विक्षनरी:हिन्दू धर्मकोश (क से ङ)

विक्षनरी से

 : व्यञ्जनवर्ण के कवर्ग का प्रथम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका प्रतीकात्मक रहस्य निम्नलिखित बतलाया गया है :

अधुना संप्रवक्ष्यामि ककारतत्त्वमुत्तमम्। रहस्यं परमाश्चर्यं त्रैलोक्यानाञ्च संश्रृणु॥ वामरेखा भवेद् ब्रह्मा विष्णुर्दक्षिणरेखिका। अधोरेखा भवेद् रुद्रो मात्रा साक्षात्सरस्वती॥ कुण्डली अंकुशाकारा मध्ये शून्यः सदाशिवः। जवायावकसंकाशा वामरेखा वरानने॥ शरच्चन्द्रप्रतीकाशा दक्षरेखा चं मूर्तिमान्। अधोरेखा वरारोहे महामरकतद्युतिः॥ शङ्खकुन्दसमा कीर्तिर्मात्रा साक्षात् सरस्वती। कुण्डली अङ्कुशा या तु कोटिविद्युल्लताकृतिः॥ कोटिचन्द्रप्रतीकाशो मध्ये शून्यः सदाशिवः। शून्यगर्भे स्थिता काली कैवल्यपददायिनी॥ ककाराज्जायते सर्वं कामं कैवल्यमेव च। अर्थश्च जायते देवि तथा धर्मश्च नान्यथा॥ ककारः सर्ववर्णानां मूलप्रकृतिरेव च। ककारः कामदा कामरूपिणी स्फुरदव्यया॥ कमनीया महेशानि स्वयं प्रकृति सुन्दरी। माता सा सर्वदेवानां कैवल्य पददायिनी॥ ऊर्ध्वकोणे स्थिता कामा ब्रह्मशक्तिरितीरिता। वामकोणे स्थिता ज्येष्ठा विष्णुशक्तिरितीरिता॥ दक्षकोणे स्थिता बिन्दु रौद्री संहाररूपिणी। ज्ञानात्मा स तु चार्व्वङ्गि कलाचतुष्टयात्मकः॥ इच्छाशक्तिर्भवेद् ब्रह्मा विष्णुश्च ज्ञानशक्तिमान्। क्रियाशक्तिर्भवेद् रुद्रः सर्वप्रकृतिमूर्तिमान्॥ आत्मविद्या शिवस्तत्र सदा मन्त्रः प्रतिष्ठितः। आसनं त्रिपुरादेव्याः ककारं पञ्चदैवतम्॥ ईश्वरो यस्तु देवेशि त्रिकोणे तस्य संस्थितिः। त्रिकोणमेतत् कथितं योनिमण्डलमुत्तमम्॥ केवलं प्रपदे यस्याः कामिनी सा प्रकीर्तिता। जवायावकसिन्दूर सदृशीं कामिनीं पराम्॥ चतुर्भुजां त्रिनेत्राञ्च बाहुवल्ली विराजिताम्। कदम् कोरकाकारस्तनद्वय विभूषिताम्॥

तन्त्रिक क्रियाओं में इस अक्षर का बड़ा उपयोग होता है।

कक्षीवान् : ऋचाओं के द्रष्टा एक ऋषि। ऋग्वेद (1.18,1;51,13; 112,16; 116,7; 117,6; 126,3; 4.26,1; 8.9,10; 9.74, 8; 10.25,10; 61,16)में अनेकों बार कक्षीवान् ऋषि का नाम उद्धृत है। वे उशिज नामक दासी के पुत्र और परिवार से 'पज्र' थे, क्योंकि उनकी एक उपाधि पज्रिय (ऋ०वे० 1.116,7; 117,6) है। ऋग्वेद (1.126) में उन्होंने सिंधुतट पर निवास करने वाले स्वनय भाव्य नामक राजकुमार की प्रशंसा की है, जिसने उनको सुन्दर दान दिया था। वृद्धावस्था में उन्होंने वृचया नामक कुमारी की पत्नी रूप में प्राप्त किया। वे दीर्घजीवी थे। ऋग्वेद (4. 26,1) में पुराकथित कुत्स एवं उशना के साथ इनका नाम आता है। परवर्ती साहित्य में इन्हें आचार्य माना गया है।

इनका नाम ऋग्वेद के कतिपय सूक्तों के संकलनकार नौ ऋषियों की तालिका में आता है। ये नौ ऋषि हैं-- सव्य नोधस, पराशर, गोतम, कुत्स, कक्षीवान्, परुच्छेप, दीर्घतमा एवं अगस्त्य। ये पूर्ववर्त्ती छः ऋषियों से या उनके कुलों से भिन्न हैं।

कङ्कतीय : शतपथ ब्राह्मण में उद्धृत एक परिवार का नाम, जिसने शाण्डिल्य से 'अग्निचयन' सीखा था। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र में 'कङ्कतिब्राह्मण' ग्रन्थ का उद्धरण है। बौधायनश्रौतसूत्र में उद्धृत छागलेयब्राह्मण एवं कङ्कतिब्राह्मण सम्भवतः एक ही ग्रन्थ के दो नाम हैं।

कंस : पुराणों के अनुसार यह अन्धक-वृष्णि संघ के गणमुख्य उग्रसेन का पुत्र था। इसमें स्वच्छन्द शासकीय या अधिनायकवादी प्रवृत्तियाँ जागृत हुई और पिता को अपदस्थ करके यह स्वयं राजा बन बैठा। इसकी बहिन देवकी और बहनोई वसुदेव थे। इनको भी इसने कारागार में डाल दिया। यहीं पर इनसे कृष्ण का जन्म हुआ अतः कृष्ण के साथ उसका विरोध स्वाभाविक था। कृष्ण ने उसका वध कर दिया। अपनी निरंकुश प्रवृत्तियों के कारण कंस का चित्रण राक्षस के रूप में हुआ है।

कच्छ : शीघ्र गति और सन्नद्धता के लिए पहना गया जाँघिया, जो सिक्खों के लिए आवश्यक है। गुरु गोविन्दसिंह ने मुगल साम्राज्य से युद्ध करने के लिए एक शक्तिशाली सेना बनायी। अपने सैनिकों पर पूर्णरूप से धार्मिक प्रभाव डालने के लिए उन्होंने अपने हाथ से उन्हें 'खड्ग दी पहुल' तलवार का धर्म दिया तथा उनसे बहुत सी प्रतिज्ञाएँ करायीं। इन प्रतिज्ञाओं में 'क' से प्रारम्भ होने वाले पाँच पहनावों का ग्रहण करना भी था। कच्छ (कच्छा) उन पाँचों में से एक है। पाँच पहनावे हैं-- कच्छ, कड़ा, कृपाण, केश एवं कंघा।

कज्जली : भाद्र कृष्ण तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इसमें विष्णुपूजा का विधान है। निर्णयसिन्धु के अनुसार यह मध्य देश (बनारस, प्रयाग आदि) में अत्‍यन्त प्रसिद्ध है।

कठरुद्रोपनिषद् : उत्तरकालीन एक उपनिषद्। जैसा कि नाम से प्रकट है, यह कठशाखा तथा रुद्र देवता से सम्बद्ध उपनिषद् है। इसमें रुद्र की महिमा तथा आराधाना बतलायी गयी है।

कठश्रुति उपनिषद् : यह संन्यासमार्गीय एक उपनिषद् है। इसका रचनाकाल मैत्रायणी उपनिषद् के लगभग है।

कठोपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद की कठशाखा के अन्तर्गत यह उपनिषद् है। इसमें दो अध्याय और छः वल्लियाँ हैं। इसके विषय का प्रारम्भ उद्दालकपुत्र वाजश्रवस ऋषि के विश्वजित् यज्ञ के साथ होता है। इसमें नचिकेता की प्रसिद्ध कथा है, जिसमें श्रेय और प्रेय का विवेचन किया गया है। नचिकेता ने यमराज से तीन वर माँगे थे, जिनमें तीसरा ब्रह्मज्ञान का वर था। यमराज द्वारा नचिकेता के प्रति वर्णित ब्रह्मविद्या का उपदेश इसका प्रतिपाद्य मुख्य विषय है।

कण्टकोद्धार : आचार्य रामानुज (विक्रमाब्द प्रायः 1194) ने अपने मत की पुष्टि, प्रचार एवं शाङ्करमत के खण्डन के लिए अनेकों ग्रन्थों की रचना की, जिनमें से 'कण्टकोद्धार' भी एक है। इसमें अद्वैतमत का निराकरण करके विशिष्टाद्वैत मत का प्रतिपादन किया गया है।

कटदानोत्सव : यह उत्सव भाद्रपद शुक्ल एकादशी, द्वादशी, पूर्णिमा को जब भगवान्, विष्णु दो मास के और शयन के लिए करवट बदलते हैं, मनाया जाता है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.813; स्मृतिकौस्तुभ, 153।

कणाद : वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद ऋषि। इनका वैशेषिकसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है। प्रशस्तपाद का 'पदार्थधर्मसंग्रह' नामक ग्रन्थ ही वैशेषिक दर्शन का भाष्य कहलाता है। परन्तु यह भाष्य नहीं है और सूत्रों के आधार पर प्रणीत स्वतन्त्र ग्रन्थ है।

इस ग्रन्थ में कणाद ने धर्म का लक्षण इस प्रकार बतलाया है :

यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।'

[जिससे अभ्युदय (ऐहलौकिक सुख) तथा निःश्रेयस (पारमार्थिक मोक्ष) की सिद्धि हो वह धर्म है।]

इसके पश्चात् सब पदार्थों के प्रकार, लक्षण तथा स्वरूप का परिचय दिया गया है। उनके मतानुसार नाना भेदों से भिन्न अनन्त पदार्थ हैं। इन समस्त पदार्थों की अवगति हजार युग बीत जाने पर भी एक-एक को पकड़कर नहीं हो सकती। अतः श्रेणीविभाग द्वारा विश्व के सभी पदार्थों का ज्ञान इस दर्शन के द्वारा कराया गया है। इसमें विशेषताओं के आधार पर पदार्थों का वर्णन किया गया है, अतः इसका नाम वैशेषिक दर्शन है।

प्रसिद्ध है कि कश्यप गोत्र के ऋषि कणाद ने उग्र तप किया और इन्होंने शिलोञ्छ बीनकर अपना जीवन बिताया इसीलिए ये कणाद (कण= दाना खाने वाले) कहलाये। अथवा कण= अणु के सिद्धान्तप्रवर्तक होने से ये कणाद कहे गये। इनके शुद्ध अन्तःकरण में इसीलिए पदार्थों के तत्त्वज्ञान का उदय हुआ।

कणाद ने प्रमेय के विस्तार के साथ अपने सूत्रों में आत्मा और अनात्मा पदार्थों का विवेचन किया है। परन्तु शास्त्रार्थ की विधि और प्रमाणों के विस्तार के साथ इन वस्तुओं के विवेचन की आवश्यकता थी। इसकी पूर्ति गौतम के 'न्यायदर्शन' में की गयी है। दे० 'वैशिषिक दर्शन'।

कण्व : ऋग्वेद के प्रथम सात मण्डलों के सात प्रमुख ऋषियों में कण्व का नाम आता है। आठवें मण्डल की ऋचाओं की रचना भी कण्व परिवार की ही है, जो पहले मण्डल के रचयिता हैं।

ऋग्वेद तथा परवर्त्ती साहित्य (ऋ० 1.36,8,10,11,17,19,39,7,9; 47,5; 112M5; 117,8; 118,7; 139,9; 5.41,4; 8.5,23,25; 7-18; 8, 20; 49, 10; 50, 10; 10. 71, 11; 115,5; 150,5; अथर्व वेद 4.37,1; 7. 15, 1; 18.3,15; वाजसनेयी सं० 17.74; पञ्चविंश ब्रा० 8.2,2; 9.2,9; कौ० ब्रा० 28.8) में कण्व का नाम बार-बार आता है। उनके पुत्र तथा वंशजों का उद्धरण, विशेष कर ऋग्वेद के आठवें मण्डल में कण्वाः, कण्वस्य सूनवः, काण्वायनाः एवं काण्व नामों से आया है। कण्व के एक वंशज का एकवचन में अकेले वा पैतृक पदवी के साथ 'कण्व नार्षद' (ऋ० 1.48, 4; 8.34, 1) रूप में तथा 'कण्व-श्रायस' (तैत्ति० सं० 5.4,7,5; काठक सं० 21.8, मैत्रा० सं० 3.3,9) के रूप में तथा बहुवचन में 'कण्वाः सौश्रवसः' के रूप में उद्धरण है। कण्वपरिवार का अत्रिपरिवार से सम्बन्ध प्रतीत होता है, किन्तु विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं। अथर्ववेद के एक परिच्छेद में दोनों परिवारों में प्रतियोगिता परिलक्षित है (अ० 2.25)।

कण्वाश्रम : बिजनौर जिले के अन्तर्गत अथवा मतान्तर से कोटद्द्वार से छः मील दूर मालिनी नदी के तट पर कण्वाश्रम है। दुष्यन्त और शकुन्तला का मिलन यहाँ हुआ था।

कथासारामृत : मराठा भक्तों की परम्परा में अठारहवीं शताब्दी के महीपति नामक भागवत धर्मावलम्बी सन्त ने 'कथासारामृत' की रचना की। इसमें भगवत्कथाओं का संग्रह है।

कदलीव्रत : यह व्रत भाद्र शुक्ल की चतुर्दशी को किया जाता है। इसमें केले के वृक्ष की पूजा होती है, जिससे सौन्दर्य तथा सन्तति की वृद्धि होती है। गुर्जरों में यह व्रत कार्तिक, माघ अथवा वैशाख मास की पूर्णिमा के दिन समस्त उपचारों तथा पौराणिक मन्त्रों के साथ किया जाता है। इस व्रत का उद्यापन उसी तिथि को उसी मास में अथवा अन्य किसी शुभ मास में किया जाना चाहिए। यदि केले का वृक्ष अप्राप्य हो तो उसकी स्वर्णप्रतिमा का पूजन किया जाता है। दे० अहल्याकामधेनु, 611 अ।

कनकदास : इनका उद्भव काल 16वीं शती है। ये मध्व मतावलम्बी वैष्णव एवं कन्नड़ भजनों के रचयिताओं में मुख्य हैं।

कनखल : हरिद्वार की पंच पुरियों में एक पुरी। नीलधारा तथा नहर वाली गंगा की धारा दोनों यहाँ आकर मिल जाती हैं। सभी तीर्थों में भटकने के पश्चात् यहाँ पर स्नान करने से एक खल की मुक्ति हो गयी थी (ऐसा कौन खल है जो यहाँ नहीं तर जाता), इसलिए मुनियों ने इसका नामकरण "कनखल" किया। हरि की पौड़ी से कनखल तीन मील दक्षिण है। यहाँ दक्ष प्रजापति का स्मारक दक्षेश्वर शिवमन्दिर प्रतिष्ठित है।

कनफटा योगी : गोरखपन्थी साधु, जो अपने दोनों कानों के मध्य के रिक्त स्थान में बड़ा छिद्र कराते हैं जिससे वे उसमें वृत्ताकार कुंडल (शीशा, काठ अथवा सींग का बना हुआ) पहन सकें। वे अनेकों मालाएँ पहनते हैं और उनमें से किसी एक में छोटी चाँदी की सीटी लटकती है, जिसे 'सिंगीनाद' कहते हैं। मालाओं में एक श्वेत पत्थर की गुरियों की माला प्रायः रहती है, जिसका अभिप्राय है कि धारण करने वाले ने हिंगुलाज (बलूचिस्तान) स्थित शक्तिपीठ के मन्दिर का दर्शन किया है। वे लोग शाक्त एवं शैव दोनों के मन्दिरों का दर्शन करते हैं। उनका मन्त्र है 'शिव-गोरक्ष'। वे गोरखनाथ की पूजा करते हैं तथा उन्हें अति प्राचीन मानते हैं। योगमार्ग का अधिक आचरण भी इनमें नहीं पाया जाता, क्योंकि आधुनिक संन्यासी साधु जैसे ये भी साधारण हो गये हैं। इनके अनेकों ग्रन्थ हैं। 'हठयोग' तथा 'गोरक्षशतक' गोरखनाथ प्रणीत कहे जाते हैं। आधुनिक ग्रन्थों मे 'हठयोग प्रदीपिका', स्वात्माराम रचित 'घेरण्डसंहिता' तथा 'शिवसंहिता' हैं। प्रथम सबसे प्राचीन है। प्रदीपिका तथा घेरण्ड के एक ही विषय हैं, किन्तु शिवसंहिता का एक भाग ही हठयोग पर है, शेष शाक्तयोग के भाष्य के सदृश है। दे० 'गोरख पंथ'।

कन्दपुराणम् : शैव सम्प्रदाय की तमिल शाखा के साहित्य में कन्दपुराण का प्रमुख स्थान है। यह स्कन्दपुराण का तमिल अनुवाद है, जिसे द्वादश शताब्दी में 'काञ्ची अय्यर' नामक शैव सन्त ने प्रस्तुत किया। ये काञ्जीवरम् के निवासी थे।

कन्याकुमारी : भारत के दक्षिणांचल के अन्तिम छोर पर समुद्रतटवर्ती एक देवीस्थान। 'छोटे नारायण' से, कन्याकुमारी बावन मील है। यह अन्तरीप भूमि है। एक ओर बंगाल का आखात, दूसरी ओर पश्चिम सागर तथा सम्मुख हिंद महासागर है। महाभारत (वनपर्व 85.23) में इसका उल्लेख है :

ततस्तीरे समुद्रस्य कन्यातीर्थमुपस्पृशेत्। तत्तोयं स्पृश्य राजेन्द्र सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

पद्मपुराण (38.23) में इसका माहात्म्य दिया हुआ है। स्वामी विवेकानन्द ने यहाँ एक समुद्रवेष्टित शिला पर कुछ समय तक भजन-ध्यान किया था। इस घटना की स्मृति में उक्त शिला पर भव्य भवन निर्मित है, जो ध्यान-चिन्तन के लिए रमणिक स्थल बन गया है।

कपर्द : कपर्द' शब्द सिर के केशों को चोटी के रूप में बाँधने की वैदिक प्रथा का बोधक है। इस प्रकार एक कुमारी को चार चोटियों में केशों को बाँधने वाली 'चतुष्कपर्दा' (ऋ० वे 10.114,3) कहा गया है तथा 'सिनीवाली' को सुन्दर चोटी वाली 'सुकपर्दा' कहा गया है (वाजसनेयी सं० 11.59)। पुरुष भी अपने केशों को इस भाँति सजाते थे, क्योंकि 'रुद्र' (ऋ० वे० 1.114, 1, 5; वाज० सं० 16.10, 29,43,48,59) तथा 'पूषा' को ऐसा करते कहा गया है (ऋ० वे० 6.53, 2; 9.67, 11)। वसिष्ठों को दाहिनी ओर जूड़ा बाँधने से पहचाना जाता था एवं उन्हें 'दक्षिणातस्कपर्द' कहते थे। कपर्दी का प्रतिलोम शब्द पुलस्ति है अर्थात् केशों को बिना चोटी किये रखना।

कपर्दी : (1) शंकर का एक उपनाम, क्योंकि उनके मस्तक पर विशाल जटाजूट बँधा रहता है।

(2) ऋग्वेद और आपस्तम्बधर्मसूत्र के एक भाष्यकार भी 'कपर्दी स्वामी' नाम से प्रसिद्ध हैं।

कपर्दिक (वेदान्ताचार्य) : स्वामी रामानुजकृत 'वेदान्तसंग्रह' (पृ० 154) में प्राचीन काल के छः वेदान्ताचार्यों का उल्लेख मिलता है। इन आचार्यों ने रामानुज से पहले वेदान्त शास्त्र के प्रचार के लिए ग्रन्थनिर्माण किये थे। आचार्य रामानुज के सम्मानपूर्ण उल्लेख से प्रतीत होता है कि ये लोग सविशेष ब्रह्मवादी थे। कपर्दिक उनमें से एक थे। दूसरे पाँच आचार्यों के नाम हैं-- भारुचि, टङ्क, बोधायन, गुहदेव एवं द्रविडाचार्य।

कपर्दीश्वर विनायकव्रत : श्रावण शुक्ल चतुर्थी को गणेशपूजन का विधान है। दे० व्रतार्क, 78 ब 84 अ.; व्रतराज 160-168। दोनों ग्रन्थों में विक्रमार्कपुर का उल्लेख है और कहते हैं कि महाराज विक्रमादित्य ने इस व्रत का आचरण किया था।

कपालकुण्डला : इसका शाब्दिक अर्थ है 'कपालों (खोपड़ियों) का कुण्डल धारण करनेवाली (साधिका)।' कापालिक पंथ में साधक और साधिकाएँ दोनों कपालों के कुण्डल (माला) धारण करते थे। आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिखे गये 'मालतीमाधव' नाटक में एक मुख्य पात्र अघोरघण्ट कापालिक संन्यासी है। वह चामुण्डा देवी के मन्दिर का पुजारी था, जिसका सम्बन्ध तेलुगुप्रदेश के श्रीशैल नामक शैव मन्दिर से था। कपालकुण्डला अघोरघण्ट की शिष्य थी। दोनों योग की साधना करते थे। वे पूर्णरूपेण शैव विचारों के मानने वाले थे, एवं नरबलि भी देते थे। संन्यासिनी कपालकुण्डला मुण्डों की माला पहनती तथा एक भारी डण्डा लेकर चलती थी, जिसमें घण्टियों की रस्सी लटकती थी। अघोरघण्ट मालती को पकड़कर उसकी बलि देना चाहता था, किन्तु वह उससे मुक्त हो गयी।

कपालमोचन तीर्थ : सहारनपुर से आगे जगाधारी से चौदह मील दूर एक तीर्थ। यहाँ कपालमोचन नामक सरोवर है, इसमें स्नान करने के लिए यात्री दूर दूर से आते हैं। यह स्थान जंगल में स्थित और रमणीक है।

कपाली : शब्दार्थ है 'कपाल (हाथ में) धारण करने वाला' अथवा 'कपाल (मुण्ड) की माला धारण करने वाला।' यह शिव का पर्याय है। किन्तु 'चर्यापद' में इसका एक दूसरा ही अर्थ है। कपाली की व्युत्पत्ति उसमें इस प्रकार बतायी गयी है : 'कम् महासुखं पालयति इति कपाली। अर्थात् जो 'क' महासुख का पालन करता है वह कपाली है। इस साधना में 'डोम्बी' (नाड़ी) के साधक को कपाली कहते हैं।

कपालेश्वर : शिव का पर्याय। कापालिक एक सम्प्रदाय की अपेक्षा साधकों का पंथ कहला सकता है, जो विचारों में वाममार्गी शाक्तों का समीपवर्ती है। सातवीं शताब्दी के एक अभिलेख में कपालेश्वर (देवता) एवं उनके संन्यासियों का उल्लेख पाया जाता है। मुण्डमाला धारण किये हुए शिव ही कपालेश्वर हैं।

कपिल : सांख्य दर्शन के प्रवर्तक महामुनि। कपिल के 'सांख्य सूत्र' जो सम्प्रति उपलब्ध हैं, छः अध्यायों में विभक्त हैं और संख्या में कुल 524 हैं। इनके प्रवचन के बारे में पञ्चशिखचार्य ने लिखा है :

'निर्माणचित्तमधिष्ठाय भगवान् परमर्षिरासुरये जिज्ञासमानाय तन्त्रं प्रोवाच।

[सृष्टि के आदि में भगवान् विष्णु ने योगबल से 'निर्माण चित्त' (रचनात्मक देह) का आधार लेकर स्वयं उसमें प्रवेश करके, दयार्द्र होकर कपिल रूप से परम तत्त्व की जिज्ञासा करने वाले अपने शिष्य आसुरि को इस तन्त्र (सांख्यसूत्र) का प्रवचन किया।]

पौराणिकों ने चौबीस अवतारों में इनकी गणना की है। भागवत पुराण में इनकों विष्णु का पञ्चम अवतार बतलाया गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार 'तत्त्वसमास सूत्र' नामक एक संक्षिप्त सूत्र रचना को कपिल का मूल उपदेश मानना चाहिए।

इनकी जन्मभूमि गुजरात का सिद्धपुर और तपःस्थल गंगा-सागरसंगम तीर्थ कहा जाता है।

कपिल-उपपुराण : यह उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से एक है।

कपिलादान : श्राद्धकर्म के सम्बन्ध में ग्यारहवें दिन 'कपिलाधेनु दान' तथा वृषोत्सर्ग मृतक के नाम पर किया जाता है। यह दान महाब्राह्मण को दिया जाता है।

कपिष्ठलकठसंहिता : यजुर्वेद की पाँच शाखाओं में से कपिष्ठल-कठ एक शाखा है। 'कपिष्ठलकठसंहिता' इसी शाखा की है।

कपिलवस्तु : अब तक यह मान्य था कि पिपरवहवा से नौ मील उत्तर-पश्चिम नेपाल राज्य में तिलौरा नामक स्थान ही गौतम बुद्ध के पिता शुद्धोदन की राजधानी था। यहाँ विशाल भग्नावशेष हैं। यह स्थान लुम्बिनी से पन्द्रह मील पश्चिम है। किंतु नवीन खोजों से प्रमाणित होता है कि बस्ती जिला, उत्तर प्रदेश का पिपरहवा नामक स्थान ही प्राचीन कपिलवस्तु है।

बौद्ध परम्परा (दीग्धनिकाय) के अनुसार यहाँ पर प्राचीन काल में कपिल मुनि का आश्रम था। अयोध्या से निष्कासित इक्ष्वाकुवंशी राजकुमारों ने यहाँ पहुँचकर शाक (शाक) वन के बीच शाक्य जनपद की स्थापना की। सम्भवतः कापिल सांख्य के अनीश्वरवादी दर्शन का प्रभाव शाक्यों (विशेष कर गौतम बुद्ध) पर इसी परम्परा से पड़ता रहा होगा।

कपिलाष्ठीव्रत : भाद्र कृष्ण की षष्ठी (अमान्त गणना) अथवा आश्विन कृष्ण की षष्ठी (पूर्णिमान्त गणना), भौमवार, व्यतीपात योग, रोहिणी नक्षत्रयुक्त दिन में इस व्रत का अनुष्ठान होता है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.578। यदि उपर्युक्त संयोगों के अतिरिक्त कहीं सूर्य भी हस्त नक्षत्र से युक्त हो तो इस व्रत का पुण्य और अधिक होता है। इसमें भासकर की पूजा तथा कपिला गौ के दान का विधान है। कपिलपरम्परा के अनुयायी संन्यासी गण इस दिन कपिल मुनि का जन्मोत्सव मनाते हैं। इस पर्व में रोहिणी का संयोग अनुमान पर ही आधारित है। इतने योगों का एक साथ पड़ जाना दुर्लभ बात है। साधारणतः ऐसा योग 60 वर्षों में कही एकाध बार पड़ता है।

कबीर तथा कबीरपंथ : धार्मिक सुधारकों में कबीर का नाम अग्रगण्य है। इनका चलाया हुआ सम्प्रदाय कबीरपंथ कहलाता है। इनका जन्म 1500 ई० के लगभग उस जुलाहा जाति में हुआ जो कुछ ही पीढ़ी पहले हिन्दू से मुसलमान हुई थी, किन्तु जिसके बीच बहुत से हिन्दू संस्कार जीवित थे। ये वाराणसी में लहरतारा के पास रहते थे। इनका प्रमुख धर्मस्थान 'कबीरचौरा' आज तक प्रसिद्ध है। यहाँ पर एक मठ और कबीरदास का मन्दिर है जिसमें उनका चित्र रखा हुआ है। देश के विभिन्न भागों से सहस्रों यात्री यहाँ दर्शन करने आते हैं। इनके मूल सिद्धान्त ब्रह्मनिरूपण, ईसमुक्तावली, कबीरपरिचय की साखी, शब्दावली, पद, साखियाँ, दोहे, सुखनिधान, गोरखनाथ की गोष्ठी, कबीरपञ्जी, वलक्क की रमैनी, रामानन्द की गोष्ठी, आनन्द रामसागर, अनाथमङ्गल, अक्षरभेद की रमैनी, अक्षरखण्ड की रमैनी, अरिफनामा कबीर का, अर्जनामा कबीर का, आरती कबीरकृत, भक्ति का अङग, छप्पय, चौकाघर की रमैनी, मुहम्मदी बानी, नाम माहात्म्य, पिया पहिचानवे को अङ्ग, ज्ञानगूदरी, ज्ञानसागर, ज्ञानस्वरोदय, कबीराष्टक, करमखण्ड की रमैनी, पुकार, शब्द अनलहक, साधकों के अग, सतसङ्ग को अङ्ग, स्वासगुञ्जार, तीसा जन्म, कबीर कृत जन्मबोध, ज्ञानसम्बोधन, मुखहोम, निर्भयज्ञान, सतनाम या सतकबीर बानी, ज्ञानस्तोत्र, हिण्डोरा, सतकबीर, बन्दीछोर, शब्द वंशावली, उग्रगीता, बसन्त, होली, रेखता, झूलना, खसरा, हिण्डोला, बारहमासा, चाँचरा, चौतीसा, अलिफनामा, रमैनी, बीजक, आगम, रामसार, सौरठा कबीरजी कृत, शब्द पारखा और ज्ञानबतीसी, विवेकसागर, विचारमाला, कायापञ्जी, रामरक्षा, अठपहरा, निर्भयज्ञान, कबीर और धर्मदास की गोष्ठी आदि ग्रन्थों में पाये जाते हैं।

कबीरदास ने स्वयं ग्रन्थ नहीं लिख, केवल मुख से भाखे हैं। इनके भजनों तथा उपदेशों को इनके शिष्यों ने लिपिबद्ध किया। इन्होंने एक ही विचार को सैकड़ों प्रकार से कहा है और सबमें एक ही भाव प्रतिध्वनित होता है। ये रामनाम की महिमा गाते थे, एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्ति, रोजा, ईद, मसजिद, मन्दिर आदि को नही मानते थे। अहिंसा, मनुष्य़ मात्र की समता तथा संसार की असारता को इन्होंने बार-बार गया है। ये उपनिषदों के निर्गुण ब्रह्म को मानते थे और साफ कहते थे कि वही शुद्ध ईश्वर है चाहे उसे राम कहो या अल्ला। ऐसी दशा में इनकी शिक्षाओं का प्रभाव शिष्यों द्वारा परिवर्तन से उलटा नहीं जा सकता था। थोड़ा सा उलट-पलट करने से केवल इतना फल हो सकता है कि रामनाम अधिक न होकर सत्यनाम अधिक हो। यह निश्चित बात है कि ये रामनाम और सत्यनाम दोनों को भजनों में रखते थे। प्रतिमापूजन इन्होंने निन्दनीय माना है। अवतारों का विचार इन्होंने त्याज्य बताया है। दो-चार स्थानों पर कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनसे अवतार महिमा व्यक्त होती है।

कबीर के मुख्य विचार उनके ग्रन्थों में सूर्यवत् चमक रहे हैं, किन्तु उनसे यह नहीं जान पड़ता कि आवागमन सिद्धान्त पर वे हिन्दूमत को मानते थे या मुसलमानी मत को। अन्य बातों पर कोई वास्तविक विरोध कबीर की शिक्षाओं में नहीं दीख पड़ता। कबीर साहब के बहुत से शिष्य उनके जीवन काल में ही हो गये थे। भारत में अब भी आठ-नौ लाख मनुष्य कबीरपंथी हैं। इनमें मुसलमान थोड़े ही हैं और हिन्दू बहुत अधिक। कबीर-पंथी कण्ठी पहनते हैं, बीजक, रमैनी आदि ग्रन्थों के प्रति पूज्य भाव रखते हैं। गुरू को सर्वोपरि मानते हैं।

निर्गुण-निराकारवादी कबीरपंथ के प्रभाव से ही अनेक निर्गुणमार्गी पंथ चल निकले। यथा--नानकपंथ पञ्जाब में, सत्यनामी नारनौल में, बाबालाली सरहिन्द में, साधपंथ दिल्ली के पास, शिवनारायणी गाजीपुर में, गरीबदासी रोहतक में, मलूकदासी कड़ा (प्रयोग) में, रामसनेही (राजस्थान) में। कबीरपंथ को मिलाकर इन ग्यारहों में समान रूप से अकेले निर्गुण निराकार ईश्वर की उपासना की जाती है। मूर्तिपूजा वर्जित है, उपासना और पूजा का काम किसी भी जाति का व्यक्ति कर सकता है। गुरू की उपासना पर बड़ा जोर दिया जाता है। इन सबका पूरा साहित्य हिन्दी भाषा में है। रामनाम, सत्यनाम अथवा शब्द का जप और योग इनका विशेष साधन है। व्यवहार में बहुत से कबीरपंथी बहुदेववाद, कर्म, जन्मान्तर और तीर्थ इत्यादि भी मानते हैं।

कबीरपंथी : कबीर साहब द्वारा प्रचारित मत को मानने वाले भक्त। भारत में इनकी पर्याप्त संख्या है। परन्तु कबीरपंथ धार्मिक साधना और विचारधारा के रूप में है। अपने सामाजिक तथा व्यापक धार्मिक जीवन में वे पूर्ण हिन्दू हैं। कबीरपंथी विरक्त साधु भी होते हैं। वे हार अथवा माला (तुलसी काष्ठ की) पहनते हैं तथा ललाट पर विष्णु का चिह्न अंकित करते हैं। इस प्रकार इस पंथ के भ्रमणशील या पर्यटक साधु उत्तर भारत में सर्वत्र पर्याप्त संख्यात में पाये जाते हैं। ये अपने सामान्य, सरल एवं पवित्र जीवन के लिए प्रसिद्ध हैं।

कमलषष्ठी : यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक मनाया जाता और प्रतिमास एक वर्ष पर्यन्त चलता है। ब्रह्मा इसके देवता हैं। पञ्चमी के दिन व्रत के नियम प्रारम्भ होते हैं। षष्ठी को उपवास करना चाहिए। शर्करा से भरे सुवर्णकमल ब्रह्मा को चढ़ाने चाहिए। सप्तमी के दिन ब्रह्मा की प्रतिष्ठा करते हुए उन्हें खीर का भोग लगाना चाहिए। वर्ष के बारह महीनों में ब्रह्माजी की भिन्न-भीन्न नामों से पूजा करनी चाहिए। दे० भविष्योत्तरपुराण, 39।

कमलसप्तमी : यह व्रत चैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रारम्भ होकर एक वर्ष तक प्रतिमास चलता है। दिवाकर (सूर्य) इसके देवता हैं। दे० मत्स्यपुराण, 78.1-11।

कमला : दस महाविद्याओं में से एक। दक्षिण और वाम दोनों मार्ग वाले दसों महाविद्याओं की उपासना करते हैं। कमला इनमें से एक है। उसके अधिष्ठाता का नाम 'सदाशिव विष्णु' है। 'शाक्तप्रमोद' में इन दसों महाविद्याओं के अलग-अलग तन्त्र हैं, जिनमें इनकी कथाएँ, ध्यान एवं उपासनाविधि वर्णित हैं।

कमलाकर : भारतीय ज्योतिर्विदों में आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, कमलाकर आदि प्रसिद्ध ग्रन्थकार हुए हैं। ये सभी फलित एवं गणित ज्योतिष के आचार्य माने जाते हैं। भारतीय गणित ज्योतिष के विकास में कमलाकर भट्ट का स्थान उल्लेखनीय है।

करकचतुर्थी (करवाचौथ) : केवल महिलाओं के लिए इसका विधान है। कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को इसका अनुष्ठान होता है। एक वटवृक्ष के नीचे शिव, पार्वती, गणेश तथा स्कन्द की प्रतिकृति बनाकर षोडशोपचार के साथ पूजन किया जाता है। दस करक (कलश) दान दिये जाते हैं। चन्द्रोदय के पश्चात् चन्द्रमा को अर्घ्‍य देने का विधान है। दे० निर्णयसिन्धु, 196; व्रतराज 172।

कर्काचार्य : आपस्तम्ब गृह्यसूत्र के भाष्यकार। इन्होंने कात्यायनसूत्र एवं पारस्कररचित गृह्यसूत्र पर भी भाष्य लिखा है।

करकाष्टमी : कार्तिक कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। रात्रि को गौरीपूजन का विधान है। इसमें सुवासित जल से परिपूर्ण, मालाओं से परिवृत नौ कलशों का दान करना चाहिए। नौ कन्याओं को भोजन कराकर व्रती को भोजन करना चाहिए। यह व्रत महाराष्ट्र में बहुत प्रसिद्ध है।

कर्तभज : हिन्दू-मुस्लिमवाद से मिश्रित एक उपासनामार्गी समुदाय। इसकी शिक्षा एवं नैतिकता सन्देहात्मक है। इस पर इस्लाम का प्रभाव भी परिलक्षित होता है तथा इसके अनुयायी अपना सम्बन्ध चैतन्य से जोड़ते हैं।

कर्म : वैशेषिक दर्शन में इसका साधारण अर्थ क्रिया, गति, अथवा काम है। अन्य दर्शनों में यह एक आध्यात्मिक तत्त्व है, जिसको आत्मा संसार में वहन करता है। मनुष्य के मानस में यह संस्कार रूप से कार्य करता रहता है। इसका प्रयोग कार्य-कारण सम्बन्ध के अर्थ में भी होता है। इसी से शुभाशुभ कर्मफल उत्पन्न होता है। इसी के आधार पर मनुष्य के जमान्तर का भी निर्धारण होता है। इसके तीन प्रकार हैं-- (1) प्रारब्ध, (2) सञ्चित और (3) क्रियमाण। प्रारब्ध वह है जो वर्तमान जीवन को चला रहा और जिसका फल भोगना अनिवार्य है। सञ्चित वह है जो पहले से एकत्रित जमा है और प्रायश्चित से दूर किया जा सकता है, अथवा ज्ञान से जिसका निराकरण हो सकता है। क्रियमाण वह है जो वर्तमान मे किया जाता है, जिसका फल साथ ही उत्पन्न होता जाता है और जो भविष्य का निर्धारण करता है।

भक्ति सम्प्रदायों में यह विश्वास है कि भगवान् की दया, अनुग्रह अथवा प्रसाद से सब तरह के कर्मफल समूल कभी भी नष्ट हो सकते हैं।

कर्मवाद : आवागमन तथा कर्म का सिद्धान्त सर्वप्रथम भली भाँती ब्राह्मण ग्रन्थों में स्थापित किया गया है। फिर भी उपनिषदों में ही प्रथम बार इसका सम्बन्ध नैतिक कार्यकारण के सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत हुआ है। इस प्रकार इस गुरुतम सिद्धान्त की सृष्टि आर्यों की ही देन है। किन्तु कुछ विद्वानों का विश्वास है कि आदिम जातियाँ ही, जो यह विश्वास करती थीं कि मरने के बाद उनका आत्मा पशुशरीर में निवास करता है, उक्त सिद्धान्त को चलाने वाली हैं। यह बात अंशतः सत्य हो सकती है, क्योंकि आर्य लोग दैनिक जीवन में इनके संपर्क में रहते थे तथा धीरे-धीरे आर्यों ने इनसे सम्बन्ध भी आरम्भ कर दिया था। इनसे आर्येतरों ने वैज्ञानिक कार्य-कारण-सिद्धान्त 'कर्म' को सहज ही स्वीकार कर अपनी ओर से सामान्य लोगों में फैला दिया।

इस सिद्धान्त के अनुसार कारण और कार्य में प्रकृत सम्बन्ध है। कारण के अनुसार ही कार्य होता है। जीवात्मा अपने कर्म के अनुसार बार-बार जन्म ग्रहण करता एवं मरता है। मनुष्य का इस जन्म का चरित्र उसके दूसरे जन्म की अवस्थाओं का निर्णायक होता है। अच्छे चरित्र का सत्फल एवं बुरे का दण्ड मिलता है। दे० छान्दोग्य का उप० 5.10.7)।

काम के अर्थ में 'कर्म' शब्द एक अद्भुत शक्ति है जो सभी कर्मों को दूसरे जन्म के फल या कर्म के रूप में परिवर्तित कर कर देती है। इस सिद्धान्त का विकास होते होते निश्चित हुआ कि मनुष्य का मन, शरीर एवं चरित्र तथा उसके अनुभव उसके आगामी जन्म के कारणतत्त्व हैं। मनुष्य ने यह भी जाना कि जीवन पिछले कर्मों का फल है तथा एक जन्म के कर्म दूसरे जन्म में अच्छे फल एवं दण्ड की योजना करते हैं। इस प्रकार जन्म एवं मरण या संसार का आदि तथा अन्त नहीं है। इसी कारण आत्मा को आदि-अन्त रहित माना गया है।

किन्तु कर्म का अर्थ भाग्यवाद नहीं है। मनुष्य केवल अतीत के कर्मफल से बद्ध है। वर्तमान में उसे अपने कर्मों के चुनाव में स्वातंत्र्य है। इसके द्वारा वह अपने भविष्य का निर्माण करने वाला है। भक्तों में तो यह भी विश्वास है कि भगवत्कृपा से अतीत के कर्म भी नष्ट हो जाते हैं।

कर्मकाण्ड : (1) सम्पूर्ण वैदिक धर्म तीन काण्डों में विभक्त है-- (1) ज्ञान काण्ड, (2) उपासना काण्ड और (3) कर्म काण्ड। कर्मकाण्ड का मूलतः सम्बन्ध मानव के सभी प्रकार के कर्मों से है, जिनमें धार्मिक क्रियाएँ भी सम्मिलित हैं। स्थूल रूप से धार्मिक क्रियाओं को ही 'कर्मकाण्ड' कहते हैं, जिससे पौरोहित्य का घना सम्बन्ध है। कर्मकाण्ड के भी दो प्रकार हैं-- (1) इष्ट और (2) पूर्त। यज्ञ-यागादि, अदृष्ट और अपूर्व के ऊपर आधारित कर्मों को इष्ट कहते हैं। लोक-हितकारी दृष्ट फल वाले कर्मों को पूर्त कहते हैं। इस प्रकार कर्मकाण्ड के अन्तर्गत लोक-परलोक-हितकारी सभी कर्मों का समावेश है।

कर्मकाण्ड : (2) वेदों के सभी भाष्यकार इस बात से सहमत हैं कि चारों वेदों में प्रधानतः तीन विषयों; कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड एवं उपासनाकाण्ड का प्रतिपादन है। कर्मकाण्ड अर्थात् यज्ञकर्म वह है जिससे यजमान को इस लोक में अभीष्ट फल की प्राप्ति हो और मरने पर यथेष्ट सुख मिले। यजुर्वेद के प्रथम से उन्तालीसवें अध्याय तक यज्ञों का ही वर्णन है। अन्तिम अध्याय (40 वाँ) इस वेद का उपसंहार है, जो 'ईशावास्योपनिषद्' कहलाता है। वेद का अधिकांश कर्मकाण्ड और उपासना से परिपूर्ण है, शेष अल्प भाग ही ज्ञानकाण्ड है। कर्मकाण्ड कनिष्ठ अधिकारी के लिए है। उपासना और कर्म मध्यम के लिए। कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों उत्तम के लिए हैं। पूर्वमीमांसाशास्त्र कर्मकाण्ड का प्रतिपादक है। इसका नाम 'पूर्वमीमांसा' इस लिए पड़ा कि कर्मकाण्ड मनुष्य का प्रथम धर्म है, ज्ञानकाण्ड का अधिकार उसके उपरान्त आता है। पूर्व आचरणीय कर्मकाण्ड से सम्बन्धित होने के कारण इसे पूर्वमीमांसा कहते हैं। ज्ञानकाण्ड-विषयक मीमांसा का दूसरा पक्ष 'उत्तरमीमांसा' अथवा वेदान्त कहलाता है।

कर्मधारा : हिमालय का एक तीर्थस्थल। वराह भगवान् पाताल से पृथ्वी का उद्धार और हिरण्याक्ष का वध करने के पश्चात् यहाँ शिलारूप में स्थित हो गये थे। अलकनन्दा की धारा में यह उच्च शिला है। यहाँ गङ्गाजी के तट पर कर्मधारा तथा कई तीर्थ हैं।

कर्मनिर्णय : मध्वाचार्य द्वारा रचित एक दार्शनिक ग्रन्थ।

कर्मप्रदीप : सामवेद के गोभिल गृह्यसूत्र पर कात्यायन ने परिशिष्ट लिखा है, जिसे 'कर्मप्रदीप' कहते हैं। यद्यपि यह गोभिलगृह्यसूत्र के पूरक रूप में लिखा गया है, तो भी इसका आदर स्वतन्त्र गृह्यसूत्र और स्मृतिशास्त्र की तरह होता आया है। आशादित्य शिवराम ने इस ग्रन्थ की टीका की है।

कर्ममार्ग : धार्मिक साहित्य में मोक्ष के तीन मार्ग ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग तथा भक्तिमार्ग बतलाये गये हैं। उपनिषदों, सांख्यदर्शन, बौद्ध एवं जैन दर्शनों के विकसित रूप में जिन मार्ग का अवलम्बन बताया गया है, उसे ज्ञानमार्ग कहते हैं। दूसरा मार्ग कर्ममार्ग है। हिन्दुत्व में सबसे प्राचीन पवित्र धारणा कर्त्तव्यों के पालन की है जिसका धर्म शब्द में अन्तर्भाव हुआ है। कर्त्तव्यों में सबसे प्रमुख प्रारम्भ में 'यज्ञ' थे, किन्तु वर्ण, आश्रम, परिवार एवं समाज-सन्बन्धित कर्तव्य भी इसमें निहित थे। गीता का कर्मसिद्धान्त जिसे 'कर्मयोग' कहते हैं, यह बतलाता है कि वेदों में बताये गये कर्म केवल उतना ही फल इस लोक में या स्वर्ग में देते हैं जितना उन कर्मों (यज्ञों) के लिए निश्चित है, किन्तु जो मनुष्य इन्हें बिना इच्छा के (निष्काम) करता है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है। योग शब्द का प्रयोग गीता में अनेक अर्थों में हुआ है। इसका कौन सा अर्थ 'कर्मयोग' , इसका निश्चय करना कठिन है। किन्तु सम्भवतः यहाँ इसका अर्थ निग्रह है, अर्थात् आसक्तिरहित कर्म।

कर्ममहिमा (विश्वव्यापिनी) : विश्व कर्मप्रधान है। कर्म का संस्कार ही मानव की मूल शक्ति है। इसी के अनुसार मनुष्य के भाग्य का निर्णय होता है। कर्मभेद से ही मनुष्य अनेक योनियों-- देव, मनुष्य, तिर्यक् आदि-- में भ्रमण करता है। इसी के अनुसार वह लोक-लोकान्तर में जाता है। सत्त्वगुणात्मक कर्म पुण्य तथा तमोगुणात्मक कर्म पाप माना गया है। सत्त्वगुण के मार्ग पर चलनेवाला मनुष्य अपना अन्तःकरण शुद्ध करके परमानन्द मोक्ष को प्राप्त करता है। तमोगुणी और पापकर्म करनेवाला मानव अज्ञान और कर्मबन्धन में पड़ा रहता है। इसलिए कर्म के क्षेत्र में मनुष्य को पूर्णतः सावधान रहना चाहिए। कर्ममहिमा विस्तार से, शास्त्र के आधार पर नीचे दी जाती है :

कर्म की महिमा इस बात से ही जानी जा सकती है कि वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तथा चराचर विश्व को व्याप्त किये हुए है। प्रलय के उपरान्त चतुर्दश लोकों में नवीन जीवनसृष्टि समष्टि जीवों के पूर्वकर्म के अनुसार होती है। समस्त देवताओं द्वारा संसार की नियमानुसार रक्षा कर्मचक्र का ही परिणाम है। इसी के आधार पर देवता-गण अपनी-अपनी नियमित गतियों को प्राप्त करते हैं। निष्कर्ष यह है कि निखिल ब्रह्माण्ड में देव, ग्रह-नक्षत्र तथा चराचर सभी कर्म के कारण स्थित और गतिमान् हैं। सात्विक कर्म के तारतम्य से जीव को ऊर्ध्व सप्तलोकों तथा तामसिक कर्म के तारतम्य से अधः सप्तलोकों की प्राप्ति होती है। ऊर्ध्वलोक में आनन्द तथा अधोलोक में दुःख भोग का विधान है। धर्म से पुण्य और अधर्म से पाप होता है। सोमरस पान करने वाला यज्ञकर्मी पुण्यात्मा है। वह इन्द्रलोक में जाकर देवभोग्य दिव्य वस्तुओं को प्राप्त करने का अधिकारी होता है।

इसी प्रकार अधर्म के क्रमानुसार अधोलोक में निम्न और निम्नतर योनियों की प्राप्ति हुआ करती है। छान्दोग्योपनिषद के अनुसार पुण्य कर्म के अनुष्ठान से ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य आदि उत्तम योनियों की प्राप्ति होती है तथा निम्न या पाप कर्म के अनुष्ठान से कुक्कुर, सूकर और चाण्डाल आदि योनियों की प्राप्ति होती है। स्वर्ण चुरानेवाले, मदिरा सेवन करनेवाले, गुरुपत्नीगामी तथा ब्रह्मघाती एवं इनके साथ सम्बन्ध रखनेवाले सभी अधोगामी होते हैं। योगदर्शन के अनुसार कर्म ही सम्पूर्ण अविद्या और अस्मिता रूपी क्लेशों का मूल कारण है। कर्मसंस्कार ही जन्म और मरण-रूप चक्र में जीव के परिभ्रमण का कारण है। उसके पाप-पुण्य का फल भी इसी चक्र में भोगने को मिल जाता है।

महाभारत के अनुसार कर्मसंस्कार प्रत्येक अवस्था में जीव के साथ रहता है। जीव पूर्व जन्म में जैसा कर्म करता है पर जन्म में वैसा ही फल भोगता है। अपने प्रारब्ध कर्म का भोग उसे मातृगर्भ से ही मिलना आरम्भ हो जाता है। जीवन की तीन अवस्थाओं --बाल, युवा और वृद्ध में से जिस अवस्था में जैसा कर्म किया जाता है उसी अवस्था में उसका फल भी भोगने को मिलता है। जिस शरीर को धारण कर जीव कर्म करता है उसका फल भी उसी काया से प्राप्त होता है। इस तरह प्रारब्ध कर्म सदा कर्त्ता का अनुगामी होती है।

योगदर्शन के अनुसार कर्म के मूल में जाति, आयु और भोग तीनों निहित रहते हैं। कर्म के अनुसार उच्‍चवर्ग या निम्नवर्ग में जीव का जन्म होता है। प्रारब्ध कर्म आयु का भी निर्धारक है। अर्थात् जिस शरीर में जिस प्राक्तन कर्म के भोग का जितने दिन तक विधान होगा वह शरीर उतने ही दिन तक स्थित रह सकता है। तदुपरान्त दूसरे नवीन कर्म की भोगस्थिति दूसरे शरीर में होती है। कर्म के भोग पक्ष का भी वही विधान है। संसार में सुख और दुःख भी कर्म के अनुसार ही होते हैं। शरीर के अंगों का निर्माण भी पूर्व कर्म के अनुसार होता है। शरीर की रचना और गुण का तारतम्य भी प्राक्तन कर्म का परिणाम है। उसमें दोष और गुण का संचार धर्माधर्म रूपी कर्म का संस्कार है।

वेदों में कर्म की महिमा का सबसे अधिक वर्णन है। वेद के इस प्रकरण को कर्मकाण्ड कहते हैं। वहाँ तीन प्रकार के कर्मों का विधान है-- नित्य, नैमित्तिक और काम्य। नित्य कर्म करने से कोई विशेष फल तो नहीं मिलता पर न करने से पाप अवश्य होता है। जैसे त्रिकालसन्ध्या और पाँच महायज्ञादि हैं। पूर्व कर्म के अनुसार वर्त्तमान समय में मनुष्य प्रकृति की जिस कक्षा पर चल रहा है उसी पर पुनः बने रहने के लिए नित्य कर्म अत्यावश्यक है। ऐसा न करने से मनुष्य अपनी वर्तमान कक्षा से च्युत हो जाता है। जैसे पञ्च महायज्ञ आत्मोन्नति के एक साधन हैं, इनकी उपयोगिता पञ्च-सूना दोष दूर करने के लिए ही है। संसार में जीने के लिए मनुष्य प्रकृतिप्रवाह को आघात पहुँचाता है। उसे अपने जीवन-यापन के लिए नित्य सहस्रों प्राणियों की हत्या करनी पड़ती है। मनुष्य के श्वास-प्रश्वास तक से असंख्य प्राणियों की हत्या होती है। इस पाप को दूर करने के लिए भारतीय शास्त्रों में पञ्च महायज्ञों की व्यवस्था की गयी है।

मनु के अनुसार सामान्य गृहस्थ से भी कम से कम पाँच स्थलों पर जीवहत्या होती है-- चूल्हा, पेषणी (चक्की), उपस्कर (सफाई), कण्डनी (ऊखल) और उदकुम्भ (जलघड़ा)। इन पाँच चीजों का उपयोग जीवहिंसा का कारण होता है। इन नित्यहिंसाजनित पापों से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य को पञ्चमहायज्ञ रूपी नित्यकर्म करना आवश्यक है।

यही कारण है कि नित्यकर्म करने से पुण्य नहीं होता, पर न करने से पाप अवश्य होता है। वर्णाश्रम धर्म के अनुसार निर्धारित कर्म भी इस व्यवस्था के अन्तर्गत हैं। सभी जातियों की कर्मवृत्तियाँ उनके नित्यकर्म के अन्तर्गत आती हैं। जब तक मनुष्य अपने वर्ण और आश्रम धर्म के अनुसार कार्य न करेगा तब तक अपनी वर्तमान जाति में नहीं रह सकेगा। वह उच्चवर्ग को तो नहीं ही प्राप्त कर सकेगा; अपितु वर्तमान वर्ग से भी च्युत होकर अधोगामी हो जाएगा। ब्राह्मण का स्वाध्याय तथा वैश्यों के गोरक्षा आदि उनके नित्यकर्म हैं। इनके न करने से उन्हें पाप होता है और करने से वे अपनी भूमि पर स्थित रहते हुए उच्च पद को प्राप्त करते हैं। यही बात राजा के प्रजापालन के सम्बन्ध में भी है। संसार की अराजकता को दूर कर प्रजा के भय को दूर करना ही राजा का काम है ऐसा मनुसंहिता से स्पष्ट है। शुक्रनीतिसार के अनुसार धार्मिक और प्रजारञ्जक राजा देवांश होता है, अन्यथा उसे राक्षसांश समझना चाहिए; ऐसा राजा अधर्मी और प्रजापीड़क होता है; इससे अशान्ति का विस्तार होता है और सारी प्रजा भी पापी हो जाती है। राजा के पाप से प्रजा भी पापी होती है। इससे प्रजा में वर्णसंकरता आती है, जिससे ऋतुविपर्यय, अपग्रहों का अत्याचार तथा प्रजा का नाश आरम्भ होता है और अन्त में राज्य ही समूल नष्ट हो जाता है। अतएव प्रजापालन राजा का नित्य कर्म है।

जिन कर्मों के न करने से पाप नहीं होता अपितु करने से पुण्यफल की प्राप्ति होता है उनको 'नैमित्तिक कर्म' की संज्ञा दी गयी है। उदाहरणार्थ, तीर्थदर्शनादि। तीर्थों के दर्शन न करने से पाप नहीं होता पर दर्शन करने से पुण्य फल की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस प्रकार एक विषयी व्यक्ति साधु-महात्मा के पास पहुँच कर कुछ समय के लिए अपने विषय भाव को भूल जाता है, उसी प्रकार तीर्थों में जाकर व्यक्ति कुछ समय के लिए अपने सांसारिक मोह से मुक्ति पा जाता है। जिन दैवी शक्तियों के प्रभाव से तीर्थों की महिमा प्रतिष्ठित होती है उनकी सीमा में आने पर मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है। वह अपने विषम भाव को भूलकर सद्भावना से युक्त हो जाता है। यही तीर्थाटन का फल है। इसी प्रकार पूजा, दान, स्नान, देवस्थान दर्शन, साधु का दर्शन आदि भी नैमित्तिक कर्म हैं।

किसी विशेष कामना से किये गये कर्म 'काम्य कर्म' कहे जाते हैं। इनके मूल में स्वार्थ निहित रहता है। एक ही कार्य भावभेद से नैमित्तिक कर्म हो सकता है और काम्य कर्म भी। उदाहरणार्थ केवल तीर्थदर्शन के ध्येय से किया गया तीर्थाटन नैमित्तिक कर्म होगा। पर यदि वह किसी विशेष कामना की सिद्धि के लिए किया जाय तो उसे काम्य कर्म कहा जायगा। निष्कर्ष यह है कि नैमित्तिक कर्म के मूल में व्यक्ति की सामान्य धर्मभावना का योग रहता है, पर काम्य कर्म किसी विशेष कामना का प्रतिफलन है।

केवल भावभेद से ही कर्म की शक्ति में अन्तर आ जाता है। इसीलिए भावना के तारतम्य से कर्मों को तीन भागों में विभक्त किया गया हैं-- आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक। आत्मोन्नति के साथ मनुष्य की भावना उदारतापूर्ण और विचारमूलक हो जाती है, इसलिए उसके कर्मभाव में भी परिवर्तन हो जाता है। सामान्यतः आधिभौतिक कर्म विश्वभूतों से सम्बद्ध है। जिसमें भूतों के द्वारा मनुष्य की सम्पूर्ण मनोकामना फलवती हो उसे अधिभूत कर्म कहते हैं। ब्राह्मण भोजन और साधु भोजन आदि इसी के अन्तर्गत आते हैं, इन कार्यों से व्यक्ति इन लोगों की मानसिक शक्ति द्वारा कुछ आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास करता है। यही मनोकामना जब व्यक्तिगत सुखकामना और पर-सुखकामना से मिलकर सार्वभौमिक और लोकमंगलकारी हो जाती है तो उसे आधिभौतिक कर्म की संज्ञा दी जाती है। दरिद्रों को भोजन देना, अनाथालय स्थापित करना, चिकित्सालय की सहायता करना आदि इसी प्रकार के कार्य हैं। इनसे व्यक्ति को विशेष पुण्यलाभ होता है।

आधिदैविक कर्म दैविक शक्तियों को अनुकूल करके फल प्राप्त करने का साधन है। शास्त्रीय दृष्टि से प्रबल कर्म दुर्बल कर्म को दबा देते हैं। यदि कोई व्यक्ति दैवी शक्ति से प्राप्त प्रबल संस्कार से अपने प्रतिकूल संस्कारों को दबा दे तो यह उसका आधिदैविक कर्म कहा जायगा। ऐसा करके व्यक्ति अपने पुराने पापमय संस्कारों की पीड़ा से मुक्ति पा सकता है। आधिदैविक कर्म का अनुष्ठान स्वार्थसिद्धि के लिए भी होता है और विश्वमङ्गल की कामना से भी होता है। यदि देश में अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष या महामारी आदि का विस्तार हो जाय तो उसे समग्र प्राणियों के पाप का परिणाम समझना चाहिए। इनको दूर करने के लिए परोपकारी व्यक्ति द्वारा किये गये देवयज्ञ आदि दैवी संस्कार आधिदैविक कर्म कहे जायेंगे।

आध्यात्मिक कर्म बौद्धिक होते हैं। इसीलिए स्वदेश तथा स्वधर्म रक्षार्थ किये गये कार्य या ज्ञानविस्तारक कर्मों को आध्यात्मिक कर्म की संज्ञा दी गयी है। अहंकार के विकासक्रम में प्रकृति के निम्नतर स्तर से लेकर उच्चतर स्तर तक जाने के विविध सोपान हैं। जीव अपनी साधना के बल से क्रमशः निम्न स्तरों से ऊर्ध्व स्तरों को प्राप्त करता है। वासना के भिन्न-भिन्न स्तर हैं। उद्भिज और स्वेदज योनियों में वासना के प्राकृतिक और आत्मरक्षात्मक रूप मिलते हैं। मनोमय कोष के विकास के अभाव में उन्हें परसुख से स्वसुख के सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है। अण्डज योनि में इस ओर थोड़ा विकास हुआ है। अपने बच्चों पर प्रेम, दाम्पत्य प्रेम, अपत्य प्रेम आदि इस वासना के विस्तार के ही रूप हैं। मनुष्ययोनि में इसका सर्वाधिक विस्तार है। सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य समाज के अङ्ग-प्रत्यङ्ग पर ध्यान रखता है। मनुष्य स्वार्थ से परमार्थ की ओर क्रमशः बढ़ता रहता है। व्यष्टिकेन्द्र से समष्टि की ओर बढ़ना उसका स्वभाव है। इसीलिए बाल्यावस्था के व्यष्टिसुख से वह क्रमशः परिवारसुख और फिर समाजसुख और देशसुख की ओर उन्मुख होता है। इस प्रकार मनुष्य का अहंकार क्रमशः उदारता में परिणत हो जाता है। यहाँ तक कि वह संसार के सुख के लिए भी कष्ट सहने को तैयार हो जाता है। उस समय उसकी व्यक्तिगत सत्ता का इतना अधिक विस्तार हो जाता है कि उसकी स्वार्थबुद्धि नष्ट हो जाती है और परार्थबुद्धि का विकास होता है। ऐसा पवित्रात्मा आध्यात्मिक प्रगति अधिक करता है। वह ज्ञान और धर्म की उन्नति में अत्यधिक योग देता है। ऐसा महात्मा अपनी सत्ता का विस्तार करके 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धान्त को भाव रूप में अपना लेता है। वह विश्वजीवन और विश्वप्राण हो जाता है। उसके सभी कर्म जगत्कल्याण के होतु होते हैं, अतः वह पूर्ण साधुता को प्राप्त हो जाता है। आध्यात्मिक कर्म ही उसकी योगसाधना है।

भागवत के अनुसार सम्पूर्ण चराचर प्राणियों में ब्रह्म की सत्ता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विद्यमान है। अतः उनकी अवज्ञा करके परमेश्वर की पूजा करना गर्हणीय है। सब अनेक होकर भी एक हैं। अतः प्राणियों के प्रति बैरभाव को त्यागकर मित्रभाव से सर्वव्यापी परमात्मा का पूजन करना चाहिए। सर्वभूतों में परमात्मा की सत्ता की अनुभूति ही श्रेयस्कर है। हमारे प्राचीन ऋषियों का जीवन ऐसा ही था। समष्टि जीव के अज्ञानान्धकार को दूर करना और समस्त संसार का कल्याण करना उनका कर्तव्य था।

उपर्युक्त त्रिविध भेदों के साथ कर्म के दो भेद अन्य प्रकार से भी किये गये हैं। वे हैं-- सकाम कर्म और निष्काम कर्म। सकाम कर्म वासनामूलक होता है। जिस कामना या वासना से कर्म किया जाता है उसी के अनुकूल फल की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में इन कर्मों की विधि और फल वर्णित हैं। सकाम कर्म से मनुष्य को धूमयान गति और निष्काम कर्म से देवयान गति मिलती है। श्रीमद्भागवद्गीता में इन दो गतियों का वर्णन है। इन गतियों को क्रमशः कृष्णगति और शुक्लगति कहते हैं। पहली से पुनर्जन्म और दूसरी से अपुनरावृत्ति मिलती है। भोगकामना से किये गये कर्मीं का परिणाम जन्म-मरण होता है। इस प्रकार सकाम कर्म के द्वारा पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्ति नहीं मिलती।

सकाम कर्मी व्यक्ति अष्टादश फल प्रदायक कर्मों का अनुष्ठान करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को जरा-मरण के बन्धन से मुक्ति कभी नहीं मिल सकती। इनमें आसक्ति का प्राधान्य होता है इसलिए पुण्य के बल पर ये स्वर्ग में सुख भोगकर पुण्य क्षय होने पर पुनः मृत्युलोक में आ जाते हैं। ऐसे सकाम कर्मी हीन लोक को भी प्राप्त हो सकते हैं। इसलिए सकाम कर्म की अनित्यता तथा तुच्छता को जानते हुए मनुष्य को निष्काम कर्म औऱ वैराग्य का ही अनुष्ठान करना चाहिए।

सकाम कर्म से प्राप्त स्वर्ग में मनुष्य के पुण्य का क्षय होता है। इसलिए मर्त्यलोक के मिथ्यात्व को जानकर तत्त्वज्ञानी व्यक्ति वैराग्य का आश्रय ग्रहण करता है। इस प्रकार श्रुति के अनुसार ज्ञानी व्यक्ति पुत्र, धन और यश की सभी भौतिक इच्छाओं से विरत हो पूर्ण संन्यास ग्रहण करता है। निष्काम कर्मयोग से वह पूर्णतः वासनाशून्य हो जाता है और अन्ततः उत्तरायण गति को प्राप्त होता है।

इसके अतिरिक्त एक तीसरी सहज गति है जिसके अनुसार मनुष्य को इहलोक में ही मुक्ति मिल जाती है। ज्ञानी पुरुष परमात्मा की सत्ता से विज्ञ होकर उसी विराट् सत्ता में अपनी सत्ता को विलीन कर देते हैं और परितृप्त, वीतराग तथा प्रशान्त हो विदेह लाभ करते हैं। अतएव निष्काम कर्मयोगी ज्ञानी होकर मुक्तिपद को प्राप्त करता है।

तीन गुणों के भेद से कर्म के भी तीन भेद निर्धारित किये गये हैं। इसीलिए गीता में भी कृष्ण ने गुणों के क्रमानुसार त्रिविध यज्ञ, त्रिविध कर्म और त्रिविध कर्त्ता की व्यवस्था की है।

कर्ममीमांसा : पूर्व मीमांसा' को ही कर्ममीमांसा कहते हैं। इसका उद्देश्य है धर्म के विषय में निश्चय को प्राप्त करना अथवा सभी धार्मिक कर्त्तव्यों को बताना। किन्तु वास्तव में यज्ञकर्मों की विवेचना ने इसमें इतना अधिक महत्त्व प्राप्त किया है कि दूसरे कर्म उसकी ओट में छिप जाते हैं। ऋचाओं तथा ब्राह्मणों में सभी आवश्यक निर्देश हैं, किन्तु वे नियमित नहीं हैं इस कारण पुरोहित को यज्ञों के अनुष्ठान में नाना कठिनाइयाँ पड़ती हैं। मीमांसा ने इन समस्याओं के समाधान के लिए अपने सिद्धान्त उपस्थित किये तथा वैदिक संहिताओं के समझने में निर्देशक का कार्य किया है।

वेदों में बताये गये यज्ञों के बहुत से फल कहे गये हैं, किन्तु वे कार्य के साथ ही तुरन्त नहीं देखे जा सकते। इसलिए यह विश्वास करना आवश्यक है कि यज्ञ से 'अपूर्व' फल प्राप्त होता है, जो अदृश्य है और जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है और जो समय आने पर कहे गये फल को देगा।

पूर्व मीमांसा अध्यात्म मार्ग की शिक्षा नहीं देती, फिर भी किसी-किसी स्थान पर उसमें आध्यात्मिक विचार आ ही गये हैं। ईश्वर की सत्ता का विरोध यहाँ इस आधार पर हुआ है कि एक सर्वज्ञ की धारणा नहीं की जा सकती। विश्व की प्रामाणिक अनुभवगत धारणा यहाँ उपस्थित हुई है। सृष्टि की अनन्तता को वस्तुओं के नाश एवं पुनः उत्पत्ति के विश्वास की भूमिका में समझा गया है एवं कर्म के सिद्धान्त पर इतना जोर दिया गया है कि आवागमन से मुक्ति पाना कठिन ही जान पड़ता है।

यह चिन्तनप्रणाली वैदिक याज्ञिकों, पुरोहितों की सहायता के लिए स्थापित हुई। आज भी यह गृहस्थों के दैनन्दिन जीवन में निर्देशक का कार्य करती है। वेदान्त, सांख्य तथा योग के समान यह संन्यास की शिक्षा नहीं देती और न संन्यासियों से इसका सम्बन्ध ही रहा है।

कर्मयोग : भारतीय जीवन के तीन मार्ग माने गये हैं-- (1) कर्ममार्ग, (2) ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग। इन्हीं तीनों को क्रमशः कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग भी कहते हैं। वास्तव में ये समानान्तर नहीं, किन्तु समवेत मार्ग हैं। पूर्ण जीवन के लिए तीनों का समन्वय आवश्यक है। कर्म मार्ग के विरुद्ध कर्मसंन्यासियों का सबसे बड़ा आक्षेप यह था कि कर्म से बन्धन होता है; अतः मोक्ष के लिए कर्मसंन्यास आवश्यक है। भगवद्गीता में यह मत प्रतिपादित किया गया कि जीवन में कर्म त्याग असम्भव है। कर्म से केवल बन्ध का दंश तोड़ देना चाहिए। जो कर्म ज्ञानपूर्वक भक्तिभाव से अनासक्ति के साथ किया जाता है उससे बन्ध नहीं होता। इसमें तीनों मार्गों का समुच्च्य और समन्वय है। इसी को गीता में कर्मयोग कहा गया है। इसका प्रतिपादन निम्नलिखित प्रकार से किया गया है (गीता, 3.3-9) :

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥3॥

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥4॥

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥5॥

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढ़ात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥6॥

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥7॥

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥8॥

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर॥9॥

[हे निष्पाप अर्जुन! इस संसार में दो प्रकार की निष्ठाएँ मेरे द्वारा पहले कही गयी हैं--ज्ञानियों की ज्ञानयोग से और योगियों (कर्मयोगियों) की (निष्काम) कर्मयोग से। मनुष्य केवल कर्म के अनारम्भ से निष्कर्मता को प्राप्त नहीं होता है और न केवल कर्मों के त्याग से सिद्धि को प्राप्त करता है। क्योंकि कोई भी पुरुष किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता है। निश्चय पूर्वक सभी प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करते हैं। जो कर्मेन्द्रियों को बाहर से रोककर भीतर से मन के द्वारा इन्द्रियों के विषयों का स्मरण करता रहता है वह विमूढ़ात्मा मिथ्याचारी कहा जाता है। किन्तु हे अर्जुन! (इसके विपरीत) मन द्वारा भीतर से इन्द्रियों का नियन्त्रण करके कर्मेन्द्रियों से अनासक्त होकर जो कर्मयोग का आचरण करता है वह श्रेष्ठ माना जाता है। तुम शास्त्रविहित कर्म को करो। क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। तुम्हारे कर्म न करने से तुम्हारी शरीरयात्रा भी संभव न होगी। (सभी कर्मों से बन्ध नहीं होता) यज्ञार्थ (लोकहित) के अतिरिक्त कर्म करने से लोक में मनुष्य कर्मबन्धन में फँसता है। इसलिए हे अर्जुन! आसक्ति से मुक्त होकर यज्ञार्थ (समष्टि के कल्याण के लिए कर्म का सम्यक् प्रकार से आचरण करो।]

कर्मविभाग : यह वर्णविभाग का पर्याय है। मानवसमूह की जितनी आवश्यकताएँ हैं उनके विचार से विधाता ने सत्ययुग में चार बड़े विभाग किये। शिक्षा की पहली आवश्यकता थी। इसीलिए सबसे पहले-- देव-दानव-यज्ञादि से भी पहले-बड़े तेजस्वी, प्रतिभाशाली, सर्वदर्शी ब्राह्मणों की सृष्टि की। इन्हीं से सारी पृथ्वी के लोगों ने सब कुछ सीखा। राष्ट्र की रक्षा, प्रजा की रक्षा, व्यक्ति की रक्षा दूसरी आवश्यकता थी। इस काम में कुशल, बाहुबल को विवेक से काम में लाने वाले क्षत्रिय हुए। शिक्षा और रक्षा से भी अधिक आवश्यक वस्तु थी जीविका। अन्न के रक्षा से भी अधिक आवश्यक वस्तु थी जीविका। अन्न के बिना प्राणी जी नहीं सकता था। पशुओं के बिना खेती हो नहीं सकती थी। वस्तुओं की अदला-बदली बिना सबको सब चीजें मिल नहीं सकती थी। चारों वर्णों को अन्न, दूध, घी, कपड़े-लत्ते आदि सभी वस्तुएँ चाहिए। इन वस्तुओं को उपजाना, तैयार करना, फिर जिसकी जिसे जरूरत हो उसके पास पहुँचाना; यह सारा काम प्रजा के एक बड़े समुदाय को करना ही चाहिए। इसके लिए वैश्यों का वर्ण हुआ। किसान, व्यापारी, ग्वाले, कारीगर, दूकानदार, बनजारे ये सभी वैश्य हुए। शिक्षक को, रक्षक को, वैश्य को छोटे-मोटे कामों में सहायक और सेवक की जरूरत थी। धावक तथा हरकारे की, हरवाहे की, पालकी ढोने वाले की, पशु चराने वाले की, लकड़ी काटने वाले की, पानी भरने वाले की, बासन माँजने वाले की, कपड़े धोने वाले की जरूरत थी। ये जरूरतें शूद्रों ने पूरी की। इस तरह जनसमुदाय की सारी आवश्यकताएँ प्रजा में पारस्परिक कर्मविभाग से पूरी हुईं। यही कर्मविभाग अंग्रेजी के भ्रमोत्पादक उल्थे से आज `श्रमविभाग` बन गया है। प्रजा में यह कर्मविभाग तथा समाज में यह श्रमविभाग सनातन है। `स्वेस्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः` गीता ने इसी कर्मसाङ्कर्य से बचने की शिक्षा दी है। ऐसा कर्मविभाग हिन्‍दू-दण्‍डनीति अथवा समाजशास्‍त्र में है। ऐसा अद्भुत संगठन संसार में दूसरा नहीं है।

चारों वर्णों का कर्मविभाग मनु आदि के धर्मशास्त्रों में इस प्रकार बतलाया गया है :

ब्राह्मण-- पठन-पाठन, यजन-याजन, दान-प्रतिग्रह;

क्षत्रिय-- पठन, यजन, दान; रक्षण, पालन, रंजन;

वैश्य--पठन, यजन, दान;कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य;

शूद्र-- पठन, यजन (मन्त्ररहित), दान; अन्य वर्णों की सेवा (सहायता)।

इन्ही कर्मों से जीवन में सिद्धि प्राप्त होती है :

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः॥ (गीता 18.46)

[जिस परमात्मा से सभी जीवधारियों की उत्पत्ति हुई है और जिसके द्वारा यह सम्पूर्ण विश्व का वितान तना गया है, अपने स्वाभाविक कर्मों से उसकी अर्चना करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता है।]

कर्मसंन्यास : स्वामी शङ्कराचार्य ने अपने भाष्यों में स्थान-स्थान पर कर्मों के स्वरूप से त्याग करने पर जोर दिया है। वे जिज्ञासु और ज्ञानी दोनों के लिए सर्व कर्मसंन्यास की आवश्यकता बतलाते हैं। उनके मत में निष्काम कर्म केवल चित्तशुद्धि का हेतु है। परमपद की प्राप्ति कर्म-संन्यासपूर्वक श्रवण, मनन, निदिध्यासन करके आत्मतत्व का बोध प्राप्त होने पर ही हो सकती है।

श्रीमद्भगवद्गीता में इससे भिन्न मत प्रकट किया गया है। इसके अनुसार काम्य कर्मों का त्याग तथा नित्य और नैमित्तिक कर्मों का अनासक्तिपूर्वक सम्पादन ही कर्मसंन्यास है; यज्ञार्थ अथवा भगवदर्पण बुद्धि से कर्म करने से बन्ध नहीं होता। गीता (3.15-25) में यज्ञार्थ कर्म के सम्बन्ध में निम्नांकित कथन है :

कर्म ब्रह्योद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्। तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥ एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥ कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥

इसी प्रकार (4.31 में) कहा है:, यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥ गीता (6.1 में) पुनः कथन है:

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥

कर्मसाङ्कर्य : अपने स्वभावज कर्म को छोड़कर लोभ अथवा भयवश दूसरे के कर्म को जीविकार्थ करना कर्मसाङ्कर्य कहलाता है। प्राचीन काल में प्रत्येक वर्ण एवं आश्रम के अलग-अलग निर्धारित नियम एवं कर्म थे। (दे० 'वर्ण' और 'आश्रम'।) ब्रह्मचर्याश्रम में प्रवेश का अधिकार प्रथम तीन वर्णों को, गृहस्थाश्रम में सभी वर्णों को, वानप्रस्थ में केवल प्रथम दो को था एवं संन्यास में प्रवेश एक मात्र ब्राह्मण कर सकता था। कालान्तर में आश्रम के नियम ढीले पड़े। ब्रह्मचर्याश्रम के कतिपय संस्कारों को न पूरा कर ब्राह्मण भी अपने बालकों को गृहस्थाश्रम में प्रवेश करा देते थे। वानप्रस्थ और संन्यास तो अत्यन्त त्यागपूर्ण आश्रम थे। इनकी अवहेलना स्वाभाविक थी ही। इस प्रकार गृहस्थाश्रम ही प्रधान आश्रम रहा एवं एक आश्रम में रहकर भी अन्य आश्रमों के नियम व कर्मों का (सुविधा के अनुसार) पालन होता रहा।

उधर भिन्न वर्णों के लिए जो भिन्न-भिन्न कार्य निश्चित किये गये थे, इस नियम में भी शिथिलता आने लगी। ब्राह्मण शस्त्रोपजीवी होने लगे। द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि इसके उदाहरण हैं। ययाति के पुत्र यदु आदि को राज्याधिकार नहीं मिला तो वे पशुपालनादि करने लगे। समाज की आवश्यकता के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय भी अधिकांश अपने-अपने काम छोड़कर वैश्यवत् गार्हस्थ्य-धर्म पालन करने लगे थे। इस प्रकार प्राचीन काल में ही कर्मसाङ्कर्य प्रारम्भ हो गया था। वर्तमान काल में तो यह साङ्कर्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ है। अनेक सामाजिक दुर्व्यवस्थाओं का यह एक बहुत बड़ा कारण है।

कर्मेन्द्रिय : मनुष्य की दस इन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ सबका स्वामी मन होता है। दस इन्द्रियों में पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय हैं। वाक्, हस्त, पाद, गदा और उपस्थ ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं जिनका शरीर के हितार्थ कार्यात्मक उपयोग होता है।

कर्मेन्द्रियों का संयम धार्मिक साधना का प्रथम चरण है। किन्तु इनका संयम भी आन्तरिक मन से होना चाहिए; बाहरी हठपूर्वक नहीं। जो बाहर से अपनी इन्द्रियों को रोकता है किन्तु भीतर से उनके विषयों का ध्यान करता है, वह मूढ़ात्मा और मिथ्याचारी है। गीता (3.6, 7) में कथन है:

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥ यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मेयोगमसक्तः स विशिष्यते॥

कर्णप्रयाग : यह तीर्थस्थल गढ़वाल जिले के अन्तर्गत है। यहाँ भागीरथ और अलकनन्दा का संगम है।

कर्णश्रवा (आङ्गिरस) : पञ्चविंश ब्राह्मण (13.11, 14) में इन्हें साम गान का ऋषि बताया गया है। यही बात दावसु के बारे में भी कही गयी है।

करण ग्रन्थ : वर्तमान चान्द्र मास, तिथि आदि पञ्चाङ्ग की विधि अत्यन्त प्राचीन है और वैदिक काल से चली आयी है। बीच-बीच में कालानुसार बड़े-बड़े ज्योतिषियों ने करण ग्रन्थ लिखकर और संस्कार द्वारा संशोधन करके इसकी कालविषमता को ठीक कर रखा है। करण ग्रन्थों के द्वारा ज्योतिष में बराबर संशोधन होते चले आये हैं। संप्रति मकरन्दीय, ग्रहलाघव जैसे करण ग्रन्थ अधिक प्रचलित हैं।

करम्भ : जौ के सत्तू को दही में मिलाकर बनाया गया एक होमद्रव्य। यह कृषि के देवता पूषा का प्रिय य़ज्ञभाग है। दक्षयज्ञध्वंस के समय वीरभद्र ने पूषा के दाँत तोड़ दिये थे, तब से वे कोमल पिष्ट (करम्भ) की हवि ग्रहण करते हैं। करम्भ जुआर आदि से भी बनाया जाता है।

करविन्दस्वामी : आपस्तम्ब शुल्वसूत्र के ये एक भाष्यकार हुए हैं।

करवीरप्रतिपदाव्रत : ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। किसी देवालय के उद्यान में खड़े हुए करवीर वृक्ष का पूजन करना चाहिए। तमिलनाडु में यह व्रत वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन मनाया जाता है।

कलश : धार्मिक कृत्यों में कलश की स्थापना एक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है। इसमें वरुण की पूजा होता है। विवाह, मूर्तिस्थापना, जयप्रयाण, राज्याभिषेक आदि के समय एक कलश अथवा कई कलशों की अथवा अधिक से अधिक 108 कलशों की स्थापना की जाती है। कलश की परिधि 15 अंगुल से 50 अंगुल तक; ऊँचाई 16 अंगुल तक; तली 12 अंगुल और मुँह 8 अंगुल चौड़ा होना चाहिए। हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.608 में इस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी हुई है :

कलां कलां गृहीन्वा च देवाना विश्वकर्मणा। निर्मितोऽयं सुरैर्यस्मात् कलशस्तेन उच्यते॥

ऋग्वेद एवं परवर्ती साहित्य में 'पात्र' या 'घट' के लिए व्यवहृत शब्द 'कलश' था, जो कच्ची या पक्की मिट्टी का बना होता था। दोनों प्रकार के पात्र व्यवहार में आते थे। सोमरस के काष्ठनिर्मित द्रोणकलश का उल्लेख प्रायः यज्ञों में हुआ है।

कलस : इसकी व्युत्पत्ति 'क (जल) से लस सुशोभित होता है' (केन लसतीति) की गयी है। कालिकापुराण (पुष्याभिषेक, अध्याय 87) में उसकी उत्पत्ति और धार्मिक माहात्म्य का वर्णन इस प्रकार किया गया है :

देवता और असुरों द्वारा अमृत के लिए जब सागर का मन्थन हो रहा था तो अमृत (पीयुष) के धारणार्थ विश्वकर्म ने कलश का निर्माण किया। देवताओं की पृथक्-पृथक् कलाओं को एकव करके यह बना था, इसलिए कलस कहलाया। नव कलस हैं, जिनके नाम हैं गोह्य, उपगोह्य, मरुत्, मयूख, मनोहा, कृषिभद्र, तनुशोधक, इन्द्रियघ्न औऱ विजय। हे राजन्, इन नामों के क्रमशः नौ नाम और हैं उनको सुनो, जो सदैव शान्ति देने वाले हैं। प्रथम क्षितीन्द्र, द्वितीय जलसम्भव, तीसरा पवन, चौथा अग्नि, पाँचवाँ यजमान, छठा कोशसम्भव, सातवाँ सोम, आठवाँ आदित्य औऱ नवाँ विजय। कलस को पञ्चमुख भी कहा गया है, वह महादेव के स्वरूप को धारण करनेवाला है। कलस के पाँच मुखों में पञ्चानन महादेव स्वयं निवास करते हैं, इसलिए सम्यक् प्रकार से वामदेव आदि नामों से मण्डल के पद्मासन में पञ्चवकधट का न्यास करना चाहिए। क्षितीन्द्र को पूर्व में, जलसम्भव को पश्चिम में, पवन को वायव्य में, अग्निसम्भव को अग्निकोण में, यजमान को नैऋत्य में, कोशसम्भव को ईशान में सोम को उत्तर में और आदित्य को दक्षिण में रखना चाहिए। कलस के मुख में ब्रह्मा और ग्रीवा में शङ्कर स्थित हैं। मूल में विष्णु और मध्य में मातृगण का न वास हैं। दिक्पाल देवता दसों दिशाओं से इसका मध्य में वेष्टन करते हैं और उदर में सप्तसागर तथा सप्त द्वीप स्थित हैं। नक्षत्र, ग्रह, सभी कुलपर्वत, गङ्गा आदि नदियाँ, चार वेद, सभी कलस में स्थित हैं। कलस में इनका चिन्तन करना चाहिए। रत्न, सभी बीज, पुष्प, फल, वज्र, मौक्तिक, वैदूर्य, महापद्म, इन्द्रस्फटिक, बिल्व, नागर, उदुम्बर, बोजपूरक, जम्बीर, आभ्र, आम्लातक, दाडिम, यव, शालि, नीवार, गोधूम, सित सर्षप, कुंकुम, अगुरु, कर्पूर, मदन, रोचन, चन्दन, मांसी, एला, कुष्ठ, कर्पूरपत्र, चण्ड, जल, निर्यासक, अम्बुज, शैलेय, बदर, जाती, पत्रपुष्य, कालशाक, पृक्का, देवी, पर्णक, वच, धात्री, मज्जिष्ठ, तुरुष्क, मङ्गलाष्टक, दूर्वा, मोहनिका, भद्रा, शतमूली, शतावरी, पर्णों में शवल, क्षुद्रा, सहदेवी, गजाङ्कुश, पूर्णकोषा, सिता, पाठा, गुञ्जा, सुरसी, कालस, व्यामक, गजदन्त, शतपुष्पा, पुनर्णवा, ब्राह्मी, देवी, सिता, रुद्रा और सर्वसन्धानिका, इन सभी शुभ वस्तुओं को लाकर कलस में निधापन करना चाहिए। कलस के देवता विधि, शम्भु, गदाधर (विष्णु) का यथाक्रम पूजन करना चाहिए। विशेष करके शम्भु का। प्रशादमन्त और शम्भुतन्त्र से शङ्कर का प्रथम पूजन करना चाहिए। इसके पश्चात् नानाविधि से दिक्पालों का पूजन करना चाहिए। पहले स्थापित कलसों में नवग्रोहों की और मातृघटों में मातृकाओं की पूजा करनी चाहिए। घट में सभी देवताओं की पृथक्-पृथक् पूजा होती है। मुख्यतया पूर्वोक्त नव देवताओं की। भक्ष्य, माल्य, पेय, पुष्प, फल, यावक, पायस आदि यथासम्भव आयोजनों से राजा को सभी देवताओं का पूजन करना चाहिए।

कला : शिव की शक्ति का एक रूप । शिव द्वारा विश्व की क्रमिक सृष्टि अथवा विकास की प्रक्रिया का ही नाम कला है । सभी कलाओ में शक्ति की अभिव्यक्ति है । शैव तन्त्रो में चौसठ कलाओ का उल्लेख पाया जाता है । उनकी सूची निम्नाकित है:

1. गीत, 2. वाद्य, 3. नृत्य, 4. नाट्य, 5. आलेख्य, 6. विशेषकच्छेद्य, 7. तण्डुलकुसुमबलिविकार, 8. पुष्पास्तरण, 9. दशन-वसनाङ्गराग, 10. मणिभूमिका कर्म, 11. शयनरचना, 12. उदकवाद्यम् , 13. पानकरसरागासवयोजन, 14. सूचीवापकर्म, 15. सूत्रक्रीड़ा, 16. प्रहेलिका, 17. प्रतिमाला, 18. दुर्वचकयोग, 19. पुस्तकवाचन, 20. नाटिकाख्यायिकादर्शन, 21.काव्यसमस्यापूरण, 22. पट्टिका-वेत्र-बाण-विकल्प, 23. तर्कु-कर्म, 24. तक्षण, 25. वास्तुविद्या, 26. ख्प्यान्तरपरीक्षा, 27. धातुवाद, 28. मणिरागज्ञान, 29. आकरज्ञान, 30. वृक्षायुर्वेदयोग, 31. मेष-कुक्कुट-लावक-युद्ध, 32.शुकसारिकाप्रलापन, 33. उदकघात, 34.चित्रायोग, 35. माल्यग्रथनविकल्प, 36. शेखरापीडयोजन, 37. नेपथ्यायोग, 38. कर्णपत्रभङ्ग, 39. गन्धयुक्ति, 40. भूषणयोजन, 41. ऐन्द्रजाल, 42. कौचुमारयोग, 43. हस्तलाघव, 44. चित्रशाक-पूप-भक्ष्य-विकल्पक्रिया, 45. केशमार्जनकौशल, 46. अक्षरमुष्टिकाकथन, 47. म्लेच्छित-कविकर्म, 48. देशभाषज्ञान, 49. पुष्पशकटिकाः निमित्र-ज्ञान, 50. यन्त्रमातृका, 51. धारणमातृका, 52. सम्पाठ्य, 53. मानसीकाव्यक्रिया, 54. मानसीकाव्यक्रिया, 55. छलितकयोग, 56. अभिधानकोषछन्दोज्ञान, 57. वस्त्रगोपन, 58. द्यूतविशेष, 59. आकर्षक्रीड़ा, 60. बालकक्रीडन, 61. वैनायिकीविद्याज्ञान, 62. वैजयिकीविद्याज्ञान, 63. वैतालिकीविद्याज्ञान, 64. उत्सादन । भागवत की श्रीधरी टीका में भी इन कलाओं की सूची दी गयी है।

कला का एक अर्थ जिह्वा भी है। हठयोगप्रदीपिका (3.37) में कथन हैं : कलां पराङ्मुखीं कृत्वा त्रिपथे परियोजयेत्। (जिह्वा को उलटी करके तीन नाडियों के मार्ग कपाल-गह्वर में लगाना चाहिए।) अकार या शक्ति का माप भी कला कहा जाता है, यथा चन्द्रमा की पंद्रहवी कला, सोलह कला का अवतार (षोडशकलोऽयं पुरुषः।)। राशि के तीसवें अंश के साठवें भाग को भी कला कहते हैं।

कलानिधितन्त्र : एक मिश्रित तन्त्र। मिश्रित तन्त्रों में देवी की उपासना दो लाभों के लिए बतायी गयी हैं; पार्थिव सुख तथा मोक्ष, जबकि शुद्ध तन्त्र केवल मोक्ष के लिए मार्ग दर्शाते हैं। `कलानिधितन्त्र` में कलाओं के माध्यम से तान्त्रिक साधना का मार्ग बतलाया गया है।

कलि : यह शब्द ऋग्वेद में अश्विनों द्वारा रक्षित किसी व्यक्ति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अथर्ववेद में कलि (बहुवचन) का प्रयोग गन्धर्वों के वर्णन के साथ हुआ है। विवाद, कलह; बहेड़े के वृक्ष और कलियुग के स्वामी असुर का नाम भी कलि है।

कलियुग : विश्व की आयु के सम्बन्ध में हिन्दू सिद्धान्त तीन प्रकार के समयविभाग उपस्थित करता है। वे हैं-- युग, मन्वन्तर एवं कल्प। युग चार हैं-- कृत्, त्रेता, द्वापर एवं कलि। ये प्राचीनोक्त स्वर्ण, रूपा, पीतल एवं लौह युग के समानार्थक हैं। उपर्युक्त नाम जुए के पास के पक्षों के आधार पर रखे गये हैं। कृत सबसे भाग्यवान् माना जाता है जिसके पक्षों पर चार बिन्दु हैं, त्रेता पर तीन, द्वापर पर दो एवं कलि पर मात्र एक बिन्दु है। ये ही सब सिद्धान्त युगों के गुण एवं आयु पर भी घटते हैं। क्रमशः इन युगों में मनुष्य के अच्छे गुणों का ह्रास होता है तथा युगों को आयु भी क्रमशः 4800 वर्ष, 3600 वर्ष, 2400 वर्ष 1200 वर्ष है। सभी के योग को एक महायुग कहते हैं जो 12000 वर्ष का है। किन्तु ये वर्ष दैवी हैं और एक दैवी वर्ष 360 मानवीय वर्ष के तुल्य होता है, अतएव एक महायुग 43,20,000 वर्ष का होता है। कलि का मानवीय युगमान 4,32,000 वर्ष हैं। कलि (तिष्य) युग में कृत (सत्ययुग) के ठीक विपरीत गुण आ जाते हैं। वर्ण एवं आश्रम का साङ्कर्य, वेद एवं अच्छे चरित्र का ह्रास, सर्वप्रकार के पापों का उदय, मनुष्यों में नानाव्याधियों की व्याप्ति, आयु का क्रमशः क्षीण एवं अनिश्चित होना, बर्बरों द्वारा पृथ्वी पर अधिकार, मनुष्यों एवं जातियों का एक दूसरे से संघर्ष आदि इसके गुण हैं। इस युग में धर्म एकपाद, अधर्म चतुष्पाद होता है, आयु सौ वर्ष की। युग के अन्त में पापियों के नाश के लिए भगवान् कल्कि-अवतार धारण करेंगे। युगों की इस कालिक कल्पना के साथ एक नैतिक कल्पना भी है, जो ऐतरेय ब्राह्मण तथा महाभारत में पायां जाती हैं :कलिः श्यानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः।, उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतः सभ्पद्यते चरन्॥, (सोनेवाले के लिए कलि, अँगड़ाई लेनेवाले के लिए द्वापर, उठनेवाले के लिए त्रेता और चलने वाले के लिए कृत (सत्ययुग) होता है।) कल्किपुराण (प्रथम अध्याय) में कलियुग उत्पत्ति का वर्णन निम्नांकित है :

संसार के बनानेवाले लोकपितामह ब्रह्मा ने प्रलय के अन्त में घोर मलिन पापयुक्त एक व्यक्ति को अपने पृष्ठ भाग से प्रकट किया। वह अधर्म नाम से प्रसिद्ध हुआ, उसके वंशानुकीर्तन, श्रवण और स्मरण से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। अधर्म की सुन्दर विडालाक्षी (बिल्ली के जैसी आँखवाली) भार्या मिथ्या नाम की थी। उसका परमकोपन पुत्र दम्भ नामक हुआ। उसने अपनी बहिन माया से लोभ नामक पुत्र और और निकृति नामक पुत्री को उत्पन्न किया, उन दोनों से क्रोध नामक पुत्र उथ्पन्न हुआ। उसने अपनी हिंसा नामक बहिन से कलि महाराज को उत्पन्न किया। वह दाहिने हाथ से जिह्वा और वाम हस्त से उपस्थ (शिश्न) पड़े हुए, अंजन के समान वर्णवाला, काकोदर, कराल मुखवाला और भयानक था। उससे सड़ी दुर्गन्ध आती थी और वह ध्यूत, मद्य, हिंसा, स्त्री तथा सुवर्ण का सेवन करने वाला था। उसने अपनी दुरुक्ति नामक बहिन से भय नामक पुत्र और मृत्यु नामक पुत्री उत्पन्न किये। उन दोनों का पुत्र निरय हुआ। उसने अपनी यातना नामक बहिन से सहस्रों रूपों वाला लोभ नामक पुत्र उत्पन्न किया। इस प्रकार कलि के वंश में असंख्य धर्सनिन्दक सन्तान उत्पन्न होती गयीं।`

गरुडपुराण (युगधर्म, 117 अ०) में कलिधर्म का वर्णन इस प्रकार है :

जिसमें सदा अनृत, तन्द्रा, निद्रा, हिंसा, विवाद, शोक, मोह भय और दैन्य बने रहते हैं, उसे कलि कहा गया है। उसमें लोग कामी और सदा कटु बोलनेवाले होंगे। जनपद दस्युओं से आक्रान्त और वेद पाखण्ड से दूषित होगा। राजा लोग प्रजा का भक्षण करेंगे। ब्राह्मण शिश्नोदरपरायण होंगे। विद्यार्थी व्रतहीन और अपवित्र होंगे। गृहस्थ भिक्षा माँगेंगे। तपस्वी ग्राम में निवास करने वाले, धन जोड़ने वाले और लोभी होंगे। क्षीण शरीर वाले, अधिक खाने वाले, शौर्यहीन, मायावी, दुःसाहसी भृत्य (नौकर) अपने स्वामी को छोड़ देंगे। तापस सम्पूर्ण व्रतों को छोड़ देंगे। शूद्र दान ग्रहण करेंगे और तपस्वी वेश से जीविका चलायेंगे, प्रजा उद्विग्न, शोभाहीन और पिशाच सदृश होगी। बिना स्नान किये लोग भोजन, अग्नि, देवता तथा अतिथि का पूजन करेंगे। कलि के प्राप्त होने पर पितरों के लिए पिण्डोदक आदि क्रिया न होगी। सम्पूर्ण प्रजा स्त्रियों में आसक्त और शूद्रप्राय होगी। स्त्रियाँ भी अधिक सन्तानवाली और अल्प भाग्यवाली होंगी। खुले सिर वाली (स्वच्छन्द) और अपने सत्पति की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाली होंगी। पाखण्ड से आहत लोग विष्णु की पूजा नहीं करेंगे, किन्तु दोष से परिपूर्ण कलि में एक गुण होगा—कृष्ण के कीर्तन मात्र से मनुष्य बन्धनमुक्त हो परम गति को प्राप्त करेंगे। जो फल कृतयुग में ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में परिचर्या से प्राप्त होता है वह कलियुग में हरि-कीर्तन से सुलभ है। इसलिए हरि नित्य ध्येय और पूज्य हैं।

भागवत पुराण (द्वादश स्कन्ध, तीन अध्याय) में कलिधर्म का वर्णन निम्नांकित है :

कलियुग में धर्म के तप, शौच, दया, सत्य इन चार पाँवों में केवल चौथा पाँव (सत्य) शेष रहेगा। वह भी अधार्मिकों के प्रयास से क्षीण होता हुआ अन्त में नष्ट हो जायेगा। उसमें प्रजा लोभी, दुराचारी, निर्दय, व्यर्थ वैर करनेवाली, दुर्भगा, भूरितर्ष (अत्यन्त तृषित) तथा शूद्रदासप्रधान होगी। जिसमें माया, अनृत, तन्द्रा, निद्रा, हिंसा, विषाद, शोक, मोह,भय, दैन्य अधिक होगा वह तामसप्रधान कलियुग कहलायेगा। उसमें मनुष्य क्षुद्रभाग्य, अधिक खानेवाले, कामी, वित्तहीन और स्त्रियाँ स्वैरिणी और असती होंगी। जनपद दस्युओं से पीड़ित, वेद पाखण्डों से दूषित, राजा प्रजाभक्षी, द्विज शिश्नोदरपरायण, विद्यार्थी अव्रत और अपवित्र, कुटुम्बी भिक्षाजीवी, तपस्वी ग्रामवासी और संन्यासी अर्थलोलुप होंगे। स्त्रियाँ ह्रस्वकाया, अतिभोजी बहुत सन्तानवाली, निर्लज्ज, सदा कटु बोलनेवाली, चौर्य, माया और अतिसाहस से परिपूर्ण होंगी। क्षुद्र, किराट और कुटकारी व्यापार करेंगे। लोग बिना आपदा के भी साधु पुरुषों से निन्दित व्यवसाय करेंगे। भृत्य द्रव्यरहित उत्तम स्वामी को भी छोड़ देंगे। पति भी विपत्ति में पड़े कुलीन भृत्य को त्याग देंगे। लोग दूध न देनेवाली गाय को छोड़ देंगे। कलि में मनुष्य माता-पिता, भाई, मित्र, जाति को छोड़कर केवल स्त्री से प्रेम करेंगे, साले के साथ संवाद में आनन्द लेंगे, दीन और स्त्रैण होंगे। शूद्र दान लेंगे और तपस्वी वेश से जीविका चलायेंगे। अधार्मिक लोग उच्‍च आसन पर बैठकर धर्म का उपदेश करेंगे। कलि में प्रजा नित्य उद्विग्न मनवाली, दुर्भिक्ष और कर से पीड़ित, अन्नरहित भूतल में अनावृष्टि के भय से आतुर; वस्त्र, अन्न, पान, शयन, व्यवसाय, स्नान, भूषण से हीन; पिशाच के सदृश दिखाई पड़नेवाली होगी। लोग कलि में आधी कौड़ी के लिए भी विग्रह करके मित्रों को छोड़ देंगे, प्रियों का त्याग करेंगे और अपने प्राणों का भी हनन करेंगे। मनुष्य अपने से बड़ों और माता-पिता, पुत्र और कुलीन भार्या की रक्षा नहीं करेंगे। लोग क्षुद्र और शिश्नोदर परायण होंगे। पाखण्ड से छिन्न-भिन्न बुद्धि वाले लोग जगत् के परम गुरु, जिनके चरणों पर तीनों लोक के स्वामी आनत हैं, उन भगवान् अच्युत की पूजा प्रायः नहीं करेंगे।

द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) व्रात्य (सावित्री- पतित) और राजा लोग शूद्रप्राय होंगे। सिन्धु के तट, चन्द्रभागा (चिनाव) की घाटी, काञ्ची और कश्मीरमण्डल में शूद्र, व्रात्य, म्लेच्छ तथा ब्रह्मवर्चस से रहित लोग शासन करेंगे। ये सभी राजा समसामयिक और म्लेच्छप्राय होंगे। ये सभी अधार्मिक और असत्यपरायण होंगे। ये बहुत कम दान देनेवाले और तीव्र क्रोध वाले, स्त्री, बालक, गौ, ब्राह्मण को मारनेवाले और दूसरे की स्त्री तथा धन का अपहरण करेंगे। ये उदित होते ही अश्त तथा अल्प शक्ति और अल्पायु होंगे। असंस्कृत, क्रियाहीन, रजस्तमोगुण से धिरे, राजा रूपी ये म्लेच्छ प्रजा को खा जायेंगे। इनके अधीन जनपद भी इन्हीं के समान आचार वाले होंगे और वे राजाओं द्वारा तथा स्वयं परस्पर पीड़ित होकर क्षय को प्राप्त होंगे।

इसके पश्चात् प्रतिदिन धर्म, सत्य, शौच, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मृति कलिकाल के द्वारा क्षीण होंगे। कलि में मनुष्य धन के कारण ही जन्म से गुणी माना जायेगा। धर्म-न्याय-व्यवस्था में बल ही कारण होगा। दाम्पत्य सम्बन्ध में केवल अभिरुचि हेतु होगी और व्यवहार में माया। स्त्रीत्व और पुंस्त्व में रति और विप्रत्व में सूत्र कारण होगा। आश्रम केवल चिह्न से जाने जायेंगे और वे परस्पर आपत्ति करनेवाले होंगे। अवृत्ति में न्याय दौर्बल्य और पाण्डित्य में वचन की चपलता होगी। असाधुत्व में दरिद्रता और साधुत्व में दम्भ प्रधान होगा। विवाह में केवल स्वीकृति और अलंकार में केवल स्नान शेष रहेगा। दूर घूमना ही तीर्थ और केश धारण करना ही सौन्दर्य समझा जायेगा। स्वार्थ में केवल उदर भरना, दक्षता में कुटुम्ब पालन, यश में अर्थसंग्रह होगा। इस प्रकार दुष्ट प्रजा द्वारा पृथ्वी के आक्रान्त होने पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में जो बली होगा वही राजा बनेगा। लोभी, निर्घृण, डाकू, अधर्मी राजाओं द्वारा धन और स्त्री से रहित होकर प्रजा पहाड़ों और जंगलों में चली जायेगी। दुर्भिक्ष और कर से पीड़ित, शाक, मूल, आमिष, क्षौद्र, फल, पुष्प भोजन करनेवाली प्रजा वृष्टि के अभाव में नष्ट हो जायेगी। बात, तप, प्रावृट्, हिम, क्षुधा, प्यास, व्याधि, चिन्ता आदि से प्रजा सन्तप्त होगी। कलि में परमायु तीस बीस वर्ष होगी। कलि के दोष से मनुष्यों का शरीर क्षीण होगा। मनुष्यों का वर्णाश्रम और वेदपथ नष्ट होगा। धर्म में पाखण्ड की प्रचुरता होगी और राजाओं में दस्युओं की, वर्णों में शूद्रों की, गौओं में बकरियों की, आश्रमों में गार्हस्थ्य की, बन्धुओं में यौन सम्बन्ध की, ओषधियों में अनुपाय की, वृक्षों में शमी की, मेघों में विद्युत की, घरों में शून्यता की प्रधानता होगी। इस प्रकार खरधर्मी मनुष्यों के बीच गत प्राय कलियुग में धर्म की रक्षा करने के लिए अपने सत्त्व से भगवान् अवतार लेंगे।

कलिसंतरणोपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्। इसमें कलि से उद्धार पाने का दर्शन प्रतिपादित है, जो केवल भगवान् के नामों का जप ही है। जप का मुख्य मन्त्र :

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥ यही माना गया है।

कल्प : विश्व की आयु के सम्बन्ध में युग के साथ समय के दो और बृहत् मापों का वर्णन आता है। वे हैं मन्वन्तर एवं कल्प। युग चार हैं--कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि। इन चार युगों का एक महायुग होता है। 1000 महायुग मिलकर एक कल्प बनाते हैं। इस प्रकार कल्प एक विश्व की रचना से उसके नाश तक की आयु का नाम है।

कल्प का अर्थ कल्पसूत्र भी है। कल्प छः वेदाङ्गों में से एक है। कौन-सा यज्ञ किसलिए, किस विधि-विधान से करना चाहिए यह कल्पसूत्रों के अनुशीलन से ज्ञात हो सकता है।

कल्कि : भगवान् विष्णु के दस अवतारों में से अन्तिम अवतार, जो कलियुग के अन्त में होगा। कल्कि-उपपुराण (अध्याय 2, कल्किजन्मोपनयन) में इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है। दे० 'अवतार'।

कल्किद्वादशी : भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी। कल्कि इसके देवता हैं। वाराह पुराण (48.1.24) में इसका विस्तृत वर्णन है।

कल्पतरु : एक अद्वैतवेदान्तीय उपटीका ग्रन्थ, जिसका पूर्ण नाम 'वेदान्तकल्पतरु' है। इसके रचयिता स्वामी अमलानन्द का आविर्भाव दक्षिण भारत में हुआ था। यह ग्रन्थ संवत् 1354 वि० से पूर्व लिखा जा चुका था। इस ग्रन्थ में शांकरभाष्य पर लिखित वाचस्पति मिश्र की 'भामती' टीका की व्याख्या की गयी है।

इसी प्रकार के उपनाम वाला दूसरा ग्रन्थ 'कृत्यकल्पतरु' धर्मशास्त्र पर मिलता है। इसके रचयिता बारहवीं शती में उत्पन्न लक्ष्मीधर थे जो गहड़वार राजा गोविन्दचन्द्र के सान्धिविग्रहिक (मन्त्रियों में से एक) थे।

कल्पपादपदान : कल्पवृक्ष की सुवर्णप्रतिमा का दान। इसकी गणना महादानों में है।

वंगदेशीय वल्लालसेन विरचित दानसागर के महादानदानावर्त में इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है।

कल्पवृक्ष : यह वह वृक्ष है जो मनुष्य की सभी कामनाओं की पूर्ति करता है। इसको कल्पतरु भी कहते हैं।

जैन विश्वासों के अनुसार विश्व की प्रथम सृष्टि में मनुष्य युग्म (जोड़े) में उत्पन्न हुए तथा एक जोड़े ने दो जोड़ों को जन्म दिया जो आपस में विवाह कर द्विगुणित होते गये। जीविका के लिए ये कोई व्यवसाय नहीं करते थे। दस प्रकार के कल्पतरु थे जो इन मनुष्यों की सभी इच्छाओं को पूरा करते थे।

कल्पतरु एक माङ्गलिक प्रतीक भी है।

कल्पवृक्षव्रत : साठ संवत्सर व्रतों में से एक। दे० मत्स्य पुराण, 101; कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड, 446।

कल्पसूत्र : छः वेदाङ्गों--शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष-में कल्प दूसरा अङ्ग है। जिन सूत्रों में कल्प संगृहीत हैं उनको कल्पसूत्र कहते हैं। इनके तीन विभाग हैं--श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र (शुल्वसूत्र भी)। प्रथम दो में श्रौत और गृह्य यज्ञों की विस्तृत व्याख्या की गयी है। इनका मुख्य विषय है धार्मिक कर्मकाण्ड का प्रतिपादन, यज्ञों का विधान और संस्कारों की व्याख्या। श्रौत यज्ञ दो प्रकार के हैं-- सोमसंस्था और हविःसंस्था। गृह्ययज्ञ को पाकसंस्था कहा गया है। इन तीनों प्रकार के यज्ञों के सात-सात उपप्रकार हैं। सोमसंस्था के प्रकार हैं---अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम। हविःसंस्था, के प्रकार हैं--अग्न्याधेय, अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य और पशुबन्ध। पाकसंस्था के प्रकार हैं--सायंहोत्र, प्रातर्होत्र, स्थालीपाक, नवयज्ञ, वैश्वदेव, पितृयज्ञ और अष्टका। सब मिलाकर कल्पसूत्रों में 42 का पतिपादन है : 24 श्रौतयज्ञ, 7 गृह्ययज्ञ, 5 महायज्ञ और 16 संस्कारयज्ञ। परिभाषासूत्र में इनका विस्तृत वर्णन पाया जाता है। वेदसंहिताओं के समान कल्पसूत्रों की संख्या भी 1130 होनी चाहिए थी किन्तु इनमें से अधिकांश लुप्त हो गये; संप्रति केवल 40 कल्पसूत्र ही उपलब्ध हैं। दे० 'सूत्र'।

कल्पसूत्रतन्त्र : एक तन्त्र ग्रन्थ। आगमतत्‍त्वविलास में उल्लिखित तन्त्रों की तालिका में इस तन्त्र का नाम आया है।

कल्पादि : मत्स्यपुराण में ऐसी सात तिथियों का उल्लेख है जिनसे कल्प का प्रारम्भ होता है। उदाहरणतः वैशाख शुक्ल 3, फाल्गुन कृष्ण 3, चैत्र शुक्ल 5, चैत्र कृष्ण 5, (अथवा आमावस्या) माघ शुक्ल 13, कार्तिक शुक्ल 7 और मार्गशीर्ष शुक्ल 9। दे० हेमाद्रि, कालखण्ड 670-1; निर्णयसिन्धु, 82; स्मृतिकौस्तुभ, 5-6। ये श्राद्धतिथियाँ हैं। हेमाद्रि के नागर खण्ड में 30 तिथियाँ ऐसी बतलायी गयी हैं जैसे कि वे सब कल्पादि हों। मत्स्यपुराण (अध्याय 290.7--11) में 30 कल्पों का उल्लेख है, किन्तु वे नागर खण्ड में उल्लिखित कल्पों से भिन्न प्रकार के हैं।

कल्पानुपदसूत्र : ऋचाओं को साम में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध मे सामवेद के बहुत से सूत्र ग्रन्थ हैं। 'कल्पानुपदसूत्र' भी इनमें से एक सामवेदीय सूत्र है।

कल्याणसप्तमी : किसी भी रविवार को पड़ने वाली सप्तमी के दिन यह व्रत किया जा सकता है। उस तिथि का नाम कल्याणिनी अथवा विजया होगा। एक वर्ष पर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए। इसमें सूर्य के पूजन का विधान है। 13 वें मास में 13 गायों का दान या समान करना चाहिए। दे० मत्स्यपुराण, 74.520; कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड, 208-211।

कल्याणश्री (भाष्यकार) : आश्वलायन श्रौतसूत्र के 11 व्याख्याग्रन्थों का पता लगा है। इनके रचयिताओं में से कल्याणश्री भी एक हैं।

कल्लट : कश्मीर के प्रसिद्ध दार्शनिक लेखक। इनका जीवनकाल नवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। 'काश्मीर शैव साहित्यमाला' में प्रसिद्ध 'स्पन्दकारिका' ग्रन्थ की रचना कल्लट द्वारा हुई थी। इसमें स्पन्दवाद (एक शैवसिद्धान्त) का प्रतिपादन किया गया है।

कल्हण : कल्हण पण्डित कश्मीर के राजमन्त्रियों में से थे। इन्होंने 'राजतरङ्गिणी' नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ की रचना की है, जिसमें कश्मीर के राजवंशों का इतिहास संस्कृत श्लोकों में वर्णित है। कश्मीर के प्राचीन इतिहास पर इससे अच्छा प्रकाश पड़ता है।

कलाप व्याकरण : प्राचीन व्याकरण ग्रन्थ। इसका प्रचार बङ्गाल की ओर है, इसको 'कातन्त्र व्याकरण' भी कहते हैं। कलाप व्याकरण के आधार पर अनेक व्याकरण ग्रन्थ बने हैं, जो बङ्गाल में प्रचलित हैं। बौद्धों में इस व्याकरण का अधिक प्रचार था, इसीलिए इसकों 'कातन्त्र' (कुत्सित ग्रन्थ) ईर्ष्यावश कहा गया है, अथवा कार्तिकेय के वाहन कलापी (मोर पक्षी) ने इसको प्रकट किया था इससे भी इसका 'कातन्त्र' नाम चल पड़ा।

कलापी : पाणिनि के सूत्रों में जिन वैयाकरणों का उल्लेख किया गया है, उनमें कलापी (4.3.104) भी एक है।

कल्लिनाथ : गान्धर्व वेद (संगीत) के चार आचार्य प्रसिद्ध हैं; सोमेश्वर, भरत, हनुमान् और कल्लिनाथ। इनमें से कइयों के शास्त्रीय ग्रन्थ मिलते हैं।

कवच : देवपूजा के प्रमुख पंचाग स्तोत्रों में प्रथम अंग (अन्य चार अंग अर्गला, कीलक, सहस्रनाम आदि हैं)। स्मार्तों के गृहों में देवी की दक्षिणमार्गी पूजा की सबसे महत्वपूर्ण स्तुति चण्डीपाठ है जिसे दुर्गासप्तशती भी कहते हैं। इसके पूर्व एवं पीछे दूसरे पवित्र स्तोत्रों का पाठ होता है। ये कवच कीलक एवं अर्गलास्तोत्र, हैं, जो मार्कण्डेय एवं वराह पुराण से लिये गये हैं। कवच में कुल 50 पद्य हैं तथा कीलक में 14। इसमें शस्त्ररक्षक लोहकवच के तुल्य ही शरीर के अंगों की रक्षात्मक प्रार्थना की गयी है।

किसी धातु की छोठी डिबिया को भी कवच कहते हैं, जिसमें भूर्जपत्र पर लिखा हुआ कोई तान्त्रिक यन्त्र या मन्त्र बन्द रहता है। पृथक्-पृथक् देवता तथा उद्देश्य के पृथक्-पथक् कवच होते हैं। इसको गले अथवा बाँह में रक्षार्थ बाँधते हैं। मलमासतत्‍त्व में कहा है :

यथा शस्त्रप्रहाराणां कवचं प्रतिवारणम्। तथा दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारणम्॥

[जैसे शस्त्र के प्रहार से चर्म अथवा धातु का बना हुआ कवच (ढाल) रक्षा करता है, उसी प्रकार दैवी आघात से (यान्त्रिक शान्ति) कवच रक्षा करता है।]

कवि कर्णपूर : वंगदेशीय भक्त कवि। सन् 1570 के आसपास बङ्गाल में धार्मिक साहित्य के सर्जन की ओर विद्वानों की अधिक रुचि थी। इसी समय चैतन्य महाप्रभु के जीवन पर लगभग पाँच विशिष्ट ग्रन्थ लिखे गये; दो संस्कृत तथा शेष बँगला में। इनमें पहला है संस्कृत नाटक 'चैतन्यचन्द्रोदय' जिसकी रचना कवि कर्णपूर ने की थी। इसमें चैतन्य महाप्रभु के उपदेशों का काव्यमय विवेचन है।

कवितावली : सोलहवीं शताब्दी में रची गयी कविताबद्ध श्रीराम की कथा, जो कवित और सवैया छन्दों में है। इसके रचयिता गोस्वामी तुलसीदास हैं। भक्ति भावना से भीना हुआ यह व्रजभाषा का ललित काव्य है।

कवीन्द्राचार्य : शतपथ ब्राह्मण के तीन भाष्यकारों में से एक कवीन्द्राचार्य भी हैं।

कश्मीरशैवमत : शैवमत की एक प्रसिद्ध शाखा कश्मीरी शैवों की है। यहाँ 'शैव आगमों' को शिवोक्त समझा गया एवं इन शैवों का यही धार्मिक आधार बन गया। 850 ई. के लगभग 'शिवसूत्रों' को रहस्यमय एवं नये शब्दों में शिवोक्त ठहराया गया एवं इससे प्रेरित हो दार्शनिक साहित्य की एक परम्परा यहाँ स्थापित हो गयी, जो लगभग तीन शताब्दियों तक चलती रही। 'शिवसूत्र' एवं 'स्पन्दकारिका' जो यहाँ के शैवमत के आधार थे, प्रायः दैनिक चरितावली पर ही विशेष रूप से प्रकाश डालते हैं। किन्तु 900 ई० के लगभग सोमानन्द की 'शिवदृष्टि' ने सम्प्रदाय के लिए एक दार्शनिक रूप उपस्थित किया। यह दर्शन अद्वैतवादी है एवं इसमें मोक्ष प्रत्यभिज्ञा (शिव से एकाकार होने के ज्ञान) पर ही आधारित है। फिर भी विश्व को केवल माया नहीं बताया गया, इसे शक्ति के माध्यम से शिव का आभास कहा गया है। विश्व का विकास सांख्य दर्शन के ढंग का ही है, किन्तु इसकी बहुत कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। यह प्रणाली 'त्रिक' कहलाती है, क्योंकि इसके तीन सिद्धान्त हैं----शिव, शक्ति एवं अणु; अथवा पति, पाश एवं पशु। इसका सारांश माधवकृत ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ अथवा चटर्जी के ‘कश्मीर शैवमत’ में प्राप्त हो सकता है। आगमों की शिक्षाओं से भी यह अधिक अद्वैतवादी है, जबकि नये साहित्यिक इसे आगमों के अनुकूल सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। इस मत परिवर्तन का क्या कारण हो सकता है? आचार्य शङ्कर ने अपनी दिग्विजय के समय कश्मीर भ्रमण किया था, इसलिए हो सकता है कि उन्होंने वहाँ के शैव आचार्यों को अद्वैतवाद के पक्ष में लाने का उपक्रम किया हो!

कश्यप : प्राचीन वैदिक ऋषियों में प्रमुख ऋषि, जिनका उल्लेख एक बार ऋग्वेद में हुआ है। अन्य संहिताओं में भी यह नाम बहुप्रयुक्त है। इन्हें सर्वदा धार्मिक एवं रहस्यात्मक चरित्र वाला बतलाया गया है एवं अति प्राचीन कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार इन्होंने `विश्वकर्मभौवन` नामक राजा का अभिषेक कराया था। ऐतरेय ब्राह्मण में कश्यपों का सम्बन्ध जनमेजय से बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति को कश्यप कहा गया है : `स यत्कूर्मो नाम। प्रजापतिः प्रजा असृजत्। यदसृजत् अकरोत् तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्मः कश्यपो वै कूर्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्यः।`

महाभारत एवं पुराणों में असुरों की उत्पत्ति एवं वंशावली के वर्णन में कहा गया है कि ब्रह्मा के छः मानस पुत्रों में से एक 'मरीचि' थे जिन्होंने अपनी इच्छा से कश्यप नामक प्रजापति पुत्र उत्पन्न किया। कश्यप ने दक्ष प्रजापति की 17 पुत्रियों से विवाह किया। दक्ष की इन पुत्रियों से जो सन्तान उत्पन्न हुई उसका विवरण निम्नांकित है :

1. अदिति से आदित्य (देवता) 2. दिति से दैत्य 3. दनु से दानव 4. काष्ठा से अश्वादि, 5. अनिष्टा से गन्धर्व 6. सुरसा से राक्षस 7. इला से वृक्ष 8. मुनि से अप्सरागण 9. क्रोधवशा से सर्प 10. सुरभि से गौ और महिष 11. सरमा से श्वापद (हिंस्र पशु) 12. ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि 13. तिमि से यादोगण (जलजन्तु) 14. विनता से गरुड और अरुण 15. कद्रू से नाग 16. पतङ्गी से पतङ्ग 17. यामिनी से शलभ।

दे० भागवत पुराण। मार्कण्डेय पुराण (104.3) के अनुसार कश्यप की तेरह भार्याएँ थीं। उनके नाम हैं-- 1. दिति, 2. अदिति, 3. दनु, 4. विनता, 5. खसा, 6. कद्रु, 7. मुनि, 8. क्रोधा, 9. रिष्टा, 10. इरा, 11. ताम्रा, 12. इला और 13. प्रधा। इन्हीं से सब सृष्टि हुई।

कश्यप एक गोत्र का भी नाम है। यह बहुत व्यापक गोत्र है। जिसका गोत्र नहीं मिलता उसके लिए कश्यप गोत्र की कल्पना कर ली जाती है, क्योंकि एक परम्परा के अनुसार सभी जीवधारियों की उत्पत्ति कश्यप से हुई।

काँगड़ा : हिमाचल प्रदेश का एक शक्तिपीठ, जो पठानकोट से 59 मील पर काँगड़ा और उससे एक मील आगे काँगड़ामन्दिर स्टेशन के समीप है। रास्ता मोटरबस और पैदल दोनों है। यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएँ हैं। यहाँ पर ज्वालामुखी या ज्वालाजी के नाम से दुर्गा महामाया का मन्दिर है। दोनों नवरात्रों में मेला लगता है। प्राकृतिक अग्निज्वालाओं के रूप में देवीजी दर्शन देती हैं।

काञ्चनपुरीव्रत : यह प्रकीर्णक (फुटकर) व्रत है। शुक्ल पक्षीय तृतीया, कृष्ण पक्षीय एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी अथवा संक्रान्ति को सुवर्ण की पुरी, जिसकी दीवारें भी सुवर्ण की हों अथवा चाँदी या जस्ता की हों तथा खम्भे सुवर्ण के हों, दान में दी जाय। उस पुरी के अन्दर विष्णु तथा लक्ष्मी की प्रतिमाएँ विराजमान करनी चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.868--876; भविष्‍योत्तर पुराण 147। भगवती का यह व्रत गौरी और भगवान् शिव, राम तथा सीता, दमयन्ती तथा नल, कृष्ण तथा पाण्डवों के द्वारा आचरित था। इस व्रत के आचरण से समस्त वस्तुएँ सुलभ, कामनाएँ पूर्ण तथा पापों का प्रक्षालन होता है।

काञ्ची (काञ्चीवरम्) : यह तीर्थपुरी दक्षिण की काशी मानी जाती है, जो मद्रास से 45 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। ऐसी अनुश्रुति है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल में ब्रह्मा ने देवी के दर्शन के लिए तप किया था। मोक्षदायिनी सप्त पुरियों--अयोध्या, मथुरा, द्वारका, माया (हरिद्वार), काशी, काञ्ची और अवन्तिका (उज्जैन) में इसकी गणना है। काञ्ची हरिहरात्मक पुरी है। इसके शिवकाञ्ची, विष्णुकाञ्ची दो भाग हैं। सम्भवतः कामाक्षीमन्दिर ही यहाँ का शक्तिपीठ है। दक्षिण के पञ्चतत्त्व लिङ्गों में से भूतत्‍त्वलिङ्ग के सम्बन्ध में कुछ मतभेद है। कुछ लोग काञ्ची के एकाम्रेश्वर लिङ्ग को भूतत्‍त्वलिग मानते हैं, और कुछ लोग तिरुवारूर की त्यागराजलिङ्गमूर्ति को। इसका माहात्म्य निम्नाङ्कित है :

रहस्यं सम्प्रवक्ष्यामि लोपामुद्रापते श्रृणु। नेत्रद्वयं महेशस्य काशीकाञ्चीपुरीद्वयम्॥ विख्यातं वैष्णवं क्षेत्रं शिवसांनिध्यकारकम्। काञ्चीक्षेत्रे पुरा धाता सर्वलोकपितामहः॥ श्रीदेवीदर्शनार्थाय तपस्तेपे सुदुष्करम्। प्रादुरास पुरो लक्ष्मीः पद्महस्तपुरस्सरा॥ पद्मासने च तिष्ठन्ती विष्णुना जिष्णुना सह। सर्वश्रृंङ्गार वेषाढ्या सर्वाभरणभूषिता॥ (ब्रह्माण्डपु० ललितोपाख्यान 35)

काञ्ची आधुनिक काल में काञ्चीवरम् के नाम से प्रसिद्ध है। यह ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में महत्त्वपूर्ण नगर था। सम्भवतः यह दक्षिण भारत का नहीं तो तमिलनाडु का सबसे बड़ा केन्द्र था। बुद्धघोष के समकालीन प्रसिद्ध भाष्यकार धर्मपाल का जन्मस्थान यहीं था, इससे अनुमान किया जाता है कि यह बौद्धधर्मीय जीवन का केन्द्र था। यहाँ के सुन्दरतम मन्दिरों की परम्परा इस बात को प्रमाणित करती है कि यह स्थान दक्षिण भारत के धार्मिक क्रियाकलाप का अनेकों शताब्दियों तक केन्द्र रहा है। छठी शताब्दी में पल्लवों के संरक्षण से प्रारम्भ कर पन्द्रहवीं एवं सोलहवीं शताब्दी तक विजयनगर के राजाओं के संरक्षणकाल के मध्य 1000 वर्ष के द्राविड़ मन्दिर शिल्प के विकास को यहाँ एक ही स्थान में देखा जा सकता है। 'कैलासनाथ' मन्दिर इस कला के चरमोत्कर्ष का उदाहरण है। एक दशाब्दी पीछे का बना 'वैकुण्ठ पेरुमल' इस कला के सौष्ठव का सूचक है। उपर्युक्त दोनों मन्दिर पल्लव नृपों के शिल्पकला प्रेम के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

काञ्चीपुराणम् : अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में 'काञ्ची अपार' एवं उनके गुरु 'शिवज्ञानयोगी' द्वारा काञ्चीवरम् में प्रचलित स्थानीय धार्मिक आख्यानों के सङ्कलन के रूप में 'काञ्चीपुराणम्' ग्रन्थ तमिल भाषा में रचा गया है।

काठक : कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाओं में से एक शाखा का नाम। उपर्युक्त वेद की चार संहिताएँ ऐसी हैं, जिनमें ब्राह्मणभाग की सामग्री भी मिश्रित है। इनमें से एक 'काठक संहिता' भी है। तैत्तिरीय आरण्यक में अंशतः काठक ब्राह्मण सुरक्षित है।

काठक गृह्यसूत्र : काठक गृह्यसूत्र कृष्ण यजुर्वेद शाखा का ग्रन्थ है एवं इस पर देवपाल की वृत्ति है। इसमें गृह्य संस्कारों और पाक यज्ञों का कृष्ण यजुर्वेद के अनुसार वर्णन पाया जाता है।

काठक ब्राह्मण : कृष्ण यजुर्वेद की काठक शाखा का ब्राह्मण, जो सम्पूर्ण रूप में प्राप्त नहीं है। इसका कुछ भाग तैत्तिरीय आरण्यक में उपलब्ध हुआ है।

काठक संहिता : कृष्ण यजुर्वेद की चार संहिताओं में से एक। इस वेद की संहिताओं एवं ब्राह्मणों का पृथक् विभाजन नहीं है। संहिताओं में ब्राह्मणों की सामग्री भी भरी पड़ी है। इसके कृष्ण विशेषण का आशय यही है कि मन्त्र भाग और ब्राह्मण भाग का एक ही ग्रन्थ में मिश्रण हो जाने से दोनों का आपाततः पृथक् वर्गीकरण नहीं हो पाता। इस प्रकार शिष्यों को जो व्यामोह या अविवेक होता है वही इस वेद की 'कृष्णता' है।

काठकादिसंहिता : कृष्ण यजुर्वेद की काठकादि चारों संहिताओं का विभाग दूसरी संहिताओं से भिन्न है। इनमें पाँच भाग हैं, जिनमें से पहले तीन में चालीस स्थानक हैं। पाँचवें भाग में अश्वमेध यज्ञ का विवरण है।

काण्व : कात्यायन के वाजसनेय प्रातिशाख्य में जिन पूर्वाचार्यों की चर्चा है उनमें काण्व का भी नाम है। स्पष्टतः ये कण्व के वंशधर थे।

काण्वशाखा : शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा। इस शाखा के शतपथ ब्राह्ण में सत्रह काण्ड हैं। उसके पहले, पाँचवें और चौदहवें काण्ड के दो-दो भाग हैं। इस ब्राह्मण के एक सौ अध्याय हैं इसलिए यह 'शतपथ' कहलाता है। दे० 'शतपथ'।

कातन्त्रव्याकरण : वंग देश की ओर कलाप व्याकरण प्रसिद्ध है। इसे 'कातन्त्रव्याकरण' भी कहते हैं। उस प्रदेश में इसके आधार पर अनेक सुगम व्याकरण ग्रन्थ बनकर प्रचलित हो गये हैं। शर्ववर्मा नामक किसी कार्तिकेयभक्त विद्वान् ने इस ग्रन्थ की रचना की है।

कात्यायन : पाणिनिसूत्रों पर वार्तिक ग्रन्थ रचने वाले एक मुनि। इन्हें निरुक्तकार यास्क एवं महाभाष्यकार पतञ्जलि के मध्यकाल का माना जाता है। कात्यायन ने गायत्री, उष्णिक् आदि सात छन्दों के और भी भेद स्थिर किये हैं। इस छन्दःशास्त्र पर कात्यायनरचित सर्वानुक्रमणिका पठनीय है। कात्यायन वाजसनेय प्रातिशाख्य के रचयिता भी हैं। इसके अतिरिक्त कात्यायन मुनि ने कात्यायन-श्रौतसूत्र एवं कात्यायनस्मृति नामक दो और ग्रन्थों की भी रचना की है। यह नहीं कहा जा सकता कि ये विभिन्न रचनाएँ एक ही ऋषिकृत हैं या अन्यान्य ऋषियों की। कात्यायन गोत्रनाम भी सम्भव है, इस प्रकार उक्त ग्रन्थकर्ता कात्यायन वंशपरम्परा से अनेक हुए होंगे।

कात्यायनस्मृति : (1) हिन्दू विधि और व्यवहार के ऊपर कात्यायन एक प्रमुख प्रमाण और अधिकारी शास्त्रकार हैं। इनका सम्पूर्ण स्मृति ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। भाष्यों और निबन्धों (विश्वरूप से लेकर वीरमित्रोदय तक) में इनके उद्धरण पाये जाते हैं। शङ्ख-लिखित, याज्ञवल्क्य और पराशर ने भी कात्यायन को स्मृतिकार के रूप में स्मरण किया है। कात्यायनस्मृति अपने विषय प्रतिपादन में नारद और बृहस्पति से मिलती-जुलती है। यथा नारद के समान कात्यायन भी 'वाद' के चार पाद-- (1) धर्म (2) व्यवहार, (3) चरित्र और (4) राजशासन मानते हैं और यह भी स्वीकार करते हैं कि परवर्ती पाद पूर्ववर्ती का बाधक है (पराशरमाधवीय, खण्ड 3, भाग 1, पृ० 16-17; वीरमित्रोदय, व्यवहार, 9-10, 120-121)। कात्यायन ने स्त्रीधन के ऊपर विस्तार से विचार किया है और उसके विभिन्न प्रकारों की व्याख्या की है। प्रायः सभी निबन्धकारों ने स्त्रीधन पर कात्यायन को उद्धृत किया है। लगभग एक दर्जन निबन्धकारों ने कात्यायन के 900 श्लोकों को उद्धृत किया है। इन उद्धरणों में कात्यायन ने बीसों बार भृगु का उल्लेख किया है, भृगु के विचार स्पष्टतः मनुस्मृति से मिलते-जुलते हैं।

नारद और बृहस्पति के समान ही व्यवहार पर कात्यायन के विचार विकसित हैं, कहीं-कहीं तो उनसे भी आगे। स्त्रीधन पर कात्यायन के विचार बहुत आगे हैं। कात्यायन ने व्यवहार, प्राड्विवाक, स्तोभक, धर्माधिकरण, तीरित, अनुशिष्ट, सामन्त आदि पदों की नयी परिभाषाएँ भी की हैं। कात्यायन ने पश्चात्कार और जयपत्र में भेद किया है ; पश्चात्कार वादी के पक्ष में वह निर्णय है जो प्रतिवादी के घोर प्रतिवाद के पश्चात् दिया जाता है, जबकि जयपत्र प्रतिवादी की दोषस्वीकृति अथवा अन्य सरल आधारों पर दिया जाता है।

(2) जीवानन्द के स्मृतिसंग्रह (भाग 1, पृ० 603--644) में कात्यायन नाम की एक स्मृति पायी जाती है। इसमें तीन प्रपाठक, उन्तीस खण्ड और लगभग 500 श्लोक हैं। आनन्दाश्रम के स्मतिसंग्रह में यही ग्रन्थ प्रकाशित है। इसको कात्यायन का 'कर्मप्रदीप' कहा गया इससे बहुत सी धार्मिक क्रियाओं पर प्रचुर प्रकाश पड़ता हैं। इसके मुख्य विषय हैं--

यज्ञोपवीत, आचमन, अङ्गस्पर्श, गणेशपूजा, चतुर्दश मातृपूजा, कुश, श्राद्ध, अग्निसंस्कार, अरणि, स्रुक्, स्रुव, स्नान, दन्तधावन, सन्ध्या, प्राणायाम, मन्त्रपाठ, तर्पण, पञ्चमहायज्ञ, अशौच, स्त्रीधर्म आदि। निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि व्यावहारिक (विधिक) और कर्मकाण्डीय कात्यायन दोनों एक ही व्यक्ति हैं। परन्तु यह सत्य है कि बहुत से भाष्यकार और निबन्धकार कर्मप्रदीप के अवतरण कात्यायन के नाम से उद्धृत करते हैं।

कात्यायन का काल चतुर्थ और षष्ठ शती ई० के बीच रखा जा सकता है। कात्यायन मनु और याज्ञवल्क्य का अनुसरण करते हैं और नारद और बृहस्पति को प्रमाण मानते हैं। अतः कात्यायन इनके परवर्ती हुए। इसलिए तीसरी-चौथी शती के पश्चात ही इनको रखा जा सकता है। विश्वरूप, मेधातिथि आदि निबन्धकार कात्यायन को उद्धृत करते हैं। जिससे लगता है कि उनके समय में कात्यायनस्मृति प्रसिद्ध और प्रचलित हो चुकी थी। इसलिए इन निबन्धकारों से 2--3 सौ वर्ष पूर्व ही कात्यायन का काल माना जा सकता है।

कात्यायनश्रौतसूत्र : शुक्ल यजुर्वेद के श्रौतसूत्रों में कात्यायश्रौतसूत्र सबसे प्रसिद्ध है। इसके 26 अध्याय हैं। शतपथ ब्राह्मण के पहले नौ काण्डों में जिन सब क्रियाओं का विचार है, कात्यायनश्रौतसूत्र के पहले अठारह अध्यायों में भी उन्हीं सब क्रियाओं पर विचार किया गया है। उन्नीसवें अध्याय में सौत्रामणी, बीसवें में अश्वमेध, इक्कीसवें में पुरुषमेध, पितृमेध और सर्वमेध, बाईसवें, तेईसवें, और चौबीसवें अध्यायों में एकाह, अहीन और सत्र आदि याज्ञिक क्रियाएँ वर्णित हैं। पचीसवें अध्याय में प्रायश्चित पर और छब्बीसवें में प्रवर्ग पर विचार है।

कात्यायनसूत्र के अनेक भाष्यकार एवं वृत्तिकार हुए हैं। उनमें से यशोगोपी, पितृभूति, कर्क, भर्तृयज्ञ, अनन्त, गङ्गाघर, गदाधर, गर्ग, पद्मनाभ, मिश्र अग्निहोत्री, याज्ञिक देव, श्रीधर, हरिहर और महादेव के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

कात्यायनीव्रत : भागवत के दशम स्कन्ध के 22वें अध्याय में श्लोक 1 से 7 तक इस व्रत का उल्लेख है। कथा यह है कि एक बार नन्दव्रज में कुमारियों ने मार्गशीर्ष मास भर भगवती कात्यायनी की प्रतिमा का पूजन इसलिए किया था कि उन्हें भगवान् कृष्ण पति के रूप में प्राप्त हों। इसलिए धार्मिक आदर्श पति प्राप्त करने के लिए कुमारियाँ और अन्य महिलाएँ भक्तिभाव से इस व्रत का अनुष्ठान करती हैं।

कातीयगृह्यसूत्र : इसके रचयिता पारस्कर हैं और इसमें तीन काण्ड हैं। इसकी पद्धति वासुदेव ने लिखी है। उस पर जयराम की एक टीका है। शङ्कर गणपति की टीका (जिनका प्रसिद्ध नाम रामकृष्ण था) भी बहुत पाण्डित्यपूर्ण है। इसकी भूमिका बड़ी खोज से लिखी गयी है। इन्होंने काण्वशाखा को ही श्रेष्ठ ठहराया है। इनके अतिरिक्त चरक, गदाधर, जयराम, मुरारिमिश्र, रेणुकाचार्य, वागीश्वरीदत्त और वेदमिश्र आदि के भाष्यों का भी प्रचार है।

कान्तारदीपदानविधि : आश्विन पूर्णिमा तक बलिदान के लिए प्रयुक्त होने वाले वृक्ष पर आठ दीपक प्रज्वलित करने चाहिए अथवा तीन रात्रियों (आश्विन अमावस्या और पूर्णिमा तथा कार्तिक पूर्णिमा) को अथवा केवल कार्तिक पूर्णिमा को ही। इसके देवता हैं धर्म, रुद्र तथा दामोदर। यह पूजाविधि प्रेतों तथा पितरों की तृप्ति के लिए है।

कान्तिव्रत : कार्तिक शुक्ल द्वितीया को इसका अनुष्ठान होता है। एक वर्ष पर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए। इसमें बलराम तथा केशव के पूजन का विधान है। साथ ही द्वितीया के चन्द्रमा की भी पूजा होती है। कार्तिक मास से चार मास तक तिल तथा घी से हवन करना चाहिए। वर्ष के अन्त में रजत से निर्मित चन्द्रमा का दान करना चाहिए।

कान्यकुब्ज (कन्नौज) : इसे अश्वतीर्थ कहा जाता है और एक नाम 'कुशीकतीर्थ' भी है। महर्षि ऋचीक ने यहाँ के राजा गाधि की कन्या सत्यवती से विवाह किया था। गाधि ने पहले इनसे शुल्क रूप में एक सहस्र श्यामकर्ण अश्व माँगे, जो ऋषि ने वरुणदेव से कहकर यहीं प्रकट कर दिये। गाधि के पुत्र विश्वामित्र हुए और ऋचीक के पुत्र जमदग्नि ऋषि। जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे। यहाँ गौरीशंकर, क्षेमकरी देवी, फूलमती देवी तथा सिंहवाहिनी देवी के मन्दिर हैं। पहले कन्नौज वैभवपूर्ण नगर रह चुका है। गङ्गा इसके पास बहती थी। किन्तु अब धारा चार मील दूर चली गयी है। कन्नौज में अब भी कुछ प्राचीन अवशेष रह गये हैं। यह स्थान कानपुर से पचास मील पर है।

कान्यकुब्ज ब्राह्मण : भौगोलिक आधार पर ब्राह्मणों के दो बड़े विभाग हैं-- पञ्चगौड़ (उत्तर भारत के) तथा पञ्चद्रविड़ (दक्षिण भारत के)। पञ्चगौड़ों की ही एक शाखा कान्यकुब्ज है। गौड़ों का उद्गमस्थल कुरुक्षेत्र है। इस प्राचीन गौड़-भूमि के निवासी होने का कारण इस प्रदेश के ब्राह्मण गौड़ कहलाये। पञ्जाब और कश्मीर के ब्राह्मण सारस्वत हैं। प्रयाग के पास से कान्यकुब्ज तक फैले हुए ब्राह्मण कान्यकुब्ज कहलाये। कान्यकुब्जों में सरयूपारीण, जुझौतिया और बङ्गाली भी सम्मिलित हैं। पंच गौड़ों में मैथिल और उत्कल ब्राह्मण भी माने जाते हैं।

कापालिक : पाशुपत शैवों का एक सम्प्रदाय। इसका शाब्दिक अर्थ है 'कपाल (खोपड़ी) धारण करने वाला'। कपाल मृतक अथवा मृत्यु का प्रतीक है, जिसका सम्बन्ध शिव के विध्वंसक, घोर अथवा रौद्र रूप से है। कापालिकों का आचार-व्यवहार वाममार्गी शाक्तों से मिलता-जुलता है। इनकी संख्या कभी भी अधिक नहीं थी। वास्तव में एक संघटित सम्प्रदाय की अपेक्षा कुछ साधकों का ही यह एक समुदाय रहा है।

कापालिक मत के उद्गम के विषय में पुराणों में अद्भुत कथाएँ दी हुई हैं। इनमें से एक के अनुसार शिव ने ब्रह्मा का वध किया था। इसका प्रायश्चित्त करने के लिए उन्होंने कपाली व्रत धारण किया और ब्रह्मा का कपाल उनके हाथ में पड़ा रह गया। कपाली व्रत एक प्रकार का उन्मत्तव्रत था, जिसके द्वारा शिव ब्रह्महत्या से मुक्ति पा सके। ब्रह्माण्डपुराण तथा नीलमत-पुराण में इससे भिन्न शिवताण्डव की कथा दी हुई है। शिव का घोर ताण्डव संसार के विध्वंसक भीषण भार को स्वयं वहन करने के लिए है, जिससे विश्व इसकी विभीषिका से सुरक्षित रहे। कापालिक साधकों का भी यही उद्देश्य है। उनके घोर रूप के भीतर महती करुणा छिपी रहती है। परन्तु कभी-कभी पथभ्रष्ट कापालिक भ्रमवश शिव का अनुकरण करते हुए मानव-शिर काटने का अभिनय भी करते थे। ऐसी घटनाएँ कभी-कभी बीच में सुनाई पड़ती हैं। 'शंकरदिग्विजय' काव्य में आचार्य शंकर के साथ घटी एक ऐसी ही दुर्घटना का उल्लेख है। ये जटाजूट धारण करते हैं, जूट में नवचन्द्र की प्रतिमा प्रतिष्ठित रहती है, इनके हाथ में नरकपाल का कमण्डलु रहता है, ये कपालपात्र में मदिरा-मांस का भी सेवन करते हैं।

कापालिकों का प्राचीनतम उल्लेख महाभारत में पाया जाता है। परन्तु वहाँ शैव रूप में ही वे चित्रित हैं, बीभत्स रूप में नहीं। चालुक्य नागवर्धन (सातवीं शती) के कपालेश्वर मंदिर के अभिलेख में कापालिकों का वर्णन महाव्रती के रूप में मिलता है। इसके अनन्तर आठवीं शताब्दी के भवभूतिरचित 'मालतीमाधव' नाटक में कापालिक साधक अघोरघण्ट का उल्लेख आता है, जिसका सम्बन्ध श्रीशैल पर्वत (आन्ध्र) से था।

ग्यारहवीं शताब्दी के चन्देल राजाओं के राजपण्डित कृष्णमिश्र द्वारा रचित 'प्रबोधचन्द्रोदय' में भी कापालिकों की चर्चा है। इस ग्रन्थ के अनुसार कापालिकों का सम्बन्ध नरबलि, श्रीचक्र, योगसाधन तथा अनेक घोर असामाजिक क्रियाओं से था। योगदीपिका (1.8, 3.96) में कापालिकों का उल्लेख मिलता है :

निषेव्यते शीतलमद्यधारा कापालिके खण्डमतेऽमरोली।'

किसी समय कश्मीर में कापालिक-उत्सव मनाया जाता था। कृष्ण चतुर्दशी के दिन नृत्य, गीत, सामूहिक यौन विहार के साथ यह उत्सव सम्पन्न होता था। आजकल यह सम्प्रदाय प्रायः लुप्त है।

कापाली : शिव का एक विरुद, क्योंकि वे अपने घोर वेश में नरकपाल धारण करते हैं। महाभारत (13.17.102) में कथन है :

अजैकपाच्च कापाली त्रिशङ्कुरजितः शिवः।

कापेय : कपि' गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति। काठकसंहिता और पञ्चविंश ब्राह्मण में कापेयों को चित्ररथ का पुरोहित कहा गया है। दे० 'शौनक'।

कामतानाथ (कामदगिरि) : बाँदा जिले में चित्रकूट के अन्तर्गत सीताकुण्ड से डेढ़ मील दर कामतानाथ या कामदगिरि नामक पहाड़ी जो परम पवित्र मानी जाती है। इस पर ऊपर नहीं चढ़ा जाता, इस की परिक्रमा की जाती है। परिक्रमा तीन मील की है। रामचन्द्रजी ने वनवास काल में यहीं अधिक समय व्यतीत किया था।

कामधेनुतन्त्र : शाक्त साहित्य के अंतर्गत 'कामधेनुतन्त्र' की रचना सोलहवी शती में हुई। इसका अंग्रेजी अनुवाद मुनरो द्वारा हुआ है।

कामधेनु' नामक एक व्याकरण ग्रन्थ भी किसी परवर्ती शाकटायन द्वारा लिखा बताया जाता है।

कामत्रिव्रत : इस व्रत में कुछ देवियों, यथा उमा, मेधा, भद्रकाली, कात्यायनी, अनसूया, वरुणपत्नी का पूजन होता है। इनके पूजन से मनोवांछित अभिलाषाओं की पूर्ति होती है।

कामदविधि : इस व्रत में मार्गशीर्ष मास के रविवार के दिन चन्दन से चर्चित करवीर पुष्पों से भगवान् सूर्य की पूजा करना चाहिए।

कामदासप्तमी : फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। इसमें एक वर्ष पर्यन्त सूर्य का पूजन होना चाहिए। इसको चार-चार मास के वर्ष के तीन खण्ड करके फाल्गुन मास से प्रारम्भ किया जाता है। इसमें भिन्न-भिन्न फूलों, भिन्न-भिन्न धूप तथा भिन्न-भिन्न नैवेद्यों के अर्पण का विधान है।

कामदेवपूजा : चैत्र शुक्ल द्वादशी को इस ब्रत का अनुष्ठान होता है। इस तिथि को भिन्न-भिन्न पुष्पों से कपड़े पर चित्रित कामदेव की पूजा होती है। यह चित्रफलक शीतल जल से परिपूर्ण तथा पुष्पों से युक्त कलश के सम्मुख रखा जाना चाहिए। इस दिन पतियों द्वारा अपनी पत्नियों का सम्मान वांछनीय है। दे० कृत्यकल्पतरु का नैत्यकालिक काण्ड, 384।

कामधेनुव्रत : कार्तिक कृष्ण एकादशी से प्रारम्भ होकर लगातार पाँच दिन यह व्रत चलता है। इस तिथि को श्री तथा विष्णु की पूजा होती है। रात्रि में दीपों को घर, गोशाला, चैत्य, देवालय, सड़क, श्मशान भूमि तथा सरोवर में प्रज्ज्वलित करना चाहिए। एकादशी के दिन उपवास करना चाहिए तथा भगवान् विष्णु की प्रतिमा को गौ के घी या दूध में चार दिन स्नान कराना चाहिए। इसके पश्चात् कामधेनु का दान करना चाहिए। यह व्रत समस्त पापों के प्रायश्चित्तस्वरूप भी किया जाता है।

कामदेवत्रयोदशी (मदनत्रयोदशी) : चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को कामदेव त्रयोदशी कहते हैं। इस तिथि को कामदेव के प्रतीक स्वरूप दमनक वृक्ष की पूजा की जाती है। दे० 'अनङ्गत्रयोदशी'।

कामन्दकीय नीतिसार : राजनीति का प्रसिद्ध ग्रन्थ। इसके प्रणेता कामन्दक नाम से प्रसिद्ध हैं। ये कौटिल्यपरम्परा के अनुयायी हैं। इस ग्रन्थ में राजनीति के विविध विषयों पर अति सारगर्भित विवरण उपस्थित किया गया है। विशेष कर राजा के कर्त्‍तव्‍य (धर्म), राजकर्मचारियों का चुनाव एवं उनका धर्म, युद्धनीति, मण्डल-व्यवस्था एवं राज्य के सप्त अंगों का वर्णन अभिनव रूप में प्राप्त होता है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह ग्रन्थ कौटिलीय अर्थशास्त्र का छन्दोबद्ध रूपान्तर है। किन्तु बात ऐसी नहीं है। कामन्दक ने एक पण्डित की भाँति युग एवं आवश्यकता के अनुसार इसके रूप को छोटा कर दिया है एवं पद्यों में रचना कर कंठस्थ करने की सुविधा उपस्थित की है। इसमें कौटिल्य से भिन्न विचार भी हैं एवं अतिप्राचीन आचार्यों के मतों का भी उपयोग हुआ है। इसमें ग्रन्थकार की सबसे बड़ी विशेषता साहित्यिक प्रतिभा का चमत्कार है। उपमा आदि अलङ्कारों की सहायता से राजनीति के रुखे तथ्यों को अति रोचक एवं हृदयग्राही रूप दे दिया गया है। प्रजा द्वारा वर्णाश्रम-धर्म पालन कराना राजा का परम कर्तव्य है, इस सिद्धान्त पर कामन्दक ने बहुत बल दिया है।

काममहोत्सव : चैत्र शुक्ल चतुर्दशी की इस व्रत का अनुष्ठान होता है। त्रयोदशी की रात्रि के समय किसी उद्यान में रति तथा मदन की प्रतिमा की स्थापना करके चतुर्दशी को उनका पूजन किया जाता है। यह उत्‍सव श्रृंगारिक गीतों के साथ, कुछ वाद्य यन्त्रों के साथ गाते-बजाते हुए मनाना चाहिए। दूसरे दिन एक पहर तक मृत्तिका से खेलना चाहिए। शैव आगम में यही व्रत चैत्रावली तथा मदनभञ्जी भी कहलाता है। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, 190; 'चैत्रविहित अशोकाष्टमी'।

कामरूप : असम प्रदेश का प्राचीन नाम। इसके नामकरण का कारण इस प्रकार बताया गया है : `मूल प्रकृति भगवती कामरूपिणी सती (दक्षकन्या, शिवपत्नी) जिस देश में विराजमान हैं वह देश उनके नाम से प्रसिद्ध है।` यहाँ कामगिरि (गोहाटी के पास) के योनिपीठ में कामाख्या देवी का मन्दिर है। तन्त्रचूडामणि का कथन है:

योनिपीठं कामगिरौ कामाख्या तत्र देवता। सर्वत्र विरला चाहं कामरूपे गृहे गृहे॥

[कामगिरि में योनिपीठ है। वहाँ कामाख्या नामक देवी है। सर्वत्र मैं विरला हूँ किन्तु कामरूप में घर-घर।]

यह प्रदेश गणेशगिरि के शिखर पर स्थित है, ऐसा तन्त्रग्रन्थों में लिखा है:

कालेश्वरं श्वेतगिरिं त्रैपुरं नीलपर्वतम्। कामरूपाभिधो देशो गणेशगिरि मूर्द्धनि॥

कामरूपी : इच्छानुकूल वेशधारी। अर्धदेवों में गन्धर्व एवं विद्याधरों का नाम आता है। विद्याधरों का विशेष गुण आकाश में उड़ना है, जिसके कारण इन्हें 'खेचर' (आकाश में चलने वाला) कहा जाता है। ये वेश बदलने अथवा मनोवांछित रूप धारण करने की विद्या (जादू) जानते हैं, जिसके कारण इन्हें कामरूपी कहते हैं।

कामवन : जिसमें शिव पार्वती एकान्तवास करते हैं। इसे कुछ लोग काम्यकवन भी कहते हैं। शिव का शाप था कि जो कोई पुरुष इसमें प्रवेश करेगा वह तुरन्त स्त्री बन जायेगा। मनु का पुत्र इल भूल से इसमें प्रविष्ट होकर स्त्री इला बन गया था।

व्रजमण्डल के भरतपुर जिले में भी कामवन है, जहाँ गोविन्ददेवजी के मन्दिर में वृन्दा देवी का महल है। यहाँ चौरासी तीर्थों की उपस्थिति मानी जाती है।

कामव्रत : (1) केवल महिलाओं के लिए इसका विधान है। यह कार्तिक में प्रारम्भ होकर एक वर्ष पर्यन्त चलता है। इसमें सूर्य का पूजन होता है। हेमाद्रि के अनुसार यह स्त्रीपुत्रकामावाप्ति-उत्सव है।

(2) पौष शुक्ल त्रयोदशी को प्रारम्भ होकर तदनन्तर एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है। प्रत्येक त्रयोदशी को नक्त (रात्रिभोजन) करना चाहिए। चैत्र में सुवर्ण का अशोक वृक्ष तथा 10 अंगुल लम्बा इक्षुदण्ड इस मन्त्र के साथ दान करना चाहिए : 'प्रद्युम्नः प्रसीदतु'।

(3) किसी भी महीने की सप्तमी को यह व्रत किया जा सकता है। सुवर्चला (सूर्य की पत्नी) की इसमें पूजा होती है। मनोवांछित पदार्थों की इससे उपलब्धि होती है।

(4) पौष शुक्ल पञ्चमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। इसमें कार्तिकेय के रूप में भगवान् विष्णु की पूजा होती है। पञ्चमी को नक्त करना चाहिए। षष्ठी के दिन केवल एक समय का आहार, सप्तमी को पारण। ऐसा एक वर्ष पर्यन्त करना चाहिए। स्वामी कार्तिकेय की सुवर्ण-प्रतिमा तथा दो वस्त्र दान में देने चाहिए। इससे मनुष्य जीवन में समस्त कामनाओं को प्राप्त करता है। हेमाद्रि (व्रतखण्ड) के अनुसार यह 'कामषष्ठी' व्रत है।

कामाख्या देवी : कामाख्या शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गया है : 'जो भक्तों की कामना को पूर्ण करती है अथवा भक्त साधकों द्वारा जिसकी कामना की जाती है वह 'कामा' है। जिसका 'कामा' नाम है वह 'कामाख्या' है।" कालिकापुराण (अ० 61) में इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है।

कामाख्या पीठ : यह भारत का प्रसिद्ध शक्तिपीठ तीर्थ असम प्रदेश में है। कामाख्या देवी का मन्दिर पहाड़ी पर है, अनुमानतः एक मील ऊँची इस पहाड़ी को 'नील पर्वत' भी कहते हैं। इस प्रदेश का प्रचलित नाम कामरूप है। तन्त्रों में लिखा कि करतोया नदी से लेकर ब्रह्मपुत्र नद तक त्रिकोणाकार कामरूप प्रदेश माना गया है। किन्तु अब वह रूपरेखा नहीं है। इस देश में सौभारपीठ, श्रीपीठ, रत्नपीठ, विष्णुपीठ, रुद्रपीठ तथा ब्रह्मपीठ आदि कई सिद्धपीठ हैं, 'कामाख्यापीठ' सबसे प्रधान है। देवी का मन्दिर कूचविहार के राजा विश्वसिंह और शिवसिंह का बनवाया हुआ है। इसके पहले के मन्दिर को बंगाली आक्रामक काला पहाड़ ने तोड़ डाला था। सन् 1564 ई० तक प्राचीन मन्दिर का नाम 'आनन्दाख्या' था, जो वर्तमान मन्दिर से कुछ दूरी पर है। पास में छोटा सा सरोवर है।

देवीभागवत (7 स्कन्ध, अ० 38) में कामाख्या देवी के माहात्म्य का वर्णन है। इसका दर्शन, भजन, पाठ-पूजा करने से सर्व विघ्नों की शान्ति होती है। पहाड़ी से उतरने पर गोहाटी के सामने ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य में उमानन्द नामक छोटे चट्टानी टापू में शिवमन्दिर है। आनन्दमूर्ति को भैरव (कामाख्यारक्षक) कहते हैं। कामाख्यापीठ के सम्बन्ध में कालिकापुराण (अ० 61) में निम्नांकित वर्णन पाया जाता है :

शिव ने कहा, प्राणियों की सृष्टि के पश्चात् बहुत समय व्यतीत होने पर मैंने दक्षतनया सती को भार्यारूप में ग्रहण किया, जो स्त्रियों में श्रेष्ठ थी। वह मेरी अत्यन्त प्रेयसी भार्या हुई। ....अपने पिता द्वारा यज्ञ के अवसर पर मेरा अपमान देखकर उसने प्राण त्याग किया। मैं मोह से व्याकुल हो उठा और सती के मृत शरीर को कन्धे पर रखकर समस्त चराचर जगत् में भ्रमण करता रहा। इधर-उधर घूमते हुए इस श्रेष्ठ पीठ (तीर्थस्थल) को प्राप्त हुआ। पर्याय से जिन-जिन स्थानों पर सती के अंगों का पतन हुआ, योगनिद्रा (मेरी शक्ति=सती) के प्रभाव से वे पुण्यतम स्थल बन गये। इस कुब्जिकापीठ (कामाख्या) में सती के योनिमण्डल का पतन हुआ। यहाँ महामाया देवी विलीन हुई। मुझ पर्वत रूपी शिव में देवी के विलीन होने से इस पर्वत का नाम नीलवर्ण हुआ। यह महातुङ्ग (ऊँचा) पर्वत पाताल के तल में प्रवेश कर गया....।

इस तीर्थस्थल के मन्दिर में शक्ति की पूजा योनिरूप में होती है। यहाँ कोई देवीमूर्ति नहीं है। योनि के आकार का शिलाखण्ड है, जिसके ऊपर लाल रंग की गेरू के घोल की धारा गिरायी जाती है और वह रक्तवर्ण के वस्त्र से ढका रहता है। इस पीठ के सम्मुख पशुबलि भी होती है।

कामावाप्तिव्रत : कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को यह व्रत किया जाता है। इस तिथि में महाकाल (शिव) का पूजन समस्त मनोवाञ्छाओं को पूरा करता है।

कामिकागम : शैव आगमों में सबसे पहला आगम 'कामिक' है। इसमें समस्त शैव पूजा पद्धतियों का विस्तृत वर्णन है।

कामिकाव्रत : मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस तिथि को सुवर्ण अथवा रजतप्रतिमा का, जिस पर चक्र अंकित हो, पूजन करना चाहिए। पूजन करने के पश्चात् उसे दान कर देना चाहिए।

काम्पिल : यह स्थान बदायूँ जिले में है। पूर्वोत्तर रेलवे की आगरा-कानपुर लाइन पर कायमगंज रेलवे स्टेशन है। कायमगंज से छः मील दूर काम्पिल तक पक्की सड़क जाती है। किसी समय काम्पिल (ल्य) महानगर था। यहाँ रामेश्वरनाथ और कालेश्वरनाथ महादेव के प्रसिद्ध मन्दिर हैं और कपिल मुनि की कुटी है।

जैनों के अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर का समवशरण भी यहाँ आया था। यहाँ प्राचीन जैनमन्दिर है, जिसमें विमलनाथजी की तीन प्रतिमाएँ हैं। एक जैनधर्मशाला है। चैत्र और आश्विन में यहाँ मेला लगता है।

काम्पील : यजुर्वेदसंहिता के एक मन्त्र में 'काम्पीलवासिनी' सम्भवतः राजा की प्रधान रानी को कहा गया है, जिसका कर्त्‍तव्‍य अश्वमेध यज्ञ के समय मेधित पशु के पास सोना था। बिल्कुल ठीक अर्थ अनिश्चित है। वेबर एवं जिमर दोनों काम्पील एक नगर का नाम बतलाते हैं, जो परवर्ती साहित्य में काम्पिल्य कहलाया एवं जो मध्यदेश (आज के उत्तर प्रदेश) में दक्षिण पञ्चाल की राजधानी था।

काम्यकतीर्थ या काम्यक वन : कुरुक्षेत्र के सात पवित्र वनों में से एक। यह सरस्वती के तट पर स्थित है। यहीं पर पाण्डवों ने अपने प्रवास के कुछ दिन बिताये थे। यहाँ वे द्वैतवन से गये थे। ज्योतिसर से पेहवा जाने वाली सड़क के दक्षिण में लगभग ढाई मील पर कमोधा ग्राम है। काम्यक का अपभ्रंश ही कामोधा है। यहाँ ग्राम के पश्चिम में काम्यक तीर्थ है। सरोवर के एक ओर प्राचीन पक्का घाट है तथा भगवान् शिव का मन्दिर है। चैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रति वर्ष यहाँ मेला लगता है।

कायव्यूह : योगदर्शन में अनेक शारीरिक क्रियाओं द्वारा मन को केन्द्रित करने का निर्देश है। जब योगशास्त्र से तन्त्रशास्त्र का मेल हो गया तो इस 'कायव्यूह' (शारीरिक यौगिक क्रियाओं) का और भी विस्तार हुआ, जिसके अनुसार शरीर में अनेक प्रकार के चक्र आदि कल्पित किये गये। क्रियाओं का भी अधिक विस्तार हुआ और हठयोग की एक स्वतन्त्र शाखा विकसित हुई, जिसमें नेति, धौति, वस्ति आदि षट्कर्म तथा नाडीशोधन आदि के साधन बतलाये गये हैं।

काया (गोरखपंथ के मत से) : गोरखनाथ पंथी का साधक काया को परमात्मा का आवास मानकर उसकी उपयुक्त साधना करता है। काया उसके लिए वह यन्त्र है, जिसके द्वारा वह इसी जीवन में मोक्षानुभूति कर लेता है; जन्म-मरण-जीवन पर पूरा अधिकार कर लेता है; जरा, मरण, व्याधि और काल पर विजय पा जाता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह पहले कायाशोधन करता है। इसके लिए वह यम, नियम के साथ हठयोग के षट्कर्म (नेति, धौति, वस्ति, नौलि, कपालभाति और त्राटक) करता है जिससे काया शुद्ध हो जाय। हठयोग पर घेरण्ड ऋषि की लिखी 'घेरण्डसंहिता' एख प्राचीन ग्रन्थ है और परम्परा से इसकी शिक्षा बराबर चली आयी है। नाथपन्थियों ने उसी प्राचीन सात्त्विक प्रणाली का उद्धार किया है।

कायारोहण : लाट (गुर्जर) प्रान्त में एक स्थानविशेष है। वायुपुराण के एक परिच्छेद में लकुलीश उपसम्प्रदाय (पाशुपत सम्प्रदाय के एक अङ्ग) के वर्णन में उद्धृत है कि शिव प्रत्येक युग में अवतरित होंगे और उनका अन्तिम अवतार तब होगा जब कृष्ण वासुदेव रूप में अवतरित होंगे। शिव योगशक्ति से कायारोहण स्थान पर एक मृतक शरीर में, जो वहाँ अरक्षित पड़ा होगा, प्रवेश करेंगे तथा लकुलीश नामक संन्यासी के रूप में प्रकट होंगे। कुशिक, गार्ग्य, मित्र एवं कौरश्य उनके शिष्य होंगे जो शरीर पर भस्म मलकर पाशुपत योग का अभ्यास करेंगे।

उदयपुर से 14 मील दूर स्थित एकलिङ्गजी के एक पुराने मन्दिर के लेख से इस बात की पुष्टि होती है कि भगवान् शिव भड़ौच प्रान्त में कायारोहण स्थान पर अवतरित हुए एवं अपने हाथ में एक लकुल धारण किये हुए थे। चित्रप्रशस्ति में भी उपर्युक्त कथानक प्राप्त होता है कि शिव पाशुपत धर्म के कड़े नियमों के पालनार्थ लाट प्रान्त के करोहन (सं० कायारोहण) में अवतरित हुए। यह स्थान गुजरात में आजकल 'करजण' (कायारोहण का विकृत रूप) कहलाता है। यहाँ अब भी लकुलीश का एक मन्दिर है, जिसमें उनकी प्रतिमा स्थापित है।

कार्तिक : यह बड़ा पवित्र मास माना जाता है। यह समस्त तीर्थों तथा धार्मिक कृत्यों से भी पवित्रतर है। इसके माहात्म्य के लिए देखिए स्कन्द पुराण के वैष्णव खण्ड का नवम अध्याय; नारदपुराण (उत्तरार्द्ध), अध्याय 22; पद्मपुराण, 4.92।

कार्तिकस्नानव्रत : सम्पूर्ण कार्तिक मास में गृह से बाहर किसी नदी अथवा सरोवर में स्नान करना चाहिए। गायत्री मन्त्र का जप करते हुए हविष्यान्न केवल एक बार ग्रहण करना चाहिए। व्रती इस व्रत के आचरण से वर्ष भर के समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। दे० विष्णु धर्मोत्तर, 81-1-4; कृत्यकल्पतरु, 418 द्वारा उद्धृत; हेमाद्रि, 2.762।

कार्तिक मास में समस्त त्यागने योग्य वस्तुओं में मांस विशेष रूप से त्याज्य है। श्रीदत्त के समयप्रदीप (46) तथा कृत्यरत्नाकर (पृ० 397-399) में उद्धृत महाभारत के अनुसार कार्तिक मास में मांसभक्षण, विशेष रूप से शुक्ल पक्ष में, त्याग देने से इसका पुण्य शत वर्ष तक के तपों के बराबर हो जाता है। साथ ही यह भी कहा गया है कि भारत के समस्त महान् राजा, जिनमें ययाति, राम तथा नल का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, कार्तिक मास में मांस भक्षण नहीं करते थे। इसी कारण उनको स्वर्ग की प्राप्ति हुई। नारदपुराण (उत्तरार्द्ध, 21-58) के अनुसार कार्तिक मास में मांस खानेवाला चाण्डाल हो जाता है। दे० 'बकपञ्चक'।

शिव, चण्डी, सूर्य तथा अन्यान्य देवों के मन्दिरों में कार्तिक मास में दीप जलाने तथा प्रकाश करने की बड़ी प्रशंसा की गयी है। समस्त कार्तिक मास में भगवान् केशव का मुनि (अगस्त्य) पुष्पों से पूजन किया जाना चाहिए। ऐसा करने से अश्वमेध यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है। दे० तिथितत्त्व 147।

कार्तिकपूर्णिमा : यह शरद ऋतु की अन्तिम तिथि है जो बहुत पवित्र औऱ पुण्यदायिनी मानी जाती है। इस अवसर पर कई स्थानों पर मेले लगते हैं। सोनपुर में हरिहर क्षेत्र का मेला तथा गढ़मुक्तेश्वर (मेरठ), वटेश्वर (आगरा), पुष्कर (अजमेर) आदि के विशाल मेले इसी पर्व पर लगते हैं। व्रजमण्डल और कृष्णोपासना से प्रभावित अन्य प्रदेशों में इस समय रासलीला होती है।

इस तिथि पर किसी को भी बिना स्नान और दान के नहीं रहना चाहिए। स्नान पवित्र स्थान एवं पवित्र नदियों में एवं दान अपनी शक्ति के अनुसार करना चाहिए। न केवल ब्राह्मण को अपितु निर्धन सम्बन्धियों, बहिन, बहिन के पुत्रों, पिता की बहिनों के पुत्रों, फूफा आदि को भी दान देना चाहिए। पुष्कर, कुरुक्षेत्र तथा वाराणसी के तीर्थस्थान इस कार्तिकी स्नान और दान के लिए अति महत्वपूर्ण है।

कार्तिकेयव्रत : षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। स्वामी कार्तिकेय इसके देवता हैं। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.605, 606; व्रतकालविवेक, पृष्ठ 24।

कार्तिकेयषष्ठि : मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस दिन सुवर्णमयी, रजतमयी, काष्ठमयी अथवा मृन्मयी कार्तिकेय की प्रतिमा का पूजन होता है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.596-600।

कार्ष्णाजिनि : आचार्य कार्ष्णाजिनि के नाम का उल्लेख ब्रह्मसूत्र (3.1.9) और मीमांसासूत्र (4.3.17; 6.7.35) दोनों में हुआ है। ये भी व्यासदेव और जैमिनि के पूर्ववर्ती आचार्य हैं। इनका उल्लेख व्यासदेव ने अपने मत के समर्थन में और जैमिनि ने इनका खण्डन करने के लिए किया है। इससे मालूम होता है कि ये वेदान्त के ही आचार्य थे। ये प्रायः बादरि के मत के समर्थक प्रतीत होते हैं।

कारिका : स्मरणीय छन्दोबद्ध पद्यों के संकलन को कारिका कहते हैं। हिन्दू दार्शनिकों ने अपने दर्शन के सारविषय को या तो सूत्रों के रूप में या कारिका के रूप में अपने अनुगामियों के लाभार्थ प्रस्तुत किया, ताकि वे इसे कंठस्थ कर लें। उनके अनुगामियों ने उन सूत्रों या कारिकाओं के ऊपर भाष्य आदि लिखे। उदाहरण के लिए सांख्यदर्शन पर ईश्वरकृष्ण की 'सांख्यकारिका' अत्‍यन्त प्रसिद्ध है, जिसका अनुवाद अति प्राचीन काल में चीनी भाषा में उस देश की राजाज्ञा से हुआ था।

कारिकावाक्यप्रदीप : पाणिनि पर अवलम्बित अनेक व्याकरणसिद्धान्त ग्रन्थों में एक कारिकावाक्यप्रदीप है। इससे सम्बन्धित चार अन्य टीकाग्रन्थ-व्याकरण-भूषण, भूषणसारदर्पण, व्याकरणभूषण सार एवं व्याकरण-सिद्धान्तमञ्जूषा हैं। 'वाक्यप्रदीप' व्याकरण का दार्शनिक ग्रन्थ है। इसमें भी कारिकाएँ हैं।

कारिणनाथ : नाथ सम्प्रदाय में नौ मुख्य कहे गये हैं: गोरखनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, कारिणनाथ आदि। कारिणनाथ उनमें तीसरे हैं। गोरखपंथी कनफट्टा योगियों के अन्तर्गत कारिणनाथ के विचारों का समावेश होता है।

कारुणिकसिद्धान्त : कारुणिक सिद्धान्त को 'कालमुख शैव सिद्धान्त' भी कहते हैं। महीशूर (कर्नाटक) के समीप 'दक्षिण केदारेश्वर' का मन्दिर प्रसिद्ध है। वहाँ की गुरुपरम्परा में श्रीकण्टाचार्य वेदान्त के भाष्यकार हुए हैं। वे आचार्य रामानुज की तरह विशिष्टाद्वैतवादी थे और कालमुख शैव 'लकुलागम समय' सम्प्रदाय के अनुयायी थे। श्रीकण्ठ शिवाचार्य ने वायवीय संहिता के आधार पर सिद्ध किया है कि भगवान् महेश्वर अपने को उमा शक्ति से विशिष्ट कर लेते हैं। इस शक्ति में जीव और जगत्, चित् औऱ अचित्, दोनों का बीज वर्तमान रहता है। उसी शक्ति से भगवान् महेश्वर चराचर की सृष्टि करते हैं। इसी सिद्धान्त को 'शक्तिविशिष्टाद्वैत' कहते हैं, यही कारुणिक सिद्धान्त भी कहलाता है। वीर शैव अथवा लिङ्गायत इस शक्तिविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को भी अपनाते हैं। दक्षिण का लकुलीश सम्प्रदाय भी प्राचीन और नवीन दो रूपों में बँटा हुआ है और कदाचित् इस सम्प्रदाय के अनुयायी कालमुख अथवा कारुणिक सिद्धान्त को मानते हैं।

कारोहन : दे० 'कायारोहण'।

काल : वैशेषिक दर्शन के अनुसार कुल नौ द्रव्य हैं। इनमें छठा द्रव्य 'काल' है। यह सभी क्रिया, गति एवं परिवर्तन को उत्पन्न करनेवाली शक्ति के अर्थ में प्रयुक्त होता है और इस प्रकार दो समयों के अन्तर को प्रकट करने का आधार है। सातवाँ द्रव्य दिक् (दिशा) काल को सन्तुलित करता है। तन्त्रमत से अन्तरिक्ष में काल की अवस्थिति है और इस काल से ही जरा की उत्पत्ति होती है। भाषापरिच्छेद के अनुसार काल के पाँच गुण हैं --1. संख्या, 2. परिमाण, 3. पृथक्त्व, 4. संयोग, 5. विभाग।

विष्णुपुराण (1.2.14) में काल को परब्रह्म का रूप माना गया है:

परस्य ब्रह्मणो रूपं पुरुषः प्रथमं द्विज। व्यक्ताव्यक्ते तथैवन्ये रूपे कालस्तथा परम्॥

तिथ्यादितत्त्व में काल की परिभाषा इस प्रकार दी हुई है:

अनादिनिधनः कालो रुद्रः संकर्षणः स्मृतः। कलनात् सर्वभूतानां स कालः परिकीर्तितः॥

[काल आदि और निधन (विनाश) रहित, रुद्र और संकर्षण कहा गया है। समस्त भूतों की कलना (गणना) करने के कारण यह काल ऐसा प्रसिद्ध है।] हारीत (प्रथम स्थान, अ० 4) के द्वारा काल का विस्तृत वर्णन किया गया है :

[काल तीन प्रकार का जानना चाहिए;अतीत (भूत), अनागत (भविष्य) और वर्त्तमान। इसका लक्षण कहता हूँ, सुनो। काल लोक की गणना करता है, काल जगत् की गणना करता है, काल विश्व की गणना करता है, इसलिए यह काल कहलाता है। सभी देव, ऋषि, सिद्ध और किन्नर काल के वश हैं। काल स्वयं ही भगवान् देव है; वह साक्षात् परमेश्वर है। वह सृष्टि, पालन और संहार करनेवाला है। वह काल सर्वत्र समान है। काल से ही विश्व की कल्पना होती है, इसलिए वह काल कहलाता है। जिससे उत्पत्ति होती है, जिससे कला की कल्पना होती है, वही जगत् की उत्पत्ति करनेवाला काल जगत् का अन्त करनेवाला भी होता है। जो सभी कर्मों को बढ़ते हुए और होते हुए देखता है, उसी काल को प्रवर्तक जानना चाहिए। वही प्रतिपालक भौ होता है। जिसके द्वारा किया हुआ विनाश को प्राप्त होता है, अथवा जय को प्राप्त होता है, वही काल संहर्ता और कलना में संलग्न है। काल ही सम्पूर्ण भूतों को उत्पन्न करता है, काल ही प्रजा का संहार करता है, काल ही सोता और जागता है। काल दुरतिक्रम है अर्थात् उसका कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता।]

भागवत पुराण (9.9.2) में काल मृत्यु का पर्याय माना गया है। मेदिनीकोश में काल को ही महाकाल कहा गया है और दीपिका में शनि।

कालका : (1) कालकेय नामक असुरगण की माता। भागवत पुराण (6.6.32) के अनुसार यह वैश्वानर की कन्या है:

वैश्वानरसुता याश्च चतस्रश्चारुदर्शनाः। उपदानवी हयशिरा पुलोमा कालका तथा॥

यजुर्वेदसंहिता के अनुसार कालका अश्वमेघ यज्ञ का बलिपशु कहा गया है, जिसे अधिकांश उद्धरणों में एक प्रकार का पक्षी समझा जाता है।

(2) अम्बाला (पंजाब) सें 40 मील दूर कालका स्टेशन है। यहीं कालका देवी का मन्दिर है। परम्परा के अनुसार पार्वती के शरीर से कौशिकी देवी के प्रकट हो जाने पर पार्वती का शरीर श्यामवर्ण हो गया, तब वे उस स्थान से आकर कालका में स्थित हुई।

कालक्षेपम् : मराठा भक्तों की 'हरिकथा' नामक एक संस्था है, जिसमें वक्ता गीतों में उपदेश देता है तथा बीच-बीच में 'जय राम कृष्ण हरि' का उच्च स्वर से कीर्तन करता है। इसके साथ वह अनेक श्लोक पढ़ता हुआ उनकी व्याख्या करता है। यही गीत एवं गद्य भाषण की उपदेश प्रणाली पूरे दक्षिण भारत में है। वहाँ गायक को भागवत तथा उसके गीतबद्ध उपदेश को 'कालक्षेपम्' कहते हैं। इसका शाब्दिक अर्थ है 'भगवन्नाम कीर्तन में काल (समय) बिताना।'

कालज्ञानतन्त्र : एक तन्त्र ग्रन्थ। शाक्त साहित्य से सम्बन्धित इस तन्त्र की रचना आठवीं शती में हुई। स्वर्गीय म० म० हरप्रसाद शास्त्री ने इसका विस्तृत विश्लेषण किया है।

कालपी : झाँसी से 92 मील दूर कालपी नगर यमुना के दक्षिण तट पर स्थित है। कालपी में जौंधर नाला के पास वेदव्यास ऋषि का जन्मस्मारक व्यासटीला है। इसके पास ही नृसिंहटीला है। यहाँ के निवासियों का विश्वास है कि प्रलयकाल आने पर जौंधर नाले से मोटी जलधारा निकल कर विश्व को जलमग्न कर देगी। यहीं कालप्रिय (कालपी) नाथ का स्थान है जो तीर्थरूप में प्रसिद्ध है।

कालभैरवाष्टमी : मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को कालभैरवाष्टमी कहते हैं। इस तिथि के कालभैरव देवता हैं, जिनका पूजन, दर्शन इस दिन करना चाहिए। दे० व्रतकोश, 316-317; वर्षकृत्यदीपक, 106।

कालमाधव : माधवाचार्य रचित एक धर्मशास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थ। इसका दूसरा नाम 'कालनिर्णय' है। इस पर मिश्रमोहन तर्कतिलक की एक टीका भी है जो सं० 1670 में लिखी गयी थी। इसकी कई व्याख्याएँ उपलब्ध हैं। इनमें नारायण भट्ट का कालनिर्णयसंग्रह श्लोकविवरण, मथुरानाथ की कालमाधव चन्द्रिका, राचन्द्राचार्य की दीपिका, लक्ष्मीदेवी की लक्ष्मी (भाष्य) आदि प्रसिद्ध हैं।

कालमुखशाखा : दे० 'कारुणिक सिद्धान्त'।

कालरात्रिव्रत : आश्विन शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। लगभग सभी वर्णों के लिए सात दिन, तीन दिन अथवा शरीर की शक्ति के अनुसार केवल एक दिन का उपवास विहित है। पहले श्री गणेश, मातृदेवों स्कन्द तथा शिवजी का पूजन होता है, तदनन्तर एक शैव ब्राह्मण अथवा मग ब्राह्मण या किसी पारसी द्वारा हवनकुण्ड में हवन कराना चाहिए। आठ कन्याओं को भोजन कराने तथा आठ ही ब्राह्मणों को निमन्त्रित करने का विधान है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.326-332 (कालिका पुराण से)।

कालाग्नि : काल का वह स्वरूप, जो प्रलय के समय समस्त सृष्टि का विनाश करता है। यह 'प्रलयाग्नि' भी कहलाता है। महाभारत (1.54.25) में कथन है :

ब्रह्मदण्डं महाघोर कालाग्निसमतेजसम्। नाशयिष्यामि मात्र त्वं भयं कार्षीः कथञ्चन॥

पञ्चमुख रुद्राक्ष का नाम भी कालाग्नि है। स्कन्दपुराण में उल्लेख है :

पञ्चवक्त्रः स्वयं रुद्रः कालाग्निर्नाम नामतः। अगम्यागमनाच्चैव अभक्ष्यस्य च भक्षणात्॥ मुच्यते सर्वपापेभ्यः पञ्चवक्त्रस्य धारणात्।

कालाग्निरुद्र : जगत् का संहार करनेवाले कालाग्नि के अधिष्ठातृदेव। देवीपुराण में कालाग्निरुद्र का वर्णन पाया जाता है :

कालाग्निरुद्ररूपो यो बहुरूपसमावृतः॥ अनन्तपद्मरुपश्च धाता यः कारणेश्वरः। दारुणाग्निश्च रुद्रश्च यमहन्ता क्षमान्तकः॥ लोहितः क्रूरतेजात्मा घनो वृष्टिर्बलाहकः। विद्युतश्चलशीलश्च प्रसन्नः शान्तसौम्यदृक्॥ सर्वज्ञो विविधो बुद्धो द्युतिमान् दीप्तिसुप्रभः। एते रुद्रा महात्मानः कालिकाशक्तिवृंहिताः॥ संहरन्ति समन्तेदं ब्रह्माद्यं सचराचरम्।

कालाग्निरुद्रोपनिषद् : एक शैव सांप्रदायिक उपनिषद् जिसमें त्रिपुण्ड्र धारण और रहस्यमय ढंग से ध्यान करने का विवरण प्राप्त होता है।

कालाष्टमीव्रत : मृगशिरा नक्षत्र युक्त भाद्रपद की अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। एक वर्ष पर्यन्त यह क्रम चलना चाहिए। मान्यता है कि इस दिन शिव जी विना नन्दीगण अथवा गणेश के अपने मन्दिर में विराजते हैं। व्रती विभिन्न वस्तुओं से शिवजी को स्नान कराता है, भिन्न-भिन्न पुष्प समर्पित करता है तथा प्रत्येक महीने में पृथक्-पृथक् नामों से पूजन करता है।

कालिका : काले (कृष्ण) वर्णवाली। यह चण्डिका का ही एक रूप है। इसके नामकरण तथा स्वरूप का वर्णन कालिकापुराण (उत्तरतन्त्र, अ० 60) में निम्नांकित प्रकार से पाया जाता है :

सर्वे सुरगणाः सेन्द्रास्ततो गत्वा हिमाचलम्। गङ्गावतारनिकटे महामायां प्रतुष्टुवुः॥ अनेकैः संस्तुता देवी तदा सर्वामरोत्करैः। मातङ्गवनितामूर्तिर्भूत्वा देवानपृच्छत॥ युष्माभिरमरैरत्र स्तूयते का च भाविनी। किमर्थमागता यूयं मातङ्गस्याश्रमं प्रति॥ एवं ब्रुवन्त्या मातङ्ग्यास्तस्यास्तु कायकोषतः। समुद्भूताब्रवीद्देवी मां स्तुवन्ति सुरा इति॥ शुम्भो निशुम्भो ह्यसुरौ बाधेते सकलान् सुरान्। तस्मात्तयोर्वधायाहं स्तूयेऽद्य सकलैः सुरैः॥ विनिःसृतायां देव्यान्तु मातङ्ग्याः कायतस्तदा। भिन्नाञजननिभा कृष्णा साभूद् गौरी क्षणादपि॥ कालिकाख्याऽभवत्सापि हिमाचलकृताश्रया। तामुग्रतारां ऋषयो वदन्तीह मनीषिणः॥ उग्रादपि भयात्त्राति यस्माद् भक्तान् सदाम्बिका॥

[इन्द्र के साथ सभी देवतागण हिमालय में गङ्गावतरण के पास महामाया को प्रसन्न करने लगे। उनके द्वारा स्तुति किये जाने पर देवी ने मातङ्गवनिता की मूर्ति धारण करके देवताओं से पूछा, "तुम अमरों द्वारा किस भाविनी की स्तुति की जा रही है? किस प्रयोजन के लिए तुम लोग मातङ्ग-आश्रम में आये हो?" ऐसा बोलती हुई उस मातङ्गी के शरीर से एक देवी उत्पन्न हुई। उसने कहा, "देवगण मेरी स्तुति कर रहे हैं। शुम्भ और निशुम्भ नामक दो असुर सभी देवताओं को पीड़ित कर रहे हैं। इसलिए उनके वध के लिए समस्त देवताओं द्वारा मेरी स्तुति हो रही है।" मातङ्गी की काया से उसके निकल जाने पर वह घोर काजल सदृश कृष्णा (काली) हो गयी। वही कालिका कहलायी, जो हिमालय के आश्रय में रहने लगी। उसी को ऋषि लोग उग्रतारा कहते हैं। क्योंकि वह उग्र भय से भक्तों का सदा त्राण करती हैं।]

कालिका उपपुराण : उन्तीस उपपुराणों में से एक। इसमें देवी दुर्गा की महिमा तथा शाक्तमत का प्रतिपादन किया गया है।

कालिकापुराण : कालिकापुराण को ही 'कालिकातन्त्र' भी कहते हैं। यह बंगाल में प्रचलित शाक्तमत का नियामक ग्रन्थ है। इसमें चण्डिका को पशु अथवा मनुष्य की बलि देने का निर्देश भी है। बलिपशुओं की तालिका बहुत बड़ी है। वे हैं--पक्षी, कच्छप, घड़ियाल, मत्स्य, वन्य पशुओं के नौ प्रकार, भैंसा, बकरा, जंगली सूअर, गैंडा, काला हिरन, बारहसिंगा, सिंह एवं व्याघ्र इत्यादि। भक्त अथवा साधक अपने शरीर के रक्त की भी अर्पण कर सकता है। रक्तबलि का प्रचार क्रमशः कम होने से यह पुराण भी आजकल बहुत लोकप्रिय नहीं है।

कालिंजर (कालञ्जर) : बुन्देलखण्ड में स्थित एक प्रसिद्ध शैव तीर्थ। मानिकपुर-झाँसी रेलवे लाइन पर करबी से बीस मील आगे बटौसा स्टेशन है। यहाँ से अठारह मील दूर पहाड़ी पर कालिंजर का दुर्ग है। यहाँ नीलकंठ का मंदिर है। यह पुराना शाक्तपीठ है। महाभारत के वनपर्व्, वायुपुराण (अ० 77) और वामनपुराण (अ० 84) में इसका उल्लेख पाया जाता है। चन्देल राजाओं के समय में उनकी तीन राजधानियों--खर्जूरवाह (खजुराहो), कालञ्जर और महोदधि (महोबा)-में से यह भी एक था। आइने-अकबरी (भाग 2, पृ० 159) में इसको गगनचुम्बी पर्वत पर स्थित प्रस्तरदुर्ग कहा गया है। यहाँ पर कई मन्दिर हैं। एक में प्रसिद्ध कालभैरव की 18 बालिश्त ऊँची मूर्ति है। इसके सम्बन्ध में बहुत सी आश्चर्यजनक कहानियाँ प्रचलित हैं। कई झरने और सरोवर भी बने हुए हैं।

काली : शाक्तों में शक्ति के आठ मातृकारूपों के अतिरिक्त काली की अर्चा का भी निर्देश है। प्राचीन काल में शक्ति का कोई विशेष नाम न लेकर देवी या भवानी के नाम से पूजा होती थी। भवानी से शीतला का भी बोध होता था। धीरे-धीरे विकास होने पर किसी न किसी कार्य का सम्बन्ध किसी विशेष देवता या देवी से स्थापित होने लगा। काली की पूजा भी इसी विकासक्रम में प्रारम्भ हुई। त्रिपुरा एवं चटगाँव के निवासी काला बकरा, चावल, केला तथा दूसरे फल काली को अर्पण करते हैं। उधर काली की प्रतिमा नहीं होती, केवल मिट्टी का एक गोल मुण्डाकार पिण्ड बनाकर स्थापित किया जाता है।

मन्दिर में काली का प्रतिनिधित्व स्त्री-देवी की प्रतिमा से किया जाता है, जिसकी चार भुजाओं में, एक में खड्ग, दूसरी में दानव का सिर, तीसरी वरद मुद्रा में एवं चतुर्थ अभय मुद्रा में फैली हुई रहती है। कानों में दो मृतकों के कुण्डल, गले में मुण्डमाला, जिह्वा ठुड्डी तक बाहर लटकी हुई, कटि में अनेक दानवकरों की करधनी लटकती हुई तथा मुक्त केश एड़ी तक लटकते हुए होते हैं। यह युद्ध में हराये गये दानव का रक्तपान करती हुई दिखायी जाती है। वह एक पैर अपने पति शिव की छाती पर तथा दूसरा जंघा पर रखकर खड़ी होती है।

आजकल काली को कबूतर, बकरों, भैंसों की बलि दी जाती है। पूजा खड्ग की अर्चना से प्रारम्भ होती है। बहुत से स्थानों में काली अब वैष्णवी हो गयी है। दे० 'कालिका'।

कालीघाट : क्ति (काली) के मन्दिरों में दूसरा स्थान कालीघाट (कलकत्ता) के कालीमन्दिर का है, जबकि प्रथम स्थान कामरूप के कामाख्या मन्दिर को प्राप्त हैं। यहाँ नरबलि देने की प्रथा भी प्रचलित थी, जिसे आधुनिक काल में निषिद्ध कर दिया गया है।

कालीतन्त्र : आगमतत्‍त्वविलास' में दी गयी तन्त्रों की सूची के क्रम में 'कालीतन्त्र' का सातवाँ स्थान है। इसगें काली के स्वरूप और पूजापद्धति का वर्णन है।

कालीव्रत : कालरात्रि व्रत के ही समान इसका अनुष्ठान होता है। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, 263, 169।

कालीतरतन्त्र : आगमतत्त्व विलास' की सूची में उल्लिखित एक तन्त्र ग्रन्थ। यह दशम शताब्दी के पहले की रचना है।

काशकृत्सन : एक वेदान्ताचार्य। आत्मा (व्यक्ति) एवं ब्रह्म के सम्बन्धों के बारे में तीन सिद्धान्त उपस्थित किये गये हैं। प्रथम आश्मरथ्य का सिद्धान्त है, जिसके अनुसार आत्मा न तो बिल्कुल ब्रह्म से भिन्न हैं और न अभिन्न ही। दूसरा औडुलोमि का सिद्धान्त है, जिसके अनुसार मुक्ति के पूर्व आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल भिन्न है। तीसरा काशकृत्स्न का सिद्धान्त है जिसके अनुसार आत्मा बिल्कुल ब्रह्म से अभिन्न है। काशकृत्स्न अद्वैतमत का सिद्धान्त उपस्थित करते हैं।

काशिकावृत्ति : पाणिनि के अष्टाध्यायीस्थित सूत्रों की व्याख्या। पतञ्जलि के महाभाष्य के पश्चात् वामन और जयादित्य की 'काशिकावृत्ति' का अच्छा प्रचार हुआ। हरिदत्त ने 'पदमञ्जरी' नामक काशिकावृत्ति की टीका भी लिखी है। महाभाष्य के समान काशिकावृत्ति से भी सामाजिक जीवन पर आनुषंगिक प्रकाश पड़ता है। इसका रचनाकाल पाँचवीं शताब्दी के समीप है।

काशी : संसार के इतिहास में जितनी अधिक प्राक्कालिकता, नैरन्तर्य और लोकप्रियता काशी को प्राप्त है उतनी किसी भी नगर को नहीं यह लगभग 3000 वर्षों से भारत के हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थान तथा उसकी सम्पूर्ण धार्मिक भावनाओं का केन्द्र रही है। यह परम्परागतधार्मिक पवित्रता तथा शिक्षा का केन्द्र है। हिन्दूधर्म की विचित्र विषमता, संकीर्णता तथा नानात्व और अन्तर्विरोधों के बीच यह एक सूक्ष्म श्रृंखला है जो सबको समन्वित करती है। केवल सनातनी हिन्दुओं के लिए ही नहीं, बौद्धों और जैनों के लिए लिए भी यह स्थान बड़े महत्त्व का है। भगवान् बुद्ध ने बोधगया में ज्ञान प्राप्त होने पर सर्वप्रथम यहीं उसका उपदेश किया था। जैनियों के तीन तीर्थकरों का जन्म यहीं हुआ था।

इसे वाराणसी अथवा बनारस भी कहा जाता है। पिछले सैकड़ों वर्षों से इसके माहात्म्य पर विपुल साहित्य की सर्जना हुई है। पुराणों में इसका बहुत विस्तृत विवरण मिलता है। पुराख्यानों से पता चलता है कि काशी प्राचीन काल से ही एक राज्य रहा जिसकी राजधानी वाराणसी थी। पुराणों के अनुसार ऐल (चन्द्रवंश) के क्षत्रवृद्ध नामक राजा ने काशीराज्य की स्थापना की। उपनिषदों में यहाँ के राजा अजातशत्रु का उल्लेख है, जो ब्रह्मविद्या और अग्निविद्या का प्रकाण्ड विद्वान् था। महाभारत के अनुशासनपर्व (30.10) के अनुसार अति प्राचीन काल में काशी में धन्वन्तरि के पौत्र दिवोदास ने आक्रामक भद्रश्रेण्य के 100 पुत्रों को मार डाला और वाराणसी पर अधिकार कर लिया। इससे क्रुद्ध होकर भगवान् शिव ने अपने गण निकुम्भ को भेजकर उसका विनाश करवा दिया। हजारों वर्षों तक काशी खण्डहर के रूप में पड़ी रही। तदुपरान्त भगवान् शिव स्वयं आकर काशी में निवास करने लगे। तब से इसकी पवित्रता और बढ़ गयी।

बौद्धधर्म के ग्रन्थों से पता चलता है कि काशी बुद्ध के युग में राजगृह, श्रावस्ती तथा कौशाम्बी की तरह एक बड़ा नगर था। वह राज्य भी था। उस युग में यहाँ वैदिक धर्म का पवित्र तीर्थस्थान तथा शिक्षा का केन्द्र भी था। काशीखण्ड (26.34) और ब्रह्मपुराण के (207) के अनुसार वाराणसी शताब्दियों तक पाँच नामों से जानी जाती रही है। वे नाम हैं-- वाराणसी, काशी, अविमुक्त, आनन्दकानन और श्मशान अथवा महाश्मशान। पिनाकपाणि शम्भु ने इसे सर्वप्रथम आनन्दकानन और तदनन्तर अविमुक्त कहा (स्कन्द०, काशी०, 26.34)। काशी 'काश्' धातु से निष्पन्न है। 'काश्' का अर्थ है ज्योतित होना अथवा करना। इसका नाम काशी इसलिए है कि यह मनुष्य के निर्वाणपथ को प्रकाशित करती है, अथवा भगवान् शिव की परमसत्ता यहाँ प्रकाश करती है (स्कन्द०, काशी 26.67)। ब्रह्म० (33.49) और कूर्म पुराण (1.32.36) के अनुसार वरणा और असी नदियों के बीच स्थित होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। जाबालोपनिषद् में कुछ विपरीत मत मिलते हैं। वहाँ अविमुक्त, वरणा और नासी का अलौलिक प्रयोग है। अविमुक्त को वरणा और नासी के मध्य स्थित बताया गया है। वरणा को त्रुटियों का नाश करने वाली तथा नासी को पापों का नाश करनेवाली बताया गया है और इस प्रकार काशी पाप से मुक्त करने वाली नगरी है। लिङ्गपुराण (पूर्वार्ध, 92.143) के अनुसार ‘अवि’ का अर्थ पाप और काशी नगरी पापों से मुक्त है इसलिए इसका नाम ‘अविमुक्त’ पड़ा है। काशीखण्ड (32.111) तथा लिङ्गपुराण (1.91.76) के अनुसार भगवान् शंकर को काशी (वाराणसी) अत्यन्त प्रिय है इसलिए उन्होंने इसे आनन्द कानन नाम से अभिहित किया है। काशी का अन्तिम नाम ‘श्मशान’ अथवा महाश्मशान इसलिए है कि वह निधनोपरान्त मनुष्य को संसार के बन्धनों से मुक्त करने वाली है। वस्तुतः श्मशान (प्रेतभूमि) शब्द अशुद्धि का द्योतक है, किन्तु काशी की श्मशानभूमि को संसार में सर्वाधिक पवित्र माना गया है। दूसरी बात यह है कि ‘श्म’ का तात्पर्य है ‘शव’ और ‘शान’ का तात्पर्य है ‘लेटना’ (स्कन्द, काशीं 30, 103.4)। प्रलय होने पर महान् आत्मा यहाँ शव या प्रेत के रूप में निवास करते हैं, इसलिए इसका नाम महाश्मशान है। पद्मपुराण (133.14) के अनुसार भगवान् शङ्कर स्वयं कहते हैं कि अविमुक्त प्रसिद्ध प्रेतभूमि है। संहारक के रूप में यहाँ रहकर मैं संसार का विनाश करता हूँ।

यद्यपि सामान्य रूप से काशी, वाराणसी औऱ अविमुक्त तीनों का प्रयोग समान अर्थ में ही किया गया है, किन्तु पुराणों में कुछ सीमा तक इनके स्थानीय क्षेत्रविस्तार में अन्तर का भी निर्देश है। वाराणसी उत्तर से दक्षिण तक वरणा और असी से घिरी हुई है। इसके पूर्व में गङ्गा तथा पश्चिम में विनायकतीर्थ है। इसका विस्तार धनुषाकार है, जिसका गङ्गा अनुगमन करती है। मत्स्यपुराण (184.50--52) के अनुसार इसका क्षेत्रविस्तार ढाई योजन पूर्व से पश्चिम और अर्द्ध योजन उत्तर से दक्षिण है। इसका प्रथम वृत्त सम्पूर्ण काशीक्षेत्र का सूचक है। पद्मपुराण (पातालखण्ड) के अनुसार यह एक वृत्त से घिरी हुई है, जिसकी त्रिज्यापंक्ति मध्यमेश्वर से आरम्भ होकर देहलीविनायक तक जाती है। यह दूरी दो योजन तक है (मत्स्यपुराण, अध्याय 181.61-62)।

अविमुक्त उस पवित्र स्थल को कहते हैं, जो 200 धनुष व्यासार्ध (800 हाथ या 1200 फुट) में विश्वेश्वर के मन्दिर के चतुर्दिक् विस्तृत है। काशीखण्ड में अविमुक्त को पंचकोश तक विस्तृत बताया गया है। पर वहाँ यह शब्द काशी के लिए प्रयुक्त हुआ है। पवित्र काशीक्षेत्र का सम्पूर्ण अन्तर्वृत्त पश्चिम में गोकर्णेश से लेकर पूर्व में गङ्गा की मध्यधारा तथा उत्तर में भारभूत से दक्षिण में ब्रह्मेश तक विस्तृत है।

काशी को धार्मिक माहात्म्य बहुत अधिक है। महाभारत (वनपर्व 84.79.80) के अनुसार ब्रह्महत्या का अपराधी अविमुक्त में प्रवेश करके भगवान् विश्वेश्वर की मूर्ति का दर्शन करने मात्र से ही पापमुक्त हो जाता है और यदि वहाँ मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसे मोक्ष मिलता है। अविमुक्त में प्रवेश करते ही सभी प्रकार के प्राणियों के पूर्वजन्मों के हजारों पाप क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं। धर्म में आसक्ति रखने वाला व्यक्ति काशी में मृत्यु होने पर पुनः संसार को नहीं देखता। संसार में योग के द्वारा मोक्ष (निर्वाण) की प्राप्ति नहीं हो सकती, किन्तु अविमुक्त में योगी को मोक्ष सिद्ध हो जाता है (मत्स्य० 185.15.16)। कुछ स्थलों पर वाराणसी तथा वहाँ की नदियों के सम्बन्ध में रहस्यात्मक संकेत भी मिलते हैं। उदाहरणार्थ, काशीखण्ड में असी को 'इडा', वरणा को 'पिङ्गला', अविमुक्त को 'सुषुम्ना' तथा इन तीनों के सम्मिलित स्वरूप को काशी कहा गया है (स्कन्द, काशीखण्ड 525)। परन्तु लिंगपुराण का इससे भिन्न मत है। वहाँ असी, वरणा तथा गंगा को क्रमशः पिंगला, इडा तथा सुषुम्न कहा गया है।

पुराणों में कहा गया है कि काशीक्षेत्र के एक-एक पग में एक-एक तीर्थ की पवित्रता है (स्कन्द, काशी० 59, 118) और काशी की तिलमात्र भूमि भी शिवलिङ्ग से अछूती नहीं है। जैसे काशीखण्ड के दसवें अध्याय में ही 64 लिङ्गों का वर्णन है। ह्वेनसांग के अनुसार उसके समय में काशी में सौ मन्दिर थे और एक मन्दिर में भगवान् महेश्वर की 100 फुट ऊँची ताँबे की मूर्ति थी। किन्तु दुर्भाग्यवश विधर्मियों द्वारा काशी के सहस्रों मन्दिर विध्वस्त कर दिये गये और उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण किया गया। औरंगजेब ने तो काशी का नाम मुहम्मदाबाद रख दिया था। परन्तु यह नाम चला नहीं और काशी में मन्दिर फिर बनने लगे।

भगवान् विश्वनाथ काशी के रक्षक हैं और उनका मन्दिर सर्वप्रमुख है। ऐसा विधान है कि प्रत्येक काशीवासी को नित्य गङ्गास्नान करके विश्वनाथ का दर्शन करना चाहिए। पर औरंगजेब के बाद लगभग 100 वर्षों तक यह व्यवस्था नहीं रही। शिवलिङ्ग को तीर्थयात्रियों के सुविधानुसार यत्र-तत्र स्थानान्तरित किया जाता रहा (त्रिस्थलीसेतु, पृ० 208)। वर्तमान मन्दिर अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में रानी अहल्याबाई होल्कर द्वारा निर्मित हुआ। अस्पृश्यता का जहाँ तक प्रश्न है, त्रिस्थलीसेतु (पृष्ठ 183) के अनुसार अन्त्यजों (अस्पृश्यों) के द्वारा लिङ्गस्पर्श किये जाने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि विश्वनाथजी प्रतिदिन प्रातः ब्रह्मवेला में मणिकर्णिका घाट पर गङ्गास्नान करके प्राणियों द्वारा ग्रहण की गयी अशुद्धियों को धो डालते हैं।

काशी में विश्वनाथ के पूजनोपरान्त तीर्थयात्री को पाँच अवान्तर तीर्थों-- दशाश्वमेध, लोलार्क, केशव, बिन्दुमाधव तथा मणिकर्णिका का भी परिभ्रमण करना आवश्यक है (मत्स्य०)। आधुनिक काल में काशी के अवान्तर पाँच तीर्थ 'पञ्चतीर्थी' के नाम से अभिहित किये जाते हैं और वे हैं गङ्गा-असी-संगम्, दशाश्वमेध घाट, मणिकर्णिका, पञ्चगङ्गा तथा वरणासंगम। लोलार्क तीर्थ असीसंगम के पास वाराणसी की दक्षिणी सीमा पर स्थित है। वाराणसी के पास गङ्गा की धारा तो तीव्र है और वह सीधे उत्तर की ओर बहती है, इसलिए यहाँ इसकी पवित्रता का और भी अधिक माहात्म्य है। दशाश्वमेध घाट तो शताब्दियों से अपनी पवित्रता के लिए ख्यातिलब्ध है। काशीखण्ड (अध्याय 52, 56, 68) के अनुसार दशाश्वमेध का पूर्व नाम 'रुद्रसर' है। किन्तु जब ब्रह्मा ने यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ किये, उसका नाम दशाश्वमेध पड़ गया। मणिकर्णिका (मुक्तिक्षेत्र) काशी का सर्वाधिक पवित्र तीर्थ तथा वाराणसी के धार्मिक जीवनक्रम का केन्द्र है। इसके आरम्भ के सम्बन्ध में एक रोचक कथा है :

विष्णु ने अपने चिन्तन से यहाँ एक पुष्करिणी का निर्माण किया और लगभग पचास हजार वर्षों तक वे यहाँ घोर तपस्या करते रहे। इससे शङ्कर प्रसन्न हुए और उन्होंने विष्णु के सिर को स्पर्श किया और उनका एक मणिजटित कर्णभूषण सेतु के नीचे जल में गिर पड़ा। तभी से इस स्थल को 'मणिकर्णिका' कहा जाने लगा। काशीखण्ड के अनुसार निधन के समय यहाँ सज्जन पुरुषों के कान में भगवान् शङ्कर 'तारक मन्त्र' फूँकते हैं। इसलिए यहाँ स्थित शिवमन्दिर का नाम 'तारकेश्वर' है।

यहाँ पञ्चगङ्गा घाट भी है। इसे पञ्चगङ्गा घाट इसलिए कहा जाता है कि पुराणों के अनुसार यहाँ किरणा, धूतपापा, गङ्गा, यमुना तथा सरस्वती का पवित्र सम्मेलन हुआ है, यद्यपि इनमें से प्रथम दो अब अदृश्य हैं। काशीखण्ड (59.118-133) के अनुसार जो व्यक्ति इस पञ्चनदसंगम स्थल पर स्नान करता है वह इस पाञ्चभौतिक पदार्थों से युक्त मर्त्यलोक में पुनः नहीं आता। यह पाँच नदियों का संगम विभिन्न युगों में विभिन्न नामों से अभिहित किया गया था। सत्ययुग में धर्ममय, त्रेता से धूतपातक, द्वापर में बिन्दुतीर्थ तथा कलियुग में इसका नाम 'पञ्चनद' पड़ा है।

काशी में तीर्थयात्री के लिए पञ्चक्रोशी की यात्रा बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य है। पञ्चक्रोशी मार्ग की लम्बाई लगभग 50 मील है और इस मार्ग पर सैकड़ों मन्दिर हैं। मणिकर्णिका केन्द्र से यात्री वाराणसी की अर्द्धवृत्ताकार में परिक्रमा करता है जिसका अर्द्धव्यास पंचक्रोश है, इसीलिए इसे 'पंचक्रोशी' कहते हैं (काशीखण्ड, अध्याय 26, श्लोक 80 और 114 तथा अध्याय 55-44)। इसके अनुसार यात्री मणिकर्णिका घाट से गंगा के किनारे किनारे चलना आरम्भ करके अस्सीघाट के पास मणिकर्णिका से 6 मील दूर खाण्डव (कंदवा) नामक गाँव में रुकता है। वहाँ से दूसरे दिन धूपचण्डी के लिए (10 मील) प्रस्थान करता है। वहाँ धूपचण्डी देवी का मन्दिर है। तीसरे दिन वह 14 मील की यात्रा पर रामेश्वर नामक गाँव के लिए प्रस्थान करता है। चौथे दिन वहाँ से 8 मील दूर शिवपुर पहुँचता है और पाँचवें दिन वहाँ से 6 मील दूर कपिलधारा जाता है और वहाँ पितरों का श्राद्ध करता है। छठे दिन वह कपिलधारा से वरणासंगम होते हुए लगभग 6 मील की यात्रा करके मणिकर्णिका आ जाता है। कपिलधारा से मणिकर्णिका तक वह यव (देवान्न) बिखेरता हुआ आता है। तदुपरान्त वह गङ्गास्नान करके पुरोहितों को दक्षिणा देता है। फिर साक्षीविनायक के मन्दिर में जाकर अपनी पञ्चक्रोशी यात्रा की पूर्ति की साक्षी देता है।

इसके अतिरिक्त काशी के कुछ अन्य तीर्थ भी प्रमुख हैं। इनमें ज्ञानवापी का नाम उल्लेखनीय है। यहाँ भगवान् शिव ने शीतल जल में स्नान करके यह वर दिया था कि यह तीर्थ अन्य तीर्थों से उच्चतर कोटि का होगा। इसके अतिरिक्त दुर्गाकुण्ड पर एक विशाल दुर्गामन्दिर भी है। काशीखण्ड (श्लोक 37, 65) में इससे सम्बद्ध दुर्गास्तोत्र का भी उल्लेख है। विश्वेश्वरमन्दिर से एक मील उत्तर भैरवनाथ का मन्दिर है। इनको काशी का कोतवाल कहा गया है। इनका वाहन कुत्ता है। साथ ही गणेशजी के मन्दिर तो काशी में अनन्त हैं। त्रिस्थलीसेतु (पृ० 98-100) से यह पता चलता है कि काशी में प्रवेश करने मात्र से ही इस जीवन के पापों का क्षय हो जाता है और विविध पवित्र स्थलों पर स्नान करने से पूर्व जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।

कुछ पुराणों अनुसार काशी में रहकर तनिक भी पाप नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसके लिए बड़े ही कठोर दण्ड का विधान है। तीर्थस्थान होने के कारण यहाँ पूर्वजों अथवा पितरों का श्राद्ध और पिण्डदान किया जा सकता है, किन्तु तपस्वियों द्वारा काशी में मठों का निर्माण अधिक प्रशंसनीय है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि प्रत्येक काशीवासी को प्रतिदिन मणिकर्णिका घाट पर गङ्गा स्नान करके विश्वेश्वर का दर्शन करना चाहिए। त्रिस्थलीसेतु (पृ० 168) में कहा गया है कि किसी अन्य स्थल पर किये गये पाप काशी आने पर नष्ट हो जाते हैं। किन्तु काशी में किये गये पाप दारुण यातनादायक होते हैं। जो काशी में रहकर पाप करता है वह पिशाच हो जाता है। वहाँ इस अवस्था में सहस्रों वर्षों तक रहकर परमज्ञान को प्राप्त होता है, तदुपरान्त उसे मोक्ष मिलता है। काशी में रहकर जो पाप करते हैं उन्हें यमयातना नहीं सहनी पड़ती, चाहे वे काशी में मरें या अन्यत्र। जो काशी में रहकर पाप करते हैं वे कालभैरव द्वारा दण्डित होते हैं। जो काशी में पाप करके कहीं अन्यत्र मरते हैं वे राम नामक शिव के गण द्वारा सर्वप्रथम यातना सहते हैं, तत्पश्चात् वे कालभैरव द्वारा दिये गये दण्ड को सहस्रों वर्षों तक भोगते हैं। फिर वे नश्वर मानवयोनि में प्रविष्ट होते हैं और काशी में मरकर निर्वाण (मोक्ष या संसार से मुक्ति) पाते हैं।

स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (85, 112-113) में यह उल्लेख है कि काशी से कुछ उत्तर में स्थित धर्मक्षेत्र (सारनाथ) विष्णु का निवासस्थान है, जहाँ उन्होंने बुद्ध का रूप धारण किया था। यात्रियों के लिए सामान्य नियम यह है कि उन्हें आठ मास तक संयत होकर स्थान-स्थान पर भ्रमण करना चाहिए। फिर दो या चार मास तक एक स्थान पर निवास करना चाहिए। किन्तु काशी में प्रविष्ट होने पर वहाँ से बाहर भ्रमण नहीं होना चाहिए और काशी छोड़ना ही नहीं चाहिए, क्योंकि वहाँ मोक्ष प्राप्ति निश्चित है।

भगवान् शिव के श्रद्धालु भक्त के लिए महान् विपत्तियों में भी उनके चरणों के जल अतिरिक्त कहीं अन्यत्र स्थान नहीं है। बाह्याभ्यन्तर असाध्य रोग भी भगवान् शङ्कर की प्रतिमा पर पड़े जल के आस्थापूर्ण स्पर्श से दूर हो जाते हैं (काशीखण्ड, 67, 72-83)। दे० 'अविमुक्त'।

काशीखण्ड : स्कन्दपुराण का एक भाग, जिसमें तीर्थ के तीन प्रकार कहे गये हैं-- (1) जङ्गम, (2) मानस और (3) स्थावर। पवित्रस्वभाव, सर्वकामप्रद ब्राह्मण और गौ जङ्गम तीर्थ हैं। सत्य, क्षमा, शम, दम, दया, दान, आर्जव, सन्तोष, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य, तपस्या आदि मानस तीर्थ हैं। गङ्गादि नदी, पवित्र सरोवर, अक्षय वटादि पवित्र वृक्ष, गिरि, कानन, समुद्र, काशी आदि पुरी स्थावर तीर्थ हैं। पद्मपुराण में इस धरती पर साढ़े तीन करोड़ तीर्थों का उल्लेख है। जहाँ कहीं कोई महात्मा प्रकट हो चुके हैं, या जहाँ कहीं किसी देवी या देवता ने लीला की है, उसी स्थान को हिन्दुओं ने तीर्थ मान लिया है। भारतभूमि में इस प्रकार के असंख्य स्थान हैं। तीर्थाटन करने तथा देश में घूमने से आत्मा की उन्नति होती है, बुद्धि का विकास होता है और बहुदर्शिता आती है। इसलिए तीर्थयात्राओं को हिन्दू धर्म पुण्यदायक मानता है। तीर्थों में सत्सङ्ग और अनुभव से ज्ञान बढ़ता है और पापों से बचने की भावना उत्पन्न होती है।

काशीखण्ड' में काशी के बहुसंख्यक तीर्थों और उनके इतिहास एवं माहात्म्य का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। काशीखण्ड वास्तव में काशीप्रदर्शिका है।

काशीमोक्षनिर्णय : मण्डन मिश्र ने इस ग्रन्थ का प्रणयन संन्यास ग्रहण करने के पूर्व किया था। काशी में निवास करने से मोक्ष कैसे प्राप्त होता है, इसका इसमें युक्तियुक्त विवेचन है।

काशीविश्वनाथ : काशी को विश्वनाथ (शिव) की नगरी कहा गया है। यहाँ पर शिवलिङ्गमूर्ति की अर्चा प्रचलित है। मन्दिर के गर्भ भाग में प्रवेश कर दर्शन करते हैं और काशीविश्वनाथ के लिङ्ग का पूजन भी करते हैं, बिल्व-पत्र-पुष्पादि चढ़ाते हैं। काशी का विश्वनाथमन्दिर उत्तर भारत के शैव मन्दिरों में सर्वोच्च स्थान रखता है। इसका निर्माण अठारहवीं शती के अन्तिम चरण में महारानी अहल्याबाई होल्कर ने कराया था। इसके शिखर पर लगा हुआ सोना महाराज रणजीतसिंह द्वारा प्रदत्त है।

काश्मीरक सदानन्दयति : अद्वैतब्रह्मसिद्धि' नामक प्रकरणग्रन्थ के प्रणेता। इनका जीवनकाल सत्रहवीं शताब्दी है। इनके नाम के साथ 'काश्मीरक' शब्द का व्यवहार होने से जान पड़ता है कि ये कश्मीर देशीय थे। इनकी 'अद्वैतब्रह्मसिद्धि' अद्वैतमत का एक प्रामाणिक ग्रन्थ है। इसमें प्रतिबिम्बवाद एवं अवच्छिन्नवाद सम्बन्धी मतभेदों की विशेष विवेचना में न पड़कर 'एकब्रह्मवाद' को ही वेदान्त का मुख्य सिद्धान्त बताया गया है। जब तक प्रबल साधना के द्वारा जिज्ञासु ऐकात्म्य का अनुभव नहीं कर लेता तभी तक वह इस वाग्जाल में फँसा रहता है। अन्यथा 'ज्ञाते द्वैतं न विद्यते' (ज्ञान होने पर द्वैत समाप्त हो जाता है)।

काश्य : उज्जयिनीनिवासी एक विद्वान् कुलाचार्य (अध्यापक), जो बलराम और कृष्ण के गुरु हुए। इनके पिता संदीपन और पूर्वनिवास काशी रहा होगा :

अथो गुरुकुले वासमिच्छन्तावुपजग्मतुः। काश्यं सान्दीपिनिं नाम ह्यवन्तीपुरवासिनम्॥ (भगवत पु०, 10.45.31)

काश्यप : एक प्राचीन वेदान्ताचार्य। प्राचीन काल में काश्यप का भी एक सूत्रग्रन्थ था। शाण्डिल्य ने अपने सूत्रग्रन्थ में काश्यप तथा बादरायण के मत का उल्लेख करके अपना सिद्धान्त स्थापित किया है। उनके मत में काश्यप भेदवादी तथा बादरायण अभेदवादी थे।

शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र में काश्यप का उल्लेख है। कात्यायन के वाजसनेय प्रातिशाख्य में काश्यप का शिक्षा (वेदाङ्ग) के पूर्वाचार्य के रूप में उल्लेख हुआ है। काश्यप मानुषी बुद्ध के एक अवतार भी माने जाते हैं।

किनाराम बाबा : महात्मा किनाराम का जन्म बनारस जिले के क्षत्रिय कुल में विक्रम सं० 1758 के लगभग हुआ। द्विरागमन के पूर्व ही पत्नी का देहान्त हो गया। उसके कुछ दिन बाद उदास होकर घर से निकल गये और उसके कुछ दिन बाद उदास होकर घर से निकल गये और गाजीपुर जिले के कारो नामक गाँव के संयोगी वैष्णव महात्मा शिवादास कायस्थ की सेवा-टहल में रहने लगे और कुछ दिनों के बाद उन्हीं के शिष्य हो गये। कुछ वर्ष गुरुसेवा करके उन्होंने गिरनार पर्वत की यात्रा की। वहाँ भगवान् दत्तात्रेय का दर्शन किया और उनसे अवधूत वृत्ति की शिक्षा लेकर उनकी आज्ञा से काशी लौटे। यहाँ उन्होंने बाबा कालूराम अघोरपन्थी से अघोर मत का उपदेश लिया। दे० 'अघोर मत' अथवा 'कापालिक'। वैष्णव भागवत और फिर अघोरपन्थी होकर किनाराम ने उपासना का एक अद्भुत सम्मिश्रण किया। वैष्णव रीति से ये रामोपासक हुए और अघोर पन्थ की रीति से मद्य-मांसादि के सेवन में इन्हें कोई आपत्ति न हुई। साथ ही इनके समक्ष जाति-पाँति का कोई भेदभाव न था। इनका पन्थ अलग ही चल पड़ा। इनके शिष्य हिन्दू-मुसलमान सभी हुए।

जीवन में अपने दोनों गुरुओं की मर्यादा निवाहने के लिए इन्होंने वैष्णव मत के चार स्थान मारुफपुर, नयी डीह, परानापुर और महुपुर में और अघोर मत के चार स्थान रामगढ़ (बनारस), देवल (गाजीपुर), हरिहरपुर (जौनपुर) और कृमिकुण्ड (काशी) में स्थापित किये। ये मठ अब तक चल रहे हैं। इन्होंने भदैनी में कृमिकुण्ड पर स्वयं रहना आरम्भ किया। काशी में अब भी इनकी प्रधान गद्दी कृमिकुण्ड पर है। इनके अनुयायी सभी जाति के लोग हैं। रामावतार की उपासना इनकी विशेषता है। ये तीर्थयात्रा आदि मानते हैं, इन्हें औघड़ भी कहते हैं। ये देवताओं की मूर्ति की पूजा नहीं करते। अपने शवों को समाधि देते हैं, जलाते नहीं। किनाराम बाबा ने संवत् 1800 वि० में 142 वर्ष की अवस्था में समाधि ली।

किनारामी (अघोरपन्थी) : दे० 'किनाराम'।

किमिच्छाव्रत : मार्कण्डेय पुराण के अनुसार इस व्रत में अतिथि से पूछा जाता है कि वह क्या चाहता है? इसके विषय में करन्धम के पुत्र अवीक्षित की एक कथा आती है, जिसके अनुसार उसकी माता ने इस व्रत का आचरण किया था तथा उसने अपनी माता को सर्वदा इस व्रत का आचरण करने का वचन दिया था। अवीक्षित ने घोषणा की थी :

श्रृण्वन्तु मेऽर्थिनः सर्वे प्रतिज्ञातं मया तदा। किमिच्छय ददाम्येष क्रियमाणे किमिच्छके॥ (मार्कण्डेय पुराण, 122.20)

[मेरे सब याचक सुन लें, किमिच्छक व्रत करते हुए मैंने प्रतिज्ञा की है-- आप क्या चाहते हैं, मैं वही दान करूँगा।]

किरण : रौद्रिक आगमों में से यह एक आगम है। 'किरणागम' की सबसे पुरानी हस्तलिखित प्रति 924 ई० (हरप्रसाद शास्त्री, 2,124) की उपलब्ध है।

किरणावली : वैशेषिक दर्शन के ग्रन्थलेखक आचार्यों में उदयन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनका वैशेषिक मत पर पहला ग्रन्थ है 'किरणावली', जो प्रशस्तपाद के भाष्य का व्याख्यान है। यह दशम शताब्दी की रचना है।

किरणावलीप्रकाश : वर्धमान उपाध्याय द्वारा रचित द्वादश शताब्दी का यह ग्रन्थ उदयन कृत 'किरणावली' की व्याख्या है।

कीर्तन सोहिला : सिक्खों की एक प्रार्थनापुस्तक। सिक्खों की मूल प्रार्थनापुस्तिका का नाम 'पञ्जग्रन्थी' है। इसके पाँच भाग हैं-- (1) जपजी, (2) रहिरासु, (3) कीर्तन सोहिला, (4) सुखमनी और (5) आसा दी वार। इनमें से प्रथम तीनों का खालसा सिक्खों को नित्य पाठ करना चाहिए।

कीर्तनीय : चैतन्य सम्प्रदाय में सामूहिक कीर्तन के प्रमुख को कीर्तनीय कहते हैं। इस सम्प्रदाय के मन्दिरों में प्रायः राधा-कृष्णा की मूर्तियों के साथ ही चैतन्य, अद्वैत एवं नित्यानन्द की मूर्तियाँ भी स्‍थापित रहती है। केवल चैतन्य महाप्रभु की ही मूर्ति किसी-किसी मन्दिर में पायी जाती है। पूजा में प्रधानता संकीर्तन की रहती है। 'कीर्तनीय' (प्रधान संकीर्तक) तथा उसके दल वाले जगमोहन (प्रधान मन्दिर के सामने के भाग) में बैठते हैं तथा झाल एवं मृदंग बजाकर कीर्तन करते हैं। कीर्तनीय बीच-बीच में आत्मविभोर हो नाच भी उठता है। एक या अधिक बार 'गौरचन्द्रिका' के गायन का नियम है।

कीर्तिव्रत : यह संवत्सरव्रत है। इसमें व्रती पीपल वृक्ष, सूर्य तथा गङ्गा को प्रणाम करता है, इन्द्रियों का निग्रह कर एक स्थान पर निवास करता है, केवल मध्याह्न में एक बार भोजन करता है। इस प्रकार का आचरण एक वर्ष तक किया जाता है। व्रत की समाप्ति के पश्चात् व्रती किसी अच्छे सपत्नीक ब्राह्मण का पूजन करता है तथा उसे तीन गौओं के साथ एक सुवर्णवृक्ष दान में देता है। इस व्रत के आचरण से मनुष्य यश तथा भूमि प्राप्त करता है।

कीर्तिसंक्रान्तिव्रत : संक्रान्ति के दिन धरातल पर सूर्य की आकृति खींचकर उस पर सूर्य की प्रतिमा स्थापित करके पूजन किया जाता है। एक वर्ष पर्यन्त यह अनुष्ठान होना चाहिए। इसके फलस्वरूप मनुष्य को यश, दीर्घायु, राज्य तथा स्वास्थ्य की प्राप्ती होती है।

कीलक : किसी अनुष्ठान में मुख्य मन्त्र के पूर्व जो पाठ किया जाता है उसको कीलक कहते हैं। इसका शाब्दिक अर्थ है 'कील ठोंक कर दृढ़ता से गाड़ना'। कील दृढ़ता का प्रतीक है। कीलकस्तोत्र का उदाहरण दुर्गासप्तशती में देखा जा सकता है, जिसमें चण्डीपाठ के पूर्व कुछ अन्य पवित्र स्तोत्र पढ़े जाते हैं, जैसे कवच, कीलक एवं अर्गला स्तोत्र जो मार्कण्डेय एवं वराह पुराण के उद्धरण हैं।

कीलाल : ऋग्वेद के सिवा अन्य संहिताओं में 'कीलाल' शब्द का प्रयोग 'मीठे पेय' अर्थ में हुआ है। पुरुषमेध यज्ञ की बलिसूची में सुराकार का नाम भी कीलाल के रूप में आया है, इसलिए इस पेय की प्रकृति भी निश्चय ही सुरा के समान रही होगी।

कुंकुम : केसर, जो सुगन्ध और रक्त-पीत रंग के लिए प्रसिद्ध अलंकरण द्रव्य है। देवपूजा में चन्दन के साथ मिलाकर इसका उपयोग होता है। लक्ष्मी, दुर्गा आदि देवियों की पूजा में कुंकुम अलग से भी चढ़ाई जाती है। यह कश्मीर में उपजती है, अतः दुर्लभता के कारण इसके स्थान पर रोली का उपयोग होता है इसलिए अब रोली ही कुंकुम नाम से प्रचलित है। रोली हलदी से बनती है अतः यह भी मांगलिक प्रतीक है, जो स्मार्तों के द्वारा देवी की पूजा में यन्त्र (देवी की प्रतिमासूचक वस्तु) पर चढ़ाया जाता है।

कुक्कुटी-मर्कटीव्रत : भाद्र शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। प्रत्येक सप्तमी को व्रत करते हुए एक वर्ष तक यह क्रम चलाना चाहिए। सप्तमी चाहे कृष्णपक्षीय हो या शुक्लपक्षीय। अष्टमी के दिन तिल, चावल (गुड़ से युक्त) ब्राह्मण को दान में देना चाहिए। एक वृत्त में भगवान् शिव तथा अम्बिका की आकृतियाँ बनाकर उनका पूजन करें। 'तिथितत्त्व' (पृ० 37) में इसे कुक्कुटीव्रत कहा गया है। व्रत करने वाले को जीवन पर्यन्त भुजा में सुवर्ण अथवा रजततार से युक्त सूत के धागे बाँधे रहना चाहिए। कथा है कि एक रानी तथा राजपुरोहित की पत्नी मर्कटी अर्थात् वानरी तथा कुक्कुटी अर्थात् मुर्गी हो गया थीं, क्योंकि वे इस धागे को बाँधना भूल गयी थीं। इस कथा का वर्णन कृष्ण ने युधिष्ठिर से किया है।

कुक्कुटेश्वरतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में लिखित तन्त्रों की सूची में सोलहवाँ स्थान 'कुक्कुटेश्वर तन्त्र' को प्राप्त है।

कुण्डलिया : (गिरिधर कविराय कृत) नैतिक उपदेशों से भरी एवं सामाजिक उपयोगितापूर्ण कुण्डलियों की रचना, जो अठारहवीं शताब्दी के एक सुधारवादी हिन्दी कवि गिरिधर कविराय ने की है। हिन्दी नीति साहित्य में गिरिधर कविराय की कुण्डलियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं।

कुण्डकोपनिषद् : त्याग-वैराग्य प्रतिपादक एक उपनिषद् संन्यास धर्म की निदर्शक उपनिषदों में यह प्रमुख मानी जाती है।

कुत्स : ऋग्वेदीय मन्त्रों के साक्षात्कर्ता ऋषियों में से एक ऋषि। अष्टाध्यायी (पाणिनि) के सूत्रों में जिन पूर्वाचार्यों के नाम आये हैं उनमें कुत्स भी हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार इन्द्र ने इन्हें बहुत ताडित किया, किन्तु फिर प्रसन्न होकर सुष्ण दैत्य से इनकी रक्षा की। एक बार इन्द्र इनको अमरावती में अपने प्रासाद में ले गया। इन्द्र और कुत्स दोनों आकार और सौन्दर्य में समान थे। इन्द्र की पत्नी शची पहचान न सकी कि उसका पति इन्द्र कौन सा है।

कुत्स औरव : पञ्चविंश ब्राह्मण के अनुसार कुत्स औरव ने अपने पारिवारिक पुरोहित उपगु सौश्रवस का वध इस लिए कर डाला था कि सौश्रवस के पिता इन्द्र की पूजा के अधिक पक्षपाती थे। इस तथ्य का समर्थन ऋग्वेद के कुछ सूक्तों में कुत्स एवं इन्द्र की प्रतियोगिता के वर्णन से प्राप्त होता है।

कुन्दचतुर्थी : माघ शुक्ल चतुर्थी। इस तिथि को देवीपूजा होती है। कुन्दपुष्प, शाक, सब्जी, नमक, शक्कर, जीरा आदि वस्तुएँ कन्याओं को दान में दी जाती हैं। चतुर्थी के दिन उपवास का विधान है। यह गौरीचतुर्थी के नाम से भी प्रसिद्ध है। चतुर्थी को उपवास ही इस व्रत का मुख्य अङ्ग है। उस दिन उक्त दान देने से सौभाग्य की उपलब्ध होती है।

कुब्जिकातन्त्र : आगमतत्त्वविलास' की तन्त्रसूची में 55 वाँ स्थान 'कुब्जिकातन्त्र' का है। इसमें निगूढ़ तान्त्रिक क्रियाओं का वर्णन है।

कुब्जिकामतन्त्र : एक प्राचीन तन्त्रग्रन्थ। गुप्तकालीन भाषाशैली में लिखित होने के कारण इसका रचनाकाल लगभग सातवीं शताब्दी प्रतीत होता है।

कुबेरतीर्थ : कुरुक्षेत्र के समीप यह स्थान भद्रकाली मन्दिर से थोड़ी दूर सरस्वती नदी के तट पर स्थित है। यहाँ कुबेर ने यज्ञों का अनुष्ठान किया था। इसी प्रकार नर्मदातट पर भी एक कुबेरतीर्थ विख्यात है।

कुबेरव्रत : तृतीय तिथि को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इसमें कुबेर की पूजा होती है।

कुमार-वाल्मीकि : माध्व मतावलम्बी किसी कुमार-वाल्मीकि नामक कवि ने रामायण का कन्नड भाषा में अनुवाद किया है। इसी अनुवाद को 'कुमार-वाल्मीकि' कहते हैं। धार्मिक होने की अपेक्षा यह अनुवाद विनोदपूर्ण अधिक है। मध्वमत के प्रचार में इसने यथेष्ट सहायता पहुँचायी है। कर्णाटक में यह बहुत लोकप्रिय है।

कुमारषष्ठी : चैत्र शुक्ल षष्ठी को इस व्रत का आरम्भ होता है और यह एक वर्ष पर्यन्त चलता है। मिट्टी की द्वादश भुजा वाली स्कन्द की मूर्ति का पूजन इसमें किया जाता है।

कुमारिल : कर्ममीमांसा शास्त्र के उत्कर्ष काल में इसके दो महान् आचार्यों का प्रादुर्भाव हुआ, जिनमें पहले हैं प्रभाकर, जिन्हें 'गुरु' भी कहते हैं तथा दूसरे हैं कुमारिल, जिन्हें भट्ट भी कहते हैं। दोनों ने शबर के भाष्य की व्याख्या की है किन्तु दोनों की व्याख्या में अन्तर है। दोनों ने दो प्रतिद्वन्द्वी सम्प्रदायों को जन्म दिया। प्रभाकर का काल अज्ञात है किन्तु यह निश्चित है कि वे कुमारिल के पूर्व हुए। प्रभाकर का ग्रन्थ 'बृहती' शाबरभाष्य का स्पष्टीकरण मात्र है; उसमें कुछ आलोचना नहीं है। कुमारिल आठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए, उन्होंने शाबरभाष्य पर एक विस्तृत व्याख्या की रचना की जिसके तीन भाग हैं, और उनमें शबर से यथेष्ट अन्तर परिलक्षित होता है।

कुमारिल की रचना के तीन भाग है : (1) श्लोकवार्तिक (पद्य), जो प्रथम अध्याय के प्रथम पाद पर है; (2) तन्त्रवार्तिक (गद्य) जो प्रथम अध्याय के अवशेष तथा अध्याय दो और तीन पर है और (3) टुप्टीका (गद्य) अध्याय 4 से 12 पर संक्षिप्त टिप्पणी है। कुमारिल की प्रणाली पर मण्डन मिश्र ने, जो बाद में शङ्कर के शिष्य (सुरेश्वराचार्य) हो गये थे, अनेकों ग्रन्थों की रचना की।

प्रभाकर एवं कुमारिल दोनों ने अनीश्वरवाद का निर्वाह प्रकृति के सृष्टिक्रम में दैवी कार्य की अनावश्यकता बताते हुए किया है। दोनों इस विषय पर यथार्थवादी दृष्टिकोण रखते हैं। किन्तु दोनों का आत्मा की विशुद्ध चेतनता, प्रत्यक्ष एवं अनुमान आदि तार्किक तत्त्वों में मतान्तर है। कुमारिल ने कर्ममीमांसा एवं उसके बाहर के दर्शनों पर भी सक्रिय प्रभाव डाला। वे बौद्ध मत के कठोर आलोचक थे तथा जब कभी वे विजययात्रा में निकले, उन्होंने इस मत के प्रत्याख्यान करने का यत्न किया।

कुमारिल के अनुसार वेद के शब्द, वाक्य और क्रम नित्य हैं। कुमारिल ने शब्द को द्रव्य माना है। शब्द तो नित्य है ही, उसका अर्थ भी नित्य है और शब्द तथा अर्थ का सम्बन्ध भी नित्य है। शब्द की नित्यता पर जो युक्तियाँ उन्होंने प्रस्तुत की हैं, वे बहुत प्रौढ़ और वैज्ञानिक हैं। कुमारिल ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और अभाव ये पाँच पदार्थ माने हैं। पूर्व मीमांसा के अन्य सिद्धान्त उन्हें मान्य हैं, यद्यपि शबरभाष्य की आलोचना यत्र-तत्र उनके द्वारा हुई है।

कुमारिल का आधुनिक हिन्दूत्व की स्थापना में बहुत बढ़ा हाथ है। उनकी प्रणाली वेदों एवं ब्राह्मणों पर आधृत है। वे उसके बाहर के सभी पक्षों का निराकरण करते हैं।

कर्ममीमांसा में प्रभाकर एवं कुमारिल ने ही प्रथम बार मुक्ति का वर्णन किया है। उनका कथन है कि मुक्तिलाभ धर्म एवं अधर्म दोनों के समाप्त हो जाने पर ही हो सकता है और जो मुक्ति चाहता है उसे केवल आवश्यक कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।

कुमारी : (1) शिवपत्नी पार्वती के अनेकों नाम एवं गुण शिव के समान ही हैं। उनका एक नाम 'कुमारी' भी है। तैत्तिरीय आरण्यक (10.1.7) में उन्हें कन्या कुमारी कहा गया है। स्कन्दपुराण के कुमारीखण्ड में कुमारी का चरित्र और माहात्म्य विस्तार से वर्णित है। भारत का दक्षिणान्त अन्तरीप (कुमारी अन्तरीप) उन्‍हीं के नाम से सम्बन्धित है।

(2) 'कुमारी' नाम 'कुमार' का युग्म (जोड़) या समकोटिक भी है। यह ऐसी उग्र कुमारिका ग्रहों का सूचक है, जो शिशुओं का भक्षण करती हैं।

(3) स्मृतियों में द्वादश वर्षीया कन्या का नाम भी कुमारी कहा गया है :

अष्टवर्षा भवेद् गौरी दशवर्षा च रोहिणी। सम्प्राप्ते द्वादशे वर्षे कुमारीत्यभिधीयते॥

[अष्ट वर्ष की कन्या गौरी और दस वर्ष की रोहिणी होती है। बारह वर्ष प्राप्त होने पर वह कुमारी कहलाती है।]

अन्नदाकल्प' आदि आगम ग्रन्थों में कुमारीपूजन के प्रसंग में कुमारी अजातपुष्पा (जिसके रजोधर्म न होता हो) कन्या को कहा गया है। सोलह वर्ष पर्यन्त वह कुमारी रह सकती है। वयभेद से उसके कई नाम बतलाये गये हैं :

एकवर्षा भवेत् सन्ध्या द्विवर्षा च सरस्वती। त्रिवर्षा तु त्रिधामूर्तिश्चतुर्वर्षा तु कालिका॥ सुभगा पञ्चवर्षा च षड्वर्षा च उमा भवेत्। सप्तभिर्मालिनी साक्षादष्टवर्षा च कुब्जिका॥ नवभिर्कालसङ्कर्षा दशभिश्चापराजिता। एकादशे तु रुद्राणी द्वादशाब्दे तु भैरवी॥ त्रयोदशे महालभ्मीद्विसप्ता पीठनायिका। क्षेत्रज्ञा पञ्चदशभिः षोडशे चान्नदा मता॥ एवं क्रमेण सम्पूज्या यावत् पुष्पं न जायते। पुष्पितापि च सम्पूज्या तत्पुष्पादानकर्मणि॥ कुमारीपूजन की विधि निम्नलिखित प्रकार से बतायी गयी है :

अथान्यत्साधनं वक्ष्ये महाचीनक्रमोद्भवम्। येनानुष्ठितमात्रेण शीघ्रं देवी प्रसीदति॥ अष्टम्याञ्च चतुर्दश्यां कुह्वां वा रविसंक्रमे। कुमारीपूजनं कुर्यात् यथा विभवमात्मनः॥ वस्त्रालङ्करणाद्यैश्च भक्ष्यभोज्यै: सुविस्तरैः। पञ्चतत्त्वादिभिः सम्यग् देवीबुद्ध्या सुसाधकः॥

कुमारीतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' की तन्त्रसूची में 'कुमारी तन्त्र' का छठा क्रमिक स्थान है। इसमें कुमारीपूजन का विस्तृत वर्णन पाया जाता है।

कुमारीपूजा : नवरात्र में इस व्रत का अनुष्ठान होता है। दे० समयमयूख, 22। विशेष विवरण के लिए दे० 'कुमारी'।

कुम्भपर्व : बारह-बारह वर्ष के अन्तर से चार मुख्य तीर्थों में लगनेवाला स्नान-दान का ग्रहयोग। इसके चार स्थल प्रयाग, हरिद्वार, नासिक-पंचवटी और अवन्तिक (उज्जैन) हैं। (1) जब सूर्य तथा चन्द्र मकर राशि पर हों गुरू वृषभ राशि पर हो, अमावस्या हो; ये सब योग जुटने पर प्रयाग में कुम्भयोग पड़ता है। इस अवसर पर त्रिवेणी में स्नान करना सहस्रों अश्वमेध यज्ञों, सैकड़ों वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिण करने से भी अधिक पुण्य प्रदान करता है। कुम्भ के इस अवसर पर तीर्थयात्रियों को मुख्य दो लाभ होते हैं; गंगास्नान तथा सन्तसमागम।

(2) जिस समय कुम्‍भ राशि पर और सूर्य मेष राशि पर हो तब हरिद्वार में कुम्‍भ पर्व होता है। (3) जिस समय गुरु सिंह राशि पर स्थित हो तथा सूर्य एवं चन्‍द्र कर्क राशि पर हों तब नाशिक में कुम्‍भ होता है। (4) जिस समय सूर्य तुला राशि पर स्थित हो और गुरु वृश्चिक राशि पर हो तब उज्‍जैन में कुम्‍भ पर्व मनाया जाता है। कुम्भ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुराणों में मनोरंजक कथाएँ हैं। इनका सम्बन्ध समुद्रमन्थन से उत्पन्न अमृतघट से है।इस अमृतघट को असुर गण उठा ले गये थे, जिसको गरुड़ पुनः पृथ्वी पर ले आये। जिन-जिन स्थानों पर यह अमृतघट (कुम्भ) रखा गया वहाँ अमृतबिन्दुओं के छलक जाने से वे सभी प्रदेश पुण्यस्थल हो गये। वहाँ निश्चित समय पर स्नान-दान-पुण्य करने से अमृत-पद (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। प्राचीन धर्मशास्त्रग्रन्थों में उक्त कुम्भयोगों का उल्लेख नहीं पाया जाता है।

कुरुक्षेत्र : अम्बाला से 25 मील पर्व स्थित एक प्राचीन तीर्थ। ब्राह्मणयुग में कुरुक्षेत्र बहुत ही पवित्र स्थल माना जाता था। शतपथ ब्राह्मण (4.1.5.13) के अनुसार देवताओं ने कुरुक्षेत्र में यज्ञाहुति दी थी। मैत्रायणी संहिता में भी यही बात कही गयी है। इससे स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणयुग के वैदिक लोग कुरुक्षेत्र में यज्ञ करने को सर्वाधिक महत्‍त्व देते थे। यह वैदिक संस्कृति का केन्द्र था, इसलिए यहाँ अधिक यज्ञ होना स्वाभाविक है और इसी कारण इसे 'धर्मक्षेत्र' भी कहा गया है। तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार देवताओं ने कुरुक्षेत्र में एक सत्र पूरा किया था। इसकी वेदी कुरुक्षेत्र में ही थी। इसके दक्षिणी भाग को खाण्डव तथा उत्तरी भाग को तूर्घ्‍न, मध्यभाग को परीण तथा मरु को उत्कर कहा गया है। इससे यह ज्ञात होता है कि खाण्डव, तूर्घ्न तथा परीण कुरुक्षेत्र के सीमान्त प्रदेश थे और मरु प्रदेश कुरुक्षेत्र से कुछ दूर था। महाभारत में कुरुक्षेत्र के पवित्र गुणों का उल्लेख किया गया है। ऐसा ज्ञात होता है कि इसकी सीमा दक्षिण में सरस्वती तथा उत्तर में दृषद्वती नदी तक थी। वनपर्व (86.6) में कुरुक्षेत्र को 'ब्रह्मावर्त' कहा गया है। यही बात वामन पुराण तथा मनुस्मृति में भी किञ्चित् परिवर्तन के साथ कही गयी है। इस प्रकार आर्यावर्त में ब्रह्मावर्त सर्वाधिक पवित्र माना गया है और कुरुक्षेत्र ऐसा ही स्थल है।

ब्राह्मणयुग में सर्वाधिक पवित्र सरस्वती कुरुक्षेत्र से ही होकर बहती थी और मरू भूमि को भी, जहाँ वह अदृश्य हो जाती है, पवित्र स्थल माना गया था। मूलतः कुरुक्षेत्र ब्रह्मा की वेदी कहलाता था, तदुपरान्त इसे समन्तपञ्चक तब कहा गया जब परशुराम ने पिता की हत्या के बदले में क्षत्रियों के रक्त से पाँच सरोवरों का निर्माण किया। फिर उनके पितरों के वरदान से यह पवित्र स्थल हो गया। बाद में महाराज कुरु के नाम पर इसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा।

वामनपुराण के अनुसार कुरुक्षेत्र का अर्धव्यास पाँच योजन तक है। पुराणों में कुरुक्षेत्र को कई नामों से अभिहित किया गया है। इनमें कुरुक्षेत्र समन्तपञ्चक, विनशन, सन्निहत्य, ब्रह्मसर और रामह्रद नाम प्रमुख हैं। अत्यन्त प्राचीन काल में कुरुक्षेत्र वैदिक संस्कृति का केन्द्र था। धीरे-धीरे यह केन्द्र पूर्व तथा दक्षिण की ओर खिसकता गया और अन्ततः मध्यदेश (गङ्गा और यमुना के बीच का प्रदेश) भारतीय संस्कृति का केन्द्र हो गया।

महाभारत के वनपर्व (अ० 83) के अनुसार जो लोग कुरुक्षेत्र में रहते हैं वे सभी पापों से मुक्त हैं। इसके अतिरिक्त जो यह कहता है कि मैं कुरुक्षेत्र जाऊँगा और वहाँ रहूँगा, वह भी पापमुक्त हो जाता है। संसार में इससे अधिक पवित्र स्थल दूसरा कोई नहीं है। कुरुक्षेत्र की धूलि का कण भी यदि कोई महान् पापी स्पर्श करे तो वह कण ही उसके लिए स्वर्ग हो जाता है। अन्यत्र ग्रह, नक्षत्र और तारों के भी पतन का भय बना रहता है, परन्तु जो कुरुक्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त होते हैं वे पुनः मर्त्य-लोक में नहीं आते (नारदीय पुराण, 11.64.23-24)।

नारदीय पुराण (उत्तरार्ध, अ० 65) में कुरुक्षेत्र के लगभग सौ तीर्थों का नामाङ्कन किया गया है। इनमें से कुछ का ही विवरण यहाँ दिया जा सकता है। सर्वप्रथम ब्रह्मसर या पवन ह्रद का नाम आता है, जहाँ राजा कुरु योगी के रूप में निवास करते थे। इस झील की लम्बाई पूर्व से पश्चिम 3546 फुट तथा चौड़ाई उत्तर से दक्षिण 1900 फुट है। वामन पुराण का मत है कि इसकी सीमा अर्ध योजन थी। चक्रतीर्थ की भूमि पर कृष्ण ने भीष्म पर आक्रमण करने के लिए चक्र धारण किया था। व्यास स्थली थानेश्वर से 17 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित आधुनिक वनस्थली है। अस्थिपुर थानेश्वर के पश्चिम तथा औजसघाट के दक्षिण में स्थित है। यहाँ महाभारतयुद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए सैनिकों का अन्तिम संस्कार किया गया था। कनिंघम के भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के अनुसार चक्रतीर्थ ही अस्थिपुर है और अलबीरूनी के युग के यह कुरुक्षेत्र का सबसे प्रसिद्ध मन्दिर था। सरस्वतीतट पर स्थित पृथूदक वनपर्व में बहुत ही उच्च स्तर का तीर्थ माना गया है। उसमें कहा गया है कि कुरुक्षेत्र पवित्र स्थल है और सरस्वती उससे भी अधिक पवित्र है। सरस्वतीतट पर स्थित तीर्थ सरस्वती से भी अधिक पवित्र हैं और पृथूदक सरस्वती पर स्थित तीर्थों में भी सबसे अधिक पवित्र है। इससे उत्तम कोई तीर्थ नहीं है। शल्यपर्व (39.33-34) में कहा गया है कि जो व्यक्ति सरस्वती के उत्तरी तट पर पृथूदक में पवित्र ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए जीवन का उत्सर्ग करता है वह निर्वाण को प्राप्त होता है तथा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है। वामन पुराण (39.20 और 23) में इसे ब्रह्मयोनि तीर्थ कहा गया है। पृथूदक थानेश्वर से 14 मील पश्चिम कर्नाल जिले में स्थित आधुनिक पिहोवा है।

वामन (34.3) और नारदीय पुराण (उत्तरार्द्ध, 65.4.7) में कुरुक्षेत्र के सात वनों--काम्यकवन, अदितिवन, व्यासवन, फलकीवन, सूर्यवन, मधुवन और सीतावन का उल्लेख है जो बहुत पवित्र हैं और पाप का नाश करने वाले हैं। तीर्थों की सूची में कुरुक्षेत्र को सन्तिहती या सन्निहत्य के नाम से अभिहित किया गया है। वामन पुराण (32.3-4) के अनुसार सरस्वती का उद्गम प्लक्ष वृक्ष से हुआ है। वहाँ से कई पहाड़ियों को वेधते हुए वह द्वैतवन में प्रवेश करती है। वामन पुराण (32.6-22) में मार्कण्डेय द्वारा सरस्वती की प्रशंसा की गयी है।

कुलचूडामणितन्त्र : एक महत्वपूर्ण तन्त्र ग्रन्थ। इसमें 64 तन्त्रों की सूची दी हुई है, जो 'वामकेश्वरतन्त्र' की सूची से मिलती-जुलती है।

कुलशेखर : तमिल वैष्णवों में बारह आलवारों (भक्त कवियों) के नाम बहुत प्रसिद्ध हैं। कुलेश्वर इनमें ही हुए हैं। दे० आलवार। स्थानीय परम्परा के अनुसार कुलशेखर का जन्म कलि के आरम्भ में मलावीर के चात्मपट्टन या तिरुमञ्ज‍िक्कोलम् नामक स्थान में हुआ था। उन्होंने, 'मुकुन्दमाला' नामक सरस स्तोत्र की रचना की है।

कुलसारतन्त्र : कुलचूडामणितन्त्र' की सूची में उद्धृत एक ग्रन्थ। इसमें कौल सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का संक्षेप में वर्णन किया गया है।

कुलार्णव : बहुप्रचलित तन्त्र ग्रन्थ। इसके अनुसार तान्त्रिक गण कई प्रकार के आचारों में विभक्त हैं। उनमें वेदाचार सामान्यतः श्रेष्ठ है, वेदाचार से वैष्णवाचार महान् है, वैष्णवाचार से शैवाचार उत्कृष्ट है, शैवाचार से दक्षिणाचार उत्तम है, दक्षिणाचार से वामाचार प्रशंसनीय है, वामाचार से सिद्धान्ताचार श्रेष्ठ है और सिद्धान्ताचार की अपेक्षा कौलाचार उत्तम है। कौलाचार से उत्तम और कोई आचार नहीं है। इस ग्रन्थ में इन्हीं कौल आचारों और सिद्धान्तों का विस्तृत वर्णन पाया जाता है।

कुलालिकाम्नाय : इस तन्त्र ग्रन्थ में भारत के तीन यानों का उल्लेख है :

दक्षिणे देवयानं तु पितृयानं तु उत्तरे। मध्ये तु महायानं शिवसंज्ञा प्रगीयते॥

[दक्षिण में देवयान, उत्तर में पितृयान और मध्यदेश में महायान प्रचलित हैं।] इन यानों की विशेषता तो ठीक ठीक मालूम नहीं है, परन्तु महायानी श्रेष्ठ तन्त्र 'तथागतगुह्यक' से पता लगता है कि रुद्रयामलादि में जिसे वामाचार अथवा कौलाचार कहा गया है वही महायानियों का अनुष्ठेय आचार है। इसी समप्रदाय से क्रमशः 'कालचक्रयानं' या 'कालोत्तरमहायान' तथा वज्रयान की उत्पत्ति हुई। नेपाल के सभी शाक्त-बौद्ध वज्रयान समप्रदाय के हैं।

कुलीनवाद : कुलीन' का मूल अर्थ है श्रेष्ठ परिवार का व्यक्ति। कुलीनवाद का अर्थ हुआ 'पारिवारिक श्रेष्ठता का सिद्धान्त'। इसके अनुसार श्रेष्ठ परिवार में ही उत्तम गुण होते हैं। अतः विवाहादि सम्बन्ध भी उन्हीं के साथ होना चाहिए। धर्मशास्त्र के अनुसार जिस परिवार में लगातार कई पीढ़ियों तक वेद-वेदाङ्ग का अध्ययन होता हो, वह कुलीन कहलाता है। शैक्षणिक प्रतिष्ठा के साथ विवाह सम्बन्ध में इस प्रकार के परिवार बंगाल में श्रेष्ठ माने जाते थे। सेनवंश के शासन काल में कुलीनता का बहुत प्रचार हुआ। विवाह सम्बन्ध में कुलीन परिवारों की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी। इस पर बहुत ध्यान दिया जाता था कि पुत्री अपने से उच्च कुल के वर से ब्‍याही जाय। फल यह हुआ कि कुलीन वरों की माँग अधिक हो गयी और इससे अनेक प्रकार की कुरीतियाँ उत्पन्न हुई। बंगाल में यह कुलीन प्रथा खूब बढ़ी तथा वहाँ एक-एक कुलीन ब्राह्मण ने बहुत ही ऊँचा दहेज लेकर सौ-सौ से अधिक कुमारियों का पाणिग्रहण करते हुए उनका 'उद्धार' कर डाला। शिशुहत्या भी इस प्रथा का एक कुपरिणाम थी, क्योंकि विवाह को लेकर कन्या एक समस्या बन जाती थी। अंग्रेजों ने इस शिशुहत्या को बन्द कर दिया तथा आधुनिक काल के अनेक सुधारवादी समाजों की चेष्टा से कुलीनवाद का ढोंग कम होता गया और आज यह प्रथा प्रायः समाप्त हो चुकी है।

कुलदीपिका नामक ग्रन्थ में कुल की परिभाषा और कुलाचार का वर्णन निम्नाङ्कित प्रकार से पाया जाता है :

आचारो विनयो विद्या प्रतिष्ठा तीर्थदर्शनम्। निष्ठाऽवृत्तिस्तपो दानं नवधा कुललक्षणम्॥

[आचार, विनय, विद्या, प्रतिष्ठा, तीर्थदर्शन, निष्ठा, वृत्ति का अत्याग, तप और दान ये नौ प्रकार के कुल के लक्षण हैं।]

आदानञ्च प्रदानञ्च कुशत्यागस्तथैव च। प्रतिज्ञा घटकाग्रे च कुलकर्म चतुर्विधम्॥

[आदान, प्रदान, कुशत्याग, प्रतिज्ञा और घटकाग्र ये कुलकर्म कहे गये हैं।] राजा वल्लालसेन ने पञ्चगोत्रीय राढीय बाईस कुलों को कुलीन घोषित किया था। बंगाल में इनकी वंशपरम्परा अभी तक चली आ रही है।

कुलेश्वरीतन्त्र : यह मिश्र तन्त्रों में से एक तन्त्र है।

कुल्लजम साहेब : अठारहवीं शताब्दी में विरचित सन्त साहित्य का एक ग्रन्थ। इसके रचयिता स्वामी प्राणनाथ ने इसमें बतलाया है कि भारत के सभी धर्म एक ही पुरुष (ईश्वर) में समाहित हैं। ईसाइयों के मसीहा, मुसलमानों के मदी एवं हिन्दुओं के निष्कलंकावतार सभी एक ही व्यक्ति के रूप हैं। दे० 'प्राणनाथ'।

कुल्लू : हिमाचल प्रदेश में ब्यास नदी के तट पर कुल्लू नगर स्थित है। यह बहुत सुन्दर स्थान है। यहाँ पठान-कोट से सीधा मोटरमार्ग भी मण्डी होकर आता है। पठानकोट से कुल्लू एक सौ पचहत्तर मील पड़ता है। यह नगर बाजार, रघुनाथ-मन्दिर, धर्मशाला, थाना, पोस्टआफिस, बिजली आदि से सम्पन्न है। तुषारमण्डित गगनचुम्बी भूधरों से वेष्टित यह स्थल समुद्रतल से 4700 फुट ऊँचाई पर है। विजयादशमी को यहाँ की विशेष यात्रा होती है और दस दिन तक मेला रहता है।

कुल्लूभट्ट : मनुस्मृति की प्रसिद्ध टीका के रचयिता। इनका काल बारहवीं शताब्दी है। मेधातिथि और गोविन्दराज के मनुभाष्यों का इन्होंने प्रचुर उपयोग किया है। इनके अन्य ग्रन्थ हैं-- स्मृतिविवेक, अशौचसागर, श्राद्धसागर और विवादसागर। पूर्वमीमांसा के ये प्रकाण्ड पण्डित थे। अपनी टीका `मन्वर्थमुक्तावली` में इन्होंने लिखा है-- `वैदिकी तान्त्रिकी चैव द्विविधा श्रुतिः कीर्तिता।` [वैदिकी एवं तान्त्रिकी ये दो श्रुतियाँ मान्य हैं।] इसलिए कुल्लूकभट्ट के मत से तन्त्र को भी श्रुति कहा जा सकता है। कुल्लूक ने कहा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियाँ जो क्रियाहीनता के कारण जातिच्युत हुई हैं, चाहे वे म्लेच्छभाषी हों चाहे आर्यभाषी, सभी दस्यु कहलाती हैं। इस प्रकार के कतिपय मौलिक विचार कुल्लूकभट्ट के पाये जाते हैं।

मन्वर्थमुक्तावली की भूमिका में कुल्लूकभट्ट ने अपना संक्षिप्त परिचय इस प्रकार दिया है:

गौडे नन्दवासिनाम्नि सुजनैर्वन्द्ये वरेन्द्र्यां कुले श्रीमद्भट्टदिवाकरस्य तनयः कुल्लूकभट्टोऽभवत्। काश्यामुत्तरवाहिजह्नुतनयातीरे समं पण्डितैस् तेनेयं क्रियते हिताय विदुषां मन्वर्थमुक्तावली॥

[गौडदेश के नन्दन ग्रामवासी, सुजनों से वन्दनीय वारेन्द्र कुल में श्रीमान् दिवाकर भट्ट के पुत्र कुल्लूक हुए। काशी में उत्तरवाहिनी गङ्गा के किनारे पण्डितों के साहचर्य में उनके (कुल्लूकभट्ट के) द्वारा विद्वानों के हित के लिए मन्वर्थमुक्तावली (नामक टीका) रची जा रही है।] मेधा तिथि तथा गोविन्दराज के अतिरिक्त अन्य शास्त्रकारों का भी उल्लेख कुल्लूकभट्ट ने किया है, जैसे गर्ग (मनु. 2.6), धरणीधर, भास्कर, (मनु, 1.8,45), भोजदेव (मनु, 8.184), वामन (मनु, 12.106), विश्वरूप (मनु, 2.189)। निबन्धों में कुल्लूक कृत्यकल्पतरु का प्रायः उल्लेख करते हैं। आश्चर्य इस बात का है कि मन्वर्थमुक्तावली में कुल्लूक ने बंगाल के प्रसिद्ध निबन्धकार जीमूतवाहन के दायभाग की कहीं चर्चा नहीं की है। संभवतः वाराणसी में रहने के कारण वे जीमूतवाहन के ग्रन्थ से परिचित नहीं थे। अथवा जीमूतवाहन अभी प्रसिद्ध नहीं हो पाये थे।

कुल्लूक भट्ट ने अन्य भाष्यकारों की आलोचना करते हुए अपनी टीका की प्रशंसा की है (दे० पुष्पिका)

सारासारवचः प्रपञ्चनविधौ मेधातिथेश्चातुरी स्तोकं वस्तु निगूढमल्पवचनाद् गोविन्दराजो जगौ। ग्रन्थेऽस्मिन्धरणीधरस्य बहुशः स्वातन्त्र्यमेतावता स्पष्टं मानवधर्मतत्त्वमखिलं वक्तुं कृतोऽयं श्रमः॥

[मेधातिथि की चातुरी सारगर्भित तथा सारहीन वचनों (पाठों) के विवेचन की शैली में दिखाई पड़ती है। गोविन्दराज ने शास्त्रों के गूढ़ अर्थों की व्याख्या संक्षेप में की है। धरणीधर ने परम्परा से स्वतन्त्र होकर शास्त्रों का अर्थ किया है। (परन्तु मैंने 'मन्वर्थमुक्तावली' में) मानव धर्म (शास्त्र) के सम्पूर्ण तत्त्व को स्पष्ट रूप से कहने का श्रम किया है।]

सर विलियम जोन्स ने कुल्लूक भट्ट की प्रशंसा में लिखा है : "इन्होंने कष्टसाध्य अध्ययन कर बहुत सी पाण्डुलिपियों की तुलना से ऐसा ग्रन्थ प्रस्तुत किया, जिसके विषय में सचमुच कहा जा सकता है कि यह लघुतम किन्तु अधिकतम व्यञ्जक, न्यूनतम दिखाऊ किन्तु पाण्डित्यपूर्ण, गम्भीरतम किन्तु अत्यन्त ग्राह्य है। प्राचीन अथवा नवीन किसी लेखक की ऐसी सुन्दर टीका दुर्लभ है।" दे० पेद्दा रमप्पा बनाम बंगरी शेषम्मा, इण्डियन ला रिपोर्टर (2, मद्रास, 286, पृ० 297)।

कुबेर : उत्तर दिशा के अधिष्ठाता देवता। मार्कण्डेय तथा वायुपुराण में 'कुबेर' शब्द की व्युत्पत्ति निम्नलिखित प्रकार से दी हुई है :

कुत्सायां क्विति शब्दोऽयं शरीरं बेरमुच्यते। कुबेरः कुशरीरत्वान् नाम्ना तेनैव सोऽङ्कितः॥

['कु' का प्रयोग कुत्सा (निन्दा) में होता है। 'बेर' शरीर को कहते हैं। इसलिए कुत्सित शरीर धारण करने के कारण वे 'कुबेर' नाम से विख्यात हुए।]

भागवत पुराण के अनुसार विश्रवा मुनि की इडविडा (इलविला) नामक भार्या से कुबेर उत्पन्न हुए थे। ये धन यज्ञ और उत्तर दिशा के स्वामी हैं। ये तीन चरणों और आठ दाँतों के साथ उत्पन्न हुए थे।

कुश (यज्ञीय तृण) : यह एक पवित्र घास है। इसका प्रयोग यज्ञों के विविध कर्मकाण्डों तथा सभी हिन्दू संस्कारों में होता है। इसकी नोक बड़ी तेज होती है। इसी से कुशाग्र बुद्धि का मुहावरा प्रचलित हुआ। इसकी उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार है :

बर्हिष्मति नाम पुरी सर्वसम्पत्समन्विता। न्यपतन् यत्र रोमाणि यज्ञस्याङ्गं विधुन्वतः॥ कुशकाशास्त एवासन् शश्वद् हरितवर्चसः। ऋषियों वै पराभाव्य यज्ञध्नान् यज्ञमीजिरे॥

[सब संपत्तियों से भरपूर बर्हिष्मती नगरी में पहले यज्ञस्वरूपी वराह भगवान् के शरीरकम्पन से जो रोम गिरे, वे ही हरे-भरे कुश और कास हो गये। ऋषियों ने उनको हाथ में धारण कर यज्ञविरोधियों को मार भगाया और अपना अनुष्ठान पूरा किया। (भागवत)]

कुश (राजा) : सूर्यवंशी भगवान् राम के ज्येष्ठ पुत्र। रामायण में इनकी उत्पत्ति का वर्णन मिलता है कि सीताजी के बड़े पुत्र का मार्जन ऋषि ने पवित्र कुशों से किया था इसलिए उसका नाम कुश हो गया।

कुश (द्वीप) : पौराणिक भुवनकोश (भूगोल) के अनुसार सात द्वीपों में एक कुश द्वीप भी है। यह घृत के समुद्र से घिरा हुआ है जहाँ देवनिर्मित अग्नि के समान कुशस्तम्ब वर्तमान है। इसीलिए इसका नाम 'कुश' पड़ा। इसके राजा प्रियव्रत के पुत्र हिरण्यरेता थे। इन्होंने इस द्वीप को सात भागों में विभक्त कर अपने सात पुत्रों को दे दिया।

कुशकण्डिका : होम कर्म में कुश बिछाने तथा वस्तु शुद्ध करने की विधि का ज्ञापक लम्बा गद्यमन्त्र। इसके अनुसार कुशों के द्वारा सभी प्रकार के होम के लिए सम्पादित अग्निसंस्कार की क्रिया को भी कुशकण्डिका कहते हैं। कर्मकाण्ड में यह किया सर्वप्रथम की जाती हैं।

कुशिक : (1) कान्यकुब्ज (कन्नौज) के पौराणिक राजाओं में से एक, जिसके नाम से कौशिक वंश चला। कुशिकतीर्थ कान्यकुब्ज का एक पर्याय है। यह राजधानी ही नहीं, मध्ययुग तक प्रसिद्ध तीर्थ भी था, जिसकी गणना गहडवाल अभिलेखों के अनुसार उत्तर भारत के पञ्चतीर्थों में होती थी।

(2) लकुली (लकुलीश, जो शिव के एक अवतार समझे जाते हैं) के शिष्यों में से एक कुशिक हैं। उनके कुशिक आदि चार शिष्यों ने पाशुपत योग का पूर्ण अभ्यास किया था।

कुशीनगर : उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में कसया नामक कसबे के पास प्राचीन कुशीनगर है। अति प्राचीन काल में यह कुशावती नगरी (कुश की राजधानी) थी। पीछे यह मल्ल गणतन्त्र की राजधानी बनी। यहीं पर बुद्ध ने परिनिर्वाण प्राप्त किया था, अतएव यह स्थान बुद्धधर्मानुयायियों का प्रमुख तीर्थस्थान हो गया है। गोरखपुर से पूर्वोत्तर कसया (कुशीनगर) छत्तीस मील दूर है। खुदाई से निकली मूर्तियों के अतिरिक्त यहाँ माथाकुँवर का कोटा, परिनिर्वाणस्तूप तथा परिनिर्वाणचैत्य, रामभारस्तूप आदि दर्शनीय हैं।

परिनिर्वाणस्तूप में भगवान् बुद्ध की अस्थियाँ प्रतिष्ठापित की गयी थी। मूल स्तूप कुशीनगर के मल्लों ने ही बनवाया था, परन्तु उसके बाद भग्न होने पर अत्यन्त पवित्र होने के कारण इस स्तूप का कई बार पुनर्निर्माण और संस्कार हुआ। परिनिर्वाणचैत्य में भगवान् बुद्ध की परिनिर्वाण-मुद्रा में (लेटी हुई) विशाल लाल पत्थर की प्रतिमा है जिसके आसन के सामने भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण का पूरा दृश्य अङ्कित है। इसी पर एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि भिक्षु बल ने इस प्रतिमा का दान किया था। रामभारस्तूप उस स्थान पर बना है, जहाँ मल्लों का अभिषेक होता था और भगवान् बुद्ध का दाहसंस्कार हुआ था। माथाकुँवर के कोट में पालकालीन भगवान् बुद्ध की बैठी हुई एक सुन्दर प्रतिमा है।

कुश्रि वाजश्रवस : शतपथ ब्राह्मण (10.5.5.1) में पवित्र अग्नि के सूक्तों के आचार्य के रूप में तथा बृहदारण्यक उपनिषद् के अन्तिम वंश (शिक्षकों की सूची) में ये वाजश्रवा के शिष्य कहे गये हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि बृहदारण्यक के अन्तिम वंश में उद्धृत कुश्रि तथा शतपथ के दशम अध्याय के वंश में उद्धृत कुश्रि, जिसे यज्ञवचस राजस्तम्बायन का शिष्य कहा गया है, दोनों एक हैं अथवा भिन्न-भिन्न।

कुषीतक सामश्रवा : पञ्चविंश ब्राह्मण में इन्हें एक गृहपति कहा गया है। ये कौषीतकियों के एक यज्ञसत्र के समय गृहपति बनाये गये थे।

कुसुमाञ्जलि : न्यायाचार्य उदयन की रचनाओं में सबसे प्रसिद्ध कुसुमाञ्जलि है, जिसमें कुल 72 स्मरणीय श्लोकों में ईश्वर की सत्ता प्रमाणित की गयी है। नैयायिकों में यह ग्रन्थ बहुत प्रचलित है। इसकी अन्तिम भावपूर्ण और तर्कमयी शुभाशंसा है :

इत्येवं श्रुतिशास्त्रसप्लवजलै र्भूयोभिराक्षालिते येषां नास्पदमादधासि हृदये ते शैलसारोपमाः। किन्तु प्रोद्यतविप्रतीपविधयाप्युच्चै र्भवच्चिन्तकाः काले कारुणिक त्वयैव कृपया ते तारणीया जनाः॥

[हे करुणामय प्रभो, इस ग्रन्थ में मैंने श्रुति-स्मृति-तर्क-युक्तियों के बहुत तीव्र प्रखर जल से नास्तिकों के हृदय को बड़ी मात्रा में धो डाला है, फिर भी पत्थर से भी कठोर उन लोगों के मन में आप स्थान ग्रहण न कर सके। किन्तु "ईश्वर नहीं है", "ईश्वर नहीं है" इस प्रकार उलटे रूप में बड़े वेग से वे सब तत्परतापूर्वक आपका ही चिन्तन करते हैं, अतः अन्त समय पर उनका भी उद्धार करने की कृपा कीजियेगा।]

कूटसन्दोह : आचार्य रामानुज ने अपने मत की पुष्टि और प्रचार के लिए 'श्रीभाष्य' के अतिरिक्त अनेक ग्रन्थों की रचना की। इन ग्रन्थों में इन्होंने शाङ्कर मत का प्रबल शब्दों में खण्डन किया है। रामानुजरचित ग्रन्थों की लम्बी सूची में एक ग्रन्थ 'कूटसन्दोह' भी है।

कूटस्थ पुरुष : (1) शाक्त प्रणाली में यह धारणा है कि सर्वोच्च अन्तिम अवस्था में विष्णु वा शिव तथा उनकी शक्ति एक ही परमात्मा है, जिनमें कोई अन्तर नहीं है। केवल सृष्टिकाल में दोनों भिन्न होते हैं। सृष्टि की आरम्भिक प्रथम अवस्था में शक्ति जागृत होती है, जैसे नींद से उठी हो। उसके दो रूप हैं : क्रिया तथा भूति। पुनः उसके स्वामी के छः गुणों का उदय होता है, यथा ज्ञान, शक्ति, प्रतिभा, बल, शौर्य एवं सौन्दर्य। उनकी शक्ति लक्ष्मी छहों जोड़े बनकर संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध (द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ व्यूह) तथा उनकी शक्ति के रूप में प्रकट होती है। व्यूहों से 12 अर्धव्यूह तथा 12 विद्येश्वर उदित होते हैं। सृष्टि की इस अवस्था में विभवों (विष्णु के अवतारों) का उदय होता है, जो संख्या में 39। साथ ही वैकुण्ठ और उसके निवासियों का उदय होता है।

सृष्टि के आरम्भ की दूसरी अवस्था में शक्ति का भूतिरूप ठोस आकार धारण करता है, जिसे 'कूटस्थ पुरुष' तथा 'मायाशक्ति' कहते हैं। कूटस्थ पुरुष व्यक्तिगत आत्माओं (जीवों) का समष्टिगत रूप है (जैसे अनेकों मधुमक्खियों का एक छत्ता होता है), जबकि माया सृष्टि का भौतिक उपादान है।

(2) सांख्य दर्शन का कूटस्थ पुरुष निर्लिप्त, केवल औऱ द्रष्टा मात्र है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'कूट (चोटी) पर बैठा हुआ'।

(3) पञ्चदशी (6.22-27) में परमात्मा के लिए इसका प्रयोग हुआ है :

अधिष्ठानतया देहद्वयावच्छिन्न चेतनः। कूटविन्नर्विकारेण स्थितः कूटस्थ उच्यते॥ कूटस्थे कल्पिता बुद्धिस्तत्र चित्प्रतिबिम्बकः। प्राणानां धारणाज्जीवः संसारेण स युज्यते॥ जलव्योम्ना घटाकाशों, यथा सर्वस्तिरीहितः। तथा जीवेन कूटस्थः सोऽन्योन्याध्यास उच्यते॥ अयं जीवो न कूटस्थं विविनक्ति कदाचन। अनादिरविवेकोऽयं मूलविद्येति गम्यताम्॥ विक्षेपावृत्तिरूपाभ्यां द्विधाविद्या प्रकल्पिता। न भाति नास्ति कूटस्थ इत्यापादनमावृतिः॥ अज्ञानी विदुषा पुष्टः कूटस्थं न प्रबुध्यते। न भाति नास्ति कूटस्थ इति बुद्धवा वदत्यपि॥

श्रीमद्भगवद्गीता (15.16-17) में सच्चिदानन्दस्वरूप पुरुषोत्तम को कूटस्थ कहा गया है :

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥

कूटसाक्षी : धर्मशास्त्र में (व्यवहारतत्त्व के अनुसार) मायावी अथवा मिथ्यावादी साक्षी को कूटसाक्षी कहा गया है। याज्ञवल्क्यस्मृति में कूटसाक्षी का लक्षण निम्नांकित है :

द्विगुण वान्यथा ब्रूयुः कूटाः स्युः पूर्वसाक्षिणः। न ददाति तु यः साक्ष्यं जानन्नपि नराधमः। स कूटसाक्षिणां पापैस्तुल्यो दण्डेन चैव हि॥

[वे पूर्व साक्षी कूट कहे जाते हैं जो दूना (बढ़ाकर) अथवा अन्यथा (असत्य) बोलते हैं। जो मनुष्य जानता हुआ भी साक्ष्य नहीं देता है वह भी कूटसाक्षी के समान ही अधम और दण्ड्य है।]

कूर्म : विष्णु का एक अवतार, जिसने भूमण्डल को अपनी पीठ पर धारण कर रखा है। कूर्म या कच्छप जलजन्तु है। धार्मिक रूपक, माङ्गलिक प्रतीक, तान्त्रिक उपचारादि के रूप में इसका उपयोग होता है। बृहत्संहिता (अ० 64) के अनुसार मन्दिर में स्थापित कूर्म की प्रतिमा मङ्गलकारिणी होती है :

वैदूर्यत्विट् स्थूलकण्ठस्त्रिकोणो, गूढच्छिद्रश्चारुवंशश्च शस्तः। क्रीडावाप्यां तोयपूर्णे मणौ वा कार्यः कूर्मों मङ्गलार्थं नरेन्द्रैः॥

शतपथ ब्राह्मण में कूर्म प्रजापति का अवतार माना गया है :

स यत् कूर्मों नाम एतद्वा रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत। यदसृजदकरोत्तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्म्मः कश्यपो वै कूर्म्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप इति। (शतपथ ब्राह्मण, 7. 5. 1-5)

दे० 'कूर्मावतार'। पद्मपुराण के अनुसार सत्ययुग में देव और असुरों द्वारा समुद्रमन्थन के अवसर पर मन्दर पर्वत को धारण करने के लिए भगवान् विष्णु ने कूर्म का रूप ग्रहण किया (क्षीरोदमध्ये भगवान् कूर्मरूपी स्वयं हरिः।) भागवतपुराण में भी यही बात कही गयी है।

तन्त्रसार में यह एक मुद्रा का नाम है। इसका वर्णन इस प्रकार है :

वामहस्तस्य तर्जन्यां दक्षिणस्य कनिष्ठया। तथा दक्षिण तर्जन्यां वामाङ्गुष्ठे न योजयेत्॥ उन्नतं दक्षिणाङ्गुष्ठं वामस्य मध्यमादिकाः। अङ्गुलीर्योजयेत् पृष्ठे दक्षिणस्य करस्य च॥ वामस्य पितृतीर्थेन मध्यमानामिके तथा। अधोमुखे च ते कुर्याद्दक्षिणस्य करस्य च॥ कूर्मपृष्ठसमं कुर्याद्दक्षपाणिं च सर्वशः। कूर्ममुद्रेयमाख्याता देवताध्यानकर्मणि॥

हठयोग में एक आसन का नाम कूर्मासन है :

गुदं निरुध्य गुल्फाभ्यां व्युत्क्रमेण समाहितः। कूर्म्मासनं भवेदेतदिति योगविदो विदुः॥ तन्त्रों में एक चक्र का नाम भी कूर्मचक्र है।

कूर्मतीर्थ : हिमालय में स्थित एक तीर्थ। बदरीनाथ मन्दिर के पीछे पर्वत पर सीधे चढ़ने से चरणपादुका का स्थान आता है। उसके ऊपर उर्वशीकुण्ड तथा इसी पर्वत पर आगे कूर्मतीर्थ पड़ता है। यहाँ भगवान् विष्णु का कूर्म (कच्छप) के रूप में पूजन होता है। कूर्म भूपृष्ठ का प्रतीक है, जो सभी जीवधारियों को धारण करता है।

कूर्मद्वादशी : कूर्मद्वादशी पौष शुक्ल द्वादशी। इस तिथि को कूर्म अवतार हुआ था, इसलिए विष्णु-नारायण की पूजा होती है। दे० वराह पुराण, अध्याय 40; कृत्यरत्नाकर, 482-484। घृत से परिपूर्ण ताम्रपात्र में एक कूर्म (कछुए) की मूर्ति स्थापित करके उसके ऊपर मन्दराचल रखकर किसी सुपात्र को दान दिया जाता है। इस अनुष्ठान से भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं।

कूर्मद्वादशीव्रत : भविष्य पुराण के अनुसार यह पौष शुक्ल द्वादशी का व्रत है। इस व्रत में घृत भरे ताँबे के पात्र पर मन्दर पर्वत सहित कच्छप की मूर्ति रखकर पूजा की जाती है।

कूर्मपुराण : साधारणतया यह शैवपुराण है तथा इसमें 'लकुलीश-पाशुपतसंहिता' की कुछ सामग्री उद्धृत है, जो वायुपुराण में भी दृष्टिगोचर होती है। यह कुछ आगमों एवं तन्त्रों की शिक्षा को व्यक्त करता है। वायुपुराण से कुछ न्यूनाधिक यह शिव के अट्ठाईस अवतारों तथा उनके शिष्यों का वर्णन भी प्रस्तुत करता है। इसमें कुछ शाक्त तन्त्रों के भी उद्धरण हैं तथा शक्तिपूजा पर बल दिया गया है। यह अब भी निश्चित रूप से विदित नहीं है कि किस शैव सम्प्रदाय के वर्णन इसमें प्राप्त है (केवल अवतारों को छोडकर, जो लकुलीश मत से सम्बन्धित हैं)।

कूर्मपुराण के पूर्वार्द्ध में तिरपन अध्याय तथा उत्तरार्ध में छियालीस अध्याय हैं। नारदपुराण आदि प्रायः सभी पुराणों में जहाँ कूर्मपुराण की चर्चा आयी है, बराबर सत्रह हजार श्लोक बताये गये हैं। परन्तु प्रचलित प्रतियों में केवल छः हजार के लगभग ही श्लोक पाये जाते हैं। नारदपुराण में जो विषयसूची दी हुई है उसकी आधी से कम ही सूची छपी पुस्तकों में पायी जाती है। ऐसा जान पड़ता है कि कूर्मपुराण के कुछ अंश तन्त्र ग्रन्थों में मिला दिये गये हैं, क्योंकि नारदपुराणोक्त सूची के छूटे हुए विषय डामर, यामल आदि तन्त्रों में पाये जाते हैं।

मूलतः इस पुराण का रूप विशाल था। इसके उपलब्ध अंश से पता लगता है कि इसमें चार संहिताएँ थीं-- (1) ब्राह्मी, (2) भागवती, (3) सौरी और (4) वैष्णवी। इस समय केवल 'ब्राह्मी संहिता' ही मिलती है। इसी का नाम कूर्मपुराण है। मत्स्य और भागवत पुराणों के अनुसार मूल कूर्मपुराण में 18000 श्लोक थे, परन्तु वर्तमान कूर्मपुराण में केवल 6000 श्लोक पाये जाते हैं। इसके कूर्म नाम पड़ने का कारण यह है कि भगवान् विष्णु ने कूर्मावतार धारण कर इस पुराण का उपदेश इन्‍द्रद्युम्‍न नामक राजा को दिया था। इस पुराण में शिव ही प्रधान आराध्य देवता के रूप में वर्णित हैं। इसमें यह मत प्रतिपादित किया गया है कि त्रिमूर्तियाँ --ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव एक ही मूल सत्ता ब्रह्म के विभिन्न रूप हैं। शिव के साथ ही शाक्तपूजा का भी इसमें विस्तृत वर्णन पाया जाता है।

कूर्मावतार : अवतारवाद का निरूपण पुराणों का प्रधान अङ्ग है। शैव पुराणों में शिव के अवतार तथा वैष्णव पुराणों में विष्णु के अगणित अवतारों का वर्णन पाया जाता है। इसी प्रकार अन्य पुराणों में अन्य देवों के अवतारों की चर्चा है। ये वर्णन निराधार नहीं कहे जा सकते, क्योंकि ब्राह्मण तथा उपनिषदों में भी विविध अवतारों की चर्चा है। शतपथ ब्राह्मण (1.4.3.5) में कूर्मावतार का वर्णन है। अधिकांश वैदिक ग्रन्थों के मत से कूर्म, वराह आदि अवतारों की जो कथा कही गयी है, वह प्रजापति (ब्रह्मा) के अवतार की प्रकारान्तर में कथा है। वैष्णव पुराण इन्हीं अवतारों को विष्णु का अवतार बतलाते हैं।

कूष्माण्डदशमी : आश्विन शुक्ल दशमी। इस दिन शिव, दशरथ तथा लक्ष्मी का कूष्माण्ड (कुम्हड़ा) के फूलों से पूजन किया जाता है। चन्द्रमा को अर्घ्‍य दान करते हैं। दे० गदाधरपद्धति, कालसार भाग, पृ० 125।

कूष्माण्डी : अम्बिका अथवा दुर्गा का एक पर्याय। कूष्माण्ड की बलि से प्रसन्न होने के कारण दुर्गा कूष्माण्डी कही जाती हैं। पवित्र मन्त्रों का नाम, जैसा वसिष्ठस्मृति में कथन है :

सर्ववेदपवित्राणि वक्ष्याम्यहमतः परम्। येषां जपैश्च होमैश्च पूयन्ते नात्र संशयः॥ अघमर्षणं देवकृतः शुद्धवत्यस्तरत् समाः। कूष्माण्ड्यः पावमान्यश्च दुर्गासावित्र्ययैव च॥ कूष्माण्डी एक लता भी है, जिसके फलों की बलि देने से पाप दूर होते हैं। याज्ञवल्क्य के अनुसार,

त्रिरात्रोपोषितो भूत्वा कूष्माण्डीभिर्घृतं शुचि। सुरापः स्वर्णहारी च रुद्रजापी जले स्थितः॥

[तीन दिन उपवास करने के बाद कूष्माण्डी के फलों के साथ घृत का सेवन करने से और जल में बैठकर रुद्रजप करने से मद्यपान एवं सुवर्णचोरी का पाप कट जाता है।]

कृकलास : कृकलास (गिरगिट) का उल्लेख यजुर्वेद (तैत्तिरीय संहिता, 5.5.19.1; मैत्रायणी सं०, 3.14.21 तथा वाजसनेयी सं०, 24.40) में अश्वमेध यज्ञ की बलिपशुतालिका में हुआ है। 'कृकलासी' का भी ब्राह्मणों में उल्लेख है। 'त्रिकाण्डशेष' के अनुसार यह सूर्य का प्रतीक है, क्योंकि क्रमशः यह सूर्य के सभी रंगों को धारण करता (बदलता) है, महाभारत (13.70) के अनुसार सूर्यवंशी राजा नृग को ब्राह्मण की गौ का अपहरण करने के कारण कृकलास योनि में जन्म धारण करना पड़ा था।

कृच्छ्रव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। चार वर्ष तक इसका आचरण करना चाहिए। इसके देवता गणेशजी हैं। एक वर्ष तक चतुर्थी को एक समय आहार करके जीवनयापन करना चाहिए, द्वितीय वर्ष रात्रि में भोजन करना चाहिए। तृतीय वर्ष बिना माँगे जो मिल जाय उसे खाना चाहिए तथा चौथे वर्ष चतुर्थी के दिन पूर्णोपवास करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, 1.501--504, स्कन्दपुराण।

यह पापों को दूर करता है, इसलिए 'कृच्छ्' कहलाता है। याज्ञवल्क्य का कथन है :

गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम्। जग्ध्वा परेह्न्युपवसेत् कृच्छं सान्तपनं स्मृतम्॥

कृच्छ्रव्रतानि : कुछ व्रत कृच्छ्र माने जाते हैं। जैसे सौमायन, तप्तकृच्छ्र, कृच्छ्रातिकृच्छ्र, सान्तपन। यद्यपि ये प्रायश्चित हैं तथापि हेमाद्रि में इनकी गणना व्रतों में की गयी है। शूद्रों के लिए इन व्रतों का निषेध है। कुछ अन्य कृच्छ्र व्रतों का भी वर्णन मिलता है, जैसे कार्तिक कृष्ण सप्तमी से पैताम्भ कृच्छ्र। इसमें चार दिन तक क्रमशः केवल जल, दुग्ध, दधि तथा घृत ही लेना चाहिए, एकादशी को उपवास तथा हरिपूजन का विधान है। वैष्णव कृच्छ्र व्रत के समय 'मुन्यन्न' (नीवार के समान एक धान्य) को तीन दिन तक खाना चाहिए। तदनन्तर तीन दिन तक यावक तथा तीन दिन तक उपवास करना चाहिए।

कृच्छ्रातिकृच्छ्र : कृच्छ्र का अर्थ है कष्ट अथवा कठिन। कठिन से कठिन व्रत को 'कृच्छोतिकृच्छ्र' कहते हैं। वसिष्ठ के अनुसार :

अब्भक्षस्तृतीय़ः कृच्छ्रातिकृच्छ्रो यावत् सकृदादीत। यावदेकवारमुदकं हस्तेन गृहीतु शक्नोति तावन्नवसु दिवसेषु भक्षयित्वा त्र्यहमुपवासः कृच्छ्रातिकृच्छ्रः।

[जिसमें केवल एक बार जल पिया जाता है वह कृच्छ्रातिकृच्छ्र है। अथवा जिसमें प्रतिदिन एक बार हाथ से जल ग्रहण कर नौ दिनों तक ऐसे ही रहा जाय और तीन दिन पूर्ण (जलरहित) उपवास किया जाय वह कृच्छ्रातिकृच्छ्र है।] सुमन्‍तु के अनुसार :

द्वादशरात्रं निराहारः स कृच्छ्रातिकृच्छ्रः। एतत्कृक्छ्रातिकृच्छ्रद्वयं द्वादशाहसाध्यमशक्तविषयम्।

[बारह दिन निराहार व्रत करने को कृच्छ्रोतिकृच्छ्र कहते हैं। यह व्रत असमर्थों के लिए बारह दिन का है।] प्रायश्चित्तविवेक में ब्रह्मपुराण से निम्नांकित श्लोक उद्धृत है, जिसके अनुसार यह व्रत इक्कीस दिन का होता है :

चरेत् कृच्छ्रातिकृच्छ्रञ्च पिबेत्तोयञ्च शीतलम्। एकविंशतिरात्रन्तु कालेष्वेतेषु संयतः॥

घोर पापों के प्रायश्चित स्वरूप इस व्रत का विधान किया गया है।

कृतकोटि : (1) जिसने शास्त्रों की कोटि (सीमा अथवा श्रेष्ठता) प्राप्त कर ली है उसको कृतकोटि कहते हैं। 'त्रिकाण्डशेष' के अनुसार यह काश्यप अथवा उपवर्ष का पर्याय है। यह शङ्कराचार्य की पदवी भी है।

(2) प्रसिद्ध है कि ब्रह्मसूत्र पर बौधायन (एक वेदान्ताचार्य) ने वृत्ति लिखी थी जिसको आचार्य रामानुज ने अपने भाष्य में उद्धृत किया है। जर्मन पण्डित याकोबी का मत है कि बोधायन ने मीमांसासूत्र पर भी वृत्ति लिखी है। प्रपञ्चहृदय नामक ग्रन्थ से यह बात सिद्ध होती है और प्रतीत होता है कि बौधायननिर्मित वेदान्तवृत्ति का नाम 'कृतकोटि' था (प्रपञ्चहृ०, पृ० 39)। पुलवर पुराण, मणिमेखलै आदि द्रविड भाषा के प्रबन्धों में बौधायनकृत मीमांसावृत्ति का कृतकोटि नाम से निर्देश है।

कृतक्रिय : धार्मिक क्रिया सम्पन्न करनेवाला व्यक्ति। इसका सांकेतिक रूप किसी कर्म को समाप्त करना है। मनुस्मृति (5.99) के अनुसार :

विप्रः शुध्यत्यपः स्पृष्ट्वा क्षत्रियो वाहनायुधम्। वैश्यः प्रतोदं रश्मीन् वा यष्टिं शूद्रः कृतक्रियः॥

[कृतक्रिय ब्राह्मण जल स्पर्श करके, क्षत्रिय वाहन अथवा अस्त्र-शस्त्र छूकर, वैश्य कोड़ा अथवा लगाम छूकर और शूद्र यष्टि (लाठी) स्पर्श करके शुद्ध होता है।]

कृतयुग : वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू विश्व की चार सीमाएँ मानते हैं, जिन्हें 'युग' कहते हैं। ये हैं कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि। ये नाम पासे के पहलुओं (पक्ष) के अनुसार रखे गये हैं। कृत सर्वोत्कृष्ट है, जिसके पलू पर चार बिन्दु होते हैं, त्रेता पर तीन, द्वापर पर दो एवं कलि पर एक बिन्दु होता है, अर्थात् क्रम से प्रत्येक में एक-एक बिन्दु कम होता जाता है। ब्राह्मण ग्रन्थों, रामायण-महाभारत एवं पुराणों में उपर्युक्त पासों के पक्षबिन्दुओं के अनुसार इनके नाम रखने का अर्थ यह है कि कृत सबसे चौगुना लम्बा एवं सर्वगुणसम्पन्न युग है तथा क्रम से युगों में गुण एवं आयु का ह्रास होता जाता है। कृत की आयु 4400 दिव्य वर्ष है, त्रेता की 3300, द्वापर की 2200 तथा कलि की 1100 दिव्य वर्ष है। एक दिव्य वर्ष 1000 मानव वर्ष के बराबर होता है।

कृतयुग हमारे सामने मनुष्यजाति की सबसे सुखी अवस्था को प्रस्तुत करता है। मनुष्य इस युग में 4000 वर्ष जीता था। न तो युद्ध होते थे न झगड़े। वर्णाश्रमधर्म तथा वेद की शिक्षाओं का पूर्णरूपेण पालन होता था। अच्छे गुणों का दृढ़ शासन था। कलि ठीक इसके विपरीत गुणों का बोधक युग है। दे० 'कलियुग।'

कृत्ति : मरुत् देवता के एक अस्त्र का नाम। ऋग्वेद में उद्धृत (1.168.6) मरुतों को 'कृति' धारण करने वाला कहा गया है। जिमर ने इस शब्द का अर्थ 'खङ्ग' लगाया है, जिसे युद्ध में धारण किया जाता था। किन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं है कि उस समय कृत्ति एक मानवीय अस्त्र था।

कृत्तिवासा : कृत्ति अथवा गजचर्म को वस्त्र के रूप में धारण करने वाले। यह शिव का पर्याय है। स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (अध्याय 64) में गजासुरवध तथा शिव के कृत्तिवासत्व की कथा दी हुई है, यथा

महिषासुर का पुत्र गजासुर सर्वत्र अपने बल से उन्मत्त होकर सभी देवताओं का पीडन कर रहा था। यह दुस्सह दानव जिस-जिस दिशा में जाता था वहाँ तुरन्त सभी दिशाओं में भय छा जाता था। ब्रह्मा से वर पाकर वह तीनों लोकों को तृणवत् समझता था। काम से अभिभूत स्त्री-पुरुषों द्वारा यह अवध्य था। इस स्थिति में उस दैत्यपुङ्गव को आता हुआ देखकर त्रिशूलधारी शिव ने मानवों से अवध्य जानकर अपने त्रिशूल से उसका वध किया। त्रिशूल से आहत होकर और अपने को छत्र के समान टँगा हुआ जानकर वह शिव की शरण में गया और बोला-- हे त्रिशूलपाणि! हे देवताओं के स्वामी! मैं आपको कामदेव को भस्म करने वाला जानता हूँ। हे पुरान्तक! आपके हाथों मेरा बध श्रेयस्कर है। कुछ मैं कहना चाहता हूँ। मेरी कामना पूरी करें। हे मृत्युञ्जय! मैं आपके ऊपर स्थित होने के कारण धन्य हूँ। त्रिशूल के अग्र भाग पर स्थित होने के कारण मैं कृतकृत्य और अनुगृहीत हूँ। काल से तो सभी मरते हैं, परन्तु, इस प्रकार की मृत्यु कल्याणकारी है। कृपानिधि शंकर ने हँसते हुए कहा--हे गजासुर! मैं तुम्हारे महान् पौरुष से प्रसन्न हूँ। हे असुर, अपने अनुकूल वर माँगो, तुमको अवश्य दूँगा। उस दैत्य ने शिव से पुनः निवेदन किया, हे दिग्वास! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे सदा धारण करें। यह मेरी कृति (चर्म) आपकी त्रिशूलाग्नि से पवित्र हो चुकी है। यह अच्छे आकार वाली, स्पर्ष करने में सुखकर औऱ युद्ध में पणीकृत है। हे दिगम्बर! यदि यह मेरी कृत पुण्यवती नहीं होती तो रणाङ्गण में इसका आपके अंग के साथ सम्पर्क कैसे होता? हे शंकर! यदि आप प्रसन्न हैं तो एक दूसरा वर दीजिए। आज के दिन से आपका नाम कृतिवासा हो। उसके वचन को सुनकर शंकर ने कहा, ऐसा ही होगा। भक्ति से निर्मल चित्त वाले दैत्य से उन्होंने पुनः कहा : हे पुण्यनिधि दैत्य़! दूसरा वर अत्यन्त दुर्लभ है। अविमुक्त (काशी) में, जो मुक्ति का साधन है, तुम्हारा यह पुण्यशरीर मेरी मूर्ति होकर अवतरित होगा, जो सबके लिए मुक्ति देनेवाला होगा। इसका नाम 'कृत्तिवासेश्वर' होगा। यह महापातकों का नाश करेगा। सभी मूर्तियों में यह श्रेष्ठ और शिरोभूत होगा।

कृतिकाव्रत : यह व्रत कार्तिकी पूर्णिमा के दिन प्रारम्भ होता है। इसमें किसी पवित्र स्थान पर स्नान करना चाहिए, जैसे प्रयाग, कुरुक्षेत्र, पुष्कर, नैमिषारण्य, मूलस्थान और गोकर्ण, अथवा किसी भी नगर अथवा ग्राम में स्नान किया जा सकता है। सुवर्ण, रजत, रत्न, नवनीत तथा आटे की छः कृतिका नक्षत्रों की मूर्तियों का पूजन करना चाहिए। मूर्तियाँ चन्दन, आलक्तक तथा केसर से चर्चित तथा सज्जित होनी चाहिए। पूजा में जाती पुष्पों का प्रयोग करना चाहिए।

कृत्तिकास्नान : इस व्रत में भरणी नक्षत्र के दिन उपवास करना चाहिए। कृत्तिका नक्षत्र वाले दिन पुरोहित द्वारा यजमान तथा उसकी पत्नी को सोने के कलश अथवा पवित्र जल तथा वनस्पतियों से परिपूर्ण मिट्टी के कलश द्वारा स्नान कराना चाहिए। इसमें अग्नि, स्कन्द, चन्द्र, कृपाण तथा वरुण के पूजन का विधान है।

कृत्यकल्पतरु : धर्मशास्त्र का एक निबन्ध-ग्रन्थ। इसके रचयिता गहदवाल राजा गोविन्दचन्द्र के सान्धिविग्रहिक लक्ष्मीधर थे। रचनाकाल बारहवीं शताब्दी है। यह विशाल ग्रन्थ था किन्तु इसकी पूरी पाण्डुलिपि उपलब्ध नहीं है। यह बारह काण्डों में विभक्त था। उपलब्ध पाण्डुलिपियों से ज्ञात है कि इसका ग्यारहवाँ काण्ड राजधर्म और बारहवाँ व्यवहार है। पूरे ग्रन्थ का नाम तो कृत्यकल्पतरु है किन्तु इसके अन्य नाम कल्पतरु, कल्पद्रुम, कल्पवृक्ष आदि भी प्रचलित हैं। इसकी सर्वाधिक पूर्ण पाण्डुलिपि महाराणा उदयपुर के ग्रन्थालय में सुरक्षित है। इसमें बारह काण्ड और 1108 पन्ने हैं। इसके बारह काण्ड निम्नाङ्कित हैं :

1. ब्रह्मचारी 2.गृहस्थ 3. नैयत काल 4. श्राद्ध 5. प्रतिष्ठा, 6. प्रतिष्ठा 7. X 8. तीर्थ, 9. X 10. शुद्धि 11. राजधर्म 12. व्यवहार। दो और काण्ड पाये जाते हैं : 13. शान्तिक और 14. मोक्ष। मनमोहन चक्रवर्ती (जर्नल ऑफ द एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, 1915, पृ० 358-59) का सुझाव है कि लुप्त सातवाँ काण्ड पूजा तथा नवाँ प्रायश्चित था।

कृष्ण : ऋग्वेद की एक ऋचा (8.85.3-5) में 'कृष्ण' किसी ऋषि का नाम है। उन्हें अथवा उनके पुत्र को (ऋग्वेद, 8.26) मन्त्रद्रष्टा कहा गया है। 'कृष्णीय' शब्द गोत्रवाचक है जो ऋग्वेद की दो ऋचाओं में उद्धृत है, जहाँ विश्वक् कृष्णीय के लिए विष्णापू को अश्‍विनौ ने किसी रोग से मुक्ति देकर बचाया था। इस अवस्था में कृष्ण, विष्णापू के पितामह प्रतीत होते हैं। कौषीतकि ब्राह्मण (30.9) में उद्धृत कृष्ण आंगिरस एवं उपर्युक्त कृष्ण एक ही जान पड़ते हैं।

कृष्ण देवकीपुत्र : छान्दोग्य उपनिषद् में कृष्ण देवकीपुत्र घोर आङ्गिरस के शिष्य के रूप में उद्धृत हैं। परम्परा तथा आधुनिक विद्वान् ग्रियर्सन, गार्वे आदि ने इन्हें महाभारत के नायक कृष्ण के रूप में माना है, जिन्हें आगे चलकर देवत्व प्राप्त हो गया।

कृष्ण हारीत : ऐतरेय आरण्यक में इन्हें एक आचार्य कहा गया है।

कृष्णदत्त लौहित्य : (लौहित्य के वंशज) : जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण (3.42.1) की एक गुरुशिष्य-सूची में इन्हें श्याम सुजयन्त लौहित्य का शिष्य कहा गया है।

कृष्ण : (महाभारत तथा भागवत के :) इनके ऐतिहासिक स्वरूप का वर्णन उपस्थित करना एक ग्रन्थ रचना का विषय है। महाभारत में कृष्ण एक स्थान पर मानवीय नायक, दूसरे स्थान पर अर्धदेव (विष्णु के अंशावतार) एवं अन्य स्थान पर पूर्णावतार (एक मात्र ईश्वर) के रूप में देख पड़ते हैं, जिन्हें आगे चलकर ब्रह्म अथवा परमात्मा कहा गया।

कृष्ण का जन्म द्वापर के अन्त में मथुरा में अन्धकवृष्णि गणसंघ में हुआ था। इनके पिता का नाम वसुदेव तथा माता का नाम देवकी था। उन दिनों इनके नाना देवक के भाई उग्रसेन इस संघ के गणमुख्य थे। उनका पुत्र कंस एकतन्त्रवादी था। वह उग्रसेन को उनके पद से हटाकर स्वयं राजा बन बैठा। कृष्ण उसके विरोधी थे। कंस ने कृष्ण को मारने की बड़ी चेष्टा की, जिसकी अतिरञ्चजत कहानियाँ भागवत-पुराण में वर्णित हैं। इनसे कृष्ण के अद्भुत पुरुषार्थ का परिचय मिलता है। अन्त में उन्होंने कंस का वध कर उग्रसेन को पुनः गणमुख्य बनाया। कंस के बध से उसका सहायक और श्वशुर, मगध का शासक जरासंध बहुत क्रुध हुआ। उसने चेदिराज शिशुपाल और यवन कालनेमि की सहायता से मथुरा पर सत्रह बार आक्रमण किया। कृष्ण को विवश होकर मथुरा छोड़ द्वारका जाना पड़ा। कृष्ण के नेतृत्व में यादवों ने सुराष्ट्र में एक नये राज्य की स्थापना की। कृष्ण ने अपनी योग्यता के बल पर अखिल भारतीय राजनीति में प्रमुख स्थान ग्रहण किया।

इसी बीच हस्तिनापुर के कौरवों और पाण्डवों में राज्य के बँटवारे के लिए संघर्ष प्रारम्भ हुआ। कृष्ण पाण्डवों के सहायक थे। पहले इन्होंने प्रयत्न किया कि शान्ति के साथ पाण्डवों को अधिकार मिल जाय। कौरवों के दुराग्रह के कारण युद्ध हुआ। इसी युद्ध का नाम महाभारत है। वास्तव में महाभारत के कथाकार व्यास और सूत्रधार कृष्ण थे। महाभारत के प्रारम्भ में पाण्डव अर्जुन को कुलक्षय की आशंका से जो व्यामोह हुआ उसका निराकरण कृष्ण ने भगवद्गीता के उपदेश से किया, जो नीतिदर्शन की उत्कृष्ट कृति है। कृष्ण बहुत बड़े दार्शनिक भी थे। इसीलिए इनको योगेश्वर एवं जगद्गुरु (कृष्णंवन्दे जगद्गुरुम) की उपाधि मिली। इनकी सहायता से पाण्डव विजयी हुए और युधिष्ठिर (पाण्डवों में श्रेष्ठ) की अध्यक्षता में पाण्डवराज्य की स्थापना हुई। कृष्ण इसके पश्चात् द्वारका लौट आये। गृहयुद्ध से उनके यदुवंश का विध्वंस हुआ। जंगल में एक व्याध के बाण से स्वयं उनका भी निधन हुआ।

कृष्ण का व्यक्तित्व अत्यन्त महत्वपूर्ण और प्रभावशाली था। वे राजनीति के बहुत बड़े ज्ञाता और दर्शन के प्रकाण्ड पण्डित थे। धार्मिक जगत् में भी वे नेता औऱ प्रवर्त्तक थे। उन्होंने समुच्चयवादी (ज्ञान-कर्म-भक्ति-समन्वयी) भागवत धर्म का प्रवर्तन किया। अपनी योग्यताओं के कारण वास्तव में वे युगपुरुष थे, जो आगे चल कर युगावतार के रूप में स्वीकार किये गये।

पुराणों में कृष्ण का वर्णन ईश्वर के पूर्णावतार के रूप में है। पूर्णावतार का साङ्गोंपाङ्ग रूपक भागवत पुराण में पाया जाता है। दुष्टों का अत्याचार, अवतार का उद्देश्य, कारागार में जन्म, योगमाया का जन्म, गोचारण, गोप तथा गोपियाँ, उनका अनन्य प्रेम, दुष्टदलन, कंसवध, रास, वेदान्त शिक्षण आदि का विस्तृत वर्णन और निरूपण इस पुराण तथा अन्य पुराणों में उपलब्ध है। हरिवंश (महाभारत के परिशिष्ट) में कृष्ण की कथा दुबारा कही गयी है।

कृष्ण ने जिस भागवत धर्म का प्रवर्तन किया था, आगे चलकर उसमें वे स्वयं उपास्य मान लिये गये। दर्शन में इतिहास का उदात्तीकरण हुआ और कृष्ण के ईश्वरत्त्व और ब्रह्मपद की प्रतिष्ठा हुई। भागवत-वैष्णव धर्म आज भारत का बहुमानित और प्रतिष्ठित धर्म है। भारत में इसके सम्प्रदायों तथा उपसम्प्रदायों का व्यापक प्रचार हुआ है। दे० 'अवतार'।

कृष्णकर्णामृत : विष्णु स्वामी मत के अनुयायी बिल्वमङ्गल द्वारा रचित एक संस्कृत काव्य, जिसके विषय राधा तथा कृष्ण हैं। कानों में अमृत सींचने के समान यह बड़ी मधुर श्रव्य रचना है।

कृष्णचतुर्दशी (शिवरात्रि) : (1) फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। शिव इसके देवता हैं। भगवान् शिव के चौदह नामों के जप का विधान है। चौदह वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए।

(2) केवल महिलाओं के लिए इसका विधान है। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को उपवास करना चाहिए। शिव इसके देवता हैं। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए।

(3) माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को भगवान् शिव की बिल्वपत्रों से पूजा करनी चाहिए। इस दिन भगवान् शङ्कर की प्रतिमा के सम्मुख गृग्गुल जलाना चाहिए।

कृष्णचरित : वैष्णव पुराणों में कृष्ण के विविध चरितों का वर्णन कई दृष्टियों से हुआ है। कृष्ण पूर्णावतार अथवा षोडशकला-अवतार माने गये हैं। अतः इनके जीवन में विविधता और जीवन के सभी वैषम्य समन्वित हैं। कृष्ण का बाह्यतः विरोधात्मक चरित्र बहुतों को भ्रम में डाल देता है। परन्तु इसके मूल में समन्वयात्मक एकता वर्तमान है। अतः इनके भक्तों के लिए वैषम्य प्रतीयमान है; वास्तविक नहीं। कृष्ण के पूर्णावतार में समग्र जीवन का चित्रण है। भागवत और महाभारत में कृष्णचरित का पूरा विकास पाया जाता है।

कृष्ण चैतन्य : सोलहवीं शती के प्रराम्भ में दो नये सम्प्रदाय चैतन्य एवं वल्लभ उत्पन्न हुए। इनमें चैतन्य का मत प्रथम है तथा इसकी शिक्षाएँ तथा अन्य धार्मिक विधियाँ पूर्व के अन्य सम्प्रदायों के समीप हैं।

कृष्ण चैतन्य का बालनाम विश्वम्भर था। ये बङ्गाल के नदिया (नवद्वीप) नामक प्रसिद्ध सांस्कृतिक केन्द्र में उत्पन्न हुए थे। बचपन में ही ये तर्क एवं व्याकरण के ज्ञान के लिए प्रसिद्ध हो गये। 1507 ई० में ईश्वर पुरी (माध्व संन्यासी) से प्रभावित होकर भागवत पुराण में वर्णित भक्ति को इन्होंने अपने जीवन में गम्भीरता से ग्रहण किया। इसके पश्चात् इन्होंने अपना उपदेश आरम्भ किया तथा इनके अनेक शिष्य हो गये, जिनमें अद्वैताचार्य (एक वृद्ध एवं सम्माननीय वैष्णव विद्वान्) एवं नित्यानन्द (जो बहुत दिन तक माध्व थे) उल्लेखनीय हैं। इसी समय इन पर निम्बार्की एवं विष्णुस्वामियों का बड़ा प्रभाव पड़ा तथा ये जयदेव, चण्डीदास एवं विद्यापति के गीतों में आनन्द लेने लगे। इस प्रकार इन्होंने अपने माध्व शिक्षक से विलग होकर राधा को अपने विचार एवं आराधना में प्रधानता दी। ये अधिकांश समय शिष्यों के साथ मिलकर राधा-कृष्ण की स्तुतियाँ (संकीर्तन) गाने में व्यतीत करने लगे। प्रायः ये शिष्यों को लेकर नगर कीर्तन किया करते। ये नये मार्ग आगे चलकर बड़े ही लोकप्रिय सिद्ध हुए।

1509 ई० में इन्होंने केशव भारती से संन्यास की दीक्षा ली एवं 'कृष्ण चैतन्य' नाम धारण किया। फिर उड़ीसा में जगन्नाथमन्दिर, पुरी, चले गये। कुछ वर्षों तक अपना सम्पूर्ण समय उत्तर तथा दक्षिण भारत की यात्रा में बिताया। वृन्दावन इनको बहुत प्रिय था, जो राधा की रासभूमि थी। ये इस समय नवद्वीपवासियों द्वारा कृष्ण के अवतार माने जाने लगे तथा इनका सम्प्रदाय प्रसिद्ध हो गया। 1516 ई० से ये पुरी में रहने लगे। यहाँ पर इनके कई शिष्य हुए। इनमें सार्वभौम, प्रतापरुद्र (उड़ीसा के राजा) तथा रामानन्द राय (प्रतापरुद्र के मन्त्र) प्रसिद्ध हैं। दो बड़े विद्वान् शिष्य इनके और हुए जिन्होंने आगे चलकर चैतन्य सम्प्रदाय के धार्मिक नियमों एवं दर्शनों के स्थापनार्थ ग्रन्थों की रचना की। ये थे रूप एवं सनातन। और भी दूसरे शिष्यों ने की। ये थे रूप एवं सनातन। और भी दूसरे शिष्यों ने राधा-कृष्ण तथा चैतन्य की प्रशंसा में गीत लिखे। इनमें से नरहरि सरकार, वासुदेव घोष एवं वंशीवादन प्रमुख थे।

चैतन्य न तो व्यवस्थापक थे और न लेखक। इनके सम्प्रदाय की व्यवस्था का कार्य सँभाला नित्यानन्द ने तथा धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तों की स्थापना की रूप एवं सनातन ने। इनका कुछ नया सिद्धान्त नहीं था। किन्तु सम्भवतः चैतन्य ने ही मध्व के द्वैत की अपेक्षा निम्बार्क के भेदाभेद को अपने सम्प्रदाय का दर्शन माना। इनके आधार ग्रन्थ थे भागवत पुराण (श्रीधरी व्याख्या सहित), चण्डीदास, जयदेव एवं विद्यापित के गीत, ब्रह्मसंहिता तथा कृष्णकर्णामृत काव्य। लोगों पर इनके प्रभाव का मुख्य कारण था धार्मिक अनुभव, प्रभावशाली भावावेश (जब ये कृष्ण की मूर्ति की ओर देखते तथा उनके प्रेम पर भाषण करते थे) तथा कृष्णभक्ति की संस्पर्शयुक्त एवं हार्दिक प्रशंसा की नयी प्रणाली। राधाकृष्ण की कथा को ही इन्होंने अपनी आराधना का माध्यम बनाया, क्योंकि इनका कहना था कि हमारे पास मनुष्यों का सबसे अधिक हृदय स्पर्श करने वाली कोई और गाथा नहीं है। इनका मत 'गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय' कहा जाता है। बँगला भाषा में चैतन्य के ऊपर बहुत बड़ा साहित्य विकसित हुआ है, जो जनता में बहुत लोकप्रिय है।

कृष्णजन्मखण्ड : ब्रह्मवैवर्तपुराण का एक अंश। एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में वैष्णवों में इसका बहुत आदर है। निम्बार्क सम्प्रदाय का यह प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है।

कृष्णजयन्ती : देवताओं के जन्मोत्सव उनकी अवतरण की तिथियों पर मनाये जाते हैं। इनमें रामजयन्ती, कृष्णजयन्ती एवं विनायकजयन्ती (गणेशचतुर्थी) विशेष प्रसिद्ध हैं। कृष्णजयन्ती विष्णु के अवतार के रूप में मनायी जाती है। कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को हुआ था। इस दिन भगवान् की मूर्ति को सजाते हैं, झूले पर झुलाते हैं, संकीर्तन व भजन करते एवं व्रत रखते हैं तथा जन्मकाल (12 बजे रात) व्यतीत हो जाने पर प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस समय भागवत पुराण का पाठ किया जाता है, जिसमें भगवान् कृष्ण की जन्मकथा वर्णित है।

अर्ध रात्रि में अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र होने पर यह पर्व कृष्णजयन्ती कहा जाता है, इस योग में कुछ बहेरफेर होने पर इसको कृष्णजन्माष्टमी कते हैं।

कृष्णदास कविराज : चैतन्य साहित्यमाला में अति प्रख्यात ग्रन्थ 'चैतन्यचरितामृत' की रचना कृष्णदास कविराज ने वृन्दावन के समीप राधाकुण्ड में सात वर्ष के अनवरत परिश्रम से 1582 ई० में पूरी की थी। इसमें सम्प्रदाय के नेता कृष्णचैतन्य का सम्पूर्ण जीवन बड़ी अच्छी शैली में वर्णित है। दिनेशचन्द्र सेन के शब्दों में 'बँगला भाषा में रचित यह ग्रन्थ चैतन्य तथा उनके अनुयायियों की शिक्षाओं को प्रस्तुत करनेवाला सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है।'

कृष्णदास (माध्व) : सोलहवीं शती के एक वैष्णव आचार्य। इन्होंने कन्नड़ भाषा में पद्यात्मक रचना की है, जिसका विषय माध्वसम्प्रदाय तथा दर्शन है।

कृष्णदास अधिकारी : वल्लभाचार्य के अष्टछाप साहित्यनिर्माताओं में से एक भक्त कवि। इनका जन्म गुजरात के पाटीदार वंश में सोलहवीं शती के मध्य हुआ था।

वल्लभाचार्य के प्रभावशाली पुत्र गुसाँई विट्ठलनाथजी का संरक्षण और श्रीनाथजी की पूजा-अर्चा का प्रबन्धभार कुछ वर्ष इनके अधीन था। सम्प्रदायसेवा के साथ ही ये भक्तिपूर्ण पदरचना भी करते थे। उत्सवों के समय इन पदों का शास्त्रीय गायन पुष्टिमार्गीय मन्दिरों में अब भी प्रचलित हैं।

कृष्णद्वादशी : आश्विन कृष्ण द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। द्वादशी के दिन उपवास तथा वासुदेव के पूजन का विधान है। वासुदेवद्वादशी के नाम से भी यह प्रसिद्ध है।

कृष्णदेव : विजयनगर के एक यशस्वी राजा (1509-29 ई०)। ये विद्या और कला के प्रसिद्ध आश्रयदाता थे। इनके समय में दक्षिण में हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान हुआ। इनके राजपण्डितों ने कर्ममीमांसा का उद्धार किया, वेदों का भाष्य लिखा एवं दर्शन तथा स्मृतियों का संग्रह किया। इनकी राजसभा के दो महान् आचार्य थे दो भाई सायण (वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार) और माधव (दार्शनिक तथा धर्मशास्त्री)।

कृष्ण द्वैपायन : वेदान्त दर्शन अथवा ब्रह्मसूत्र के मान्य लेखक बादरायण थे। भारतीय परम्परा इन्हें वेदव्यास तथा कृष्ण द्वैपायन भी कहती है। किन्तु इनके जीवन के बारे में विशेष कुछ ज्ञात नहीं है। महाभारत के अनुसार ये ऋषि पराशर तथा धीवरकन्या सत्यवती से उत्पन्न हुए थे। माता ने संकोचवश इनको एक द्वीप में रख दिया था, जहाँ इनका पालन-पोषण हुआ। इसीलिए ये द्वैपायन (द्वीप में पालित) कहलाये। भारतीय परम्परा के अनुसार ये वैदिक संहिताओं के संकलनकर्त्ता एवं सम्पादक एवं अठारह पुराणों तथा महाभारत के रचयिता थे। भारतीय साहित्य के इतिहास में इनका स्थान अद्वितीय है। इनके ग्रन्थ परवर्ती भारतीय साहित्य के उपजीव्य हैं। दे० 'व्यास'।

कृष्णदोलोत्सव : चैत्र शुक्ल पक्ष की एकादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। भगवान् कृष्ण की प्रतिमा (लक्ष्मी सहित) किसी झूले में विराजमान करके उसका दमनक नामक पत्तियों से पूजन करना चाहिए। रात्रि में जागरण का विधान है। दे० स्मृतिकौस्तुभ, 101।

कृष्णध्यानपद्धति : अप्पय दीक्षित कृत 'कृष्णध्यानपद्धति' एवं उसकी व्याख्या एक उत्कृष्ट रचना है। यह वैष्णवों में अति प्रिय और प्रसिद्ध ग्रन्थ है।

कृष्णप्रेमामृत : वल्लभ संप्रदाय का एक मान्य ग्रन्थ। इसका निर्माणकाल 1531 ई० के लगभग है। विट्ठलनाथजी ने इसकी रचना की थी। अत्यन्त ललित छन्दों में कृष्ण भक्ति की अभिव्यक्ति इसमें की गयी है।

कृष्ण-बलरामावतार : भगवान् विष्णु का कृष्णावतार अष्टम पूर्णावतार के रूप में माना जाता है। कहा भी गया है: 'एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।' सभी अवतार अंशावतार हैं, किन्तु कृष्ण-अवतार पूर्णावतार होने के कारण साक्षात् भगवत्स्वरूप है। कृष्ण के अवतार के साथ उनके बड़े भाई बलराम अंशावतार के रूप में अवतरित हुए थे।

बलराम और कृष्ण की उत्पत्ति के पूर्व पृथ्वी असुर-भार से पीड़ित होकर गौ के रूप में रोती हुई ब्रह्मा के पास गयी एवं ब्रह्मादि सभी देवताओं ने मिलकर पृथ्वी की रक्षा के लिए भगवान् की प्रार्थना की। उस समय कंस एवं जरासन्ध आदि बलवान् असुरों से संसार पीड़ित था। धर्म पतन की ओर जा रहा है। दूसरी ओर दुर्योधन आदि कौरववंशीय राजाओं के अत्याचारों से राजा और प्रजा दोनों में ही भयंकर पापवृद्धि हो रही थी। इधर शिशुपाल, दन्तवक्र, के द्वारा भी संसार अत्यधिक पीड़ित था। इस प्रकार इस भयंकर भार से पृथ्वी के उद्धार के लिए तथा धर्मरक्षणार्थ भगवान् का पूर्णावतार हुआ।

कृष्णभट्ट : आपस्तम्ब गृह्यसूत्र पर जिन भाष्यकारों ने भाष्य लिखे हैं उनमें एक कृष्णभट्ट भी हैं।

कृष्णमिश्र : जेजाकभुक्ति के चन्देल राजा कीर्तिवर्मा (1129-1163 ई०) के राजकवि और गुरु। इन्होंने प्रबोधचन्द्रोदय नामक प्रतीकात्मक नाटक की रचना की। जनश्रुति के अनुसार जब कीर्तिवर्मा ने चेदिराज कर्ण पर विजय प्राप्त की तो युद्ध में रक्तपात देखकर उसके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसी समय कृष्णमिश्र ने कीर्तिवर्मा के मनोरञ्जन के लिए बड़ी पटुता से इस नाटक की रचना की। यह दार्शनिक नाटक है और इसमें अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। इसकी शैली रूपकात्मक है। इसके पात्र विवेक, प्रबोध, साधन और उनके विरोधी मनोविकार हैं। इसमें दर्शाया गया है कि किस प्रकार मानव सांसारिक विकारों और प्रपञ्चों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसमें विरोधी मतों और पाखण्डों का खण्डन किया गया है। दे० प्रबोध चन्द्रोदय।

कृष्णलीलाभ्युदय : भागवत पुराण के दशम स्कन्ध का यह कन्नड़ अनुवाद 1590 ई० के लगभग वेङ्कट आर्य नामक एक आचार्य ने किया था। यह कर्णाटक में उसी प्रकार लोकप्रिय है, जिस प्रकार हिन्दी क्षेत्र में प्रेमसागर और सुखसागर।

कृष्णषष्ठी : (1) मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए। सूर्य का प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न नामों से पूजन होना चाहिए।

(2) मास के दोनों पक्षों की षष्ठी को एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए। नक्त भोजन करना चाहिए तथा स्वामी कार्तिकेय को अर्घ्‍य देना चाहिए।

कृष्णस्तवराज : निम्बार्काचार्य द्वारा रचित एक छोटा स्तोत्र ग्रन्थ। यह निम्बार्कसम्प्रदाय में बहुत लोकप्रिय है। किन्तु यह निश्चित नहीं है कि यह आद्य आचार्य की रचना है या बाद के किसी आचार्य की।

कृष्णानन्द : तैत्तिरीयोपनिषद् पर अनेक भाष्य और वृत्तियाँ हैं। कृष्णानन्द स्वामी की भी एक वृत्ति इस पर है।

कृष्णानन्द वागीश : शाक्त साहित्य के उन्नीसवीं शती के प्रमुख आचार्य। इन्होंने 'तन्त्रसार' नामक ग्रन्थ की रचना की है।

कृष्णामृतमहार्णव : मध्वाचार्य रचित एक ग्रन्थ। इसकी एक टीका आचार्य श्रीनिवास तीर्थ ने 18 वीं शती में लिखी है।

कृष्णार्चनदीपिका : सोलहवीं शती में चैतन्यमत के प्रसिद्ध आचार्य जीव गोस्वामी द्वारा विरचित ग्रन्थ। इसमें श्री कृष्ण की सेवा-पूजा का विधान भली भाँति वर्णित है।

कृष्णालङ्कार : अप्पय दीक्षित कृत 'सिद्धान्तलेश' पर अच्युत कृष्णानन्दतीर्थ कृत टीका। टीका की रचना में इन्हें अद्भुत सफलता प्राप्त हुई है।

कृष्णावतार : दे० 'कृष्ण' तथा 'कृष्ण-बलरामावतार'।

कृष्णाष्टमीव्रत : मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण होना चाहिए। शिव इसके देवता हैं। प्रत्येक मास में भगवान् शिव का भिन्न-भिन्न नामों से पूजन तथा प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न नैवेद्य पदार्थों का अर्पण करना चाहिए।

कृष्णोपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्, जिसमें कृष्ण का दार्शनिक रूप व्याख्यात हुआ है। वैष्णव सम्प्रदाय में इसका विशेष आदर है।

कृष्णपिङ्गला : दुर्गा का एक पर्याय (कृष्ण-पिङ्गल वर्ण युक्ता)। कहीं-कहीं शिव को भी कृष्ण-पिङ्गल रूप में सम्बोधित किया गया है :

ऋतं सत्यं परं ब्रह्म परुषं कृष्णपिङ्गलम्। ऊर्ध्वलिङ्गं विरूपाक्षं विश्वरूपं नतोऽस्म्यहम्॥

कृष्ण यजुर्वेद : यजुर्वेद का प्राचीन पाठ, जिसमें मन्त्रों के साथ ब्राह्मण भाग भी मिला हुआ है। मन्त्र-ब्राह्मण के पार्थक्य के समझने में दुरुहता होने के कारण इसको कृष्ण यजुर्वेद कहा जाने लगा। इसके पाठविवेचन में याज्ञवल्क्य ऋषि का गुरु से मतभेद हो गया था, तब गुरु ने उनसे अपना वेद उगलवा लिया (छीन लिया)। बाद में याज्ञवल्क्य मन्त्र ब्राह्मण का 'शुक्ल यजुर्वेद' के नाम से अलगाव कर पाये।

कृष्णसार मृग : काली पीठ वाला पुराना हिरन। धर्मशास्त्र के अनुसार ऐसे मृग जिस क्षेत्र में स्वच्छन्द घूमते हैं, वह तपस्या के योग्य पवित्र माना गया है। शिकारियों के क्रूर हिंसाकर्म से बचे रहने पर हिरन काले पड़ जाते हैं, अतः ऐसा निष्पाप स्थान शुद्ध समझा जाता है।

कृष्णा : कालिन्दी या यमुना नदी का एक नाम पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी का नाम भी कृष्णा है। काली देवी भी कृष्णा कही जाती है।

कृष्णा नदी : दक्षिण भारत की पुण्यसलिला नदी। इसके पर्याय हैं कृष्णवेण्या, कृष्णगङ्गा आदि। महाभारत (6.9.33) में इसका निम्नाङ्कित उल्लेख है :

सदा निरामयां कृष्णां मन्दगां मन्दवाहिनीम्।

[कृष्ण सदा पवित्र, मन्द गति और मन्द प्रवाह वाली है।] राजनिघण्टु के अनुसार इसके जल के गुण स्वच्छत्व, रुच्यत्व, दीपनत्व तथा पाचकत्व हैं।

केतु : नव ग्रहों में से अन्तिम। इसकी गणना दुष्ट ग्रहों में है। यह राहु (ग्रसने वाले ग्रह) का शरीर (धड़) माना जाता है। ज्योतिषतत्व में इसकी रिष्टि (कुफल) का वर्णन इस प्रकार पाया जाता है :

केतुर्यस्मिन्नृक्षेऽभ्युदितस्तस्मिन् प्रसूयते जन्तुः। रौद्रे सर्पमुहूर्ते वा प्राणैः संत्यजत्याशु॥

[आर्द्रा, आश्लेषा अथवा केतु जिस नक्षत्र में हो, इन नक्षत्रों में जन्म लेने वाले व्यक्ति को प्राणसंकट होता है।] इसके दशाफल का पूर्ण वर्णन केरलीयजातक नामक ग्रन्थ में पाया जाता है। दूससंचारी धूमकेतु नामक उपग्रह भी केतु कहे गये हैं। ज्योतिष ग्रन्थों के केतुचाराध्याय में उनकी गति औऱ क्रूर फल का विस्तृत वर्णन मिलता है। दे० गर्गसंहिता, बृहत्संहिता आदि ग्रन्थ। आधुनिक ग्रन्थकारों में मथुरानाथ विद्यालङ्कार ने अपने समयामृत नामक ग्रन्थ में केतु के उत्पातों का सविस्तार विवरण किया है।

ऋग्वेद (10.8.1) में सूर्य और उसकी रश्मियों के लिए 'केतु' शब्द का प्रयोग हुआ है (देवं वहन्ति केतवः)।

केदार-गौरीव्रत : कार्तिकी अमावस्या के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस तिथि को गौरी तथा केदार शिव के पूजन का विधान है। 'अहल्याकामधेनु' के अनुसार यह व्रत दाक्षिणात्यों में विशेष प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ में पद्मपुराण से एक कथा भी उद्धृत की गयी है।

केदारनाथ : शिव का एक पर्याय। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार बतायी गयी : 'के' (मस्तक में) 'दारा' (जटा के भीतर गङ्गारुपिणी पत्नी) हैं जिनकी। केदारनाथ एक तीर्थ भी है जो उत्तराखण्ड के शैव तीर्थों में यह अत्यन्त पवित्र माना गया है। इसके लिए यात्रा प्रारम्भ करने मात्र से सब पापों का क्षय हो जाता है।

हठयोग में भ्रूमध्य के स्थानविशेष को केदार कहा गया है। हठयोगदीपिका (3.24) में कथन है :

कालपाशमहाबन्दविमोचनविचक्षणः। त्रिवेणीसङ्गमं धत्ते केदारं प्रापयेन्मनः॥ इस टीका में स्पष्ट किया गया है :

दोनों भौंहों के बीच में शिव का स्थान है। वह केदार शब्द से वाच्य है। उसी पर अपना मन केन्द्रित करना चाहिए।

वीर शैवमत की व्यवस्था के अन्तर्गत प्रारम्भिक पाँच मठ मुख्य थे। इनमें केदारनाथ (हिमालय प्रदेश) का स्थान प्रथम है। इसके प्रथम महन्त एकोरामाराध्य कहे जाते हैं। भक्तों का विश्वास है कि श्री केदारजी के रामनाथ लिङ्ग से, जो भगवान् शिव के अघोर रूप हैं, एकोरामाराध्य प्रकट हुए थे।

उत्तराखण्ड का केदारेश्वर मठ बहुत प्राचीन है। इसकी प्राचीनता का महत्त्वपूर्ण प्रमाण एक ताम्रशासनपत्र से होता है जो उसी मठ में कही सुरक्षित है। इसके अनुसार महाराज जनमेजय के राजत्व काल में स्वामी आनन्दलिङ्ग जङ्गम इस मठ के गुरु थे। उन्हीं के नाम जनमेजय ने क्षीरगङ्गा, स्वर्गद्वारगङ्गा, सरस्वती और मन्दाकिनी के सङ्गम के बीच के भूक्षेत्र का दान इस उद्देश्य से किया कि आनन्दलिङ्ग जङ्गम के शिष्य केदारक्षेत्रवासी ज्ञानलिङ्ग जङ्गम इसकी आय से भगवान् केदारेश्वर की पूजा-अर्चा किया करें। अभिलेख के अनुसार यह दान उन्होंने मार्गशीर्ष अमावस्या सोमवार को युधिष्ठिर के राज्यारोहण के नवासी वर्ष बीतने पर प्लवङ्गम नामक संवत्सर में किया था। भूतपूर्व टीहरी राज्य के राजा इस पीठ के शिष्य हैं और भारत के तेरह नरेश (जिनमें नेपाल, कश्मीर और उदयपुर भी हैं) प्रति वर्ष अपनी ओर से पूजा और भेंट करते रहे हैं। इस मठ के अधीन अनेक शाखामठ हैं।

केनोपनिषद् : सामवेदीय उपनिषद् ग्रन्थों में छान्दोग्य एवं केनोपनिषद् प्रसिद्ध हैं। इस उपनिषद् का दूसरा नाम तलवकार है। यह तलवकार ब्राह्मण के अन्तर्गत है। कहा जाता है कि डाक्टर वारनेल ने तंजौर में इस तलवकार ब्राह्मण ग्रन्थ को पाया था। इसके 135 से लेकर 145वें खण्ड तक को 'तलवकार उपनिषद्' अथवा 'केनोपनिषद्' माना जाता है। छान्दोग्य एवं केन पर शङ्कराचार्य के भाष्य हैं तथा अन्य आचार्यों ने अनेक वृत्तियाँ और टीकाएँ लिखी हैं। उपनिषद् का 'केन' नाम इसलिए पड़ा कि इसका प्रारम्भ 'केन' (किसके द्वारा) शब्द से होता है। इसमें उस सत्ता का अन्वेषण किया गया है जिसके द्वारा सम्पूर्ण विश्व का धारण और सञ्चालन होता है।

केरलोत्पत्ति : शङ्कर के आविर्भावकाल के निर्णायक प्रमाण ग्रन्थों में केरलोत्पत्ति का भी एक प्रमुख स्थान है। इसके अनुसार शङ्कर का कलिवर्ष 3057 में आविर्भाव हुआ। शङ्कर का जीवनकाल भी इसमें 32 वर्ष के स्थान पर 38 वर्ष लिखा है। किन्तु यह परम्परा प्रामाणिक नहीं जान पड़ती। आचार्य शङ्कर की प्राचीनता प्रदर्शित करने के लिए यह मत प्रचलित किया गया लगता है।

केरेय पद्मरस : कन्‍नड़ वीरशैव साहित्‍य में पद्मराज नामक पुराण का स्‍थान महत्‍त्‍वपूर्ण है। इसमें 'केरेय पद्मरस' की कथा लिखी गई है। इस पुराण की रचना सन् 1385 ई. में पद्मनाङ्क ने की थी।

केवल : धार्मिक क्रिया सम्पन्न करनेवाला व्यक्ति। इसका सांकेतिक रूप किसी कर्म को समाप्त करना है। मनुस्मृति (5.99) के अनुसार :

सांख्यदर्शन के अनुसार पुरुष और प्रकृत के पार्थक्य की स्थिति 'कैवल्य' कहलाती है। इस स्थिति में रहनेवाला मुक्त आत्मा 'केवल' कहलाता है। जैन धर्म में जिसे शुद्ध (केवल) ज्ञान प्राप्त हो गया हो, ऐसे जिन विशेष को 'केवली' कहा जाता है।

हठयोगदीपिका (2.71) के अनुसार 'केवल' कुमम्भक का एक भेद है :

प्राणायामस्त्रिधा प्रोक्तो रेच-पूरक-कुम्भकेः। सहितः केवलश्चेति कुम्भको द्विविधो मतः॥

[प्राणायाम तीन प्रकार का कहा गया है: रेचक, पूरक और कुम्भक। कुम्भक भी दो प्रकार का माना गया है : सहित और केवल।]

केश : धार्मिक आज्ञानुसार सिक्खों के धारण करने के पाँच उपादनों में पहला केश है। ये कभी कटाये नहीं जाते। पाँच उपादान पाँच 'ककार' (क वर्ण से प्रारम्भ होने वाले शब्द) कहलाते हैं : केश, कृपाण, कड़ा, कच्छ और कंघा। पूर्ण केश रखने की प्रथा को दशम गुरु गोविन्दसिंह ने प्रारम्भ किया था। खालसा सिक्खों का यह प्रमुख चिह्न है, जो नानकपंथियों से उनको पृथक् करता है।

केशव : विष्णु का एक नाम। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है : 'क (जल) में जो सोता है (के जले शेते इति)।' भागवत पुराण के अनुसार परब्रह्मशक्ति को ही केशव कहा गया है: 'ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-संज्ञाः शक्तयः केशसंज्ञिताः।' सुन्दर लम्बे केश (बाल) रखने के कारण भी विष्णु को केशव कहते हैं। अथवा केशव ब्रह्मा, ईश रुद्र इन दोनों को अपने स्वरूप में लीन कर जो परमात्मा रूप से एक मात्र अवस्थित रहता है वह 'केशव' है। हरिवंश पुराण (80.66) के अनुसार केशी नामक असुर का वध करने के कारण विष्णु का नाम केशव पड़ा (केशं केशिनं वाति हन्ति इति) :

यस्मात्त्वया हतः केशी तस्मान्मच्छाशनं श्रृणु। केशवो नाम नाम्ना त्वं ख्यातो लोके भविष्यसि॥

केशव काश्मीरी : निम्बार्कों का इतिहास 1350 ई० से 1500 ई० तक अज्ञात है। किन्तु 1500 से इसका पुनरुन्मेष होता है। इसके आचार्य दो प्रकार के हुए : गृहस्थ तथा संन्यासी। इन आचार्यों में केशव काश्मीरी का नाम सर्वप्रमुख रूप से आता है। पुनर्विकासकाल के आरम्भिक नेताओं का युग्म केशव काश्मीरी (निम्बार्कों में अग्रणी) तथा उनके भगिनीपति हरिव्यास देव (निम्बार्कों के अन्य नेता) का था। ये कृष्णचैतन्य एवं वल्लभाचार्य के समकालीन थे। केशव काश्मीरी प्रसिद्ध तार्किक विद्वान् एवं निम्बार्कदर्शन के भाष्यकार थे। उपासना के क्षेत्र में उनकी 'क्रमदीपिका' की विशेष प्रतिष्ठा है जो विशेषकर गौतमीय तन्त्र के आधार पर निर्मित हुई है।

केशवचन्द्र सेन : भारतीय पुनर्जागरण के आन्दोलन में `ब्रह्मसमाज` का महत्वपूर्ण स्थान है। यह आन्दोलन 1828 ई० में राजा राममोहन राय द्वारा आरम्भ हुआ। आन्दोलन का प्रथम चरण 1841 में समाप्त हुआ। दूसरे चरण के नेता देवेन्द्रनाथ ठाकुर तथा उनके एक नवयुवक सहयोगी केशवचन्द्र सेन थे। दूसरे चरण में समाज काफी प्रगति पर था एवं केशव के सहयोग ने इसे और भी गति दी। ये सम्भ्रान्त वैद्यकुल के व्यक्ति थे तथा इन्होंने आधुनिक उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। 1857 ई० में समाज की सदस्यता ग्रहण कर 1859 से इन्होंने अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा समाजोन्नति में लगाना आरम्भ किया। देवेन्द्रनाथ ठाकुर इन्हें बहुत पसन्द करते थे। पाँच वर्ष तक दोनों ने साथ-साथ कार्य किया। इसी समय `ब्राह्म विद्यालय` खोला गया जिसमें केशवचन्द्र ने अंग्रेजी में तथा देवेन्द्रनाथ ने मातृभाषा में अपने सिद्धान्तों को समझाया। इसके फलस्वरूप अनेक नवयुवक समाज में सम्मिलित हुए। इस बीच केशव ने `बैंक आफ बंगाल` में नौकरी कर ली किन्तु उसे उन्होंने 1861 में त्याग दिया तथा अपना संपूर्ण समय समाज के लिए देने लगे। `संगति सभा` के अनेक अनुयायियों ने केशव का अनुगमन किया, जिनमें प्रतापचन्द्र मजुमदार प्रधान थे। एक पत्रिका `इण्डियन मिरर` निकाली जाने लगी।

1862 ई० में देवेन्द्रनाथ ने केशवचन्द्र को नया सम्मान दिया। समाज के आचार्य केवल ब्राह्मण हुआ करते थे। देवेन्द्रनाथ स्वयं समाज के आचार्य थे एवं दो और काम उपाचार्य करने वाले थे। देवेन्द्रनाथ ने केशव को आचार्य पद प्रदान किया।

इस समय केशवचन्द्र ने हिन्दू समाज का विरोध सहन करते हुए अपनी स्त्री को समाजसेवा में लगाया। इससे बड़ा लाभ हुआ। ब्राह्मों ने अपनी स्त्रियों को अधिक स्वाधीनता प्रदान करना आरम्भ किया जो आगे चलकर स्त्रीस्वाधीनता आन्दोलन में बहुत ही सहायक हुआ।

दो वर्ष बाद केशव ने बंबई एवं मद्रास में भी 'ब्रह्मसमाज' की स्थापना करायी। जब केशव यात्रा पर थे तभी देवेन्द्रनाथ को कुछ प्राचीन विचारों ने प्रभावित किया तथा उन्होंने केशव के स्थान पर उपाचार्यों को कार्य करने की अनुमति दे दी। केशव के दल ने इसका विरोध किया और इस प्रकार दो समाजों की स्थापना हुई। देवेन्द्रनाथ का समाज 'आदिसमाज' तथा केशव का 'नव ब्रह्मसमाज' कहलाया।

यहाँ से समाज का तीसरा चरण या युग आरम्भ होता है। देवेन्द्रनाथ का साथ छूट जाने पर केशवचन्द्र ने ईश्वर पर भरोसा रखा तथा उन्हें नयी प्रेरणा व स्फूर्ति प्राप्त हुई। उन्होंने अनेक प्रचारक एवं भक्त प्राप्त किये और प्रार्थना में इनको विशेष शान्ति मिली। घर पर ही सदस्यों की भीड़ जमती तथा धार्मिक सेवाओं एवं प्रार्थना में लोग खूब हाथ बटाते। वैष्णव धर्म से, जो इनका पारिवारिक धर्म था, केशव ने इस समय बहुत कुछ लिया। भक्ति, जो हिंदू धर्म में ईश्वरप्रेम एवं उसमें विश्वास का प्रतीक है, इस आन्दोलन का प्रधान अङ्ग बन गयी। 22 अगस्त 1869 को मछुआ बाजार (कलकत्ता) में केशवचन्द्र ने एक भवन बनवाया जिसे मन्दिर की संज्ञा दी गयी। यहाँ अनेकों प्रतिष्ठित लोग आने लगे तथा समाज के सदस्य हुए। मन्दिर के निर्माण के कुछ ही दिन बाद इन्होंने बिलायत की यात्रा की। वहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ। इंगलैण्ड में बहुसंख्यक लोगों के बीच केशव ने भाषण किया। ब्रिटेन की महारानी ने भी इनसे भेंट की। ब्रिटिश क्रिश्चियन होम ने इन्हें सर्वाधिक प्रभावित किया।

कलकत्ता लौटकर केशव ने अनेक प्रकार के सुधार प्रारम्भ किये। एक नया समाज 'इण्‍डियन रिफार्म एसोसिएशन' बनाया, जिसके पाँच विभाग थे--सस्ता साहित्य, दान, स्त्री विकास, शिक्षा और आत्मनिग्रह। अनेक कार्य और संस्थायें इस समय प्रारम्भ की गईं, यथा

नार्मल स्कूल फार गर्ल्स, विक्टोरिया इन्स्टीट्यूशन फार वीमेंन, इन्डस्ट्रियल स्कूल फार ब्वायेज एवं भारत आश्रम, जिसमें स्त्रियों एवं शिशुओं को शिक्षा दी जाती था।

इस समय तक केशव अपने को ईश्वर के आदेश लोगों तक पहुँचानेवाला समझने लगे तथा दूसरों को उन्होंने आदेश देना आरम्भ किया। अतएव समाज के अन्दर केशव का विरोध आरम्भ हो गया। फिर एक बार केशव के जीवन में उदासी आयी, किन्तु ईश्वराराधना में लीन हो इन्होंने सब भुला दिया। केशव ने मृत्यु के पहले फिर एक बार पश्चिम की यात्रा की। इनके अन्तिम समय तक 173 ब्रह्मसमाज की शाखाएँ हो गया थीं, 1500 पक्के सदस्य तथा 500 अनुयायी थे। इनके द्वारा संचालित आन्दोलन ने बंगाल में सुधार और नवजीवन की एक लहर सी फैला दी।

केशवप्रयाग : माणा ग्राम के पास अलकनन्दा में जहाँ सरस्वती की धारा मिलती है उस स्थान को केशवप्रयाग कहते हैं। उत्तराखण्ड के तीर्थों में यह प्रसिद्ध है।

केशव भट्ट : निम्बार्काचार्य की परंपरा के उत्तरार्द्ध में उनके दो शिष्य बहुत प्रसिद्ध हुए; एक केशव भट्ट तथा दूसरे हरिव्यास। इन्हीं दो शिष्यों से दो श्रेणियाँ निकली हैं। गृहस्थ और संन्यासी जो आपसी भेदों के होते हुए भी बड़े आदृत थे। दे० 'केशव काश्मीरी'।

केशव मिश्र : न्यायवैशेषिक दर्शन के आचार्य। इनका उदयकाल 13वीं शती है। इन्होंने तर्कभाषा नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसका अंग्रेजी अनुवाद महामहोपाध्याय पं० गंगानाथ झा ने किया।

केशवस्वामी गोपाल : इन्होंने बौधायन श्रौतसूत्र पर भाष्य लिखा है।

केशवाचार्य : निम्बार्काचार्य के शिष्य श्रीनिवास द्वारा कृत ब्रह्मसूत्रभाष्य के व्याख्याता। ये पन्द्रहवीं शती में हुए थे और चैतन्य महाप्रभु के समय में जीवित थे। निम्बार्काचार्य के 'वेदान्तपरिजातसौरभ' का भाष्य 'वेदान्तकौस्तुभ' नाम से श्रीनिवासाचार्य ने लिखा और 'वेदान्तकौस्तुभ' की टीका केशवाचार्य ने लिखी। निम्बार्काचार्य की परंपरा में ये अत्यन्त प्रौढ़ विद्वान् माने जाते हैं। दे० 'केशव भट्ट'।

कैयट : शब्दाद्वैतवाद के सबसे प्रथम दार्शनिक व्याख्याता भर्तृहरि थे। उनके पश्चात् भर्तृमित्र हुए, जिनका स्फोट पर 'स्फोटसिद्धि' नामक ग्रन्थ अब उपलब्ध हो गया है। इनके बाद इस सिद्धान्त का पूर्ण वर्णन पुण्यराज एवं कैयट के व्याख्यानिबन्धों में पाया जाता है, जो क्रमशः 'वाक्यपदीय' और 'पातञ्जलि महाभाष्य' पर हैं। कैयट का समय 11वीं शताब्दी है और ये कश्मीरदेशीय थे। इनकी टीका के बल पर ही पश्चात्कालीन विद्वान् महाभाष्य को समझने में समर्थ हो सके। टीका के उपक्रम में इनका कहना है :

भाष्याब्धिः क्वातिगम्भीरः क्वाहं मन्दमतिस्तथा। तथापि हरिबद्धेन सारेण ग्रन्थसेतुना। क्रममाणः शनैः पारं तस्य प्राप्तास्मि पंगुवत्॥

महाभाष्य की दुर्बोधता को लेकर श्री हर्ष जैसे महाकवि 'नैषधचरित' में एक अद्भुत उपमा दी है। उन्होंने नल की राजधानी शत्रुओं के लिए वैसी ही अभेद्य बतलायी है जैसी पंडितों के लिए महाभाष्य की फक्किकाएँ अबोध थीं। कैयट ने इन्हें सुबोध्य बना दिया।

कैलास : हिमालय का सर्वाधिक पवित्र शिखर। मानसरोवर से कैलास लगभग 20 मील दूर है। पूरे कैलास की आकृति विराट् शिवलिङ्ग जैसी है, जो मानों पर्वतों के एक षोडशदल कमल के मध्य स्थित है। कैलास शिखर आस-पास के समस्त शिखरों से ऊँचा है। इसकी परिक्रमा 32 मील की है जिसे यात्री प्रायः तीन दिनों में पूरी करते हैं। कैलास का ऊर्ध्व भाग तो प्रायः अगम्य है, उसका स्पर्श यात्रामार्ग से लगभग डेढ़ मील सीधी चढ़ाई पार करके किया जा सकता है और यह चढ़ाई पर्वतारोहण की विशिष्ट तैयारी के विना शक्य नहीं है। कैलास के शिखर की ऊँचाई समुद्रस्तर से 19000 फुट कही जाती है। कैलास के दर्शन एवं परिक्रमा करने पर जो अद्भुत शान्ति एवं पवित्रता का अनुभव होता है वह स्वयं अनुभव की वस्तु है।

कैलास शब्द की व्युत्पत्ति कई प्रकार से की गयी है : क अर्थात् जल में जिसका लसन अथवा लास्य हो (के जले लासो लसनं दीप्तिरस्य) वह कैलास कहलाता है। दूसरी व्युत्पत्ति है : केलियों का समूह कैल; 'कैल' के साथ यहाँ 'आस' निवास किया जाता है (केलीनां समूहः कैलम्, कैलेनास्यते अत्र)। यहाँ शिव पार्वती के साथ निवास करते हैं और उनके गण इतस्ततः किलोल किया करते हैं।

भागवत पुराण में सुमेरु पर्वत के पूर्व में जठर और देवकूट, पश्चिम में पवन औऱ पारियात्र तथा दक्षिण में कैलास और करवीर पर्वत स्थित कहे गये हैं।

कैलासनाथ : कैलास क्षेत्र के स्वामी, कुबेर, जो यक्षों के राजा और धन के देवता हैं। इनकी राजधानी अलकापुरी कैलास की द्रोणी में बसी हुई और मानवों के लिए अगोचर है। कैलास के शिरोभाग पर शंकरजी का निवास है, अतः वे भी कैलासनाथ कहलाते हैं।

कैलाससंहिता : शिवपुराण के सात खण्ड हैं: 1. विश्वेश्वर संहिता 2. रुद्रसंहिता, 3. शतरुद्रसंहिता, 4. कोटिरुद्रसंहिता, 5. उमासंहिता, 6. कैलाससंहिता एवं 7. वायवीय संहिता (पूर्व एवं उत्तर दो खण्ड युक्त) कैलाससंहिता में कुल 23 अध्याय हैं। दे० 'शिवपुराण'।

कैवद्यदीपिका : यह मानभाउ संप्रदाय का एक ग्रन्थ है, जो संस्कृत में रचा गया है। 'मानभाउ' या महानुभाव मत महाराष्ट्र की ओर प्रचलित है।

कैवर्त : एक वर्णसंकर जाति। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न संतान इस जाति की होती है। इसके पर्याय हैं दाश, धीवर, दाशेरक, जालिक। मनुस्मृति (10.34) में भी कैवर्त की गणना संकर जातियों में की गयी है :

निषादो मार्गवं सूते दाशं नौकर्मजीविनम्। कैवर्तमिति यं प्राहुरार्यावर्तनिवासिनः॥

कैवल्य : सब उपाधियों से रहित केवल (शुद्ध मात्र) की अवस्था (भाव)। यह मोक्ष अथवा मुक्ति का पर्याय है। पातञ्जलि योगसूत्र के कैवल्य पाद में कहा गया है :

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूप-प्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति। (सूत्र 33)

[जब सभी गुणों-- सत्व, रज और तम का पुरुषार्थ (कार्य) समाप्त हो जाता है और उससे जो स्थिति उत्पन्न होती है वही सभी विकारों से रहित स्थिति कैवल्य है। अथवा अपने स्वरूप (शुद्ध ज्ञानरूप) में प्रतिष्ठा (सम्यक् स्थिति) कैवल्य है।]

कैवल्यसार : वीरशैव मत का पन्द्रहवीं शती में रचित एक ग्रन्थ। इसके रचयिता मरितोण्टदार्य नामक आचार्य हैं।

कैवल्योपनिषद् : एक शैव उपनिषद्, जो अथर्वशिरस् उपनिषद् की ही समकालीन है।

कोकिलाव्रत : मुख्यतः महिलाओं के लिए इस व्रत का विधान है। आश्विन पूर्णिमा की सन्ध्या को इसका संकल्प करना चाहिए, आषाढ़ी पूर्णिमा के पश्चात् एक मास तक सुवर्ण अथवा तिलों की कोकिला के रूप में गौरी बनाकर उसका पूजन करना चाहिए। एक मास तक नक्त भोजन का विधान है। मासान्त में एक ताम्रपात्र में रत्नों की आँखे, चाँदी की चोंच तथा पैर बनवाकर कोकिला का दान करना चाहिए। ऐसा कहा जाता है कि भगवान् शिव ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने के बाद गौरी को कोकिला हो जाने का शाप दिया था। सुवर्ण की एक कोकला बनाकर, जिसकी आँखे मोतियों की हों तथा पैर चाँदी के हों, षोडशोपचारपूर्वक पूजन करना चाहिए। सुख, समृद्धि के लिए यह व्रत वांछनीय है। तमिलनाडु के पंचाङ्गों में इसका अनुष्ठान ज्येष्ठ 14 (मिथुन) को बतलाया गया है।

कोजागर (कौमुदीमहोत्सव) : आश्विन पूर्णिमा के दिन इसका अनुष्ठान होता है। इसमें लक्ष्मी तथा ऐरावतारूढ़ इन्द्र का पूजन रात्रि में करना चाहिए। घी अथवा तिल के तिल के बहुसंख्यक दीपक मुख्य सड़कों पर, मन्दिरों में, बागों में तथा घरों में प्रज्वलित करने चाहिए। दूसरे दिन प्रातःकाल इन्द्र की पूजा होनी चाहिए। ब्राह्मणों को अत्यन्त स्वादिष्ठ भोजन कराना चाहिए। लिङ्गपुराण के अनुसार दयालुता की मूर्ति लक्ष्मी मध्य रात्रि के समय परिभ्रमण करती हुई कहती है: "कौन जाग रहा है?" मनुष्यों को नारियल में भरा हुआ पानी (रस) पीना चाहिए तथा पासों से खेलना चाहिए। 'को जागर्ति' इन दो शब्दों में 'कोजागर' व्रत की ध्वनि विद्यमान है। इसे 'कौमुदीमहोत्सव' भी कहा जाता है। सम्भवतः 'कोजागर' शब्द 'कौमुदीजागर' का ही संकेतात्मक तथा संक्षिप्त रूप है। कौमुदीमहोत्सव के लिए दे० कृत्यकल्पतरु (राजधर्म), पृ० 182-183; राजनीतिप्रकाश (वीरमित्रोदय), पृ० 419-421।

कोटिमाहेश्वरी : हिमालय स्थित एक तीर्थस्थान। यह स्थान कालीमठ से दो मील दूर है। यहाँ कोटिमाहेश्वरी देवी का मन्दिर है। यात्री यहाँ पितृतर्पण तथा पिण्डदान करते हैं।

कोटिरुद्रसंहिता : शिवपुराण के सात खण्डों में से चौथे खण्ड का नाम। इसमें कुल 43 अध्याय हैं। दे० 'शिवपुराण'।

कोटिहोम : मत्स्यपुराण (93.5-6) के अनुसार नवग्रहहोम उस समय अयुतहोम कहलाता है जब आहुतियों की संख्या दस सहस्र हो। इसी क्रम से बढ़ते हुए एक अन्य प्रकार का होम लक्षहोम है तथा तीसरा कोटिहोम है। वस्तुतः नवग्रहमख अशुभ शकुनों तथा क्रूर ग्रहों के प्रशमनार्थ होता है। मत्स्यपुराण (93) में उपर्युक्त तीनों होमों का वर्णन है। बाणभट्ट के हर्षचरित के अनुसार जिस समय प्रभाकरवर्द्धन मृत्युशय्या पर था उस समय कोटिहोम का आयोजन किया गया था।

कोटीश्वरीव्रत : भाद्र शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। चार वर्ष तक इसका आचरण करना चाहिए। इस दिन उपवास का विधान है। एक लाख अक्षत अथवा तिल दूध में डालने चाहिए। तदनन्तर देवी पार्वती की एक स्थूल प्रतिमा बनाकर उसका पूजन करना चाहिए। इस पूजन से न तो दारिद्र्य रहेगा न कोई अन्य विपत्ति, आठ सन्तान और सुन्दर पति की प्राप्ति होगी। इसका नाम लक्षेश्वरी भी है।

कोटितीर्थ या कोटीश्वर या शिवकोटि शंकरजी की एक करोड़ मूर्तियों का भी नाम है। ऐसा एक तीर्थ प्रयागराज में गंगाजी के बड़े रेल पुल के पास है। यहाँ लंकाविजय कर लौटते समय रामचन्द्रजी एक करोड़ शिवमूर्तियों का एकतन्त्र में पूजन कर रावणवध के पाप से मुक्त हुए थे।

कोटेश्वर : हिमालय में स्थित एक तीर्थस्थान। देवप्रयाग से खर्साड़ा 10 मील और यहाँ से कोटेश्वर 4 मील दूर है। यहाँ कोटेश्वर महादेव का मन्दिर है।

कोणार्क : भुवनेश्वर से लगभग 42 मील दक्षिणपूर्व उड़ीसा का यह एक सौर तीर्थ है। स्थानीय जनश्रुति के अनुसार एक बार भगवान् श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। भगवान् की आज्ञा से इस स्थान पर कोणादित्य की आराधना करने से उनका कुष्ठ दूर हुआ। पश्चात् साम्ब ने यहाँ सूर्यमूर्ति स्थापित की थी (यह मूर्ति अब पुरी में है)। यह उपाख्यान सूर्यपूजा सम्बन्धी पौराणिक कथा का रूपान्तर है। वास्तव में मूल सूर्यमन्दिर पंजाब में चन्द्रभागा (चेनाव) और सिन्धुनद के संगम पर मुलतान =मूलस्थान में था। तुर्कों द्वारा उसके नष्ट होने पर कोणार्क वाला सूर्यमन्दिर सन् 1250 में बना और नया चन्द्रभागातीर्थ स्थापित हुआ।

इस मन्दिर में भास्कर्य कला-परम्परा का सम्पूर्ण वैबव दृष्टिगोचर होता है। किन्तु यह आज भग्नावस्था में है। भारत के लगभग सभी सूर्यमन्दिरों की यही अवस्था है। वास्तव में सौर मत का प्रभाव समाप्त होता गया और उचित संरक्षण न मिलने से यह मन्दिर भी ध्वस्त हो गया है। इसका जगमोहन मात्र आज खड़ा है। वर्ष में एक बार यहाँ देश के कोने-कोने से बचे-खुचे सूर्योपासक इकट्ठे होकर इस स्थान, मन्दिर एवं वातावरण को प्राणवान् कर देते हैं। यह तीर्थ भी चन्द्रभागा के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ पर चन्द्रभागा नदी समुद्र में मिलती है। परन्तु स्पष्टतः यह पुराने तीर्थ (चन्द्रभागा या चेनाव और सिन्धु के संगम) का स्थानान्तरण है।

कोणार्क का सूर्यमन्दिर अपनी वास्तुकला लिए प्रसिद्ध है। यहाँ पर सूर्य की अनेक सर्जनात्मक क्रियाएँ प्रतीकात्मक रूप से विविध आकारों में अंकित हैं।

कोयिलपुराण : यह शैव सिद्धान्त की तमिलशाखा का चौदहवीं शती में निर्मित एक ग्रन्थ है।

कोलाहल पण्डित : यामुनाचार्य के समसामयिक पाण्ड्यराज का सभापण्डित। राजा इसके प्रति अत्यन्त श्रद्धाभाव रखता था। जो पण्डित कोलाहल से शास्त्रार्थ में हार जाते थे, उन्हें राजा की आज्ञा के अनुसार दण्डस्वरूप कुछ वार्षिक कर कोलाहल पण्डित को देना पड़ता था। कोलाहल सम्राट की तरह अधीनस्थ पण्डितों से कर वसूलता था। यामुनाचार्य के गुरु भाष्याचार्य भी उसे कर दिया करते थे। एक बार भाष्याचार्य ने दो तीन वर्ष तक कर नहीं दिया। कोलाहल का एक शिष्य कर माँगने आकर भाष्याचार्य को अनुपस्थित पा अनाप-शनाप बकने लगा। ऐसि स्थिति में यामुन ने, जो 12 वर्ष के बालक थे, कोलाहल से शास्त्रार्थ करने को कहा। शिष्य ने जाकर कोलाहल से कहा। उधर राजा-रानी को भी पता चला। दोनों में तर्क हुआ। रानी ने कहा कि यामुन जीतेगा; यदि न जीतेगा तो मैं आपकी क्रीतदासी की दासी होकर रहूँगी।

राजा ने कहा कोलाहल जीतेगा; यदि न जीतेगा तो मैं अपना आधा राज्य यामुन को दे दूंगा। रानी की बात रह गयी यामुन जीत गये। कोलाहल पण्डित हार गया। यामुन को राजा ने सिंहासन पर बैठा दिया। दे० 'यामुनाचार्य'।

कोष : उपनिषदों में आत्मा के पाँच कोष बताये गये हैं :

1. अन्नमय कोष (स्थूल शरीर, जो अन्न से बनता है)

2. प्राणमय कोष (शरीर के अन्तर्गत वायुतत्त्व)

3. मनोमय कोष (मन की संकल्प-विकल्पात्मक क्रिया)

4. विज्ञानमय कोष (बुद्धि की विवेचनात्मक क्रिया)

5. आनन्दमय कोष (आनन्द की स्थिति)।

ये आत्मा के आवरण माने गये हैं। इनके क्रमशः भेदन से जीवात्मा अपना स्वरूप पहचानता है। आत्मा इन सबका आधार और इनसे परे है। दे० 'आत्मा'।

पञ्चदशी (3.1-11) में इन कोषों का विस्तृत वर्णन है।

कोसल (कोशल) : जनपद का नाम, जिसकी राजधानी अयोध्या थी (दे० 'अयोध्या')। वाल्मीकि रामायण (1.4.5) में इसका उल्लेख है :

कोसलो नाम मुदितः स्फीतों जनपदो महान्। निविष्टः सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान्॥

[कोसल नामक महान् जनपद विस्तृत और सुखी था। यह सरयू के किनारे स्थित और प्रभूत धन-धान्य से युक्त था।] कहीं-कहीं अयोध्या नगरी के लिए ही इसका प्रयोग हुआ है।

कौकूस्त : शतपथ ब्राह्मण (4.6.1.13) में 'कौकूस्त' एक यज्ञ में पुरोहितों को दक्षिणा देनेवाला कहा गया है। काण्व शाखा इस शब्द का पाठ 'कौक्थस्त' के रूप में करती है।

कौत्स : यह एक प्रसिद्ध ऋषि का नाम है।

कौथुमी : सामवेद की एक शाखा। सामसंहिता के सभी मन्त्र गेय हैं। जिन यज्ञों में सोमरस काम में लाया जाता था उनमें (अर्थात् सोमयागों में) उद्गाताओं का यह कर्तव्य था कि वे सामगान करें। ब्रह्मचारियों को आचार्य इस संहिता के छन्दों के सस्वर पाठ करने की विधि सिखाते थे, तथा वे इसे बार-बार गाकर कंठस्थ भी कर लेते थे। उन्‍हें यह भी शिक्षा दी जाती थी कि किस यज्ञ में किस ऋचा या छन्द का गान होगा। कौथुमीसंहिता सामवेद की तीन शाखाओं में से एक है। यह शाखा उत्तर भारत में प्रचलित है, जबकि 'जैमिनीय' एवं 'राणायनीय' का प्रचार कर्णाटक एवं महाराष्ट्र में है। कौथुमी शाखा के आचार्य अपने ब्रह्मचारियों (उद्गाता की शिक्षा लेने वालों) को 585 स्वरों की शिक्षा देते थे, जिनका सम्बन्ध उतने ही छन्दों से होता था। वैसे तो सामवेद की 1000 शाखाएँ कही जाती हैं, किन्तु प्रचलित हैं केवल तेरह। इन तेरहों में भी आजकल दो ही प्रधान हैं-- कौथुमी (उत्तर भारत में काशी, कान्यकुब्ज, गुजरात और वङ्ग) तथा राणायनीय (दक्षिण में)।

कौटिल्य : कौटिल्य चाणक्य एवं विष्णुगुप्त नाम से भी प्रसिद्ध हैं। इनका व्यक्तिवाचक नाम विष्णुगुप्त, स्थानीय नाम चाणक्य (चणकावासी) और गोत्रनाम कौटिल्य (कुटिल से) था। ये चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री थे। इन्होंने 'अर्थशास्त्र' नामक एक ग्रन्थ की रचना की, जो तत्कालीन राजनीति, अर्थनीति, इतिहास, आचरण शास्त्र, धर्म आदि पर भली भाँति प्रकाश डालता है। 'अर्थशास्त्र' मौर्य काल के समाज का दर्पण है, जिसमें समाज के स्वरूप को सर्वाङ्ग देखा जा सकता है। अर्थशास्त्र से धार्मिक जीवन पर भी काफी प्रकाश पड़ता है। उस समय बहुत से देवताओं तथा देवियों की पूजा होती थी। न केवल बड़े देवता-देवी अपितु यक्ष, गन्धर्व, पर्वत, नदी, वृक्ष, अग्नि, पक्षी, सर्प, गाय आदि की भी पूजा होती थी। महामारी, पशुरोग, भूत, अग्नि, बाढ़, सूखा, अकाल आदि से बचने के लिए भी बहुतेरे धार्मिक कृत्य किये जाते थे। अनेक उत्सव, जादू टोने आदि का भी प्रचार था। कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार राजा का मुख्य कर्तव्य था प्रजा द्वारा वर्णाश्रम धर्म और नैतिक आचरण का पालन कराना। दे० 'अर्थशास्त्र'।

कौतिकव्रत : इसमें नौ वस्तुओं के उपयोग का विधान है, यथा दूर्वा, अंकुरित यव, बालक नामक पौधा, आम्रदल, दो प्रकार की हल्दी, सरसों, मोर के पंख तथा साँप की केंचुल। विवाह के समय उपर्युक्त वस्तुएँ वर-वधु के कङ्कण में बाँधी जाती हैं। दे० हेमाद्रि, 1.49; व्रतराज, 16। कालिदास कृत रघुवंश के अष्टम सर्ग के प्रथम श्लोक में 'विवाहकौतुक' शब्द आया है। ये सभी मांगलिक वस्तुएँ हैं तथा अनुराग, काम और सर्जन क्रिया को इंगित करती हैं।

कौमुदी : संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थों में कौमुदी का प्रचार अधिक देखा जाता है। इसके तीन संस्करण हैं--सिद्धान्त, मध्य एवं लघु। भट्टोजिदीक्षित ने 'सिद्धान्तकौमुदी' लिखी जिसके प्रचार से अष्टाध्यायी की पठनप्रणाली उठ सी गयी। सिद्धीन्तकौमुदी पर भट्टोजिदीक्षित ने ही 'प्रौढमनोरमा' नाम की टीका लिखी। मध्यकौमुदी एवं लघुकौमुदी वरदराज ने लिखी। कौमुदी पाणिनिसूत्रों पर ही अवलम्बित है। संस्कृत भाषा के अध्ययन में यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। कहावत है "कौमुदी कण्ठलग्ना चेद् वृथा भाष्ये परिश्रमः।"

कौमुदीव्रत : आश्विन शुक्ल एकादशी से यह व्रत किया जाता है। उपवास तथा जागरण का इसमें विधान है। द्वादशी को विभिन्न प्रकार के कमलों से वासुदेव की पूजा की जाती है। वैष्णवों द्वारा त्रयोदशी को यात्रोत्सव, चतुर्दशी को उपवास तथा पूर्णिमा को वासुदेव की पूजा की जाती है। 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र के जप का इसमें विशेष महत्त्व है। हेमाद्रि के अनुसार इस व्रत को भगवान् विष्णु के जागरण तक अर्थात् कार्तिक शुक्ल एकादशी तक जारी रखना चाहिए।

कौरष्य : एक शैव संप्रदायाचार्य। शिव के लकुलीश (संन्यासी रूप में शिव) अवतार के चार शिष्य थे--कुशिक, गार्ग्य, मित्र (मैत्रेय) एवं कौरष्य। इन्होंने चार उपसम्प्रदायों की स्थापनी की।

कौर्म उपपुराण : यह उन्तीस उपपुराणों में से एक उपपुराण है।

कौल : शाक्तों के वाममार्गी संप्रदाय में कौल एक शाखा है। इसका आधारभूत साहित्य है कौलोपनिषद् तथा परशुरामभार्गवसूत्र। दूसरे ग्रन्थ में कौल प्रणाली की सभी शाखाओं का सम्पूर्ण विवरण है। दिव्य, घोर और पशु इन तीन भावों में से दिव्य भाव में लीन ब्रह्मज्ञानी को 'कौल' कहते हैं। कुलार्णवतन्त्र में 'कौल' की निम्नांकित परिभाषा पायी जाती है :

दिव्यभावरतः कौलः सर्वत्र समदर्शन।'

[दिव्य भाव में रत, सर्वत्र समान रूप से देखनेवाला 'कौल' होता है।] महानीलतन्त्र में कथन है :

पशोर्वक्त्राल्लब्धामन्त्रः पशुरेव न संशयः। वीराल्लब्धमनुर्वीरः कौलाच्च ब्रह्मविद् भवेत्॥

[पशु के मुख से मन्त्र प्राप्त कर मनुष्य निश्चय ही पशु रहता है, वीर से मन्त्र पाकर वीर और कौल के मुख से मन्त्र पाकर ब्रह्मज्ञानी होता है।] दे० 'कौलाचार'।

कौलाचार : तान्त्रिक गण सात प्रकार के आचारों में विभक्त हैं। कुलार्णवतन्त्र के अनुसार वेद, वैष्णव, शैव, दक्षिण, वाम, सिद्धान्त एवं कौल ये सात आचार हैं। कौलाचार सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। किन्तु प्रथम तीन अन्तिम चार की निन्दा भी करते हैं। प्रत्येक आचार के अनेक तन्त्र हैं। तन्त्रों में कौलाचार का वर्णन इस प्रकार है :

दिक्कालनियमो नास्ति तिथ्यादिनियमो न च। नियमो नास्ति देवेशि महामन्त्रस्य साधने॥ क्वचित् शिष्टः क्वचिद् भ्रष्टः क्वचिद् भूतपिशाचकः। नानावेशधराः कौला विचरन्ति महीतले॥ कर्दमे चन्दनेऽभिन्नं मित्रे शत्रौ तथा प्रिये। श्मशाने भवने देवि तथैव काञ्चने तृणे॥ न भेदो यस्य देवेशि स कौलः परिकीर्तितः॥ (नित्यातन्त्र)

[ देश एवं काल का नियम नहीं है, तिथि आदि का भी नियम नहीं है। हे देवेशि! महामन्त्र-साधन का भी नियम नहीं है। कभी शिष्ट, कभी भ्रष्ट और कभी भूत-पिशाच के समान, इस तरह नाना वेषधारी कौल महीतल पर विचरण करते हैं। कर्दम और चन्दन में, मित्र और शत्रु में, श्मशान और गृह में, स्वर्ण और तृण में जिनका भेदज्ञान नहीं, उन्हें ही 'कौल' कहा जा सकता है।]

कौलों के विषय में और भी कथन है :

अन्तः शाक्ता बहिः शैवाः सभामध्ये तु वैष्णवाः। नाना रूपधराः कौला विचरन्ति महीतले॥

[भीतर से शाक्त, बाहर से शैव, सभा में वैष्णव; नाना रूप धारण करके कौल लोग पृथ्वी पर विचरण करते हैं।]

कौलाचार में जो वस्तुएँ मूल में रूपकात्मक थीं वे आगे चलकर व्यवहार में अपने भौतिक रूप में प्रयुक्त होने लगीं। कौलों की साधना में पञ्चमकार (मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन) का उन्मुक्त प्रयोग होता है। इन पञ्च मकारों से जगदम्बिका का पूजन होता है। काली अथवा तारा का मन्त्र ग्रहण करके जो पञ्च मकार का सेवन नहीं करता वह कलियुग में पतित है; वह जप, होम आदि कार्यों में अनधिकारी होता है तथा मूर्ख कहलाता है। उसका पितृतर्पण श्वानमूत्र के समान है। काली और तारा का मन्त्र पाकर जो वीराचार नहीं करता वह शूद्रत्व को प्राप्त होता है। सुरा सभी कार्यों में प्रशस्त मानी जाती है। पृथ्वी में यह एक मात्र मुक्तिदायिनी समझी जाती है। इसका नाम ही तीर्थ है।

कौलोपनिषद् : कौलमार्ग (शाक्तों की एक शाखा) का यह आधारग्रन्थ है। यह संक्षिप्त ग्रन्थ है और सरल गद्य में संकेतों के साथ लिखा गया है। अतः पहेली के समान सरलता से समझ में न आने वाला है तथा इसका निर्देश अस्पष्ट है। इसका कथन है कि पूजा-पाठ एवं यज्ञादि से मुक्ति नहीं मिलता। इसे प्राप्त करने के लिए सामाजिक परम्परा से चले आ रहे अन्धविश्वासी बन्धनों से मुक्ति पानी चाहिए। कौल धर्म वीरों का मार्ग है, कायरों का नहीं।

कौशाम्बी : प्राचीन प्रसिद्ध वत्स जनपद की राजधानी, जो प्रयोग से दक्षिण है। इसका गौतम बुद्ध के जीवन तथा बौद्ध धर्म से घनिष्ठ सम्बन्ध था। यह इतिहासप्रसिद्ध राजा उदयन की राजधानी थी। इस स्थान का नाम अब कोसम है। यहाँ भूखनन से बहुत-सी मूर्तियाँ, स्थापत्य के भग्न खण्ड और अन्य वस्तुएँ निकली हैं। यह जैनों का भी तीर्थस्थल है।

वाल्मीकिरामायण (1.32.5) के अनुसार कुशाम्ब नामक एक पौरव राजा ने इसकी स्थापना की थी :

कुशाम्बस्तु महातेजा कौशाम्बीमकरोत् पुरीम्।'

गंगा की बाढ़ से जब हस्तिनापुर नष्ट हो गया तो वहाँ से हटकर पौरव राज वत्स जनपद में आ गया था।

कौशिक : इन्द्र का एक नाम, जिसे कुशिकों से सम्बन्धित कहा गया है। विश्वामित्र को भी कौशिक (कुशिक के पत्र) कहते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् के प्रारम्भिक दो वंशों में कौशिक नामक आचार्य का नाम कौण्डिन्य के शिष्य के रूप में आया है। पुराणों में बतलाया गया है कि किस प्रकार इन्द्र ने राजा कुशिक की तपस्या से भयभीत होकर उसका पुत्रत्व स्वीकार किया। हरिवंश (27.13--16) में यह कथा इस प्रकार है :

कुशिकस्तु तपस्तेपे पुत्रमिन्द्रसमं विभुः। लभेयमिति तं शक्रस्त्रासादम्य़ेत्य जज्ञिवान्॥ पूर्णे वर्षसहस्रे वै तन्तु शक्रो ह्यपश्यत। अत्युग्रतपसं दृष्ट्वा सहस्राक्षः पुरन्दरः॥ समर्थ पुत्रजनने स्वमेवांशमवासयत्। पुत्रत्वे कल्पयामास स देवेन्द्रः सुरोत्तमः॥ स गाधिरभवद्राजा मघवान् कौशिकः स्वयम्॥

कौशिकसूत्र : यह अथर्ववेद से सम्बन्धित प्रथमतः गृह्यसूत्र है। इसमें ऐन्द्रजालिक उत्सवों का वर्णन भी विशद रूप से मिलता है तथा जो बातें अथर्ववेद में अस्पष्ट हैं वे सुस्पष्ट कर दी गयी हैं।

गोपथब्राह्मण के अनुसार अथर्ववेदसंहिता के पाँच सूत्रग्रन्थ हैं--कौशिकसूत्र, वैतानसूत्र, नक्षत्रकल्पसूत्र, आङ्गिरसकल्पसूत्र एवं शान्तिकल्पसूत्र। कौशिकसूत्र को ही 'संहिताविधिसूत्र' भी कहते हैं। बहुत से सूत्रग्रन्थों में अथर्ववेद के प्रतिपाद्य कर्मों का विधान अत्यन्त सूक्ष्म रूप से किया गया है, जिससे वे दुर्बोध हो गये हैं। इन्हें ही सुबोध कर देने के लिए कौशिकसूत्र का संग्रह हुआ है। कौशिकसूत्र में 1. स्थालीपाकविधान में दर्शपूर्णमास विधि 2. मेधाजनन 3. ब्रह्मचारीसम्पद् 4. ग्राम-दुर्ग-राष्ट्रादिलाभ विषय 5. पुत्र-पशु-धन-धान्य-प्रजा-स्त्री-करि-तुरगरथ-दोलकादि सर्वसम्पत्साधक समूह 6. मानवगण में ऐकमत्य सम्पादक सौमस्यादि विषयों का वर्णन है।

कौषीकाराम : आपस्तम्ब सूत्र के भाष्यकारों में से एक कौशिकाराम भी है।

कौषीतकि आरण्यक : वेद के चार भाग हैं-- संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद्। ऋग्वेद का यह आरण्यक भाग है। आरण्यकों में ऋषियों का निर्जन अरण्यों में रहकर ब्रह्मविद्या अध्ययन तथा उनके द्वारा अनेक गम्भीर अनुभूत विचार लोककल्याणार्थ दिये हुए हैं। कौषीतकि आरण्यक के तीन खंड हैं, जिनमें दो खंड प्रधान हैं, जो कर्मकांड से भरे पड़े हैं। तीसरा खंड कौषीतकि उपनिषद् कहलाता है। यह एक सारगर्भ उपादेय ग्रन्थ है। आनन्दमय धाम में कैसे प्रवेश किया जाय और उस आनन्द का उपभोग किस प्रकार किया जाय इस बात पर अनेक अध्यायों में विचार हुआ है। गृह्यकृत्य, पारिवारिक बन्धन आदि में बँधे हुए लोगों के मन के भीतर उस समय में अत्यन्त कोमल हृदय की वृत्तियों ने किस प्रकार विकास किया है, इसका बहुत ही सुन्दर चित्र दूसरे अध्याय में मिलता है। तीसरे अध्याय में ऐतिहासिक वृत्तान्त और इन्द्र के युद्धादि के उपाख्यान दिये गये हैं। चौथा अध्याय भी आख्यानों से भरा है। काशिराज वीरेन्द्रकेशरी ने एक ज्ञानी ब्राह्मण को जो उपदेश दिया था वह भी इस अध्याय में वर्णित है। इसमें भौगोलिक बातें भी हैं। हिमवान् और विन्ध्यादि पर्वतों के नाम और पहाड़ियों के नाम भी पाये जाते हैं। सायणाचार्य ने ऐतरेय एवं कौषीतकि दोनों आरण्यकों के भाष्य लिखे हैं।

कौषीतकि उपनिषद् : ऋग्वेद के कौषीतकि नामक ब्राह्मण के इसी नाम वाले आरण्यक का तीसरा खण्ड 'कौषीतकि उपनिषद्' कहलाता है। विशेष विवरण के लिए दे० 'कौषीतकि आरण्यक'।

कौषीतकिब्राह्मण : ऋग्वेद की दो शाखाओं--ऐतरेय एवं कौषीतकि के इन्हीं नामों के दो ब्राह्मण हैं। कौषीतकि को शाङ्खायन भी कहते हैं। कृष्ण यजुर्वेद के ब्राह्मण भाग के अतिरिक्त सामान्ययज्ञादि विषयक महत्त्वपूर्ण छः ब्राह्मणग्रन्थ हैं। ये हैं--ऐतरेय; कौषीतकि, पञ्चविंश, तलवकार, तैत्तिरीय एवं शतपथ। कौषीतकि ब्राह्मण का अंग्रेजी अनुवाद प्रो० कीथ द्वारा एवं विश्लेषण डॉयसन द्वारा हुआ है।

क्रतुरत्नमाला : शाङ्खायन श्रौतसूत्र पर लिखा गया एक भाष्य क्रतुरत्नमाला के नाम से प्रसिद्ध है। इसके रचयिता श्रीपति के पुत्र विष्णु कहे जाते हैं।

क्रमदीपिका : केशव काश्मीरी निम्बार्कों के एक दिग्विजयी नेता, विद्वान् एवं भाष्यकार हो गये हैं। उनकी क्रम-दीपिका नामक पुस्तक यज्ञ, पूजार्चन आदि पर एक गौरवपूर्ण रचना है, जो गौतमीय तन्त्र की चुनी हुई सामग्रियों का संग्रह है। इसकी रचना 16वीं शती के प्रारम्भ में हुई थी।

क्रमपूजा : कृत्यरत्नाकर में (141-144, देवीपुराण से उद्धृत) लिखा है कि चैत्र शुक्ल पक्ष में दुर्गा का पूजन होना चाहिए। कुछ विशेष तिथियों तथा नक्षत्रों के अवसर पर इससे पुण्य, सुख, समृद्धि की प्राप्ति होती है।

क्रममुक्ति : क्रमशः मुक्ति प्राप्त करने का सिद्धान्त। इस विषय पर शङ्कर द्वारा वेदान्तसूत्र (3.3.29) पर व्याख्यान प्राप्त होता है। उनका कहना है कि देवयान और पितृयान दो मार्ग हैं। पितृयान जन्म-मरण का मार्ग है। देवयान से क्रममुक्ति का मार्ग प्रारम्भ होता है। परन्तु निर्गुण ब्रह्म का सर्वोच्च ज्ञान रखने वाले संत तो पहले ही ब्रह्म के साथ एकत्व की प्राप्ति कर चुकते हैं तथा उनके लिए किसी देवयान (देवपथ) पर चलने की आवश्यकता नहीं हैं। जो लोग केवल सगुण ब्रह्म का ही ज्ञान रखते हैं, वे इस पथ पर अग्रसर होते हैं। वे ब्रह्म को प्राप्त कर पुनः लौटते नहीं। सगुण ब्रह्म से एकत्व प्राप्त कर अन्त में पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने हैं। इस प्रतीक्षाकाल तथा अपूर्ण ज्ञान के काल में आत्मा को पूर्ण आनन्द एवं अजेय इच्छाशक्ति प्राप्त होती है (यही ऐश्वर्य कहलाता है)। जब वह सर्वोच्च प्रकाश के समीप पहुँचता है, उसे नया स्वरूप प्राप्त होता है तथा वास्तव में वह मुक्त हो जाता है। इसे 'क्रममुक्ति' का सिद्धान्त कहते हैं।

क्रमसंदर्भ : चैतन्य महाप्रभु के संप्रदाय में जीव गोस्वामी के रचे ग्रंथों का प्रमुख स्थान हैं। 'क्रमसंदर्भ' भागवत पुराण का उन्हीं के द्वारा संस्कृत में किया गया भाष्य है। रचना 1580-1610 ई० के मध्य की है। इस प्रकार की सैद्धांतिक रचनाओं के जीव गोस्वामीकृत छः निबन्ध हैं, जिनकी भाषा अत्यन्त प्रौढ और प्रांजल है। ये 'षट्संदर्भ' वैष्णवों के आकर ग्रंथ (निधि) माने जाते हैं।

क्रवण : ऋग्वेद में एक स्थान (5.44.9) पर उल्लिखित यह शब्द लुडविग के मत से एक होता (पुरोहित) का नाम है। राथ इसे विशेषण मानकर 'कायर' अर्थ करते हैं। सायण इसका अर्थ 'पूजा करता हुआ' और ओल्डेनवर्ग इसका अर्थ अनिश्चित बताते हैं, किन्तु सम्भवतः वे इसका अर्थ 'बलिपशु का वधिक' लगाते हैं।

क्रव्याद : क्रव्य=कच्चा मांस+ अद= भक्षक अर्थात दानव। शव दहन करने वाले अग्नि का यह नाम है। महाभारत (1.6.7) में कथा है कि भृगु ने पुलोमा के अपहरण पर अग्नि को शाप दिया कि वह सर्वभक्षी हो जाय। सर्वभक्षी होने पर मांसादि सभी अमेध्य वस्तुओं को अग्नि को ग्रहण करना पड़ा। परन्तु प्रश्न यह उपस्थित हो गया कि अशुद्ध अग्निमुख से देव और पितर किस प्रकार आहुति ग्रहण करेंगे। देवताओं के अनुरोध से ब्रह्मा ने अपने प्रभाव को अग्नि पर प्रकट करते हुए अपने आहुत भाग को स्वीकार किया। इसके पश्चात् देव-पितरों ने भी अपना-अपना भाग अग्निमुख से लेना प्रारम्भ किया।

शान्तिकर्म आदि में क्रव्यादि अग्नि का अपसारण (दूरीकरण) ऋग्वेद (10.16.9) के मन्त्र से किया जाता है।

क्रिया : सृष्टि-विकास के प्रथम चरण को 'क्रिया' कहते हैं। प्रारंभिक सृष्टि की पहली अवस्था में शक्ति का जागरण दो चरणों में होता है--1. 'क्रिया' और 2. 'भूति' तथा उनके छः गुणों का विकास होता है।

शिक्षा, पूजा, चिकित्सा और सामान्य धार्मिक विधियों के लिए भी 'क्रिया' शब्द का प्रयोग होता है :

आरम्भो निष्कृतिः शिक्षा पूजानं सम्प्रधारणम्। उपायः कर्मचेष्टा च चिकित्सा च नवक्रियाः॥ (भावप्रकाश)

धर्मशास्त्र में व्यवहारपाद (न्यायविधि) का एक पादविशेष क्रिया कहलाता है। वह दो प्रकार की होती है--- मानुषी और देवी। प्रथम साक्ष्य, लेख्य और अनुमान भेद से तीन प्रकार की होती है। दूसरी घट, अग्नि, उदक, विष, कोष, तण्डुल, तप्तमाषक, फाल, धर्म भेदों से नौ प्रकार की होती है। दे० 'व्यवहरतत्त्व' में बृहस्पति।

क्रियापद : शैव आगमों के समान ही वैष्णव संहिताओं के चार भाग हैं--1. ज्ञानपाद, 2. योगपाद, 3. क्रियापद, और 4. चर्यापाद। क्रियापाद के अन्तर्गत मन्दिरों तथा मूर्तियों के निर्माण का विधान और वर्णन पाया जाता है।

धर्मशास्त्र में व्यवहार (न्याय) का तीसरा पाद क्रिया कहलाता है---

पूर्वपक्षः स्मृतः पादो द्वितीयश्चोत्तरः स्मृतः। क्रियापादस्तथा चान्यश्चतुर्थो निर्णयः स्मृतः॥ (बृहस्पति, व्यवहारतत्त्व)

[व्यवहार का प्रथम पाद पूर्वपक्ष, द्वितीय पाद उत्तर, तृतीय क्रियापाद और चतुर्थ निर्णयपाद कहलाता है।]

क्रियायोग : देवाराधन तथा उनके पूजन के लिए मन्दिर निर्माण आदि पुण्यकर्मों को क्रियायोग कहते हैं। अग्निपुराण के वैष्णव क्रियायोग के यमानुशासन अध्याय में इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है।

पातञ्जलि योगसूत्र के अनुसार तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान क्रियायोग के अन्तर्गत सम्मिलित हैं (तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानिक्रियायोगाः)।

क्रियासार : आगमिक शैवों में नीलकंठ रचित क्रियासार का व्यवहार अधिक होता है। यह श्रीकंठशिवाचार्य रचित शैव ब्रह्मसूत्रभाष्य का संक्षिप्त सार है। यह संस्कृत ग्रन्थ लिङ्गायती द्वारा प्रयुक्त होता है, जो सत्रहवीं शती की रचना है।

क्रुञ्च आङ्गिरस : सामवेद के क्रौञ्च नामक गान के ध्वनिकार ऋषि पञ्चविंश ब्राह्मण (13.9, 11, 20) में उक्त नाम यह सिद्ध करने के लिए दिया हुआ है कि साम के गानों का नाम स्वररचयिता के नामानुसार रखा गया है इस नियम के अनेक अपवाद भी मिलते हैं।

क्षत्र : राष्ट्र, शक्ति, सार्वभौमता। ऋग्वेद में इसका अर्थ शासक है (1.157.2; 8.35.17) तथा परवर्ती ग्रन्थों में भी यही अर्थ माना गया है। किन्तु ऋग्वेद में इसका आशय उस शासक (शासक जाति) से निश्चयपूर्वक नहीं है, जैसा परवर्ती ग्रन्थों में माना गया है। क्षत्रपति से सदा राजा का बोध हुआ है। आगे चलकर इसका इर्थ क्षत्रिय वर्ग ही प्रचलित हो गया। इसका शाब्दिक अर्थ है 'क्षत (आघात) से त्राण देनेवाला (रक्षा करनेवाला)' [क्षतात् त्रायते इति क्षत्त्रः]।

क्षत्री : संहिताओं एवं ब्राह्मणों में यह बहुप्रयुक्त शब्द है, जिसका अर्थ राजसेवकों में से एक सदस्य होता है। किन्तु अर्थ अनिश्चित है। ऋग्वेद (6.13.2) में इसका अर्थ वह देवता है, जो याजकों को अच्छी वस्तुएँ प्रदान करता है। अथर्ववेद (3.24, 7;5.17.4) तथा अन्य स्थानों में (शतपथ ब्राह्मण 14.5.4.6) तथा शां० श्रौ० सू० (169, 16) में यही अर्थ है। वाजसनेयीसंहिता में महीधर द्वारा इसका अर्थ द्वारपाल लगाया गया है। सायण ने इसका अर्थ अन्तःपुराध्यक्ष (शत० ब्रा० 5.3.1.7) लगाया है। दूसरे परिच्छेदों में इसे रथवाहक कहा गया है। बाद में क्षत्री शब्द से एक वर्णसंकर जाति का बोध होने लगा।

क्षत्रिय : संहिता तथा ब्राह्मणों में 'क्षत्रिय' समाज का एक प्रमुख अंग माना गया है, जो पुरोहित, प्रजा एवं सेवक (ब्राह्मण, वैश्य एवं शूद्र) से भिन्न है। राजन्य क्षत्रिय का पूर्ववर्ती शब्द है, किन्तु दोनों की व्युत्पत्ति एक है, (राजा सम्बन्धी अथवा राजकुल का)। वैदिक साहित्य में क्षत्रिय का प्रारम्भिक प्रयोग राज्याधिकारी या दैवी अधिकारी के अर्थ में हुआ है। पुरुषसूक्त (ऋ० वे० 10.90) के अनुसार राज्य (क्षत्रिय) विराट् पुरुष के बाहुओं से उत्पन्न हुआ है।

क्षत्रियों एवं ब्राह्मणों (ब्रह्म-क्षत्र) का सम्बन्ध सबसे समीपवर्ती था। वे एक दूसरे पर भरोसा रखते तथा एक दूसरे का आदर करते थे। एक के बिना दूसरे का काम नहीं चलता था। ऋषिजन राजाओं को अनुचित आचरण पर अपने प्रभाव से राज्यच्युत तक कर देते थे।

वैदिक काल में छोटे राज्यों के क्षत्रियों का मुख्य कर्त्तव्य युद्ध के लिए सदैव तत्पर रहना होता था। क्षत्रियों के प्रायः तीन वर्ग होते थे--(1) राजकुल, (2) प्रशासक वर्ग और (3) सैनिक। वे दार्शनिक भी होते थे, जैसे विदेह के जनक, जिन्हें ब्रह्मा कहा गया है। इस काल के और भी ज्ञानी क्षत्रिय थे, यथा, प्रवाहण जैवलि, अश्वपति कैकेय एवं अजातशत्रु। इन्होंने एक उपासना का नया मार्गचलाया, जिसका विकसित रूप भक्ति मार्ग है। राजऋषियों को राजन्यर्षि भी कहते थे। किन्तु यह साधारण क्षत्रिय का धर्म नहीं था। वे कृषि भी नहीं करते थे। शासन का कार्य एवं युद्ध ही उनका प्रिय आचरण था। उनकी शिक्षा का मुख्य विषय था युद्ध कला, धनुर्वेद तथा शासनव्यवस्था, यद्यपि साहित्य, दर्शन तथा धर्मविज्ञान में भी वे निष्णात होते थे।

जातकों में 'खत्तिय' शब्द आर्यराजन्यों के लिए व्यवहृत हुआ है जिन्होंने युद्धों में विजय दिलाने का कार्य किया, अथवा वे प्राचीन जातियों के वर्ग जो विजित होने पर भी राजसी अवस्थाओं का निर्वाह कर सके थे, क्षत्रिय कहलाते थे। रामायण-महाभारत में भी क्षत्रिय का यही अर्थ है, किन्तु जातकों के खत्तिय से इसके कुछ अधिक मूल्य हैं, अर्थात् सम्पूर्ण राजकार्य सैनिक वर्ग, सामन्त आदि। परन्तु जातक अथवा महाभारत किसी में क्षत्रिय का अर्थ सम्पूर्ण सैनिक वर्ग नहीं है। सेना में क्षत्रियों के सिवा अन्य वर्गों के पदाधिकारी (साधारण सैनिक से उच्च श्रेणी के) होते थे।

धर्मसूत्रों और स्मृतियों में क्षत्रिय की उत्पत्ति और कर्त्तव्यों का समुचित वर्णन है। मनु (1.31) ने पुरुषसूक्त के वर्णन को दुहराया है :

लोकानां तु विवृद्ध्यर्थ मुखबाहूरु पादतः। ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रञ्च निरवर्तयात्॥

[लोक की वृद्धि के लिए विराट् के मुख, बाहु, जंघा और पैरों से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र बनाये गये।] स्मृतियों के अनुसार क्षत्रिय का सामान्य धर्म पठन (अध्ययन), यजन (यज्ञ करना) और दान है। क्षत्रिय का विशिष्ट धर्म प्रजारक्षण, प्रजापालन तथा प्रजारञ्जन है। आपात् काल में वह वैश्यवृत्ति से अपना निर्वाह कर सकता है, किन्तु शूद्रवृत्ति उसे कभी स्वीकार नहीं करनी चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता (8.43) के अनुसार क्षत्रिय के निम्नांकित स्वाभाविक हैं :

शौर्य तेजो धृतिदक्ष्‍ियं युद्ध चाप्यपलायनम्। दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥

[शौर्य, तेज, धृति, दक्षता, युद्ध में अपलायन, दान और ऐश्वर्य स्वाभाविक क्षात्र कर्म हैं।]

श्रीमद्भागवत पुराण (द्वादश स्कन्ध, अ०1 और ब्रह्मवैवर्तपुराण (श्रीकृष्णजन्म खण्ड, 83 अध्याय) में क्षत्रिय के लक्षण और कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन पाया जाता है जो मनु आदि स्मृतियों से मिलता-जुलता है।

क्षपणक : जैन अथवा बौद्ध संन्यासी। जटाधर के अनुसार यह बुद्ध का ही एक प्रकार अथवा भेद है। क्षपणक प्रायः नग्न रहा करते थे। महाभारत (1.3.12) में क्षपणक का उल्लेख है :

सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणक मागच्छन्तम्।

क्षपावन : क्षपा= रात्रि में, अवन= रक्षक-- राजा। इस शब्द से राजा के एक महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य--रात्रि में रक्षण का ज्ञान होता है। रात्रि में निशाचरों, चोरों और हिंस्र जानवरों का भय अधिक होता है। इनसे प्रजा की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है। इसलिए उसका एक विरुद 'क्षपावन' है।

क्षीरधाराव्रत : दो मासों की प्रतिपदा तथा पञ्चमी के दिन व्रती को केवल दुग्धाहार करना चाहिए। इस प्रकार के आचरण से अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है। दे० लिङ्गपुराण, 83.6।

क्षीरधेनु : क्षीरधेनु का दान धार्मिक कृत्य है। दान के लिए क्षीर (दुग्धादि) से निर्मित गाय को क्षीरधेनु कहते हैं। वराहपुराण के श्वेतोपाख्यान के क्षीरधेनु महात्म्य नामक अध्याय में इसका वर्णन पाया जाता है।

क्षीरप्रतिपदा : वैशाख अथवा कार्तिक की प्रतिपदा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण होना चाहिए। ब्रह्मा इसके देवता हैं। निम्नांकित शब्दों का उच्चारण करते हुए व्रती को अपने सामर्थ्यानुसार दुग्ध समर्पित करना चाहिए : "ब्रह्मन् प्रसीदतु माम्।" कुछ धार्मिक ग्रन्थों के पाठ का भी इसमें विधान है।

क्षुद्रसूत्र : ऋचाओं को साम में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्र ग्रन्थ हैं। इनमें एक 'क्षुद्रसूत्र' भी है। इसमें तीन प्रपाठक हैं।

क्षुरिकोपनिषद् : योग सम्बन्धी उपनिषदों में से एक। इसमें योग की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। मनोविकारों को यह उपनिषद् (चिन्तन) छुरी की तरह काट देती है।

क्षेत्रपाल : खेत अथवा भूमिखण्ड का रक्षक देवता। गृहप्रवेश या शान्तिकर्मों में क्षेत्रपाल को बलि देकर प्रसन्न किया जाता है। सिन्दूर, दीपक, दही, भात आदि सजाकर चौराहे पर क्षेत्रपाल के लिए रखने की विधि है।

क्षेमराज : अभिनवगुप्त के शिष्य क्षेमराज का जन्म 11वीं शती में कश्मीर में हुआ। कश्मीरी शैवमत के आचार्यों में इनकी गणना होती है। इन्होंने वसुगुप्त रचित 'शिवसूत्र' पर 'शिवसूत्रविमर्शिनी नामक व्याख्या लिखी है।' इस ग्रन्थ में अनेकों आगमों के उद्धरण पाये जाते हैं।

क्षेमव्रत : चतुर्दशी के दिन यह व्रत किया जाता है। इसमें यक्ष-राक्षसों के पूजन का विधान है। दे० हेमाद्रि, 2.154। चतुर्दशी तिथि ऐसे ही प्राणियों के पूजनार्थ निश्चित है।

क्षौरकर्म : सामान्यतः क्षौरकर्म शारीरिक प्रसाधन है, जिसमें केश, दाढ़ी-मूँछ, नखों को कतर कर देह सजा दी जाती है। परन्तु व्रतों और संस्कारों में इसका धार्मिक महत्त्व भी है। व्रतादि में क्षौरकर्म न करने से दोष होता है :

व्रतानामुपवासानां श्रद्धादीनाञ्चं संयमे। न करोति क्षौरकर्म अशुचिः सर्वकर्मसु॥ (ब्रह्मवैवर्त, प्रकृतिखण्ड, 27 अध्याय)

[जो व्रत, उपवास, श्राद्ध, संयम आदि में क्षौरकर्म नहीं करता है वह सभी कर्मों में अपवित्र रहता है।] 'शुद्धितत्त्व' में क्षौर का विधान इस प्रकार है : 'केशश्मश्रुलोमनखानि वापयीत शिखावर्जम्'। [शिखा छोड़कर केश (सिर के बाल), दाढ़ी, रोयें और नख को कटाना चाहिए।] निम्नांकित तिथियों और कर्मों में क्षौर कर्म निषिद्ध है :

रोहिण्याञ्च विशाखायां मैत्रे चैवोत्तरासु च। मघायां कृत्तिकायाञ्च द्विजैः क्षौरं विसर्जितम्॥ कृत्वा तु मैथुनं क्षौरं यो दवान् तर्पये पितृन्। रुधिरं तद्भवेतोयं दाता च नरकं व्रजेत्॥ (ब्रह्मवैवर्तपुराण)

कर्मलोचन' नामक पद्धति में क्षौर कर्म सम्बन्धी और भी निषेध पाये जाते हैं :

नापितस्य गृहे क्षौरं शक्रादपि हरेत् श्रियम्। रवौ दुःख सुखं चन्द्रे कुजे मृत्युर्बुधे धनम्॥ मानं हन्ति गुरोर्वारे शुक्रे शुक्रक्षयो भवेत्। शनौ च सर्वदोषाः स्युः क्षौर मत्र विवर्जयेत्॥

[नापित के घर में जाकर क्षौरकर्म कराना इन्द्र की शोभा को भी हर लेता है। रविवार को क्षौरकर्म दुःख, चन्द्रवार को सुख, मंगल को मृत्यु, और बुध को धन उत्पन्न करता है। गुरुवार को मान का हनन करता है। शुक्र को क्षौरकर्म से शुक्रक्षय होता है। शनिवार को क्षौर से सभी दोष होते हैं, अतः इन दिनों में क्षौर वर्जित है।] किन्तु नट भाण, भृत्य, राजसेवक आदि के लिए तथा व्रत, तीर्थ आदि में निषेध नहीं है। भोजन के पश्चात् क्षौर नहीं कराना चाहिए। शिशु के प्रथम क्षौरकर्म को 'चूड़ाकरण' कहते हैं। दे० 'चूड़ाकरण'।

 : व्यञ्जन वर्णों के अन्तर्गत कवर्ग का द्वितीय अक्षर। वर्णाभिधानतन्त्र में इसका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है:

ख: प्रचण्डः कामरूपी शुद्धिर्वह्निः सरस्वती। आकाश इन्द्रियं दुर्गा चण्डी सन्तापिनी गुरुः॥ शिखण्डी दन्तों जातीशः कफोणिर्गरुडो गदी। शून्यं कपाली कल्याणी सूर्पकर्णोऽजरामरः॥ शुभाग्नेयश्चण्डलिंगे जनो झंकारखड्गकौ॥

वर्णोद्धारतन्त्र में इसका ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है :

बन्धूकपुष्पसंकाशां रत्नालङ्कारभूषिताम्। वराभयकरी नित्यां ईषद्हास्यमुखी पराम्। एवं ध्यात्वा खस्वरूपां तन्मन्त्रं दशधा जपेत्॥

मातृकान्यास में यह अक्षर बाहु में स्थापित किया जाता है।

ख के अर्थ हैं इन्द्रिय, शून्य, आकाश, सूर्य, परमात्मा।

खखोल्क : काशीपुरी में स्थित एक सूर्य देवता। इनका माहात्म्य काशीखण्ड में वर्णित है।

काशीवासिजनानेकरूपपापक्षयंकरः........................। विनतादित्य इत्याख्यः खखोल्कस्तत्र संस्थितः.। काश्यां पैलंगिले तीर्थे खखोल्कस्य विलोकनात्। नरश्चिन्तितमाप्नोति नीरोगो जायते क्षणात्॥

कहते हैं कि नागमाता कद्रू और गरुडमाता विनता (दोनों सौतें) लड़ती हुई सूर्य की ओर गयीं तो कद्रू ने घबड़ाहट में सूर्य को उल्का समझा और 'ख, ख, उल्का' ऐसा कह दिया। विनता ने इसी को सूर्य का नाम मानकर प्रतिष्ठित कर दिया।

खगासन : खग= गरुड है आसन जिसका, विष्णु। विष्णु का आसन गरुड कैसे हुआ, इसका वर्णन महाभारत (1.33.12-18) में पाया जाता है:

तमुवाचाव्ययो देवो वरदोऽस्मीति खेचरम्। स वव्रे तव तिष्ठेयमुपरीत्यन्तरीक्षगः॥ उवाच चैनं भूयोऽपि नारायणमिदं वचः। अजरश्चामरश्च स्याममृतेन विनाप्यहम्॥ एवमस्तिवति तं विष्णुरुवाच विनतासुतम्। प्रतिगृह्य वरौ तौ च गरुडो विष्णुमब्रवीत्॥ भवतेऽपि वरं दद्यां वृणोतु भगवानपिं। तं वव्रे वाहनं विष्णुर्गरुत्मन्तं महाबलम्॥ ध्वजञ्च चक्रे भगवानुपरि स्थास्यसीति तम्। एवमत्सिवति तं देवमुक्त्वा नारायणं खगः। वव्राज तरसा वेगाद् वायुं स्पर्द्धन् महाजवः॥

[भगवान् (विष्णु) ने आकाश में उड़ने वाले गरुड़ से कहा, मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। आकाशगामी गरुड़ ने वर माँगते हुए कहा, आपके ऊपर मैं बैठूँ। उसने फिर नारायण से यह वचन कहा, अमृत के विना मैं अजर और अमर हो जाऊँ। विष्णु ने गरुड़ से कहा, ऐसा ही हो। उन दोनों वरों को ग्रहण कर गरुड़ ने विष्णु से कहा, मैं आपको वर देना चाहूँगा, वरण कीजिए। विष्णु ने कहा, मैं तुम्हें वाहनरूप में ग्रहण करता हूँ। उन्होंने ध्वज बनाया और कहा, तुम इसके ऊपर स्थित होगे। गरुड़ ने भगवान् नारायण से कहा, ऐसा होगा। इसके पश्चात् अत्यन्त गति वाला गरुड़ वायु से स्पर्द्धा करता हुआ अत्यन्त वेग से प्रस्थान कर गया।] दे० 'विष्णु' और 'गरुड़'।

खगेन्द्र : खग (पक्षियों) का इन्द्र (राजा), गरुड़। महाभारत (1.31.31) में कथन है :

पतत्रिणाञ्च गरुड़ इन्द्रत्वेनाभ्यषिच्यत।'

[गरुड़ का पक्षियों के इन्द्र के रूप में अभिषेक हुआ।] दे० 'गरुड़'।

खजुराहो (खर्जूरवाह) : यह स्नान मध्य प्रदेश में छतरपुर के पास स्थित है। प्राचीन काल में चन्देल राजाओं की यहाँ राजधानी थी। अपने समय में यह तीर्थस्थल था। आर्य शैली (नागर शैली) के मन्दिरों में भारतीय वास्तुकला का सुन्दरतम विकास खजुराहो के मन्दिरों में पाया जाता है। इनका निर्माण चन्देल राजाओं के संरक्षण में 950 ई० से 1050 ई० के मध्य हुआ, जो संख्या में लगभग 30 हैं तथा वैष्णव, शैव और जैन मतों से सम्बन्धित हैं। प्रत्येक मन्दिर लगभग एक वर्गमील के क्षेत्रफल में स्थित है। कन्दरीय महादेव का मन्दिर इस समुदाय में सर्वश्रेष्ठ है। मन्दिरों में गर्भगृह, मण्डप, अर्द्धमण्डप, अन्तराल एवं महामण्डप पाये जाते हैं। गर्भगृह के चतुर्दिक् प्रदक्षिणापथ भी है। वैष्णव तथा शैव मन्दिरों की बाहरी दीवारों पर मिथुन मूर्तियों का अङ्कन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जो शिव-शक्ति के ऐक्य अथवा शिव-शक्ति के योग से सृष्टि की उत्पत्ति का प्रतीक है। यहाँ पर चौंसठ योगिनियों का एक मन्दिर भी था जो अब भग्नावस्था में है।

अध्यात्म उपदेश सम्बन्धी संस्कृत नाटक 'प्रबोधचन्द्रोदय' की रचना कृष्णमिश्र नामक एक ज्ञानी पंडित द्वारा यहीं पर 1065 ईं० में सम्पन्न हुई, जो कीर्तिवर्मा नामक चन्देल राजा की सभा में अभिनीत हुआ था। इस नाटक से तत्कालीन धार्मिक एवं दार्शनिक सम्प्रदायों पर प्रकाश पड़ता है। दे० 'प्रबोधचन्द्रोदय' तथा 'कृष्णमिश्र'।

खट्वाङ्ग : शिव का विशेष शस्त्र। इसकी आकृति खट्वा (चारपाई) के अङ्ग (पाये) के समान होती थी। यह दुर्लङ्गय और अमोघ होत है। महिम्नस्तोत्र में वर्णन है :

महोक्षः खट्वाङ्गं परशुजिनं भस्म फणिनः। कपालं चेतीयत्त्व वरद तन्त्रोपकरणम्।

[बूढ़ा बैल, खाट का पाया, फरसा, चमड़ा, राख, साँप और खोपड़ी---वरदाता प्रभु की यही साधनसामग्री है।]

एक इक्ष्वाकुवंशज राजर्षि, जो मृत्यु सन्निकट जानकर केवल घड़ी भर ध्यान करते हुए मोक्ष पा गये।

खङ्गधाराव्रत : दे० असिधाराव्रत, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 3.218.23-25।

खङ्गसप्तमी : वैशाख शुक्ल सप्तमी को गङ्गासप्तमी कहते हैं। इस व्रत में गंगापूजन होता है। कहा जाता है कि जह्नु ऋषि क्रोध में आकर गङ्गाजी को पी गये थे तथा इसी दिन उन्होंने अपने दाहिने कान से गङ्गाजी को बाहर निकाला था।

खण्डदेव : प्रसिद्ध मीमांसक विद्वान्। पूर्वमीमांसा के दार्शनिक ग्रन्थों में खण्डदेव (मृत्युकाल 1665 ई०) द्वारा रचित 'भट्टदीपिका' का बहुत सम्मानित स्थान है। इसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण इसकी तार्किकता है। यह ग्रन्थ कुमारिल भट्ट के सिद्धान्तों का पोषक है।

खदिर : यज्ञोपयोगी पवित्र वृक्ष। इसका यज्ञयूप (यज्ञस्तम्भ) बनता है। इसकी शाखाओं में छोटे-छोटे चने जैसे काँटे भरे रहते हैं और लकड़ी दृढ़ होती है। इसमें से कत्था भी निकलता है।

खण्डनकुठार : अद्वैत वेदान्तमत के उद्भट लेखक वाचस्पति मिश्र द्वारा रचित एक ग्रन्थ। वेदान्तब्रह्म सिद्धान्तों की इसमें तीव्र आलोचना की गयी है।

खण्डनखण्डखाद्य : वेदान्त का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ। पण्डित रत्न श्रीहर्ष कृत 'खण्डनखण्डखाद्य' का अन्य नाम 'अनिर्वचनीयतासर्वस्व' है। शङ्कराचार्य का मायावाद अनिर्वचनीय ख्याति के ऊपर ही अवलम्बित है। उनके सिद्धान्तानुसार कार्य और कारण भिन्न, अभिन्न अथवा भिन्नाभिन्न भी नहीं हैं, अपितु अनिर्वचनीय हैं। इस अनिर्वचनीयता के आधार पर ही कारण सत् है और कार्य मायामात्र है। श्रीहर्ष के खण्डनखण्डखाद्य में सब प्रकार के विपक्षों का बड़ी तीक्ष्णता के साथ खण्डन किया गया है तथा उनके सिद्धान्त का ही नहीं अपितु जिनके द्वारा वे सिद्ध होते हैं उन प्रत्यक्षादि प्रमाणों का भी खण्डन कर अद्वितीय, अप्रमेय एवं अखण्ड वस्तु की स्थापना की गयी है।

ग्रन्थ का शब्दार्थ है : 'खण्डनरूपी खाँड की मिठाई'।

खाकी साधु : दादूपन्थी साधुओं की पाँच श्रेणियाँ हैं। उनमें खाकी साधु भी एक हैं। ये भस्म लपेटे रहते हैं और भाँति भाँति की तपस्या करते हैं। भस्म अथवा खाक शरीर पर लपेटने के कारण ही ये खाकी कहलाते हैं।

दादूपन्थियों के अतिरिक्त शैव-वैष्णवों में भी ऐसे संन्यासी होते हैं।

खादिरगृह्यसूत्र : यह गृह्यसूत्र शुक्लयजुर्वेद का है। ओल्डेनवर्ग द्वारा इसका अंग्रेजी अनुवाद 'सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट', सिरीज में प्रस्तुत किया गया है। इसमें गृह्य संस्कारों और ऋतुयज्ञों का वर्णन पाया जाता है।

खाण्डकीय : यह कृष्ण यजुर्वेद का एक सम्प्रदाय है।

खाण्डववन : अग्नि के द्वारा खाण्डववन जलाने की कथा महाभारत की मुख्य कथा से सन्बन्धित है। राजा श्वेतकि के द्वादश वर्षीय यज्ञ में अग्नि ने घृत का बड़ी मात्रा में भोजन किया और इससे उनको अजीर्ण रोग हो गया। पश्चात् दूसरे यजमानों की यज्ञवस्तुओं के भक्षण हो गये तथा इस सम्बन्ध में उन्होंने ब्रह्मा से पार्थना की। ब्रह्मा ने अग्नि को खाण्डव वन जलाकर उसके ऐसे जन्तुओं का भक्षण करने की अनुमति दी, जो देवों को कष्ट पहुँचाते थे। अग्नि ने ब्राह्मण का वेष धारण कर अर्जुन एवं कृष्ण के पास जाकर खाण्डव वन को जलाने में सहायता माँगी, क्योंकि खाण्डव वन इन्द्र द्वारा सुरक्षित था। कृष्ण और अर्जुन ने होकर वन के दो सिरों पर खड़े पशुओं को वन से भागने से रोकते हुए इन्द्र को अग्नि के कार्य में बाधा देने से रोकने का कार्य सँभाला। इस प्रकार सारा वन जल गया। अग्नि पन्द्रह दिन तक प्रज्वलित रहा। कहा गया है कि अग्नि ने इसे एक बार और जलाया था। यह पौराणिक कथा प्रतीत होती है। इसके पीछे यह अर्थ स्पष्ट है कि पाण्डवों ने इस वन को जलाकर 'खाण्डवप्रस्थ' (इन्द्रप्रस्थ) नाम की अपनी राजधानी बसायी।

खशा : दक्ष की कन्या और कश्यप की एक पत्नी। गरुडपुराण (अध्याय 6) में इसका उल्लेख है :

धर्मपत्न्यः समाख्याताः कश्यपस्य वदाम्यहम्। अदितिर्दितिदर्नुः काला अनायुः सिंहिका मुनिः॥ कद्रुः प्राधा इरा क्रोधा विनता सुरभिः खशा॥

खालसा : सिक्ख धर्म की एक शाखा 'खालसा' (शुद्ध) कहलाती है। गुरु गोविन्दसिंह ने देखा कि उन्हें मुगलों से अवश्य लड़ना पड़ेगा। इस कारण उन्होंने एक ऐसा सैनिक दल तैयार किया, जिसको धार्मिक आधार प्राप्त हो। उन्होंने अपने सैनिकों को 'खड्ग दी पहुल' (खड्ग संस्कार) तथा अन्य अनेक प्रतिज्ञाओं के पालन करने के लिए तैयार किया। इन प्रतिज्ञाओं में पाँच वस्तुओं (केश, कच्छा, कृपाण, कड़ा तथा कंघा) का धारण, नियमित ईश्वराराधना, एक साथ भोजन करना तथा मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, सती होने, शिशुवध, तम्बाकू एवं मादक द्रव्यों के सेवन से दूर रहने की प्रतिज्ञाएँ थीं। हर एक की उपाधि 'सिंह' रखी गयी। इनमें जातिभेद न रहा और इस प्रकार ये खालसा (शुद्ध) कहलाये।

खिलपर्व : उन्तीस उपपुराणों के अतिरिक्त महाभारत का खिलपर्व, जिसे हरिवंश भी कहते हैं, उपपुराणों में गिना जाता है। इसमें विष्णु भगवान् के चरित्र का कीर्तन है और विशेष रूप से कृष्णावतार की कथा है।

खेचर : (आकाश में चलने वाले) विद्याधर। इन्हें कामरूपी भी कहते हैं, अर्थात् ये जैसा रूप चाहें धारण कर सकते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि आकाश में विचरण करने वाली यक्ष, गन्धर्व आदि कई देवयोनियाँ हैं, उन्हीं में विद्याधर भी हैं। पक्षी और नक्षत्र भी खेचर कहलाते हैं।

खेचरी : आकाशचारिणी, देवी। आकाश में चलने की एक सिद्धि, जो योगियों को प्राप्त होती है; हठयोग की एक मुद्रा (शारीरिक स्थिति), जिसमें जीभ को उलटकर तालुमूल में लगाते हैं। इसकी पहेली प्रसिद्ध है:

गोमांसं खादयेद् यस्तु पिबेदमरवारुणीम्। कुलीनं तमहं मन्ये चेतरे कुलघातकाः॥

खेमदास : महात्मा दादूदयाल (दादूपन्थ चलाने वाले) के एक शिष्य कवि खेमदास थे। इनके रचे हुए भजन या पद जनता में खूब प्रचलित हैं।

ख्याति : दार्शनिक सिद्धान्तवाद, यथा अनिर्वचनीय ख्याति, असत्ख्याति, सत्ख्याति आदि। सांख्यदर्शन के अनुसार अन्तिम ज्ञानरूपा वृत्ति। इस मत में तीन प्रकार के तत्त्व हैं-- (1) व्यक्त (2) अव्यक्त और ज्ञ। मूल प्रकृति को व्यक्त कहा जाता है। मूल प्रकृति के परिणाम को व्यक्त कहा जाता है। इसके तेईस भेद हैं जो कार्य-कारण परम्परा से परिणत होते हैं। ज्ञ चेतन है। सांख्यसिद्धान्त में ये पचीस तत्त्व अथवा प्रमेय हैं। इन्हीं तत्त्वों के सम्यक् ज्ञान अर्थात् प्रकृति-पुरुष के पार्थक्य के बोध से दुःख की निवृत्ति होती है। सांख्यकारिका (2) में कथन है :

व्यक्ताव्यक्त-ज्ञ-विज्ञानात्।'

[व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ के विज्ञान से दुःख निवृत्ति।] इस ज्ञान को ही ख्याति कहते हैं। परन्तु यह भी एक प्रकार की चित्तवृत्ति (अक्लिष्टा) का परिणाम है। रज और तम से रहित सत्त्वगुणप्रधान प्रशान्तवाहिनी प्रज्ञा ख्याति है। इसमें वृत्तिसंस्कार का चक्र बना रहता है। चित्तनिरोध की अवस्था में यह संस्काररूप से चलता रहता है। अभ्यास के द्वारा संस्कारों का भी क्षय होकर विदेह कैवल्य प्राप्त होता है, जिसमें ख्याति भी निवृत्ति हो जाती है। दे० शिशुपालवध (4.55)।

 : व्यञ्जनों के कवर्ग का तृतीय वर्ण। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है :

गकारं परमेशानि पञ्चदेवात्मकं सदा। निर्गुण त्रिगुणोपेतं निरीहं निर्मलं सदा॥ पञ्चप्राणमयं वर्णं सर्वशक्त्यात्मकं प्रिये॥ अरुणादित्यसंकाशां कुण्डलीं प्रणमाम्यहम्॥

[ हे परमेश्वरी देवी! ग वर्ण सदा पञ्चदेवात्मक है। तीन गुणों से संयुक्त होते हुए भी सदा निर्गुण, निरीह और निर्मल है। यह वर्ण पञ्च प्राणों से युक्त और सभी शक्तियों से संपन्न है। लालवर्ण सूर्य के समान शोभा वाले कुण्डलिनीशक्ति स्वरूप इस वर्ण को प्रणाम करता हूँ।]

वर्णोद्धारतन्त्र के अनुसार इसके ध्यान की विधि इस प्रकार है :

ध्यानमस्य प्रवक्ष्यामि श्रृणुष्व वरवर्णिनी। दाडिमीपुष्पसंकाशां चतुर्बाहुसमन्विताम्॥ रक्ताम्बरधरां नित्यां रत्नालङ्कारभूषिताम्। एवं ध्यात्वा ब्रह्मरूपां तन्मन्त्रं दशधा जपेत्॥

तन्त्रों में इसके निम्नलिखित नाम पाये जाते हैं :

गो-गौरी गौरवो गङ्गा गणेशो गोकुलेश्वरः। शार्ङ्गी पञ्चात्मको गाथा गन्धर्मवः सर्वगः स्मृतिः॥ सर्वसिद्धिः प्रभा धूम्रा द्विजाख्यः शिवदर्शनः। विश्वात्मा गौः पृथग्‍ग्‍रूप बालबन्धुस्त्रिलोचनः॥ गीतं सरस्वती विद्या भोगिनी नन्दिनी धरा। भोगवती च हृदयं ज्ञानं जालन्धरी लवः॥

गङ्गा : भारत की सर्वाधिक पवित्र पुण्यसलिला नदी। राजा भगीरथ तपस्या करके गङ्गा को पृथ्वी पर लाये थे। यह कथा भागवत पुराण में विस्तार से है। आदित्य पुराण के अनुसार पृथ्वी पर गङ्गावतरण वैशाख शुक्ल तृतीया को तथा हिमालय से गङ्गानिर्गमन ज्येष्ठ शुक्ल दशमी (गङ्गादशहरा) को हुआ था। इसको दशहरा इसलिए कहते हैं कि इस दिन का गङ्गास्नान दस पापों को हरता है। कई प्रमुख तीर्थस्थान-हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, सोरों, प्रयाग, काशी आदि इसी के तट पर स्थित हैं। ऋग्वेद के नदीसूक्त (10.75.5-6) के अनुसार गङ्गा भारत की कई प्रसिद्ध नदियों में से सर्वप्रथम है। महाभारत तथा पद्मपुराणादि में गङ्गा की महिमा तथा पवित्र करनेवाली शक्तियों की विस्तारपूर्वक प्रशंसा की गयी है। स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (अध्याय 29) में इसके सहस्र नामों का उल्लेख है। इसके भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों रूपों की ओर विद्वानों ने संकेत किये हैं। अतः गङ्गा का भौतिक रूपों की ओर विद्वानों ने संकेत किये हैं। अतः गङ्गा का भौतिक रूप के साथ एक पारमार्थिक रूप भी है। वनपर्व के अनुसार यद्यपि कुरुक्षेत्र में स्नान करके मनुष्य पुण्य को प्राप्त कर सकता है, पर कनखल और प्रयाग के स्नान में अपेक्षाकृत अधिक विशेषता है। प्रयाग के स्नान को सबसे अधिक पवित्र माना गया है। यदि कोई व्यक्ति सैकड़ों पाप करके भी गङ्गा (प्रयाग) में स्नान कर ले तो उसके सभी पाप धुल जाते हैं। इसमें स्नान करने या इसका जल पीने से पूर्वजों की सातवीं पीढ़ी तक पवित्र हो जाती है। गङ्गाजल मनुष्य की अस्थियों को जितनी ही देर तक स्पर्श करता है उसे उतनी ही अधिक स्वर्ग में प्रसन्नता या प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। जिन-जिन स्थानों से होकर गङ्गा बहती है उन स्थानों को इससे संबद्ध होने के कारण पूर्ण पवित्र माना गया है।

गीता (10.31) में भगवान् कृष्ण ने अपने को नदियों में गङ्गा कहा है। मनुस्मृति (8.92) में गङ्गा और कुरुक्षेत्र को सबसे अधिक पवित्र स्थान माना गया है। कुछ पुराणों में गङ्गा की तीन धाराओं का उल्लेख है--- स्वर्गङ्गा (मन्दाकिनी), भूगङ्गा (भागीरथी) और पातालगङ्गा (भोगवती)। पुराणों में भगवान् विष्णु के बायें चरण के अँगूठे के नख से गङ्गा का जन्म और भगवान् शङ्कर की जटाओं में उसका विलयन बताया गया है।

विष्णुपुराण (2.8.120-121) में लिखा है कि गङ्गा का नाम लेने, सुनने, उसे देखने, उसका जल पीने, स्पर्श करने, उसमें स्नान करने तथा सौ योजन से भी 'गङ्गा' नाम का उच्चारण करने मात्र से मनुष्य के तीन जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। भविष्यपुराण (पृष्ठ 9, 12 तथा 198) में भी यही कहा है। मत्स्य, गरुड और पद्मपुराणों के अनुसार हरिद्वार, प्रयाग और गङ्गा के समुद्र संगम में स्नान करने से मनुष्य मरने पर स्वर्ग पहुँच जाता है और फिर कभी उत्पन्न नहीं होता। उसे निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है। मनुष्य गङ्गा के महत्त्व को मानता हो या न मानता हो यदि वह गङ्गा के समीप लाया जाय और वहीं मृत्यु को प्राप्त हो तो भी वह स्वर्ग को जाता है और नरक नहीं देखता। वराहपुराण (अध्याय 82) में गङ्गा के नाम को 'गाम् गता' (जो पृथ्वी को चली गयी है) के रूप में विवेचित किया गया है।

पद्मपुराण (सृष्टिखँड, 60.35) के अनुसार गङ्गा सभी प्रकार के पतितों का उद्धार कर देती है। कहा जाता है कि गङ्गा में स्नान करते समय व्यक्ति को गङ्गा के सभी नामों का उच्चारण करना चाहिए। उसे जल तथा मिट्टी लेकर गङ्गा से याचना करनी चाहिए कि आप मेरे पापों को दूर कर तीनों लोकों का उत्तम मार्ग प्रशस्त करें। बुद्धिमान् व्यक्ति हाथ में दर्भ लेकर पितरों की सन्तुष्टि के लिए गङ्गा से प्रार्थना करे। इसके बाद उसे श्रद्धा के साथ सूर्य भगवान् को कमल के फूल तथा अक्षत इत्यादि समपर्ण करना चाहिए। उसे यह भी कहना चाहिए कि वे उसके दोषों को दूर करें।

काशीखण्ड (27.80) में कहा गया है कि जो लोग गङ्गा के तट पर खड़े होकर दूसरे तीर्थों की प्रशंसा करते हैं और अपने मन में उच्च विचार नहीं रखते, वे नरक में जाते हैं। काशीखण्ड (27.129-131) में यह भी कहा गया है कि शुक्ल प्रतिपदा को गङ्गास्नान नित्यस्नान से सौगुना, संक्रान्ति का स्नान सहस्रगुना, चन्द्र-सूर्यग्रहण का स्नान लाखगुना लाभदायक है। चन्द्रग्रहण सोमवार को तथा सूर्यग्रहण रविवार को पड़ने पर उस दिन का गङ्गास्नान असंख्यगुना पुण्यकारक है।

भविष्यपुराण में गङ्गा के निम्नांकित रूप का ध्यान करने का विधान है :

सितरमकरनिषण्णां शुक्लवर्णां त्रिनेत्राम् करधृतकमलोद्यत्सूत्पलाऽभीत्यभीष्टाम्। विधिहरिहररूपां सेन्दुकोटीरचूडाम्, कलितसितदुकूलां जाह्नवीं तां नमामि॥

गङ्गा के स्मरण और दर्शन का बहुत बड़ा फल बतलाया गया है :

दृष्टा तु हरते पापं स्पृष्टा तु त्रिदिवं नयेत्। प्रसङ्गेनापि या गङ्गा मोक्षदा त्ववगाहिता॥

गङ्गाजयन्ती : ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को गङ्गाजयन्ती मनायी जाती है। इस तिथि को गङ्गाशहरा भी कहते हैं। इस दिन गङ्गास्नान का विशेष महत्त्व है, क्योंकि इसी दिन हिमालय से गङ्गा का निर्गमन हुआ था। इस तिथि का गङ्गास्नान दसों प्रकार के पापों का हरण करता है। दस पापों में तीन मानसिक, तीन वाचिक और चार कायिक हैं।

गङ्गादास सेन : महाभारत ग्रन्थ को उड़िया भाषा में अनूदित करने वालों में गङ्गादास सेन भी एक हैं। उत्कल प्रदेश में इनका महाभारत बहुत लोकप्रिय है।

गङ्गाधर : शिव का एक पर्याय। शिवजी गङ्गा को अपने सिर पर धारण करते हैं, इसलिए इनका यह नाम पड़ा। वाल्मीकि रामायण (1.43.1-11) में शिव द्वारा गङ्गा धारण की कथा दी हुई है।

गङ्गाधर (भाष्यकार) : कात्यायनसूत्र (यजुर्वेदीय) के भाष्यकारों में गङ्गाधर का भी नाम उल्लेखनीय है।

गङ्गाधर (कवि) : ऐतिहासिक गया अभिलेख के रचयिता, जिनका समय 1137 ई० है। गङ्गाधर नामक गीतगोविन्दकार जयदेव के प्रतिस्पर्धी एक कवि भी थे।

गङ्गासागर : वह तीर्थ, जहाँ गङ्गा नदी सागर में मिलती है (गङ्गा और सागर का संगम)। सभी संगम पवित्र माने जाते हैं, यह संगम औरों से विशेष पवित्र है।

यात्री कलकत्ता से प्रायः जहाज द्वारा गंगासागर जाते हैं। कलकत्ता से 38 मील दक्षिण 'डायमण्ड हारबर' है, वहाँ से लगभग 90 मील गंगासागर के लिए नाव या जहाज द्वारा जाना होता है। द्वीप में थोड़े से साधु रहते हैं, वह अब वन से ढका तथा प्रायः जनहीन है। जहाँ गंगासागर का मेला होता है, वहाँ से उत्तर वामनखल स्थान में एक प्राचीन मन्दिर है। उसके पास चन्दनपीड़ि वन में एक जीर्ण मन्दिर और बुड-बुडीर तट पर विशालाक्षी का मन्दिर है। इस समय गङ्गासागर का मेला जहाँ लगता है पहले वहाँ पूरी गङ्गा समुद्र में मिलती थी। अब सागरद्वीप के पास एक छोटी धारा समुद्र में मिलती है। यहाँ कपिल मुनि का आश्रम था, जिनके शाप से राजा सगर के साठ हजार पुत्र जल गये थे और जिनको तारने के लिए भगीरथ गङ्गा को यहाँ लाये। संक्रान्ति के दिन समुद्र की प्रार्थना की जाती है, प्रसाद चढ़ाया जाता है और स्नान किया जाता है। दोपहर को फिर स्नान तथा मुण्डन कर्म होता है। श्राद्ध, पिण्डदान भी किया जाता है। मीठे जल का कच्चा सरोवर है जिसका जल पीकर लोग अपने को पवित्र मानते हैं।

गङ्गेश उपाध्याय : न्यायादर्शन के एक नवीन शैली प्रवर्तक आचार्य। इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ 'तत्त्वचिन्तामणि' त्रयोदश शताब्दी में रचा गया था। ये मिथिला के निवासी थे। जब मैथिलों ने नवद्वीप विद्यापीठ के पक्षधर पण्डित को उक्त ग्रन्थ की प्रतिलिपि नहीं करने दी, तब उन्होंने सुनकर ही उसे पूरा कण्ठस्थ कर लिया और नवद्वीप के प्रकाण्ड विद्वान् जगदीश तर्कालंकार, मथुरानाथ भट्टाचार्य आदि को पढ़ाकर नव्य न्याय का दिगन्त में प्रसार किया।

गङ्गोत्तरी : गङ्गाजी का उद्गम तो हिममण्डित गोमुख तीर्थ से हुआ है, किन्तु गंगोत्तरी धाम उससे 18 मील नीचे है। गंगोत्तरी में स्नान के पश्चात् गंगाजी का पूजन करके गंगाजल लेकर यात्री नीचे उतरते हैं। यह स्थान समुद्रस्तर से 10, 020 फुट की ऊँचाई पर गंगा के दक्षिण तट पर है। आस-पास देवदारु तथा चीड़ के वन हैं। यहाँ मुख्य मन्दिर गङ्गाजी का है। शीत काल में यह स्थान हिमाच्छादित हो जाता है। गङ्गोत्तरी से नीचे केदारगंगा का संगम है। वहाँ से एक फर्लांग पर बड़ी ऊँचाई से गंगाजी शिवाकार गोल शिलाखण्ड के ऊपर गिरती हैं। इस स्थान को गौरीकुण्ड कहते हैं।

गजच्छाया : ज्योतिष का एक योग। मिताक्षरापरिभाषा में इसका लक्षण दिया हुआ है:

यदेन्दुः पितृदैवत्ये हंसश्चैव करे स्थितः याम्या तिथिर्भवेत् सा हि गजच्छाया प्रकीर्तिता॥

[चन्द्र मघा में और सूर्य हस्त नक्षत्र (आश्विन कृष्ण 13) में हो तब गजच्छाया योग कहलाता है।] कृत्याचिन्तामणि के अनुसार यह योग श्राद्ध के लिए पुण्यकारक माना जाता है :

कृष्णपक्षे त्रयोदश्यां मघास्विन्दुः करे रविः। यदा तदा गजच्छाया श्राद्धे पुण्यैरवाप्यते॥

वराहपुराण के अनुसार चन्द्र-सूर्यग्रहणकाल को भी गजच्छाया योग कहते हैं :

सैंहिकेयो यदा भानुं ग्रसते पर्वसन्धिषु। गजच्छाया तु सा प्रोक्ता तत्र श्राद्धं प्रकल्पयेत्॥

गजच्छाया व्रत : आश्विन कृष्ण त्रयोदशी को यदि मघा नक्षत्र हो तथा सूर्य हस्त नक्षत्र पर हो तो इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह श्राद्ध का समय है। शातातप (हेमाद्रि, काल पर चतुर्वर्गचिन्तामणि) के अनुसार यदि इस अमावस को सूर्यग्रहण हो तो उसका गजच्छाया कहते हैं। इस समय का श्राद्ध अक्षय होता है।

गजनीराजनाविधि : आश्विन पूर्णिमा के दिन मध्याह्नोत्तर काल में गजों (हाथियों) के सामने लहरों में जलते हुए दीपकों को आवर्तित करने को गजनीराजनाविधि कहते हैं। यह राजाओं के लिए मांगलिक कृत्य माना जाता है।

गजपूजाविधि : आश्विन पूर्णिमा के दिन सुख-समृद्धि के अभिलाषियों के लिए इस व्रत का विधान है। दे० हेमाद्रि, 2.222-25। इसमें गज की पूजा होती है।

गजानन : गणेश का पर्याय। गणेश गजानन कैसे हुए यह कथा ब्रह्मवैवर्त (गणेशखण्ड, अध्याय 6) तथा स्कन्दपुराण (गणेशखण्ड, अध्याय 11) में विभिन्न रूपों में कही गयी है। ब्रह्मवैवर्त में कहा गया है :

शनिदृष्ट्या शिरश्छेदाद् गजवक्त्रेण योजितः। गजाननः शिशुस्तेन नियतिः केन बाध्यते॥

[शनिदेव की दृष्टि पड़ने से गणेशजी का मस्तक कट गया, तब हाथी का मस्तक लगा देने पर वे गजानन कहे गयो। भाग्य प्रबल है।] दे० 'गणेश'।

गजायुर्वेद : आयुर्वेद का यह एक पशुचिकित्सीय विभाग है। गाय, हाथी, घोड़े आदि पशुओं के सम्बन्ध में आयुर्वेद ग्रन्थ अवश्य रहे होंगे, क्योंकि अग्निपुराण (281-291 अध्याय तक) में इन विविध आयुर्वेंदों की चर्चा की गयी है। गजायुर्वेद में गज (हाथी) के प्रकार तथा तत्सम्बन्धी चिकित्सा का विस्तृत विधान है। 'शालोत्र' भी पशु चिकित्सा का प्रमुख ग्रन्थ है।

गढ़मुक्तेश्वर : मेरठ से 26 मील दक्षिण-पूर्व गङ्गा के दाहिने तट पर यह नगर है। यहाँ तक मोटर बसें जाती हैं। प्राचीन काल में विस्तृत हस्तिनापुर नगर का यह एक खण्ड था। यहाँ मुक्तेश्वर शिव का मन्दिर है। कई अन्य प्राचीन मन्दिर भी हैं। कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ विशाल मेला लगता है।

गण : गण का अर्थ 'समूह' है। रुद्र के अनुचरों को भी गण कहा गया है। कुछ देवता गण (समुदाय) रूप में प्रसिद्ध हैं :

आदित्य-विश्व-वसवः, तुषिताभास्वरानिलाः। महाराजिक-साध्याश्च रुद्राश्च गणदेवताः॥

[आदित्य (12), विश्वेदेव (10), वसु (8), तुषित, आभास्वर, मरुत (49), महाराजिक, साध्य और रुद्र (11) गणदेवता हैं।]

मरुतों के गण, इन्द्र और रुद्र दोनों के सैनिक हैं। ज्योतिषरत्नमाला में अश्विनी आदि जन्मनक्षत्रों के अनुसार, देव मानुष और राक्षस तीन गण माने गये हैं।

गणगौरीव्रत : चैत्र शुक्ल तृतीया को विशेष रूप से सधवा स्त्रियों के लिए गौरीपूजन का विधान है। कुछ लोग इसे गिरिगौरीव्रत कहते हैं। दे० अहल्याकामधेनु, पत्रात्मक 257। भारत के मध्य भाग, राजस्थान आदि में यह बहुत प्रचलित है।

गणपति (गणेश) : गणपति का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद (2.23.1) में मिलता है :

गणानां त्वा गणपति हवामहे कवि कवीनामुपश्रवस्तमम्। ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आनः श्रृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम्॥

शुक्ल यजुर्वेद के अश्वमेधाध्याय में भी गणपति शब्द आया है। ऐसा लगता है कि प्रारम्भिक गणराज्यों के गणपतियों के सम्बन्ध में जो भावना थी उसी के आधार पर देवमण्डल के गणपति की कल्पना की गयी। परन्तु यह शब्द देवताओं के एक विरुद के रूप में प्रयुक्त हुआ है, स्वतन्त्र देवता के रूप में नहीं। किन्तु रुद्र (वैदिक शिव) के गणों से गणपति का सम्बन्ध स्वतन्त्र देवता रूप में ही है।

पुराणों में रुद्र के मरुत् आदि असंख्य गण प्रसिद्ध हैं। इनके नायक अथवा पति को विनायक या गणपति कहते हैं। समस्त देवमण्डल के नायक भी गणपति ही हैं, यद्यपि शिवपरिवार से इनका सम्बन्ध बना हुआ है। डॉ० सम्पूर्णानन्द ने अपने ग्रन्थों-'गणेश' तथा 'हिन्दू देवपरिवार का विकास' में गणेश को आर्येतर देवता माना है, जिसका क्रमशः प्रवेश और आदर हिन्दू देवमण्डल में हो गया। बहुतेरे लोगों का कहना है कि हिन्दू लघु देवमण्डल, अर्धदेवयोनि तथा भूत-पिशाच परिवार में बहुत से आर्येतर तत्त्व मिलते हैं। परन्तु गणपति अथवा गणेश में आर्येतर तत्त्व ढूढ़ना कल्पना मात्र है। गणपति का सम्बन्ध प्रारम्भ से ही आर्य गणों, रुद्रगण तथा शिवपरिवार से है। उनकों विघ्‍नकारी और भयंकर गुण ऋक्थ में रुद्र से मिले हैं तथा सिद्धिकारी और माङ्गलिक गुण शिव से।

पुराणों में रूपकों की भरमार है इसलिए गणपति की उत्पत्ति और उनके विविध गुणों का आश्चर्यजनक रूपकों में अतिरंजित वर्णन है। अधिकांश कथाएँ ब्रह्मवैवर्तपुराण में पायी जाती हैं। गणपति कहीं शिव-पार्वती के पुत्र माने गये हैं और कहीं केवल पार्वती के ही। इनके विग्रह की कल्पना भी विचित्र है। इनका रक्त रंग अथवा मोटा शरीर और लम्बा उदर है। इनके चार हाथ और हाथी का सिर है, जिसमें एक ही दाँत हैं, इनके एक हाथ में शंख, दूसरे में चक्र, तीसरे में गदा अथवा अकुंश तथा चौथे में कुमुदिनी है। इनकी सवारी मूषक है।

गणेश के गजानन और एकदन्त होने के सम्बन्ध में पुराणों में अनेक कथाएँ दी हुई हैं। दे० 'गजानन'। एक कथा के अनुसार पार्वती को अपने शिशु गणेश पर बड़ा गर्व था। उन्होंने शनिग्रह से उसको देखने को कहा। शनि की दृष्टि पड़ते ही गणेश का सिर जलकर भस्म हो गया। पार्वती बहुत दुखी हुई। ब्रह्मा ने उनसे कहा कि जो भी प्रथम सिर मिंले उसको गणेश के ऊपर रख दिया जाय। पार्वती को सबसे पहले हाथी का ही सिर मिला, जिसको उन्होंने गणेश के ऊपर रख दिया। इस प्रकार गणेश गजानन हो गये। दूसरी कथा के अनुसार एक बार पार्वती स्नान करने गयीं और गणेश को दरवाजे पर बैठा गयीं। शिव आकर पार्वती के भवन में प्रवेश करना चाहते थे। गणेश ने रोका। शिव ने क्रोध में आकर गणेश का सिर काट दिया, परन्तु पार्वती को सन्तुष्ट करने के लिए हाथी का सिर लाकर गणेश के शरीर में जोड़ दिया। तीसरी कथा के अनुसार पार्वती ने स्वयं अपनी कल्पना से गणेश का सिर हाथी का बनाया। एकदन्त होने की कथा इस प्रकार है कि एक बार परशुराम कैलास में शिवजी से मिलने गये। पहरे पर बैठे गणेश ने उनको रोका दोनों में युद्ध हुआ। परशुराम के परशु (फर्से) से गणेश का एक दाँत टूट गया। ये सब कथाएँ काल्पनिक हैं। इनका प्रतीकात्मक अर्थ यह है कि गणपति का सिर हाथी के समान बड़ा होना चाहिए जो बुद्धिमानी और गम्भीरता का द्योतक है। इनके आयुध भी दण्डनायक के प्रतीक हैं। गणपति विघ्ननाशक, मंगल और ऋद्धि-सिद्धि के देने वाले, विद्या और बुद्धि के आगार हैं। प्रत्येक मङ्गलकार्य के प्रारम्भ में इनका आवाहन किया जाता है। प्रत्येक शिव मन्दिर में गणेश की मूर्ति पायी जाती है। गणेश के स्वतन्त्र मन्दिर दक्षिण में अधिक पाये जाते हैं। गणपति की पूजा का विस्तृत विधान है। इनकों मोदक (लड्डू) विशेष प्रिय है। गणेश की मूर्ति का ध्यान निम्नांकित है :

खर्वं स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरम्, प्रस्यन्दनमदगन्धलुब्धमधुपव्यालोलगण्डस्थलम्। दन्ताघातविदारितारिरुधिरैः सिन्दूरशोभाकरम्।

वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम॥ तन्त्रसार में एक दूसरा ध्यान वर्णित है :

सिन्दूराभं त्रिनेत्रं पृथुतरजठरं हस्तपद्मैर्दधानं, दन्तं पाशाङ्कुशेष्टान्युरुकरविलसद्बीजपूराभिरामम्। बालेन्दुद्योतिमौलिं करिपतिवदनं दानपूरार्द्रगण्डम्, भोगीन्द्राबद्धभूषं भजत गणपतिं रक्तवस्त्राङ्गरागम्॥ पूजापद्धति में गणपति नमस्कार की विधि इस प्रकार है:

देवेन्द्रमौलिमन्दरमकरन्दकणारुणाः। विघ्नं हरन्तु हेरम्बचरणाम्बुजरेणवः॥

राघवभट्ट कृत शारदातिलक की टीका के अनुसार इकावन (51) गणपति और उतनी ही उनकी शक्तियाँ हैं।

गणपति उपनिषद् : गाणपत्य साहित्य का उदय गणपतिपूजा से होता है। गणपति तापनीय उपनिषद् एवं गणपति उपनिषद् में गाणपत्य धर्म वा दर्शन प्राप्त होता है। गणपति उपनिषद् अथर्वशिरस् का ही एक भाग है। इसका अंग्रेजी अनुवाद केनेडी ने प्रस्तुत किया है।

गणपति-उपासना : महाभारत, अनुशासन पर्व के 151 वें अध्याय में गणेश्वरों और विनायकों का स्तुति से प्रसन्न हो जाना और पातकों से रक्षा करना वर्णित है। इस नाते गजानन एवं षडानन दोनों गणाधीश हैं और भगवान् शंकर के पुत्र हैं। परन्तु गजानन तो परात्पर ब्रह्म के अवतार माने जाते हैं औऱ परात्पर ब्रह्म का नाम `महागणाधिपति` कहा गया है। भाव यह है कि महागुणाधिपति ने ही अपनी इच्छा से अनन्त विश्व और प्रत्येक विश्व में अनन्त ब्रह्माण्डों की रचना की और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने अंश से त्रिमूर्तियाँ प्रकट कीं। इसी दृष्टि से सभा सम्प्रदायों के हिन्दुओं में सभी मंगल कार्यों के आरम्भ में गौरी-गणेश की पूजा सबसे पहले होती है। यात्रा के आरम्भ में गौरी-गणेश का स्मरण किया जाता है। पुस्तक, पत्र बही आदि किसी भी लेख के आरम्भ में पहले `श्री गणेशाय नमः` लिखने की पुरानी प्रथा चली आती है। महाराष्ट्र में गणपतिपूजा भाद्र शुक्ल चतुर्थी को बड़े समारोह से हुआ करती है और गणेशचतुर्थी के व्रत तो सारे भारत में मान्य हैं। गणपति विनायक के मन्दिर भी भारतव्यापी हैं और गणेशजी आदि अनादि देव माने जाते हैं। इन्हीं के नाम से गाणपत्य सम्प्रदाय प्रचलित हुआ।

गणपतिकुमारसम्प्रदाय : शङ्करदिग्विजय' में आनन्दगिरि औऱ धनपति ने गाणपत्य सम्प्रदाय की छः शाखाओं का वर्णन किया है। इनमें एक शाखा 'गणपतिकुमारसम्प्रदाय' है। इस सम्प्रदाय वाले हरिद्रा-गणपति को पूजते हैं। वे भी अपने उपास्य देव को परब्रह्म परमात्मा कहते हैं और ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के 23 वें सूक्त को प्रमाण मानते हैं। दे० 'गणपति'।

गणपतिचतुर्थी : भविष्यपुराण के अनुसार प्रत्येक चतुर्थी का व्रत गणपतिचतुर्थीव्रत कहलाता है। जब गणेश की पूजा भाद्र शुक्ल चतुर्थी को होती है तो इस तिथि को शिवाचतुर्थी, यदि माघ शुक्ल चतुर्थी को हो तो शान्ता चतुर्थी और यदि शुक्ल चतुर्थी को मंगल का दिन पड़े तो उसे सुखा चतुर्थी कहते थे। आजकल यह पूजा डेढ़ दिन, पाँच दिन, सात दिन अथवा अनन्तचतुर्दशी तक चलती है। अन्तिम दिन मूर्ति कूप, तालाब, नदी अथवा समुद्र में गाजे-बाजे के साथ विसर्जित की जाती है।

दो मास की चतुर्थियों के दिनों में व्रती को निराहार रहने का विधान है। उस दिन ब्राह्मण को तिल से बने पदार्थ खिलाने चाहिए। वही पदार्थ रात्रि में स्वयं भी खाने चाहिए। दे० हेमाद्रि, 1.519-520।

गणपतितापनीयोपनिषद् : नृसिंहतापनीयोपनिषद् की बहुग्राहकता वा प्रचार देख अन्य सम्प्रदायों ने भी इसी ढंग के उपनिषद्ग्रन्थ प्रस्तुत किये। राम, गणपति, गोपाल, त्रिपुरा आदि तापनीय उपनिषदें प्रस्तुत हुईँ। गणपतितापनीयोपनिषद् में गाणपत्य मत के दर्शन का विवेचन किया गया है।

गणेश उत्सव : महाराष्ट्र प्रदेश में यह उत्सव उसी उल्लास से मनाया जाता है जैसे बंगाल में दुर्गोत्सव, उड़ीसा में रथयात्रा तथा द्रविड देश में पोंगल मास। मध्ययुग में मराठा शक्ति के उदय के साथ गणेशपूजन का महत्त्व बढ़ा। उस समय गणेश (जननायक) की विशेष आवश्यकता थी। गणेश उसके धार्मिक प्रतीक थे। आधुनिक युग में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने इस उत्‍सव का पुरुद्धार किया। इसमें लगभग एक सप्ताह का कार्यक्रम बनता है। इसमें पूजन, कथा, व्याख्यान, मनोरञ्जन आदि का आयोजन किया जाता है। यह उत्सव बड़े सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय महत्त्व का है।

गणेश उपपुराण : गाणपत्य सम्प्रदाय का उपपुराण। इसमें भगवान् गणपति की अनेक कथाएँ दी गयी हैं।

गणेशकुण्ड : करवी स्टेशन से चित्रकूट जाते समय मार्ग में करवी संस्कृत पाठशाला मिलती है। यहाँ से लगभग ढाई मील दक्षिण-पूर्व पगडण्डी के रास्ते जाने पर गणेशकुण्ड नामक सरोवर तथा प्राचीन मन्दिर मिलते हैं। अब ये सरोवर तथा मन्दिर जीर्ण दशा में अरक्षित हैं।

गणेशखण्ड : ब्रह्मवैवर्तपुराण के चार खण्डों--ब्रह्मखण्ड, प्रकृतिखण्ड, गणेशखण्ड और कृष्णजन्मखण्ड में से एक। गणेशखण्ड में गणेश के जन्म, कर्म तथा चरित का विस्तृत वर्णन है। इसमें गणेश कृष्ण के अवतार के रूप में वर्णित हैं।

गणेशचतुर्थीव्रत : भाद्र शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण होना चाहिए। इसमें गणेशपूजन का विधान है। हेमाद्रि, 1.510 के अनुसार चतुर्थी के दिन गणेशपूजन का विधान वैश्वानरप्रतिपदा की तरह ही होना चाहिए। दे० 'गणपतिचतुर्थी'।

गणेशयामलतन्त्र : कुलचूडामणितनत्र में उद्धृत 64 तन्त्रों की सूची में आठ यामल तन्त्र सम्मिलित हैं। 'यामल' शब्द यमल (युग्म) से गठित है तथा विशेष देवता तथा उसकी शक्ति के ऐव्य का सूचक है। गणेशयामलतन्त्र उन आठों में से एक है।

गणेशस्तोत्र : वैष्णवसंहिताओं की तालिका में गणेशसंहिता का उल्लेख पाया जाता है, जो गाणपत्य सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। गणेशस्तोत्र इसी का एक अंश है, जिसमें गणेश की स्तुतियों का संग्रह है।

गणोद्देशदीपिका : यह चैतन्य सम्प्रदाय के आचार्य रूप गोस्वामी कृत 16वीं शती का एक संस्कृत ग्रन्थ है। इसमें चैतन्य महाप्रभु के साथियों को गोपियों का अवतार कहा गया है।

गण्डकी : हिमालय से प्रवाहित होनेवाली उत्तर भारत की एक प्रसिद्ध नदी। इसका प्राचीन नाम सदानीरा था। दूसरा नाम नारायणी भी है,क्योंकि इसके प्रवाहवेग द्वारा गोलाकार होनेवाले पाषाणखण्डों से नारायण (शालग्राम) निकलते हैं। परवर्ती स्मृतियों के अनुसार,

गण्डक्याश्चैकदेशे च शालग्रामस्थलं स्मृतम्। पाषाणं तद्भवं यत्तत् शालग्राममिति स्मृतम्॥

वराहपुराण (सोमेश्वरादि लिङ्गमहिमा, अविमुक्तक्षेत्र, त्रिवेण्यादिमहिमा नामाध्याय) में शालग्राम-उत्पत्ति का विस्तृत वर्णन पाया जाता है :

गण्डक्यापि पुरा तप्तं वर्षाणामयुतं विधो। शीर्णपर्णाशनं कृत्वा वायुभक्षाप्यनन्तरम्॥ दिव्यं वर्षशतं तेपे विष्णुं चिन्तयती सदा। ततः साक्षाज्जगन्नाथो हरिर्भक्तजनप्रियः॥ उवाच मधुरं वाक्यं प्रीतः प्रणतवत्सलः। गण्डकि त्वां प्रसन्नोऽस्मि तपसा विस्मितोऽनघे॥ अनविच्छिन्नया भक्त्या वरं वरय सुव्रते। ततो हिमांशो सा देवी गण्डकी लोकतारिणी॥ प्राञ्जलिः प्रणता भूत्वा मधुरं वाक्यमब्रवीत्। यदि देव प्रसन्नोऽसि देयो मे वांछितो वरः॥ मम गर्भगतो भूत्वा विष्णो मत्पुत्रतां व्रज। ततः प्रसन्नो भगवान् चिन्तयामास गोपते॥ गण्डकीमवदत् प्रीतः श्रृणु देवि वचो मम। शालग्रामशिलारूपी तव गर्भगतः सदा॥ तिष्ठामि तव पुत्रत्वे भक्तानुग्रहकारणात्। मत्सान्निध्याद् नदीनां त्वमतिश्रेष्ठा भविष्यसि॥ दर्शनात् स्पर्शनात् स्नानात् पानाच्चैवावगाहनात्। हरिष्यसि महापापं वाङ्गमनाःकायसम्भवम्॥

[गण्डकी ने दीर्घकाल तक विष्णु की आराधना की, विष्णु ने उसको दर्शन देकर वर माँगने को कहा। गंडकी ने वर माँगा कि आप मेरे गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ करें। भगवान् बोले कि शालग्राम शिलारूप में मैं तुमसे उत्पन्न होता रहूँगा; इससे तुम सभी नदियों में पवित्र एवं दर्शन-पान-स्नान से अमित पुण्यदायिनी हो जाओगी।]

गदाधर (भाष्यकार) : गदाधर ने कात्यायनसूत्र (यजुर्वेदीय) तथा पारस्करगृह्यसूत्र (यजु०) पर भाष्य लिखे हैं। पारस्करगृह्यसूत्र वाला गदाधर का भाष्य कर्मकाण्ड पर प्रमाण माना जाता है। भाष्य और निबन्ध का यह मिश्रण है।

गद्यत्रय : आचार्य रामानुजकृत एक ग्रन्थ, जिसकी टीका वेङ्कटनाथ ने लिखी है। इसमें विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त (तत्त्वत्रय, चित्-अचित-ईश्वर) का प्रतिपादन किया गया है।

गन्धव्रत : पूर्णिमा के दिन इस व्रत का आरम्भ होकर एक वर्षपर्यन्त आचरण होता है। पूर्णिमा को उपवास का विधान है। वर्ष की समाप्ति के पश्चात् सुगन्धित पदार्थों से निर्मित देवप्रतिमा किसी ब्राह्मण को दान की जाती है। दे० हेमाद्रि, 2.241।

गन्धर्व : यह अर्धदेव योनि है। स्वर्ग का गायक है। इसकी व्युत्पत्ति है : 'गन्ध' अर्थात् सङ्गीत, वाद्य आदि से उत्पन्न प्रमोद को 'अव' प्राप्त करता है जो। स्तुतिरूप तथा गीतरूप वाक्यों अथवा रश्मियों का धारण करने वाला गन्धर्व है। उसकी विद्या गान्धर्व विद्या वा गान्धर्व उपवेद है। गन्धर्व उन देववर्गों का नाम है जो नाचते, गाते और बजाते हैं। गीत, वाद्य और नृत्य तीनों का आनुषङ्गिक सम्बन्ध है। गाने का अनुसरण वाद्य करता है और वाद्य का नृत्य। साधारणतः लौकिक सङ्गीतशास्त्र के प्रवर्त्तक भरत समझे जाते हैं और दिव्य के भगवान् शङ्कर। परलोक में किन्नर, गन्धर्व आदि सङ्गीतकला का व्यवसाय करने वाले समझे जाते हैं। इनकी गणना शङ्कर के गणों में है।

जटाधर के अनुसार गन्धर्वों के निम्नलिखित भेद हैं :

हाहा हूहूश्चित्ररथो हंसो विश्वावसुस्तथा। गोमायुस्तुम्बुरुर्नन्दिरेवमाद्याश्च ते स्मृताः॥

अग्निपुराण के गणभेद नामक अध्याय में गन्धर्वों के ग्यारह गण अथवा वर्ग बताये गये हैं :

अभ्राजोऽङ्खारिवम्भारि सूर्यवध्रास्तथा कृधः। हस्तः सुहस्तः स्वाच्चेव मूद्धन्वांश्च महामनाः॥ विश्वासुः कृशानुश्च गन्धर्वैद्वादशा गणाः॥

शब्दार्थचिन्तामणि के अनुसार दिव्य और मर्त्य भेद से गन्धर्वों के दो भेद हैं। दिव्य गन्धर्व तो स्वर्ग और आकाश में रहते हैं, मर्त्य गन्धर्व पृथ्वी पर जन्म लेते हैं। दिव्य गन्धर्व का उल्लेख ऋग्वेद (10.139.:5) में मिलता है :

विश्वावसुरभि तन्नो गृणातु, दिव्यो गन्धर्वों रजसो विमानः।

इसी प्रकार महाभारत (3.161.26) में :

स तमास्थाय भगवान् राजराजो महारथम्। प्रययौ देवगन्धर्वैः स्तूयमानो महाद्युतिः॥ मर्त्य गन्धर्व की चर्चा इस प्रकार है :

अस्मिन् कल्पे मनुष्यः सन् पुण्यपाकबिशेषतः। गन्धर्वत्वं समापन्नो मर्त्यगन्धर्व उच्यते॥

स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में गन्धर्वलोक का सविस्तर वर्णन है। यह लोक गुह्यकलोक के ऊपर और विद्याधर लोक के नीचे है।

गन्धर्ववेद : शौनिक के चरणव्यूह के अनुसार सामवेद का उपवेद गन्धर्ववेद है। दे० 'उपवेद'। गन्धर्वसम्बन्धित सङ्गीतरूप कला अथवा विद्या जिससे जानी जाय वह गन्धर्ववेद है।

गन्धाष्टक : आठ सुगन्धित पदार्थों का समूह। सभी व्रतों में गन्ध से परिपूर्ण अष्ट द्रव्यों का सम्मिश्रण थोड़ी भिन्नता के साथ पृथक्-पृथक् देवताओं को अर्पित करनी चाहिए। देवताओं में शक्ति, विष्णु, शिव तथा गणेशादि की गणना है। 'शारदातिलक' के अनुसार देवताभेद से गन्धाष्टक निम्नलिखित प्रकार के हैं :

चन्दनागुरु-कर्पूर-चोर-कुङ्कुम-रोचनाः। जटामासी कपियुता शक्तेर्गन्धाष्टकं विदुः॥ चन्दनागुरु-ह्रीवेर-कुष्ठ-कुङ्कुम-सेव्यकाः। जटामांसी सुरमिति विष्णोर्गन्धाष्टकं विदुः॥ चन्दनागुरु-कर्पूर-तमाल-जलकुङ्कुमम्। कुशीदं कुष्ठसंयुक्तं शैवं गन्धाष्टकं शुभम्॥ स्वरूपं चन्दनं चोरं रोचनागुरुमेव च। मदं मृगद्वयोद्भूतं कस्तूरी चन्द्रसंयुतम्॥ गन्धाष्टकं विनिर्दिष्टं गणेशस्य महेशि तु॥

गया : हिन्दुओं के पितरों की श्राद्धभूमि। इसके ऐतिहासिक्, पौराणिक तथा शिल्पकला सम्बन्धी अवशेषों के वर्णन से ग्रन्थों के सैकड़ों पृष्ठ भरे पड़े हैं। किन्तु गया के सम्बन्ध में दिये गये प्राय: सभी मत कुछ न कुछ सीमा तक विवादास्पद हैं। गया के पुरोहित मध्वाचार्य द्वारा स्थापित वैष्णव सम्प्रदाय में आस्था रखते हैं औऱ प्रायः महन्तों का जैसा आचरण करते हैं। कहा जाता है कि गया भगवान् विष्णु का पवित्र स्थल है। परन्तु वनपर्व में यह संकेत है कि गया यम (धर्मराज), ब्रह्मा तथा शिव का भी एक प्रमुख पवित्र स्थान है।

वेदों और पुराणों में 'गया' शब्द विभिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न रूपों में प्रयुक्त हुआ है। गय नाम ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं के रचयिता के लिए प्रयुक्त हुआ है। वेदसंहिताओं में तो यह नाम असुरों और राक्षसों के लिए भी आया है। इनमें गयासुर का नाम उल्लेखनीय है। निरुक्त (12.19) में गयशिर नाम आया है, जिस पर भगवान् विष्णु पाँव रखते थे। महाभारत, विष्णुधर्मसूत्र तथा वामनपुराण (22.20) में गयशिर नाम के स्थल को ब्रह्मा की पूर्वी वेदी माना गया है और बौद्ध ग्रन्थों में भी यह नाम गया के प्रमुख स्थल के लिए आया है। अश्वघोष के बुद्धचरित से प्रकट है कि महात्मा बुद्ध एक राजर्षि के आश्रम (गया) में गये और वहाँ उन्होंने नयरंजना (निरंजना) नदी के तट पर अपना निवासस्थान बनाया। वहाँ यह भी बताया गया है कि बुद्धगया में वे कश्यप ऋषि के उरुबिल्व नामक आश्रम में गये थे, जहाँ उन्हें सम्बोधि की प्राप्ति हुई। विष्णुधर्मसूत्र (85.40) के अनुसार विष्णुपद गया में ही स्थित है। वह श्राद्ध के लिए सबसे पवित्र स्थल है। इसी प्रकार उससे यह भी पता चलता है कि 'समारोहण' नाम का भी कोई स्थल गया में फल्गु नदीं के तट पर स्थित है।

अनुशासनपर्व में अश्मपृष्ठ (प्रेतशिला), निरविन्द पर्वत तथा क्रौञ्चपदी तीनों को गया का पवित्र स्थल माना गया है, किन्तु वनपर्व में इनका उल्लेख नहीं है। फिर भी इनको वनपर्व में वर्णित विष्णुपद, गयशिर तथा समारोहण स्थलों से अतिरिक्त समझना चाहिए। अश्मपृष्ठ में पहली ब्रह्महत्या का अपराधी शुद्ध हो जाता है, निरविन्द पर दूसरी का तथा क्रौञ्चपदी पर तीसरी ब्रह्महत्या का अपराधी भी बिशुद्ध हो जाता है।

डा० कीलहार्न के अनुसार राजकुमार यक्षपाल ने भगवान् मौलादित्य तथा अन्य देवताओं की मूर्तियों कि लेए मन्दिर बनवाये। वहीं एक उत्तरमानस नामक पुष्कर अथवा झील का भी निर्माण कराया। उसने गया के अक्षयवट के पास एक सत्र (भोजनालय) भी बनवाया था। डा० वेणी माधव बरुआ के अनुसार पालशासक नयपाल के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उत्तर मानस का निर्माण 1040 ई० के आसपास हुआ था। इस प्रकार अनुमानतः गया का माहात्म्य 11वीं शताब्दी के बाद ही अधिक बढ़ा होगा। किन्तु वायुपुराण (77.108) से लगता है कि उत्तरमानस का निर्माण 8वीं या 9वीं शताब्दी तक अवश्य हो गया होगा। वस्तुतः गया का माहात्म्य कब से बढ़ा यब विवादास्पद प्रश्न है। महाभारत और स्मृतियाँ भिन्न-भिन्न मत मतान्तरों से युक्त हैं। वनपर्व (87) में यह उल्लेख है कि आठ पुत्रों में से यदि कोई एक भी गया जाकर पितृपिण्ड यज्ञ करे तो पितर लोग प्रतिष्ठित और कृतज्ञ होते हैं। उसमें आगे यह भी कहा गया है कि फल्गु नामक पवित्र नदी, गयशिर पर्वत तथा अक्षयवट ऐसे स्थल हैं जहाँ पितरों को पिण्ड दिया जाता है। गया में पूर्वजों या पितरों का श्राद्ध करने से पितृगण प्रसन्न होते हैं। फलतः उस व्यक्ति को भी जीवन में सुख मिलता है। अत्रिस्मृति (55.58) के अनुसार पुत्र अपने पितरों के हित के लिए ही गया जाता है और फल्गु नदी में स्नान करके उनको तर्पण करता है। इस सन्दर्भ में गया के गदाधर (विष्णु) और गयशिर का दर्शन उसके लिए आवश्यक है। लिखितस्मृति के अनुसार यदि कोई भी किसी व्यक्ति के नाम से गयशिर में पिण्डदान करे तो नरक में स्थित व्यक्ति स्वर्ग को और स्वर्गस्थित व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है। कूर्मपुराण में युक्ति तो यह है कि मनुष्य को कई संतानों की कामना करनी चाहिए जिससे उनमें से यदि कोई एक भी गया जाकर श्राद्ध करे तो पितरों को मुक्ति मिल जायेगी और वह स्वयं मोक्ष को प्राप्त होगा। मत्स्यपुराण (22.4.6) में गया को पितृतीर्थ कहा गया है।

गयामाहात्म्य : वायुपुराण में गयामाहात्म्य का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसके अन्तिम आठ अध्याय गया माहात्म्य पर ही हैं। यह अलग ग्रन्थ के रूप में भी प्रसिद्ध है, जो वायुपुराण से ही लिया गया है। दे० 'गया'।

गरीबदास : ये महात्मा (1717-82 ई०) छीड़ानी या चुरनी (रोहतक जिला) गाँव में रहते थे। इनके 'गुरुग्रन्थ' में 24000 पंक्तियाँ हैं। इनका सम्प्रदाय आज भी प्रचलित है, किन्तु इनका एक ही मठ है तथा साधारण जनता इनकी शिष्यता या सदस्यता नहीं प्राप्त कर सकती। इनके साधु केवल द्विज ही हो सकते हैं। इनके मतावलम्बियों को गरीबदासी कहते हैं। निर्गुण-निराकार-उपासक यह पंथ भी अनेक पंथों की तरह कबीरपंथ से प्रभावित है।

गरुड : एक पुराकल्पित पक्षी, जिसका आधा शरीर पक्षी और आधा मनुष्य का है। पुराणकथाओं में गरुड़ विष्णु के वाहन के रूप में वर्णित है। विष्णु सूर्य के ही सर्वव्यापी रूप हैं जो अनन्त आकाश का तीव्रता से चक्कर लगाते हैं। इसलिए इनके लिए एक शक्तिमान् और द्रुतगामी वाहन की आवश्यकता थी। विष्णु के वाहन के रूप में गरुड़ की कल्पना इसी का प्रतीक है। इस सम्बन्ध में उल्लेख करना अनुचित न होगा कि स्वयं सूर्य का सारथि अरुण (लालिमा) है, जो गरुड़ का अग्रज है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार गरुड़ दक्षकन्या विनता और कश्यप के पुत्र हैं, इसीलिए 'वैनतेय' कहलाते हैं। विनता का अपनी सपत्नी कद्रू से वैर था, जो सर्पों की माता है। अतः गरुड भी सर्पों के शत्रु हैं। गरुड़ जन्म से ही इतने तेजस्वी थे कि देवताओं ने अग्नि समझ कर उनका पूजन प्रारम्भ कर दिया। इनका सिर, पक्ष और चोंच तो पक्षी के हैं और शेष शरीर मानव का। इनका सिर श्वेत, पक्ष लाल और शरीर स्वर्ण वर्ण का है। इनकी पत्नी उन्नति अथवा विनायका है। इनके पुत्र का नाम सम्पाति है। ऐसा कहा जाता है कि अपनी माता विनता को कद्रू की अधीनता से मुक्त करने के लिए गरुड ने देवताओं से अमृत लेकर अपनी विमाता को देने का प्रयत्न किया था। इन्द्र को इसका पता लग गया। दोनों में युद्ध हुआ। इन्द्र को अमृत तो मिल गया, किन्तु युद्ध में उसका वज्र टूट गया। गरुड के अनेक नाम हैं, यथा काश्यपि (पिता से), वैनतेय (माता से), सुपर्ण गरुत्मान् आदि।

गरुडाग्रज : गरुड के बड़े भाई अरुण। महाभारत (1.31. 24--34) में अरुण के गरुडाग्रज होने की कथा दी हुई है।

गरुडोपनिषद् : एक अथर्ववेदीय उपनिषद्। इसमें विष निवारण की धार्मिक विधि है।

गरुड़पञ्चशती : वेदान्ताचार्य वेङ्कटनाथ द्वारा तिरुपाहिन्द्रपुर में रचित यह ग्रन्थ तमिल लिपि में लिखा गया है। इसमें भगवान् विष्णु के मुख्य पार्षद या वाहन गरुड की स्तुति की गयी है। इसमें भगवान् विष्णु के मुख्य पार्षद या वाहन गरुड की स्तुति की गयी है।

गरुडध्वज : विष्णु की ध्वजा में गरुड का चिह्न या आवास रहता है, इससे वे गरुडध्वज कहलाते हैं।

गरुडपुराण : गरुड और विष्णु का संवादरूप पुराण ग्रन्थ। नारदपुराण के पूर्वांश के 108वें अध्याय में गरुडपुराण की विषयसूची दी गयी है। मत्स्यपुराण के अनुसार गरुडपुराण में अठारह हजार श्लोक हैं और रेवामाहात्म्य, श्रीमद्भागवत, नारदपुराण तथा ब्रह्मवैवर्त्तपुराण के अनुसार यह संख्या उन्नीस हजार है। जो गरुडपुराण हिन्दी विश्वकोशकार श्री नगेन्द्रनाथ वसु को उपलब्ध हुआ था, उसकी उन्होंने (पूर्वखण्ड के दो सौ तैंतालीस अध्यायों की और उत्तरखण्ड की पैंतालीस अध्यायों की) सूची दी है। यह सूची नारदीय पुराण के लक्षणों से मिलती है परन्तु श्लोकसंख्या में न्यूनता है।

यह पुराण हिन्दुओं में बहुत लोकप्रिय है, विशेषकर अन्त्येष्टि के सम्बन्ध में इसके एक भाग को पुण्यप्रद समझा जाता है। इस पुराण भाग का श्रवण श्राद्धकर्म का एक अङ्ग माना जाता है। इसमें प्रेतकर्म, प्रेतयोनि, प्रेतश्राद्ध, यमलोक, यमयातना, नरक आदि विशेष रूप से वर्णित हैं।

त्रिवेणीस्तोत्र, पञ्चपर्वमहात्म्य, विष्णुधर्मोत्तर, वेङ्कटगिरिमाहात्म्य, श्रीरङ्गमाहात्म्य, सुन्दरपुरामाहात्म्य इत्यादि अनेक छोटे ग्रन्थ गरुडपुराण से उद्धृत बताये जाते हैं।

गरुडस्तम्भ : श्रीरङ्गम् शैली के विष्णुमन्दिरों में सभामण्डप के बाहर और भगवान् की दृष्टि के सम्मुख एक ऊँचा स्तम्भ बनाया जाता है। नीचे कोणों का उसका वप्र और नसेनी जैसा शिखर होता है। स्तम्भकाष्ठ पर धातु (प्रायः सोने) का पत्र चढ़ा रहता है। इस पर गरुड का आवास माना जाता है। हेलियोडोरस नामक यूनानी क्षत्रप द्वारा ईसापूर्व प्रथम शती में स्थापित बेसनगर का गरुडस्तम्भ इतिहास में बहुत विख्यात है।

गर्ग : एक ऋषि का नाम, जिनका उल्लेख किसी भी संहिता में नहीं पाया जाता किन्तु उनके वंशजों 'गर्गाः प्रावरेयाः' का काठक संहिता में उल्लेख है। कात्यायनसूत्र के भाष्यकार के रूप में गर्ग का नाम उल्लेखनीय है। ज्योतिष साहित्य में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। आगे चलकर गोत्र ऋषियों में गर्ग की गणना होने लगी।

यादवों के पुरोहित रूप में भी गर्गाचार्य प्रसिद्ध हैं।

गर्भ : जीव के सञ्चित कर्म के फलदाता ईश्वर के आदेशानुसार प्रकृति द्वारा माता के जठरगह्वर में पुरुष के शुक्रयोग से गर्भ स्थापित किया जाता है। गरुडपुराण (अ० 229) में गर्भस्थिति की प्रक्रिया लिखी हुई है।

गर्भाधान : यह स्मार्त गृह्य संस्कारों में से प्रथम संस्कार है। धार्मिक क्रिया के साथ पुरुष धर्मपत्नी के जठरगह्वर में वीर्य स्थापित करता है जो गर्भाधान कहा जाता है। शौनक (वीरमित्रोदय, संस्कारप्रकाश में उद्धृत) ने इसकी परिभाषा इस प्रकार दी है :

निषिक्तो यत्प्रयोगेण गर्भः संधार्यते स्त्रिया। तद्गर्भालम्भनं नाम कर्म प्रोक्तं मनीषिभिः॥

गर्भाधान के लिए उपयुक्त समय पत्नी के ऋतुस्नान की चौथी रात्री से लेकर सोलहवीं रात्रि तक है (मनुस्मृति, 3.2., याज्ञवल्क्यस्मृति, 1.79)। उत्तरोत्तर रात्रियाँ रजस्राव से दूर होने के कारण अधिक पवित्र मानी जाती हैं। गर्भाधान रात्रि में होना चाहिए, वह दिन में निषिद्ध है (आश्वलायनस्मृति)। एक आथर्वणिक श्रुति में निषेध का यह कारण दिया हुआ है :

नार्तवे दिवा मैथुनमर्जयेत्। अल्पभाग्या अल्पीर्याश्च दिवा प्रसूयन्तेऽल्पायुषश्च।

[ऋतुकाल और दिन में स्त्रीसंग नहीं करना चाहिए। इससे अल्पभाग्य, अल्पवीर्य और अल्पायु बालक उत्पन्न होते हैं।]

गर्भाधान की रात्रिसंख्या के अनुसार सन्तति का लिङ्ग निश्चित माना जाता है (मनुस्मृति, 2.48। परन्तु मनुस्मृति (3.49) के अनुसार सन्तति के लिङ्ग में माता पिता के रक्त-वीर्य का आधिक्य भी कारण होता है। मास की तिथियों में 8,14,15,30 और सम्पूर्ण पर्व गर्भाधान के लिए निषिद्ध हैं। गर्भाधान संस्कार पति ही कर सकता है। प्राचीन काल में पति के अभाव अथवा असमर्थता में देवर अथवा नियोगप्रथा के अनुसार कोई नियुक्त व्यक्ति भी ऐसा कर सकता था (दे० 'नियोग')। परन्तु कलियुग में नियोग वर्जित है।

गर्भाधान तभी तक अनिवार्य है जब तक पुत्र न उत्पन्न हो; इसके पश्चात् गर्भाधान में विकल्प है:

ऋतुकालाभिगामी स्याद्यावत्पुत्रोऽभिजायते। ज्येष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः। पितृणामनृणश्चैव स तस्मात्सर्वमर्हति॥

निश्चित मांगलिक धर्मकृत्य के पश्चात् पति द्वारा पत्नी का आलिङ्गन करके निम्नलिखित मन्त्रों से गर्भाधान करने का विधान है :

अहमस्मि सा त्‍वं द्यौरहं पृथ्वी त्वं, रेतोऽहं रेतोभृत् त्वम्। (बौ० गृ० मू० 1.7.1-18)

(यह में हूँ। वह तुम हो। मैं आकाश हूँ। तुम पृथ्वी हो। मैं रेतस् हूँ। तुम रेतस् को धारण करने वाली हो।]

तां पूषन् शिवतमामेरयस्व, यस्यां बीजं मनुष्या वपन्ति। या न ऊरु उशती विशु याति, यस्यामुशन्तः प्रहराम शेपम्॥ (ऋग्वेद, 10.85.37)

गर्भिणीधर्म : धर्मशास्त्र में गर्भिणी स्त्री के विशेष धर्म का विधान किया गया है। पद्मपुराण (5.7.41-47) तथा मत्स्यपुराण में कश्यप तथा अदिति के संवादरूप में गर्भिणी के निम्नांकित कर्तव्य बतलाये गये हैं :

गर्भिणी कुञ्जराश्वादि-शैल-हर्म्यादिरोहणम्। व्यायामं शीघ्रगमनं शकटारोहणं त्यजेत्॥ शोकं रक्तविमोक्षञ्च साध्वसं कुक्कुटासन्म। व्यावाञ्च दिवास्वप्नं रात्रौ जागरणं त्यजेत्॥

[गर्भिणी को हाथी, घोड़े, पर्वत अट्टालिका आदि पर चढ़ना, व्यायाम, शीघ्रगमन, बैलगाड़ी-रोहण का त्याग करना चाहिए। इसी प्रकार शोक, रक्तोत्सर्ग, शीघ्रता से कुक्कुटासन से बैठना, अधिक श्रम, दिन में सोना, रात्रि में जागरण आदि का त्याग करना चाहिए]

स्कन्दपुराण (मदनरत्न में उद्धृत) के अनुसार :

हरिद्रां कुङ्कुमञ्चैव सिन्दूरं कज्जलं तथा। कूर्पासकञ्च ताम्बूलं माङ्गल्याभरण शुभम्॥ केश संस्कारकवरीकरकर्ण विभूषणम्। भर्तुरायुष्यमिच्छन्ती वर्जयेद् गर्भिणी नहि॥

[हल्दी, कुंकुम, सिन्दूर, काजल, कूर्पास, पान, सुहागवस्तु, आभूषण, वेणी-केशसंस्कार को पति की मंगलकामना के लिए पत्नी अवश्य धारण करे।]

गर्भिणीधर्म के साथ-साथ गर्भिणीपति के धर्म का भी विधान पाया जाता है :

वपनं मैथुनं तीर्थं वर्जयेद् गर्भिणीपतिः। श्राद्धञ्च सप्तमान्मासादूर्ध्वं चान्यत्र वेदवित्॥ क्षौरं शवानुगमनं नखकृन्तव्य, युद्धं च वास्तुकरणं त्वतिदूरयानम्, आयुःक्षयो भवति गर्भिणिकापतीनाम्॥ (कलिविधान)

[मुण्डन, संभोग, यात्रा, श्राद्धकर्म गर्भ के सातवें महीने से न करना चाहिए। क्षौर, श्मशान जाना, नख केश काटना, युद्ध, निर्माण, दूरयात्रा, विवाह, समुद्रयात्रा--इन्हें भी नहीं करना श्रेयस्कर है।]

गवाक्षतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उल्लिखित चौसठ तन्त्रों की सूची में 'गवाक्षतन्त्र' का 46वाँ स्थान है।

गवार्युवेद : आयुर्वेद के कई विभागों में गवायुर्वेद भी एक है। यह गायों की चिकित्सा के सम्बन्ध में है। गाय का आधार लेकर प्रायः सभी पालतू पशुओं की चिकित्सा का विज्ञान इस शास्त्र में प्राप्त होता है।

गवाशिर : गवाशिर' का ऋग्वेद (1.137.1;187,9;2.41.3;3.32.2;42.1,7;7.52.10;101.10) में अनेक बार सोम के पर्याय के रूप में वर्णन हुआ है।

गहवर (गह्वर) वन : यह व्रजयात्रा के प्रमुख स्थलों में बहुत ही रमणीक वन है। शंख का चिह्न, महाप्रभु वल्लभाचार्य की बैठक, दानघाटी तथा गाय के स्तनों का चिह्न आदि यहाँ के मुख्य दर्शनीय स्थान हैं। यहाँ जयपुर के महाराज माधवसिंह का बनवाया हुआ विशाल एवं भव्य मन्दिर है। इसमें पत्थर की शिल्पकला देखने योग्य है।

गहिनीनाथ : नाथ सम्प्रदाय के नौ नाथ प्रसिद्ध हैं। गहिनीनाथ इनमें चतुर्थ हैं।

गाजीदास : निर्गुणधारा के सुधारक पन्थों में सतनामी पन्थ उल्लेखनीय है। इस पन्थ का प्रारम्भ किसने कब किया, इसका ठीक पता नहीं है। इसके पुनरुद्धारकों में महात्मा जगजीवन दास (सं० 1800), उनके शिष्य दूलनदास तथा कुछ काल पीछे गाजीदास हुए। गाजीदास छत्तीसगढ़ के चमार जाति के थे। आज से लगभग सौ सवा सौ वर्ष पहले इन्होंने इस पन्थ की पुनर्रचना की। गाजीदास ने चमार जाति के सामाजिक सुधार के लिए छत्तीसगढ़ प्रान्त के चमारों में इसका प्रचार किया। दे० 'सतनामी सम्प्रदाय'।

गाणपत्य : डॉ० भण्डारकर ने अपने ग्रन्थ (वैष्णविज्म, शैविज्म एण्ड अदर माइनर सेक्टस ऑव इण्डिया) में इस मत के प्रारम्भिक विकास पर अच्छा प्रकाश डाला है। इस सम्प्रदाय का उदय छठी शताब्दी में हुआ कहा जाता है, किन्तु यह तिथि अनिश्चित ही है। गणपति देव की पूजा (स्तुति) का उल्‍लेख याज्ञवल्क्यस्मृति, मालतीमाधव तथा 8वीं व 9वीं शती के अभिलेखों में प्राप्त होता है। किन्तु इस मत का दर्शन 'वरदतापनीय' अथवा 'गणपतितापनीय' उपनिषदों में प्रथम उपलब्ध होता है। गणेश को अनन्त ब्रह्म कहा गया है तथा उनके सम्मान में एक राजसी मन्त्र नृसिंहतापनीय उप० में दिया गया है। इस मत की दूसरी उपनिषद् गणपति-उपनिषद् है, जो स्मार्तों के अथर्वशिरस् का एक भाग है। वैष्णव संहिताओं की तालिका में गणेशसंहिता का उल्लेख है जो इसी सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। अग्नि तथा गरुड पुराणों में इस देव की पूजा के निर्देश प्राप्त हैं, जो इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित न होकर भागवतों या स्मार्तों की पञ्चायतनपूजा से सम्बन्धित हैं।

ईसा की दशम अथवा एकादश शताब्दी तक यह सम्प्रदाय प्रर्याप्त प्रचलित था तथा चौदहवीं शती में अवनत होने लगा। इस सम्प्रदाय का मन्त्र 'श्रीगणेशाय नमः' है तथा ललाट पर लाल तिलक का गोल चिह्न इस मत का प्रतीक है। सम्प्रदाय की उपनिषदों के सिवा इस मत का प्रतिनिधि एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है 'गणेशपुराण' जिसमें गणेश की विभूतियों का वर्णन है और उनके कोढ़ विमोचन की चर्चा है। इस मत के धार्मिक आचरणों के अतिरिक्त गणेश के हजारों नाम इसमें उल्लिखित हैं। रहस्यमय ध्यान से गणेशरूपी सर्वोत्कृष्ण ब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही मूर्तिपूजा की हिन्दू प्रणाली भी यहाँ दी हुई है। 'मुद्गलपुराण' भी एक गाणपत्य पुराण है।

शङ्करदिग्विजय' में गाणपत्य मत के छः विभाग कहे गये हैं--1. महागणपति 2. हरिद्रा 3. उच्छिष्ट गणपति 4. नवनीत गणपति 5. स्वर्ण गणपति एवं 6. सन्तान गणपति। उच्चछिष्ट गणपति सम्प्रदाय की एक शाखा हेरम्भ गणपति की गुह्य प्रणाली (हेरम्ब बौद्धों की तरह) का अनुसरण करती है। गाणपत्य सम्प्रदाय की अनेक शाखाएँ हैं, इनमें से अनेक शाखाएँ मुद्गलपुराण में भी उल्लिखित हैं तथा उनमें से अनेकों का स्वरूप दक्षिण भारत की मूर्तियों में आज भी दृष्टिगोचर होता है, किन्तु यह सम्प्रदाय आज अस्तित्वहीन है।

इस सम्प्रदाय का ह्रास होते हुए भी इस देवता का स्थान आज भी लघु देवों में प्रधानता प्राप्त किये हुए है। इनकी पूजा आज भी विघ्नविनाशक एवं सिद्धिदाता के रूप में प्रत्येक माङ्गलिक अवसर पर सर्वप्रथम होती है। स्कन्दपुराण में इनके इसी रूप (लघु देव) का वर्णन प्राप्त है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणेशखण्ड में इनके जन्म तथा गजवदन होने का वर्णन है। दे० 'गणपति' तथा 'गणेश'।

गात्रहरिद्रा : गात्रहरिद्रा का प्रयोग हिन्दुओं में अनेक अवसरों पर किया जाता है। बालिकाओं के रजोदर्शन के अवसर पर, ब्राह्मण कुमारों के यज्ञोपवीत के अवसर पर तथा विवाह संस्कार के दिन या एक दिन पूर्व ही वर तथा कन्या दोनों का गात्रहरिद्रा उत्सव होता है। शरीर पर हरिद्रालेपन नये जन्म अथवा जीवन में किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन का प्रतीक है। इससे शरीर की कान्ति बढ़ती है। दक्षिण भारत में यह अंगराग की तरह प्रचलित है।

गाधि : कान्यकुब्ज के चन्द्रवंशी राजा कुशिक के पुत्र तथा विश्वामित्र के पिता का नाम। महाभारत (3.115.19) में इनका उल्लेख है :

कान्यकुब्जे महानासीत् पार्थिवः स महाबलः। गाधीति विश्रुतो लोके वनवासं जगाम ह॥

[कान्यकुब्ज (कन्नौज) देश में गाधि नाम का महाबली राजा हुआ, जो तपस्या के लिए वनवासी हो गया था।] हरिवंश (27.13-16) में इनकी उत्पत्ति की कथा दी हुई है :

कुशिकस्तु तपस्तेपे पुत्रमिन्द्रसमं विभुः। लभेयमिति तं शक्रस्त्रासादभ्येत्य जज्ञिवान्॥ पूर्णे वर्षसहस्रे वै तं तु शक्रो ह्यपश्यत। अत्युग्रतपसं दृष्ट्वा सहस्राक्षः पुरन्दरः॥ समर्थ पुत्रजनने स्वमेवांशमवासयत्। पुत्रत्वे कल्पयामास स देवेन्द्रः सुरोत्तमः॥ स गाधिरभवद्राजा मघवान् कौशिकः स्वयम्। पौरकुत्स्यभवद्भार्या गाधिस्तस्यामजायत॥

गाधेः कन्या महाभागा नाम्ना सत्यवती शुभा। तां गाधिः काव्यपुत्राय ऋचीकाय ददौ प्रभुः॥

[राजा कुशिक ने इन्द्र के समान पुत्र पाने के लिए तपस्या की, तब इन्द्र स्वयं अपने अंश से राजा का पुत्र बनकर गाधि नाम से उत्पन्न हुआ। गाधि की कन्या सत्यवती थी, जो भृगुवंश के ऋचीक की पत्नी हुई।]

गान्धर्वतन्त्र : आगमतत्त्व में उद्धृत चौसठ तन्त्रों की सूची में गान्धर्वतन्त्र का क्रम 57वाँ है। इसमें आगमिक क्रियाओं में गन्धर्वों के महत्‍त्व तथा उनकी संगीत विद्या का विवरण है।

गन्धर्ववेद : सामवेद का उपवेद। सामवेद की 1000 शाखाओं में आजकल केवल 13 पायी जाती हैं। वार्ष्णेय शाखा का उपवेद गान्धर्व उपवेद के नाम से प्रसिद्ध है। गान्धर्व वेद के चार आचार्य प्रसिद्ध हैं। सोमेश्वर, भरत, हनुमान् और कल्लिनाथ। आजकल हनुमान् का मत प्रचलित है।

गन्धर्ववेद अन्य उपवेदों की तरह सर्वथा व्यवहारात्मक है। इसलिए आधुनिक काल में इसके जो अंश लोप होने से बचे हुए हैं वे ही प्रचलित समझे जाने चाहिए। सामवेद का 'अरण्यगान' एवं 'ग्रामगेयगान' आजकल प्रचार से उठ गया है, इसलिए सामगान की वास्तविक विधि का लोप हो गया है। ऋषियों के मध्य जो विद्या गान्धर्ववेद कहलाती थी वही सर्वसाधारण के व्यवहार में आने पर संगीत विद्या कहलाने लगी। ऋषियों की विद्या ग्रन्थों में मर्यादित होने के कारण अब आधुनिक काल में सर्वसाधारण को उपलब्ध नहीं है। दे० 'उपवेद'।

गान : वैदिक काल में गेय मन्त्रों का संग्रह तथा याज्ञिक विधि सम्बन्धी शिक्षा विशेष गुरुकुलों में हुआ करती थी। ऐसे सामवेद के गुरुकुल थे जहाँ मन्त्रों का गान करना तथा छन्दों का उच्चारण मौखिक रूप में सिखाया जाता था। जब लेखन प्रणाली का प्रचार हुआ तो अनेक स्वरग्रन्थों की, जिन्हें 'गान' कहते थे, रचना हुई। इस प्रकार गान की उत्पत्ति सामवेद से हुई।

गान के दो भेद हैं--(1) मार्ग और देशी। संगीतदर्पण (3.6) के अनुसार।

मार्ग-देशीविभागेन सङ्गीतं द्विविधं स्मृतम्। द्रुहिणेन यदन्विष्टं प्रयुक्तं भरतेन च॥ महादेवस्य पुरतस्तन्मार्गाख्यं विमुक्तिदम्॥ तत्तद्देशस्थया रीत्या यत्स्याल्लोकानुरञ्जनम्। देशे देशे तु सङ्गीतं तद्देशीत्यभिधीयते॥

[मार्ग और देशी भेद से संगीत दो प्रकार का है। ब्रह्मा ने जिसे निर्धारित कर भरत को प्रदान किया और भरत ने शंकर के समक्ष प्रयुक्त किया वह मार्ग संगीत है। जो विभिन्न देशों के अनुसार लोकरंजन में लिए अनेक रीतियों में प्रचलित है वह देशी संगीत है।]

गान्धर्व : (1) विष्णुपुराण के अनुसार भारतवर्ष के नव उपद्वीपों में से एक गान्धर्वद्वीप भी है :

भारतस्यास्य वर्षस्य नव भेदान्निबोधत। इन्द्रद्वीपः कशेरुमांस्ताम्रपर्णी गभस्तिमान्॥ नागद्वीपस्तथा सौम्यों गान्धर्वस्तवथ वारुणः। अयन्तु नवमस्तेषां द्वीपः सागरसंवृतः॥

[इन्द्र, कशेरु, ताम्रपर्णी, गभस्तिमान्, नाग, सौम्य, गान्धर्व, वारुण तथा भारत, ये नौ द्वीप हैं।]

(2) आठ प्रकार के विवाहों में से एक प्रकार का विवाह गान्धर्व कहलाता है। जिस विवाह में कन्या और वर परस्पर अनुराग से एक दूसरे को पति-पत्नी के रूप में वरण करते हैं उसे गान्धर्व कहते हैं। मनुस्मृति (3.32) में इसका लक्षण निम्नांकित है :

इच्छयाऽयोन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च। गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसम्भवः॥

[जिसमें कन्या और वर की इच्छा से परस्पर संयोग होता है और जो मैथुन्य और कामसम्भव है उसे गान्धर्व जानना चाहिए।] दे० 'विवाह'।

गायत्री : ऋग्वेदीय काल में सूर्योपासना अनेक रूपों में होती थी। सभी द्विजों की प्रातः एवं सन्ध्या काल की प्रार्थना में गायत्री मन्त्र को स्थान प्राप्त होना सूर्योपासना को निश्चित करता है।

गायत्री' ऋग्वेद में एक छन्द का नाम है। सावित्र (सविता अथवा सूर्य-सम्बन्धी) मन्त्र इसी छन्द में उपलब्ध होता है (ऋग्वेद, 3.62.10)। गायत्री का अर्थ 'गायन्तं त्रायते इति।' 'गाने वाले की रक्षा करने वाली'। पूरा मन्त्र है--भूः। भुवः। स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो न: प्रचोदयात्। [ हम सविता देव के वरणीय प्रकाश को धारण करते हैं। वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।]

गायत्री का एक नाम 'सावित्री' भी है। उपनयन संस्कार के अवसर पर आचार्य गायत्री अथवा सावित्री मन्त्र उपनीत ब्रह्मचारी को प्रदान करता है। सन्ध्योपासना में इस मन्त्र का जप तथा मनन अनिवार्य माना गया है। जो ऐसा नहीं करते वे 'सावित्रीपतित' समझे जाते हैं। गायत्री त्रिपदा, छन्दोयुक्त, मन्त्रात्मिका और वेदमाता कही गयी है। मनुस्मृति (2.77-78; 81-83) में इसका महत्त्व बतलाया गया है।

पद्मपुराण में गायत्री को ब्रह्मा की पत्नी कहा गया है। यह पद गायत्री को कैसे प्राप्त हुआ, इसकी कथा विस्तार से दी हुई है। इसका ध्यान इस प्रकार बताया गया है :

श्वेता त्वं श्वेतरुपासि शशाङ्केन समा मता। विभ्रती विपुलावूरु कदलीगर्भकोमलौ॥ एणश्रृङ्गं करे गृह्य पङ्कजं च सुनिर्मलम्। वसाना वसने क्षौमे रक्ते चाद्भुतदर्शन॥

गायत्रीव्रत : शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें सूर्यपूजन का विधान है। गायत्री (ऋग्वेद 3.62.10) का जप शत बार, सहस्र बार, दस सहस्र बार करने से अनेक रोगों का नाश होता है। दे० हेमाद्रि, 2.62-63 (गरुडपुराण से उद्भृत)। इस ग्रन्थ में गायत्री की प्रशंसा तथा पवित्रता के विषय में बहुत कुछ कहा गया है।

गार्ग्य : शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र (कात्यायन कृत) तथा कात्यायान के ही वाजसनेय प्रातिशाख्य में गार्ग्य का नाम आया है। परवर्ती काल में एक पाशुपत आचार्य के रूप में भी इनका उल्‍लेख है। चित्रप्रशस्ति में कहा गया है कि शिव ने कारोहण (लाट देश) में अवतार लिया तथा पाशुपत मत के ठीक-ठीक पालनार्थ उनके चार शिष्य हुए-- कुशिक, गार्ग्य, कौरुष्य एवं मैत्रेय।

पाणिनिसूत्रों में प्राचीन व्याकरण-आचार्य के रूप में भी गार्ग्य का उल्लेख हुआ है।

गार्हपत्य : एक यज्ञिय अग्नि। भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक काल में देवताओं की पूजा प्रत्येक आर्य अपने गृह में स्थापित अग्निस्थान में करता था। गृहस्थ का कर्त्तव्य होता था कि वह यज्ञवेदी में प्रथम अग्नि की स्थापना करे। इस उत्सव को 'अग्न्याधान' कहते थे। ऐसे अवसर पर गृहस्थ चार पुरोहितों के साथ 'गार्हपत्य' तथा 'आहवनीय' अग्नियों के लिए यज्ञवेदियों का निर्माण करता था। गार्हपत्य अग्नि के लिए वृत्ताकार, आवनीय अग्नि के लिए वर्गाकार तथा 'दक्षिणाग्नि' के लिए अर्द्ध वृत्ताकार (यदि इसकी भी आवश्यकता हुई) स्थान निर्मित होता था। तब अध्वर्यु घर्षण द्वारा या गाँव से अस्थायी अग्नि प्राप्त करता था तथा 'गार्हपत्य अग्नि' की स्थापना करता था। गार्हपत्य का आवाहन निम्नांकित वैदिक मन्त्र से किया जाता था :

इह प्रियं प्रजया में समृध्यताम्, अस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि। (ऋग्वेद, 10.85.27) मनुस्मृति में पिता को भी गार्हपत्य अग्निरूप माना गया है :

पिता वै गार्हपत्योऽग्निर्माताग्निर्दक्षिणः स्मृतः। (3.331)

[पिता गार्हपत्य अग्नि और माता दक्षिणाग्नि कहे गये हैं।]

गालव : अष्टाध्यायी के सूत्रों में जिन पूर्ववर्ती वैयाकरणों का नाम आया है, गालव उनमें एक हैं। ऋषियों (7.1.74) की सूची में भी गालव की गणना है।

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गिरनार (गिरिनगर) : सौराष्ट्र (पश्चिम भारत) का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान। प्राचीन काल से यह योगियों और साधकों को आकृष्ट करता रहा है। काठियावाड़ का प्राचीन नगर जूनागढ़ गिरनार की उपत्यका में बसा हुआ है। नगर का एक द्वार गिरनारदरवाजा कलाता है। द्वार के बाहर एक ओर बाधेश्वरी देवी का मन्दिर है। वही वामनेश्वर शिवमन्दिर भी है। यहाँ अशोक का शिलालेख लगा हुआ है। आगे मुचकुन्द महादेव का मन्दिर है। ये स्थान पहाड़ के दातार शिखर के नीचे की ओर हैं। यहाँ पर कई देवालय बने हुए हैं। महाप्रभु वल्लभाचार्य के वंशजों की हवेली (आवास) भी है।

प्राचीन काल में यह पर्वत 'ऊर्जयन्त' अथवा 'उज्जयन्त' कहलाता था (दे० स्कन्दगुप्त का गिरनार अभिलेख)। इस पर्वत की एक पहाड़ी पर दत्तात्रेय की पादुका के चिह्न बने हुए हैं। अशोक के शिलालेख से प्रकट है कि तृतीय शती ई० पू० में यह तीर्थ रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। रुद्रदामा के जूनागढ़ अभिलेख के प्रारम्भ में ही इसका उल्लेख है (एपिग्रागिया इण्डिका, जिल्द 8, पृ० 36-42) वस्त्रापथ क्षेत्र का यह केन्द्र माना जाता था (स्कन्दपुराण, 2.2.1-3)। यहाँ सुवर्णरेखा नामक पवित्र नदी बहती है।

गिरि : (1) गिरि अथवा पर्वत हिन्दू धर्म में पूजनीय माने गये हैं। पूजा का आधार धारणशक्ति अथवा गुरुत्व है (गिरति धारयति पृथ्वीं, ग्रिये स्तूयते गुरुत्वाद्वा)। पर्वतों में कुलपर्वत विशेष पूजनीय है :

मेरु मन्दर कैलास मलया गन्धमादनः। महेन्द्रः श्रीपर्वतश्च हेमकूटस्तथैव च। अष्टावेते तु सम्पूज्या गिरयः पूर्वदिक्क्रमात्॥

महेन्द्रों मलयः सह्य सानुयानृक्षपर्वतः। विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तैते कुलपर्वताः॥

गिरिजा : गिरि (पर्वत) हिमालय अथवा हिमालयाधिष्ठित देवता से जन्मी हुई पार्वती। दे० 'उमा', 'पार्वती'।

गिरितनयाव्रत : इस व्रत का अनुष्ठान भाद्रपद, वैशाख अथवा मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को होता है। एक वर्ष पर्यन्त इसमें गौरी अथवा ललिता का पूजन होना चाहिए। द्वादश मासों में गौरी के भिन्न भिन्न नामों का स्मरण करते हुए भिन्न-भिन्न पुष्पों से पूजा करनी चाहिए।

गिरिधर : (1) श्रीकृष्ण का एक पर्याय। गोवर्धन पर्वत (गिरि) धारण करने के कारण उनका यह नाम पड़ा।

(2) एक वैष्णव सन्त कवि का नाम भी गिरधर है। मराठा भक्तों ने मानभाऊ लोगों की सर्वदा उपेक्षा की है। मानभाऊ भी मराठी भाषाभाषी एक प्रकार के पाञ्चरात्र वैष्णव हैं। जिन-जिन मराठी लेखकों तथा कवियों की रचनाओं से यह अपेक्षा का भाव परिलक्षित होता है, उनमें गिरिधर, एकनाथ आदि हैं। सम्भवतः अपनी परम्परावादी स्मार्त प्रवृत्तियों के कारण ही ये मानभाऊ सन्तों की उपेक्षा करते थे।

गिरिधरजी : वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्गीय साहित्य में 'शुद्धाद्वैतमार्ताण्ड' का विशिष्ट स्थान है। इसके रचयिता गिरिधरजी 1600 ई० के आसपास हुए थे। ये अपने समय में वल्लभीय अनुयायियों के अध्यक्ष थे। नाभाजी एवं तुलसीदास भी इनके समसामयिक थे।

गिरिनगर : दे० गिरनार।

गिरिशिष्यपरम्परा : शङ्कराचार्य के चार प्रधान शिष्यों में से सुरेश्वराचार्य (मण्डन) प्रमुख थे तथा उन चारों के दस शिष्य थे, जो 'दसनामी' के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये चार गुरुओं के नाम पर चार मठों में बँटकर रहने लगे। सुरेश्वर के तीन शिष्य--गिरि, पर्वत और सागर ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) के अन्तर्गत थे। इस प्रकार गिरि-शिष्यपरम्परा जोशी मठ में सुरक्षित हैं।

गीतगोविन्द : शृंगार रस प्रधान संस्कृत का गीतकाव्य। इसके रचयिता लक्ष्मणसेन के राजकवि जयदेव थे। इसमें राधा-कृष्ण के विहार का ललित वर्णन है।

राधा का नाम सर्वप्रथम 'गोपालतापिनी उपनिषद्' में आता है। राधापूजक सम्प्रदायों द्वारा यह ग्रन्थ अतिसम्मानित है। जिन सम्प्रदायों में राधा की आराधना होती है उनमें विष्णुस्वामी एवं निम्बार्कों का नाम प्रथम आता है। राधा की पूजा एवं गींतों द्वारा प्रशंसा उत्तर भारत में माध्वकाल के पूर्व प्रचलित थी, क्योंकि जयदेवरचित गीतागोविन्द बारहवीं शती के अन्त की रचना है। बंगाल में जयदेव को निम्बार्क मतावलम्बी कहते हैं, किन्तु गीतगोविन्द की राधा प्रेयसी हैं, पत्नी नहीं जबकि निम्बार्कों के मतानुसार राधा कृष्ण की पत्नी हैं।

गीता : दे० 'श्रीमद्भगवद्गीता'। महाभारत के भीष्मपर्व में यह पायी जाती है। महाभारतयुद्ध के पूर्व अर्जुन का व्यामोह दूर करने के लिए कृष्ण ने इसका उपदेश किया था। इसमें कर्म, उपासना और ज्ञान का समुच्चय है। नीलकण्ठ ने अपनी टीका में इसके विषय में कहा है :

भारते सर्ववेदार्थो भारतार्थभारतार्थन्च कृत्‍स्‍नश:। गीतायामस्ति तेनेयं सर्वशास्त्रमयी मता॥ इयमष्टादशाध्यायी क्रमात् षट्कत्रयेण हि। कर्मोपास्तिज्ञानकाण्ड-त्रितयात्मा निगद्यते॥

मधुसूदन सरस्वती ने अपनी टीका गीतागूढ़ार्थदीपिका में गीता के उद्देश्य का विशद विवेचन किया है :

सहेतुकस्य संसारस्यात्यन्तोपरमात्मकम्।

परं निःश्रेयसं गीताशास्त्रस्योक्तं प्रयोजनम्॥ आदि भगवद्गीता के अतिरिक्त और भी गीताएँ हैं, जैसे भागवतपुराण में गोपीगीता, अध्यात्मरामायण में रामगीता, आश्वमेधिक पर्व में ब्राह्मणगीता, अनुगीता, देवी भागवत में भगवतीगीता आदि।

अनेक आचार्यों ने गीता पर साम्प्रदायिक टीकाएँ तथा भाष्य लिखे हैं। इनमें शांकरभाष्य बहुत प्रसिद्ध है। यह अद्वैतवादी तथा निवृत्तिमार्गी भाष्य है। आधुनिक टीकाकारों तथा निबन्धकारों में लोकमान्य तिलक का 'गीतारहस्य', श्री अरविन्द का 'एसेज ऑन दी गीता' तथा महात्मा गान्धी का 'अनासक्तियोग' उल्लेखनीय हैं।

गीतातात्पर्यनिर्णय : गीता पर स्वामी मध्वाचार्यरचित एक निबन्ध ग्रन्थ। इसमें द्वैतवादी दर्शन तथा कृष्ण भक्ति का प्रतिपादन किया गया है।

गीताधर्म : भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को राजयोग का उपदेश करके भागवत धर्म का पुनरारम्भ किया। इसका तात्पर्य यह है कि गीताधर्म सृष्टि के आरम्भ से चला आ रहा था। बीच में उसका लोप हो जाने पर श्री कृष्ण द्वारा उसका पुनरारम्भ हुआ। गीताधर्म अध्यात्म पर आधारित समुच्चयवादी धर्म था। मनुष्य की मुक्ति का मार्ग त्रिविध माना जाता था-- ज्ञान, कर्म और भक्ति समन्वित। एकान्तवादी सम्प्रदायों ने इन तीन विद्याओं को वैकल्पिक मान लिया। इससे जीवन एकाङ्गी हो गया। भगवान् कृष्ण ने तीनों के समन्वयमार्ग की पुनः प्रतिष्ठा की।

गीताभाष्य : गीताभाष्य ग्रन्थ कई आचार्यों द्वारा रचे गये हैं। वे आचार्य हैं-- शङ्कर, रामानुज, मध्व, केशव काश्मीरी, बलदेव विद्याभूषण आदि। इन भाष्यों में साम्प्रदायिक दर्शन एवं धर्म का प्रतिपादन किया गया है।

गीतार्थसंग्रह : श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के यामुनाचार्य द्वारा रचित संस्कृत ग्रन्थ 'गीतार्थसंग्रह' भगवद्गीता की व्याख्या उपस्थित करता है। इसमें विशिष्टाद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया गया है।

गीतार्थसंग्रहरक्षा : आचार्य वेङ्कटनाथ ने तमिल में लगभग 108 ग्रंथों की रचना है। 'गीतार्थसंग्रहरक्ष' उनमें से एक है। इसमें भगवद्भक्ति कूट-कूट कर भरी है। जनता में यह बहुत प्रिय है।

गीतावली : (1) चैतन्य सम्प्रदाय के आचार्यों में सनातन गोस्वामी प्रमुख हैं। उन्हीं की यह पद्यमयी रचना है। श्लोकों में भगवान् कृष्ण का चरित्र वर्णित है।

गीतावली (2) : राम भक्ति सम्बन्धी साहित्यभंडार में गोस्वामी तुलसीदास का प्रमुख योगदान है। गीतावली में तुलसीदास ने रामकथा को गीतों में कहा है। इसके गीत गेय तो हैं ही, साहित्यिक दृष्टि से बड़े उच्चकोटि के हैं।

गीताविवृत : मध्वमतावलम्बी श्री राघवेन्द्र स्वामीकृत एक ग्रन्थ। इसकी भाषा सरल है, रचना 17वीं शताब्दी की है।

गीतासार : भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश किया है वह गरुड पुराण (ध्याय 233) में 'गीतासार' के नाम से प्रसिद्ध है। मोक्ष के लिए समस्त योग, ज्ञान आदि के प्रतिपादक शास्त्रों का सार इसमें संक्षेप से संगृहीत है।

गुटका : कबीरपंथी सम्प्रदाय की यह प्रार्थना पुस्तिका है। कबीर के अनुयायी नित्य पाठ में इसका उपयोग करते हैं।

गुड़तृतीया : इस व्रत का अनुष्ठान भाद्र शुक्ल तृतीया को होता है। पार्वती इसकी देवता हैं। पुष्पों को गुड़ अथवा पायस (खीर) के साथ भगवती को समर्पण करना चाहिए।

गुण : वैशेषिक दर्शन के अनुसार पदार्थ छः हैं--द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय। अभाव भी एक पदार्थ कहा गया है। इस प्रकार पदार्थ सात हुए।

द्रव्याश्रयी (द्रव्य में रहने वाला), कर्म से भिन्न और सत्तावान्, जो हो, वह गुण है। गुण के चौबीस भेद हैं : 1. रूप, 2. रस 3. गन्ध 4. स्पर्श 5. संख्या 6. परिमाण 7. पृथक्त्व 8. संयोग 9. विभाग 10. परत्व 11. अपरत्व 12. बुद्धि 13. सुख 14. दुःख 15. इच्छा 16. द्वेष 17. यत्न 18. गुरुत्व 19. द्रवत्व 20. स्नेह 21. संस्कार 22. धर्म 23. अधर्म और 24. शब्द। दे० भाषापरिच्छेद।

शाक्त मतानुसार प्राथमिक सृष्टि की प्रथम अवस्था में शक्ति का जागरण दो रूपो में होता है, क्रिया एवं भूति तथा उसके आश्रित छः गुणों का प्रकटीकरण होता है। वे गुण हैं--ज्ञान, शक्ति, प्रतिभा, बल, पौरुष एवं तेज। ये छहों मिलकर वासुदेव के प्रथम व्यूह तथा उनकी शक्ति लक्ष्मी का निर्माण करते हैं। छः गुणों में युग्मों के बदलकर संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध (द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ व्यूह) एवं उनकी शक्तियों का जन्म होता है आदि।

सांख्य दर्शन के अनुसार गुण प्रकृति के घटक हैं। इनकी संख्या तीन हैं। सत्त्व का अर्थ प्रकाश अथवा ज्ञान, रज का अर्थ गति अथवा क्रिया और तम का अर्थ अन्धकार अथवा जड़ता है। जिस प्रकार तीन धागों से रस्सी बँटी जाती है उसी प्रकार सारी सृष्टि तीन गुणों से घटित है। दे० सांख्यकारिका।

गुणरत्‍नकोष : आचार्य रामानुजचरित यह एक ग्रन्थ है।

गुणावाप्तिव्रत : यह फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा को प्रारम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए। शिव तथा क्रमशः चार दिनों तक आदित्य, अग्नि, वरुण और चन्द्रदेव की (शिव रूप में) पूजा होनी चाहिए। प्रथम दो रुद्र रूप में तथा अन्तिम दो कल्याणकारी शङ्कर रूप में अर्चित होने चाहिए। चारों दिन गेहूँ, तिल तथा यवादि धान्यों से होम का विधान है। आहार रूप में केवल दुग्ध ग्रण करना चाहिए। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 3.137.1-13 (हेमाद्रि, 2.499-500 में उद्धृत)।

गुप्तकाशी : उत्तराखंड में रुद्रप्रयाग से 21 मील की दूरी पर स्थित। पूर्वकाल में ऋषियों ने भगवान् शङ्कर की प्राप्ति के लिए यहाँ तप किया था। कहते हैं बाणासुर की कन्या ऊषा का भवन यहाँ था। यहीं ऊषा की सखी अनिरुद्ध को द्वारका से उठा लायी थी। गुप्तकाशी में नन्दी पर आरुढ़, अर्धनारीश्वर शिव की सुन्दर मूर्ति है। एक कुंड में दो धाराएँ गिरती हैं, जिन्हें गङ्गा-यमुना कहते हैं। यहाँ यात्री स्नान करके गुप्त दान करते हैं।

गुप्तप्रयाग : उत्तराखंड का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल। यह हरसिल (हरिप्रयाग) से दो मील की दूरी पर स्थित है। झाला से आध मील पर श्यामप्रयाग (श्याम गङ्गा और भागीरथी का संगम) है। यहाँ से दो मील पर गुप्तप्रयाग है।

गुप्तगोदावरी : चित्रकूट के अन्तर्गत अनसूयाजी से छः मील तथा बाबूपुर से दो मील की दूरी पर गुप्त गोदावरी है। एक अँधेरी गुफा में 15-16 गज भीतर सीताकुण्ड है। इसमें सदा झरने से जल गिरता रहता है। यात्री इसमें स्नान करके गोदावरी के स्नानपुण्य का अनुभव करते हैं।

गुप्तारघाट : एक वैष्णव तीर्थ। शुद्ध नाम 'गोप्रतारतीर्थ'। अयोध्या से नौ मील पश्चिम सरयूतट पर है। फैजाबाद छाँवनी होकर यहाँ सड़क जाती है। यहाँ सरयूस्नान का बहुत माहात्म्य माना जाता है। घाट के पास गुप्त हरि का मन्दिर है।

गुरदास : एक मध्य कालीन सन्त का नाम। सुधारवादी साहित्यमाला में 16वीं शती के अन्त में भाई गुरदास ने एक और पुष्प पिरोया, जिसका नाम है 'भाई गुरदास की वार'। इस ग्रन्थ का आंशिक अंग्रेजी अनुवाद मेकालिफ ने किया है।

गुरु : गुरु उसको कहते हैं जो वेद-शास्त्रों का गुणन (उपदेश) करता है अथवा स्तुत होता है (गृणाति उपदिशति वेद शास्त्राणि यद्वा गीर्यते स्तूयते शिष्यवर्गैः)। मनुस्मृति (2.142) में गुरु की परिभाषा निम्नांकित है :

निषेकादीनि कर्माणि यः करोति यथाविधि। सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते।

[जो विप्र निषेक (गर्भाधान) आदि संस्कारों को यथा विधि करता है औऱ अन्न से पोषण करता है वह गुरु कहलाता है।] इस परिभाषा से पिता प्रथम गुरु है, तत्पश्चात् पुरोहित, शिक्षक आदि। मन्त्रदाता को भी गुरु कहते हैं। गुरुत्व के लिए वर्जित पुरुषों की सूची कालिकापुराण (अध्याय 54) में इस पकार दी हुई है :

अभिशप्तमपुत्रञ्च सन्नद्धं कितवं तथा। क्रियाहीनं कल्पाङ्गं वामनं गुरुनिन्दकम्॥ सदा मत्सरसंयुक्तं गुरुमन्त्रेषु वर्जयेत्। गुरुर्मन्त्रस्य मूलं स्यात् मूलशद्धौ सदा शुभम्॥

कूर्मपुराण (उपविभाग, अध्याय 11) में गुरुवर्ग की एक लम्बी सूची मिलती है :

उपाध्यायः पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपतिः। मातुलः श्वशुरस्त्राता मातामहपितामहौ॥ बन्धुर्ज्येष्ठः पितृव्यश्च पुंस्येते गुरवः स्मृतः। मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा॥ स्वश्रूः पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरवः स्त्रीषु। इत्युक्तो गुरुवर्गोऽयं मातृतः पितृतो द्विजाः॥

इनका शिष्टाचार, आदर और सेवा करने का विधान है। युक्तिकल्पतरु में अच्छे गुरु के लक्षण निम्नांकित कहे गये हैं :

सदाचारः कुशलधीः सर्वशास्त्रार्थपारगः। नित्यनैमित्तिकानाञ्च कार्याणां कारकः शुचिः॥ अपर्वमैथुनपरः पितृदेवार्चने रतः। गुरुभक्तोजितक्रोधो विप्राणां हितकृत् सदा॥ दयावान् शीलसम्पन्नः सत्कुलीनो महामतिः। परदारेषु विमुखो दृढ़संकल्पको द्विजः॥ अन्यैश्च वैदिकगुणैर्युक्तः कार्यों गुरुर्नृपैः। एतैरेव गुणैर्युक्तः पुरोधाः स्यान्महीर्भुजाम्॥ मन्त्रगुरु के विशेष लक्षण बतलाये गये हैं:

शान्तो दान्तः विनीतः शुद्धवेशवान्। शुद्धाचारः सुप्रतिष्ठः शुचिर्दक्षः सुबुद्धिमान्॥ आश्रमी घ्याननिष्ठश्च मन्त्र-तन्त्र-विशारदः। निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते॥ उद्धर्तुञ्चैव संहतुँ समर्थों ब्राह्मणोत्तमः। सामान्यतः द्विजाति का गुरु अग्नि, वर्णों का गुरु ब्राह्मण, स्त्रियों का गुरु पति और सबका गुरु अतिथि होता है :

गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः। पतिरेको गुरुः स्त्रीणां सर्वेषामतिथिर्गुरुः॥ (चाणक्यनीति)

उपनयनपूर्वक आचार सिखाने वाला तथा वेदाध्ययन कराने वाला आचार्य ही यथार्थतः गुरु है :

उपनीय गुरुः शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादितः। आचारमग्निकार्यञ्चसन्ध्योपासनमेब च॥ अल्पं वा बहु वा यस्य श्रुतस्योपकरोति यः। तमपीह गुरुं विद्याच्छ्रुचोपक्रिययातया॥ षट्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवेदिकं व्रतम्। तदर्द्धिकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा॥ (मनु० 2.69;2.149;3.1)

वीर शैवों में यह प्रथा है कि प्रत्येक लिङ्गायत गाँव में एक मठ होता है जो प्रत्येक पाँच प्रारम्भिक मठों से सम्बन्धित रहता है। प्रत्येक लिङ्गायत किसी न किसी मठ से सम्बन्धित होता है। प्रत्येक का एक गुरु होता है। जङ्गम इनकी एक जाति है जिसके सदस्य लिङ्गायतों के गुरु होते हैं।

जब लिङ्गायत अपने गुरु का चुनाव करता है तब एक उत्सव होता है, जिसमें पाँच पात्र, पाँच मठों के महन्तों के प्रतिनिधि के रूप में, रखे जाते हैं। चार पात्र वर्गाकार आकृति में एवं एक केन्द्र में रखा जाता है। यह केन्द्र का पात्र उस लिङ्गायत के गुरु के मठ का प्रतीक होता है। जब गुरु किसी लिङ्गायत के घर जाता है, उस अवसर पर 'पादोदक' संस्कार (गुरु का चरण धोना) होता है, जिसमें सारा परिवार तथा मित्रमण्डली उपस्थित रहती है। गृहस्वामी द्वारा गुरु की षोडशोपचार पूर्वक पूजा की जाती है।

धार्मिक गुरु के प्रति भक्ति की परम्परा भारत में अति प्राचीन है। प्राचीन काल में गुरु आज्ञापालन शिष्य का परम धर्म होता था। गुरु शिष्य का दूसरा पिता माना जाता था एवं प्राकृतिक पिता से भी अधिक आदरणीय था। आधुनिक काल में गुरुसंमान और भी बढ़ा चढ़ा है। नानक, दादू, राधास्वामी आदि संतों के अनुयायी जिसे एक बार गुरु ग्रहण करते हैं, उसकी बातों को ईश्वरवचन मानते हैं।

बिना गुरु की आज्ञा के कोई हिन्दू किसी सम्प्रदाय का सदस्य नहीं हो सकता। प्रथम वह एक जिज्ञासु बनता है। बाद में गुरु उसके कान में एक शुभ बेला में दीक्षा मन्त्र पढ़ता है और फिर वह सदस्य बन जाता है।

गुरु (प्रभाकर) : छठी शती से आठवीं शती के बीच कर्ममीमांसा के दो प्रसिद्ध विद्वान् हुए; एक प्रभाकर जिन्हें गुरु भी कहते हैं एवं दूसरे कुमारिल, जिन्हें भट्ट कहा जाता है। इन दोनों से मीमांसा के दो सम्प्रदाय चले।

गुरुकुलजीवन : द्विज या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को जीवन की पहली अवस्था में अच्छे गृहस्थजीवन की शिक्षा लेना अनिवार्य था। यह शिक्षा गुरुकुलों में जाकर प्राप्त की जाती थी, जहाँ वेदादि शास्त्रों के अतिरिक्त क्षत्रिय शस्त्रास्त्र विद्या और वैश्य कारीगरी, पशुपालन एवं कृषि का कार्य भी सीखता था। गुरुकुल का जीवन अति त्यागपूर्ण एवं तपस्या का जीवन था। गुरु की सेवा, भिक्षाटन पर जीविका, गुरु के पशुओं का चारण, कृषिकर्म करना, समिधा जुटाना आदि कर्म करने के पश्चात् अध्ययन में मन लगाना पड़ता था। धनी, निर्धन सभी विद्यार्थियों का एक ही प्रकार का जीवन होता था। इस तपस्थलों से निकलने पर स्नातक समाज का सम्माननीय सदस्य के रूप में आदृत होता एवं विवाह कर गृहस्थाश्रम का अधिकारी बनता था।

गुरुग्रन्थसाहब : (1) सिक्ख संप्रदाय का सर्वोत्तम धार्मिक ग्रन्थ, जिसकी पूजा गुरुमूर्ति के रूप में की जाती है। इस पवित्र ग्रन्थ का अखण्ड पाठ करने की रीति सिक्खों ने ही प्रचलित की। इसमें सिक्खों के दस गुरुओं की वाणी के साथ ही कबीर, नामदेव, रविदास, मीरा, तुलसी आदि भक्तों की चुनी हुई वाणियाँ भी संकलित हैं और यह गुरुमुखी लिपि में लिखा गया है।

(2) इसी नाम का गरीबदासी सम्प्रदाय का भी एक धार्मिक ग्रन्थ है, जिसे संत गरीबदास (1717-82 ई०) ने में रचा। इसमें 24,000 पद हैं। दे० 'गरीबदास'।

गुरुदेव : पन्द्रहवी शती के वीरशैव सम्प्रदाय के एक आचार्य, जिन्होंने 'वीरशैव आचार प्रदीपिका' की रचना की।

गुरुदेव स्वामी : ये 'आपस्तम्ब सूत्र' के एक भाष्यकार थे।

गुरुद्वारा : सिक्खों का पूजास्थान गुरुद्वारा कहलाता है। पूजा में 'ग्रन्थ साहब' के कुछ निश्चित भागों का पाठ तथा ग्रन्थ की पूजा होती है। सिक्ख गुरुद्वारों में अमृतसर का स्वर्णमन्दिर प्रमुख और दर्शनीय है। गुरु नानक तथा अन्य गुरुओं के जीवन से सम्बन्ध रखने वाले प्रमुख स्थानों पर गुरुद्वारे बने हुए हैं, जो सिक्खों के तीर्थस्थान हैं।

गुरुप्रदीप : वेदान्ताचार्य अद्वैतानन्द स्वामी (सं० 1206 से 1255) के तीन ग्रन्थों में एक ग्रन्थ का नाम 'गुरुप्रदीप' है।

गुरुमुखी : उस लिपि का नाम जिसमें सिक्खों का धर्मग्रन्थ 'ग्रन्थ साहब' लिखा हुआ है। गुरु नानक के उत्तराधिकारी गुरु अङ्गद ने नानक के पदों के लिए उस लिपि को स्वीकार किया जो ब्राह्मी से निकली थी औऱ पंजाब में उनके समय में प्रचलित थी। गुरुवाणी उसमें लिखी गयी, इसलिए इसका नाम 'गुरुमुखी' पड़ा। गया। वास्तव में 'गुरुमुखी' लिपि का नाम है, परन्तु भूल से लोग इसे भाषा भी समझ लेते हैं। इसकी वही वर्णमाला है जो संस्कृत और भारत की अन्य प्रादेशिक भाषाओं की। इस समय पंजाबी भाषा को सिक्‍ख लोग इसी लिपि में लिखते हैं।

गुरुरत्नमालिका : यह सदाशिव ब्रह्मेन्द्र द्वारा रचित एक ग्रन्थ है।

गुरुव्रत : अनुराधा नक्षत्र युक्त गुरुवार को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। सुवर्ण पात्र में रखी हुई बृहस्पति ग्रह की सुवर्णमूर्ति के पूजन का विधान है। इसमें सात नक्तों का आचरण किया जाता है। दे० देमाद्रि, 2.509।

गुरुस्थल जङ्गम : जङ्गम' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है-- पहला प्रयोग जाति के सदस्य के लिए एवं दूसरा अभ्यासी के अर्थ में। अभ्यासी अर्थवाचक जङ्गम पूज्य होता है। ऐसे जङ्गम लिङ्गायतों के गुरु होते हैं तथा किसी न किसी मठ से सम्प्रदाय की शिक्षा व दीक्षा ग्रहण करते हैं। इन्हें आजीवन ब्रह्मचारी रहना चाहिए। ये दो प्रकार के होते हैं-- गुरुस्थल जङ्गम और विरक्त जङ्गम। गुरुस्थलों को सभी पारिवारिक संस्कारों (उत्सवों) एवं गुरु का कार्य करने की शिक्षा दी जाती है।

गुर्वष्टमी व्रत : गुरुवारयुक्त भाद्रपद मास की अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। सुवर्ण अथवा रजत की गुरु अर्थात् बृहस्पति देवता की प्रतिमा की पूजा का विधान है।

गृह : (1) कार्तिकेय का एक पर्याय। महाभारत (3.228) मे शिव (रुद्र) के पुत्र को गुह कहा गया है :

रुद्रसूनुं ततः प्राहुर्गुहं गुरुमतांवर। अथैनमभ्ययुः सर्वा देवसेनाः सहस्रशः। अस्माकं त्वं पतिरिति ब्रुवाणाः सर्वतो दिशः।

[रुद्र के पुत्र का नाम गुह हुआ और देवताओं की समस्त सेना ने इनको अपना नाथक मान लिया।]

(2) वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान् राम के सखा निषादराज का नाम गुह था। यह श्रृङ्गवेरपुर के मुख्य गंगातट का शासक था। राम और भरत का इसने बड़ा आतिथ्य किया था।

(3) कहीं-कहीं विष्णु को भी गुह कहा गया है : 'करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः।' (महा० 13. 149-54) इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है : 'गुहते संवृणोति स्वरूपादिनि मायया' [जो अपनी माया से स्वरूप आदि का संवरण करता है।]

गुरुदेव : वेदान्त के एक आचार्य। निघण्टु के टीकाकार देवराज और भट्ट भास्कर ने माधवदेव, भवस्वामी, गुहदेव, श्रीनिवास, उब्वट आदि भाष्यकारों के नाम लिखे हैं। ब्रह्मसूत्र रचना के बाद और स्वामी शङ्कराचार्य के पूर्व भी वेदान्त के आचार्यों की परम्परा अक्षुण्ण रही है। इन आचार्यों का उल्लेख दार्शनिक साहित्य एवं शङ्कर के भाष्य में हुआ है। रामानुजकृत वेदार्थसंग्रह (पृ० 154) में प्राचीन काल के छः वेदान्ताचार्यों का उल्लेख मिलता है, इनमें गुहदेव भी हैं।

गुह्य : गम्भीर आध्यात्मिक तत्व को गुह्य कहते हैं। गीता (9.1) में भगवान् ने ज्ञान को गुह्यतम कहा है :

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥

[तुमको श्रद्धालु समझकर मैं इस अति गुह्य ज्ञान का उपदेश करूँगा, विज्ञान के साथ इसको समझकर तुम कष्ट से छूट जाओगे।]

बुद्धि अथवा हृदयाकाश रूपी गहरी गुहा में स्थित होने कारण इस तत्त्व को गुह्य कहा गया है। कहीं-कहीं विष्णु और शिव को भी गुह्य कहा गया है। विष्णु-सहस्रनाम (महाभारत, 13.149.71) में गुह्य विष्णु का एक नाम है :

गुह्यो गंभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः।

इसी प्रकार महाभारत (13.17.91) में शिव (महादेव) गुह्य कहे गये हैं :

यजुः पादभुजो गुह्यः प्रकाशो जंगमस्तथा।

गुह्यक : अर्थ देवयोनियों में गुह्यक भी है। कुबेर के अनुचरों का यह एक भेद है। धार्मिक तक्षणकला के अलङ्करण में इसका प्रतीकात्मक उपयोग किया गया है।

निधिं रक्षन्ति ये यक्षास्ते स्युर्गह्यकसंज्ञकाः।

[देवताओं की निधि के रक्षक यक्षगण गुह्यक कहलाते हैं।]

अजन्ता की भित्ति-चित्रकला में जहाँ पर्वतीय दृश्य चित्रित, उनमें पक्षी, वानर एवं काल्पनिक जङ्गली जातियों-गुह्यक, किरात एवं किन्नरों के चित्र पाये जाते हैं। यक्षों के बहुत कुछ सदृश ही गुह्यक भी होते हैं। भरहुत और साँची की मूर्तिकला में इनका अङ्कन बौने के रूप में शालभञ्जिकाओं के पैरों के नीचे हुआ है। अनङ्गपरवश व्यक्ति कामिनियों के चरणतल में कैसे दब जाता है, इसका यह प्रतीक है।

गुह्यकद्वादशी : द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। व्रती को इस दिन उपवास करना चाहिए तथा गुह्यकों (यक्षों) की तिल और अक्षतों से पूजा करनी चाहिए। इस व्रत में किसी ब्राह्मण को सुवर्ण दान करने से समस्त पापों का क्षय हो जाता है।

गुह्यसमाज : एक धार्मिक संघटन, जो वामाचारी तान्त्रिक साधकों का वह समाज है जिसमें बहुत सी गुह्य (गोपनीय) क्रियाएँ होती हैं। इसमें वे ही साधक प्रवेश पाते हैं जो इस साधना में विधिवत् दीक्षित होते हैं। कन्दराओं, गुहाओं और गुप्त स्थानों में इस समाज द्वारा साधना की जाती है।

गूढ़ज (गूढ़ोत्पन्न) : धर्मशास्त्र के अनुसार बारह प्रकार के पुत्रों में से एक। पत्नी अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष से प्रच्छन्न रूप में जो पुत्र उत्पन्न करती है उसे गूढ़ज कहा जाता है। मनुस्मृति (9,170) में इसकी परिभाषा इस प्रकार की गयी है :

उत्पद्यते गृहे यस्य न च ज्ञायेत कस्य सः। स गृहे गूढ़ उत्पन्नस्तस्य स्याद् यस्य तल्पजः॥ यह दायभागी बन्धु माना गया है (मनु. 9,151)।

याज्ञवल्क्यस्मृति (2.32) में इसकी यही परिभाषा मिलती है :

गृहे प्रच्छन्न उत्पन्नो गूढजस्तु सुतो मतः।'

वर्तमान हिन्दू-विधि में गूढ़ज पुत्र की स्वीकृति नहीं है।

गृहस्थ : गृह में पत्नी के साथ रहनेवाला। पत्नी का गृह में रहना इसलिए आवश्यक है कि बहुत से शास्त्रकारों ने पत्नी को ही गृह कहा है: 'न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।' गृहस्थ द्वितीय आश्रम 'गृहस्थ्य' में रहता है। इसलिए इसको ज्येष्ठाश्रमी, गृहमेधी, गृही, गृहपति, गृहाधिपति आदि भी कहा गया है। धर्मशास्त्र में ब्राह्मण को प्रमुखता देते हुए गृहस्थधर्म का विस्तार से वर्णन किया गया है। (दे० मनुस्मृति, अध्याय 4)।

चतुर्थमायुषो भागमुषित्वद्यं गुरौ द्विजः। द्वितीयमायुषो भागं कृदारो गृहे वसेत्॥ अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः। या वृत्तिस्तां समास्थाय विप्रो जीवेदनापदि॥ यात्रामात्रप्रसिद्ध्यर्थ स्वैः कर्मभिरगर्हितैः। अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धर्मसञ्चयम्॥ ऋतानृताभ्याज्जीवेतु मृतेन प्रमृतेन वा। सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्या कदाचन॥ ऋतमुञ्छशिलं ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम्॥ मृतं तु याचितं भैक्ष्य प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्। सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीयते। सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात्तां परिवर्जयेत्॥

द्विज आयु के प्रथम-चतुर्थ भाग को गृरुगृह में व्यतीत कर द्वितीय-चतुर्थ भाग में विवाह कर पत्नी के साथ घर में वास करे। सम्पूर्ण जीवधारियों के अद्रोह अथवा अल्पद्रोह से अपनी वृत्ति की स्थापना कर विप्र को आपत्तिरहित अवस्था में जीवन व्यतीत करना चाहिए। अपनी जीवनयात्रा की सिद्धि मात्र के लिए अपने अनिन्दनीय कर्मों द्वारा शरीर को क्लेश दिये बिना उसे धनसञ्चयन करना चाहिए। उसे ऋत और अनृत से जीना चाहिए अथवा मृत और प्रमृत से अथवा सत्यानृत से, किन्तु श्वान-वृत्ति (नौकरी) से कभी नहीं। ऋत उञ्छशिल (खेत में पड़े हुए दानों को चुनना) को, अमृत अयाचित (बिना मागे प्राप्त) को, मृत याचित भिक्षा को, प्रमृत कर्षण (बलात् प्राप्त) को कहा गया है। सत्यानृत वाणिज्य है। उससे भी जीवन व्यतीत किया जा सकता है। श्वानवृत्ति सेवा नाम से प्रसिद्ध है। इसलिए इसका त्याग करना चाहिए।]

गरुडपुराण (49 अध्याय) में गृहस्थधर्म का वर्णन सामान्यतः इस प्रकार से किया गया है:

सर्वेषामाश्रमाणान्तु दैविध्यन्तु चतुर्विधम्। ब्रह्मचार्युपकुर्वाणों नैष्ठिको ब्रह्मतत्परः॥ योऽधीत्य विधिवद्वेदान् गृहस्थाश्रममाव्रजेत्। उपकुर्वाणको ज्ञेयो नैष्ठिको मरणान्तकः॥ अग्नयोऽतिथिशुश्रूषा यज्ञो दानं सुरार्चनम्। गृहस्थस्य समासेन धर्मोऽयं द्विजसत्तमाः॥ उदासीनः साधकश्च गृहस्थो द्विविधो भवेत्।, कुटुम्बभरणे युक्तः साधकोऽसौ गृही भवेत्॥ ऋणानि त्रीण्युपाकृत्य त्यक्त्वा भार्याधनादिकम्। एकाकी विचरेद्यस्तु उदासीनः स मौक्षिकः॥

[ब्रह्मचारी (स्नातक) के दो प्रकार होते हैं--उपकुर्वाण और नैष्ठिक। जो वेदों का विधिवत् अध्ययन कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है यह उपकुर्वाण और जो आमरण गुरुकुल में रहता है वह नैष्ठिक है। अग्न्याधान, अतिथिसेवा, यज्ञ, दान, देवपूजन ये संक्षेप में गृहस्थ के धर्म हैं। उदासीन और साधक-गृहस्थ दो प्रकार का होता है। कुटुम्बभरण में नियमित लगा हुआ गृहस्थ साधक होता है। ऋणों--ऋषिऋण, देवऋण और पितृऋण से मुक्त होकर, भार्या और धन आदि को छोड़कर मोक्ष की कामना से जो एकाकी विचरता है वह उदासीन है।]

प्रत्येक गृहस्थ को तीन ऋणों से मुक्त होना आवश्यक है। वह नित्य के स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण से, यज्ञ द्वारा देवऋण से और सन्तानोत्पत्ति द्वारा पितृऋण से मुक्त होता है। उसके नित्य कर्मों में पञ्चमहायज्ञों का अनुष्ठान अनिवार्य है। ये यज्ञ हैं-- (1) ब्रह्मयज्ञ (स्वाध्याय) (2) देवयज्ञ (यज्ञादि) (3) पितृयज्ञ (पितृतर्पण औऱ पितृसेवा) (4) अथिथियज्ञ (संन्यासी, ब्रह्मचारी, अभ्यागत की सेवा) और भूतयज्ञ अर्थात् जीवधारियों की सेवा। दे० 'आश्रम' और 'गार्हस्थ्य'।

गूढ़ार्थदीपिका : स्वामी मधुसूधन सरस्वती कृत श्रीमद्भगवद्गीता की टीका। इसे गीता की सर्वोत्तम व्याख्या कह सकते हैं। शंकराचार्य के मतानुसार रचित यह व्याख्या विद्वानों में अत्यन्त आदर के साथ प्रचलित है। इसका रचनाकाल सोलहवीं शताब्दी है।

गृत्समद : एक वैदिक ऋषि। ऋग्वेद की ऋचाएँ सात वर्गों में विभक्त हैं एवं वे सात ऋषिकुलों से सम्बन्धित हैं। इनमें प्रथम ऋषिकुल के ऋषि का नाम गृत्समद है। सर्वानुक्रमणिका, ऐतरेय ब्राह्मण (5.2.4) एवं ऐतरेय आरण्यक (2.2.1) में गृत्समद को ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल का साक्षात्कार करने वाला कहा गया है। कौषीतकिब्राह्मण (22.4) में गृत्समद को भार्गव भी कहा गया है।

गृहपञ्चमी : पञ्चमी के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें ब्रह्मा के पूजन का विधान है। सुर्खी, चूना, सूप, धान्य साफ करने का यन्त्र, रसोई के बर्तन, (गार्हस्थ्य की पाँच आवश्यक वस्तुएँ) तथा जलकलश का दान किया जाता है। दे० हेमाद्रि, 1.574; कृत्यरत्नाकर, 98 (सात, वस्तुओं का उल्लेख करता है, जिनमें एक है चूल्हा तथा दूसरा है जलकलश।)।

गृह्यसूत्र : धार्मिक जीवन के कर्त्‍तव्यनिर्धारक ग्रन्थों में चार प्रकार के सूत्रों का सर्वोपरि महत्त्व है। वे हैं श्रौत, गृह्य, धर्म एवं इन्द्रजालिक ग्रन्थ। गृह्यसूत्रों को गृह्य इसलिए कहा गया है कि वे घरेलू (पारिवारिक) यज्ञों तथा परिवार के लिए आवश्यक धार्मिक कृत्यों का वर्णन उपस्थित करते हैं।

गृह्यसूत्रों के तीन भाग हैं। पहले भाग में छोटे यज्ञों का वर्णन है, जो प्रत्येक गृहस्थ अपने अग्निस्थान में पुरोहित द्वारा (या ब्राह्मण होने पर स्वतः) करता है। ये यज्ञ तीन प्रकार के हैं: (अ) घृत, तैल, दुग्ध को अग्नि में देना, (आ) पका हुआ अन्न देना तथा (इ) पशुयज्ञ। दूसरे भाग में सोलह संस्कारों का वर्णन है, यथा जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, यज्ञोपवीत, विवाहादि, जो जीवन की विशिष्ट अवस्थाओं से सम्बन्धित कर्म हैं। तीसरे में मिश्रित विषय हैं, जैसे गृहनिर्माण-सम्बन्धी कर्म, श्राद्ध कर्म, पितृयज्ञ तथा अन्य लघु क्रियाएँ। कौशिक गृ० सू० में चिकित्सा तथा दैवी विपत्तियों को दूर करने के मन्त्र भी पाये जाते हैं। सभी वेदशाखाओं के उपलब्ध गृह्यसूत्रों की सूची देना आवश्यक प्रतीत होता है। ये हैं : (ऋक् सम्बन्धी) 1. शांखायन 2. शाम्बव्य 3. आश्वलायन; (साम सम्बन्धी) 4. गोभिल 5. खादिर 6. जैमिनि; (शुक्लयजुर्वेद सम्बन्धी) 7. पारस्कर; (कृष्णयजुर्वेद सम्बन्धी) 8. आपस्तम्ब 9. हिरण्यकेशी 10. बौधायन 11. भारद्वाज, 12. मान 13. वैखानस; (अथर्ववेद सम्बन्धी) 14. कौशिक। दे० 'सूत्र'।

गौ (गौ) : गौ हिन्दुओं का पवित्र पशु है। अनेक यज्ञिय पदार्थ- घी, दुग्ध, दधि इसी से प्राप्त होते हैं। यह स्वयं पूजनीय एवं पृथ्वी, ब्राह्मण और वेद का प्रतीक है। भगवान् कृष्ण के जीवन से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। उनको गोपाल, गोविन्द आदि विरुद इसी से प्राप्त हुए। गोरक्षा और गोसंवर्धन हिन्दू का आवश्यक कर्तव्य है। वैदिक कालीन भारतीयों के धन का प्रमुख उपादान गाय अथवा बैल है। गौ के क्षीर का पान या उसका उपभोग घृत या दधि बनाने के लिए होता था। क्षीर यज्ञों में सोमरस के साथ मिलाया जाता था, अथवा अन्न के साथ क्षीरोदन तैयार किया जाता था। ऋग्वेद की दानस्तुति में गौओं के बड़े-बड़े समूहों का उल्लेख किया गया है। पुरोहितों को गौओं के दान एवं गोपालन अथवा इनके स्वामित्व को विशेष महत्त्वपूर्ण ढंग से दर्शाया गया है। वैदिक कालीन गौएँ रोहित, शुक्ल, पृश्नि, कृष्ण आदि रङ्गों के नाम से पुकारी जाती थीं। बैल हल तथा गाड़ी खींचते थे। ये व्यक्तिगत स्वामित्व के विषय थे एवं वस्तुओं के विनिमय एवं मूल्यांकन के भी साधन थे।

गो शब्द का प्रयोग गौ से उत्पन्न वस्तुओं के लिए भी किया जाता है। प्रायः इसका अर्थ दुग्ध ही लगाया जाता है, किन्तु पशु का मांस बहुत कम। इससे पशुचर्म का बोध भी होता है जिसे अनेक कामों में लाया जाता है। 'चर्मन्' शब्द कभी-कभी गो का पर्याय भी समझा जाता है।

गोदान अनेक प्रकार के दानों में महत्वपूर्ण है। स्वतन्त्र रूप से गौ का दान पुण्यकारक तो समझा ही जाता है, अन्य धार्मिक कार्यों के साथ--विवाह,श्राद्ध आदि में-- भी इसका विधान है।

गो-उपचार : युगादि तथा युगान्त्य नामक तिथियों के दिन इस व्रत का विधान है। इसमें एक गौ का सम्मान तथा पूजन होना चाहिए। षडशीतिमुख, उत्तरायण, दक्षिणायन विषुव (समान रात्रि तथा दिवस), प्रत्येक मास की संक्रान्तियों, पूर्णिमा, चतुर्दशी, ; पञ्चमी, नवमी, सूर्य तथा चन्द्र ग्रहण के दिन भी इस व्रत का आचरण करना चाहिए। दे० कृत्यरत्नाकर, 433-434; स्मृतिकौस्तुभ 275-276।

गौकर्णक्षेत्र : कर्नाटक प्रदेश में गोवा के समीप में स्थित एक शैवतीर्थ। यह रावण द्वारा स्थापित कहा जाता है। उत्तर प्रदेश के खीरी जिले में 'गोला गोकरणनाथ' भी उत्तर का गोकर्ण तीर्थ कहलाता है। गोकर्णक्षेत्र के आसपास कई तीर्थ हैं-- 1. माण्डव्यकुण्ड (गोकर्ण से चार मील पश्चिम) 2. कोणार्क कुण्ड 3. भद्रकुण्ड (गोकर्ण मन्दिर से आध मील) 4. पुनर्भूकुण्ड और 5. गोकर्णतीर्थ (मन्दिर के समीप)। इस क्षेत्र में गोकर्णनाथ को मिलाकर पञ्चलिङ्ग माने जाते हैं, जिनमें मुख्य लिङ्ग गोकर्णजी का है। दूसरा देवकली के पास सरोवर के किनारे देवेश्वर महादेव, तीसरा भीटा स्टेशन के पास गदेश्वर, चौथा गोकर्णनाथ से दक्षिण बावर गाँव में वटेश्वर और पाँचवाँ सुनेसर गाँव के पश्चिम स्वर्णेश्वर। इनके दर्शनों के लिए बहुसंख्यक यात्री आते हैं। श्रीमद्भागवत में गोकर्ण का उल्लेख है :

ततोऽभिव्रज्य भनवान् केरलांस्तु त्रिगर्तकान्। गोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जटेः॥

[तदन्तर बलरामजी केरल देश में गये, पुनः त्रिगर्त में पहुँचे जहाँ गोकर्ण नामक शंकरजी विराजते हैं।] देवी भागवत (7.30.60) में शाक्त पीठों में इसकी गणना की गयी है :

केदारपीठे सम्प्रोक्ता देवी सन्मार्गदायिनी। मन्दा हिमवतः पृष्ठे गोकर्णे भद्रकर्णिका॥

इसके अनुसार गोकर्ण में भद्रकर्णिका देवी का निवास है।

गोकुल : यह वैष्णव तीर्थ है। विश्वास किया जाता है कि भगवान् कृष्ण ने यहाँ गौएँ चरायी थी। मथुरा से दक्षिण छः मील दूर यह यमुना के दूसरे तट पर स्थित है। कहा जाता है, श्री कृष्ण के पालक पिता नन्दजी का यहाँ गोष्ठ था। संप्रति वल्लभाचार्य, उनके पुत्र गुसाँई बिट्ठलनाथजी एवं गोकुलनाथजी की बैठकें हैं। मुख्य मन्दिर गोकुलनाथ जी का है। यहाँ वल्लभकुल के चौबीस मन्दिर बतलाये जाते हैं।

महालिङ्गेश्वर तन्त्र में शिवशतनाम स्तोत्र के अनुसार महादेव गोपीश्वर का यह स्थान है :

गोकुल गोपिनीपूज्यो गोपीश्वर इतीरितः।

गोकुलनाथ : व्रजभाषा के गद्यलेखक रूप में गोकुलनाथ वल्लभसम्प्रदाय के प्रसिद्ध ग्रन्थकार हुए हैं। इनकी 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' व्रजभाषा की तत्कालीन टकसाली रचना बहुत ही आदरणीय है। इन्होंने पुष्टि मार्गीय सिद्धान्तग्रन्थों की व्याख्या भी लिखी है।

गोचर : इन्द्रियों से प्रत्यक्ष होनेवाला विषय। जितना दृश्य जगत् है अथवा जहाँ तक मन की गति है वह सब गोचर माया का साम्राज्य है। परमतत्त्व इससे परे है। वेदान्तसार में कथन है 'अखण्डे सच्चिदानन्दमवाङ्मनसगोचरम्।'

गोचर्म : (1) गौ का चमड़ा। कई धार्मिक कृत्यों में गोचर्म के आसन का विधान है। समयाचारतन्त्र (पटल 2) में विविध कर्मों में विविध आसन निम्नांकित प्रकार से बतलाये गये हैं :

शान्तौ मृगाजिनं शस्तं मोक्षार्थ व्याघ्रचर्म च। गोचर्म स्तम्भने देवि सम्भवे वाजिचर्म च॥

इसके अनुसार स्तम्भन क्रिया (शत्रु के जड़ीकरण) में गोचर्म काम आता है। पारस्कर आदि गृह्यसूत्रों के अनुसार विवाह संस्कार की एक क्रिया में वर को वृषभचर्म पर बैठने का विधान है। यहाँ पर वृषभचर्म वृष्यता अथवा सर्जनशक्ति का प्रतीक है।

(2) भूमि का एक माप :

दशहस्तेन वंशेन दस वंशान् समन्ततः। पंच चाभ्यधिकान् दद्याद् एतद् गोचर्म उच्यते॥ (वसिष्ठ)

[दस हाथ लम्बे बाँस द्वारा पंद्रह-पंद्रह वर्गाकार में नापी गयी भूमि गोचर्म कहलाती हैं।]

गोतम : गोतम का उल्लेख ऋग्वेद में अनेक बार हुआ है, किन्तु किसी ऋचा के रचयिता के रूप में नहीं। यह स्पष्ट है कि उनका सम्बन्ध आङ्गिरसों से था, क्योंकि गोतम प्रायः उनका उल्लेख करते हैं। ऋग्वेद की एक ऋचा में इनका पितृवाचक 'रहुगण' (1.78.5) शब्द आया है। शतपथ ब्राह्मण में इन्हें 'माथ्व विदेस' का पारिवारिक पुरोहित तथा वैदिक सभ्यता के वाहक समझा गया है (1.14.1.10)। उसी ब्राह्मण में इन्हें विदेह जनक एवं याज्ञवल्क्य का समकालीन एवं एक सूक्त का रचयिता कहा गया है। अथर्ववेद के दो परिच्छेदों में भी इनका उल्लेख है। वामदेव तथा नोधस इनके पुत्र थे। उनमें वाजश्रवस् भी सम्मिलित हैं।

गोत्र : इसकी व्युत्पत्ति कई प्रकार से बतायी गयी है। पूर्व पुरुषों का यह उद्घोष करता है, इसलिए गोत्र कहलाता है। इसके पर्याय हैं सन्तति, कुल, जनन, अभिजन, अन्वय, वंश, सन्तान आदि। कुछ विद्वानों के अनुसार 'गोत्र' शब्द का अर्थ 'गोष्ठ' है। आदिम काल में जितने कुटुम्बों की गायें एक गोष्ठ में रहती थीं उनका एक गोत्र होता था। परन्तु इसका सम्बन्ध प्रायः वंशपरम्परा से ही है। वास्तविक अथवा कल्पित आदि पुरुष से वंशपरम्परा प्रारम्भ होती है। मनु के अनुसार निम्नांकित मूल गोत्र ऋषि थे :

जमदग्निर्भरद्वाजो विश्वामित्रात्रिगौतमाः। वसिष्ठ काश्यपागस्त्या मुनयो गोत्रकारिणः। एतेषां यान्यपत्यानि तानि गोत्राणि मन्यते॥

किन्तु अन्यत्र मनु ने ही चौबीस गोत्रों का उल्लेख किया है :

शाण्डिल्यः काश्यपश्चैव वात्स्यः सावर्णकस्तथा। भरद्वाजो गौतमश्च सौकालीनस्तथापरः॥ कल्किपञ्चाग्निवेश्यश्च कृष्णात्रेयवसिष्ठकौ। विश्वामित्रः कुशिश्च कौशिकश्च तथापरः॥ घृतकौशिकमौद्गल्यौ आलम्यान पराशरः। सौपायनस्तथात्रिश्च वासुकी रोहितस्तथा॥ वैयाघ्रपद्यकश्चैव जामदग्नयस्तथापरः। चतुर्विशतिर्वै गोत्रा कथितः पूर्वपण्डितैः॥

कुलदीपिका में उद्धृत धनञ्जयकृत धर्मप्रदीप के अनुसार चालीस गोत्र निम्नांकित हैं :

सौकालीनकमौद्गल्यौ पराशरबृहस्पती। काञ्चनो विष्णुकौशिक्यौ कात्यायनात्रेयकाण्वकाः॥ कृष्णात्रेयः साङ्कृतिश्च कौडिन्यो गर्गसंज्ञकः। आङ्गिरस इति ख्यातः अनावृकाख्यसंज्ञितः॥ अव्यजैमिनिवृद्धाख्या शाण्डिल्यो वात्स एव च। सावर्ण्यालम्यानवैयाघ्रपद्यश्च घृतकौशिकः॥ शक्तिः काण्वायनश्चैव वासुकी गौतमस्तथा। शुनकः सौपायनश्चैव मुनयो गोत्रकारिणः॥ एतेषां यान्यपत्यानि तानि गोत्राणि मन्यते॥

गोत्रों के आदि पुरुष ब्राह्मण ऋषि थे। इसलिए ब्राह्मणों के जो गोत्र हैं वे ही पौरोहित्य परम्परा से क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के भी गोत्र हैं। अग्निपुराण के वर्णसङ्करो पाख्यान में इस मत का उल्लेख किया गया है :

क्षत्रिय-वैश्य-शूद्राणां गोत्रं च प्रवरादिकम्। तथान्यवर्णसङ्कराणां येषां विप्राश्च याजकाः॥

जिनकी पौरोहित्य परम्परा छिन्न हो गयी है और जिनके गोत्र का पता नहीं लगता उनकी गणना काश्यप गोत्र में की जाती है, क्योंकि कश्यप सबके पूर्वज माने जाते हैं। दे० गोत्रप्रवरमञ्जरी।

गोत्रिरात्र व्रत : (1) यह व्रत आश्विन कृष्ण त्रयोदशी को आरम्भ होता है। तीन दिन तक इसका आचरण किया जाता है। इसके गोविन्द देवता हैं। गोशाला अथवा पर्णशाला में वेदिका का निर्माण कर उस पर मण्डल बनाकर भगवान कृष्ण की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए, जिसकी दाहिनी और बायीं ओर चार-चार पटरानियाँ हों। चौथे दिन होम, गौओं को अर्घ्‍यदान तथा उनका पूजन होना चाहिए। इस व्रत के आचरण से सन्तान की वृद्धि होती है।

(2) भाद्र शुक्ल द्वादशी अथवा कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत का प्रारम्भ करना चाहिए। तीन दिन तक उपवास, लक्ष्मी, नारायण तथा कामधेनु का पूजन होना चाहिए। इसके अनुष्ठान से सुख-सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

(3) यह व्रत भाद्र शुक्ल त्रयोदशी को आरम्भ करना चाहिए। तीन दिन पर्यन्त इसका आचरण होना चाहिए। कामधेनु तथा लक्ष्मीनारायण की पूजा का इसमें विधान है। दे० हेमाद्रि, व्रतखंड, 303-308 (भविष्योत्तर पुराण से); व्रतप्रकाश (पत्रात्मक 161)।

गोदा : दक्षिण भारत की प्रेमानुरागवती एक विष्णुभक्त महिला। आलवार भक्तों में पेरिया आलवार अर्थात् 'सर्वश्रेष्ठ भक्त' का जन्म परम्परा के अनुसार कलिसंवत्सर 45 में हुआ था। उनकी पुत्री अण्डाल, जो कलिसंवत् 96 में उत्पन्न हुई थी, बहुत बड़ी भक्त थी। बहुत ही मधुरभाषिणी होने के कारण उसे गोदा कहते थे। उसने तमिल भाषा में 'स्तोत्र रत्नावली' पुस्तक की रचना की है, जिसमें तीन सौ स्तोत्र हैं। तमिल भक्तों में इनका बड़ा आदर है। (इनकी जन्मतिथि आदरार्थ अत्‍यन्त प्राचीन काल में मानी गयी है।)

गोदान : गो= केशों का दान= खण्डन करने वाला संस्कार, जो दाढ़ी-मूछों के मुण्डन रूप में होता है। इसीलिए शतपथ ब्राह्मण में इसका अर्थ 'क्षौरकर्म' है। गोदान विधि (सिर का मुण्डन) पूर्ण युवावस्था की प्राप्ति पर तथा विवाह के अवसर पर होती है। अथर्ववेद में इस विधि का उल्लेख है, किन्तु यह नाम नहीं है। बाद में केशान्त संस्कार का यह पर्याय हो गया, क्योंकि प्रथम बार दाढ़ी-मूछ साफ करने के समय गोदान किया जाता था। दे० 'केशान्त'।

गोदावरी : दक्षिण भारत की गङ्गा। भारत की पवित्र नदियों में इसका तीसरा स्थान है। स्नान करने के समय इसका ध्यान और आवाहन किया जाता है:

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति। कावेरि नर्मदे सिन्धो जलेऽस्मिन्सन्निधिं कुरु॥

वैदिक साहित्य में गोदावरी का उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु रामायण के समय से इसकी चर्चा प्रारम्भ हो जाती है। अरण्यकाण्ड (13.13.21) में कथन है कि पञ्चवटी नामक प्रदेश गोदावरी के निकट और अगस्त्य आश्रम से दो योजन की दूरी पर स्थित है।

महाभारत के वनपर्व (88.2) में गोदावरी का निम्नांकित वर्णन पाया जाता है :

यस्यामाख्यायते पुण्या दिशि गोदावरी नदी। बह्वारामा बहुजला तापसाचरिता शिवा॥

ब्रह्मपुराण (70.175) में गोदावरी और उसके तटवर्ती तीर्थों का विस्तार से वर्णन पाया जाता है। ब्रह्मपुराण गोदावरी को प्रायः गौतमी कहता है :

विन्ध्यस्य दक्षिणे गङ्गा गौतमी सा निगद्यते। उत्तरे साऽपि विन्ध्यस्य भागीरथ्यभिधीयते॥ (78.77) (तीर्थसार में उद्धृत)

गोदावरी द्वारा सिञ्चित प्रदेश को अत्यन्त पवित्र और धर्म तथा मुक्ति का बीज कहा गया है :

धर्मबीजं मुक्तिबीजं दण्डकारण्यमुच्यते। विशेषाद् गौतमीश्लिष्टों देशः पुण्यतमोऽभवत्॥ (वही, 161.73)

कई पुराणों में गोदावरी घाटी के ऊपरी अञ्चल की बड़ी प्रशंसा की गयी है :

स्यस्यान्तरे चैते तत्र गोदावरी नदी। पृथिव्यामपि कृत्स्नायां स प्रदेशो मनोरमः॥ यत्र गोवर्धनो नाम मन्दरो गन्धमादनः॥ (मत्स्यपुराण 114.37-38)

गोदावरी की उत्पत्ति के विषय में पुराणों में कई कथाएँ दी हुई हैं। ब्रह्मपुराण (74.76) के अनुसार गौतम ऋषि शिव की जटा से गङ्गा को ब्रह्मगिरि में अपने आश्रम के पास ले आये थे। कुछ परिवर्तन के साथ यही कथा नारदपुराण (उत्तरार्द्ध, 72) तथा वराहपुराण (71.37.44) में पायी जाती है। ब्रह्मगिरि में आकर गङ्गा ही गोदावरी बन गयी। कूर्मपुराण (2.20.29-35) के अनुसार गोदावरी के तट पर किया हुआ श्राद्ध बहुत ही पुण्यकारक होता है।

गोदावरी के किनारे स्थित तीर्थों की संख्या बहुत बड़ी है। ब्रह्मपुराण में लगभग एक सौ तीर्थों का वर्णन पाया जाता है, जिनमें त्र्यम्बक, कुशावर्त, जनस्थान, गोवर्धन, पञ्चवटी और जनस्थान। प्राचीन काल में इन तीर्थों में बहुत बड़ी संख्या में मन्दिर थे। परन्तु मुसलमानी काल में उनमें से अधिकांश ध्वस्त हो गये। फिर मराठों के उत्थान के पश्चात् पेशवाओं के शासनकाल में अनेक मन्दिरों का निर्माण हुआ। पञ्चवटी में रामजीमन्दिर एवं गोदावरी के बायें किनारे पर नासिक में नारोशङ्कर मन्दिर प्रसिद्ध है। पञ्चवटी में सीतागुफा यात्रियों के विशेष आकर्षण का स्थान है। सीतागुफा के ही पास कालाराम का मन्दिर है, जिसकी गणना दक्षिण-पश्चिम भारत के सर्वोत्तम मन्दिरों में की जा सकती है। गोवर्धन औऱ तपोवन के बीच कई पवित्र घाट और कुण्ड हैं। नासिक में सबसे पवित्र स्थान रामकुण्ड और सबसे प्रसिद्ध धार्मिक पर्व रामनवमी है। बृहस्पति के सिंहस्थ होने के अवसर पर गोदावरी का स्नान अत्यन्त पुण्यकारक माना जाता है जिसका बारह वर्ष में एक बार यहाँ विशाल धार्मिक समारोहपूर्वक मेला लगता है।

गोधूमव्रत : सत्ययुग में नवमी के दिन भगवान् जनार्दन (विष्णु) द्वारा दुर्गा, कुबेर, वरुण तथा वनस्पतियों का निर्माण किया गया। वनस्पति भी एक चेतन देवता है, जिसमें गोधूम प्रमुख है। इस व्रत में गेहूँ के आटे के बने पदार्थों से उपर्युक्त पाँच देवताओं का पूजन करना चाहिए। दे० कृत्य रत्नाकर, 285-286।

गोपथ ब्राह्मण : अथर्ववेद से सम्बन्धित एक ब्राह्मणग्रन्थ। इसके विषयों में विविधता है। यह ग्रन्थ 'वैतानसूत्र' पर आधारित है। इसमें दो काण्ड हैं, जिनका 11 अध्यायों में विभाजन हुआ है। पहले काण्ड में पाँच तथा दूसरे में छः अध्याय हैं। अध्याय प्रपाठक भी कहलाते हैं। इस ब्राह्मण का मुख्यतः सम्बन्ध ब्रह्मविद्या से है। इसके कुछ अंश शतपथ और ताण्ड्य ब्राह्मण से लिये गये हैं और कुछ स्पष्टतः परवर्ती प्रक्षेप जान पड़ते हैं।

गोपदत्रिरात्र (गोष्पदत्रिरात्र) : इस व्रत को भाद्र शुक्ल तृतीया या चतुर्थी को अथवा कार्तिक मास में प्रारम्भ करना चाहिए। तीन दिन तक गौओं तथा लक्ष्मीनारायण के पूजन का इसमें विधान है। सूर्योदय के समय व्रत की स्वीकृति तथा उसी दिन उपवास करना चाहिए। गौ के सींग और पूँछ को दही तथा घी से अभिषिञ्चित करना चाहिए। व्रती को चूल्हे में न पकाया हुआ खाद्य ग्रहण करना चाहिए। तैल तथा लवण वर्जित हैं। दे० हेमाद्रि, 2. 323-326 (भविष्योत्तर पुराण 191--16 से)। हेमाद्रि के अनुसार पूजन के समय 'माता रुद्राणाम्', (ऋग्वेद, अष्टम मण्डल, 101.15.1) मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए।

गोपद्मव्रत : आश्विन मास की पूर्णिमा, अष्टमी, एकादशी अथवा द्वादशी को व्रत प्रारम्भ कर चार मास पर्यन्त तब तक किया जाय जब तक कृष्ण पक्ष की वही तिथि न आ जाय। इस व्रत को सभी कर सकते हैं, किन्तु विशेष रूप से इस व्रत का विधान नव विवाहितों के लिए है। गौ के पैर की प्रतिमा अपने गृह में, गोशाला में, विष्‍णुमन्दिर में, शिवालय में अथवा तुलसी के थाले के पास 33 बार अंकित कर पाँच वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इसके विष्णु देवता हैं। तदनन्तर उद्यापन का विधान है। व्रत के अन्त में गोदान करना चाहिए। दे० स्मृतिकौस्तुभ, 418-424; 604-608।

गोपाल : (1) भगवान् कृष्ण का एक लोकप्रिय नाम। भागवत धर्म में कृष्ण या वासुदेव के ईश्वरीकरण के विषय में विभिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। रामकृष्ण गोपाल भण्डाकर वासुदेव एवं कृष्ण में अन्तर बतलाते हैं। उनका कहना है कि वासुदेव प्रारम्भ में सात्वत कुल के प्रमुख व्यक्ति थे, जो छठी शती ई० पू० में या इससे पूर्व हुए थे। उन्होंने अपने कुल के लोगों को एकेश्वरवाद की शिक्षा दी। तदनन्तर उनके अनुयायियों ने उन्हें व्यक्तिगत ईश्वर मानकर उनकी ही आराधना प्रारम्भ की। उन्हें पहले नारायण, फिर विष्णु और अन्त में मथुरा के गोपदेवता 'गोपाल कृष्ण' के रूप में माना गया। इस सम्प्रदाय में प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ भगवद्गीता की रचना की गयी जो सैद्धान्तिक ग्रन्थ है। दे० उनका ग्रन्थ 'वैष्णविज्म, शैविज्म ऐण्ड अदर माइनर रेलिजस सेक्ट्स ऑफ् इन्डिया।' इस कथन में कल्पना का पुट अधिक है। 'गोविन्द', 'गोपाल' आदि कृष्ण के पर्याय बहुत पुराने हैं।

(2) व्रजमंडल में बसने वाले गोपों को भी गोपाल कहा गया है, जो वैकुंठवासी देवों के अवतार थे :

गोपाला मुनयः सर्वे वैकुण्ठानन्दमूर्तयः।

गोपालचम्पू : महात्मा जीव गोस्वामी द्वारा रचित कृष्णलीलासम्बन्धी काव्यग्रन्थ। गौडीय वैष्णव सम्प्रदाय में यह बहुत लोकप्रिय है।

गोपालतापनीयोपनिषद् : इसमें गोपाल कृष्ण के ब्रह्मत्व का निरूपण किया गया है। कृष्णोपासक वैष्णवों की यह विश्वस्त एवं प्रामाणिक उपनिषद् है।

गोपालनवमी : इस व्रत का अनुष्ठान नवमी के दिन करना चाहिए। समुद्रगामिनी नदी में स्नान करने का इसमें विधान है। कृष्ण भगवान् की पूजा होनी चाहिए।

गोपाल भट्ट : चैतन्यसम्प्रदाय के एक आचार्य। ये इस सम्प्रदाय के प्रारम्भिक छः गोस्वामियों में से एक थे। 'हरिभक्तिविलास' इस सम्प्रदाय का प्रसिद्ध ग्रन्थ है, जिसकी रचना सनातन गोस्वामी ने की। परन्तु यह गोपाल द्वारा भी रचित माना जाता है। भट्टजी दक्षिण देश के निवासी थे, बाद में चैतन्य महाप्रभु की आज्ञा से वृन्दावन में आकर आजीवन भगवान् की आराधना एवं ग्रन्थरचना करते रहे।

गोपालसहस्रनाम : सभी कृष्णभक्त सम्प्रदायों का धार्मिक स्तोत्र ग्रन्थ। इसमें भगवान् कृष्ण के एक सहस्र नामों का कीर्तन है।

गोपाष्टमी : कार्तिक शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसी दिन भगवान् कृष्ण गोप बने थे। इसके देवता भी वे ही हैं। इसमें गौओं के पूजन का विधान है (दे० निर्णयामृत, 77 (कूर्म पुराण से))।

गोपिनी : वीराचार (तान्त्रिक) सम्प्रदाय के पश्वाचारी साधकों की पूजनीय नायिकाओं का एक प्रकार गोपिनी व्युत्पत्ति बतलायी गयी है :

आत्मानं गोपयेद् या च सर्वदा पशुसङ्कटे। सर्ववर्णोद्भवा रम्या गोपिनी सा प्रकीर्तिता॥

गोपी : वैष्णव वाङ्मय में भागवतपुराण, हरिवंश एवं विष्णुपुराण का प्रमुख स्थान है। तीनों में कृष्ण के जीवन काल का वर्णन मिलता है। भागवत में उनके परवर्ती जीवन की अपेक्षा बाल्य एवं युवा काल का वर्णन अति सुन्दर हुआ है। इसमें गोपियों के बीच उनकी क्रीड़ा का वर्णन प्रमुख हो गया है। गोपियाँ अनन्य भक्ति की प्रतीक हैं। गोपीभाव का अर्थ है अनन्यभक्ति। दार्शनिक दृष्टि से गोपियाँ 'गोपाल-विष्णु' की ह्लादिनी शक्ति की अनेक रूपों में अभिव्यक्ति हैं, जो उनके साथ नित्य विहार अथवा रास करती हैं।

गोपीतत्व और गोपीभाव के उद्गम और विकास का इतिहास बहुत लम्बा और मनोरञ्जक है। सर्वप्रथम ऋग्वेद के विष्णुसूक्त (1.155.5) में विष्णु के लिए 'गोप', 'गोपति', 'गोपा' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। यह भी कहा गया है कि विष्णुलोक में मधु का उत्स है और उसमें भूरश्रृंगा गौएँ चरती हैं। ये शब्द निश्चित रूप से विष्णु का सम्बन्ध, चाहे प्रतीकात्मक ही क्यों न हो, गो, गोप और गोपियों से जोड़ते हैं। यहाँ पर गो, गोप आदि शब्द यौगिक हैं, व्यक्तिवाचक अथवा जातिवाचक नहीं। इनका सम्बन्ध है गमन, विक्रम, समृद्धि, माधुर्य और आनन्द से। इसी मूल वैदिक कल्पना के आधार पर वैष्णव साहित्य में कृष्ण के गोपस्वरूप, उनके गोपसखा, गोपी, गोपी भाव की सारी कल्पनाएँ और भावनाएँ विकसित हुईं। यह कहना कि कृष्ण का मूलतः सम्बन्ध केवल गोप-प्रजाति से था, वैष्णव धर्म के इतिहास को बीच में खण्डित रूप से देखना है। हाँ, यहाँ कहना ठीक है कि विष्णु का गोप रूप गोचारण करने वाले गोपों और गोपियों में अधिक लोकप्रिय हुआ।

महाभारत में कृष्ण और विष्णु का ऐक्य तो स्थापित हो गया था, परन्तु उसमें कृष्ण की बाललीला की चर्चा न होने से गोपियों का कोई प्रसंग नहीं है। किन्तु पुराणों में गोप-गोपियों का वर्णन (रूपकात्मक) मिलना प्रारम्भ जाता है। भागवत (10.1.23) पुराण में तो स्पष्ट कथन है कि गोपियाँ देवपत्नियाँ थीं, भगवान् कृष्ण का अनुरञ्जन करने के लिए वे गोपी रूप में अवतरित हुईं। ब्रह्मवैवर्त और पद्मपराण में गोपीकल्पना और गोपीभावना का प्रचुर विस्तार हुआ है। इनमें गोलोक, नित्य वृन्दावन, नित्य रासक्रीड़ा, कृष्ण के ब्रह्मरत्न, राधा की आह्लादिका शक्ति, आदि का सरहस्य वर्णन पाया जाता है।

मध्ययुगीन कृष्णभक्त सन्तों ने गोपीभाव को और अधिक प्रोत्साहन दिया और गोपियों की अनन्त कल्पनाएँ हुईं। सनकादि अथवा हंस सम्प्रदाय के आचार्य निम्बार्क ने गोपीभाव की दार्शनिक तथा रहस्यात्मक व्याख्या की है। इनके अनुसार कृष्ण ब्रह्म हैं। इनकी दो शक्तियाँ हैं-- (1) ऐश्वर्य और (2) माधुर्य। उनकी ऐश्वर्यशक्ति में रमा, लक्ष्मी, भू आदि की गणना है। उनकी माधुर्य शक्ति में राधा तथा अन्य गोपियों की गणना है। गोपियाँ कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति हैं। निम्बार्क ने कहा :

अङ्गे तु वामे वृषभानुजां मुदा, विराजमानामनुरूपसौभगाम्। सखीसहस्रैः परिसेवितां सदा, स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम्॥ (दशश्लोकी) स्पष्टतः यहाँ राधा की कल्पना शक्तिरूप में हुई है।

गौडीय वैष्णव (चैतन्य) सम्प्रदाय के द्वारा गोपीभाव का सबसे अधिक विस्तार और प्रसार हुआ। पुष्टिमार्ग ने इसे और पुष्ट किया। इन दोनों सम्प्रदायों के अनुसार गोपियाँ भगवान् कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति हैं। लीला में कृष्ण के साथ उनका प्रत्यक्ष औऱ अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में नित्य साहचर्य है। वृन्दावन की प्रत्यक्ष रासलीला में वे भगवान् की गुह्य ह्लादिनी शक्ति का प्रवर्तन करती हैं। वे नित्यसिद्धा मानी गयी हैं। चैतन्य मत के आचार्यों ने गोपियों का सूक्ष्म किन्तु विस्तृत वर्गीकरण किया है। दे० रूप गोस्वामीकृत 'उज्जवलनीलमणि', कृष्णवल्लभा अध्याय। गोपियों के स्वरूप और नाम के विषय में अन्यत्र भी कथन है :

गोप्यस्तु श्रुतयो ज्ञेयाः स्वाधिजा गोपकन्यका। देवकन्याश्च राजेन्द्र न मानुष्यः कथञ्चन॥

[गोपियों को श्रुति (वेद अथवा मधुस्वर) समझना चाहिए। ये गोपकन्यका अपनी अधिष्ठान शक्ति से उत्पन्न हुई हैं। हे राजेन्द्र! ये देवकन्याएँ हैं; किसी प्रकार ये मानुषी नहीं हैं।] ब्रजबाला के रूप में इनके निम्नांकित नाम हैं : पूर्णरसा, रसमन्थरा, रसालया, रससुन्दरी, रसपीयूषधामा, रसतरङ्गिणी, रसकल्लोलिनी, रसवापिका, अनङ्गमञ्जरी, अनङ्गमानिनी, मदयन्ती, रङ्गविह्वला, ललितयौवना, अनङ्गकुसुमा, मदनमञ्जरी, कलावती, ललिता, रतिकला, कलकण्ठी आदि।

श्रुतिगण के रूप में इनके निम्नलिखित नाम हैं : उद्गीता, रसगीता, कलगीता, कलस्वरा, कलकण्ठिता, विपञ्ची, कलपदा, बहुमता, कर्मसुनिष्ठा, बहुहरि, बहुशाखा, विशाखा, सुप्रयोगतमा, विप्रयोगा, बहुप्रयोगा, बहुकला, कलावती, क्रियावती आदि।

मुनिगण के रूप में गोपियों के नाम अधोलिखित हैं :

उग्रतपा, सुतपा, प्रियव्रता, सुरता, सुरेखा, सुयर्वा, बहुप्रदा, रत्नरेखा, मणिग्रीवा, अपर्णा, सुपर्णा, मत्ता, सुलक्षणा, मुदती, गुणवती, सौकालिनी, सुलोचना, सुमना, सुभद्रा, सुशीला, सुरभि, सुखदायिका आदि।

गोपबालाओं के रूप में उनकी संज्ञा नीचे लिखे प्रकार की हैं :

चन्द्रावली, चन्द्रिका, काञ्चनमाला, रुक्ममाला, चन्द्रनना, चन्द्ररेखा, चान्द्रवापी, चन्द्रमाला, चन्द्रप्रभा, चन्द्रकला, सौवर्णमाला, मणिमालिका, वर्णप्रभा, शुद्ध काञ्चनसन्निभा, मालती, यूथी, वासन्ती, नवमल्लिका, मल्ली, नवमल्ली, शेफालिका, सौगन्धिका, कस्तूरी, पद्मिनी, कुमुद्वती, गोपाली, रसाला, सुरसा, मधुमञ्जरी, रम्भा, उर्वशी, सुरेखा, स्वर्णरेखिका, वसन्ततिलका आदि। दे० पद्मपुराण, पातालखण्ड।

गोपीचन्दन : यह एक प्रकार की मिट्टी है जो द्वारका के पास गोपीतालाब में मिलती है। कहा जाता है कि यह गोपियों की अंगधूलि है जहाँ उन्होंने कृष्ण के स्वरूप में अपने को लीन कर दिया था। गोपीचन्दन से बनाया हुआ 'ऊर्द्धपुण्ड्र' तिलक भागवत सम्प्रदाय का चिह्न है। इसको धारण करनेवाले गोपीभाव की उपासना करते हैं।

गोपीचन्दन उपनिषद् : वासुदेव तथा गोपीचन्दन-उपनिषद् वैष्णवों के परवर्ती युग की रचनायें हैं। दोनों में गोपी-चन्दन से ललाट पर ऊर्द्धपुण्ड्र लगाने का निर्देश है। इनमें गोपीचन्दन और गोपीभाव का तात्विक विवेचन किया गया है।

गोपीचंद्रनाथ : नाथ सम्प्रदाय के नौ नाथों में से अन्तिम गोपीचन्द्रनाथ थे। गुरु गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, भर्तृनाथ, गोपीचन्द्रनाथ, सभी अब तक जीवित एवं अमर समझे जाते हैं। कहते हैं कि साधकों को कभी-कभी इनके दर्शन भी हो जाते हैं। इन योगियों को चिरजीवन ही नहीं प्राप्त है, इन्हें चिरयौवन भी प्राप्त है। ये योगबल से नित्य किशोर रूप या सनकादिक की तरह बालरूप में रहते हैं। गोपीचन्द (गोपीचन्द्रनाथ) के गीत आज भी भिक्षुक योगी गाते फिरते हैं।

गोपुर : धार्मिक भवनों का एक अङ्ग। मन्दिरप्रकार के मुख्य द्वारशिखर को गोपुर कहते हैं। इसकी व्युत्पत्ति है 'गोपन अर्थात् रक्षण करता है जो' (गोपायति रक्षति इति)। महाभारत (1.208.31) में एक विशाल गोपुर का उल्लेख पाया जाता है:

द्विपक्षगरुडप्रख्यैर्द्वारै सौधैश्च शोभितम्। गुप्तमभ्रचयप्रख्यैर्गोपुरैर्मन्दरोपमैः॥

दक्षिण के द्रविड शैली के मन्दिरों में बृहत्काय गोपुर पाये जाते हैं।

गोभिलगृह्यसूत्र : इस गृह्यसूत्र में चार प्रपाठक हैं। कात्यायन ने इस पर एक परिशिष्ट लिखा है। गोभिलगृह्यसूत्र सामवेद की कौथुमी शाखा वालों और राणायनी शाखा वालों का है। इसका अंग्रेजी अनुवाद ओल्डेनवर्ग ने प्रस्तुत किया है। दे० सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, जिल्द 30। इस पर अनेक संस्कृतभाष्य लिखे गये हैं, यथा भट्टनारायण का भाष्य (रघुनन्दन के 'श्राद्धतत्त्व' में उद्धृत); यशोधर का भाष्य (गोविन्दानन्द की 'क्रियाकौमुदी' में उद्धृत); सरला नाम की टीका ('श्राद्धतत्त्व' में उद्धृत)।

इसमें गृहस्थजीवन से सम्बद्ध सभी धार्मिक क्रियाओं की विधि सविस्तार वर्णित हैं। गृह्ययज्ञों में सात मुख्य हैं, यथा पितृयज्ञ, पार्वणयज्ञ, अष्टकायज्ञ, श्रावणीयज्ञ, आश्वयुजीयज्ञ, आग्रहायणीयज्ञ तथा चैत्रीयज्ञ। इनके अतिरिक्त पाँच नित्य महायज्ञ हैं, यथा ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा भूतयज्ञ। जिन शरीरसंस्कारों का वर्णन इसमें है, उनकी सूची इस प्रकार है--1. गर्भाधान 2.पुंसवन 3. सीमन्तोन्नयन 4. जातकर्म 5. नामकरण 6. निष्क्रमण 7. चूडाकर्म 8. उपनयन 9. वेदारम्भ 10. केशान्त 11. समावर्तन 12. विवाह 13. अन्त्येष्टि आदि।

गोभिल्समृति : कात्यायन के 'कर्मप्रदीप' से यह अभिन्न है। दे० आनन्दाश्रम स्मृतिसंग्रह, पृ० 49-71। कर्मप्रदीप ही गोभिलस्मृति के नाम से उद्धृत होता है। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है :

अथतो गोभिलोक्तानामन्येषां चैव कर्मणाम्। अस्पष्टानां विधिं सभ्यगदर्शयिष्ये प्रदीपवत्॥

इसके मुख्य विषय हैं---यज्ञोपवीतधारण विधि, आचमन और अङ्गस्पर्श, गणेश तथा मातृका पूजन, कुश, श्राद्ध, अग्न्याधान, अरणि, स्रुक्, स्रुव, दन्तधावन, स्नान प्राणायाम, मन्त्रोच्चारण, देव-पितृ-तर्पण, पञ्चमहायज्ञ, श्राद्धकर्म, अशौच, पत्नीधर्म, श्राद्ध के प्रकार आदि।

गोभिलीय श्राद्धकल्प : यह रघुनन्दन के 'श्राद्धतत्त्व' में उद्धृत है। महायशस् ने इसकी टीका की है, जिसका दूसरा नाम यशोधर भी है। इसके दूसरे टीकाकार समुद्रकर भी हैं, जिनका उल्लेख भवदेवकृत 'श्राद्धकला' में हुआ है।

गोमती : ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 'नदीसूक्त' में एक नदी के रूप में उद्धृत। उक्त ऋचा में इसका सिन्धु की सहायक नदी के रूप में उल्लेख हुआ है। सिन्धु में पश्चिम से आकर मिलने वाली गोमल नदी से यह निश्चय ही अभिन्न समझी जा सकती है। गोल्डनर का मत है कि गुमती या इसकी चार ऊपरी शाखाओं (क्योंकि यह शब्द बहुवचन में है) से ही उपर्युक्त नदी का साम्य है। परवर्ती साहित्य में इस नदी को कुरुक्षेत्र में स्थित तथा वैदिक सभ्यता का केन्द्रस्थल कहा गया है। आजकल इस नाम की गङ्गा की सहायक नदी उत्तर प्रदेश में प्रवाहित होती है। इसके किनारे लखनऊ, जौनपुर आदि नगर हैं।

महाभारत (6.9.17) में एक पवित्र नदी के रूप में इसका उल्लेख है, जिसके किनारे त्र्यम्बक महादेव का स्थान है :

गोमतीं धूतपापां च चान्दनाञ्च महानदीम्। अस्यास्तीरे महादेवस्त्र्यम्बकमूर्त्या विराजते॥

मालिङ्गेश्वरतन्त्र के शिवशतनाम स्तोत्र में भी कथन है :

त्र्यम्बको गोमतीतीरे गोकर्णे च त्रिलोकनः

स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (29.51) में गोमती का गङ्गा के पर्याय के रूप में उल्लेख है :

गोमती गुह्यविद्या गोर्गोप्त्री गगनगामिनी।

देवीभागवत (7.30.57) के अनुसार गोमती एक देवी का नाम है :

गोमन्ते गोमती देवी मन्दरे कामचारिणी।

प्रायश्चित्तत्त्व में उद्धृत शातातप के अनुसार गोमती एक प्रकार का वैदिक मन्त्र है :

पञ्चगव्येन गोधाती मासैकेन विशुध्यति। गोमतीञ्च जपेद् विद्यां गवां गोष्ठे च संवसेत्॥

गोमय : गाय का पुरीष (गोबर)। पञ्चगव्य (गाय के पाँच विकारों) में से यह एक है। महाभारत के दानधर्म में इसका माहात्म्य वर्णित है :

शतं वर्षसहस्राणां तपस्तप्तं सुदुष्करम्। गोभिः पूर्वं विष्ताभिर्गच्छेम श्रेष्ठतामिति॥ अस्मत्पुरीषस्नानेन जनः पूयेत सर्वदा। सकृता च पवित्रार्थ कुर्वीरन् देवमानुषाः॥ ताभ्यो वरं ददौ ब्रह्मा तपसोऽन्ते स्वयं प्रभुः। एवं भवत्विति विभुर्लोकांस्तारयतेति च॥

मनुस्मृति (11.212) के अनुसार कृच्छ्रसान्तपन व्रत में गोमयभक्षण का विधान है :

गोमूत्रं गोमय क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम्। एकरात्रोपवासश्च कृच्छ्रं सान्तपनं स्मृतम्॥

बुड्ढी, वन्ध्या, रोगार्त, सद्यः प्रसूता गाय का गोमय वर्जित है :

अत्यन्तजीर्णदेहाया वन्ध्यायाश्च विशेषतः। रोगार्तायाः प्रसूताया न गोर्गोमयमाहरेत्॥ (चिन्तामणि में उद्धृत)

गोमयादिसप्तमी : चैत्र शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण होता है। इसके सूर्य देवता हैं। प्रत्येक मास में भगवान् भास्कर का भिन्न-भिन्न नामों से पूजन, व्रती को पञ्चगव्य, यावक, अपने आप गिरि हुई पत्तियाँ अथवा दुग्धाहार ही ग्रहण करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु, 135-136; हेमाद्रि, 1.724--725।

गोमांस : गोमांसभक्षण हिन्दू मात्र के लिए निषिद्ध है। अज्ञान से अथवा ज्ञानपूर्वक गोमांस भक्षण करने पर प्रायश्चित करना आवश्यक है। अज्ञानपूर्वक प्रथम वार भक्षण के लिए पराशर ने निम्नांकित प्रायश्चित्त का विधान किया है :

अगभ्यागमने चैव मद्य-गोमांस-भक्षणे। शुद्धौ चान्द्रायणं कुर्यान्नदीं गत्वा समुद्रगाम्॥ चान्द्रायणे ततश्चीर्णे कुर्याद्ब्राह्मणभोजनम्। अनुडुत्सहितां गाञ्च दद्याद् विप्राय दक्षिणाम्॥

[अगभ्यागमन (अयोग्य स्त्री से संयोग), मद्यसेवन तथा गोमांसभक्षण के पाप से शुद्ध होने के लिए समुद्रगामिनी नदी में स्नान करके चान्द्रायणव्रत करना चाहिए। चान्द्रायण व्रत के समाप्त होने पर ब्राह्मण-भोजन कराना चाहिए और ब्राह्मण को दान में बैल के साथ गाय देनी चाहिए।]

ज्ञानपूर्वक गोमांसभक्षण में संवत्सरव्रत का विधान है :

गामश्वं कुञ्जरोष्ट्रौ च सर्व पञ्चनखं तथा। क्रव्यादं कुक्कुटं ग्राम्यं कुर्यात् संवत्सरं व्रतम्॥

दुबारा गोमांसभक्षण के लिए संवत्सरव्रत के साथ पन्द्रह गायों का दान तथा पुनः उपनयन का विधान है (विष्णुस्मृति)। विशेष विवरण के लिए देखिए 'प्रायश्चित्त विवेक'।

हठयोगप्रदीपिका (3.47.48) में गोमांसभक्षण प्रतीकात्मक है :

गोमांसं भक्षयेन्नित्यं पिवेदमरवारुणीम्। कुलीनं तमहं मन्ये इतरे कुलघातका॥ गोशब्देनोच्यते जिह्वा तत्प्रवेशो हि तालुनि। गोमांसभक्षणं तत्तु महापातकनाशनम्॥

[जो नित्य गोमांस भक्षण और अमर वारुणी का पान करता है उसको कुलीन मानता हूँ; ऐसा न करने वाले कुलघातक होते हैं। यहाँ गो-शब्द का अर्थ जिह्वा है। तालु में उसके प्रवेश को गोमांसभक्षण कहते हैं। यह महापातकों का नाश करने वाला है।]

गोमुख : (1) हिमालय पर्वत के जिस सँकरे स्थान से गङ्गा का उद्गम होता है उसे 'गोमुख' कहते हैं। यह पवित्र तीर्थस्थल माना जाता है। गङ्गोत्तरी से लगभग दस मील पर देवगाड़ नामक नदी गङ्गा में मिलती है। वहाँ से साढ़े चार मील पर चीड़ोवास (चीड़ के वृक्षों का वन) है। इस वन से चार मील पर गोमुख है। यहीं हिमधारा (ग्लेशियर) के नीचे से गङ्गाजी प्रकट होती हैं। गोमुख में इतना शीत है कि जल में हाथ डालते ही वह सूना हो जाता है। गोमुख से लौटने में शीघ्रता करनी पड़ती है। धूप निकलते ही हिमशिखरों से भारी हिमचट्ठाने टूट-टूटकर गिरने लगती हैं। अतः धूप चढ़ने के पहले लोग चीड़ोवास के पड़ाव पर पहुँच जाते हैं।

(2) यह एक प्रकार का आसन है। हठयोगप्रदीपिका (1.20) में इसका वर्णन इस प्रकार पाया जाता है :

सव्ये दक्षिणगुल्फं तु पृष्ठपार्श्‍वे नियोजयेत्। दक्षिणेऽपि तथा सव्यं गोमुखं गोमुखाकृति॥

[बायें पीठ के पार्श्व में दाहिनी एड़ी और दायें पृष्ठ पार्श्व में बायीं एड़ी लगानी चाहिए। इस प्रकार गोमुख आकृति वाला गोमुख आसन बनता है।]

(3) जपमाला के गोपन के लिए निर्मित वस्त्र की झोली को गोमुखी कहते हैं। दे० मुण्डमालातन्त्र।

गोयुग्मव्रत : रोहिणी अथवा मृगशिरा नक्षत्र को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें एक साँड़ तथा एक गौ का श्रृंगार कर उनका दान करना चाहिए। दान से पूर्व उमा तथा शङ्कर का पूजन करना चाहिए। इस व्रत का आचरण करने से कभी पत्नी पुत्र की मृत्यु नहीं देखनी पड़ती, ऐसा इस व्रत का माहात्म्य कहा गया है।

गोरक्ष : प्रसिद्ध योगी गोरक्षनाथजी 1200 ई० के लगभग हुए एवं इन्होंने अपने एक स्वतन्त्र मत का प्रचार किया। इनके समाधिस्थ होने के बाद गोरक्ष की कहानियाँ तथा नाथों की कहानियाँ इन्हीं के नाम से चल पड़ी। कहते हैं कि इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। हठयोगप्रदीपिका (2.5) में इनकी गणना सिद्धयोगियों में की गयी है :

श्री आदिनाथ-मत्स्येन्द्र-शावरानन्द-भैरवाः। चौरङ्गी-मीन-गोरक्ष-विरूपाक्ष-बिलेशयाः॥

इनकी समाधि गोरखपुर (उ.प्र.) में है जो गोरखपंथियों का प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। दे० 'गोरखनाथ' और 'गोरखनाथी'।

गोरखनाथजी का यह संस्कृत नाम है। 'गोरक्ष' शिव का भी पर्याय है।

गोरखनाथ : नाथ सम्प्रदाय का उदय यौगिक क्रियाओं के उद्धार के लिए हुआ, जिनका रूप तान्त्रिकों और सिद्धों ने विकृत कर दिया था। नाथ सम्प्रदाय के नवें नाथ प्रसिद्ध है। इस सम्प्रदाय की परम्परा में प्रथम नाम आदिनाथ (विक्रम की 8वीं शताब्दी) का है, जिन्हें सम्प्रदाय वाले भगवान् शङ्कर का अवतार मानते हैं। आदिनाथ के शिष्य मत्स्येन्द्रनाथ एवं मत्स्येन्द्र के शिष्य गोरखनाथजी हुए। नौ नाथों में गोरखनाथ का नाम सर्वप्रमुख एवं सबसे अधिक प्रसिद्ध है। उत्तर प्रदेश में प्रसिद्ध है। यहाँ नाथपंथी कनफटे योगी साधु रहते हैं। इस पन्थ वालों का योगसाधन पातञ्जलि विधि का विकसित रूप है। नेपाल के निवासी गोरखनाथ को पशुपतिनाथजी का अवतार मानते हैं। नेपाल के भोगमती, भातगाँव, मृगस्थली, चौधरी, स्वारीकोट, पिडठान आदि स्थानों में नाथ पन्थ के योगाश्रम हैं। राज्य के सिक्कों पर 'श्रीगोरखनाथ' अंकित रहता है। उनकी शिष्यता के कारण ही नेपालियों में गोरखा जाति बन गयी है और एक प्रान्त का नाम गोरखा कहलाता है। गोरखपुर में उन्होंने तपस्या की थी जहाँ वे समाधिस्थ हुए।

गोरखनाथकृत हठयोग, गोरक्षशतक, ज्ञानामृत, गोरक्षकल्प, गोरक्षसहस्रनाम आदि ग्रन्थ हैं। काशी नागरी प्रचारिणी सभा की खोज में चतुरशीत्यासन, योगचिन्तामणि, योगमहिमा, योगमार्त्तण्ड, योगसिद्धान्तपद्धति, विवेकमार्त्तण्ड और सिद्ध-सिद्धान्तपद्धति आदि संस्कृत ग्रन्थ और मिले हैं। सभा ने गोरखनाथ के ही लिखे हिन्दी के 37 ग्रन्थ खोज निकाले हैं, जिनमें मुख्य ये हैं :

(1) गोरखनाथ (2) दत्त-गोरखसंवाद (3) गोरखनाथजीरा पद (4) गोरखनाथजी के स्फुट ग्रन्थ (5) ज्ञानसिद्धान्त योग (6) ज्ञानतिलक (7) योगेश्वरीसाखी (8) नखैबोध (9) विराटपुराण और (10) गोरखसार आदि।

गोरखनाथी : गोरखनाथ के नाम से सम्बद्ध और उनके द्वारा प्रचारित एक सम्प्रदाय। गोरखनाथी (गोरक्षनाथी) लोगों का सम्बन्ध कापालिकों से अति निकट का है। गोरखनाथ की पूजा उत्तर भारत के अनेक मठ-मन्दिरों में, विशेष कर पंजाब एवं नेपाल में होती है। फिर भी इस धार्मिक सम्प्रदाय की भिन्नतासूचक कोई व्यवस्था नहीं है। संन्यासी, जिन्हें 'कनफटा योगी' कहते हैं, इस सम्प्रदाय के वरिष्ठ अंग हैं। सम्भव है (किन्तु ठीक नहीं कहा जा सकता है) गोरखनाथ नामक योगी ने ही इस सम्प्रदाय का प्रारम्भ किया हो। इसका संगठन 13वीं शताब्दी में हुआ प्रतीत होता है, क्योंकि गोरखनाथ का नाम सर्वप्रथम मराठा भक्त ज्ञानेश्वररचित 'अमृतानुभव' (ई० 1290) में उद्धृत है।

गोरखनाथ ने एक नयी योगप्रणाली को जन्म दिया, जिसे हठयोग कहते हैं। इसमें शरीर को धार्मिक कृत्यों एवं कुछ निश्चित शारीरिक क्रियाओं से शुद्ध करके मस्तिष्क की सर्वश्रेष्ठ एकाग्रता (समाधि), जो प्राचीनयोग का रूप है, प्राप्त की जाती है। विभिन्न शारीरिक प्रणालियों के शोधन और दिव्य शक्ति पाने के लिए विभिन्न आसन प्रक्रियाओं, प्राणायाम तथा अनेक मुद्राओं के संयोग से आश्चर्यजनक सिद्धि लाभ इनका लक्ष्य होता है।

गोरखपुर : उत्तरप्रदेश के पूर्वाञ्चल में नाथपन्थियों का यहाँ प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। यहाँ गोरखनाथजी की समाधि के ऊपर सुन्दर मन्दिर बना हुआ है। गर्भगृह में समाधिस्थल है, इसके पीछे काली देवी की विकराल मूर्ति है। यहाँ अखण्ड दीप जलता रहता है। गोरखपंथ का साम्प्रदायिक पीठ होने के कारण यह मठ और इसके महन्त भारत में अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। यहाँ के महंत सिद्ध पुरुष होते आये हैं।

गोरत्‍नव्रत : यह गोयुग्म का वैकल्पिक व्रत है। इसमें उन्हीं मन्त्रों का उच्चारण होता है, जिनका प्रयोग गोयुग्म व्रत में किया जाता है।

गोला गोकर्णनाथ : उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी से बाईस मील पर गोला गोकर्णनाथ नामक नगर है। यहाँ एक सरोवर है, जिसके समीप गोकर्णनाथ महादेव का विशाल मन्दिर है। वराहपुराण में कथा है कि भगवान् शङ्कर एक बार मृगरूप धारण कर यहाँ विचरण कर रहे थे। देवता उन्‍हें ढूँढ़ते हुए आये और उनमें से ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्र ने मृगरूप में शङ्कर को पहचान कर ले चलने के लिए उनकी सींग पकड़ी। मृगरूपधारी शिव तो अन्तर्धान हो गये, केवल उनके तीन सींग देवताओं के हाँथ में रह गये। उनमें से एक श्रृङ्ग देवताओं ने गोकर्ण नाथ में स्थापित किया, दूसरा भागलपुर जिले (बिहार) के श्रृङ्खेश्वर नामक स्थान में और तीसरा देवराज इन्द्र ने स्वर्ग में। पश्चात् स्वर्ग की वह लिङ्गमूर्ति रावण द्वारा दक्षिण भारत के गोकर्ण तीर्थ में स्थापित कर दी गयी। देवताओं द्वारा स्थापित मूर्ति गोला गोकर्णनाथ में है। इसलिए यह पवित्र तीर्थ माना जाता है।

गोलोक : इसका शाब्दिक अर्थ है ज्योतिरूप विष्णु का लोक (गौर्ज्योतिरूपो ज्योतिर्मयपुरुषः तस्य लोकः स्थानम्)। विष्णु के धाम को मोलोक कहते हैं। यह कल्पना ऋग्वेद के विष्णुसूक्त से प्रारम्भ होती है। विष्णु वास्तव में सूर्य का ही एक रूप है। सूर्य की किरणों का रूपक भूरिश्रृंगा (बहुत सींग वाली) गायों के रूप में बाँधा गया है। अतः विष्णुलोक को गोलोक कहा गया है। ब्रह्मवैवर्त एवं पद्मपुराण तथा निम्बार्क मतानुसार राधा कृष्ण नित्य प्रेमिका हैं। वे सदा उनके साथ 'गोलोक' में, जो सभी स्वर्गों से ऊपर है, रहती हैं। अपने स्वामी की तरह ही वे भी वृन्दावन में अवतरित हुईं एवं कृष्ण की विवाहिता स्त्री बनीं। निम्बार्कों के लिए कृष्ण केवल विष्णु के अवतार ही नहीं, वे अनन्त ब्रह्म हैं, उन्हीं से राधा तथा असंख्य गोप एवं गोपी उत्पन्न होते हैं, जो उनके साथ 'गोलोक' में भाँति-भाँति की लीला करते हैं।

तन्त्र-ग्रन्थों में गोलोक का निम्नांकित वर्णन पाया जाता है :

वैकुण्ठस्य दक्षभागे गोलोकं सर्वमोहनम्। तत्रैव राधिका देवी द्विभुजो मुरलीधरः॥यद्रूपं गोलकं धाम तद्रूपं नास्ति मामके। ज्ञाने वा चक्षुषो किंवा ध्यानयोगे न विद्यते॥ शुद्धतत्त्वमयं देवि नाना देवेन शोभितम्। मध्यदेशे गोलोकाख्यं श्रीविष्णोर्लोभमन्दिरम्॥ श्रीविष्णोः संत्वरूपस्य यत् स्थलं चित्तमोहनम्। तस्य स्थानस्य माहात्म्यं किं मया कथ्यतेऽधुना॥ आदि ब्रह्मवैवर्तपुराण (ब्रह्मखण्ड, 28 अध्याय) में भी गोलोक का विस्तृत वर्णन है।

गोवत्सद्वादशी : कार्तिक कृष्ण द्वादशी से आरम्भ कर एक वर्ष पर्यन्त इस व्रत का आचरण करना चाहिए। इसके हरि देवता हैं। प्रत्येक मास में भिन्न भिन्न नामों से हरि का पूजन करना चाहिए। इससे पुत्र की प्राप्ति होती है। दे० हेमाद्रि, 1.1083--1084।

गोवर्धन : व्रजमण्डल के एक पर्वत का नाम। जैसा इसके नाम से ही प्रकट है, इससे व्रज (चरागाह) में गायों का विशेष रूप से वर्धन (वृद्धि) होता था। भागवत की कथा के अनुसार भगवान् कृष्ण ने इन्द्रपूजा के स्थान पर गोवर्धनपूजा का प्रचार किया। इससे क्रुद्ध होकर इन्द्र ने अतिवृष्टि के साथ व्रज पर आक्रमण किया और ऐसा लगा कि व्रज जलप्रलय से नष्ट हो जायेगा। भगवान् कृष्ण ने व्रज की रक्षा के लिए गोवर्धन को एक अँगुली पर उठाकर इन्द्र द्वारा किये गये अतिवर्षण के प्रभाव को रोक दिया। तब से कृष्ण का विरुद गोवर्धनधारी हो गया और गोवर्धन की पूजा होने लगी।

यह पर्वत मथुरा से सोलह मील और बरसाने से चौदह मील दूर है, जो एक छोटी पहाड़ी के रूप में है। लम्बाई लगभग चार मील है, ऊँचाई थोड़ी ही है, कहीं कहीं तो भूमि के बराबर है। पर्वत की पूरी परिक्रमा चौदह मील की है। एक स्थान पर 108 बार दण्डवत् प्रणाम करके तब आगे बढ़ना और इसी क्रम से लगभग तीन वर्ष में इस पर्वत की परिक्रमा पूरी करना बहुत बड़ा तप माना जाता है। गोवर्धन बस्ती प्रायः मध्य में है। पद्मपुराण के पातालखण्ड में गोवर्धन का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है:

अनादिर्हरिदासोऽयं भूधरो नात्र संशयः।

[इसमें सन्देह नहीं कि यह पर्वत अनादि और भगवान् का दास है।]

गोवर्धनपूजा : पद्मपुराण (पाताल खण्ड) और हरिवंश (2.17) में गोवर्धनपूजा का विस्तार से वर्णन पाया जाता है :

प्रातर्गोवर्द्धनं पूज्य रात्रौ जागरणं चरेत्। भूषणीयास्तथा गावः पूज्याश्च दोहवाहनाः॥ श्रीकृष्णदासवर्योऽयं श्रीगोवर्द्धनभूधरः। शुक्लप्रतिपदि प्रातः कार्तिकेऽर्च्योऽत्र वैष्णवैः॥

पूजन विधि निम्नांकित है:

मथुरायां तथान्यत्र कृत्वा गोवर्द्धन गिरिम्। गोमयेन महास्थूलं तत्र पूज्यो गिरिर्यथा। मथुरायां तथा साक्षात् कृत्वा चैव प्रदक्षिणम्। वैष्णवं धाम सम्प्राप्य मोदते हरिसन्निधौ॥

गोवर्द्धन पूजा का मन्त्र इस प्रकार है :

गोवर्द्धन धराधार गोकुलत्राणकारक। विष्णुबाहुकृतोच्छायो गवां कोटिप्रदो भव॥

कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट एवं गोवर्धनपूजा होती है। गोबर का विशाल मानवाकार गोवर्धन बनाकर ध्वजा-पताकाओं से सजाया जाता है। गाय-बैल, रंग, तेल, मौर पंख आदि से अलंकृत किये जाते हैं। सबकी पूजा होती है। घरों में और देवालयों में छप्पन प्रकार के व्यञ्जन बनते हैं और भगवान् को भोग लगता है। यह त्योहार भारतव्यापी है, परन्तु मथुरा-वृन्दावन में यह विशेष रूप से मनाया जाता है।

गोवर्धनमठ : शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में जगन्नाथपुरी स्थित मठ। इन मठों को आचार्य ने अद्वैत-विद्याध्ययन एवं उसके प्रभाव के प्रसार के लिए स्थापित किया था। शङ्कर के प्रमुख चार शिष्यों में से एक आचार्य पद्मपाद इस मठ के प्रथम अध्यक्ष थे। सम्भवतः 1400 ई० में यहाँ के महन्त श्रीधर स्वामी ने भागवत पुराण की टीका लिखी।

गोविन्द : श्री कृष्ण का एक नाम। भगवद्गीता। (1.32) में अर्जुन ने कृष्ण का संबोधन किया है :

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।

इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति स प्रकार है : 'गां धेनुं पृथ्वीं वा विन्दति प्राप्नोति वा' (जो गाय अथवा पृथ्वी को प्राप्त करता है)। किन्तु विष्णुतिलक नामक ग्रन्थ में दूसरी ही व्युत्पत्ति पायी जाती है :

गोभिरेव यतो वेद्यो गोविन्दः समुदाहृतः।

[गो (वेदवाणी) से जो जाना जाता है वह गोविन्द कहलाता है।] हरिवंश के विष्णुपर्व (75.46-45) में कृष्ण के गोविन्द नाम पड़ने की निम्नलिखित कथा है :

अद्यप्रभृति नो राजा त्वमिन्द्रो वै भव प्रभो। तस्मात्त्वं काञ्चनैः पूर्णैदिव्यस्य पयसो घटैः॥ एभिरद्याभिषिच्यस्व मया हस्तावनामितैः। अहं किलेन्द्रो देवानां त्वं गवामिन्द्रतां गतः॥ गोविन्द इति लोकास्त्वां स्तोष्यन्ति भुवि शाश्वतम्॥

गोपालतापिनी उपनिषद् (पूर्व विभाग, ध्यान प्रकरण, 7-8) में गोविन्द का उल्लेख इस प्रकार है :

तान् होचुः कः कृष्णो गोविन्दश्च कोऽसाविति गोपीजन वल्लभः कः का स्वाहेति। तानुवाच ब्राह्मणः, पापकर्षणो गोभूमिवेदविदितो विदिता गोपीजना विद्या-कलाप्रेरकस्तन्माया चेति।

महाभारत (1.21.12) में भी गोविन्द नाम की व्युत्पत्ति पायी जाती है :

गां विन्दता भगवता गोविन्देनामितौजसा। वराहरूपिणा चान्तर्विक्षोभितजलाविलम्॥ पुनः महाभारत (5.70.13) में ही : विष्णुर्विक्रमाद्देवो जयनाज्जिष्णुरुच्यते। शाश्वतत्वादनन्तश्च गोविन्दो वेदनाद् गवाम्॥

ब्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृतिखण्ड, 24 वाँ अ०) में भी यही बात कही गयी है :

युगे युगे प्रणष्टां गां विष्णो! विन्दसि तत्त्वतः। गोविन्देति ततो नाम्ना प्रोच्यसे ऋषिभिस्तथा॥

[हे विष्णु! आप युग युग में नष्ट हुई गौ (वेद) को तत्वतः प्राप्त करते हैं, अतः आप ऋषियों द्वारा गोविन्द नाम से स्तुत होते हैं।]

गोविन्दद्वादशी : फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण किया जाता है। प्रत्येक मास की द्वादशी को गौओं को विधिवत् चारा खिलाना चाहिए। घृत, दधि अथवा दुग्ध मिश्रित खाद्य पदार्थों को मिट्टी के पात्रों में रखकर आहार करना चाहिए। क्षार तथा लवण वर्जित हैं। हेमाद्रि, 1.1096.97 (विष्णुरहस्य से) तथा जीमूतवाहन के कालविवेक, 468 के अनुसार द्वादशी के दिन पुष्य नक्षत्र आवश्यक है।

गोविन्ददास : ये चैतन्य सम्प्रदाय के एक भक्त कवि थे। सत्रहवीं शती के प्रारम्भिक चालीस वर्षों में चैतन्य सम्प्रदाय का आन्दोलन पर्याप्त बलिष्ठ था एवं इस काल में बँगला में उत्कृष्ट काव्यरचना (सम्प्रदाय सम्बन्धी) करने वाले कुछ कवि और लेखक हुए। इस दल में सबसे बड़ी प्रतिभा गोविन्ददास की थी।

गोविन्दप्रबोध : कार्तिक शुक्ल एकादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। कुछ ग्रन्थों में द्वादशी तिथि है।

गोविन्द भगवत्पादाचार्य : आचार्य गोविन्द भगवत्पाद गौडपादाचार्य के शिष्य तथा शङ्कराचार्य के गुरु थे। इनके विषय में विशेष कोई बात नहीं मिलती। शङ्कराचार्य की जीवनी से ऐसा मालूम होता है कि ये नर्मदा तट पर कहीं रहा करते थे। शङ्कराचार्य का उनका शिष्य होना ही यह बतलाता है कि वे अपने समय के उद्भट विद्वान्, अद्वैत सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य एवं सिद्ध योगी रहे होंगे। उनका कोई ग्रन्थ नहीं मिलता। किसी का कहना है कि ये गोविन्द पादाचार्य ही पतञ्जलि थे। परन्तु यह मत प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि पतञ्जलि का समय दूसरी शती ई० पू० का प्रथम चरण है। उनका कोई अद्वैत सिद्धान्त सम्बन्धी ग्रन्थ नहीं मिलता है।

गोविन्दभाष्य : अठारहवीं शती में बलदेव विद्याभूषण ने चैतन्य सम्प्रदाय के लिए 'वेदान्तसूत्र' पर एक व्याख्या लिखी, जिसे 'गोविन्दभाष्य' कहते हैं। इस ग्रन्थ में 'अचिन्त्य भेदाभेद' का दार्शनिक मत दर्शाया गया है कि ब्रह्म एवं आत्मा का सम्बन्ध अन्तिम विश्लेषण में भी अचिन्त्य है।

गोविन्दराज : तैत्तिरीयोपनिषद् के एक वृत्तिकार। मनुस्मृति की टीका करनेवाले भी एक गोविन्दराज हुए हैं।

गोविन्दविरुदावली : महाप्रभु चैतन्य के शिष्य रूप गोस्वामी द्वारा रचित एक ग्रन्थ।

गोविन्दशयनव्रत : आषाढ़ शुक्ल एकादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। किसी शय्या पर अथवा क्यारी में विष्णु भगवान् की प्रतिमा स्थापित की जानी चाहिए। चार मास तक व्रत के नियमों का आचरण किया जाना चाहिए। चातुर्मास्यव्रत भी इसी तिथि को आरम्भ होता है। गोविन्दशयन के बाद समस्त शुभ कर्म, जैसे उपनयन, विवाह, चूडाकर्म, प्रथम गृहप्रवेश इत्यादि चार मास तक निषिद्ध हैं।

गोविन्दसिंह : सिक्खों के दसवें गुरु। ये गुरु तेगबहादुर के पुत्र थे। इन्होंने ही 'खालसा' दल की स्थापना (1690 ई० में) की तथा पञ्च 'ककार' (केश, कंघा, कड़ा, कच्छ तथा कृपाण) धारण करने की प्रथा चलायी। इनके समय में सिक्ख सम्प्रदाय सैनिक जत्थे के रूप में संगठित हो गया। गोविन्दसिंह ने गुरुप्रथा को समाप्त कर दिया, जो नानक के काल से चली आ रही थी। दे० 'ग्रंथ साहब'।

हिन्दू धर्म की रक्षा, प्रतिष्ठा और उद्धार के लिए विगत गुरुओं के समान ही दृढ़ संगठन बनाकर ये आजीवन मुगलों से मोर्चा लेते रहे। अन्त तक इन्होंने भारी त्याग, बलिदान और संघर्ष झेलते हुए अध्यात्म वृत्ति को भी परिनिष्ठित किया। इनकी काव्यरचना ओजस्वी और कोमल, दोनों रूपों में मिलती है।

गोविन्दार्णव : एक धर्मशास्त्रीय निबन्धग्रन्थ। इसकी रचना काशी के राजा गोविन्दचन्द्र गहडवाल के प्रश्रय में रामचन्द्र के पुत्र शेष नृसिंह ने की थी। इसका दूसरा नाम 'धर्मसागर' अथवा 'धर्मतत्त्वालोक' भी है। इसमें छः वीचियाँ हैं--1.संस्कार 2. आह्निक 3. श्राद्ध 4. शुद्धि 5. काल और 6. प्रायश्चित्‍त। इसका उल्लेख 'निर्णयसिन्धु' और लक्ष्मण भट्ट के 'आचाररत्न' में हुआ है। दे० अलवर संस्कृत ग्रन्थसूची।

गोलतिका व्रत : इस व्रत में ग्रीष्म ऋतु में कलश से पवित्र जल की धारा भगवान शिव की प्रतिमा पर डाली जाती है। विश्वास किया जाता है कि इससे ब्रह्मपद की प्राप्ति होती है। दे० हेमाद्रि, 2.861 (केवल एक श्लोक)।

गोविन्द स्वामी : गोविन्द स्वामी 'ऐतरेय ब्राह्मण' के एक प्रसिद्ध भाष्यकार हुए हैं।

अष्टछाप' के एक भक्त कवि भी इस नाम से प्रसिद्ध हैं, जो संगीताचार्य भी थे।

गोविन्दानन्द : आचार्य गोविन्दानन्द शङ्कराचार्य द्वारा प्रणीत 'शारीरक भाष्य' के टीकाकार हैं। उनकी लिखी हुई 'रत्नप्रभा' सम्भवतः शाङ्करभाष्य की टीकाओं में सबसे सरल है। इसमें भाष्य के प्रायः प्रत्येक पद की व्याख्या है। सर्वसाधारण के लिए भाष्य को हृदयंगम कराने में यह बहुत ही उपयोगी है। जो लोग विस्तृत और गंभीर टीकाओं को समझने में असमर्थ हैं उन्हीं के लिए यह व्याख्या लिखी गयी है।

गोविन्दानन्दजी ने 'रत्नाप्रभा' में अपने गुरु के सम्बन्ध में जो श्लोक लिखा है उसके एक पद के साथ ब्रह्मानन्द सरस्वती कृत 'लघुचन्द्रिका' की समाप्ति के एक श्लोक का कुछ सादृश्य देखा जाता है। इन दोनों से सिद्ध होता है कि कि गोविन्दानन्द तथा ब्रह्मानन्द के विद्यागुरु श्री शिवराम थे। इससे इन दोनों का समकालीन होना भी सिद्ध होता है। ब्रह्मानन्द मधुसूदन सरस्वती के समकालीन थे। अतः गोविन्दानन्द का स्थितिकाल भी सत्रहवीं शताब्दी होना चाहिए।

गोविन्दानन्द सरस्वती : योगदर्शन के एक आचार्य। इनके शिष्य रामानन्द सरस्वती (16वीं शती के अंत) ने पतञ्जलि के योगसूत्र पर 'मणिप्रभा' नामक टीका लिखी। नारायण सरस्वती इनके दूसरे शिष्य थे, जिन्होंने 1592 ई० में एक ग्रन्थ (योग विषयक) लिखा। इनके शिष्यों के काल को देखते हुए अनुमान किया जा सकता है कि ये अवश्य 16वीं शती के प्रारम्भ में हुए होंगे।

गोष्ठाष्टमी : कार्तिक शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें गौओं के पूजन का विधान है। गौओं को घास खिलाना, उनकी परिक्रमा करना तथा उनका अनुसरण करना चाहिए।

गोष्टीपूर्ण : स्वामी रामानुज के दूसरे दीक्षागुरु। इनसे पुनः श्रीरङ्गम में रामानुज ने दीक्षा ली। गोष्ठीपूर्ण ने इन्हें योग्य समझकर मन्त्र रहस्य समझा दिया और यह आज्ञा दी कि दूसरों को यह मन्त्र न सुनायें। परन्तु जब उन्हें ज्ञात हुआ कि इस मन्त्र के सुनने से ही मनुष्यों का उद्धार हो सकता है, तब वे एक मंदिर की छत पर चढ़कर सैकड़ों नर-नारियों के सामने चिल्ला-चिल्ला कर मन्त्र का उच्चारण करने लगे। गुरु यह सुनकर बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शिष्य को बुलाकर कहा-- 'इस पाप से तुम्हें अनन्तकाल तक नरक की प्राप्ति होगी।' इस पर रामानुज ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया-- 'गुरुदेव! यदि आपकी कृपा से सब स्त्री-पुरुष मुक्त हो जायेंगे और मैं अकेला नरक में पडूँगा तो मेरे लिए यही उत्तम है।' गोष्ठीपूर्ण रामानुज की इस उदारता पर मुग्ध हो गये और उन्होंने प्रसन्न होकर कहा-- 'आज से विशिष्टाद्वैत मत तुम्हारे ही नाम 'रामानुज संम्प्रदाय' के नाम से विख्यात होगा।'

गोस्वामी : (1) एक धार्मिक उपाधि। इसका अर्थ है 'गो (इन्द्रियों) का स्वामी (अधिकारी)'। जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है वही वास्तव में 'गोस्वामी' है। इसलिए वीतराग सन्तों और वल्लभकुल के गुरुओं को भी इस उपाधि से विभूषित किया जाता है।

(2) चैतन्य सम्प्रदाय के धार्मिक नेता, विशेष कर रूप, सनातन, उनके भतीजे जीव, रघुनाथदास, गोपाल भट्ट तथा रघुनाथ भट्ट 'गोस्वामी' कहलाते हैं। ये इस सम्प्रदाय के अधिकारी नेता थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं तथा प्रचारार्थ कार्य किये हैं। चैतन्य के साथी अनुयायियों एवं उनसे सम्बन्धित अनुयायियों (भाई, भतीजे आदि) को भी गोस्वामी कहा जाता है।

(3) गौण रूप में गोस्वामी (गुसाँई) उन गृहस्थों को भी कहते हैं जो पुनः विवाह कर लेने वाले विरक्त साधुसंतों के वंशज हैं।

गोस्वामी पुरुषोत्तमजी : वल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख विद्वानों में गोस्वामी पुरुषोत्तमजी विशेष उल्लेखनीय हैं। इनकी अनेक गंभीर रचनाओं से पुष्टिमार्गीय साहित्य की श्रीवृद्धि हुई है।

गौड़पाद : सांख्यकारिका व्याख्या' के रचयिता एवं अद्वैत सिद्धान्त के प्रसिद्ध आचार्य। सांख्यकारिका के पद्यों एवं सिद्धान्तों की ठीक-ठीक व्याख्या करने में इनकी टीका महत्त्वपूर्ण है। गौडपादाचार्य के जीवन के बारे में कोई विशेष बात नहीं मिलती। आचार्य शङ्कर के शिष्य सुरेश्वराचार्य के 'नैष्कर्म्यसिद्धि' ग्रन्थ से केवल इतना पता लगता है कि वे गौड देश के रहने वाले थे। इससे प्रतीत होता है कि उनका जन्म बङ्गाल प्रान्त के किसी स्थान में हुआ होगा। शङ्कर के जीवनचरित से इतना ज्ञात होता है कि गौडपादाचार्य के साथ उनकी भेंट हुई थी। परन्तु इसके अन्य प्रमाण नहीं मिलते।

गौड़पदाचार्य का सबसे प्रधान है 'माण्डूक्योपनिषत्कारिका'। इसका शङ्कराचार्य ने भाष्य लिखा है। इस कारिका की 'मिताक्षरा' नामक टीका भी मिलती है। उनकी अन्य टीका है 'उत्तर गीता-भाष्य'। उत्तर गीता (महाभारत) का एक अंश है। परन्तु यह अंश महाभारत की सभी प्रतियों में नहीं मिलता।

गौडपाद अद्वैतसिद्धान्त के प्रधान उद्घोषक थे। इन्होंने अपनी कारिका में जिस सिद्धान्त को बीजरूप में प्रकट किया, उसी को शङ्कराचार्य नें अपने ग्रन्थों में विस्तृत रूप से समझाकर संसार के सामने रखा। कारिकाओं में उन्होंने जिस मत का प्रतिपादन किया है उसे 'अजातवाद' कहते हैं। सृष्टि के विषय में भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई काल से सृष्टि मानते हैं और कोई भगवान के संकल्प से इसकी रचना मानते हैं। इस प्रकार कोई परिणामवादी हैं और कोई आरम्भवादी। किन्तु गौडपाद के सिद्धान्तानुसार जगत् की उत्पत्ति ही नहीं हुई, केवल एक अखण्ड चिंद्धन सत्ता ही मोहवश प्रपञ्चवत् भास रही है। यही बात आचार्य इन शब्दों में कहते हैं :

मनोदृश्यमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थतः। मनसो ह्यमनीभावे द्वैतं नैवोपलभ्यते॥

[यह जितना द्वैत है सब मन का ही दृश्य है। परमार्थतः तो अद्वैत ही है, क्योंकि मन के मननशून्य हो जाने पर द्वैत की उपलब्धि नहीं होती।] आचार्य ने अपनी कारिकाओं में अनेक प्रकार की युक्तियों से यही सिद्ध किया है कि सत्, असत् अथवा सदसत् किसी भी प्रकार से प्रपञ्च की उत्पत्ति सिद्ध नहीं हो सकती। अतः परमार्थतः न उत्पत्ति है, न प्रलय है, न बद्ध है, न साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त ही है :

न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः। न मुमुक्षुर्न वै मुक्त, इत्येषा परमार्थता॥

बस, जो समस्त विरुद्ध कल्पनाओं का अधिष्ठान, सर्वगत, असङ्ग, अप्रमेय और अविकारी आत्मतत्त्व है, एक मात्र वही सद्वस्तु है। माया की महिमा से रज्जू में सर्प, शुक्ति में रजत और सुवर्ण में आभूषणादि के समान उस सर्वसङ्गशून्य निर्विशेष चित्तत्त्व में ही समस्त पदार्थों की प्रतीति हो रही है।

गौडीय वैष्णवसमाज : बङ्गाल के चैतन्य सम्प्रदाय का दूसरा नाम 'गौडीय वैष्णव समाज' है, जिसके दार्शनिक मत का नाम 'अचिन्त्य भेदाभेद वाद' है। विशेष विवरण के लिए 'चैतन्य सम्प्रदाय' अथवा 'अचिन्त्यभेदाभेदवाद' देखें।

गौतम : न्यायदर्शन के रचयिता का नाम। यह एक गोत्र नाम भी है। शाक्यगण इसी गोत्र का था। अतः बुद्ध गौतम भी कहलाते हैं। दे० 'न्याय दर्शन'।

गौतमधर्मसूत्र : प्रारम्भिक धर्मसूत्रों में से यह सामवेदीय धर्मसूत्र है। इसमें दैनिक एवं व्यावहारिक जीवन सम्बन्धी विधि संकलित है। इसमें सामाजिक जीवन, राजधर्म तथा विधि अथवा व्यवहार (न्याय) का विधान है। हरदत्त के अनुसार इसमें कुल 28 अध्याय हैं। इसके कलकत्ता संस्करण में एक अध्याय और 'कर्मविपाक' पर जोड़ दिया गया है।

गौतम बुद्ध : 562 ई० पू० शाक्य गण में इनका जन्म हुआ था। इन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया। सनातनी हिन्दू इन्हें भगवान् विष्णु का नवाँ अवतार मानते हैं। नित्य के संकल्प में प्रत्येक हिन्दू बुद्ध को वर्तमान अवतार के रूप में स्मरण करता है। बोधगया में इनका मन्दिर है जिसके बारे में सनातनियों का विश्वास है कि भगवान् विष्णु ने यह नवाँ अवतार असुरों को माया-मोह में फँसाने के लिए लिया, वेदप्रतिपादित यज्ञविधि की निन्दा की और अहिंसा एवं प्रव्रज्या का प्रचार किया कि असुर लोग, जो उस समय बहुत प्रबल थे, शान्त और संसार से विरत रहें। विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवता, अग्निपुराण, वायुपुराण, स्कन्दपुराण एवं बाद के ग्रन्थों में ये ही भाव गौतम बुद्ध के प्रति प्रकट किये गये हैं। वल्लभाचार्य ने ब्रह्मसूत्र, द्वितीय पाद, छब्बीसवें सूत्र की व्याख्या में एक आख्यायिका दी है, जो सनातनियों के उपर्युक्त विचारों की पोषिका है।

गौतमस्मृति : अष्टाविंशति स्मृतियों में एक मुख्य स्मृति।

गौतमीयतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उल्लिखित चौसठ तन्त्रों की सूची में 'गौतमीय तन्त्र' एवं 'बृहत्-गौतमीय तन्त्र' नामक दो तन्त्रों का उल्लेख है।

गौरचन्द्र : अधिक सुन्दर एवं शुभ्र वर्ण होने के कारण चैतन्य को अनेक भक्त गौरवचन्द्र कहा करते थे। उनकी प्रशंसा में 'गौरचन्द्रिका' नामक पुस्तक भी लिखी गयी है।

गौर चन्द्रिका : चैतन्य के रूपगुणों की प्रशंसा में उनके शिष्यों ने यह ग्रन्थ रचा। दे० 'गौरचन्द्र'।

गौराङ्गाष्टक : चैतन्य साहित्य में गौराङ्गाष्टक नामक सांस्कृत ग्रन्थ का भी नाम आता है। इसका उस सम्प्रदाय में नित्य पाठ किया जाता है।

गौरीकुण्ड : केदारनाथ मन्दिर से आठ मील नीचे यह एक पवित्र कुण्ड (जलाशय) है। यहाँ दो कुण्ड हैं-- एक गरम पानी का और दूसरा ठंडे पानी का। शीतल जल का कुण्ड अमृतकुण्ड कहा जाता है। कहते हैं, भगवती पार्वती ने इसी में प्रथम स्नान किया था। गौरीकुण्ड का जल काफी उष्ण है। जनविश्वास के अनुसार माता पार्वती का जन्म यहाँ हुआ था। यहाँ पार्वती का मन्दिर भी है।

गौरीगणेशचतुर्थी : किसी भी चतुर्थी के दिन इस व्रत का अनुष्ठान हो सकता है। इसमें गौरी तथा गणेश के पूजन का विधान है। इससे सफलता तथा सौभाग्‍य सुरक्षित रहते हैं।

गौरीगणेशपूजा : सभी सम्प्रदायों के हिन्दुओं में मङ्गल कार्यों के आरम्भ में गौरी-गणेश की पूजा सबसे पहले होती है। यात्रा के आरम्भ में गौरी-गणेश का स्मरण किया जाता है।

गौरीचतुर्थी : माघ शुक्ल चतुर्थी को गौरीपूजन का विधान सर्वसाधारण के लिए है। किन्तु विशेष रूप से महिलाओं द्वारा कुछ पुष्पों से विदुषी ब्राह्मणस्त्रियों तथा विधवाओं की प्रतिष्ठा करनी चाहिए।

गौरीतपोव्रत : इस व्रत का विधान केवल महिलाओं के लिए है। मार्गशीर्ष अमावस्या को अनुष्ठान होता है। अर्द्धरात्रि के समय शिव तथा पार्वती की किसी शिवमन्दिर में पूजा करनी चाहिए। सोलह वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए। तदनन्तर मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को इसका उद्यापन होना चाहिए। यह 'महाव्रत' भी कहा जाता है।

गौरीतृतीयाव्रत : चैत्र शुक्ल, भाद्र शुक्ल अथवा माघ शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। गौरी की पूजा उनके विभिन्न नामों से होती है। महादेव तथा गौरी की पूजा का इसमें विधान है। पार्वती के ये आठ नाम है : पार्वती, ललिता, गौरी, गायत्री, शाङ्करी, शिवा, उमा तथा सती।

गौरीविवाह : चैत्र मास की तृतीया, चतुर्थी अथवा पञ्चमी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। शिव तथा गौरी की सुवर्ण, रजत, नीलम की प्रतिमाएँ धनी लोग बनवाकर उनका विवाह करें। सामान्य लोग चन्दन, अर्क पौधे की, अशोक अथवा मधूक नामक वृक्ष की प्रतिमाएँ बनाकर उनका विवाह करायें। दे० कृत्यरत्नाकर, 108-110 (देवी पुराण से)।

गौरीव्रत : (1) आश्विन मास से चार मास तक इस व्रत का आचरण होता है। व्रती को दुग्ध अथवा दुग्ध की बनी वस्तुओं, दधि, घृत, तथा गन्ने का रस नहीं ग्रहण करना चाहिए, अपितु इन्हीं वस्तुओं को पात्रों में रखकर दान करना चाहिए। दान देते समय निम्न शब्दों का उच्चारण करना चाहिए, `गौरि, प्रसीदतु माम्।`

(2) केवल महिलाओं के लिए शुक्ल पक्ष में तृतीया से तथा चैत्र मास में कृष्ण पक्ष से एक वर्षपर्यन्त गौरी के भिन्न-भिन्न नामों से पूजन का विधान है। प्रत्येक तृतीया को भिन्न-भिन्न प्रकार का भोग भी विहित है।

(3) तृतीया के दिन केवल महिलाओं के लिए भविष्यत् पुराण (1.21.1) में इस व्रत का विधान है। लवणविहीन भोजन का उस दिन आहार करना चाहिए। विशेष रूप से वैशाख, भाद्रपद तथा माघ की तृतीया पवित्र है।

(4) ज्येष्ठ की चतुर्थी को उमा का पूजन करना चाहिए, क्योंकि उसी दिन उनका जन्म हुआ था।

ग्रन्थ साहब : गुरु नानक, अन्य सिक्ख-गुरुओं तथा सन्त कवियों के वचनों का इसमें संग्रह है। पाँचवे गुरु अर्जुन देव स्वयं कवि थे एवं व्यावहारिक भी। उन्होंने अमृतसर का स्वर्णमन्दिर बनवाया और 'ग्रन्थ साहब' को पूर्ण किया।

ग्रह : यज्ञकर्म का सोमपानपात्र (प्याला)। ग्रह का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (4.6.5.1) में परवर्ती ग्रह के अर्थ में न होकर ऐन्द्रजाजिक शक्ति के अर्थ में हुआ है। परवर्ती साहित्य में ही प्रथम बार इसका प्रयोग खेचर पिण्डों के अर्थ में हुआ है, जैसा कि मैत्रायणी उनिषद् (6.16) से ज्ञात है। वैदिक भारतीयों को ग्रहों का ज्ञान था। ओल्डेनवर्ग ग्रहों को आदित्यों की संज्ञा देते हैं जो सात हैं--सूर्य, चन्द्र एवं पाँच अन्य ग्रह। दूसरे पाश्चात्य विद्वानों ने इसका विरोध किया है। हिलब्राण्ट ने पाँच अध्वर्युओं (ऋग्वेद 3.7.7) को ग्रह कहा है। यह भी केवल अनुमान ही है। 'पञ्च उक्षाणः' को ऋग्वेद के एक दूसरे मन्त्र में उसी अनिश्चिततापूर्वक ग्रह कहा गया है। निरुक्त के भाष्य में दुर्गाचार्य ने 'भूमिज' को मङ्गल ग्रह कहा है। परवर्त्ती तैत्तिरीय आरण्यक (1.7) में वर्णित सप्तसूर्यों को ग्रहों के अर्थ में लिया जा सकता है। लुड्विग ने सूर्य व चन्द्र के साथ पाँच ग्रहों एवं सत्ताईस नक्षत्रों को ऋग्वेदोक्त चौंतीस ज्योतियों एवं यज्ञरूपी घोड़े की पसलियों का सूचक बताया है।

ग्रह-नक्षत्रों और हिन्दुओं के धार्मिक कृत्यों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रत्येक धार्मिक कार्य के लिए शुभ मुहूर्त की आवश्यकता होती है। इसीलिए प्राचीन काल में वेद के षडङ्गों में 'ज्योतिष' का विकास हुआ था। यज्ञों का समय ज्योतिष्पिण्डों की गतिविधि के अनुसार निश्चित् होता था। सूर्य-उपासना में सौरमण्डल के नव ग्रहों का विशिष्ट स्थान है। नव ग्रहों में शुभ और दुष्ट दोनों प्रकार के ग्रह होते हैं। प्रत्येक माङ्गलिक कार्य के पूर्व नवग्रह-पूजन होता है। दुष्ट ग्रहों की शान्ति की विधि भी कर्मकाण्डीय पद्धतियों में विस्तार से वर्णित है।

ग्रहयाग : निबन्धों और पद्धतियों के शान्ति वाले विभाग में नवग्रह याग प्रकरण मिलता है। हेमाद्रि (2.80.592) जहाँ तिथि तथा नक्षत्रों के सन्दर्भानुसार भिन्न-भिन्न ग्रहों के संयोगों का निर्देश करते हैं, वहाँ ग्रहों तथा अन्य देवों के सम्मानसूचक कुछ विशेष यागों का भी संकेत करते हैं। इन यज्ञ-यागों द्वारा थोड़े से व्यय में ही अनन्त पुण्य की उपलब्धि होती है। इस विषय में एक उदारण पर्याप्त होगा। यदि किसी रविवार को षष्ठी तिथि हो और संयोग से उसी दिन पुष्य नक्षत्र भी हो, तो स्कन्दयाग का आयोजन किया जाना चाहिए। इस व्रत के आयोजन से मनुष्य की समस्त मनोवांछाएँ पूर्ण होती हैं। लगभग एक दर्जन 'याग' हेमाद्रिकृतव्रतखण्ड में बतलाये गये हैं। तीन प्रकार के ग्रहयज्ञों के लिए देखिए : स्मृतिकौस्तुभ, 455-479 जो हेमाद्रि 2.590-592 से नित्तान्त भिन्न है।

ग्रहयामलतन्त्र : वामकेश्वरतन्त्र' में चौसठ तन्त्रों की सूची दी हुई है, इसमें आठ यामलतन्त्र हैं। ये यामल (जोड़े) विशेष देवता एवं उसकी शक्ति के युग्मीय एकत्व के प्रतीक का वर्णन करते हैं। ग्रहयामलतन्त्र भी उनमें से एक है।

ग्रामगेयगान : आर्चिक (सामवेदसम्बन्धी ग्रन्थ) में दो प्रकार के गान हैं, प्रथम ग्रामगेयगान, द्वितीय अरण्यगान। अरण्यगान अपने रहस्यात्मक स्वरूप के कारण वन में गाये जाते हैं। ग्रामगेयमान नित्य स्वाध्याय, यज्ञ आदि के समय ग्राम में गाये जाते हैं।

घ---घट : धार्मिक साधनाओं में 'घट' का कई प्रकार से उपयोग होता है। शुभ कृत्यों में वरुण (जल तथा नीति के देवता) के अधिष्ठान के रूप में घट की स्थापना होती है। घट घटिकायन्त्र अथवा काल का भी प्रतीक है जो सभी कृत्यों का साक्षी माना जाता है। नवरात्र के दुर्गापूजनारम्भ में घट की स्थापना कर उसमें देवी को विराजमान किया जाता है।

शाक्त लोग रहस्यमय रेखाचित्रों का 'यन्त्र' एवं 'मण्डल' के रूप में प्रचुरता से प्रयोग करते हैं। इन यन्त्रों एवं मण्डलों को वे धातु की स्थालियों, पात्रों एवं पवित्र घटों पर अंकित करते हैं। मद्यपूर्ण घट की पूजा और उसका प्रसाद लिया जाता है।

घटपर्यसन (घटस्फोट) : किसी पतित अथवा जातिच्युत व्यक्ति का जो श्राद्ध (अन्त्येष्टि) उसके जीवनकाल में ही कुटुम्बियों द्वारा किया जाता है, उसे 'घटपर्यसन' कहते हैं।

घटयोनि : अगस्त्य या कुम्भज ऋषि। पुरा कथा के अनुसार अगस्त्य का जन्म कुम्भ अथवा घट से हुआ था। इसलिए उनको कुम्भज अथवा घटयोनि कहते हैं। दे० 'अगस्त्य'।

घर्म : यज्ञीय पात्र, जो एक तरह की बटलोई जैसा होता था। ऋग्वेद तथा वाज० सं०, ऐ० ब्रा० इत्यादि में 'धर्म' से उस पात्र का बोध होता है जिसमें दूध किया जाता था, विशेषकर अश्विनौ को देने के लिए। अतएव इस शब्द से गर्म दूध एवं किसी गर्म पेय का भी अर्थ प्रायः लगाया जाने लगा।

घृत : यज्ञ की सामग्री में से एक मुख्य पदार्थ। अग्नि में इसकी स्वतन्त्र आहुति दी जाती है। हवन कर्म में सर्वप्रथम 'आधार' एवं 'आज्यभाग' आहुतियों के नाम से अग्नि में घृत टपकाने का विधान है। साफ किये हुए मक्खन का उल्लेख ऋग्वेद में यज्ञ-उपादन घृत के अर्थ में हुआ है। ऐतरेय ब्राह्मण के भाष्य में सायण ने घृत एवं सर्पि का अन्तर करते हुए कहा है कि सर्पि पिघलाया हुआ मक्खन है, और घृत जमा हुआ (घनीभूत) मक्खन है। किन्तु यह अन्तर उचित नहिं जान पड़ता, क्योंकि मक्खन अग्नि में डाला जाता था। अग्नि को 'घृतप्रतीक', 'घृतपृष्ठ', 'घृतप्रसह' एवं 'घृतप्री' कहा गया है। जल का व्यवहार मक्खन को शुद्ध करने के लिए होता था, एतदर्थ उसे 'घृतपू' कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण में आज्य, घृत आयुत तथा नवनीत को क्रमशः देवता, मानव, पितृ एवं शिशु का प्रतीक माना गया है। श्रौतसूत्रों, गृह्यसूत्र, स्मृतियों तथा पद्धतियों में घृत के उपयोग का विस्तृत वर्णन पाया जाता है।

घृतकन्दल : माघ शुक्ल चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें उपवास करने का विधान है। प्रर्णिमा को एक स्थूल कम्बल के समान जमा हुआ वृत शिव मूर्ति पर वेदी पर्यन्त लपेटा जाना चाहिए। तदनन्तर कृष्ण वर्ण वाले साँड़ों का जोड़ा दान करना चाहिए। इसके परिणाम स्वरूप व्रती असंख्य वर्षों तक शिवलोक में वास करता है। यह शान्तिकर्म भी है। इसके अनुसार व्रती को एक वस्त्र उढ़ाकर उसका घी से अभिषिञ्चन करना चाहिए। दे० आथर्वण परिशिष्ट, अड़तीसवाँ भाग, 204-212; राजनीतिप्रकाश (वीरमित्रोदय), पृष्ठ 459-464।

घृतभाजनव्रत : पूर्णिमा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है। शिवजी की पूजा इस व्रत में की जाती है। ब्राह्मण को घृत तथा मधु का भोजन, एक प्रस्थ तिल (आठक का चौथाई) तथा दो प्रस्थ धान का दान करना चाहिए।

घृतस्नापगायिधि : इस व्रत में ग्रहण के दिन अथवा पौष में किसी भी पवित्र दिन शिवपूजा का विधान है। एक रात तथा एक दिन शिवमूर्ति के ऊपर घृत की अनवरत धारा पड़नी चाहिए। रात्रि को नृत्य-गान करते हुए जागरण रखना चाहिए।

घृताची : सरस्वती का एक पर्याय। एक अप्सरा का भी यह नाम है। इन्द्रसभा की अप्सराओं में इसकी गणना है। इसने कई ऋषियों तथा राजाओं को पथभ्रष्ट किया। पौर वंश के कुशनाभ अथवा रौद्राश्व के द्वारा इसके दस पुत्र हुए। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार कई वर्णसंकर जातियों के पूर्वज इससे विश्वकर्मा के द्वारा उत्पन्न हुए थे। हरिवंश के अनुसार कुशनाभ से इसके दस पुत्र तथा दस कन्याएँ उत्पन्न हुई थीं।

दूसरी कथा के अनुसार कुशनाभ से इसकी एक सौ कन्याएँ उत्पन्न हुईं। वायु उनकों स्वर्ग में ले जाना चाहते थे, परन्तु उन्होंने जाना अस्वीकार कर दिया। वायु के शाप से उनका रूप विकृत (कुबड़ा) हो गया। परन्तु पुनः उन्होंने अपना स्वाभाविक रूप प्राप्त करके काम्पिल के राजा ब्रह्मदत्त से विवाह किया। कुबड़ी कन्याओं के नाम पर ही उस देश का नाम 'कन्याकुब्ज' कान्यकुब्ज हो गया।

घंटाकर्ण : पाशुपत सम्प्रदाय के एक आचार्य। शैव परम्परा के पौराणिक साहित्य से पता लगता है कि अगस्त्य, दधीचि, विश्वामित्र, शतानन्द, दुर्वासा, गौतम, ऋष्यश्रृंङ्ग, उपमन्यु एवं व्यास आदि महर्षि शैव थे। व्यासजी के लिए कहा जाता है कि उन्होंने केदारक्षेत्र में 'घण्टाकर्ण' से पाशुपत दीक्षा ली थी, जिनके साथ बाद में वे काशी में रहने लगे। व्यासकाशी में घंटाकर्ण तालाब वर्तमान है। वहीं घंटाकर्ण की मूर्ति भी हाथ में शिवलिङ्ग धारण किये विराजमान है। वर्तमान काशी के नीचीबाग मुहल्ले में घंटाकर्ण (कर्णघण्टा) का तालाब है और उसके तट पर व्यासजी का मन्दिर है। मुहल्ले का नाम भी 'कर्णघंटा' है।

कहा गया है कि घंटाकर्ण इतने कट्टर शिवभक्त थे कि शंकर के नाम के अतिरिक्त कान में दूसरा शब्द पड़ते ही सिर हिला देते थे जहाँ कानों के पास दो घण्टे लटके रहते थे। घण्टों की ध्वनि में दूसरा शब्द विलीन हो जाता था।

घरेण्ड ऋषि : घेरण्ड ऋषि की लिखी 'घेरण्डसिंहता' प्राचीन ग्रन्थ है। यह हठयोग पर लिखा गया है तथा परम्परा से इसकी शिक्षा बराबर होती आयी है। नाथ पंथियों ने उसी प्राचीन सात्विक योग प्रणाली का प्रचार किया है, जिसका विवेचन 'घेरण्डसंहिता' में हुआ है।

घेरण्डसंहिता : दे० 'घेरण्ड ऋषि'।

घोटकपञ्चमी : आश्विन कृष्ण पञ्चमी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। यह व्रत राजाओं के लिए निर्धारित है जो अश्वों की अभिवृद्धि अथवा सुस्वास्थ्य के लिए अनुष्ठित होता है। यह एक प्रकार का शान्तिकर्म है।

घोर आङ्गिरस् : एक पुराकथित आचार्य का नाम, जो कौषीतकि ब्राह्मण एवं छान्दोग्य उपनिषद् में उल्लिखित है। इनको कृष्ण (देवकीपुत्र) का शिक्षक कहा गया है। यह आंशिक नाम है, क्योंकि आंगिरसों के घोरवंशज 'भिषक् अथर्वा' भी कहे गये हैं। ऋग्वेदीय सूक्तों में 'अथर्वाणो वेदाः' का सम्बन्ध 'भेषजम्' एवं 'आंगिरसो वेदाः' का 'घोरम्' के साथ है। अतएव घोर आङ्गिरस् अथर्ववेदी कर्मकाण्ड के कृष्णपक्षपाती लगते हैं। इनका उल्लेख काठक संहिता के अश्वमेधखण्ड में भी हुआ है।

घोषा : ऋग्वेद की महिला ऋषि। वहाँ दो मन्त्रों में घोषा को अश्विनों द्वारा संरक्षित कहा गया है। सायण के मतानुसार उसका पुत्र सुहस्त्य ऋग्वेद के एक अस्पष्ट मन्त्र में उद्धृत है। ओल्डेनवर्ग यहाँ घोषा का ही प्रसंग पाते हैं, किन्तु पिशेल घोषा को संज्ञा न मानकर क्रियाबोधक मानते हैं।

अश्विनों की स्तुति में कहा गया है कि उन्होंने वृद्धा कुमारी घोषा को एक पति दिया। ऋग्वेद (10.39.40) की ऋचा घोषा नाम्नी ऋषि (स्त्री) की रची कही गयी है। कथा यों है कि घोषा कक्षीवान् की कन्या थी। कुष्ठ रोग से ग्रस्त होने के कारण बहुत दिनों तक वह अविवाहित रही। अश्विनों (देवताओं के वैद्यों) ने उसको स्वास्थ्य, सौन्दर्य और यौवन प्रदान किया, जिससे वह पति प्राप्त कर सकी।

 : व्यञ्जन वर्णों के कवर्ग का पञ्चम अक्षर। तान्त्रिक विनियोग के लिए कामधेनुतनत्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है :

ङकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली। सर्वदेवमयं वर्ण त्रिगुणं लोललोचने॥ पञ्चप्राणमयं वर्णं ङकारं प्रणमाम्यहम्।

तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम पाये जाते हैं, यथा

ङ शक्तो भैरवश्चण्डो बिन्दूत्तंसः शिशुप्रियः। एकरुद्रो दक्षनखः खर्परो विषयस्पृहां॥ कान्तिः श्वेताह्वयी धीरो द्विजात्मा ज्वालिनी वियत्। मन्त्रशक्तिश्च मदनो विघ्नेशो चात्मनायकः॥ एकनेत्रो महानन्दों दुर्द्धरश्चन्द्रमां यतिः। शिवयोषा नीलकण्ठः कामेशीच मयाशुकौ॥ वर्णद्धारतन्त्र में इसके ध्यान की विधि निम्नलिखित है :

धूम्रवर्णां महाघोरां ललाज्जिह्वां चतुर्भुजाम्। पीताम्बरपरीधानां साधकाभीष्टसिद्धिदाम्॥ एवं ध्यात्वा ब्रह्मरूपां तन्मन्त्रं दशधा जपेत्॥