विक्षनरी:हिन्दू धर्मकोश (च से द)

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चक्र : (1) विष्णु के चार आयुधों--शङ्ख चक्र, गदा और पद्म में से एक आयुध। यह उनका मुख्य अस्त्र है। इसका नाम सुदर्शन है। चक्रनेमि (पहिया का घेरा) के मूल अर्थ में यह अव गति अथवा प्रगति का प्रतीक है। दर्शन में भवचक्र अथवा जन्ममरणचक्र के प्रतीक के रूप में भी इसका प्रयोग होता है।

(2) शाक्तमत में देवी की चार प्रकार की आऱाधना होती है। प्रथम मन्दिर में देवी की जनपूजा, द्वितीय में चक्रपूजा, तृतीय में साधना एवं चतुर्थ में अभिचार (जादू) द्वारा, जैसा कि तन्त्रों में बताया गया है।

चक्रपूजा एक महत्त्वपूर्ण तान्त्रिक साधना है। इसे आजकल वामाचार कहते हैं। बराबर संख्या के पुरुष एवं स्त्रियाँ जो किसी भी जाति के हों अथवा समीपी सम्बन्धी हों, यथा पति पत्नी, माँ, बहिन, भाई-एक गुप्त स्थान में मिलते तथा वृत्ताकार बैठते हैं। देवी की प्रतिमा या यन्त्र सामने रखा जाता है एवं पञ्चमकार --मदिरा, मांस, मत्स्य, मुद्रा एवं मैथुन का सेवन होता है।

चक्रधर : (1) विष्णु का एक पर्याय है। वे चक्र धारण करते हैं, अतः उनका यह नाम पड़ा।

(2) एक सन्त का नाम। इनका जीवनकाल तेरहवीं शती का मध्य है। ये ही मानभाऊ सम्प्रदाय के संस्थापक थे। इनके अनुयायी यादवराजा रामचन्द्र (1271-1309 ई०) के समकालीन नागदेव भट्ट एवं ज्ञानेश्वरी के रचयिता ज्ञानेश्वर हुए। इनका परवर्ती इतिहास अज्ञात है। इनका वैष्णवमत बड़ा उदार था। इसमें जाति अथवा वर्णभेद नहीं माना जाता था। इसलिए रूढ़िवादियों द्वारा इस मत का तीव्र विरोध हुआ। चक्रधर करहाद ब्राह्मण थे तथा मानभाऊ (सं० महानुभाव) सम्प्रदाय वाले इन्हें अपने देवता दत्तात्रेय का अवतार मानते हैं।

चक्रधरचरित : यह मानभाऊ (सं० महानुभाव) सम्प्रदाय का एक ग्रन्थ है जो मराठी भाषा में लिखा गया है। सम्प्रदाय के संस्थापक के जीवनचरित का विवरण इसमें पाया जाता है।

चक्रपूजा : दे० 'चक्र'।

चक्रवर्ती : (1) जिस राजा का (रथ) चक्र समुद्रपर्यन्त चलता था, उसको चक्रवर्ती कहते थे। उसको अश्वमेध अथवा राजसूय यज्ञ करने का अधिकार होता था। भारत के प्राचीन साहित्य में ऐसे राजाओं की कई सूचियाँ पायी जाती हैं। मान्धाता और ययाति प्रथम चक्रवर्तियों में से थे। समस्त भारत को एक शासनसूत्र में बाँधना इनका प्रमुख आदर्श होता था।

(2) शास्त्रों में प्रकाण्ड योग्यता प्राप्त करने पर विद्वानों को भी यह उपाधि दी जाती थी।

चक्रवाक् : चकवा नामक एक पक्षी। यह नाम ध्वन्यात्मक है। इसका उल्लेख ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में अश्वमेध के बलिपशुओं की तालिका में आता है। अथर्ववेद एवं परवर्त्ती साहित्य में सच्चे दाम्पत्य का उदाहरण इससे दिया गया है।

चक्रायुध (चक्री) : विष्णु का पर्याय। इसका अर्थ है 'चक्र है आयुध (अस्त्र) जिसका।' मूर्तिकला में विष्णु के आयुधों का आयुधपुरुष के रूप में अंकन हुआ है।

चक्रोल्लास : आचार्य रामानुज कृत एक ग्रन्थ। विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय में इसका बड़ा आदर है।

चक्षुर्व्रत : नेत्रव्रत के समान इस व्रत में चैत्र शुक्ल द्वितीया को अश्विनीकुमारों (देवताओं के वैद्य) की पूजा की जाती है, एक वर्ष तक अथवा बारह वर्ष तक। उस दिन व्रती को दधि अथवा घृत का आहार करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से व्रती के नेत्र अच्छे रहते हैं और बारह वर्ष तक व्रत करने से वह राजयोगी बन जाता है।

चण्डमारुत : श्रीवैष्णव संप्रदाय का एक तार्किक ग्रन्थ, जिसके रचयिता चण्डमारुताचार्य थे। यह ग्रन्थ 'शतदूषणी' नामक ग्रन्थ का व्याख्यान है। चण्डमारुताचार्य को दोद्दयाचार्य रामानुजदास भी कहते हैं।

चण्डमारुतटीका : दे० 'चण्डमारुत'।

चण्डमारुत महाचार्य : विशिष्टाद्वैत सम्बन्धी 'चण्डमारुत' नामक टीका के रचयिता। यह टीका वेदान्तदेशिकाचार्य वेङ्कटनाथ की 'शतदूषणी' के ऊपर रचित है।

चण्डा : भयंकर अथवा क्रुद्ध। यह दुर्गा का एक विरुद है। असुरदलन में दुर्गा यह रूप धारण करती हैं।

चण्डाल (चाण्डाल) : वर्णसंकर जातियों में से निम्न कोटि की एक जाति। चण्डाल शूद्र पिता और ब्राह्मण माता से उत्पन्न माना जाता है। परन्तु वास्तव में यह अन्त्यज जाति है जिसका सभ्य समाज के साथ पूरा सपिण्डीकरण नहीं हुआ। अतः यह बस्तियों के बाहर रहती औऱ नगर के कूड़े-कर्कट, मल-मूत्र आदि साफ करती है। इसमें भक्ष्या-भक्ष्य और शुचिता का विचार नहीं है। चण्डालों की घोर आकृति, कृष्ण वर्ण और लाल नेत्रों का वर्णन साहित्यिक ग्रन्थों में पाया जाता है। मृत्युदण्ड में अपराधी का बध इन्हीं के द्वारा होता था।

चण्डी (चण्डिका) : दुर्गा देवी। काली के समान ही दुर्गा देवी का सम्प्रदाय है। वे कभी-कभी दयालु रूप में एवं प्रायः उग्र रूप में पूजी जाती हैं। दयालु रूप में वे उमा, गौरी पार्वती अथवा हैमवती, जगन्माता तथा भवानी कहलाती हैं; भयावने रूप में वे दुर्गा, काली अथवा श्यामा, चण्डी अथवा चण्डिका, भैरवी आदि कहलाती हैं। आश्विन और चैत्र के नवरात्र में दुर्गापूजा विशेष समारोह से मनायी जाती है। देवी की अवतारणा मिट्टी के एक कलश में की जाती है। मन्दिर के मध्य का स्थान गोबर व मिट्टी से लीपकर पवित्र बनाया जाता है। घट में पानी भरकर, आम्रपल्लव से ढककर उसके ऊपर मिट्टी का ही एक ढकना, जिसमें जौ और चावल भरा रहता है तथा जो एक पीले वस्त्र से ढका होता है, रखा जाता है। पुरोहित मन्त्रोचारण करता हुआ, कुश से जल उठाकर कलश पर तथा उसके उपादानों पर छिड़कता है तथा देवी का आवाहन घट में करता है। उनके आगमन को मान्यता देते हुए एक प्रकार की लाल-धुलि (रोली) घट के बाहर चारों ओर छिड़कते हैं। इस पूजाविधि के मध्य में पुरोहित केवल फल-मूल ही ग्रहण करता है। पूजा का अन्त अग्नि में यज्ञ (होम) से होता है, जिसमें जौ, चीनी, घृत एवं तिल का व्यवहार होता है। यह हवन घट के सामने होता है, जिसमें देवी का वास समझा जाता है। यज्ञ की राख एवं कलश की लाल धूलि पुजारी यजमान के घर लाता है तथा उनके सदस्यों के ललाट पर लगाता है और इस प्रकार वे देवी के साथ एकाकारता प्राप्त करते हैं। भारत के विभिन्न भागों में चण्डी की पूजा प्रायः इसी प्रकार से होती है।

चण्डिकाव्रत : कृष्ण तथा शुक्ल पक्षों की नवमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। एक वर्ष तक इसका आचरण होना चाहिए। इसमें चण्डिका के पूजन का विधान है। इस दिन उपवास करना चाहिए।

चण्डीदास : बङ्गाल में चण्डीदास भगवद्भक्त कवि हो गये हैं। बँगला में इनके रचे भक्तिरसपूर्ण भजन तथा कीर्त्तन बहुत व्यापक औऱ प्रचलित हैं। इनका जीवनकाल लगभग 1380 से 1420 ई० तक माना जाता है। बँगला भाषा में राधा-कृष्ण विषयक अनेक सुन्दर भजन इनके रचे हुए पाये जाते हैं।

चण्डीमङ्गल : मुकुन्दराम द्वारा बँगला में लिखित 'चण्‍डीमङ्गल' चण्डीपूजा की एक काव्यमय पद्धति देता है। यह शाक्तों में बहुत प्रचलित है।

चण्डीमाहात्म्य : चण्डीमाहात्म्य को देवीमाहात्म्य भी कहते हैं। हरिवंश के कुछ श्लोकों एवं मार्कण्डेयपुराण के एक अंश से यह माहात्म्य गठित है। इसका रचना काल छठी शताब्दी है, क्योंकि बाणरचित चण्डीशतक इसी ग्रन्थ पर आधारित है। चण्डीमाहात्म्य के अनेक अनुवाद तथा इस पर आधारित अनेक भजन बँगला शाक्तों द्वारा लिखे गये हैं।

चण्डीशतक : बाणभट्ट द्वारा रचित चण्डीशतक सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध का साहित्यिक ग्रन्थ है। यह 'चण्डीमाहात्म्य' पर आधारित है। इसमें देवी की स्तुति 100 श्लोकों में हुई है। विविध भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है।

चतुरशीत्यासन : यह ग्रन्थ गोरखनाथप्रणीत है तथा नागरी प्रचारणी सभा काशी की खोज से प्राप्त हुआ है। इसमें हठयोग के चौरासी (चतुरशीति) आसनों का विवरण पाया जाता है।

चतुर्थीव्रत : गणेशचतुर्थी, गौरीचतुर्थी, नागचतुर्थी, स्कन्दचतुर्थी तथा बहुला चतुर्थी के अतिरिक्त इस चतुर्थीव्रत का विधान है। इसके लिए पञ्चमी से विद्ध चतुर्थी होनी चाहिए। लगभग 25 व्रत ऐसे हैं जो चतुर्थी के दिन होते हैं। यमस्मृति के अनुसार यदि चतुर्थी तिथि शनिवार को पड़े तथा उसी दिन भरणी नक्षत्र हो तो उस दिन स्नान तथा दान से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। चतुर्थी तीन प्रकार की होती है--शिवा, शान्ता तथा सुखा (भविष्य पुराण 31.1-10)। वे क्रमशः हैं भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी, माघ कृष्ण की चतुर्थी तथा भौमवासरीय चतुर्थी।

चतुर्थीजागरण व्रत : कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। पाँच अथवा बारह वर्ष तक इसका आचरण करना चाहिए। शिवजी का घृत स्नान कराते हुए पूजन करना चाहिए। असंख्य कलशों से स्नान कराने का विधान है। कलश सौ तक हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त षोडशोपचाप पूजन पूर्वक रात्रि में जागरण करना चाहिए। इससे व्रती को दिव्यानन्दों की उपलब्धि तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है।

चतुर्दशीव्रत : धर्मग्रन्थों में लगभग तीस चतुर्दशीव्रतों का उल्लेख मिलता है। कृत्यकल्पतरु केवल एक व्रत का उल्लेख करता है और वह है शिवचतुर्दशी।

चतुर्दश्यष्टमी : मास के दोनों पक्षों की अष्टमी तथा चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें भोजन नक्त पद्धति से करना चाहिए। एक वर्ष तक इसका आचरण होता है। इसमें शिवपूजन का विधान है।

चतुर्मूर्तिव्रत : विष्णुधर्मोत्तरपुराण के तृतीय अध्याय, श्लोक 137-151 में 15 चतुर्मूर्ति व्रतों का उल्लेख है। हेमाद्रि, व्रतखण्ड 1.505 में भी कुछ वर्णन मिलता है।

चतुर्युगव्रत : चैत्र मास के प्रथम चार दिनों में चारों युगों--कृत, त्रेता, द्वापर तथा तिष्य (कलि) का पूजन होता है। एक वर्ष तक अनुवर्ती मासों में भी इन्हीं तिथियों में इस व्रत का आचरण करना चाहिए। इसमें केवल दग्धाहार का विधान हैं।

चतुर्वर्गचिन्तामणि : धर्मशास्त्र का विख्यात निबन्ध ग्रन्थ। हेमाद्रि तेरहवीं शती के अन्त में यादव (महाराष्ट्र के) राजाओं के मंत्री थे। उन्होंने धर्मशास्त्रीय विषयों का एक विश्वकोश तैयार किया, जिसे 'चतुर्वर्गचिन्तामणि' कहते हैं। लेखक की योजना के अनुसार इसके पाँच खण्ड हैं-- (1) व्र (2) दान (3) तीर्थ (4) मोक्ष तथा (5) परिशेष। परिशेष खण्ड के चार भाग हैं--- (1) देवता (2) कालनिर्णय (3) कर्मविपाक तथा (4) लक्षण-समुच्चय। 'बिब्लियोथिका इंडिका' सीरीज में इसका प्रकाशन चार भागों तथा 6000 पृष्ठों में हुआ है। दूसरी और तीसरी जिल्द में दो दो भाग हैं। चौथी जिल्द प्रायश्चित पर है। यह सन्देह किया जाता है कि यह हेमाद्रि की रचना है अथवा नहीं। अभी सम्पूर्ण ग्रन्थ का मुद्रण नहीं हो पाया है। यह धर्मशास्त्र का एक विशाल एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। दे० पा० वा० काणे : धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग 1।

चतुर्वेद स्वामी : ये ऋक्संहिता के एक भाष्यकार हैं, जिनका उल्लेख सायण ने अपने विस्तृत ऋग्वेदभाष्य में किया है।

चतुःश्लोकी भागवत : महाराष्ट्र भक्त एकनाथ (1608 ई०) द्वारा लिखित भागवत का अत्यन्त संक्षिप्त रूप। इसके भीतर चार श्लोकों में ही भागवत की सम्पूर्ण कथा वर्णित है।

मूल संस्कृत में चतुःश्लोकी भागवत का उपदेश नारायण ने ब्रह्मा को सुनाया था, जो भागवत पुराण के द्वितीय स्कन्ध में उद्धृत है।

चन्द्र : चन्द्र या चन्द्रमा सौर मण्डल में पृथ्वी का उपग्रह है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के अनुसार यह विराट् पुरुष के मन से उत्पन्न हुआ। इसलिए यह मन का स्वामी है।

चन्द्रकलातन्त्र : दक्षिणाचार के अनुयायी विद्यानाथ ने, जिन्हें लक्ष्मीधर भी कहते हैं, 'सौन्दर्य लहरी' के 31 वें श्लोक की टीका में 64 तन्त्रों वी तालिका के साथ-साथ दो और सूचियाँ दी हैं। प्रथम में 8 मिश्र तथा द्वितीय में 5 शुभ तन्त्र हैं। उनके अन्तर्गत 'चन्द्रकलातन्त्र' मिश्र तन्त्र है।

चन्द्रकूप : कुरुक्षेत्रान्तर्गत ब्रह्मसर सरोवर के मध्य में बड़े द्वीप पर यह अति प्राचीन पवित्र स्थान है। यह कूप कुरुक्षेत्र के चार पवित्र कुओं में गिना जाता है। कूप के साथ एक मन्दिर है। कहा जाता है कि युधिष्ठिर ने महाभारत युद्ध के बाद यहाँ पर एक विजयस्तम्भ बनवाया था। वह स्तम्भ अब यहाँ नहीं है।

चन्द्रज्ञान आगम : चन्द्रज्ञान को चन्द्रहास भी कहते हैं। यह एक रौद्रिक आगम है।

चन्द्रग्रहण : पृथ्वी की छाया (रूपक अर्थ में छाया राक्षसी का पुत्र राहु अर्थात् अन्धकार) जब चन्द्रमा पर पड़ती है तब उसे चन्द्रग्रहण कहते हैं। इस पर्व पर नदीस्नान तथा विशेष जप-दान-पुण्य करने का विधान है। यह धार्मिक कृत्य नैमित्तिक माना गया है।

चन्द्रनक्षत्रव्रत : सोमवार युक्त चैत्र की पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह वार व्रत है। इसमें चन्द्रपूजन का विधान है। आरम्भ से सातवें दिन चन्द्रमा की रजतप्रतिमा किसी काँसे के बर्तन में रखकर उसकी पूजा की जाती है। चन्द्रमा का नामोच्चारण करते हुए 28 या 108 पलाश की समिधाओं से घी तथा तिल के साथ होम करना चाहिए।

चन्द्रभाग : एक नदी औऱ तीर्थ प्राचीन काल में चिनाव नदी (पंजाब) को चन्द्रभागा कहते थे। जहाँ यह सिन्धु में मिलती थी वहाँ चन्द्रभागातीर्थ था। यहाँ पर कृष्ण के पुत्र साम्ब ने सूर्यमन्दिर की स्थापना की थी। मुसलमानों द्वारा इस तीर्थ के नष्ट कर देने पर उत्कल में इस तीर्थ का स्थानान्तरण हुआ। इस नाम की एक छोटी नदी समुद्र (बंगाल की खाड़ी) में मिलती है। वही नवीन चन्द्रभागा तीर्थ स्थापित हुआ और कोणार्क का सूर्यमन्दिर बना। कोणार्क का सूर्यमन्दिर धार्मिक स्थापत्य का अद्भुत नमूना है।

चन्द्रमा : पृथ्वी का उपग्रह। वेद में इसकी उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार पाया जाता है:

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत॥

[चन्द्रमा उस पुरुष के मनस् अर्थात् ज्ञानस्वरूप सामर्थ्य से, तथा उसके चक्षुओं अर्थात् तेजस्वरूप से सूर्य उत्पन्न हुआ।....]

चन्‍द्रव्रत : वराहपुराण के अनुसार यह व्रत प्रत्येक पूर्णिमा को पन्द्रह वर्ष तक किया जाता है। इसके अनुष्ठान से विशेष पुण्य प्राप्त होता है।

चन्द्रषष्ठी : भाद्र कृष्ण षष्ठी को चन्द्रषष्ठी कहते हैं। कपिला षष्ठी के समान इसका अनुष्ठान किया जाता है। षष्ठी के दिन उपवास का विधान है।

चन्द्रहास आगम : दे० 'चन्द्रज्ञान आगम'।

चन्द्रार्ध्यदान : प्रथम दिवस के चन्द्रमा के साथ जब रोहिणी नक्षत्र हो, विशेष रूप से कार्तिक मास में, चन्द्रमा को अर्घ्‍य देने से विशेष पुण्यों तथा सुखों की उपलब्धि होती है।

चन्द्रावती : इसका प्राचीन नाम चन्द्रपुरी है। यह जैन तीर्थ है। जैनाचार्य चन्द्रप्रभ का जन्म यहाँ हुआ था। यह स्थान वाराणसी से 13 मील दूर पड़ता है। यहाँ पहुँचने के लिए पूर्वोत्तर रेलवे के कादीपुर स्टेशन पर उतर कर लगभग चार मील चलना पड़ता है। यहाँ अन्य सम्प्रदाय के हिन्दू भी दर्शनार्थ जाते हैं।

चन्द्रिका : माध्व संप्रदायाचार्य स्वामी जयतीर्थ की दार्शनिक कृति 'तत्त्वप्रकाशिका' की सुप्रसिद्ध टीका। इसके रचयिता स्वामी व्यासतीर्थ 16 वीं शती ई० में हुए थे।

चन्द्रिका : (2) अनुभूतिस्वरूपाचार्य नामक विद्वान् का रचा हुआ एक संस्कृत व्याकरण। पाणिनिव्याकरण की अपेक्षा यह कुछ सरल है। कहते हैं कि सरस्वती देवी की कृपा से इस ग्रन्थ को उक्त पंडितजी ने एक रात में ही रच दिया था। इसलिए इसका 'सारस्वत व्याकरण' नाम पड़ गया।

चम्पकचतुर्दशी : शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को इस व्रत का अनुष्ठान होता है, जब सूर्य वृषभ राशि पर स्थित हो। इसमें शिवजी के पूजन का विधान है।

चम्पकद्वादशी : ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें चम्पा के फूलों से भगवान् गोविन्द का पूजन करना चाहिए।

चम्पाषष्ठी : भाद्र शुक्ल षष्ठी को, जब वैधृति योग, भौमवार तथा विशाखा नक्षत्र भी हो, चम्पाषष्ठी कहते हैं। इस दिन उपवास करना चाहिए। इसके सूर्य देवता हैं। मार्गशीर्ष मास की षष्ठी भी चम्पाषष्ठी कही गयी है, जब उस दिन रविवार तथा वैधृति योग हो। स्मृतिकौस्तुभ 430 तथा अहल्याकामधेनु के अनुसार दोनों तिथियाँ ठीक हैं। मदनरत्न के अनुसार यह मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी रविवार को पड़ती है जब शतभिषा नक्षत्र हो। प्रायः 30 वर्ष बाद यह योग आता है। कुछ धर्मग्रन्थों के अनुसार इस दिन भगवान् विश्वेश्वर का दर्शन करना चाहिए। निर्णयसिन्धु, पृष्ठ 209, के अनुसार महाराष्ट्र प्रान्त में मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को चम्पाषष्ठी का व्रत किया जाता है।

चम्पू : पद्य एवं गद्य मिश्रित संस्कृत काव्य रचना। 17वीं शती के मध्य शिवगुण योगी ने विवेकचिन्तामणि नामक एक चम्पू की रचना की। यह वीरशैव सम्प्रदाय से सम्बन्धित ग्रन्थ है। संस्कृत साहित्य में रामायणचम्पू, नलचम्पू, गोपालचम्पू, वृन्दावनचम्पू आदि उच्च कोटि के सरस और धार्मिक काव्य हैं।

चम्बा : एक वैष्णव तीर्थ। हिमाचल प्रदेश में यह भूतपूर्व रियासत है, जो डलहौजी से 20 मील दूर रावी नदी के तट पर बसी हुई है। नगर में लक्ष्मीनारायण का मन्दिर है। यहाँ भगवान् नारायण की श्वेत संगमरमर की प्रतिमा अति विशाल तथा कलापूर्ण है।

चमस : एक पात्र, जो यज्ञों के अवसर पर सोमरस वितरण के काम आता था। यह घृत की आहुति देने में भी प्रयुक्त होता है। यह पवित्र काष्ठ, उदुम्बर, खदिर आदि से बनता है।

चरक : (1) सर्वप्रथम इसका अर्थ भ्रमणशील विद्वान् अथवा विद्यार्थी था, जैसा बृहदारण्यकोपनिषद् में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इस नाम से विशेषतया कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा का बोध होता है।

(2) महाराज कनिष्क के समकालीन वैद्य चरक थे, जिनके द्वारा 'चरकसंहिता' की रचना हुई।

चरक शाखा : कृष्ण यजुर्वेद की शाखाओं में अकेले चरक सम्प्रदाय की ही बारह शाखाएँ थीं। चरक, आह्वरक, कठप्राच्य कठ, कपिष्ठल कठ, आष्ठल कठ, चारायणीय, वारायणीय, वार्त्तान्तरेय, श्वेताश्वतर, औपमन्यव और मैत्रायण। चरक शाखा के पहले तीन भागों के नाम ईथिमिका, मध्यमिका और अरिमिका हैं।

चरणपादुकातीर्थ : बदरीनाथ मन्दिर के पीछे पर्वत पर सीधे चढ़ने पर चरणपादुका नामक स्थान आता है। यहीं से नल लगाकर बदरीनाथ पुरी और मन्दिर में जल लाया जाता है। यह जल भगवान् के चरणोदक के समान पवित्र माना जाता है। भारत के अन्य स्थानों में भी भगवान्, देवता एवं ऋषि-मुनियों की चरणपादुकायें (पदचिह्न) विद्यमान् हैं। दत्तात्रेय की चरणपादुकायें काशी के मणिकर्णिका घाट और गिरनार पर्वत पर स्थित हैं।

चरु : चावल, यव, माष आदि से दूध में पकाकर बने हुए हविष्य को 'चरु' कहते हैं, जो देवताओं तथा पितरों को अर्पित किया जाता है।

चरण : वैदिक पाठशैली के भेद से कर्मकाण्ड की विभिन्न शाखाओं अथवा पद्धतियों को चरण कहते हैं। उत्तर भारत के अधिकांश मन्दिरों में स्मार्त ब्राह्मण मूर्ति के पास जाकर अपने चरण के गृह्यसूत्र के निर्देशानुसार स्वतः पूजा कर सकते हैं।

चरणव्यूह : वेदों की शाखाओं के क्रमानुसार उनके ब्राह्मण, आरण्यक, सूत्र तथा उपवेद आदि का निर्देशक ग्रन्थ। यथा चरणव्यूह में कथन है :

द्वे सहस्रे शतन्यूने मन्वा वाजसनेयके। तावत्त्वन्येन संख्यातं बालखिल्यं सयुक्तिकम्। ब्राह्मणस्य समाख्यातं प्रोक्तमानाच्चतुर्गुणम्॥

[वाजसनेय अर्थात् शुक्ल यजुर्वेदसंहिता में 1900 मंत्र हैं। बालखिल्य का भी यही परिमाण है। इन दोनों से चार गुना अधिक इनके ब्राह्मणों का परिमाण है।] चरणव्यूह के अनुसार वेदों के चार उपवेद हैं। ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गान्धर्ववेद और अथर्ववेद का अर्थशास्त्र उपवेद है। परन्तु सुश्रुत और चरक से अवगत होता है कि आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है और अथर्ववेद ऋग्वेद का।

चरनदास : एक योग-ध्यानसाधक संत। 1730 ई० के लगभग इन्होंने एक सम्प्रदाय की स्थापना की, जिसे 'चरनदासी' सम्प्रदाय कहते हैं। इस सम्प्रदाय का आधार कबीरपन्थ के समान है। इन्होंने धर्मोपदेशमय अनेक हिन्दी कविता ग्रन्थों की रचना की है।

चरणदास भार्गव ब्राह्मण तथा अलवर के रहने वाले थे। बाद में ये दिल्ली में रहने लगे। इनकी दो शिष्याएँ थी; सहजोबाई और दयाबाई। दोनों ने पद्य में योग सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे हैं। चरनदास का जन्मसमय नागरीप्रचारिणी सभा की खोज के अनुसार संवत् 1760 है और 78 वर्ष की अवस्था में संवत् 1738 में इनका देहवसान हुआ। खोज में इनके निम्न ग्रन्थ मिले हैं---

(1) अष्टांगयोग (2) नरसाकेत (3) सन्देहसागर (4) भक्तिसागर (5) हरिप्रकाश टीका (6) अमरलोक खण्डधाम (7) भक्तिपदारथ (8) शब्द (9) दानलीला (10) मनविरक्तकरन गुटका (11) राममाला और (12) ज्ञानेस्वरोदय।

चरनदासी : यह योगमार्गी धार्मिक पन्थ है। नाथ सम्प्रदाय जैसे शैव है, वैसे ही चरनदासी पन्थ वैष्णव समझा जाता है। परन्तु इसका मुख्य साधन हठयोगसंवलित राजयोग है। उपासना में ये राधा-कृष्ण की भक्ति करते हैं, परन्तु योग की मुख्यता होने से इसे योगमत का ही एक पन्थ मानना चाहिए। इस पन्थ के प्रथमाचार्य शुकदेव जी कहे जाते हैं। चरनदास लिखते हैं कि मुझको शुकदेवजी के दर्शन हुए और उन्होंने मुझे अपना शिष्य बनाया और योग की शिक्षा दी।

चर्पटनाथ : नाथ सम्प्रदाय के नव नाथ प्रसिद्ध हैं। चर्पट नाथ उनमें से एक हैं।

चर्मण्वती : एक नदी का नाम, जो मध्य प्रदेश में बहती हुई इटावा (उ० प्र०) के निकट यमुना में मिलती है। पुराणों और महाभारत में इसके किनारे पर राजा रन्तिदेव द्वारा अतिथियज्ञ करने का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि बलिपशुओं के चमड़ों के पुंज से यह नदी बह निकली, इसीलिए इसका नाम चर्मण्वती (आधुनिक चम्बल) पड़ा। किन्तु यह पुराणों की गुप्त या सांकेतिक भाषाशैली की उक्त है, जिससे बड़े-बड़े लोग भ्रमित हो गये हैं। यहाँ रन्तिदेव की पशुबलि और चर्मराशि का अर्थ केला (कदली) स्तम्भों को काटकर उनके फलों से होम एवं अतिथिसत्कार करना है। केलों के पत्तों-छिलकों को भी चर्म कहा जाता था। ऐसे कदलीवन से उक्त नदी निर्गत हुई थी।

चर्यापाद : वैष्णव या शैव संहिताओं के चार खण्ड हैं : (1) ज्ञानपाद (2) योगपाद (3) क्रियापाद एवं (4) चर्यापाद। चर्यापाद में धार्मिक क्रियाओं का वर्णन है। शैवागमों में इसका विस्तृत उल्लेख पाया जाता है।

चषाल : यज्ञयूप (स्तम्भ) के ऊपर पहनाये गये लकड़ी के ढक्कन को चषाल कहते हैं।

चाक्षुष मनु : चौदह मनुओं में से एक मनु का नाम। इनके नाम से चाक्षुष मन्वन्तर की कल्पना हुई।

चाणक्‍य : राजनीतिशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'कैटिलीय अर्थशास्त्र' के रचयिता एवं चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधान मंत्री। इनकों कौटिल्य, विष्णुगुप्त आदि नामों से भी पुकारते हैं। ये चणक नामक स्थान के रहने वाले थे, अतः चाणक्य कहलाये। अर्थशास्त्र राजनीति का उत्कट ग्रन्थ है, जिसने परवर्ती राजधर्म को प्रभावित किया। चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध एक नीतिग्रन्थ 'चाणक्यनीति' भी प्रचलित है। चाणक्य ने अर्थशास्त्र में वार्ता (अर्थशास्त्र) तथा दण्डनीति (राज्यशासन) के साथ आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र) तथा त्रयी (वैदिक ग्रन्थों) पर भी काफी बल दिया है। अर्थशास्त्र के अनुसार यह राज्य का धर्म है कि वह देखे कि प्रजा वर्णाश्रम धर्म का उचित पालन करती है कि नहीं। दे० 'कौटिल्य' और 'अर्थशास्त्र'।

चातुर्मास्य : चातुर्मास्य से उन वैदिक यज्ञों का बोध होता है, जो प्रत्येक ऋतु (ग्रीष्म, वर्षा, शीत) के आरम्भ में होते थे। ये मौसम चार मासों के होते थे, अतएव ये उत्सव चार महीनों के अन्तर पर किये जाते थे। प्रथम 'वैश्व-देव' फाल्गुनी पूर्णिमा को, द्वितीय 'वरुण-प्रघास' आषाढ़ी पूर्णिमा को तथा तीसरा 'शाकमेध' कार्तिकी पूर्णिमा को मनाया जाता था। इन उत्सवों की क्रमशः दो और तिथियाँ भी हो सकती हैं--चैत्री, श्रावणी एवं आग्रहायणी पूर्णिमा, या वैशाखी, भाद्रपदी एवं पौषी पूर्णिमा।

चातुर्मास्यव्रत : वर्षा के चार महीनों का संयुक्त नाम चातुर्मास्य है। इसमें जो व्रत किया जाता है उसको भी चातुर्मास्य कहा जाता है। इस व्रत में विभिन्न नियमों (भोजन तथा कुछ आचार-व्यवहारों के निषेध) का पालन होता है। तैल का सेवन तथा मर्दन, उद्वर्तन, ताम्बूल तथा गुड़ का सेवन निषिद्ध है। मांसाहार, मधु तथा कुछ मद्य जैसी उत्तेजक वस्तुएँ त्याज्य बतलायी गयी हैं। दे० हेमाद्रि, 2.800-861 (कुछ ऐसे व्रतों का यहाँ उल्लेख है जो वस्तुतः चातुर्मास्य व्रतों के अन्तर्गत नहीं आते); समयमयूख, 150-152।

चातुराश्रमिक : चार आश्रमों से किसी एक में रहने वाला 'चातुराश्रमिक' कहलाता है। इससे बाहर के व्यक्ति अनाश्रमी, आश्रमेतर कहलाते हैं।

चान्द्र तिथि : वर्तमान चान्द्र मास, तिथि आदि पञ्चाङ्ग की विधि अति प्राचीन है और वैदिक से चली आयी है। कालानुसार बीच-बीच में बड़े-बड़े ज्योतिषियों ने करण-ग्रन्थ लिखकर और संस्कार द्वारा संशोधन करके इस गणना को ठीक और शुद्ध कर रखा है। छः ऋतुओं का विभाजन उसी तरह सुभीते के लिए हुआ, जिस तरह चान्द्र मास 30 तिथियों में बाँट दिया गया। वेदांगज्योतिष में उसी काल विभाग का अनुसरण किया गया है जो उस समय प्रचलित था और आज भी प्रचलित है।

चान्द्र व्रत : धर्मशास्त्र में इसकी कई विधियाँ पायी जाती है :

(1) अमावस्या के दिन इस व्रत का प्रारम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए। दो कमल पुष्पों पर सूर्य तथा चन्द्रमा की प्रतिमाओं का पूजन करना चाहिए।

(2) मार्गशीर्ष पूर्णिमा से आरम्भ करके एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान करना चाहिए। प्रत्येक पूर्णिमा के दिन उपवास तथा चन्द्रमा के पूजन का विधान है।

(3) किसी भी पूर्णिमा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। 15 वर्षपर्यन्त इसका आचरण होता है। इस दिन नक्त भोजन करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से एक सहस्र अश्वमेध यज्ञ तथा सौ राजसूय यज्ञों का पुण्य प्राप्त होता है।

(4) इसके अनुष्ठान में चान्द्रायण व्रत का आचरण करना चाहिए। चन्द्रमा की सुवर्णमयी प्रतिमा के दान का इसमें विधान है। दे० हेमाद्रि, 2.884; मत्स्य पुराण 101.75; कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, 450।

चान्द्रायण व्रत : (1) ब्रह्मपुराणोक्त यह व्रत पौष मास की शुक्ल चतुर्दशी को मनाया जाता है। शास्त्र में एक और चान्द्रायण व्रत का विधान है। चन्द्रमा के ह्रास के साथ आहार के ग्रासों में ह्रास और वृद्धि के साथ वृद्धि करके एक महीने में यह व्रत पूरा किया जाता है। उद्देश्य पापमोचन है। घोर अपराधों के प्रायश्चित रूप में यह व्रत किया जाता है।

(2) यह व्रत पूर्णिमा के दिन आरम्भ होता है। एक मास तक इसका आचरण करना चाहिए। प्रत्येक दिन तर्पण तथा होम का विधान है।

चामुण्डा : (1) शिवपत्नी रुद्राणी के अनेक नाम हैं, यथा देवी, उमा, गौरी, पार्वती, दुर्गा, भवानी, काली, कपालिनी एवं चामुण्डा। दूसरे देवों की देवियों (पत्नियों) के विपरीत इन्हें धार्मिक आचारों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है तथा शिव से कुछ ही कम महत्व इनका है। इनको पति के समान स्थान शिव के युगल (अद्वैत) रूप अर्द्धनारीश्वर में प्राप्त होता है, जिसमें दक्षिण भाग शिवका एवं वाम देवी का है। देवी के अनेक नामों एवं गुणों (दयालु, भयानक, क्रूर एवं अदम्य) से यह प्रतीत होता है कि शिव के समान ये भी अनेक दैवी शक्तियों के संयोग से बनी हैं।

(2) मैसूर (कर्नाटक) में चामुण्डा का प्रसिद्ध मन्दिर है जहाँ बहुसंख्यक यात्री पूजा के लिए जाते हैं।

(3) चण्ड और मुण्ड नामक राक्षसों के बध के लिए दुर्गा से चामुण्डा की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, इसका वर्णन मार्कण्डेयपुराण में इस प्रकार पाया जाता है: अम्बिका (दुर्गा) के क्रोध से कुञ्चित ललाट से एक काली और भयंकर देवी उत्पन्न हुई। इसके हाथ में खड्ग और पाश तथा नरमुण्ड से अलंकृत विशाल गदा थी। वह शुष्क, जीर्ण तथा भयानक हस्तिचर्म पहने हुए थी। मुख फैला हुआ और जिह्वा लपलपाती थी। उसकी आँखे रक्तिम और उसके भयंकर शब्द से आकश भर रह था।` इस देवी ने दोनों राक्षसों का वध करके उनके शिरों को दुर्गा के सम्मुख अर्पित किया। दुर्गा ने कहा, `तुम दोनों राक्षसों के संकुचित समस्त नाम `चामुण्डा` से प्रसिद्ध होगी।`

चामुण्डातन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत तन्त्रों में से एक तन्त्र 'चामुण्डातन्त्र' है। इसमें चामुण्डा के स्वरूप तथा पूजाविधि का सविस्तार वर्णन है।

चारायणीय काठकधर्मसूत्र : कृष्ण यजुर्वेद की एक प्राचीन शाखा 'चारायणीय काठक' है। इस शाखा के धर्मसूत्र से विष्णुस्मृति के गद्यसूत्रों की सामग्री ली गयी ज्ञात होती है। किन्तु कुछ नियम बदले और कुछ नये भी जोड़े गये हैं।

चार्वाक : नास्तिक (वेदबाह्य) दर्शन छः हैं---चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभापिक एवं आर्हत। इन सबमें वेद से असम्मत सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। इनमें से चार्वाक अवैदिक और लोकायत (भौतिकवादी) दोनों हैं।

चार्वाक केवल प्रत्यक्षवादी है, वह अनुमान आदि अन्य प्रमाणों को नहीं मानता। उसके मत से पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार ही तत्त्व हैं, जिनसे सब कुछ बना है। उसके मत में आकाश तत्त्व की स्थिति नहीं है। इन्हीं चारों तत्त्वों के मेल से यह देह बनी है। इनके विशेष प्रकार के संयोजन मात्र से देह में चैतन्य उत्पन्न हो जाता है, जिसको लोग आत्मा कहते हैं। शरीर जब विनष्ट हो जाता है तो चैतन्य भी नष्ट हो जाता है। इस प्रकार जीव इन भूतों से उत्पन्न होकर इन्ही भूतों में नष्ट हो जाता है। अतः चैतन्यविशिष्ट देह ही आत्मा है। देह से अतिरिक्त आत्मा होने का कोई प्रमाण नहीं है। उसके मत से स्त्री-पुत्रादि के आलिङ्गन से उत्पन्न सुख पुरुषार्थ है। संसार में खाना, पीना और सुख से रहना चाहिए :

यावज्जीवेत् सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥

[जब तक जीना चाहिए सुखपूर्वक जीना चाहिए; यदि अपने पास साधन नहीं है तो दूसरों से ऋण लेकर भी मौज करना चाहिए। श्मशान में शरीर के जल जाने पर किसने उसको लौटते हुए देखा है?] परलोक वा स्वर्ग आदि का सुख पुरुषार्थ नहीं है, क्योंकि ये प्रत्यक्ष नहीं हैं। इसके अनुसार जो लोग परलोक के स्वर्गसुख के अमिश्र शुद्ध सुख मानते हैं वे आकाश में प्रासाद रचते हैं, क्योंकि परलोक तो है ही नहीं। फिर उसका सुख कैसा? उसे प्राप्त करने के यज्ञादि उपाय व्यर्थ हैं। वेदादि धूर्तों और स्वार्थियों की रचनायें हैं (त्रयो वेदस्य कर्तारः धूर्त-भाण्ड-निशाचराः), जिन्होंने लोगों से धन पाने के लिए ये सब्जबाग दिखाये हैं। यज्ञ में मारा हुआ पशु यदि स्वर्ग को जायेगा तो यजमान अपने पिता को ही उस यज्ञ में क्यों नहीं मारता? मरे हुए प्राणियों की तृप्ति का साधन यदि श्राद्ध होता है तो विदेश जाने वाले पुरुषों के राहखर्च के वास्ते वस्तुओं को ले जाना भी व्यर्थ है। यहाँ किसी ब्राह्मण को भोजन करा दे या दान दे दे, जहाँ रास्ते में आवश्यक होगा वहीं वह वस्तु उसको मिल जायगी।

जगत् में मनुष्य प्रायः दृष्ट फल के अनुरागी होते हैं। नीतिशास्त्र और कामशास्त्र के अनुसार अर्थ व काम को ही पुरुषार्थ मानते हैं। पारलौकिक सुख को प्रायः नहीं मानते। कहते हैं कि किसने परलोक वा वहाँ के सुख को देखा है? यह सब मनगढ़न्त बातें हैं, सत्य नहीं हैं। जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है। इस मत का एक दूसरा नाम, जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, लोकायत भी है। इसका अर्थ हे 'लोक में स्थित' लोकों-जनों में आयत फैला हुआ मत ही लोकायत है। अर्थात अर्थ काम को ही पुरुषार्थ मानने वाले मनुष्यों में यह मत फैला हुआ है।

यद्यपि चार्वाक का नाम प्रसिद्ध नहीं है तथापि उसका मत और उसका तर्क बहुत फैले हुए व्यापक हैं। पाश्चात्य देशों में इस प्रकार का तर्क मानने वाले बहुत लोग हैं। यह मत आधुनिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से मिलता जुलता है, केवल तर्क और युक्ति पर आधारित है। परवर्ती दार्शनिक सम्प्रदायों के ऊपर इसके आघात का यह प्रभाव हुआ कि इन सम्प्रदायों ने अपने तर्कपक्ष को पर्याप्त विकसित किया, जिससे वे इसके आक्षेपों का उत्तर दे सकें और इसका खण्डन कर सकें। चार्वाकदर्शन सम्प्रदाय के रूप में भारत में बहुत प्रचलित नहीं हुआ। (पूर्ण विवरण के लिए दे० 'सर्वदर्शनसंग्रह', प्रथम अध्याय।)

चार्वाकदर्शन : दे० 'चार्वाक'।

चित्त : पतञ्जलि के अनुसार मन, बुद्धि और अहंकार तीनों से मिलकर चित्त बनता है। चित्त की पाँच वृत्तियाँ होती हैं-- प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति। चित्त की क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, निरुद्ध एवं एकाग्र ये पाँच प्रकार की भूमियाँ होती हैं। आरम्भ की तीन चित्तभूमियों में योग नहीं हो सकता, केवल अन्तिम दो में हो सकता है।

चित्तवृत्तियों के निरोध का ही नाम योग है। पतञ्जलि ने अष्टाङ्गयोग का वर्णन किया है। ये आठ अंग हैं-- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। योग का अंतिम चरण समाधि है। इसका उद्देश्य है चित्त के निरोध से आत्मा का अपने स्वरूप में लय।

चित्तौड़गढ़ : इसका प्राचीन नाम चित्रकूट था। यहाँ पहले पाशुपत पीठ था। मेदपाट के सिसौदिया वंश के राणाओं के समय में इसकी बड़ी प्रतिष्ठा बढ़ी। पुराने उदयपुर राज्य का यह यशस्‍वी दुर्ग है। यह भारत का महान् ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक तीर्थ है। यहाँ का कण-कण मातृभूमि की रक्षा के लिए तथा हिन्दुत्व के गौरव की रक्षा के लिए रक्तसिञ्चित है। दुर्ग के भीतर महाराणा प्रताप का जन्मस्थान, रानी पद्मिनी, पन्ना धाय तथा मीराबाई के महल, कीर्तिस्तम्भ, जयस्तम्भ, जटाशंकर महादेव का मन्दिर, गोमुख कुण्ड, रानी पद्मिनी तथा अन्य राजपूत वीराङ्गनाओं की विस्तृत चिताभूमि, काली माता का मन्दिर आदि दर्शनीय स्थान हैं।

चित्रकूट : यह उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में करवी स्टेशन के पास पयस्विनी के तट पर स्थित अति रम्य स्थान है। चित्रकूट का सबसे बड़ा माहात्म्य यह है कि भगवान् राम ने वनवास के समय यहाँ निवास किया था। चित्रकूट सदा से तपोभूमि रहा है। महर्षि अत्रि-अनसूया का यहाँ आश्रम है, जहाँ से मध्य प्रदेश लग जाता है। यहाँ तपस्वी, भगवद्भक्त, विरक्त महापुरुष सदा रहते आये हैं।

चित्रगुप्तपूजा : यमद्वितीया को प्रातःकाल सवेरे चित्रगुप्त आदि चौदह यमों की पूजा होती है। इसके बाद बहिनों के घर भाई के भोजन करने की प्रथा बहुत पुरानी है। इस दिन बहिनें शाप के व्याज से भाई को आशीर्वाद देती हैं। शाप देने का उद्देश्य यमराज को धोखा देना है। शाप से भाई को मरा हुआ जानकर वह उस पर आक्रमण नहीं करता।

कायस्थों का यह विश्वास है कि चित्रगुप्त उनके पूर्वज हैं। अतः इस दिन वे उनकी विधिवत् पूजा करता हैं। चित्रगुप्त यमराज के लेखक माने जाते हैं, अतः उनकी कलम-दावात की भी पूजा होती है।

चित्रदीप : विद्यारण्य स्वामी द्वारा विरचित पञ्चदशी अद्वैत वेदान्त का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके चित्रदीप नामक प्रकरण में उन्होंने चेतन के विषय में कहा है कि घटाकाश, महाकाश, जलाकाश एवं मेघाकाश के समान कूटस्थ, ब्रह्म, जीव और ईश्वर-भेद से चेतन चार प्रकार का है। व्यापक आकाश का नाम महाकाश है, घटावच्छिन्न आकाश को घटाकाश कहते हैं, घट में जो जल है उसमें प्रतिबिम्बित होनेवाले आकाश को जलाकाश कहते हैं और मेघ के जल में प्रतिबिम्बित होनेवाले आकाश का नाम मेघाकाश है। इन्हीं के समान जो अखण्ड और व्यापक शुद्ध चेतन है उसका नाम ब्रह्म है, देहरूप उपाधि से परिच्छिन्न चेतन को कूटस्थ कहते हैं, देहान्तर्गत अविद्या में प्रतिबिम्बित चेतना का नाम जीव है और माया में प्रतिबिम्बित चेतन को ईश्वर कहते हैं।

चित्रपुट : अप्पय दीक्षितकृत मीमांसाविषयक ग्रन्थों में से एक चित्रपुट है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है।

चित्रभानुव्रत : शुक्ल पक्ष की सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। रक्तिम सुगन्धित पुष्पों से तथा घृतधारा से सूर्य का पूजन होता है। इससे अच्छे स्वास्थ्य की उपलब्धि होती है।

चित्रभानुपदद्वयव्रत : उत्तरायण के प्रारम्भ से अन्त तक इसका अनुष्ठान होता है। यह अयन व्रत है। इसमें सूर्य की पूजा होती है।

चित्रमीमांसा : अप्पय दीक्षितकृत अलङ्कार शास्त्र-विषयक ग्रन्थ। इसमें अर्थचित्र का विचार किया गया है। इसका खण्डन करने के लिए पण्डितराज जगन्नाथ ने 'चित्रमीमांसा खण्डन' नामक ग्रन्थ की रचना की।

चित्रमीमांसाखण्डन : पण्डितराज जगन्नाथकृत यह ग्रन्थ अप्पय दीक्षित कृत 'चित्रमीमांसा' नामक अलङ्कार शास्त्र विषयक ग्रन्थ के खण्डनार्थ लिखा गया है।

चित्रशिखण्डी ऋषि : सप्त ऋषियों का सामूहिक नाम। पाञ्चरात्र शास्त्र सात चित्रशिखण्डी ऋषियों द्वारा सङ्कलित है, जो संहिताओं का पूर्ववर्ती एवं उनका पथप्रदर्शक है। इन ऋषियों ने वेदों का निष्कर्ष निकालकर पाञ्चरात्र नाम का शास्त्र तैयार किया। ये सप्तर्षि स्वायम्भुव मन्वन्तर के मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ हैं। इस शास्त्र में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों का विवेचन है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अङ्गिरा ऋषि के अथर्ववेद के आधार पर इस ग्रन्थ में प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्गों की चर्चा है। दोनो मार्गों का यह आधारस्तम्भ है। नारायण का कथन है-- "हरिभक्त वसुराज उपरिचर इस ग्रन्थ को बृहस्पति से सीखेगा और उसके अनुसार चलेगा, परन्तु इसके पश्चात् यह ग्रन्थ नष्ट हो जायगा।" चित्रशिखण्डी ऋषियों का यह ग्रन्थ आजकल उपलब्ध नहीं है।

चित्सुखाचार्य : आचार्य चित्सुख का प्रादुर्भाव तेरहवीं शताब्दी में हुआ था। उन्होंने 'तत्त्वप्रदीपिका' नामक वेदान्त ग्रन्थ में न्यायलीलावतीकार वल्लभाचार्य के मत का खण्डन किया है, जो बारहवीं शताब्दी में हुए थे। उस खण्डन में उन्होंने श्रीहर्ष के मत को उद्धृत किया है, जो इस शताब्दी के अन्त में हुए थे। उनके जन्मस्थान आदि के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। उन्होंने 'तत्त्वप्रदीपिका' के मङ्गलाचरण में अपने गुरु का नाम ज्ञानोत्तम लिखा है।

जिन दिनों इनका आविर्भाव हुआ था, उन दिनों न्यायमत (तर्कशास्त्र) का जोर बढ़ रहा था। द्वादश शताब्दी में श्रीहर्ष ने न्यायमत का खण्डन किया था। तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ में गङ्गेश ने श्रीहर्ष के मत को खंडित कर न्यायशास्त्र को पुनः प्रतिष्ठित किया। दूसरी ओर द्वैतवादी वैष्णव आचार्य भी अद्वैत मत का खण्डन कर रहे थे। ऐसे समय में चित्सुखाचार्य ने अद्वैतमत का समर्थन और न्याय आदि मतों का खण्डन करके शाङ्कर मत की रक्षा की। उन्होंने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए 'तत्त्व प्रदीपिका', 'न्यायमकरन्द' की टीका और 'खण्डनखण्डखाद्य' की टीका लिखी। अपनी प्रतिभा के कारण चित्सु खाचार्य ने थोड़े ही समय में बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। चित्सुख भी अद्वैतवाद के स्तम्भ माने जाते हैं। परवर्ती आचार्यों ने उनके वाक्यों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है।

चित्‍सुखी : चित्सुखाचार्य द्वारा रचित 'तत्त्वप्रदीपिका' का दूसरा नाम 'चित्सुखी' है। यह अद्वैत वेदान्त का समर्थक, उच्चकोटि का दार्शनिक ग्रन्थ है।

चिता : मृतक के दाहसंस्कार के लिए जोड़ी हुई लकड़ियों का समूह। गृह्यसूत्रों में चिताकर्म का पूरा विवरण पाया जाता है।

चिदचिदीश्वरतत्त्वनिरूपण : विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय का दार्शनिक ग्रन्थ। वरदनायक सूरिकृत (16वीं शताब्दी का) यह ग्रन्थ जीव, जगत् और ईश्वर के सम्बन्ध में विचार उपस्थित करता है।

चिदम्बरम् : यह सुदूर दक्षिण भारत का अति प्रसिद्ध शैव तीर्थ है। यह मद्रास-धनुषकोटि मार्ग में बिल्लुपुरम् से 50 मील दूर अवस्थित हैं। सुप्रसिद्ध 'नटराज शिव' यहीं विराजमान है। शङ्करजी के पञ्चतत्त्व लिङ्गों में से आकाशलिङ्ग चिदम्बरम् में ही माना जाता है। मन्दिर का घेरा 100 बीघे का है। पहले घेरे के पश्चात् दूसरे घेरे में उत्तुङ्ग गोपुर है, जो नौ मंजिल का है, उस पर नाट्यशास्त्र के अनुसार विभिन्न नृत्यमुद्राओं की मूर्तियाँ बनी हैं। मन्दिर में नृत्य करते हुए भगवान् शङ्कर की बहु सुन्दर स्वर्णमूर्ति है। इसके सम्मुख सभामण्डप है। कई प्रकोष्ठों के भीतर भगवान् शङ्कर की लिङ्गमय मूर्ति है। यही चिदम्बरम् का मूल विग्रह है। महर्षि व्याघ्रपाद तथा पतञ्जलि ने इसी मूर्ति की अर्चा की थी, जिससे प्रसन्न होकर भगवान् शङ्कर ने ताण्डवनृत्य किया। उसी नृत्य के स्मारक रूप में नटराज की यहाँ स्थापना हुई, ऐसी अनुश्रुति है। धार्मिक विस्तार और कला की अभिव्यक्ति दोनों ही दृष्टियों से यह मन्दिर अपूर्व है।

इसी चिदम्बरपुर के निवासी उमापति नामक एक ब्राह्मण शूद्र सन्त मरई ज्ञानसम्बन्ध के शिष्य हो गये थे, जिसके कारण उनको जाति से निकाल दिया गया। किन्तु गुरु की कृपा से उमापति बहुत बड़े सैद्धान्तिक ग्रन्थों के प्रणेता हुए। उन्होंने अनेक ग्रन्थ रचे जिनमें से आठ तो सिद्धान्त शास्त्रों में से हैं। आगे चलकर इनका नाम उमापति शिवाचार्य हुआ।

चिदानन्द : माध्व वैष्णवों के इतिहास में अठारहवीं शती के मध्य कई अनन्य भगवत्प्रेमी कवि हुए, जिन्होंने भगवान् कृष्ण की स्तुति के गीत कन्नड़ भाषा में लिखे थे। इनमें एक थे चिदानन्द दास, जिनका कन्नड़ ग्रन्थ 'हरिभक्ति रसायन' अति प्रसिद्ध है। इनका 'हरिकथासार' नामक अन्य कन्नड़ ग्रन्थ भी सैद्धान्तिक ग्रन्थ समझा जाता है।

चिन्तामणितन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में दी गयी 64 तन्त्रों की सूची में इसका 33वाँ क्रम है। तन्त्र के विभिन्न अङ्गों पर इससे प्रकाश पड़ता है।

चिन्त्य : (1) अट्ठाईस आगमों में से एक शैव आगम 'चिन्त्य' नामक भी है।

(2) बुद्धि का विषय सम्पूर्ण स्थल विश्व चिन्त्य (चिन्ता का विषय) कहलाता है। इससे विपरीत ब्रह्म तत्त्व अचिन्त्य है।

चुनार : वारणासी से पश्चिम गंगातटवर्ती 'चरणाद्रि' नामक एक पहाड़ी किला। यह मिर्जापुर जिले में गंगा के दाहिने तट पर स्थित पवित्र तीर्थस्थल माना जाता है। इसकी स्थिति (भगवान् के) चरण के आकार की है, अतः इसका नाम चरणाद्रि पड़ा। स्थानीय परम्परा के अनुसार इसका देशज नाम चरणाद्रि से चुनार हो गया है। लोग इसे राजा भर्तृहरि की तपोभूमि और दुर्ग में स्थित मन्दिर को राजा विक्रमादित्य का बनवाया मानते हैं। मन्दिर इतना प्राचीन नहीं जान पड़ता। परन्तु गहड़वाल राजवंश के समय तक कंतित (कान्तिपुरी) और चरणाद्रि दोनों महत्‍त्वपूर्ण स्थान थे। चुनार दुर्ग का महत्व तो पूरे मध्यकाल तक बना रहा। प्रायः प्रत्येक दुर्ग एक प्रकार का शाक्तपीठ माना जाता था।

यहाँ की रम्य एकान्त स्थली में वल्लभाचार्यजी ने भगवान् की आराधना की थी। उसकी स्मृति में 'महाप्रभुजी की बैठक' स्थापित है। इससे वैष्णव भी इसे अपना तीर्थ मानते हैं।

चूलिकोपनिषद् : इस उपनिषद् में सेश्वर सांख्ययोग सिद्धान्त सरलता से प्रस्तुत किया गया है। चूलिका का सांख्य मत मैत्रायणी के निकट प्रतीत होता है, अतएव ये दोनों उपनिषदें (चूलिका एवं मैत्रायणी) लगभग एक ही काल की रचनायें हैं।

चेतन : आत्मा का एक पर्याय। इसका अर्थ है 'चेतना रखने वाला।' चिद्रूप होने से आत्मा का यह नाम हुआ। पुरुष सूक्त के चतुर्थ मन्त्र में पुरुष के रूप एवं कार्यों के वर्णन में कथित है 'ततो विश्वं व्यक्रामत्', अर्थात् यह नाना प्रकार का जगत् उसी पुरुष के सामर्थ्य से उत्पन्न हुआ है। वह दो प्रकार का है; एक 'साशन' अर्थात् चेतन जो कि भोजनादि के लिए चेष्टा करता है और जीवसंयुक्त है। दूसरा 'अनशन', अर्थात् जो जड़ है और भोज्य होने के लिए बना है, क्योंकि उसमें ज्ञान नहीं है, वह अपने आप चेष्टा भी नहीं कर सकता। आत्मा सभी दर्शनों में चेतन माना गया है। चैतन्य उसका गुण है।

चैतन्य : (1) आस्तिक दर्शनों के अनुसार चैतन्य आत्मा का गुण है। चार्वाक तथा अन्य नास्तिक मतों के अनुसार चैतन्य आत्मा का गुण न होकर प्राकृतिक तत्त्वों के संघात से उत्पन्न होता है। जड़वाद के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार ही तत्त्व हैं जिनसे विश्व में सब कुछ बना है। इन्हीं चारों तत्त्वों के मेल से देह बनती है। जिन वस्तुओं के मेल से मदिरा बनायी जाती है उनको पृथक्-पृथक् करने से नशा नहीं होता, किन्तु संयोग से निर्मित मदिरा से ही मादकता उत्पन्न होती है। उसी तरह चारों तत्त्वों की पृथक् स्थिति में चैतन्य नहीं मालूम होता, किन्तु इनके एक में मिल जाने से ही शरीर में चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। शरीर जब विनष्ट हो जाता है तो उसके साथ-साथ चैतन्य गुण भी नष्ट हो जाता है।

चैतन्य (2) : दे० 'कृष्ण चैतन्य'।

संन्यास आश्रम के 'दसनामी' वर्ग के अन्तर्गत दीक्षित होने वाले शिष्य का यह एक उपनाम भी है।

चैतन्यचन्द्रोदय : सं० 1625 वि० के लगभग बङ्गाल में धार्मिक नवजागरण हुआ तथा महाप्रभु कृष्ण चैतन्य के जीवनवृत्तान्त पर भी कतिपय ग्रन्थ कुछ वर्षों में रचे गये। 'चैतन्यचन्द्रोदय' उनमें से एक है। यह कवि कर्णपूर द्वारा रचित संस्कृत नाटक है। इसका नाम 'प्रबोधचन्द्रोदय' नामक आध्यात्मिक नाटक के अनुसार रखा गया प्रतीत होता है।

चैतन्यचरित : मुरारि गुप्त रचित यह महाप्रभु कृष्ण चैतन्य की जीवनलीला का संस्कृत में वर्णन है। इसकी रचना सं० 1629 वि० में हुई थी।

चैतन्यचरितामृत : बँगला भाषा में कृष्णदास कविराज कृत महाप्रभु कृष्ण चैतन्य के जीवन से सम्बन्धित यह एक काव्य ग्रन्थ है। रचनाकाल सं० 1638 वि० है। इसे कविराज ने नौ वर्षों के परिश्रम से उत्तर प्रदेशस्त वृन्दावन (राधाकुण्ड) में तैयार किया था। यह ग्रन्थ बड़ा शिक्षापूर्ण है तथा चैतन्यजीवन पर सर्वोत्तम लोकप्रिय रचना है। इसे सम्प्रदाय के अनेक भक्त लोग कंठस्थ कर लेते हैं। श्री दिनेशचन्द्र सेन के मत से चैतन्य सम्प्रदाय के लिए यह ग्रन्थ बहुत प्रामाणिक और अति महत्त्व का है।

चैतन्यदैव : दे० 'कृष्ण चैतन्य'।

चैतन्यभागवत : महात्मा वृन्दावनदास रचित यह ग्रन्थ बँगला काव्य में चैतन्यदेव का सुन्दर जीवनचरित है। इसकी रचना सं० 1630 वि० में हुई।

चैतन्यमङ्गल : कविवर लोचनदास कृत यह ग्रन्थ भी चैतन्यजीवन का ही बंग भाषा में वर्णन करता है। इसकी रचना सं०1632 वि० में हुई।

चैतन्यसम्प्रदाय : (कृष्ण चैतन्य शब्द की व्याख्या में चैतन्य का जीवनवृत्तान्त देखिए।) चैतन्य की परमपद-प्राप्ति सं० 1590 वि० में हुई तथा 1590 से 1617 वि० तक बंगाल का वैष्णव सम्प्रदाय चैतन्य के वियोग से शोकाकुल रहा। साहित्यरचना तथा संगीत मृतप्राय से हो गये, किन्तु चैतन्य सम्प्रदाय जीवित रहा। नित्यानन्द ने इसकी व्यस्था सँभाली एवं चरित्र की नियमावली सबके समक्ष रखी। उनकी मृत्यु पर उनके पुत्र वीरचन्द्र ने पिता के कार्य को हाथ में लिया तथा एक ही दिन में 2500 बौद्ध संन्यासी तथा संन्यासिनियों को चैतन्य सम्प्रदाय में दीक्षित कर डाला। चैतन्‍य की मृत्यु के कुछ पूर्व से ही रूप, सनातन तथा दूसरे कई भक्त वृन्दावन में रहने लगे थे तथा चैतन्य सम्प्रदाय की सीमा बँगाल से बाहर बढ़ने लगी थी। चैतन्य के छः साथी--रूप, सनातन, उनके भतीजे जीव, रघुनाथदास, गोपाल भट्ट एवं रघुनाथ भट्ट 'गोस्वामी' कहलाते थे। 'गोस्वामी' से धार्मिक नेता का बोध होता था। ये लोग शिक्षा देते, पढ़ाते और दूसरे मतावलम्बियों को अपने सम्प्रदाय में दीक्षित करते थे। इन्होंने अपने सम्प्रदाय के धार्मिक नियमों से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ लिखे। भक्ति, दर्शन, उपासना, भाष्य, नाटक, गीत आदि विषयों पर भी उन्होंने रचना की। ये रचनाएँ सम्प्रदाय के दैनिक जीवन, पूजा एवं विश्वास आदि पर ध्यान रखते हुए लिखी गयी थीं।

उक्त गोस्वामियों के लिए यह बड़ा ही शुभ अवसर था कि उनके वृन्दावन-वास काल में अकबर बादशाह भारत का शासक था तथा उसकी धार्मिक उदारता के कारण इन्होंने अनेक मन्दिर वृन्दावन में बनवाये और अनेक राजपूत राजाओं से आर्थिक सहायता प्राप्त की।

सत्रहवीं शती के प्रारम्भिक 40 वर्षों में चैतन्य आन्दोंलन ने बंगाल में अनेक गीतकार उत्पन्न किये। उनमें सबसे बड़े गोविन्ददास थे। ज्ञानदास, बलरामदास, यदुनन्दन दास एवं राजा वीरहम्बीर ने भी अच्छे ग्रन्थों की रचना की।

अठारहवीं शती के आरम्भ में बलदेव विद्याभूषण ने वेदान्तसूत्र पर सम्प्रदाय के लिए भाष्य लिखा, जिसे उन्होंने 'गोविन्दभाष्य' नाम दिया तथा 'अचिन्त्य भेदाभेद' उसके दार्शनिक सिद्धान्त का नाम रखा।

चैतन्य सम्प्रदाय में जाति-पाँति का भेद नहीं है। कोई भी व्यक्ति इसका सदस्य हो सकता है, पूजा कर सकता है तथा ग्रन्थ पढ़ सकता है। फिर भी विवाह के नियम एवं ब्राह्मण के पुजारी होने का नियम अक्षुण्ण था। केवल प्रारम्भिक नेताओं के वंशज ही गोस्वामी कहलाते थे। इन्हीं नियमों से अनेक मठ एवं मन्दिरों की व्यवस्था होती थी।

चैतन्य दसनामी संन्यासियों में से भारती शाखा के संन्यासी थे। उनके कुछ साथियों ने भी संन्यास ग्रहण किया। किन्तु नित्यानन्द तथा वीरचन्द्र ने आधुनिक साधुओं के सरल अनुशासन को जन्म दिया, जिसके अन्तर्गत वैष्णव साधु वैरागी तथा वैरागिनी कहलाने लगे। ऐसा ही पहले स्वामी रामानन्द ने किया था। इस सम्प्रदाय में हजारों भ्रष्ट शाक्त, और बौद्ध आकर दीक्षित हुए। फलतः बहुत बड़ी अशुद्धता सम्प्रदाय में भी आ गयी। आजकल इस साधुशाखा का आचरण सुधर गया है।

इनके मन्दिरों में मुख्य मूर्तियाँ कृष्ण तथा राधा की होती हैं, किन्तु चैतन्य, अद्वैत तथा नित्यानन्द की मूर्तियों की भी प्रत्येक मन्दिर में स्थापना होती है। कही-कहीं तो केवल चैतन्य की ही मूर्ति रहती है। संकीर्तन इनका मुख्य धार्मिक एवं दैनिक कार्य है। कीर्तनीय (प्रधान गायक) मन्दिर के जगमोहन में करताल एवं मृदंग वादकों के बीच नाचता हुआ कीर्तन करता है। अधिकार 'गौरचन्द्रिका' का गायन एक साथ किया जाता है। संकीर्तन दल व्यक्तिगत घरों में भी संकीर्तन करता है।

चैत्र : इस मास के सामान्य कृत्यों के लिए देखिए कृत्यरत्नाकर, 83-144; निर्णयसिन्धु, 81-90। कुछ महत्त्वपूर्ण व्रतों का अन्यत्र भी परिगणन किया गया है। शुक्ल प्रतिपदा कल्पादि तिथि है। इस दिन से प्रारम्भ कर चार मास तक जलदान करना चाहिए। शुक्ल द्वितीया को उमा, शिव तथा अग्नि का पूजन होना चाहिए। शुक्ल तृतीया मन्वादि तिथि है। उसी दिन मत्स्यजयन्ती मनानी चाहिए। चतुर्थी को गणेशजी का लड्डुओं से पूजन होना चाहिए। पञ्चमी को लक्ष्मीपूजन तथा नागों के पूजन का भी विधान है। षष्ठी के लिए देखिए 'स्कन्द षष्ठी।' सप्तमी को दमनक पौधे से सूर्यपूजन की विधि है। अष्टमी को भवानीयात्रा होती है। इस दिन ब्रह्मपुत्र नदी में स्नान का महत्त्व है। नवमी को भद्रकाली की पूजा होती है। दशमी को दमनक पौधे से धर्मराज की पूजा का विधान है। शुक्ल एकादशी को कृष्ण भगवान् का दोलोत्सव तथा दमनक से ऋषियों का पूजन होता है। महिलाएँ कृष्णपत्नी रुक्मिणी का पूजन भी करती हैं तथा सन्ध्या काल में सभी दिशाओं मे पञ्चगव्य फेंकती हैं। द्वादशी को दमनकोत्सव मनाया जाता है। त्रयोदशी को कामदेव की पूजा चम्पा के पुष्पों तथा चन्दन लेप से की जाती है। चतुर्दशी को नृसिंहदोलोत्सव मनाया जाता है। दमनक पौधे से एकवीर, भैरव तथा शिव की पूजा की जाती है। पूर्णिमा को मन्वादि, हनुमज्जयन्ती तथा वैशाख स्नानारम्भ किया जाता है।

चौरासी पद : राधावल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक गोस्वामी हरिवंशजी ने तीन ग्रन्थ लिखे थे --- 'राधासुधानिधि', 'चौरासी पद' एवं 'स्फुट पद'। चौरासी पद का अन्य नाम 'हित चौरासी' भी है। हरिवंशजी का उपनाम 'हित' था जिसे उन्होंने इस ग्रन्थ के आरम्भ में जोड़ दिया है। इनका समय 1536 वि० के लगभग है। हितचौरासी तथा स्फुट पद दोनों ही व्रजभाषा में रचे गये हैं। 'हितजी' की उक्त रचनाएँ बडीं मधुर एवं राधाकृष्ण के प्रेमरस से परिपूर्ण हैं।

चौरासी वैष्णवन की वार्ता : वल्लभ सम्प्रदाय के अन्तर्गत व्रजभाषा में कुछ ऐसे ग्रन्थ हैं, जो कृष्णचरित्र सम्बन्धी कथाओं के प्रेमतत्त्व पर अधिक बल देते हैं। इनमें सबसे मुख्य गोस्वामी गोकुलनाथजी की संग्रहरचना "चौरासी वैष्णवन की वार्ता" है जो 1608 वि० सं० में लिखी गयी। इन वार्ताओं से अनेक भक्त कवियों के ऐतिहासिक कालक्रम निर्धारण में सहायता मिलती है।

चौरासी सिद्ध : बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अन्तर्गत चौरासी सिद्ध बहुत प्रसिद्ध हैं। इनमें कुछ हठयोग के अभ्यासी शैव सन्त भी गिने जाते हैं। इनके समय तक बौद्ध सन्त धर्म, प्रज्ञा, शील तथा समाधि का मार्ग छोड़ कर चमत्कारिक सिद्धियों की प्राप्ति में लग गये थे। नीति और औचित्य का विचार इनकी साधना में नहीं था। सिद्धों में सभी वर्णों के, लोग सम्मिलित थे। अतः इनमें ब्राह्मणों के आचार-विचार का पालन नहीं होता था। इनमें से बहुत से सुरापी और परस्त्रीसेवी थे। ये मांस आदि का भी सेवन करते थे। रजकी, भिल्लनी, डोमनी आदि इनकी साधिकाएँ थीं। सिद्ध इनमें से किसी एक को माध्यम बनाकर और उसके सहयोग से वाममार्गीय उपचार करके यक्षिणी, डाकिनी, कर्णपिशाचिनी आदि को सिद्ध करते थे। यह सकाम साधना थी। इनमें से कुछ निष्काम निर्गुण ब्रह्म के भी उपासक थे, जो ध्यान द्वारा शून्यता में लीन हो जाते थे। इन सिद्ध में नारोपा, तिलोपा, मीनपा, जालन्धरपा आदि प्रसिद्ध हैं। सिद्धों के चमत्कार लोक में प्रचलित थे। सिद्धों ने अपभ्रंश अथवा प्रारम्भिक हिन्दी में अपने प्रिय विषयों पर प्रारम्भिक पद्यरचना भी की है।

चौल (चूड़ाकरण) : प्रथम मुण्डन या चूड़ाकरण संस्कार को चौल कहते हैं। यह बालक के जन्म के तीसरे वर्ष अथवा जन्म के एक वर्ष के भीतर किया जाता है। आश्वलायन गृह्यसूत्र (1.4) के अनुसार यह संस्कार शुभ मुहूर्त में विषम वर्ष में होना चाहिए। इसमें ब्राह्मण पुरोहित, नाई एवं दूसरे सम्बन्धी आमंत्रित किये जाते हैं। बालक माता पिता द्वारा मंडप में लाया जाता है तथा दोनों के बीच बैठता है। पुरोहित बालक के पिता से संकल्प तथा नवग्रह होम कराता है। पुनः वह बालक के निकट एक वर्गाकार चिह्न बनाता तथा लाल मिट्टी से उसे चिह्नित करके उस पर चावल छिड़कता है। बालक फिर उस वर्गाकार चिह्न के पास बैठता तथा नाई उसके केश, अपने अस्तुरे की पूजा होने के पश्चात् उतारता है। बीच में केवल वह एक केशसमूह छोड़ देता है जो कभी नहीं काटा जाता और जिसे शिखा कहते हैं। उत्सव का अन्त भोज एवं ब्राह्मणों को दान देकर किया जाता है।

इस संस्कार का प्रयोजन केशपरिष्कार एवं केश अलंकरण है। आयुर्वेद में इस बात का उल्लेख है कि जहाँ शिखा रखी जाती है उसके नीचे मनुष्यशरीर का मर्मस्थल है। अतः उसकी रक्षा के लिए उसके ऊपर केश समूह का रखना आवश्यक है।

च्यवन, च्यवान : एक प्राचीन ऋषि के नाम च्यवन एवं च्यवान है। ऋग्वेद (1.116.10--13;118, 6; 5.74,5;7.68,5;71,5;10.49,4) में वे वृद्ध एवं बलहीन पुरुष के रूप में वर्णित हैं, जिन्हें अश्विनों ने यौवन तथा बल प्रदान किया। शतपथ ब्राह्मण में कथा दूसरे ढंग से दी गयी है। यहाँ च्यवन के शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह करने की कथा है। उन्हें भृगु अथवा आङ्गिरस कहा गया है। जैमिनीय ब्राह्मण में लिखा है कि भृगु के दूसरे पुत्र विदन्वन्त ने इन्द्र के विरुद्ध च्यवन की सहायता की, जबकि इन्द्र इनसे अश्विनों के प्रति यज्ञ करने से रुष्ट था। यह भी उल्लेखनीय है कि शतपथ-ब्राह्मण में सुकन्या के परामर्श पर अश्विनीकुमार यज्ञ में अपना भाग लेने आते हैं। किन्तु इन्द्र और च्यवन में समझौता हो गया होगा, जैसा कि ऐतरेय ब्राह्मण के एक उद्धरण से पता चलता है कि च्यवन ने शर्याति के ऐन्द्र महाभिषेक का शुभारम्भ कराया था। पञ्चविंश ब्राह्मण (11.5,13;19.3,6; 14.6,10;11.8,11) में च्यवन को सामवेद का ऋषि कहा गया है। इन्हीं वैदिक सन्दर्भों के आधार पर पुराणों में च्यवन-सम्बन्धी कई कथाएं पायी जाती हैं।

छठमाता : कार्तिक शुक्ल षष्ठी को 'छठमाता' कहते हैं और इस दिन सूर्य की पूजा होती है। आजकल सूर्यपूजा वैदिक काल की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण रह गयी है। फिर भी सूर्यपूजा का प्रभाव है। उड़ीसा में पुरी के समीप कोणार्क तथा गया में सूर्यमन्दिर हैं। प्रत्येक रविवार को सूर्योपासक मांस, मछली नहीं खाते तथा इस दिन को अति पवित्र मानते हैं। कार्तिक मास के रविवार विहार एवं बंगाल में सूर्योपासना के लिए अति महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।

सूर्यदेव के सम्मान में विहार में कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन एक पर्व मनाया जाता है। उस दिन सूर्योपासक लोग व्रत करते हैं तथा अस्त होते हुए सूर्य को अर्घ्‍य देते हैं, पुनः दूसरे दिन प्रातः उदय होते हुए सूर्य को अर्घ्‍य देते हैं। यह कार्य किसी नदी के जल में या तालाब के जल में खड़े होकर स्नानोपरान्त करते हैं। श्वेत पुष्प, चन्दन, सुपारी, चावल, दूध, केला आदि भी सूर्य को चढ़ाते हैं। पुरोहित के बदले इस पूजा की क्रिया परिवार का सबसे बड़ा वृद्ध (विशेष कर बुढ़िया) करता है। कहीं-कहीं मुसलमान भी यह पूजा करते हैं।

छठी : गृह्यसूत्रों में षष्ठी एक शिशुघातिनी यक्षिणी मानी गयी है। इसको जन्म के छठे दिन तुष्ट करके विदा किया जाता है तथा शिशु के दीर्घायुष्य की कामना की जाती है।

अन्य शुभ रूप में शिशु के जन्म के छठे दिन की रात को माता षष्ठी या छठी माता की पूजा करती है तथा जौ के आटे के रोट व चावल चीनी के साथ पकाकर देवी को चढ़ाती है। यह प्रथा विशेष कर चमारों में पायी जाती है। दुसाध जाति में भी इस पूजा का महत्त्व है। वे भी छठी माँ की पूजा करते हैं। छठी की पूजा के पहले पूजा करने वाले उपवास से अपने को पवित्र करते हैं तथा गान करते हुए नदी के तट पर जाते हैं। वहाँ नदी में पूर्व दिशा की ओर मुख करके चलते रहते हैं जब तक सूर्योदय नहीं होता है। सूर्योदय के समय वे हाथ जोड़कर खड़े होते हैं तथा रोट व फल सूर्य को चढ़ाते तथा स्वयं उसे प्रसाद स्वरूप खाते हैं।

छत्र : देवताओं के अलङ्करण के लिये जो उपादान काम में लाये जाते हैं उनमें एक छत्र भी है। यह राजस्व अथवा अधिकार का द्योतक है। राजपदसूचक उपकरणों में भी छत्र प्रधान है जो राज्याभिषेक के समय से ही राजा के ऊपर लगाया जाता है। इसीलिए उसकी छत्रपति पदवी है। देवमूर्तियों के ऊपर प्रायः प्रभामण्डल और छत्र का अङ्कन होता है।

बौद्ध स्तूपों की हर्म्यिका के ऊपर भी छत्र अथवा छत्रावलि (कई छत्रों का समूह) पायी जाती है।

छन्द (वेदाङ्ग) : वेद के छः अङ्ग हैं-- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द। जैसे मनुष्य के अङ्ग आँख, कान, नाक, मुँह, हाथ और पाँव होते हैं, वैसे ही वेदों की आँख ज्योतिष हैं, कान निरुक्त हैं, नाक शिक्षा है, मुख व्याकरण हैं, हाथ कल्प हैं तथा पाँव छन्द हैं। शिक्षा और छन्द से ठीक-ठीक रीति से उच्चारण और पठन का ज्ञान होता है। इस प्रकार वैदिक साहित्य का छठा अङ्ग छन्द हैं। ऋग्वेद सम्पूर्ण पद्यमय है। सामवेद एवं अथर्ववेद भी पद्यमय ही हैं। केवल यजुर्वेद में पद्य और गद्य दोनों हैं। पद्य अथवा छन्दों की संख्या एवं प्रकार अगणित हैं।

छन्द का प्रधान प्रयोजन भाषा का लालित्य है। गद्य को सुनकर कान औऱ मन को वह तृप्ति नहीं होती जो पद्य को सुनकर होती है। पद्य याद भी जल्दी होते हैं और बहुत काल तक स्मरण रहते हैं। साथ ही वे गम्भीर से गम्भीर भाव संक्षेप में व्यक्त कर देते हैं। यह तो छन्दों का साधारण गुण हुआ, परन्तु वेदाध्ययन में छन्द का ज्ञान अनिवार्य है। छन्दों को जाने विना वेदाध्ययन पाप माना जाता है।

छन्दों को वेद का चरण बताया जाता है। जिन छन्दों का प्रयोग संहिताओं में हुआ है वे और किसी ग्रन्थ में नहीं पाये जाते। वेद के ब्राह्मण एवं आरण्यक खण्ड में वैदिक छन्दों के विषय में बहुत सी कथाएँ आयी हैं पर उनसे छन्द के विषय का विशेष ज्ञान नहीं होता। कात्यायन की 'सर्वानुक्रमणिका' में सात छन्दों का उल्लेख है : (1) गायत्री (2) उष्णिक् (3) अनुष्टुप् (4) बृहती (5) पंक्ति (6) त्रिष्टुप् और (7) जगती। गायत्री छन्द त्रिपदा अर्थात् तीन चरणों का होता है। इसी प्रकार 28 अक्षरों का उष्णिक् छन्द होता है। अनुष्टुप् में 32 अक्षर होते हैं। बृहती में 36, पंक्ति में 40, त्रिष्टिप् में 44 और जगती में 48 अक्षर होते हैं। जान पड़ता है, जगती से बड़े छन्द वैदिक काल में नहीं बनते थे। वेद का बहुत भारी मन्त्रभाग इन्हीं सात छन्दों में है और इनमें से सबसे अधिक गायत्री छन्द का व्यवहार हुआ है। कात्यायन ने इन सात छन्दों के अनेक भेद स्थिर किये हैं। उन सब भेदों को जानने के लिए कात्यायन की रची सर्वानुक्रमणिका देखनी चाहिए।

इन्हीं सात छन्दों को मूल मानकर व्यावहारिक भाषा में अनन्त छन्दों का निर्माण हुआ है। उत्तररामचरित में लिखा है कि पहले-पहल, आदिकवि वाल्मीकि के मुख से लौकिक अनुष्टुप् छन्द की रचना हुई थी। इसके कुछ ही दिन बाद आत्रेयी ने वनदेवता से बातों-बातों में इसकी चर्चा की। इस पर वनदेवता बोली, `क्या आश्चर्य की बात है! यह तो वेद से अतिरिक्त किसी नये छन्द का आविष्कार गया है।` इस कथा से जान पड़ता है कि भवभूति के अनुसार पहला लौकिक छन्द अनुष्टुप् है और पहले लौकिक कवि वाल्मीकि थे। वाल्मीकिरामायण में भी इस तरह की कथा दी हुई है। परन्तु वाल्मीकीय रामायण, बालकाण्ड, दूसरे सर्ग के 15वें श्लोक की टीका करते हुए रामानुज स्वामी यह प्रकट करते हैं कि लौकिक छन्दों का प्रयोग वाल्मीकि से पहले चल चुका था।

कात्यायन की सर्वानुक्रमणिका के बाद छन्दशास्त्र के सबसे प्राचीन निर्माता महर्षि पिङ्गल हुए। इन्होंने 1,61,66,216 प्रकार के वर्णवृत्तों का उल्लेख किया है। संस्कृत साहित्य में इस भारी संख्या में से लगभग 50 प्रकार के छन्द व्यवहार में आते हैं। अन्य लौकिक भाषाओं में संस्कृत की अपेक्षा बहुत प्रकार के छन्दों का व्यवहार हुआ है। परन्तु उनकी गिनती वेदाङ्ग में नहीं है।

छन्दस् : वेद अथवा वेदों के सूक्तों के पवित्र पाठ को छन्दस् कहते हैं। किन्हीं विद्वानों के मत में छन्दस् वेदों का प्राक्संहिता रूप था जो संकलित न होकर केवल गान में सुरक्षित था। परन्तु सामान्यतः सम्पूर्ण वेद को ही छन्दस् कहते हैं। वैदिक भाषा को भी छन्दस् कहा जाता था। बौद्धों ने इसके प्रयोग का विरोध किया। प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य में कहा गया है कि जो छन्दस् का प्रयोग करेगा वह दुष्कृत (पाप) करेगा।

छन्दोग : सामवेद संहिता के मन्त्रों को गाने वाले छन्दोग कहलाते हैं। इन्हीं छन्दोगों के कर्मकाण्ड के लिए जो आठ ब्राह्मण ग्रन्थ व्यवहार में आते हैं वे छान्दोग्य कहे जाते हैं। ये सब आरण्यक ग्रन्थ 'छान्दोग्यारण्यक' नाम से प्रसिद्ध हैं।

छागमुख : स्वामी कार्तिकेय का एक पर्याय।

छागरथ (छागवाहन) : अग्नि का पर्याय। अग्नि की मूर्तियों के अङ्कन में छाग (बकरी या भेड़) उनका वाहन दिखाया जाता है।

छागहिंसा : यज्ञ में जो छागबलि होती थी उसको छागहिंसा कहते थे। वैष्णव प्रभाव के कारण छागहिंसा कैसे बन्द हुई इस सम्बन्ध में महाभारत और पुराणों में कई कथाएँ पायी जाती हैं। पाञ्चरात्र मत का प्रथम अनुयायी राजा वसु था। उसने जो यज्ञ किया उसमें पशुवध नहीं हुआ। ऋषियों ने देवों को अप्रसन्न जानकर छागहिंसा के सम्बन्ध में जब वसु से प्रश्न किया, तब उसने देवों के अनुकूल ही कहा कि छागबलि देनी चाहिए। इससे ऋषियों ने उसे शाप दिया और वह भूविवर में घुस गया। वहाँ उसने अनन्य भक्ति पूर्वक नारायण की सेवा की, जिससे वह मुक्त हुआ और नारायण की कृपा से ब्रह्मलोक को पहुँचा।

छान्दोग्य : दे० 'छन्दोग'।

छान्दोग्योपनिषद् : सामवेदीय उपनिषद् ग्रन्थों में छन्दोग्योपनिषद् और केनोपनिषद् प्रसिद्ध हैं। छान्दोग्य में आठ अध्याय हैं। छान्दोग्य ब्राह्मण का यह एक विशेषांश है। उसमें दस अध्याय हैं, परन्तु पहले दो अध्यायों में ब्राह्मणोपयुक्त विषयों पर विचार है। शेष आठ अध्याय उपनिषद् के हैं। छान्दोग्य ब्रह्मण के पहले अध्याय में आठ सूक्त आये हैं। ये सब सूक्त जन्म और विवाह की मंगलप्रार्थना के लिए हैं। यह उपनिषद् ब्रह्मतत्त्व के सम्बन्ध में सर्वप्रधान समझी जाती है। साथ ही यह छः प्राचीन उपनिषदों में से एक है।

छान्दोग्योपनिषद्दीपिका : यह माधवाचार्य द्वारा विरचित छान्दोग्योपनिषद् की शांकरभाष्यानुसारिणी टीका है।

छान्दोग्यब्राह्ण : सामवेदीय ताण्ड्य शाखा के तीन ब्राह्मण ग्रन्थ हैं-- 'पञ्चविंश', 'षडविंश' एवं 'छान्दोग्य'। छान्दोग्य ब्राह्मण में गृह्य यज्ञकर्मों के प्रायः सभी मन्त्र संगृहीत हैं। इसे उपनिषद्, संहितोपनिषद्, ब्राह्मण अथवा छान्दोग्य ब्राह्मण भी कहते हैं। इसमें सामवेद पढ़ने वालों की रुचि उत्पादन के लिए सम्प्रदायप्रवर्तक श्रृषियों की कथा लिखी गयी है। इस ब्राह्मण के आठवें से लेकर दसवें प्रपाटक तक के अंश का नाम 'छान्दोपग्योपनिषद्' प्रसिद्ध है। इसे 'मन्त्रब्राह्मण' भी कहते हैं।

छान्दोग्यसूत्रदीप : ब्राह्मायण' अथवा 'वसिष्ठसूत्र' (सामवेद के तीसरे श्रौतसूत्र) की 'छान्दोग्यसूत्रदीप' नामक वृत्ति या टीका पायी जाती है, जिसके लेखक धन्वी नामक विद्वान् थे।

छिन्नमस्तकगणपति : उत्तराखण्ड में जहाँ सोम नदी मन्दाकिनी में मिलती है, वहाँ से पुल पार एक मील पर छिन्न मस्तक गणपति का मन्दिर है। यात्री इनके दर्शन के लिए आते रहते हैं। यह गणपति का वह रूप है जिसमें उनका सिर कटा हुआ दिखाया जाता है। इसकी कथा पुराणों में मिलती है। पार्वती ने अपने देहांश से गणपति का निर्माण किया था। एक बार पार्वती स्नानगृह में थी, जिसकी रखवाली गणपति कर रहे थे। उसी बीच में शङ्करजी आये। गणपति ने उनको गृहप्रवेश करने से रोका। शङ्कर ने क्रुद्ध होकर गणपति का सिर काट दिया, जिससे वे छिन्नमस्तक हो गये।

जगजीवनदास : सं० 1807 वि० के लगभग जगजीवनदास ने सतनामी (सत्यनामी) पंथ का पुनरुद्धार किया। ये बाराबंकी जिले के कोटवा नामक स्थान के रहने वाले योगाभ्यासी एवं कवि थे। इनकी शिक्षाएँ इनके रचे हिन्दी पद्यों में प्राप्त हैं। इनके एक शिष्य दूलनदासजी भी कवि थे।

जगत् : पुरुषसूक्त के प्रथम मन्त्र के अनुसार पुरुष इस सब जगत् में व्याप्त हो रहा है अर्थात् उसने अपनी व्यापकता से इस जगत् को पूर्ण कर रखा है। पुरुषसूक्त के ही 17वें मन्त्र के अनुसार जब जगत् उत्पन्न नहीं हुआ था तब ईश्वर की सामर्थ्य में यह कारण रूप से वर्तमान था। ईश्वर की इच्छानुसार उससे यह उत्पन्न होकर स्थूल नाम रूपों में दिखाई पड़ता है।

आचार्य शंकर के अनुसार परमार्थतः जगत् मायिक और मिथ्या है। परन्तु इसकी व्यावहारिक सत्ता है। जब तक मनुष्य संसार में लिप्त है तब तक संसार की सत्ता है। जब मोह नष्ट हो जाता है तब संसार भी नष्ट हो जाता है।

आचार्य रामानुज ने ब्रह्म और जगत् का सम्बन्ध बताते हुए कहा है कि जड़ जगत् ब्रह्म का शरीर है। ब्रह्म ही जगत् का उपादान और निमित्त कारण है। ब्रह्म ही जगत् रूप में परिणत हुआ है, फिर भी वह विकाररहित है। जगत् सत् है, मिथ्या नहीं है। आचार्य मध्व के मतानुसार जगत् सत्, जड़ और अस्वतन्त्र है। भगवान् जगत् के नियामक हैं। जगत् काल की दृष्टि से असीम है। इन्होंने भी जगत् की सत्यता को सिद्ध किया है। वल्लभाचार्य के मतानुसार ब्रह्म कारण और जगत् कार्य है। कार्य औऱ कारण अभिन्न हैं। कारण सत् है, कार्य भी सत् है, अतएव जगत् सत् है। हरि की इच्छा से ही जगत् का तिरोधान होता है। लीला के लिए अपनी इच्छा से ब्रह्म जगत् रूप में परिणत हुआ है। जगत् ब्रह्मात्मक है, प्रपञ्च ब्रह्म का ही कार्य है। आचार्य वल्लभ अविकृत परिणामवादी हैं। उनके मत से जगत् मायिक नहीं है और न भगवान् से भिन्न ही है। उसकी न तो उत्पत्ति होती है और न विनाश। जगत् सत्य है, पर उसका आविर्भाव एवं तिरोभाव होता है। जगत् का जब तिरोभाव होता है तब वह कारण रूप से और जब आविर्भाव होता है तब कार्य रूप से स्थित रहता है। भगवान् की इच्छा से ही सब कुछ होता है। क्रीड़ा के लिए ही उन्होंने जगत् की सृष्टि की। अकेले क्रीड़ा सम्भव नहीं, अतएव भगवान् ने जीव और जगत् की सृष्टि की है।

आचार्य बलदेव विद्याभूषण के मतानुसार ब्रह्म जगत् का कर्त्ता एवं निमित्तकारण है। वही उपादान कारण है। ब्रह्म अविचिन्त्य शक्ति वाला है। इसी शक्ति से वह जगत् रूप में परिणत होता है।

जगदीश : जगत् का ईश (स्वामी), ईश्वर। ऐश्वर्य परमात्मा का एक गुण है जिससे सम्पूर्ण विश्व का वह शासन करता है।

जगन्नाथ : उड़ीसा प्रदेश के अन्तर्गत पुरी स्थान में कृष्ण भगवान् का एक मन्दिर है, जिसका नाम है जगन्नाथ-मन्दिर। 'जगन्नाथ' (विश्व के स्वामी) कृष्ण का ही एक नाम है। उपर्युक्त मन्दिर में जगन्नाथ की मूर्ति के साथ बलराम एवं सुभद्रा की भी मूर्तियाँ हैं। आषाढ़ में रथयात्रा के दिन भगवान् जगन्नाथ की सवारी रथ में निकलती है और जनता का अपार मेला लगता है। यह चार धामों में से एक धाम है। प्रत्येक आस्तिक हिन्दू भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करना अपना पवित्र कर्तव्य समझता है। दे० 'पुरी'।

जगन्नाथमाहात्म्य : यह ब्रह्मपुराण का एक अंश है। ब्रह्मपुराण को आरम्भ में ब्रह्माजी का माहात्म्यसूचक बताया गया है। स्कन्दपुराण में इसका प्रमाण भी दिया गया है। परन्तु अन्त में 245वें अध्याय के 20वें श्लोक में इसी पुराण में लिखा है कि यह वैष्णव पुराण है। इस पुराण में वैष्णव अवतारों की कथा की विशेषता और विशेष रूप से उत्कलवर्ती जगन्नाथजी के माहात्म्य का कथन इस बात को परिपुष्ट करता है।

जगन्नाथाश्रम स्वामी : अद्वैत सम्प्रदाय के एक प्रमुख वेदान्ताचार्य। जगन्नाथाश्रम स्वामीजी सुप्रसिद्ध नृसिंहाश्रम स्वामी के गुरु थे।

जगमोहन : उत्तर भारतीय मंदिर निर्माण कला (नागर शैली) के अन्तर्गत एवं विशेष कर उड़ीसा के मन्दिरों में गर्भगृह के सामने एक मण्डप होता है,जिसे जगमोहन कहते हैं। इस मण्डप में कीर्तन-भजन करने वाली मंडली आरती के समय या अन्य अवसरों पर गायन-वादन करती हैं।

जङ्गम : जङ्गम' का व्यवहार दो अर्थों में होता है; प्रथम जङ्गम जाति के सदस्य के रूप में और द्वितीय एक अभ्यासी जङ्गम के अर्थ में। केवल दूसरी कोटि वाले पूजनीय होते हैं। अधिकांश जङ्गम विवाह करते एवं जीविका उपार्जित करते हैं। किन्तु जिन्हें अभ्यासी या आचार्य का कार्य करना होता है, वे आजन्म ब्रह्मचारी रहते हैं। उन्हें किसी मठ में रहकर शिक्षा तथा दीक्षा लेनी पड़ती है। सम्पूर्ण लिंगायत सम्प्रदाय इन जङ्गमों के अधीन होता है। जङ्गमों की दो श्रेणियाँ भी होती हैं--गुरुस्थल एवं विरक्त। गुरुस्थल का वर्णन पहले हो गया है, विरक्तों का वर्णन आगे किया जायगा। दे० 'लिङ्गायत' और 'वीरशैव'।

जङ्गमवाड़ी : काशी में भगवान् विश्वाराध्य का स्थान 'जङ्गमबाड़ी' (बाटिका) मठ के नाम से प्रसिद्ध है। यह मठ बहुत प्राचीन है। सर्वप्रथम मल्लिकार्जुन जङ्गम नामक शिवयोगी को काशिराज जयनन्ददेव ने विक्रम सं० 631 में प्रबोधिनी एकादशी के दिन इस मठ के लिए भूमिदान किया था। इस तरह यह ताम्रशासन लगभग पौने चौदह सौ बरसों का हुआ। इस मठ के पास 12 गाँव हैं। इनके सिवा गोदौलिया से लेकर दक्षिण में बंगाली टोला के डाकघर तक एवं पूर्व में अगस्त्यकुण्ड से पश्चिम में रामापुरा तक सारा स्थान 'जङ्गमबाड़ी' मुहल्ला कहलाता है, जो अधिकांश मठ की ही जागीर है। इसके सिवा मानसरोवर, धनकामेश्वर, मनःकामेश्वर एवं साक्षीविनायक के सामने का स्थान इसी मठ के अधीन है। यह मठ शिवलिङ्गमय है। इसके अधीन हरिश्चन्द्रपुत्र रोहिताश्व को जहाँ साँप ने काटा था वह बगीचा भी है। यह मठ काशी में सबसे पुराना, ऐतिहासिक और दर्शनीय है।

जटायु : रामचन्द्रजी के वनवास का सहायक एक गरुडवंशज पक्षी, जो गृध्रराज कहलाता था। सीताहरण का विरोध करने पर रावण ने इसके पंख काट दिये थे। रामचन्द्रजी ने अपने हाथों इस पक्षी का अन्तिम संस्कार किया था।

जन्मतिथिकृत्य : प्रति वर्ष जन्मतिथि वाले दिन स्नान-ध्यान के पश्चात् पुरुष को गुरु, देवगण, अग्नि, ब्राह्मण, मातापिता तथा प्रजापति का पूजन सम्मान आदि करना चाहिए। अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम, मार्कण्डेय (इन सबको चिरंजीवी माना गया है।) का पूजन करना चाहिए। मार्कण्डेय की निम्नलिखित मन्त्र से प्रार्थना करनी चाहिए :

मार्कण्डेय महाभाग सप्तकल्पान्तजीवन। चिरंजीवी यथा त्वं भो भविष्यामि तथा मुने॥

जन्मतिथि का उत्सव मनाने वाले को मिष्ट खाद्यपदार्थ खाना चाहिए किन्तु मांस वर्जित है। उस दिन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए तिलमिश्रित जल पीना चाहिए। दे० वर्षकृत्यकौमुदी, 553-564; तिथितत्त्व, 20-26; समयमयूख, 175।

जन्माष्टमी : दे० 'कृष्णजन्माष्टमी'।

जनक (विदेहराज) : मिथिला के राजा, जिनको शतपथ ब्राह्मण एवं बृहदारण्यकोपनिषद् में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जैमिनीय ब्राह्मण एवं कौषीतकि उपनिषद् में भी इन्हें सम्मान्य स्थान प्राप्त है। ये याज्ञवल्क्य वाजसनेय एवं श्वेतकेतु आरुणेय आदि ऋषियों के समकालीन थे। अपनी उदारता एवं ब्रह्म सम्बन्धी विवादों में दिलचस्पी के कारण ये प्रसिद्ध हैं। ये काशी के राजा अजातशत्रु के भी समकालीन कहे जाते हैं। ये कुरु-पञ्चाल के ब्राह्मणों से समीपी सम्बन्ध रखते थे, जैसा कि याज्ञवल्क्य एवं श्वेतकेतु के उदाहरण से प्रकट है। उस समय दर्शन का विद्यापीठ कुरु-पञ्चाल था। शतपथ ब्राह्मण में जनक के ब्रह्मज्ञानी होने का उल्लेख है। इससे उनके जातिपरिवर्त्तन का बोध न होकर उनके ब्रह्मतत्त्वज्ञान का बोध होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण एवं शांख्यायन श्रौतसूत्र में भी उनका उल्लेख है। कुछ विद्वानों के अनुसार उनका समय 600 ई० पू० माना गया है। किन्तु यह तिथि सन्देहात्मक है, क्योंकि अजातशत्रु नाम के दो राजा थे, मगध एवं काशी के।

विदेह के राजा जनक एवं सीता के पिता की एकता कम सन्देहात्मक है, किन्तु इसे सिद्ध नहीं किया जा सकता। सूत्रों में जनक अति प्राचीनकालीन राजा माने गये हैं एवं उनके समय में पत्नी का वह सम्मानित स्थान नहीं था जैसे आगे चलकर हुआ। भारतीय साहित्यिक और धार्मिक-दार्शनिक परम्परा में जनक विदेहराज और सीता के पिता के रूप में ही प्रसिद्ध हैं, जो वाल्मीकिरामायण के प्रमुख पात्रों में से हैं।

जनक (सप्तरात्र यज्ञ) : पञ्चविंशब्राह्मण शाखा का एक श्रौतसूत्र है एवं एक गृह्यसूत्र। पहले श्रौतसूत्र का नाम माशक है। लाट्यायन ने इसे मशकसूत्र लिखा है। इस ग्रन्थ में 'जनक सप्तरात्र यज्ञ' की चर्चा है, किन्तु सप्तरात्र यज्ञ जनक कौन थे, यह बतलाना कठिन है।

जनकपुर : विहार का एक वैष्णव तीर्थ। उपनिषत्कालीन ब्रह्मज्ञान तथा रामावत वैष्णव सम्प्रदाय दोनों से इसका सम्बन्ध है। जनकपुर तीर्थ का प्राचीन नाम मिथिला तथा विदेहनगरी है। सीतामढ़ी अथवा दरभंगा से जनकपुर 24 मील दूर नेपाल राज्य के अन्तर्गत है, जिसके चारों ओर पूर्वक्रम से शिलानाथ, कपिलेश्वर, कूपेश्वर, कल्याणेश्वर जलेश्वर, क्षीरेश्वर तथा मिथिलेश्वर रक्षक देवताओं के रूप में शिवमन्दिर अब भी विद्यमान हैं। इसके चारों ओर विश्वामित्र, गौतम, वाल्मीकि और याज्ञवल्क्य के आश्रम थे, जो अब भी किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं। महाभारत काल में यह जंगल के रूप में था, जहाँ साधु-महात्मा तपस्या किया करते थे। अक्षयवट के तल से श्रीरामपंचायतन मूर्ति प्राप्त हुई थी, वह यहाँ पधरायी गयी है। लोगों का विश्वास है कि इससे जनकपुर की ख्याती और बढ़ गयी।

जनमसाखी : सिक्ख धर्म की प्रसिद्ध पुस्तक। इसमें गुरु नानाक के जीवन की कथाएँ प्राप्त होती हैं। ये जनमसाखियाँ अनेक हैं। किन्तु कथाएँ काल्पनिक हैं एवं उनके आधार पर नानक के जीवन के सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है।

जनमेजय : कुरुवंश का एक राजा, जो ब्राह्मण काल के अन्त में हुआ था। शतपथ ब्राह्मण में इसको अनेक अश्वों का स्वामी कहा गया है, जो थकने पर मीठे पेय से ताजे किये जाते थे। शतपथ ब्राह्मण में उद्धृत गाथा एवं ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार उसकी राजधानी आसन्दीवन्त में थी। उसके उग्रसेन, भीमसेन एवं श्रुतसेन नामक भाइयों ने अश्वमेध यज्ञ द्वारा अपने को पापमुक्त कर पवित्र बनाया था। उसके अश्वमेध यज्ञ के पुरोहित थे इन्द्रोत देवापि शौनक। ऐतरेय ब्राह्मण उसके पुरोहित का नाम तुर कावशेय बताता है।

महाभारत के अनुसार जनमेजय परीक्षित का पुत्र था। परीक्षित को तक्षक (नागों) नें मार डाला था। अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए जनमेजय ने नागयज्ञ (नागों के साथ संहारकारी युद्ध) का आयोजन कर नागों का विध्वंस किया।

जन्माष्टमीव्रत : भाद्र कृष्ण अष्टमी को श्रीकृष्णजन्मोत्सव के उपलक्ष्य में आधी रात तक निर्जल व्रत किया जाता है। इस अवसर पर प्रत्येक वैष्णव मन्दिर तथा घरों में श्री कृष्ण की झाँकी सजायी जाती है, कीर्त्तन होता है तथा अन्य मङ्गलोत्सव होते हैं।

जपसाहेब : जपसाहेब' कुछ प्रार्थनाओं का संग्रह ग्रंथ है। यह हिन्दी में है एवं इसकी रचना गुरु गोविन्दसिंह ने की थी। सिक्खों में इसका पारायण बहुत पुण्यकारी और पवित्र माना जाता है।

जपजी : यह सिक्ख धर्म का प्रसिद्ध नित्यपाठ का ग्रन्थ है। इसमें पद्य एवं भजनों का संग्रह है। इन पदों को गुरु नानक ने भगवान् की स्तुति एवं अपने अनुयायियों की दैनिक प्रार्थना के लिए रचा था। गुरु अर्जुन ने अपने कुछ भजनों को इसमें जोड़ा तथा अन्‍य ग्रन्थ भी तैयार किये। 'जपजी' सिक्खों की पाँच प्रार्थनापुस्तकों में से प्रथम है तथा प्रातःकलीन प्रार्थना के लिए व्यवहृत होता है।

जबलपुर (जाबालिपुर) : प्राचीन त्रिपुरी नगरी का परवर्ती और उत्तराधिकारी नगर। आजकल यह मध्य प्रदेश का प्रशासकीय, न्यायिक तथा शैक्षणिक केन्द्र है। स्थानीय परम्परा के अनुसार यहाँ जाबालि ऋषि का आश्रम था। जो जाबालिपुर चाहमान अभिलेखों में उल्लिखित है; वह इससे भिन्न (जालोर) है। यहाँ प्राचीन आश्रम के कोई चिह्न नहीं पाये जाते, परन्तु इसके पास का पनागर (पर्णागार=पर्णकुटी) प्राचीन ऋषि-आश्रमों का स्मरण दिलाता है। आस-पास बहुत से पवित्र स्थान हैं, जैसे देवताल, जहाँ एक प्राकृतिक सरोवर के चारों ओर अनेक मन्दिर बने हुए हैं और बैजनत्त्था जो तान्त्रिकों का प्रसिद्ध मन्दिर है। वास्तव में नर्मदा ही यहाँ की पवित्र नदी है, जिसके किनारे कई पवित्र घाट हैं। इनमें ग्वारी घाट, तिलवारा घाट, लमेटा घाट, रामनगर, भेड़ाघाट आदि प्रसिद्ध हैं। भेड़ाघाट पर नर्मदा और वानगंगा का संगम है। इन दोनों के बीच में एक पहाड़ी के ऊपर गौरी शङ्कर और चौसठ योगिनियों के प्रसिद्ध मन्दिर हैं। यहाँ पर कार्तिक पूर्णिमा को विशाल मेला लगता है।

जमदग्नि : ऋग्वेद में उल्लिखित धार्मिक ऋषियों में जमदग्नि का नाम आता है। कुछ मन्त्रों में इनका नाम मन्त्ररचयिता के रूप में तथा मन्त्र में विश्वामित्र के सहयोगी के रूप में उल्लिखित है। अथर्ववेद, यजुर्वेद एवं ब्राह्मणों में प्रायः इनका उल्लेख है। इनकी उन्नति तथा इनके परिवार की सफलता का कारण चतुरात्र यज्ञ बताया गया है। अथर्ववेद में इनका सम्बन्ध अत्रि, कण्व, असित एवं वीतहव्य से बताया गया। शुनःशेप के प्रस्तावित यज्ञ के ये अध्वर्यु पुरोहित थे।

पौराणिक गाथाओं के अनुसार जमदग्नि परशुराम के पिता थे। हैहयों ने इनको अपमानित कर इनकी कामधेनु गाय छीन ली थी। इसका प्रतिशोध परशुराम ने लिया और उत्तर भारत के क्षत्रिय राजाओं को मिलाकर हैहयों को परास्त और ध्वस्त किया।

जमदग्निकुण्ड (जमैथा) : अयोध्या से 16 मील दूर जमैथा ग्राम गोंड़ा जिले में है। यहाँ जमदग्निकुण्ड नामक प्राचीन सरोवर है, जिसका जीर्णोद्धार किया गया है। सरोवर के पास शिवमन्दिर तथा देवीमन्दिर है। पास में एक धर्मशाला है। यहाँ यमद्वितीया को मेला लगता है। कहा जाता है कि यहाँ कभी महर्षि जमदग्नि का आश्रम था।

जम्भ : अथर्ववेद में 'जम्भ' का नाम एक रोग अथवा रोग के राक्षस के रूप में आता है। एक सूक्त में 'जङ्गिद' के पौधे से इसके अच्छा होने की चर्चा है। अन्यत्र इसे 'संहनु' कहा गया है। वेबर ने इसे बच्चों के दाँत निकलने के समय की वेदना का रोग कहा है। ब्लूमफील्ड एवं व्हिटने ने इसे शरीर के टूटने एवं अकड़ने की बीमारी कहा है।

जय : यह शब्द इतिहास, पुराण, महाभारत और रामायण के लिए प्रयुक्त हुआ है। ये ग्रन्थ जय नाम से पुकारे जाते हैं, क्योंकि इन ग्रन्थों के अनुसार आचरण करनेवाला संसार से ऊपर उठ जाता है। दे० तिथितत्त्व, पृष्ठ 71 पर उद्धृत 'जयति अनेन संसारम्....'।

जयतीर्थ : आचार्य मध्व के तिरोधान के 50 वर्ष बाद जयतीर्थ माध्व सम्प्रदाय के नेता हुए। संस्थापक के ग्रन्थों के ऊपर रचे गये इनके भाष्य सम्प्रदाय के मुख्य एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। इनके रचे ग्रन्थ हैं-- 'तत्वप्रकाशिका' एवं 'न्यायसुधा', जो क्रमशः मध्वरचित ब्रह्मसूत्रभाष्य (वेदान्तसूत्र) एवं 'अनुव्याख्यान' के भाष्य हैं।

जयदासप्तमी : रविवासरीय शुक्ल पक्ष की सप्तमी जया अथवा जयदा नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन विभिन्न फल तथा फूलों से सूर्य का पूजन करने का विधान है। इस दिन उपवास, रात्रि को या एक समय अथवा अयाचित भोजन ग्रहण करना चाहिए।

जयद्वादशी : पुष्य नक्षत्रयुक्त फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को जयद्वादशी कहा जाता है। इस दिन किया गया दान तथा तप करोड़ो गुना पुण्य प्रदान करता है।

जयदेव : संस्कृत गीतिकाव्य 'गीतगोविन्द' के रचयिता जयदेव का भक्त कवियों में, विशेष कर राधा के भक्तों में, मुख्य स्थान है। ये तेरहवीं शती वि० में हुए थे और बंगाल (गौड़) के राजा लक्ष्मणसेन के राजकवि थे। बंगाल में इन्हें निम्बार्क मत का अनुयायी माना जाता है। चैतन्य महाप्रभु जयदेव, चण्डीदास एवं विद्यापति के गीतों को बड़े प्रेम से गाते थे। 'राधाकृष्णगीत' नामक बंगला गीतों का संग्रह भी इन्हीं की रचना बताया जाता है।

जयदेव मिश्र : तेरहवीं शती वि० में इनका उदय हुआ था। ये न्यायदर्शन के आचार्य एवं 'तत्वालोक' नामक भाष्य के रचयिता थे। यह भाष्य गङ्गेश उपाध्याय रचित 'तत्वचिन्तामणि' पर है।

जयन्त : न्यायदर्शन के एक आचार्य। जीवनकाल 957 वि० के लगभग। इनकी 'न्यायमञ्जरी' न्यायदर्शन का विश्व कोश है। जैमिनीय उपनिषद्ब्राह्मण में 'जयन्त' नाम अनेक आचार्यों का बताया गया है :

(1) जयन्त पाराशर्य (पराशर के वंशज) विपश्चित् के शिष्य थे तथा इनका उल्लेख एक वंशावली में हुआ है।

(2) जयन्त वारक्य (वरक के वंशज) उसी वंश में कुबेर वारक्य के शिष्य थे। उनके पितामह भी उसी वंश में कंस वारक्य के शिष्य कहे गये हैं।

(3) जयन्त वारक्य, सुयज्ञ शाण्डिल्य, सम्भवतः पूर्वोक्त से अभिन्न थे, किन्तु इनका उल्लेख दूसरी वंशावली में हुआ हैं।

(4) जयन्त यशस्वी लौहित्य का भी नाम पाया जाता है।

जयन्तव्रत : इस दिन इन्द्रपुत्र जयन्त का पूजन होता है। इससे व्रती स्वस्थ तथा सुखी रहता है।

जयन्तविधि : उत्तरायण में रविवार को सूर्य पूजन करना चाहिए। इसको जयन्तविधि कहते हैं।

जयन्ती : (1) महापुरुषों के जन्मदिन के उत्सव को 'जयन्ती' कहते हैं। दे० 'अवतार'।

(2) भाद्र कृष्ण अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र होने पर 'जयन्ती' कहते हैं। दुर्गा देवी का नाम भी जयन्ती है। इन्द्र की पुत्री भी जयन्ती कहलाती है।

जयन्तीकल्प : मध्वाचार्य रचित एक ग्रन्थ का नाम है।

जयपौर्णमासी : इस व्रत में एक वर्ष तक प्रत्येक पूर्णिमा के दिन किसी वस्त्रादि पर अंकित नक्षत्रों सहित चन्द्रमा की पूजा होती है।

जयव्रत : युद्ध में सफलता प्राप्त करने के लिए किये जने वाले अनुष्ठान को 'जयव्रत' कहते हैं। हेमाद्रि व्रतकाण्ड, 2.155 में विष्णुधर्मपुराण से एक श्लोक उद्धृत करते हुए कहते हैं कि पाँच गन्धर्वों की पूजा से विजय प्राप्त होती है।

जयविधि : दक्षिणायन के रविवार को यह वारव्रत किया जाता है। उपवास, नक्त और इसी दिन एकभक्त करने से करोड़ों गुने पुण्यों की प्राप्त होती है।

जयरथ : काश्मीर शैव मतावलम्बी जयरथ 12वीं शती वि० में हुए थे। इन्होंने अभिनवगुप्त रचित 'तन्त्रालोक' का भाष्य किया है।

जयराम : पारस्कर रचित 'कातीय गृह्यग्रन्थ' पर जयराम की एक टीका बहुत प्रसिद्ध है।

जयापञ्चमी : हेमाद्रि, 1.543-546 के अनुसार विष्णु का पूजन ही इस व्रत में कर्त्तव्य है। मास का उल्लेख नहीं मिलता। इसका अर्थ है कि प्रत्येक मास में यह व्रत करना चाहिए।

जयापार्वतीव्रत : आश्विन शुक्ल त्रयोदशी को आरम्भ करके कार्तिक कृष्ण तृतीया को इस व्रत की समाप्ति की जाती है। इसमें उमा तथा महेश्वर की पूजा का विधान है। 20 वर्षपर्यन्त यह व्रत किया जाता है। प्रथम पाँच वर्षों में लवण निषिद्ध है। चावल का सेवन विहित है किन्तु गन्ने की बनी शक्कर, गुड़ अथवा अन्य कोई भी मिष्ट वस्तु निषिद्ध है। यह व्रत गुर्जरों में अत्यन्त प्रसिद्द्ध है।

जयावाप्ति : आश्विन की समाप्ति के पश्चात् प्रथम तिथि से पूर्णिमा (कार्तिकी पूर्णिमा) तक यह व्रत होता है। विशेष कर कार्तिकी पूर्णिमा से पहले वाले तीन दिन विष्णु की पूजा होती है। इससे कठिन प्रकार के काम्य कर्मों में सफलता मिलती है, जैसे विवाद, न्यायिक, झगड़े, प्रणय सम्बन्ध आदि।

जया तिथि : तृतीया, अष्टमी तथ त्रयोदशी जया तिथियाँ। निर्णयामृत, 39 कहता है कि युद्ध के अवसरों की तैयारियों के लिए ये तिथियाँ उपयुक्त हैं और इन दिनों शक्ति प्रदर्शन अवश्य सफल होते हैं।

जया सप्तमी : (1) शुक्ल पक्ष की सप्तमी को रोहिणी, आश्लेषा, मघा, हस्त नक्षत्र होने पर इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए। इसमें सूर्य की पूजा होती है। एक वर्षपर्यन्त यह चलना चाहिए। मास को तीन भागों में विभाजित करके प्रत्येक भाग में भिन्न-भिन्न पुष्प, धूप तथा नैवेद्यों से पूजा करनी चाहिए।

जरा : (1) तान्त्रिक सिद्धान्तानुसार पाताल में शक्ति की अवस्थिति है, ब्रह्माण्ड में शिव निवास करते हैं, अन्तरिक्ष में काल की अवस्थिति है और इस काल से ही 'जरा' की उत्पत्ति होती है। गीता के अनुसार जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि जीव के चार दुःख हैं, जिनका अनुदर्शन मनुष्य को करना चाहिए (जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-दुःख-दोषानुदर्शनम्। गीता 13.8)।

(2) पुराणों में जरा नाम की राक्षसी का भी वर्णन मिलता है। महाभारत में जरासन्ध की कथा प्रसिद्ध है।

जराबोध : ऋग्वेद में केवल एक बार यह शब्द आया है तथा इसका अर्थ सन्देहात्मक है। लुडविग ने इसको ऋषि का नाम बताया है। ओल्डेनवर्ग इसे व्यक्तिवाचक बताते हैं तथा इसका शाब्दिक अर्थ 'वृद्धावस्था में सावधानी' लगाते हैं।

जराबोध शरीर की एक स्थिति है। इसके कई लक्षण हैं, जैसे कान के सम्पुट पर के बालों का श्वेत होना। यह इस बात की चेतावनी है कि गार्हस्थ्य जीवन से मनुष्य को विरक्त होकर वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करना चाहिए।

जर्तिल : जर्तिल' (जंगली तिल) का उल्लेख तैत्तिरीय संहिता (5.4.3.2) में अयोग्य यज्ञसामग्री के रूप में हुआ है। शतपथ ब्राह्मण (9.1.1.3) में जर्तिल के बीजों में ग्रहण करने के गुण के साथ ही अग्रहणीय (क्योंकि वे अकर्षित भूमि पर उगते हैं) गुण बताया गया है।

जर्वर : पञ्चविंश ब्राह्मण में वर्णित सर्पोत्सव में 'जर्वर' गृहपति थे।

जरिता : वैदिक संहिता में 'जरिता' का उल्लेख एक सारङ्ग पक्षी के रूप में हुआ है। इससे संबन्धित मन्त्र का आशय महाभारत के ऋषि मन्दपाल की कथा से जोड़ा जाता है, जिन्होंने 'जरिता' नामक सारङ्ग पक्षी (मादा) से विवाह किया, तथा उनके चार पुत्र हुए। उन पुत्रों को ऋषि ने त्याग दिया तथा दावानल को सौंप दिया। साथ ही मन्दपाल ने ऋग्वेद (10.142) के अनुसार अग्नि की प्रार्थना की। यह पौराणिक अर्थ सन्देहात्मक है, यद्यपि सायण ने इसे ही ग्रहण किया है।

जरूथ : यह शब्द ऋग्वेद की तीन ऋचाओं में उद्धृत है। इससे एक दानव का बोध होता है जिसे अग्नि ने हराया था। लुडविग तथा ग्रिफिथ ने 'जरूथ' को देवशत्रु बताया है, जो उस युद्ध में मारा गया, जिसमें ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के परम्परागत रचयिता वसिष्ठ पुरोहित थे।

जल : पुरुषसूक्त के 13वें मन्त्र (पद्भ्यां भूमिः) के अनुसार पृथ्वी के परमाणुकारणस्वरूप से विराट् पुरुष ने स्थूल पृथिवी उत्पन्न की तथा जल को भी उसी कारण से उत्पन्न किया। 17वें मंत्र में कहा गया है कि उस परमेश्वर ने अग्नि के परमाणु के साथ जल के परमाणुओं को मिलाकर जल को रचा।

धार्मिक क्रियाओं में जल का विशेष स्थान है। जल वरुण देवता का निवास और स्वयं भी देवता होने से पवित्र करने वाला माना जाता है। इसलिए प्रत्येक धार्मिक कृत्य में स्नान, अभिषेक अथवा आचमन के रूप में इसका उपयोग होता है।

जलकृच्छ्र व्रत : कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को इस कृच्छ्र व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इसमें विष्णु पूजन का विधान है। जल में रहते हुए उपवास करना चाहिए। इससे विष्णुलोक की प्राप्ति होती है।

जल जातूकर्ण्य : जातूकर्ण्य के वंशज। इनका शांखायन श्रौत्रसूत्र (16.29.7) में काशी, विदेह एवं कोसल के राजाओं के पुरोहित अथवा गृहपुरोहित के रूप में उल्लेख हुआ है।

जहका : यह यजुर्वेद में अश्वमेध के एक बलिपशु के रूप में उद्धृत किया गया है। सायण ने इसे 'बिलवासी क्रोष्टा' बिल में रहने वाला शृगाल कहा है।

जाग्रद्गौरीपञ्चमी : श्रावण शुक्ल पञ्चमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इससे सर्पभय दूर होता है। इसमें रात्रिजागरण का विधान है। गौरी इसकी देवता हैं।

जातकर्म : गृह्य संस्कारों में से एक संस्कार। यह जन्म के समय नाल काटने के पहले सम्पन्न होना चाहिए। इसमें रहस्यमय मन्त्र पढ़े जाते हैं तथा शिशु को मधु और मक्खन चटाया जाता है। इसके तीन प्रमुख अङ्ग हैं : प्रज्ञाजनन (बुद्धि को जागृत करना), आयुष्य (दीर्घ आयु के लिए प्रार्थना) और शक्ति के लिए कामना। यह संस्कार शिशु का पिता ही करता है। वह शिशु को सम्बोधित करते हुए कहते हैं :

अङ्गाद् अङ्गात् संभवसि हृदयादधिजायसे। आत्मा वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम्॥

[अङ्ग-अङ्ग से तुम्हारा जन्म हुआ है, हृदय से तुम उत्पन्न हो रहे हो। पुत्र नाम से तुम मेरे ही आत्मा हो। सौ वर्ष तक जीवित रहो।] फिर शिशु की शक्ति वृद्धि के लिए कामना करता है :

अश्मा भव, परशुर्भव, हिरण्यमस्रुतं भव।

[पत्थर के समान दृढ़ हो, परशु के समान शत्रुओं के लिए ध्वंसक बनो, शुद्ध सोने के समान पवित्र रहो।]

जातरूप : जाति के सौन्दर्य को रखनेवाला, स्वर्ण का एक नाम, जिसका उल्लेख परवर्ती ब्राह्मणों एवं सूत्रों में हुआ है। धार्मिक क्रियाओं में इसका प्रायः उपयोग होता है। बहुमूल्य होने के साथ यह पवित्र धातु भी है।

जाति : इसका मूल अर्थ है जन्म अथवा उत्पत्ति की समानता। कहीं-कहीं प्रजाति, परिवार अथवा वंश के लिए भी इसका प्रयोग होता है। हिन्दुओं की यह एक विशेष संस्था है, जो वर्णव्यवस्था (समाज के चार वर्गों में विभाजन) से भिन्न है। इसके आधार जन्म और व्यवसाय हैं तथा समान भोजन, विवाह आदि प्रथाएँ हैं; जब कि वर्ण का आधार प्रकृति के आधार पर कर्तव्य का चुनाव और तदनुकूल वृत्ति (शील और आचार) हैं। प्रत्येक जाति का आचार परम्परा से निश्चित है जिसको धर्मशास्त्र और विधि मान्यता देते हैं। तीन प्रकार के आचारों-- देशाचार, जात्याचार तथा कुलाचार-- में से एक जात्याचार भी है।

महाभारत में 'जाति' शब्द का प्रयोग मनुष्य मात्र के अर्थ में किया गया है। नहुषोपाख्यान में युधिष्ठिर का कथन है :

जातिरत्र महासर्प मनुष्यत्वे महामते। संकरत्वात् सर्ववर्णानां दुष्पपरीक्ष्येति में मतिः॥ सर्वे सर्वास्वपत्यानि जनयन्ति सदा नराः। तस्माच्छीलं प्रधानेष्टं विदुर्ये तत्त्वदर्शिनः॥

[हे महामति सर्प (यक्ष=नहुष)! 'जाति' का प्रयोग यहाँ मनुष्यत्व मात्र में किया गया है। सभी वर्णों (जातियों) का इतना संकर (मिश्रण) हो चुका है कि किसी व्यक्ति की (मूल) जाति की परीक्षा कठिन है। सभी जातियों के पुरुष सभी (जाति की) स्त्रियों से सन्तान उत्पन्न करते आये हैं। इसीलिए तत्त्वदर्शी पुरुषों ने शील को ही प्रधान माना है (जाति को नहीं)।]

जातित्रिरात्रव्रत : ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी से तीन दिन तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है। द्वादशी को एकभक्त (एक समय भोजन) रहना चाहिए। त्रयोदशी के बाद तीन दिन उपवास का विधान है। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजी की गणों सहित भिन्न-भिन्न पुष्पों तथा फलों से पूजा करनी चाहिए। यव, तिल तथा अक्षतों से होम करना चाहिए। सती अनसूया ने इसका आचरण किया था, अतएव तीनों देवताओं ने शिशु रूप से उनके यहाँ जन्म लिया।

जातूकर्ण्य : शुक्ल यजुर्वेद का प्रातिशाख्य सूत्र और उसकी अनुक्रमणी भी कात्यायन के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस प्रातिशाख्य में अनेक आचार्यों के नामों के साथ जातूकर्ण्य का भी नामोल्लेख हुआ है।

जानकीकुण्ड : चित्रकूट में कामदगिरि की परिक्रमा में पयस्विनी नदी के बायें तट पर पहले प्रमोदवन मिलता है। इसके चारों ओर पक्की दीवार और कोठरियाँ बनी हैं। बीच में दो मन्दिर हैं। प्रमोदवन से आगे पयस्विनी के तट पर जानकीकुण्ड है। नदीतटवर्ती श्वेत पत्थरों पर यहाँ बहुत से चरणचिह्न बने हुए हैं। कहते हैं, वनवास काल में जानकीजी यहाँ स्नान किया करती थीं।

जाबाल : याज्ञवल्क्य के एक शिष्य का नाम, जिसने शुक्ल यजुर्वेद अथवा वाजसनेयी संहिता का दूसरे चौदह शिष्यों के साथ अध्ययन किया था।

जाबालि : (1) जाबालिसूत्र के रचयिता जाबालि मुनि थे। रामायण में जाबालि के कथन से यह प्रकट होता है कि रामायणकाल में भी नास्तिक बडी संख्या में होते थे।

(2) छान्दोग्य उपनिषद् में जाबालि की उत्पत्ति की कथा है। जब वे पढ़ने के लिए आचार्य के पास गए तो आचार्य ने पूछा, `तुम्हारे पिता का क्या नाम है और तुम्हारा गोत्र कौन सा है?` जाबालि को यह ज्ञात न था। वे लौटकर माता जबाला के पास गये और कहा, `माँ, आचार्य ने पूछा है कि मेरे पिता का नाम क्या है और मेरा गोत्र कौन है?` माता ने उत्तर दिया, `पुत्र, तुम्हारे पिता का नाम ज्ञात नहीं। जब तुम गर्भ में आये तो मैं कई पुरुषों के यहाँ दासी का काम करती थी। मेरा नाम जबाला है। आचार्य से कह देना कि तुम मातृपक्ष से जाबालि हो।` बालक ने आचार्य के पास जाकर ऐसा ही निवेदन किया। आचार्य ने कहा, `तुम सत्यवादी हो, तुम्हारा नाम सत्यकाम होगा।`

जाबालोपनिषद् : यह संन्यासवर्ग की उपनिषदों में से एक लघु उपनिषद् है। इस वर्ग की उपनिषदें वेदान्त सम्प्रदाय के संन्यासियों की व्यावहारिक जीवन सम्बन्धी नियमावली के सदृश हैं। यह चूलिका एवं मैत्रायणी के पश्चात् काल की है, किन्तु वेदान्तसूत्र एवं योगसूत्र की पूर्ववर्ती अवश्य है। इसका प्रारम्भ बृहस्पति और याज्ञवल्क्य के संवाद के रूप में होता है।

जाम्बवान् : जाम्बवान् को 'जामवन्त' भी कहते हैं। ये रामायणवर्णित ऋक्षसेना के नायक हैं। इन्होंने सीता के अन्वेषण और रावण के साथ युद्ध में राम की सहायता की थी। ये राम के युद्धसचिव भी थे। इनकी गणना भी अर्द्ध देवयोनि में होती है। कहते हैं कि ये ब्रह्माजी के अंश से अवतरित हुए थे।

जामदग्न्यद्वादशी : वैशाख शुक्ल द्वादशी को इस तिथिव्रत का अनुष्ठान होता है। जामदग्न्य के रूप में भगवान् विष्णु की सुवर्णप्रतिमा का पूजन करना चाहिए (जामदग्न्य परशुरामजी हैं) राजा वीरसेन ने इसी व्रत के आचरण से नल की प्राप्ति की थी।

जाया : (1) पाणिग्रहण संस्कार से प्राप्त धर्मपत्नी। यह वैवाहिक प्रेम का विषय तथा जाति की परम्परा का स्रोत है।

(2) जाया का एक अर्थ 'माता' भी है, अर्थात् 'जिससे उत्पन्न हुआ जाय'। क्योंकि पुरुष अपनी पत्नी से संतान के रूप में स्वयं उत्पन्न होता है, इसलिए पत्नी एक अर्थ में अपने पति की माता है।

जालन्धर : (1) प्राचीन काल में यह एक सिद्धपीठ था। यह अमृतसर से उत्तर पंजाब के मुख्य नगरों में है। कहा जाता है कि जालन्धर दैत्य की राजधानी यहीं थी। जालन्धर भगवान् शंकर द्वारा मारा गया। यहाँ विश्वपुरी देवी का मन्दिर है। इसे प्राचीन 'त्रिगर्ततीर्थ' कहते हैं। वैसे काँगड़ा के आस-पास का प्रदेश त्रिगर्त है।

(2) जालन्धर एक दैत्य का नाम है। पुराणों में इसकी कथा प्रसिद्ध है। इसकी पत्नी वृन्दा थी, जिसके पातिव्रत से यह अमर था। वही आगे चलकर भगवान् विष्णु को अत्यन्त प्रिय हुई और तुलसी के रूप में उनको अर्पित की जाती है। दे० 'वृन्दा'।

जिज्ञासादर्पण : श्रीनिवास (तृतीय) आचार्य श्रीनिवास द्वितीय के पुत्र थे। इन्होंने 'जिज्ञासादर्पण' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। यह विशिष्टाद्वैत मत का तार्किक ग्रन्थ है।

जित्वा-शैली : बृहदारण्यक उपनिषद् (4.1.2) में 'जित्वा शैली' विदेहराज जनक तथा याज्ञवल्क्य के समकालीन एक आचार्य कहे गये हैं। उनके मतानुसार 'वाक्' ब्रह्म है।

जीव (जीवात्मा) : भारतीय दर्शन में जगत् को मोटे तौर पर दो वर्गों में विभाजित किया गया है-- चेतन और जड़। चेतन को ही 'जीव' संज्ञा दी गयी है। जीवन, प्राण और चेतना के अर्थों में भी 'जीव' शब्द का प्रयोग होता है। जीव चेतन और भोक्ता है, जड़-जगत् उसके लिए उपभोग्य है। परन्तु यह विभाजन व्यावहारिक है। पारमार्थिक दृष्टि से विश्व में एक ही सत्ता है, वह है ब्रह्मा। जीव उसी का अंश और तदभिन्न है। जड़-जगत् भी इस का प्रतिबिम्ब अथवा स्फुलिङ्ग है। अध्यास अथवा अविद्या के कारण वस्तुतः चिद्रूप ब्रह्मांश ही जगत् में जीवरूप धारण करता है। इसकी तीन अवस्थाएँ हैं--(1) नित्यशुद्ध, जब वह ब्रह्मीभूत रहता है, (2) मुक्त, जब वह संसार में लिप्त होकर पुनः मुक्त होता है और (3) बद्ध, जब संसार में बद्ध होकर सुख-दुःख भोगता है।

अद्वैत वेदान्त में सब कुछ एक ही है, जीवबहुत्व भ्रम मात्र है। ब्रह्म और जीव में तात्विक भेद नहीं है। सांख्य दर्शन पुरुष (जीव) बहुत्व मानता है। उसके अनुसार प्रत्येक पुरुष का बन्ध और मोक्ष पृथक्-पृथक् होता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन भी जीवबहुत्व के सिद्धान्त को मानते हैं।

निम्बार्क के मत से जीव अणु है, विभु नहीं है, मुक्तावस्था में भी वह जीव ही है। जीव का नित्यत्व चिरस्थायी है। मुक्त जीव भी अणु है। मुक्त एवं बद्ध जीव में यही भेद है कि बद्धावस्था में जीव ब्रह्मस्वरूप की उपलब्धि नहीं कर सकता। वह दृश्य जगत् के साथ एकात्मकता को प्राप्त किये रहता है। किन्तु मुक्तावस्था में जीव ब्रह्म के स्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है। वह अपने को और जगत् को ब्रह्ममय देखता है। चैतन्य के मतानुसार जीव अणु चेतन है। ईश्वर गुणी है, जीव गुण है। ईश्वर देही, जीव देह है। जीवात्मा बहु और नानावस्थापन्न है। ईश्वर की विमुखता ही उसके बन्धन का कारण है और ईश्वर के सम्मुख होने से उसके बन्धन कट जाते हैं और उसे स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। जीव नित्य है। ईश्वर, जीव, प्रकृति, और काल ये चार पदार्थ नित्य हैं तथा जीव, प्रकृति और काल ईश्वर के अधीन हैं। जीव ईश्वर की शक्ति एवं ब्रह्म शक्तिमान् है।

जीव (गोस्वामी) : ये चैतन्य देव के शिष्य रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी के छोटे भाई के पुत्र थे। इन्होंने ही वैष्णवमत का प्रचार करने के लिए श्रीनिवास आदि को ग्रन्थों के साथ वृन्दावन से वंगदेश में भेजा था। जीव के गुरु सनातन थे। रूप तथा सनातन दोनों का प्रभाव जीव पर पड़ा था। चैतन्य देव के अन्तर्धान होने के बाद जीव वृन्दावन चले आये और यहीं पर उनकी प्रतिभा का विकास हुआ। जीव ने वृन्दावन में राधा-दामोदर के मन्दिर की प्रतिष्ठा की। वे वहीं भगवान् के भजन-पूजन में जीवन व्यतीत करने लगे।

जीव ने रूप गोस्वामी कृत भक्तिरसामृतसिन्धु की टीका, 'क्रमसन्दर्भ' के नाम भागवत की टीका, 'षट्सन्दर्भ', 'भक्तिसिद्धान्त', 'गोपालचम्पू' और 'उपदेशामृत' नामक ग्रन्थों की रचना की। जीव गोस्वामी ने अपने सब ग्रन्थ अचिन्त्यभेदाभेद मत के अनुसार लिखे हैं। जीव गोस्वामी अठारवीं शती वि० के मध्य से उसके अन्त तक जीवित थे। 'चैतन्यचरितामृत' के रचयिता कृष्णदास कविराज पर इनका बड़ा प्रभाव था।

जीवदशा : सत्रहवीं शती वि० के उत्तरार्ध में राधावल्लभ सम्प्रदाय के एक आचार्य और कवि ध्रुवदास द्वारा रचित यह एक ग्रन्थ है।

जीवत्पुत्रिका : आश्विन कृष्ण अष्टमी को उन स्त्रियों का यह निरम्बु व्रत होता है, जिनके पुत्र जीवित हों या जो पुत्र के होने और जीते रहने की अभिलाषिणी हों। दे० 'जीवत्पुत्रिकाष्टमी'।

जीवत्पुत्रिकाष्टमी : आश्विन कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें महिलाओं को अपने सौभाग्य (पत्नीत्व) तथा संतान के लिए शालिवाहन के पुत्र जीमूतवाहन की पूजा करनी चाहिए।

जीवन्तिका व्रत : कार्तिकी अमावस्या के दिन दीवार पर जीवन्तिका देवी की प्रतिमा अङ्कित करके पूजा करनी चाहिए। यह व्रत विशेष रूप से महिलाओं के लिए है।

जीवन्मुक्त : शरीर के रहते हुए ही मोक्ष का अनुभव करनेवाला। जिसको तत्त्व का साक्षात्कार तो हो गया है परन्तु प्रारब्ध कर्म का भोग शेष हो वह जीवन्मुक्त है। सञ्चित और क्रियमाण कर्म उसके लिए बन्धन नहीं उत्पन्न करते। जीवन्मुक्त की दो अवस्थाएँ होती हैं--(1) समाधि और (2) उत्थान। समाधि अवस्था में वह ब्रह्मलीन रहता है और शरीर को शववत् समझता है। उत्थान अवस्था में वह सभी व्यावहारिक कार्यों को अनासक्तभाव से करता है।

जीवन्मुक्तिविवेक : सुरेश्वराचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ। इसमें ज्ञानियों की जीवित अवस्था के रहने पर भी उनकी मोक्ष की अवस्था का स्वरूप बतलाया गया है।

जुहू : एक यज्ञपात्र। ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में यह शब्द 'बड़े चमचे' के अर्थ में व्यवहृत हुआ है, जिससे देवों के लिए यज्ञ में घृत दिया जाता है।

ज्येष्ठाव्रत : भाद्र शुक्ल अष्टमी को ज्येष्ठा नक्षत्र होने पर इस व्रत का आचरण किया जाता है। इसमें ज्येष्ठा नक्षत्र की पूजा का विधान है। यह नक्षत्र उमा तथा लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। इससे अलक्ष्मी (दारिद्र्य तथा दुर्भाग्य)) दूर हो जाती है। उपर्युक्त योग के दिन रविवार होने पर यह नील ज्येष्ठा भी कहलाती है।

जैत्रायण सहोजित : काठक संहिता (18.5) में वर्णित एक राजा का विरुद, जिसने राजसूय यज्ञ किया था। कुछ विद्वानों ने जैत्रायण को व्यक्तिवाचक बताया है जो पाणिनि के सन्दर्भ 'कर्णादि गण' के अनुसार बना है। किन्तु कपिष्ठल संहिता में पाठ भिन्न है तथा इससे किसी भी व्यक्ति का बोध नहीं होता। यहाँ कर्त्ता इन्द्र है। यह पाठ अधिक सम्भव है तथा इससे उन सभी राजाओं का बोध होता है जो इस यज्ञ को करते हैं।

जैन धर्म : वेद को प्रमाण न मानने वाला एक भारतीय धर्म, जो अपने नैतिक आचरण में अहिंसा, त्याग, तपस्या आदि को प्रमुख मानता है। जैन शब्द 'जिन' से बना है जिसका अर्थ है 'वह पुरुष जिसने समस्त मानवीय वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है।' अर्हन् अथवा तीर्थङ्कर इसी प्रकार के व्यक्ति थे, अतः उनसे प्रवर्तित धर्म जैन धर्म कहलाया। जैन लोग मानते हैं कि उनका धर्म अनादि और सनातन है। किन्तु काल से सीमित है, अतः यह विकास और तिरोभाव-क्रम से दो चक्रों-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में विभक्त है। उत्सर्पिणी का अर्थ है ऊपर जाने वाली। इसमें जीव अधोगति से क्रमशः उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। अवसर्पिणी में जीव और जगत् क्रमशः उत्तम गति से अधोगति को प्राप्त होते हैं। इस समय अवसर्पिणी का पाँचवाँ (अन्तिम से एक पहला) युग चल रहा है। प्रत्येक चक्र में चौबीस तीर्थङ्कर होते हैं। इस चक्र के चौबीसों तीर्थङ्कर हो चुके हैं। इन चौबीसों के नाम और वृत्त सुरक्षित हैं। आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव थे, जिनकी गणना सनातनधर्मी हिन्दू विष्णु के चौबीस अवतारों में करते हैं। इन्हीं से मानवधर्म (समाजनीति, राजनीति आदि) की व्यवस्था प्रचलित हुई। तेईसर्वे तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ हुए जिनका निर्वाण 776 ई० पू० में हुआ। चौबीसवें तीर्थङ्कर वर्धमान महावीर हुए (दे० 'महावीर')। इन्हीं तीर्थङ्करों के उपदेशों और वचनों से जैन धर्म का विकास और प्रचार हुआ।

जैन धर्म की दो प्रमुख शाखाएँ हैं-- दिगम्बर और श्वेताम्बर। 'दिगम्बर' का अर्थ है 'दिक् (दिशा) है अम्बर (वस्त्र) जिसका' अर्थात् नग्न। अपरिग्रह और त्याग का यह चरम उदाहरण है। इसका उद्देश्य है सभी प्रकार के संग्रह का त्याग। इस शाखा के अनुसार स्त्रियों को मोक्ष नहीं मिल सकता, क्योंकि वे वस्त्र का पूर्णतः त्याग नहीं कर सकतीं। इनके तीर्थङ्करों की मूर्तियाँ नग्न होती हैं। इसके अनुयायी श्वेताम्बरों द्वारा मानित अङ्ग साहित्य को भी प्रामाणिक नहीं मानते। 'श्वेताम्बर' का अर्थ है 'श्वेत (वस्त्र) है आवरण जिसका'। श्वेताम्बर नग्नता को विशेष महत्त्व नहीं देते। इनकी देवमूर्तियाँ कच्छ धारण करती हैं। दोनों सम्प्रदायों में अन्य कोई मौलिक अन्तर नहीं है। एक तीसरा उपसम्प्रदाय सुधारवादी स्थानकवासियों का है जो मूर्तिपूजा का विरोधी और आदिम सरल स्वच्छ व्यवहार तथा सादगी का समर्थक है। इन्हीं की एक शाखा तेरह पंथियों की है जो इनसे उग्र सुधारक हैं।

जैन धर्म के धार्मिक उपदेश मूलतः नैतिक हैं, जो अधिकतर पार्श्वनाथ और महावीर की शिक्षाओं से गृहीत हैं। पार्श्‍वनाथजी के अनुसार चार महाव्रत हैं--(1) अहिंसा (2) सत्य (3) अस्तेय और (4) अपरिग्रह। महावीर ने इसमें ब्रह्मचर्य को भी जोड़ा। इस प्रकार जैन धर्म के पाँच महाव्रत हो गये। इनका आत्यन्तिक पालन भिक्षुओं के लिए आवश्यक है। श्रावक अथवा गृहस्थ के लिए अणुव्रत व्यावहारिक है। वास्तव में जैन धर्म का मूल और आधार अहिंसा ही है। मनसा वाचा कर्मणा किसी को दुःख न पहुँचाना अहिंसा है, अप्राणिवध उसका स्थूल रूप किन्तु अनिवार्य है। जीवधारियों को इन्द्रियों की संख्या के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। जिनकी इन्द्रियाँ जितनी कम विकसित हैं उनकों शरीरत्याग में उतना ही कम कष्ट होता है। इसलिए एकेन्द्रिय जीवों (वनस्पति, कन्द, फूल, फल आदि) को ही जैनधर्मी ग्रहण करते हैं, जैनधर्म में आचारशास्त्र का बड़ा विस्तार हुआ है। छोटे से छोटे व्यवहार के लिए भी धार्मिक एवं नैतिक नियमों का विधान किया गया है।

जैनधर्म में धर्मविज्ञान का प्रायः अभाव है, क्योंकि यह जगत् के कर्ता-धर्ता-संहर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं मानता। ईश्वर, देव, प्रेत, राक्षस आदि सभी का इसमें प्रत्याख्यान है। केवल तीर्थङ्कर ही अतिभौतिक पुरुष हैं, जिनकी पूजा का विधान है। जैन धर्म आत्मा में विश्वास करता है और प्रकृति के प्रवाह को सनातन मानता है। इसका अध्यात्मशास्त्र काफी जटिल है। जैन दर्शन की ज्ञान-मीमांसा का आधार नय (अथवा न्याय =तर्क) है। यह आगमपरम्परा का है, निगमपरम्परा का नहीं। इसके सप्तभङ्गी नय को 'स्याद्वाद' कहते हैं। यह वस्तु को अनेक धर्मात्मक मानता है और इसके अनुसार सत्य सापेक्ष और बहुमुखी है। इसको 'अनेकान्तवाद' भी कहते हैं। इसके अनुसार एक ही पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यत्व, सादृश्य और विरूपत्व, सत्त्व और असत्व आदि परस्पर भिन्न धर्मों का सापेक्ष अस्तित्व स्वीकार किया जाता है।

जैन दर्शन के अनुसार विश्व है, बराबर रहा है और बराबर रहेगा। यह दो अन्तिम, सनातन और स्वतन्त्र पदार्थों में विभक्त है, वे हैं, (1) जीव और (2) अजीव; एक चेतन और दूसरा जड़, किन्तु दोनों ही अज और अक्षर हैं। अजीव के पाँच प्रकार बतलाये गये हैं :

(1) पुद्गल (प्रकृति) (2) धर्म (गति) (3) अधर्म (अगति अथवा लय) (4) आकाश (देश) और (5) काल (समय)। सम्पूर्ण जीवधारी आत्मा तथा प्रकृति के सूक्ष्म मिश्रण से बने हैं। उनमें सम्बन्ध जोड़ने वाली कड़ी कर्म है। कर्म के आठ प्रकार और अगणित उप प्रकार हैं। कर्म से सम्पृक्त होने के ही कारण आत्मा अनेक प्रकार के शरीर धारण करने के लिए विवश हो जाता है और इस प्रकार जन्म-मरण (जन्म-जन्मान्तर) के बन्धन में फँस जाता है।

जैन धर्म और दर्शन का उद्देश्य है आत्मा को पुद्गल (प्रकृति) के मिश्रण से मुक्त कर उसको कैवल्य (केवल= शुद्ध आत्मा) की स्थिति में पहुँचाना। कैवल्य की स्थिति में कर्म के बन्धन टूट जाते हैं और आत्‍मा अपने को पुद्गल के अवरोधक बन्धनों से मुक्त करने में समर्थ होता है। इसी स्थिति को मोक्ष भी कहते हैं, जिसमें वेदना औऱ दुःख पूर्णतः समाप्त हो जाते हैं और आत्मा चिरन्तन आनन्द की दशा में पहुँच जाता है। मोक्ष की यह कल्पना वेदान्ती कल्पना से भिन्न है। वेदान्त के अनुसार मोक्षावस्था में आत्मा का ब्रह्म में विलय हो जाता है, किन्तु जैन धर्म के अनुसार आत्मा का व्यक्तित्व कैवल्य में भी सुरक्षित और स्वतन्त्र रहता है। आत्मा स्वभावतः निर्मल और प्रज्ञ है, किन्तु पुद्गल के सम्पर्क के कारण उत्पन्न अविद्या से भ्रमित हो कर्म के बन्धन में पड़ता है। कैवल्य के लिए नय के द्वारा 'केवल ज्ञान' प्राप्त करना आवश्यक है। इसके साधन हैं--(1) सम्यक् दर्शन (तीर्थङ्करों में पूर्ण श्रद्धा) (2) सम्यक् ज्ञान (शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान) (3) सम्यक् चारित्र्य (पूर्ण नैतिक आचरण)। जैन धर्म बिना किसी बाहरी सहायता के अपने पुरुषार्थ द्वारा पारमार्थिक कल्याण प्राप्त करने का मार्ग बतलाता है। भारतीय धर्म और दर्शन को इसने कई प्रकार से प्रभावित किया। ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में अपने नय सिद्धान्त द्वारा न्याय और तर्कशास्त्र को पुष्ट किया। तत्त्वमीमांसा में आत्मा और प्रकृति को ठोस आधार प्रदान किया। आचारशास्त्र में नौतिक आचरण, विशेष कर अहिंसा को इससे नया बल मिला।

जैमिनि : स्वतन्त्र रूप से 'जैमिनि' का नाम सूत्रकाल तक नहीं पाया जाता, किन्तु कुछ वैदिक ग्रन्थों के विशेषण रूप में प्राप्त होता है। यथा सामवेद की 'जैमिनीय संहिता', जिसका सम्पादन कैलेण्ड द्वारा हुआ है, 'जैमिनीय ब्राह्मण' जिसका एक अंश जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण है।

इनका काल लगभग चतुर्थ अथवा पञ्चम शताब्दी ई० पू० है। ये 'पूर्वमीमांसा सूत्र' के रचयिता तथा मीमांसा दर्शन के संस्थापक थे। ये बादरायण के समकालीन थे क्योंकि मीमांसादर्शन के सिद्धान्तों का ब्रह्मसूत्र में और ब्रह्मसूत्र के सिद्धान्तों का मीमांसादर्शन में खण्डन करने की चेष्टा की गयी है। मीमांसादर्शन ने कहीं-कहीं पर ब्रह्मपुत्र के कई सिद्धान्तों को ग्रहण किया है। पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता है कि जैमिनि वेदव्यास के शिष्य थे, इन्होंने वेदव्यास से सामवेद एवं महाभारत की शिक्षा पायी थी। मीमांसादर्शन के अतिरिक्त इन्होंने भारतसंहिता की, जिसे जैमिनिभारत भी कहते हैं, रचना की थी। इन्होंने द्रोणपुत्रों से मार्कण्डेय पुराण सुना था। इनके पुत्र का नाम सुमन्तु और पौत्र का नाम सत्वान था। इन तीनों पिता-पुत्र-पौत्र ने वेदमंत्रों की एक-एक संहिता (संस्करण) बनायी, जिनका अध्ययन हिरण्यनाभ, पौष्यञ्जि और आवन्त्य नाम के तीन शिष्यों ने किया।

जैमिनिभारत : जैमिनिभारत या जैमिनियाश्वमेध मूलतः संस्कृत भाषा में है, जिसका एक अनुवाद कन्नड़ लक्ष्मीशदेवपुर ने 1760 ई० में किया। इसमें युधिष्ठिर के अश्वमेधयज्ञीय अश्व द्वारा भारत के एक राज्य से दूसरे राज्य में घूमने का वर्णन है। किन्तु इसका मुख्य उद्देश्य भगवान् कृष्ण का यश वर्णन करना है।

जैमिनिश्रौतसूत्र : सामवेद से सम्बन्धित एक सूत्र ग्रन्थ, जो वैदिक यज्ञों का विधान करता है।

जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण : ताण्ड्य और तलवकार शाखाएँ सामवेद के अन्तर्गत हैं। उनमें जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण दूसरी शाखा से सम्बन्धित है। इसका अन्य नाम तलवकार उपनिषद् ब्राह्मण भी है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह ग्रन्थ प्रारम्भिक छः उपनिषदों में गिना जाना चाहिए।

जैमिनीय न्यायमालाविस्तर : जैमिनीय न्यायमाला तथा जैमिनीय न्यायमालाविस्तार एक ही ग्रन्थ है। इसे विजयनगर राज्य के मन्त्री माधवाचार्य ने रचा है। मीमांसा दर्शन की पूर्णरूपेण व्याख्या इस ग्रन्थ में हुई है। न्यायमाला जैमिनिसूत्रों के एक-एक प्रकरण को लेकर श्लोकबद्ध कारिकाओं के रूप में है, विस्तर उसकी विवरणात्मक व्याख्या है। यह पूर्व मीमांसा का प्रमुख ग्रन्थ है। इसकी उपादेयता इसके छन्दोबद्ध होने के कारण भी है।

जैमिनीय ब्राह्मण : कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण भाग मन्त्रसंहिता के साथ ही ग्रथित है। उसके अतिरिक्त छः ब्राह्मणग्रन्थ पृथक् रूप से यज्ञ सम्बन्धी क्रियाओं के लिए महत्वपूर्ण हैं। वे हैं ऐतरेय, कौषीतकि, पञ्चविंश, तलवकार अथवा जैमिनीय, तैत्तिरीय एवं शतपथ। इस प्रकार जैमिनीय ब्राह्मण कर्मकाण्ड का प्रसिद्ध ग्रन्थ है।

जैमिनीय शाखा : सामसंहिता की तीन मुख्य शाखाएँ बतायी जाती हैं-- कौथुमीय, जैमिनीय एवं राणायनीय शाखा। जैमिनीय शाखा का प्रचार कर्णाटक में अधिक है।

जैमिनीय सूत्रभाष्य : सं० 1582 वि० के लगभग 'जैमिनीय सूत्रभाष्य' नाम का ग्रन्थ वल्लभाचार्य ने जैमिनि के मीमांसासूत्र पर लिखा था।

जोशीमठ : बदरीनाथ धाम से 20 मील नीचे जोशीमठ अथवा ज्योतिर्मठ स्थित है। यहाँ शीतकाल में छः महीने बदरीनाथजी की चलमूर्ति विराजमान रहती है। उस समय यहाँ पूजा होती है। ज्योतीश्वर महादेव तथा भक्त वत्सल भगवान् के दो मन्दिर हैं। ज्योतीश्वर शिवमन्दिर प्राचीन है। जोशीमठ से एक रास्ता नीती घाटी होकर मानसरोवर कैलास के लिए जाता है।

स्वामी शंकराचार्य द्वारा स्थापित उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठ पूर्व काल में यहाँ विद्यमान था। इसी का अपभ्रंश नाम जोशीमठ है। कालान्तर में शांकरमठ और उसकी परम्परा लुप्त हो गयी। केवल नाम रह गया है, जिसके आधार पर कुछ संत-महंत मैदान के नगरों में धर्म प्रचार करते रहते हैं।

ज्ञाति : मूल रूप में इस शब्द का अर्थ 'परिचित' है, किन्तु ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में इसका अर्थ 'पितापक्षीय रक्तसम्बन्धी लोग' समझा गया है। पितृसत्तात्मक वैदिक समाज के गठन से भी इस अर्थ की पुष्टि होती है। यह प्रायः जाति का पर्याय है।

ज्ञातपाप : भक्तिमार्ग में पाप दो प्रकार के कहे गये हैं-- अज्ञात तथा ज्ञात। अज्ञात पापों को यज्ञों से दूर किया जा सकता है, यदि वे यज्ञ निष्काम भाव से किये गये हों। जहाँ तक ज्ञात पापों का प्रश्न है, जब मनुष्य भक्ति मार्ग में प्रविष्ट हो अथवा निष्काम कर्म में लीन हो, तो वह पापों को याद करता ही नहीं, और करता भी है तो भगवान् उसे क्षमा कर देते हैं। भगवत्कृपा ही ज्ञात पापमोचन का मार्ग है।

ज्ञान : जन्म से मनुष्य अपूर्ण होता है। ज्ञान के द्वारा ही उसमें पूर्णता आती है। ब्रह्मरूप परमात्मा की सत्ता में आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों शक्तियाँ वर्तमान हैं। पादेन्द्रिय को अध्यात्म, गन्तव्य को अधिभूत और विष्णु को अधिदैव माना गया है। इसी प्रकार वागिन्द्रिय तथा चक्षुरिन्द्रिय को क्रमशः अध्यात्म, वक्तव्य और रूप को अधिभूत, अग्नि और सूर्य को अधिदैव कहते हैं। मन को अध्यात्म, मन्तव्य को अधिभूत और चन्द्रमा को अधिदैव कहा गया है। इसी क्रम से प्राणी के भी तीन भाव होते हैं-- आधिभौतिक शरीर, आधिदैविक मन और आध्यात्मिक बुद्धि। इन तीनों के सामञ्जस्य से ही मनुष्य में पूर्णता आती है। इस पूर्णता की प्राप्ति के लिए ईश्वर से निःश्वसित वेद का अध्ययन और अभ्यास आवश्यक है, क्योंकि वेदमन्त्रों में मूल रूप से इसके उपाय निरूपित हैं। मनुष्य को आधिभौतिक शुद्धि कर्म के द्वारा, आधिदैविक शुद्धि उपासना के द्वारा तथा आध्यात्मिक शुद्धि ज्ञान के द्वारा प्राप्त होती है। आध्यात्मिक शुद्धि प्राप्त होने पर परमात्मा के स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है और मनुष्य को मोक्ष मिल जाता है।

वेद में जो कहा गया है कि ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती, वह ज्ञान की सर्वश्रेष्ठता का ही परिचायक है। ज्ञान तत्वज्ञानी गुरु की निःस्वार्थ सेवा तथा उसमें श्रद्धा रखने से प्राप्त होता है। तत्त्वज्ञानी गुरू अपने शिष्य की सेवा, जिज्ञासा तथा श्रद्धा से सन्तुष्ट होकर उसे ज्ञानोपदेश देते हैं। ज्ञान संसार में सर्वाधिक पवित्र वस्तु है। योगी को भी पूर्ण योगसिद्धि मिलने पर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है।

ज्ञानमार्ग में प्रवेश करने का अधिकार साधनचतुष्ट्य से सम्पन्न व्यक्ति को दिया गया है। नित्यानित्यवस्तु विवेक, इहामुत्र फलभोगविराग, शमदमादि षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व साधनचतुष्ट्य कहलाते हैं। प्रथम साधन में आत्मा की नित्यता और संसार की अनित्यता का विचार आता है। दूसरे के अन्तर्गत इहलोक और परलोक सुखभोग के प्रति विरक्ति का भाव निहित है। तीसरे में शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा और समाधान-षट् साधन सम्पत्तियों का संचय होता है। तत्वज्ञान को छोड़ अन्य विषयों के सेवन से विरक्ति होना शम है, इन्द्रियों का दमन दम है, भोगों से निवृत्ति उपरति, शीतोष्ण, सुख-दुःख आदि को सहन करने की शक्ति तितिक्षा, गुरु और शास्त्र में अटूट विश्वास श्रद्धा तथा परमात्मा के चिन्तन में एकाग्रता समाधान कहे जाते हैं। चौथा साधन मोक्ष प्राप्ति की इच्छा ही मुमुक्षुत्व है। ये चारों साधन ज्ञानमार्गी के लिए आवश्यक हैं, इनके अभाव में कोई भी व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी नहीं है।

ज्ञानप्राप्ति के श्रवण, मनन और निदिव्यासन तीन अंग हैं। गुरु से तत्त्वज्ञान सुनने का नाम श्रवण, उस पर चिन्तन करने का नाम मनन और मननकृत पदार्थ की उपलब्धि का नाम निदिध्यासन है। इनके सम्यक् और उचित अभ्यास से मनुष्य को ब्रह्मस्वरूप का साक्षात्कार होता है। इस तरह प्रकृति के सभी भागों पर चिन्तन करते हुए साधक स्थूल से लेकर सूक्ष्म भावों तक अपना अधिकार स्थापित कर लेता है।

सांख्यदर्शन के अनुसार पंच महाभूत, पंच कर्मेन्द्रिय, पंच तन्मात्रा, मन, अहंकार, महत्तत्व और प्रकृति इन चौबीस तत्वों के आयाम में सृष्टि के प्राणी अर्थात् पुरुष प्रकृति का उपभोग करते हैं। पर वेदान्तप्रक्रिया में प्राणी की रचना के ज्ञानार्थ पंचकोषों का निरूपण होता है। तदनुसार चेतन जीव के माया से मोहित होने की स्थिति आनन्दमय कोष है। बुद्धि और विचार विज्ञानमय, ज्ञानेन्द्रिय और मन मनोमय, पंचप्राण और कर्मेन्द्रिय प्राणमय तथा पांचभौतिक शरीर अन्नमय कोष है। इन कोषों में बद्ध होकर मनुष्य या जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है, लेकिन गुरु का उपदेश मिलने पर जब उसे अपने वास्तविक सच्चिदानन्द ब्रह्मस्वरूप का अनुभव होता है तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। जीव को माया से मुक्त कर मोक्ष तक पहुँचाने वाली क्रमिक स्थिति की सप्त ज्ञानभूमियाँ हैं। स्थूलदर्शी पुरुष के लिए सीधे आत्मा का ज्ञान हो जाना असम्भव है। इसलिए प्राचीन महर्षियों ने इन सप्त ज्ञानभूमियों के निरन्तर अभ्यास से क्रमोन्नति करते हुए विज्ञानमय सप्त दर्शनों के माध्यम से मोक्ष पाने का मार्ग बनाया। सप्त ज्ञानभूमियों के सप्त दर्शन हैं न्याय, वैशेषिक, पातञ्जल, सांख्य, पूर्वमीमांसा, दैवीमीमांसा और ब्रह्ममीमांसा। क्रमशः इनकी साधना कर ज्ञानमय बुद्धि हो जाने से परम पद को प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्ति के ये ही मूल तत्त्व हैं।

ब्रह्ममीमांसा या वेदान्त विचार के द्वारा साधक को ब्रह्मज्ञान तब प्राप्त होता है जब वह देहात्मवाद से क्रमशः आस्तिकता की उच्चभूमि पर अग्रसर होता रहता है। अतः ऐसे साधक को एकाएक 'तत्त्वमसि', 'अहं ब्रह्मास्मि' का उपदेश नहीं देना चाहिए। ज्ञानमार्ग में प्रवेश चाहने वाले प्रथम अधिकारी के लिए अन्तःकरण के सुख-दुख रूप आत्मतत्व के उपदेश का न्याय और वैशेषिक दर्शन में विधान है। देह को आत्मा समझने वाले व्यक्ति के लिए प्रथम कक्षा में देह और आतमा की भिन्नता का ज्ञान ही पर्याप्त है। सूक्ष्म तत्व में सामान्य व्यक्ति का एकाएक प्रवेश नहीं हो सकता, इसलिए न्याय और वैशेषिक दर्शन में आत्मा और शरीर के केवल पार्थक्य का ही ज्ञान कराया जाता है। इससे साधक देहात्मवाद से विरत हो व्यावहारिक तत्वज्ञान की ओर अग्रसर होता है। इससे आगे बढ़ने पर सांख्य और पातञ्जल दर्शन आत्मा के और भी उच्चतर स्तर का दिग्दर्शन कराते हैं। इन दोनों दर्शनों के अनुसार सुख-दुःख आदि सब अन्तःकरण के धर्म हैं। पुरुष को वहाँ असंग और कूटस्थ माना गया है। पुरुष के अन्तःकरण में सुख-दुःखादि का भोक्तृभाव औपचारिक है; तात्विक इसलिए नहीं है कि ऐत्मा निर्लिप्त और निष्क्रिय है। इससे यही निष्कर्ष निकला कि सांख्य और पातञ्जल दर्शन द्वारा आत्मा की असंगता तो सिद्ध होती है पर एकात्मवाद नहीं।

सांख्य में बहुपुरुषवाद की कल्पना की गयी है। उससे परमात्मा की अद्वितीय उपलब्धि नहीं होती अपितु वह प्रत्येक पिण्ड में अलग-अलग कूटस्थ चैतन्य के रूप में ज्ञात होता है। इस तरह सांख्य की ज्ञानभूमि पुरुषमूलक है। प्रकृति के अस्तित्व की स्वीकृति के कारण वहाँ प्रकृति को अनादि और अनन्त कहा गया है।

इससे आगे बढ़ने पर मीमांसात्रय का आरम्भ होता है। कर्ममीमांसा या पूर्वमीमांसा में जगत् को ही ब्रह्म मानकर अद्वितीयता की सिद्धि की गयी है। इससे जीव द्वैतमय जगत् से अद्वैतमय ब्रह्म की ओर जाता है। इसमें साधक की गति ब्रह्म के तटस्थ स्वरूप की ओर होती है। इसके अनन्तर दैवीमीमांसा आती है। यह उपासनाभूमि है जो ब्रह्म की अद्वितीयता को प्रकृति के साथ मिश्रित कर उसको शुद्ध स्वरूप की ओर से दिखाती है। वहाँ ब्रह्म को ही जगत् की संज्ञा दी जाती है। इसमें आत्मा का यथार्थ ज्ञान प्रकृति के ज्ञान के साथ होता है। मुण्डकोपनिषद् के अनुसार ब्रह्मसत्ता अधः, ऊर्ध्व सर्वत्र व्याप्त है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्र और नक्षत्रादि को ब्रह्म का रूप माना गया है। वहाँ परमात्मा को ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण चराचर के रूप में वर्णित किया गया है और उसे स्त्री-पुरुष, बालक, युवक और वृद्ध सभी रूपों में देखा गया है। इस तरह दैवीमीमांसा दर्शन की ज्ञानभूमि में परमात्मा को व्यापक, निर्लिप्त, नित्य और अद्वितीय कार्यब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया है।

ज्ञान की सप्तम भूमि ब्रह्ममीमांसा वेदान्त की है। इसमें निरूपित ब्रह्म निर्गुण और प्रकृति से परे है। उसमें माया अथवा प्रकृति का आभास भी नहीं है। माया उसके नीचे ब्रह्म के ईश्वर भाव से सम्बद्ध है। वेद के अनुसार परमात्मा के चार पादों में से एक पाद मायाच्छन्न और सृष्टिविलसित है और शेष तीन माया से परे अमृत हैं। ये तीनों ब्रह्मभाव हैं। यहाँ सांख्य दर्शन का मायागत पुरुषवाद नहीं है। यहाँ माया का लय है इसीलिए वेदान्त में माया को अनादि कहकर भी सान्त कहा गया है। माया का एकान्त अभाव होने से शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप परब्रह्म का साक्षात्कार होता है। निर्गुण ब्रह्म देश, काल और वस्तु से भी परे हैं। इसीलिए वह नित्य, विभु और पूर्ण है। राजयोगी इसी निर्गुण परब्रह्म भाव का अनुभव करता है। साधक इस दशा में निर्विकल्प समाधि धारण करता है।

परब्रह्म परमात्मा स्वयं प्रकाशमान हैं, वे सर्वातीत और निरपेक्ष हैं, उन्हीं के तेजोमय प्रकाश से सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र और बिजली आदि प्रकाशमान हैं। इन सबका प्रतिपादन वेदान्तभूमि में है। इसी की उपलब्धि से साधक को निर्वाण की प्राप्ति होती है। यहीं जीवनयज्ञ का अवसान और ज्ञानयज्ञ की पूर्णाहुति है।

ज्ञानकाण्ड : वेदों में समुच्चय रूप से प्रधानतः तीन विषयों का प्रतिपादन हुआ है-- कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड एवं उपासनाकाण्ड। ज्ञानकाण्ड वह है जिससे इस लोक, परलोक तथा परमात्मा के सम्बन्ध में वास्तविक रहस्य की बातें जानी जाती हैं। इससे मनुष्य के स्वार्थ, परार्थ तथा परमार्थ की सिद्धि हो सकती है।

वेदान्त, ज्ञानकाण्ड एवं उपनिषद् प्रायः समानार्थक शब्द हैं। वेद के ज्ञानकाण्ड के अधिकारी बहुत थोड़े से व्यक्ति होते हैं; अधिकांश कर्मकाण्ड के ही अधिकारी हैं।

ज्ञानचन्द्र : वैशेषिक दर्शन के एक आचार्य। लगभग 660 वि० के लगभग ज्ञानचन्द्र ने 'दर्शपदार्थ' नामक ग्रन्थ लिखा जो अपने मूल रूप में आजकल प्राप्त तो नहीं है, किन्तु इसका चीनी भाषा में अनुवाद पाया जाता है। प्रसिद्धि है कि यह चीनी अनुवाद 648 ई० में बौद्ध यात्री ह्वेनसाँग के द्वारा किया गया था।

ज्ञानतिलक : नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की खोजों से प्राप्त और गुरु गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रन्थों में से यह एक है।

ज्ञानदास : सत्रहवीं शती वि० के मध्य 40 वर्षों में चैतन्य संप्रदाय के भक्ति आन्दोलन नें बँगला भाषा के अनेक गीतकारों और काव्य रचयिताओं को जन्म दिया। ज्ञान दास भी उनमें से ऐसे ही साहित्यिक भक्त थे।

ज्ञानदेव : महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त, जो नाथ सम्प्रदाय के एक आचार्य माने जाते हैं। इनका एक नाम ज्ञानेश्वर भी है। मराठी भाषा में भगवद्गीता पर इन्होंने बड़ी उत्तम व्याख्या लिखी है जो 'ज्ञानेश्वरी' के नाम से प्रसिद्ध है। ये शुद्धाद्वैतवाद का प्रचार वल्लभाचार्य के लगभग तीन सौ वर्षों पहले कर चुके थे। इन्होंने अपने 'अमृतानुभव' नामक वेदान्त ग्रन्थ में अपनी गुरुपरम्परा लिखी है। इन्हीं की परम्परा में प्रज्ञाचक्षु महाराज गुलाबराव जैसे प्रकाण्ड विद्वान् और महात्मा हुए।

ज्ञानपाद : शैव आगमों एवं संहिताओं के चार विभाग हैं-- ज्ञानपाद, योगपाद, क्रियापाद एवं चर्यापाद। ज्ञानपाद में दार्शनिक तत्त्वों का निरूपण है।

ज्ञानप्रकाश : सुधारवादी या निर्गुणवादी साहित्य सम्बन्धी एक ग्रन्थ, जिसको 1807 वि० के लगभग जगजीवनदास सन्त ने लिखा था।

ज्ञानयाथार्थ्यवाद : अनन्ताचार्य अथवा अनन्तार्य रचित विशिष्टाद्वैतवाद का एक ग्रन्थ। इसमें आचार्य की दार्शनिकता एवं पाण्डित्य का पूरा परिचय मिलता है।

ज्ञानरत्नप्रकाशिका : तृतीय श्रीनिवास द्वारा रचित एक ग्रन्थ। इसमें दार्शनिक तत्वों का विवेचन किया गया है।

ज्ञानलिङ्गजङ्गम : वीरशैवों के पाँच बड़े मठों में केदारेश्वर मठ अति प्राचीन है। परम्परानुसार यह 5000 वर्षों से अधिक पुराना है। महाराज जनमेजय के राजत्व काल में यहाँ के महन्त स्वामी आनन्दलिङ्ग जङ्गम थे। इनके शिष्य ज्ञानलिङ्ग जङ्गम हुए। मठ में प्राप्त एक ताम्र शासन से पता लगता है कि महाराज जनमेजय ने एक बड़ा क्षेत्र इस मठ को इसलिए दान दिया था कि उसकी आय से आनन्दलिङ्ग के शिष्य ज्ञानलिङ्ग भगवान् केदारेश्वर की पूजा किया करें। उक्त जनमेजय पाण्डव परीक्षित् का पुत्र था, यह कहना कठिन है। यह कोई परवर्ती राजा हो सकता है।

ज्ञानवसिष्ठम् : स्मार्त साहित्य के अन्तर्गत अध्यात्मज्ञान सम्बन्धी ग्रन्थ 'योगवासिष्ठ रामायण' बहुत उपयोगी रचना है। तमिल भाषा के प्रौढ़ ग्रन्थकार अलनन्तर मदवप्पत्तर ने संवत् 1657 वि० में योगवासिष्ठ का तमिल में पद्य अनुवाद किया है, जिसका नाम 'ज्ञानवसिष्ठम्' है।

ज्ञानसमुद्र : दादूपन्थी सन्थ सुन्दरदास (सं० 1655-1746वि०) द्वारा रचित एक ग्रन्थ।

ज्ञानसागर : यह ग्रन्थ आचार्य यज्ञमूर्ति (देवराज) द्वारा तमिल भाषा में रचा गया है। इन्होंने स्वामी रामानुजाचार्य से 16 वर्षों तक शास्त्रार्थ किया, किन्तु अन्त में रामानुज ने यामुनाचार्य के 'मायावादखण्डनम्' का अध्ययन कर इस अद्वैतवादी संन्यासी को परास्त किया। अन्त में इन्होंने वैष्णवमत स्वीकार कर लिया।

ज्ञानसागर नाम के कई ग्रन्थ हिन्दी आदि अन्य लोक भाषाओं में भी उपलब्ध होते हैं। इनमें साम्प्रदायिक धर्म और दर्शन सम्बन्धी उपदेश पाये जाते हैं।

ज्ञानसिद्धान्तयोग : नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने गुरु गोरखनाथ रचित 37 ग्रन्थों की खोज की है। 'ज्ञानसिद्धान्तयोग' भी उनमें से एक है। गोरखपन्थ के अध्ययन के लिए यह ग्रन्थ उपयोगी है।

ज्ञानस्वरोदय : चरणदासी पन्थ के संस्थापक महात्मा चरणदास ने इस ग्रन्थ की रचना की है। इसमें पन्थ के धार्मिक तथा दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चा है।

ज्ञानानन्द : वेदान्ताचार्य प्रकाशानन्द के गुरु स्वामी ज्ञानानन्द थे। इनका जीवकाल 15वीं और 16वीं शती का मध्य भाग होना चाहिए। स्वामी ज्ञानानन्द की गणना छान्दोग्य तथा केनोपनिषद् के वृत्तिकारों एवं टीकाकारों में की जाती है।

ज्ञानामृत : (1) माध्व संप्रदाय के एक ग्रन्थव्याख्याकार। आनन्दतीर्थ द्वारा तैत्तिरीयोपनिषद् पर लिखे गये भाष्य पर ज्ञानामृत एवं अन्य आचार्यों ने टीकाएँ लिखी हैं।

(2) 'ज्ञानामृत', गोरखनाथ लिखित एक ग्रन्थ भी है।

ज्ञानामृतसागर : भागवतसम्प्रदाय का एक ग्रन्थ। 'नारदपाञ्चरात्र' और 'ज्ञानामृतसार' से पता चलता है कि भागवत धर्म की परम्परा बौद्धधर्म के फैलने पर भी नष्ट नहीं हो पायी। इसके अनुसार हरिभजन ही मुक्ति का परम साधन है। 'ज्ञानामृतसार' में छः प्रकार की भक्ति कही गयी है: स्मरण, कीर्तन, वन्दन, पादसेवन, अर्चन औऱ आत्मनिवेदन।

ज्ञानावाप्तिव्रत : चैत्र पूर्णिमा के उपरान्त एक वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें नृसिंह भगवान् की प्रतिदिन पूजा का विधान है। सरसों से होम तथा ब्राह्मणों को मधु, घृत, शर्करा से युक्त भोजन कराना चाहिए। वैशाख पूर्णिमा से तीन दिन पूर्व उपवास तथा पूर्णिमा के दिन सुवर्णदान का विधान है। इससे मेधा की वृद्धि होती है।

ज्ञानी : परमात्मा के स्वरूप, गुण, शक्ति आदि को जानने वाला व्यक्ति। प्रायः उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, गीता इन तीन प्रस्थानों के अध्ययन-चिन्तन और स्वानुभव से परमात्मा का ज्ञान होता है। सांख्य, योग, वैशेषिक दर्शनों या अन्य संत-महात्माओं के उपदेशों से भी आत्मा-परमात्मा, लोकपरलोक आदि का ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार से अध्यात्मतत्त्ववेता ही ज्ञानी कहे जाते हैं, जो भगवान् के सगुण या निर्गुण दोनों स्वरूपों के ज्ञाता हो सकते हैं।

ज्ञानेश्वर : प्राचीन भागवत सम्प्रदाय का अवशेष आज भी भारत के दक्षिण प्रदेश में विद्यमान है। महाराष्ट्र में इस सम्प्रदाय के पूर्वाचार्य सन्त ज्ञानेश्वर समझे जाते हैं। जिस तरह ज्ञानेश्वर नाथसम्प्रदाय के अन्तर्गत योगमार्ग के पुरस्कर्ता माने जाते हैं, उसी प्रकार भक्ति मार्ग में वे विष्णुस्वामी संप्रदाय के पुरस्कर्ता माने जाते हैं। फिर भी योगी ज्ञानेश्वर ने मराठी में 'अमृतानुभव' लिखा जो अद्वैतवादी शैव परम्परा में आता है। निदान, ज्ञानेश्वर सच्चे भागवत थे, क्योंकि भागवत धर्म की यही विशेषता है कि वह शिव और विष्णु में अभेद बुद्धि रखता है।

ज्ञानेश्वर ने भगवद्गीता के ऊपर मराठी भाषा में एक 'ज्ञानेश्वरी' नामक 10,000 पद्यों का ग्रन्थ लिखा है। इसका समय 1347 वि० कहा जाता है। यह भी अद्वैतवादी रचना है किन्तु यह योग पर भी बल देती है। 28 अभंगों (छंदों) की इन्होंने 'हरिपाठ' नामक एक पुस्तिका लिखी है जिस पर भागवतमत का प्रभाव है। भक्ति का उद्गार इसमें अत्यधिक है। मराठी संतों में ये प्रमुख समझे जाते हैं। इनकी कविता दार्शनिक तथ्यों से पूर्ण है तथा शिक्षित जनता पर अपना गहरा प्रभाव डालती है। दे० 'ज्ञानदेव'।

ज्ञानेश्वरी : भगवद्गीता का मराठी पद्यबद्ध व्याख्यात्मक अनुवाद। 'ज्ञानेश्वरी' को चौदहवीं शती के मध्य में संत ज्ञानेश्वर ने प्रस्तुत किया। उनकी यह कृति इतनी प्रसिद्ध और सुन्दर हुई कि आज भी धार्मिक साहित्य का अनुपम रत्न बनी हुई है। इसमें गीता का अर्थ बहुत ही हृदयग्राही और प्रभावशाली ढंग से समझाया गया है। दे० 'ज्ञानदेव' तथा 'ज्ञानेश्वर'।

ज्योतिष : छः वेदाङ्गों (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष) में से एक वेदाङ्ग ज्योतिष है। ज्योतिष सम्बन्धी किसी भी ग्रन्थ का प्रसंग संहिताओं अथवा ब्राह्मणों में नहीं आया है। किन्तु वेद के ज्योतिष विज्ञान सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना और अध्ययनपरम्परा स्वतन्त्र रूप से चलती रही है।

सूत्रकाल में ज्योतिष की गणना छः वेदाङ्गों में होने लगी थी। यहाँ तक कि यह वेद का नेत्र तक समझा जाने लगा। वैदिक यज्ञों और ज्योतिष का घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया। यज्ञों के लिए उपयुक्त समय (नक्षत्रादि की गति आदि) का ज्योतिष ही निर्देश करता है।

ज्योतिषतन्त्र : सौन्दर्यलहरी' के 31वें श्लोंक की व्याख्या में विद्यानाथ ने 64 तन्त्रों की सूची लिखी है। ये दो प्रकार के हैं, मिश्र एवं शुद्ध। इनमें 'ज्योतिषतन्त्र' मिश्र तन्त्र है।

ज्योतिःसरतीर्थ : कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत भगवद्गीता की उपदेशभूमि ज्योतिःसर अति पवित्र स्नान है। यहाँ पर एक अति प्राचीन सरोवर 'ज्योतिःसर' अथवा 'ज्ञानस्रोत' के नाम से प्रसिद्ध है।

ज्योतीश्वर : एक वेदान्ताचार्य, जिनका उल्लेख श्रीनिवासदास ने विशिष्टाद्वैतवादी ग्रन्थ यतीन्द्रमतदीपिका में अन्य आचार्यों के साथ किया है।

ज्वालामुखी देवी : हिमाचल प्रदेश में स्थित एक तीर्थ, जो पंजाब के पठानकोट से आगे ज्वालामुखीरोड स्टेशन से लगभग 13 मील दूर पर्वत पर ज्वालामुखी मन्दिर कहलाता है। यह शाक्त पीठ है। ज्वाला के रूप में यहाँ शक्ति का प्राकट्य देखा जाता है।

ज्वालेन्द्रनाथ : नाथ सम्प्रदाय के नौ नाथों में से एक ज्वालेन्द्रनाथ हैं। इनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। संभवतः जालन्धरनाथ ही ज्वालेन्दु या ज्वालेन्द्रनाथ हो सकते हैं।

 : व्यञ्जन वर्णों के चवर्ग का चतुर्थ अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है :

झकारं परमेशानि कुण्डली मोक्षरूपिणी, रक्तविद्युल्लताकारं सदा त्रिगुणसंयुतम्॥ पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्च प्राणात्मकं सदा। त्रिबिन्दुसहितं वर्णं त्रिशक्तिसहितं तथा॥ वर्णोद्धारतन्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं :

झो झङ्कारी गुहो झञ्झावायुः सत्यः षडुन्नतः। अजेशो द्राविणी नादः पाशी जिह्वा जलं स्थितिः॥ विराजेन्द्रो धनुर्हस्तः कर्कशो नादजः कुजः। दीर्घबाहुबलो रूपमाकन्दितः सुचक्षणः॥ दुर्मुखो नष्ट आत्मवान् विकटा कुचमण्डलः। कलहंसप्रिया वामा अङ्गुलीमध्यपर्वकः॥ दक्षहासादृहासश्च पाथात्मा व्यञ्जनः स्वरः॥ इसके ध्यान की विधि निम्नांकित है:

ध्यानमस्य प्रवक्ष्यामि श्रृणुष्व कमलानने। सन्तप्रहेमवर्णाभां रक्ताम्बर विभूषिताम्। रक्तचन्दनलिप्ताङ्गीं रक्तमाल्यविभूषिताम्। चतुर्दशभुजां देवीं रत्नहारोज्जलां पराम्॥ ध्यात्वा ब्रह्मस्वरूपां तां तन्मन्त्रं दशधा जपेत्॥

झषकेतन : कामदेव का एक विरुद। इसका अर्थ है 'झष (मकर अथवा मत्स्य) केतन (ध्वजा) है जिसका'। मकर और मत्स्य दोनों ही काम के प्रतीक हैं।

झषाङ्क : दे० 'झषकेतन'। इसका अर्थ भी कन्दर्प अथवा कामदेव है। हेमचन्द्र के अनुसार अनिरुद्ध का भी यह पर्याय है।

झूँसी (प्रतिष्ठानपुर) : प्रयोग से पूर्व गङ्गा के वाम तट पर यह एक तीर्थस्थल है। कहा जाता है कि यहाँ चन्द्रवंशी राजा पुरुरवा की राजधानी थी। वर्तमान झूँसी की बगल में त्रिवेणीसंगम के सामने पुराना दुर्ग है, जो अब कुछ टीला और गुफा मात्र रह गया है। वहीं 'समुद्रकूप' नामक कुआँ है, जो बड़ा पवित्र माना जाना है। हो सकता है कि इसका सम्बन्ध गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त से भी हो।

 : व्यञ्जन वर्णों के चवर्ग का पञ्चम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है :

सदा ईश्वरसंयुक्तं ञकारं श्रृणु सुन्दरि। रक्तविद्युल्लताकारं या स्वयं परकुण्डली॥ पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्च प्राणात्मकं सदा। त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिबिन्दुसहितं सदा॥

तन्त्रशास्त्र में इनके अनेक नाम बतलाये गये हैं :

ञकारों बोधनी विश्वा कुण्डली वियत्। कौमारी नागविज्ञानी सव्याङ्गुलं मखो वकः॥ सर्वेशचूर्णिता बुद्धिः स्वर्गात्मा घर्घरध्वनिः। धर्मैकपादः सुमुखो विरजा चन्दनेश्वरी॥ गायनः पुष्पधन्वा च रागात्मा च वराक्षिणी॥

एकाक्षरकोष में इसका अर्थ 'घर्घर ध्वनि' है। परन्तु मेदिनीकोष के अनुसार इसका अर्थ 'शुक्र' अथवा 'वामगति' है।

 : व्यञ्जन वर्णों के टवर्ग का प्रथम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का वर्णन निम्नाङ्कित है :

टकारं चञ्चलापाङ्गि स्वयं परमकुण्डली। कोटि विद्युल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा॥ पञ्चप्राणयुतं वर्णं गुणत्रयसमन्वितम्। त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिबिन्दुसहितं सदा॥ तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं :

टङ्कारश्च कपाली च सोमधा खेचरी ध्वनिः। मुकुन्दों विनदा पृथ्वी वैष्णवी वारुणी नयः॥ दक्षाङ्गकार्द्धचन्द्रश्च जरा भूति पुनर्भवः। बृहस्पतिर्धनुश्चित्रा प्रमोदा विमला कटिः॥ राजा गिरिर्महाधनुर्प्राणात्मा सुमुखो मरुत्॥

टिप्पणी : किसी ग्रन्थ के ऊपर यत्र-तत्र विशेष सूचनिका जैसे उल्लेख को 'टिप्पणी' कहते हैं। उदाहरण के लिए 'महाभाष्य' की टीका उपटीकाएँ कैयट और नागेश ने लिखी हैं, उन पर आवश्यकतानुसार यत्र-तत्र वैद्यनाथ पायगुण्डे ने 'छाया' नामक टिप्पणी लिखी है। बहुत से ऐसे धार्मिक और दार्शनिक ग्रन्थ हैं जिन पर भाष्य, टीका, टिप्पणी आदि क्रमशः पाये जाते हैं।

टीका : ग्रन्थों के भाष्य अथवा विवरण लेखों को टीका कहते हैं (टीक्यते गम्यते प्रविश्यते ज्ञायते अनया इति)। वास्तव में 'टीका' ललाट में लगायी जानेवाली कुंकुम आदि की रेखा को कहते हैं। इसी तरह प्राचीन हस्तलेखपत्र के केन्द्र या मध्यस्थल में मूल रचना लिखी जाती थी और ऊर्ध्व भाग में ललाट के तिलक की तरह मूल की व्याख्या लिखी जाती थी। मस्तकस्थ टीका के सादृश्य से ही ग्रन्थव्याख्या को भी टीका कहा जाने लगा। ग्रन्थ के ऊर्ध्व भाग में टीका के न अमाने पर उसे पत्र के निचले भाग में भी लिख लिया जाता था।

टुप्टीका : पूर्वमीमांसा विषयक 'शबरभाष्य' पर अष्टम शती वि० के उत्तरार्द्ध में कुमारिल भट्ट ने एक अनुभाष्य लिखा, जिसके तीन भाग हैं-- (1) श्लोकवार्त्तिक (पद्यमय, अध्याय एक के प्रथम पाद पर) (2) तन्त्रवार्तिक (गद्य, अध्याय एक के अवशेष तथा अध्याय दो व तीन पर) और (3) टुप्टीका (गद्य)। टुप्टीका अध्याय चार से बारह तक के ऊपर संक्षिप्त टिप्पणी है। (पूर्वमीमांसा दर्शन कुल बारह अध्यायों में है।)

 : व्यञ्जन वर्णों के टवर्ग का द्वितीय अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है :

ठकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डली मोक्षरूपिणी। पीतविद्युल्लताकारं सदा त्रिगुण संयुतम्॥ पञ्चदेवात्मकं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा। त्रिबिन्दुसहितं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा॥

तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नामों का उल्लेख है :

ठः शून्यों मञ्जरी बीजः पाणिनी लाङ्गली क्षया। वनगो नन्दजो जिह्वा सुनञ्जो घूर्णकः सुधा। वर्तुलः कुण्डलो वह्निरमृतं चन्द्रमण्डलः। दक्षजानूपादञ्च देवभक्षो बृहद्मुनिः॥ एकपादो विभूतिश्च ललाटं सर्वमित्रकः। वृषघ्‍नो नलिनी विष्णुर्मेशो ग्रामणी शशी॥

 : यह शिव का एक विरुद है। एकाक्षरकोश में इसका अर्थ 'महाध्वनि' तथा 'चन्द्रमण्डल' है। दोनों ही शिव के प्रतीक हैं।

ठकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डली मोक्षरूपिणी। पीतविद्युल्लताकारं सदा त्रिगुण संयुतम्॥ पञ्चदेवात्मकं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा। त्रिबिन्दुसहितं वर्ण त्रिशक्तिसहितं सदा॥

ठक्कुर : देवता का पर्याय। ब्राह्मणों (भूसुरों) के लिए भी इसका प्रयोग होता है। अनन्तसंहिता में इसी अर्थ में यह प्रयुक्त है :

श्रीदामनामा गोपालः श्रीमान् सुन्दरठक्कुरः।'

प्रायः विष्णु के अवतार की देवमूर्ति को ठक्कुर कहते हैं। उच्च वर्ग के क्षत्रिय आदि की प्राकृत उपाधि 'ठाकुर' भी इसी से निकली है। किसी भी प्रसिद्ध व्यक्ति को ठक्कुर या ठाकुर कहा जा सकता है, जैसे 'काव्यप्रदीप' के प्रख्यात लेखक को गोविन्द ठक्कुर कहा गया है, बंगाल के देवेन्द्रनाथ, रवीन्द्रनाथ आदि महानुभाव ठाकुर कहे जाते थे।

 : व्यञ्जन वर्णों के टवर्ग का तृतीय अक्षर। इसके स्वरूप का वर्णन कामधेनुतन्त्र में निम्नांकित है :

डकारं चञ्चलापाङ्गि सदा त्रिगुण संयुतम्। पञ्चदेवमयं वर्ण पञ्चप्राणमयं सदा॥ त्रिशक्ति सहितं वर्ण त्रिबिन्दुसहितं सदा। चतुर्ज्ञानमयं वर्ण आत्मादितत्त्व संयुतम्॥ पीतविद्युल्लताकारं डकारं प्रणमाम्यहम्॥ तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम पाये जाते हैं :

कौमारी श्करस्त्रासस्त्रिवक्रो मंगलध्वनिः। दुरूहो जटिली भीमा द्विजिह्वः पृथिवी सती॥ कोरगिरिः क्षमा कान्तिर्नाभिः स्वाती च लोचनम्॥

डमरु : भगवान् शिव का वाद्य मूल नाद (स्वर) का प्रतीक। यह 'आनद्ध' वर्ग का वाद्य है, जिसे कापालिक भी धारण करते हैं। 'सारसुन्दरी' (द्वितीय परिच्छेद) के अनुसार यह मध्य में क्षीण तथा दो गुटिकाओं पर आलम्बित होता है (क्षीणमध्यो गुटिकाद्वयालम्बितः)। सुप्रसिद्ध पाणिनीय व्याकरण के आरम्भिक चतुर्दश सूत्र शंकर के चौदह बार किये गये डमरुवादन से ही निकले माने जाते हैं। भगवान् की कृपा से पाणिनि मुनि को वह ध्वनि व्यक्त अक्षरों के रूप में सुनाई पड़ी थी।

डाकिनी : काली माता की गण-देवियाँ। ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृति खण्ड) में कथन है :

सार्द्धञ्च डाकिनीनाञ्च विकटानां त्रिकोटिभिः।'

डाकिनी का शाब्दिक अर्थ है 'ड= भय उत्पन्न करने के लिए, अकिनी= वक्र गति से चलती है।'

डामर : भगवान् शिव द्वारा प्रणीत शास्त्रों में एक डामर (तन्त्र) भी है। इसका शाब्दिक अर्थ हैं `चमत्कार।` इसमें भूतों के चमत्कार का वर्णन है। काशीखण्ड (29.70) में इसका उल्लेख है : `डामरो डामरकल्पो नवाक्षरदेवीमन्त्रस्य प्रतिपादकों ग्रन्थः।` [दुर्गा देवी के नौ अक्षर वाले मन्त्र का रहस्यविस्तारक ग्रन्थ डामर कहलाता है।] वाराहीतन्त्र में इसकी टीका मिलती है। इसके अनुसार डामर छः प्रकार का है :

(1) योग डामर, (2) शिव डामर, (3) दुर्गा डामर (4) सारस्वत डामर (5) ब्रह्म डामर और (6) गन्धर्व डामर।

कोटचक्र विशेष का नाम भी डामर है। 'समयामृत' ग्रन्थ में आठ प्रकार के कोटचक्रों का वर्णन हैं, जिनमें डामर भी एक है। दे० 'चक्र'।

ढक्का : एक आनद्ध वर्ग का वाद्य, जो देवमन्दिरों में विशेष अवसरों पर बजाने के लिए रखा रहता है : "ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।"

ढुण्ढिराजपूजा : माघ शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। व्रती को तिल के लड्डुओं का नैवेद्य गणेशजी को अर्पण करना चाहिए तथा बाद में प्रसाद रूप में वही ग्रहण करना चाहिए। तिल तथा घृत की आहुतियों से होम का विधान है। 'ढुण्ढि' की व्युत्पत्ति के लिए दे० स्कन्दपुराण का काशीखण्ड, 57.32 तथा पुरुषार्थचि०, 95।

ढौकन : किसी देवता के अर्पण के लिए प्रस्तुत नैवेद्य या उपहार को 'ढौकन' कहते हैं।

 : व्यञ्जनों का पन्द्रहवाँ तथा टवर्ग का पञ्चम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है :

णकारं परमेशानि या स्वयं परकुण्डली। पीतविद्युल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा॥ पञ्चप्राणमयं देवि सदा त्रिगुणसंयुतम्। आत्मादितत्त्वसंयुक्तं महामोहप्रदायकम्॥ तन्त्रशास्त्र में इसके चौबीस नामों का उल्लेख पाया जाता है :

णो निर्गुणं रतिर्ज्ञानं जम्भनः पक्षिवाहनः। जया शम्भो नरकजित् निष्कला योगिनीप्रियः॥ द्विमुखं कोटवी श्रोत्रं समृद्धिर्बोधिनी मता। त्रिनेत्रो मानुषी व्योमदक्ष पादाङ्गुलेर्मुखः॥ माधवः शङ्खिनी वीरो नारायणश्च निर्णयः॥

णत्वदर्पण : तृतीय श्रीनिवास पण्डित द्वारा रचित ग्रन्थों में एक कृति। इसमें विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन तथा अन्य मतों का खण्डन है। रचनाकाल अठारहवीं शती वि० का उत्तरार्ध है।

तक्षक वैशालेय : तक्षक वैशालेय (विशाला का वंशज) अप्रसिद्ध ऋत्विज् है, जिसे अथर्ववेद (7.10, 29) विराज का पुत्र कहा गया है। पञ्चविंश ब्राह्मण वर्णित सर्पयज्ञ में इसे ब्राह्मणाच्छंसी पुरोहित कहा गया है।

तक्षशिला : बृहत्तर भारत का एक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण विद्या केन्द्र तथा गन्धार प्रान्त की राजधानी। रामायण में इसे भरत द्वारा राजकुमार तक्ष के नाम पर स्थापित बताया गया है, जो यहाँ का शासक नियुक्त किया गया था। जनमेजय का सर्पयज्ञ इसी स्थान पर हुआ था (महाभारत 1.3.20)। महारत अथवा रामायण में इसके विद्याकेन्द्र होने की चर्चा नहीं है, किन्तु ई० पू० सप्तम शताब्दी में यह स्थान विद्यापीठ के रूप में पूर्ण रूप से प्रसिद्ध हो चुका था तथा राजगृह, काशी एवं मिथिला के विद्वानों के आकर्षण का केन्द्र बन गया था। सिकन्दर के आक्रमण के समय यह विद्यापीठ अपने दार्शनिको के लिए प्रसिद्ध था।

कोसल के राजा प्रसेनजिन् के पुत्र तथा बिम्बिसार के राजवैद्य जीवक ने तक्षशिला में ही शिक्षा पायी थी। कुरु तथा कोसलराज्य निश्चित सख्या में यहाँ प्रति वर्ष छात्रों को भेजते थे। तक्षशिला के एक धनुःशास्त्र के विद्यालय में भारत के विभिन्न भागों से सैकड़ों राजकुमार युद्धविद्या सीखने आते थे। पाणिनि भी इसी विद्यालय के छात्र रहे होंगे। जातकों में यहाँ पढ़ाये जाने वाले विषयों में वेदत्रयी एवं अठारह कलाओं एवं शिल्पों का वर्णन मिलता है। सातवीं शती में जब ह्वेनसाँग इधर भ्रमण करने आया तब इसका गौरव समाप्तप्राय था। फाहियान को भी यहाँ कोई शैक्षणिक महत्त्व की बात नहीं प्राप्त हुई थी। वास्तव में इसकी शिक्षा विषयक चर्चा मौर्यकाल के बाद नहीं सुनी जाती। सम्भवतः बर्बर विदेशियों के आक्रमणों ने इसे नष्ट कर दिया, संरक्षण देना तो दूर की बात थी।

तंजौर : कर्नाटक प्रदेश में कावेरी नदी के तट पर बसा हुआ एक सांस्कृतिक नगर। चोलवंश के राजराजेश्वर नामक नरेश ने यहाँ बृहदीश्वर नाम से भगवान् शंकर के भव्य मन्दिर का निर्माण कराया था। इसकी स्थापत्य कला बहुत प्रशंसनीय है। मन्दिर का शिखर 200 फुट ऊँचा है और नन्दी की मूर्ति 16 फुट लम्बी, 13 फुट ऊँची तथा 7 फुट मोटी एक ही पत्थर की बनी है। इसका शिल्प कौशल देखने के लिए विदेश के यात्री भी आते हैं। तंजौर का दूसरा तीर्थ अमृतवापिका सरसी है। पुराणों के अनुसार यह पराशरक्षेत्र है। पूर्वकाल में यह तंजन नामक राक्षस का निवास स्थान था जिसको ऋषियों ने तीर्थ में परिवर्तित कर दिया।

तत्व : किसी वस्तु का निश्चित अस्तित्व या आन्तरिक भाव। सूक्ष्म अन्तरात्मा से लेकर मानव और भौतिक सम्बन्धों को सुव्यवस्थित करने वाले नियमों तक के लिए इसका प्रयोग होता है। सांख्य के अनुसार प्रकृति के विकास तथा पुरुष को लेकर छब्बीस तत्त्व हैं। त्रिक सिद्धान्त के अनुसार छत्तीस तत्त्व हैं, जिनका स्वरूप उस समय प्रकट होता है जब शिव की चिच्छक्ति के विलास से प्रेरित होकर विश्व की सृष्टि होती है। इस प्रक्रिया को 'आभास' भी कहते हैं।

ततत्वकौमुदी : आचार्य वाचस्पति मिश्र ने सांख्यकारिका पर तत्वकौमुदी नामक टीका की रचना की है।

तत्वकौमुदीव्याख्या : चौदहवी शती वि० के उत्तरार्ध में भारती यति ने वाचस्पतिमिश्ररचित 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' पर 'तत्वकौमुदीव्याख्या' नामक टीका लिखी है।

तत्वकौस्तुभ : भट्टोजि दीक्षितकृत 'तत्वकौस्तुभ' नामक वेदान्त विषयक ग्रन्थ है। इसमें द्वैतवाद का खण्डन किया गया है।

तत्वचिन्तामणि : नव्य न्याय पर मैथिल विद्वान् गङ्गेशोपाध्याय रचित यह अति प्रसिद्ध ग्रन्थ है। अनेक आचार्यों ने इस पर टीका व भाष्य लिखे हैं।

तत्वचिन्तामणिव्याख्या : वासुदेव सार्वभौम (1533 वि०) ने गङ्गेशोपाध्याय रचित प्रसिद्ध न्यायग्रन्थ 'तत्वचिन्तामणि' पर यह व्याख्या लिखी है।

तत्वटीका : वेदान्ताचार्य वेङ्कटनाथ (1325 वि०) ने तत्वटीका नामक ग्रन्त तमिल भाषा में लिखा। भगवद्भक्ति इसमें कूट-कूटकर भरी है।

तत्वत्रय : (1) रामानुज स्वामी द्वारा प्रतिपादित विशिष्टाद्वैत मत के अनुसार सृष्टि के मूल में तीन तत्व हैं-- (1) ईश्वर (सर्वात्मा) (2) चित् (आत्मा) और (3) अचित् (जड़ प्रकृति)। प्रथम तत्व ही वास्तव में तत्व है जो पिछले दो से विशिष्ट है। इन तीनों में सायुज्य सम्बन्ध है।

(2) लोकाचार्य दक्षिण के एक प्रसिद्ध वैष्णव विद्वान् हो चुके हैं। इनका काल विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी है, इन्होंने विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को समझाने के लिए 'तत्वत्रय' एवं 'तत्वशेखर' नामक ग्रन्थ लिखे। दोनों ग्रन्थ सरल एवं सुबोध हैं। तत्वत्रय में चित्ततत्व अथवा आत्मतत्व, अचित्तत्‍त्व अथवा जड़तत्त्व और ईश्वरतत्त्व का निरूपण करते हुए रामानुजीय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।

तत्‍त्वत्रयचुलुकसंग्रह : पन्द्रहवीं शताब्दी में आचार्य वरदगुरु ने रामानुज मत की व्याख्या करते हुए 'तत्‍त्वत्रयचुलुकसंग्रह' नामक ग्रन्थ लिखा है।

तत्‍त्‍वदीधिति : सं० 1457 वि० में रघुनाथ शिरोमणि ने गङ्गेश उपाध्याय रचित 'तत्वचिन्तामणि' पर 'तत्वदीधिति' नामक व्याख्या लिखी है।

तत्‍त्वदीधितिटिप्पणी : जगदीश तर्कालङ्कार (1667 वि०) ने रघुनाथ शिरोमणि के ग्रन्थ 'तत्‍त्वदीधिति' पर 'तत्‍त्वदीधितिटिप्पणी' नामक उपटीका लिखी है।

तत्‍त्वदीपन : 15वीं शती में आचार्य अखण्डानन्द ने अद्वैतवेदान्तीय शारीरकभाष्य सम्बन्धी ग्रन्थ 'पञ्चपादिका विवरण' के ऊपर 'तत्‍त्वदीपन' नामक निबन्ध लिखा। यह प्रामाणिक रचना मानी जाती है।

तत्‍त्वदीपनिबन्ध : वल्लभाचार्य. ने संस्कृत में अनेक विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थों की रचना की, जिनमें उनके सिद्धान्तों को संक्षेप में बतलाने वाली 'तत्‍त्वदीपनिबन्ध' पद्यमय रचना है। इसके साथ 'प्रकाश' नामक गद्य टीकाभाग तथा सत्रह संक्षिप्त पुस्तिकाओं का भाग भी जुड़ा हुआ है।

तत्‍त्वनिरूपण : पन्द्रहवीं शती में राम्य जामाता मुनि ने तत्‍त्वनिरूपण नामक निबन्ध लिखा। यह विशिष्टाद्वैतमत का समर्थक सम्मान्य ग्रन्थ है।

तत्‍त्वनिर्णय : श्रीवैष्णव मतावलम्बी वरदाचार्य (तेरहवीं शताब्दी विक्रमीय) ने 'तत्‍त्वनिर्णय' नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें उन्होंने विष्णु को ही परब्रह्म सिद्ध किया है। यह ग्रन्थ सम्भवतः अप्रकाशित है।

तत्‍त्वप्रकाश : शिवज्ञान योगी ने, जो शैव सम्प्रदाय की तमिल शाखा के प्रसिद्ध आचार्य थे, तमिल में 'तत्वुवपिरकाश' (सं० तत्‍त्वप्रकाश) नामक ग्रन्थ की रचना की थी। रचनाकाल 18वीं शती है।

तत्‍त्वप्रकाशिका : जयतीर्थ (सं० 1397 वि०) ने आचार्य मध्वरचित 'वेदान्तसूत्रभाष्य' पर 'तत्‍त्वप्रकाशिका' नामक टीका लिखी है।

तत्‍त्वप्रदीपिका : (1) तेरहवीं शताब्दी में चित्सुखाचार्य ने अपने 'तत्त्वदीपिका' नामक ग्रन्थ में न्यायलीलावतीकार वल्लभाचार्य के मत का खण्डन किया है। तत्त्वप्रदीपिका का दूसरा नाम 'चित्सुखी' है।

(2) तेरहवीं शती के अन्तिम चरण में त्रिविक्रम ने मध्वाचार्य रचित 'वेदान्तसूत्रभाष्य' पर 'तत्त्वप्रदीपिका' नामक टीका लिखी है।

तत्त्वबोधिनी : सोलहवीं शताब्दी को उत्तरार्ध में अद्वैत मत के प्रमुख आचार्य नृसिंहाश्रम स्वामी उद्भट दार्शनिक एवं प्रौढ़ पण्डित हुए हैं। इनकी रची 'तत्त्वबोधिनी' सर्वज्ञात्ममुनिकृत 'संक्षेपशारीरक' की व्याख्या है।

तत्त्वमञ्जरी : सत्रहवीं शताब्दी में मध्व मतावलम्बी राधवेन्द्र स्वामी रचित यह एक ग्रन्थ है।

तत्त्वमसि : तुम वह (ब्रह्म) हो' यह महावाक्य छान्दोग्य उपनिषद् में आया है। उद्दालक आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को इसका उपदेश किया है। यह सम्पूर्ण औपनिषदिक ज्ञान का सार है। इसका तात्पर्य है व्यक्तिगत आत्मा का विश्वात्मा (ब्रह्म) से अभेद।

तत्त्वमार्तण्ड : अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तृतीय श्रीनिवास द्वारा रचित 'तत्त्वमार्तण्ड' विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन एवं अन्य मतों का खण्डन करता है।

तत्त्वमुक्ताकलाप : वेङ्कटनाथ वेदान्ताचार्य लिखित यह ग्रन्थ तमिल भाषा में है। इसकी रचना विक्रम की चौदहवीं या पन्द्रहवीं शती में हुई।

तत्त्वबिन्दु : वाचस्पति मिश्र ने भट्टमत पर 'तत्त्वबिन्दु' नामक टीका लिखी है।

तत्त्वविवेक : इस नाम के दो ग्रन्थ हैं। प्रथम के रचयिता अद्वैत सम्प्रदाय के आचार्य नृसिंहाश्रम हैं। यह ग्रन्थ प्रकाशित है। इसमें केवल दो परिच्छेद हैं। इसके ऊपर उन्होंने स्वयं ही 'तत्त्वविवेकदीपन' नाम की एक टीका लिखी है। दूसरा ग्रन्थ मध्वाचार्य रचित है।

तत्त्ववैशारदी : सं 107 वि० के लगभग योगसूत्र पर वाचस्पति मिश्र ने 'तत्त्ववैशारदी' नामक टीका लिखी। दार्शनिक शैली में यह 'योगसूत्रभाष्य' से भी उत्तम ग्रन्थ है। इसमें विषयों का क्रम एवं शब्दयोजना श्रृंखलाबद्ध है।

तत्‍त्‍वशेखर : विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में वैष्णव आचार्यों में प्रसिद्ध लोकाचार्य ने रामानुजीय सिद्धान्त समझाने के लिए दो ग्रन्थों की रचना की--'तत्त्वत्रय' एवं 'तत्‍त्वशेखर'। प्रथम में तत्त्वों का वर्गीकरण और व्याख्या तथा द्वितीय में उनके उच्चतर दार्शनिक पक्षों का विवेचन है।

तत्‍त्‍वसमास : सांख्यदर्शन का संक्षिप्त सूत्रग्रन्थ। इसमें सांख्य सिद्धान्तों का निरूपण 'सांख्यकारिका' से भिन्न शैली में किया गया है। कहा जाता है कि कपिल मुनि की मुख्य रचना यहीं है।

तत्‍त्‍वसंख्‍यान : मध्वाचार्य के ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ 'तत्‍त्वसंख्यान' है। जयतीर्थाचार्य ने इसकी टीका लिखी है। इसमें तत्वों की संख्या और व्याख्या दी गयी है।

तत्‍त्‍वसार : वरदाचार्य अथवा नडाडुरम्मल ने 'तत्त्वसार' एवं 'सारार्थचतुष्टय' नामक दो ग्रन्थ लिखे। 'तत्त्वसार' पद्य में है और उसमें उपनिषदों के उपदेश तथा दार्शनिक मत का सारांश दिया गया है।

तत्त्वानुसन्धान : महादेव सरस्वती कृत 'तत्त्वानुसन्धान' प्रकरणग्रन्थ है। इसके ऊपर उन्होंने 'अद्वैतचिन्ताकौस्तुभ' नाम की टीका लिखी है। 'तत्त्वानुसन्धान' बहुत सरल भाषा में लिखा गया है। इससे सहज में ही अद्वैतसिद्धान्त का ज्ञान हो सकता है। रचनाकाल अठारहवीं शताब्दी है।

तत्त्वालोक : तेरहवीं शती वि० के उत्तरार्ध में जयदेव मिश्र ने 'तत्त्वालोक' नामक भाष्य गङ्गेश उपाध्याय रचित 'तत्त्वचिन्तामणि' पर लिखा है।

ततत्वालोकरहस्य : सत्रहवीं शती वि० के प्रारम्भ में मथुरानाथ ने 'तत्त्वालोकरहस्य' नामक ग्रन्थ लिखा। इसे माथुरी या मथुरानाथी भी कहते हैं। यह तत्त्वचिन्तामणि की एक टीका है।

तत्तुव रयर : सित्तर (चित्तर अथवा सिद्ध) शैवों की ही तमिल शाखा है, जो मूर्तिपूजा की विरोधिनी है। 18वीं शती वि० में इस मत के 'तत्तुव रयर' नामक आचार्य ने मूर्तिपूजाविरोधी एक ग्रन्थ लिखा, जिसका नाम 'अदङ्गन मुरइ' है।

तन्त्र : तन्त्रशास्त्र शिवप्रणीत कहा जाता है। यह तीन भागों में विभक्त है : आगम, यामल एवं मुख्य तन्त्र। वाराहीतन्त्र के अनुसार जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, सत्कर्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्मसाधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो उसे आगम कहते हैं। जिसमें सृष्टितत्त्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम, सूत्र, वर्णभेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे यामल कहते हैं। जिसमें सृष्टि, लय, मन्त्र निर्णय, तीर्थ, आश्रमधर्म, कल्प, ज्योतिषसंस्थान, व्रतकथा, शौच-अशौच, स्त्रीपुरुषलक्षण, राजधर्म, दानधर्म, युगधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक नियमों का वर्णन हो, वह मुख्य तन्त्र कहलाता है।

इस शास्त्र के सिद्धान्तानुसार कलियुग में वैदिक मन्त्रों, जपों और यज्ञों आदि का फल नहीं होता। इस युग में सब प्रकार के कार्यों की सिद्धि के लिए तन्त्रशास्त्र में वर्णित मन्त्रों और उपायों आदि से ही सफलता मिलती है। तन्त्रशास्त्र के सिद्धान्त बहुत गुप्त रखे जाते हैं और इसकी शिक्षा लेने के लिए मनुष्य को पहले दीक्षित होना पड़ता है। आजकल प्रायः मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि के लिए तथा अनेक प्रकार की सिद्धियों के लिए तन्त्रोक्त मंत्रों और क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है।

यह शास्त्र प्रधानत: शाक्तों (देवी-उपासकों) का है और इसके मन्त्र प्रायः अर्थहीन और एकाक्षरी हुआ करते हैं। जैसे-- ह्रीं, क्लीं, श्रीं, ऐं, क्रूं आदि। तान्त्रिकों का पञ्च मकार सेवन (मध्य, मांस, मत्स्य आदि) तथा चक्र पूजा का विधान स्वतंत्र होता है। अथर्ववेद में भी मारण, मोहन, उच्चाटन और वशीकरण आदि का विधान है। परन्तु कहते हैं कि वैदिक क्रियाओं और तन्त्र-मन्त्रादि विधियों को महादेवजी ने कीलित कर दिया है और भगवती उमा के आग्रह से कलियुग के लिए तन्त्रों की रचना की है। बौद्धमत में भी तन्त्र ग्रन्थ है। उनका प्रचार चीन और तिब्बत में है। हिन्दू तान्त्रिक उन्हें उपतन्त्र कहते हैं।

तन्त्रशास्त्र की उत्पत्ति कब से हुई इसका निर्णय नहीं हो सकता। प्राचीन स्मृतियों में चौदह विद्याओं का उल्लेख है किन्तु उनमें तन्त्र गृहीत नहीं हुआ है। इनके सिवा किसी महापुराण में भी तन्त्रशास्त्र का उल्लेख नहीं है। इसी तरह के कारणों से तन्त्रशास्त्र को प्राचीन काल में विकसित शास्त्र नहीं माना जा सकता। अथर्ववेदीय नृसिंहतापनीयोपनिषद् में सबसे पहले तन्त्र का लक्षण देखने में आता है। इस उपनिषद् में मन्त्रराज नरसिंहअनुष्टुप प्रसंग में तान्त्रिक महामन्त्र का स्पष्ट आभास सूचित हुआ है। शङ्कराचार्य ने भी जब उक्त उपनिषद् के भाष्य की रचना की है तब निस्सन्देह वह वि० की 8वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी के भीतर बहुत से बौद्ध तन्त्रों का तिब्बतीय भाषा में अनुवाद हुआ था। ऐसी दशा में मूल बौद्ध तन्त्र वि० की 8वीं शताब्दी के पहले और उनके आदर्श हिन्दू तन्त्र बौद्ध तन्त्रों से भी पहले प्रकटित हुए हैं, इसमें सन्देह नहीं।

तन्त्रों के मत से सबसे पहले दीक्षा ग्रहण करके तान्त्रिक कार्यों में हाथ डालना चाहिए। बिना दीक्षा के तान्त्रिक कार्य में अधिकार नहीं है।

तान्त्रिक गण पाँच प्रकार के आचारों में विभक्त हैं, ये श्रेष्ठता के क्रम से निम्नोक्त हैं: वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार एवं कौलाचार। वे उत्तरोत्तर श्रेष्ठ माने जाते हैं।

तन्त्रचूडामणि : कृष्णदेव निर्मित 'तन्त्रचूडामणि' प्रसिद्ध तान्त्रिक ग्रन्थ है।

तन्त्ररत्न : पार्थसारथि मिश्र रचित यह जैमिनिकृत 'पूर्व मीमांसासूत्र' की टीका है। रचनाकाल लगभग 1300 ई० है।

तन्त्रराज : यह तान्त्रिक ग्रन्थ अधिक सम्मान्य है। इसमें लिखा है कि गौड़, केरल और कश्मीर इन तीनों देशों के लोग ही विशुद्ध शाक्त हैं।

तन्त्रवार्तिक : भट्टपाद कुमारिल रचित यह ग्रन्थ पूर्वमीमांसादर्शन के शाबर भाष्य का समर्थक तथा विवरणात्मक है। इसमें प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद से लेकर द्वितीय और तृतीय अध्याय तक भाग की व्याख्या है। प्रथम अध्याय के प्रथम पाद की व्याख्या 'श्लोकवार्तिक' में की गयी है।

तन्त्रसार : इसकी रचना संवत् 1860 वि० में मानी जाती है। इसमें दक्षिणमार्गीय आचारों का विधान है। सुन्दर श्लोकों से परिपूर्ण इसके पृष्ठों में अनेक यन्त्र, चक्र एवं मण्डल निर्मित हैं। इसका बङ्गाल में अधिक प्रचार है।

तन्त्रसारसंग्रह : यह मध्वाचार्य द्वारा प्रणीत ग्रन्थों में से एक है।

तन्त्रामृत : आगमतत्त्वविलास' में उल्लिखित तन्त्रसूची के अन्तर्गत यह तन्त्र ग्रन्थ है।

तन्त्रलोक : अभिनवगुप्त (कश्मीरी शैवों के एक आचार्य, 11 वीं वि०शती) द्वारा लिखित 'तन्त्रलोक' शैवमत का पूर्ण रूप से दार्शनिक वर्णन उपस्थित करता है।

तन्मात्रा : पञ्च तत्वों' वाला सिद्धान्त सांख्यदर्शन में भी ग्रहण किया गया है। यहाँ तत्वों का विकास दो विभागों के रूप में दिखाया गया है। वे हैं 'तन्मात्रा' (सूक्ष्म तत्त्व) एवं 'महाभूत' (स्थूल तत्त्व)। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध तन्मात्राएँ तथा आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी महाभूत हैं।

तप (1) : उपभोग्य विषयों का परित्याग करके शरीर और मन को दृढ़तापूर्वक सन्तुलन और समाधि की अवस्था में स्थिर रखना ही तप है। इससे उनकी शक्ति उद्दीप्त होती है। तप की विशुद्ध शक्ति द्वारा मनुष्य असाधारण कार्य करने में समर्थ होता है। उसमें अद्भुत तेज उत्पन्न होता है। शास्त्र की दृष्टि से तेज (सामर्थ्य) दो प्रकार का है : (1) ब्रह्मतेज और (2) शास्त्रतेज। पहला तप के द्वारा और दूसरा त्याग के द्वारा समृद्ध होता है।

साधन की दृष्टि से तप के तीन प्रकार हैं-- शारीरिक, वाचिक और मानसिक। देव, ब्राह्मण, गुरु, ज्ञानी, सन्त और महात्मा की पूजा आदि शारीरिक तप में सम्मिलित हैं। वेद-शास्त्र का पाठ, सत्य, प्रिय औऱ कल्याणकारी वाणी बोलना आदि वाचिक तप है। मन की प्रफुल्लता, अक्रूरता, मौन, वासनाओं का निग्रह आदि मानसिक तप के अन्तर्गत हैं। इन तीनों के भी अनेक भेद--उपभेद हैं।

इस तरह शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप के द्वारा मनुष्य द्वन्द्वसहिष्णु हो जाता है। फलतः उसकी उन्नती होती है। इन त्रिविध तपरूपों में मानसिक तप सर्वश्रेष्ठ है। इससे चित्त में एकाग्रता आती है जिससे ब्राह्मण को ब्रह्मज्ञान और संन्यासी को कैवल्य की प्राप्ती होती है। जब तक सांसारिक मायाप्रसूत राग-द्वेष से मानवमन उद्वेलित रहता है तब तक उसे वास्तविक आनन्द की उपलब्धि नहीं होती, क्योंकि इस स्थिति में चित्त एकाग्र नहीं हो सकता। सारांश यह है कि मानसिक तप चित की एकाग्रता और द्वन्द्वसहिष्णुता का साधन है। इससे चित्त शान्त होता है और मनुष्य प्रसन्नता को प्राप्त कर क्रमशः मुक्ति की ओर अग्रसर होता है।

वाचनिक तप व्यक्तिगत और जातिगत दोनों प्रकार के उत्थान में सहायक होता है। मानवता के सेवक परोपकारी व्यक्ति का एक-एक शब्द मूल्यवान् और नपातुला होना आवश्यक है। इसके अभाव में निरर्थक वक्तव्य से उपदेशक की बात का समाज पर अनुचित प्रभाव पड़ता है। इससे हानिकारक कर्मों की प्रतिक्रिया होती है। फलतः समाज का अहित होता है और उपदेशक का भी अधःपतन होता है। शास्त्रीय दृष्टि से जो वचन देश, काल और पात्र के अनुसार सर्वभूतहितकारी है वही सत्य और धर्म के अनुकूल है।

वाचनिक तप का मूल तात्पर्य वाणी पर नियंत्रण है। अतः मनुष्य को कभी ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए जिससे दूसरों को कष्ट हो। वाचनिक तप के साथ शारीरिक तप का भी महत्वपूर्ण स्थान है। शारीरिक तप के अभ्यास के बिना मनुष्य कोई कार्य करने में समर्थ नहीं हो पाता। प्राचीन काल में शारीरिक तप जीवन के आरम्भिक काल में ब्रह्मचर्याश्रम के द्वारा द्वन्द्वसहिष्णु होकर किया जाता था। तप के द्वारा मनुष्य कष्टसहिष्णु और परिश्रमी होता था। पर आजकल यह बात नहीं है, इसी कारण मनुष्य शक्तिहीन, आलसी तथा काम से दूर भागने वाला हो गया है।

ब्रह्मचर्य द्वारा उच्चतर पद प्राप्त करनेवाले देवता की उपाधि से विभूषित किये जाते हैं। नैष्ठिक ब्रह्मचारी को निर्वाण का उत्तम पद प्राप्त होता है। पूर्ण ब्रह्मचारी असाधारण शक्तिमान् होता है। शरीर की सप्त धातुओं में वीर्य सर्वप्रधान सारभूत तत्त्व है। ब्रह्मचर्य द्वारा इसकी रक्षा होती है जिससे मन और शरीर दोनों बलिष्ठ होते हैं।

ब्रह्मचर्य की भाँति अहिंसा भी 'परम धर्म' माना गया है। यह वह परम तप है जिससे व्यक्ति प्राणिमात्र को अभयदान देता है। प्रकृति के नियम के अनुकूल चलना धर्म और उसके प्रतिकूल चलना अधर्म है। अतः प्रकृतिप्रवाह के अनुकूल चलने वाले को कष्ट देना अधर्म या पाप है। बिना वैर के हिंसा नहीं होती। अतः किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिए और मनुष्य को अहिंसा रूपी शारीरिक तप के द्वारा अपने कल्याणार्थ इहलोक और परलोक का सुधार करना चाहिए।

उपर्युक्त त्रिविध तपरूपों के भी सात्त्विक, राजसिक और तामसिक भेद के अनुसार तीन-तीन भेद हैं। बिना फल की इच्छा किये अनासक्त होकर श्रद्धासहित किया गया तप सात्विक होता है। सत्कार, सम्मान तथा पूजा पाने के ध्येय से किया गया दाम्भिक तप राजसिक होता है। इसका परिणाम अस्थायी और अध्रव होता है। अविचारित हठ द्वारा अपनी भावनाओं को दबाकर, अपने को कष्ट देकर या दूसरे किसी व्यक्ति की हानि या नाश करने की इच्छा से जो तप किया जाता है उसे तामसिक तप कहते हैं। इस विवरण को देखते हुए मनुष्य के लिए यह उचित है कि वह शारीरिक, वाचनिक और मानसिक त्रिविध तपों में से सबके सात्त्विक रूपों का ही अनुसरण करके परम सुख और शान्ति का लाभ करे।

तपश्चरणव्रत : मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। एक वर्ष पर्यन्त यह चलना चाहिए। इसके सूर्य देवता हैं।

तपस् : श्रम करना, कष्ट सहते हुए तप (गर्मी) उत्पन्न करन्। सामान्यतः तपस् का अर्थ आत्मशोधन एवं तपस्या है। सर्वप्रथम इसका व्यवहार आरण्यकों में पाया जाता है। आरण्यक वनों में पढ़े जाते थे। उन्हें पढ़ने वाला साधकों का दल था जो जंगल में निवास करता था। वे सभी सांसारिक व्यापारों का परित्याग कर धार्मिक जीवन व्यतीत करते थे। उनके अभ्यासों में तीन बातें मुख्य थीं- तपस्, यज्ञ एवं ध्यान। तपस् तीन प्रकार का होता है-- मानसिक, वाचिक तथा शारीरिक।

तपस्या : तप की स्थिति में रहने का भाव। दे० 'तप' और 'तपस्'। तन्त्रमत के अनुसार तप, तपस्या नहीं है, ब्रह्मचर्य ही तपस्या है। जो ब्रह्मचर्य के प्रभाव से ऊर्ध्वरेता होते हैं, वे ही तपस्वी हैं।

तप (व्रत) : यह शब्द कुछ धार्मिक कृत्यों, जैसे कृच्‍छ्र, चान्द्रायण, ब्रह्मचारियों तथा अन्यों के द्वारा स्वीकृत कठोर नियमों तथा आचरणों के लिए व्यवहृत होता है। आप० ध० सू० 2.5.1 (नियमेष तपश्शब्दः); मनु 11.203, 244; वि० धर्म० 95; वि० ध० तृ०, 266 में तप की लम्बी प्रशंसा की गयी है। कृत्यरत्नाकर, 16 में तप की संयम के रूप में परिभाषा की गयी है। (शाब्दिक अर्थ है उपवास, कठोर आचरणों, व्रतों के द्वारा शरीर को सन्तप्त करना।) अनुशासनपर्व के अनुसार उपवास से अधिक अन्य कोई तप नहीं है।

तपोज : तपस्या से उत्पन्न हुआ 'तपोज' कहलाता है। उन सभी गुणों का इसमें समावेश है जिनका सम्बन्ध कलुष तथा पाप के विनाश से है।

तपोनित्य पौरुशिष्टि : तपोनित्य (तपस्या में नित्य स्थिर) पौरुशिष्टि (पुरुशिष्ट के वंशज) का उल्लेख तैत्तिरीय उपनिषद् में एक आचार्य के रूप में हुआ है, जो तपस् के महत्त्व में विश्वास करते थे।

तपोवन : हिमालय में स्थित एक तीर्थस्थल। जोशीमठ से छः मील दूर नीति घाटी होकर कैलास जाने वाले मार्ग में तपोवन है। यहाँ गर्म जल का कुण्ड है। बड़ा रमणीक स्थान है। इसमें स्नान करना पुण्यदायक माना जाता है।

तपोव्रत : माघ मास की सप्तमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। व्रती को रात्रि में एक छोटा सा वस्त्र धारण करना चाहिए। तदनन्तर एक गोदान करना चाहिए।

तप्तमुद्राधारण : आश्विन शुक्ल और कार्तिक शुक्ल एकादशी को शरीर पर रामानुज, माध्व तथा दूसरे वैष्णव सम्प्रदायों के द्वारा अग्नितप्त ताम्र अथवा ऐसा ही किसी अन्य धातु से शंख तथा चक्र अंकित कराये (दागे) जाते हैं। शंख तथा चक्र विष्णु के आयुध हैं। स्मृतिकौस्तुभ (पृ० 86--87) के अनुसार उपर्युक्त क्रिया में किसी धार्मिक ग्रन्थ का प्रमाण प्राप्त नहीं है। किन्तु निर्णयसिन्धु, 1-7, 108 तथा धर्मसिन्धु, 55 के अनुसार मनुष्य को अपनी परम्परागत क्रियाओं का अनुष्ठान करना चाहिए।

तमस् : सांख्यमतानुसार प्रकृति तथा उससे उत्पन्न सभी तत्वों के तीन उपादान हैं--सत्त्व (प्रकाश), रजस् (शक्ति) तथा तमस् (जड़ता)। तमस् अवरोध करनेवाला उपादान है। उपर्युक्त तीनों गुण विभिन्न अनुपातों में मिलकर (अधिक सत्त्व गुण का कम रज एवं तम से संयोग, अथवा कम सत्त्व गुण का अधिक रज एवं तम के साथ संयोग) विभिन्न गुण वाले विभिन्न पदार्थ उत्पन्न करते हैं। दे० सांख्यकारिका।

तरनतारन : अमृतसर से बारह मील दक्षिण ब्यास और सतलज नदियों के संगम से पूर्वोत्तर यह सिक्खों का पवित्र तीर्थ है। अमृतसर से तरनतारन तक पक्की सड़क जाती है। यहाँ भी एक सरोवर के मध्य गुरुद्वारा है। गुरु अर्जुनदेव ने इस स्थान की प्रतिष्ठा की थी। तरनतारन सरोवर अत्यन्त पवित्र माना जाता है। वैशाख की अमावास्या को यहाँ मेला लगता है।

तर्क : इसका शाब्दिक अर्थ है 'युक्ति'। न्याय शास्त्र के लिए भी इसका प्रयोग होता है। न्याय के अनुसार तर्क से ज्ञान का सन्धान (लक्ष्य प्राप्त) होता है। परन्तु अन्तिम सत्ता की अनुभूति अथवा सत्यानृत, न्याय-अन्याय के निर्णय में इसकी क्षमता नहीं स्वीकार की गयी है। यह 'अप्रतिष्ठ' माना गया है। साधना में इसका महत्त्व प्राथमिक किन्तु गौण है।

तर्ककौमुदी : अठारहवीं शती वि० के आरम्भ में लौगाक्षि भास्कर ने 'तर्ककौमुदी' की रचना की। यह ग्रन्थ मीमांसा दर्शन से सम्बद्ध है।

तर्कचूडामणि : गङ्गेशोपाध्याय कृत 'तत्‍त्वचिन्तामणि' नामक नव्य न्याय के ग्रन्थ पर 'तर्कचूडामणि' नाम की टीका धर्मराज अध्वरीन्द्र ने लिखी। इसमें इन्होंने अपने से पूर्ववर्त्तिनी दस टीकाओं के मतों का खण्डन किया है।

तर्कताण्डव : व्यासराज स्वामी (सोलहवीं शती वि०) कृत 'तर्कताण्डव' न्याय दर्शन की आलोचना प्रस्तुत करता है।

तर्कभाषा : एकादश शताब्दी के पश्चात् न्याय तथा वैशेषिक दर्शन मिलकर प्रायः एक ही संयुक्त दर्शन बन गये। अनेक ग्रन्थों ने इस एकरूपता को व्यक्त किया है। त्रयोदश शती का केशवमिश्र कृत 'तर्कभाषा' ऐसे ही ग्रन्थों में से एक है। इसका अंग्रेजी अनुवाद म० म० गङ्गानाथ झा द्वारा हुआ है। हिन्दी में इसके कई भाषान्तर तथा टीका हैं।

तर्कविद्या : न्यायदर्शन का एक पर्याय तर्कविद्या है। इससे यह न समझना चाहिए कि गौतम का न्याय केवल विचार वा तर्क के नियम निर्धारित करने वाला शास्त्र है; अपितु यह प्रमेयों का विचार करने वाला दर्शन भी है। पाश्चात्य लॉजिक (तर्कशास्त्र) से इसमें यही भेद है। लॉजिक (तर्कशास्त्र) दर्शन के अन्तर्गत नहीं लिया जाता, परन्तु न्याय शास्त्र दर्शन है। यह अवश्य है कि न्याय में प्रमाण अथवा तर्क की परीक्षा विशेष रूप से हुई है।

तर्कसंग्रह : सोलहवीं शताब्दी के अन्त में न्याय-वैशेषिक दर्शन विषयक यह ग्रन्थ अन्नम् भट्ट द्वारा प्रणीत हुआ। इसके देशी-विदेशी अनुवाद तथा अनेक टीकाएँ प्राप्त हैं।

तलवकार : सामवेद की अनेक शाखाओं में एक तलवकार भी है। तलवकार शाखा का एक ही ब्राह्मण ग्रन्थ है, जिसे जैमिनीय अथवा तलवकार कहते हैं। इसके अन्तर्गत उपनिषद् एवं ब्राह्मण आते हैं।

तलवकार ब्राह्मण : दे० 'तलवकार'।

ताण्ड : एक आचार्य का नाम, जिनकी शाखा से 'ताण्ड्य ब्राह्मण' का सम्बन्ध है। यह लाट्यायन श्रौतसूत्र में उद्धृत है।

ताण्डिन : सामवेद की एक शाखा, जिसके तीन ब्राह्मण हैं--पञ्चविंश, षड्विंश एवं छान्दोग्य।

ताण्ड्यलक्षणसूत्र : सामवेदीय सूत्र ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ।

तान्त्रिक : तन्त्र से सम्बन्ध रखनेवाला। साहित्य और व्यक्ति दोनों के लिए इसका प्रयोग होता है। विचार और भावना की तीन प्रविधियाँ हैं-- (1) मन्त्र (2) तन्त्र और (3) यन्त्र। उनका संघटनात्मक रूप तन्त्र है। जो संघटनात्मक रूप को प्रधान मानकर उपासना करते हैं वे तान्त्रिक कहलाते हैं।

तान्त्रिक पञ्चमकार : तन्त्र शास्त्र की वाममार्ग पद्धति के अनुसार उपासना के पाँच साधन, जिनका नाम 'म' अक्षर से आरम्भ होता है, यथा मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन। भौतिक रूप में ये तामस वस्तुएँ प्रतीत होती हैं, परन्तु परमार्थ दृष्टि से इनका अर्थ रहस्यात्मक है।

तात्पर्यचन्द्रिका : सत्रहवीं शती वि० के प्रारम्भ में आचार्य व्यासराज स्वामी ने यह ग्रन्थ लिखा। इनके कुल तीन ग्रन्थ हैं, जिनमें इन्होंने माध्वमत का प्रतिपादन किया है।

तात्पर्यदीपिका : सुदर्शन व्यास भट्टाचार्य (वि० संवत् 1423 निधन काल) ने रामानुज स्वामी के 'वेदार्थसंग्रह' पर 'तात्पर्यदीपिका' नामक टीका लिखी है।

तात्पर्यपरिशुद्धि : उदयनाचार्य कृत तात्पर्यपरिशुद्धि वाचस्पति मिश्र के न्यायवार्तिकतात्पर्य की टीका है। इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्याय कृत 'प्रकाश' व्याख्या है।

ताप : आगम प्रणाली में द्विज वैष्णवों से आशा की जाती है कि वे योग्य गुरु का चुनाव कर उससे दीक्षा लें। दीक्षासंस्कार में पॉंच क्रियाएँ होती हैं, यथा ताप, पुण्ड्र, नाम, मन्त्र एवं याग। 'ताप' क्रिया में दीक्षा लेने वाले के शरीर पर साम्प्रदायिक सांकेतिक चिह्न अङ्कित किये जाते हैं। पिछले समय में द्वारका में सभी को तप्त शंख-चक्र लगाये जाते थे। लोगों का विश्वास था 'जो द्वारका जरे, सो कहीं मरे, वह अवश्य तरेगा।'

तापस : पञ्चविंश ब्राह्मण (25.15) में वर्णित सर्पयज्ञ में दत्त होता पुरोहित था। दत्त का ही नाम तापस है।

तामिल वैष्णव : तामिल वैष्णवों को आलवार भी कहते हैं। विशेष विवरण के लिए दे० 'आलवार'।

तमिल शैव : छठी से नवीं शताब्दी वि० के मध्य तमिल देश में उल्लेखनीय शैव भक्तों का जन्म हुआ, जो कवि भी थे। उनमें से तीन वैष्णव आलवारों के सदृश ही सुप्रसिद्ध हैं। अन्य धार्मिक नेताओं के समान वे 'नयनार' कहलाते थे। उनके नाम थे नान सम्बन्धर, अप्पर एवं सुन्दरमूर्ति। प्रथम दो सातवीं शती में तथा तृतीय नवीं शती में प्रकट हुए थे। आलवारों के समान ये भी गायक कवि , जिनमें शिव के प्रति अगाध भक्ति भरी थी। एक मन्दिर से दूसरे तक ये भ्रमण करते रहते थे तथा शिव की मूर्ति के सामने भावावेश में नाचते हुए स्वरचित भजनों को गाया करते थे। उनके पीछे दर्शकों एवं भक्तों की भीड़ लगी रहती थी। वे आगमों पर आश्रित नहीं थे, किन्तु रामायण-महाभारत तथा पुराणों का अनुसरण करते थे। उनके कुछ ही पद दूसरी भाषाओं में अनूदित हैं।

तिरुमूलर (800 ई०) इस सम्प्रदाय के सबसे पहले कवि हैं जिन्होंने अपने काव्य 'तिरुमन्त्रम्' में आगमों के धार्मिक नियमों का अनुसरण किया है। 'माणिक्कवाचकर' इस मत के दूसरे महापुरुष हैं, जिनके अगणित पद्यों का संकलन 'तिरुवाचकम्' के नाम में प्रसिद्ध है, जिसका अर्थ होता है 'पवित्र वचनावली'। ये मदुरा के निवासी एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। गुरु के प्रभाव से अपना पद त्यागकर ये साधु बन गये। इन्होंने पुराणों, आगमों एवं पूर्ववर्ती तमिल रचनाओं का अनुसरण बहुत किया है। ये शङ्कर स्वामी के मायावाद के विरोधी थे।

इसके द्वितीय विकासक्रम में (1000-1350 ई०) पट्टिपात्तु पिल्लई, नाम्बि अन्दर नाम्बि, मेयकण्ड देव, अरुलनन्दी, मरइ ज्ञानसम्बन्ध एवं उमापति का उद्भव हुआ। मेयकण्ड आदि अन्तिम चार सन्त आचार्य कहलाते हैं, क्योंकि ये क्रमशः एक दूसरे के शिष्य थे। इस प्रकार तामिल शैवों ने अपना अलग उपासनाविधान निर्माण किया, जिसे तामिल शैवसिद्धान्त कहते हैं। इनके सिद्धान्तग्रन्थ कुल 14 हैं।

तीसरे विकासक्रम के अन्तर्गत उक्त सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन न हुआ। यह सम्प्रदाय पूर्ण रूपेण व्यवस्थित कभी न था। अधूरी साम्प्रदायिक व्यवस्था साहित्य के माध्यम से मठों के आसपास चलती रहती थी। महन्त लोग घूम घूमकर शिष्यों से संपर्क रखते थे। अधिकांश मठ अब्राह्मणों के हाथ में तथा कुछ ही ब्राह्मणों के अधीन थे। कारण यह कि तमिल देश के अधिकांश ब्राह्मण स्मार्त अथवा वैष्णव मतावलम्बी थे। इस काल के सर्वश्रेष्ठ विद्वान लेखक शिवज्ञान योगी हुए (1785 ई०)। इसी शताब्दी के तायुमानवर द्वारा रचित शैव गीतों का संग्रह सबसे बड़ा शैव ग्रन्थ माना जाता है। इसका दार्शनिक दृष्टि कोण शिवाद्वैत के नाम से विख्यात है, जो संस्कृत सिद्धान्तशाखा से भिन्न है।

तामिल शैव सिद्धान्त : दे० 'तामिल शैव'।

ताम्बूलसंक्रान्ति : केवल महिलाओं के लिए इस व्रत का विधान है। एक वर्ष तक व्रती को प्रति दिन ब्राह्मणों को ताम्बूल खाने को देना चाहिए। वर्ष के अन्त में सुवर्ण कमल तथा समस्त रसोई के पात्र ताम्बूल के साथ किसी ब्राह्मण दम्पति को दान करने और सुस्वादु भोजन खिलाने से अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति होती है एवं जीवन भर पति तथा पुत्रों के साथ व्रती सुखपूर्वक समय व्यतीत करती है।

तायुमानवर : एक शिवभक्त गीतकार, जिन्होंने अठारहवीं शती में तामिल शैव गीतों का सबसे बड़ा ग्रन्थ प्रस्तुत किया।

तारकद्वादशी : मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। एक वर्ष पर्यन्त चलता है। सूर्य तथा तारागण इसके देवता हैं। इस व्रत में प्रत्येक मास ब्राह्मणों को भिन्न भिन्न प्रकार का भोजन कराना चाहिए। तारों को रात्रि में अर्घ्‍य दिया जाता है। यह व्रत समस्त पापों का नाश करता है। इस विषय में एक राजा का आख्यान आता है कि उसने तपस्यारत एक तपस्वी को मृग समझकर मार डाला था, जिसके परिणामस्वरूप उसे बारह जन्मों में भिन्न-भिन्न पशु रूपों में जन्म लेना पड़ा। इस प्रकार के पाप भी इस व्रत के अनुष्ठान से नष्ट हो जाते हैं।

तारसारोपनिषद् : यह एक परवर्ती उपनिषद् है।

तारिणीतन्त्र : आगमतत्वविलास' में उद्धृत 64 तन्त्रों की तालिका में तारिणीतन्त्र का क्रमाङ्क नवाँ है।

तार्क्ष्य : ऋग्वेद (1.8,; 10.178) में इसका अर्थ दैवी घोड़ा होता है। निश्चय ही यहाँ सूर्य को अश्व समझा गया है। किन्तु कुछ विद्वान् तार्क्ष्य को तृक्षी का अपत्यबोधक बताते हैं, जो ऋग्वेद के पश्चात् त्रसद्दस्यु के वंशज कहलाते थे। ऋ० (2.4.1) में 'तार्क्ष्य' से एक पक्षी का बोध होता है (सम्भवतः वायस का) जो सूर्य का संकेतक है।

तालवन : यह तीर्थस्थान व्रज में है, इसे तारसी गाँव कहते हैं। यहाँ बलरामजी ने धेनुकासुर को मारा था। यहाँ बलभद्रकुण्ड और बलदेवजी का मन्दिर है।

तालवृन्तवासी : आपस्तम्बसूत्र के अनेक व्याख्याकारों में तालवृन्तवासी का भी नाम आता है। इनके सम्बन्ध में कुछ विशेष ज्ञातव्य नहीं है।

तितिर ऋषि : तैत्तिरीय' शब्द कृष्ण यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र में और सामसूत्र में मिलता है। पाणिनि के अनुसार 'तित्तिरि' एक ऋषि का नाम था, जिससे तैत्तिरीय शब्द बना है। आत्रेय शाखा की 'संहितानुक्रमणिका' में भी यही व्युत्पत्ति मिलती है। हो सकता है कि यह व्यक्तिवाचक नाम न होकर गोत्रनाम हो, क्योंकि बहुत से गोत्रनाम पक्षियों पर भी पड़े हैं। सम्बद्ध ऋषि का गोत्रपक्षी 'तित्तिर' (तीतर) था।

तिन्दुकाष्टमी : ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की अष्टमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। एक वर्ष पर्यन्त चलता है। इसमें कमल के फूलों से हरि का चार मास तक पूजन, आश्विन से पौष तक धतूरे के फूलों से पूजन और माघ से वैशाख तक शतपत्रों (दिवसकमल) से पूजन करना चाहिए।

तिरिन्दिर : ऋग्वेद (8.6.46-48) की दानस्तुति में 'पर्शु' के साथ तिरिन्दिर का नाम गायकों को दान करने के सम्बन्ध में आता है। शाङ्खायनश्रौतसूत्र में इसी बात को यों कहा गया है कि कण्व वत्स ने तिरिन्दिर पार्शव्य से एक दान प्राप्त किया। इस प्रकार तिरिन्दिर एवं पर्शु एकगोत्रज व्यक्ति के नाम हैं। ऋग्वेद के एक परिच्छेद में लुड्विग को तिरिन्दिर पर यदुओं की विजय का प्रमाण दृष्टिगोचर होता है, किन्तु जिमर इसे असंगत बताते हैं। यदु राजकुमार अवश्य ही तिरिन्दिर एवं पर्शु का समानार्थी है। वेबर यदुओं को राजकुमार न मानकर गायक मानते हैं।

तिरुक्‍कीवैयर : यह तामिल शैव साहित्य का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। रचनाकाल 950 वि० के लगभग है। सम्भवतः यह माणिक्कवाचकर द्वारा रचित है।

तिरुमन्त्रम् : तिरुमूलर द्वारा रचित 'तिरुमन्त्रम्' के अनुवाद का नाम 'सिद्धान्तदीपिका' है। नम्बि के 'तिरुमुरई' नामक संग्रह में यह भी संमिलित है। यह तामिल शैवों के व्यावहारिक धर्म पर प्रकाश डालने वाला प्रथम एवं सफल काव्यग्रन्थ है। इसमें आगमों के धार्मिक नियमों का भी समावेश हुआ है।

तिरुवाचकम् : तिरुमूलर के पश्चात तामिल शैवों में 950 वि० के लगभग माणिक्कवाचकर का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्होंने अपने छोटे एवं बड़े अनेक गेय पदों का संग्रह 'तिरुवाचकम्' नामक ग्रन्थ में किया है। 'तिरुमुरई' नामक संग्रह में इसे भी सम्मिलित किया गया है।

तिरुविरुत्तम् : द्राविड वेदों में से प्रथम तिरुविरुत्तम् ऋग्वेद का प्रतिनिधि है। नम्माल्वार की रचनाओं को चारों वेदों का प्रतिनिधि कहा गया है। उनमें प्रथम तिरुविरुत्तम् है।

तिरुविलैय-आडत्पुराणम् : तमिल प्रदेश में असाम्प्रदायिक शैव ग्रन्थ भी अनेक रचे गये। उनमें उपर्युक्त भी एक है। इसके रचयिता परञ्जीति है। रचनाकाल सत्रहवीं शती का प्रारम्भिक चरण है। इसमें स्थानीय धार्मिक कथाओं का संग्रह किया गया है।

तिलक : धार्मिक एवं शोभाकर चिह्न, जिसे पुरुष और स्त्रियाँ सभी अपने ललाट पर धारण करते हैं। राज्यारोहण, यात्रा, प्रस्थान तथा अन्य मांगलिक अवसरों पर भी तिलक धारण किया जाता है। तिलक चन्दन, कस्तूरी, रोली आदि कई पदार्थों से किया जाता है।

धार्मिक ग्रन्थों की व्याख्या भी तिलक कही जाती है, क्योंकि पूर्व काल के पत्राकार हस्तलेखों में मूल ग्रन्थ मध्य भाग में और उसकी व्याख्या मस्तकतुल्य ऊपरी हाशिये पर लिखी जाती थी। मस्तक के तिलक की समानता से ऐसे व्याख्यालेख को भी तिलक या टीका कहने की रीति चल पड़ी।

तिलकव्रत : चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को यह व्रत प्रारम्भ होता है और एक वर्ष तक चलता है। सुगन्धित अगरु से संवत्सर के चित्र की पूजा करनी चाहिए। व्रती को अपने मस्तक पर श्वेत चन्दन का तिलक लगाना चाहिए।

तिलचतुर्थी : माघ शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसकी विधि कुन्दचतुर्थी अथवा ढुण्ढिराजचतुर्थी के समान है। इसमें नक्त व्रत करना होता है। ढण्ढिराज (गणेश) की तिल के लड्डुओं से पूजा होती है।

तिलदाही व्रत : पौष कृष्ण एकादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसके विष्णु देवता है। उस दिन उपवास किया जाता है, गौ के सूखे हुए उपले तथा पुष्य नक्षत्र में इकट्ठे किये हुए तिलों से होम होता है। इस व्रत से सौन्दर्य की अभिवृद्धि तथा मनोवाञ्छाएँ पूरी होती हैं।

तिलद्वादशी : माघ कृष्ण द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इसके कृष्ण देवता हैं जिनकी विधिवत् पूजा इस व्रत में होनी चाहिए।

तिलद्वादशीव्रत : माघ मास, कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को यदि पूर्वाषाढ़ या मूल नक्षत्र हो तो उस दिन यह व्रत किया जाता है। इसमें तिल से स्नान, हवन, तिल का ही मिष्टान्न सहित नैवेद्य, तिलतैल युक्त दीप, तिल युक्त जल का प्रयोग करते हैं तथा तिल का दान ब्राह्मणों को देते हुए वासुदेव की स्तुति ऋ० वे० (1.22,20) अथवा पुरुषसूक्त (ऋ० 10.90) द्वारा करते हैं।

तिल्वक : शतपथ ब्राह्मण (13.8.1,16) में इसे एक वृक्ष बताया गया है तथा इसके समीप समाधि बनाना अपवित्र कार्य कहा गया है। इससे ही 'तैल्वक' विशेषण बना है, जिसका अर्थ है तिलक की लकड़ी का बना हुआ, और जिससे मैत्रायणीसंहिता में यूप तथा यज्ञयष्टि का बोध षड्विंश ब्राह्मण के अनुसार होता है।

तिष्य : ऋग्वेद (5.54,13;10.64,8) में यह एक नक्षत्र का नाम है, यद्यपि सायण इसका अर्थ सूर्य लगाते हैं। निस्सन्देह यह 'अवेस्ता' के तिस्त्र्य का समानार्थक है। परवर्त्ती ग्रन्थों में इसे चन्द्रस्थानों में से एक कहा गया है।

परवर्ती साहित्य में तिष्य से एक नक्षत्र का बोध होता है जो पुष्य कहलाता है। इस नक्षत्र में उपवास एवं दान-पुण्य करना महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

तिष्यव्रत : शुक्ल पक्ष में तिष्य (पुष्य) नक्षत्र को इस व्रत का आरम्भ होता है। इसका अनुष्ठान एक वर्ष तक चलता है। प्रतिमास पुष्य नक्षत्र में यह दुहराया जाता है। केवल प्रथम पुष्य नक्षत्र के दिन उपवास करने का विधान है। इसमें वैश्रवण (कुबेर) की पूजा होती है। पुष्टि तथा समृद्धि के लिए इसका अनुष्ठान होता है।

तीर्थ : (1) तीर्थ का सामान्य अर्थ 'पवित्र स्थान' है, जिसका सम्बन्ध किसी देवता, महापुरुष, महान् घटना, पवित्र नदी, सरोवर आदि से होता है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'नदी पार करने का स्थान (घाट)।' विश्वास किया जाता कि तीर्थ भवसागर पार करने का घाट है। अतः वहाँ जाकर यात्री को स्नान, दान-पुण्यादि करना तथा साधु-सन्तों का सत्संग प्राप्त करना चाहिए।

मुख्य तीर्थों में सात पुरियाँ, चार धाम और भारत के असंख्य पवित्र स्थान हैं, जिनमें से कुछ का यथास्थान वर्णन हुआ है। सात परियाँ निम्नाङ्कित हैं :

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका। पुरी द्वारवती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः॥

चार धाम हैं-- द्वारका, जगन्नाथपुरी, बदरिकाश्रम और रामेश्वरम।

(2) शङ्कराचार्य की शिष्यपरम्परा में उनके चार प्रधान शिष्यों में से प्रथम पद्मपाद के तीर्थ एवं आश्रम नामक दो शिष्य थे। ये शारदामठ के अन्तर्गत हैं। शङ्कर के ऐसे दस प्रशिष्य उनके चार मुख्य शिष्यों के शिष्य थे तथा इनमें से प्रत्येक की शिष्यपरम्परा प्रचलित हुई जो दसनामी संन्यासी वर्ग की प्रणाली है। आचार्य मध्व तथा उनके अनेक अनुयायी भी तीर्थ परम्परा के अन्तर्गत माने जाते हैं।

(3) वीर शैवों में जब बालक का जन्म होता है तो पिता अपने गुरु को आमंत्रित करता है तथा अष्टवर्ग नामक संस्कार होता है। ये आठ वर्ग हैं-- गुरु, लिंग, विभूति, रुद्राक्ष, मन्त्र, जङ्गम, तीर्थ एवं प्रसाद। ये पाप से सुरक्षा प्रदान करते हैं।

(4) गुरु को भी तीर्थ कहते हैं, भगवान् का चरणोदक भी तीर्थ कहलाता है।

तीर्थफल का पात्र : जिसके हाथ, पैर और मन भली भाँति संयमित हैं, जो प्रतिग्रह नहीं लेता, जो अनुकूल अथवा प्रतिकूल जो कुछ भी मिल जाय उसी में संतुष्ट रहता है तथा जिसमें अहंकार का सर्वथा अभाव रहता है वह तीर्थ का फल प्राप्त करता है। जो पाखण्ड नहीं करता, नये कामों को आरम्भ नहीं करता, थोड़ा आहार करता है, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चुका है, सब प्रकार की आसक्तियों से रहित है, जिसमें क्रोध नहीं है, जिसकी बुद्धि निर्मल है, जो सत्य बोलता है, व्रत पालन में दृढ़ है और सब प्राणियों को अपने आत्मा के समान अनुभव करता है, वह तीर्थ के फल को प्राप्त करता है। जो लोग अश्रद्धालु, पापात्मा, नास्तिक, संशयात्मा और केवल तर्क में ही डूबे रहते हैं, ये पाँच प्रकार के मनुष्य तीर्थ के फल को नहीं प्राप्त करते।

तीर्थयात्रा-उद्देश्य : भगवत्प्राप्ति के लिए तीर्थयात्रा की जाती है। तीर्थों में साधु सन्त मिलते हैं, भगवान् का ज्ञान काम-लोभवर्जित साधुसंग से होता है। ऐसे सज्जन जो उपदेश देते हैं उससे संसार का बन्धन छूट जाता है। तीर्थों में इनका दर्शन मनुष्यों की पापराशि को जला डालने के लिए अग्नि का काम करता है। जो संसारबन्धन से छूटना चाहते हैं उनहे पवित्र जल वाले तीर्थों में, जहाँ साधु महात्मा लोग रहते हैं, अवश्य जाना चाहिए। दे० पद्मपुराण, पातालखण्ड, 19.10-12, 14-17।

तीर्थयात्राविधि : तीर्थयात्रा, का निश्चय होने पर सबसे पले पत्नी, कुटुम्ब, घर आदि की आसक्ति त्याग देनी चाहिए। तब मन से भगवान् का स्मरण करते हुए तीर्थयात्रा आरम्भ करने के लिए घर से कोस भर दूर जाकर वहाँ पवित्र नदी, तालाब, कुएँ आदि में स्नान करे व क्षौर भी करा ले। उसके बाद विना गाँठ का दण्ड अथवा बाँस की मोटी पुष्ट लाठी, कमण्डलु और आसन लेकर पूरी सादगी के साथ तीर्थ का उपयोगी वेष धारण कर, धान-मान-बड़ाई, सत्कार, पूजा आदि के लोभ का त्याग कर प्रस्थान आरम्भ कर दे। इस रीति से तीर्थयात्रा करने वाले को विशेष फल की प्राप्ति होती है।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण भक्तवत्सल गोपते। शरण्य भगवन् विष्णो मां पाहि बहुसंसृतेः॥

इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए तथा मन से भगवान् का स्मरण करते हुए पैदल ही तीर्थयात्रा करनी चाहिए। तभी विशेष फल प्राप्त होता है।

तीर्थशिष्यपरम्परा : तीर्थ शिष्यपरम्परा शारदामठ के अन्तर्गत है। विशेष विवरण के लिए दे० 'तीर्थ'।

तीव्रव्रत : पैरों को तोड़कर (बाँधकर) काशी में ही रहना, जिससे मनुष्य बाहर कहीं जा न सके, तीव्र व्रत कहलाता है। अपनी कठोरता के कारण इसका यह नाम है। दे० हेमाद्रि 2.916।

तुकाराम : तुकाराम (1608-49 ई०) एक छोटे दूकानदार और बिठोवा के परम भक्त थे। उनके व्यक्तिगत धार्मिक जीवन पर उनके रचे गीतों (अभंगों) की पंक्तियाँ पूर्णरूपेण प्रकाश डालती हैं। उनमें तुकाराम की ईश्वर भक्ति, निज तुच्छता, अयोग्यता का ज्ञान, असीम दीनता, ईश्वरविश्वास एवं सहायतार्थ ईश्वर से प्रार्थना एवं आवेदन कूट-कूट कर भरे हैं। उन्हें बिठोवा के सर्वव्यापी एवं आध्यात्मिक रूप का विश्वास था, फिर भी वे अदृश्य ईश्वर का एकीकरण मूर्ति से करते थे।

उनके पद्य (अभंग) बहुत ही उच्चकोटि के हैं। महाराष्ट्र में सम्भवतः उनका सर्वाधिक धार्मिक प्रभाव है। उनके गीतों में कोई भी दार्शनिक एवं गूढ़ धार्मिक नियम नहीं है। वे एकेश्वरवादी थे। महाराष्ट्रकेसरी शिवाजी ने उन्हें अपनी राजसभा में आमन्त्रित किया था, किन्तु तुकाराम ने केवल कुछ छन्द लिखकर भेजते हुए त्याग का आदर्श स्थापित कर दिया। उनके भजनों को अभंग कहते हैं। इनका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

तुग्र : ऋग्वेद (1.116,3;117,14;6.626) में तुग्र को भुज्यु का पिता कहा गया है और भुज्यु को अश्विनों का संरक्षित। तुग्र को ही 'तुग्रय्य' वा तौग्रय्य कहते हैं। ऋग्वेद के एक अन्य सूक्त में (6.20,8,26;4.10.49,4) दूसरे 'तुग्र' का उल्लेख इन्द्र के शत्रु के रूप में किया गया है।

तुङ्गनाथ : हिमालय के केदार क्षेत्र में स्थित एक तीर्थस्थान। तुङ्गनाथ पंचकेदारों में से तृतीय केदार है। इस मन्दिर में शिवलिङ्ग तथा कई और मूर्तियाँ हैं। यहाँ पातालगङ्गा नामक अत्यन्त शीतल जल की धारा है। तुङ्गनाथशिखर से पूर्व की ओर नन्दा देवी, पञ्चचूली तथा द्रोणाचल शिखर दीख पड़ते हैं। दक्षिण में पौड़ी, चन्द्रवदनी पर्वत तथा सुरखण्डा देवी के शिखर दिखाई देते हैं।

तुमिञ्ज औपोदिति : तौत्तिरीय संहिता (1.6,2,1) में तुमिञ्ज औपोदिति को एक सत्र का होता पुरोहित कहा गया है तथा उन्हें सुश्रवा के साथ शास्त्रार्थरत भी वर्णित किया गया है।

तुरगसप्तमी : चैत्र शुक्ल सप्तमी को तुरगमसप्तमी कहते हैं। इस तिथि को उपवास करना चाहिए तथा सूर्य, अरुण, निकुम्भ, यम, यमुना, शनि तथा सूर्य की पत्नी छाया, सात छन्द, धाता, अर्यमा तथा दूसरे देवगण की पूजा करनी चाहिए। व्रत के अन्त में तुरग (घोड़े) के दान का विधान है।

तुरायण : महाभारत के अनुशासनपर्व (103.34) से प्रतीत होता है कि महाराज भगीरथ ने इस व्रत का तीस वर्ष तक आचरण किया था। पाणिनी की अष्टाध्यायी (5.1.72) में भी यह नाम आया है। स्मृतिकौस्तुभ के अनुसार यह एक प्रकार का यज्ञ है। आपस्तम्बश्रौतसूत्र (2.14) में 'तुरायणेष्टि यज्ञ' बतलाया गया है। मनुस्मृति (6.10) में चातुर्मास्य तथा आग्रयण के साथ इसे वैदिक इष्टि बतलाया गया है।

तुरीयातीतावधूत उपनिषद् : यह परवर्ती उपनिषद् है। इसमें अवदूतों के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है।

तुलसी : भारत में जंगली वृक्ष, क्षुप एवं तृणों में भी दिव्य शक्ति मानी जाती है। जैसे बेल का वृक्ष, क्षुप एवं तृणों में भी दिव्य शक्ति मानी जाती है। जैसे बेल का वृक्ष शैवों के लिए पवित्र है, कुश, दुर्वा कर्मकाण्डियों के लिए; वैसे ही तुलसी वैष्णवों के लिए पवित्र है। लोग उसकी पूजा करते और उसे अपने घर के आँगन में रोपित करते हैं। प्रत्येक दिन स्नानोपरान्त इस वृक्ष को जल दिया जाता है। सन्ध्याकाल में वृक्ष के नीचे इसके चरणों के पास दीपक जलाते हैं। इसमें हरि (विष्णु) का निवास मानते हैं। विष्णु की पूजा के लिए इसकी पत्तियाँ अत्यावश्यक हैं।

तुलसी का एक नाम वृन्दा भी है। पुराणों के अनुसार वृन्दा जालन्धर की पत्नी थी। अपने पातिव्रत के कारण वह विष्णु के लिए भी वन्दनीय थी। इसलिए विष्णु के अवतार कृष्ण की लीलाभूमि का नाम ही वृन्दावन है।

इसकी पत्तियों में मलेरिया ज्वर की नाशक शक्ति है जिससे ग्रामीण वैद्य अधिकतर इसका व्यवहार करते हैं। परन्तु इसका प्रयोग अधिकांश धार्मिक भाव से ही होता है।

तुलसीकृत रामायण : दे० 'तुलसीदास'।

तुलसीत्रिरात्र : कार्तिक शुक्ल नवमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। तीन दिन तक व्रत रखना चाहिए। तत्पश्चात् तुलसी के उद्यान में विष्णु तथा लक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए।

तुलसीदास (गोस्वामी) : तुलसीदास (1532--1623 ई०) के नाम, जीवनचरित्र एवं उनके ग्रन्थों से कौन ऐसा हिन्दी होगा जो अपरिचित होगा। इनका 'रामचरितमानस' झोपड़े से लेकर बड़े-बड़े प्रासादों तक में उत्तर भारत के हिन्दू मात्र के गले का हार है।

गोस्वामीजी श्रीसम्प्रदाय के आचार्य रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे। इन्होंने समय को देखते हुए लोक भाषा में 'रामायण' लिखा। इसमें व्याज से वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और वेदमार्ग का मण्डन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गयी है। गोस्वामीजी पन्थ वा सम्प्रदाय चलाने के विरोधी थे। उन्होंने व्याज से भ्रातृप्रेम, स्वराज्य के सिद्धान्त, रामराज्य का आदर्श, अत्याचारों से बचने और शत्रु पर विजयी होने के उपाय; सभी राजनीतिक बातें खुले शब्दों में उस कड़ी जासूसी के जमाने में भी बतलायीं, परन्तु उन्हें राज्याश्रय प्राप्त न था। लोगों ने उनको समझा नहीं। रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध नहीं हो पाया। इसीलिए उन्होंने झुँझलाकर कहा :

रामायण अनुहरत सिख, जग भई भारत रीति।तुलसी काठहि को सुनै, कलि कुचालि पर प्रीति।

सच है, साढ़े चार सौ वर्ष बाद आज भी कौन सुनता है? फिर भी उनकी यह अद्भुत पोथी इतनी लोकप्रिय है कि मूर्ख से लेकर महापण्डित तक के हाथों में आदर से स्थान पाती है। उस समय की सारी शङ्काओं का राचरितमानस में उत्तर है। अकेले इस ग्रन्थ की लेकर यदि गोस्वामी तुलसीदास चाहते तो अपना अत्यन्त विशाल और शक्तिशाली सम्प्रदाय चला सकते थे। यह एक सौभाग्य की बात है कि आज यही एक ग्रन्थ है, जो साम्प्रदायिकता की सीमाओं को लाँघकर सारे देश में व्यापक और सभी मत-मतान्तरों को पूर्णतया मान्य है। सबको एक सूत्र में ग्रथित करने का जो काम पहले शंकराचार्य स्वामी ने किया वही अपने युग में और उसके पीछे आज भी गोस्वामी तुलसीदास ने किया। रामचरितमानस की कथा का आरम्भ ही उन शंकाओं से होता है जो कबीरदास की साखी पर पुराने विचार वालों के मन में उठती हैं।

जैसा पहले लिखा जा चुका है, गोस्वामीजी स्वामी रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे, जो रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय के अन्तर्भुक्त है। परन्तु गोस्वामीजी की प्रवृत्ति साम्प्रदायिक न थी। उनके ग्रन्थों में अद्वैत और विशिष्टाद्वैत का सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार वैष्णव, शैव, शाक्त आदि साम्प्रदायिक भावनाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि थे। उनके ग्रन्थों में रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली आदि अधिक प्रसिद्ध हैं।

तुलसीलक्षपूजा : माघ अथवा कार्तिक मास के विष्णुपूजन में एक लाख तुलसीदलों का अर्पण करना चाहिए। प्रति दिन एक सहस्र तुलसीदलों के अर्पण का विधान है। वैशाख, माघ अथवा कार्तिक मास में उद्यापन करना चाहिए। दे० स्मृतिकौस्तुभ, 408; वर्षकृत्यदीपिका, 404-408। इसी प्रकार बिल्वपत्र, दूर्वादल, कमल या चम्पा के फूलों को अन्यान्य देवों के लिए समर्पित किया जा सकता है।

तुलसीविवाह : कार्तिक मास में शुक्ल द्वादशी को तुलसीविवाह करने का बड़ा माहात्म्य है। विवाहव्रती को नवमी के दिन सुवर्ण की भगवान् विष्णु तथा तुलसी की प्रतिमाएँ बनवाकर, तीन दिन तक लगातार उनकी पूजा करके बाद में उनका विवाह रचना चाहिए। इस व्रत के आचरण से कन्यादान का पुण्य प्राप्त होता है। दे० निर्णयसिन्धु, 204; व्रतराज, 347-352; स्मृतिकौस्तुभ, 366। प्रत्येक हिन्दू के आँगन में तुलसी का थामला रहता है जिसको वृन्दावन कहते हैं। संध्या के समय हिन्दू नारियाँ तुलसी के वृक्ष की अर्घ्‍य, धूप, दीप, नैवेद्यादि से पूजा करती हैं। पौराणिक पुराकथा के अनुसार जालन्धर असुर की पत्नी का नाम वृन्दा था, जो लक्ष्मी के शाप से तुलसी में परिवर्तित हो गयी। पद्मपुराण (भाग 6, अध्याय 3-19) में जालन्धर--वृन्दा का लम्बा आख्यान पाया जाता है। बाद में तुलसी रूप में उत्पन्न वृन्दा भगवान् की अनन्य सेविका हो गयी। उसके संमानार्थ यह विवाहव्रत का अनुष्ठान होता है।

तुष्टिप्राप्तिव्रत : श्रावण कृष्ण तृतीया (श्रवण नक्षत्र युक्त) को भगवान् गोविन्द का उन मन्त्रों से पूजन होता है, जिनका आरम्भ 'ओम्' से तथा अन्त 'नमः' से होता है। इसके आचरण से परम सन्तोष की उपलब्धि होती है।

तुला : तुला का उल्लेख वाजसनेयी संहिता (30.17) में हुआ है। शतपथ ब्राह्मण (11.2,7,33) में मनुष्य के अच्छे एवं बुरे कर्मों को इस लोक तथा परलोक में तौले जाने के सिलसिले में इसका उल्लेख है। परवर्ती तुलापरीक्षा से इस तुला में भिन्नता है, जिसमें मनुष्य दो बार तौला जाता था एवं फलस्वरूप अपराधी या निरपराध घोषित होता था, जबकि दूसरी बार पहली तौल की अपेक्षा वह कम या अधिक भारी होता था। इस प्रकार इस परवर्ती दिव्य परीक्षा वाली प्रथा से पहले समय में प्रयुक्त तुला को एक नहीं ठहराया जा सकता।

तुलादान : यह एक प्रकार का धार्मिक कृत्य है। इसमें दानी बहुमूल्य वस्तुओं--स्वर्ण, चाँदी, अन्न, रत्नादि से तौला जाता है। इन वस्तुओं का दान कर दिया जाता है।

तेगबहादुर : सिक्खों के नवें गुरु। वृद्ध अवस्था में उन्हें सम्प्रदाय की अध्यक्षता सौंपी गयी। उन्होंने अनेक पद एवं स्तुतियाँ लिखी हैं। असहिष्णु मुगल सम्राट् औरंगजेब ने उन्हें पटना में कारावास में डाल दिया और अन्त में मरवा डाला। सिक्खों का कहना है कि उसके पहले ही गुरु तेगबहादुर यह भविष्यवाणी कर चुके थे कि यूरोपीय लोग भारत में आयेंगे और मुगल साम्राज्य को नष्ट कर देंगे। इस भविष्यवाणी ने सिक्खों एवं ब्रिटिश सरकार को मिलाने में यथेष्ट सहायता प्रदान की। गुरु तेगबहादुर के पुत्र दशम गुरु गोविन्दसिंह थे, जिनका जन्म पटना के कारागार में ही हुआ था।

तेजःसंक्रान्तिव्रत : प्रत्येक संक्रान्ति के दिन इसका अनुष्ठान होता है। एक वर्ष तक यह व्रत चलता है। इसमें सूर्य की पूजा होती है।

तेजोबिन्दु उपनिषद् : योगमार्गीय उपनिषदों में से यह एक उपनिषद् है।

तेवाराम : तमिल शिवस्तुतियों का एक संग्रह। सन्त निम्ब द्वारा संकलित ग्रन्थ 'तिरुमुरई' में शिव की स्तुतियों का संकलन है। इसमें पूर्ववर्ती सभी तामिल शैव कवियों की रचनाएँ प्रायः समाहित हो गयी हैं। यह ग्रन्थ ग्यारह भागों में विभाजित है। इसी का प्रथम भाग है 'तेवराम'।

तैत्तिरीय : कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा। इसका वर्णन सूत्र काल तक नहीं पाया जाता। इस शाखा का प्रतिनिधित्व एक संहिता, एक ब्राह्मण, एक आरण्यक और एक उपनिषद् द्वारा होता है। उपनिषद् आरण्यक का ही एक अंश है।

तैत्तिरीय आरण्यक : तैत्तिरीय ब्राह्मण का शेषांश 'तैत्तिरीय आरण्यक' है। इसमें दस काण्ड हैं। काठक में बतायी हुई आरणीय विधि का भी इस ग्रन्थ में विचार हुआ है। इसके पहले और तीसरे प्रपाठक में यज्ञाग्नि प्रस्थापना के नियम लिखे हैं। दूसरे प्रपाठक में अध्ययन के नियम हैं। चौथे, पाँचवें औऱ छठे में दर्शपूर्णमासादि और पितृमेधादि विषयों का विचार है। सायण, भास्कर और वरदराज ने तैत्तिरीय आरण्यक के भाष्य लिखे हैं। इसके सातवें, आठवें औऱ नवें प्रपाठक ब्रह्मविद्या सम्बन्धी होने से उपनिषद् कहलाते हैं। दसवाँ प्रपाठक 'याज्ञिकी' अथवा 'नारायणीयोपनिषद्' के नाम से विख्यात है।

तैत्तिरीयोपनिषद् : तैत्तिरीय आरण्यक के सातवें, आठवें और नवें प्रपाठक ब्रह्मविद्याविषयक होने से उपनिषद् कहलाते हैं। इन्ही का संयुक्त नाम तैत्तिरीयोपनिषद् है। इसके बहुत से भाष्य एवं वृत्तियाँ हैं। इनमें शङ्कराचार्य का भाष्य प्रधान है। सायणाचार्य, रङ्गरामानुज और आनन्दतीर्थ ने भी इस उपनिषद् के भाष्य लिखे हैं।

तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन भाग हैं, प्रथम भाग संहितोपनिषद् अथवा शिक्षावल्ली है। इसमें व्याकरण सम्बन्धी कुछ आलोचना के बाद अद्वैतवाद की श्रुति आदि का विचार है। दूसरे भाग को आनन्दवल्ली कहते हैं और तीसरे को भृगुवल्ली। इन तीनों वल्लियों का इकट्ठा नाम वारुणी उपनिषद् है। उस उपनिषद् में औपनिषद् ब्रह्मविद्या की पराकाष्ठा दिखायी गयी है।

तैत्तिरीयोपनिषद्दीपिका : माधवाचार्य (चौदहवीं शताब्दी) द्वारा रचित 'तैत्तिरीयोपनिषद्दीपिका' तैत्तिरीयोपनिषद् की शाङ्करभाष्यानुसारणी टीका है।

तैत्तिरीय प्रातिशाख्य : यह यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का है। इसमें आत्रेय, स्थविर, कौडिन्य, भरद्वाज, वाल्मीकि, आग्निवेश्य, आग्निवेश्यायन, पौष्करसद आदि आचार्यों की चर्चा है। परन्तु इसमें किसी प्रसंग में भी तैत्तिरीय आरण्यक अथवा तैत्तिरीय ब्राह्मण की चर्चा नहीं है। आत्रेय, मारिषेय और वररुचि के लिखे इस पर भाष्य थे, परन्तु वे अब नहीं मिलते। इन पुराने भाष्यों को देखकर कार्तिकेय ने 'त्रिभाष्य' नाम का एक विस्तृत भाष्य इस पर लिखा हैं।

तैत्तिरीय ब्राह्मण : यह आपस्तम्ब एवं आत्रेय शाखा का ब्राह्मण है। इस पर सायणाचार्य एवं भास्कर मिश्र का भाष्य है। भाष्य की भूमिका में संहिता और ब्राह्मण की पृथक्ता पर विचार किया गया है। ब्राह्मण ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से मन्त्र का उद्देश्य और व्याख्या रहती है। इस ब्राह्मण का शेषांश तैत्तिरीय आरण्यक है।

तैत्तिरीय श्रुतिवार्तिक : सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) ने संन्यास लेने के बाद अनेक वेदान्त विषयक ग्रन्थ लिखे थे, तैत्तिरीय श्रुतिवार्तिक उनमें से एक है।

तैत्तिरीय संहिता : वैशम्पायन प्रवर्तित 'तैत्तिरीय संहिता' की 27 शाखाएँ हैं। महीधर ने इसके भाष्य में लिखा है कि वैशम्पायन ने याज्ञवल्क्य आदि शिष्यों को वेदाध्ययन कराया। तदनन्तर किसी कारण से क्रुद्ध होकर गुरु याज्ञवल्क्य से बोले कि जो कुछ वेदाध्ययन तुमने किया है उसे वापस करो। याज्ञवल्क्य ने विद्या को मूर्मिमती करके वमन कर दिया। उस समय वैशम्पायन के दूसरे शिष्य उपस्थित थे। वैशम्पायन ने उन्हें आज्ञा दी कि इन वान्त यजुओं को ग्रहण कर लो। उन्होंने तीतर बनकर मन्त्र ब्राह्ण दोनों को मिश्रित रूप में एक साथ ही चुग लिया, इसीलिए उसका 'तैत्तिरीय संहिता' नाम पड़ा। बुद्धि की मलिनता के कारण यजुओं का रंग मन्त्र-ब्राह्मण रूप में अलग न हो सकने से काला हो गया, इसी से 'कृष्ण-यजुर्वेद' नाम चल पड़ा। इसमें मन्त्रों के संग-संग क्रियाप्रणाली (ब्राह्मण) भी बतायी गयी है और जिस उद्देश्य से मन्त्रों का व्यवहार होता है वह भी बताया गया है। पूरी संहिता ब्राह्मण भाग के ढंग पर चलती है। इस शाखा के अन्य उपलब्ध ब्राह्मण परिशिष्ट रूप के हैं।

त्रोटकाचार्य : शङ्कराचार्य के चार प्रमुख शिष्यों में से एक त्रोटकाचार्य थे। शङ्कराचार्य द्वारा स्थापित बदरिकाश्रमस्थित ज्योतिर्मठ के ये मठाधीश बनाये गये थे। त्रोटक के तीन शिष्य थे-- सरस्वती, भारती और पुरी। पुरी, भारती और सरस्वती की शिष्यपरम्परा श्रृंगेरी मठ में है। त्रोटक के तीनों शिष्य दसनामी संन्यासियों में से हैं।

तोडलतन्त्र : आगमतत्वविलास' में उल्लिखित 64 तन्त्रों में से 40 वें क्रम में 'तोडल तन्त्र' है।

तोण्ड सिद्धेश्वर : वीरशैव मतावलम्बी एक आचार्य (15वीं शताब्दी)। इन्होंने 'वीरशैवप्रदीपिका' नामक ग्रन्थ की रचना की है।

तोण्डर तिरुवन्तादि : तमिल शैवकवि निम्ब की कविताओं में से एक 'तोण्डर तिरुवन्तादि' है।

त्यागिनीतन्त्र : इसमें कोच राजवंश के प्रतिष्ठाता विशुसिंह का परिचय दिया गया है। इसके कारण इसे विक्रम की सोलहवीं शती के बाद का माना जाता है।

त्रयीविद्या : (1) पुराकाल में वेदों का वर्गीकरण चार संहिताओं में न होकर ऋक्, साम और यजुष् रचनाशैली के अन्तर्गत था, जिसमें समग्र वैदिक सामग्री आ जाती है। अतः त्रयी से सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का बोध हो जाता है।

(2) वेदों के अनुसरणकर्ता धर्मशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्रों के लिए भी इसका प्रयोग होता है। कौटिल्य के `अर्थशास्त्र` में त्रयी की गणना चार प्रमुख विद्याओं में की गयी है : `आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्चेति विद्याः।` उसमें आगे कहा गया है : `एष त्रयीधर्मश्चतुर्णां वर्णानामाश्रमाणां च स्वधर्मस्थापनादौपकारिकः।` (1.3.4)

[यह त्रयीधर्म चारों वर्णों तथा आश्रमों के स्वधर्म स्थापन में उपकारी होता है।]

व्यवस्थितार्यमर्यादः कृतवर्णाश्रमस्थितिः। त्रग्या हि रक्षितों लोकः प्रसीदति न सीदति॥

[आर्य मर्यादा की व्यवस्था से युक्त, वर्णाश्रम धर्म सम्पन्न और त्रयी के द्वारा सुरक्षित प्रजा विशेष प्रकार से सुखी रहती है और कभी कष्ट नहीं पाती है।]

त्रयोदशपदार्थवर्जनसप्तमी : उत्तरायण की समाप्ति के पश्चात् रविवार के दिन शुक्ल पक्ष में सप्तमी को (पुरुषवाची नक्षत्रों, जैसे हस्त, पुष्य, मृगशिरा, पुनर्वसु, मूल, श्रवण के होने पर) इसका अनुष्ठान होता है। एक वर्ष तक यह व्रत चलता है। सूर्य का पूजन होता है। त्रयोदश पदार्थों, जैसे व्रीहि, यव, गेहूँ, तिल, माष, मूँग इत्यादि का निषेध है। केवल एक धान्य पर आश्रित रहना पड़ता है।

त्रयोदशीव्रत : किसी मास की त्रयोदशी के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है। व्रती को कैथ फल के बराबर गौ के मक्खन को किसी सुवर्ण, रजत, ताम्र अथवा मिट्टी के पात्र में रखकर किसी को दान में देना चाहिए।

त्रागा : भाटों तथा चारणों की एक जाति। एक आश्चर्यजनक बात भाट एवं चारण जातियों के विषय में यह है कि वे अवध्य समझे गये हैं। इस विश्वास के पीछे उनके स्वभावतः दूत एवं कीर्तिगायक होने का गुण हैं। 'त्रागा' की कहानी पश्चिमी भारत में विशेष कर सुनी गयी है। त्रागा आत्महत्या या आत्मघात को कहते हैं जिसे इस जाति वाले (भाट या चारण) किसी कोश की रक्षा या अन्य महत्‍त्वपूर्ण कार्यरत रहते समय, आक्रमण किये जाने पर किया करते थे। काठियावाड़ के सभी भागों में गाँवों के बाहर 'पालियाँ' दृष्टिगोचर होती हैं। ये रक्षक पत्थर हैं जो उपर्युक्त जाति के उन पुरुष एवं स्त्रियों के सम्मान में स्थापित हैं जिन्होंने पशुओं आदि के रक्षार्थ 'त्रागा' किया था। उन व्यक्तियों एवं घटनाओं का विवरण भी इन पत्थरों पर अभिलिखित है।

त्रिक : काश्मीर शैव दर्शन प्रणाली को 'त्रिक' कहते हैं, क्योंकि इसमें तीन ही मुख्य सिद्धान्तों--शिव, शक्ति एवं अणु अथवा पति, पाश एवं पशु का चिन्तन प्राप्त होता है। माधवाचार्य के 'सर्वदर्शनसंग्रह' तथा चटर्जी के 'काश्मीर शैववाद' में विस्तार से इसका वर्णन मिलता है।

त्रिकद्रुक : यह शब्द बहुवचन में ही केवल प्रयुक्त हुआ है तथा सोमरस रखने के किसी प्रकार के तीन पात्रों का वाचक है।

त्रिखर्व : पञ्चविंश ब्राह्मण (2.8.3) में उद्धृत पुरोहितों की एक शाखा का नाम, जिन्होंने एक विशेष यज्ञ सफलतापूर्वक किया था।

त्रिगतिसप्तमी : यह व्रत फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को आरम्भ होता है, एक वर्ष पर्यन्त चलता है। 'हेलि' नाम (वस्तुतः यह ग्रीक शब्द 'हेलिओस' का भारतीय रूप है) से सूर्य की पूजा होती है। फाल्गुन मास से ज्येष्ठ मास तक सूर्य की 'हंस' नाम से, आषाढ़ से आश्विन तक 'मार्तण्ड' नाम से, कार्तिक से माघ तक 'भास्कर' नाम से पूजा करने से ऐहलौकिक तथा पारलौकिक प्रभुत्व प्राप्त होने के साथ-साथ इन्द्रलोक का आनन्द और सूर्यलोक में वास मिलता है। इन तीन गतियों के कारण इसे त्रिगतिसप्तमी कहते हैं। दे० हेमाद्रि, 1.736-738; कृत्यरत्नाकर, 524-526, श्लोक है : 'जपन् हेलीति देवस्य नाम भक्त्या पुनः पुनः।'

त्रिचिनापल्ली एवं श्रीरङ्गम् : सुदूर दक्षिण का तीर्थस्थान। कावेरी इन नगरों को दो भागों में बाँटती है। त्रिचिनापल्ली को प्रायः लोग "त्रिची" कहते हैं। इसका शुद्ध तमिल नाम 'तिरुचिरापल्ली' है, संस्कृत नाम 'त्रिशिर:--पल्ली' है। ऐसी जनश्रुति है कि रावण के भाई त्रिशिरा नामक राक्षस ने इसे बसाया था। उसके विनाश के बाद यह वैष्णवतीर्थ के रूप में विकसित हुई।

त्रित : वैदिक साहित्य में स्पष्टतः यह एक देवता का नाम है। किन्तु निरुक्त (4.6) के एक परिच्छेद में यास्क ने त्रित को ऋषि का नाम बताया है।

त्रित आप्त्य : अपान्नपात, त्रित आप्त्य, मातरिश्वा, अहिर्बुध्न्य एवं अज-एकपाद को इन्द्र एवं रुद्र के काल्पनिक पर्याय कहते हैं, जो आकाशीय विद्युत् के रूप में वर्णित हैं। 'अपानंपात्' एवं 'त्रित आप्त्य' का प्रारम्भ इण्डों-ईरानियन काल से पाया जाता है। इन दोनों एवं मातरिश्वा को कहीं-कहीं अग्नि (विशेष कर इसके आकाशीय रूप में) माना गया है।

ऋग्वेद में कोई पूरा सूक्त 'त्रित आप्त को समर्पित नहीं है, किन्तु अन्य देवतापरक कई सूक्तों में इसका उल्लेख पाया जाता है। इन्द्र, अग्नि, मरुत् और सोम के साथ प्रायः इसका वर्णन मिलता है। वृत्र के ऊपर उसके आक्रमण और आघात के कई सन्दर्भ पाये जाते हैं। इसकी 'आप्त्य' उपाधि से लगता है कि इसकी उत्पत्ति 'अप्' (जल) से हुई। सायण ने इसको जल का पुत्र कहा है। इसके सम्पूर्ण वर्णन से अनुमान किया जा सकता है कि त्रित (आप्त्य) विद्युत् का देवता है। तीन प्रकार की अग्नि- पार्थिव अग्नि, अन्तरिक्ष की अग्नि (विद्युत्) इन्द्र अथवा वायु और व्योम की अग्नि (सूर्य) में से यह अन्तरिक्ष की अग्नि है। धीरे-धीरे इन्द्र ने इसकी शक्ति को आत्मसात् कर लिया और देवताओं में इसका स्थान बहुत नगण्य हो गया। सायण ने त्रित आप्त्य की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार कही है : अग्नि ने घृताहुति के अवशेष को साफ करने के लिए आहुति की एक चिनगारी जल में फेंक दी। उससे एकत, द्वित और त्रित तीन पुरुष उत्पन्न हो गये। क्योंकि वे 'अप्' से उत्पन्न हुए थे अतः 'आप्त्य' कहलाये। एक दिन त्रित कूप से पानी लेने गया और उसमें गिर गया। असुरों ने कूप के मुँह पर भारी ढक्कन रख दिया, किन्तु त्रित उसको आसानी से तोड़कर निकल आया। 'नीतिमञ्जरी' में यह कथा भिन्न प्रकार से कही गयी है। एक बार त्रित आदि तीनों भाई जब यात्रा कर रहे थे तो उनको प्यास लगी। वे एक कूप के पास पहुँचे। त्रित ने कूप से जल निकाल कर अपने भाइयों को पिलाया। भाइयों के मन में लोभ आया। त्रित की सम्पत्ति हड़प लेने के विचार से उसको कूप में ढकेल कर उसके मुँह पर गाड़ी का चक्का रख दिया। त्रित ने अति भक्तिभाव से देवताओं की प्रार्थना की और उनकी कृपा से वह बाहर निकल आया।

त्रितपप्रदानसप्तमी : हस्त नक्षत्रयुक्त माघ शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह (तिथिव्रत कृत्यकल्पतरु द्वारा स्वीकृत तथा मासव्रत हेमाद्रि द्वारा स्वीकृत है।) एक वर्ष पर्यन्त चलता है। इसके सूर्य देवता हैं। व्रती को प्रत्येक मास घृत, धान, यव, सुवर्ण और आठ अन्य वस्तुएं क्रमशः दान में देनी चाहिए तथा एक धान्य (भिन्न-भिन्न प्रकार का) और प्रत्येक मास क्रमशः गोमूत्र, जल तथा दस पृथक्-पृथक् वस्तुएँ ग्रहण करनी चाहिए। इससे तीन वस्तुएँ प्राप्त होती हैं : समृद्ध कुल में जन्म, सुस्वास्थ्य तथा धन। हेमाद्रि ने 'नयनप्रद सप्तमी' के नाम से इसे सम्बोधित किया है।

त्रिदण्डी : श्रीवैष्णव संन्यासी शंकर के दसनामी संन्यासियों से भिन्न हैं। इनके सम्प्रदाय में केवल ब्राह्मण ही ग्रहण किये जाते हैं जो त्रिदण्ड धारण करते हैं। दसनामी संन्यासी एकदण्डधारी होते हैं। दोनों वर्गों का क्रमशः त्रिदण्डी' एवं 'एकदण्डी' कहकर भेद किया गया है।

त्रिपाददिभूतिमानारायण उपनिषद् : यह परवर्ती उपनिषद् है।

त्रिपुण्ड्र : शैव सम्प्रदाय का धार्मिक चिह्न, जो भौंहों के समानान्तर ललाट के एक सिरे से दूसरे तक भस्म की तीन रेखाओं से अंकित होता है। त्रिपुण्ड्र का चिह्न छाती, भुजाओं एवं शरीर के अन्य भागों पर भी अंकित किया जाता है। 'कालाग्निरुद्र उप०' में त्रिपुण्ड्र पर ध्यान केन्द्रित करने की रहस्यमय क्रिया का वर्णन है। यह सांकेतिक चिह्न शाक्तों द्वारा भी अपनाया गया है। यह शिव एवं शक्ति के एकत्व (सायुज्य) का निर्देशक है।

त्रिपुर : ब्राह्मण ग्रन्थों में त्रिपुर का प्रयोग एक विश्वसनीय सुरक्षा के अर्थ में किया गया है। किन्तु यह प्रसंग क्लिष्ट कल्पना है। तीन दीवारों से घिरे हुए दुर्ग के अर्थ में इसको ग्रहण करना भी सन्दिग्ध ही है।

परवर्ती साहित्य में त्रिपुर बाणासुर की राजधानी थी जो स्वर्ण, रौप्य और लौह की बनी थी। शिव ने इसका ध्वंस किया, अतः वे 'त्रिपुरारि' कहलाये। स्कन्दपुराण के अवन्तिका और रेवा खण्ड में इसका विस्तृत वर्णन है। शिव ने अवन्तिका से त्रिपुर पर आक्रमण किया था इसलिए इस विजय के उपलक्ष्य में अवन्तिका का नाम 'उज्जयिनी' (विशेष विजय वाली) पड़ा। यह नगर आगे चलकर 'त्रिपुरी' भी कहलाया। इसका अवशेष जबलपुर से 6-7 मील पश्चिम तेवर गाँव और आस-पास के ढूहों के रूप में पड़ा हुआ है।

त्रिपुरसुन्दरी : यह जगदम्बा महाशक्ति का एक रूप है।

त्रिपुरसूदनव्रत : तीनों उत्तरा नक्षत्र युक्त रविवार को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। प्रतिमा को घृत, दुग्ध, गन्ने के रस में स्नान कराकर तत्पश्चात् केसर से उद्वर्तन तथा बाद में पूजन करना चाहिए।

त्रिपुरा : यह देवी का नाम है, जो भूः, भुवः, स्वः लोकों अथवा पृथ्वी, पाताल, स्वर्ग की स्वामिनी हैं। तन्त्रशास्त्र में त्रिपुरा का बड़ा महत्त्व वर्णित है।

बंगाल के पूर्व में स्थित एक प्रदेश का भी यह नाम है, जो महामाया त्रिपुरा की आराधना का पुराना केन्द्र था। जबलपुर के पास स्थित प्राचीन त्रिपुरी भी पहले शक्ति-उपासना का क्षेत्र था। लगता है कि इसके नष्ट होने पर यह पीठ स्थानान्तरित होकर (नये राजवंश के साथ) वंग देश के पार्वत्य और जाङ्गल प्रदेश में चला गया और इस प्रदेश को अपना उपर्युक्त नाम दिया।

त्रिपुरा उपनिषद् : यह शाक्त उपनिषद् है जिसकी रचना सं० 957-1417 के मध्य किसी समय मानी जाती है। इसमें 16 पद्य हैं तथा इसका सम्बन्ध ऋग्वेद की शाकल शाखा से जोड़ा जाता है। यह शाक्त मत के दार्शनिक आधार का संक्षिप्त वर्णन उपस्थित करती है। साथ ही यह अनेक प्रकार की व्यवहृत पूजा का भी वर्णन करती है। 'अथर्वशिरस् उपनिषद्' के अन्तर्गत पाँच उपनिषदों में से यह एक है।

त्रिपुरातन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत 64 तन्त्रों की तालिका में 14वाँ तन्त्र त्रिपुरातन्त्र है।

त्रिपुरातापनीय उपनिषद् : शाक्त उपनिषदों में से एक प्रमुख। यह 'नृसिंहतापनी' की प्रणाली पर प्रस्तुत हुई है और 'अथर्वशिरस्' वर्ग की पाँच उपनिषदों के अन्तर्गत है। रचनाकाल 'त्रिपुरा उपनिषद्' के आस-पास है।

त्रिपुरोत्सव : इस व्रत के अनुष्ठान में कार्तिकी पूर्णिमा को सन्ध्या काल में शिवजी के मन्दिर में दीप प्रज्वलित करना चाहिए।

त्रिभाष्य : तैत्तिरीय प्रातिशाख्य पर आत्रेय, मारिषेत्र और वररुचि के लिखे भाष्य थे, परन्तु वे अब नहीं मिलते। इन पुराने भाष्यों को देखकर कार्त्तिकेय ने 'त्रिभाष्य' नाम का एक विस्तृत ग्रन्थ रचा है।

त्रिमधुर : मधु, घृत तथा शर्करा को त्रिमधुर कहा जाता है। धार्मिक क्रियाओं में इसका नैवेद्य रूप में प्रचुर उपयोग होता है।

त्रिमूर्ति : मैत्रायणी उपनिषद् में त्रिमूर्ति का सिद्धान्त सर्वप्रथम दो अध्यायों में वर्णित है। एक ही सर्वश्रेष्ठ सत्ता के तीन रूप हैं---ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव। उपर्युक्त उपनिषद् के पहले परिच्छेद (4.5-6) में केवल इतना ही कहा गया है कि तीनों देव निराकार सत्ता के सर्वश्रेष्ठ रूप हैं। दूसरे में (5.2) इनके दार्शनिक पक्ष का यह वर्णन है कि ये प्रकृति के अदृश्य आधार सत्त्व, रजस् एवं तमस् हैं। एक ही सत्ता तीन देवों के रूप में निरूपित है-- विष्णु सत्त्व हैं, ब्रह्मा रजस् हैं तथा शिव तमस् हैं। त्रिमूर्ति सिद्धान्त का यह वास्तविक रूप है, किन्तु प्रत्येक सम्प्रदाय अपने देवता को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है। अतएव प्रत्येक सम्प्रदाय में त्रिमूर्ति के विभिन्न रूप हैं। वैष्णवों में विष्णु ही ब्रह्म हैं तथा ब्रह्मा और शिव उनके आश्रित देव हैं। उसी प्रकार शैवों में शिव ब्रह्मस्वरूप हैं तथा विष्णु और ब्रह्मा उनके आश्रित हैं। यही भाव गाणपत्य एवं शाक्तों में भी हैं। निम्बार्क, वल्लभ तथा दूसरे वैष्णव मतावलम्बी कृष्ण को विष्णु से भिन्न एवं ब्रह्म का रूप मानते हैं। साहित्य, मूर्तिशिल्प एवं चित्रकला में त्रिमूर्ति के रूपों का विविध और विस्तृत चित्रण हुआ है।

त्रिमूर्तिव्रत : ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। तीन वर्ष पर्यन्त यह चलता है। इसमें विष्णु भगवान् की वायु, सूर्य तथा चन्द्रमा तीन दैवत मूर्तियों के रूप में पूजा होती है।

त्रियुग : ऋग्वेद (10.97,1), तैत्तिरीय सं० (4.2,6,1) तथा वाजसनेयी सं० (12.75) में इस शब्द का अर्थ लता-ओषधि-वनस्पतियों की क्रमिक उत्पत्ति का वह युग है, जब देवताओं की भी सृष्टि नहीं हुई थी (देवेभ्यस् त्रियुगम् पुरा)। निरुक्त के भाष्यकार (9.28) का मत है कि त्रियुग परवर्ती भारत के कालक्रम को कहते हैं तथा पौधों की उत्पत्ति उसमें से प्रथम युग में हुई। शतपथ ब्रां० (7.2,4,26) में इससे तीन ऋतुओं--वसन्त, वर्षा एवं पतझड़ का अर्थ लगाया गया है।

त्रियुगीनारायण : हिमालय स्थित एक तीर्थ स्थान। बदरी नाथ के मार्ग में पर्वतशिखर पर भगवान् नारायण भूदेवी तथा लक्ष्मी देवी के साथ विराजमान हैं। सरस्वती गङ्गा की धारा यहाँ है, जिससे चार कुण्ड बनाये गये हैं-- ब्रह्म-कुण्ड, रुद्रकुण्ड, विष्णुकुण्ड और सरस्‍वतीकुण्ड। रुद्रकुण्ड में स्नान, विष्णुकुण्ड में मार्जन, ब्रह्मकुण्ड में आचमन और सरस्वतीकुण्ड में तर्पण होता है। मन्दिर में अखण्ड धूनी जलती रहती है जो तीन युगों से प्रज्वलित मानी जाती है। कहते हैं शिव-पार्वती का विवाह यहीं हुआ था।

त्रिरात्रव्रत : इस व्रत में अक्षारलवण भोजन तथा भूमिशयन का विधान है। तीन रात्रि इसका पालन करना पड़ता है, गृह्यसूत्रों में विवाह के पश्चात् पति-पत्नी द्वारा इसके पालन का आदेश है। बड़े अनुष्ठानों के साथ आनुषङ्गिक रूप में इसका प्रयोग होता है।

त्रिलोकनाथ : शिव का एक नाम। इस नाम का एक शैव तीर्थ है। हिमाचल प्रदेश में रटांग जोत (व्यासकुण्ड) से उतरने पर चन्द्रा नदी के तट पर खोकसर आता है। यहाँ डाकबँगला और धर्मशाला है। चन्द्रभागा के किनारे-किनारे 28 मील त्रिलोकनाथ के लिए रास्ता जाता है। त्रिलोकनाथ का मन्दिर छोटा परन्तु बहुत सुन्दर बना हुआ है।

त्रिलोचन : नामदेव के समकालीन एक मराठा भक्त गायक, जिनके बारे में बहुत कम ज्ञात उनकी तीन स्तुतियाँ मिलती हैं, किन्तु उनकी मराठी कविताएँ तथा स्मृति भी उनकी जन्मभूमि में ही खो गयी ज्ञात होती है। ये वैष्णव भक्त थे।

त्रिलोचनयात्रा : (1) वैशाख शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें शिवलिङ्ग (त्रिलोचन) का पूजन करना चाहिए। दे० काशीखण्ड।

(2) त्रयोदशी के दिन प्रदोष काल में काशी में कामेश का दर्शन करना चाहिए। विशेष रूप से शनिवार के दिन कामकुण्ड में स्नान का विधान है। दे० पुरुषार्थचिन्तामणि, 230।

त्रिविक्रम : (1) त्रिविक्रम का शाब्दिक अर्थ है 'तीन चरण वाला'। यह विष्णु का ही एक नाम है। ऋग्वेद में विष्णु के (लम्बे) डगों से आकाश में चढ़ने का उल्लेख है। 'विष्णु' सूर्य का ही एक रूप है। वह अपने प्रात:कालीन, मध्याह्नकालीन तथा सायंकालीन लम्बे डगों से सम्पूर्ण आकाश को नाप लेता है। इसीलिए उसकों ऋग्वेद में 'उरुक्रम' (लम्बे डगवाला) कहा गया है। इसी वैदिक कल्पना के आधार पर पुराणों में वामन की कथा की रचना हुई और उनको त्रिविक्रम कहा गया। पुराणों के अनुसार विष्णु के वामन अवतार ने अपने तीन चरणों से राजा बलि की सम्पूर्ण पृथिवी और उसकी पीठ नाप ली। इसलिए विष्णु त्रिविक्रम कहलाये।

(2) 13वीं शती के उत्तरार्द्ध में वैष्णवाचार्य मध्वरचित वेदान्तसूत्रभाष्य पर त्रिविक्रम ने 'तत्त्‍वप्रदीपिका' नामक व्याख्या लिखी।

त्रिविक्रमत्रिरात्र व्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। प्रति मास दो त्रिरात्रव्रतों के हिसाब से चार वर्षों तथा दो मासों में, अर्थात् 50 महीनों में कुल 100 त्रिरात्रव्रत होते हैं। इसमें वासुदेव का पूजन होता है। अष्टमी को एकभक्त तथा उसके बाद तीन दिन तक उपवास का विधान है। कार्तिक में व्रत की समाप्ति होती है। दे० हेमाद्रि, 2.318-320। त्रिविक्रम 'विष्णु' का ही एक विरुद् है। ऋग्वेद के विष्णुसूक्त में विष्णु के तीन पदों (त्रिविक्रम) का उल्लेख है। पुराणों के अनुसार विष्णु ने वामन रूप में अपने तीन पदों से सम्पूर्ण त्रिलोकी को नाप लिया था। इस व्रत में इसी रूप का ध्यान किया जाता है।

त्रिविक्रमव्रत : यह विष्णुव्रत है। कार्तिक से तीन मास तक अथवा तीन वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसके अनुष्ठान से व्रती पापों से मुक्त हो जाता है। दे० हेमाद्रि, 2.854-855 (विष्णुधर्म० से); कृत्यकल्पतरु, 429--430।

त्रिवृत : दुग्ध, दधि तथा धृत समान भाग होने पर त्रिवृत कहलाते हैं (वैखानसस्मार्तसूत्र, 3.10)। धार्मिक क्रियाओं में त्रिवृत का प्रायः उपयोग होता है।

त्रिवेणी : तीन वेणियों (जलधाराओं) का सङ्गम। प्रयाग तीर्थराज का यह पर्याय है। गङ्गा और यमुना दो नदियाँ यहाँ मिलती हैं औऱ विश्वास किया जाता है कि सरस्वती भी, जो राजस्थान के मरुस्थल में लुप्त हो जाती है, पृथ्वी के नीचे-नीचे आकर उनसे मिल जाती है। हिन्दू धर्म में नदियाँ पवित्र मानी जाती हैं। हिन्दू धर्म में नदियाँ पवित्र मानी जाती हैं, दो नदियों का सङ्गम और अधिक पवित्र माना जाता है और तीन नदियों का सङ्गम तो और भी अधिक पवित्र समझा जाता है। यहाँ पर स्नान और दान का विशेष महत्‍त्व है।

त्रिवेन्द्रम् : यह तीर्थस्थान केरल प्रदेश में है। यह वैष्णव तीर्थ है। नगर का शुद्ध नाम 'तिरुअनन्तपुरम्' है। पुराणों में इस स्थान का नाम 'अनन्तवनम्' मिलता है। प्राचीन त्रावणकोर राज्य तथा वर्तमान केरल प्रदेश की यह राजधानी है। स्टेशन से आधे मील पर यहाँ के नरेश का राजप्रासाद है। भीतर पद्मनाभ भगवान् का मन्दिर है। पूर्व भाग में स्वर्णमंडित गरुड़स्तम्भ है। दक्षिण भाग में शास्ता (हरिहरपुत्र) का छोटा मन्दिर है। उत्सवविग्रह के साथ श्रीदेवी, भूदेवी, लीलादेवी की मूर्तियाँ विराजमान हैं। शास्त्रीय विधि के अनुसार द्वादश सहस्र (12000) शालग्राम मूर्तियाँ भीतर रखकर "कटुशर्कर योग" नामक मिश्रण विशेष से भगवान् पद्मनाभ का वर्तमान विग्रह निर्मित हुआ है। पद्मनाभ ही त्रावणकोर (केरल) के अधिपति माने जाते हैं। राजा भी उनका प्रतिनिधि मात्र होता था।

त्रिशङ्कु : तैत्तिरीय उपनिषद् में वर्णित एक आचार्य तथा वैदिक साहित्य के एक राजऋषि। परवर्ती साहित्य के अनुसार त्रिशङ्कु एक राजा का नाम है। विश्वामित्र ने इसको सदेह स्वर्ग भेजने की चेष्टा की, परन्तु वसिष्ठ ने अपने मन्त्रबल से उसको आकाश में ही रोक दिया। तब से त्रिशङ्कु एक तारा के रूप में अधर में ही लटका हुआ है।

त्रिशक्तितन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में दी गयी 64 तन्त्रों की सूची में यह 43 वाँ तन्त्र है।

त्रिशिखिब्राह्मण उपनिषद् : यह एक परवर्ती उपनिषद् है।

त्रिशोक : एक पुराकालीन ऋषि, जिसका उल्लेख ऋग्वेद (1.112, 13; 8.45,30 तथा 10.29,2) तथा अथर्ववेद (4.29,6) में हुआ है। पञ्चविंश ब्राह्मण में उसके नाम से सम्बन्धित एक साम का प्रसंग है।

त्रिस्थली : भारत के तीन श्रेष्ठ तीर्थ प्रयाग, काशी और गया विद्वानों द्वारा 'त्रिस्थली' के नाम से अभिहित किये गए हैं। नारायण भट्ट ने 1637 वि० में वाराणसी में 'त्रिस्थ सेतु' नाम का एक ग्रन्थ लिखा था। इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में उन्होंने मनुष्य के लिए इन्हीं तीन पवित्र तीर्थस्थानों की यात्रा का महत्‍त्व बतलाया है। वस्तुतः इन तीनों स्थलों का सम्यक् सुकृत समाहार ही किसी तीर्थयात्री की यात्रा का मूल उत्स है। यदि इन तीनों स्थलों की यात्रा उसने नहीं की तो उसकी तीर्थयात्रा व्यर्थ है। 'त्रिस्थलीसेतु' के आनन्दाश्रम संस्करण में प्रयाग का विवरण पृष्ठ 1 से 72 तक, काशी का विवरण पृष्ठ 73 से 316 तक तथा गया का विवरण पृष्ठ 327 से 379 तक दिया गया है।

त्रिसम : दालचीनी, इलायची और पत्रक को त्रिसम कहा जाता है। दे० हेमाद्रि, 143। इसका भैषज्य और धार्मिक क्रियाओं में उपयोग होता है।

त्रिसुगन्ध : दालचीनी, इलायची तथा पत्रक के समान भाग को त्रिसुगन्ध भी कहते हैं। धार्मिक क्रियाओं में इनका प्रायः व्यवहार होता है।

त्र्यणुक : वैशेषिक दर्शन अणुवादमूलक भौतिकवादी है। द्रव्यों के नौ प्रकार इसमें मान्य हैं। उनमें प्रथम चार परमाणुओं के प्रकार हैं। प्रत्येक परमाणु अपरिवर्तनशील एवं अन्तिम सत्ता है। ये चार प्रकार के गुण रखते हैं, यथा गंध, स्वाद, ताप, प्रकाश (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि के अनुसार)। दो परमाणु मिलकर 'द्व्यणुक' बनाते हैं तथा ऐसे दो अणुओं के मिलन से 'त्र्यणुक' बनते हैं। ये त्र्यणुक ही वह सबसे छोटी इकाई है, जिसमें विशेष गुण होता है और जो पदार्थ कहा जा सकता है।

त्र्यम्बक : तीन अम्बक (नेत्र) वाला (अथवा तीन माता वाला)। यह शिव का पर्याय है। 'महामृत्युञ्जय' मन्त्र के जप में शिव के इसी रूप का ध्यान किया जाता है।

त्र्यम्बकव्रत : चतुर्दशी तिथि को भगवान् शङ्कर के प्रीत्यर्थ यह व्रत किया जाता है। प्रत्येक वर्ष के अन्त में एक गोदान करते हुए मनुष्य शिवपद प्राप्त करता है। दे० हरिवंश, 2.147।

त्र्यम्बकहोम : साकमीध' के अन्तर्गत, जो चातुर्मास्ययज्ञ का तृतीय पर्व है उसमें पितृयज्ञ का विधान है। इसी यज्ञ का दूसरा भाग है 'त्र्यम्बकहोम' जो रुद्र के लिए किया जाता है। इसका उद्देश्य देवता को प्रसन्न करना तथा उन्हें दूसरे लोगों के पास भेजने के लिए तैयार करना है, जिससे यज्ञकर्ता को कोई हानि न हो। भौतिक उत्पात के अवसर पर 'शतरुद्रिय होम' भी उपर्युक्त यज्ञ के ही समान शान्तिप्रदायक होता है।

त्र्यहःस्पृक् : विष्णुधर्म० 1.60.14 के अनुसार जब एक तिथि (60 घड़ी से अधिक) तीन दिन तथा रात का स्पर्श करती है तब उसे त्र्यहःस्पृक् कहा जाता है। इसमें एक तिथि की वृद्धि हो जाती है।

त्रैलोक्यमोहनतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' की तन्त्रसूची में उद्धृत यह एक तन्त्र है।

त्वष्टा : वैदिक देवों में अति प्राचीन त्वष्टा शिल्पकार देवता है तथा देवों का निर्माणकार्य इसी के अधीन है। 'त्वष्टा' का शाब्दिक अर्थ है निर्माण करनेवाला, शिल्पकार, वास्तुकार। विश्वकर्मा भी यही है। यह 'द्यौ' का पर्याय भी हो सकता है। सभी वस्तुओं को निश्चित आकार में अलंकृत करना तथा गर्भावस्था में पिण्ड को आकृति प्रदान करना इसका कार्य है। मनुष्य एवं पशु सभी जीवित रूपों का जन्मदाता होने के कारण यह वंश एवं जननशक्ति का प्रतिनिधि है। यह मनुष्यजाति का पूर्वज है, क्योंकि प्रथम मनुष्य यम और उसकी पुत्री सरण्या का पुत्र है (ऋ० 10.16.1)। वायु उसका जामाता है (8.26.21), अग्नि (1.95.2) एवं अनुभाव से इन्द्र (6.59.2; 2.17.6) उसके पुत्र हैं। त्वष्टा का एक पुत्र विश्वरूप है।

 : व्यञ्जन वर्णों के तवर्ग का द्वितीय अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक मतहत्त्व निम्नलिखित प्रकार से बताया गया है :

थकारं चञ्चलापाह्गि कुण्डलीमोक्षदायिनी। त्रिशक्तिसहितं वर्ण त्रिबिन्दुसहितं सदा॥ पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणात्मकं सदा। अरुणादित्यसंकाशं थकारं प्रणमाम्यहम्॥

तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं :

थः स्थिरामी महाग्रन्थिर्ग्रन्थिग्राहो भयानकः। शिलो शिरसिजो दण्डी भद्रकाली शिलोच्चयः॥ कृष्णो बुद्धिर्विकर्मा च दक्षनासाधिपोऽमरः। वरदा योगदा केशो वामजानुरसोऽनलः॥ लोलौजज्जयिनी गुह्यः शरच्चन्द्रविदारकः।

इसके ध्यान की विधि निम्नांकित है :

नीलवर्णां त्रिनयनां षद्भुजां वरदां पराम्। पीतवस्त्रपरीधानां सदा सिद्धिप्रदायिनीम्॥ एवं ध्यात्वा थकान्तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत्। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा॥ तरुणादित्यसंकाशं थरारं प्रणमाम्यम्॥

थं : यह माङ्गलिक ध्वनि है (मेदिनी)। इसीलिए संगीत के ताल में इसका संकेत होता है। इसका तात्त्विक अर्थ है रक्षण। दे० एकाक्षरकोश।

 : मेदिनीकोश के अनुसार इसका अर्थ है 'पर्वत'। तन्त्र में यह भय से रक्षा करने वाला माना जाता है। कहीं-कहीं इसका अर्थ 'भयचिह्न' भी है। शब्दरत्नावली में इसका अर्थ 'भक्षण' भी दिया हुआ है।

थानेसर (स्थानण्वीश्वर) तीर्थ : यह तीर्थस्थान हरियाणा प्रदेश में स्थित है और थानेसर शहर से लगभग दो फर्लांग की दूरी पर अत्यन्त ही पवित्र सरोवर है। इसके तट पर स्थाण्वीश्वर (स्थाणु-शिव) का प्राचीन मन्दिर है। कहा जाता है कि एक बार इस सरोवर के कुछ जलबिन्दुओं के स्पर्श से ही महाराज वेन का कुष्ठ रोग दूर हो गया था। यह भी कहा जाता है कि महाभारतीय युद्ध में पाण्डवों ने पूजा से प्रसन्न शंकरजी से यहीं विजय का आशीर्वाद ग्रहण किया था। पुष्यभूति वंश के प्रसिद्ध राजा हर्षवर्द्धन तथा उसके पूर्वजों की यह राजधानी थी। प्राचीन काल से यह प्रसिद्ध शैव तीर्थ है।

दक्ष : आदित्यवर्ग के देवताओं में से एक। कहा जाता है कि अदिति ने दक्ष को तथा दक्ष ने अदिति को जन्म दिया। यहाँ अदिति सृष्टि के स्त्रीत्व एवं दक्ष पुरुषतत्त्व का प्रतीक है। दक्ष को बलशाली, बुद्धिशाली, अन्तर्दृष्टियुक्त एवं इच्छाशक्तिसम्पन्न कहा गया है। उसकी तुलना वरुण के उत्पादनकार्य, शक्ति एवं कला से हो सकती है। स्कन्दपुराण में दक्ष प्रजापति की विस्तृत पौराणिक कथा दी हुई है। दक्ष की पुत्री सती शिव से ब्‍याही गयी थी। दक्ष ने एक यज्ञ किया, जिसमें अन्य देवताओं को निमन्त्रण दिया किन्तु शिव को नहीं बुलाया। सती अनिमन्त्रित पिता के यहाँ गयी और यज्ञ में पति का भाग न देखकर उसने अपना शरीर त्याग दिया। इस घटना से क्रुद्ध हो कर शिव ने अपने गणों को भेजा, जिन्होंने यज्ञ का विध्वंस कर दिया। शिव सती के शव को कन्धे पर लेकर विक्षिप्त घूमते रहे। जहाँ-जहाँ सती के शरीर के अंग गिरे वहाँ वहाँ विविध तीर्थ बन गये।

दक्ष नाम के एक स्मृतिकार भी हुए हैं, जिनकी धर्मशास्त्रीय कृति 'दक्षस्मृति' प्रसिद्ध है।

दक्ष पार्वति : पर्वत के वंशज दक्ष पार्वति का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (2.4,4,6) में एक विशेष यज्ञ के सन्दर्भ में हुआ है, जिसे उसके वंशज दाक्षायण करते रहे तथा उसके प्रभाव से ब्राह्मणकाल तक वे राज्यपद के भागी बने रहे। इसका उल्लेख कौषीतकि ब्राह्मण (4.4) में भी है।

दक्षिणतः कपर्द : वसिष्ठवंशजों का एक विरुद (ऋ० वे० 7.33.6), क्योंकि वे केशों की वेणी या जटाजूट बनाकर उसे मस्तक के दक्षिण भाग की ओर झुकाये रखते थे।

दक्षिणा : यज्ञ करने वाले पुरोहितों को दिये गये दान (शुल्क) को दक्षिणा कहते हैं। ऐसे अवसरों पर 'गाय' ही प्रायः शुल्क होती थी। दानस्तुति तथा ब्राह्मणों में इसका और भी विस्तार हुआ है, जैसे गाएँ, अश्व, भैंस, ऊँट, आभूषण आदि। इसमें भूमि का समावेश नहीं है, क्योंकि भूमि पर सारे कुटुम्ब का अधिकार होता था और बिना सभी सदस्यों की अनुमति के इसका दान नहीं किया जा सकता था। अतएव भूमि अदेय समझी गयी। किन्तु मध्य युग आते-आते भूमि भी राजा द्वारा दक्षिणा में दी जाने लगी। फिर भी इसका अर्थ था भूमि से राज्य को जो आय होती थी, उसका दान।

प्रत्येक धार्मिक अथवा माङ्गलिक कृत्य के अन्त में पुरोहित, ऋत्विज् अथवा ब्राह्मणों को दक्षिणा देना आवश्यक समझा जाता है। इसके बिना शुभ कार्य का सुफल नहीं मिलता, ऐसा विश्वास है। ब्रह्मचर्य अथवा अध्ययन समाप्त होने पर शिष्य द्वारा आचार्य (गुरु) को दक्षिणा देने का विधान गृह्यसूत्रों में पाया जाता है।

दक्षिणाचार : शैव मत के अनुरूप ही शाक्त मत भी निगमों पर आधारित है, तदनन्तर जब आगमों के विस्तृत आचार का शाक्त मत में और भी समावेश हुआ तब से निगमानुमोहित शाक्त मत का नाम दक्षिणाचार, दक्षिणमार्ग अथवा वैदिक अथवा वैदिक शाक्तमत पड़ गया। आजकल इस दक्षिणाचार का भी एक विशिष्ट रूप बन गया है। इस मार्ग पर चलने वाला उपासक अपने को शिव मानकर पञ्चतत्व से शिवा (शक्ति) की पूजा करता है और मध्य के स्थान में विजयारस (भंग) का सेवन करता है। विजयारस भी पञ्च मकारों में गिना जाता है। इस मार्ग को वामाचार से श्रेष्ठ माना जाता है। दाक्षिणात्यों में शंकर स्वामी के अनुयायी शैवों में दक्षिणाचार का प्रचलन देखा जाता है।

दक्षिणाचारी : दक्षिणाचार का आचरण करने वाले शाक्त उपासक। दे० 'दक्षिणाचार'।

दक्षिणामूर्ति उपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्।

दक्षिणामूर्तिस्तोत्रवार्तिक : सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) ने संन्यास लेने के बाद जिन अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया उनमें से एक यह ग्रन्थ भी है।

दण्ड : मनुस्मृति में दण्ड को देवता का रूप दिया गया है जिसका रङ्ग काला एवं आँखे लाल हैं, जिसे प्रजापति ने धर्म के अवतार एवं अपने पुत्र के रूप में जन्म दिया। दण्ड ही विश्व में शान्ति का रक्षक है। इसकी अनुपस्थिति में शक्तिशाली निर्बलों को सताने लगते हैं एवं मात्स्य न्याय फैल जाता है (जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है, उसी प्रकार बड़े लोग छोटे लोगों को मिटा डालते हैं।)।

दण्ड ही वास्तव में राजा तथा शासन है, यद्यपि इसका प्रयोग राजा अथवा उचित अधिकारी द्वारा होता है। अपराध से गुरुतर दण्ड देने पर प्रजा रुष्ट होती है तथा लघुतर दण्ड देने पर वह राजा का आदर नहीं करती। अतएव राजा को चाहिए कि वह अपराध को ठीक तौल कर दण्डविधान करे। यदि अपराधी को राजा दण्डित न करे तो वही उसके किये हुए अपराध एवं पापों का भागी होता है। मनु ने 'दण्ड' के माहात्म्य में कहा है :

दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः॥

[दण्ड ही शासन करता है। दण्ड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दण्ड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दण्ड को ही धर्म कहा है।]

दण्डनीति : राजशास्त्र का एक नाम। यह शास्त्र अति प्राचीन है। महाभारत, शान्तिपर्व के 59वें अध्याय में लिखा है कि सत्ययुग में बहुत काल तक न राजा था, न दण्ड। प्रजा कर्मानुगामिनी थी। फिर काम, क्रोध, लोभादि दुर्गुण उत्पन्न हुए। कर्त्तव्याकर्तव्य का ज्ञान नष्ट हुआ एवं 'मात्स्य न्याय' का बोलबाला हुआ। ऐसी दशा में देवों की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने एक लाख अध्यायों वाला 'दण्डनीति' नाम का नीतिशास्त्र रच डाला। इसी के संक्षिप्त रूप आवश्यकतानुसार समय-समय पर 'वैशालाक्ष', 'बाहुदन्तक', बार्हस्पत्य शास्त्र', 'औशनसी नीति', 'अर्थशास्त्र', 'कामन्दकीय नीति' एवं 'शुक्रनीतिसार' हुए। दण्डनीति का प्रयोग राजा के द्वारा होता था। यह राजधर्म का ही प्रमुख अङ्ग है।

कौटिल्य ने अपने 'अर्थशास्त्र' के विद्यासमुद्देश प्रकरण में विद्याओं की सूची में दण्डनीति का गणना की है : 'आन्वीक्षिकी-त्रयी-वार्ता-दण्डनीतिश्चेति विद्या:।'

कौटिल्य ने कई राजनीतिक सम्प्रदायों में औशनससम्प्रदाय का उल्लेख किया है जो केवल दण्डनीति को ही विद्या मानता था। परन्तु उन्होंने स्वयं इसका प्रतिवाद किया है और कहा है कि चार विद्याएँ हैं (चतस्र एव विद्याः) और इनके सन्दर्भ में ही दण्डनीति का अध्ययन हो सकता है। 'अर्थशास्त्र' में दण्डनीति के निम्नांकित कार्य बताये गये हैं :

(1) अलब्धलाभार्था (जो नहीं प्राप्त है उसको प्राप्त कराने वाली),

(2) लब्धस्य परिरक्षिणी (जो प्राप्त है उसकी रक्षा करने वाली),

(3) रक्षितस्य विवर्धिनी (जो रक्षित है उसकी वृद्धि करने वाली) और

(4) वृद्धस्य पात्रेषु प्रतिपादिनी (बढ़े हुए का पात्रों में सम्‍यक् प्रकार से विभाजन करनेवाली)।

दण्डी : चतुर्थ आश्रम के कर्तव्य व्यवहारों के प्रतीक रूप बाँस का दण्ड जो संन्यासी हाथ में धारण करते हैं, वे दण्डी कहे जाते हैं। आजकल प्रायः शङ्कर स्वामी के अनुगामी दण्डियों का विशेष प्रचलन है। यह उनके दशनामी संन्यासियों का एक आन्तरिक वर्ग है। इनके नियमानुसार केवल ब्राह्मण ही दण्ड धारण कर सकता है। इसकी क्रियाएँ इतनी कठिन हैं कि ब्राह्मणों में भी कुछ थोड़े ही उनकी निर्वाह कर सकते हैं और अधिकांश इस अधिकार का उपयोग नहीं कर पाते।

दत्तगोरखसंवाद : नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने गुरु गोरखनाथ विरचित 37 ग्रन्थ खोज निकाले हैं, जिनमें से 'दत्तगोरखसंवाद' भी प्रमुख ग्रन्थ है।

दत्त तापस : पञ्चविंश ब्राह्मण (25.15.3) के वर्णनानुसार दत्त तापस तथाकथित सर्पयज्ञ में होता पुरोहित था।

दत्त सम्प्रदाय : प्राचीन वैष्णवों के व्यापक भागवत सम्प्रदाय की अब तीन शाखाएँ पायी जाती हैं-- वारकरी सम्प्रदाय, रामदासी पन्थ एवं दत्त सम्प्रदाय। ये तीनों सम्प्रदाय महाराष्ट्र में ही उत्पन्न हुए और वहीं से फैले। इन सम्प्रदायों में उच्च कोटि के सन्त, भक्त और कवि हो गये हैं। दत्त सम्प्रदाय तीनों में पुराना है। इसके आराध्य या आदर्श अवधूतराज दत्तात्रेय माने जाते हैं।

दत्तहोम : दत्तक पुत्र ग्रहण करने के समय इस धार्मिक विधि का अनुष्ठान होता है। हिन्दुओं में पुत्रहीन विधि का अनुष्ठान होता है। हिन्दुओं में पुत्रहीन पिता अपना उत्तराधिकारी एवं वंशपरम्परा स्थापित करने के लिए दूसरे के पुत्र को ग्रहण करता है। इस अवसर पर उसे दूसरी आवश्यक विधियों के करने के पश्चात् व्याहृतिहोम अथवा 'दत्तहोम' करना पड़ता है। इस होम का आशय देवों का साक्षित्व प्राप्त करना होता है कि उनकी उपस्थिति में पुत्रसंग्रह का कार्य सम्पन्न हुआ।

दत्तात्रेय : आगमवर्ग की प्रत्येक संहिता प्रारम्भिक रूप में किसी न किसी सम्प्रदाय की पूजा या सिद्धान्त का वर्णन उपस्थित करती है। दत्तात्रेय की पूजा इस नाम की 'दत्तात्रेयसंहिता' में उपलब्ध है। दत्तात्रेय को मानभाउ सम्प्रदाय वाले अपने सम्प्रदाय का मुख्य आचार्य कहते हैं तथा उनकी पूजा करते हैं। दत्तात्रेय की अस्पष्ट मूर्तिपूजा छाया रूप में मानभाउ सम्प्रदाय के इतिहास के साथ संलग्न रही है।

दत्तात्रेय को ऐतिहासिक संन्यासी मान लिया जाय तो अवश्य ही वे महाराष्ट्र प्रदेश में हुए होंगे तथा यादवगिरि (मेलकोट) से सम्बन्धित रहे होंगे। जैसा नारदपुराण में उल्लिखित है, उन्होंने मैसूरस्थित यादवगिरि की यात्रा की थी। संप्रति उनका प्रतिनिधित्व तीन मस्तक वाली एक संन्यासी मूर्ति से होता है और इस प्रकार वे त्रिमूर्ति भी समझे जाते हैं। उनके साथ चार कुत्ते एवं एक गाय होती है, जो क्रमशः चारों वेदों एवं पृथ्वी के प्रतीक हैं। किन्तु मानभाउ लोग उनको इस रूप में न मानकर कृष्ण का अवतार समझते हैं।

दत्तात्रेय उपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद् है, जिसका सम्बन्ध दत्तात्रेय सम्प्रदाय अथवा मानभाउ सम्प्रदाय के आरम्भ से है।

दत्तात्रेयजन्मव्रत : मार्गशीर्ष की पूर्णमासी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। महर्षि अत्रि की पत्नी अनसूया अपने पुत्र को 'दत्त' नाम से पुकारती थीं, क्योंकि भगवान् ने स्वयं को उन्हें पुत्र रूप में प्रदान कर दिया था। साथ ही वे अत्रि मुनि के पुत्र थे, इसलिए संसार में दत्त-आत्रेय के नाम से वे प्रसिद्ध हुए। दे० निर्णयसिन्धु, 210; स्मृतिकौस्तुभ, 430; वर्षकृत्यदीपिका, 107-108। भगवान् दत्तात्रेय के लिए महाराष्ट्र में अपूर्व भक्ति देखी जाती है। उदाहरण के लिए इनसे सम्बद्ध तीर्थ औदुम्बर, गाङ्गापारा, नरसोबा-वाडी इत्यादि महाराष्ट्र में ही है। दत्तात्रेय ने राजा कार्तवीर्य को वरदान दिया था (वनपर्व, 115.12) दत्तात्रेय विष्णु के अवतार बतलाये जाते हैं, उन्होंने अलर्क को योग का उपदेश दिया था। वे सह्यादि की कन्दराओं और घाटियों में निवास करते थे और अवधूत नाम से विख्यात थे। तमिलनाडु के पञ्चाङ्गों से प्रतीत होता है कि दत्तात्रेयजयन्ती तमिलनाडु में भी मनायी जाती है।

दत्तात्रेय सम्प्रदाय : दत्तात्रेय को कृष्ण का अवतार मानकर पूजा करने वाले एक सम्प्रदाय का उदय महाराष्ट्र प्रदेश में हुआ। इसके अनुयायी वैष्णव हैं। ये मूर्तिपूजा के विरोधी हैं। इस सम्प्रदाय को 'मानभाउ', 'दत्तसम्प्रदाय', 'महानुभाव पन्थ' तथा 'मनुमार्ग' भी कहते हैं।

महाराष्ट्र प्रदेश, बरार के ऋद्धिपुर में इसके प्रधान महन्त का मठ है। परन्तु महाराष्ट्र में ही ये लोग लोकप्रिय न हो पाये। महाराष्ट्र के सन्तकवि एकनाथ, गिरिधर आदि ने अपनी कविताओं में इनकी निन्दा की है। सं० 1839 में माधवराव पेशवा ने फरमान निकाला कि `मानभाउ पन्थ पूर्णतया निन्दित है। उन्हें वर्णबाह्य समझा जाय। न तो उनका वर्णाश्रम से सम्बन्ध है और न छहों दर्शनों में स्थान है। कोई हिन्दू उनका उपदेश न सुने, नहीं तो जातिच्युत कर दिया जायगा।` समाज उन्हें भ्रष्ट कहकर तरह-तरह के दोष लगाता था। जो हो, इतना तो स्पष्ट ही है कि यह सुधारक पन्थ वर्णाश्रम धर्म की परवाह नहीं करता था और इसका ध्येय केवल भगवद्भजन और उपासना मात्र था। यह भागवत मत की ही एक शाखा है। ये सभी सहभोजी हैं किन्तु मांस, मद्य का सेवन नहीं करते और अपने संन्यासियों को मन्दिरों से अधिक सम्मान्य मानते हैं। दीक्षा लेकर जो इस पन्थ में प्रवेश करता है, वह पूर्ण गुरु पद का अधिकारी हो जाता है। ये अपने शवों को समाधि देते हैं। इनके मन्दिरों में एक वर्गाकर अथवा वृत्ताकार सौध होता है, वही परमात्मा का प्रतीक है। यद्यपि दत्तात्रेय को ये अपना मार्गप्रवर्तक मानते हैं तो भी प्रति युग में एक प्रवर्त्तक के अवतीर्ण होने का विश्वास करते हैं। इस प्रकार इनके अब तक पाँच प्रवर्त्‍तक हुए हैं और उनके अलग-अलग पाँच मन्त्र ही हैं। पाचों मन्त्र दीक्षा में दिये जाते हैं। इनके गृहस्थ और संन्यासी दो ही आश्रम हैं। भगवद्गीता इनका मुख्य ग्रन्थ है। इनका विशाल साहित्य मराठी में है, परन्तु गुप्त रखने के लिए एक भिन्न लिपि में लिखा हुआ है। लीलासंवाद, लीलाचरित्र और सूत्रपाठ तथा दत्तात्रेय-उपनिषद् एवं संहिता इनके प्राचीन ग्रन्थ हैं।

विक्रम की चौदहवीं शती के आरम्भ में सन्त चक्रधर ने इस सम्प्रदाय का जीर्णोद्धार किया था। जान पड़ता है, चक्रधर ने ही इस सम्प्रदाय में वे सुधार किये जो उस समय के हिन्दू समाज और संस्कृत के विपरीत लगते थे। इस कारण यह सम्प्रदाय सनातनी हिन्दुओं की दृष्टि में गिर गया और बाद को राज्य और समाज दोनों द्वारा निन्दित माना जाने लगा। सन्त चक्रधर के बाद सन्त नागदेव भट्ट हुए जो यादवराज रामचन्द्र और सन्त योगी ज्ञानेश्वर के समकालीन थे। यादवराज रामचन्द्र का समय सं० 1328--1363 है। सन्त नागदेव भट्ट ने भी इस सम्प्रदाय का अच्छा प्रचार किया।

मानभाउ सम्प्रदाय वाले भूरे रङ्ग के कपड़े पहनते हैं। तुलसी की कण्ठी और कुण्डल धारण करते हैं। अपना मत गुप्त रखते हैं और दीक्षा के पश्चात् अधिकारी को ही उपदेश देते हैं।

दत्तात्रेय संहिता : दत्त अथवा मानभाउ सम्प्रदाय का प्राचीन ग्रन्थ।

दधि : वैदिक साहित्य में दधि का उद्धरण अनेक बार आया है। 'शतपथ ब्राह्मण (1.8.1.7) में घृत, दधि, मस्तु का क्रम से उल्लेख है। दधि सोम में मिलाया जाता था।' 'दध्याशिर' सोम का ही एक विरुद है। परवर्ती धार्मिक साहित्य में दधि को सिद्धि का प्रतीक मानते हैं और माङ्गलिक अवसरों पर अनेक प्रकार से इसका उपयोग करते हैं।

दधीचि : एक अति प्राचीन ऋषि। सत्ययुग के दीर्घकाल में ही कोई बार वेदों का संकोच-विकास हुआ है। महाभारत के शल्यपर्व में कथा है कि एक बार अवर्षण के कारण ऋषि लोग देश के बाहर बारह वर्ष तक रहने से वेदों को भूल गये थे। तब दधीचि ने और सरस्वती के पुत्र सारस्वत ऋषि ने अपने से कहीं अधिक बूढ़े ऋषियों को फिर से वेद पढ़ाये थे।

दधीचि के त्याग की कथा भारत के उच्च आदर्श की द्योतक है। वृत्र नामक असुर को मारने के लिए जब देवों ने दधीचि से उनकी अस्थियाँ माँगीं तो उन्होंने योगबल से प्राण त्याग कर हड्डियाँ दे दीं, उनसे वज्र का निर्माण हुआ और उसका उपयोग करके इन्द्र ने वृत असुर का वध किया। विष्णु औऱ शिव के धनुष भी इन्हीं हड्डियों से बनाये गये थे।

दध्यङ आथर्वण : एक ऋषि। ऋग्वेद में इनको एक प्रकार का देवता कहा गया है (1.80, 16; 84, 12, 14; 116, 12; 117, 22; 119, 9) किन्तु परवर्ती संहिताओं (तैत्ति० सं० 5.1,4,4; 6,6,3; काठक सं० 19.4) एवं ब्राह्मणों (शतपथ 4.1, 5,18; 6.4,2,3; 14.1,1,18;20,25,5,13; बृहदा० उप० 2.5,22; 4,5.28 आदि) में उन्हें अध्यापक का रूप दिया गया है। पञ्चविंश ब्राह्मण (12.8,6) तथा गोपथ ब्राह्मण (1.5,21) में अस्पष्ट रूप से उन्हें आङ्गिरस भी कहा गया है।

दधिव्रत : श्रावण शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। व्रतकर्त्ता इस काल में दही का सेवन नहीं करता।

दधिसंक्रान्तिव्रत : उत्तरायण की (मकर) संक्रान्ति से प्रारम्भ कर प्रत्येक संक्रान्ति को एक वर्ष तक इस व्रत का आचरण होता है। भगवान नारायण तथा लक्ष्मी की प्रतिमाओं को दही में स्नान कराना चाहिए। मन्त्र या तो ऋग्वेद, 1.22.20 होगा या 'ओम् नमो नारायणाय' (वर्षकृत्यकौमुदी, 218, 222) होगा।

दधीचितीर्थ : यह सरस्वती नदी के तट पर है, इस स्थान पर महर्षि दधीचि का आश्रम था। इन्होंने देवराज इन्द्र के माँगने पर राक्षसों का संहार करने के उद्देश्य से वज्र बनाने के लिए अपनी हड्डियों का दान किया था।

दनु : वर्ष के बादल का नाम, जो केवल कुछ ही बूँद बरसाता है। दनु वृत (असुर) की माँ का नाम भी है। ऋग्वेद (10.120.6) में सात दनुओं (दानवों) का वर्णन है, जो दनु के पुत्र हैं और जो आकाश के विभिन्न भागों को घेरे हुए हैं। वृत्र उनमें सबसे बड़ा है। ऋग्वेद (2.12.11) में दनु के एक पुत्र शम्बर का वर्णन है जिसका इन्द्र ने 40वें वसन्त में वध किया, जो बड़े पर्वत के ऊपर निवास करता था। पुराणों में दनु के वंशज दानवों की कथा विस्तार के साथ वर्णित है।

दन्त : ऋग्वेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में 'दन्त' शब्द का प्रयोग बहुलता से हुआ है। 'दन्तधाव' एक साधारण कर्म था, विशेष कर यज्ञ करने की तैयारी के समय स्नान, क्षौर (केश-श्मश्रु) कर्म, नख कटाना आदि के साथ इसे भी किया जाता था। अथर्ववेद में बालक के प्रथम उगने वाले दो दन्तों का वर्णन है, यद्यपि इसका ठीक आशय अस्पष्ट है। ऐतरेय ब्राह्मण में बच्चे के दूध के दाँतों के गिरने का वर्णन है। ऋग्वेद में इस शब्द का एक स्थान पर गजदन्त अर्थ लगाया गया है। दन्तचिकित्सा शास्त्र प्रचलित था या नहीं, यह सन्देहात्मक है। ऐतरेय आरण्यक में हिरण्यदन्त नामक मनुष्य का उल्‍लेख है, जिससे यह अनुमान किया जाता है कि दाँतों को गिरने से रोकने के लिए उन्हें स्वर्णजटित किया जाता था।

दमनकपूजा : चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें कामदेव का पूजन किया जाता है। दमनक पौधा कामदेव का प्रतीक है अत: उसको माध्यम बनाकर पूजा होती है।

दमनभञ्जी : चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को इस नाम से पुकारा जाता है, इसमें दमनक पौधे के (स्कन्ध, शाखा, मूल तथा पत्तों) प्रत्येक अवयव से कामदेव की पूजा की जाती है। दे० ई० आई० जिल्द 23 पृ० 186, जहाँ सं० 1294 में विन्ध्येश्वर शिव के एक शिवालय निर्माण का उल्लेख किया गया है (गुरुवार 12 मार्च 1237)।

दमनकमहोत्सव : यह वैष्णवव्रत है। चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। भगवान् विष्णु की पूजा का इसमें विधान है। दमनक नामक पौधे को प्रतीक बनाकर पूजा होती है। साधारणतः दमनक 'काम' का प्रतीक है, परन्तु विष्णु भी प्रवृत्तिमार्गी (कामनाप्रधान) देवता हैं। अतः इनका प्रतीक भी दमनक बना लिया गया है। इसमें निम्नलिखित कामगायत्री का पाठ किया जाता है-

तत्पुरुषाय विद्महे कामदेवाय धीमहि। तन्नोऽङ्गः प्रचोदयात्॥

दमनकारोपण : इस व्रत में चैत्र प्रतिपदा से पूर्णिमा तक दमनक पौधे से भिन्न-भिन्न देवों की पूजा का विधान है। यथा उमा, शिव तथा अग्नि प्रतिपदा के दिन, द्वितीया को ब्रह्मा, तृतीया को देवी तथा शङ्कर, चतुर्थी से पूर्णिमा तक क्रमशः गणेश, नाग, स्कन्द, भास्कर, मातृदेवता, महषिमर्दिनी, धर्म, ऋषि, विष्णु, काम, शिव और शची सहित इन्द्र पूजित होते हैं।

दमनकोत्सव : यह शैव व्रत है। चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को इसका अनुष्ठान होता है। किसी उद्यान में दमनक पौधे की पूजा की जाती है। अशोक वृक्ष के मूल में शिव की स्तुति की जाती है। दे० ईशानगुरुदेवपद्धति, 22वाँ पटल। इसमें एक लम्बा आख्यान है : जब कामदेव ने शिव पर अपना बाण छोड़ना चाहा तब उनके तृतीय नेत्र से भैरव नाम की अग्नि निकली। शिवजी ने उसका नाम दमनक रखा। किन्तु पार्वती ने उसे पृथ्वी पर एक पौधा हो जाने का वरदान दे दिया। तदनन्तर शिवजी ने उसे वरदान दिया कि यदि लोग केवल वसन्त तथा मदन के मन्त्रों से उसकी पूजा करेंगे तो उनकी समस्त मनोवाञ्छाएँ पूर्ण होंगी। इस दिन अनङगायत्री का पाठ किया जाता है।

दयानन्द सरस्वती : आर्यसमाज के प्रवर्तक औऱ प्रखर सुधारवादी संन्यासी। जिस समय केशवचन्द्र सेन ब्रह्मसमाज के प्रचार में संलग्न थे लगभग उसी समय दण्डी स्वामी विरजानन्द की मथुरापुरी स्थित कुटी से प्रचण्ड अग्निशिखा के समान तपोबल से प्रज्वलित, वेदविद्यानिधान एक संन्यासी निकला, जिसने पहले-पहल संस्कृतज्ञ विद्वत्संसार को वेदार्थ और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। यह संन्यासी स्वामी दयानन्द सरस्वती थे।

विक्रम सं० 1881 में इनका जन्म काठियावाड़ में एक शैव औदीच्य ब्राह्मणकुल में हुआ। इनका शैशव काल में मूलश्कर नाम था। ये बड़े मेधावी और होनहार थे। ब्रह्मचर्यकाल में ही ये भारतोद्धार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े। भारत में घूम घूमकर खूब अध्ययन किया, बहुत काल तक हिमालय में रहकर योगाभ्यास एवं घोर तपस्या की, संन्यासाश्रम ग्रहण करके 'दयानन्द सरस्वती' नाम धारण किया। अन्त में सं० 1917 में मथुरा आकर प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द से साङ्ग वेदाध्ययन किया। गुरुदक्षिणा में उनसे वेद प्रचार, मूर्तिपूजा खण्डन आदि की प्रतिज्ञा की और उसे पूरा करने को निकल पड़े। प्रतिज्ञा तो व्याज मात्र थी, हृदय में लगन बचपन से लग रही थी। स्वामीजी ने सारे भारत में वेद-शास्त्रों के प्रचार की धूम मचा दी। ब्राह्मसमाज एवं ब्रह्मविद्यासमाज (थियोसॉफिकल सोसायटी) दोनों को परखा। किसी में वह बात न पायी जिसे वे चाहते थे। पश्चात् सं० 1932 वि० में 'आर्यसमाज' स्थापित किया। आठ वर्ष तक इसका प्रचार करते रहे। सं० 1940 वि० में दीपावली के दिन अजमेर में शरीर छोड़ा। इनके कार्यों के विवरण के लिए दे० 'आर्यसमाज'।

दयाबाई : चरणदासी पन्थ के प्रवर्तक स्वामी चरणदासजी की दो शिष्याएँ थीं, सहजोबाई और दयाबाई। दोनों शिष्याओं ने योग सम्बन्धी पद्य लिखे हैं। इनका समय लगभग 17वीं शती वि० का मध्य है।

दयाराम : गुजराती भाषा के सबसे बड़े कवियों में से एक (1762-1853 ई०)। ये वल्लभसम्प्रदाय के अनुयायी थे। इनकी अधिकांश रचनाएँ कृष्णभक्ति एवं रागानुगा कृष्णलीला विषयक हैं।

दयाशङ्कर : आश्वलायनश्रौतसूत्र के एक व्याख्याकार। इन्होंने साममन्त्र की वृत्ति भी लिखी है।

दयाशङ्करगृह्यसूत्रप्रयोगदीप : शाङ्खायन गृह्यसूत्र की यह एक व्याख्या है।

दर्श : दर्श' से सूर्य-चन्द्र के एक साथ दिखाई देने (रहने) का बोध होता है, जो पूर्णमासी का प्रतिलोम (अमावस्या) शब्द है। अधिकांशतया यह शब्द यौगिक रूप 'दर्श-पूर्णमास' (अमावस्या-पूर्णिमाकृत्य) के रूप में प्रयुक्त होता है तथा इस दिन विशेष यज्ञकर्म आदि करने का महत्‍त्व है। इससे वैदिक काल में अमान्त मास प्रचलित होना संभावित होता है, किन्तु यह पूर्णतया सिद्ध नहीं है। केवल 'दर्श' शब्द प्रथम आने से यह सम्भावना की जाती है।

दर्शन : इस शब्द की उत्पत्ति 'दृश्' (देखना) धातु से हुई है। यह अवलोकन बाहरी एवं आन्तरिक हो सकता है, सत्यों का निरीक्षण अथवा अन्वेषण हो सकता है, अथवा आत्मा की आन्तरिकता के सम्बन्ध में तार्किक अनुसन्धान हो सकता है। प्रायः दर्शन का अर्थ आलोचनात्मक अभिव्यक्ति, तार्किक मापदण्ड अथवा प्रणाली होता है। यह विचारों की प्रणाली है, जिसे आभ्यन्तरिक (आत्मिक) अनुभव तथा तर्कपूर्ण कथनों से ग्रहण किया जाता है। दार्शनिक तौर पर 'स्वयं के आन्तरिक अनुभव को प्रमाणित करना तथा उसे तर्कसंगत ढंग से प्रचारित करना' दर्शन कहलाता है। अखिल विश्व में चेतन और अचेतन दो ही पदार्थ हैं। इनके बाहरी और स्थूल भाव पर बाहर से विचार करने वाले शास्त्र को 'विज्ञान' और भीतरी तथा सूक्ष्म भाव पर भीतर से निर्णय करने वाले शास्त्र को 'दर्शन' कहते हैं।

भारत में बारह प्रमुख दर्शनों का उदय हुआ है, इनमें से छः नास्तिक एवं छः आस्तिक हैं। चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक और आर्हत, ये छः दर्शन नास्तिक इसलिए कहे जाते हैं कि ये वेद को प्रमाण नहीं मानते (नास्तिको वेदनिन्दकः)। साथ ही अनीश्वरवादी कहलाने वाले सांख्य एवं मीमांसा दर्शन आस्तिक हैं। पूर्वोक्त को नास्तिक कहने का भाव यह है कि वे ऋग्वेदादि चारों वेदों का एक भी प्रमाण नहीं मानते, प्रत्युत जहाँ अवसर मिलता है वहाँ वेदों की निन्दा करने में नहीं चूकते। इसीलिए नास्तिक को अवैदिक भी कहा जाता है। आस्तिक दर्शन छः---न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा एवं वेदान्त हैं। ये वेदों को प्रमाण मानते हैं इसलिए वैदिक अथवा आस्तिक दर्शन कहलाते हैं।

निस्सन्देह ये बारहों दर्शन विचार के क्रम-विकास के द्योतक हैं। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारत की पुण्यभूमि से निकले हुए जितने धर्म-मत अथवा सम्प्रदाय संसार में फैले हैं उन सबके मूल आधार ये ही बारह दर्शन हैं। व्याख्याभेद से और आचार-व्यवहार में विविधता आ जाने से सम्प्रदायों की संख्या बहुत बढ़ गयी है। परन्तु जो कोई निरपेक्ष भाव से इन दर्शनों का परिशीलन करता है, अधिकारी और पात्रभेद से उसके क्रमविकास के अनुकूल आत्मज्ञान की सामग्री इनमें अवश्य मिल जाती है।

दर्शन उपनिषद् : यह एक परवर्ती उपनिषद् है।

दर्शनप्रकाश : यह मानभाउ साहित्य के अन्तर्गत मराठी भाषा का महत्‍त्वपूर्ण ग्रन्थ है।

दशग्व : ऋग्वेद (8.12) की एक ऋचा में एक व्यक्त का नाम 'दशग्व' आता है, जिसकी इन्द्र ने सहायता की थी। सम्भवतः इसका शाब्दिक अर्थ है 'यज्ञ में दस गौओं का दान करने वाला'।

दशन् : दश' के ऊपर आधारित (दाशमिक) गणना पद्धति। वैदिक भारतीयों की अंकव्यवस्था का आधार दश था। भारत में अति प्राचीन काल में भी बहुत ही ऊँची संख्यानामावलियाँ थीं, जबकि दूसरे देशों का ज्ञान इस क्षेत्र में 1000 से अधिक ऊँचा नहीं था। वाजसनेयी संहिता में 1; 10; 100; 1000; 10000 (अयुत्); 100000 (नियुत); 1000000 (प्रयुत); 10000000 (अर्बुद); 100000000 (न्यर्बुद); 1000000000 (समुद्र); 10000000000 (मध्य); 100000000000 (अन्त); 1000000000000 (परार्द्ध) की तालिका दी हुई है। काठक संहिता में भी उपर्युक तालिका है, किन्तु नियुत एवं प्रयुत एक दूसरे का स्थान ग्रहण किये हुए हैं तथा न्यर्बुद के बाद 'बद्व' एक नयी संख्या आ जाती है। इस प्रकार समुद्र का मान 10,000,000,000 और क्रमशः अन्य संख्याओं का मान भी इसी क्रम से बढ़ गया है। तैत्तिरीय संहिता में वाजसनेयी के समान ही दो स्थानों में संख्याओं की तालिका प्राप्त है। मैत्रायणी संहिता में अयुत, प्रयुत, फिर अयुत, अर्बुद, न्यर्बुद; समुद्र, मध्य, अन्त, परार्ध संख्याएँ दी हुई हैं। पञ्चविंश ब्राह्मण में वाजसनेयी संहिता वाली तालिका न्यर्बुद तक दी गयी है, फिर निखर्वक, बद्ध, अक्षित तथा यह तालिका 1,000,000,000,000 तक पहुँचती है। जैमिनीय उपनषद्-ब्राह्मण में निखर्वक के स्थान में निखर्व तथा बद्व के स्थान में पद्म तथा तालिका का अन्त 'अक्षिति व्योमान्त' में होता है। शाङ्खायन श्रौतसूत्र न्यर्बुद के पश्चात् निखर्वाद, समुद्र, सलिल, अन्त्य, अनन्त नामावली प्रस्तुत करता है।

किन्तु अयुत के बाद किसी भी ऊपर की संख्या का व्यवहार प्रायः नहीं के बराबर होता था। 'बद्व' ऐतरेय ब्राह्मण में उद्धृत है, किन्तु यहाँ इसका कोई विशेष सांख्यिक अर्थ नहीं है तथा परवर्त्ती काल की ऊँची संख्याएँ अत्यन्त उलझनपूर्ण हो गयी हैं।

दशनामी : आचार्य शङ्कर ने वेदान्ती संन्यासियों को एक सम्प्रदाय बनाया, उन्हें दस दलों में बाँटा तथा अपने एक एक शिष्य के अन्तर्गत उन्हें रखा, जो 'दसनामी' अर्थात् दस उपनामों वाले संन्यासी कहलाते हैं। ये दस नाम हैं-- तीर्थ, आश्रम, सरस्वती, भारती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, गिरि और पुरी।

दशनामी (अलखनामी) : अलखनामी' का संस्कृत रूप 'अलक्ष्यनामा' है, अर्थात् जो अलक्ष्य का नाम ही जपा करते हैं। ये एक प्रकार के शैव संन्यासी हैं जो अपने को दसनामी शिवसम्प्रदाय के पुरी वर्ग का एक विभाग बतलाते हैं।

दशनामी दण्डी : आचार्य शङ्कर के दसनामी संन्यासियों में 'दण्ड' धारण करने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है, किंतु इसकी क्रिया इतनी कठिन है कि सभी ब्राह्मण इसे धारण नहीं करते। ये दण्ड धारण करने वाले ब्राह्मण संन्यासी ही 'दसनामी दण्डी' कहलाते हैं।

दशनामी संन्यासी : दे० 'दशनामी'।

दशपदार्थ : वैशेषिक दर्शन विषयक एक ग्रन्थ, जो ज्ञानचंद्रविरचित कहा जाता है। इसका मूल रूप अप्राप्त है किन्तु चीनी अनुवाद प्राप्त होता है, जिसे ह्वेनसाँग ने 648 ई० में प्रस्तुत किया था।

दशपेय : एक याज्ञिक प्रक्रिया। वास्तविक राजसूय में सात प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं। इसमें 'दशपेय' चैत्र के सातवें दिन मनाया जाता है। इसमें एक सौ व्यक्ति, जिनमें राजा भी एक होता है, दस-दस के दल में दस प्यालों से सोमरस पीते हैं। इसे अवसर पर वंशावली की परीक्षा होती है। इसकी योग्यता, प्रत्येक सदस्य को सोमपान करनेवाले अपने दस पूर्वजों का नाम गिनाना होती है।

दशमी : अथर्ववेद (3.4.7) तथा पञ्चविंश ब्राह्मण (22.14) में 90 तथा 100 वर्ष के मध्य के जीवनकाल को 'दशमी' कहा गया है, जिसे ऋग्वेद (1.158.6) 'दशम युग' कहता है। वैदिक कालीन सुदीर्घ जीवन का बोध इस शब्द की व्याख्या से होता है। लोगो में 'शरदः शतम्' जीने की अभिलाषा होती थी। राज्याभिषेक में राजा के 'दशमी' तक जीवित रहकर राज्य करने की कामना की जाती थी। मनु का आदेश है कि 'दशमी' (90 वर्ष से अधिक) अवस्था के शूद्र को त्रिवर्ण के व्यक्ति भी प्रणाम किया करें ('शूद्रोऽपि दशमीं गतः' अभिवाद्यः।)

दशरथचतुर्थी : कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। किसी मिट्टी के पात्र में राजा दशरथ की प्रतिमा का पूजन होता है। पश्चात् दुर्गाजी की भी पूजा होती है।

दशरथतीर्थ : अयोध्या में रामघाट से आठ मील पूर्व सरयूतट पर वह स्थान है जहाँ महाराज दशरथ का अन्तिम संस्कार हुआ था। इसलिए यह तीर्थ बन गया है।

दशरथललिताव्रत : आश्विन शुक्ल दशमी को इसका अनुष्ठान होता है। दस दिन तक देवी के सम्मुख ललिता देवी की सुवर्णप्रतिमा तथा चन्द्रमा और रोहिणी की चाँदी की प्रतिमाओं का जिनकी दायीं ओर शिवजी की प्रतिमा तथा बायीं ओर गणेशजी की प्रतिमा स्थापित होती हैं, पूजन करना चाहिए। दशरथ तथा कौसल्या ने यह व्रत किया था। दस दिन की इस पूजा में प्रत्येक दिन अलग-अलग पुष्प प्रयोग में लाये जाते हैं।

दशव्रज : ऋग्वेद (8.8,20,49; 1,50,9) में दशव्रज अश्विनीकुमारों द्वारा संरक्षित एक व्यक्ति का नाम है।

दशशिप्र : ऋग्वेद (8.52,2) में यह एक यज्ञकर्ता का नाम है।

दशश्लोकी : वेदान्तकामधेनु' अथवा सिद्धान्तरत्न आचार्य निम्बार्क रचित एक संक्षिप्त ग्रन्थ है। इसके दस श्लोकों में द्वैताद्वैतमत के सिद्धान्त संक्षेप में कहे गये हैं। इसका रचनाकाल 12वीं शताब्दी का उत्तरार्ध संभवतः है।

दशश्लोकीभाष्य : महात्मा हरिव्यासदेव रचित यह भाष्य निम्बार्काचार्य के 'दशश्लोकी' ग्रन्थ पर है।

दशहरा : विजया दशमी का देशज नाम 'दसहरा' या 'दशहरा' है। इस दिन राजा लोग अपराजित देवी की पूजा कर पर-राज्य की सीमा लाँघना आवश्यक मानते थे और प्रतापशाली राजा 'दसों' दिशाओं को जीतने (हराने) का अभियान आरम्भ करते थे। दे० 'विजय दशमी'। दस महाविद्यारूपिणी दुर्गाजी की पूजा आश्विन शुक्लदशमी को पूर्ण होती है, इस आशय से भी यह पर्व दशहरा कहलाता है।

दशावतारव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। पुराणों के अनुसार भगवान् विष्णु इसी दिन मत्स्य रूप में प्रकट हुए थे। प्रत्येक द्वादशी को व्रत करते हुए भाद्रपद मास तक विष्णु के दस अवतारों के, क्रमशः प्रत्येक मास में एक-एक स्वरूप के पूजन करने का विधान है।

दशाश्वमेधघाट : गङ्गातट पर स्थित दशाश्वमेध घाट काशी की धार्मिक यात्रा के पाँच प्रधान स्थानों में से एक है, जहाँ परम्परानुसार ब्रह्मा ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। इस घाट पर स्नान करने से दस अश्वमेधों का पुण्य प्राप्त होता है, ऐसा हिन्दुओं का विश्वास है। डा० काशीप्रसाद जायसवाल ने यह मत प्रतिपादित किया था कि इसी घाट पर कुषाणों को पराजित करने वाले नागगण भारशिवों ने भारतीय साम्राज्य के पुनरुत्थान के प्रतीक रूप में दस अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था। इसलिए यह स्नान 'दशाश्वमेध' कहलाया। इसकी सम्पुष्टि एक वाकाटक अभिलेख से भी होती है (....भागीरथ्यमलजलमूर्द्धाभिषिक्तानां भारशिवानाम्)। दे० काशीप्रसाद जायसवाल का 'अन्धयुगीन भारत'।

प्रयाग में गङ्गातट पर ऐसी घटना का स्मारक दशाश्वमेध तीर्थ है।

दशोणि : यह ऋग्वेद (6.20.4,8) के अनुसार इन्द्र का कृपापात्र और पणियों का विरोधी जान पड़ता है। लुड्विग के मत में यह पणियों का पुरोहित है जो असम्भव प्रतीत होता है। ऋग्वेद (10.96.12) में यह सोम का विरुद प्रतीत होता है।

दशोण्य : ऋग्वेद (8.52.2) में यह एक यज्ञकर्त्ता का नाम है जो दशशिप्र और अन्य दूसरे नामों के साथ उद्धृत है। यह दशोणि के समान है या नहीं यह अनिर्णीत है।

दशोपनिषद्भाष्य : अठारहवीं शती में आचार्य बलदेव विद्याभूषण ने 'दशोपनिषद्भाष्य' की रचना की। यह गौड़ीय वैष्णवों के मत के अनुसार लिखा गया है।

दसहरा : दे० 'दशहरा' और 'विजया दशमी'।

दस्यु : ऋग्वेद में 'आर्य' और 'दस्यु' उसी तरह स्थान-स्थान पर प्रयुक्त हुए हैं, जैसे आज 'सभ्य' और 'असभ्य', 'सज्जन' और 'दुर्जन' शब्दों का परस्पर विपरीत अर्थ में प्रयोग होता है। इस शब्द की उत्पत्ति सन्देहात्मक है तथा ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर मानवेतर शत्रु के नाम से इनका वर्णन हुआ है। दूसरे स्थलों में दस्यु से मानवीय शत्रु, सम्भवतः आदिम स्थिति में रहने वाली असभ्य जातियों का बोध होता है। आर्य एवं दस्यु का सबसे बड़ा अन्तर उनके धर्म में है। दस्यु यज्ञ न करने वाले, क्रियाहीन, अनेक प्रकार की अद्भुत प्रतिज्ञा वाले देवों से घृणा करने वाले आदि होते थे। दासों से तुलना करते समय इनका (दस्युओं का) कोई 'विशु' (जाति) नहीं कहा गया है। इन्द्र को 'दस्युहत्य' प्रायः कहा गया है किन्तु 'दासहत्य' कभी भी नहीं। अत एव दोनों एक नहीं समझे जा सकते। दस्यु एक जाति थी जिसका बोध उनके विरुद 'अनास' से होता है। इसका अर्थ निश्चित नहीं है। पदपाठ ग्रन्थ एवं सायण दोनों इसका अर्थ (अन=आस) 'मुखरहित' लगाते हैं। किन्तु दूसरे अर्थ (अ=नास) 'नासिकारहित' लगाते हैं जिसका अर्थ सानुनासिक ध्वनियों के उच्चारण करने में असमर्थ हो सकता है। यदि यह 'अनास' का ठीक अर्थ है तो दस्युओं का अन्य विरुद है 'मृध्नवाच्' जो ‘अनास’ के साथ आता है, जिसका अर्थ ‘तुतलाने वाला’ है। दस्यु का ईरानी भाषा में समानार्थक है ‘पन्दु’, ‘दक्यु’, जिसका अर्थ एक प्रान्त है। जिमर इसका प्रारम्भिक अर्थ ‘शत्रु’ लगाते हैं जबकि पारसी लोग इसका अर्थ ‘शत्रुदेश’, ‘विजित देश’, ‘प्रान्त’ लगाते हैं। कुछ व्यक्तिगत दस्युओं के नाम हैं ‘चुमुरि’, ‘शम्बर’ एवं ‘शुष्ण’ आदि। ऐतरेय ब्राह्मण में दस्यु से असभ्य जातियों का बोध होता है। परन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि आर्य और दस्यु का भेद प्रजातीय नहीं, किन्तु सांस्कृतिक है।

दात्यौह : यह शब्द यजुर्वेद में अश्वमेध के बलिपदार्थों की तालिका में उल्लिखित है। महाभारत तथा धर्मशास्त्रों में वर्णित शब्द 'दात्यूह' का ही यह एक रूप है। सम्भवतः यह यज्ञीय पदार्थों के समूह का द्योतक है।

दादू : महात्मा दादू दयाल का जन्म सं० 1601 वि० में हुआ और सं० 1660 में ये पञ्चत्व को प्राप्त हुए। ये सारस्वत ब्राह्मण थे। ये कभी क्रोध नहीं करते थे तथा सब पर दया रखते थे। इसी से इनका नाम 'दयाल' पड़ गया। ये सबको दादा-दादा कहने के कारण दादू कहलाये। ये कबीरदास के छठी पीढ़ी के शिष्य थे। इन्होंने भी हिन्दू-मुस्लिम दोनों को मिलाने की चेष्टा की। ये बड़े प्रभावशाली उपदेशक थे और जीवन में ऋषितुल्य हो गये थे। दादूजी के बनाये हुए 'सबद' और 'बानी' प्रसिद्ध हैं, जिनमें इन्होंने संसार की असारता और ईश्वर (राम) भक्ति के उपदेश सबल छन्दों में दिये हैं। इन्होंने भजन भी बहुत बनाये हैं। कविता की दृष्टि से भी इनकी रचना मनोहर औऱ यथार्थ भाषिणी है। इनके शिष्य निश्चलदास, सुन्दरदास आदि अच्छे वेदान्ती हो गये हैं। उनकी रचनाएँ भी उत्कृष्ट हैं। परन्तु सबका आधार श्रुति स्मृति और विशेषतः अद्वैतवाद है। 'बानी' का पाठ केवल द्विज ही कर सकते हैं। चौबीस गुरुमन्त्र और चौबीस शब्दों का ही अधिकार शूद्रों को है।

दादूदयाल : दे० 'दादू'।

दादूद्वार : दादू के बावन शिष्य थे जिनमें से प्रत्येक ने कम से कम एक पूजास्थान (मन्दिर) स्थापित किया। इन पूजास्थलों को 'दादूद्वार' कहते हैं। इनमें हाथ की लिखी 'वाणी' की पोथी की षोडशोपचार पूजा और आरती होती है, पाठ और भजन का गान होता है। साधु ही यह सब करते हैं और जहाँ साधु और उक्त पोथी हो, वही स्थान 'दादूद्वार' कहलाता है। 'नारायना' में दादू महाराज की चरणपादुका (खड़ाऊँ) और वस्त्र रखे हैं। इन वस्तुओं की भी पूजा होती है।

दादूपन्थ : महात्मा दादू के चलाये हुए धर्म की 'दादूपन्थ' कहते हैं, जो राजस्थान में अधिक प्रचलित है। दादूपन्थी या तो ब्रह्मचारी साधु होते हैं या गृहस्थ जो 'सेवक' कहलाते हैं। दादूपन्थी शब्द साधुओं के लिए ही व्यवहृत होता है। इन साधुओं के पाँच प्रकार हैं : (1) खालसा, इन लोगों का स्थान जयपुर से 40 मील पर नरायना में हैं, जहाँ दादूजी की मृत्यु हुई थी। इनमें जो विद्वान् हैं वे उपासना, अध्ययन और शिक्षण में व्यस्त रहते हैं। (2) नागा साधु (सुन्दरदास के बनाये), ये ब्रह्मचारी रहकर सैनिक का काम करते हैं। जयपुर राज्य की रक्षा के लिए ये रियासत की सीमा पर नव पड़ावों में रहते थे। इन्हें जयपुर दरबार से बीस हजार का खर्च मिलता थ। (3) उत्तराडी साधुओं की मण्डली (पंजाब में बनवारीदास ने बनायी), इनमें प्रायः विद्वान् होते हैं जो साधुओं को पढ़ाते हैं। कुछ वैद्य भी होते हैं। ये तीनों प्रकार के साधु जो पेशा चाहें कर सकते हैं। (4) विरक्त, ये साधु न कोई पेशा कर सकते हैं न द्रव्य छू सकते हैं। ये घूमते-फिरते और लिखते-पढ़ते रहते हैं। (5) खाकी साधु, ये भस्म लपेटे रहते हैं और भाँति-भाँति की तपस्या करते हैं।

दादूपंथी : दे० 'दादू', 'दादूपंथ' एवं 'दादूद्वार'।

दान : इस शब्द का अर्थ है 'किसी वस्तु से अपना स्वत्व हटाकर दूसरे का स्वत्व उत्पन्न कर देना।' दान (अर्पण) का व्यवहार ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर याज्ञिक हविष्य के विनियोग के अर्थ में हुआ है, जिसमें देवता आमन्त्रित होते थे। एक दूसरे प्रसंग में इसका अर्थ सायण 'मद का जल' लगाते हैं (मदमाते हाथी के मस्तक से टपकता हुआ मदबिन्दु)। एक अन्य मन्त्र में राथ महाशय इसका अर्थ चरागाह लगाते हैं।

परवर्ती धार्मिक साहित्य में दान का बड़ा महत्त्व वर्णित है। यह दो प्रकार का होता है। नित्य और नैमित्तिक; चारों वर्णों के लिए दान करना नित्य और अनिवार्य है। दान लेने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है। विशेष अवसरों और परिस्थितियों में किसी भी दीन-दुखी, क्षुधार्त्त, रोगग्रस्त आदि को जो दान दिया जा सकता है वह भूतदया अथवा दीनरक्षण है। 'कृत्यकल्पतरु' (दान काण्ड) एवं बल्लालसेन द्वारा विरचित 'दानसागर' ग्रन्थों में अनेकों धार्मिक दानों की विधि और फल बतलाया गया है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण (3.317) भी ऋतुओं, मासों, साप्ताहिक दिनों, नक्षत्रों में किये गये दानों के पुण्यों की व्याख्या करता है।

दानकेलिकौमुदी : रूप गोस्वामी कृत संस्कृत भाषा की भक्तिरस सम्बन्धी एक पुस्तक। इसका रचना काल सोलहवीं शती का उत्तरार्ध है।

दानलीला : सन्त चरणदास रचित ग्रन्थों में एक दानलीला भी है।

दानस्तुति : ऋग्वेद की लोकोपयोगी ऋचाओं में दानस्तुति का प्रकरण भी सम्मिलित है। यह सूक्त 1.126 में प्रस्तुत है। अन्य ग्रन्थों में ऐसी दानस्तुतियाँ प्रशस्तिकारों की रचनाएँ हैं, जिन्हें उन्होंने अपने संरक्षकों के गुणगानार्थ बनाया था। ये कहीं-कहीं ऋषियों तथा उनके संरक्षकों की वंशावली भी प्रस्तुत करती हैं। साथ ही ये वैदिक कालीन जातियों के नाम तथा स्थान का भी बोध कराती हैं।

दाम्पत्याष्टमी : कार्तिक कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। यह तिथिव्रत है। वर्ष को चार भागों में विभाजित किया जाता है। दर्भों से भगवती उमा तथा महेश्वर की प्रतिमाएँ बनाकर पुष्प, नैवेद्य, धूप से प्रतिमास भिन्न-भिन्न नामों से उनका पूजन किया जाता है। वर्ष के अन्त में किसी ब्राह्मण को सपत्नीक भोजन कराकर रक्त वस्त्र तथा सोने की बनी हुई दो गायें दक्षिणा में दी जाती हैं। इससे व्रती पुत्र तथा विद्या प्राप्त करता हुआ शिवलोक को जाता है और मोक्ष की कामना हो तो वह भी प्राप्त होता है।

दाम : रस्सी अथवा पेटी जिसका उल्लेख, ऋग्वेद तथा परवर्त्ती साहित्य में हुआ है। इसका प्रारम्भिक अर्थ बन्धन ही है। ऋग्वेद (1.162.8) में इसका प्रयोग अश्वमेध के घोड़े को बाँधने वाली रस्सी के अर्थ में हुआ है। साथ ही बछड़े को बाँधने के अर्थ में भी इस शब्द का प्रयोग (ऋ० 2.28.7) पाया जाता है।

दामोदर : कृष्ण का एक पर्याय। कृष्ण बड़े नटखटट थे। यशोदा ने एक बार उनके उदर (पेट) को दाम (रस्सी) से बाँधकर ऊखल में लगा दिया था, जिससे वे बाहर न भाग जायँ। तब से वे दामोदर नाम से प्रसिद्ध हो गये।

दामोदरदास : राधावल्लभ सम्प्रदाय के एक भक्तकवि, जो सत्रहवीं शती के उत्तरार्ध में हो गये हैं। इनकी 'सेवक वानी' तथा अन्य रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनका उपनाम 'सेवकजी' था।

दामोदर मिश्र : इनका उद्भव ग्यारहवीं शती में हुआ था। ये रामभक्त थे। इन्होंने 'हनुमन्नाटक' नामक एक नाटक लिखा जो संस्कृत के राम साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है।

दामोदराचार्य : तैत्तिरीयोपनिषद् पर लिखे गये 'आनन्दभाष्य' (आनन्दतीर्थ विरचित) पर दामोदराचार्य ने एक वृत्ति लिखी है। छान्दोग्य एवं केनोपनिषद् पर भी इनकी टीकाएँ और वृत्तियाँ हैं। मुण्डकोपनिषद् पर भी इनकी रची टीका या भाष्य था, ऐसा कहा जाता है।

दाय : ऋग्वेद (10.114.10) में दाय का प्रयोग श्रमपारितोषिक के अर्थ में हुआ है, किन्तु आगे चलकर इसका अर्थ उत्तराधिकार हो गया। अर्थात् पिता की सम्पत्ति पुत्रों में उसके जीवनकाल या मरने पर विभाजित होगी और उस पर पुत्रों का उत्तराधिकार होगा। तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है कि मनु ने अपनी सम्पत्ति पुत्रों को बाँट दी। ऐतरेय ब्राह्मण (5.14) में कहा गया है कि मनु की सम्पत्ति उसके जीवन काल में ही पुत्रों ने बाँट ली तथा बूढ़े पिता को नाभानेदिष्ठ पर छोड़ दिया। जैमिनीय ब्राह्मण (2.156) में कहा गया है कि पिता के जीवन काल में ही चार पुत्रों ने बूढ़े अभिप्रतारित की सम्पत्ति बाँट ली थी। शुनःशेप की कथा से यह प्रकट होता है कि पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति के अधिकारी पिता के साथ-साथ होते थे, जब तक वे उसे बाँटने के लिए पिता को बाध्य न करें। शतपथ ब्राह्मण तथा निरुक्त के अनुसार स्त्री सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी नहीं होती थी। वह अपने भाइयों से पोषण पाती थी। उत्तराधिकारी दायाद कहलाता है।

परवर्ती धर्मशास्त्र में दाय का बहुत विस्तार किया गया है। दाय के लिए उपयुक्त सामग्री क्या है? दाय कब मिल सकता है? किसको मिल सकता है? किस अनुपात में मिलेगा? आदि प्रश्नों पर सविस्तार विचार हुआ है। मध्ययुग में इसके दो सम्प्रदायों का उदय हुआ--(1) मिताक्षरा सम्प्रदाय, जो याज्ञवल्क्यस्मृति के ऊपर विज्ञानेश्वर की टीका 'मिताक्षरा' पर आधारित था। यह 'जन्मनास्वत्व' सिद्धान्त को मानता था। इसके अनुसार पिता के जीवन काल में ही पुत्रों को दाय मिल सकता है; उसके जीतेजी पुत्र अपना भाग अलग करा सकते हैं। इसका प्रचार बंगाल को छोड़कर प्रायः समस्त भारत में है। (2) दायभाग सम्प्रदाय, जो जीमूतवाहन के निबन्ध ग्रन्थ 'दायभाग' के ऊपर आधारित है। यह 'उपरमस्वत्व' सिद्धान्त को मानता है। इसके अनुसार पिता की मृत्यु के पश्चात् ही पुत्रों को दाय मिल सकता है, उसके जीतेजी अनीश (अधिकाररहित) होते हैं। इसका प्रचार बंगाल में है।

दायशतक : वेङ्कटनाथ वेदान्ताचार्य (विक्रम की चतुर्दश शताब्दी) रचित उत्तराधिकार सम्बन्धी एक ग्रन्थ। आयन्न दीक्षित के गुरु वेङ्कटेश (18वीं शताब्दी) ने भी 'दायशतक' नामक एक ग्रन्थ लिखा है।

दारिद्र्यहर षष्ठी : वर्ष भर प्रतिमास प्रत्येक षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इसमें भगवान् गुह (स्कन्द) का पूजन होता है।

दाल्भ्य मुनि : शुक्ल यजुर्वेद के 'प्रातिशाख्य सूत्र' (कात्यायन कृत) में यह नाम उल्लिखित है। दाल्भ्य मुनि ने आयुर्वेद विषयक एक ग्रन्थ भी लिखा था जिसे 'दाल्भ्यसूत्र' कहते हैं।

दावसु आङ्गिरस : पञ्चविंश ब्राह्मण (25.5,12,14) में वर्णित सामगान के रचयिता एक ऋषि।

दाश : धीवर अर्थात् मछुवा, जो नाव के द्वारा शुल्क लेकर लोगों को नदी के पार ले जाता है। यजुर्वेद की पुरुषमेध वाली बलितालिका में इसका उल्लेख है।

दास : (1) ऋग्वेद में दस्युओं के सदृश दासों को भी देवों का शत्रु कहा गया है, किन्तु कुछ परिच्छेदों में आर्यों के मानव शत्रुओं के लिए भी यह शब्द व्यवहृत हुआ है। ये पुरों (दुर्गों) के अधिकारी कहे गये हैं तथा इनके विशों (गणों) का वर्णन है। ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर आर्यों एवं दास व दस्युओं के धार्मिक मतभेदों की चर्चा हुई है। अनेक बार दासों को सेवा का काम करने पर बाध्य किया गया था, इसलिए इस शब्द का अर्थ आगे चलकर 'सेवक' समझा जाने लगा। साथ ही दास की स्त्रीलिंग दासी का भी प्रयोग आरम्भ हुआ। जो स्त्रियाँ पारिवारिक सेवाकार्य करती थीं वे 'दासी' कहलाती थीं।

(2) धर्मशास्त्र में कई प्रकार के दासों का वर्णन है, इससे स्पष्ट है कि दासत्व विधितः मान्य था। `दास` की परिभाषा इस प्रकार दी हुई है: `जब कोई स्वतन्त्र व्यक्ति स्वेच्छा से अपने को दूसरे के लिए दान कर देता है तब वह उसका दास बन जाता है` (`स्वतन्त्रस्यात्मनो दानाद्दासत्वं दासवद् भृगुः।` कात्यायन, `व्यवहारमयूख` में उद्धृत)। इसके अतिरिक्त अन्य कारणों से भी दासत्व उत्पन्न हो जाता है। मनुस्मृति (8.415) के अनुसार सात प्रकार के दास होते हैं :

ध्वजाह्रतो भक्तदासों गृहजः क्रीतदत्रिमौ। पैतृको दण्डदासश्च सप्तैता दासयोनयः॥

[ध्वजाह्यत (युद्ध में बन्दी बनाया हुआ), जीविका के लिए स्वयं समर्पित, अपने घर में दास से उत्पन्न, क्रय किया हुआ, दान में प्राप्त, उत्तराधिकार में प्राप्त और विधि से दण्डित ये दास के सात प्रकार हैं।]

नारदस्मृति के अनुसार पन्द्रह प्रकार के दास होते थे। दासों के साथ व्यवहार करने और उनके मुक्त होने के नियम भी धर्मशास्त्रों में दिये हुए हैं।

दासबोध : शिवाजी के गुरु समर्थ स्वामी रामदास द्वारा रचित एक आध्यात्मिक ग्रन्थ। मानवता के उद्बोधन के लिए इसमें सुन्दर और प्रभावशाली उपदेश हैं। महाराष्ट्र में इस ग्रन्थ का बहुत आदर है। हिन्दी भाषा में भी इसका अनुवाद प्रकाशित हो गया है।

दास शर्मा : मलय देशवासी वादपुत्र पण्डित आतर्त्तीय ने शाङ्खायनसूत्र का भाष्य लिखा है। इसमें से नवें, दसवें और ग्यारहवें अध्याय का भाष्य नष्ट हो गया था। दास शर्मा ने 'मञ्जूषा' नामक टीका लिखकर इन तीन अध्यायों का भाष्य पूरा किया है।

दिक् : वैशेषिक मतानुसार 'दिक्' या दिशा सातवाँ पदार्थ है। यह 'काल' को सन्तुलित करता है। यह वस्तुओं का स्थान निर्देश करता हुआ उन्हें नष्ट होने से बचाता है।

दिग्विजयभाष्य : माधवाचार्य रचित 'शङ्करदिग्विजय' पर आनन्दगिरि एवं धनपति ने भाष्य लिखा है जो 'दिग्विजय भाष्य' नाम से प्रसिद्ध है।

दिधिषु : ऋग्वेद में देवर को 'दिधिषु' कहा गया है, जो किसी स्त्री के पति के मरने पर अन्त्येष्टि के समय उसके पति का स्थान ग्रहण करता था। 'नियोग' में भी यह देवर ही होता था, जिसे पुत्रहीन स्त्री पति के मरने पर पुत्र प्राप्ति के लिए ग्रहण करती थी। यह शब्द पूषा देवता के लिए भी प्रयुक्त होता है, जिसने 'सूर्या' को पत्नी रूप में ग्रहण किया था।

बड़ी बहिन से पहले विवाहित छोटी बहिन का पति भी दिधिषु कहलाता है।

दिनक्षय : जब 24 घंटे के एक दिन में तिथियाँ समाप्त हों तो वह दिन (तिथि) क्षय होता है। दे० चतुर्वर्गचिन्तामणि, काल, 626। कालनिर्णय (260) वसिष्ठ को उद्धृत करते हुए कहता है कि एक दिन में यदि तीन तिथियों का स्पर्श होता हो तो वह समय 'दिन का क्षय' कहा जाता है। उस दिन व्रत, उपवास निषिद्ध हैं। इस दिन किया हुआ दान सहस्रगुने पुण्यों की प्राप्ति कराता है।

दिव् : संसार तीन भागों--पृथ्वी, वायु अथवा वायुमण्डल तथा स्वर्ग अथवा आकाश (दिव्) में विभाजित है। आकाश एवं पृथ्वी (द्यावा-पृथिवी) मिलकर विश्व बनाते हैं। वातावरण आकाश में सम्मिलित है। विद्युत् एवं सौरमण्डल अथवा इसी प्रकार के अन्य मण्डल आकाश में सम्मिलित हैं।

विश्व के तीन विभाजन क्रमशः पृथ्वी (मिट्टी), वायु एवं आकाश नामक तीन तत्वों में प्रतिबिम्बित हैं। इसी प्रकार एक सर्वोच्च, एक मध्यम तथा एक निम्नतम तीन आकाश कहे गये हैं। अथर्ववेद में तीनों आकाशों का अन्तर 'उदन्वती' (जलसम्पन्न), 'पीलुमती' (कणसम्पन्न) एवं प्रद्यौ विशेषणों से प्रकट होता है। आकाश को व्योम तथा रोचन भी कहते हैं।

दिवाकर : (1) सूर्य का पर्याय। इसका अर्थ है 'दिन उत्पन्न करने वाला'।

(2) दिवाकर नामक एक सूर्योपासक से सुब्रह्मण्य नामक ग्राम में स्वामी शङ्कराचार्य के मिलन की बात 'शङ्करदिग्विजय' में कही गयी है।

दिधिषुपति : धर्मसूत्रों में यह शब्द उन लोगों की तालिका में उद्दिष्ट है जो अनियमित विवाह किये हुए हों। परम्परागत इसका अर्थ द्वितीय बार विवाहित स्त्री का पति है। मनु के अनुसार यह शब्द देवर के लिए व्यवहृत है जो अपनी भाभी से भाई की मृत्यु के बाद सन्तानप्राप्ति के लिए वैवाहिक सम्बन्ध करता है। दिधिषु से विधवा का भी बोध होता है जो अन्य पति के चुनाव की इच्छा करती हो। दूसरी परम्परा में दिधिषु से उस बड़ी बहिन का बोध होता है जिसकी छोटी बहिन उसके पहले व्याही गयी है। इसकी पुष्टि 'अग्रेदिधिषुपति' शब्द अर्थात् अपने से पहले ब्याही छोटी बहिन का पति से होती है। विष्णु के अनुसार दिधिषु ऐसी बड़ी बहिन के लिए प्रयुक्त है जिसके विवाह की व्यवस्था उसके पिता-माता न कर सकें और जो अपना पति स्वयं चुने (कुर्यात् स्वयंवरम्)।

दिवाकरव्रत : हस्त नक्षत्र युक्त रविवार के दिन इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। यह सात रविवारों तक किया जाना चाहिए। यह वारव्रत है। भूमि पर द्वादश दल वाले कमल को रखकर, द्वादश आदित्यों में से प्रत्येक को एक-एक दल पर स्थापित करके सूर्य का पूजन करना चाहिए। आदित्यों का क्रम यह होगा--सूर्य, दिवाकर, विवस्वान्, भंग, वरुण, इन्द्र, आदित्य, सविता, अर्क, मार्तण्ड, रवि तथा भास्कर। वैदिक तथा अन्य मन्त्रों का पाठ करना चाहिए।

दिव्य. : अपराध परीक्षा की कुछ कठोर सांकेतिक विधियाँ, जो अग्नि, जल आदि की सहायता से की जाती थीं। दिव्य विधि का प्रयोग परवर्ती साहित्य में बहुत पीछे हुआ है, किन्तु वैदिक साहित्य में इस प्रकार की परीक्षा का प्रसंग अनेक स्थानों में आया है। अथर्ववेद (2.12) में उद्धृत अग्निपरीक्षा जिसे वेबर, लुडविग, जिमर तथा दूसरों ने मान्यता दी है, उसे ग्रिल, ब्लूम--फील्ड तथा ह्विटने ने अमान्य ठराया है। पञ्चविंश ब्राह्मण में भी एक ऐसी ही परीक्षा का वर्णन है। दहकती हुआ कुल्हाणी वाली एक ऐसी ही परीक्षा का वर्णन है। दहकती हुई कुल्हाणी वाली एक प्रकार की परीक्षा का भी उल्लेख छान्दोग्य उ० में है। लुडविग एवं ग्रिफिथ ऋग्वेद के एक अन्य परिच्छेद में दीर्घतमा की अग्नि एवं जल परीक्षा के प्रसंग का उल्लेख करते हैं। वेबर के कथानुसार तुलापरीक्षा का शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है (11.2,7,33)।

परवर्ती धर्मशास्त्र के व्यवहार काण्डों में जहाँ वादों (अभियोगों) के निर्णय के सम्बन्ध में प्रमाणों पर विचार किया गया है, वहाँ 'दिव्य' के विविध प्रकारों का वर्णन पाया जाता है।

दिव्य श्वान : दो दैवी श्वान मैत्रायणी सं० (1.6,9) तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण (1.1,2.4-6) में उल्लिखित सूर्य तथा चन्द्र हैं। अथर्व० में भी 'दिव्य श्वान' से सूर्य का बोध होता है।

दिव्याचार भाव : यह शाक्त साधना की मानसिक स्थिति है। शक्ति की साधना करने वाले तीन भावों का आश्रय लेते हैं, उनमें दिव्य भाव से देवता का साक्षात्कार होता है। वीर भाव से क्रियासिद्धि होती है, साधक साक्षात् रुद्र हो जाता है। पशु भाव से ज्ञानसिद्धि होती है। इन्हें क्रम से दिव्याचार, वीराचार और पश्वाचार भी कहते हैं। पशु भाव से ज्ञान प्राप्त करके साधक वीराचार द्वारा रुद्रत्व प्राप्त करता है। तब दिव्याचार द्वारा देवता की तरह क्रियाशील हो जाता है। इन भावों का मूल निस्सन्देह शक्ति है।

दिह, दिहवार : ग्रामदेवता को 'दिह' या 'दिहवार' कहते हैं। इनकी स्थापना गाँव के सीमान्तर्गत किसी वृक्ष (विशेष कर नीम वृक्ष) के तले की जाती है। उत्तर प्रदेश में इनकी पूजा होती है। ये ग्राम की रक्षा भूत-प्रेत एवं बीमारियों से करते हैं। कहीं-कहीं इसका उच्चारण 'डीह' भी पाया जाता है। मूलतः दिह यक्ष जान पड़ता है जो ग्राम और खेतों के रक्षक के रूप में पूजा जाता है। कुछ वर्षों के अन्तराल पर इसकी विस्तृत पूजा होती है जिसमें दिह (यक्ष) और यक्षिणी का विवाह एक मुख्य क्रिया है। इसमें नगाड़े के वादन के साथ 'पचड़ा' गया जाता है, जिसमें अधिकांश 'दिह' का स्तुतिगान होता है।

दीक्षा : किसी सम्प्रदाय की सदस्यता प्राप्त करने के लिए उस सम्प्रदाय के गुरु से शुभ मुहूर्त में जो उपदेश लिया जाता है, वह दीक्षा कही जाती है। विभिन्न प्रकार की दीक्षाओं के लिए विविध प्रकार के मन्त्रों का विधान है। इस शब्द का मूल सम्बन्ध वैदिक यज्ञों से है। वैदिक यज्ञ का अनुष्ठान करने के पूर्व उसकी दीक्षा लेनी पड़ती थी। दीक्षा लेने के पश्चात् लोग दीक्षित कहलाते थे, तभी वे अनुष्ठान के लिए अधिकारी माने जाते थे। इसका सामान्य अर्थ है किसी धार्मिक कृत्य में प्रवेश की योग्यता प्राप्त करना।

दीक्षित : (1) यज्ञानुष्ठान की दीक्षा लेने वाला।

(2) अप्पय दीक्षित के पितामह का नाम आचार्य दीक्षित था। आचार्य दीक्षित भी अद्वैत सम्प्रदाय के अनुयायियों में गिने जाते हैं। इन्होंने बहुत से यज्ञ किये थे इसी से ये 'दीक्षित' उपनाम से विभूषित हुए। इनका निवासस्थान काञ्चीपुरी था।

दीपमालिका (दीपावली, दिवाली) : हिन्दुओं के चार प्रमुख त्योहारों में से एक। विशेष कर यह वैश्यवर्ग का त्योहार है किन्तु सभी वर्ग वाले इसे उत्साहपूर्वक मनाते हैं। यह सारे भारत में प्रचलित है। दीपमालिका कार्तिक की अमावस्या को मनायी जाती है। इस अवसर पर मकानों की पहले से सफाई, सफेदी और सजावट हुई रहती है। रात को दीपदान होता है। दीपों की मालाएँ सजायी जाती हैं। इसीलिए इसका नाम 'दीपमालिका' है। इस दिन महालक्ष्मी तथा सिद्धिदाता गणेश की पूजा होती है। साधक लोग रात भर जागकर जप आदि करते हैं। इसी रात को जुआ खेलने की बुरी प्रणाली चल पड़ी है, जिसमें कुछ लोग अपने भाग्य की परीक्षा करते हैं।

दीपव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें भगवती लक्ष्मी तथा नारायण का पञ्चामृत से स्नान कराकर वैदिक मन्त्रों तथा स्तुतियों से प्रणाम निवेदन करते हुए पूजन होता है। दोनों प्रतिमाओं के सम्मुख दीप प्रज्वलित किया जाता है।

दीप्त आगम : यह एक शैव आगम है।

दीप्तिव्रत : एक वर्ष तक प्रति दिन सायंकाल इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें व्रती को तेल निषिद्ध है। वर्ष के अन्त में स्वर्ण का दीपक, लघु स्थाली, त्रिशूल और एक जोड़ा वस्त्र का दान विहित है। इसके आचरण से मनुष्य इहलोक में मेधावी होता है तथा अन्त में रुद्रलोक प्राप्त करता है। यह संवत्सरव्रत है।

दीर्घनीथ : ऋग्वेद की एक ऋचा (8.50.10) में दीर्घनीथ को यज्ञकर्ता कहा गया है।

दीर्घश्रवा : शाब्दिक अर्थ है 'बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त'। यह एक राजर्षि का नाम है, जिन्होंने पञ्चविंश ब्राह्मण के अनुसार राज्य से निष्कासित होने पर भूख से पीड़ित होकर किसी विशेष साम मन्त्र का दर्शन और गान किया। इस प्रकार तब उनको भोजन प्राप्त हुआ। ऋग्वेद के एक परिच्छेद में औसिज (वणिक्) को 'दीर्घश्रवा' कहा गया है जो सायण के मतानुसार व्यक्तिवाचक नाम है तथा राथ के मतानुसार विशेषण है।

दीर्घायु : वैदिक भारतीयों (ऋ० वे० 10.62,2; अ० वे० 1.22,2) की प्रार्थना का एक मुख्य विषय था 'दीर्घायु की कामना'। जीवन का आदर्श लक्ष्य 100 वर्ष जीना था। अथर्ववेद (2.13,28,29; 7.32) में अनेक क्रियाएँ दीर्घायु के लिए भरी पड़ी हैं जो 'आयुष्याणि' कहलाती हैं।

दीर्घायुष्य : दे० 'दीर्घायु'।

दुग्धव्रत : भाद्रपद की द्वादशी को दुग्ध का पूर्णरूप से परित्याग कर यह व्रतारम्भ किया जाता है। निर्णयसिन्धु, 141 ने इस विषय में भिन्न सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। उसके अनुसार व्रती खीर अथवा दही ग्रहण कर सकता है किन्तु दुग्ध निषिद्ध है। दे० वर्षकृत्यदीपिका, 77, स्मृतिकौस्तुभ, 254।

दुग्धेश्वरनाथ : उत्तर प्रदेश, पं. देवरिया जिले के रुद्रपुर कसवा के पास दुग्धेश्वरनाथ महादेव का मन्दिर है। इन्हें महाकाल का उपलिङ्ग माना जाता है। यह स्थान बहुत प्राचीन है। नगर और दुर्ग के विस्तृत अवशेष तथा वैष्णव, शैव, जैन एवं बौद्ध मूर्तियाँ यहाँ पायी जाती हैं। इसकी चर्चा फाहियान ने अपने यात्रावर्णन में की है। पहले यहाँ मेला लगता है। मुख्य मन्दिर के आसपास अनेक नवीन मन्दिर हैं।

दुन्दुभि : एक चर्मावृत आनद्ध प्रकार का बाजा, जो युद्ध एवं शान्ति दोनों में श्रुवहृत होता था। ऋग्वेद तथा उसके परवर्ती साहित्य में प्रायः इसका उल्लेख हुआ है। भूमि दुन्दुभि एक विशेष प्रकार का नगाड़ा था, जो जमीन को खोदकर उसके गड्ढे को चमड़े से मढ़कर बनाया जाता था। इसका प्रयोग महाव्रत के समय सूर्य की वापसी के विरोधी प्रभावों को रोकने के लिए होता था। दुन्दुभि वादक भी पुरुषमेघ की बलिवस्तुओं में सम्मिलित है।

दुर्गन्थदुर्भाग्यनाशनत्रयोदशी : ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। तीन वृक्षों, यथा श्वेत मन्दार अथवा अर्क, लाल करवीर तथा नीम का पूजन इसमें किया जाता है। यह व्रत सूर्य को बहुत प्रिय है। इसको प्रतिवर्ष करना चाहिए। इससे शरीर की दुर्गन्ध तथा दुर्भाग्य नष्ट हो जाता है।

दुर्गा : दुर्गति और दुर्भाग्य से बचाने वाली देवी। इनका उल्लेख सर्वप्रथम महाभारत में आता है। वहाँ उनकी स्तुति महिषमर्दिनी तथा कुमारी देवी के रूप में हुई है, जो विन्ध्य पर्वत में निवास करती हैं तथा मन्दिरा, मांस, पशुबलि से प्रसन्न होती हैं। अपनी सुचरित्रता से वे स्वर्ग को धारण करती हैं। वे कृष्ण की बहिन भी हैं, उन्हीं की तरह घने नीले रङ्ग की तथा मयूरपंख की कलँगी धारण करती हैं। इनका शिव से कोई सम्बन्ध यहाँ नहीं दिखाया गया है।

महाभारत (6.23) में ही एक और परिच्छेद में ये देवी कृष्णकथा से सम्बन्धित हैं तथा यहाँ उन्हें शिव की पत्नी उमा कहा गया है। उन्हें वेद, वेदान्त, सुचरित्रता तथा अन्य अनेक गुणों से संयुक्त बतलाया गया है। किन्तु वे कुमारी नहीं हैं।

हरिवंश के दो अध्यायों तथा मार्कण्डेय पुराण के एक अंश को 'देवीमाहात्म्य' कहते हैं। हरिवंश का रचनाकाल चौथी या पाँचवी शती ई० बताया जाता है, इसलिए देवीमाहात्म्य अधिक से अधिक छठी शताब्दी ई० का होना चाहिए, क्योंकि यह बाण कवि रचित 'चण्डीशतक' (7वीं शताब्दी का प्रारंभिक काल) की पृष्ठभूमि का काम करता है। हरिवंश के अध्यायों में दुर्गा के सम्प्रदाय के धार्मिक दर्शन का वर्णन पाया जाता है।

देवी के उपासकों का एक सम्प्रदाय है तथा वैष्णव और शैवों की तरह इस मत के अनुसार देवी ही उपनिषदों का ब्रह्म हैं। दैवी शक्ति का विचार यहाँ सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। ब्रह्म जब कर्म के नियमों से बाधित नहीं है तो वह अवश्य निष्क्रिय होगा और जब ईश्वर निष्क्रिय है तो उसकी पत्नी ही उसकी शक्ति होगी। इसीलिए वे (शक्ति, देवी) और भी पूजा के योग्य हैं तथा व्यावहारिक मनुष्य की उनके प्रति और भी निष्ठा बढ़ जाती है।

देवीमाहात्म्य में 700 श्लोक हैं अतएव यह 'सप्तशती' भी कहलाता है। इसमें देवों की रक्षा के लिए दुर्गा के द्वारा अनेक दानवों को मारने की चर्चा है। उनका रूप युद्ध के बीच बड़ा ही भयंकर हो गया है। यहाँ उनके सम्प्रदाय के नियमादि तो नहीं दिये जा रहे हैं किन्तु यह प्रकट है कि ग्रामीण सरलवृत्ति के लोग इनकी पूजा में मदिरा और मांस का प्रयोग करते थे। सम्भवतः उन दिनों देवी को नरबलि भी देते थे जो अब वर्जित है। धीरे धीरे इस शाक्त पूजा पद्धति पर वैष्णव धर्म का प्रभाव पड़ा। दुर्गा अब बहुत अंश में वैष्णवी हो चुकी हैं। भागवत कृष्णसम्प्रदाय के साथ दुर्गा का सम्बन्ध इसी तथ्य को प्रकट करता है।

दुर्गा की मूर्ति का अंकन शक्ति के प्रतीक के रूप में हुआ है। वे अत्यन्त सुन्दरी (त्रिपुरसुन्दरी) परन्तु महती शक्तिशालिनी के रूप में दिखायी जाती हैं। उनकी आठ, दस, बारह अथवा अठारह भुजाएँ होती हैं, जिनमें अस्त्र-शस्‍त्र धारण किये जाते हैं। उनका वाहन सिंह है, जो स्वयं शक्ति का प्रतीक है। वे अपनी शक्ति (एक शस्त्र का नाम) से महिषासुर (तमोगुण के प्रतीक) का वध करती हैं। दुर्गापूजा अथवा दुर्गोत्सव आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है। इसके प्रथम नौ दिनों को नवरात्र कहते हैं। इसमें अनेक प्रकार की धार्मिक क्रियाओं का अनुष्ठान किया जाता है।

दुर्गाचन्द्रकलास्तुति : व्याख्या समेत यह स्तुति कुवलयानन्दकृत एक निबन्ध ग्रन्थ है जो शाक्त सम्प्रदाय में बहुत लोकप्रिय है।

दुर्गाशतनामस्तोत्र : विश्वसारतन्त्र में यह स्तोत्र पाया जाता है। इस तन्त्र में भी 64 तन्त्रों की तालिका दी हुई है, जिसका उल्लेख 'आगमतत्त्वविलास' में है।

दुर्गोत्सव : दोनों नवरात्रों (शारदीय एवं वसन्तकालीन) में दुर्गा की पूजा होती है। किन्तु शारदीय पूजा का माहात्म्य बहुत बड़ा है, क्योंकि परम्परा के अनुसार भगवान् राम ने इस अवसर पर दुर्गापूजा की थी। यह भारत का सम्भवतः सबसे बड़ा व्यापक उत्सव है। षष्ठी से नवमी तक विशेष पूजा का आयोजन होता है तथा दशमी को श्रीमूर्ति का विसर्जन होता है। देवमूर्ति के निर्माण एवं सजावट में लाखों रुपयों का खर्च होता है। भारतीय धर्म एवं कला का इससे बड़ा कोई सार्वजनिक दृश्य नहीं उपस्थित किया जा सकता है।

दुर्गानवमी : आश्विन शुक्ल नवमी को यह व्रत प्रारम्भ होकर एक वर्ष तक चलता है। इसमें पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से दुर्गा का पूजन होता है। चार-चार मासों के तीन भाग करके प्रत्येक में भिन्न-भिन्न नामों से दुर्गा का पूजन किया जाता है, जैसे आश्विन में दुर्गा (जिसे मङ्गल्या तथा चण्डिका भी कहा जाता है) के नाम से।

इस व्रत का एक और प्रकार यह है कि किसी भी नवमी को व्रतारम्भ हो सकता है। क्योंकि इसी दिन भद्रकाली को समस्त योगिनियों की अध्यक्ष बनाया गया था।

दुर्गापूजा : यह भारत का प्रसिद्ध व्रतोत्सव है। बंगाल में इसका विशेष रूप से प्रचार है। आश्विन शुक्ल नवमी तथा दशमी को दुर्गा का विविध प्रकार से विधिवत् पूजन होता है। दे० दुर्गानवमी।

दुर्गाव्रत : श्रावण शुक्ल अष्टमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। एक वर्ष तक चलता है। प्रति मास देवी के भिन्न-भिन्न नामों से उनका पूजन किया जाता है। व्रती को चाहिए कि वह भिन्न-भिन्न स्थानों की रज अपने शरीर पर मर्दन करे। नैवेद्य भी विभिन्न प्रकार का अर्पण करना चाहिए। कृत्यकल्पतरु (225--232) में इसे दुर्गाष्टमी के नाम से कहा गया है।

दुर्गाष्टमी : दे० 'दुर्गाव्रत'।

दुर्गोत्सव : दे० 'दुर्गापूजा'।

दुःखान्त : पाशुपत शैवों के पाँच मुख्य तत्व हैं--(1) पति (कारण), (2) पशु (कार्य), (3) योगाभ्यास, (4) विधि (विभिन्न आवश्यक अभ्यास) और (5) दुःखान्त (दुःख से मुक्ति)। पाशुपत सम्प्रदाय में यह मोक्ष का समानार्थी शब्द है।

दुर्वासा : पौराणिक साहित्य के ये प्रमुख चरित्रनायक हैं। अत्यन्त क्रोध और शाप देने की प्रवृत्ति के लिए ये प्रसिद्ध हैं। दुर्वासा का शाब्दिक अर्थ है 'वह व्यक्ति जो क्रोध में आकर अपने वासस् (कपड़े) आदि फाड़ दे।' इनकी अनेक कहानियाँ पुराणों में पायी जाती हैं। अभिज्ञानशाकुन्तल में दुर्वासा का शाप प्रसिद्ध है। आतिथ्य में त्रुटि हो जाने के कारण इन्होंने शकुन्तला को शाप दिया था कि उसका पति दुष्यन्त उसको भूल जायेगा। एक बार ये स्वयं भगवान् विष्णु के शाप से पीड़ित हुए थे।

दुर्वासा आश्रम : प्रयाग में त्रिवेणीसंगम से गङ्गा पार होकर गङ्गा किनारे पर लगभग छः मील चलने पर छतनगा (शङ्खमाधव) से चार मील दूर ककरा ग्राम पड़ता है। यहाँ दुर्वासा मुनि का मन्दिर है। श्रावण में मेला लगता है।

दुर्वासा उपपुराण : उपपुराणों में एक 'दुर्वासा उपपुराण' भी है।

दुर्वासातन्त्र : मिश्रित तन्त्रों में से यह एक तन्त्र ग्रन्थ है।

दुर्वासाधाम : मऊ-शाहगंज (जौनपुर) लाइन पर खुरासो रोड स्टेशन से तीन मील दक्षिण गोमती के तट पर यह स्थान है। कहा जाता है कि यहाँ महर्षि दुर्वासा ने तपस्या की थी। यहाँ पर दुर्वासा का एक बड़ा मन्दिर है। कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ मेला लगता है।

दुल्हाराम : रामसनी सम्प्रदाय के तीसरे गुरु। इन्होंने लगभग 10000 छन्द तथा 4000 दोहों की रचना की थी। इस सम्प्रदाय में इनकी रचना बहुत लोकप्रिय है।

दूत : संवादवाहक के रूप में इस का उल्लेख ऋग्वेद तथा परवर्त्ती साहित्य में अनेक स्थानों पर हुआ है। दूत के कर्त्तव्यों और धर्मों का उल्लेख अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थों में हुआ है। दूत के कुछ विशेषाधिकार सर्वमान्य थे। वह अवध्य था और उसका वध करने से पाप होता था।

दूर्वा : (1) एक प्रकार की माङ्गलिक घास, जिसकी गणना पूजा की शुभ सामग्रियों में है। यह गणपतिपूजन की आवश्यक वस्तु है।

(2) भाद्र शुक्ल अष्टमी को दूर्वा अष्टमी नाम से पुकारा जाता है।

दूर्वागणपतिव्रत : श्रावण अथवा कार्तिक मास की चतुर्थी को प्रारम्भ कर दो या तीन वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है। गणेशजी की मूर्ति का लाल फूलों, बिल्वपत्रों, अपामार्ग, शमी के पल्लव, दूर्वा तथा तुलसीदलों से तथा अन्यान्य उपचारों से पूजन होता है। ऐसे मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है जिनमें गणेशजी के दस नामों का उल्लेख हो। (सौरपुराण में शिवजी स्कन्द से कहते हैं कि इस व्रत का आचरण पार्वती ने किया था।)

दूर्वात्रिरात्रव्रत : (1) यह व्रत विशेष कर महिलाओं के लिए है। भाद्र शुक्ल त्रयोदशी को इसका आरम्भ होता है। इसमें पूर्णिमा तक तीनों दिन उपवास करना चाहिए। उमा तथा महेश्वर की प्रतिमाओं का पूजन होता है। धर्म तथा सावित्री को दूर्वा के मध्य में विराजमान करके उनका पूजन करना चाहिए। नृत्य, गानादि मांगलिक कार्य करते हुए रात्रि में जागरण और सावित्री के आख्यान का पाठ करना चाहिए। प्रतिपदा को तिल, घी तथा समिधाओं से होम करने का विधान है। इससे सौख्य, समृद्धि तथा सन्तान की प्राप्ति होती है। कहा जाता है कि दूर्वा का आविर्भाव भगवान् विष्णु के केशों से हुआ है तथा कुछ अमृतबिन्दु इस पर गिर पड़े थे। दूर्वा अमरत्व का प्रतीक है।

(2) इसके अन्य प्रकारों में देवी के रूप में दूर्वा का ही पूजन बताया गया है। दूर्वा के पूजन में फूल, फल आदि का प्रयोग किया जाता है। दो मन्त्र बोले जाते हैं, जिनमें एक यह है : 'हे दूर्वे! तू अमर है, तेरी देव तथा असुर प्रतिष्ठा करते हैं, मुझे सौभाग्य, सन्तान तथा सुख प्रदान कर।' ब्राह्मणों, मित्रों तथा सम्बन्धियों को पृथ्वी पर गिरे हुए तिलों तथा गेहूँ के आटे का बना पक्वान्न खिलाना चाहिए। यदि भाद्रपद मास की अष्टमी को ज्येष्ठ या मूल नक्षत्र हो तो यह व्रत नहीं करना चाहिए और न सूर्य के कन्या राशि पर स्थित होने और न अगस्त्योदय हो चुकने पर।

दूलनदास : सतनामी सम्प्रदाय के एक सन्त-महात्मा। इस सम्प्रदाय. का आरम्भ कब और किसके द्वारा हुआ यह तो ठीक ज्ञात नहीं है, किन्तु सतनामियों और औरंगजेब के बीच की लड़ाई में हजारों सतनामी मारे गये थे। इससे प्रतीत होता है कि यह मत यथेष्ट प्रचलित था और स्थानविशेष में इसने सैनिक रूप धारण कर लिया था। सं० 1800 के लगभग जगजीवन साहब ने इसका पुनरुद्धार किया। इनके शिष्य दूलनदास हुए जो कवि भी थे। ये जीवनभर रायबरेली में निवास करते रहे।

दृढस्यु (आगस्ति) : (अगस्त्य के वंशज) इनका उल्लेख जैमिनीय ब्राह्मण (3.233) में विभिन्दुकीयों के यज्ञकार्यकाल के उद्गाता पुरोहित के रूप में हुआ है।

दृभीक : ऋग्वेद (2.14.3) में एक मनुष्य अथवा दैत्य का नाम, जिसका इन्द्र ने वध किया था।

दर्शन भार्गव : भृगु का एक वंशज। इसका उल्लेख काठक संहिता (16.8) में एक ऋषि के रूप में हुआ है।

दृषद्वती : एक नदी का नाम, जो आधुनिक हरियाणा में कुछ दूर तक सरस्वती के समानान्तर बहती हुई सरस्वती में मिल जाती है। भरत राजकुमारों के कार्यक्षेत्र के वर्णन में दृषद्वती का वर्णन सरस्वती एवं आपया के साथ हुआ है। पञ्चविंशब्राह्मण तथा परवर्ती ग्रन्थों में दृषद्वती एवं सरस्वती का तट यज्ञों के विशेष स्थल के रूप में वर्णित है। मनु ने मध्यदेश की पश्चिमी सीमा इन्हीं दो नदियों को बतलाया है। दृषद्वती और सरस्वती के बीच का प्रदेश मनु के अनुसार 'ब्रह्मावर्त' कहलाता था। दे० 'ब्रह्मावर्त'।

दृष्टिसृष्टिवाद : अद्वैतवेदान्तियों का एक सिद्धान्त 'विवर्तवाद' है, जिसके अनुसार ब्रह्म नित्य और वास्तविक सत्ता है तथा नामरूपात्मक जगत् उसका विवर्त है। इसी मत को औऱ स्पष्ट करने के लिए 'दृष्टिसृष्टिवाद' का सिद्धान्त उपस्थित किया गया है, जिसके अनुसार माया अर्थात् नाम-रूप मन की वृत्ति है। इसकी सृष्टि मन ही करता है और मन ही देखता है। ये नाम-रूप उसी प्रकार मन अथवा वृत्तियों के बाहर की कोई वस्तु नहीं है, जिस प्रकार जड़ चित्त के बाहर की कोई वस्तु नहीं है। इन वृत्तियों का शमन ही मोक्ष है।

देव : यह हिन्दू धर्म का एक महत्‍त्वपूर्ण तत्व है। इसमें एक उच्चतम कल्पना निहित है। इसकी व्युत्पत्ति यास्क के निरुक्त के अनुसार `दान, दीपन, द्योतन, द्यु-स्थान में होने` आदि के अर्थ पर है। इस प्रकार `देव` शब्द विश्व की प्रकाशमय और कल्याणकारी शक्तियों का प्रतीक है। वास्तव में यह विश्व के मूल में रहने वाली अव्यक्त मूल सत्ता के विविध व्यक्त रूपों का प्रतीक है। वेदों में ईश्वरीय शक्ति के विभिन्न रूपों की कल्पना `देव` के रूप में की गयी है। वेद की स्पष्ट उक्ति है `एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, अग्नि यमं मातरिश्वानंमाहु:।` [सत्ता एक है। विद्वान् लोग उसको विविध प्रकार से अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि देवताओं के रूप में कहते हैं।]

पुरुषसूक्त के 17 वें मन्त्र `अद्भ्यः संभृतः... तन्मर्त्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे` के अनुसार परमेश्वर ने मनुष्यशरीर आदि को रचा है, अतः मनुष्य भी दिव्य कर्म करके देव कहलाते हैं और जब ईश्वर की उपासना से विद्या, विज्ञान आदि अत्युत्तम गुणों को प्राप्त होते हैं तब उन मनुष्यों का नाम भी देव होता है, क्योंकि कर्म से उपासना और ज्ञान उत्तम हैं। इसमें ईश्वर की यह आज्ञा है कि जो मनुष्य उत्तम कर्म में शरीर आदि पदार्थों को लगाता है वह संसार में उत्तम सुख पाता है और जो परमेश्वर की प्राप्तिरूप मोक्ष की इच्छा करके उत्तम कर्म उपासना और ज्ञान में पुरुषार्थ करता है, वह उत्तम `देव` कहलाता है।

भागवतों (वैष्णवों) द्वारा देव शब्द का अर्थ वही लगाया जाता है जो हिब्रू शब्द 'एलोहीम' का है। यह शब्द कभी-कभी तो सर्वश्रेष्ठ ईश्वर का अर्थ और कभी उनके मन्त्रवर्ग के देवों, जैसे ब्रह्मा आदि का अर्थ व्यक्त करता है। ये भी पूजा के पात्र होते हैं किन्तु इनकी पूजा श्रद्धामात्र है, उपासना नहीं है। भागवत अनन्य होते हैं, वे बहुदेवों की उपासना नहीं करते।

वैदिक देवमण्डल में बहुत से देवताओं की गणना है जो स्थानक्रम से तीन भागों में विभक्त हैं--(1) पृथ्वी-स्थानीय, (2) अन्तरिक्षस्थानीय और (3) व्योमस्थानीय। इसी प्रकार परिवारक्रम से देवों के तीन वर्ग हैं-- (1) द्वादश आदित्य, (2) एकादश रुद्र और (3) अष्ट वसु। इनमें द्यौ और पृथिवी दो और जोड़ने से तेतीस मुख्य देव होते हैं। पुनः वृद्धिक्रम से तेतीस कोटि देवता माने जाते हैं। जहाँ-जहाँ कोई विभूतितत्त्व पाया जाता है, वहाँ 'देव' की कल्पना की जाती है।

देवकी : कृष्ण की माता का नाम देवकी तथा पिता का नाम वसुदेव है। देवकी कंस की बहिन थी। कंस ने पति सहित उसको कारावास में बन्द कर रखा था, क्योंकि उसको ज्योतिषियों ने बताया था कि देवकी का कोई पुत्र ही उसकी वध करेगा। कंस ने देवकी के सभी पुत्रों का वध किया, किन्तु जब कृष्ण उत्पन्न हुए तो वसुदेव रातोंरात उन्हें गोकुल ग्राम में नन्द-यशोदा के यहाँ छोड़ आये। देवकी के बारे में इससे अधिक कुछ विशेष वक्तव्य ज्ञात नहीं होता है। छा० उपनिषद् में भी देवकीपुत्र कृष्ण (घोर आङ्गिरस के शिष्य) का उल्लेख है।

देवकीपुत्र : कृष्ण का यह मातृपरक नाम छान्दोग्य उपनिषद् (3.17,6) में पाया जाता है। महाभारत के अनुसार देवकी के पिता देवक थे।

कृष्ण का यह पर्याय भागवतों में बहुत प्रचलित है। `ईश्वर` अथवा `ब्रह्म` के रूप में इसका प्रयोग होता है : `एको देवो देवकीपुत्र एव।`

देवजनविद्या : शतपथ ब्राह्मण (13.4,3,10) तथा छान्दोग्य-उपनिषद् (7.1,2,4;2,1.7,1) में गिनाये गये विज्ञानों में से यह एक विज्ञान है। इसको देवविज्ञान अथवा धर्मविज्ञान कहा जा सकता है।

देवता : देवता' शब्द देव का ही वाचक स्त्रीलिङ्ग है, हिन्दी में पुल्लिङ्ग में इसका प्रयोग होता है। मूलतः 33 देवता माने गये हैं--12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र, द्यावा और पृथ्वी। किन्तु आगे चलकर देवमण्डल का विस्तार होता गया और संख्या 33 करोड़ पहुँच गयी। देवताओं का वर्गीकरण कई प्रकार से हुआ है। पहले स्थानक्रम से--(1) द्युस्थानीय (ऊपरी आकाश में रहने वाले), (2) अन्तरिक्षस्थानीय (मध्य आकाश में रहने वाले) और (3) पृथ्वीस्थानीय (पृथ्वी पर रहने वाले); दूसरे परिवारक्रम से, यथा आदित्य, वसु, रुद्र आदि। तीसरे वर्गक्रम से, यथा इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि। चौथे समूहक्रम से, जैसे सर्वदेवाः आदि।

ऋग्वेद के सूक्तों में विशेष रूप से देवताओं की स्तुतियों की अधिकता है। स्तुतियों में देवताओं के नाम अग्नि, वायु, इन्द्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वेदेवा:, सरस्वती, ऋतु, मरुत्, त्वष्टा, ब्रह्मणस्पत्रि, सोम, दक्षिणा, ऋजु, इन्द्राणी, वरुणानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि हैं। जो लोग देवताओं की अनेकता नहीं मानते वे इन सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मा वाचक लगाते हैं। जो लोग अनेक देवता मानते हैं वे भी इन सब स्तुतियों को परमात्मापरक मानते हैं और कहते हैं कि ये सभी देवता और समस्त सृष्टि परमात्मा की विभूति है।

भारतीय गाथाओं और पुराणों में इन देवताओं का मानवीकरण अथवा पुरुषीकरण हुआ। फिर इनकी मूर्तियाँ बनने लगीं। इनके सम्प्रदाय बने और पूजा होने लगी। पहले सब देवता त्रिमूर्ति-ब्रह्म, विषणु और शिव में परिणत हुए थे, अनन्तर देवमण्डल और पूजापद्धति का विस्तार होता गया। निरुक्तकार यास्क के अनुसार देवताओं की उत्पत्ति आत्मा से ही मानी गयी है, यथा

एकस्यात्मनोऽन्ये देवाः प्रत्यङ्गानि भवन्ति।

अर्थात् एक अद्वय आत्मा के ही सब देवता प्रत्यंग रूप हैं। देवताओं के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि `तिस्रो देवताः` अर्थात् देवता तीन हैं, ब्रह्मा, विष्णु और महेश। किन्तु ये प्रधान देवता हैं, जो सृष्टि, स्थिति एवं संहार के नियामक हैं। इनके अतिरिक्त और भी देवताओं की कल्पना की गयी है और महाभारत (शान्तिपर्व) में इनका वर्णक्रम भी स्पष्ट किया गया है, यथा

आदित्याः क्षत्रियास्तेषां विशश्च मरुतस्तथा। अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ॥ स्मृतास्त्वङ्गिरसो देवा ब्राह्मणा इति निश्चयः। इत्येतत् सर्वदेवानां चातुर्वण्य प्रकीर्तितम्॥

[आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुद्गण वैश्य देवता, अश्विन् गण शूद्र देवता तथा आंगिरसगण ब्राह्मण देवता हैं।] शतपथ ब्राह्मण में भी देवताओं का वर्णक्रम इसी प्रकार माना गया है।

देवताओं की संख्या के सम्बन्ध में तेतीस देवता प्रधान कहे गये हैं, शेष सभी देवता विभूतिरूप हैं। इनकी संख्या निर्धारण करते हुए कहा गया है :

तिस्रः कोट्यस्तु रुद्राणामादित्यानां दश स्मृताः। अग्नीनां पुत्रपौत्रं तु संख्यातुं नैव शक्यते॥

[एकादश रुद्रों की विभूति तीन कोटि देवता हैं, द्वादश आदित्यों की विभूति दस कोटि देवता हैं। किन्तु अग्निदेव के पुत्र और पौत्रों की तो गणना करना असंभव है।] पुनः अक्षपाद ने इन की संख्या 33 करोड़ तक मानी है। निरुक्त (दैवतकाण्ड) के अनुसार देवता तीन हैं : द्युस्थानीय, पृथ्वीस्थानीय एवं आन्तरिक्ष। इनमें अग्नि का स्थान पृथ्वी है, वायु एवं इन्द्र का स्थान अन्तरिक्ष है। सूर्य का स्थान द्युलोक है। इस प्रकार देवताओं की संख्या के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं कहा जा सकता, अतः देवता असंख्य हैं।

देवता साक्षात् एवं परोक्ष शक्ति के कारण नित्य और नैमित्तिक दो प्रकार के होते हैं। इनमें नित्य देवता वे हैं जिनका पद नित्य एवं स्थायी रूप में माना जाता है, यथा वसु, रुद्र, इन्द्र, आदित्य एवं वरुण ये नित्य देवता हैं। इनके पदसमूह केवल अपने ब्रह्माण्ड में ही नित्य नहीं हैं, अपितु प्रत्येक ब्रह्माण्ड में इन पदों (स्थानों) की नित्य रूप से सत्ता आवश्यक मानी जाती है। ये पद तो नित्य होते हैं, पर कल्प-मन्वन्तरादि के परिवर्तन के अनन्तर कोई भी विशिष्ट देवता अपने पद से उन्नति कर उससे उच्च स्थान भी प्राप्त कर सकता है। कभी-कभी इन पदाधिकारी देवताओं का पतन भी हो जाता है। महाभारत के अनुसार राजा नहुष ने कठिन तपस्या के प्रभाव से इन्द्रपद प्राप्त कर लिया था, किन्तु इस पद की प्राप्ति के अनन्तर वह अहंकारी हो गया। ऋषियों से अपनी शिबिका वहन कराते समय वह महर्षि भृगु द्वारा शापित होने पर सर्प हो गया।

इनमें नैमित्तिक देवता वे होते हैं, जिनका पद किसी निमित्त विशेष के कारण निर्मित होता है, और उस निमित्त के नष्ट हो जाने पर वह पर पद (स्थान) भी समाप्त हो जाता है। इस प्रकार ग्रामदेवता, वास्तुदेवता, वनदेवता आदि नैमित्तिक देवकोटि के अन्तर्गत आते हैं। जिस प्रकार गृहदेवता की स्थापना गृहनिर्माण के समय की जाती है, एवं उस गृहदेवता की स्थापना के समय से लेकर जब तक वह गृह बना रहता है, तब तक उस गृह देवता का पद स्थायी रहता है। गृह नष्ट होने पर उस देवता का स्थान भी नष्ट हो जाता है। इस प्रकार उद्भिज, स्वेदज, अण्डज एवं जरायुज चतुर्विध जीवों की जिस देश में जिस प्रकार की श्रेणियाँ उत्पन्न होती हैं, उनके रक्षार्थ वैसा ही स्वतन्त्र देवता का पद बनाया जाता है।

स्थावर पदार्थों में भी नदी, पर्वत आदि तथा अनेक प्रकार के धातु आदि खनिज पदार्थों के चालक और रक्षक पृथक् देवता होते हैं।

इस तरह चौदहों भुवनों के विराट् पुरुष की विभूतिरूप होने के कारण इनके अन्तर्गत जितने भी पदार्थ हैं उन सभी की दैवी शक्तियाँ नियामिका हैं। इस प्रकार नित्य और नैमित्तिक भेदों से देवताओं के अनेक नाम और रूप सिद्ध होते हैं।

आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से भी देवता तीन प्रकार के माने जाते हैं, यथा उत्तम, मध्यम और अधम। उत्तम देवताओं में पार्थिव शरीरान्तर्गत अन्नमय, प्राणमय एवं मनोमय कोषों के अधिकारों की पूर्णता के साथ विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोषों के अधिकारों की मुख्यता रहती है। इसी प्रकार मध्यम श्रेणी के देवतावर्ग को भी प्रथम तीन (अन्नमय, प्राणमय तथा मनोमय) कोषों के अधिकार होते हैं परन्तु विज्ञानमय तथा आनन्दमय कोषों के अधिकारों की गौणता रहती है। अधम श्रेणी के देवताओं के अधिकारों की तीव्रता केवल अन्नमय और प्राणमय कोषों में ही रहती है। सत्यलोकस्थ दैव रूपस्थ ऋषियों को पाँचों कोषों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त रहता है। वैतालिक क्षुद्र देवता एवं अनेक नैमित्तिक देवता इसी श्रेणी के समझे जाते हैं। इसी प्रकार प्रेतलोकगत जीव भी दैवी शक्तिसम्पन्न होते हैं, परन्तु इनकी दशा अधिक उन्नत नहीं होती। ये केवल एक भूलोक से ही संश्लिष्ट रहकर अन्नमय, प्राणमय एवं मनोमय कोषों को किञ्चित् संकुचित और विकसित करने में समर्थ होते हैं। ये अलक्षित रहकर भी प्राणमय कोष की सहायता से अनेक स्थूल पदार्थों को गिराने तथा उठाने के कार्य करते हैं। यह निश्चित है कि केवल मनुष्यों के समक्ष कुछ दैवी शक्तियाँ रखने के कारण प्रेत देवयोनि में परिगणित होते हैं। अन्यथा देवलोकों में इनकी गति नहीं होती है।

ध्यान से देखा जाय तो समस्त दैवी जगत् के सम्बन्ध में अध्यात्म भावना के द्वारा पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ज्ञानी के लिए समस्त सृष्टि देवमय है। दे० 'देव'।

देवताध्याय : सामवेदीय पाँचवाँ ब्राह्मण 'देवताध्याय' कहलाता है। सायण ने इसका भाष्य लिखा है। इसमें देवता सम्बन्धी अध्ययन है। पहले अध्याय में सामवेदीय देवताओं का बहुत प्रकार से प्रकीर्तन है। दूसरे अध्याय में वर्ण और वर्णदेवताओं का विवरण है। तीसरे अध्याय में इन सबकी निरुक्ति का विचार है।

देवताध्याय ब्राह्मण : दे० 'देवताध्याय'।

देवतापारम्य : आचार्य रामानुज रचित एक ग्रन्थ। इसके रचनाकाल का ठीक ज्ञान नहीं होता, परन्तु रामानुज के जीवनकाल के उत्तरार्द्ध में यह रखा जा सकता है।

देवतासरा : बंगाल से लेकर मिर्जापुर (उ० प्र०) तक के क्षेत्र में एक जनजाति भुइया या भुइयाँ (सं० भूमि) बसती है। उसके अपने पुरोहित होते हैं, जिन्हें देवरी कहते हैं तथा पूजास्थल को 'देवतासरा' कहते हैं। इनमें चार देवताओं की विशेष पूजा होती है। वे हैं-- दासुम पात, बामोनी पात, कोइसर पात तथा बोराम।

देवत्रात : आश्वलायन श्रौतसूत्र के ग्यारह भाष्यकारों में देवत्रात भी एक है।

देवदासी : वैभवशाली हिन्दू मन्दिरों में स्त्रियों का नर्त्तकी के रूप में रखा जाना भारत में प्रचलित था, जो देवमूर्ति के सामने नाचती गाती थीं। इन्हें देवदासी अथवा 'देवरतिआल' कहते थे। मानभाउ संप्रदायी लोगों के अपयश का सच्चा या झूठा कारण एक यह भी बतलाया जाता है कि वे छोटी-छोटी लड़कियों को खरीदकर उन्हें देवदासी बनाते थे। यह प्रथा अब विधि द्वारा निषिद्ध और बन्द है।

देवनक्षत्र : तैत्तिरीय ब्राह्मण (1.5,2, 67) में देवनक्षत्र चौदह चान्द्र स्थानों को कहते हैं। ये दक्षिण में हैं। दूसरे यमनक्षत्र कहलाते हैं, जो उत्तर में हैं।

देवपाल : कृष्ण यजुर्वेदीय काठक गृह्यसूत्र पर इन्होंने एक वृत्ति लिखी है।

देवप्रयाग : यहाँ भागीरथी (गङ्गोत्तरी से आने वाली गङ्गा की धारा) और अलकनन्दा (बदरीनाथ से आनेवाली गङ्गा की धारा) का संगम है। संगम से ऊपर रघुनाथजी, आद्य विश्वेश्वर तथा गङ्गा-यमुना की मूर्त्तियाँ हैं। यहाँ गृद्धाचल नरसिंहाचल तथा दशरथाचल नामक तीन पर्वत हैं। इसे प्राचीन सुदर्शनक्षेत्र कहते हैं। यात्री यहाँ पितृश्राद्ध, पिण्डदान आदि करते हैं। यहाँ से बदरीनाथ को सीधा मार्ग जाता है।

देवबन्द : सहारनपुर जिले में मुजफ्फरनगर से 14 मील दूर देवबन्द स्थान है। यहाँ पर दुर्गाजी का मन्दिर है, समीप ही देवीकुण्ड सरोवर है। चैत्र शुक्ल चतुर्दशी से आठ दस दिन तक यहाँ मेला लगता है। यहाँ पहले वन था, जिसे 'देवीवन' कहते थे। उसी से इस नगर का नाम देवबन्द पड़ा। यह एक शक्तितीर्थ है। अब यहाँ मुस्लिम धर्म और संस्कृत की विशेष शिक्षा देनेवाला महाविद्यालय भी स्थापित हो गया है।

देवभाग श्रौतर्ष : शतपथ ब्राह्मण (2.4,4,5) मे देवभाग श्रौतर्ष को सृञ्जयों एवं कुरुओं का पारिवारिक पुरोहित कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण (7.1) में इन्हें गिरिज बाभ्रव्य को यज्ञीय बलिदान की विधि सिखलाने वाला कहा गया है (--पशोर्विभक्तिः) तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण में सावित्र अग्नि का अधिकारी विद्वान् बतलाया गया है।

देवमुनि : पञ्चविंश ब्राह्मण (25.14,5) में 'देवमुनि' तुर का एक विरुद है। अनुक्रमणी मे ये एक ऋग्वेदीय ऋचा (10.146) के रचयिता कहे गये हैं।

देवयात्रोत्सव : दे० नीलमत पुराण, पृ० 83-84 पद्य 1013-1017। देवालयों में कुछ निश्चित तिथियों को जाना चाहिए। जैसे विनायक के मन्दिर में चतुर्थी को, स्कन्द के मन्दिर में षष्ठी को, सूर्य के मन्दिर में सप्तमी को, दुर्गाजी के मन्दिर में नवमी को, लक्ष्मीजी के मन्दिर में पञ्चमी को, शिवजी के मन्दिर में अष्टमी को अथवा चतुर्दशी को, नागों के मन्दिर में पञ्चमी, द्वादशी अथवा पूर्णिमा को। पूर्णिमा को समस्त देवों के मन्दिरों में यात्रोत्सव मनाये जा सकते हैं। राजनीतिप्रकाश, पृ० 416-419 (ब्रह्मपुराण से उद्धृत) के अनुसार देवालयों में वैशाख मास से प्रारम्भ कर छः मास तक प्रतिवर्ष ये उत्सव किये जाने चाहिए, यथा प्रथम मास में ब्रह्माजी के लिए, द्वितीय में देवताओं के लिए तथा तृतीय में गणेश जी के लिए। इसी प्रकार अन्यान्यों के लिए भी जानना चाहिए।

देवयान : वैदिक साहित्य के अनुसार इस शब्द का अर्थ 'देवत्व का पथ दिखाने वाला मार्ग' है। इसका अन्य शाब्दिक अर्थ है 'किसी देवता का वाहन।' जैसे देवयान देवताओं का पथ दिखलाता है उसी प्रकार पितृयान पितरों का पथ दिखलाता हैं। ऋग्वेद की एक ऋचा में देवयान का सम्बन्ध अग्नि से जोड़ा गया है जो दैवी पुरोहित है तथा देवता और मनुष्यों के मिलन का माध्यम है। देवों के पथ या जिस पथ से यज्ञ पदार्थ आकाश को पहुँचता था, आगे चलकर वह यज्ञकर्त्ता का मार्ग बन जाता था, जिस पर चलकर वह देवों के लोक में पहुँचता था। यह विचार शव के दाहकर्म से लिया गया जान पड़ता है। आगे चलकर उपनिषदों में तथा अन्य साम्प्रदायिक मत्तों में देवयान के अनेक स्थल या विरामस्थान निर्णीत किये गये, जिन पर क्रमशः अग्रसर होता हुआ मनुष्य अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है।

कुलालिकाम्नायतन्त्र के अनुसार शाक्तों के तीन यान हैं :

दक्षिणे देवयानन्तु पितृयानन्तु उत्तरे। मध्यमे तु महायानं शिवसंज्ञा प्रगीयते॥

इसके अनुसार देवयान का प्रचार दक्षिण में, पितृयान का उत्तर में और महायान का मध्यदेश में प्रतीत होता है।

देवव्रत : (1) चतुर्दशी के दिन गुरुवार हो तथा मघा नक्षत्र हो तो व्रती को उपवास रखते हुए भगवान महेश्वर का पूजन करना चाहिए। इससे दीर्घायु, धन और यश की वृद्धि होती है।

(2) आठ दिनों तक नक्त, दो वस्त्र सहित एक गौ, सुवर्ण के चक्र तथा त्रिशूल का दान करना चाहिए। उस समय यह मन्त्र उच्चरित होना चाहिए : `शिवकेशवौ प्रसीदेताम्।` यह संवत्सवरव्रत है। इसके आचरण से घोर पापों का नाश हो जाता है।

(3) इस व्रत में वेदों का पूजन भी बताया गया है। ऋग्वेद (इसका आत्रेय गोत्र और अधिपति चन्द्रमा है), यजुर्वेद (इसका काश्यप गोत्र है और देवता रुद्र है), सामवेद (भारद्वाज गोत्र है, देवता इन्द्र है) का पूजन करना चाहिए। साथ ही अथर्ववेद का भी पूजन करना चाहिए। उनकी आकृतियों का भी निर्माण करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, 2.915--2.915-16 (देवीपुराण से)।

देवराजाचार्य : एक विशिष्टाद्वैतवादी आचार्य, जो विक्रम की लगभग तेरहवीं शताब्दी में हुए थे। सुदर्शनाचार्य के गुरु और वरदाचार्य के ये पिता थे। इन्होंने 'बिम्‍बतत्व प्रकाशिका' नामक एक प्रबन्ध में अद्वैतवादियों के प्रतिबिम्बवाद का खण्डन किया है। यह पुस्तक अभी प्रकाशित नहीं हुई है।

देवल : (1) काठकसंहिता (12.11) में देवल नामक एक ऋषि का उल्लेख है। इस नाम के एक प्राचीन वेदान्ताचार्य भी थे।

(2) देवल एक स्मृतिकार भी हुए हैं, जिनके नाम से देवलस्मृति प्रसिद्ध है। यह स्मृति आठवीं शती में लिखी गयी थी।

देवल (तीर्थ) : उत्तर प्रदेश के पीलीभीत नगर से 23 मील पर बीसलपुर बस्ती है। यहाँ से 10 मील पूर्वोत्तर गढ़गजना तथा देवल के प्राचीन खँडहर हैं। इन खँडहरों से वराह भगवान् की एक प्राचीन मूर्ति मिली है जो देवल के मन्दिर में स्थापित है। स्थानीय किंवदन्ती के अनुसार महर्षि देवल का आश्रम यहीं था।

देवलऋषि : दे० 'देवल'।

देवलस्मृति : दे० 'देवल'।

देवशयनोत्थानमहोत्सव : जिस दिन भगवान् विष्णु सोते हैं अथवा जागते हैं उस दिन विशेष व्रत और महोत्सव करने का विधान है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी (हरिशयनी) को विष्णु सोते और कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थान) को जागते हैं। वास्तव में यहाँ विष्णु सूर्य के एक रूप में पूजित होते हैं। वर्षा ऋतु में मेघाच्छन्न होने के कारण ये सोये हुए माने जाते तथा शरद् ऋतु आने पर और आकाश स्वच्छ होने पर जागृत समझे जाते हैं।

देवसमाज : आधुनिक सुधारक ईश्वरवादी आन्दोलनों में 'देवसमाज' का भी उल्लेख किया जा सकता है। इसके संस्थापक ने पहले ईश्वरवादी 'ब्राह्मसमाज' की तरह अपना संप्रदाय आरम्भ कर पीछे ईश्वरवादिता का एकदम त्याग कर दिया। यह समाज बहुत लोकप्रिय नहीं हुआ।

देवस्वामी : ये बौधायन श्रौतसूत्र के एक भाष्यकार हैं।

देवहार : उत्तर भारत में आदिम देव-देवियों की पूजा आज भी प्रचलित है। इन देवता तथा देवियों का साधारण नाम 'ग्राम या ग्राम्य देवता' है, जिसे आधुनिक भाषा में 'गाँवदेवता' या 'गाँवदेवी' कहते हैं। कभी-कभी उन्हें 'दिह' कहते हैं तथा देवस्थान को 'देवहार' कहते हैं। 'देवहार' से कभी-कभी गाँव के सभी देव-देवियों का बोध होता है। लोकधर्म का यह आज भी आवश्यक अंग है।

देवाचार्य : द्वैताद्वैतवादी वैष्णव संप्रदाय के आचार्य। इनका जन्म तैलङ्ग देश में हुआ था। वे सम्भवतः बारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में वर्तमान थे। निम्बार्कसम्प्रदाय. का विश्वास है कि वे विष्णु के हाथ में स्थित कमल के अवतार थे। उन्होंने कृपाचार्य से वेदान्त की शिक्षा ली, परन्तु कृपाचार्य कौन थे, इसका कुछ पता नहीं लगता। देवाचार्य के ग्रन्थों से मालूम होता है कि उन्होंने शाङ्करमत तथा निम्बार्कमत का विस्तृत अध्ययन किया था। देवाचार्य के दो ग्रन्थ मिलते हैं-- 'वेदान्त जाह्नवी' तथा 'भक्तिरत्नाञ्जलि', इन ग्रन्थों में देवाचार्य ने निम्बार्क मत तथा भक्ति का प्रतिपादन और शाङ्कर मत का खण्डन किया है। उनका मत वही है जो निम्बार्क का है।

देवापि आर्ष्टिषेण : (ऋषिषेण का वंशज) इसका उल्लेख ऋग्वेद की एक ऋचा (10.98) तथा निरुक्त (2.10) में हुआ है। अन्य ग्रन्थ के अनुसार देवापि तथा शन्तनु भाई थे जो कुरु राजकुमार थे। देवापि ज्येष्ठ था किन्तु उसके रोगार्त होने के कारण शन्तनु ने ही राज्याधिकार प्राप्त किया। पिर 12 वर्षों तक वर्षा न हुई, ब्राह्मणों ने इस अनावृष्टि का कारण बड़े भाई के होते छोटे का राज्यारोहण बताया और तब शन्तनु ने देवापि को राज्य दे दिया। देवापि ने इसे अस्वीकार किया तथा छोटे भाई के पुरोहित का कार्यभार ग्रहण कर वर्षा करायी। बृहद्देवता में भी यही कथा है (7.148), किन्तु इसमें बड़े भाई के राज्याधिकारी न होने का कारण इसका चर्मरोगी होना बताया गया है। रामायण, महाभारत तथा परवर्त्ती ग्रन्थ इस कथा का और भी विस्तार करते हैं। महाभारत (5.50-54) के अनुसार देवापि के राज्य न पाने का कारण उसका कुष्ठरोगी होना था जबकि दूसरी कथा में उसका युवावस्था से ही संन्यासी हो जाना कारण था। महाभारत में उसे प्रतीप का पुत्र कहा गया है तथा उसके भाइयों का नाम बाह्लीक एवं आर्ष्टिषेण।

ऋग्वेद की ऋचा में देवापि द्वारा शन्तनु के लिए यज्ञ करने का वर्णन है। यहाँ शन्तनु को औलान कहा गया है। यहाँ दोनों का भ्रातृत्व सम्बन्ध नहीं जान पड़ता तथा यह भी नहीं जान पड़ता कि देवापि ब्राह्मण नहीं था। कुछ विद्वानों के मतानुसार, जिनका मत निरुक्त पर आधारित है, वह क्षत्रिय था, किन्तु इस अवसर पर बृहस्पति की कृपा से वह पुरोहित के कार्य करने का अधिकारी हो सका था।

देवाराम : तमिल पद्यों का संग्रह (तीन ग्रन्थों का एक में संकलन) 'तेवाराम' या 'देवाराम' कहलाता है, जिसका अर्थ है 'दैवी उपवन'। इसके संकलनकर्त्ता का नाम था निम्ब-अण्डर-नम्बि जो वैष्णाचार्य नाथमुनि तथा चोलनरेश रामराज (985-1018) के समकालीन थे। रामराज की सहायता से नम्बि ने 'देवराम' के पद्यों को द्रविड़ गीतों में परिवर्तित कर दिया।

देवासुरसंग्राम : (1) देवता और असुर दोनों प्रजापति की सन्तान हैं। उन लोगों का आपस में युद्ध हुआ। देवता लोग हार गये। असुरों ने सोचा कि निश्चय ही यह पृथ्वी हमारी है। उन सब लोगों ने सलाह की-- हम लोग पृथ्वी को आपस में बाँट लें और उसके द्वारा अपना निर्वाह करें। उन लोगों ने वृषचर्म (मानदण्ड, नपना) लेकर पूर्वपश्चिम नापकर बाँटना शुरू किया। देवताओं ने जब सुना तो उन्होंने परामर्श किया और बोले कि असुर लोग पृथ्वी बाँट रहे हैं, हम भी उस स्थान पर पहुँचे। यदि हम लोग पृथ्वी का भाग नहीं पाते हैं तो हमारी क्या दशा होगी? देवताओं ने विष्णु को आगे किया और जाकर कहा कि हम लोगों को भी पृथ्वी का अधिकार प्रदान करो। असूयावश असुरों ने उत्तर दिया कि जितने परिमाण के स्थान में विष्णु व्याप सकें उतना ही हम देंगे। विष्णु वामन थे। देवताओं ने इस बात को स्वीकार किया। वे आपस में विवाद करने लगे कि असुरों ने हम लोगों को यज्ञ भर के लिए ही स्थान दिया है। फिर देवताओं ने विष्णु को पूर्व की ओर रखकर अनुष्टुप् छन्द से परिवृत किया तथा बोले, तुमकों दक्षिण दिशा में गायत्री छन्द से, पश्चिम दिशा में त्रिष्टुप छन्द से और उत्तर दिशा में जगती छन्द से परिवेष्टित करते हैं। इस तरह उनको चारों ओर छंदों से परिवेष्टित करके उन्होंने अग्नि को सन्मुख रखा। छन्दों के द्वारा विष्णु दिशाओं को घेरने लगे और देवगण पूर्व दिशा से लेकर पूजा और श्रम करते-करते आगे चलने लगे। इस तरह उन्होंने समस्त पृथ्वी प्राप्त कर ली।

(2) देवासुर सग्राम क्रमशः अब नैतिक प्रतीक बन गया है। सत्य-असत्य अथवा न्याय-अन्याय के संघर्ष को भी देवासुर संग्राम कहा जाता है।

देव्यान्दोलन : (देवी को झलना) यह व्रत चैत्र शुक्ल तृतीया को किया जाता है। उमा तथा शङ्कर की प्रतिमाओं को केसर आदि सुगन्धित वस्तुओं से चर्चित करके तथा दमनक पादप से विशेष रूप से पूजित करके झूले में झुलाना तथा रात्रि में जागरण करना चाहिए।

देव्या रथयात्रा : पंचमी, सप्तमी, नवमी, एकादशी अथवा तृतीया तिथि को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। राजा लोग ईंटों या पाषणों का एक ढाँचा अथवा मन्दिर आदि बनाकर उसमें देवी की प्रतिमा पधराते थे। फिर सुवर्णसूत्रों, हाथीदाँतों तथा घण्टियों की बन्दनवार से सजे हुए रथ के मध्य भाग में मूर्ति को स्थापित कर अपने प्रासाद की ओर शोभायात्रा के रूप में ले जाते थे। सम्पूर्ण नगर, मकान, दरवाजे, सुन्दर प्रकार से सजाये जाते थे। रात्रि को दीप प्रज्वलित किये जाते थे। इस प्रकार के आचरण से सुख, वैभव, ऋद्धि, सिद्धि तथा सन्तति का लाभ होता है, ऐसा लोग विश्वास करते थे।

देवी : देव' शब्द का स्त्रीलिङ्ग 'देवी' है। देवताओं की तरह अनेक देवियों की सत्ता मानी गयी है। शाक्तमत का प्रचार होने पर शक्ति के अनेक रूपों की अभिव्यक्ति देवियों के रूपों में प्रचलित होती चली गयी।

महाभारत और पुराणों में देवी के विविध नामों और रूपों का वर्णन पाया जाता है। देवी, महादेवी, पार्वती, हैमवती आदि इसके साधारण नाम हैं। शिव की शक्ति के रूप में देवी के दो रूप हैं--(1) कोमल और (2) भयङ्कर। प्रायः दूसरे रूप में ही इसकी अधिक पूजा होती है। कोमल अथवा सौम्‍य रूप में वह उमा, गौरी, पार्वती, हैमवती, जगन्माता, भवानी आदि नामों से सम्बोधित होती है। भयङ्कर रूप में इसके नाम हैं-- दुर्गा, काली, श्यामा, चण्डी, चण्डिका, भैरवी आदि। उग्र रूप की पूजा में ही दुर्गा और भैरवी की उपासना होती है, जिसमें पशुबलि तथा अनेक वामाचार की क्रियाओं का विधान है। दुर्गा के दस हाथ हैं, जिनमें वह शस्त्रास्त्र धारण करती हैं। वह परमसुन्दरी, स्वर्णवर्ण और सिंहवाहिनी है। वह महामाया रूप से सम्पूर्ण विश्व को मोहित रखती है। चण्डीमाहात्म्य के अनुसार इसके निम्नांङ्कित नाम हैं--1. दुर्गा 2. दशभुजा 3. सिंहवाहिनी 4. महिषमर्दिनी 5. जगद्धात्री 6. काली 7. मुक्तकेशी 8. तारा 9. छिन्नमस्तका 10. जगद्गौरी। अपने पति शिव से देवी को अनेक नाम मिले हैं, जैसे बाभ्रवी, भगवती, ईशानी, ईश्वरी, कालञ्जरी, कपालिनी, कौशिकी, महेश्वरी, मृडा, मृडानी, रुद्राणी, शर्वाणी, शिवा, त्र्यम्बकी आदि। अपने उत्पत्तिस्थानों से भी देवी को नाम मिले हैं, यथा कुजा (पृथ्वी से उत्पन्न), दक्षजा (दक्ष से उत्पन्न)। अन्य भी अनेक नाम हैं—कन्या, कुमारी, अम्बिका, अवरा, अनन्ता, नित्या, आर्या, विजया, ऋद्धि, सती, दक्षिणा, पिङ्गा, कर्बुरी, भ्रामरी, कोटरी, कर्णमुक्ता, पद्मलांछना, सर्वमङ्गला, शाकम्भरी, शिवदूती, सिंहस्था। तपस्या करने के कारण इसका नाम अपर्णा तथा कात्यायनी है। उसे भूतनायकी, गणनायकी तथा कामाक्षी या कामाख्या भी कहते हैं। उसके शङ्कर रूप के और भी अनेक नाम हैं—भद्रकाली, भीमादेवी, चामुण्डा, महाकाली, महामारी, महासुरी, मातङ्गी, राजसी, रक्तदन्ती आदि। दे० ‘दुर्गा’ तथा ‘चण्डी’।

देवी उपनिषद् : एक शाक्त उपनिषद्। यह अथर्वशिरस् उपनिषद् के पाँच भागों में से अन्तिम है।

देवी उपपुराण : उन्तीस उपपुराण में से पचीसवाँ स्थान देवी उपपुराण का है। इस पुराण में शक्ति का माहात्म्य दर्शाया गया है।

देवी पाटन : यह एक शाक्त तीर्थ है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में बलरामपुर से 14 मील उत्तर गोंडा जिले में देवीपाटन स्थान है। यहाँ पाटेश्वरी देवी का मन्दिर है। कहा जाता है कि महाराज विक्रमादित्य ने यहाँ पर देवी की स्थापना की थी। यह भी कहा जाता है कि कर्ण ने परशुरामजी से यहीं ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया था। नवरात्र के दिनों में यहाँ भारी मेला लगता है।

देवीभागवत : श्रीमद्भागवत और देवीभागवत के सम्बन्ध में इस बात का विवाद है कि इन दोनों में महापुराण कौन सा है? विषय के महत्त्व की दृष्टि से प्रायः दोनों ही समान कोटि के प्रतीत होते हैं। श्रीमद्भागवत में विष्णुभक्ति का उत्कर्ष है और देवीभागवत में पराशक्ति दुर्गा का उत्कर्ष दिखाया गया है। दोनों भागवतों में अठारह-अठारह हजार श्लोक हैं और बारह ही स्कन्ध हैं। देवीभागवत के पक्ष में यही निर्बलता है कि जिन प्रमाणों से उसका महापुराणत्व प्रतिपादित होता है वे वचन उपपुराणों और तन्त्रों से उद्धृत होते हैं। उधर श्रीमद्भागवत के लिए महापुराण ही प्रमाण उपस्थित करते हैं॥ दे० 'देवीभागवत उपपुराण'।

देवीभागवत उपपुराण : शाक्तों का धार्मिक-अनुशासन सम्बन्धी ग्रन्थ। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह उपपुराण है। देवीभक्तों का कहना है कि यह उपपुराण नहीं है, अपितु महापुराणों में इसे पाँचवाँ स्थान प्राप्त है। इसकी रचना, ऐसा लगता है, भागवत पुराण के पश्चात् तथा भागवतव्याख्याकार श्रीधर स्वामी (1343 वि०) के पहले हुई थी।

देवीमहात्म्य : हरिवंश' की दो स्तुतियों एवं मार्कण्डेय पुराण के एक खण्ड से गठित यह ग्रन्थ देवी के शक्तिशाली कार्यों का विवरण एवं उनकी दैनिकी व वार्षिकी पूजा विधियों का वर्णन उपस्थित करता है। इसका अन्य नाम 'चण्डीमाहात्म्य' है।

देवीयामलतन्त्र : शाक्त परम्परा की वाममार्गी शाखा का एक ग्रन्थ। कश्मीरी शैव विद्वान् अभिनवगुप्त एवं क्षेमराज ने देवीयामल तथा अन्य तन्त्रों से अपने ग्रन्थों मं प्रचुर उद्धरण दिये हैं। ये दोनों विद्वान् 943 वि० के लगभग हुए थे, इसलिए देवीयामल तन्त्र इससे पहले की रचना है।

देवीसूक्त : देव्यथर्वशीर्ष, देवीसूक्त, और श्रीसूक्त शक्ति के ही वैदिक स्तवन हैं। वैदिक शाक्तजन सिद्ध करते हैं कि दसों उपनिषदों में दसों महाविद्याओं का ही वर्णन है। इस प्रकार शाक्तमत का आधार भी श्रुति ही सिद्ध होता है।

देवीस्तुति : प्राचीन इतिहासग्रन्थ महाभारत और रामायण में देवी की स्तुतियाँ हैं। इसी प्रकार अद्भुतरामायण में अखिल विश्व की जननी सीताजी का परात्पर शक्ति वाला रूप प्रत्यक्ष कराते हुए बहुत सुन्दर स्तुति की गयी है।

देवेश्वराचार्य : संक्षेपशारीरक ग्रन्थ के रचनाकार और श्रृंगेरी मठ के अध्यक्ष सर्वज्ञात्ममुनि ने अपने गुरु का नाम देवेश्वराचार्य लिखा है। टीकाकार मधुसूदन सरस्वती एवं रामतीर्थ ने देवेश्वराचार्य का अर्थ सुरेश्वराचार्य किया है। किन्तु इन दोनों के काल में बहुत अन्तर है।

देवोपासना : देवताओं की उपासना हिन्दू धर्म का एक विशिष्ट अंग है। साधारणतया प्रत्येक हिन्दू किसी न किसी इष्ट देवता की उपासना अथवा पूजा करता है। परन्तु हिन्दू देवकल्पना ईश्वर से भिन्न नहीं होती। प्रत्येक देव अथवा देवता ईश्वर की किसी न किसी शक्ति का प्रतीक मात्र है। इसलिए देवोपासना वास्तव में ईश्वरोपासना ही है। देवताओं की मूर्तियाँ होती हैं परन्तु देवोपासना मूर्तिपूजा नहीं है। मूर्ति तो एक माध्यम है। इसके द्वारा देवता का ध्यान किया जाता है। उपासना की पूरी अर्हता उस समय होती है जब देवत्व की पूरी अनुभूति के साथ देवता की अर्चना की जाती है: 'देवो भूत्वा देवं यजेत्'।

देश : ऐतरेय ब्राह्मण के एक परिच्छेद एवं वाजसनेयी संहिता में इस शब्द का प्रयोग वहाँ पाया जाता है जहाँ सरस्वती की पाँच सहायक नदियों के नाम बताये गये हैं। ऋचा द्रष्टा ऋषि ने सरस्वती को मध्यदेश में स्थित बताया है। मध्यदेश की भौगोलिक स्थितियाँ यजुर्वेद में दी गयी हैं। मनुस्मृति में ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षिदेश, मध्यदेश, आर्यावर्त आदि का देश रूप में निर्देश है।

धार्मिक अर्थ में यज्ञीय भूमि अथवा धार्मिक क्षेत्र को देश कहा जाता है।

दार्शनिक अर्थ में वैशेषिक के अनुसार नव द्रव्यों में से 'देश' एक है। इसका सामान्य अर्थ है गति अथवा प्रसार।

देहु : महाराष्ट्र के भागवत सम्प्रदाय में विष्णु का नाम वहाँ की बोली में विट्ठल या बिठोवा है। इसके मुख्य केन्द्र पण्ढरपुर, आलन्दी एवं देहु हैं, यद्यपि सारे प्रदेश में भागवतमन्दिर बिखरे पड़े हैं। 'देहु' भागवत सम्प्रदाय के प्रमुख तीर्थों में से है।

दोद्दयाचार्य : वेदान्तदेशिक वेङ्कटनाथ की कृति 'शतदूषणी' के टीकाकार। 'चण्डमारुत' आदि टीकाएँ उनकी बनायी हुई हैं। वे रामानुज संप्रदाय के अनुयायी और अप्पय्य दीक्षित के समसामयिक थे। उनका काल सोलहवीं शताब्दी कहा जा सकता है। वाधूलकुलभूषण श्रीनिवासाचार्य उनके गुरु थे। गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् उन्हें 'महाचार्य' की उपाधि मिली। उनका जन्मस्थान शोलिङ्कर है। वेदान्ताचार्य के प्रति उनकी प्रगाढ़ भक्ति थी। उनके ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं--चण्डमारुत, अद्वैतविद्याविजय, परिकरविजय, पाराशर्यविजय, ब्रह्मविद्याविजय, ब्रह्मसूत्रभाष्योपन्यास, वेदान्तविजय, सद्विद्याविजय और उपनिषन्मङ्गलदीपिका।

दोलोत्सव : यह उत्सव भिन्न-भिन्न तिथियों में भिन्न-भिन्न देवताओं के लिए मनाया जाता है। पद्मपुराण (4.80.45-50) के अनुसार कलियुग में फाल्गुन मास की चतुर्दशी के दिन आठवें पहर अथवा पूर्णिमा औऱ प्रतिपदा के मिलन के समय यह व्रतोत्सव मनाया जाता है। कृष्ण भगवान् को झूले में दक्षिणाभिमुख बैठे हुए देखकर मनुष्य पापों के संघात से मुक्त हो जाता है। चैत्र शुक्ल तृतीय गौरी के दोलोत्सव का दिन है। रामचन्द्रजी का भी दोलोत्सव मनाया जाता है।

मथुरा, वृन्दावन, अयोध्या, द्वारका तथा कुछ अन्य स्थानों में भगवान् राम और कृष्ण का दोलोत्सव समारोह के साथ मनाया जाता है।

द्व्यणुक : वैशेषिक दर्शन का अणुवादी सिद्धान्त है, उसके अनुसार सृष्टि के आरम्भ में परमाणु क्रियाशील होते हैं और एक-दूसरे से मिलने लगते हैं। दो परमाणुओं के मिलने से एक द्व्यणुक बनता है तथा तीन द्व्यणुक मिलकर एक त्र्यणुक बनाते हैं। यही पदार्थ की लघुतम इकाई है।

द्युतान मारुत : मरुत् के वंशज एक देवता का नाम। वाजसनेयी संहिता (5.27) एवं तैत्तिरीय संहिता (5.5,9,4) में उसके आमन्त्रण करने का उल्लेख है। काठक संहिता में भी उसका उल्लेख आया है। शतपथ ब्राह्मण (3.6,1,16) में उसके नाम का अर्थ वायु, जबकि पञ्चविंश ब्राह्मण (6.1,7) में उसे साम का रचयिता कहा गया है। अनुक्रमणी उसे एक ऋषि तथा ऋग्वेद के एक सूक्त (8.96) का रचनाकार बताती है।

द्यौ : आकाशीय देवपरिवार की मान्यता, जिसका अधिष्ठान 'द्यौ' है, भारोपीय काल से आरम्भ होती है। 'द्यौ' की स्तुति ऋग्वेद में पृथ्वी के साथ 'द्यावापृथिवी' के रूप में की गयी है। पृथ्वी से अलग 'द्यौ' की एक भी स्तुति नहीं है, जबकि पृथ्वी की अलग एक स्तुति है। इन ऋचाओं में द्यौ एवं पृथ्वी को देवताओं के पितामाता कहा गया है (7.53,1) एवं वे सत्रों में अपने बालकों के साथ ऋत के स्थान पर आसीन होने के लिए आमंत्रित किये जाते हैं। वे स्वर्गीय परिवार के घटक हैं (दैव्यजन, 7.53.2)। वे सूर्य एवं विद्युत् रूपी अग्नि के पिता हैं (पितरा, 7.53,2;1.160,3 या मातरा, 1.159,3 एवं 1.160,2)। पिता-माता के रूप में वे सभी जीवों की रक्षा करते हैं तथा धन, कीर्ति एवं राज्य का दान करते हैं। ऋग्वेद में द्यौ का जो चित्र अङ्कित है उसके अनुसार पिता द्यौ प्रेमपूर्वक माता पृथ्वी पर झुककर वर्षा के रूप में अपना बीज दान करता है, जिसके फलस्वरूप पृथिवी फलवती होती है। ऋग्वेद (6.70,1--4) में वर्षा की उपमा मधु एवं दुग्ध से दी गयी है।

द्रप्स : ऋग्वेद एवं परवर्ती ग्रन्थों में द्रप्स का अर्थ 'घूँट' है। सायण के अनुसार इसका अर्थ 'मोटी बूँद' है जिसका प्रतिलोम शब्द 'स्तोक' है। इस प्रकार प्रायः 'दधिद्रप्स' का उल्लेख आता है। इसका प्रयोग तैत्तिरीय संहिता (3.3,91) में 'सोम की मोटी बूँद' के रूप में है। दो सन्दर्भों में राथ के विचार से इसका अर्थ ध्वज है जबकि गोल्डनर इसका अर्थ धूल लगाते हैं। मैक्समूलर ने एक परिच्छेद में इसका अर्थ 'वर्षा की बूँद' लगाया है।

द्रव्य : वैशेषिक मतानुसार नव द्रव्य हैं-- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा (असख्य) एवं मन। इन्हीं से मिलकर संसार के सारे पदार्थ बनते हैं।

द्रमिळाचार्य (द्रविडाचार्य) : एक प्राचीन वेदान्ती। इन्होंने छान्दोग्य उपनिषद् पर अति बृहद् भाष्य लिखा था। बृहदारण्यक उपनिषद् पर भी इनका भाष्य था, ऐसा प्रमाण मिलता है। माण्डूक्योपनिषद् के (2.32; 2.20) भाष्य में शङ्कर ने इनका `आगमविद्` कहकर उल्लेख किया है औऱ बृहदारण्यक (पृ० 297, पूना सं०) भाष्य में उनको `सम्प्रदायविद्` कहा है। शंकर ने जहाँ भी द्रविडाचार्य का उल्लेख करना आवश्यक समझा वहाँ सम्मान के साथ किया है। उनके मत का खण्डन भी नहीं किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि द्रविडाचार्य का सिद्धान्त उनके प्रतिकूल नहीं था। छान्दोग्य उपनिषद् में जो `तत्त्वमसि` महावाक्य का प्रसंग आया है, उसकी व्याख्या में द्रविडाचार्य ने `व्याधसंहिता` से राजपुत्र की की आख्यायिका का वर्णन किया है। इस पर आनन्दगिरि कहते हैं कि `तत्त्वमस्यादिवाक्य अद्वैत का समर्थक है` यह मत आचार्य द्रविड को अङ्गीकृत है।

रामानुज सम्प्रदाय के ग्रन्थों में भी द्रविडाचार्य नामक एक प्राचीन आचार्य का उल्लेख मिलता है। कुछ विद्वानों का मत है कि ये द्रविडाचार्य शङ्करोक्त द्रविडाचार्य से भिन्न थे। इन्होंने पाञ्चरात्रसिद्धान्त का अवलम्बन करके द्रविडभाषा में ग्रन्थ रचना की थी। यामुनाचार्य के 'सिद्धित्रय' में इन्हीं आचार्य के विषय में यह कहा गया है कि "भगवता बादरायणेन इदमर्थमेव सूत्राणि प्रणीतानि विवृतानि च... भाष्यकृता।" यहाँ पर 'भाष्यकृत' शब्द से द्रविडाचार्य का ही उल्लेख है। किसी किसी का मत है कि द्रविडसंहिताकार आलवार शठकोप अथवा बकुलाभरण भी वैष्णव ग्रन्थों में द्रविडाचार्य नाम से प्रसिद्ध हैं। इन दोनों 'द्रविडों' की परस्पर भिन्नता के सम्बन्ध में अब तक कोई सिद्धान्त नहीं स्थिर हो सका है। सर्वज्ञात्ममुनि ने 'संक्षेपशारीरक' में (3.221) ब्रह्मानन्दि ग्रन्थ के द्रविडभाष्य से जिन वचनों को उद्धृत किया है, वे रामानुज द्वारा उद्धृत द्रविडभाष्यवचनों से अभिन्न दीख पड़ते हैं। इसीलिए, किसी-किसी के मत से शङ्कर सम्प्रदाय में प्रसिद्ध द्रविडाचार्य एक ही व्यक्ति हैं, भिन्न नहीं।

द्राक्षाभक्षण : द्राक्षाओं (अंगूर) का आश्विन मास में पहले-पहल सेवन द्राक्षाभक्षण उत्सव कहलाता है। कृत्यरत्नाकर (पृ० 303-304) ब्रह्मपुराण को उद्धृत करते हुए कहता है कि जिस समय समुद्रमन्थन हुआ उस समय क्षीरसागर से एक सुन्दरी कन्या प्रकट हुई, किन्तु शीघ्र ही वह लता में परिवर्तित हो गयी। उस समय देवगण पूछने लगे कि अरे, यह कौन है? हम लोग प्रसन्नतापूर्वक इसे देखेंगे (हन्त! द्रक्ष्यामहे वयम) और उसी समय उन्होंने लता को 'द्राक्षा' नाम से सम्बोधित किया। यही इस शब्द की प्रसिद्ध व्युत्पति है। जब अंगूर परिपक्व हों उस समय पुष्पों, सुगन्धित द्रव्यों तथा खाद्य पदार्थों से लता का पूजन करना चाहिए। पूजनोपरान्त दो बालक तथा दो वृद्ध पुरुषों का सम्मान किया जाना चाहिए। अन्त में नृत्य तथा गान का अनुष्ठान विहित है।

द्रामिड : वेदान्तसूत्रों पर इनका भाष्य था। दे० 'द्रविडाचार्य'।

द्राविडभाष्‍य : शिवज्ञानयोगी द्वारा रचित द्राविडभाष्य एक बृहद् ग्रन्थ है, जो तमिल भाषा में है और 'शिवज्ञानबोध' पर लिखा गया है। इस ग्रन्थ को 'द्राविडमहाभाष्य' भी कहते हैं।

द्राविड वेद : नम्मालवार के ग्रन्थ वेदों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। इनकी सूची निम्नांकित है :

(1) तिरुविरुत्तम : ऋग्वेद, (2) तिरुवोयमोलि : सामवेद, (3) तिरुवाशिरियम : यजुर्वेद, (4) पेरियतिरुवन्दादि : अथर्ववेद

उपर्युक्त चारों ग्रन्थ 'द्राविड वेद' कहे जाते हैं।

द्राह्यायणश्रौतसूत्र : सामवेदीय चार श्रौतसूत्रों में से तीसरा। लाट्यायनश्रौतसूत्र से इसका भेद बहुत थोड़ा है। यह सूत्र सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बन्ध रखता है। इसका दूसरा नाम 'वसिष्ठसूत्र' है। मध्व स्वामी ने इसका भाष्य लिखा है। रुद्रस्कन्द स्वामी ने 'औद्गात्रसारसंग्रह' नामक निबन्ध में उस भाष्य का और परिष्कार किया है। धन्वी ने इस पर छान्दोग्यसूत्रदीप नाम की वृत्ति लिखी है।

द्रु : यह एक काष्ठपात्र का नाम है, जिसका उपयोग विशेष कर सोमयज्ञों (ऋ० 9.1,2,65; 6.98,2) में होता था। तैत्तिरीयब्राह्मण में इसका प्रयोग केवल 'काष्ठ' के अर्थ में हुआ है।

द्रुपद : (1) काष्ठस्तम्भ अथवा स्तम्भ मात्र के अर्थ में ऋक् (1.24,13;4.32,23) तथा परवर्त्ती ग्रन्थों में (अ० वे० 6.63,5; 115,2;19.47,9; वाज० सं० 20.20) बहुधा यह प्रयुक्त है। इस प्रकार यज्ञयूपों (स्तम्भों) को भी द्रुपद कहते थे। शुनःशेप ऐसे ही तीन द्रुपदों से बाँधा गया था। कुछ उदाहरणों में, चोरों को दण्ड देने के लिए ऐसे ही स्तम्भों में बाँध दिया जाता था।

(2) महाभारत के अनुसार पञ्चाल देश के राजा का नाम द्रुपद था, जिसकी पुत्री द्रौपदी थी। यह महाभारत के प्रमुख पात्रों में है।

द्रोण : लकड़ी की नाँद, जिसका उपयोग विशेष कर सोमरस रखने के पात्र रूप में (ऋक्० 9.3,1;15,7;28,4;30,4;67,14) बतलाया गया है। लकड़ी के बृहत् पात्र को द्रोणकलश (तै० सं० 3.2,1,2; वाज० सं० 18.21; 19.27; ऐ० ब्रा० 7.17,32; शत० ब्रा० 1.6,3,16 आदि) कहा जाता था। यज्ञवेदी कभी-कभी द्रोणकलश की आकृति की बनायी जाती थी।

द्वादशमासर्क्षव्रत : कार्तिकी पूर्णिमा (कृत्तिका नक्षत्र युक्त) को इस व्रत का आरम्भ होता है। इसमें नरसिंह भगवान् के पूजन का विधान है। मृगशिरा नक्षत्रयुक्त मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को भगवान् राम का पूजन होना चाहिए। पुष्य नक्षत्रयुक्त पौष की पूर्णिमा को बलरामजी का पूजन करना चाहिए। मघा नक्षत्रयुक्त माघी पूर्णिमा को वराह भगवान् का पूजन, फाल्गुनी नक्षत्रों से युक्त फाल्गुनपूर्णिमा को नर तथा नारायण का पूजन औऱ इस प्रकार से अन्य पूर्णिमाओं को अन्य देवों का श्रावणी पूर्णिमा तक पूजन होना चाहिए।

द्वादशसप्तमीव्रत : चैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रारम्भ कर प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन वर्ष भर भगवान् सूर्य का भिन्न-भिन्न नामों एवं षडक्षर मन्त्र 'ओं नमः सूर्याय' से पूजन होना चाहिए। इस व्रत के अनुष्ठान से अनेक गम्भीर रोगों, जैसे कुँष्ठ, जलोदर तथा रक्तामाशय से मुक्ति मिलती है तथा सुस्वास्थ्य प्राप्त हो जाता है।

द्वादशादित्यव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का आरम्भ होता है। इसमें द्वादश आदित्यों (धाता, मित्र, अर्यमा, पूषा, शक्र, वरुण, भग, त्वष्टा, विवस्वान्, सविता तथा विष्णु) का पूजन होता है। व्रत के अन्त में सुवर्ण का दान विहित है। इससे सवितृलोक की उपलब्धि होती है।

द्वादशाहसप्तमी : यह व्रत माघ शुक्ल सप्तमी को प्रारम्भ होता है। एक वर्ष तक सप्तमी को उपवास तथा भगवान् सूर्य के भिन्न-भिन्न नामों से पूजन का विधान है। माघ में वरुण नाम से, फाल्गुन में तपन नाम से, चैत्र में धाता नाम से तथा इसी प्रकार से अन्य मासों में विभिन्न नामों से पूजन करना चाहिए। आने वाली अष्टमी को ब्राह्मण भोजन का विधान है। कृष्णपक्ष की सप्तमी को भी उपवास आदि करना पुण्यकारी है।

द्वादशीव्रत : यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को प्रारम्भ होता है और एक वर्ष तक अथवा जीवन पर्यन्त चलता है। इसमें एकादशी को उपवास तथा द्वादशी को विष्णु का पुष्पादि के उपचार सहित पूजन होता है। ऐसा विश्वास है कि यदि एक वर्ष तक इस व्रत का आचरण किया जाय तो पापों से शुद्धि होती है। यदि जीवन पर्यन्त इस व्रत का आचरण किया जाय तो मनुष्य श्वेतद्वीप प्राप्त करता है। यदि कृष्ण तथा शुक्ल दोनों पक्षों की द्वादशियों को व्रताचरण किया जाय तो स्वर्ग की उपलब्धि होती है। यदि जीवनपर्यन्त इस व्रत का आचरण किया जाया तो विष्णुलोक की प्राप्ति होती है।

द्वादशलक्षण : मीमांसा शास्त्र में यज्ञों का विस्तृत विवेचन है, इस कारण इसे 'यज्ञविद्या' भी कहते हैं। बारह अध्यायों में विभक्त होने के कारण यह पूर्वमीमांसा शास्त्र 'द्वादशलक्षणी' भी कहलाता है।

द्वादशस्तोत्र : मध्वाचार्य रचित यह एक स्तोत्र ग्रन्थ का नाम है।

द्वापर : चतुर्युगी का तीसरा युग। इसका शाब्दिक अर्थ है 'विचारद्वन्द्व' अथवा 'दुविधा'। इस युग के अन्त में अनेक द्वन्द्व अथवा संघर्ष--सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, दार्शनिक, वैचारिक आदि उत्पन्न हो गये थे। युगपुरुष भगवान् कृष्ण ने उनका समाधान श्रीमद्भगवद्गीता में प्रस्तुत किया। दे० 'कृतयुग'।

द्वारका : यह भारत की सात पवित्र पुरियों में से है, जिनकी सूची निम्नांकित है :

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका। पुरी द्वारवती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः॥

भगवान् कृष्ण के जीवन से सम्बन्ध होने के कारण इसका विशेष महत्त्व है। महाभारत के वर्णनानुसार कृष्ण का जन्म मथुरा में कंस तथा दूसरे दैत्यों के वध के लिए हुआ। इस कार्य को पूरा करने के पश्चात् वे द्वारका (काठियावाड़) चले गये। आज भी गुजरात में स्मार्त ढंग की कृष्णभक्ति प्रचलित है। यहाँ के दो प्रसिद्ध मन्दिर 'रणछोड़राय' के हैं, अर्थात् उस व्यक्ति से सम्बन्धित हैं जिसने ऋण (कर्ज) छुड़ा दिया। इसमें जरासंध से भय से कृष्ण द्वारा मथुरा छोड़कर द्वारका भाग जाने का अर्थ भी निहित है। किन्तु वास्तव में 'बोढ़ाणा' भक्त की प्रीति से कृष्ण का द्वारका से डाकौर चुपके से चला आना और पंडो के प्रति भक्त का ऋण चुकाना--यह भाव संनिहित है। ये दोनों मन्दिर डाकौर (अहमदाबाद के समीप) तथा द्वारका में हैं। दोनों में वैदिक नियमानुसार ही यजनादि किये जाते हैं।

तीर्थयात्रा में यहाँ आकर गोपीचन्दन लगाना और चक्राङ्कित होना विशेष महत्त्व का समझा जाता है। यह आगे चलकर कृष्ण के नेतृत्व में यादवों की राजधानी हो गयी थी। यह चारों धामों में एक धाम भी है। कृष्ण के अन्तर्धान होने के पश्चात् प्राचीन द्वारकापुरी समुद्र में डूब गयी। केवल भगवान् का मन्दिर समुद्र ने नहीं डुबाया। यह नागरी सौराष्ट्र (काठियावाड़) में पश्चिमी समुद्रतट पर स्थित है।

द्वारकानाथ : (1) कृष्ण का एक पर्याय, 'द्वारका के स्वामी'। मथुरा से पलायन करने के बाद वृष्णि-यादवों ने द्वारका अपनी राजधानी बनायी थी। कृष्ण वृष्णिगण के मुख्य थे अतः वे द्वारकानाथ कहलाये।

द्वारकामठ : शङ्कराचार्य भारतव्यापी धर्मप्रचारयात्रा करते हुए जब गुजरात आये तो द्वारका में एक मठ स्थापित कर अपने शिष्य हस्तामलकाचार्य को उसके आचार्यपद पर बैठाया। श्रृंगेरी तथा द्वारका मठों का शिष्यसम्प्रदाय 'भारती' के उपनाम से प्रसिद्ध है।

द्वारप : इस शब्द का प्रयोग केवल उपमा के रूप में ऐतरेय ब्राह्मण (1.30) में हुआ है, जहाँ विष्णु को देवों का द्वारप कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् (3.1.3,6) मे भी 'द्वारप' का प्रयोग उपर्युक्त उपमावाचक अर्थ में हुआ है।

द्विज : (1) प्रथम तीन वर्णों का एक विरुद 'द्विज' (द्विजन्मा) है, किन्तु यह शब्द विशेष कर ब्राह्मणों के लिए प्रयुक्त हुआ है। अथर्ववेद (19.71,1) के एक अस्पष्ट वर्णन को छोड़कर इसका प्रयोग वैदिक साहित्य में नहीं हुआ है। धर्मसूत्र और स्मृतियों में इसका प्रचुर प्रयोग हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'दो जन्म वाला' अर्थात् ऐसा व्यक्ति जिसके दो जन्म होते हैं: (2) शारीरिक और (2) ज्ञानमय। शारीरिक जन्म माता-पिता से होता है और ज्ञानमय जन्म गुरु अथवा आचार्य से। स्मृतियों के अनुसार उपनयन आदि संस्कार करने से मनुष्य द्विज होता है :

जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते। वेदपाठाद् भवेद् विप्रः ब्रह्मज्ञानाच् च ब्राह्मणः॥

[मनुष्य जन्म के समय शूद्र होता है, फिर संस्कार करने से द्विज कहलाता है। वेद पढ़ने से वह विप्र और ब्रह्म का ज्ञानी होने से ब्राह्मण होता है।]

द्वितीयाभद्रावत : यह व्रत भद्रा या विष्टि नामक करण पर आश्रित है, यह मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को प्रारम्भ होता है। एक वर्ष तक भद्रा देवी की पूजा करने का इसमें विधान है। इसमें निम्नांकित मन्त्र का जप होता है :

भद्रे भद्राय भद्रं हि चरिष्ये व्रतमेव ते। निर्विघ्नं कुरु मे देवि! कार्यसिद्धिञ्च भावय॥

व्रती को भद्रा करण के आरम्भ में भद्रा देवी की लौहमयी, पाषाणमयी, काष्ठमयी अथवा रागरञ्जित प्रतिमा स्थापित कर पूजनी चाहिए। इसके परिणामस्वरूप मनुष्य की मनोभिलाषाएँ तथा करणीय कर्म उस समय भी पूर्ण होते हैं, जब कि वे भद्रा काल में आरम्भ किये गये हों। भद्रा अथवा विष्टि को अधिकांश अवसरों पर एक भयानक वस्तु के रूप में देखा अथवा समझा जाता है। दे० स्मृति कौस्तुभ, 565-566।

द्विदलव्रत : कार्तिक मास में दो दलों वाले धान्य भोजन के लिए निषिद्ध हैं, जैसे अरहर (तूर), राजिका, माष (उड़द), मुद्ग, मसूर, चना तथा कुलित्थ। इनका भोजन में परित्याग 'द्विदलव्रत' कहलाता है। दे० निर्णयसिन्धु, 104-105।

द्विराषाढ़ : विष्णु भगवान् आषाढ़ शुक्ल एकादशी को शयन करते हैं यह प्रसिद्ध है। जब सूर्य मिथुन राशि पर हों और अधिक मास के रूप में उस समय दो आषाढ़ हों तब विष्णु द्वितीय आषाढ़ के अन्त वाली एकादशी के उपरान्त ही शयन करेंगे। दे० जीमूतवाहन का कालविवेक, 169--173; निर्णयसिन्धु, 192; समयमयूख, 83।

द्वीपव्रत : चैत्र शुक्ल से आरम्भ कर प्रत्येक मास में सात दिन व्रती को सप्त द्वीपों का क्रमशः पूजन करना चाहिए। क्रम यह होगा--(1) जम्बू, (2) शाक्, (3) कुश, (4) क्रौञ्च, (5) शाल्मलि, (6) गोमेद और (7) पुष्कर। यह व्रत एक वर्ष तक आचरणीय है। व्रती को एक शाम भूमि पर शयन करना चाहिए। विश्वास किया जाता कि वर्ष के अन्त में रजत, फल आदि वस्तुओं के दान से स्वर्ग की प्राप्ती होती है।

द्वैत : बादरायण के पूर्व ही वेदान्त के अनेक आचार्यों ने आत्मा एवं ब्रह्म के सम्बन्ध में अपने मत प्रकाशित किये थे। इनमें से तीन सिद्धान्त प्रसिद्ध हैं-- द्वैत, अद्वैत और द्वैताद्वैत (भेदाभेद)। द्वैतमत के संस्थापक औडुलोमि हैं। उनके मतानुसार आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल भिन्न है, जब तक कि वह मोक्ष प्राप्त कर ब्रह्म में विलीन नहीं हो जाता। वेदान्त के अतिरिक्त सांख्य, न्याय और वैशेषिक दर्शनों में आत्मा को प्रकृति अथवा ब्रह्म से स्‍वतंत्र तत्‍त्‍व गया है और इस प्रकार द्वैत अथवा त्रैत मत का समर्थन हुआ है।

द्वैताद्वैतमत : यह एक प्रकार का भेदाभेदवाद ही है। इस के अनुसार द्वैत भी सत्य है और अद्वैत भी। इस मत के प्रधान आचार्य निम्बार्क हो गये हैं। ब्रह्मसूत्र में भी द्वैताद्वैतवाद तथा उसके आचार्य का नाम मिलता है। दसवीं शताब्दी में आचार्य भास्कर ने भेदाभेदवाद के अनुसार वेदान्तसूत्र की व्याख्या की। यह व्याख्या ब्रह्मपरक है, शिव या विष्णुपरक नहीं। ग्यारहवीं शताब्दी में निम्बार्क स्वामी ने ब्रह्मसूत्र की विष्णुपरक व्याख्या करके द्वैताद्वैत मत अथवा भेदाभेदवाद की स्थापना की।

आचार्य निम्बार्क के मतानुसार ब्रह्म जीव और जड़ अर्थात् चेतन और अचेतन से पृथक् और अपृथक् हैं। इस पृथक्त्व और अपृथक्त्व के ऊपर ही उनका दर्शन निर्भर है। जीव और जगत् दोनों ब्रह्म के परिणाम हैं। जीव ब्रह्म से अत्यन्त भिन्न एवं अभिन्न है। जगत् भी इसी प्रकार भिन्न और अभिन्न है। द्वैताद्वैतवाद का यही सार है।

द्वैताद्वैतसिद्धान्तसेतुका : सुन्दरभट्ट रचित 'द्वैताद्वैतसिद्धान्तसेतुका' देवाचार्य रचित वेदान्तव्याख्या 'सिद्धान्तजाह्नवी' का भाष्य है।