन्होंने अपने न्यायमकरन्द ग्रन्थ में वाचस्पति मिश्र का नामोल्लेख किया है तथा विवरणाचार्य प्रकाशात्म यति के मत का अनुवाद भी किया है। वाचस्पति मिश्र दसवीं शताब्दी में और प्रकाशात्म यति ग्यारहवीं शताब्दी में हुए थे। चित्सुखाचार्य ने, जो तेरहवीं शताब्दी में वर्तमान थे, 'न्यायमकरन्द' की व्याख्या की। इससे ज्ञात होता है कि आनन्दबोध बारहवीं शताब्दी में हुए होंगे। वे संन्यासी थे इससे अधिक उनके जीवन की कोई घटना नहीं मालूम होती। उनके तीन ग्रन्थ मिलते हैं ---1.न्यायमकरन्द, 2. प्रमाणमाला और 3. न्यायदीपावली। इन तीनों में उन्होंने अद्वैत मत का विवेचन किया है। दे० 'अद्वैतानन्द'।

आनन्द भट्ट : वाजसनेयी संहिता के एक भाष्यकार।

आनन्दभाष्य : वेदान्त दर्शन का एक वैष्णव भाष्य, जो आचार्य स्वामी रामानन्द के सांप्रदायिक सिद्धांतों के अनुरूप सगुण ब्रह्मस्वरूप का प्रतिपादन करता है। यह उत्तम कोटि की गम्भीर तार्किक रचना है, जिससे भाष्यकार का अनुपम पाण्डित्य प्रकट होता है।

आनन्दलहरी : शंकराचार्य द्वारा विरचित महामाया दुर्गा देवी की स्तुति एक ललित शिखरिणी छन्द में रची गयी, भक्तिपूर्ण कृति है। सामान्यतया इसके निर्माता आद्य शंकराचार्य माने जाते हैं। किन्तु आलोचकगण पश्चाद्भावी शंकराचार्य पदासीन किसी अन्य महात्मा को इसका रचयिता मानते हैं। 41 पद्यात्मक आनन्दलहरी गहन सिद्धान्तपूर्ण तांत्रिक स्तोत्र सौन्दर्यलहरी का पूर्वार्ध मानी जाती है।

आनन्दलिङ्ग जङ्गम : उत्तराखण्ड के श्री केदारनाथ धाम में स्थित बहुत प्राचीन मठ। इसकी प्राचीनता का प्रमाण एक ताम्रशासन है, जो इस मठ में वर्तमान बताया जाता है। उसके अनुसार हिमवान् केदार में महाराज जनमेजय के राजत्वकाल में स्वामी आनन्दलिङ्ग जङ्गम वहाँ के मठ के अधिष्ठाता थे। उन्हीं के नाम जनमेजय ने मन्दाकिनी, क्षीरगङ्गा, मधुगङ्गा, स्वर्गद्वार गङ्गा, सरस्वती और मन्दाकिनी के बीच जितना भूक्षेत्र है, सबका दान इस उद्देश्य से किया कि ऊखीमठ के आचार्य आनन्दलिङ्ग जङ्गम के शिष्य ज्ञानलिङ्ग जङ्गम इसकी आय से भगवान् केदारेश्वर की पूजा-अर्चा किया करें।

आनन्दवल्ली : तैत्तिरीयोपनिषज् के तीन भाग हैं। पहला भाग संहितोपनिषद् अथवा शिक्षावल्ली है, दूसरे भाग को आनन्दवल्ली कहते हैं और तीसरे को भृगुवल्ली। इन दोनों (दूसरी और तीसरी) का इकट्ठा नाम वारुणी उपनिषद् भी है। आनन्दवल्ली में ब्रह्म के आन्दतत्त्व की व्याख्या है।

आनन्दव्रत : इस व्रत में चैत्र मास से चार मासपर्यन्त बिना किसी के याचना करने पर भी जल का वितरण किया जाता है। व्रत के अन्त में जल से पूर्ण कलश, भोज्य पदार्थ, वस्त्र, एक अन्य पात्र में तिल तथा सुवर्ण का दान विहित है। दे० कृत्यकल्परु, व्रत काण्ड, 443 हेमाद्रि, व्रत खण्ड 1, पृष्ठ 742-43।

आनन्दसफल सप्तमी : यह व्रत भाद्र शुक्ल सप्तमी के दिन प्रारम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त इस तिथि को उपवास विहित है। दे० भविष्य पुराण, 1.110, 1-8; कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड, 148-149। कुछ हस्तलिखित ग्रन्थों में इसे 'अनन्त फल' कहा गया है।

आनन्दाधिकरण : वल्लभाचार्य रचित सोलहवीं शताब्दी का एक ग्रन्थ इसमें पुष्टिमार्गीय सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है।

आन्दोलक महोत्सव : वसन्त ऋतु में यह महोत्सव मनाया जाता है। दे० भविष्योत्तर पुराण, 133-24। इसमें दोला (झूला), संगीत और रंग आदि का विशेष आयोजन रहता है।

आन्दोलन व्रत : इस व्रत में चैत्र शुक्ल तृतीया को शिवपार्वती का प्रतिमाओं का पूजन तथा एख पालने में उनको झुलना होता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 2.745--748, जिसमें ऋग्वेद, दशम मण्डल के इक्यासीवें सूक्त के तीसरे मन्त्र का उल्लेख है : 'विश्वतश्चक्षुरुत।'

आन्ध्र ब्राह्मण : देशविभाग के अनुसार ब्राह्मणों के दो बड़े वर्ग हैं-- पञ्चगौड और पञ्चद्रविड। नर्मदा के दक्षिण के ब्राह्मण आन्ध्र, द्रविड, कर्णाटक, महाराष्ट्र और गुर्जर हैं। इन्हें पञ्चद्रविड कहा गया है और उधर के ब्राह्मण इन्हीं पाँच नामों से प्रसिद्ध हैं। आन्ध्र या तैलङ्ग में तिलघानियन, वेल्लनाटी, वेगिनाटी, मुर्किनाटी, कासलनाटी, करनकम्मा, नियोगी और प्रथमशाखी ये आठ विभाग हैं। दे० 'पञ्च द्रविड।'

आन्वीक्षिकी : सामान्यतः इसका अर्थ तर्क शास्त्र अथवा दर्शन है। इसीलिए इसका न्याय शास्त्र से गहरा सम्बन्ध है। 'आन्वीक्षिकी', 'तर्कविद्या', 'हेतुवाद' का निन्दापूर्वक उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता है। अर्थशास्त्र में उल्लिखित चार प्रकार की विद्याओं (आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता तथा दण्डनीति) में से 'आन्वीक्षिकी' महत्त्वपूर्ण विद्या मानी गयी है, जिसकी शिक्षा प्रत्येक राजकुमार को दी जानी चाहिए। उसमें, (2.1.13) इसकी उपयोगिता निम्नलिखित बतलायी गयी है :

प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्। आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता॥

[आन्वीक्षिका सदा सभी विद्याओं का प्रदीप, सभी कर्मों का उपाय और सभी धर्मों का आश्रय मानी गयी है।] इस प्रकार आन्वीक्षिकी विद्या त्रयी, वार्ता दण्डनीति आदि विद्याओं के बलाबल को युक्तियों से निर्धारित करती हुई संसार का उपकार करती है, विपत्ति और समृद्धि में कुशलता उत्पन्न करती है।

आपः : ऋग्वेद के (7.47.49;10.9,30) जैसे मन्त्रों में आपः (जलों) के विविध गुणों की अभिव्यक्ति हुई है। यहाँ आकाशीय जलों की स्तुति की गयी है, उनका स्थान सूर्य के पास है।

इन दिव्य जलों को स्त्रीरूप माना गया है। वे माता हैं, नवयुवती हैं, अथवा देवियाँ हैं। उनका सोमरस के साथ संयोग होने से इन्द्र का पेय प्रस्तुत होता है। वे धनवान् हैं, धन देनेवाली हैं, वरदानों की स्वामिनी हैं तथा घी, दूध एवं मधु लाती हैं।'

इन गुणों को हम इस प्रकार मानते हैं कि जल पृथ्वी को उपजाऊ बनाता है, जिससे वह प्रभूत अन्न उत्पन्न करती है।

जल पालन करनेवाला, शक्ति देनेवाला एवं जीवन देनेवाला है। वह मनुष्यों को पेय देता है एवं इन्द्र को भी। वह ओषधियों का भी भाग है एवं इसी कारण रोगों से मुक्ति देनेवाला है।

आपदेव : सुप्रसिद्ध मीमांसक। उनका 'मीमांसान्यायप्रकाश' पूर्वमीमांसा का एक प्रामाणिक परिचायक ग्रन्थ है। मीमांसक होते हुए भी उन्होंने सदानन्दकृत वेदान्तसार पर 'बालबोधिनी' नाम की टीका लिखी है, जो नृसिंह सरस्वतीकृत 'सुबोधिनी' और रामतीर्थ कृत 'विद्वन्मनोरञ्जिनी' की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट समझी जाती है।

आपदेवी : आपदेव रचित 'मीमांसान्यायप्रकाश' को अधिकांश लोग 'आपदेवी' कहते हैं। इसकी रचना 16-30 ई. के लगभग हुई भी। यह अति सरल संस्कृत भाषा में है और इसका अध्ययन बहुत प्रचलित है।

आपस्तम्ब गृह्यसूत्र : गृह्यसूत्र कुल 14 हैं। ऋग्वेद के तीन, साम के तीन, शुक्ल यजुः का एक, कृष्ण यजुर्वेद के छः एवं आथर्वण का एक। गृहसूत्रों में आपस्तम्ब का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इसमें तथा अन्य गृह्यसूत्रों में मुख्यतः गृह्ययज्ञों का वर्णन है, जिन के नाम हैं--- (1) पितृयज्ञ, (2) पार्वणयज्ञ, (3) अष्टकायज्ञ, (4) श्रावणीयज्ञ, (5) आश्वयुजीयज्ञ, (6) आग्रहायणीयज्ञ और (7) चैत्रीयज्ञ। इनके अतिरिक्त पञ्चमहायज्ञों का भी वर्णन पाया जाता है--(1) ब्रह्मयज्ञ, (2) देवयज्ञ, (3) पितृयज्ञ, (4) अतिथियज्ञ और (5) भूतयज्ञ। इसमें सोलह गृह्य का भी विधान है। निम्नांकित मुख्य हैं :

1. गर्भाधान, 2. पुंसवन, 3.सीमन्तोन्नयन, 4. जातकर्म, 5.नामकरण, 6. निष्क्रमण, 7. अन्नप्राशन, 8.चौल, 9. उपनयन, 10. समावर्तन, 11. विवाह, 12. अन्त्येष्टि आदि।

आठ प्रकार के विवाहों --1. ब्राह्म, 2. दैव, 3. आर्ष, 4. प्राजापत्य, 5. आसुर, 6. गान्धर्व, 7. राक्षस और पैशाच-- का वर्णन भी इसमें पाया जाता है।

आपस्तम्ब धर्मसूत्र : वैदिक संप्रदाय के धर्मसूत्र केवल पाँच उपलब्ध हैं : (1) आपस्तम्ब, (2) हिरण्यकेशी, (3) बौधायन, (4) गौतम और (5) वसिष्ठ। चरणव्यूह के अनुसार आपस्तम्ब कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के खाण्डिकीय वर्गीय पाँच उपविभागों में से एक है। यह सबसे प्राचीन धर्मसूत्र है। यह दो प्रश्नों, आठ पटलों और तेईस खण्डों में विभक्त है।

आपद्धर्म : सभी वर्णों तथा आश्रमों के धर्म वृत्ति तथा अवस्था भेद से स्मृतियों में वर्णित हैं। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में जब अपने वर्ण और आश्रम के कर्तव्यों का पालन संभव नहीं होता तो धर्मशास्त्र में उनके विकल्प बताये गये हैं। शास्त्रों से विहित होने के कारण इनका पालन भी धर्म ही है। उदाहरण के लिए, यदि ब्राह्मण अपने वर्ण के विशिष्ट कर्तव्यों (पाठन, याजन और प्रतिग्रह) से निर्वाहि नहीं कर सकता तो वह क्षत्रिय अथवा वैश्य के विशिष्ट कर्तव्यों (शस्त्र, कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य) को अपना सकता है। किन्तु इन कर्तव्यों में भी ब्राह्मण के लिए सीमा बाँध दी गयी है कि संकटकालीन स्थिति बीत जाने पर आपद्धर्म का त्याग कर उसे अपने वर्णधर्म का पालन करना चाहिए।

आपद्धर्मपर्वाध्याय : महाभारत के 18 पर्व हैं और इन पर्वों के अवान्तर भी 100 छोटे पर्व हैं, जिन्हें पर्वाध्याय कहते हैं। ऐसे ही छोटे पर्वों में से आपद्धर्म भी एक है। इसकी विषयसूची इस प्रकार है :

राजर्षि वृत्तान्त कीर्तन। कायव्य-दस्यु संवाद। नकुलो-पाख्यान। मार्जार-मूषिक संवाद। ब्रह्मदत्त-पूजनीसंवाद। कणिक उपदेश। विश्वामित्र-निषाददसंवाद। कपोत-लुब्धकसंवाद। भार्याप्रशंसा कीर्तन। इन्द्रोत-परीक्षित-संवाद। गृध्र-गोमायुसंवाद। पवन-शाल्मलिसंवाद। आत्मज्ञान कीर्तन। दम गुणवर्णन। तपः कीर्तन। सत्य कथन। लोभोपाख्यान। नृशंसप्रायश्चित्तकथन। खङ्गोत्पत्ति कीर्तन। षड्जगीता। कृतघ्‍नोपाख्यान।

आपस्तम्ब यजुःसंहिता : कृष्ण यजुर्वेद के एक सम्प्रदाय ग्रन्थ का नाम 'आपस्तम्ब यजुःसंहिता' है। इसमें सात अष्टक हैं। इन अष्टकों में 44 प्रश्न हैं। इन 44 प्रश्नों में 651 अनुवाक् हैं। प्रत्येक अनुवाक् में दो सहस्र एक सौ अट्ठानवे कण्डिकाएँ हैं। साधारणतः एक कण्डिका में 50-50 शब्द हैं।

आपस्तम्ब शुल्वसूत्र : कल्पसूत्रों की परम्परा में शुल्वसूत्र भी आते हैं। शुल्वसूत्रों की भूमिका 1975 ई० में थिबो द्वारा लिखी गयी थी (जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ बेंगाल)। शुल्वसूत्र दो हैं : पहला बौधायन एवं दूसरा आपस्तम्ब। जर्मन में इसका अनुवाद श्री बर्क ने प्रस्तुत किया था। शुल्वसूत्रों का सम्बन्ध श्रौत यज्ञों से है। शुल्व का अर्थ है मापने का तागा या डोरा। यज्ञवेदिकाओं के निर्माण में इसका काम पड़ता था। यज्ञस्थल, उसके विस्तार, आकार आदि का निर्धारण शुल्वसूत्रों के अनुसार होता था। भारतीय ज्यामिति के ये प्राचीन आदिम ग्रन्थ माने जाते हैं।

आपस्तम्ब श्रौतसूत्र : श्रौतसूत्र अनेक आचार्यों ने प्रस्तुत किये हैं। इनकी संख्या 13 है। कृष्ण यजुर्वेद के छः श्रौत सूत्र हैं, जिनमें से 'आपस्तम्ब श्रौतसूत्र' भी एक है। इस का जर्मन अनुवाद गार्वे द्वारा 1878 में और कैलेंड द्वारा 1910 ई० में हुआ। श्रौतसूत्रों की याज्ञिक क्रियाओं पर हिल्लेब्रैण्ट ने विस्तृत ग्रन्थ लिखा है।

वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में जिन यज्ञों का वर्णन है उनको श्रौतसूत्रों में पद्धतिबद्ध किया गया है। वैदिक हवि तथा सोम यज्ञ सम्बन्धी धार्मिक अनुष्ठानों का इसमें प्रतिपादन है। श्रुतिप्रतिपादित चौदह यज्ञों का इसमें विधान है। दे० 'श्रौतसूत्र'।

आपस्तम्बस्मृति : अवश्य ही यह परवर्ती स्मृतियों में से है। आपस्तम्बधर्मसूत्र से इसकी विषयसूची बहुत भिन्न है।

आपस्तम्बीय मण्डनकारिका : मीमांसा शास्त्र का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ। सुरेश्वराचार्य अथवा मण्डन मिश्र ने, जो पाण्डित्य के अगाध सागर थे और जिन्हें शाङ्करमत के आचार्यों में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है, अपने संन्यास ग्रहण करने के पूर्व 'आपस्तम्बीय मण्डनकारिका' की रचना की थी।

आपिशलि : एक प्रसिद्ध प्राचीन व्याकरणाचार्य। इनका नाम पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्रों में (वा सुप्यापिशलेः। 6.1.92) आया है।

आप्तोपदेश : न्यायदर्शन में वर्णित चौथा प्रमाण। न्यायसूत्र में लिखा है कि आप्तोपदेश अर्थात् 'आप्त पुरुष का वाक्य' शब्द प्रमाण माना जाता है। भाष्यकार ने आप्त पुरुष का लक्षण बतलाया है कि जो 'साक्षात्कृतधर्मा' हो अर्थात् जैसा देखा, सुना, अनुभव किया हो ठीक-ठीक वैसा ही कहने वाला हो, वही आप्त है, चाहे वह आर्य हो या म्लेच्छ। गौतम ने आप्तोपदेश के दो भेद किये हैं-- 'दृष्टार्थ' एवं 'अदृष्टार्थ'। प्रत्यक्ष जानी हुई बातों को बताने वाला 'दृष्टार्थ' एवं केवल अनुमान से जानने योग्य बातों को (जैसे स्वर्ग, अपवर्ग, पुनर्जन्म इत्यादि को) बताने वाला 'अदृष्टार्थ' कहलाता है। इस पर वात्सस्यायन ने कहा है कि इस प्रकार लौकिक वचन और ऋषि वचन या वेदवाक्य का विभाग हो जाता है। अदृष्टार्थ में केवल वेदवाक्य ही प्रमाण माना जा सकता है। नैयायिकों के मत से वेद ईश्वरकृत है। इससे उसके वाक्य सत्य और विश्वसनीय हैं। पर लौकिक वाक्य तभी सत्य माने जा सकते हैं, जब उनका वक्ता प्रामाणिक मान लिया जाय।

आबू (अर्बुद) : प्रसिद्ध पर्वत तथा तीर्थस्थान, जो राजस्थान के सिरोही क्षेत्र में स्थित है। यह मैदान के बीच में द्वीप की तरह उठा हुआ है। इसका संस्कृत रूप अर्बुद है जिसका अर्थ फोड़ा या सर्प भी है। इसे हिमालय का पुत्र कहा गया है। यहाँ वसिष्ठ का आश्रम था और राजा अम्बरीष ने भी तपस्या की थी। इसका मुख्य तीर्थ गुरुशिखर 5653 फुट ऊँचा है। यहाँ एक गुहा में दत्तात्रेय औऱ गणेश की मूर्तियाँ और पास में अचलेश्वर (शिव) का मन्दिर भी है। यहाँ शक्ति की पूजा अधरादेवी तथा अर्बदमाता के रूप में होती है। यह प्रसिद्ध जैन तीर्थ भी है और देलवाड़ा में जैनियों के बहुत सुन्दर कलात्मक मन्दिर बने हुए हैं।

आभास : कश्मीरी शैव मत का एक सिद्धान्त। कश्मीरी शैवों की साहित्यिक परम्परा में सोमानन्द कृत 'शिवदृष्टि' ग्रन्थ शैव मत के दार्शनिक विचारों को स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करता है। यह एकेश्वरवाद को मानता है एवं इसके अनुसार मोक्ष मनुष्य को सतत प्रत्यभिज्ञा (मनुष्य का शिव के साथ तादात्म्य भाव) के अनुशासन से प्राप्त हो सकता है। यहाँ सृष्टि को केवल माया नहीं, अपितु शिव का शक्ति के माध्यम से व्यक्तीकरण माना गया है। सम्पूर्ण सृष्टि शिव का 'आभास' (प्रकाश) है। आभास का शाब्दिक अर्थ है 'सम्यक् प्रकार से भासित होना'। यह एक प्रकार की विश्व-मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा परम शिव (अन्तिम तत्त्व) विश्व के विविध रूपों में भासित होता है।

आमर्दकीव्रत : किसी मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी, विशेष रूप से फाल्गुन मास की, आमर्दकी अथवा धात्री (आँवला फल अथवा हर्र) कहलाती है। विभिन्न नक्षत्रों से युक्त द्वादशी के विभिन्न नाम ये हैं। जैसे विजया (श्रवण नक्षत्र के साथ), जयन्ती (रोहिणी के साथ), पाप नाशिनी, (पुण्य नक्षत्र के साथ)। अन्तिम द्वादशी के दिन उपवास करने से एक सहस्र एकादशियों का पुण्य प्राप्त होता है। विष्णु की पूजा करते हुए व्रती को आमलक वृक्ष के नीचे जागरण करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, 1, 214-222।

आमेर (अम्बानगर) : राजस्थान का एक प्रसिद्ध शाक्त पीठ। यह जयपुर से 5 मील दूर है जो इस राज्य की प्राचीन राजधानी थी। यहाँ काली का एक प्रसिद्ध मन्दिर है। एक अन्य पहाड़ी पर गलता (झरना) टीला है, जिसकों लोग गालव ऋषि की तपोभूमि मानते हैं। टीले के ऊपर सात कुण्ड हैं। इनके पास ही शंकरजी का मन्दिर है। झरनों से बराबर जल प्रवाहित होता रहता है जिसमें यात्री स्नान करके अपने को पुण्य का भागी समझते हैं।

आभ्रपुष्पभक्षण : इस व्रत का सम्बन्ध कामदेव-पूजन से है। आम्रमञ्जरी कामदेव का प्रतीक है, क्योंकि इसकी मदगन्ध काम को उद्दीप्त करती है। कामदेव की तुष्टि के लिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को आम्र मञ्जरियों को खाना चाहिए। दे०स्मृतिकौस्तुभ, 519; वर्षकृत्यकौमुदी, 516-517।

आयतन : छान्दोग्य उपनिषद् (7.24.2) में यह निवास स्थान के अर्थ में केवल एक स्थान पर आया है। किन्तु काव्यों में इसे पवित्र स्थान, विशेष कर मन्दिर माना गया है, जैसे देवायतन, शिवायतन आदि।

विष्णु भगवान् को मङ्गल का आयतन माना गया है :

मङ्गलं भगवान् विष्णुः मङ्गलं गरुडध्वजः। मङ्गलं पुण्डरीकाक्षः मङ्गलायतनं हरिः॥

आयन्त दीक्षित : आयन्त दीक्षित वेङ्कटेश के शिष्य थे। इन्होंने 'व्यासतात्पर्यनिर्णय' नामक एक अद्भुत ग्रन्थ की रचना की थी। वेङ्कटेश सदाशिवेन्द्र सरस्वती के समकालीन थे, उन्होंने 'अक्षयषष्टि' और 'दायशतक' नामक दो ग्रंथ रचे हैं। उनके शिष्य होने के कारण आयन्त दीक्षित का जीवन काल भी अठारहवीं शताब्दी ही सिद्ध होता है। 'व्यासतात्पर्यनिर्णय' में आयन्त दीक्षित ने व्यास के वेदान्तसूत्रों को अद्वैतवदी माना है। अद्वैत सिद्धांतप्रेमियों के लिए यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।

आयुर्वेद : परम्परा के अनुसार आयुर्वेद एक उपवेद है तथा धर्म और दर्शन से इसका अभिन्न सम्बन्ध है। चरणव्यूह के अनुसार यह ऋग्वेद का उपवेद है परन्तु सुश्रुतादि आयुर्वेद ग्रन्थों के अनुसार यह अथर्ववेद का उपवेद है। सुश्रुत के मत से `जिसमें या जिसके द्वारा आयु प्राप्त हो, आयु जानी जाय उसको आयुर्वेद कहते हैं।` भावमिश्र ने भी ऐसा ही लिखा है। चरक में लिखा है-- `यदि कोई पूछने वाला प्रश्न करे कि ऋक्, साम, यजु, अथर्व इन चारों वेदों में किस वेद का अवलम्ब लेकर आयुर्वेद के विद्वान् उपदेश करते हैं, तो उनसे चिकित्सक चारों में अथर्ववेद के प्रति अधिक भक्ति प्रकट करेगा। क्योंकि स्वस्त्ययन, बलि, मङ्गल, होम, नियम, प्रायश्चित, उपवास और मन्त्रादि अथर्ववेद से लेकर ही वे चिकित्सा का उपदेश करते हैं।`

सुश्रुत में लिखा है कि ब्रह्मा ने पहला-पहल एक लाख श्लोकों का 'आयुर्वेद शास्त्र' बनाया, जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा। प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने और अश्विनीकुमारों से इन्द्र ने, इन्‍द्रदेव से धन्वन्तरि ने और धन्वन्तरि से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की। ब्रह्मा ने आयुर्वेद को आठ भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग का नाम तन्त्र रखा। ये आठ भाग निम्नांकित हैं : (1) शल्य तन्त्र, (2) शालाक्य तन्त्र, (3) काय चिकित्सा तन्त्र, (4) भूत विद्या तन्त्र, (5) कौमारभृत्य तन्त्र, (6) अगद तन्त्र, (7) रसायन तन्त्र और (8) वाजीकरण तन्त्र।

इस अष्टाङ्ग आयुर्वेद के अन्तर्गत देहतत्त्व, शरीरविज्ञान, शस्त्रविद्या, भेषज और द्रव्य गुण तत्त्व, चिकित्सा तत्त्व औऱ धात्री विद्या भी है। इसके अतिरिक्त उसमें सदृश चिकित्सा (होम्योपैथी), विरोधी चिकित्सा (एलोपैथी) और जलचिकित्सा (हाइड्रो पैथी) आदि आजकल के अभिनव चिकित्साप्रणालियों के विधान भी पाये जाते हैं।

आयुधव्रत : इस व्रत में श्रावण से चार मासपर्यन्त शङ्क, चक्र, गदा और पद्म का पूजन करना चाहिए। ये आयुध वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के प्रतीक हैं। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 3.148, 1-6; हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 2.861।

आयुर्व्रत : (1) इस व्रत में एक वर्ष तक शम्भु तथा केशव (विष्णु) का चन्दन से लेपन करना चाहिए। व्रत के अन्त में जलपूर्ण कलश तथा गौ का दान विहित है। दे० कृत्यकल्पतरु, व्रत काण्ड, 442।

(2) पूर्णिमा के दिन भगवान् विष्णु तथा लक्ष्मी का पूजन, उपवास, कुछ उपहार ब्राह्मण तथा सद्यः विवाहित स्त्रियों को देना चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.225-229 (गरुड पुराण से)।

आयुःसंक्रान्तिव्रत : इस व्रत में संक्रान्ति के दिन सूर्य का पूजन, काँसे के पात्र, दूध, घी तथा सुवर्ण का दान विहित है। इसका उद्यापन धान्य संक्रान्ति के समान होना चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 2.767; व्रतार्क, पृ० 389।

आरणीय विधि : तैत्तरीय ब्राह्मण का शेषांश तैत्तरीय आरण्यक है। इसमें दस काण्ड हैं। काठक में बतायी हुई 'आरणीय विधि' का भी इस ग्रन्थ में विचार हुआ है। इसके पहले और तीसरे प्रपाठक में यज्ञाग्नि स्थापन के नियम लिखे हैं। दूसरे प्रपाठक में स्वाध्याय के नियम हैं। चौथे, पाँचवें और छठे में दर्श-पूर्णमासादि और पितृमेधादि विषयों पर विचार है।

आरण्यक : ब्राह्मणों और उपनिषदों का मध्यवर्ती साहित्य आरण्यक है, अतः यह श्रृति का ही एक भाग है। कहा जा सकता है कि आरण्यक ब्राह्मणों की ही भाषा और शैली में लिखे गये उनके पूरक हैं। इनके अध्यायों का प्रारम्भ ब्राह्मणों जैसा ही है, किन्तु सामग्री में सामान्य अन्तर दिखाई पड़ता है, जो क्रमशः रहस्यात्मक दृष्टान्तों या रूपकों के माध्यम से दार्शनिक चिन्तन में बदल गया है। साधारणतः धार्मिक क्रियाकलापों एवं रुपक वाले भाग को ही आरण्यक कहते हैं, एवं दार्शनिक भाग उपनिषद् कहलाता है। इन आरण्यक ग्रन्थों के भाग धार्मिक क्रियाओं का वर्णन करते हैं तथा यत्र-तत्र उनकी रहस्यपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार ये ब्राह्मणशिक्षाओं से अभिन्न दिखाई पड़ते हैं। किन्तु कुछ अध्यायों में कुछ कड़े नियमों की स्थापना हुई, जिसके अनुसार कुछ क्रियाओं को गुप्त रखने की आज्ञा है और उन्‍हें कुछ विशेष पुरूषों के निमित्‍त ही करने योग्‍य बतलाया गया है। ऐसे रहस्यात्मक स्थल उपनिषदों में भी दृष्टिगोचर होते हैं। इसके साथ ही कुछ ऐसे अध्याय हैं जिनमें केवल क्रियाओं के रूपक ही दिये गये हैं, पर वे धार्मिक क्रियाओं के सम्पादनार्थ नहीं, किन्तु ध्यान करने के लिए दिये गये हैं। इनमें से किसी भी रुपकात्मक अथवा याज्ञिक अध्याय में पुनर्जन्म अथवा कर्मवाद की शिक्षा नहीं है।

आरण्यकों का अध्ययन अरण्य (वन) में ही करना चाहिए। किन्तु वे कौन थे जो उनका अध्ययन करते थे? ब्राह्मणों के निर्माण-काल में ही विरक्त यति, मुनियों का एक सम्प्रदाय प्रकट हुआ, जो सांसारिकता का त्याग कर चुका था और जिसने अपने जीवन को धार्मिक लक्ष्य की ओर लगा दिया था। उनके अभ्यासों के तीन प्रकार थे : (1) तपस्या, (2) यज्ञ और (3) ध्यान। किन्तु नियम विभिन्न थे, इसलिए अभ्यासों में विभिन्नता थी। कुछ लोगों ने यज्ञों को एकदम छोड़ दिया। बड़े एवं विस्तृत यज्ञ वैसे भी असम्भव होते थे। ऊपर जो कुछ अरण्यवासी साधुओं के सम्बन्ध में कहा गया है, उसका बड़ा ही सजीव वर्णन रामायण में उपस्थित है। जब विद्यार्थी अपनी शिक्षा समाप्त कर लेता तो उसके लिए तीन मार्ग हुआ करते थे, अपने गुरु के साथ आजन्म रहना, गृहस्थ बनना और अरण्यवासी साधु बनना। ऐसे साधु का प्रारम्भिक नाम 'वैखानस' था किन्तु बाद में वानप्रस्थ (वनवासी) का प्रयोग होने लगा।

सायणाचार्य का कहना है कि आरण्य साधुओं का पाठ्य 'ब्राह्मण ग्रन्थ' था। इस मत का डायसन ने समर्थन किया है। आरण्यक के विषयों के विभिन्न अध्यायों-- धार्मिक क्रियाओं की रस्यात्मक व्याख्या, दृष्टान्त, आन्तरिकयज्ञ आदि का वनवासी साधुओं के विभिन्न प्रकार के अभ्यासों से मेल भी खाता है। किन्तु ओल्डेनवर्ग एवं वेरिडेल कीथ का कथन है कि आरण्यक वे रहस्यात्मक ग्रन्थ हैं, जिनका अध्ययन एकांत में ही हो सकता है। प्रो० कीथ का कथन है कि ब्राह्मणों की तरह आरण्यक भी पुरोहितों को पढ़ाया जाता था। दोनों में अन्तर केवल रहस्यों का था, जो आरण्‍यकग्रन्थों में है। आरण्यकों में वे ही अध्यय महत्त्वपूर्ण हैं जो अपने रूपक, रहस्य, ध्यान आदि पर जोर डालने के कारण ब्राह्मणों से तथा दार्शनिक उपनिषदों से भिन्न हैं। मुख्य आरण्यक ग्रन्थ निम्नांकित हैं :

ऋग्वेद के आरण्यक-- (1) ऐतरेय आरण्यक-- इसके पाँच ग्रन्थ पाये जाते हैं। दूसरे और तीसरे आरण्यक स्वतन्त्र उपनिषद् हैं। दूसरे के उत्तराद्ध के शेष चार परिच्छेदों में वेदान्त का प्रतिपादन है। इसलिए उनका नाम ऐतरेय उपनिषद् है। चौथे आरण्यक का संकलन शौनक के शिष्य आश्वलायन ने किया है।

(2) कौषीतकि आरण्यक-- इसके तीन खण्ड हैं। प्रथम दो खण्ड कर्मकाण्ड से भरे हैं। तीसरा खण्ड कौषीतकि उपनिषद् कहलाता है। यह बहुत सारगर्भित है। आनन्दधाम में प्रवेश करने की विधि इसमें प्रतिपादित है।

यजुर्वेद के आरण्यक-- (1). तैत्तिरीय आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद का है। इस आरण्यक में दस काण्ड हैं। आरणीय विधि का इसमें प्रतिपादन हुआ है।

2. बृहदारण्यक शुक्लयजुर्वेद का है।

सामवेद का आरण्यक-- 1. छान्दोग्य आरण्यक। यह आरण्यक छः प्रपाठकों में विभाजित है। यह आरण्यक आरण्यगान भी कहलाता है। (कॉवेल, कीथ, विंटरनित्ज)

आरण्यगान : जिस प्रकार आरण्यकों के पढ़ने अथवा अध्ययन के लिए वन में निवास किया जाता था, उसी प्रकार सामवेद के 'आरण्यगान' के लिए भी विधान था, अर्थात् उसे भी अरण्य (वन) में ही गाया जाता था।

आरम्भवाद : जगत् अथवा सृष्टि की उत्पत्ति और विकास के सम्बन्ध में वैशेषिकों तथा नैयायिकों का मत है कि ईश्वर सृष्टि को उत्पन्न करता है। इसी सिद्धान्त को आरम्भवाद कहते हैं। नित्य परमाणु एक दूसरे से विभिन्न प्रकार से मिलकर जगत् के अनन्त पदार्थों की रचना (आरम्भ) करते हैं। यह एक प्रकार का सर्जनात्मक विकासवाद है।

आराध्य ब्राह्मण : आराध्य ब्राह्मण' अर्ध-लिङ्गायतें की दो शाखाओं में से एक है। इन अर्ध-लिङ्गायतों में लिङ्गायत-प्रथाएँ अपूर्ण एवं जातिभेद का भाव संकीर्ण है। आराध्य ब्राह्मण विशेषकर कर्णाटक एवं तैलंग प्रदेश में पाये जाते हैं। ये अर्ध परिवर्तित स्मार्त हैं जो पवित्र यज्ञोपवीत एवं शिवलिङ्ग धारण करते हैं। अपनी व्यक्तिगत पूजा में वे लिङ्गायत हैं, किन्तु स्मार्तों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध करते हैं। उनके लिए कोई स्मार्त व्यक्ति वैवाहिक उत्सव सम्पन्न करता है, किन्तु वे दूसरे लिङ्गायतों के घर भोजन नहीं करते।

दूसरा अर्ध-लिङ्गायत दल जातिबहिष्कृत है, जिसके लिए कोई भी जङ्गम संस्कारोत्सव नहीं करता और वे किसी भी अर्थ में लिङ्गायत समाज में प्रवेश नहीं पा सकते।

आरुणि : यह एक पितृपरक नाम है। अरुण औपवेशि के पुत्र उद्दालक के अर्थ में यह व्यवहृत होता है। आरुणि यशस्वी से भी उद्दालक का बोध होता है, जो जैमिनीय ब्राह्मण (2।80) में सुब्रह्मण्या के आचार्य हैं। आरुणि का प्रयोग जैमिनीय उपनिषद्, ब्राह्मण, काठक संहिता एवं ऐतरेय आरण्यक में भी हुआ है।

आरुणेयोपनिषद् : निवृत्तिमार्गी उपनिषदों में इसकी गणना की जाती है।

आरोग्यद्वितीया : पौष शुक्ल द्वितीया को अथवा शुक्ल पक्ष की प्रत्येक द्वितीया को उदयकालीन चन्द्र के पूजन का विधान है। चन्द्रमा का पूजन करने के पश्चात् वस्त्रों का जोड़ा, सुवर्ण तथा एक तरल पदार्थ से भरा हुआ कलश दान करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 1.389-91 (विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 2.58 से उद्धृत)।

आरोग्यप्रतिपदा : वर्ष की समाप्ति के पश्चात् प्रथम तिथि को व्रतारम्भ होता है। यह एक वर्षपर्यन्त चलता है। प्रत्येक प्रतिपदा को सूर्य की छपी हुई प्रतिमा का पूजन विहित है। दान पूर्व व्रत के समान है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.341--42; व्रतराज, 53।

आरोग्यव्रत : (1) इस व्रत का अनुष्ठान भाद्रपद शुक्ल पक्ष के पश्चात् आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से लेकर शरद्पूर्णिमा तक होता है। दिन में कमल तथा जाति-जाति के पुष्पों से अनिरुद्ध की पूजा, हवन आदि होता है। व्रत की समाप्ति से पूर्व तीन दिन का उपवास विहित है। इससे स्वास्थ, सौन्दर्य तथा समृद्धि की उपलब्धि होती है। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 3.205, 1-7।

(2) यह दशमीव्रत है। नवमी को उपवास तथा दशमी को लक्ष्मी और हरि का पूजन होना चाहिए। हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.936-965।

आरोग्यसप्तमी : इस व्रत में मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी से प्रत्येक सप्तमी को एक वर्ष तक उपवास, सूर्य के पूजन आदि का विधान है। दे० वाराह पुराण, 62.1-5।

आर्चिक : सामवेदीय मन्त्रों को स्तुतियों का संग्रह, जो उद्गाता को कण्ठस्थ करना पड़ता था। सोमयज्ञ के विविध अवसरों पर कौन मन्त्र किस स्वर में और किस क्रम में गाया जायगा, आदि की शिक्षा आचार्य अपने शिष्यों को देते थे। 'कौथुमी शाखा' में उद्गाता को 585 गान सिखाये जाते थे। इस पूरे संग्रह को आर्चिक कहते हैं। इसमें दो प्रकार के गान होते हैं-- पहला 'ग्रामगेय गान' तथा दूसरा 'आरण्य गान'। पहला बस्तियों में गाया जाता था, किन्तु दूसरा इतना पवित्र माना जाता था कि उसके लिए केवल वनस्थली का एकान्त ही उपयुक्त समझा जाता था।

आर्चिक : (2) सामवेद में आये हुए ऋग्वेद के मन्त्र 'आर्चिक' कहे जाते हैं और यजुर्वेद के मन्त्र (गद्यात्मक) 'स्तोम' कहलाते हैं। सामवेदीय आर्चिक ग्रन्थ अध्य़ापक भेद, देश भेद, कालक्रम भेद, पाठक्रम भेद और उच्चारण आदि भेद से अनेक शाखाओं में विभक्त हैं। सब शाखाओं में मन्त्र एक से ही हैं, उनकी संख्या में व्यतिक्रम है। प्रत्येक शाखा के श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और प्रातिशाख्य भिन्न भिन्न हैं। आर्चिक ग्रन्थ तीन हैं-- छन्द, आरण्यक और उतरा। उत्तरार्चिक में एक छन्द की, एक स्वर की और एक तात्पर्य की तीन-तीन ऋचाओं को लेकर एक-एक सूक्त कर दिया गया है। इन सूक्तों का 'त्रिक्' नाम है। इसी के समान भावापन्न दो-दो ऋचाओं की समष्टि का नाम 'प्रगाथ' है। चाहे त्रिक् हो या प्रगाथ, इनमें से प्रत्येक पहली ऋचा का छन्द आर्चिक में से लिया गया है। इसी छन्द-आर्चिक से एक ऋचा और सब तरह से उसी के अनुरूप दो और ऋचाओं को मिलाकर त्रिक् बनता है। इसी प्रकार प्रगाथ भी है। इन्हीं कारणों से इनमें जो पहली ऋचाएँ हैं वे सब 'योनि-ऋक्' कहलाती हैं और आर्चिक योनि-ग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं।

योनि-ऋक् के पश्चात् उसी के बराबर की दो या एक ऋचा जिसके उत्तर दल में मिले उसी का नाम उत्तरार्चिक है। इसी कारण तीसरे का नाम उत्तरा है।

एक ही अध्याय का बना हुआ ग्रन्थ जो अरण्य में ही अध्ययन करने के योग्य हो 'आरण्यक' कहलाता है। सब वेदों में एक-एक आरण्यक है। योनि, उत्तरा और आरण्यक इन्हीं तीन ग्रन्थों का साधारण नाम आर्चिक अर्थात् ऋक्-समूह है। छन्द ग्रंथों में जितने साम हैं उनके गाने वाले 'छन्दोग' कहलाते हैं।

आर्त भक्ति : श्रीमद्भगवद्गीता (7.16) में भक्तों के चार प्रकार बतलाये गये हैं :

1. अर्थार्थी (अर्थ अथवा लाभ की आशा से भजन करने वाला)

(2) आर्त (दुःख निवारण के लिए भजन करने वाला)

(3) जिज्ञासु (भगवान् के स्वरूप को जानने के लिए भजन करने वाला)

(4) ज्ञानी (भगवान् के स्वरूप को जानकर उनका चिन्तन करने वाला)।

यद्यपि आर्त भक्ति का स्थान अन्य प्रकार की भक्ति से निचली श्रेणी का है, तथापि आर्त भक्त को भी भगवान् सुकृती कहते हैं। आर्त होकर भी भगवान् की ओर उन्मुख होना श्रेयस्कर है। भक्तिशास्त्र के सिद्धांतग्रन्थों में भक्ति दो प्रकार की बतलायी गयी है।---(1) परा भक्ति (जिसका उद्देश्य केवल भक्ति है और उसके बदले में कुछ नहीं चाहिए, और (2) अपरा भक्ति (साधनरूप भक्ति)। आर्त भक्ति अपरा भक्ति का ही एक उप प्रकार है।

आर्द्रादर्शन अथवा आर्द्राभिषेक : यह व्रत मार्गशीर्ष पूर्णिमा को होता है। दक्षिण भारत में नटराज (नृत्यमुद्रा में भगवान् शिव) के दर्शनार्थ जनसमूह चिदम्बरम् में उमड़ पड़ता है। दक्षिण भारत का यह एक महान् व्रत है।

आर्द्रानन्दकरी तृतीया : हस्त एवं मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़ अभिजित् नक्षत्रों के दिन वाली शुक्ल पक्ष की तृतीया। वर्ष को तीन भागों में विभाजित कर एक वर्ष तक इस व्रत का आचरण करना चाहिए। इस व्रत में शिव तथा भवानी का पूजन होता है। भवानी के चरणों से प्रारम्भ कर मुकुट तक शरीर के प्रत्येक अवयव को नमस्कार किया जाता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 1.471-474।

आर्य : आर्यावर्त का निवासी, सभ्य, श्रेष्ठ, सम्मान्य। वैदिक साहित्य में उच्च वर्गों के लिए व्यवहृत साधारण उपाधि। कहीं-कहीं 'आर्य' (अथवा 'अर्य') वैश्यों के लिए ही सुरक्षित समझा गया है (अथर्व 19.32, 8 तथा 62,1)। आर्य शब्द से मिश्रित उपाधियाँ ब्राह्मण और क्षत्रियों की भी हुआ करती थीं। किन्तु 'शूद्रार्यौं' यौगिक शब्द का अर्थ अस्पष्ट है। आरम्भ में इसका अर्थ सम्भवतः शूद्र एवं आर्य था, क्योंकि महाव्रत उत्सव में तैत्तिरीय ब्राह्मण में ब्राह्मण एवं शूद्र के बीच (कृत्रिम) युद्ध करने को कहा गया है, यद्यपि सूत्र इसे वैश्य (अर्य) एवं शूद्र का युद्ध बतलाता है। कतिपय विद्वानों के मत में यह युद्ध और विरोध प्रजातीय न होकर सांस्कृतिक था। वस्तुतः यह ठीक भी जान पड़ता हैं, क्योंकि शूद्र तथा दास बृहत समाज के अभिन्न अङ्ग थे।

आर्य' शब्द (स्त्रीलिंग आर्या) आर्य जातियों के विशेषण, नाम, वर्ण, निवास के रूप में प्रयुक्त हुआ है। यह श्रेष्ठता सूचक भी माना गया है :

योऽहमार्येणं परवान् भ्रात्रा ज्येष्ठेन भामिनि।' (रामायण, द्वितीय काण्ड)

इस प्रकार महर्षि बाल्मीकि ने आर्य शब्द को श्रेष्ठ या सम्मान्य के अर्थ में ही प्रयुक्त किया है। स्मृति में आर्य का निम्नलिखित लक्षण किया गया है :

कर्त्तव्यमाचरन्, काममकर्तव्यमनाचरन्। तिष्ठति प्राकृताचारे स तु आर्य्य इति स्मृतः॥

वर्णाश्रमानुकूल कर्त्तव्य में लीन, अकर्त्तव्य से विमुख आचारवान् पुरुष ही आर्य है। अतः यह सिद्ध है कि जो व्यक्ति या समुदाय सदाचारसम्पन्न, सकल विषयों में अध्यात्म लक्ष्य युक्त, दोषरहित और धर्मपरायण है, वही आर्य कहलाता है।

आर्यभट : गुप्तकाल के प्रमुख ज्योतिर्विद। ये गणित और खगोल ज्योतिष के आचार्य माने जाते हैं। इनके बाद के ज्योतिर्विदों में वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, द्वितीय आर्यभट, भास्कराचार्य, कमलाकर जैसे प्रसिद्ध ग्रन्थकार हुए हैं। इनका जन्मकाल सन् 476 ई० और निवासस्थान पाटलिपुत्र (पटना) कहा जाता है। गणित ज्योतिष का 'आर्य सिद्धांत' इन्हीं का प्रचलित किया हुआ है, जिसके अनुसार भारत में इन्होंने ही सर्वप्रथम पृथ्वी को चल सिद्ध किया इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ 'आर्यभटीय' है।

आर्यसमाज : प्राचीन ऋषियों के वैदिक सिद्धांतों की पक्षपाती प्रसिद्ध संस्था, जिसके प्रतिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के एक गाँव में सन् 1824 ई० में हुआ था। इनका प्रारंभिक नाम मूलशङ्कर तथा पिता का नाम अम्बाशङ्कर था। ये बाल्यकाल में शङ्कर के भक्त थे। इनके जीवन को मोटे तौर से तीन भागों में बाँट सकते हैं, (1824--1845) घर का जीवन, (1845-1863) भ्रमण तथा अध्ययन एवं (1863-1883) प्रचार तथा सार्वजनिक सेवा।

इनके प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व की हैं : 1. चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा), 2. अपनी बहिन की मृत्यु से अत्यन्त दुःखी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय और 3. इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से भागना। घर त्यागने के पश्चात् 18 वर्ष तक इन्होंने संन्यासी का जीवन बिताया। बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रथमतः वेदान्त के प्रभाव में आये तथा आत्मा एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। ये अद्वैत मत में दीक्षित हुए एवं इनका नाम 'शुद्ध चैतन्य' पड़ा। पश्चात् ये संन्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं यहाँ इनकी प्रचलित उपाधि दयानन्द सरस्वती हुई। फिर इन्होंने योग को अपनाते हुए वेदान्त के सभी सिद्धान्तों को छोड़ दिग्रा। दयानन्द सरस्वती के, मध्य जीवन काल में जिस महापुरुष ने सबसे बड़ा धार्मिक प्रभाव डाला, वे थे मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान् थे। उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया। वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी “मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओ और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।” संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला वैदिक धर्म तक पहुँचता हुआ पाते हैं। इन्होंने शैवमत एवं वेदान्त का परित्याग किया, सांख्ययोग को अपनाया जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था औऱ इसी दार्शनिक माध्यम से वेद की भी व्याख्या की। जीवन के अन्तिम बीस वर्ष इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाये। दक्षिण में बम्बई से पूना, उत्तर में कलकता से लाहौर तक इन्होंने अपनी शिक्षाएँ घूम-घूम कर दीं। पण्डितों, मौलवियों एवं पादरियों से इन्होंने शास्त्रार्थ किया, जिसमें काशी का शास्त्रार्थ महत्त्वपूर्ण था। इस बीच इन्होंने साहित्यकार्य भी किये। चार वर्ष की उपदेश यात्रा के पश्चात् ये गङ्गातट पर स्वास्थ्य सुधारने के लिए फिर बैठ गये। ढाई वर्ष के बाद पुनः जनसेवा का कार्य आरम्भ किया।

10 अप्रैल सन् 1875 में बम्बई में इन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की। 1877 में दिल्ली दरबार के अवसर पर दिल्ली जाकर पंजाब के कुछ भद्रजनों से भी मिले, जिन्होंने इन्हें पंजाब आने का निमन्त्रण दिया। यह उनकी पंजाब की पहली यात्रा थी, जहाँ इनका मत भविष्य में खूब फूला-फला। 1878-1881 के मध्य आर्यसमाज एवं थियोसॉफिकल सोसाइटी का बड़ा ही सुन्दर भाईचारा रहा। किन्तु शीघ्र ही दोनों में ईश्वर के व्यक्तित्व के ऊपर मतभेद हो गया।

स्वामी दयानन्द भारत के अन्य धार्मिक चिन्तकों, जैसे देवेन्द्रनाथ ठाकुर, केशवचन्द्र सेन (ब्रह्मसमाज), मैडम ब्लौवाट्स्की एवं कर्नल आलकॉट (थियोसॉफिकल सोसाइटी), भोलानाथ साराभाई (प्रार्थनासमाज), सर सैयद (रिफार्म्ड इस्लाम) एवं डॉ० टी० जे० स्काट तथा रे० जे० ग्रे (ईसाई प्रतिनिधि) से भी मिले। जीवन के अन्तिम दिनों में स्वामीजी राजस्थान में थे। आपने महाराज जोधपुर तथा अन्य राजाओं पर अच्छा प्रभाव डाला। कुछ दिनों बाद स्वामीजी बीमार पड़े एवं 30 अक्तूबर सन् 1883 में अजमेर में इनकी इहलीला समाप्त हुई। कहा जाता है कि रसोइए ने इनको विष दे दिया।

आर्य समाज के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं---

1. सभी सत्य ज्ञान का प्रारम्भिक कारण ईश्वर है।

2. ईश्वर ही सर्वस्व सत्य है, सर्वज्ञान है, सर्व सौन्दर्य है, अशरीरी है, सर्व शक्तिमान् है, न्यायकारी है, दयालु है, अजन्मा है, अनन्त है, अपरिवर्तनशील है, अनादि है, अतुलनीय है, सबका पालनकर्त्ता एवं सबका स्वामी है, सर्वव्याप्त है, सर्वज्ञा है, अजर व अमर है, भयरित है, पवित्र है एवं सृष्टि का कारण है। केवल उसी की पूजा होनी चाहिए।

3. वेद ही सच्चे ज्ञानग्रन्थ हैं तथा प्रत्येक आर्य का सबसे पुनीत कर्त्तव्य है उन्हें पढ़ना या सुनना एवं उनकी शिक्षा दूसरों को देना।

4. प्रत्येक प्राणी को सत्य को ग्रहण करने एवं असत्य के त्याग के लिए सर्वदा तत्पर रहना चाहिए।

5. प्रत्येक काम नेकीपूर्ण होना चाहिए तथा उचित एवं अनुचित के चिन्तन के बाद ही उसे करना चाहिए।

6. आर्यसमाज का प्रथामिक कर्त्तव्य है मनुष्य मात्र की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति द्वारा विश्वकल्याण करना।

7. हर एक के प्रति न्याय, प्रेम एवं उसकी योग्यता के अनुसार व्यवहार करना चाहिए।

8. अन्धकार को दूर कर ज्ञान ज्योति को फैलाना चाहिए।

9. किसी को भी केवल अपनी ही भलाई से सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए अपितु अपनी उन्नति का सम्बन्ध दूसरों की उन्नति से जोड़ना चाहिए।

10. साधारण समाजोन्नति या समाज कल्याण के सम्बन्ध में मनुष्य को अपना मतान्तर त्यागना तथा अपनी व्यक्तिगत बातों को भी छोड़ देना चाहिए। किन्तु व्यक्तिगत विश्वासों में मनुष्य को स्वतन्त्रता बरतनी चाहिए।

ऊपर के दस सिद्धान्तों में से प्रथम तीन जो ईश्वर के अस्तित्व, स्वभाव तथा वैदिक साहित्य के सिद्धान्त को दर्शाते हैं, धार्मिक सिद्धान्त हैं। अन्तिम सात नैतिक सिद्धांत हैं। आर्य समाज का धर्मविज्ञान वेद के ऊपर अवलम्बित है। स्वामीजी वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे और धर्म के सम्बन्ध में अन्तिम प्रमाण।

आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने देखा कि देश में अपने ही विभिन्न मतों व सम्प्रदायों के अतिरिक्त विदेशी इस्लाम एवं ईसाई धर्म भी जड़ पकड़ रहे हैं। दयानन्द के समाने यह समस्या थी कि कैसे भारतीय धर्म का सुधार किया जाय। किस प्रकार प्राचीन एवं अर्वाचीन का तथा पश्चिम एवं पूर्व के धर्म व विचारों का समन्वय किया जाय, जिसमें भारतीय गौरव फिर स्थापित हो सके। इसका समाधान स्वामी दयानन्द ने 'वेद' के सिद्धान्तों में खोज निकाला, जो ईश्वर के शब्द हैं।

स्वामी दयानन्द के वैदिक सिद्धान्त को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है --`वेद` शब्द का अर्थ ज्ञान है। यह ईश्वर का ज्ञान है इसलिए पवित्र एवं पूर्ण है। ईश्वर का सिद्धान्त दो प्रकार से व्यक्त किया गया है--1. चार वेदों के रूप में, जो चार ऋषियों (अग्नि, वायु, सूर्य एवं अङ्गिरा) को सृष्टि के आरम्भ में अवगत हुए। 2. प्रकृति या विश्व के रूप में, जो वेदविहित सिद्धान्तों के अनुसार उत्पन्न हुआ। वैदिक साहित्य-ग्रन्थ एवं प्रकृति-ग्रन्थ से यहाँ साम्य प्रकट होता है। स्वामी दयानन्द कहते हैं, `मैं वेदों को स्वतः प्रमाणित सत्य मानता हूँ। ये संशयरहित हैं एवं दूसरे किसी अधिकारी ग्रन्थ पर निर्भर नहीं रहते। ये प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो ईश्वर का साम्राज्य है।

वैदिक साहित्य के आर्य सिद्धान्त को यहाँ संक्षेप में दिया जाता है--1. वेद ईश्वर द्वारा व्यक्त किये गये हैं जैसा कि प्रकृति के उनके सम्बन्ध से प्रमाणित है। 2. वेद ही केवल ईश्वर द्वारा व्यक्त किये गये हैं क्योंकि दूसरे ग्रन्थ प्रकृति के साथ यह सम्बन्ध नहीं दर्शाते। 3. वे विज्ञान प्रकृति एवं मनुष्य के सभी धर्मों के मूल स्रोत हैं। आर्यसमाज के कर्तव्यों में से सिद्धान्ततः दो महत्वपूर्ण हैं : 1. भारत को (भूले हुए) वैदिक पथ पर पुनः चलाना और 2. वैदिक शिक्षाओं को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करना।

आर्यावर्त : इसका शाब्दिक अर्थ है 'आर्या आवर्तन्तेऽत्र' = आर्य जहाँ सम्यक् प्रकार से बसते हैं। इसका दूसरा अर्थ है 'पुण्यभूमि'। मनुस्मृति (2.22) में आर्यावर्त की परिभाषा इस प्रकार दी हुई है :

आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्। तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः॥

[पूर्व में समुद्र तक और पश्चिम में समुद्र तक, (उत्तर दक्षिण में हिमालय, विन्ध्याचल) दोनों पर्वतों के बीच अन्तराल (प्रदेश) को विद्वान् आर्यावर्त कहते हैं।] मेधातिथि मनुस्मृति के उपर्युक्त श्लोक का भाष्य करते हुए लिखते हैं :

आर्या आवर्तन्ते तत्र पुनः पुनरुद्भवन्ति। आक्रम्याक्रम्यापि न चिरं ततत्र म्लेच्छाः स्थातारो भवन्ति।

[आर्य वहाँ बसते हैं, पुनःपुनः उन्नति को प्राप्त होते हैं। कई बार आक्रमण करके भी म्लेच्छ (विदेशी) स्थिर रूप से वहाँ नहीं बस पाते।]

आजकल यह समझा जाता है कि इसके उत्तर में हिमालय श्रृंखला, दक्षिण में विन्ध्यमेखला, पूर्व में पूर्वसागर (वंग आखात) और पश्चिम में पश्चिम पयोधि (अरब सागर) है। उत्तर भारत के प्रायः सभी जनपद इसमें सम्मिलित हैं। परन्तु कुछ विद्वानों के विचार में हिमालय का अर्थ है पूरी हिमालय श्रृंङ्खला, जो प्रशान्त महासागर से भूमध्य महासागर तक फैली हुई है और जिसके दक्षिण में सम्पूर्ण पश्चिमी एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के प्रदेश सम्मिलित थे। इन प्रदेशों में सामी और किरात प्रजाति बाद में आकर बस गयी।

आर्षानुक्रमणी : शौनक ऋषि प्रणीत एक वैदिक अनुक्रमणी ग्रन्थ। ऋग्वेद के समस्त सूक्त संख्या में 1028 हैं। इनमें से 'बालखिल्य' नामक 11 सूक्तों पर सायणाचार्य का भाष्य है। शौनक ऋषि की आर्षानुक्रमणी में उनका उल्लेख पाया जाता है।

आर्षेय ब्रह्माण : सामवेद की जैमिनीय संहिता का एक ब्राह्मण। सायणाचार्य ने इसका भी भाष्य किया है। इस ग्रन्थ में ऋषि सम्बन्धी उपदेश हैं, अर्थात् सामों के ऋषि, छन्द, देवता इत्यादि पर व्याख्या और विचार है। साथ ही कई धार्मिक तथा पौराणिक कथाएँ पायी जाती हैं। संस्कृत के कथा-साहित्य की प्राचीन परम्परा इसमें सुरक्षित है।

आलेख्यसर्पपञ्चमी (नागपञ्चमी) : उत्तर भारत में श्रावण शुक्ल पञ्चमी को तथा दक्षिण भारत में (अमान्त गणना के अनुसार) भाद्र शुक्ल पंचमी को यह व्रत होता है। रंगीन चूर्णों से किसी स्थान पर नागों की आकृतियाँ बनाकर उनका पूजन करना चाहिए। परिणामस्वरूप नागों के भय से मुक्ति होती है। दे० भविष्यत् पुराण (ब्राह्म पर्व, 37.1-3)।

आवसथ : इसका ठीक अर्थ अतिथि-स्वागतशाला अथवा स्थान है (अथर्व० 9.6,5)। इसका सम्बन्ध विशेष रूप से ब्राह्मण एवं दूसरों से था, जो भोज तथा यज्ञों के अवसर पर आते थे। यह प्रायः आधुनिक धर्मशाला अथवा यात्रीनिवास के समान था। इसका प्रयोग निवासस्थान के साधारण अर्थ में भी होता जान पड़ता है (ऐ० उप० 3.12)।

आशादशमी व्रत : किसी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को प्रारम्भ कर छः मास, एक वर्ष अथवा दो वर्ष तक गृह के प्राङ्गण में दस कोष्ठक खींचकर उनमें भगवान् का पूजन करना चाहिए। इससे व्रती की समस्त आशाओं तथा कामनाओं की पूर्ति होती है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड 1. 977-981; व्रतराज 356--7।

आशादित्य व्रत : आश्विन मास के रविवार को व्रत का अनुष्ठन प्रारम्भ कर एक वर्षपर्यन्त सूर्य का उसके बारह विभिन्न नामों से पूजन होना चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 533-37।

आश्मरथ्य आचार्य : वेदान्त के व्याख्याता प्राचीन आचार्य। वेदान्तसूत्र (1। 2। 21; 1। 4। 20) में जो इनके मत का उल्लेख आया है उससे आचार्य शङ्कर तथा भामतीकार वाचस्पति मिश्र ने इन्हें विशिष्टाद्वैतवादी सिद्ध किया है। अतः ये वेदव्यास और जैमिनि से पहले हुए थे। इनका मत है कि परमेश्वर अनन्त होने पर भी उपासक के ऊपर अनुग्रह करने के लिए प्रादेशमात्र स्थान में आविर्भूत होते हैं और विज्ञानात्मा एवं परमात्मा में परस्पर भेदाभेद-सम्बन्ध है। कहा जाता है कि आश्मरथ्य के इस भेदाभेद की ही आगे चलकर यादवप्रकाश के द्वारा पुष्टि हुई है। इसके अनुसार आत्मा न तो एकान्ततः ब्रह्म से भिन्न है और न अभिन्न है। स्वामी निम्बार्काचार्य तथा भास्कराचार्य द्वारा प्रस्तुत वेदान्तसूत्र के भाष्य में भी आश्मरथ्य के भेदाभेदवाद का पोषण हुआ है।

आश्रम : जिन दो संस्थाओं के ऊपर हिन्दू समाज का संगठन हुआ है वे हैं वर्ण और आश्रम। वर्ण का आधार मनुष्य की प्रकृति अथवा उसकी मूल प्रवृत्तियाँ हैं, जिसके अनुसार वह जीवन में अपने प्रयत्नों और कर्त्तव्यों का चुनाव करता है। आश्रम का आधार संस्कृति अथवा व्यक्तिगत जीवन का संस्कार करना है। मनुष्य जन्मना अनगढ़ और असंस्कृत होता है; क्रमशः संस्कार से वह प्रबुद्ध और संस्कृत बन जाता है। सम्पूर्ण मानवजीवन मोटे तौर पर चार विकास-क्रमों में बाँटा जा सकता है-- (1) बाल्य और किशोरावस्था, (2) यौवन, (3) प्रौढ़ावस्था और (4) वृद्धावस्था। इन्हीं के अनुरूप चार आश्रमों की कल्पना की गयी थी, जो (1) ब्रह्मचर्य, (2) गार्हस्थ्य (3) वानप्रस्थ और संन्यास कहलाते हैं। आश्रमों के नाम और क्रम में कहीं कहीं अन्तर पाया जाता है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र (2.9.21, 1) के अनुसार गार्हस्थ्य, आचार्यकुल (ब्रह्मचर्य), मौन और वानप्रस्थ चार आश्रम थे। गौतमधर्मसूत्र (3.2) में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, भिक्षु और वैखानस चार आश्रमों के नाम हैं। वसिष्ठधर्मसूत्र (7.1-2) ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और परिव्राजक का उल्लेख करता है।

आश्रमों का सम्बन्ध विकास कर्म के साथ-साथ जीवन के मौलिक उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से भी था-- ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध मुख्यतः धर्म अर्थात् संयम-नियम से, गार्हस्थ्य का सम्बन्ध अर्थ-काम से, वानप्रस्थ का सम्बन्ध उपराम और मोक्ष की तैयारी से और संन्यास का सम्बन्ध मोक्ष से था। इस प्रकार उद्देश्यों अथवा पुरुषार्थों के साथ आश्रम का अभिन्न सम्बन्ध है।

जीवन की इस प्रक्रिया के लिए `आश्रम` शब्द का चुनाव बहुत ही उपयुक्त था। यह शब्द `श्रम्` धातु से बना है, जिसका अर्थ है `श्रम करना, अथवा पौरुष दिखलाना` (अमरकोश, भानुजी दीक्षित)। सामान्यतः इसके तीन अर्थ प्रचलित हैं--(1) वह स्थिति अथवा स्थान जिसमें श्रम किया जाता है, (2) स्वयं श्रम अथदा तपस्या और (3) विश्रामस्थान।

वास्तव में आश्रम जीवन की वे अवस्थाएँ हैं जिनमें मनुष्य श्रम, साधना और तपस्या करता है और एक अवस्था की उपलब्धियों को प्राप्त कर तथा इनसे विश्राम लेकर जीवन के आगामी पड़ाव की ओर प्रस्थान करता है।

मनु के अनुसार मनुष्य का जीवन सौ वर्ष का होना चाहिए (शतायुर्वै पुरुषः) अतएव चार आश्रमों का विभाजन 25-25 वर्ष का होना चाहिए। प्रत्येक मुष्य के जीवन में चार अवस्थाएँ स्वाभाविक रूप से होती हैं और मनुष्य को चारों आश्रमों के कर्तव्यों का यथावत् पालन करना चाहिए। परन्तु कुछ ऐसे सम्प्रदाय प्राचीन काल में थे औऱ आज भी हैं जो नियमतः इनका पालन करना आवश्यक नहीं समझते। इनके मत को `बाध` कहा गया है। कुछ सम्प्रदाय आश्रमों के पालन में विकल्प मानते हैं अर्थात उनके अनुसार आश्रम के क्रम अथवा संख्या में हेरफेर हो सकता है। परन्तु सन्तुलित विचारधारा आश्रमों के समुच्च्य में विश्वास करती आयी है। इसके अनुसार चारों आश्रमों का पालन क्रम से होना चाहिए। जीवन के प्रथम चतुर्थांश में ब्रह्मचर्य, द्वियीय चतुर्थांश में गार्हस्थ्य, तृतीय चतुर्थांश में वानप्रस्थ और अन्तिम चतुर्थांश में संन्यास का पालन करना चाहिए। इसके अभाव में सामाजिक जीवन का सन्तुलन भंग होकर मिथ्याचार अथवा भ्रष्टाचार की वृद्धि होती है।

विभिन्न आश्रमों के कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन आश्रमधर्म के रूप से स्मृतियों में पाया जाता है। संक्षेप में मनुस्मृति से आश्रमों के कर्त्तव्य नीचे दिये जा रहे हैं--ब्रह्मचर्य आश्रम में गुरुकुल में निवास करते हुए विद्यार्जन और व्रत का पालन करना चाहिए (मनुस्मृति, 4.1)। दूसरे आश्रम गार्हस्थ्य में विवाह करके घर बसान चाहिए; सन्तान उत्पत्ति द्वारा पितृऋण, यज्ञ द्वारा देवऋण और नित्य स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण चुकाना चाहिए (मनुस्मृति, 5.169)। वानप्रस्थ आश्रम में सांसारिक कार्यों से उदासीन होकर तप, स्वाध्याय, यज्ञ, दान आदि के द्वारा वन में जीवन विताना चाहिए (मनुस्मृति 6.1-2)। वानप्रस्थ समाप्त करके संन्यास आश्रम में प्रवेश करना होना है। इनमें सांसारिक सम्बन्धों का पूर्णतः त्याग और परिव्रजन (अनागारिक होकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहना) विहित है (मनु०--6.33)। दे० पृथक्, पृथक् विभिन्न आश्रम।

वर्ण और आश्रम मनुष्य के सम्पूर्ण कर्त्तव्‍यों का समाहार करते हैं। परन्तु जहाँ वर्ण मनुष्य के सामाजिक कर्तव्यों का विधान करता है वहाँ आश्रम उसके व्यक्तिगत कर्तव्यों का। आश्रम व्यक्तिगत जीवन की विभिन्न विकास-सरणियों का निदेशन करता है और मनुष्य को इस बात का बोध कराता है कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है, उसको प्राप्त करने के लिए उसको जीवन का किस प्रकार संघटन करना चाहिए और किन किन साधनों का उपयोग करना चाहिये। वास्तव में जीवन की यह अनुपम और उच्चतम कल्पना और योजना है। अन्य देशों के इतिहास में इस प्रकार की जीवन-योजना नहीं पायी जाती है। प्रसिद्ध विद्वान् डॉयसन ने इसके सम्बन्ध में लिखा है :

हम यह कह नहीं सकते कि मनुस्मृति तथा अन्य स्मृतियों में वर्णित जीवन की यह योजना कहाँ तक व्यावहारिक जीवन में कार्यान्वित हुई थी। परन्तु हम यह स्वीकार करने में स्वतन्त्र हैं कि हमारे मत में मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में ऐसी कोई विचारधारा नहीं है जो इस विचार की महत्ता की समता कर सके। (दे० 'आश्रम' शब्द, 'इनसाइक्लोपीडिया, रेलिजन और ईथिक्स' में।)

आश्रमव्रत : चैत्र शुक्ल चतुर्थी को प्रारम्भ कर वर्ष को चार-चार महीनों के तीन भागों में विभाजित करके पूरे वर्ष इस व्रत का आचरण करना चाहिए। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध का वर्ष के प्रत्येक भाग में क्रमशः पूजन होना चाहिए। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 3.142, 1-7।

आश्रमोपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्, जिसमें संन्यासी की पूर्वावस्था का विशद वर्णन है। इससे संन्यासी की सांसारिक जीवन से विदाई, उसकी वेशभूषा, दूसरी आश्वकताएँ, भोजन, निवास, एवं कार्यादि पर विस्तृत प्रकाश पड़ता है। संन्यास सम्बन्धी उपनिषदों, यथा ब्रह्म संन्यास, आरुणेय, कंठश्रुति, परमहंस तथा जाबाल में भी ऐसा ही पूर्ण विवरण प्राप्त होता है।

आश्वलायनगृह्यसूत्र : ऋग्वेद के गृह्यसूत्रों में एक। इसकी रचना करने वाले ऋषि अश्वल अथवा आश्वलायन थे। इसमें गृह्यसंस्कारों, ऋतु यज्ञों तथा उत्सवों का सविस्तार वर्णन है।

आश्वलायनगृह्यपरिशिष्ट : आश्वलायन द्वारा रचित ऋग्वेद के अनुपूरक कर्मकाण्ड से सम्बन्ध रखनेवाला यह परिशिष्ट ग्रन्थ है।

आश्वलायनश्रौतसूत्र : सूत्रों की रचना कर्मकाण्ड विषयक है। इन्हें कल्पसूत्र भी कहते हैं। ऋग्वेद के श्रौतसूत्रों में सबसे पहला 'आश्वलायनसूत्र' समझा जाता है। यह बारह अध्यायों में है। ऐतरेय ब्राह्मण के साथ आश्वलायन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। अश्वल ऋषि विदेहराज जनक के ऋत्विजों में 'होता' थे। किसी किसी का कहना कि ये ही इन सूत्रों के प्रवर्तक थे, इसीलिए इनका आश्वलायन नाम पड़ा। कुछ लोग आश्वलायन को पाणिनि का समकालीन बतलाते हैं। भारतीय विद्वान् इस दूसरी कल्पना को नहीं मानते। ऐतरेय आरण्यक के चौथे काण्ड के प्रणेता का नाम आश्वलायन है। आश्वलायन के गुरु 'प्रातिशाख्यसूत्र' के रचयिता शौनक कहे जाते हैं।

आश्विनकृत्य : आश्विन मास में अनेक व्रत तथा उत्सव होते हैं, जिनमें से मुख्य कृत्यों का उल्लेख यथास्थान किया जायगा। यहाँ कुछ का ही उल्लेख होगा। विष्णुधर्मसूत्र (90.24.25) में स्पष्ट कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति इस मास में प्रतिदिन घृत का दान करे तो वह न केवल अश्विनी को सन्तुष्ट करेगा अपितु सौन्दर्य भी प्राप्त करेगा। ब्राह्मणों को गोदुग्ध अथवा गोदुग्ध से बनी अन्य वस्तुओं सहित भोजन कराने से उसे राज्य की प्राप्ति होगी। इसी मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को पौत्र द्वारा, जिसके पिता जीवित हों, अपने पितामह तथा पितामही के श्राद्ध का विधान है। उसी दिन नवरात्र प्रारम्भ होता है। शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को सती (भगवती पार्वती) का पूजन करना चाहिए। अर्घ्‍य, मधुपर्क, पुष्प इत्यादि वस्तुओं द्वारा धार्मिक, पतिव्रता तथा सधवा स्त्रियों के प्रति क्रमशः जिनमें माता-बहिन तथा अन्य पूज्य सभी स्त्रियाँ आ जाती हैं, सम्मान प्रदर्शित किया जाना चाहिए। पञ्चमी के दिन कुश के बनाये हुए नाग तथा इन्द्राणी का पूजन करना चाहिए। शुक्ल पक्ष की किसी शुभ तिथि तथा कल्याणकारी नक्षत्र और मुहूर्त में सुधान्य से परिपूरित क्षेत्र में जाकर संगीत तथा नृत्य का विधान है। वहीं पर हवन इत्यादि करके नव धान्य का दही के साथ सेवन करना चाहिए। नवीन अंगूर भी खाने का विधान है।

शुक्ल पक्ष में जिस समय स्वाति नक्षत्र हो उस दिन सूर्य तथा घोड़े की पूजा की जाय, क्योंकि इसी दिन उच्चैःश्रवा सूर्य को ढोकर ले गया था। शुक्ल पक्ष में उस दिन जिसमें मूल नक्षत्र हो, सरस्वती का आवाहन करके, पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में ग्रन्थों में उसकी स्थापना करके, उत्तराषाढ़ में नैवेद्यादि की भेंटकर, श्रवण में उसका विसर्जन कर दिया जाय। उस दिन अनध्याय रहें; लिखना पढ़ना, अध्यापनादि सब वर्जित है। तमिल नाडु में आश्विन शुक्ल नवमी के दिन ग्रन्थों में सरस्वती की स्थापना करके पूजा की जाती है। तुला मास (आश्विन मास) कावेरी में स्नान करने के लिए बड़ा पवित्र माना गया है। अमावस्या के दिन भी कावेरी नदी में एक विशेष स्नान का आयोजन किया जाता है। दे० निर्णयसिन्धु, पुरुषार्थचिन्तामणि, स्मृतिकौस्तुभ आदि।

आषाढ़कृत्य : आषाढ़ मास के धार्मिक कृत्यों तथा प्रसिद्ध व्रतों का उल्लेख यथास्थान किया गया है। यहाँ कुछ छोटे व्रतों का उल्लेख किया जायागा। मास के अन्तर्गत एकभक्त व्रत तथा खड़ाऊँ, छाता, नमक तथा आवलों का ब्राह्मण को दान करना चाहिए। इस दान से वामन भगवान् की निश्चय ही कृपादृष्टि होगी। यह कार्य या तो आषाढ़ मास के प्रथम दिन हो अथवा सुविधानुसार किसी भी दिन। आषाढ़ द्वितीया को यदि पुष्य नक्षत्र हो तो कृष्ण, बलराम तथा सुभद्रा का रथोत्सव निकाला जाय। शुक्ल पक्ष की सप्तमी को वैवस्वत सूर्य की पूजा होनी चाहिए, जो पूर्वाषाढ़ को प्रकट हुआ था। अष्टमी के दिन महिषासुरमर्दिनी भगवती दुर्गा को हरिद्रा, कपूर तथा चन्दन से युक्त जल में स्नान कराना चाहिए। तदनन्तर कुमारी कन्याओं और ब्राह्मणों को सुस्वादु मधुर भोजन कराया जाय। तत्पश्चात् द्वीप जलाना चाहिए। दशमी के दिन वरलक्ष्मी व्रत तमिलनाडु में अत्यन्त प्रसिद्ध है। एकादशी तथा द्वादशी के दिन भी उपवास, पूजन आदि का विधान है। आषाढ़ी पूर्णिमा का चन्द्रमा बड़ा पवित्र है। अतएव उस दिन दानपुण्य अवश्य होना चाहिए। यदि संयोग से पूर्णिमा के दिन उत्‍तराषाढ़ नक्षत्र हो तो दस विश्वेदेवों का पूजन किया जाना चाहिए। पूर्णिमा के दिन खाद्य का दान करने से कभी न भ्रान्ति होने वाला विवेक तथा बुद्धि प्राप्ति होती है। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण।

आसन : (1) आसन शब्द का अर्थ बैठना अथवा शरीर की एक विशेष प्रकार की स्थिति। हस्त-चरण आदि के विशेष संस्थान से इसका रूप बनता है। 'अष्टांङ्गयोग' का यह तीसरा अङ्ग है। पतञ्जलि के अनुसार आसन की परिभाषा है 'स्थिरसुखमासनम्' अर्थात् जिस शारीरिक स्थिति से स्थिर सुख मिले। परन्तु आगे चलकर आसनों का बड़ा विकास हुआ और इनकी संख्या 84 तक पहुँच गयी। इनमें दो अधिक प्रयुक्त हैं: 'एकं सिद्धासनं नाम द्वितीयं कमलासनम्'। ध्यान की एकग्रता के लिए आसन तथा प्राणायम साधन मात्र हैं, किन्तु क्रमशः इनका महत्व बढ़ता गया और ये प्रदर्शन के उपकरण बन गये।

तन्त्रसार में निम्नांकित पाँच आसन प्रसिद्ध हैं :, पद्मासनं स्वस्तिकाख्यं भद्र वज्रासनं तथा। वीरासनमिति प्रोक्तं क्रमादासनपञ्चकम्॥

पद्मासन, स्वस्तिकासन, भद्रासन, वज्रासन तथा वीरासन ये क्रमशः पाँच आसन कहे जाते हैं।]

इनकी विधि इस प्रकार है :

ऊर्वोरुपरि विन्यस्य सम्यक् पादतले उभे। अङ्गुष्ठौ च निबध्नीयाद् हस्ताभ्यां व्युत्क्रमात्तथा॥ पद्मासनमिति प्रोक्तं योगिनां हृदयङ्गमम्॥1॥ जानूर्वोरन्तरे सम्यक् कृत्वा पादतले उभे। ऋजुकायो विशेन्मन्त्री स्वस्तिकं तत्प्रचक्षते॥2॥ सीमन्याः पार्श्वयोर्न्यस्य गुल्फयुग्मं सुनिश्चलम्। वृषणाधः पादपार्ष्णि पाणिभ्यां परिबन्धयेत्। भद्रासनं समुद्दिष्टं योगिभिः सारकल्पितम्॥3॥ ऊर्वो: पादौ क्रमान्न्यस्येत् कृत्वा प्रत्यङ्मुखाङ्गुली। करौ निदध्यादाख्यातं वज्रासनमनुत्तम्म्॥4॥ एकपादमधः कृत्वा विन्यस्‍योरौ तथेतरम्। ऋजुकायो विशेन्मन्त्री वीरासनमितीरितम्॥5॥

(2) गोरखनाथी सम्प्रदाय, जो एक नयी प्रणाली के योग का उत्थान था, भारत के कुछ भागों में प्रचलित हुआ। किन्तु यह प्राचीन योगप्रणाली से मिल नहीं सका। इसे हठयोग कहते हैं तथा इसका सबसे महत्वपूर्ण अङ्ग है--शरीर की कुछ क्रियाओं द्वारा शुद्धि, कुछ शारीरिक व्यायाम तथा मस्तिष्क का महत् केन्द्रीकरण (समाधि)। इनमें बहुसंख्यक शारीरिक आसनों का प्रयोग कराया जाता है।

(3) उपवेशन के आधार पीठादि को भी आसन कहा जाता है। यह सोलह प्रकार के पूजा-उपचारों में से है। कालिकापुराण (अ० 67) में इन आसनों का विधान और विस्तृत वर्णन पाया जाता है :

उपचारान् प्रवक्ष्यामि श्रृणु षोडश भैरव। यैः सम्यक् तुष्यते देवी देवोऽप्यन्यो हि भक्तितः॥ आसनं प्रथमं दद्यात् पौष्पं दारुजमेव वा। वास्त्रं वा चार्मणं कोशं मण्डलस्योत्तरे सृजेत्॥

[हे भैरव, सुनो। मैं सोलह उपचारों का वर्णन कर रहा हूँ जिससे देवी तथा अन्य देव प्रसन्न होते हैं। इनमें आसन प्रथम है जिसका अर्पण करना चाहिए। आसन कई प्रकार के होते हैं, जैसे पौष्प (पुष्प का बना हुआ), दारुज (काष्ठ का बना हुआ), वस्त्र (वस्त्र का बना हुआ), चार्मण (चमड़े, यथा अजिन आदि का बना हुआ), कौश (कुशनिर्मित)। इन आसनों को मण्डल के उत्तर में बनाना (रखना) चाहिए।]

आसुर : (1) असुरभाव संयुक्त अथवा असुर से सम्बन्ध रखनेवाला। ब्राह्म आदि आठ प्रकार के विवाहों में से भी एक का नाम आसुर है। मनुस्मृति (3.31) में इसकी परिभाषा इस प्रकार की गयी है :

ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः। कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते॥

[कन्या की जातिवालों (माता, पिता, भाई, बन्धु आदि) को अथवा स्वयं कन्या को ही धन देकर स्वच्छन्दतापूर्वक कन्याप्रदान (विवाह) करना आसुर (धर्म) कहलाता है।]

इस प्रकार के विवाह को भी धर्मसंमत कहा गया है, क्योंकि यह पैशाच विवाह की पाशविकता, राक्षस विवाह की हिंसा और गान्धर्व विवाह की कामुकता से मुक्त है। परन्तु फिर भी यह अप्रशस्त कहा गया है। कन्यादान एक प्रकार का यज्ञ माना गया है, जिसमें कन्या का पिता अथवा उसका अभिभावक ही यजमान है। उसके द्वारा किसी प्रकार का भी प्रतिग्रह निन्दनीय है। इसलिए जब कन्यादान का यज्ञ के रूप में महत्‍त्‍व बढ़ा तो आसुर विवाह कन्याविक्रय के समान दूषित समझा जाने लगा। अन्य अप्रशस्त विवाहों की तरह केवल गणना के लिए इसका उल्लेख होता है। दे० 'विवाह'।

(2) श्रीमद्भगवद्गीता (अ० 16) में समस्त जीवधारी (भूतसर्ग) दो भागों में विभक्त हैं। वे हैं दैव और आसुर। आसुर का वर्णन इस प्रकार किया गया है :

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च। दैवो विस्तरशः प्रोक्तः आसुरं पार्थ मे श्रृणु॥ प्रवृत्तिञ्च निवृत्तिञ्च जना न विदुरासुराः। न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥ असत्यमप्रतिष्ठन्ते जगदाहुरनीश्वरम्। अपस्परसम्भूतं किमन्त्यत्कामहेतुकम्॥ एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्यबुद्धयः। प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥ आदि

आसुरि : बृहदारण्यक उपनिषद् के प्रथम दो वंशों (आचार्यों की तालिका) में भरद्वाज के शिष्य एवं औपड्घनि के आचार्य रूप में इनका उल्लेख है, किन्तु तीसरे में याज्ञवल्क्य के शिष्य तथा आसुरायण के आचार्य रूप में उल्‍लेख है। शतपथ ब्राह्मण के प्रथम चार अध्‍यायों में य़ाज्ञिक अधिकारी एवं सत्य पर अटल रहने वाले पुरुषों का उल्लेख हुआ है, जिनमें इनकी गणना है।

सांख्यशास्त्र के आचार्य, कपिल के शिष्य भी आसुरि हुए हैं :

पञ्चमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम्। प्रोवाचासुरये सांख्यं तत्‍त्वग्रामविनिर्णयम्॥ (भागवत, 1.3.10)

आस्तिक : (1) वेद के प्रामाण्य (और वर्णाश्रम व्यवस्था) में आस्था रखने वाले को आस्तिक कहते हैं। आस्तिक के लिए ईश्वर में विश्वास रखना अनिवार्य नहीं है, किन्तु वेद में विश्वास रखना आवश्यक है। सांख्य और पूर्वमीमांसा दर्शन के अनुयायी ईश्वर की आवश्यकता सृष्टि प्रक्रिया में नहीं मानते, फिर भी वे आस्तिक हैं। शङ्गराचार्य ने आस्तिक्य की परिभाषा इस प्रकार की है :

'आस्तिक्यं श्रद्धानता परमार्थेष्वागमेषु।

[परमार्थ (मोक्ष) और आगम (वेद) में श्रद्धा रखना आस्तिक्य है।] 13

(2) साधारण अर्थ में आस्तिक वह है जो ईश्वर और परमार्थ में विश्वास रखता है।

आस्तिकदर्शन : वेदोक्त प्रमाणों को मानने वाले आस्तिक एवं न मानने वाले नास्तिक दर्शन कहलाते हैं। चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक एवं अर्हत् ये छः नास्तिक दर्शन हैं : तथा वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा एवं वेदान्त ये छः आस्तिक दर्शन कहलाते हैं।

आस्तिकवर्ग : दर्शनों में छः आस्तिक तथा छः नास्तिक गिने जाते हैं। हिन्दू साहित्य इन नास्तिक दर्शनों को भी अपना अङ्ग समझता है। विपरीतमतसहिष्णु भारतवर्ष में आस्तिक और नास्तिक दोनों तरह के विचारों का अनादि काल से विकास होता चला आया है। भारतीय उदारता के अंक में आस्तिक एवं नास्तिक दोनों वर्गों की परम्परा और संस्कृति समान सुरक्षित बनी रही है। आस्तिक वर्ग का अर्थ है आस्तिक दर्शनों का अनुयायी।

आस्तीकपर्व : महाभारत के 'आस्तीकपर्व' में गरुड और सर्पों की उत्पत्ति का वर्णन है। समुद्रमन्थन, उच्चैःश्रवा की उत्पत्ति और महाराज परीक्षित् के पुत्र जनमेजय के सर्पानुष्ठान का वर्णन भी किया गया है। भरतवंशीय महात्माओं के पराक्रम का वृत्तान्त भी इसमें वर्णित है।

जरत्कारु ऋषि के पुत्र आश्तीक की इस पर्व में अधिक प्रधानता होने के कारण यह 'आस्तीक पर्व' कहा गया है। इनके नाम पर सर्प को भगाने का यह श्लोक प्रचलित है :

सर्पापसर्प भद्रं ते दूरं गच्छ वनान्तरम्। जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर॥

आहवनीय : यज्ञोपयोगी एक अग्नि। धार्मिक यज्ञ कार्यों में यज्ञवेदी का बड़ा महत्त्व है। यह वेदी कुश से आच्छादित ऊँचे चबूतरे की होती थी, जो यज्ञसामग्री देने अथवा यज्ञ सम्बन्धी पात्रों के रखने के लिए बनायी जाती थी। मुख्य अग्निवेदी कुण्ड के समान विभिन्न आकार की होती थी, जिसमें यज्ञाग्नि रखी रहती था। प्राचीन भारत में जब देवों की पूजा प्रत्येक गृहस्थ अपने घर के अग्निस्थान में करता था, उसका यह पुनीत कर्त्‍तव्‍य होता था कि पवित्र अग्नि वेदी में स्थापित रखे रहे। यह कार्य प्रत्येक गृहस्थ अग्न्याधान या यज्ञाग्नि के आरम्भिक उत्सव दिन से ही प्रारम्भ करता था। इस अवसर पर यज्ञकर्ता अपने चार पुरोहितों का चुनाव करता था। गार्हपत्य एवं आहवनीय अग्नि (दो प्रकार की अग्नि) के लिए एक वृत्ताकार एवं दूसरा वर्गाकार स्थान होता था। आवश्यकता समझी गयी तो दक्षिणाग्नि के लिए एक अर्धवृत्त कुण्ड भी बनाया जाता था। पश्चात् अध्वर्यु घर्षण द्वारा अथवा ग्राम से संग्रह कर गार्हपत्य अग्नि स्थापित करता था। सन्ध्याकाल में वह दो लकड़ियाँ जिन्हें अरणी कहते हैं, यज्ञकर्ता एवं उसकी स्त्री को देता था, जिससे घर्षण द्वारा वे दूसरे प्रातःकाल आह्वनीय अग्नि उत्पन्न करते थे।

आहार : हिन्दू धर्म में आहार की शुद्धि-अशुद्धि का विस्तृत विचार किया गया है। इसका सिद्धान्त यह है कि आहारशुद्ध से सत्त्वशुद्धि होती है और सत्त्वशुद्धि से बुद्धि शुद्ध होती है। शुद्ध बुद्धि से ही सद् विचार और धर्म में रुचि उत्पन्न हो सकती है। आहार दो प्रकार का होता है --(1) हित और (2) अहित। सुश्रुत के अनुसार हित आहार का गुण है :

आहारः प्रीणनः सद्यो बलकृद्देहधारकः। आयुस्तेजःसमुत्साहस्मृत्योजोऽग्निवर्द्धनः॥

भगवद्गीता (अ० 17 श्लोक 8-10) के अनुसार वह तीन प्रकार --सात्विक, राजस तथा तामस--का होता है :

आयुः-सत्‍त्‍व-बलारोग्य-सुख-प्रीतिविवर्द्धनाः। रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहारा सात्त्विकप्रियाः॥ कटवम्ल लवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिनः। आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥ यातयामं गतरसं पूति पर्युषितञ्च यत्। उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम॥

[आयु, सत्त्व, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसाल, स्निग्ध, स्थिर और प्रिय लगने वाले भोजन सात्विक लोगों को प्रिय होते हैं। कटु, अम्ल (खट्टा), लवण (नमकीन), अति उष्ण, तीक्ष्ण, रूक्ष, दाह करने वाले तथा दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करने वाले भोजन राजस व्यक्ति को इष्ट होते हैं। एक याम से पड़े हुए, नीरस, सड़े, बासी, उच्छिष्ट (जूठे) और अमेध्य (अपवित्र=मछली, मांस आदि) आहार तामसी व्यक्ति को अच्छे लगते हैं।] इसलिए साधक को सात्विक आहार ही ग्रहण करना चाहिए।

आहिताग्नि : जो गृहस्थ विधिपूर्वक अग्नि स्थापित कर नियमपूर्वक नित्य हवन करता है उसे 'आहिताग्नि' कहा जाता है। इसका एक पर्याय 'अग्निहोत्री' है।

आहुति : यज्ञकुण्ड में देवता के उद्देश्य से जो हवि का प्रक्षेप किया जाता है उसे 'आहुति' कहते हैं। आहुति द्रव्य को 'मृगी मुद्रा' (शिशु के मुख में कौर देने की अँगुलियों के आकार) से अग्नि में डालना चालना चाहिए।

आह्निक : (1) नित्य किया जाने वाला धार्मिक क्रियासमूह। धर्मशास्त्र ग्रन्थों में दैनिक धार्मिक कर्मों का पूरा विवरण पाया जाता है। रघुनन्‍दन भट्टाचार्यकृत 'आह्निकाचार तत्‍त्व' में दिन-रात के आठों यामों के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है।

(2) कुछ प्राचीन ग्रन्थों के प्रकरणसमूह को भी, जिसका अध्ययन दिन भर में हो सके, आह्निक कहते हैं।

 : स्वर वर्ण का तृतीय अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक मूल्‍य निम्नांकित है :

इकारं परमानन्दं सुगन्धकुसुमच्छविम्। हरिब्रह्ममयं वर्ण सदा रुद्रयुतं प्रिये॥ सदा शक्तिमयं देवि गुरुब्रह्ममयं तथा। सदा शिवमयं वर्णं परं ब्रह्मसमन्वितम्॥ हरिब्रह्मात्मकं वर्ण गुणत्रयसमन्वितम्। इकारं परमेशानि स्वयं कुण्डली मूर्तिमान्॥

[हे प्रिये! इकार ('इ' अक्षर) परम आनन्द की सुगन्धि वाले पुष्प की शोभा धारण करने वाला है। यह वर्ण हरि तथा ब्रह्ममय है। सदा रुद्र से संयुक्त रहता है। सदा शक्तिमान तथा गुरु और ब्रह्ममय है। सदा शिवमय है। परम तत्त्व है। ब्रह्म से समन्वित। हरि-ब्रह्मात्मक है और तीनों गुणों से समन्वित है।] वर्णाभिधानतन्त्र में इसके निम्नलिखित नाम हैं :

इः सूक्ष्मा शाल्मली विद्या चन्द्रः पूषा सुगुह्यकः। सुमित्रः सुन्दरो वीरः कोटरः काटरः पयः॥ भ्रूमध्यो माधवस्तुष्टिर्दक्षनेत्रञ्च नासिका। शान्तः कान्तः कामिनी च कामो विघ्‍नविनायकः॥ नेपालो भरणी रुद्रो नित्या क्लिन्ना च पावका॥

इक्ष्वाकु : पुराणों के अनुसार वैवश्वत मनु का पुत्र और सूर्य वंश (इक्ष्वाकुवंश) का प्रवर्तक। इसकी राजधानी अयोध्या और सौ पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र विकुक्षि अयोध्या का राजा हुआ, दूसरे पुत्र निमि ने विदेह (मिथिला) में एक राजवंश प्रचलित किया। अन्य पुत्रों ने अन्यत्र उपनिवेश तथा राज्य स्थापित किये।

इज्या : यज्ञकर्म अथवा यजन का एक पर्याय। दे० 'यज्ञ' 'सोहमिज्याविशुद्धात्मा प्रजालोपनिमीलतः।' (रधु० 1.68)

[मैं इज्या (यज्ञ) से विशुद्ध चित्तवाला और प्रजालोप (संतानहीनता) से निमीलित (कुम्हलाया हुआ) हूँ।] इसके अन्य पूजा, संगम, गौ, कुट्टनी आदि हैं।

इडा : श्रुतिः प्रीतिरिडा कान्तिः शान्तिः पुष्टिः क्रिया तथा।

(2) यौगिक साधना की आधार एक नाड़ी। हठयोग या स्वरोदय के अभ्यासार्थ नासिका के वाम या चन्द्र स्वर के नाम से इस नाड़ी का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। षट्चक्रभेद नामक ग्रन्थ (श्लोक 2) में इसका निम्नांकित संकेत है :

मेरोर्बाह्यप्रदेशे शशिमिहिरशिरे सव्यदक्षे निषण्लै। मध्ये नाडी सुषुम्णा त्रितयगुणमयी चन्द्रसूर्याग्निरूपा॥ उपर्युक्त श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया गया है :

मेरोर्मेरुदण्डस्य बाह्यप्रदेशे बहिर्भागे सव्यदक्षे वामदक्षिणपार्श्वे शशिमिहिरशिरे चन्द्रसूर्यात्मके नाड्यौ इडापिङ्गलानाडीद्वयमिति फलितार्थः। निषण्णे वर्तेत्।

[मेरुदण्ड के बाह्य प्रदेश में वाम और दक्षिण पार्श्व में चन्द्र-सूर्यात्मक (इडा तथा पिङ्गला) नाडियों के बीच में सुषुम्ना नाडी वर्तमान है।]

ज्ञानसङ्कलनीतन्त्र (खणअड में इडा का और भी वर्णन पाया जाता है :

इडा नाम सैव गङ्गा यमुना पिङ्गला स्मृता। गङ्गायमुनयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती॥ एतासां सङ्गमो यत्र त्रिवेणी सा प्रकीर्तिता। तत्र स्नातः सदा योगी सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

[इडा नामक नाडी ही गङ्गा है। पिङ्गला को यमुना कहा गया है। गङ्गा-यमुना के बीच में सुषुम्ना नाड़ी सरस्वती है। इन तीनों का जहाँ सङ्गम (भ्रूमध्य में) होता है वही त्रिवेणी प्रसिद्ध है। वहाँ स्नान (ध्यान) करनेवाला योगी सदा के लिए सब पापों से मुक्त हो जाता है।]

इडा नाडी सकाम कर्म के अनुष्ठान की सहायिका है। इडा और पिङ्गला के बीच में वर्तमान सुषुम्ना नाडी ब्रह्मनाडी है। इस नाडी में यह सम्पूर्ण विश्व प्रतिष्ठित है। उत्तरगीता (अध्याय 2) में इसका निम्नलिखित वर्णन है :

इडा च वामनिश्वासः सोममण्डलगोचरा। पितृयानमिति ज्ञेया वाममाश्रित्य तिष्ठति॥ गुदस्य पृष्ठभोगेऽस्मिन् वीणादण्डस्य देहभृत्। दीर्घास्थि मूर्ध्निपर्यन्तं ब्रह्मदण्डेति कथ्यते॥ तस्यान्ते सुषिरं सूक्ष्मं ब्रह्मनाडीति सूरिभिः। इडापिङ्गलयोर्मध्ये सुषुम्ना सूक्ष्मरुपिणी। सर्वं प्रतिष्ठितं यस्यां सर्वगं सर्वतोमुखम्॥

इन नाडियों के शोधन के बिना योगी को आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।

इतिहास : छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है कि इतिहासपुराण पाँचवाँ वेद है। इससे इतिहास एवं पुराण की धार्मिक महत्ता स्पष्ट होती है। अधिकांश विद्वान् इतिहास से रामायण और महाभारत समझते हैं और पुराण से अठारह वा उससे अधिक पुराण ग्रन्थ और उपपुराण समझे जाते हैं। अनेक विद्वान् इस मान्यता से सहमत नहीं हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती का कहना है कि इस स्थल पर इतिहास-पुराण का तात्पर्य ब्रह्मण भाग में उल्लिखित कथाओं से है।

अठारह विद्याओं की गिनती में इतिहास का नाम कहीं नहीं आया है। इन अठारह विद्याओं की सूची में पुराण के अतिरिक्त और कोई विद्या ऐसी नहीं है जिसमें इतिहास का अन्तर्भाव हो सके। इसीलिए प्रायश्चित्ततत्त्वाकार ने इतिहास को पुराण के अन्तर्गत समझकर उसका नाम अलग नहीं गिनाया। ऐतरेय ब्राह्मण के भाष्य में सायणाचार्य ने लिखा है कि वेद के अन्तर्गत देवासुर युद्धादि का वर्णन इतिहास कहलाता है और "यह असत् था और कुछ न था" इत्यादि जगत् की प्रथमावस्था से लेकर सृष्टि क्रिया का वर्णन पुराण कहलाता है। बृहदारण्यक के भाष्य में शङ्कराचार्य ने भी लिखा है कि उर्वशी-पुरूरवा आदि संवाद स्वरूप ब्राह्मणभाग को इतिहास कहते हैं और "पहले असत् ही था" इत्यादि सृष्टि-प्रकरण को पुराण कहते हैं। इन बातों से स्पष्ट है कि सर्गादि का वर्णन पुराण कहलाता था और लौकिक कथाएँ इतिहास कही जाती थीं।

इदावत्सर : वाजसनेयी संहिता (27.45) के अनुसार एक विशेष संवत्सर है :

संवत्सरोऽसि परिवत्सरोऽसि इदावत्सरोऽसि इद्वत्सरोऽसि।

विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अनुसार इस संवत्सर में अन्न और वस्त्र का दान पुण्यकारक होता है।

ज्योतिष की गणना में 'पंचवर्षात्मक युग' मान्यता के अनुसार वर्ष का एक प्रकार इदावत्सर है।

इन्दु : चन्द्रमा। इसकी व्युत्पत्ति है: 'उनत्ति अमृतधारया भुवं क्लिन्नां करोति इति' [अमृत की धारा से पृथ्वी को भिगोता है, इसलिए 'इन्दु' कहलाता है।]

इन्‍दुव्रत : साठ संवत्सरव्रतों में से अट्ठावनवाँ व्रत। व्रती को किसी सपत्नीक सद्गृहस्थ का सम्मान करना चाहिए तथा वर्ष के अन्त में उसे गौ का दान करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रकाण्ड; हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 2.883।

इन्द्र : ऋग्वेद के प्रायः 250 सूक्तों में इन्द्र का वर्णन है तथा 50 सूक्त ऐसे हैं जिनमें दूसरे देवों के साथ इन्द्र का वर्णन है। इस प्रकार लगभग ऋग्वेद के चतुर्थांश में इन्द्र का वर्णन पाया जाता है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इन्द्र वैदिक युग का सर्वप्रिय देवता था। इन्द्र शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ अस्पष्ट है। अधिकांश विद्वानों की सम्मति में इन्द्र झंझावात का देवता है जो बादलों में गर्जन एवं बिजली की चमक उत्पन्न करता है। किन्तु हिलब्रैण्ट के मत से इन्द्र सूर्य देवता है। वैदिक भारतीयों ने इन्द्र को एक प्रबल भौतिक शक्ति माना जो उनकी सैनिक विजय एवं साम्राज्यवादी विचारों का प्रतीक है। प्रकृति का कोई भी उपादान इतना शक्तिशाली नहीं जितना विद्युत्प्रहार। इन्द्र को अग्नि का जुड़वाँ भाई (ऋ. 6.59.2) कहा गया है जिससे विद्युतीय अग्नि एवं यज्ञवेदीय अग्नि का सामीप्य प्रकट होता है।

इन्द्र की चरितावली में वृत्रवध का बड़ा महत्त्व है। (अधिकांश वैदिक विद्वानों का मत है कि वृत्र सूखा (अनावृष्टि) का दानव है और उन बादलों का प्रतीक है जो आकाश में छाये रहने पर भी एक बूँद जल नहीं बरसाते। इन्द्र अपने वज्र प्रहार से वृत्ररूपी दानव का वध कर जल को मुक्त करता है और फिर पृथ्वी पर वर्षा होती है। ओल्डेनवर्ग एवं हिलब्रैण्ट ने वृत्र-वध का दूसरा अर्थ प्रस्तुत किया है। उनका मत है कि पार्थिव पर्वतों से जल की मुक्ति इन्द्र द्वारा हुई है। हिलब्रैण्ट ने सूर्यरूपी इन्द्र का वर्णन करते हुए का है : वृत्र शीत (सर्दी) एवं हिम का प्रतीक है, जिससे मुक्त केवल सूर्य ही दिला सकता है। ये दोनों ही कल्पनाएँ इन्द्र के दो रूपों को प्रकट करती हैं, जिनका प्रदर्शन मैदानों के झंझावात और हिमाच्छादित पर्वतों पर तपते हुए सूर्य के रूप में होता है। वृत्र से युद्ध करने की तैयारी के विवरण से प्रकट होता है कि देवों ने इन्द्र को अपना नायक बनाया तथा उसे शक्तिशाली बनाने के लिए प्रभूत भोजन-पान आदि की व्‍यवस्‍था हुई। इन्‍द्र प्रभूत सोमपान करता है। इन्द्र का अस्त्र वज्र है जो विद्युत्प्रहार का ही एक काल्पनिक नाम है।

ऋग्वेद में इन्द्र को जहाँ अनावृष्टि के दानव वृत्र का वध करने वाला कहा गया है, वहीं उसे रात्रि के अन्धकार रूपी दानव का वध करनेवाला एवं प्रकाश का जन्म देने वाला भी कहा गया है। ऋग्वेद के तीसरे मणडल के वर्णनानुसार विश्वामित्र के प्रार्थना करने पर इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु (सतलज) नदियों के अथाह जल को सुखा दिया, जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गयी।

इन्द्र और वृत्र के आकाशीय युद्ध की चर्चा हो चुकी है। इन्द्र के इस युद्ध कौशल के कारण आर्यों ने पृथ्वी के दानवों से युद्ध करने के लिए भी इन्द्र को सैनिक नेता मान लिया। इन्द्र के पराक्रम का वर्णन करने के लिए शब्दों की शक्ति अपर्याप्त है। वह शक्ति का स्वामी है, उसकी एक सौ शक्तियाँ हैं। चालीस या इससे भी अधिक उसके शक्तिसूचक नाम हैं तथा लगभग उतने ही युद्धों का विजेता उसे कहा गया है। वह अपने उन मित्रों एवं भक्तों को भी वैसी विजय एवं शक्ति देता है, जो उस को सोमरस अर्पण करते हैं।

नौ सूक्तों में इन्द्र एवं वरुण का संयुक्त वर्णन है। दोनों एकता धारण कर सोम का पान करते हैं, वृत्र पर विजय प्राप्त करते हैं, जल की नहरें खोदते हैं और सूर्य का आकाश में नियमित परिचालन करते हैं। युद्ध में सहायता, विजय प्रदान करना, धन एवं उन्नति देना, दुष्टों के विरुद्ध अपना शक्तिशाली वज्र भेजना तथा रज्जुरहित बन्धन से बाँधना आदि कार्यों में दोनों में समानता है। किन्तु यह समानता उनके सृष्टिविषयक गुणों में क्यों न हो, उनमें मौलिक छः अन्तर हैं : वरुण राजा है, असुरत्व का सर्वोत्कृष्ट सत्ताधारी है तथा उसकी आज्ञाओं का पालन देवगण करते हैं, जबकि इन्द्र युद्ध का प्रेमी एवं वैर-धूलि को फैलाने वाला है। इन्द्र वज्र से वृत्र का वध करता है, जबकि वरुण साधु (विनम्र) है और वह सन्धि की रक्षा करता है। वरुण शान्ति का देवता है, जबकि इन्द्र युद्ध का देव है एवं मरुतों के साथ सम्मान की खोज में रहता है। इन्द्र शत्रुतावश वृत्र का वध करता है, जब कि वरुण अपने व्रतों की रक्षा करता है।

पौराणिक देवमण्डल में इन्द्र का वह स्थान नहीं है जो वैदिक देवमण्डल में है। पौराणिक देवमण्डल में त्रिमूर्ति-- ब्रह्मा, विष्णु और शिव ---का महत्‍त्व बढ़ जाता है। इन्द्र फिर भी देवाधिराज माना जाता है। वह देव-लोक की राजधानी अमरावती में रहता है, सुधर्मा उसका राजसभा तथा सहस्र मन्त्रियों का उसका मन्त्रिमण्डल है। शची अथवा इन्द्राणी पत्नी, ऐरावत हाथी (वाहन) तथा अस्त्र वज्र अथवा अशनि है। जब भी कोई मानव अपनी तपस्या से इन्द्रपद प्राप्त करना चाहता है तो इन्द्र का सिंहासन संकट में पड जाता है। अपने सिंहासन की रक्षा के लिए इन्द्र प्रायः तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट करता पाया जाता है। पुराणों में इस सम्बन्ध की अनेक कथाएँ मिलती हैं। पौराणिक इन्द्र शक्तिमान्, समृद्ध और विलासी राजा के रूप में चित्रित है।

इन्द्रध्वज : महान् वैदिक देवता इन्द्र का स्मारक काष्ठस्तम्भ। यह विजय, सफलता और समृद्धि का प्रतीक है। प्राचीन काल में भारतीय राजा विधिवत् इसकी स्थापना करते थे और उस अवसर पर उत्सव मनाया जाता था; संगीत, नाट्य आदि का आयोजन होता था। भरत के नाट्यशास्त्र में इसका उल्लेख पाया जाता है :

अयं ध्वजमहः श्रीमान् महेन्द्रस्य प्रवर्तते। अथेदानीमयं वेदः नाट्यसंज्ञः प्रयुज्यताम्॥

इस ध्वज की उत्पत्ति की कथा बृहत्संहिता में पायी जाती है। एक बार देवतागण असुरों से पीडि़त होकर उनके अत्याचार से मुक्त होने के लिए ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा ने उनको विष्णु के पास भेजा। विष्णु उस समय क्षीर सागर में शेषनाग के ऊपर शयन कर रहे थे। उन्होंने देवताओं की विनय सुनकर उनको एक ध्वज प्रदान किया, जिसको लेकर एक बार इन्द्र ने असुरों को परास्त किया था। इसीलिए इसका नाम इन्द्रध्वज पड़ा।

इन्द्रध्वजोत्थानोत्सव : यह इन्द्र की ध्वजा को उठाकर जलूस में चलने का उत्सव है। यह भाद्र शुक्ल अष्टमी को मनाया जाता है। ध्वज के लिए प्रयुक्त होने वाले दण्ड के लिए इक्षुदण्ड (गन्ना) काम में आता है, जिसकी सभी लोग इन्द्र के प्रतीक रूप में अर्चना करते हैं। तदनन्तर किसी गम्भीर सरोवर अथवा नदी के जल में उसे विसर्जित किया जाता है। ध्वज का उत्तोलन श्रवण, धनिष्ठा अथवा उत्ताराषाढ़ नक्षत्र में तथा उसका विसर्जन भरणी नक्षत्र में होना चाहिए। इसका विशद वर्णन बराहमिहिर की बृहत्संहिता (अध्याय 43), कालिका पुराण (90) तथा भोज के राजमार्त्तण्ड (सं० 1.6. से 1.92 तक) में है। यह व्रत राजाओं के लिए विशेष रूप से आचरण करने योग्य है। बुद्धचरित में भी इसका उल्लेख है। रघुवंश (4.3), मृच्छकटिक (10.7), मणिमेखलाई के प्रथम भाग, सिलप्पदिकारम् के 5 वें भाग तथा एक सिलालेख (एपिग्राफिया इंडिका, 1.320; मालव संवत् (461) में भी इसका उल्लेख हुआ है। कालिकापुराण, 90; कृत्यकल्पतरु (राजधर्म, पृष्ठ 184-190); देवी-पुराण तथा राजनीतिप्रकाश (वीरमित्रोदय, पृष्ठ 421-423) में भी इसका वर्णन मिलता है।

इन्द्रप्रस्थ : पाण्डवों की राजधानी, जिसको उन्होंने खाण्डववन जलाकर बसाया था। नयी दिल्ली के दक्षिण में इसकी स्थिति थी, जिसके एक सीमान्त भाग को आज भी इस नाम से पुकारते हैं। बारहवीं शती तक उत्तर भारत के पाँच पवित्र तीर्थों में इन्द्रप्रस्थ (इन्द्रस्थानीय) की गणना थी। गहडवाल राजा गोविन्दचन्द्र के अभिलेखों में इसका उळ्लेख है। कुतुबमीनार के पास का गाँव मिहरौली 'मिहिरावली' (सूर्यमण्डल) का अपभ्रंश है। इसके पास के ध्वंशावशेष अब भी इसके धार्मिक स्वरूप को व्यक्त करते हैं। कुशिक (कान्यकुब्ज) के साथ इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) का धार्मिक स्वरूप बाद में तुर्कों ने पूर्णतः नष्ट कर दिया।

इन्द्रपौर्णमासी : हेमाद्रि, व्रतखण्ड 2.196 में इसका उल्लेख है। भाद्रपद मास की पूर्णिमा को उपवास रखना चाहिए। इसके पश्चात् तीस सपत्नीक सद्गृहस्थों को अलंकारों से सम्मानित करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

इन्द्रव्रत : साठ संवत्सर व्रतों में से सैंतालीसवाँ व्रत। कृत्यकल्पतरु के व्रतकाण्ड, पृष्ठ 449 पर इस व्रत का उल्लेख है। व्रती को चाहिए कि वह वर्षा ऋतु में खुले आकाश में नीचे शयन करे। अन्त में दूधवाली गौ का दान करे।

इन्द्रव्याकरण : छहों अङ्गों में व्याकरण वेद का प्रधान अङ्ग समझा जाता है। जो लोग वेदमन्त्रों को अनादि मानते हैं उनके अनुसार तो बीजरूप से व्याकरण भी अनादि है। पतञ्जलि वाली जनश्रुति से पता चलता है कि सबसे पुराने वैयाकरण देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं और इन्द्र की गणना उनके बाद होती है। एक प्राचीन पद्य "इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्सन...... जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः" के अनुसार पाणिनिपूर्व काल में इन्द्रव्याकरण प्रचलित रहा होगा।

इन्द्रसावर्णि : चौदहवें मनु का नाम इस मन्वन्तर में बृहद्भानु का अवतार होगा, शुचि इन्द्र होंगे, पवित्र चाक्षुष आदि देवता होंगे, अग्नि, बाहु, शुचि, शुद्ध, मागध आदि सप्तर्षि होंगे। भागवत पुराण, विष्णु पुराण (2।3) एवं मार्कण्डेय पुराण (अध्याय 100) में यह वर्णन पाया जाता है।

इन्द्राणी : इन्द्र की पत्नी, जो प्रायः शची अथवा पौलोमी भी की गयी है। यह असुर पुलोमा की पुत्री थी, जिसका वध इन्द्र ने किया था। शाक्त मत में सर्वप्रथम मातृका पूजा होती है। ये माताएँ विश्वजननी हैं, जिनका देवस्त्रियों के रूप में मानवीकरण हुआ है। इसका दूसरा अभिप्राय शक्ति के विविध रूपों से भी हो सकता है, जो आठ है, तथा विभिन्न देवताओं से सम्बन्धित हैं। वैष्णवी व लक्ष्मी का विष्णु से, ब्राह्मी या ब्राह्मणी का ब्रह्मा से, कार्तिकेयी का युद्धदेवता कार्तिकेय से, इन्द्राणी का इन्द्र से, यमी का मृत्यु के देवता यम से, वाराही का वराह से, देवी व ईशानी का शिव से सम्बन्ध स्थापित है। इस प्रकार अष्टमातृकाओं में से भी एक है।

इस प्रकार इन्द्राणी अष्टमातृकाओं में से भी एक है।

अमरकोश में सप्‍त मातृकाओं का (ब्राह्मीत्‍याद्यास्‍तु मातर:) का उल्‍लेख है

ब्राह्मी माहेश्वरी चैव कौमारी वैष्णवी तथा। वाराही च तथेन्द्राणी चामुण्डा सप्तमातरः॥

इन्द्रियाँ : पूर्वजन्म के किये हुए कर्मों के अनुसार शरीर उत्पन्न होता है। पञ्चभूतों से पाँचों इन्द्रियों की उत्पत्ति कही गयी है। घ्राणेन्द्रिय से गन्ध का ग्रहण होता है, इससे वह पृथ्वी से बनी है। रसना जल से बनी है, क्योंकि रस जल का गुण है। चक्षु इन्द्रिय तेज से बनी है, क्योंकि रूप तेज का गुण है। त्वक् वायु से बनी है, क्योंकि स्पर्श वायु का गुण है। श्रोत्र इन्द्रिय आकाश से बनी है, क्योंकि शब्द आकाश का गुण है।

बौद्धों के मत में शरीर में जो गोलक देखे जाते हैं उन्हीं को इन्द्रियाँ कहते हैं, (जैसे आँख की पुतली जीभ इत्यादी)। परन्तु नैयायिकों के मत से जो अङ्ग दिखाई पड़ते हैं वे इन्द्रियों के अधिष्ठान मात्र हैं, इन्द्रियाँ नहीं हैं। इन्द्रियों का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता। कुछ लोग एक ही त्वक् इन्द्रिय मानते हैं। न्याय में उनके मत का खण्डन करके इन्द्रियों का नानात्व स्थापित किया गया है। सांख्य में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन को लेकर ग्यारह इन्द्रियाँ मानी गयी हैं। न्याय में कर्मेन्द्रियाँ नहीं मानी गयी हैं, पर मन एक आन्तरिक करण और अणुरूप माना गया है। यदि मन सूक्ष्म न होकर व्यापक होता तो युगपत् कई प्रकार का ज्ञान सम्भव होता, अर्थात् अनेक इन्द्रिय का एक क्षण में एक साथ संयोग होते हुए उन सबके विषयों का एक साथ ज्ञान हो जाता। पर नैयायिक ऐसा नहीं मानते। गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, और शब्द ये पाँचों गुण इन्द्रियों के अर्थ या विषय हैं।

इन्द्रोत : ऋग्वेद (8.68) की एक दानस्तुति में दाता के रूप में इन्द्रोत का दो बार उल्लेख हुआ है। द्वितीय मण्डल में उसका एक नाम आतिथिग्व है जिससे प्रकट होता है कि यह अतिथिग्व का पुत्र था।

इन्द्रोतदैवापशौनक : इस ऋषि का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (13 :5,3,5;4,1) में जनमेजय के अश्वमेध यज्ञ के पुरोहित के रूप में हुआ है, यद्यपि यह सम्माननीय पद ऐतरेय ब्राह्मण (8.21) में तुरकावषेय को प्राप्त है। जैमिनीय उपनिषद्ब्राह्मण (3.40.1) में इन्द्रोत दैवाप शौनक श्रुत के शिष्य के रूप में उल्लिखित है तथा वंशब्राह्मण में भी इसका उल्लेख है। किन्तु ऋग्वेद में उल्लिखित देवापि से इसका सम्बन्ध किसी भी प्रकार नहीं जोड़ा जा सकता।

इरा : कश्यप की एक पत्नी। दे० गरुडपुराण, अध्याय 6 धर्मपत्न्यः समाख्याता कश्यपस्य वदाम्यहम्। अदितिदितिर्दनुः काला अमायुः सिंहिका मुनिः॥ कद्रुः प्राधा इरा क्रोधा विनता सुरभिः खशा॥

इरा से वृक्ष, लता, वल्ली तथा तृण जाति की उत्पत्ति हुई।

इरावती : भारत की देवनदियों में इसकी गणना है :

विपाशा च शतुद्रुश्च चन्द्रभागा सरस्वती। इरावती वितस्ता च सिन्धुर्देवनदी तथा॥ (महाभारत)

[विपाशा (व्यास), शतद्रु (सतलज), चन्द्रभागा (चिनाव), सरस्वती (सरसुती), इरावती (रावी), वितस्ता (झेलम) तथा सिन्धु (अपने नाम से अब भी प्रसिद्ध) ये देवनदियाँ हैं।]

इल : दे० 'उमावन'।

इला : पौराणिक कथा के अनुसार इला मूलतः मनु का पुत्र इल था। इल भूल से इलावर्त में भ्रमण करते हुए शिवजी के काम्यकवन में चला गया। शिवजी ने शाप दिया था कि जो पुरुष काम्यकवन में आयेगा वह स्त्री हो जायगा। अतः इल स्त्री इला में परिवर्तित हो गया। इला का विवाह सोम (चन्द्रमा) के पुत्र बुध से हुआ। इस सम्बन्ध से पुरूरवा का जन्म हुआ, जो ऐल कहलाया। इससे ऐल अथवा चन्द्रवंश की परम्परा आरम्भ हुई, जिसकी राजधानी प्रतिष्ठान (वर्तमान झूसी, अरैल, प्रयाग) थी। विष्णु की कृपा से इला पुनः पुरुष हो गयी जिसका नाम सुद्युम्न था।

इलावृत (इलावर्त) : इसका शाब्दिक अर्थ है इला के आवर्तन (परिभ्रमण) का स्थान। यह जम्बू द्वीप के नव वर्षों (देशों) के अन्तर्गत एक वर्ष है जो सुमेरु पर्वत (पामीर) को घेर कर स्थित है। इसके उत्तर में नील पर्वत, दक्षिण में निषध, पश्चिम में माल्यवान् तथा पूर्व में गन्धमादन पवर्त है (दे० भागवतपुराण)। अग्नीध्र (पञ्चाल के राजा) के प्रसिद्ध पुत्र का नाम भी इलावृत था, जिसको पिता से राज्य रिक्थ में मिला। दे० विष्णुपुराण, 2. 1.16-18।

इल्वल : सिंहिका का पुत्र एक दैत्य, जो वातापी का भाई था। यह ब्राह्मणों का विनाश करने के लिए अपने भाई वातापी को मायारूपी मेष (भेड़) बनाकर और ब्राह्मणों को भोज में निमन्त्रण देकर खिला देता था। पुनः वातापी को बुलाता था। वातापी उनका पेट फाड़कर निकल आता था। इससे सहस्रों ब्राह्मणों की मृत्यु हुई। अगस्त्य ऋषि को अपने पितरों की इस दशा से बहुत कष्ट हुआ। वे उस दिशा को गये (दे० 'अगस्ति')। इल्वल ने उनको भी निमन्त्रण दिया और वातापी को मेष बनाकर उसका मांस उनको खिलाया। उसके बाद उसने वातापी को पुकारा। किन्तु अगस्त्य के पेट से केवल अपना वायु निकला। उन्होंने हँसते हुए कहा कि वातापी तो जीर्ण (पक्व) हो गया; अब निकल नहीं सकता। दे० महाभारत, वनपर्व, अगस्त्योपाख्यान, 96 अध्याय।

इष्ट : वेदी या मण्डप के अन्दर करने लायक धार्मिक कर्म; होम यज्ञ; अभीष्ट देवता, आराधित देवता; किसी घटना का घड़ी-पलों में निर्धारित समय। दे० 'यज्ञ'

इष्टजात्यवाप्ति : विष्णुधर्मोत्तर (3.200.1-5) के अनुसार इस व्रत का अनुष्ठान चैत्र तथा कार्तिक के प्रारम्भ में करना चाहिए, ऋग्वेद के दशम मण्डल के 90.1-16 मन्त्रों से हरि का षोडशोपचार के साथ पूजन होना चाहिए। व्रत के अन्त में गौ का दान विहित है।

इष्टसिद्धि : इस नाम के दो ग्रन्थों का पता चलता है। प्रथम सुरेश्वराचार्य अथवा मण्डन मिश्र कृत है, जिसको उन्होंने संन्यास लेने के पश्चात् लिखा और जिसमें शाङ्कर मत का ही समर्थन है। द्वितीय, अविमुक्तात्मा द्वारा कृत है, जिसमें शब्दाद्वैत मत का उल्लेख मिलता है।

इष्टापूर्त : धार्मिक कर्मों के दो प्रमुख विभाग हैं--(1) इष्ट और (2) पूर्त। इष्ट का सम्बन्ध यज्ञादि कृत्यों से हैं, जिनका फल अदृष्ट है। पूर्त का सम्बन्ध लोकोपकारी कार्यों से है, जिनका फल दृष्ट है। मलमासतत्त्व में उद्धृत जातूकर्ण्य का कथन है :

अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानाञ्चानुपालनम्। आतिथ्यं वैश्वदेवञ्च इष्टमित्यभिधीयते॥ वापीकूपतडागादि देवतायतनानि च। अन्नप्रदानमारामः पूर्तमित्यभिधीयते॥

[अग्निहोत्र, तप, सत्य, वेदों के आदेशों का पालन, आतिथ्य, वैश्‍वदेव (आदि) इष्ट कहलाते हैं। वापी, कूप, तडाग, धर्मशाला, पाठशाला, देवालयों का निर्माण, अन्न का दान, आराम (बाटिका आदि का लगवाना) को पूर्त कहा जाता है।]

इष्टिका : आजकल की 'ईंट'। वास्तव में यह यज्ञ (इष्टि) वेदी के चयन (चुनाव) में काम आती थी, अतः इसका नाम इष्टिका पड़ गया। बाद में इससे गृहनिर्माण भी होने लगा। चाणक्य ने इष्टिकानिर्मित भवन का गुण इस प्रकार बतलाया है :

कूपोदकं वटच्छाया श्यामा स्त्री इष्टिकालयम्। शीतकाले भवेदुष्णमुष्णकाले तु शीतलम्॥

ईंटों से निर्मित स्थान में पितृकर्म का निषेध है। श्राद्धतत्‍त्व में उद्धृत शङ्खलिखित। इष्टिका (ईंट) द्वारा देवालयों के निर्माण का महाफल बतलाया गया है :

मृन्मयात्कोटिगुणितं फलं स्याद् दारुभिः कृते। कोटिकोटिगुणं पुण्यं फलं स्यादिष्टिकामये॥ द्विपरार्ध गुणं पुण्यं शैलजे तु विदुर्बुधाः॥ (प्रतिष्ठातत्त्व)

इहामुत्र-फलभोगविराग : इह' इस संसार को और 'अमुत्र' (वहाँ) स्वर्ग को कहते हैं। सांसारिक भोग तथा स्वर्ग के भोग दोनों मोक्षार्थी के लिए त्याज्य हैं। दे० वेदान्तसार।

 : स्वरवर्ण का चतुर्थ अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक मूल्य निम्नांकित है :

ईकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली। ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं तथा रुद्रमयं सदा॥ पञ्चदेवमयं वर्णं पीतविद्युल्लताकृतिम्। चतुर्ज्ञानमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा॥ वर्णोद्धारतन्त्र में इसके नाम निम्नलिखित हैं :, ई स्त्रीमूर्तिर्महामाया लोलाक्षी वामलोचनम्। गोविन्दः शेखरः पुष्टिः सुभद्रा रत्नसंज्ञकः॥ विष्णुर्लक्ष्मीः प्रहासश्च वाग्विशुद्धः परात्परः। कालोत्तरीयो भेरुण्डा रतिश्च पौण्डवर्द्धनः॥ शिवोत्तमः शिवा तुष्टिश्चतुर्थी बिन्दुमालिनी। वैष्णवी वैन्दवी जिह्वा कामकला सनादका॥ पावकः कोटरः कीर्तिर्मोहिनी कालकारिका। कुचद्वन्द्वं तर्ज्जनी च शान्तिस्त्रिपुरसुन्दरी॥

[हे देवी! ईकार ('ई' अक्षर) स्वयं परम कुण्डली है। यह वर्ण ब्रह्मा और विष्णुमय है। यह सदा रुद्रमय है। यह वर्ण पञ्चदेवमय है। पीली बिजली की रेखा के समान इसकी प्रकृति है। यह वर्ण चतुर्ज्ञानमय तथा सर्वदा पञ्चप्राणमय है।]

 : कामदेव का एक पर्याय। दे० 'कामदेव'।

ईति : कृषि के छः प्रकार के उपद्रव, यथा

अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभा मूषिकाः खगाः। प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः॥ (मनुस्मृति)

[अतिवृष्टि, अनावृष्टि, शलभ (टिड्डी) मूषक, पक्षी, प्रत्यासन्न (आक्रमणकारी) राजा ये छः प्रकार की ईतियाँ कही गयी हैं।]

ये बाहरी भय हैं, जबकि 'भीति' आन्तरिक भय है। महाभारत आदि ग्रन्थों में (और स्मृतियों में भी) इस बात का उल्लेख है। बाहरी भयों के लिए अधार्मिक राजा ही उत्तरदायी है। धार्मिक राज्य में ईतियाँ नहीं होतीं। 'निरातङ्का निरीतयः।' (रघुवंश, 1.63)।

ईश्वर : सर्वोच्च शक्तिमान्; सर्वसमर्थ; विश्वाधिष्ठाता; स्वामी; परमात्मा। वेदान्त की परिभाषा में विशुद्ध सत्त्वप्रधान, अज्ञानोपहित चैतन्य को ईश्वर कहते हैं। यह अन्तिम अथवा पर तत्त्व नहीं है; अपितु अपर अथवा सगुण ब्रह्म है। परम ब्रह्म तो निर्गुण तथा निष्क्रिय है। अपर ईश्वर सगुण रूप में सृष्टि का कर्ता और नियामक है, भक्तों और साधकों का ध्येय है। सगुण ब्रह्म ही पुरुष (पुरुषोत्तम) अथवा ईश्वर नाम से सृष्टि का कर्ता, धर्ता और संहर्ता के रूप से पूजित होता है। वही देवाधिदेव है और समस्त देवता उसी की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं। संसार के सभी महत्त्वपूर्ण कार्य उसी नियन्त्रण में होते हैं। परन्तु जगत् में वह चाहे जिस रूप में दिखाई पड़े, अन्ततोगत्वा वह शुद्ध निष्कल ब्रह्म है। अपनी योगमाया से युक्त होकर ईश्वर विश्व पर शासन करता है और कर्मों के फल-पुरस्कार अथवा दण्ड का निर्णय करता है, यद्यपि कर्म अपना फल स्वयं उत्पन्न करते हैं।

न्याय-वैशेषिक दर्शन में ईश्वर सगुण है और सृष्टि का निमित्त कारण है। जैसे कुम्हार मिट्टी के लोंदे से मृदुभाण्ड तैयार करता है, वैसे ही ईश्वर प्रकृति का उपादान लेकर सृष्टि की रचना करता है। योगदर्शन में ईश्वर पुरुष है और मानव का आदि गुरु है। सांख्यदर्शन के अनुसार सृष्टि के विकास के लिए प्रकृति पर्याप्त है; विकास-प्रक्रिया में ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं। पूर्वमीमांसा भी कर्मफल के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानती। उसके अनुसार वेद स्वयम्भू हैं; ईश्वरनिःश्वसित नहीं। आर्हत, बौद्ध और चार्वाक दर्शनों में ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं की गयी है।

भक्त दार्शनिकों की मुख्यतः दो श्रेणियाँ हैं--1. द्वैतवादी आचार्य मध्व आदि ईश्वर का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करते हैं और उसकी उपासना में ही जीवन का साफल्य देखते हैं। 2. अद्वैतवादियों में ईश्वर को लेकर कई सूक्ष्म भेद हैं। रामानुज उसको गुणोपेत विशिष्ट अद्वैत मानते हैं। वल्लभाचार्य ईश्वर में अपूर्व शक्ति की कल्पना कर जगत् का उससे विकास होने पर भी उसे शुद्धाद्वैत ही मानते हैं। ऐसे ही भेदाभेद, अचिन्त्य भेदाभेद आदि कई मत हैं। दे० 'निम्बार्क' तथा 'चैतन्य'।

ईश्वरगणगौरीव्रत : चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल तृतीया तक लगातार 18 दिनों तक इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। यह केवल सधवा स्त्रियों के लिए है। इसमें गौरी-शिव की पूजा होती है। मालव प्रदेश में यह बहुत प्रसिद्ध है।

ईश्वरव्रत : किसी मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें शिवजी की पूजा होती है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.148।

ईश्वरा : पार्वती का एक पर्याय, यथा--

विन्यस्तमङ्गलमहौषधिरीश्वरायाः स्रस्तोरगप्रतिसरेण करेण पाणिः॥ (किरातार्जुनीय)

[शङ्करजी ने पार्वती के मङ्गलमय कंकण पहने हुए हाथ को अपने हाथ से सर्पों को ऊपर उठाकर ग्रहण किया।]

लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवियों के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है।

ईश्वराभिसन्धि : कवितार्किक श्रीहर्ष रचित अद्वैतमत का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ।

ईश्वर कृष्ण : सांख्यकारिका' के रचियता। चीनी विद्वानों के अनुसार इनका अन्य नाम विन्ध्यवासी था और ये वसुबन्धु से कुछ समय पूर्व हुए थे। विद्वानों ने इनका समय चतुर्थ शताब्दी का प्रारम्भ माना। परम्परानुसार 'सांख्यकारिका' 'षटितन्त्र' का पुनर्लेखन है, जो ईश्वरवादी सांख्यों का प्रामाणिक ग्रन्थ है। सांख्यकारिका में कुल सत्तर आर्या पद्य (कारिकाएँ) हैं, जिनको रचना की दृष्टि से बहुत ही उत्तम कहा जा सकता है। मीमांसा के दुरूह वेदान्तसूत्र एवं जैमिनिसूत्र ग्रन्थों से भिन्न प्रसाद गुण की यह कृति पूर्णतया बोधगम्य है, किन्तु प्रारम्भिक ज्ञानार्थी के लिए अवश्य दुरूह है। दे० 'सांख्यकारिका'।

ईश्वरगीता : दक्षिणमार्गी शाक्त मत का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ। इसके ऊपर भास्करानन्दनाथ ने, जिन्हें भास्कर राय भी कहते हैं और जो अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में तंजौर के राजपण्डित थे, सुन्दर टीका लिखी है।

ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका : काश्मीर शैव मत के साहित्यिक विकास में और विशेष कर इसके दार्शनिक पक्ष में सोमानन्द के 'शिवदृष्टि' ग्रन्थ का प्रमुख स्थान है। सोमानन्द के ही शिष्य उत्पलाचार्य ने 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका' की रचना की। इस कारिका की व्याख्या सोमानन्द के एक दूसरे शिष्य अभिनवगुप्त (1000 ई०) ने की।

ईश्वरसंहिता : वैष्णव अथवा पाञ्चरात्र मत के उदय एवं विस्तारात्मक इतिहास में संहिताओं का प्रमुख स्थान है। यह अनिश्चित है कि ये कब और कहाँ लिखी गयीं। संख्या में ये 108 कही जाती हैं।

ईश्वरसंहिता तमिल (दक्षिण) देश में लिखी गयी, जब कि अधिकांश संहिताएँ उत्तर भारत में ही रची गयीं।

ईश्वरसंहिता में वैष्णवसंत शठकोप का वर्णन है।

ईश्वरी : दुर्गा देवी का पर्याय। देवीमाहात्म्य-स्तुति में कथन है :

त्वमीश्वरी देवी चराचरस्य।'

[हे देवी! तुम चर-अचर सब प्राणियों की समर्थ स्वामिनी हो।]

ईश : ईश्वर, परमात्मा (उपनिषदों के अनुसार)। ब्रह्मा, विष्णु, शिव (पुराणों के अनुसार)। परवर्ती काल में 'ईश' का प्रयोग प्रायः 'शिव' के अर्थ में ही अधिक हुआ।

ईशान : शिव का एक पर्याय, यथा--

तत्रेशानं समभ्यर्च्य त्रिरात्रोपोषितो नरः।

[शिव का पूजन करके मनुष्य को तीन रात्रि तक व्रत करना चाहिए।]

ग्यारह रुद्रों के अन्तर्गत एक रुद्र।

ईशानव्रत : शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तथा पूर्णिमा के दिन जब गुरुवार हो, इस व्रत का आचरण किया जाता है। पाँच वर्षों तक विष्णु भगवान् के साथ लिङ्ग के वाम भाग का पूजन तथा खखोल्क (सूर्य) के साथ दक्षिण भाग का पूजन होता है। एक वर्ष के पश्चात् एक गौ का दान, दो वर्ष के बाद दो गौओं का, तीन वर्ष के बाद तीन गौओं का, चार वर्ष के बाद चार गौओं का और पाँच वर्ष के बाद पाँच गौओं का दान करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड 383-385; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.179-180।

ईशोपनिषद् : ईशावास्य उपनिषद् का संक्षिप्त नाम। यह 18 मन्त्रों का एक दार्शनिक सङ्कलन है। इसका सम्बन्ध शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा से है। यदुर्वेद के अन्तिम (चालीसवां) अध्याय में यह उपनिषद् संगृहीत है। इसे यजुर्वेद का उपसंहार समझना चाहिए। यह कर्मयोगवादी उपनिषद् है और इसमें कर्म और ज्ञान का समन्वय स्वीकार किया गया है। संक्षेप में हिन्दुत्व के मूलभूत सिद्धान्त इसमें आ गये हैं। इसका प्रथम मन्त्र इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है :

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्चिज् जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्॥

[सम्पूर्ण विश्व ईश (ईश्वर) से आवास्य (ओत प्रोत) है। जगत् में जो कुछ है वह चलायमान (परिवर्तनशील= नश्वर) है। इसलिए त्यागपूर्वक जागतिक पदार्थों का भोग करना चाहिए। किसी दूसरे के स्वत्व का लोभ नहीं करना चाहिए। धन-सम्पत्ति किसकी है? अर्थात् किसी की नहीं है अथवा किसी एक व्यक्ति की नहीं, अपितु ईश्वर की है।] दूसरा मन्त्र है :

कुर्वन्‍नेहेव कर्माणि जिजीविषेत् शतं समा:। [कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की कामना करनी चाहिए। इस प्रकार (त्यागभाव से) कर्म करने से मनुष्य पर कर्म के बन्धन का लेप नहीं होता।]

ईर्ष्या : दूसरे की उन्नति में असहिष्णुता रखना। धार्मिक साधन में यह बहुत बड़ी बाधा है। इसका पर्याय है अक्षान्ति। मनुस्मृति (7.28) का कथन है :

पैशुन्यं साहसं द्रोहं ईर्ष्यासूयार्थदूषणम्। वाग्दडजश्च पारुण्यं क्रोधजोऽपि गणाष्टकः॥

[पिशुनता, साहस, द्रोह, ईर्ष्या, असूया, अर्थदूषण तथा वाग्दण्ड से उत्पन्न पारुष्य ये क्रोध से उत्पन्न आठ दुर्गुण कहे गये हैं।]

ईहा : वाञ्छा, इच्छा, चेष्टा :

धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरोहता। प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य श्रेयो न स्पर्शनं नृणाम्॥ (महाभारत)

[धर्म के लिए धन की इच्छा की अपेक्षा निरीहता (निश्चेष्टता) ही श्रेष्ठ है, क्योंकि कीचड़ को धोने की अपेक्षा उसे न छूना ही अच्छा है।]

 : स्वरवर्ण का पञ्चम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक महत्त्व निम्नांकित है :

उकारः परमेशानि अधः कुण्डली स्वयम्। पीतचम्पकसंकाशं पञ्चदेवमयं सदा॥ पञ्चप्राणमयं देवि चतुर्व्‍वर्गप्रदायकम्॥

[हे देवी! उकार (उ अक्षर) स्वयं अधः कुण्डली है। पीले चम्पक के समान इसका रंग है। सर्वदा पञ्चदेवमय है। पञ्चप्राणमय तथा चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) का देनेवाला है।] वर्णोद्धारतन्त्र में इसके नाम इस प्रकार हैं :

उः शङ्करो वर्तुलाक्षी भूतः कल्याणवाचकः। अमरेशो दक्षः कर्णः षड्वक्त्रो मोहनः शिवः॥ उग्रः प्रभुर्धृतिर्विष्णुर्विश्वकर्मा महेश्वरः। शत्रुघ्नश्‍चरिका पुष्टिः पञ्चमी वह्निवासिनी॥ कामघ्नः कामना चेशो मोहिनी विघ्नह्यन्मही। उढसूः कुटिला श्रोत्रं पारदीपो वृषो हरः॥

उक्थ : वेदमन्त्रात्मक स्तोत्र; यज्ञ का एक भेद; सामगान का एक प्रकार, सामवेद : 'विप्रा उक्थेभिः कवयो गृणन्ति।'

[बुद्धिमान् ब्राह्मण सामवेद के द्वारा स्तुति करते हैं।] अथ योसावन्तरक्षिणि पुरुषो दृश्यते सैवर्क् तत्साम तद् यजुः तद् उक्थं तद् ब्रह्म। (छान्दोग्योपनिषद्)

[यह जो आँख के भीतर पुरुष (आकार) दिखाई देता है वही ऋग्वेद, वही सामवेद, वही स्तोत्र (सामवेद का सूक्त), वही यजुर्वेद और वही ब्रह्म है।]

उखा : यज्ञों से सम्बन्धित हविष्य राँधने का बड़ा पात्र। यह मिट्टी का बना होता था (मृन्मयी)। दे. वाजसनेयी संहिता, 11.59, तैत्तरीय संहिता, 4.1.54।

उग्र : (1) शंकर का एक नाम; एकादश रुद्रों में से एक। वायुपुराण के अनुसार यह वायुमूर्ति है। (2) क्षत्रिय के द्वारा शूद्र स्त्री में उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति। इस सम्बन्ध में मनु का कथन है :

क्षत्रियात् शूद्रकन्यायां क्रूराचारविहारवान्। क्षत्रशूद्रवपुर्जन्तुरुग्रो नाम प्रजायते॥

[क्षत्रिय और शूद्रकन्या से उत्पन्न क्रूर-आचार-विहारवान व्यक्ति उग्र कहा जाता है।] इसका कार्य बिलों में रहने वाले गोधा आदि को मारना अथवा पकड़ना है।

उग्रचण्डा : दुर्गा देवी का एक विरुद। महिषासुर के प्रति भगवती का कथन है :

उग्रचण्डेति या मूर्तिर्भद्रकाली ह्यहं पुनः। यया मूर्त्या त्वां हनिष्ये सा दुर्गेति प्रकीर्तिता॥ एतासु मूर्तिषु सदा पादलग्नो नृणां भवान्। पूज्यो भविष्यसि त्वं वै देवानामपि रक्षसाम्॥

[उग्रचण्डा नाम से प्रसिद्ध जो मूर्ति है वह मैं भद्रकाली हूँ। जिस मूर्ति से मैं तुम्हें मारूँगी वह दुर्गा नाम से विख्यात है। इन मूर्तियों में सदा मेरे पाँव के नीचे दबे हुए तुम मनुष्यों, राक्षसों तथा देवताओं के द्वारा पूजित, होगे।]

उग्रतारा : (1) दुर्गा देवी का एक स्वरूप। जो उग्र भय से भक्तों की रक्षा करती है उसे उग्रतारा कहते हैं।

उग्रतारा : (2) देवी का एक प्रसिद्ध पीठ। यह सहरसा स्टोशन (दरभंगा) के पास वनगामहिसी नामक गाँव के समीप है। कुछ लोग इसे 'शक्तिपीठ' मानते हैं। सतीदेह का नेत्राभाग यहाँ गिरा था। यहाँ एक यन्त्र पर तारा, एकजटा तथा नीलसरस्वती की मूर्तियाँ अङ्कित हैं। इनके अतिरिक्त दुर्गा, काली, त्रिपुरसुन्दरी, तारकेश्वर तथा तारानाथ की भी मूर्तियाँ हैं।

उग्र नक्षत्र : तीनों पूर्वा (पूर्वाषाढ़, पूर्वाभाद्रपदा और पूर्वाफाल्गुनी), मघा तथा भरणी उग्र नक्षत्र कहलाते हैं। दे० वृहत्संहिता (97-98)। इनकी शान्ति के लिए धार्मिक कृत्यों का विधान है।

उग्रशेखरा : गङ्गा का एक पर्याय। (उग्र अर्थात शंकर के शेखर अर्थात् मस्तक पर गंगा रहती है।)

उग्रश्रवा : महाभारत का प्रवचन करने वाले एक ऋषि, जो सूत नामक निम्न जाति में उत्पन्न हुए थे।

उच्चाटन : मन्त्र प्रयोग से किसी को भगाना। मारण-मोहन आदि षट् कर्मों के अन्तर्गत इस अभिचार कर्म की गणना है। इसकी देवी दुर्गा है, तिथि कृष्णचतुर्दशी तथा अष्टमी भी है। दिन शनिवार है। जप करने वाले को बालों का सूत्र बनाकर घोड़े के दाँतों से बनी हुई माला इसमें पिरोनी चाहिए और जप के समय उसे धारण करना चाहिए। फल इसका उच्चाटन है अर्थत् शत्रु को अपने देश तथा स्थान से भगा देना। विशेष विवरण के लिए देखिए 'शारदातन्त्र'।

उच्छिष्ट : भुक्त भोजन का बचा बुआ भाग। इसे फिर खाना तामसिक भोजन के प्रकार में आता है और इसको त्याज्य बताया गया है।

भोजन करने के बाद बिना हाथ-मुँह धोया हुआ व्यक्ति कहीं न जाय (न चोच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत्--मनु।)

उच्छिष्ट-गणपति : शङ्करदिग्विजय' में गाणपत्यों के छः भेद कहे गये हैं जो गणपति के विभिन्न रूपों तथा गुणों, की अर्चा किया करते थे। ये छः रूप हैं : महागणपति, हरिद्रागणपति, उच्छिष्टगणपति, नवनीतगणपति, स्वर्णगणपति एवं सन्तानगणपति। उच्छिष्ट गाणपत्यों का एक वर्ग हेरम्ब गणपति की उपासना किया करता था।

उच्चैः श्रवा : इसके कई अर्थ हैं, यथा-- जिसका यश ऊँचा हो, जिसके कान ऊँचे हों अथवा जो ऊँचा सुनता हो। मुख्य अर्थ इन्द्र का घोड़ा है। यह श्वेत वर्ण का है। पुराणों में इसकी गिनती उन चौदह रत्नों में है, जो समुद्रमन्थन के पश्चात् क्षीरसागर से निकले थे। अमृत से इसका पोषण होता है। यह अश्वों का राजा है। इसीलिए श्वेत वर्ण के अश्व महत्‍त्‍वपूर्ण और पूजनीय माने जाते हैं।

उज्जैन : भारत का प्रसिद्ध शैव तीर्थ, जिसका सम्बन्ध ज्योतिर्लिङ्गमहाकाल से है। इस नगर को उज्जयिनी अथवा अवन्तिका भी कहते हैं। यही से शिव ने त्रिपुर पर विजय प्राप्त की थी, अतः इसका नाम उज्‍जयिनी पड़ा। इसका प्राचीनतम नाम अवन्तिका अवन्ति नामक राजा के नाम पर था। दे० स्कन्द पुराण। इस देश को पृथ्वी का नाभिदेश कहा गया है। द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में प्रसिद्ध महाकाल का मन्दिर यहीं है। 51 शक्तिपीठों में यहाँ भी एक पीठ है। हरसिद्धि देवी का मन्दिर ही सिद्ध पीठ है। महर्षि सान्दीपनि का आश्रम भी यहीं था। उज्जयिनी महाराज विक्रमादित्य की राजधानी थी। भारतीय ज्योतिष शास्त्र में देशान्तर की शून्य रेखा उज्जयिनी से प्रारम्भ हुई मानी जाती है। यहाँ बारह वर्ष में एक बार कुम्भ मेला लगता है। इसकी गणना सात पवित्र पुरियों में है :

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका। पुरी द्वारवती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः॥

उज्ज्वलनीलमणि : रूप गोस्वामी कृत अलङ्कारशास्त्र का एक प्रामाणिक एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ। रूप गोस्वामी महाप्रभु चैतन्य के शिष्य थे। अलङ्कारशास्त्र में प्रायः सामान्य पार्थिव प्रेम का ही चित्रण पाया जाता है। रूप गोस्वामी ने 'उज्ज्वलनीलमणि' में भगवद्-माधुर्य और रति (निष्काम प्रेम) का ही निरूपण किया है। वास्तव में उनके 'भक्तिरसामृतसिन्धु' के सिद्धान्तों का ही इसमें प्रदर्शन है। इस ग्रन्थ में साध्यभक्ति के भावों में तीन और जोड़े गये हैं -- मान, अनुराग और महाभाव।

उज्ज्वल रस : साहित्य में श्रृङ्गार का वर्ण श्याम कहा गया है। किन्तु भक्तिशास्त्र का शृंगार उज्ज्वला है। रूप गोस्वामी द्वारा रचित 'उज्ज्वलनीलमणि' में इस शब्द का प्रयोग अलौकिक रागानुगा भक्ति के लिए हुआ है, जिसमें श्रृंङ्गार रस का पूर्ण अन्तर्भाव है। वास्तव में माधुर्य भक्तिवादी लोग भक्ति को ही रस मानते हैं, जो लौकिक शृंगार से भिन्न है, क्योंकि इसके अवलम्बन स्वयं भगवान् हैं। इसलिए लौकिक राग से मुक्त होने के कारण इसका वर्ण उज्ज्वल है।

उञ्छ : खेत से अन्न उठा लेने के पश्चात् शेष अन्न के दाने चुनने को उञ्छ कहा जाता है। गेहूँ, धान आदि की खेत में गिरी मञ्जरियाँ चुनने को 'शिल' कहते हैं और एक-एक दाना चुनने को 'उञ्छ'। उञ्छ-शिल या शिलोञ्छ वृत्ति शब्द प्रायः एक साथ प्रयोग में आते हैं। उञ्छ-वृत्ति ब्राह्मणों के लिए श्रेष्ठ कही गयी है। सिद्धान्त यह है कि जो बिना माँगे मिलता है वह 'अमृत' है और जो माँगने से मिलता है वह 'मृत' है। ब्राह्मण को अमृत पर ही निर्वाह करना चाहिए।

उत्कोच : शाब्दिक अर्थ 'जो शुभ का नाश करता है' (उत्+ कुच् +क)। इसके लिए घूस शब्द प्रसिद्ध है। इसके पर्याय हैं : (1) प्राभृत, (2) ढौकन, (3) लम्बा, (4) कोशलिक, (5) आमिष, (6) उपाचार, (7) प्रदा, (8) आनन्दा, (9) हार, (10) ग्राह्य, (11) अयन (12) उपदानक और (13) अपप्रदान।

याज्ञवल्क्यस्मृति (2।338) में कथन है :

उत्कोचजीविनो द्रव्यहीनान् कृत्वा विवासयेत्।

[घूस लेने वालों को धन छीनकर देश से निर्वासित कर देना चाहिए।]

उत्तराभाद्रपदा : अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्रों के अन्तर्गत इक्कीसवाँ नक्षत्र; प्रौष्ठपदा। इसका रूप सूर्पाकार चार ताराओं से युक्त है। इसका अधिदेवता अहिर्बुध्न है।

उत्तर मीमांसा : छः हिन्दू चिन्तन प्रणालियाँ प्रचलित हैं। वे 'दर्शन' कहलाती हैं, क्योंकि वे विश्व को देखने और समझने की दृष्टि या विचार प्रस्तुत करती हैं। उनके तीन युग्म हैं, क्योंकि प्रत्येक युग्म में कुछ विचारों का साम्य परिलक्षित होता है। पहला युग्म मीमांसा कहलाता है, जिसका सम्बन्ध वेदों से है। मीमांसा का अर्थ है खोज, छानबीन अथवा अनुसन्धान। मीमांसायुग्म का पूर्व भाग, जिसे पूर्व मीमांसा कहते हैं, वेद के याज्ञिक रूप (कर्मकाण्ड) के विवेचन का शास्त्र है। दूसरा भाग, जिसे उत्तर मीमांसा या वेदान्त भी कहते हैं, उपनिषदों से सम्बन्धित है तथा उनके ही दार्शनिक तत्वों की छानबीन करता है। ये दोनों सच्चे अर्थ में सम्पूर्ण हिन्दू दार्शनिक एवं धार्मिक प्रणाली का रूप खड़ा करते हैं।

उत्तर मीमांसा का सम्बन्ध भारत के सम्पूर्ण दार्शनिक इतिहास से है। उत्तर मीमांसा के आधारभूत ग्रन्थ को 'वेदान्तसूत्र', 'ब्रह्मसूत्र' एवं 'शारीरकसूत्र' भी कहते हैं, क्योंकि इसका विषय परब्रह्म (आत्मा=ब्रह्म) है।

वेदान्तसूत्र' वादरायण के रचे कहे जाते हैं जो चार अध्यायों में विभक्त हैं। इस दर्शन का संक्षिप्त सार निम्नलिखित है :

ब्रह्म निराकार है, वह चेतन है, वह श्रुतियों का उद्गम है एवं सर्वज्ञ है तथा उसे केवल वेदों द्वारा जाना जा सकता है। वह सृष्टि का मौलिक एवं अन्तिम कारण है। उसकी कोई इच्छा नहीं है। एतदर्थ वह अकर्मण्य है, दृश्य जगत् उसकी लीला है। विश्व, जो ब्रह्म द्वारा समय समय पर उद्भत होता है उसका न आदि है न अन्त है। वेद भी अनन्त हैं, देवता हैं, जो वेदविहित यज्ञों द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं।

जीव या व्यक्तिगत आत्मा आदि-अन्तहीन है, चेतना-युक्त है, सर्वव्यापी है। यह ब्रह्म का ही अंश है; यह स्वयं ब्रह्म है। इसका व्यक्तिगत रूप केवल एक झलक है। अनुभव द्वारा मनुष्य ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सकता है। ब्रह्म केवल 'ज्ञानमय' है जो मनुष्य को मुक्ति दिलाने में समर्थ है। ब्रह्मचर्यपूर्वक ब्रह्म का चिन्तन, जैसा कि वेदों (उपनिषदों) में बताया गया है, सच्चे ज्ञान का मार्ग है। कर्म से कार्य का फल प्राप्त होता है और इसके लिए पुनर्जन्म होता है। ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है। दे० 'ब्रह्मसूत्र'।

उत्तराडी साधु : दादूपंथी साधुओं के पाँच प्रकार हैं--(1) खालसा, (2) नागा, (3) उत्तराडी, (4) विरक्त और (5) खाकी। उत्तराडी साधुओं की मण्डली पञ्जाब में बनवारीदास ने बनायी थी। इनमें बहुत से विद्वान् साधु होते थे, जो अन्य साधुओं को पढ़ाते थे। कुछ वैद्य होते थे। दादूपंथी साधुओं की प्रथम तीन श्रेणियों के सदस्य जो व्यवसाय चाहें कर सकते हैं, किन्तु चौथी श्रेणी, अर्थात विरक्त न कोई पेशा कर सकते हैं, किन्तु चौथी श्रेणी, अर्थात् विरक्त न कोई पेशा कर सकते हैं न द्रव्य को छू सकते हैं। खाकी साधु-भभूत (भस्म) लपेटे रहते हैं और भाँति-भाँति की तपस्या करते हैं। तीनों श्रेणियों के साधु ब्रह्मचारी होते हैं और गृहस्थ लोक 'सेवक' कहलाते हैं।

उत्तरायण : भूमध्य रेखा के उत्तर तथा दक्षिण में सूर्य की स्थिति के क्रम से दो अयन --उत्तरायण और दक्षिणायन होते हैं। धार्मिक विश्वासों तथा क्रियाओं में इनका बहुत महत्त्व है। ऋतुओं का परिवर्तन भी इन्हीं के कारण होता है। प्रत्येक अयन (उत्तरायण या दक्षिणायन) के प्रारम्भ में दान की महत्ता प्रतिपादित की गयी है। अयन के प्रारम्भ मे किया गया दान करोड़ों पुण्यों को प्रदान करता है, जबकि अमावस्या के दान केवल एक सौ पुण्य प्रदान करते हैं। दे० भोज का राजमार्ताण्ड, वर्षकृत्यकौमुदी, पृ० 214।

उत्तरार्चिक : यह चार सौ सूक्तों का एक सामवेदी संग्रह है, जिसमें से प्रत्येक में लगभग तीन-तीन ऋचाएँ है। सब मिलाकर इसमें लगभग 1225 छन्द हैं। उत्तरार्चिक स्तुतिग्रन्थ है। 'आर्चिक' शब्द का अर्थ ही है ऋचाओं का 'स्तुतिग्रन्थ'। आर्चिक के छन्द विभिन्न वर्गों में विभिन्न देवों के अनुसार बँटे हुए हैं। फिर ये प्रत्येक छन्द-समूह दस-दस की संख्या में बँटे होते हैं। फिर सोमयज्ञ में व्यवहृत होने वाले सूक्त उस गानक्रम में व्यवस्थित होते हैं, जिस क्रम में उद्गाता छात्रों को ये सिखलाये जाते हैं।

उत्तरार्चिक (राणायनीय) : सामवेद में जो ऋचाएँ आयी हैं, उन्हें 'आर्चिक' कहा गया है। साम-आर्चिक ग्रन्थ अध्यापकभेद, देशभेद, कालभेद, पाठ्यक्रमभेद और उच्चारण आदि भेद से अनेक शाखाओं में विभक्त हैं। सब शाखाओं में मन्त्र एक जैसे ही हैं, उनकी संख्या में व्यतिक्रम है। प्रत्येक शाखा के श्रौत एवं गृह्यसूत्र और प्रातिशाख्य भिन्न-भिन्न हैं। सामवेद की शाखाएँ कही तो जाती हैं एक सहस्र, पर प्रचलित हैं केवल तेरह। कुछ लोगों के मत से वास्तव में तेरह ही शाखाएँ हैं, क्योंकि जो "सहस्रतमा गीत्युपायाः" के प्रमाण से सहस्र शाखाएँ बतायी जाती हैं, उसका अर्थ "हजारों तरह से गाने के उपाय" है। उन तेरह शाखाओं में से भी आज केवल दो प्रचलित हैं। उत्तर भारत में 'कौथुमी शाखा' और दक्षिण में 'राणायनीय शाखा' प्रचलित हैं। उत्तरार्चिक में एक छन्द की, एक स्वर की और एक तात्पर्य की तीन-तीन ऋचाओं को लेकर एक-एक सूक्त कर दिया गया है। इस प्रकार के सूक्तों का सामवेदीय संग्रह जो दक्षिण में प्रचलित है 'उत्तरार्चिक राणायनीय संहिता' के नाम से पुकारा जाता है।

उत्पल : उत्पल अथवा उत्पलाचार्य दशम शताब्दी के एक शैव आचार्य थे, जिन्होंने 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका' की रचना की तथा इस पर एक भाष्य लिखा। यह ग्रन्थ सोमानन्दकृत 'शिवदृष्टि' की शिक्षाओं का सारसंग्रह है।

उत्पल वैष्णव : स्पन्दप्रदीपिका' के रचयिता उत्पल वैष्णव का जीवनकाल दसवीं शती का उत्तरार्ध था। 'स्पन्द प्रदीपिका' कल्लटरचित 'स्पन्दकारिका' की व्याख्या है।

उत्पात : प्राणियों के शुभ-अशुभ का सूचक महाभूत-विकार, भूकम्प आदि। इसका शाब्दिक अर्थ है 'जो अकस्मात् आता है।' इसके पर्याय हैं--(1) अजन्य और (2) उपसर्ग। वह तीन प्रकार का है--(1) दिव्य, जैसे बिना पर्व में चन्द्र एवं सूर्य का ग्रहण आदि, (2) अन्तरीक्ष्य, जैसे उल्कापात औऱ मेघगर्जन आदि और (3) भौम, जैसे भूकम्प, तूफान आदि। इन उत्पातों की शान्ति के लिए बहुत सी धार्मिक क्रियाओं का विधान किया गया है।

उत्सर्जन : छोड़ देना, त्याग देना। इसके पर्याय हैं (1) दान, (2) विसर्जन (3) विहापित, (4) विश्राणन, (5) वितरण, (6) स्पर्शन (7) प्रतिपादन, (8) प्रादेशन (9) (10) अपवर्जन। इसका अर्थ कर्त्तव्य क्रियाविशेष को रोक देना भी है, जैसा मनु का कथन है :

पुष्‍ये तु छन्दसां कुर्याद् बहिरुत्सर्जनं द्विजः। माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वाह्णे प्रथमेऽहनि॥

[माघ शुक्लपक्ष के प्रथम दिन के पूर्व भाग में ब्राह्मण पुष्य नक्षत्र में वेदों का घर से बाहर विसर्जन करे।] इस प्रकार वैदिक अध्ययन-सत्र की समाप्ति का नाम उत्सर्जन है।

उत्सव : आनन्ददायक व्यापार। इसके पर्याय हैं --(1) क्षण, (2) उद्धव, (3) उद्धर्ष, (4) मह। मनुस्मृति (3.59) में कथन है :

तस्मादेताः सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः। भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च॥

[इसलिए सत्कार तथा उत्सवों में लक्ष्मी के इच्छुक मनुष्यों द्वारा भूषण, वस्त्र तथा भोजन के द्वारा स्त्रियों का सम्मान करना चाहिए।]

व्रत-ग्रन्थों तथा पुराणों में असंख्य उत्‍सवों का उल्लेख है। उनमें होलिका, दुर्गोत्सव विशेष प्रसिद्ध हैं, जिनका उल्लेख अन्यत्र किया गया है। 'उत्सव' शब्द ऋग्वेद (1.100.8 तथा 1.101.2) में मिलता है। इस शब्द की व्युत्पत्ति उत्पूर्वक 'सु' धातु से है, जिसका सामान्य अर्थ है "ऊपर उफन कर बहना" अर्थात् आनन्द का अतिरेक। उत्सव के दिन सामूहिक रूप से आनन्द उमड़ कर प्रवाहित होने लगता है। इसीलिए उत्‍सवों के दिन प्रसाधन, गान, भोजन, मिलन, दान-पुण्य आदि का प्राविधान है।

उतथ्य : महर्षि अंगिरा का पुत्र तथा देवगुरु बृहस्पति का ज्येष्ठ भ्राता, यथा

त्रयस्त्वङ्गिरसः पुत्रा लोके सर्वत्र विश्रुताः। बृहस्पतिरुतथ्यश्च संवर्तश्च धृतव्रतः॥

[अङ्गिरा के तीन पुत्र संसार में प्रसिद्ध हैं --(1) बृहस्पति, (2) उतथ्य और (3) व्रतधारी संवर्त्त।] महाभारत औऱ पुराणों में इनकी कथा विस्तार से कही गयी है।

उत्तम : (1) स्वायंभुव मनु के पुत्र महाराज उत्तानपाद और महारानी सुरुचि का पुत्र। उत्तानपाद की छोटी रानी सुनीति का पुत्र ध्रुव था।

(2) स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत और उसकी दूसरी रानी का पुत्र भी उत्तम नामक था जो आगे चलकर तीसरे मन्वन्तर का अधिपति हुआ।

उत्तमभर्तृप्राप्तिव्रत : वसन्त ऋतु में शुक्ल पक्ष की द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। विष्णु इसका देवता है। दे० वाराह पुराण, 54.1-19।

उत्तमसाहस : एक ऊँचा अर्थदण्ड (जुर्माना)। जैसे

साशीतिपणसाहस्रो दण्ड उत्तमसाहसः।' (याज्ञवल्क्य स्मृति)

[1080 पणों का दण्ड उत्तमसाहस कहलाता है।] अन्यत्र भी कथन है :

पणानां द्वे शते सार्द्धे प्रथमः साहसः स्मतः। मध्यमः पञ्च विज्ञेयः सहस्रं त्वेव चोत्तमः॥

[दो सौ पचास पणों का प्रथमसाहस दण्ड, पाँच सौ पणों का मध्यमसाहस दण्ड और हजार पणों का उत्तम साहस दण्ड होता है।]

उत्तरकाशी : उत्तराखण्ड का प्रमुख तीर्थ स्थल। यहाँ अनेक प्राचीन मन्दिरों में विश्वनाथजी का मन्दिर तथा देवा सुरसंग्राम के समय छूटी हुई शक्ति (मन्दिर के सामने का त्रिशूल) दर्शनीय हैं। पास ही गोपेश्वर, परशुराम, दत्तात्रेय, भैरव, अन्नपूर्णा, रुद्रेश्वर और लक्षेश्वर के मन्दिर हैं। दक्षिण में शिव-दुर्गा मन्दिर और पूर्व में जड़भरत का मन्दिर है। इसके पूर्व में वारणावत पर्वत पर विमलेश्वर महादेव का मन्दिर है। पूर्वकाशी के समान यह भी भागीरथी गंगा के तट पर असि और धरणा नदियों के मध्य में बसी हुई है। कहा जाता है कि कलियुग में विश्वनाथजी वास्तविक रूप में यहीं निवास करते हैं।

उत्तरक्रिया : पितरों के वार्षिक श्राद्ध आदि की क्रिया, जैसे प्रेतपितृत्वमापन्ने सपिण्डीकरणादनु। क्रियन्ते याः क्रियाः पित्र्यः प्रोच्यन्ते ता नृपोत्तराः॥ (विष्णुपुराण)

[सपिण्डीकरण के पश्चात् जब प्रेत पितर संज्ञा को प्राप्त हो जाता है तब उसके बाद की जानेवाली क्रिया को 'उत्तर क्रिया' कहते हैं।]

उत्तरगीता : उत्तरगीता' महाभारत का ही एक अंश माना जाता है। प्रसिद्धि है कि पाण्डवों की विजय और राज्यप्राप्ति के पश्चात् श्री कृष्ण के सत्संग का सुअवसर पाकर एक बार अर्जुन ने कहा कि भगवान्! युद्धारम्भ में आपने जो गीता-उपदेश मुझको दिया था, युद्ध की मार-काट और भाग-दौड़ के बीच उसे मैं भूल गया हूँ। कृपा कर वह ज्ञानोपदेश मुझको फिर से सुना दीजिए। श्री कृष्ण बोले कि अर्जुन, उक्त उपदेश मैंने बहुत ही समाहितचित्त (योगस्थ) होकर दिव्य अनुभूति के द्वारा दिया था, अब तो मैं भी उसको आनुपूर्वी रूप में भूल गया हूँ। फिर भी यथास्मृति उसे सुनाता हूँ। इस प्रकार श्री कृष्णा का बाद में अर्जुन को दिया गया उपदेश ही 'उत्तर गीता' नाम से प्रसिद्ध है। स्वामी शंकराचार्य के परमगुरु गौडपादाचार्य की व्याख्या इसके ऊपर पायी जाती है, जिससे इस ग्रन्थ का गौरव औऱ भी बढ़ गया है।

उत्तरपक्ष : पूर्व पक्ष का विलोम। विवाद के मध्य प्रतिपक्षी के सिद्धान्तों का खण्डन करने के पश्चात् किसी विचारक का अपना जो मत होता है उसे उत्तरपक्ष कहते हैं।

उत्तराफाल्गुनी : अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्रों के अन्तर्गत बारहवाँ नक्षत्र। इसमें पर्यङ्क के आकार के दो तार हैं। इसका अधिष्ठाता देवता अर्यमा है।

उद्धह : आकाशमण्डल के स्तरों में छाये हुए सात प्रकार के वायुओं के अन्तर्गत एक वायु। इसकी स्थिति ऊपर की ओर होती है। 'सिद्धान्तशिरोमणि' में कथन है :

आवहः प्रवहश्चैव विवहश्च समीरणः। परवहः संवहश्चैव उद्वहश्च महाबलः॥ तथा परिवहः श्रीमानुत्पातभयशंसिनः। इत्येते क्षुभिताः सप्त मारुता गगनेचराः॥

[आवह, प्रवह विवह, परवह, संवह, उद्वह तथा परिवह; आकाशगामी ये सात पवन परस्पर टकराते हुए उपद्रव होने की सूचना देते हैं।

उद्वाह : विवाह, एक स्त्री को पत्नी बनाकर स्वीकार करना। यह आठ प्रकार का होता है (मनु० 3.21) : (1) वर को बुलाकर शक्ति के अनुसार कन्या को अलंकृत करके जब दिया जाता है, उसे 'ब्राह्म विवाह' कहते हैं। (2) जहाँ यज्ञ में स्थित ऋत्विक् वर को कन्या दी जाती है, उसे 'दैव विवाह' कहते हैं। (3) जहाँ वर से दो बैल लेकर उसी के साथ कन्या का विवाह कर दिया जाता है उसे 'आर्ष' विवाह कहते हैं। (4) जहाँ "इसके साथ धर्म का आचरण करो" ऐसा नियम करके कन्यादान किया जाता है उसे 'प्राजापत्य' विवाह कहते हैं। (5) जहाँ धन लेकर कन्यादान किया जाता है वह 'आसुर विवाह' कहलाता है। (6) जहाँ कन्या औऱ वर का परस्पर प्रेम हो जाने के कारण तुम मेरी पत्नी हो", "तुम मेरे पति हो" ऐसा निश्चय कर लिया जाता है वह 'गान्धर्व विवाह' कहलाता है। (7) जहाँ पर बलपूर्वक कन्या का अपहरण कर लिया जाता है उसे 'राक्षस विवाह' कहते हैं। (8) जहाँ सोयी हुई, मत्त अथवा प्रमत्त कन्या के साथ निर्जन में बलात्कार किया जाता है, वह 'पैशाच विवाह' कहलाता है। विवाह का शाब्दिक अर्थ है 'उठाकर ले जाना'। क्योंकि विवाह के अन्तर्गत कन्या को उसके पिता के घर से पतिगृह को उठा ले जाते हैं, इसलिए इस क्रिया को 'उद्वाह' कहा जाता है। विशेष विवरण के लिए दे० 'विवाह'।

उद्दालकव्रत : यह व्रत 'पतितसावित्रीक' (उपनयन संस्कारहीन) लोगों के लिए है। ऐसा बतलाया गया है कि उष्ण दुग्ध तथा 'आमिक्षा' पर ही व्रती को दो मास तक निर्भर रहना चाहिए। आठ दिन तक दही पर तथा तीन दिन घी पर जीवन-यापन करना चाहिए। अन्तिम दिन पूर्ण उपवास का विधान है।

उद्दालक आरुणि : अरुण का पुत्र उद्दालक आरुणि वैदिक काल के अत्यन्त प्रसिद्ध आचार्यों में से था। वह शतपथ ब्राह्मण (11.4.1.2) में कुरुपञ्चाल का ब्राह्मण कहा गया है। वह अपने पिता अरुण तथा मद्रदेशीय पतञ्चल काप्य का भी शिष्य (बृहदा० उप०) तथा प्रसिद्ध याज्ञवल्क्य ऋषि का गुरु था (बृहदा० उप०)। तैत्तिरीय संहिता में अरुण का नाम तो आता है, आरुणि का नहीं। उद्दालक का वास्तविक पुत्र श्वेतकेतु था, जिसका समर्थन आपस्तम्ब ने अपने समय के अवर व्यक्ति के रूप में किया है।

उदककर्म : मृतक के लिए जलदान की क्रिया। यह कई प्रकार से सम्पन्न होती है। एक मत से सभी सम्बन्धी (7 वीं या 10 वीं पीढ़ी तक) जल में प्रवेश करते हैं। वे केवल एक ही वस्त्र पहने रहते हैं और यज्ञसूत्र दाहिने कन्धे पर लटकता रहता है। वे अपना मुख दक्षिण की ओर करते हैं, मृतक का नाम लेते हुए एक-एक अञ्जलि पानी देते हैं। फिर पानी से बाहर आकर अपने भीगे कपड़े निचोड़ते हैं।

स्नान के बाद सम्बधी एक साफ घास के मैदान में बैठते हैं जहाँ उनका मनबहलाव कथाओं अथवा यम-गीत द्वारा किया जाता है। घर के द्वार पर वे पिचुमण्ड की पती चबाते हैं, मुख धोते हैं, पानी, अग्नि तथा गोबर आदि का स्पर्श करते हैं, एक पत्थर पर चढ़ते हैं और तब घर में प्रवेश करते हैं।

उदकपरीक्षा : जल के द्वारा अपराध के सत्यासत्य की परीक्षा। दिव्य प्रमाणों में यह आया है। वाद उत्पन्न होने पर चार प्रमाणों के आधार पर न्याय किया जाता है। वे हैं-- (1) लिखित (2) भुक्ति, (3) साक्षी और (4) दिव्य। उदकपरीक्षा दिव्य का ही एक प्रकार है। जल के प्रयोग से यह परीक्षा होती है, क्योंकि हिन्दू धर्म में जल को बहुत पवित्र माना जाता है और यह विश्वास किया जाता है कि जलस्पर्श करते समय कोई झूठ नहीं बोलेगा। आजकल प्रायः गङ्गाजल इसके लिए प्रयुक्त होता है।

प्राचीन रीति में दोषी व्यक्ति को निर्धारित समय तक जल में डुबकी लगानी होती थी। समय से पूर्व ऊपर उठ आने वाला व्यक्ति अपराधी मान लिया जाता था।

उदकसप्तमी : इसमें सप्तमी को एक अञ्जलि पानी पीकर व्रत रखने का विधान है। इससे आनन्द की प्राप्ति होती है। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, 184, हेमाद्रि, व्रतखण्ड 726।

उद्गाता : सामगान करने वाला याजक 'उद्गाता' कहलाता है। हरिवंश में कथन है :

ब्रह्माणं परमं वक्त्रादुद्गातारञ्च सामगम्। होतारमथ चाध्‍वर्युं बाहुभ्यामसृजत्प्रभुः॥

[प्रजापति ने ब्रह्मा को तथा सामगान करने वाले उद्गाता को अपने मुख से और होता तथा अध्वर्यु को बाहुओं से उत्पन्न किया।]

वैदिक यज्ञों, विशेष कर सोमयज्ञ में, सामवेद के मन्त्रों का गान होता था। गाने वाले पुरोहित को 'उद्गाता' कहते थे। उद्गाता को दो प्रकार की शिक्षा लेनी पड़ती थी। पहली शिक्षा थी--शुद्ध एवं शीघ्र मन्त्रों का गायन, तथा उन सभी स्वरों की जानकारी जो विशेष कर सोमयज्ञों में प्रयुक्त होते थे। दूसरे शिक्षा से इस बात का स्मरण रखना होता था कि किस सोमयज्ञ में कौन सा सूक्त या मन्त्र गान करना पड़ेगा।

उदपान : जिसमें से जल पिया जाता है। अमरकोश के अनुसार इसका अर्थ कूप है। अन्यत्र भी कहा है :

निर्जलेषु च देशेषु खनयामासुरुत्तमान्। उदपानान् बहुविधान् वेदिकापरिमण्डितान्॥,

[जल रहित प्रदेशों में अनेक प्रकार की वेदिकाओं से सुसज्जित उत्तम कुएँ खोदे गये।]

यह 'इष्टापूर्त' नामक पुण्यकर्मों में 'पूर्त' के अन्तर्गत विशेष कृत्य है। इसको खुदवाने से बड़ा भारी पुण्य होता है।

उदमय आतरेय : ऐतरेय ब्राह्मण (8.22) में उदमय आतरेय को अङ्ग वैरोचन का पारिवारिक पुरोहित कहा गया है।

उदयगिरि-खण्डगिरि : भुवनेश्वर से सात मील पश्चिम उदयगिरि तथा खण्डगिरि नामक पहाड़ियाँ हैं। यह प्रधानतः जैन तीर्थ है, परन्तु सभी हिन्दू इसको पवित्र मानते हैं। यहाँ कलिङ्ग देश के 500 मुनि मोक्ष प्राप्त कर गये हैं। दोनों पहाडियाँ समीप हैं। उदयगिरि का नाम कुमारगिरि है। महावीर स्वामी यहाँ पधारे थे। इसमें अनेक गुफाएँ हैं। उनमें अनेक मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। खण्डगिरि के शिखर पर एक जैन मन्दिर है। दो मन्दिर और हैं। पास ही आकाशगङ्गा नामक कुण्ड है। आगे गुप्तगङ्गा, श्यामकुण्ड तथा राधाकुण्ड हैं। एक गुफा में 24 तीर्थकरों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। उदयगिरि तथा खण्डगिरि की प्राचीन गुफाओं तथा वहाँ को शिल्प की कला को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं।

उदयन : न्यायदर्शन के आचार्यों में उदयन का स्थान बड़ा ही ऊँचा है। इनके द्वारा विरचित 'कुसुमाञ्जलि' में ईश्वर की सत्ता को भली भाँति प्रमाणित किया गया है। यह ग्रन्थ दूसरे ईश्वरवादी दार्शनिकों को भी प्रिय है। उदयन ने इसमें भास्कर (भास्‍कराचार्य) पर आक्षेप किया है, जो वेदान्त के आचार्य थे और जिन्होंने अपने भाष्य (भास्करभाष्य) में शाङ्कर मत का खण्डन किया है। उदयनाचार्य ने 'न्यायवार्तिकतात्पर्यपरिशुद्धि' की भी रचना की है। यह ग्रन्थ वाचस्पति की टीका का ही स्पष्टीकरण है।

कहते हैं कि आचार्य उदयन जब जगन्नाथजी के दर्शन करने गये उस समय मन्दिर के पट बन्द थे। इससे आचार्य ने व्यंग्यवचनपूर्वक उनकी इस प्रकार स्तुति की :

ऐश्वर्यमदमत्तोसि मामवज्ञाय वर्तसे। उपस्थितेषु बौद्धेषु मदधीना तव स्थितिः॥

[जगत् के नाथ (ईश्वर) होने से मत्त होकर आप मेरा तिरस्कार कर छिप गये हैं। किन्तु बौद्धों (नास्तिकों) का सामना होने पर आपकी सत्ता मेरे तर्कों से ही सिद्ध हो सकती है।]

उदसेविका : यह उत्सव ठीक उसी प्रकार मनाया जाता है जैसे भूतमातृ उत्सव होता है। यह एक शाक्त तान्त्रिक प्रक्रिया है। इन्द्रध्वजोत्सव के अवसर पर ध्वज को उतार लेने के पश्चात् इसका आचरण किया जाना चाहिए। यह भाद्रपद शुक्ल पक्ष त्रयोदशी को मनाया जाता था। इसकी समानता कुछ अंशों में रोम की रहस्यात्मक 'बैकानेलिया' (होली जैसा रागात्मक चेष्टाओं) से की जा सकती है। स्कन्द पुराण में थोड़ी भिन्नता के साथ इस व्रत का वर्णन किया गया है। इस विषय में मतभेद है कि उत्सव कब और कहाँ आयोजित किया जाय। प्रायः यह पूर्णिमान्त में होता था। अब इसका प्रचार प्रायः बन्द है।

उदासी : सिक्खों के मुख्य दो सम्प्रदाय हैं : (1) सहिजधारी और (2) सिंह। सहिजधारियों एवं सिंहों के भी कई उपसम्प्रदाय हैं। उदासी (संन्यासमार्गी) सहिजधारी शाखा के हैं। इस मत (उदासीन) के प्रवर्तक नानक के पुत्र श्रीचन्द्र थे। इस मत का प्रारम्भ लगभग 1439 ई० में हुआ। श्रीचन्द्र ने नानक के मत को कुछ व्यापक रूप देकर यह नया मत चलाया, जो सनातनी हिन्दुओं के निकट है।

उद्गीथ : ओंकारसंपुटित सामगान की विशेष रीति : 'ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत।' (छान्दोग्य उ०) अस्मिन्नगस्त्यप्रमुखा प्रदेशे महान्त उद्गीथविदो वसन्ति। (उत्तर चरित)

उद्गीता आगम : आगमों का प्रचलन शैव सम्प्रदाय के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटना है। परम्परा के अनुसार 28 आगम हैं, जिन्हें शैविक एवं रौद्रिक दो वर्गों में बाँटा गया है। 'उद्गीता' अथवा 'प्रोद्गीता आगम' रौद्रिक आगम है।

उद्योतकर : न्यायदर्शन के विख्यात व्याख्याता। गौतम ऋषि के न्यायसूत्रों पर वात्स्यायन का भाष्य है। इस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका' के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयनाचार्यकृत 'तात्पर्यपरिशुद्धि' है। वासवदत्ताकार सुबन्धु ने मल्लनाग, न्यायस्थिति, धर्मकीर्ति और उद्योतकर इन चार नैयायिकों का उल्लेख करते हुए इन्हें ईसा की छठी शताब्दी में उत्पन्न बताया है। उद्योतकर ने प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक दिङ्नाग के 'प्रमाणसमुच्चय' नामक ग्रन्थ का खण्डन करके वात्स्यायन का मत स्थापित किया है। इनका एक नाम भरद्वाज भी है तथा इन्हें पाशुपताचार्य भी कहा गया है, जिससे इनके पाशुपत शैव होने का अनुमान लगाया जाता है।

उन्मत्तभैरवतन्त्र : तन्त्रशास्त्र के मौलिक ग्रन्थ शिवोक्त कहे गये हैं। 'तन्त्र' अतिगुह्य तत्त्व समझा जाता है। यथार्थतः दीक्षित और अभिषिक्त के सिवा किसी के सामने यह शास्त्र प्रकट नहीं करना चाहिए। 'आगमतत्त्व विलास' में 64 तन्त्रों की सूची दी हुई है, जिसमें 'उन्मत्त भैरव' चौतीसवाँ है। आगमतत्त्वविलास की सूची के सिवा अन्य बहुत से स्थानों पर इस तन्त्र का उल्लेख हुआ है।

उन्मनी : हठयोग की मुद्राओं में से एक मुद्रा। इसका शाब्दिक अर्थ है 'विरक्त अथवा उदासीन होना'। संसार से विरक्ति के लिए इस मुद्रा का अभ्यास किया जाता है। इसमें दृष्टि को नासाग्र पर केन्द्रित करते हैं और भृकुट (भौंह) का ऊपर की ओर प्रक्षेप करते हैं। गोरख, कबीर आदि योगमार्गी सन्तों ने साधना के लिए इस मुद्रा को बहुत उपयोगी माना है। 'गोरखबानी' में निम्नांकित वचन पाये जाते हैं :

तूटी डोरी रस कस बहै। उन्मनी लागा अस्थिर रहै॥ उन्मनि लागा होइ अनन्द। तूटि डोरी विनसँ कन्द॥

कबीर ने भी कही है (कबीरसाखीसंग्रह) : हँसै न बोलै उन्मनी, चंचल मेल्या भार। कह कबीर अन्तर बिंधा, सतगुर का हथियार॥

उन्मैविलक्कम् : शैव सिद्धान्त का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ। तमिल शैवों मे मेयकण्ड देव की प्रचुर प्रसिद्धि है। इन्होंने तेरहवी शताब्दी के आरम्भ में उत्तर भारत में रचे गये बारह संस्कृत सूत्रों का तमिल पद्य में अनुवाद किया। ये संमान्य आचार्य भी थे और इनके अनेक शिष्य थे जिनमें से एक शिष्य मान वाचकम कण्डदान की प्रसिद्धि 'उन्मैविलक्कम्' नामक भाष्य के कारण बहुत अधिक है। यह रचना 54 पद्यों मे शैव सिद्धान्त को प्रश्नोत्तर के रूप में प्रस्तुत करती है।

उपक्रमपराक्रम : अप्पय दीक्षित रचित पूर्वमीमांसादर्शन का एक ग्रन्थ। उपक्रम एवं उपसंहारादि षड्विध लिङ्गों से शास्त्र का निर्णय किया जाता है। इस ग्रन्थ में यह दिखलाया गया है कि उपक्रम ही सबसे अधिक प्रबल है और ग्रन्थ का प्रतिपाद्य सिद्धान्त इसी से स्पष्ट हो जाता है।

उपकुवार्ण : ब्रह्मचर्य आश्रम पूर्ण करने के अनन्तर जो स्नातक गृहस्थ होता है उसको उपकुर्वाण कहते हैं। स्नातक दो प्रकार के होते हैं-- (1) उपकुर्वाण और (2) नैष्ठिक। अधिकांश स्नातक उपकुर्वाण होते हैं जो आचार्य की अनुज्ञा लेकर गार्हस्थ्य आश्रम में प्रवेश करते हैं। उपकुर्वाण का अर्थ 'कर्मनिष्ठ'। निष्ठक का अर्थ है 'ज्ञाननिष्ठ'। कुछ स्नातक ऐसे होते थे जो गार्हस्थ्य में नहीं आना चाहते थे। वे गुरुकुल में ही आजीवन ब्रह्मचारी रहकर ज्ञानार्जन करते थे।

उपकूपजलाशय : कुँए के पास बनाया गया जलाशय। कुँए के पास पशुओं के पीने के लिए पत्थर आदि के द्वारा बाँधा गया पानी रखने का स्थान। यह पूर्त कर्म माना जाता है। इसके बनवाने से अदृष्ट पुण्य होता है।

उपक्षेपणधर्म : उपक्षेपण रूप धर्म। शूद्र का अन्न, जिसे ब्राह्मण के घर पकाने के लिए दिया गया हो, उपक्षेपण कहलाता है।

उपग्रन्थसूत्र : सामवेदीय सूत्रग्रन्थों में से एक सूत्रग्रन्थ। ऋग्वेदीय अनुक्रमणिकाकार षद्गुरुशिष्य ने लिखा है कि 'उपग्रन्थसूत्र' कात्यायन द्वारा निर्मित हुआ है।

उपग्रहण : उपाकरण का पर्याय। संस्कारपूर्वक गुरु से वेदों का ग्रहण करना उपग्रहण कहलाता है। श्रावणी पूर्णिमा को यह कृत्य किया जाता है। दे० 'उपाकर्म'।

उपज्ञा : सर्वप्रथम उत्पन्न ज्ञान, उपदेश के बिना हृदय में स्वतः उद्भूत प्रथम ज्ञान। जैसे वाल्मीकि को श्लोक निर्माण करने का ज्ञान प्राप्त हो गया था :

अथ प्राचेतसोपज्ञं रामायणमितस्ततः।' (रघुवंश 15, 63)

[इसके पश्चात् वाल्मीकि ने रामायण का स्वतः ज्ञान प्राप्त किया।]

उपतन्त्र : तन्त्रशास्त्र शिवप्रणीत कहा जाता है। ऐसे तन्त्र संख्या में सौ से भी अधिक हैं। वाराही तन्त्र से यह भी पता चलता है कि जैमिनि, कपिल, नारद, गंगा, पुलस्त्य, भृगु, शुक्र, बृहस्पति आदि ऋषियों ने भी कई उपतन्त्र रचे हैं जिनकी गिनती नहीं हो सकती। (दे० आगम)

उपदेवता : जो देवता की समानता को प्राप्त हो, यक्ष, भूत आदि। उपदेवता दस हैं, जैसा कि अमरकोश में बताया गया है:

विद्याधराऽप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्वकिन्नराः। पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः॥

[(1) विद्याधर, (2) अप्सरा, (3) यक्ष, (4) राक्षस, (5) गन्धर्व, (6) किन्नर, (7) पिशाच, (8) गुह्यक, (9) सिद्ध और (10) भूत। ये देवयोनियाँ हैं।]

उपदेश : मन्त्र आदि का शिक्षण या कथन। उसका पर्याय है दीक्षा। यथा :

सूर्यचन्द्रग्रहे तीर्थे सिद्धक्षेत्रे शिवालये। मन्त्रमात्रप्रकथनमुपदेशः स उच्यते॥ (रामार्चनचन्द्रिका)

[चन्द्र-सूर्यग्रहण, तीर्थ, सिद्धक्षेत्र, शिवालय में मन्त्र कहने को उपदेश कहते हैं।] हितकथन को भी उपदेश कहा जाता है। हितोपदेश के विग्रह खण्ड में कहा है :

उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये।'

[मूर्खों को हितकर वचन से क्रोध ही आता है, शान्ति नहीं।]

शिक्षण के अर्थ में भी यह शब्द प्रयुक्त होता है, मनु (8.272) ने इसका प्रयोग इसी अर्थ में किया है।

हिन्दू संस्कृति में मौखिक उपदेश द्वारा भारी जनसमूह के सामने प्रचार करने की प्रथा नहीं थी। यहाँ के सभी आचार्यों ने आचरण अथवा चरित्र के ऊपर बड़ा जोर दिया है। समाज का प्रकृत सुधार चरित्र के सुधार में ही निहित है। कोरे विचार के प्रचार से आचार संगठित नहीं होता। इसलिए आचार का आदर्श स्थापित करने वाले शिक्षक 'आचार्य' कहलाते थे। उपदेशक उनका नाम न था। जहाँ तक पता चलता है, भारी जनसमूह के सामने मौखिक व्याख्यान द्वारा विचारों के प्रचार करने की पद्धति की नींव सर्वप्रथम महात्मा गौतम बुद्ध और उनके अनुयायियों ने डाली। तब से इस रूप में धर्म के प्रचार की रीति चल पड़ी।

उपदेशरत्नमाला : श्रीवैष्णव सम्प्रदाय का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ, जो तमिल भाषा में लिखा गया है। इसके रचयिता गोविन्दाचार्य का जन्म पन्द्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में माना जाता है।

उपदेशसाहस्री : शङ्कराचार्य द्वारा रचित अद्वैत वेदान्त का एक प्रधान ग्रन्थ। महात्मा रामतीर्थ ने इस ग्रन्थ पर 'पदयोजनिका' नामक टीका का निर्माण किया। शङ्कराचार्य के वेदान्त सम्बन्धी सिद्धान्तों का इसमें एक सहस्र श्लोकों में संक्षिप्त सार है।

उपदेशामृत : जीव गोस्वामी (सोलहवीं शताब्दी के अन्त में उत्पन्न) द्वारा रचित ग्रन्थों में से एक। यह ग्रन्थ इनके अचिन्त्यभेदाभेदवाद (चैतन्यमत) के अनुसार लिखा गया है। ग्रन्थकर्ता प्रसिद्ध भक्त और गौड़ीय वैष्णवाचार्य रूप और सनातन गोस्वामी के भतीजे थे। चैतन्यदैव के अन्तर्धान के बाद जीव गोस्वामी वृन्दावन चले आये और यहीं पर इनकी प्रतिभा का विकास हुआ। फलतः इन्होंने भक्तिमार्ग के अनेक ग्रन्थ प्रस्तुत कर बंगाल में वैष्णव धर्म का प्रचार करने के लिए श्रीनिवास आदि को उधर भेजा था।

उपदेष्टा : उपदेश देने वाला। यह गुरुवत् पूज्य है :

तथोपदेष्टारमपि पूजयेच्च ततो गुरुम्। न पूज्यते गुरुर्यत्र नरैस्तत्राफला क्रिया॥ (बृहस्पति)

[उपदेशक गुरु की वैसी ही पूजा करनी चाहिए जैसे गुरु की। जहाँ मनुष्य गुरु की पूजा नहीं करते वहाँ क्रिया विफल होती है।]

उपधर्म : हीन धर्म अथवा पाखण्ड। मनुस्मृति (2.337) में कथन है :

एष धर्मः परः साक्षाद् उपधर्मोऽन्य उच्यते।

[यह साक्षात् परम धर्म है और अन्य (इससे विरुद्ध) उपधर्म कहा गया है।]

उपधा : राजाओं द्वारा गुप्त रूप से मन्त्रियों के चरित्र की परीक्षा। प्राचीन राजशास्त्र में उपधाशुद्ध मन्त्रीगण श्रेष्ठ या विश्वस्त माने जाते थे।

उपधि : छल, धोखा, कपट :

यत्र वाप्युपधिं पश्येत् तत्सर्वं विनिवर्तयेत्।' (मनु)

[जहाँ कपटपूर्वक कोई वस्तु बेची या दी गयी हो वह सब लौटवा देनी चाहिए।]

किरात० (1,45) में भी कहा गया है :

अरिषु हि विजयार्थिनः क्षितीशा विदधति सोपधि सन्धिदूषणानि।

[विजय का इच्छुक राजा कपटपूर्वक शत्रुओं के साथ की हुई सन्धि को भङ्ग कर देता है।]

उपनय : विशेष कर्मानुष्ठान के साथ गुरु के समीप में ले जाना। यथा :

गृह्योक्तकर्मणा येन समीपं नीयते गुरोः। बालो वेदाय तद्योगाद बालस्योपनयं विदूः॥ (स्मृति)

[वेदज्ञान के लिए गृह्यसूत्र में कहे गये कर्म के द्वारा बालक को जो गुरु के पास लाया जाता है उसे उपनय कहते हैं।]

तर्कशास्त्र में हेतु के बल से किसी निश्चय पर पहुँचना भी उपनय कहलाता है।

उपनयन : एक धार्मिक कृत्य, जिसके द्वारा बालक को आचार्य के पास विद्याध्ययन के लिए ले जाते हैं। इसके कई पर्याय हैं-- (1) वटूकरण, (2) उपनाय, (3) उपनय, (4) आनय आदि। संसार की सभी जातियों में बालक को जाति की सांस्कृतिक सम्पत्ति में प्रवेश कराने के लिए कोई न कोई संस्कार होता है। हिन्दुओं में इसके लिए उपनयन संस्कार है। ऐसा माना जाता है कि इससे बालक का दूसरा जन्म होता है और इसके पश्चात् वह सूक्ष्म ज्ञान और संस्कार को ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है। माता-पिता से जन्म शारीरिक जन्म है। आचार्यकुल (गुरुकुल) में ज्ञानमय जन्म बौद्धिक जन्म है। मनुस्मृति (2.170) में कथन है :

तत्र यद् ब्रह्मजन्मास्य मौञ्जीबन्धनचिह्नितम्। तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते॥

[मूँज की करधनी से चिह्नित बालक का जो ब्रह्म-(ज्ञान) जन्म है, उसमें उसकी माता सावित्री (गायत्री मन्त्र) और पिता आचार्य कहा जाता है।] इस संस्कार से बालक 'द्विज' (दो जन्म वाला) होता है। जो जड़ता अथवा मूढ़ता से यह संस्कार नहीं कराता वह व्रात्य अथवा वृषल है।

उपनयन का उद्देश्य है बालक के ज्ञान, शौच और आचार का विकास करना। इस सम्बन्ध में याज्ञवल्क्यस्मृति (1.15) का कथन है :

उपनीय गुरुः शिष्यं माव्याहृतिपूर्वकम्। वेदमध्यापयेदेनं शौचाचारांश्च शिक्षयेत्॥

[गुरु को महाव्याहृति (भूः भुवः स्वः) के साथ शिष्य का उपनयन करके उसको वेदाध्ययन करना तथा शौच और आचार की शिक्षा देनी चाहिए।] विभिन्न वर्ण के बालकों के उपनयनार्थ विभिन्न आयु का विधान है; ब्राह्मणबालक का उपनयन आठवें वर्ष में, क्षत्रियबालक का ग्यारहवें वर्ष में, वैश्यबालक का बारहवें वर्ष में होना चाहिए। दे० पारस्कारगृह्यसूत्र, 2.2; मनुस्मृति, 2.36; याज्ञवल्क्यस्मृति, 1.11। इस अवधि के अपवाद भी पाये जाते हैं। प्रतिभाशाली बालकों का उपनयन कम आयु में भी हो सकता है। ब्रह्मवर्चस् की कामना करने वाले ब्राह्मण बालक का उपनयन पाँचवें वर्ष में हो सकता है। उपनयन की अन्तिम अवधि ब्राह्मण बालक के लिए सोलह वर्ष, क्षत्रिय बालक के लिए बाईस वर्ष और वैश्य बालक के लिए चौबीस वर्ष है। यदि कोई व्यक्ति निर्धारित अंतिम अवधि के पश्चात् भी अनुपनीत रह जाय तो वह सावित्रीपतित, आर्यधर्म से विगर्हित, व्रात्य हो जाता है। मनु (2.39) का कथन है :

अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः। सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः॥

परन्तु व्रात्य हो जाने के पश्चात् भी आर्य समाज (शिष्ट समाज) में लौटने का रास्ता बन्द नहीं हो जाता, व्रात्यस्तोम नामक प्रायश्चित करके पुन: उपनयनपूर्वक समाज में लौटने का विधान है :

तेषां संस्कारेप्सुर्व्रात्यस्तोमेनेष्ट्वा काममधीयीत। (पारस्करगृह्यसूत्र 2.5.54)

इसके लिए आचार्य का निर्वाचन बड़े महत्त्व का है। उपनयन का उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति और चरित्र का निर्माण है। यदि आचार्य ज्ञानसम्पन्न और सच्चरित्र न हो तो वह शिष्य के जीवन का निर्माण नहीं कर सकता। 'जिसको अविद्वान् आचार्य उपनीत करता है वह अन्धकार से अन्धकार में प्रवेश करता है। अतः कुलीन, विद्वान् तथा आत्मसंयमी आचार्य की कामना करनी चाहिए।' दे० 'उपनिषद्'। स्मृतियों में आचार्य के गुणों पर विशेष बल दिया गया है :

कुमारस्योपनयनं श्रुताभिजनवृत्तवान्। तपसा धूतनिःशेषपाप्‍मा कुर्याद् द्विजोत्तमः॥ शौनक सत्यवाग् घृतिमान् दक्षः सर्वभूतदयापरः। आस्तिको वेदनिरतः शुचिराचार्य उच्यते॥ वेदाध्ययनसम्पन्नो वृत्तिमान् विजितेन्द्रियः। दक्षोत्साही यथावृत्तजीवनेहस्तु वृत्तिमान्॥ यम

संस्कार सन्पन्न करने के लिए किसी उपयुक्त समय का चुनाव किया जाता है। प्रायः उपनयन जब सूर्य उत्तरायण में (भूमध्य रेखा के उत्तर) रहता है तब किया जाता है। परन्तु वैश्य बालक का उपनयन दक्षिणायन में भी हो सकता है। विभिन्न वर्णों के लिए विभिन्न ऋतुएँ निश्चित हैं। ब्राह्मण बालक के लिए वसन्त, क्षत्रिय बालक के लिए ग्रीष्म, वैश्य बालक के लिए शरद तथा रथकार के लिए वर्षाऋतु निर्धारित हैं। ये विभिन्न ऋतुएँ विभिन्न वर्णों के स्वभाव तथा व्यवसाय की प्रतीक हैं।

संस्कार के आरम्भ में क्षौरकर्म (मुण्डन) और स्नान के पश्चात् बालक को गुरु की ओर से ब्रह्मचारी के अनुकूल परिधान दिये जाते हैं। उनमें प्रथम कौपीन है जो गुप्त अङ्गों को ढकने के लिए होता है। शरीर के सम्बन्ध में यह सामाजिक चेतना का प्रारम्भ है। मन्त्र के साथ आचार्य कौपीन तथा अन्य वस्त्र देता है। इसके साथ ही ब्रह्मचारी को मेखला प्रदान की जाती है। इसकी उपयोगिता शारीरिक स्फूर्ति और आन्त्रजाल की पुष्टि के लिए होती है।

मेखला के पश्चात् ब्रह्मचारी को यज्ञोपवीत पहनाया जाता है। यह इतना महत्त्वपूर्ण है कि आजकल उपनयन संस्कार का नाम ही यज्ञोपवीत संस्कार हो गया है। यज्ञ उपवीत का अर्थ है 'यज्ञ के समय पहना हुआ ऊपरी वस्त्र।' वास्तव में यह यज्ञवस्त्र ही था जो संक्षिप्त प्रतीक के रूप में तीन सूत्र मात्र रह गया है।

इसी प्रकार मृगचर्म, दण्ड आदि भी उपयुक्त मन्त्रों के साथ प्रदान किये जाते हैं।

ब्रह्मचारी को परिधान समर्पित करने के पश्चात् कई एक प्रतीकात्मक कर्म किये जाते हैं। पहला है आचार्य द्वारा अपनी भरी हुई अञ्जलि से ब्रह्मचारी की अञ्जलि में जल डालना, जो शुचिता और ज्ञान-प्रदान का प्रतीक है। दूसरा है ब्रह्मचारी द्वारा सूर्यदर्शन। यह नियम, व्रत और उपासना का प्रतीक है।

इन प्रतीकात्मक क्रियाओं के बाद आचार्य बालक को ब्रह्मचारी के रूप में स्वीकार करता है और पूछता है, `तू किसका विद्यार्थी है?` वह उत्तर देता है, `आपका।` आचार्य संशोधन करते हुए कहता है, तू इन्द्र का ब्रह्मचारी है। अग्नि तेरा आचार्य है। मैं तेरा आचार्य हूँ।

यज्ञोपवीत के समान सावित्री (गायत्री) मन्त्र भी उपनयन संस्कार का एक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण अङ्ग है। यह शैक्षणिक तथा बौद्धिक जीवन का मूलमन्त्र है। सावित्री को ब्रह्मचारी की माता कहा गया है। आचार्य सावित्री-मन्त्र का उच्चारण ब्रह्मचारी के सामने करता है :

भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यम्, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्॥

उपन्यास : वाक्‍योपक्रम, परिचयात्मक वचन, आरम्भिक वस्तुवर्णन, यथा

ब्रह्मजिज्ञासोपन्यासमुखेन।' (शारीरक भाष्य)

[ब्रह्मजिज्ञासा के प्राथमिक उल्लेख द्वारा।] इसका दूसरा अर्थ 'विचार' है, जैसा कि मनु ने कहा है :

विश्वजन्यमिमं पुण्यमुपन्यासं निबोधत।

[कहे जा रहे, सर्वजनहितकारी पवित्र विचार को सुनो।]

उपनिषद् : यह शब्द 'उप+नि+सद्+क्विप' से बना है, जिसका अर्थ है (गुरू) के निकट (रहस्यमय ज्ञान की प्राप्ति के लिए) बैठना।' अर्थात् उपनिषद् वह साहित्य है जिसमें जीवन और जगत् के रहस्यों का उद्घाटन् निरुपण तथा विवेचन है। वैदिक साहित्य के चार भाग हैं-- (1) मन्त्र अथवा संहिता, (2) ब्राह्मण, (3) आरण्यक तथा (4) उपनिषद्। उपनिषद् वैदिक साहित्य का अन्तिम भाग अथवा चरम परिणति है। मन्त्र अथवा संहिताओं में मूलतः कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड और उपासना का प्रतिपादन हुआ है। इन्हीं विषयों का ब्राह्मणों और उपनिषदों में विस्तार तथा व्याख्यान हुआ है। ब्राह्मणों में कर्मकाण्ड का विस्तार एवं व्याख्यान है, आरण्यक एवं उपनिषदों में ज्ञान और उपासना का। वैदिक साहित्य का अन्तिम भाग होने से उपनिषदें वेदान्त (वेद+अन्त) भी कहलाती हैं, क्योंकि वेदों के अन्तिम ध्येय ब्रह्म का उनमें निरूपण है। वेदान्तदर्शन के तीन प्रस्थान हैं-- उपनिषद् ब्रह्मसूत्र तथा गीता। इनमें उपनिषद् का प्रथम स्थान है।

प्रत्येक वेद की संहिताएँ, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपिनषद् भिन्न-भिन्न होती हैं। ऐसा कहा जाता है कि चारों वेदों की एक सहस्र एक सौ अस्सी उपनिषदें हैं--परन्तु इस समय सभी उपलब्ध नहीं हैं। प्रमुख बारह उपनिषदें --(1) ईश्वास्य, (2) केन, (3) कठ, (4) प्रश्न, (5) मुण्डक, (6) माण्डूक्य, (7) तैत्तिरीय, (8) ऐतरय, (8) छान्दोग्य, (10) बृहदारण्यक, (11) कौषीतकि और (12) श्वेताश्वतर। इन पर आचार्य शङ्कर के प्रामाणिक भाष्य हैं। अन्य आचार्यों--रामानुज, मध्व, निम्बार्क, वल्लभ आदि ने भी अपने-अपने सामप्रदायिक भाष्य इन पर लिखे हैं। सभी सम्प्रदाय अपने मत का मूल उपनिषदों में ही ढूँढ़ते हैं। अतः अपने सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा के लिए प्रत्येक आचार्य को उपनिषदों पर भाष्य लिखना आवश्यक हो गया था। मुख्य उपनिषदों का परिचय नीचे दिया जा रहा है :

1. ईशावास्य-- इस उपनिषद् का यह नाम इसलिए है कि इसका प्रथम मन्त्र 'ईशावास्यमिदं सर्वम्....' से प्रारम्भ होता है। यह यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है। इसमें सब मिलाकर केवल अठारह मन्त्र हैं। परन्तु संक्षेप से इनमें उपनिषदों के सभी विषोयों का बहुत प्रभावशाली ढंग से निरूपण हुआ है। अतः यह बहुत लोकप्रिय है।

2. केनोपनिषद्-- इसके नामकरण का कारण यह है कि इसका प्रारम्भ 'केनेषितं पतति प्रेषितं मनः' वाक्य से होता है। यह सामवेद की जैमिनीय शाखा के ब्राह्मणग्रन्थ का नवम अध्याय है। इसकों 'ब्राह्मणोपनिषद्' भी कहते हैं। इसका प्रतिपाद्य विषय ब्रह्मतत्त्व है। इसके अनुसार जो ब्रह्मतत्त्व जान लेता है वह सभी बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है।

3. कठोपनिषद्-- कृष्णय़जुर्वेद की कठशाखा के अन्तर्गत यह उपनिषद् आती है। इसमें दो अध्याय और छः वल्लियाँ हैं। इसका प्रारम्भ नचिकेता की कथा से होता है, जिसमें श्रेय और प्रेय का सुन्दर विवेचन है।

4. प्रश्नोपनिषद्-- अथर्ववेद की पिप्पलाद संहिता के ब्राह्मणग्रन्थ का एक अंश प्रश्नोपनिषद् कहलाता है। इसमें प्रश्नोत्तर के रूप में ब्रह्मतत्त्व का निरूपण किया गया है। इसीलिए इसका यह नामकरण हुआ।

5. मुण्डकोपनिषद्-- अथर्ववेद की शौनक शाखा का एक अंश मुण्डकोपनिषद् है। इसमें तीन मुण्डक और प्रत्येक मुण्डक में दो-दो अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा ब्रह्मतत्त्व इसके विचारणीय विषय हैं।

6. माण्डूक्योपनिषद्--यह अथर्ववेद की एक संक्षिप्त उपनिषद् है। इसमें केवल बारह मन्त्र हैं। इसमें 'ओंकार' के महत्त्व का निरूपण है।

7. तैत्तिरीयोपनिषद्-- यह यजुर्वेदीय उपनिषद् है। कृष्ण-यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता के ब्राह्मणग्रन्थ के अन्तिम भाग को 'तैत्तिरीय आरण्यक' कहते हैं। यह अन्तिम भाग को 'तैत्तिरीय आरण्यक' कहते हैं। यह आरण्यक दस प्रपाठकों में विभाजित है। इनमें से सात से नौ तक के प्रपाठकों को तैत्तिरीय उपनिषद् कहते हैं। उपर्युक्त तीन प्रपाठकों के क्रमशः शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली नाम हैं। प्रथम वल्ली में शिक्षा का माहात्म्य, दूसरी में ब्रह्मतत्त्व का निरूपण तथा तीसरी में वरुण द्वारा अपने पुत्र को उपदेश है।

8. ऐतरेयोपनिषद्--यह ऋग्वेदीय उपनिषद् है। ऋग्वेद के 'ऐतरेय ब्रामण' के पाँच भाग हैं जिनको पाँच आरण्यक की संज्ञा दी गयी है। इसके द्वितीय आरण्यक के चतुर्थ से षष्ठ--तीन अध्यायों को ऐतरेयोपनिषद् कहते हैं। इन तीन अध्याओं में क्रमशः सृष्टि, जीवात्मा और ब्रह्मतत्त्व का निरूपण है।

9. छान्दोग्य उपनिषद्--सामवेद की कौथुमी शाखा के तीन ब्राह्मण हैं--(1)ताण्ड्य, (2) षड्विंश और (3) मन्त्र। इन्हीं के अन्तिम आठ अध्याय छान्दोग्य ब्राह्मण अथवा छान्दोग्य उपनिषद् कहलाते हैं। ये आठ अध्‍याय बहुत विस्‍तृत हैं अत: यह उपनिषद् बहुत विशाल है।

10. बृहदारण्यकोपनिषद्--शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएँ हैं। उन दोनों का ब्राह्मणग्रन्थ 'शतपथ' है। इसके अन्तिम छः अध्यायों को बृहदारण्यक या बृहदारण्यकोपनिषद् कहते हैं। इसका 'बृहत्' नाम अन्वर्थ है, क्योंकि आकार में यह सबसे बड़ी उपनिषद् है। इसमें भी सृष्टि और ब्रह्म का विस्तार से निरूपण किया गया है।

11. कौषीतकि उपनिषद्--- यह ऋग्वेदीय उपनिषद् है। ऋग्वेद के कौषीतकि ब्राह्मण का एक भाग आरण्यक कहा जाता है, जिसमें पन्द्रह अध्याय हैं। इनमें से तीसरे और छठे अध्याय को मिलाकर कौषीतकि उपनिषद् कही जाती है। कुषीतक नामक ऋषि ने इसका उपदेश किया था अतः इसका नाम 'कौषीतकि' पड़ा। इसका एक दूसरा नाम कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् भी है। यह भी एक बृहदाकार उपनिषद् है।

12. श्वेताश्वतरोपनिषद्-- यह कृष्ण यजुर्वेद की उपनिषद् है और इस वेद के श्वेताश्वतर ब्राह्मण का एक भाग है। इसमे छः अध्याय हैं जिनमें ब्रह्मविद्या का बहुत हृदयग्राही विवेचन पाया जाता है।

इन उपनिषदों के अतिरिक्त बहुसंख्य परवर्ती उपनिषदें हैं। एक परवर्ती उपनिषद् मुक्तिकोपनिषद् में 108 उपनिषदों की सूची है। इन सभी उपनिषदों का संग्रह निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से गुटका के रूप में प्रकाशित है। अड्यार लाइब्रेरी, मद्रास से प्रकाशित उपनिषद् संग्रह में 179 उपनिषदें हैं। बम्बई के गुजराती प्रिंटिंग प्रेस से प्रकाशित 'उपनिषद्वाक्यमहाकोश' में 223 उपनिषद्ग्रन्थों का नामोल्लेख है। उपनिषदों को कालक्रम के आधार पर दो वर्गों में बाँटा जा सकता है-- (1) प्राचीन उपनिषद् और (2) परवर्ती उपनिषद्। प्राचीन वैदिक शाखाओं पर आधारित हैं; परवर्ती साम्प्रदायिक हैं। मध्य युग में धार्मिक सम्प्रदायों ने अपनी प्राचीनता सिद्ध करने के लिए अनेक उपनिषदों की रचना की।

उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय उपासना और ज्ञान है। जैसा कि लिखा जा चुका है, ब्राह्मणों में संहिताओं के कर्मकाण्ड का विस्तार और व्याख्यान हुआ है। इसी प्रकार उपनिषदों में संहिताओं के उपासना और ज्ञानकाण्ड का विस्तार और विकास हुआ है। ब्राह्मण और उपनिषद् एक दूसरे के पूरक हैं। उपनिषदों (ईशावास्य और मुण्डक) में ही दो प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है-- (1) परा और (2) अपरा। 'परा' विद्या ब्रह्मविद्या है, जिसका उपनिषदों में मुख्य रूप से विवेचन है। परन्तु 'अपरा' विद्या के बारे में कहा गया है कि लोकयात्रा के लिए यह आवश्यक है और संहिताओं, ब्राह्मणों तथा वेदाङ्गों में इसका निरूपण हुआ है। 'परा' अथवा ब्रह्मविद्या के अन्तर्गत आत्मा, ब्रह्म, जगत्, बन्ध, मोक्ष, मोक्ष के साधन आदि का सरल, सुबोध किन्तु रहस्यमय शैली में उपनिषदें निरूपण करती हैं।

उपनिषत्प्रस्थान : मध्वाचार्य रचित एक ग्रन्थ। इसमें उपनिषदों के आधार पर द्वैत मत का प्रतिपादन किया गया है।

उपनिषद्ब्राह्मण : उपनिषद्ब्राह्मण' और 'आश्रेयब्राह्मण' दोनो ही 'जैमिनीय' अथवा 'तलवकारब्राह्मण' में सम्मिलित हैं, जो सामवेद की तलवकार शाखा से सम्बन्धित हैं।

उपनिषद्भाष्य : शङ्कराचार्य के रचे हुए ग्रन्थों में 'उपिनषद्भाष्य' प्रसिद्ध हैं। जिन उपनिषदों का भाष्य उन्होंने लिखा है वे हैं : ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, नृसिंहपूर्वतापनीय तथा श्वेताश्वतर। शङ्कराचार्य के समान ही मध्वाचार्य ने भी दस उपनिषदों (ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य एवं बृहदारण्यक) पर भाष्य लिखा है। इसी प्रकार रामानुजाचार्य आदि महानुभावों के भी उपनिषद्भाष्य प्रसिद्ध हैं।

उपनिषन्मङ्गलदीपिका : दोद्दय भट्टाचार्य के रचे नौ ग्रन्थों में से एक। दोद्दय भट्टाचार्य रामानुज मतानुयायी एवं अप्पय दीक्षित के समसामयिक थे। उनका काल सोलहवीं शताब्दी माना जाता है। इस ग्रन्थ में उपनिषदों के आधार पर विशिष्टाद्वैत मत का निरूपण किया गया है।

उपनिषदालोक : श्वेताश्वतर' एवं 'मैत्रायणीयोपनिषद्' यजुर्वेद की ही उपनिषदें कही जाती हैं। इन पर आचार्य विज्ञानभिक्षु ने 'उपनिषदालोक' नाम की विस्तृत टीका लिखी है।

उपनीत : जिसका उपनयन संस्कार हो चुका है। उपनीत होने के पूर्व के शौचाचार के नियम सरल होते हैं। उपनयन के पश्चात् उसको ब्रह्मचर्य आश्रम के नियमों का पालन करना होता है। स्मृतियों में अनुपनीत की छूटों और उपनीत के नियमों की विस्तृत सूचियाँ पायी जाती हैं।

उपपति : अवैध या गुप्त पति, जार, आचारहानि का कारण पति। उपपति की निन्दा की गयी है और परस्त्रीगमन के लिए उसको प्रायश्चित्‍ती बतलाया गया है।

उपपत्ति : किसी नियम की सङ्गति अथवा समाधान। सिद्धान्तप्रकरण के प्रतिपाद्य अर्थ की सिद्धि के लिए कही जाने वाली युक्ति को भी उपपत्ति कहते हैं। वेदान्तसार में कहा है :

श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः।

[आत्मा को वेदवाक्यों से सुनना चाहिए, युक्तियों से मानना चाहिए।]

उपपातक : पतन करने वाला कर्म, जो नरक में गिराता है, अथवा पाप के साथ जिसकी उपमा की जाय। विशेष पापों को भी उपपातक कहते हैं, ये उनचास प्रकार के हैं : (1) गोधनहरण, (2) अयाज्ययाजन, (3) परदारगमन, (4) आत्मविक्रय, (5) गुरुत्याग, (6) पितृत्याग आदि उपपातक होते हैं।

उपपुराण : अठारह पुराणों के अतिरिक्त अनेक उपपुराण भी हैं, जिनकी वर्णनसामग्री एवं विषय पुराणों के सदृश ही हैं। निम्नाङ्कित उपपुराण प्रसिद्ध हैं :

1. सनत्कुमार, 2. नरसिंह, 3. बृहन्नारदीय, 4. शिव अथवा शिवधर्म, 5. दुर्वासा, 6. कापिल, 7. मानव, 8. औशनस, 9. वारुण, 10. कालिका, 11. साम्ब, 12. नन्दिकेश्वर, 13. सौर, 14. पाराशर, 15. आदित्य, 16. ब्रह्माण्ड, 17. माहेश्वर, 18. भागवत, 19. वासिष्ठ, 20. कौर्म, 21. भार्गव, 22. आदि, 23. मुद्गल, 24. कल्कि, 25. देवी, 26. बृहद्धर्म, 27. परानन्द, 28. पशुपति, 29. हरिवंश

वैष्णव लोग भागवत पुराण को उपपुराण न मानकर महापुराण मानते हैं।

व्यासप्रणीत अठारह महापुराणों के सदृश अनेक मुनियों द्वारा प्रणीत अठारह उपपुराण भी कहे गये हैं :

अन्यान्युपपुराणानि मुनिभिः कथितान्यपि। आद्यं सनत्कुमारोक्तं नारसिंहं ततः परम्॥ तृतीयं वायवीयञ्च कुमारेण च भाषितम्। चतुर्थं शिवधर्माख्यं साक्षान्नन्दीशभाषितम्॥ दुर्वाससोक्तमाश्चर्यं नारदीयमतः परम्। नन्दिकेश्वरयुग्मञ्च तथैवोशनसेरितम्॥ कापिलं वारुणं साम्बं कालिकाह्वयमेव च। माहेश्वरं तथा कल्कि दैवं सर्वार्थसिद्धिदम्॥ पराशरोक्तमपरम् मारीचं भास्कराह्वयम्।

[मुनियों के द्वारा कहे गये अन्य उपपुराण हैं। सनत्कुमार द्वारा कहा गया प्रथम, नरसिंह द्वारा द्वितीय, कुमार द्वारा कहा गया वायवीय, साक्षात् नन्दीश द्वारा कहा गया शिवधर्माख्य, दुर्वासा द्वारा कहा गया आश्चर्य, नारदीय, नन्दिकेश्वर, औशनस, कापिल, वारुण, साम्ब, कालिका, माहेश्वर, कल्कि, दैव, पाराशर, मारीच और सौरपुराण ये अष्टादश उपपुराण कहे गये हैं।] दे० कूर्मपुराण, मलमासतत्व में उद्धृत।

उपभोग : भोजन के अतिरिक्त भोग्यवस्तु। इसका पर्याय है निवेश।

न जातु कामः कामनामुपभोगेन शाम्यति। (मनु 2.94)

[कभी भी काम की शान्ति कामों के उपभोग से नहीं हो सकती।]

उपमाता : माता के समान, धात्री। यह स्मृति में छः प्रकार की कही गयी है :

मातुःष्वसा मातुलानी पितृव्यस्त्री पितृष्वसा। श्वश्रूः पूर्वजपत्नी च मातृतुल्याः प्रकीर्तिताः॥

[माता की बहिन, मामी, चाची, पिता की बहिन, सास, बड़े भाई की पत्नी ये माता के समान होती हैं।]

ये माता के तुल्य ही पूजनीय हैं। इनका अनादर करने से पाप होता है।

उपमान : न्यायदर्शन के अनुसार तीसरा प्रमाण। गौतम ने चार प्रमाण माने हैं--प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है, वही उपमान है। जैसे, "नीलगाय गाय के सदृश होती है।"

उपयम : विवाह, पाणिग्रहण। दे० 'विवाह'।

उपयाचित : इष्टसिद्धि के प्रयोजन से देवता के लिए देय वस्तु। उसका पर्याय है 'दिव्यदोहद'। प्रार्थित वस्तु को भी उपयाचित कहते हैं।

उपरतस्पृह : निःस्पृह, निष्काम, जिसकी धन आदि की इच्छा समाप्त हो गयी है। धन रहने पर भी धन की इच्छा से रहित व्यक्ति उपरतस्पृह कहा जाता है। यह साधक का एक विशिष्ट गुण है।

उपरति : विरक्त होना, विरति। जैसे, मार्कण्डेय पुराण (19.8) में कहा है :

विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि! नमोस्तु ते।'

[विश्व की विरति में समर्थ हे नारायणि, तुमको नमस्कार है।] जितेन्द्रियों की विषयों से उपरति एक साधन माना जाता है।

उपराग : एक ग्रह पर दूसरे ग्रह की छाया, राहुग्रस्त चन्द्र, अथवा राहुग्रस्त सूर्य आदि। निकट में होने के कारण अपने गुणों का अन्य के गुणों में आरोप भी उपराग है। जैसे स्फटिकमणि के खम्भों में लाल फूलों के लाल रंग का आरोप। दुर्नय, व्यसन आदि भी इसके अर्थ हैं।

उपरिचर वसु : पाञ्चरात्र धर्म का प्रथम अनुयायी उपरिचर वसु था। इसकी कथा नारायणीय आख्यान में आयी है। यह शान्तिपर्व के 315 वें अध्याय से 351 वें अध्याय के अन्त तक वर्णित है। नारायणीयाख्यान शान्तिपर्व का अन्तिम प्रतिपाद्य विषय है। वह वेदान्त आदि मतों से भिन्न और अन्तिम ही माना गया है। इस मत के मूल आधार नारायण हैं। स्वायम्भुव मन्वन्तर में सनातन विश्वात्मा नारायण से नर, नारायण, हरि और कृष्ण चार मूर्तियाँ उत्पन्न हुईं। नर-नारायण ऋषियों ने बदरिकाश्रम में तप किया। नारद ने वहाँ जाकर उनसे प्रश्न किया। उत्तर में उन्होंने यह पाञ्चरात्र धर्म सुनाया। इस धर्म का पहला अनुयायी राजा उपरिचर वसु था। इसी ने पाञ्चरात्र विधि से नारायण की पूजा की।

उपलेख : ऋक्संहिता का एक प्रातिशाख्य सूत्र शौनक का बनाया कहा जाता है। प्रातिशाख्य सूत्र के आधार पर निर्मित 'उपलेख' नामक एक संक्षिप्त ग्रन्थ है। इसको प्रातिशाख्य सूत्र का परिशिष्ट भी कहते हैं।

उपलेखसूत्र : शौनक के ऋक्प्रातिशाख्य का परिशिष्ट रूप 'उल्लेखसूत्र' नाम का एक ग्रन्थ भी मिलता है। पहले विष्णुपुत्र ने इसका भाष्य रचा था, उसको देखकर उव्वटाचार्य ने एक विस्तृत भाष्य लिखा है।

उपवर्ष : आचार्य शङ्कर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में कहीं-कहीं उपवर्ष नामक एक प्राचीन वृत्तिकार के मत का उल्लेख किया है। इस वृत्तिकार के मत का उल्लेख किया है। इस वृत्तिकार ने दोनों ही मीमांसा शास्त्रों पर वृत्तिग्रन्थ बनाये थे, ऐसा प्रतीत होता है। पण्डित लोग अनुमान करते हैं कि ये 'भगवान् उपवर्ष' वे ही हैं जिनका उल्लेख शबर भाष्य (मी. सू. 1.1.5) में स्पष्टतः किया गया है। शङ्कर कहते हैं (ब्र० सू० 3.3.5.3) कि उपवर्ष ने अपनी मीमांसा वृत्ति में कहीं-कहीं पर 'शारीरक सूत्र' पर लिखी गयी वृत्ति की बातों का उल्लेख किया है। ये उपवर्षाचार्य शबर स्वामी से पहले हुए होंगे, इसमें सन्देह नहीं है। परन्तु कृष्णदेवनिर्मित 'तन्त्रचूडामणि' ग्रन्थ में लिखा है कि शबर भाष्य के ऊपर उपवर्ष की एक वृत्ति थी। कृष्णदेव के वचन का कोई मूल्य है या नहीं यह कहना कठिन है। यदि उनका वचन प्रामाणिक माना जाय, तो इस उपवर्ष को प्राचीन उपवर्ष से भिन्न मानना पड़ेगा।

वेदान्तदेशिक (श्रीवैष्णव) ने अपनी तत्त्वटीका में बोधायनाचार्य का द्वितीय नाम उपवर्ष प्रतिपादित किया है। शबर स्वामी ने भी बोधायनाचार्य का उल्लेख उपवर्ष नाम से किया है।

उपवसथ : निवास स्थान, जहाँ पर आकर बसते हैं। शतपथ ब्राह्मण (11.1.7) में कथन है।

तेऽस्य विश्वेदेवा गृहानागच्छन्ति तेऽस्य गृहेषूपवसन्ति स उपवसथः।'

[विश्वेदेव इसके घर में आते हैं, वे उसके घर में रहते हैं, उसे उपवसथ कहते हैं।] याग का पूर्वदिन भी उपवसथ कहलाता है। इस दिन यम-नियम (उपवास आदि) के द्वारा यज्ञ की तैयारी की जाती है।

उपवास : एक धार्मिक व्रत, रात-दिन भोजन न करना। इसके पर्याय हैं उपवस्त, उपोषित, उपोषण, औपवस्त आदि। इसकी परिभाषा इस प्रकार की गयी है :

उपावृत्तस्य पापेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह। उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः॥

[पाप से निवृत्त होकर गुणों के साथ रहने को उपवास कहते हैं, जिसमें सभी विषयों का उपभोग वर्जित है।]

इसका शाब्दिक अर्थ है (उप+वास) अपने आराध्य के समीप वास करना। इसमें भोजन-पान का त्याग सहायक होता है, अतः इसे उपवास कहते हैं।

उपवीत (यज्ञोपवीत) : एक यज्ञपरक धार्मिक प्रतीक, बायें कन्धे पर रखा हुआ यज्ञसूत्र यज्ञ, सूत्र मात्र। देवल ने कहा है :

यज्ञोपवीतकं कुर्यात् सूत्राणि नवतन्तवः।'

[यज्ञोपवीत-सूत्र को नौ परतों का बनाना चाहिए।]

यज्ञोपवीते द्वे धार्ये श्रौते स्मार्ते च कर्म्मणि। तृतीयमुत्तरीयार्थे वस्त्रालाभेऽति दिश्यते॥

[श्रौत और स्मार्त कर्मों में दो यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। उत्तरीय वस्त्र के अभाव में तीन यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए।]

वर्णभेद से मनु (2.44) ने सूत्रभेद भी कहा है :

कार्पासमुपवीतं स्याद् विप्रस्योर्ध्ववृतं त्रिवृत्। शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविकसौत्रिकम्॥

[ब्राह्मण का यज्ञोपवीत कपास के सूत्र का, क्षत्रिय का शण के सूत्र का, और वैश्य का भेड़ के ऊन का होना चाहिए।]

आगे चलकर कपास के सूत्र का यज्ञोपवीत सभी वर्णों के लिए विहित हो गया। दे० 'यज्ञोपवीत'।

उपवेद : चरणव्यूह' में वेदों के चार उपवेद कहे गये हैं। ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गान्धर्ववेद और अथर्ववेद का अर्थशास्त्र। परन्तु सुश्रुत, भावप्रकाश तथा चरक के अनुसार आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है। यह मत सुसंगत जान पड़ता है, क्योंकि अथर्ववेद में आयुर्वेद के तत्त्व भरे पड़े हैं। परिणामस्वरूप अर्थशास्त्र एवं नीतिशास्त्र को ऋग्वेद का उपवेद मानना पड़ेगा।

उपवेदों का अध्ययन भी प्रत्येक वेद के साथ-साथ वेद के ज्ञान की पूर्णता के लिए आवश्यक है। चारों उपवेद चार विज्ञान हैं। अर्थशास्त्र में वार्ता अर्थात् लोकयात्र का सारा विज्ञान है और समाजशास्त्र के सङ्गठन और राष्ट्रनीति का कथन है। धनुर्वेद में सैन्यविज्ञान, युद्ध-क्रिया, व्यक्ति एवं समष्टि सबकी रक्षा के साधन और उनके प्रयोग की विधियाँ दी हुई हैं। गान्धर्ववेद में संगीत का विज्ञान है जो मन के उत्तम से उत्तम भावों को उद्दीप्त करने वाला और उसकी चञ्चलता को मिटाकर स्थिररूप से उसे परमात्मा के ध्यान में लगा देने वाला है। लोक में यह कला कामशास्त्र के अन्तर्गत है, परन्तु वेद में मोक्ष के उपायों में यह एक प्रधान साधन है। आयुर्वेद में रोगी शरीर और मन को स्वस्थ करने के साधनों पर साङ्गोपाङ्ग विचार किया गया है। इस प्रकार ये चारों विज्ञान चारों वेदों के आनुषङ्गिक सहायक हैं।

उपशम : अन्तःकरण की स्थिरता। इसके पर्याय हैं शम, शान्ति, शमथ, तृष्णाक्षय, मानसिक विरति।

प्रबोधचन्द्रोदय में कहा गया है :

तथायमपि कृतकर्तव्य संप्रति परमामुपशमनिष्ठां प्राप्त।:'

[यह भी कृतकृत्य होकर इस समय अत्यन्त तृष्णाक्षय को प्राप्त हो गया है।]

उपश्रुति : प्रश्नों के दैवी उत्तर को सुनना। हारावली में कहा है :

नक्तं निर्गत्य यत् किञ्चिच्छुभाशुभकरं वचः। श्रूयते तद्विदुर्धीरा दैवप्रश्नमुपश्रुतिम्॥

[रात्रि में घर से बाहर जाकर जो कुछ भी शुभ या अशुभ वाक्य सुना जाता है, उसे विद्वान् लोग प्रश्न का दैवी उत्तर उपश्रुति कहते हैं। यह एक प्रकार का एकान्त में चिन्तन से प्राप्त ज्ञान अथवा अनुभूति है। इसलिए श्रुति अथवा शब्दप्रमाण के साथ ही इसको भी उपश्रुतिप्रमाण (यद्यपि गौण) मान लिया गया है।]

उपसद् : अग्निविशेष। अग्निपुराण के गणभेद नामक अध्याय में कथन है :

गार्ह्यपत्यो दक्षिणाग्निस्तथैवाहवनीयकः। एतेऽग्नयस्त्रयो मुख्याः शेषाश्चोपसदस्त्रयः॥

[गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि तथा आहवनीय ये तीन अग्नियाँ मुख्य हैं।

यह एक यज्ञभेद भी है। आश्वलायनश्रौतसूत्र (4.8.1) में उपसद नामक यज्ञों में इसका प्रचरण बतलाया गया है।

उपसम्पन्न : यज्ञ के लिए मारा गया पशु। उसके पर्याय हैं प्रमीत, प्रोक्षित, मृत आदि। पाक क्रिया द्वारा रूप, रस आदि से सम्पन्न व्यञ्जन भी उपसम्पन्न कहा जाता है। उसके पर्याय हैं प्रणीत, पर्याप्त, संस्कृत। मनु (5.81) में मृत के अर्थ में ही इसका प्रयोग हुआ है :

श्रोत्रिये तूपसम्पन्ने त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्।

[श्रोत्रिय ब्राह्मण के मर जाने पर तीन दिन तक अपवित्रता रहती है।]

उपाकरण : संस्कारपूर्वक वेदों का ग्रहण। इसका अर्थ 'संस्कारपूर्वक पशुओं को मारना' भी है। आश्वलायन श्रौ० सू० (10.4) में कथन है :

उपाकरण कालेऽश्वमानीय।

[संस्कार के समय में घोड़े को (बलिदानार्थ) लाकर।]

उपाकृत : संस्कारित बलिपशु, यज्ञ में अभिमन्त्रित करके मारा गया पशु। धर्मशास्त्र में कथन है :

अनुपाकृतामांसानि देवान्नानि हवींषि च।'

[अनभिमंत्रित मांस, देव-अन्न तथा हविष् (अग्राह्य हैं)।]

उपागम : शैव आगमों में से प्रत्येक के कई उपागम हैं। आगम अट्ठाईस हैं और उपागमों की संख्या 198 है।

उपाग्रहण : उपाकरण, संस्कारपूर्वक गुरु से वेद ग्रहण (अमर-टीका में रायमुकुट)।

उपाङ्ग : वेदों के उपांगों में प्राचीन प्रमाणानुसार पहला उपाङ्ग इतिहास-पुराण है, दूसरा धर्मशास्त्र, तीसरा न्याय और चौथा मीमांसा। इनमें न्याय और मीमांसा की गिनती दर्शनों में है, इसलिए इनको अलग-अलग दो उपाङ्ग न मानकर एक उपाङ्ग 'दर्शन' के नाम से रखा गया और चौथे की पूर्ति तन्त्रशास्त्र से की गयी। मीमांसा और न्याय ये दोनों शास्त्र शिक्षा, व्याकरण और निरुक्त के आनुषङ्गिक (सहायक) हैं। धर्मशास्त्र श्रौतसूत्रों का आनुषङ्गिक है और पुराण ब्राह्मणभाग के ऐतिहासिक अंशों का पूरक है।

चौथा उपाङ्ग तन्त्र शिवोक्त है। प्रधानतः इसके तीन विभाग हैं-- आगम, यामल और तन्त्र। तन्त्रों में प्रायः उन्हीं विषयों का विस्तार है, जिनपर पुराण लिखे गये हैं। साथ ही साथ इनके अन्तर्गत गुह्यशास्त्र भी है जो दीक्षित और अभिषिक्त के सिवा और किसी को बताया नहीं जाता।

उपाङ्गललिताव्रत : यह आश्विन शुक्ल पञ्चमी को किया जाता है। इसमें ललितादेवी (पार्वती) की पूजा होती है। यह दक्षिण में अधिक प्रचलित है।

उपाध्याय : जिसके पास आकर अध्ययन किया जाता है। अध्यापक, वेदपाठक। मनु० (2.145) का कथन है :

एकदेशं तु वेदस्य वेदाङ्गान्यपि वा पुनः। योऽध्यापयति वृत्त्यर्थमुपाध्यायः स उच्यते॥

[वेद के एक देश अथवा अङ्ग को जो वृत्ति के लिए अध्ययन कराता है उसे उपाध्याय कहते हैं।] ऐसा भविष्य पुराण के दूसरे अध्याय में भी कहा है। चूँकि शुल्क ग्रहण करके जीविका के लिए उपाध्याय अध्यापन करते थे, इसलिए ब्राह्मणों में उनका स्थान ऊँचा नहीं था। कारण यह है कि ज्ञान विक्रय को भी वणिक्-वृत्ति माना गया है :

यस्यागमः केवलजीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति।

[जिसका आगम (शास्त्र-ज्ञान) केवल जीविका के लिए है, उसे (विद्वान लोग) ज्ञान की दुकान करने वाला वणिक् कहते हैं।]

उपाध्याया : महिला अध्यापिका। यह अपने अधिकार से 'उपाध्याया' होती है, उपाध्याय की पत्नी होने के कारण नहीं। उपाध्याय की पत्नी को 'उपाध्यायानी' कहते हैं।

उपाध्यायानी : उपाध्याय की पत्नी। महाभारत (1।9.96) में कथन है :

स एवमुक्त उपाध्यायेनोपाध्यायानीमपृच्छत्।'

[उपाध्याय से इस प्रकार कहे जाने पर उसने उपाध्यायानी से पूछा।]

गृहासक्त होने से इसको अध्यापन का अधिकार नहीं होता।

उपाधि : धर्मचिन्ता, धर्मपालनार्थ सावधानी, कुटुम्बव्यापृत, आरोप, छल, उपद्रव। रामायण (2.111.29) में कथन है :

उपाधिर्न मया कार्यो वनवासे जुगुप्सितः।

[वनवास में मैं छल, कपट नहीं करूँगा।] तर्कशास्त्र में इसका अर्थ है 'साध्यव्यापकत्व होने पर हेतु का अव्यापकत्व होना।' जैसे अग्नि धूमयुक्त है, यहाँ काष्ठ का गीला होना उपाधि है। इसका प्रयोजन व्यभिचार (लक्ष्य-अतीत) का अनुमान शुद्ध करना है।

उपाधिखण्डन : आचार्य मध्व ने 'उपाधिखण्डन' ग्रन्थ में सिद्ध किया है कि ईश्वर और आत्मा का भेद पारमार्थिक है। औपाधिक भेदवाद श्रुतिविरुद्ध और युक्तिहीन है। जयतीर्थाचार्य ने 'उपाधिखण्डन' की टीका लिखी है। इस ग्रन्थ में द्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।

उपाय : कार्यसिद्धि का साधन। धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र के अनुसार उपाय चार हैं-- साम, दान, भेद और दण्ड।

राजनय में इन्हीं उपायों का प्रयोग किया जाता है। हिन्दू धर्म के अनुसार युद्ध के परिणाम जय और पराजय दोनों ही अनित्य हैं। अतः युद्ध का आश्रय कम से कम लेना चाहिए। जब प्रथम तीन उपाय-साम, दान और भेद असफल हो जायँ तभी दण्ड अथवा युद्ध का अवलम्बन करना चाहिए। इन उपायों का साधारणतः क्रमशः प्रयोग करना चाहिए। परन्तु विशेष परिस्थिति मे चारों का साथ-साथ प्रयोग हो सकता है।

उपायपद्धति : शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र और उसकी अनुक्रमणी भी कात्यायन की रचना के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रातिशाख्यसूत्र में शाकटायन, शाकल्य, गार्ग्य, कश्यप, दाल्भ्य जातुकर्ण्य, शौनक और औपशिवि के नाम भी पाये जाते हैं। इस अनुक्रमणी की एक 'उपायपद्धति' नामक व्याख्या श्रीहल की बनायी हुई है।

उपासक : पूजक; जो सेवा करता है; उपासना करनेवाला; पूज्य के समीप बैठकर उसका चिन्तन करने वाला। द्विजों का सेवक होने के कारण शूद्र को भी उपासक कहा गया है। साधारणतः किसी भी प्रकार की उपासना (ध्येय के निकट आसन) करने वाले को उपासक कहा जाता है। बौद्ध धर्म में बुद्ध के गृहस्थ अनुयायी को उपासक कहा जाता है।

उपासन : गोरखनाथी मत के योगियों में हठयोग की प्रणाली अधिक प्रचलित है। इसके अनुसार शरीर की कुछ कायिक परिशुद्धि एवं निश्चित किये गये शारीरिक व्यायामों द्वारा 'समाधि' अर्थात् मस्तिष्क की सर्वोत्कृष्ट एकाग्रता प्राप्त की जा सकती है। इन्हीं शारीरिक व्यायामों को 'आसन' कहते हैं। पश्चात्कालीन योगी जबकि 'आसन' पर विश्वास करते थे, प्राचीन योगी 'उपासन' पर विश्वास करते थे। 'उपासन' उपासना का ही पर्याय है। इनका अर्थ है 'अपने आराध्य अथवा ध्येय के सान्निध्य में बैठना।' इसके लिए भावात्मक अनुभूति मात्र आवश्यक है; किसी शारीरिक अथवा बौद्धिक प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं है।

उपासना : (1) वेद का अधिकांश भाग कर्मकाण्ड और उपासनाकाण्ड है, शेष ज्ञानकाण्ड है। कर्मकाण्ड कनिष्ठ अधिकारी के लिए है। उपासना और कर्म दोनों काण्ड मध्यम के लिए। कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों काण्ड उत्तम के लिए हैं। पर उत्तम अधिकारी कर्म और उपासना को निष्काम भाव से करता है। उपासना व्यक्ति का ब्रह्म के साथ व्यक्तिगत सान्निध्य है। अतः व्यक्तिगत योग्यता और अधिकार भेद से इसके अनेक मार्ग प्रचलित हैं। सभी उपासनापद्धतियों में कुछ बातें सामान्य रूप से सर्वनिष्ठ हैं, जैसे अपने उपास्य का भावात्मक बोध, उपास्य के सान्निध्य में जाने की उत्‍कण्ठा, सान्निध्य-भावना से आनन्द की अनुभति, अपने कल्याण के सम्बन्ध में आश्वासन। गीता (9.22) में भगवान् कृष्ण ने कहा है :

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

[जो भक्तजन अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से मेरी उपासना करते हैं, उन नित्य उपासना में रत पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ।]

(2) ईश्वर अथवा किसी अन्य देवता की सेवा का नाम भी उपासना है। उसके पर्याय हैं--(1) वरिवस्या, (2) सुश्रूषा, (3) परिचर्या और (4) उपासन। देवी भागवत में शक्ति-उपासना की प्रशंसा में कहा गया है :

न विष्णूपासना नित्या वेदेनोक्ता तु कस्यचित्। न विष्णुदीक्षा नित्यास्ति शिवस्यापि तथैव च॥ गायत्र्युपासना नित्या सर्वदेवैः समीरिता। यया बिना त्वधः पातो ब्राह्णस्यास्ति सर्वथा॥

[विष्णु की नित्य उपासना करना वेदों में कहीं नहीं कहा गया। न विष्णु की दीक्षा और न शिव की दीक्षा ही नित्य है। किन्तु गायत्री की नित्य उपासना सब वेदों में कही गयी है, जिसके बिना ब्राह्मण का अधःपतन हो सकता है।]

उपासनाकाण्ड : वेदों के सभी भाष्यकार इस बात से सहमत हैं कि चारों वेदों में समुच्चय रूप से प्रधानतः तीन विषयों का प्रतिपादन है--(1) कर्मकाण्ड, (2) ज्ञानकाण्ड एवं (3) उपासनाकाण्ड। उपासनाकाण्ड ईश्वर-आराधना से सम्बन्ध रखता है, जिससे मनुष्य ऐहिक, पारलौकिक और पारमार्थिक अभीष्टों का सम्पादन कर सकता है।

ऋग्वेद के सूक्तों में विशेष रूप से स्तुतियों की अधिकता है। ये स्तुतियाँ विविध देवताओं की है। जो लोग देवताओं की अनेकता नहीं मानता वे इन सह नामों (देवनामों) का अर्थ परब्रह्म परमात्मा का वाचक लगाते हैं। जो लोग अनेक देवता मानते हैं वे भी इन सब स्तुतियों को परमात्मापरक मानते हैं और कहते हैं कि ये सभी देवता और समस्त सृष्टि परमात्मा की विभूति है। इसलिए वे वरुण को जल के देवता, अग्नि को तेज के देवता, द्यौः को आकाश के देवता इत्यादि रूप से विश्व की शक्तियों के अधिपति परमात्मा की विभूति ही मानते हैं। जहाँ पृथिवी की स्तुति है, वहाँ पृथिवी के ही गुणों का वर्णन है। पृथिवी परमात्मा की सृष्टि और उसी की विभूति है। पृथिवी की स्तुति के व्याज से परमात्मा की ही स्तुति की जाती है। ये स्तुतियाँ तथा उसके सम्बन्ध की प्रार्थनाएँ उपासनाकाण्ड के अन्तर्गत हैं।

उपेन्द्र : वामन (विष्णु), इन्द्र के छोटे भाई। 'इन्द्र के पश्चात् उत्पन्न होने वाला।' कश्यप ऋषि एवं अदिति माता से वामन रूप में इन्द्र के अनन्तर उत्पन्न होने के कारण विष्णु का नाम उपेन्द्र पड़ा।

उपेन्द्रस्तोत्र : इसे कुछ विद्वान् तमिल देश में रचा गया मानते हैं, परन्तु समझा जाता है कि 'उपेन्द्रस्तोत्र' उत्तर की ही रचना है। किन्तु इसके रचयिता के बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।

उपोषण : उपवास; आहारत्याग। तिथितत्त्व में लिखा है :

उपोषणं नवम्याञ्च दशम्याञ्चैव पारणम्।

[नवमी के दिन उपवास और दशमी के दिन पारण करना चाहिए।] दे० 'उपवास'।

उपोषित : उपवास का ही एक पर्याय। मनु (5.155) ने कहा है :

नास्ति स्त्रीणां पृथग् यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषितम्।

[स्त्रियों के लिए यज्ञ, व्रत, उपवास, ये अलग नहीं हैं।]

उब्बटाचार्य : यजुर्वेद के प्रसिद्ध भाष्यकार निघण्टु के टीकाकार देवराज और भट्टभास्कर मिश्र ने अपने ग्रन्थों में माधवदेव, भवस्वामी, गुहदेव, श्रीनिवास और उब्बट आदि भाष्यकारों के नाम लिखे हैं। यह पता नहीं है कि उब्बट ने ऋक्संहिता का कोई भाष्य किया है या नहीं, परन्तु उब्बट का शुक्ल यजुर्वेद संहिता पर एक भाष्य पाया जाता है। इसके सिवा इन्होंने ऋक्प्रातिशाख्य और शुक्ल यजुर्वेदप्रातिशाख्य पर भी भाष्य लिखे हैं।

उभयद्वादशी : यह व्रत मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी को प्रारम्भ होता है। इसके पश्चात् पौष शुक्ल से द्वादशी एक वर्षपर्यन्त कुल चौबीस द्वादशियों को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इन तिथियों को विष्णु के चौबीस अवतारों (केशव, नारायण आदि) का पूजन किया जाता है। दे० हेमाद्रि व्रतखण्ड।

उभयनवमी : यह व्रत पौष शुक्ल नवमी को प्रारम्भ होता है। इसमें एक वर्ष पर्यन्त चामुण्डा का पूजन होता है। प्रत्येक मास में भिन्न भिन्न उपकरणों से देवी की प्रतिमा का निर्माण करके भिन्न भिन्न नामों से उनकी पूजा की जाती है। कतिपय दिवसों में महिष का मांस समर्पित करते हुए रात्रि में पूजन करने तथा प्रत्येक नवमी को कन्याओं को भोजन कराने का विधान है। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, 274-282।

उभयसप्तमी : यह व्रत शुक्ल पक्ष की किसी सप्तमी में प्रारम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त प्रत्येक पक्ष में सूर्य देवता के पूजन का विधान है। एक मत के अनुसार यह व्रत माघ शुक्ल सप्तमी से प्रारम्भ होना चाहिए। एक वर्ष पर्यन्त प्रत्येक मास में सूर्य का भिन्न-भिन्न नामों से पूजन करने का विधान है। दे० भविष्योत्तर पुराण, 47.1.24

उभयैकादशी : यह व्रत मार्गशीर्ष की शुक्ल एकादशी से आरम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त प्रत्येक पक्ष में विष्णु का भिन्न भिन्न नामों (जैसे केशव, नारायण आदि) से पूजन होता है। दे० व्रतार्क, 233 ब-237 अ। गुर्जरों में इस व्रत का नाम केवल 'उभय' है।

उमा : शिव की पत्नी, पार्वती। उमा का शाब्दिक अर्थ है 'प्रकाश'। सर्वप्रथम केन उपनिषद् में उमा का उल्लेख हुआ है। यहाँ ब्रह्मा तथा दूसरे देवताओं की बीच माध्यम के रूप मे इनका आविर्भाव हुआ है। इस स्थिति में वाक् देवी से इनका अभेद जान पड़ता है।

उमा शब्द की व्युत्पत्ति कुमारसम्भव में इस प्रकार दी हुई है :

उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यांसुमुखी जगाम।

["उ","मा" यह कहकर माता (मेनका) ने उसे तपस्या से रोका। इसके अनन्तर उसका नाम ही उमा हो गया।]

उमागुरु : पार्वती का पिता हिमालय। दक्ष प्रजापति के यज्ञ में शिव की निन्दा सुनने से योग के द्वारा शरीर त्यागने वाली सती हिमालय से मेनका के गर्भ में उत्‍पन्न हुई। इस कथानक का पुराणों में विस्तृत वर्णन है।

उमाचतुर्थी : माघ शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का आचरण होता है। इसमें उमा के पूजन का विधान है। पुरुष और विशेष रूप से स्त्रियाँ कुन्द के पुष्पों से भगवती उमा का पूजन करती तथा उस दिन व्रत भी रखती हैं।

उमानन्द नाथ : दक्षिणमार्गी शाक्तों में तीन आचार्यों का नाम उनकी देवीभक्ति की दृष्टि से बड़ा ही मह्त्त्वपूर्ण है। ये हैं नृसिंहानन्द नाथ, भास्करानन्द नाथ एवं उमानन्द नाथ, जो एक छोटी गुरुपरम्परा उपस्थित करते हैं। तीनों में सबसे अधिक प्रसिद्ध भास्करानन्द नाथ थे जिनके शिष्य उमानन्द नाथ हुए। उमानन्द नाथ ने 'परशुराम भार्गवसूत्र' पर एक व्यावहारिक भाष्य लिखा है।

उमापति : उमा के पति शिव। महाभारत में कथन है :

तप्यते तत्र भगवान् तपो नित्यमुमापतिः।

[वहाँ पर भगवान् शिव नित्य तपस्या करते हैं।]

उमापतिधर : कृष्णभक्ति शाखा के कवियों में उमापतिधर का नाम भी उल्लेखनीय है। इन्होंने मैथिली एवं बंगला भाषा में कृष्ण-सम्बन्धी गीत लिखे हैं। ये तिरहुतनिवासी और विद्यापति के समकालीन थे।

उमापति शिवाचार्य : तमिल शैवों में 'चार संतान आचार्य', नाम प्रसिद्ध हैं। ये हैं मेयकण्ड देव, अरुलनन्दी, मरइ ज्ञानसम्बन्ध एवं उमापति शिवाचार्य। उमापति ब्राह्मण थे एवं चिदम्बर मन्दिर के पूजारी थे। ये मरइ ज्ञानसम्बन्ध के शिष्य बन गये, जो शूद्र थे। उमापति उनका उच्छिष्ट खाने के कारण जाति से बहिष्कृत हुए। किन्तु अपने सम्प्रदाय के ये बहुत बड़े आचार्य बन गये एवं बहुत से ग्रन्थों का इन्होंने प्रणयन किया। इनमें से आठ ग्रन्थ सिद्धान्तशास्त्रों में परिगणित हैं। वे हैं (1) शिव-प्रकाश, (2) तिरुअकुलपयन, (3) विनावेण्वा, (4) पोत्रपक्रोदइ, (5) कोडिकवि, (6) नेंचुविडुतूतु, (7) उण्मैनेऋविलक्कम और (8) संकल्पनिराकरण।

उमामहेश्वरव्रत : (1) इसे प्रारम्भ करने की तिथि के बारे में कई मत हैं। इसे भाद्रपद की पूर्णिमा से प्रारम्भ करना चाहिए, किन्तु चतुर्दशी को ही संकल्प कर लेना चाहिए। इसमें स्वर्ण अथवा रजत की शिव तथा पार्वती की प्रतिमाओं के पूजन का विधान है। यह कर्णाटक में अत्यन्त प्रसिद्ध है।

(2) पूर्णिमा, अमावास्या, चतुर्दशी अथवा अष्टमी को इसे प्रारम्भ करना चाहिए। उमा तथा शिव का पूजन होना चाहिए। हविष्यान्न के साथ नक्त का भी विधान है।

(3) अष्टमी अथवा चतुर्दशी तिथियों को प्रारम्भ करना चाहिये। व्रती को अष्टमी तथा चतुर्दशी को एक वर्षपर्यन्त उपवास रखना चाहिये।

(4) मार्गशीर्ष मास की प्रथम तिथि, वही देवता।

(5) मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को इस व्रत का आरम्भ होना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त। वही देवता। दे० भविष्योत्तरपुराण, 23.1-28; लिङ्गपुराण, पूर्वार्द्ध 84। व्रतार्क, हेमाद्रि, व्रतखंड।

उमायामलतन्त्र : शाक्त साहित्य के 'कुलचूडामणि' एवं 'वामकेश्वर' तन्त्रों में तन्त्रों की तालिका है, जिसमें तीन प्रकार के तन्त्र उल्लिखित हैं--आठ भैरव, आठ बहुरूप एवं आठ यामल। यामल के अन्तर्गत ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, लक्ष्मी, उमा, स्कन्द, गणेश एवं ग्रह यामल तन्त्र हैं। यामल शब्द यमल से बना है, जिसका अर्थ है 'जोड़ा'। इसका सन्दर्भ एक देवता तथा उसकी शक्ति के युगल सहयोग से है।

उमावन : उमा के विहार का काम्यक वन। पुरविशेष। उसके पर्याय हैं-- (1) देवीकोट, (2) कोटिवर्ष, (3) बाणपुर, (4) शोणितपुर। उमावन (काम्यकवन) में ही शिव-पार्वती (उमा) का विवाहोत्तर विहार हुआ था। इस वन के सम्बन्ध में शिव का शाप था कि जो कोई पुरुष इसमें प्रवेश करेगा वह स्त्री हो जाएगा। मनु के पुत्र इल भूल से इस वन में चले गये। वे शाप के कारण तुरन्त स्त्री 'इला' बन गये।

उमासंहिता : शिवपुराण की रचना में कुल सात खण्ड हैं। इसका पाचवाँ खण्ड 'उमासंहिता' है।

उमासुत : उमा के पुत्र, कार्तिकेय या गणेश।

उमा हैमवती : जिस प्रकार शिव (गिरीश) पर्वतों के स्वामी कहे जाते हैं, वैसे ही उनकी पत्नी पार्वती (पर्वतों की पुत्री) कहलाती हैं। शिव ने हिमालय की पुत्री उमा से विवाह किया। केनोपनिषद् (3.25) में वे प्रथम बार उमा हैमवती कही गयी हैं, जिससे एक स्वर्गीय (दिव्य) महिला का बोध होता है, जो ब्रह्मज्ञानसम्पन्ना हैं। स्पष्टतः, ये प्रथमतः एक स्वतन्त्र देवी थीं अथवा कम से कम एक दैवी शक्ति थीं, जो हिमालय का चक्कर लगाया करती थीं और पश्चात् उन्हें रुद्र की पत्नी समझा जाने लगा। केनोपनिषद् में उमा हैमवती ने देवताओं की शक्ति का उपहास करते हुए सभी शक्तियों के स्रोत ब्रह्म का प्रतिपादन किया है।

उमेश : उमा के पति, महादेव।

उर्वरा : कृषि योग्य भूमि को व्यक्त करने के लिए क्षेत्र के साथ उर्वरा शब्द का प्रयोग ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में होता आया है। ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में सिंचाई की सहायता से गहरी कृषि का उल्लेख मिलता है। खाद देने का भी वर्णन है। ऋग्वेद के अनुसार क्षेत्र भलीभाँति मापे जाते थे जिससे खेतों पर व्यक्तिगत स्वामित्व का पता चलता है। क्षेत्रों की विजय उर्वरा-सा 'उर्वरा-जित्', 'क्षेत्र-सा' का भी उल्लेख है, साथ ही 'क्षेत्रपति' नामक एक देवता की कल्पना में 'उर्वरापति' एक मानवीय उपाधि का आरोप है। ऋग्वेद में क्षेत्रों का उल्लेख संतान के उल्लेख के साथ ही हुआ है तथा संहिताओं में 'क्षेत्राणि संजि' अर्थात् क्षेत्रों की विजय का उल्लेख है।

पिशेल के मतानुसार क्षेत्र घास के क्षेत्रों से सीमित होता था, जिसे खिल्ल या खिल्य कहते थे। वेदों में साम्प्रदाय़िक खेती का उल्लेख या सामूहिक सह स्वामित्व का उल्लेख नहीं मिलता। व्यक्तिगत स्वामित्व भी उत्तर कालीन है। छान्दोग्य उप० में धन को व्यक्त करने वाले पदार्थों में क्षेत्र एवं घर कहे गये (आयतनानि) हैं। यवन लेखकों के उद्धरणों से भी व्यक्तिगत स्वामित्व का पता लगता है। प्रायः एक परिवार के सदस्य एक भूभाग में बिना विभाजन के सब स्वामित्व रखते थे। स्वामित्व के उत्तराधिकार सम्बन्धी नियमों का सूत्रों के पूर्व अस्तित्व नहीं था। शतपथ ब्राह्मण में पुरोहित को पारिश्रमिक रूप में भूमि दान करने का उल्लेख है। फिर भी भूमि एक विशेष धन थी जिसे आसानी से किसी को न तो दिया जा सकता था और न उसे त्यागा जा सकता था।

उर्वशी : (1) स्वर्गीय अप्सरा, जिसका उल्लेख संस्कृत साहित्य में अनेक स्थलों पर हुआ है। सर्वप्रथम ऋग्वेद में पुरुरवा-उर्वशी आख्यान में इसका वर्णन पाया जाता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में उर्वशी के ऊपर कई आख्यान हैं। कालिदास के नाटक 'विक्रमोर्वशीय' में तो वह नायिका ही है। इन्द्र अपने किसी भी प्रतिद्वन्द्वी की तपस्या भङ्ग करने के लिए मेनका, उर्वशी आदि अप्सराओं का उपयोग करता था।

(2) महान् व्यक्तियों को भी जो वश में कर ले, अथवा नारायण महर्षि के ऊरु (जंघा) स्थान में वास करे उसे उर्वशी कहते हैं। इसकी उत्पत्ति हरिवंश में कही गयी है। उसके अनुसार वह नारायण की जंघा का विदारण करके उत्पन्न हुई थी।

उर्वशीकुण्ड (चरणपादुका) : बदरीनाथ मन्दिर के पीछे पर्वत पर सीधे चढ़ने पर चरणपादुका स्थान आता है। यही से नल लगाकर बदरीनाथ मन्दिर में पानी लाया गया है। चरणपादुका के ऊपर उर्वशीकुण्ड है, जहाँ भगवान् नारायण ने उर्वशी को अपनी जङ्घा से प्रकट किया था। किन्तु यहाँ का मार्ग अत्यन्त कठिन है। इसी पर्वत पर आगे कूर्मतीर्थ, तैमिंगिलतीर्थ तथा नरनारायण आश्रम है। यदि कोई सीधा चढ़ता जाय तो वह इसी पर्वत के ऊपर से 'सत्पथ' पहुँच जायेगा। किन्तु यह मार्ग दुर्गम है।

उरुगाय : ऋग्वेद के विष्णुसूक्त में कथित विष्णु का विरुद्, जिसका अर्थ है 'जो बहुत लोगों द्वारा गाया जाय।' भगवान विष्णु अथवा कृष्ण की यह पदवी है :

जिह्वा सती दार्दुरिकेव सूत न चोपगायत्‍युरूगायगाथा:। [हे सूत! जो बहुगेय भगवान् की कथा नहीं कहता-सुनता उसकी जिह्वा दादुर के समान व्यर्थ है।]

विस्तीर्ण गति के लिए भी इसका प्रयोग हुआ है, जैसे कठोपनिषद् (2.11) में कहा है:

स्तोमं महदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वां धृत्या धीरो नचिकेतो-ऽत्यस्राक्षीः।

[हे नचिकेता! तुमने स्तुत्य और बड़ी ऐश्वर्ययुक्त, विस्तृत गति तथा प्रतिष्ठा को देखकर भी उसे धैर्यपूर्वक त्याग दिया।]

उल्कानवमी : एक प्रकार का अभिचार व्रत, जो आश्विन शुक्ल पक्ष की नवमी को किया जाता है। इस तिथि से प्रारम्भ करके एक वर्षपर्यन्त इसमें महिषासुरमर्दिनी की निम्नलिखित मन्त्र से पूजा करनी चाहिए : "महिषघ्नि महामाये०" (भविष्योत्तर पुराण)। इस व्रत का उल्का नाम होने का कारण यह है कि व्रती अपने शत्रु को उल्‍का जैसा भयंकर प्रतीत होता है। स्त्री यदि यह व्रत करे तो वह अपनी सपत्नी (सौत) के लिए उल्का सी प्रतीत होगी।

उलूक : उल्लू पक्षी, जो लक्ष्मी का वाहन माना गया है। सांसारिक ऐश्वर्य बन्धन का कारण है, जो उसका स्वेच्छा से वरण करता है, वह पारमार्थिक दृष्टि से उलूक (मूर्ख) है। लक्ष्मीप्राप्ति की मन्त्रसाधना में इस पक्षी का सहयोग लिया जाता है। दे० 'उलूकतन्त्र'।

यह पक्षी अपनी उग्र बोली के लिए प्रसिद्ध है तथा इसे नैर्ऋत्य (दुर्भाग्य का सूचक) भी कहते हैं। पूर्व काल में जंगली वृक्षों को अश्वमेधयज्ञ में उलूक दान किये जाते थे, क्योंकि वे वहीं वास करने लगते थे।

उशती : उत्तम वाणी, कल्याणमयी वाणी, वेदवाणी; कामनाशील, स्नेहमयी महिला :

`शूद्रस्येवीशितां गिरम्।`` (भागवत), `जायेव पत्य उशती सुवासाः।` (महाभाष्य), `उशतीरिव मातरः।` (आर्जन मन्त्र)।

व्यामिश्र या मोहक वचन: `वर्जयेद् उशतीं वाचम्।` (महाभारत)

उशनस् उपपुराण : अठारह महापुराणों की तरह कम से कम उन्तीस उपपुराण ग्रन्थ हैं। प्रत्येक उपपुराण किसी न किसी महापुराण से निर्गत माना जाता है। उनमें औशनस उपपुराण भी अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसके रचयिता उशना अर्थात् शुक्राचार्य कहे जाते हैं।

उशनस् काव्य : एक भृगु (कवि) वंशज प्राचीन ऋषि, शुक्राचार्य। ऋग्वेद में इनका सम्बन्ध कुत्स एवं इन्द्र से दिखलाया गया है। पश्चात् इन्होंने असुरों का पुरोहितपद ग्रहण किया, उन्होंने देवों से प्रतिद्वंद्विता कर ली।

इनके नाम से राजनीति का सम्प्रदाय विकसित हुआ, जिसको कौटिल्य ने औशनस कहा है। दे० अर्थशास्त्र। इसके अनुसार केवल दण्डनीति मात्र ही विद्या है, जबकि अन्य लोग आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता को मिलाकर चार विद्यायें मानते थे। कौटिलीय अर्थशात्र के अनेक स्थलों पर उशना का उल्लेख हुआ है। ये घोर राजनीतिवादी थे। चरकसंहिता (8.54) में भी 'औशनस अर्थशास्त्र' का उल्लेख है। महाभारत के शान्तिपर्व (.56, 40--42;180,10) में उशना के राजनीतिक विचारों का उद्धरण मिलता है। परम्परा के अनुसार उशना ने बृहस्पतिप्रणीत विशाल ग्रन्थ का एक संक्षिप्त संस्करण तैयार किया था, जो कालक्रम से लुप्त हो गया। कुछ लोगों का मत है कि 'शुक्रनीतिसार' उसी का लघु संस्करण है।

उशना (स्मृतिकार) : यद्यपि मुख्य स्मृतियाँ अठारह हैं, किन्तु इनकी संख्या 28 तक पहुँच जाती है। स्मृतिकारों में उशना भी एक हैं। इस स्मृति में जाति एवं वृत्ति का विधान और अनुलोम-प्रतिलोम विवाहों से उत्पन्न संकर-जातियों का विचार किया गया है।

उशना : यह नाम शतपथ ब्राह्मण (3.4; 3.13; 4.2; 5.15) में उस क्षुप (पौधे) के अर्थ में व्यवहृत हुआ है जिससे सोमरस तैयार किया जाता था।

उषा : यह शब्द 'वस्' धातु से बना है, जिसका अर्थ 'चमकना' है। इसकी दूसरी व्युत्पत्ति है 'ओषंति नाशयत्यन्धकारम' (अन्धकार को नाशती है)। प्रकृति के एक अत्यन्त मनोरम दृश्य अरुणोदय के रूप में उषा का वर्णन एक युवती महिला के रूप में कवियों ने किया है। वैदिक सूक्तों के अन्तर्गत उषा का निरूपण सुन्दरतम रचना मानी जाती है, जहाँ इन्द्र का गुण बल, अग्नि का गुण पौरोहित्य-ज्ञान तथा वरुण का गुण नैतिक शासन है। उषा का गुण उसका स्त्रीसुलभ स्वरूप है। उषा का वर्णन 21 ऋचाओं में हुआ है।

एक ही उषा देवी का प्रातःकालीन बेलाओं में देखा जाने वाला विविध शोभामय रूप है। वह सुन्दर युवती है, सुन्दर वस्त्रों से अलंकृत है तथा सुजाता है। वह मुस्कराती, गाती एवं नाचती है तथा अपने मनमोहक रूप को दिखाती है। यदि इन्द्र राजा का प्रतिनिधित्व करता है तो उषा तदनुरूप महिला रानी की प्रतिनिधि है।

उषा रात्रि के काले वस्त्रों को दूर करती है, बुरे स्वप्नों को भगाती, बुरी आत्माओं (भूत-प्रेतादि) से रक्षा करती है। वह स्वर्ग का द्वार खोल देती, आकाश के छोर को प्रकाशित करती तथा प्रकृति के भण्डारों को, जिन्हें रात छिपाये रखती है, स्पष्ट कर देती है तथा सभी के लिए सदयता से उन्हें बिखेर देती है।

उषा वरदान की देवी है। जब उसका प्रातः उदय होता है, प्रार्थना की जाती है --`दानशीलता का उदय करो, प्राचुर्य का उदय करो।` वह क्षण-क्षण रूप बदलने वाली महिला है, क्योंकि हर क्षण वह अपना नया आकर्षण सभी के लिए उपस्थित करती है। हर प्रातःकाल वह अपने इस रूप के भण्डार को लुटाती तथा हर एक को उसका `भाग` प्रदान करती है।

उषा का नियमित रूप से पूर्व में उदय उसे 'ऋत' का रूप प्रमाणित करता है। वह 'ऋत' में उत्पन्न हुई तथा ऋत की रक्षा करने वाली है। वह ऋत की उपेक्षा न करते हुए नित्य उसी स्थान पर आती है। उषा का पूर्व में उदय प्रत्येक उपासक को जगाता है कि वह अपने यज्ञाग्नि को प्रज्वलित करे।

उषा का सूर्य से निकट का सम्बन्ध है। सूर्य के पूर्व उदित होने के कारण, इसे सूर्य की माता कहा गया है। किन्तु सूर्य उषा का पीछा उसी प्रकार करता है, जैसे नवयुवक युवती का इस दृष्टिबिन्दु से उषा सूर्य की पत्नी कहलाती है। इन्द्र का प्रकटीकरण बादल की गरज एवं विद्युत्-ध्वनि में होता है। उषा अपनी प्रातःकालीन पूर्वी लालिमा (सुन्हरे रंग) के रूप में उसी प्रकार सुकुमार स्त्री रूपिणी है, जैसे इन्द्र कठोर एवं पुरुष रूपी। अग्नि वैदिक पुरोहित, इन्द्र वैदिक योद्धा एवं उषा वैदिक नारी है। पौराणिक कल्पना में उषा सूर्य की पत्नियों--- संज्ञाछाया, उषा और प्रत्यूषा-- में से एक है। सूर्य की परिवार मूर्तियों में इसका अंकन होता है और सूर्य के पार्श्व में यह अन्धकार रूपी राक्षसों पर बाणप्रहार करती हुई दिखायी जाती है।

[दे० ऋ० 4.51; 1.113; 7.79; 1.24; 4.54; 1.115; 10.58।]

उषःकाल : (1) सूर्योदय से पाँच घड़ी पूर्व का काल अथवा पूर्व दिवसीय सूर्योदय से 55 घड़ी बाद का समय। यथा

पञ्च पञ्च उषःकालः सप्त पञ्चारुणोदयः। अष्ट पञ्च भवेत् प्रातः शेषः सूर्योदयो मतः॥

[पहले दिन की 55 घड़ी बीतने पर उषःकाल, 57 घड़ी बीतने पर अरुणोदय और 58 घड़ी के बाद सूर्योदय काल माना गया है।] (कृत्यसारसमुच्चय)। उषःकाल का धार्मिक कृत्यों के लिए बड़ा महत्त्व है।

(2) रात्रि का अवसान भी उषःकाल कहलाता है। वह नक्षत्रों के प्रकाश की मन्दता से लेकर सूर्य के अर्धोदय तक रहता है। तिथितत्त्व में वराह का कथन है :

अर्धास्तमयात् संध्या व्यक्तीभूता न तारका यावत्। तेजःपरिहानिरुषा भानोरर्धोदयं यावत्॥

[सूर्य के अर्धास्तमन से लेकर जब तक तारे न दिखाई दें इस बीच के समय को सन्ध्या कहते हैं तथा ताराओं के तेज के मन्द होने से लेकर सूर्य के अर्धोदय तक के समय को उषःकाल कहते हैं।]

उषापति : उषा का पति अनिरुद्ध। यह कामदेव के अवतार प्रद्युम्न यादव का पुत्र माना जाता है। उषा बाणासुर की पुत्री थी। पहले दोनों का गान्धर्व विवाह हुआ था, पुनः कृष्ण-बलराम आदि ने युद्ध में बाणासुर को पराजित कर उसे धूम-धाम के साथ विवाह करने को विवश कर दिया। (आधुनिक विचारकों के अनुसार बाणासुर असीरिया देश का प्रतापी शासक था।)

उष्‍णीष : शिरोवेष्टन, वैदिक भारतीयों द्वारा व्यवहृत पगड़ी, जिसे पुरुष अथवा स्त्री समान रूप से व्यवहार करते थे। दे० ऐ० ब्रा०, 6.1; शत० ब्रा०, 3.3; 2.3; 4.5.2.7;2.1.8 (इन्द्राणी का उष्णीष) आदि एवं काठक संहिता, 13.10। व्रात्यों के उष्णीष का अथर्ववेद (15.2.1) एवं पञ्चविंश ब्रा० (17.1.14;16.6.13) में प्रचुर उल्लेख मिलता है। वाजपेय (शतपथ ब्रा० 5.3.5.33) तथा राजसूय (मैत्रायणी सं० 4.4.3) यज्ञों में राजपद के चिह्न रूप में राजा द्वारा उष्णीष धारण किया जाता था। शिरोभूषा के रूप में देवताओं को भी उष्णीष दिखलाया जाता है। भावप्रकाश में कथन है :

उष्णीषं कान्तिकृत् केश्यं रजोवातकफापहम्। लघु चेच्छस्यते यस्माद् गुरु पित्ताक्षिरोगकृत्॥

[पगड़ी शोभी बढ़ाती है और बालों का हित करती है। वात, पित्त, कफ सम्बन्धी रोगों से बचाती है। छोटी पगड़ी अच्छी होती है, बड़ी पगड़ी पित्त तथा आँखों के रोगों को बढ़ाती है।]

उष्णीष धारण माङगलिक माना जाता है। शुभ अवसरों पर इसका धारण शिष्टाचार का एक आवश्यक अङ्ग है।

 : स्वरवर्ण का षष्ठ अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तन्त्रात्मक महत्त्व निम्नांकित है :

शङ्खकुन्दसमाकारं ऊकारं परमकुण्डली। पञ्चप्राणमयं वर्णं पञ्चदेवमयं सदा॥ पञ्चप्राणयुतं वर्णं पीतविद्युल्लता तथा। धर्मार्थकाममोक्षञ्च सदा सुखप्रदायकम्॥

[ऊ अक्षर शङ्क्ख तथा कुन्द के समान श्वेतवर्ण का है। परम कुण्डलिनी (शक्ति का अधिष्ठान) है। यह पञ्च प्राणमय तथा पञ्च देवमय है। पाँच प्राणों से संयुक्त यह वर्ण पीत विद्युत की लता के समान है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और सुख को सदा देनेवाला है।] वर्णोद्धारतन्त्र में इसके निम्नलिखित नाम हैं :

ऊः कण्टकी रति शान्तः क्रोधनो मधुसूदनः। कामराजः कुजेशश्च महेशो वामकर्णकः॥, अर्धीशो भैरवः सूक्ष्मो दीर्घघोषा सरस्वती। विलासिनी विघ्‍नकर्ता लक्ष्मणो रूपकर्षिणी॥ महाविद्येश्वरी षष्ठा षण्ढो भूः कान्यकुब्जकः॥

ऊर्णा : ऊन; भेड़ आदि के रोम। भौंहों का मध्यभाग भी ऊर्णा कहलाता है। दोनों भौंहों के मध्य में मृणालतन्तुओं के समान सूक्ष्म सुन्दर आकार की उठी हुई रेखा महापुरुषों का लक्षण है। यह चक्रवर्ती राजा तथा महान् योगियों के ललाट में भी होती है। योगमूर्तियों के ललाट में ऊर्ण अङ्कित की जाती है। वह ध्यान का प्रतीक है।

ऊर्णनाभ : एक प्राचीन निरुक्तकार, जिनका उल्लेख यास्क ने निघण्टु की व्याख्या में किया है।

ऊर्ध्वपुण्ड्र : चन्दन आदि के द्वारा ललाट पर ऊपर की ओर खींची गयी पत्राकार रेखा। यथा :

ऊर्ध्वपुण्ड्रं द्विजः कुर्याद्वारिमृद्भस्मचन्दनैः।

[ब्राह्मण जल, मिट्टी, भस्म और चन्दन से ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक करे।]

ऊर्ध्वपुण्ड्रं द्विजः कुयार्त् क्षत्रियस्तु त्रिपुण्ड्रकम्। अर्द्धचन्द्रन्तु वैश्यश्च वर्तुलं शूद्रयोनिजः॥

[ब्राह्मण ऊर्ध्वपुण्ड्र, क्षत्रिय त्रिपुण्ड्र, वैश्य अर्धचन्द्र, शूद्र वर्तुलाकार चन्दन लगाये।]

विविध आकारों में सभी सनातनधर्मी व्यक्तियों द्वारा तिलक लगाया जाता है। किन्तु ऊर्ध्वपुण्ड्र वैष्णव सम्प्रदाय का विशेष चिह्न है। वासुदेव तथा गोपीचन्दन उपनिषदों (भागवत ग्रन्थों) में इसका प्रशंसात्मक वर्णन पाया जाता है। यह गोपीचन्दन से ललाट पर एक, दो या तीन खड़ी लम्ब रेखाओं के रूप में बनाया जाता है।

देवप्रसादी चन्दन, रोली, गंगा की या तुलसीमूल की रज या आरती की भस्म से भी ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक किया जाता है। प्रसादी कुंकुम या रोली से मस्तक के मध्य एक रेखा बनाना लक्ष्मी या श्री का रूप कहा जाता है। पत्राकार दो रेखाएँ बनाना भगवान का चरणचिह्न माना जाता है। ऊँकार की चौथी मात्रा अर्धचन्द्र और बिन्दु के लम्ब रूप में भी वह होता है।

उर्ध्वमेढ्र : शिव का एक पर्याय। इसका शाब्दिक अर्थ है जिसका मेढ्र (लिङ्ग) ऊपर की ओर हो। लिङ्ग निर्वात स्थान में स्थिर दीपशिखा के समान निश्चित ज्ञान का प्रतीक है। शिव ज्ञान के सन्दोह हैं। स्कन्द पुराण आदि कई ग्रन्थों में ऊर्ध्वमेढ्र शिव की कथाएँ पायी जाती हैं।

ऊर्ध्वरेता : अखण्ड ब्रह्मचारी; जिसका वीर्य नीचे पतित न होकर देह के ऊपरी भाग में स्थिर हो जाय। सनकादि, शुकदेव, नारद, भीष्म आदि। भीष्म ने पिता के अभीष्ट विवाह के लिए अपना विवाह त्याग दिया। अतः वे आजीवन ब्रह्मचारी रहने के कारण ऊर्ध्वरेता नाम से ख्यात हो गये।

यह शंकर का भी एक नाम है :

ऊर्ध्वरेता ऊर्ध्वलिङ्ग ऊर्ध्वशायी नभःस्थलः।

[ऊर्ध्वरेता, ऊर्ध्वलिङ्ग, ऊर्ध्वशायी, नभस्थल।]

ऊषीमठ : हिमालय प्रदेश का एक तीर्थ स्थल। जाड़ों में केदारक्षेत्र हिमाच्छादित हो जाता है। उस समय केदारनाथजी की चल मूर्ति यहाँ आ जाती है। यहीं शीतकाल भर उनकी पूजा होती है। यहाँ मन्दिर के भीतर बदरीनाथ, तुङ्गनाथ, ओंकारेश्वर, केदारनाथ, ऊषा, अनिरुद्ध, मान्धाता तथा सत्ययुग-त्रेता-द्वापर की मूर्तियाँ एवं अन्य कई मूर्तियाँ हैं।

 : स्वरवर्ण का सप्तम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य अधोलिखित है :

ऋकारं परमेशानि कुण्डली मूर्तिमान् स्वयम्। अत्र ब्रह्मा च विष्णुश्च रुद्रश्चैव वरानने॥ सदा शिवयुतं वर्णं सदा ईश्वर संयुतम्। पञ्च वर्णमयं वर्णं चतुर्ज्ञानमयं तथा॥ रक्तविद्युल्लताकारं ऋकारं प्रणमाम्यहम्॥

[हे देवी! ऋ अक्षर स्वयं मूर्तिमान् कुण्डली है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र सदा वास करते हैं। यह सदा शिवयुत और ईश्वर से संयुक्त रहता है। यह पञ्चवर्णमय तथा चतुर्ज्ञानमय है, रक्त विद्युत् की लता के समान है। इसको प्रणाम करता हूँ।]

वर्णोद्धार तन्त्र में इसके निम्नांकित नाम बतलाये गये हैं :

ऋः पूर्दोषमुखी रुद्रो देवमाता त्रिविक्रमः। भावभूतिः क्रिया क्रूरा रेचिका नाशिका धृतः॥ एकापाद शिरो माला मण्डला शान्तिनी जलम्। कर्णः कामलता मेधा निवृत्तिर्गणनायकः॥ रोहिणी शिवदूती च पूर्णगिरिश्च सप्तमे॥

ऋक् : प्राचीन वैदिक काल में देवताओं के सम्मानार्थ उनकी जो स्तुतियाँ की जाती थीं, उन्हें ऋक् या ऋचा कहते थे। ऋग्वेद ऐसी ही ऋचाओं का संग्रह है। इसीलिए इसका यह नाम पड़ा। दे० 'ऋग्वेद'।

अथर्वसंहिता के मत से यज्ञ के उच्छिष्ट (शेष) में से यजुर्वेद के साथ-साथ ऋक्, साम, छन्द और पुराण उत्पन्न हुए। बृहदारण्यक उ० और शतपथ ब्राह्मण में लिखा है 'गीली लकड़ी में से निकलती हुई अग्नि से जैसे अलग-अलग धुआँ निकलता है, उसी तरह उस महाभूत के निःश्वास से ऋग्वेद यजुर्वेद अथर्वाङ्गिरस, इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद्, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान और अनुव्याख्यान निकलते हैं : ये सभी इसकी निःश्वास हैं।'

ऋक् ज्यौतिष : ज्योतिर्वेदाङ्ग पर तीन ग्रन्थ बहुत प्राचीन काल के मिलते हैं। पहला ऋक् ज्यौतिष, दूसरा यजु:--ज्यौतिष और तीसरा अथर्व ज्यौतिष। ऋक् ज्यौतिष के लेखक लघध हैं। इसको 'वेदाङ्गज्योतिष' भी कहते हैं।

ऋक्थ : पैतृक धन, सुवर्ण :

हिरण्यं द्रविणं द्युम्नं विक्ममृक्थं धनं वसु। (शब्दार्णव)

ऋक्थमूलं हि कुटुम्बम्' (याज्ञवल्क्य)

[पैतृक सम्पत्ति ही कुटुंम्ब का मूल है।]

तात्पर्य यह है कि कुटुम्ब उन सदस्यों से बना जिनका ऋक्थ पाने का अधिकार है। उन्हीं को इसका अधिकार होता है जो कौटुम्बिक धार्मिक क्रियाओं को करने के अधिकारी हैं। इसीलिए धर्मपरिवर्तन करने वालों को ऋक्थ पाने का अधिकार नहीं था। अब धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में धर्मपरिवर्तन ऋक्थ प्राप्ति में बाधक नहीं है।

ऋक्प्रातिशाख्य : वेदों के अनेक प्रकार के स्वरों, उच्चारण, पदों के कम और विच्छेद आदि का निर्णय शाखा के जिन विशेष ग्रन्थों द्वारा होता है उन्हें प्रातिशाख्य कहते हैं। वेदाध्ययन के लिए अत्यन्त पूर्वकाल में ऋषियों ने पढ़ने की ध्वनि, अक्षर, स्वरादि विशेषता का निश्चय करके अपनी-अपनी शाखा की परम्परा निश्चित कर दी थी। इस विभेद को स्मरण रखने और अपनी परम्परा की रक्षा के लिए प्रातिशाख्य ग्रन्थ बने। इन्हीं प्रातिशाख्यों में शिक्षा तथा व्याकरण दोनों पाये जाते हैं।

एक समय था जब वेद की सभी शाखाओं के प्रातिशाख्यों का प्रचलन था और सभी उपलब्ध भी थे। परन्तु अब केवल ऋग्वेद की शाकल शाखा का शौनकरचित ऋक्प्रातिशाख्य, यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का तैत्तिरीय प्रातिशाख्य, वाजसनेयी शाखा का कात्यायनरचित वाजसनेय प्रातिशाख्य, सामवेद का पुण्यमुनि रचित सामप्रातिशाख्य और अथर्वप्रातिशाख्य व शौकनीय चतुरध्यायी उपलब्ध हैं। शौन के ऋक्प्रातिशाख्य में तीन काण्ड, छः पटल और 103 कण्डिकाएँ हैं। इस प्रातिशाख्य का परिशिष्ट रूप 'उपलेख सूत्र' नामक एक ग्रन्थ मिलता है। पहले विष्णुपुत्र ने इसका भाष्य रचा था। इसको देखकर उब्बटाचार्य ने इसका विस्तृत भाष्य लिखा है।

ऋक्ष : रीछ या भालू। ऋग्वेद में ऋक्ष शब्द एक बार तथा परवर्ती वैदिक साहित्य में कदाचित ही प्रयुक्त हुआ है। स्पष्टतः यह जन्तु वैदिक भारत में बहुत कम पाया जाता था। इस शब्द का बहुवचन में प्रयोग 'सप्त ऋषियों' के अर्थ में भी कम ही हुआ है। ऋग्वेद में दानस्तुति के एक मन्त्र में 'ऋक्ष' एक संरक्षक का नाम है, जिसके पुत्र आर्क्ष का उल्लेख दूसरे मन्त्र में आया है।

परवर्ती काल में नक्षत्रों के अर्थ में इसका प्रयोग हुआ है। रामायण तथा पुराणों की कई गाथाओं में ऋक्ष एक जाति विशेष का नाम है। ऋक्षों ने रावण से युद्ध करने में राम की सहायता की थी।

ऋग्विधान : इस ग्रन्थ की गणना ऋग्वेद के पूरक साहित्य में की जाती है। इसके रचयिता शौनक थे।

ऋग्भाष्य : ऋग्वेद के ऊपर लिखे गये भाष्यसाहित्य का सामूहिक नाम ऋग्भाष्य है। ऋग्वेद के अर्थ को स्पष्ट करने के सम्बन्ध में दो ग्रन्थ अत्यन्त प्राचीन समझे जाते हैं। एक निघण्टु है और दूसरा यास्क का निरुक्त। देवराज यज्वा निघण्टु के टीकाकार हैं। दुर्गाचार्य ने निरुक्त पर अपनी सुप्रसिद्ध वृत्ति लिखी है। निघण्टु की टीका वेदभाष्य करने वाले एक स्कन्दस्वामी के नाम से भी पायी जाती है। सायणाचार्य वेद के परवर्ती भाष्यकार हैं। यास्क के समय से लेकर सायण के समय तक विशेष रूप से कोई भाष्यकार प्रसिद्ध नहीं हुआ।

वेदान्तमार्गी लोग संहिता की व्याख्या की ओर विशेष रुचि नहीं रखते, फिर भी वैष्णव संप्रदाय के एक आचार्य आनन्द तीर्थ (मध्वाचार्य स्वामी) ने ऋग्वेदसंहिता के कुछ अंशों का श्लोकमय भाष्य किया था। फिर रामचन्द्र तीर्थ ने उस भाष्य की टीका रची थी। सायण ने अपने विस्तृत 'ऋगभाष्य' में भट्टभास्कर मिश्र और भरतस्वामी- वेद के दो भाष्यकारों का उल्लेख किया है। कतिपय अंश चण्डू पण्डित्, चतुर्वेद स्वामी, युवराज रावण और वरदराज के भाष्यों के भी पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त मुद्गल, कपर्दी, आत्मानन्द और कौशिक आदि कुछ भाष्यकारों के नाम भी सुनने में आते हैं।

ऋग्वेद : वेद चार हैं, उनमें से ऋग्वेद सबसे प्रमुख और मौलिक है। क्योंकि सम्पूर्ण सामवेद और यजुर्वेद का पद्यात्मक अंश तथा अथर्ववेद के कतिपय अंश ऋग्वेद से ही लिये गये हैं। पातञ्जल महाभाष्य (पस्पशाह्निक) के अनुसार ऋग्वेद की इक्कीस संहिताएँ थीं। किन्तु आजकल केवल एक ही शाकल संहिता उपलब्ध है जिसमें 1028 सूक्त (11 वालखिल्यों को लेकर) हैं। शाकल संहिता का दो प्रकार से विभाजन किया गया है। प्रथमतः यह मण्डल, अनुवाक और वर्ग में विभाजित है, जिसके अनुसार इसमें 10 मण्डल, 85 अनुवाक और 2008 वर्ग हैं। दूसरे विभाजन के अनुसार इसमें 8 अष्टक, 64 अध्याय और 1028 सूक्त हैं। प्रत्येक सूक्त के ऋषि, देवता और छन्द विभिन्न हैं। ऋषि वह है जिसको मन्त्र का प्रथम साक्षात्कार हुआ था। (आधुनिक भाषा में ऋषि वह था जिसने उस सूक्त की रचना की अथवा परम्परा से उसे ग्रहण किया था। सूक्त का वर्णनीय विषय देवता होता है। छन्द विशेष प्रकार का पद्य होता है जिसमें सूक्त की रचना हुई है।

व्याख्यान और अध्यापन के क्रम से ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ बतलायी गयी हैं-- (1) शाकल, (2) वाष्कल, (3) आश्वलायन, (4) शाङ्कखायन और (5) माण्डुकेय। कुछ विद्वानों के अनुसार इसकी सत्ताईस शाखाएँ थीं, जिनके नाम निम्नाङ्कित हैं

1. मुद्गल, 2. गालव, 3. शालीय, 4. वात्स्य,5. शौशिरि, 6. बोध्य, 7. अग्निमाठर, 8. पराशर, 9. जातूकर्ण्य 10. शाङ्कखायन, 11. आश्वलायन, 12. कौषीतकि, 13. महाकौषीतकि, 14. शाम्व्‍य, 15. माण्डूक्य, 16. बह्वृच 17. पैङ्ग्य 18. उद्दालक 19. शतबलाक्ष, 20. गज, 21. वाष्कलि, 22. वाष्कलि, 23. वाष्कलि, 24. ऐतरेय, 25. वसिष्ठ, 26. सुलभ, 27. शौनक,

दे० पं० भगवद्दत्त : वैदिक वाङ्मय का इतिहास, भाग 1. पृ० 121।

ऋग्वेद के ऋषियों के नाम निम्नाङ्कित हैं :

मधुच्छन्दा--दीर्घतमा----कुमार; जेत-----अगस्त्य----- ईश; मेधातिथि----- इन्द्र---- सुतम्भरा; शुनःशेप----- मरुत्----- धरुण; हिरण्यस्तूप---- लोपामुद्रा---- वब्रि; कण्व--- गृत्समद---- पुरु; प्रस्कण्व--- सोमहूति----- द्वित; सव्य--- कूर्म----- त्रैतन; नोधा------- विश्वामित्र---- शश; पराशर--- ऋषभ--- विश्वसाम; गोतम---उत्कल--- द्युम्न; कुत्स--- कट--- विश्वचर्षणि; कश्यप--- देवश्रवा--- गोपपणि; ऋज्राश्व---- देवव्रत---- वसुयु; त्रित--- प्रजापति-- त्र्यारुण; कक्षीवान्--- वामदेव--- अश्वमेध; भावयव्य--- अदिति-- अत्रि; रोमश--- त्रसदस्यु--- विश्ववर; परुच्छेय--- पुरुमिल्ल--- गौरवीति; बुध-- बभ्रु--- गविष्ठिर; अवस्यु-- गतु---- प्रभु; प्रगाथकण्व--- द्युम्निक--- पुनर्वत्स; ययाति--- संवरण--- नृमेध; अपाला-- नहुष--- पृथु; वसु-- रहूगण--- शिखण्डिनी; चक्षुः--- क्षुतकक्ष--- बृहन्मति; सप्तर्षि--- सुकक्ष--- अयास्य; कवि--- अत्रिभूय-- विन्दु; पूतदक्ष-- गौरी-- आवत्सार; प्रतिक्षत्र--- उतथ्य--- रीति; ऊर्ध्वसद्म--- तिरश्चि---- आवत्सारक्ष; अमहीयु--- प्रतिरथ--- द्युतान; रेहजमदग्नि--- कुशाश्व--- प्रतिभानु; पुरुहन--- निध्रुवि--- ऋणञ्चय; शिशु-- नेम-- भृगु; वैखानस--- सुदीति--- पुरुमीढ; त्रिशिरा--- अत्रि--- यम; पुष्टिगु--- पवित्र--- यमी; हर्यश्व-- श्रुष्टिगु-- रेणु; शङ्ख--- गोपवन--- आयु; हरिमन्थ-- दमन--- सप्तवध्रि; वेन--- देवश्रवा-- विरूप; मातरिश्‍वा-- अकृष्टपच्या--- संसूक; कुरुस्तुत्-- कृष-- अजा; मथित-- कृत्नु--- पृषध्र; गृत्समद--- च्यवन--- सुपर्ण; प्रतर्दन--- वसुक्र--- एकत; असित--- व्यघ्रपात--- लुभ; कुसीदी--- देवल--- कर्णश्रुत; अभितया--- उशना काव्य--- दृढ़च्युत; अम्बरीष--- घोषा--- कृष्ण; इध्मवाह--- ऋजिश्वा--- सुहस्त्य; विश्वक्--- श्यवाश्व-- नेमसूनु; सप्तगु--- वैकुण्ठ-- अप्रतिरथ; यज्ञ--- विवृहा-- बृहत्कथ; भूतांश—सुदास-- प्रचेता; गौपवन--- सरमा--- मान्धाता; कपोत— नाभानेदिष्ट--- पणि; ऋष्यश्रृङ्ग—अनिला-- सुमित्र; जुहु--- विषाणक-- शबरा; जरत्कारू--- राम--- विप्रजूति; विभ्राजा—स्यूमरश्मि--- उष्ट्रदंश; व्यङ्ग--- इत--- विश्वकर्मा; नभप्रभेदन--- विश्वावसु--- संवर्त; मूर्धन्वान्--- शतप्रभेदन--- अग्निपावक; ध्रुव--- शर्याति-- साधि; अग्नितापस—अभीवर्त-- तान्व; धर्म—द्रोण-- ऊर्ध्वग्रीव; अर्बुद—उपस्तुत्—साम्बमित्र; पतङ्ग—पुरूरवा-- अग्निपूत; पृथुबन्धु—अरिष्टनेमि-- उर्वशी; भिक्षु—सुवेद-- शिबि; सर्वहरि—उरुक्षय-- मण्डूक; सप्तधृति—भिषक-- लव; श्रद्धा—श्येन-- बृहद्दिव; इन्द्रमाता—सार्पराज्ञि—हिरण्यगर्भ; शिरिम्बिठ—अघमर्षण-- चित्रमहा; केतु—सवन-- प्रतिप्रभ; बाभ्रव्य—कुलमल-- भुवन; स्वस्ति—दुवस्यु-- बर्हिष; यक्ष्मनाशन—नाभाग-- मुद्गल; विहव्य—रक्षोहा-- श्रुतविद्; रातहव्य—मेधातिथि-- त्रिशंकु; यजत—असङ्ग-- भर्ग; उरुचक्रि—शश्वति-- कलि; बहुवृक्त—देवातिथि-- मत्स्य; पौर—ब्रह्मातिथि-- मान्य; अवस्यु—वत्स-- मन्यु; देवापि—यवापमरुत्-- साध्वस; भरद्वाज—शशकर्ण-- वीतहव्य; नारद—सुहोत्र--- गोषूक्ति; शुनहोत्र—अश्वसूक्ति-- नर; इरिम्बिठ—शंयु-- सौभरि; गर्ग—विश्वमना—ऋजिस्वा; वैवस्वत मनु—पायु-- कश्यप; वसिष्ठ—निपतिथि-- मैत्रावरुणि; सहस्रवसु—वशिष्ठ-- रोचिशा; शक्ति—वाशिष्ठ-- श्यावाश्व; जिन देवताओं की स्तुति ऋग्वेद में की गयी है उनकी सूची निम्नलिखित : अग्नि—अग्नायी-- रति; वायु—इन्द्र-- द्यौ; धेनु—अन्न प्रस्तोक; पृथ्वी—वनस्पति-- पृष्णि; वरुण-- विष्णु-- राका; वास्तोष्पति—पूषा-- सिनीवाली; सरस्वान्—इन्द्रावरुण-- आयु; सविता—चित्र-- मित्रावरुण; अश्विनौ—कपिञ्चल-- सोम पितृमान्; पितर—उषा-- यूप; सरमापुत्र—अर्यमा-- पर्वत; सरमापुत्र—अर्यमा-- पर्वत; सोमक—विश्वेदेव-- आदित्य; रुद्र—मृत्यु सरस्वती; आप्त्य—वामदेव-- धाता; आप्री—सूर्य-- उच्चैःश्रवा; वैकुण्ठ—ऋतु-- त्रैश्वानर; दधिक्रा—आत्मा-- मरुत्; सिन्धु—क्षेत्रपति-- निर्ऋति; त्वष्टा—स्वनय-- सीता; ज्ञान—ब्रह्मस्पति-- सोम; रोमशा—धृत-- ओषधि; दक्षिण—बृहस्पति-- उशना; अरण्यानी-- ऋभु—वाक्; अत्रि—श्रद्धा-- इन्द्राणी; काले-- देवी--शची; वरुणानी—साध्य-- मायाभेद; पर्जन्य-- तार्क्ष्य;

ऋग्वेद में आये हुए छन्दों के नाम अधोलिखित हैं : अभिसारिणी-- मध्येज्योतिष्मति-- पुरौष्णिक्; अनुष्ट्रप्-- महाबृहती-- स्कन्धोग्रीवी; अष्टि-- महापदपड़्क्ति-- तनुशिरा; अस्तारपङ्ग्क्ति-- महापङ्गक्ति-- त्रिष्टुप्; अतिधृति-- सतोबृहती-- उपरिष्टाद्बृहती; अतिजगती-- महासतोबृहती-- उपरिष्टाज्ज्योति; नष्टरूपा-- ऊर्ध्वबृहती; अत्यष्टि-- न्यङ्कुसारिणी-- उरोबृहती; बृहती-- पादनिचृत्-- पदपङ्क्ति; विष्टारपङ्क्ति-- चतुर्विशतिक-- पङ्क्ति; उष्णिर्ग्ग्या-- द्विपदी-- पङ्क्त्युत्तरा; उष्णिक्-- धृति पिपीलिकमध्या; वर्धमाना-- द्विपदाविराट् प्रगाथ; विपरीता-- एकपदात्रिष्टुप्-- प्रस्तारपङ्क्ति; विराङ्रूपा-- एकपदाविराट्-- प्रतिष्ठा; विराट्-- गायत्री-- पुरस्ताद्; विराट्पूर्वा-- जगती-- बृहती; विराट्स्थाना-- ककुप्-- यवमध्या; विष्टारबृहती कृति;

ऋग्वेद में देवतात्त्व के अन्तर्गत अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का वर्णन हुआ है। सम्पूर्ण विश्व का किसी न किसी 'दैवत' के रूप में ग्रहण है। मुख्य देवताओं को स्थानक्रम से तीन वर्गों-- (1) भूमिस्थानीय, (2) अन्तरिक्षस्‍थानीय तथा (3) व्योमस्थानीय में बाँटा गया है। इसी प्रकार परिवारक्रम से देवताओं के तीन वर्ग हैं-- (1) आदित्यवर्ग (सूर्य परिवार), (2) वसुवर्ग तथा (3) रुद्रवर्ग। इनके अतिरिक्त कुछ भावात्मक देवता भी हैं, जैसे श्रद्दा, मन्यु, वाक् आदि। बहुत से ऋषिपरिवारों का भी देवीकरण हुआ है, जैसे ऋभु आदि। नदी, पर्वत, यज्ञपात्र, यज्ञ के अन्य उपकरणों का भी देवीकरण किया गया है।

ऋग्वेद के देवमण्डल को देखकर अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि इसमें बहुदेववाद का ही प्रतिपादन किया गया है। परन्तु यह मत गलत है। वास्तव में देवमण्डल के सभी देवता एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं हैं; अपितु वे एक ही मूल सत्ता के दृश्य जगत् में व्यक्त विविध रूप हैं। सत्ता एक ही है। स्वयं ऋग्वेद में कहा गया है:

एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति, अग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः।'

[मूल सत्ता एक ही है। उसी को विप्र (विद्वान्) अनेक प्रकार से (अनेक रूपों में) कहते हैं। उसी को अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि कहा गया है।] वरुण, इन्द्र, सोम, सविता, प्रजापति, त्वष्टा आदि भी उसी के नाम हैं।

एक ही सत्ता से सम्पूर्ण विश्व का उद्भव कैसे हुआ है, इसका वर्णन ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (10.90) में विराट् पुरुष के रूपक से बहुत सुन्दर रूप में हुआ है। इसके कुछ मन्त्र नीचे दिये जाते हैं :

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं सर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥1॥

[पुरुष (विश्व में पूर्ण होने वाली अथवा व्याप्त सत्ता) सहस्र (असंख्यात अथवा अनन्त) सिर वाला, सहस्र आँख वाला तथा सहस्र पाँव वाला है। वह भूमि (जगत्) को सभी ओर से घेरकर भी इसका अतिक्रमण दस अंगुल से किये हुए है। अर्थात् पुरुष इस जगत् में समाप्त न होकर इसके भीतर और परे दोनों ओर है।]

एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पुरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥3॥

[जितना भी विश्व का विस्तार है वह सब इसी विराट्-पुरुष की महिमा है। यह पुरुष अनन्त महिमा वाला है। इसके एक पाद (चतुर्थांश= कियदंश) में ही सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। इसके अमृतमय तीन पाद (अधिकांश) प्रकाशमय लोक को आलोकित कर रहे हैं।]

तस्माद् यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥7॥

[उसी सर्वहुत यज्ञ (विश्व के लिए पूर्ण रूपेण अर्पित सत्ता) से ऋक् और साम उत्पन्न हुए। उसी से छन्द (स्वतन्त्र ध्वनि) उत्पन्न हुए और उसी से यजुः भी।]

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्यासीत् किम्बाहू किमूरु पादा उच्येते॥

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका : महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेदों का स्वतन्त्र भाष्य किया है। उनका 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' अति प्रभावशाली ग्रन्थ है, जो वेदभाष्य की भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें निम्नांकित विषयों पर विचार हुआ है :

1. वेदों का उद्गम, 2. वेदों का अपौरुषेयत्व और सनातनत्व, 3. वेदों का विषय, 4. वेदों का वेदत्व, 5. ब्रह्मविद्या,. 6. वेदों का धर्म, 7. सृष्टिविज्ञान, 8. सृष्टिचक्र, 9. गुरुत्व और आकर्षण शक्ति, 10. प्रकाशक औऱ प्रकाशित, 11. गणितशास्त्र, 12. मोक्षशास्त्र, 13. नौ-निर्माण तथा वायुयान निर्माण कला, 14. बिजली और ताप, 15. आयुर्वेद विज्ञान, 16. पुनर्जन्म, 17. विवाह, 18. नियोग, 19. शासक तथा शासित के धर्म, 20. वर्ण और आश्रम, 21. विद्यार्थी के कर्तव्य, 22. गृहस्थ के कर्तव्य, 23. वानप्रस्थ के कर्तव्य, 24. संन्यासी के कर्तव्य, 25. पञ्च महायज्ञ, 26. ग्रन्थों का प्रामाण्य, 27. योग्यता और अयोग्यता, 28. शिक्षण और अध्ययनपद्धति, 29. प्रश्नों और सन्देहों का समाधान 30. प्रतिज्ञा, 31. वेद सम्बन्धी प्रश्नोत्तर, 32. वैदिक शब्दों के विशेष नियम--निरुक्त, 33. वेद और व्याकरण के नियम, 34. अलंकार और रूपक

पाश्चात्य विद्वानों के मन्तव्यों के परिष्कारार्थ इस प्रकार का वेदार्थविचार अत्युपयोगी है।

ऋजिश्वा : ऋजिश्वा का उल्लेख ऋग्वेद (1.51,5; 5.3, 8; 10.1.1; 6.20.7) में अनकों बार आया है, किन्तु अस्पष्ट रूप से, जैसे कि यह अति प्राचीन नाम हो। यह पिप्रु तथा कृष्णगर्भ आदि दैत्यों से युद्ध करने में इन्द्र की सहायता करता है। लुड्विग के अनुसार यह औशिज का पुत्र है, किन्तु यह सन्देहात्मक धारणा है। वह दो बार स्पष्ट रूप से वैदथिन अथवा विदयी का वंशज कहा गया है (ऋ० 4.16.13; 5.29.11)।

ऋजुकाम : कश्यप मुनि का एक पर्याय। इसका शब्दार्थ है, 'जिसकी कामना सरल हो।' ऋजुकामता एक धार्मिक गुण माना जाता है।

ऋजुविमला : पूर्वमीमांसा सूत्र पर लिखा हुआ व्याख्याग्रन्थ। इसका रचनाकाल 700 ई० के लगभग और रचनाकार हैं प्रभाकरशिष्य शालिकनाथ पण्डित।

ऋणमोचनतीर्थ : सहारनपुर-अम्बाला के बीच जगाधरी के समीप एक पुण्यस्थान। यहाँ भीष्मपञ्चमी को मेला लगता है। 'ऋणमोचन तीर्थ' नामक सरोवर है। इसमें स्नान करने के लिए दूर-दूर से यात्री आते हैं। यह सरोवर जंगल में है।

ऋत : स्वाभाविक व्यवस्था, भौतिक एवं आध्यात्मिक निश्चित दैवी नियम। यह विधि, जिसे 'ऋत' कहते हैं, अति प्राचीन काल में व्यवस्थित हुई थी। ऋत का पालन सभी देवता, प्रकृति आदि नियमपूर्वक करते हैं। ईरानी भाषा में यह नियम 1600 ई० पू० 'अर्त' के नाम से और अवेस्ता में 'अश' के नाम से पुकारा जाता था। ऋत की सभी शक्तियों को धारण करने वाला देवता वरुण है (ऋ० 5.85.7)। प्रकृति के सभी उपादान उसके विषय हैं एवं वह देखता है कि मनुष्य उसके नियमों का पालन करते हैं या नहीं। वह नैतिकों को पुरस्कार एवं अनैतिकों को दण्ड देता है। वरुण के अतिरिक्त अन्य देवताओं का भी ऋत से सम्बन्ध है। उसी के माध्यम से देवगण अपना कार्य नियमित रूप से करते हैं।

ऋत के तीन क्षेत्र हैं --(1) विश्वव्यवस्था, जिसके द्वारा ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड अपने क्षेत्र में नियमित रूप से कार्य करते हैं, (2) नैतिक नियम, जिसके अनुसार व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्ध का निर्वाह होता है। (3) कर्मकाण्डीय व्यवस्था, जिसके अन्तर्गत धार्मिक क्रियाओं के विधि-निषेध, कार्यपद्धति आदि आते हैं। दे० ऋग्वेद, 2. 24. 7-8-10; 7.86.1; 7.87.1-2। सृष्टि प्रक्रिया में बतलाया गया है कि तप से ऋत और सत्य उत्पन्न हुए; फिर इनसे क्रमश रात्रि, समुद्र, अर्णव, संवत्सर, सूर्य, चन्द्र आदि उत्पन्न हुए।

फसल कटने के बाद खेत में पड़ी हुई बालियों के दानों को चुनने वाली उञ्छवृत्ति को भी ऋत कहते हैं। मनुस्मृति (4.4.5) में कहा है :

ऋतामृताभ्यां जीवेतु मृतेन प्रमृतेन वा। सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्त्या कदाचन॥ ऋतमुञ्छशिलं, ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम्। मृतन्तु याचितं भैक्षं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्॥

[ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत, सत्य-अनृत, इनके द्वारा जीवन निर्वाह कर ले, किन्तु कुत्ते की वृत्ति (नौकरी आदि) से कभी भी जीवन-यापन न करे।

शिल-उच्छ को ऋत, भिक्षा न माँगने को अमृत, भीख माँगने को मृत, हल जोतने को प्रमृत कहा गया है।]

ऋतधामा : जिसका सत्य धाम (तेज) है; अग्नि, विष्णु, एक भावी इन्द्र। यजुर्वेद (5.32) में कथन है :

हव्यसूदन ऋतधामासि स्वर्ज्योतिः।'

ऋतधामा रुद्रसावर्णि मनु के काल में इन्द्र होगा; यह भागवत (8.13.28) में कहा गया है :

भविता रुद्रसावर्णिः राजन् द्वादशमो मनुः। ऋतधामा च देवेन्द्रो देवाश्च हरितादयः॥

ऋत्विक् (ऋत्विज्) : जो ऋतु में यज्ञ करता है, याज्ञिक, पुरोहित। मनु (2.143) में कथन है :

अग्न्याधेयं पाकयज्ञानग्निष्टोमादिकान्मखान्। यः करोति वृतो यस्य स तस्यर्त्विगिहोच्यते॥

[अग्नि की स्थापना, पाकयज्ञ, अग्निष्टोम आदि यज्ञ जो यजमान के लिए करता है वह उसका ऋत्विक् कहा जाता है।] उसके पर्याय हैं-- (1) याजक, (2) भरत, (3) कुरु, (4) वाग्यत, (5) वृक्तवर्हिष (6) यतश्रुच, (7) मरुत्, (8) सबाध और (9) देवयव।

यज्ञकार्य में योगदान करने वाले सभी पुरोहित ब्राह्मण होते हैं। पुरातन श्रौत यज्ञों में कार्य करने वालों की निश्चित संख्या सात होती थी। ऋग्वेद की एक पुरानी तालिका में इन्हें होता, पोता, नेष्टा, आग्नीध्र, प्रशास्ता, अध्वर्यु और ब्रह्मा कहा गया है। सातों में प्रधान 'होता' माना जाता था जो ऋचाओं का गान करता था। वह प्रारम्भिक काल में ऋचाओं की रचना भी (ऊह विधि से) करता था। अध्वर्यु सभी यज्ञकार्य (हाथ से किये जाने वाले) करता था। उसकी सहायता मुख्य रूप से आग्नीध्र करता था, ये ही दोनों छोटे यज्ञों को स्वतन्त्र रूप से कराते थे। प्रशास्ता जिसे उपवक्ता तथा मैत्रावरुण भी कहते हैं, केवल बड़े यज्ञों में भाग लेता था और होता को परामर्श देता था। कुछ प्रार्थनाएँ इसके अधीन होती थीं। पोता, नेष्टा एवं ब्रह्मा का सम्बन्ध सोमयज्ञों से था। बाद में ब्रह्मा को ब्राह्मणाच्छंसी कहने लगे जो यज्ञों में निरीक्षक का कार्य करने लगा।

ऋग्वेद में वर्णित दूसरे पुरोहित साम गान करते थे। उद्गाता तथा उसके सहायक प्रस्तोता एवं दूसरे सहायक प्रतिहर्ता के कार्य यज्ञों के परवर्ती काल की याद दिलाते हैं। ब्राह्मण काल में यज्ञों का रूप जब और भी विकसित एवं जटिल हुआ तब सोलह पुरोहित होने लगे, जिनमें नये ऋत्विक् थे अच्छावाक्, ग्रावस्तुत्, उन्नेता तथा सुब्रह्मण्य, जो औपचारिक तथा कार्यविधि के अनुसार चार-चार भागों में बटे हुए थे- होता, मैत्रावरुण, अच्छावाक्, तथा ग्रावस्तुत्; उद्गाता, प्रस्तोता, प्रतिहर्ता तथा सुब्रह्मण्य; अध्वर्यु, प्रतिस्थाता, नेष्टा तथा उन्नेता और ब्रह्मा, ब्राह्मणाच्छंसी, आग्नीध्र तथा पोता।

इनके अतिरिक्त एक पुरोहित और होता था जो राजा के सभी धार्मिक कर्तव्यों का आध्यात्मिक परामर्शदाता था। यह पुरोहित बड़े यज्ञों में ब्रह्मा का स्थान ग्रहण करता था तथा सभी याज्ञिक कार्यों का मुख्य निरीक्षक होता था। यह पुरोहित प्रारंभिक काल में होता होता था तथा सर्वप्रथम मन्त्रों का गान करता था। पश्चात् यही ब्रह्मा का स्थान लेकर यज्ञनिरीक्षक का कार्य करने लगा।

ऋतुमती : ऋतुचक्र स्त्री। उसके पर्याय हैं (1) रजस्वला, (2) स्त्रीधर्मिणी, (3) अवी, (4) आत्रेयी, (5) मलिनी, (6) पुष्पवती और (7) उदक्या। धर्मशास्त्र में ऋतुमती के कर्तव्यों का वर्णन है। उसे इस काल में सब कार्यों से अलग होकर एकान्त में रहना चाहिए। पति के लिए भी यह नियम है कि वह प्रथम चार दिन पत्नी का स्पर्श न करे। पत्नी का यह कर्तव्य है कि वह स्नान के पश्चात् पति की कामना करे। पति के लिए ऋतुकाल के चार दिन बाद पत्नी के पास जाना अनिवार्य है :

ऋतुस्नातां तु यो भार्यां सन्निधौ नोपगच्छति। घोरायां ब्रह्महत्यायां युज्यते नात्र संशयः॥, (मनु० 4.15)

ऋतुस्नान : रजस्वला स्त्री का चौथे दिन किया जाने वाला स्नान। इस स्नान के पश्चात् पति का मुख देखना चाहिए। पति के समीप न होने पर पति का मन में ध्यान करके सूर्य का दर्शन कर लेना चाहिए ऐसा धर्मशास्त्र में विधान है।

ऋतुव्रत : हेमाद्रि, व्रतखण्ड (2.858-861) में पाँच ऋतुव्रतों का उल्लेख है जिनका निर्देश यथा स्थान कियां गया है।

ऋभु : उच्च देव, वायुस्थानीय देवगण। ऋग्वेद (9.21.6) में कथन है :

ऋभुर्न रथ्यं नवं दधतो केतुमादिशे।'

महाभारत के वनपर्व में ऋभुओं को देवताओं का भी देवता कहा गया है :

ऋभवो नाम तत्रान्ये देवानामपि देवताः। तेषां लोकाः परतरे यान्यजन्तीह देवताः॥

[ऋभु देवताओं के भी देव हैं। उनके लोक बहुत परे हैं, जिनके लिए यहाँ देवता लोग यज्ञ करते हैं।]

ऋष्यशृङ्ग : विभाण्डक ऋषि के पुत्र, एक ऋषि। उनकी पत्नी राजा लोमपाद की कन्या शान्ता थी।

वीर शैव या लिङ्गायतों के ऋष्यशृंङ्ग नामक एक प्राचीन आचार्य भी थे।

ऋषभध्वज : शिव का एक पर्याय, उनकी ध्वजा में ऋषभ (बैल) का चिह्न रहता है।

ऋषि : वेद; ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता; परोक्षदर्शी, दिव्य दृष्टि वाला। जो ज्ञान के द्वारा मन्त्रों को अथवा संसार की चरम सीमा को देखता है वह ऋषि कहलाता है। उसके सात प्रकार हैं-- (1) व्यास आदि महर्षि, (2) भेल आदि परमर्षि, (3) कण्व आदि देवर्षि, (4) वसिष्ठ आदि ब्रह्मर्षि, (5) सुश्रुत आदि श्रुतर्षि, (6) ऋतुपर्ण आदि राजर्षि, (7) जैमिनि आदि काण्डर्षि। रत्नकोष में भी कहा गया है:

सप्त ब्रह्मर्षि-देवर्षि-महर्षि-परमर्षयः। काण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावराः॥

[ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि, राजर्षि ये सातों क्रम से अवर हैं।]

सामान्यतः वेदों की ऋचाओं का साक्षात्कार करने वाले लोग ऋषि कहे जाते थे (ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः)। ऋग्वेद में प्रायः पूर्ववर्ती गायकों एवं समकालीन ऋषियों का उल्लेख है। प्राचीन रचनाओं को उत्तराधिकार में प्राप्त किया जाता था एवं ऋषिपरिवारों द्वारा उनको नया रूप दिया जाता था। ब्राह्मणों के समय तक ऋचाओं की रचना होती रही। ऋषि, ब्राह्मणों में सबसे उच्च एवं आदरणीय थे तथा उनकी कुशलता की तुलना प्रायः त्वष्टा से की गयी है जो स्वर्ग से उतरे माने जाते थे। निस्सन्देह ऋषि वैदिककालीन कुलों, राजसभाओं तथा सम्भ्रान्त लोगों से सम्बन्धित होते थे। कुछ राजकुमार भी समय-समय पर ऋचाओं की रचना करते थे, उन्हे राजन्यर्षि कहते थे। आजकल उसका शुद्ध रूप राजर्षि है। साधारण मन्त्र या काव्यरचना ब्राह्मणों का ही कार्य था। मन्त्र रचना के क्षेत्र में कुछ महिलाओं ने भी ऋषिपद प्राप्त किया था।

परवर्ती साहित्य में ऋषि ऋचाओं के साक्षात्कार करने वाले माने गये हैं, जिनका संग्रह संहिताओं में हुआ। प्रत्येक वैदिक सूक्त के उल्लेख के साथ एक ऋषि का नाम आता है। ऋषिगण पवित्र पूर्व काल के प्रतिनिधि हैं तथा साधु माने गये हैं। उनके कार्यों को देवताओं के कार्य के तुल्य माना गया है। ऋग्वेद में कई स्थानों पर उन्हें सात के दल में उल्लिखित किया गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् में उनके नाम गोतम, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ, कश्यप एवं अत्रि बताये गये हैं। ऋग्वेद में कुत्स, अत्रि, रेभ, अगस्त्य, कुशिक्, वसिष्ठ, व्यश्व तथा अन्य नाम ऋषिरूप में आते हैं। अथर्ववेद में और भी बड़ी तालिका है, जिसमें अङ्गिरा, अगस्ति, जमदग्नि, अत्रि, कश्यप , वसिष्ठ, भरद्वाज, गविष्ठिर, विश्वामित्र, कुत्स, कक्षीवन्त, कण्व, मेधातिथि, त्रिशोक, उशना काव्य, गोतम तथा मुद्गल के नाम सम्मिलित हैं।

वैदिक काल में कवियों की प्रतियोगिता का भी प्रचलन था। अश्वमेघ यज्ञ के एक मुख्य अङ्ग 'ब्रह्मोद्य' (समस्या पूर्ति) का यह एक अङ्ग था। उपनिषद्-काल में भी यह प्रतियोगिता प्रचलित रही। इस कार्य में सबसे प्रसिद्ध थे याज्ञवल्क्य जो विदेह राजा जनक की राजसभा में रहते थे।

ऋषिगण त्रिकालज्ञ माने गये हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये साहित्य को आर्षेय कहा जाता है। यह विश्वास है कि कलियुग में ऋषि नहीं होते, अतः इस युग में न तो नयी श्रुति का साक्षात्कार हो सकता है और न नयी स्मृतियों की रचना। उनकी रचनाओं का केवल अनुवाद, भाष्य और टीका ही सम्भव हैं।

ऋषिकुल्या : एक पवित्र नदी। महाभारत (तीर्थयात्रा पर्व, 3.84.46) में इसका उल्लेख है :

ऋषिकुल्यां समासाद्य नरः स्नात्वा विकल्मषः। देवान् पितृन् चार्चियित्वा ऋषिलोक प्रपद्यते॥

[मनुष्य ऋषिकुल्या नदी में स्नान कर पापरहित होकर तथा देवताओं और पितरों का पूजन करके ऋषिलोक को प्राप्त होता है।]

ऋषिकेश : दे० 'हृषीकेश'।

ऋषिपञ्चमी व्रत : ब्रह्माण्डपुराण के अनुसार ऋषिपञ्चमी का वर्णन करते हुए हेमाद्रि कहते हैं कि यह व्रत भाद्र शुक्ल पञ्चमी को मनाया जाता है। यह सभी वर्णों के लिए है, किन्तु प्रायः स्त्रियाँ ही यह व्रत वर्ष भर की अपवित्रता एवं छूत के प्रायश्चित्‍तार्थ करती हैं। नदी के स्नानोपरान्त व्रत करने वाले को दैनिक कर्त्तव्यों से मुक्त हो अग्निहोत्रमण्डप में आना चाहिए, वहाँ सप्तर्षियों की कुश से बनी मूर्ति को पञ्चामृत में नहलाना चाहिए, फिर उन्हें चन्दन तथा कपूर लगाना चाहिए। उनकी पूजा फूल, सुगन्धित पदार्थ, धूप, दीप, श्वेतवस्त्र, यज्ञोपवीत, नैवेद्य से करके अर्घ्‍य देना चाहिए। इस व्रत को करने से सभी पापों से मुक्ति, तीनों प्रकार की बाधाओं से त्राण तथा भाग्योदय होता है। इस व्रत को करनेवाली स्त्री आनन्दोपभोग व सुन्दर शरीर, पुत्र, पौत्र आदि प्राप्त करती है।

ऋष्यमूक पर्वत : रामायण की घटनाओं से सम्बद्ध दक्षिण भारत का पवित्र गिरि। विरूपाक्ष मन्दिर के पास से ऋष्यमूक तक मार्ग जाता है। यहाँ तुङ्गभद्रा नदी धनुषाकार बहती है। नदी में चक्रतीर्थ माना जाता है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराममन्दिर है। पास की पहाड़ी को 'मतङ्ग पर्वत' मानते हैं। इसी पर्वत पर मतङ्ग ऋषि का आश्रम था। पास ही चित्रकूट और जालेन्द्र नाम के शिखर हैं। यही तुङ्गभद्रा के उस पार दुन्दुभि पर्वत दीख पड़ता है, जिसके सहारे सुग्रीव ने श्री राम के बल की परीक्षा करायी थी। इन स्थानों में स्नान-ध्यान करने का विशेष महत्त्व है।

 : स्वर वर्ण का अष्टम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य निम्नांकित है :

ॠकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डलम्। पीतविद्युल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा॥ चतुर्ज्ञानमय वर्णं पञ्चप्राणयुतं सदा। त्रिशक्तिसंहितं वर्णं प्रणमामि सदा प्रिये॥

वर्णोद्धारतन्त्र में इसके नाम इस प्रकार हैं :

ॠः क्रोधोऽतिथिशो वाणी वामनो गोऽथ शीर्धतिः। ऊर्ध्वमुखी निशानाथः पद्ममाला विनवृधीः॥ शशिनी मोचिका श्रेष्ठा दैत्यमाता प्रतिष्ठिता। एकदन्ताह्वयो माता हरिता मिथुनोदया॥ कोमलः श्यामला मेधी प्रतिष्ठा पतिरष्टमी। ब्रह्मण्यमिव कीलाले पादको गन्धकर्षिणी॥

लृ : स्वर वर्ण का नवम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसकी तान्त्रिक महिमा इस प्रकार है :

ॡकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डली परदेवता। अत्र ब्रह्मादयः सर्वे तिष्ठन्ति सततं प्रिये॥ ब्रह्मदेवमयं वर्णं चतुर्ज्ञानमयं सदा। पञ्चप्राणयुतं वर्णं तथा गुणत्रयात्मकम्॥ बिन्दुत्रयात्मकं वर्णं पीतविद्युल्लता तथा॥

तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नलिखित नाम बतलाये गये हैं :

ॡः स्थाणुः श्रीधरः शुद्धो मेधा धूम्रावको वियत्। देवयोनिर्दक्षगण्डो महेशः कौन्तरुद्रकौ॥ विश्वेश्वरो दीर्घजिह्वा महेन्‍द्रो लाङ्गलिः परा। चन्द्रिका पार्थिवो धूम्रा द्विदन्तः कामवर्द्धनः॥ शुचिस्मिता च नवमी कान्तिरायतकेश्वरः। चित्ताकर्षिणी काशश्च तृतीयकुलसुन्दरी॥

लृ : देवमाता का एक पर्याय (मेदिनीकोश)।

लृ : स्वरवर्ण का दशम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य निम्नांकित है :

ॡकारं परमेशानि पूर्णचन्द्र समप्रभम्। पञ्चदेवात्मकं वर्णं पञ्चप्राणात्‍मकं सदा॥ गुणत्रयात्मकं वर्णं तथा बिन्दुत्रयात्मकम्। चतुर्वर्गप्रदं देवि स्वयं परम कुण्डली॥

तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नलिखित नाम पाये जाते हैं :

ॡकारः कमला हर्षा हृषीकेशो मधुव्रतः। सूक्ष्मा कान्तिर्वामगण्‍डो रुद्रा कामोदरी सुरा॥ शान्तिकृत् स्वस्तिका शक्रो मायावी लोलुपो वियत्। कुशमी सुस्थिरो माता नीलपीतो गजाननः॥ कामिनी विश्वपा कालो नित्या शुद्धः शुचिः कृति। सूर्यो धैर्योत्कर्षिणी च एकाकी दनुजप्रसूः॥

 : देवनागरी (मेदिनीकोश); दैत्यसंत्री, दनुजमाता, कामधेनुमाता। शर्व, महादेव। इन एकाक्षर शब्दों का तान्त्रिक क्रियाओं में उपयोग होता है।]

 : स्वरवर्ण का एकादश अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका धार्मिक माहात्म्य वर्णित है :

एकारं परमं दिव्यं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम्। रञ्जिनी कुसुमप्रख्यं पञ्चदेवमयं सदा॥ पञ्चप्राणात्मकं वर्णं तथा बिन्दुप्रयात्पकम्। चतुर्वर्गप्रदं देवि स्वयं परमकुण्डली॥ तन्त्रशास्त्र में एकार के कई नाम दिये हुए हैं:, एकारो वास्तवः शक्तिर्झिण्टी सोष्ठो भगं मरुत्। सूक्ष्मा भूतोर्जकेशी च ज्योत्सना श्रद्धा प्रमर्दनः॥ भयं ज्ञानं कृशा धीरा जङ्घा सर्वसमुद्भवः। वह्निर्विष्णुर्भगवती कुण्डली मोहिनी रुरुः॥ योषिदाधारशक्तिश्च त्रिकोणा ईशसंज्ञकः। सन्धिरेकादशी भद्रा पद्मनाभः कुलाचलः.।

एककुण्डल : जिसके कान में एक ही कुण्डल है; बलराम। मेदिनीकोश के अनुसार यह कुबेर का भी पर्याय है।

एकचक्र : एक नगरी, इसके पर्याय हैं --हरिगृह, शुम्भपुरी। सूर्य का रथ, असहायचारी। ऋग्वेद (1.164.2) में कथन है :

सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्रमेकोऽश्वो वहति सप्तनामा। त्रिनाभिचक्रमजरमनर्वं यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः॥

एक राजा। हरिवंश (3.84) में कहा गया है :

एकचक्रो महाबाहुमहाबाहुस्‍तारकश्‍च महाबल:। इस नाम का एक असुर भी था: एकचक्र इति ख्यात आसीद् यस्तु महासुरः। प्रतिविन्ध्य इति ख्यातो बभूव प्रथितः क्षितौ॥

[जो एकचक्र नाम का महान् असुर था, वह 'प्रति विन्ध्य' नाम से पृथ्वी में विख्यात हुआ।]

एकजन्मा : शूद्र; द्विजातिभिन्न; जिसका दूसरा जन्म नहीं हो। जब मनुष्य का दूसरा जन्म (उपनयन संस्कार) होता है तब वह द्विज अर्थात् द्विजन्मा होता है। शूद्र का यह संस्कार नहीं होता।

एकतीर्थी : जिसका समान तीर्थ (गुरू) हो, सतीर्थ्य, सहपाठी, गुरुभाई। धर्मशास्त्र में एकतीर्थी होने के अधिकारों और दायित्वों का वर्णन है।

एकदन्त : जिसके एक दाँत हो, गणेश। परशुराम के द्वारा इनके उखाड़े गये दाँत की कथा ब्रह्मवैवर्तपुराण में इस प्रकार है-- एक समय एकान्त में बैठे हुए शिव-पार्वती के द्वारपाल गणेशजी थे। उसी समय उनके दर्शन के लिए परशुराम आये। शिवदर्शन के लिए लालायित होने पर भी गणशजी ने उन्हें भीतर नहीं जाने दिया। इस पर गणेशजी के साथ उनका तुमुल युद्ध हुआ। परशुराम के द्वारा फेंके गये परशु से गणेशजी का एक दाँत टूट गया। उस समय से गणेशजी एकदन्त कहलाने लगे।

एकदण्डी : शङ्कराचार्य द्वारा स्थापित दसनामी संन्यासियों में से प्रथम तीन (तीर्थ आश्रम एवं सरस्वती) विशेष सम्मान्य माने जाते हैं। इनमें केवल ब्राह्मण ही सम्मिलित हो सकते हैं। शेष सात वर्गों में अन्य वर्णों के लोग भी आ सकते हैं, किन्तु दण्ड धारण करने के अधिकारी ब्राह्मण ही हैं। इसका दीक्षाव्रत इतना कठिन होता है कि बहुत से लोग दण्ड के बिना ही रहना पसन्द करते हैं। इन्हीं संन्यासियों को 'एकदण्डी' कहते हैं। इसके विरुद्ध श्रीवैष्णव संन्यासी (जिनमें केवल ब्राह्मण ही सम्मिलित होते हैं) त्रिदण्ड धारण करते हैं। दोनों सम्प्रदायों में अन्तर स्पष्ट करने के लिए इन्हें 'एकदण्डी' तथा 'त्रिदण्डी' नामों से पुकारते हैं।

एकदंष्ट्र : दे० 'एकदन्त'।

एकनाथ : मध्ययुगीन भारतीय सन्तों में एकनाथ का नाम बहुत प्रसिद्ध है। महाराष्ट्रीय उच्च भक्तों में नामदेव के पश्चात् दूसरा नाम एकनाथ का ही आता है। इनकी मृत्यु 1608 ई० में हुई। ये वर्ण से ब्राह्मण थे तथा पैठन में रहते थे। इन्होंने जातिप्रथा के विरुद्ध आवाज उठायी तथा अनुपम साहस के कारण कष्ट भी सहा। इनकी प्रसिद्धि भागवतपुराण के मराठी कविता में अनुवाद के कारण हुई। इसके कुछ भाग पंढरपुर के मन्दिर में संकीर्तन के समय गाये जाते हैं। इन्होंने 'हरिपद' नामक छब्बीस अभंगों का एक संग्रह भी रचा। दार्शनिक दृष्टि से ये अद्वैतवादी थे।

एकनाथी भागवत : एकनाथजी द्वारा भागवतपुराण का मराठी भाषा में रचा गया छन्दोबद्ध रूपान्तर। यह अपनी भावपूर्ण अभिव्यक्ति, रहस्य भेदन तथा हृदयग्राहकता के लिए प्रसिद्ध है।

एकपाद : एक प्रकार का व्रत। योग के अनेक आत्मशोधक तथा मन को बाह्य वस्तुओं से हटाकर एकाग्र करने के साधनों में से यह भी एक शारीरिक क्रिया है। इसमें लम्बी अवधि (कई सप्ताह) तक एक पाँव पर खड़े रहने का विधान है।

एकपिङ्ग : यक्षराज कुबेर। उनके पिङ्गल नेत्र की कथा स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में कही गयी है।

एकभक्त व्रत : जिसमें एक बार भोजन का विधान हो उसको एकभक्त व्रत कहते हैं। रात्रि में भोजन न करके केवल दिन में भोजन करना भी एकभक्त कहलाता है। स्कन्दपुराण में लिखा है :

दिनार्धसमयेऽतीते भुज्यते नियमेन यत्। एकभक्तमिति प्रोक्तं रात्रौ तन्न कदाचन॥

[दिन का आधा समय व्यतीत हो जाने पर नियम से जो भोजन किया जाय उसे एक भक्त कहा जाता है। वह भोजन रात्रि में पुनः नहीं होता।] इस व्रत का नियम और फल विष्णुधर्मोत्तर में कहा गया है।

एकलिङ्ग : एक ही देवमूर्ति वाला स्थान। यह शिव का पर्याय है। आगम में लिखा है :

पञ्चक्रोशान्तरे यत्र न लिङ्गान्तरमीक्ष्यते। तदेकलिङ्गमाख्यातं तत्र सिद्धरनुत्तमा॥

[पाँच कोश के भीतर जहाँ पर एक ही लिङ्ग हो दूसरा न हो, उसे एकलिङ्ग स्थान कहा गया है। वहाँ तप करने से उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है।]

एकलिङ्गजी : राजस्थान का प्रसिद्ध शैव तीर्थस्थान उदयपुर से नाथद्वारा जाते समय मार्ग में हल्दीघाटी और एकलिङ्गजी का मन्दिर पड़ता है। उदयपुर से यह 12 मील है। एकलिङ्गजी की मूर्ति में चारों ओर मुख हैं अर्थात् यह चतुर्मुख लिङ्ग है। एकलिङ्गजी मेवाड़ के महाराणाओं के आराध्य देव हैं। पास में इन्द्रसागर नामक सरोवर है। आस-पास में गणेश, लक्ष्मी, डुटेश्वर धारेश्वर आदि कई देवताओं के मन्दिर हैं। पास में ही वनवासिनी देवी का मन्दिर भी है।

एकश्रृङ्ग : विष्णु के अवतार मत्स्य का एक सींग होने के कारण उसको एकश्रृंङ्ग कहते हैं। स्वायम्भुव मन्वन्तर में असमय में ही प्रलय हो जाने के कारण मत्स्यरूप धारण करनेवाले विष्णु के सींग में मनु ने नाव बाँधी थी। दे० कालिका पुराण, अ० 32 दे०।

एका अद्वितीया, दुर्गा : : एकागुणार्था त्रैलोक्ये तस्मादेका च सोच्यते।

(समस्त गुणों की तीनों लोकों में वह एक ही मूर्ति है, इसलिए उसे `एका` कहते हैं।)

मार्कण्डेय पुराण (90.7) में कथन है :

एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा।

[इस संसार में मै एक ही हूँ; मुझसे अतिरिक्त और दूसरा कोई नहीं है।]

एकाक्षरोपनिषद् : यह परवर्ती उपनिषद् है। इसमें अद्वैत अक्षर तत्त्व का निरूपण किया गया है।

एकादशी : प्रसिद्ध एवं पवित्र तिथि। यह शुक्ल पक्ष में सूर्यमण्डल में चन्द्रमण्डल की प्रवेश रूप एकादश कला-क्रिया है। इसके पर्याय हैं- (1) हरिवासर, (2) हरिदिन। इस दिन अन्न त्याग, व्रत, उपवास आदि किये जाते हैं। वैष्णवों के लिए इसका विशेष महत्त्व है।

एकादशीव्रत : सभी वैष्णव तथा बहुत से अन्य सम्प्रदाय वाले हिन्दू भी प्रत्येक एकादशी का व्रत करते हैं। इसका माहात्म्य प्रसिद्ध है। वैसे तो सभी मासों की एकादशी पवित्र है, किन्तु कार्तिक शुक्ल एकादशी का विशेष महत्त्व है। इसको प्रबोधनी एकादशी कहते हैं। इसी दिन विष्णु अपनी निद्रा से जागते हैं। दे० 'प्रबोधिनी एकादशी'। इसका पारमार्थिक भाव है अन्नत्याग के समान ही एकादश इन्द्रियों के विषयों-संसारी वस्तुओं का त्यागरूप एकादशी-व्रत।

एकानङ्गापूजा : इस व्रत का अनङ्ग (कामदेव) से सम्बन्ध है। कार्तिक शुक्ल 4, 8, 9 अथवा चतुर्दशी को महिलाएँ किसी फलदार वृक्ष के नीचे एकानङ्गा का पूजन करें। तत्पश्चात् बाज अथवा अन्य किसी पक्षी से कहें कि उनके उत्तम खाद्य तथा नैवेद्य में से वह चोंच भरकर भगवती के पास कुछ थोड़ा-सा नैवेद्य ले जाये। उस दिन पत्नी गति से पूर्व ही भोजन कर ले। तदनन्तर वह पति को भोजन कराये। दे० कृत्यरत्नाकर, 413-414 (ब्रह्मपुराण से उद्धृत)। सम्भवतः एका-अनङ्गा देवी का व्रत पति के आकर्षण अथवा वशीकरण के लिए किया जाता है।

एकान्तरहस्य : वल्लभाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ। इसमें सम्पूर्ण प्रपत्तियोग पर आधारित पुष्टिमार्ग के सिद्धान्तों का निरूपण किया गया है।

एकान्तद रामाय्य (एकान्त रामाचार्य) : आलोचक विद्वानों के अनुसार वीरशैव मत के संस्थापक वसव कहे जाते हैं, जो कलचुरी राजा बिज्जल के प्रधान मंत्री थे। बिज्जल 1156 ई० में कल्याण में राज्य करता था। किन्तु डा०फ्लीट का मत है कि अब्लुर के एकान्तद रामाय्य ही वीरशैव मत के प्रवर्तक थे, जिनका चरित्र एक प्राचीन अभिलेख में प्राप्त है। वे पूर्णतया धर्मपरायण थे, जबकि बसव को राजनीतिक एवं सैनिक जीवन में भी लिप्त रहना पड़ता था। 'एकान्तद रामाय्य' का संस्कृत रूप 'एकान्त रामार्य्य' अथवा 'एकान्त रामाचार्य' है।

एकान्न : एकभक्त व्रत, अर्थात् एक बार ही भोजन करने का व्रत। ऐसा व्रत जिसमें एक ही अन्न खाया जाय। स्कन्द पुराण के काशीखण्ड में कथन है :

ऊर्ज्जे यवान्नमश्नीयादेकान्नमथवा पुनः।

[कार्तिक मास में एक अन्न अथवा जौ खाना चाहिए।] कई रसोंवाली भोज्य वस्तुओं को एकमएक मिला देना भी एकान्न है। संन्यासियों के लिए ऐसे स्वादरहित भोजन करने का नियम है। गांधीजी का 'अस्वादव्रत' यही है।

एकान्ती : एक मात्र परमात्मा पर अवलम्बित रहने वाला। इस प्रकार के भक्त का अटल विश्वास होता है कि परमेश्वर की पूजा-भक्ति ही केवल मोक्ष का मार्ग है। अतएव ईश्वर तथा उसके अवतारों की ही भक्ति एवं पूजा होनी चाहिए। इस प्रकार यह सम्प्रदाय एकेश्वरवादी है। भागवत साहित्य बार-बार इस बात पर जोर देता है कि सच्चा विश्वासी 'एकान्ती' ही होगा और वह केवल एक ईश्वर की आराधना करेगा।

गरुडपुराण के 131 वें अध्याय में लिखा है :

एकान्तेनासमो विष्णुर्यस्मादेषां परायणः। तस्मादेकान्तिनः प्रोक्तास्तद्भावगतचेतसः॥

[क्योंकि ये एकान्त भाव से महान् विष्णु की भक्ति करते हैं, अतः इन्हें एकान्ती कहा गया है। इनका मन भगवान् की ओर ही रहता है।]

एकायन : मुख्य आश्रय, एक मात्र गन्तव्य मार्ग, एकनिश्चय। छान्दोग्य उपनिषद् में उद्धृत अध्ययन का एक विषय; संभवतः नीतिशास्त्र। सेंट पीटर्सवर्ग डिक्शनरी में इसका अर्थ 'ऐक्य का सिद्धान्त' अर्थात् 'एकेश्वरवाद' बतलाया गया है। मैक्समूलर इसका अर्थ 'आचरण शास्त्र' तथा मोनियर विलियम अपने शब्दकोश में 'सांसारिक ज्ञान' बतलाते हैं।

एकाष्टका : अथर्ववेद (15.16.2; शतपथ ब्राह्मण 6, 2, 23; 4, 2,10) के अनुसार पूर्णमासी के पश्चात् अष्टम दिन एकाष्टका कहलाता है। एकाष्टका या अष्टका का अर्थ सभी अष्टमी नहीं, अपितु कोई विशेष अष्टमी प्रतीत होता है। अथर्व० (3.10) में सायण ने एकाष्टका को माघ मास का कृष्णपक्षीय अष्टम दिन बतलाया है। तैत्तिरीय संहिता में यह दिन उन लोगों की दीक्षा के लिए निश्चित किया गया है, जो एक वर्ष की अवधि का कोई यज्ञ करने जा रहे हों।

एकेश्वरवाद : बहुत-से देवताओं की अपेक्षा एक ही ईश्वर को मानना। इस धार्मिक अथवा दार्शनिक वाद के अनुसार कोई एक सत्ता है जो विश्व का सर्जन और नियन्त्रण करती है; जो नित्य ज्ञान और आनन्द का आश्रय है; जो पूर्ण और सभी गुणों का आगार है और जो सबका ध्यानकेन्द्र और आराध्य है। यद्यपि विश्व के मूल में रहने वाली सत्ता के विषय में कई भारतीय वाद हैं, जिनमें एकत्ववाद और अद्वैतवाद बहुत प्रसिद्ध हैं, तथापि एकेश्वरवाद का उदय भारत में, ऋग्वेदिक काल से ही पाया जाता है। अधिकांश यूरोपवासी प्राच्यविद्, जो भारतीय दैवततत्‍त्व को समझने में असमर्थ हैं और जिनको एक-अनेक में बराबर विरोध ही दिखाई पड़ता है, ऋग्वेद के सिद्धान्त को बहुदेववादी मानते हैं। भारतीय विचारधारा के अनुसार विविध देवता एक ही देव के विविध रूप हैं। अतः चाहे जिस देव की उपासना की जाय वह अन्त में जाकर एक ही देव को अर्पित होती है। ऋग्वेद में वरुण, इन्द्र, विष्णु, विराट् पुरुष, प्रजापति आदि का यही रहस्य बतलाया गया है।

उपनिषदों में अद्वैतवाद के रूप में एकेश्वरवाद का वर्णन पाया जाता है। उपनिषदों का सगुण ब्रह्म ही ईश्वर है, यद्यपि उसकी सत्ता व्यावहारिक मानी गयी है, पारमार्थिक नहीं। महाभारत में (विशेष कर भगवद्गीता में) ईश्वरवाद का सुन्दर विवेचन पाया जाता है। षड्दर्शनों में न्याय, वैशेषिक, योग और वेदान्त एकेश्वरसिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। पुराणों में तो ईश्वर के अस्तित्व का ही नहीं, किन्तु उसकी भक्ति, साधना और पूजा का अपरिमित विकास हुआ। विशेषकर विष्णुपुराण और श्रीमद्भागवतपुराण ईश्वरवाद के प्रबल पुरस्कर्ता हैं। वैष्णव, शैव तथा शाक्त सम्प्रदायों में भी एकेश्वरवाद की प्रधानता रही है। इस प्रकार ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक भारत में एकेश्वरवाद प्रतिष्ठित है।

व्यावहारिक जीवन में एकेश्वरवाद की प्रधानता होते हुए भी पारमार्थिक और आध्यात्मिक अनुभूति की दृष्टि से इसका पर्यवसान अद्वैतवाद में होता है-- अद्वैतवाद अर्थात् मानव के व्यक्तित्व का विश्वात्मा में पूर्ण विलय। जागतिक सम्बन्ध से एकेश्वरवाद के कई रूप हैं। एक है सर्वेश्वरवाद। इसका अर्थ यह है कि जगत् में जो कुछ भी है वह ईश्वर ही है और ईश्वर सम्पूर्ण जगत् में ओत-प्रोत है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में सर्वेश्वरवाद का रूपक के माध्यम से विशद वर्णन है। उपनिषदों में 'सर्व खल्विंद ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन।' में भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन है। परन्तु भारतीय सर्वेश्वरवाद पाश्चात्य 'पैनथिइज्म' नहीं है। पैनथिइज्म में ईश्वर अपने को जगत् में समाप्त कर देता है। भारतीय सर्वेश्वर जगत् को अपने एक अंश से व्याप्त कर अनन्त विस्तार में उसका अतिरेक कर जाता है। वह अन्तर्यामी और अतिरेकी दोनों है। एकेश्वरवाद का दूसरा रूप है 'ईश्वर कारणतावाद'। इसके अनुसार ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है। जगत् का उपादन कारण प्रकृति है। ईश्वर जगत् की सृष्टि करके उससे अलग हो जाता है और जगत् अपनी कर्मश्रृंङ्खला से चलता रहता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन इसी मत को मानते हैं। एकेश्वरवाद का तीसरा रूप है ‘शुद्ध ईश्वरवाद’। इसके अनुसार ईश्वर सर्वेश्वर और ब्रह्म के स्वरूप को भी अपने में आत्मसात् कर लेता है। वह सर्वत्र व्याप्त, अन्तर्यामी तथा अतिरेकी और जगत् का कर्ता, धर्ता, संहर्ता, जगत् का सर्वस्व और आराध्य है। इसी को श्रीमदभगवदगीता में पुरुषोत्तम कहा गया है। सगुणोपासक वैष्णव तथा शैव भक्त इसी ईश्वरवाद में विश्वास करते हैं। एकेश्वरवाद का चौथा रूप है ‘योगेश्वरवाद’। इसके अनुसार ईश्वर वह पुरुष है जो कर्म, कर्मफल तथा कर्माशय (कर्मफल के संस्कार) से मुक्त रहता है; उसमें ऐश्वर्य और ज्ञान की पराकाष्ठा होती है, जो मानव का आदि गुरु और गुरुओं का भी गुरु है। दे० पातञ्जल योगसूत्र, 1.24। योगसूत्र की भोजवृत्ति (2.45) के अनुसार ईश्वर योगियों का सहायक है। उनकी साधना के मार्ग में जो विघ्‍न बाधा उपस्थित होती है उन्हें वह दूर करता है और उनकी समाधि सिद्धि में सहायता करता है। तारक ज्ञान का वही दाता है। परन्तु इस वाद में ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं और न प्रकृति और पुरुषों में सर्वत्र व्याप्त; वह केवल उपदेष्टा और गुरु है।

एकेश्वरवाद् में ईश्वरकारणतावाद (ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है) के समर्थन में नैयायिकों ने बहुत से प्रमाण प्रस्‍तुत किये हैं। उदयनाचार्य ने जो प्रमाण दिये हैं, उनमें तीन मुख्य हैं—प्रथम है, ‘जगत् की कार्यता।’ इसका अर्थ यह है कि जगत् कार्य है अतः इसका कोई न कोई कारण होना चाहिए और उसे कार्य-कारण-श्रृंङ्खला से परे होना चाहिए। वह है ईश्वर। दूसरा प्रमाण है ‘जगत् का आयोजनत्व’, अर्थात् जगत् के सम्पूर्ण कार्यों में एक क्रम अथवा योजना दिखाई पड़ती है। यह योजना जड़ से नहीं उत्पन्न हो सकती। इसकी संयोजक कोई चेतन सत्ता ही होनी चाहिए। वह सत्ता ईश्वर के अतिरिक्त दूसरी नहीं हो सकती। तीसरा प्रमाण है ‘कर्म और कर्मफल का सम्बन्ध’, अर्थात् दोनों में एक प्रकार का नैतिक सम्बन्ध। इस नैतिक सम्बन्ध का कोई विधायक होना चाहिए। एक स्थायी नियन्ता की कल्पना के विना इस व्यवस्था का निर्वाह नहीं हो सकता। यह नियन्ता ईश्वर ही हो सकता है। योगसूत्र में ईश्वर की सिद्धि के लिए एक और प्रमाण मिलता है। वह है सृष्टि में ज्ञान का तारतम्य (अनेक प्रमाणियों में ज्ञान न्यूनाधिक मात्रा)। इस ज्ञान की कहीं न कहीं पराकाष्ठा होनी चाहिए। वह ईश्वर में ही संभव है। सबसे बड़ा प्रमाण है सन्त और महात्माओं, ऋषि-मुनियों का साक्षात् अनुभव, जिन्होंने स्वतः ईश्वरानुभूति की है।

एकोद्दिष्ट श्राद्ध : एक मृत व्यक्ति की शान्ति और तृप्ति के लिए किया गया श्राद्ध। यह परिवार के पितरों के वार्षिक श्राद्ध से भिन्न है। किसी व्यक्ति के दुर्दशाग्रस्त होकर मरने, डूबकर मरने, बूरे दिन पर मरने, मूलतः हिन्दू पर बाद में मुसलमान या ईसाई हो जाने वाले एवं जाति बहिष्कृत की मृत्यु पर 'नारायणबलि' नामक कर्म करते हैं। यह भी एकोद्दिष्ट का ही रूप है।

इसके अन्तर्गत शालग्राममूर्ति की विशेष पूजा के साथ बीच-बीच में प्रेत का भी संस्कार किया जाता है। यह श्राद्धकर्म समस्त भारत में सनातन हिन्दू धर्मावलम्बियों में सामान्य अन्तर के साथ प्रचलित है।

एकोराम : वीरशैव मत के संस्थापकों में से एक आचार्य। वीरशैव मत को लिंगायत वा जंगम भी कहते हैं। इसके संस्थापक पाँच संन्यासी माने जाते हैं, जो शिव के पाँच सिरों से उत्पन्न दिव्य रूपधारी माने गये हैं। कहा जाता है कि पाँच संन्यासी अतिप्राचीन युग में प्रकट हुए थे, बाद में वसव ने उनके मत को पुनर्जीवन दिया। किन्तु प्राचीन साहित्य के पर्यालोचन से पता चलता है कि ये लोग वसव के समकालीन अथवा कुछ आगे तथा कुछ पीछे के समय के हैं। ये पाँचों महात्मा वीरशैव मत से सम्बन्ध रखने वाले पाँच मठों के महन्त थे। एकोराम भी उन्हीं में से एक थे और ये केदारनाथ (हिमालय) मठ के अध्यक्ष थे।

एकोरामाराध्य शिवाचार्य : कलियुग में उत्पन्न वीरशैव मत के एक आचार्य। दे० 'एकोराम'।

 : स्वर वर्ण का द्वादश अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य निम्न प्रकार है :

ऐकारं परमं दिव्यं महाकुण्डलिनी स्वयम्। कोटिचन्द्र प्रतीकाशं पञ्च प्राणमयं सदा॥ ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं तथा रुद्रमयं प्रिये। सदाशिवमयं वर्णं बिन्दुत्रय समन्वितम्॥ तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम पाये जाते हैं :, ऐर्लज्जा भौतिकः कान्ता वायवी मोहिनी विभुः। दक्षा दामोदरः प्रज्ञोऽधरो विकृतमुख्यपि॥ क्षमात्मको जगद्योनिः परः परनिबोधकृत्। ज्ञानामृता कपिर्दश्रीः पीठेशोऽग्निः समातृकः॥ त्रिपुरा लोहिता राज्ञी वाग्भवो भौतिकासनः। महेश्वरो द्वादशी च विमलश्च सरस्वती॥ कामकोटो वामजानुरंशुमान् विजयो जटा॥

ऐक्य : वीरशैव भक्ति या साधना के मार्ग की छः अवस्थाएँ शिव के ऐक्य की ओर ले जाती हैं। वे हैं भक्ति, महेश, प्रसाद, प्राणलिङ्ग, शरण एवं ऐक्य। ऐक्य भक्ति की चरम परिणति है, जिसमें शिव और भक्त का भेद मिट जाता है।

ऐङ : देवी का एक बीजमन्त्र। रहस्यमय शाक्त मन्त्रों में अधिकांश गूढ़ार्थक ध्वनिसमूह हैं, यथा ह्रीङ्, ह्रूङ्, हुम्, फट्। 'ऐङ्' भी शाक्त मन्त्र की एक ध्वनि है। इस ध्वनि के जप से अद्भुत शक्ति का उदय माना जाता है।

ऐतरेय आरण्यक : आरण्यक शब्द की व्याख्या पूर्ववर्ती पृष्ठों में हो चुकी है। ऐतरेय आरण्यक ऋग्वेद के ऐसे ही दो ग्रन्थों में से एक है। इसके पाँच अध्याय हैं, दूसरे और तीसरे में वेदान्त का प्रतिपादन है अतः वे स्वतन्त्र उपनिषद् माने जाते हैं। इन दो अध्यायों का संकलन महीदास ऐतरेय ने किया था। प्रथम के संकलक का पता नहीं, चौथे-पाँचवें का संकलन शौनक के शिष्य आश्वलायन ने किया। दे० 'आरण्यक'।

ऐतरेय ब्राह्मण : ऋक् साहित्य में दो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। पहले का नाम ऐतरेय ब्राह्मण तथा दूसरे का शाङ्खायन अथवा कौषीतकि ब्राह्मण है। दोनों ग्रन्थों का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है, यत्र-तत्र एक ही विषय की व्याख्या की गयी है, किन्तु एक ब्राह्मण में दूसरे ब्राह्मण से विपरीत अर्थ प्रकट किया गया है। कौषीतकि ब्राह्मण में जिस अच्छे ढंग से विषयों की व्याख्या की गयी है उस ढंग से ऐतरेय ब्राह्मण में नहीं है। ऐतरेय ब्राह्मण के पिछले दस अध्यायों में जिन विषयों की व्याख्या की गयी है वे कौषीतकि में नहीं है, किन्तु इस अभाव को शाङ्खायनसूत्रों में पूरा किया गया है। आजकल जो ऐतरेय ब्राह्मण उपलब्ध है उसमें कुल चालीस अध्याय हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के अन्तिम दस अध्याय ऐतिहासिक आख्यानों से भरे हैं। इसमें बहुत से भौगोलिक विवरण भी मिलते हैं। इन ब्राह्मणों में 'आख्यान' हैं, 'गाथाएँ' हैं, 'अभियज्ञ गाथाएँ' भी हैं जिनमें बताया गया है कि किस मन्त्र का किस अवसर पर किस प्रकार आविर्भाव हुआ है।

ऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता महीदास ऐतरेय माने जाते हैं। ये इतरा नामक दासी से उत्पन्न हुए थे, इसलिए इनका नाम ऐतरेय पड़ा। इसका रचनाकाल बहुत प्राचीन है। इसमें जनमेजय का उल्लेख है, अतः इसको कुछ विद्वान् परवर्ती मानते हैं, किन्तु यह कहना कठिन है कि यह जनमेजय महाभारत का परवर्ती है अथवा अन्य कोई पूर्ववर्ती राजा।

ऐतरेय ब्राह्मण पर गोविन्द स्वामी तथा सायण के महत्त्वपूर्ण भाष्य हैं। सायणभाष्य के आजकल चार संस्करण उपलब्ध हैं। आधुनिक युग में इसका पहला संस्करण अंग्रेजी अनुवाद के साथ मार्टिन हाग ने 1863 ई० में प्रकाशित किया था। दूसरा संस्करण थियोडोर आडफरेस्टन ने 1879 ई० में प्रकाशित किया। पण्डित काशीनाथ शास्त्री ने 1896 में इसका तीसरा संस्करण निकाला और चौथा संस्करण ए० वी० कीथ द्वारा प्रकाशित किया गया।

ऐतरेयोपनिषद् : एक ऋग्वेदीय उपनिषद्। ऋग्वेद के ऐतरेय आरण्यक में पाँच अध्याय और सात खण्ड हैं। इनमें से चौथे, पाँचवें तथा छठे खण्डों का संयुक्त नाम ऐतरेयोपनिषद् है। इन तीनों में क्रमशः जगत्, जीव तथा ब्रह्म का निरूपण किया गया है। इसकी गणना प्राचीन उपनिषदों में की जाती है।

ऐतरेयोपनिषद्दीपिका : माधवाचार्य अथवा विद्यारण्यस्वामी द्वारा रचित ऐतरेयोपनिषद् की शाङ्करभाष्यानुसारिणी टीका।

ऐतिह्यतत्त्वसिद्धान्त : स्वामी निम्बार्काचार्य द्वारा रचित माना गया एक ग्रन्थ। इसका उल्लेख अन्य ग्रन्थों में पाया जाता है। उक्त आचार्य के किसी पश्चाद्भावी अनुयायी द्वारा इसका निर्माण सम्भव है। (इसकी एक ताड़पत्रित प्रतिलिपि 'ऐतियतत्त्वराद्धान्त' नाम से 'निम्बार्कपीठ, प्रयाग' के जगद्गुरुपुस्तकालय में सुरक्षित है।)

ऐन्द्रमहाभिषेक : ऐतरेय ब्राह्मण में दो विभिन्न राजकीय यज्ञों का विवरण प्राप्त होता है। वे हैं -- पुनरभिषेक (8.5.11) एवं ऐन्द्रमहाभिषेक (8.12-20)। प्रथम कृत्य का राज्यारोहण से सम्बन्ध नहीं है। यह कदाचित् राजसूय यज्ञ से सम्बन्धित है। ऐन्द्रमहाभिषेक का सिंहासनारोहण से सम्बन्ध है। इसका नाम ऐन्द्रमहाभिषेक इसलिए पड़ा कि इसमें वे क्रियाएँ की जाती हैं, जो इन्द्र के स्वर्ग राज्यारोहण के लिए की गयी मानी जाती हैं। पुरोहित इस अवसर पर राजा के शरीर में इन्द्र के गुणों की स्थापना मन्त्र एवं प्रतिज्ञाओं द्वारा करता है। दे० 'अभिषेक' और 'राज्याभिषेक'।

ऐन्द्रि : इन्द्र का पुत्र जयन्त। बाली नामक वानरराज को भी ऐन्द्रि कहा गया है, अर्जुन का भी एक पर्याय ऐन्द्रि है, क्योंकि इन दोनों का जन्म इन्द्र से हुआ था।

ऐन्द्री : इन्द्र की पत्नी। मार्कण्डेयपुराण (88.22) में कथन है :

वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरि स्थिता।'

दुर्गा का भी एक नाम ऐन्द्री है। पूर्व दिशा, इन्द्र देवता के लिए पढ़ी गयी ऋचा, ज्येष्ठा नक्षत्र भी ऐन्द्री कहे जाते हैं।

ऐयनार : एक ग्रामदेवता, जिसकी पूजा दक्षिण भारत में व्यापक रूप से होती है। इसका मुख्य कार्य है खेतों को किसी भी प्रकार की हानि, विशेष कर दैवी विपत्तियों से बचाना। प्रायः प्रत्येक गाँव में इसका चबूतरा पाया जाता है। मानवरूप में इसकी मूर्ति बनायी जाती है। यह मुकुट धारण करता है और घोड़े पर सवार होता है। इसकी दो पत्नियों पूरणी और पुद्कला की मूर्तियाँ इसके साथ पायी जाती हैं जो रक्षण कार्य में उसकी सहायता करती हैं। कृषि परिपक्व होने के समय इनकी पूजा विशेष प्रकार से की जाती है। ऐयनार की उत्पत्ति हरिहर के संयोग से मानी जाती है। जब हरि (विष्णु) ने मोहिनी रूप धारण किया था उस समय हर (शिव) के तेज से ऐयनार की उत्पत्ति हुई थी। इसका प्रतीकत्व यह है कि इस देवता में रक्षण और संहार दोनों भावों का मिश्रण है।

एरावत : पूर्व दिशा का दिग्गज; इन्द्र का हाथी, यह श्वेतवर्ण, चार दाँत वाला, समुद्र के मन्थन से निकला हुआ स्वर्ग का हाथी है। इसके पर्याय हैं-- अभ्रमातङ्ग, अभ्रमुवल्लभ, श्वेतहस्ती, चतुर्दन्त, मल्लनाग, इन्द्रकुञ्जर, हस्तिमल्ल, सदादान, सुदामा, श्वेतकुञ्जर, गजाग्रणी, नागमल्ल।

महाभारत, भीष्मपर्व के अष्टम अध्याय में भारतवर्ष से उत्तर के भूभाग को उत्तर कुरु के बदले 'ऐरावत' कहा गया हैं। जैनसाहित्य में भी यही नाम आया है। इस भाग के निवासियों के विलास एवं यहाँ के सौन्दर्यादि का वर्णन भीष्मपर्ब के पूर्व अध्यायों में वर्णित 'उत्तरकुरु' देश के अनुरूप ही हुआ है।

महाभारत, भीष्मपर्व के अष्टम अध्याय में भारतवर्ष से उत्तर के भूभाग को उत्तर कुरु के बदले 'ऐरावत' कहा गया है। जैनसाहित्य में भी यही नाम आया है। इस भाग के निवासियों के विलास एवं यहाँ के सौन्दर्यादि का वर्णन भीष्मपर्व के पूर्व अध्यायों में वर्णित 'उत्तरकुरु' देश के अनुरूप ही हुआ है।

ऐल : इला का पुत्र पुरूवा। इसी से ऐल अथवा चन्द्रवंश का आरम्भ हुआ था, महाभारत (1. 75.17) में कथन है :

पुरूरवास्ततो विद्वानिलायां समपद्यत। सा वै तस्याभवन्माता पिता चैवेति नः श्रुतम्॥

[पश्चात् पुरुरवा इला से उत्पन्न हुआ। वही उसकी माता तथा पिता हुई ऐसा सुना जाता है।]

ऐल अथवा चन्द्रवंश भारतीय इतिहास का बहुत प्रसिद्ध राजवंश है। इसमें पुरूरवा, आयु, ययाति आदि विख्यात राजा हुए। ययाति के पुत्र यदु, पुरु, अनु आदि थे। यदु के वंश का विपुल प्रसार भारत में हुआ।

ऐश्वर्य : स्वामित्वसूचक सामग्री; वैभव; ईश्वर का भाव। उसके पर्याय हैं-- विभूति, भूति, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, वशित्व, कामावसायिता। छः भगों में भी इसकी गणना है :

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीङ्गना॥

[सम्पूर्ण ऐश्वर्य, वीर्य, यश, शोभा, ज्ञान और वैराग्य इन छः को भग कहते हैं।]

ऐश्वर्यतृतीया : तृतीया के दिन ब्रह्मा, विष्णु अथवा शिव की पूजा का विधान है। ऐश्वर्य की अभिवृद्धि के लिए तीनों लोकों के साथ तीनों देवताओं का नाम तथा मन्त्रोच्चारण करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.498।

 : स्वरवर्ण का त्रयोदश अक्षर। कामधेनु तन्त्र में इसका धार्मिक माहात्म्य इस प्रकार है :

ओकारं चञ्चलापाङ्गि पञ्चदेवमयं सदा। रक्तविद्युल्लताकारं त्रिगुणात्मानमीश्वरम्॥ पञ्चप्राणमयं वर्ण नमामि देवमातरम्। एतद् वर्ण महेशानि स्वयं परमकुण्डली॥ तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम हैं :

सद्योजातो वासुदेवो गायत्री दीर्घजङ्घकः। आप्यायनी चोर्ध्वदन्तो लक्ष्मीर्वाणी मुखी द्विजः॥ उद्देश्यदर्शकस्तीव्रः कैलासो वसुधाक्षरः। प्रणवांशो ब्रह्मसूत्रमजेशः सर्वमङ्गला॥ त्रयोदशी दीर्घनासा रतिनाथो दिगम्बरः। त्रैलोक्यविजया प्रज्ञा प्रीतिबीजादिकर्षिणी॥

ओम् : प्रणव, ओंकार; परमात्मा। यह नाम अकार, उकार तथा मकार तीन वर्णों से बना हुआ है। कहा भी है :

अकारो विष्णुरुद्दिष्ट उकारस्तु महेश्वरः। मकारेणोच्यते ब्रह्मा प्रणवेन त्रयो मताः॥

[अकार से विष्णु उकार से महेश्वर, मकार से ब्रह्मा का बोध होता है। इस प्रकार प्रणव से तीनों का बोध होता है।]

यथा पर्णं पलाशस्य शङ्कुनैकेन धार्य्यते। तथा जगदिदं सर्वमोंकारेणैव धार्य्यते॥ (याज्ञवल्क्य)

[जैसे पलाश का पत्ता एक तिनके से उठाया जा सकता है, उसी प्रकार यह विश्व ओंकार से धारण किया जाता है।]

ओङ्कारश्चायशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा। कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मान् माङ्गलिकावुभौ॥

[ओंकार और अथ शब्द ये दोनों ब्रह्मा के कण्ठ को भेदन करके निकले हैं; इसीलिए इन्हें माङ्गलिक कहा गया है।]

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः। प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥ (गीता, अ० 17)

[इसलिए 'ॐ' का उच्चारण करके ब्रह्मवादी लोग विधिपूर्वक निरन्तर यज्ञ, दान, तप की क्रिया आरम्भ करते हैं।]

ओम्' स्वीकार, अंगीकार, रोष अर्थों में भी प्रयुक्त होता है।

योगी लोग ओंकार का उच्चारण दीर्घतम घंटाध्वनि के समान बहुत लम्बा या अत्यन्त प्लुत स्वर से करते हैं, उसका नाम 'उद्गीथ' है। प्लुत के सूचनार्थ ही इसके बीच में '3' का अंक लिखा जाता है। इसकी गुप्त चौथी मात्रा का उच्चारण या चिन्तन ब्रह्मज्ञानी जन करते हैं।

ओङ्कारेश्वर : प्रसिद्ध शैव तीर्थ। द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में 'ओङ्कारेश्वर' की गणना है। यहाँ दो ज्योतिर्लिङ्ग हैं; ओङ्कारेश्वर और अमलेश्वर। नर्मदा नदी के बीच में मान्धाता द्वीप पर ओङ्कारेश्वर लिङ्ग है। यहीं पर सूर्यवंश के चक्रवर्ती राजा मान्धाता ने शङ्कर की तपस्या की थी। इस द्वीप का आकार प्रणव से मिलता जुलता है। विन्ध्य पर्वत की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव यहाँ ओङ्कारेश्वर रूप में विराजमान हुए हैं।

ओगण : पश्चिमी पंडितों के विचार से ऋग्वेद (10.89.15) में यह शब्द केवल बहुवचन में उन व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जो वैदिक ऋषियों के शत्रु थे। लुङ्विग के अनुसार (ऋग्वेद, 5.209) यह शब्द एक व्यक्ति विशेष का बोधक है। पिशेल (वेदिके स्टुडिअन, पृ० 2, 191, 192) इसे एक विशेषण बतलाते हैं, जिसका अर्थ 'दुर्बल' है।

ओङ्कारवादार्थ : तृतीय श्रीनिवा (अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में उत्पन्न) द्वारा रचित एक ग्रन्थ। इसमें विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन किया गया है।

ओषधिप्रस्थ : ओषधि-वनस्पतियों से भरपूर पर्वतीय भूमि; ऐसे स्थान पर बसी हुई नगरी, जो हिमालय की राजधानी थी। इसका कुमारसम्भव में वर्णन है :

तत्प्रयातौषधिप्रस्थं सिद्धये हिमवत्पुरम्।

[कार्यसिद्धि के लिए हिमालय के ओषधिप्रस्थ नामक नगर को जाइए।]

उपासना और यौगिक क्रियाओं के लिए यह स्थान उपयुक्त माना गया है।

 : स्वर वर्ण का चतुर्दश अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका माहात्म्य इस प्रकार दिया हुआ है :

रक्तविद्युल्लताकारं औकारं कुण्डली स्वयम्। अत्र ब्रह्मादयः सर्वे तिष्ठन्ति सततं प्रिये॥ पञ्चप्राणमयं वर्णं सदाशिवमयं सदा। सदा ईश्वरसंयुक्तं चतुर्वर्गप्रदायकम्॥ तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नलिखित नाम हैं : औकारः शक्तिको नादस्तेजसो वामजङ्घकः। मनुरर्द्धग्रहेशश्च शङ्कुकर्णः सदाशिवः॥ अधोदन्तश्च कण्ठ्योष्ठ्यौ सङ्कर्षणः सरस्वती। आज्ञा चोर्ध्वमुखी शान्तो व्यापिनी प्रकृतः पयः॥ अनन्ता ज्वालिनी व्योमा चतुर्दशी रतिप्रियः। नेत्रमात्मकर्षिणी च ज्वाला मालिनिका भृगुः॥

औघड़ : प्राचीन पाशुपत सम्प्रदाय प्रायः लुप्त हो गया है। उसके कुछ विकृत अनुयायी अघोरी अवश्य देखे जाते हैं। वे पुराने कापालिक हैं एवं गोरख और कबीर के प्रभाव से परिवर्तित रूप में दीख पड़ते हैं।

तान्त्रिक एवं कापालिक भावों का मिश्रण इनकी चर्या में देखा जाता है, अतः ये किसी बन्धन या नियम से अवघटित--अघंटित (नहीं गढ़े हुए) मस्त, फक्कड़ पड़े रहते हैं, इसी से ये औघड़ कहलाते हैं। दे० 'अघोर पंथ'।

औडुलोमि : एक पुरातन वेदान्ताचार्य। वेदान्ती दार्शनिक आत्मा एवं ब्रह्म के सम्बन्ध की प्रायः तीन प्रकार से व्याख्या करते हैं। आश्मरथ्य के अनुसार आत्मा न तो ब्रह्म से भिन्न है न अभिन्न। इनके सिद्धान्त को भेदाभेदवाद कहते हैं। दूसरे विचारक औडुलोमि हैं। इनका कथन है कि आत्मा ब्रह्म से तब तक भिन्न है, जब तक यह मोक्ष पाकर ब्रह्म में मिल नहीं जाता। इनके सिद्धान्त को सत्यभेद या द्वैत सिद्धान्त कहते हैं। तीसरे विचारक काशकृत्स्न हैं। इनके उनुसार आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल अभिन्न है। इनका सिद्धान्त अद्वैतवाद है।

आचार्य औङुलोमि का नाम केवल वेदान्तसूत्र (1.4.21; 3.4.45; 4.4.6) में ही मिलता है, मीमांसासूत्र में नहीं मिलता। ये भी बादरायण के पूर्ववर्ती जान पड़ते हैं। ये वेदान्त के आचार्य और आत्मा-ब्रह्म भेदवाद के समर्थक थे।

औद्गात्रसारसंग्रह : सामवेदी विधियों का संग्रहरूप एक निबन्धग्रन्थ है। सामवेद का अन्य श्रौतसूत्र 'द्राह्यायण' है। 'लाट्यायन श्रौतसूत्र' से इसका बहुत थोड़ा भेद है। यह सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बन्ध रखता है। मध्वस्वामी ने इसका भाष्य लिखा है तथा रुद्रस्कन्द स्वामी ने 'औद्गात्रसारसंग्रह' नाम के निबन्ध में उस भाष्य का संस्कार किया है।

और्ध्वदेहिक : शरीर त्याग के बाद आत्मा की सद्गति के लिए किया हुआ कर्म। मृत शरीर के लिए उस दिन प्रदत्त दान और संस्कार का नाम भी यही है। जिस दिन व्यक्ति मरा हो उस दिन से लेकर सपिण्डीकरण के पूर्व तक प्रेत की तृप्ति के लिए जो पिण्ड आदि दिया जाता है, वह सब और्ध्वदेहिक कहलता है। दे० 'अन्त्येष्टि'। मनु (11.10) में कहा गया है :

भृत्यानामुपरोधेन यत्करोत्यौर्ध्वदेहिकम्। तद्भवत्यसुखोदर्कं जीवतश्च मृतस्य च॥

[अपने आश्रित रहने वालों को कष्ट देकर जो मृतात्मा के लिए दान आदि देता है वह दान जीवन में तथा मरने के पश्चात् भी दुःखकारक होता है।]

और्णनाभ : ऋग्वेद (10.120.6) में दनु के सात पुत्र दानवों के नाम आते हैं। ये अनावृष्टि (सूखा) के दानव हैं और सूखे मौसम में आकाश की विभिन्न अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें वृत्र आकाशीय जल को अवरुद्ध करने वाला है जो सारे आकाश में छाया रहता है। दूसरा शुश्न है जो सस्य को नष्ट करता है। यह वर्षा (मानसून) के पहले पड़ने वाली प्रचंड गर्मी का प्रतिनिधि है। तीसरा और्णनाभ (मकड़ी का पुत्र) है। कदाचित् इसका ऐसा नाम इसलिए पड़ा कि सूखे मौसम में आकाश का दृश्य फैले हुए ऊन या मकड़े जैसा हो जाता है।

औरस : अपने अंश से धर्मपत्नी के द्वारा उत्पन्न सन्तान। याज्ञवल्क्य के अनुसार :

स्वक्षेत्रे संस्कृतायान्तु स्वयमुत्पादयेद्धि यम्। तमौरसं विजानीयात् पुत्रं प्रथमकल्पितम्॥

[संस्कारपूर्वक विवाहित स्त्री से जो पुत्र उत्पन्न किया जाता है उसे सर्वश्रेष्ठ औरस पुत्र जानना चाहिए।]

धर्मशास्त्र में औरस पुत्र के अधिकारों और कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन पाया जाता है।

अः : यह एकाक्षरकोश के अनुसार महेश्वर का प्रतीक है। महाभारत में भी इसकी पुष्टि हुई है :

बिन्दुर्विसर्गः सुमुखः शरः सर्वायुधः सहः। (13.17.126)

कामधेनुतन्त्र में इसका प्रतीकत्व वर्णित है :

अःकारं परमेशानि विसर्ग सहितं सदा। अःकारं परमेशानि रक्तविद्युत्प्रभामयम्॥ पञ्चदेवमयो वर्णः पञ्चप्राणमयः सदा। सर्वज्ञानमयो वर्णः आत्मादितत्त्वसंयुतः॥ बिन्दुत्रयमयो वर्णः शक्तित्रयमयः सदा। किशोरवयसः सर्वे गीतवाद्यादि तत्पराः॥ शिवस्य युवती एताः स्वयं कुण्डली मूर्तिमान्॥