विक्षनरी:हिन्दू धर्मकोश (ध से फ)

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धनत्रयोदशी : कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी का एक नाम। व्यापारी लोग इस दिन वाणिज्य सामग्री को परिष्कृत, सुसज्जित कर धन के देवता की पूजा का त्रिदिनव्यापी उत्सव आरम्भ करते हैं, नये-पुराने आर्थिक वर्ष का लेखा जोखा तैयार किया जाता है और इस दिन नयी वस्तु का क्रय-विक्रय शुभ माना जाता है।

आयुर्वेद के देवता धन्वन्तरि का यह जन्मदिन है, इसलिए चिकित्सक वैद्य लोग आज धन्वन्तरिजयन्ती का उत्सव मनाते हैं।

धनपति : ये 'शङ्करदिग्विजय' (माधवाचार्यकृत) के एक भाष्यकार थे।

धनसंक्रान्तिव्रत : यह संक्रान्तिव्रत है, एक वर्ष पर्यन्त चलता है। इसके सूर्य देवता हैं। प्रतिमास जलपूर्ण कलश, जिसमें सुवर्णखण्ड पड़ा हो, निम्नांकित मन्त्र बोलते हुए दान करना चाहिए : 'हे सूर्य! प्रसीदतु भवान्।' व्रत के अन्त में एक सुवर्णकमल तथा धेनु दान में देनी चाहिए। विश्वास किया जाता है कि इससे व्रती जन्मजन्मान्तरों तक सुख, समृद्धि, सुस्वास्थ्य तथा दीर्घायु प्राप्त करता है।

धन्ना (धना) : वैष्णवाचार्य स्वामी रामानन्द के कुछ ऐसे भी शिष्य हो गये हैं, जिन्होंने किसी सम्प्रदाय की स्थापना या प्रचार नहीं किया, किन्तु कुछ पदरचना की है। धन्ना ऐसे ही उनके एक शिष्य थे।

धनावाप्तिव्रत : (1) श्रावण पूर्णिमा के पश्चात् प्रतिपदा को यह व्रत आरम्भ होता है, एक मास तक चलता है, नील कमलों से विष्णु तथा संकर्षण की पूजा होती है। साथ ही घृत तथा सुन्दर नैवेद्य भगवच्चरणों में अर्पित करना चाहिए। भाद्रपद मास की पूर्णिमा से तीन दिन पूर्व उपवास रखना चाहिए। व्रत के अन्त में एक गौ का दान विहित है।

(2) इसमें एक वर्ष पर्यन्त भगवान् वैश्रवण (कुबेर) की पूजा होती है। विश्वास है कि इसके परिणामस्वरूप अपार सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।

धनी धर्मदास : मध्ययुगीन सुधारवादी आन्दोलनों में जिन सन्त कवियों ने योगदान किया है, धनी धर्मदास उनमें से एक हैं। इनके रचे अनके पद पाये जाते हैं।

धन्यव्रत अथवा धन्यप्रतिपदाव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। उस दिन नक्त व्रत करना चाहिए तथा विष्णु भगवान् का (जिनका अग्नि नाम भी हैं) रात्रि को पूजन करना चाहिए। प्रतिमा के सम्मुख एक कुण्ड में हवन किया जाता है। तदनन्तर यावक तथा घृतमिश्रित खाद्य ग्रहण करना होता है। इसी प्रकार का आचरण कृष्ण पक्ष में भी करना चाहिए। चैत्र से आठ मास तक इसका अनुष्ठान होना चाहिए। व्रतान्त में अग्नि देव की सुवर्ण की प्रतिमा का दान किया जाता है। इस व्रत से दुर्भाग्यशाली व्यक्ति भी सुखी, धन-धान्यादि से समृद्ध तथा पापमुक्त हो जाता है।

धनुर्वेद : मधुसूदन सरस्वती ने अपने ग्रन्थ 'प्रस्थानभेद' में लिखा है कि यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद है, इसमें चार पाद हैं, यह विश्वामित्र का बनाया हुआ है। पहला दीक्षा पाद है, दूसरा संग्रह पाद है, तीसरा सिद्ध पाद है और चौथा प्रयोग पाद। पहले पाद में धनुष का लक्षण और अधिकारी का निरूपण है। जान पड़ता है कि यहाँ धनुष शब्द का अभिप्राय चारों प्रकार के आयुधों से हैं, क्योंकि आगे चलकर आय़ुध चार प्रकार के कहे गये हैं : (1) मुक्त, (2) अमुक्त, (3) मुक्तामुक्त, (4) यन्त्रमुक्त। मुक्त आयुध चक्रादि हैं। अमुक्त खड्गादि हैं। मुक्तामुक्त शल्य और उस तरह के अन्य हथियार हैं। यन्त्रमुक्त बाण आदि हैं। मुक्त को अस्त्र कहते हैं और अमुक्त को शस्त्र। ब्राह्म, वैष्णव, पाशुपत, प्राजापत्य और आग्नेय आदि भेद से नाना प्रकार के आयुध हैं। साधिदैवत और समन्त्र चतुर्विध आयुधों पर जिनका अधिकार है वे क्षत्रिय कुमार होते हैं और उनके अनुवर्ती जो चार प्रकार के होते हैं वे पदाति, रथी, गजारोही और अश्वारोही हैं। इन सब बातों के अतिरिक्त दीक्षा, अभिषेक, शकुन और मङ्गल आदि सभी का प्रथम पाद में वर्णन किया गया है।

आचार्य का लक्षण और सब तरह के अस्त्र-शस्त्रादि के विषय का संग्रह द्वितीय पाद में दिखाया गया है। तीसरे पाद में गुरु और विशेष-विशेष साम्प्रदायिक शस्त्र, उनका अभ्यास, मन्त्र, देवता और सिद्धिकरणादि वर्णित हैं। चौथे पाद में देवार्चना, अभ्यासादि और सिद्ध अस्त्र-शस्त्रादि के प्रयोगों का निरूपण है।

धनुष : ऋग्वेद में इसका उल्लेख अनेक बार हुआ है। वैदिक कालीन भारतीयों का यह प्रमुख आयुध रहा है। दाह क्रिया में अन्तिम कार्य मृतक के दायें हाथ से धनुष को हटाया जाना होता था।

धनुषतीर्थ : श्रीनगर (गढ़वाल) में जिस स्थान पर अलकनन्दा धनुषाकार हो गयी है वह धनुषतीर्थ कहा जाता है। यहाँ स्नान करना पुण्यकारक है।

धनुष्कोटि : सेतुबन्ध रामेश्वरम् क्षेत्र का एक तीर्थ। धनुष्कोटि के लिए रेल जाती है। यहाँ मीठे जल का अभाव है, छाया भी नहीं है। यहाँ से जहाज चार घंटे में लङ्का पहुँच जाते हैं। रेल के डब्बे जहाज पर चढ़ा दिये जाते हैं, जो उधर उतार लिये जाते हैं। इस अन्तरीप का एक सिरा बंगाल की खाड़ी तथा दूसरा सिरा महोदधि कहलाता है। यहाँ यात्री स्नान, श्राद्ध, पिण्डदान तथा स्वर्ण के बने धनुष का दान भी करते हैं। यहाँ 36 बार स्नान करने की विधि है। हाथ में बालू का पिण्ड, कुश लेकर कृत्या नामक दानवी से समुद्रस्नान की अनुमति माँगी जाती है। बालू का पिण्ड समुद्र में डालकर स्नान किया जाता है।

धन्वन्तरि : ये विष्णु के 24 अवतारों में हैं और समुद्रमंथन के समय अमृतकुम्भ लेकर उत्पन्न हुए थे। धन्वन्तरि आयुर्वेद के प्रवर्त्तक माने जाते हैं। सुश्रुत संहिता में लिखा है कि ब्रह्मा ने पहले-पहल एक लाख श्लोकों का आयुर्वेद शास्त्र प्रकाशित किया था, जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा। प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने पढ़ा, अश्विनीकुमारों से इन्द्र ने पढ़ा और इन्द्रदेव से धन्वन्तरि ने पढ़ा। धन्वन्तिरि से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की। काशी पुरी में धन्वन्तरि नामक एक राजा भी हुए हैं, जिन्होंने आयुर्वेद का अच्छा प्रचार किया था।

धन्वी : एक वृत्तिकार का नाम। सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बन्धित द्राह्यायण श्रौतसूत्र अथवा वसिष्ठसूत्र पर मध्व स्वामी ने भाष्य रचा है। रुद्रस्कन्द स्वामी ने इस भाष्य का 'औद्गात्रसारसंग्रह' नाम के निबन्ध में संस्कार किया है। धन्वी ने इस पर छान्दोग्यसूत्रदीप नाम का वृत्ति लिखी है।

धरणीधरतीर्थ : यह वैष्णव तीर्थ है और अलीगढ़ से 22 मील तथा मथुरा से 18 मील मध्य में अवस्थित है। इसका वर्तमान नाम वेसवाँ है। कहा जाता है कि यह पृथ्वी का नाभिस्थल है। महर्षि विश्वामित्र ने यहाँ यज्ञ किया था। सुना जाता है कि धरणीधरकुण्ड की खुदाई के समय बहुत--सी शालग्राम शिलाएँ निकली थीं जिससे अवश्य ही यह प्राचीन तीर्थस्थल सिद्ध होता है।

धरणीव्रत : कार्तिक शुक्ल एकादशी को उपवास करके इस व्रत का प्रारम्भ किया जाता है। इसमें भगवान् नारायण का पूजन होता है। मूर्ति के सम्मुख चार कलश स्थापित होते हैं जो महासागरों के प्रतीक माने गये हैं। कलशों के केन्द्र में नारायण की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। रात्रि में जागरण करना चाहिए। इस व्रत का आचरण प्रजापति, अनेक राजा गण तथा पृथ्वी देवी ने किया था, इसीलिए इस व्रत का नाम धरणीव्रत पड़ा।

धर्णा (धरना) : अनशन पूर्वक किसी उद्देश्य का आग्रह करना। किसी राजाज्ञा के विरोध में अथवा किसी महान् उद्देश्य की सिद्धि के लिए लोग 'धर्णा' करते थे। जब कोई ब्राह्मण धर्णा के फलस्वरूप मर जाता था तो वह ब्रह्मराक्षस (भूतों की एक योनि) होता था और उसकी यज्ञादि से पूजा की जाती थी। ऐसा ही एक ब्रह्म सासाराम के निकट चयनपुर में है, नाम है 'हर्षू ब्रह्म' या हर्षू बाबा। कहा जाता है कि ये कनौजिया ब्राह्मण थे और सालिवाहन नामक राजा के पुरोहित थे। रानी उनको पसन्द नहीं करती थी, उसने राजा से यह कहकर कि यह ब्राह्मण आपको राज्य से वंचित करना चाहता है, उसकी भूमि आदि छिनवा ली। उसे राजा ने निष्कासित कर दिया। फलतः ब्राह्मण राजभवन के सामने धर्णा करके मरने के बाद ब्रह्म हुआ। क्योंकि तपस्या करके वह मरा था, इसलिए प्रेतयोनि में भी बहुत प्रभावशाली माना जाता है।

धर्म : किसी वस्तु की विधायक आन्तरिक वृत्ति को उसका धर्म कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ का व्यक्तित्व जिस वृत्ति पर निर्भर है वही उस पदार्थ का धर्म है। धर्म की कमी से उस पदार्थ का क्षय होता है। धर्म की वृद्धि से उस पदार्थ की वृद्धि होती है। बेले के फूल का एक धर्म सुवास, है, उसकी वृद्धि उसकी कली का विकास है, उसकी कमी से फूल का ह्रास है। धर्म की यह कल्पना भारत की ही विशेषता है। वैशेषिक दर्शन ने धर्म की बड़ी सुन्दर वैज्ञानिक परिभाषा `यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः` इस सूत्र से की है। धर्म वह है जिससे (इस जीवन का) अभ्युदय और (भावी जीवन में) निःश्रेयस की सिद्धि हो। परन्तु यह परिभाषा परिणामात्मिका है। इसकी सामान्य परिभाषा यह है :

वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विध प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥ (मनु. 2.12)

[श्रुति, स्मृति, सदाचार और अपने आत्मा का सन्तोष यही साक्षात् धर्म के चार लक्षण (पहचान, कसौटी) कहे गये हैं।] प्राचीन भारतीय इन चारों को धर्मानुकूल मार्ग का निदर्शक मानते हैं। इनमें से प्रथम दो किसी न किसी रूपान्तर से सभी धर्मों में प्रमाण माने जाते हैं। शेष दो, सदाचार और आत्मतुष्टि को सारा सभ्य संसार प्रमाण मानता है, परन्तु अपनी परिस्थिति के अनुकूल। भारतीय लोकवर्ग में भी जहाँ श्रुति-स्मृति से विरोध रहा है, जैसा चार्वाक सरीखे नास्तिक आचार्यों की प्रवृत्ति से प्रकट है, वहाँ जैनों की तरह अपनी-अपनी श्रुति और स्मृति का प्रमाण ग्रहण होता रहा है, उसमें केवल सदाचार और आत्मतुष्टि मूल में रहे हैं।

स्मृतियों में धर्मोपदेश का साधारण क्रम यह है कि पहले साधारण धर्म वर्णन किया गया है, जिसे जगत् के सब मनुष्यों को निर्विवाद रूप से मानना उचित है, जिसके पालन से मनुष्यसमाज की रक्षा होती है। यह धर्म आस्तिक और नास्तिक दोनों पक्षों को मान्य होता है। फिर समाज की स्थिति के लिए जीवन के विविध व्यापारों और अवस्थाओं के अनुसार वर्णों और आश्रमों के कर्त्तव्‍यों का धर्म रूप से निर्देश किया जाता है। इसको विशिष्ट धर्म कहते हैं। इस विभाग में भी प्रत्येक वर्ण के भिन्न-भिन्न आश्रमों में प्रवेश करने और बने रहने के विधि और निषेध वाले नियम होते हैं। इन नियमों का आरम्भ गर्भाधान संस्कार से होता है और अन्त अन्त्येष्टि तथा श्राद्धादि से माना जाता है। थोड़े-बहुत हेर--फेर के साथ सारे भारत में इन संस्कारों के नियम निवाहे जाते हैं। संयमी जीवन संस्कारों को सम्पन्न करता है और संस्कार का फल होता है शरीर और जीवात्मा का उत्तरोत्तर विकास। धर्म सन्मार्ग का पहला उपदेश है, उन्नति के लिए नियम हैं, संयम का सामूहिक फल है और किसी विशेष देश-काल और निमित्त में विशेष प्रकार की उन्नत अवस्था में प्रवेश करने का द्वार है। सब संस्कारों का अन्तिम परिणाम व्यक्तित्व का विकास है। `संयम-संस्कार-विकास` अथवा `संयम-संस्कार-अभ्युदय-निश्रेयस` यह धर्मानुकूल कर्त्तव्य का क्रियात्मक रूप है। ये सभी मिलकर संस्कृति का इतिहास बनाते हैं। धर्म यदि आत्मा और अनात्मा की विधायक वृत्ति है, तो संस्कृति उसका क्रियात्मक रूप है; धर्मानुकूल आचरण का फल है।

धर्म आत्मा और अनात्मा का, जीवात्मा औऱ शरीर का विधायक है; संस्कार हर जीवात्मा और हर शरीर का विकास करने वाला है। धर्म व्यक्ति की तरह समाज का भी विधायक है : 'धर्मो धारयति प्रजाः'। संस्कार समाज का विकास करने वाला है, उसे ऊँचा उठाने वाला है। दोष, पाप, दुष्कृत अधर्म हैं; इन्हें दूर करने का साधन संस्कार है। अज्ञान अधर्म है, इसे दूर करने वाले शिक्षादि संस्कार हैं। भारत में धर्म और संस्कृति का अटूट सम्बन्ध रहा है।

धर्म के अन्य वर्गीकरण भी पाये जाते हैं : नित्य, नैमित्तिक काम्य, आपद्धर्म आदि। नित्य वह धार्मिक कार्य है जिसका करना अनिवार्य है और जिसके न करने से पाप होता है। नैमित्तिक धर्म को विशेष अवसरों पर करना आवश्यक है। काम्यधर्म वह है जो किसी विशेष उद्देश्य की सिद्धि के लिए किया जाता है परन्तु जिसके न करने से कोई दोष नहीं होता। आपद्धर्म वह है जो संकट की स्थिति में सामान्य औऱ विशिष्ट धर्म को छोड़कर करना पड़ता है। शास्त्र के नियमानुकूल आपद्धर्म का पालन करने से दोष नहीं होता है।

धर्मघटदान : चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ कर चार मास तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है। जो पुण्यों का इच्छुक हो उसे प्रति दिन वस्त्र से आच्छादित, शीतल जल से परिपूर्ण कलश का दान करना चाहिए।

धर्मदास : कबीरपंथ सम्प्रदाय के शिक्षक व पथ प्रदर्शक कबीरपंथी साधु ही होते हैं। ये साधु दो स्थानों के महन्तों से शासित होते हैं। एक की गद्दी कबीरचौरा मठ (वारणासी, उ० प्र०) है तथा दूसरे की छत्तीसगढ़ (मध्यप्रदेश)। कबीरचौरा मठ वाले सन्त अपना प्रारम्भ महात्मा सुरतगोपाल से तथा छत्तीसगढ़ वाले 'धर्मदास' नामक महात्मा से मानते हैं। छत्तीसगढ़ (दक्षिण कोसल) में कबीरपन्थ के प्रसार का श्रेय धर्मदास को ही प्राप्त है।

महात्मा धर्मदास पहले निम्बार्कीय वैष्णव थे। कबीर के उपदेशों से प्रभावित होकर इन्होंने 'धर्मदासी शाखा' का प्रचारात्मक नेतृत्व ग्रहण कर लिया, साथ ही वे वैष्णवचिह्न कण्ठी-तिलक आदि भी धारण करते रहे, जो शिष्य सन्तों में अब भी प्रचलित है।

धर्मप्राप्ति व्रत : आषाढ़ी पूर्णिमा के पश्चात् प्रतिपदा से यह व्रत प्रारम्भ होता है। धर्म के रूप में भगवान् विष्णु की पूजा एक मास तक होती है। मासान्त में पूर्णिमा सहित तीन दिन तक उपवास तथा सुवर्ण का दान विहित है।

धर्मराज अध्वरीन्द्र : वेदान्तपरिभाषा' नामक लोकप्रिय ग्रन्थ के प्रणेता। सुप्रसिद्ध अद्वैतवादी ग्रन्थरचयिता नृसिंहाश्रम स्वामी उनके परम गुरु थे। नृसिंहाश्रम स्वामी के शिष्य वेङ्कटनाथ थे और वेङ्कटनाथ के शिष्य धर्मराज। नृसिंहाश्रम सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्यमान थे, इसलिए धर्मराज का स्थितिकाल सत्रहवीं शताब्दी होना सम्भव है। धर्मराज अध्वरीन्द्र के ग्रन्थों में वेदान्तपरिभाषा प्रधान है। यह अद्वैत सिद्धान्त का अत्यन्त उपयोगी प्रकरण ग्रन्थ है। इसके ऊपर बहुत सी टीकाएँ हुईं। भिन्न-भिन्न स्थानों से इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। अद्वैत वेदान्त का रहस्य समझने में इसका अध्ययन बहुत उपयोगी है। इसके सिवा उन्होंने गङ्गेशोपाध्याय कृत 'तर्कभूषामणि' नाम की टीका भी लिखी है। उसमें पूर्ववर्तिनी दस टीकाओं के मत का खण्डन किया गया है।

धर्मराजपूजा : इस व्रत में दमनक पौधे से धर्म का पूजन होता है। इसके लिए दे० 'दमनकपूजा'।

धर्मव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। उस दिन उपवास करते हुए धर्म का पूजन करना चाहिए। घी से हवन का विधान है। एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है। व्रत के अन्त में गाय का दान विहित है। इससे सुस्वास्थ्य, दीर्घायु, यश की प्राप्ति तथा पापों से छुटकारा होता है।

धर्मशास्त्र : साधारण बोलचाल में 'श्रुति' शब्द से समस्त वैदिक साहित्य का ग्रहण होता है। इसके साथ विभेदवाचक 'स्मृति' शब्द का प्रयोग होता है जिससे 'धर्मशास्त्र' का बोध होता है। वेद के चार उपाङ्गों में से धर्मशास्त्र एक है। धर्मशास्त्र वेदाङ्गीय सूत्रग्रन्थों का आनुषङ्गिक विस्तार है। इस अर्थ में ही धर्मसूत्र धर्मशास्त्र के प्राथमिक अङ्ग हैं। विशिष्ट अर्थ में स्मृति शब्द से धर्मशास्त्र के उन्हीं ग्रन्थों का बोध होता है जिनमें प्रजा के लिए उचित आचार-व्यवहारव्यवस्था और समाज के शासन के निमित्त नीति और सदाचार सम्बन्धी नियम स्पष्टतापूर्वक दिये रहते हैं। धर्मशास्त्र के विविध स्तरों की सूची में धर्मसूत्र, स्मृति, भाष्य, निबन्ध आदि सम्मिलित हैं। म० म० पाण्डुरङ्ग वामन काणे ने अपने 'धर्मशास्त्र के इतिहास' (जि० 1) में धर्मशास्त्र के अन्तर्गत शुद्ध राजनीति के ग्रन्थों (अर्थशास्त्र) को भी सम्मिलित कर लिया है।

धर्मषष्ठी : आश्विन कृष्ण षष्ठी को इसका प्रारम्भ होता है। इसमें धर्मराज की पूजा विहित है।

धर्मसूत्र : कल्प' वेदाङ्ग के अन्तर्गत सूत्र ग्रन्थ चार प्रकार के हैं, जिनका धार्मिक तथा व्यावहारिक जीवन में बडा महत्‍त्व है। ये हैं श्रौत, गृह्य, धर्म तथा रचना विषयक। धर्मसूत्र पाँच हैं : (1) आपस्तम्ब, (2) हिरण्यकेशी, (3) बौधायन, (4) गौतम और (5) वसिष्ठ। ये धर्मसूत्र यज्ञों का वर्णन न कर आचार-व्यवहार आदि का वर्णन करते हैं। धर्मसूत्रों में धार्मिक जीवन के चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) तथा चारों आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास) का वर्णन है। साथ ही निम्नलिखित विशेष विषय भी हैं-- राजा, व्यवहार के नियम, अपराध के नियम, विवाह, उत्तराधिकार, अन्त्येष्टि क्रियाएँ, तपस्या आदि। प्रारम्भ में विशेष धर्मसूत्रों का प्रयोग अपनी-अपनी शाखा के लिए ही किया जाता था, किन्तु पीछे उनमें से कुछ सभी द्विजों द्वारा प्रयुक्त होने लगे। आचारिक विधि का मूल आधार है वर्णव्यवस्था के अनुकूल कर्त्तव्यपालन। व्यवहार अथवा अपराध की विधियों पर भी इस वर्णव्यवस्था का प्रभाव है। विभिन्न वर्णों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के दण्ड हैं। हिंसा के अपराधों में ब्राह्मण की अपेक्षा इतर वर्ण वालों को एक ही प्रकार के अपराध करने पर कड़ा दण्डविधान है। इसके विपरीत लोभ के अपराधों में वर्णोत्कर्षक्रम से ब्राह्मण के लिए अधिक कड़े दण्ड का विधान है।

धर्मवाप्तिव्रत : यह व्रत आषाढ़ी पूर्णिमा के उपरान्त प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर एक मास तक चलता है। धर्म के रूप में भगवान् हरि का पूजन होता है। इससे समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है।

धवित्र : यज्ञाग्नि को उद्दीप्त करने का उपकरण (व्यजन)। शतपथ ब्राह्मण (14.1,3,30; 3,1,21) तथा तैत्तिरीय आरण्यक (5.4,33) में धवित्र की चर्चा हुई है। इसका अर्थ यहाँ 'पंखा' है, जो चमड़े का बना होता था और यज्ञाग्नि को उद्दीप्त करने के लिए इसका प्रयोग होता था।

धात्रीनवमी : कार्तिक शुक्लपक्ष की नवमी। इस दिन आँवले के पेड़ का ब्रह्मा के रूप में पूजन होता है और उसके नीचे बैठकर भोजन करने का विधान है। आँवले (आमलक) का एक नाम 'धात्री फल' है। विश्वास यह है कि चाहे माता भले ही अप्रसन्न हो जाय किन्तु आमलकी नहीं अप्रसन्न होती। उसके दैवीकरण के आधार पर यह व्रत प्रचलित हुआ है।

धात्रीव्रत : फाल्गुन मास के दोनों पक्षों की एकादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें आमलक के फलों से स्नान का विधान है। दे० पद्मपुराण, 5.58.1.11। भगवान् वासुदेव को धात्रीफल अत्यन्त प्रिय है। इसके भक्षण से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।

धान्यसप्तक : सात प्रकार के धान्यों के संयोग को 'धान्य सप्तक' कहा गया है। इनमें जौ, गेहूँ, धान, तिल, कंगु (भयप्रद बीज), श्यामाक तथा चीनक की गणना है। दे० हेमाद्रि, 1.48। कृत्यरत्नाकर, 70 के अनुसार चीनक के स्थान पर 'देवधान्य' का उल्लेख है। गोभिलस्मृति (3.107) के अनुसार सात धान्यों के नाम भिन्न ही हैं। विष्णुपुराण, 1.6.21-22; वायु, 8.150-152 तथा मार्कण्डेय, 46.67-69 (वेंकटेश्वर संस्करण) ने सत्रह धान्यों के नाम गिनाये हैं तथा व्रतराज (पृ० 17) ने अठारह धान्य बतलाये हैं। धार्मिक कार्यों के लिए ये धान्य (अनाज) पवित्र माने जाते हैं।

धान्यसप्तमी : शुक्ल पक्षीय सप्तमी को धान्यसप्तमी कहा जाता है। इस तिथि को सूर्यपूजन, नक्त पद्धति का अनुसरण, सप्त धान्यों तथा रसोई के पात्र एवं नमक के दान का विधान है। इससे व्रती स्वयं की तथा सात पीढ़ियों तक की रक्षा कर लेता है।

धान्यसंक्रान्तिव्रत : दोनों अयन दिवसों अथवा विषुव दिवसों को इस व्रत का आरम्भ होता है। एक वर्ष पर्यन्त इसका अनुष्ठान किया जाता है। केसर से अष्टदल कमल की आकृति बनाकर प्रत्येक दल की, सूर्य के आठ नामों को लेकर, पूर्वाभिमुख बढ़ते हुए स्तुति की जाती है। इसमें सूर्य का पूजन होता है, तदनन्तर एक प्रस्थ धान्य किसी ब्राह्मण को अर्पित किया जाता है (इसिलीए इसका नाम धान्यसंक्रान्ति है)। प्रतिमास इस व्रत की आवृत्ति होनी चाहिए।

धाना : इसका प्रयोग बहुवचन में ही होता है। ऋग्वेद (1.16.20; 3.36, 3; 52,5; 6.29,4) तथा परवर्त्ती वैदिक साहित्य में इसका 'अन्न के दानों' के अर्थ में उल्लेख हुआ है। कभी-कभी वे भूने जाते थे (भृज्ज) तथा नियमित रूप से सोमरस के साथ मिलाये जाते थे।

धामव्रत : धाम का अर्थ है गृह। इसमें गृह का दान होता है इसलिए इसको धामव्रत कहते हैं। सूर्य इसका देवता है। इस व्रत में फाल्गुन की पूर्णमासी को प्रारम्भ करके तीन दिन उपवास करने का विधान है। इसके उपरान्त एक सुन्दर गृह का दान देना चाहिए। इससे दानी का सूर्यलोक में वास होता है।

धार (धारा) : मध्य प्रदेश का प्राचीन नगर औऱ तीर्थस्थान। यह इतिहासप्रसिद्ध भोजराज की धारा नगरी है। यहाँ बहुत से प्राचीन ध्वंसावशेष पाये जाते हैं। कहा जाता है, गुरु गोरखनाथ के शिष्य राजा गोपीचन्द की राजधानी भी धारा ही थी। यहाँ जैन मन्दिर भी है, पार्श्वनाथजी की स्वर्णमूर्ति है। हिन्दू मन्दिर भी बहुत से हैं।

भोज परमार के समय यहाँ एक प्रसिद्ध 'सरस्वतीमन्दिर' का निर्माण हुआ था। इसका मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मस्जिद में परिवर्तन कर दिया। मन्दिर का अभिलेख आज भी सुरक्षित है। भोज के समय इसकी बड़ी ख्याति थी। उनके दिवंगत होने पर यह श्रीहीन हो गयी :

अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती। पण्डिता खण्डिता सर्वे भोजराजे दिवं गते॥

धारणपारणव्रतोद्यापन : चातुर्मास्य की एकादशी अथवा वर्षा के प्रथम मास अथवा अन्तिम मास में इस व्रत का आरम्भ होता है। उपवास (धारण) प्रथम मास में तथा पारण (भोजन) दूसरे मास में करने का विधान है। भगवान् नारायण तथा लक्ष्मीजी की प्रतिमाओं को एक जलपूर्ण कलश पर विराजमान करके रात्रि के समय उनका चरणामृत लेना चाहिए। पुष्प, तुलसीदलादि से पूजन तथा 'ओं नमो नारायणाय' नामक मन्त्र का 108 बार जप करना चाहिए। अर्घ्‍य देने का विधान है। ऋग्वेद के दशम मण्डल, 112.9 तथा 155.1 के मन्त्रों द्वारा उबले हुए तिल तथा तंडुलों से होम करना चाहिए।

धाराव्रत : (1) समस्त उत्तरायण काल में इस व्रत का विधान है। इसमें दुग्धाहार विहित है। पृथ्वी की धातुप्रतिमा का दान करना चाहिए। इसके रुद्र देवता हैं। इस व्रत के आचरण से व्रती सीधा रुद्रलोक को जाता है। कृत्यकल्पतरु के अनुसार यह संवत्सरव्रत है। हेमाद्रि इसे फुटकर व्रतों में गिनते हैं।

(2) चैत्र के प्रारम्भ में ही इस व्रत का आरम्भ होता है। इसमें भगवन्नाम के साथ जल की धारा मुँह में गिरायी जाती है। एक वर्ष तक इसके अनुष्ठान का विधान है। व्रतान्त में नये जलपात्र का दान करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से व्रती पराधीनता से मुक्त होकर सुख तथा अनेक वरदान प्राप्त करता है।

धिषणा : सोम तैयार करने में प्रयुक्त कोई पात्र तथा स्वतः सूखे हुए सोम का भी पर्याय। एक उपमा द्वारा यह द्विवाची शब्द दो लोक 'आकाश एवं भूमि' का वाचक है। हिलब्रैण्ट के मतानुसार इसका व्यक्तिवाची अर्थ पृथ्वी, द्विवाची अर्थ आकाश तथा पृथ्वी और त्रिवाची बहुवचन में इसका अर्थ 'वेदी' है। वाजसनेयी (7.26) एवं तैत्तिरीय (3.1,10,1) संहिताएँ इसका अर्थ 'लक़ड़ी का चिकना पटरा' (फलक) व्यक्त करती हैं जिस पर सोम को कूटा जाता था (अधिषवणफलके)। पिशेल के मतानुसार 'धिषणा' अदिति एवं पृथ्वी की तरह धन की देवी है।

धी : इसका प्रयोग ऋग्वेद (1.3,5,135; 5,151,6,185; 6.2.3; 8,40,5) मे प्रार्थना या स्तुति के रूप में हुआ है। एक कवि अपने को ऐसी ही एक स्तुति (ऋ० 2.28,5) का बुनकर रचयिता कहता है। 'धी' की भी देवता के रूप में कल्पना की गयी है।

मनु के कहे हुए धर्म के दस लक्षणों में एक 'धी' भी है। इसका सामान्य अर्थ है तर्क, बुद्धि।

धीति : ऋग्वेद के अनेक परिच्छेदों में इसका प्रायः वही अर्थ है जो 'धी' (स्तुति) का है।

धूप : एक सुगन्धित काष्ठ एवं ग्रन्थद्रव्यों का मिश्रण। पूजा के षोडशोपचारों में इसकी गणना है। देवार्चन में धूमदान (धूप जलाना) एक आवश्यक उपचार है। भविष्यपुराण में कुछ सुगन्धित पदार्थों के सम्मिश्रण से निर्मित धूपों का उल्लेख है, यथा अमृत, अनन्त, यक्ष, धूप, विजय धूप, प्राजापत्य आदि। इसके साथ-साथ दस भागों (दशांग) की धूप का भी उल्लेख मिलता है। कृत्यकल्पतरु के अनुसार विजय नामक धूप आठ भागों से बनती है। भविष्यपुराण (1,68,28-29) के अनुसार विजय सर्वश्रेष्ठ धूप है, जाती सर्वोत्तम पुष्प, केसर सर्वोत्तम सुगन्धित द्रव्य, रक्त चन्दन सर्वोत्तम प्रलेप, मोदक अर्थात् लड्डू सर्वोत्तम मिष्टान्न है। धूप को मक्खियों तथा पिस्सुओं को नष्ट करने वाली एक रामबाण औषध के रूप में उद्धृत किया गया है, (गरुडपुराण, 1,177,88-89)। धूप के विस्तृत विवरण के लिए देखिए कृत्यरत्नाकर, 77-78; स्मृतिचिन्ता०, 1,203 तथा 2,465। बाण भट्ट की कादम्बरी (प्रथम भाग, अनुच्छेद 52) में कथन है कि भगवती चण्डिका के मन्दिर में गुग्गुल की पर्याप्त मात्रा से युक्त धूप जलायी गयी थी।

धूमकेतु : अथर्ववेद (19.9,10) में धूमकेतु मृत्यु का एक विरुद वर्णित है। जिमर इसका अर्थ उलका लगाते हैं जो ह्विटने के मत में असम्भव है। लैनमन इससे चिता के धुआँ का अर्थ करते हैं। ज्योतिष ग्रन्थों के अनुसार यह पुच्छल तारे का नाम है।

धूमावती : तन्त्रशास्त्र के अनुसार दस महाविद्याओं में से एक धूमावती हैं। ये विधवा कहलाती हैं। मूर्तियों में इनका इसी रूप में अङ्कन हुआ है।

धूर्तस्वामी : आपस्तम्ब सूत्र के एक भाष्यकार। इन्होंने बौद्धायन श्रौतसूत्र का भी भाष्य लिखा है।

धूलिवन्‍दन : होलिका दहन के दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा को होलिकाभस्म का वन्दन होता है, जिसे धूलिवन्दन कहते हैं। इस दिन श्वपच (चाण्डाल) तक से गले मिलने की प्रथा है। लोग रङ्ग खेलते हैं, आम्रमञ्जरी का प्राशन करते हैं, परस्पर भोजन कराते हैं, गाना-बजाना, उत्सव, नाच आदि होता है। भली भाँति से मनोरञ्जन के उपाय किये जाते हैं। गालियाँ बकने और मद्य सेवन की कुप्रथा भी चल पड़ी थी, जो अब सुधारकों के प्रभाव से कम हो चली है। होली और फाग में वर्षों के वैर को जला देते हैं, धूल में उड़ा देते हैं। यह त्यौहार सब वर्णों को समान सम्मान देकर मिलाने वाला है, चारों वर्णों का, और विशेष कर शूद्रों का त्यौहार है।

धृतराष्ट्र : (1) एक सर्प--दैत्य, जिसका पितृबोधक नाम ऐरावत (इरावन्त का वंशज) है जिसका उल्लेख अथर्ववेद (1.10,290 तथा पञ्चविंश ब्राह्मण में हुआ है (25.15,3)। इसका शाब्दिक अर्थ है 'जिसका राष्ट्र दृढ़ता से स्थिर हो अथवा जिसने राष्ट्र को दृढ़ता से पकड़ा हो।'

(2) महाभारत के एक प्रमुख पात्र, दुर्योधन आदि कौरवों के पिता। ये पाण्डु के भाई थे। किन्तु पाण्डु के क्षय रोग से मृत होने के कारण पाण्डवों की अवयस्कता में ये ही राजा बने। इनके पुत्र दुर्योधन आदि पाण्डवों को राज्य लौटाने के पक्ष में नहीं थे। इसीलिए महाभारत युद्ध हुआ। धृतराष्ट्र और सञ्जय के संवाद के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता का प्रणयन हुआ है, जो महाभारत का एक अंग है।

धृतिव्रत : इस व्रत में शिवजी की प्रतिमा को पंचामृत में प्रतिदिन स्नान कराया जाता है। पंचामृत में दधि, दुग्ध, धृत, मधु, गन्ने के रस अथवा शर्करा का मिश्रण होता है। एक वर्ष तक यह व्रत चलता है। व्रतान्त में एक धेनु का पञ्चामृत तथा शंख सहित दान करना चाहिए। यह संवत्सरव्रत है। इससे भगवान् शिव का लोक प्राप्त होता है। दे० कृत्यकल्पतरु, 444; हेमाद्रि, 2.865 में पाठभेद है। इसके अनुसार शिव अथवा विष्णु की प्रतिमा को स्नान कराना चाहिए, इससे शिव अथवा विष्णु-लोक प्राप्त होता है।

धेनु : धेनु का अर्थ ऋग्वेद (1.32,9 सहवत्सा) तथा परवर्ती साहित्य (अ० वे० 5.17, 18; 7, 104, 10; तै० सं० 2.6,2,3; मैत्रायणी सं० 4.4,8; वाजस० सं० 18,27; शत० ब्रा० 2.2,121, आदि) में 'दूध देने वाली गाय' है। इसका पुरुषवाचक शब्द वृषभ है। धेनु का अर्थ केवल स्त्री है। सम्पत्तिसंग्रह और दान दोनों में धेनु का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

धेनुव्रत : जिस समय गौ वत्स को जन्म दे रही हो उस समय प्रभूत मात्रा में स्वर्ण एवं उस गौ का दान करे। व्रती यदि उस दिन केवल दुग्धाहार करे तो उच्चतम लोक को प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।

धैवर : धैवर का अर्थ मछुवा अथवा एक जाति का सदस्य है (धीवर का वंशज)। धैवर का उल्लेख यजुर्वेद (वाज० सं० 30.16; तै० ब्रा० 3.4.15,1) के पुरुषमेध प्रकरण में उद्धृत बलिपशु की सूची में है।

धौतपाप (हत्याहरण) : नैमिषारण्य क्षेत्र का एक तीर्थ। नैमिषारण्य-मिषरिख से एक योजन (लगभग आठ मील) पर यह तीर्थ गोमती के किनारे है। यहाँ स्नान करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, ऐसा पुराणों में वर्णन मिलता है। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, रामनवमी तथा कार्तिकी पूर्णिमा को यहाँ मेला लगता है।

ध्यानबदरी : उत्तराखण्ड का एक वैष्णव तीर्थ। हेलंग स्थान से सड़क छोड़कर बायीं ओर अलकनन्दा को पुल से पार करके एक मार्ग जाता है। इस मार्ग से छः मील जाने पर कल्पेश्वर मन्दिर आता है, जो 'पञ्च केदारों' में से पञ्चम केदार माना जाता है। यहीं 'ध्यानबदरी' का मन्दिर है। इस स्थान का नाम उरगम है।

ध्यानबिन्दु उपनिषद् : योगसम्‍बन्धित उपनिषदों में से एक ध्यानबिन्दु उपनिषद् भी है। यह पद्यबद्ध है तथा चूलिका उपनिषद् की अनुगामिनी है।

ध्रुव : (1) सूत्र ग्रन्थों में ध्रुव से उस तारे का बोध होता है जिसका प्रयोग विवाह संस्कार में वधू को स्थिरता के प्रतीक के रूप में दर्शन कराने के लिए होता है। मैत्रायणी उपनिषद् में ध्रुव का चलना (ध्रुवस्य प्रचलनम्) उद्धृत है, किन्तु इसका 'ध्रुव तारे की चाल' अर्थ न होकर किसी विशेष घटना से अभिप्राय है।

(2) पौराणिक गाथाओं में ऐतिहासिक पुरुष उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव से इस तारे का सम्बन्ध जोड़ा गया है। भगवान् विष्णु ने अपने भक्त ध्रुव को स्थायी ध्रुवलोक प्रदान किया था।

ध्रुवक्षेत्र : एक तीर्थ का नाम, जो मथुरा के पास यमुना के तट पर स्थित 'ध्रुव टीला' कहलाता है। यहाँ निम्बार्क सम्प्रदाय की एक गुरुगद्दी है।

ध्रुवदास : राधावल्लभी वैष्णव सम्प्रदाय के एक भक्त कवि, जो 16वीं शताब्दी के अन्त में हुए थे। इनके रचे अनेक ग्रन्थ (वाणियाँ) हैं, जिनमें 'जीवदशा' प्रधान है।

ध्वज : (1) ऋग्वेद (7.85,2;10.103,11) में यह शब्द पताका के अर्थ में दो बार आया है। वैदिक युद्धों का यह प्रधान चिह्न है। उपर्युक्त दोनों उद्धरणों में बाणों के छूटने तथा ध्वज पर गिरने का वर्णन है।

(2) देवताओं के चिह्न (निशान) अर्थ में भी ध्वज का प्रयोग होता है। प्रायः उनके वाहन ही ध्वजों पर प्रतिष्ठित होते हैं, यथा विष्णु का गरुड़ध्वज, सूर्य का अरुणध्वज, काम का मकरध्वज आदि।

ध्वजनवमी : पौष शुक्ल नवमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इस तिथि को 'सम्बरौ' कहा जाता है। इसमें चण्डिका देवी का पूजन होता है जो सिंहवाहिनी हैं एवं कुमारी के रूप में ध्वज को धारण करती हैं। मालती के पुष्प तथा अन्य उपचारों के साथ राजा को भगवती चण्डिका के मन्दिर में ध्वजारोहण करना चाहिए। इसमें कन्याओं को भोजन कराने का विधान है। स्वयं उपवास करने अथवा एकभक्त रहने की भी विधि है।

ध्वजव्रत : गरुड़, तालवृक्ष, मकर तथा हरिण भगवान् वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के क्रमशः ध्वजचिह्न हैं। उनके वस्त्र तथा ध्वजों का वर्ण क्रमशः पीत, नील, श्वेत तथा रक्त है। इस व्रत में चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ तथा आषढ़ में प्रतिदिन क्रमशः गरुड़ आदि ध्वज चिह्नों का उचित वर्ण के वस्त्रों तथा पुष्पों से पूजन होता है। चौथे मास के अन्त में ब्राह्मणों का सम्मान तथा उचित रंगों से रंजित वस्त्र प्रदान किये जाते हैं। चार-चार मासों में इस प्रकार इस व्रत का तीन बार अनुष्ठान किया जाता है। इसके अनुष्ठान से विभिन्न लोकों की प्राप्ति होती है। व्रताचरण के समय के हिसाब से व्रतकर्त्ता का लोकों में निवास होता है। यदि किसी व्यक्ति ने बारह वर्ष तक व्रत किया हो तो विष्णु भगवान् के साथ सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है। विष्णुधर्मं, 3,1461-14 में इसे चतुमूर्तिव्रत बतलाया है, उसी प्रकार हेमाद्रि, 2.829--831 में भी।

नकुल : (1) नकुल (नेवला) का उल्लेख अथर्ववेद (6.13.9,5) में साँप को दो टुकड़ों में काटने और फिर जोड़ देने में समर्थ जन्तु के रूप में किया गया है। इसके सर्पविष निवारण के ज्ञान का भी उल्लेख है (ऋग्वेद, 8.7,23)। यजुर्वेसंहिता में इस प्राणी का नाम अश्वमेधीय बलिपशुओं की तालिका में है।

(2) पाण्डवों में से चौथे भाई का नाम नकुल है।

नकुलीश पाशुपत : (नकुलीश शब्द में 'ल' को 'न' वर्णादेश) माधवाचार्य (चौदहवीं शती वि० का पूर्वार्द्ध) अपने 'सर्वदर्शनसंग्रह' में तीन शैव सम्प्रदायों का वर्णन करते हैं-- 'नकुलीश पाशुपत, शैवसिद्धान्त एवं प्रत्यभिज्ञा। उनके अनुसार आचार्य नकुलीश शङ्कर द्वारा वर्णित पाँच तत्वों की शिक्षा देते हैं--कार्य, कारण, भोग, विधि तथा दुःखान्त, जैसा कि 'पञ्चार्थविद्या' नाक ग्रन्थ में बतलाया गया है। 'लकुलिन्' का अर्थ है जो लकुल (गदा) धारण करता हो। पुराणाख्यानों के अनुसार शिव योगशक्ति से एक मृतक में प्रवेश कर गये तथा यह उनका लकुलीश अवतार कहलाया। यह घटनास्थल कायावरोहण या कारोहण (कायारोहण) कहलाता है जो गुजरात के लाट प्रदेश में है। लकुली द्वारा (जो सम्भवतः प्रथम शताब्दी ई० में पञ्चाध्यायी के रचयिता थे) स्थापित सिद्धान्तों से ही परवर्त्ती 'शैवसिद्धान्त' का जन्म हुआ।

इस प्रधान शाखा में माधवाचार्य के मतानुसार शिव के साथ जीवात्मा के एकत्व प्राप्त करने की साधना की जाती है। पवित्र मन्त्रोच्चारण, ध्यान तथा सभी कर्मों से मुक्ति द्वारा पहले 'संविद्' (वेदना) प्राप्त की जाती है। साधक योगाभ्यास से फिर अनेक रूप धारण करने तथा शव से सन्देश प्राप्त करने की शक्ति प्राप्त करता है। गीत, नृत्य, हास्य, प्रेम सम्बन्धी संकेतों को जगाने, विमोहितावस्था में बोलने, राख लपेटने तथा मन्दिरों के फूलों को धारण करने एवं पवित्र मन्त्र 'हुम्' के दीर्घ उच्चारण से धार्मिक भक्ति भावना जगायी जाती है। कालामुखों की विधि (आचार) नकुलीश पाशुपत विधि से मिलती जुलती है।

नक्कीरदेव : इनका जीवनकाल पाँचवी या छठी शताब्दी है। इस काल के तमिल शैवों के बारे में बहुत ही कम ज्ञात हुआ है। उनका कोई साहित्य प्राप्त नहीं है। नक्कीरदेव तमिल लेखक थे, जिन्होंने केवल एक प्रसिद्ध ग्रन्थ 'तिरुमुरुत्तुप्पदइ' लिखा है। यह पद्य में है तथा 'मुरुइ' अथवा 'सुब्रह्मण्य' नामक देवता के सम्मान में रचा गया है।

नक्तचतुर्थी : मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का प्रारम्भ होता हैं, इसके देवता विनायक हैं। व्रती को नक्त भोजन पर आश्रित रहना चाहिए, तदनन्तर तिलमिश्रित खाद्य पदार्थों से व्रत की पारणा एक वर्ष पर्यन्त करनी चाहिए।

नक्तव्रत : एक दिवारात्रि का व्रत। उस तिथि को इसका आचरण करना चाहिए जिस दिन वह तिथि सम्पूर्ण दिन तथा रात्रि में व्याप्त रहे (निर्णयामृत्, 16-17)। नक्त का तात्पर्य है 'दिन में पूर्ण उपवास किन्तु रात्रि में भोजन।' नक्तव्रत एक मास, चार मास अथवा एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। श्रावण से माघ तक नक्त व्रत के लिए दे० लिङ्गपुराण (1.83.3-54); एक वर्ष तक नक्त वर्त के लिए दे० नारदपुराण (2.2.43)।

नक्षत्र : नक्षत्रों का वैदिक यज्ञों और अन्य धार्मिक कृत्यों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसलिए ज्योतिष शास्त्र को वेदाङ्ग माना जाता है। नक्षत्र शब्द की उत्पत्ति अस्पष्ट है। इसके प्राथमिक अर्थ के बारे में भारतीय विद्वानों के विभिन्न मत हैं। शतपथ ब्राह्मण (2.1, 2,18-19) इसका विच्छेद 'न+क्षत्र' (शक्तिहीन) कर उसकी व्याख्या एक कथा के आधार पर करता है। निरुक्त इसकी उत्पत्ति नक्ष् (प्राप्ति करना) धातु से मानता है और इस प्रकार तैत्तिरीय ब्राह्मण का अनुकरण करता है। ऑफ्रेख्ट तथा वेबर इसे 'नक्त+त्र' (रात्रि के संरक्षक) से बना मानते हैं तथा आधुनिक लोग 'नक्+क्षत्र' (रात्रि के ऊपर अधिकार) इसका अर्थ करते हैं, जो अधिक मान्य लगता है और इस प्रकार इसका वास्तविक अर्थ 'तारा' ज्ञात होता है।

ऋग्वेद के सूक्तों में इसका प्रयोग 'तारा' के रूप में हुआ है। परवर्त्ती संहिताओं में भी इसका यही अर्थ है, जहाँ सूर्य और नक्षत्र एक साथ प्रयुक्त हैं, अथवा सूर्य, चन्द्र तथा नक्षत्र या चन्द्र तथा नक्षत्र अथवा नक्षत्र अकेले प्रयुक्त है। किन्तु इसका अर्थ कहीं भी आवश्यक रूप से 'चन्द्रस्थान' नहीं है। किन्तु ऋग्वेद में कम-से-कम तीन नक्षत्र 'चन्द्रस्थान' के अर्थ में प्रयुक्त हैं। तिष्य का प्रयोग चन्द्रस्थान के रूप में नहीं ज्ञात होता, किन्तु अघाओं (बहुबचन) तथा अर्जुनियों (द्विवजन) के साथ इसका दूसरा ही अर्थ होता है। हो सकता है कि यहाँ वे परवर्त्ती 'चन्द्रस्थान' हों जिन्हें मघा (बहुवचन) तथा फल्गुनी (द्विवचन) कहा जाता है। नामों का परिवर्तन ऋग्वेद में स्वतंत्रता से हुआ है। लुड्विग तथा जिमर ने ऋग्वेद में नक्षत्र के 27 सन्दर्भ देखे हैं, किन्तु यह असंभव जान पड़ता है और न तो रेवती (सम्पन्न) तथा पुनर्वसु (पुनः सम्पत्ति लाने वाला) नाम ही, जो अन्य ऋचा में प्रयुक्त हैं, नक्षत्रबोधक हैं।

नक्षत्र--चन्द्रस्थान के रूप में : परवर्ती संहिताओं में अनेक परिच्छेदों में चन्द्रमा तथा नक्षत्र वैवाहिक सूत्र में बाँधे गये हैं। काठक तथा तैत्तिरीय संहिता में नक्षत्रस्थानों के साथ सोम के विवाह की चर्चा है, किन्तु उसका (सोम का) केवल रोहिणी के साथ ही रहना माना गया है। चन्द्रस्थानों की संख्या दोनों संहिताओं में 27 नहीं कहीं गयी है। तैत्तिरीय में 33 तथा काठक में कोई निश्चित संख्या उद्धृत नहीं है। किन्तु तालिका में इनकी संख्या 27 ही जान पड़ती है, जैसा कि तैत्तिरीय संहिता या अन्य स्थानों पर कहा गया है। 28 की संख्या अच्छी तरह प्रमाणित नहीं है। तैत्तिरीय ब्राह्मणों में 'अभिजित्' नवागन्तुक है, किन्तु मैत्रायणी संहिता तथा अथर्ववेद की तालिका में इसे मान्यता प्राप्त है। सम्भवतः 28 ही प्राचीन संख्या और अभिजित् को पीछे तालिका से अलग कर दिया गया है, क्योंकि वह अधिक उत्तर में तथा अतिमन्द ज्योति का तारा है। साथ ही 27 अधिक महत्त्वपूर्ण संख्या (3x3x3) भी है। ध्यान देने योग्य है कि चीनी 'सीऊ' तथा अरबी 'मानासिक' (स्थान) संख्या में 28 हैं। वेबर के मत से 27 भारत की अति प्राचीन नक्षत्र-संख्या है।

संख्या का यह मान तब सहज ही समझ में आ जाता है जब हम यह देखते हैं कि महीने (चान्द्र) में 27 य़ा 28 दिन (अधिकतर 27) होते थे। लाट्यायन तथा निदानसूत्र में मास में 27 दिन, 12 मास का वर्ष तथा वर्ष 324 दिन माने गये हैं। नाक्षत्र वर्ष में एक महीना और जुड़ जाने से 354 दिन होते हैं। निदानसूत्र में नक्षत्र का परिचय देते हुए सूर्य (सावन) वर्ष में 360 दिनों का होना बताया गया है, जिसका कारण सूर्य का प्रत्येक नक्षत्र के लिए 13 1/3 दिन व्‍यय करना है (13 1/3 x 27x 360)।

नक्षत्रों के नाम : कृत्तिका, रोहिणी, मृगशीर्ष या मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, तिष्य या पुष्य, आश्लेषा, मघा, फाल्गुनी, फल्गू या फल्गुन्य अथवा फल्गुन्यौ (दो नक्षत्र, पूर्व एवं उत्तर), हस्त, चित्रा, स्वाती या निष्टया, विशाखा, अनुराधा, रोहिणी, ज्येष्ठाग्नि या ज्येष्ठा, विकृतौ या मूल, आषाढा (पूर्व एवं उत्तर), अभिजित्, श्रोणी या श्रवण, श्रविष्ठा या धनिष्ठा, शतभिषक् या शतभिषा, प्रोष्ठपदा या भाद्रपदा (पूर्व एवं उत्तर), रेवती, अश्वयुजौ तथा अप (अव) भरणी, भरणी या भरण्या।

नक्षत्रों का स्थान : वैदिक साहित्य में यह कुछ निश्चित नहीं है, किन्तु परवर्त्ती ज्योतिष शास्त्र उनका निश्चित स्थान बतलाता है।

नक्षत्र तथा मास : ब्राह्मणों में नक्षत्रों से मास की तिथियों का बोध होता है। महीनों के नाम भी नक्षत्रों के नाम पर बने हैं : फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, प्रौष्ठपद, आश्वयुज, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष (तैष्य), माघ। वास्तव में ये चान्द्र मास ही हैं। किन्तु चान्द्र वर्ष का विशेष प्रचलन नहीं था। तैत्तिरीय ब्राह्मण के समय से इन चान्द्र मासों को सूर्यवर्ष के 12 महीनों के (जो 30 दिन के होते थे) समान माना जाने लगा था।

नक्षत्रकल्प : अथर्ववेद के एक शान्तिप्रकरण का नाम 'नक्षत्रकल्प' है। इस कल्प में पहले कृत्तिकादि नक्षत्रों की पूजा और होम होता है। इसके पश्चात् अद्भुत्-महाशान्ति, निऋतिकर्म और अमृत से लेकर अभय पर्यन्त महाशान्ति के निमित्तभेद से तीन तरह के कर्म किये जाते हैं।

नक्षत्रकल्पसूत्र : नक्षत्रकल्प को ही नक्षत्रकल्पसूत्र भी कहते हैं। दे० 'नक्षत्रकल्प'।

नक्षत्र-तिथि-वार-ग्रह-योगसम्बन्धी व्रत : हेमाद्रि (2.588, 590, कालोत्तर से) संक्षेप में कुछ विशेष (लगभग 16) पूजाओं का उल्लेख करते हैं, जो किन्हीं विशेष नक्षत्रों का किन्ही विशेष तिथियों, सप्ताह के विशेष दिनों के साथ योग होने से की जाती है। उनमें से कुछ उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं : यदि रविवार को चतुर्दशी हो तथा रेवती नक्षत्र हो अथवा अष्‍टमी और मघा नक्षत्र एक साथ पड़ जायँ तो मनुष्य को भगवान् शिव की आराधना करनी चाहिए तथा स्वयं तिलान्न खाना चाहिए। यह आदित्यव्रत है, जिससे व्रती अपने पुत्र तथा बन्धु-बान्धवों के साथ सुस्वास्थ्य प्राप्त करता है। यदि चतुर्दशी को रोहिणी नक्षत्र हो, अथवा अष्टमी चन्द्र सहित हो तो वह चन्द्रव्रत कहलाता है। उस दिन भगवान् शिव का पूजन किया जा सकता है। उन्हें नैवेद्य के रूप में दुग्ध तथा दधि अर्पित किया जाना चाहिए। व्रती स्वयं भी दुग्धाहार करे। उससे उसे सुख, समृद्धि, स्वास्थ्य तथा सन्तानोपलब्धि होती है। जब गुरुवार को रेवती नक्षत्र हो और चतुर्दशी हो अथवा अष्टमी पुष्य नक्षत्रयुक्त हो तो यह 'गुरुव्रत' होता है। व्रती को गुरुव्रत के समय कपिला गौ का दूध तथा ब्राह्मी नामक औषधि का रस सेवन करना चाहिए। इससे मनुष्य वाग्मी, शूर होता है। विष्णुधर्मसूत्र (अध्याय 90.1-14) उस समय के कृत्य बतलाता है जब मार्गशीर्ष मास से कार्तिक मास तक की पूर्णिमाओं को वही नक्षत्र हो जिनके नाम से मासारम्भ होता है। दे० दानसागर, पृ० 622-626, जहाँ विष्णुधर्म० को उद्धृत किया गया है।

नक्षत्रदर्श : यजुर्वेद में उद्धृत पुरुषमेध की बलिसूची में 'नक्षत्रदर्श' नामक एक ज्योतिषाचार्य का उल्लेख है। शतपथब्राह्मण में इस शब्द से एक नक्षत्र के चुनाव करने का बोध होता है, जिसमें सुषुप्त यज्ञाग्नि को पुनः जागृत किया जाता था।

नक्षत्रपुरुषव्रत : यह व्रत चैत्र मास में आरम्भ होता है। इसमें भगवान् वासुदेव की प्रतिमा के पूजन करने का विधान है। कुछ नक्षत्र, जैसे मूल, रोहिणी, अश्विनी आदि का सम्मान करना चाहिए, जब भगवान् के चरण, जंघा तथा घुटनों का क्रमशः पूजन किया जा रहा हो। इसी प्रकार भगवान् के विग्रह के किस अङ्ग के साथ किस नक्षत्र का नामाल्लेख हो यह भी निश्चित किया गया है। व्रत्तान्त में भगवान् हरि की प्रतिमा को गुड़ से भरे हुए कलश में विराजमान करके दान में देना चाहिए। इसके साथ वस्त्रों से आवृत पलंग भी दान में देना चाहिए। व्रती को अपनी सहधर्मिणी की दीर्घायु तथा चिरसंग के लिए भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिए। व्रती को चाहिए कि तैल तथा लवण रहित भोजन ग्रहण करे।

नक्षत्रपूजाविधि : इस व्रत में नक्षत्रों के स्वामियों के रूप में देवगण का कटी हुई फसल से पूजन होना चाहिए। अश्विनीकुमार, यम तथा अग्नि क्रमशः अश्विनी, भरणी तथा कृत्तिका नक्षत्रों के स्वामी हैं। इनके पूजन से व्रती दीर्घायु, स्वातन्त्र्य, दुर्घटनाजन्‍य मृत्यु से मुक्ति, सुखसमृद्धि प्राप्त करने में समर्थ होता है। दे० वायुपुराण, 80.1-39; हेमाद्रि, 2.594-597; कृत्यरत्नाकर, 557-560। उपर्युक्त ग्रन्थ नक्षत्रों के स्वामियों, उन पुष्पों तथा अन्यान्य सुगन्धित पदार्थों का उल्लेख करते हैं, जिनसे उनकी पूजा की जानी चाहिए। इससे प्राप्त होने वाले पुण्य एवं फलों की भी चर्चा की गयी है।

नक्षत्रवादावली : यह अप्पय दीक्षित द्वारा रचित व्याकरण ग्रन्थ है। इसे 'पाणिनितन्त्रनक्षत्रवादमाला' भी कहते हैं। यह ग्रन्थ क्रोडपत्र के समान है। इसमें सत्ताईस सन्दिग्ध विषयों पर विचार किया गया है।

नक्षत्रविधिव्रत : यह व्रत मृगशिरा नक्षत्र को प्रारम्भ होता है। इसमें पार्वती के पूजन का विधान है। उनके चरणों की समानता मूल नक्षत्र से की गयी है। उनकी गोद की रोहिणी तथा अश्विनी से, उनके घुटनों तथा अन्य अवयवों की अन्य नक्षत्रों से तुलना की गयी है। प्रत्येक नक्षत्र में व्रती को उपवास रखना चाहिए। उस नक्षत्र की समाप्ति के समय व्रत की पारणा का विधान है। पृथक्पृथक् नक्षत्रों को पृथक्-पृथक् भोजन ब्राह्मणों को कराना चाहिए। देवताओं को भी विभिन्न नक्षत्रों के समय भिन्न-भिन्न नैवेद्य तथा पुष्प अर्पित किये जाने चाहिए। इसके फलस्वरूप व्रती सौन्दर्य तथा सौभाग्य उपलब्ध करता है।

नगरकीर्तन : गाते-बजाते हुए नगर में धार्मिक शोभायात्रा करने को नगरकीर्तन कहा जाता है। महाप्रभु चैतन्य पर मध्व, निम्बार्क तथा विष्णुस्वामी के मतों का बड़ा प्रभाव था। वे जयदेव, चण्डीदास, विद्यापति के गीत (भजन) बड़े प्रेम से गाया करते थे। उन्होंने माध्व आचार्यों से भी आगे बढ़कर विचारों तथा पूजा में राधा को स्थान दिया। वे अधिक समय अपने अनुयायियों को साथ लेकर राधा-कृष्ण की स्तुति (कीर्तन) करने में बिताते थे। उसमें (कीर्तन में) वे भक्तिभावना का ऐसा रस मिलाते थे कि श्रोता भावविभोर हो जाते थे। प्रायः वे कीर्त्तनियों की टोली के साथ बाहर सड़क पर पंक्ति बाँधे गाते हुए निकल पड़ते थे तथा इस संकीर्तन को नगर कीर्तन का रूप देते थे। इस विधि का उनके मत के प्रसार में बड़ा योग था। आज भी अनेक भक्तमण्डलियाँ नगर कीर्तन करती देखी जा सकती हैं। दूसरे धार्मिक सम्प्रदाय भी अपने सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए नगरकीर्तन का सहारा लेते हैं। वे भजन गाते हुए नगर की सड़कों पर निकलते हैं। आर्यसमाज जैसा सुधारवादी समाज भी नगरकीर्तन में विश्वास करता है।

नचिकेता : तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.2,8) की प्रसिद्ध कथा में उसे वाजश्रवस का पुत्र तथा गोतम (--गोत्रज) बताया गया है। कठोपनिषद् (1.1) में नचिकेता का उल्लेख है। इस उपनिषद् में उसे आरुणि औद्दालकि अथवा वाजश्रवस का पुत्र कहा गया है। कठोपनिषद् वाली नचिकेता की कथा में श्रेय और प्रेय के बीच श्रेय का महत्त्व स्थापित किया गया है।

नञ्जनाचार्य : वीरशैव मत के आचार्य। इनका उद्भव काल 18वीं शताब्दी था। इन्होंने 'वेदसारवीरशैवचिन्तामणि' नामक ग्रन्थ की रचना की थी।

नडाडुरम्मल आचार्य : वरदाचार्य अथवा नडाडुरम्मल आचार्य वरद गुरु के पौत्र थे। सुदर्शनाचार्य के गुरु तथा रामानुजाचार्य के शिष्य और पौत्र जो वरदाचार्य या वरद गुरु थे, उन्हीं के ये पौत्र थे। अतएव इनका समय चौदहवीं शताब्दी कहा जा सकता है। वरदाचार्य ने 'तत्‍त्वसार' और 'सारार्थचतुष्टय' नामक दो ग्रन्थ रचे। तत्‍त्वसार पद्य में है और उसमें उपनिषदों के धर्म तथा दार्शनिक मत का सारांश दिया गया है। सारार्थचतुष्टय विशिष्टाद्वैतवाद का ग्रन्थ है। इसमें चार अध्याय हैं और चारों में चार विषयों की आलोचना है। पहले में स्वरूप ज्ञान, दूसरे में विरोधी ज्ञान, तीसरे में शेषत्व ज्ञान चौथे में फलज्ञान की चर्चा है।

नदीत्रिरात्रव्रत : इस व्रत का अनुष्ठान उस समय होता है जब आषाढ़ के महीने में नदी में पूरी बाढ़ हो। उस समय व्रती को चाहिए कि एक कृष्ण वर्ण के कलश में नदी का जल भर ले और घर ले आये, दूसरे दिन प्रातः नदी में स्नान कर उस कलश की पूजा करे। तीन दिन वह उपवास करे अथवा एक दिन अथवा एक समय; एक दीप सतत प्रज्वलित रखे, नदी का नामोच्चारण करते हुए वरुण देवता का भी नाम ले तथा उन्हें अर्घ्‍य, फल तथा नैवेद्य अर्पण करे, तदनन्तर भगवान् गोविन्द की प्रार्थना करे। इस व्रत का आचरण तीन वर्ष तक किया जाय। तदनन्तर गौ आदि का दान करने का विधान है। इससे सुख, सौभाग्य तथा सन्तान की प्राप्ति होती है।

नदीव्रत : (1) इस व्रत को चैत्र शुक्ल में प्रारम्भ करके नक्त पद्धति से सात दिन आहार करते हुए सात नदियों-- ह्रदिनी (अथवा नलिनी), ह्लादिनी, पावनी, सीता, इक्षु, सिन्धु और भागीरथी का पूजन करना चाहिए। एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान किया जाता है। प्रति मास सात दिन तक यह नियम अनवरत चलना चाहिए। जल में दूध मिलाकर समर्पण करना चाहिए तथा एक जलपात्र में दूध भरकर दान करना चाहि। व्रतान्त में फाल्गुन मास में ब्राह्मण को एक पल चाँदी दान में देनी चाहिए। दे० हेमाद्रि, 2.462 : उद्धृत करते हुए विष्णुधर्म०, 3.163, 1--7 को; मत्स्यपुराण, 121, 140-41; वायु पुराण, 47.38-39। उपर्युक्त पुराणों में गङ्गा की सात धाराओं के पूजन का विधान है।

(2) हेमाद्रि, 5.1.792 (विष्णुधर्म० से एक श्लोक उद्धृत करते हुए) के अनुसार सरस्वती नदी की पूजा करने से सात प्रकार के ज्ञान प्राप्त होते हैं।

नदीस्तुति : दिव्य तथा पार्थिव दोनों जलों को ऋग्वेद में अलग नहीं किया गया है। दोनों की उत्पत्ति एवं व्याप्ति एक-दूसरे में मानी गयी है। प्रसिद्ध 'नदीस्तुति' (ऋग्वेद, 10 75) में उत्तर प्रदेश, पंजाब और अफगानिस्तान की नदियों का उल्लेख है। तालिका गङ्गा से प्रारम्भ होती है एवं इसका अन्त सिन्धु तथा उसकी दाहिनी ओर से मिलने वाली सहायक नदियों से होता है। सम्भवतः इस ऋचा की रचना गङ्गा-यमुना के मध्य देश में हुई जहाँ आजकल उत्तर प्रदेश का सहारनपुर जिला है। सरस्वती तथा सिन्धु दो भिन्न नदियाँ हैँ। पंजाब की नदीप्रणाली की सबसे बड़े नदी सिन्धु की प्रशंसा उसकी सहायक नदियों के साथ की गयी है। सिन्धु को यहाँ एक राजा तथा उसकी सहायक नदियों को उसके दोनों ओर खड़े सैनिकों के रूप में वर्णन किया गया है, जो उनको आज्ञा देता है।

ऋग्वेद की तीन ऋचाओं में अकेले सरस्वती की स्तुति है, जिसे माता, नदी एवं देवी (असुर्या) का रूप दिया गया है। कुछ विद्वान् सरस्वती-ऋचाओं को सिन्धु सम्बन्धी बताते हैं, किन्तु यह सम्भव नहीं है। इसे धातु कहा गया है, जिसके किनारे सेनाध्यक्ष निवास करते थे, जो शत्रुविनाशक (पारावतों के घातक) थे। सरस्वती के पूजन वालों को अपराध की दशा में दूर देश के कारागार में जान से छूट मिलती थी। इसके तटवर्ती ऋषियों के आश्रमों में अनेक ऋचाओं की रचना हुई तथा अनेक यज्ञ हुए। सरस्वती को अच्छी ऋचाओं तथा अच्छे विचारों की प्रेरणादायी समझकर ही परवर्त्ती काल में इसे ज्ञान एवं कला की देवी माना गया। पंजाब की दूसरी नदियों से सम्बन्धी स्थापित करते हुए इस 'सात बहिनों वाली' अथवा सातों में से एक कहा गया है।

पार्थिव नदी होते हुए भी सरस्वती की उत्पत्ति स्वर्ग से मानी गयी है। वह पर्वत (स्वर्गीय समुद्र) से निकलती है। स्वर्गीय सिन्धु ही उसकी माता है। उसे 'पावीरवी' (सम्भवतः विद्युत्पुत्री) भी कहा गया है तथा आकाश के महान् पर्वत से उसका यज्ञ में उतरना बताया गया है। सरस्वती की स्वर्गीय उत्‍पत्ति ही गङ्गा की स्वर्गीय उत्पत्ति की दृष्टिदायक है। अन्त में सरस्वती को सन्तान वाली तथा उत्पत्ति की सहायक कहा गया है। वध्र्यश्व को दिवोदास का दान सरस्वती ने ही किया था। 'नदीस्तुति' सूक्त से पता लगता है कि वैदिक धर्म का प्रचार मध्यदेश से पंजाब होते हुए अफगानिस्तान तक हुआ था।

नदीस्नान : नदी में स्नान करना पुण्यदायक कृत्य माना गया है। पवित्र नदियों के स्नान के पुण्यों के लिए दे० तिथितत्व, 62-64; पुरुषार्थचिन्तामणि, 144-145; गदाधरपद्धति, 609।

नन्दगाँव : व्रजमंडल का प्रसिद्ध तीर्थ। मथुरा से यह स्थान 30 मील दूर है। यहाँ एक पहाड़ी पर नन्द बाबा का मन्दिर है। नीचे पामरीकुण्ड नामक सरोवर है। यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशाला हैं। भगवान् कृष्ण के पालक पिता से सम्बद्ध होने के कारण यह स्थान तीर्थ बन गया है।

नन्दपण्डित : विष्णुस्मृति के एक टीकाकार। नन्दपण्डित ने विष्णुस्मृति को वैष्णव ग्रन्थ माना है, जो किसी वैष्णव सम्प्रदाय, सम्भवतः भागवतों द्वारा व्यवहृत होता रहा है।

नन्दरामदास : महाभारत के प्रसिद्ध बँगला अनुवादक काशीरामदास के पुत्र। काशीरामदास के पीछे उनके पुत्र नन्दरामदास सहित दर्जनों नाम हैं, जिन्होंने महाभारत के अनुवाद की परम्परा जारी रखी थी।

नन्दा : प्रतिपदा, षष्ठी तथा एकादशी तिथियाँ नन्दा तिथियाँ हैं। नन्दा का अर्थ है 'आनन्दित करने वाली'। इन तिथियों में व्रत करने से आनन्द की प्राप्ति होती है।

नन्दादिविधि : रविवार के बारह नाम हैं, यथा नन्द, भद्र इत्यादि। माघ मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को पड़ने वाला रविवार नन्द है। उस दिन रात्रि को भोजन करना चाहिए तथा सूर्य की प्रतिमा को घी में स्नान कराकर उस पर अगस्ति पुष्प चड़ाने चाहिए। तदनन्तर ब्राह्मणों को गेहूँ के पुए खिलाने चाहिए।

नन्दादिव्रतविधि : इस व्रत का प्रति रविवार को अनुष्ठान करना चाहिए। इसमें विधिवत् सूर्य की पूजा का विधान है। व्रती को सूर्यग्रहण के अवसर पर उपवास करते हुए महाश्वेता मन्त्र का जप करना चाहिए। तदनन्तर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। सूर्यग्रहण के दिन किये गये स्नान, दान तथा जप के अनन्त फल तथा पुण्य होते हैं।

नन्दादेवी : हिमालय में गढ़वाल जिले के बधाण परगने से ईशान कोण की ओर 'नन्दादेवी' पर्वतशिखर है। यह गौरीशङ्कर के बाद विश्व का सर्वोच्च शिखर है। नन्दा देवी इसमें विराजती हैं। भाद्र शुक्ल सप्तमी को यहाँ की (प्रति बारहवें वर्ष) यात्रा होती है। इसका आयोजन गढ़वाल का राजकुटुम्ब करता है। नन्दराय के गृह में उत्पन्न हुई नन्दादेवी ने असुरों को मारकर जिस कुण्ड में स्नान कर सौम्यरूपता पायी थी, वह यहाँ 'रूपकुण्ड' कहलाता है। संप्रति इस कुण्ड के कुछ रहस्यों की खोज हुई है।

नन्‍दानवमीव्रत : भाद्रपद कृष्ण पक्ष की नवमी (कृत्यकल्पतरु द्वारा स्वीकृत) तथा शुक्ल पक्ष की नवमी (हेमाद्रि द्वारा स्वीकृत) नन्दा नाम से प्रसिद्ध है। वर्ष को तीन भागों में विभाजित करके तीनों भागों में वर्ष भर भगवती दुर्गा की पूजा करनी चाहिए। सप्तमी को एकभक्त (एक समय भोजन) तथा अष्टमी को उपवास करना चाहिए। दूर्वा घास पर भगवान् शिव तथा दुर्गा की प्रतिमाओं को स्थापित करके जाती तथा कदम्ब के पुष्पों से उनका पूजन करना चाहिए। रात्रि को जागरण तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के नाटकादि तथा 108 बार नन्दामन्त्र (ओं नन्दायै नमः) के जप करने का विधान है। नवमी के दिन प्रातः चण्डिका देवी का पूजन करके कन्याओं को भोजन कराना चाहिए।

नन्‍दापदद्वयव्रत : इस व्रत में भगवती दुर्गा की पूजा स्वर्णपादुकाओं, आम्रपल्लवों, दूर्वादलों, अष्टकाओं तथा बिल्वपत्रों से करनी चाहिए। एक मास तक यह अनुष्ठान चलता है। पादुकाओं को या तो किसी दुर्गाजी के भक्त को दान में दे देना चाहिए अथवा कन्या को। इस व्रत के आचरण से भक्त समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।

नन्दाव्रत : श्रावण मास की तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, एकादशी अथवा पूर्णिमा को व्रतारम्भ करना चाहिए। एक वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है। व्रती नक्त पद्धति से आहार करता रहे। बारहों महीने भिन्न-भिन्न पुष्पों, नैवेद्यों तथा भिन्न-भिन्न नामों से देवी की पूजा करनी चाहिए। जप का मन्त्र है 'ओम् नन्दे नन्दिनि सर्वार्थसाधिनि नमः।' सौ बार अथवा सहस्र बार इसका जप करना चाहिए। इससे व्रती समस्त पापों से विनिर्मुक्त होकर राजपद प्राप्त करता है।

नन्दासप्तमी : मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। यह तिथिव्रत एक वर्ष पर्यन्त चलता है। वर्ष के 4-4 मास के तीन भाग करके प्रत्येक भाग में पृथक्-पृथक् पुष्प, धूप, नैवेद्यादि से भिन्न-भिन्न नाम उच्चारण कर सूर्य का पूजन करना चाहिए। पञ्चमी को एकभक्त, षष्ठी को नक्त तथा सप्तमी को उपवास करने का विधान है।

नन्दिकीश्वर : एक वैयाकरण का नाम। 'मुग्धबोध' नामक व्याकरण बोपदेव द्वारा रचा गया है। बंगाल में इसका प्रचार है। इसकी बहुत-सी टीकाएँ हैं, जिनमें से चौदह के नाम मिलते हैं। 'काशीश्वर' और 'नन्दिकीश्वर' ने इस पर अपने-अपने परिशिष्ट लिखे हैं। नन्दिकीश्वर का परिशिष्ट ग्रन्थ बहुत लोकप्रिय हुआ।

नन्दिकेश्वर : वीरशैव मत के एक आचार्य, जिनका प्रादुर्भाव अठारहवीं शती में हुआ। इन्होंने 'लिङ्गधारणचन्द्रिका' नामक पुस्तक बनायी, जो अर्धलिङ्गायत है।

नन्दिकेश्वर उपपुराण : प्रसिद्ध उन्तीस उपपुराणों में से एक 'नन्दिकेश्वर उपपुराण' भी है।

नन्दिग्राम : साकेत क्षेत्र के अन्तर्गत वैष्णव तीर्थ। अयोध्या से सोलह मील दक्षिण यह स्थान है। यहाँ श्री राम के वनवास के समय चौदह वर्ष का समय भरतजी ने तपस्या करते हुए व्यतीत किया था। यहाँ भरतकुण्ड सरोवर और भरतजी का मन्दिर है।

नन्दिनीनवमीव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की नवमी को इस तिथिव्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें दुर्गाजी का पूजन करना चाहिए। छः--छः मास के वर्ष के दो भाग करके प्रत्येक भाग में तीन दिन उपवास करते हुए दुर्गाजी के पृथक्-पृथक् नाम लेकर पृथक्-पृथक् पुष्पों से पूजन करने के विधान हैं। इस व्रत के आचरण से व्रत स्वर्ग प्राप्त करता है और स्वर्ग से लौटकर शक्तिशाली राजा बनता है।

नन्दी : दिव्य (पवित्र) पशुओं में नन्दी की गणना की जाती है। नन्दी बैल शिव का वाहन है तथा धर्म के प्रतीक रूप में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। शिवमन्दिरों के अन्तराल में प्रायः नन्दी की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है। वास्तव में नन्दी (पशु) उपासक का प्रतीक है; प्रत्येक उपासक का प्रकृत्या पशुभाव होता है। पशुपति (शिव) की कृपा से ही उसके पाश (सांसारिक बन्धन) कटते हैं। अन्त में वह नन्दी (आनन्दयुक्त) भाव को प्राप्त होता है।

नमः शिवाय : पञ्चाक्षर' नामक शैव मन्त्र। लिङ्गायत मतानुसार किसी लिङ्गायत के शिशु के जन्म पर पिता-माता गुरु को बुलाते हैं। गुरु बालक के ऊपर शिवलिङ्ग बाँधता है, शरीर पर विभूति लगाता है, रुद्राक्ष की माला पहनाता है तथा उक्त रहस्यमय मन्त्र की शिक्षा देता है। शिशु इस मन्त्र का ज्ञान ग्रहण करने में स्वयं असमर्थ होता है। अतएव गुरु द्वारा यह मन्त्र केवल उसके कान में ही पढ़ा जाता है।

नन्बि-आण्डार-नम्बि : ये महात्मा वैष्णवाचार्य नाथमुनि तथा चोलवंशीय राजा राजराज (1042-4075 वि०) के समकालीन थे। इन्होंने तमिल ऋचाओं (स्तुतिओं) के तीन संग्रहों को एक में संकलित पर उसका नाम तेवाराम (देवाराम) अर्थात् 'दैवी माला' रखा तथा राजराज की सहायता से इन पदों को द्राविड संगीत में स्थान दिलाया।

नम्मालवार : बारह तमिल आलवारों के नाम वैष्णव भक्तों में अति प्रसिद्ध हैं। ये अपने आराध्यदेव की मूर्ति को आँखों से देखने में ही आनन्द लेते थे तथा अपना स्तुतिगान के रूप में देवमूर्ति के सामने उसे उँडेलते थे। ये स्तुतिगान करते-करते कभी आत्मविभोर हो भूमि पर भी गिर जाते थे। तिरुमङ्गै तथा नम्मालवार इनमें सबसे बड़े माने गये हैं। नम्मालवार तो अति प्रसिद्ध हैं, ये आठवीं शताब्दी या उसके आस-पास हुए थे। दूसरे विद्वानों ने नम्मालवार की विभिन्न तिथियाँ बतायी हैं। द्राविड वेदों के रचयिता भी नम्मालवार ही हैं।

नयद्युमणि : विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ। तृतीय श्रीनिवास (अठारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध) ने अपने ग्रन्थों में विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन तथा अन्य मतों का खण्डन किया है। उनके रचे ग्रन्थों में 'नयद्युमणि' भी एक है।

नयनादेवी : अम्बाला से आगे नंगल बाँध है, उससे 12 मील पहले आनन्दपुर साहब स्थान है। वहाँ से 10 मील आगे मोटरबस जाती है। फिर 12 मील पैदल पर्वतीय चढ़ाई है। यहाँ नयना देवी का स्थान पर्वत पर है। यह सिद्धपीठ माना जाता है। श्रावण शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक यहाँ मेला लगता है।

नयनार : शैव भक्तों को तमिल में नयनार कहा जाता है। तमिल शैवों में गायक भक्तों का व्यक्तिवाचक नाम ही प्रसिद्ध है। ये वैष्णव आलवारों के ही समकक्ष हैं, किन्तु इनकी कुछ विशेष उपाधि नहीं हैं। दूसरे धार्मिक नेताओं के समान ये सामूहिक रूप से 'नयनार' कहलाते हैं। किन्तु जब इनके अलग दल का बोध कराना होता है तो ये 'प्रसिद्ध तीन' कहे जाते हैं।

नयनाचार्य : एक वैष्णव वेदान्ती आचार्य। इन्होंने वेदान्ताचार्य के 'अधिकरणसारावली' नामक ग्रन्थ की टीका लिखी थी। आचार्य वरद गुरु इनके ही शिष्य थे।

नरकपूर्णिमा : प्रति पूर्णिमा अथवा मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को व्रतारम्भ करना चाहिए। एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है। उस दिन व्रती उपवास, भगवान् विष्णु की पूजा तथा उनके नामक जप करे। अथवा भगवान् विष्णु के केशव से लेकर दामोदर तक बारह नामों का मार्गशीर्ष से प्रारम्भ कर वर्ष के बारहों मास तक क्रमशः जप करता रहे। प्रतिमास जलपूर्ण कलश, खड़ाऊँ, छाता तथा एक जोड़ी वस्त्रों का दान करे। वर्षान्त में इतना करने में असमर्थ हो तो केवल भगवान का नाम ले। इससे उसको सुख प्राप्त होगा तथा मृत्यु के समय भगवान् हरि का नाम स्‍मरण रहेगा, जिससे सीधा स्‍वर्ग प्राप्त होगा।

नर-नारायण : (1) मनुष्य (नर) और नारायण (ईश्वर) की सनातन जोड़ी (युग्म) ही नर-नारायण नाम से अभिहित है। श्वेताश्वतरोपनिषद् (4.6) में दोनों सखारूप से वर्णित हैं:

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषष्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यननन्नन्योऽभिचाकशीति॥

[दो पक्षी साथ साथ सखाभाव से एक ही विश्ववृक्ष का आश्रय लेकर रहते हैं। उनमें से एक वृक्ष के फल खाता (और भोगफल पता) है; दूसरा केवल साक्षी मात्र है।] इस रूपक में परमात्मा तथा आत्मा के सायुज्य का सनातनत्व वर्णित है।

(2) असमदेशीय शाक्ति धर्म के इतिहास पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि अनेक लोगों ने इस धर्म को छोटी जातियों या समुदायों से उस समय ग्रहण किया जब असम की घाटी पश्चिम में कोच तथा पूर्व में अहोम राजाओं द्वारा शासित थी। कोच राजाओं में से एक 'नरनारायण' था जिसकी मृत्यु 1641 वि० में 50 वर्ष के शासन के पश्चात् हुई। उसके शासन काल में कोचों की शक्ति चरम सीमा पर पहुँची थी। इसका कारण था उसकी वीर भाई सिलाराम, जो उसका सेनापति था। नरनारायण स्वयं नम्र तथा अध्ययनशील प्रकृति का था तथा हिन्दू धर्म के प्रचार में बहुत योगदान करता था। अन्य राजाओं की भाँति वह भी शाक्त था तथा उसने कामाख्या देवी का मन्दिर फिर से बनवाया, जो मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दिया गया था। उसने धार्मिक क्रियाओं के पालनार्थ वङ्गाल से ब्राह्मण बुलाये। आज भी परवतिया गुसाँई (नवद्वीप का एक ब्राह्मण) यहाँ का प्रमुख पुजारी है। मन्दिर में नरनारायण तथा उसके भाई की दो प्रस्तर मूर्तियाँ वर्तमान हैं।

नर-नारायण आश्रम : बदरीनाथ के मन्दिर के पीछे वाले पर्वत पर नर-नारायण नामक ऋषियों का आश्रम है। विश्वास है कि यहाँ नर-नारायण विश्राम (तपस्या) करते हैं।

नरबलि : नरबलि अथवा नरमेध मूलतः एक प्रतीक अथवा रूपक था। इसका तात्पर्य था मनुष्य के अहंकार का परमात्मा के सम्मुख पूर्ण समर्पण। जब धर्म दुरूह और विकृत हो गया और आत्मसंयम के बदले दूसरों के माध्यम से पुण्यफल पाने की परम्परा चली तो अपने अहंकार के दमन के बदले मानव दूसरे मनुष्यों और पशुओं की बलि देने लगा। मध्य युग में यह विकृति बढ़ी हुई दृष्टिगोचर होती है। पुराणों एवं तन्त्रों में, जो मध्यकाल के प्रारम्भिक चरण में रचे गये, अनेक स्थानों पर नरबलि की चर्चा है। यह बलि देवी चण्डिका के लिए दी जाती थी। कालिकापुराण में कहा गया है कि एक बार नर-बलि देने से देवी चण्डिका एक हजार वर्ष तक प्रसन्न रहती हैं तथा तीन नरबलियों से एक लाख वर्ष तक। मालतीमाधव नाटक के पाँचवें अंक में भवभूति ने इस पूजा का वर्णन बड़े रोचक ढँग से उपस्थित किया है, जबकि अघोरी (अघोरघण्ट) द्वारा देवी चण्डिका के लिए नायिका की बलि देने की चेष्टा की गयी थी।

यह प्रथा क्रमशः निषिद्ध हो गयी। नरबलि मृत्युदण्ड का अपराध है। फिर भी दो चार वर्षों में कही न कहीं से इसका समाचार सुनाई पड़ जाता है।

संसार के कई अन्य देशों में नरबलि और नरभक्षण की प्रथाएँ अब तक पायी जाती रही हैं।

नरमेध : इसका शाब्दिक अर्थ है वह मेध (यज्ञ) जिसमें नर (मनुष्य) की बलि दी जाती है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इस यज्ञ का वर्णन मिलता है। यह एक रूपात्मक प्रक्रिया थी। धर्म के विकृत होने पर यह कभी कभी यथार्थवादी रूप भी धारण कर लेती थी। कलि में कलिवर्ज्य के अन्तर्गत गोमेध, नरमेध आदि सभी अवांछनीय क्रियाएँ वर्जित हैं। दे० 'नरबलि'।

नरवैबोध : गुरु गोरखनाथ के रचे ग्रन्थों में से 'नरवैबोध' भी एक है। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के खोज विवरणों में इसका उल्लेख पाया जाता है। इसमें आध्यात्मिक बोध का विवेचन है।

नरसाकेत : महात्मा चरणदास द्वारा रचे गये ग्रन्थों में से एक 'नर साकेत' भी है।

नरसिंह (नृसिंह) : विष्णु के अवतारों में से नरसिंह अथवा नृसिंह चौथा अवतार है। यह मानव और सिंह का संयुक्त विग्रह है। यह हिंसक मानव का प्रतीक है। दुष्टदलन में हिंसा का व्यवहार ईश्वरीय विधान में ही है अतः भगवान् विष्णु ने भी यह अवतार धारण किया। इस अवतार की कथा बहुत प्रचलित है। विष्णु ने दैत्य हिरण्यकशिपु का वध करने तथा भक्त प्रह्लाद के रक्षार्थ यह रूप धारण किया था। यह कथा वैदिक साहित्य तथा तैत्तिरीय आरण्यक (10.1.6) में भी उद्धृत है। पुराणों में तो यह विस्तार से कही गयी है। दे० 'अवतार'।

नरसिंह आगम : रौद्रिक (शैव) आगमों में से एक 'नरसिंह आगम' भी है। इसका दूसरा नाम 'शर्वोक्त' या 'सवेत्तिर' भी है।

नरसिंहचतुर्दशी : वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को नरसिंहचतुर्दशी कहते हैं। यह तिथिव्रत है। यदि उस दिन स्वाती नक्षत्र, शनिवार, सिद्धि योग तथा वणिज करण हो, तो उसका फल करोड़गुना हो जाता है। भगवान् नरसिंह इसके देवता हैं। हेमाद्रि, 2.41-49 (नरसिंहपुराण से) तथा कई अन्य ग्रन्थों में इसे नरसिंहजयन्ती कहा गया है, क्योंकि इसी दिन भगवान् नरसिंह का अवतार हुआ था। उस दिन स्वाती नक्षत्र तथा सन्ध्या काल था। यदि यह त्रयोदशी अथवा पूर्णिमा से विद्ध हो तो जिस दिन सूर्यास्त को चतुर्दशी हो वह दिन ग्राह्य है। वर्षकृत्यदीपिका (पृ० 145-153) में पूजा का एक लम्बा विधान किया हुआ है।

नरसिंहत्रयोदशी : त्रयोदशी को पड़नेवाले गुरुवार के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस दिन मध्याह्नोत्तर काल में भगवान् नरसिंह की प्रतिमा को स्नान कराकर उनकी पूजा करनी चाहिए। इसमें उपवास रखना अनिवार्य है।

नरसिंहद्वादशी : यह व्रत फाल्गुन कृष्ण द्वादशी के दिन मनाया जाता है। इस दिन उपवास करते हुए नृसिंह भगवान् की प्रतिमा का पूजन करना चाहिए। श्वेत वस्त्र से आवृत एक जलपूर्ण कलश स्थापित करना चाहिए। इस पर भगवान् नृसिंह की स्वर्ण, काष्ठ अथवा बाँस की प्रतिमा पधरानी चाहिए। इसी दिन पूजनोपरान्त उस प्रतिमा को किसी ब्राह्मण को दान में देना चाहिए। दे० हेमाद्रि, 1.1029--30, वाराहपुराण, 41.1-7 तथा 14-16 से उद्धृत। वाराहपुराण में कहा गया है कि यह व्रत शुक्ल पक्ष में किया जाय; जबकि हेमाद्रि, 1.1029 में कृष्ण पक्ष में ही व्रत का विधान है। यह भेद क्षेत्रीय जान पड़ता है।

नरसिंहपुराण : उन्तीस उपपुराणों में यह भी एक है।

नरसिंह मेहता (नरसी) : गुजरात के एक सन्त-कवि। सारे भारत में धार्मिक भावों को व्यक्त करने की आवश्यकता ने सुबोध, सुललित और मनोहर वाङ्मय को जन्म दिया। हृदय के ऊँचे-ऊँचे और सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव और बुद्धि के सूक्ष्म से सूक्ष्म विचार व्यक्त करने के लिए लोकभाषाओं को महात्माओं की वाणियों ने सुधारा और सँवारा। राम और कृष्ण, विट्ठल और पाण्डुरंग के गुणगान के माध्यम से इन भाषाओं की शब्दशक्ति अत्यन्त बढ़ गयी और विमर्श की अभिव्यक्ति पर वक्ता का अच्छा अधिकार हो गया। धीरे-धीरे संस्कृत का स्थान प्रादेशिक भाषाओं ने लिया। विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में नरसी (नरसिंह) मेहता सौराष्ट्र देश में हुए, जिन्होंने अपने भक्तिपूर्ण एवं दार्शनिक पदों से गुजराती का भण्डार भरा। ये जूनागढ़ के निवासी थे। इन्होंने राधाकृष्ण की प्रेमलीलाविषयक तथा आत्मसमर्पण भाव की सुन्दर पदावली रची है।

नरसिंहाष्टमी अथवा नरसिंहव्रत : राजा, राजकुमार अथवा कोई भी व्यक्ति जो शत्रु का विनाश चाहता हो, इस व्रत का आचरण करे। अष्टमी के दिन वह अक्षत अथवा पुष्पों से अष्टदल कमल की रचना कर उस पर भगवान् नरसिंह की प्रतिमा विराजमान करे, तत्पश्चात् उसका पूजन करे तथा श्रीवृक्ष (बिल्व अथवा पीपल?) की भी पूजा करे। दे० हेमाद्रि, 1.876-880 (गरुड़पुराण से)।

नरसी मेहता : दे० 'नरसिंह मेहता'।

नरसिंह यति : मुण्डकोपनिषद् के एक टीकाकार नरसिंह यति भी हैं।

नरसिंहसम्प्रदाय : इस सम्प्रदाय. के विषय में अधिक कुछ ज्ञात नहीं है। किन्तु मध्यकाल तक नरसिंह सम्प्रदाय प्रचलित रहा। विजयनगर की नरसिंह की एक प्रस्तर मूर्ति इस बात को पुष्ट करती है कि विजयनगर राज्य इस सम्प्रदाय का पोषक था। पंजाब, कश्मीर, मुलतान क्षेत्रों भी में यह सम्प्रदाय प्राचीन काल में प्रचलित था। आज भी अनेक परिवार नरसिंह अवतार की ही पूजा-अर्चा करते हैं। 'नरसिंह उपपुराण' तेलुगु में 1300 ई० के लगभग अनुवादित हुआ था। इस सम्प्रदाय के आधारग्रन्थ निम्नांकित हैं :

(1) नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषद्, (2) नृसिंहउत्तरतापनीयोपनिषद्, (3) नृसिंह उपपुराण और (4) नृसिंहसंहिता।

नरसिंहस्तोत्र : यह नरसिंह सम्प्रदाय का एक पारायण ग्रन्थ है।

नरहरि : स्वामी रामानन्दजी की शिष्यपरम्परा में महात्मा नरहरि छठी पीढ़ी में हुए थे। रामचरितमानस के प्रसिद्ध रचयिता गोस्वामी तुलसीदास के ये गुरु थे। तुलसीदास ने इन्हीं से अपने बालपन में रामायण की कथा सुनी थी, जिसका प्रणयन स्वयं उन्होंने प्रौढावस्था में किया।

नरहरि : माण्डूक्योपनिषद् के एक भाष्याकार।

नरहरिदास : दे० 'नरहरि'।

नरहरि मालु : महाराष्ट्रीय भक्ति सम्प्रदाय के एक प्रसिद्ध महात्मा। यद्यपि इनके द्वारा कहे गये तुकाराम सम्बन्धी वृत्तान्त पर पूर्णतया विश्वास नहीं किया जा सकता, किन्तु कुछ मराठा लेखक इसका अनुसरण करते हैं। नरहरि मालु 'भक्तिकथामृत' नामक ग्रन्थ के रचयिता हैं।

नरहरियानन्द : स्वामी रामानन्दजी के बारह प्रसिद्ध शिष्यों में से नरहरियानन्द एक हैं। इनके बारे में 'भक्तमाल' में बड़ी रोचक कथा उद्धृत है। एक दिन कुछ साधु-सन्तों का भोजन पकाने के लिए कुल्हाड़ी लेकर ये लकड़ी जुटाने चले। जब कहीं लकड़ी न मिली तो देवी के मन्दिर का ही एक भाग कुल्हाड़ी से काट डाला। देवी ने उनसे कहा कि यदि तुम मन्दिर को नष्ट न करो तो मैं आवश्यकतापूर्ति भर की लकड़ी नित्य दिया करूँगा। देवी तथा नरहरियानन्द की यह घटना एक पुरुष देख रहा था। उसने कुल्हाड़ी उठायी और वह भी देवी से नरहरियानन्द के समान ही लकड़ी प्राप्त करने चला। ज्यों ही उसने मन्दिर के द्वारा पर कुल्हाड़ी चलायी तभी देवी ने अवतीर्ण हो उसे आहत कर दिया। फिर जब गाँव के लोग उसे लेने आये तो उसे मरणासन्न पाया। देवी ने उसे फिर से जीवनदान इस शर्त पर दिया कि वह नित्य नरहरियानन्द को लकड़ी पहुँचाया करेगा।

नरैना : यह दादूपन्थ का एक प्रमुख केन्द्र है। दादूपन्थी मुख्य रूप से गृहस्थ एवं संन्यासी दो भागों में विभक्त हैं। गृहस्थ सेवक तथा संन्यासी ही दादूपन्थी कहलाते हैं। संन्यासी पाँच प्रकार के हैं--खालसा, नागा, उत्तराड़ी, विरक्त एवं खाकी। खालसा लोगों का केन्द्रस्थान 'नरैना' है जो जयपुर से चालीस मील दूर है।

नळ नैषध : शतपथ ब्राह्मण (2.2,21-2) में उद्धृत 'नळ नैषध' एक मानवीय राजा का नाम प्रतीत होता है, जिसकी तुलना उसकी विजयों के कारण यम (मृत्यु के देवता) से की गयी है। उसे दक्षिणाग्नि (यज्ञ) के तुल्य माना गया है और अधिक सम्भव है कि वह दक्षिण भारत का नरेश हो, जैसा कि यम का भी दक्षिण दिशा से ही सम्बन्ध है।

नवद्वीपधाम : बंगाल का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान और प्राचीन विद्याकेन्द्र। चैतन्य महाप्रभु की जन्मभूमि होने से गौड़ीय वैष्णवों का यह महातीर्थ है। कलकत्ता से 66 मील दूर नवद्वीप है, यहाँ कई धर्मशालाएँ हैं। दर्शनार्थी को निश्चित दक्षिणा देने पर मन्दिरों में दर्शनार्थ जाने दिया जाता है। यहाँ बहुत से दर्शनीय स्थान हैं, जैसे धामेश्वर, अद्वैताचार्य मन्दिर, गौरगोविन्द मन्दिर, शचीमाता-विष्णु-प्रिया मन्दिर आदि। यहाँ प्रति वर्ष बहुत बड़ा वैष्णव समागम होता है।

नवनक्षत्रशान्ति : नव नक्षत्रों के तुष्टीकरण के लिए उनकी पूजा करनी चाहिए। जन्मकालीन नक्षत्र जन्मनक्षत्र कहलाता है। चतुर्थ, दशम, षोडश, विश, त्रयोविंश नक्षत्रों को क्रमशः मानस, कर्म, सांघातिक, समुदय तथा वैनाशिक कहा जाता है। सामान्य जन के लिए उपर्युक्त षट् नक्षत्र ही माननीय हैं, किन्तु राजाओं को तीन और अधिक मानने चाहिए। उदाहरण के लिए, राज्याभिषेक के समय का नक्षत्र, उसके राज्य पर शासन करने वाला नक्षत्र तथा उसका वर्णनक्षत्र। यदि ये नक्षत्र पापग्रहों से प्रभावित हों तो उसके परिणाम भी बुरे निकलते हैं। उपयुक्त धार्मिक कृत्यों से नक्षत्रों के कुप्रभावों को रोका जा सकता है अथवा कम किया जा सकता है।

यह बात विशेष ध्यान में रखनी चाहिए कि वैखानसगृह्यसूत्र, 4.14; विष्णुधर्म०, 2.166; नारद, 1.56, 358-59 तथा वराहमिहिर की योगयात्रा, 9.1-2 आदि में इस बात में मतभेद है कि जन्म से कौन-कौन से नक्षत्र उपर्युक्त नामों को धारण करेंगे।

नवनाथ : नाथ सम्प्रदाय के अन्तर्गत आरम्भकालिक नौ नाथ मुख्य कहे गये हैं। ये हैं गोरक्षनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, कारिननाथ, गहिनीनाथ, चर्पटनाथ, रेवणनाथ, नागनाथ, भर्तृनाथ (भर्तृहरि) और गोपीचन्द्रनाथ।

नवनीत : वैदिक ग्रन्थों में नवनीत शब्द प्रायः उद्धृत हुआ है। ऐतरेय ब्राह्मण (1.3) के अनुसार यह मक्खन का वह प्रकार है जो आन्तरिक पवित्रताकारक होता है, जबकि देवता 'आज्य' को, मनुष्य 'घृत' को तथा पितरजन 'आयुत' को पसन्द करते हैं। तैत्तिरीय संहिता (2.3, 10,1) में इसका घृत तथा सर्पि नाम से भेद बताया गया है।

नवनीतगणपति : गणपति के उपासकों का एक वर्ग। 'शङ्कर दिग्विजय' में गाणपत्यों को छः शाखा-सम्प्रदायों में विभाजित किया गया है, जो गणपति के छः रूपों की पूजा करने के कारण उन रूपों के नाम से ही प्रसिद्ध है। उनमें से 'नवनीतगणपति' भी एक है।

नवनीतधेनुदान : कार्तिकी अमावस्या को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें ब्रह्मा और सावित्री की पूजा करनी चाहिए। धेनु के नवनीत का कुछ अन्य फलों सुवर्ण तथा वस्त्रों सहित दान करना चाहिए।

नवमीरथव्रत : आश्विन शुक्ल नवमी को उपवास तथा दुर्गाजी का पूजन करना चाहिए। वस्त्रों, ध्वजा-पताकाओं, झण्डियों, दर्पणों, पुष्पमालाओं से सज्जित और सिंहाकृति से मण्डित देवीजी के रथ की पूजा करनी चाहिए। त्रिशूलधारिणी, महिषासुरमर्दिनी देवी की सुवर्णप्रतिमा को रथ में विराजमान करना चाहिए। यह त्रिशूल महिषासुर के शरीर में घुसा होना चाहिए। प्रधान सड़कों पर यह रथ निकालते हुए दुर्गाजी के मन्दिर तक रथ लाना चाहिए। आनन्द गीत, नृत्य, नाटकों, माङ्गलिक वाद्यों से रात्रि में जागरण करने का विधान है। दूसरे दिन प्रभात काल में देवी की प्रतिमा को स्नान कराकर दुर्गाजी के भक्तों को भोजन कराना चाहिए। दुर्गाजी को पलंग, वृषभ तथा गौ का दान करना चाहिए।

नवमी के व्रत : दे० कृत्यकल्पतरु, 27.--308; हेमाद्रि 1.887-962; कालनिर्णय 229-230; तिथितत्त्व, 59-103; पुरुषार्थचिन्तामणि, 139, 142; व्रतराज, 319--352। अष्टमीविद्धा नवमी को प्राथमिकता देनी चाहिए। तिथितत्व, 59 तथा धर्मसिन्धु, 15 के अनुसार चैत्र शुक्ल नवमी को समस्त योगिनियों में से भद्रकाली को राजमुकुट पहनाया गया था। इसलिए सभी नवमियों को दुर्गाजी के भक्त को उपवास करके उनकी पूजा करनी चाहिए।

नवरत्न : वल्लभाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ। इसकी गणना शुद्धाद्वैत सम्प्रदाय के आधारभूत ग्रन्थों में की जाती है।

नवरात्र : शारदीय आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक और वासन्तिक चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक का समय 'नवरात्र' (नौ रात) कहलाता है। इसमें देवी के प्रीत्यर्थ उनकी स्तुति, पूजा, व्रत आदि किये जाते हैं। शारदीय नवरात्र में तो नवों दिन बड़ा ही उत्सव मनाया जाता है। विशेष कर षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी और नवमी को देवी की पूजा का अति माहात्म्य है। देवी की प्रतिमाओं का पूजन सारे देश में, विशेष कर वंगदेश में बड़ी धूमधाम से होता है। नवरात्र में 'दुर्गासप्तशती' का पाठ प्रायः देवीभक्त विशेषतया करते हैं।

नवरात्रि : दे० 'नवरात्र'।

नवव्यूहार्चन : शुक्ल पक्ष की किसी एकादशी अथवा आषाढ़ अथवा फाल्गुन की संक्रान्ति के दिन इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इस दिन भगवान् विष्णु की पूजा की जाती है। किसी सुन्दर स्थल पर ईशानमुखीय भगवान् विष्णु का मण्डप बनाना चाहिए। मण्डप में द्वार तथा इसके मध्य में कमल की आकृति अंकित होनी चाहिए। देवताओं के अष्ट आयुधों को आठों दिशाओं में अंकित करना चाहिए। यथा वज्र, शक्ति, गदा (यमराज की) खङ्ग, वरुणपाश, ध्वज, गदा (कुबेर की) और त्रिशूल (शिवजी का)। भगवान् वासुदेव, संकर्षण, नारायण तथा वामन (जो भगवान् के ही व्यूह हैं) के लिए होम करना चाहिए।

नवान्नभक्षण : नयी फसल आने पर नव धान्य का ग्रहण करना नवान्नभक्षण कहलाता है। सूर्य के वृश्चिक राशि के 14 अंश में प्रवेश करने से पूर्व इसका अनुष्ठान होना चहिए। दे० कृत्यसारसमुच्चय, 27। नीलमतपुराण (पृ० 72, पद्य 880-888) में इस समारोह का वर्णन मिलता है। इसमें गीत, संगीत, वेदमन्त्रादि का उच्चारण तथा ब्रह्मा, अनन्त (शेष) तथा दिक्पालों का पूजन होना चाहिए।

नव्यन्याय : वैदिक, बौद्ध और जैन नैयायिकों के बीच विक्रम की पाँचवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक बराबर विवाद चलता रहा। इससे खण्डन-मण्डन के अनेक ग्रन्थ बने। चौदहवी शताब्दी में गङ्गेश उपाध्याय हुए, जिन्होंने 'नव्य न्याय' की नींव डाली। प्राचीन न्याय में प्रमेय आदि जो सोलह पदार्थ थे उनमें से और सबकों किनारे करके केवल 'प्रमाण' को लेकर ही भारी शब्दाडम्बर खड़ा किया गया। इस नव्य न्याय का आविर्भाव मिथिला में हुआ। मिथिला से नवद्वीप (नदिया) में जाकर नव्य न्याय ने और भी विशाल रूप धारण किया। न उसमें तत्‍त्वनिर्णय रहा, न तत्त्वनिर्णय की सामर्थ्य। केवल तर्क-वितर्क का घोर विस्तार हुआ। परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि प्रमाण के विशेष अध्ययन का यह अद्भुत उपक्रम है।

नाक : जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण (3.13,5) में 'नाक' एक आचार्य का नाम है। सम्भवतः ये नाक, शतपथ ब्राह्मण (12.5, 2,1,), बृहदारण्यक उपनिषद् (6.4, 4) तथा तैत्तिरीय उपनिषद् (1.9,1) में उद्धृत नाक मौद्गल्य (मुद्गल के वंशज) से अभिन्न हैं।

नाक्र : यजुर्वेद संहिता में उद्धृत अश्वमेध यज्ञ सम्बन्धी बलिपशु तालिका में नाक्र नामक एक जलीय जन्तु का नामोल्लेख भी है। सम्भवतः इस पशु का नाक अर्थ है, जिसे पीछे संस्कृत में 'नक्र' कहा गया।

नाग : शतपथ ब्राह्मण में यह शब्द एक बार (11.2,7,12) महानाग के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। बृहदारण्यक उपनिषद् (1,3,24) तथा ऐतरेय ब्राह्मण (8.21) में स्पष्ट रूप से इसका अर्थ 'सर्प' है। सूत्रों में पौराणिक 'नाग' का भी उल्लेख है जिसकी पूजा होती थी। नाग अथवा सर्प--पूजा हिन्दू धर्म का एक अङ्ग है जो अन्य कई धर्मों में भी किसी न किसी रूप में पायी जाती है। चपलता, शक्ति औऱ भयंकरता के कारण नाग ने मनुष्य का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। कई जातियों औऱ वंशों ने 'नाग' को अपना धर्मचिह्न स्वीकार किया है। कुछ जातियों में नाग (सर्प) अवध्य समझा जाता है।

नामतृतीया : (1) यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को आरम्भ होता है और तिथिव्रत है। यह एक वर्ष तक चलता है। प्रतिमास गौरी के बारह नामों में से एक नाम लेते हुए उनका पूजन करना चाहिए। नाम ये हैं-- गौरी, काली, उमा, भद्रा, दुर्गा, क्रान्ति, सरस्वती, मंगला, वैष्णवी, लक्ष्मी, शिवा और नारायणी। ऐसा विश्वास है कि इससे स्वर्गप्राप्ति होती है।

(2) भगवान् महेश्वर की अर्धनारीश्वर रूप में पूजा करनी चाहिए। इससे व्रती को कभी भी पत्नी वियोग नहीं भोगना पड़ता। अथवा हरिहर की प्रतिमा का केशव से दामोदर तक बारह नाम लेते हुए पूजन प्रति मास करना चाहिए।

नागदेवभट्ट : विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में सन्त चक्रधर ने मानभाउ सम्प्रदाय का जीर्णोद्धार किया। उनके पश्चात् सन्त नागदेव भट्ट हुए जो यादवराज रामचन्द्र और सन्त ज्ञानेश्वर के समकालीन थे। यादवराज रामचन्द्र का समय संवत् 1328-1363 है। सन्त नागदेव भट्ट ने इस पन्थ का अच्छा प्रचार किया था।

नामद्वादशी : मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठार होता है। इस दिन उपवास करना चाहिए। यह तिथिव्रत है। व्रती को विष्णु भगवान् के बारह नामों में से एक नाम लेना चाहिए, यथा नारायण नाम मार्ग शीर्ष तथा पौष में, माधव नाम माघ में; इसी प्रकार से कार्तिक तक दामोदर नाम।वर्ष के अन्त में बछड़े वाली गौ, चन्दन, वस्त्रों आदि को दान में देना चाहिए। विश्वास किया जाता है कि इसके अनुष्ठान से व्रती विष्णुलोक को जाता है।

नागनाथ : नाथ सम्प्रदाय के नौ नाथों में से नागनाथ भी एक हैं। इनके सम्बन्ध में ऐतिहासिक रूप से कुछ विशेष ज्ञात नहीं है।

नागपञ्चमी : सर्पपूजा के त्योहारों में नागपञ्चमी सबसे प्रमुख है। दक्षिण भारत में इसे 'नागरपञ्चमी' कहते हैं। यह त्योहार श्रावण शुक्ल पञ्चमी को मनाया जाता है। इसे वर्षाऋतु में मनाये जाने का कारण नागों की वर्षा देने की शक्ति से सम्बन्धित प्रतीत होता है। दक्षिण भारत में इस दिन सर्वविवरों पर फूल, सुगन्ध आदि चढ़ाते हैं तथा दूध ढारते हैं। वृक्षों के नीचे स्थापित नागमूर्तियों के दर्शन किये जाते हैं। त्योहार के दिन इन मूर्तियों पर दूध, दही आदि चढ़ाया जाता है। मध्यभारत में श्रावण मास के किसी विशेष दिन एक पुरुष नागमन्दिर में जाकर वहाँ पिट्ठा खाकर लौटता है। यदि ऐसा न किया जाय तो सारा परिवार काले नागों से आक्रान्त किया जाता है, ऐसा विश्वास है। इस दिन घर की दीवारों पर नागचित्र अंकित कर उसकी पूजा होती है तथा घर की बुढ़िया इस पूजा के प्रारम्भ होने की कथा सुनाती है। उत्तर प्रदेश के पर्वतीय भागों में इस दिन शिव की पूजा 'रिखेश्वर' के रूप में की जाती है। शिव को नागों से घिरा मानते हैं तथा उनके सिर पर नागछत्र रहता है।

इस दिन नाग की पूजा दूध-लाजा से होती है। इसका उद्देश्य यह होता है कि नग अथवा सर्प सन्तुष्ट होकर किसी जीवधारी को काटे नहीं। यह दिन मल्लों का खास त्योहार होता है। अखाड़ों में पहलवान इकट्ठे होते हैं और अपने-अपने करतब दिखाते हैं। नागपञ्चमी के दिन नागपूजा ही यद्यपि इस त्योहार की मुख्यता है, तथापि कुश्ती और मल्लों के खेल विशेष आकर्षण रखते हैं। लड़कियाँ गुड़िया का खेल भी करती हैं और उनका किसी सरोवर अथवा नदी में प्रवाह कर देती हैं।

नागपूजा : मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को इस पूजा का अनुष्ठान होता है। स्मृतिकौस्तुभ (429) के अनुसार यह पूजा दाक्षिणात्यों में विशेष रूप से प्रचलित है।

नागपूजा : मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को इस पूजा का अनुष्ठान होता है। स्मृतिकौस्तुभ (429) के अनुसार यह पूजा दाक्षिणात्यों में विशेष रूप से प्रचलित है।

नागमैत्रीपञ्चमी : इस तिथि के व्रतकर्ता को कडुए तथा खट्टे पदार्थों का सेवन छोड़ देना चाहिए तथा नागप्रतिमाओं को दूध में स्नान कराना चाहिए। इस अनुष्ठान से नागों से उसकी मैत्री हो जाती है।

नागवंशी : मध्य प्रदेश के मुआसी तथा नागवंशी अपने को सर्पपूर्वजों के वंशज मानते हैं। बम्बई के नापित (नाऊ) अपने को शेष (अनन्त, शेष) का वंशज बतलाते हैं। निमाड़ जिले के कुछ नागर ब्राह्मण अपने को ब्राह्मण पिता तथा नाग माता से उत्पन्न मानते हैं। इसी कारण कुछ ब्राह्मण उनका पकाया हुआ भोजन नहीं खाते। ये ब्राह्मण अपनी स्त्रियों को 'नागकन्या' कहते हैं। बरमा में कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने को सर्प के अण्डे से उत्पन्न बतलाते हैं। गन्धमाली लोग काले नाग को अपना पूर्वज मानते हैं और इसी कारण नागपञ्चमी पर्व को विशेष रूप से मनाते हैं तथा उस दिन पका भोजन नहीं करते। मद्रास के वेल्लाल अपने को नागकन्या से उत्पन्न मानते हैं। छोटा नागपुर का शासक परिवार अपनी उत्पत्ति पुण्डरीक नाग से बतलाता है। इस प्रकार कई जातियाँ और वंश अपने को नागवंशी कहते हैं और नागों की पूजा करते हैं।

नागव्रत : (1) कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इस दिन उपवास करना चाहिए। शेष, शङ्खपाल तथा अन्यान्य नागों का पुष्प, चन्दन आदि से पूजन करना चाहिए। प्रातःकाल तथा मध्याह्न में दूध से उनको स्नान कराना तथा दुग्ध पान कराना चाहिए। तत्पश्चात् उनका पूजना करना चाहिए। फल यह होता है कि सर्प कभी हानि नहीं पहुँचाते।

(2) पञ्चमी को नागमूर्तियों का कमलपत्रों, मन्त्रों तथा पुष्पों से पूजन करते हुए घी, दूध, दही, मधु की धाराओं को छोड़ना चाहिए। इसके पश्चात् होम करना चाहिए। इससे विषों से मुक्ति तो होती ही है, साथ ही पुत्र, पत्नी तथा सौभाग्य की भी उपलब्धि होती है।

नागरसेन : इस दिन नाग की पूजा दूध-लाजा से होती है। इसका उद्देश्य यह होता है कि नग अथवा सर्प सन्तुष्ट होकर किसी जीवधारी को काटे नहीं। यह दिन मल्लों का खास त्योहार होता है। अखाड़ों में पहलवान इकट्ठे होते हैं और अपने-अपने करतब दिखाते हैं। नागपञ्चमी के दिन नागपूजा ही यद्यपि इस त्योहार की मुख्यता है, तथापि कुश्ती और मल्लों के खेल विशेष आकर्षण रखते हैं। लड़कियाँ गुड़िया का खेल भी करती हैं और उनका किसी सरोवर अथवा नदी में प्रवाह कर देती है।

नागा : यह संस्कृत 'नग्न' का तद्भव रूप है। प्राचीन अवधूत मुनि कपिल, दत्तात्रेय, ऋषभदेव आदि के आदर्श पर चलनेवाले चतुर्थाश्रमी साधु-संत, जो त्याग की पराकाष्ठा के अनुरूप वस्त्र तक धारण नहीं करते, नागा कहे जाते हैं। मध्यकाल में अपनी परम्परा के रक्षार्थ ऐसे साधु 'जमात' के रूप में संगठित हो गये औऱ इनके शस्त्रधारी दल बन गये, जो अपने मठ-मन्दिरों के रक्षार्थ खूनी संघर्ष से भी विमुख न होते थे। आगे चलकर ये लोग शैव-वैष्णव के रूप में स्ववर्ग के ही परस्पर शत्रु हो गये। अविवेकवश इनके दल पिछले युग में मराठा, निजाम, राजपूत, अवध के नवाब आदि के पक्ष से युद्धव्यावसायी के रूप में लड़ते हुए राजनीतिक पाशा पलट देते थे।

आजकल नागा साधु दसनामी गुँसाँई, वैरागी, दादूपंथी आदि जमातों के अन्तर्गत रहते हैं और हरिद्वार, प्रयाग आदि के कुम्भमेलों में हाथी, घोड़े, छत्र, चमर, ध्वजा आदि से सज्जित होकर अपने राजसी अभियान का प्रदर्शन करते हैं।

नागा साधु : दे० 'नागा'।

नागेश : नागेश भट्ट सत्रहवीं शताब्दी में हुए थे। ये शब्दाद्वैत के कट्टर प्रतिपादक हैं। इस सिद्धान्त का सर्वाङ्गीण विवेचन इन्होंने अपने ग्रन्थ 'वैयाकरणसिद्धान्तमंजूषा' में किया है। ये व्याकरण के उद्भट विद्वान् होते हुए साहित्य, दर्शन, धर्मशास्त्र, मन्त्रशास्त्र आदि के भी विचक्षण ग्रन्थकार थे। पतञ्जलि के महाभाष्य और भट्टोजि दीक्षित की सिद्धान्तकौमुदी पर रची गयी इनकी व्याख्याएँ गम्भीरता के कारण मौलिक ग्रन्थ जैसी ही मानी जाती हैं।

नागेश, उपनाम नागोजी भट्ट काले महाराष्ट्रीय थे और शास्त्रचिन्तन में निमग्न रहने के कारण काशी से बाहर न जाने का नियम ग्रहण किये हुए थे। इनको इस बीच जयुपरनरेश महाराज सवाई जयसिंह ने अपने अश्वमेध यज्ञ के अग्रपण्डित के रूप में आमन्त्रित किया था, किन्तु इन्होंने इस संमान्य आतिथ्य को 'क्षेत्रसंन्यास' के कारण अस्वीकार कर दिया।

नागेश्वर : काशी में शिव महादेव की पूजा 'नागेश्वर' के रूप में भी होती है। सर्प उनकी मूर्ति में लिपटे दिखाये जाते हैं।

नाथदेव : सर्वप्रथम वेदान्ती भाष्यकार विष्णुस्वामी ने शुद्धाद्वैतवाद का प्रचार किया। उनके शिष्य का नाम ज्ञानदेव था। ज्ञानदेव के शिष्य नाथदेव और त्रिलोचन थे।

नाथद्वारा : मेवाड़ (राजस्थान) का प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ। यहाँ का मुख्य मन्दिर श्रीनाथजी का है। यह वल्लभ सम्प्रदाय का प्रधान पीठ है। भारत के प्रमुख वैष्णव पीठों में इसकी भी गणना है। श्रीनाथजी के मन्दिर के आसपास ही नवनीतलालजी, विट्ठलनाथजी, कल्याणरायजी, मदनमोहनजी और वनमालीजी के मन्दिर तथा महाप्रभु हरिरायजी की बैठक है। एक मन्दिर मीराबाई का भी है। श्रीनाथजी के मन्दिर में हस्तलिखित एवं मुद्रित ग्रन्थों का सुन्दर पुस्तकालय भी है। नाथद्वारा पीठ का एक विद्याविभाग भी है, जहाँ से सम्प्रदाय के ग्रन्थों का प्रकाशन होता है।

नाथमुनि (वैष्णवाचार्य) : विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय के आचार्यों की परम्परा का क्रम इस प्रकार माना जाता है--भगवान् श्री नारायण ने जगज्जननी श्री महालक्ष्मी को उपदेश दिया, दयामयी माता से वैकुण्ठपार्षद विष्वक्सेन को उपदेश मिला, उनसे शठकोप स्वामी को, उनसे नाथमुनि को, नाथमुनि से पुण्डरीकाक्ष स्वामी को, इनसे राममिश्र को और राममिश्र से यामुनाचार्य को यह उपदेश प्राप्त हुआ।

नाथमुनि' श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं। ये लगभग 965 विक्रमाब्द में वर्तमान थे। इनके पुत्र ईश्वरमुनि छोटी अवस्था में ही परलोक सिधार गये। ईश्वरमुनि के पुत्र यामुनाचार्य थे। पुत्र की मृत्यु के बाद नाथमुनि ने संन्यास ले लिया और मुनियों की तरह विरक्त जीवन बिताने लगे। इसी कारण इनका नाम नाथमुनि पड़ा। कहते हैं कि उन्होंने योग में अद्भुत सिद्धियाँ प्राप्त की थीं और इसी कारण वे योगीन्द्र कहलाते थे।

नाथमुनि ने नम्मालवार तथा अन्य आलवारों की स्तुतियों को संग्रह कर एक-एक हजार छन्दों के चार वर्गों में विभक्त किया तथा इन्हें द्रविड़गीतों के स्वर-ताल में बाँधा। सम्पूर्ण ग्रन्थ ' नालाभिर प्रबन्धम्' अथवा चार हजार स्तुतियों का ग्रन्थ कहलाता है। त्रिचनापल्ली के श्रीरङ्गम् मन्दिर में नियमित रूप से इन स्तुतियों के गान की व्यवस्था करने में भी ये सफल हुए। यह प्रथा अन्य मन्दिरों में भी प्रचलित हुई तथा आज बड़े-बड़े मन्दिरों में इनकी प्रचारित शैली में स्तुतियों का पाठ होता है।

ये धार्मिक नेता एवं आचार्य भी थे। इनकी देखरेख में एक विद्यावंश का जन्म हुआ जिसके अन्तर्गत कई संस्कृत तथा तमिल विद्वान् श्रीरङ्गम् में हुए। इस वर्ग का प्रधान कार्य 'नालाभिर प्रबन्धम्' का पठन था। अनेक भाष्य इस पर रचे गये। 'न्यायतत्त्व' तथा 'योगरहस्य' नामक दो और ग्रन्थ इनके रचे कहे जाते हैं।

नाथसम्प्रदाय : जब तान्त्रिकों और सिद्धों के चमत्कार एवं अभिचार बदनाम हो गये, शाक्त मद्य, मांसादि के लिए तथा सिद्ध, तान्त्रिक आदि स्त्री-सम्बन्धी आचारों के कारण घृणा की दृष्टि से देखे जाने लगे तथा जब इनकी यौगिक क्रियाएँ भी मन्द पड़ने लगीं, तब इन यौगिक क्रियाओं के उद्धार के लिए ही उस समय नाथ सम्प्रदाय का उदय हुआ। इसमें नव नाथ मुख्य कहे जाते हैं : गोरक्षनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, कारिणनाथ, गहिनीनाथ, चर्पटनाथ, रेवणनाथ,नागनाथ, भर्त्तृनाथ और गोपीचन्द्रनाथ। गोरक्षनाथ ही गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध हैं। दे० 'गोरखनाथ'।

इस सम्प्रदाय के परम्परासंस्थापक आदिनाथ स्वयं शङ्कर के अवतार माने जाते हैं। इसका सम्बन्ध रसेश्वरों से हैं और इसके अनुयायी आगमों में आदिष्ट योग साधन करते हैं। अतः इसे अनेक इतिहासज्ञ शैव सम्प्रदाय मानते हैं। परन्तु और शैवों की तरह ये न तो लिङ्गार्चन करते हैं और न शिवोपासना के और अङ्गों का निर्वाह करते हैं। किन्तु तीर्थ, देवता आदि को मानते हैं, शिवमन्दिर और देवीमन्दिरों में दर्शनार्थ जाते हैं। कैला देवीजी तथा हिंगलाज माता के दर्शन विशेषतः करते हैं, जिससे इनका शाक्त सम्बन्ध भी स्पष्ट है। योगी भस्म भी रमाते हैं, परन्तु भस्मस्नान का एक विशेष तात्पर्य है--जब ये लोग शरीर में श्वास का प्रवेश रोक देते हैं तो रोमकूपों को भी भस्म से बन्ध कर देते हैं। प्राणायाम की क्रिया में यह महत्त्व की युक्ति है। फिर भी यह शुद्ध योगसाधना का पन्थ है। इसीलिए इसे महाभारत काल के योगसम्प्रदाय की परम्परा के अन्तर्गत मानना चाहिए। विशेषतया इसलिए कि पाशुपत सम्प्रदाय से इसका सम्बन्ध हलका सा ही देख पड़ता है। साथ ही योगसाधना इसके आदि, मध्य और अन्त में है। अतः यह शैव मत का शुद्ध योग सम्प्रदाय है।

इस पन्थ वालों की योग साधना पातञ्जल विधि का विकसित रूप है। उसका दार्शनिक अंश छोड़कर हठयोग की क्रिया जोड़ देने से नाथपन्थ की योगक्रिया हो जाती है। नाथपन्थ में 'ऊर्ध्वरेता' या अखण्ड ब्रह्मचारी होना सबसे अधिक महत्त्व की बात है। मांस-मद्यादि सभी तामसिक भोजनों का पूरा निषेध है। यह पन्थ चौरासी सिद्धों के तान्त्रिक वज्रयान का सात्त्विक रूप में परिपालक प्रतीत होता है।

उनका तात्विक सिद्धान्त है कि परमात्मा 'केवल' है। उसी परमात्मा तक पहुँचना मोक्ष है। जीव का उससे चाहे जैसा सम्बन्ध माना जाय, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से उससे सम्मिलन ही कैवल्य मोक्ष या योग है। इसी जीवन में इसकी अनुभूति हो जाय, पन्थ का यही लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रथम सीढ़ी काया की साधना है। कोई काया को शत्रु समझकर भाँति-भाँति के कष्ट देता है और कोई विषयवासना में लिप्त होकर उसे अनियंत्रित छोड़ देता है। परन्तु नाथपंथी काया को परमात्मा का आवास मानकर उसकी उपयुक्त साधना करता है। काया उसके लिए वह यन्त्र है जिसके द्वारा वह इसी जीवन में मोक्षानुभूति कर लेता है, जन्म-मरण-जीवन पर पूरा अधिकार कर लेता है, जरा-मरण-व्याधि और काल पर विजय पा जाता है।

इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह पहले काया शोधन करता है। इसके लिए वह यम, नियम के साथ हठयोग के षट् कर्म (नेति, धौति, वस्ति, नौलि, कपालभाति और त्राटक) करता है कि काया शुद्ध हो जाय। यह नाथपन्थियों का अपना आविष्कार नहीं है; हठयोग पर लिखित 'घेरण्डसंहिता' नामक प्राचीन ग्रन्थ में वर्णित सात्त्विक योग प्रणाली का ही यह उद्धार नाथपंथियों ने किया है।

इस मत में शुद्ध हठयोग तथा राजयोग की साधनाएँ अनुशासित हैं। योगासन, नाड़ी ज्ञान, षट्चक्र निरूपण तथा प्राणायम द्वारा समाधि की प्राप्ति इसके मुख्य अंग हैं। शारीरिक पुष्टि तथा पंच महाभूतों पर विजय की सिद्धि के लिए रसविद्या का भी इस मत में एक विशेष स्थान है। इस पन्थ के योगी या तो जीवित समाधि लेते हैं या शरीर छोड़ने पर उन्हें समाधि दी जाती है। वे जलाये नहीं जाते। यह माना जाता है कि उनकी शरीर योग से ही शुद्ध हो जाता है, उसे जलाने की आवश्यकता नहीं। नाथपंथी योगी अलख (अलक्ष) जगाते हैं। इसी शब्द से इष्टदेव का ध्यान करते हैं और इसी से भिक्षाटन भी करते हैं। इनके शिष्य गुरु के 'अलक्ष' कहने पर 'आदेश' कहकर सम्बोधन का उत्तर देते हैं। इन मन्त्रों का लक्ष्य वही प्रणवरूपी परम पुरुष है जो वेदों और उपनिषदों का ध्येय है। नाथपंथी जिन ग्रन्थों को प्रमाण मानते हैं उनमें सबसे प्राचीन हठयोग सम्बन्धी ग्रन्थ घेरण्डसंहिता और शिवसंहिता हैं। गोरक्षनाथ कृत हठयोग, गोरक्षनाथ ज्ञानामृत, गोरक्षकल्प, गोरक्षसहस्रनाम, चतुरशीत्यासन, योगचिन्तामणि, योगमहिमा, योगमार्तण्ड, योगसिद्धान्तपद्धति, विवेकमार्तण्ड, सिद्धसिद्धान्त पद्धति, गोरखबोध, दत्त गोरख संवाद, गोरखनाथजी रा पद, गोरखनाथ के स्फुट ग्रन्थ, ज्ञानसिद्धान्त योग, ज्ञानविक्रम, योगेश्वरी साखी, नरवैबोध, विरहपुराण और गोरखसार ग्रन्थ भी नाथ सम्प्रदाय के प्रमाण ग्रन्थ हैं।

नादबिन्दु उपनिषद् : यह योगवर्गीय एक उपनिषद् है। इसकी रचना छन्दोबद्ध है तथ यह चूलिकोपनिषद् का अनुकरण करती है।

नानक : सिक्ख धर्म के मूल संस्थापक गुरु नानक (1469-1538 ई०) थे। वे लाहौर जिले के तलवण्डी नामक स्थान के खत्री परिवार में उत्पन्न हुए थे। उनके जीवन की कहानी अनेक जनमसाखियों में कही गयी है, किन्तु निश्चित् रूप से कुछ विशेष ज्ञात नहीं हुआ है। इस्लाम की आँधी के कुछ ठंडे पड़ने पर जिन भारतीय सन्तमहात्माओं ने हिन्दू धर्म के सारभूत (इस्लाम के अविरोधी) तत्वों का जनता में लोकभाषा द्वारा प्रचार किया, उनमें गुरु नानक प्रमुख थे। कुछ अंशों में इनका मत कबीर से मिलता-जुलता है या नहीं यह अनिश्चित है। नानक ने अनेक हिन्दू तथा मुस्लिम महात्माओं का सत्संग किया। पंजाबी के अतिरिक्त इन्हें संस्कृत, फारसी तथा हिन्दी का भी ज्ञान था और इन्होंने सूफी संतों तथा हिन्दू सन्तों की रचनाएँ पढ़ी थीं। इन्होंने सारे उत्तर भारत में घूमघूमकर पंजाबीमिश्रित हिन्दी में उपदेश किया। मर्दाना नाम का इनका एक शिष्य इनके भजन गाने के समय तीन तार वाला बाजा बजाता था। उन्होंने अनेक अनुयायी इकट्ठे किये तथा उनके लिए 'जपजी' पद्यों की एक संग्रह तैयार किया। उनमें से अनेक गीतियाँ भगवान् की दैनिक प्रार्थना के निर्मित इकट्ठी की गयी थीं। कविता के क्षेत्र में नानक की कबीर से कोई तुलना नहीं, लेकिन नानक की रचनाएं सादी, साफ तथा विचारों को सरलता से वहन करने में समर्थ हैं। दर्शन के दो ग्रन्थ (संस्कृत में) 'निराकारमीमांसा' तथा 'अद्भुतगीता' उनके रचे कहे जाते हैं।

उनके मत के अनुसार ईश्वर एक है, शाश्वत है तथा हृदय से उसकी पूजा होनी चाहिए, न कि मूर्ति की। हिन्दुत्व एवं इस्लाम दो रास्ते हैं किन्तु ईश्वर एक ही है। गृहस्थ का जीवन संन्यास से अधिक स्तुत्य है। धर्म के नैतिक पक्ष पर उन्होंने अधिक जोर डाला। अद्वैत वेदान्त के अनेक विचार, ईश्वर की व्यक्तित्व सम्बन्धी कहावतें भी नानक की शिक्षाओं में प्राप्त हैं। 'माया' का भ्रम होना तथा गुरु की महत्ता भी उन्होंने बतायी है। ईश्वर से एकत्व या ईश्वर में ही विलय अथवा अपने को खो देना मोक्ष है। नानक ने अपने पापों को स्वीकार करते हुए अपने को एक छोटा मानव बताया तथा कभी ईश्वर का अवतार नहीं कहा। नानक के पश्चात् सिक्खों के नौ गुरु हुए जिनका वर्णन अन्य स्थानों में हुआ है। दे० 'सिक्ख'।

नानकपन्थ : गुरु नानक ने नानकपन्थ चलाया जो आगे चलकर दसवें गुरु गोविन्दसिंह के समय में 'सिक्ख मत' बन गया। शेष विवरण के लिए दे० 'नानक' शब्द।

नानकपन्थी : नानक के चलाये हुए पंथ के अनुयायी नानक पंथी कहलाते हैं। नानकपंथी सिक्खों से अपने को भिन्न मानते हैं। जैसे कबीरपंथी अपने को सनातनी हिन्दू कहते हैं, वैसे ही नानकपंथी भी कहते हैं। इनमें सिक्खों की अपेक्षा विभेदावादी प्रवृत्ति बहुत कम है। ये गुरु नानक की मूल शिक्षाओं में विश्वास करते हैं।

नानकपुत्रा : एक धार्मिक सम्प्रदाय, जो 'उदासी' कहलाता है। इसके प्रवर्तक गुरु नानक के पुत्र श्रीचन्द्र थे इसीलिए इसके माननेवालों को 'नानकपुत्रा' भी कहते हैं। ये अपने को सनातनी हिन्दू समझते हैं औऱ अपने को नानक पंथ तथा सिक्ख धर्म से अलग मानते हैं।

नानसम्बन्धर : प्राचीन तमिल शैव सन्त प्रायः कवि थे। ये वैष्णव आलवारों के ही सदृश शिव के भक्त थे। इनमें तीन अधिक प्रसिद्ध हैं। तीनों में से पहले का नाम नानसम्बन्धर है। ये सातवीं शताब्दी में हुए। विशेष विवरण 'तमिल शैव' शब्द में देखें। नानसम्बन्धर ने अनेक गीतों और स्तुतियों की रचना की है।

नापित : इस शब्द का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (3.1,2,2) तथा कात्यायन श्रौत सूत्र (7.2,8,13), आश्वलायन गृह्यसूत्र (1.17) आदि में हुआ है। किन्तु प्राचीन शब्द वप्ता है (ऋ० 10.142,4) जो 'वप' से बना है, जिसका अर्थ है 'क्षौर क्रिया करना' अथवा 'बाल काटना'। मृतकों को जलाये जाने के पहले क्षौर क्रिया होती है (अथर्व वेद, 5.19,4) धार्मिक कृत्यों में नापित का मुख्य और आवश्यक स्थान है। वह पुरोहित का एक प्रकार से सहायक होता है।

नाभाजी : नाभाजी की रचना 'भक्तमाल' अति प्रसिद्ध है। नाभाजी रामानन्दी वैष्णव थे और सन्त कवि अग्रदास के शिष्य थे। उन्हीं की आज्ञा से नाभाजी ने भक्तमाल ग्रन्थ प्रस्तुत किया। नाभाजी उन दिनों हुए थे, जब गिरिधरजी वल्लभ संप्रदाय के अध्यक्ष थे तथा तुलसीदास जीवित थे। इनका काल 1642-1680 ई० के मध्य है। 'भक्तमाल' पश्चिमी हिन्दी का काव्य ग्रन्थ है तथा छप्पय छंद में रचित है। 'सूत्रवत्' लिखा गया है तथा भाष्य के बिना इसको समझना दुष्कर है। इस ग्रंथ में नाभाजी ने सभी सम्प्रदायों के महात्माओं की स्तुति की है और अपने भाव अत्यन्त उदार रखे हैं। भक्तों के समाज में इसका बड़ा आदर हुआ है।

नाभाजी का शुद्ध नाम नारायणदास कहा जाता है।

नाभादास : दे० 'नाभाजी'।

नाभानेदिष्ठ अथवा नाभाग दिष्ट : ये सूर्यवंशी या वैवस्वत मनु के वंशज थे। परवर्ती संहिताओं एवं ब्राह्मणों के अनुसार जब इनके पिता मनु ने अपनी सम्पत्ति पुत्रों में बाँटी तो नाभानेदिष्ठ को छोड़ दिया तथा उन्हें आङ्गिरसों की गौओं को देकर शान्त किया। ब्राह्मणों में नाभानेदिष्ठ की ऋचाएँ बार-बार उद्धृत हैं, किन्तु इनसे इनके रचयिता के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं होता। पुराणों में मानववंशी नाभानेदिष्ठ का अधिक विस्तृत वर्णन पाया जाता है।

नाभिकमलतीर्थ : यह थानेसर नगर के समीप है। कहा जाता है कि इसी स्थान पर भगवान् विष्णु की नाभि के कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई थी। यहाँ पर यात्री स्नान, जप तथा विष्णु एवं ब्रह्मा का पूजन करके अनन्त फल के भागी होते हैं। सरोवर पक्का बना हुआ है तथा वहीं ब्रह्माजी सहित भगवान् विष्णु का छोटा सा मन्दिर है।

नाम : वैष्णव सम्प्रदाय की दीक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु का चुनाव करना पड़ता है। दीक्षा के अन्तर्गत पाँच कार्य होते हैं-- (1) ताप (शरीर पर साम्प्रदायिक चिह्नाङ्कन), (2) पुण्ड्र (साम्प्रदायिक चिह्न का तिलक), (3) नाम (सम्प्रदाय सम्बन्धी नाम ग्रहण करना), (4) मन्त्र (भक्ति विषयक सूत्ररूप भगवन्नाम ग्रहण करना) और (5) याग (पूजा)। भक्तिमार्ग में जप करने के लिए नाम का अत्यधिक महत्व है, विशेष कर कलियुग में।

भगवान् के नाम की महिमा प्रायः सभी सम्प्रदायों में पायी जाती है। नाम और नामी में अन्तर न होने से ईश्वर के किसी भी नाम से उसकी आराधना हो सकती है।

नामकरण : हिन्दुओं के स्मार्त सोलह संस्कारों में से एक संस्कार। धर्मशास्त्र में नामकरण का बहुत महत्‍त्व है :

नामाखिलस्य व्यवहारहेतु शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतु। नाम्नैव कीर्ति लभते मनुष्यस्ततः प्रशस्तं खलु नामकर्म॥ (बृहस्पति)

[निश्चित ही नाम समस्त व्यवहारों का हेतु है। शुभ का वहन करने वाला तथा भाग्य का कारण है। मनुष्य नाम से ही कीर्ति प्राप्त करता है। इसलिए नामकरण की क्रिया बहुत प्रशस्त है।] इस संस्कार का उद्देश्य है सोच विचार कर ऐसा नाम रखना जो सुन्दर, माङ्गलिक तथा प्रभावशाली हो। प्रायः चार प्रकार के नाम रखे जाते हैं-- (1) नाक्षत्र नाम, (2) मासदेवतापरक नाम, (3) कुलदेवतापरक नाम तथा (4) लौकिक नाम। जिनके बच्चे जीते नहीं वे प्रतीकारात्मक अथवा घृणास्पद नाम भी रखते हैं।

नामकरण संस्कार शिशु के जन्म के अनन्तर दसवें अथवा बारहवें दिन किया जाता है। शिशु का गुह्यनाम जन्मदिन को ही रखा जाता है। विकल्प रूप से दो वर्ष के भीतर नामकरण अवश्य करना चाहिए। जननाशौच बीत जाने पर घर आदि की सफाई की जाती है। तत्पश्चात् शिशु और माता को स्नान कराया जाता है। प्रारम्भिक धार्मिक कृत्य करने के पश्चात् माता शिशु को शुद्ध वस्त्र से ढककर उसे पिता को सौंप देती है। तदनन्तर प्रजापति, तिथि, नक्षत्र, नक्षत्रदेवता, अग्नि तथा सोम को आहुतियाँ दी जाती हैं। पिता शिशु के श्वास-प्रश्वास को स्पर्श करके उसे सचेत करता है। इसके पश्चात् सुनिश्चित नाम रखा जाता है। पिता शिशु के कान के पास कहता है : "हे शिशु, तुम कुलदेवता के भक्त हो, तुमहारा नाम अमुक है... आदि।" उपस्थित ब्राह्मण तथा स्वजन कहते हैं : "यह नाम प्रतिष्ठित हो।" इसके पश्चात् ब्राह्मण भोजन तथा आशीर्वचन के साथ संस्कार समाप्त होता है।

नामकीर्तन : नवधा (नव प्रकार की) भक्ति में कीर्तन का दूसरा स्थान है। गौराङ्ग महाप्रभु के समय से बंगाल में 'नामकीर्तन' की मण्डलियाँ बड़े उत्साह से कीर्तन करती आ रही हैं। आजकल नामकीर्तन का प्रचार सभी धार्मिक सम्प्रदायों में दीख पड़ता है।

नामदेव : रामोपासक वैष्णवों में भक्तवर नामदेव का नाम आदर से लिया जाता है। इन्होंने महाराष्ट्र में रामोपासना का विशेष प्रचार किया था। नामदेव का समय 13वीं शती का अन्त एवं 14वीं का प्रारम्भ है। उनकी अनेक रचनाएँ सिक्खों के 'ग्रन्थ साहब' में उद्धृत हैं।

नामप्रकार : गृह्यसूत्रों में बालकों के कई प्रकार के नाम रखने के अनेक नियम दिये गये हैं, किन्तु अधिक महत्वपूर्ण है गुह्य एवं साधारण नामों का अन्तर। ऋग्वेद तथा ब्राह्मणों में भी गुह्य नाम का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण में इन्द्र का एक गुह्यनाम अर्जुन है। शतपथ ब्राह्मण में एक अन्य नाम सफलताप्राप्ति के लिए ग्रहण करने को कहा गया है। दूसरे नाम के धारण करने का कारण विशेष पहचान होता था। ब्राह्मणों में दूसरा नाम पैतृक या मातृक होता था। यथा कक्षीवन्त औशिज (उसिज नाम्नी उनकी माता), बृहदुक्थ वामनेय (वामनी का पुत्र), भार्गव मौद्गल्य (पितृबोधक नाम)। कभी कभी स्त्री का नाम पति के नाम से सम्बन्धित होता था--- उशीनराणी, पुरुकुत्सानी तथा मुद्गलानी आदि।

नाम-रूप : दृश्य जगत् के संक्षिप्त वर्णन के लिए, यह पद प्रयुक्त होता है। संसार के सम्पूर्ण पदार्थ अपनी विविधता में इन्हीं दोनों परिकल्पनाओं से जाने जाते हैं। ब्राह्मणों में आख्यान है कि ब्रह्म नाम-रूपात्मक जगत् का विस्तार कर उसी में प्रविष्ट हो गया। इस प्रकार समस्त नाम-रूपात्मक जगत् ब्रह्ममय है। परन्तु तात्विक रूप से ब्रह्म को जानने के लिए विविध नाम-रूपों को छोड़कर एकत्व की अनुभूति आवश्यक होती है। अतः उपनिषदों में प्रायः कहा गया है 'नामरूपे विहाय' ब्रह्म को समझो।

नारद : अथर्ववेद (5.19,9;12.4,16,24,41) में नारद नामक एक ऋषि का नामोल्लेख अनेक बार हुआ है। ऐतरेय ब्राह्मण में हरिश्चन्द्र के पुरोहित (6.13), सोमक साहदेव्य के शिक्षक (7.34) तथा आम्बष्ठ्य एवं युधाश्रौष्टि को अभिषिक्त करने वाले के रूप में नारद पर्वत से युक्त व्यवहृत हुए हैं। मैत्रायणी संहिता (1.8,8) में ये एक आचार्य और सामविधानब्राह्मण (3.9) में बृहस्पति के शिष्य के रूप में वर्णित हैं। छान्दोग्योपनिषद् (6.1,1) में ये सनत्कुमार के साथ उल्लिखित' हैं। पुराणों में नारद का नाम बारम्बार सङ्गीत विद्या के आचार्य के रूप में आया है। नारद नामक एक स्मृतिकार भी हुए हैं। महाभारत में मोक्षधर्म के नारायणीय आख्यान में नारद की उत्तरदेशीय यात्रा का विवरण है, जिसमें उन्होंने नर-नारायण ऋषियों की तपश्चर्या देखकर उनसे प्रश्न किया तथा उन्होंने नारद को 'पाञ्चरात्र' धर्म सुनाया।

नारदकुण्ड : बदरीनाथ में तप्तकुण्ड से अलकनन्दा तक एक पर्वतशिला फैली हुई है। इसके नीचे अलकनन्दा के किनारे पर नारदकुण्ड है जहाँ यात्री पुण्यार्थ स्नान करते हैं। व्रज में गोवर्धन पर्वत के निकट भी एक नारदकुण्ड है।

नारदपरिव्राजक उपनिषद् : यह एक परवर्ती उपनिषद् है।

नारदपञ्चरात्र : प्राचीन 'पाञ्चरात्र' सम्प्रदाय का प्रतिपादक 'नारदपञ्चरात्र' नामक एक प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ है। उसमें दसों महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गयी है। नारदपञ्चरात्र और ज्ञानामृतसार से पता चलता है कि भागवत धर्म की परम्परा बौद्ध धर्म के फैलने पर भी का नष्‍ट नहीं हो सकी। इसके अनुसार हरिभजन ही मुक्ति का परम कारण है।

कई वर्ष पहले इस ग्रन्थ का प्रकाशन कलकत्ता से हुआ था। यह बहुलअर्थी ग्रन्थ है। इसमें कुछ भाग विष्णुस्वामियों तथा कुछ वल्लभों द्वारा जोड़ दिये गये जान पड़ते हैं।

नारदपुराण : नारदीय महापुराण में पूर्व और उत्तर दो खण्ड हैं। पूर्व खण्ड में 125 अध्याय हैं और उत्तर खण्ड में 82 अध्याय। इसके अनुसार इस पुराण में 25000 श्लोक होने चाहिए। बृहन्नारदीय पुराण उपपुराण है। कार्तिकमाहात्म्य, दत्तात्रेयस्तोत्र, पार्थिवलिङ्गमाहात्म्य, मृगव्याधंकथा, यादवगिरिमाहात्म्य, श्रीकृष्णमाहात्म्य, सङ्कटगणपतिस्तोत्र इत्यादि कई छोटी-छोटी पोथियाँ नारदपुराण के ही अन्तर्गत समझी जाती हैं।

यह वैष्णव पुराण है। विष्णुपुराण में रचनाक्रम से यह छठा बताया गया है। परन्तु इसमें प्रायः सभी पुराणों की संक्षिप्त विषयसूची श्लोकबद्ध दी गयी है। इससे जान पड़ता है कि इस महापुराण में कम से कम इतना अंश अवश्य ही उन सब पुराणों से पीछे का है। इसकी यही विशेषता है कि उक्त उल्लेख से अन्य पुराणों के पुराने संस्करणों का ठीक-ठीक पता लगता है औऱ पुराण तथा उपपुराण का अन्तर भी मालूम हो जाता है।

नारदभक्तिसूत्र : नारद और शाण्डिल्य के रचे दो भक्ति सूत्र प्रसिद्ध हैं जिन्हें वैष्णव आचार्य अपने निर्देशक ग्रन्थ मानते हैं। दोनों भागवत पुराण पर आधारित हैं। दोनों में से किसी में राधा का वर्णन नहीं है। नारदभक्तिसूत्र भाषा तथा विचार दोनों ही दृष्टियों से सरल है।

नारदस्मृति : 207-550 ई० के मध्य रचे गये धर्मशास्त्र ग्रन्थों में नारद तथा बृहस्पति की स्मृतियों का स्थान महत्त्वपूर्ण है। व्यवहार पर नारद के दो संस्करण पाये जाते हैं, जिनमें से लघु संस्करण का सम्पादन तथा अनुवाद जॉली ने 1876 ई० में किया था। 1885 ई० में बड़े संस्करण का प्रकाशन भी जॉली ने ही 'बिब्लिओथिका इण्डिका सीरीज' में किया था और इसका अंग्रेजी अनुवाद 'सैक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट सीरीज' (जिल्द, 33 में किया)।

याज्ञवल्क्यस्मृति में जिन स्मृतियों की सूची पायी जाती है उसमें नारदस्मृति का उल्लेख नहीं है और न पराशर ही नारद की गणना स्मृतिकारों में करते हैं। किन्तु विश्वरूप नें वृद्ध-याज्ञवल्क्य के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है उनमें स्मृतिकारों में नारद का स्थान सर्वप्रथम है (याज्ञ०, 1.4-5 पर विश्वरूप की टीका)। इससे प्रकट होता है कि नारदस्मृति की रचना याज्ञवल्क्य और पराशर स्मृतियों के पश्चात् हुई।

नारदस्मृति का जो संस्करण प्रकाशित है उसके प्रथम तीन (प्रस्तावना के) अध्याय व्यवहारमातृका (अदालती कार्रवाई) तथा सभा (न्यायालय) के ऊपर हैं। इसके पश्चात् निम्नलिखित वादस्थान दिये गये हैं : ऋणाधान (ऋण वापस प्राप्त करता), उपनिधि (जमानत), सम्भूय समुत्त्‍थान (सहकारिता), दत्ताप्रदानिक (करार करके न देना), अभ्युपेत्य अशुश्रूषा (सेवा अनुबन्ध भङ्ग), वेतनस्य अनपाकर्म (वेतन का भुगतान न करना), अस्वामिविक्रय (विना स्वाम्य के विक्रय), विक्रीयासम्प्रदान (बेचकर सामान न देना), क्रीतानुशय (खरीदकर न लेना), समयस्यानपाकर्म (निगम, श्रेणी आदि के नियमों का भङ्ग), सीमाबन्ध (सीमाविवाद), स्त्रीपुंसयोग (वैवाहिक सम्बन्ध), दायभाग (पैतृक सम्पत्ति का उत्तराधिकार और विभाग), साहस (बलप्रयोग-अपराध), वाक्पारुष्य (मानहानि, गाली), दण्डपारुष्य (चोट और क्षति पहुँचना), प्रकीर्णक (विविध अपराध)। परिशिष्ट में चौर्य एवं दिव्य प्रमाण का निरूपण है।

नारद व्यवहार में पर्याप्त सीमा तक मनु के अनुयायी हैं।

नारायण : (1) महाभारत, मोक्षधर्म के नारायणीय उपाख्यान में वर्णन है कि नारद उत्तर दिशा की लम्बी यात्रा करते हुए क्षीरसागर के तट पर जा निकले। उसके बीच श्वेतद्वीप था, जिसके निवासी श्वेत पुरुष नारायण अर्थात् विष्णु की पूजा करते थे। आगे उन लोगों की पवित्रता, धर्म आदि का वर्णन है।

महोपनिषद् में कहा गया है कि नारायण अर्थात् विष्णु ही अनन्त ब्रह्म हैं, उन्हीं से सांख्य के पचीस तत्त्व उत्पन्न हुए एवं शिव तथा ब्रह्मा उनके आश्रित देवता हैं, जो उनकी ध्‍यानशक्ति से उत्‍पन्‍न हुए हैं।

नारायण तथा आत्मबोध उपनिषदों में नारायण का मन्त्र उद्धृत है तथा इन उपनिषदों का मुख्य विषय ही नारायणमन्त्र है। यह मन्त्र है 'ओम् नमो नारायणाय'। यही मन्त्र श्रीवैष्णव सम्प्रदाय का दीक्षामन्त्र भी है।

(2) महाराष्ट्रीय सन्त नारायण। इनका नाम बाद में समर्थ रामदास (1608-81 ई०) हो गया, जो स्वामी रामानन्दजी के भक्ति आन्दोलन से प्रभावित थे। ये कवि थे किन्तु इनकी रचनाएँ तुकाराम के सदृश साहित्यिक नहीं हैं। इनका व्यक्तिगत प्रभाव शिवाजी पर विशेष था। इनकी काव्यरचना का नाम 'दासबोध' है जो धार्मिक होने की अपेक्षा दार्शनिक अधिक है।

(3) भाष्यकार एवं वृत्तिकार नारायण। नारायण नाम के एक विद्वान् ने शाङ्कायनश्रौतसूत्र का भाष्य लिखा है। ये नारायण तथा आश्वलायनसूत्र के भाष्यकार नारायण दो भिन्न व्यक्ति हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् के एक टीकाकार का भी नाम नारायण है। श्वेताश्वतर एवं मैत्रायणीयोपनिषद् (यजुर्वेद की उपनिषदों) के एक वृत्तिकार की भी नाम नारायण है। छान्दोग्य तथा केनोपनिषद् (सामवेदीय) पर भी नारायण ने टीका लिखी है। अथर्ववेदीय उपनिषद् मुण्डक, माण्डूक्य, प्रश्‍न एवं नृसिंहतापिनी पर भी नारायण की टीकाएँ हैं।

उपर्युक्त उपनिषदों के टीकाकार तथा वृत्तिकार नारायण एक ही व्यक्ति ज्ञात होते हैं, जो सम्भवतः ईसा की चौदहवीं शती में हुए थे। ये माधव के गुरु शङ्करानन्द के बाद हुए थे। इन्होंने अपने भाष्यों में 52 उपनिषदों का नाम लिखा है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से प्रसिद्ध हैं।

नारायणतीर्थ : ब्रह्मानन्द सरस्वती के विद्यागुरु स्वामी नारायण तीर्थ थे।

नारायणदेव : (1) सूर्य देवता का पर्याय नारायणदेव है। सौर सम्प्रदाय में सूर्य ही नारायण अथवा जगदात्मा देव और आराधनीय हैं।

(2) 'बैगा' नामक गोंड़ों की अब्राह्मण पुरोहित जाति के कुलदेवता का नाम नारायणदेव है। जो सूर्य के प्रतीक या उनके समान माने जाते हैं। बैगा लोग अपने देवता के यज्ञ में सूअर की बलि देते हैं। ऐसे यज्ञ विवाह, जन्म तथा मृत्यु जैसे अवसरों पर होते हैं। बलिपशु नाना प्रकार से सताये जाने के बाद एक शहतीर के नीचे दबाकर मारा जाता है। कहते हैं कि यही विधि देवता को पसन्द है।

नारायणपुत्र : सामसंहिता के भाष्यकारों में से एक हैं।

नारायणबलि : रोग आदि की दुर्दशा या दुर्घटना में मृत् व्यक्तियों की सद्गति के लिए किया जानेवाला विशेष पितृकर्म, जिसके अन्तर्गत प्रेत के साथ कई देवता पूजे जाते हैं और नारायण (शालग्राम) का पूजन, अभिषेक एवं होम संपादित होता है।

नारायणमन्त्रार्थ : यह आचार्य रामानुजरचित एक ग्रन्थ है।

नारायण विष्णु : श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी श्री अथवा लक्ष्मी एवं विष्णु के अतिरिक्त किसी अन्य देव की भक्ति या पूजा नहीं करते हैं। इनके आराध्यदेव हैं नारायण, विष्णु। दे० 'नारायण'।

नारायण सरस्वती : योगदर्शन के एक व्याख्याकार, जो गोविन्दानन्द सरस्वती के शिष्य थे तथा 'मणिप्रभा' टीका के रचयिता रामानन्द सरस्वती के समकालीन थे। इन्होंने 1649 वि० में योगशास्त्र का एक ग्रन्थ लिखा।

नारायणसंहिता : मध्व ने अपने भाष्य में ऋग्वेद, उपनिषद् तथा गीता के अतिरिक्त कुछ पुराणों एवं वैष्णव संहिताओं का भी उद्धरण दिया है। इन संहिताओं में 'नारायण संहिता' भी एक है।

नारायण उपनिषद् (नारायणोपनिषद्) : इस उपनिषद् में प्रसिद्ध नारायणमन्त्र 'ओम् नमो नारायणाय' की व्याख्या की गयी है।

नारायणीय उपाख्यान : महाभारत के शान्तिपर्व, मोक्षधर्म प्रकरण में नारायणीय उपाख्यान वर्णित है। दे० 'नारायण'।

नारायणीयोपनिषद् : तैत्तिरीय आरण्यक का दसवाँ प्रपाठक 'याज्ञिकी' अथवा 'नारायणीयोपनिषद्' के नाम से विख्‍यात है। इसमें मूर्तिमान् ब्रह्मतत्त्व का निरूपण है। शङ्कराचार्य ने इसका भाष्य लिखा है।

नारायणेन्द्र सरस्वती : सायणाचार्य के ऐतरेय तथा कौषीतकि आरणअयकों के भाष्यों पर अनेक टीकाएँ रची गयी हैं। नारायणेन्द्र सरस्वती की भी एक टीका उक्त भाष्यों पर है।

नालायिर प्रबन्धम् : नाथ मुनि (यामुनाचार्य के पितामह तथा रामानुज सम्प्रदाय के पूर्वाचार्य) ने नम्माल्वार तथा अन्य आलवारों की रचनाओं का संग्रह किया तथा उसका नाम रखा 'नालायिर प्रबन्धम्' अथवा 'चार सहस्र गीतों का संग्रह।' इस पर अनेक भाष्य रचे गये हैं। नाथ मुनि ने इस ग्रन्थ के गीतों का पाठ तथा गान करना अपने अनुयायियों का दैनिक कार्यक्रम बना दिया।

नासत्य : (1) यह वैदिक युग्म देवता अश्विनौ का एक विरुद है। इनके दो विरुद हैं, 'दस्र' और 'नासत्य'। 'दस्र' का अर्थ है आश्चर्यजनक तथा 'नासत्य' का अर्थ है न + असत्य अर्थात् जो कभी असफल न हो। अश्विनौ स्वास्थ्य और सत्य के देवता हैं।

(2) उत्तरी ईरान स्थित प्रागैतिहासिक बोगाजकोई पट्टिका पर नासत्य का नाम मित्र, वरुण और इन्द्र के साथ प्रयुक्त हुआ है। उसमें नासत्य शब्द का गठन प्रकट करता है कि स का ह में भाषिक परिवर्तन तब तक नहीं हुआ था। इसलिए यह शब्द भारत-ईरानी काल का है। लघु अवेस्ता में हम दैत्य नाओन हेथ्य का नाम पाते हैं जो नासत्य की पदावनति के फलस्वरूप बना है। अतएव नासत्या (उ) निश्चय ही भारत-ईरानी अथवा पूर्व ईरानी देवता हैं।

नासदीय सूक्त : ऋग्वेद में ज्ञानकाण्ड सम्बन्धी सृष्टिविज्ञान विषयक दो सूक्त हैं--- नासदीय तथा पुरुषसूक्त। नासदीय सूक्त ऋग्वेद, 10.129 की प्रथम पंक्ति `दीसिन्नो सदासीत् तदानीम्` के आरम्भिक शब्द नासद के आधार पर प्रस्तुत सूक्त का नासदीय नाम हुआ है। इसमें प्रकृति के विकास की दृष्टि से सृष्टिरचना का का उल्लेख है जिसका भावार्थ निम्नलिखित है :

(नासदासीत्) जब यह कार्यसृष्टि उत्पन्न नहीं हुई थी, तब एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और दूसरा जगत् का कारण अर्थात् (जो नेत्रों से देखने में नहीं आता) भी नहीं था, क्योंकि उस समय उसका व्यवहार नहीं था। (नो सदासीत्तदानीम्) उस काल में सत् अर्थात् सत्त्व गुण, रजोगुण और तमोगुण मिलाकर जो प्रधान कहलाता है, वह भी नहीं था। (नासीद्रजः) उस समय परमाणु भी नहीं थे तथा (नो व्योमा) विराट् अर्थात् जो सब स्थूल जगत् के विकास का स्थान है सो भी नहीं था। (किमा०) जो यह वर्तमान जगत् है, वह अनन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढक सकता और उससे अधिक व अथाह भी नही हो सकता। (न मृत्युः) जब जगन् नहीं था तब मृत्यु भी नहीं थी। अन्धकार की सत्ता भी नहीं थी, क्योंकि अन्धकार प्रकाश के अभाव का ही नाम है। तब प्रकाश की उत्पत्ति हुई नहीं थी। इसी महा अन्धकार से ढका हुआ यह सब कुछ (भावी विश्वसत्ता) चिह्न और विभागरहित (अज्ञेय तथा अविभक्त) एवं देश तथा काल के विभाग से शून्य स्थिति में सर्वत्र सम और विषम भाव से बिल्कुल एक में मिला हुआ फैला था। (तो भी) जो कुछ सत्ता थी वह शून्यता से ढकी हुई थी (क्योंकि) आकाशादि की उत्पत्ति नहीं हुई थी औऱ किसी प्रकार का आकार नहीं था। (क्योंकि) आकार से ही सृष्टि का आरम्भ होता है। तपस् की महान् शक्ति से (उपर्युक्त असृष्टि की दशा में) 'एक' की उत्पत्ति हुई। उस एक में पहले-पहल लीला-विस्तार की कामना उत्पन्न हुई। उस एक के मनन या विचार से यह कामना बीज के रूप में हुई। तदनन्तर ऋषियों ने विचार किया और अपने हृदय में खोजा तो पता चला कि यही कामना सत् और असत् को बाँधने का कारण हुई। इनकी विभाजक रेखा (सदसत् में विवेक करने की रेखा) तिर्यक् रूप से फैल गयी। फिर उसके ऊपर क्या था और नीचे क्या था? उत्पन्न करने वाला रेतस् अर्थात् बीज था, महाबलवान् शक्तियाँ थीं। इधर जहाँ स्वच्छन्द क्रिया थी उधर परे (क्रियाप्रणोदक भी) महाशक्ति थी।

सचमुच कौन जानता है और यहाँ कौन कह सकता है कि (यह सब) कहाँ से उपजा और इस विश्व की सृष्टि कहाँ से आयी। देवताओं की उत्पत्ति बाद की है और यह सृष्टि पहले प्रारम्भ हुआ। फिर कौन जान सकता है कि यह सब कैसे आरम्भ हुई। (वेद ने जो उपर्युक्त वर्णन किया है वह वेदों को ही कैसे ज्ञात हुआ; यहाँ व्याज से वेदों का अनादि होना व्यंजित होता है)। जिससे विश्व की सृष्टि आरम्भ हुई उसने यह सब रचा है (अपनी इच्छाशक्ति से सृष्टि की प्रेरणा की है) या नहीं रचा है, अर्थात् उसकी प्रेरणा के बिना आप ही आप हो गया है। परम व्योम में जिसकी आँखे इस विश्व का निरीक्षण कर रहीं हैं वस्तुतः (इन दोनों बातों के रहस्य को) वही जानता है। या शायद वह भी नहीं जानता (क्योंकि उस निर्गुण और निराकार में सृष्टि से पहले ज्ञान, इच्छा और क्रिया इन तीनों का भाव नहीं था)।

नासिक पंचवटी : यह महाराष्ट्र का प्राचीन तीर्थस्थान है। नासिक और पञ्चवटी वस्तुतः एक ही नगर है। नगर के बीच से गोदावरी नदी बहती है। दक्षिण की ओर नगर का मुख्य भाग है उसे नासिक कहते हैं और उत्तरी भाग को पञ्चवटी। गोदावरी के दोनों तटों पर देवालय बने हुए हैं। पंचवटी से तपोवन और दूसरे तीर्थों का दर्शन करने में सुविधा होती है। रावण ने यहीं से सीताहरण किया था। यहाँ बृहस्पति के सिंह राशि में आने पर बारह वर्ष के अन्दर से स्नानपर्व या कुम्भमेला होता है। नासिक से 7--8 कोस दूर 'त्र्यम्बकेश्वर' ज्योतिर्लिङ्ग तथा नील पर्वत के उत्तुंग शिखर पर गोदावरी गंगा का उद्गम स्रोत है यह प्रदेश बड़ा रमणीक है।

नास्तिक : जो आस्तिक नहीं है वह 'नास्तिक' कहलाता है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'न+अस्ति [(कोई स्थायी सत्ता) नहीं है] कहने वाला', अर्थात् जो मानता है कि 'ईश्वर नहीं हैं। किन्तु हिन्दू धर्म की पारिभाषिक शब्दावली में 'नास्तिक' उसको कहते हैं जो वेद के प्रामाण्य को नहीं मानता है (नास्तिको वेदनिन्दकः)। इस प्रकार बौद्ध, अर्हत चार्वाक आदि सम्प्रदाय नास्तिक माने जाते हैं।

नास्तिकता : (1) नास्तिक का परम्परागत अर्थ है 'जो वेद की निन्दा करता है' (नास्तिको वेदनिन्दकः)। अतः वेद के प्रमाण में विश्वास न करना नास्तिकता है। ईश्वर में विश्वास न करने से कोई नास्तिक नहीं होता। मीमांसा और सांख्य दोनों दर्शन ईश्वर के अस्तित्व की आवश्यकता नहीं समझते। फिर भी वे आस्तिक माने जाते हैं।

नास्तिकता तथा नास्तिकों की चर्चा वेदों में प्रचुर मात्रा में है। नास्तिकों को यहाँ असुर योनि में गिना गया है। इनकी परम्परा अति पुरानी है या कम से कम उतनी ही पुरानी है जितनी आस्तिकों की। महाभारत काल में भी नास्तिक थे। चार्वाक की चर्चा महाभारत में आयी है। जाबालि के कथन से पता चलता है कि रामायण काल में भी नास्तिक लोगों की संख्या अच्छी रही होगी। बौद्धों और जैनों की चर्चा से कुछ लोग समझते है कि ये अंश पीछे से मिलाये गये हैं अथवा इन ग्रन्थों की रचना ही पीछे से मिलाये गये हैं अथवा इन ग्रन्थों की रचना ही पीछे हुई है। परन्तु यह धारण भ्रान्त है। महाभारत के बहुत पीछे महावीर जिन तथा गौतम बुद्ध के समय से नास्तिक मतों का प्रचार बढ़ा और धीरे-धीरे सारे देश में राजा और प्रजा में व्याप गया। बौद्ध मत के आत्यन्तिक प्रचार से आस्तिक धर्मों और वर्णविभाग का कुछ काल के लिए ह्रास हो गया। नास्तिक मत का प्रभाव भारत वर्ष से बाहर अन्यान्य देशों में भी फैला। यह एक भारी परिवर्तन था, धार्मिक क्रान्ति थी जिससे श्रुतियों और स्मृतियों को लोग विल्कुल भूल गये और बौद्धों को राज्याश्रय मिल जाने से नास्तिक मत प्रबल हो गया।

(2) सामान्य अर्थ में ईश्वर अथवा परमार्थ में विश्वास न करनेवाले को नास्तिक कहते हैं।

नास्तिकदर्शन : वेदों के प्रमाण माननेवाले आस्तिक और न मानने वाले नास्तिक कहलाते हैं। चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक एवं आर्हत ये छहः नास्तिक दर्शन हैं। दे० सर्वदर्शनसंग्रह नामक ग्रन्थ।

नास्तिकमत : नास्तिक दर्शन' शब्द में छः नास्तिक दर्शन गिनाये जा चुके हैं। विपरीत मतसहिष्णु भारत में आस्तिक और नास्तिक दोनों तरह के विचारों का आदि काल से पूर्ण विकास होता चला आया है। आस्तिक तथा नास्तिक दोनों दलों की परम्परा और संस्कृति समान चली आयी है। दोनों का इतिहास एक ही है। हाँ, प्रत्येक दल ने स्वभावतः अपने इतिहास में अपना उत्कर्ष दिखाया है। (विभिन्न नास्तिक मतों को नास्तिक दर्शनों के अन्तर्गत देखिए।)

नास्तिक हिन्दू : दे० 'नास्तिक'।

निकुम्भपूजा : (1) इस व्रत में चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को उपवास तथा पूर्णिमा को हरि का पूजन करना चाहिए। पिशाचों की सेना के साथ निकुम्भ नामक राक्षस लड़ने के लिए जाता है। एक मिट्टी की प्रतिमा अथवा घास का पुतला बनाकर प्रत्येक घर में मध्याह्न के समय स्थापित करते हुए पुष्प तथा धूप, दीप, नैवेद्यादि से पूजन करना चाहिए। नगाड़े तथा सारङ्गी आदि वाद्ययन्त्र भी बजाने चाहिए। चन्द्रोदय के समय पुनः पूजन का विधान है। पूजा के बाद एकदम तितर-बितर हो जाना चाहिए। व्रती को चाहिए कि वह वाद्य, संगीत आदि से एक बड़ा महोत्सव मनाये। जनता घास के बने हुए सर्प से खेले, जो लकड़ियों से घिरा हो। तीन-चार दिन बाद उस सर्प के टुकड़े-टुकड़े कर दिये जायँ तथा उन टुकड़ों को एक वर्ष तक रखा जाय। नीलमत पुराण (पृ० 64, श्लोक, 781-790) के अनुसार यह `चैत्रपिशाचवर्णनम्` है।

(2) आश्विन पूर्णिमा को (महिलाओं, बच्चों तथा वृद्धों को छोड़कर) पुरुष लोग गृह के मुख्य द्वार के पास अग्नि स्थापित करके दिन भर निराहार रहकर उसका पूजन करते हैं। पूर्णिमा को रुद्र तथा उमा, स्कन्द, नन्दीश्वर, रेवन्त का पूजन करना चाहिए। तिल, अक्षत तथा माष (उरद) से निकुम्भ राक्षस के पूजन करने का विधान है। रात्रि को ब्राह्मणों को भोजन कराकर लोग स्वयं भी निरामिष भोजन करें, यह विधान है। इसके बाद रात्रि भर गीत, वाद्य, संगीत, नृत्यादि का आयोजन करें। दूसरे दिन आराम के साथ प्रभात काल में मिट्टी इत्यादि शरीर में पोतकर पिशाचों के समान बिना लज्जा अनुभव करते हुए खेलें-कूदें। मित्रों को भी मिट्टी, कीचड़ आदि मलते हुए अश्लील शब्दों का प्रयोग करें। मध्याह्न के पश्चात् वे स्नान करें। यदि कोई पुरुष इस कामोत्सव में अपने आपको लिप्त नहीं करता तो वह पिशाचों से पीड़ित होता है।

(3) चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को भगवान् शम्भु की तथा पिशाचों से घिरे निकुम्भ नामक राक्षस की पूजा होती है, उस दिन रात को लोगों को चाहिए कि पिशाचों से अपने बच्चों की रक्षा करें तथा वेश्याओं का नृत्य देखें।

निक्षुभार्कचतुष्टयव्रत : निक्षुभा सूर्य नारायण की पत्नी का नाम है। कृष्ण पक्ष की सप्तमी को निक्षुभा का व्रत किया जाता है। इसमें उपवास का विधान है। एक वर्ष तक यह अनुष्ठान चलता है। इसमें सूर्य तथा उनकी पत्नी निक्षुभा की प्रतिमाओं का पूजन होता है। महिला व्रती इस व्रत के आचरण से सूर्यलोक जायेंगी तथा जन्मान्तर में राजा को अपने पति के रूप में प्राप्त करेंगी। पुरुष लोग भी सूर्यलोक प्राप्त करेंगे। महाभारत का पाठ करने वाला एक पंडित एक वर्ष अनुष्ठान के लिए बैठाना चाहिए। वर्ष के अन्त में सूर्य तथा निक्षुभा की स्वर्णालङ्कारवस्त्र विभूषित प्रतिमाओं को महाभारत का पाठ करने वाले की पत्नी को दान में देना चाहिए।

निक्षुभार्कसप्तमी : षष्ठी, सप्तमी, संक्रान्ति अथवा किसी रविवार के दिन इस व्रत का अनुष्ठान प्रारम्भ होता है और एक वर्ष तक चलता है। स्वर्ण, रजत अथवा काष्ठ की सूर्य तथा निक्षुभा (सूर्यपत्नी) की प्रतिमाओं को उपवास करते हुए घी इत्यादि पदार्थों से स्नान कराकर होम तथा पूजन करना चाहिए। सूर्यभक्तों को भोजन कराना चाहिए। इस व्रत का फल यह है कि मनुष्य़ के समस्त संकल्प तथा इच्छाएँ पूर्ण होती हैं तथा सूर्य और अन्य लोकों की प्राप्ति होती है।

निगम : ज्ञान की वह पद्धति जो अन्ततोगत्वा साक्षात् अनुभूति पर आधारित है, निगम कहलाती है। इसीलिए स्वयं साक्षात्कृत (अनुभूत) वेदों को निगम कहते हैं। इससे भिन्न ज्ञान की जो पद्धति तर्क प्रणाली पर अवलम्बित है वह आगम कहलाती है। इसीलिए दर्शनों को आगम कहते हैं। इस परम्परा में बौद्ध और जैन दर्शन प्रमुखतः आगमिक हैं। हिन्दू धर्म-दर्शनपरम्परा निगमागम का समन्वय करती है।

निगमपरिशिष्ट : कात्यायनरचित अनेक पद्धति और परिशिष्ट ग्रन्थ यजुर्वेदीय श्रौतसूत्र के अन्तर्गत हैं। कई स्थलों पर इनमें 'निग्मपरिशिष्ट' एवं 'चरणव्यूह' ग्रन्थों का भी नाम्मोल्लेख है।

निघण्टु : वेद के अर्थ को स्पष्ट करने के सम्बन्ध में दो अति प्राचीन ग्रन्थ हैं। एक है निघण्टु तथा अन्य है यास्क का निरुक्त। निघण्टु शब्द की व्युत्पत्ति प्रायः इस प्रकार से की जाती है : 'निश्चयेन घटयति पठति शब्दान् इति निघण्टुः।' इसमें वैदिक पर्याय शब्दों का संग्रह है। इसके निघण्टु नाम पडने का एक कारण यह भी बतलाया जाता है कि इस कोश में उन शब्दों का संग्रह है जो मन्त्रार्थ के निगमक अथवा ज्ञापक हैं। इन शब्दों का रहस्य जाने बिना वेदों का यथार्थ आशय समझ में नहीं आ सकता। निघण्टु पाँच अध्याओं में विभक्त है। प्रथम तीन अध्यायों में एकार्थक, चतुर्थ में अनेकार्थक तथा पञ्चम में देवतावाचक शब्दों का विशेष रूप से संग्रह किया गया है। इसी निघण्टु पर यास्क का निरुक्त लिखा गया है।

निजगुणशिवयोगी : निजगुणयोगी अथवा निजगुण शिवयोगी एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं। ये वीरशैव संप्रदाय के एक आचार्य थे। इन्होंने 'विवेकचिन्तामणि' नाम का शैव विश्वकोश तैयार किया था। इनका प्रादुर्भावकाल सत्रहवीं शती वि० है।

नित्यपद्धति : आचार्य रामानुज रचित यह एक ग्रन्थ है।

नित्यवाद : यह वेदान्त का एक सिद्धान्त है। इसके अनुसार वस्तुसत्ता स्थायी और निश्चल है। संसार में दिखाई पड़नेवाला परिवर्तन और विध्वंस प्रतीयमान अथवा अवास्तविक है। इस प्रकार वस्तुसत्ता की नित्यता में विश्वास रखनेवाला यह वाद है।

नित्याराधनविधि : यह आचार्य रामानुजरचित एक ग्रन्थ है।

नित्यातन्त्र : एक तन्त्रग्रन्थ का नाम।

नित्यानन्दतन्त्र : एक तन्त्र का नाम।

नित्यानन्दमिश्र : ये बृहदारण्यक उपनिषद् के वृत्तिलेखक थे। इनकी वृत्ति का नाम है 'मिताक्षरा'।

नित्यानन्दाश्रम : छान्दोग्य एवं केनोपनिषद् के एक वृत्तिलेखक का नाम।

नित्यानन्द : चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख सहयोगी। नित्यानन्द पहले मध्व और पीछे चैतन्य के प्रभाव में आये। चैतन्य सम्प्रदाय की व्यवस्था का कार्य इन्हीं के कन्धों पर था, क्योंकि चैतन्य स्वयं व्यवस्थापक नहीं थे। चैतन्य के परलोक गमन के बाद भी इन्होंने सम्प्रदाय की व्यवस्था सुरक्षित रखी तथा सदस्यों के आचरण के नियम बनाये। नित्यानन्द के बाद इनके पुत्र वीरचन्द्र ने पिता के भार को सँभाला। चैतन्य स्वयं शङ्कराचार्य के दसनामी संन्यासियों में से भारती शाखा के संन्यासी थे। किन्तु नित्यानन्द तथा वीरचन्द्र ने सरल जीवन यापन करने वाले तथा सरल अनुशासन वाले आधुनिक साधुओं के दल को जन्म दिया, जो वैरागी तथा वैरागिनी कहलाये। ये वैरागी रामानन्द के द्वारा प्रचलित वैरागी पन्थ के ढंग के थे।

नित्यानन्ददास : वि० सं० 1692 में नित्यानन्ददास ने चैतन्य सम्प्रदाय के इतिहास पर प्रेमविलास नामक एक छन्दोबद्ध ग्रन्थ लिखा।

नित्याह्निकतिलक तन्त्र : इस ग्रन्थ में शाक्तों के 'कुब्जिकासम्प्रदाय' के दैनिक क्रिया-कर्म का वर्णन मिलता है। इसकी रचना 1294 वि० के लगभग हुई थी।

निद्रा : योगदर्शन के अनुसार जाग्रत् अवस्था से स्वप्न अवस्था में जाने का नाम निद्रा है। किन्तु यह एक स्थूल शारीरिक क्रिया है। मन इसमें क्रियाशील बना रहता है और चेतना से शून्य नहीं होता है।

निद्रा कालरूपिणी (दुर्गा) : दुर्गा के एक रूप को योगनिद्रा या निद्रा-कालरूपिणी कहते हैं। उसकी पूजा का सम्बन्ध विष्णु-कृष्ण से है। हरिवंश में एक कथा वर्णित है कि कंस को मारने के लिए विष्‍णु पाताल लोक गये। वहाँ उन्होंने निद्रा-कालरूपिणी से सहायता माँगी तथा उसको वचन दिया कि तुमको मैं देवी का सम्मान दिलाऊँगा। उन्होंने उससे यशोदा की नवीं सन्तान के रूप में उसी दिन जन्म ग्रहण करने को कहा, जिस दिन वे देवकी की आठवीं सन्तान के रूप में अवतरित हों और फिर दोनों का गोकुल में विनिमय हुआ। कंस ने उस कन्या की टाँग पकड़कर शिला पर ज्यों ही पटकना चाहा कि वह हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी तथा इन्द्र ने इसे अपनी बहिन मानकर विन्ध्य पर्वत पर बैठा दिया। वहाँ देवी ने शुम्भा तथा निशुम्भा नामक दो दैत्यों का वध किया और विष्णु के वचन के अनुसार उसका पूजन और सम्मान जगत् में प्रचलित हो गया।

निम्बसप्तमी : वैशाख शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त व्रत चलता है। इसमें सूर्य की पूजा का विधान है। कमल की आकृति बनाकर सूर्य (खखोल्क) की स्थापित करना चाहिए। इसका मूल मन्त्र है : 'ओं खखोल्काय नमः'। बारह आदित्य, जय, विजय, शेष, वासुकि, विनायक, महाश्वेता तथा रानी सुवर्चला को सूर्य की प्रतिमा के सामने स्थापित किया जाना चाहिए तथा सूर्य की प्रतिमा के सम्मुख शयन करना चाहिए। अष्टमी को पुनः सूर्यपूजन करने की विधि है। इससे व्रती समस्त रोगों से मुक्त हो जाता है।

निम्बार्क : एक वैष्णव सम्प्रदायप्रवर्तक आचार्य। ये आन्ध्र प्रदेश के एक विद्वान् भागवतधर्मी थे, जो व्रज में जा बसे थे। इन्होंने राधा की पूजा को मान्यता दी तथा अपना एक सम्प्रदाय स्थापित किया। इनका समय निश्चित नहीं है। निम्बार्क भेदाभेद दर्शन के मानने वाले थे। निम्बार्क का प्रारम्भिक नाम भास्कर था। अतः कुछ विद्वान् सोचते हैं कि निम्बार्क एवं भास्कराचार्य (900 ई०), जिन्होंने भेदाभेद भाष्य रचा, एक ही व्यक्ति हैं। किन्तु यह असम्भव है कि एक ही व्यक्ति शुद्ध वेदान्ती भाष्य तथा साम्प्रदायिक वृत्ति लिखे। व्रज में राधा-उपासना के प्रचलन की घटना भास्कराचार्य के काफी पीछे की है (लगभग 1100 ई०)। निम्बार्क रामानुज से काफी प्रभावित थे तथा उन्हीं की तरह ध्यान पर अधिक जोर देते थे। इनके अनुसार राधा कृष्ण की शाश्वत पत्नी हैं; अपने पति के सदृश ही वे वृन्दावन में अवतरित हुईं तथा उनकी विवाहित पत्नी हुई। निम्बार्कों के कृष्ण विष्णु के अवतार मात्र नहीं हैं, वे ब्रह्म हैं तथा उन्हीं से राधा, गोप या गोपी जन्म लेते हैं, जो उनके संग गोलोक में लीला करते हैं।

निम्बार्क ने इस प्रकार अपना सारा ध्यान कृष्ण तथा राधा पर केन्द्रित किया है। परवर्ती अनेक सम्प्रदाय उनके ऋणी हैं। उन्होंने वेदान्तसूत्र पर एक संक्षिप्त भाष्य अथवा वृत्ति लिखी, जिसका नाम 'वेदान्तपारिजातसौरभ' है तथा 'दशश्लोकी' नाम एक दस पद्यो की पुस्तिका रची है। इस सम्प्रदाय का भाष्य श्रीनिवास रचित 'वेदान्तकौस्तुभ' है जो एक उच्च कोटि का तार्किक ग्रन्थ है। बाद के आचार्यगण भी विद्वात्तापूर्ण ग्रन्थ लिखते आये हैं। इनकी उपासना विधि के निर्देशक ग्रन्थ गौतमीय संहिता तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण का कृष्ण सम्बन्धी भाग है, जो पीछे से निम्बार्कदर्शन के रूप में सम्भवतः इस पुराण में जोड़ दिया गया है। 'शाण्डिल्यभक्तिसूत्र' की भी निम्बार्क मत से ही उत्पत्ति मानी जा सकती है।

निम्बार्क (गण) : निम्बार्क द्वारा प्रवर्तित मत को मानने वाले निम्बार्क वैष्णव (गण) कहलाते हैं। इनमें गृहस्थ और विरक्त दोनों प्रकार के अनुयायी होते हैं। गुरुगद्दी के संचालक आचार्य भी दोनों ही वर्गों में पाये जाते हैं, जो शिष्यों को मन्त्रोपदेश करते हुए कृष्णभक्ति का प्रचार करते रहते हैं। आचार्य और भक्तगण प्रायः भजन-ध्यान एवं राधा-कृष्ण की युगल उपासना की ओर ही उन्मुख रहते हैं, दार्शनिक सिद्धान्त की अभिरुचि इनमें अधिक नहीं पायी जाती। इसीलिए इनका समन्वय चैतन्य संप्रदाय, राधावल्लभ संप्रदाय, प्रणामी संप्रदाय, धर्मदासी कबीर शाखा, रामानन्दीय, खालसादल आदि के साथ भी सौहार्द के साथ होता आया है। व्रजमंडल, प्रयाग, काशी, नेपाल, बंगाल, उड़ीसा, राजस्थान, द्वारका आदि में निम्बार्कियों की गृहस्थ और विरक्त गुरुगद्दियाँ और मठमन्दिर पाये जाते हैं।

निम्बार्कसम्प्रदाय : यह सम्प्रदाय वैष्णव चतुःसंप्रदाय की एक शाखा है। दार्शनिक दृष्टि से यह भेदाभेदवादी है। भेदाभेद और द्वैताद्वैत मत प्रायः एक ही हैं। इस मत के अनुसार द्वैत भी सत्य है और अद्वैत भी। इस मत के प्रधान आचार्य निम्बार्क हो गये हैं परन्तु यह मत अति प्राचीन है। इसे सनकादिसम्प्रदाय भी कहते हैं। ब्रह्मा के चार मानस पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन औऱ सनत्कुमार थे। ये चारों ऋषि इस मत के आचार्य कहे जाते हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में सनत्कुमार-नारद की आख्यायिका प्रसिद्ध हैं। उसमें कहा गया है कि नारद ने सनत्कुमार से ब्रह्मविद्या सीखी थी। इन्हीं नारदजी ने निम्बार्क को उपदेश दिया। निम्बार्क ने अपने वेदान्तभाष्य में सनत्कुमार और नारद के नाम का उल्लेख किया है। निम्बार्क ने साम्प्रदायिक ढंग से जिस मत की शिक्षा पायी थी उसे अपनी प्रतिभा से और भी उज्ज्वल बना दिया।

निम्बार्कसम्प्रदाय की एक प्राचीन गुरुगद्दी मथुरा में यमुना के तटवर्ती ध्रुवक्षेत्र में है। वैष्णवों का यह पवित्र तीर्थ माना जाता है। अब अन्यत्र भी प्रभावशाली गुरुगद्दियाँ स्थापित हो गयी हैं। इस सम्प्रदाय के लोग विशेषकर उत्तर भारत में ही रहते हैं। इस सम्प्रदाय की एक विशेषता यह है कि इसके आचार्यों ने अन्य मतों के आचार्यों की तरह दूसरे मतों का खण्डन नहीं किया है। केवल देवाचार्य के ग्रन्थ में शाङ्कर मत पर आक्षेप किया गया है।

निम्बार्काचार्य : दे० 'निम्बार्क'।

निम्मप्पदास : एक कर्नाटकी भक्त का नाम। प्राकृत भाषाओं में धार्मिक ग्रन्थों के लिखे जाने के आन्दोलन के प्रभाव से कन्नड भाषा में भी ग्रन्थ रचे गये। निम्मप्पदास ने औरों की तरह अपनी रचनाएँ (पद्य में) कन्नड भाषा में लिखी है।

नियति : शाक्त मत के अनुसार प्राथमिक सृष्टि के दूसरे चरण में शक्ति के भूतिरूप का सामूहिक प्रकटन कूटस्थ पुरुष तथा माया शक्ति के रूप में होता है। कूटस्थ पुरुष व्यक्तिगत आत्माओं का सामूहिक रूप है (मधुमक्खियों की तरह एकत्र हुआ) तथा माया विश्व का अभौतिक उपादान है। माया से नियति की उत्पत्ति होती है, जो सभी वस्तुओं को नियमित करती हैं। फिर नियति से काल उत्पन्न होता है जो चालक शक्ति है।

नियम : योगदर्शन में निर्दिष्ट अष्टांग योग का द्वितीय घटक। इसकी परिभाषा है : 'शौच-सन्तोष-तपः--स्वाध्याय-ईश्वर-प्रणिधानानि नियमाः।' [शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, और ईश्वर का ध्यान ये नियम कहलाते हैं।] सामान्य अर्थ है 'स्वेच्छा से अपने ऊपर नियन्त्रण रखकर अच्छा अभ्यास विकसित करना', जैसे स्नान, शुद्धाचार, शरीर को निर्मल बनाना, सन्तोष, प्रसन्नता, अध्ययन, उदासीनता आदि।

नियमयूथमालिका : अप्पय दीक्षित रचित 'नियमयूथमालिका' रामानुज मत का दिग्दर्शन कराती है।

नियोग : इसका शाब्दिक अर्थ है 'नियोजन' अथवा 'योजना' अर्थात् पति की असमर्थता अथवा अभाव में ऐसी व्यवस्था जिससे सन्तान उत्पन्न हो सके। वैदिक काल से लेकर 300 ई० पू० तक विधवा के पति के साथ चित्ता पर जलने का विधान नहीं था। उसके जीवन व्यतीत करने की तीन मार्ग थे-- (1) आजीवन वैधव्य, (2) नियोग द्वारा सन्तान प्राप्त करना और (3) पुनर्विवाह।

प्राचीन काल में नियोग अनेक सभ्यताओं में प्रचलित था। इसका कारण ढूँढना कठिन नहीं है। स्त्री पति की ही नहीं बल्कि उसके परिवार की सम्पत्ति समझी जाती थी और इसी कारण पति के मरने के बाद उसका देवर (पति का भाई) उसे पत्नी के रूप में ग्रहण करता तथा सन्तानोत्पादन करता था। प्राचीन काल में ग्रहण किये गये 'दत्तक' पुत्र से नियोग द्वारा पैदा किया गया पुत्र श्रेष्ठ समझा जाता था। इसलिए उसे औरस के बाद दूसरा स्थान प्राप्त होता था। महाभारत तथा पुराणों के अनेक नायक नियोग से पैदा हुए थे।

नियोग प्रणाली के अनुसार जब किसी स्त्री का पति मर जाता या सन्तानोत्पादन के अयोग्य होता था तो वह अपने देवर या किसी निकटवर्ती सम्बन्धी के साथ सहवास कर कुछ सन्तान उत्पन्न करती थी। देवर इस कार्य के लिए सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था। देवर अथवा सगोत्र के अभाव में किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण से नियोग कराया जाता था।

परवर्त्ती स्मृतियों में नियोग द्वारा एक ही पुत्र पैदा करने की आज्ञा दी गयी, किन्तु पहले कुछ भिन्न अवस्था थी। कुन्ती ने अपने पति से बाधित हो नियोग द्वारा तीन पुत्र प्राप्त किये थे। पाण्डु इस संख्या से सन्तुष्ट नहीं थे, किन्तु कुन्ती ने सुझाया कि नियोग द्वारा तीन ही पुत्र पैदा किये जा सकते हैं। क्षत्रियों को अनेक पुत्रों की कामना हुआ करती थी तथा प्रागैतिहासिक काल में नियोग से असंख्य सन्तान पैदा करने की परिपाटी थी।

300 ई० पू० तक नियोग प्रचलित थी। किन्तु इसके बाद इसका विरोध आरम्भ हुआ। आपस्तम्ब, बौधायन तथा मनु ने इसका विरोध किया। मनु ने इसे पशुधर्म कहा है। वसिष्ठ तथा गौतम ने इसका केवल इतना ही विरोध किया कि देवर के प्राप्त होने पर कोई स्त्री किसी अपरिचित से नियोग न करे। कौटिल्य एक बूढ़े राजा को नियोग द्वारा एक नया पुत्र प्राप्त करने की स्वीकृति देते हैं। इस विरोध का इतना फल हुआ कि शारीरिक आनन्द के लिए नियोग न कर पुत्र की कामनावश ही नियोग की प्रथा रह गयी। गर्भाधान के बाद दोनों (विधवा तथा नियोजित पति) अलग हो जाते थे। धीरे--धीरे जब सन्तानोत्पत्ति अनिवार्य न रही तो नियोग प्रथा भी बन्द हो गयी। आधुनिक युग में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने नियोग का कुछ अनुमोदन किया परन्तु यह प्रथा पुनर्जीवित नहीं हुई। धीरे-धीरे विधवाविवाह के प्रचलन से यह प्रथा बन्द हो गयी। जो विधवा वैधव्य की कठोरता का पालन करने में असमर्थ हो उसके लिए पुनर्विवाह करना उचित माना गया। इससे नियोग की प्रथा एकदम समाप्त हो गयी।

निर्जला एकादशी : ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को निर्जला एकादशी कहते हैं। इस दिन प्रातः से लेकर दूसरे दिन प्रातः तक उपवास करना चाहिए। इस दिन जलग्रहण भी निषिद्ध है, केवल सन्ध्योपासना के समय किये गये आचमनों को छोड़कर। दूसरे दिन प्रातः शर्करामिश्रित जल से परिपूर्ण एक कलश दान में देकर स्वयं जलपानादि करना चाहिए। इससे बारहों द्वादशियों का फल तो प्राप्त होता ही है, व्रती सीधा विष्णुलोक को जाता है।

निराकारमीमांसा : गुरु नानकरचित एक ग्रन्थ। यह संस्कृत भाषा में रचा गया है।

निरालम्ब उपनिषद् : यह एक परवर्ती उपनिषद् है।

निरुक्त : वेद का अर्थ स्पष्ट करने वाले दो ग्रन्थ अति प्राचीन समझे जाते हैं, एक तो निघण्टु तथा दूसरा यास्क का निरुक्त। कुछ विद्वानों के अनुसार निघण्टु के भी रचयिता यास्क ही थे। दुर्गाचार्य ने निरुक्त पर अपनी सुप्रसिद्ध वृत्ति लिखी है। निरुक्त से शब्दों की व्युत्पत्ति समझ में आती है और प्रसंगानुसार अर्थ लगाने में सुविधा होती है।

वास्तव में वैदिक अर्थ को स्पष्ट करने के लिए निरुक्त की पुरानी परम्परा थी। इस परम्परा में यास्क का चौदहवाँ स्थान है। यास्क ने निघण्टु के प्रथम तीन अध्यायों की व्याख्या निरुक्त के प्रथम तीन अध्यायों में की है। निघण्टु के चतुर्थ अध्याय की व्याख्या निरुक्त के अगले तीन अध्यायों में की गयी है। निघण्टु के पञ्चम अध्याय की व्याख्या निरुक्त के शेष छः अध्यायों में हुई है।

जैसा कि कहा गया है, निरुक्त का उद्देश्य है व्युत्पत्ति (प्रकृति-प्रत्यय) के आधार पर अर्थ का रहस्य खोलना। मुख्यतः दो प्रकार के अर्थ होते हैं--(1) सामान्य और (2) विशिष्ट। सामान्य के चार भेद हैं-- (1) कथित, उच्चारित अथवा व्याख्यात (2) उद्घोषित (महाभारतादि में) (3) निर्दिष्ट अथवा विहित (धर्मशास्त्र में) (4) व्युत्पत्त्यात्मक। विशिष्ट का अर्थ है वैदिक शब्दों का व्युत्पत्त्यात्मक अर्थ अथवा व्याख्या करने वाले ग्रन्थ। वेदाङ्गों में निरुक्त का प्रयोग इसी अर्थ में किया गया है।

निरुवनपुराण : नाथपंथी योगियों द्वारा रचित एक ग्रन्थ का नाम।

निरुढपशुबन्ध : एक प्रकार का यज्ञ, जिसमें यज्ञस्तंभ को जिस वृक्ष से काटते थे, उसको अभिषिक्त करते थे। फिर बलिपशु को तेल व हरिद्रा मलकर नहलाते तथा बलि के पूर्व घी से उसको अभिषिक्त करते थे। इसके पश्चात् उसको स्तम्भ से बाँध देते थे और विधि के अनुसार उसकी बलि देते थे।

निर्गुण : इसका अर्थ है गुणरहित। चरम सत्ता ब्रह्म के दो रूप हैं---निर्गुण और समुण। उसके सगुण रूप से दृश्य जगत् का विकास अथवा विवर्त होता है। किंतु वास्तविक वस्तुसत्ता तो निर्गुण ही होती है। गुणों के सहारे से उसका वर्णन अथवा निर्वचन नहीं हो सकता है। सम्पूर्ण विश्व में अन्तर्यामी होते हुए भी वह तात्त्विक दृष्टि से अतिरेकी और निर्गुण ही रहता है।

निर्णयसिन्धु : यह कमलाकर भट्ट का सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह उनकी विद्या, अध्यवसाय तथा सरलता का प्रतीक है। न्यायालयों में यह प्रमाण माना जाता है। निर्णय सिन्धु में लगभग एक सौ स्मृतियों और तीन सौ निबन्धकारों का उल्लेख हुआ है। यह ग्रन्थ तीन परिच्छेदों में विभक्त है। इसमें विविध धार्मिक विषयों पर निर्णय दिया गया है, जैसे वर्ष के प्रकार (सौर, चान्द्र आदि), चार प्रकार के मास, संक्रान्ति के कृत्य और दान, अधिक मास, क्षयमास, तिथियाँ (शुद्ध और विद्ध), व्रत, उत्सव, संस्कार, सपिण्ड सम्बन्ध, मूर्तिप्रतिष्ठा, मुहूर्त, श्राद्ध अशौच, सतीप्रथा, संन्यास आदि। इसकी रचना काशी में सोलहवीं शती के पूर्वार्द्ध में हुई थी।

निर्मल : सिक्खों के विरक्त सम्प्रदाय का नाम। सिक्ख सम्प्रदाय मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त है--(1) सहिज धारी और (2) सिंघ। पहले के छः तथा दूसरे के तीन उपविभाग हैं। सिंघों की तीन शाखाएँ हैं-- (1) खालसा, (2) निर्मल और (3) अकाली। निर्मल संन्यासियों का दल है। इस दल के संस्थापक वीरसिंह थे, जिन्होंने 1747 वि० में इस शाखा को संगठित किया।

निर्मल पंथ : दे० 'निर्मल'।

निरोधलक्षण : वल्लभाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ। इसका पूरा नाम 'निरोधललक्षणनिवृत्ति' है।

निर्वचन ग्रन्थ : निरुक्त के विषयों के 'निर्वचनलक्षण' तथा 'निर्वचनोपदेश' दो विभाग हैं।

निर्वाण : यह मुख्यतः बौद्ध दर्शन का शब्द है, किन्तु आस्तिक दर्शनों में उपनिषदों के समय से इसका प्रयोग हुआ है। निर्वाण तथा ब्रह्मनिर्वाण दोनों प्रकार से इसका विवेचन किया गया है। यह आत्मा की वह स्थिति है जिसमें सम्पूर्ण वेदना, दुःख, मानसिक चिन्ता और संक्षेप में समस्त संसार लुप्त हो जाते हैं। इसमें आत्मतत्त्व की चेतना अथवा सच्चिदानन्द स्वरूप नहीं नष्ट होता, किन्तु उसके दुःखमूलक संकीर्ण व्यक्तित्व का लोप हो जाता है।

निर्वाण उपनिषद् : यह एक परवर्त्ती उपनिषद् है।

निविद : सार्वजनिक वैदिक पूजा के अवसर पर देवों को जागृत तथा आमन्त्रित करने वाले मन्त्र का नाम। ब्राह्मणों में निविद का बार-बार उल्लेख आया है, जिसका समावेश प्रपाठकों में हुआ है। ऋग्वेद के खिलों में निविदों का एक पञ्चक ही संगृहीत है। किन्तु यह सन्देहात्मक है कि ऋग्वेदीय काल में निविद जैसे सूक्तों के प्रयोग की प्रथा थी, यद्यपि यह ऋग्वेद में पाया जाता है। ब्राह्मणों में जो इसका क्रियात्मक अर्थ है वह यहाँ नहीं प्रयुक्त हुआ है। परवर्त्ती संहिताओं में इस शब्द का प्रयोग क्रियात्मक अर्थ में ही हुआ है।

निशी : अमानवीय आत्माओं में दैत्य एवं दानवों के अतिरिक्त प्रकृति के कुछ भयावने उपादानों को भी प्राचीन काल में दैत्य का रूप दे दिया गया था। अन्धेरी रात, पर्वतगुफा, सघन वनस्थली आदि ऐसे ही उपादान थे। 'निशी' रात के अन्धेरे का ही दैत्यीकरण है। प्राचीन काल में और आज भी यह विश्वास किया जाता है कि निशी (दैत्य के रूप में) आधी रात को आती है, घर के स्वामी को बुलाती है तथा उसे अपने पीछे-पीछे चलने को बाध्य करती है। उसे वन में घसीट ले जाती है तथा काँटों में गिरा देती है। कभी-कभी ऊँचे पेड़ों पर चढ़ा देती है। उसकी पुकार का उत्तर देना बड़ा संकटमय होता है।

निश्चलदास : एक दादूपन्थी सन्त, जो महात्मा दादूजी के शिष्य थे। ये कवि तथा वेदान्ती भी थे। इनकी रचनाएँ उत्कृष्ट हैं, और सबका आधार श्रुति-स्मृति और विशेषतः अद्वैतवाद है। निश्चलदास के प्रभाव से दादूपन्थ के सदस्यों ने अद्वैत सिद्धान्त को ग्रहण किया था।

निश्वास आगम : यह रौद्रिक आगम है।

निश्वासतत्त्वसंहिता : यह ग्यारहवीं शताब्दी वि० का ग्रन्थ है, जो शाक्त जीवन के सभी अङ्गों के लिए विशद नियमावली प्रस्तुत करता है।

निष्कलंकावतार : अठारहवीं शताब्दी वि० के उत्तरार्ध में बुन्देलखण्ड के पन्ना नामक स्थान पर महात्मा प्राणनाथ ने शिक्षा दी कि भारत के सारे धर्म मेरे ही व्यक्तित्व में समन्वित हैं, क्योंकि मैं एक साथ ही ईसाइयों का मसीहा, मुसलमानों का महदी तथा हिन्दुओं का निष्कलंकावतार हूँ। उन्होंने अपना धर्मसिद्धान्त 'कुलज्जम साहेब' नामक ग्रन्थ में व्यक्त किया है। दे० 'कुलज्जम साहेब'।

निष्काम कर्म : मोक्ष की प्राप्ति के लिए भागवत धर्म में और विशेषकर भगवद्गीता में निष्काम कर्म का आदेश है। इसमें फल की इच्छा के बिना कर्म किया जाता है तथा उपास्यदेव के चरणों में कर्म को समर्पित किया जाता है। देवता इसे ग्रहण करता है तथा अपनी स्वर्गीय प्रकृति को उसके फल के रूप में देता है। फिर देवता उपासक अथवा कर्म करनेवाले के हृदय में प्रवेश करता है तथा भक्ति के गुणों को जन्म देता है और अन्त में मोक्ष प्रदान करता है।

निष्काम कर्म के पीछे दार्शनिक विचार यह है कि कर्म के फल--शुभाशुभ के अनुसार मनुष्य संसारचक्र अथवा आवागमन में फँसता है। इसलिए जब तक कर्म से छुटकारा नहीं मिलता तब तक मुक्ति सम्भव नहीं। अब प्रश्‍न यह उठता है कि यह छुटकारा कैसे मिले। एक मार्ग यह है कि कर्म का पूरा परित्याग करके संसार से संन्यास ले लेना चाहिए। इसका अर्थ है अक्षरशः नैष्कर्म्य का पालन। परन्तु गीता में कहा गया है कि ऐसा करना सम्भव नहीं। जब तक मनुष्य शरीरधारण करता है तब तक वह कर्म से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए सांख्य दर्शन के अनुसार उसे यह ज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के द्वारा होता है; पुरुष के ऊपर कर्म का आरोप मिथ्या तथा भ्रममूलक है। जब यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है तब मनुष्य बन्धन में नहीं पड़ता। जिस प्रकार भुने हुए चने से फिर पौधा नहीं उत्पन्न होता वैसे ही सांख्यबुद्धि से कर्मफल उत्पन्न नहीं होता। परन्तु यह मार्ग सरल नहीं है। अतएव भक्तिमार्ग में, विशेषकर भागवत सम्प्रदाय में, यह बताया गया है कि कर्म को भगवत्प्रीत्यर्थ करना चाहिए और फल की निजी कामना न करके उसे भगवान् के चरणों में अर्पित कर देना चाहिए। इस प्रकार कृष्णार्पणबुद्धि से कर्म करने से मनुष्य बन्धन में नहीं पड़ता।

निष्किरीय : वैदिक पुरोहितों की एक शाखा का नाम निष्किरीय है, जिसका उल्लेख पञ्चविंश ब्राह्मण (12.5,14) में हुआ है। इसके द्वारा एक सत्र चलाया गया था।

निषिद्ध तिथि आदि : कुछ निश्चित मासों, तिथियों, साप्ताहिक दोनों, संक्रान्तियों तथा व्रतों के अवसरों पर कुछ क्रियाएँ तथा आचार व्यवहार निषिद्ध हैं। इनकी एक लम्बी सूची है। जीमूतवाहन के कालविवेक (पृष्ठ 334-345) में इस प्रकार के निषिद्ध क्रियाकलापों की एक सूची दी गयी है, किन्तु अन्त में यह भी कह दिया गया है कि ये क्रियाकलाप उन्हीं लोगों के लिए निषिद्ध है, जो वेद, शास्त्र, स्मृति ग्रन्थ तथा पुराण जानते हैं। ऐसे अवसर कदाचित् असंख्य हैं, जिनका परिगणन असम्भव है।

निहंग : सिक्खों की सिंघ शाखा के अकाली 'निहंग' भी कहे जाते हैं। वास्तव में संस्कृत निःसंग का ही यह प्राकृत रूप है, जिसका अर्थ है संग अथवा आसक्तिरहित।

नीतिवाक्यामृत : सोमदेव सूरि कृत राजनीति विषयक दशम शताब्दी का एक ग्रन्थ। यह ग्रन्थ कौटिलीय अर्थशास्त्र की शैली में लिखा गया है। सामग्री भी अधिकांशतः उसी: ग्रन्थ से ली गयी है। इसके अनुसार राजनीति का उद्देश्य धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति है : `धर्मार्थकामफलाय राज्याय नमः` [उस राज्य को नमस्कार है, जिसका फल धर्म, अर्थ और काम है।] इस ग्रन्थ में निम्नांकित विषयों पर विचार किया गया है :

1.धर्मसमुद्देश, 2. अर्थसमुद्देश 3. कामसमुद्देश 4. अरिषड्वर्ग 5. विद्यावृद्ध 6. आन्वीक्षिका 7. त्रयी 8.वार्ता 9. दण्डनीति 10. मन्त्री 11. पुरोहित 12. सेनापति 13. चार 14. विचार 15. दूत 16. व्यसन 17. स्वामी 18. अमात्य 19. जनपद 20. दुर्ग 21. कोश 22. बल 23. मित्र 24. राजरक्षा 25. दिवसानुष्ठान 26. सदाचार 27. व्यवहार 28. विवाद 29. षाड्गुण्य 30. युद्ध 31. विवाह 32. प्रकीर्ण 33. ग्रन्थकर्ताप्रशस्ति 34. पुस्तकदाता प्रशस्ति

नीतिशास्त्र : नीतिशास्त्र का प्रारम्भिक अर्थ राजनीतिशास्त्र है, किन्तु परवर्ती काल में नीति का साधारण अर्थ आचरणशास्त्र किया जाने लगा तथा राजनीति इसका एक भाग बन गया। शुक्रनीतिसार (1.5) में नीति की परिभाषा इस प्रकार से दी गयी है :

सर्वोपजीविकं लोकस्थितिकृन्नीतिशास्त्रकम्। धर्मार्थकाममूलं हि स्मृतं मोक्षप्रदं यतः॥

[नीतिशास्त्र सभी की जीविका का साधन, लोक की स्थिति सुरक्षित करने वाला, धर्म, अर्थ और काम का मूल और इस प्रकार मोक्ष प्रदान करने वाला है।]

आधुनिक अर्थ में नीतिशास्त्र प्राचीन धर्मशास्त्र का ही एक अङ्ग है। धर्म शब्द के अन्तर्गत ही नीति का भी समावेश है। धर्म के सामान्य और विशेष अङ्ग में व्यक्तिगत तथा सामाजिक नीति अन्तर्निहित है।

सामान्य नीति पर चाणक्यनीति, विदुरनीति, भर्तृहरिनीतिशतक आदि कई प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। विशिष्ट अथवा सामाजिक (वर्ण-आश्रमपरक) नीति पर धर्मशास्त्र का बहुत बड़ा अंश है।

नीथ : यह एक प्रकार का गान था जो सोमयागों के अवसर पर गाया जाता था। 'नीथ' (चालक) गान के स्वर का बोध प्रथम अर्थ से तथा दूसरे अर्थ से स्तुति की ऋचा का बोध होता है। इसका स्त्रीलिंग रूप 'नीथा' केवल एक बार ही ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ हथियार है।

नीमावत : निम्बार्क सम्प्रदाय का ही अन्य नाम सधुक्कड़ी बोली में नीमावत है। दे० 'निम्बार्क' शब्द।

नीराजनद्वादशी : कार्तिक शुक्ल द्वादशी को नीराजन द्वादशी भी कहते हैं। रात्रि के प्रारम्भ होने के समय जब भगवान् विष्णु शयन त्याग कर उठ बैठते हैं, इस व्रत का आचरण किया जाता है। विष्णु की प्रतिमा के सम्मुख तथा अन्य देवगण, जैसे सूर्य, शिव, गौरी, पितरों के सम्मुख तथा गोशाला, अश्वशाला, गजशाला में भी दीपमाला प्रज्वलित की जानी चाहिए। राजा लोग भी समस्त राजचिह्नों को राजभवन के मुख्य प्राङ्गण में रख कर पूजें। एक धार्मिक तथा शुद्धाचरण करने बाली स्त्री अथवा वेश्या को राजा के सिर के ऊपर तीन बार दीपों की माला घुमानी चाहिए। यह महाशान्तिप्रदायक (साधनापरक) धार्मिक कृत्य है, जिससे रोग दूर होते हैं तथा धनधान्य की अभिवृद्धि होती है। महाराज अजपाल ने सर्वप्रथम इस व्रत का आचरण किया था। इसका आचरण प्रतिवर्ष होना चाहिए।

नीराजननवमी : कृष्ण पक्ष की नवमी (कार्तिक मास) को नीराजननवमी कहते हैं। इसकी रात्रि में दुर्गाजी तथा उनके आयुधों का पूजन होता है। दूसरे दिन प्रातः सूर्योदय के समय नीराजनशान्ति करनी चाहिए। दे० नीलमत पुराण (पृ० 76, श्लोक 931--933)।

नीराजनविधि : यह एक शान्तिप्रद कर्म है। कार्तिक कृष्ण द्वादशी से शुक्ल प्रतिपदा तक इसका अनुष्ठान होता है। यदि राजा इस विधि को करे तो उसे अपनी राजधानी की ईशान दिशा में दीर्घाकार ध्वजाओं से सज्जित विशाल मण्डप बनावना चाहिए जिसमें तीन तोरण भी हों। इसमें देवगण की पूजा तथा होम करने का विधान है। यह धार्मिक कृत्य उस समय किया जाय जब सूर्य चित्रा नक्षत्र से स्वाती नक्षत्र की ओर अग्रसर हो रहा हो तथा जब तक वह स्वाती पर विद्यमान रहे। पल्लवों से आच्छादित, पञ्चवर्ण सूत्रों से आवृत्त, जलपूर्ण कलश स्थापित किया जाय। तोरण की पश्चिम दिशा में मन्त्रोच्चारण पूर्वक हाथियों को स्नान कराया जाय। अश्वों का भी स्नान हो, तदनन्तर राजपुरोहि उन्हें (हाथियों को) भोजन-चारा खिलाये। यदि हाथी प्रसन्नतापूर्वक उस भोजन को ग्रहण करते हैं तो राजा की विजय निश्चित है। यदि वे भोजन अस्वीकार करते हैं तो इसे महान् संकट की सूचना समझना चाहिए। हाथियों की अन्य क्रियाओं से इसी प्रकार के शकुन-अपशकुन समझ लेने चाहिए। तदनन्तर राजचिह्नों का, जैसे छत्र तथा ध्वज का, पूजन होना चाहिए। जब तक सूर्य. स्वाती नक्षत्र पर हो हाथियों तथा घोड़ों का इसी प्रकार से सम्मान किया जाय। कोई कठोर शब्द उनके प्रति प्रयुक्त न हो और न उन्हें पीटा जाय। सशस्त्र रक्षकों से मण्डप की निरन्तर सुरक्षा होती रहनी चाहिए। राजकों से मण्डप की निरन्तर सुरक्षा होती रहनी चाहिए। राजज्योतिषी, पुरोहित, मुख्य पशुचिकित्सक तथा गजचिकित्सक को सर्वदा मण्डप के अन्दर रहना चाहिए। जिस दिन सूर्य स्वाती नक्षत्र से हटकर विशाखा नक्षत्र का स्पर्श करे उस दिन अश्‍वों तथा गजों को सजाकर उनके ऊपर राजछत्र तथा राजखड्ग स्थापित करके मन्त्रोच्चारण तथा वाद्ययन्त्र बजाये जाने चाहिए। राजा स्वयं अश्व पर सवार हो तथा कुछ देर बाद गज पर सवार होकर तोरणों में प्रविष्ट हो। उस समय राजा की सेना तथा नागरिक उसका अनुसरण करें। बाद में जुलूस राजभवन तक जाय। नागरिकों का सम्मान कर उन्हें विसर्जित किया जाय। यह धार्मिक कृत्य शान्तिपरक है। सुखसौभाग्य की अभिवृद्धि तथा अश्वों तथा गजों की सुरक्षा के लिए राजागण इस व्रत का आचरण करें। विशेष जानकारी के लिए देखिए, कौटिल्य अर्थशास्त्र तथा बृहस्पति संहिता, अध्याय 44, अग्निपुराण, 268,16-31।

नीलकण्ठ : (1) आगमिक शैवों के एक आचार्य, जिन्होंने क्रियासार नामक संस्कृत ग्रन्थ रचा। यह ग्रन्थ 'शैवभाष्य' का संक्षिप्तीकरण है। इस ग्रन्थ का उपयोग लिङ्गायतों में होता है। नीलकण्ठ 17वीं शताब्दी के मध्यकाल में हुए थे।

(2) एक नीलकण्ठ धर्मशास्त्र के निबन्धकार भी हैं, जिन्होंने काशी में नीलकण्ठमयूख नामक बृहत् निबन्ध ग्रन्थ की रचना की। इसके 'संस्कारमयूख' और 'व्यवहारमयूख' बहुत प्रसिद्ध हैं।

नीलकण्ठ दीक्षित : अप्यय दीक्षित के छोटे भाई के पौत्र। अप्पय दीक्षित की मृत्यु के समय उनके ग्यारह पुत्र तथा नीलकण्ठ सम्मुख ही थे। उस समय उन्होंने सबसे अधिक प्रेम नीलकण्ठ पर ही प्रकट किया।

नीलकण्ठ भट्ट : शङ्करभट्ट के पुत्र और नारायण भट्ट के पौत्र। इनका जीवनकाल 1610 और 1650 ई० के बीच रखा जा सकता है। इनके पिता शङ्कुरभट्ट प्रसिद्ध मीमांसक थे, उन्होंने 'शास्त्रदीपिका' पर भाष्य 'विधिरसायनदूषण', 'मीमांसा बालप्रकाश' आदि ग्रन्थों की रचना की। 'द्वितनिर्णय' और 'धर्मप्रकाश' ग्रन्थ भी इन्हीं द्वारा प्रणीत थे। इनका धर्मशास्त्र पर प्रसिद्ध ग्रन्थ 'भगवन्तभास्कर' बारह मयूखों में विभक्त है। ये मयूख हैं : 1. संस्कार 2. आचार 3. काल 4. श्राद्ध 5. नीति 6. व्यवहार 7. दान 8. उत्सर्ग 9. प्रतिष्ठा 10. प्रायश्चित्त 11. शुद्धि और 12. शान्ति। नीलकण्ठ भट्ट ने 'भगवन्तभास्कर' की रचना भगवन्तदेव नामक बुन्देले राजा के सम्मान में की थी। इस ग्रन्थ के अतिरिक्त इन्होंने 'व्यवहारतत्त्व' आर 'दत्तकनिर्णय' का भी प्रणयन किया।

अपने पिता के समान ही ये प्रसिद्ध मीमांसक थे। धर्म शास्त्र में इनका अगाध प्रवेश था। इनका ग्रन्थ व्यवहार मयूख हिन्दू विधि पर उच्च न्यायालयों द्वारा प्रामाणिक माना जाता है।

नीलकण्ठ सूरि : महाभारत के टीकाकार। इनका जन्म महाराष्ट्र देश में हुआ था। ये गोदावरी के पश्चिमी तट पर कूर्पर नामक स्थान में रहते थे। इनका स्थितिकाल सोलहवीं शताब्दी है। ये चतुर्धर वंश में उत्पन्न हुए और इनके पिता का नाम गोविन्द सूरि था। इनकी महाभारतटीका 'भारतभावदीप' नाम से विख्यात है। गीता की व्याख्या के आरम्भ में अपनी व्याख्या को सम्प्रदायानुसारी बतलाते हुए इन्होंने शङ्कराचार्य एवं श्रीधर स्वामी की वन्दना की है। यद्यपि गीता की व्याख्या में इन्होंने कहीं--कहीं शाङ्करभाष्य का अतिक्रमण भी किया है तथापि इनका मुख्य अभिप्राय अद्वैत सम्प्रदाय के अनुकूल ही है। 'भारतभावदीप' के अतिरिक्त इनकी और कोई कृति नहीं मिलती। परन्तु महाभारत की इस 'नीलकण्ठ' टीका ने ही इनको अत्यन्त प्रसिद्ध बना दिया है।

नीलज्येष्ठ : श्रावण मास की अष्टमी के दिन जब रविवार तथा ज्येष्ठा नक्षत्र हो उस समय इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इसके देवता सूर्य हैं। इसमें रविवार का दिन विशेष महत्त्वपूर्ण है, नक्षत्र की गणना तो बाद में है।

नीलतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में जिन तन्त्रों का उल्लेख है उनमें नीलतन्त्र भी प्रमुख है।

नीलरुद्ध उपनिषद् : यह एक शैव उपनिषद् है।

नीलवृषदान : आश्विन अथवा कार्तिक पूर्णिमा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इसी दिन नीलवर्ण का साँड़ छोड़ा जाता है।

नीलव्रत : इस व्रत में नक्त (रात्रि में एक समय भोजन) पद्धति से प्रति दूसरे दिन एक वर्ष तक भोजन ग्रहण करना चाहिए। यह संवत्सरव्रत है। वर्ष के अन्त में नील कमल तथा शर्करा से परिपूर्ण एक पात्र एवं वृषभ का दान करना चाहिए। इस व्रत से व्रती विष्णुलोक को प्राप्त करता है।

नृग : (1) राजा नृग की कथा पुराणों में प्रसिद्ध है। भागवत पुराण के अनुसार नृग इक्ष्वाकु के पुत्र थे। वे दान के लिए प्रसिद्ध थे। एक बार उन्होंने ब्राह्मण की गाय को, जो उनके गोझुण्ड में मिल गयी थी, भूल से दूसरे ब्राह्मण को दान में दे दिया। ब्राह्मण ने राजा पर दोषारोपण किया। राजा ने दोनों ब्राह्मणों को बुलाया। दोनों में से कोई उस गाय के बदले दूसरी गाय लेने को तैयार न हुआ। राजा विवश था। जब वह मरा तो यमराज ने दण्डस्वरूप उसको गिरगिट का जन्म देकर संसार में भेजा। एक कुएँ मे यह पड़ा रहता था। भगवान् कृष्ण का जब अवतार हुआ तब इसका उद्धार हुआ।

(2) वेदान्त के प्रसिद्ध आचार्य बृहस्पतिमिश्र का आश्रयदाता नृग नामक तिरहुत का राजा था।

नृमेध, नृमेधा : ऋग्वेध (10.80,3) में यह अग्नि के एक शिष्य (रक्षित) का नाम है। इसका अन्य नाम सुमेधा था, जिसे ग्रिफिथ 'अबोध' बताते हैं। तैत्तिरीय संहिता में नृमेध परुच्छेप का असफल प्रतियोगी है एवं पंचविंश ब्राह्मण (8.8,21) में यह आङ्गिरस् गोत्रज तथा सामों का रचयिता कहा गया है।

नृसिंह उपपुराण : नरसिंह सम्प्रदाय से सम्बन्धित एक उपपुराण।

नृसिंहत्रयोदशी : गुरुवार की त्रयोदशी को नृसिंहत्रयोदशी कहते हैं। यह भगवान् विष्णु के नृसिंह से सम्बन्धित है। इस दिन उन्हीं का व्रत किया जाता है।

नृसिंहपूर्वतापनीय उपनिषद् : नृसिंह सम्प्रदाय की दो उपनिषदें मुख्य आधारग्रन्थ हैं, वे हैं नृसिंह पूर्व एवं उत्तर तापनीय। नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषद् के भी दो भाग हैं। प्रथम भाग में नृसिंह का राजमन्त्र तथा इसकी रहस्यात्मक एकता का विवेचन है। दूसरे भाग में नृसिंहमत्रराज तथा तीन अन्य दूसरे प्रसिद्ध वैष्णव मन्त्रों द्वारा यन्त्र बनाने का निर्देश है, जिसे कवच के रूप में कंठ, भुजा या जटा में पहना जाता है।

नृसिंह सरस्वती : वेदान्तसार की टीका सुबोधिनी के रचयिता। यह टीका इन्होंने सं० 1528 में लिखी थी। अतः इनका स्थितिकाल विक्रमी सत्रहवीं शताब्दी होना चाहिए। सुबोधिनी की भाषा बहुत सुन्दर है। इससे इनकी उच्चकोटि की प्रतिभा का परिचय मिलता है। इनके गुरु का नाम कृष्णानन्द स्वामी था।

नृसिंहसंहिता : (नरसिंहसंहिता) नरसिंह सम्प्रदाय के साहित्य में इस ग्रन्थ की गणना प्रमुखतया की जाती है।

नृसिंहाचार्य : ऐतरेय एवं कौषीतकि आरण्यकों पर शङ्कराचार्य के भाष्य हैं तथा उनके भाष्यों पर अनेक आचार्यों की टीकाएँ हैं। इनमें नृसिंहाचार्य की भी एक टीका है। नृसिंहाचार्य नें श्वेताश्वतर एवं मैत्रायणी पर शङ्कर द्वारा रचे गये भाष्यों की भी टीका लिखी है। आपस्तम्बधर्मसूत्र पर नृसिंहाचार्य ने वृत्ति लिखी है।

नृसिंहानन्द नाथ : दक्षिणमार्गी शाक्त विद्वानों की परम्परा में अप्पय दीक्षित के काल के पश्चात् दक्षिण (तंजौर) के ही तीन विद्वानों के नाम प्रसिद्ध हैं। ये तीनों गुरुपरम्परा का निर्माण करते हैं। ये हैं नृसिंहानन्द नाथ, भास्करानन्द नाथ तथा उमानन्द नाथ। ये तीनों उसी शाखा के हैं जिससे लक्ष्मीधर विद्यानाथ सम्बन्धित थे।

नृसिंहावतार : विष्णु का नृसिंहातवतार हिरण्याक्ष के छोटे भाई हिरण्यकशिपु के वध एवं धर्म के उद्धार के लिए हुआ था। हिरण्यकशिपु अपने बड़े भाई के वध के कारण विष्णु से बहुत ही क्रुद्ध रहा करता था और उनको अपना बड़ा शत्रु समझता था। इधर ब्रह्माजी के वर के प्रभाव से इस दैत्य ने समस्त स्वर्ग के राज्य पर अधिकार करके वहाँ के देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया था। उस समय देवताओं द्वारा विष्णु की प्रार्थना की गयी, जिससे भगवान् ने प्रसन्न होकर देवताओं से कहा कि हिरण्यकशिपु जब वेद, धर्म तथा अपने भगवद्भक्त पुत्र पर अत्याचार करेगा, उस समय मैं नृसिंह रूप में आविर्भूत होकर उसका वध करूँगा। भागवत पुराण के अनुसार प्रह्लाद की आस्था को सत्य करने तथा समस्त विश्व में अपनी व्यापक सत्ता का परिचय देने के लिए भगवान् विष्णु न मृग और न मानव अर्थात् अपूर्व नृसिंह रूप धारण कर स्तम्भ से ही प्रकट हो गये। इस स्वरूप को देखकर हिरण्यकशिपु के मन में किसी प्रकार का भय नहीं हुआ। वह हाथ में गदा लेकर नृसिंह भगवान् के ऊपर प्रहार करने को उद्यत हो गया। किन्तु प्रभु ने तुरंत ही उसे पकड़ लिया और जिस प्रकार गरुड विषधर सर्प को मार डालता है उसी प्रकार नृसिंह रूपधारी भगवान् विष्णु ने उस दैत्यराज को अपने नखों द्वारा उसका हृदय विदीर्ण कर मार डाला औऱ सरलमति बालक प्रह्लाद की रक्षा की।

नृसिंहाश्रम : अद्वैत सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य। इनके गुरु स्वामी जगन्नाथाश्रम थे। इनका जीवनकाल पन्द्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध होना चाहिए। नृसिंहाश्रम स्वामी उद्भट दार्शनिक और बड़े प्रौढ़ पण्डित थे। इनकी रचना बहुत उच्च कोटि की और युक्तिप्रधान है। कहते हैं, इन्हीं की प्रेरणा से अप्पय दीक्षित ने 'परिमल', 'न्यायरक्षामणि' एवं 'सिद्धान्तलेश' आदि वेदान्त ग्रन्थों की रचना की थी। इनके रचे हुए ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :

(1) भावप्रकाशिका--यह प्रकाशात्म यति कृत पञ्चपादिकाविवरण की टीका है।

(2) तत्त्वविवेक (1604 वि० सं०)-- यह ग्रन्थ अभी प्रकाशित नहीं है। इसमें दो परिच्छेद हैं। इसके ऊपर उन्होंने स्वयं ही 'तत्वविवेकदीपन' नाम की टीका लिखी है।

(3) भेदधिक्कार--इसमें भेदभाव का खण्डन है।

(4) अद्वैतदीपिका-- यह अद्वैत वेदान्त का युक्तिप्रधान ग्रन्थ है।

(5) वैदिकसिद्धान्तसंग्रह-- इसमें ब्रह्मा, विष्णु और शिव की एकता सिद्धा की गयी है और यह बतलाया गया है कि ये तीनों एक ही परब्रह्म की अभिव्यक्ति मात्र हैं।

(6) तत्त्वबोधिनी-- यह सर्वज्ञात्ममुनि कृत संक्षेपशारीरक की व्याख्या है।

नृसिंहोत्तरतापनीय उपनिषद् : विद्यारण्य स्वामी ने 'सर्वोपनिषदर्थानुभूतिप्रकाश' नामक ग्रन्थ में मुण्डक, प्रश्न और नृसिंहोत्तरतापनीय नामक तीन उपनिषदों को आदि अथर्ववेदीय उपनिषद् माना है। किन्तु शङ्कराचार्य ने मुण्डक, माण्डूक्य, प्रश्न और नृसिंहतापनीय, इन चार को प्रधान आथर्वण उपनिषद् माना है।

यह उपनिषद् भी नरसिंह सम्प्रदाय की है और नृसिंहमन्त्रराज को प्रोत्साहित करती है, किन्तु विशेष रूप से यह उपनिषद् साम्प्रदायिक विधि का निर्देश करती है। इसमें नृसिंह को परम ब्रह्म, आत्मा तथा ओम् बताया गया है।

नेत्रव्रत : चैत्र शुक्ल द्वितीय को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। विवरण के लिए दे० 'चक्षुर्व्रत'।

नेष्टा : एक यज्ञकर्म सम्पादक ऋत्विज्। यह नाम ऋग्वेद, तै० सं०, ए० व्रा०, शतपथ ब्राह्मण, पंचविंश ब्रा० आदि में सोमयज्ञ के पुरोहितवर्ग के एक प्रधान सदस्य के रूप में प्रयुक्त हुआ है।

नैगम शाक्त : इनको `दक्षिणाचारी` भी कहते हैं। ऋग्वेद के आठवें अष्टक के अन्तिम सूक्त में `इयं शुष्मेभिः` प्रभृति मन्त्रों में देवता रूप में महाशक्ति अथवा सरस्वती का स्तवन है। सामवेद में वाचंयम व्रत में `हुवा ईवाचम्` इत्यादि तथा ज्योतिष्टोम में `वाग्विसर्जन स्तोम` आता है। अरण्यगान में भी इसके गान हैं। यजुर्वेद (2.2) में `सरस्वत्यै स्वाहा` मन्त्र से आहुति देने की विधि है। पाँचवें अध्याय के सोलहवें मन्त्र में पृथिवी और अदिति देवियों की चर्चा है। पाँचों दिशाओं से विघ्न-वाधानिवारण के लिए सत्रहवें अध्याय के 55वें मन्त्र में इन्द्र, वरुण, यम, सोम, ब्रह्मा इन पाँच देवताओं की शक्तियों (देवियों) का आवाहन किया गया है। अथर्ववेद के चौथे काण्ड के तीसवें सूक्त में कथन है :

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि, अहम् आदित्यैरुत विश्वदेवैः। अहं मित्रावरुणोभा बिभर्मि, अहम् इन्द्राग्नी अहम् अश्विनोभा॥

भगवती महाशक्ति कहती हैं, `मैं समस्त देवताओं के साथ हूँ। सबमें व्याप्त रहती हूँ।` केनोपनिषद् में (बहु शोभमानामुमां हैमवतीम्) ब्रह्मविद्या महाशक्ति का प्रकट होकर ब्रह्म का निर्देश करना वर्णित है। देव्यथर्वशीष, देवीसूक्त और श्रीसूक्त तो शक्ति के ही स्तवन हैं। वैदिक शाक्त सिद्ध करते हैं कि दशोपनिषदों में दसों महाविद्याओं का ब्रह्मरूप में वर्णन है। इस प्रकार शाक्त मत का आधार भी श्रुति ही है।

देवीभागवत, देवीपुराण, मार्कण्डेयपुराण में तो शक्ति का माहात्म्य ही है। महाभारत और रामायण दोनों में देवी की स्तुतियाँ हैं और अद्भुत रामायण में तो अखिल विश्व की जननी सीताजी के परम्परागत शक्ति वाले रूप की बहुत सुन्दर-सुन्दर स्तुतियाँ की गयी हैं। प्राचीन पाञ्चरात्र मत का 'नारदपञ्चरात्र' प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ है। उसमें दसों महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गयी है। निदान, श्रुति, स्मृति में शक्ति की उपासना जहाँ-तहाँ उसी तरह प्रकट है, जिस तरह विष्णु और शिव की उपासना देखी जाती है। इससे स्पष्ट है कि शाक्त मत के वर्तमान साम्प्रदायिक रूप का आधार श्रुति-स्मृति है और यह मत उतना ही प्राचीन है जितना वैदिक साहित्य। उसकी व्यापकता तो ऐसी है कि जितने सम्प्रदायों का वर्णन यहाँ अब तक किया गया है, बिना अपवाद के वे सभी अपने परम उपास्य की शक्ति को अपनी परम उपास्या मानते हैं और एक न एक रूप में शक्ति की उपासना करते हैं।

जहाँ तक शैव मत निगमों पर आधारित है, वहाँ तक शाक्त मत भी निगमानुमोदित है। पीछे से जब आगमों के विस्तृत आचार का शाक्त मत में समावेश हुआ, तब से जान पड़ता है कि निगमानुमोदित शाक्त मत का दक्षिणाचार, दक्षिणमार्ग अथवा वैदिक शाक्त मत नाम पड़ा। आजकल इस दक्षिणाचार का एक विशिष्ट रूप बन गया है। इस मार्ग पर चलने वाला उपासक अपने को शिव मानकर पञ्चतत्व से शिव की पूजा करता है और मद्य के स्थान में विजयारस का सेवन करता है। विजयारस भी पञ्चमकारों में गिना जाता है। इस मार्ग को वामाचार से श्रेष्ठ माना जाता है।

नैमिशीय (नैमिषीय) : नैमिषारण्य के वासियों को नैमिशीय अथवा नैमिषीय कहते हैं। काठक संहिता, कौषीतकि-ब्राह्मण तथा छान्दोग्य उपनिषद् में नैमिषीयों को विशेष पवित्र माना गया है। अतएव महाभारत नैमिषारण्यवासी ऋषियों को ही प्रथमतः सुनाया गया था।

नैमिषारण्य : उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में गोमती नदी का तटवर्ती एक प्राचीन तीर्थस्थल। कहा जाता है कि महर्षि शौनक के मन में दीर्घकालव्यापी ज्ञानसत्र करने की इच्छा थी। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान् ने उन्हें एक चक्र दिया और कहा कि इसे चलाते हुए चले जाओ; जहाँ इस चक्र की नेमि (परिधि) गिर जाय उसी स्थल को पवित्र समझना और वहीं आश्रम बनाकर ज्ञानसत्र करना। शौनक के साथ अठासी सहस्र ऋषि थे। वे सब उस चक्र के पीछे घूमने लगे। गोमती नदी के किनारे एक वन में चक्र की नेमि गिर गयी और वहीँ वह चक्र भूमि में प्रवेश कर गया। चक्र की नेमि गिरने से वह क्षेत्र 'नैमिष' कहा गया। इसी को 'नैमिषारण्य' कहते हैं। पुराणों में इस तीर्थ का बहुधा उल्लेख मिलता है। जब भी कोई धार्मिक समस्या उत्पन्न होती थी, उसके समाधान के लिए ऋषिगण यहाँ एकत्र होते थे।

वैदिक ग्रन्थों के कतिपय उल्लेखों में प्राचीन नैमिषवन की स्थिति सरस्वती नदी के तट पर कुरुक्षेत्र के समीप भी मानी गयी है।

नैष्कर्म्यसिद्धि : सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) ने संन्यास लेने के पश्चात् जिन ग्रन्थों का प्रणयन किया उनमें 'नैष्कर्म्यसिद्धि' भी है। मोक्ष के लिए सभी कर्मों का संन्यास (त्याग) आवश्यक है, इस मत का प्रतिपादन इस ग्रन्थ में किया गया है।

नैष्ठिक (ब्रह्मचारी) : आजीवन ब्रहमचर्य व्रत पालन करते हुए गुरुकुल में स्वाध्यायपरायण रहने वाला ब्रह्मचारी (निष्ठा मरणं तत्पर्यन्तं ब्रह्मचर्येण तिष्ठति)। याज्ञवल्क्य का निर्देश है : "नैष्ठिको ब्रह्मचारी तु वसेदाचार्य सन्निधौ।" इसके विपरीत उपकुवर्ण ब्रह्मचारी सीमित काल या प्रथम अवस्था तक गुरुकुल में पढ़ता था।

न्यग्रोध : न्यक्= नीचे की ओर, रोध =बढ़नेवाला वृक्ष। इसे बरगद (वट) कहते हैं। इसकी डालियों से बरोहें निकल कर नीचे की ओर जाती हैं तथा जड़युक्त खम्भों के रूप में परिवर्तित होकर वृक्ष के भार को सँभालती हैं। अथर्ववेद में इसका अनेक बार उल्लेख हुआ है। यज्ञ के चमस इसके काष्ठ के बनते थे। निश्चय ही यह वैदिक काल में बड़े महत्व का वृक्ष था जैसा कि आज भी है। अश्वत्त्थ (पीपल) इसका सजातीय वृक्ष है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। न्यग्रोध और अश्वत्थ दोनों ही धार्मिक दृष्टि से पवित्र हैं। ये ही आदि चैत्य वृक्ष हैं। इनकी छाया मन्दिर तथा सभामण्डप का काम देती थी।

न्याय : याज्ञवल्क्यस्मृति में धर्म के जिन चौदह स्थानों की गणना है, उनमें न्याय और मीमांसा भी सम्मिलित हैं। मीमांसा के द्वारा वेद के शब्दों और वाक्यों के अर्थों का निर्धारण किया जाता है। न्याय (तर्क) के द्वारा वेद से प्रतिपाद्य प्रमाणों और पदार्थों का विवेचन किया जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से न्यायदर्शन के दो उद्देश्य रहे हैं : एक तो वैदिक दर्शन का समन्वय औऱ समर्थन, दूसरे वेदविरोधी बौद्ध आदि नास्तिक दर्शनों का खण्डन। पहले न्याय और वैशेषिक अलग-अलग स्वतन्त्र दर्शन माने जाते थे। न्याय का विषय प्रमाणमीमांसा और वैशेषिक का पदार्थमीमांसा था। आगे चलकर न्याय एवं वैशेषिक प्रायः एक दार्शनिक सम्प्रदाय मान लिये गये। इस दर्शन के अनुसार प्रमाण, प्रमेय, संशय प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान---इन सोलह तत्वों के ज्ञान से निःश्रेयस अथवा मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। जब इनके ज्ञान से दुःखजन्य प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाते हैं तब मोक्ष अथवा निःश्रेयस की उपलब्धि होती है। मुख्य प्रमाण चार हैं : (1) प्रत्यक्ष, (2) अनुमान (3) उपमान और (4) शब्द (श्रुति)। इन प्रमाणों के द्वारा प्रमेय (जानने योग्य पदार्थ) हैं-- आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, (जन्म-जन्मान्तर), फल, दुःख और अपवर्ग (मोक्ष)। न्यायदर्शन ईश्वर के अस्तित्व को मानता है। इसके अनुसार ईश्वर एक तथा आत्मा अनेक हैं। ईश्वर सर्वज्ञ तथा आत्मा (जीव) अल्पज्ञ है। ज्ञान आत्मा का एक गुण है।

न्याय शास्त्र जगत् के स्वतन्त्र अस्तित्व (मन और विचार से पृथक्) को मानता है। सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति तथा निमित्त कारण ईश्वर है। जिस प्रकार कुम्भकार मिट्टी से विविध प्रकार के बरतनों का निर्माण करता है, उसी प्रकार सर्ग के प्रारम्भ में ईश्वर प्रकृति से जगत् के विभिन्न पदार्थों की सृष्टि करता है। इस प्रकार न्याय एक वस्तुवादी दर्शन है जो जनसाधरण के लिए सुगम है।

इस दर्शन के मूल यद्यपि वेद-उपनिषद् में ढूँढे जा सकते हैं किन्तु इसके ऐतिहासिक प्रवर्तक गौतम थे। इनके नाम से 'गौतमन्यायसूत्र' प्रसिद्ध है जो लगभग 5वीं 4थी शताब्दी ई० पू० में प्रणीत जान पड़ते हैं। तीसरी शताब्दी के लगभग वात्स्यायन ने इन पर भाष्य लिखा। इस पर उद्योतकर का वार्तिक (600 ई०) प्रसिद्ध है। इसके पश्चात् वाचस्पति मिश्र, जयन्त भट्ट, उदयनाचार्य आदि प्रसिद्ध विद्वान हुए। बारहवीं शताब्दी के लगभग नव्य-न्याय का विकास हुआ। इस नये सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य गङ्गेश उपाध्याय, रघुनाथ शिरोमणि, जगदीश भट्टाचार्य, गदाधर भट्टाचार्य आदि हुए।

न्यायकणिका : वाचस्पति मिश्र ने मण्डनमिश्र के 'विधिविवेक' पर न्यायकणिका नामक टीका की रचना की। ग्रन्थ का निर्माणकाल लगभग 850 ई० है।

न्यायकन्दली : श्रीधर नामक बंगाल के लेखक ने 991 ई० में प्रशस्तपाद पर न्यायकन्दली नामक व्याख्या रची। यह वैशेषिक दर्शन का मान्य ग्रन्थ है।

न्यायकल्पलता : जयतीर्थाचार्य (पन्द्रहवीं शताब्दी) का जन्म् दक्षिण भारत में हुआ था। इन्होंने न्यायकल्पलता की रचना की। राघवेन्द्र स्वामी ने इस पर वृत्ति लिखी है।

न्यायकुलिश : द्वितीय रामानुजाचार्य ने न्यायकुलिश नामक ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ सम्भवतः कहीं प्रकाशित नहीं हुआ है।

न्यायकुसुमाञ्जलि : उद्भट विद्वान् उदयन की प्रसिद्ध रचना न्यायकुसुमाञ्जलि है। इसमें ईश्वर की सत्ता सिद्धा की गयी है। यह ग्रन्थ छन्दोबद्ध है तथा 72 स्मरणीय पद्यों में है। प्रत्येक पद्य का गद्यार्थ रूप भी साथ ही साथ दिया गया है।

न्यायचिन्तामणि : ग्यारहवीं शताब्दी से न्याय तथा वैशेषिक दर्शनों को एक ही दर्शन मानने अथवा एक में मिलाने का प्रयास होने लगा। इस मत की पुष्टि बारहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य गङ्गेश की रचना 'न्याय (या तत्त्व)--चिन्तामणि' से होती है।

न्यायतत्त्व : नाथ मुनि (1000 ई०) की रचनाओं में 'न्यायतत्त्व' भी सम्मिलित है। यह न्यायदर्शन का प्रसिद्ध ग्रन्थ है।

न्यायदीपावली : आनन्दबोध भट्टारकाचार्य (बारहवीं शताब्दी) के तीन ग्रन्थों में 'न्यायदीपावली' भी है। इन ग्रन्थों में अद्वैत मत का विवेचन किया गया है।

न्यायदीपिका : वैष्णवाचार्य जयतीर्थ (पन्द्रहवीं शताब्दी) ने न्यायदीपिका नामक ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में माध्व मत का विवेचन है।

न्यायनिबन्धप्रकाश : गङ्गेश के पुत्र वर्धमान (12वीं शताब्दी) ने न्यायवार्तिक की तात्पर्य टीका पर न्यायनिबन्धप्रकाश नामक व्याख्या लिखी है।

न्यायनिर्णय : महात्मा आनन्द गिरि शङ्कराचार्य के भाष्यों के टीकाकार हैं। उन्होंने वेदान्तसूत्र के शाङ्कर भाष्य पर न्यायनिर्णय नाम की अपूर्व टीका लिखी है।

न्यायपरिशुद्धि : इस नाम के दो ग्रन्थों का पता चलता है, पहला आचार्य रामानुजरचित तथा दूसरा आचार्य वेङ्कट नाथ का लिखा हुआ है।

न्यायभाष्य : अक्षपाद गौतम प्रणीत न्यायसूत्र पर वात्स्यायन (500 ई०) ने न्यायभाष्य प्रस्तुत किया है।

न्यायमञ्जरी : जयन्त भट्ट (900 ई०) ने न्यायमञ्जरी नामक ग्रन्थ का निर्माण किया। यह न्यायदर्शन का विश्वकोश है।

न्यायमकरन्द : अद्वैत वेदान्त मत का एक प्रामाणिक ग्रन्थ। इसके रचयिता आनन्दबोध भट्टारकाचार्य थे। चित्सुखाचार्य ने, जो तेरहवीं शती में वर्तमान थे, न्यायमकरन्द की व्याख्या की है। इससे मालूम होता है कि आनन्दबोध बारहवीं शती में हुए थे।

न्यायमालाविस्तार : पूर्व मीमांसा का माधवाचार्य रचित एक ग्रन्थ, जो जैमिनीयन्यायमालाविस्तर कहलाता है। इसी प्रकार से इनका रचा उत्तर मीमांसा का ग्रन्थ वैयासिकन्यायमाला है।

न्यायमुक्तावली : अप्पय दीक्षित रचित न्यायमुक्तावली मध्यमत का अनुसरण करती है। उन्होंने स्वयं ही इसकी एक टीका भी लिखी है।

न्यायरक्षामणि : यह ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय की शाङ्कर सिद्धान्तानुसारिणी व्याख्या है। व्याख्याकार अप्पयदीक्षित हैं।

न्यायरत्नमाला : (1) पार्थसारथि मिश्र (1300 ई०) ने कुमारिल के तन्त्रवार्तिक के आधार पर कर्ममीमांसा विषयक यह ग्रन्थ प्रस्तुत किया है।

(2) आचार्य रामानुज ने न्यायरत्नमाला नामक एक ग्रन्थ रचा है। निश्चित ही इस ग्रन्थ में विशिष्टाद्वैत की पुष्टि तथा शाङ्कर मत का खण्डन हुआ है।

न्यायरत्नाकर : भट्टपाद कुमारिल के श्लोकवार्तिक पर यह टीका (न्यायरत्नाकर) पार्थसारथि मिश्र (1300 ई०) द्वारा प्रस्तुत हुई है।

न्यायवार्तिक : उद्योतकर (सातवीं शती) ने वात्स्यायन के न्यायभाष्य पर यह वार्तिक प्रस्तुत किया। इस पर अनेक निबन्ध विद्याभूषण एवं डा० कीथ द्वारा लिखे गये हैं। डा० गङ्गानाथ झा ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया है।

न्यायवार्तिकतात्पर्य : वाचस्पति मिश्र द्वारा प्रस्तुत न्यायदर्शन पर यह टीका है जो उद्योतकर के वार्तिक के ऊपर लिखी गयी है। इस टीका की भी टीका उदयनाचार्यकृत तात्पर्यरिशुद्धि है।

न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका : दे० 'न्यायवार्तिकतात्पर्य', दोनों समान हैं।

न्यायवार्तिकतातात्पर्यपरिशुद्धि : उदयनाचार्यकृत यह न्यायवार्तिकतात्पर्य की टीका है। इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्यायकृत 'प्रकाश' है।

न्यायविवरण : मध्वाचार्य प्रणीत न्यायविषयक एक ग्रंथ है।

न्यायवृत्ति : अभयतिलक द्वारा न्यायवृत्ति न्यायदर्शन के सूत्रों पर रची गयी है।

न्यायसार : भासर्वज्ञ (10वीं शताब्दी) द्वारा रचित न्यायसार न्याय शास्त्र का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस पर अठारह भाष्य पाये जाते हैं।

न्यायसिद्धाञ्जन : विशिष्टाद्वैत दर्शन पर आचार्य रामानुजप्रणीत यह एक ग्रन्थ है। इस नाम का एक ग्रन्थ आचार्य वेङ्कटनाथ ने भी रचा था।

न्यायसुधा : (1) जयतीर्थाचार्य (पन्द्रहवीं शताब्दी) ने माध्वमत का विवेचन इस ग्रन्थ में किया है। यह ग्रन्थ 'ब्रह्मसूत्र' की टीका है। सम्भवतः यादवाचार्य ने इस पर कोई वृत्ति लिखी थी जो अभी तक प्रकाशित नहीं है।

(2) सोमेश्वर (1400 ई०) ने कुमारिल भट्ट के 'तन्त्रवार्तिक' पर न्यायसुधा नामक टीका प्रस्तुत की।

न्यायसूत्र : सम्भवतः पाँचवीं अथवा चौथी शताब्दी ई० पू० में अक्षपाद गौतम ने 'न्यायसूत्र' प्रस्तुत किया। इस पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है तथा इस पर अनेक टीकायें एवं वृत्तियाँ रची गयी हैं। 'न्यायसूत्र' ही न्याय दर्शन का मूल ग्रन्थ है और इसके रचयिता गौतम ऋषि ही न्याय दर्शन के प्रवर्तक हैं। दे० 'न्याय'।

न्यायसूचीनिबन्ध : वाचस्पति मिश्र रचित उन्हीं की न्यायवार्तिकतात्पर्य टीका का यह परिशिष्ट है। इसका रचना काल 898 वि० है।

न्यायसूत्रभाष्य : न्यायभाष्य का ही अन्य नाम न्यायसूत्र भाष्य है। इसे वात्स्यायन ने प्रस्तुत किया है।

न्यायसूत्रवृत्ति : सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में विश्वनाथ न्यायपञ्चानन ने गौतमप्रणीत न्यायसूत्र पर यह वृत्ति रची।

न्यायस्थिति : न्यायस्थिति एक नैयायिक थे, जिनका उल्लेख विक्रम की छठी शताब्दी में हुए वासवदत्ता-कथाकार सुबन्धु ने किया है।

न्यायामृत : सोलहवीं शताब्दी में व्यासराज स्वामी ने शाङ्कर वेदान्त की आलोचना न्यायामृत नामक ग्रन्थ द्वारा की। आचार्य श्रीनिवास तीर्थ ने इस पर न्यायामृतप्रकाश नामक भाष्य लिखा है।

न्यायालङ्कार : श्रीकण्ठ ने 10 वीं शताब्दी में यह न्यायविषयक ग्रन्थ प्रस्तुत किया।

न्यायलीलावती : बारहवीं शताब्दी में वल्लभ नामक न्यायाचार्य ने वैशेषिक दर्शन सम्बन्धी इस ग्रन्थ को प्रस्तुत किया।

न्यास : शाक्त लोग अपनी साधना में अनेक दिव्य नामों और बीजाक्षर मन्त्रों का प्रयोग करते हैं। वे धातु के पत्तरों पर तथा घट आदि पात्रों पर मन्त्र तथा मण्डल खोदते हैं, साथ ही पूजा की अनेक मुद्राओं (अँगुलियों के संकेतों) का भी प्रयोग करते हैं, जिन्हें न्यास कहते हैं। इसमें मन्त्राक्षर बोलते हुए शरीर के विभिन्न अंगों का स्पर्श किया जाता है और भावना यह रहती है कि उन अंगों में दिव्य शक्ति आकर विराज रही है। अंगन्यास, करन्यास, हृदयादिन्यास, महान्यास आदि इसके अनेक भेद हैं।

 : यह व्यञ्जन वर्णों के पञ्चम वर्ग का प्रथम अक्षर है। कामधेनुतन्त्र में इसका माहात्म्य निम्नांकित है :

अतः परं प्रवक्ष्यामि पकाराक्षरमव्ययम्। चतुर्वर्गप्रदं वर्णं शरच्चन्द्रसमप्रभम्॥ पञ्चदेवमयं वर्णं स्वयं परम कुण्डली। पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा॥ त्रिगुणावाहितं सदा॥ त्रिगुणावाहितं वर्णमात्मादि तत्वसंयुतम्। महामोक्षप्रदं वर्णं हृदि भावय पार्वति॥

तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नलिखित नाम पाये जाते हैं पः परप्रियता तीक्ष्णा लोहितः पञ्चमी रमा। गुह्यकर्ता निधिः शेषः कालरात्रिःसुवाहिता॥ तपनः पालनः पाता पद्मरेणुर्निरञ्जनः। सावित्री पातिनी पानं वीरतत्त्वो धनुर्धरः॥ दक्षपार्श्वश्च सेनानी मरीचिः पवनः शनिः। उड्डीशं जयिनी कुम्भोऽलसं रेखा च मोहकः॥ मूलाद्वितीयमिन्द्राणी लोकाक्षी मन आत्मनः॥

पक्षवर्धिनी एकादशी : जब पूर्णिमा अथवा अमावस्या अग्रिम प्रतिपदा को आक्रान्त करती है (अर्थात् तिथिवृद्धि हो जाती है) तो यह पक्षवर्धिनी कहलाती है। इसी प्रकार यदि एकादशी द्वादशी को आक्रान्त करती है (अर्थात् द्वादशी के दिन भी रहती है) तो वह भी पक्षवर्धिनी है। विष्णु भगवान् की सोने की प्रतिमा का उस दिन पूजन करना चाहिए। रात्रि में नृत्य, गान आदि करते हुए जागरण का विधान है। वैष्णव लोग ऐसे पक्ष की एकादशी का व्रत अगले दिन द्वादशी को करते हैं। दे० पद्म०, 6.38।

पंक्तिदूषण ब्राह्मण : जिन ब्राह्मणों के बैठने से ब्रह्मभोज की पंक्ति दूषित समझी जाती है, उनको पंक्तिदूषण कहा जाता है। ऐसे लोगों की बड़ी लम्बी सूची है। हव्य-कव्य के ब्रह्मभोज की पंक्ति में यद्यपि नास्तिक और अनीश्वरवादियों को सम्मिलित करने का नियम न था तथापि उन्हें पंक्ति से उठाने की शायद ही कभी नौबत आयी हो, क्योंकि जो हव्य-कव्य को मानता ही नहीं, यदि उसमें तनिक भी स्वाभिमान होगा तो वह ऐसे भोजों में सम्मिलित होना पसन्द न करेगा। पंक्तिदूषकों की इतनी लम्बी सूची देखकर यह समझा जा सकता है कि पक्तिपावन ब्राह्मणों की संख्या बहुत बड़ी नहीं हो सकती। ब्राह्मणसमुदाय के अतिरिक्त अन्य वर्णों में पंक्ति के नियमों के पालन में ढीलाई होना स्वाभाविक है।

पंक्तिपावन ब्राह्मण : जिन ब्राह्मणों के भोजपंक्ति में बैठने से पंक्ति पवित्र मानी जाती है, उनको पंक्तिपावन कहते हैं। इनमें प्रायः श्रोत्रिय ब्राह्मण (वेदों का स्वाध्याय और पारायण करनेवाले) होते हैं। संस्कार सम्बन्धी भोजों में पंक्तिपावनता ब्राह्मणों की विशेषता मानी जाती थी, परन्तु वह भी सामूहिक न थी। पंक्तिपावन ब्राह्मण पंक्तिदूषण की अपेक्षा बहुत कम होते थे।

पञ्चककार : कच्छ, केश, कंधा, कड़ा और कृपाण धारण करना प्रत्येक सिक्ख के लिए आवश्यक है। 'क' अक्षर से प्रारम्भ होनेवाले ये ही पाँच शब्द (पदार्थ) पञ्चककार कहलाते हैं।

पञ्चकृष्ण : मानभाउ सम्प्रदाय वाले जहाँ दत्तात्रेय को अपने सम्प्रदाय का संस्थापक मानते हैं वहीं वे चार युगों के एक-एक नये प्रवर्त्तक भी मानते हैं। इस प्रकार वे कुल पाँच प्रवर्तकों की पूजा करते हैं। इन पाँच प्रवर्तकों को 'पञ्चकृष्ण' कहते हैं।

पञ्चगव्य : गाय से उत्पन्न पाँच पदार्थों (दूध, दही, घृत, गोबर, गोमूत्र) के मिलाने से पञ्चगव्य तैयार होता है, जो हिन्दू शास्त्रों में बहुत ही पवित्र माना गया है। अनेक अवसरों पर इसका गृह तथा शरीर की शुद्धि के लिए प्रयोग करते हैं। प्रायश्चितों में इसका प्रायः पान किया जाता है।

पञ्चग्रन्थी : सिक्खों की प्रार्थनापुस्तक का नाम पञ्चग्रन्थी है। इसमें (1) जपजी (2) रहिरास (3) कीर्तन-सोहिला (4) सुखमणि और (5) आसा दी वार नामक पाँच पुस्तिकाओं का संग्रह है। पाँचों में से प्रथम तीन का खालसा सिक्खों द्वारा नित्य पाठ किया जाता है। ये सभी पारायण के ग्रन्थ हैं।

पञ्चघटपूर्णिमा : इस व्रत में पूर्णिमा देवी की मूर्ति की पूजा का विधान है। एकभक्त पद्धति से आहार करते हुए पाँच पूर्णिमाओं को यह व्रत करना चाहिए। व्रत के अन्त में पाँच कलशों में क्रमशः दुग्ध, दधि, धृत, मधु तथा श्वेत शर्करा भरकर दान देना चाहिए। इससे समस्त मनोरथों की पूर्ति होती है।

पञ्चतप (पञ्चाग्नितप) : हिन्दू तपस्या की एक पद्धति। इसमें तपस्वी चार अग्नियों का ताप तो सहन करता ही है जो वह अपने चारों ओर जलाता है, पाँचवाँ सूर्य भी सिर पर तपता है। इसी को पञ्चाग्नि तपस्या कहते हैं।

पञ्च तप अथवा पञ्चाग्नि तपस्या पाँच वैदिक अग्नियों की उपासना या होमक्रिया का परिवर्तित रूप प्रतीत होता है। वैदिक पञ्चाग्नियों के नाम हैं : दक्षिणाग्नि (अन्वाहार्यपचन), गार्हपत्य, आहवनीय, सभ्य और आवसथ्‍य।

पञ्चदशी : अद्वैतवेदान्त सम्बन्धी यह ग्रन्थ विद्यारण्य स्वामी (माधवाचार्य) द्वारा 1407 वि० में रचा गया। यह अनुष्टुप् छन्द में श्लोकबद्ध स्वतन्त्र रचना है। जैसा कि नाम से ही प्रकट है, यह पन्द्रह प्रकरणों में विभक्‍त है और प्रकरण ग्रन्थ है। इसमें प्रायः 1500 श्लोक हैं।

पञ्चदेवोपासना : अधिकांश विचारकों का कहना है कि आचार्य शंकर ने पञ्चदेवोपासना की रीति चलायी, जिसमें विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश और देवी परमात्मा के इन पाँचों रूपों में से एक को प्रधान मानकर और शेष को उसका अङ्गीभूत समझकर पूजा की जाती है। आचार्य ने पुराने पाञ्चरात्र, पाशुपत, शाक्त आदि मतों को एकत्र समन्वित् कर यह पञ्चदेव-उपासना प्रणाली आरम्भ की। इसीलिए यह स्मार्त पद्धति कहलाती है। आज भी साधारण सनातनधर्मी इस स्मार्त मत के मानने वाले समझे जाते हैं।

पञ्चपटल : आचार्य रामानुज रचित एक ग्रन्थ।

पञ्चपल्लव : पवित्र पञ्च पल्लव हैं आम्र, अश्वत्थ, वट, प्लक्ष (पाकड़) और उदुम्बर (गूलर)। धार्मिक कृत्यों में इनका उपयोग कलश-स्थापन में होता है। दे० हेमाद्रि, 1.47।

पञ्चपादिका : वेदान्तसूत्र के शांकर भाष्य के पाँच पादों पर रची गयी एक टीका। शंकरशिष्य पद्मपाद (907 वि०) इसके निर्मता थे।

पञ्चपादिकादर्पण : अमलानन्द स्वामी अद्वैतमत के समर्थ विचारक थे। ये चौदहवीं शताब्दी वि० के प्रारम्भ में हुए थे। इन्होंने पद्मपादाचार्य कृत पञ्चपादिका की पञ्चपादिकादर्पण नाम से टीका लिखी है। इसकी भाषा प्राञ्जल और भावगण्भीर है। इससे अमलानन्द की महती विद्त्ता का परिचय मिलता है।

पञ्चपादिकाविवरण : पद्मपादाचार्य कृत पञ्चपादिका पर पञ्चपादिकाविवरण नामक टीका की रचना अद्वैत वेदान्त के प्रखर विद्वान् महात्मा प्रकाशात्म यति ने की। अद्वैत जगत् में यह टीका बहुत मान्य है। बाद के आचार्यों ने प्रकाशात्मयति (प्रकाशानुभव इनका अन्य नाम था) को आवश्यक प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है। पञ्चपादिकाविवरण नामक इनके ग्रन्थ द्वारा अद्वैतमत का, विशेष कर पद्मपादाचार्य के मत का अच्छा प्रचार हुआ।

पञ्चपिण्डिका गौरीव्रत : भाद्र शुक्ल तृतीया को यह व्रत किया जाता है, इस दिन उपवास का विधान है। रात्रि के प्रारम्भ में गीली मिट्टी से गौरी की पाँच प्रतिमाएँ तथा इनसे पृथक् गौरी की प्रतिमा बनाकर स्थापित करनी चाहिए। रात्रि के प्रति प्रहर में प्रतिमाओं का मन्त्रोच्चारण करते हुए धूप, कपूर, घृत, दीपक, पुष्प, अर्घ्‍य तथा नैवेद्यादि से पूजन करना चाहिए। आनेवाले तीनों प्रहरों में मन्त्र, पुष्प, नैवेद्यादि में भिन्नता होनी चाहिए। दूसरे दिन प्रातः एक सपत्नीक ब्राह्मण को बुलाकर दान-दक्षिणा देकर उसका सम्मान करना चाहिए। तदनन्तर गौरी की प्रतिमाओं को किसी हथिनी अथवा घोड़ी की पीठ पर विराजमान करके उन्हें किसी नदी, सरोवर अथवा कूप में विसर्जित कर देना चाहिए।

पञ्चब्रह्म उपनिषद् : यह एक परवर्ती उपनिषद् है। इसमें ब्रह्मतत्त्व का निरूपण उसके पाँच रूपों के द्वारा किया गया है।

पञ्चभङ्ग दल : पाँच वृक्ष, यथा आम्र, अश्वत्थ (पीपल), वट, प्लक्ष तथा उदुम्बर की पत्तियाँ ही पञ्चभङ्ग दल हैं। दे० कृत्यकल्पतरु, शान्ति पर। यहीं पञ्चपल्लव कहे जाते हैं। सम्प्रदायभेद से पञ्चपल्लवों में कुछ हेरफेर भी हो जाता है, उदुम्बर और प्लक्ष के स्थान पर कुछ लोग पनस (कटहर) और बकुल (मौलिश्री) के पत्र ग्रहण करते हैं। ऊपर का वर्ग वेदसंप्रदायी है।

पञ्चमकार : तन्त्रशास्त्र में पञ्चमकारों का अर्थ एवं उनके दान के फल आदि का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। ये तान्त्रिकों के प्राणस्वरूप हैं, इनके बिना साधक को किसी भी कार्य का अधिकार नहीं है। मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन नामक पाँच मकारों से जगदम्बिका की पूजा की जाती है। इसके बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता और तत्त्वविद् पण्डित गण इससे रहित कर्म की निन्दा करते हैं। पञ्चमकार का फल महानिर्वाणतन्त्र के ग्यारहवें पटल में इस प्रकार है :

मद्यपान करने से अष्टैश्वर्य और परामुक्ति तथा मांस के भक्षण से साक्षात् नारायणत्व का लाभ होता है। मत्स्य भक्षण करते ही काली का दर्शन होता है। मुद्रा के सेवन से विष्णुरूप प्राप्त होता है। मैथुन द्वारा साधक शिव के तुल्य होता है, इसमें संशय नहीं। वस्तुतः पञ्चमकार मूलतः मानसिक वृत्तियों के संकेतात्मक प्रतीक थे, पीछे अपने शब्दार्थ के भ्रम से ये विकृत हो गये। तन्त्रों की कुख्याति का मुख्य कारण ये स्थूल पञ्चमकार ही हैं।

पञ्चमहापापनाशनद्वादशी : श्रावण की द्वादशी अथवा पूर्णिमा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। व्रती को भगवान् के बारह रूपों का पूजन करना चाहिए। अमावस्या के दिन तिल, मूँग, गुड़ तथा अक्षत का नैवेद्य बनाकर अर्पित करने का विधान है। पञ्च रत्नों को दान में देना चाहिए। इस व्रत के आचरण से मनुष्य पाँच महा पापों से वैसे ही मुक्त हो जाता है, जैसे इन्द्र, अहल्या, चन्द्र तथा बलि अपने महापापों से मुक्त हुए थे।

पञ्चमहाभूतव्रत : चैत्र शुक्ल पञ्चमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। इसमें पञ्च भूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, तथा आकाश) के रूप में भगवान् हरि की पूजा होती है। एक वर्ष तक यह अनुष्ठान चलता है। वर्ष के अन्त में वस्त्रों का दान करना चाहिए।

पञ्चमीव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को इसका अनुष्ठान किया जाता है। सूर्योदय होने पर व्रत सम्बन्धी कर्मों को प्रारम्भ कर देना चाहिए। सुवर्ण, रजत, पीतल, ताम्र या काष्ठ की लक्ष्मी जी की प्रतिमा अथवा किसी वस्त्र के टुकड़े पर उनकी आकृति बनाकर, चरणों से लगाकर मस्तक तक फूल, फल तथा अन्यान्य भक्ष्य-भोज्य पदार्थों से पूजन करना चाहिए। सधवा नारियों को पुष्प, केसर तथा मिष्टान्नादि से सज्जित करके एक प्रस्थ अक्षत तथा घृत से पूरित पात्र को दान में देना चाहिए। मन्त्र यह है `श्रियो हृदयं प्रसीदतु।` वर्ष के प्रत्येक मास में लक्ष्मी का पूजन भिन्न-भिन्न नामों से करने का विधान है। तदनन्तर लक्ष्मी की प्रतिमा का भी दान कर दिया जाय, ऐसा विधान है।

पञ्चमूर्तिव्रत : चैत्र शुक्ल पञ्चमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। इसदिन उपवास करते हुए भगवान् के आयुधों, शङ्ख, चक्र, गदा तथा पद्म और पृथ्वी की आकृतियाँ एक ही परिधि में चन्दन के लेप से खींचना तथा उनका पूजन करना चाहिए। प्रत्येक मास की पञ्चमी के दिन यह सब कृत्य होना चाहिए। वर्षान्त में पाँच रंग के वस्त्रों का दान करना चाहिए। इसके अनुष्ठान से राजसूय यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है।

पञ्चरत्न : पञ्च रत्न हैं-- हीरक, विद्रुम, लहसुनिया, पद्मराग तथा मुक्ता (कृत्यकल्पतरू, नैत्यकालिक काण्ड, 366)। हेमाद्रि (1.47) के अनुसार पञ्च रत्नों में सुवर्ण, रजत, मोती, मूँगा तथा लाजावर्त सम्मिलित हैं। पञ्च रत्नों का धार्मिक कृत्यों में बहुधा उपयोग होता है। ये माङ्गलिक माने जाते हैं।

पञ्चरत्नस्तव : यह अप्पय दीक्षित कृत स्तोत्र ग्रन्थ है।

पञ्चरात्ररक्षा : आचार्य रामानुज कृत एक वैष्णव ग्रन्थ है।

पञ्चलाङ्गलव्रत : शिलाहार राजा गन्धारादित्य (शक सं० 1032-1110) के एक ताम्रपत्र में इस व्रत का उल्लेख है। वैशाख मास में चन्‍द्रगहण के समय यह व्रत किया गया था। मत्स्यपुराण (अध्याय 283) में यह विस्तार से वर्णित है। किसी पुण्य तिथि, चन्द्र अथवा सूर्य ग्रहण के समय अथवा युगादि तिथि को पाँच काष्ठ के हल तथा पाँच ही सुवर्ण के हल और दस बैलों के सहित भूमि का दान करना 'पञ्च लाङ्गल व्रत' कहलाता है।

पञ्चविंश ब्राह्मण : सामवेदीय ब्राह्मण ग्रन्थों में ताण्ड्य ब्राह्मण सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसमें पचीस अध्याय हैं इसलिए यह पञ्चविंश ब्राह्मण भी कहलाता है। इसके प्रथम अध्याय में यजुरात्मक मन्त्रसमूह है, दूसरे और तीसरे अध्याय में बहुस्तोम का विषय है। छठे अध्याय में अग्निष्टोम की प्रशंसा है। इस तरह अनेक प्रकार के याग-यज्ञों का वर्णन है। पूर्ण न्याय, प्रकृति-विकृतिलक्षण, मूल प्रकृति विचार, भावना का कारणादि ज्ञान, षोडश ऋत्विक्परिचय, सोमप्रकाशपरिचय, सहस्र संवत्सरसाध्य तथा विश्व सृष्टसाध्य सूत्रों के सम्पादन की विधि इसमें पायी जाती है। इनके सिवा तरह-तरह के उपाख्यान और इतिहास की जानने योग्य बातें लिखी गयी हैं। इस ग्रन्थ में सोमयाग की विधि और उस सम्बन्ध के सामगान विशेष रूप से हैं, साथ ही कौन सत्र एक दिन रहेगा, कौन सौ दिन रहेगा और साल भर रहेगा, कौन सौ वर्ष रहेगा और कौन एक हजार वर्ष रहेगा इस बात की व्यवस्थाएँ भी हैं। सायणाचार्य इसके भाष्यकार और हरिस्वामी वृत्तिकार हैं।

पञ्चविधिसूत्र : ऋक् मन्त्रों को सामगान में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्र ग्रन्थ हैं। इनमें से एक का नाम 'पञ्चविधिसूत्र' है और दूसरे का 'प्रतिहारसूत्र'। ये ग्रन्थ कात्यायन के लिखे कहलाते हैं।

पञ्चशिख : सांख्ययोग के दो ऐतिहासिक आचार्य का उल्लेख महाभारत में आता है, ये हैं पञ्चशिख एवं वार्ष गण्य। पाञ्चरात्रों का विश्वास है कि उनके मत की दार्शनिक शिक्षाओं के प्रवर्तक पञ्चशिख थे, क्योंकि वैष्णव धर्म सांख्ययोग के सिद्धान्तों पर आधारित है।

पञ्चसिद्धान्तिका : ज्योतिर्विद् वराहमिहिर का लिखा ज्योतिशास्त्रविषयक एक ग्रन्थ। इसमें ग्रहगति सम्बन्धी प्राचीन आचार्यों के पाँच सिद्धान्तों का निरूपण है। पण्डित सुधाकर द्विवेदी और मिस्टर थीवों ने मिलकर इसे सम्पादित और प्रकाशित कराया है।

पञ्चामृत : देवमूर्तियों पर पञ्चामृत चढ़ाने की प्रथा अति प्राचीन है। विविध पूजाओं के पश्चात् पञ्चामृत् (दुग्ध, दधि, घृत, शर्करा एवं मधु) से मूर्ति को स्नान कराया जाता है तथा इसके बाद धातु के छिद्रित पात्र से दुग्ध-जल द्वारा अभिषेक करते हैं। पञ्चामृत स्नान कराते समय वेदमन्त्रों का अलग-अलग उच्चारण किया जाता है। शालग्राम को जिस पञ्चामृत में नहलाते हैं उसे प्रसाद के रूप में भक्तजन ग्रहण करते हैं।

पञ्चायतनपूजा : इस पूजा की प्रथा किसी विद्वान धार्मिक व्यवस्थापक की सूझ है। किन्तु किसने और कब इसे आरम्भ किया यह निश्चित रूप से कहना कठिन है। पञ्चायतन पूजा के रूप में पाँच देवों (विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य और गणेश) की नियमित पूजा स्मार्तों के लिए बतायी गयी है। अनेक विद्वानों का कथन है कि शङ्कराचार्य ने इस प्रथा का आरम्भ किया। कुछ इसको कुमारिल भट्ट द्वारा प्रवर्तित मानते हैं, जबकि अन्य इसे और भी प्राचीन बतलाते हैं। इतना स्पष्ट है कि पञ्चायतन पूजा उस समय प्रारम्भ हुई जब ब्रह्मा का महत्त्व कम हो चुका था एवं उपर्युक्त पाँच देवता प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। कुछ विद्वान् इसका आरम्भ सातवीं शताब्दी ई० से बतलाते हैं। पञ्चायतन के पाँचों देवताओं पर पाँच उपनिषदें इस काल में रची गयीं जो अथर्वशिरस् नाम से संगृहीत हैं। ये निश्चय ही साम्प्रदायिक उपनिषदें हैं। इस पूजापद्धति में अन्य देवताओं के ये प्रतिनिधि (पञ्चायतन) हैं। इसीलिए सामान्य हिन्दू पाँचों के साथ अन्य देवों की पूजा भी कर सकता है।

पञ्चाल वाभ्रव्य : ऋक् संहिता के क्रमपाठ के प्रवर्त्तक आचार्य। प्रातिशाख्य (11.13) में ये केवल 'वाभ्रव्य' कहे गये हैं। प्रातिशाख्य से यह मालूम होता है कि कुरु-पञ्चाल लोग जैसे क्रमपाठ के चलाने वाले हुए, उसी तरह कोसल विदेह के लोग अर्थात् शाकल समुदाय वाले पदपाठ के प्रवर्तक थे। पदपाठ से शब्दों की ठीक विवेचना की रक्षा और क्रमपाठ से मन्त्रों के ठीक-ठीक क्रम की रक्षा अभिप्रेत है।

पञ्चीकरण : शङ्कराचार्य रचित मौलिक लघु रचनाओं में एक 'पञ्चीकरण' भी है।

पञ्चीकरणवार्तिक : शाङ्करमत के आचार्यों में सबसे अधिक प्रतिष्ठाप्राप्त सुरेश्वराचार्य (पूर्वाश्रम में मण्डनमिश्र) ने जिन अनेक ग्रन्थों की रचना की उनमें से पञ्चीकरणवार्तिक भी एक है।

पञ्चासाहब : सिक्ख तीर्थ पेशावर जाने वाले मार्ग पर तक्षशिला से एक स्टेशन आगे तथा हसन अब्दाल से दो मील दक्षिण यह स्थान है। इस नाम की एक विचित्र कहानी है। एक समय वली कन्धारी नामक फकीर ने इस जगह के आसपास के जल को अपनी शक्ति से खींचकर पहाड़ के ऊपर अपने कब्जे में कर लिया। यह कष्ट गुरु नानक से न सहा गया। अन्त में उन्होंने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जल खींच लिया। जल को जाता देखकर वली कन्धारी पीर ने एक विशाल पर्वतखण्ड ऊपर से गिरा दिया। पर्वत को आता देख गुरु नानक ने अपने हाथ का पञ्जा लगाकर उसे रोक दिया। आज भी वह हाथ के पञ्जे का निशान इस तीर्थ में विद्यमान है। वैशाख की प्रतिपदा को यहाँ मेला होता है।

पटलपाठ : किसी पट्ट, पत्र अथवा तरुती पर जो तान्त्रिक मन्त्र लिखे जाते हैं उनको 'पटल' कहते हैं। उनके पारायण को पटलपाठ कहा जता है। पटल किसी योग्य व्यक्ति द्वारा ही अङ्कित होना चाहिए। अयोग्य पुरुष द्वारा तैयार पटलादि का पढ़ना निषिद्ध है।

पण्डित : यह एक विरुद है। 'पण्डित' का प्रयोग प्रथमतः उपनिषदों में हुआ है (बृ० उ० 3,4,1; 6.4,16,17; छा० उ०, 6.14,2; मुण्डक०, 1.2,8 आदि)। इसका मूल अर्थ है 'जिसको पण्डा (सदसद्विवेकिनी बुद्धि‍) प्राप्त हो गयी हो'। यह विरुद ब्राह्मणों और अन्य वर्ण के विद्वानों के नाम के पूर्व लगाने की प्रथा है।

पण्डितराज जगन्नाथ : पण्डितराज जगन्नाथ भट्टोजिदीक्षित के गुरु शेषकृष्ण दीक्षित के पुत्र तथा वीरेश्वर दीक्षित के शिष्य थे।

दर्शन, तर्क, व्याकरण आदि शास्त्रों के गम्भीर विद्वान् होने के साथ ही ये साहित्यशास्त्र के प्रमुख लक्षण ग्रन्थकार और श्रेष्ठ काव्यरचयिता भी थे। संस्कृत साहित्य के अपने प्रख्यात आलोचनाग्रन्थ रसगङ्गाधर में इन्होंने अलंकारादि के उदाहरण के लिए केवल स्वरचित कविताओं का ही प्रयोग किया है। काव्य क्षेत्र में इनकी रचनायें भामिनीविलास, करुणालहरी, गङ्गालहरी आदि के रूप में अत्यन्त मधुर हैं। शाहजहाँ के दिल्ली दरबार में ये राजपण्डित भी रहे थे।

पण्डितराज साहित्यशास्त्री के रूप में अधिक प्रख्यात हैं। किन्तु हृदय से ये करुणरसपूर्ण भक्त और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। इनके ग्रन्थ भामिनीविलास, रस गङ्गाधर और पाँच लहरी रचनाएँ इस बात की पुष्टि करती हैं।

पण्डिताराध्य : वीरशैवों (लिङ्गायतों) की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न मत हैं। परम्परा यह है कि यह सम्प्रदाय पाँच संन्यासियों द्वारा स्थापित हुआ, जो भिन्न-भिन्न युगों में शिव के मस्तक से उत्पन्न हुए माने जाते हैं। इनके नाम हैं-- एकोराम, पण्डिताराध्य, रेवण, मरुल एवं विश्वाराध्य। ये अति प्राचीन थे। महात्मा वसव को इनके द्वारा स्थापित मत का पुनरुद्धारक माना जाता है। कुछ प्रारम्भिक ग्रन्थों में यह भी कहा गया है कि ये पाँचों वसव के समकालीन थे। उपर्युक्त नाम पाँच प्राचीन मठों के प्रथम महन्तों के हैं। पण्डिताराध्य नन्घल के निकट श्रीशैल मठ के प्रथम महन्त (मठाधीश) थे।

पणि : ऋग्वेद में पणि नाम से ऐसे व्यक्ति अथवा समूह का बोध होता है जो धनी है किन्तु देवताओं का यज्ञ नहीं करता तथा पुरोहितों को दक्षिणा नहीं देता। अतएव यह वेदमार्गियों की घृणा का पात्र है। देवों को पणियों के ऊपर आक्रमण करने को कहा गया है। आगे यह उल्लेख उनकी हार तथा वध के साथ हुआ है। कुछ परिच्छेदों में पणि पौराणिक दैत्य हैं, जो स्वर्गीय गायों अथवा आकाशील जल को रोकते हैं। उनके पास इन्द्र की दूती सरमा भेजी जाती है (ऋ० 10.108)। ऋग्वेद (8.66,10; 7.6,2) में दस्यु, मृधुवाक् एवं ग्रथिन के रूप में भी इनका वर्णन है।

यह निश्चय करना कठिन है कि पणि कौन थे। राथ के मतानुसार यह शब्द 'पण्=विनिमय' से बना है तथा पणि वह व्यक्ति है जो बिना बदले के कुछ नहीं दे सकता। इस मत का समर्थन जिमर तथा लुड्विग् ने भी किया है। लुड्विग ने इस पार्थक्य के कारण पणिओं को यहाँ का आदिवासी व्यवसायी माना है। ये अपने सार्थ अरब, पश्चिमी एशिया तथा उत्तरी अफ्रीका में भेजते थे और अपने धन की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करने को प्रस्तुत रहते थे। दस्यु अथवा दास शब्द के प्रसंगों के आधार पर उपर्युक्त मत पुष्ट होता है। किन्तु आवश्यक है कि आर्यों के देवों की पूजा न करने वाले और पुरोहितों को दक्षिणा न देने वाले इन पणियों के बारे में और भी कुछ सोचा जाय। इन्हें धर्मनिरपेक्ष, लोभी और हिंसक व्यापारी कहा जा सकता है। ये आर्य और अनार्य दोनों हो सकते हैं। हिलब्रैण्ट ने इन्हें स्ट्राबो द्वारा उल्लिखित पर्नियन जाति के तुल्य माना है, जिसका सम्बन्ध दहा (दास) लोगों से था। फिनिशिया इनका पश्चिमी उपनिवेश था, जहाँ ये भारत से व्यापारिक वस्तुएँ, लिपि कला आदि ले गये।

पण्ढरपुर : महाराष्ट्र प्रदेश का प्रधान तीर्थ। महाराष्ट्र सन्तों के आराध्य भगवान् विष्णु यहाँ अधिष्ठित हैं जो विट्ठल कहे जाते हैं। भक्त पुण्डरीक की भक्ति से रीझकर भगवान् जब सामने प्रकट हुए तो भक्त ने उनके बैठने के लिए ईँट (विट) धर दी (थल)। इससे भगवान् का नाम 'विट्ठल' पड़ा गया है। देवशयनी और देवोत्थानी एकादशी को बारकरी सम्प्रदाय के लोग यहाँ यात्रा करने आते हैं। यात्रा को ही वारी देना कहते हैं। भक्त पुण्डरीक इस धाम के प्रतिष्ठाता माने जाते हैं। संत तुकाराम, ज्ञानेश्वर, नामदेव, राँका-बाँका, नरहरि आदि भक्तों की यह निवासभूमि रही है। पंढरपुर भीमा नदी के तट पर है, जिसे यहाँ चन्द्रभागा भी कहते हैं।

पतञ्जल काप्य : एक ऋषि का नाम, जिनका उल्लेख दो बार बृहदारण्यक उपनिषद् (3.3,1; 7,1) में हुआ है। वेबर के मतानुसार उनका नाम कपिल तथा पतञ्जलि (सांख्ययोग प्रणाली के प्रवर्तक) नामों का पूर्व रूप है, इसी से आगे चलकर दो दर्शनकार ऋषिनामों का विकास हुआ।

पतञ्जलि : (1) संस्कृत व्याकरण के इतिहास में पतञ्जलि का महाभाष्य महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस ग्रन्थ की महत्ता व्याकरण शास्त्र की उपादेयता के अतिरिक्त तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं राजनीतिक दशाओं पर भी प्रकाश डालने के कारण है। ग्रन्थ की शैली भी चुटकुलों जैसी विनोदपूर्ण, प्रश्नोत्तरमयी साथ ही गम्भीर चिन्तनबहुल है। इसी लिए यहाँ भाष्य शब्द के साथ 'महा' विशेषण सार्थक होता है।

(2) योगदर्शन के निर्माता ऋषि भी पतञ्जलि कहे जाते हैं। महाभाष्यकार एवं योगदर्शनकार दोनों पतञ्जलि एक हैं अथवा नहीं; ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। परन्तु दोनों एक हो सकते हैं। महाभाष्यकार पतञ्जलि दूसरी शती ई० पू० के प्रारम्भ में हुए थे। सूत्रशैली की रचनाएँ प्रायः इस काल तक और इसके आगे भी होती रही। अतः भाष्यकार योगसूत्रकार भी हो सकते हैं। दे० 'योगदर्शन'।

पताका : इस शब्द का पुराना प्रयोग अद्भुत ब्राह्मण में हुआ है। इसका वैदिक पर्याय 'केतु' है। धार्मिक कृत्यों में देवताओं के रथ के प्रतीक रूप में पताका की स्थापना होती है।

पति : पाशुपत सम्प्रदाय में तीन तत्त्व प्रधान हैं--पति, पशु और पाश। शिव ही पति हैं, मनुष्य उनके पशु हैं जो पाश (सांसारिक माया) से बँधे रहते हैं। 'पति' अथवा शिव के अनुग्रह से ही पशु (मनुष्य) पाश (सांसारिक बन्धन) से मुक्त होता है। दे० 'पाशुपतसम्प्रदाय'।

पति-पशु-पाशम् : पाशुपत-सम्प्रदाय की तरह शैव सम्प्रदाय में भी जीव मात्र पशु कहलाते हैं। उनके पति पशुपति अर्थात् महेश्वर शिव हैं। मल, कर्म, माया और रोधशक्ति ये चार पाश हैं। स्वाभाविक अपवित्रता का नाम मल है, जो दृक् और क्रिया शक्ति को ढके रहता है। धर्माधर्म का नाम कर्म है। प्रलय में जिसके भीतर सभी कार्य समा जाते हैं और सृष्टि में जिससे सभी कार्य निकलते हैं, उसे माया कहते हैं। पुरुष की गति में रुकावट डालनेवाले कर्म रोधशक्ति कहलाते हैं।

पत्रव्रत : यह संवत्सर व्रत है। एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है। इसमें स्त्री एक पान, सुपारी तथा चूना किसी स्त्री या पुरुष को दान में दे देती है। वर्ष के अन्त में सुवर्ण अथवा रजत का पान तथा चूने के रूप में मोतियों का दान किया जाता है। ऐसी स्त्री न कभी दुर्भाग्यग्रस्त रहती है और न उसके मुख से दुर्गन्ध आती है।

पथिकृत् : मार्ग बनाने वाला, नियम निर्धारित करने वाला। यह शब्द ऋग्वेद तथा अन्य संहिताओं में अनेक बार व्यवहृत है। इसकी महत्ता आदि काल से ही पथ खोजने के कार्य से सम्बन्धित है। यह विशेषण अग्निदेव (तैत्ति० सं०, शत० ब्रा०, कौषी० व्रा०) के लिए बार-बार इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि प्रारम्भिक काल में आगे बढ़ने के लिए आर्य अग्नि जलाते थे और उसके प्रकाश में बढ़ते थे। पूषा को भी पथिकृत् कहा गया है, क्योंकि वह पशुझुण्डों की रक्षा करता था। ऋषियों को भी पथिकृत् कहा गया है, जिन्होंने समाज को प्रथम ज्ञान का मार्ग दिखलाया।

पद : (1) छन्द या श्लोक का चतुर्थांश। यह अर्थ इसके प्रारम्भिक अर्थ 'चरण' (पाद) से निकाला गया है, जो चौपायों के लिए व्यवहृत होता है और जिसके नाते एक चरण चतुर्थांश हुआ।

(2) छन्द के चतुर्थांश के अर्थ में इसका प्रयोग ऋग्वेद से ही होने लगा। पीछे भी इस अर्थ में इसका प्रयोग हुआ है, किन्तु ब्राह्मणों में इससे 'शब्द' का भी बोध होता है।

(3) सन्त कवियों के पूरे गीत अथवा भजन को भी लोकसभा में पद कहा जाता है। धार्मिक क्षेत्र में ऐसे पदों का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

पदकल्पतरु : वैष्णव गीतों का एक संग्रह। चैतन्य साहित्यान्तर्गत 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में वैष्णवदास ने इस ग्रन्थ की रचना की। यह छोटे-छोटे पदों (छन्दों) का संग्रह है।

पदयोजनिका : शङ्कराचार्य कृत उपदेशसाहस्री पर स्वामी रामतीर्थ ने पदयोजनिका नाम की टीका लिखी है। इसका रचनाकाल सत्रहवीं शताब्दी है।

पदार्थ : पद (शब्द) का वाच्य या कथनीय आशय; वस्तुतत्त्व। वैशेषिक दर्शन के अनुसार पदार्थ छः हैं-- (1) द्रव्य (2) गुण (3) कर्म (4) सामान्य (5) विशेष (6) समवाय। इन पदार्थों के सम्यक् ज्ञान से ही मोक्ष प्राप्त होता है। दे० 'वैशेषिक दर्शन'।

पदार्थकौमुदी : माध्व मतावलम्बी आचार्य वेदेश तीर्थ (18 वीं शताब्दी) ने इस ग्रन्थ की रचना की।

पदार्थधर्मसंग्रह : प्रशस्तपाद का पदार्थधर्मसंग्रह नामक ग्रन्थ वैशेषिक दर्शन का भाष्य कहलाता है। परन्तु यह भाष्य नहीं, सूत्रों के आधार पर बना हुआ स्वतन्त्र ग्रन्थ है।

पदार्थमाला : सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल में लौगाक्षिभास्कर ने न्याय (पूर्वमीमांसा) विषयक इस ग्रन्थ को लिखा।

पदार्थव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी को यह व्रत प्रारम्भ किया जाता है। इस दिन उपवास रखते हुए दिक्पालों के साथ दसों दिशाओं का पूजन करना चाहिए। एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है। वर्ष के अन्त में गोदान करने का विधान है। इससे संकल्प की सिद्धि होती है।

पदार्थसंग्रह : आचार्य मध्व के शिष्य पद्मनाभाचार्य ने पदार्थसंग्रह नामक प्रकरण ग्रन्थ लिखा था, जिसमें मध्वाचार्य के मत का वर्णन किया गया है। पदार्थसंग्रह के ऊपर उन्होंने मध्वसिद्धान्तसार नामक व्याख्या भी लिखी थी। इसका रचनाकाल 13 वीं शताब्दी है।

पद्मकयोग : (1) रविवार को यदि सप्तमीविद्धा षष्ठी पड़े तो पद्मकयोग होता है, जो सहस्र सूर्यग्रहणों के समान पुण्यशाली है। दे० व्रतराज, 249।

(2) सूर्य विशाखा नक्षत्र पर हो तथा चन्द्र कृत्तिका नक्षत्र पर, तब पद्मक योग होता है। दे० हेमाद्रि का चतुर्वर्गचिन्तामणि।

(3) जीमूतबाहन के 'कालविवेक' के अनुसार जब सूर्य विशाखा नक्षत्र के तृतीय पाद में तथा चन्द्रमा कृत्तिका के प्रथम पाद में हो तब पद्मक योग बनता है।

पद्मनाभ : (1) विष्णु का एक पर्याय। इसका अर्थ 'जिसकी नाभि में कमल है।' कमल विश्व की सृष्टि और प्रज्ञा के विकास का प्रतीक है। पुराणों के अनुसार इसी कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई है इसलिए ब्रह्मा को 'कमलयोनि' अथवा 'पद्मयोनि' भी कहते हैं।

(2) कात्यायनसूत्र के अनेक भाष्यकारी में पद्मनाभ भी एक हैं।

पद्मनाभ तीर्थ : आचार्य मध्व के शिष्य। इन्होंने मध्वरचित अनुव्‍याख्‍यान की, जो वेदान्तसूत्र का पद्यमय विवरण है, टीका लिखी। यह 'संन्यास रत्नावली' नाम से प्रसिद्ध है।

पद्मनाभ तीर्थ (शोभन) : आचार्य मध्व देहत्याग करते समय अपने शिष्य पद्मनाभ तीर्थ को रामचन्द्रजी की मूर्ति और शालग्राम शिला देकर कह गये थे कि तुम मेरे मत का प्रचार करते रहना। गुरु के उपदेशानुसार पद्मनाभ ने चार मठ स्थापित किये। इनका पहला नाम शोभन भट्ट था। ये बहुत बड़े विद्वान् थे और चालुक्य राजधानी कल्याण में रहते थे। एक बार इनका शास्त्रार्थ मध्वाचार्य से हुआ। शोभन भट्ट शास्त्रार्थ में हार गये और इन्होंने वैष्मवमत स्वीकार कर लिया। तब इनका नाम पद्मनाभाचार्य पड़ा। मध्वाचार्य के बाद ये ही आचार्य पदासीन हुए। पद्मनाभाचार्य ने मध्व के ग्रन्थों की टीकाएँ भी लिखीं और संप्रदाय का अच्छा विस्तार किया। ये तेरहवी शताब्दी में वर्तमान थे।

पद्मनाभद्वादशी : आश्विन शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का आरम्भ होता है। एक कलश की स्थापना करके उसमें भगवान् पद्मनाभ (विष्णु) की प्रतिमा विराजमान की जाती है, उसका चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्यादि से पूजन होता है। दूसरे दिन उसे दान में दे दिया जाता है।

पद्मपादिका : (पञ्चपादिका) शंकराचार्य के शिष्य पद्मपादकृत एक दार्शनिक ग्रन्थ। इसके ऊपर प्रबोधपरिशोधिनी नाम की एक टीका है, जिसके रचयिता नरसिंहस्वरूप के शिष्य आत्मस्वरूप थे।

पद्मपुराण : इसके पाँच खण्ड हैं-- (1) सृष्टिखण्ड (2) भूमिखण्ड (3) स्वर्गखण्ड (4) पातालखण्ड और (5) उत्तरखण्ड। विष्णुपुराण की सूची के अनुसार पद्मपुराण दूसरा पुराण है। देवीभागवत के अतिरिक्त, जिसके मत से मार्कण्डेय पुराण दूसरा है, सब पुराण इसी को दूसरा स्थान देते हैं और इस बात पर एकमत हैं कि पद्मपुराण में 54,000 श्लोक हैं। केवल ब्रह्मवैवर्तपुराण के मत से इसमें 59,000 श्लोक होने चाहिए। इसमें हिरण्य पद्म (सुनहरे कमल) से संसार की उत्पत्ति का वृत्तान्त वर्णित है, इसलिए इस पुराण को बुधजन 'पद्म' कहते हैं। सृष्टिखण्ड के 36वें अध्याय में इसकी कथा है, जिसमें संसार की उत्पत्ति का सविस्तार वर्णन है और इससे मत्स्यपुराण की उक्ति का समर्थन होता है।

नीचे लिखी छोटी-छोटी पोथियाँ पद्मपुराण के अन्तर्गत मानी जाती हैं :

(1) अष्टमूर्तिपर्व (2) अयोध्यामाहात्म्य (3) उत्पलाख्यमाहात्म्य (4) कदलीपुरमाहात्म्य (5) कमलालयमाहात्म्य (6) कपिलगीता (7) करवीरमाहात्म्य (8) कर्मगीता (9) कल्याणकाण्ड (10) कायस्थोत्पति और कायस्थस्थितिनिरूपण (11) कालिञ्जरमाहात्म्य (12) कालिन्दीमाहात्म्य (13) काशीमहात्म्य (14) कृष्णनक्षत्रमाहात्म्य (15) केदारकल्प (16) गणपतिसहस्रनाम (17) गौतमीमाहात्म्य (18) चित्रगुप्तकथा (19) जगन्नाथमाहात्म्य (20) तप्तमुद्राधारणमाहात्म्य (21) तीर्थमाहात्म्य (22) त्र्यम्बकमाहात्म्य (23) देविकामाहात्म्य (24) धर्माख्यमाहात्म्य (25) ध्यानयोगसार (26) पंचवटीमाहात्म्य (27) पायिनीमाहात्म्य (28) प्रयागमाहात्म्य (29) फाल्गुनीकृष्ण-विजयामाहात्म्य (30) भक्तवत्सलप्राहात्म्य (31)भस्ममाहात्म्य (32) भागवतमाहात्म्य (33) भीमामाहात्म्य (34) भूतेश्वरतीर्थमाहात्म्य (35) मलमासमाहात्म्य (36) मल्लादिसहस्रनाम स्तोत्र (37) यमुनामाहात्म्य (38) राजराजेश्वरयोग कथा (39) रामसहस्रनाम स्तोत्र (40) रुक्माङ्गदकथा (41) रुद्रहृदय (42) रेणुकासहस्रनाम (43) विकृतजननशान्तिविधान (44) विष्णुसहस्रनाम (45) वृन्दावनमाहात्म्य (46) वेङ्कटस्तोत्र (47) वेदान्तसार शिवसहस्रनाम (48) वेण्योपाख्यान (49) वैतरणी व्रतोद्यापनविधि (50) वैद्यनाथमाहात्म्य (51) वैशाखमाहात्म्य (52) शिवगीता (53) शताश्वविजय (54) शिवालयमाहात्म्य (55) शिवसहस्रनाम स्तोत्र (56) शीतलास्तोत्र (57) शोशीपुरमाहात्म्य (58) श्वेतगिरिमाहात्म्य (59) सङ्कटनामाष्टक (60) सत्योपाख्यान (61) सरस्वत्यष्टक (62) सिन्धुरागिरिमाहात्म्य (63) सुदर्शनमाहात्म्य (64) हनुमत्कवच (65) हरिश्चनेद्रोपाख्यान (66) हरितालिकाव्रतकथा (67) हर्षेश्वरमाहात्म्य (68) होलिकामाहात्म्य इत्यादि।

पद्मसंहिता : यह प्रायः सबसे प्राचीन संहिता मानी जाती है, जिसमें चार खण्ड हैं-- ज्ञानपाद, योगपाद, क्रियापद एवं चर्यापाद। केवल दो ही संहिताओं 'पद्मं' तथा 'विष्णुतत्त्व' में उपर्युक्त चार खण्डों का प्रतिपादन हुआ है। अधिकांश संहिताएँ केवल क्रिया एवं चर्यापादों की ही वर्णन करती हैं।

पद्मावली : चैतन्य संप्रदाय के महात्मा रूप गोस्वामी द्वारा रचित एक संस्कृत नाटक।

पंथ (पथ) : यह शब्द धार्मिक सम्प्रदाय का द्योतक है। प्रायः निर्गुणवादी सन्तों द्वारा चलाये गये सम्प्रदायों को पंथ कहते हैं। यथा कबीरपन्थ, नानकपन्थ, दादूपन्थ आदि।

पन्दरम् : तमिलनाडु के शैव मन्दिरों में ब्राह्मणेतर पुजारी को 'पन्दरम्' कहते हैं। इस देश के शैव मन्दिरों में साम्प्रदायक भिन्नता नहीं है। वे सभी हिन्दुओं, स्मार्तों, साधारण शैवों, सिद्धान्तवादियों एवं लिङ्गायतों के लिए खुले रहते हैं। इनमें पुजारी ब्राह्मण होते हैं, किन्तु कुछ छोटे मन्दिरों में पन्दरम् (अब्राह्मण शैव) लोग अर्चक का कार्य करते हैं।

पन्ना : मध्य प्रदेश में स्थित एक भूतपूर्व रियासत का प्रसिद्ध नगर और तीर्थस्थान। यहाँ भगवान् युगलकिशोर का एक मन्दिर औऱ जगन्नाथ स्वामी के दो मन्दिर हैं। महात्मा प्राणनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर भी यहाँ स्थित है। दे० 'कुलज्जम साहब'।

पम्पासर : इस तीर्थ का वर्णन वाल्मीकि रामायण में पाया जाता है। भगवान् राम वनवास के समय शबरी के परामर्श से इस सरोवर के तट पर आये थे। इसके निकट ही सुग्रीव का निवास था। दक्षिण भारत की तुङ्गभद्रा नदी पार करके अनागुदी ग्राम जाते समय कुछ दूर पश्चिम पहाड़ के मध्य भाग में एक गुफा मिलती है। उसके अंदर श्रीरङ्गजी तथा सप्तर्षियों की मूर्तियाँ हैं, आगे पूर्वोत्तर पहाड़ के पास ही पम्पासरोवर है। स्नान करने के लिए यात्री प्रायः यहाँ आते रहते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि पम्पासर वहाँ था, जहाँ अब हासपेट नगर है।

पयस् : वैदिक संहिताओं में 'पयस्' शब्द का गोदुग्ध अर्थ लिया गया है। कुछ प्रसंगों में इसे पौधों में पाया जाने वाला रस समझा गया है, जो उन्हें जीवन तथा बल प्रदान करता है। कतिपय स्थलों पर यह स्वर्गीय जल का बोधक है (ऋ० वे० 1.65,5,166; 3.33,1,4; 4.557,8 आदि)। शतपथ ब्राह्मण (9.5,1) में 'पयोव्रत' नाम से दुग्ध पर ही जीवन धारण करने वाले व्रत का उल्लेख है।

पयोव्रत : (1) यज्ञानुष्ठान के लिए दीक्षित होने के पश्चात् केवल दुग्धाहार करने का विधान है। इसी को पयोव्रत कहते हैं। (शतपथ० 9.5.1.1)

(2) प्रत्येक अमावस्या को यह व्रत करना चाहिए। इसमें केवल दुग्धाहार विहित है। एक वर्ष तक यह चलता है। वर्ष के अन्त में श्राद्ध करना चाहिए, पाँच गायें वस्त्र तथा जलपूर्ण कलश दान में देना चाहिए। दे० हेमाद्रि, 2.254।

(3) भगवान् विष्णु को प्रसन्न कर पुत्र प्राप्त करने की कामना से फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से द्वादशी तक केवल दुग्ध की वस्तुओं से पूजन (देवता स्नान, नैवेद्य, होम और प्रसाद ग्रहण) करना चाहिए। दे० स्मृतिकौस्तुभ, 513-514; भागवतपुराण, 8.16,22-62।

पर आगम : रौद्रिक आगमों में एक 'पर (वातुल) आगम'।

परञ्जोति : सत्रहवीं शती में तमिल भाषा के भक्त कवि परञ्जोति ने 'तिरुविलै आडतुपाणम्' नामक धार्मिक ग्रन्थ की रचना की।

परपक्षगिरिवज्र : निम्बार्क वैष्णव संप्रदाय का एक तर्क कर्कश दार्शनिक ग्रन्थ, जिसमें अद्वैत वेदान्त के अध्यास, मायावाद, जीवब्रह्मैक्यवाद आदि का सटीक खण्डन किया गया है। इसकी रचना वंगदेशवासी पं० माधवमुकुन्द ने माध्ववेदान्त से प्रभावित होकर की। माधवमुकुन्द स्वभूरामी शाखा के वैष्णव थे अतः इनका समय सत्रहवीं शताब्दी संभव है। उक्त ग्रन्थ न्याय-वेदान्त के प्रौढ़ ज्ञाताओं के अध्ययन की सामग्री उपस्थित करता है।

परब्रह्मोपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्। इसमें परब्रह्म (निर्गुण) का निरूपण किया गया है।

परमशिव : नवीं शताब्दी में उत्पन्न कश्मीर के वसुगुप्त नामक शिवभक्त ने एक नया धार्मिक अनुभव प्रचारित किया। उनके शिष्य कल्लट ने 'स्पन्दसूत्र' अथवा 'स्पन्दकारिका' में त्रिक् (पति, पशु, पाश) प्रणाली के अद्वैत सिद्धान्त का उल्लेख किया है। स्पन्दशाखा में आत्मा कठोर यौगिक साधना से ज्ञान प्राप्त करता है, जिससे परम शिव (विश्व के परमअधीश्वर) का अनुभव होता है तथा जीवात्मा शान्ति में विलीन हो जाता है। परम शिव वास्तव में मूल परम तत्त्व का ही पर्याय है।

परमशिवेन्द्र सरस्वती : महात्मा सदाशिवेन्द्र सरस्वती के गुरु का नाम। ये प्रसिद्ध धार्मिक नेता थे।

परमसंहिता : एक वैष्णव संहिता। इसमें वैष्णव सिद्धान्तों तथा आचार का विशद वर्णन है।

परमहंस : चतुर्थ आश्रमी संन्यासियों की चार श्रेणियाँ कुटीचक, बहूदक, हंस औऱ परमहंस नामक होती हैं। वैराग्य और ज्ञान की उत्तरोत्तर तीव्रता के कारण यह श्रेणीविभाजन किया गया है। परमहंस कोटि का संन्यासी सर्वश्रेष्ठ होता है।

हंस शब्द सदसद्-विवेक की शक्ति से परिपूर्ण आत्मा का बोधक है। जिस पुरुष में आत्मा का परम विकास हो चुका है वह 'परमहंस' कहलाता है।

परमहंसपरिव्राजकोपनिषद् : यह संन्यासाश्रम सम्बन्धी एक परवर्ती उपनिषद् है।

परमहंसोपनिषद् : संन्यास आश्रम से सम्बन्धित एक उपनिषद्। संन्यासी को परमहंस भी कहते हैं इसलिए इसमें संन्यासाश्रम में प्रवेश के पूर्व की तैयारी, संन्यासी की वेषभूषा, आवश्यकता, भोजन, निवास स्थान तथा कार्य आदि का वर्णन है।

परमाणु : वैशेषिक मतानुसार द्रव्य नौ हैं। इनमें से प्रथम चार परमाणु के ही विभिन्न रूप हैं। प्रत्येक परमाणु परिवर्तनहीन, शाश्वत, अतिसूक्ष्म तथा अदर्शनीय होता है। परमाणु गंध, स्वाद, प्रकाश एवं उष्णता (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि के प्रतिनिधि स्वरूप) के अनुसार चार कक्षाओं में बँट जाते हैं। दो परमाणुओं के मिलने से एक द्व्यणुक तथा तीन द्वयणुकों के मिलने से एक त्रसरेणु बनता है जो वस्तु की सबसे छोटी इकाई है, जिसका आकार गुणयुक्त होता है तथा जिसे पदार्थ कहते हैं।

परमात्मा : वैशेषिक मतानुसार नित्य ज्ञान, नित्य इच्छा और नित्य संकल्प वाला, सर्वसृष्टि को चलाने वाला परमात्मा जीवात्मा से भिन्न है। अर्थात् परमात्मा और जीवात्मा के भेद से आत्मा दो प्रकार का है। परमात्मा एक है, जीवात्मा अगणित हैं। परमात्मा जैसे पहले कल्प में सृष्टि रचता है वैसे ही इस कल्प में पृथिवी, स्वर्ग और अन्तरिक्ष को रचता है। इससे सृष्टिकर्ता ईश्वर नित्य सिद्ध होता है। वैशेषिक मत में जीवात्मा और परमात्मा दोनों अनात्मपदार्थों से अलग हैं, यह मनन से सिद्ध होता है।

सांख्य दर्शन परमात्मा अथवा ईश्वर में विश्वास नहीं करता; केवल वह पुरुषबहुत्व को मानता है। योगदर्शन ईश्वर को आदि गुरु मानता है। वेदान्त के अनुसार पर परमात्मा व्यवहार में भिन्न किन्तु वस्तुतः अभिन्न हैं।

परमानन्द उपपुराण : यह उन्नीस उपपुराणों में से एक है।

परमानन्द सरस्वती : ब्रह्मानन्द सरस्वती के दीक्षागुरु परमानन्द सरस्वती थे। सत्रहवीं शताब्दी के आसपास इनका प्रादुर्भाव हुआ था।

परमार्थसार : प्रत्यभिज्ञा सिद्धान्त का यह संक्षिप्त सार है। इसकी रचना ग्यारहवीं शती में कश्मीर के आचार्य अभिनव गुप्त ने की थी।

परमेश्वर आगम : यह रौद्रिक आगम है। 'मतङ्ग' इसका उपागम है।

परमेश्वरतन्त्र : शाक्त साहित्य में तन्त्रों का स्थान बड़ा महत्वपूर्ण है। परमेश्वरतन्त्र लगभग 908 वि० की रचना है।

परलोक : मानव जीवन के दो पक्ष हैं---इहलोक अथवा सांसारिक जीवन और परलोक अथवा पारमार्थिक जीवन। परलोक अथवा परमार्थ व्यावहारिक जगत् से भिन्न है। कुछ लोग स्वर्ग को ही परलोक कहते हैं। वास्तव में लोक की कल्पना स्थानीय है, जो स्तर भेद दिखाने के लिए की गयी है। व्यक्तिगत लाभ-हानि की चिन्ता छोड़कर समष्टिगत जीवन के कल्याण के लिए कार्य करना ही परमार्थ (बड़ा लाभ) है।

परबतिया गुसाँई : परबतिया गुसाँई कामाख्या देवी के प्रधान पुजारी को कहते हैं। यह नदिया (नवद्वीप) का निवासी बंगाली ब्राह्मण होता है।

परशुराम : विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिना जाता है। परशु (फरसा) नामक शस्त्र धारण करने के कारण ये परशुराम कहलाते हैं। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य भी कहे जाते हैं। इन्होंने राजा सहस्रार्जुन कार्तवीर्य का वध किया था। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। इनका जन्म अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ल तृतीया) को हुआ था। अतः इस दिन व्रत करने और उत्सव मनाने की प्रथा है।

इस अवतार के प्रसङ्ग में ब्रह्म-क्षत्रसंघर्ष की चर्चा आती है। यह मान्यता कि परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियविहीन किया था, अतिरंजित जान पडती है। संसार की स्थिति एवं ब्रह्माण्डप्रकृति के अनुसार धर्म की रक्षा तभी संभव है जब ब्रह्म और क्षत्र दोनो ही शक्तियाँ समता की भावना से परिपूर्ण रहें।

ब्रह्मशक्ति के बिना क्षत्रशक्ति पुष्ट नहीं होती और क्षत्रशक्ति के बिना ब्रह्मशक्ति भी नहीं बढ़ सकती। दोनों की समता से ही संसार का कल्याण संभव है।

परशुरामभार्गवसूत्र : इस ग्रन्थ में शाक्तों के कौल सम्प्रदाय की विभिन्न शाखाओं का विवरण पाया जाता है। कौल मार्ग के अनुसार देवी की पूजा का विधान इसमें विस्तार पूर्वक समझाया गया है।

परशुरामजयन्ती : वैशाख शुक्ल तृतीया को यह जयन्तीव्रत सम्बन्धी पूजन होता है।

परशुरामदेव : निम्बार्क वैष्णव परम्परा के मध्यकालिक धर्मरक्षक प्रतापी संत जिन्होंने अपने तपोबल से राजस्थान में फकीरों के हिन्दूविरोधी धर्मोन्माद का पर्याप्त मात्रा में शमन किया। ये वैष्णवाचार्य हरिव्यासदेव के स्वभूरामदेव आदि प्रभावशाली द्वादश शिष्यों में छठे थे। इनका समय सोलहवीं शताब्दी का मध्यकाल है। इनकी अध्यात्मशक्ति से प्रभावित होकर अनेक देशी नरेश धर्मपरायण हो गये, जिनकी आस्था सूफी सन्तों की ओर जाने लगी थी। जयपुर से आगे आमेरमार्ग पर स्थित, भव्य 'परशुरामद्वारा' नामक राजकीय स्मारक इसका प्रमाण है। 'परशुरामसागर' नामक उपदेशात्मक रचना में इनकी कृतियों का संग्रह मिलता है जो राजस्थानीप्रभावित हिन्दी में है। तीर्थराज पुष्कर में भी इनकी तपोभूमि है। वहाँ से कुछ दूर किसनगढ़ राज्य के सलीमाबाद स्थान में इन्होंने किसी फकीर के प्रभाव को कुण्ठित कर वहाँ अपना वर्चस्व स्थापित किया था, तब से वह स्थान हिन्दू धर्मप्रचार का केन्द्र और परशुरामदेव के भक्तों की गुरुगद्दी हो गया। आजकल भी इस गद्दी के उत्तराधिकारी वैष्णव सन्त धर्मप्रचार में अग्रसर रहते हैं।

पराङ्कुश : विशिष्टाद्वैत संप्रदाय के मान्य लेखक श्रीनिवासदास ने 'यतीन्द्रमतदीपिका' (पूना सं०, पृ० 2) में अनेक वेदान्ताचार्यो का नामोल्लेख किया है उनमें पराङ्कुश आचार्य भी एक हैं।

पराशर : (1) ऋग्वेद (7.18.21) में शत्यातु तथा वसिष्ठ के साथ पराशर का भी उल्लेख है। निरुक्त (6.30) के अनुसार पराशर वसिष्ठ के पुत्र थे। किन्तु वाल्मीकिरामायण में इन्हें शक्ति का पुत्र तथा वसिष्ठ का पौत्र कहा गया है। गेल्डनर का मत है कि पराशर का उल्लेख ऋग्वेद में शत्यातु तथा वसिष्ठ के साथ हुआ है जो संभवतः उनके चाचा तथा पितामह (क्रमशः) थे। जिन सात ऋषियों को ऋग्वेदीय मन्त्रों के सम्पादन का श्रेय है उनमें पराशर का नाम भी सम्मिलित है।

(2) पराशर नामक स्मृतिकार भी हुए हैं जिन्होंने पराशरस्मृति की रचना की। वर्तमान युग के लिए यह स्मृति अधिक उपयोगी मानी जाती है : `कलौ पाराशरः स्मृतः।`

(3) महाभारत में भी पराशर की कथा आती है। ये व्यास के पिता थे। इसीलिए व्यास को पाराशर्य अथवा पाराशरि कहा जाता है।

(4) वराहमिहिर के पूर्व पराशर एवं गर्ग प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् हो चुके थे।

(5) पराशर नामक एक प्राचीन वेदान्ताचार्य भी थे। रामानुज स्वामी के शिष्य कूरेश के पुत्र का नाम भी पराशर था जिन्होंने रामानुज की आज्ञा से 'विष्णुसहस्रनाम' पर भाष्य लिखा।

पराशरमाधव : माधवाचार्य द्वारा रचित यह ग्रन्थ पराशरस्मृति के ऊपर एक निबन्ध है। स्मृतिशास्त्र की ऐसी उपयोगी रचना सम्भवतः दूसरी नहीं है। पराशरस्मृति में जिन विषयों पर, विशेष कर व्यवहार (न्याय कार्य) पर प्रकाश नहीं डाला गया है उन सबको दूसरी स्मृतियों से लेकर पराशरमाधव में जोड़ दिया गया है।

धर्मशास्त्र के अनुसार पराशरस्मृति की रचना कलियुग के लिए हुई, किन्तु आकार और विषय की दृष्टि से यह छोटी स्मृति है। इसका महत्त्व स्थापित करने तथा परम्परा को उचित सिद्ध करने के लिए माधव ने 'पराशरमाधवीय' का प्रणयन किया। सुदूर दक्षिण में हिन्दू विधि पर यह प्रमाण ग्रन्थ माना जाता है। इसके मुद्रित संस्करण में 2300 पृष्ठ पाये जाते हैं।

पराशरसंहिता (स्मृति) : स्मृतिशास्त्र में पराशरस्मृति अथवा संहिता प्रसिद्ध रचना मानी जाती है। इस संहिता का प्रणयन कलियुग के लिए किया गया था। इसके प्रास्ताविक श्लोकों में लिखा है कि ऋषि लोग व्यास के पास जाकर प्रार्थना करने लगे कि आप कलियुग के लिए धर्मोपदेश करें। व्यासजी ऋषियों को अपने पिता पराशर के पास ले गये, जिन्होंने इस स्मृति का प्रणयन किया। इसके प्रथम अध्याय में स्मृतियों (उन्नीस) की गणना की गयी है और कहा गया है कि मनु, गौतम, शंख-लिखित तथा पराशर स्मृतियाँ क्रमशः सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग के लिए प्रणीत हुई हैं।

परिकरविजय : यह दोद्दयाचार्य कृत एक ग्रन्थ है।

परिक्रमा : संमान्य स्थान या व्यक्ति के चारों ओर उसकी दाहिनी तरफ से घूमना। इसको प्रदक्षिणा करना भी कहते हैं जो षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। प्रायः सोमवती अमावस को महिलाएँ पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमायें करती हैं। इसी प्रकार दुर्गादेवी की परिक्रमा की जाती है। पवित्र धर्मस्थानों, अयोध्या, मथुरा आदि पुण्यपुरियों की परिक्रमा कार्तिक में समारोह से की जाती है। काशी की पंचक्रोशी (25 कोस की), व्रज में गोवर्धन पर्वत की सप्तक्रोशी, व्रजमंडल की चौरसी कोसी, नर्मदा जी की अमरकंटक से समुद्र तक छःमासी और समस्त भारतखण्ड की वर्षों में पूरी होने वाली---इस प्रकार की विविध परिक्रमाएँ धार्मिकों में प्रचलित हैं। व्रजभूमि में 'डण्डौती' परिक्रमा भूमि में पद-पद पर दण्डवत् लेटकर पूरी की जाती है। यही 108-108 वार प्रति पद पर आवृत्ति करके वर्षों में समाप्त होती है।

परिणामवाद : परिणाम का शाब्दिक अर्थ है परिणति, फलन, विकार अथवा परिवर्तन। जगत् रचना के सम्बन्ध में सांख्य दर्शन परिणामवाद को मानता है। इसके अनुसार सृष्टि का विकास उत्तरोत्तर विकार या परिणाम द्वारा अव्यक्त प्रकृति से स्वयं होता है। कार्य कारण में अन्तर्निहित रहता है, जो अनुकूल परिस्थिति आने पर व्यक्त हो जाता है। यह सिद्धान्त न्याय के 'प्रारम्भवाद' अथवा वेदान्त के 'विवर्तवाद' से भिन्न है।

परिणामी सम्प्रदाय : वैष्णवों का एक उप सम्प्रदाय 'परिणामी' अथवा 'प्रणामी' है। इसके प्रवर्तक महात्मा प्राणनाथजी परिणामवादी वेदान्ती थे। ये विशेषतः पन्ना (बुन्देलखण्ड) में रहते थे। महाराज छत्रसाल इन्हें अपना गुरु मानते थे। ये अपने को मुसलमानों का मेंहदी, ईसाइयों का मसीहा और हिन्दुओं का कल्कि अवतार कहते थे। इन्होंने मुसलमानों से शास्त्रार्थ भी किये। सर्वधर्मसमन्वय इनका लक्ष्य था। इनका मत निम्बार्कियों जैसा था। ये गोलोकवासी श्री कृष्ण के साथ सख्य-भाव रखने की शिक्षा देते थे। प्राणनाथजी की रचनाएँ अनेक हैं। उनकी शिष्यपरम्परा का भी अच्छा साहित्य है। इनके अनुयायी वैष्णव हैं और गुजरात, राजस्थान, बुन्देलखण्ड में अधिक पाये जाते हैं। दे० 'प्राणनाथ'।

परिधिनिर्माण : परिधि का उल्लेख ऋग्वेद (पुरुषसूक्त) में पाया जाता है : `सप्तास्यासन् परिधयः`।

[ईश्वर ने एक-एक लोक के चारों ओर सात-सात परिधियाँ ऊपर-ऊपर रची हैं।] गोल वस्तु के चारों ओर एक सूत के नाप का जितना परिमाण होता है उसको परिधि कहते हैं। ब्रह्माण्ड में जितने लोक हैं, ईश्वर ने उनमें एक-एक के ऊपर सात-सात आवरण बनाये हैं। एक समुद्र, दूसरा त्रसरेणु, तीसरा मेघमण्डल का वायु, चौथा वृष्टिजल, पाँचवाँ वृष्टिजल के ऊपर का वायु, छठा अत्यन्त सूक्ष्म वायु जिसे धनञ्जय कहते हैं और सातवाँ सूत्रात्मा वायु जो धनञ्जय से भी सूक्ष्म है। ये सात परिधियाँ कहलाती हैं।

परिभाषा : (1) किसी भी वैदिक यज्ञक्रिया को समझने के लिए तीनों श्रौतसूत्रों के (जो तीनों वेदों पर अलग-अलग आधारित हैं) कर्मकाण्ड वाले अंश का अध्ययन वेद-विद्यार्थी के लिए आवश्यक होता था। इस कार्य के लिए कुछ और ग्रन्थ रचे गये थे, जिन्हें परिभाषा कहते हैं। इन परिभाषा ग्रन्थों में यह दिखाया गया है कि किस प्रकार तीनों वेदों के मत का किसी यज्ञ विशेष के लिए उचित रूप से प्रयोग किया जाय।

(2) पाणिनीय सूत्रों पर आधारित व्याकरण शास्त्र का एक व्यवस्थित नियमप्रयोजक ग्रन्थ परिभाषा कहलाता है।

परिभाषेन्दुशेखर : यह पाणिनीय सूत्रों पर आधारित व्याकरणशास्त्र के परिभाषा भाग के ऊपर नागेश भट्ट की एक रचना है।

परिमल : शांकर भाष्य का उपव्याख्या ग्रन्थ। इसकी रचना अप्पय दीक्षित ने स्वामी नृसिंहाश्रम की प्रेरणा से की। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शाङ्कर भाष्य की व्याख्या 'भामती' है, भामती की टीका 'कल्पतरु' है और कल्पतरु की व्याख्या 'परिमल' है।

परिव्राजक : इसका शाब्दिक अर्थ सब कुछ त्यागकर परिभ्रमण करने वाला है। परिव्राजक चारों ओर भ्रमण करने वाले संन्यासियों (साधु-संतों) को कहते हैं। ये संसार से विरक्त तथा सामाजिक नियमों से अलग रहते हुए अपना समय ध्यान, शास्त्रचिन्तन, शिक्षण आदि में व्यय करते हैं। ये वृक्षों के नीचे सोते तथा भिक्षा से भोजन प्राप्त करते हैं। परिव्राजक कब होना चाहिए, इस सम्बन्ध में शास्त्रों में मतभेद है। साधारणतः ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ आश्रम क्रमशः पूरा करने के पश्चात् परिव्राजक होने का विधान है। किन्तु उपनिषद् काल से ही वैराग्य वाले व्यक्ति के लिए यह प्रतिबन्ध नहीं था। उसके लिए विकल्प था :

यदहरेव विरजेत् तदहरेव परिव्रजेत्।

[जिस दिन वैराग्य हो, उसी दिन परिव्राजक हो जाना चाहिए।]

परुष्णी : रावी नदी का यह वैदिक नाम है। नदीस्तुति (ऋग्वेद, 10.75.5) तथा सुदास की विजय गाथा में परुष्णी नदी का उल्लेख है। यह नहीं कहा जा सकता कि सुदास की विजय में इसका क्या योग था, किन्तु अधिकांश विद्वानों का मत है कि शत्रु इसके प्रवाह की दिशा बदलने के प्रयत्न में इसकी तेज धारा में बह गये। ऋग्वेद के आठवें मण्डल (8.74.15) में इसे महानद कहा गया है। आदे चलकर इस नदी का नाम इरावती (रावी) पड़ा, जिसका उल्लेख यास्क ने किया है। पिशेल के मतानुसार 'परुष्णी' शब्द का ऊर्णा (ऊन) से सम्बन्ध है। उनका कहना है कि इसका नाम पुरुष+ ऊर्णा से गठित हुआ है।

पर्जन्य : यह एक वैदिक देवता का नाम है। ऋग्वेदीय देवताओं को तीन भागों में बाँटा गया है : पार्थिव, वायवीय एवं स्वर्गीय। वायवीय देवों में पर्जन्य की गणना होती है। प्रोफेसर स्थ्रेडर के मत से सातवें आदित्य का नाम पर्जन्य है, जो पहले द्यौ का ही एक विरुद था। पर्जन्य भी द्यौ एवं वरुण के सदृश वृष्टिदाता है। ऋग्वेद (5.83) में पर्जन्य सम्बन्धी ऋचाएँ ठीक उसी प्रकार की हैं जैसी मित्रावरुण अथवा वरुण के सम्बन्ध की।

पर्ण : ऋग्वेद (10.97.5) में इसका उल्लेख अश्वत्त्थ के साथ तथा अथर्ववेद (5.5.5) में अश्वत्त्थ एवं न्यग्रोध के साथ हुआ है। इसकी लकड़ी से यज्ञ की स्थालियों के ढक्कन, यज्ञ के अन्य उपादान जुहू या यज्ञस्तम्भ तथा स्रुव बनते थे। इसके छिलके (पर्णवल्क) का भी कहीं-कहीं उल्लेख हुआ है। अतः इसका अर्थ प्रचलित पलाश (पत्र) की अपेक्षा पूर्वकाल का कोई वृक्ष होना चाहिये।

पर्णक : पुरुषमेध के बलिपदार्थों की सूची के अन्तर्गत यह व्यक्तिनाम वाजसनेयी संहिता तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण में उल्लिखित है। महीधर के अनुसार इससे भिल्ल का बोध होता है। सायण के मतानुसार इससे मछली पकड़ने वाले ऐसे व्यक्ति का बोध होता है, जो पानी पर एक पर्ण (विषसहित पत्ता) रखकर मछलियाँ पकड़ता है। किन्तु यह केवल शाब्दिक अटकलबाजी है। वेबर के मतानुसार इसका अर्थ पंख धारण करने वाला एक जंगली जीव है, किन्तु यह अर्थ भी अनिश्चित है।

पर्णय : ऋग्वेद की दो ऋचाओं (1.43.8;10.48.2) में उद्धृत यह या तो किसी नायक का नाम है, जैसा कि लुड्विग सोचते हैं, अथवा दानव का, जो इन्द्र द्वारा विजित हुआ।

पर्यङ्क : कौषीतकि उपनिषद् (1.5) में ब्रह्मा के आसन का नाम पर्यङ्क है। यह सम्भवतः दूसरे स्थानों पर प्रयुक्त आसन्दी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ शय्या नहीं है, जैसा कि उपनिषद् में प्रयुक्त है। सिंहासन के अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ है।

पर्वत : ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में पर्वत का गिरि के अर्थ में प्रयोग हुआ है। संहिताओं में पर्वतों के पंखों का काल्पनिक वर्णन है। कौषीतकि उपनिषद् में दक्षिणी तथा उत्तरी पर्वतों के नामोल्लेख हैं, जिनसे स्पष्टतः हिमालय एवं विन्ध्य पर्वतों का बोध होता है। अथर्ववेद में पर्वतों पर ओषधि एवं अञ्जन की उत्पत्ति का उल्लेख है।

पर्वतशिष्यपरम्परा : शङ्कराचार्य से संन्यासियों का दसनामी सम्प्रदाय प्रचलित हुआ। उनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हुए। इन दसों के नाम से संन्यासियों के दस भेद हो गये। शङ्कराचार्य ने चार मठ भी स्थापित किये थे, जिनके अधीन इन प्रशिष्यों की शिष्यपरम्परा चली आती है। जोशीमठ के संन्यासी 'पर्वत' उपाधि धारण करते हैं।

पर्वताष्टमीव्रत : चैत्र शुक्ल अष्टमी के दिन पर्वतों-हिमवान्, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत, श्रृंगवान्, मेरु, माल्यवान्, गन्धमादन पर्वतों तथा किम्पुरुषवर्ष एवं उत्तर कुरु की पूजा करनी चाहिए। चैत्र शुक्ल नवमी को उपवास करना चाहिए। एक वर्ष तक यह अनुष्ठान चलता है। वर्ष के अन्त में चाँदी का दान करने का विधान है। दे० विष्णुधर्म०, 3.174.1-7।

पर्व : गन्ना, सरकण्डा, जुआर आदि के पौधों की गाँठों को पर्व कहते हैं। इसका एक अर्थ शरीरस्थित मेरुदण्ड (रीढ़) का पोर भी होता है। काल के विभाजक ग्रहों की स्थिति भी इसका अर्थ है, यथा अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति, अयनारम्भ। इसी आधार पर साममन्त्रों के गीतिविभाग तथा महाभारत के कथाविभाग भी पर्व कहलाते हैं।

विशेष तिथियाँ, जयन्तियाँ, चतुर्दशी, अष्टमी, एकादशी, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण आदि भी पर्व कहलाते हैं। पर्व के दिन तीर्थयात्रा, दान, उपवास, जप, श्राद्ध, भोज, उत्सव, मेला आदि होते हैं। मधु-मांसादि के सेवन का उस दिन निषेध है। हिन्दू, चाहे किसी पन्थ या सम्प्रदाय के क्यों न हों, पर्व मनाते और तीर्थयात्रा करते हैं।

पर्वभूभोजनव्रत : इस व्रत में पर्व के दिनों में खाली भूमि पर भोजन किया जाता है। शिव इसके देवता हैं। इससे अतिरात्र यज्ञ के फलों को उपलब्धि होती है।

पलाल : अथर्ववेद (8.6.2) में इस का प्रयोग अनु-पलाल के साथ हुआ है। इस शब्द का अर्थ पुवाल है। इसके स्त्रीलिङ्ग रूप 'पलाली' का उल्लेख अथर्ववेद (28.2) में जौ के भूसा के अर्थ में हुआ है। धार्मिक कृत्यों के लिए पलाल से मण्डप तैयार किया जाता है। सामान्यतः बाली रहित धान के सूखे पौधे को पलाल कहते हैं।

पवन : पवन (पवित्र करने वाला) का प्रयोग अथर्ववेद में अन्न के दानों को उसके छिलके से अलग करने के सहायक छलनी या सूप के अर्थ में हुआ है। गतिशील वायु के अर्थ में यह शब्द रूढ़ हो गया है।

पवनव्रत : साठ व्रतों में यह भी है। माघ मास में इसका अनुष्ठान होता है। व्रती को इस दिन गीले वस्त्र धारण करना तथा एक गौ का दान करना चाहिए। इससे व्रती एक कल्प तक स्वर्ग में वास करने के बाद राजा होता है। माघ बहुत ही ठण्डा मास है। यह एक प्रकार का शीतसह तप है।

पवमान : ऋग्वेद में इस शब्द का प्रयोग सोम के लिए हुआ है जो स्वतः चलनी के मध्य से छनकर विशुद्ध होता है। पश्चात् अन्य संहिताओं के उल्लेखों में इसका अर्थ वायु (बहने वाला) है, जो शोधक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'प्रवहमान' (शुद्ध होने या करने वाला)।

पवित्र : कुश घास का बटा हुआ छल्ला, जो धार्मिक अनुष्ठान के समय अनामिका अँगुली में धारण किया जाता है। इसके द्वारा यज्ञ करने वाले तथा यज्ञीय सामग्री पर जल से अभिविञ्जन किया जाता है। सोना, चाँदी, ताँवा मिला कर बनाया गया छल्ला भी पवित्र कहलाता है। वस्त्र या ऊँन का छल्ला भी पवित्र कहा जाता है : 'पूतं पवित्रेण इव आज्यम्।'

पवित्रारोपणव्रत : इस व्रत में किसी देवप्रतिमा को पवित्रसूत्र अथवा जनेऊ पहनाना होता है। हेमाद्रि (चतुर्वर्गचिन्तामणि 2.440-453) औऱ ईशानशिवगुरुदेवपद्धति आदि विस्तार से इसका उल्लेख करते हैं। पवित्रारोपण उन त्रुटियों तथा दोषों के परिमार्जनार्थ है जो समय असमय पूजा तथा अन्य धार्मिक कृत्यों में होते रहते हैं। यदि प्रति वर्ष इस व्रत का आचरण न किया जाता तो इन सब संकल्पों तथा कामनाओं की सिद्धि नहीं होती जो व्रती को अभीष्ट हैं। यदि भिन्न-भिन्न देवों को पवित्र सूत्र पहनाना हो तो तिथियाँ भी भिन्न भिन्न होनी चाहिए। भगवान वासुदेव को सूत्र पहनाने के लिए श्रावण शुक्ल द्वादशी सर्वोत्तम है। भिन्न-भिन्न देवगण का पवित्रारोपण निम्नोक्त तिथियों में करना चाहिए : प्रतिपदा को कुबेर, द्वितीया को तीनों देव, तृतीया को भवानी चतुर्थी को गणेश, पंचमी को चन्द्रमा, षष्ठी को कार्तिकेय, सप्तमी को सूर्य, अष्टमी को दुर्गाजी, नवमी को मातृदेवता, दशमी को वासुकि, एकादशी को ऋषिगण द्वादशी को विष्णु, त्रयोदशी को कामदेव, चतुर्दशी को शिवजी, और पूर्णिमा को ब्रह्मा।

शिवजी को पवित्र धागा पहनाने की सर्वोत्तम तिथि है आश्विन मास के कृष्ण अथवा शुक्ल पक्ष की अष्टमी या चतुर्दशी; मध्यम तिथि है श्रावण मास की तथा अधम है भाद्रपद की। मुमुक्षुओं को सर्वदा कृष्ण पक्ष में ही पवित्रारोपण करना चाहिए। सामान्य जन शुक्ल पक्ष में यह व्रत कर सकते हैं। पवित्रसूत्र सुवर्ण, रजत, ताम्र, रेशम, कमलनाल, दर्भ अथवा रुई के बने हों जिन्हें ब्राह्मण कन्याएँ कातें तथा काटकर बनायें। क्षत्रिय, वैश्य कन्याएँ (मध्यम) अथवा शूद्र कन्याएँ (अधम कोटि के सूत्र) भी बना सकती हैं।

पवित्र सूत्र में शत ग्रन्थियाँ (सर्वोत्तम) हों, नहीं तो कम से कम आठ। पवित्र का तात्पर्य है यज्ञोपवीत, जो किसी वस्तु के धागे या माला के द्वारा निर्मित हो सकता है। महाराष्ट्र में इसे 'पोमवतेम' कहा जाता है।

पशु : (1) पाशुपत सम्प्रदाय में पति, पशु और पाश तीन प्रधान तत्त्व हैं। पति स्वयं शिव हैं, पशु जीवगण हैं तथा पाश सांसारिक बन्धन है जिससे प्राणी बँधा रहता है। पति (शिव) की कृपा से पशु (मनुष्य) पाश (सांसारिक बन्धन) से मुक्त होता है। दे० 'पाशुपत'।

(2) सभी जीवधारी, जिनमें मनुष्य भी सम्मिलित है। यज्ञ के उपयोगी पाँच पशुओं का प्रायः उल्लेख हुआ है-- अश्व, गौ, मेष (भेड़), अज (बकरा) तथा मनुष्य। अथर्ववेद (3.10,6) तथा परवर्ती ग्रन्थों में सात घरेलू पशुओं का उल्लेख है। पशुओं का वर्गीकरण 'उभयतोदन्त' एवं 'अन्यतोदन्त' के रूप में भी हुआ है। दूसरा और भी विभाजन है : 'वन्दर आदि। दूसरा, मुँह से पकड़ने वाले (मुखादान)। अन्य प्रकार का विभाजन द्विपाद एवं चतुष्पाद का है। मनुष्य द्विपाद है जो पशुओं में प्रथम है। मुँह से चरने वाले पशु प्रायः चतुष्पाद (चौपाये) होते हैं। पशुओं में एक मनुष्य ही शतायु होता है और वह इसीलिए पशुओं का राजा है। बौद्धिक दृष्टिकोण से वनस्पतियों, पशुओं एवं मनुष्यों में भेद ऐतरेय आरण्यक में विशद रूप से निर्दिष्ट है। मनुष्यों को छोड़कर पशुओं को वायव्य, आरण्य एवं ग्राम्य तीन भागों में बाँटा गया है (ऋग्वेद)।

पशुपति : पशुपति (पशुओं के स्वामी) का प्रयोग रुद्र के विरुद के रूप में अति प्राचीन साहित्य में मिलता है। 'पशुपति' पशुओं (मनुष्यों) के स्वामी हैं। पशु जीवधारी हैं जो संसार के पाश में जकड़े गये हैं। वे पशुपति की कृपा से ही मुक्ति पा सकते हैं। दे० 'पाशुपत'।

पशुपति उपपुराण : उन्तीस उपपुराणों में पशुपति उपपुराण भी समाविष्ट है। निश्चय ही यह शैव उपपुराण है। इसमें पाशुपत सम्प्रदाय के सिद्धान्तों और क्रियाओं का वर्णन पाया जाता है।

पशुपतिनाथ : नेपाल की राजधानी काठमांडू में स्थित प्रसिद्ध शैवतीर्थ। बिहार प्रदेश के मुजफ्फरपुर, रक्सौल होते हुए नेपाल सरकार के अमलेखगंज, भीमफेदी, थानकोट होता हुआ मार्ग काठमांडू जाता है। वहाँ से लगभग दो मील पर पशुपतिनाथजी का मन्दिर है। काठमांडू विष्णुमती और बागमती नामक नदियों के संगम पर बसा हुआ है। पशुपतिनाथ बागमती नदी के तट पर हैं। कुछ दूर पर नेपाल के रक्षक योगी मछंदरनाथ (मत्स्येन्द्रनाथ) का मन्दिर है। पशुपतिनाथ पञ्चमुखी शिवलिंग रूप में हैं जो भगवान् शिव की पञ्चतत्व मूर्तियों में एक माने जाते हैं। महिषरूपधारी शिव का यह शिरोभाग है, इनका धड़ केदारनाथजी माने जाते हैं। नन्दी की विशाल मूर्ति पास में है। कुछ दूर पर गुह्येश्वरी देवी का प्रसिद्ध मन्दिर है। 51 पीठों में इसकी गणना है। शैव, शाक्त, पाशुपत, तन्त्र, बौद्ध आदि सभी सम्प्रदायों का यहाँ संगम है।

पशुपतिसूत्र : पाशुपत शैवों का आधार ग्रन्थ पशुपतिसूत्र अथवा पाशुपत शास्त्र माना जाता है। किन्तु इसकी कोई प्रति कहीं उपलब्ध नहीं हुई है।

पशुहिंसानिवारण : वैष्णव आचार्य मध्व ने यज्ञों में पशुहिंसा का विरोध किया था। दुराग्रही लोगों के संतोषार्थ इन्होंने पशुबलि के स्थान पर 'पिष्ट पशु' या अन्न का पशु बनाकर बलि देने का प्रचार किया। इसमें वैष्णव धर्म का जीवदया वाला भाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है।

पश्वाचारभाव : शक्ति के उपासक तान्त्रिक लोग तीन भावों का आश्रय लेते हैं। वे दिव्य भाव से देवता का साक्षात्कार होना मानते हैं। वीर भाव से क्रिया की सिद्धि होती है, जिसमें साधक साक्षात् रुद्र हो जाता है। पशु भाव से ज्ञान सिद्धि होती है। इन्हें क्रम से दिव्याचार, वीराचार तथा पश्वाचार भी कहते हैं। साधक पशुभाव से ज्ञान प्राप्त करके वीर भाव के द्वारा रुद्रत्व प्राप्त करता है, तब दिव्याचार द्वारा देवता की तरह क्रियाशील हो जाता है। इन भावों का मूल निस्सन्देह शक्ति है।

पाखण्डमत : पद्मपुराण के पाषण्डोत्पत्ति अध्याय में लिखा है कि लोगों को भ्रष्ट करने के लिए ही शिव की दुहाई देकर पाखण्डियों ने अपना मत प्रचलित किया है। इस पुराण में जिसको पाखण्डी मत कहा गया है, तन्त्र में उसी को शिवोक्त आदेश कहा गया है। बुद्ध अपने द्वारा उपदिष्ट सम्प्रदाय के अतिरिक्त अन्य मत वालों को पाषण्डी अथवा पाखण्डी कहते थे। प्राचीन धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में इसका अर्थ बौद्ध और जैन सम्प्रदाय है। न्याय और शासन के कर्तव्य निर्देशार्थ जहाँ कुछ विधान विधर्मी प्रजाओं के लिए किया गया है, वहाँ उन्हें पाखण्डी, पाखण्डधर्मी कहा गया है। इसमें निन्दा का भाव नहीं, वेदमार्ग से भिन्न पथ या उसका अनुयायी होने का अर्थ है।

धार्मिक संकीर्णतावश बोलचाल में अपने से भिन्न मत वाले को भी पाखण्डी कह दिया जाता है। जैसे कि वैष्णवों के मत में तन्त्रशास्त्र पाखण्ड मत कहा गया है।

पाञ्चरात्र मत : वैष्णव सम्प्रदाय का एक रूप। पाँच प्रकार की ज्ञानभूमि पर विचारित होने के कारण यह मत पाञ्चरात्र कहा गया है :

रात्रं च ज्ञानवचनं ज्ञानं पञ्चविधं स्मृतम्।'

इस मत के सिद्धान्तानुसार सृष्टि की सब वस्तुएँ 'पुरुष, प्रकृति, स्वभाव, कर्म और दैव'--- इन पाँच कारणों से उत्पन्न होती हैं (गीता, 18.14)। महाभारत काल तक इस मत का विकास हो चुका था। ईश्वर की सगुण उपासना करने की परिपाटी शिव और विष्णु की उपासना से प्रचलित हुई। फिर भी वैदिक काल में ही यह बात मान्य हो गयी थी कि देवताओं में विष्णु का एक श्रेष्ठ स्थान है। इसी आधार पर वैष्णव धर्म का मार्ग धीरे-धीरे प्रशस्त होता गया और महाभारत काल में उसे 'पाञ्चरात्र' सत्ता मिली। इस मत की वास्तविक नींव भगवद्गीता में प्रतिष्ठित है, जिससे यह बात सर्वमान्य हुई कि श्री कृष्ण विष्णु के अवतार हैं। अतएव पाञ्चरात्र मत की मुख्य शिक्षा कृष्ण की भक्ति ही है। परमेश्वर के रूप में कृष्ण की भक्ति करने वाले उनके समय में भी थे, जिनमें गोपियाँ मुख्य थीं। उनके अतिरिक्त और भी बहुत से लोग थे।

इस मत के मूल आधार नारायण हैं। स्वायम्भुव मन्वन्तर में `सनातन विश्वात्मा से नर, नारायण, हरि औऱ कृष्ण चार मूर्तियाँ उत्पन्न हुईं। नर-नारायण ऋषियों ने बदरिकाश्रम में तप किया। नारद ने वहाँ जाकर उनसे प्रश्न किया। इस पर उन्होंने नारद को पाञ्चरात्र धर्म सुनाया।`

इस धर्म का पहला अनुयायी राजा उपरिचर वसु हुआ। इसी ने पाञ्चरात्र विधि से पहले नारायण की पूजा की। चित्रशिखण्डी उपनामक सप्त ऋषियों ने वेदों का निष्कर्ष निकालकर पाञ्चरात्र शास्त्र तैयार किया। स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षि मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ हैं। इस शास्त्र में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चारों का विवेचन है। यह ग्रन्थ पहले एक लाख श्लोकों का था, ऐसा विश्वास किया जाता है। इसमें प्रवृति और निवृत्ति दोनों मार्ग हैं। दोनों मार्गों का यह आधार स्तम्भ है। दे० महाभारत, शान्तिपर्व, ना० उ०।

पाञ्चरात्र मतानुसार वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध का श्री कृष्ण के चरित्र से अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसी आधार पर पञ्चरात्र का चतुर्व्यूह सिद्धान्त गठित हुआ है। 'व्यूह' का शाब्दिक अर्थ है 'विस्तार', जिसके अनुसार विष्णु का विस्तार होता है। वासुदेव स्वयं विष्णु हैं जो परम तत्त्व हैं। वासुदेव से संकर्षण (महत्तत्त्व, प्रकृति), संकर्षण से प्रद्युम्न (मनस्, विश्वजनीन), प्रद्युम्न से अनुरुद्ध (अहंकार, विश्वजनीन आत्मचेतना) और अनिरुद्ध से ब्रह्मा (स्रष्टा, दृश्य जगत् के) की उत्पत्ति होती है।

पाञ्चरात्र मत में वेदों को पूरा-पूरा महत्त्व तो दिया ही गया है, साथ ही वैदिक यज्ञ क्रियाएँ भी इसी तरह मान्य की गयी हैं। हाँ, यज्ञ का अर्थ अहिंसायुक्त वैष्णव यज्ञ है।

कहा जाता है कि यह निष्काम भक्ति का मार्ग है, इसी से इसे 'ऐकान्तिक' भी कहते हैं।

पाञ्चरात्रशास्त्र : दे० 'पाञ्चरात्र मत'।

पाञ्चरात्रसंहिता : आगमिक संहिताएँ 108 कही जाती हैं। किन्तु संख्या दूने से भी अधिक है। इनमें वैष्णवों के धर्म और आचार का विस्तृत वर्णन है। इनके भी दो विभाग हैं : पाञ्चरात्र और वैखानस। किसी मन्दिर में पाञ्चरात्र तथा किसी में वैखानस संहिताएँ प्रमाण मानी जाती हैं।

पाणिनि : संस्कृत भाषा के विश्वविख्यात व्याकरण ग्रन्थनिर्माता। उक्त ग्रन्थ आठ अध्यायों में होने के कारण अष्टाध्यायी कहा जाता है, आठ अध्यायों के चार-चार के हिसाब से बत्तीस पाद हैं। इस ग्रन्थ पर कात्यायन, पतञ्जलि, व्याडि आदि आचार्यों की व्याख्याएँ हैं। पाणिनि का निवास स्थान तक्षशिला के पास शलातुर ग्राम था। इनके स्थितिकाल के विषय में विद्वानों का मतैक्य नहीं है। विभिन्न इतिहासकार इनका समय दशवीं शती और चौथी शती ई० पू० के बीच कहीं रखते हैं।

पाणिनीयदर्शन : माधवाचार्यकृत 'सर्वदर्शनसंग्रह' में आस्तिक षड्दर्शनों के साथ चार्वाक, बौद्ध, आर्हत, पाशुपत, शैव, पूर्णप्रज्ञ, रामनुज, पाणिनीय और प्रत्यभिज्ञा इन नौ दर्शनों का परिचयात्मक उल्लेख है। परन्तु पाणिनीय, दर्शन का कोई मौलिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। संभवतः जिस प्रकार मीमांसा (विवेचन) को दार्शनिक रूप मिला उसी प्रकार व्याकरण की पद्धति को भी दर्शन का रूप मिला होगा। किन्तु दर्शन के रूप में व्याकरण उतना विकसित नहीं हुआ जितनी मीमांसा।

पाण्डुकेश्वर : बदरीनाथधाम क्षेत्र में ध्यानबदरी से दो मील दूर स्थित एक शिवमन्दिर। कहा जाता है कि यह मूर्ति महाराज पाण्डु द्वारा स्थापित की गयी थी। पाण्डु कुन्ती और माद्री अपनी दोनों रानियों के साथ यहाँ तपस्या करते थे। यहीं पाण्डवों का जन्म हुआ था।

पातञ्जल योग : अष्टाङ्ग योग ही पातञ्जल योग कहलाता है। इसके आठ अङ्ग हैं-- (1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान और (8) समाधि। इसी का नाम राजयोग है। इसमें विश्लेषण और ध्यान द्वारा चित्तवृत्तियों का विषयों से निरोध किया जाता है। इसी आधार पर आगे चलकर कई योग-- मार्गों हठयोग, लययोग आदि का प्रवर्तन हुआ। दे० 'योगदर्शन'।

पातालव्रत : यह चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को आरम्भ होता है। एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है। इसमें सप्त पातालों (निम्न लोकों) के क्रमशः नाम लेते हुए एक के पश्चात् दूसरे की पूजा करनी चाहिए। रात में भोजन करने का विधान है। वर्ष के अन्त में घर में दीप प्रज्वलित करके श्वेत वस्त्रों का दान करना चाहिए।

पादुकासहस्र : वेदान्ताचार्य वेङ्कटनाथ रचित एक प्रार्थना ग्रन्थ, जिसमें एक हजार पद्य हैं।

पादोदक : लिङ्गायतों के गुरु (दीक्षागुरु) जब उनके घर आते हैं तब पादोदक नामक उत्सव होता है। इसमें गुरु के पाद (चरण) धोने की क्रिया होती है। कुटुम्ब के सभी लोगों, मित्र, परिवार वालों के साथ घर का प्रमुख व्यक्ति गुरु के चरणों की षोडशोपचारपूर्वक पूजा करता है। फिर चरणोदक का पान, सिर पर अभिषिञ्चन तथा घर में छिड़काव होता है। दूसरे धार्मिक सम्प्रदायों में भी न्यूनाधिक मात्रा में चरणोदक का महत्त्व है।

पादोदकस्नान : इस व्रत का अनुष्ठान उत्तराषाढ़ नक्षत्र में होता है। इसमें उपवास करने का विधान है। श्रवण नक्षत्र में भगवान् हरि के चरणों का स्नान कराने के बाद रजत, ताम्र अथवा मृतिका के चार कलशों में भगवान् संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के चरण धोये जाते हैं। कलशों में कूप, निर्झर, सरोवर और सरिता का जल भरा जाना चाहिए। इस धार्मिक कृत्य से दुर्भाग्य, दारिद्र्य, विघ्नबाधाएँ, रोग-शोक दूर होते हैं तथा यश एवं सन्तानादि की प्राप्ति होती है।

पापनाशिनी सप्तमी : शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिष्य (पुष्य) नक्षत्र में पड़े तो वह बड़ी पवित्र होती है। उस दिन सूर्यपूजन करना चाहिए। व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर देवलोक को प्रस्थान करता है। हेमाद्रि के अनुसार यह योग श्रावण कृष्णपक्ष में पड़ता है।

पापनाशिनी एकादशी : फाल्गुन मास में जब बृहस्पतिवार हो तथा सूर्य कुम्भ अथवा मीन राशि पर स्थित हो, तथा एकादशी पुष्य नक्षत्र से युक्त हो तो वह पापनाशिनी कहलाती है।

पापमोचनव्रत : ऐसा विश्वास है कि कोई व्यक्ति बिल्व वृक्ष के नीचे बारह दिन तक निराहार बैठा रहे तो वह भ्रूणहत्या के पाप मुक्त हो जाता है। इसके शिव देवता हैं।

पारमार्थिक : शङ्कराचार्य के अनुसार सत्ता के चार भेद है : (2) मिथ्या अथवा अलीक, जिसके लिए केवल शब्द अथवा पद का प्रयोग मात्र होता है, किन्तु उसके समकक्ष पदार्थ नहीं हैं, जैसे आकाशकुसुम, शशविषाण, वन्ध्यापुत्र आदि। (2) प्रातिभाषिक, जो भ्रम के कारण दूसरे के सदृश दिखाई पड़ने वाले पदार्थों में आरोपित है, किन्तु वास्तविक नहीं, जैसे रज्जुसर्प, शुक्तिरजत आदि। (3) व्यावहारिक, जो संसार की सभी वस्तुओं में ठोस रूप से काम में आती है किन्तु तात्त्विक दृष्टि से अन्तिम विश्लेषण में वास्तविक नहीं ठहरती है, धन-सम्पत्ति, पुत्र-कलत्र, समाज, राज्य, व्यापार आदि। (4) पारमार्थिक, जो प्रथम तीन से परे, आत्मा अथवा वस्तुसत्ता से सम्बन्ध रखने वाली, ऐकान्तिक एवं अनिर्वचनीय है। वास्तव में यही अद्वैत सत्ता है।

पारस्करगृह्यसूत्र : मुख्य तेरह गृह्यसूत्रों में पारस्कर गृह्यसूत्र (अपर नाम कातीय गृह्यसूत्र) की गणना है। यह यजुर्वेदीय गृह्यसूत्र है। तीन काण्डों में इसका विभाजन हुआ है। गृह्यसंस्कारों, वस्तुसंस्कारों तथा ऋतुयज्ञों का विस्तृत वर्णन इसमें पाया जाता है। काशी संस्कृत सीरीज में कई भाष्यों के साथ इसका प्रकाशन हुआ है, इसके प्रमुख भाष्य हैं---अमृत व्याख्या (ले० नन्द पण्डित), अर्थभास्कर (ले० भास्कर), प्रकाश (ले० वेद मिश्र), संस्कारगणपति (ले० रामकृष्ण), सज्जनवल्लभा (ले० जयराम), भाष्य (ले० कर्क), भाष्य (ले० गदाधर), भाष्य (ले० हरिहर), भाष्य (ले० विश्वनाथ), भाष्य (ले० वासुदेव दीक्षित)।

पारावत : यजुर्वेदवर्णित अश्वमेध के बलिपशुओं की तालिका में पारावत (एक प्रकार के कबूतर) का नामोल्लेख है।

पाराशर : पाराशर से प्रवर्तित गोत्र। पराशर की गणना गोत्रऋषियों में की गयी है। महाभारतकार व्यास भी पाराशर हैं क्योंकि उनके पिता का नाम पराशर था। दे० 'पाराशरस्मृति'।

पाराशर उपपुराण : उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से पाराशर उपपुराण भी एक है।

पाराशर (द्वैपायन) ह्नद : हरियाना प्रदेशवर्ती यह तीर्थस्थान बहलोलपुर ग्राम के समीप, करनाल से कैथल जानेवाली सड़क से लगभग छः मील उत्तर है। कहा जाता है कि महाभारतयुद्ध के मैदान से भागकर दुर्योधन इसी सरोवर में छिप गया था। यह भी कहा जाता है कि महर्षि पराशर का आश्रम यहीं था। फाल्गुन शुक्ल एकादशी को यहाँ बड़ा मेला होता है।

पारिप्लव : पारिप्लव शब्द आख्यान के लिए व्यवहृत हुआ है, जिसका अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर पाठ किया जाता था तथा जो वर्षभर निश्चित काल के पश्चात् दुहराया जाता था। यह शतपथ ब्राह्मण (13.14,3,2-15) तथा श्रौतसूत्रों में वर्णित है।

पार्थसारथि मिश्र : मीमांसा दर्शन के कुमारिल भट्टकृत श्लोकवार्तिक की टीका 'न्यायरत्नाकर' की रचना पार्थसारथि मिश्र ने की है।

पूर्वमीमांसा के ग्रन्थकारों में इनका स्थान बड़ा सम्माननीय है। इनका स्थितिकाल लगभग 1357 वि० है। इनका 'शास्त्रदीपिका' आधुनिक शैली पर प्रस्तुत कर्ममीमांसा का ग्रन्थ है, जिसका अध्ययन प्राचीन ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक हुआ है। 'शास्त्रदीपिका' जैमिनि के पूर्वमीमांसासूत्र की टीका है। इनकी अन्य टीकाओं में 'तन्त्ररत्न', 'न्यायरत्नमाला' आदि प्रसिद्ध हैं।

पार्वत : शङ्कर के प्रशिष्यों में, जो दसनामी संन्यासी के नाम से विख्यात हुए, पर्वत भी एक थे। इनकी शिष्यपरम्परा पार्वत कहलायी। दे० 'दसनामी'।

पालीचतुर्दशीव्रत : भाद्र पद शुक्ल चतुर्दशी का व्रत है। यह तिथिव्रत है, वरुण इसके देवता हैं। एक मण्डल में वरुण की आकृति खींची जाय, समस्त वर्णों के लोग तथा महिलाएँ अर्घ्‍य दें, फल-फूल, समस्त धान्य तथा दधि से मध्याह्न काल में पूजन हो। इस व्रत के आचरण से व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर सौभाग्य प्राप्त करता है।

पाश : (1) पाशुपत शैव दर्शन में तीन तत्त्व प्रमुख हैं--पति, पशु और पाश। पति स्वयं शिव हैं, पशु उनके द्वारा उत्पन्न किये हुए प्राणी हैं तथा पाश वह बन्धन है जिससे जीव (पशु) सांसारिकता में बँधा हुआ है।

(2) ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में इसका अर्थ रस्सी है जिसे बाँधने या कसने के काम में लाया जाता है। रस्सी तथा ग्रन्थि का उल्लेख एक साथ अथर्ववेद (9.3,2) में आया है। पाश का उल्लेख शत० ब्रा० में मनु की नाव से बँधने वाली रस्सी के लिए हुआ है। वैदिक मन्त्रों में इसे वरुणपाश कहा गया है।

पाशुपत : पाशुपत सम्प्रदाय शैव धर्म की एक शाखा है। सम्पूर्ण जैव जगत् के स्वामी के रूप में शिव की कल्पना इसकी विशेषता है। यह कहना कठिन है कि सगुण उपासना का शैव रूप अधिक प्राचीन है अथवा वैष्णव। विष्णु एवं रुद्र दोनों वैदिक देवता हैं। परन्तु दशोपनिषदों में परब्रह्म का तादात्म्य विष्णु के साथ दिखाई पड़ता है। श्वेताश्वर उपनिषद् में यह तादात्म्य शङ्कर के साथ पाया जाता है। भगवद्गीता में भी `रुद्राणां शङ्करश्‍चास्मि` वचन है। यह निर्विवाद है कि वेदों से ही परमेश्वर के रूप में शङ्कर की उपासना प्रारम्भ हुई। यजुर्वेद में रुद्र की विशेष स्तुति है। यह यज्ञसम्बन्धी वेद है और यह मान्यता है कि क्षत्रियों में इस वेद का आदर विशेष है। धनुर्वेद यजुर्वेद का उपाङ्ग है। श्वेताश्वतर उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद की है। अर्थात् यह स्पष्ट है कि क्षत्रियों में यजुर्वेद और शङ्कर की विशेष उपासना प्रचलित है। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य है कि क्षत्रिय युद्धादि कठोर कर्म किया करते थे, इस कारण उनमें शङ्कर की भक्ति रूढ़ हो गयी। महाभारत काल में पाञ्चरात्र के समान तत्त्वज्ञान में भी पाशुपात मत को प्रमुख स्थान मिल गया।

पाशुपत तत्‍त्वज्ञान शान्तिपूर्व के 249वें अध्याय में वर्णित है। महाभारत में विष्णु की स्तुति के बाद बहुधा शीघ्र ही शङ्कर की स्तुति आती है। इस नियम के अनुसार नारायणीय उपख्यान के समान पाशुपत मत का सविस्तार वर्णन महाभारत, शान्तिपर्व के 280वें अध्याय में आया है। 284वें अध्याय में विष्णु स्तुति के पश्चात् दक्ष द्वारा शङ्कर की स्तुति की गयी है। इस समय शङ्कर ने दक्ष को 'पाशुपतव्रत' बतलाया है। इस वर्णन से पाशुपतमत की कल्पना की गयी है।

इस मत में पशुपति सब देवों में मुख्य हैं। वे ही सारी सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता हैं। पशु का अर्थ समस्त सृष्टि है, अर्थात् ब्रह्मा से स्थावर तक सब पदार्थ। उनकी सगुण भक्ति करने वालों में कार्तिकेय स्वामी, पार्वती और नन्दीश्वर भी सम्मिलित किये जाते हैं। शङ्कर अष्टमूर्ति हैं, उनकी मूर्तियाँ हैं-- पञ्च महाभूत, सूर्य, चन्द्र और पुरुष। अनुशासन पर्व में उपमन्युचरित्र के साथ इस मत के विकास का थोड़ा आख्यान दृष्टिगोचर होता है।

पाशुपत तथा पाञ्चरात्र मत में अति सामीप्य है। दोनों के मुख्य दार्शनिक आधार सांख्य तथा योग दर्शन हैं।

शैव धर्म के सम्बन्ध में एक बात और ध्यान देने योग्य है कि पाशुपात ग्रन्थों में लिङ्ग को अति अर्चनीय बतलाया गया है। आज भी शैव लिङ्गपूजक हैं। इसका प्रचलन कब से है, यह विवादास्पद है। पुरातत्त्वज्ञों के विचार से यह ईसा के पूर्व से चला आ रहा है। ऋग्वेद के शिश्नदेव शब्द से इसके प्रचार की झलक मिलती है। संभवतः भारत के आदिवासियों में प्रचलित धर्म से इसका प्रारम्भ माना जा सकता है। हिन्दुओं द्वारा लिङ्गार्चन मूर्तियों और मन्दिरों में पहले से ही प्रवर्तित था, किन्तु ब्राह्मणों द्वारा इसे ई० सन् के बाद मान्यता प्राप्त हुई। पाशुपत मत के गठन के समय तक लिङ्गपूजा को मान्यता मिल चुकी थी। अथर्वशिरस्-उपनिषद् में पाशुपत मत का विवरण है तथा यह महाभारत में वर्णित पाशुपत प्रकरण का समकालीन ही है। रुद्र पशुपति को इसमें सभी पदार्थों का प्रथम तत्त्व बताया गया है तथा वे ही अन्तिम लक्ष्य हैं। यहाँ पर पति, पशु और पाश तीनों का उल्लेख है तथा 'ओम' के उच्चारण के साथ योग साधना को श्रेष्ठ बताया गया है। इसी समय की तीन और पाशुपत उपनिषदें हैं--अथर्वशिरस्, नीलरुद्र तथा कैवल्य।

पाशुपत सम्प्रदाय के सिद्धान्त संक्षेप में इस प्रकार हैं--जीव की संज्ञा 'पशु' है, अर्थात् जो केवल जैव स्तर पर इन्द्रियभोगों में लिप्त रहता है वह पशु है। भगवान् शिव पशुपति हैं। उन्होंने बिना किसी बाहरी कारुण, साधन अथवा सहायता के इस संसार का निर्माण किया है। वे जगत् के स्वतन्त्र कर्त्ता हैं हमारे कार्यों के भी मूल कर्त्ता शिव ही हैं। वे समस्त कार्यों के कारण हैं। संसार के मल-- विषय आदि पाश हैं जिनसे जीव बँधा रहता है। इस पाश अथवा बन्धन से मुक्ति शिव की कृपा से प्राप्त होती है। मुक्ति दो प्रकार की है; सब दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति औऱ परमैश्वर्य की प्राप्ति। द्वितीय भी दो प्रकार की है; दृक्-शक्तिप्राप्ति और क्रिया-शक्तिप्राप्ति। दृक्शक्ति से सर्वज्ञाता प्राप्त होती है, क्रियाशक्ति से वांछित पदार्थ तुरंत प्राप्त होते हैं। इन दोनों शक्तियों की प्राप्ति ही परमैश्वर्य है। केवल भगवद्दासत्व की प्राप्ति मुक्ति नहीं बन्धन है।

पाशुपत दर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम तीन प्रमाण माने जाते हैं। धर्मार्थसाधक व्यापार को विधि कहते हैं। विधि दो प्रकार की होती है - व्रत और द्वार। भस्मस्नान, भस्मशयन, जप, प्रदक्षिणा, उपावस आदि व्रत हैं। शिव का नाम लेकर हहाकर हँसना, गाल बजाना, गाना, नाचना, जप करना आदि उपहार हैं। व्रत एकान्त में करना चाहिए।

द्वार' के अन्तर्गत क्राथन (जगते हुए भी शयनमुद्रा), स्पन्दन (वायु के झोंके के सदृश हिलना), मन्दन (उन्मत्तवत् व्यवहार करना), श्रृंगारण (कामार्त न होते हुए भी कामातुर के सदृश व्यवहार करना), अवित्करण (अविवेकियों की तरह निषिद्ध व्यवहार करना) और अविद्भाषण (अर्थहीन और व्याहत शब्दों का उच्चारण), ये छः क्रियाएँ सम्मिलित हैं।

पाशुपतब्रह्मोपनिषद् : यह परवर्ती उपनिषद् है।

पाशुपतमत : दे० 'पाशुपत'।

पाशुपतव्रत : (1) यह व्रत चैत्र मास में आरम्भ होता है। एक छोटा शिवलिङ्ग बनाकर उसे चन्दनमिश्रित जल से स्नान कराया जाता है। एक सुवर्णकमल के ऊपर शिवलिङ्ग स्थापित किया जाता है। तदनन्तर बिल्व पत्रों, कमलपुष्पों (श्वेत, रक्त, नील) एवं अन्यान्य उपचारों से पूजन किया जाता है। यह व्रत चैत्र मास में प्रारम्‍भ होकर प्रति मास आयोजित होता है। वैशाख मास से प्रति मास क्रमशः हीरक, पन्ना, मोती, नीलम, माणिक्य, गोमेद, मूँगा, सूर्यकान्त तथा स्फटिक मणि से लिङ्गों का निर्माण होना चाहिए। वर्ष के अन्त में एक गौ का दान तथा एक साँड़ का उत्सर्ग विहित है। यदि व्रती निर्धन है तो एक ही मास इस व्रत का आचरण होना चाहिए। अनेक मन्त्र पढ़े जाते हैं जो `स में पापं व्यपोहतु` से समाप्त होते हैं। ये मन्त्र शिवजी के नाना रूपों तथा स्कन्दादि अनेक देवताओं को सम्बोधित हैं। दे० हेमाद्रि, 2.197--212 (लिङ्गपुराण से)।

(2) चैत्र मास की पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्टान होना चाहिए। त्रयोदशी को ही एक सयोग्य आचार्य को सम्मानित करते हुए जीवनपर्यन्त पाशुपत व्रत करने का संकल्प किया जाता है, अथवा 12 वर्ष, 6 वर्ष, तीन वर्ष, एक वर्ष, एक मास अथवा केवल 12 दिन तक इस व्रत को करने का संकल्प लिया जाता है। घी तथा समिधाओं से हवन तथा चतुर्दशी को उपवास करने का विधान है। पूर्णिमा को हवन, तदनन्तर निम्नलिखित मन्त्र बोलते हुए शरीर पर भस्म का लेप किया जाता है। मन्त्र है 'अग्निरिति भस्म' इत्यादि।

(3) कृष्ण पक्ष की द्वादशी से व्रती को एकभक्त पद्धति से आहार करना चाहिए, त्रयोदशी को अयाचित पद्धति से, चतुर्दशी को नक्त तथा अमावस्या को उपवास। अमावस्या के बाद वाली प्रतिपदा को सुवर्ण का साँड़ बनवाकर दान देना चाहिए। दे० हेमाद्रि, 2.455-547 (वह्निपुराण से)।

पाशुपत शास्त्र : पाशुपत शैवों का मुख्य धार्मिक ग्रन्थ 'पाशुपतसूत्र' अथवा 'पाशुपतशास्त्र' है। इस ग्रन्थ की कोई प्रति उपलब्ध नहीं है।

पाशुपत शैव : दे० 'पाशुपत'।

पाशुपतसिद्धान्त : पाशुपत एवं शैव सिद्धान्त दोनों समान ही हैं। दे० 'पाशुपत'।

पाषाणचतुर्दशी : शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को, जब सूर्य वृश्चिक राशि पर हो, आटे का पाषाण के समान ढेर बनाकर गौरी की आराधना करनी चाहिए। सन्ध्योपरान्त भोजन का विधान है।

पाष्य : ऋग्वेद के एक सन्दर्भ (1.56,6) में वृत्र की हार के वर्णन में यह शब्द उद्धृत है। दूसरे सन्दर्भ (9.102,2) में सोमलता को पेरने वाले पत्थरों को पाष्य कहा गया है।

पिक : भारतीय पिक (कोकिल) यजुर्वेद संहिता में वर्णित अश्वमेध के बलिपशुओं की तालिका में उल्लिखित है।

पिङ्गल : कात्यायन प्रणीत सर्वानुक्रमणिका के पश्चात् छन्दशास्त्र के सबसे प्राचीन निर्माता महर्षि पिङ्गल हुए हैं। परम्परा के अनुसार इन्होंने 1 करोड़ 6 लाख 77 हजार 2 सौ 16 प्रकार के वर्णवृत्तों का प्रणयन किया यह अतिरञ्जना है। इसका तात्पर्य केवल यह है कि छन्दों की संख्या अगणित हो सकती है।

पिङगलातन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में जिन तन्त्रों का नामोल्लेख है, उनमें पिङ्गलातन्त्र भी है।

पिण्ड : (1) पितरों को दिया जानेवाला आटे या भात का गोला, जो विशेषकर अमावस्या को दिया जाता है और जिसका उल्लेख निरुक्त (3.4) तथा लाट्यायन श्रौत्रसूत्र (2.10,4) में हुआ है। पिण्डदान श्राद्ध का विशेष अङ्ग है।

(2) जीवों के शरीर को भी पिण्ड कहते हैं। यह विश्व का एक लघु रूप है, इसलिए कहा जाता है कि जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में भी।

पिण्डपितृयज्ञ : पितरों के निमित्त दो यज्ञ किये जाते हैं, प्रथम पिण्डपितृयज्ञ तथा दूसरा श्राद्ध। पहला यज्ञ अमावस को किया जाता है तथा उसमें चावल (भात) का पिण्ड (गोलक) पितरों को समर्पित किया जाता है।

पिण्डोपनिषद् : यह परवर्ती उपनिषद् है।

पितामह : वेदाङ्ग ज्योतिष पर तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं--प्रथम ऋग्ज्योतिष, दूसरा यजुर्ज्योतिष तथा तीसरा अथर्वज्योतिष। अन्तिम के लेखक पितामह हैं। वराहमिहिररचित पञ्चसिद्धान्तिका में एक सिद्धान्त पैतामह नाम से भी दिया हुआ है।

महाभारत के प्रसिद्ध पात्र भीष्म को भी पितामह कहते हैं। क्योंकि वे कौरव-पाण्‍डवों के पिताओं के सम्मानित पितातुल्य थे।

पिता : ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में यह शब्द (उत्पन्न करने वाला) की अपेक्षा शिशु के रक्षक के अर्थ में अधिक व्यवहृत हुआ है। ऋग्वेद में यह दयालु एवं भले अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। अतएव अग्नि की तुलना पिता से (ऋ० 10.7,3) की गयी है। पिता अपनी गोद में ले जाता है (1.38,1) तथा अग्नि की गोद में रखता है (.5.4--3,7)। शिशु पिता के वस्त्रों को खींचकर उसका ध्यान आकर्षित करता है, उसका आनन्दपूर्वक स्वागत करता है (7.103.3)।

यह कहना कठिन है कि किस सीमा तक पुत्र पिता की अधीनता में रहता था एवं अधीनता कब तक रहती थी। ऋग्वेद (2.29.5) में आया है कि एक पुत्र को उसके पिता ने जुआ खेलने के कारण बहुत तिरस्कृत किया तथा ऋज्राश्व को (ऋ० 1.116,16; 117,17) उसके पिता ने अंधा कर दिया। पुत्र के ऊपर पिता के अनियन्त्रित अधिकार का यह द्योतक है। परन्तु ऐसी घटनाएँ क्रोधावेश में अपवाद रूप से ही होती थीं।

इस बात का भी पर्याप्त प्रमाण नहीं है कि पुत्र बड़ा होकर पिता के साथ रहता था अथवा नहीं; उसकी स्त्री उसके पिता के घर की सदस्यता प्राप्त करती थी अथवा नही; वह पिता के साथ रहता था या अपना अलग घर बनाता था। वृद्धावस्था में पिता प्रायः पुत्रों को सम्पत्ति का विभाजन कर देता था तथा श्‍वशुर पुत्रवधू के अधीन हो जाता था। शतपथब्राह्मण में शुनःशेप की कथा से पिता की निष्ठुरता का उदाहरण भी प्राप्त होता है। उपनिषदों में पिता से पुत्र को आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने पर जोर डाला गया है।

प्रकृत पुत्रों के अभाव में दत्तक पुत्र को गोद लेने की प्रथा थी। स्वाभाविक पुत्रों के रहते हुए भी अच्छे व्यक्तित्व वाले बालकों को गोद लेने की प्रथा थी। विश्वामित्र द्वारा शुनःशेप का ग्रहण किया जाना इसका उदाहरण है। साथ ही इस उदाहरण से इस बात पर भी प्रकाश पड़ता है कि एक वर्ण के लोग अन्य वर्ण के बालकों को भी ग्रहण कर लेते थे। इस उदाहरण में विश्वामित्र का क्षत्रिय तथा शुनःशेप का ब्राह्मण होना इसे प्रकट करता है। गोद लिये गये पुत्र को साधारणतः ऊँचा सम्मानित स्थान प्राप्त नहीं था। पुत्र के अभाव में पुत्री के पुत्र को भी गोद लिया जाता था तथा उस पुत्री को पुत्रिका कहते थे। अतएव ऐसी लड़कियों के विवाह में कठिनाई होती थी जिसका भाई नहीं होता था, क्योंकि ऐसा बालक अपने पिता के कुल का न होकर नाना के कुल का हो जाता था।

परिवार में माता व पिता में पिता का स्थान प्रथम था। दोनों को युक्त कर 'पितरौ' अर्थात् पिता और माता यौगिक शब्द का प्रयोग होता था।

पितृपक्ष : आश्विन कृष्ण पक्ष का नाम। इसमें पन्द्रह दिनों तक पितरों को पिण्डदान किया जाता है। एक प्रकार का यह पूर्वपुरुषों का सामूहिक श्राद्ध है। इस पक्ष में ज्ञात--अज्ञात सभी पितरों का स्मरण किया जाता है। पूर्वजों की स्मृति सजीव रखने का यह एक धार्मिक साधन है।

पितृभूति : कात्यायन श्रौतसूत्र के अनेक भाष्यकार एवं वृत्तिकारों में विशेष उल्लेखनीय पितृभूति भी हैं।

पितृमेधसूत्र : यह गृह्यसूत्र है जो गौतम द्वारा रचित बतलाया जाता है। इसके टीकाकार अनन्तज्ञान कहते हैं कि ये गौतम न्यायसूत्र के रचयिता महर्षि गौतम ही हैं। इसके अतिरिक्त गौतम का एक और धर्मसूत्र है। उसका नाम भी गौतमधर्मसूत्र है।

पितृयान : ऋग्वेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में पितृयान (पितरों के मार्ग) का 'देवयान' से भेद प्रकट होता है। तिलक के मतानुसार देवयान उत्तरायण तथा पितृयान दक्षिणायन से सम्बन्धित है। शतपथ ब्राह्मण के एक परिच्छेद (2.1.3,1--3) से वे यह निष्कर्ष निकालते हैं। वसन्त, ग्रीष्म एवं वर्षा पितरों की ऋतु हैं। देवयान का प्रारम्भ वसन्त से तथा पितृयान का प्रारम्भ वर्षा से होता है। इसके साथ वे देव तथा यम नक्षत्र (तैत्तिरीय सं०, 1.5, 2,6) का सम्बन्ध जोड़ते हैं।

मरने के अनन्तर प्रेत अपने कर्मों के अनुसार इन दो मार्गों में से किसी एक से परलोक को प्रस्थान करता है। सामान्य लौकिक कर्म करने वाले पितृयान से जाते हैं। यज्ञ तथा अन्य निष्काम कर्म करने वाले देवयान से जाते हैं।

पितृव्रत : (1) एक वर्ष तक प्रति अमावस्या को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। व्रती केवल दुग्धाहार करता है। वर्ष के अन्त में श्राद्ध करके वस्त्र, जलपूर्ण कलश तथा गौ दान में दी जाती है। इस व्रत से सौ पीढ़ियाँ तर जाती हैं और व्रती विष्णु लोक को प्राप्त करता है।

(2) चैत्र कृष्ण प्रतिपद् से सात दिनों तक सात पितृगणों की पूजा करनी चाहिए। जो अग्निष्वात्त, वहिर्षद् इत्यादि नामों से प्रसिद्ध हैं। एक वर्ष अथवा बारह वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है।

पिपीतकद्वादशी : वैशाख शुक्ल की द्वादशी को पिपीतक द्वादशी कहते हैं। इस तिथि को शीतल जल से भगवान् केशव की प्रतिमा को स्नान कराकर गन्धाक्षत, पुष्पादि उपचारों से पूजन किया जाता है। प्रथम वर्ष चार जल पूर्ण कलशों का दान, द्वितीय वर्ष आठ कलशों का दान, तृतीय वर्ष बारह कलशों का और चतुर्थ वर्ष सोलह कलशों का दान विहित है। सुवर्ण की दक्षिणा देनी चाहिए। इस द्वादशी का पिपीतक नाम इसलिए है कि इसी नाम के ब्राह्मण द्वारा यह प्रचारित हुई। दे० व्रतकालविवेक, 19-20; वर्षकृत्यकौमुदी, 2.258।

पिप्पलाद : पिप्पलाद (पीपल के फल खाने वाले) नामक आचार्य का उल्लेख प्रश्नोपनिषद् में हुआ है। ये अथर्ववेद की शाखा 'पैप्पलाद' के प्रवर्तक थे।

पिप्पलादशाखा : अथर्ववेद नौ शाखाओं में विभक्त है, जिनमें एक शाखा 'पैप्पलाद' है। इस शाखा की मूल संहिता की एक मात्र प्रतिलिपि कुछ काल पूर्व तक भारत में बची थी और वह कश्मीर में थी, जहाँ से एक भ्रान्त घटनावश वह जर्मनी पहुँच गयी। अब उक्त प्रतिलिपि के आधार पर यह संहिता भारत में मुद्रित हो गयी है। केवल इसके प्रथम पृष्ठ का पाठ संदिग्ध है, क्योंकि उक्त प्रति में वह खंडित हो गया है।

पिप्रु : ऋग्वेद के अनुसार इन्द्र का एक शत्रु। यह इन्द्र द्वारा बार-बार हराया गया था। पुरों (दुर्गों) का स्वामी होने के कारण उसे दास तथा असुर कहा गया है। इस नाम का अर्थ 'विरोधक' (विरोध करने वाला) है।

पिशङ्ग : पञ्चविंश ब्राह्मण (25.15,3) में उल्लिखित नागयज्ञ के दो उन्नेता पुरोहितों में से एक का नाम पिशङ्ग है।

पिशाच : अथर्ववेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में उद्धृत असुरों में से एक वर्ग का नाम पिशाच है। तैत्तिरीय संहिता (2.4, 1,1) में उनका सम्बन्ध राक्षसों और असुरों से बताया गया है तथा दोनों को मनुष्यों एवं पितरों का विरोधी कहा गया है। अथर्ववेद (5,25,9) में उन्हें क्रव्याद (कच्चा मांस भक्षण करने वाला) कहा गया है। सम्भवतः ये मानवों के शत्रु थे तथा अपने उत्सवों पर नरमांस भक्षण करते थे। उत्तर वैदिककाल में एक 'पिशाचवेद' अथवा पिशाचविद्या' का भी प्रचलन था।

पिशाचचतुर्दशी : चैत्र कृष्ण चतुर्दशी। इसमें भगवान् शङ्कर का पूजन तथा रात्रि में उत्सव करने का विधान है। निकुम्भ नामक राक्षस इसी दिन भगवान् शङ्कर की पूजा करता है अतएव इस दिन निकुम्भ का भी सम्मान किया जाता है तथा पिशाचों को गोशालाओं, नदियों, सड़कों तथा पहाड़ों की चोटियों पर बलि प्रदान की जाती है। दे० नीलमत पुराण, 55-56, श्लोक 674--681।

पिशाचमोचन : (1) मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशी को यह व्रत किया जाता है। काशी में कपर्दीश्वर शिव के पास कुण्डस्नान तथा उनका पूजन किया जाता है। वहीं भोजन वितरण का विधान है। प्रति वर्ष इस व्रत का अनुष्ठान होता है। व्रती पिशाच होने की स्थिति से मुक्त हो जाता है।

(2) स्मृतिकौस्तुभ (108) के अनुसार इस दिन गङ्गा में स्नान करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए, जब कि चतुर्दशी मंगलवार को पड़े। व्रती इससे पिशाचयोनि में पड़ने से मुक्त हो जाता है।

काशी में पिशाचमोचन नामक तीर्थ प्रसिद्ध है।

पिष्टाशन व्रत : इस व्रत में प्रति नवमी को केवल आटे का आहार किया जाता है। महानवमी को इसका प्रारम्भ होता है। नौ वर्ष तक यह चलता है। गौरी इसकी देवी हैं। इससे समस्त मनोवाञ्छाओं की पूर्ति होती है।

पीठ : (1) किसी धार्मिक क्रिया के मुख्य आधारस्थान को पीठ कहते हैं। कुलालिकतन्त्र मं पाँच वेदों, पाँच योगियों और पाँच पीठों का उल्‍लेख है। उत्कल में 'उड्डियान', जालन्धर में 'जाल', महाराष्ट्र में 'पूर्ण', श्रीशैल पर 'पतङ्ग' और असम में 'कामाख्या', ये पाँच ही शाक्तों के आदि पीठ हैं। बाद में जो 51 पीठ हो गये, उनके होते हुए भी ये पाँच मुख्य माने जाते हैं।

(2) प्राणिशरीर के अन्दर पाँच कोष होते हैं, जिनमें अन्नमय कोष स्थूलकोष काहा जाता है। शेष प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय ये चतुर्विध सूक्ष्म कोष हैं। इनमें अन्नमय कोष एक प्रकार का संयोजक कोष है, जो स्थूल और सूक्ष्म कोषों के मध्य कड़ी का काम करता है। आनन्दमय कोष से समस्त दैवी लोकों का सम्बन्ध रहता है। इसी प्रकार स्थूल अन्नमय कोष (शरीरों) से जब देवताओं का सम्बन्ध स्थापित होता है, तब अन्नमय कोषों या शरीरों में उनकी स्थिति के लिए आधार निर्मित हो जाता है। उसे पीठ कहते हैं। यह प्राणमय होता है।

प्राण की आकर्षण और विकर्षण दो शक्तियाँ हैं। आकर्षण शक्ति अपनी ओर खींचती है एवं विकर्षण शक्ति इसके विपरीत कार्य करती है। दोनों शक्तियाँ ब्रह्माण्ड के प्रत्येक पिण्ड में विद्यमान रहती हैं। इन्हीं आकर्षण और विकर्षण के प्रभाव से समस्त ग्रह-उपग्रह अपने अपने स्थानों पर नियमित रहकर कार्यनिरत रहते हैं। इन्हीं शक्तियों के समान रूप से स्थित होने पर उनका जो आवर्त या चक्र बनता है, उसे पीठ कहते हैं।

जिस प्रकार मनुष्य को स्थिर रहने के लिए किसी स्थूल आधार की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार सूक्ष्म आनन्दमय कोष से सम्बन्धित देवताओं के लिए भी सूक्ष्म आधार पीठस्थल आवश्यक होता है और वह आधार यह पीठ ही है।

इस प्रकार मन और मन्त्रादि द्वारा आकर्षण-विकर्षणात्मक प्राणशक्ति की सहायता से सोलह प्रकार के दिव्य स्थानों में पीठ की स्थापना कर अभीष्ट देवताओं का आवाहन किया जाता है। पीठ स्थल जितना पवित्र और बलसम्पन्न होगा उतने ही पवित्र और बलिष्ठ देवताओं का उस पर आवाहन किया जा सकता है। इसी प्रकार मूर्ति में भी जब तक पीठ की स्थिति रहती है, तभी तक उस मूर्ति द्वारा दैवी कलाएँ और चमत्कार प्रकाश में आते हैं। पीठ को एक उदाहरण द्वारा भी ज्ञात किया जा सकता है। यथा आकर्षण और विकर्षण शक्ति युक्त दो पदार्थ एक दूसरे के सम्मुख रखे हों तो एक पदार्थ का आकर्षण दूसरे पदार्थ को अपनी ओर खींचेगा, एवं दोनों की विकर्षण शक्ति दोनों को उससे विपरीत दिशा की ओर प्रेरित करेंगी। दोनों वस्तुओं की पृथक्-पृथक् दिशा में गति होने पर एक प्रकार का आवर्त अथवा चक्र बन जाता है। इसी तरह जिस देवता का आवाहन किया जाता है उस दैवी शक्ति का प्राणों की सहायता से अन्नमय कोष से सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर प्राणों की आकर्षण शक्ति की सहायता से वह दैवी शक्ति आकर्षित हो जाती है, एवं प्राणों की विकर्षण शक्ति की विपरीत किया के परिणामस्वरूप वह दैवी शक्ति विकर्षित होती है। इस आकर्षण और विकर्षण क्रिया के होने पर एक वृत्ताकार स्थल का निर्माण हो जाता है जिसे पीठ कहते हैं। इस वृत्त के आभ्यन्तरीय पूर्ण स्थान पर आवाहित उस दैवी शक्ति का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। क्योंकि इस आवर्त का मध्यगत समस्त स्थान आवाहित देवता का ही स्थान बन जाता है।

इसी सिद्धान्त के आधार पर विशाल भूभाग पर अनेक तीर्थ एवं पीठ स्थानों का आविर्भाव माना गया है। इसी प्रकार के दैव पीठ की सहायता से संसार में समस्त दैवी कार्य सम्पादित होते हैं।

(3) प्राचीन वैदिक उद्धरणों में पीठ शब्द स्वतन्त्र रूप से व्यवहृत नहीं हुआ है, किन्तु यौगिक 'पीठसर्पी' विशेषण के रूप में मिलता है। वाजसनेयी संहिता (30.21) तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.4,17,1) में पुरुषमेध के हवनीय पदार्थों में इसका भी उल्लेख है।

पीठापुरम् : आन्ध्र प्रदेश का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान। यह 'पादगया क्षेत्र' है। पाँच प्रधान पितृतीर्थ माने जाते हैं-- 1. गया (गयाशिरक्षेत्र) 2. याजपुर-वैतरणी (उड़ीसा में नाभिगयाक्षेत्र) 3. पीठापुरम् (पादगयाक्षेत्र) 4. सिद्धपुर (गुजरात में मातृगयाक्षेत्र) 5. बदरीनाथ (ब्रह्मकपाली)।

पीठापुरम् में अधिकांश यात्री पिण्डदान करने आते हैं। यहाँ कुक्कुटेश्वर शिवमन्दिर है। बाहर मधु स्वामी का मन्दिर है। पास में माधवतीर्थ नामक सरोवर है।

पीपा : वैष्णवाचार्य स्वामी रामानन्द के शिष्यमंडल के प्रमुख व्यक्ति। इनका जन्म एक राजकुल में संवत् 1482 वि० में हुआ था। 'भक्तमाल' ग्रन्थ में इनकी निश्छल भक्ति भावना का वर्णन हुआ है।

पीयूष : ऋग्वेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में गौ के बच्चा देने के बाद के प्रथम दूध को 'पीयूष' कहा गया है। इसकी तुलना सोमलता के रस से की गयी है।

पीलुपाक मत : परमाणुओं के बीच अन्तर की धारणा न होने के कारण वैशेषिकों को 'पीलुपाक' नाम का विलक्षण मत ग्रहण करना पड़ा। इसके अनुसार घट अग्नि में पड़कर इस प्रकार लाल होता है कि अग्नि के तेज से घट के परमाणु अलग-अलग हो जाते हैं और फिर लाल होकर मिल जाते हैं। घड़े का यह बनना-बिगड़ना इतने सूक्ष्म काल में होता है कि कोई देख नहीं सकता। इस प्रक्रिया से होने वाले परिवर्तन को पीलुपाक मत कहते हैं।

पीलुमती : अथर्ववेद (18.2,48) में पीलुमती को उदन्वती एवं प्रद्यौ नामक दो स्वर्गों के बीच का स्वर्ग कहा गया है।

पुंसवन : गर्भवती स्त्री का एक धार्मिक संस्कार, जो पुत्र संतान होने के लिए किया जाता था। इसका सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद (6.2.1) में हुआ है। यह यज्ञ पुत्रोत्पत्ति की कामना से किया जाता था और गृह्यसूत्रों के समय तक इसकी गणना संस्कारों में होने लगी। आगे चलकर यह संस्कार भ्रूण की पुष्टि के लिए ही किया जाने लगा।

पुजारी : देवालयों में मूर्ति की विधिवत् पूजा के लिए नियुक्त व्यक्ति। हिन्दू धर्म के विकासक्रम में बारहवीं से सोलहवीं शती तक अनेक बड़े-बड़े सम्प्रदाय स्थापित हुए, किन्तु सोलहवीं शती के उत्तरार्द्ध से उत्तर तथा दक्षिण भारत में ये सम्प्रदाय अवनति की ओर गतिमान् रहे। असंख्य लोगों की आध्यात्मिक प्यास को मिटाने के लिए सामान्य पुजारियों ने लोकप्रिय धर्म का आन्दोलन आरम्भ किया। पुराने बिखरे हुए विचारों को समेट कर नाना देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ स्थापित की गयीं और उनकी पूजा की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित कर धार्मिक भावना को जीवित रखा गया। उत्तरी भारत में स्मार्त ब्राह्मण स्वयं मन्दिरों में जाकर अपनी शाखा के गृह्यसूत्रों के निर्देशानुसार देवतार्चन करते थे। किन्तु देवता की षोडशोपचार पूजा के लिए पुजारी रखे जाते थे जो निश्चित् समय पर विधिवत् पूजा कार्य किया करते थे।

पुणताम्बे : महाराष्ट्र का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल। मनमाड से 41 मील दूर पुनताम्बा स्थान है, इसका प्राचीन नाम पुण्यस्तम्भ है। यह गोदावरी के किनारे है। महायोगी चांगदेव, जो पीछे संत ज्ञानेश्वर के शरणापन्न हो गये थे, दीर्घ काल एक यहाँ रहे। यहाँ श्री बिठोवा का मन्दिर, विश्वेश्वर शिवमन्दिर और अनेक अन्य शिवमन्दिर निर्मित हैं। बाजार में श्री वङ्कटेश मन्दिर भी है।

पुण्डरीक : पुण्डरीक अथवा कमल भारत का दार्शनिक पुष्प है। यह चेतना और ज्ञान के विकास का प्रतीक है। इसलिए भारतीय साहित्य और कला के अनेक रूपों में इसका उपयोग हुआ है। छान्दोग्य उपनिषद् में मानवहृदय से इसकी तुलना की गयी है।

पुण्डरीकयज्ञप्राप्ति : इस व्रत में जल के स्वामी वरुण देव की पूजा की जाती है। इसका अनुष्ठान द्वादशी को होता है। इससे पुण्डरीकयज्ञ के फल की प्राप्ति होती है। दे० हेमाद्रि, 1.1204। वनपर्व (30.117) के अनुसार य व्रत भी अश्वमेघ तथा राजसूय यज्ञों के समान पुण्यकारक है। आश्वलायन श्रौतसूत्र, उतराष्टक, 4.4 में पुण्डरीकयज्ञ का वर्णन है।

पुण्डरीकाक्ष : (1) विष्णु का एक पर्याय है। (2) तमिल देश के श्रीवैष्णवों में नाथ मुनि अति प्रसिद्ध हो गये हैं। इन्हीं के शिष्य पुण्डरीकाक्ष थे। इनके पश्चात् राम मिश्र तथा उनके उत्तराधिकारी आचार्य यामुनाचार्य हुए। पुण्डरीकाक्ष तथा राम मिश्र के बारे में कुछ अधिक ज्ञात नहीं है।

पुण्डरीकाक्ष स्वामी : विशिष्टाद्वैत वैष्णव परम्परा के एक आचार्य। इनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है : भगवान् नारायण ने महालक्ष्मी को वैष्णव धर्म का उपदेश किया, उनसे वैकुण्ठपार्षद विष्वक्सेन को उपदेश मिला, उनसे शठकोप स्वामी को। इनके शिष्य नाथ मुनि हुए और इनके शिष्य पुण्डरीकाक्ष स्वामी, इनके शिष्य राम मिश्र स्वामी थे और इनसे यामुनाचार्य को यह उपदेश प्राप्त हुआ।

पुण्ड्र : द्विज वैष्णवों की दीक्षा में पाँच संस्कार करने होते हैं। वे हैं ताप, पुण्ड्र, नाम, मन्त्र एवं याग। पुण्ड्र साम्प्रदायिक चिह्न को कहते हैं, जो दीक्षा लेने वाले के शरीर (ललाट) पर अंकित किया जाता है।

पुण्यराज : शब्दाद्वैतवाद सिद्धान्त का सर्वप्रथम भर्तृहरि और फिर भर्तृमित्र ने प्रतिपादन किया। भर्तृहरि के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'वाक्यपदीय' में इस सिद्धान्त का पूर्ण वर्णन है, जिसकी व्याख्या पुण्यराज और हेलाराज की रचना में प्राप्त होती है।

पुत्र : इसका प्रारम्भिक अर्थ लघु अथवा कनिष्ठ था। `पुत्रक` रूप का व्यवहार प्यारभरे सम्बोधन में अपने से छोटे लोगों के लिए होता था। आगे चलकर इस शब्द की धार्मिक व्युत्पत्ति की जाने लगी-- `पुत्= नरक से, त्र= बचाने वाला।` पुत्रों द्वारा प्रदत्त पिण्ड और श्राद्ध से पिता तथा अन्य पितरों का उद्धार होता है, इसलिए वे पितरों को नरक से त्राण देने वाले माने जाते हैं।

धर्मशास्त्र में बारह प्रकार के पुत्रों का उल्लेख पाया जाता है। मनुस्मृति (अध्याय 9, श्लोक 158--160) के अनुसार इनका क्रम इस प्रकार है :

1. औरस (पति द्वारा अपनी पत्नी से उत्पन्न)

2. पुत्रिकापुत्र (दौहित्र)

3. क्षेत्रज (अपनी पत्नी से दूसरे पुरुष द्वारा उत्पन्न)

4. गूढ़ज (पत्नी द्वारा पति के अतिरिक्त अन्य पुरुष से गुपचुप उत्पन्न)

5. कानीन (अविवाहित कन्या से उत्पन्न)

6. सहोढ़ (विवाह के समय गर्भवती कन्या से उत्पन्न)

7. पौनर्भव (दुबारा विवाहित पत्नी से उत्पन्न)

8. दत्तक (पुत्राभाव में दूसरे परिवार से गृहीत)

9. क्रीत (दूसरे परिवार से खरीदा हुआ)

10. स्वयंदत्त (माता-पिता से परित्यक्त एवं स्वयं समर्पित)

11. कृत्रिम (स्वेच्छा से दूसरे परिवार से पुत्रवत् गृहीत्)

12. अपविद्ध (पड़ा हुआ प्राप्त और परिवार में पालित)। ये बारह प्रकार के पुत्र दो वर्ग में विभाजित थे-- (1) मुख्य और (2) गौण। इनमें प्रथम दो मुख्य और शेष गौण हैं। सामाजिक दृष्टि से गौण पुत्रों का भी महत्त्व था। इससे सभी प्रकार की संतति का पालन-पोषण संभव था और परिवार का समाजीकरण हो जाता था। सभी पुत्रों का परिवार में समान पद नहीं था। किन्तु आजकल केवल दो ही प्रकार के पुत्र मान्य हैं, औरस और दत्तक। शेष क्रमशः या तो औरस में सम्मिलित हो गये (जैसे सहोढ़ और गूढ़ज) अथवा लुप्त हो गये।

पुत्रकामव्रत : (1) भाद्रपद की पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। पुत्ररहित मनुष्य पुत्रेष्टि यज्ञ करने के पश्चात् गुहा में प्रविष्ट हो, जहाँ रुद्र निवास करते हैं। तदनन्तर रुद्र, पार्वती तथा नन्दी की सन्तुष्टि के लिए होम तत्पश्चात् सर्वप्रथम अपने सहायकों को भोजन कराकर वह सपत्नीक भोजन करे और गुहा की परिक्रमा करके पत्नी को रुद्रविषयक दिव्य व्याख्यान सुनाये। व्रती को चाहिए कि वह पत्नी को तीन दिनों तक दूध तथा चावल ही खाने को दे। इस व्रत से वन्ध्या पत्नी भी पुत्र प्राप्त करती है। व्रती को इस सबके बाद एक प्रादेश लम्बी सुवर्ण, रजत अथवा लौह की शिवप्रतिमा का निर्माण कराकर पूजन करना चाहिए। तदनन्तर अग्नि में मूर्ति को गरम कर एक पात्र में उसे रखकर एक प्रस्थ दूध से उसका अभिषेक करे और उस अभिषिक्त दूध को पत्नी को पिलाये। दे० कृत्यकल्पतरु, 374-376; हेमाद्रि, 2.171-72।

(2) ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। श्वेत अक्षतों से एक कलश को परिपूर्ण करके उसे श्वेत वस्त्र से ढककर, श्वेत चन्दन से चर्चित करके, कलश में सुवर्ण रखकर स्थापित किया जाना चाहिए। कलश के ऊपर ताम्रपात्र में गुड़ रखना चाहिए और भगवान् ब्रह्मा तथा सावित्री देवी की प्रतिमा रखी जाना चाहिए। प्रातः यह कलश किसी ब्राह्मण को दान कर दिया जाय। उसी ब्राह्मण को स्वादिष्ठ भोजन कराकर व्रती लवणरहित भोजन करे। यह क्रिया एक वर्ष तक प्रतिमास की जाय। तेरहवीं महीने में एक घृतधेनु, सवस्त्र शय्या, सुवर्ण तथा रजत की क्रमशः ब्रह्मा एवं सावित्री की प्रतिमाएँ दान में दी जायें। श्वेत तिलों से ब्रह्माजी के नाम की आवृत्ति करते हुए हवन करना चाहिए। व्रती (पुरुष या स्त्री) समस्त पापों से मुक्त होकर सुन्दर पुत्र प्राप्त करते हैं। दे० कृत्यकल्पतरु, 376-378; हेमाद्रि, 2.173-174।

पुत्रदविधि : रविवार के दिन रोहिणी या हस्त नक्षत्र हो तो वह पुत्रद योग होता है। उस दिन उपवास रखते हुए सूर्य. नारायण का पुष्प-फलादि से पूजन करना चाहिए। व्रती को चाहिए कि वह सूर्य की प्रतिमा के सामने सोये तथा महाश्वेता मंत्र का जप करे (मंत्र यह है--ह्राँ ह्रीं सः......)। दूसरे दिन करवीर के पुष्पों तथा रक्तचन्दन मिश्रित अर्घ्‍य सूर्य को तथा रविवार को समर्पित करे। तदनन्तर वह पार्वण श्राद्ध करे तथा मध्यम पिण्ड (तीन में से बीच वाला) स्वयं खाये। हेमाद्रि में इस व्रत का उतना विशद वर्णन नहीं है जितना कृत्यकल्पतरु में।

पुत्रप्राप्तिव्रत : (1) वैशाख शुक्ल षष्ठी तथा पञ्चमी को उपवास रखते हुए स्कन्द भगवान् की पूजा की जाती है। यह तिथिव्रत है और एक वर्ष पर्यन्त चलता है। स्कन्द के चार रूप (नाम) हैं---स्कन्द, कुमार, विशाख तथा गुह। इन नामों के अनुसार उपासना करने से पुत्रेच्छु, धर्मेच्छु अथवा स्वास्थ्य का इच्छुक अपनी कामनाओं को सफल कर लेता है।

(2) श्रावण पूर्णिमा को यह व्रत होता है। यह तिथिव्रत है तथा शाङ्करी (दुर्गा) देवता। पुत्रार्थी, विद्यार्थी, राज्यार्थी तथा यशःकामी को इस व्रत का आचरण करना चाहिए। देवीजी का सुवर्ण या रजत का खङ्ग या पादुकाएँ अथवा प्रतिमा निर्माण कराकर किसी शुभ नक्षत्र में वेदी पर स्थापित किया जायँ, उसी वेदी पर यव बोये जायँ तथा हवन हो। देवीजी को भिन्न-भिन्न प्रकार के फल-फूल तथा अन्य पदार्थ अर्पित किये जायँ। हेमाद्रि में विद्यामंत्र भी लिखा गया है। दे० हेमाद्रि, 2.220-233।

पुत्रवर्गविहार : प्राचीन विद्यापीठों में गुरुस्थल दो वर्गों में विभाजित थे : (1) शिष्यवर्ग एवं (2) पुत्रवर्ग। गुरुकुलों में गुरु का परिवार तथा शिष्यवर्ग दोनों रहते थे, परन्तु दोनों के निवासस्थान एक दूसरे से भिन्न होते थे। जिस स्थान में गुरु का परिवार रहता था उसको पुत्रवर्गविहार कहा जाता था।

पुत्रव्रत : (1) दे० 'पुत्रकामव्रत', हेमाद्रि, 2,171--72।

(2) प्रातः ब्राह्म मुहूर्त में स्नानादि से निवृत्त होकर तारों के मन्द प्रकाश में पीपल वृक्ष का स्पर्श करना चाहिए। तदनन्तर तिलों से परिपूर्ण पात्र का दान किया जाय। इससे समस्त पापों से मुक्ति होती है।

पुत्रसप्तमी : (1) माघ शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। दोनों सप्तमियों को तथा षष्ठी को उपवास तथा हवन करने के पश्चात् सूर्य के पूजन का विधान है। यह एक वर्ष तक चलता है। इससे पुत्र, धन, यश तथा सुन्दर स्वाथ्य की प्राप्ति होती है।

(2) भाद्र शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की षष्ठी को संकल्प तथा सप्तमी को उपवासपूर्वक विष्णु का नामोच्चारण करते हुए उनका पूजन करना चाहिए। अष्टमी के दिन गोपालमन्त्रों से विष्णु भगवान् का पूजन तथा तिलों से हवन करने का विधान है। यह एक वर्ष पर्यन्त होता है। वर्ष के अन्त में श्यामा गौ का जोड़ा दान दिया जाय। इससे समस्त पापों का क्षय तथा पुत्रलाभ होता है।

पुत्रिका : परवर्ती साहित्य में इस शब्द का व्यवहार 'पुत्र हीन मनुष्य की पुत्री' के अर्थ में हुआ है। ऐसी पुत्री का विवाह इस करार के साथ किया जाता था कि उसका पुत्र अपने नाना का श्राद्ध करेगा तथा उसकी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होगा। यास्क के निरुक्त (3.5) में भी इसे ऋग्वेद के आधार पर इसी अर्थ में लिया गया है। किन्तु ऋग्वेदीय परिच्छेदों का स्पष्ट अर्थ नहीं ज्ञात होता तथा इस प्रथा के द्योतक वे नहीं जान पड़ते।

पुत्रीयव्रत : भाद्रपद मास की पूर्णिमा के पश्चात् कृष्ण पक्ष की अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। उस दिन उपवास का विधान है। एक प्रस्थ घृत में गोविन्द की प्रतिमा को स्नान कराया जाय। तत्पश्चात् चन्दन, केसर, कर्पूर प्रतिमा को अर्पण कर पुष्पादि से षोडशोपचार पूजन हो। तब पुरुषसूक्त के मंत्रों से हवन करना चाहिए। तदनन्तर पुत्राभिलाषी या पुत्रीकामी फलों का खाद्य पदार्थ बनाकर पुंल्लिङ्ग अथवा स्त्रीलिङ्ग नाम लेकर उसे दान कर दे। एक वर्ष तक ऐसा करना चाहिए। इससे व्रती की समस्त कामनाएँ पूर्ण होती है।

पुत्रीयसप्तमी : मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस दिन सूर्य का पूजन विहित है। उस दिन व्रती को 'हविष्यान्न' ग्रहण करना चाहिए। दूसरे दिन गन्धाक्षत-पुष्पादि से सूर्य का पूजन कर नक्त पद्धति से आहार करना चाहिए। एक वर्ष तक यह व्रत चलता है। यह व्रत पुत्रप्राप्ति के लिए है।

पुत्रीयानन्तव्रत : इस व्रत को मार्गशीर्ष मास में प्रारम्भ कर एक वर्ष तक प्रतिमास उस नक्षत्र के दिन, जिससे मास का नाम पड़ता है, उपवास करते हुए विष्णु भगवान् का पूजन करना चाहिए। विशेष रूप से भगवान् के बारहों अवयवों का पूजन होना आवश्यक है। प्रति मास एक अवयव का क्रमशः पूजन करना चाहिए। यथा बायाँ घुटना मार्गशीर्ष में, कटि का वाम पार्श्व पौष में तथा इसी प्रकार क्रमशः। प्रति चार मास के एक भाग में विभिन्न वर्ण के पुष्प प्रयुक्त हों। गोमूत्र, गोदुग्ध तथा गोदधि का प्रति चार मासों के विभाग में स्नान, अनन्त भगवान् के नाम का जप सम्पूर्ण महीनों में किया जाय तथा उन्हीं के नाम लेते हुए हवन हो। व्रत को अन्त में ब्राह्मणों को भोजन तथा दक्षिणा देनी चाहिए। इससे व्रती की समस्त पुत्र, धन, जीविका आदि कामनाएँ पूर्ण होती हैं।

पुत्रेष्टि : पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'पुत्रेष्टि' कहलाता है। पुत्रोत्पत्ति में जिस दम्पती को विलम्ब होता था वह पुत्रेष्टि यज्ञ करता था। दत्तक पुत्र के संग्रह के समय भी 'दत्तोहोम' के साथ यह यज्ञ (पुत्रेष्टि) किया जाता था क्योंकि जिस पुत्र का संग्रह किया जाता था, वह जिस कुल से आता था उससे उसका सम्बन्ध पृथक् किया जाता था। इस यज्ञ का प्रयोजन यह दिखाना था कि दत्तक पुत्र जन्म संग्रह करने वाले परिवार में हुआ है।

पुत्रोत्पत्तिव्रत : यह नक्षत्रव्रत है। पुत्र प्राप्ति के लिए एक वर्ष तक प्रति श्रवण नक्षत्र को यमुना में स्नान करना चाहिए। इससे वसिष्ठजी के समान पुत्र-पौत्र प्राप्त होते हैं।

पुनर्जन्म : सभी हिन्दू दार्शनिक एवं धार्मिक सम्प्रदायों में इस सिद्धांत को मान्यता प्राप्त है कि मनुष्य अपने वर्तमान जीवन के अच्छे एवं बुरे कर्मों के फलभोग के लिए पुनर्जन्म ग्रहण करता है। यह कारण-कार्यश्रृंखला के अनुसार होता है। योनियों का निर्धारण भी कर्म के ही आधार पर होता है। इसी को संसारचक्र (जन्म-मरणचक्र) भी कहते हैं। इसी लिए पुनर्जन्म से मुक्ति पाने के उपाय विविध आचार्यों ने अपने-अपने ढंग से बताये हैं। पुनर्जन्म का सिद्धान्त कर्मसिद्धान्त (कार्यकारण-सम्बन्ध) पर अवलम्बित है। पुनर्जन्म का चक्र उस समय तक चलता रहता है जब तक आत्मा की मुक्ति नहीं होती।

पुनर्भू : दुबारा विवाह करने वाली स्त्री। अथर्ववेद में पुनर्भू प्रथा का उल्लेख प्राप्त होता है (9.5.28)। इसके अनुसार विधवा पुनः विवाह करती थी तथा विवाह के अवसर पर एक यज्ञ होता था जिसमें वह प्रतिज्ञा करती थी कि अपने दूसरे पति के साथ मैं दूसरे लोक में पुनः एकत्व प्राप्त करूँगी। धर्मशास्त्र के अनुसार विवाह के लिए कुमारी कन्या ही उत्तम मानी जाती थी। पुनर्भू से उत्पन्न पुत्र को 'औरस' (अपने हृदय से उत्पन्न) न कहकर 'पौनर्भव' (पुनर्भू से उत्पन्न) कहते थे। उसके द्वारा दिया हुआ पिण्ड उतना पुण्यकारक नहीं माना जाता था जितना औरस के द्वारा। धीरे-धीरे स्त्री का पुनर्भू (पुनर्विवाह) होना उच्च वर्गों में बन्द हो गया। आधुनिक युग में विधवाविवाह के वैध हो जाने से स्त्रियाँ पहले पति के मरने पर दूसरा विवाह कर रही हैं, फिर भी उनके साथ अपमानसूचक 'पुनर्भू' शब्द नहीं लगता। वे पूरी पत्नी और उनसे उत्पन्न सन्तति औरस समझी जाती है।

पुनोग्रन्थ : यह कबीरपन्थ की सेवापुस्तिका है।

पुरन्दरदास : एक प्रसिद्ध कर्नाटकदेशीय भक्त। माध्व संन्यासियों में सोलहवीं शती के प्रारम्भ में गया के महात्मा ईश्वरपरी ने दक्षिण भारत की यात्रा की तथा वहाँ उन्होंने माघ्वों को चैतन्य देव के सदृश ही अपने भक्तिमूलक गीतों एवं संकीर्तन से प्रभावित किया। वंगदेश में चैतन्य महाप्रभु ने भी सर्वप्रथम संकीर्तन एवं नगरकीर्तन की प्रणाली चलायी थी। तत्पश्चात् कर्नाटक देश में माध्वों द्वारा भक्तिपूर्ण गीत एवं भजनों की रचना होने लगी। उक्त कर्नाटकीय कविभक्तों में प्रथम अग्रगण्य पुरन्दरदास हुए हैं। इनके गीत दक्षिण देश में बहुत प्रचलित हैं।

पुरन्ध्रि : ऋग्वेद (9.116.1-) में इस शब्द का उल्लेख सम्भवतः एक स्त्रीनाम के रूप में हुआ है। यह अश्विनों की संरक्षिका थी, जिन्होंने इसे एक पुत्र दिया था, जिसका नाम हिरण्यहस्त था। जातिवाचक स्त्री के अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ है।

पुरश्चरणसप्तमी : माघ शुक्ल सप्तमी रविवार को मकर के सूर्य में इस व्रत का अनुष्ठान होता है। सूर्य की प्रतिमा का रक्त वर्ण के पुष्पों, अर्घ्‍य तथा गन्धादि से पूजन करने का विधान है। पञ्चगव्य पान का भी विधान है। एक वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है। प्रति मास पुष्प, धूप तथा नैवेद्य़ भिन्न-भिन्न हों। इससे व्रती समस्त दुरितों के कुफल से मुक्त होता है। 'पुरश्चरण' में पाँच क्रियाओं का समावेश रहता है, जैसे जप, पूजन, होम, तर्पण, अभिषेक तथा ब्राह्मणों का सम्मान।

पुराण : प्राचीन काल की कथाओं का बोधक ग्रन्थ। यह शब्द 'इतिहास-पुराण' द्वन्द्व समास के रूप में व्यवहृत हुआ है। अकेले भी इसका प्रयोग होता है, किन्तु अर्थ वही है। सायणे ने परिभाषा करते हुए कहा है कि पुराण वह है जो विश्वसृष्टि की आदिम दशा का वर्णन करता है।

पुराण नाम से अठारह या उससे अधिक पुराण ग्रन्थ और उपपुराण समझे जाते हैं, जिनकी दूसरी संज्ञा 'पञ्चलक्षण' है। विष्णु, ब्रह्माण्ड, मत्स्य आदि पुराणों में पुराणों के पाँच लक्षण कहे गये हैं :

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च। वंशानुचरितं ज्ञेयं पुराणं पञ्चलक्षणम्॥

[सर्ग वा सृष्टि का विज्ञान, प्रतिसर्ग अर्थात् सृष्टि का विस्तार लय और फिर से सृष्टि, सृष्टि की आदि वंशावली, मन्वन्तर अर्थात् किस-किस मनु का अधिकार कब तक रहा और उस काल में कौन-कौन सी महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं और वंशानुचरित अर्थात् सूर्य औऱ चन्द्रवंशी राजाओं का संक्षिप्त वर्णन। ये ही पँच विषय पुराणों में मूलतः वर्णित हैं।]

पुराणसंहिता के रचयिता परम्परा के अनुसार महर्षि वेदव्यास थे। उन्होंने लोमहर्षण नामक अपने भूतजातीय शिष्य को यह संहिता सिखा दी। लोमहर्षण के छः शिष्य हुए और उनके भी शिष्य हुए। सम्भवतः इसी शिष्यपरम्परा ने अठारह पुराणों की रचना की। हो सकता है, वेदव्यास द्वारा प्रस्तुत पुराणसंहिता के अठारह विभाग रहे हों जिसके आधर पर इन शिष्यों ने अलग अलग पुराण निर्मित किये। फिर उनके परिशिष्ट स्वरूप अनेकों उपपुराण रचे गये। विष्णु, ब्रह्माण्ड एवं मत्स्य आदि पुराणों की सृष्टिप्रक्रिया पढ़ने से प्रकट होता है कि सब पुराणों में एक ही बात है, एक जैसा विषय है। किसी पुराण में कुछ बातें अधिक हैं, किसी में कम। सब पुराणों का मूल एक ही है।

एक पुराणसंहिता के अठारह भागों में विभक्त होने का कारण शिष्यपरम्परा की रुचि के अतिरिक्त और भी हो सकता है। पुराणों के अनुशीलन से पता चलता है कि प्रत्येक ग्रन्थ का विशेष उद्देश्य है। मूल विषय एक होते हुए भी हर एक पुराण में किसी एक प्रसंग का विस्तार से वर्णन है। पुराण का व्यक्तिगत महत्‍त्व इसी विशेष प्रसंग में निहित होता है। यदि ऐसी बात न होती तो पञ्चलक्षण युक्त एक ही महापुराण पर्याप्त होता। सम्भव है कि मूल संहिता में इन विशेष उद्देश्यों का मूल विद्यमान रहा हो। परन्तु इस समय पुराणों पर भिन्न भिन्न सम्प्रदायों का बड़ा प्रभाव पड़ा हुआ दिखाई पड़ता है। ब्रह्मा, शैव, वैष्ण, भागवत आदि पुराणों के नामों से ही प्रतीत होता है कि ये विशेष सम्प्रदायों के ग्रन्थ हैं। इतिहास से ऐसा निश्चित नहीं होता कि इन पुराणों की रचना के अनन्तर उक्त सम्प्रदाय चल पड़े अथवा सम्प्रदाय पहले से थे और उन्होंने अपने-अपने अनुगत पुराणों का व्यासजी की शिष्य परम्परा से निर्माण कराया। अथवा बाद में सम्प्रदायों के अनुयायी पण्डितों ने अपने सम्प्रदाय के अनुकूल पुराणों में कुछ परिवर्तन और परिवर्द्धन किये हैं।

अवतारवाद पुराणों का प्रधान अङ्ग है। प्रायः सभी पुराणों में अवतार प्रसङ्ग दिया हुआ है। शैवमतपरिपोषक पुराणों में भगवान् शङ्कर के नाना अवतारों की चर्चा है। इसी तरह वैष्णव प्रणाली में भी विष्णु के अगणित अवतार बताये गये हैं। इसी तरह अन्य पुराणों में अन्य देवों के अवतारों की चर्चा है। यह ध्यान रहे की अवतारवर्णन वैदिक सूत्रों पर अवलम्बित है। शतपथ ब्राह्मण में (1.8.1.2--10) मत्स्यावतार का, तैत्तिरीय आरण्यक (1.23.1) और शतपथ ब्राह्मण में (1.4.3.5) कूर्मावतार का, तैत्तिरीय संहिता (7.1.5.1), तैत्तिरीय ब्राह्मण (1.1.3.5) और शत० ब्रा० में (14.1.2.11) वराह अवतार का, ऋक् संहिता (1.17) और शतपथ ब्राह्मण (1.2.5.1-7) में वामन अवतार का, ऐतरेय ब्रा० में राम-भार्गवावतार का, छान्दोग्योपनिषद् में (3.17) देवकीपुत्र कृष्ण का और तैत्ति० आ० में (10.1.6) वासुदेव कृष्ण का वर्णन है। अधिकांश वैदिक ग्रन्थों के मत से कूर्म, वराहआदि अवतारों की जो कथा कही गयी है वह ब्रह्मा के अवतार की कथा है। वैष्णव पुराण इन्हीं अवतारों को विष्णु का अवतार बताते हैं। भविष्य जैसे कई पुराण सौर पुराण हैं। उनमें सूर्य के अवतार गिनाये गये हैं। मार्कण्डेय आदि शाक्त पुराणों में देवी के अवतारों का वर्णन है।

पुराण वेदों के उपाङ्ग कहे जाते हैं। तात्पर्य यह है कि वेद के मन्त्रों में देवताओं की स्तुतियाँ मात्र हैं। ब्राह्मण भाग में कहीं कहीं यज्ञादि के प्रसङ्ग में कथा-पुराण का संक्षेप में ही उल्लेख है। परन्तु विस्तार के साथ कथाओं और उपाख्यानों का कहीं होना आवश्यक था। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए पुराणों की रचना हुई जान पड़ती है।

अठारहों पुराणों का प्रधान उद्देश्य यह प्रतीत होता है कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश और शक्ति की उपासना अथवा ब्रह्मा को छोड़कर शेष पाँच देवताओं की उपासना का प्रचार हो और इन पाँच देवताओं में से एक को उपासक प्रधान माने, शेष चार को गौण किन्तु प्रधान में अन्तर्निहित। पुराणों के प्रतिपादन का समीकरण करने से पता चलता है कि परमात्मा के पाँचों भिन्न-भिन्न सगुण रूप माने गये हैं। सृष्टि में इनका कार्यविभाग अलग-अलग है। ब्रह्मा की पूजा और उपासना आजकल देखी नहीं जाती है, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि ब्रह्मा की उपासना का गणेश की उपासना में विलयन हो गया है।

पुराणों की कथाओं में अनेक स्थलों पर भेद दिखाई पड़ते हैं। ऐसे भेदों को साधारणतया कल्पभेद की कथा से पुराणवेत्ता लोग समझा दिया करते हैं।

अठारह पुराणों की मान्य सूची निम्नाङ्कित हैं :

(1) ब्रह्म पुराण (2) पद्म पुराण (3) विष्णु पुराण (4) शिव पुराण (5) भागवत पुराण (6) वायु पुराण (7) नारद पुराण (8) अग्नि पुराण (9) ब्रह्मवैवर्त पुराण (10) वराह पुराण (11) स्कन्द पुराण (12) मार्कण्डेय पुराण (13) वामन पुराण (14) कूर्म पुराण (15) मत्स्य पुराण (16) गरुड़ पुराण (17) ब्रह्माण्ड पुराण (18) लिङ्ग पुराण

इन सब पुराणों का अलग-अलग परिचय नाम-अक्षरक्रम के अंदर लिखा गया है। इसको यथास्थान देखना चाहिए।

पुराणमणि : यह द्रविड़ (तमिल) भाषा का एक निबन्ध ग्रन्थ है।

पुरावृत : अतीत की घटना। यह शब्द इतिहास (इति+ ह+आस= ऐसा वस्तुतः हुआ) का पर्याय है। परवर्ती संस्कृत साहित्य में इसका अर्थ पौराणिक कथा, आख्यान-आख्यायिका, कथा आदि समझा गया है। इसकी परिभाषा के अनुसार उपर्युक्त, कथा या आख्यान में कर्तव्य, लाभ, प्रेम तथा मोक्षादि का सारांश भी वर्णित है।

पुरी : (1) शंकराचार्य द्वारा स्थापित दसनामी संन्यासियों की एक शाखा। माध्व वैष्णव संन्यासियों में भी 'पुरी' उपनामक संत हुए हैं, यथा गयानिवासी महात्मा ईश्वर पुरी। कुछ विद्वानों के विचार से ईश्वरपुरी जैसे वैष्णव सन्तों द्वारा जगन्नाथपुरी में अधिकांश भजन-साधन किया गया या इसलिए उनका 'पुरी' उपनाम प्रसिद्ध हो गया। इसी प्रकार शाक्त संन्यासियों में भी 'पुरी' उपनामक महात्मा हो गये हैं। स्वामी तोतापुरी से परमहंस रामकृष्ण ने संन्यासदीक्षा ली थी, अतः उनके मिशन या मठों के संन्यासी पुरी शाखा के सदस्य माने जाते हैं।

(2) पुरी (जगन्नाथपुरी) हिन्दुओं के मुख्य तीर्थों में से एक है। यहाँ विष्णु के अवतार बलभद्र और कृष्ण का मन्दिर है, जिसे जगन्नाथ (जगत् के नाथ) का मन्दिर कहते हैं। भारतप्रसिद्ध रथयात्रा का मेला यहीं होता है। लाखों की संख्या में भक्त आकर यहाँ जगन्नाथजी का रथ स्वयं खींचकर पुण्य लाभ करते हैं। इसकी गणना चार धामों---बदरिकाश्रम, रामेश्वरम्, जगन्नाथ पुरी (पुरुषोत्तमधाम) और द्वारका-- में है। दे० 'पुरुषोत्तम तीर्थ' (जगन्नाथपुरी)।

पुरीशिष्यपरम्परा : पुरी' दसनामी संन्यासियों की एक शाखा है। शंकराचार्य के शिष्य त्रोटकाचार्य से पुरी शिष्यों की परम्परा प्रचलित मानी जाती है। पुरी, भारती और सरस्वती नामों की शिष्यपरम्परा श्रृंगेरी मठ (कुभकोणम्) के अन्तर्गत है। दे० 'दसनामी'।

पुरीषिणी : ऋग्वेद (5.53.9) में यह शब्द या तो नदी के अर्थ का द्योतक है, या अधिक-सम्भवतः सरयू का विशेषण है, जो 'जल से पूरित बढ़ी हुई' या 'प्रस्तरखण्ड खींचती हुई' के अर्थ में प्रयुक्त है।

पुरुष : पुरुष' शब्द की व्युत्पत्ति 'पुरि शेते इति (पुर अर्थात् शरीर में शयन करता है)' की गयी है। इस अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति पुरुष है। किन्तु ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (10.80) में आदि पुरुष की कल्पना विराट् पुरुष अथवा विश्वपुरुष के रूप में की गयी है। देवताओं (विश्व की विशिष्ट शक्तियों) ने इसी पुरुष के द्वारा पुरुषमेध किया, जिसके शरीर के विविध अङ्गों से संसार के सभी पदार्थ उत्पन्न हुए। फिर भी यह पुरुष संसार में समाप्त नहीं हुआ, इसके अंश से यह सम्पूर्ण सृष्टि व्याप्त है; वह इसका अतिक्रमण कर अनेक विश्व ब्रह्माण्डों को अपने में समेटे हुए हैं। सृष्टि के मूल में स्थिति मूल तत्त्व के अन्तर्यामी और अतिरेकी स्वरूप का प्रतीक पुरुष है। इसी सिद्धान्त को 'सर्वेश्वरवाद' कहते हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार विश्व में दो स्वतन्त्र और सनातन तत्व हैं-- (1) प्रकृति और (2) पुरुष। सांख्य पुरुषबहुत्व में विश्वास करता है। प्रकृति और पुरुष के सम्पर्क से विश्व का विकास होता है। प्रकृति नटी पुरुष के विलास के लिए अपनी लीला का प्रसार करती है। प्रकृति क्रियाशील और पुरुष निष्क्रिय किन्तु द्रष्टा होता है। इस सम्पर्क से जो भ्रम उत्पन्न होता है उसके कारण पुरुष प्रकृति के कार्यों का अपने ऊपर आरोप कर लेता है और इस कारण उनके परिणों से उत्पन्न सुख-दुःख भोगता है। पुरुष द्वारा अपने स्वरूप को भूल जाना ही बन्ध है। जब पुरुष पुनः ज्ञान प्राप्त करके अपने स्वरूप को पहचान लेता है तब उसे कैवल्य (प्रकृति से पार्थक्य) प्राप्त होता है; प्रकृति संकुचित होकर अपनी लीला का संवरण कर लेती है और पुरुष मुक्त हो जाता है।

पुरुषन्ति : यह नाम ऋग्वेद (1.112,23; 9.58,3) में दो बार उल्लिखित है। पहले परिच्छेद में अश्विनौ द्वारा रक्षित तथा दूसरे में एक संरक्षक का नाम है, जो वैदिक गायकों को उपहार दान करता है। दोनों स्थानों पर यह नाम 'ध्वसन्ति' या 'ध्वस्र' नाम के साथ संयुक्त है। इन तीनों का जोड़ पुरुषवाचक है, किन्तु व्याकरण की दृष्टि से यह स्त्रीलिङ्ग भी हो सकता है।

पुरुषविशेष : योग प्रणाली में ईश्वर को 'पुरुषविशेष' की संज्ञा दी गयी है। यह पुरुषविशेष योगसिद्धान्त के मुख्य विचारों से शिथिलतापूर्वक संलग्न है। वह विशेष प्रकार का आत्मा है जो सर्वज्ञ, शाश्वत एवं पूर्ण है तथा कर्म, पुनर्जन्म एवं मानविक दुर्बलताओं से परे हैं। वह योगियों का प्रथम शिक्षक है, वह उनकी सहायता करता है जो ध्यान के द्वारा कैवल्य प्राप्त करना चाहते हैं और उसके प्रति भक्ति रखते हैं। किन्तु वह सृष्टिकर्त्ता नहीं कहलाता। उसका प्रकटीकरण रहस्यात्मक मन्त्र 'ओम्' से होता है।

पुरुषार्थ : इसका शाब्दिक अर्थ है 'पुरुष द्वारा प्राप्त करने योग्य'। आजकल की शब्दावली में इसे 'मूल्य' कह सकते हैं। हिन्दू विचारशास्त्रियों ने चार पुरुषार्थ माने हैं-- (1) धर्म (2) अर्थ (3) काम एवं (4) मोक्ष। धर्म का अर्थ है जीवन के नियामक तत्त्व, अर्थ का तात्पर्य है जीवन के भौतिक साधन, काम का अर्थ है जीवन की वैध कामनाएँ और मोक्ष का अभिप्राय है जीवन के सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्ति। प्रथम तीन को पवर्ग और अन्तिम को अपवर्ग कहते हैं। इन चारों का चारों आश्रमों से सम्बन्ध। प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्य धर्म का, दूसरा गार्हस्थ्य धर्म एवं काम का तथा तीसरा वानप्रस्थ एवं चौथा संन्यास मोक्ष का अधिष्ठान है। यों धर्म का प्रसार पूरे जीवनकाल पर है किन्तु यहाँ धर्म का विशेष अर्थ है अनुशासन तथा सारे जीवन को एक दार्शनिक रूप से चलाने की शिक्षा, जो प्रथम या ब्रह्मचर्याश्रम में ही सीखना पड़ता है। इन चारों पुरुषार्थों में भी विकास परिलक्षित है, यथा एक से दूसरे की प्राप्ति--धर्म से अर्थ, अर्थ से काम तथा धर्म से पुनः मोक्ष की प्राप्ति होती है। चार्वाक दर्शन केवल अर्थ एवं काम को पुरुषार्थ मानता है। किन्तु चार्वाकों का सिद्धान्त भारत में बहुमान्य नहीं हुआ।

पुरुषोत्तम : गीता के अनुसार पुरुष की तीन कोटियाँ हैं-- (1) क्षर पुरुष, जिसके अन्तर्गत चराचर नश्वर जगत् का समावेश है, (2) अक्षर पुरुष अर्थात् जीवात्मा, जो वस्तुतः अजर और अमर है और (3) पुरुषोत्तम, जो दोनों से परे विश्व के मूल में परम तत्त्व है, जिसमें सम्पूर्ण विश्व का समाहार हो जाता है। पुरुषोत्तम तत्व की प्राप्ति ही जीवन का परम पुरुषार्थ है।

पुरुषोत्तमतीर्थ (जगन्नाथपुरी) : उड़ीसा के चार प्रसिद्ध तीर्थों, भुवनेश्वर, जगन्नाथ, कोणार्क तथा जाजपुर में जगन्नाथ का मतत्त्वपूर्ण अस्तित्व है। इसे पुरुषोत्तम तीर्थ भी कहा जाता है। ब्रह्मपुराण में इसके सम्बन्ध में लगभग 800 श्लोक मिलते हैं। जगन्नाथपुरी शंखक्षेत्र के नाम से भी विख्यात है। यह भारतवर्ष के उत्कल प्रदेश में समुद्रतट पर स्थित है। इसका विस्तार उत्तर में विराजमण्डल तक है। इस प्रदेश में पापनाशक तथा मुक्तिदायक एक पवित्र स्थल है। यह बेत से घिरा हुआ दस योजन तक विस्तृत है। उत्कल प्रदेश में पुरुषोत्तम का प्रसिद्ध मन्दिर है। जगन्नाथ की सर्वव्यापकता के कारण यह उत्कल प्रदेश बहुत पवित्र माना जाता है। यहाँ पुरुषोत्तम (जगन्नाथ) के निवास के कारण उत्कल के निवासी देवतुल्य माने जाते हैं। ब्रह्मपुराण के 43 तथा 44 अध्याओं में मालवास्थित उज्जयिनी (अवन्ती) के राजा इन्द्रद्युम्न का विवरण है। वह बड़ा विद्वान् तथा प्रतापी राजा था। सभी वेदशास्त्रों के अध्ययन के उपरान्त वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि वासुदेव सर्वश्रेष्ठ देवता हैं। फलतः वह अपनी सारी सेना, पण्डितों तथा किसानों के साथ वासुदेवक्षेत्र में गया। दस योजन लम्बे तथा पाँच योजन चौड़े इस वासुदेवस्थल पर उसने अपना खेमा लगाया। इसके पूर्व इस दक्षिणी समुद्रतट पर एक वटवृक्ष था जिसके समीप पुरुषोत्तम की इन्द्रनील मणि की बनी हुई मूर्ति थी। कालक्रम से यह बालुका से आच्छन्न हो गयी और उसी में निमग्न हो गयी। उस स्थल पर झाड़ियाँ और पेड़ पौधे उग आये। इन्द्रद्युम्न ने वहाँ एक अश्वमेध यज्ञ करके एक बहुत बड़े मन्दिर (प्रसाद) का निर्माण कराया। उस मन्दिर में भगवान् वासुदेव की एक सुन्दर मूर्ति प्रतिष्ठित करने की उसे चिन्ता हुई। स्वप्न में राजा ने वासुदेव को देखा जिन्होंने उसे समुद्रतट पर प्रातःकाल जाकर कुल्हाड़ी से उगते हुए वटवृक्ष को काटने को कहा। राजा ने ठीक समय पर वैसा ही किया। उसमें भगवान् विष्णु (वासुदेव) और विश्वकर्मा ब्राह्मण के वेष में प्रकट हुए। विष्णु ने राजा से कहा कि मेरे सहयोगी विश्वकर्मा मेरी मूर्ति का निर्माण करेंगे। कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की तीन मूर्तियाँ बनाकर राजा को दी गयीं। तदुपरान्त विष्णु ने राजा को वरदान दिया कि अश्वमेध के समाप्त होने पर जहाँ इन्द्रद्युम्न ने स्नान किया है वह बाँध (सेतु) उसी के नाम से विख्यात होगा। जो व्यक्ति उसमें स्नान करेगा वह इन्द्रलोक को जायेगा और जो उस सेतु के तट पर पिण्डदान करेगा उसके 21 पीढ़ियों तक के पूर्वज मुक्त हो जायेंगे। इन्द्रद्युम्न ने इन तीन मूर्तियों की उस मन्दिर में स्थापना की। स्कन्दपुराण के उपभाग उत्कलखण्ड में इन्द्रद्युम्न की कथा पुरुषोत्तममाहात्म्य के अन्तर्गत कुछ परिवर्तनों के साथ दी गयी है।

इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि प्राचीन काल में पुरुषोत्तमक्षेत्र को नीलाचल नाम से अभिहित किया गया था और कृष्ण की पूजा उत्तरी भारत में होती थी। मैत्रायणी उपनिषद् (1.4) से इन्द्रद्युम्न के चक्रवर्ती होने का पता चलता है। 7वीं शताब्दी ई० से वहाँ बौद्धों के विकास का भी पता चलता है। सम्प्रति जगन्नाथतीर्थ का पवित्र स्थल 20 फुट ऊँचा, 652 फुट लम्बा तथा 630 फुट चौड़ा है। इसमें ईश्वर के विविध रूपों के 120 मन्दिर हैं, 13 मन्दिर शिव के, कुछ पार्वती के तथा एक मन्दिर सूर्य का है। हिन्दू आस्था के प्रायः प्रत्येक रूप यहाँ मिलते हैं। ब्रह्मपुराण के अनुसार जगन्नाथपुरी में शैवों और वैष्णवों के पारस्परिक संघर्ष नष्ट हो जाते हैं। जगन्नाथ के विशाल मन्दिर के भीतर चार खण्ड हैं। प्रथम भोगमन्दिर, जिसमें भगवान् को भोग लगाया जाता है, द्वितीय रङ्गमन्दिर, जिसमें नृत्य-गान आदि होते हैं, तृतीय समामण्डप, जिसमे दर्शक गण (तीर्थ-यात्री) बैठते हैं और चौथा अन्तराल है। जगन्नाथ के मन्दिर का गुम्बज 192 फुट ऊँचा और चक्र तथा ध्वज से आच्छन्न है। मन्दिर समुद्रतट से 7 फर्लांग दूर है। यह सतह से 20 फुट ऊँची एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है। यह गोलाकार पहाड़ी है जिसे नीलगिरि कहकर सम्मानित किया जाता है। अन्तराल की प्रत्येक तरफ एक बड़ा द्वार है, उनमें पूर्व का सबसे बड़ा है और भव्य है। प्रवेशद्वार पर एक बृहत्काय सिंह है। इसीलिए इस द्वार को सिंहद्वार कहा जाता है।

जगन्नाथपुरी तथा जगन्नाथ की कुछ मौलिक विशेषताएँ है। पहले तो यहाँ किसी प्रकार का जातिभेद नहीं है, दूसरी बात यह है कि जगन्नाथ के लिए पकाया गया चावल वहाँ के पुरोहित निम्न कोटि के लोगों से भी ले लेते हैं। जगन्नाथ को चढ़ाया हुआ चावल कभी अशुद्ध नहीं होता, इसे 'महाप्रसाद' की संज्ञा दी गयी है। इसकी तीसरी प्रमुख विशेषता रथयात्रा पर्व की महत्ता है, यह पुरी के चौबीस पर्वों में से सर्वाधिक महत्त्व का है। यह आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को आरम्भ होता है। जगन्नाथजी का रथ 45 फुट ऊँचा, 35 वर्गफुट क्षेत्रफल का तथा 7 फुट व्यास के 16 पहियों से युक्त रहता है। उनमें 16 छिद्र रहते हैं और गरुड़ कलंगी लगी रहती है। दूसरा रथ सुभद्रा का है जो 12 पहियों से युक्त औऱ कुछ छोटा होता है। उसका मुकुट पद्म से युक्त है। बलराम का तीसरा रथ 14 पहियों से युक्त तथा हनुमान के मुकुट से युक्त है। ये रथ तीर्थयात्रियों तथा मजदूरों द्वारा खींचे जाते हैं। भावुकतापूर्ण गीतों से उत्‍सव मनाया जाता है।

जगन्नाथमन्दिर के निजी भृत्यों की एक सेना है जो 36 रूपों तथा 97 वर्गों में विभाजित कर दी गयी है। पहले इनके प्रधान खुर्द के राजा थे जो अपने को जगन्नाथ का भृत्य समझते थे।

काशी की तरह जगन्नाथधाम में भी पंच तीर्थ हैं--मार्कण्डेय, वट (कृष्ण), बलराम, समुद्र और इन्द्रद्युम्नसेतु। इनमें से प्रत्येक के विषय में कुछ कहा जा सकता है। मार्कण्डेय की कथा ब्रह्मपुराण में वर्णित है। (अध्याय 56.72.73) विष्णु ने मार्कण्डेय से जगन्नाथ के उत्तर में शिव का मन्दिर तथा सेतु बनवाने की कहा था। कुछ समय के उपरान्त यह मार्कण्डेयसेतु के नाम से विख्यात हो गया। ब्रह्मपुराण के अनुसार तीर्थयात्री को मार्कण्डेयसेतु में स्नान करके तीन बार सिर झुकाना तथा मन्त्र पढ़ना चाहिए। तत्पश्चात् उसे तर्पण करना तथा शिवमन्दिर जाना चाहिए। शिव के पूजन में 'ओम् नमः शिवाय' नामक मूल मन्त्र का उच्चारण अत्यावश्यक है। अघोर तथा पौराणिक मन्त्रों का भी उच्चारण होनी चाहिए। तत्पश्चात् उसे वट वृक्ष को जाकर उसकी तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए और मन्त्र से पूजा करनी चाहिए। ब्रह्मपुराण (57.17) के अनुसार वट स्वयं कृष्ण हैं। वह भी एक प्रकार का कल्पवृक्ष ही है। तीर्थयात्री को श्री कृष्ण के समक्ष स्थित गरुड़ की पूजा करनी चाहिए और तब कृष्ण, समुद्र तथा संकर्षण के प्रति मन्त्रोच्चारण करना चाहिए। ब्रह्मपुराण (57.42-50) श्री कृष्ण के भक्तिपूर्ण दर्शन से मोक्ष का विधान करता है। पुरी में समुद्रस्नान का बड़ा महत्‍त्व है पर यह मूलतः पूर्णिमा के दिन ही अधिक महत्वपूर्ण है। तीर्थयात्री को इन्द्रद्युम्नसेतु में स्नान करना, देवताओं का तर्पण करना तथा ऋषि-पितरों को पिण्डदान करना चाहिए।

ब्रह्मपुराण (अ०66) में इन्द्रद्युम्नसेतु के किनारे सात दिनों की गुण्डिचा यात्रा का उल्लेख है। यह कृष्ण, संकर्षण तथा सुभद्रा के मण्डप में ही पूरी होती है। ऐसा बताया जाता है कि गुण्डिचा जगन्नाथ के विशाल मन्दिर से लगभग दो मील दूर जगन्नाथ का ग्रीष्मकालीन भवन है। यह शब्द सम्भवतः 'गुण्डी' से लिया गया है जिसका अर्थ बँगला तथा उडिया में 'मोटी लकड़ी का कुन्दा' होता है। यह लकड़ी का कुन्दा एक पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र में बहते हुए इन्द्रद्युम्न को मिला था।

पुरुषोत्तम क्षेत्र में धार्मिक आत्मघात का भी ब्रह्मपुराण में उल्लेख है। वट वृक्ष पर चढ़कर या उसके नीचे या समुद्र में, इच्छा या अनिच्छा से, जगन्नाथरथ के मार्ग में, जगन्नाथ क्षेत्र की किसी गली में या किसी भी स्थल पर जो प्राण त्याग करता है वह निश्चय ही मोक्ष प्राप्त करता है। ब्रह्मपुराण (70.3-4) के अनुसार यह तीन गुना सत्य है कि यह स्थल परम महान् है। पुरुषोत्तमतीर्थ में एक बार जाने के उपरान्त व्यक्ति पुनः गर्भ में नही जाता।

जगन्नाथतीर्थ के मन्दिर के सम्बन्ध में एक दोष यह बताया जाता है कि उसकी दीवारों पर नृत्य करती हुई युवतियों के चित्र हैं, जो अपने कटाक्षों से हाव-भाव प्रदर्शित करती हुई तथा कामुक अभिनय करती हुई दिखायी गयी हैं। किन्तु ब्रह्मपुरा (अ० 65) का कथन है कि ज्येष्ठ की पूर्णिमा को स्नानपर्व मनाया जाता है। उस अवसर पर सुन्दरी वारविलासिनियाँ तबले और वंशी की ध्वनि और सुर पर पवित्र वेदमन्त्रों का उच्चारण करती हैं। यह एक सहगान के रूप में श्री कृष्ण, बलराम तथा सुभद्रा की मूर्ति के समक्ष होता है। अतः ये चित्र उसी उत्सव के हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में भ्रमपूर्ण अतिरिक्त परिकल्पनाएँ अवांछनीय औऱ अस्पृहणीय हैं।

पुरुषोत्तमयात्रा : जगन्नाथपुरी में पुरुषोत्तम (विष्णु) भगवान् की बारह यात्राएँ मनायी जाती है। यथा स्नान, गुण्डिचा, हरिशयन, दक्षिणायन, पार्श्वपरिवर्तन, उत्थापनैकादशी, प्रावरणोत्सव, पुष्याभिषेक, उत्तरायण, दोलायात्रा, दमनक चतुर्दशी तथा अक्षय तृतीया। दे० गदाधरपद्धति, कालसार, पृ० 183-190।

पुरुषोत्तमसंहिता : यह वैष्णव संहिता है। आचार्य मध्वरचित वेदान्तभाष्य के संक्षिप्त संस्करण 'अनुभाष्य' का मुख्य अंश पुराणों तथा वैष्णव संहिताओं से उद्धृत है। इन वैष्णव संहिताओं में पुरुषोत्तमसंहिता आदि मुख्य है।

पुरुषोत्तमाचार्य : द्वैताद्वैतवादी वैष्णवों के सैद्धान्तिक व्याख्याकार विद्वान्। इन्होंने निम्बार्क स्वामी के मत का अनुसरण कर उसे परिपुष्टि किया है। इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ 'वेदान्तरत्नमंजूषा' में निम्बार्करचित 'दशश्लोकी' या 'वेदान्तकामधेनु' की विस्तृत व्याख्या है।

पुरोडाश : यज्ञों में देवताओं को अर्पित किया जाने वाला पक्वान्न, जो मिट्टी के तवों पर सेका जाता था। ऋग्वेद (3.28.2;41,3;52,2;4.24,5;6.23,6;8.31,2) तथा अन्य संहिताओं में यज्ञ के रोट को 'पुरोडाश' कहा गया है। यह देवताओं का प्रिय भोज्य था।

पुरोधा : (1) धार्मिक कार्यों का अग्रणी अथवा नेता। यह घरेलु पुरोहित के पद का बोधक है।

(2) राजा की मन्त्रिपरिषद् के प्रमुख सदस्यों में इसकी भी गणना है। धार्मिक तथा विधिक मामलों में पुरोधा राजा का परामर्शदाता होता था।

पुरोहित : आगे अवस्थि अथवा पूर्वनियुक्त व्यक्ति, जो धर्मकार्यों का संचालक और मंत्रिमण्डल का सदस्य होता था। वैदिक संहिताओं में इसका उल्लेख है। पुरोहित को 'पुरोधा' भी कहते हैं। इसका प्राथमिक कार्य किसी राजा या संपन्न परिवार का घरेलु पुरोहित होना होता था। ऋग्वेद के अनुसार विश्वामित्र एवं वसिष्ठ त्रित्सु कुल के राजा सुदास के पुरोहित थे। शान्तनु के पुरोहित देवापि थे। यज्ञ क्रिया के सम्पादनार्थ राजा को पुरोहित रखना आवश्यक होता था। यह शुद्ध में राजा की सुरक्षा एवं विजय का आश्वासन अपनी स्तुतियों द्वारा देता था। अन्न एवं सस्य के लिए यह वर्षाकारक अनुष्ठान कराता था। पुरोहितपद के पैतृक होने का निश्चित प्रमाण नहीं है, किन्तु सम्भवतः ऐसा ही था। राजा कुरु श्रवण तथा उसके पुत्र उपम श्रवण का पुरोहित के साथ जो सम्बन्ध था उससे ज्ञात होता है कि साधारणतः पुत्र अपने पिता के पुरोहित पद को ही अपनाता था। प्रायः ब्राह्मण ही पुरोहित होते थे। बृहस्पति देवताओं के पुरोहित एवं ब्राह्मण दोनों कहे जाते हैं। ओल्डेनवर्ग के मतानुसार पुरोहित प्रारम्भ में होता होते थे, जो स्तुतियों का गान करते थे। इसमें सन्देह नहीं कि ऐतिहासिक युग वह राजा की शक्ति का प्रतिनिधित्व करता था तथा सामाजिक क्षेत्र में उसका बड़ा प्रभाव था। न्याय व्यवस्था तथा राजा के कार्यों के संचालन में उसका प्रबल हाथ होता था।

पुलिकाबन्धन : यह व्रत कार्तिकी पूर्णिमा को पुष्कर क्षेत्र में मनाया जाता है। इस दिन पुष्कर में बहुत बड़ा मेला लगता है। दे० कृत्यसारसमुच्च्य, पृ० 7।

पुष्कर : (1) वैदिक साहित्य में पुष्कर नील कमल का नाम है। अथर्ववेद में इसकी मधुर गन्ध का वर्णन है। यह तालाबों में उगता था जो पुष्करिणी कहलाते थे। 'पुष्करस्रजौ' अश्विनों का एक विरुद है। निरुक्त (5.14) तथा शतपथ ब्राह्मण (6.4,2,2) के अनुसार पुष्कर का अर्थ जल है।

(2) पुष्कर एक तीर्थ का भी नाम है जो राजस्थान में अजमेर के पास स्थित है। ब्रह्मा इसके मुख्य देवता हैं। यह एक बहुत बड़े प्राकृतिक जलाशय के रूप में है इसलिए इसका नाम पुष्कर पड़ा। पुराणों के अनुसार यह तीर्थों का गुरु माना जाता है अतएव इसको पुष्करराज भी कहते हैं। भारत के पंच तीर्थों और पंच सरोवरों में इसकी गणनी की जाती है। पंच तीर्थ हैं--पुष्कर, कुरुक्षेत्र, गया, गङ्गा एवं प्रभास तथा पंच सरोवर हैं-- मानसरोवर, पुष्कर, बिन्दुसरोवर (सिद्धपुर), नारायणसरोवर (कच्छ) और पम्पा सरोवर (दक्षिण)। इसका माहात्म्य निम्नाङ्कित है :

दुष्करं पुष्करें गन्तुं दुष्करं पुष्करे तपः। दुष्करं पुष्करे दानं वस्तुं चैव सुदुष्करम्॥

पुष्करसद् : कमल पर बैठा हुआ जन्तु। यह एक पशु का नाम है जो अश्वमेध के बलिपशुओं की तालिका में उद्धृत है। कुछ लोग इसका अर्थ सर्प करते हैं, परन्तु अधिक अर्थ मधुमक्खी है।

पुष्टिगु : ऋग्वेद (8.51,1) की बालखिल्य ऋचा में उद्धृत एक ऋषि का नाम।

पुष्टिमार्ग : भागवत पुराण के अनुसार भगवान् का अनुग्रह ही पोषण या पुष्टि है। आचार्य वल्लभ ने इसी भाव के आधार पर अपना पुष्टिमार्ग चलाया। इसका मूल सूत्र उपनिषदों में पाया जाता है। कठोपनिषद् में कहा गया है कि परमात्मा जिस पर अनुग्रह करता है उसी को अपना साक्षात्कार कराता है। वल्लभाचार्य ने जीव आत्माओं को परमात्मा का अंश माना है जो चिनगारी की तरह उस महान् आत्मा से छिटके हैं। यद्यपि ये अलग-अलग हैं तथापि गुण में समान हैं। इसी आधार पर वल्लभ ने अपने या पराये शरीर को कष्ट देना अनुचित बताया है। पुष्टिमार्ग में परमात्मा की कृपा के शम-दमादि बहिरङ्ग साधन हैं और श्रवण, मनन, निदिध्यासन अन्तरङ्ग साधन। भगवान् में चित्त की प्रवणता सेवा है और सर्वात्मभाव मानसी सेवा है। आचार्य की सम्मति में भगवान् का अनुग्रह (कृपा) ही पुष्टि है। भक्ति दो प्रकार की है-- मर्यादाभक्ति और पुष्टिभक्ति। मर्यादाभक्ति में शास्त्रविहित ज्ञान और कर्म की अपेक्षा होती है। भगवान् के अनुग्रह से जो भक्ति उत्‍पन्न होती है वह पुष्टिभक्ति कहलाती है। ऐसा भक्त भगवान् के स्वरूप दर्शन के अतिरिक्त और किसी वस्तु के लिए प्रार्थना नहीं करता। वह अपने आराध्य के प्रति सम्पूर्ण आत्मसमर्पण करता है। इसको प्रेमलक्षणा भक्ति कहते हैं। नारद ने इस भक्ति को कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठ बतलाया है। उनके अनुसार यह भक्ति साधन नहीं, स्वतः फलरूपा है।

पुष्पद्वितीया : कार्तिक शुक्ल द्वितीया को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। यह तिथिव्रत है, एक वर्षपर्यन्त चलता है, अश्विनीकुमार इसके देवता हैं। दिव्य पूजा के लिए उपयुक्त पुष्पों का अर्पण प्रति शुक्ल पक्ष की द्वितीया को करने का विधान है। व्रत के अन्त में सुवर्ण के बने हुए करने का विधान है। व्रत के अन्त में सुवर्ण के बने हुए पुष्प तथा गौ का दान करना चाहिए। इससे व्रती पुत्र तथा पत्नी सहित सुखोपभोग करता है।

पुष्पमुनि : सामवेद की एक शाखा का प्रातिशाख्य पुष्पमुनि द्वारा रचित है।

पुष्पसूत्र : गोभिल का रचा हुआ सामवेद का सूत्र ग्रन्थ। इसके पहले चार प्रपाठकों में नाना प्रकार के पारिभाषिक और व्याकरण द्वारा गढ़े हुए शब्द आये हैं, उनका मर्म समझना कठिन है। इन प्रपाठकों की टीका भी नहीं मिलती, किन्तु शेष अंश पर एक विशद भाष्य अजातशत्रु का लिखा हुआ है। ऋग्वेद की मन्त्ररूपी कलिका किस प्रकार सामरूप पुष्प में परिणत हुई--इस ग्रन्थ में बताया गया है। दाक्षिणात्यों में यह 'झुल्ल सूत्र' के नाम से प्रसिद्ध है और कहते हैं कि यह वररुचि की रचना है। दामोदरपुत्र रामकृष्ण की लिखी इस पर एक वृत्ति भी है।

पुष्पाष्टमी : श्रावण शुक्ल अष्कमी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। यह तिथिव्रत है, इसके देवता शिव हैं। यह एक वर्ष पर्यन्त चलता है। प्रति मास भिन्न-भिन्न पुष्पों का उपयोग करना चाहिए। विभिन्न प्रकार के ही नैवेद्य भिन्न-भिन्न नामों से शिवजी को अर्पण करने चाहिए।

पुष्यद्वादशी : जब पुष्य नक्षत्र द्वादशी को पड़े तथा चन्द्रमा और गुरु एक स्थान पर हों औऱ सूर्य कुम्भ राशि पर हो तब व्रती को ब्रह्मा, हरि तथा शिव की अथवा अकेले वासुदेव की पूजा करनी चाहिए।

पुष्यव्रत : यह नक्षत्रव्रत है। सूर्य के उत्तरायण होने पर शुक्ल पक्ष में ऋद्धि-सिद्धि का इच्छुक व्यक्ति कम से कम एक रात्रि उपवास रखे तथा स्थालीपाक (बटलोई भर जौ अथवा चावल दूध में) बनाये। तदनन्तर कुबेर (धन के देवताः) की पूजा करे। पकाये हुए स्थालीपाक में से कुछ अंश, जिसमें शुद्ध नवनीत का मिश्रण हो, किसी ब्राह्मण को खिलाया जाय तथा उससे निवेदन किया जाय कि वह 'समृद्धिर्भवतु' इस मन्त्र का प्रति दिन जप करे और तब तक जप करे जब तक अगला पुष्य नक्षत्र न आ जाय। ब्राह्मणों की संख्या आने वाले पुष्य नक्षत्रों के क्रम से बढ़ती जायेगी और यह वृद्धि पूरे वर्ष होगी। व्रती को केवल प्रथम पुष्य नक्षत्र के दिन उपवास करने की आवश्यकता है। इस व्रत के परिणाम से व्रती के ऊपर ऋद्धि तथा समृद्धियों की वर्षा होगी।

आपस्तम्ब धर्मसूत्र (2.8.20.3-22) में व्रत के निषिद्ध आचरणों की परिगणना की गयी है। कृत्यकल्पतरु (399-400) ने उनकी विशद व्याख्या की है, हेमाद्रि (2.628) ने भी ऐसा ही किया है।

पुष्यस्नान : हेमाद्रि, वृहत्संहिता, कालिकापुराण के अनुसार यह शान्तिकर्म है। रत्नमाला में कहा गया है कि जिस प्रकार चतुष्पदों में सिंह महान् शक्तिशाली है उसी प्रकार समस्त नक्षत्रों में पुष्य शक्तिमान है। इस दिन किये गये समस्त कार्यों में सफलता अवश्यम्भावी है, चाहे चन्द्रमा प्रतिकूल क्यों न हों।

पुष्याभिषेक : जगन्नाथजी की बारह यात्राओं में से एक। प्रति वर्ष पौष मास की पूर्णिमा को पुष्य नक्षत्र के दिन यह उत्सव मनाया जाता है।

पुष्यार्कद्वादशी : जब द्वादशी के दिन सूर्य पुष्य नक्षत्र में हो, जनार्दन का पूजन करणीय है। इससे समस्त दुरितों का क्षय होता है।

पूजा : (1) देवार्चन की दो विधियाँ हैं---(1) याग और (2) पूजा। अग्निहोत्र द्वारा अर्चन करना याग अथवा यज्ञ है। पत्र, पुष्प, फल, जल द्वारा अर्चन करना पूजा है।

(2) किन्हीं निश्चित द्रव्यों के साथ देवताओं के अर्चन को पूजा कहते हैं। इसमें प्रायः पञ्चोपचारों का परिग्रहण है, यथा गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवेद्य। पुष्‍पों के सम्बन्ध में कुछ निश्चित नियम हैं, जो प्रति देवी-देवता की पूजा में ग्राह्य अथवा अग्राह्य हैं। शिवजी पर केतकी पुष्प नहीं चढ़ाया जाता, दुर्गाजी की पूजा में दूर्वा तथा सूर्यपूजा में बिल्वपत्र निषिद्ध है। महाभिषेक में शिव तथा सूर्य को छोड़कर शङ्ख से ही जल चढ़ाया जाना चाहिए। वैसे साधारणतः सभी देवों की पूजा अथवा व्रतों की विधि के समान ही नियम हैं। दे० व्रतराज, 47-49।

पूतक्रतु : पवित्र यज्ञ करनेवाला एक धार्मिक प्रश्रयदाता, जो ऋग्वेद (8.67,17) में उल्लिखित है तथा स्पष्टतः अश्वमेध का कर्ता जान पड़ता है।

पूतना : राक्षसी, जिसका वर्णन भागवत पुराण में पाया जाता है। इसका वध कृष्ण ने अपने गोकुलवासकाल में किया था। महाभारत में इसका उल्लेख नहीं है।

पूतिका : सोमलता के स्थान पर व्यवहृत होने वाला एक पौधा। तैत्ति० सं० (2.5,3,5) में इसका उल्लेख दही जमाने के साधनरूप में हुआ है।

पूना : इसका प्राचीन नाम पुण्यपत्तन था। मध्ययुगीन मराठों और पेशवाओं के समय के अवशेष यहाँ पाये जाते हैं। मोटा और मूला नदियों के संगम के पास ही देवमन्दिर हैं। नगर में भी श्रीराममन्दिर, लक्ष्मीनारायणमन्दिर तथा कई जैन मन्दिर हैं। पूना के आस-पास भी कुछ दर्शनीय स्थान हैं, जैसे पार्वतीमन्दिर, आलंदी, देहू, खंडोवा आदि। काशी की भाँति पूना भी संस्कृत के अध्ययन-अध्यायन का केन्द्र है। आधुनिक विश्वविद्यालय तथा प्राच्य विद्यासंस्थान आदि की स्थापना यहाँ हुई है।

पूर्ण : ब्रह्म का पर्याय। सृष्टि, विकास, विवर्तन तथा अनेक अन्य परिवर्तनों और विकृतियों के होते हुए भी ब्रह्म की पूर्णता नष्ट नहीं होती है। कौषीतकि उपनिषद् (4.8) में अजातशत्रु ने इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। बृहदारण्यक उपनिषद् में भी इस सिद्धान्त का प्रतिपादन है। उपनिषद्वाक्य है :

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

[यह सारा बाह्य जगत् पूर्ण है, यह अन्तःजगत् भी पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण विकसित हो रहा है। पूर्ण से पूर्ण निकाल लेने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है (यह विचित्र स्थिति है)]

पूर्णत्व : वस्तुसत्ता को प्रकट करने वाला एक गुण। दे० 'पूर्ण'।

पूर्णमास : पूर्णचन्द्र दिवस अथवा पूर्णमासी पर्व के समय किया जाने वाले यज्ञ-उत्सव। यह पवित्र और आवश्यक कर्म था, इसकी स्मृति में दान, व्रत तथा अन्य पुण्य कार्य करने की प्रथा आज भी प्रचलित है।

पूर्णावतार : विष्णु के अवतार प्रायः दो प्रकार के होते हैं, एक अंशावतार एवं दूसरा पूर्णावतार। कलाओं के विकास अथवा भेद से अंशावतार और पूर्णावतार के स्वरूप तथा कार्यों में पार्थक्य होता है। अंशावतार में परमेश्वर की नवीं कला से पंद्रह कलाओं तक का विकास होता है। पूर्णावतार में सोलहवीं कला का भी पूर्ण विकास रहता है। आंशिक और पूर्ण दोनों ही अवतार यद्यपि सभी जीवों के कल्याणसम्पादन के लिए होते हैं किन्तु पूर्णावतार में परमात्मा की आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक त्रिविध सत्ताओं की पूर्णता रहती है। अंशावतार की उपकारिता एवं उपयोगिता केवल एकदेशिक होती है। उदाहरणस्वरूप परशुराम, बुद्धि आदि को समझ सकते हैं, जिनकी कार्यकारिता एकमुखी अथवा एकदेशिक रही। पूर्णावतार भगवान् श्री कृष्ण समझे जाते हैं, जिनके कार्य बहूद्देशीय अथवा सत्तात्रय से परिपूर्ण एवं सभी देश और काल में पूर्ण थे। अंशावतार रूप में अवतरित परशुराम ने उद्दण्ड क्षत्रियों का विनाश किया, किन्तु अराजकता समाप्त नहीं हो सकी, अतः तुरन्त ही रामावतार की आवश्यकता हुई। अतः ऐसा माना जा सकता है कि अंशावतारावतरित दैवी शक्तियाँ अपूर्ण रहती हैं। ये अवतार कुछ समय के लिए अवश्य ही हितकर हो सकते हैं, किन्तु सार्वकालिक और सार्वत्रिक रूप में नहीं।

इसी प्रकार भगवान् बुद्ध ने भी अहिंसावाद का मण्डन कर यज्ञीय हिंसा का भी खण्डन किया और यहाँ तक कि ईश्वर और वेद का भी खण्डन कर तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार सभी जीवों का कल्याण किया। किन्तु यह सब केवल सामयिक और एकदेविक होने के कारण आगे चलकर समाप्त हो गया और इसकी प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप भगवान् शिव को शंकराचार्य के रूप में प्रकट होकर वेद और यज्ञ का मण्डन तथा बौद्धमत को परास्त करना पड़ा। इसके विपरीत पूर्णावतार रूप में अवतरित भगवान् कृष्ण ने संसार का जो कल्याण किया, उसकी प्रतिक्रिया के लिए किसी अन्य अवतार की आवश्यकता नहीं हुई, यही पूर्णावतार की विशेषता है। सबसे महान् विशेषता यह है कि अंशावतारों में कला के आंशिक विकास के परिणामस्वरूप एक ही भाव की प्रधानता रहती है और दूसरे भाव एवं ज्ञान, विचार आदि की गौणता हो जाया करती है। किन्तु पूर्णावतार में इस प्रकार की कोई विशेष बात नहीं होती, ये कर्म, उपासना, ज्ञान; इन तीनों की लीला से पूर्णतया युक्त ही रहते हैं।

पूर्णावतार की विशेषता यह है कि इसमें ऐश्वर्य एवं माधुर्य दोनों शक्तियों का पूर्ण रूप से समावेश रहता है। अंशावतार में दोनों शक्तियों की समानता नहीं होती, किसी में ऐश्वर्य का प्राधान्य तो किसी में माधुर्य का प्राधान्य रहता है।

पूर्ण अवतारों में आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक पूर्णता होने के कारण उनकी वृत्तियाँ समान और पूर्ण सुन्दर होती हैं। इनमें आधिभौतिक पूर्णता होने के कारण ब्रह्मचर्य और सौन्दर्य की पूर्णता, आधिदैविक पूर्णता होने के कारण शक्ति और ऐश्वर्य की पूर्णता, आध्यात्मिक पूर्णता होने के कारण ज्ञान एवं ऐश्वर्य की पूर्णता का होना स्वाभाविक है। इसी कारण भगवान् पूर्णब्रह्म श्री कृष्ण अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत तीनों सत्ताओं से परिपूर्ण थे।

पूर्णाहुति : यज्ञ समाप्त होने पर जो अन्तिम आहुति दी जाती है उसे पूर्णाहुति कहते हैं। इसमें घृतपूर्ण नारियल, फूल, ताम्बूल आदि स्रुव में रखकर विस्तृत मन्त्रपाठ के साथ अग्नि में अर्पित किये जाते हैं।

पूर्णिमाव्रत : (1) समस्त पूर्णिमाओं को धूप, दीप, पुष्प, फल, चन्दन, नैवेद्यादि से पार्वती उमा की पूजा और सम्मान करना चाहिए। गृहस्वामिनी केवल रात्रि में भोजन करे, यदि वह समस्त पूर्णिमाओं को व्रत न कर सके तो कम से कम कार्तिकी पूर्णिमा को अवश्य करे।

(2) श्रावणी पूर्णिमा को व्रतकर्ता उपवास रखे और इन्द्रिय निग्रह करके 100 बार प्राणायाम साधे। इससे वह समस्त पापों से मुक्त हो जायगा।

(3) कार्तिकी पूर्णिमा के दिन महिलाएँ अपने घर अथवा उद्यान की दीवार पर शिव तथा उमा की आकृतियाँ खीचें। तदन्तर इन दोनों देवों की गन्धाक्षत-पुष्पादि से पूजा करते हुए गन्ना अथवा गन्ने के रस से तैयार वस्तुएँ चढ़ाएँ। तिलरहित खाद्य पदार्थ नक्त विधि से खाये जायें। इस व्रत से सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

पृथ्वीव्रत : इस व्रत में देवी के रूप में पृथ्वी का पूजन होता है।

पूर्त : पूर्त' या 'पूर्ति' शब्द ऋग्वेद (6.16,18; 8.46,21) तथा अन्य संहिताओं में उपहार का बोधक है, जो पुरोहित को सेवाओं के बदले में दिया जाता था। आगे चलकर 'इष्ट' के साथ इसका प्रयोग होने लगा, तब इसका अर्थ 'लोकोपकारी धार्मिक कार्य--कूप, बाग, तालाब, सड़क, धर्मशाला, पाथशाला निर्माण' आदि हो गया। इष्ट (यज्ञ) अदृष्ट फल वाला होता है; पूर्त दृष्ट फल वाला। धार्मिक क्रिया के ये दो प्रधान अङ्ग हैं।

पूर्वपक्ष : तार्किक वाद में प्रतियोगी सिद्धान्त का यह पूर्व अथवा प्रथम प्रतिपादन है। उत्तर पक्ष इसका खण्डन करता है।

पूर्वमीमांसा : षड्दर्शनों में अन्तिम युग्म 'मीमांसा' के पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा ये दो भाग हैं। पूर्वमीमांसा यथार्थतः दर्शन नहीं है; वास्तव में यह वेदों की छानबीन है, जैसा कि इसके नाम से ही प्रकट है। यह वेद के प्राथमिक अंश अर्थात् यज्ञ से सम्बन्ध रखता है, जबकि उत्तरमीमांसा उपनिषद् भाग से। उपनिषदों का वेद के अन्तिम अंश से सम्बन्ध होने के कारण उत्तरमीमांसा को वेदान्त भी कहते हैं तथा पूर्वमीमांसा को कर्ममीमांसा कहते हैं।

पूर्वमीमांसा में वेदोक्त धर्म के विषय की खोज तथा कर्म के विवेचन द्वारा हिन्दुओं के धार्मिक कर्तव्य की स्थापना हुई है। यह प्रणाली यज्ञकर्ताओं के सहायतार्थ स्थापित हुई थी तथा आज तक सनातनी हिन्दुओं में द्विजों की मार्गदर्शक है। यह वेदान्त, सांख्य तथा योग के समान संन्यासधर्म की शिक्षा नहीं देती।

पूर्वमीमांसाशास्त्र (सूत्र) के प्रणेता जैमिनि ऋषि हैं। इस पर शबर स्वामी का भाष्य है। कुमारिल भट्ट के 'तन्त्रवार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' भी इसकी व्याख्या के रूप में प्रसिद्ध है। माधवाचार्य ने भी 'जैमिनीय न्यायमालाविस्तर' नामक एक ऐसी ही ग्रन्थ रचा है। मीमांसा शास्त्र में यज्ञों का विस्तृत विवेचन है, इससे उसे यज्ञ विद्या भी कहते हैं।

मीमांसा का तात्विक सिद्धान्त विलक्षण है। इसकी गणना अनीश्वरवादी दर्शनों में होती है। आत्मा, ब्रह्म, जगत् आदि का विवेचन इसमें नहीं है। यह केवल वेद अथवा उशके शब्द की नित्यता का ही प्रतिपादन करता है। इसके अनुसार मन्त्र ही देवता हैं, देवताओं की अलग कोई सत्ता नहीं। 'भाट्टदीपिका' में स्पष्ट कहा गया है कि फल के उद्देश्य से सब कर्म होते हैं। फल की प्राप्ति कर्म द्वारा ही होती है। कर्म और उनके प्रतिपादक वचनों (वेदमन्त्रों) के अतिरिक्त ऊपर से और किसी देवता या ईश्वर को मानने की आवश्यकता नहीं है। मीमांसकों और नैयायिकों में भारी मतभेद यह है कि मीमांसक शब्द को नित्य मानते हैं और नैयायिक अनित्य। सांख्य और मीमांसा दोनों अनीश्वरवादी हैं, पर वेद की प्रामाणिकता दोनों मानते हैं। भेद इतना ही है कि सांख्याचार्य प्रत्येक कल्प में वेद का नवीन प्रकाशन मानते हैं और मीमांसक उसे नित्य अर्थात् कल्पान्त में भी नष्ट न होने वाला कहते हैं।

इस शास्त्र का 'पूर्वमीमांसा' नाम इस अभिप्राय से नहीं रखा गया कि यह उत्तरमीमांसा से पूर्व बना। 'पूर्व' कहने का तात्पर्य यह है कि कर्मकाण्ड मनुष्य का प्रथम धर्म है, ज्ञानकाण्ड का अधिकार उसके उपरान्त आता है।

पूर्वमीमांसासूत्र : इसकी रचना ई० पू० पाँचवी-चौथी शताब्दी में जैमिनी ऋषि द्वारा मानी जाती है। यह बारह अध्यायों में विभक्त है। विविध विषय अधिकरणों में विभक्त हैं। सम्पूर्ण अधिकरणों की संख्या नौ सौ सात (907) है। प्रत्येक अधिकरण में कई सूत्र हैं। समस्त सूत्रों की संख्या दो हजार सात सौ पैंतालीस (2745) हैं। प्रत्येक अधिकरण में पाँच भाग होते हैं--(1) विषय (2) संशय (3) पूर्व पक्ष (4) उत्तर पक्ष (5) सिद्धान्त। ग्रन्थ के तात्पर्यनिर्णय के लिए (1) उपक्रम (2) उपसंहार (3) अभ्यास (4) अपूर्वता (नवीनता) (5) फल (उद्देश्य) (6) अर्थवाद (माहात्म्य) और (7) उपपति (प्रमाणों द्वारा सिद्धि) ये सात बातें आवश्यक हैं।

पूर्वार्चिक : सामवेद की राणायनीय संहिता के पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक दो भाग हैं। पहले भाग में ग्राम्यगीत एवं अरण्यगीत हैं, दूसरे भाग में ऊहगीत तथा उह्यगीत संगृहीत हैं।

पूर्वाह्ण : दिन के प्रथम अर्ध भाग का बोधक शब्द। देवकार्य के लिए यह काल उपयुक्त माना गया है।

पृथिवी (पृथिवी, पृथ्वी) : यह शब्द भूमि एवं विस्तीर्ण के अर्थ में ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ है। पश्चात् इसका व्यक्तीकरण एक देवी के रूप में हो गया। इसका उपर्युक्त अर्थों में प्रयोग अकेले तथा द्यौ (आकाश) के साथ 'द्यावापृथ्वी' के रूप में हुआ है। इस रूप में द्यावा-पृथिवी समस्त देवताओं के जनक-जननी है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार पृथिवी समुद्र की मेखला धारण करती है। शतपथ ब्रा० में पृथिवी को 'सृष्टिज्येष्ठ' और 'प्रथमसृष्टि' कहा गया है। अथर्ववेद का पृथ्वीसूक्त प्रसिद्ध है, इसमें पृथिवी को माता और मनुष्यों को उसका पुत्र कहा गया है। पुराणों में पृथिवी का पूरा व्यक्तीकरण या दैवीकरण हुआ है। पृथिवी प्रायः गोरूप में चित्रित है, वह ऋत और सत्य की साक्षी और मानवचरित्र की निरीक्षिका है।

प्रातःकाल उठते ही धार्मिक हिन्दू पृथिवी की निम्नाङ्कित मन्त्र से प्रार्थना करता है :

समुद्रवसने देवि! पर्वतस्तनमण्डले। विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे॥

पृथु (पृथि, पृथी) : आद्य व्यवस्थापक और शासक। इनका विशेष करके कृषि के अनुसन्धाता तथा दोनों विश्वों (मनुष्य तथा पशुओं) के स्वामी के रूप में वर्णन किया गया है। इनका एक विरुद् 'वैन्य' अर्थात् वेन का पुत्र है। इन्हें प्रथम अभिषिक्त राजा कहा गया है। पुराणों में पृथु की कथा का विस्तार से वर्णन है। राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यह कथा कही गयी है। ब्रह्मा ने राज्य संचालन के लिए एक संहिता बनायी, परन्तु इसका उपयोग करने के लिए किसी पुरुष की आवश्यकता थी। विष्णु ने अपने तेज से विराज की उत्पत्ति की। किन्तु विराज और उसके छः वंशजों ने राज्य करने से इन्कार कर दिया। वेन अन्यायी राजा हुआ। क्रुद्ध ऋषियों ने राजसभा में ही उसका वध कर दिया एवं उसकी दाहिनी भुजा का मन्थन करके पृथु को उत्पन्न किया। पृथु ने न्यायपूर्वक प्रजा पालन की प्रतिज्ञा की। विष्णु, देवताओं, ऋषियों और दिक्पालों ने उनका राज्याभिषेक किया। संसार ने पृथु की नर देवताओं में गणना की औऱ देवता के समान उनकी पूजा की। पृथु आदर्श राजा के प्रतीक माने जाते हैं।

पृथुश्रवा दौरेश्रवस : यह दूरेश्रवा का आत्मज था, जिसका उल्‍लेख पञ्चविंश ब्राह्मण (25.15.3) में नागयज्ञ के एक उद्गाता पुरोहित के रूप में हुआ है।

पृथ्वीचन्द : सिक्खों के एक उपगुरु। खालसा संस्था की उत्पत्ति से सिक्ख दो भागों में बँट गये : (1) सहिजधारी तथा (2) सिंह। सहिजधारियों की छः शाखाएँ हुईं, जिनमें 1738 वि० (लगभग) में गुरु रामदास के पुत्र पृथ्वीचन्द ने 'मिन' नामक शाखा की नींव डाली।

पृदाकु : अथर्ववेद में उद्धृत एक सर्प। अश्वमेध के बलिपशुओं की तालिका में यह भी सम्मिलित है। अथर्ववेद (1.27,1) के अनुसार इसका चर्म विशेष मूल्यवान् होता था।

पृश्नि : ऋग्वेद में वर्णित बादलरूपी गाय। मरुतों को रुद्र तथा पृश्नि (गौ) का पुत्र कहा गया है। वास्तव में विभिन्न रंगों के झंझावाती बादलों का यह नाम है।

पृषत् : अश्वमेध के बलिपशुओं की तालिका में उल्लिखित एक पशु। निरुक्त (2.2) में इसका अर्थ 'चितकबरा हरिण' बताया गया है।

पेरियतिरुवन्दादि : नाम आलवार, के ग्रन्थों में से, जो चारों वेदों के प्रतिनिधि हैं, 'पेरियतिरुवन्दादि' अथर्ववेद का प्रतिनिधित्व करता है।

पैङ्गराज : अश्वमेध यज्ञ के बलिपशुओं में से एक जन्तु। यह पक्षी अर्थ का बोधक है किन्तु पक्षी के प्रकार का ज्ञान इससे नहीं होता।

पैङ्गल उपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्।

पैठण : प्राचीन प्रतिष्ठान नगर, जो औरंगाबाद (महाराष्ट्र) से बत्तीस मील दूर है। यह शालिवाहन की राजधानी और महाराष्ट्र का प्राचीन विद्याकेन्द्र भी था। यही संत एकनाथ का वासस्थान एवं उनके आराध्य भगवान् का मन्दिर है। कहते हैं कि यहीं गोदावरी के नागघाट पर संत ज्ञानेश्वर ने भैंसे के मुख से वेदमन्त्रों का उच्चारण कराया था। प्रसिद्ध संत कृष्णदयार्णव का घर भी यहीं है।

पैप्पलाद (शाखा) : अथर्ववेद की एक प्राचीन शाखा। इसके मन्त्रपाठ की हस्तलिखित प्रतिलिपि 1930वि० में कश्मीर से प्राप्त हुई थी। शौनक शाखा से इसकी मन्त्रव्यवस्था में पर्याप्त अन्तर है। पैप्पलाद संहिता का आठवाँ तथा नवाँ भाग नया जान पड़ता है, जो न तो सांख्यायन में, न किसी और वैदिक संग्रह में उपलब्ध है। दे० 'पिप्पलाद'।

पोक्रिपक्रोदइ : तमिल शैवों के चौदह सिद्धान्तशास्त्रों में एक 'पोक्रिपक्रोदइ' है। इसके रचयिता उमापति शिवाचार्य हैं, जो चौदह सिद्धान्तशास्त्रों में से आठ के रचयिता हैं।

पोंगलमास : तमिल प्रदेश का एक विशेष व्रतोत्सव। महाराष्ट्र के गणेशोत्सव, बङ्गाल के दुर्गोत्सव, उडीसा की रथयात्रा के समान द्रविड प्रदेश में 'पोंगलमास' पर्व का बड़े उत्साह से आयोजन किया जाता है। यह उत्तर भारत की मकर संक्रान्ति या 'खिचड़ी' का दूसरा रूप है।

पौरन्दरव्रत : पुरन्दर (इन्द्र) का व्रत पञ्चमी को इसका अनुष्ठान होता है। व्रती को तिल की गजक या तिलपट्टी से हाथी की आकृति बनाकर उसे सुवर्ण से अलंकृत करना चाहिए तथा उस पर अंकुश सहित महावत भी बिठाना चाहिए। हाथी इन्द्र का वाहन है। उसको रक्त वस्त्र से आच्छादित करके कर्णाभूषण तथा स्वच्छ धौत वस्त्रों सहित दान में दे देना चाहिए। इससे व्रती इन्द्रलोक में बहुत समय तक वास करता है।

पौल्‍कस : बृहदारण्यक उ० में इस शब्द का उल्लेख चाण्डाल एवं घृणित जाति के सदस्यों के लिए हुआ है। स्मृतियों के अनुसार पुल्कस निषाद अथवा शूद्र पिता तथा क्षत्रियकन्या का पुत्र है। इसकी गणना वर्णसंकर जातियों में की गयी है। किन्तु पौल्कस एक जाति हो सकती है। संभवतः यह वन्य जाति है, जो जंगली जन्तुओं को पकड़ने का काम कर अपनी जीविका चलाती थी।

पौष्करस : तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में उल्लिखित एक आचार्य।

पौष्टिक : जीवन की पुष्टि के लिए किया हुआ धार्मिक कृत्य पौष्टिक कहलाता है। बृहत्संहिता में सांवत्सर (ज्योतिषी) की योग्यता तथा सामर्थ्य की परिगणना करते हुए बतलाया गया है कि उसे शान्तिक तथा पौष्टिक क्रियाओं में पारङ्गत होना चाहिए। दोनों कृत्यों में अन्तर यह है कि पौष्टिक कार्यों में होम, यज्ञ, यागादि कृत्य आते हैं जो दीर्घायु की प्राप्ति के लिए होते हैं; शान्तिक कृत्यों में होमादि का आयोजन दुष्ट ग्रहों के प्रभाव को दूर करने तथा असाधारण घटनाओं, जैसे पुच्छल तारे के उदय, भूकम्प अथवा उल्काओं के पतन से होने वाले अनिष्ट के निवारणार्थ किया जाता है। निर्णयामृत, 48 तथा कृत्यकल्पतरु के नैत्यकालिक काण्ड, 254 के अनुसार 'शान्ति' का तात्पर्य है धर्मशास्त्रानुसार भौतिक विपदाओं के निवारणार्थ किये गये शास्त्रानुमोदित धार्मिक कृत्य।

पौष्करसंहिता : पाञ्चरात्र साहित्य में 108 संहिताओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें से पौष्कर, वाराह तथा ब्राह्म संहिताएँ सबसे प्राचीन हैं। किन्तु कुछ विद्वान् पद्मसंहिता को तथा कुछ लक्ष्मीसंहिता को प्राचीन मानते हैं।

पौष्यञ्जि : सामवेद की शाखापरम्परा में सुकर्मा के शिष्य पौष्यञ्जि माने जाते हैं। इनके हिरण्यनाभ और राजपुत्र कौशिक्य नाम के दो शिष्य थे। पौष्यञ्जि ने उन दोनों के पाँच-पाँच सौ सामगीतियाँ पढ़ायी। हिरण्यनाभ के शिष्य प्राच्यसामग नाम से विख्यात हुए।

प्रकरणग्रन्थ : स्मृति साहित्य का एक व्यावहारिक प्रकार प्रकरण ग्रन्थ कहलाता है। इसकी रचना का उद्देश्य मींमांसा के सिद्धान्तों को स्मृतिगन्थों में वर्णित क्रियाओं पर लागू करना था। यह मुख्यतः मीमांसा का ही एक अङ्ग है। प्रकरणग्रन्थों में सबसे प्राचीन एवं मुख्य स्मृति कौस्तुभ है। इसके रचयिता अनन्तदेव थे।

प्रकरणपञ्चिका : प्रभाकर के शिष्य शालिकनाथ (700 ई०) द्वारा विरचित यह ग्रन्थ प्रभाकर की मीमांसाप्रणाली का अभिनव वर्णन प्रस्तुत करता है।

प्रकरिता : यजुर्वेद में उद्धृत पुरुषमेध की बलिजीव। इसका ठीक अर्थ अनिश्चित है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में सायण ने इसका अर्थ 'मित्रों में फूट उत्पन्न कर देने वाला' लगाया है, किन्तु मैकडॉनल तथा कीथ के मतानुसार इसका अर्थ 'छिड़कने वाला' अथवा 'छानने वाला' यन्त्र है, जिसका उपयोग यज्ञों में होता था।

प्रकाश : आचार्य वल्लभ के पुष्टिमार्गीय तीन संस्कृत ग्रन्थों में एक तत्त्वदीपनिबन्ध है, जो उनके सिद्धान्तों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करता है। इस ग्रन्थ के साथ 'प्रकाश' नामक प्राञ्जल गद्य भाग एवं सत्रह संक्षिप्त रचनाएँ सम्मिलित हैं।

प्रकाशात्ममुनि : बारहवीं शताब्दी के मध्य में आचार्य रामानुज का आविर्भाव हुआ था और उन्होंने शाङ्कर मत का बड़े कठोर शब्दों में खण्डन किया। उस समय शाङ्कर मत को पुष्ट करने की चेष्टा प्रकाशात्ममुनि ने की थी। इन्होंने पद्मपादाचार्यकृत पञ्चपादिका पर पञ्चपादिकाविवरण नामक टीका की रचना की। अद्वैत जगत् में यह टीका बहुत मान्य है। बाद में आचार्यों ने प्रकाशात्ममुनि के वाक्य प्रमाण के रूप में उद्धृत किये हैं। परन्तु इन्होंने अपना परिचय कहीं नहीं दिया। ऐसा मालूम होता है कि ये दसवीं शताब्दी के बाद और तेरहवीं शताब्दी के पहले हुए थे। इनका अन्य नाम प्रकाशानुभव भी था और इनके गुरु का नाम अनन्यानुभव था, ऐसा इनके ग्रन्थ से पता चलता है।

प्रकाशात्मयति : दे० 'प्रकाशात्ममुनि'।

प्रकाशात्मा : एक प्रसिद्ध वृत्तिकार। इन्होंने श्वेताश्वतर एवं मैत्रायणीयोपनिषद् पर दार्शनिक वृत्तियाँ लिखी हैं।

प्रकाशानन्द : वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली ग्रन्थ के रचयिता। इनके गुरु आचार्य ज्ञानानन्द थे। अप्पय्य दीक्षित ने 'सिद्धान्तलेश' में इनके मत का उल्लेख किया है। ये विद्यारण्य के परवर्ती थे, क्योंकि वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली में कही-कहीं इन्होंने 'पञ्चदशी' के पद्यों को उद्धृत किया है। अतः इनका जीवन काल पन्द्रहवीं शताब्दी होना चाहिए। इसके सिवा इनकी जीवन सम्बन्धी और कोई घटना नहीं कही जा सकती।

प्रकाशानन्द : वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली वेदान्त का सुप्रसिद्ध प्रमाण ग्रन्थ है। इसकी विवेचनशैली बहुत युक्तियुक्त और प्राञ्जल है। इसमें गद्य में विचार करके पद्य में सिद्धान्तनिरूपण किया गया है। इसके ऊपर अप्पय्य दीक्षित की 'सिद्धान्तदीपिका' नाम की एक वृत्ति है।

प्रकाशानुभव : दे० 'प्रकाशात्ममुनि'।

प्रकृति : सांख्य शास्त्र में चार प्रकार से पदार्थों का निरूपण किया गया हैं : (1) केवल प्रकृति (2) केवल विकृति, (3) प्रकृति-विकृति उभयरूप और (4) प्रकृति-विकृति दोनों से भिन्न। मूल प्रकृति केवल प्रकृति है, किसी की विकृति नहीं है। महत् से आरम्भ होनेवाले सात तत्व प्रकृति और विकृति दोनों हैं। ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, पाँच महाभूत और मन ये सोलह केवल विकृति हैं। पुरुष न तो प्रकृति है, न विकृति है।

महदादि सम्पूर्ण कार्यों का जो मूल है वह मूल प्रकृति है, उसके प्रधान, माया, अव्यक्त आदि नामान्तर हैं। प्रकृति का और कोई कारण नहीं है इसी लिए इसको मूल प्रकृति कहा जाता है।

प्रकृति और पुरुष दोनो को सांख्य में अनादि माना जाता है। इसी प्रकृति से सम्पूर्ण जगत् का विकास हुआ है। प्रकृति की 'सत्-ता' (सदा होना) कारण (मूल) है; इससे कार्य जगत् उद्भुत हुआ है। इस सिद्धान्त को 'सत्कार्यवाद' कहते हैं। एक ही मूल प्रकृति से विश्व के विविध पदार्थ उत्पन्न होते हैं। इसका कारण है प्रकृति में तीन गुणों---सत्व, रज, तम का होना। विविध अनुपातों में इन्हीं के सम्मिश्रण से विभिन्न वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं। विकासप्रक्रिया उस सममय प्रारम्भ होती है जब प्रकृति का पुरुष से सम्बन्ध होता है। किन्तु इस प्रक्रिया में ईश्वर का कोई भी हाथ नहीं है। पुरुष को प्रसन्न और मुग्ध करने के लिए प्रकृति अपना कार्य प्रारम्भ करती है। जब पुरुष प्राज्ञ होकर अपना स्वरूप पहचान लेता है तब प्रकृति संकुचित होकर अपनी लीला समेट लेती है।

प्रकृति-पुरुषव्रत : चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को यह प्रारम्भ होता है। इसमें उपवास का विधान है। पुरुषसूक्त से गन्धादि सहित अग्निदेव का पूजन करना चाहिए। अग्नि तथा सोम के रूप में पुरुष तथा प्रकृति पूजे जाने चाहिए। वे ही वासुदेव तथा लक्ष्मी भी हैं। श्रीसूक्त से लक्ष्मी का पूजन होना चाहिए। सुवर्ण, रजत तथा ताम्र का दान करना चाहिए। व्रती को घी तथा दूध का ही आहार करना चाहिए। एक वर्ष पर्यन्त इसका अनुष्ठान होता है। इससे व्रती की सभी सांसारिक इच्छाएँ पूर्ण होती हैं तथा अन्त में वह मोक्ष मार्ग का अधिकारी होता है।

प्रगाथ : ऋग्वेदीय अष्टम मण्डल की विशिष्ट छन्दोबद्ध रचना। ऐतरेय आरण्यक में यह नाम ऋग्वेद के उक्त मण्डल के रचनाकारों को दिया गया है। कारण यह है कि प्रयाथ छन्द उनको अत्यन्त प्रिय था।

वस्तुतः प्रगाथ वैदिक छन्द का नाम है, जिसकी प्रथम पंक्ति में बृहती अथवा ककुप् और फिर सतोबृहती की मात्राएँ रखी जाती हैं।

प्रजापति : वैदिक ग्रन्थों में वर्णित एक भावात्मक देवता, जो प्रजा अर्थात् सम्पूर्ण जीवधारियों के स्वामी हैं। ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव का हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण उच्च स्थान है। इन तीनों को मिलाकर त्रिमूर्ति कहते हैं। ब्रह्मा सृष्टि करने वाले, विष्णु पालन करने वाले तथा शिव (रुद्र) संहार करने वाले कहे जाते हैं। वास्तव में एक ही शक्ति के ये तीन रूप हैं। इनमें ब्रह्मा को प्रजापति, पितामह, हिरण्यगर्भ आदि नामों से वेदों तथा ब्रह्माणों में अभिहित किया गया है। इनका स्वरूप धार्मिक की अपेक्षा काल्पनिक अधिक है। इसी लिए ये जनता के धार्मिक विचारों को विशेष प्रभावित नहीं करते। यद्यपि प्रचलित धर्म में विष्णु तथा शिव के भक्तों की संख्या सर्वाधिक है, किन्तु तीनों देवों; ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव को समान पद प्राप्त है, जो त्रिमूर्ति के सिद्धान्त में लगभग पाँचवीं शताब्दी से ही मान्य हो चुका है। ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार प्रजापति की कल्पना में मतान्तर है; कभी वे सृष्टि के साथ उत्पन्न बताये गये हैं, कभी उन्हीं से सृष्टि का विकास कहा गया है। कभी उन्हें ब्रह्मा का सहायक देव बताया गया है। परवर्ती पौराणिक कथनों में भी यही (द्वितीय) विचार पाया जाता है। ब्रह्मा का उद्भव ब्रह्म से हुआ, जो प्रथम कारण है, तथा दूसरे मतानुसार ब्रह्मा तथा ब्रह्म एक ही हैं, जबकि ब्रह्मा को ‘स्वयम्भू’ या अज (अजन्मा) कहते हैं।

सर्वसाधारण द्वारा यह मान्य विचार, जैसा मनु (1.5) में उद्धृत है, यह है कि स्वयम्भू की उत्पत्ति प्रारम्भिक अन्धकार से हुई, फिर उन्होंने जल की उत्पत्ति की तथा उसमें बीजारोपण किया। यह एक स्वर्णअण्ड बन गया, जिससे वे स्वयं ही ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ के रूप में उत्पन्न हुए। किन्तु दूसरे मतानुसार (ऋग्वेद, पुरुषसूक्त 10.80) प्रारम्भ में पुरुष था तथा उसी से विश्व उत्पन्न हुआ। वह पुरुष के साथ उद्धृत है। इस प्रकार नारायण मनु के उपर्युक्त उद्धरण के ब्रह्मा के सदृश हैं। किन्तु साधारणतः नारायण तथा विष्णु एक माने जाते हैं।

फिर भी सृष्टि एवं भाग्य की रचना ब्रह्मा द्वारा हुई, ऐसा विश्वास अत्यन्त प्राचीन काल से अब तक चला आया है।

प्रजापतिव्रत : नियमपूर्वक सन्तानोत्पत्ति ही प्रजापतिव्रत है। प्रश्नोपनिषद् (1.13 तथा 15) में यह कथन है : 'दिवस ही प्राण है, रात्रि प्रजापति का भोजन है। जो लोग दिन में सहवास करते हैं, वे मानो प्राणों पर ही आक्रमण करते हैं और जो लोग रात में सहवास करते हैं, वे मानो ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं। जो लोग प्रजापतिव्रत का आचरण करते हैं, वे (एक पुत्र तथा एक पुत्री के रूप में) सन्तानोत्पादन करते हैं।'

प्रज्ञा : प्रकृष्ट ज्ञान या बुद्धि। अनुभूति अथवा अन्तर्दृष्टि से वास्तविक सत्ता-आत्मा अथवा परमात्मा के सम्बन्ध में जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वास्तव में वही प्रज्ञा है।

प्रज्ञान : प्रखर बुद्धि अथवा चेतना। दे० 'प्रज्ञा'।

प्रणव : पवित्र घोष अथवा शब्द (प्र+णु स्तवने +अप्)। इसका प्रतीक रहस्यवादी पवित्र अक्षर 'ऊँ' है और इसका पूर्ण विस्तार 'औ3म्' रूप में होता है। यह शब्द ब्रह्म का बोधक है; जिससे यह विश्व उत्पन्न होता है, जिसमें स्थित रहता है और जिसमें इसका लय हो जाता है। यह विश्व नाम-रूपात्मक है, उसमें जितने पदार्थ हैं इनकी अभिव्यक्ति वर्णों अथवा अक्षरों से होती है। जितने भी वर्ण हैं वे अ (कण्ठ्य स्वर) और म् (ओष्ठ्य व्यञ्जन) के बीच उच्चरित होते हैं। इस प्रकार 'ओम्' सम्पूर्ण विश्व की अभिव्यक्ति, स्थिति और प्रलय का द्योतक है। यह पवित्र और माङ्गलिक माना जाता है इसलिए कार्यारम्भ और कार्यान्त में यह उच्चारित अथवा अङ्कित होता है। वाजसनेयी संहिता, तैत्तिरीय संहिता, मुण्डकोपनिषद् तथा रामतापनीय उपनिषद् में 'ओम्' के अर्थ और महत्त्व का विशद विवेचन पाया जाता है।

प्रणव उपनिषद् : एक परवर्तीं उपनिषद्, जिसमें प्रणव का निरूपण और माहात्म्य पाया जाता है।

प्रणवदर्पण : तृतीय श्रीनिवास (अठारहवीं शती पूर्वार्ध में) द्वारा रचित यह ग्रन्थ विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन करता है।

प्रणववाद : इस सिद्धान्त के अनुसार शब्द अथवा नाद को ही ब्रह्म या अन्तिम तत्त्व मानकर उसकी उपासना की जाती है। किसी न किसी रूप में सभी योगसाधना के अभ्यासी शब्द की उपासना करते हैं। यह प्रणाली अति प्राचीन है। प्रणव के रूप में इसका मूल वेदमन्त्रों में वर्तमान है। इसका प्राचीन नाम 'स्फोटवाद' भी है। छठी शताब्दी के लगभग सिद्धयोगी भर्तृहरि ने प्रसिद्ध ग्रन्थ वाक्यपदीय में 'शब्दाद्वैतवाद' का प्रवर्त्तन किया था। नाथ सम्प्रदाय में भी शब्‍द की उपासना पर जोर दिया गया है। चरनदासी पन्थ में भी शब्द का प्राधान्य है। आधुनिक संतमार्गी राधास्वामी सत्संगी लोग शब्द की ही उपासना करते हैं।

प्रणवोपासना : दे० 'प्रणववाद'।

प्रणामी सम्प्रदाय : इसका शुद्ध नाम 'परिणामी सम्प्रदाय' है। इसके प्रवर्त्तक महात्मा प्राणनाथजी परिणामवादी वेदान्ती थे, जो विशेष कर पन्ना (मध्य प्रदेश) में रहते थे। महाराज छत्रसाल इन्हें अपना गुरु मानते थे। ये अपने को मुसलमानों का मेहँदी, ईसाइयों का मसीहा और हिन्दुओं का कल्कि अवतार कहते थे। इन्होंने मुसलमानों से शास्त्रार्थ भी किये थे। सर्वधर्म समन्वय इनका उद्देश्य था। इनका मत राधाकृष्णोपासक निम्बार्कीय वैष्णवों से मिलताजुलता था। ये गोलोकवासी भगवान् कृष्ण के सख्यभाव की उपासना का उपदेश देते थे। प्राणनाथजी ने उपदेशात्मक ग्रन्थ और सिद्धान्तात्मक वाणियाँ फारसी मिश्रित सधुक्कड़ी भाषा में रची है। इनकी शिष्य परम्परा का भी अच्छा साहित्य है। इनके अनुगामी वैष्णव गुजरात, राजस्थान और बुन्देलखण्ड में अधिक पाये जाते हैं। दे० 'प्राणनाथ'।

प्रतिज्ञावादार्थ : श्रीवैष्णव अनन्ताचार्य द्वारा विरचित 16वीं शताब्दी का एक ग्रन्थ।

प्रतिप्रस्थाता : ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञ विधियों, पुरोहितों की संख्य तथा प्रकार में बहुत विविधता दिखाई पड़ती हैं। विविध यज्ञों के लिए विविध नाम व गुणों वाले पुरोहित आवश्यक होते थे। जैसे चातुर्मास्य यज्ञ के लिए 'प्रतिप्रस्थाता' नामक पुरोहित की आवश्यकता होती थी। इसका शाब्दिक अर्थ हैं 'दुबारा स्थापना करने वाला।'

प्रतिष्ठा : (1) विशेष प्रकार से स्थापना। मन्दिरों में मूर्तियों के पधराने को प्रतिष्ठा कहा जाता है। देवप्रतिष्ठा के अन्तर्गत प्राणप्रतिष्ठा का भी अनुष्ठान होता है।

(2) अथर्ववेद (6.32,3; 8.8.21; शांखा० आ० 12.14) के एक परिच्छेद में इस शब्द का प्रयोग धर्म के किसी विशेष अर्थ में हुआ है। सम्भवतः इसका 'मन्दिर का गर्भगृह' अभिप्राय है। गृह अथवा वास अर्थ भी असंगत नहीं प्रतीत होता है।

प्रतिष्ठाविधि : देवप्रतिष्ठा के समय, पर्व और आपत्काल में नियमित रूप से मूर्तियों का अभिषेक करना मन्दिरों में आज भी प्रचलित है। इसके नियम अनेक पद्धतियों में लिखे गये हैं जिन्हें पूजाविधि अथवा प्रतिष्ठाविधि कहते हैं। अभिषेक विशेष कर दुग्ध अथवा भिन्न-भिन्न प्रकार के जल, मधु, गव्य द्रव्य, दीमक के बिल की मिट्टी आदि से भी होता है।

प्रतिसर्ग : पुराणों के अन्तर्गत उनके पञ्च लक्षण, विषय या प्रकरण माने गये हैं : (1) सर्ग (सृष्टि) (2) प्रतिसर्ग अर्थात् सृष्टि का विस्तार, लय औऱ फिर से सृष्टि (3) सृष्टि की आदि वंशावली (4) मन्वन्तर (5) वंशानुचरित। प्रतिसर्ग का शाब्दिक अर्थ है 'पुनःसृष्टि' अर्थात् विश्वसृष्टि के अन्तर्गत खण्डशः सृष्टि और प्रलय की परम्परा।

प्रतिहर्ता : सोलह ऋत्विजों की तालिका में उद्धृत उद्गाता का सहायक पुरोहित। इसका उल्लेख कई संहिताओं तथा ब्राह्मणों में हुआ है किन्तु ऋग्वेद में यह शब्द नहीं पाया जाता। इसका कारण यह है कि तब तक यज्ञों का अधिक विस्तार नहीं हुआ था।

प्रतिहारसूत्र : ऋक् मन्त्र को साम में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्रग्रन्थ हैं। इनमें से एक नाम पञ्चविधिसूत्र तथा दूसरे का प्रतिहारसूत्र है। ये ग्रन्थ कात्यायन द्वारा रचित कहलाते हैं।

प्रत्यक्ष : इन्द्रियों की सहायता से प्राप्त ज्ञान (प्रति+अक्ष= आँखों (इन्द्रियों) के सामने)। न्यायदर्शन में चार प्रमाणों के अन्तर्गत इसको प्रथम प्रमाण माना है। चार्वाक दर्शन में प्रत्यक्ष को ही एक मात्र प्रमाण मानते हुए अनुमान, उपमान, शब्द आदि अन्य प्रमाणों का प्रत्याख्यान किया जाता है।

प्रत्यभिज्ञा : तत्ता-इदन्तावगाही' ज्ञान; सुदीर्घकालिक प्रयास से बिछुड़े हुए को पहचानना। काश्मीर शैव मत में भक्त का मोक्ष शिव के साथ तादात्म्य अर्थात् प्रत्यभिज्ञा नामक स्थिति पर निर्भर है। यह उस अवस्था का नाम है जब भक्त को ध्यान में शक्ति के माध्यम से शिव की अनुभूति होती है। इस शब्द की व्युत्पत्ति है 'प्रति+अभि+ज्ञा', जिसका अर्थ है जानना, पहचानना, स्मरण करना। प्रत्यभिज्ञादर्शन के सन्दर्भ में इसका अर्थ है 'जीव और ब्रह्मा के तादात्म्य का ज्ञान'।

प्रत्यभिज्ञाकारिका : दसवीं शताब्दी में उत्पलाचार्य द्वारा विरचित यह ग्रन्थ सोमानन्दरचित 'शिवदृष्टि' ग्रन्थ की शिक्षाओं की व्याख्या उपस्थित करता है।

प्रत्यभिज्ञादर्शन : एक दार्शनिक सम्प्रदाय। इसके अनुयायी काश्मीरक शैव होते हैं। इसके अनुसार महेश्वर ही जगत् के कारण और कार्य सभी कुछ हैं। यह संसार मात्र शिवमय है। महेश्वर ही ज्ञाता और ज्ञानस्वरूप हैं। घटपटादि का ज्ञान भी शिवस्वरूप है। इस दर्शन के अनुसार पूजा, पाठ जप, तप आदि की कोई आवश्यकता नहीं, केवल इस प्रत्यभिज्ञा अथवा ज्ञान की आवश्यकता है कि जीव और ईश्वर एक हैं। इस ज्ञान की प्राप्ती ही मुक्ति है। जीवात्मा-परमात्मा में जो भेद दीखता है वह भ्रम है। इस दर्शन के मानने वालों का विश्वास है कि जिस मनुष्य में ज्ञान और क्रियाशक्ति है, वही परमेश्वर है।

प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी : यह दसवीं शताब्दी के आचार्य अभिनव गुप्त द्वारा लिखित ग्रन्थ है। यह 'प्रत्यभिज्ञाकारिका' पर लिखा गया भाष्य है।

प्रत्यभिज्ञाविवृतिविमदर्शिनी : आचार्य अभिनव गुप्त (10वीं शताब्दी) द्वारा लिखित एक विस्तृत टीका, जो 'प्रत्यभिज्ञाकारिका' के ऊपर है।

प्रदक्षिणा : किसी वस्तु के अपनी दाहिनी ओर रखकर घूमना। यह षोडशोपचार पूजन की एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक क्रिया है जो पवित्र वस्तुओं, मन्दिरों तथा पवित्र स्नानों के चारों ओर चलकर की जाती है। काशी में ऐसी ही प्रदक्षिणा के लिए पवित्र मार्ग है जिसमें यहाँ के सभी पुण्यस्थल घिरे हुए हैं और जिस पर यात्री चलकर काशी धाम की प्रदक्षिणा करते हैं। ऐसे ही प्रदक्षिणामार्ग मथुरा, अयोध्या, प्रयाग, चित्रकूट आदि में हैं।

प्रदक्षिणा की प्रथा अति प्राचीन है। वैदिक काल से ही इससे व्यक्तियों, देवमूर्तियों, पवित्र स्थानों को प्रभावित करने या सम्मानप्रदर्शन का कार्य समझा जाता रहा है। शतपथ ब्राह्मण में यज्ञमण्डप के चारों ओर साथ में जलता अङ्गार लेकर प्रदक्षिणा करने को कहा गया है। गृह्यसूत्रों में गृहनिर्माण के निश्चित किये गये स्थान के चारों ओर जल छिड़कते हुए एवं मन्त्र उच्चारण करते हुए तीन बार घूमने की विधि लिखी गयी है। मनुस्मृति में विवाह के समय वधू को अग्नि के चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा करने का विधान बतलाया गया है।

प्रदक्षिणा का प्राथमिक कारण तथा साधारण धार्मिक विचार सूर्य की दैनिक चाल से निर्गत हुआ है। जिस तरह सूर्य प्रातः पूर्व में निकलता है, दक्षिण के मार्ग से चलकर पश्चिम में अस्त हो जाता है, उसी प्रकार हिन्दू धार्मिक विचारकों ने तदनुरूप अपने धार्मिक कृत्य को बाधा विघ्‍न विहीन भाव से सम्पादनार्थ प्रदक्षिणा करने का विधान किया। शतपथ ब्राह्मण में प्रदक्षिणामन्त्रस्वरूप कहा भी गया है : `सूर्य के समान यह हमारा पवित्र कार्य पूर्ण हो।`

प्रदत्त : परम्परानुसार द्वापर युग के अन्त में आलवारों के तीन आचार्य हुए-पोइहे, प्रदत्त एवं पे। प्रदत्त का जन्म तिरुवन्नमलायी (श्रीअनन्तपुरम्) नामक स्थान में हुआ था।

प्रदिव : अथर्ववेद (18.2.48) में इसे तीसरा तथा सबसे ऊँचा स्वर्ग कहा गया है, जिसमें पितृगण रहते हैं। कौषीतकि ब्रह्मण (20.1) में सात स्वर्गों की तालिका में इसे पञ्चम कहा गया है।

प्रदोषव्रत : त्रयोदशी को संध्याकाल के प्रथम प्रहर में इस व्रत का अनुष्ठान होता है। जो इस समय भगवान् शिव की प्रतिमा का दर्शन करता है तथा उनके चरणों में कुछ निवेदन करता है, वह समस्त संकटों और पापों से मुक्त हो जाता है। इस व्रत में पूजा के अनन्तर एकभक्त (एक बार भोजन) किया जाता है।

प्रद्युम्न : महाभारत के नारायणीयोपाख्यान में वर्णित चतुर्व्यूहसिद्धान्त के अन्तर्गत वासुदेव से संकर्षण, संकर्षण से प्रद्युम्न, प्रद्युम्न से अनिरुद्ध तथा अनिरुद्ध से ब्रह्मा की उत्पत्ति मानी गयी है। सांख्यदर्शन में संकर्षण तथा अन्य तीन का निम्नाङ्कित तत्वों से तादात्म्य किया गया है :

वासुदेव : मूलतत्व (पर ब्रह्म), संकर्षण : महत्तत्त्व प्रकृति, प्रद्युम्न : मनस्, अनिरुद्ध : अहङ्कार, ब्रह्मा : भूतों के रचयिता।

वासुदेव कृष्ण का नाम है, संकर्षण अथवा बलराम उनके भाई हैं, प्रद्युम्न उनके पुत्र तथा अनिरुद्ध उनके पौत्रों में से एक हैं। इनका एक सामूहिक पुञ्ज बना लिया गया और उसका 'व्यूह' नाम रख दिया गया है। दे० 'व्यूह'।

प्रपञ्चमिथ्यात्वानुमानखण्डनटीका : यह माध्व वैष्णव जयतीर्थाचार्य द्वारा विरचित द्वैतवादी तार्किक ग्रन्थ है। इसका रचनाकाल पन्द्रहवीं शताब्दी है।

प्रपञ्चमिथ्यावादखण्डन : मध्वाचार्य द्वारा विरचित एक द्वैतवादी वेदान्त ग्रन्थ।

प्रपञ्चसारतन्त्र : इस नाम के दो ग्रन्थ हैं, प्रथम शङ्कराचार्यकृत तथा दूसरा पद्मपादाचार्य कृत। ये अद्वैत वेदान्त के आधार पर उपासना का प्रतिपादन करते हैं।

प्रपत्तिमार्ग : भक्तिमार्ग का एक विकसित रूप, जिसका प्रादुर्भाव दक्षिण भारत में 13वीं शताब्दी में हुआ। देवता के प्रति क्रियात्मक प्रेम अथवा तल्लीनता को भक्ति कहते हैं, जबकि प्रपत्ति निष्क्रिय सम्पूर्ण आत्मसमर्पण है। दक्षिण भारत में रामानुजीय वैष्णव विचारधारा की दो शाखाएँ हैं : (1) बड़वकलइ (काञ्जीवरम् के उत्तर का भाग) यह शाखा भक्ति को अधिक प्रश्रय देती है। (2) तेन्कलइ (काञ्जीवरम् के दक्षिण का भाग), यह शाखा प्रपत्ति के सदस्यों की तुलना एक कपिशिशु से की जाती है जो अपनी माँ को पकड़े रहता है और वह उसे लेकर कूदती रहती है (वानरी धृति)। तेन्कलइ शाखा के सदस्यों की तुलना मार्जारशिशु से की जाती है, जो बिल्कुल निष्क्रिय रहता है और उसे माँ (बिल्लि) अपने मुख में दबाकर चलती है (वैडाली धृति)। एतदर्थ इन्हें 'मर्कट-न्याय' तथा 'मार्जार-न्याय' के हास्यास्पद नामों से भी लोग पुकारते हैं। दोनों के प्रति उपास्य देव की दृष्टि क्रमशः 'सहेतुक कृपा' तथा 'निर्हेतुक कृपा' की रहती है। इसकी तुलना पाश्चात्य धार्मिक विचारकों की 'सहयोगी कृपा' तथा 'स्वतः अनिवार्य कृपा' के साथ की जा सकती है।

जो व्यक्ति प्रपत्तिमार्ग ग्रहण कर लेता है उसे 'प्रपन्न' अथवा शरणागत कहते हैं। प्रपत्ति मार्ग के उपदेशकों का कहना है कि ईश्वर पर निरन्तर एकतान ध्यान केन्द्रित करना (जिसकी भक्तिमार्ग में आवश्यकता है और जो मुक्ति का साधन है) मनुष्य की सर्वोपरि शान्त वृत्ति और विवेक की तीव्रता से ही सम्भव है, जिसमें अधिकांश मनुष्य खरे नहीं उतर सकते। इसलिए ईश्वर ने अपनी करुणाशीलता के कारण प्रपत्ति का मार्ग प्रकट किया है, जिसमें बिना किसी विशेष प्रयास के आत्मसमर्पण किया जा सकता है। इसमें किसी जाति, वर्ण अथवा वंश की अपेक्षा नहीं है। यद्यपि यह मार्ग दक्षिण भारत में प्रचलित रहा है, किन्तु इसका प्रचार परवर्ती काल में उत्तरभारीय गङ्गा-यमुना के केन्द्रस्थल में भी हुआ तथा इसके अवलम्ब से अनेकों पवित्र आत्माओं को ईश्वर का दिव्य अनुग्रह प्राप्त हुआ (यथा चरणदासी संत)।

इस विचार का और भी विकसित रूप 'आचार्याभिमान' है। आचार्य मनुष्यों को ईश्वर का मार्ग प्रदर्शित करता है अतः पहले उसी के सम्मुख आत्मसमर्पण की आवश्यकता होती है।

प्रपन्न : जिस व्यक्ति ने प्रपत्तिमार्ग ग्रहण कर लिया हो, उसे प्रपन्न कहते हैं। दे० 'प्रपत्तिमार्ग'।

प्रपादान : चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। सभी जनों को गर्मियों के चारों मासों में जल का दान (प्याऊ लगाना) करना चाहिए। इससे पितृगण सन्तुष्ट होते हैं।

प्रपोथ : पञ्चविंश ब्राह्मण (8.4.1) में उल्लिखित एक पौधे का नाम, जो सोम के स्थान पर व्यवहृत होता था।

प्रबोधचन्द्रोदय : संस्कृत साहित्य का आध्यात्मिक नाटक। नवीं-दसवीं शताब्दी तक वेदान्तीय ज्ञानचर्चा विद्वानों तक ही सीमित थी। ग्यारहवीं शताब्दी में नाटक, काव्यादि के रूप में भी वेदान्ततत्व को समझाने का प्रयास आरम्भ हुआ। खजुराहों के चन्देल राजा कीर्तिवर्मा के सभापंडित कृष्णमिश्र ने 1122 वि० के लगभग प्रबोधचन्द्रोदय नामक नाटक की रचना की। इसी ग्रन्थ में लेखक ने अपनी कवित्व शक्ति एवं दार्शनिक प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है।

प्रबोधचन्द्रोदय' का शाब्दिक अर्थ है ज्ञान रूपी चन्द्रमा का उदय। वास्तव में यह संसार के प्रलोभन और अज्ञान से जीवात्मा की मुक्ति का रूपक है। नाटक के पात्र मन की सूक्ष्म भावनाएँ तथा वासनाएँ हैं। इसमें दिखाया गया है कि किस प्रकार विष्णुभक्ति विवेक को जागृत कर वेदान्त, श्रद्धा, विचार तथा अन्य सहकारी तत्वों की सहायता से भ्रान्ति, अज्ञान, राग, द्वेष, लोभ आदि को पराजित करती है। इसके पश्चात् प्रबोध अथवा ज्ञान का उदय होता है। फलस्वरूप जीवात्मा ब्रह्म के साथ अपने तादात्म्य का अनुभव करता है, सम्पूर्ण कर्मों का त्याग कर संन्यास ग्रहण करता है। इसमें वैष्णवधर्म और अद्वैत वेदान्त का माहात्म्य दर्शाया गया है। पात्रों के कथनोपकथन में बौद्ध, जैन, चार्वाक, कर्ममीमांसा, सांख्य, योग, न्याय दर्शन, कापालिक आदि सम्प्रदायों का मनोरञ्जक चित्रण प्रस्तुत किया गया है।

प्रबोधपरिशोधिनी : पद्मपादाचार्य कृत पञ्चपादिका के ऊपर प्रबोधपरिशोधिनी नाम की एक टीका नरसिंहस्वरूप के शिष्य आत्मस्वरूप ने लिखी है।

प्रबोधव्रत : कार्तिक शुक्ल पक्ष में विष्णु तथा अन्यान्य देवों का चार मास बाद शय्या त्याग कर उठना प्रबोध कहलाता है। विश्वास यह है कि वर्षा में देवगण शयन करते हैं, वर्षा समाप्त होने पर निद्रा से उठते हैं। यह अवसर उत्सव का होता है। इसके पश्चात् ही मानवों के यात्रा, विजय, व्यवसाय आदि शुभ कर्म प्रारम्भ होते हैं।

प्रबोधसुधाकर : शङ्कराचार्य रचित एक उपदेश ग्रन्थ।

प्रबोधिनी एकादशी : कार्तिक शुक्ल एकादशी। हरिशयिनी एकादशी (आषाढ़ शु० 11) को विष्णु शयन करते हैं और चार मास बाद कार्तिक में प्रबोधिनी एकादशी को उठते हैं, ऐसा पुराणों का विधान है। विष्णु द्वादश आदित्यों में एक हैं। सूर्य के मेघाच्छन्न और मेघमुक्त होने का यह रूपक है। प्रबोधिनी एकादशी का उत्सव बहुत ही प्रसिद्ध है। इस तिथि को व्रत रखा जाता है, उपवास का बड़ा महत्त्व है। सायंकाल लिपे-पुते स्थल में दीप जलाकर विष्णु भगवान् को जगाया जाता है और ईख, सिंघाड़े, झड़बेर आदि नये शाक-फल-कन्द भोग लगाये जाते हैं, तुलसीपूजन होता है। धार्मिक जन प्रायः इस उत्सव के बाद ही गन्ना, बेगन आदि का सेवन आरम्भ करते हैं।

प्रभाकर : पूर्वमीमांसा के इतिहास में सातवीं-आठवीं शताब्दी में दो प्रसिद्ध विद्वान् हुए : (1) कुमारिल, जिन्हें भट्ट कहते हैं और प्रभाकर, जिन्हें गुरु कहते हैं। दोनों ने शाबर भाष्य की व्याख्या की है, किन्तु भिन्न-भिन्न रूपों में और इस भिन्नता के आधार पर दोनों के सम्प्रदाय 'गुरुमत' और 'भट्ट मत' के नाम से प्रचलित हो गये। प्रभाकर का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'बृहती' शबरभाष्य का तदनुरूप भाष्य है, वे शाबर की आलोचना नहीं करते। कुमारिल का मत शबर से अनेक स्थलों पर भिन्न है। प्रभाकर का समय ठीक ज्ञात नहीं होता, किन्तु ये एवं कुमारिल आठवीं शती के प्रारम्भ में हुए थे।

प्रभाव्रत : मान्यता ऐसी है कि इस व्रत में कोई व्यक्ति अर्ध मास तक उपवास करके बाद में दो कपिला गौ दान करता है, वह सीधा ब्रह्मलोक को जाता है और देवों द्वारा सम्मानित होता है। दे० मत्स्यपुराण, 101.54।

प्रभास : पश्चिम भारत के सौराष्ट्र देश का प्रसिद्ध शैव तीर्थ, इसके साथ वैष्णव परम्पराएँ भी जुड़ गयी हैं। द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग में प्रथम सोमनाथ प्रभासक्षेत्र में है। यह स्थान लकुलीश पाशुपत मत के शैवों का केन्द्रस्थल रहा है। इस स्थल के पास ही श्री कृष्ण को जरा नामक व्याध का बाण लगा था। यह शैव, वैष्णव दोनों का महातीर्थ है। इस स्थान को बेरावल, सोमनाथपाटण, प्रभास, प्रभास पट्टन (पत्तन) आदि कहते हैं।

प्रभासमाहात्म्य : स्कन्दपुराण से उद्धृत इस प्रभासक्षेत्र के माहात्म्य में यहाँ के देवदर्शन-पूजन की फलश्रुति है।

प्रभुलिङ्गलीला : प्रसिद्ध कन्नड़ भाषा के लिङ्गायत ग्रन्थ 'प्रभुलिङ्गलीला' का तमिल भाषा में शिवप्रकाश स्वामी ने 17वीं शताब्दी में पद्यानुवाद किया, जो सभी शैवों द्वारा समादृत है। यह पुराण कहलाता है तथा धार्मिक इतिहास के साथ-साथ भजन-पूजन के नियमों का भी इसमें सङ्कलन है। यह वसव के साथी अल्लाम प्रभु के जीवन पर विशेष पर आधारित है। इसके रचयिता चामरस और रचनाकाल 1517 वि० है।

प्रमा : भ्रान्तिरहित यथार्थ ज्ञान की स्थिति अथवा चेतना को प्रमा कहते हैं। दे० 'प्रमाण'।

प्रमाज्ञान : वैशेषिक मतानुसार ज्ञान के दो भेद हैं--प्रमा और अप्रमा। यथार्थ ज्ञान प्रमा और अयथार्थ, भ्रान्त ज्ञान अप्रमा कहलाता है।

प्रमाण : न्याय दर्शन का प्रमुख विषय प्रमाण है। यथार्थ ज्ञान को प्रमा कहते हैं। यथार्थ ज्ञान का जो साधन हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो सके, उसे प्रमाण कहा जाता है। गौतम ने यथार्थ ज्ञान के चार प्रमाण माने हैं-- (1) प्रत्यक्ष (2) अनुमान, (3) उपमान और (4) शब्द। इनमें आत्मा, मन, इन्द्रिय और वस्तु का संयोग रूप जो प्रमाण है वही प्रत्यक्ष है। इस ज्ञान के आधार पर लिङ्ग अथवा हेतु से जो ज्ञान होता है उसे अनुमान कहते हैं। जैसे हमने बराबर देखा है कि जहाँ धुआँ रहता है वहाँ अग्नि रहती है। इसलिए धुआँ को देखकर अग्नि की उपस्थिति का अनुमान किया जाता है।

गौतम का तीसरा प्रमाण उपमान है। किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वही उपमान है। जैसे नील गाय गाय के समान होती है। चौथा प्रमाण है शब्द, जो आप्त वचन ही हो सकता है। न्याय दर्शन में ऊपर लिखे चार ही प्रमाण माने गये हैं। मीमांसक और वेदान्ती अर्थापत्ति, ऐतिह्य, सम्भव और अभाव ये चार और प्रमाण मानते हैं। नैयायिक इन्हें अपने चारों प्रमाणों के अन्तर्गत समझते हैं।

प्रमाणपद्धति : यह माध्व संप्रदाय के स्वामी जयतीर्थाचार्य (15वीं शताब्दी) द्वारा विरचित एक ग्रन्थ है।

प्रमाणमाला : आनन्दबोध भट्टारकाचार्य (12वीं शताब्दी) के तीन ग्रन्थ; न्यायमकरन्द, प्रमाणमाला एवं न्यायदीपावली प्रसिद्ध हैं। तीनों में उन्होंने अद्वैत मत का विवेचन किया है।

प्रमेय : गौतम के मतानुसार प्रमाण के विषय, अर्थात् जो प्रमाणित किया जाय उसको प्रमेय कहते हैं। न्यायदर्शन में प्रमेय वस्तु पदार्थ के अन्तर्गत है और उसके बारह भेद हैं--(1) आत्मा : सब वस्तुओं को देखने वाला, भोग करने वाला और अनुभव करने वाला। (2) शरीर : भोगों का आयतन या आधार। (3) इन्द्रियाँ : भोगों के साधन। (4) अर्थ : वस्तु जिसका भोग होता है। (5) मन : भोग का माध्यम। (6) बुद्धि : अन्तःकरण की वह भीतरी इन्द्रिय जिसके द्वारा सब वस्तुओं का ज्ञान होता है। (7)प्रवृत्ति : वचन, मन और शरीर का व्यापार। (8) दोष : जिसके द्वारा अच्छे या बुरे कामों में प्रवृत्ति होती है। (9) प्रेत्यभाव : पुनर्जन्म। (10) फल : सुख-दुःख का संवेदन या अनुभव। (11) दुःख : पीड़ा, क्लेश। (12) अपवर्ग : दुःख से अत्यन्त निवृत्ति अथवा मुक्ति।

इस सूची से यह न समझना चाहिए कि इन वस्तुओं के अतिरिक्त और प्रमाण के विषय या प्रमेय नहीं हो सकते। प्रमाण के द्वारा बहुत सी बातें सिद्ध की जाती हैं। पर गौतम ने अपने सूत्रों में उन्हीं बातों पर विचार किया हैं, जिनके ज्ञान से अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति हो सके।

प्रमेयरत्नार्णव : बालकृष्ण भट्ट द्वारा रचित यह ग्रन्थ वल्लभाचार्य के पुष्टि सम्प्रदाय का है। इसका रचनाकाल 1657 वि० के लगभग है।

प्रमेयरत्नावली : आचार्य बलदेव विद्याभूषण द्वारा रचित यह ग्रन्थ गौडीय वैष्णवों के मतानुसार लिखा गया है।

प्रमेयसागर : श्रीवैष्णव मतावलम्बी यज्ञमूर्ति कृत यह ग्रन्थ तमिल भाषा में है।

प्रयाग : गङ्गा-यमुना के संगम स्थल प्रयाग को पुराणों (मत्स्य 109.15; स्कन्द, काशी० 7.45; पद्म 6.23.27-35 तथा अन्य) में 'तीर्थराज' (तीर्थों का राजा) नाम से अभिहित किया गया है। इस संगम के सम्बन्ध में ऋग्वेद के खिल सूक्त (10.75) में कहा गया है कि जहाँ कृष्ण (काले) और श्वेत (स्वच्छ) जल वाली दो सरिताओं का संगम है वहाँ स्नान करने से मनुष्य स्वर्गारोहण करता है। पुराणोक्ति यह है कि प्रजापति (ब्रह्मा) ने आहुति की तीन वेदियाँ बनायी थीं---कुरुक्षेत्र, प्रयाग और गया। इनमें प्रयाग मध्यम वेदी है। माना जाता है कि यहाँ गङ्गा, यमुना और सरस्वती (पाताल से आने वाली) तीन सरिताओं का संगम हुआ है। पर सरस्वती का कोई बाह्य अस्तित्व दृष्टिगत नहीं होता। मत्स्य (104.12), कूर्म (1.36.27) तथा अग्नि (111.6-7) आदि पुराणों के अनुसार जो प्रयाग का दर्शन करके उसका नामोच्चारण करता है तथा वहाँ की मिट्टी का अपने शरीर पर आलेप करता है वह पापमुक्त हो जाता है। वहाँ स्नान करने वाला स्वर्ग को प्राप्त होता है तथा देह त्याग करने वाला पुनः संसार में उत्पन्न नहीं होता। यह केशव को प्रिय (इष्ट) है। इसे त्रिवेणी कहते हैं।

प्रयाग शब्द की व्युत्पत्ति वनपर्व (87.18-19) में यज् धातु से मानी गयी है। उसके अनुसार सर्वात्मा ब्रह्मा ने सर्वप्रथम यहाँ यजन किया था (आहुति दी थी) इसलिए इसका नाम प्रयाग पड़ गया। पुराणों में प्रयागमण्डल, प्रयाग और वेणी अथवा त्रिवेणी की विविध व्याख्याएँ की गयी हैं। मत्स्य तथा पद्मपुराण के अनुसार प्रयागमण्डल पाँच योजन की परिधि में विस्तृत है और उसमें प्रविष्ट होने पर एक-एक पद पर अश्वमेध यज्ञ का पुण्य मिलता है। प्रयाग की सीमा प्रतिष्ठान (झूँसी) से वासुकिसेतु तक तथा कंबल और अश्वतर नागों तक स्थित है। यह तीनों लोकों में प्रजापति की पुण्यस्थली के नाम से विख्यात है। पद्मपुराण (1.43-27) के अनुसार 'वेणी' क्षेत्र प्रयाग की सीमा में 20 घनुष तक की दूरी में विस्तृत है। वहाँ प्रयाग, प्रतिष्ठान (झूँसी) तथा अलर्कपुर (अरैल) नाम के तीन कूप हैं। मत्स्य (110.4) और अग्नि (111.12) पुराणों के अनुसार बहाँ तीन अग्निकुण्ड भी हैं जिनके मध्य से होकर गङ्गा बहती है। वनपर्व (85.81 और 85) तथा मत्स्य० (104.16--17) में बताया गया है कि प्रयाग में नित्य स्नान को 'वेणी' अर्थात् दो नदियों (गङ्गा और यमुना) का संगम स्नान कहते हैं। वनपर्व (85.75) तथा अन्य पुराणों में गङ्गा और यमुना के मध्य की भूमि को पृथ्वी का जघन या कटिप्रदेश कहा गया है। इसका तात्पर्य है पृथ्वी का सबसे अधिक समृद्ध प्रदेश अथवा मध्य भाग।

गङ्गा, यमुना और सरस्वती के त्रिवेणीसंगम को 'ओंकार' नाम से अभिहित किया गया है। 'ओंकार' का 'ओम्' परब्रह्म परमेश्वर की ओर रहस्यात्मक संकेत करता है। यही सर्वसुखप्रदायिनी त्रिवेणी का भी सूचक है। ओंकार का अकार सरस्वती का प्रतीक, उकार यमुना का प्रतीक तथा मकार गङ्गा का प्रतीक है। तीनों क्रमशः प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण (हरि के व्यूह) को उद्भूत करने वाली है। इस प्रकार इन तीनों का संगम त्रिवेणी नाम से विख्यात है (त्रिस्थलीसेतु, पृष्ठ 8)।

नरसिंहपुराण (65.17) में विष्णु को प्रयाग में योगमूर्ति के रूप में स्थित बताया गया है। मत्स्यपुराण (111.4-10) के अनुसार रुद्र द्वारा एक कल्प के उपरान्त प्रलय करने पर भी प्रयाग नष्ट नहीं होता। उस समय प्रतिष्ठान के उत्तरी भाग में ब्रह्मा छद्म वेश में, विष्णु वेणीमाधव रूप में तथा शिव वटवृक्ष के रूप में आवास करते हैं और सभी देव, गंधर्व, सिद्ध तथा ऋषि पापशक्तियों से प्रयागमण्डल की रक्षा करते हैं। इसीलिए मत्‍स्‍य पुराण में तीर्थयात्री को प्रयाग जाकर एक मास निवास करने तथा संयमपूर्वक देवताओं और पितरों की पूजा करके अभीष्ट फल प्राप्त करने का विधान है।

इसी प्रकार क्षौर कर्म (शिरोमुंडन) भी प्रयाग में सम्पन्न होने पर पापमुक्ति का हेतु माना गया है। बच्चों और विधवाओं के क्षौर कर्म का विधान तो है ही, यहाँ तक कि सधवा पत्नियों के क्षौर कर्म का भी विधान 'त्रिस्थलीसेतु' के अनुसार मिलता है। वहाँ बताया गया है कि सधवा स्त्रियों को अपने केशों की सुन्दर वेणी बनाकर, सभी प्रकार के केशविन्यास सम्बन्धी व्यंजनी से सजाकर पति की आज्ञा से (वेणी के अग्र भाग का) क्षौर कर्म कराना चाहिए। तत्पश्चात् कटी हुई वेणी को अंजली में लेकर उसके बराबर स्वर्ण या चाँदी की वेणी भी लेकर जुड़े हाथ से संगम स्थल पर बहा देना चाहिए और कहना चाहिए कि सभी पाप नष्ट हो जायँ औऱ हमारा सौभाग्य उत्तरोत्तर वृद्धि पर रहे। नारी के लिए एक मात्र प्रयाग में ही क्षौर कर्म कराने का विधान है।

प्रयाग में आत्महत्या करने का सामान्य सिद्धान्त के अनुसार निषेध है। कुछ अपवादों के लिए ही इसको प्रोत्साहन दिया जाता है। ब्राह्मण के हत्यारे, सुरापान करने वाले, ब्राह्मण का धन चुराने वाले, असाध्य रोगी, शरीर की शुद्धि में असमर्थ, वृद्ध जो रोगी भी हो, रोग से मुक्त न हो सकता हो; ये सभी प्रयाग में आत्मघात कर सकते हैं। दे० आदिपुराण और अत्रिस्मृति। गृहस्थ जो संसार के जीवन से मुक्त होना चाहता है वह भी त्रिवेणीसंगम पर जाकर वटवृक्ष के नीचे आत्मघात कर सकता है। पत्नी के लिए पति के साथ सहमरण या अनुमरण का विधान है, पर गर्भिणी के लिए यह विधान नहीं है। दे० नारदीय, पूर्वार्द्ध, 7.52--53। प्रयाग में आत्मघात करने वाले को पुराणों के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति होती है। कूर्म० (1.36.16-39) के अनुसार योगी गङ्गा--यमुना के संगम पर आत्महत्या करके स्वर्ग प्राप्त करता है और पुनः नरक नहीं देख सकता। प्रयाग में वैश्यों और शूद्रों के लिए आत्महत्या विवशता की स्थिति में यदा-कदा ही मान्य थी। किन्तु ब्राह्मणों और क्षत्रियों के द्वारा आत्म-अग्न्याहुति दिया जाना एक विशेष विधान के अनुसार उचित था। अतः जो ऐसा करना चाहे तो ग्रहण के दिन यह कार्य सम्पन्न करते थे, या किसी व्यक्ति को मूल्य देकर डूबने के लिए क्रय कर लेते थे। (अलबरूनी का भारत, भाग 2, पृ० 170)। सामान्य धारणा यह थी कि इस धार्मिक आत्मघात से मनुष्य जन्म और मरण के बन्धन से मुक्ति पा जाती है और उसे स्थायी अमरत्व (मोक्ष) अथवा निर्वाण की प्राप्ति होती है। इस धारणा का विस्तार यहाँ तक हुआ कि अहिंसावादी जैन धर्मावलम्बी भी इस धार्मिक आत्मघात को प्रोत्साहन देने लगे। कुछ पुराणों के अनुसार तीर्थयात्रा आरम्भ करके रास्ते में ही व्यक्ति यदि मृत्यु को प्राप्त हो और प्रयाग का नाम ले ले तो उसे बहुत पुण्यकाल होता है। अपने घर में मरते समय भी यदि व्यक्ति प्रयाग का नाम स्मरण कर ले तो ब्रह्मलोक को पहुँच जाता है और वहाँ संन्यासियों, सिद्धों तथा मुनियों के बीच रहता है।

प्रवचन : इसका अर्थ मौखिक शिक्षा है (शत० ब्रा० 11.5.7.1)। धर्म में प्रवचन का बड़ा महत्त्व है। आचार्य अथवा गुरु के मुख से जो वचन निकलते हैं उनका सीधा प्रभाव श्रोता पर पड़ता है। अतः प्रायः सभी सम्प्रदायों में प्रवचन की प्रणाली प्रचलित है।

प्रवर : इसका उपयुक्त अर्थ सूचना है, जिससे अग्नि को सम्बोधित कर यज्ञ के आरम्भ में उसे आवाहित करते थे। किन्तु अग्नि को पुरोहित के पितरों के नाम से आमन्त्रित करते थे, इसलिए प्रवर का तात्पर्य पितरों की संख्या हो गया। आगे चलकर एक वंश में प्रसिद्ध पितरों की जितनी संख्या होती थी वही उसकी प्रवर माना जाता था। 'गोत्रम्रवरमञ्जरी' में इसका विस्तृत विवेचन है।

प्रवर्तक : किसी धर्म अथवा सम्प्रदाय को चलाने वाला। मानभाउ सम्प्रदाय में इस शब्द का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है। इस सम्प्रदाय के मूल प्रवर्त्तक दत्तात्रेय कहे जाते हैं, साथ ही उनका कहना है कि चार युगों में से प्रत्येक में एक-एक स्थापक अथवा प्रवर्त्तक होते आये हैं। इस प्रकार वे पाँच प्रवर्त्तक मानते हैं। पाँचों प्रवर्त्तकों को पञ्चकृष्ण भी कहते हैं। इनसे सम्बन्धित पाँच मन्त्र हैं, और जब कोई इस सम्प्रदाय की दीक्षा लेता है तो उसे पाँचों मन्त्रों का उच्चारण करना पड़ता है।

प्रव्रज्या : संन्यास आश्रम। इसका प्रयोग संन्यास या भिक्षुधर्म ग्रहण करने की विधि के अर्थ में होता है। महाभारतकाल के पूर्व प्रव्रज्या का मार्ग सभी वर्णों के लिए खुला था। उपनिषद् में जानश्रुति शूद्र को भी मोक्ष मार्ग का उपदेश किया गया है और युवा श्वेतकेतु को तत्त्व प्राप्ति का उपदेश मिला है। यद्यपि महाभारत काल में यह बात मानी जाती थी तथापि यथार्थ में लोग समझने लगे कि ब्राह्मण और विशेषतः चतुर्थाश्रमी ही मोक्ष मार्ग के पात्र हैं। महाभारत काल में प्रव्रज्या का मान बहुत बढ़ा हुआ जान पड़ता है। उन दिनों वैदिक धर्मियों की प्रव्रज्या बहुत कठिन थी। बौद्धों तथा जैनों ने उसको बहुत सस्ता कर डाला और बहुतों के लिए वह पेट भरने का साधन मात्र हो गयी।

प्रलयतत्त्व : भूखण्ड या ब्रह्माण्ड का मिट जाना, नष्ट हो जाना। प्रलय चार प्रकार के होते हैं : नैमितिक, प्राकृतिक, आत्यन्तिक और नित्य। प्रथम प्रलय ब्रह्माजी का एक दिन समाप्ति हो जाने पर रात्रि के प्रारम्भ काल में होता है, उसे नैमित्तिक प्रलय कहते हैं। द्वितीय प्राकृतिक प्रलय तब होता है जब ब्रह्माण्ड महाप्रकृति में विलीन हो जाता है। तृतीय आत्यन्तिक प्रलय योगीजन ज्ञान के द्वारा ब्रह्म में लीन हो जाने को कहते हैं। उत्पन्न पदार्थों का जो अहर्निश क्षय होता रहता है, उसे नित्य प्रलय के नाम से व्यवहृत करते हैं। इन चतुर्विध प्रलयों में से नैमित्तिक एवं प्राकृतिक महाप्रलय ब्रह्माण्डों से सम्बन्धित होते हैं तथा शेष दो प्रलय देहधारियों से सम्बन्धित है। नैमित्तिक प्रलय के सम्बन्ध में विष्णुपुराण का मत निम्नलिखित है :

ब्रह्मा की जाग्रदवस्था में उनकी प्राणशक्ति की प्रेरणा से ब्रह्माण्डचक्र प्रचलित रहता है, किन्तु उनकी निद्रावस्था में समस्त ब्रह्माण्ड निश्चेष्ट हो जाता है और उसकी स्थिति जल-भुनकर नष्ट हो जाती है। नैमित्तिक प्रलय को ब्रह्म प्रलय भी कहते हैं। उसमें ब्रह्माजी विष्णु के साथ योगनिद्रा में प्रसुप्त हो जाते हैं। इस समय प्रलय में भी रहने की शक्ति रखने वाले कुछ योगिगण जनलोक में अपने को जीवित रखते हुए ध्यानपरायण रहते हैं। ऐसे योगियों द्वारा चिन्त्यमान कमलयोनि ब्रह्मा ब्रह्मरात्रि को व्यतीत कर ब्राह्म दिवस के उदय में प्रबुद्ध हो जाते हैं और पुनः समस्त ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं। इस प्रकार ब्रह्माजी के सौ वर्ष पूर्ण होने के अनन्तर ब्रह्मा भी परब्रह्म में लीन हो जाते हैं, उस समय प्राकृतिक महाप्रलय का उदय होता है।

इसी क्रम से ब्रह्माण्डप्रकृति अनादि काल से महाकाल के महान् चक्र में परिभ्रमणशील रहती आती है। इन प्रलयों का विस्तृत विवरण विष्णुपुराणस्थ प्रलयवर्णन में द्रष्टव्य है। अव्याकृत प्रकृति तथा उसके प्रेरक ईश्वर की विलीनता के प्रश्न को विष्णुपुराण सरल तरीके से स्पष्ट कर देता है:

प्रकृतिर्या मयाख्याता व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी। पुरुषश्चाप्युभावेतौ लीयेते परमात्मनि॥

[व्यक्त एवं अव्यक्त प्रकृति और ईश्वर ये दोनों ही निर्गुण एवं निष्क्रिय ब्रह्मतत्व में विलीन हो जाते हैं।] यही आधिदैवी सृष्टिरूप महाप्रलय है।

जितने समय तक ब्रह्माण्डप्रकृति में सृष्टि-स्थिति-लीला का विस्तार प्रवर्तमान रहता है, ठीक उतने ही समय तक महाप्रलयगर्भ में भी ब्रह्माण्डसृष्टि पूर्ण रूप से विलीन रहती है। इस समय जीवों की अनन्त कर्मराशियाँ उस महाकाश के आश्रित रहती हैं।

प्रशस्तपाद : वैशेषिक दर्शन के प्रसिद्ध व्याख्याकार आचार्य। कणाद के सूत्रों के ऊपर सम्भवतः इन्हीं का पदार्थधर्मसंग्रह नामक ग्रन्थ भाष्य कहलाता है, यद्यपि इसे वैशिषिक सूत्रों का भाष्य मानना कठिन प्रतीत होता है। दूसरे भाष्यों की शैली के विपरीत यह (पदार्थधर्मसंग्रह) वैशेषिक सूत्रों के मुख्य विषयों पर स्वतन्त्र व्याख्या जैसा है। स्वयं प्रशस्तपाद इसे भाष्य न कहकर 'पदार्थधर्मसंग्रह' संज्ञा देते हैं।

इसमें द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय पदार्थों का वर्णन बिना किसी वाद-विवाद के प्रस्तुत किया गया है। कुछ सिद्धान्त जो न्यायवैशेषिक दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं, यथा सृष्टि तथा प्रलय का सिद्धान्त, संख्या का सिद्धान्त, परमाणुओं के आणविक माप के स्थिर करने में अणुओं की संख्या का सिद्धान्त तथा पीलुपाक का सिद्धान्त आदि, सर्वप्रथम 'पदार्थधर्मसंग्रह' में ही उल्लिखित हुए हैं। ये सिद्धान्त कणाद के वैशेषिक सूत्रों में अनुपलब्ध हैं।

प्रशस्तपाद का समय ठीक-ठीक निश्चित करना कठिन है। अनुमानतः इनका समय पाँचवीं-छठी शताब्दी होना चाहिए।

प्रशास्ता : वैदिक यज्ञ के पुरोहितों में से एक का नाम। छोटे यज्ञों में उसका कोई कार्य नहीं होता, किन्तु पशुयज्ञ तथा सोमयज्ञ में उसका उपयोग होता है। सोमयज्ञ में वह मुख्य पुरोहित होता का सामगान में सहायक रहता है। ऋग्वेद (4.9,5;6.71,5;9,95,5) में उसे उपवक्ता भी कहा गया है। यह नाम भी प्रशस्ता के सदृश अर्थ का द्योतक है तथा यह इसलिए रखा गया है कि उसके मुख्य कार्यों में से एक कार्य दूसरे पुरोहितों को प्रैष (निदेश) देना भी था। उसका अन्य नाम 'मैत्रावरुण' था, क्योंकि उसके द्वारा गायी जाने वाली अधिकांश स्तुतियाँ मित्र तथा वरुण के प्रति होती थीं।

प्रश्न : जिज्ञासा अथवा वादारम्भ का वचन। प्रश्‍न का 'निश्चय' अर्थ ऐतरेय ब्राह्मण (5.14) में कथित है। यजुर्वेद (वा० सं० 30.10; तै० ब्रा० 3.4,6,1) में उद्धृत पुरुषमेध की बलितालिका में प्रश्नी, अभिप्रश्नी, प्रश्नविवाक् तीन नाम आये हैं। सम्भवतः ये न्याय-अभियोग के वादी-प्रतिवादी तथा न्यायाधीश हैं।

प्रश्नोपनिषद् : एक अथर्ववेदीय उपनिषद्। उपनिषदों का कलेवर अधिकतर गद्य में है, किन्तु इसका गद्य प्रारम्भिक उपनिषदों से भिन्न लौकिक संस्कृत के निकट है। इसकी श्रेणी में मैत्रायणीय तथा माण्डूक्य को रखा जा सकता है। इसमें ऋषि पिप्पलाद के छः ब्रह्मजिज्ञासु शिष्यों ने वेदान्त के छः मूल तत्वों पर प्रश्न किये हैं। इन्हीं छः प्रश्नों के समाधान रूप में यह प्रश्नोपनिषद् बनी है। प्रजापति से असत् और प्राण की उत्पत्ति, चिच्छक्तियों से प्राण की श्रेष्ठता, चिच्छक्तियों के लक्षण और विभाग, सुषुप्ति और तुरीयावस्था, ओंकार ध्याननिर्णय और षोडशेन्द्रियाँ; प्रश्नोपनिषद् के यही छः विषय हैं। शङ्कराचार्य, आनन्दतीर्थ, दामोदराचार्य, नरहरि, भट्टभास्कर, रङ्गरामानुज प्रभृति अनेकों आचार्यों ने इस पर भाष्य व टीकाएँ रची हैं।

प्रसाद् : (1) प्रसन्नता अथवा कृपा, अर्थात् भक्त के ऊपर भगवान् की कृपा। कर्मसिद्धान्त के अनुसार सदसत्कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। किन्तु भक्तिमार्ग के अनुयायियों का विश्वास है कि भगवत्कृपा के द्वारा पूर्व कर्मों पाप आदि का क्षय हो जाता है। प्रपत्ति के पश्चात् भक्त का पूरा दायित्व भगवान् अपने ऊपर ले लेते हैं।

वीरशैव मतावलम्बियों में जब बालक का जन्म होता है तो पिता अपने गुरु को आमन्त्रित करता है। गुरु आकर अष्टवर्गसमारोह की परिचालना उस शिशु को लिङ्गायत बनाने के लिए करता है। ये आठ वर्ग हैं-- गुरु, लिङ्ग, विभूति, रुद्राक्ष, मन्त्र, जङ्गम, तीर्थ एवं प्रसाद, जो उसकी पाप से रक्षा करते हैं। शिव को प्राप्त करने के मार्ग में लिङ्गायतों को छः अवस्थाओं के मध्य जाना पड़ता है--भक्ति, महेश, प्रसाद, प्राणलिङ्ग, शरण तथा ऐक्य।

(2) देवताओं को अर्पण किये गये नैवेद्य का नाम भी प्रसाद है, उसका कुछ अंश भक्तों में बाँटा जाता है।

प्रसू : वैदिक ग्रन्थों के उल्लेखानुसार नयी घास या पौधे, जो यज्ञ में प्रयुक्त होते थे। साधारणतया अब यह जननी का पर्याय है।

प्रसूति : स्वायंभुव मनु औऱ शतरूपा की पुत्री। विष्णुपुराण के सातवें अध्याय में कथित है कि ब्रह्मा ने विश्वरचना के पश्चात् अपने समान ही अनेक मानसिक पुत्र उत्पन्न किये, जो प्रजापति कहलाये। इनकी संख्या तथा नाम पर सभी पुराण एकमत नहीं हैं। फिर उन्होंने स्वायम्भुव मनु को जीवों की रक्षा के लिए उत्पन्न किया। मनु की पुत्री प्रसूति का विवाह प्रजापति दक्ष के साथ हुआ जो अनेक देवात्माओं के पूर्वज बने।

प्रस्तर : वैदिक ग्रन्थों के अनुसार यज्ञासन के लिए बिछायी हुई घास।

प्रस्तोता : यज्ञ के उद्गाता पुरोहित का सहायक पुरोहित। यह साममन्त्रों का पूर्वगान करता था।

प्रस्थानत्रय : वेदान्तियों की बोलचाल में उपनिषदों, भगवद्गीता तथा वेदान्तसूत्र को तत्त्वज्ञान के मूलभूत आधारग्रन्थ माना गया है। पश्चात् ये ही प्रस्थानत्रय कहे जाने लगे। इन्हें वेदान्त के तीन स्रोत भी कहते हैं। इनमें 12 उपनिषदें (ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, कौषीतकि तथा श्वेताश्वतर) श्रुतिप्रस्थान कहलाती हैं। दूसरा प्रस्थान जिसे न्यायप्रस्थान कहते हैं, ब्रह्मसूत्र हैं। तीसरा प्रस्थान गीता स्मृतिप्रस्थान कहलाता है। शङ्कराचार्य ने गीता के लिए जहाँ-तहाँ 'स्मृति' शब्द का उल्लेख किया है।

प्रस्थानत्रयी : दे० 'प्रस्थानत्रय'।

प्रस्थानभेद : ईश्वर की प्राप्ति के विभिन्न मार्ग। इस नाम का मधुसूधन सरस्वती द्वारा रचित एक ग्रन्थ भी है। इसमें सब शास्त्रों का सामञ्जस्य करके उनका अद्वैत में समाहार दिखलाया गया है। इसकी रचना 1607 वि० से पूर्व हुई थी।

प्रह्लादकुण्ड : कहा जाता है कि पाताल से पृथ्वी का उद्धार करते हुए हिरण्याक्ष वध के पश्चात् वराह भगवान् यहाँ शिलारूप में स्थित हो गये। यहाँ गङ्गाजी में प्रह्लादकुण्ड है। यहाँ पर स्नान करना पुण्यकारक माना जाता है।

प्राकृत : (1) प्रकृति =संस्कृत भाषा के आधार पर व्यवहृत, अथवा संस्कृत से अपभ्रंश रूप में निर्गत (हेमचन्द्र)। यह अपठित साधारण जनता की बोलचाल की भाषा थी। ग्रियर्सन ने प्राथमिक, माध्यमिक तथा तृतीय प्राकृति के रूप में इस भाषा के तीन चरण दिखाये हैं। प्राथमिक का उदाहरण वैदिक काल के बाद की भाषा, माध्यमिक का पालि तथा तृतीय का उदाहरण उत्तर भारत की प्रादेशिक अपभ्रंश भाषाएँ हैं।

(2) इसका दूसरा अर्थ है प्रकृति से उत्पन्न अर्थात् संस्कारहीन व्यक्ति। इसका प्रयोग असभ्य, जंगली या गँवार मानव के लिए होता है।

प्राचीनयोगीपुत्र : प्राचीनयोग नामक कुल की एक महिला के पुत्र, आचार्य, जो बृहदारण्यक उप० (2.6.2 काण्व) की प्रथम वंशतालिका (गुरुपरम्परा) में पाराशर्य के शिष्य कहे गये हैं। छान्दोग्य (5.13,1) तथा तैत्तिरीय उप० (1.6,2) में एक 'प्राचीनयोग्य' ऋषि का उल्लेख मिलता है, यही पितृबोधक शब्द शतपथ ब्रा० (10.6,1,5) तथा जैमिनीय उ० ब्रा० में भी मिलता है।

प्राची सरस्वती : कुरुक्षेत्र का तीर्थस्थल, जहाँ पर सरस्वती नदी पश्चिम से पूर्वाभिमुख बहती थी। अब तो यहाँ एक जलाशय मात्र शेष है, आस-पास पुराने भग्नावशेष पड़े हुए हैं। सूनसान मन्दिर जीर्ण दशा में है। यात्री यहाँ पिण्डदान करते हैं।

प्राच्य : मध्य देश की अपेक्षा पूर्व के निवासी। ये ऐत० ब्रा० (8.14) में जातियों की तालिका में उद्धृत हैं। इनमें काशी, कोसल, विदेह तथा सम्भवतः मगध के निवासी सम्मिलित थे। शत० ब्रा० में प्राच्यों द्वारा अग्नि को शर्व के नाम से पुकारा गया है तथा उनकी समाधि बनाने की प्रथी को अस्वीकृत किया गया है।

प्राच्यसामग : सामवेद की परम्परा में एक शाखा। हिरण्यनाभ के शिष्य 'प्राच्यसामग' नाम से विख्यात हुए।

प्राजापत्य : (1) प्रजापति से उत्पन्न, अथवा प्रजापति का कार्य। प्रजापति के लिए किये गये यज्ञ को भी प्राजापत्य कहते हैं।

(2) आठ प्रकार के विवाहों में से एक प्राजापत्य विवाह है। इसकी गणना चार प्रशस्त प्रकार के विवाहों में की जाती है। इसके अनुसार पति औऱ पत्नी प्रजा अर्थात् सन्तान के उद्देश्य से विवाह करते हैं और इस बात की प्रतिज्ञा करते हैं कि धर्म, अर्थ और काम में वे एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करेंगे। यह आधुनिक सिविल मैरेज' (सामाजिक अनुबन्धमूलक विवाह) से मिलता जुलता है।

धार्मिक विवाह में पति और पत्नी की समता नहीं किन्तु एकता स्थापित होती है। इसमें दो व्यक्तियों की समान स्वतन्त्रता नहीं किन्तु एक का दूसरे में पूर्ण विलय है। इसके लिए किसी अनुबन्ध की आवश्यकता नहीं होती दे० विवाह'।

प्राजापत्यव्रत : इस व्रत में कृच्छ्र के उपरान्त एक गौ दान कर ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। व्रतकर्ता भगवान् शङ्कर के लोक को जाता है।

प्राण : सूक्ष्म जीवनवायु के पाँच प्रकारों--प्राण, अपान, यान, उदान तथा समान में से एक। आरण्यकों तथा उपनिषदों में यह विश्व की एकता का सर्वाधिक प्रयुक्त संकेत कहा गया है। पाँचों में से भी कभी दो (प्राण-अपान; या प्राण-व्यान, या प्राण-उदान) या अदल-बदलकर तीन अथवा चार साथ-साथ प्रयुक्त होते हैं। किन्तु जब ये सभी एक साथ प्रयुक्त होते हैं तब इनका वास्तविक अर्थ निश्चित नहीं होता। व्यापक रूप में 'प्राण' ज्ञानेन्द्रिय या चेतना को प्रकट करता है। प्राण शब्द कभी कभी केवल श्वास का साधारण अर्थ बोध कराता है, किन्तु इसका उचित अर्थ श्वास का आदान-विसर्जन है। 'प्राणायाम' क्रिया में यही भाव अभिप्रेत है।

प्राणतत्व : जिस आन्तरिक सूक्ष्म शक्ति द्वारा दृश्य जगत् में जीवात्मा का देह से सम्बन्ध होता है, उसे प्राण कहते हैं। यह प्राणशक्ति ही स्थूल प्राण, अपान, व्यान, समान एवं उदान नामक पञ्च वायु एवं उनके धनंजय, कृकल, कूर्म आदि रूप न होकर इन सबकी सञ्चालिका है।

एक ही प्राणशक्ति पाँच रूपों में विभक्त होकर प्राण, अपान, व्यान इत्यादि नामों से हृदय, नाभि, कण्ठादि स्थानों में स्थित पञ्च स्थूल वायुओं का संचालन करती है।

इस दृश्य संसार के समस्त पदार्थों के दो भेद किये जा सकते हैं, जिनमें प्रथम ब्राह्मांश एवं द्वितीय आन्तरांश हैं। इनमें आन्तरांश सूक्ष्मशक्ति प्राण है एवं बाह्यांश जड़ हैं। यह अंश बृहदारण्यकोपनिषद् में भी निर्दिष्ट है। इसी विषय को बृहदारण्यकभाष्य और भी स्पष्ट कर देता है। यथ--

कार्यात्मक जड़ पदार्थ नाम और रूप के द्वारा शरीरावस्था को प्राप्त करता है, किन्तु कारणभूत सूक्ष्म प्राण उसका धारक है। अतः यह कहा जा सकता है कि यह सूक्ष्म प्राणशक्ति ही एकत्रीभूत स्थूल शक्ति (शरीर) के अन्दर अवस्थित रहकर उसकी संचालिका है।

इस सूक्ष्म आदि स्थूल पञ्च महाभूतों की उत्‍पत्ति होती है। इसी सूक्ष्म प्राणशक्ति की महिमा से अणु-परमाणुओं के अन्दर आकर्षण-विकर्षण के द्वारा ब्रह्माण्ड की स्थितिदशा में सूर्य और चन्द्रमा से लेकर समस्त ग्रह-उपग्रह आदि अपने अपने स्थानों पर स्थित रहते हैं। समस्त जड़ पदार्थ भी इसी के द्वारा कठिन, तरल अथवा वायवीय रूप में अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार अवस्थित रह सकते हैं। इस प्रकार इस समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि और स्थिति के मूल में सूक्ष्म प्राणशक्ति का ही साम्राज्य है।

प्राणशक्ति की उत्पत्ति परमात्मा की इच्छाशक्ति से ही मानी जाती है, जो समष्टि और व्यष्टि रूपों से व्यवहृत होती है। क्योंकि यह समस्त जगत् परमेश्वर के संकल्प मात्र से प्रसूत है अतः तदन्तर्वर्तिनी प्राणशक्ति भी परमेश्वर की इच्छा से उद्भूत है।

इसी प्रकार सूर्य-चन्द्र आदि के माध्यम से सृष्टि का विकास एवं ऋतु संचालन और उनका परिवर्तन आदि प्राणशक्ति द्वारा ही होता है।

सूर्य के साथ समष्टिभूत प्राण का सम्बन्ध होने पर ऋतुपरिवर्तन, सस्यसमृद्धि का विस्तार एवं संसार की रक्षा तथा प्रलयादि सभी कार्य समष्टि प्राण की शक्ति से ही स्मपन्न होते रहते हैं। प्राण की इस धराधारिणी शक्ति को छान्दोग्य उपनिषद् अधिक स्पष्ट कर देती है। यथा-- जिस प्रकार रथचक्र की नाभि के ऊपर चक्रदण्ड (अरा) स्थित रहते हैं, उसी प्रकार प्राण के ऊपर समस्त विश्व आधारित रहता है। प्राण का आदान-प्रदान प्राण द्वारा ही होता है। प्राण पितावत् जगत् का जनक, मातृवत् संसार का पोषक, भ्रातृवत् समानता का विधायक, भगिनीवत् स्नेह संचारक एवं आचार्यवत् नियमनकर्त्ता है।

जिस प्रकार एक सम्राट अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को विभिन्न ग्राम, नगर आदि स्थानों पर स्थापित कर उनके द्वारा उन-उन स्थानों का शासन कार्य कराता है, उसी प्रकार प्राण भी अपने अंश से उत्पन्न व्यष्टिभूत प्राणों को जीवशरीर के विभिन्न स्थानों पर प्रतिष्ठित कर शरीर के विविध कार्यों का संचालन कराता है।

इस प्रकार यह सब प्राणशक्ति की क्रियाकारिता का ही परिणाम है, जिसके ऊपर चराचर जगत् का विकास आधारित है।

प्राणतोषिणी तन्त्र : तान्त्रिक साहित्य के अन्तर्गत इस ग्रन्थ का संकलन समस्त शाक्त उपासना विधियों का संग्रह कर पं० रामतोष भट्टाचार्य ने 1821 ई० में किया।

प्राणनाथ : परिणामी (प्रणामी) सम्प्रदाय (एक वैष्णव उपसम्प्रदाय) के प्रवर्तक महात्मा प्राणनाथ परिणामवादी वेदान्ती थे, विशेषतः ये पन्ना में रहते थे। महाराज छत्रसाल इन्हे अपना गुरु मानते थे। ये अपने को मुसलमानों का मेहँदी, ईसाइयों का मसीहा और हिन्दुओं का कल्कि अवतार कहते थे। सर्वधर्मसमन्वय इसका लक्ष्य था। इनका मत व्रज के निम्बार्कीय वैष्णवों से प्रभावित था। ये गोलोकवासी भगवान् कृष्ण के साथ सख्य भाव की उपासना करने की शिक्षा देते थे। इनके अनुयायी वैष्णव गुजरात, राजस्थान और बुन्देलखण्ड में अधिक पाये जाते हैं। दे० 'कुलज्जम साहब' तथा 'प्रणामी'।

प्राणलिङ्ग : लिङ्गायतों के छः आध्यात्मिक विकासों में चतुर्थ क्रम पर प्राणलिङ्ग है।

प्राणाग्निहोत्र उपनिषद् : परवर्ती उपनिषदों में से एक। इसका भाष्य 14वीं शताब्दी के अन्त में महात्मा शङ्करानन्द तथा नारायण ने लिखा।

प्राणायाम : प्राण (श्वास) का आयाम (नियन्त्रण)। मन को एकाग्र करने का यह मुख्य साधन माना जाता है। यौगिक प्रणाली में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अष्टाङ्गयोग (राजयोग) का यह चौथा अङ्ग है। हठयोग में प्राणायाम की प्रक्रिया का बड़ा विस्तार हुआ है। प्राणायाम के तीन प्रकार हैं : (1) पूरक (श्वास को भीतर ले जाकर फेफड़े को भरना) (2) कुम्भक (श्वास को भीतर देर तक रोकना) और (3) रेचक (श्वास को बाहर निकालना)। दे० 'योगदर्शन'।

प्रातःस्नान : प्रातःस्नान नित्य धार्मिक कृत्यों में आवश्यक माना गया है। मनुष्य को बड़े तड़के उठकर स्नान करना चाहिए। विष्णुधर्मोत्तर (64.8) इस बात का निर्देश करता है कि प्रातःस्नान उस समय करना चाहिए जब उदीयमान सूर्य की अरुणिमा प्राची में छा जायी। स्नान का सामान्य मन्त्र है :

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वति। कावेरि नर्मदे सिन्धो जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु॥

स्नान करते समय हिन्दू इस बात की भावना करता है कि भारत की समस्त नदियों के जल से वह पवित्र हो रहा है।

प्रातिशाख्य : वेदों के अनेक प्रकार के स्वरों के उच्चारण, पदों के क्रम और विच्छेद आदि का निर्णय शाखा के जिन विशेष-विशेष ग्रन्थों द्वारा होता है उन्हें प्रातिशाख्य कहते हैं। प्रातिशाख्यों में ही मूलतः शिक्षा और व्याकरण दोनों पाये जाते हैं।

प्राचीन काल में वेदों की सभी शाखाओं के प्रातिशाख्यों का प्रचलन था, परन्तु अब केवल ऋग्वेद की शाकल शाखा का शौनकरचित ऋक्प्रातिशाख्य, वाजसनेयी शाखा का कात्यायन रचित वाजसनेय-प्रातिशाख्य, सामवेदीय शाखा का पुष्प मुनिरचित सामप्रातिशाख्य और अथर्वप्रातिशाख्य की शौनकीय चतुरध्यायी उपलब्ध है। ऋक्प्रातिशाख्य में तीन काण्ड, छः पटल और एक सौ तीन कण्‍डिकाएँ हैं, इस प्रातिशाख्य का परिशिष्ट रूप 'उपलेखसूत्र' नाम का एक ग्रन्थ भी मिलता है। कात्यायन के वाजसनेय प्रातिशाख्य में आठ अध्याय हैं। पहले अध्याय में संज्ञा और परिभाषा है। दूसरे में स्वरप्रक्रिया है। तीसरे से पाँचवें अध्याय तक संस्कार हैं। छठे और सातवें अध्याय में क्रिया के उच्चारण भेद हैं और आठवें अध्याय में स्वाध्याय अर्थात् वेदपाठ के नियम दिये गये हैं। सामप्रातिशाख्य के रचयिता पुष्प मुनि हैं। इसमें दस प्रपाठक हैं। पहले दो प्रपाठकों में दशरात्र, संवत्सर एकाह, अहीन, सत्र, प्रायश्चित और क्षुद्र पर्वानुसार साम समूह की संज्ञाएँ संक्षेप से बतायी गयी हैं। तीसरे और चौथे प्रपाठक में साम में श्रुत, आर्हभाव और प्रकृत भी के सम्बन्ध से विध्यात्क उपदेश हैं। पाँचवें प्रपाठक में वृद्ध और अवृद्ध भाव की व्यवस्था है। छठे प्रपाठक में यह व्यवस्था है कि सामभक्ति समूह कहाँ गाया जाय और कहाँ न गाया जाय। सातवें और आठवें प्रपाठक में लोप, आगम और वर्णविकार आदि के सम्बन्ध में उपदेश हैं। नवें प्रपाठक में भाव कथन है और दसवें तथा आगे के प्रपाठकों में कृष्टाकृष्ट निर्णय और प्रस्ताव के लक्षणादि बताये गये हैं। अथर्वप्रातिशाख्य के अन्तर्गत शौनकीय चतुर्ध्यायिका है, जिसमें (1) ग्रन्थ का उद्देश्य, परिचय, और वृत्ति; (2) स्वर और व्यञ्जन का संयोग, उदात्तादि लक्षण, प्रगृह्य, अक्षर विन्यास, युक्त वर्ण, यम, अभिनिधान, नासिक्यं, स्वरभक्ति, स्फोटन, कर्षण और वर्णक्रम; (3) संहिता प्रकरण; (4) क्रम निर्णय; (5) पद निर्णय और (6) स्वाध्याय की आवश्यकता के सम्बन्ध में उपदेश ये छः विषय बताये गये हैं।

प्रातिशाख्यों में से कुछ बहुत प्राचीन हैं तो कोई-कोई पाणिनीय सूत्रों के बाद के भी हैं। कई पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि वाजसनेय प्रातिशाख्य के रचने वाले कात्यायन तथा पाणिनिसूत्रों के वार्तिककार कात्यायन दोनों एक ही व्यक्ति हैं। वार्तिकों में जिस तरह उन्होंने पाणिनि की समालोचना की है, उसी तरह प्रातिशाख्यों में भी की है। इसी से निश्चय होता है कि वाजसनेय प्रातिशाख्य पाणिनि के सूत्रों के बाद का है। प्रातिशाख्य में शिक्षा का विषय अधिक है और व्याकरण का विषय प्रासंगिक है। वास्तविक प्रातिशाख्य में व्याकरण के सम्पूर्ण लक्षणों का अभाव है, शिक्षा का विषय ही प्रातिशाख्यों की विशेषता है, यद्यपि वैज्ञानिक रीति से इस विषय के ऊपर शौनकीय शिक्षा में ही प्रतिपादन हुआ है।

प्राप्तिव्रत : जो व्यक्ति एकभक्त पद्धति से एक वर्ष पर्यन्त आहारादि करता है और भोजनसहित जलपूर्ण कलश दान करता है, वह एक कल्प तक शिवलोक में वास करता है।

प्रायश्चित्त : वैदिक ग्रन्थों में प्रायश्चित्ति औऱ प्रायश्चित्त दोनों शब्द एक ही अर्थ में पाये जाते हैं। इनसे पापमोचन के लिए धार्मिक कृत्य अथवा तप करने का बोध होता है। परवर्ती साहित्य में 'प्रायश्चित्त' शब्द ही अधिक प्रचलित है। इसकी कई व्युत्पत्तियाँ बतायी गयी हैं। निबन्धकारों ने इसका व्युत्पत्तिगत अर्थ 'प्रायः (= तप), चित्त' (=दृढ़ संकल्प) अर्थात् तप करने का दृढ़ संकल्प किया है। याज्ञवल्क्यस्मृति (3.206) की बालम्भट्टी टीका में एक श्लोकार्द्ध उद्धृत है, जिसके अनुसार इस शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रायः =पाप, चित्त =शुद्धि' अर्थात् पाप की शुद्धि की गयी है (प्रायः पापं विनिर्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम्)। पराशरमाधवीय (2.1.3) में एक स्मृति के आधार पर कहा गया है कि प्रायश्चित वह क्रिया है जिसके द्वारा अनुताप करने वाले पापी का चित्त मानसिक असन्तुलन से (प्रायशः) मुक्त किया जाता है। प्रायश्चित्त नैमित्तिकीय कृत्य है किन्तु पापमोचन की कामना कर्त्ता में होती है, जिससे यह काम्य भी कहा जा सकता है।

पाप ऐच्छिक और अनैच्छिक दो प्रकार के होते हैं, इसलिए धर्मशास्त्र में इस बात पर विचार किया गया है कि दोनों प्रकार के पापों में प्रायश्चित्त करना आवश्यक है या नहीं। एक मत है कि केवल अनैच्छिक पाप प्रायश्चित्त से दूर होते हैं और उन्हीं को दूर करने के लिए प्रायश्चित करना चाहिए; ऐच्छिक पापों का फल तो भोगना ही पड़ता है, उनका मोचन प्रायश्चित से नहीं होता (मनु 11.45; याज्ञ० 3.226)। दूसरे मत के अनुसार दोनों प्रकार के पापों के लिए प्रायश्चित करना चाहिए; भले ही पारलौकिक फलभोग (नरकादि) मनुष्य को अपने दुष्कर्म के कारण भोगना पड़े। प्रायश्चित के द्वारा वह सामाजिक सम्पर्क के योग्य हो जाता है (गौतम 19.7.1)।

बहुत से ऐसे अपराध हैं जिनके लिए राजदण्ड और प्रायश्चित्त दोनों का विधान धर्मशास्त्रों में पाया जाता है। जैसे-हत्या, चोरी, सपिण्ड से योनिसंबन्ध, धोखा आदि। इसका कारण यह है कि राजदण्ड से मनुष्य के शारीरिक कार्यों पर नियन्त्रण होता है, किन्तु उसकी मानसिक शुद्धि नहीं होती और वह सामाजिक सम्पर्क के योग्य नहीं बनता। अतः धर्मशास्त्र में प्रायश्चित भी आवश्यक बतलाया गया है। प्रायश्चित का विधान करते समय इस बात पर विचार किया गया है कि पाप अथवा अपराध कामतः (इच्छा से) किया गया है अथवा अनिच्छा से (अकामतः); प्रथम अपराध है अथवा पुनरावृत्त। साथ ही परिस्थिति, समय, स्थान, वर्ण, वय, शक्ति, विद्या, धन, आदि पर भी विचार किया गया है। यदि परिषद् द्वारा विहित प्रायश्चित्त की अवहेलना कोई व्यक्ति करता था तो उसे राज्य दण्ड देता था। अब धर्मशास्त्र, परिषद् और जाति सभी के प्रभाव उठते जा रहे हैं, कुछ धार्मिक परिवारों को छोड़कर प्रायश्चित्त कोई नहीं करता। प्रायश्चित्त के ऊपर धर्मशास्त्र का बहुत बड़ा साहित्य है। स्मृतियों के मोटे तौर पर तीन विभाग हैं : आचार, व्यवहार और प्रायश्चित्त। इसके अथिरिक्त बहुत से निबन्ध ग्रन्थ और पद्धतियाँ भी प्रायश्चितों पर लिखी गयी हैं।

प्रावरणषष्ठी : यह शीतकाल में ओढ़ना दान करने की तिथि है। मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को देवों, दीनों तथा ब्राह्मणों को शीत निवारण के लिए कुछ वस्तुएँ (कम्बलादि) दान में देनी चाहिए। दे० गदाधरपद्धति, कालसार भाग, 84।

प्रावरणोत्सव : मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को पुरुषोत्तम जगन्नाथ भगवान् की बारह यात्राओं में से एक यात्रा होती है।

प्रियमेध : ऋग्वेद के प्रियमेधसूक्त (6.45) में यह एक ऋषि का नाम है, जहाँ उनके परिवार प्रियमेधसः का अनेकों बार उल्लेख हुआ है।

प्रियदास : महाप्रभु चैतन्य द्वारा प्रचारित गौडीय सम्प्रदाय के अनुयायी एक महात्मा। नाभाजी कृत 'भक्तमाल' नामक संतों के ऐतिहासिक ग्रन्थ के ये सुप्रसिद्ध भाष्यकार हैं। इसमें इन्होंने व्रजभाषा की प्रांजल शैली में कवित्तमयी रचना की है। इनका समय 18वीं शती है। भक्तसमाज में भक्तमाल और उसकी प्रियादासी व्याख्या वेदवाक्य मानी जाती हैं।

प्रीतिव्रत : एक वैष्णव व्रत। इससे भगवान् विष्णु में रति और उनके लोक की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति आषाढ़ मास से चार मास तक विना तेल के स्नान करता है और इसके पश्चात् व्यंजन सहित सुस्वादु खाद्य पदार्थ दान में अर्पित करता है, वह विष्णुलोक को जाता है।

प्रेत : वैदिक साहित्य में प्रेत (देह से निर्गत) का मृत व्यक्ति अर्थ (शत० ब्रा० 10.5.2.13) होता है। परवर्ती साहित्य में इसका अर्थ प्रेतात्मा (भूत-प्रेत) होता है, जो अशरीरी होते हुए भी घूमता रहता है और जीवधारियों को कष्ट देता है।

प्रेतचतुर्दशी : कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को रात्रि में इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। यदि संयोग से उस दिन मंगलवार तथा चित्रा नक्षत्र हो तो महान् पुण्य उपलब्ध होगा। शिव इसके देवता हैं। चतुर्दशी को उपवास करके शिवपूजनोपरान्त भक्तों को उपहारादि देकर भोजन कराया जाय; इस दिन गंगास्नान से मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त अपामार्ग की टहनी लेकर सिर पर फेरनी चाहिए तथा बाद में यम के नाम (कुल 14) लेकर तर्पण करना चाहिए। इस दिन नदीतट पर, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के मन्दिरों में, स्वगृह में, चौरास्तों पर दीपमालिका प्रज्वलित की जाय। इस कृत्य को करने वाला अपने परिवार की 21 पीढ़ियों सहित शिवलोक प्राप्त करता है। इसी तिथि को परिवार के उन सदस्यों के लिए लुकाटियाँ जलायी जायँ जो शस्त्राघात से मरे हों और अन्यों के लिए अमावस्या के दिन। व्रतकर्ता इस दिन प्रेतोपाख्यान श्रवण करता है (उन पाँच प्रेतों की कथा जो एक ब्राह्मण को जंगल में मिले थे। 'संवत्सरप्रदीप' में इसका निर्देश है। दे० वर्षकृत्यकौमुदी, 461-467, यह भीष्म ने युधिष्ठिर को सुनायी थी) जिसको सुनने तथा आचरण करने से मनुष्य प्रेतयोनि (अशरीरी योनि) को घटा सकता है तथा प्रेतत्व से मुक्त भी हो सकता है। व्रती उन चौदह वनस्पतियों को ग्रहण करे जो 'कृत्यचिन्तामणि' की भूमिका (पृ० 18) में निर्दिष्ट हैं। दे० राजमार्तण्ड, 1338-1345। तिथितत्व, पृ० 124 तथा रघुनन्दन के कृत्यतत्त्व में वे 14 वनस्पति परिगणित हैं। कदाचित इसका प्रेतचतुर्द कि इस दिन 'प्रेतोपाख्यान' सुनना सुनाना चाहिए।

प्रेमरस : यह वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्गीय साहित्य से सम्बन्धित, 16वीं शताब्दी के मध्य कृष्णदास द्वारा व्रजभाषा में रचा हुआ एक ग्रन्थ है। इसमें प्रेमरसरूपा भक्ति का विवेचन और वर्णन है।

प्रेमविलास : गौडीय वैष्णव साहित्य-सम्बन्धी 17वीं शताब्दी का ग्रन्थ। इसके रचयिता नित्यानन्ददास हैं। यह ग्रन्थ चैतन्य सम्प्रदाय का इतिहास प्रस्तुत करता है।

प्रेमानन्द : स्वामीनारायणीय साहित्य में अनेकों कविताएँ गुजराती भाषा में 'प्रेमानन्द' द्वारा रचित प्राप्त हैं।

प्रैयमेध : प्रियमेध के वंशज। यह उन पुरोहितों का पैतृक नाम है, जिन्होंने त्र्यात्रेय उद्गम के लिए यज्ञ किया था इसका उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण (8.22) में है। यजुर्वेद संहिता में इन्हें सभी यज्ञविद्याओं के ज्ञाता कहा गया है। तीन प्रैयमेधसों का उल्लेख तैत्तिरीय ब्राह्मण (2.19) में हुआ है। गोपथ ब्राह्मण (1.3.15) में इन्हें भारद्वाज कहा गया है।

प्रोद्गीत आगम : प्रोद्गीत का नाम उद्गीत भी है। यह रौद्रिक आगमों में से एक है।

प्रौढिवाद : किसी मान्यता को अस्वाभाविक रूप से, बलपूर्वक स्थापित करना। यथा अद्वैत वेदान्तियों का अन्तिम वाद अजातवाद प्रौढ़िवाद कहा जा सकता है, क्योंकि यह सब प्रकार की उत्पत्ति को, चाहे वह विवर्त के रूप में कही जाय, चाहे दृष्टिसृष्टि या अवच्छेद अथवा प्रतिबिम्ब के रूप में, अस्वीकार करता है और कहता है कि जो जैसा है वह वैसा ही है और सब विश्व ब्रह्मा है। ब्रह्म अनिर्वचनीय हैं, उनका वर्णन शब्दों द्वारा हो ही नहीं सकता, क्योंकि हमारे पास जो भाषा है, वह द्वैत की ही है, अर्थात् जो कुछ हम कहते हैं वह भेद के आधार पर ही।

प्लक्ष प्रास्रवण : एक तीर्थस्थान का नाम, जो सरस्वती के उद्गम स्थान से चवालीस दिन की यात्रा पर था। इसका उल्लेख पञ्चविंश ब्राह्मण (25.10.16.22), कात्यायनश्रौतसूत्र (24.6.7), लाट्यायनश्रौतसूत्र (10. 17, 11, 14) तथा जैमिनीय-उपनिषद् ब्रा० (4.26.12) में हुआ है। ऋग्वेदीय आश्व० श्रौ० सू०, 12.6; शाङ्खा० श्रौ० सू०, 13.19, 24 में इस क्षेत्र को 'प्लक्ष-प्रस्रवण' कहा गया है, जिसका अर्थ सरस्वती का उद्गम स्थान है न कि इसके अन्तर्धान होने का स्थान।

 : व्यञ्जन वर्णों के पञ्चम वर्ग का द्वितीय अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तत्व निम्नांकित है :

फकारं श्रृणु चार्वङ्ग रक्तिविद्युल्लतोपमम्। चतुर्वर्गप्रदं वर्ण पञ्चदेवमयं॥ पञ्चप्राणमयं वर्णं सदा त्रिगुण संयुतम्। आत्मादित्त्व संयुक्तं त्रिबिन्दु सहितं सदा॥ तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम हैं :

फः सखी दुर्गिणी धूम्रा वामपार्श्वों जनार्दनः। जा पादः शिखा रौद्रो फेत्कारः शाखिनी प्रियः॥ उमा विहङ्गमः कालः कुब्जिनी प्रिय पावकौ। प्रलयाग्निर्नीलपादोऽक्षरः पशुपतिः शशी॥ फूत्कारों यामिनी व्यक्ता पावनो मोहवर्द्धनः। निष्फला वागहङ्कारः प्रयागो ग्रामणीः फलम्॥

फट् : तान्त्रिक मन्त्रों का एक सहायक शब्द। इसका स्वयं कुछ अर्थ नहीं होता, यह अव्यय है और मन्त्रों के अन्त में आघात या घात क्रिया के बोधनार्थ जोड़ा जाता है। यह अस्त्रबीज है। 'बीजवर्णाभिधान' में कहा गया है : 'फडत्वं शस्त्रमायुधम्।' अर्थात् फट् शास्त्र अथवा आयुध के अर्थात् फट् शस्त्र अथवा आयुध के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अभिचार कर्म में 'स्वाहा' के स्थान में इसका प्रयोग होता है। वाजसनेयी संहिता (7.3) में इसका उल्लेख हुआ है :

देवांशो यस्मै त्वेडे तत्सत्यमुपरि प्रुता भङ्गेन हतोऽसौफट्।' 'वेददीप' में महीधर ने इसका भाष्य इस प्रकार किया है :

असौ द्वेष्यो हतो निहतः सन् फट् विशीर्णो भवतु। 'ञिफला विशरणे' अस्य क्विबन्तस्यैतद् रूपम्। फलतीति फट्, डलयोरैक्यम्। स्वाहाकारस्थाने फडित्यभिचारे प्रयुज्यते।

फलतृतीया : शुक्ल पक्ष की तृतीया को इस व्रत का आरम्भ होता है। एक वर्ष पर्यन्त यह चलता है। देवी दुर्गा इसकी देवता हैं। यह व्रत अधिकांशतः महिलाओं के लिए विहित है। इसमें फलों के दान का विधान है परन्तु व्रती स्वयं फलों का परित्याग कर नक्त पद्धति से आहार करता है तथा प्रायः गेहूँ के बने खाद्य तथा चने, मूँग आदि की दालें ग्रहण करता है। परिणामस्वरूप उसे कभी भी सम्पत्ति अथवा धान्यादि का अभाव तथा दुर्भाग्य नहीं देखना पड़ता।

फलत्यागव्रत : यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, अष्टमी, द्वादशी अथवा चतुर्दशी को आरम्भ होता है, एक वर्ष पर्यन्त चलता है। इसके शिव देवता हैं। एक वर्ष तक व्रती को समस्त फलों के सेवन का निषेध है। वह केवल 18 धान्य ग्रहण कर सकता है। उसे भगवान् शंकर, नन्दीगण तथा धर्मराज की सुवर्ण प्रतिमाएँ बनवाकर 16 प्रकार के फलों की आकृति के साथ स्थापित करना चाहिए। फलों में कूष्माण्ड, आम्र, बदर, कदली, उनसे कुछ छोटे आमलक, उदुम्बर, बदरी तथा अन्य फलों (जैसे इमली) की त्रिधातु की आकृतियाँ बनवाकर धान्य के ढेर पर रखनी चाहिए। दो कलशों को जल से परिपूर्ण करके वस्त्र से आच्छादित किया जाय। वर्ष के अन्त में पूजा तथा व्रत के उपरान्त उपर्युक्त समस्त वस्तुएँ तथा एक गौ किसी सपत्नीक ब्राह्मण को दान में दे दी जायँ। यदि उपर्युक्त वस्तुओं को देने में व्रती असमर्थ हो तो केवल धातु के फलों, कलश तथा शिव एवं धर्मराज की प्रतिमाएँ ही दान में दे दे। इस आयोजन से व्रती रुद्रलोक में सहस्रों युगों तक निवास करता है।

फलव्रत : (1) आषाढ़ से चार मास तक विशाल फलों के उपभोग का त्याग (जैसे कटहल, कूष्‍माण्ड) तथा कार्तिक मास में उन्हीं फलों को सोने के बनवाकर एक जोड़ा गौ के साथ दान करना, इसको फलव्रत कहते हैं। इसके सूर्य देवता हैं। इसके आचरण से सूर्यलोक में सम्मान मिलता है। (2) कालनिर्णय, 140 तथा ब्रह्मपुराण के अनुसार भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा को व्रती को मौन व्रत धारण करते हुए तीन प्रकार के (प्रत्येक प्रकार के फलों में 16, 16) पके हुए फल लेकर उन्हें देवार्पण करके किसी ब्राह्मण को दे देना चाहिए।

फलषष्ठीव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को नियमों का पालन, षष्ठी को एक सुवर्णकमल तथा एक सुवर्णफल बनवाना चाहिए। मध्याह्न काल में दोनों को किसी मृत्पात्र या ताम्रपात्र में रखना चाहिए। उस दिन उपवास रखते हुए फूल, फल, गन्ध, अक्षत आदि से उनका पूजन करना चाहिए। सप्तमी को पूर्व वस्तुएँ निम्नोक्त शब्द बोलते हुए दान कर देनी चाहिए 'सूर्यः मां प्रसीदतु'। व्रती को अगले कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तक एक फल त्याग देना चाहिए। यह आचरण एक वर्ष तक हो, प्रत्येक मास में सप्तमी के दिन सूर्य के बारह नामों में से किसी एक नाम का जप किया जाय। इन आचारणों से व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक में सम्मानित होता है।

फलसङ्क्रान्तिव्रत : सङ्क्रान्ति के दिन स्नानोपरान्त पुष्पादि से सूर्य का पूजन करना चाहिए। बाद में शर्करा से परिपूर्ण पात्र आठ फलों के सहित किसी को दान करना चाहिए। तदुपरान्त किसी कलश पर सूर्य की प्रतिमा रखकर पुष्पादि से उसका पूजन करना चाहिए।

फलसप्तमी : (1) भाद्र शुक्ल सप्तमी को उपवास रखते हुए सूर्य का पूजन, अष्टमी को प्रातः सूर्यपूजन तथा ब्राह्मणों को खजूर, नारिकेल तथा मातुलुङ्ग फलों का दान किया जाय तथा ये शब्द बोले जायँ : 'सूर्यः प्रसीदतु'। व्रती अष्टमी को एक फल खाये तथा इन शब्दों का उच्चारण करे : 'सर्वाः कामनाः परिपूर्णा भवन्तु'। मन के सन्तोषार्थ वह और फल खा सकता है। एक वर्ष इस कृत्य का आचरण करना चाहिए। व्रती इससे पुत्र-पौत्र प्राप्त करता है।

(2) भाद्र शुक्ल चतुर्थी, पञ्चमी तथा षष्ठी को क्रमशः अयाचित, एकभक्त तथा उपवास पद्धति से आहार करे। गन्धाक्षत, पुष्पादि से सूर्य का पूजन तथा सूर्यप्रतिमा जिस वेदी पर रखी जाय उसके सम्मुख रात्रि को शयन करे। सप्तमी के दिन पूजनोपरान्त फलों का नैवेद्य अर्पण किया जाय, ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय, तदनन्तर स्वयं भोजन करना चाहिए। यदि फलों का नैवेद्य अर्पण करने की क्षमता न हो तो गेहुँ या चावल के आटे में घी, गुड़, जायफल का छिलका तथा नागकेसर मिलाकर, नैवेद्य बनाकर अर्पित किया जाय। यह क्रम एक वर्ष तक चलना चाहिए। व्रत के अन्त में सामर्थ्य हो तो सोने के फल, गौ, वस्त्र, ताम्रपात्र का दान किया जाय। व्रती निर्धन हो तो ब्राह्मणों को फल तथा तिल के चूर्ण भोजन करा दे। इससे व्रती समस्त पापों, कठिनाइयों तथा दारिद्र्य से दूर होकर सूर्यलोक को प्राप्त करता है।

(3) मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को नियमों का पालन किया जाय, षष्ठी को उपवास, एक सुवर्णकमल, एक फल तथा शर्करा दान में दी जाय। दान के समय 'सूर्यः मां प्रसीदतु' मंत्रोच्चारण किया जाय। सप्तमी के दिन ब्राह्मणों को दुग्ध सहित भोजन कराया जाय। उस दिन से आने वाली कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तक व्रती को कोई एक फल छोड़ देना चाहिए। सूर्य नारायण के भिन्न-भिन्न नाम लेकर उनका पूजन साल भर चलाना चाहिए। वर्ष के अन्त में सपत्नीक ब्राह्मण को वस्त्र, कलश, शर्करा, सुवर्ण का कमल तथा फलादि देकर सम्मान करना चाहिए। इससे व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक जाता है।

फलाहारहरिप्रिय व्रत : विष्णुधर्मोत्तर (3.149.1-10) के अनुसार यह चतुर्मूर्तिव्रत है। वसन्त में विषुव दिवस से तीन दिन के लिए उपवास प्रारम्भ कर वासुदेव भगवान की पूजा करनी चाहिए। तीन मास तक यह पूजा प्रतिदिन चलती है। तदनन्तर तीन मास तक केवल फलाहार करना चाहिए। इसके पश्चात् शरद् में विषुव के तीन मास तक उपवास करना चाहि। इसमें प्रद्युम्न के पूजन का विधान है। इस समय यावक का आहार करना चाहिए। वर्ष के अन्त में ब्राह्मणों को दान देना चाहिए। इससे मनुष्य विष्णुलोक प्राप्त करता है।

फल्गुतीर्थ (सोमतीर्थ) : कुरुक्षेत्रमण्डल का पवित्र तीर्थ। यहाँ फलों का प्राचीन वन था, जो कुरुक्षेत्र के सात पवित्र वनों में गिना जाता था। यहाँ पर पितृपक्ष में तथा सोमवती अमावस्या के दिन बहुत बड़ा मेला लगता है। कहा जाता है कि यहाँ श्राद्ध, तर्पण तथा पिण्डदान करने से गया के समान ही फल होता है।

फाल्गुनमासकृत्य : यह स्मरण रखना चाहिए कि समस्त वार्षिक महोत्सव दक्षिण भारत के विशाल तथा छोटे-छोटे मन्दिरों में प्रायः फाल्गुन मास में ही आयोजित होते हैं। कुछ छोटी-छोटी बातों का यहाँ और उल्लेख किया जाता है। फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को लक्ष्मीजी तथा सीताजी की पूजा होती है। यदि फाल्गुनी पूर्णिमा को फाल्गुनी नक्षत्र हो तो व्रती को पलंग तथा बिछाने योग्य सुन्दर वस्त्र दान में देने चाहिए। इससे सुभार्या की प्राप्ति होती है जो अपने साथ सौभाग्य लिये चली आती है। कश्यप तथा अदिति से अर्यमा की तथा अत्रि और अनसूया से चन्द्रमा की उत्‍पत्ति फाल्गुनी पूर्णिमा को हुई थी। अतएव इन देवों की चन्द्रोदय के समय पूजा करनी चाहिए। पूजन में गीत, वाद्य, नृत्यादि का समावेश होना चाहिए। फाल्गुनी पूर्णिमा को ही दक्षिण भारत में 'उत्तिर' नामक मन्दिरोत्सव का भी आयोजन किया जाता है।

फाल्गुनश्रवणद्वादशी : फाल्गुन में यदि द्वादशी को श्रवण नक्षत्र हो तो उस दिन उपवास करके भगवान् हरि का पूजन करना चाहिए। दे० नीलमत पुराण, पृ० 52।

फुल्लसूत्र : सामवेद का एक श्रौतसूत्र। यह गोभिल की रचना कहा जाता है। इस ग्रन्थ के पहले चार प्रपाठकों में नाना प्रकार के पारिभाषिक और व्याकरण द्वारा गठित ऐसे शब्द आये हैं जिनका मर्म समझना कठिन है। इनकी टीका भी नहीं मिलता। किन्तु शेष अंश पर एक विशद भाष्य अजातशत्रु का लिखा हुआ है। ऋक् मन्त्ररूपी कलिका किस प्रकार सामरूप पुष्प में परिणत हुई, इस ग्रन्थ में यह बताया गया है। दाक्षिणात्यों में प्रसिद्धि है कि यह वररुचि की रचना है। इसके शेषांश में श्लोक दिये हुए हैं, दामोदर के पुत्र रामकृष्ण की लिखी इस पर एक वृत्ति भी है।

फेत्कारीतन्त्र : आगमतत्‍त्वविलास' के चौसठ तन्त्रों की तालिका में द्वितीय क्रम पर 'फेत्कारीतन्त्र' है।