विक्षनरी:हिन्दू धर्मकोश (ब से म)

विक्षनरी से

 : व्यञ्जन वर्णों के पंचम वर्ग का तीसरा अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका माहात्म्य इस प्रकार है :

बकारं श्रृणु चार्व्वङ्गि चतुर्वर्गप्रदायकम्। शरच्चन्द्रप्रतीकांशं पञ्चदेवमयं सदा॥ पञ्चप्राणात्मकं वर्णं त्रिबिन्दुसहितं सदा॥

तन्त्रशास्त्र में इसके बहुत से नाम दिये हुए हैं :

बो वनी भूधरो मार्गी चर्चरी लोचनप्रियः। प्रचेताः कलसः पक्षी स्थलगण्डः कपर्दिनी॥ पृष्ठवंशी भयामातुः शिखिवाहो युगन्धरः। सुखबिन्दुर्बलो चण्डा योद्धा त्रिलोचनप्रियः॥ सुरभिर्म्मुखविष्णुश्च संहारो वसुधाधिपः। षष्ठापुरं चपेटा च मोदको गगनं प्रति॥ पूर्वाषाढ़ामध्यलिङ्गौ शनिः कुम्भतृतीयकौ॥

बक दाल्भ्य : दल्भ का वंशज। छान्दोग्य उपनिषद् में यह एक आचार्य का नाम है (1.2,13,12,1)। अ० सं० के अनुसार (30.2) वह धृतराष्ट्र के साथ यज्ञ सम्बन्धी विवाद करते हुए वर्णित है।

बकपञ्चक : कार्तिक शुक्ल एकादशी (विष्णुप्रबोधिनी) से पूर्णिमा तक के पाँच दिन 'बकपञ्चक' नाम से कहे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन दिनों बगुले भी मत्स्य का आहार नहीं करते। अतएव मनुष्य को कम-से-कम इन दिनों मांस भक्षण कदापि नहीं करना चाहिए।

बकसर : (1) बिहार प्रदेश के शाहाबाद जिले में स्थित प्रसिद्ध तीर्थस्थल। प्रचीन काल में यह स्थान सिद्धाश्रम कहा जाता था। महर्षि विश्वामित्र का आश्रम यहीं था, जहाँ राम-लक्ष्मण ने मारीच, सुबाहु आदि को मारकर ऋषि के यज्ञ की रक्षा की थी। आज भी गङ्गा के तट पर पुराने चरित्रवन का कुछ थोड़ा अवशेष बचा हुआ है, जो महर्षि विश्वामित्र का यज्ञस्थल है। बकसर में सङ्गमेश्वर, सोमेश्वर, चित्ररथेश्वर, रामेश्वर, सिद्धनाथ और गौरी शङ्कर नामक प्राचीन मन्दिर हैं, बकसर की पञ्चकोशी परिक्रमा में सभी तीर्थ आ जाते हैं।

उन्नाव जिले में एक दूसरा बकसर शिवराजपुर से तीन मील पूर्व पड़ता है। यहाँ वाणीश्वर महादेव का मन्दिर है। कहा जाता है कि दुर्गासप्तशती में जिन राजा सुरथ तथा समाधि नामक वैश्य के तप का वर्णन है उनकी तप:स्थली यहीं है। गङ्गादशहरा तथा कार्तिकी पूर्णिमा को यहाँ पर मेल लगता है।

बकुलामावस्या : एक पितृव्रत। पौष मास की अमावस्या को पितर लोगों को बकुलपुष्पों तथा शर्करायुक्त खीर से तृप्त करना चाहिए।

बग्गासिंह : राधास्वामी मठ, तरनतारन (पंजाब) के महन्त। सन्तमत या राधास्वामी पन्थ के आदि प्रवर्त्तक हुजूर राधास्वामीदयाल उर्फ स्वामीजी के मरने पर (संवत् 1935) उनका स्थान हुजूर महाराज अर्थात् रायसाहब सालिगराम माथुर ने ग्रहण किया, जो पहले इस प्रान्त के पोस्टमास्टर जनरल थे। उन्हीं के गुरुभाई, अर्थात् स्वामीजी के शिष्य बाबा जयमलसिंह ने ब्यास में, बाबा बग्गासिंह ने तरनतारन में तथा बाबा गरीबदास ने दिल्ली में अलग-अलग गद्दियाँ चलायीं।

बघौत : वनवासी जातियों----सन्थाल, गोंड़ आदि में यह विश्वास प्रचलित है कि बाघ से मारा गया मनुष्य भयानक भूत (प्रेतात्मा) बन जाता है। उसे शान्त रखने के लिए उसके मरने के स्थान पर एक मन्दिर का निर्माण होता है जिसे 'बघैत' कहते हैं। यहाँ उसके लिए नियमित भेट पूजा की जाती है। इधर से गुजरता हुआ हर एक यात्री एक पत्थर उसके सम्मान में इस स्थान पर रखता जाता है और यहाँ इस तरह पत्थरों का ढेर लग जाता है। हर एक लकड़हारा यहाँ एक दीप जलाता है या आहुति देता है ताकि क्रोधित भूत शान्त रहे।

बंजारा : घुमक्कड़ कबायली जाति। संस्कृत रूप 'वाणिज्यकार' है'। ये व्यापारी घूम-घूमकर अन्न आदि विक्रेय वस्तु देश भर में पहुँचाते थे। इनकी संख्या 1901 ई० की भारतीय जनगणना में 7,65,861 थी। इनका व्यवसाय रेलवे के चलने से कम हो गया है और अब ये मिश्रित जाति हो गये हैं। ये लोग अपना जन्मसम्बन्ध उत्तर भारत के ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वर्ण से जोड़ते हैं। दक्षिण में आज भी ये अपने प्राचीन विश्वासों एवं रिवाजों पर चलते देखे जाते हैं जो द्रविडवर्ग से मिलते-जुलते हैं।

बंजारों का धर्म जादूगरी है और ये गुरु को मानते हैं। इनका पुरोहित भगत कहलाता है। सभी बीमारियों का कारण इनमें भूत-प्रेत की बाधा, जादू-टोना आदि माना जाता है। इनके देवी-देवताओं की लम्बी तालिका में प्रथम स्थान मरियाई या महाकाली का है (मातृदेवी का सबसे विकराल रूप)। यह देवी भगत के शरीर में उतरती है और फिर वह चमत्कार दिखा सकता है। अन्य हैं गुरु नानक, बालाजी या कृष्ण का बालरूप, तुलजा देवी (दक्षिण भारत की प्रसिद्ध तुलजापुर की भवानी माता), शिव मैया, सती, मिट्ठू भूकिया आदि।

मध्य भारत के बंजारों में एक विचित्र वृषभपूजा का प्रचार है। इस जन्तु को हतादिया (अवध्य) तथा बालाजी का सेवक मानकर पूजते हैं, क्योंकि बैलों का कारवाँ ही इनके व्यवसाय का मुख्य सहारा होता है। लाख-लाख बैलों की पीठ पर बोरियाँ लादकर चलने वाले 'लक्खी बंजारे' कहलाते थे। छत्तीसगढ़ के बंजारे 'बंजारी' देवी की पूजा करते हैं, जो इस जाति की मातृशक्ति की द्योतक है। सामान्यतया ये लोग हिन्दुओं के सभी देवताओं की आराधना करते हैं।

बंजारी : दे० 'बंजारा'।

बटेश्वर (विक्रमशिला) : बिहार में भागलपुर से 24 मील पूर्व गङ्गा के किनारे बटेश्वरनाथ का टीला और मन्दिर है। मध्यकाल में यहाँ विक्रमशिला नामक विश्वविद्यालय था। उस समय यह पूर्वी भारत में उच्च शिक्षा की विख्यात संस्था थी। यहाँ से दो मील दूर पर्वत की चोटी पर दुर्वासा ऋषि का आश्रम है। लगता है कि यहाँ का वट वृक्ष बोधिवृक्ष का ही प्रतीक है और यह शैवतीर्थ बौद्धविहार का अवशिष्ट स्मारक है।

बदरीनाथ : उत्तर दिशा में हिमालय की अधित्यका पर मुख्य यात्राधाम। मन्दिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखण्ड दीप जलता है जो अचल ज्ञानज्योति का प्रतीक है। यह भारत के चार धामों में प्रमुख तीर्थ है। प्रत्येक हिन्दू की यह कामना होती है कि वह बदरीनाथ का दर्शन अवश्य करे। यहाँ शीत के कारण अलकनन्दा में स्नान करना अत्यन्त कठिन है। अलकनन्दा के तो दर्शन ही किये जाते हैं। यात्री तप्तकुण्ड में स्थान करते हैं। वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है। बदरीनाथ की मूर्ति शालग्राशिला से बनी हुई, चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में है। कहा जाता है कि यह मूर्ति देवताओं ने नारदकुण्ड से निकालकर स्थापित की थी। सिद्ध, ऋषि, मुनि इसके प्रधान अर्चक थे। जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ तब उन्होंने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरम्भ की। शङ्कराचार्य की प्रचारयात्रा के समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति को अलकनन्दा में फेक गये। शङ्कराचार्य ने अलकनन्दा से पुनः बाहर निकालकर उसकी स्थापनी की। तदनन्तर मूर्ति पुनः स्थानान्तरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की।

मन्दिर में बदरीनाथजी की दाहिनी ओर कुबेर की मूर्ति है। उनके सामने उद्धवजी हैं तथा उत्‍सवमूर्ति है। उत्सवमूर्ति शीतकाल में बरफ जमने पर जोशीमठ में ले जायी जाती है। उद्धवजी के पास ही चरणपादुका है। बायी ओर नर-नारायण की मूर्ति है। इनके समीप ही श्रीदेवी और भूदेवी हैं।

बद्ध : पुनर्जन्म के सिद्धान्तानुसार आत्मा जन्म तथा मरण की श्रृंखला में बँधा रहता है; जब तक ज्ञान अथवा भक्ति द्वारा वह मुक्त न किया जाय। दैवी व्यक्तियों का आत्मा तो नित्यमुक्त होता है, किन्तु साधारण मानवों के आत्मा को चार भागों में विभक्त किया गया है-- (क) बद्ध, जो जीवन सम्बन्धी वासनाओं से बँधे हुए हैं। (ख) मुमुक्षु, मुक्ति की इच्छा वाले। (ग) केवल अनन्य भक्त, ईश्वर की भक्ति में तल्लीन रहने वाले और (घ) मुक्त, जन्मकर्म के बन्धनों से रहित।

बनजात्रा : महाप्रभु चैतन्य के तिरोधान के कुछ वर्ष पूर्व ही महात्मा रूप तथा सनातन कुछ शिष्यों के साथ वृन्दावन में बस गये थे। इन्होंने भक्तिसिद्धान्त सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों की रचना के साथ ही व्रज के सभी पवित्र स्थानों को खोज निकाला। वे सब मथुरा और वृन्दावन के आस-पास थे तथा उनका वर्णन वराहपुराण के 'मथुरामाहात्म्य' में किया गया है। यही सब भक्त ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने व्रजमण्डल के कृष्णलीला सम्बन्धी पवित्र स्थानों की यात्रा प्रचलित की। 84 कोस तक विस्तृत उन ग्राम, पर्वत, वन-उपवनों की यात्रा ही बनजात्रा कहलाती है।

बनवारीदास : दादूपन्थ की एक संन्यासी शाखा के प्रवर्तक। इस सम्प्रदाय का साधुवर्ग पाँच शाखाओं में विभक्त है (1) खालसा (2) नागा (3) उत्तराडी (4) विरक्त तथा (5) खाकी। इनमें से तीसरी शाखा की स्थापना पंजाब में बनवारीदास द्वारा हुई। इस वर्ग के साधु विद्याव्यसनी होते हैं जो अन्य साधुओं को पढ़ाते हैं, कुछ वैद्य होते हैं जो चिकित्सा व्यवसाय करते हैं।

बन्ध : संसार में लिप्त रहना। यह मोक्ष अथवा 'मुक्ति' की विलोम दशा है। बन्ध अज्ञान और आसक्तिमूलक होता है। जब सदसत् का विवेक हो जाता है और साधक संसार से (राग-द्वेष से) निर्लिप्त होता है तब बन्ध से छुटकारा मिल जाता है।

बन्धन : (1) संसार में आसक्ति और आवागमन का चक्र।

(2) अपराधों के लिए दण्ड का एक प्रकार, बन्धनागार अथवा कारागार। दे० 'बन्ध'।

बन्धु : (1) धर्मशास्त्र के अनुसार पितृसम्बन्ध से समस्त सगोत्रियों को बन्धु कहा जाता है। ये दायाद से भिन्न होते हैं। दोनों में अन्तर यह है कि दायाद पैतृक सम्पत्ति और पिण्डदान का अधिकारी होता है, परन्तु दायाद के रहते हुए बन्धु इसका अधिकारी नहीं होता।

(2) तीन प्रकार के बन्धु बतलाये गये हैं--- 1. आत्मबन्धु, 2. पितृबन्धु और 3. मातृबन्धु।

(3) सामान्यतः मित्र के अर्थ में भी 'बन्धु' का प्रयोग होता है।

बभ्रुवाहन : नागकन्या चित्रांगदा से उत्पन्न अर्जुन का पुत्र, जो मणिपूर का शासक था। यह अर्जुन से भी अधिक पराक्रमी था।

बरसाना : व्रज की अधिष्ठाता देवता राधा का निवासस्थान। यह मथुरा से पैंतीस मील दूर है। इसका प्राचीन नाम बृहत्सानु, ब्रह्मसानु अथवा वृषभानुपुर है। राधा श्री कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति एवं निकुञ्जेश्वरी मानी जाती हैं। इसलिए राधा किशोरी के उपासकों का यह अति प्रिय तीर्थ है। यहाँ भाद्र शुक्ल अष्टमी (राधाष्टमी) से चतुर्दशी तक बहुत सुन्दर मेला होता है। इसी प्रकार फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, नवमी एवं दशमी को होली की आकर्षक लीला होती है।

बराकुम्बा : एक ग्रामीण भूमिदेवता। पृथ्वी माता की उत्पादनशक्ति प्रति वर्ष फसलों की उपज से ह्रास को प्राप्त होती रहती है। इसे पुनः सञ्चित करने तथा पृथ्वी को उर्वरा बनाने के लिए कृषक वर्ग में अनेक प्रकार की पूजाएँ की जाती हैं। नर्मदा-ताप्‍ती की घाटी में रहनेवाली 'पावरा' नामक जाति फसल कटने के पहले 'बराकुम्बा' और 'रानी काजल' (देव-दम्पति) को अनाज समर्पित करती है। ये देवदम्पति दो समीपी वृक्षों पर वास करते हैं। विवाह के गीतों में भी इनके विवाह की गाथा होती है।

बराम : क्योंझर (उड़ीसा प्रदेश) की जुआङ्ग नामक वनवासी जाति का वनदेवता 'बराम' है। अपने इस सर्वश्रेष्ठ देवता की वे बहुत सम्मानपूर्वक पूजा करते हैं।

बरु : ऋग्वेदीय ब्राह्मणों (ऐत० ब्रा० 6.15; कौ० ब्रा० 25.8) के अनुसार बरु दशम मण्डल के 96 संख्यक सूक्त के प्रवचनकर्त्ता हैं।

बल : (1) श्री कृष्ण के बड़े भाई। दे० 'बलराम'।

(2) एक असुर का नाम, जिसका वध इन्द्र ने किया। उनका एक नाम बलाराति इसी कारण हुआ है।

बलदेव : (1) श्री कृष्ण के अग्रज, बलराम।

(2) अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में पं० बलदेव विद्याभूषण ने चैतन्य सम्प्रदाय के उपयोग के लिए वेदान्तसूत्र पर 'गोविन्दभाष्य' की रचना की। इनके दार्शनिक मत का नाम 'अचिन्त्यभेदाभेद' है। इसके अनुसार ईश्वर तथा आत्मा का सम्बन्ध अचिन्त्य है अर्थात् इसकी कल्पनी नहीं की जा सकती। यह कहना भी कठिन है कि ईश्वर और प्रकृति का भेद सत्य है अथवा असत्य।

बलराम : नारायणीयोपाख्यान में वर्णित व्यूहसिद्धान्त के अनुसार विष्णु के चार रूपों में दूसरा रूप 'संकर्षण' (प्रकृति= आदितत्त्व) है। संकर्षण बलराम का अन्य नाम है जो कृष्ण के भाई थे। संकर्षण के बाद प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध का नाम आता है जो क्रमशः मनस् एवं अहंकार के प्रतीक तथा कृष्ण के पुत्र एवं पौत्र हैं। ये सभी देवता के रूप में पूजे जाते हैं। इन सबके आधार पर चतुर्व्यूह सिद्धान्त की रचना हुई है। जगन्नाथजी की त्रिमूर्ति में कृष्ण, सुभद्रा तथा बलराम तीनों साथ विराजमान हैं। इससे भी बलराम की पूजा का प्रसार व्यापक क्षेत्र में प्रमाणित होता है।

सामान्यतया बलराम शेषनाग के अवतार माने जाते हैं और कहीं-कहीं विष्णु के अवतारों में भी इनकी गणना है।

बलरामदास : सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चालीस वर्षों में बङ्गाल में चैतन्य मतावलम्बी अनेक प्रशास्तिकाव्यलेखक हुए, जिनमें सबसे प्रसिद्ध कवि गोविन्ददास हैं। बलरामदास इनके समकालीन थे, जिन्होंने एक महत्वपूर्ण स्तुतिग्रन्थ की रचना की।

बलाका : बलाका (बगुला पक्षियों के झुण्ड) का उल्लेख तैत्ति० सं० (6.24,5 एवं वाजस० सं० 24.22,23) में अश्वमेध की बलितालिका के अन्तर्गत हुआ है।

बलात्कार : अनुचित रीति से बल का प्रयोग करके छीना-झपटी, मारपीट, अत्याचार करना। धर्मशास्त्र में यह अपराधों में गिना गया है। स्त्रीप्रसङ्ग अथवा ऋण वसूल करने का अनुचित प्रकार भी बलात्कार कहलाता है। धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों में वादों की सूची में इसकी गणना है।

बलाय : यजुर्वेद (वाजस० सं० 24.38, मैत्रा० सं० 3.14,19) के अनुसार अश्वमेध यज्ञ के बलिपशुओं की तालिका में उद्धृत एक अज्ञात पशु का नाम।

बलि : (1) उपहार या नैवेद्य की वस्तु। बलि का उल्लेख अनेकों बार ऋग्वेद (1.70,9; 5.1.10; 8.100.9 एक देवता के लिए; 7.6.5; 10. 173,6 एक राजा के लिए) तथा अन्य ग्रन्थों में हुआ है। बलि प्रदान इच्छानुसार किया जाता था। उसके ऐच्छिक स्वरूप की परिणति राजा की उत्पत्ति में हुई, जिसने नियमित रूप से बलि (उत्पादन का एक भाग) लेना प्रारम्भ किया। इसके बदले में उससे प्रजावर्ग सुरक्षा प्राप्त करता था। इसी प्रकार देवों को बलि देना स्वेच्छया होता था, जिसे वे देवताओ द्वारा किये गये महान् अनुग्रह का देय 'कर' समझते थे। यज्ञों में अनेक प्रकार की बलियों का वर्णन है।

(2) प्रसिद्ध दावनराज। यह प्रह्लाद का पौत्र और विरोचन का पुत्र था। इसने अपने गुरु शुक्राचार्य के मन्त्र और अपनी शक्ति से तीनों लोकों को जीत लिया। देवता उससे त्रस्त थे, वे भगवान् विष्णु के पास अपनी रक्षा के लिये गये। विष्णु दया करके कश्यप और अदिति से वामन रूप में उत्पन्न हुए और तपस्वी ब्राह्मण का रूप धारण कर बलि के पास गये, जो दान के लिए प्रसिद्ध था। वामन ने बलि से तीन पग भूमि माँगी। बलि ने सहर्ष दान दिया। वामन ने तुरन्त अपना विशाल त्रिविक्रम रूप धारण कर एक चरण से सम्पूर्ण पृथ्वी औऱ दूसरे से स्वर्ग नाप लिया। तीसरे चरण के लिए स्थान नहीं था अतः बलि ने अपनी पीठ नाप दी। विष्णु ने बलि को पाताल का राजा बनाकर वहाँ भेज दिया और स्वर्ग देवताओं को वापस कर दिया। इसी को बलिछलन कहते हैं। पुराणों में बड़े विस्तार से यह कथा दी हुई है। दे० 'वामन'।

बलि (बरि, बेदगु) : बलि कन्नड़ शब्द है। इसका तमिल अनुवाद 'बरि' तथा तेलुगु 'वेदगु' है। इसका अर्थ है बाहरी जाति (अपने से भिन्न सांकेतिक चिह्न धारण करने वाली।) टोने टोटके (जातीय चिह्न) में विश्वास रखने वाली एक जाति दक्षिण भारत में पायी जाती है। ये लोग एक विशेष प्रकार का सांकेतिक चिह्न धारण करते हैं। यह चिह्न, जिस पर इस वर्ग का नामकरण होता है, किसी परिचित पशु, मछली, पक्षी, पेड़, फल या फूल का होता है। जो चिह्न धारण किया जाता है उसकी पूजा भी होती है। ये लोग वे सभी कार्य करते हैं जिनसे उस चिह्न (जानवर या पेड़ या मछली) की रक्षा हो तथा उसे चोट न पहुँचे।

बलिप्रतिपद्, रथयात्राव्रत : यह व्रत कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाता है। इस दिन भगवान् विष्णु इन्द्र के लिए बलि से लक्ष्मी को हरण करके लाये थे। दीपावली की अमावस्या को उपवास रखने चाहिए। इसके अग्नि तथा ब्रह्मा देवता हैं, दोनों को रथ में रखकर पूजा करनी चाहिए। विद्वान् ब्राह्मण इस रथ को खींचकर व्रती ब्राह्मण के घर तक ले जायें, तदनन्तर सारे नगर में रथ घुमाया जाय। ब्रह्मा की मूर्ति के दक्षिण पार्श्व में सावित्री की मूर्ति रहे। विभिन्न स्थानों पर रथ रोककर आरती, दीपदान आदि किया जाय। जो इस रथयात्रा में भाग लेते हैं, जो रथ खींचते हैं जो दीप जलाते हैं, जो श्रद्धा भक्ति प्रदर्शित करते हैं, वे सब लोग परलोक में उच्च स्थान प्राप्त करते हैं।

बहुला : भाद्र कृष्ण चतुर्थी को बहुला व्रत किया जाता है। यह गौ की वात्सल्य भावना और सत्यनिष्ठा के लिए विख्यात है। इस दिन गौओं की सेवा पूजा करके व्रती को पकाये हुए जौ का सेवन करना चाहिए। इस व्रत के अनुष्ठान से सन्तति और सम्पत्ति का बाहुल्य होता है।

बहवृच : जिसमें बहुत सी ऋचाएँ हों, यह ऋग्वेद का पर्याय है।

बहुवृच उपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्।

बाघजात्रा : भील तथा राजपूतों में व्याघ्र पूर्वज से जन्म ग्रहण करने की कथा प्रचलित है। इसकी सम्बन्ध शिव तथा दुर्गा से भी है। किन्तु पूजा अधिकांश पर्वतीय भाग में होती है। व्याघ्र का त्योहार नेपाल में 'बाघजात्रा' कहलाता है, जिसमें पुजारी (भक्त) लोग व्याघ्र के रूप में नाचते हैं।

बाघदेव : बैनगङ्गा के किसानों में एक विचित्र कथा पायी जाती है। जब कोई व्यक्ति बाघ द्वारा मारा जाता है तो उसकी पूजा बाघदेव के रूप में होती है। घर के अहाते में एक झोपड़े के नीचे व्याघ्रप्रतिमा रखकर उसे पूजते हैं तथा प्रति वर्ष मृत्युदिवस मनाते समय उसकी विशेष पूजा होती है। वह पशु परिवार का सदस्य बन जाता है।

बाघभैरों : नेपाल के गोरखा लोगों के मन्दिर विभिन्न देवों के होते हैं तथा वे मिश्रित धर्म का बोध कराते हैं। इन्हीं मन्दिरों में एक मन्दिर बाघभैरों (व्याघ्र रूप में शिव) का है, जो मूल जातियों में बहुत लोकप्रिय है।

बाण : (1) महाराज हर्षवर्धन के प्रसिद्ध राजकवि। इन्होंने सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में 'चण्डीशतक' नामक काव्य लिखा, जो धार्मिक की अपेक्षा साहित्यिक अधिक है। इसमें चण्डी (दुर्गा) की स्तुति है। बाण की प्रसिद्ध साहित्यिक रचनाएँ हर्षचरित और कादम्बरी हैं जो संस्कृत गद्य का अनुपम आदर्श हैं। हर्षचरित के प्रारम्भ में बाण ने सूर्य की वन्दना की है औऱ कादम्बरी के आरम्भ में ब्रह्मा, विष्णु, शंकरात्मक, त्रिगुणस्वरूप परमात्मा की। इससे प्रकट होता है कि बाण के समय में समन्वयात्मक देवपूजा प्रचलित थी।

(2) बलि का पुत्र प्रसिद्ध दानव राजा। इसकी पुत्री ऊषा का गान्धर्वविवाह श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के साथ चित्रलेखा की सहायता से हुआ था।

बाणगङ्गा : यह तीर्थस्थान ब्रह्मसर (कुरुक्षेत्र) सरोवर से लगभग तीन मील है और एक कच्ची सड़क इसे ब्रहमसर से मिलाती है। महाभारत के युद्ध में पितामह भीष्म इस स्थान पर अर्जुन के बाणों से आहत होकर शरशय्या पर गिरे थे। उस समम उनके पानी माँगने पर उनकी इच्छा से महारथी अर्जुन ने बाण मारकर जमीन से पानी निकाला, जिसकी धारा सीधे पितामह के मुख में गिरी। यहाँ पर चारों ओर पक्के घाटों से युक्त सरोवर है तथा एक छोटा सा मन्दिर भी है।

बादरायण : उत्तर मीमांसा के प्रसिद्ध आचार्य। इनका रचा 'वेदान्तसूत्र' या 'ब्रह्मसूत्र' मीमांसा का एक वरिष्ठ ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की विशेषताओं से ज्ञात होता है कि इसकी रचना के पूर्व अनेक आचार्य इस दर्शन पर लिख चुके होंगे। सूत्रों में सात पूर्वाचार्या का वर्णन प्राप्त होता है। बादरायण चौथी या पाँचवी ई० पू० शताब्दी के पहले हुए थे। बादरायण का शाब्दिक अर्थ हैं 'बदर का वंशज'। सामविधान ब्राह्मण के अन्त में एक आचार्य का नाम 'वदर' मिलता है। ऐसा समझा जाता है कि बादरायण और व्यास अभिन्न थे।

बादामी (वातापीपुर) : पौराणिक कथानुसार प्राचीन काल में यह नगर वातापी नामक असुर के अधीन था, जो ब्राह्मणों का परम शत्रु था। अगस्त्य ने इसका वध किया था। यह महाराष्ट्र के बीजापुर जिले में है। इसके पूर्वोंत्तर एक दुर्ग है, उसमें बायीं ओर हनुमानजी का मन्दिर, ऊपर जाने पर शिवमन्दिर, उससे आगे दो तीन और मंदिर मिलते हैं। दक्षिण की पहाड़ी पर पश्चिम ओर चार गुहामन्दिर हैं। तीन गुहाएँ स्मार्त धर्म की और एक जैन धर्म की है। पहली गुहा में 18 भुजा वाली शिवमूर्ति, गणेशमूर्ति तथा गणों की मूर्तियाँ हैं। आगे विष्णु, लक्ष्मी तथा शिवपार्वती की मूर्तियाँ हैं। पिछली दीवार में महिषासुरमर्दिनी, गणेश तथा स्कन्द की मूर्तियाँ हैं। दूसरी गुहा में वामन, वराह, गरुड़ारूढ़ नारायण, शेषशायी नारायण की मूर्तियाँ तथा कुछ अन्य मूर्तियाँ हैं। तीसरी गुहा में अर्द्धनारीश्वर शिव, पार्वती, नृसिंह, नारायण, वराह आदि की मूर्तियाँ हैं। जैन गुहा में जैन तीर्थङ्करों की मूर्तियाँ हैं।

बाध : तर्क शास्त्र में वर्णित पाँच प्रकार हेत्वाभासों में से एक। साध्याभाववान् पक्ष वाला हेतु बाध या बाधित कहलाता है। जैसे 'अग्नि (पक्ष) शीतल है (साध्य)', इस वाक्य में अग्नि का शीतल होना वाधित या असंभव है।

बाध्व : ऐतरेय आरण्यक (3.2,3) में उद्धृत एक आचार्य। शाङ्खायन आरण्यक (8.3) में इसका उच्चारण 'वात्स्य' है।

बानी : सन्तों के रचे हुए पद्यात्मक उपदेश। रैदास, मलूकदास आदि अनेक सन्तों की बानियाँ प्रसिद्ध हैं। सोलहवीं शताब्दी में महात्मा दादू ने अपनी शिक्षाएँ पद्य की भाषा में लिखीं जिन्हें 'बानी' कहते हैं। यह कृति 37 अध्यायों में विभाजित हैं, जिसमें 5000 पद्यों का संकलन है, जो प्रमुख धार्मिक प्रश्नों का उत्तर देते हैं। स्तुतियाँ भी इसमें सम्मिलित हैं। लालदास तथा रामसनेही सम्प्रदाय के प्रवर्तक रामरचन की शिक्षाएँ भी 'बानी' के रूप में संगृहीत हैं।

बाबा लाल : बड़ोदा के पास इनका एक मठ है, जिसका नाम है 'लाल बाबा का शैल'। ये निर्गुण उपासक थे। इतिहास में उल्लेख है कि संवत् 1706 वि० में बाबा लाल से दाराशिकोह की सात बार भेंट हुई और शाहजहाँ की आज्ञा से दो हिन्दू दरवारियों ने बैठकर बाबा लाल के उपदेश फारसी भाषा में लिख डाले। इनका नाम 'नादिरुन्नुकात' रखा गया।

बाबालाली पंथ : निर्गुण निराकार के उपासक कबीर साहब के मत से प्रभावित अनेकों निर्गुणवादी पन्थ चले जिनमें से बाबालाली भी एक है, जो सरहिन्द में बाबा लाल ने प्रचारित किया। दे० 'बाबा लाल'। इस पन्थ में मूर्तिपूजा वर्जित है। उपासना तथा पूजा का कार्य किसी भी जाति का पुरुष कर सकता है, गुरु की उपासना पर जोर दिया जाता है। रामनाम, सत्यनाम या शब्द का योग और जप इनके विशेष साधन हैं।

बार्हस्पत्य : (1) भौतिकवादी विचारकों की परम्परा इस देश में प्राचीन काल से ही प्रचलित है। ये लोग वेदों में विश्वास नहीं करते, इनको नास्तिक, चार्वाक, लोकायतिक तथा बार्हस्पत्य आदि नामों से पकारते हैं। बृहस्पति चार्वाकों के आचार्य माने जाते हैं इसलिए चार्वाकों की 'बार्हस्पत्य' उपाधि पड़ गयी है। दे० 'चार्वाक'।

(2) वेदाङ्ग ज्योतिष का भाष्य और टिप्पणी सहित अर्थ करनेवाले एक बार्हस्पत्य का उल्लेख प्रो० रामदास गौड़ ने 'हिन्दुत्व' ग्रन्थ में किया है। पञ्चाङ्ग की रचना विधि बार्हस्पत्य भाष्य से स्पष्ट हो जाती है।

बार्हस्पत्यतन्त्र : यह एक मिश्र तन्त्र है।

बार्हस्पत्य (नीति) शास्त्र : राजनीति की परम्परा में कथित है कि सर्वप्रथम पितामह ने एक लाख पद्यों में दण्डनीति शास्त्र की रचना की। उसका संक्षिप्त संस्करण दस हजार पद्यो में विशालाक्ष ने किया। इसका भी संक्षिप्त रूप बाहुदन्तक रचित है, जो पाँच हजार पद्यों का था। यह ग्रन्थ भीष्म पितामह के समय में बार्हस्पत्यशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध था। यह इस समय उपलब्ध नहीं है।

बाल कृष्ण : वल्लभ सम्प्रदाय के पुष्टिमार्ग में कृष्ण भगवान् की उपासना बाल भाव में की जाती है, जो 'यशोदाउत्संगलालित' अर्थात् यशोदा मैया की गोद और आँगन में दुलराये जाने वाले हैं। बाल कृष्ण की अनेकों शिशुलीलाओं को भागवतपुराण के दशम स्कन्ध में प्रस्तुत किया गया है। कृष्ण का यह रूप बहुत लोकप्रिय है।

बालकृष्ण दास : ऐतरेय, तैत्तिरीय, श्वेताश्वतर जैसी लघु उपनिषदों के शांकरभाष्य के ऊपर सरल व्याख्या के लेखक। मैत्रायणी उपनिषद् पर भी इनकी रची हुई वृत्ति है।

बालकृष्ण भट्ट : वल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख ग्रन्थकार और उपदेशक। इनका 'प्रमेयरत्नार्णव' नामक दार्शनिक ग्रन्थ बहुत मूल्यवान है।

बालकृष्ण मिश्र : मानव श्रौतसूत्र के एक भाष्यकार।

बालकृष्णानन्द : छान्दोग्य तथा केनोपनिषद् पर शङ्कराचार्य के भाष्य के ऊपर लिखी गयी अनेकों टीकाओं तथा वृत्तियों में बालकृष्णानन्द की वृत्ति भी सम्मिलित है।

बाल गोपाल : गोपाल (कृष्ण) का बालरूप। कृष्ण के प्रस्तुत रूप की उपासना में माता के वात्सल्य का एक प्रकार का दैवीकरण है। विविध प्रकार के कृष्णभक्ति सम्प्रदायों के बीच बाल गोपाल के प्रति भक्ति का उदय विशेष कर स्त्रियों में हुआ। बाल गोपाल की पूजा का मुख्यतः सारे भारत में प्रसार है। भागवत पुराण में बाल गोपाल का चरित्र विस्तार के साथ वर्णित है। सम्प्रदाय के रूप में इसका प्रचार सोलहवीं शताब्दी में वल्लभाचार्य और उनके अनुयायी शिष्यों द्वारा हुआ है। दे० 'बालकृष्ण'।

बालचरित : प्राचीन नाटककार भास ने प्रथम शती वि० पू० में 'बालचरित' नामक नाटक लिखा, जो कृष्ण के बाल जीवन का चित्रण करता है।

बालबोधिनी : यद्यपि आपदेव मीमांसक थे किन्तु उन्होंने सदानन्द कृत 'वेदान्तसार' पर बालबोधिनी नामक टीका लिखी है, जो नृसिंह सरस्वती कृत 'सुबोधिनी' और रामतीर्थ कृत 'विद्वन्मनोरञ्जिनी' की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट समझी जाती है। इस कृति से उनका अद्वैतवादी होना सिद्ध होता है। पूर्वमीमांसा के प्रौढ़ विद्वान् होते हुए भी उनका अन्तरंग भाव अद्वैतवादी रहा है।

बालव्रत : वह स्त्री या पुरुष, जिसने पूर्व जन्म में किसी बालक की हत्या की हो अथवा समर्थ होने पर भी रक्षा न की हो, वह निःसन्तान रह जाता है। ऐसे निःसन्तति व्यक्ति को वस्त्रों सहित कूष्माण्ड, वृषोत्सर्ग तथा सुवर्ण का दान करना चाहिए। इस व्रत के अनुष्ठान से सन्तान की प्राप्ति होती है। दे० पद्मपुराण, 3.5-2.4 तथा 31--32।

बालाजी : बाल कृष्ण का लोकप्रिय नाम जिनकी पूजा धन तथा उन्नति के देवता के रूप में वैष्णवों द्वारा, विशेष कर वणिकों द्वारा की जाती है। बासिम (बरार) नामक स्थान पर इन बालाजी का एक रमणीक मन्दिर है। उत्तर तथा पश्चिमी भारत के वणिकों में इनकी पूजा अधिक प्रचलित है।

आन्ध्र प्रदेश के प्रसिद्ध देवता भगवान् वेंकटेश्वर भी बालाजी या तिरुपति बालाजी कहे जाते हैं। तिरुपति का अर्थ श्रीपति है।

अञ्जनीकुमार हनुमानजी का एक लोकप्रिय स्थानीय नाम बालाजी है, जो राजस्थान के जयपुर जिले में बाँदीकुई से दक्षिण महँदीपुर की पहाड़ी में विराजमान है। इन बालाजी का स्थान चमत्कारी सिद्ध क्षेत्र माना जाता है।

बालातन्त्र : आगमतत्त्वविलास' की तन्त्रसूची में उद्धृत एक तन्त्र ग्रन्थ।

बालेन्दुव्रत अथवा बालेन्दुद्वितीया व्रत : चैत्र शुक्ल द्वितीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसके अनुसार किसी नदी में सायंकाल स्नान करना विहित है। द्वितीया के चन्द्रमा के प्रतीक रूप एक बाल चन्द्रमा की आकृति बनाकर उसकी श्वेत पुष्पों, उत्तम नैवेद्य तथा गन्ने के रस से बने पदार्थों से पूजा की जानी चाहिए। पूजनोपरान्त व्रती स्वयं भोजन ग्रहण करे किन्तु उसे तेल में बने खाद्य पदार्थों को नहीं खाना चाहिए। एक वर्ष पर्यन्त यह व्रत चलता है। इसके आचरण से मनुष्य वरदान प्राप्त कर स्वर्ग प्राप्त कर लेता है।

बाष्कल उपनिषद् : ऋग्वेद की एक उपनिषद्। बाष्कुल श्रुति की कथा का सायणाचार्य ने भी उल्लेख किया है। संप्रति ऋग्वेद की बाष्कल शाखा का लोप हो गया है। उसी की स्मृति इस बाष्कल उपनिषद् में बनी हुई है। इसके उपाख्यान के सम्बन्ध में कहा जाता है कि इन्द्र मेष का रूप धरकर कण्व के पुत्र मेधातिथि को स्वर्ग ले गये। मेधातिथि ने मेषरूपी इन्द्र से पूछा कि तुम कौन हो? उन्होंने उत्तर दिया, 'मैं विश्वेश्वर हूँ। तुमको सत्य के समुज्ज्वल मार्ग पर ले जाने के लिए मैंने यह काम किया है, तुम कोई आशंका मत करो।' यह सुनकर मेधातिथि निश्चिन्त हो गये। विद्वानों का मत है कि बाष्कल उपनिषद् प्राचीन उपनिषदों में से है।

बाष्‍कलशाखा : वर्तमान समय में ऋग्वेद की शाकल शाखा के अन्तर्गत शैशिरीय उपशाखा भी प्रचलित है। कुछ स्थानों पर बाष्कल शाखा का भी उल्लेख मिलता है। अन्य शाखाओं से बाष्कल शाखा में इतना अन्तर और भी है कि इसके आठवें मण्डल में आठ मन्त्र अधिक हैं। अनेक लोग इन्हें 'वालखिल्य मन्त्र' कहते हैं। भागवत पुराण (12.6.59) के अनुसार बाष्कलि द्वारा वालखिल्य शाखा अन्य शाखाओं से संकलित की गयी थी।

बाहुदन्तक : नीति विषयक एक प्राचीन ग्रन्थ, जो 'विशालाक्ष (इन्द्र) नीतिशास्त्र' का संक्षिप्त रूप और पाँच हजार पद्यों का था। यह भीष्म पितामह के समय में 'बार्हस्पत्य शास्त्र' के नाम से प्रसिद्ध था। दे० 'बार्हस्पत्य'।

बाहुदन्तेय : इन्द्र का एक पर्याय।

बिठूर : कानपुर के समीप प्रायः पन्द्रह मील उत्तर गंगातट पर अवस्थित एक तीर्थ, जिसका प्राचीन नाम ब्रह्मावर्त था। बिठूर में गङ्गाजी के कई घाट हैं जिनमें मुख्य ब्रह्माघाट है। यहाँ बहुत से मन्दिर हैं, जिनमें मुख्य मन्दिर वाल्मीकेश्वर महादेव का है। यहाँ प्रति वर्ष कार्तिक की पूर्णिमा को मेला होता है। कुछ लोगों का मत है कि स्वायम्भुव मनु की यही राजधानी थी और ध्रुव का जन्म यहीं हुआ था। अंग्रेजों द्वारा निर्वासित पूना के नानाराव पेशवा यहीं तीर्थवास करते थे।

बिन्दु : (1) आद्य सृष्टि में चित् शक्ति की एक अवस्था, प्रथम नाद से बिन्दु की उत्पत्ति होती है।

(2) देहस्थित आज्ञाचक्र या भ्रृकुटी का मध्यवर्ती कल्पित स्थान। अष्टांग योग के अन्तर्गत ध्यानप्रणाली में मनोवृत्ति को यहाँ केन्द्रित किया जाता है। इस स्थान से शक्ति का उद्गम होता है।

बिलाई माता : एक ऐसी मातृदेवी की कल्पना, जो बिल्ली की तरह पहले सिकुड़ी रहकर पीछे बढ़ती जाती है। कुछ मूर्तियाँ (और शिलाखण्ड भी) आकार-प्रकार में बढ़ती रहती हैं, जैसे वह पत्थर जिसे 'बिलाई माता' कहते हैं। काशी में स्थित तिलभाण्डेश्वर (तिलभाण्ड के स्वामी) शिवमूर्ति का दिन भर में तिल के दाने बराबर बढ़ना माना जाता है।

बिल्व : लक्ष्मी और शंकर का प्रिय एक पवित्र वृक्ष। इसके नीचे पूजा-पाठ करना पुण्यदायक होता है। शिवजी की अर्चना में बिल्वपत्र (बेलपत्र) चढ़ाने का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनको यह अति प्रिय है। पूजा के उपादानों में कम से कम बिल्वपत्र तथा गङ्गाजल अवश्य होता है।

बिल्वत्रिरात्र व्रत : इस व्रत में ज्येष्ठा नक्षत्र युक्त ज्येष्ठ की पूर्णिमा को सरसों मिले हुए जल से बिल्व वृक्ष को स्नान कराना चाहिए। तदनन्तर गन्ध, अक्षत, पुष्प आदि से उसकी पूजा करनी चाहिए। एक वर्ष तक व्रती को 'एकभक्त' पद्धति से आहारादि करना चाहिए। वर्ष के अन्त में बाँस की टोकरी में रेत या जौ, चावल, तिल इत्यादि भरकर उसके ऊपर भगवती उमा तथा शंकर की प्रतिमाओं की पुष्पादि से पूजा करनी चाहिए। बिल्व वृक्ष को सम्बोधित करते हुए उन मन्त्रों का उच्चारण किया जाय जिनमें वैधव्य का अभाव, सम्पत्ति, स्वास्थ्य तथा पुत्रादि की प्राप्ति का उल्लेख हो। एक सहस्र बिल्वपत्रों से होम करने का विधान है। चाँदी का बिल्ववृक्ष बनाकर उसमें सुवर्ण के फल लगाये जायँ। उपवास रखते हुए त्रयोदशी से पूर्णिमा तक जागरण करने का विधान है। दूसरे दिन स्नान करके आचार्य का वस्त्राभूषणों से सम्मान किया जाय। 16, 8 या 4 सपत्नीक ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय। इस व्रत के आचरण से उमा, लक्ष्मी, शची, सावित्री तथा सीता ने क्रमशः शिव, कृष्ण, इन्द्र, ब्रह्मा तथा राम को प्राप्त किया था।

बिल्वमङ्गल : विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के एक अनन्य भक्त संत। श्री कृष्ण एवं राधा के प्रार्थनापरक इनके संस्कृत कवितासंग्रह 'कृष्णकर्णामृत' नामक ग्रन्थ का भक्तसमाज में बड़ा सम्मान है। इन्हीं कविताओं के कारण बिल्वमङ्गल चिरस्मरणीय हो गये। कुछ जनश्रुतियाँ कालीकट तथा ट्रावनकोर के निकट स्थित पद्मनाभ मन्दिर से इनका संबन्ध स्थापित करती हैं। सम्भवतः इनकी जीवनकाल पन्द्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है।

बिल्वलक्ष व्रत : यह व्रत श्रावण, वैशाख, माघ अथवा कार्तिक में प्रारम्भ किया जाता है। प्रति दिन तीन सहस्र बिल्व की पत्तियाँ एक लाख पूरी होने तक शिवजी पर चढ़ायी जायँ। (स्त्री द्वारा स्वयं काती हुई बत्तियाँ जो घृत या तिल के तेल में डुबायी गयी हों, किसी ताम्र पात्र में रखकर शिवजी के मन्दिर में अथवा गङ्गातट पर अथवा गोशाला में प्रज्वलित की जानी चाहिए। एक लाख अथवा एक करोड़ बत्तियाँ बनायी जायँ। ये समस्त बत्तियाँ यदि सम्भव हो तो एक ही दिन में प्रज्वलित की जा सकती हैं। किसी पूर्णिमा को इसका उद्यापन करना चाहिए।) दे० वर्षकृत्यदीपिका, 398-403।

बिल्वशाखापूजा : यह व्रत आश्विन शुक्ल सप्तमी को किया जाता है।

बिहारिणीदास : निम्बार्क सम्प्रदायान्तर्गत संगीताचार्य हरिदास स्वामीजी के अनुगत एवं रसिकभक्त संत। ये वृन्दावन की लता-कुञ्जों में बाँकेविहारीजी की व्रजलीला का चिन्तन किया करते थे। संगीत की मधुर पदावलियों के साथ भगवान् की उपासना करना इनकी विशेषता थी। इनकी रचनात्मक वाणी मुद्रित हो गयी है। सत्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध इनका स्थितिकाल है। संप्रति इनका उपासनास्थल यमुनाकल की एकान्त शान्त निकुंजों में 'टटियास्थान' कहलाता है।

बिहारीलाल (चौबे) : व्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि और उच्च कोटि के काव्यकलाकार। इनका स्थितिकाल सत्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। ये कृष्ण के भक्त थे और इनकी श्रृंगार रस की रचना 'बिहारी सतसई' हिन्दी साहित्य में अपने अर्थगौरव के लिए अति प्रसिद्ध है। 'सतसई' के कई भाष्यकारों ने सम्पूर्ण रचना का आध्यात्मिक अर्थ भी किया है।

बीज : जगत् का कारण, सूक्ष्मतम मूल तत्त्व। नाद, बिन्दु तथा बीज सृष्टि के आदि कारण हैं। इन्हीं के द्वारा सारी अभिव्यक्तियाँ होती हैं। साधना के क्षेत्र में बीज, किसी देवता के मन्त्र के सारभूत केन्द्रीय अक्षर को कहते हैं। प्रायः आगमप्रोक्त मन्त्रों का प्रथम अक्षर 'बीजाक्षर' कहलाता है।

बीजक : महात्मा कबीरदास सिद्ध कोटि के संत कवि थे। वे जनता को जो उपदेश देते थे वे सादी लोकभाषा में गेय पद या भजन के रूप में होते थे, ताल-स्वरों पर उनके विचार कविता के रूप में निकलते थे। उनमें ऊँचे कवित्व या साहित्यकला का अभाव है पर भाव गहरे और रहस्यपूर्ण हैं। उनके सारभूत दार्शनिक विचार ऐसे ही भजनों में प्रकट हुए हैं। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, एतदर्थ इन रचनाओं को उनके एक शिष्य ने 1627 वि० में 'बीजक' नामक संग्रह के अन्तर्गत संकलित किया। यह उनकी छोटी रचनाओं का उपदेशात्मक ग्रन्थ है।

बीरनाथ : शिला या प्रस्तर देवताओं के प्रतीक हैं या उनकी सूक्ष्म शक्ति से व्याप्त रहते हैं; इस विश्वास के कारण अनेक प्रकारों से पाषाणखण्डों की पूजा देश भर में प्रचलित रही है। कई स्थानों में ऐसे शिलास्तम्भ लकड़ी के खम्भों के रूप में बदले दिखाई देते हैं, जो लगातार तेल व घृत के प्रदान से काले पड़ गये हैं। इन्हीं में एक पत्थर-देव बीरनाथ हैं जिनकी पूजा कई प्रदेशों में आभीर वर्ग के लोग पशुओं की रक्षा के लिए करते हैं। वास्तव में यह किसी यक्षपूजा अथवा वीरपूजा का विकसित रूप है।

बीरभान : साध पन्थ के प्रवर्तक एक सन्त। इन्होंने सं०17--15 वि० में यह पन्थ चलाया। दिल्ली से दक्षिण और पूर्व की ओर अन्तर्वेद में साध मत के लोग पाये जाते हैं। कबीर की तरह ये दोहरों और साखियों में उपदेश देते थे। इनके बारह आदेश महत्त्व के हैं, जिनमें साधों का सदाचार प्रतिपादित होता है।

बीरसिंह : सिक्ख खालसों के दो मुख्य विभाजन सहिजधारी तथा सिंह शाखाओं में हुए हैं। ये शाखाएँ पुनः क्रमशः छः तथा तीन उपशाखाओं में विभक्त हुई हैं। सिंह शाखा की एक उपशाखा 'निर्मल' (संन्यासियों की शाखा) के प्रवर्तक बीरसिंह थे, जिन्होंने इसकी स्थापना 1747 वि० में की थी।

बुध (सौमायन) : पञ्चविंश ब्राह्मण के एक सन्दर्भ में उद्धृत आचार्य, जो सोम के वंशज थे। पौराणिक परम्परा के अनुसार बुध भी सोम (चन्द्र) के पुत्र थे। इनका विवाह मनु की पुत्री इला से हुआ। इन दोनों के पुत्र पुरूरवा हुए जिनसे ऐल (चन्द्र) वंश चला।

बुधव्रत : जब बुध ग्रह विशाखा नक्षत्र पर आये, व्रती को एक सप्ताह तक 'एकभक्त' पद्धति से आहारादि करना चाहिए। बुध की प्रतिमा काँसे के पात्र में स्थापित करके श्वेत मालाओं तथा गन्ध-अक्षत आदि से उसकी पूजा करनी चाहिए। पूजनोपरान्त उसे किसी ब्राह्मण को दे देना चाहिए। इस व्रताचरण से व्रती की बुद्धि तीव्र होकर शुद्ध ज्ञान प्राप्त करती है।

बुधाष्टमी : शुक्ल पक्ष में बुधवार के दिन अष्टमी पड़ने पर यह व्रत किया जाता है। एकभक्त पद्धति से आहार करते हुए जलपूर्ण आठ कलश, जिनमें सुवर्ण पड़ा हो, क्रमशः आठ अष्टमियों को भिन्न-भिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों के साथ दान में दे देने चाहिए। वर्ष के अन्त में बुध की सुवर्णप्रतिमा दान में दी जाय। इस व्रत में प्रत्येक अष्टमी के दिन ऐल पुरूरवा तथा मिथि एवं उसकी पुत्री उर्मिला की कथाएँ सुनी जाती हैं।

बुद्ध : बौद्ध धर्म के प्रवर्तक तपस्वी महात्मा। इनका जन्म हिमालयतराई के शाक्य जनपद (लुम्बिनीवन) में 563 ई० पू० हुआ था। शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु थी। इनके पिता शुद्धोदन शाक्यों के गणमुख्य थे। इनकी माता का नाम माया देवी था। इनका जन्मनाम सिद्धार्थ था। इनका पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा बहुत उच्च कोटि की हुई। बाल्यावस्था से ही ये चिन्तनशील थे, संसार के दुःख से विकल हो उठते थे। जीवन की चार घटनाओं का इनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा।

एक बार इन्होंने किसी अत्यन्त वृद्ध व्यक्ति को देखा, जो वृद्धावस्था के कारण झुक गया था और लाठी के सहारे चल रहा था। पूछा कौन है? उत्तर मिला वृद्ध, जो सुन्दर बालक औऱ बलिष्ठ जवान था, किन्तु बुढ़ापे से क्षीण और विकृत हो गया है। इसके पश्चात् एक रुग्ण व्यक्ति मिला जो पीड़ा से कराह रहा था। पूछा कौन है? उत्तर मिला रोगी, जो कुछ ही क्षण पहले स्वस्थ और सुखी था। तदनन्तर सिद्धार्थ ने मृतक को अर्थी पर लाते हुए देखा। पूछा कौन? उत्तर मिला मृतक, जो कुछ समय पहले जीवित और विलास में मग्न था। अन्त में उन्हें एक गैरिक वस्त्र धारण किये हुए पुरुष मिला, जिसके चेहरे पर प्रसन्नता झलक रही थी और चिन्ता का सर्वथा अभाव था। पूछा कौन हैं? उत्तर मिला संन्यासी, जो संसार के सभी बन्धनों को छोड़कर परिव्राजक हो गया है। त्याग और संन्यास की भावना सिद्धार्थ के मन पर अपना प्रभाव गहराई तक डाल गयी।

शुद्धोदन ने सिद्धार्थ का विवाह रामजनपद (कोलियगण) की राजकुमारी यशोधरा के साथ कर दिया। उनको पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, उसका नाम राहुल रखकर उन्होंने कहा 'जीवनश्रृंखला की एक कड़ी आज और गढ़ी गयी।'

एक दिन रात को माया और राहुल को सोते छोड़कर सिद्धार्थ कपिलवस्तु से बाहर निकल गये। इस घटना को 'महाभिनिष्क्रमण' कहते हैं। ज्ञान और शान्ति की खोज में सिद्धार्थ बहुत से विद्वानों और पण्डितों से मिले किन्तु उनको सन्तोष नहीं हुआ। आश्रमों, तपोवनों में घूमते हुए वे गया के पास उरुबेल नामक वन में जाकर घोर तपस्या करने लगे और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि या तो ज्ञान प्राप्त करूँगा, नहीं तो शरीर का त्याग कर दूँगा। छः वर्ष की कठिन तपस्या के पश्चात उन्हें अनुभव हुआ कि शरीर को कष्ट देने से शरीर के साथ बुद्धि भी क्षीण हो गयी और ज्ञान और दूर हट गया। अतः निश्चय किया कि मध्यम मार्ग का अनुसरण करना ही उचित है।

एक दिन बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर जब वे चिन्तन कर रहे थे, उन्हें जीवन और संसार के सम्बन्ध में सम्यक् ज्ञान प्राप्त हुआ। इस घटना को 'सम्बोधि' कहते हैं। इसी समय से सिद्धार्थ बुद्ध (जिसकी बुद्धि जागृत हो गयी हो) कहलाये। अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि मैं अपने ज्ञान को दुःखी संसार तक पहुँचा कर उसे मुक्त करूँगा। बोधगया से चलकर वे काशी के पास ऋषिपत्तन मृगदांव (सारनाथ) में पहुँचे। यहाँ पर उन्होंने पञ्चवर्गीय पूर्वशिष्यों को अपने धर्म का उपदेश प्रथम वार दिया। इस घटना को 'धर्मचक्रप्रवर्तन' कहते हैं।

बुद्ध ने अपने उपदेश में कहाँ, `दो अतियों का त्याग करना चाहिए। एक तो विलास का, जो मनुष्य को पशु बना देता है और दूसरे कायक्लेश का, जिससे बुद्धि क्षीण हो जाती है। मध्यम मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।` इसके पश्चात् उन्होंने उन चार सत्यों का उपदेश किया, जिनको `चत्वारि आर्य सत्यानि` कहते हैं। उन्होंने कहा, `दुःख प्रथम सत्य है। जन्म दुःख है। जरा दुःख है। रोग दुःख है। मृत्यु दुःख है। प्रिय का वियोग दुःख है। अप्रिय का संयोग दुःख है। आदि। समुदय दूसरा सत्य है। दुःख का कारण है तृष्णा। तृष्णा और वासना से सब दुःख उत्पन्न होते हैं। निरोध तीसरा सत्य है। समुदय अर्थात् दुःख के कारण तृष्णा का निरोध हो सकता है। जो स्थिति कारण से उत्पन्न होती है उसके कारण को हटाने से वह समाप्त हो जाती है। निरोध का ही नाम निर्वाण अर्थात् सम्पूर्ण वासना का क्षय है। निरोधगामिनी प्रतिपदा चौथा सत्य है। अर्थात् निरोध प्राप्त कराने वाला एक मार्ग है। वह है अष्टाङ्ग मार्ग अथवा मध्यमा प्रतिपदा।` महात्मा बुद्ध प्रथम धर्मप्रवर्तक थे, जिन्होंने धर्म प्रचार के लिए संघ का संघटन किया। सारनाथ में प्रथम संघ बना। बुद्ध ने आदेश दिया, `भिक्षुओ! बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय, देव, मनुष्य और सभी प्राणियों के हित के लिए उस धर्म का प्रचार करो जो आदि मङ्गल है, मध्य मङ्गल है और अन्त मङ्गल है।` अस्सी वर्ष की अवस्था तक अपने धर्म का विभिन्न प्रदेशों में प्रचार करते हुए कुशीनगर में वे दो शालवृक्षों के बीच अपनी जीवनलीला समाप्त कर निर्वाण को प्राप्त हो गये। इस घटना को `महापरिनिर्वाण` कहते हैं।

यद्यपि बुद्धदेव निरीश्वरवादी थे और वेदों के प्रामाण्य में विश्वास नहीं करते थे, पर उनके व्यक्तित्व का नैतिक प्रभाव भारतीय इतिहास पर दूरव्यापी पड़ा। जीवदया और करुणा की वे सजीव मूर्ति थे। आस्तिक परम्परावादी हिन्दुओं ने उनको विष्णु का लोकसंग्रही अवतार माना और भगवान् के रूप में उनकी पूजा की। पुराणों में जो अवतारों की सूचियाँ हैं उनमें बुद्ध भगवान् की गणना है। वर्तमान हिन्दू धर्म बुद्ध के सिद्धान्तों से प्रभावित है।

हिन्दू पुराणों में बुद्ध भगवान् की कथा अन्य प्रकार से दी हुई है। दे० 'अवतार' तथा 'बुद्धावतार'।

बुद्धजन्ममहोत्सव : वैशाख शुक्ल पक्ष में जब चन्द्र पुष्य नक्षत्र पर हो, उस समय बुद्ध की प्रतिमा शाक्य मुनि द्वारा कथित मन्त्रों का पाठ करते हुए स्थापित करनी चाहिए। लगातार तीन दिन उनकी पूजा करते हुए निर्धनों को नैवेद्यादि भेंट करना चाहिए। दे० नीलमत पुराण, पृ० 66-67, श्लोक 809--813, जहाँ बुद्ध को विष्णु का अवतार बतलाया गया है।

बुद्धद्वादशी : श्रावण शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस तिथि को भगवान् बुद्ध की प्रतिमा का गन्ध-अक्षतादि से पूजन करते हुए उनकी उपासना करनी चाहिए। महाराज शुद्धोदन ने इस व्रत को किया था, अतएव भगवान् विष्णु ने स्वयं उनके यहाँ जन्म लिया। दे० कृत्यकल्पतरु, 331--332; हेमाद्रि, 1.1037-1.38; कृत्यरत्नाकर, 247--248।

बुद्धावतार : विष्णु भगवान का नवम अवतार। इस संबन्ध में भागवत, विष्णु आदि अनेक पुराणों में वर्णन आता है। विष्णु और अग्निपुराण के अनुसार देवताओं की रक्षा के लिए भगवान् माया-मोह स्वरूपी बुद्धावतार में शुद्धोदन राजा के पुत्र हुए। उन्होंने इस रूप में आकर देवताओं को पराजित करने वाले असुरों को माया से विमोहित कर वेदमार्ग से च्युत करने का उपदेश देना आरम्भ किया। माया-मोहावतारी भगवान बुद्ध ने नर्मदा नदी के तट पर जाकर दिगम्बर, मुण्डित सिर आदि द्वारा विचित्र रूप वाले संन्यासी वेश में असुरों के समक्ष कहा : `आप लोग यह क्या कर रहे हैं? इसके करने से क्या होगा? यदि आपको मुक्ति (निर्वाण) की ही कामना है तो व्यर्थ में इतनी पशुहिंसा के यज्ञ-यागादि क्यों करते हैं? निरर्थक कर्म करने से आप कुछ भी फल प्राप्त नहीं कर सकते। यह जगत् विज्ञानमय और निराधार है। इसके मूल में ईश्वरादि कुछ नहीं है। यह केवल भ्रम मात्र है, जिससे मोहित होकर जीव संसार में भ्रमित होता रहता है।` ऐसे मोहक चारु वचनों द्वारा बुद्ध ने समस्त असुरों को पथभ्रष्ट कर दिया। इस प्रकार बुद्धावतार के प्रसंग में विष्णुपुराण ने आधिदैविक कारण प्रस्तुत किया है।

इसी प्रकार कुछ आध्यात्मिक कारण भी बुद्धावतार से सम्बन्ध रखते हैं। बुद्ध के प्राकट्य के पूर्व देश भर में हिंसा का प्राबल्य था। वैदिक यज्ञ और ईश्वर के नाम के माध्यम से नर, पशु आदि विभिन्न जीवों की बलियाँ दी जाती थीं और लोग अन्धपरम्परया इस कार्य को ईश्वर की उपासना का रूप प्रदान करने लगे थे। इस प्रकार के भयंकर समय में बुद्ध को ईश्वर और यज्ञ के नाम पर किये जाने वाले जीवहत्या रूपी दुष्कर्म के अन्त के लिए ईश्वर और वेद का खण्डन करना पड़ा।

जिस प्रकार विष का उपचार विष द्वारा ही किया जाता है, उसी प्रकार महात्मा बुद्ध ने भी हिंसा-पापरूपी विष का शमन नास्तिकतारूपी विष से किया। इस प्रयोग से तात्कालिक धर्मरक्षा हुई एवं ज्ञानमूलक बौद्धधर्मोपदेश द्वारा जीवों की हिंसा से निवृत्ति अवश्य हो गयी।

भगवान् बुद्ध के सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, जिनमें विस्तार से इनका जीवन चरित्र वर्णित है। इन ग्रन्थों का संस्कृत में निर्माण अधिकांश भारत में हुआ, किन्तु विदेशों में अनेक भाषाओं में इनकी जीवनी लिखी गयी, जैसे चीनी, तिब्बती, जापानी आदि में। इसके साथ ही भगवान् बुद्ध के अनेक जन्मों की कथा भी कल्प-कल्पान्तरों के नामपूर्वक उपलब्ध होती है। इस प्रकार अनेक कल्पों में कई योनियों में भ्रमण करने के पश्चात् भगवान् बुद्ध माया देवी के गर्भ से (वर्त्तमान गोरखपुर के पास) नेपाल की तराई के कपिलवस्तु नामक नगर में उत्पन्न हुए थे। भगवान् बुद्ध जीवन भर भ्रमण करते हुए अपने परम पावन उपदेशपीयूष द्वारा राजा से रंक तक सभी प्रकार के मनुष्यों का उपकार करते रहे। उनके उपदेश सरल और आचारपरक थे। उन्होंने संसार के सम्बन्ध में चार आर्य सत्य निर्धारित किये थे। उन्होंने बताया कि संसार में दुःख ही दुःख है। सांसारिक दुःखों के कुछ कारण भी हैं। इन कारणों को दूर किया जा सकता है। दुःख के निरोध का उपाय भी उन्होंने बताया। उनके मत में दुःख निरोध ही निर्वाण है। अतिवाद दुःख का कारण है, अतएव मध्यम मार्ग ही सेव्य है। इसके साथ ही उन्होंने अष्टांग मार्ग तथा दस शीलों का भी प्रचार किया।

महात्मा बुद्ध ने यद्यपि वर्णाश्रम धर्म की उपेक्षा कर डाली और धार्मिक जटिलता के भय से उन्होंने अधिदेव रहस्यों का निरादर किया, किन्तु उनका उपदेश उस समय के लिए जगत-हितकारी था यह यथार्थ है। इस समय भी पृथ्वी पर करोड़ों लोग इस धर्म को मानते हैं।

बुद्धि : प्रकृति के विकास का प्रथम चरण महत् तत्त्व है। इसमें बुद्धि, अहंकार और मनस् तीनों निहित हैं। महत् सार्वभैम है। इसी का मनोविकास रूप बुद्धि है। किन्तु बुद्धि आध्यात्मिक चेतना अथवा ज्ञान नहीं; चैतन्य आत्मा का गुण माना गया है। अहंकार, मन और इन्द्रियाँ बुद्धि के लिए कार्य करती हैं; बुद्धि सीधे आत्मा के लिए कार्य करती है। बुद्धि के मुख्य कार्य निश्चय और निर्धारण है। इसका उदय सत्त्व गुण की प्रधानता से होता है। इसके मौलिक गुण हैं---धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य। जब इसमें विकृति उत्पन्न होती है तो इसके गुण उलट कर अधर्म, अज्ञान, आसक्ति और दैन्य हो जाते हैं। स्मृति और संस्कार बुद्धि में स्थित होते हैं। अतः धार्मिक साधनाओं में बुद्धि की पवित्रता पर बहुत बल दिया गया है।

बुद्धिवाद : विचार की एक दार्शनिक पद्धति, जो जगत् की वास्तविकता को समझने में बुद्धि को सबसे अधिक महत्त्व देती है। यह प्रत्यक्ष को तो मानती ही है, अनुमान और उपमान का स्पष्ट विरोध नहीं करती, परन्तु शब्द और ऐतिह्य का प्रत्याख्यान करती है। साथ ही यह कोई अलौकिक अथवा पारमार्थिक सत्ता अथवा मूल्य नहीं मानती। भारत में इसके मूल प्रवर्त्तक चार्वाक, बौद्ध और जैन न्यूनाधिक मात्रा में थे। वास्तव में, भारत में वस्तु अन्वेषण की दो परम्पराएँ थीं : (1) निगम (अनुभूतिवादी) और (2) आगम (तर्क, युक्ति औऱ बुद्धिवादी)। मूलतः दोनो में समन्वय था, किन्तु मतवादियों ने एक स्वतन्त्र 'बुद्धिवाद' खड़ा कर दिया।

बुद्ध्यवाप्तिव्रत : चैत्र मास की पूर्णिमा के उपरान्त इस व्रत का आचरण किया जाना चाहिए। एक मास तक यह चलता है। इसमें नृसिंह भगवान् की पूजा की जाती है। इसमें सरसों से प्रति दिन हवन होता है। 'त्रिमधुर' युक्त खाद्य पदार्थों से ब्राह्मणभोजन कराया जाता है। वैशाखी पूर्णिमा को सुवर्ण का दान विहित है। इससे शुद्ध बुद्धि प्राप्त होती है।

बूढ़े अमरनाथ : कश्मीर के पूँछ नगर से चौदह मील दूर ऊँची पहाड़ियों से घिरा यह मन्दिर है। पूरा मन्दिर एक ही श्वेत पत्थर का बना हुआ है। जम्मू से पूँछ के लिए मोटर बसें चलती हैं। कहा जाता है कि यही प्राचीन अमरनाथ तीर्थस्थान है। पहले लोग यहीं यात्रा करने आते थे। यहीं पुलस्ता नदी है, जिसके तट पर महर्षि पुलस्त्य का आश्रम था। दूसरे अमरनाथ उस समय बरफ के कारण अगम्य थे। मार्ग का सुधार होने पर इनकी यात्रा बाद में सुलभ हुई है।

बृबु : ऋग्वेद (6.45,31-33) में बृबु का उल्लेख सहस्रदाता, उदार दाता तथा पणियों के सिरमौर के रूप में हुआ है। शाङ्कायन श्रौत सूत्र (16.11,11) के अनुसार भारद्वाज ने बृबु तक्षा तथा प्रस्तोक सारञ्जय से दान प्राप्त किया। प्रतीत होता है, यह कोई पणि था, यद्यपि ऋग्वेद में इसका वर्णन ऐसे रूप में हुआ है जिसमें पणि के सभी गुणों को त्याग दिया हो। यदि ऐसा है तो पणि का आशय सद्भावपूर्ण व्यापारी तथा बृबु एक वणिक् राजकुमार हो सकता है। वेबर के अनुसार इस नाम का सम्बन्ध बेबीलॉन से है। हो सकता है, बृबु के वंशजों ने वहाँ जाकर अपना उपनिवेश बसाया हो।

बृहज्जाबाल उपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्।

बृहद्गौतमीयतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत तन्त्रों की तालिका में बृहत् गौतमीय तन्त्र भी उल्लिखित है।

बृहती : प्रभाकर रचित कर्ममीमांसा विषयक एक ग्रन्थ, जो शबरस्वामी के भाष्य की व्याख्या है। विशेष विवरण के लिए दे० 'प्रभाकर'।

बृहत्तपोव्रत : मार्गशीर्ष मास की प्रतिपदा बृहत्तपा कहलाती है, उस दिन यह व्रत आरम्भ होता है। इसके शिव देवता हैं। यह एक वर्ष से सोलह वर्ष तक चलता है। इससे समस्त पाप, ब्राह्मणहत्या का पाप भी दूर हो जाता है।

बृहत्संहिता : महान् ज्योतिर्विद् वराहमिहिर-विरचित ज्योतिष विषय का अति प्रसिद्ध ग्रन्थ। त्रिस्कन्ध ज्योतिष के संहिता अंश में विविध सांस्कृतिक वस्तुओं का वर्णन होता है। यह उसी प्रकार का एक आकरग्रन्थ है, जिससे भारतीय धर्मविज्ञान, मूर्तिशास्त्र तथा धार्मिक स्थापत्य पर काफी प्रकाश पड़ता है। वराहमिहिर का समय सन्दर्भउल्लेखों के अनुसार 475-550 ई० है।

बृहदारण्यक : शुक्ल यजुर्वेद का आरण्यक ग्रन्थ, जो शतपथ ब्राह्मण (15.1-3) के समान है। दे० 'आरण्‍यक'।

बृहदारण्यकवार्तिकसार : आचार्य शङ्कर रचित बृहदारण्यक उपनिषद् के भाष्य पर सुरेश्वराचार्य ने वार्तिक नामक व्याख्या लिखी है। प्रस्तुत ग्रन्थ में उसका श्लोकबद्ध संक्षिप्त सार है। इसके रचयिता माधवाचार्य अथवा विद्यारण्य स्वामी हैं।

बृहदारण्यकोपनिषद् : मुख्य उपनिषदों में दसवीं उपनिषद्। बृहदारण्यक तथा छान्दोग्य प्राचीन उपनिषदों में सर्वाधिक महत्त्व की हैं, इन्हीं दोनों में मुख्य दार्शनिक विचार सर्वप्रथम स्पष्ट रूप से विकसित दृष्टिगोचर होते हैं।

बृहदुक्थ : ऋग्वेद (5.19.3) में अस्पष्ट रूप से कथिक एक पुरोहित का नाम। ऋ० के दो मन्त्रों (10.54,6; 56,7) में इन्हें ऋषि कहा गया है। ये ऐतरेय ब्रा० (8.23) में दुर्मुख पाञ्चाल के अभिषेककर्त्ता तथा शत० ब्रा० (13.2.2.14) में वामदेव के पुत्र कहे गये हैं। पञ्चविंश ब्रा० (14.9,37,38) में ये वामनेय (वामनी के वंशज) के रूप में वर्णित हैं।

बृहद्गिरि : पञ्चविंश ब्राह्मण (8.1,4) में कथित बृहद्गिरि उन तीन यतियों में एक हैं जो इन्द्र द्वारा वध के बाद भी जीवित हो गये थे। उनका एक साममन्त्र भी उसी ब्राह्मण में उद्धृत है (13.4.15-17)।

बृहद्गौरीव्रत : भाद्र कृष्ण तृतीया को चन्द्रोदय के समय यह व्रत किया जाता है और केवल महिलाओं के लिए है। दोरली नामक वृक्ष मूल समेत लाकर बालू की वेदी पर स्थापित करना चाहिए। चन्द्र उदित हुआ देखकर महिला व्रती स्नान करे। कलश में वरुण की पूजा कर भगवती गौरी की विभिन्न उपचारों से पूजा करे। गौरी के नाम से एक धागा गले में लपेट लेना चाहिए। पाँच वर्ष तक यह क्रम चलता है। काशी के आसपास यह व्रत 'कज्जलीतृतीया' के नाम से मनाया जाता है।

बृहद्देवता : ऋग्वेद से संबन्धित एक ग्रन्थ, जिसमें वैदिक आख्यान एवं माहात्म्य विस्तार से लिखे गये हैं। यह शौनकरचित बताया जाता है जो श्लोकबद्ध है। इसकी प्राचीनता सर्वमान्य है। इसका उद्देश्य यह है कि प्रत्येक ऋचा के देवता का निर्देश किया जाय, किन्तु ग्रन्थकार ने इसे स्पष्ट करते हुए देवता सम्बन्धी एक विचित्र आख्यान भी दे दिया है। विश्वास किया जाता है कि यह ग्रन्थ निरुक्त के बाद बना है। कुछ लोग कहते हैं कि यह शौनक सम्प्रदाय के किसी अन्य व्यक्ति की रचना है। इसमें भागुरि, आश्वलायन, बलभी ब्राह्मण तथा निदानसूत्र का नाम भी मिलता है। बृहद्देवता ग्रन्थ शाकल शाखा के आधार पर नहीं बना है। इसमें शाकल शाखा का नाम कई बार आया है।

बृहद्धर्म उपपुराण : यह उन्तीस उपपुराणों में एक है।

बृहद्ब्रह्मसंहिता : एक वैष्णव आगम ग्रन्थ, जो तमिल देश में रचित माना जाता है। यह भी सम्भव है कि इसकी रचना उत्तर में हुई हो तथा इसमें दाक्षिणात्यों द्वारा प्रक्षेप हुआ हो। इसमें महात्मा शठकोप तथा रामानुज स्वामी का उल्लेख ईश्वरसंहिता के सदृश है तथा द्रविड देश को वैष्णव भक्तों की भूमि कहा गया है।

बृहद्वसु : वंश ब्राह्मण में उल्लिखित एक आचार्य का नाम।

बृहद्यामल तन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत तन्त्र सूची में इसका नाम बासठवें क्रम पर आता है।

बृहन्नारदीय पुराण : उन्तीस उपपुराणों में परिगणित। सम्भवतः नारदीय महापुराण का यह परिशिष्ट है परन्तु आकार में बहुत विस्तृत है।

बृहस्पति : (1) वैदिक ग्रन्थों में उल्लिखित एक देवता। कुछ विद्वानों का विचार है कि यह नाम एक ग्रह (बृहस्पति) का बोधक है, परन्तु इसके लिए पर्याप्त प्रमाण नहीं है। पुराणों के अनुसार बृहस्पति देवताओं के गुरु और अध्यात्मविद्याविशारद ऋषि कहे जाते हैं।

(2) चार्वाक दर्शन के प्रणेता बृहस्पति का नाम भी उल्लेखनीय है। उनके मतानुसार `न स्वर्ग है न अपवर्ग; परलोक से सम्बन्ध रखनेवाला आत्मा भी नहीं है।` ये बृहस्पति लोकायत (नास्तिक) दर्शन के पूर्वाचार्य समझे जाते हैं और अवश्य ही महाभारत से पहले के हैं।

(3) बृहस्पति एक अर्थशास्त्रकार और स्मृतिकार भी हुए हैं। इनके ग्रन्थ खण्डित आकार में ग्रन्थान्तरों के उद्धरणों में ही पाये जाते हैं।

बृहस्पतिसव : एक यज्ञ का नाम। तैत्तिरीय ब्राह्मण (2.7,1,2) के अनुसार इसके अनुष्ठान द्वारा कोई भी व्यक्ति वैभवसंपन्न पद प्राप्त कर सकता था। आश्वलायन श्रौतसूत्र (9.9,5) के अनुसार पुरोहित इस यज्ञ को वाजपेय के पश्चात् करता था और राजा वाजपेय के पश्चात् राजसूय यज्ञ करता था। शतपथ ब्राह्मण (5.2,1,19) में बृस्पतिसव को वाजपेय कहा गया है, किन्तु यह एकता प्राचीन नहीं जान पड़ती।

बृहस्पतिस्मृति : धर्मशास्त्रों में बृहस्पतिस्मृति का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। याज्ञवल्क्यस्मृति (1.4-5) में स्मृतिकारों की जो सूची दी गयी है उसमें बृहस्पति की गणना है। किन्तु पूर्ण स्मृति अब कहीं उपलब्ध नहीं होती। बूलर ने अपरार्क के निबन्ध से बृहस्पति के 84 श्लोकों का संग्रह कर इसका जर्मन भाषान्तर प्रकाशित कराया था (लिपजिक, 1879)। डॉ० जाली ने कई स्रोतों से बृहस्पति के 711 श्लोकों का संकलन किया और इसका अंग्रेजी भाषान्तर 'सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट सीरीज' (सं० 33) में प्रकाशित किया था।

बृहस्पति मनुस्मृति का घनिष्ठ रूप से अनुसरण करते हैं, किन्तु कतिपय स्थानों पर मनु के विधिक नियमों की पूर्ति, विस्तार और व्याख्या भी करते हैं। निश्चित रूप से बृहस्पतिस्मृति मनु और याज्ञवल्क्य की परवर्ती है। यह या तो नारदस्मृति की समकालीन अथवा निकट परवर्ती है। इसकी दो विशेषताएँ हैं। एक तो यह कि इसमें धन और हिंसामूलक (दीवानी और फौजदारी) विवादों का स्पष्ट भेद किया गया है :

द्विपदो व्यवहारश्च धनहिंसासमुद्भवः। द्विसप्तधार्थमूलश्च हिंसामूलश्चतुर्विधः॥ (जीमूतवाहन की व्यवहारमातृका में उद्धृत)

दूसरे, बृहस्पति ने इस बात पर जोर दिया है कि बाद का निर्णय केवल शास्त्र के लिखित नियमों के आधार पर न करके युक्ति औऱ औचित्य के ऊपर करना चाहिए :

केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्तव्यो हि निर्णयः। युक्तिहीने विचारे तु धर्महानिः प्रजायते॥ चौरोऽचौरो साध्वसाधु जायते व्यवहारतः। युक्तिं विना विचारेण माण्डव्यश्चौरतां गतः॥ (याज्ञ०, 2.1 पर अपरार्क द्वारा उद्धृत)

जिन विषयों पर बृहस्पति के उद्धरण पाये जाते हैं उनकी सूची निम्नाङ्कित है :

(क) वाद (मुकदमे) के चतुष्पाद, (ख) प्रमाण (चार प्रकार के--तीन मानवीय : लिखित, भुक्ति तथा साक्षी और एक दिव्य), 1. लिखित (दस प्रकार के), 2. भुक्ति (अधिकार--भोग) 3. साक्षी (बारह प्रकार के), 4. दिव्य (नौ प्रकार का), (ग) विवादस्थान (अठारह)----

ऋणादान, निक्षेप, अस्वामिविक्रय, सम्भूय-समुत्थान्, दत्ताप्रदानिक, अभ्युपेत्याशुश्रूषा, वेतनस्य अनपार्कम, स्वामिपालविवाद, संविद्व्यक्तिक्रम, विक्रीयासम्प्रदान, सीमाविवाद, पारुष्य (दो प्रकार का), साहस (तीन प्रकार का), स्त्रीसंग्रहण, स्त्री-पुन्‍धर्म, विभाग, द्यूतसमाह्वय और प्रकीर्णक (नृपाश्रय व्यवहार)।

बेलूर : कर्नाटक प्रदेश का प्रसिद्ध तीर्थ। पुराने मैसूर राज्य में बेलूर का विशिष्ट स्थान है। चैन्नकेशव मन्दिर यहाँ का मुख्य यात्रास्थल है। राजा विष्णुवर्धन होयसल ने इसकी प्रतिष्ठा की थी। यहाँ बहुत से प्राचीन मन्दिर हैं। इसका पुराना नाम वेलापुर है।

बोधगया (बुद्धगया) : अन्तरराष्ट्रीय ख्याति का बौद्धतीर्थ। पितृतीर्थ गया से यह सात मील दूर है। यहाँ बुद्ध भगवान् का विशाल कलापूर्ण मन्दिर है। पीछे पत्थर का चबूतरा है जिसे बौद्ध सिंहासन कहते हैं। इसी स्थान पर बैठकर गौतम बुद्ध ने तपस्या की थी। यहीं बोधिवृक्ष (पीपल) के नीचे उन्हें ज्ञान (संबोधि) प्राप्त हुआ था इसलिए यह 'बोधगया' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह बौद्धों के उन चार प्रसिद्ध और पवित्र तीर्थों में है जिनका सम्बन्ध भगवान् बुद्ध के जीवन से है। बहुसंख्यक बौद्ध यात्री यहाँ आते हैं। सनातनी हिन्दू यहाँ भी अपने पितरों को, विशेष कर भगवान् बुद्ध को पिण्डदान करते हैं।

बोधायन : यजुर्वेद सम्बन्धी बौधायनश्रौतसूत्र के रचयिता सम्भवतः बोधायन थे। प्रसिद्ध वेदान्ताचार्य के रूप में भी इनकी ख्याति अधिक है। जनश्रुति है कि 'ब्रह्मसूत्र' पर बोधायन की रची एक वृत्ति थी जिसके वचनों का आचार्य रामानुज ने अपने भाष्य में उद्धरण दिया है। जर्मन पण्डित याकोबी का मत है कि बोधायन ने 'मीमांसासूत्र' पर भी वृत्ति लिखी थी। 'प्रपञ्चहृदय' नामक ग्रन्थ से भी यह बात सिद्ध होती है और प्रतीत होता है कि बोधायननिर्मित 'वेदान्तवृत्ति' का नाम 'कृतकोटि' था। कहा जाता है कि रामानुज स्वामी के समय उसकी प्रतिलिपि एक मात्र कश्मीर में उपलब्ध थी और वहाँ से आचार्य उसको कूरेश शिष्य की सहायता से कण्ठस्थ रूप ही प्राप्त कर सके थे।

बोधायनवृत्ति : दे० 'बोधायन।'

बोधार्यात्मनिर्वेद : भट्टोजि दीक्षित के समकालीन सदाशिव दीक्षित रचित एक अध्यात्मवादी ग्रन्थ।

बौद्ध दर्शन : बौद्ध दर्शन की ज्ञानमीमांसा 'आगम' अर्थात् तर्क अथवा युक्ति के आधार पर निकाले गये निष्कर्षों पर अवलम्बित है, इसमें 'निगम' का महत्त्व नहीं है। इस दर्शन का केन्द्रबिन्दु है 'प्रतीत्य समुत्पाद' (कार्यकारण सम्बन्ध) का सिद्धान्त, जिसके अनुसार कार्य-कारण-श्रृंखला से संसार के सारे दुःख उत्पन्न होते हैं और कारणों को हटा देने से कार्य अपने आप बन्द हो जाता है। इसकी तत्त्वमीमांसा के अनुसार संसार में कोई वस्तु नित्य नहीं है; सभी क्षणिक हैं। इस सिद्धान्त को क्षणिकवाद कहते हैं। कोई स्थायी सत्ता न होकर परिवर्तनसन्तान ही भ्रम से स्थायी दिखाई पड़ता है। बौद्ध अनीश्वरवाद और अनात्मवाद के सिद्धान्त इसी से उत्पन्न होते हैं। बौद्ध अनीश्वरवाद के अनुसार विश्व के मूल में ब्रह्म अथवा ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है। विश्व प्रवहमान परिवर्तन है; इसका कोई कर्ता नहीं। ब्रह्म अथवा ईश्वर की खोज करना ऐसा ही है जैसे आकाश में ऐसी सुन्दरी तक पहुँचने के लिए सीढ़ी लगाना जो वहाँ नहीं है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के भीतर आत्मा की खोज भी व्यर्थ है। मनुष्य का व्यक्तित्व पाँच 'स्कन्धों' का संघात मात्र है; उसके भीतर कोई स्थायी आत्मा नहीं है। जिस प्रकार किसी गाड़ी के कलपुर्जों को अलग-अलग कर देने के बाद उसके भीतर कोई स्थायी तत्त्व नहीं मिलता, उसी प्रकार स्कन्धों के विश्लेषण के बाद उनके भीतर कोई स्थायी तत्त्व नहीं मिलता।

अनात्मवाद का प्रतिपादन करते हुए भी बौद्ध दर्शन कर्म, पुनर्जन्म और निर्वाण मानता है। परन्तु प्रश्न यह है कि जब कोई स्थायी आत्मतत्‍त्व नहीं है तो कर्म के सिद्धान्त किसका नियन्त्रण होता है? कौन पुनर्जन्म धारण करता है? और कौन निर्वाण प्राप्त करता है? बौद्ध धर्म में इसका समाधान यह है--- "मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति के सब स्कन्ध---तथाकथित आत्मा आदि नष्ट हो जाते हैं। परन्तु उसके कर्म के कारण उन स्कन्धों के स्थान पर नये-नये स्कन्ध उत्पन्न हो जाते हैं। उनके साथ एक नया जीव (जीवात्मा नहीं) भी उत्पन्न हो जाता है। इस नये और पुराने जीव में केवल कर्मसम्बन्ध का सूत्र रहता है। कार्य-कारणश्रृङ्खला के सन्तान से दोनों जीव एक से जान पड़ते हैं।" यही जन्म-मरण अथवा जन्म-जन्मान्तर का चक्र कर्म के आधार पर चलता रहता है। तृष्णा अथवा वासना रोकने से कर्म रुक जाता है और कर्म रुक जाने से जन्म-मरण का चक्र भी बन्द हो जाता है। जब सम्पूर्ण वासना अथवा तृष्णा का पूर्णतया क्षय हो जाता है तब निर्वाण प्राप्त होता है।

बौद्धधर्म : संसार के प्रमुख धर्मों में से यह एक है। मूलतः यह जीवन का एक दृष्टिकोण अथवा दर्शन था, धर्म नहीं, क्योंकि इसमें ईश्वर और धर्मविज्ञान के लिए कोई स्थान नहीं था। परन्तु भारत ही ऐसा देश है जहाँ ईश्वर के बिना भी धर्म चल सकता है। ईश्वर के बिना भी बौद्ध धर्म 'सद्धर्म' था। इसका कारण यह है कि यह अभौतिक परमार्थ 'निर्वाण' में विश्वास करता था और इसका आधार था प्रज्ञा, शील तथा समाधि।

अपने मूल रूप में बौद्धधर्म बुद्ध के उपदेशों पर आधारित है। ये उपदेश मुख्यतः `सूत्रपिटक` में संगृहीत हैं। उनका प्रथम उपदेश (धर्मचक्र-प्रवर्तन) सारनाथ में हुआ था। इसमें मध्यम मार्ग का प्रतिपादन किया गया है। यह दो अतियों---इन्द्रियविलास और अनावश्यक शारीरिक तप के बीच चलता है। बुद्ध ने कहा है : `हे भिक्षुओं! परिव्राजक को इन दो अन्तों का सेवन नहीं करना चाहिए। वे दोनों अन्त कौन हैं? पहला तो काम या विषय में सुख के लिए अनुयोग करना। यह अन्त अत्यन्त दीन, ग्राम्य, अनार्य और अनर्थसंगत है। दूसरा है शरीर को क्लेश देकर दुःख उठाना। यह भी अनार्य और अनर्थसंगत है। हे भिक्षुओं ! तथागत (मैं) ने इन दोनों अन्तों का त्याग कर मध्यमा प्रतिपदा (मध्यम मार्ग) को जाना है।` यही चौथा आर्य सत्य था, जिसका उद्घोष बुद्ध ने धर्म की भूमिका के रूप में किया। इसके पश्चात् उन्होंने शेष आर्य सत्यों का उपदेश दिया।

चार आर्य सत्य (चत्वारि आर्यसत्यानि) हैं-- (1) दुःख (2) समुदय (3) निरोध और (4) मार्ग (निरोधगामिनी प्रतिपदा)। पहला सत्य यह है कि संसार में दुःख है। फिर इस दुःख का कारण भी है। इसका कारण है तृष्णा (वासना)। तृष्णा के उत्पन्न होने की एक प्रक्रिया है। इसके मूल में है अविद्या। अविद्या से संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नामरूप, नाम-रूप से षडायतन (इन्द्रियाँ और मन), षडायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा तृष्णा से भव, भव से जाति (जन्म), जाति से जरा, मरण, रोग आदि दुःख उत्पन्न होते हैं।

दुःख का इस प्रकार निदान हो जाने के पश्चात् उसके निरोध (निर्वाण) का मार्ग ढूँढना और उसका अनुसरण करना चाहिए। इसी मार्ग को 'निरोधगामिनी प्रतिपदा' (मध्यम) कहते हैं। यह अष्टाङ्ग भी कहलाता है। आठ अङ्ग निम्नांङ्कित हैं :

(1) सम्यक् दृष्टि (जीवन में यथार्थ दृष्टिकोण), (2) सम्यक् संकल्प (यथार्थ दृष्टिकोण से यथार्थ विचार), (3) सम्यक् वाचा (यथार्थ विचार से यथार्थ वचन), (4) सम्यक् आजीव (यथार्थ कर्म से उचित जीविका), (5) सम्यक् व्यायाम (उचित जीविका के लिए उचित प्रयत्न), (7) सम्यक् स्मृति (उचित प्रयत्न से उचित स्मृति), (8) सम्यक् समाधि (सम्यक् स्मृति से सम्यक् जीवन का संतुलन)। बुद्ध ने 'दस शीलों' का भी उपदेश दिया, जिनमें दसों तो भिक्षुओं के लिए अनिवार्य हैं और उनमें से प्रथम पाँच गृहस्थों के लिए अनिवार्य हैं। दस शीलों की गणना इस प्रकार है :

(1) जीवहिंसा का त्याग, (2) अस्तेय (अदत्त वस्तु को ग्रहण न करना), (3) ब्रह्मचर्य (मैथुनत्याग) (4) सत्य (झूठ का त्याग) (5) मादक वस्तु का त्याग, (6) असमय भोजन का त्याग, (7) अभिनय, नृत्य, गान आदि का त्याग, (8) माल्य, सुगन्ध, अङ्गराग आदि का त्याग, (9) कोमल शय्या का त्याग, (10) सुवर्ण और रजत के परिग्रह का त्याग।

बौधायन : बुध अथवा बोध के वंशज एक आचार्य, जो वेदशाखा प्रवर्तक थे। इनके द्वारा श्रौत, धर्म तथा गृह्य सूत्र रचे माने जाते हैं।

बौधायनगृह्यसूत्र : स्मार्तों के लिए यह गृह्यसूत्र महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसमें स्मार्तों के कृत्यों का इतिहास दिया गया है। इसे कभी-कभी 'स्मार्तसूत्र' भी कहते हैं। इसके परिशिष्टों में स्मार्तों के धर्म की नियमावली दी हुई है।

बौधायनधर्मसूत्र : कृष्ण यजुर्वेद के तीन धर्मसूत्र प्रसिद्ध हैं; आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी तथा बौधायन। बौधायनधर्मसूत्र का कई स्थानों से मुद्रण हुआ है। 1884 ई० में डॉ० हुल्त्श ने लिपजिग से इसका प्रकाशन कराया। इसके पश्चात् आनन्दाश्रम प्रेस, पूना से स्मृतिसंग्रह मे यह प्रकाशित हुआ। 1907 ई० में गवर्नमेण्ट ओरियण्टल सीरीज, मैसूर में गोविन्द स्वामी की टीका और भूमिका के साथ इसका प्रकाशन हुआ। परन्तु पूरे ग्रन्थ का हस्तलेख अभी तक नहीं प्राप्त हुआ है।

बौधायनशुल्वसूत्र : शुल्वसूत्र दो उपलब्ध हैं--बौधायनशुल्वसूत्र तथा आपस्तम्बशुल्वसूत्र। इन सूत्रों में पुराने समय की ज्यामिति तथा क्षेत्रमिति के सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ है।

शुल्व' एक प्रकार का सूत्र (फीता) होता था, जिससे यज्ञवेदियों के वर्ग, क्षेत्र आदि की नाप-जोख करने की विधि इस सूत्र में प्रदर्शित है।

बौधायनश्रौतसूत्र : कृष्ण यजुर्वेद का श्रौतसूत्र। बौधायनश्रौतसूत्र की पूरी प्रति मिलती नहीं है, जहाँ तक उपलब्ध है उसकी विषयसूची इस प्रकार है : पहले खण्ड में दर्शपूर्णमास, दूसरे में आधान, तीसरे में पुनराधान, चौथे में पशु, पाँचवे में चातुर्मास्य, छठे में सोमप्रवर्ग, सातवें में एकादशी, पशु, आठवें में चयन, नवें में वाजपेय, दसवें में शुल्वसूत्र, ग्यारहवें में कर्मान्त सूत्र, बारहवें में द्वैधसूत्र, तेरहवें में प्रायश्चित्तसूत्र, चौदहवें में काठकसूत्र, पन्द्रहवें में सौत्रामणि सूत्र, सोलहवें में अग्निष्टोम औऱ सत्रहवें में धर्मसूत्र हैं। कपर्दी स्वामी, केशव स्वामी, गोपाल, देव स्वामी, धूर्त स्वामी, भव स्वामी, महादेव वाजपेयी और सायण के लिखे इस सूत्र पर भाष्य हैं।

ब्रजविलास : दे० 'व्रजविलास'।

ब्रह्म : ब्रह्म की सत्ता हिन्दू धर्म, दर्शन, सामाजिक व्यवस्था, साहित्य और कला की आधारशिला है। जीवन के सभी अङ्ग प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से इससे प्रभावित एवं अनुप्राणित हैं। इस शब्द का प्रादुर्भाव वेदों से ही दृष्टिगोचर होता है। सामान्य प्रयोगों में इसका अर्थ 'प्रार्थना', 'मन्त्र', 'शब्द', 'तेज', 'शक्ति', 'धन', 'सम्पत्ति‍' आदि है। किन्तु व्युत्पत्ति और दर्शन की दृष्टि से इसका अर्थ अधिक गम्भीर, व्यापक और अतिरेकी है।

इस शब्द की व्युत्पत्ति, 'बृह्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ है प्रस्फुटित होना, प्रसरण, बढ़ना आदि। इसका सम्बन्ध बृहस्पति और वाचस्पति से भी है। वास्तव में उच्चारित शब्द की अन्तर्निहित शक्ति के विस्फोट और उपबृंहण से ही तीनों शब्दों का तादात्म्य है। इन अर्थों में 'बृहत्' होने की भावना की प्रधानता है, जिसका आशय है : 'ब्रह्म' सबसे बड़ा है, उससे बड़ा कोई नहीं। वही सर्वव्यापक, बृहत्तम अथवा महत्तम है। छान्दोग्य उपनिषद् के 'भूमा' शब्द में इसी अर्थ की अभिव्यक्ति हुई हैं, जिसका तात्पर्य सार्वभौम, सर्वव्यापक, असीम और अनन्त सत्ता है।

सर्वप्रथम अपनिषदों में ब्रह्म का विवेचन हुआ है। तैत्तिरीय उपनिषद् में एक संवाद के अन्तर्गत भृगु ने पिता वरुण से प्रश्न किया कि 'ब्रह्म' क्या है। वरुण ने उत्तर दिया---

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्‍व, तद् ब्रह्मोति।

[जिससे ये समस्त भूत (जगत् के जड़ चेतन पदार्थ) जन्म लेते हैं, उत्पन्न होकर जिसके आश्रम से जीते हैं और पुनः उसी में लौटकर पूर्णतः विलीन हो जाते हैं, उसी को सम्यक् प्रकार से जानने की इच्छा करो। वही ब्रह्म है।]

ब्रह्म का इसी प्रकार का निरूपण दूसरे शब्दों में छान्दोग्य उपनिषद् में पाया जाता है। इसमें ब्रह्म को 'तज्जलान्' (तत्+ज+ल+अन्) कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि ब्रह्म तज्ज, तल्ल और तदन् है। वह 'तज्ज' है, क्योंकि समस्त भूत उसी से उत्पन्न होते हैं; वह 'तल्ल' है, क्योंकि सभी भूतों का लय उसी में होता है और वह 'तदन्' है, क्योंकि अपनी स्थिति के समय में सभी भूत उससे अनन अथवा प्राणन करते हैं। ब्रह्म में इन तीनों का समावेश है, इसलिए ब्रह्म का निरूपणं 'तज्जलान्' सूत्र से किया जाता है।

तैत्तिरीय उपनिषद् में ब्रह्म को सच्चिदानन्द (सत्+चित्+आनन्द) माना गया है। उसी में सब पदार्थों का अस्तित्व है, समस्त चैतन्य का स्रोत भी वही है और आनन्द का उद्गम भी। ब्रह्म को 'सत्यं शिवम् आनन्दम्' भी कहा गया है।

वास्तव में 'तज्जलान्' ब्रह्म का 'तटस्थ' लक्षण है, अर्थात् यहाँ ब्रह्म का विचार बाह्य जगत् की दृष्टि से किया गया है। ब्रह्म का 'स्वरूप' लक्षण 'सच्चिदानन्द' है, जिसमें ब्रह्म का विचार उसके स्वरूप की दृष्टि से किया गया है। और भी कई दृष्टियों से ब्रह्म के ऊपर विचार हुआ है। तैत्तिरीय उपनिषद् (आनन्दवल्ली) में अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनन्द को ब्रह्म के पाँच कोष बतलाया गया है। अन्नमय कोष ब्रह्म का सबसे स्थूल (भौतिक) आवरण है। प्राणमय इससे सूक्ष्म, मनोमय प्राणमय से भी सूक्ष्म, विज्ञानमय (बौद्धिक) मनोमय से तथा आनन्दमय कोष विज्ञानमय कोष से सूक्ष्म है। परवर्ती पूर्ववर्ती से सूक्ष्म और उसका आधार है। ब्रह्म आनन्दमय से भी सूक्ष्म और सबका आधार है। कुछ विद्वान् ब्रह्म को आनन्दमय मानते हैं, परन्तु वह वास्तव में केवल आनन्दमय न होकर 'आनन्दधन' है। ब्रह्म की दो अवस्थाएँ हैं-- (1) पर ब्रह्म और (2) अपर ब्रह्म। अपने शुद्ध रूप में ब्रह्म निर्गुण और निर्विशेष है। उसका निर्वचन नहीं हो सकता। इस रूप में वह पर ब्रह्म है। परन्तु जब ब्रह्म माया में प्रतिबिम्बित होता है तब वह सगुण हो जाता है। इसमें गुण आरोपित होत हैं। यह रूप अपर ब्रह्म का है। इसी को सगुण ब्रह्म, ईश्वर, भगवान् आदि कहते हैं। शाङ्कर वेदान्त में ब्रह्म को अद्वैत ही कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि ब्रह्म को न एक कह सकते हैं और न अनेक। वह दोनों निर्वचनों से परे अर्थात् अद्वैत है। ब्रह्म का वास्तविक निरूपण निषेधात्मक है। इसीलिए उसको 'नेति-नेति' (ऐसा नहीं, ऐसा नहीं) कहते हैं।

ब्रह्मसूत्र और उसके विभिन्न भाष्यों में औपनिषदिकवचनों को ही लेकर ब्रह्म की व्याख्या की गयी है। बाँदरायण ने उपनिषद् के 'तज्जलान्' को लेकर ब्रह्म का लक्षण 'जन्माद्यस्य यतः' कहा है (ब्रह्मसूत्र, 1.1.2)। यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। इसका अर्थ है 'जिससे जन्म आदि सृष्टि की प्रक्रियाएँ होती हैं' वह ब्रह्म है। इसके अनुसार ब्रह्म से ही सृष्टि का प्रादुर्भाव होता है, इसलिए वह विश्व का मूल कारण है। ब्रह्म सृष्टि में अन्तर्व्याप्त है, इसलिए वह अन्तर्यामी है तथा सम्पूर्ण सृष्टि का नियमन करता है। अन्त में सृष्टि का विलय ब्रह्म में ही होता है, अतः वह समस्त विश्व का साध्य भी है। वही सब कुछ है, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। उपनिषदों में इसलिए कहा गया है : 'सर्व खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन; ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवों ब्रह्मैव नापरः' आदि। इसमें सन्देह नहीं कि जगत् का प्रादुर्भाव ब्रह्म से हुआ है। परन्तु ब्रह्म और जगत् में क्या सम्बन्ध है इसको लेकर भाष्यकार आचार्यों में मतभेद है। सांख्यदर्शन प्रकृतिवादी होने से प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण मानते हैं। न्याय-वैशेषिक ईश्वरवादी हैं अतः वे प्रकृति को सृष्टि का उपादान और ईश्वर को उसका निमित्त कारण मानते हैं। किन्तु वेदान्त के अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है। अतः सृष्टि का उपादान और निमित्त कारण दोनों वही है। इस मत को 'अभिन्न निमित्तोपादान कारणवाद' कहते हैं।

ब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है, इस पर वेदान्त के सभी सम्प्रदायों का प्रायः ऐकमत्य है। परन्तु ब्रह्म, जीव और जगत् का जो आपाततः भेद दिखाई प़ड़ता है। उसका क्या स्वरूप है, उस सम्बन्ध में आचार्यों में मतभेद है। भेद तीन प्रकार के होते हैं--(1) स्वगत (2) सजातीय और (3) विजातीय। यदि ब्रह्म के अतिरिक्त और कोई भिन्न सत्ता स्वीकार की जाय तो जगत् से ब्रह्म का विजातीय भेद हो जायेगा। यदि स्वयं ब्रह्म ही एक से अधिक हो तो ब्रह्म का जगत् से सजातीय भेद होगा। यदि ब्रह्म विराट पुरुष है और सम्पूर्ण विविध विश्व उसमें समाविष्ट है तो ब्रह्म का जगत् के साथ स्वगत भेद है। सभी वेदान्ती सम्प्रदाय ब्रह्म में विजातीय और सजातीय भेद का प्रत्याख्यान करते हैं। किन्तु विशिष्टाद्वैत आदि कुछ सम्प्रदाय स्वगत-भेद मानते हैं। ब्रह्म को पुरुषोत्तम मानने वाले प्रायः सभी भक्तिसम्प्रदाय स्वगत-भेद स्वीकार करते हैं। किन्तु अद्वैतवादी शाङ्कर स्वगत-भेद भी स्वीकार नहीं करते। ब्रह्म में किसी प्रकार का भेद, गुण, विकार आदि मानने को वे तैयार नहीं। इसलिए उनका ब्रह्म केवल ध्यान और अनुभव का पात्र है। धर्म या उपासना की दृष्टि से स्वगत भेदयुक्त सगुण ब्रह्म का स्वरूप ही उपयोगी है। वही ईश्वर है और भक्तों का आराध्य है। वह सर्वगुणसन्दोह और भक्तों का प्रेमपात्र है। वही संसार में अवतरित और लोक के मङ्गल में प्रवृत्त होता है। अद्वैत-वादियों के लिए माया (दृश्य प्रपञ्च) मिथ्या है, परन्तु भक्तों के लिए वह वास्तविक और भगवान् की शाक्ति (योगमाया) है।

आचार्यों ने तर्क के आधार पर भी ब्रह्मवाद का समर्थन करने का प्रयास किया है। शङ्कराचार्य ने ब्रह्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए मुख्यतः तीन प्रमाण दिये हैं :

(अ) संसार के सभी कार्यों और वस्तुओं का कोई न कोई मूल कारण होता है, जि‍ससे वे उत्पन्न होते हैं। इस मूल कारण का कोई कारण नहीं होता। वह अनादि, अज, सनातन कारण ब्रह्म है।

(आ) संसार के पदार्थों और कार्यों में एक श्रृंखला और व्यवस्था दिखाई पड़ती है। यह अचेतन प्रकृति से संभव नहीं। अतः इसका आदि कारण चेतन ब्रह्म है।

(इ) ब्रह्म के सर्वदा सर्वत्र वर्तमान (प्रत्यगात्मा) होने के कारण सभी को अनुभव होता है कि 'मैं हूँ'।

ब्रह्म और जीवात्मा के सम्बन्ध पर भी भारतीय दर्शनों में प्रचुर विचार हुआ है। इस चर्चा का आधार है उपनिषद्वाक्य 'तत्त्वमसि'। आचार्य शङ्कर आदि अद्वैतवादी इसका अर्थ करते हैं, 'तू (आत्मा) वह (ब्रह्म) है।' अतः वे ब्रह्म और जीवात्मा का अभेद मानते हैं। आचार्य रामानुज विशिष्टाद्वैतवादी होने के कारण ब्रह्म और जीव के बीच विशिष्ट अभेद (ऐक्य) मानते हैं। उनके अनुसार जीव और ब्रह्म के बीच अङ्ग और अङ्गी का सम्बन्ध है। द्वैतवादी आचार्य मध्व उपनिषद्वाक्य की व्याख्या करते हैं, 'तू (आत्मा) उसका (ब्रह्म का) हैं' और ब्रह्म और जीव के बीच सनातन भेद मानते हैं। वे ब्रह्म को जीव का स्वामी एवं आराध्य मानते हैं। निम्बार्क के अनुसार दोनों में भेदाभेद सम्बन्ध है, अर्थात् उपासना के लिए जीव और ब्रह्म में भेद है परन्तु तत्त्वतः अभेद है। वल्लभाचार्य के विशुद्धाद्वैत के अनुसार ब्रह्म और जीवात्मा में आत्यन्तिक अभेद नहीं, क्योंकि जीव अणु होने से उत्पन्न और विकृत होता है। महाप्रभु चैतन्य के अनुसार ब्रह्म और जीव के बीच अचिन्त्य भेदाभेद का सम्बन्ध है। ब्रह्म में अचिन्त्य (अनिर्वचनीय) शक्तियाँ हैं जो भेद और अभेद दोनों में साथ प्रकट होती हैं; केवल भेद अथवा अभेद मानना युक्त नहीं। भगवान् में दोनों का समाहार है। इन विचारधाराओं ने धार्मिक जीवन के विविध मार्गों को जन्म दिया है।

ब्रह्म एव इदं सर्वम् : ब्रह्म ही यह सम्पूर्ण विश्व है।' यह उपनिषदों (दे० मुण्डक उपनिषद् 2.1.11) का एक प्रमुख सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त ने अद्वैत वेदान्त की भूमिका प्रस्तुत की।

ब्रह्मकीर्तनतरङ्गिणी : सदाशिव ब्रह्मेन्द्र (भट्टोजि दीक्षित के समकालीन) रचित एक ग्रन्थ, जो अभी तक अप्रकाशित है।

ब्रह्मकूर्च व्रत : (1) कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को इसका अनुष्ठान होता है। इसमें उपवास तथा पञ्चगव्य प्राशन का विधान है। पञ्चगव्य की पाँच वस्तुएँ हैं--गोमूत्र, गोम्य, गोदधि, गोघृत और गोदुग्ध। किन्तु ये पाँचों पदार्थ विभिन्न रंगों की गौओं से लेने चाहिए। दूसरे दिन देवों तथा ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए। पूजनोपरान्त आहार करने का विधान है। इससे समस्त पापों का क्षय होता है।

(2) चतुर्दशी को उपवास रखते हुए पूर्णिमा को पञ्चगव्य प्राशन, तदनन्तर हविष्यान्न का आहार करना चाहिए। एक वर्ष तक प्रति मास इसका अनुष्ठान होता है।

(3) मास में दो बार अर्थात् अमावस्या तथा पूर्णिमा के क्रम से इसका पाक्षिक अनुष्ठान करना चाहिए।

ब्रह्मगुप्त : ब्रह्मगुप्त गणित-ज्योतिष के बहुत बड़े आचार्य हो गये हैं। प्रसिद्ध ज्योतिषी भास्कराचार्य ने इनको 'गणकचक्रचूड़ामणि' कहा है और इनके मूलांकों को अपने 'सिद्धान्तशिरोमणि' का आधार माना है। इनके ग्रन्थों में सर्व प्रसिद्ध हैं, 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' और 'खण्डखाद्यक'। खलीफाओं के राज्यकाल में इनके अनुवाद अरबी भाषा में भी कराये गये थे, जिन्हें अरब देश में 'अल सिन्द हिन्द' और 'अल् अर्कन्द' कहते थे। पहली पुस्तक 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' का अनुवाद है और दूसरी 'खण्डखाद्यक' का। ब्रह्मगुप्त का जन्म शक 518 (653 विं०) में हुआ था और इन्होंने शक 550 (685 वि०) में 'ब्राह्मस्फुटिसिद्धान्त' की रचना की। इन्होंने स्थान-स्थान पर लिखा है कि आर्यभट, श्रीषेण, विष्णुचन्द्र आदि की गणना से ग्रहों का स्पष्ट स्थान शुद्ध नहीं आता, इसलिए वे त्याज्य हैं और 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' में दुग्गणितैक्य होता है, इसलिए यही मानना चाहिए। इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्मगुप्त ने 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' की रचना ग्रहों का प्रत्यक्ष वेध करके की थी और वे इस बात की आवश्यकता समझते थे कि जब कभी गणना और वेध में अन्तर पड़ने लगे तो वेध के द्वारा गणना शुद्ध कर लेनी चाहिए। ये पहले आचार्य थे जिन्होंने गणित-ज्योतिष की रचना विशेष क्रम से की और ज्योतिष और गणित के विषयों को अलग-अलग अध्यायों में बाँटा।

ब्रह्मचर्य : मूल अर्थ है 'ब्रह्म (वेद अथवा ज्ञान) की प्राप्ति का आचरण।' इसका रूढ़ प्रयोग विद्यार्थीजीवन के अर्थ में होता है। आर्य जीवन के चार आश्रमों में प्रथम ब्रह्मचर्य है, जो विद्यार्थीजीवन की अवस्था का द्योतक है। ऋग्वेद के अन्तिम मण्डल में इसके अर्थों पर विवेचन हुआ है। निःसन्देह विद्यार्थीजीवन का अभ्यास क्रमशः विकसित होता गया एवं समय के साथ-साथ इसके आचार कड़े होते गये, किन्तु इसका विशद विवरण परवर्ती वैदिक साहित्य में ही उपलब्ध होता है। ब्रह्मचारी की प्रशंसा में कथित अथर्ववेद (11.5) के एक सूक्त में इसके सभी गुणों पर प्रकाश डाला गया है। आचार्य द्वारा कराये गये उपनयन संस्कार द्वारा बटुक का नये जीवन में प्रवेश, मृगचर्म धारण करना, केशों को बढ़ाना, समिधा संग्रह करना, भिक्षावृत्ति, अध्ययन एवं तपस्या आदि उसकी साधारण चर्या वर्णित है। ये सभी विषय परवर्ती साहित्य में भी दृष्टिगत होते हैं।

विद्यार्थी आचार्य के घर में रहता है (आचार्यकुलवासिनः, ऐ० ब्रा० 1.23,2; अन्तेवासिनः, वही 3.11,5); भिक्षा माँगता है, यज्ञाग्नि की देखरेख करता है (छा० उ० 4.10.2) तथा घर की रक्षा करता है (शत० ब्रा० 3.62.15)। उसका छात्रजीवनकाल बढ़ाया जा सकता था। साधारणतः यह काल बारह वर्षों का होता था जो कभी-कभी बत्तीस वर्ष तक हो सकता था। छात्रजीवनारम्भ के काल निश्चय में भी भिन्नता है। श्वेतकेतु 12 वर्ष की अवस्था में इसे आरम्भ कर 12 वर्ष तक अध्ययन करता रहा (छा० उ० 5.1.2)। गृह्यसूत्रों में कहा गया है कि प्रथम तीनों वर्णों को ब्रह्मचर्य आश्रम में रहना चाहिए। किन्तु इसका पालन ब्राह्मणों के द्वारा विशेष कर, क्षत्रियों द्वारा उससे कम तथा वैश्यों द्वारा सबसे कम होता था। दूसरे और तीसरे वर्ण के लोग ब्रह्मचर्य (विद्यार्थीजीवन) के एक अंश का ही पालन करते थे और सभी विद्याओं का अध्ययन न कर केवल अपने वर्ण के योग्य विद्याभ्यास करने के बाद ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर जाते थे। क्षत्रियकुमार विशेष कर युद्ध विद्या का ही अध्ययन करते थे। राजकुमार युद्धविद्या, राजनीति, धर्म तथा अन्यान्य विद्याओं में भी पाण्डित्य प्राप्त करते थे।

कभी-कभी प्रौढ़ और वृद्ध लोग भी छात्रजीवन का निर्वाह समय-समय पर करते थे, जैसा कि आरुणि (बृ० उ० 6.1.6) की कथा से ज्ञात होता है।

ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थ स्त्रीचिन्तन, दर्शन, स्पर्श आदि का सर्वथा त्याग है। इस प्रकार से ही पठन, भजन, ध्यान की ओर मनोनिवेश सफल होता है।

ब्रह्मचारी : आर्यों द्वारा पालित चार आश्रमों में से प्रथम आश्रमी, जो ब्रह्मचर्य के नियमों के साथ विद्याध्ययन में निरत रहता था। विशेष विवरण के लिए दे० 'ब्रह्मचर्य'।

ब्रह्मज्ञानी : ब्रह्म को जानने वाला। आत्मा अथवा ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान जिसने प्राप्त कर लिया है वही ब्रह्मज्ञानी है। वह सभी बन्धनों से मुक्त, मोक्ष का अधिकारी होता है।

ब्रह्मण्यतीर्थ : मध्व मतावलम्बी आचार्य व्यासराज स्वामी के गुरु। इनका काल सोलहवीं शताब्दी है।

ब्रह्मतत्‍त्वप्रकाशिका : सदाशिवेन्द्र सरस्वती के ग्रन्थों में 'ब्रह्मसूत्रवृत्ति' बहुत प्रसिद्ध है। यह ब्रह्मसूत्रों की शाङ्करभाष्यानुसारिणी वृत्ति है। इसका अध्ययन कर लेने पर शाङ्कर भाष्य समझना सरल हो जाता है। इस वृत्ति का नाम 'ब्रह्मतत्त्वप्रकाशिका' है।

ब्रह्मतत्‍त्वसमीक्षा : भामती' व्याख्याकार आचार्य वाचस्पति मिश्र (9वीं शताब्दी) द्वारा रचित ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा सुरेश्वराचार्य कृत ब्रह्मसिद्धि की टीका है।

ब्रह्मतर्कस्तव : अप्पय दीक्षित का शैवमत प्रतिपादक ग्रन्थ 'ब्रह्मतर्कस्तव' वसन्ततिलका वृत्तों में रचा गया है। इसमें भगवान् शिव की महत्ता बतलायी गयी है।

ब्रह्मदत्त चैकितानेय : चेकितान के वंशज, ब्रह्मदत्त चैकितानेय को वृहदारण्यकोपनिषद् (1.3,26) में आचार्य कहा गया है। जैमिनीयोपनिषद् (1.38,1) में उनका उल्लेख अभिप्रतारी नामक कुरु राजा द्वारा संरक्षित आचार्य के रूप में हुआ है।

ब्रह्मदत्त वेदान्ताचार्य : शङ्कराचार्य के पूर्व ब्रह्मदत्त नामक एक अतिप्रसिद्ध वेदान्ती हो गये हैं। सम्भव है वे भी वेदान्तसूत्र के भाष्यकार रहे हों। ब्रह्मदत्त के विचार से `जीव अनित्य है, एकमात्र ब्रह्म ही नित्य पदार्थ है।` इस मत को वेदान्तदेशिकाचार्य ने अपने `तत्त्वमुक्ताकलाप` की टीका सर्वार्थसिद्धि (2.16) में उद्धृत किया है। ब्रह्मदत्त कहते हैं--`जीव तथा जगत् दोनों ही ब्रह्म से उत्पन्न होकर ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं।` इनकी दृष्टि से उपनिषदों का यथार्थ तात्पर्य `तत्‍त्वमसि` इत्यादि महावाक्यों में नहीं है, किन्तु `आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः` इत्यादि नियोगवाक्यों में है। इनके मत से साधक की किसी अवस्था में कर्मों का त्याग नहीं हो सकता।

शङ्कराचार्य ने बृहदारण्यक (1.4.7) के भाष्य में ब्रह्मदत्त के मत का उल्लेख किया है। इस मत में अज्ञान की निवृत्ति भावनाजन्य ज्ञान से होती है। औपनिषद् ज्ञान मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है। ब्रह्मदत्त कहते हैं : 'यद्यपि देह के अवस्थितिकाल में देवता का साक्षात्कार हो सकता है तथापि उनके साथ मिलन तभी संभव है जब देह न रहे। प्रारब्ध कर्म उपास्य के साथ उपासक के मिलने में प्रतिबन्धक है।' ब्रह्मदत्त ध्यानयोगवादी थे, वे जीवन्मुक्ति नहीं मानते। शङ्कराचार्य के मत से मोक्ष दृष्टफल है। ब्रह्मदत्त के मत से यह अदृष्टफल है।

ब्रह्मद्वादशी : पौष शुक्ल द्वादशी को ज्येष्ठ नक्षत्र होने पर इस व्रत का आरम्भ होता है। यह तिथिव्रत है, देवता विष्णु हैं। एक वर्ष तक प्रति मास भगवान् विष्णु की पूजा तथा उस दिन उपवास रखना चाहिए। प्रति मास विभिन्न वस्तुओं, जैसे घी, चावल तथा जौ का होम होना चाहिए।

ब्रह्मनन्दी : प्राचीन काल के एक वेदान्ताचार्य। इनका मत मधुसूदन सरस्वती ने 'संक्षेपशारीरक' की टीका (3.217) में उद्धृत किया है। इससे अनुमान किया जाता है कि शायद ये भी अद्वैत वेदान्त के आचार्य रहे होंगे। प्राचीन वेदान्त साहित्य में ब्रह्मनन्दी 'छान्दोग्यवाक्यकार' अथवा केवल 'वाक्यकार' नाम से प्रसिद्ध थे।

ब्रह्मपदशक्तिवाद : स्वामी अनन्ताचार्य कृत एक ग्रन्थ। इसमें रामानुज सम्प्रदाय के सिद्धान्त का समर्थन किया गया है।

ब्रह्मपुत्रस्नान : ब्रह्मपुत्र नदी में, जिसे ऊपर की ओर लौहित्य भी कहा जाता है, चैत्र शुक्ल अष्टमी को स्नान करने से विशेष पुण्य होता है। इस स्नान से समस्त पापों का नाश हो जाता है। जैसा कि विश्वास है, उस दिन समस्त नदियों तथा समुद्र का भी जल ब्रह्मपुत्र में वर्तमान रहता है।

ब्रह्मपुराण : इस पुराण का दूसरा नाम आदि ब्राह्म है। यह वैष्णव पुराण है और इसमें विष्णु के अवतारों की प्रधानता है। इसमें पुराण का मूल रूप और प्राचीनतम सामग्री पायी जाती है। इसमें 245 अध्याय और 14000 श्लोक हैं। पुराण के पञ्चलक्षण --सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित इसमें पाये जाते हैं। इसमें प्रथम सृष्टि का वर्णन, तदनन्तर सूर्य और चन्द्रवंश का संक्षिप्त परिचय है। इसके पश्चात् पार्वती का आख्यान और मार्कण्डेय की कथा के अनन्तर कृष्णकथा (अ० 180-212) विस्तार से दी हुई है। मरणोत्तर अवस्था का वर्णन अनेक अध्यायों में पाया जाता है। सूर्यपूजा और सूर्यमहिमा का वर्णन भी हुआ है (अ० 28-33)। दर्शन शास्त्र का भी विवेचन है। सांख्यदर्शन की समीक्षा दस अध्यायों (234-244) में पायी जाती है। किन्तु इस पुराण का सांख्य सेश्वर सांख्य है और ज्ञान के साथ भक्ति का विशेष महत्त्व स्वीकार किया गया है। इसके अन्त में धर्म की महिमा निम्नांकित प्रकार से गायी गयी है :

धर्मे मतिर्भवतु वः पुरुषोत्तमानां, स ह्येक एवं परलोक गतस्य बन्धुः। अर्थाः स्त्रियश्च निपुरणैरपि सेव्यमाना, नैव प्रभावमुपयन्ति नच स्थिरत्वम्॥ (ब्रह्मपुराण, 255-35)।

ब्रह्मबन्धु : आचारहीन, निन्दनीय ब्राह्मण। इस शब्द का अयोग्य अथवा नाममात्र का पुरोहित अर्थ ऐतरेय ब्रा० (7.27) तथा छान्दोग्य उ० (6.1.1) में किया गया है। 'राजन्यबन्धु' से इसका साम्य द्रष्टव्य है। स्मृतियों में भी 'ब्रह्मबन्धु' का प्रयोग हुआ है, जहाँ इसका अर्थ है 'वह व्यक्ति जो नाम मात्र का ब्राह्मण है, जिसमें ब्राह्मण के गुण नहीं हैं और जो ब्राह्मण का केवल भाई-बन्धु है।'

ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् : योग विद्या सम्बन्धी एक उपनिषद्। इस वर्ग की सभी उपनिषदें छन्दोबद्ध हैं, जिनमें यह सबसे प्राचीन है तथा संन्यासवर्गीय मैत्रायणी की समकालीन है।

ब्रह्ममीमांसा : उपनिषदों के ब्रह्म सम्बन्धी चिन्तन का विकास वेदान्त दर्शन में हुआ है, जिसे उत्तरमीमांसा, ब्रह्म सम्बन्धी परवर्ती जिज्ञासा अथवा ब्रह्ममीमांसा भी कहते हैं।

ब्रह्मयामल तन्त्र : यामल का अर्थ जोड़ा (युग्म) है। ऐसे कुछ तन्त्रों में मूल देवता के साथ साथ उसकी शक्ति का भी निरूपण है। आठ यामल तन्त्र हैं, इनमें ब्रह्मयामल भी एक है।

ब्रह्मरम्भा : दक्षिण भारत के 'श्रीशैल' नामक पवित्र पर्वत पर यह शाक्त तीर्थ है। स्थानीय लेखों (स्थलमाहात्म्य) के आधार पर यह मल्लिकार्जुन का बनवाया हुआ बताया जाता है। चतुर्थ शताब्दी ई० पू० में चन्द्रगुप्त मौर्य की पुत्री इसके देवता के प्रति अत्यन्त भक्ति रखती थी, वह नित्य मन्दिर में मल्लिका (मल्लिकापुष्प) चढ़ाती थी। एक लेख से यह भी ज्ञात होता है कि बौद्ध विद्वान् नागार्जुन ने भिक्षुओं तथा संन्यासियों को यहाँ रहने के लिए आमंत्रित किया तथा सभी धार्मिक पुस्तकों का यहाँ संग्रह किया। बौद्धधर्म के अवसान पर यह आश्रम हिन्दू मन्दिर में परिवर्तित हुआ तथा यहाँ शिव तथा उनकी शक्ति माधवी या 'ब्रह्मरम्भा' की उपासना आरम्भ हुई। दक्षिण भारत में यह एक मात्र मन्दिर है, जहाँ सभी जातियों अथवा वर्गों के पुरुष तथा स्त्रियाँ पूजा में भाग ले सकते हैं।

ब्रह्मराक्षस : दे० 'ब्राह्म पुरुष'।

ब्रह्मर्षिदेश : ब्रह्मर्षियों के निवास का देश। इसकी परिभाषा और महिमा मनुस्मृति (2.19-20) में इस प्रकार दी हुई है :

कुरुक्षेत्रञ्च मत्स्याश्च पञ्चालाः शूरसेनकाः। एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः॥ एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥

[कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पञ्चाल, शूरसेन मिलकर ब्रह्मर्षिदेश है, जो ब्रह्मावर्त के निकट है। इस देश में उत्पन्न ब्राह्मण के पास से पृथ्वी के सभी मानव अपना-अपना चरित्र सीखते रहें।]

यहां के आचार-विचार आदर्श माने जाते थे।

ब्रह्मवादी : प्राचीन काल मे इसका अर्थ 'वेद की व्याख्या करने वाला' था। ब्राह्मण ग्रन्थों में 'ब्रह्मविद्' ब्रह्म (परम तत्त्व) को जानने वाले को कहा गया है। आगे चलकर इसका अर्थ 'ब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है ऐसा कहने वाला' हो गया।

ब्रह्मव्रत : (1) किसी भी पवित्र तथा उल्लेखनीय दिन में इस व्रत का अनुष्ठान हो सकता है। यह प्रकीर्णक व्रत है। इसमें ब्रह्माण्ड (गोल) की सुवर्ण प्रतिमा का लगातार तीन दिनों तक तिलों के साथ पूजन करना चाहिए। साथ ही अग्नि का पूजन कर प्रतिमा को तिल सहित किसी सपत्नीक गृहस्थ को दान कर देना चाहिए। इस व्रत के आचरण से व्रती ब्रह्मलोक को प्राप्त कर जीवनमुक्त हो जाता है।

(2) द्वितीया के दिन किसी वैदिक (ब्रह्मचारी को भोजनादि खिलाकर सम्मान किया जाना चाहिए। ब्रह्मा की प्रतिमा को कमलपत्र पर विराजमान करके गन्ध, अक्षत, पुष्पादि से उसका पूजन करना चाहिए। इसके बाद घी तथा समिधाओं से हवन करने का विधान है।

ब्रह्मलक्षणनिरूपण : स्वामी अनन्ताचार्य (सोलहवीं शताब्दी) द्वारा रचित एक ग्रन्थ। इसमें रामानुज सम्प्रदाय के मत का प्रतिपादन हुआ है।

ब्रह्मलोक : पुराणों में ब्रह्माण्ड को सात ऊपरी तथा सात निचले लोकों में बँटा हुआ बताया गया है। इस प्रकार कुल चौदह लोक हैं। सात ऊपरी लोकों में सत्यलोक अथवा ब्रह्मलोक सबसे ऊपर है। यहाँ के निवासियों की मृत्यु नहीं होती। यह अपने निचले तपोलोक से 1200 लाख योजन ऊँचा है।

ब्रह्मविद्या : यह छान्दोग्य उपनिषद् (7.1,2,4; 2,1;7,1) तथा बृहदार्ण्यक उपनिषद् (1.4,20 आदि) में एक प्रकार की विद्या बतायी गयी है जिसका अर्थ है 'ब्रह्म का ज्ञान'। प्रत्येक महान् धर्म के दो बड़े भाग देखे जाते हैं : पहला आन्तरिक तथा दूसरा बाह्य। पहला आत्मा है तो दूसरा शरीर। पहले भाग में चरम सत्ता (ब्रह्म) का ज्ञान तथा दूसरे में धार्मिक नियमों का पालन, क्रियाएँ तथा उत्सवादि क्रियाकलाप निहित होते हैं। धर्म के पहले भाग को हिन्दूधर्म में 'ब्रह्मविद्या' कहते हैं तथा इसके जानने वालों को 'ब्रह्मवादी' कहते हैं।

ब्रह्मविद्या उपनिषद् : योग विद्या सम्बन्धी एक उपनिषद्। यह छन्दोबद्ध है। स्पष्टतः यह परवर्ती उपनिषद् है।

ब्रह्मविद्याभरण : 15वीं शताब्दी के एक वेदान्ताचार्य अद्वैतानन्द ने शाङ्करभाष्य के आधार पर ब्रह्मविद्याभरण नामक वेदान्तवृत्ति लिखी है। इसमें ब्रह्मसूत्र के चार अध्यायों की व्याख्या है। साथ ही इसमें पाशुपत धर्म के आवश्यक नियमों का भी वर्णन हुआ है।

ब्रह्मविद्याविजय : वेदान्तशास्त्री दोद्दयाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ। दोद्दयाचार्य रामानुज स्वामी के अनुयायी तथा अप्पय दीक्षित के समकालीन थे।

ब्रह्मविद्यासमाज : ब्रह्मविद्यासमाज या 'थियोसोफिकल सोसाइटी' की स्थापक श्रीमती ब्लावात्सकी थीं। इसकी स्थापना 'आर्य समाज' के उदय साथ ही 1885 ई० के लगभग हुई मुख्य स्थान अद्यार (मद्रास) में रखा गया। 'ब्राह्मसमाज' की तरह इसमें एक मात्र ब्रह्म की उपासना आवश्यक न थी, और न जाति-पाँति या मूर्ति-पूजा का खण्डन आवश्यक था। आर्य समाज की तरह इसने हिन्दू संस्कृति और वेदों को अपना आधार नहीं बनाया और न किसी मत का खण्डन किया। इसका एक मात्र उद्देश्य विश्वबन्धुत्व और साथ ही गुप्त आत्मशक्तियों का अनुसन्धान और सर्वधर्म समन्वय है। इसके उद्देश्यों में स्पष्ट कहा गया है कि धर्म, जाति, सम्प्रदाय, वर्ण, राष्ट्र, प्रजाति वर्ग में किसी तरह का भेदभाव न रखकर विश्व में बन्धुत्व की स्थापना मुख्यतया अभीष्ट है। अतः इसमें सभी तरह के धर्म-मतों के स्त्री-पुरुष सम्मिलित हुए।

पुनर्जन्म, कर्मवाद, अवतारवाद जो हिन्दुत्व की विशेषताएँ थीं वे इसमें प्रारम्भ से ही सम्मिलित थीं। गुरु की उपासना तथा योगसाधना इसके रहस्यों में विशेष सन्निविष्ट हुई। तपस्या, जप, व्रत आदि का पालन भी इसमें आवश्यक माना गया। इस तरह इसकी आधारशिला हिन्दू संस्कृत पर प्रतिष्ठित थी। श्रीमती एनीवेसेण्ट आदि कई विदेशी सदस्य अपने को हिन्दू कहते थे, उनकी उत्तरक्रिया हिन्दूओं की तरह की जाती थी। इस सभा की शाखाएँ सारे विश्व में आज भी व्याप्त हैं। हिन्दू सदस्य इसमें सबसे अधिक हैं। पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से जिनके मन में सन्देह उत्पन्न हो गया था, परन्तु जो पुनर्जन्म, वर्णाश्रम विभाग आदि को ठीक मानते थे, और न ब्राह्मसमाजी हो सकते थे न आर्यसमाजी, ऐसे हिन्दुओं की एक भारी संख्या ने थियोसॉफिकल सोसाइटी को अपनाया और उसमें अपनी सत्ता बिन खोये सम्मिलित हो गये। भारत की अपेक्षा पाश्चात्य देशों में यह संस्था अधिक लोकप्रिय और व्यापक है।

ब्रह्मवेद : अथर्ववेद का साक्षात्कार अथर्वा नामक ऋषि ने किया, इसलिए इसका नाम अथर्ववेद हो गया। यज्ञ के ऋत्विज्ञों में से ब्रह्मा के लिए अथर्ववेद का उपयोग होता था, अतः इसको 'ब्रह्मवेद' भी कहते हैं। ग्रिफिथ ने इसके अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में ब्रह्मवेद कहलाने के तीन कारण कहे हैं। पहले का उल्लेख ऊपर हुआ है। दूसरा कारण यह है कि इस वेद में मन्त्र हैं, टोटके हैं, आशीर्वाद हैं और प्रार्थनाएँ हैं, जिनसे देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है; मनुष्य, भूत, प्रेत, पिशाच आदि आसुरी शत्रुओं को शाप दिया जा सकता और नष्ट किया जा सकता है। इन प्रार्थनात्मिका स्तुतियों को 'ब्रह्माणि' कहा जाता था। इन्हीं का ज्ञानसमुच्चय होने से इसका नाम ब्रह्मवेद पड़ा। ब्रह्मवेद कहलाने की तीसरी युक्ति यह है कि जहाँ तीनों वेद इस लोक और परलोक में सुखप्राप्ति के उपाय बतालाते हैं और धर्म पालन की शिक्षा देते हैं, वहाँ ब्रह्मवेद अपने दार्शनिक सूक्तों द्वारा ब्रह्मज्ञान सिखाता है और मोक्ष के उपाय बतलाता है। इसीलिए अथर्ववेद की अध्यात्मविद्याप्रद उपनिषदें बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं।

ब्रह्मवैवर्तपुराण : यह वैष्णव पुराण समझा जाता है। इसके आधे भाग में तीन खण्ड हैं, ब्रह्मखण्ड, प्रकृतिखण्ड और गणपतिखण्ड; और आधे से कुछ अधिक में कृष्णजन्मखण्ड का पूर्वार्ध और उत्तरार्ध है। इसकी श्लोकसंख्या 18 हजार है। स्कन्दपुराण के अनुसार यह पुराण सूर्य भगवान् की महिमा का प्रतिपादन करता है। मत्स्यपुराण इसमें ब्रह्मा की मुख्यता की ओर संकेत करता है। परन्तु स्वयं ब्रह्मवैवर्तपुराण में विष्णु की ही महत्ता प्रतिपादित मिलती है। निर्णयसिन्धु में एक 'लघु ब्रह्मावैवर्त्तपुराण' का वर्णन है, परन्तु वह सम्प्रति कहीं नहीं पाया जाता। दाक्षिणात्य और गौड़ीय दो पाठ इस पुराण के मिलते हैं। आजकल अनेक छोटे-छोटे ग्रन्थ ब्रह्मवैवर्त्तपुराण के अन्तर्गत प्रसिद्ध हैं, जैसे अलंकारदानविधि, एकादशीमाहात्म्य, कृष्णस्तोत्र, गंगास्त्रोत्र, गणेशकवच, गर्भस्तुति, परशुराम प्रति शङ्करोपदेश, बकुलारण्य तथा ब्रह्मारण्य-माहात्म्य, मुक्तिक्षेत्रमाहात्म्य, राधा-उद्भवसंवाद, श्रावणद्वादशीव्रत, श्रीगोष्ठीमाहात्म्य, स्वामिशैलमाहात्म्य, काशी-केदारमाहात्म्य आदि।

ब्रह्मसर : (समन्तपंचक तीर्थ) कुरुक्षेत्र का भारतप्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ। ब्रह्मसर का विस्तृत सरोवर (जो अब कुरुक्षेत्र सरोवर के नाम से साधारण जन में प्रसिद्ध है) 1442 गज लंबा तथा 700 गज चौड़ा है। इसके भीतर दो द्वीप हैं जिनमें प्राचीन मन्दिर तथा ऐतिहासिक स्थान है। छोटे द्वीप में गरुड़ सहित भगवान् विष्णु का मन्दिर है जो पुल द्वारा श्रवणनाथ मठ से मिला हुआ है। एक बड़ा पल बड़े द्वीप के मध्य से होकर दक्षिणी तट से उत्तरी तट को मिलाता है। इस द्वीप में आमों के बगीचे, प्राचीन मन्दिर तथा भवनों के भग्नावशेष हैं। चन्द्रकूप का अति प्राचीन स्थान है। पुराणों में वर्णन मिलता है कि महाभारत काल के पहले ब्रह्मसर नामक सरोवर महाराज कुरु ने निर्मित कराया था। (वामनपुराण, अध्याय 22, श्लोक 14)।

इस सरोवर के आस-पास कुछ आधुनिक भवनों का निर्माण हो गया है, जैसे कालीकमली वाले की धर्मशाला, श्रवणनाथ की हवेली, गौडीय मठ, कुरुक्षेत्र जीर्णोद्धार सोसाइटी (जिसे गीताभवन कहते हैं), गीतामन्दिर, गुरुद्वारा और गुरु नानक की स्मृति में और एक गुरुद्वारा बन गया है।

ब्रह्मसम्प्रदाय : माध्व सम्प्रदाय का एक नाम।

ब्रह्मसावित्रीव्रत : भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। व्रती को तीन दिन तक उपवास करना चाहिए। यदि ऐसा करने की सामर्थ्य न हो तो त्रयोदशी को अयाचित्, चतुर्दशी को नक्त पद्धति तथा पूर्णिमा को उपवास रखा जाय। सुवर्ण, रजत अथवा मृन्मयी ब्रह्मा तथा सावित्री की प्रतिमाएँ बनवाकर उनका पूजन किया जाय। पूर्णिमा की रात्रि को जागरण तथा उत्सव करना चाहिए। दूसरे दिन प्रातः सुवर्ण की दक्षिणा सहित प्रतिमाएँ दान में दे दी जायँ। दे० हेमाद्रि, 2.258-272 (भविष्योत्तर पुराण से)। यह वटसावित्रीव्रत के समान है। केवल तिथि तथा सावित्री की कथा हेमाद्रि में कुछ विस्तार से बतलायी गयी है।

ब्रह्मसिद्धि : वेदान्त का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ। शंकराचार्य के शिष्य सुरेश्वराचार्य (भूतपूर्व मण्डन मिश्र) द्वारा रचित यह ग्रन्थ अद्वैत वेदान्त मत का समर्थक है।

ब्रह्मसूत्र : वेदान्त शास्त्र अथवा उत्तर (ब्रह्म) मीमांसा का आधार ग्रन्थ। इसके रचयिता बादरायण कहे जाते हैं। इनसे पहले भी वेदान्त के आचार्य हो गये हैं, सात आचार्यों के नाम तो इस ग्रन्थ में ही प्राप्त हैं। इसका विषय है ब्रह्म का विचार। ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय का नाम 'समन्वय' है, इसमें अनेक प्रकार की परस्पर विरुद्ध श्रुतियों का समन्वय ब्रह्म में किया गया है। दूसरे अध्याय का साधारण नाम अविरोध है। इसके प्रथम पाद में स्वमतप्रतिष्ठा के लिए स्मृति-तर्कादि विरोधों का परिहार किया गया है। द्वितीय पाद में विरुद्ध मतों के प्रति दोषारोपण किया गया है। तृतीय पाद में ब्रह्म से तत्त्वों की उत्पत्ति कही गयी है और चतुर्थ पाद में भूतविषयक श्रुतियों का विरोधपरिहार किया गया है।

तृतीय अध्याय का साधारण नाम 'साधन' है। इसमें जीव और ब्रह्म के लक्षणों का निर्देश करके मुक्ति के बहिरंग और अन्तरंग साधनों का निर्देश किया गया है। चतुर्थ अध्याय का नाम 'फल' है। इसमें जीवन्मुक्ति, जीव की उत्क्रान्ति, सगुण और निर्गुण उपासना के फलतारतम्य पर विचार किया गया है। ब्रह्मसूत्र पर सभी वेदान्तीय सम्प्रदायों के आचार्यों ने भाष्य, टीका व वृत्तियाँ लिखी हैं। इनमें गम्भीरता, प्राञ्जलता, सौष्ठव और प्रसाद गुणों की अधिकता के कारण शाङ्कर भाष्य सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता है। इसका नाम 'शारीरक भाष्य' है।

ब्रह्मसूत्र का अणुभाष्य : शुद्धाद्वैतवाद के प्रतिष्ठापक वल्लभाचार्य (1479-1531 ई०) ने इसकी रचना की। ब्रह्मसूत्र (वेदान्तसूत्र) के मूल पाठ की तुलनात्मक व्याख्या पर ही वल्लभ का विशेष बल है। अतः सूत्रों का घनिष्ठ अनुसारी होने के कारण, कुछ लोगों के विचार से वल्लभ का भाष्य 'अनुभाष्य' कहलाता है। वे स्वयं कहते हैं :

सन्देहवारकं शास्त्रं बुद्धिदोषात्तदुद्भवः। विरुद्धशास्त्रसंभेदाद् अङ्गैश्चाशक्यनिश्चयैः॥ तस्मात्सूत्रानुसारेण कर्तव्यः सर्वनिर्णयः। अन्यथा भ्रश्यते स्वार्थान्मध्यमश्च तथाविधैः॥ (अणुभाष्य, चौखम्बा सं०, पृ० 20)

ब्रह्मसूत्रदीपिका : महात्मा शङ्करानन्द (विद्यारण्यस्वामी के शिक्षागुरु) ने, जो 14वीं शताब्दी में विशिष्ट अद्वैतवादी विद्वान् हो गये हैं, शाङ्कर मत को पुष्ट और प्रचारित करने के लिए ब्रह्मसूत्रदीपिका नामक ग्रन्थ की रचना की। इसमें उन्होंने बड़ी सरल भाषा में शाङ्कर मतानुसार ब्रह्मसूत्र की व्याख्या की है।

ब्रह्मसूत्रभाष्य (अनेक) : शंकराचार्य के पश्चाद्भावी सभी प्रमुख वैदिक सम्प्रदायाचार्यों ने अपने-अपने मतों के स्थापनार्थ ब्रह्मसूत्र पर भाष्यों की रचना की है। उनमें विशिष्टा द्वैतवादी आचार्य रामानुज के भाष्य को 'श्रीभाष्य' कहते हैं। आचार्य मध्व (आनन्दतीर्थ) का द्वैतवादी भाष्य है। कहा जाता है, विष्णुस्वामी ने भी एक भाष्य रचा था, अब उसके स्थान पर वल्लभाचार्य का 'अणुभाष्य' प्रचलित है। 'वेदान्तपारिजातसौरभ' नाम से द्वैताद्वैतवादी आचार्य निम्बार्क का सूक्ष्म भाष्य है। भेदाभेद मत के अनुसार भास्कराचार्य (900 ई०) ने भी ब्रह्मसूत्र पर भाष्य रचा है। बलदेव विद्याभूषण ने गौडीय (चैतन्य) सम्प्रदाय का अचिन्त्य भेदाभेदवादी भाष्य बनाया है। रामानन्दी वैष्णव सम्प्रदाय के 'आनन्दभाष्य' और 'जानकीभाष्य' भी अब प्रकाशित हो गये हैं। शैव सम्प्रदाय का अनुसारी 'श्रीकण्ठभाष्य' मध्यकाल में निर्मित हो गया था। म० म० पं० प्रमथनाथ तर्कभूषण ने कुछ समय पूर्व 'शक्तिभाष्य' की रचना की है।

ब्रह्मसूत्रभाष्यवार्तिक : आचार्य शङ्कर के शिष्य सुरेश्वराचार्य द्वारा रचित इस ग्रन्थ में केवलाद्वैतवादी शाङ्करमत का प्रतिपादन हुआ है।

ब्रह्मसूत्रभाष्योपन्यास : विशिष्टाद्वैतवादी विद्वान् दोद्दय महाचार्य द्वारा रचित ब्रह्मसूत्रभाष्योपन्यास 16वीं शताब्दी का ग्रन्थ है।

ब्रह्मसूत्रवृत्ति : सदाशिवेन्द्र स्वामी के रचे गये ग्रन्थों में ब्रह्मसूत्रवृत्ति बहुत लोकप्रिय है। इसके अध्ययन के बाद शाङ्करभाष्य को समझना सरल हो जाता है। इसका अन्य नाम 'ब्रह्मतत्त्वप्रकाशिका' है।

ब्रह्महत्या : इसका उल्लेख यजुर्वेद संहिताओं तथा ब्राह्मणों में अत्यन्त घृणित पाप के रूप में हुआ है। हत्यारे को 'ब्रह्माहा' कहा गया है। स्मृतियों में भी 'ब्रह्महत्या' महापातकों में गिनायी गयी है और इसके प्रायश्चित्त का विस्तृत विधान किया गया है।

ब्रह्मा : सर्वश्रेष्ठ पौराणिक त्रिदेवों में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की गणना होती है। इनमें ब्रह्मा का नाम पहले आता है, क्योंकि वे विश्व के आद्य सष्टा, प्रजापति, पितामह तथ हिरण्यगर्भ है। दे० प्रजापति। पुराणों में जो ब्रह्मा का रूप वर्णित मिलता है वह वैदिक प्रजापति के रूप का विकास है। प्रजापति की समस्त वैदिक गाथाएँ ब्रह्मा पर आरोपित कर ली गयी हैं। प्रजापति और उनका दुहिता की कथा पुराणों में ब्रह्मा और सरस्वती के रूप में वर्णित हुई है। पुराणों के अनुसार क्षीरसागर में शेषयायी विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा की स्वयं उत्पत्ति हुई, इसलिए ये 'स्वयंभू' कहलाते हैं। घोर तपस्या के पश्चात् इन्होंने ब्रह्माण्ड की सृष्टि की थी। वास्तव में सृष्टि ही ब्रह्मा का मुख्य कार्य है। सावित्री इनकी पत्नी, सरस्वती पुत्री और हंस वाहन है। ब्राह्म पुराणों में ब्रह्मा का स्वरूप विष्णु के सदृश ही निरूपित किया गया है। ये ज्ञानस्वरूप, परमेश्वर, अज, महान्, तथा सम्पूर्ण प्राणियों के जन्मदाता और अन्तरात्मा बतलाये गये हैं। कार्य, कारण और चल, अचल सभी इनके अन्तर्गत हैं। समस्त कला और विद्या इन्होंने ही प्रकट की हैं। ये त्रिगुणात्मिका माया से अतीत ब्रह्म हैं। ये हिरण्यगर्भ हैं औऱ सारा ब्रह्माण्ड इन्हीं से निकला है।

यद्यपि ब्राह्म पुराणों में त्रिमूर्ति के अन्तर्गत ये अग्रगण्य और प्रथम बने रहे, किन्तु धार्मिक सम्प्रदायों की दृष्टि से इनका स्थान विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य आदि से गौण हो गया, इनका कोई पृथक् सम्प्रदाय नहीं बन पाया। ब्रह्मा के मन्दिर भी थोड़े ही हैं। सबसे प्रसिद्ध ब्रह्मा का तीर्थ अजमेर के पास पुष्कर है। वृद्ध पिता की तरह देवपरिवार में इनका स्थान उपेक्षित होता गया। वैष्णव और शैव पुराणों में ब्रह्मा को गौण प्रदर्शित करने के बहुधा प्रयत्न पाये जाते हैं। विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति स्वयं विष्णु के सामने इनकी गौणता की द्योतक है। मार्कण्डेय पुराण के मधु-कैटभवध प्रसंग में विष्णु का उत्कर्ष और ब्रह्मा की विपन्नता दिखायी गयी है। ब्रह्मा की पूजामूर्ति के निर्माण का वर्णन मत्स्यपुराण (259.40-44) में पाया जाता है।

ब्रह्माणी : शक्ति की सामान्य पूजा में जगन्माताओं (विभिन्न देवों की पत्नियों) की पूजा होती है। ये माताएँ आठ हैं, जो आठ देवों से सम्बन्धित हैं। इनको 'अष्ट मातृका' भी कहते हैं। ब्रह्माणी का सम्बन्ध ब्रह्मा से है।

ब्रह्माण्ड उपपुराण : उन्तीस उपपुराणों मे से एक ब्रह्माण्ड भी है।

ब्रह्माण्डपुराण : अठारह महापुराणों में इसकी गणना है। इसकी संक्षिप्त विषयसूची नारदीय पुराण में पायी जाती है। इसमें 12000 (बारह सहस्र) के लगभग श्लोक हैं। इसके अन्तर्गत 'ललितोपाख्यान' भी माना जाता है। इसी पुराण का अंश प्रसिद्ध रामचरित्र 'अध्यात्मरामायण' कही जाती है, किन्तु मूल पुराण या उसकी सूची में इसकी चर्चा नहीं है। रामायण की कथा अन्य पुराणों में भी मिलती है, परन्तु अध्यात्मरामायण में यह कथा विस्तार और दार्शनिक दृष्टिकोण से कही गयी है। निम्नांकित अन्य छोटे-छोटे ग्रन्थ भी इसी पुराण से निकले बताये जाते हैं :

अग्नीश्वर, अञ्जनाद्रि, अनन्तशयन, अर्जुनपुर, अष्टनेत्रस्थान, आदिपुर, आनन्दनिलय, ऋषिपञ्चमी, कठोरगिरि, कालहस्ति, कामाक्षीविलास, कार्तिक, काबेरी, कुम्भकोण, गोदावरी, गोपुरी, क्षीरसागर, गोमुखी, चम्पकारण्य, ज्ञानमण्डल, तञ्जापुरी, तारकब्रह्ममन्त्र, तुङ्गभद्रा, तुलसी, दक्षिणामूर्ति, देवदारुवन, नन्दगिरि, नरसिंह, लक्ष्मीपूजा, वेङ्कटेश, शिवगङ्गा, काञ्ची, श्रीरङ्ग, के माहात्म्य तथा गणेशकवच वेङ्कटेशकवच, हनुमत्कवच आदि।

ब्रह्मानन्द : आपस्तम्बसूत्र के अनेक भाष्यकारों में से एक। माण्डूक्योपनिषद् के एक वृत्तिकार का नाम भी ब्रह्मानन्द है।

ब्रह्मानन्द सरस्वती : उच्च तार्किकतापूर्ण अद्वैतसिद्धि ग्रन्थ के टीकाकार। ये मधुसूदन सरस्वती के समकालीन थे। माध्व मतावलम्बी व्यासराज के शिष्य रामाचार्य ने मधुसूदन सरस्वती से अद्वैतसिद्धि का अध्ययन कर फिर उन्हीं के मत का खण्डन करने के लिए 'तरङ्गिणी' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इससे असन्तुष्ट होकर ब्रह्मानन्दजी ने अद्वैतसिद्धि पर 'लघुचन्द्रिका' नाम की टीका लिखकर तरङ्गिणीकार के मत का खण्डन किया। इसमें इन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। इन्होंने रामाचार्य की सभी आपत्तियों का बहुत सन्तोषजनक समाधान किया। संसार का मिथ्यात्व, एकजीववाद, निर्गुणत्व, ब्रह्मानन्द, नित्यनिरतिशय आनन्दरूपता, मुक्तिवाद---इन सभी विषयों का इन्होंने दार्शनिक समर्थन किया है। ये अद्वैतवाद के एक प्रधान आचार्य माने जाते हैं। इनका स्थितिकाल 17वीं शताब्दी है। इनके दीक्षागुरु परमानन्द सरस्वती थे और विद्यागुरु नारायणतीर्थ।

(इस टीकावली के आधार पर द्वैत-अद्वैत वादों का तार्किक शास्त्रार्थ या परस्पर खण्डन-मण्डन अब तक चला आ रहा है, जो दार्शनिक प्रतिभा का एक मनोरञ्जन ही है।)

ब्रह्मामृतवर्षिणी : महात्मा रामानन्द सरस्वती (17वीं शताब्दी) द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र की एक टीका।

ब्रह्मावर्त : (1) आधुनिक हरियाना प्रदेशस्थ प्राचीनतम पवित्र भूभाग, जिसका शाब्दिक अर्थ ब्रह्म (वेद) का आवर्त (घूमने या प्रसरण का स्थान) है। मनुस्मृति (2.17) के अनुसार कुरुक्षेत्र के आस-पास सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच का प्रदेश ब्रह्मावर्त कहलाता है। मनु (2.18) के अनुसार इस देश के आचार को ही सार्वदेशिक आचरण के लिए आदर्श माना गया है।

(2) कानपुर से उत्तर गङ्गातटवर्ती बिठूर नामक तीर्थ का समीपवर्ती क्षेत्र भी ब्रह्मावर्त कहलाता है। संभवतः यह पौराणिक तीर्थ है।

ब्रह्मावाप्तिव्रत : किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन इस व्रत का प्रारम्भ होता है। यह तिथिव्रत है। इस दिन उपवास रखते हुए दस देवों की, जिन्हें 'अङ्गिरा' कहा जाता है, एक वर्ष तक पूजा करनी चाहिए।

ब्रह्मोद्य : शतपथ आदि ब्राह्मणों में इसका अर्थ 'धार्मिक पहेली' है, जो वैदिक क्रियाओं के विभन्न आयोजनों का आवश्यक भाग होती थी। जैसे अश्वमेध अथवा दशरात्र के अवसर पर इसका आयोजन होता था। कौषीतकि ब्राह्मण (27.4) में इस शब्द का रूप 'ब्रह्मवद्य' तथा तै० सं० (2.5,8,3) में 'ब्रह्मवाद्य' है, और सम्भवतः इन तीनों का एक ही अर्थ है-- ब्रह्म संबन्धी रहस्यात्मक चर्चा।

ब्रह्मोपनिषद् : (1) 'ब्रह्म' के सम्बन्ध में एक रहस्यपूर्ण सिद्धान्त, जो छान्दोग्योपनिषद् (3.11.3) के एक संवाद का विषय है, ब्रह्मोपनिषद् कहलाता है।

(2) संन्यास मार्गी एक उपनिषद्। इसका प्रारंभिक भाग तो कम से कम उतना ही प्राचीन है जितनी मैत्रायणी किन्तु उत्तरभाग आरुणेय, जाबाल, परमहंस उपनिषदों का समसामयिक है।

ब्रह्मोपासना : (1) ब्रह्म के सम्बन्ध में विचार अथवा चिन्तन। उपनिषदों तथा परवर्ती वेदान्त ग्रन्थों में इसी उपासना पद्धति का विवेचन हुआ है।

(2) ब्रह्मसमाज के द्वितीय उत्कर्ष काल में महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने उपनिषदों की छान-बीन कर उनके कुछ अंश समाज की सेवासभाओं के लिए 1850 ई० में ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित कराये। इस ग्रन्थ का नाम 'ब्रह्मधर्म' रखा गया। इसमें ब्राह्म सिद्धान्त के बीज या चार सिद्धान्त वचनों का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। इसमें ब्रह्मोपासना, सेवा का क्रम, उपनिषदों के कुछ उद्धरण और कुछ धार्मिक ग्रन्थों के उद्धरणों के साथ अन्त में देवेन्द्रनाथ द्वारा ब्राह्म सिद्धान्त की व्याख्या की गयी है।

ब्रह्मौदन : यज्ञकर्म के अन्तर्गत वेदसंहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थों के पारायण में भाग लेनेवाले पुरोहितों के नैवेद्य के लिए उबाला हुआ चावल (ओदन) ब्रह्मौदन कहलाता था। इसके पकाने की विशेष विधि थी।

ब्राह्मण : ब्रह्म =वेद का पाठक अथवा ब्रह्म =परमात्मा का ज्ञाता। ऋग्वेद की अपेक्षा अन्य संहिताओं में यह साधारण प्रयोग का शब्द हो गया, जिसका अर्थ पुरोहित है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (10.90) में वर्णों के चार विभाजन के सन्दर्भ में इसका जाति के अर्थ में प्रयोग हुआ है। वैदिक ग्रन्थों में यह वर्ण क्षत्रियों से ऊँचा माना गया है। राजसूय यज्ञ में ब्राह्मण क्षत्रिय को कर देता था, किन्तु इससे शतपथ में वर्णित ब्राह्मण की श्रेष्ठता न्यून नहीं होता। इस बात को बार-बार कहा गया है कि क्षत्रिय तथा ब्राह्मण की एकता से ही सर्वाङ्गीण उन्नति हो सकती है। यह स्वीकार किया गया है कि कतिपय राजन्य एवं धनसम्पन्न लोग ब्राह्मण को यदि कदाचित् दबाने में समर्थ हुए हैं, तो उनका सर्वनाश भी शीघ्र ही घटित हुआ है। ब्राह्मण पृथ्वी के देवता (भूसुर) कहे गये हैं, जैसे कि स्वर्ग के देवता होते हैं।

ऐतरेय ब्राह्मण में ब्राह्मण को दान लेने वाला (आदायी) तथा सोम पीने वाला (आपायी) कहा गया है। उसके दो अन्य विरुद 'आवसायी' तथा 'यथाकामप्रयाप्य' का अर्थ अस्पष्ट हैं। पहले का अर्थ सब स्थानों में रहने वाला तथा दूसरे का आनन्द से घूमने वाला हो सकता है (ऐ० 7.29,2)। शतपथ ब्रा० में ब्राह्मण के कर्तव्यों की चर्चा करते हुए उसके अधिकार इस प्रकार कहे गये हैं : (1) अर्चा (2) दान (3) अजेयता तथा (4) अध्यता। उसके कर्तव्य हैं : (5) ब्राह्मण्य (वंश की पवित्रता) (6) प्रतिरूपचर्या (कर्तव्य पालन) तथा (7) लोकपक्ति (लोक को प्रबुद्ध करना)।

ब्राह्मण स्वयं को ही संस्कृत करके विश्राम नहीं लेता था, अपितु दूसरों को भी अपने गुणों का दान आचार्य अथवा पुरोहित के रूप में करता था। आचार्यपद से बाह्मण का अपने पुत्र को अध्ययन तथा याज्ञिक क्रियाओं में निपुण करना एक विशेष कार्य था (शत० ब्रा० 1,6,2,4)। उपनिषद् ग्रन्थों में आरुणि एवं श्वेतकेतु (बृ० उ० 6.1.1) तथा वरुण एवं भृगु का उदाहरण है (श० ब्रा० 11,6,1,1)। आचार्य के अनेकों शिष्य होते थे तथा उन्हें वह धार्मिक तथा सामाजिक प्रेरणा से पढ़ाने को बाध्य होता था। उसे प्रत्येक ज्ञान अपने छात्रों पर प्रकट करना पड़ता था। इसी कारण कभी कभी छात्र आचार्य. को अपने मे परिवर्तित कर देते थे, अर्थात् आचार्य के समान पद प्राप्त कर लेते थे। अध्यायनकाल तथा शिक्षण प्रणाली का सूत्रों में विवरण प्राप्त होता है।

पुरोहित के रूप में ब्राह्मण महायज्ञों को कराता था। साधारण गृह्ययज्ञ बिना उसकी सहायता के भी हो सकते थे, किन्तु महत्त्वपूर्ण क्रियाएँ (श्रौत) उसके बिना नहीं सम्पन्न होती थीं। क्रियाओं के विधिवत् किये जाने पर जो धार्मिक लाभ होता था उसमें दक्षिणा के अतिरिक्त पुरोहित यजमान का साझेदार होता था। पुरोहित का स्थान साधारण धार्मिक की अपेक्षा सामाजिक भी होता था। वह राजा के अन्य व्यक्तिगत कार्यों में भी उसका प्रतिनिधि होता था। राजनीति में उसका बड़ा हाथ रहने लगा था।

स्मृतिग्रन्थों में ब्राह्मणों के मुख्य छः कर्तव्य (षट्कर्म) बताये गये हैं--पठन-पाठन, यजन-याजन और दान-प्रतिग्रह। इनमें पठन, यजन और दान सामान्य तथा पाठन याजन तथा प्रतिग्रह विशेष कर्तव्य हैं।

आपद्धर्म के रूप में अन्य व्यवसाय से भी ब्राह्मण निर्वाह कर सकता था, किन्तु स्मृतियों ने बहुत से प्रतिबन्ध लगाकर लोभ और हिंसावाले कार्य उसके लिए वर्जित कर रखे हैं।

ब्राह्मणों का वर्गीकरण : इस समय देशभेद के अनुसार ब्राह्मणों के दो बड़े विभाग हैं : पञ्चगौड और पञ्चद्रविण। पश्चिम में अफगानिस्तान का गोर देश, पञ्जाब, जिसमें कुरुक्षेत्र सम्मिलित है, गोंड़ा-बस्ती जनपद, प्रयाग के दक्षिण व आसपास का प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, ये पाँचों प्रदेश किसी न किसी समय पर गौड़ कहे जाते रहे हैं। इन्हीं पाँचों प्रदेशों के नाम पर सम्भवतः सामूहिक नाम 'पञ्च गौड़' पड़ा। आदि गौड़ों का उद्गम कुरुक्षेत्र हैं। इस प्रदेश के ब्राह्मण विशेषतः गौड़ कहलाये। कश्मीर और पंजाब के ब्राह्मण सारस्वत, कन्नौज के आस-पास के ब्राह्मण कान्यकुब्ज, मिथिला के ब्राह्मण मैथिल तथा उत्कल के ब्राह्मण उत्कल कहलाये।

नर्मदा के दक्षिणस्थ आन्ध्र, द्रविड़, कर्नाटक, महाराष्ट्र, और गुर्जर, इन्हें 'पञ्च द्रविड़' कहा गया है। वहाँ के ब्राह्मण इन्हीं पाँच नामों से प्रसिद्ध हैं। उपर्युक्त दसों के अनेक अन्तर्विभाग हैं। ये सभी या तो स्थानों के नाम से प्रसिद्ध हुए, या वंश के किसी पूर्वपुरुष के नाम से प्रख्यात; अथवा किसी विशेष पदवी, विद्या या गुण के कारण नामधारी हुए। बड़नगरा, विशनगरा, भटनागर, नागर, माथुर, मूलगाँवकर इत्यादि स्थानवाचक नाम हैं, वंश के पूर्व पुरुष के नाम, जैसे--सान्याल (शाण्डिल्य), नारद, वशिष्ठ, कौशिक, भारद्वाज, काश्यप, गोभिल ये नाम वंश या गोत्र के सूचक हैं। पदवी के नाम, जैसे चक्रवर्ती, वन्द्योपाध्याय, मुख्योपाध्याय, भट्ट, फडनवीस, कुलकर्णी, राजभट्ट, जोशी (ज्योतिषी) देशपाण्डे इत्यादि। विद्या के नाम, जैसे चतुर्वेदी, त्रिवेदी, शास्त्री, पाण्डेय, पौराणिक, व्यास, द्विवेदी इत्यादि। कर्म या गुण के नाम, जैसे दीक्षित, सनाढ्य, सुकुल, अधिकारी, वास्तव्य, याजक, याज्ञिक, नैगम, आचार्य, भट्टाचार्य इत्यादि।

ब्राह्मण (ग्रन्थ) : ब्रह्म= यज्ञविधि के ज्ञापक ग्रन्थ। वैदिक साहित्य में संहिताओं के पश्चात् ब्राह्मणों का स्थान आता है। ये वेद-साहित्य के अभिन्न अङ्ग माने गये हैं। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र, बौधायनधर्मसूत्र, बौधायनगृह्यसूत्र, कौशिकसूत्र आदि में ब्राह्मणों को वेद कहा गया है। वेदों का वह भाग जो विविध वैदिक यज्ञों के लिए वेदमन्त्रों के प्रयोग के नियमों, उनकी उत्पत्ति, विवरण, व्याख्या आदि करता है और जिसमें स्थान-स्थान पर सुविस्तृत दृष्टान्तों के रूप में परम्परागत कथाओं का समावेश रहता है, 'ब्राह्मण' कहलाता है। इनके विषय को चार भागों में बाँटा जा सकता है : (1) विधिभाग (2) अर्थवादभाग (3) उपनिषद्भाग और (4) आख्यानभाग।

विधिभाग में यज्ञों के विधान का वर्णन है। इसमें अर्थमीमांसा और शब्दों की निष्पत्ति भी बतायी गयी है। अर्थवाद में यज्ञों के माहात्म्य को समझाने के लिए प्ररोचनात्मक विषयों का वर्णन है। मीमांसाकार जैमिनि ने अर्थवाद के तीन भेद बतलाये हैं : गुणवाद, अनुवाद और भूतार्थवाद। ब्राह्मणों के उपनिषद् भाग में ब्रह्मतत्त्व के विषय में विचार किया गया है। आख्यान भाग में प्राचीन ऋषिवंशों, आचार्यवंशों और राजवंशों की कथाएँ वर्णित हैं।

प्रत्येक वैदिक संहिता के पृथक्-पृथक् ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। ऋग्वेद संहिता के दो ब्राह्मण हैं--ऐतरेय और कौषीतकि, यजुर्वेदसंहिता के भी दो ब्राह्मण हैं--कृष्ण यजुर्वेद का तैत्तिरीय ब्राह्मण और शुक्ल यजुर्वेद का शतपथब्राह्मण। सामवेद की कौथुमीय शाखा के ब्राह्मण ग्रन्थ चालीस अध्यायों में विभक्त हैं, जो अध्यायसंख्याक्रम से पञ्चविंश ब्राह्मण (ताण्ड्य ब्राह्मण), षड्विंशब्राह्मण, अद्भुत ब्राह्मण और मन्त्र ब्राह्मण कहलाते हैं। सामवेद की जैमिनीय शाखा के दो ब्राह्मणग्रन्थ हैं : जैमिनीय ब्राह्मण और जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण। इनको क्रमशः आर्षेय ब्राह्मण और छान्दोग्य ब्राह्मण भी कहते हैं। सामवेद की राणायनीय शाखा का कोई ब्राह्मण उपलब्ध नहीं है। अथर्ववेद की नौ शाखाएँ हैं, किन्तु एक ही ब्राह्मण उपलब्ध है--गोपथब्राह्मण। यह मुख्यतः दार्शनिक ब्राह्मण है।

ब्राह्मणसर्वस्व : वङ्गदेश के धर्मशास्त्री हलायुध भट्ट द्वारा रचित एक ग्रन्थ।

ब्राह्मणप्राप्ति : चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक इस व्रत के अनुष्ठान का विधान है। इसमें तिथिक्रम से चार देव; इन्द्र, वरुण, यम तथा कुबेर की गन्ध-अक्षतादि से पूजा होती है, क्योंकि ये चारों भगवान् वासुदेव के ही चार रूप हैं। इसमें हवन भी विहित है। जो वस्त्र इन चारों दिन भगवान् को भेंट किये जायँ वे क्रमशः रक्त, पीत, कृष्ण तथा श्वेत वर्ण के हों। एक वर्ष तक यह व्रत चलता है। व्रती इससे प्रलयकाल तक स्वर्ग का भोग करता है। हेमाद्रि, 2.500-501 के अनुसार यह चतुर्मूर्ति व्रत है।

ब्राह्मण्यावाप्ति : ज्येष्ठ पूर्णमासी को सपत्नीक ब्राह्मण को भोजन कराकर वस्त्रादि प्रदान कर गन्धाक्षतादि से उसका पूजन-सम्मान किया जाय। इससे व्रती सात जन्मों तक केवल ब्राह्मण के घर में ही जन्म लेता है।

ब्राह्मपुरुष : जो लोग अस्वाभाविक मृत्यु से मरते हैं, विशेष कर जिनकी हत्या होती है, उनके प्रेतात्मा बदला लेने की भावना से तथा क्रोध से भरे रहते हैं। ऐसे प्रेतों के अनेक भेद हैं, इनमें एक जाति ब्राह्मण प्रेतों की है जिसे ब्रह्मराक्षस, ब्राह्मदैत्य, ब्राह्मपुरुष तथा प्रचलित भाषा में 'ब्रह्म' कहते हैं। ये मारे गये ब्राह्मण होते हैं। दक्षिण भारत की मान्यतानुसार ब्राह्मपुरुष कंजूस ब्राह्मण प्रेतात्मा को कहते हैं, जो अपने धन को बढ़ाने या एकत्र करने के दुःख में मरा होता है। ऐसा दैत्य अपने घर में ही चक्कर लगाता है तथा उस व्यक्ति पर आक्रमण कर देता है जो उसका धन खर्च करता है, उसके वस्त्र पहनता है या ऐसा काम करता है जो उसे पसन्द न हो।

ब्राह्मसमाज : नवशिक्षित लोगों की एक धार्मिक संस्था। उपनिषदों में जिसकी चर्चा है उसी एक ब्रह्म (परमात्मा) की उपासना को अपना इष्ट रखकर राजा राममोहन राय ने कलकत्ता में ब्रह्मसमाज की स्थापना की। इसके अन्तर्गत बिना किसी नबी, पैगम्बर, देवदूत आचार्य या पुरोहित को अपना मध्यस्‍थ माने, सीधे अकेले ईश्वर की उपासना ही मनुष्य का कर्त्तव्य माना गया। ईसाई महात्मा ईसा को और मुसलमान मुहम्मद साहब को मध्यस्थ मानते हैं और यही उनके धर्म की नींव है। इस बात में ब्रह्मसमाज उनसे आगे बढ़ गया। पुनर्जन्म का कोई प्रमाण न होने से जन्मान्तर का प्रश्न ही न छेड़ा गया। परमात्मा की प्राप्ति के सिवा कोई परलोक नहीं माना गया। निदान, मुसलमान और ईसाइयों से कहीं अधिक सरल और तर्कसंगत यह मत स्थापित हुआ। मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर सबमें ब्रह्म ही स्थित माना गया। मूर्तिपूजा और बहुदेव पूजा का निषेध हुआ। परन्तु सर्वव्यापक ब्रह्म को सबमें स्थित जानकर अन्य सभी मतों को सहन किया गया।

अपने मन्तव्यों में इस समाज ने वर्णाश्रम व्यवस्था, छूत-छात, जात-पाँत, चौका आदि कुछ न रखा। जप, तप होम, व्रत उपवास आदि के नियम नहीं माने। श्राद्ध, प्रेतकर्म का झगड़ा ही नहीं रखा। उपनिषदों को भी आधारग्रन्थ की तरह माना गया; प्रमाण की तरह नहीं। साथ ही संसार की जो सब बातें बुद्धिग्राह्य समझी गयीं, उनको लेने में ब्राह्मसमाज को कोई आपत्ति न थी। ब्राह्मसमाज कुरान, इञ्जील, वेदादि सभी धर्मग्रन्थों को समान सम्मान देता है और संसार के सभी अच्छे धर्मशिक्षकों का समान समादर करता है। इस प्रकार ब्राह्मसमाज ने हिन्दू संस्कृति की सीमाबद्ध मर्यादा को इतना विस्तृत कर दिया है कि उसके सदस्य मुसलमान और ईसाई भी हो सकते हैं। पादरियों द्वारा प्रचारित पाश्चात्य शिक्षा के फल से हिन्दू शिक्षित समाज जो अपनी संस्कृति और आचार-विचार से विचलित हो रहा था और जो शायद कभी-कभी पथभ्रष्ट होकर अपने पुरातन क्षेत्र से निकल कर विदेशी संस्कृत के क्षेत्र में बहक जाता था, उसकी सामयिक रक्षा की गयी। ऐसा वर्ग बहुत उत्सुकतापूर्वक ब्राह्मसमाज के अपने मनोनुकूल दल में सम्मिलित हो गया।

राजा राममोहन राय के बाद महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ब्राह्मसमाज के नेता हुए। ये कुछ अधिक परम्परावादी थे, इसलिए इनके अनुयायी अपने को 'आदिब्रह्म' कहते थे। केशवचन्द्र सेन ने इनको अधिक सुधारवादी और सरल बनाकर 'नव ब्रह्मसमाज' का रूप दिया। इनके समय (संवत् 1895-1940) में ब्राह्मसमाज का प्रचार अधिक व्यापक हो गया। देश में प्रार्थनासमाज आदि अनेक नामों से इसकी स्थापना हुई और बड़ी संख्या में हिन्दू लोग इसके अनुयायी हो गये। ब्रह्मसमाज की स्थापना से राष्ट्ररक्षा के एक महान् उद्देश्य की पूर्ति हुई, अर्थात् राजा राममोहन राय की दूरदर्शिता ने बंगाल में हिन्दूसमाज की बहुत बड़ी रक्षा की और नवशिक्षित लोगों को विधर्मी होने से उसी प्रकार बचा लिया, जिस प्रकार आर्यसमाज ने पश्चिमोत्तर भारत में हिन्दुओं को बचाया।

ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त : अरब मुसलमान ज्योतिष विद्या के लिए बहुलांश में भारत के ऋणी हैं। 771 ई० में भारत का एक दूतमण्डल खलीफा के आदेश से बगदाद पुहुँचाया गया। उसके एक विद्वान् सदस्य ने अरबों को 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' उनकी भाषा में सिखाया। यह ग्रन्थ संस्कृत में सन् 618 ई० में महान् गणितज्योतिर्विद् ब्रह्मगुप्त द्वारा रचा गया था। इसे अरब लोग 'अलसिन्दहिन्द' कहते थे। इसी के आधार पर इब्राहीम इब्न हबीब अल् दुजारी ने 'जिज' (ज्योतिष सारणी) के सिद्धान्त निकाले। समकालीन याकूब इब्न तारिक ने भी इसी 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' के आधार पर 'तरकीब अल् अफलाक्' की रचना की।

ब्राह्मीप्रतिपद्लाभव्रत : चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का आरम्भ होता है। इसमें उपवास का विधान है। इस दिन रंगीन चूर्ण से अष्टदल कमल बनाकर उस पर ब्रह्मा की प्रतिमा स्थापित करके उसका पूजन करना चाहिए। प्रथम चार दलों में पूर्व की ओर से ऋग्वेद तथा अन्य वेद; दक्षिण-पूर्व स्थल से मध्य बिन्दु वाले चार दलों पर वेद के अङ्ग, धर्मशास्त्र, पुराण तथा न्यायविस्तर की स्थापना करनी चाहिए। प्रतिमास की प्रथम तिथि को वर्ष भर उपर्युक्त ग्रन्थों की पूजा की जाय। वर्ष के अन्त में गौ का दान विहित है। इस आचरण से व्रती परम वैदिक विद्वान् हो जाता है, यदि यह बारह वर्ष तक आचरण किया जाय तो व्रती ब्रह्मलोक की प्राप्ति करता है।

 : व्यञ्जन वर्णों के पञ्चम वर्ग का चतुर्थ अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका निम्नांकित प्रकार से बतलाया गया है :

भकारं श्रृणु चार्वङ्गि स्वयं परमकुण्डली। महामोक्षप्रदं वर्णं तरुणादित्य संप्रभम्॥ पञ्चप्राणमयं वर्णं पञ्चदेवमयं सदा॥

तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम पाये जाते हैं :

भः क्लिन्नो भ्रमरो भीमो विश्वमूर्तिर्निशा भवम्। द्विरण्डो भूषणो मूलं यज्ञसूत्रस्य वाचकः॥ नक्षत्रं भ्रमणा दीप्तिर्वयो भूमिः पयोनभः। नाभिर्भद्रं महाबाहुर्विश्वमूर्तिर्विताण्डकः॥ प्राणात्मा तापिनी वज्रा विश्वरूपी च चन्द्रिका। भीमसेनः सुधासेनः सुखो मायापुरं हरः॥

भक्त : भक्तिमार्ग के सिद्धान्तानुसार भक्त उसे कहते हैं जिसने ईश्वर के भजन में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया हो। साधारण आत्माओं को चार भागों में विभक्त किया गया है : (1) बद्ध, जो इस जीवन की समस्याओं से बँधा है। (2) मुमुक्ष्रु, जिसमें मुक्ति की चेतना जागृत हो, किन्तु उसके योग्य अभी नहीं है। (3) अथवा केवली, जो मात्र ईश्वर की ही उपासना में लीन हो, पवित्र हृदय का हो और जो भक्ति गुण के कारण मुक्ति के मार्ग पर चल रहा हो और (4) मुक्त, जो भगवत्-पद को प्राप्त कर चुका हो।

भकत : (1) संस्कृत शब्द भक्त का अपभ्रंश, जो अशिक्षित ग्रामीण जनों में धार्मिक उपासक के लिए प्रयुक्त होता है। यथा असम प्रदेश के गृहस्थ वैष्णवों का सम्बन्ध किसी न किसी देवस्थान से होता है, जिसके गुसाई उनको धर्मशिक्षा दिया करते हैं। इन गुसाँइयों को 'भकत' कहते हैं। 'भकत' लोग यदा-कदा शिष्यों के घर जाते हैं तथा उनसे कुछ दक्षिणा या दण्ड वसूल करते हैं। यही इस सम्प्रदाय की जीविका होती है। (2) दुसाध नामक निम्न श्रेणी की जाति उत्तर प्रदेश तथा बंगाल में पायी जाती है। ये लोग राहु की पूजा करते हैं तथा वर्ष में एक बार राहु की प्रसन्नता के लिए यज्ञ करते हैं। राहुपूजा बीमारियों से मुक्ति या किसी मनोरथ की सिद्धि के लिए की जाती है। इस यज्ञ के पुरोहित को 'भकत' कहते हैं, जो उनकी जाति का ही होता है। उसे 'चतिया' भी कहते हैं।

भकतसेवा : असम प्रदेश के वैष्णवों में महात्मा हरिदास को उनके अनुयायी कृष्ण का अवतार मानते हैं, किन्तु इसके साथ ही वे अन्य महात्मा शंकरदेव को भी विष्णु का अवतार मानते हैं। उनमें 'भकतसेवा' की प्रथा है जिसके अनुसार ब्राह्मण अपने यजमानों अथवा शिष्यों से सब प्रकार का दान ग्रहण करते हैं।

भक्तमाल : विष्णुभक्तों का चरित्र वर्णन करने वाले भाषा ग्रन्थों में भक्तमाल (वैष्णवभक्तों की माला) महत्त्वपूर्ण प्रामाणिक रचना है। यह साम्प्रदायिक ग्रन्थ नहीं है। चारों सम्प्रदायों और उनकी शाखाओं की महान् विभूतियों के जीवन की झाँकियाँ इसमें उदारतापूर्वक प्रस्तुत हुई हैं। इसके रचयिता संत नारायणदास उपनाम नाभाजी स्वयं रामानन्दी वैष्णव थे। ये जयपुर के तीर्थस्थल गलताजी के महात्मा कवि अग्रदासजी के शिष्य थे और उन्हीं की आज्ञा से इन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की थी। नाभाजी उस समय हुए थे, जब तुलसीदास जीवित थे, प्रायः 1585 तथा 1623 ई० के मध्य।

भक्तमाल व्रजभाषा के छप्पय छन्दों में रचित है, किन्तु बिना भाष्य के यह समझा नहीं जा सकता। इस पर लगभग एक सौ तिलक (टीका) ग्रन्थ हैं। इनमे गौडीय संत प्रियादासजी की पद्य टीका एवं अयोध्या के महात्मा रूपकलाजी की टीका प्रसिद्ध है। भक्तमाल में दो सौ भक्तों का चमत्कारपूर्ण जीवनचरित्र 316 छप्पय छन्दों में वर्णित है। भक्तों का पूरा जीवनवृत्त इसमें नहीं दिया गया है, केवल उतना ही अंश है, जिससे भक्ति की महिमा प्रकट हो।

भक्तलीलामृत : भक्तिविषयक मराठी ग्रन्थों में महीपति द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके ग्रन्थों में से 'भक्तलीलामृत' की रचना 1774 ई० में हुई, जो सबसे अधिक प्रसिद्ध है। यह 'भक्तमाल' के ढंग की ही रचना है।

भक्तविजय : महीपतिरचित मराठी भाषा का भक्तिविषयक ग्रन्थ। रचनाकाल 1762 ई० है।

भक्ति : भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ सेवा करना या भजना है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्टदेव के प्रति आसक्ति। नारदभक्तिसूत्र में भक्ति को परम प्रेमरूप और अमृतस्वरूप कहा गया है; इसको प्राप्त कर मनुष्य कृतकृत्य, संतृप्त और अमर हो जाता है। व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है। गर्ग के अनुसार कथा श्रवण में अनुरक्ति ही भक्ति है। भारतीय धार्मिक साहित्य में भक्ति का उदय वैदिक काल से ही दिखाई पड़ता है। देवों के रूपदर्शन, उनकी स्तुति के गायन, उनके साहचर्य के लिए उत्सुकता, उनके प्रति समर्पण आदि में आनन्द का अनुभव--ये सभी उपादान वेदों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। ऋग्वेद के विष्णुसूक्त और वरुणसूक्त में भक्ति के मूल तत्त्व प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। वैष्णवभक्ति की गंगोत्तरी विष्णुसक्त ही है। ब्राह्मण साहित्य में कर्मकाण्ड के प्रसार के कारण भक्ति का स्वर कुछ मन्द पड़ जाता है, किन्तु उपनिषदों में उपासना की प्रधानता से निर्गुण भक्ति और कहीं-कहीं प्रतिकोपासना पुनः जागृत हो उठती है। छान्दोग्योपनिषद्, श्वेताश्वतरोपनिषद्, मुण्डकोपनिषद् आदि में विष्णु, शिव, रुद्र, अच्युत, नारायण, सूर्य आदि की भक्ति और उपासना के पर्याप्त संकेत पाये जाते हैं।

वैदिक भक्ति की पयस्विनी महाभारत काल तक आते-आते विस्तृत होने लगी। वैष्णव भक्ति की भागवतधारा का विकास इसी काल में हुआ। यादवों की सात्वत शाखा में प्रवृत्तिप्रधान भागवतधर्म का उत्कर्ष हुआ। सात्वतों ने ही मथुरा-वृन्दावन से लेकर मध्य भारत, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्णाटक होते हुए तमिल (द्रविड़) प्रदेश तक प्रवृत्तिमूलक, रागात्मक भागवत धर्म का प्रचार किया। अभी तक वैष्णव अथवा शैव भक्ति के उपास्य देवगण अथवा परमेश्वर ही थे। महाभारत काल में वैष्णव भागवत धर्म को एक ऐतिहासिक उपास्य का आधार कृष्ण वासुदेव के व्यक्तित्व में मिला। कृष्ण विष्णु के अवतार माने गये और धीरे-धीरे ब्रह्म से उनका तादात्म्य हो गया। इस प्रकार नर देहधारी विष्णु की भक्ति जनसाधारण के लिए सुलभ हो गयी। इससे पूर्व यह धर्म ऐकान्तिक, नारायणीय, सात्वत आदि नामों से पुकारा जाता था। कृष्णवासुदेव भक्ति के उदय के पश्चात् यह भागवत धर्म कहलाने लगा। भागवत धर्म के इस रूप के उदय का काल लगभग 1400 ई० पू० है। तब से लेकर लगभग छठीसातवीं शताब्दी तक यह अविच्छिन्न रूप से चलता रहा। बीच में शैव-शाक्त सम्प्रदायों तथा शाङ्कर वेदान्त के प्रचार से भागवत धर्म का प्रचार कुछ मन्द पड़ गया। परन्तु पूर्व-मध्य युग में इसका पुनरुत्थान हुआ। भागवत धर्म का नवोदित रूप इसका प्रमाण है। रामानुज, मध्व आदि ने भागवत धर्म को और पल्लवित किया और आगे चलकर एकनाथ, रामानन्द, चैतन्य, वल्लभाचार्य आदि ने भक्तिमार्ग का जनसामान्य तक व्यापक प्रसार किया। मध्ययुग में सभी प्रदेशों के सन्त और भक्त कवियों ने भक्ति के सार्वजनिक प्रचार में प्रभूत योग दिया।

मध्ययुग में भागवत भक्ति के चार प्रमुख सम्प्रदाय प्रवर्तित हुए--(1) श्रीसम्प्रदाय (रामानुजाचार्य द्वारा प्रचलित) (2) ब्रह्मसम्प्रदाय (मध्वाचार्य द्वारा प्रचलित) (3) रुद्रसम्प्रदाय (विष्णु स्वामी द्वारा प्रचलित) और (4) सनकादिकसम्प्रदाय (निम्बार्काचार्य द्वारा स्थापित)। इन सभी सम्प्रदायों ने अद्वैतवाद, मायावाद तथा कर्मसंन्यास का खण्डन कर भगवान् की सगुण उपासना का प्रचार किया। यह भी ध्यान देने की बात है कि इस रागात्मिका भक्ति के प्रवर्तक सभी आचार्य सुदूर दक्षिण देश में ही प्रकट हुए। मध्ययुगीन भक्ति की उत्पत्ति और विकास का इतिहास भागवत पुराण के माहात्म्य में इस प्रकार दिया हुआ है :

उत्पन्न द्रविडे साहं वृद्धि कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचिन् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥ तत्र घोरकलेर्योगात् पाखण्डै: खण्डिताङ्गका। दुर्बलाहं चिरं जाता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्॥ वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी। जाताहं युवती सम्यक् प्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्॥ (1.48-50)

[मैं वही (जो मूलतः यादवों की एक शाखा के वंशज सात्वतों द्वारा लायी गयी थी) द्रविड़ प्रदेश में (रागात्मक भक्ति के रूप में) उत्पन्न हुई। कर्नाटक में बड़ी हुई। महाराष्ट्र में कुछ-कुछ (पोषण) हुआ। गुजरात में बृद्धा हो गयी। वहाँ घोर कलियुग (म्लेच्छ-आक्रमण) के सम्पर्क से पाखण्डों द्वारा खण्डित अङ्गवाली मैं दुर्बल होकर बहुत दिनों तक पुत्रों (ज्ञान-वैराग्य) के साथ मन्दता को प्राप्त हो गयी। फिर वृन्दावन (कृष्ण की लीलाभूमि) पहुँचकर सम्प्रति नवीना, सुरूपिणी, युवती और सम्यक् प्रकार से सुन्दर हो गयी हूँ।] इसमें सन्देह नहीं कि मध्ययुगीन रागात्मिका भक्ति का उदय तमिल प्रदेश में हुआ। परन्तु उसके पूर्ण संस्कृत रूप का विकास भागवत धर्म के मूल स्थल वृन्दावन में ही हुआ, जिसको दक्षिण के कई सन्त आचार्यों ने अपनी उपासनाभूमि बनाया।

भागवत धर्म के मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं : सृष्टि के उत्पादक एक मात्र भगवान् हैं। इनके अनेक नाम हैं, जिनमें विष्णु, नारायण, वासुदेव, जनार्दन आदि मुख्य हैं। वे अपनी योगमाया प्रकृति से समस्त जगत की उत्पत्ति करते हैं। उन्हीं से ब्रह्मा, शिव आदि अन्य देवता प्रादुर्भूत होते हैं। जीवात्मा उन्हीं का अंश है, जिसको भगवान् का सायुज्य अथवा तादात्म्य होने पर पूर्णता प्राप्त होता है। समय-समय पर जब संसार पर संकट आता है तब भगवान् अवतार धारण कर उसे दूर करते हैं। उनके दस प्रमुख अवतार हैं जिनमें राम और कृष्ण प्रधान हैं। महाभारत में भगवान् के चतुर्व्यूह की कल्पना का विकास हुआ। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, और अनिरुद्ध चार तत्त्व चतुर्व्‍यूह हैं, जिनकी उपासना भक्त क्रमशः करता है। वह अनिरुद्ध, प्रद्युम्न, संकर्षण और वासुदेव में क्रमशः उत्तरोत्तर लीन होता है, परन्तु वासुदेव नहीं बनता; उन्हीं का अंश होने के नाते उनके सायुज्य में सुख मानता है। निष्काम कर्म से चित्त की शुद्धि और उससे भाव की शुद्धि होती है। भक्ति ही एक मात्र मोक्ष का साधन है। भगवान् के सम्मुख पूर्ण प्रपत्ति ही मोक्ष है।

भागवत उपासनापद्धति का प्रथम उल्लेख ब्रह्मसूत्र के शाङ्कर भाष्य (2.42) में पाया जाता है। इसके अनुसार अभिगमन, उपादान, इज्या, स्वाध्याय और योग से उपासना करते हुए भक्त भगवान् को प्राप्त करता है। 'ज्ञानामृतसार' में छः प्रकार की भक्ति बतलायी गयी है-- (1) स्मरण (2) कीर्तन (3) वन्दन (4) पादसेवन (5) अर्चन और (6) आत्मनिवेदन। भागवत पुराण (7.5.23-24) में नवधा भक्ति का वर्णन है। उपर्युक्त छः में तीन-- श्रवण, दास्य और सख्य और जोड़ दिये गये हैं। पाञ्चरात्र संहिताओं के अनुसार सम्पूर्ण भागवतधर्म चार खण्डों में विभक्त है : (1) ज्ञानपाद (दर्शन और धर्मविज्ञान) (2) योगपाद (यौगसिद्धान्त और अभ्यास) (3) क्रियापाद (मन्दिर निर्माण और मूर्तिस्थापना) (4) चर्यापाद (धार्मिक क्रियाएँ)।

भक्ति के ऊपर विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है। इस पर सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है श्रीमदभागवत पुराण। इसके अतिरिक्त महाभारत का शान्तिपर्व, भगवद्गीता, पाञ्चरात्रसंहिता, सात्वतसंहिता, शाण्डिल्यसूत्र, नारदीय भक्तिसूत्र, नारपञ्चरात्र, हरिवंश, पद्मसंहिता, विष्णुतत्त्व संहिता; रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य, वल्लभाचार्य आदि के ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं।

भक्तिमार्ग : सगुण-साकार रूप में भगवान् का भजन-पूजन करना। मोक्ष के तीन साधन हैं; ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग और भक्तिमार्ग। इन मार्गों में भगवद्गीता भक्तिमार्ग को सर्वोत्तम कहती है। इसका सरल अर्थ यह है कि सच्चे हृदय से संपादित भगवान् की भक्ति पुनर्जन्म से उसी प्रकार मोक्ष दिलाती है, जैसे दार्शनिक ज्ञान एवं निष्कामयोग दिलाते हैं। गीता (12.6-7) में श्रीकृष्ण का कथन है : `मुझ पर आश्रित होकर जो लोग सम्पूर्ण कर्मों को मेरे अपर्ण करते हुए मुझ परमेश्वर को ही अनन्य भाव के साथ ध्यानयोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं, मुझमें चित्त लगाने वाले ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-सागर से उद्धार कर देता हूँ।`

बहुत से अनन्य प्रेमी भक्तिमार्गी शुष्क मोक्ष चाहते ही नहीं। वे भक्ति करते रहने को मोक्ष से बढ़कर मानते हैं। उनके अनुसार परम मोक्ष के समान परा भक्ति स्वयं फलरूपा है, वह किसी दूसरे फल का साधन नहीं करती है।

भक्तिरत्नाकर : अठारहवीं शती के प्रारम्भ में नरहरि चक्रवर्ती ने चैतन्य सम्प्रदाय का इतिहास लिखा था, जिसका नाम भक्तिरत्नाकर है।

भक्तिरत्नामृतसिन्धु : चैतन्य सम्प्रदाय के विख्यात आचार्य रूप गोस्वामी (16 वीं शती) द्वारा रचित इस ग्रन्थ में संस्कृत भाषा में भगवान् की स्तुतियों का संग्रह है।

भक्तिरत्नावली : यह माध्व संप्रदाय का ग्रन्थ है। रचना काल 15वीं शती है। इसके रचयिता विष्णुपुरी महात्मा हैं।

भक्तिरत्नाञ्जलि : द्वैताद्वैत वैष्णव मत के विद्वान् लेखक देवाचार्य द्वारा रचित यह ग्रन्थ निम्बार्कीय सिद्धान्त तथा भक्ति का प्रतिपादन औऱ शाङ्कर मत का खण्डन करता है।

भक्तिरसामृतसिन्धु : चैतन्य महाप्रभु के शिष्य रूप गोस्वामी द्वारा रचित 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में भक्ति की व्याख्या, उत्कृष्टता तथा वैष्णवमत की साधना का सर्वांगीण विचार किया गया है। इस ग्रन्थ की टीका जीव गोस्वामी ने लिखी है। रूप और जीव दोनों महात्मा चाचा-भतीजे, परम संत और उच्च कोटि के ग्रन्थकार थे।

भक्तिरसायन : (1) मधुसूदन सरस्वती (अद्वैत सम्प्रदाय के दिग्गज विद्वान्) द्वारा लिखित यह ग्रन्थ भक्ति सम्बन्धी लक्षणग्रन्थ है। इससे उनकी भगवद्रसज्ञता और भावुकता का परिचय मिलता है।

(2) कन्नड़ भाषा में महात्मा सहजानन्द द्वारा भक्तिरसायन नामक ग्रन्थ रचा गया है, जो शैव संप्रदाय विषयक है।

भक्तिवाद : मोक्ष के तीन साधनों (कर्म, ज्ञान तथा भक्ति) में से यह तीसरा साधन है। यह सबसे सहज साधन है। दे० 'भक्तिमार्ग'।

भक्तिसागर : महात्मा चरणदासजी द्वारा रचित एक ग्रन्थ।

भक्तिसिद्धान्त : जीव गोस्वामी द्वारा रचित ग्रन्थ।

भग : द्वादश आदित्य देवताओं में से एक। इस शब्द का साधारण अर्थ है 'देने वाला', 'बाँटने वाला'। ऋग्वेद में इस देवता की विधर्ता, विभक्ता, भगवान् इत्यादि उपाधियाँ पायी जाती हैं। वास्तव में यह समृद्धि और ऐश्वर्य का देवता है। वरुण के साथ ही इसका उल्लेख पाया जाता है। उषा भग की बहिन (भगिनी) है, जो स्वयं जागृति और समृद्धि की देवी हैं। यास्क (निरुक्त, 12.13) के अनुसार भग सूर्य का वह रूप है जो पूर्वाह्न की अध्यक्षता करता है। प्राचीन ईरानी भाषा में भग (बध) 'अहुरमज्द' का एक विशेषण है। स्लोवानिक (यूरोपीय आर्य) भाषा में ईश्वर का एक नाम भग (बोगु) है। इस देवता का व्यक्तित्व स्पष्ट और विकसित नहीं हुआ है। आगे चलकर परमात्मा के ऐश्वर्य अर्थ में इसका विलय हो गया और परमात्मा को 'भगवान्' कहा जाने लगा।

भगत : वनवासी जाति में उग्र स्वभाव के देवों को शान्त करने व पूजा करने का कार्य जो करता है, उसे भगत (सं०--भक्त) कहते हैं। भगतों की प्रतिष्ठा के कारण हैं समय-समय पर इनमें देवी का आवेश, उसके प्रभाव से बड़बड़ाने तथा हिलने, मुँह से गाज निकालने, कच्चे मांस खाने तथा भूत-भविष्य की बातों का बखान करना। गृहदेवों की स्थापना, पारिवारिक तथा कौटुम्बिक धार्मिक कृत्यों का प्रतिपादन, फसल की वृद्धि करना, बीमारों को अच्छा करना आदि भगत के काम हैं।

भगवत् : इसका शाब्दिक अर्थ हैं 'भग (छः प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त'। यह ईश्वर का एक विशेषण है। पुरुषवाचक अर्थ में यह 'भगवान्' बोला जाता है और स्त्रीवाचक अर्थ में भगवती (देवी)।

भगवती : देवी मात्र; 'भगवान्' की शक्ति अथवा पत्नी। उमा का एक नाम भगवती भी है।

भगवद्गीता : महाभारत के दार्शनिक और परमोच्च ज्ञान सम्बन्धी अंशों में सबसे महत्वपूर्ण तथा अति प्रसिद्ध भगवद्गीता है। भीष्मपर्व में यह उद्धृत है। इसके रचनाकाल को लेकर नव शिक्षाधारियों में बड़ा मतभेद है। इसमें स्वयं कहा गया है कि यह कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्धारम्भ के ठीक पहले कृष्ण और अर्जुन के बीच संवाद के रूप में उच्‍चारित हुई थी। यही विश्वास हिन्दुओं में आज तक प्रचलित है। न्यायाधीश तैलङ्ग और भण्डारकर के विचार से यह ईसा पू० चौथी शताब्दी में रची गयी। किन्तु आधुनिक विद्वान् इसे ई० की प्रथम या दूसरी शताब्दी की रचना बताते हैं। गीता का प्रायः सात सौ श्लोकों वाला वर्तमान आकार सम्भवतः पीछे स्थिर हुआ, किन्तु मूल उपदेश रूप में यह महाभारतकालीन ही है। गीता भारतीय धर्म पर अतुल प्रभाव डालने वाला ग्रन्थ है। यहाँ ऐसी कोई भी रचना नहीं है जो हिन्दुविचारकों के द्वारा इतनी प्रशंसित हो जितनी गीता है। इसकी अनेक पाश्चात्य विचारकों तथा विद्वानों ने भी उच्च प्रशंसा की है। विश्व की सभी भाषाओं में इसके असंख्य संस्करण अनुवाद के रूप में प्रकाशित हैं।

जो क्रान्तिकारी विचार गीता उपस्थित करती है वह यह है कि अन्य सम्प्रदाय केवल उन्हीं लोगों को मोक्ष का आश्वासन देते हैं जो गृहस्थी (सांसारिकता) का त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लेते हैं, जब कि गीता उन सभी स्त्री पुरुषों को मोक्ष का आश्वासन देती है जो गृहस्थ हैं, सांसारिक कर्मों में तल्‍लीन हैं। उपर्युक्त विचार ने ही इस ग्रन्थ को लोकप्रिय बना दिया है। यह साधारण लोगों की उपनिषद् है।

गीता में मोक्ष के तीन साधन कहे गये हैं। पहला ज्ञान मार्ग, जो उपनिषदों में सांख्य दर्शन में तथा और भी स्पष्ट रूप में बौद्ध व जैन दर्शनों में चर्चित हैं। दूसरा है कर्म मार्ग। यह हिन्दू धर्म का सबसे प्राचीन रूप है---अपने कर्त्तव्यों का पालन, जिसे संक्षेप में 'धर्म' कहते हैं। आरम्भ में ऐसे धर्मों या कर्तव्यों में यज्ञों का महत्व था, किन्तु जाति, अवस्था, परिवार व सामाजिक कर्त्तव्य भी इसमें सम्मिलित थे। गीता का कर्मसिद्धान्त, जिसे कर्मयोग कहते हैं, यह है कि धर्मग्रन्थों में वर्णित कर्म का प्रतिपादन केवल क्षणिक सुख या स्वर्ग ही दिला सकता है, जबकि निष्काम भाव से किये जाने से यही कर्मसम्पादन मोक्ष दिला सकता है। तीसरा मार्ग भक्ति मार्ग है। सम्पूर्ण चित्तवृत्ति से परमात्मा का प्रेमपूर्वक भजन-पूजन करना मोक्ष का साजन है।

यह महत्त्वपूर्ण है कि गीता सभी उपासकों को धर्मशास्त्रों द्वारा अनुमोदित हिन्दू धर्म के पालन करने का आदेश करती है; जातिधर्म, परिवारधर्म, पितृपूजा के पालन का आदेश देती है। गीता वर्णव्यवस्था की विरोधी नहीं, जैसी कि कुछ लोगों की धारणा है। किन्तु यह गुण और स्वभाव के आधार पर उसका अनुमोदन करती है। इस प्रकार गीता ने हिन्दू धर्म के सभी महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों की परिभाषा प्रस्तुत की और उनका परिष्कार किया है; उसके समय तक जीवन में जो अन्तर्विरोध उत्पन्न हो गये थे उनका परिहार करके समुच्चय और समन्वय का मार्ग प्रशस्त किया है।

गीता पर मध्य काल के प्रायः सभी आचार्यों ने भाष्य और टीकाएँ लिखी हैं। इनमें 'शाङ्करभाष्य, रामानुजभाष्य, मधुसूदनी टीका, लोकमान्य तिलक का गीतारहस्य, ज्ञानेश्वरी आदि बहुत प्रसिद्ध हैं। गीता के ऊपर भारतीय और कतिपय विदेशी भाषाओं में विशाल साहित्य की रचना हुई है।

भगवद्विषयम् : यह नम्भ आलवार के 'तिरुवोपमोलि' नामक ग्रन्थ पर किसी अज्ञात लेखक द्वारा तमिल भाषा में रचित एक भाष्य है। ए० गोविन्दाचार्य ने इसके कुछ अंशों का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया है।

भगवदभावक : छान्दोग्य तथा केन उपनिषदों के अनेकानेक टीकाकारों में से भगवद्भावक भी एक है।

भगतिन, भगतानी : नाचने गाने वाली एक जाति की लड़कियों को व्‍यङ्ग्यात्मक भाषा में भगतिन या भगतानी (भक्त की पत्नी) कहते हैं। इस जाति की लड़कियाँ इस पेशे में प्रवेश के पूर्व नाम मात्र के लिए किसी बूढ़े संन्यासी से विवाह कर लेती हैं, जो अपनी इस पत्नी को सभी प्रकार के सम्बन्धों की छूट देने के लिए डेढ़ दो रुपया दक्षिणा प्राप्त कर लेता है। कभी-कभी ऐसे वर के अभाव में उन स्त्रियों का विवाह गणेश या किसी भी देवता की प्रतिमा के साथ कर देते हैं। विवाह के बिना इस पेशे में प्रवेश करना वे पाप समझती हैं।

भगवदाराधन क्रम : आचार्य रामानुज द्वारा रचित एक ग्रन्थ।

भगवान : परमेश्वर का एक गुणवाचक नाम। भगवान्, परमेश्वर, ईश्वर, नारायण, राम, कृष्ण, ये सभी पर्यायवाची शब्द माने जाते हैं, जो विष्णु की कोटि के हैं। 'भग' (छः विशेषताओं) से युक्त होने के कारण परमेश्वर को भगवान् कहते हैं। वे हैं जगत् का समस्त ऐश्वर्य (सामर्थ्य), समस्त धर्म, समस्त यश, समस्त शोभा, समस्त ज्ञान और समस्त वैराग्य (निर्गुण-निर्लेप स्थिति)।

भङ्ग : मदकारक पौधा, जिसकी पत्तियाँ पीसकर पी जाती हैं। भङ्ग का उल्लेख अथर्ववेद (11.6,15) में भी हुआ है। ऋग्वेद (9.61,13) में भङ्ग सोमलता का विरुद है; सम्भवतः अपनी मादकता के कारण। कुछ विद्वान भङ्ग और सोम का अभेद मानते हैं।

भजन : इसका शाब्दिक अर्थ है 'ईश्वर की उपासना करना या उसको प्राप्त होना।' प्रचलित प्रकार के धार्मिक गीतों के लिए कीर्तन तथा भजन नाम आता है। 'भजन' कीर्त्तन तथा कथन से रूप तथा प्रणाली में भिन्न, लय, राग एवं तुकबन्द होते हैं। ये भक्तिविषयक किसी विषय से संबन्धित रहते हैं। उत्तर भारत में सूर, तुलसी, कबीर तथा मीरा के भजन अधिक प्रचलित हैं।

भट्ट (कुमारिल) : दे० 'कुमारिल'।

भट्ट (दिनकर) : कर्ममीमांसा के 17वीं शताब्दी में उत्पन्न एक आचार्य। इन्होंने पार्थसारथि मिश्र की शास्त्रदीपिका पर 'भाट्ट दिनकर' नामक भाष्य रचा है।

भट्ट (नीलकण्ठ) : (1) 15वीं या 16वीं शताब्दी में उत्पन्न, शाक्त मत के आचार्य। इन्होंने 'देवी भागवत उपपुराण' के ऊपर तिलक नामक व्याख्या रची है। (2) 'मयूख' नामक धर्मशास्त्रनिबन्ध के प्रसिद्ध रचयिता। दे० 'नीलकण्ठ भट्ट'।

भट्ट (भास्कर मिश्र) : स्मार्त साहित्य के निपुण लेखक भट्ट भास्कर मिश्र के कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय संहिता, आरण्यक एवं उपनिषदों पर रचे गये भाष्य वैदिक साहित्य के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। भट्टजी तेलुगु प्रदेश के रहने वाले थे तथा तैत्तिरीय संहिता की आत्रेय शाखा के अनुयायी थे। इस संहिता का भाष्य इन्होंने 1188 ई० में रचा था।

भट्टोजिदीक्षित : चतुर्मुखी प्रतिभाशाली सुप्रसिद्ध वैयाकरण। इनकी रची हुई सिद्धान्तकौमुदी, प्रौढमनोरमा, शब्द कौस्तुभ आदि कृतियाँ दिगन्तव्यापिनी कीर्तिकौमुदी का विस्तार करने वाली हैं। वेदान्त शास्त्र में ये आचार्य अप्पय दीक्षित के शिष्य थे। इनके व्याकरण के गुरु 'प्रक्रियाप्रकाश'कार शेष कृष्ण दीक्षित थे। भट्टोजिदीक्षित की प्रतिभा असाधारण थी। इन्होंने वेदान्त के साथ ही धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, उपासना आदि पर भी मर्मस्पर्शी ग्रन्थ रचना की है। एक बार शास्त्रार्थ के समय उन्होंने पण्डितराज जगन्नाथ को म्लेच्छ कह दिया था। इससे पण्डितराज का इनके प्रति स्थायी वैमनस्य हो गया और उन्होंने 'मनोरमा' का खण्डन करने के लिए 'मनोरमाकुचमर्दिनी' नामक टीकाग्रन्थ की रचना की। पण्डितराज उनके गुरुपुत्र शेष वीरेश्वर दीक्षित के पुत्र थे।

भट्टोजिदीक्षित के रचे हुए ग्रन्थों में वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी और प्रौढमनोरमा अति प्रसिद्ध है। सिद्धान्तकौमुदी पाणिनीय सूत्रों की वृत्ति है और मनोरमा उसकी व्याख्या। तीसरे ग्रन्थ शब्दकौस्तुभ में इन्होंने पातञ्जल महाभाष्य के विषयों का युक्तिपूर्वक समर्थन किया है। चौथा ग्रन्थ वैयाकरणभूषण है। इसका प्रतिपाद्य विषय भी शब्द व्यापार है। इनके अतिरिक्त उन्होंने 'तत्वकौस्तुभ' और 'वेदान्ततत्त्वविवेक टीकाविवरण' नामक दो वेदान्त ग्रन्थ भी रचे थे। इनमें से केवल तत्त्वकौस्तुभ प्रकाशित हुआ है। इसमें द्वैतवाद का खण्डन किया गया है। कहा जाता है कि शेष कृष्ण दीक्षित से अध्ययन के नाते मानसकार तुलसीदासजी इनके गुरुभाई थे। भट्टोजी शुष्क वैयाकरण के साथ सरस भगवद्भक्त भी थे। व्याकरण के सहस्रों उदाहरण इन्होंने राम-कृष्णचरित्र से ही निर्मित किये हैं।

भद्र आगम : यह एक शैव आगम है।

भद्रकाली : काली के सौम्य या वत्सल रूप को राख्या या भद्रकाली कहते हैं, जो प्रत्येक बंगाली गाँव की रक्षिका होती है। महामारी आरम्भ होने पर इसके सम्मुख प्रार्थना व यज्ञ किये जाते हैं। काली को उदार रूप में सभी जीवों की माता, अन्न देने वाली, मनुष्य व जन्तुओं में उत्‍पादन शक्ति उत्पन्न करने वाली मानते हैं। इसकी पूजा फल-फूल, दुग्ध, पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले पदार्थों से ही की जाती है। इसकी पूजा में पशुबलि निषिद्ध है।

भद्रकालीनवमी : चैत्र शुक्ल नवमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें उपवास तथा पुष्पादिक से भद्रकाली देवी की पूजा का विधान है। विकल्प से समस्त मास की नवमियों को भद्रकाली देवी की पूजा होनी चाहिए। दे० नीलमतपुराण, 63, श्लोक 762-63।

भद्रकालीपूजा : राजा-महाराजाओं के शान्तिक-पौष्टिक कर्मों के लिए 'राजनीतिप्रकाश' में इस पूजा के लिए अनुरोध किया गया है। इसका विधान ठीक उसी प्रकार है जैसा भद्रकालीव्रत में कहा गया है।

भद्रकाली व्रत : (1) कार्तिक शुक्ल नवमी को इस व्रत का आरम्भ होता है। उस दिन उपवास रखा जाता है। इसकी भद्रकाली (अथवा भवानी) देवी हैं। एक वर्ष तक प्रति मास की नवमी को देवीजी का पूजन होता है। वर्ष के अन्त में किसी ब्राह्मण को दो वस्त्र दान में दिये जाते हैं। इसके आचरण से समस्त कामनाओं की सिद्धि होती है। जैसे रोगों से मुक्ति, पुत्रलाभ तथा यश की उपलब्धि।

(2) आश्विन शुक्ल नवमी को प्रासाद की किसी प्राचीर (बाहरी दीवार) अथवा किसी वस्त्र के टुकड़े पर भद्रकाली की मूर्ति बनाकर आयुधों (ढाल तलवार, आदि) सहित देवी का उपवासपूर्वक पूजन होता है। इस व्रत से मनुष्य समृद्धि तथा सफलताएँ प्राप्त करता है।

भद्रनारायण : गोभिलगृह्यसूत्र (सामवेदीय) के एक वृत्तिकार।

भद्रविधि : भाद्र शुक्ल षष्ठी को पड़ने वाला रविवार भद्र कहलाता है। उस दिन व्रती को 'नक्तविधि' से आहार करना चाहिए अथवा उपवास रखना चाहिए। मालती के फूल, चन्दन, विजय धूप तथा पाय को (नैवेद्य के रूप में) मध्याह्न काल में सूर्य की पूजा में अर्पण करना चाहिए। यह वारव्रत है। व्रतोपरान्त ब्राह्मण को दक्षिणा देनी चाहिए। इस व्रत से व्रती सूर्यलोक को प्राप्त करता है।

भद्रा : सात करणों में एक करण। प्रति दिन के पञ्चाङ्ग का एक अवयव करण है, जो तिथि का आधा भाग होता है। भद्रा को विष्टि भी कहते हैं। भद्रा नाम के विपरीत इसमें शुभ कर्म वर्जित हैं। विभिन्न राशियों के अनुसार यह तीनों लोकों में विचरण करती है और 'मृत्युलोके यदा भद्रा सर्वकार्यविनाशिनी' होती है।

भद्राचल : महाराष्ट्र प्रदेश में गोदावरी के तट पर स्थित सुरम्य तीर्थस्थान। यहाँ भगवान् श्री राम का प्राचीन मंदिर है। इसकी यहाँ बहुत प्रतिष्ठा है। कहा जाता है, इसे समर्थ गुरु रामदास ने स्थापित किया था।

भद्राविधि : कार्तिक शुक्ल तृतीया के दिन व्रती को चाहिए कि गोमूत्र तथा यावक (जौ से बनायी हुई लपसी) का सेवन करने के बाद नक्तविधि से आहार करे। प्रति मास के क्रम से इस व्रत को वर्ष भर चलाना चाहिए। वर्ष के अन्त में गौ का दान विहित है। इस व्रत के आचरण से एक कल्प तक गौरीलोक में वास होता है।

भद्रासप्तमी : शुक्ल पक्ष की सप्तमी को हस्त नक्षत्र हो तो वह तिथि भद्रा कहलाती है। यह तिथिव्रत है। इसके सूर्य देवता हैं। व्रतेच्छु व्यक्ति को चतुर्थी तिथि से क्रमशः एकभक्त, नक्त, अयाचित तथा उपवास का आचरण करना चाहिए। फिर सूर्यप्रतिमा को घृत, दुग्ध तथा गन्ने के रस से स्नान कराकर षोडशोपचार पूजन करके प्रतिमा के समीप अमूल्य रत्न विभिन्न दिशाओं में रख देने चाहिए। व्रती इस व्रत के आचरण से सूर्यलोक और अन्त में ब्रह्मलोक में पहुँच जाता है।

भरत : (1) अभिजात क्षत्रिय वर्ग का एक वेदकालीन कबीला। ऋग्वेद तथा अन्य परवर्ती वैदिक साहित्य में भरत एक महत्त्वपूर्ण कुल का नाम है। ऋग्वेद के तीसरे और सातवें मण्डल में ये सुदास एवं त्रित्सु के साथ तथा छठे मण्डल में दिवोदास के साथ उल्लिखित हैं। इससे लगता है कि ये तीनों राजा भरतवंशी थे। परवर्ती साहित्य में भरत लोग और प्रसिद्ध हैं। शत० ब्रा० (13.5.4) अश्वमेघ यज्ञकर्त्ता के रूप में भरत दौष्यन्ति का वर्णन करता है। एक अन्य भरत शतानीक सामाजित का उल्लेख मिलता है, जिसने अश्वमेघ यज्ञ किया। ऐत० ब्रा० (8.23,21) भरत दौष्यन्ति की दीर्घतमा मामतेय एवं शतानीक को सोमशुष्मा वाजप्यायन द्वारा अभिषिक्त किया गया वर्णन करता है। भरतों की भौगोलिक सीमा का पता उनकी काशीविजय तथा यमुना और गङ्गा तट पर यज्ञ करने से चलता है। महाभारत में कुरुओं को भरतकुल का कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि ब्राह्मणकाल में भरत लोग कुरु-पञ्चाल जाति में मिल गये थे।

भरतों की याज्ञिक क्रियाओं का पञ्चविंश ब्रा० (14.3, 13; 15.5,24) में बार-बार उल्लेख आता है। ऋग्वेद (2.7.15; 4.25.4;5.16,19; तै० सं० 2,5.,9,1; शत० ब्रा० 1.4,2,2) में भारत अग्नि का उल्लेख आया है। रॉथ महाशय इस अग्नि से भरतों के योद्धा रूप की अभिव्यक्ति मानते हैं, जो सम्भव नहीं। ऋचाओं (ऋ० 1.22,10; 1.42,9; 1.88,8; 2.1,11; 3,8; 3.4,8 आदि) में भारती देवी का उल्लेख है जो भरतों की दैवी ऱक्षिका शक्ति है। उसका सरस्वती से सम्बन्ध भरतों को सरस्वती से सम्बन्धित करता है।

इस महाद्वीप का भरतखण्ड तथा देश का भारतवर्ष नामकरण भरत जाति के नाम पर ही हुआ है। ऋषभदेव के पुत्र भरत अथवा दौष्यन्ति भरत के नाम पर देश का नाम भारत होने की परम्परा परवर्ती है।

(2) अयोध्या के राजा दशरथ के चार पुत्रों में द्वितीय भरत कैकेयी से उत्पन्न हुए थे। राम के वन जाने पर ये उनको वापस लाने के लिए चित्रकूट गये थे। उनके वापस न आने पर उनकी खड़ाऊँ राजसिंहासन पर रखकर उनकी ओऱ से ये राज्य का शासन करते रहे। चौदह वर्ष का वनवास समाप्त होने पर जब राम अयोध्या वापस आये तब भरत ने उनको राज्य समर्पित कर दिया।

(3) गान्धर्व वेद के चार प्रसिद्ध प्रवर्त्तकों में से एक; नाट्य उपवेद के आचार्य, इनका 'भरतनाट्यशास्त्र' संगीत काव्यकला का मौलिक ग्रन्थ है। संस्कृत के सभी नाटककार भरत मुनि के अनुशासन पर चलते और इससे 'नट' भी भरत कहे जाते हैं।

भरत स्वामी : सायण ने अपने ऋग्वेदभाष्य में भट्टभास्कर मिश्र एवं भरत स्वामी नामक दो वेदभाष्यकारों का उल्लेख किया है। सामसंहिता के भाष्यकारों में भी भरत स्वामी का नामोल्लेख हुआ है।

भरथरीवैराग्य : सत्रहवीं शताब्दी में स्वामी हरिदास विख्यात महात्मा हुए हैं। इनके रचे ग्रन्थ 'साधारण सिद्धान्त', 'रस के पद', 'भरथरीबैराग्य' कहे जाते हैं। इनका उपासनात्मक मत चैतन्य महाप्रभु के मत से मिलता जुलता है।

भरद्वाज : ऋग्वेदीय मन्त्रों की शाब्दिक रचना जिन ऋषिपरिवारों द्वारा हुई है उनमें सात अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। भारद्वाज ऋषि उनमें अन्यतम हैं। ये छठे मण्डल के ऋषिरूप में विख्यात हैं (आश्वला० गृ० सू० 3.4,2; शांखा० गृ० सू० 4.12; बृहद्देवता 5.102, जहाँ इन्हें बृहस्पति का पौत्र कहा गया है। पञ्च० ब्रा० (15. 3-7) में इन्हें दिवोदास का पुरोहित कहा गया है। दिवोदास के साथ इनका सम्बन्ध काठक सं० (2.10) से भी प्रकट होता है जहाँ इन्हें प्रतर्दन को राज्य देने वाला कहा गया है। ऋषि तथा मन्त्रकार के रूप में भरद्वाज का उल्लेख अन्य संहिताओं तथा ब्राह्मणों में प्रायः हुआ है। रामायण और महाभारत में भी भारद्वाज (गोत्रज) ऋषि का उल्लेख महान् चिन्तक और ज्ञानी के रूप में हुआ है।

भरुकच्छ : पश्चिम समुद्र का तटवर्ती प्राचीन औऱ प्रसिद्ध तीर्थ। इसका शुद्ध नाम भृगुकच्छ है। सूरर और बड़ोदा के मध्य नर्मदा के उत्तर तट पर यह स्थान है। यहाँ महर्षि भृगु ने गायत्री का पुरश्चरण और अनेक तपस्याएँ की थीं। गरुड ने भी यहाँ तपस्या की थी। प्राचीन काल में यह प्रसिद्ध बंदरगाह था।

भर्तृद्वादशीव्रत : चैत्र शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। एकादशी को उपवास कर द्वादशी को विष्णु भगवान् की पूजा करनी चाहिए। प्रति मास विष्णु के बारह नामों से केशव से दामोदर तक एक एक लेना चाहिए। यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता है।

भर्तृप्राप्तिव्रत : नारदजी ने इस व्रत की महिमा उन अप्सराओं को सुनायी थी, जो भगवान् नारायण को पति रूप में पाना चाहती थीं। वसन्त शुक्ल द्वादशी को इसका अनुष्ठान होता है। इस दिन उपवास रखकर हरि तथा लक्ष्मी का पूजन करना चाहिए। दोनों की चाँदी की प्रतिमाएँ बनवाकर तथा कामदेव का अङ्गन्यास विभिन्न नामों से मूर्ति के भिन्न भिन्न अवयवों में करना चाहिए। द्वितीय दिवस किसी ब्राह्मण को मूर्तियों का दान कर देना चाहिए।

भर्तृनाथ : नाथ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध नव नाथों में से एक। गुरु गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, भर्तृनाथ, गोपीचन्द्र ये सभी अब तक जीवित और अमर माने जाते हैं। कहते हैं कि कभी-कभी साधकों को इनके दर्शन हो जाया करते हैं।

भर्तृप्रपञ्च : वेदान्त के एक भेदाभेदवादी प्राचीन व्याख्याता। इन्होंने कठ और बृहदारण्यक उपनिषदों पर भी भाष्य रचना की थी। भर्तृप्रपञ्च का सिद्धान्त ज्ञान-कर्मसमुच्चयवाद था। दार्शनिक दृष्टि से इनका मत द्वैताद्वैत, भेदाभेद, अनेकान्त आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध था। इसके अनुसार परमार्थ एक भी है और नाना भी; वह ब्रह्मरूप में एक है और जगद्रूप में नाना है। इसी लिए इस मत में एकान्ततः कर्म अथवा ज्ञान को स्वीकार न कर दोनों की सार्थकता मानी गयी है। भर्तृप्रपञ्च प्रमाणसमुच्चयवादी थे। इनके मत में लौकिक प्रमाण और वेद दोनों ही सत्य हैं। इसलिए उन्होंने लौकिक प्रमाणगम्य भेद को और वेदगम्य अभेद को सत्य रूप में माना है। इसी कारण इनके मत में जैसे केवल कर्म मोक्ष का साधन नहीं हो सकता, वैसे ही केवल ज्ञान भी मोक्ष का साधन नहीं हो सकता। मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान--कर्मसमुच्चय ही प्रकृष्ट साधन है।

भर्तृमित्र : जयन्त कृत 'न्यायमञ्जरी' (पृ० 212,226) तथा यामुनाचार्य के 'सिद्धित्रय' (पृ० 4-5) में इनका नामोल्लेख हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि ये भी वेदान्ती आचार्य रहे होंगे। भर्तृमिश्र ने मीमांसा पर भी ग्रन्थ रचना की थी। कुमारिल ने श्लोकवार्तिक में (1.1.1.10; 1.1.6.130-131) इनका उल्लेख किया है। पार्थसारथि मिश्र ने न्यायरत्नाकर में ऐसा ही आशय प्रकट किया है। कुमारिल कहते हैं कि भर्तृमित्र प्रभृति आचार्यों के अपसिद्धान्तों के प्रभाव से मीमांसा शास्त्र लोकायतवत् हो गया। विशिष्टाद्वैतवादी ग्रन्थों में उल्लिखित भर्तृमित्र और श्लोकवार्तिकोक्त मीमांसक भर्तृमित्र एक ही व्यक्ति थे या भिन्न, इसका निर्णय करना कठिन है। परन्तु कुमारिल की उक्ति से मालूम होता है कि ये दो पृथक् व्यक्ति थे। मुकुल भट्ट ने 'अभिधावृत्तिमातृका' में भी भर्तृमित्र का नाम निर्देश किया है (पृ० 17)।

भर्तृयज्ञ : कात्यायनसूत्र के अनेक भाष्यकार तथा वृत्तिकार हुए हैं। उनमें से भर्तृयज्ञ भी एक हैं।

भर्तृहरि : भर्तृहरि का नाम भी यामुनाचार्य के ग्रन्थ में उल्लिखित हुआ है। इनको वाक्यपदीयकार से अभिन्न मानने में कोई अनुपपत्ति नहीं प्रतीत होती। परन्तु इनका कोई अन्य ग्रन्थ अभीतक उपलब्ध नहीं हुआ है। वाक्यपदीय व्याकरण विषयक ग्रन्थ होने पर भी प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ है। अद्वैत सिद्धान्त ही इसका उपजीव्य है, इसमें सन्देह नहीं है। किसी-किसी आचार्य का मत है कि भर्तृहरि के 'शब्दब्रह्मवाद' का ही अवलम्बन करके आचार्य मण्डनमिश्र ने ब्रह्मसिद्धि नामक ग्रन्थ का निर्माण किया था। इस पर वाचस्पति मिश्र की ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा नामक टीका है। उत्पलाचार्य के गुरु, कश्मीरीय शिवाद्वैत के प्रधान आचार्य सोमानन्दपाद ने स्वरचित 'शिवदृष्टि' ग्रन्थ में भर्तृहरि के शब्दाद्वैतवाद की विशेष रूप से समालोचना की है। शान्तरक्षित कृत तत्‍त्वसंग्रह, अविमुक्तात्मा कृत इष्टसिद्धि तथा जयन्त कृत न्यायमञ्जरी में भी शब्दाद्वैतवाद का उल्लेख मिलता है। उत्पल तथा सोमानन्द के वचनों से ज्ञात होता है कि भर्तृहरि तथा तदनुसारी शब्दब्रह्मवादी दार्शनिक गण 'पश्यन्ती' वाक् को ही शब्दब्रह्मरूप मानते थे। यह भी प्रतीत होता है कि इस मत में पश्यन्ती परा वाक्रूप में व्यवहृत होती थी। यह वाक् विश्व जगत् की नियामक तथा अन्तर्यामी चित्-तत्‍त्व से अभिन्न है।

भव : शतपथ ब्राह्मण के कथनानुसार अग्नि को प्राच्य लोग शर्व तथा वाहीक लोग भव कहते थे। किन्तु अथर्ववेद में भव तथा शर्व रुद्र के समकक्ष देवता हैं, जबकि वाजसनेयी संहिता के अनुसार भव तथा शर्व रुद्र के पर्याय हैं। रुद्र तथा शिव के अनेक पर्याय तथा विरुद पहले अलग-अलग देवों के नाम थे, किन्तु कालान्तर में वे एक नाम 'महादेव' में आत्मसात् हो गये। यथा--भव तथा शर्व अग्नि के भयानक रूप को (यज्ञ वाले क्षेमकारी रूप को नहीं) कहते थे, जो बाद में रुद्र के गुण माने जाकर उनके ही पर्याय बन गये।

भवदेव मिश्र : पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त अथवा सोलहवीं के आरम्भ में वेदान्ताचार्य भवदेव मिश्र हुए थे। इन्होंने वेदान्तसूत्र पर एक टीका निर्मित की, जिसका नाम वेदान्तसूत्रचन्द्रिका है।

भवानी (भुइयँन) : भव (शिव) की पत्नी देवी, उमा, गौरी अथवा दुर्गा के ही पर्याय भवानी तथा भुइयँन हैं।

भवानीयात्रा : चैत्र शुक्ल अष्टमी को यह यात्रा की जाती है। इसमें भवानी की 108 प्रदक्षिणाएँ तथा जागरण करना चाहिए। दूसरे दिन भवानी की पूजा का विधान है।

भवानीव्रत : (1) तृतीया के दिन व्रती को पार्वतीजी की प्रतिमा पर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि चढ़ाने चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होता है। वर्ष के अन्त में गौ का दान विहित है (पद्मपुराण)।

(2) यदि कोई स्त्री या पुरुष वर्ष भर पूर्णमासी तथा अमावस्या के दिन उपवास रखकर वर्ष के अन्त में सुगन्धित पदार्थों सहित पार्वतीजी की प्रतिमा का दान करता है तो वह भवानी के लोक को प्राप्त करता है। (लिङ्गपुराण)।

(3) पार्वतीजी के मन्दिर में तृतीया को नक्त पद्धति से आहारादि करना चाहिए। एक वर्ष के अन्त में गौ का दान विहित है। (मत्स्यपुराण)

भविष्यपुराण : अठारह पुराणों में से एक शैव पुराण। इसका यह नाम इसलिए पड़ा कि इसमें भविष्य में होने वाली घटनाओं का वर्णन है। इसमें मुसलमानों, अंग्रेजों और मौनों (मंगोल आदि जातियों) के आक्रमणों का भी वर्णन पाया जाता है। इसमें इतनी आधुनिक घटनाओं के वर्णन बाद में ऐसे जोड़ दिये गये कि इस पुराण का सन्तुलन ही शिथिल हो गया। नारदपुराण के अनुसार इसके पाँच पर्व हैं--- (1) ब्राह्मपर्व (2) विष्णुपर्व (3) शिवपर्व (4) सूर्यपर्व और (5) प्रतिसर्ग पर्व। इसमें श्लोकों की संख्या चौदह हजार है। मत्स्यपुराण के अनुसार श्लोकों की संख्या साढ़े चौदह हजार है। कुछ असंगतियों के होते हुए भी भविष्यपुराण ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसमें मग ब्राह्मणों के शकद्वीप से आने का वर्णन पाया जाता है। भगवान् कृष्ण के पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। उनकी चिकित्सा करने के लिए गरुड शकद्वीप से मग ब्राह्मणों को यहाँ लाये, जिन्होंने सूर्यमन्दिर में सूर्य की उपासना करके उनका कुष्ठ रोग अच्छा कर दिया। सूर्योपासना का विशेष वर्णन इस पुराण में पाया जाता है। कलि में स्थापित अनेक राजवंशों का इतिहास भविष्य पुराण में वर्णित है। इसमें उद्भिज्ज विद्या का भी वृत्तान्त है जो आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।

भस्मजाबाल उपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्।

भाई गुरदास की वार : सोलहवीं शती के अन्त में भाई गुरुदास हुए थे। ये चौथे, पाँचवें तथा छठे सिक्ख गुरुओं के समकालीन थे। इन्होंने सिक्खधर्म को लेकर एक काव्य ग्रन्थ रचा, जिसका नाम 'भाई गुरुदास की वार' है। इसका आंशिक अंग्रेजी अनुवाद मैकोलिफ महोदय ने किया है।

भाई मणिसिंह : सिक्खों के अन्तिम गुरु गोविन्दसिंह की आस्था हिन्दू धर्म के ओजस्वी कृत्यों की ओर अधिक थी। खालसा पन्थ की स्थापना के पूर्व उन्होंने दुर्गाजी की आराधना की थी। इस समय उन्होंने मार्कण्डेय पुराण में उद्धृत दुर्गास्तुति का अनुवाद अपने दरबारी कवियों से कराया। खालसा सैनिकों के उत्‍साहवर्द्धानार्थ वे इस रचना तथा अन्य हिन्दू कथानकों का प्रयोग करते थे। उन्होंने और भी कुछ ग्रन्थ तैयार कराये, जिनमें हिन्दी ग्रन्थ अधिक थे, कुछ फारसी में भी थे। गुरूजी देहत्याग के बाद भाई मणिसिंह ने उनके कवियों और लेखकों के द्वारा अनुवादित तथा रचित ग्रन्थों को एक जिल्द में प्रस्तुत कराया, जिसे 'दसवें गुरु का ग्रन्थ' कहते हैं। किन्तु इसे कट्टर सिक्ख लोग सम्मानित ग्रन्थ के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। इस ग्रन्थ का प्रयोग गोविन्दसिंह के सामान्य श्रद्धालु शिष्य सांसारिक कामनाओं की वृद्धि के लिए करते हैं, जबकि धार्मिक कार्यों में 'आदि ग्रन्थ' का प्रयोग होता है।

भागवत उपपुराण : कुछ शाक्त विद्वानों के अनुसार उन्तीस उपपुराणों मे भागवत पुराण की भी गणना है। परन्तु वैष्णव लोग इस मत को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार 'भागवत' पुराण ही नहीं, अपितु महापुराण है। दे० 'भागवत पुराण'।

भागवततात्पर्यनिर्णय : भागवतपुराण के व्याख्यारूप में मध्वाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ। यह माध्वमत (द्वैतवाद) का प्रतिपादन करता है।

भागवतदेवालय : भागवत सम्प्रदाय के मन्दिरों को देवालय कहते हैं, जिनमें कृष्ण या विष्णु के अन्य अवतारों की मूर्तियाँ स्थापित होती हैं।

भागवत धर्म : दे० 'भक्ति' और 'भागवत'।

भागवत पुराण : यह पाँचवाँ महापुराण है। इस पुराण का पूर्ण नाम श्रीमद्भागवत महापुराण है। इसमें बारह स्कन्ध 335 अध्याय और कुल मिलाकर 18,000 श्लोक हैं। श्रीमद्भागवत का प्रतिस्पर्धी देवीभागवत नाम का पुराण है। इसमें भी 18,000 श्लोक एवं द्वादश स्कन्ध हैं। शाक्त इसी को महापुराण मानते हैं। दोनों के नाम में भी श्रीमत् और देवी का अन्तर है। श्रीमान् विष्णु की उपाधि है, इसलिए श्रीमद्भागवत का अर्थ है वैष्णव भागवत। नारद तथा ब्रह्म पुराण में भागवत के जितने लक्षणों का निर्देश है वे श्रीद्भागवत में पाये जाते हैं। नारदपुराण में श्रीभद्भागवत की संक्षिप्त विषयसूची तथा पद्मपुराण में महात्म्य का वर्णन किया गया है। इन दोनों के अनुसार श्रीमद्भागवत ही महापुराण सिद्ध होता है।

मत्स्यपुराण के मतानुसार भी यही महापुराण ठहरता है। परन्तु मत्स्यपुराण में कथित एक लक्षण श्रीमद्भागवत में नहीं मिलता। उसमें लिखा है कि शारद्वत कल्प में जो मनुष्य और देवता हुए उन्हीं का विस्तृत वृत्तान्त भागवत में कहा गया है। किन्तु प्रचलित श्रीमद्भागवत में शारद्वत कल्प का प्रसङ्ग नहीं है। किन्तु उसी के जोड़ में पाद्म कल्प की कथा वर्णित की गयी है। इसलिए जान पड़ता है कि मत्स्यपुराण में या तो शारद्वत कल्प की चर्चा प्रक्षिप्त है या शारद्वत और पाद्म दोनों एक ही कल्प के दो नाम हैं, या मत्स्यपुराण में वर्णित भागवत प्रचलित श्रीमद्भागवत नहीं है।

भक्ति शाखा का, विशेष कर वैष्णव भक्ति का यह उपजीव्य ग्रन्थ है। इसको 'निगम तरु का स्वयं गलित अमृत-फल' कहा गया है। जिस प्रकार वेदान्तियों ने गीता को प्रसिद्ध प्रस्थान मानकर उस पर भाष्य लिखा है उसी प्रकार वैष्णव आचार्यों ने भागवत को वैष्णवधर्म का मुख्य प्रस्थान मानकर उस पर भाष्यों और टीकाओं की रचना की। वल्लभाचार्य ने भागवत को व्यास की 'समाधिभाषा' कहा है। इस पर उनकी 'सुबोधिनी' टीका प्रसिद्ध है। भागवत का चैतन्य सम्प्रदाय और वल्लभ सम्प्रदाय दोनों पर गम्भीर प्रभाव पड़ा। दोनों सम्प्रदायों ने भागवत के आध्यात्मिक तत्त्वों का विस्तृत निरूपण किया है। ऐसे ग्रन्थों में आनन्दतीर्थ कृत 'भागवततात्पर्यनिर्णय' और जीव गोस्वामी के 'षट् सन्दर्भ' बहुत प्रसिद्ध हैं। भागवत के अनुसार एक ही अद्वैत तत्त्व जगत् के व्यपार--सृष्टि, स्थिति और लय के लिए विभिन्न अवतार धारण करता है। भक्ति ही मोक्ष का मुख्य साधन है। इसके बिना ज्ञान और कर्म व्यर्थ हैं।

भागवतभावार्थदीपिका : पन्द्रहवीं शताब्दी में उत्पन्न श्रीधर स्वामी द्वारा विरचित भागवत पुराण की सुप्रसिद्ध टीका। वैष्णवों द्वारा यह टीका अति सम्मानित है। श्रीधर स्वामी काशी में मणिकर्णिका घाट के समीप 'नरसिंहचौक' में रहते थे तथा जनश्रुति के अनुसार पुरी के गोवर्धन मठ से सम्बद्ध थे। इन्होंने भागवत पुराण को बोपदेव की रचना स्वीकार नहीं किया है। इन्होंने यह व्याख्या अद्वैतवादी दृष्टि से की है, फिर भी सभी वैष्णवाचार्य इनको प्रामाणिक व्याख्याकार मानते हैं।

भागवतमाहात्म्य : पद्मपुराण और स्कन्दपुराण के अंश रूप में दो भागवतमाहात्म्य पाये जाते हैं। उनमें पद्मपुराणीय माहात्म्य अधिक प्रचलित है। यह भागवत पुराण की रचना से बहुत पीछे रचा गया। इसमें उद्धृत एक कथा से कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि यह पुराण दक्षिण देश में रचा गया था। इस कथा में भक्ति एक स्त्री के रूप में अवतरित होकर कहती है कि मैं द्रविड देश में उत्पन्न हुई थी, कर्णाटक में बड़ी हुई, महाराष्ट्र में मेरा कुछ-कुछ पोषण हुआ और गुजरात में वृद्ध हो गयी। फिर मैं घोर कलियुग के योग से पाखण्डों द्वारा खण्डित-अंगिनी और दुर्बल होकर ज्ञान-वैराग्य नामक अपने पुत्रों के साथ बहुत दिनों तक मन्दता में पड़ी रही। सम्प्रति वृन्दावन पहुँच कर नवीना, सुरूपिणी और सम्यक् प्रकार से परिपूर्ण हो गयी हूँ (1.48--50)।

भागवतसम्प्रदाय : दे० 'भागवत'।

भागवतलीलारहस्य : महाप्रभु वल्लभाचार्य रचित एक अप्रकाशित ग्रन्थ।

भागवतलघुटीका : विष्णुस्वामी संप्रदाय के साहित्य में इसकी गणना होती है। यह वरदराजकृत है तथा इसकी पाण्डुलिपि वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में उपलब्ध है। रचनाकाल पन्द्रहवीं शताब्दी है।

भागवतव्याख्या : विष्णुस्वामी सम्प्रदाय का एक सम्मानित आधारग्रन्थ। इस सम्प्रदाय के संस्थापक विष्णुस्वामी दक्षिण भारत के निवासी थे। उन्होंने गीता, वेदान्तसूत्र तथा भागवत पुराण पर व्याख्याएँ रची थी, जो अब प्राप्त नहीं हैं। इनके भागवत सम्बन्धी ग्रन्थ का उल्लेख श्रीधर स्वामी ने अपनी टीका (1.7) में किया है। इसका रचनाकाल 13वीं शताब्दी माना जा सकता है।

भागवतामृत : महाप्रभु चैतन्य के शिष्य सनातन गोस्वामी द्वारा रचित एक ग्रन्थ। इसमें चैतन्य सम्प्रदाय के आशयानुसार श्री कृष्ण की व्रजलीलाओं का वर्णन किया गया है।

भाग्यर्क्षद्वादशी : पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रयुक्त द्वादशी को हरिहर भगवान् की प्रतिमा का पूजन करना चाहिए। इसमें अर्ध मूर्ति हरि तथा शेष अर्ध मूर्ति हर (शिव) का प्रतिनिधित्व करती है। तिथि चाहे द्वादशी हो या सप्तमी, दोनों दिन समान फल मिलता है। इसी प्रकार नक्षत्र चाहे पूर्वाफाल्गुनी हो या रेवती अथवा धनिष्ठा, वही फल होता है। इस कृत्य से मनुष्य पुत्र, पौत्र तथा राज्य प्राप्त करता है। पूर्वाफाल्गुनी भाग्य के नाम से पुकारा जाता है, क्योंकि इसका अधिपति भग देवता है। 'ऋक्ष' का अर्थ है नक्षत्र (भाग्य+ ऋक्ष, भाग्यर्क्ष)।

भागीरथी : सगर के प्रपौत्र राजा भगीरथ ने अपने 60,000 पूर्वजों (सगर के पुत्रों) को, जो कपिल के शाप से भस्म हो गये थे, तारने के लिए देवनदी गङ्गा को स्वर्ग से पृथ्वी पर तथा पृथ्‍वी से पाताल की ओर ले जाने के लिए घोर तपस्या की थी। भगीरथ के प्रयत्न से पृथ्वी पर आने के कारण गङ्गा को भागीरथी कहते हैं। दे० रामायण, 1.38.44।

भागुरि : ऋग्वेद शाखा का एक ग्रन्थ बृहद्देवता है, जिसमें वैदिक आख्यानादि विस्तार से लिखे गये हैं। यह ग्रन्थ शौनक द्वारा रचित बताया जाता है। कुछ लोग इसे शौनक सम्प्रदाय के किसी व्यक्ति, भागुरि और आश्वलायन की रचना बतलाते हैं।

भाट्टदिनकर : यह भट्ट दिनकर रचित (1600 ई०) पार्थसारथि मिश्र के 'शास्त्रदीपिका' ग्रन्थ की टीका है। यह पूर्वमीमांसा विषयक ग्रन्थ है।

भाट्टदीपिका : सत्रहवीं शताब्दी में उत्पन्न पूर्वमीमांसा के आचार्य खण्डदेव द्वारा जैमिनिसूत्रों के वार्तिक पर रचित व्याख्या ग्रन्थ। इसमें शब्द का देवत्व अर्थात् 'वेदमन्त्र ही देवता हैं' इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।

भातपाँत : एक पंक्ति में बैठकर समान कुल के लोगों द्वारा कच्चा भोजन करना। यह विचारधारा बहुत प्राचीन है। पुराणों और स्मृतियों में हव्य-कव्यग्रहण के सम्बन्ध में ब्राह्मणों की एक पंक्ति में बैठने की पात्रता पर विस्तार से विचार हुआ है। मनुस्मृति (3.149) में लिखा है कि धर्मज्ञ पुरुष हव्य (देवकर्म) में ब्राह्मण की उतनी जाँच न करे, किन्तु कव्य (पितृकर्म) में आचार-विचार, विद्या, कुल, शील की अच्छी तरह जाँच कर ले। एक लम्बी सूची अपाङ्क्तेयता की दी हुई है। प्रसङ्ग से जान पड़ता है कि मनुस्मृति के समय तक द्विज मात्र एक दूसरे के यहाँ भोजन करते थे। विचारवान व्यक्ति यह देख लेते थे कि जिसके यहाँ हम भोजन करते हैं, वह स्वयं सच्चरित्र है, उसका कुल सदाचारी है और उसके यहाँ छूत वाले रोगी तो नहीं हैं। जब अधिक संख्या संख्या में लोग खाने बैठते थे तब भी इसका विचार होता था। पंक्ति का विचार हव्य-कव्य में ब्राह्मण के अन्तर्गत चलता था। देखादेखी पंक्ति का ऐसा ही नियम और वर्गों में भी चल पड़ा। जिसे अपाङ्क्तेय या पंक्ति से बाहर कर देते थे वह फिर पतित समझा जाता था। बड़े भोज उन्हीं लोगों में सम्भव थे जो एक ही स्थान के रहनेवाले, एक ही तरह का काम या व्यवसाय करते थे और जिनकी परस्पर नातेदारियाँ थीं।

विवाह भी इसी प्रकार समान कर्म और वर्ण, समान कुलशील वालों में होना आवश्यक था। इसीलिए भातपाँत का जन्म हो गया।

भादू : बाग्‍दी नाम की एक वनवासी जाति मध्य भारत तथा पश्चिम बङ्गाल में बसती है। यह सनातन हिन्दू धर्म तथा पशु एवं प्रकृति की पुजारी है। इस जाति के लोग मनसा देवी की पूजा करते हैं, जिसकी प्रतिमा सारे ग्राम में घुमायी जाती है। अन्त में एक तालाब में मूर्तिविसर्जन करते हैं। ये एक नारी साधुनी की मूर्ति को भी घुमाते हैं, जिसकी उपाधि 'भादू' है। इसके बारे में कहा जाता है कि यह पचेत के राजा की पुत्री थी तथा अपनी जाति की भलाई के लिए इसने अविवाहितावस्था में ही अपना जीवन दान कर दिया था (मर गयी थी)। इसकी पूजा में गान तथा जंगली नाचों का समावेश है।

भानुदास : सोलहवीं शताब्दी के महाराष्ट्रीय भक्तों में भानुदास की गणना होती है। इनके रचे अभङ्गों (पदों) के कारण इनकी प्रसिद्धि है।

भानुव्रत : सप्तमी के दिन यह व्रत प्रारम्भ होता है। उस दिन नक्तविधि से आहार करना चाहिए। सूर्य इसके देवता हैं। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होता है। वर्ष के अन्त में गौ तथा स्वर्ण के दान का विधान है। इस कृत्य से व्रती स्वर्ग लोक जाता है।

भानुसप्तमी : यदि रविवार के दिन सप्तमी पड़े तो उसे भानुसप्तमी कहा जाता है। दे० गदाधरपद्धति, पृ० 610। इस दिन उपवास, व्रत तथा सूर्यपूजन का विधान है।

भामती : शांकर भाष्य की एक विख्यात व्याख्या, जो मूल के समान अपना गौरव रखती है। इसकी रचयिता दार्शनिकपंचानन वाचस्पति मिश्र (नवीं शताब्दी) थे। शाङ्कर मत को समझने के लिए इसका अध्ययन अनिवार्य समझा जाता है। अद्वैतवाद का यह प्रामाणिक ग्रन्थ है। ग्रन्थ के नामकरण की एक कथा है। वाचस्पति मिश्र की पत्नी का नीम भामती था। ग्रन्थ प्रणयन के समय वह मिश्रजी की सेवा करती रही, परन्तु वे स्वयं ग्रन्थ रचना में इतने तल्लीन रहते थे कि उसको बिलकुल भूल गये। ग्रन्थ समाप्ति पर भामती ने व्यंग्य से इसकी शिकायत की। वाचस्पति ने उसको सन्तुष्ट करने के लिए ग्रन्थ का नाम 'भामती' रख दिया।

भारत : इस देश का प्राचीन नाम भारत है। इस नामकरण की कई परम्पराएँ हैं। एक बहुप्रचलित परम्परा है कि दुष्यन्तकुमार और चक्रवर्ती राजा भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत अथवा भारतवर्ष पड़ा। दूसरी परम्परा श्रीमद्भागवत और जैन पुराणों में मिलती है। इसके अनुसार ऋषभदेव के पुत्र महाराज भरत के, जो आगे चलकर बड़े महात्मा और योगी हो गये थे, नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। परन्तु अधिक सम्भव जान पड़ता है कि भरतवर्ग (कबीले) के नाम पर, जो राजनीति, धर्म, विद्या और कला सभी में अग्रणी था, इस देश का नाम भारत पड़ा। इस देश की सन्तति और संस्कृति भी उसके नाम पर भारती कहलायी। विष्णुपुराण में भारत की सीमा इस प्रकार दी हुई है :

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः॥

[हिमालय से समुद्र तक के उत्तर-दक्षिण भूभाग का नाम भारत है, इसमें भारती प्रजा रहती है।] इसमें संतति की कल्पना सांस्कृतिक है, प्रजातीय नहीं। भारतीय परम्परा ने रक्त और रङ्ग से ऊपर उठकर सदा भावनात्मक एकता पर बल दिया है।

भारत की संस्कृति अति प्राचीन है। इसकी परम्परी में सृष्टि का वर्णन सबसे निराला है। फिर मन्वन्तर और राजवंशों का वर्णन जो कुछ है वह भारतवर्ष के भीतर का है। चर्चा विविध द्वीपों और देशों की है सही, परंतु राजवंशों का जहाँ कहीं वर्णन है उसकी भारतीय सीमा निश्चित है। महाभारत के संग्राम में चीन, तुर्किस्तान आदि सभी पास के देशों की सेना आयी देख पड़ती है, पाण्डवों और कौरवों की दिग्विजय में वर्त्तमान भारत के पुण्यभूमि ही है। इसके पर्वत, वन, नदी-नाले, वृक्ष, पल्लव, ग्राम, नगर, मैदान, यहाँ तक कि टीलें भी पवित्र तीर्थ हैं। द्वारका से लेकर प्राग्ज्योतिष तक, बदरी-केदार से लेकर कन्याकुमारी या धनुष्कोटि तक, अपितु सागर तक आदि सीमा और अन्त सीमा, तीर्थ और देवस्थान हैं। यहाँ के जलचर, स्थलचर, गगनचर, सबमें पूज्य और पवित्र भावना वर्तमान है। लोग देश से प्रेम करते हैं। हिन्दू अपनी मातृभूमि को पूजते हैं।

भारतीय हिन्दू परम्परा अपना आरम्भ सृष्टिकाल से ही मानते हैं। उसमें कहीं किसी आख्यान से, किसी चर्चा से, किसी वाक्य से यह सिद्ध नहीं होता कि आर्य जाति कहीं बाहर से इस देश में आय़ी। अर्थात् परम्परानुसार ही इस भारत देश के आदिवासी आर्य हैं।

भारतभावदीप : नीलकण्ठ सूरि (सोलहवीं शताब्दी) महाभारत के प्रसिद्ध टीकाकार हैं। इस टीका का नाम भारतभावद्वीप है। इसके अन्तर्गत गीता की व्याख्या में अपनी टीका को सम्प्रदायानुसारी (परम्परागत) बतलाते हुए इन्होंने स्वामी शङ्कराचार्य एवं श्रीधरादि की वन्दना की है। इस व्याख्या में कहीं-कहीं शाङ्करभाष्य का अतिक्रमण भी हुआ है, तथापि मुख्य अभिप्राय अद्वैत सम्प्रदाय के अनुकूल ही है।

भारत संहिता : महर्षि जैमिनि को पूर्वमीमांसा दर्शन के अतिरिक्त भारतसंहिता का भी रचयिता कहते हैं। इसका एक अन्य नाम 'जैमिनिभारत' है।

भारतधर्ममहामण्डल : 19वीं शताब्दी के आरम्भ में ईसाई मत के प्रभाव ने हिन्दू विचारों पर गहरा आघात किया, जिसने मौलिक सिद्धान्तों पर पड़े आघातों के अतिरिक्त प्रतिक्रिया रूप में हिन्दू मात्र की एकता को जन्म दिया। इसके फल स्वरूप 'भारतधर्ममहामण्डल' जैसी संस्थाओं की स्थापना हुई और हिन्दुत्व की रक्षा के लिए संघटनात्मक प्रयत्न होने लगे। महामण्डल का मुख्य अधिष्ठान काशी में है। इसके संस्थापक वंगदेशीय स्वामी ज्ञानानन्दजी थे। महामण्डल के मुख्य तीन उद्देश्य रखे गये : (1) हिन्दुत्व की एकता और उत्थान (2) इस कार्य के सम्पादन के लिए उपदेशकों का संघटन और (3) हिन्दूधर्म के सनातन तत्त्वों के प्रचारार्थ उपयुक्त साहित्य का निर्माण। अब मण्डल महिलाशिक्षण कार्य की ओर अग्रसर है।

भारतवर्षीय ब्राह्मसमाज : राजा राममोहन राय द्वारा संस्थापित धर्मसुधारक समिति। ब्रह्मसमाज आगे चलकर दो समाजों में बँट गया : आदि ब्रह्मसमाज एवं भारतवर्षीय ब्रह्मसमाज। यह घटना 11 नवम्बर सन् 1866 की है, जिस समय केशवचन्द्र सेन ब्राह्मसमाज के मन्त्री बने। आदि ब्राह्मसमाज देवेन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा व्यवस्थापित नियमों को मान्यता देता था, और भारतवर्षीय ब्रह्मसमाज के विचार अधिक उदार थे। इसमें साधारण प्रार्थना तथा स्तुतिपाठ के साथ-साथ हिन्दू, ईसाई, मुस्लिम, जोरोष्ट्रियायी तथा कनफ्यूशियस के ग्रन्थों का भी पाठ होता था। केशवचन्द्र ने इसे हिन्दू प्रणाली की सीमा से ऊपर उठाकर मानववादी धर्म के रूप में बदल दिया। फलतः भारतवर्षीय ब्राह्मसमाज की सदस्यता देश के कोने-कोने मे फैल गयी तथा आदि ब्राह्मसमाज जितना सुधारवादी बना, उतनी ही अपनी मूल परम्परा से दूर होता गया, इसकी जीवनी शक्ति क्षीण होती गयी और यह सूखने लगा। दे० 'ब्राह्मसमाज'।

भारती : (1) सरस्वती का एक पर्याय। भारती का संबन्ध वैदिक भरतों से प्रतीत होता है। भरतों के सांस्कृतिक अवदान का व्यक्तीकरण ही भारती है।

(2) शङ्कर के दसनामी संन्यासी की एक शाखा 'भारती' है। भारती उपनाम के संन्यासी कुछ उच्च श्रेणी में गिने जाते हैं। दसनामियों की तीर्थ, आश्रम एवं सरस्वती शाखाओं में केवल ब्रह्मण ही दीक्षित होते हैं, अतएव ये पवित्र उपनाम हैं। भारती शाखा में ब्राह्मणों के साथ ही अन्य वर्ण भी दीक्षित होते हैं, इसलिए यह उपनाम आधा ही पवित्र माना जाता है।

भारतीतीर्थ : चौदहवीं शताब्दी के मध्य में महात्मा भारतीतीर्थ के शिष्य विद्यारण्य स्वामी ने 'पञ्चदशी' नामक वेदान्त विषयक अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ प्रस्तुत किया। यह प्रसादगुणपूर्ण अनुष्टुप् छन्दों के पंद्रह प्रकरणों में रचा गया है।

भारती यति : सांख्य दर्शन के आचार्य, जो चौदहवीं शती के प्रारम्भ में हुए। इन्होंने वाचस्पतिमिश्रविरचित 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' पर 'तत्त्वकौमुदी व्याख्या' नामक टीका रची।

भारती शिष्यपरम्परा : भारती, सरस्वती एवं पुरी उपनामों की शिष्यपरम्परा शंकराचार्य के श्रृंगेरी मठ के अन्तर्गत है। दे० 'भारती'।

भारद्वाज : भरद्वाज कुल में उत्पन्न ऋषि। ये यजुर्वेद की एक श्रौत एवं गृह्य शाखा के सूत्रकार थे। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में इनका उल्लेख आचार्य के रूप में तथा पाणिनि के अष्टाध्यायीसूत्रों में वैयाकरण के रूप में हुआ है। इससे विदित होता है कि ऋषि भारद्वाज शिक्षाशास्त्री, वैयाकरण, श्रौत एवं गृह्य सूत्रकार भी थे।

भारद्वाजगृह्यसूत्र : कृष्ण यजुर्वेद का एक गृह्यसूत्र।

भारद्वाजश्रौतसूत्र : कृष्ण यजुर्वेद का श्रौतसूत्र, जो भारद्वाज द्वारा रचित है।

भारभूतेश्वरव्रत : आश्विन पूर्णिमा के दिन काशी में भारतभूतेश्वर शंकरजी की पूजा का विधान है।

भारुचि : आचार्य रामानुज कृत वेदार्थसंग्रह में (पृ० 154) प्राचीन काल के छः वेदान्ताचार्यों का उल्लेख मिलता है, जिनमें भारुचि भी हैं। श्रीनिवासदास ने 'यतीन्द्रमतदीपिका' में भी इनका उल्लेख किया है। भारुचि के विषय में विशेष परिज्ञान नहीं है। विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा (याज्ञ० 1.18 और 2.124), माधवाचार्य कृत पराशरस्मृति की टीका (2.3,पृ० 510) एवं सरस्वतीविलास (प्रस्तर 133) प्रभृति ग्रन्थों में धर्मशास्त्रकार भारुचि का नाम उपलब्ध होता है। प्रतीत होता है कि उन्होंने विष्णुकृत 'धर्मसूत्र' के ऊपर एक टीका लिखी थी। श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में प्रसिद्ध भारुचि और धर्मशास्त्रकार भारुचि एक माने जायँ, तो इनका समय नवीं शताब्दी के प्रथामार्ध में माना जा सकता है।

भार्गव : भृगु के वंशज या गोत्रोत्पन्न। यह अनेक ऋषियों का पितृबोधक नाम है, जिनमें च्यवन (शतपथ ब्राह्मण, 41,5,1; ऐतरेय ब्राह्मण, 8.21) तथा गृत्स्मद (कौषीतकि ब्राह्मण, 22.4) उल्लेखनीय हैं। अन्य भार्गवों का भी उनके व्यक्तिगत नामों के विना ही उल्लेख हुआ है (तैत्तिरीय संहिता, 1.8,18,1; शाङ्खायन आरण्यक 6.15; ऐतरेय ब्राह्मण, 8.2,1,5; प्रश्नोपनिषद्, 1.1; पञ्चविंशब्राह्मण, 12.2,23; 9,19,39 आदि)। शुक्राचार्य, मार्कण्डेय, परशुराम आदि ऋषि भार्गव (भृगुवंशज) हैं। (मृत्पात्र पकाने के कारण कुम्भकार भी भार्गव कहलाता है। वनवासकाल में पाण्डव इसके घर में टिके थे।)

भार्गव उपपुराण : यह उन्तीस उपपुराणों में से एक है।

भार्या : परवर्ती काल में इसका पत्नी अर्थ प्रचलित हुआ है। 'सेंटपीटर्सवर्ग' के शब्दकोश के अनुसार सर्वप्रथम यह शब्द ऐतरेय ब्राह्मण में प्रयुक्त हुआ है (7.9.8) जहाँ इसका अर्थ गृहस्थी की एक सदस्या है, जिसका भरण करना आवश्यक है। शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य की दो स्त्रियों को इसी शब्द से अभिहित किया गया है (बृहदारण्यकोपनिषद् 3.4,1; 4.5,1)। आगे चलकर पत्नी के अर्थ में ही इसका प्रयोग होने लगा।

भावत्रय : शक्ति की आराधना करने वाले तान्त्रिक लोग तीन भावों (अवस्थाओं) का आश्रय लेते हैं; 'दिव्य भाव' से देवता का साक्षात्कार होता है। 'वीर भाव' से क्रिया सिद्धि होती है। 'पशु भाव' से ज्ञानसिद्धि होती है। इन्हें क्रम से दिव्याचार, वीराचार और पश्वाचार भी कहते हैं। पशुभाव से ज्ञान प्राप्त करके वीरभाव द्वारा रुद्रत्व पद प्राप्त किया जाता है। दिव्याचार द्वारा साधक के अन्दर देवता की तरह क्रियाशीलता हो जाती है। इन भावों का मूल निःसन्देह शक्ति है।

भावना उपनिषद् : यह शाक्त उपनिषद् है। इसका रचना काल 900 तथा 1350 ई० के बीच रखा जा सकता है।

भावनाविवेक : महान् कर्मकाण्डी मण्डन मिश्र द्वारा विरचित पूर्वमीमांसा का एक ग्रन्थ।

भावप्रकाशिका विवरणटीका : अद्वैत सम्प्रदाय के विद्वान नृसिंहाश्रम द्वारा रचित भावप्रकाशिका प्रकाशात्मयतिकृत 'पञ्चपादिकाविवरण' की टीका है।

भावानन्द : नाभादासजी के 'भक्तमाल' में वर्णित सन्त व भक्तों में भावानन्द का उल्लेख है। किन्तु केवल एक पद्य में उनकी रामभक्ति के उल्लेख के सिवा उनका और कुछ वर्णन प्राप्त नहीं होता।

भावार्थरामायण : सोलहवीं-सत्रहवीं शती के मध्य उत्पन्न एक महाराष्ट्रीय भक्त ने इस ग्रन्थ की रचना की थी।

भाषापरिच्छेद : न्याय-वैशेषिक दर्शन विषयक एक पद्यात्मक प्रसिद्ध ग्रन्थ। इसकी रचना 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में वंगदेशीय विश्वनाथ पञ्चानन द्वारा हुई थी। इसके पद्य अनुष्टुप् छन्द में हैं, इसलिए व्यवहार में इसका नाम 'कारिकावली' प्रसिद्ध है।

भाषावृत्ति : यह पाणिनि मुनि की अष्टाध्यायी पर अवलम्बित एक व्याकरण ग्रन्थ हैं। इसके रचयिता पुरुषोत्तमदेव नामक एक वैयाकरण थे। पुरुषोत्तम द्वारा रचित एक उपयोगी कोशग्रन्थ 'हारावली' नाम से प्रसिद्ध हैं।

भाष्य : धार्मिक, दार्शनिक या सैद्धान्तिक सूत्रग्रन्थों पर जो समालोचनात्मक अथवा व्याख्यात्मक ग्रन्थ लिखे गये हैं उनको भाष्य कहते हैं। इसका शाब्दिक अर्थ है कहने लायक अथवा स्पष्ट करने लायक :

सूत्रार्थो वर्ण्यते वाक्ययैः सूत्रानुसारिभिः। स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः॥

भाष्याचार्य : स्वामी रामानुज के परम गुरु और यामुनाचार्य के गुरू का (गुणवाचक) नाम भाष्याचार्य है।

भासर्वज्ञ : न्याय दर्शन के एक आचार्य। इन्होंने न्यायसार नामक ग्रन्थ लिखा जिसके ऊपर अष्टादश टीकाएँ रची गयी हैं।

भास्कर : काश्मीर शैव मत के एक आचार्य, जो 11वीं शताब्दी में उत्पन्न हुए। इन्होंने 'शिवसूत्रवार्त्तिक' लिखा है। यह ग्रन्थ वसुगुप्त रचित 'शिवसूत्र' पर वार्तिकों के रूप में प्रस्तुत हुआ है।

भास्करपूजा : सूर्य भगवान् विष्णु के दक्षिण नेत्र हैं। इसलिए विष्णु के रूप में सूर्य का पूजन करना चाहिए। रथ के पहिये के समान मण्डल बनाकर उसमें सूर्य की पूजा की जाती है। सूर्य पर चढ़ाये हुए फूल प्रतिमा से हटाने के बाद व्रती को अपने शरीर पर धारण नहीं करने चाहिए। तिथितत्त्व, 36; पु० चि०, 104। बृहत्संहिता (57.31--57) में इस बात का निर्देश मिलता है कि किसी देवता की प्रतिमा कैसी बनायी जाय। मूर्तिनिर्माण में एक बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि मूर्ति के चरणों से वक्ष तक का भाग नग्न न रहने पाये, अपितु किसी वस्त्र से आच्छादित रहे।

भास्करप्रियासप्तमी : जब सूर्य सप्तमी को एक राशि से संक्रमण कर द्वितीय राशि पर पहुँचते हैं तब वह सप्तमी महाजया कहलाती है। यह तिथि सूर्य को बहुत प्रिय है। उस दिन स्नान, दान, जप, होम, देवपूजा, पितृतर्पण इत्यादि करने से करोड़ों गुना पुण्य प्राप्त होता है।

भास्कर मिश्र : यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता का एक छोटा भाष्य भास्कर मिश्र ने लिखा है। इन्होंने तैत्तिरीय आरण्यक का भी एक भाष्य रचा है।

भास्करराय : अठारहवीं शताब्दी का प्रारम्भ इनका स्थिति काल कहा जाता है। ये दक्षिणमार्गी शाक्त तथा देवी के परम उपासक थे। नृसिंहानन्दनाथ, भास्करानन्दनाथ तथा उमानन्दनाथ ने मिलकर एक छोटी सी गुरुपरम्परा स्थापित की। भास्करानन्दनाथ इनमें सबसे महान् थे। वे ही भास्करराय के नाम से अभिहित किये जाते हैं। ये तञ्जौर नरेश के सभापण्डित थे। शाक्त साधनाप्रणाली को इन्होंने आर्य छन्दों में विद्वत्तापूर्ण ढंग से लिखा है, जिसका नाम है 'वरिवस्यारहस्य'। इस पर स्वयं इनका एक भाष्य भी है। इन्होंने वामकेश्वर तन्त्र, त्रिपुरा, कौल एवं भावना (शाक्त) उपनिषद्, ललिता सहस्रनाम, महा एवं जाबाल उपनिषद् तथा ईश्वरगीता की व्याख्याएँ भी रची हैं।

भास्करव्रत : कृष्ण पक्ष की षष्ठी को यह सूर्य का व्रत किया जाता है। यह तिथिव्रत है। इसके अनुसार षष्ठी को उपवास तथा सप्तमी को 'सूर्यः प्रसीदतु' वचन के साथ विधिपूर्वक पूजन होना चाहिए। इस कृत्य से व्रती समस्त रोगों से मुक्त होकर स्वर्ग प्राप्त करता है।

भास्कराचार्य : नवीं-दसवीं शताब्दी के मध्य में वेदान्तसूत्रों का एक उल्लेखनीय भाष्य रचा गया, जिसके कर्त्ता थे भास्कराचार्य या भट्ट भास्कर। इसकी महत्ता इनके भेदाभेद दर्शन के कारण है। इन्होंने शङ्कर का नाम तो नहीं लिया है किन्तु अपने भाष्य में उन पर बराबर आक्षेप किये हैं। उदयनाचार्य ने कुसुमाञ्चलि ग्रन्थ में भास्कराचार्य का विरोध किया है।

निम्बार्क का भी एक अन्य नाम भास्कर था और उनका भी दार्शनिक मत भेदाभेद है। इससे भास्कराचार्य तथा निम्बार्क के एक होने का भ्रम होता है। किन्तु प्रथम के वेदान्त का विशुद्ध भाष्यकार तथा द्वितीय के साम्प्रदायिक वृत्तिकार होने के कारण दोनों का पार्थक्य स्पष्ट प्रतीत होता है। निम्बार्क अवश्य भास्कर से परवर्ती आचार्य हैं, क्योंकि राधा की उपासना 1100 ई० के बाद ही व्रजमण्डल में प्रचलित हुई, जो भास्कराचार्य के समय के बहुत बाद की घटना है।

भास्करानन्दनाथ : दे० 'भास्करराय'।

भिक्षा : शतपथ ब्राह्मण (11.3,3,6), आश्वलायन गृह्यसूत्र (1.9), बृहदारण्यकोपनिषद् (3.4,1; 4.4,, 26) में भिक्षा को ब्रह्मचारी के कर्त्तव्यों में कहा गया है। अथर्ववेद (11.5.9) में याचना से प्राप्त पदार्थ को भिक्षा कहा गया है। छान्दोग्य (8.85) में भी इसका उपर्युक्त अर्थ है, किन्तु वहाँ इसका शुद्ध उच्चारण सम्भवतः आभिक्षा है।

भिक्षु : भिक्षा माँगकर जीवन यापन करने वाला संन्यासी। आत्मा-परमात्मा के स्वरूप को जान लेने पर मनुष्य संसार से विरक्त होकर परमात्मा के चिन्तन में ही अपने को समर्पित कर देता है। उस दशा में देहरक्षा के लिए भिक्षा माँगने भर को ही ऐसा व्यक्ति गृहस्थों के सम्पर्क में आता है। ऐसा परमात्मचिन्तनपरायण संन्यासी भिक्षु कहा जाता है। दरिद्र या अभावग्रस्त होकर माँगने वाला व्यक्ति भिक्षु नहीं, याचक कहलाता है। संसारत्यागी बौद्ध संन्यासी भी भिक्षु कहे जाते हैं।

भिक्षुक उपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्, जिसका सम्बन्ध संन्यासाश्रम से है।

भिषक् : यह शब्द सभी वेदसंहिताओं में साधारणतः व्यवहृत हुआ है। प्रारम्भिक वैदिक ग्रन्थों में भिषक्कर्म अस्समानित नहीं था। अश्विनीकुमार, वरुण तथा रुद्र सभी भिषक् कहे गये हैं। परन्तु धर्मसूत्रों में इस कार्य की निन्दा हुई है। यह घृणा यजुर्वेद की कुछ सं० (तै० सं० 6.4,9,3; मैत्रा० सं० 4.6,2; शत० ब्रा० 4.1,5,14) से आरम्भ होती है जहाँ भेषज-अभ्यास करने के कारण अश्विनों की निन्दा की गयी है। इस निन्दा का कारण यह है कि अपने इस व्यवसाय के कारण उन्हें बहुत अधिक लोगों के पास जाना पड़ता है (यहाँ इतर जातियों के घृणित लगाव या छूआ-छूत की ओर संकेत है)।

ऋग्वेद की एक ऋचा में एक भिषक् अपने पौधों तथा उनकी आरोग्यशक्ति की प्रशंसा करता है (1097)। अश्विनों द्वारा पंगु (ऋ० 1.112,8; 10.39,3), अंधे ऋ० 1.116,17) को अच्छा करने, वृद्ध च्यवन तथा पुरन्धि के पति को युवा बनाने, विश्वपाला को लौहपाद (आयसी जङ्घा) प्रदान करने के चमत्कारों का वर्णन प्राप्त होता है। यह मानना भ्रमपूर्ण न होगा कि वैदिक आर्य शल्य चिकित्सा भी करते थे। वे अपने घावों पर सादी (एक पदार्थ से तैयार) औषध का प्रयोग भी करते थे। उनकी शल्य चिकित्सा तथा औषधज्ञान का विकास हो चुका था। अथर्ववेद के ओषधि वर्णन में वनस्पति तथा जादूमन्त्र का भी उल्लेख है, चिकित्सा और शरीरविज्ञान का भी वर्णन है। ऋग्वेद में भेषजों के व्यवसाय के प्रमाण (9.112) प्राप्त हैं। पुरुषमेध के बलिपशुओं में भिषक् का भी नाम आता है (वा० सं० 30.10; तै० ब्रा० 3.4,4,1)।

भीमचन्द्र कवि : वीर शैव मतावलम्बी एक विद्वान्। इन्होंने 1369 ई० में 'वसव पुराण' का अनुवाद तेलुगु भाषा में किया था।

भीमद्वादशी : (1) सर्वप्रथम इसकी कथा श्री कृष्ण ने द्वितीय पाण्डव भीम को सुनायी थी। उसके बाद यह तिथि इसी नाम से विख्यात हो गयी। इससे पूर्व इसका नाम कल्याणी था। मत्स्य पुराण (69,19-65) और पद्मपुराण 2.23 में इसका विशद विवेचन किया गया है, जिसका अधिकांश भाग कृत्यकल्पतरु (354-359) ने उद्धृत किया है तथा हेमाद्रि (व्रतखण्ड 1044-1049 पद्म० से) ने भी उद्धृत किया है। माघ शुक्ल दशमी को स्नान करके शरीर पर घी लगाकर भगवान् विष्णु की `नमो नारायणाय` मन्त्र से पूजा करनी चाहिए। भगवान् के भिन्न-भिन्न शरीरावयवों का उनके विभिन्न नामों (यथा केशव, दामोदर आदि) से पूजन करना चाहिए। गरुड़, शिव तथा गणेश के पूजन के साथ एकादशी को पूर्ण उपवास करना चाहिए। द्वादशी को किसी नदी में स्नान करके घर के सामने मण्डप बनाना चाहिए। तदनन्तर एक जलपूर्ण कलश को, जिसकी तली में छोटा सा छेद हो, किसी तोरण में लटका पर स्वयं रात भर खड़े होकर उसकी एक-एक बूँद को अपनी हथेली पर गिरते रहने देना चाहिए और प्रत्येक बूँद के साथ भगवान् का नाम लेते रहना चाहिए। तदनन्तर चार ऋग्वेदी ब्राह्मणों द्वारा होम, चार यजुर्वेदी ब्राह्मणों से रुद्रजाप तथा चार सामवेदी ब्राह्मणों से समागान कराना चाहिए। बारहों विद्वान् ब्राह्मणों को अँगूठियाँ तथा वस्त्र देकर सम्मानित करना चाहिए। दूसरे दिन प्रातः गौएँ दान में दी जानी चाहिएँ, तदनन्तर यजमान कहे, `केशव प्रसन्न हों, विष्णु शिव के तथा शिव विष्णु के हृदय हैं।` उसे देवविषयक इतिहास-पुराण भी सुनना चाहिए। दे० गरुड० 1.127।

(2) माघ शुक्ल द्वादशी को पुलस्त्य ऋषि ने विदर्भनरेश भीम को, जो नल की पत्नी दमयन्ती के पिता थे, इसका माहात्म्य वर्णन किया था। व्यवस्था तथा विधि वही है जो अभी वर्णित हुई है। व्रती इस व्रत के आचरण से समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। यह व्रत वाजपेय तथा अतिरात्र यज्ञ से भी श्रेष्ठ है।

भीमैकादशी : माघ शुक्ल एकादशी पुष्य नक्षत्र युक्त अथवा बिना पुष्य नक्षत्र के ही बड़ी पवित्र मानी जाती है तथा भगवान् विष्णु को यह बहुत प्रिय है। पद्मपुराण, 6.239-28 में धौम्य ऋषि के द्वारा भीमसेन को इसका माहात्म्य बतलाया गया है।

भीष्म : कुरुवंशी राजा शान्तनु और गङ्गा के पुत्र। अपने पिता का विवाह सत्यवती के साथ संभव बनाने के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य रखने की भीषण प्रतिज्ञा इन्होंने की थी, अतः ये भीष्म कहलाये। मौलिक नाम देवव्रत था। महाभारत में वर्णित कौरव-पाण्डवों के पितामह भीष्म का नाम सभी साक्षर लोग जानते हैं। अनेक धार्मिक, दार्शनिक तथा राजनीतिक तथ्यों की सूक्ष्म बातें भीष्म के द्वारा कही गयी हैं जिनका उपदेश उन्होंने विशेष कर युधिष्ठिर को दिया था। शान्तिपर्व में भीष्म के नाम से राजनीति, समाजनीति तथा धर्मनीति का विशद और विस्तृत वर्णन है।

भीष्मपञ्चक : कार्तिक शुक्ल एकादशी से पाँच दिन तक व्रती को तीनों कालों में पंचामृत और पञ्चागव्य शरीर में लगाकर चन्दनमिश्रित जल से स्नान करना चाहिए और यव, अक्षत तथा तिलों से पितृतर्पण। पूजन के समय 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र का 108 बार जप करना चाहिए। हवन के समय षडक्षर मन्त्र 'ओं नमो विष्णवे' द्वारा घृमिश्रित यव तथा अक्षतों से आहुतियाँ देनी चाहिए। यह क्रम पाँच दिनों तक चलना चाहिए। प्रथम दिन से पाँचवें दिनों तक क्रमशः हरि के चरण, घुटने, नाभि, कन्धे तथा सिर का कमल, बिल्वपत्र, भृङ्गारक, (चतुर्थ दिन) बाण, बिल्व तथा जया एवं मालती से पूजन करना चाहिए। शरीर की शुद्धि के लिए व्रती को एकादशी से चतुर्दशी तक क्रमशः गोमय, गोमूत्र, गोदुग्ध तथा गोदधि का सेवन करना चाहिए। पञ्चम दिवस ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें दान-दक्षिणा से सन्तुष्ट करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से वह पापमुक्त हो जाता है। भविष्योत्तर पुराण के अनुसार इस व्रत को ब्रह्माजी ने श्री कृष्ण को सुनाया था। पुनः दूसरी बार शरशय्या पर सोये हुए भीष्मजी ने इसे श्री कृष्ण को सुनाया था।

भीष्मस्तवराज : पितामह भीष्म के अन्तिम प्रयाण के समय पाण्डवों के साथ श्रीकृष्ण जब उनके निकट पहुँचे तब भीष्म ने बड़े ओजस्वी, दार्शनिक और आध्यात्मिक वचनों से श्रीकृष्ण की स्तुति की थी। भगवान् की अलौकिक महिमा और परात्पर स्वरूप का इसमें निरूपण हुआ है अतएव यह 'स्तवराज' कहा जाता है। यह स्तव भगवान् के दिव्य नाम-रूपों की व्याख्या है इसलिए यह भगवद्गीता और विष्णुसहस्रनाम के समकक्ष महाभारत के पंचरत्नों में अन्यतम गिना जाता है।

भीष्माष्टमी : माघ शुक्ल अष्टमी भीष्म पितामह का महाप्रयाण दिन है। इस तिथि को अखंड ब्रह्मचारी भीष्म को जल दान तथा श्राद्ध किया जाता है। जो लोग इस व्रत को करते हैं, वे वर्ष भर के समस्त पापों से मुक्त होकर सुख सौभाग्य प्राप्त करते हैं। जिस व्यक्ति के पिता जीवित हों वह भी भीष्म को जल दान, तर्पणादि कर सकता है (समयमयूख, 61)। यह तिथि सम्भवतः अनुशासन पर्व, 167.28 पर आधारित है। भुजबल निबन्ध, पृ० 364 में दो श्लोक आये हैं जिन्हें तिथितत्व, निर्णयसिन्धू आदि ने उद्धृत किया है :

निबन्ध, पृ० 364 में दो श्लोक आये हैं जिन्हें तिथितत्त्व, निर्णयसिन्धु आदि ने उद्धृत किया है :

शुक्लाष्टम्यां तु माघस्य दद्याद् भीष्माय यो जलम्। संवत्सरकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति॥ वैयाघ्रपद्य गोत्राय सांकृतिप्रवराय च। अपुत्राय ददाम्येतत् सलिलं भीष्मवर्मणे॥

ब्राह्मण तक भी भीष्म पितामह जैसे आदर्श क्षत्रिय को जलदान करना अपना धार्मिक कर्तव्य मानते हैं।

भुवनेश्वर : कटक और जगन्नाथपुरी के मध्यस्थित उड़ीसा का प्रसिद्ध तीर्थस्थान। यह स्नान प्राचीन उत्कल की राजधानी था और अब भारत के स्वतन्त्र होने पर उड़ीसा की राजधानी हो गया है। भुवनेश्वर काशी की तरह ही शिवमन्दिरों का नगर है। इसे 'उत्कल-वाराणसी', 'गुप्तकाशी' भी कहते हैं। पुराणों में इसे 'एकाम्रक्षेत्र' कहा गया है। भगवान् शङ्कर ने इस क्षेत्र को प्रकट किया इससे इसे 'शाम्भव-क्षेत्र' भी कहते हैं। यहाँ लिङ्गराज और मुक्तेश्वर के मन्दिर अपने धार्मिक स्थापत्य के लिए प्रसिद्ध हैं। ये मन्दिर नागर स्थापत्य शैली के सर्वोत्तम नमूने हैं।

भुवनेश्वरयात्रा : गदाधरपद्धति' के कालसार भाग, 190-194 में भुवनेश्वर की चौदह यात्राओं का वर्णन किया गया है, यथा प्रथमाष्टमी, प्रावरषष्ठी, पुष्यस्नान, आज्यकम्बल आदि।

भुवनेश्वरी : शाक्त उपासना सिद्धान्त के अनुसार दस महाविद्याएँ मानी गयी हैं। निगम जिसे विराट् विद्या कहते हैं, आगम उसे ही महाविद्या कहते हैं। दक्षिण तथा वाम दोनों मार्ग वाले तान्त्रिक दसों विद्याओं की उपासना करते हैं। ये महाविद्याएँ हैं--महाकाली, उग्रतारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातङ्गी और कमला।

भुवनेश्वरीतन्त्र : मिश्र तन्त्रों में से एक 'भुवनेश्वरी तन्त्र' भी है।

भुशुण्डिरामायण : रामोपासक सम्प्रदाय के अनेकानेक ग्रन्थों में भुशुण्डिरामायण भी एक है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह अध्यात्मरामायण से पहले लिखी जा चुकी थी। कुछ विद्वानों के अनुसार इसका रचनाकाल 1300 ई० के आस-पास है। परन्तु यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। इसके भीतर माधुर्य भाव का गहरा पुट है, जो रामभक्ति पर कृष्णभक्ति का प्रभाव प्रकट करता है। इधर इसकी कई प्रतियाँ अयोध्या, रीवाँ आदि से प्राप्त हुई हैं।

भूखड़ : उत्तर भारत में भटकने वाले शैव योगियों का वर्ग। यह औघड़ योगियों की ही एक शाखा है जिसे गोरखनाथ के एक शिष्य ब्रह्मगिरि ने गुजरात में स्थापित किया था। ब्रह्मगिरि ने अपने सम्प्रदाय की पाँच शाखाएँ बनायी : रूखड़, सूखड़, भूखड़, कूकड़ तथा गूदड़। प्रथम दो संख्या में अधिक हैं। भूखड़ तथा कूकड़ अपने भिक्षापात्रों में धूपादि सुगन्धित पदार्थ नहीं जलाते, जब कि अन्य ऐसा करते हैं। गूदड़ संन्यासियों के महापात्र हैं। इनका प्रिय उच्चारण 'अलख' शब्द है। औघड़ों का एक छठा वर्ग अखड़ कहलाता है।

भूत : जो व्यतीत, विगत बीता या हो चुका है। अव्यक्त से स्थूल जगत के विकास में घनीभूत हुए वर्गीकृत तत्त्वों को भी (स्थिर के अर्थ में) भूत कहते हैं, जैसे आकाश, वायु, अग्नि, जल और क्षिति। उत्पन्न होकर विद्यमान प्राणी और सूक्ष्म शरीरधारी (प्रेत) आत्मा भी भूत कहे जाते हैं।

भूतडामर तन्त्र : शाक्तों के तन्त्र साहित्य में इस ग्रन्थ का विषय जादू-टोना है।

भूतपुरीमाहात्म्य : हारीतसंहिता का एक अंश भूतपुरीमाहात्म्य है। भूतपुरी पेरुम्बुदूर का नाम है, जहाँ रामानुज स्वामी का जन्म हुआ था। भूतपुरीमाहात्म्य में स्वामीजी की प्रारम्भिक अवस्था का वर्णन है।

भूतभैरवतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत चौसठ तन्त्रों की सूची में इस तन्त्र की भी गणना है।

भूतमात्र्युत्सव : ज्येष्ठ मास की प्रतिपदा से पूर्णिमा तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है। दे० हेमाद्रि, 2.365-370। 'उदसेविका' के ही तुल्य यह भी है। राजा भोज के ग्रन्थ सरस्वतीकण्ठाभरण (श्लोक 94) के अनुसार यह एक होली के जैसा जलक्रीड़ा उत्सव है। भ्रातृभाण्डा, भूतमाता तथा उदसेविका एक ही उत्सव के तीन नाम हैं। दे० हेमाद्रि, 2.367।

भूतवीर : ऐतरेय ब्राह्मण (7.29) में उद्धृत पुरोहितों के एक परिवार का नाम, जो जनमेजय द्वारा काश्यपों को निकालकर, उनके स्थान पर नियुक्त किये गये थे। काश्यपों के एक परिवार असितमृगों ने पुनः जनमेजय की कृपा प्राप्त की तथा भूतवीरों को बाहर निकलवा दिया।

भूतानि : भूत' का बहुवचन। समस्त जीवजगत् के लिए प्रायः इसका प्रयोग होता है। चुतुर्व्यूहान्तर्गत विष्णु के पाँच रूपों के भिन्न-भिन्न कार्य हैं। अन्तिम रूप ब्रह्मा की उत्पत्ति चतुर्थ व्यूह अनिरुद्ध से होती है, जो सम्पूर्ण दृष्टि जगत् (भूतानि) के स्रष्टा हैं।

भूति : शक्ति की एक विशेष अवस्था। प्रारम्भिक सृष्टि की प्रथमावस्था में शक्ति दो रूपों में जागती है (जैसे कि इसके पूर्व नींद में रही हो) : 1 क्रिया (कार्य) तथा भूति (होना)।

भूतेश्वर : भूतों (जीवों) के ईश्वर--शिव। बोलचाल में भूत का अन्य अर्थ 'प्रेत' है। प्रेत उन आत्माओं में है जो किसी घोर कर्मवश मृत्यु को प्राप्त हो भटकते रहते हैं। प्रेत श्मशान में निवास करते हैं। इस प्रकार शिव उन सभी भूतों के स्वामी हैं जो श्मशानों के निवासी हैं। जिस समय शिव ताण्डव नृत्य करते हैं, उस समय भूत-प्रेत उनके साथ होते हैं और वे विद्रोही दैत्यों को पददलित करते रहते हैं। ताण्डव में शिव की देवी (शक्ति) उनका अनुकरण करती है।

भूदेवी : पृथ्वी माता को ही मानवीकरण द्वारा देवी का रूप दिया गया है। उनके दो स्वरूप हैं : (1) दयालु और (2) ध्वंसक। वे दयालु रूप में सभी की माता तथा अन्नदा कहलाती हैं। बंगाल में उन्हें भूदेवी, धरती, मायी, वसुन्धरा, अम्बवाची, वसुमती एवं ठकुरानी आदि नामों से पुकारते हैं। धार्मिक हिन्दू नित्य प्रातः नींद से उठकर भूदेवी की स्तुति करके ही अपना पैर नीचे रखते हैं।

भगवान् विष्णु उनके अगल-बगल विराजमान होते हैं। आगमसंहिताओं के अनुसार इन तीन मूर्तियों के रूप में विष्णुपूजा की जाती है।

भूभाजनव्रत : यह संवत्सरव्रत है। यदि कोई व्यक्ति पितरों को नैवेद्य अर्पण करने के बाद एक वर्ष तक खाली भूमि पर (न तो थाली में और न किसी केला इत्यादि के पत्ते पर) भोजन करता है तो वह समस्त पृथ्वी का सम्राट् बनता है।

भूमिव्रत : शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को सूर्यपूजन करके पवित्र मृत्तिका, बालुका या नर्मदा के पङ्क से शिवमूर्ति (लिङ्ग) का निर्माण करना चाहिए। उस समय उपवास भी करना चाहिए। पूजन में भक्त को केसर, पुष्प, घृतमिश्रित पायस (खीर) तथा कुछ उपहारादि का समर्पण करना चाहिए। इस व्रत से व्रती राजा के समान प्रभुत्व प्राप्त करता है। राजा को ही इस व्रत का आचरण करना चाहिए।

भूलन बाबा : मध्य प्रदेश में कुछ विचित्र देवदेवियों की मान्यता है। भूलन बाबा उनमें से एक ग्रामदेवता हैं। विश्वास किया जाता है कि इनके प्रभाव से लोग अपनी चीजें भूल नहीं पाते हैं। इनकी मनौती न करने पर भूल बहुत होती है और जहाँ-तहाँ चीजें छूट जाती हैं। खोज करने पर वस्तु-प्राप्ति होते ही इस देवता की पूजा होती है।

भूसुरानन्द : छान्दोग्य तथा केनोपनिषद् पर अनेक टीकाएँ हैं। उनमें से भूसुरानन्द की भी एक टीका है।

भृगु : वैदिक ग्रन्थों में बहुचर्चित एक प्राचीन ऋषि। वे वरुण के पुत्र (शत० ब्रा० 11.6.1,1; तै० आ० 9.1) कहलाते हैं तथा पितृबोधक 'वारुणि' उपाधि धारण करते हैं (ऐ० ब्रा० 3.34)। बहुवचन (भृगवः) में भृगुओं को अग्नि का उपासक बताया गया है। स्पष्टतः यह प्राचीन काल के पुरोहितों का एक ऐसा समुदाय था जो सभी वस्तुओं को भृगु नाम से अभिहित करते थे। कुछ सन्दर्भों में इन्हें एक ऐतिहासिक परिवार बताया गया है (ऋ० वे० 7.18,6; 8.3.9,,6,18)। यह स्पष्ट नहीं कि 'दाशराज्ञ युद्ध' में भृगु वास्तविक परिवार है जिसके अनेक विभाजन हुए हैं। भृगु लोग कई प्रकार के याज्ञिक अवसरों पर पुरोहित हुए हैं, जैसे अग्निस्थापन तथा दशपेय क्रतु के अवसर पर। कई स्थलों पर वे आंगिरसों से सम्बन्धित हैं।

भृगु (स्मृतिकार) : प्रसिद्ध धर्मशास्त्रीय ग्रंथ 'मनुस्मृति' की रचना मनु महाराज के आदेश से महर्षि भृगु ने की।

भृगुवल्ली : तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन भाग हैं : शिक्षावल्ली, आनन्दवल्ली तथा भृगुवल्ली। दूसरे और तीसरे भाग को मिलाकर 'वारुणी' उपनिषद् भी कहते हैं।

भृगुव्रत : यह व्रत मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी को प्रारम्भ होता है। यह तिथिव्रत है। भृगुपदवाचक बारह देवों का इसमें पूजन होता है, जिनको यज्ञ का समर्पण किया जाता है। एक वर्षपर्यन्त यह अनुष्ठान चलता है (प्रत्येक कृष्णपक्षीय द्वादशी को)। व्रत के अन्त में गौ का दान विहित है।

भेंड़ाघाट : मध्य प्रदेश में जबलपुर से पश्चिम 12 मील दूर नर्मदाजी का भेड़ाघाट है। कहते हैं, यह महर्षि भृगु की तपोभूमि है। तपःस्थान विद्यमान है। नर्मदा के उत्तर तट पर बानगङ्गा नदी का संगम है। पास में श्रीकृष्णमन्दिर और एक छोटी पहाड़ी पर गौरीशङ्कर का मन्दिर है। इस मन्दिर के चारों ओऱ वृत्ताकार में चौसठयोगिनीमन्दिर विद्यमान है। इन दोनों मन्दिरों का निर्माण त्रिपुरी के कलचुरि राजाओं के समय में हुआ था। भेड़ाघाट से थोड़ी दूर पर 'धुआँधार' प्रपात है। यहाँ नर्मदा का जल 40 फुट ऊपर से गिरता है। प्रपात के आगे नर्मदा का प्रवाह संगमरमर की चट्टानों के मध्य से बहता है। ये चट्टानें दर्शनीय और विश्वविख्यात हैं।

भेद : एक असुर का नाम। अथर्ववेद (12.4) में भेद का उल्लेख एक बुरे अन्त को प्राप्त करने वाले व्यक्ति के अर्थ में हुआ है। क्योंकि उसने इन्द्र को एक गाय (वशा) देने से इन्कार कर दिया था। उसका अधार्मिक चरित्र उसे अनार्य दल का नेता मानने को बाध्य करता है।

भेददर्पण : तृतीय श्रीनिवास पण्डित द्वारा रचित ग्रन्थ, जो विंशिष्टाद्वैत का समर्थन तथा अन्य मतों का खण्डन करता है।

भेदधिक्कारसत्क्रिया : एक अद्वैतवेदान्तीय टीकाग्रन्थ, जो नारायणाश्रम स्वामी ने अपने गुरु नृसिंहाश्रम के 'भेदधिक्कार' (जो भेदवाद का खण्डन है) पर लिखा है। स्वयं इस टीका की भी टीका उन्होंने लिखी और उसका नाम रखा 'भेदधिक्कारसत्क्रियोज्ज्वला'।

भेदधिक्कारसत्क्रियोज्ज्वला : दे० 'भेदधिक्कारसत्क्रिया'।

भेदाभेद : बादरायण के पूर्व ही जीवात्मा तथा ब्रह्म के सम्बन्ध के विषय में तीन सिद्धान्त वर्तमान थे। आश्मरथ्य के अनुसार आत्मा न तो ब्रह्म से बिल्कुल भिन्न है और न बिल्कुल अभिन्न। यह पहला सिद्धान्त था जिसे 'भेदा-भेद' कहते हैं। दूसरा है औडुलोमि का 'द्वैतसिद्धान्त', जिसके अनुसार आत्मा ब्रह्म से बिलकुल भिन्न है और मोक्ष के समय ब्रह्म में मिलकर एकाकार हो जाता है। इसे सत्यभेद भी कहते हैं। तीसरे सैद्धान्तिक हैं काशकृत्स्न। इनके अनुसार आत्मा ब्रह्म से किंचित् भी भिन्न नहीं है। इसे 'अद्वैतसिद्धान्त' कहते हैं। आश्मरथ्य द्वारा स्थापित भेदाभेद सिद्धान्त का प्रतिपादन आगे चलकर भास्कराचार्य ने किया। वैष्णवों में भेदाभेदसम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य निम्बार्काचार्य हुए हैं।

भेदोज्जीवन : आचार्य व्यासराजकृत भेदोज्जीवन नामक ग्रन्थ उनके द्वारा लिखे तीन ग्रन्थों में से एक है। इसमें माध्वमत का प्रतिपादन किया गया है।

भैमी एकादशी : माघ शुक्ल एकादशी को जब मृगशिरा नक्षत्र हो तब यह व्रत किया जाता है। उस दिन व्रती को उपवास रखकर द्वादशी के दिन 'षट्तिली' होना चाहिए। षट्तिली का तात्पर्य है तिलमिश्रित जल से स्नान, तिल को पीसकर उससे शरीर मर्दन, तिलों से ही हवन तथा तिल मिश्रित जल का पान, तिलों का दान और तिलों का ही भोजन। यदि कोई व्यक्ति इस एकादशी को, जो 'भीमतिथि' कहलाती हैं, उपवास रखता है तो वह विष्णुलोक प्राप्त करता है।

भैरव : शिव का नाम, जिसका अर्थ भयावना होता है। प्रारम्भिक अवस्था में यह शब्द त्रिदेवों में अन्तिम देवता शिव का वाचक था। यद्यपि यह शब्द प्राचीन है किन्तु शिव की भैरव के स्वरूप में पूजा नयी है। शिव के भैरव रूप के संप्रति आठ अथवा बारह प्रकार हैं। उनमें विशेष प्रचलित हैं कालभैरव, जिनका वाहन श्वान (कुत्ता) है। इनकी शक्ति का नाम भैरवी है। भैरव के ग्रामीण रूप भैरों हैं। ये मुख्यतः कृषकों के देवता हैं। भैरों की पूजा वाराणसी तथा बम्बई में और उत्तर तथा मध्य भारत के किसानों में प्रचलित है। मध्य भारत में कमर में साँप लपेटे एक मृदङ्गवादक के रूप में या केवल एक लाल पत्थर के रूप में इनकी पूजा दूधदान से होती है। शहरों में मादक पेयों द्वारा इनकी पूजा होती है। गाँव के कृषक तथा शहरों में जोगी (नाथ) इनके भक्त होते हैं।

भैरवजयन्ती : कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी 'कालाष्टमी' के नाम से प्रसिद्ध है। उस दिन उपवास रखकर जागरण करना चाहिए। रात्रि के चार प्रहर तक भैरव के पूजन, जागरण तथा शिवजी के विषय में कथाएँ सुननी चाहिए। इससे व्रती पापमुक्त होकर सुन्दर शिवभक्त बन जाता है। काशीवासियों को यह व्रत अवश्य करना चाहिए।

भैरवतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत 64 तन्त्रों की सूची में भैरवतन्त्र भी एक है।

भैरवयामलतन्त्र : शाक्त साहित्य का प्रमुख तन्त्र। इसका उल्लेख वामकेश्वर, कुलचूडामणितन्त्र एवं आगमतत्त्वविलास में हुआ है। वामकेश्वर इस तन्त्र का एक भाग है।

भैरवी : देवी के रौद्र रूप को भैरवी (भयानक) कहते हैं। यह भैरव (शिव) रौद्ररूप की स्त्री शक्ति है। शाक्त मतावलम्बी लोग भैरवी की गणना दस महाविद्याओं में करते हैं।

भैरवीचक्र : दे० 'वाममार्ग'।

भैरवतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उल्लिखित तन्त्रों में एक तन्त्र।

भैरो (भैरवनाथ) : हिन्दुओं की धार्मिक नगरी काशी की रक्षा छः सौ देवताओं द्वारा, जिनके मन्दिर नगर में बिखरे हुए हैं, होती है। विश्वेश्वर अथवा शिव इस नगरी के राजा हैं। विश्वेश्वर के मुख्य दैवी नगररक्षक (कोतवाल) भैरोनाथ हैं, जिनका मन्दिर उनके स्वामी के मन्दिर से एक मील से भी अधिक दूर उत्तर में स्थित है। विश्वनाथजी की आज्ञानुसार वे देवों एवं मानवों पर शासन करते हैं, वे सभी दुष्टात्माओं से नगर की रक्षा के लिए नियुक्त हैं। अतः ऐसे दुष्टों को नगर से बाहर करना उनका कर्तव्य है। भैरोनाथ अपनी आज्ञाओं का पालन एक विशाल प्रस्तरगदा (दण्ड) से कराते हैं, जो चार फुट लम्बी है एवं चाँदी से उसका ऊपरी भाग मढ़ा हुआ है। इसकी पूजा रविवार तथा मंगलवार को होती है। भैरोनाथ श्वान (कुक्कुर) की सवारी करते हैं, जो देवमूर्ति के सामने मन्दिर में प्रवेश करते ही दृष्टिगोचर होता है।

भोगसंक्रान्तिव्रत : संक्रान्ति के दिन एक साथ सधवा स्त्रियों को उनके पतियों के साथ बुलाकर उन्हें केसर, काजल, सुरमा, सिन्दूर, पुष्प, इत्र, ताम्बूल, कपूर तथा फल प्रदान करना चाहिए। तदुपरान्त उन्हें भोजन कराकर वस्त्रों का जोड़ा देना चाहिए। एक वर्ष तक प्रति संक्रान्ति के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है। व्रत के अन्त में सूर्य की पूजा करके किसी ऐसे ब्राह्मण को जौ दान करना चाहिए जिसकी स्त्री जीवित हो। इससे व्रती कल्याण प्राप्त करता है।

भोगावाप्तिव्रत : इस व्रत में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा से तीन दिन तक हरि का पूजन तथा पलङ्ग पर बिछाये जाने वाले वस्त्रों का दान किया जाता है। इससे व्रती सुखोपभोग करता हुआ स्वर्ग प्राप्त करता है।

भोज (राजा) : उज्जयिनी के प्रसिद्ध परमार राजा। धारा इनकी दूसरी राजधानी थी। ये विद्या, कला और कवियों के गुणग्राही पारखी थे। व्याकरण, दर्शन काव्यकला आदि पर इनके रचे अनेक विख्यात ग्रन्थ हैं। योगसूत्र पर रची हुई योगमार्त्तण्ड नामक इनकी टीका अथवा वृत्ति एक बहुमान्य कृति है। यह बहुत सरल भाषा में योग की व्याख्या करती है।

भौमवारव्रत : स्कन्दपुराण के अनुसार यह व्रत प्रत्येक मङ्गलवार को करना चाहिए और एक शर्करापूरित ताम्रपात्र दान करना चाहिए। इस प्रकार एक वर्ष व्रत करते हुए अन्तिम मंगलवार को एक गोदान करना चाहिए। मंगल देखने में सुन्दर एवं पृथ्वी के पुत्र कहे जाते हैं तथा उनका उपर्युक्त व्रत सौन्दर्य, रूप एवं धन प्राप्त कराता है।

भौमव्रत : (1) भौमवार को जब स्वाती नक्षत्र हो उस दिन व्रती को नक्तपद्धति से आहार करना चाहिए। यह क्रम सात बार चलना चाहिए। मङ्गल ग्रह की प्रतिमा बनवाकर उसे किसी ताम्रपात्र में स्थापित कर तथा रक्त वस्त्र से आच्छादित करके केसर का अङ्गराग के समान मूर्ति पर लेप करना चाहिए। पुष्प, नैवेद्यादि अर्पित करके किसी ब्राह्मण को प्रतिमा दान में देनी चाहिए और देते समय निम्नांकित मन्त्र का उछ्चारण करना चाहिए : `यद्यपि त्वं, कूजन्मा असि तथापि प्राज्ञाः त्वां `मङ्गल` इति कथयन्ति।` `कुजन्मा` शब्द में श्लेष अलङ्कार है जिसके दो अर्थ हो सकते हैं; अमंगलकारी दिन में उत्पन्न एवं पृथ्वी से उत्‍पन्न। मङ्गल की बाह्याकृति रक्त वर्ण की है अतएव ताम्र, रक्त वर्ण का वस्त्र तथा केसर जो उसके वर्ण के अनुकूल है, प्रयुक्त किये जाते हैं।

(2) मंगलवार को ही मङ्गल का पूजन होना चाहिए। प्रातःकाल मंगल के नामों का जप किया जाय (कुल 21 नाम हैं, यथा, मंगल, कुज, लोहित, सामवेदियों के पक्षपाती, यम आदि) और त्रिभुजनात्मक आकृति खींचकर उसके मध्य में एक छिद्र बनाकर केसर अथवा रक्त चन्दन के लेप से प्रत्येक कोण पर तीन नाम (आर, वक्र, कुज) अङ्कित कर दिये जायँ। भारद्वाज गोत्र में उज्जयिनी नामक प्राचीन नगर में मङ्गल का जन्म हुआ था। उनका वाहन मेष है। यदि कोई व्यक्ति जीवनपर्यन्त इस व्रत का आचरण करता है तो सुख-समृद्धि, पुत्र-पौत्रादि प्राप्त करके ग्रहों के दिव्य लोक को प्राप्त होता है। वर्षकृत्य-दीपिका, 443-451 में भौमवार व्रत का विशद विवेचन मिलता है। दे० 'भौमवारव्रत'।

भौमि : तैत्तिरीय संहिता (5.5,18,1) में उद्धृत, अश्वमेधयज्ञ की बलिपशुतालिका का एक पशु भौमि है। इसकी पहचान अब कठिन है।

भ्रातृद्वितीया : (1) कार्तिक शुक्ल द्वितीय को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसका नाम यमद्वितीया भी है, क्योंकि प्राचीन काल में यमुना ने अपने भाई यम को इसी दिन भोजन कराया था। कुछ अधिकारी ग्रन्थों, जैसे कृत्यतत्त्व, 453; व्रतार्क, व्रतराज, 98-101 में दो कृत्यों का सम्मिलित विधान ही वर्णित है---यम का पूजन तथा किसी भी व्यक्ति का अपनी बहिन के यहाँ भोजन।

(2) यम से सम्बद्ध होने के कारण यह दिन भाई के लिए अनिष्टकारी भी समझा जाता है। अतः विशेष कर उत्तर भारत में बहिनें इस तिथि को अपने भाई को यम की दृष्टि से बचाने के लिए झूठा शाप देकर उसको मृत घोषित कर देती हैं। यह यम को धोखा देने वाला एक अभिचार कृत्य है। कंटक और कुश तोड़कर प्रत्येक शाप के साथ फेंका जाता है।

भ्रूणहत्या : (1) भ्रूणहत्या (गर्भ की हत्या) एक प्रकार का पातक कहा गया है। इसका उल्लेख परवर्ती संहिताओं (मैत्रां० सं० अपराध के रूप में हुआ है। इसका कोई प्रायश्चित्त नहीं है। इससे प्रमाणित होता है कि आलोचक विद्वानों का पुत्रीवध सम्बन्धी मत कितना भ्रमपूर्ण है।

(2) वेदपाठी ब्रह्मचारी भी भ्रूण कहा गया है।

 : व्यञ्जन वर्णों के पञ्चम वर्ग का पाँचवाँ अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है :

मकारं श्रृणु चार्वङ्गि स्वयं परमकुण्डली। तरुणादित्यसंकाशं चतुर्वर्गप्रदायकम्॥ पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा॥

तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम हैं :

मः काली क्लेशितः कालो महाकालो महान्तकः। वैकुण्ठो वसुधा चन्द्री रविः पुरुषराजकः॥ कालभद्रो जया मेधा विश्वदा दीप्तसंज्ञकः। जठरश्च भ्रमा मानं लक्ष्मीर्मातोग्रबन्धनौ॥ विषं शिवो महावीरः शशिप्रभा जनेश्वरः। प्रमत्तः प्रियसू रुद्रः सर्वाङ्गों वह्निमण्डलम्॥ मातङ्गमालिनी बिन्दुः श्रवणा भरथो वियत्॥

मकर : एक जलचर प्राणी, जो स्थापत्य एवं मूर्तिकला में श्रृंगारोपादान माना गया है। यजुर्वेद संहिता (तै० 5.5,13,1; मैत्रा० 3.14,16; वाज० 24.36) में उद्धृत अश्वमेध यज्ञ के बलिपशुओं की सूची में मकर भी उल्लिखित है। मकर गङ्गा का वाहन है---यह अत्यन्त कामुक प्राणी है, इसलिए कामदेव की ध्वजा पर काम के प्रतीक रूप में इसका अङ्कन होता है और कामदेव का विरुद 'मकरध्वज' है।

मकरसंक्रान्ति : धार्मिक अनुष्ठानों एवं त्योहारों में मकरसंक्रान्ति बहुत ही महत्त्वपूर्ण पर्व है। 70 वर्ष पहले यह 12 या 13 जनवरी को होती थी किन्तु अब कुछ वर्षों से 13 या 14 जनवरी को होने लगी है। संक्रान्ति का अर्थ है एक राशि से उसकी अग्रिम राशि में सूर्य का प्रवेश। इस प्रकार जब धनु राशि से सूर्य मकर में प्रवेश करता है तो मकरसक्रान्ति होती है। इस प्रकार 12 राशियों की 12 संक्रान्तियाँ हैं। ये सभी पवित्र मानी गयी हैं। मकरसंक्रान्ति से उत्तरायण आरम्भ होने के कारण इस संक्रान्ति का पुण्यफल विशेष माना गया है।

मत्स्यपुराण के अनुसार संक्रान्ति के पहले दिन दोपहर को केवल एक बार भोजन करना चाहिए। संक्रान्ति के दिन दाँतों को शुद्धकर तिलमिश्रित जल में स्नान करना चाहिए। फिर पवित्र एवं संयमी ब्राह्मण को तीन पात्र (भोजनीय पदार्थों से भरकर) तथा एक गौ यम, रुद्र एवं धर्म के निमित्त दान करना चाहिए। धनवान् व्यक्ति को वस्त्र, आभूषण, स्वर्णघट आदि भी देना चाहिए। निर्धन को केवल फल-दान करना चाहिए। तदनन्तर औरों को भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करना चाहिए।

इस पर्व पर गङ्गा स्नान का बड़ा माहात्म्य है। संक्रान्ति पर देवों तथा पितरों को दिये हुए दान को भगवान् सूर्य दाता को अनेक भावी जन्मों में लौटाते रहते हैं।

स्कन्दपुराण मकरसंक्रान्ति पर तिलदान एवं गोदान को अधिक महत्त्व प्रदान करता है।

मकुट आगम : यह एक रौद्रिक आगम है।

मख : ऋग्वेद के सन्दर्भों में (9.101,13) मख व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में प्रयुक्त है, किन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि वह कौन व्यक्ति था। सम्भवतः यह किसी दैत्य का बोधक है। अन्य संहिताओं में भी मखाध्यक्ष के रूप में यह उद्धृत है। इस का अर्थ ब्राह्मणों में भी स्पष्ट नहीं है (शत० ब्रा० 14.1,2,17)। परवर्त्ती साहित्य में मख यज्ञ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता रहा है।

मग : विष्णुपुराण (भाग 2.4,69-70) के अनुसार शाकद्वीपी ब्राह्मणों का उपनाम। पूर्वकाल में सीथिया या ईरान के पुरोहित 'मगी' कहलाते थे। भविष्यपुराण के ब्राह्पर्व में कथित है कि कृष्ण के पुत्र साम्ब, जो कुष्ठरोग से ग्रस्त थे, सूर्य की उपासना से स्वस्थ हुए थे। कृतज्ञता प्रकट करने के लिए उन्होंने मुलतान में एक सूर्यमन्दिर बनवाया। नारद के परामर्श से उन्होंने शकद्वीप की यात्री की तथा वहाँ से सूर्यमन्दिर में पूजा करने के लिए वे मग पुरोहित ले आये। तदनन्तर यह नियम बनाया गया कि सूर्यप्रतिमा की स्थापना एवं पूजा मग पुरोहितों द्वारा ही होनी चाहिए। इस प्रकार प्रकट है कि मग शाकद्वीपी और सूर्योपासक ब्राह्मण थे। उन्हीं के द्वारा भारत में सूर्यदेव की मूर्तिपूजा का प्रचार बढ़ा। इनकी मूल भूमि के सम्बन्ध में दे० 'मगध'।

मगध : ऐसा प्रतीत होता है कि मूलतः मगध में बसनेवाली आर्यशाखा मग थी। इसीलिए इस जनपद का नाम 'मगध' (मगों को धारण करनेवाला प्रदेश) पड़ा। इन्हीं की शाखा ईरान में गयी और वहाँ से शकों के साथ पुनः भारत वापस आयी। यदि मग मूलतः विदेशी होते तो भारत का पूर्वदिशा स्थित प्रदेश उनके नाम पर अति प्राचीन काल से मगध नहीं कहलाता।

यह एक जाति का नाम है, जिसको वैदिक साहित्य में नगण्य महत्त्व प्राप्त है। अथर्ववेद (4.22,14) में यह उद्धृत है, जहाँ ज्वर को गन्धार, मूजवन्त (उत्तरी जातियों) तथा अङ्ग और मगध (पूर्वी जातियों) में भेजा गया है। यजुर्वेदीय पुरुषमेध की तालिका में अतिक्रुष्ट (हल्ला करने वाली) जातियों में मगध भी है।

मगध को व्रात्यों (पतितों) का देश भी कहा गया है। स्मृतियों में 'मागध' का अर्थ मगध का वासी नहीं बल्कि वैश्य (पिता) तथा क्षत्रिय (माता) की सन्तान को मागध कहा गया है। ऋग्वेद में मगध देश के प्रति जो घृणा का भाव पाया जाता है वह सम्भवतः मगधों का प्राचीन रूप कीकट होने के कारण है। ओल्डेनवर्ग का मत है कि मगध देश में ब्राह्मधर्म का प्रभाव नहीं था। शतपथ ब्राह्मण में भी यही कहा गया है कि कोसल और विदेह में ब्राह्मणधर्म मान्य नहीं था तथा मगध में इनसे भी कम मान्य था। वेबर ने उपर्युक्त घृणा के दो कारण बतलाये हैं; (1) मगध में आदिवासियों के रक्त की अधिकता (2) बौद्धधर्म का प्रचार। दूसरा कारण यजुर्वेद या अथर्ववेद के काल में असम्भव जान पड़ता है, क्योंकि उस समय में बौद्ध धर्म प्रचलित नहीं था। इस प्रकार ओल्डेनवर्ग का मत ही मान्य ठहरता है कि वहाँ ब्राह्मणधर्म अपूर्ण रूप में प्रचलित था।

यह संभव जान पड़ता है कि कृष्णपुत्र साम्ब के समय में अथवा तत्पश्चात् आने वाले कुछ मग ईरान अथवा पार्थिया से भारत में आये हों। परन्तु मगध को अत्यन्त प्राचीन काल में यह नाम देने वाले मग जन ईरान से नहीं आये थे, वे तो प्राचीन भारत के जनों में से थे। लगता है कि उनकी एक बड़ी संख्या किसी ऐतिहासिक कारण से ईरान और पश्चिमी एशिया में पहुँची, परन्तु वहाँ भी उसका मूल भारतीय नाम मग 'मगी' के रूप में सुरक्षित रहा। आज भी गया के आस-पास मग ब्राह्मणों का जमाव है, जहाँ शकों का प्रभाव नहीं के बराबर था।

मङ्गल : (1) 'आथर्वण परिशिष्ट' द्वारा निर्दिष्ट तथा हेमाद्रि, 2.626 द्वारा उद्धृत आठ मांगलिक वस्तुएँ, यथा ब्राह्मण, गौ, अग्नि, सर्षप, शुद्ध नवनीत, शमी वृक्ष, अक्षत तथा यव। महा०, द्रोणपर्व (82.20-22) में माङ्गलिक वस्तुओं की लम्बी सूची प्रस्तुत की गयी है। वायुपुराण (14.36--37) में कतिपय माङ्गलिक वस्तुओं का परिगणन किया गया है, जिनका यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व स्पर्श करने का विधान है--यथा दूर्वा, शुद्ध नवनीत दधि, जलपूर्ण कलश, सवत्सा गौ, वृषभ, सुवर्ण, मृत्तिका, गाय का गोबर, स्वास्तिक, अष्ट धान्य, तैल, मधु, ब्राह्मण कन्याएँ, श्वेत पुष्प, शमी वृक्ष, अग्नि, सूर्यमण्डल, चन्दन तथा पीपल वृक्ष।

(2) मङ्गल एक ग्रह का नाम है। तत्सम्बन्धी व्रत के लिए दे० 'भौमव्रत'।

मङ्गलचण्डिकापूजा : वर्षकृत्यकौमुदी (552.558) में इस व्रत की विस्तृत विधि प्रस्तुत की गयी है। मङ्गल चण्डिका' को ललितकान्ता भी कहा जाता है। उसकी पूजा का मन्त्र (ललितगायत्री) है :

नारायण्यै विद्महे त्वां चण्डिकायै तु धीमहि। तन्नो ललिता कान्ता ततः पश्चात् प्रचोदयात्॥

अष्टमी तथा नवमी को देवी का पूजन होना चाहिए। वस्त्र के टुकड़े अथवा कलश पर पूजा की जाती है। जो मङ्गलवार को इसकी पूजा करता है उसकी समस्त मनोवाच्छाएँ पूरी होती हैं।

मङ्गलचण्डी : मङ्गलवार के दिन चण्डी का पूजन होना चाहिए, क्योंकि सर्वप्रथम शिवजी ने और मङ्गल ने इनकी पूजा की थी। सुन्दरी नारियाँ मङ्गलवार को सर्वप्रथम इनकी पूजा करती हैं बाद में सौभाग्येच्छु सर्व साधारण चण्डी का पूजन करते हैं।

मङ्गलदीपिका : दोद्दय महाचार्य के शिष्य सुदर्शन गुरु ने महाचार्य कृत 'वेदान्तविजय' की 'मङ्गलदीपिका' नामक व्याख्या लिखी है। यह ग्रन्थ कहीं प्रकाशित नहीं हुआ है।

मङ्गलव्रत : आश्विन, माघ, चैत्र अथवा श्रावण कृष्ण पक्ष की अष्टमी को वह व्रत प्रारम्भ करके शुक्ल पक्ष की अष्टमी तक जारी रखा जाता है। इसमें अष्टमी को एकभक्त पद्धति से आहार तथा कन्याओं और देवी के भक्तों को भोजन कराने का विधान है। नवमी को नक्त, दशमी को अयाचित तथा एकादशी को उपवास विहित है। इसकी पुनः दो आवृत्तियाँ होनी चाहिए। प्रति दिन दान, उपहार, होम, जप, पूजा तथा कन्याओं को भोजन कराना चाहिए। बलि, नृत्य तथा नाटक करते हुए रात्रिजागरण भी करना चाहिए। देवी के अठारह नामों का जप भी इसमें विहित है।

मङ्गलागौरीव्रत : विवाहोपरान्त समस्त विवाहित महिलाओं द्वारा श्रावण मास में प्रति मङ्गलवार को इस व्रत का आयोजन किया जाना चाहिए। पाँच वर्ष तक इसका अनुष्ठान चलता है। यह व्रत महाराष्ट्र में अधिक प्रचलित है। व्रत करने वाली महिलाएँ मध्याह्न काल में मौन धारण करके भोजन करती हैं। 16 प्रकार के पुष्प, 16 सुवासिनी-संमान, 16 दीपकों से देवी की नीरजना और रात्रि को जागरण का विधान है। वैधव्य निवारण, पुत्रों की प्राप्ति तथा समस्त कामनाओं की सिद्धि के लिए मङ्गला की प्रार्थना की जाती है। दूसरे दिवस गौरीप्रतिमा का विसर्जन होता है।

मङ्गलाष्टक : व्रत के लिए निमन्त्रित महिलाओं को जो आठ द्रव्य वितरित किये जाते हैं उन्हें मङ्गलाष्टक कहते हैं। जैसे केसर, नमक, गुड़, नारियल, पान, दूर्वा, सिन्दूर तथा सुरमा।

मङ्गल्यसप्तमी अथवा मङ्गल्यव्रत : सप्तमी के दिन वर्गाकार मण्डल बनाकर उस पर हरि तथा लक्ष्मी विराजमान किये जाते हैं, पुष्पादि से उनकी पूजा की जाती है। मृत्तिका, ताम्र, रजत तथा सुवर्ण के चार पात्रों को तैयार रखा जाता है तथा चार मिट्टी के कलश, जो नमक, चीनी, तिल, पिसी हल्दी से परिपूर्ण तथा वस्त्रों से ढके हों, तैयार रहते हैं। आठ पतिव्रता, सधवा, पुत्रवती नारियाँ समादृत की जाती हैं तथा उन्हें दान-दक्षिणा देकर सम्मानित किया जाता है। उन्हीं पतिव्रताओं की उपस्थिति में भागवान् हरि से मङ्गल्य (कल्याणकारी जीवन) के लिए पार्थना की जाती है। तदनन्तर महिलाओं को विदा किया जाता है। अष्टमी को पुनः हरि का पूजन तथा आठ महिलाओं का सम्मान कर तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत का पारण किया जाता है। इसके पालन से प्रत्येक जन चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, राजा हो या रङ्क, अपनी मनः कामनाओं की पूर्ति होते हुए देखता है।

मञ्जूषा : (1) मलय देशवासी वरदपुत्र पण्डित आनर्त्तीय ने शांखायन श्रौतसूत्र का एक भाष्य किया है। इसमें से नवें, दसवें और ग्यारहवें अध्याय का भाष्य नष्ट हो गया है। दास शर्मा ने मञ्जूषा लिखकर इन तीन अध्यायों का भाष्य पूरा किया है।

(2) शब्दाद्वैत के उद्भट प्रतिपादक नागेश भट्ट सत्रहवीं शताब्दी में हुए हैं। इन्होंने अपने मत का सर्वांगीण प्रतिपादन 'मञ्जूषा' नामक ग्रन्थ (वैयाकरण सिद्धान्तरत्नमञ्जूषा) में किया है।

मठ : छात्रावास या अतिथिनिवास। धार्मिक साधु-सन्तों के निवास तथा बालकों के शिक्षणालय के रूप में विभिन्न संप्रदायों के मठ बनाये जाते हैं। इन मठों में किसी विशेष सम्प्रदाय का मन्दिर, देवमूर्ति, धार्मिक, ग्रन्थागार एवं महन्त (मठाधीश) और अनेक शिष्य होते हैं। मठों के अधीन भूमि, सम्पत्ति आदि भी होती है, जिससे उनका खर्च चलता है। साथ ही मठों के गृहस्थ लोग चेला भी होते हैं जो प्रत्येक वर्ष उन मठों को दान देते हैं।

मठ प्राचीन बौद्ध विहारों के अनुकरण पर बने जान पड़ते हैं, क्योंकि बुद्ध पूर्व संन्यासियों में मठ बनाने की प्रथा नहीं थी।

मणिदर्पण : आचार्य रामानुज रचित एक ग्रन्थ।

मणिप्रभा : पतञ्जलि के योगदर्शन का 16वीं शताब्दी के अन्त का एक व्याख्या ग्रन्थ। इसके रचयिता गोविन्दानन्द सरस्वती के शिष्य रामानन्द सरस्वती हैं।

मणिमान् : शङ्कराचार्य एवं मध्वाचार्य के शिष्यों में परस्पर घोर प्रतिस्पर्धा व्याप्त रहती थी। मध्व अपने को वायु का अवतार कहते थे तथा शङ्कर को महाभारत में उद्धृत एक अस्पष्ट व्यक्ति मणिमान् का अवतार मानते थे। मध्व ने महाभारत की व्याख्या में शङ्कर की उत्पत्ति सम्बन्धी धारणा का उल्लेख किया है। मध्व के पश्चात् उनके एक प्रशिष्ट पण्डित नारायण ने मणिमञ्जरी एवं मध्वविजय नामक संस्कृत ग्रन्थों में मध्व वर्णित दोनों अवतारों (मध्व के वायु अवतार एवं शङ्कर के मणिमान् अवतार) के सिद्धान्त की स्थापना गम्भीरता से की है। उपर्युक्त मध्व ग्रन्थों के विरोध में ही 'शङ्करदिग्विजय' नामक ग्रन्थ की रचना हुई जान पड़ती है।

मणिमञ्जरी : माध्व सम्प्रदाय का एक विशिष्ट ग्रन्थ। रचनाकाल 1417 वि० है। कृष्णस्वामी अय्यर ने इसका संक्षिप्त कथासार लिखा है। दे० 'मणिमान्'।

मणिमालिका : अप्पय दीक्षित रचित लघु पुस्तिका। शैव विशिष्टाद्वैत पर हरदत्त प्रभृति आचार्यों के सिद्धान्त का अनुसरण करनेवाला यह एक निबन्ध है।

मण्डन भट्ट : आश्वलायन श्रौतसूत्र के ग्यारह भाष्यकारों में से मण्डनभट्ट भी एक हैं।

मण्डन मिश्र : नर्मदा तटवर्ती प्राचीन माहिष्मती नगरी के निवासी मीमांसक विद्वान। मण्डन मिश्र अपने समय के सबसे बड़े कर्मकाण्डी थे, उनके गुरु कुमारिल भट्ट ने ही शङ्कराचार्य को मण्डन मिश्र के पास शास्त्रार्थ करने के लिए भेज था।

शङ्कराचार्य ने मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ में परास्त किया। मण्डन मिश्र शास्त्रार्थ की शर्त के अनुसार उनका शिष्यत्व ग्रहण कर संन्यासी हो गये और सुरेश्वराचार्य के नाम के ख्यात हुए। संन्यासी सुरेश्वर गुरु के साथ देश भ्रमण करते रहे और जब शङ्कर ने श्रृंगेरी मठ की स्थापना की तब उनको वहाँ का आचार्य बनाया। श्रृंगेरी मठ की प्राचीन परम्परा से ऐसा जान पड़ता है कि वे बहुत दिनों तक जीवित रहे।

संन्यास ग्रहण करने के पूर्व मण्डन मिश्र ने आपस्तम्बीय मण्डनकारिका, भावनाविवेक और काशीमोक्षनिर्णय नामक ग्रन्थों की रचना की थी। संन्यास के बाद इन्होंने तैत्तिरीयश्रुतिवार्तिक, नैष्कर्म्यसिद्धि, इष्टसिद्धि या स्वाराज्यसिद्धि, पञ्चिकरणवार्त्तिक, बृहदारण्यकोपनिषद् वार्त्तिक, लघुवार्तिक, वार्तिकसार और वार्त्तिकसारसंग्रह आदि ग्रन्थ लिखे। सुरेश्वराचार्य ने संन्यास लेने के बाद शाङ्कर मत का ही प्रचार किया और अपने ग्रन्थों में प्रायः उसी मत का समर्थन किया।

मण्डल : गोलाकार या कोणाकार चक्र। शाक्त मतावलम्बी रहस्यात्मक यन्त्रों तथा मण्डलों का प्रयोग करते हैं, जो धातु के पत्रों पर चित्रित या लिखित होते हैं। कभी-कभी घटों पर ये यन्त्र एवं मण्डल अंकित होते हैं। सथ ही अंगुलियों की धार्मिक मुद्राएँ, हाथों के धार्मिक कार्यरत संकेत (जिसे न्यास कहते हैं) भी इन पात्रों या घटों पर निर्मित होते हैं। ये यन्त्र, मण्डल एवं मूद्रायें देवी को उस पात्र में आमन्त्रित करने के लिए बनायी जाती हैं।

मण्डलब्राह्मण उपनिषद् : यह परवर्ती उपनिषद् है।

मण्डूक : वर्षाकालिक जलचर, जिसकी टर्र-टर्र ध्वनि की तुलना बालकों के वेदपाठ से की जाती है। संभवतः इसीलिए एक वेदशाखाकार ऋषि इस नाम से प्रसिद्ध थे। ऋग्वेदीय प्रसिद्ध मण्डूकऋचा (7.103 तथा अ० वेद 4.15,12) में ब्राह्मणों की तुलना मण्डूकों की वर्षाकालीन ध्वनि से की गयी हैं, जब ये पुनः वर्षा ऋतु के आगमन के साथ कार्यरत जीवन आरम्भ करने के लिए जाग पड़ते हैं। कुछ विद्वानों ने इस ऋचा को वर्षा का जादू मन्त्र माना है। जल से सम्बन्ध रखने के कारण मेढक ठंड़ा करने का गुण रखते हैं, एतदर्थ मृतक को जलाने के पश्चात् शीतलता के लिए मण्डूकों को आमन्त्रित करते हैं (ऋग्वेद 1016,14)। अथर्ववेद में मण्डूक को ज्वाराग्नि को शान्त करने के लिए आमन्त्रित किया गया है (7.116)।

मण्डूकिय कथा : ऋग्वेद के परिशिष्ट ब्राह्मण ग्रन्थ में मण्डूक या मण्डूकीय की कथा मिलती है। मण्डूकियों की कथा ऋक्प्रातिशाख्य में भी है।

मतसहिष्‍णुता : यह परमेश्वर सहिष्णुता हिन्दुत्व की विशेषता है। यह सर्वधर्मसाम्य में विश्वास रखता है। वास्तव में भरतीय धर्म परम्परा मतसहिष्णुता के ऊपर टिकी हुई है। इसमें धार्मिक समता अथवा सभी धर्मों के सहअस्तित्व का भाव निहित है।

मतसारार्थसंग्रह : अप्पय दीक्षित रचित वेदान्त विषय का ग्रन्थ। इसमें श्रीकण्ठ, शङ्कर, रामानुज, मध्व प्रभृति आचार्यों के मतों का संक्षिप्त परिचय कराया गया है।

मतिमानुष : रामानुजाचार्य रचित एक ग्रन्थ।

मत्स्यजयन्ती : चैत्र शुक्ल पंचमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसी दिन भगवान् मत्स्य के रूप में अवतरित हुए थे। इसलिए भगवान् विष्णु की मत्स्यावतार रूपिणी प्रतिमा का पूजन किया जाता है।

मत्स्यद्वादशी : मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी को इस व्रत के पूर्व नियमों का पालन तथा एकादशी को उपवास करना चाहिए। द्वादशी के दिन व्रती को मन्त्रोपचारण करते हुए मृत्तिका लानी चाहिए। उसे आदित्य को समर्पित कर शरीर पर लगाकर स्नान करना चाहिए। इसमें नारायण के पूजन का विधान है। चार जलपूर्ण, पुष्पयुक्त कलशों को तिलपूर्ण पात्रों से आच्छादित कर चार समुद्रों का उनमें आवाहन करना चाहिए। सुवर्ण की मत्स्यावतार रूपिणी प्रतिमा बनाकर उसका पूजन किया जाना चाहिए। रात्रिजागरण करना चाहिए। अन्त में चारों कलशों का ब्राह्मणों को दान करना चाहिए। इससे गम्भीर पापों का भी नाश हो जाता है।

मत्स्यपुराण : यह शैव पुराण है। इसकी श्लोक संख्या नारदीय पुराण के अनुसार पंद्रह हजार है। किन्तु रेवामाहात्म्य, श्रीमद्भागवत, ब्रह्मवैवर्त पुराण और स्वयं मत्स्यपुराण के अनुसार यह संख्या चौदह हजार है। मत्स्यपुराण को मौलिक और सबसे प्राचीन माना जाता है। इसमें 290 अध्याय हैं तथा अन्तिम अध्याय सम्पूर्ण मत्स्यपुराण का सूचीपत्र है।

मत्स्यावतार का वर्णन इस पुराण का मुख्य विषय है। त्रिपुरासुर के साथ भगवान् शङ्कर के युद्ध का विस्तृत वर्णन इसमें पाया जाया है। पितरों का वर्णन भी विस्तार से मिलता है। व्रतों का वर्णन अधिक विस्तार से 55-102 अध्यायों में है। प्रयाग (103-112 अ०), काशी (180-185 अध्याय) और नर्मदा (187 से 194 अ०) के भौगोलिक वर्णन और माहात्म्य दोनों पाये जाते हैं। मत्स्य पुराण की कई विशेषताएँ हैं। पहली विशेषता यह है कि इसमें सभी पुराणों की विषयानुक्रमणी दी गयी है। दूसरी विशेषता ऋषियों का वंश वर्णन है। तीसरी विशेषता राजधर्म का विशद वर्णन है। चौथी विशेषता प्रतिमालक्षण अर्थात् विभिन्न देवताओं की मूर्तियों के निर्माण का विधान है।

मत्स्यावतार : विष्णु के दस अवतारों में से मत्स्यावतार प्रथम है। इसका आविर्भाव प्रलय काल में सृष्टिबीजों की रक्षा के निमित्त होता है, क्योंकि नैमित्तिक प्रलय में समस्त सृष्टि जलमग्न हो जाती है। दे० तैत्तिरीय संहिता 7.1.5.1।

मत्स्येन्द्रनाथ : हठयोग के विशिष्ट पुरस्कर्ता आचार्य (मछन्दरनाथ)। ये नाथ सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य आदिनाथ के शिष्य थे। इतिहासवेत्ता आदिनाथ का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी मानते हैं तथा गोरक्षनाथ दसवीं शताब्दी के पूर्व उत्पन्न कहे जाते हैं। इसलिए आदिनाथ के शिष्य एवं गोरक्षनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की स्थिति आठवीं शताब्दी (विक्रम) का अन्त या नवीं शताब्दी का प्रारम्भ माना जा सकता है। नेपाल के लोग अधिकांशतः मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरक्षनाथ के भक्त हैं।

मत्स्येन्द्रनाथ (पाटन) : गोंडा जिले में पाटन अथवा देवीपाटन नामक स्थान प्रसिद्ध देवीपीठ है। इसमें बहुत से प्राचीन तथा नवीन मन्दिर हैं, जिनमें बौद्ध मन्दिर भी है। मत्स्येन्द्रनाथ किंवा मीननाथ का मन्दिर अति आकर्षक है। यह शिवालय के ढंग का है। इसकी चमक-दमक बहुत ही निराली है। पास में स्तूपाकार मन्दिर है। बड़े-बड़े वृक्षों से इसकी शोभा बढ़ जाती है। यहाँ का श्रीराधामन्दिर भी आकर्षक है। मन्दिरों में भारतीय मुस्लिम स्थापत्य का मिश्रण पाया जाता है।

मथुरा : वैष्णव हिन्दू भक्तों का पवित्र तीर्थस्थान। इसके सम्बन्ध में कोई वैदिक उद्धरण नहीं मिलता। फिर भी ईसा के लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व से ही इसका माहात्म्य रहा है। पाणिनि तथा कात्यायन ने इसका उल्लेख किया है। पतञ्जलि के महाभाष्य में वासुदेव के द्वारा कंस-वध होने की चर्चा की गयी है। आदिपर्व (221.46) में मथुरा की प्रसिद्धि गायों के संदर्भ में चर्चित है। वायुपुराण (88.185) के अनुसार भगवान् राम के अनुज शत्रुघ्न ने मधु नामक राक्षस के पुत्र लवणासुर का वध इसी स्थल पर किया और तदुपरान्त मथुरा नगर की स्थापना की। रामायण (उत्तर काण्ड 70.6-7) से विदित होता है कि मथुरा को सुन्दर तथा समृद्ध बनाने में शत्रुघ्न को बारह वर्ष लगे थे। घट जातक में मथुरा को 'उत्तर मथुरा' कहा गया है। कंस और वासुदेव की कथा भी महाभारत तथा पुराणों में थोड़े-थोड़े अन्तर के साथ मिलती है। ह्वेनसांग का कथन है कि उसके समय में वहाँ अशोकराज द्वारा बनवाये गये तीन बौद्ध स्तूप, पाँच बड़े मन्दिर तथा 20 संघाराम 2000 बौद्ध भिक्षुओं से भरे हुए थे।

मथुरा के धार्मिक माहात्म्य का उल्लेख पुराणों में मिलता है। अग्निपुराण (11.8-9) से यह आश्चर्यजनक सूचना मिलती है कि राम की आज्ञा से भरत ने मथुरा नगर में शैलूष के तीन करोड़ पुत्रों को मार डाला था। लगभग 2000 वर्षों से मथुरापुरी कृष्ण उपासना तथा भागवत धर्म का केन्द्र रही है। वराहपुराण में मथुरा तथा इसके अवान्तर तीर्थों के माहात्म्य के सम्बन्ध में सहस्रों श्लोक मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण, राधा, मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन आदि का प्रभूत मात्रा में उल्लेख मिलता है। पद्मपुराण (आदि खण्ड 29.46-47) के अनुसार मथुरा से युक्त यमुना मोक्ष देती है। वराह पुराण के अनुसार विष्णु (कृष्ण) को संसार में मथुरा से अधिक प्रियस्थल कोई भी नहीं है, क्योंकि यह उनकी जन्मभूमि है। यह मनुष्य मात्र को मुक्ति प्रदान करती है (152.8-11) --हरिवंश पुराण (विष्णु पर्व 57.2-3) में मथुरा को लक्ष्मी का निवास स्थान तथा कृषि-उत्पादन का प्रमुख स्थल कहा गया है।

मथुरा का परिमण्डल 20 योजन माना गया है। उसके मध्य सर्वोत्तम मथुरापुरी अवस्थित है (नारदीय उत्तर, 78.20-21)। मथुरा के बाह्यान्तर स्थलों में अनेक तीर्थ हैं। उनमें से कुछ प्रमुख तीर्थों का विवरण यहाँ दिया जायेगा। वे हैं मधु, ताल, कुमुद, काम्य,बहल, भद्र, खादिर, महावन, लोहजंघ, वित्व, भान्डिर और वृन्दावन। इसके अतिरिक्त 24 उपवनों का भी उल्लेख यत्र-तत्र मिलता है पर पुराणों में नहीं। वृन्दावन मथुरा के पश्चिमोत्तर 5 योजन में विसतृत था। (विष्णु पुराण 5.6.28-40 तथा नारदीय उत्तरार्द्ध (80.6,8 और 77)। यह श्रीकृष्ण के गोचारण क्रीड़ा की स्थली थी। इसे पद्मपुराण में पृथ्वी पर वैकुण्ठ का एक भाग माना गया है। मत्स्य० (13.38) राधा का वृन्दावन में देवी दाक्षायणी के नाम से उल्लेख करता है। वराहपुराण (164.1) में गोवर्धन पर्वत मथुरा से दो योजन पश्चिम बताया गया है। यब अब प्रायः 15 मील दूर है। कूर्म० (1.14-18) के अनुसार प्राचीन काल में महाराज पृथु ने यहाँ तपस्या की थी। पुराणों में मथुरा से सम्बद्ध कुछ विवरण भ्रामक भी हैं। उदाहरणार्थ हरिवंश (विष्णुपर्व 13.3) में तालवन गोवर्धन के उत्तर यमुना तट पर बताया गया हैं, जबकि यह गोवर्धन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। गोकुल वही है जिसे महावन कहा गया है। जन्म के समय श्री कृष्ण इसी स्थल पर नन्द गोप के घर में लाये गये थे। तदुपरान्त कंस के भय से उन्होंने स्थान परिवर्तन कर दिया और वृन्दावन में रहने लगे।

महावीर और बुद्ध के समय में भी मथुरा धार्मिक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध थी। यूनानी लेखकों ने लिखा है कि यहाँ हर्क्यूलिज (कृष्ण) की पूजा होती थी। शक-क्षत्रपों, नागों और गुप्तों के समय के बहुतेरे धार्मिक अवशेष यहाँ पाये गये हैं। मुसलिम विध्वंसकारियों के आक्रमण के बाद भी मथुरा जीवित रही। 16वीं शताब्दी में मथुरा और वृन्दावन पुनः विष्णुभक्ति साधना के केन्द्र हो गये थे। वृन्दावन चैतन्य भक्ति-साधना का केन्द्र बन गया था। यहाँ के गोस्वामियों में सनातन, रूप, जीव, गोपाल भट्ट, और हरिवंश की अच्छी ख्याति हुई। चैतन्य महाप्रभु के समसामयिक स्वामी वल्लभाचार्य ने प्राचीन गोकुल के अनुकरण पर महावन से एक मील दक्षिण नवीन गोकुल की स्थापना की और उसे अपनी भक्ति-साधना का केंद्र बनाया। औरंगजेब ने मथुरा के प्राचीन मन्दिरों को ध्वस्त करके उसी स्थिति को पहुँचा दिया जिस स्थिति को काशी के मंदिरो को पहुँचाया था। इतना होने पर भी मथुरा के माहात्म्य में न्यूनता नहीं आयी।

सभापर्व (319.23-25) के अनुसार कंस-वध कुपित से होकर जरासंध ने गिरिव्रज (मगध) से अपनी गदा फेंकी थी, जो मथुरा में श्रीकृष्ण के सामने गिरी। जहाँ वह गिरी उस स्थल को गदावसान कहा गया है। पर इसका उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।

मथुरानाथ : सोलहवीं शताब्दी के अन्त के एक वंगदेशस्थ नैयायिक। इन्होंने गङ्गेश उपाध्याय रचित तत्त्वचिन्तामणि नामक तार्किक ग्रन्थ पर तत्त्वलोक-रहस्य नामक भाष्य लिखा। इनका अन्य नाम 'मथुरानाथी' भी है।

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मथुरानाथी : दे० 'मथुरानाथ'। मथुरानाथ के नाम से नैयायिकों का एक सम्प्रदाय चला, जो मथुरानाथी कहलाता है।

मथुराप्रदक्षिणा : मथुरा की परिक्रमा धार्मिक क्रिया है। इसी प्रकार मथुरामण्डल के अन्यान्य पवित्रस्थल-वृन्दावन, गोवर्धन, गोकुल आदि की प्रदक्षिणा भी परम पावन मानी जाती है। भारत की सात पवित्र पुरियों में से एक मथुरा भी है---

कार्तिक शुक्ल नवमी को यह प्रदक्षिणा की जाती है।

मथुरामाहात्म्य : रूपगोस्वामी द्वारा संस्कारित-संपादित मथुरामाहात्म्य वराह पुराण का एक भाग है। इसमें मथुरा और वृन्दावन तथा उनके समीपवर्ती सभी पवित्र स्थानों के वर्णन हैं।

मदनचतुर्थी : यह कामदेव का व्रत है। इस चतुर्दशी को 'मदनभञ्जी' भी कहा जाता है। चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को इसका अनुष्ठान किया जाता है। इसमें कामदेव की सन्तुष्टि के लिए गीत, नृत्य तथा श्रृङ्गारिक शब्दों से उनका पूजन होता है।

मदनत्रयोदशी : देखिए 'अनङ्गत्रयोदशी' तथा 'कामदेव त्रयोदशी'। कृत्यरत्नाकर, 137 (ब्रह्मपुराण को उद्धृत करते हुए) कहता है कि समस्त त्रयोदशियों को कामदेव की पूजा की जानी चाहिए।

मदनद्वादशी : चैत्र शुक्ल द्वादशी को इस तिथिव्रत का अनुष्ठा होत है। ताँबे की तशतरी में गुड़, खाद्य पदार्थ तथा सुवर्ण रखकर जल, अक्षत तथा फलों से परिपूर्ण कलश के ऊपर स्थापित कर देना चाहिए तथा कामदेव और उसकी पत्नी रति की आकृतियाँ बना देनी चाहिए। इनके सम्मुख खाद्य पदार्थ रखकर प्रेमपूर्ण गीत गाने चाहिए। भगवान् हरि की मूर्ति को कामदेव समझ कर स्नान करा कर पूजन करना चाहिए। दूसरे दिन उस कलश का दान करके, ब्राह्मणों को भोजन कराकर तथा दक्षिणा देकर यजमान स्वयं नमक रहित भोजन करे। त्रयोदशी के दिन उपवास, द्वादशी को केवल एक फल खाकर भगवान् विष्णु की पूजा और उन्हीं के सम्मुख खाली भूमि पर शयन करना चाहिए। यह क्रम एक वर्ष तक चलना चाहिए। वर्ष के अन्त में एक गौ तथा वस्त्र दान देकर सफेद तिलों से हवन करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त होकर पुत्र, पौत्र, ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करता हुआ भगवान् विष्णु में लीन हो जाता है।

मदनमहोत्सव : चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। मध्याह्न काल में कामदेव की मूर्ति अथवा चित्र का निम्नांकित मन्त्र से पूजन करना चाहिए। 'नमः कामाय देवाय, देव देवाय मूर्त्‍तये। ब्रह्म-विष्‍णु-सुरेशानां मन: क्षोभ कराय वै।' मिष्ठान्न खाद्य पदार्थ प्रतिमा के सम्मुख रखना चाहिए। गौ का जोड़ा दान में दिया जाय। पत्नियाँ अपने पतियों का, कामदेव का रूप समझ कर पूजन करें। रात्रि को जागरण, नृत्योत्सव, रोशनी तथा नाटकादि का आयोजन किया जाना चाहिए। यह प्रति वर्ष किया जाना चाहिए। इस आचरण से व्रती शोक, सन्ताप तथा रोगों से मुक्त होकर कल्याण, यश तथा सम्पत्ति प्राप्त करता है।

मदुरा : दक्षिण भारत (तमिलनाडु) का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान जिसे दक्षिण की मथुरा कहते हैं। द्रविड़ स्थापत्य की सुन्दर कृतियों से शोभित मन्दिर यहाँ वर्तमान हैं।

चौदहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के बीच दक्षिण भारत में रचे गये शैव साहित्य में दो स्थानीय धार्मिक कथासंग्रह अति प्रसिद्ध हैं। इस बीच परज्जोति ने 'तिरुविलैआदतपुराणम्' तथा काञ्जीअप्पर एवं उनके गुरु शिवज्ञान योगी ने 'काञ्चीपुराणम्' रचा। प्रथम ग्रन्थ मदुरा के तथा द्वितीया काञ्चीवरम् के लौकिक धर्म-कथानकों का प्रतिनिधित्व करता है। ये दोनों ग्रन्थ बहुत लोकप्रिय हैं।

मधु : कोई भी खाद्य या पेय मीठा पदार्थ। विशेष कर पेय के लिए यह शब्द ऋग्वेद में व्यवहृत है। स्पष्ट रूप से यह सोम अथवा दुग्ध तथा इनमें कम शहद के लिए व्यवहृत है। (ऋ० 8.4,8। यहाँ 'सारघ' विशेषण द्वारा अर्थ को स्पष्ट किया गया है।) परवर्ती साहित्य में मधु का अर्थ शहद ही सबसे अधिक निश्चित है। मधुपर्क का उपयोग पूजन, श्राद्ध आदि धार्मिक कृत्यों में होता है।

मधुपैङ्ग्य : (पिङ्ग के वंशज) शतपथ० (11.7,2,8) तथा कौषीतकि उपनिषदों (16.9) में उद्धृत मधुपैङ्ग्य एक आचार्य का नाम है।

मधुब्राह्मण : मधुब्राह्मण किसी रहस्यपूर्ण सिद्धान्त की उपाधि है, जिसका उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (4.1,5,18; 14.1,4,13) तथा, बृह० उप० (2.5,16) में हुआ है।

मधुर कवि : तमिल वैष्णवों में बारह आलवारों के नाम बड़े सम्मानपूर्वक स्मरण किये जाते हैं। इनके परम्परागत क्रम में मधुरकवि का छठाँ स्थान है। दे० 'आलवार'।

मधुरत्रय : तीन वस्तुएँ मधुर नाम से प्रसिद्ध हैं--धृत, मधु और शर्करा। व्रतराज, 16, के अनुसार घृत, दुग्ध तथा मधु मधुरत्रयू कहलाते हैं। पूजोपचार में इनका उपयोग किया जाता है।

मधुवन : व्रजमण्डल के बारह वनों में प्रथम व्रजपरिक्रमा के अन्तर्गत भी यह सर्वप्रथम आता है। यह स्तान मथुरा से 4--मील दूर है। यहाँ कृष्णकुण्ड तथा चतुर्भुज, कुमार कल्याण और ध्रुव के मन्दिर हैं। लवणासुर की गुफा और वल्लभाचार्यजी की बैठक हैं। यहाँ भाद्रकृष्ण 11 को मेला लगता है।

मधुश्रावणी : कृत्यसारसमुच्चय' (पृ० 10) के अनुसार श्रावण शुक्ल तृतीया को मधुश्रावणी कहते हैं।

मधुसूदनपूजा : वैशाख शुक्ल द्वादशी को इसका अनुष्ठान होता है। इसमें भगवान् विष्णु का पूजन विहित है। व्रती इस व्रत से अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त करता हुआ चन्द्रलोक में निवास करता है।

मधुसूदन सरस्वती : अद्वैत सम्प्रदाय के प्रधान आचार्य और ग्रन्थ लेखक। इनके गुरु का नाम विश्वेश्वर सरस्वती और जन्म स्थान बङ्गदेश था। ये फरीदपुर जिले के कोटलिपाड़ा ग्राम के निवासी थे। विद्याध्ययन के अनन्तर ये काशी में आये और यहाँ के प्रमुख पण्डितों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। इस प्रकार विद्वन्मण्डली में सर्वत्र इनकी कीर्तिकौमुदी फैलने लगी। इसी समय इनका परिचय विश्वेश्वर सरस्वती से हुआ और उन्हीं की प्रेरणा से ये दण्डी संन्यासी हो गये।

मधुसूदन सरस्वती मुगल सम्राट शाहजहाँ के समकालीन थे। कहते हैं कि इन्होंने माध्व पंडित रामराज स्वामी के ग्रन्थ 'न्यायामृत' का खण्डन किया था। इससे चिढ़कर उन्होंने अपने शिष्य व्यास रामाचार्य को मधुसूदन सरस्वती के पास वेदान्तशास्त्र का अध्ययन करने के लिए भेजा। व्यास रामाचार्य ने विद्या प्राप्त कर फिर मधुसूदन स्वामी के ही मत का खण्डन करने के लिये 'तरङ्गिणी' नामक ग्रन्थ की रचना की। इससे ब्रह्मानन्द सरस्वती आदि ने असन्तुष्ट होकर तरङ्गिणी का खण्डन करने के लिए 'लघुचन्द्रिका' नामक ग्रन्थ की रचना की।

मधुसूदन सरस्वती बड़े भारी योगी थे। वीरसिंह नामक एक राजा की सन्तान नहीं थी। उसने स्वप्न में देखा कि मधुसूदन नामक एक यति हैं और उनकी सेवा से पुत्र अवश्य होगा। तदनुसार राजा ने मधुसूदन का पता लगाना प्रारम्भ किया। कहते हैं कि उस समय मधुसूदन जी एक नदी के किनारे भूमि के अन्दर समाधिस्थ थे। राजा खोजते-खोजते वहाँ पहुँचा। स्वप्न के रूप से मिलते-जुलते एक तेजपूर्ण महात्मा समाधिस्थ दीख पड़े। राजा ने उन्हें पहचान लिया। वहाँ राजा ने एक मन्दिर बनवा दिया। कहा जाता है कि इस घटना के तीन वर्ष बाद मधुसूदनजी की समाधि टूटी। इससे उनकी योग सिद्धि का पता लगता है। किन्तु वे इतने विरक्त थे कि समाधि खुलने पर उस स्थान को और राज प्रदत्त मन्दिर और योग को छोड़ कर तीर्थाटन के लिए चल दिये। मधुसूदन के विद्यागुरु अद्वैतसिद्धि के अन्तिम उल्लेखानुसार माध्व सरस्वती थे। इनके रचे हुए निम्नलिखित ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध हैं :

1. सिद्धान्तबिन्दु-- यह शङ्कराचार्य कृत दशश्लोकी की व्याख्या है। उसपर ब्रह्मानन्द सरस्वती ने रत्नावली नामक निबन्ध लिखा है।

2. संक्षेप शारीरक व्याख्या--यह सर्वज्ञात्ममुनि कृत 'संक्षेप शारीरक' की टीका है।

3. अद्वैतसिद्धि--यह अद्वैत सिद्धान्त का अति उच्च कोटि का ग्रन्थ है।

4. अद्वैतरत्न रक्षण--इसमें द्वैतवाद का खण्डन करते हुए अद्वैतवाद की स्थापना की गयी है।

5. वेदान्तकल्पलतिका--यह भी वेदान्त ग्रन्थ ही है।

6. गूढ़ार्थदीपिका--यह श्रीमद्भगवद्गीता की विस्तृत टीका है। इसे गीता की सर्वोत्तम व्याख्या कह सकते हैं।

7. प्रस्थानभेद---इसमें सब शास्त्रों का सामञ्जस्य करके उनका अद्वैत में तात्पर्य दिखलाया गया है। यह निबन्ध संक्षिप्त होने पर भी अद्भुत प्रतिभा का द्योतक है।

8. महिम्नस्तोत्र की टीका--इसमें सुप्रसिद्ध महिम्नस्तोत्र के प्रत्येक श्लोक का शिव और विष्णु के पक्ष में व्याख्यार्थ किया गया है। इससे उनके असाधारण विद्या कौशल का पता लगता है।

9. भक्ति रसायन--यह भक्ति सम्बन्धी लक्षण ग्रन्थ है। अद्वैतवाद के प्रमुख स्तम्भ होते हुए भी वे उच्च कोटि के कृष्णभक्त थे, यह इस रचना से सिद्ध है।

मधूकव्रत : फाल्गुन शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। उस दिन महिलाएँ उपवास करके मधूक वृक्ष पर गौरी पूजन करती हैं और उनसे अपने सौभाग्य, सन्तान, वैधव्य के निवारण की प्रार्थना करती हैं। सधवा ब्राह्मणियों को बुलाकर उन्हें पुष्प, सुगन्धित द्रव्य, वस्त्र तथा स्वादिष्ठ खाद्य पदार्थ देकर उनका सम्मान किया जाता है। इसके आचरण से सुस्वास्थ्य तथा सौन्दर्य की उपलब्धि होती है। भविष्योत्तर पुराण (16.1-16) में इसे मधूक तृतीया नाम से सम्बोधित किया गया है।

मध्यदेश : मनुस्मृति (2.21) के अनुसार मध्यदेश (बीच के देश) की सीमा उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में विनशन (राजस्थान की मरुभूमि में सरस्वती के लुप्त होने का स्थान) तथा पूर्व में गङ्गा-यमुना के सङ्गम स्थल प्रयाग तक विस्तृत है। वास्तव में यह मध्यदेश आर्यावर्त्त का मध्य भाग है। 'मध्यदेश' शब्द वैदिक संहिताओं में नहीं मिलता है। परन्तु ऐतरेय ब्राह्मण में इसकी झलक मिलती है। इसमें कुरु, पञ्चाल, वत्स तथा उशीनर देश के लोग बसते थे। आगे चलकर अन्तिम दो वंशों का लोप हो गया और मध्यदेश मुख्यतः कुरु-पञ्चालों का देश बन गया। बौद्ध साहित्य के अनुसार मध्यदेश पश्चिम में स्थूण (थानेश्वर) से लेकर पूर्व में जंगल (राजमहल की पहाड़ियों) तक विस्तृत था।

मध्व : माध्व वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक मध्व अथवा मध्वाचार्य थे। जो दक्षिण कर्णाटक के उदीपी नामक स्थान में उत्पन्न हुए थे। इन्होंने तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अपने सम्प्रदाय की स्थापना की। बाल्यावस्था में ही ये संन्यासी हो गये तथा प्रथम शाङ्करमत की दीक्षा ग्रहण की। वेदान्त सम्बन्धी ग्रन्थों के अतिरिक्त इन्होंने ऐतरेयोपनिषद् महाभारत तथा भागवत पुराण पर ध्यान दिया। अन्तिम ग्रन्थ (भागवत पुराण) इनके धार्मिक जीवन पर छा गया। प्रशिक्षण के पूर्ण होने के पहले ही ये शाङ्कर मत से अलग हो गये। और अपना द्वैतवादी सिद्धान्त स्थापित किया जो प्रधानतया भागवत पुराण पर आधृत था। इनके अनेक अनुयायी उद्भट विद्वान् हो गये हैं।

इनका धार्मिक सिद्धान्त रामानुज से बहुत कुछ मिलता-जुलता है किन्तु दर्शन स्पष्टतः द्वैतवादी है। वे बड़ी तीक्ष्णता से जीव एवं ईश्वर का भेद करते हैं और इस प्रकार शङ्कर से विष्णु स्वामी को छोड़कर अन्य वेदान्तियों की अपेक्षा अत्यन्त दूर खड़े हो जाते हैं। ईश्वरवाद के सिवा इनका सिद्धान्त बहुत कुछ भागवत सम्प्रदाय के समान है। इनके धर्म चिन्तन का केन्द्र कृष्ण की भक्तिपूर्ण उपासना है जैसा कि भागवत की शिक्षा है। किन्तु राधा का नाम इस सम्प्रदाय में नहीं लिया जाता है। यहाँ सभी अवतारों का आदर है। माध्व सम्प्रदाय में शिव के साथ पाँच मुख्य देवताओं (पञ्चायतन) की पूजा भी मान्य है। आचार्य मध्व के प्रमुख ग्रन्थ वेदान्तसूत्र का भाष्य तथा अनुख्यान हैं। इनके अतिरिक्त अनेक ग्रन्थ इन्होंने रचे जिनमें मुख्य हैं---गीताभाष्य, भागवत तात्पर्य निर्णय, महाभारत तात्पर्य निर्णय, दशोपनिषदों पर भाष्य, तन्त्रसार संग्रह आदि।

मध्वतन्त्रमुखमर्दन : अप्पय दीक्षित कृत यह ग्रन्थ शैवमत विषयक है। इसमें मध्व सिद्धान्त का खण्डन किया गया है।

मध्वभाष्य : दे० 'मध्व'।

मध्वविजय : मध्वाचार्य के एक प्रशिष्य श्री नारायण ने आचार्य की मृत्यु के पश्चात् दो संस्कृत ग्रन्थ 'मणिमञ्जरी' एवं 'मध्वविजय' लिखे। इनमें दो अवतारों का सिद्धान्त भली-भाँति स्थापित हुआ है। प्रथम ग्रन्थ के अनुसार शङ्कर मणिमान् नामक (महाभारत में वर्णित) विशेष देव के अवतार तथा दूसरे ग्रन्थ के अनुसार मध्वाचार्य वायुदेव के अवतार थे।

मध्वसम्प्रदाय : मध्वाचार्य द्वारा स्थापित यह सम्प्रदाय भागवत पुराण पर आधृत होने वाला पहला सम्प्रदाय है। इसकी स्थापना तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में हुई। मध्व की मृत्यु के 50 वर्ष बाद जयतीर्थ इस सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य हुए। इनके भाष्य, जो मध्व के ग्रन्थों पर रचे गये हैं, सम्प्रदाय के सम्मानित ग्रन्थ हैं। चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विष्णुपुरी नामक माध्व संन्यासी ने भागवत के भक्त विषयक सुन्दर स्थलों को चुनकर 'भक्तिरत्नावली' नामक ग्रन्थ लिखा। यह भागवत भक्ति का सर्वश्रेष्ठ परिचय देता है। लोरिय कृष्णदास ने इसका बंगला में अनुवाद किया है।

एक परवर्ती माध्व सन्त ईश्वरपुरी ने चैतन्यदेव को इस संप्रदाय में दीक्षित किया। इस नये नेता (चैतन्य) ने माध्व मत का अपनी दक्षिण की यात्रा में अच्छा प्रचार किया (1509-11)। उन्होंने माध्वों को अपनी शिक्षा एवं भक्तिपूर्ण गीतों से प्रोत्साहित किया। इन्होंने उक्त सम्प्रदाय में सर्वप्रथम संकीर्तन एवं नगर-कीर्तन का प्रचार किया। चैतन्यदेव की दक्षिण यात्रा के कुछ ही दिनों बाद कन्नड भाषा में गीत रचना आरंभ हुई। कन्नड़ गायक भक्तों में मुख्य थे पुरन्दरदास। प्रसिद्ध माध्व विद्वान् व्यासराज चैतन्य के समकालीन थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे जो आज भी पठन-पाठन में प्रयुक्त होते हैं।

अठारहवीं शताब्दी में कृष्णभक्ति विषयक गीत व स्तुतियों की रचना कन्नड़ में तिम्मप्पदास एवं मध्वदास ने की। इसी समय चिदानन्द नामक विद्वान् प्रसिद्ध कन्नड़ ग्रन्थ' 'हरिभक्ति रसायन' के रचयिता हुए। मध्व के सिद्धान्तों का स्पष्ट वर्णन कन्नड़ काव्य-ग्रन्थ 'हरिकथासार' में हुआ है। मध्वमत के अनेक संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद कन्नड़ी में हुआ। माध्व संन्यासी शङ्कर के दशनामी संन्यासियों में ही परिगणित हैं। स्वयं मध्व एवं उनके मुख्य शिष्य तीर्थ (दसनामिंयों में से एक) शाखा के थे। परवर्ती अनेक माध्व 'पुरी' एवं 'भारती' शाखाओं के सदस्य हुए।

मध्वसिद्धान्तसार : मध्वाचार्य के शिष्य पद्मनाभाचार्य ने माध्व मत का वर्णन 'पदार्थसंग्रह' नामक ग्रन्थ में किया है। 'पदार्थसंग्रह' के ऊपर उन्होंने 'मध्व सिद्धान्त सार' नामक व्याख्या भी लिखी।

मनभाऊ सम्प्रदाय : दे० 'दत्त सम्प्रदाय'।

मनवाल महामुनि : श्री वैष्णव सम्प्रदाय के एक आचार्य। इनका अन्य नाम राम्यजामातृमुनि था। स्थिति काल 1427-1500 वि० के मध्य था। ये श्री वैष्णवों की दक्षिणी शाखा 'तेङ्गले' के नेता थे। वेदान्तदेशिक के पश्चात् इन्होंने श्रीरङ्गम में वेदान्त शिक्षा प्रचलित रखी। इनके भाष्य विद्वत्तापूर्ण तथा बहु युक्त हैं।

मनविरक्तकरन गुटका : संत चरणदास (चरणदासी पन्थ के प्रवर्त्तक) द्वारा विरचित एक ग्रन्थ मनविरक्तकरन गुटका है। इसमें उनके ज्ञानोपदेशों का संग्रह है।

मनस् : सांख्य दर्शन के सिद्धान्तानुसार प्रकृति से महत् अथवा बुद्धि (व्यक्ति की विचार एवं निश्चय करने वाली शक्ति) की उत्पत्ति होती है। इस तत्त्व से अहङ्कार की उत्पत्ति होती है। फिर अहङ्कार से मनस् की उत्पत्ति होती है। यह सूक्ष्म अंग व्यक्ति को समझने की शक्ति देता है तथा बुद्धि को वस्तुओं के सम्बन्ध में प्राप्त किये गये ज्ञान पालन कर्मेन्द्रियों द्वारा कराता है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार नवद्रव्यों में मनस् नवां द्रव्य है। इसके द्वारा आत्मा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान के सम्पर्क में आता है। पाञ्चरात्र के व्यूहसिद्धान्त में प्रद्युम्न को मनस् तत्त्व कहा गया है।

मनसा : शक्ति के अनेक रूपों में से मनसा नामक देवी की पूजा बंगाल में बहुत प्रचलित है। इनकी प्रशंसा के गीत भी पर्याप्त संख्या में रचे गये हैं, जिनका साहित्यिक नाम 'मनसामंगल' है। ये सर्पों की माता मानी जाती हैं और इनकी पूजा से सर्पों का उपद्रव शान्त रहता है।

मनसाव्रत : ज्येष्ठ शुक्ल की हस्त नक्षत्र युक्त नवमी अथवा बिना हस्त नक्षत्र के भी दशमी को स्नुही के वृक्ष की शाखा पर मनसा देवी का पूजन करना चाहिए। हेमाद्रि (चतुर्वर्ग चिन्तामणि, प्रथम 621) के अनुसार मनसा देवी की पूजा आषाढ़ कृष्ण पंचमी को होनी चाहिए। मनसा श्रावण कृष्ण एकादशी को भी पूजी जाती है। देखिए, मनसा देवी तथा मनसा मंगल की कथा के लिए ए० सी० सेन की 'बंगाली भाषा तथा साहित्य' (पृ० 257-276) नामक पुस्तक।

मनावी : काठक संहिता (30.1) तथा शतपथ ब्राह्मण (1.1,4,16) में मनु की स्त्री को मनावी कहा गया है।

मनीषा पञ्चक : स्वामी शङ्कराचार्य विरचित एक उपदेशात्मक लघु पद्य रचना। इसके पाँच शार्दूलविक्रीडित छन्दों में धार्मिक और आध्यात्मिक उपदेश दिये गये हैं।

मनु : मनु को वैदिक संहिताओं (ऋ 1.80,16; 8.63,1; 10.100,5) आदि; अ०वे० 14.2,41; तैत्ति० सं० 1.5,1,3;7.5,15,3;6,7,1;3,2,2,1;5.4,10,5;6.6,6,1; का० सं० 8.15; शतपथ ब्राह्मण 1.1,4,14 जै० उ० ब्रा० 3.15,2 आदि) में ऐतिहासिक व्यक्ति माना गया है। ये सर्वप्रथम मानव था जो मानव जाति के पिता तथा सभी क्षेत्रों में मानव जाति के पथ प्रदर्शक स्वीकृति हैं। वैदिककालीन जलप्लावन की कथा के नायक मनु ही हैं (काठ० सं० 11.2)।

मनु को विवस्वान् (ऋ० 8.52,1) या वैवस्वत (अ० वे० 8.10,24), विवस्वन्त (सूर्य) का पुत्र; सावर्णि (सुवर्णा का वंशज) एवं सांवर्णि (ऋ० वे० 8.51,1) (संवरण का वंशज) कहते हैं। प्रथम नाम पौराणिक है, जबकि दूसरे नाम ऐतिहासिक है। सावर्णि को लुड्विग तुर्वसुओं का राज कहते हैं, किन्तु यह मान्यता सन्देहपूर्ण है।

पुराणों में मनु को मानव जाति का गुरु तथा प्रत्येक मन्वन्तर में स्थित कहा गया है। वे जाति के कर्त्तव्यों (धर्म) के ज्ञाता हैं।

भगवद्गीता (10.6) भी मनुओं का उल्लेख करती करती है। मनु नामक अनेक उल्लेखों से प्रतीत होता है कि यह नाम न होकर उपाधि है। मनु शब्द का मूल मन् धातु (मनन करना) से भी यही प्रतीत होता है। मेधातिथि, जो मनुस्मृति के भाष्यकार हैं, मनु को उस व्यक्ति की उपाधि कहते हैं, जिसका नाम प्रजापति है। वे धर्म के प्रकृत रूप के ज्ञाता थे एवं मानव जाति को उसकी शिक्षा देते थे। इस प्रकार यह विदित होता है कि मनु एक उपाधि है।

मनुरचित 'मानव धर्मशास्त्र' भारतीय धर्मशास्त्र में आदिम व मुख्य ग्रंथ माना जाता है। प्राचीन ग्रन्थों में जहाँ मानव धर्मशास्त्र के अवतरण आये हैं वे सूत्र रूप में हैं और प्रचलित मनुस्मृति के श्लोकों से नहीं मिलते। वह सूत्रग्रन्थ 'मानव धर्मशास्त्र' अभी तक देखने में नहीं आया। वर्तमान मनुस्मृति को उन्हीं मूल सूत्रों के आधार पर लिखी हुई कारिका मान सकते हैं। वर्तमान सभी स्मृतियों में यह प्रधान समझी जाती है। दे० 'मनुस्मृति'।

मनु का श्रौतसूत्र : मनुरचित मानव श्रौतसूत्र विशेष प्रसिद्ध है। इसके वर्ण्यविषयों में प्रथम अध्याय में प्राक्सोम, दूसरे में अग्निष्टोम, तीसरे में प्रायश्चित्त्, चौथे में प्रवर्ग्य, पाँचवें में दृष्टि, छठें में चयन, सातवें में वाजपेय, आठवें में अनुग्रह, नवें में राजसूय, दसवें में शुल्वसूत्र और ग्यारहवें अध्याय में परिशिष्ट हैं। अग्निस्वामी, बालकृष्ण मिश्र और कमारिलभट्ट इसके भाष्यकार हैं।

मनुस्मृति : स्मृतियों में यह प्राचीनतम तथा सर्वाधिक मान्य है। इसमें समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र सभी का समावेश है। अतः सामाजिक व्यवस्था का यह आधारभूत ग्रन्थ है। परम्परा के अनुसार इसके रचयिता मनु थे, जो आदि व्यवस्थापक माने जाते हैं। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से यह कहना कठिन है कि यह एक काल में तथा एक व्यक्ति के द्वारा प्रणीत हुई। इतना कहा जा सकता है कि मानव परम्परा में धर्मशास्त्र का प्रणयन हुआ। मनु के प्रथम उल्लेख ऋग्वेद (1.80,16; 1.114,4;2.33,13) में पाये जाते हैं। वे मानव जाति के पिता माने गये हैं। एक ऋषि प्रार्थना करते हैं कि वे मनु के पैतृक मार्ग से च्युत न हों (मा नः पथः पित्र्यान्मानवाधि दूरं नैष्ट परावतः। ऋग्वेद 8.30,3)। एक दूसरी वैदिक परम्परा के अनुसार मनु प्रथम यज्ञकर्ता थे (ऋग्वेद 10.63,7) तैत्तिरीय संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार मनु का कथन भेषज है---'यद्वै किञ्च मनुरवदत्तदभेषजम्'। तै० सं० 2-2-10-2-- 'मनुर्वै यत्किञ्चावदत्तभेषजम् भेषजतायै।' ताण्डय ब्राह्मण (23,16,17) और शतपथ ब्राह्मण में मनु और जलप्लावन की कथा पायी जाती है। निरुक्त (अ० 3) में मनु को स्मृतिकार के रूप में स्मरण किया गया है। महाभारत स्वायम्भुव मनु (शान्ति 21.12)। प्राचेतसमनु (शान्ति, 57.43) और कहीं केवल मनु का उल्लेख करता है। गौतम, आपस्तम्ब तथा वसिष्ठ धर्मसूत्रों में मनु को प्रमाणरूप में उद्धृत किया गया है। अन्यत्र महाभारत (शान्ति, 57.43) में कहा गया है कि ब्रह्मा ने एक लक्ष श्लोकों का धर्मशास्त्र बनाया। इसमें प्रतिपादित धर्मों का प्रवर्तन स्वायम्भुव मनु ने किया। इन पर आधारित शास्त्रों का प्रवर्तन उशना और बृहस्पति ने किया। नारदस्मृति की भूमिका के गद्यभाग में कथन है कि मनु ने एक लक्ष श्लोक, एक सहस्र अस्सी अध्याय और चौबीस प्रकरणों में धर्मशास्त्र की रचना की। मनु ने इसको नारद को दिया, जिन्होंने इस बारह सहस्र श्लोकों में संक्षिप्त किया। नारद ने इसको मार्कण्डेय को दिया, जिन्होंने इसका आकार आठ हजार श्लोकों तक सीमित किया। मार्कण्डेय से यह धर्मशास्त्र सुमति भार्गव को प्राप्त हुआ, जिन्होंने इसे चार सहस्त्र श्लोकों में निबद्ध किया। संभवतः मनु का प्रायः यही वर्तमान रूप है। काशी प्रसाद जायसवाल (मनु एण्ड याज्ञवल्क्य) के अनुसार शुङ्गकाल (द्वितीय शती ई० पू०) में सुमति भार्गव ने मनुस्मृति का वर्तमान संस्करण प्रस्तुत किया। इसमें बारह अध्याय और दो सहस्र छः सौ चौरानबे श्लोक हैं।

मनु के धर्मशास्त्र को सम्मान देते हुए कहा गया है कि मनु के विरोध में लिखी गयी स्मृति मान्य नहीं हो सकती। मनु से इस धर्मशास्त्र में दो समस्याओं का समाधान उपस्थित किया है। प्रथमतः इसकी रचनाकर उन्होंने वैदिक विचारों की रक्षा की। दूसरे, इसके द्वारा एक ऐसे समाज की रूपरेखा प्रस्तुत की जिसमें प्रजातीय और व्यक्तिगत विवाद न्यूनतम हों और व्यक्ति का अधिकतम विकास सम्भव हो सके तथा एक सहकारी स्वस्थ समाज की स्थापना हो सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मनु ने समाज को वर्ण (मनुष्य की प्रकृति) और आश्रम (संस्कृति) के आधार पर संगठित किया। वर्ण विभिन्न जातियों और वर्गों का समन्वय था। मनु के अनुसार चार वर्ण थे, कोई पञ्चम वर्ण नहीं था। प्रत्येक वर्ण के उत्कर्ष और अपकर्ष के मार्ग खुले थे। व्यक्तिगत जीवन चार आश्रमों में विभक्त था जिनमें होता हुआ मनुष्य चार पुरुषार्थों--धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सके।

मनुस्मृति के महत्त्व को देखकर अनेक धर्मशास्त्रियों ने इस पर व्याख्याएँ लिखीं, जिनमें मेधातिथि, गोविन्दराज और कुल्लूक बहुत प्रसिद्ध हैं। इनके अतिरिक्त नारायण, राघवानन्द, नन्दन और रामचन्द्र की टीकाएँ भी उल्लेखनीय हैं। मनु पर असहाय और उदयाकर के उद्धरण भी पाये जाते हैं। संभवतः भोजदेव और भागुरि ने भी मनु पर टीकायें लिखीं।

मनुस्मृति के अतिरिक्त अन्य स्मृतियाँ भी मनु के नाम से प्रचलित थीं। याज्ञवल्क्य स्मृति के भाष्यकार विश्वरूप और विज्ञानेश्वर, स्मृतिचन्द्रिका, पराशरमाधवीय आदि ग्रन्थ वृद्धमनु के अनेक वचन उद्धृत करने हैं। इसी प्रकार बृहन्मनु के वचन मिताक्षरा तथा अन्य ग्रन्थों में पाये जाते हैं।

मनोरथतृतीया : चैत्र शुक्ल तृतीया को बीस भुजाधारिणी गौरी का पूजन करना चाहिए। एक वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए। व्रती को दन्तधावन करने के लिए निश्चित वृक्षों की शाखाओं (जम्बू, अपामार्ग, खदिर) का ही उपयोग करना चाहिए। शरीर पर उद्वर्तन करने के लिए निश्चित प्रलेप अथवा यक्षकर्दम (केसरचन्दन) ही प्रयुक्त करना चाहिए। उसी प्रकार कुछ निश्चित पुष्प जैसे मल्लिका, करवीर, केतकी) तथा नैवेद्य भी, जिसका विशेष रूप से उल्लेख किया गया है, प्रयुक्त किये जाने चाहिए। व्रत के अन्त में आचार्य को शय्यादान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त चार बालक तथा बारह कन्याओं को भोजन और दक्षिणा से सम्मानित करना चाहिए। इस आचरण से व्रती के सारे मनोरथों की सिद्धि होती है।

मनोरथद्वादशी : इस व्रत में फाल्गुन शुक्ल एकादशी को उपवास, तदन्तर द्वादशी को हरि का पूजन-हवनपूर्वक मनोरथपूर्ति की उनसे प्रार्थना की जाती है। वर्ष को चार-चार महीने के तीन भागों में विभाजित कर प्रति भाग में भिन्न-भिन्न पुष्पों, धूपों नैवेद्यादिकों का प्रयोग किया जाता है। प्रति मास दक्षिणा दी जाती है। व्रत के अन्त में विष्णु की सुवर्णप्रतिमा बनवाकर दान में दे दी जाती है। बारह ब्राह्मणों को सुन्दर भोजन कराया जाता है तथा कलशों का दान किया जाता है।

मनोरथद्वितीया : इस व्रत में शुक्ल पक्ष की द्वितीया को दिन में वासुदेव का पूजन किया जाता है। द्वितीया के चन्द्रमा को अर्घ्‍य देकर नक्तपद्धति से चन्द्रास्त से पूर्व आहार करने का विधान है।

मनोरथसंक्रान्ति : एक वर्ष तक प्रत्येक संक्रान्ति के दिन गुड़ सहित जलपूर्ण कलश तथा वस्त्र किसी सद्गृहस्थ को दान में देना चाहिए। इसके देवता सूर्य हैं। इस आचरण से व्रती समस्त कामनाओं की सिद्धि प्राप्त करता है तथा पापमुक्त होकर सीधा सूर्यलोक चला जाता है।

मनोरथपूर्णिमा : यह व्रत कार्तिक पूर्णिमा को प्रारम्भ होता है। वर्ष भर प्रति पूर्णिमा को उदय होते हुए चन्द्रमा का पूजन तथा नक्त विधि से आहार किया जाता है। प्राकृतिक नमक का एक वृत्त बनाकर चन्द्रमा का पूजन किया जाता है। कार्तिक मास में पूर्ण चन्द्रमा कृत्तिका अथवा रोहिणी का, मार्गशीर्ष मास में मृगशिरा तथा आर्द्रा नक्षत्र का तथा अन्य मासों में इसी प्रकार का होना चाहिए। किन्तु फाल्गुन, श्रावण तथा भाद्रपद में कम से कम एक नक्षत्र अथवा तीनों का एकाधिक मेल होना चाहिए। उन दिनों सधवा नारियों का सम्मान करना चाहिए। व्रत के अन्त में कुछ आसनों का जो कुसुम्भरञ्जित हों, दान किया जाना चाहिए। इससे व्रती सौन्दर्य, वरदान और सुख-सम्पत्ति प्राप्तकर स्वर्ग प्राप्त करता है।

मनोरवसर्पण : शतपथ ब्रा० (18,1,8) में यह उस पर्वत का नाम है, जिसपर जाकर मनु की नाव ठहरी थी। महाभारत में इसका नाम 'नौबन्धन' है। अथर्ववेद में 'नाव प्रभ्रंशन' (19.39.8) का उल्लेख है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह शब्द मनोरवसर्पण की ओर ही संकेत करता है। परन्तु अधिकांश विद्वान् इस विचार से सहमत नहीं हैं।

मन्त्र : वैदिक संहिताओं में गायक के विचारों की उपज, ऋचा, छन्द, स्तुति को मन्त्र कहा गया है। ब्राह्मणों में ऋषियों के गद्य या पद्यमय कथनों को मन्त्र कहा गया है। साधारणतः किसी भी वैदिक सूक्त अथवा यज्ञीय निरूपणों को मन्त्र कहते हैं, जो ऋक्, साम और यजुष् कहलाते हैं। ये वेदों के ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् भाग से भिन्न हैं। किसी देवता के प्रति समर्पित सूक्ष्म प्रार्थना को भी मन्त्र कहते हैं, यथा, शैव सम्प्रदाय का मन्त्र 'नमः शिवाय' और भागवत सम्प्रदाय का 'नमो भगवते वासुदेवाय'। शाक्त और तान्त्रिक सम्प्रदायों में अनेक सूक्ष्म और रहस्यमय वाक्यों, शब्दखण्डों और अक्षरों का प्रयोग होता है। उन्हें भी मन्‍त्र कहते हैं और विश्वास किया जाता है कि उनसे महान् शक्तियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

मन्त्रकण्टकी : परम्परागत मान्यता है कि ऋषि, छन्द, देवता और विनियोग के बिना जाने वेदमन्त्रों का पढ़ना या पढ़ाना दोषप्रद है। किस छन्द को किस ऋषि ने प्रकट किया, वह मन्त्र किस छन्द में है, अर्थात वह कैसे पढ़ा जायगा, उस मन्त्र में किस देवताविषयक वर्णन है और उस मन्त्र का प्रयोग किस काम में होता है, इन बातों को बिना जाने जो मन्त्रों का प्रयोग करते हैं वे 'मन्त्रकण्टकी' कहलाते हैं।

मन्त्रकृत : ऋग्वेद (9.114,2) तथा ब्राह्मणों (ऐतरेय 6.1,1; पञ्च 13.3,24; तैत्ति० आ० 4.1) में मन्त्र कृत् ऋषिबोधक शब्द है। जिन ऋषियों को वेदों का साक्षात्कार हुआ था उनको मन्त्रकृत् कहते हैं।

मन्त्रकोश : शाक्त साहित्य से सम्बन्धित यह अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध की रचना है।

मन्त्रगुरु : साम्प्रदायिक देवमन्त्रों का प्रथम उपदेश करने वाला मन्त्रगुरु कहा जाता है। आज भारत में मन्त्रगुरु का जो प्रचार है वह तान्त्रिकों के प्राधान्य काल में प्रचलित हुआ था। शायद बङ्गाली तान्त्रिकों ने ही इस प्रथा का प्रथम प्रचार किया। उनकी देखा (देखी) भारत के नाना स्थानों तथा नाना सम्प्रदायों में इस प्रकार मन्त्रगुरु की प्रथा चल पड़ी होगी।

मन्त्रब्राह्मण : सामवेदीय छठें ब्राह्मण का नाम मन्त्रब्राह्मण है। इसमें दस प्रपाठक हैं। गृह्य यज्ञकर्म के प्रायः सभी मन्त्र इस ग्रन्थ में संगृहीत हैं। इसे उपनिषद्ब्राह्मण, संहितोपनिषद् ब्राह्मण वा छान्दोग्यब्राह्मण भी कहते हैं। इसमें सामवेद पढ़नेवालों की रोचकता के लिए सम्प्रदायप्रवर्तक ऋषियों की कथा लिखी गयी है। इसी ब्राह्मण के आठवें से लेकर दसवें प्रपाठक तक के अंश का नाम 'छान्दोग्योपनिषद्' प्रसिद्ध है।

मन्त्रमहोदधि : महीधर ने 1646 वि० सं० में 'मन्त्रमहोदधि' नामक कर्मकाण्ड की पुस्तक लिखी जो शाक्त तथा शैव दोनों सम्प्रदायों में मान्य है।

मन्त्रराज (नरसिंह कृत) : नरसिंह सम्प्रदाय का साम्प्रदायिक मन्त्र, जो अनुष्टुप् छन्द में है, 'मन्त्रराज' कहलाता है।. इसकी रचना नृसिंह द्वारा हुई थी तथा इसके साथ और भी चार लघु मन्त्र हैं।

मन्त्रराजतन्त्र : आगमतत्व विलास' में उद्धृत तन्त्रों की तालिका में 'मन्त्रराजतन्त्र' का उल्लेख हुआ है।

मन्त्रार्थमञ्जरी : यह राघवेन्द्र स्वामी कृत सत्रहवीं शताब्दी का एक ग्रन्थ है। इसमें मन्त्रों की अर्थ-पद्धति का निरूपण किया गया है।

मन्त्रिका उपनिषद् : यह परवर्ती उपनिषद् है।

मन्थी : वैदिक संहिताओं में सोमरस एवं सक्तु का घोल मन्थी कहा गया है। इसका उपयोग यज्ञों में होता था।

मन्दारषष्ठी : माघ शुक्ल षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। पंचमी को व्रती अत्यन्त लघु आहार करता है, षष्ठी को उपवास करते हुए मन्दार की प्रार्थना करता है। अगले दिन वह मन्दार वृक्ष (अर्क-आक का वृक्ष) पर केसर लगाता है तथा ताम्रपात्र में काले तिलों से अष्टदल कमल बनाता है। तदनन्तर मन्दार कुसुमों से प्रति दिशा की ओर अग्रसर होता हुआ सूर्य का भिन्न-भिन्न नामों से पूजन करता है एवं मध्य में हरि भगवान् की कल्पना करते हुए पूजन करता है। एक वर्ष तक प्रति शुक्ल पक्ष की सप्तमी को इसी क्रम से पूजन चलता है। व्रत के अन्त में एक कलश में सुवर्ण की प्रतिमा डालकर उसे दान कर दिया जाता है। स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक मन्दार भी है। अन्य हैं पारिजात, सन्तान, कल्पवृक्ष तथा हरिचन्दन।

मन्दार सप्तमी : माघ शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। पञ्चमी को हलका आहार किया जाता है। अग्रिम दिन ब्राह्मणों को मन्दार के आठ पुष्प खिलाये जाते हैं। इसके देवता सूर्य हैं। शेष क्रिया पूर्वोक्त व्रत के ही समान होती है।

मन्वन्तर : सृष्टि की आयु के माप के लिए हिन्दू मान्यता में युग, मन्वन्तर एवं कल्प तीन मुख्य मान उल्लिखित हैं। कल्प के वर्णन में युगों (चार) का भी वर्णन किया जा चुका है। यहाँ मन्वन्तर के बारे में लिखा जा रहा है। चार युगों (कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि) का एक महायुग (4.320000 वर्ष), 71 महायुगों का एक मन्वन्तर एवं 14 मन्वन्तरों का एक कल्प होता है।

मन्वादि तिथि : कुल 14 मन्वन्तर हैं। चार युगों को मिलाकर 4320000 वर्षों का एक महायुग बनता है। प्रत्येक मन्वन्तर में 71 महायुगों से कुछ अधिक वर्ष होते हैं। वर्ष के अन्तर्गत उक्त मन्वन्तरों का आरम्भ जिन तिथियों को होता है वे मन्वादि तिथि के नाम से प्रसिद्ध हैं। चूँकि ये तिथियाँ अत्यन्त पुनीत हैं, उन दिनों श्राद्धादि का अनुष्ठान किया जाना चाहिए। दे० मन्वादि तिथियों के लिए तथा चौदह मन्वन्तरों के नाम तथा उनके वर्णन के लिए विष्णुधर्मोत्तर, अध्याय प्रथम, श्लोक 176-189।

मयूर : सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में उत्पन्न एक कवि जो महाराज हर्षवर्धन के राजकवि बाण के विपक्षी थे। इनका 'सूर्यशतक' संस्कृत काव्य का अनूठा ग्रन्थ है। यह स्रग्धरा छन्द एवं गौडीय रीति में रचा गया है। एक परिपक्व कवि की रचना होने के साथ ही यह सूर्य देवता के तत्कालीन ईश्वरत्व का पूर्णतया दिग्दर्शन कराता है। कहा जाता है कि मयूर कवि को कुष्ठ रोग हो गया था, जो सूर्यशतक की रचना और पाठ करने से छूट गया। अतएव यह काव्य साहित्यिक और धार्मिक दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।

मयूर भट्ट : तान्त्रिक बौद्ध धर्म के अवसान ने बङ्गाल तथा उडीसा के हिन्दू धर्म पर पर्याप्त प्रभाव डाला। बौद्ध त्रिरत्न---बुद्ध, धर्म एवं संघ-से एक नये हिन्दू देवता की कल्पना हुई, जिसका नाम धर्म पड़ा। धर्म ठाकुर की भक्ति दूर-दूर तक फैली। इस नये देवता सम्बन्धी एक महत्त्वपूर्ण साहित्य की उत्पत्ति प्रारम्भिक बंगला में हुई। इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित 'शून्य पुराण' (रामाई पण्डित कृत--11 वीं शताब्दी) एवं लाउसेन नामक मैन (बंगाल) के राजा का नाम आता है, जिसने धर्म की पूजा की और जिसके वीरतापूर्ण कार्यों की प्रसिद्धि-गाथा प्रारम्भ हुई। इन कथाओं के आधार पर 'धर्ममङ्गल' आदि नामों से बंगला की मङ्गल काव्य माला का प्रारम्भ हुआ, जो 12 वीं शताब्दी से लिखी जाने लगी। मंगल काव्य के सबसे प्रथम लेखक मयूर भट्ट माने जाते हैं।

मराठा भक्त : महाराष्ट्र देश के वैष्णव भागवत उपनाम से जाने जाते हैं, किन्तु यह ज्ञात नहीं है कि भागवत पुराण का व्यवहार यहाँ कब आरंभ हुआ। चौदहवीं शताब्दी में भागवत धर्म का प्रचलन यहाँ अधिक विस्तृत हो गया। यहाँ का तत्कालीन समस्त लोक साहित्य स्थानीय भाषा (मराठी) में है। अतएव महाराष्ट्र के भागवतों और तमिल तथा कन्नड़ भागवतों में बड़ा अन्तर है। यहाँ भक्ति-आन्दोलन का प्रारंभ ज्ञानेश्वर नामक सन्त कवि से हुआ। एक परम्परा के अनुसार इनका उल्लेख भक्तमाल में हुआ है। ये विष्णुस्वामी के शिष्य थे।

ज्ञानेश्वर ने भगवद्गीता पर आधारित मराठी कविता में10,000 पद्यों का एक ग्रन्थ लिखा जिसे 'ज्ञानेश्वरी' कहते हैं (1347 वि०)। इससे अद्वैत ज्ञान की ध्वनि निकलती है, किन्तु यह योग साधना का भी उपदेश देता है। लेखक अपने को गोरखनाथी शिष्य परंपरा के संत निवृत्तिनाथ का शिष्य बतलाते हैं। ज्ञानेश्वर ने 28 अभंगों के एक संग्रह 'हरिपाठ' की भी रचना की। ये मराठी पद्य में रचित अद्वैत शैवदर्शन की कृति 'अमृतानुभव' के भी लेखक हैं। इस प्रकार संत ज्ञानेश्वर भागवत होने के साथ, शिव तथा विष्णु की भक्ति करने वाले तथा शङ्कराचार्य के भी दार्शनिक अनुयायी थे।

ज्ञानेश्वर के बाद दूसरा प्रसिद्ध नाम भक्त नामदेव का आता है। परम्परानुसार दोनों कम से कम एक बार मिले थे। भक्तमाल के अनुसार नामदेव ज्ञानेश्वर के शिष्य थे। किन्तु रामकृष्ण भण्डारकर दोनों के समयों में 100 वर्ष का अन्तर बतलाते हैं। नामदेव के कुछ पदों का 'गुरु ग्रन्थ साहब' में उद्धरण यह प्रकट करता है कि इनका मराठा देश तथा पञ्जाब में समान आदर था। इनके पदों में इसलाम का प्रभाव भी परिलक्षित है। गुरुदासपुर जिले (पंजाब) में घुमन नामक स्थान पर नामदेव के नाम पर एक मन्दिर निर्मित है।

तीसरे प्रसिद्ध मराठा भक्तगायक त्रिलोचन थे। ये नामदेव के समकालीन थे। इनके बाद मराठा भक्तों में एकनाथ (मृत्यु काल 1308 ई०) का नाम आता है, जो पैठन में रहते थे। ये जातिवाद के विरोधी थे। इन्होंने भागवत पुराण का मराठी पद्य में अनुवाद किया, जिसे 'एकनाथी भागवत' कहते हैं। इनके 26 अभङ्गों का 'हरिपाठ' नामक संग्रह तथा चतुःश्लोकी भागवत भी प्रसिद्ध है। संत तुकाराम (1608-49 ई०) व्यापारी थे एवं बिठोवा (पंढरीनाथ) के भक्त थे। इनके अभङ्ग बड़े ही भावपूर्ण हैं।

महात्मा नारायण (1608-89 ई०) जिनका परवर्ती नाम समर्थ रामदास हो गया था, कविता के क्षेत्र में साहित्यिक रूप से उतने प्रसिद्ध न थे, किन्तु व्यक्तिगत रूप से महाराज शिवाजी पर 1650 ई० के पश्चात् इनका बड़ा प्रभाव था। इनका 'दासबोध' ग्रन्थ धार्मिक की अपेक्षा दार्शनिक अधिक है। इनके नाम पर आज भी एक सम्प्रदाय 'रामहम्पी' प्रचलित है। इनके अनुयायी साम्प्रदायिक चिह्न धारण करते हैं तथा अपना एक रहस्यमय मन्त्र रखते हैं। सतारा के समीप सज्जनगढ़ इनका मुख्य केन्द्र है। यहाँ रामदासजी की समाधि, रामचन्द्रजी का मन्दिर तथा रामदासीजी का मन्दिर तथा रामदासी सम्प्रदाय का मठ है।

अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में श्रीधर नामक एक पंडित कवि बड़े ही प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने मराठी में रामायण एवं महाभारत की कथाएँ पद्यबद्ध कीं। इनका प्रभाव सीधे धार्मिक नहीं है, किन्तु इनके कथानकों का स्वरूप धार्मिक है। इसी शताब्दी में पीछे महीपति हुए। इनके द्वारा भक्तों तथा साधुओं की जीवनियाँ लिखी गई। इनके ग्रन्थ हैं सन्त लीलामृत, भक्तविजय एवं कथासारामृत। मराठी भाषाभाषी भागवतों द्वारा इस प्रकार सर्वविदित भक्ति आन्दोलन का गठन हुआ। भागवतपुराण के सिवा इनका सारा साहित्य मराठी में है। इनके देवता विट्ठलनाथ या बिठोवा हैं। बिठोवा विष्णु का मराठी नाम है। इसके केन्द्र हैं पण्ढरपुर, आलन्दि एवं देहु। किन्तु सारे महाराष्ट्र देश में इनके छोटे-मोटे मन्दिर बिखरे हुए हैं। बिट्ठल की अनेक पत्नियों (शक्तियों)---रुक्माबाई (रुक्मिणी), राधा, सत्यभामा तथा लक्ष्मी-की प्रतिमाएँ अलग-अलग मन्दिरों में इनकी बगल में स्थापित हैं (सभी एक साथ एक मन्दिर में नहीं हैं। मराठा भक्ति आन्दोलन में राधा का स्थान प्रमुख नहीं है। इन मन्दिरों में महादेव, गणपति तथा सूर्य की स्थापना भी हुई है। लक्ष्मी को देवी मानते हुए इन पाँचों देवों की पूजा होती है। इन भक्तों ने जातिवाद का समर्थन नहीं किया, फिर भी महाराष्ट्र के भागवत मन्दिरों में कोई जातिच्युत प्रवेश नहीं करता रहा है।

मरिचसप्तमी : चैत्र शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें सूर्य का पूजन किया जाता है। ब्राह्मणों को निमन्त्रित करके 100 काली मिर्चें निम्नलिखित मन्त्र 'ओम् खखोल्काय स्वाहा' बोलते हुए उन्हें खाने को दी जाती हैं। इससे व्रती को अपने प्रिय व्यक्तियों का विछोह सहन नहीं करना पड़ता। राम तथा सीता एवं नल तथा दमयन्ती ने भी इस व्रत को किया था।

मरुत : ऋग्वेद में मरुतों की स्तुति सम्बन्धी कुल 33 ऋचाएँ (पाँचवें मण्डल में 11+पहले में 11 तथा शेष संहिता में 11= 33) हैं। इसके अतिरिक्त अन्य ऋचाओं में उनका उल्लेख अन्य देवों के साथ हुआ है, विशेषकर इन्द्र के साथ। इनका इन्द्र के साथ सामीप्य वृत्रयुद्ध के समय सहायक के रूप में हुआ है। ऋग्वेदीय सामग्री के अनुसार मरुतों का निम्नलिखित वर्णन प्रस्तुत किया जा सकता है :

वे विद्युत् के अट्टाहास से उत्पन्न होते हैं, आकाश के पुत्र हैं, नायक हैं, पुरुष हैं, भाई हैं, साथ-साथ पढ़े हैं, सभी एक अवस्था व मन के हैं, रोदसी से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं, अग्नि की जिह्वा सदृश चमकते हैं तथा सर्प की चमक रखते हैं, विद्युत् को अपने मुट्ठी में रखते हैं और विद्युत की माला धारण करते हैं, सुनहरे आभूषण भाजाओं तथा घुट्ठियों पर धारण करते हैं, जिनके द्वारा वे तारों भरे आकाश सदृश द्युतिमान् होते हैं, चितकबरे घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विद्युत् के रथ पर सवारी करते हैं तथा वायु को अपने ध्रुव गन्तव्य के लिए जोतते हैं, बछड़ों की भाँति क्रीड़ारत हैं, वन्य पशुओं जैसे भयावह हैं, बिजली, आँधी तथा तूफान से पहाड़ों को भी हिला देते हैं, कुहासा बोते हैं, आकाश का धन दुहते हैं, सूर्य की आँखों को अपनी बूदों की झड़ी से ढक देते हैं, बादलों के साथ अन्धकार की सृष्टि करते हैं, वे पृथ्वी को गीला कर देते हैं, गरते हुए कुओं को दुहते हैं, आकाश के गायक हैं, जो इन्द्र की शक्ति उत्पन्न करते हैं तथा अपने वंशी-वादन द्वारा पर्वतों को स्वच्छ कर देते हैं, अहि तथा शम्बर के मारने में इन्द्र की सहायता करते हैं तथा सभी आकाशीय विजयों में इन्द्र का साथ देते हैं (ऋ० 3.47, 3-4; 1.100 आदि)। सब सन्दर्भों को जोड़ने से प्रतीत होता हैं, कि मरुत इन्द्र के साथी हैं तथा आकाश के योद्धा हैं। वे अपने कन्धों पर भाले, पैरों में पदत्राण, छाती पर सुनहरे आभूषण, रथों पर शानदार वस्तुएँ, हाथों में विद्युत् तथा सिर पर सुनहरे मुकुट धारण करते हैं।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मरुत् झंझावात के देवता हैं। उनके स्वभाव का विद्युत्, विद्युत्-गर्जन, आंधी तथा वर्षा के रूप में वर्णन किया गया है। अन्धड़-तूफान में अनेक बार बिजली चमकती है, अनेकानेक बार गर्जन होता है, आंधी चलती है तथा वर्षा की झड़ी लगी रहती है। इस प्रकार के वर्णनार्थ बहुवचन का प्रयोग आवश्यक है। वृत्र के मारने में मरुत् ही इन्द्र के सहायक थे। यह आश्चर्य है कि इन्द्र ने अपने मण्डल से बाहर जाकर रुद्रमण्डल में अपने मित्र एवं सहायक ढूँढ़े, क्योंकि रूद्र के पुत्र (गण) होने के कारण मरुत् रुद्रिय कहलाते हैं।

मरुत्व्रत : चैत्र शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता हैं। षष्ठी को उपवास किया जाता है। ऋतुओं का सप्तमी को पूजन किया जाता है। व्रती घिसे हुए चन्दन से सात पंक्तियाँ तथा प्रति पंक्ति में सात मण्डल बनाता है। प्रथम पंक्ति में वह सात नाम एक ज्योति से सप्तज्योति तक लिखता है। प्रति पंक्ति में इसी प्रकार भिन्न-भिन्न नाम लिखे जाते हैं। उनचास दीपक प्रज्वलित किए जाते हैं। घृत से होम तथा एक वर्ष तक ब्राह्मणों को भोजन कराने का इसमें विधान है। व्रत के अन्त में गौ तथा वस्त्रों का दान विहित है। यह व्रत स्वास्थ्य, सम्पत्ति, पुत्र, विद्या तथा स्वर्ग प्रदान कराता है। कहा जाता है, मरुद्गण सात अथवा 49 हैं। दे० ऋग्वेद, 5.52.17; तैत्तिरीय संहिता 2.11.1 'सप्त गणा वै मरुत्'।

मरुल : वीरशैव सम्प्रदाय की संचालन व्यवस्था पर्याप्त महत्त्वपूर्ण है। इसके पाँच आदि मठ हैं। इनमें चौथा स्थान उज्जिनि, बेल्लारी सीमा (मैसूर) के मठ का है। इसके प्रथम महन्त मरुल थे। इनका वीरशैव परम्परा में अति उच्च औऱ समानित स्थान है।

मरुलाराध्य : अवन्तिकापुरी के सिद्धेश्वर लिङ्ग से, जो भगवान् शिव का वामदेव रूप है, महात्मा मरुलाराध्य प्रकट हुए थे। कहते हैं कि वे अवन्ती के राजा के साथ मतभेद हो जाने से वल्लारी (कर्नाटक) जिले के एक गाँव में जाकर बस गये थे। दे० 'मरुल'।

मरैज्ञानसम्बन्ध : अरुलनन्दी के शिष्य मरै ज्ञानसम्बन्ध थे। ये शूद्र वर्ण में उत्पन्न हुए थे। इन्होंने 'शैव समयनेऋ' नामक ग्रन्थ की रचना की। ये 13 वीं शताब्दी में मद्रास क्षेत्र के अन्तर्गत वर्तमान थे।

मर्कटात्मज भक्ति : शैव आगमों के अनुसार भक्ति दो प्रकार की है। प्रथम मार्जारात्मज भक्ति और दूसरी मर्कटात्मज भक्ति। प्रथम भक्ति वह है जहाँ जीवात्मा की दशा देवता की कृपा के भरोसे पर निर्भर होती है, जैसे कि मार्जारशिशु तबतक असहाय होता है, जबतक उसकी माँ उसे मुँह में नहीं पकड़ती, अर्थात् बच्चा निराश्रय पड़ा रहता है। स्वतः निष्क्रिय रहने वाले ऐसे प्राण की इस भक्ति को अधम कहा गया है (सा भक्तिः अधमा)। दूसरे प्रकार की भक्ति में जीवात्मा स्वयं भी भजन-पूजन करते हुए ईश्वर-प्राप्त के लिए देवता का सहारा भी लाभ कर सकता है। जैसे वानर या मर्कटशिशु अपनी माँ को कसकर पकड़े रहता है और माँ जरा सा सहारा उसे देते हुए उछलती-कूदती रहती है।

उक्त दोनों प्रकारों में द्वितीय-मर्कटात्मज-भक्ति में आत्मा स्वतः कार्यशील होता है, सचेष्ट, होता है, जबकि प्रथम-मार्जारात्मज-भक्ति में आत्मा स्वयं अकर्मण्यहोता है, वह पूर्ण रूप से देवकृपा पर निर्भर रहता है। इस प्रकार यह हेय है, जबकि मर्कटात्मज भक्ति श्रेष्ठ है। परन्तु कई भक्ति सम्प्रदायों (यथा श्रीवैष्णवों में मार्जारात्मज भक्ति ही श्रेष्ठ मानी जाती है, जिसमें भक्त अपने जीवन को भगवान् पर पूर्णतः छोड़ देता है। इन सम्प्रदायों में मर्कटात्मज भक्ति को छोटी मानते हैं, जिसमें भक्त भगवान् पर आधा ही भरोसा रखता है और आधे में अपने अभिमान को पकड़े रहता है। इन सम्प्रदायों के अनुसार 'पूर्ण प्रपत्ति' ही भक्ति की उत्तम कोटि है।

मर्दाना : गुरु नानक के एक शिष्य का नाम, जो गुरुजी की सेवा में रहकर साथ-साथ घूमता था और जब वे अपने पदों को गाते थे तब वह सितार बजाता था।

मलमासकृत्य : मलमास के कृत्य अन्तर्वर्ती मास (पहले के उत्तरार्ध और दूसरे के पूर्वार्ध) में करने चाहिए। उसके मध्य निषिद्ध कृत्यों के लिए देखिए 'अधिमास'।

मलूकदास : निर्गुण् भक्ति शाखा के एक रामभक्त कवि एवं संत। उनका जीवन-काल सं० 1631-1739 वि० माना जाता है। इन्होंने रामभक्ति विषयक अनेक पद्यों और भजनों की रचना की। मूलकदास ने एक अलग पन्थ भी चलाया। यों कहा जाय कि उनकी शिष्यपरम्परा मलूकदासी कहलायी, तो अधिक युक्तियुक्त होगा। इनका साधनास्थल या गुरुगद्दी प्रयाग के समीप कड़ा मानिकपुर में है।

मलूकदासी : दे० 'मूलकदास'।

मल्लद्वादशी : मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यमुना के तट, गोवर्द्धन पहाड़ और भाण्डीर वट-वृक्ष के नीचे गोपाल कृष्ण ग्वाल बालों, जो सब पहलवान थे, के साथ कुश्ती लड़ते थे। इसी प्रसंग में उक्त तिथि को समस्त मल्लों ने सर्वप्रथम पुष्पों से, दूध से, दही से तथा उत्तमोत्तम खाद्यपदार्थों से भगवान् कृष्ण की पूजा तथा सम्मान किया था। एक वर्ष तक प्रति द्वादशी को इसका अनुष्ठान होना चाहिए। इसे अरण्यद्वादशी या व्यञ्जनद्वादशी भी कहा गया जब कि समस्त ग्वाल बालों तथा मल्लों ने एक-दूसरे को अपने विविध खाद्य पदार्थ चखाये थे। इस व्रत के परिणामस्वरूप सुस्वास्थ्य, शक्ति, समृद्धि तथा अन्त में विष्णुलोक की प्राप्ति होती है।

मल्लनाग : एक प्रसिद्ध प्राचीन नैयायिक। विक्रम की सातवीं शताब्दी में कवि सुबन्धु ने सुप्रसिद्ध श्लेषकाव्य वासवदत्तम् में मल्लनाग, न्यायस्थिति, धर्मकीर्ति और उद्योत्कर इन चार नैयायिकों का उल्लेख किया है।

मल्लनाराध्य : दक्षिण भारत के एक शांकरवेदान्ती आचार्य। इनका जन्म कोटीश वंश में हुआ था और इन्होंने अद्वैतरत्न अभेदरत्न नामक दो प्रकरण ग्रन्थ लिखे। इनका जन्म सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में हुआ था। इन्होंने 'अद्वैतरत्न' के ऊपर 'तत्त्वदीपन' नामक टीका लिखी है। मल्लनाराध्य ने द्वैतवादियों के मत का खण्डन करने के लिए इस ग्रन्थ रचना की थी।

मल्लनार्य : वीरशैव सम्प्रदाय के 18वीं शताब्दी के आचार्य। इन्होंने कन्नड़ भाषा में 'वीर शैवामृत' नामक ग्रन्थ रचा।

मल्लारिमहोत्सव : मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। मल्लारि की पत्नी म्हालसा (कदाचित् मदालसा का अपभ्रंश) थी। मल्लारि के पूजन में हल्दी का चूर्ण मुख्य पदार्थ है जो महाराष्ट्र में भण्डारा के नाम से प्रसिद्ध है। मल्लारि का पूजन या तो प्रति रविवार या शनिवार अथवा षष्ठी को होना चाहिए। पूजनविधि ब्रह्माण्ड पुराण, क्षेत्रखण्ड, के मल्लारिमाहात्म्य से गृहीत है।

मल्लिकार्जुन : दक्षिण भारत के श्रीशैल पर्वत पर स्थित शंकरजी का प्रसिद्ध मन्दिर। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में इसकी गणना है। वीरशैवाचार्य श्रीपति पण्डिताराध्य की उत्पत्ति मल्लिकार्जुन लिङ्ग से ही मानी जाती है। इनका माहात्म्य शिवपुराण, शतरुद्र सं०, 41.12 में वर्णित है।

मल्लिकार्जुन जङ्गम : काशी में भगवान् विश्वाराध्य का वीर शैवसंस्थान् 'जङ्गमबाड़ी' (वर्गला) मठ के नाम से प्रसिद्ध है। इस मठ के मल्लिकार्जुन जङ्गम नामक शिवयोगी को काशीराज जयनन्ददेव ने विक्रम सं० 631 में प्रबोधिनी एकादशी के दिन भूमिदान किया था। इस कृत्य का ताम्रशासन लगभग पौने चौदह सौ वर्षों का पुराना उक्त मठ में सुरक्षित है। दे० 'जङ्गमबाड़ी'।

मशकश्रौतसूत्र : सामवेद सम्बन्धी एक श्रौतसूत्र 'मशकश्रौतसूत्र' नाम से विख्यात हैं।

मसान : एक प्रकार का श्मशानवासी प्रेत। मसान का अन्य नाम तोला है। यह बालकों तथा अविवाहितों का असन्तुष्ट मृत आत्मा होता है। मसान का साधारण अर्थ श्मशान भूमि में भटकने वाला प्रेत है। ये लोकविश्वासानुसार मनुष्यों को हानि नहीं पहुँचाते तथा इनकी स्थिति अस्थायी होती है। कुछ समय के बाद इनका जन्मान्तर हो जाता है तथा ये नया जन्म ले लेते हैं। कहा जाता है, कभी-कभी ये दूसरे भूतों के समाज से निष्कासित हो जङ्गलों व एकान्त प्रदेश में भाल या अन्य वन्य पशु के रूप में भटकते फिरते हैं।

महत् : (1) सांख्य मतानुसार प्रकृति से उसके प्रथम विकार महत् तत्त्व की उत्पत्ति होती है। जगत् रचना का यह वह सूक्ष्म तत्त्व है जो विचार एवं निर्णय करने वाले तत्त्व का निर्माण करता है।

(2) संमान्य अथवा विशाल के अर्थ में 'महत्' नपुंसकलिंग विशेषण है। पुंलिंग में यह 'महान्' और स्त्रीलिंग में 'महती' होता है। कर्मधारय और बहुब्रीहि समास में यह 'महा' बनकर उत्तरपद के साथ मिल जाता है। कतिपय समस्त पदों में यह निन्दा या अशुभ अर्थ प्रकट करता है, यथा : महातैल (रुधिर), महाब्राह्मण (महापात्र), महामांस (नरमांस), महापथ (मृत्युमार्ग), महानिद्रा (मृत्यु), महायात्रा (मृत्यु), महासंवैद्य (यम), महाशंख (नरमुंड)--

शंखे तैले तथा मांसे वैद्ये ज्योतिषि के द्विजे। यात्रायां पथि निद्रायां महच्छब्दो न दीयते॥

महत्तमव्रत : भाद्र शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। भगवान् शिव की जटाओं से मण्डित तथा पञ्च मुखयुक्त सुवर्ण-रजत की प्रतिमा का कलश में रखकर पूजन किया जाता है। पंचामृत में स्नान कराकर पुष्पादि चढ़ाते हुए 16 फल भगवान् की सेवा में अर्पित किए जाते हैं। व्रत के अन्त में गौ का दान किया जाता है। इसके आचरण से व्रती दीर्घायु तथा राज्य प्राप्त करता है।

महत्विज : महर्त्त्विज चार प्रधान पुरोहितों का सामूहिक नाम है। विशिष्ट यज्ञों में होता, उद्गाता, अध्वर्यु तथा ब्रह्मा मिलकर महर्त्विज कहलाते हैं।

महर्षि : वेदमन्त्रों के प्रकटकर्ती या विधि निर्धारक ऋषि कहे जाते हैं। किसी महान् ऋषि को महर्षि कहते हैं। दे० 'महाब्राह्मण'।

महा उपनिषद् : एक परवर्ती संक्षिप्त वैष्णव उपनिषद्। इसमें कथित है कि नारायण (विष्णु) ही शाश्वत ब्रह्म हैं; उन्हीं से सांख्य वर्णित पचीस तत्त्व उत्पन्न हुए हैं, शिव तथा ब्रह्मा उनके मानस पुत्र तथा आश्रितदेवता हैं। वैष्णव उपनिषदों में यह सर्वप्राचीन मानी जाती है।

महाकार्तिकी : कार्तिक की पूर्णमासी को चन्द्रमा और बृहस्पति यदि कृत्तिका नक्षत्र में हो तब यह तिथि महाकार्तिकी कही जाती है। चन्द्र रोहिणी में भी हो सकता है। इस दिन सोमवार का योग इस पर्व को बहुत श्रेष्ठ बना देता है।

महाकाल (शिव) : शिव के अनेक रूपों में से एक प्रलयंकर रूप। इस स्वरूप में शिव मुण्डों की माला पहनते हैं। श्मशान में शवासन पर बैठते हैं औऱ चिताभस्म लगाते हैं। काल को नष्ट कर जो स्वयं मृत्यु को जीतने वाले (मृत्युञ्जय) हैं उनको महाकाल कहा गया है। इनका प्रसिद्ध मन्दिर 'महाकाल निकेतन' उज्जयिनी में है और ये द्वादश ज्योतिर्लिंग में गिने जाते हैं।

महाकाली : शाक्त मतानुसार दस महादेवियों में से प्रथम महाकाली हैं। इनके शक्तिमान अधीश्वर महाकाल रुद्र हैं।

महाकौलज्ञानविनिर्णय : दसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध का एक तान्त्रिक ग्रन्थ।

महाकौशीतकि : कौशीतकि का नाम शाङ्खायन ब्राह्मण में अनेक बार आया है। इसीलिए शाङ्खायन ब्राह्मण के भाष्यकार ने इसे 'कौशीतकि ब्राह्मण' कहा है। इसी भाष्य में अनेक स्थानों पर 'महाकौशीतकि ब्राह्मण' नाम भी आया है।

महाक्रतु (यज्ञक्रतु) : भारतीय कर्मकाण्ड अथवा याज्ञिक कार्यों में अश्वमेध यज्ञ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृत्य है। इसकी गणना महाक्रतु या यज्ञक्रतु नाम से होती है।

महागणपति : गाणपत्य सम्प्रदाय के छः उपसम्प्रदायों में प्रथम 'महागणपति' है।

महागणाधिपति सम्प्रदाय : गाणपत्य सम्प्रदाय का प्रथम उपसम्प्रदाय। महागणाधिपति के उपासक उन्हें महाब्रह्मा या स्रष्टा मानते हैं। प्रलय के बाद महागणपति ही रह जाते हैं और आरम्भ में वे ही फिर से सृष्टि करते हैं।

महाचतुर्थी : भाद्र शुक्ल पक्ष की चतुर्थी यदि रविवार या भौमवार को पड़े तो वह महाचतुर्थी कहलाती है। उस दिन गणेश जी की पूजा करने से कामनाओं की सिद्धि होती है।

महाचैत्री : चैत्री पूर्णिमा को बृहस्पति और चन्द्रमा यदि चित्रा नक्षत्र में एक साथ पड़ जायें तो वह महाचैत्री कहलाती है।

महाजयासप्तमी : जब सूर्य शुक्ल पक्ष की सप्तमी को दूसरी राशि पर पहुँचता है, तो वह तिथि 'महाजया सप्तमी' कहलाती है। उस दिन स्नान, जप, होम तथा देवताओं की पूजा करने से करोड़ों गुना पुण्य मिलता है। यदि उसी दिन सूर्य की प्रतिमा को दूध या घी से स्नान कराया जाय तो मनुष्य सूर्यलोक प्राप्त कर लेता है। यदि उस दिन उपवास किया जाय तो मनुष्य स्वर्ग प्राप्त करता है।

महाज्येष्ठी : ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को ज्येष्ठा नक्षत्र हो, बृहस्पति तथा चन्द्रमा भी उसी नक्षत्र में हों तथा सूर्य रोहिणी नक्षत्र में हो तो वह तिथि महाज्येष्ठी कहलाती है। इस दिन दान, जप करने से महान् पुण्यों की प्राप्ति होती है।

महातन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उल्लिखित 64 तन्त्रों की सूची में यह भी एक तन्त्र है।

महातपोव्रतानि : अनेक छोटे-छोटे विधि-विधानों का इसी शीर्षक में यत्र-तत्र वर्णन किया जा चुका है। इसलिए यहाँ पृथक परिगणन नहीं किया जा रहा है।

महातृतीया : माघ अथवा चैत्र मास की तृतीया को 'महातृतीया' कहते हैं। इसकी गौरी देवता हैं। मनुष्य इस दिन उनके चरणों में गुड़-धेनु अर्पित करे तथा स्वयं गुड़ न खाये। इस आचरण से उसे अत्यन्त कल्याण तथा आनन्द तो प्राप्त होता ही है, साथ ही मरणोपरान्त वह गौरी लोक प्राप्त करता है। [गुड़-धेनु के विस्तृत वर्णन के लिए देखिए मत्स्यपुराण, 84]।

महात्मा (महात्मन्) : दर्शनशास्त्र में इस शब्द का प्रयोग सर्वातिशयी तथा ऐकान्तिक आत्मा अथवा विश्वात्मा के लिए होता है। किसी सन्त अथवा महापुरुष के लिए आदरार्थ भी इसका प्रयोग किया जाता है।

महादान : महादान संख्या में दस या सोलह हैं। इनमें स्वर्णदान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसके पश्चात् भूमि, आवास, ग्राम-कर के दान आदि क्रमशः स्थान है। स्वर्णदान सबसे मूल्यवान् होने से उत्तम माना गया है। इसके अन्तर्गत 'तुलादान' अथवा 'तुलापुरुषदान' है। सर्वाधिक दान देने वाला तुला के पहले पलड़े पर बैठकर दूसरे पलड़े पर समान भार का स्वर्ण रखकर उसे ब्राह्मणों को दान करता था। बारहवीं शताब्दी में कन्नौज के एक राजा ने इस प्रकार का तुलादान एक सौ बार तथा 14वीं शताब्दी के आरंभ में मिथिला के एक मन्त्री ने एक बार किया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग हर्षवर्धन शीलादित्य के प्रत्येक पाँचवें वर्ष किये जाने वाले प्रयाग के महादान का वर्णन करता है। यज्ञोपवीत के अवसर पर या महायज्ञों के अवसर पर धनिक पुरुष स्वर्ण निर्मित गौ, कमल के फूल, आभूषण, भूमि आदि यज्ञान्त में ब्राह्मणों को दान कर देते हैं। आज भी महादानों का देश में अभाव नहीं है। सभी बड़े तीर्थों में सत्र चलते हैं जहाँ नित्य ब्राह्मणों, संन्यासियों एवं पंगु, लुंज व्यक्तियों को भोजन दिया जाता है। ग्राम-ग्राम में प्रत्येक हिन्दू परिवार में ऐसे ब्राह्मणभोज नाना अवसरों पर कराये जाते हैं।

प्रथम शताब्दी के उषवदात्त के गुहाभिलेख से ज्ञात है कि वह एक लाख ब्राह्मणों को प्रतिवर्ष 1 लाख गौ, 16 ग्राम, विहार-भूमि, तालाब आदि दान करता था। सैकड़ों राजाओं ने असंख्य ब्राह्मणों का वर्षों तक और कभी कभी आजीवन पालन-पोषण किया। आज भी मठों, देवालयों के अधीन देवस्व अथवा देवस्थान की करहीन भूमि पड़ी है, जिससे उनके स्वामी मठाधीश लोग बड़े धनवानों में गिने जाते हैं।

महादेव (शिव) : त्रिमूर्ति के अन्तर्गत शिव सर्वाधिक लोकप्रिय देवता हैं। गाँवों में इन्हें महादेव कहते हैं और प्रमुख देवता के रूप में उनका पूजन एक गोल पत्थर के (अर्घ्‍यपात्र) के बीच में होता है। उनके पवित्र वाहन 'नन्दी' की मूर्ति (जो धर्म की प्रतीक है) भी सम्मुख निर्मित होती है। उनकी पूजा प्रधान रूप से सोमवार को होती है क्योंकि वे सोम (स+उमा=सोम), पार्वती से संयुक्त माने जाते हैं। उनके प्रति कोई पशु-बलि नहीं होती है। विल्व पत्र, चावल, चन्दन, पुष्प द्वारा उनके भक्त उनकी अर्चा करते हैं। ग्रीष्म काल में उनके ऊपर तीन पैरों वाली एक टिखटी के सहारे मिट्टी के पात्र की स्थापना करते हैं जिसके नीचे छिद्र होता है जिससे बूंद-बूंद कर समस्त दिन मूर्ति पर जल पड़ा करता है। वर्षा न होने पर कभी कभी ग्रामवासी महादेव को जलपात्र में निमग्न कर देते हैं। ऐसा विश्वास है कि शिव को जल में निमग्न करने से वर्षा होती है।

महादेव सरस्वती : स्वयंप्रकाशानन्द सरस्वती के शिष्य। इन्होंने तत्त्वानुसन्धान नामक एक प्रकरण ग्रन्थ लिखा। इस पर इन्होंने अद्वैतचिन्ताकौस्तुम नाम की टीका भी लिखी। तत्त्वानुसन्धान बहुत सरल भाषा में लिखा गया है। इनका स्थितिकाल 18वीं शताब्दी था।

महादेवी (शिवपत्नी) : शिव की शक्ति का नाम। हजारों नाम व रूपों में ये विश्व को दीप्त करती हैं। प्रकृति तथा वसन्त ऋतु की आत्मा के रूप में दुर्गा तथा अनन्तता की मूर्ति के रूप में काली पूजित महादेवी होती है।

महाद्वादशी : भाद्रपद की श्रवण नक्षत्रयुक्ता द्वादशी इस नाम से विख्यात है। इस दिन उपवास तथा विष्णु का पूजन करने से अनन्त पुण्यों की उपलब्धि होती है। विष्णु धर्मोत्तर (1.161.1-8) में लिखा है कि यदि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की द्वादशी बुधवार को पड़े और उस दिन श्रवण नक्षत्र हो तो वह अत्यन्त महती (बड़ी से बड़ी) होती है। इसके अतिरिक्त आठ अन्य भी पवित्र महाद्वादशियाँ हैं, जिनहें जया, जयन्ती, उन्मीलिनी, वेञ्जुला, त्रिस्पृशा आदि कहा जाता है।

महानन्दा नवमी : माघ शुक्ल नवमी को महानन्दा कहते हैं। यह तिथि व्रत है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होता है। दुर्गा इसकी देवता हैं। वर्ष को चार-चार मासों के तीन भागों में बाँटकर प्रति भाग में भिन्न-भिन्न प्रकार के पुष्प, धूप, नैवेद्य देवी जो को भिन्न-भिन्न नामों से अर्पण किये जाते हैं। इससे मनुष्य की कामनाएँ पूरी होती हैं तथा उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।

महानवमी : (1) यह दुर्गा-पूजा का उत्सव है। इसके लिए देखिए कृत्यकल्पतरु (राजधर्म) पृ० 101-195 तथा राजनीतिप्रकाश पृ० 439-444।

(2) आश्विन शुक्ल अथवा कार्तिक शुक्ल अथवा मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी को यह व्रत आरम्भ होता है। यह तिथि व्रत है। दुर्गा इसकी देवता हैं। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होता है। पुष्प, धूप तथा विभिन्न स्नानोपकरण समर्पित किये जाते हैं। कुछ मासों में कन्याओं को भोजन कराया जाता है। इससे व्रती देवीलोक को प्राप्त करता है।

महानाग : महानाग का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (11.2,7,12) में हुआ है, जहाँ यह विशुद्ध पौराणिक नाम है।

महानारायणोपनिषद् : वैष्णव साहित्य (सामान्य) में इसकी भी गणना होती है। रचना-काल वि० पू० दूसरी शताब्दी है। इसमें वासुदेव को विष्णु का एक स्वरूप कहा गया है, जिससे यह प्रकट होता है कि उस समय भी कृष्ण किसी न किसी अर्थ में विष्णु के रूप माने जाते थे। यह उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा की है।

महामिरष्ट : यज्ञ दक्षिणा का वृषभ, जो यजुर्वेद संहिता (तैत्तिरीय संहिता 1.8,9,1, का० सं० 15.4,9; मैत्रा० सं० 2.6,5) में राजसूय की दक्षिणा के रूप में उल्लिखित है।

महानिर्वाणतन्त्र : बहुप्रचलित, प्रसिद्ध तन्त्रग्रन्थ। इसके रचयिता राजामोहन राय के गुरु हरिहरानन्द भारती कहे जाते हैं और इस प्रकार इसका रचनाकाल 19वीं शताब्दी है। कुछ विद्वान् भारती को इसका संकलनकार या टिप्पणी लेखक ही मानते हैं। इस प्रकार यह ग्रन्थ और प्राचीन हो सकता है। यह दो भागों में है, किन्तु इसका प्रथम भाग ही प्रकाशित एवं अनूदित है।

इसके प्रथम तथा द्वितीय अध्याय प्रास्ताविक हैं। तीसरे में ब्रह्म के ध्यान-चिन्तन का कथोपकथन है। शेष अध्याय न केवल विधिवत् पूजा अपितु चरित्र, परिवार तथा विसर्जन सम्बन्धी क्रियाओं का विवरण उपस्थित करते हैं। इनमें चक्रपूजा तथा पञ्चमकार-महिमा भी सम्मिलित है।

महानुभाव : इस पन्थ को मानभाऊ सम्प्रदाय या दत्तात्रेय सम्प्रदाय भी कहते हैं। इसका वर्णन अन्यत्र दत्तात्रेय सम्प्रदाय के रूप में हुआ है। दे० 'दत्तात्रेय-सम्प्रदाय'।

महानुभाव पंथ : मानभाऊ सम्प्रदाय का ही शुद्ध रूप महानुभाव पन्थ है। दे० 'दत्ता० सम्प्रदाय'।

महापौर्णमासीव्रत : प्रत्येक मास की पौर्णमासी को इस व्रत का अनुष्ठान विहित है। एक वर्ष तक इसमें हरि का पूजन होता है। इस दिन छोटी वस्तु का भी दान महान् पुण्य प्रदान करता है।

महाप्रलय निरूपण : निर्गुणवादी संत साहित्य में इस ग्रन्थ की गणना होती है। इसकी रचना 18वीं शताब्दी में महात्मा जगजीवन दास द्वारा हुई, जो 'सतनामी' साधु थे।

महाप्रसाद : संस्कार पूर्वक देवता को अर्पित नैवेद्य। वैष्णव लोग जगन्नाथजी के भोग लगे हुए भात को महाप्रसाद कहते हैं। कहीं कहीं बलि-पशु के मांस को भी महाप्रसाद कहा गया है।

महाफल द्वादशी : विशाखा नक्षत्र युक्त पौष कृष्ण एकादशी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। विष्णु इसके देवता हैं। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान विहित है। शरीर की शुद्धि के लिए कतिपय मासों में कुछ वस्तुएँ प्रयुक्त की जानी चाहिए तथा प्रति द्वादशी को क्रमशः इन वस्तुओं में से एक वस्तु दान में दी जाय, जैसे--घी, तिल, चावल। इस व्रत से व्रती को मरणोपरान्त विष्णुलोक की प्राप्ति होती है।

महाफलव्रत : एक पक्ष, चार मास अथवा एक वर्ष तक व्रती को प्रतिपदा से पूर्णिमा तक केवल एक वस्तु का निम्नोक्त क्रम से आहार करना चाहिए। क्रम यह है-- दुग्ध, पुष्प, समस्त खाद्य पदार्थ नमक को छोड़कर, तिल, दुग्ध, पुष्प, वनस्पति, बेल का फल, आटा, बिना पकाया हुआ खाद्य पदार्थ, उपवास, दूध में उबाले हुए शर्करा मिश्रित चावल, जौ, गोमूत्र तथा जल जिसमें कुश डुबाये हुए हों। इन समस्त दिनों में निश्चित विधि-विधान का ही आचरण करना चाहिए। व्रत से एक दिन पूर्व तीन समय स्नान, उपवास, वैदिक मन्त्रों तथा गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिए। इस आचरण से विभिन्न प्रकार के पुण्य-फल प्राप्त होते हैं और व्रती सीधा सूर्यलोक जाता है।

महाफल सप्तमी : रविवार को सप्तमी तिथि तथा रेवती नक्षत्र होने पर अशोक वृक्ष की कलियों से दुर्गा जी की पूजाकर कलियों को प्रसाद रूप में खा लेना चाहिए।

महाफाल्गुनी : फाल्गुन मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा और बृहस्पति दोनों यदि पूर्व या उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में हों तब यह तिथि महाफाल्गुनी कही जाती है। इसमें भगवान् विष्णु की पूजा का विधान है।

महाफेत्कारी तन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत तन्त्रों की सूची में 'महाफेत्कारी' भी एक तन्त्र है।

महाबलीपुरम् : सुदूर दक्षिण भारत का एक तीर्थ। समुद्र के किनारे यह प्रसिद्ध स्थान है। 7 वीं शती में इसे सर्वप्रथम पल्लवराज नरसिंहवर्मा ने बसाया था। यहाँ पत्थर काटकर लंगूर के समान बन्दरों का एक समूह बनाया गया है, इसी के मध्य शिव मन्दिर है। गणेश, विष्णु, वामन वराह आदि अन्यान्य देवताओं के भी मन्दिर और मूर्त्तियाँ हैं। ये मन्दिर पल्लव वंश के नरेशों द्वारा बनवाये गये थे, जो स्थापत्य की कला में अपनी विशेषता के लिए जगत्प्रसिद्ध हैं। इन मदिरों को रथ कहते हैं। सप्तरथ नामक युधिष्ठिर, भीम, अर्जु, नकुल, सहदेव, गणेश तथा द्रौपदी के मदिर बड़े प्रसिद्ध हैं। समुद्र के जल से प्रच्छालित पर्वत बाहुओं को काटकर बनाये गये ये मंदिर अपनी सुन्दरता और मनमोहकता के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं।

महाबलेश्वर : कोंकण देशस्थ पश्चिमी घाट के गोकर्ण नामक तीर्थस्थान में महाबलेश्वर का प्रसिद्ध मन्दिर है, जो द्राविड शैली में काले आग्नय पत्थरों से निर्मित है। इसमें 'आत्मा' नामक प्रसिद्ध लिङ्ग स्थापित है। इसके बारे में कहा जाता है कि ब्रह्मा की सृष्टि से क्रोधित हो शिव ने इसे उत्पन्न किया तथा बहुत दिनों तक इसे अपने कण्ठ में पहने रखा। यहाँ कृष्णा नदी का उद्गम होने से यह रमणीकस्थल हो गया है। पहले यहाँ बम्बई प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी। यहाँ महाबलेश्वर रूप से भगवान् शङ्कर, अतिबलेश्वर रूप से भगवान् विष्णु और कोटीश्वर रूप से भगवान् ब्रह्मा निवास करते हैं। यहाँ पाँच नदियों का उद्गम है : सावित्री, कृष्णा, वेण्या, ककुद्मती (कोयना) और गायत्री। पास ही महारानी अहल्याबाई का बनवाया रुद्रेश्वरमन्दिर है। रुद्रतीर्थ, चक्रतीर्थ, हंसतीर्थ, पितृमुक्ति तीर्थ, अरण्यतीर्थ, मलापकर्षतीर्थ आदि अनेक तीर्थ स्थल हैं। प्रति वर्ष बहुत बड़ी संख्या में यहाँ यात्री एकत्र होते हैं।

महावसवपुराण : वीर शैव आचार्यों ने जो ग्रन्थ कन्नड़ में लिखे अथवा अनूदित किये, उनमें अधिकतर पुराण ही हैं। महावसव पुराण अथवा महवसवचरित्र की रचना 1450 वि० के लगभग सिंगिराज ने की थी। इसके तेलुगु तथा तमिल अनुवाद भी प्राप्त होते हैं।

महाब्राह्मण : (1) बृहदारण्यक उपनिषद् (2.1,19,22) में इसका उल्लेख हुआ है। यह एक महत्त्वपूर्ण ब्राह्मण ग्रन्थ है।

(2) महाब्राह्मण 'महापात्र' ब्राह्मणों को भी कहते हैं जो मृतक की शय्या, वस्त्राभूषण तथा एकादशाह का भोजन ग्रहण करते हैं।

महाभद्राष्टमी : पौष शुक्ल पक्ष की अष्टमी यदि बुधवार को पड़े तो वह महाभद्राष्टमी कहलाती है तथा अत्यन्त पुनीत मानी जाती है। शिव इसके देवता हैं।

महाभागवत उपपुराण : कुछ विद्वानों द्वारा प्रसिद्ध उपपुराणों में से एक महाभागवत भी माना जाता है। वैष्णव इसको उपपुराण मानने के लिए तैयार नहीं होते। वे लोग श्रीमद्भागवत को महापुराण मानते हैं। दे० 'श्रीमद्भागवत'।

महाभाद्री : भाद्रपद मास की पूर्णिमासी को चन्द्रमा और बृहस्पति दोनों भाद्रपदा नक्षत्र में यदि स्थित हों तब यह तिथि महाभाद्री कही जाती है। इस दिन धर्मकृत्य महान् पुण्य प्रदान करते हैं।

महाभारत : पुराणों की शैली पर निर्मित सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास ग्रन्थ, जिसमें भरतवंशज कौरव और पाण्डवों का चरित्र लिखा गया है। इसकी रचना के तीन क्रम कहे जाते हैं : प्रथम क्रम में मूल भारत आख्यान की रचना कृष्ण द्वैपायन व्यास ने 8800 श्लोकों में की थी। इसका परिवर्धित दूसरा संस्करण भारत संहिता नाम से बादरायण व्यास ने 24000 श्लोकों में अपने शिष्यों को पढ़ाने के लिए किया। आगे चलकर जममेजय और वैशंपायन के संवाद रूप का विस्तृत संकलन महाभारत नाम से एक लाख श्लोकों में सौति ने शौनक आदि ऋषियों को सुनाते हुए संपादित किया। हरिवंश खिलपर्व इसका परिशिष्ट माना जाता है।

आधुनिक आलोचक इस महाग्रन्थ को वेदव्यास और उनके शिष्य-प्रशिष्यों की रचना न मानकर बाद के अनेक संशोधक-संपादक पौराणिक विद्वानों का संकलन या संग्रह कहते हैं। उनके विचार में भारत नामक महाकाव्य मूलतः वीरगाथा रूप में था। कालान्तर में जनसाधारण के धर्म ज्ञान का प्रमाण होने तथा विविध हिन्दू सम्प्रदायों के उत्थान का वर्णन उपस्थित करने के कारण उसकी महत्ता बढ़ गयी। विद्वान् इस महाकाव्य के मिश्रण या परिवर्धनात्मक तीन कालों पर एकमत हैं।

(क) भारत महाकाव्य की साधारण काव्यमय रचना : दसवीं से पांचवीं अथवा चौथी शताब्दी ई० पू० के बीच।

(ख) इस महाकाव्य का वैष्णव आचार्यों द्वारा साम्प्रदायिक काव्य में परिवर्तन : दूसरी शताब्दी ई० पू०।

(ग) महाभारत का वैष्णव ईश्वरवाद, धर्म, दर्शन, राजनीति, विधि का विश्वकोश बन जाना : ईसा की पहली तथा दूसरी शताब्दी।

प्रथम अवस्था में प्रस्तुत महाभारत के विषयों पर दृष्टिपात करने से हम उसकी धार्मिक विशेषताओं को समझ सकते हैं, यद्यपि नये तथ्यों के मेल को उनसे अलग करना बड़ा कठिन है। उसमें ईश्वरवाद है, किन्तु दैवी अवतार तथा आत्मा का सिद्धान्त नहीं है। तीन मुख्य देवता, इन्द्र, ब्रह्मा, और अग्नि हैं। धर्म तथा काम देवता के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। कृष्ण भी हैं किन्तु मानव या देवता के रूप में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है। महाभारत के समाज में जातिवाद का पूर्ण अभाव है। स्त्रियों को पर्याप्त स्वाधीनता है। साधारण नियम के विपरीत ब्राह्मण योद्धा का कार्य करते हैं। हिन्दू अभी शाकाहारी नहीं हुए थे। द्रौपदी का बहुपतित्व ऐतिहासिक तथ्य है, जो कहानी में बना रहा, यद्यपि स्वाभाविक रूप से यह आगे चलकर अग्रहणीय समझा जाने लगा। इस काल (प्रथम अवस्था) की एक समस्या कृष्ण का देव रूप में उत्थान है, जिनका एक विरुद वासुदेव था। कुछ विद्वानों का विश्वास है कि आदि (प्रथम) भारत में कृष्ण केवल एक मानव थे तथा परवर्त्ती काल में ही उन्हें दैवी रूप मिला। दूसरों का मत है कि महाभारत कृष्ण में सदा देवता रहे हैं।

प्रचलित महाभारत 18 पर्वों में विभक्त है। इन पर्वों के अवान्तर भी एक सौ छोटे पर्व हैं जिन्हें पर्वाध्याय कहते हैं। पर्व निम्नांकित हैं :

1. आदिपर्व, 2. सभापर्व, 3. वनपर्व, 4. विराट्पर्व, 5. उद्योग पर्व, 6. भीष्म पर्व 7. द्रोण पर्व, 8. कर्ण पर्व, 9. शल्य पर्व 10. सौप्तिक पर्व 11. स्त्री पर्व 12. शान्ति पर्व (आपद्धर्मपर्वाध्याय, मोक्षधर्मपर्वाध्याय) 13. अनुशासन पर्व 14. आश्वमेधिक पर्व 15. आश्रमवासिक पर्व 16. कौशल पर्व 17. सहाप्रास्थानिक पर्व और 18. स्वर्गारोहण पर्व।

महाभारत का खिल अथवा परिशिष्ट पर्व हरिवंश उपपुराण के नाम से ख्यात है जिसमें भगवान् कृष्ण के वंश का वर्णन है। इसी में विष्णुपर्व भी है और शिवचर्या भी है और साथ ही साथ अद्भुत भविष्य पर्व भी है जो पर्वाध्याय में 10 वाँ पर्व गिना जाता है। विष्णु पर्व में अवतारों का वर्णन है और कृष्ण द्वारा कंस के मारे जाने की कथा है। इसमें जैनों के तीर्थङ्कर नेमिनाथ वा अरिष्टनेमि को कृष्ण की ज्ञाति से सम्बद्ध गिनाया गया है। इसके भविष्य वर्णन से और जैनियों की चर्चा से बहुतों को अनुमान होता है कि महाभारत की एक लाख की संख्या पूरी करने के लिए यह परिशिष्ट बहुत ही बाद में मिलाया गया। जैनियों का भी हरिवंश पुराण है जो इस हरिवंश से बिलकुल भिन्न है। इसमें नेमिनाथ की कथा मुख्य है और उसी के प्रसंग में श्री कृष्ण और उनके वंश का भी विवरण दिया गया है।

महाभाष्य : पाणिनि मुनि के अष्टाध्यायी नामक व्याकरण ग्रन्थ पर पतञ्जलि का महाभाष्य उस काल की रचना है, जब शुङ्गों द्वारा वैदिक धर्म का पुनरुद्धार हो रहा था। व्याकरण ग्रन्थ होने के साथ-साथ यह ऐतिहासिक, राजनीतिक, भौगोलिक एवं दार्शनिक महत्त्व रखता है। रचना-काल वि० पू० 100 सं० के लगभग है।

महाभूत : जिन तत्त्वों से सृष्टि (स्थूल) की रचना हुई है उन्हें 'महाभूत' कहते हैं। पञ्च महाभूतों के सिद्धान्त को सांख्य दर्शन भी मानता है एवं वहाँ इसके दो विभाजनों द्वारा उसका और भी सूक्ष्म विकास किया गया है। वे दो विभाजन हैं : (1) तन्मात्रा (सूक्ष्मभूत) तथा (2) महाभूत (स्थूल भूत)। दूसरे विभाग में पाँच महाभूत हैं, --पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि), वायु और आकाश।

महामाघी : जब सूर्य श्रवण नक्षत्र का तथा चन्द्रमा मघा नक्षत्र का हो तो यह तिथि महामाघी कहलाती है। 'पुरुषार्थचिन्तामणि' (313-314) के अनुसार जब शनि मेष राशि पर हो, चन्द्र तथा वृहस्पति सिंह राशि पर हों तथा सूर्य श्रवण नक्षत्र में हो तो यह योग महामाघी कहा जाता है। इस पर्व पर प्रयाग में त्रिवेणी संगम अथवा अन्य पवित्र नदियों तथा सरोवरों में प्रातः काल माघ मास में स्नान करना समस्त महापापों का नाशक है।

तमिलनाडु में 'मख' वार्षिक मन्दिरोत्सव होता है तथा बारह वर्षों के बाद 'महामख' मनाया जाता है। उस समय कुम्भकोणम् नामक स्थान में एक भारी मेला लगता है। जहाँ 'महामघ' नामक सरोवर में स्नान किया जाता है। इस विशाल मेले की तुलना प्रयाग के कुम्भ से की जा सकती है। दक्षिण भारत में यह मेला 'ममंघम' नाम से प्रसिद्ध है तथा उस समय होता है जब पूर्ण चन्द्र मघा नक्षत्र का हो और बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित हो।

यह आश्चर्यजनक बात ही कही जायगी कि मध्यकाल का कोई भी धर्मग्रन्थ महामखम् उत्सव तथा कुम्भ मेले के विषय में कुछ भी उल्लेख नहीं करता। इतना अवश्य ज्ञात है कि सम्राट् हर्षवर्द्धन प्रति पाँच वर्षों के बाद प्रयाग के विस्तृत क्षेत्र में त्रिवेणीसंगम के पश्चिमवर्ती तट पर, जहाँ आजकल भी माघ में मेला लगता है, अपने राजकोष को ब्राह्मणों, भिक्षुओं तथा निर्धनों में वितरित करता था।

महायज्ञ : शास्त्रों में प्राणिमात्र के हितकारी पुरुषार्थ को यज्ञ कहा गया है। धर्म और यज्ञ वस्तुतः कार्य और कारण रूप से एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। वैज्ञानिक स्पष्टीकरण के लिए शब्द का साधारण रूप से और यज्ञ शब्द का विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है।

यज्ञ और यहायज्ञ एक ही अनुष्ठान हैं, फिर भी दोनों में किञ्चिद् भेद हैं। यज्ञ में फलरूप आत्मोन्नति के साथ व्यष्टि का सम्बन्ध जुड़ा रहता है। अतः इसमें स्वार्थ पक्ष प्रबल है। पर महायज्ञ समष्टि-प्रधान होता है। अतः इसमें व्यक्ति के साथ जगत्कल्याण और आत्मा का कल्याण निहित रहता है। निष्काम कर्मरूप औदार्य से इसका अधिक सम्बन्ध है। इसलिए महर्षि भरद्वाज ने कहा है कि सुकौशलपूर्ण कर्म ही यज्ञ है और समष्टि सम्बन्ध से उसी को महायज्ञ कहते हैं।

यज्ञ आर महायज्ञ को परिभाषित करते हुए महर्षि अंगिरा ने इस प्रकार कहा है : व्यक्तिसापेक्ष व्यष्टि धर्मकार्य को यज्ञ तथा सार्वभौम समष्टि धर्मकार्य को महायज्ञ कहते हैं। वस्तुतः शास्त्रों में जीव स्वार्थ के चार भेद बताये गये हैं--स्वार्थ, परमार्थ, परोपकार और परमोपकार। तत्वज्ञों के अनुसार जीव का लौकिक सुख-साधन स्वार्थ है और पारलौकिक सुख के लिए कृत पुरुषार्थ को परमार्थ कहते हैं। दूसरे जीवों के लौकिक सुख साधन एकत्र करने का कार्य परोपरकार और अन्य जीवों के पारलौकिक कल्याण कराने के लिए किया गया प्रयत्न परमोपकार कहलाता है। स्वार्थ और परमार्थ यज्ञ से तथा परोपकार और परमोपकार महायज्ञ से सम्बद्ध हैं। महायज्ञ प्रायः निष्काम होता है और साधक के लिए मुक्तिदायक होता है।

स्मृतियों में पञ्चसूना दोषनाशक पञ्च महायज्ञों का जो विधान किया गया है, वह व्यष्टि जीवन से सम्बद्ध है। उसका फल गौण होता है। वस्तुतः पञ्चमहायज्ञ उसकी अपेक्षा उच्चतर स्तर रखता है। उसका प्रमुख लक्ष्यरूप फल विश्वजीवन के साथ एकता स्थापित कर आत्मोन्नति करना है। वे पञ्चमहायज्ञ--ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, नृयज्ञ तथा भूतयज्ञ है। मनु के अनुसार अध्ययन-अध्यापन को ब्रह्मयज्ञ, अन्न-जल के द्वारा नित्य पितरों का तर्पण करना पितृयज्ञ, देव-होम देवयज्ञ, पशु-पक्षियों को अन्नादि दान भूतयज्ञ तथा अतिथियों की सेवा नृयज्ञ है। इन पंचमहायज्ञों का यथाशक्ति विधिवत् अनुष्ठान करने वाले गृहस्थ को पंचसूना दोष नहीं लगते। इन कर्मों से विरत रहने वाले का जीवन व्यर्थ है। अध्ययन और दैवकर्म में प्रवृत्त रहने वाला व्यक्ति चराचर विश्व का धारणकर्त्ता बन सकता है। देवयज्ञ की अग्न्याहुति सूर्यलोक को जाती है जिससे वर्षा होती है, वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है और अन्न से प्रजा का उद्भव होता है। अतएव मनुष्य को ऋषि, देवता, पितृ, भूत और अतिथि सभी के प्रति निष्ठवान् होना चाहिए, क्योंकि ये सब गृहस्थ से कुछ-न-कुछ चाहते हैं। अतः गृहस्थ को चाहिए कि वह वेदशास्त्रों के स्वाध्याय से ऋषियों को, देवयज्ञ द्वारा देवताओं को, श्राद्धरूप पिण्ड-जलदान के द्वारा पितरों को, अन्न-द्वारा मनुष्यों को और बलिवैश्वदेव द्वारा पशु-पक्षी आदि भूतों को तृप्ति प्रदान करे।

इन पञ्च महायज्ञों को नित्य करने वाला गृहस्थ अपने सभी धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक कर्तव्यों को पूर्ण करता है एवं समस्त विश्व से अपनी एकात्मता का अनुभव करता है।

महायोगी : ध्यान, योग और तपस्या--भारत की ये प्राचीन साधनाएँ सभी धार्मिक सम्प्रदायों को मान्य रही हैं। शिव इनके प्रतीक हैं, अतः वे महायोगी माने जाते हैं। सिन्धु घाटी के प्राचीन सभ्यतास्मारकों में शिव का ध्यानयोगी के रूप में मूर्त आकार प्राप्त हुआ है। उनका योगी रूप बुद्ध से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। एलिफैण्टा गुहा में शिव के महायोगी रूप का पाया जाना इस बात का प्रमाण है कि ब्राह्मणों और बौद्धों की, जहाँ तक योग और ध्यान का सम्बन्ध है, समान परम्पराएँ थीं।

महार : हिन्दुओं के अस्पृश्य वर्क की एक जाति का, जो चर्मकार कहलाती है, महाराष्ट्र में प्रचलित नाम। विट्ठल या विढोबा (विष्णु) के पण्ढरपुर स्थित मन्दिर में महार लोगों का प्रवेश निषिद्ध था। इस मन्दिर के ठीक सामने सड़क की दूसरी ओर महार लोगों का मन्दिर है, जिसे चोखा मेला नामक एक महार भक्त ने बनवाया था। उसकी कविता आज भी सजीव है तथा उसके कुछ अंश अति सुन्दर हैं।

महाराजव्रत : शुक्ल या कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी आर्द्रा नक्षत्र को अथवा पूर्वाभाद्रपद तथा उत्तराभाद्रपद को आती हो तो वह भगवान् शिव को अत्यन्त आनन्ददायिनी हो जाती है। पूर्ववर्ती त्रयोदशी को संकल्प कर चतुर्दशी को मृत्तिका, पञ्चगव्य, तदनन्तर शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए। तदुपरान्त 1000 बार शिवसंकल्प सूक्त (यज्जाग्रतो दूरम्०) का प्रथम तीन वर्ण वाले लोग तथा 'ओम् नमः शिवाय' मंत्र का शूद्र लोग जप करें। पञ्चगव्य, गन्ने के रस से स्नान कराने के बाद कस्तूरी, केसर आदि सुगन्धित पदार्थों का उन पर प्रलेप किया जाय। दीपों को प्रज्ज्वलित कर उन्हें पंक्तिबद्ध रख देना चाहिए। एक सहस्र बिल्व पत्रों से शिव संकल्प मंत्र अथवा 'त्र्यम्बकं यजामहे०'.... का पाठ करते हुए होम करना चाहिए। तदनन्तर शिव जी को निश्चित मंत्रो से अर्घ्‍य दान करना चाहिए। व्रती रात भर जागरण तथा पाँच, दो या कम से कम एक गौ का दान करे। पंचगव्य प्राशन के बाद व्रती को मौन रखकर भोजन करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से समस्त विघ्न-बाधाएँ दूर होती हैं तथा व्रती श्रेष्ठ लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।

महारामायण : ऐसा एक प्रवाद है कि वाल्मीकीय रामायण आदि रामायण नहीं है। आदि रामायण भगवान शङ्कर की रची हुई बहुत बड़ी पुस्तक थी जो अब उपलब्ध नहीं है। इसका नाम महारामायण बतलाया जाता है। इसको सतयुग में भगवान् शङ्कर ने पार्वती को सुनाया था। इसमें तीन लाख पचास हजार श्लोक हैं और सात काण्डों में विभक्त हैं। विलक्षणता यह है कि साथ ही साथ उसमें वेदान्त वर्णन है और नवरसों में उसका विकास दिखाया गया है।

महारौरव : तप्त घोर नरकों में से एक नरक। इसमें 'रुरु' के काटने से रुदन और क्रन्दन की प्रधानता रही है। गरुड़पुराण में इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है।

महालक्ष्मी पूजा : इस व्रत के विषय में मतभेद है। 'कृत्य सारसमुच्चय', पृ० 19 तथा 'अहल्याकामधेनु' कहते हैं कि भाद्र शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का प्रारम्भ कर आश्विन कृष्ण अष्टमी को (पूर्णमान्त) समाप्त करना चाहिए। यह व्रत 16 दिनों तक चलना चाहिए। इसमें प्रतिदिन लक्ष्मी जी की पूजा तथा कथा सुनी जाती है। महाराष्ट्र में महालक्ष्मी की पूजा आश्विन शुक्ल अष्टमी को मध्याह्न के समय युवती नवोढाओं द्वारा होती है तथा रात्रि की समस्त विवाहिता नारियाँ एक साथ इकट्ठी होकर पूजन में सम्मिलित होती हैं। वे अपने हाथों में खाली कलश ग्रहण कर उसमें ही अपने श्वास-प्रश्वास खीचती हैं तथा भिन्न-भिन्न प्रकार से अपने शरीर को झुकाती हैं। पुरुषार्थचिन्तामणि (पृ० 129-132) में इसका लम्बा वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ के अनुसार यह व्रत स्त्री तथा पुरुष दोनो के लिए है।

महालक्ष्मी : ऋषियों ने सृष्टि विद्या की मूल कारण तीन महाशक्तियाँ-महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली स्वीकार किया है इनसे ही क्रमशः सृष्टि, पालन और प्रलय के कार्य होते हैं। एक ही अज पुरुष की अजा नाम से प्रसिद्ध महाशक्ति तीन रूपों में परिणत होकर सृष्टि, पालन और प्रलय की अधिष्ठात्री बन जाती है।

महालक्ष्मीव्रत : सूर्य के कन्या राशि में आने से पूर्व भाद्र शुक्ल अष्टमी को इस व्रत को आरम्भ करना चाहिए और अग्रिम अष्टमी को ही (16 दिनों में) पूजा तथा व्रत समाप्त कर देना चाहिए। सम्भव हो तो व्रत ज्येष्टा नक्षत्र को प्रारम्भ किया जाना चाहिए। 16 वर्षों तक इस व्रत का आचरण होना चाहिए। यहाँ स्त्री पुरुषों के लिए 16 की संख्या अत्यन्त प्रधान है, जैसे पुष्पों और फलों इत्यादि के लिए भी 16 की संख्या का ही विधान है। व्रती को अपने दाहिने हाथ में 16 धागों का 16 गाँठों वाला सूत्र धारण करना चाहिए। इस व्रत से लक्ष्मी जी व्रत करने वाले का तीन जन्मों तक साथ नहीं छोड़ती। उसे दीर्घायु, स्वास्थ्यादि भी प्राप्त होता है।

महालया : आश्विन मास का कृष्ण पक्ष महालया कहलाता है। इस पक्ष में पार्वण श्राद्ध या तो सभी दिनों में या कम से कम एक तिथि को अवश्य करना चाहिए। दे० तिथितत्त्व, 166; वर्षकृत्यदीपिका, 80।

महावन : व्रजमंडल में मथुरा से चार कोस दूर यमुना पार का एक यात्रा स्थल, जिसे पुराना गोकुल कहते हैं। यहाँ नन्दभवन है। पहले नन्दजी यहीं रहते थे। चिन्ताहरण, यमलार्जुनभङ्ग, वत्सचारणस्थान, नन्दकूप, पूतनाखार, शकरासुरभङ्ग, नन्दभवन, दधिमन्थनस्थान, छठीपालना, चौरासीखम्भों का मन्दिर (दाऊजी की मूर्ति), मथुरानाथ, श्यामजी का मन्दिर, गायों का खिड़क, गोबर के टीले दाऊ जी और श्रीकृष्ण की रमणरेती, गोपकूप तथा नारद टीला आदि इसके अन्तर्गत यात्रियों के लिए दर्शनीय स्थान हैं। मध्यकीला में यहाँ के क्षत्रिय राजा और उसकी राजधानी एवं दुर्ग को मुसलमान आक्रमणकारियों ने नष्टभ्रष्ट कर दिया था। इन ध्वंसावशेषों में ही उपयुक्त स्थान पूजा-यात्रास्थल माने जाते हैं।

महाविद्या : (1) रहस्यपूर्ण ज्ञान, प्रभावशाली मन्त्र और सिद्ध स्तोत्र या स्तवराज महाविद्या कहे जाते हैं। अथर्वपरिशिष्ट के नारायण, रुद्र, दुर्गा, सूर्य और गणपति के सूक्त भी महाविद्या कहे गये हैं।

(2) नियम (वेद) जिसे विराट् विद्या कहते हैं आगम (तन्त्र) उसे ही महाविद्या कहते हैं। दक्षिण और वाम दोनों मार्ग वाले दस महाविद्याओं की उपासना करते हैं। ये हैं--महाकाली, उग्रतारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैखी, धूमावती, बगलामुखी, मातङ्गी और कमला।

महावीर : (1) जैनियों के चौबीसवें तीर्थङ्कर और जैनधर्म के अन्तिम प्रवर्त्तक। वास्तव में ऐतिहासिक जैनधर्न के ये ही प्रवर्त्तक माने जाते हैं। इनका जन्म 599 ई० पू० लिच्छवि गणसंघ की ज्ञात्रिशाखा में वैशाली के पास कुण्डिनपुर में हुआ। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। सिद्धार्थ एक सामान्य गणमुख्य थे। महावीर का बाल्यावस्था का नाम वर्धमान था। वे प्रारम्भ से ही चिन्तनशील और विरक्त थे। सिद्धार्थ ने वर्धमान का विवाह यशोदा नामक युवती से कर दिया। उनकी एक कन्या भी उत्पन्न हुई। परन्तु सांसारिक कार्यों में उनका मन नहीं लगा। जब वे तीस वर्ष के हुए तब किसी बुद्ध अथवा अर्हत् ने आकर इनको ज्ञानोपदेश देकर यति धर्म में दीक्षित कर दिया।

इसी वर्ष वे मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी को परिवार और सांसारिक बन्धनों को छोड़कर वन में चले गये। यहाँ पर संसार के दुःखों और उनसे मुक्ति के मार्ग पर इन्होंने विचार करना प्रारम्भ किया, घोर तपस्या का जीवन बिताया। बारह वर्षों तक एक आसन से बैठे हुए अत्यन्त सूक्ष्म विचार में मग्न रहे। इसके अन्त में उन्हें सन्यक् ज्ञान प्राप्त हुआ, सर्वज्ञता की उपलब्धि हुई।

संसार, देव, मनुष्य, असुर, सभी जीवधारियों की सभी अवस्थाओं को वे जान गये। अब वे जिन (कर्म के ऊपर विजयी) हो गये। इसके अनन्तर अष्टादश गुणों में युक्त तीर्थङ्कर हो गये तथा तीस वर्षों तक अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते रहे। वे महावीर विरुद से प्रसिद्ध हुए। बहत्तर वर्ष की अवस्था में महावीर ने अपना अन्तिम उपदेश दिया और निर्वाण को प्राप्त हुए।

उनका निर्वाण कार्तिक कृष्ण अमावस्या का मल्लगण की दूसरी राजधानी पावा (कुशीनगर से 12 मील दूर देवरिया जिला में) में हुआ। मल्लों ने उनके निर्वाण के उपलक्ष्य में दीपमालिका जलायी। पावा जैनों का पवित्र तीर्थस्थान है। पटना जिले की पावा नगरी कल्पित है। पटना (पाटलिपुत्र) मगधसाम्राज्य की राजधानी थी। इस जिले में मल्लगण (अथवा किसी भी गण) का होना असंभव था। ऐसा लगता है कि जब मूल पावा को मुसलमानों ने भ्रष्ट कर दिया तब जैनियों ने पटना में दूसरी पावापुरी कल्पित कर ली। दे० 'वर्णी अभिन्नदन ग्रन्थ'।

(2) हनुमान का एक नाम। भगवान् राम के सहायक और सेनानायक के रूप में इनकी रामायणान्तर्गत कथा से हिन्दू मात्र सुपरिचित है। वीरतापूर्ण कृतियों के कारण ही इनका नाम 'महावीर' पड़ा। इनकी पूजा उत्तरभारत में प्रचलित है। रोट तथा मिठाई, पुष्पादि सहित इनको चढ़ाते हैं। पशुबलि आदि इनकी पूजा में वर्जित है। दे० 'हनुमान'।

महाव्रत : (1) इस व्रत के अनुसार माघ अथवा चैत्र में 'गुड़धेनु' का दान करना चाहिए तथा द्वितीया के दिन केवल गुड़ का आहार करना चाहिए। इससे गोलोक की प्राप्ति होती है। 'गुड़धेनु' के लिए देखिए मत्स्य पुराण, 82।

(2) चतुर्दशी अथवा शुक्लाष्टमी जब श्रवण नक्षत्र युक्त हो उस समय उपवास के साथ व्रत का आरम्भ करना चाहिए। यह तिथिव्रत है। शिव इसके देवता हैं। यह व्रत राजाओं द्वारा आचरणीय है।

(3) कार्तिक की अमावस्या अथवा पूर्णिमा के दिन मनुष्य को नियमों के आचरण का व्रत लेना चाहिए। नक्तपद्धति से आहार करना चाहिए तथा घृतमिश्रित पायस खाना चाहिए। चन्दन तथा गन्ने के रस के प्रयोग का भी इसमें विधान है। प्रतिपदा के दिन उपवास रखते हुए आठ या सोलह शैव ब्राह्मणों को भोजनार्थ निमन्त्रित करना चाहिए। शिव इसके देवता हैं। शिव जी की प्रतिमा को पञ्चगव्य, घृत, मधु तथा अन्याण्या वस्तुओं से स्नान कराना चाहिए। अन्त में उष्ण जल से स्नान करा कर नैवेद्य अर्पित करने का विधान है। इसके उपरान्त आचार्य तथा सपत्नीक ब्राह्मणों को सुवर्ण तथा वस्त्र दान करना चाहिए। सोलह वर्षों तक उपवास, नक्त, अयाचित विधियों से थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ इस व्रत का आचरण किया जाना चाहिए। इससे दीर्घायु, सौन्दर्य, सौभाग्य की प्राप्ति होती है चाहे व्रती स्त्री हो या पुरुष।

(4) इस व्रत के अनुसार प्रति पूर्णमासी को उपवास तथा हरि का सकल (सावयव, साकार) ब्रह्म के रूप में पूजन विहित है तथा अमावस्या को (निराकार, निखयव) ब्रह्मा का पूजन होता है। यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता है। व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर स्वर्ग प्राप्त करता है। यदि यह व्रत 12 वर्षों तक किया जाय तो व्रती विष्णु लोक को प्राप्त होता है। दे० विष्णुधर्म 03.198,1-7।

(5) कृष्ण तथा शुक्ल पक्ष की अष्टमी या चतुर्दशी को नक्त विधि से आहार करते हुए शिव जी का पूजन करना चाहिए। यह व्रत एक वर्ष तक चलता है। इससे सर्वोत्तम सिद्धि प्राप्त होती है। दे० हेमाद्रि 2.398 (लिङ्ग पुराण से)।

महाशक्ति : सृष्टि की उत्पादिका पालिका तथा संहारिका महाशक्तियाँ तीन हैं--महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली। दे० 'महालक्ष्मी'

महशान्ति विधि : अथर्ववेद के नक्षत्रकल्प में प्रथम शान्तिकृत्य कृतिकादि नक्षत्रों की पूजा और होम बतलाया गया है। उसके पश्चात् अमृत से लेकर अभयपर्यन्त महाशान्ति के निमित्तभेद से तीस प्रकार के कर्म बतलाये गये हैं, यथा-दिव्य, अन्तरिक्ष और भूमिलोक के उत्पातों की अमृत नाम की महाशान्ति, गतायु के पुनर्जीवन के लिए वैश्वदेवी महाशान्ति, अग्निमय निवृत्ति के लिए और सब तरह की कामना प्राप्ति के लिए आग्नेयी महाशान्ति, नक्षत्र और ग्रह से भयार्त्त रोगी के रोगमुक्त होने के लिए भार्गवी महाशान्ति, ब्रह्मवर्चस चाहने वाले के वस्त्रशयन और अग्निज्वलन के लिए ब्राह्मी महाशान्ति, राज्यश्री चाहने वाले के लिए बार्हस्पत्य महाशान्ति, प्रजा, पशु और धन लाभ के लिए प्राजावत्यमहाशान्ति, शुद्धि चाहने वालों के लिए सावित्री महाशान्ति, छन्द और ब्रह्मवर्चस् चाहने वालों के लिए गायत्री महाशान्ति, सम्पत्ति चाहने वाले और अभिचारक से अभिचर्यमाण व्यक्ति के लिए आंगिरसी महाशान्ति, विजय, बल, पुष्टिकामी और परचक्रोच्छेदनकामी के लिए ऐन्प्री महाशान्ति और अद्भुत विकारनिवारण और राज्य कामना के लिए माहेन्द्री महाशान्ति इत्यादि।

महाशेफनग्न : महाभारत में प्रथम बार लिङ्ग-पूजा का वर्णन प्राप्त होता है। अनेकानेक लिङ्गवाचक शब्दों के साथ (13.14,157) में 'महाशेफनग्न' का उल्लेख हुआ है। इसका अर्थ है 'नग्न लिङ्ग'।

महाश्वेताप्रिय विधि : रविवार को सूर्य ग्रहण होने पर यह व्रत आचरणीय है। एकभक्त, नक्त अथवा उपवास रखने के बाद महाश्वेता (तथा सूर्य) का पूजन करना चाहिए। इससे व्रती अत्युच्च स्थान प्राप्त कर लेता है। महाश्वेता मन्त्र है--ह्रीं ह्रीं सः.... (कृत्यकल्पतरु, 9 तथा हेमाद्रि, 2.521)।

महाषष्ठी : कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य वृश्चिक राशि पर हो तथा भौमवार का दिन हो तो वह महाष्षठी कहलाती है। व्रती को पंचमी के दिन उपवास रखना चाहिए और षष्ठी को अग्निपूजन कर अग्निमहोत्सव का आयोजन करना चाहिए। इसके बाद ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। इससे समस्त दुरितों का क्षय अवश्यम्भावी है।

महाष्टमी : आश्विन शुक्ल अष्टमी (नवरात्र) को महाष्टमी कहते हैं। इस दिन दुर्गा का विशेष प्रकार से पूजन होता है।

महासप्तमी : इस व्रत के अनुसार माघ शुक्ल पञ्चमी को एकभक्त, षष्ठी को नक्त तथा सप्तमी को उपवास का विधान है। इस अवसर पर करवीर के पुष्पों तथा लाल चन्दन के लेप से सूर्य का पूजन करना चाहिए। वर्ष को माघ मास से चार-चार महीनों के तीन भागों में बाँटा जाय तथा प्रत्येक भाग में भिन्न-भिन्न रंग के पुष्प, भिन्न-भिन्न प्रकार का नैवेद्य तथा धूप प्रयुक्त किया जाय। व्रत के अन्त में रथ का दान विहित है।

महासरस्वती : तीन महाशक्तियों में से एक। ये ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी हैं। दे० 'महालक्ष्मी'।

महासंहिता : वैष्णव संहिता का नाम, जो एक आगम है। मध्वाचार्य ने अपने ग्रन्थों में महासंहिता से अनेक उद्धरण लिए हैं।

महासिद्धासारतन्त्र : यह तन्त्र पर्याप्त पीछे का रचा जान पड़ता है। इसमें 192 नामों की सूची है जो तीन विभागों में बँटी है। प्रत्येक में 64 नाम हैं। विभाजनों के नाम हैं : विष्णुक्रान्त, रथक्रान्त एवं अश्वक्रान्त। सूची पर्याप्त नवीन है क्योंकि इसमें महानिर्वाणतन्त्र भी सम्मिलित है। 192 नामों की सूची में वामकेश्वर की सूची से मिलते केवल 10 नाम हैं।

महास्वामी : सामसंहिता के एक भाष्यकार का नाम।

महिम्नःस्तीत्र : शंकरजी की महिमा का उपस्थापक, उच्च कोटि का स्तोत्रग्रन्थ। यह गन्धर्वराज पुष्पदन्त की रचना कही जाती है। महिम्नःस्तोत्र के प्रत्येक श्लोक की शिव व विष्णुपरक व्याख्या मधुसूदन सरस्वती ने रची है जो निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, से प्रकाशित है।

महिष : एक असुर का नाम, जो तमोगुण का प्रतीक है। दुर्गा अपनी शक्ति से इसी का छेदन करती हैं। सर्व प्रथम दुर्गा विषयक वर्णन महाभारत में प्राप्त होता है (4.6) जिसमें दुर्गा को महिषमर्दिनी (महिष को मारनेवाली) कहा गया है।

महिषघ्‍नीपूजा : आश्विन शुक्ल अष्टमी को इसका अनुष्ठान होता है। इसमें दुर्गा देवी की पूजा होती है। महिषासुर का वध करने वाली दुर्गा जी की प्रतिमा को हरिद्रायुक्त जल में स्नान कराकर चन्दन तथा केसर का प्रलेप किया जाता है। कन्याओं तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा प्रदान की जाती है और दीप प्रज्ज्वलित किये जाते हैं। इससे व्रती की समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।

महिषी : राजा की पत्नियों में से सर्वप्रथम पटरानी, अभिषिक्त महारानी। परवर्त्ती साहित्य में इसका उल्लेख प्रचुर हुआ है। कदाचित् ऋग्वेद में भी यह शब्द इसी अर्थ के साथ व्यवहृत हुआ है (5.2,2;5.37,3)। अश्वमेध आदि यज्ञों में राजा के साथ यही प्रमुख भाग लेती थी।

महीदास : ब्राह्मण-ग्रन्थों के एक संकलनकर्ता। ऐतरेय आरण्यक के पाँच ग्रन्थ आजकल पाये जाते हैं। इनमें से हर एक का नाम आरण्यक है। दूसरे के उत्तरार्ध के शेष के चार परिच्छेद वेदान्त ग्रन्थों में गिने जाते हैं। इसलिए उनका नाम ऐतरेय उपनिषद् है। दूसरे और तीसरे भाग को महीदास ऐतरेय ने संकलित किया। विशाल के उर (हृद्य) से और इतरा के गर्भ से महीदास का जन्म हुआ। माता के नामानुसार उन्होंने ऐतरेय की उपाधि पायी।

महीधर : यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता के एक भाष्यकार। इस संहिता पर सायणाचार्य का भाष्य नहीं मिलता। उव्वट-महीधर भाष्य ही अधिक प्रचलित है। महीधर ने 1649 वि० में मन्त्रमहोदधि नामक दक्षिणमार्गी शाक्त शाखा सम्बन्धी प्रसिद्ध ग्रन्थ भी लिखा। इसका उपयोग सारे भारत में शाक्त एवं शैव समान रूप से करते हैं। स्वयं ग्रन्थकार की रची इस पर टीका भी है।

महीपति : अठारहवीं शताब्दी के एक महाराष्ट्रीय भक्त, जिन्होंने अपनी शक्ति भक्तों व सन्तों की जीवनी लिखने में लगायी। इनके लिखे ग्रन्थ हैं--सन्तलीलामृत, (1732), भक्तविजय (1779), कथासारामृत (1732), भक्तलीलामृत (1734) तथा सन्तविजय आदि।

महीम्नस्तव : विशेष शैव साहित्य में इसकी गणना होती है। ग्रन्थ का सम्पादन तथा अंग्रेजी अनुवाद आर्थर एवलॉन ने किया है।

महेन्द्रकृच्छ : कार्तिक शुक्ल षष्ठी से केवल दुग्धाहार करते हुए दामोदार भगवान का पूजन करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, 2.769-770।

महेश : (1) शिव का एक पर्याय। इसका शाब्दिक अर्थ है महान् ईश्वर।

(2) लिङ्गायत लोग आध्यात्मिक उन्नति की कई अवस्थाएँ मानते हैं। महेश इनमें तीसरी अवस्था है। उनका क्रम इस प्रकार है।

शिव, भक्ति, महेश, प्रसाद, प्राणलिङ्ग, शरण एवं ऐक्य।

महेश्वर : तमिल तथा वीरशैव गण आजकल अपने को 'महेश्वर' कहते हैं, पाशुपत नहीं; यद्यपि उनका सम्पूर्ण धर्म महाभारत के पाशुपत सिद्धान्त पर आधारित है। महेश्वर नाम शिव का है।

महेश्वरव्रत : (1) फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। उस दिन उपवास रखकर शिव जी की पूजा करनी चाहिए। व्रत के अन्त में गौ का दान विहित है। यदि इस व्रत को वर्ष भर किया जाय तो पौण्डरीक यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है। यदि व्रती प्रति मास की दोनों चतुर्दशियों को इस व्रत का आचरण करे तो उसके सब संकल्प पूरे होते हैं।

(2) यदि कोई 'दक्षिणामूर्ति' को प्रति दिन पायस तथा घी वर्ष भर अर्पित करे, व्रत के अन्त में उपवास करे, जागरण करे तथा दान में भूमि, गौ तथा वस्त्र दे तो उसे नन्दी (शिवजी का गण) पद प्राप्त होता है। दक्षिणामूर्ति शिवजी का ही एक रूप है। शङ्कराचार्य का रचित एक दक्षिणामूर्तिस्तोत्र भी प्रसिद्ध है।

महेश्वराष्टमी : मार्गशीर्ष शुक्लाष्टमी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। लिङ्गरूप शिव का अथवा शिवजी की मूर्ति का अथवा कमल पर शिवजी का पूजन तथा दुग्ध और घृत से मूर्ति को स्नान कराना चाहिए। व्रत के अन्त में गौ का दान विहित है। एक वर्ष तक यह क्रम चल सके तो अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है तथा व्रती शिवलोक को जाता है।

महोत्सव व्रत : प्रति वर्ष चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को शिवजी की मूर्ति को दूध-दही आदि से स्नान कराकर पूजन करना चाहिए तथा सुगन्धित द्रव्यों का प्रलेप करना चाहिए। इस अवसर पर शिवमूर्ति के समक्ष दमनक पत्रों का समर्पण विहित है। चावल के आटे के दीपक बनाकर शिवजी के सम्मुख प्रज्ज्वलित किये जाते हैं। भाँति-भाँति के खाद्य पदार्थों को नैवेद्य के रूप में समर्पण कर शंख, घंटा, घड़ियाल, नगाड़ें बजाये जाते हैं और अन्त में शिवजी की रथयात्रा निकाली जाती है।

महोदधि अमावस्या : चतुर्दशी युक्त मार्गशीर्ष मास की अमावस्या को कहीं भी समुद्र में स्नान करने से अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है।

महोपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्। श्वेतदीप में नारद को भगवान् के दर्शन होने और दोनों के संभाषण का वर्णन इसमें किया गया है। इसके अन्तर्गत कहा गया है कि नारद का बनाया हुआ पाञ्चरात्र शास्त्र है और उन्होंने ही भागवत भक्ति की अवतारणा की।

माकरी सप्तमी : माघ कृष्ण सप्तमी को, जब सूर्य मकर राशि पर हो, माकरी सप्तमी कहते हैं। इस दिन व्रत का विधान है। प्रातःकाल गंगा आदि नदियों में स्नान कर सूर्य नारायण की पूजा की जाती है।

मागरि : यजुर्वेद (वाजसनेयी संहिता 30.16; तैत्तिरीय ब्राह्मण 3.4,121) में उद्धृत पुरुषमेध का एक बलिपशु। इसका अर्थ स्पष्टतः शिकारी या सम्भवतः मछुवा प्रतीत होता है। यह शब्द मृगारि (पशुओं का शत्रु) का विद्रूप है।

माघकृत्य : माघ मास में कुछ महत्त्वपूर्ण व्रत होते हैं, यथा तिल चतुर्थी, रथसप्तमी, भीष्माष्टमी, जो इस सूची में पृथक् ही उल्लिखित हैं। कुछ छोटे-छोटे विषय यहाँ प्रकट किए जा रहे हैं। माघ शुक्ल चतुर्थी उमा चतुर्थी कही जाती है, क्योंकि इस दिन पुरुषों और विशेष रूप से स्त्रियों द्वारा कुन्द तथा कुछ अन्यान्य पुष्पों से उमा का पूजन होता है। साथ ही उनको गुड़, लवण तथा यावक भी समर्पित किए जाते हैं। व्रती को सधवा महिलाओं, ब्राह्मणों तथा गौओं का सम्मान करना चाहिए। माघ कृष्ण द्वादशी को यम ने तिलों का निर्माण किया औऱ दशरथ ने उन्हें पृथ्वी पर लाकर खेतों में बोया, तदनन्तर देवगण ने भगवान् विष्णु को तिलों का स्वामी बनाया अतएव मनुष्य को उस दिन उपवास रखकर तिलों से भगवान् का पूजन कर तिलों से ही हवन करना चाहिए। तदुपरान्त तिलों का दान कर तिलों को ही खाना चाहिए।

माघी सप्तमी : माघ शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। अरुणोदय काल में मनुष्य को अपने सिर पर सात बदर वृक्ष के औऱ सात अर्क वृक्ष के पत्ते रखकर किसी सरिता अथवा स्रोत में स्नान करना चाहिए। तददन्तर जल में सात बदर फल, सात अर्क के पत्ते, अक्षत, तिल, दूर्वा, चावल, चन्दन मिलाकर सूर्य को अर्घ्‍य देना चाहिए तथा उसके बाद सप्तमी को देवी मानते हुए नमस्कार कर सूर्य को प्रणाम करना चाहिए। कुछ आकर ग्रन्थों के अनुसार माघ स्नान तथा इस स्नान में कोई अन्तर नहीं है, जबकि अन्य ग्रन्थों के अनुसार ये दोनों पृथक्-पृथक् कृत्य हैं।

माघस्नान : माघ मास में बड़े तड़के गंगाजी अथवा अन्य किसी पवित्र धारा में स्नान करना परम प्रशंसनीय माना गया है। इसके लिए सर्वोत्तम काल ब्राह्म मुहूर्त है जब नक्षत्र दर्शनीय रहते हैं। उससे कुछ कम उत्तम काल वह है जब तारागण टिमटिमा रहे हों किन्तु सूर्योदय न हुआ हो। अधम काल सूर्योदय के बाद स्नान करने का है। माघ मास का स्नान पौष शुक्ल एकादशी अथवा पूर्णिमा से आरम्भ कर माघ शुक्ल द्वादशी या पूर्णिमा को समाप्त होना चाहिए। कुछ लोग इसे संक्रान्ति से परिगणन करते हुए स्नान करने का सुझाव उस समय का देते हैं जब सूर्य माघ मास में मकर राशि पर स्थिति हो। समस्त नरनारियों को इस व्रत के आचरण का अधिकार है। सबसे महान् पुण्य प्रदाता माघ स्नान गंगा तथा यमुना के संगम स्थल का माना जाता है। विस्तृत जानकारी के लिए दे० पद्मपुराण, 5 (जिसमें माघ स्नान के माहात्म्य को ही वर्णन करने वाले 2800 श्लोक, अध्याय 219 से 250 तक प्राप्त होते हैं); हेमाद्रि, 5.789-794 आदि।

माणिक्क वाचकर : तमिल शैवों में माणिक्क वाचकर का नाम प्रमुख है। तिरुमूलर के समान इन्होंने भी आगमों की शब्दावलियों का व्यवहार किया है। ये 900 ई० के लगभग हुए थे और असंख्य गेय पदों की रचना कर गये हैं जो छोटे और बड़े दोनों प्रकार के हैं जिन्हें तिरुवाचकम् (श्रीवचन) कहते हैं। माणिक्क मदुरा के शिक्षित एवं लब्धप्रतष्ठित सम्पन्न व्यक्ति थे। बाद में एक सन्त के उपदेश से प्रभावित हो गये, उनके शिष्य बन गये तथा संन्यासी जीवन बिताना प्रारम्भ किया। इन्होंने अपनी विद्या व संस्कृति के बल से पूर्ववर्त्ती सभी विद्वानों की रचनाओं का लाभ उठाया। कविता के विषय, शैली, छन्दों पर इनका अधिकार देखते हुए ज्ञात होता है कि ये महाकवि थे। इन्होंने रामायण, महाभारत, पुराणों, आगमों तथा प्राचीन तमिल साहित्य का प्रयोग अपनी कविता के विषय चयन व वर्णन में भरपूर किया है। इन्होंने ग्रामीण एवं स्थानीय प्रथाओं तथा घरेलू कहानियों को पद्यबद्ध किया, विशेषकर उन कथाओं को जो शिव के पवित्र चरित्र से सम्बन्धित थीं। सबके ऊपर उन्होंने अपनी प्रतिभा को निखारा। आगमों को ये शिवोक्त कहते हैं। ये अद्वैत वेदान्त और शंकराचार्य के मायावाद को अंगीकार नहीं करते थे।

माण्डवगढ़ : दक्षिण मालवा स्थित शैव तीर्थ। परमार राजाओं के समय में यह समृद्ध नगर था। यहाँ मुञ्ज के समय के बने भवनों और अनेक धार्मिक स्थलों के अवशेष पाये जाते हैं। यहाँ रेवाकुण्ड है। सोनद्वार की ओर नीलकण्ठेश्वर शिव-मन्दिर है। प्राचीन राम मन्दिर है। उसके पास ही आल्हा के हाथ की साँग गड़ी हुई है।

माण्डार्य मान्य : ऋग्वेद में मान के वंशज एक ऋषि का नाम माण्डार्य मान्य मिलता है। बहुत सम्भव है कि अगस्त्य से ही इसका आशय हो।

माण्‍डूकायनि : मण्डूक का वंशज। माण्डूकायनि का उल्लेख शतपथब्राह्मण (20.6,5,9) वृ. उ. (6.5,4) में एक आचार्य के रूप में हुआ है।

माण्डूक्य उपनिषद् : अथर्ववेदी उपनिषदों में इसकी गणना होती है। इसका छोटा सा ही आकार है परन्तु सबसे प्रधन समझी जाती है। मैत्रायणीयोपनिषद् से कुछ तुल्यता होने से प्रायः लोग इसे उसके बाद की रचना समझते हैं। गौडपादाचार्य ने इसके ऊपर कारिकाएँ एवं शङ्कर ने भाष्य रचा है। विज्ञानभिक्षु ने 'आलोक' नाम की व्याख्या की है। आनन्दतीर्थ, मथुरानाथ शुक्ल व्यासतीर्थ और रङ्गरामानुज आदि ने भाष्य टीका, क्षुद्र भाष्य लिखा है तथा नारायण, शङ्करानन्द, ब्रह्मानन्द सरस्वती राघवेन्द्र आदि ने इस पर वृत्तियाँ भी लिखी हैं।

माण्डूक्यकारिका : माण्डूक्य उपनिषद् की कारिकाएँ गौडपादाचार्य ने लिखी है। गौडपादाचार्य शङ्कर के गुरु के गुरु थे। गौडपाद ने वेदान्त सूत्र पर कोई भाष्य नहीं लिखा किन्तु इनकी कारिकाएँ अद्वैत तथा मायावाद का सबसे प्रारम्भिक जीवित आधार होने से बड़ी ही महत्त्वपूर्ण हैं। इस कारिका की 'मिताक्षरा' नामक एक टीका भी मिलती है। परवर्ती आचार्यों ने इस कारिका को प्रमाण रूप से स्वीकार किया है।

माण्डूक्यभाष्य : माण्डूक्य उपनिषद् का यह भाष्य शङ्कराचार्य द्वारा लिखा गया है।

माण्डूक्योपनिषद्कारिका : दे० 'माण्डूक्य कारिका'।

मातङ्गी : शाक्त मतानुसार दस महाविद्याओं में से एक 'मातङ्गी' है।

मातरिश्‍वा : (1) ऋग्वेद के वर्णनानुसार अग्नि तथा सोम आकाश से नीचे पृथ्वी पर आये। मातरिश्वा अग्नि को दूर से लाया (ऋ० 3.9,5; 6.7,4)। मातरिश्वा का अर्थ ऋग्वेद में विद्युत् अथवा (अन्य मत से) आँधी है। अथर्ववेद के बाद इसका आँधी ही साधारण अर्थ हो गया है। यदि मान लें कि आंधी एवं विद्युत एक साथ ही अंधड़ के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तो ऋग्वेद के अर्थ का पूर्णतया समन्वय हो जाता है। इस प्रकार मातरिश्वन् को अग्नि का आँधी के गुणों के साथ विद्युत्त वाला स्वरूप कहा जाना उचित है। यह वैदिक पुराकथा 'प्रोमिथियस्' की यूनानी पुराकथा से मिलता-जुलती है।

(2) ऋग्वेद (8.52,2) के बालखिल्य सूक्त में मातरिश्वर को मेघ्‍य तथा पृवध्र के साथ यज्ञ करने वाला कहा गया है।

माता : (1) माला (जपार्थ) के लिए प्राचीन साहित्य में चार नाम पाए जाते हैं: (1) गनेत्तिया (सं०= गणयित्रिका) (2) कञ्चनिया (3) माता (मालिका) तथा (4) सूत्र। (2) देवी का भी एक पर्याय माता है। शीतला (चेचक की बीमारी) को भी माता कहते हैं। यह घोर रोग के लिए भययुक्त प्रशंसात्मक उपाधि है।

मातृका तन्त्र : आगमतत्त्व विलास' में उद्धृत तन्त्रों की सूची में एक तन्त्र का नाम।

मातृदत्त : हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र पर भाष्य रचने वाले एक विद्वान्।

मातृनवमीव्रत : भविष्योत्तर के अनुसार आश्विनकृष्ण नवमी को यह व्रत माता (जननी) के प्रीत्यर्थ किया जाता है। इस दिन विशेषतया माता और उसके तुल्य संमान्य चाची, दादी, मौसी आदी के निमित्त श्राद्ध-तर्पण किया जाता है।

मातृवध : इस कृत्य को कौशी० उप० (3.1) में जघन्य अपराध कहा गया हैं। इसका प्रायश्चित्त सत्य ज्ञान से किया जा सकता है। परवर्ती धर्मशास्त्र साहित्य में भी मातृवध बहुत बड़ा अपराध और पाप माना गया है।

मातृव्रत : (1) अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता हैं। यह तिथि व्रत है। मातृ देवता (माता देवियाँ) ही इस अवसर पर पूजी जाती हैं। मनुष्य को इस दिन उपवास रखकर भक्तिपूर्वक मातृ देवताओं से अपराधों की क्षमा-याचना करनी चाहिए। वे कल्याण तथा स्वास्थ्य प्रदान करती हैं।

(2) आश्विन मास की नवमी को राजा तथा सभी वर्णों के अनुयायी मातृ देवताओं की (जो अनेक हैं) पूजा कर सफलताएँ प्राप्त करें। इस व्रत के करने से जिसके बच्चे मर जाते हों या केवल एक ही सन्तान हों, वह स्त्री सन्तान वाली हो जाती है।

माधव : वाजसनेयी संहिता के भाष्यकारों में से एक माधव थे। साम संहिता के भाष्यकारों में भी एक माधव हुए हैं। उपरोक्त दोनों माधव एक हैं या नहीं, कुछ नहीं काहा जा सकता। दे० 'माधवाचार्य'।

माधवस्वामी : सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बन्धित द्राह्यायण श्रौतसूत्र अथवा वशिष्ठसूत्र का भाष्य माधव स्वामी ने किया है।

माधवाचार्य : प्रसिद्ध वेद व्याख्याता सायणाचार्य के भाई एवं विद्यातीर्थ के शिष्य। विद्यातीर्थ की मृत्यु के पश्चात् इन्होंने संन्यास आश्रम में भारती तीर्थ एवं शङ्करानन्द से भी शिक्षा ली। इनका स्थिति काल प्रायः चौदहवीं शताब्दी था। कुछ लोगों का कहना है कि इनका जन्म सं० 1324 वि० में तुङ्गभद्रा नदी के तटवर्ती हाम्पी नगर में हुआ था। 'पराशरमाधव' नामक ग्रन्थ में इन्होंने अपना परिचय देते हुए पिता का नाम मायण, माता का श्रीमती एवं दो भाइयों का नाम सायण व भोगनाथ बताया है।

माधवाचार्य विजय नगर राज्य के संस्थापकों में थे। सं० 1392 वि० के लगभग विजयनगर के सिंहासन पर महाराज वीर बुक्क को अभिषिक्त कर वे उनके प्रधान मन्त्री बने। वे उच्चकोटि के राजनीतिज्ञ एवं प्रबन्धपटु थे। उन्होंने ही यवन राज्यों को स्वायत्त कर विजयनगर राज्य की सीमावृद्धि की। सुप्रसिद्ध विशिष्टाद्वैताचार्य वेदान्तदेशिकाचार्य उनके समकालीन और बालसखा थे। उनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ निम्नांकित हैं।

1. माधवीय धातुवृत्ति---यह व्याकरण ग्रन्थ है।

2. जैमिनीय न्यायमाला और उसकी टीका 'विवरण'। यह पूर्वमीमांसा सम्बन्धी ग्रन्थ है।

3. पराशरमाधवीय--यह पराशर संहिता के ऊपर एक निबन्ध है।

4. सर्वदर्शनसंग्रह---इसमें समस्त दर्शनों का पृथक्-पृथक् सार संगृहीत किया गया है।

5. विवरणप्रमेयसंग्रह। यह श्री पद्मपादाचार्यकृत पञ्चपादिका विवरण के ऊपर एक प्रमेय प्रधान निबन्ध है।

6. सूत संहिता की टीका : स्कन्दपुराणान्तर्गत सूत संहिता अद्वैत वेदान्त का निरूपण करती है। इस पर माधवाचार्य ने विशद टीका लिखी है।

इसके अतिरिक्त 7. पञ्चदशी 8. अनुभूति प्रकाश 9. अपरोक्षानुभूति की टीका 10. जीव सुक्तिविवेक 11. ऐतरेयोपनिषद्दीपिका, 12. तैत्तिरीयोपनिषद्दीपिका 13. छान्दोग्योपनिषद्दीपिका 14. वृहदारण्यक वार्त्तिक सार 15. शङ्कर-दिग्विजय 16. 'कालमाधव' नामक ग्रन्थ लिखकर माधवाचार्य ने प्रमाणित कर दिया कि वे एक साथ ही कवि, दार्शनिक, राजनीतिज्ञ, तत्त्वनिष्ठ, महान् लोक संग्रही और पूर्ण त्यागी संन्यासी (विद्यारण्य नामक) थे। जैसे वे सफल राज्यसंस्थापक थे, वैसे ही संन्यासियों में भी अग्रगण्य थे। संन्यास ग्रहण के पश्चात् वे श्रृंगेरी मठ के शङ्कराचार्य की गद्दी पर सुशोभित हुए थे। इस प्रकार सौ वर्ष से भी अधिक आयु लाभकर उन्होंने अपनी जीवन यात्रा समाप्त की। सिद्धान्ततः विद्यारण्य स्वामी शङ्कराचार्य के अनुयायी थे। उनकी गणना अद्वैत सम्प्रदाय के प्रधान आचार्यों में होती है।

माधवी : माधवी अथवा ब्रह्मरम्भा शिव की शक्ति का पर्याय है।

माधवीय धातुवृत्ति : विजयनगर राज्य के स्थापक माधवाचार्य द्वारा विरचित यह तक व्याकरण ग्रन्थ है। इसकी रचना पाणिनीय धातुसूत्रों के अनुसार हुई है जिसमें अष्टाध्यायीस्थ संपूर्ण सूत्रों का संनियोजन धातु गणानुसार कर दिया गया है। दे० 'माधवाचार्य'।

माध्यन्दिनी : याज्ञवल्क्य के पिता (या गुरू) का नाम वाजसन था। इसलिए शुक्ल यजुर्वेद का नाम वाजसनेयी संहिता हो गया। जाबालादि 15 शिष्यों ने उनसे यह वेद पढ़ा जिनमें माध्यन्दिन मुख्य थे। वाजसनेयी संहिता की माध्यन्दिनी शाखा ही आजकल प्रचलित है।

सामवेद की भी एक माध्यन्दिन शाखा है। इस शाखा का पुष्पमुनि द्वारा रचित सामप्रातिशाख्य उपलब्ध है। माध्यन्दिन और काण्व दोनों शाखाओं का शतपथ ही ब्राह्मण ग्रन्थ है। माध्यन्दिनी शाखा के शतपथ ब्राह्मण में चौदह काण्‍ड हैं। यह सौ अध्यायों में तथा अड़सठ प्रपाठकों में विभक्त है। इसमें कल मिलाकर चार सौ अड़तीस ब्राह्मणों पर विचार हुआ है। यह ब्राह्मण फिर सात हजार छः सौ चौबीस कण्डिकाओं में विभक्त है।

माध्व : दे० 'मध्व' एवं 'मध्व सम्प्रदाय'।

माध्वमत : द्वैतवाद अथवा स्वतन्त्रास्वतन्त्रवाद के प्रमुख आचार्य श्री मध्व हैं और इसी से द्वैतवाद का दूसरा नाम माध्वमत है। सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार माध्व मत के आदि गुरु ब्रह्मा हैं। ब्रह्मसूत्र में विशिष्टाद्वैतवाद, भेदाभेदवाद और अद्वैतवाद का उल्लेख मिलता है, परन्तु द्वैतवाद का कोई उल्लेख नहीं मिलता। अवश्य ही विशिष्टाद्वैतवाद और भेदाभेदवाद भी द्वैतवाद के ही अन्तर्गत हैं। सांख्य मत भी द्वैतवाद ही है। परन्तु मध्वाचार्य का स्वतन्त्रास्वतन्त्रवाद इनसे बिलकुल भिन्न है। सांख्य के द्वैतवाद में दो पदार्थ हैं पुष्प और प्रकृति। ये दोनों नित्य और सत्य हैं। माध्वमत में जीव और ब्रह्म नित्य और दो पृथक् पदार्थ हैं। रामानुज स्वामी जीव और ब्रह्म का स्वगत भेद स्वीकार करते हैं, परन्तु सजातीय और विजातीय भेद नहीं मानते। ब्रह्म स्वतंत्र हैं, जीव अस्वतंत्र हैं। ब्रह्म और जीव में सेव्य-सेवक भाव है। सेवक कभी सेव्य वस्तु से अभिन्न नहीं हो सकता। भेदाभेदवाद भी विशिष्टाद्वैतवाद के समान ही है। अतएव माध्वमत से ये सब भिन्न हैं।

मध्वाचार्य से पहले इस मत का कोई उल्लेख नहीं मिलता। अवश्य ही उन्होंने पुराणादि का अनुसरण करके ही इस मत को स्थापित किया। मालूम होता है, मध्वाचार्य का स्वतंत्रास्वतंत्रवाद वैष्णवों के भक्तिवाद का फल है। जिन दिनों शाङ्करमत और भक्तिवाद का देश में सघर्ष चल रहा था, उन्हीं दिनों माध्वमत का उद्भव हुआ। घात-प्रतिघात के फलस्वरूप माध्वमत शाङ्करमत का विरोधी बन गया। इस मत में शाङ्करमत का बहुत तीव्र भाषा में खण्डन किया गया है। यह मत भी वैष्णवों के चार प्रमुख मतों में एक है।

मध्वाचार्य के मत से ब्रह्म सगुण और सविशेष है। जीव अणु परिमाण है, वह भगवान् का दास है। वेद नित्य और अपौरुषेय हैं। पाञ्चरात्रशास्त्र का आश्रय जीव को लेना चाहिए। प्रपञ्चसत्य है। यहाँ तक मध्व का रामानुज से ऐकमत्य है। किन्तु पदार्थनिर्णय में दोनों में भेद है। मध्व के अनुसार पदार्थ दो प्रकार का है --स्वतंत्र और अस्वतन्त्र। अशेष सद्गुण युक्त भगवान् विष्णु स्वतंत्र तत्त्व हैं। जीव और जड़ जगत् अस्वतंत्र तत्त्व हैं। मध्वपूर्णरूप से द्वैतवादी हैं। वे कहते हैं, जीव भगवान् का दास है, दास यदि स्वामी से साम्य का बोध करे तो स्वामी उसे दण्ड देते हैं। 'अहंब्रह्मास्मि' के बोध पर भगवान् जीव को नीचे गिरा देते हैं। परमसेव्य भगवान् की सेवा के अतिरिक्त जीव को और कुछ नहीं करना चाहिए। स्वतन्त्र तत्त्व भगवान् की प्रसन्नता प्राप्त करना ही एक मात्र पुरुषार्थ है। वह परम पुरुषार्थ भगवान् के दिव्य गुणों के स्मरण-चिन्तन के बिना नहीं प्राप्त हो सकता। 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्यों को सुनने से वैसा स्मरण, चिन्तन नहीं हो सकता। अङ्कन, भजन और नामकरण के द्वारा ही वह सुलभ होता है। निर्वाणमुक्ति तो कहने पर की वस्तु है। सारुप्य, सालोक्य आदि मुक्ति ही परमार्थ है। इन्हीं बातों को हृदय में रखकर मध्वाचार्य ने स्वतन्त्रास्वतन्त्रवाद की स्थापना की।

माध्व सम्प्रदाय : दे० 'मध्व सम्प्रदाय'।

मानव : (1) मनु के वंशज (ऐ० ब्रा० 5।14,2) मानव कहलाये। नाभानेदिष्ट और शर्यात के लिए यह पितृबोधक शब्द है। पुराणों में वर्णित सूर्य अथवा इक्ष्वाकु का वंश मानव वंश था।

(2) मनु के नाम से प्रचलित धर्मशास्त्र भी 'मानव धर्मशास्त्र' कहलाता है।

मानव उपपुराण : उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से एक है।

मानव गृह्यसूत्र : कृष्ण यजुर्वेदीय एक गृह्यसूत्र मानव-गृह्यसूत्र है। यह मनु द्वारा रचित माना जाता है। इस पर अष्टावक्र की वृत्ति है।

मानवधर्मशास्त्र : दे० 'मनुस्मृति'।

मानवश्रौतसूत्र : कृष्ण यजुर्वेदीय एक श्रौतसूत्र। यह मनुरचित माना जाता है एवं विशेष प्रसिद्ध है। इसमें पहले अध्याय में प्राक् सोम, दूसरे में अग्निष्टोम, तीसरे में प्रायश्चित्त, चौथे में प्रवर्ग्य, पाँचवें में दृष्टि, छठे में चयन, सातवें में वाजपेय, आठवें में अनुग्रह, नवें में राजसूय, दसवें में शुल्व सूत्र और ग्यारहवें अध्याय में परिशिष्ट है। अग्निस्वामी, बालकृष्ण मिश्र और और कुमारिल भट्ट इसके भाष्यकार हैं।

मानवसृष्टि : इस सम्बन्ध से पद्मपुराण में उल्लेख है कि 'प्रजासृष्टि' के प्रारम्भ में प्रजापति ने ब्राह्मण की सृष्टि की। ब्राह्मण आत्मतेज से अग्नि औऱ सूर्य की तरह उद्दीप्त हो उठे। इसके बाद सत्य, धर्म, तप, ब्रह्मचर्य, आचार और शौच आदि ब्रह्मा से उत्पन्न हुए। इन सब के पश्चात् देव, दानव, गन्धर्व, दैत्य, असुर, उरग, यक्ष, रक्ष, राक्षस, नाग, पिशाच और मनुष्य की सृष्टि हुई।

हिन्दू धर्मावलम्बियों की धारणा है कि मानवसृष्टि आर्यावर्त में ही हुई और यहीं से सारे संसार में फैली। ब्राह्मणों के अदर्शन से (अर्थात् वैदिक संस्कार कराने वालों के न मिलने से अथवा लोप होने से) यह सृष्टि भ्रष्ट हो गई। अतः म्लेच्छ हो गयी। ये ही म्लेच्छ जातियाँ हजारों वर्ष तक जङ्गली रहीं। फिर धीरे धीरे स्वाभाविक रीति से इनका विकास हुआ। भारतेतर देशों की, विशेषतः पश्चिम की मानवजाति की--यही कहानी है। इसी कारण वे अपने को आज भी आर्य कहते हैं।

मानवचकम् कडन्दान : तमिल शैवों में मानवाचकम् कडन्दान एक आचार्य हुए हैं। ये मेयकण्डदेव के शैव थे तथा इन्होंने 'उष्मै विलक्कम्' नामक सिद्धान्त ग्रन्थ लिखा। यह ग्रन्थ चौदह तमिल शैव सिद्धान्त ग्रन्थों में से एक है। इसमें 54 छन्दों में प्रश्नोत्तर के रूप में सिद्धान्त की मुख्य शिक्षाओं का वर्णन हुआ है।

मानसतीर्थ महत्त्व : सत्य तीर्थ है, क्षमा तीर्थ है, इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना भी तीर्थ है, सब प्राणियों पर दया करना भी तीर्थ है और सरलता भी तीर्थ है। दान तीर्थ है, मन का संयम तीर्थ है, संतोष भी तीर्थ कहा जाता है। ब्रह्मचर्य परम तीर्थ और प्रिय वचन बोलना भी तीर्थ है। ज्ञान तीर्थ है, धैर्य तीर्थ है; तप को भी तीर्थ कहा गया है। तीर्थों में भी सबसे श्रेष्ठ तीर्थ है अन्तःकरण की आत्यन्तिक विशुद्धि। जिसने इन्द्रिय-समूह को वश में कर लिया है वह मनुष्य जहाँ भी निवास करता है वहीं उसके लिए कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर आदि तीर्थ हैं। ध्यान के द्वारा पवित्र तथा ज्ञानरूपी जल से भरे हुए, रागद्वेष रूपी मल को दूर करने वाले मानसतीर्थ में जो पुरुष स्नान करता है वह परम गति (मोक्ष) को प्राप्त होता है।

मानसोल्लास : (1) सुरेश्वराचार्य या (पूर्वाश्रम के) मण्डनमिश्र कृत मानसोल्लास को दक्षिणामूर्तिस्तोत्रवार्त्तिक भी कहते हैं।

(2) यह राजनीति का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसकी रचना कल्याणी के चालुक्य वंशी राजा चतुर्थ सोमेश्वर ने की थी।

माया : शंकराचार्य के अनुसार सम्पूर्ण वेदान्त एक वाक्य में कहा जा सकता है-- 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या; जीवो ब्रह्मैव नापरः।' [ब्रह्म सत्य और जगत् मिथ्या है; जीव भी ब्रह्म ही है, अन्य नहीं।] इस प्रकार केवल एक तत्त्व ब्रह्म ही जगत् में प्रतिभासित है। अपनी ही जिस शक्ति से ब्रह्म संसार में प्रतिभासित होता है वह माया है। माया शुद्ध भ्रम अथवा ज्ञान का अभाव नहीं है। यह भावरूपा है। इसको न सत्य कह सकते हैं और न असत्य; यह दोनों का युग्म है (सत्यानृते मिथुनीकृत्य)। यह सत्य इसलिए नहीं है कि केवल ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है; इसको असत्य भी नहीं कह सकते, क्योंकि इसी के द्वारा ब्रह्म जगत् में प्रतिभासित होता है। वास्तव में यह दोनों से विलक्षण है (सदसद्-विलक्षण)। यह शक्तिरूपा है। इसको अध्याय (आरोप) भी कहते हैं। जिस प्रकार भ्रम के द्वारा शुक्ति (सीप) में रजत (चाँदी) का आरोप हो जाता है उसी प्रकार माया के कारण ब्रह्म में जगत् का आरोप हो जाता है। जब वास्तविक ज्ञान (प्रमा) उत्पन्न होता है तो भ्रान्ति दूर हो जाती है।

माया के दो कार्य हैं--(1) आवरण और (2) विक्षेप। आवरण से मोह उत्पन्न होता है जिसके कारण जीवात्मा में ब्रह्म और जगत् के बीच भ्रम उत्पन्न होता है और वह जगत् को सत्य समझने लगता है। विक्षेप के कारण ब्रह्म जगत् में प्रतिभासित होता है। जब ब्रह्म अविद्या में विक्षिप्त होता है तो जीव बन जाता है और जब माया में विक्षिप्त होता है तो ईश्वर कहलाता है। शाङ्करमत में माया के निम्नांकित लक्षण हैं:--(1) यह सांख्य की प्रकृति के समान जड़ है किन्तु न तो ब्रह्म से स्वतंत्र है और न वास्तविक (2) यह शक्तिरूपा ब्रह्म की सहवर्तिनी और उस पर सर्वथा अवलंबित है (3) यह अनादि है (4) यह सत् और असत् से विलक्षण है (6) यह विवर्तमात्र है, किन्तु इसकी व्यावहारिक सत्ता है (7) यह अध्यास (आरोप) और भ्रान्ति है; इसकी सत्ता उसी समय तक है जब तक जीवात्मा भ्रम में रहता है (8) यह विज्ञान (वास्तविक ज्ञान) से दूर करने योग्य है (विज्ञान निरस्या) और (9) इसका आश्रय और विषय दोनों ब्रह्म हैं।

रामानुजाचार्य ने शङ्कर के इस मायावाद का घोर खण्डन किया है। वे माया को ईश्वर की वास्तविक शक्ति मानते हैं जिसके द्वारा वह जगत् की सृष्टि करता है। वे सृष्टि को मिथ्या न मानकर उसे वास्तविक और ईश्वर की लीला भूमि मानते हैं।

मायातन्त्र : आगमतत्त्व विलास' में उद्धृत तन्त्रों की सूची में से एक तन्त्र।

मायावाद : शाङ्करमतानुसार सम्पूर्ण प्रपञ्च की सत्यत्वप्रतीति अध्यास या माया के ही कारण है। इसी से अद्वैतवाद को अध्यासवाद या मायावाद कहते हैं। दे० 'माया।'

मायावादखण्डन टीका : स्वामी जयतीर्थाचार्य ने 'मायावादखण्डन टीका' रची। इसमें इन्होंने मध्व के मतों का ही विवेचन किया है। यह पन्द्रहवीं शताब्दी का ग्रन्थ है।

मायाशक्ति : माया (विश्व) सृष्टि के अभौतिक उपादान का नाम है। इससे नियति की उत्‍पत्ति हुई जो सभी पदार्थों को नियमित करती है। नियति से काल तथा काल से गुणशरीर की उत्पत्ति होती है।

मार्कण्डेयक्षेत्र : (गङ्गा-गोमतीसंगम)। वाराणसी-गाजीपुर के बीच कैथी बाजार के पास यह तीर्थ स्थल पड़ता है। यहीं पर मार्कण्डेय महादेव का मन्दिर है। यह क्षेत्र मार्कण्डेय जी की तपोभूमि बतलायी जाती है। यात्री मन्दिर में भी ठहर सकते हैं। शिवरात्रि को यहाँ मेला लगता है। मन्दिर से प्रायः दो फर्लांग की दूरी पर गंगा में गोमती नदी मिलती है। यहाँ सन्तान प्राप्ति के लिए अनुष्ठान-पूजन शीघ्र फलदायक होता है।

मार्कण्डेय पुराण : यह महापुराणों में से एक है। मार्कण्डेय ऋषि द्वारा प्रणीत होने के कारण इसका यह नाम पड़ा। मत्स्यपुराण, ब्रह्म वैवर्त्तपुराण, नारदीय पुराण, भागवत पुराण आदि के अनुसार मार्कण्डेय पुराण में नौ हजार नौ सौ श्लोक होने चाहिए। परन्तु उपलब्ध पोथियों में केवल छः हजार नौ सौ श्लोक पाये जाते हैं। इसके प्रारम्भिक अध्यायों में मरणोत्तर जीवन की विस्तृत कथा कही गयी है। इस पुराण का मुख्य अंश 'चण्डी सप्तशती' है, जिसका नवरात्रि में पाठ होता है। इस सप्तशती का अंश 78वें अध्याय से 90वें अध्याय तक है। मार्कण्डेय पुराण का यही अंश अलग प्रकाशित पाया जाता है। ब्रह्मवादिनी मदालसा का पवित्र जीवनचरित भी इसमें वर्णित है। मदालसा ने शैशव में ही अपने पुत्र को ब्रह्मतत्त्व का उपदेश किया, जिसके राजा होने पर भी जीवन में ज्ञान और योग का सुन्दर समन्वय रहा।

मार्गशीर्षकृत्य : यह सम्पूर्ण मास अत्यन्त पवित्र माना जाता है। मास भर बड़े प्रातः काल भजन मण्डलियाँ भजन तथा कीर्तन करती हुई निकलती हैं। गीता (10.35) में स्वयं भगवान् ने कहा है 'मासाना मार्गशीर्षोऽहम्।' यहाँ इस मास से सम्बद्ध कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों का उल्लेख किया जा रहा है। सतयुग में देवों ने मार्गशीर्ष मास की प्रथम तिथि को ही वर्ष प्रारम्भ किया। इसी मास में कश्यप ऋषि ने सुन्दर कश्मीर प्रदेश की रचना की। इसलिए इसी मास में महोत्सवों का आयोजन होना चाहिए। मार्गशीर्ष शुक्ल 12 को उपवास प्रारम्भ कर प्रति मास की द्वादशी की उपवास करते हुए कार्तिक की द्वादशी को पूरा करना चाहिए। प्रति द्वादशी को भगवान् विष्णु के केशव से दामोदर तक 12 नामों में से एक-एक मास तक उनका पूजन करना चाहिए। इससे पूजक 'जाति स्मर'--पूर्व जन्म की घटनाओं को स्मरण रखने वाला-हो जाता है तथा उस लोक को पहुँच जाता है जहाँ से फिर संसार में लौटने की आवश्यकता नहीं पड़ती (अनुशासन, अध्याय 109, बृ० सं० 104.14-16)। मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को चन्द्रमा की अवश्य पूजा की जानी चाहिए क्योंकि इसी दिन चन्द्रमा को सुधा से सिञ्चित किया गया था। इस दिन गौओं को नमक दिया जाय, तथा माता, बहिन, पुत्री और परिवार की अन्य स्त्रियों को एक-एक जोड़ा वस्त्र प्रदान कर सम्मानित करना चाहिए। इस मास में नृत्य-गीतादि का आयोजन कर एक उत्सव भी किया जाना चाहिए। मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को ही दत्तात्रेयजयन्ती मनायी जानी चाहिए। दे० कृत्यकल्पतर का नैत्य कालिक काण्ड, 432-33; कृत्यरत्नाकर, 471-72।

मार्जारी भक्ति : शैव आगमों के अनुसार जीवात्मा की अवस्था देवता की दया पर ठीक उसी तरह आश्रित होती हैं जिस प्रकार बिल्ली के बच्चों का जीवन अपनी माँ की दया पर आधारित होता है। बिल्ली अपने मुंह से जब तक न पकड़े, वे असहायावस्था में एक ही स्थान में पड़े रहते हैं। इसी तरह परमेश्वर पर पूर्णतः अवलम्बित भक्त है। इसकी विलोम वानरी भक्ति है, जिसमें बन्दर के बच्चे की तरह जीवात्मा अपनी ओर से भी आराध्य को कुछ पकड़ने का प्रयास करता है। दे० मर्कटात्मज भक्ति।

मार्त्तण्ड सप्तमी : पौष शुक्ल सप्तमी को इसका अनुष्ठान होता है। उस दिन उपवास करने का विधान है। 'मार्त्तण्ड' शब्द का उच्चारण करते हुए उस अवसर पर सूर्य का पूजन करना चाहिए। व्रती को अपने शुद्दीकरण के लिए गोमूत्र या गोमय या गोदुग्ध या गोदधि लेना चाहिए। अग्रिम दिन सूर्य का 'रवि' नाम लेकर पूजन करना चाहिए।

इस प्रकार उसे दो दिनों के लिए हर मास यह आचरण एक वर्ष तक करना चाहिए। एक दिन किसी गौ को घास या ऐसा ही कोई खाद्य पदार्थ देना चाहिए। इससे सूर्य लोक की प्राप्ति होती है।

मालती माधव : संस्कृत भाषा का नाटक जिसमें कापालिक सम्प्रदाय के क्रिया-कलापों का वर्णन पाया जाता है। नाटक का मुख्य पात्र कापालिक संन्यासी अघोरघण्ट था, जो राजधानी के वामुण्डा मन्दिर का पुजारी तथा एक बड़े शैव तीर्थ श्रीशैल से सम्बन्धित था। कपाल कण्डला अघोरघण्ट की शिष्या संन्यासिनी थी जो देवी की उपासिका थी। दोनों योगाभ्यास करते थे। उनके विश्वास शाक्त विचारों से भरे थे। वे नरबलि, (देवी के अर्पणार्थ) के अभ्यासी थे, इत्यादि। इस प्रकार आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महाकवि भवभूति रचित इस नाटक में तत्कालीन शैव विश्वासों तथा अनेकानेक धार्मिक क्रियाओं, शाक्तों की अद्भुत शक्ति आदि का अभिनव वर्णन प्राप्त होता है देवी को जाग्रत करने के लिए शाक्तयोग का साधन, देवी को सबसे ऊँचे चक्र पर चढ़ाने की चेष्टा, चक्र के अन्दर के केन्द्र व रेखाएँ, उनके आश्चर्यपूर्ण फल आदि सभी बातें इस नाटक में प्राप्त होती हैं।

मालिनीतन्त्र : आगम तत्त्वविलास' के 64 तन्त्रों की सूची में उद्धृत एक तन्त्र।

मालिनीविजय तन्त्र : दसवीं शताब्दी के पूर्व इसकी रचना मानी जानी चाहिए, क्योंकि कश्मीर के शैव आचार्य अभिनवगुप्त (1057) ने अपने ग्रन्थ में इसका उद्धरण दिया है।

माशक (मशक) सूत्र ग्रन्थ : सामवेद के जितने सूत्र ग्रन्थ हैं उतने किसी वेद के देखने में नहीं आते। पञ्चविंश ब्राह्मण का एक श्रौतसूत्र और एक गृह्यसूत्र। पहले श्रौतसूत्र का नाम 'मशक' है। लाट्यायन ने इसको 'मशकसूत्र' लिखा है। कुछ लोगों की राय में इन ग्रन्थों का नाम कल्पसूत्र है।

मास : चन्द्रमा की एक भूचक्रपरिक्रमा के आधार पर 'मास' से महीने का बोध होता है। मास के प्रसिद्ध सीमा-दिन अमावस्या तथा पूर्णमासी हैं।

यह निश्चित नहीं ज्ञात होता कि एक अमावस के अन्त से दूसरी अमावस (अमान्त मास) या एक पूर्णिमा के अन्त से दूसरी पूर्णिमान्त तक मास-गणना होती थी। उत्तर भारत में पूर्णिमान्त प्रथा प्रचलित है और दक्षिण भारत में अमान्त प्रथा। जाकोबी फाल्गुन की पूर्णिमा से वर्षारम्भ होना मानते हैं। ओल्डेनबर्ग प्रथम चन्द्र को ही वर्ष का आरम्भ-बिन्दु समझते हैं। मास के तीस दिन होते थे क्योंकि वर्ष में 12 मास और 360 दिन कहे गये हैं। सूत्रों में मास अलग-अलग संख्यक दिनों के लिए उद्धृत हैं।

मासक्षपौर्णमासीव्रत : कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। इस अवसर पर व्रती को नक्त पद्धति से आहार करना चाहिए। नमक से एक वृत्त बनाकर तथा उसे चन्दन के लेप से चर्चित करके चन्द्रमा को दस नक्षत्रों सहित पूजना चाहिए--यथा कार्तिक मास में जब चन्द्रमा कृत्तिका तथा रोहिणी से युक्त हों, मार्गशीर्ष मास में जब मृगशिरा तथा आर्द्रा से युक्त हों, और इसी प्रकार से आश्विन मास तक। सधवा महिलाओं को गुड़, सुन्दर खाद्यान्न, घृत-दुग्धादि देकर सम्मानित करना चाहिए। तदनन्तर स्वयं हविष्यान्न ग्रहण करना चाहिए। व्रत के अन्त में सोने से रंगे हुए (जरी के काम वाले) वस्त्र दान में देने चाहिए।

मासव्रत : मार्गशीर्ष मास से कार्तिक मास तक बारहों मास व्रती को निम्न वस्तुएँ दान करनी चाहिए--नमक, घी, तिल, सप्त धान्य, आकर्षक वस्त्र, गेहूं, जल पूर्ण कलश, कपूर सहित चन्दन, मक्खन, छाता, शर्करा अथवा गुड़ के लड्डू। वर्ष के अन्त में गौ का दान तथा दुर्गा जी, ब्रह्मा जी, सूर्य नारायण अथवा विष्णु भगवान् का पूजन करना चाहिए।

मासोपवास व्रत : समस्त व्रतों में यह महान् और प्राचीन व्रत है। नानाघाट शिलालेख के अनुसार रानी नायनिका (नागनिका) ने ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में इस व्रत का आचरण किया था। दे० ए० एस० डब्ल्यू० आई० जिल्द 5 पृ० 60। इसका वर्णन अग्नि (205.1-18), गरुड़ (1.122.1--7), पद्म० (6.121-15--54) ने किया है। अग्निपुराण में इसका संक्षिप्त वर्णन मिलता है, अतएव उसी का यहाँ वर्णन किया जा रहा है। व्रती को वैष्णव व्रतों का आचरण करने (जैसे द्वादशी) के लिए गुरू की आज्ञा प्राप्त कर लेनी चाहिए। अपनी शक्ति तथा आत्मबल देखकर आश्विन शुक्ल एकादशी को व्रत आरम्भ कर 30 दिनों तक निरन्तर व्रत रखने का संकल्प करना चाहिए। तपस्वी साधु या यति या विधवा ही इस व्रत का आचरण करें, गृहस्थ नहीं। गन्ध पुष्प आदि से दिन में तीन बार विष्णु का पूजन करना चाहिए। विष्णु के स्तोत्रों तथा मंत्रों का पाठ एवं उनका ही मन्न-चिन्तन करना चाहिए। व्यर्थ की बकवास, सम्पत्ति का मोह तथा ऐसे व्यक्ति के स्पर्श का भी त्याग करना चाहिए जो नियमों का पालन न कर रहा है। तीस दिन तक किसी मन्दिर में ही निवास करना चाहिए। तीनों दिन व्रत कर लेने के बाद द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर, दक्षिणा देकर तथा तेरह ब्राह्मणों को वस्त्रों के जोड़े, आसन, पात्र, छाता, खड़ाऊँ की जोड़ी प्रदान कर स्वयं व्रत की पारणा करनी चाहिए। विष्णु भगवान् की प्रतिमा किसी पर्यङ्क पर स्थापित कर उनको वस्त्रादि धारण कराने चाहिए। अपने गुरु को पर्यङ्क पर बैठाकर ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र दान में देने चाहिए। जिस स्थान पर ऐसा व्रती तीस दिन निवास करता है वह पवित्र हो जाता है। इस व्रत के आचरण से न केवल व्रती अपने आपको बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों को भी विष्णु लोक ले जाता है। यदि किसी प्रकार व्रत काल में व्रती मूर्छित हो जाय तो उसे दुग्ध, शुद्ध नवनीत, फलों का रस देना चाहिए। ब्राह्मणों की आज्ञा से उपर्युक्त वस्तुओं को लेने से व्रत खण्डित नहीं होता है।


माहिष्मती (महेश्वर) : विख्यात शैव तीर्थ तथा नर्मदातट का प्रसिद्ध धार्मिक नगर। यह कृतवीर्य के पुत्र सहस्रार्जुन की राजधानी थी। आद्य शंकराचार्यजी से शास्त्रार्थ करने वाले मण्डन मिश्र भी यहीं के रहने वाले थे। यहाँ कालेश्वर और बालेश्वर के शिव मन्दिर है। नगर के पश्चिम मतङ्ग ऋषि का आश्रम तथा मातङ्गेश्वर मन्दिर है। पास ही भर्तृहरि गुफा और मंगला गौरी मन्दिर है। नर्मदा के द्वीप में बाणेश्वर मन्दिर है। वहीं सिद्धेश्वर और रावणेश्वर लिङ्ग भी हैं। पञ्चपुरियों की गणना में महेश्वरपुर की गणना आती है। यहाँ अनेक मन्दिर हैं। जगन्नाथ, रामेश्वर, बदरीनाथ, द्वारकाधीश, पंढरीनाथ, परशुराम, अहल्येश्वर आदि। यह पुरी गुप्त काशी भी कही जाती है।

माहेश्वर : यह शैवों के सम्प्रदाय विशेष की उपाधि है इसका शाब्दिक अर्थ है 'महेश्वर (शिव) का भक्त'।

माहेश्वर उपपुराण : यह उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से एक है।

माहेश्वर सम्प्रदाय : महाभारत काल में पाशुपत मत प्रधान रूप से प्रचलित था। माहेश्वर तथा शैव आदि उसके अन्तर्गत उपसम्प्रदाय थे। माहेश्वर सम्प्रदाय में महेशमूर्ति की उपासना होती है। अन्य आचार सामान्य शैवों जैसा ही होता है।

माहेश्वर सूत्र : चौदह माहेश्वर सूत्रों के आधार पर अष्टाध्यायी में पाणिनि ने प्रत्याहार बनाये हैं, जिनका प्रयोग आदि से अन्त तक अपने सूत्रों में किया है। इन प्रत्याहारों से सूत्रों की रचनाओं का अत्यन्त लाघव हो गया है। माहेश्वर सूत्र निम्नलिखित हैं :

(1) अऐंउण्। (2) ऋलृक्। (3) ए ओङ्। (4) ऐ औच्। (5) हयवरट्। (6) लण्। (7) ञमङ्णनम्। (8) झभञ्। (9) घढधष्। (10) जबगडदश्। (11) खफछठथचटतव्। (12) कपय्। (13) शशसर्। (14) हल्।

मांस : सजीव प्राणियों और निर्जीव फल आदि का भीतरी कोमल द्रव्य (गूदा) जो छदन-भेदन द्वारा खाने के काम आता है। प्राणियों के मांस का उपयोग भक्षणार्थ हिंसक पशु और असभ्य कोल-भील आदि लोगों में प्रचलित था। शत्रु वधाभिलाषी क्षत्रिय, सैनिक और राजा लोग भी युद्ध शिक्षार्थ पशु वध करते हुए मांस खाने लगते थे। राजा विशेष कर हिंसक जन्तुओं का शिकार वनवासी प्रजा और ग्राम्य पशुओं के रक्षार्थ ही करते थे। इन लोगों में मांसभक्षण की प्रवृत्ति आक्रमण और युद्ध के समय उग्रता प्रकाश के विचार से उचित या वैध मानी जाती थी। मांस भक्षण असभ्य, अशिक्षित, मूढ़ लोगों में स्वभावतः प्रचलित था। काल क्रम से इनकी देखा-देखी सभ्य क्षत्रिय या द्विज भी लौल्यवश इधर प्रवृत्त हो जाते थे। किंतु प्राचीन धर्मग्रन्थों में मांसभक्षण निषिद्ध ठहराया गया है। फिर भी इस प्रवृत्ति का निःशेष निरोध सहसा कठिन देखकर शास्त्रकारों ने याज्ञिक कर्मकाण्ड के आवरण से इसको प्रयाससाध्य या महँगा बना दिया। नियम बन गये कि मांस खाना हो तो लंबे यज्ञानुष्ठान के द्वारा पशुबलि देकर प्रसाद---यज्ञ शेष रूप---में ही ऐसा किया जा सकता है। पूर्वमीमांसा शास्त्र में यह 'परिसंख्या विधि' का सिद्धान्त कहलाता है। मांसभक्षण से निवृत्त होना ही इसका आशय है।

धार्मिक रूप से वेदमन्त्रों ने पशुमांस भक्षण का स्पष्ट निषेध किया है और अहिंसा धर्म की प्रशंसा की है। `परम धर्म श्रुति विदित अहिंसा` वाली तुलसीदासजी की उक्ति निराधार नहीं है। `मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि` प्रसिद्ध वेदवाक्य हैं। `यजमानस्य पशून् पाहि` (यंजु 1.1), `अश्वम् अविम् ऊर्णार्थं मा हिंसीः।` (यज० 13.50), `मा हिंसिष्टं द्विपदो मा चुतुष्पदः।` (अथर्व०11.2), `मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।` (यजु० 36.18) आदि वचनों के प्रकाश में धार्मिक दृष्टि से मांसभक्षण की अनुज्ञा नहीं है। कुछ तथाकथित सुधारक या पंडितमन्य आलोचक ऋग्वेद की दुहाई देकर गोवध और तन्मासभक्षण को वैध ठहराते हैं। ऐसे लोग वैदिक रहस्यार्थ से वंचित और अबोध हैं। ऋग्वेद में प्रातः शान्तिपाठ के लिए गोसूक्त का उदात्त निर्देश है : `दुहामशिवभ्यां पयो अघ्नये वर्धतां सौभगाय।` (1.16,427)` `अद्धि तृणमघ्न्ये विश्वेदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती।` (1.164.40)। प्रत्येक विवाह विधि में यह ऋग्मंत्र वर की ओर से पढ़ा जाता हैं : `माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्याममृतस्य नाभिः। मा गामनागामदिर्तिं वघिष्ट।` (8.101.15)। ऋग्वेद की उक्त स्पष्ट गो आदि पशुवध तथा मांसभक्षणविरोधी आज्ञाओं के होते हुए यह कहना कि वैदिक काल के हिन्दुओं में धर्मविहित गोवध या मांसभक्षण प्रचलित था, सरासर दुःसाहस और अनैतिहासिक है। संभवतः यह एक षडयन्त्र था जिसमें विधर्मी शासकों द्वारा स्वार्थसिद्धि के लिए कुछ पाश्चात्य लेखकों को फुसलाकर उनसे वेदमन्त्रों की ऐसी अनर्थकारी व्याख्यायें लिखवायी गयीं। कुछ वैदिक कूट पहेलियों जैसे वाक्यों ने इन लोगों को व्यामोहित भी कर डाला। मांसभक्षण और पशुवध के सम्बन्ध में वेद का यह कठोर आदेश है :

यः पौरुषेयेण ऋविषा समङ्क्ते, यो अश्वेन पशुना यातुधानः। यो अघ्‍नाया भरति क्षीरमग्ने, तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च॥ (ऋ. 10.87.16)

या आमं मांसमदन्ति पौरुषेयं चा ये ऋविः। गर्भान् (अण्डान्) खादन्ति केशवास्तान् इतो नाशयामसि॥ (अथर्व० 8.6.23)

सुरा मत्स्या मधु मांसमासवं कृशरौदनम्। धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतद् नैतद् वेदेषु दृश्यते॥ (महा० शान्ति० 265.9)

मित्र : आदित्य वर्ग का वैदिक देवता। वरुण के साथ इसका सम्बन्ध इतना घनिष्ठ है कि स्वतंत्र रूप से केवल एक सूक्त (ऋग्वेद 3.59) में इसकी स्तुति मिलती है। मित्र का सबसे बड़ा गुण यह माना गया है कि वह अपने शब्दों का उद्घोष करता हुआ (ब्रुवाणः) लोगों को एक दूसरे से सम्मिलित करता है (यातयति) और अनिमेष दृष्टि से (अनिमिषा) कृषकों की रखवाली करता है। मित्र मनुष्यों को प्रेरित कर उनको कार्यों में लगाता है, जिन्हें वे मैत्री और सहकारिता द्वारा पूरा करें। वह दैवी मिंत्र और सन्धि का देवता है। वह अपने गुणों को मानवों में उतारता है।

मित्र के बारे में प्रायः वे ही बातें कही गयी हैं जो वरुण के बारे में प्रसिद्ध हैं। वह स्वर्ग तथा पृथ्वी का धारण करने वाला, लोकदेवता, स्वर्ग और पृथ्वी से बड़ा निर्निमेष मानवों की ओर देखने वाला, राजाओं के समान जिसके व्रतों (आज्ञाओं) का पालन होना चाहिए, दयालुता का देवता, सहायक, दानी, स्वाथ्यवर्द्धक, समृद्धि दाता आदि है। मित्र सूर्योदय अथवा दिन का देवता है, वरुण सूर्यास्त अथवा रात्रि का। मित्र दिन के नैतिक जीवन का संरक्षक है, वरुण रात्रि के नैतिक जीवन का।

मित्र तथा वरुण के नाम विंकलर द्वारा 'बोगाज--कोई' (लघु एशिया, ईराक) की तख्ती पर (1400 ई० पू०) लिखित अभी कुछ वर्ष पूर्व प्राप्त हुए हैं। ओल्डेनवर्ग के मतानुसार ये देवता ईरानी हैं। अन्य विद्वानों के अनुसार ये भारतीय हैं। यदि ये वैदिक माने जायँ तो इनकी उपर्युक्त स्थिति से प्राचीन काल के भारत तथा लघु एशिया के सम्बन्धों की पुष्टि होती है तथा यह भी पता चलता है कि भारतीय आर्यों की एक शाखा इसी मार्ग (बोगाज-कोई) से अपने पश्चिमी निवास की ओर अग्रसर हुई थी। बोगाज-कोई अभिलेख के मित्र एवं वरुण की सहयोगिता का उल्लेख पारसियों के 'अवेस्ता' में 'मिथ्र तथा अहुर' के नामों से हुआ है। परवर्ती अवेस्ता के मिथ्र-अहुर तथा ऋग्वेदीय मित्र-वरुण के जोड़े यह सिद्ध करते हैं कि यह मान्यता भारत-ईरानी एकता टूटने के पूर्व की है। बोगाज-कोई अभिलेख भी इस बात की पुष्टि 'अस्सिल' प्रत्यय द्वारा जोड़े जाने वाले मित्र तथा वरुण से करता है। अवेस्ता में 'मित्र' का अर्थ सिन्ध है तथा ऋग्वेद में यह 'मित्रता' अर्थ का द्योतक है।

जान पड़ता है कि मित्र प्रारम्भ में सन्धि का देवता था, जैसे जेन्स का अर्थ है `द्वार का देवता`। इस प्रकार मित्र वह देवता है जो सत्य भाषण, मनुष्य मनुष्य के बीच हुई स्वीकृतियों, वचनों, सन्धियों में सचाई की देख-रेख करता था। सत्य अन्तप्रकाश है तथा प्रकाश बाहरी सत्य है। यह नहीं जान पड़ता कि मित्र में कौन सा विचार पहले प्रविष्ट हुआ। सम्भवतः उसमें नैतिक गुणों की ही प्राथमिकता ज्ञात होती है।

मित्र का भौतिक रूप प्रकाश था जो कुछ आगे-पीछे मान्य हुआ। कुछ विद्वान् मित्र की एकता सूर्य से स्थापित करते हैं और इस प्रकार मित्र एवं वरुण से 'सूर्यप्रकाश एवं उसे घेरने वाला वृत्ताकार आकाश' अर्थ की सम्भवतः स्थापना होती है।

तीसरी मान्यता में मित्र युद्ध का देवता है (मिह्यश्त के अनुसार)। बाद में मिथ्रवाद या मिथ्र की पूजा रोमन साम्राज्य में फैली। योद्धा, देवता, स्पष्टवादिता, ईमानदारी सीथे मार्ग का अनुसरण आदि सैनिकों के गुणों के साथ वह युद्ध का देवता माना जाने लगा। मिथ्रवाद का काल पश्चिमी देशों में 100 से 300 ई० तक रहा। एक समय था जब यह कहना कठिन था कि मिथ्रवाद तथा रव्रीष्टिवाद में से कौन विजयी होगा।

मित्र-भू-काश्यप : कश्यप का वंशज। यह वंश ब्राह्मण में उद्धृत एक आचार्य का नाम है जो विभाण्डक काश्यप का शिष्य था।

मित्रसप्तमी : मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी मित्रसप्तमी कहलाती है। यह तिथिव्रत है। मित्र (सूर्य) इसके देवता हैं। षष्ठी को मित्र की प्रतिमा को उसी प्रकार स्नान कराना चाहिए जैसे कार्तिक शुक्ल 11 को विष्णु भगवान् की प्रतिमा को कराया जाता है। सप्तमी को उपवास (फलों का सेवन किया जा सकता है) तथा रात्रि को जागरण करना चाहिए। विभिन्न प्रकार के पुष्पों तथा स्वादिष्ट खाद्यान्नों से सूर्य का पूजन करना चाहिए। निर्धनों, अनार्थों तथा ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। अष्टमी को अभिनेताओं तथा नर्तकों को रुपयों का वितरण करना चाहिए। दे० नीलमत पुराण, पृ० 46-47 (श्लोक 564-569)

मिश्र : (1) संयुक्त अथवा मिला हुआ। मिश्र तन्त्र आठ हैं। इनके दो गुण हैं देवी की उपासना के सम्बन्ध में शिक्षा देना, एवं पार्थिवसुख के साथ ही मुक्ति का मार्ग भी प्रदर्शित करना। इस प्रकार इनमें दो लक्ष्यों का मिश्रण है। इसके विपरीत समय या शुभ (उच्च) तन्त्र केवल 'मुक्ति' का ही मार्गदर्शन कराते हैं।

(2) मिश्र का अर्थ 'श्रेष्ठ' भी होता है। 'आर्यमिश्रा' श्रेष्ठ लोगों के लिए सम्बोधन के रूप में संस्कृत ग्रन्थों में प्रयुक्त होता है।

मिहिर : ईरानी देवता "मिथ्र" को ही संस्कृत में मिहिर कहते हैं। दूसरी शताब्दी ई० पू० में उत्तर भारत में इस शब्द का प्रवेश हुआ। क्रमशः आगे चलकर भारतीय सौर सम्प्रदाय में यह पूजनीय रूप से समाविष्ट हो गया।

वास्तव में वैदिक 'मित्र' देवता प्राचीन काल में ईरान के पारसियों में भी मिथ्र नाम से पूज्य था। आगे चलकर मिथ्र का परिवर्तित रूप मिहिर भारत में भी प्रचलित हो गया। मिहिर और मित्र दोनों आदित्य के पर्याय माने जाते हैं।

मीनापंथ : सिक्खों के 'सहिजधारी' और 'सिंह' दो विभाग हैं। सहिजधारियों के भी अनेक पन्थ हैं। इनमें एक है मीना पन्थ। इसे गुरु रामदास के पुत्र पृथ्वीचन्द ने चलाया था। दे० 'सिक्ख सम्प्रदाय'।

मीमांसक : मीमांसा शास्त्र के विद्वानों को मीमांसक कहते हैं। कर्म मीमांसा दर्शन की स्थापना इसके लिए हुई थी कि श्रौत तथा गृह्यसूत्रों में बतायी हुई सारी बातों का पालन सन्देहरहित विश्वासपूर्ण नियमों के अनुसार हो। बड़े बड़े श्रौत यज्ञों के अवसरों पर उस उद्देश्य की रक्षा के लिए विद्वान् मीमांसक निर्देशार्थ उपस्थित रहते थे।

मीमांसा : दे० 'पूर्वमीमांसा'।

मीमांसान्यायप्रकाश : आपदेव सुप्रसिद्ध मीमांसक विद्वान् थे। उनका 'मीमांसान्यायप्रकाश' पूर्वमीमांसा का प्रारम्भिक और प्रामाणिक प्रकरण ग्रन्थ है। रचनाकाल 1630 ई० है। इसे आपदेवी भी कहते हैं। सरल होने के कारण इसका प्रचार तथा प्रयोग प्रचुर हुआ है।

मीमांसावृत्ति : उपवर्ष नामक वृत्तिकार द्वारा पूर्व और उत्तर दोनों ही मीमांसा शास्त्रों पर वृत्ति ग्रन्थ लिखे गये थे। शङ्कराचार्य (ब्र.सू. 3.3.53) कहते हैं कि उपवर्ष ने अपनी मीमांसावृत्ति में कहीं-कहीं पर शारीरक सूत्र पर लिखित वृत्ति की बातों का उल्लेख किया है। ये उपवर्षाचार्य शबरस्वामी से पहले हुए थे।

मीमांसाशास्त्र : विशिष्टाद्वैतवादी वैष्णव आचार्यों के मत से पूर्वोत्तर रूपात्मक मीमांसा शास्त्र एक ही है। वे दोनों के सूत्रपाठों में प्रथम कर्म मीमांसा के 'अथातो धर्मजिज्ञासा' से लेकर ब्रह्म मीमांसा के 'अनावृत्तिः शब्दात्' इस अन्तिम सूत्र तक बीस अध्यायों का एक ही वेदार्थ-विचार करने वाला मीमांसा दर्शन मानते हैं और उसके तीन काण्ड बतलाते हैं। उन काण्डों के नाम हैं : धर्ममीमांसा, देवमीमांसा, ब्रह्ममीमांसा। धर्ममीमांसा नामक प्रथम काण्ड आचार्य जैमिनि द्वारा प्रणीत है। उसमें बारह अध्याय हैं और उसमें धर्म का सांगोपांग विवेचन किया गया है। देवमीमांसा नामक द्वितीय काण्ड काशकृत्स्नाचार्य ने बनाया था और उसके चार अध्यायों में देवोपासना का रहस्य परिस्फुटित किया गया है। ब्रह्म मीमांसा नामक तृतीय काण्ड के रचयिता हैं बादरायणमुनि। इन्होंने चार अध्यायों में ब्रह्मा का पूर्ण विमर्श करके अपना सिद्धान्त अच्छी तरह स्थापित किया है। कर्म्म, उपासना और ज्ञान इन तीनों काण्डों से युक्त सम्पूर्ण शास्त्र का नाम है मीमांसाशास्‍त्र। इस सम्पूर्ण मीमांसा शास्त्र की वृत्ति भगवान् बोधायनाचार्य ने बनायी थी।

अन्य आचार्यों के मतानुसार दो स्वतन्त्र मीमांसाशास्त्र हैं: (1) पूर्व मीमांसा, जिसमें वैदिक कर्मकाण्ड का विवेचन है और (2) उत्तर मीमांसा, जिसमें वेदान्त दर्शन या ब्रह्म का निरूपण है। दे० 'पूर्वमीमांसा'।

मीराबाई : जोधपुर के मेड़ता राजकुल की कृष्णभक्त राजकुमारी। इनका ब्याह मेवाड़ के युवराज के साथ हुआ। इनके ससुर प्रसिद्ध वीर राणा कुम्भा थे। राणा कुम्भा की मृत्यु के पहले ही उनके पति की मृत्यु हो गयी। विधवा मीराबाई के साथ उनके पति के भाई का व्यवहार निर्दय था। मीरा ने चित्तौड़ त्याग दिया तथा सन्त रैदास (रामानन्दीय) की शिष्या बन गयीं और आगे चलकर कृष्ण की उच्च कोटी की उपासिका हुईं। इनके कृष्ण भक्ति सम्बन्धी गीत लोकप्रसिद्ध हैं। गुजराती में भी इनके बहुत से गीत पाये जाते हैं, जिनमें से कुछ में उत्कट प्रेम के तत्त्व निहित हैं। मीराबाई का स्थिति काल 16वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है।

मुकुन्द : छान्दोग्य तथा केनोपनिषद् के अनेक वृत्तिकार तथा टीकाकारों में से मुकुन्द भी एक हैं।

मुकुन्दमाला : केरल प्रान्त के प्रसिद्ध शासक कुलशेखर एक प्रधान अलवार (परम वैष्णव) हो गए हैं। उन्होंने 'मुकुन्दमाला' नामक एक अत्यन्त भक्तिरसपूर्ण, साहित्यिक स्तोत्र ग्रन्थ की रचना की है। भक्तसमाज में इसका बहुत आदर है।

मुकुन्दराज : मराठी भाषा के विवेकसिन्धु नामक ग्रन्थ में वेदान्त की व्याख्या करने वाले एक विद्वान् सन्त। इनके ग्रन्थ का उल्लेख देवगिरि के राजा जैत्रपाल के शासनकाल में 12वीं शताब्दी के अन्त में हुआ है तथा इसे मराठी का सबसे प्राचीन ग्रन्थ कहा गया है। इस ग्रन्थ की बड़ी प्रतिष्ठा है।

मुकुन्दराम : बँगला भाषा के प्राचीन संमानित कवि। इन्होंने बंगला में एक कलात्मक महाकाव्य रचा (1646 ई०) जिसका नाम 'चण्डी मङ्गल' है। यह शाक्त पंथी ग्रन्थ है। और 'मंगल' काव्यों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

मुक्तानन्द : स्वामीनारायण सम्प्रदाय के अनुयायी संत। मुक्तानन्द जी ने गुजराती भाषा में अनेक भजन व पद रचे हैं।

मुक्ताफल : वोपदेव पण्डित द्वारा रचित 'मुक्ताफल' भागवतपुराण पर आधारित है। इसमें उक्त पुराण की शिक्षाएँ संगृहीत हैं। इसका रचनाकाल चौदहवीं शताब्दी का प्रथम चरण है।

मुक्ताबाई : पन्द्रहवीं शताब्दी के महाराष्ट्रीय भक्तों में मुक्ताबाई का नाम उल्लेखनीय है। इनके अभङ्ग आदर के साथ पढ़े और गाये जाते हैं।

मुक्ताभरण व्रत : भाद्र शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का प्रारंभ होता है। यह तिथिव्रत है। शिव तथा उमा उसके देवता हैं। शिवप्रतिमा के सम्मुख एक धागा रखा जाता है। उसके उपरान्त आवाहन से प्रारम्भ कर शिव जी का षोडशोपचार पूजन किया जाता है। शिव जी का आसन मुक्ताओं तथा रत्नों से जटित होना चाहिए। उपचारों के बाद उस धागे को कलाई में बाँध लिया जाता है। तदनन्तर 1100 मण्डल (मराठी में माण्डे, हिन्दी में बाटियाँ) तथा वेष्टिकाएँ (जलेबियाँ) दान में देनी चाहिए। इससे पुत्रों की आयु दीर्घ होती है।

मुक्ति : संसार के जन्ममरण-बन्धन से छुटकारा। दे० मोक्ष।

मुक्तिकोपनिषद् : मुक्तिकोपनिषद् में 108 उपनिषदों की नामावली दी हुई है जो महत्त्वपूर्ण है। इसमें मोक्ष का विवेचन विशेषरूप से किया गया है।

मुक्तिद्वार सप्तमी : जब सप्तमी हस्त अथवा पुष्प नक्षत्र युक्त हो तब इस व्रत का आचरण करना चाहिए। आक के वृक्ष को प्रमाण करके उसकी टहनी की दातुन से दाँत साफ करने चाहिए। उस अवसर पर स्नान-पूजन करने के बाद हवन का भी आयोजन होना चाहिए। आँगन को गौ के गोबर तथा रक्त चन्दन से लीपकर वहाँ अष्टदल कमल बनाकर पूर्व की ओर से प्रारम्भकर प्रति देवता का कमल के दलों पर आह्वान करना चाहिए। तदनन्तर मन्त्रों को बोलकर षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। व्रती उस दिन उपवास करे। वह षट् रसों (लवण, मिष्ठ, अम्ल, तिक्त, कटु, कसैला) में से एक ही रस का सेवन करे। दो-दो मास तक एक रस लेने के बाद अगले दो मास तक दूसरा रस लेना चाहिए। इसी प्रकार बारह महीने में छः रसों का सेवन करना चाहिए। तेरहवें मास व्रत की पारणा हो तथा व्रती कपिला गौ का दान करे। इस व्रत से व्रती मोक्ष प्राप्त करता है।

मुखबिम्ब आगम : एक रौद्रिक आगम है, जो 'मुखबिन्ब' अथवा 'मुखयुग्बिम्ब' नाम से प्रसिद्ध है।

मुख्युग्बिम्ब आगम : दे० 'मुखबिम्ब आगम'।

मुखलिङ्ग : मुख की आकृति से अङ्कित लिंग को मुखलिङ्ग कहते हैं। एक से लेकर पञ्चमुख तक के लिङ्ग पाये जाते हैं। अमूर्त शिवतत्त्व को मूर्त अथवा मुखर रूप देने का यह प्रयास है। शिव की पूजा-अर्चा लिङ्ग के रूप में अति प्राचीन काल से चली आ रही है। न केवल भारत वरन् वृहत्तर भारत में भी इसका प्रचलन था। हिन्द चीन के प्रदेश चम्पा मे शिव सम्प्रदाय का प्रचार बहुत अधिक था। यहाँ के मन्दिरों के भग्नावशेषों में अनेक ऐसी वेदिकाएँ उपलब्ध होती हैं जिनके मध्य अवश्य कभी लिङ्ग स्थापित रहे होंगे। ये सभी लिङ्ग साधारण आकृति के बेलनाकार ऊपरी सिरे पर गोल हैं। यहाँ के लिङ्गों में मुखलिङ्ग भी थे। इसका प्रमाण पोक्लोन गरई के मन्दिर में उपस्थित मुखलिङ्ग से होता है। लिङ्ग में मुख अंकित है जो मुकुट तथा राजा के अन्य आभूषणों से सुसज्जित है।

मुखव्रत : इस व्रत के अनुसार एक वर्ष के लिए ताम्बूल (मुखवास) का परित्याग करना पड़ता है। वर्ष के अन्त में एक गौ का दान विहित है। इससे व्रती यक्षों का स्वामी बन जाता है।

मुख्यतन्त्र : तन्त्रशास्त्र तीन भागों में विभक्त हैं---आगम, यामल और मुख्य तन्त्र। सृष्टि, लय, मन्त्रनिर्णय देवताओं के संस्थान, यन्त्र-निर्णय, तीर्थ, आश्रम धर्म, कल्प, ज्योतिष संस्थान, व्रत कथा, शौच और अशौच, स्त्री-पुरुष लक्षण, राजधर्म, दानधर्म, युगधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक विषयों का जिस ग्रन्थ में वर्णन हो, वह मुख्य तन्त्र कहलाता है। विशेष विवरण 'तन्त्र' शब्द की व्याख्या में देखें।

मुचकुन्दतीर्थ (धौलपुर) : राजस्थान के पूर्वी प्रवेशद्वार धौलपुर से तीन मील पर सुरम्य पर्वत श्रृंखला में स्थित राजर्षि मुचुकन्द की गुफा। देवकार्य से निवृत्त होकर मुचुकुन्द श्रमनिवारणार्थ इस गुफा में शयन कर रहे थे। देवताओं ने उनको वर दिया था कि तुम्हारी निद्रा भंग करने वाला भस्म हो जायगा। कालयवन से भयाक्रान्त होकर श्रीकृष्ण उसको मथुरा से यहाँ तक भगा लाये और अपना पीताम्बर राजा पर डालकर स्वयं गुफा में छिप गये। कालयवन ने कृष्ण के धोखे से सोते हुए मुचुकुन्द को लात मारी और राजा की दृष्टि पड़ते ही वह जलकर भस्म हो गया। पश्चात् श्री कृष्ण ने दिव्य दर्शन देकर राजा के बदरिकाश्रम में जाने की आज्ञा दी। मुचुकुन्द ने गुफा से बाहर आकर यज्ञ सम्पन्न किया और वे उत्तराखंड चले गये। इस पर्वतीय स्थली को गन्धमादन कहते हैं। मुचुकुन्द के यज्ञस्थान पर एक सरोवर है जिसमें चारों ओर पक्के घाट तथा अनेक देवमन्दिर हैं। ऋषिपञ्चमी और बलदेवछठ को यहाँ भारी मेला होता है। दिल्ली-बम्बई राष्ट्रीय मार्ग से केवल एक मील दूर होने के कारण पर्यटक यात्रियों के लिए यह दर्शनीय स्थल होता जा रहा है।

वाराहपुराण में मथुरामंडल का विस्तार बीस योजन कहा गया है और इसी के साथ मुचुकुन्दतीर्थ तथा पवित्र कुण्ड का माहात्म्य वर्ण किया गया है। इस तीर्थ से प्राय: 2-3 कोस दूर मथुरामण्डल के दक्षिण छोर पर यमुना की सहायक नदी चम्बल बहती है। इसकी पुण्यशालिता का स्मरण कालिदास ने भी अपने मेघ को कराया है क्योंकि यह नदी अतिथि सत्कार के लिए काटे गये कदलीवृक्षों में से निकलकर बहती थी।

मुञ्ज : एक प्रकार की लम्बी घास जो दस फुट तक बढ़ती है। ऋग्वेद में अन्य घासों के साथ इसका उल्लेख हुआ है। उसी ग्रन्थ में (1.161,8) मुञ्ज सोम को छानने के काम में आने वाली कही गयी है। अन्य संहिताओं तथा ब्राह्मणों में मुञ्ज का प्रायः उल्लेख हुआ है। जहाँ इसे खोखला (सुषिर) तथा आसन्दी में व्यवहृत कहा गया है। (शत० 12.8,3,6)। मुञ्च की ही मेखला बनती है जिसे ब्रह्मचारी और तपस्वी धारण करते हैं।

मूँज की मेखला (कर्धनी) पहनना दाह, तृष्णा, विसर्प, अस्र, मूत्र, बस्ति और नेत्र के रोगों में लाभकारी होता है।

दाह तृष्णाविसर्पास्रमूत्रबस्त्याक्षि रोगजित्। दोषत्रयहरं वृष्यं मैखलमुञ्जमुच्यते॥' (भावप्रकाश)

मुण्डकोपनिषद् : अन्य उपनिषदों की अपेक्षा अथर्ववेदीय उपनिषदों की संख्या अधिक है। ब्रह्मतत्त्वप्रकाश ही उनका उद्देश्य है। शङ्कराचार्य ने मुण्डक, माण्डूक्य, प्रश्न और नृसिंह तापिनी इन चारों उपनिषदों को प्रधान आथर्वण उपनिषद् माना है। ब्रह्म क्या है? उसे किस प्रकार समझा जाता है, किस प्रकार प्राप्त किया जाता है, इस उपनिषद् में इन्हीं विषयों का वर्णन है। शङ्कराचार्य, रामानुजाचार्य, आनन्दतीर्थ, दामोदराचार्य, नरहरि आदि के इस उपनिषद् पर भाष्य व टीकाएँ हैं।

मुण्डमालातन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत 64 तन्त्रों की सूची में मुण्डमालातन्त्र भी सम्मिलित है।

मुद्गल : ऋग्वेद के अनेक भाष्यकार हैं। मुद्गल का नाम भी उनमें सुना जाता है।

मुद्गल उपपुराण : उन्तीस उपपुराणों में से एक मुद्गल है। यह गाणपत्य सम्प्रदाय के उपपुराणों में परिगणित है।

मुद्गल पुराण : दे० ' मुद्गल उपपुराण'। दोनों एक ही हैं।

मुद्रा : (1) अंगुलियों, हाथ अथवा शरीर की गति अथवा भङ्गियों द्वारा भाव व्यक्त करने का यह एक माध्यम है। शाक्त लोग देवी को प्रतीक आधर (किसी पात्र) में उतारने के लिए पात्रा के ऊपर यन्त्र मण्डल के साथ पूजाविषयक मुद्राएँ (उँगलियों के संकेत आदि) अङ्कित करते हैं। गोरखनाथी सम्प्रदाय के साधु हठयोग की क्रिया में आश्चर्यजनक शारीरिक आसन, शरीरशोधन के लिए प्राणायाम तथा अनेकानेक श्वास एवं ध्यान आदि को यौगिक मुद्रा की संज्ञा से अभिहित करते हैं। अनेकानेक मुद्राएँ भारतीय कला, नृत्य आदि में व्यवहृत होती आयी हैं--यथा अभय मुद्रा, वरदमुद्रा, ध्यानमुद्रा, भूस्पर्शमुद्रा आदि।

(2) वामाचार में मञ्च मकारों- मद्य, माँस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन में इसकी गणना है।

मुनि : ऋग्वेद की एक ऋचा में मुनि का अर्थ संन्यासी है, जो देवेषित अलौकिक शक्ति रखता है। एक मंत्र में उसे लम्बे केशों वाला कहा गया है। ऋग्वेद (8.17,14) में इन्द्र को मुनियों का मित्र कहा गया है। अथर्ववेद (1.74) में देवमुनि का उद्धरण है। उपनिषदों में (बृ० उ० 3.4,1;4.4,25 तै० आ० 2.20) मुनि और निग्रही वर्णित हैं, जो अध्ययन, यज्ञ, तप, व्रत एवं श्रद्धा द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करते हैं।

मुनिमार्ग : मानभाऊ सम्प्रदाय का एक नाम 'मुनिमार्ग' भी है। मुनिमार्ग का आशय दत्तात्रेय द्वारा चलाये गये पन्थ से है। दे० 'दत्तात्रेय सम्प्रदाय'।

मुनि लक्षण : ब्रह्म के चिन्तन के लिए जो मौन धारण करता है, उसे मुनि कहते हैं। जिसे ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है वही श्रेष्ठ मुनि और वही ब्राह्मण है। मुनि प्रायः भाषण नहीं करता, मौन ही उसका व्याख्यान है।

मुमुक्ष : मोक्ष का इच्छुक, संसार के जन्म-मरण से छूटने का अभिलाषी। अमरता के सन्दर्भ में साधारण आत्मा के चार प्रकार हैं--(1) बद्ध वह है जो जीवन के सुख-दुखादि से बँधा हुआ है तथा मुक्ति मार्ग पर आरुढ़ नहीं है, (2) मुमुक्षु---जिसमें मोक्ष की इच्छा जाग्रत हो चुकी है किन्तु अभी इसके योग्य नहीं है। इसे 'जाग्रत बद्ध' कहा जा सकता है, (3) केवली या भक्त, जो शुद्ध हृदय से देवो-पासन में भक्ति पूर्वक तल्लीन है और (4) मुक्त जो सभी वासनाओं और बन्धनों से मुक्त है।

मुरारिमिश्र : कातीय गृह्य (ग्रन्थ) के अनेक भाष्यकारों में मुरारिमिश्र भी एक हैं।

मुरुह : मुरुह को सुब्रह्मण्य (स्वामी कार्तिकेय) भी कहते हैं। इस देवता की प्रशंसा में 'तिरुमुरुहत्तुप्पदै' नामक एक ग्रन्थ नक्कीर देव नामक तमिल शैव आचार्य ने लिखा है।

मूलगौरीव्रत : चैत्र शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस दिन तिलमिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। सुन्दर फलों से शिव तथा गौरी का चरणों से प्रारम्भ कर मस्तकपर्यन्त पूजन करना चाहिए। बारह मासों में भिन्न-भिन्न प्रकार के पुष्पों की भेंट चढ़ानी चाहिए। भिन्न प्रकार के तरल पदार्थ खाद्य पदार्थ अर्पण करने चाहिए। विभिन्न नामों से गौरी का अलग पूजन होना चाहिए। व्रती को कम से कम एक फल का त्याग करना चाहिए। व्रत के अन्त में उसे पर्यङ्क पर बिछाने के वस्त्र, स्वर्णनिर्मित वृष तथा गौ का दान करना चाहिए। भगवान शिव ने चैत्र शुक्ल तृतीया को गौरी से विवाह किया था। अग्निपुराण, 178.1-20।

मूलचारी : सामवेद की शाखा परम्परा में लोगाक्षि के चार शिष्यों में से एक मूलचारी भी हुए हैं।

मूल प्रकृति : सांख्योक्त सत्त्व, रजस् और तमस् तीनों गुणों के एकत्रित होने से मूल प्रकृति का निर्माण होता है, जो भौतिक वस्तुओं का सूक्ष्म (अदृश्य) उपादान है। शाक्त मतानुसार देवी मूल प्रकृति है तथा सारा विश्व (सृष्टि) शक्ति का विलास है।

मूलशङ्कर : (1) शिव के आदि अव्यक्त रूप को 'मूलशङ्कर' कहते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती के बचपन का नाम मूलशङ्कर था। विशेष वर्णन के लिए दे० 'दयानन्द' तथा 'आर्यसमाज'।

मूलस्तम्भ : सामान्य शैव साहित्य में इसकी गणना होती है। यह ग्रन्थ मराठी भाषा में मुकुन्दराज द्वारा लिखा गया था।

मूलाधार : शाक्त मत में ध्यान तथा योगाभ्यास के द्वारा शक्ति (देवी) को मूलाधार सुषुम्ना नाड़ी के छः पर्वों सबसे निचला पर्व या चक्र से ऊपर उठाते हुए चार चक्रों के मार्ग से आज्ञा (म्रूर्मध्य) तथा फिर सहस्रार चक्र तक ले जाते हैं। इस विद्या को 'श्रीविद्या' कहते हैं। इसकी शिक्षा केवल शुभ अथवा समय तन्त्रों से प्राप्त होती है। शाक्त मतानुसार शरीर में अनेक क्षुद्र प्रणालियाँ अथवा रहस्यमय शक्ति के सूत्र हैं। उन्हें नाड़ी कहते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण सुषुम्ना है। इससे सम्बन्धित छः केन्द्र अथवा चक्र हैं, जो मानुषिक देह में एक के ऊपर दूसरे रूप में स्थित हैं। इनको 'कमल' भी कहते हैं। सबसे नीचे का चक्र मूलाधार कमर के नीचे है। उसके चारों ओर शक्ति सर्प सदृश साढ़े तीन घेरों में सोयी हुई है। इस मुद्रा में उसे कुण्डलिनी कहते हैं। शाक्त योग द्वारा उसे जगाया तथा सबसे ऊपरी चक्र तक ले जाया जा सकता है। मध्य की प्रणालियाँ एवं केन्द्र आधार का कार्य करते हैं। ये ही चक्र तथा केन्द्र दीक्षित शाक्तों की आश्चर्यपूर्ण शक्तियों के आधार हैं।

मृग : (1) मृग से साधारणतः वन्य पशु का बोध होता है। कभी-कभी 'भीम' भयंकर विरुद से इसके गुणों का बोध कराया गया है, जहाँ इसका अर्थ जंगली जन्तु व्याघ्र, सिंह आदि है।

(2) ऐतरेय ब्राह्मण (3.33,5) में सायण भाष्यानुसार यह मृगशिरा नक्षत्र है।

(3) आगे चलकर मृग का अर्थ प्रायः हरिण हो गया। मृगचर्म अथवा हरिण की छाल ब्रह्मचारियों तथा तपस्वियों के आसन के काम आती है।

मृगयु : संहिताओं तथा ब्राह्मणों में मृगयु आखेटक (शिकारी) का बोधक है, किन्तु इसका प्रयोग कम ही हुआ है। वाजसनेयी संहिता और तैत्तिरीय ब्राह्मण में पुरुषमेध यज्ञ की बलि के लिए उन पुरुषों को लेते थे जो अपनी जीविका मछली पकड़कर तथा शिकार द्वारा करते थे। इनमें मागरि, कैवर्त, पौञ्जिष्ट, दाश एवं मैनाल आदि मछुए बैन्द एवं आनन्द के नाम से प्रसिद्ध हैं। पिछले दो भी किसी श्रेणी के मछुए ही थे। वैदिक काल के आरम्भ में भी आर्य पूरे शिकारी न थे। शिकार का कारण भोजन मनोरंजन तथा वन्य पशुओं से खेती की रक्षा करना था। शिकार में बाणों का प्रयोग होता था। प्रारम्भिक काल में जाल एवं गढ़ों का प्रयोग स्वाभाविक था। पक्षियों को जाल से ही पकड़ा जाता था। पाश, निधा, जाल आदि नाम आते हैं। पक्षी पकड़ने वाले को 'निधापति' कहते थे। गढ़ों द्वारा ऋष्य (एक प्रकार का हरिण) पकड़े जाते थे तथा उस शिकारी का नाम ऋष्‍पद था। सूअर को दौड़ा कर पकड़ते थे। शेर के लिए भी गड्ढा खोदते थे या शिकारियों द्वारा घेरकर पकड़ते थे। सायण ने कहा है कि धैवर वह है जो तालाब की मछली जाल द्वारा छानता है, दाश तथा शौष्कल बंसी=बाद्रिश द्वारा, मार्गार हाथ द्वारा, आनन्द बाँधकर, पर्णक पानी में जहरीला पत्ता डावकर मछली पकड़ते थे।

मृगशिरा व्रत : श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। शिव जी ने यज्ञ के तीन मुखों को अपने बाण से, जिसमें तीन काँटे या शूल लगे थे, इसी दिन बींध दिया था। वही मृग रूप माना गया। व्रती को मिट्टी का हरिण रूप वाला मृगशिरा नक्षत्र बनवाना चाहिए। तदनन्तर उसे स्कन्द मूल-फल तथा आटे में अलसी मिलाकर बनाया गया नैवेद्य मृगशिरा को अर्पण कर पूजन चाहिए।

मृगेन्द्र आगम : एक महत्त्वपूर्ण आगम। यह कामिकागम (प्रथम आगम) का प्रथम भाग, अथवा ज्ञान भाग है।

मृगेन्द्र संहिता : श्रीकाण्ठाचार्य ने मृगेन्द्र संहिता की वृत्ति एवं अघोर शिवाचार्य ने इसकी व्याख्या लिखी है।

मृत्यु : ऋग्वेद (7.79,12) तथा परवर्ती साहित्य में मृत्यु को भयसूचक कहा गया है। एक सौ एक प्रकार की मृत्यु कही गयी है, जिनमें वृद्धावस्थी का स्वाभाविक के सिवा मृत्यु के एक सौ प्रकार हैं। पूरे वैदिक साहित्य में जीवनकाल एक सौ वर्ष का वर्णित है। वृद्धावस्था के पहले मरण (पुरा जरसः) निश्चित जीवनकाल के पहले मरने (सुरा आयुषः) के समान था। दूसरी तरफ बृद्धावस्था में शक्ति क्षीण हो जाने की बुराई का भी अनुभव किया गया है (ऋग्वेद 1.71,10;179,1)। अश्विनी के चमत्कारों में से एक वृद्ध च्यवन को पुनः नवयुवक तथा शक्तिशाली बनाना था। अथर्ववेद में आयुष्य-प्राप्ति तथा मृत्यु से मुक्ति के अनेक मन्त्र हैं। शव को गाड़ने तथा जलाने दोनों प्रकार की प्रथा थी। किन्तु गाड़ना कम पसन्द किया जाता था। प्रायः शव की दाहक्रिया होती थी। मृत्यु के बाद पुनः इस जगत में आकर जीवनचक्र को दुहराना आर्यों को मान्य था। ऋग्वेद का कथन है कि बुरे कार्य करने वालों के लिए बुराइयाँ प्रतीक्षा करती हैं, किन्तु अथर्ववेद तथा ब्राह्मणों के समय से नरक के दण्ड की कल्पना चल पड़ी। ब्राह्मण ग्रन्थ ही (शत० ब्रा० 11.6,1; जै० ब्रा० 1.422-44) सबसे पहले अच्छे या बुरे कार्यों का परिणाम स्वर्ग या नरक के रूप में बताते हैं।

मेखला : (1) मूँज की बनी करधनी को मेखला कहते हैं। इसको ब्रह्मचारी उपनयन के समय और तपस्वी सदा साधारण करते हैं। यह ऋत अथवा नैतिकता की रक्षिका मानी गयी है।

श्रद्धायाः दुहिता तपसोऽधिजाता स्वसा ऋषीणां भूतकृता वभूव। अथर्व 6.133.4

ऋस्य गोप्ती तपश्चरित्री ध्नतीरक्षः सहमाताः अरातीः। सा मा समन्तमभिपर्येहि भद्रे धर्तास्ते सुभगे मा ऋषाम॥

[मेखला श्रद्धा की कन्या, तप से उत्पन्न, ऋषियों की बहिन तथा भूतों (जीवधारियों) की उत्पादिका है। वह ऋत (सुव्यवस्था) की रक्षा करने वाली, तप का आचरण करने वाली, राक्षसों का हनन करने वाली, शत्रुओं का दमन करने वाली है। वह मुझ धारण करने वाले की सम्यक् रक्षा करे और कभी अप्रसन्न न हो।]

प्राकृतिक वातावरण में रहने वाले बटुक और तपस्वियों को स्फूर्ति देने और रोगों से बचाने में मेखला अद्भुत समर्थ होती है। इसीलिए इसे मन्त्र में ऋषियों की बहिन (स्वसा देवी सुभगा मेखलेयम्) कहा गया है। दे० 'मुञ्ज'।

मेघपाली तृतीया : आश्विन शुक्ल तृतीया को स्त्री तथा पुरुष दोनों के लिए मेघपाली नामक लता के पूजन का विधान है। इस लता के पत्ते पान के पत्तों के समान होते हैं तथा यह प्रायः उद्यानों, पहाड़ि‍यों एवं ग्रामीण मार्गों में पायी जाती हैं। इसका पूजन भिन्न-भिन्न प्रकार के फूलों तथा अंकुर निकले हुए सप्त धान्यों से करना चाहिए। इस आचरण से समस्त पापों का नाश हो जाता है, विशेष रूप से व्यापारियों के उन पापों का जो कम तौलने या नापने से होते रहते हैं।

मेधाजनन : एक वैदिक संस्कार। इसका अर्थ है मेधा (= प्रज्ञा) उत्पन्न करना। यह जातकर्म (जन्म के समय किये गये धार्मिक कृत्य) और उपनयन के अवसर पर किया जाता था। सावित्री (गायत्री मन्त्र) के साथ मेधाजनन संस्कार होता था।

मेधातिथि : (1) ऋग्वेदीय वाष्कल उपनिषद् में एक उपाख्यान है कि इन्द्र मेष का रूप धरकर कण्व के पुत्र मेधातिथि को स्वर्ग ले गये। मेधातिथि ने मेषरूपी इन्द्र से पूछा `तुम कौन हो`? उन्होंने उत्तर दिया `मैं विश्वेश्वर हूँ; तुमको सत्य के समुज्ज्वल मार्ग पर ले जाने के लिए मैंने यह काम किया है; तुम कोई आशंका मत करो।` यह सुनकर मेधातिथि निश्चिन्त हो गये।

(2) मनुस्मृति के प्रसिद्ध भाष्यकार का नाम है।

मेध्‍य : मेधा (स्मृति शक्ति) के लिए हितकारी; पवित्र; शुद्ध करके ग्राह्य अर्थात् 'यज्ञ में आहुति करने योग्य'। शुद्ध अथवा पवित्र पदार्थ मेध्य समझा जाता है।

(1) ऋग्वेद (8.52,2) में एक यज्ञकर्ता का नाम मेध्य है। शाङ्खायन श्रौतसूत्र में भूल से इसको प्रस्कण्व काण्व का संरक्षक पृषध्रमेध्य मातरिश्वा समझा गया है।

मेना (मेनका) : (1) मेना या मेनका का उल्लेख ऋग्वेद (1.51,13) तथा ब्राह्मणों में वृष्णस्व की पुत्री या कदाचित् स्त्री के रूप में हुआ है। उनके साथ सम्बन्धित कथा का उल्लेख कहीं भी नहीं है।

(2) हिन्दू पुराकथा में मेना हिमालय की पत्नी और पार्वती की माता का नाम है।

मेयकण्डदेव : तमिल शैव अपने धार्मिक ज्ञानार्थ आगम ग्रन्थों पर निर्भर रहते थे, किन्तु तेरहवीं और चौदहवीं शतीं में वहाँ कुछ तीक्ष्ण बुद्धिवाले विचारक हुए, जो तमिल भाषा के कवि भी थे। उन्हीं में एक मेयकण्ड थे जो तमिल शैव धर्म के स्रोत समझे जाते हैं। तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इनका जन्म शूद्र कुल में मद्रास से उत्तर पेन्नार नदी के तटपर हुआ था। उन्होंने शैव आगम के 12 सूत्रों का संस्कृत से तमिल में अनुवाद किया। इस ग्रन्थ का नाम 'शिव ज्ञान बोध' था, जिसमें इन्होंने कुछ तमिल में टिप्पणियाँ तथा समानताओं का एक गद्यखण्ड अपने तर्कों की पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया। ये प्रसिद्ध अध्यापक थे तथा इनके अनेक शिष्य थे। इनके सबसे प्रसिद्ध शिष्य अरुलनन्दीदेव तथा मनवाचकम् कदण्डान थे। अरुलनन्दी के शिष्य मरैज्ञानसम्बन्ध (शूद्र) थे तथा उनके ब्राह्मण शिष्य उमापति थे। इस प्रकार मेयकण्ड, अरुलनन्दी, मरैज्ञानसम्बन्ध तथा उमापति मिलकर 'चार सनातन आचार्य' के नाम से विख्यात हैं।

मेरुतन्त्र : यह सुप्रसिद्ध तन्त्र शिव-पार्वती-संवाद रूप से 35 प्रकाशों में पूर्ण हुआ है। शिव द्वारा उपदिष्ट 108 तन्त्रों में इसका स्थान सबसे ऊँचा है (माला के सुमेरु के समान), इसलिए इसका नाम मेरुतन्त्र हो गया। यह भी कहा गया है कि जलन्धर के भय से मेरु पर्वत पर गये हुए देवता और ऋषियों के प्रति शिवजी ने इसका उपदेश किया था। यह दक्षिण और वाम दोनों मार्ग वालों को एक समान मान्य है।

मेरुतन्त्र ही संस्कृत गंथों में ऐसा ग्रन्थ है जहाँ भारत के रहने वालों के लिए 'हिन्दू' शब्द का व्यवहार हुआ है। यहाँ 'हीन' तथा 'दुष्' दो शब्दों से हिन्दू की व्युत्पत्ति बतायी गई है। 'हीन' का अर्थ 'अधम', 'नीच', 'गर्ह्य' और 'दुष' निन्दा और नष्ट करने के अर्थ में आता है। "जो कुछ निन्दा के योग्य है उसे नष्ट करने वाला, अथवा उसकी निन्दा करने वाला हिन्दू है।" यही तन्त्रकार का अभिप्राय है जो काफिर कहने वालों का जबाब है। मेरुतन्त्र में कुछ अत्यन्त आधुनिक शब्दों के व्यवहार से जान पड़ता है कि तन्त्रों का निर्माण काफी पीछे तक होता रहा है।

मेषसंक्रान्ति : यह हिन्दुओं के कालविभाजक मुख्य पर्वों में से एक है। इस पर्व पर गङ्गास्नान, जल कलश, पंखा एवं सत्तू आदि का दान और भक्षण किया जाता है। प्राचीन समय में इस पर्व का महत्त्व विषुव दिन (समानरात्रिदिन) के कारण था। धार्मिक विचार से सूर्य का मेष राशि में इसी दिन प्रवेश होता है। किन्तु पृथ्वी की अयन-गति में प्रति वर्ष अन्तर पड़ते जाने के कारण संप्रति रात्रि-दिन के समान होने वाली घटना इस संक्रान्ति से प्रायः 23 दिन पूर्व होने लगी है। इसीलिए सूर्य का उत्तर गोल गमन संबन्धी विभाजन भी इसी समय होने लगा है। इस प्रकार 23 दिन पूर्व होने वाली ऐसी सब संक्रान्तियों को "सायन संक्रान्ति" कहते हैं।

मैत्रायणीय : कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा है।

मैत्रायणीयगृह्यसूत्र : यजुर्वेद के गृह्यसूत्रों में मैत्रायणीय गृह्यसूत्र भी प्राप्त होता है।

मैत्रायणी ब्राह्मण : बौधायन शुल्वसूत्र में (32।8) उद्धृत एक वैदिक ग्रन्थ का नाम, जो मैत्रायणी शाखा के अन्तर्गत है।

मैत्रायणीय यजुर्वेद पद्धति : यजुर्वेद सम्बन्धी कर्मकाण्ड का इस नाम का एक ग्रन्थ प्राप्त हुआ है।

मैत्रायणी शाखा : यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा भी मिलती है। इसके मन्त्रसंकलन में पाँच काण्ड हैं। बहुत सम्भव है कि ये यजुर्वेद की भिन्न-भिन्न शखाओं के संहिता ग्रन्थों से संकलित किये गये हों।

मैत्रायणीसंहिता : यजुर्वेद के मैत्रायणीय शाखा की मैत्रायणी संहिता है। इसमें कुछ ब्राह्मण अंश भी प्रस्तुत किया गया है।

मैत्रायणीयोपनिषद् : कृष्ण यजुर्वेद की एक उपनिषद्। इसकी रचना सम्भवतः गीता के काल की अथवा उससे कुछ बाद की है। महाभारत के दो अध्यायों में मैत्रायणी की शिक्षा उद्धृत है। प्रश्नोपनिषद्, मैत्रायणी, माण्डूक्य ये तीनों उपनिषदें अपने ओम्निरूपण के सिद्धान्त के कारण एक-दूसरी के बहुत निकट हैं। धार्मिक विचारों की उन्नति या विकास की दृष्टि से अकेली मैत्रयणी ही गंभीर गुण सम्पन्न है। मैत्रायणी में सांख्य तथा योग के पर्याप्त दार्शनिक तत्त्व हैं। चूलिका, उपनिषद् जो पूर्णतया योगदर्शन पर अवलम्बित है, मैत्रायणी से गहरा सम्बन्ध रखती एवं उसकी समकालीन है। हिन्दू त्रिमूर्ति का सर्वप्रथम उल्लेख मैत्रायणी के दो परिच्छेदों में हुआ है। प्रथम में इन तीनों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को निराकर ब्रह्म का रूप माना गया है तथा दूसरे में इन्‍हें दार्शनिक रूप दिया गया है। वे अदृश्‍य प्रकृति के आधार हैं। इस प्रकार एक महत् तत्त्व तीन रूपों में प्रकट हुआ है--सत्त्व, रजस् एवं तमस्। विष्णु सत्त्व, ब्रह्म रजस् एवं शिव तमस् हैं।

मैत्रावरुण : श्रौतयज्ञों (सोमसाध्यों) का एक पुरोहित। ब्राह्मण काल में यज्ञों का रूप विस्तृत हो गया तथा तदनुकूल पुरोहितों की संख्या बढ़ गयी। नये नये पद बनाये गये और अलग-अलग यज्ञों के लिये अलग-अलग पुरोहित निश्चित हुए। मैत्रावरुण भी एक पुरोहित का नाम था जो सौमित्रि यज्ञों में सहायता का कार्य करता था। सोमयज्ञों में 16 पुरोहितों की आवश्यकता होती थी। इसमें से मैत्रावरुण भी एक होता था।

मैत्रावरुणि : ऋषि अगस्त्य का एक नाम। जैसा कथित है, मित्र तथा वरुण ने स्वर्गीय अप्सरा उर्वशी को देखकर अपना-अपना तेज एक पानी के घड़े में डाल दिया। इस घड़े से ही अगस्त्य की उत्पत्ति हुई। दो पिता, मित्र एवं वरुण के कारण इनका पितृबोधक नाम मैत्रावरुणि हो गया।

मैत्रेय : शिव के चार पाशुपत शिष्यों में से एक का नाम मैत्रेय है। उदयपुर से 14 मील दूर एकलिङ्गजी के प्राचीन मन्दिर में एक अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें यह सन्देश है कि शिव भड़ौच (गुजरात) प्रान्त में अवतरित होकर हाथ में एक लकुल धारण करेंगे। इस स्थान का नाम कायावरोहण है। चित्र प्रशस्ति के अनुसार शिव लाट देश के कारोहण (कायावरोहण : सम्प्रति कर्जण) नामक स्थान में पाशुपत मत के प्रचारक रूप से अवतरित हुए। वहाँ उनके चार शिष्य भी मनुष्य शरीर में प्रकट हुए थे : कुशिक, गार्ग्य, कोरुष्य एवं मैत्रेय। भूतपूर्व बड़ौदा राज्य में करवार वह स्थान है जहाँ आज भी लकुलीश का मन्दिर स्थित है।

मैत्रेयी : बृहदारण्यक उपनिषद् (2,4,1.4,5,2 के अनुसार याज्ञवल्क्स्य की दो पत्नियों में से एक का नाम मैत्रेयी था। संन्यास लेने के समय याज्ञवल्क्य ने अपनी सम्पत्ति को दोनों पत्नियों में बाँटने का आयोजन किया। इस अवसर पर मैत्रेयी ने बड़ा मौलिक प्रश्न पूछा `क्या इस सम्पत्ति को लेने पर मैं संसार के दुःखों से मुक्त होकर अमर पद प्राप्त कर सकूँगी?` नकारात्मक उत्तर मिलने पर उसने भी सम्पत्ति का त्याग कर निवृत्ति और श्रेय का मार्ग ग्रहण किया।

मैत्रेयी उपनिषद् : यह एक परवर्ती उपनिषद् है।

मैनाक : मेनका (मेना, पार्वती की माता) का वंशज, एक पर्वत, जो हिमालय का पुत्र कहा गया है। यह तैत्तिरीय आरण्यक (1.32,2) में उद्धृत है। इसे मैनाग भी पढ़ते हैं। पुराणों के अनुसार इन्द्र के वज्र के भय से मैनाक दक्षिण समुद्र में निमग्न होकर रहने लगा है।

मैहर : यह विन्ध्य प्रदेश का एक शक्ति पीठस्थान है। मैहर का शुद्धरूप 'मातृगृह' (देवी का गृह) है। सतना स्टेशन से 22 मील दक्षिण मैहर है। यहाँ एक पहाड़ी पर शारदा देवी का मन्दिर है। स्थानीय जनश्रुति है कि ये सुप्रसिद्ध वीर आल्हा की आराध्यदेवी हैं। यह सिद्ध पीठ माना जाता है। पर्वत पर ऊपर तक जाने के लिये 560 सीढ़ियाँ बनी हैं। प्राचीन विशाल मन्दिर को यवन आक्रमणकारियों ने तोड़ दिया था। उसके स्थान पर एक छोटा आधुनिक मन्दिर है। एक प्रस्तर फलक पर प्राचीन मन्दिर का स्थापना-अभिलेख सुरक्षित है। इसके अनुसार एक विद्वान् पण्डित ने अपने स्वर्गगत पुत्र की स्मृति में शारदा मन्दिर का निर्माण कराया था।

मोक्ष : किसी प्रकार के बन्धनों से मुक्ति या छुटकारा। जीवात्मा के लिये संसार बन्धन है। यह कर्म के फल स्वरूप अथवा आसक्ति से उत्पन्न होता है। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म बन्धन उत्पन्न करते हैं। अतः मोक्ष का साधन कर्म नहीं है। इसका उपाय है ज्ञान अथवा विद्या (अध्यात्म विद्या)। साधक को जब सत्य का ज्ञान हो जाता है कि उसके और विश्वात्मा के बीच अभेद है, विश्वात्मा अर्थात् परब्रह्मा ही एक मात्र सत्ता है; संसार कल्पित, मायिक और मिथ्या है; संसार में सुख-दुःख जन्म-मरण भी कल्पित और मिथ्या है, तब उसके ऊपर कर्म-फल और संसार का प्रभाव नहीं पड़ता और वह इनके बन्धनों से मुक्त हो जाता है। परन्तु यह निषेधात्मक स्थिति न होकर विशुद्ध और पूर्ण आनन्द की स्थिति है। भक्तिमार्ग सम्प्रदायों में भक्ति द्वारा प्रसन्न भगवान् के प्रसाद से मुक्ति अथवा मोक्ष की प्राप्ति स्वीकार की गयी है जिसमें नित्य भगवान् की अत्यन्त सन्निधि प्राप्त होती है।

मोक्षकारणतावाद : अनन्ताचार्यकृत एक ग्रन्थ का नाम।

मोक्षधर्म : (1) मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक साधन अथवा धार्मिक कृत्यों को मोक्षधर्म कहा जाता है।

(2) महाभारत के बारहवें पर्व (शान्तिपर्व) के अन्तर्गत मोक्षधर्म पर्वाध्याय है। इसके उत्तरार्द्ध में कृष्ण की शिक्षाएँ संकलित हैं। इसमें कुछ ऐसे स्थल हैं जो अत्युत्तम एवं मौलिक हैं। मोक्षधर्म के समान ही महाभारत के पाँचवें 'उद्योगपर्व', छठे (भीष्मपर्व) एवं चौदहवें 'अश्वमेधपर्व' के कुछ उपदेशपूर्ण अंश हैं, जो क्रमशः सनत्सुजातीय, भगवद्गीता और अनुगीता कहलाते हैं। मोक्षधर्म तथा ये तीनों अपने स्वतन्त्र रूप में पृथक् ग्रन्थ हैं।

मोक्षधर्म पर्वाध्याय : दे० 'मोक्षधर्म'।

मोक्षशास्त्र : इसके अन्तर्गत वेदों का ज्ञानकाण्ड और उपासनाकाण्ड आते हैं। समस्त दर्शन तथा सम्पूर्ण मोक्ष साहित्य, योगवासिष्ठ आदि इसी में गिने जाते हैं। विशेष विवरणार्थ दे० 'महाविद्याएँ'।

मौन : (1) मन की एकाग्रता के लिए एक धार्मिक अथवा यौगिक साधना, जिसमें वचन का संयम किया जाता है।

(2) मुनि के वंशज मौन। अनीचीन का पितृबोधक नाम, जिसका उद्धरण कौषीतकि ब्राहमण (23.5) में मिलता है।

मौन व्रत : (1) श्रावण मास की समाप्ति के बाद भाद्रपद प्रतिपदा से सोलह दिनों तक इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। व्रती दूर्वांकुरों को लेकर उनमें सोलह ग्रन्थियाँ लगाकर दाहिने हाथ में (महिलाएँ बायें हाथ में) रखे। सोलहवें दिन जल लाने, गेहूँ पीसने, नैवेद्य तैयार करने से लेकर भोजन ग्रहण करने तक मौन धारण करना चाहिए। शिवप्रतिमा को जल, दुग्ध, दधि, घृत, मधु, शर्करा से स्नान कराकर पूजन करना चाहिए। तदनन्तर पुष्पादि अर्पण करना चाहिए तथा यह प्रर्थना करनी चाहिए : 'शिवः प्रसीदतु म। इस आचरण से सन्तानोपलब्धि होती है तथा सारी कामनाएँ पूरी होती हैं।

(2) मौन व्रत का अभ्यास आठ, छः अथवा तीन मास तक या एक मास, आधा मास अथवा 12,6,3 दिन तक या एक ही दिन तक किया जाय। मौन की शपथ लेने से, कहा जाता है कि सर्व कामनाएँ तथा संकल्प पूरे होते हैं (मौनं सर्वार्थसाधनम्)। मौन व्रत धारण करने वाले को भोजन करते समय भी 'हुम्' जैसा शब्द तक नहीं करना चाहिए। उसे मनसा, वाचा, कर्मणा किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करनी चाहिए। व्रत की समाप्ति के उपरान्त चन्दन का शिवलिङ्ग बनवाकर गन्धाक्षतादि से पूजन करना चाहिए। तदनन्तर सुवर्ण का घण्टा तथा अन्यान्य धातुओं के बने हुए घण्टे-घण्टियों मन्दिर में सभी दिशाओं में लटका देने चाहिए। ब्राह्मणों तथा शिवभक्तों को इस अवसर पर स्वादिष्ठ भोजन कराना चाहिए। व्रती को किसी ताम्रपात्र में शिवलिङ्ग रखकर उसे सिर पर धारण कर सड़कों पर होते हुए शिवमन्दिर तक जाकर मन्दिर की प्रतिमा के दक्षिण पार्श्व में लिङ्ग स्थापित करके उसकी पुनः पूजा करनी चाहिए। इससे व्रती शिवलोक प्राप्त कर लेता है।

मौसलपर्व : यह महाभारत का 16वाँ पर्व है। इसमें यदुवंश का नाश, अर्जुन द्वारा यादवशून्य द्वारका को देखकर दुखी होना, अपने मामा वसुदेव का सत्कारपूर्वक सुरापान, सभा में यदुवंशी वीरों का आत्यन्तिक विनाश देखना, राम और कृष्णादि प्रधान-प्रधान यदुवंशीयों का शरीर-संस्कार करके द्वारका से बाल, वृद्ध, वनिताओं को लाते समय राह में घोर विपत्ति में पड़ जाना, गाण्डीव का पराभव तथा सब दिव्यास्त्रों की विफलता, यादव कुलाङ्गनाओं का अपहरण, पराक्रम की अनित्यता देख अत्यन्त दुःखी हो युधिष्ठिर के पास लौटना एवं व्यास के वाक्यानुसार संन्यास लेने की अभिलाषा करना मौसलपर्व के विषय हैं। इसमें 8 अध्याय एवं 320 श्लोक हैं। इस पर्व में निर्वेद और संन्यास के उत्तम उपदेश हैं। दे० 'महाभारत'।