विक्षनरी:हिन्दू धर्मकोश (य से श)

विक्षनरी से

 : अन्तःस्थ वर्णों का प्रथम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका स्वरूप इस प्रका बतलाया गया है :

यकारं श्रृणु चार्वाङ्गि चतुष्कोणमयं सदा। पलालधूमसंकाशं स्वयं परमकुण्डली॥ पञ्चप्राणमर्य वर्णं पञ्चदेवमयं सदा। त्रिशक्तिसहिंत् वर्णं त्रिबिन्दुसहितं तथा॥ प्रणमामि सदां वर्णं मूर्तिमन्मोक्षमव्यमम्॥

तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं :

यो वाणी वसुधा वायुर्विकृतिः पुरुषोत्तमः। युगान्तः श्वसनः शीघ्रों घूमार्चिः प्राणिसेवकः॥ शङ्काभ्रमो जटी लीला वायुवेगी यशस्करी।, सङ्कर्षणः क्षमा बाणो हृदयं कपिला प्रभा॥ आग्नेय आपकस्त्यागो होमो यानं प्रभा मखम्। चण्डः सर्वेश्वरी धूमश्चामुण्डा सुमुखेश्वरी॥ त्वगात्मा मलयो माता हंसिनी भृङ्गिनायकः। तेनमः शोधको मीनो धनिष्ठानङ्गवेदिनी॥ मेष्टः सोमः पक्तिनामा पापहा प्राणसंज्ञकः॥

यक्ष : एक अर्ध देवयोनि। यक्ष (नपुंसकलिङ्ग) का उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। उसका अर्थ है 'जादू की शक्ति'। अतएव सम्भवतः यक्ष का अर्थ जादू की शक्तिवाला होगा और निस्सन्देह इसका अर्थ यक्षिणी है। यक्षों की प्रारम्भिक धारणा ठीक वही थी जो पीछे विद्याधरों की हुई। यक्षों को राक्षसों के निकट माना जाता है, यद्यपि वे मनुष्यों के विरोधी नहीं होते, जैसे राक्षस होते हैं। (अनुदार यक्ष एवं उदार राक्षस के उदाहरण भी पाये जाते हैं, किन्तु यह उनका साधारण धर्म नहीं है।) यक्ष तथा राक्षस दोनों ही 'पुण्यजन' (अथर्ववेद में कुबेर की प्रजा का नाम) कहलाते हैं। माना गया है कि प्रारम्भ में दो प्रकार के राक्षस होते थे; एक जो रक्षा करते थे वे यक्ष कहलाये तथा दूसरे यज्ञों में बाधा उपस्थित करने वाले राक्षस कहलाये। यक्षों के राजा कुबेर उत्तर के दिक्पाल तथा स्वर्ग के कोषाध्यक्ष कहलाते हैं।

यक्षकदर्म : एक प्रकार का अङ्गराग, जो यक्षों को अत्यन्त प्रिय था। इसका निर्माण पाँच सुगन्धित द्रव्यों के सम्मिश्रण से होता है। धार्मिक उत्सवों और देवकार्यों में इसका विशेष उपयोग होता है। इसके घटक द्रव्य केसर, कस्तूरी, कपूर, कक्कोल और अगरु चन्दन के साथ घिसकर मिलाये जाते हैं :

कुंकुमागुरु कस्तूरी कर्पूरं चन्दनं तथा। महासुगन्धमित्युक्तं नामतो यक्षकर्दमः॥

यच : एक कल्पित भूतयोनि। संभवतः 'यक्ष' का ही यह एक प्राकृत रूप है। दरद प्राचीन आर्य जाति है जो गिलगित के इर्द-गिर्द कश्मीर एवं हिन्दूकुश के मध्य निवास करती है। यह दानवों में विश्वास करती है तथा उन्हें यच' कहती है। यच बड़े आकार के होते हैं, प्रत्येक के एक ही आँख ललाट के मध्य होती है। जब वे मानववेश धारण करते हैं तो उन्हें उनके उलटे पैरों से पहचाना जा सकता है। वे केवल रात को ही चलते हैं तथा पहाड़ों पर राज्य करते हुए मनुष्यों की खेती को हानि पहुँचाते हैं। वे प्रायः मनुष्यों को अपनी दरारों में खींच ले जाते हैं। किन्तु लोगों के इस्लाम धर्म ग्रहण करने से उन्होंने उन पर से अपना स्वामित्व भाव त्याग दिया है तथा अब कभी-कभी ही मनुष्यों को परेशान करते हैं। वे सभी क्रूर नहीं होते। विवाह के अवसर पर वे मनुष्यों से धन उधार लेते हैं तथा उसे धीरे-धीरे ऋण देनेवाले की अज्ञात अवस्था में ही पूरा चुका देते हैं। ऐसे अवसर पर वे मनुष्यों पर दयाभाव रखते हैं। इनकी परछाई यदि मनुष्य पर पड़े तो वह पागल हो जाता है।

यजमान : यज्ञ करनेवाला। कोई भी व्यक्ति, जो स्वयं यज्ञ करता है, यज्ञ का व्ययभार वहन करता है अथवा ऋत्विक् या पुरोहित की दक्षिणा चुकाता है, यजमान कहलाता है। सामान्य अर्थ में प्रश्रयदाता, आतिथेय, कुलपति अथवा किसी भी सम्पन्न व्यक्ति को यजमान कहते हैं।

यजुर्ज्योतिष : संस्कारों एवं यज्ञों की क्रियाएँ निश्चित मुहूर्तों पर निश्चित समयों और निश्चित अवधियों के अन्दर होनी चाहिए। महूर्त समय एवं अवधि का निर्णय करने के लिए एक मात्र ज्योतिष शास्त्र का अवलम्भ है। ज्योतिर्वेदांग पर अति प्राचीन तीन पुस्तकें मिलती हैं-- ऋग्ज्योतिष, यजुर्ज्योतिष और अथर्वज्योतिष। 'यजुर्ज्योतिष' इनमें पश्चात्कालिक रचना कही जाती है।

यजुर्वेद : यह द्वितीय वेद है। इसकी रचना ऋग्वेदीय ऋचाओं को मिश्रण से हुई है, किन्तु इसमें मुख्यतः नये गद्य भाग भी हैं। इसके अनेक मन्त्रों में ऋग्वेद से अन्तर पाया जाता है, जो परम्परागत ग्रन्थ के प्रारम्भिक अन्तर अथवा यजुः के यजनप्रयोगों के कारण हो गया है। यह पद्धतिग्रन्थ है जो पौरोहित्य प्रणाली में यज्ञक्रिया को सम्पन्न करने के लिए संगृहीत हुआ था। पद्धतिग्रन्थ होने के कारण यह अध्ययन का सुप्रचलित विषय वन गया। इसकी अनेक शाखाओं में से आजकल दो संहिताएँ मिलती हैं; प्रथम तैत्तिरीय तथा द्वितीय वाजसनेयी। इन्हें कृष्ण एवं शुक्ल यजुर्वेदीय संहिता भी कहते हैं। तैत्तिरीय संहिता अधिक प्राचीन है। दोनों में सामग्री प्रायः एक है, किन्तु क्रम में अन्तर है। शुक्ल यजुर्वेदसंहिता अधिक क्रमबद्ध है तथा इसमें ऐसे अंश हैं जो कृष्ण यजुर्वेद में नहीं हैं।

तैत्तिरीय संहिता अथवा कृष्ण यजुर्वेद 7 काण्डों, 44 प्रश्नों या अध्यायों, 651 अनुवाकों अथवा प्रकरणों तथा 2198 कण्डिकाओं (मन्त्रों) में विभक्त है। एक कण्डिका में नियमतः 55 शब्द होते हैं। वाजसनेयी संहिता 40 अध्यायों, 303 अनुवाकों एवं 1975 कण्डिकाओं में विभक्त हैं।

इस वेद का विभाजन दो संहिताओं में क्योंकर हुआ, इसका ठीक उत्तर ज्ञात नहीं है। परवर्ती काल में इस नाम की व्याख्या करने के लिए एक कथा का आविष्कार हुआ, जो विष्णु तथा वायु पुराणों में इस प्रकार कही गयी है:

वेदव्यास के, शिष्य वैशम्पायन ने अपने 27 शिष्यों को यजुर्वेद पढ़ाया। शिष्यों में सबसे मेधावी याज्ञवल्क्य थे। इधर वैशम्पायन के साथ एक दुःखपूर्ण घटना घटी कि उनकी भगिनी की सन्तान उनकी घातक चोट से मर गयी। पश्चात् उन्होंने अपने शिष्यों को इसके प्रायश्चित के लिए यज्ञ करने को बुलाया। याज्ञवल्क्य ने उन अकुशल ब्राह्मणों का साथ देने से इनकार कर दिया तथा परस्पर झगड़ा आरम्भ हो गया। गुरु ने याज्ञवल्क्य को जो विद्या सिखायी थी, उसे लौटाने को कहा। शिष्य ने उतनी ही शीघ्रता से यजुः ग्रन्थ को वमन कर दिया जिसे उसने पढ़ा था। विद्या के कण भूमि पर कृष्ण वर्ण के रक्त से सने हुए गिर पड़े। दूसरे शिष्यों ने तित्तिर बनकर उस उगले हुए ग्रन्थ को चुग लिया। इस प्रकार वेद का वह भाग जो इस प्रकार ग्रहण किया गया, नाम से तैत्तिरीय तथा रंग से कृष्ण हो गया। याज्ञवल्क्य खिन्न होकर लौट गये और सूर्य की घोर तपस्या आरम्भ की और उनसे वह यजुः ग्रन्थ प्राप्त किया जो उनके गुरु को भी अज्ञात था। सूर्य ने वाजी (अश्व) का वेश धारण कर याज्ञवल्क्य को उक्त ग्रन्थ दिया था। अतएव वेद के इस भाग के पुरोहित 'वाजिन्' कहलाते हैं, जबकि संहिता वाजसनेयी तथा शुक्ल (श्वेत) कहलाती है, क्योंकि यह सूर्य ने दी थी। याज्ञवल्क्य ने यह वेद सूर्य से प्राप्त किया, इसका उल्लेख कात्यायन ने भी किया है।

इस समस्या का अन्य अधिक बोधगम्य उत्तर यह है कि वाजसनेय याज्ञवल्क्य का पितृ(गुरु) बोधक नाम है, क्योंकि वे 'वाजसन' ऋषि के वंशज थे तथा तैत्तिरीय तित्तिर से बना है, जो यास्क के एक शिष्य का नाम है। वेबर इस वेद के सबसे बड़े आधुनिक विद्वान् माने जाते हैं। उनका मत है कि कितनी भी यह कथा अतर्कपूर्ण हो किन्तु इसके भीतर एक सत्य छिपा हुआ है; कृष्ण यजुर्वेद विभिन्न गद्य-पद्य शैलियों का अपरिपक्व एवं क्रमहीन ग्रन्थ है। गोल्डस्टूकर का मत है कि इसका ऐसा अनगढ़ रूप इस कारण है कि इसमें मन्त्र एवं ब्राह्मण भाग स्पष्टता से अलग नहीं है, जैसा कि अन्य वेदों में है। ब्राह्मणों से सम्बन्धित स्तुतियाँ तथा सामग्री यहाँ मन्त्रों से मिल-जुल गयी है। यह दोष शुक्ल यजुर्वेद में दूर हो गया है।

यजुष् (स्) : पद्यात्मक ऋचाओं से भिन्न गद्यात्मक वेदमन्त्र। इसका शाब्दिक अर्थ है यज्ञ, पूजा, श्रद्धा, आदर आदि। वेद का वह भाग, जिसका सम्बन्ध यज्ञ, पूजा आदि से है यजुष् (स्) कहलाता है। यजुर्वेद का यह नाम इसलिए है कि इसके मन्त्र यज्ञक्रियाओं के अवसर पर उच्चरित होते हैं।

यज्ञ : यजन, पूजन, संमिलित विचार, वस्तुओं का वितरण। बदले के कार्य, आहुति, बलि, चढ़ावा, अर्प आदि के अर्थ में भी यह शब्द व्यवहृत होता है। यजुर्वेद, ब्राह्मण ग्रन्थों और श्रौतसूत्रों में यज्ञविधि का बहुत विस्तार हुआ है। यज्ञ वैदिक विधानों में प्रधान धार्मिक कार्य है। यह इस संसार तथा स्वर्ग दोनों में दृश्य तथा अदृश्य पर, चेतन तथा अचेतन वस्तुओं पर अधिकार पाने का साधन है। जो इसका ठीक प्रयोग जानते हैं तथा विधिवत् इसका सम्पादन करते हैं, वास्तव में वे इस संसार के स्वामी हैं। यज्ञ को एक प्रकार का ऐसा यन्त्र समझना चाहिए जिसके सभी पुर्जे ठीक-ठीक स्थान पर बैठे हों; या यह ऐसी जंजीर है जिसकी एक भी कड़ी कम न हो; या यह ऐसी सीढ़ी है जिससे स्वर्गरोहण किया जा सकता है; या वह एक व्यक्तित्व है जिसमें सारे मानवीय गुण हैं।

यज्ञ सृष्टि के आदि से चला आ रहा है। सृष्टि की उत्पत्ति यज्ञ का फल कही जाती है जिसे ब्रह्मा ने किया था। होमात्मक यज्ञ का विस्तार आहवनीय अग्नि से होता है, जिसमें यज्ञ की सभी सामग्री छोड़कर स्वर्ग भेजी जाती है--मानों यज्ञ एक निसेनी का निर्माण करता है, जिसके द्वारा यज्ञ करने वाला देवों तक यज्ञ की सामग्री पहूँचा सकता है तथा स्वयं भी उनके निवासों तक पहुँच सकता है।

यज्ञमूर्ति : एक अद्वैतवादी प्रौढ़ विद्वान्, जो रामानुज के समकालीन हुए हैं। कहा जाता है कि रामानुज स्वामी की बढ़ती हुई ख्याति को सुनकर यज्ञमूर्ति श्रीरङ्गम में आये। उनके साथ रामानुज का 16 दिनों तक शास्त्रार्थ होता रहा, परन्तु कोई एक दूसरे को हराता हुआ नहीं दीख पड़ा। अन्त में रामानुज ने 'मायावादखण्डन' का अध्ययन किया और उसकी सहायता से यज्ञमूर्ति को परास्त किया। यज्ञमूर्ति ने वैष्णव मत स्वीकार कर लिया। तबसे उनका देवराज नाम पड़ा। उनके रचित 'ज्ञानसार' तथा 'प्रमेयसागर' नामक दो ग्रन्थ तमिल भाषा में मिलते हैं।

यज्ञसप्तमी : यदि ग्रहण के पश्चात् आने वाली माघ की सप्तमी हो तथा विशेष रूप से उस दिन संक्रान्ति हो तो व्रती को केवल एक बार हविष्यान्न खाकर रहना चाहिए। उसे उस दिन वरुण को प्रणाम करना चाहिए तथा भूमि पर, दर्भासन पर, बैठना चाहिए। द्वितीय दिवस प्रातः एवं सायं वरुण का यज्ञ करना चाहिए। इस व्रत का बड़ा ही विशाल कर्मकाण्ड शास्त्रों में वर्णित है। माघ की सप्तमी को वरुणदेव को, फाल्गुन की सप्तमी को सूर्य को, चैत्र की सप्तमी को अंशुमाली (सूर्य का पर्यायवाची शब्द) को तथा अन्य मासों में भी इसी प्रकार सूर्य वाचक नामों को सम्बोधित करते हुए यज्ञों का पौष मास तक आयोजन करना चाहिए। वर्ष के अन्त में सोने का रथ जिसमें सात घोड़े जुते हों तथा जिसके मध्य में सूर्य की प्रतिमा विराजमान हो तथा जो बारह मास के सूर्य के बारह नामों का प्रतिनिधित्व करने वाले बारह ब्राह्मणों से घिरा हो, बनवाकर उनका पूजन और सम्मान करना चाहिए। तदनन्तर वह रथ एक गौ सहित आचार्य को प्रदान करना चाहिए। निर्धन व्यक्ति ताँबे का रथ बनवाये। इस व्रत से व्रती विशाल साम्राज्य का राजा होता है। हेमाद्रि के अनुसार वरुण का अर्थ यहाँ सूर्य है।

यज्ञोपवीत : (1) यज्ञोपवीत का अर्थ 'यज्ञ' के अवसर पर ऊपर से लपेटा (धारण किया) हुआ वस्त्र'। इसका सर्वप्रथम उल्लेख तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.10.912) में हुआ है। यहाँ स्पष्ट ही इसका अर्थ है वासः (वस्त्र) अथवा अजिन (मृगचर्म)। धागा अथवा सूत्र अर्थ नहीं है। इसे यज्ञोपवीत इसलिए कहते थे कि यह यज्ञ करने की योग्यता अथवा अधिकार प्रदान करता था।

(2) आगे चलकर इसका अर्थ 'पवित्र सूत्र' हो गया, जो 'यज्ञोपवीत' के प्रतीक अथवा प्रतिनिधि रूप में धारण किया जाने लगा। उपनयन संस्कार में ब्रह्मचारी को यह पवित्र सूत्र प्रथम बार धारण करने को दिया जता है। इस पवित्र सूत्र अथवा यज्ञोपवीत का इतना महत्त्व बढ़ा कि पूरा उपनयन संस्कार ही यज्ञोपवीत कहलाने लगा।

यज्ञोपवीत त्रिवृत (तीन लड़ों का) होता है। ब्राह्मण बालक के लिए कपास का, क्षत्रिय के लिए क्षौम (अलसी सूत्र का) और वैश्य के लिए ऊन का यज्ञोपवीत होना चाहिए। परन्तु सामान्यतः कपास का यज्ञोपवीत सभी के लिए चलता है। यह बायीं भुजा के ऊपर से दाहिनी भुजा के नीचे लटकता है। प्रथम बार आचार्य निम्नांकित मन्त्र के साथ ब्रह्मचारी (उपनेय) की यज्ञोपवीत पहनाता है :

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥

पर्वों के अवसर पर अथवा धार्मिक कार्य के समय भी नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। तब इसी मन्त्र का प्रयोग होता है।

यति : एक प्राचीन कुल का नाम, जिसका सम्बन्ध भृगुओं से ऋग्वेद के दो परिच्छेदों में बतलाया गया है (8.3.9;6.18)। यहाँ यति लोग वास्तविक व्यक्ति जान पड़ते हैं। दूसरी ऋचा में (10.72.7) वे पौराणिक दीख पड़ते हैं। यजुर्वेद संहिता (तै० सं० 2.4,9,2;6.2.7.5; का० सं० 8.5;10.10 आदि) तथा अन्य स्थानों में यति एक जाति है, जिसे इन्द्र ने किसी बुरे क्षण में सालावृक (लकड़बग्घों) को खिला दिया था। ठीक-ठीक इसका क्या अर्थ है, ज्ञात नहीं। यति का उल्लेख भृगु के साथ सामवेद में भी मिलता है।

यतिधर्मसमुच्चय : वैष्णव संन्यासी दसनामी शैव संन्यासिओं से भिन्न होते हैं। वैष्णवों में ब्राह्मण ही लिए जाते हैं जो त्रिदण्ड धारण करते हैं, जबकि दसनामी एक दण्डी होते हैं। दोनों सम्प्रदायों को त्रिदण्डी एवं एक दण्डी के अन्तर से पहचानते हैं। रामानुज के शिष्य यादव प्रकाश ने त्रिदण्डियों के कर्त्तव्य पर एक ग्रन्थ रचा है जिसका नाम यतिधर्मसमुच्चय है।

यतीन्‍द्रमतदीपिका : श्रीवैष्णव मत का सिद्धान्तबोधक एक उपयोगी संक्षिप्तसार ग्रन्थ। इसमें अनेकों ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ है जो आगमसंहिताओं में नहीं प्राप्त होते। इसके रचयिता श्रीनिवास तथा रचनाकाल 1657 ई० के लगभग है।

यदु : (1) यदु के वंश का भागवतधर्म से घनिष्ठ सम्बन्ध है। भागवत सम्प्रदाय का एक नाम सात्वत सम्प्रदाय भी है। सात्वत नाम पड़ने का कारण है इसका यदुवंश से सम्बन्धित होना। सर्वप्रथम इस धर्म का प्रचार यदुओं में ही हुआ। कूर्मपुराण में कथा है कि यदुवंश के एक प्राचीन राजा सत्वत् ने, जो अंशु का पुत्र था, इस सम्प्रदाय की विशेष उन्नति की। इसके पुत्र सात्वत ने नारद से भागवत धर्म का उपदेश ग्रहण किया। इसी यदुवंशी भागवतधर्मप्रचारक के नाम पर इस सम्प्रदाय का नाम सात्वत पड़ा।

(2) समाज की आवश्यकतानुसार अधिकांश ब्राह्मण और क्षत्रिय अपने-अपने कार्य छोड़कर वैश्यों के गार्हस्थ्य धर्म का पालन करने लगे थे। इस प्रकार के कर्मसाङ्कर्य के उदाहरण यदु थे। ये क्षत्रिय ययाति के पुत्र थे, किन्तु राज्याधिकार न मिलने से पशुपालन आदि करने लगे। नन्द आदि यादव ऐसे ही गोपाल थे।

(3) राजा ययाति ने छोटे पुत्र पुरु को राज्याधिकारी बनाते हुए अपनी आज्ञा न मानने के कारण यदु आदि चार पुत्रों को राज्यभ्रष्ट होने का शाप दिया था। विश्वास किया जाता है, यदु आदि राजकुमार निर्वासित होकर आधुनिक दजला-फरात घाटी के देश पश्चिमेशिया चले गये। आर्यावर्त से बाहर उस देश में इन्होंने अपना-अपना राज्यतन्त्र स्थापित किया। वर्तमान जार्डन नदी और जूडाई साम्राज्य यदुवंशी राज्यतन्त्र का ही पश्चाद्वर्ती अवशिष्ट स्मारक प्रतीत होता है। प्रभासपट्टन और द्वारका बन्दरगाहों के मार्ग से यादवों का आवागमन वर्तमान आर्यावर्त में होता रहता था। उस देश में की जा रही पुरातात्त्विक खोजों से इस तथ्य पर और अधिक प्रकाश पड़ने की सम्भावना है।

यन्त्र : (1) नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषद् के द्वितीय खण्ड में एक यन्त्र बनाने का निर्देश है, जो नृसिंह के मन्त्रराज तथा तीन और वैष्णव मन्त्रों से बनता है। इस यन्त्र को गले, भुजा या शिखा मे पहनते हैं, जिससे शक्ति मिलती है।

(2) शाक्तों के द्वारा विभिन्न देवताओं के रहस्यात्मक यन्त्रों की रचना, पूजाविधि और प्रयोग करना पर्याप्त प्रचलित हैं। ये यन्त्र एवं मण्डल किसी धातुपत्र, भोजपत्र या मृत्तिकावेदी पर बनते हैं। साथ ही उन पर अनेकानेक मुद्राएँ अथवा अक्षरन्यास निर्मित किये जाते हैं, फिर उनमें देवता का आवाहन एवं पूजन मुख्य मन्त्र के द्वारा होता है।

यम : यम के पूर्वजों एवं सम्बन्धियों का ज्ञान अनिश्चित है। एक वर्णन के अनुसार (ऋ० 10.17.1-2) यम एवं उनकी बहिन यमी विवस्वान् एवं सरण्यु की सन्तान हैं। विवस्वान् स्पष्‍टतः प्रकाश का देवता है, चाहे उसे उदीयमान सूर्य मानें, प्रभापूर्ण आकाश मानें या केवल सूर्य मानें; अन्तर सामान्य पड़ता है। सरण्यु को सूर्या अथवा उषा मान सकते हैं। विवस्वान् एवं सरण्यु कम-से-कम दो युगलों के माता-पिता अवश्य हैं। वे हैं यम-यमी तथा दो अश्विनौ।

यम तथा यमी को चन्द्रमा एवं उषा के रूप में माना गया है, क्योंकि दोनों ही दिन व रात के गुणों में सम्मिलित हैं एवं दोनों की प्रेमकथा एक विवाह में समाप्त होती है (ऋ० 10.85.8-9)। इस आकाशीय, मानवीकृत प्रेमव्यापार को हम उषःकालीन, पीले व हलके पड़ने वाले चन्द्रमा में, दो अन्त में उषा में विलीन हो जाता है, देख सकते हैं।

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार यम तथा यमी जलगन्धर्व एवं जल-अप्सरा की सन्तान हैं।

भारत-ईरानी काल से ही माना यम विवस्वान् का पुत्र जाता है, क्योंकि यह यिम, वीवन्ह्वन्त (पारसी देव) के पुत्र के तुल्य हैं। यम तथा यमी 'यिम' एवं 'यिमेह' से मिलते-जुलते हैं। यमी एक ऋग्वेदीय मन्त्र (10.10) से सम्बन्धित है तथा 'यिमेह' लघु अवेस्ता (पारसी धर्मग्रन्थ) के एक कथन 'बुन्दहिस' से। यम वैवस्वत (ऋ० 10.-14,1) का एक अन्य रूप मनु वैवस्वत (4.1) के रूप में प्राप्त होता है। निस्सन्देह दोनों का जन्म दो पौराणिक कथाओं से होता है। वे हमें मनुष्य के जीवन के आदि व भविष्य का परिचय देते हैं।

ऋग्वेदीय धारणानुसार मनुष्यजाति के शीर्षस्थान पर आदि पुरुष मनु। जो प्रथम यज्ञ करने वाले थे (ऋ० 10.63.7) हैं, या यम हैं जो पृथ्वी से स्वर्ग तक के पथ का अनुसन्धान कर चुके थे (ऋ० 10.14.1-2)। यम एवं यमी को मानवजाति का माता-पिता मान सकते हैं। भाई-बहिन का ऋग्वेदीय कथनोपकथन (10.10) इस प्रकार के सम्बन्ध की नैतिकता पर प्रकाश डालता है। यमी इस बात पर जोर देती है कि यम ही एक मात्र पुरुष है और विश्व को बसाने के प्रयोजनार्थ मानवसन्तानों की आवश्यकता है। दूसरी ओर यम भाई-बहिन के संयोग पर नैतिक आपत्ति उपस्थित करता है। जान पड़ता है कि यम एवं यमी प्रारम्भिक अवस्था में प्राकृतिक उपादनों के मानवीकरण के रूप थे, यथा चन्द्र तथा उषा एवं आकाश तथा पृथ्वी।

यम के दो सन्देशवाहक कुत्ते हैं जो 'सरमा' के पुत्र होने के कारण सारमेय कहलाते हैं। उनका वर्णन (ऋ० 10.14.10-12) चार आँखों, चौड़ी नाक, भूरे रंग वाले रूप में किया गया है। ये पृथ्वी से स्वर्ग के पथ की रक्षा करते हैं, मृत्यु के पात्रों को चुनते हैं तथा स्वर्गीय यात्रा में उनके देख-भाल करते हैं।

पौराणिक यम मृत्यु के देवता हैं, जिनका महिष (भैंसा) वाहन है। उनके दो रूप हैं : यमराज और धर्मराज। यमराज रूप से वे दुष्ट मनुष्यों को दण्ड देकर नरकादि में भेजते हैं, धर्मराज के रूप में धर्मात्मा मनुष्य को स्वर्गादि में भेजकर पुरस्कृत करते हैं।

यमचतुर्थी : शनि के दिन चतुर्थी हो और भरणी नक्षत्र हो तो यम का पूजन होना चाहिए। यम भरणी नक्षत्र का स्वामी है। इस व्रत से सात जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।

यमदीपदान : कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को सायंकाल गृह के बाहर दीपों की पंक्ति प्रज्वलित की जानी चाहिए। इससे दुर्घटना जन्य (अकाल) मृत्यु रुक जाती है।

यमद्वितीया : भविष्योत्तर पुराण के अनुसार कार्तिक शुक्ल द्वितीय को यमराज के प्रीत्यर्थ यह व्रत किया जाता है। बहिनें इसको अपने भाइयों की मृत्यु के देवता से रक्षा प्राप्ति के लिए करती हैं। इस त्यौहार के दिन बहिनों के घर जाकर भोजन करने, उनसे टीका लगवाने एवं उन्हें उपहार देने का प्रचार लगभग सम्पूर्ण भारत में है। इसे 'भैयादूज' या 'भ्रातृद्वितीया' भी कहते हैं।

यमद्वितीया के दिन यम की बहिन और सूर्यपुत्री यमुना में स्नान करने का विधान है। इससे यमराज प्रसन्न होते हैं। इस पर्व पर मथुरा में यमुनास्नान करने का भारी मेला होता है।

यमल : यमल का अर्थ है जोड़ा। युग्म देवता तथा उनकी शक्ति की एकता (यौन संयोग) इससे सूचित होती है। यमल शब्द से ही 'यामल' बना है, जो शिव-पार्वती जैसे युग्म देवताओं के संवाद रूप में विरचित ग्रन्थ है।

यमादर्शनत्रयोदशी : मार्गशीर्ष मास की त्रयोदशी को सप्ताह के पुनीत दिनों में (रविवार और मंगलवार छोड़कर) मध्याह्न से पूर्व ही तेरह ब्राह्मणों को निमंत्रित करना चाहिए। उन्हें तिल का तेल शरीर मर्दन के लिए तथा गर्म जल स्नान के लिए दिया जाय, तदनन्तर उन्हें अत्यन्त स्वादिष्ठ भोजन कराया जाय और यह कार्य एक वर्ष तक प्रति मास हो तो इस आचरण से व्रती को कभी भी यमराज का मुख नहीं देखना पड़ेगा।

यमुना : एक प्रसिद्ध और पवित्र नदी। यह यमुना (युग्म में से एक) इसलिए कही जाती है कि यह गङ्गा के समानान्तर बहती है। इसका उल्लेख ऋग्वेद में तीन बार हुआ है। ऋग्वेदानुसार (7.18.19) त्रित्सु एवं सुदास ने शत्रुओं के ऊपर यमुनातट पर महान् विजय प्राप्त की थी। हॉपकिन्स का यह मत कि यहाँ यमुना पुरुष्णी का अन्य नाम है, अग्राह्य है, क्योंकि त्रित्सुओं का राज्य यमुना व सरस्वती के बीच में स्थित था। अथर्ववेद (4.9.10) में यमुना के अञ्जन का उल्लेख त्रिककुद् (त्रैककुद) के साथ हुआ है। ऐतरेय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्रा० के अनुसार भरतों की ख्याति यमुना तट की विजय से हुई। अन्य ब्राह्मण भी यमुना को उद्धृत करते हैं। मन्त्रपाठ 2.11.12) में साल्‍व लोग इसके तट पर निवास करने वाले कहे गये हैं।

पुराणों के अनुसार यम (सूर्य) की पुत्री होने के कारण यह नदी यमुना कहलाती है। भारत की सात पवित्र नदियों में इसकी गणना है :

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति। कावेरि नर्दे सिन्धोर्जलेऽस्मिन्सन्निधिं कुरु॥

भागवत पुराण में वर्णित कृष्ण के सम्पर्क के कारण इसका महत्त्व बहुत बढ़ गया है, जिस प्रकार राम के सम्पर्क से सरयू नदी का।

यमुनास्नानतर्पण : इस व्रत के अनुसार यमुनाजल में खड़े होकर यमराज के भिन्न-भिन्न नामों के साथ तिलमिश्रित जल की तीन-तीन अञ्जलियों से उनका तर्पण करना चाहिए।

याग : (1) देवता को सामग्री अर्पण करना, अर्थात् यज्ञकर्म। इसमें अग्नि, जल, देवमूर्ति, अतिथि अथवा अन्तरात्मा को उपहार चढ़ाया जाता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में कई प्रकार के अग्निसाध्य यागों का वर्णन है। (2) इसी प्रकार वैष्णव उपासक किसी प्रथम गुरु का चुनाव कर उससे दीक्षा लेता है। दीक्षान्तर्गत पाँच कृत्य हैं : (1) ताप (साम्प्रदायिक चिह्न का शरीर पर अङ्कन) (2) पुण्ड्र (साम्प्रदायिक चिह्न को ललाट आदि पर चन्दन से बनाना) (3) नाम (अपना साम्प्रदायिक नाम ग्रहण करना) (4) मन्त्र आराध्य देव के मन्त्र ग्रहण करना) एवं (5) याग (देवता की पूजा)।

याज्ञवल्क्य : (1) यजुर्वेद के शाखाप्रवर्तक ऋषि। इनका उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में यज्ञों के प्रथम पर एक महान् अधिकारी विद्वान् के रूप में मिलता है। बृहदारण्यक उपनिषद् में इन्हें दर्शन का अधिकारी विद्वान माना गया है। ये उद्दालक आरुणि के शिष्य थे जिन्हें एक विवाद में इन्होंने हरा दिया था। बृहदारण्यक उपनिषद् में इनकी दो पत्नियाँ-मैत्रेयी तथा कात्यायनी का उल्लेख है। साथ ही यहाँ याज्ञवल्क्यकृत वाजसनेयी शाखा (शुक्ल यजुर्वेद) का भी उल्लेख है। आश्चर्य की बात है कि याज्ञवल्क्य शतपथ ब्राह्मण तथा शाङ्खायन आरण्यक को छोड़कर किसी भी वैदिक ग्रन्थ में उल्लिखित नहीं हैं। कहा जाता है कि ये विदेह के रहने वाले थे, परन्तु जनक की सभा में इनकी उपस्थिति होते हुए भी उद्दालक से सम्बन्ध (जो कुरु-पञ्चाल के थे) होने के कारण इनका विदेहवासी होना संदेहात्मक लगता है।

(2) स्मृतिकार के रूप में भी याज्ञवल्क्य प्रसिद्ध हैं। इनके नाम से प्रख्यात 'याज्ञवल्क्यस्मृति' धर्मशास्त्र का एक प्रामाणिक ग्रन्थ है। स्पष्टतः यह परवर्ती ग्रन्थ है। इसका विकास याज्ञवल्क्य के धर्मशास्त्रीय सम्प्रदाय में हुआ। न्यायव्यवस्था एवं उत्तराधिकार के सम्बन्ध में हिन्दू विधि के अन्तर्गत इस स्मृति का मुख्य स्थान है।

याज्ञवल्क्य आश्रम : बिहार प्रदेश के दरभंगा-सीतामढ़ी मार्ग के बीच रमौल ग्राम पड़ता है। यहाँ शिवमन्दिर है, इसी के पास गौतमकुण्ड और वटवृक्षों का वन है। यहाँ पर महर्षि याज्ञवल्क्य का आश्रम बतलाया जाता है।

याज्ञवल्क्यधर्मशास्त्र : धर्मशास्त्र (विधि) में मानवधर्मशास्त्र (मनुस्मृति) के पश्चात् दूसरा स्थान याज्ञवल्क्यधर्मशास्त्र का है। इसका दूसरा नाम है याज्ञवल्क्यस्मृति। दे० 'याज्ञवल्क्यस्मृति'।

याज्ञवल्क्यस्मृति : मानव धर्मशास्त्र (मनुस्मृति) अन्य सभी स्मृतियों का आधार है। इसके बाद दूसरा स्थान याज्ञवल्क्यस्मृति का है। इस स्मृति में तीन अध्याय हैं; आचार, व्यवहार और प्रायश्चित्त। इनमें निम्नांकित विषय हैं :

(1) आचाराध्याय---वर्णाश्रमप्रकरण, स्नातक व्रत प्रकरण, भक्ष्याभक्ष्य प्रकरण, द्रव्यशुद्धि प्रकरण, दान प्रकरण।

(2) व्यवहाराध्याय--प्रतिभू प्रकरण, ऋणादान प्रकरण, निक्षेपादि प्रकरण, साक्षिप्रकरण, लेख्यप्रकरण, दिव्य प्रकरण, दायभाग, सीमाविवाद, स्वामिपाल विवाद, अस्वामिविक्रय, दत्ताप्रदानिक, क्रीतानुशय, संविद्व्यतिक्रम, वेतनादान, द्यूतसमाह्वय, वाक्पारुष्य, दण्डपारुष्य, साहस, विक्रीयासम्प्रदान, सम्भूय समुत्थान, स्तेय एवं स्त्रीसंग्रह प्रकरण।

(3) प्रायश्चित्ताध्याय--अशौच, आपत्कर्म, वानप्रस्थ, यति, अध्यात्म, ब्रह्महत्या प्रायश्चित, सुरापान प्रायश्चित्त, सुवर्णस्तेय प्रायश्चित, स्त्रीवध प्रायश्चित्त एवं रहस्यप्रायश्चित्त प्रकरण

याज्ञवल्क्यस्मृति पर कई भाष्य और टीकाएँ लिखी गये हैं, जिनमें 'मिताक्षरा' सबसे प्रसिद्ध है।

हिन्दू विधि में मिताक्षरा का सिद्धान्त बंगाल को छोड़कर समग्र देश में माना जाता रहा है। बंगाल में 'दायभाग' मान्य रहा है।

याज्ञिकी : तैत्तिरीय आरण्यक का दसवाँ प्रपाठक याज्ञिकी या नारायणीयोपनिषद् के नाम से विख्यात है। सायणाचार्य ने याज्ञिकी उपनिषद् पर भाष्य रचा है और विज्ञानात्मा ने इस पर स्वतंत्र वृत्ति और 'वेदविभूषण' नाम की अलग व्याख्या लिखी है।

याज्ञिकी अथवा नारायणीय उपनिषद् में मूर्तिमान् ब्रह्मतत्त्व का विवरण है। शङ्कराचार्य ने इसका भाष्य लिखा है।

यातुधान : मनुष्येतर उपद्रवी योनियों में राक्षस मुख्य हैं, इनमें यातु (माया, छल-छद्म) अधिक था इसलिए इनको यातुधान कहते थे। ऋग्वेद में इन्हें यज्ञों में बाधा डालने वाला तथा पवित्रात्माओं को कष्ट पहुँचाने वाला कहा गया है। इनके पास प्रभूत शक्ति होती है एवं रात को जब ये घूमते हैं (रात्रिञ्चर) तो अपने क्रव्य (शिकार) को खाते हैं, बड़े ही घृणित आकार के होते हैं तथा नाना रूप ग्रहण करने की सामर्थ्य रखते हैं। ऋग्वेद में रक्षस् एवं यातुधान में अन्तर किया गया है, किन्तु परवर्ती साहित्य में दोनों पर्याय हैं। ये दोनों प्रारम्भिक अवस्था में यक्षों के समकक्ष थे। किन्तु रामायण-महाभारत की रचना के पश्चात् राक्षस अधिक प्रसिद्ध हुए। राक्षसों का राजा रावण राम का प्रबल शत्रु था। महाभारत में भीम का पुत्र घटोत्कच राक्षस है, जो पाण्डवों की ओर से युद्ध करता है। विभीषण, रावण का भाई तथा भीमपुत्र घटोत्कच भले राक्षसों के उदाहरण हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि असुरों की तरह ही राक्षस भी सर्वथा भय की वस्तु नहीं होते थे।

यात्रा (रथयात्रा या रथोत्सव) : प्राचीन काल से ही देवताओं की यात्राएँ बड़ी प्रसिद्ध हैं। कालप्रिय नाथ की यात्रा के अवसर पर भवभूति का प्रसिद्ध नाटक 'महावीरचरित' मञ्च पर खेला गया था। 'यात्रातत्त्व' नामक ग्रंथ रघुनन्दन द्वारा बंगाल में रचा गया था। इस ग्रन्थ में विष्णु (जगन्नाथजी) सम्बन्धी बारह उत्सव वर्णित हैं। मुरारि कवि द्वारा रचित 'अनर्घराघव' नाटक पुरुषोत्तमयात्रा के समय ही रंगमंच पर खेला गया था। देवयात्राविधि के लिए दे० कृत्यकल्पतरु, पृ० 178-81 (ब्रह्मपुराण से)।

यादवगिरिमाहात्म्य : नारद पुराण में उद्धृत यह अंश दत्तात्रेय सम्प्रदाय (मानभाउ सम्प्रदाय) का वर्णन करता है।

यादवप्रकाश : रामानुज स्वामी के प्रारम्भिक दार्शनिक शिक्षा गुरु। यादवप्रकाश शङ्कर के अद्वैतमत को मानने वाले थे और रामानुज विशिष्टाद्वैत को। अतएव गुरु-शिष्य में अनेक बार विवाद हुआ करता था। अन्त में रामानुज ने गुरु पर जय प्राप्त की और उन्हें वैष्णव मतावलम्बी बना लिया। इनका लिखा हुआ वेदान्तसूत्र का यादवभाष्य अब दुर्लभ है। श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के संन्यासियों पर इनका अन्य ग्रन्थ यतिधर्मसमुच्चय है। इनका अन्य नाम गोविन्द जिय भी था। स्थितिकाल 11वीं शताब्दी था। ये कांची नगरी के रहने वाले थे।

यान : (1) साधक के परलोक प्रयाण के दो मार्ग या प्रकार। उपनिषदों और गीता (8,23-28) में इनका विवेचन भली प्रकार हुआ है।

(2) बौद्ध उपासकों में तीन साधनामार्ग प्रचलित हैं : हीनयान, महायान और वज्रयान।

महायान के श्रेष्ठ तन्त्र 'तथागतगुह्यक' से पता लगता है कि रुद्रयामल में जिसे वामाचार या कौलाचार कहा गया है, वही महायानियों का अनुष्ठेय आचार है। इसी सम्प्रदाय से कालचक्रयान या कालोत्तर महायान तथा वज्रयान की उत्पत्ति हुई। नेपाल के सभी शाक्‍त बौद्ध वज्रयान सम्प्रदाय के अनुयायी हैं।

यामल : तन्त्र शास्त्र तीन भागों में विभक्त हैं : आगम, यामल और मुख्य। जिसमें सृष्टितत्त्व, ज्योतिष, नित्यकृत्यक्रम, सूत्र, वर्ण भेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे यामल कहते हैं। वास्तव में यामल शब्द यमल से बना है जिसका अर्थ 'जोड़ा' होता है (अर्थात् देवता तथा उसकी शक्ति का परस्पर रहस्यसंवाद)। यामलतन्त्र आठ हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, लक्ष्मी, उमा, स्कन्द, गणेश तथा ग्रहपरक हैं।

यामुनाचार्य : श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के एक प्रधान आचार्य नाथमुनि थे (965 वि०)। उनके पुत्र ईश्वरमुनि तथा इनके पुत्र यामुनाचार्य थे। ईश्वरमुनि की मृत्यु बहुत ही अल्पावस्था में हो गयी। यामुनाचार्य तब दस वर्ष के बालक थे। इनका जन्म 1010 वि० में वीरनारायणपुर या मदुरा में हुआ था। ये अपने गुरु श्रीमद्भाष्याचार्य से शिक्षा लेने तथा 12 वर्ष की अवस्था में ही स्वभाव की मधुरता एवं बुद्धि की प्रखरता के बल पर पांड्य राज्य के प्रभावशाली व्यक्ति मान लिये गये। नाथमुनि पुत्र के मृत्युशोक से संन्यासी हो रङ्गनाथ के मन्दिर में रहने लगे थे। फिर भी वे अपने पौत्र का हितचिन्तन करते रहते थे। मृत्यु के समय उन्होंने अपने शिष्य राममिश्र से कहा 'देखना, कहीं यामुनाचार्य विषयभोग में फँसकर अपने कर्त्तव्य को न भूल जाय। इसका भार मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूँ।'

इन्हीं राममिश्र की शिक्षा से प्रभावित होकर यामुनाचार्य रङ्गनाथ के सेवक हो गये। उन्होंने अपने दादा का छोड़ा हुआ सच्चा धन प्राप्त कर लिया, पश्चात् अपना शेष जीवन भगवत्सेवा तथा ग्रन्थप्रणयन में बिताया। उन्होंने संस्कृत में चार ग्रन्थ लिखे हैं-- स्तोत्ररत्न, सिद्धित्रय, आगमप्रामाण्य और गीतार्थसंग्रह। इनमें सबसे प्रधान सिद्धित्रय है। यह गद्य और पद्य में लिखा गया है। उन्होंने अपने ग्रन्थों में विशिष्टाद्वैतवाद का प्रतिपादन किया है।

यामुनाचार्य रामानुज स्वामी के परम गुरु थे। यामुनाचार्य का रामानुजाचार्य पर बड़ा प्रेम था। उन्होंने मृत्युकाल में रामानुज का स्मरण किया, परन्तु उनके पहुँचने के पूर्व ही वे नित्यधाम को पहुँच गये।

सिद्धान्त : 'विशिष्टाद्वैत' शब्दों के मिलने से बना है-- विशिष्ट और अद्वैत। विशिष्ट का तात्पर्य है चेतन और अचेतनविशिष्ट ब्रह्म, और अद्वैत का मतलब है अभेद या एकत्व। अतएव चेतनाचेतन विभाग विशिष्ट ब्रह्म के अभेद या एकत्व के निरूपण करने वाले सिद्धान्त का नाम विशिष्टाद्वैतवाद है। यामुनाचार्य ने इन्हीं सिद्धान्तों की स्थापना अपने ग्रन्थों में की है।

शाङ्कर मतानुयायी सुरेश्वराचार्य के विचार से ज्ञान स्वप्रकाश है, अखण्ड है, कूटस्थ है, नित्य है, ज्ञान ही आत्मा है, ज्ञान ही परमात्मा है, ज्ञान निष्क्रिय है, ज्ञान में भेद नहीं है, ज्ञान आपेक्षिक नहीं है। यामुनाचार्य इस मत को नहीं है, ज्ञान आपेक्षिक नहीं है। यामुनाचार्य इस मत को अवैदिक मानते हैं। उनके मत में ज्ञान आत्मा का धर्म है। शाङ्कर मत में आत्मा ज्ञानस्वरूप है परन्तु यामुनाचार्य इस मत को अवैदिक मानते हैं। उनके मत में ज्ञान आत्मा का धर्म है। शाङ्कर मत में आत्मा ज्ञानस्वरूप है परन्तु यामुनाचार्य के मत में आत्मा ज्ञाता है। ज्ञातृत्व शक्ति आत्मा की है, ज्ञान सक्रिय है, शङ्कर के मत में ज्ञान निष्क्रिय है। यामुन के मत में ज्ञान सविशेष है, शाङ्कर मत में निर्विशेष है। यामुन के मत में ज्ञान आपेक्षिक है, शाङ्कर मत में ज्ञान स्वप्रकाश है।

यामुन के मत में श्रुति ही आत्मप्रतिपत्ति का प्रमाण है। ईश्वर पुरुषोत्तम है तथा जीव से श्रेष्ठ है। जीव कृपण है और दुःख-शोक में डूबा रहता है; ईश्वर सर्वज्ञ है, सत्यसङ्कल्प एवं असीम सुखसागर है। ईश्वर पूर्ण है, जीव अणु है। जीव अंश है, ईश्वर अंशी है। मुक्त जीव ईश्वरभाव को प्राप्त नहीं होता। जगत् ब्रह्म का परिणाम है। ब्रह्म ही जगत् के रूप में परिणत हुआ है। जगत् ब्रह्म का शरीर है, ब्रह्म जगत् का आत्मा है। आत्मा और शरीर अभिन्न हैं। अतएव जगत् ब्रह्मात्मक है।

यास्क : वैदिक संज्ञाओं के व्युत्पत्तिरचयिता या प्रसिद्ध निरुक्तकार। वैदिक शब्दों के परिज्ञान के लिए इनका निरुक्त बहुत उपयोगी है। इनका जीवनकाल दसवीं शती ई० पू० के लगभग था। निरुक्त तीसरा वेदाङ्ग माना जाता है। यास्क ने पहले 'निघण्टु' नामक वैदिक शब्दकोश तैयार किया था, निरुक्त एक प्रकार से उसी की टीका है। इससे वैदिक शब्दों का व्युत्पत्तिपरक अर्थ प्रकट होता है। निघण्टु और निरुक्त में इतना अधिक विषयसाम्य है कि सायणाचार्य ने अपने ऋग्वेदभाष्य की भूमिका में निघण्टु को भी निरुक्त कहा है। निरुक्त अध्ययन करने के लिए वैयाकरण होना आवश्यक है। व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से निरुक्त का बड़ा महत्त्व है। निरुक्त के अपने विषय निम्नांकित हैं---

वर्णागमो वर्णविपर्यश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ। धातोस्तथार्थातिशयेन योगदस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम्॥

निरुक्त में तीन काण्ड हैं--(1) नैघण्टुक (2) नैगम और (3) दैवत। इसमें परिशिष्ट मिलाकर कुल चौदह अध्याय हैं। यास्क ने शब्दों को धातुज माना है और धातुओं से व्युत्पत्ति करके उनका अर्थ निकाला है। यास्क ने वेद को ब्रह्म कहा है और उसको इतिहास, ऋचाओं और गाथाओं का समुच्चय माना है (तत्र ब्रह्मेतिहासमिश्रं ऋङ्मिश्रं गाथामिश्रं च भवति)। जब यास्क ने अपना निरुक्त रचा उस समय तक अनेक वैदिक शब्दों के अर्थ अस्पष्ट और अज्ञात हो चुके थे। अपने एक पूर्ववर्ती निरुक्तकार के मत का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है, `वैदिक ऋचाएँ अस्पष्ट् अर्थहीन और परस्पर विरोधाभास वाली हैं।` इससे यास्क सहमत नहीं थे। इनके पूर्व सत्रह निरुक्तकार हो चुके थे। यास्ककृत निरुक्त के प्रसिद्ध टीकाकार दुर्गाचार्य हुए। अपने टीकाग्रन्थ पर उन्होंने एक निरुक्तवार्तिक भी लिखा जो अब उपलब्ध नहीं है। दुर्गाचार्य के अतिरिक्त बर्बरस्वामी, स्कन्द महेश्वर और वररुचि ने भी निरुक्त पर टीकाएँ लिखी हैं।

युगादिव्रत : सत्ययुग, त्रेतायुग, दापरयुग तथा कलियुग का प्रारम्भ क्रमशः वैशाख शुक्ल 3, कार्तिक शुक्ल 9, भाद्र कृष्ण 13 तथा माघ की अमावस्या को हुआ था। इन दिनों में उपवास, दान, तप, जप तथा होमादि का योजन करने से साधारण दिनों से करोड़ों गुना पुण्य होता है। वैशाख शुक्ल तृतीया को नारायण तथा लक्ष्मी का पूजन और लवणधेनु का दान, कार्तिक शुक्ल नवमी को शिव तथा उमा का पूजन और तिलधेनु का दान, भाद्र कृष्ण त्रयोदशी को पितृगण का सम्मान, माघ की अमावस्या को गायत्रीसहित ब्रह्माजी का पूजन और नवनीतधेनु के दान करने का विधान है। इन कृत्यों से कायिक, वाचिक, मानसिक सभी प्रकार के पापों का क्षय हो जाता है।

युगान्तश्राद्ध : चारों युग क्रमशः निम्नोक्त दिनों में समाप्त होते हैं --सिंह संक्रान्ति पर सत्ययुग, वृश्चिक संक्रान्ति पर त्रेता, वृष संक्रान्ति पर द्वापर तथा कुम्भ की संक्रान्ति पर कलियुग समाप्त होता है। इन संक्रान्तियों के आरम्भिक दिनों में पितृगणों की प्रसन्नता के लिए श्राद्ध करना चाहिए।

युदावतारव्रत : भाद्र कृष्ण त्रयोदशी को द्वापर युग का आरम्भ हुआ था। उस दिन शरीर में गोमूत्र, गोमय, दूर्वा तथा मृत्तिका मलकर नदी अथवा सरोवर के गहरे जल में स्नान करना चाहिए। इस आचरण से गया में किये गये श्राद्ध का पुण्य प्राप्त होगा। साथ ही भगवान् विष्णु की प्रतिमा को घी, दूध तथा शुद्ध जल से स्नान कराना चाहिए। इस कृत्य से विष्णुलोक प्राप्त होता है।

युधिष्ठिर : महाभारत के नायकों में समुज्ज्वल चरित्र वाले ज्येष्ठ पाण्डव। वे सत्यवादिता एवं धार्मिक आचरण के लिए विख्यात हैं। अनेकानेक धर्म सम्बन्धी प्रश्न एवं उनके उत्तर युधिष्ठिर के मुख से महाभारत में कहलाये गये हैं। शान्तिपर्व में सम्पूर्ण समाजनीति, राजनीति तथा धर्मनीति युधिष्ठिर और भीष्म के संवाद के रूप में प्रस्तुत की गयी है।

यूप : यज्ञ का स्तम्भ, जिसमें बलिपशु बाँधा जाता था। आगे चलकर सभी प्रकार के यज्ञस्तम्भों और स्वतन्त्र धार्मिक स्तम्भों के अर्थ में भी इस शब्द का प्रयोग होने लगा।

यूपारोहण : वाजपेय यज्ञ सोमयज्ञों के अन्तर्गत है। इसमें रथदौड़ की मुख्य क्रिया होती थी। इसकी एक क्रिया यूपारोहण अर्थात् यज्ञयूप पर चढ़ना भी है। इसमें गेहूँ के आटे से बने हुए चक्र को, जो सूर्य का प्रतीक माना जाता है, यूप के सिरे पर रखते हैं। यज्ञ करने वाला सीढ़ी की सहायता से इस पर (यूप पर) चढ़कर चक्र को पकड़ते हुए मन्त्रोच्चारण करता है---'हे देवी, हम सूर्य पर पहुँच गये हैं।' भूमि पर उतरकर वह लकड़ी के सिंहासन पर बैठता और अभिषिंचित किया जाता है।

योग (दर्शन) : धार्मिक साधना का प्रसिद्ध मार्ग। यह दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में विकसित हुआ और इस दर्शन के रचयिता पंतजलि थे। दीर्घ काल तक महाभाष्यकार पतंजलि (दूसरी शताब्दी ई० पू०) को योगसूत्र का प्रणेता समझा जाता रहा है, इसी कारण यूरोपीय विद्वानों ने इस ग्रन्थ को सभी दर्शनों के सूत्रों से प्राचीन मान लिया था। किन्तु सूत्रों में महाभारत एवं योग सम्बन्धी उपनिषदों के भी विचारों का विकसित रूप पाये जाने के कारण तथा इसके अन्तर्गत बौद्ध विज्ञानवाद की आलोचना होने के कारण यह मान लिया गया है कि इसके रचयिता अन्य कोई पतञ्जलि हैं एवं उनकी तिथि ईसवी चौथी शताब्दी से पूर्व की नहीं हो सकती। सम्भवतः सांख्यकारिका की महान् लोकप्रियता ने योगसूत्र लिखने की प्रेरणा दी हो। विज्ञानवाद तथा योगाचार मत का 300 ई० के लगभग उदित होना इस बात की पुष्टि करता है कि योगसूत्र इसके बाद का है, क्योंकि योग का इनमें बहुत बड़ा स्थान है।

योगदर्शन की पदार्थप्रणाली में सांख्य के 25 तत्त्व स्वीकृत हैं तथा वह ईश्वर को इनमें 26वीं तत्त्व के तौर पर जोड़ता है। इसलिए यह 'सेश्वर सांख्य' कहलाता है, जबकि कापिल सांख्य को 'निरीश्वर सांख्य' कहते हैं। किन्तु योग की विशेषता इन तत्त्वों पर माथापच्ची न करते हुए साधना प्रणाली का अभ्यास तथा ईश्वरभक्ति है, क्योंकि इसका लक्ष्य आत्मा को कैवल्य पद प्राप्त कराना है।

योगसाधक सतत अभ्यास करते हुए चित्त की क्रियाओं पर सम्पूर्ण स्वामित्व प्राप्त कर लेता है। चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है (योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः)। इसके साधन हैं नैतिक आचरण, तपश्चरण, शारीरिक तथा मानसिक व्यायाम, फिर केन्द्रित ध्यान तथा गहरा चिन्तन। इनके द्वारा प्रकृति एवं आत्मा का अन्तर्ज्ञान एवं अन्त में कैवल्य प्राप्त होता है। अष्टाङ्ग योग के आठ अंग निम्नांकित हैं--- (1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान और (8) समाधि। इसको राजयोग भी कहते हैं। यह सभी मनुष्यों के लिए उन्मुक्त हैं, यहाँ तक कि जातिच्युत भी इसका अभ्यासी हो सकता है। योग अभ्यास करने वाले संन्यासी योगी कहलाते हैं।

पतञ्जलि के सूत्रों पर वाचस्पति मिश्र, व्यास मुनि, विज्ञानभिक्षु, भोजराज, नागेशभट्ट आदि विद्वानों की व्याख्या, टीका, वृत्तियाँ आदि प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।

योग उपनिषद् : विषयानुसार विभाजन करने पर उपनिषदों के वेदान्त, योग, संन्यास, शैव, वैष्णव, गाणपत्य आदि अनेक प्रकार हो जाते हैं। योगविषयक उपिनषदों में योगानुशासन के प्राचीन छः अंगों पर विचार किया गया है (आगे चलकर वे आठ हो गये--अष्टांग योग) तथा पवित्र 'ओम्' पर ध्यान केन्द्रित करने पर उनमें विशेष बल दिया गया है। ये ग्रन्थ मैत्रायणी तथा चूलिका के पीछे रचे गये हैं, किन्तु वेदान्तसूत्र एवं योगसूत्रों के पूर्व के हैं।

योग सम्बन्धी उपनिषदें पद्यबद्ध हैं तथा चूलिका की अनुगामी हैं। इनमें सबसे प्राचीन है 'ब्रह्मबिन्दु' जो मैत्रायणीकालीन है। क्षुरिका, तेजोबिन्दु, ब्रह्मविद्या, नादबिन्दु, योगशिखा, योगतत्त्व, ध्यानबिन्दु, अमृतबिन्दु इस वर्ग की मुख्य उपनिषदें हैं, जो संन्यासवर्गीय उपनिषदों तथा महाभारत के समकालीन हैं। केवल इस वर्ग की 'हंस' परवर्ती अनिश्चित तिथि की रचना है।

योगक्षेम : (1) 'प्राप्ति (योग) और उसकी रक्षा (क्षेम)।' यह कल्याण और मंगल का पर्याय है। राजसूय यज्ञ करने के पूर्व राजा अपना पुनरभिषेक कराता था। इसकी क्रियाएँ 'ऐन्द्र महाभिषेक' से मिलती-जुलती होती थीं और 'योगक्षेम' इसकी एक क्रिया हुआ करती थी। राजा पुरोहित को अपनी विजय के लिए उपहार देता था और समिधा हाथ में लेकर तीन पद उत्तर-पूर्व दिशा में चलता था (यह इन्द्र की अपराजित दिशा है) जिसका आशय योग-क्षेम (प्राप्ति और उसकी रक्षा) की कामना होता था।

(2) योगक्षेम अर्थशास्त्र में भी प्रयुक्त हुआ है। याज्ञवल्क्यस्मृति के अनुसार 'अलब्धलाभो योगः' अर्थात् अप्राप्त की प्राप्ति योग है और 'लब्धपरिपालनं क्षेमः' अर्थात् जो प्राप्त हो गया हो उसका परिपालन अथवा रक्षा क्षेम कहलाता है।

योगनिद्रा : यौगिक साधना में अनेक क्रम या दशाएँ बाहरी साधन के रूप में सम्पादित होती हैं। अनेक आसन, श्वास तथा निःश्वास की गणना (प्राणायाम) तथा दृष्टि को नासिका के अग्र स्थान पर केन्द्रित करना (नासाग्रदृष्टि) ये अभ्यास बाहरी साधन कहलाते हैं। इस बाहरी योगाभ्यास से मनुष्य चेष्टाशून्य हो जाता है। इस अवस्था को 'योगनिद्रा' (योग में निद्रा या लय) कहते हैं जो मुक्ति अवथा कैवल्यावस्था के पूर्व की अवस्था है।

योगपाद : शैव आगओं की तरह संहिताओं में चार प्रकरण होते हैं :

(1) ज्ञानपाद :दार्शनिक ज्ञान

(2) योगपाद :योग की शिक्षा व अभ्यास

(3) क्रियापाद : मन्दिर तथा प्रतिमाओं का निर्माण

(4) चर्यापाद : धार्मिक क्रियाएँ।

योगमत : भारत में योग विद्या से सम्बन्ध रखने वाले अनेक सम्प्रदाय प्रचलित हैं। उनमें प्रमुख हैं 'नाथ सम्प्रदाय' जिसका वर्णन पिछले अक्षरक्रम में हो गया है। योग का दूसरा साधक है 'चरनदासी पन्थ'। इसका भी वर्णन किया जा चुका है। योगमत के अन्तर्गत शब्दाद्वैतवाद भी आता है, क्योंकि किसी न किसी रूप में सभी योग मतावलम्बी शब्द की उपासना करते हैं। यह उपासना अत्यन्त प्राचीन है। प्रणव के रूप में इसका मूल तो वेदमन्त्रों में ही वर्तमान है। इसका प्राचीन नाम प्रणववाद अथवा स्फोटवाद है। इसका वर्णन आगामी पृष्ठों में किया जायेगा। वर्तमान कालका शब्दध्यानवादी राधास्वामी पन्थ भी ध्यानयोग का ही एक प्रकार है।

योगराज : काश्मीर शैवाचार्यों में योगराज एक विद्वान् थे। इन्होंने अभिनवगुप्त कृत 'परमार्थसार' (काश्मीर शैववाद पर लिखे गये 105 छन्दों के एक ग्रन्थ) का भाष्य प्रस्तुत किया है। इनके 'परमार्थसारभाष्य' का अंग्रेजी अनुवाद डा० बार्नेट ने प्रस्तुत किया है।

योगवार्तिक : सोलहवीं शताब्दी के मध्य विज्ञानभिक्षु ने योगसूत्रों की एक व्याख्या लिखी जो 'योगवार्तिक' कहलाती है।

योगवासिष्ठ रामायण : प्रचलित अद्वैत वेदान्तीय ग्रन्थों में 'योगवासिष्ठ रामायण' का विशिष्ट स्थान है। यह तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में रचे गये संस्कृत ग्रन्थों में से एक है। यह अध्यात्मरामायण के समानान्तर है, क्योंकि इसमें राम और वसिष्ठ के संवाद रूप में वेदान्त के सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया है। यह बड़ा विशालकाय 32000 पद्यों का ग्रन्थ है। इसमें अद्वैत वेदान्त की शिक्षा के साथ सांख्य के विचारों का मिश्रण भी प्राप्त है। योग की महत्ता पर भी इसमें बल दिया गया है। इसकी रचनातिथि 1300 ई० के लगभग अथवा और पूर्व हो सकती है।

योगसारसंग्रह : सोलहवीं शताब्दी के मध्य आचार्य विज्ञानभिक्षु द्वारा रचित एक उपयोगी योगविषयक ग्रन्थ।

योगसूत्र : पतञ्जलि मुनि द्वारा रचित योगशास्त्र की मौलिक कृति। विद्वानों ने इसका रचना काल चौथी शताब्दी ई० माना है। यह योग उपनिषदों के बाद की रचना है। विशेषार्थ दे० 'योग (दर्शन')।

योगसूत्रभाष्य : यह भाष्य 7वीं या 8वीं शताब्दी में रचा गया है। कुछ लोग इसके लेखक का नाम वेदव्यास बताते हैं। परन्तु इस वेदव्यास तथा महाभारत के रचयिता वेदव्यास को एक नहीं समझना चाहिए। इस भाष्य का अंग्रेजी अनुवाद तथा परिचय उड्स् महोदय ने लिखा है। उन्होंने इसकी दार्शनिक शैली की प्रशंसा की है।

योगिनी : भारतीय लोककथाओं में योगी प्रायः जादूगर के रूप में प्रदर्शित हुए हैं। जादू की ऐसी शक्ति रखनेवाली साधिका स्त्री 'योगिनी' (जादूगरनी) के रूप में वर्णित है। शिवशक्तियाँ अथवा महाविद्याएँ भी योगिनी के रूप में कल्पित की गयी हैं। योगिनियों की चौसठ संख्या बहुत प्रसिद्ध हैं। चौसठ योगिनियों के कई प्राचीन मन्दिर हैं जिनमें भेड़ाघाट (त्रिपुरी-जबलपुर), खजुराहों आदि के मन्दिर विशेष उल्लेखनीय हैं।

योगिनीतन्त्र : वाममार्गी शाक्त शाखा का 16वीं शताब्दी का यह ग्रन्थ दो भागों में उपलब्ध है। पहला भाग सभी तान्त्रिक विषयों का वर्णन करता है, दूसरा भाग वास्तव में 'कामाख्यामाहात्म्य' है। इस पर वाममार्ग का विशेष प्रभाव है।

योगी : योगमत पर चलने वाले, योगाभ्यास करने वाले व्यक्ति योगी कहलाते हैं। प्रायः हठयोगियों के लिए साधारण जनता में यह शब्द प्रयुक्त होता है।

योगीश्वर : शिव का पर्याय। कुछ योगी अपनी भयावनी क्रियाओं का अभ्यास श्‍मशान भूमि में करते हैं तथा भूत योनियों पर अपना प्रभुत्‍व स्‍थापित कर लेते हैं। शिव इन योगियों के भी स्वामी हैं अर्थात् योगीश्वर हैं तथा योग का अभ्यास भी करते हैं।

सिद्धिप्राप्त महात्मा भी योगीश्वर कहे जाते हैं।

योगोश्वरव्रत अथवा योगेश्वद्वादशी : कार्तिक शुक्ल एकादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। चार जलपूर्ण कलश, जिनमें रत्न पड़े हों, सफेद चन्दन चर्चित हो तथा चारों ओर श्वेत वस्त्र लिपटा हो एवं जो तिलपूर्ण ताम्रपात्रों से ढके हों, पात्रों में सुवर्ण पड़ा हो, ऐसे चारों कलश चार महासागरों के प्रतीक होते हैं। एक पात्र के मध्य में भगवान् हरि की प्रतिमा (जो योगेश्वर हैं), स्थापित कर पूजी जानी चाहिए। रात्रि को जागरण का विधान है। द्वितीय दिवस चारों कलशों चार ब्राह्मणों को दान में दे देना चाहिए तथा सुवर्ण प्रतिमा किसी पाँचवें ब्राह्मण को देकर पाँचों ब्राह्मणों को सुन्दर भोजन कराकर दक्षिणादि से सन्तुष्ट करना चाहिए। इसका नाम धरणीव्रत भी है। व्रती इस व्रत के फलस्वरूप समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक प्राप्त कर लेता है।

योनि : (1) जीवों की विभिन्न जातियाँ योनि कहलाती हैं। इनका वर्गीकरण पुराण आदि में 84,00,000 प्रकार का बतलाया जाता है। जल, स्थल, वायु, आकाशचारी सभी प्राणी (स्थावर पेड़-पौधे भी) इनमें सम्मिलित हैं।

(2) स्त्रीतत्त्व का प्रतीक, मातृत्व का बोधक अङ्ग। प्रागैतिहासिक युग के पंजाब तथा पश्चिमोत्तर प्रदेश के लोगों के धर्म में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान था। उत्पत्तिस्थान होने के कारण यह आदरणीय और पूजनीय माना जाता था। शाक्त धर्म में इसका बहुत महत्त्व बढ़ा, योनिचिह्न शक्ति का प्रतीक और सृष्टि का मूल बन गया। अनेक रूपों में इसकी अभिव्यक्ति और कला में अंकन हुआ। कामाख्या पीठ में योनि की पूजा होती है। लिङ्गोपासना में भी लिङ्ग का आधार योनि ही है। शिवमन्दिरों में लिङ्ग योनि में ही प्रतिष्ठित रहता है।

योनि ऋक् : सामवेद के आर्चिक ग्रन्थ तीन हैं :छन्द, आरण्यक और उत्तर। उत्तरार्चिक में एक छन्द की, एक स्वर की और एक तात्पर्य की तीन-तीन ऋचाओं को लेकर एक-एक सूक्त बना दिया गया है। इन सूक्तों का त्र्यृच नाम रखा गया है। इसी तरह की समान भावापन्न दो-दो ऋचाओं की समष्टि का नाम प्रगाथ है। चाहे त्र्यृच हो चाहे प्रगाथ, इनमें प्रत्येक पहली ऋचा का छन्द आर्चिक में से लिया गया है। इसी आर्चिक छन्द से एक ऋचा और सब तरह से उसी के अनुरूप दो और ऋचाओं को मिलाकर त्र्यृच बनता है और इसी प्रकार प्रगाथ भी। इन्हीं कारणों से इनमे जो पहली ऋचाएँ हैं वे सब योनि ऋक् कहलाती हैं और आर्चिक भी योनिग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं।

योनि ऋक् के बाद ही उसी के बराबर की दो या एक ऋक् जिसके उत्तर दल में मिले उसका नाम उत्तरार्चिक है। इसी कारण तीसरे का नाम उत्तर है। एक ही अध्याय का बना हुआ ग्रन्थ जो अरण्य में ही अध्ययन करने योग्य हो, आरण्यक कहलाता है। सब वेदों में एक एक आरण्यक होता है। योनि, उत्तर और आरण्यक इन्हीं तीन ग्रन्थों का साधारण नाम आर्चिक अर्थात् ऋक्समूह हैं।

यौवराज्याभिषेक : अनेक प्रमाणों से यौवराज्याभिषेक की वास्तविकता सिद्धा होती है। इसमें राजा अपने योग्यतम (सम्भवतः ज्येष्ठ) पुत्र का अभिषेक करता था। महाभारत, रामायण, हर्षचरित, बृहत्कथा, कल्पसूत्र आदि में यौवराज्याभिषेक का वर्णन पाया जाता है। यह अभिषेक चन्द्रमा तथा पुष्य नक्षत्र के संयोग के समय (पौषी पूर्णिमा को) होता था।

 : अन्तःस्थ वर्णों का दूसरा अक्षर। कामधेनुतन्त्र (पटल 6 में इसका स्वरूप निम्नांकित बतलाया गया है : रेफञ्च चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीद्वय संयुतम्। रक्तविद्युल्लताकारं पञ्चदेवात्मकं सदा॥ पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिबिन्दुसहितं सदा॥ तन्त्रशास्त्र में इसके अधोलिखित नाम कहे गये हैं : रो रक्तः क्रोधिनी रेफः पावकस्त्वोजसो मतः। प्रकाशादर्शनो दीपो रक्तकृष्णापरं बली॥ भुजङ्गेशो मतिः सूर्यो धूतुरक्तः प्रकाशकः। अप्यको रेवती दासः कुक्ष्यंशो विह्नमण्डलम्॥ उग्रेरखा स्थूलदण्डो वेदकण्टपला पुरा। प्रकृतिः सुगलो ब्रह्मशब्दश्च गायको धनम्॥ श्रीकण्ठ ऊष्मा हृदयं मुण्डीं त्रिपुरसुन्दरी। सबिन्दुयोनिजो ज्वाला श्रीशैलो विश्वतोमुखी॥

रक्तसप्तमी : मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी का रक्तसप्तमी नाम है। इस तिथिव्रत में रक्त कमलों से सूर्य की अथवा श्वेत पुष्पों से सूर्यप्रतिमा की पूजा विहित है। सूर्य की प्रतिमा पर रक्त चन्दन से प्रलेप लगाना चाहिए। इस पूजन में सूर्य को दाल के बड़े और कृशरा (चावल, दाल तथा मसालों से बनी खिचड़ी) अर्पित करने का विधान है। पूजन के उपरान्त रक्तिम वस्त्रों के एक जोड़े का दान करना चाहिए।

रक्षापञ्चमी : भाद्र कृष्ण पञ्चमी को रक्षापञ्चमी कहते हैं। इसदिन काले रंग से सर्पों की आकृतियाँ खींचकर उनका पूजन करना चाहिए। इससे व्रती तथा उसकी सन्तानों को सर्पों का भय नहीं रहता।

रक्षाबन्धन : श्रावण पूर्णिमा के दिन पुरोहितों द्वारा किया जाने वाला आशीर्वादात्मक कर्म। रक्षा वास्तव में रक्षासूत्र है जो ब्राह्मणों द्वारा यजमान के दाहिने हाथ में बाँधा जाता है। यह धर्मबन्धन में बाँधने का प्रतीक है, इसलिए रक्षाबन्धन के अवसर पर निम्नांकित मन्त्र पढ़ा जाता है :

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वां प्रतिबन्धनामि रक्षे मा चल मा चल॥

[ जिस (रक्षा के द्वारा) महाबली दानवों के राजा बलि (धर्मबन्धन में) बाँधे गये थे, उसी से तुम्हें बाँधता हूँ। हे रक्षे, चलायमान न हो, चलायमान न हो।] युग में ऐतिहासिक कारणों से रक्षाबन्धन का महत्त्व बढ़ गया। देश पर विदेशी आक्रमण होने के कारण स्त्रियों का मान और शील संकट में पड़ गया था, इसलिए बहिनें भाइयों के हाथ में 'रक्षा' या 'राखी' बाँधने लगीं, जिससे वे अपने बहिनों की सम्मानरक्षा के लिए धर्मबद्ध हो जायँ।

रघुनन्दन भट्टाचार्य : बंगाल के विख्यात धर्मशास्त्री रघुनन्दन भट्टाचार्य (1500 ई०) ने अष्टाविंशतितत्त्व नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें स्मार्त हिन्दू के कर्त्तव्यों की विशद व्याख्या है। यह ग्रन्थ सनातनी हिन्दुओं द्वारा अत्यन्त सम्मानित है।

रघुनाथदास : महाप्रभु चैतन्य के छः प्रमुख अनुयायी भक्तों में रघुनाथदास भी एक थे। ये वृन्दावन में रहते थे और अपने शेष पाँच सहयोगी गोस्वामियों के साथ चैतन्य मत के ग्रन्थ लेखन तथा साम्प्रदायिक क्रियाओं का रूप तैयार करने में लगे रहते थे। ये गोस्वामी गण भक्ति, दर्शन, क्रिया (आचार) पर लिखते थे, भाष्य रचते थे, सम्प्रदाय सम्बन्धी काव्य तथा प्रार्थना लिखते थे। ये ग्रन्थ सम्प्रदाय की पूजा पद्धति एवं दैनन्दिन जीवन पर प्रकाश डालने के लिए लिखे जाते थे। इन लोगों ने मथुरा एवं वृन्दावन के आस-पास के पवित्र स्थानों को ढूँढ़ा तथा उनका 'मथुरामाहात्मय' में वर्णन किया और एक यात्रापथ (वनयात्रा) की स्थापना की, जिस पर चलकर सभी पवित्र स्थलों की परिक्रमा यात्री कर सकें। इन लोगों ने वार्षिक 'रासलीला' का अभिन्य भी आरम्भ किया।

रघुनाथ भट्ट : महाप्रभु चैतन्य के छः शिष्यों एवं वृन्दावन में बस जाने वाले गोस्वामियों में से एक। ये रघुनानदास गोस्वामी के भाई थे। दे० 'रघुनाथदास'।

रघुवीरगद्य : आचार्य वेङ्कटनाथ (1325-1426 वि०) ने अपने तिरुपाहिन्द्रपुर के निवासकाल में रघुवीरगद्य नामक स्तोत्र ग्रन्थ लिखा। यह तमिल भाषा में है। भगवद्भक्ति इसमें कूट-कूटकर भरी गयी है।

रङ्गपञ्चमी : फाल्गुन कृष्ण पञ्चमी को रङ्गपञ्चमी कहा जाता है। इसी दिन शिव को रङ्ग अर्पित किया जाता है और रङ्गोत्सव प्रारम्भ हो जाता है।

रङ्गनाथ : (1) श्रीरङ्गम में भगवान् रङ्गनाथ का मन्दिर है। तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में मुसलमानों ने जब श्रीरङ्गम पर अधिकार कर लिया तब यहाँ का मन्दिर भी उन्होंने अपवित्र कर डाला। इस काल में रङ्गनाथ की मूर्ति मुस्लिम शासन से निकलकर दक्षिण भारत के कई स्थानों में घूमती रही। जब पुनः यहाँ हिन्दू राज्य स्थापित हो गया, श्रीरङ्गम् में इसकी पुनः स्थापना वेदान्ताचार्य वेङ्कटनाथ की उपस्थिति में हुई। आज भी उनके रचित मन्त्र मन्दिर की दीवारों पर लिखे हुए पाये जाते हैं।

(2) रङ्गनाथ ब्रह्मसूत्रों की शाङ्कर भाष्यानुसारिणी वृत्ति के रचयिता हैं। इनका स्थितिकाल सत्रहवीं शताब्दी था।

रङ्गरामानुज : इन वैष्णवाचार्य की स्थिति 18वीं शताब्दी में मानी जाती है। इन्होंने विशिष्टाद्वैत वेदान्तभाष्य पर व्याख्या ग्रन्थावली वैष्णवों के प्रयोगार्थ लिखी है।

रजस् : प्रकृति तथा उससे उत्पन्न पदार्थ तीन गुणों से निर्मित हैं---- सत्त्व (प्रकाश), रजस् (शक्ति) तथा तमस् (जड़ता)। प्रकृति में ये अमिश्रित, सन्तुलित रहते हैं, तथा उससे उत्पन्न पदार्थों में विभिन्न परिमाणों में मिल जाते हैं। मैत्रायणी उपनिषद् में एक महत् सत्य के तीन रूप विष्णु, ब्रह्मा एवं शिव को क्रमशः सत्त्व, रजस् एवं तमस् के रूप में दर्शाया गया है। जगत् में सारी क्रिया और गति रजस् के ही कारण होती है।

रज्जबदास : महात्मा दादू दयाल के शिष्य एक दादूपन्थी कवि रज्जबदास हुए हैं। इन्होंने 'बानी' नामक उपदेशात्मक भजनों का संग्रह लिखा है।

रटन्ती चतुर्दशी : माघ कृष्ण चतुर्दशी। यह तिथिव्रत है। यम की आराधना इस व्रत में की जाती है। अरुणोदय काल में स्नान कर यम के चौदह नाम (कृत्यतत्त्व, 450) लेकर उनका तर्पण करना चाहिए।

रणछोर राय : (1) गुजरात प्रदेश के द्वारका धाम और डाकौर नगर में प्रतिष्ठित भगवान् कृष्ण की दो मूर्तियों के नाम। इन स्थानों में रणछोरजी के भव्य मन्दिर अत्यन्त आकर्षक बने हुए हैं। इनमें सहस्रों यात्रियों का नित्य आगमन होता रहता है। भक्तजनों में प्रसिद्धि है कि मध्यकाल में डाकौर निवासी 'बोढ़ाणा' नामक भील के प्रेमानुराग से आकृष्ट होकर श्री कृष्ण द्वारका त्याग कर यहाँ चले आये थे। पंडों ने द्वारका से आकर बोढ़ाणा को सताया, इस पर भगवान् ने उसके ऊपर पंडों का अपने बदले का ऋण एक तराजू में सोने से तुलकर चुकाया था। सोने के रूप में भी बोढ़ाणा की पत्नी की केवल नाक की बाली थी, जो मूर्ति के समान भारी हो गयी थी। इसकी स्मृति में आजकल भी डाकौर के मन्दिर में विभिन्न वस्तुओं के तुलादान होते रहते हैं। भक्त का 'ऋण छुड़ाने' के कारण इन भगवान् का नाम 'रणछोर राय' प्रसिद्ध हो गया है।

(2) भागवत पुराण के अनुसार मथुरा पुरी पर कालयवन और जरासन्ध की दो दिशाओं से चढ़ाई होने पर श्री कृष्ण ने रातोंरात समस्त यादवों को द्वारकापुरी में भेज दिया। फिर दोनों सेनाओं को व्यामोहित कर उनके आगे-आगे वे बहुत दूर निकल भागे। उन्हे पकड़ने के लिए कालयवन पीछा करने लगा। श्री कृष्ण ने उसे एकान्त में ले जाकर एक राजा के द्वारा भस्म करा दिया तथा जरासन्ध की सेना के सामने से जंगल-पहाड़ों में छिपते हुए द्वारका जा निकले। इस घटना की स्मृति में भक्तजनों ने प्रेमलांछनपूर्वक उनको (रण+छोड़) रणछोर राय नाम से विख्यात कर दिया।

रणथम्‍भौर : राजस्थान में सवाई माधोपुर से कुछ दूर पर यह किला है। किले के भीतर गणेशजी की विशाल मूर्ति है। पर्वत पर अमरेश्वर, शैलेश्वर, कमलधार और फिर आगे एक प्रपात के पास झरनेश्वर और सीताजी के मन्दिर हैं। सामने (चरणों में से) पानी बहकर दो कुण्डों में क्रमशः जाता है। वह जल पहले कुण्ड में काला, फिर दूसरे कुण्ड में आकर सफेद हो जाता है।

रत्नत्रयपरीक्षा : अप्पय दीक्षित रचित यह ग्रन्थ श्रीकण्ठ मत (शैव सिद्धान्त) से सम्बन्धित है। इसमें हरि, हर और शक्ति की उपासना की मीमांसा की गयी है।

रत्नप्रभा : आचार्य गोविन्दानन्द कृत शारीरक भाष्य की प्रसिद्ध टीका। शाङ्करभाष्य की टीकाओं में यह सबसे सरल है।

रत्नषष्ठी : ग्रीष्म ऋतु का एक व्रत, जो षष्ठी तिथि को सम्पादित होता था। भास के चारुदत्त और शूद्रक के मृच्छकटिक नाटक के "अहं रत्नषष्ठीम् उपोषिता" कथन में संभवतः इसकी ओर ही संकेत है।

रत्नहवि : राजसूय या सोम यज्ञ का कार्यक्रम फाल्गुन के प्रथम दिन से प्रारम्भ होता था। इसकी अनेकानेक क्रियाओं में अभिषेचनीय, रत्नहवियाँ तथा दशपेय महत्त्वपूर्ण हैं। यह बारह दिन लगातार किये जाने वाले यज्ञों का समूह है, जो राजा के 'रत्नों' के गृहों में भी होता था।

वैदिक राज्यव्यवस्था के अन्तर्गत राजा के मुख्य परामर्शदाता 'रत्न' (या रत्नी) कहे जाते थे, जिनमें सेनानी, सूत, पटरानी, पुरोहित, श्रेष्ठी, ग्रामप्रधान आदि गिनेचुने व्यक्ति होते थे। राजसूय के कुछ होम इन लोगों के हाथों से भी सपन्न होते थे। विक्रमादित्य और अकबर के 'नवरत्न' ऐसी ही राज्यव्यवस्था के अंग जैसे थे। वर्तमान भारतशासन द्वारा दी जानेवाली सर्वोच्च पदवी 'भारतरत्न' उक्त वैदिक प्रथा की स्मृति जैसी है।

रत्न (नव अथवा पञ्च) : व्रतराज, 15 (विष्णुधर्मोत्तर से) नव रत्नों का उल्लेख करता है, यथा मोती, सुवर्ण, वैदूर्य, पद्मराग (माणिक्य) पुष्पराग (पुखराज), गोमेद (हिमालय से प्राप्त रत्न), नीलम, गारुत्‍मत (पन्ना) तथा विद्रुम (मूँगा)। धार्मिक कृत्यों में पञ्च रत्नों का प्रयोग भी होता है, वे हैं : सोना, चाँदी, मोती, मूँगा, माणिक्य; मतान्तर से सोना, हीरा, नीलम, पुखराज, मोती।

रत्नी : रत्नों के जैसा सम्मान पाने वाला। यह उन लोगों का विरुद है जो राज्य के पारिषद (वरिष्ठ सदस्य) होते थे। तैत्तिरीय सं० (1.8.9.1) तथा तैत्ति० ब्रा० (1.7.3.1) में दी हुई रत्नियों की सूची में पुरोहित, राजन्य, महिषी (पटरानी), वावाता (प्रियरानी), परिवृक्ति (परित्यक्ता), सेनानी, सूत (सारथि), ग्रामणी (ग्राम प्रमुख), छत्री (छत्रधारक), संगृहीता (कोषाध्यक्ष), भागधुग् (राजस्व अधिकारी) तथा अक्षावाप (द्यूता अध्‍यक्ष) सम्मिलित हैं। शत० ब्रा० में क्रम इस प्रकार है : सेनानी, पुरोहित, महिषी, सूत, ग्रामणी, छवी, संगृहीता, भागधुग्, अक्षावाप, गोविकर्तन (आखेटक) तथा पालागल (सन्देशावाहक)। मैत्रायणी संहिता की सूची इस प्रकार है : ब्राह्मण (पुरोहित), राजन्य, महिषी, परिवृक्ति, सेनानी, संगृहीता, छत्री, सूत, वैश्य, ग्रामणी, भागदुध, तक्षा, रथकार, अक्षवाप तथा गोविकर्त्तृ। उपर्युक्त नामों से ठीक-ठीक पता नहीं चलता कि राजकुल तथा राजभवन के कर्मचारियों के अतिरिक्त उनमें राजा के व्यक्तिगत सेवक ही थे या जनता के प्रतिनिधि भी। कुछ तो इनमें अवश्य ही जनता के प्रतिनिधि थे, जैसे ब्राह्मण, राजन्य, ग्रामणी, तक्षा आदि।

राज्याभिषेक और राजसूय के अवसरों पर रत्नियों का धार्मिक और राजनीतिक महत्त्व होता था। सिद्धान्ततः माना जाता था कि राजशक्ति इन्हीं के हाथ में है। रत्न मानो राजभक्ति का प्रतीक था। इसे ये सब राज्याभिषेक के अवसर पर राजा को सौंपते थे।

रथकार : रथ बनाने वाला। वैदिक काल में इसकी गणना राजा के रत्नियों में होती थी। रथ के सैनिक तथा व्यावहारिक महत्त्व के कारण समाज में रथकार का ऊँचा मान था। राज्याभिषेक के अवसर पर रथकार भी उपस्थित होता था और राजा उससे भी रत्न (राज्याधिकार के प्रतीक) की याचना करता था।

रथक्रान्त : (1) महासिद्धसार नामक शाक्त ग्रन्थ में 192 ग्रन्थों की सूची लिखित है, जो 64 के तीन खण्डों में विभक्त हैं। इन तीन खण्डों के नाम हैं विष्णुक्रान्त, रथ-क्रान्त तथा अश्वक्रान्त। यह सूची यथेष्ट आधुनिक है, क्योंकि इसमें महानिर्वाणतन्त्र भी सम्मिलित है तथा 192 में से केवल 10 ही वामकेश्वर तन्त्र की सूची से मिलते हैं।

(2) रथक्रान्त एक प्राचीन महाद्वीप (संभवतः अफ्रीका) का नाम है।

रथनवमी : आश्विन की शुक्ल नवमी अथवा कृष्ण पक्ष की नवमी (हेमाद्रि) को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस अवसर पर उपवास रखते हुए दुर्गाजी की आराधना या पूजा करनी चाहिए। दर्पणों, चौरियों, वस्त्रों, छत्र, मालाओं से सज्जित रथ में महिष (भैंसा) पर विराजी हुई दुर्गाजी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए और रथ को नगर के मुख्य-मुख्य सड़कों पर घुमाकर दुर्गाजी के मन्दिर तक ले जाना चाहिए। रात्रि को नृत्य-गान करते हुए जागरण करना चाहिए। दूसरे दिन दुर्गाजी की प्रतिमा को स्नान कराकर रथ को दुर्गाजी को भेंट कर देना चाहिए।

रथयात्रा : किसी देवता की प्रतिमा को रथ में स्थापित कर उसका जुलूस निकालना रथयात्रा कहलाता है। हेमाद्रि, कृत्यरत्नाकर, भविष्यपुराण दुर्गा देवी, सूर्य, ब्रह्माजी आदि की रथयात्रा का वर्णन करते हैं, जिसे 'पूजाप्रकाश' ने भी उद्धृत किया है। गदाधरपद्धति में पुरुषोत्तम की बारह यात्राओं तथा भुवनेश्वर की चौदह यात्राओं का वर्णन है। हेमाद्रि के मत से यह उत्सव लोगों की समृद्धि तथा सुस्वास्थ्य के लिए मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में आयोजित होना चाहिए।

रथसप्तमी : माघ शुक्ल सप्तमी। इस तिथिव्रत के सूर्य देवता हैं। षष्ठी की रात्रि को व्रत का संकल्प कर नियमों के आचरण की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। सप्तमी को उपवास करना चाहिए। सारथि और घोड़ों के सहित बनाये गये सुवर्ण के रथ को मध्याह्न काल में वस्त्रों से सज्जित कर एक मण्डप में स्थापित कर देना चाहिए। तदनन्तर केसर, पुष्पादिक से रथ का पूजन करना चाहिए। पूजनोपरान्त सूर्य भगवान् की सुवर्ण या अन्य वस्तु की प्रतिमा बनवाकर रथ में स्थापित करनी चाहिए। तदनन्तर मन्त्रोच्चारण करके रथ तथा सारथि सहित सूर्य की पूजा का जानी चाहिए। पूजा में ही अपनी मनःकामना भी अभिव्यक्त कर देनी चाहिए। उस रात्रि को गीत-संगीत, नृत्यादि करते हुए जागरण करना चाहिए। दूसरे दिन प्रातः स्नानादि से निवृत्ति होकर दान-दक्षिणा देने के बाद अपने गुरु को सुवर्ण का रथ दे देना चाहिए। भविष्योत्तर पुराण में भगवान् कृष्ण ने युधिष्ठिर को कम्बोजनरेश यशोधर्मा की कथा सुनायी है। वृद्ध यशोधर्मा का पुत्र अनेक रोगों से ग्रस्त था। इस व्रत के आचरण से वह समस्त रोगों से मुक्त होकर चक्रवर्ती सम्राट् हुआ। मत्स्यपुराण में कहा गया है कि मन्वन्तर के प्रारम्भ में सूर्य ने इसी तिथि को रथ प्राप्त किया था, अतएव इसका नाम रथसप्तमी पड़ा।

रथाङ्कसप्तमी : माघ शुक्ल षष्ठी को इस व्रत के अनुष्ठान का प्रारम्भ होता है। इस व्रत में उपवास तथा गन्धाक्षत पुष्पादि से सूर्य की पूजा का विधान है। इस दिन सूर्य की प्रतिमा के सम्मुख ही शयन करना चाहिए। सप्तमी को भी सूर्यपूजन तथा ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान है। यह क्रिया प्रति मास चलनी चाहिए। वर्ष के अन्त में सूर्य की प्रतिमा को रथ में स्थापित करके उसका जुलूस निकालना चाहिए। भविष्यपुराण (1.59.1-23) में इसे 'रथसप्तमी' बतलाया गया है।

रम्भातृतीया : (1) ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। व्रत रखने वाले को पूर्वाभिमुख होकर पञ्चाग्नियों (यथा गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, सभ्य, आहवनीय तथा उर्ध्‍वस्थ सूर्य) के मध्य में बैठना चाहिए। ब्रह्माजी तथा देवी, जो महाकाली, महालक्ष्मी, महामाया तथा सरस्वती स्वरूपा हैं, सम्मुख विराजमान होनी चाहिए। चारों दिशाओं में होम करना चाहिए। देवी के पूजन के समय आठ पदार्थ, जो 'सौभाग्याष्टक' के नाम से प्रसिद्ध हैं, प्रतिमा के सम्मुख रखने चाहिए। सायंकाल में प्रार्थनामन्त्रों के साथ भगवती रुद्राणी की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। तदनन्तर व्रतकर्ता एक सपत्नीक सद्गृहस्थ को सम्मानित करे तथा शूर्प (सूप या छाज) में रखे नैवेद्य को सधवा महिलाओं में वितरित कर दे। यह व्रत सामान्यतः स्त्रियोपयोगी है।

(2) इस व्रत का यह नाम इसलिए पड़ा कि सर्वप्रथम रम्भा नाम की अप्सरा ने स्त्रीत्व की प्राप्ति के लिए इसका आचरण किया था। मार्गशीर्ष शुक्ल को यह व्रत किया जाता है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए तथा भन्न-भिन्न नामों से प्रति मास पार्वती देवी की पूजा आराधना करनी चाहिए; यथा पार्वती मार्गशीर्ष में, गिरिजा पौष में। इस अवसर पर भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थ बनाने चाहिए तथा उन्हें खाना चाहिए।

रम्भात्रिरात्रव्रत : ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। तीन दिनपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए। यह व्रत स्त्रियों के लिए है। सर्वप्रथम स्नानादि से निवृत्त होकर व्रती स्त्री को केले के पौधे की जड़ में पर्याप्त जल छोड़ना चाहिए तथा पौधे के चारों ओर धागा लपेटना चाहिए। चाँदी का केले का पौधा और उस पर सोने के फल बनवाकर पूजना चाहिए। त्रयोदशी को नक्त विधि से एवं चतुर्दशी को अयाचित विधि से आहार करके पूर्णिमा को उपवास रखना चाहिए। वर्ष भर उस वृक्ष को सींचना चाहिए। इस अवसर पर उमा तथा शिव एवं कृष्ण तथा रुक्मिणी की भी पूजा करनी चाहिए। त्रयोदशी से पूर्णिमा तक क्रमशः 13,14 तथा 15 आहुतियों से, हवन करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से पुत्र तथा सौन्दर्य की प्राप्ती होती है तथा वैधव्य से मुक्त मिलती है। रम्भा का अर्थ कदली अर्थात् केला है। इसीलिए इस व्रत में कदली से सम्बद्ध कार्यों का विधान है।

रविवारव्रत : रविवार को नक्त विधि से आहार करना चाहिए अथवा पूर्ण उपवास रखना चाहिए। इस अवसर पर आदित्यहृदय अथवा महाश्वेता मन्त्र का जप करना चाहिए। इससे व्रती की मनःकामनाएँ पूर्ण होती हैं। इसके सूर्य देवता हैं। स्मृतिकौस्तुभ (556,557) तथा वर्षकृत्यदीपिका (423-436) में इस व्रत का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया गया है।

रविव्रत : (1) माघ मास में रवि के दिन तीन बार सूर्य का पूजन करना चाहिए। एक मास के इस आचरण से छः महीने का पुण्य प्राप्त होता है।

(2) माघ मास में रविवार के दिन व्रतारम्भ करके प्रति रविवार को सूर्य का पूजन करना चाहिए। एक वर्ष पर्यन्त इस व्रत के अनुष्ठान का विधान है। इस बीच कुछ निश्चित वस्तुओं का ही आहार करना चाहिए अथवा क्रमशः कुछ निश्चित वस्तुओं का खाने में त्याग करना चाहिए।

रसकल्याणिनी : माघ शुक्ल तृतीया को इस व्रत का आरंभ होता है। दुर्गा इसकी देवता हैं। मधु तथा चन्दन से दुर्गाजी को स्नान कराकर सर्वप्रथम प्रतिमा के दक्षिण भाग का, तदनन्तर वाम भाग का पूजन करना चाहिए। भगवती के चरणों को सर्वप्रथम प्रणाम निवेदन कर उनके भिन्न-भिन्न नाम लेकर मस्तक के मुकुट तक सभी अवयवों को प्रणाम निवेदन करना चाहिए और इसी प्रकार पूजा करनी चाहिए। माघ से कार्तिक तक प्रति मास बारह में से एक वस्तु का त्याग करना चाहिए। बारह वस्तुएँ ये हैं---नमक, गुड़, तवराज, मधु, पानक, जीरक, दुग्ध, दधि, घी, मर्जिका (रसाला अथवा शिखरिणी), धान्यक (धनियाँ), शर्करा। मास के अन्त में त्यक्त वस्तु को एक पात्र में भरकर तथा एक अन्य सुन्दर खाद्य पदार्थ रखकर दान करना चाहिए। वर्ष के अन्त में गौरी की सुवर्ण प्रतिमा का दान करना चाहिए। इस व्रत के परिणामस्वरूप पाप, शोक तथा रोगों से पूर्ण रूप से मुक्ति मिलती है।

रस के पद : वृन्दावनस्थ हरिदासी सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक स्वामी हरिदासजी रचित पदों का संग्रह, जो ब्रजभाषा में माधुर्यभाव की उपासना का निरूपण करता है। रचनाकाल सोलहवीं शती का मध्य या अन्त है।

रसविद्या : गोरखनाथी येगमत में जहां योगासन, नाड़ीज्ञान, षट्चक्र निरूपण तथा प्राणायाम द्वारा समाधि समाधि प्राप्ति का मुख्‍य उद्देश्‍य है, वहां शारीरिक पुष्टि पुष्टि तथा पंचमहाभूतों पर विजय की सिद्धि के लिए रसविद्या का भी विशेष स्‍थान है। इस रसविद्या अथवा रसायन के द्वारा अभ्‍यासी की मानसिक स्थितियों को प्रभावित किया जाता है।

रसा : ऋगवेद के तीन परिच्‍छेदों ((1.1.2; 5.53.9; 10.75.6) में रसा उस जलधारा (नदी) का नाम है जो भारत की उत्‍तर-पश्चिम दिशा में बहती थी। अन्‍य स्‍थान पर ((ऋग्‍वेद 5.41.15; 9.41.6; 10.100; 1-2) यह नाम पौराणिक धारा का है जो पृथ्‍वी के सिरे पर है। कुछ विद्वान रसा का समानार्थक शब्‍द 'अवेस्‍ता' का 'रन्‍हा' बतलाते हैं। किंतु यह शब्‍द प्रारंभिक रूप से जल के गुणों का बोधक है जो सरस्‍वती या किसी भी नदी के लिए व्‍यवह्त हो सकता है। वैदिक युग की राज्‍य सीमा में रसा नामक नदी पश्चिम में, गंगा पूर्व में, उत्‍तर में हिमाच्‍छादित पर्वत तथा दक्षिण में सिंधु आता है।

रसेश्वर : मध्यकालीन शैवों के दो मुख्य सम्प्रदाय थेः पाशुपत तथा आगमिक एवं इन दोनों के भी पुनर्विभाजन थे। पाशुपत के छः विभाग थे, जिनमें छठा वर्ग 'रसेश्वरों' का था। माधव ने इस (रसेश्वर) वर्ग का वर्ण 'सर्वदर्शनसंग्रह' में किया है। यह उपसम्प्रदाय अधिक दिनों तक न चल सका। इसका अनोखा सिद्धान्त यह था कि शरीर को अमर बनाये बिना मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता और यह अमर शरीर केवल रस (पारद) की सहायता से ही प्राप्त किया जा सकता है, जिसे वे शिव व पार्वती के सर्जनात्मक मिलन के फलस्वरूप ही उत्पन्न मानते थे। दिव्य शरीर प्राप्त करने के बाद भक्त योगाभ्यास से परम तत्त्व का आन्तरिक ज्ञान प्राप्त करता है तथा इस जीवन से मुक्त हो जाता है। अनेक प्राचीन आचार्य तथा ग्रन्थ इस मत से सम्बन्धित कहे गये हैं। पदार्थनिर्णय के सम्बन्ध में प्रत्यभिज्ञा और रसेश्वर दोनों दर्शनों का मत प्रायः समान है। रसेश्वर दर्शन के अनुयायी शिवसूत्रों को प्रमाण मानते हैं। ये शङ्कराचार्य के अद्वैत सिद्धान्त के पोषक हैं। विक्रम की दसवीं शताब्दी में सोमानन्द ने शिवदृष्टि नामक ग्रन्थ लिखकर इस मत की अच्छी व्याख्या की।

रहस्यप्रायश्चित : धर्मशास्त्र के तीन मुख्य विषयों में एक विषय प्रायश्चित्त है, अन्य दो हैं व्यवहार (दण्ड या न्याय प्रक्रिया) और आचार (धार्मिक प्रथा)। प्रायश्चित अनेक प्रकार के कहे गये हैं, 'रहस्यप्रायश्चित' (गुप्त प्रायश्चितों) का भी वर्णन आया है। ये उन अपराधों के शमनार्थ किये जाते हैं जो खुले तौर पर किसी को ज्ञात न हों।

राक्षस : वैदिक कालीन राक्षसों की कल्पना का आधार मानव के हानिप्रद, रहस्यात्मक अनुभव थे। यथा सर्दी के अनुभव, अंधकार, सूखा, बीमारी आदि की उत्पत्ति में किसी न किसी राक्षसी शक्ति की कल्पना की गयी। मानवों के दुःख एवं विपत्तियाँ असंख्य हैं, उन्हीं के अनुसार राक्षस भी असंख्य हैं, जो उनके कारण हैं। इस प्रकार वैदिक काल में प्रत्येक भय, प्रत्येक बीमारी, विपत्ति शारीरिक कष्ट का कारण कोई न कोई राक्षस या यातु (जादू) होता था।

राक्षसों को कच्चा मांस, मनुष्य का मांस, पशु एवं घोड़ों का मांस भक्षण करने वाला कहा गया है। वे अन्धकार में उन्नति करते हैं तथा यज्ञों को भ्रष्ट करने में आनन्दानुभव करते हैं। नैतिक गुणों की दृष्टि से राक्षस तथा जादूगर समान हैं। वे मूर्ख हैं, स्तुति से घृणा करने वाले हैं, बुरा करने वाले हैं, धूर्त हैं, चोर-डाकू हैं, झूठे हैं। राक्षस अंधेरे को प्यार करते हैं तथा अनेक रात्रि पक्षियों, यथा उलूक, कपोत, गृद्ध, चील के रूप में दीख पड़ते हैं तथा रहस्यात्मक बोलियाँ बोलते हैं। राक्षसियाँ भी होती हैं जो संख्या में देवियों से अधिक हैं और राक्षसों के समान ही दुष्ट तथा क्लेश देनेवाली होती हैं।

यज्ञ का देवता अग्नि तथा मध्याकाश के नियुताग्नि का देवता इन्द्र राक्षसों के शत्रु हैं। इसलिए अनेक विरुदों के साथ उन्हें राक्षसों को मारनेवाला, दबा देने वाला, टुकड़ा-टुकड़ा कर देने वाला कहा गया है। निस्सन्देह प्रकाश व अन्धकार का युद्ध सृष्टि में चला आ रहा है। रात में विचरने वाले राक्षस, जो यज्ञों को नष्ट करते हैं तथा अच्छे व्यक्तियों को हानि पहुँचाते हैं, बुराई तथा पाप के प्रतिरूप हैं। उनका स्थान है तलहीन अन्धकार का खड्ड। इसमें वे इन्द्र के तीक्ष्ण वज्र द्वारा मारे जाते हैं। राक्षस अपने स्थान को लौट जाते हैं। जो व्यक्ति उनके जैसे गुणों वाले हैं, वे भी वहीं जाते हैं। यहाँ नरक का संकेत है।

पुराणों और संस्कृत साहित्य में बहुत सी मानवजातियों को राक्षस कहा गया है। राक्षस शब्द आगे चलकर अनैतिक अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। दुष्ट और शत्रु भी राक्षस कहे जाने लगे।

राघवदासाचार्य : वीरराघवदासाचार्य श्रीवैष्णव वरदाचार्य के शिष्य थे। उनके पिता का नाम नरसिंह गुरु था। वाधूल वंश में उनका जन्म हुआ था। उन्होंने 'तत्त्वसार' पर 'रत्नप्रसारिणी' नामक टीका लिखी है जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है।

राघवद्वादशी : ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस अवसर पर राम तथा लक्ष्मण की सुवर्ण प्रतिमाओं का पूजन करना चाहिए। चरणों से प्रारम्भ कर भगवान के शरीरावयवों का भिन्न-भिन्न नामों को लेते हुए पूजन करना चाहिए। प्रातःकाल रामलक्ष्मण के पूजन के उपरान्त एक लोटा में घी भरकर दान करना चाहिए। इस आचरण से व्रती युगों तक स्वर्ग में निवास करता है। इससे पापों का क्षय होता है। यदि व्रती निष्काम रहता है तो उसे मोक्ष की उपलब्धि होती है।

राघवाङ्क : वीरशैवाचार्य राघवाङ्क हरिहर के शिष्य थे। ये 14वीं शताब्दी में हुए थे तथा इन्होंने 'सिद्धराय' नामक एक कर्नाटकी पुराण लिखा है।

राघवेन्द्रपति : इन्होंने तैत्तिरीयोपनिषद् की वृत्ति, बृहदारण्यक उपनिषद् की खण्डाग्रवृत्ति एवं माण्डूक्योपनिषद् की वृत्ति लिखी है। राघवेन्द्रपति तथा राघवेन्द्र स्वामी एक ही व्यक्ति हैं यह कहा नहीं जा सकता।

राघवेन्द्र स्वामी : माध्व मतावलम्बी संत एवं ग्रन्थकार। इन्होंने जयतीर्थाचार्य की टीका पर वृत्ति लिखी है। जयतीर्थ के प्रधान-प्रधान सब ग्रन्थों पर इन्होंने वृत्ति लिखी है। इनके ग्रन्थों के नाम हैं, तत्त्वोद्योतटीकावृत्ति, न्यायकल्पलतावृत्ति, तत्त्वप्रकाशिकावृत्ति, भावद्वीप, वादावलीटीका, मन्त्रार्थमञ्जरी, तत्त्वमंजरी और गीताविवृति। इन्होंने ईश, केन, प्रश्न, मुण्डक, छान्दोग्य तथा तैत्तिरीय उपनिषदों के खण्डार्थ प्रस्तुत किये। इनके ग्रन्थों की भाषा सरल है। ये सम्भवतः सत्रहवीं शताब्दी में वर्तमान थे। राघवेन्द्र यति तथा राघवेन्द्र स्वामी एक ही व्यक्ति हैं।

राजकर्ता (राजकृत) : यह विरुद अथर्ववेद तथा ब्राह्मणों में उनके लिए व्यवहृत है जो स्वयं राजा नहीं होना चाहते थे, किन्तु दूसरों को राजा बनाने में समर्थ थे। ये राजा के अभिषेक में सहायता करते थे। शतपथ ब्रा० में सूत, ग्रामणी (ग्रामप्रमुख) आदि इनमें सम्मिलित हैं। राजसूय तथा राज्याभिषेक दोनों में राजकर्ता (बहुवचन= राजकर्तारः) का बड़ा महत्त्व था।

राजगृह : गया जिले (बिहार) में स्थित प्राचीन तीर्थ और राजा जरासन्ध की राजधानी। यह सनातनधर्मी, बौद्ध, जैन तीनों का पुण्यस्थल है। पाटलिपुत्र की स्थापना से पूर्व राजगृह ही मगध की राजधानी थी। पुरुषोत्तम मास में बहुत यात्री यहाँ आते हैं। यहाँ दर्शन करने योग्य स्थान भी पर्याप्त हैं। इनमें ब्रह्मकुण्ड, केदारनाथ, सीताकुण्ड वैतरणी, वानरीकुण्ड, सोनभण्डार आदि प्रसिद्ध हैं।

राजन्यबन्धु : राजन्यबन्धु का अर्थ राजन्य ही है किन्तु मूल्यांकन में राजन्यबन्धु राजन्य से घटकर है। शतपथ ब्रा० में जनक को राजन्यबन्धु कहा गया है, जिन्होंने ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में हरा दिया था। प्रवाहण जैवलि को भी बृह० उप० में राजन्यबन्धु कहा गया है। शतपथ के एक और परिच्छेद (10.5.2010) में, जहाँ पुरुषों के स्त्रियों से अलग खाने की चर्चा है, राजन्यबन्धु को तब तक घृणात्मक नहीं दर्शाया गया है जब तक कि वास्तव में कोई ब्राह्मण किसी राजकुमार के प्रति घृणा न व्यक्त करे। फिर चारों वर्णों के वर्णन में (शत० 1.1.4.12) वैश्य को राजन्यबन्धु के पहले स्थान प्राप्त है जो विचित्र है। ऐसा लगता है कि राजन्य (क्षत्रिय) के वे भाई-बन्धु, जो कर्मणा अथवा पदेन राजन्य नहीं होते थे, राजन्यबन्धु कहलाते थे। कुछ ऐसा ही दृष्टिकोण 'ब्रह्मबन्धु' के लिए भी है।

राजमार्त्तण्ड : योगसूत्र की यह व्याख्या धारा नगरी के महाराज भोज ने (1010--55ई०) लिखी थी। यह बहुत स्पष्ट तथा सरल है। योगशास्त्राभ्यासी सम्प्रदाय में इसका भी विशेष महत्त्व है।

राजयोग : योगमार्ग का एक सम्प्रदाय। यह हठयोग से भिन्न है। हठयोग में शारीरिक क्रियाओं द्वारा चित्तवृत्तिनिरोध की प्रक्रिया पर बल दिया जाता है। राजयोग में बौद्धिक अनुशासन पर अधिक बल दिया जाता है।

राजराजेश्वरव्रत : बुधवार को स्वाती नक्षत्रयुक्त अष्टमी हो तो उस दिन उपवास करना चाहिए। उस दिन भगवान् शिव को अनेक स्वादिष्ट खाद्यान्न, मिष्टान्न तथा नैवेद्य अर्पण करने चाहिए। व्रती शिवपूजन के पश्चात् आचार्य को हार, मुकुट, करधनी, कर्णाभरण, अँगूठियाँ, हाथी अथवा घोड़े का दान दे। इस कृत्य से वह असंख्य वर्षों के लिए कुबेर के समान पद प्राप्त करने में समर्थ होता है। 'राजराज' का अर्थ है कुबेर, जो शिवजी के मित्र हैं। कदाचित् राजराजेश्वर का अर्थ भी शिव अथवा कुबेर हो (जो यक्षों के स्वामी हैं)।

राजराजेश्वररीतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' की चौसठ तन्त्रों की सूची में राजराजेश्वरीतन्त्र भी उद्धृत है।

राज्ञीस्नापन : चैत्र कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। कश्मीर प्रदेश में अनुमानतः चैत्र कृष्ण पञ्चमी से भूमि का 'रजस्वलाव्रत' रखा जाता है। उसके बाद प्रत्येक घर में सधवा महिलाएँ पुष्पों और चन्दन के प्रलेप से भूमि का मार्जन-शोधन करती हैं। उसके पश्चात् ब्राह्मण लोग सर्वोषधिमिश्रित जल से भूमि का सिंचन करते हैं।

राज्यद्वादशीव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल की दशमी को इस व्रत का संकल्प लेना चाहिए तथा एकादशी को उपवास करते हुए विष्णु का पूजन करना चाहिए। अच्छे खाद्यान्नों से होम करना चाहिए। इस व्रत में रात्रि को जागरण का विधान है। नृत्य तथा गीत इस अवसर पर अवश्य होने चाहिए। एक वर्ष तक इसका आचरण करना चाहिए। समस्त द्वादशियों को पूर्ण रूप से मौन धारण करना चाहिए। कृष्ण पक्ष की द्वादशी को भी उसी प्रकार के विधि-विधानों का पालन करना चाहिए, केवल भगवान् की पूजा को छोड़कर, जो रक्तिम वस्त्र धारण करने के उपरान्त होगी। इस अवसर पर जलाये जाने वाले दीपकों में तेल भरना चाहिए, घी नहीं। इस व्रत के आचरण से व्रती घाटियों का राजा होता है। वह तीन वर्षों में मण्डलेश्वर (प्रान्तीय राज्यपाल) तथा 12 वर्षों में पूर्ण राजा बन जाता है।

राज्यव्रत : ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को वायु, सूर्य तथा चन्द्रमा का पूजन करना चाहिए। किसी पवित्र स्थल पर प्रातः काल वायु का पूजन करना चाहिए, मध्याह्न काल में अग्नि में सूर्योपासना तथा जल में सूर्यास्त के समय चन्द्रोपासना करनी चाहिए। एक वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए। इस आचरण से व्रती को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। यदि इसका आचरण लगातार तीन वर्षों तक किया जाय तो हजारों वर्ष तक स्वर्ग में निवास होता है।

राज्याप्तिसप्तमी : कार्तिक शुक्ल दशमी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। विश्वेदेवों (क्रतु, दक्ष आदि) के रूप में भगवान् केशव का मण्डल बनाकर या (स्वर्ण या रजत की) मूर्ति रूप में स्थापित कर पूजन करना चाहिए। वर्ष के अन्त में स्वर्ण का दान करना चाहिए। इससे विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। इसके अनन्तर व्रती सर्वोत्तम ब्राह्मणों से युक्त राज्य का राजा हो जाता है।

राजशेखरविलास : वीरशैव मत सम्बन्धी यह कन्नड़ भाषा का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके रचयिता षडक्षरदेव हैं। रचना काल 16वीं शताब्दी है।

राजसूय : वेदकालीन सोमयज्ञ। परवर्ती साहित्य में यह राजनीतिक यज्ञ अथवा राजाओं का अभिषेक संस्कार माना गया है। सूत्रों में इसका विशद वर्णन है किन्तु ब्राह्मणों में इसकी मुख्य रूपरेखा प्राप्त होती है। यजुर्वेदसंहि‍ता में इसमें प्रयोग किये जाने वाले मन्त्र सुरक्षित हैं। राजसूय की मुख्य क्रियाएँ निम्नांकित थीं :

राजा को उसके पदानुसार वस्त्राभूषणों से सुसज्जित किया जाता था तथा उसे सम्राट्चिह्न धनुष-बाण दिये जाते थे। वह अभिषिञ्चित होता था, किसी राजन्य के साथ कृत्रिम युद्ध करता था। वह आकाश में ऊपर उछलकर अपने को एकछत्र शासक प्रदर्शित करता था। फिर व्‍याघ्रचर्म पर चरण रखता और इस प्रकार सिंह सदृश शक्ति तथा महत्त्व प्राप्त करता था।

राज्य : (1) अथर्ववेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में नियमित रूप से इसका अर्थ 'साम्राज्यशक्ति' अथवा 'प्रभुता' है। शतपथ ब्रा० के अनुसार ब्राह्मण इसके अधिकार के अन्दर नहीं आते और राजसूय यज्ञ में राजा का पद बढ़ जाता था। वाजपेय यज्ञ में सम्राट का पद उच्च होता था। एतदर्थ सम्राट् राजा से श्रेष्ठ होता था। राजसूय यज्ञ के वर्णन के सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण राज्य, साम्राज्य, भौज्य, स्वाराज्य, वैराज्य, पारमेष्ठ्य तथा माहाराज्य आदि शब्दों का प्रयोग करता है। राज्य के कई प्रकार थे।

(2) राज्य के कर्त्तव्यों में धर्म का संस्थापन मुख्य है। कौटिल्य ने राज्य (राजा) के इस कर्त्त्व्य पर बड़ा बल दिया है---

तस्मात्सवधर्मभूतानां राजा न व्यभिचारयेत्। स्वधर्म संदधानों हि प्रेत्य चेह च नन्दति॥ व्यवस्थितार्यमर्यादः कृतवर्णाश्रमस्तितिः। त्रय्या हि रक्षितो लोकः प्रसीदति न सीदति॥

[राजा इस बात को देखे कि प्रजा अपने स्वधर्म से विचलित तो नहीं हो रही है। इस कर्त्तव्य का पालन करता हुआ राजा इस लोक और परलोक में सूखी रहता है। जब राज्य (लोक) में आर्य मर्यादा सुव्यवस्थित रहती है, वर्णाश्रम धर्म का ठीक-ठीक पालन होता है और धर्मशास्त्र (त्रयी) में विहित नियमों से देश सुरक्षित रहता है तब प्रजा प्रसन्न रहती है और कभी क्लेश को नहीं प्राप्त होती।]

राणक : कर्ममीमांसा के आचार्य सोमेश्वरकृत 'न्यायसुधा' का ही अन्य नाम 'राणक' है। इसका रचनाकाल 1400 ई० के लगभग है।

राणायनीय : सामवेद संहिता के तीन संस्करण पाये जाते हैं--(1) कौथुमी (2) जैमिनीय तथा (3) राणायनीय। राणायनीय का प्रचार महाराष्ट्र में है। इस शाखा की भी उपशाखाएँ बतायी जाती हैं; राणायनीय, शाक्षयणीय, सत्यमुद्गल, मुद्गल, मरास्वन्व, दाङ्गन, कौथुम, गौतम और जैमिनीय। राणायनीय संहिता में पूर्वार्चिक एवं उत्तरार्चिक दो विषय हैं। पूर्वार्चिक में ग्रामगेयगान और अरण्यागान दो विभाग हैं। उत्तरार्चिक में ऊहगान तथा उह्यगान, दो विभाग हैं। इस संहिता में जितने मंत्र हैं, पाठ भेद के साथ सभी ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं।

रात्रि : ऋग्वेद (10.70.6) में रात्रि एवं उषा को अग्नि का रूप कहा गया है। वे एक युग्म देवत्व की रचना करती हैं। दोनों आकाश (स्वर्ग) की बहिन तथा ऋत की माता हैं। रात्रि के लिए केवल एक ऋचा है (10.12.7)।

मैकडॉनेल के अनुसार रात्रि को अन्धकार का प्रतियोगी रूप मानकर 'चमकीली रात' कहा गया है। इस प्रकार प्रकाशपूर्ण रात्रि घने अन्धकार के विरोध में खड़ी होती है।

राधा : महाभारत में कृष्ण की कथा के साथ राधा का उल्लेख नहीं हुआ है। न तो भागवत गण और न माध्व ही राधा को मान्यता देते हैं। वे भागवत पुराण के बाहर नहीं जाते हैं। किन्तु सभी परवर्त्ती सम्प्रदाय, जो अन्य कुछ महापुराणों को महत्त्व देते हैं, राधा को मान्यता देते हैं।

भागवत पुराण में एक गोपी का कृष्ण इतना सम्मान करते हैं कि उसके साथ अकेले घूमते हैं तथा अन्य गोपियाँ उसके इस भाग्य को देखकर यह अनुमान करती हैं कि उस गोपी ने पूर्व जन्म में अधिक भक्ति से कृष्ण की आराधना की होगी। यही वह स्रोत है जिससे राधा नाम की उत्पत्ति होती है। यह शब्द 'राध्' धातु से निर्मित है, जिसका अर्थ है सोच-विचार करना, संपन्न करना, आनन्द या प्रकाश देना। इस प्रकार राधा 'उज्ज्वल आनन्द देने वाली' हैं। इसका प्रथम कहाँ उल्लेख हुआ, यह कहना कठिन है। एक विद्वान् के मत से राधा का प्रथम उल्लेख 'गोपालतापनीयोपनिषद्' में हुआ है जहाँ 'राधा' का वर्णन है और वह सभी राधा-उपासक सम्प्रदायों द्वारा आदृत है। आचार्य निम्बार्क का सम्प्रदाय राधा को सर्वप्रथम और सर्वोपरि मान्यता देता है। विष्णुस्वामी संप्रदाय भी राधा को स्वीकार करता है। परम्परागत मध्व, विष्णुस्वामी, फिर निम्बार्क क्रमबद्ध भागवत वैष्णवों के आचार्य हैं। मध्व राधा का वर्णन नहीं करते। विष्णु-स्वामी-साहित्य बहुत कुछ मध्व से मिलता-जुलता है, जब कि निम्बार्क ने राधा को विशेषता देकर नया उपासनाक्रम चलाया। मध्व के पूर्व उत्तर भारत में राधा सम्बन्धी गीत गाये जाते थे तथा उनकी पूजा भी होती थी, क्योंकि जयदेव का गीतोगोविन्द बारहवीं शताब्दी के अन्त की रचना है। बंगाल में माना जाता है कि जयदेव राधा प्रेयसी हैं, जबकि निम्बार्क राधा को कृष्ण की स्वकीया पत्नी मानते हैं। यद्यपि राधा-सम्प्रदाय के पर्याप्त प्रमाण प्राप्त नहीं होते हैं, किन्तु अनुमान लगाया जाता है कि भागवत पुराण के आधार पर वृन्दावन में राधा की पूजा 1100 ई० के लगभग आरम्भ हुई। फिर यह बंगाल तथा अन्य प्रदेशों में फैली। इस अनुमान को ऐतिहासिक तथ्य मान लें तो जयदेव की राधा सम्बन्धी कविता तथा निम्बार्क एवं विष्णुस्वामी सम्प्रदायों का राधावाद स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। तब यह सम्भव है कि निम्बार्क ने अपने राधावाद को वृन्दावन में विकसित उस समय किया हो जब विष्णुस्वामी अपने सिद्धान्त का दक्षिण में प्रचार कर रहे हों। दे० 'राधावल्लभीय'।

राधावल्लभ (सम्प्रदाय) : (राधा के प्रिय) कृष्ण का उपासक एक प्रेममार्गी सम्प्रदाय, जिसकी स्थापना देवबन्ध (सहारनपुर) के पूर्वनिवासी गोस्वामी हरिवंशजी ने वृन्दावन में की।

राधावल्लभीय : गोस्वामी हरिवंश उपनाम हितजी आरम्भ में माध्वों तथा निम्बार्कों के घनिष्ठ सम्पर्क में थे। किन्तु उन्होंने अपना नया सम्प्रदाय सन् 1585 ई० में स्थापित किया, जिसे राधावल्लभीय कहते हैं। इस सम्प्रदाय का सबसे प्रमुख मन्दिर वृन्दावन में वर्तमान है, जो राधा के वल्लभ (प्रिय) कृष्ण का मन्दिर है। संस्थापक के तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं--राधासुधानिधि (170 संस्कृत छन्दों में), चौरासी पद तथा स्फुट पद (हिन्दी)। इस प्रकार हितजी ऐसे भक्त हैं जो राधा को कृष्ण से उच्च स्थान देते हैं। सम्प्रदाय के एक सदस्य का मत है कि कृष्ण राधा के सेवक या दास हैं, वे संसार की सुरक्षा का काम कर सकते हैं, किन्तु राधा रानी जैसी बैठी रहती हैं। वे (कृष्ण) राधा के मंत्री हैं। राधावल्लभीय भक्त राधा की पूजा आराधना द्वारा कृष्ण की कृपा प्राप्त करना अपना लक्ष्य मानते हैं।

राधाष्टमी : भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को राधा अष्टमी कहते हैं। राधा भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में सप्तमी को उत्पन्न हुई थीं। अष्टमी को राधा का पूजन करने से अनेक गम्भीर पाप नष्ट हो जाते हैं।

राधासुधानिधि : राधावल्लभीय सम्प्रदाय का एक स्तोत्र ग्रन्थ। यह संस्कृत का पद्यात्मक मधुर काव्य है जिसमें राधाजी की प्रार्थना की गयी है। दे० 'राधावल्लभीय'।

राधास्वामी मत : उपनाम 'सन्तमत'। इसके प्रवर्त्तक हुजूर राधास्वामी दयालु थे, जिन्हें आदरार्थ स्वामीजी महाराज कहा जाता था। जन्मनाम शिवदयालुसिंह था। इनका जन्म खत्री वंश में आगरा के मुहल्ला पन्नीगली में विक्रम सं० 1875 की भाद्रपद कृष्ण को 12॥ बजे रात में हुआ। छः सात वर्ष की अवस्था से ही ये कुछ विशेष लोगों को परमार्थ का उपदेश देने लगे। इन्होंने किसी गुरु से दीक्षा नहीं ली, हृदय में अपने आप परमार्थज्ञान का उदय हुआ। 15 वर्षों तक लगातार ये अपने घर की भीतरी कोठरी में बैठकर 'सुरत शब्दयोग' का अभ्यास करते रहे। बहुत से प्रेमी सत्संगियों के अनुरोध और बिनती पर आपने संवत् 1917 की वसन्तपञ्चमी से सार्वजनिक उपदेश देना प्रारम्भ किया और तब से 17 वर्ष तक लगातार सत्सङ्ग जारी रहा। इस अवधि में देश-देशान्तर के बहुत से हिन्दू, कुछ मुसलमान, कुछ जैन, कोई-कोई ईसाई, सब मिलकर लगभग 3000 स्त्री-पुरुषों ने सन्तमत या राधास्वामी पंथ का उपदेश लिया। इनमें दो-तीन सौ के लगभग साधु थे। स्वामीजी महाराज 60 वर्ष की अवस्था में सं० 1935 वि० में राधास्वामी लोक को पधारे।

आप का स्थान 'हुजूर महाराज' राय सालिगराम बहादुर माथुर ने लिया, जो पहले उत्तर-प्रदेश के पोस्टमास्टर जनरल थे। इन्हीं के गुरुभाई जयमलसिंह ने व्यास (पंजाब) में, बाबा बग्गासिंह ने तरनतारन में और बाबा गरीबदास ने दिल्ली में अलग-अलग गद्दीयां स्थापित कीं। परन्तु मुख्य गद्दी आगरे में तब तक रही जब तक हुजूर महाराज सद्गुरु रहे। इनके बाद महाराज साहब पंडित ब्रह्मशंकर मिश्र गद्दी के उत्तराधिकारी हुए। इनके पश्चात् श्री कामताप्रसाद सिन्हा उपनाम सरकार साहब गाजीपुर में रहे और बुआजी साहिबा स्वामीवाग की देखरेख करती रहीं। सरकार साहब के उत्तराधिकारी सर आनन्दस्वरूप 'साहबजी महाराज' हुए जिन्होंने आगरा में दयालबाग की स्थापना की।

इस प्रकार पन्थ की स्थापना के 70 वर्षों के भीतर मुख्य गद्दी के अतिरिक्त सात गद्दियाँ और चल पड़ी। इस पन्थ में जाति-पाँति का बन्धन नहीं है। हिन्दू संस्कृति का विरोध अथवा बहिष्कार तो नहीं है, परन्तु उसकी ओर से उदासीनता अवश्य है। यह सुधारवादी सम्प्रदाय है। राधास्वामी पन्थ केवल निर्गुण योगमार्ग का साधक कहा जा सकता है।

राम : विष्णु के भक्तों को वैष्णव कहते हैं, साथ ही विष्णु के दो अवतारों (राम तथा कृष्ण) के प्रति भक्ति रखने वाले भी वैष्णव धर्मावलम्बी ही माने जाते हैं। राम सम्प्रदाय आधुनिक भारत के प्रत्येक कोने में व्याप्त हो रहा है। वाल्मीकि रामायण में राम का ऐश्वर्य स्वरूप तथा चरित्र बहुत ही उच्च तथा आदर्श नैतिकता से भरपूर है। परवर्ती कवियों, पुराण और विशेष कर भवभूति (आठवीं शताब्दी का प्रथमार्द्ध) के दो संस्कृत नाटकों ने राम के चरित्र को और अधिक व्याप्ति प्रदान की। इस प्रकार रामायण के नायक को भारतीय जन ने विष्णु के अवतार की मान्यता प्रदान की। इस बात का ठीक प्रमाण नहीं है कि राम को विष्णु का अवतार कब माना गया, किन्तु कालिदास के रघुवंश काव्य से स्पष्ट है कि ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में यह मान्यता हो चुकी थी। वायुपुराण में राम के दैवी गुणों का वर्णन है। 1014 ई० में अमितगति नामक जैन लेखक ने राम का सर्वज्ञ, सर्वव्याप्त और रक्षक रूप में वर्णन किया है।

यद्यपि राम का देवत्व मान्य हो चुका था परन्तु रामउपासक कोई स्प्रदाय इस दीर्घ काल में था, इस बात का प्रमाण नहीं मिलता। किन्तु यह मानना पड़ेगा कि 11वीं शताब्दी के बाद रामसम्प्रदाय का आरम्भ हो चुका था। तेरहवीं शताब्दी में उत्पन्न मध्व, जो एक वैष्णव सम्प्रदाय के स्थापक थे, हिमालय के बदरिकाश्रम से राम की मूर्ति लाये, तथा अपने शिष्य नरहरितीर्थ को उड़ीसा की जगन्नाथ पुरी से राम की आदि मूर्ति लाने को भेजा (लगभग 1264 ई० में)। हेमाद्रि (तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध) ने रामजन्मोत्सव का वर्णन करते हुए उसकी तिथि चैत्र शुक्ल नवमी का उल्लेख किया है। आज भारत के प्रत्येक नागरिक की जिह्वा पर रामनाम व्याप्त है, चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति या सम्प्रदाय का हो। जब दो व्यक्ति मिलते हैं तो एक-दूसरे का स्वागत 'राम राम' कहकर करते हैं। बच्चों के नामों में 'राम' का सर्वाधिक प्रयोग भारत में हुआ है। मृत्युकाल तथा दाहसंस्कार पर राम का ही स्मरण होता है।

रामभक्त से सम्बन्ध रखनेवाला साहित्य परवर्ती है। रामपूजा के अनेक पद्धतिग्रन्थ हैं। सात्वत संहिता इनमें से एक है। अध्यात्मरामायण में जीवात्मा एवं राम का तादात्म्य सम्बन्ध दिखाया गया है। इसका 15वाँ प्रकरण 'रामगीता' है। भावार्थ रामायण एकानाथ नामक महाराष्ट्रीय भक्तरचित 16वीं शताब्दी का ग्रन्थ है। मद्रास से एक अन्य रामगीता प्रकाशित हुई है जो बहुत ही आधुनिक है। इसके पात्र राम और हनुमान् हैं तथा इसमें 108 उपनिषदों की सामग्री का उपयोग हुआ है। राम सम्प्रदाय का महान् उच्च ग्रन्थ है रामचरितमानस जिसे वाल्मीकीय रामायण के हिन्दी प्रतिरूप गोस्वामी तुलसीदास ने प्रस्तुत किया है। भगवद्गीता तथा भागवत पुराण जैसे कृष्णसम्प्रदाय के लिए हैं, वैसे ही तुलसीदासकृत राम चरितमानस तथा वाल्मीकि रामायण रामसंप्रदाय के लिए पारायण ग्रन्थ हैं।

रामानुजाचार्य की परम्परा में स्वामी रामानन्द ने 14वीं शताब्दी में 'रामावत' उपनामक रामसम्प्रदाय की स्थापना की। कील्हदास नामक एक सन्त ने रामानन्द से अलग होकर 'खाकी' सम्प्रदाय प्रचलित किया। दे० 'श्रीराम'।

रामोत्तरतापनीय उपनिषद् : राम सम्प्रदाय की यह उपनिषद् प्राचीन उपनिषदों के परिच्छेदों के गठन से बनी है और परवर्त्ती काल की है।

रामकृष्ण : कर्ममीमांसा के एक आचार्य (1600 वि०) जिन्होंने पार्थसारथि मिश्र द्वारा रचित 'शास्त्रदीपिका' की 'सिद्धान्तचन्द्रिका' नामक टीका लिखी।

(2) विद्यारण्य के एक शिष्य का नाम भी रामकृष्ण था, जिन्होंने 'पञ्चदशी' की टीका लिखी।

रामकृष्ण दीक्षित : लाट्यायन श्रौतसूत्र (सामवेद) के एक भाष्यकार। साममन्त्रों पर जो सामवेद का व्याकरण ग्रन्थ है और जिसका एक नाम 'सामलक्षणम्--प्रातिशाख्य-सूत्रम्' भी है, उस पर रामकृष्ण दीक्षित ने वृत्ति लिखी है।

रामकृष्ण परमहंस : कलकत्ता के निकटस्थ दक्षिणेश्वर के स्वामी रामकृष्ण परमहंस प्रसिद्ध शाक्त महात्मा थे। इनके एक गुरु तोतापुरी दसनामी संन्यासियों की शाखा के थे। ये उच्च कोटि के साधक संत थे। कहते हैं कि स्वयं भगवती दुर्गा ने दर्शन देकर इनको कृतार्थ किया था। इनके नाम को अमर किया इनके योग्य शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने। इनके प्रयत्नों के फलस्वरूप रामकृष्ण परमहंस के नाम पर न केवल भारतव्यापी वरन् विश्वव्यापी 'मिशन' कार्यरत है जो अनेकानेक क्षेत्रों में, देश व विदेशों में अपनी सेवाएँ वितरित कर रहा है। इस मिशन की देख-रेख में शैक्षणिक संस्थाएँ, औषधालय, पुस्तकालय, अनाथालय एवं साधनाश्रम, मठ आदि चल रहे हैं।

रामकृष्ण : महाराष्ट्र के भागवत लोग आज भी प्राचीन भागवत मन्त्र 'ओम् नमो भगवते वासुदेवाय' का प्रयोग करते हैं, जबकि सार्वजनिक प्रयोग में विष्णुस्वामी मन्त्र 'राम कृष्ण हरि' ही प्रचलित है।

रामगीता : दे० 'राम'।

रामचन्द्रगृह्यसूत्रपद्धति : रामचन्द्र नामक एक विद्वान् ने नैमिषारण्य में रहकर शांखायनगृह्यसूत्र का एक भाष्य रचा है। इसे रामचन्द्रगृह्यसूत्रपद्धति कहते हैं।

रामचन्द्रतीर्थ : आनन्दतीर्थ (वैष्णवाचार्य मध्व) ने ऋग्वेदसंहिता के कुछ अंशों का श्लोकबद्ध भाष्य किया था। रामचन्द्रतीर्थ ने उस भाष्य की टीका लिखी है।

रामचन्द्रदोलोत्सव : चैत्र शुक्ल तृतीया को इस उत्सव का विधान है। रामचन्द्रजी की प्रतिमा झूले में विराजमान कर उसे एक मास तक झुलाना चाहिए। जो लोग राम की प्रतिमा को झूला झूलते हुए देखते हैं उनके सहस्रों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं।

रामचरन : कबीर की शिक्षाओं से प्रभावित होकर अनेक छोटे-मोटे सम्प्रदाय स्थापित हुए। इनमें 'रामसनेही' सम्प्रदाय भी एक है। इसके संस्थापक थे महात्मा रामचरन, जिनका स्थितिकाल 18वीं शताब्दी का उत्तरार्ध कहा जाता है। रामचरन ने अपनी शिक्षाओं और भजनों का संग्रह 'बानी' नाम से लिखा है।

रामचरितमानस : यह रामसम्प्रदाय का पवित्र, पठनीय और प्रामाणिक ग्रन्थ है। इसकी रचना लगभग 1584 ई० में काशी में गोस्वामी तुलसीदास ने की। इसकी भाषा अवधि है, किन्तु इस पर व्रजभाषा और भोजपुरी का भी प्रभाव है। इसकी अधिकांश सामग्री वाल्मीकीय रामायण से ली गयी है। परन्तु इस ग्रन्थ में भारतीय परम्परा का सारांश संगृहीत और प्रतिपादित हैं।

रामचरितमानस में निबन्ध रूप से भगवान् राम का चरित्र वर्णित है। इसमें सात सोपान अथवा काण्ड हैं--(1) बालकाण्ड (2) अयोध्याकाण्ड (3) अरण्यकाण्ड (4) किष्किन्धाकाण्ड (5) सुन्दरकाण्ड (6) लंकाकाण्ड (7) उत्तरकाण्ड। रामचरितमानस मूलतः काव्य है किन्तु इसका उद्देश्य है भारतीय धर्म और दर्शन का प्रतिपादन करना। इसलिए इसमें उच्च दार्शनिक विचार, धार्मिक जीवन और सिद्धान्त-वर्णाश्रम, अवतार, ब्रह्मनिरूपण और ब्रह्मसाधना, सगुण-निर्गुण, मूर्तिपूजा, देवपूजा, गो-ब्राह्मण रक्षा, वेदमार्ग का मण्डन, अवैदिक और स्वच्छन्द पन्थों की आलोचना, कुशासन की निन्दा, कलियुगनिन्दा, रामराज्य की प्रशंसा आदि विषयों का सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। इसी प्रकार पारिवारिक सम्बन्ध और प्रेम, पातिव्रत, पत्नीव्रत, सामाजिक व्यवहार, नैतिक आदर्श आदि का विवेचन भी इसमें यत्र-तत्र भरा पड़ा है। मध्ययुग में जब चारों ओर से हिन्दू धर्म के ऊपर विपत्तियों के बादल छाये हुए थे और वेद तथा शास्त्रों का अध्ययन शिथिल पड़ गया था, तब इस एक ग्रन्थ ने उत्तर भारत में हिन्दू धर्म को सजीव और अनुप्राणित रखा। लोकभाषा में होने से सर्वसाधारण पर इसका प्रभाव व्यापक रूप से पड़ा। महाभारत की तरह इस ग्रन्थ ने भी एक प्रकार से संहिता का रूप धारण किया। धार्मिक और सामाजिक विषयों पर यह उदाहरण का काम देने लगा। इसकी लोकप्रियता का रहस्य था इसकी समन्वय की नीति। इसलिए सभी धार्मिक सम्प्रदायों ने इसका आदर किया। इस एक ग्रन्थ ने जितना लोक मङ्गल किया है उतना बहुत से पन्थ और सम्प्रदाय भी मिलकर नहीं कर पाये।

रामजयन्ती : भगवान् राम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी को हुआ था, इसलिए यह जयन्ती चैत्र शुक्ल नवमी को मनायी जाती है। इस अवसर पर व्रत, पूजा, कीर्तन, मङ्गलवाद्य, नाच, गान आदि होता है।

रामटेक : वनवास के समय राम के टिकने का स्थान या पड़ाव। यह एक तीर्थ है। नागपुर से रामटेक स्टेशन 26 मील है। वहाँ से बस्ती एक मील है। पास में रामगिरि नामक पर्वत है। ऊपर श्रीराममन्दिर है। सामने वराह भगवान् की मूर्ति है। दो मील पर रामसागर तथा अम्बासागर नामक दो पवित्र सरोवर हैं। इनके किनारे कई मन्दिर हैं। रामटेक में एक जैनमन्दिर भी है। कुछ विद्वानों का मत है कि कालिदास के मेघदूत का रामगिरी यही है। दे० मिराशी : 'कालिदास'।

रामतीर्थ स्वामी : (1) वेदान्तसार के टीकाकार। वेदान्तसार के प्रणेता स्वामी सदानन्द सोलहवीं शताब्दी में वर्तमान थे। नृसिंह सरस्वती ने सं० 1598 विक्रमी में वेदान्तसार की पहली टीका लिखी थी, रामतीर्थ उनके परवर्ती थे। अतः उनका स्थितिकाल सत्रहवीं शताब्दी होना चाहिए। उनके गुरु स्वामी कृष्णतीर्थ थे। स्वामी रामतीर्थ ने 'संक्षेपशारीरक' के ऊपर 'अन्वयार्थ प्रकाशिका' एवं शङ्कराचार्यकृत 'वेदान्तरसार' पर 'विद्वन्मनोरञ्जिनी' नाम की टीका लिखी है। इसके अतिरिक्त उन्होंने एक टीका मैत्रायणी उपनिषद् पर भी लिखी है।

(2) अध्यात्म ज्ञान और त्याग-वैराग्य के लिए प्रसिद्ध आधुनिक काल के एक आदर्श संन्यासी। ये पंजाब में उत्पन्न हुए और तीर्थराम नाम से प्रसिद्ध गणित के अध्यापक थे। विरक्त अवस्था में ये रामतीर्थ या 'रामबादशाह' कहलाते थे। देश-विदेश में पर्यटन करते हुए अन्त में ये उत्तराखण्ड में तपस्या करने लगे और इसी क्रम में गंगाप्रवाह में ब्रह्मलीन हो गये।

रामदास : (1) महाराष्ट्र के भक्तों में प्रसिद्ध संत, रामानन्दी मत से प्रभावित और कवि महात्मा नारायण हुए। पीछे इनका नाम समर्थ रामदास पड़ा। स्थितिकाल 1608 से 1681 ई० तक था। इनकी कविता सामान्य लोगों द्वारा उतनी ग्राह्य नहीं हुई, जितनी विचारशील ज्ञानियों द्वारा आदृत हुई। 1650 ई० के बाद महाराज शिवाजी पर इनका बड़ा प्रभाव हो गया था। 'दासबोध' नामक इनकी पुस्तक धार्मिक से अधिक दार्शनिक है। रामदासी नामक एक लघु सम्प्रदाय इनके नाम से प्रचलित है। इसका अपना साम्प्रदायिक चिह्न तथा पवित्र मन्त्र है। केन्द्र है इसका सतारा के निकट सज्जनगढ़, जहाँ रामदासजी की समाधि, रामचन्द्रजी का मन्दिर एवं रामदासी मठ हैं। वहाँ इस सम्प्रदाय के अनेक साधु रहते हैं।

(2) सिक्खों के दस गुरुओं में से तीसरे गुरु रामदास थे। ये अमरदास के शिष्य थे। इन्होंने अनेक पद लिखे हैं जो 'ग्रन्थ साहब' में संगृहीत हैं।

रामदासी पंथ : दे० 'रामदास'।

रामनवमी : चैत्र शुक्ल नवमी को रामनवमी कहते हैं। इसी दिन भगवान् राम का जन्म हुआ था। इस दिन वैष्णव मन्दिरों में राम का जन्मोत्सव मनाया जाता है। बहुत से तीर्थों में इस तिथि को मेला भी लगता है, अयोध्या पुरी में विशेष समारोह होता है।

रामनाथ शैव : त्रिपुरा ग्रामवासी पं० रामनाथ शैवग्रन्थ विशारद ने सन्देहभूमिका नामक एक पुस्तक लिखी है। शिवपुराण की विषयसूची का यह एक मात्र साधन है।

रामनामलेखनव्रत : इस व्रत का प्रारम्भ रामनवमी को अथवा किसी भी दिन किया जा सकता है। श्री राम का नाम एक लक्ष या एक कोटि बार लिखा जाता है। राम के नाम का एक भी अक्षर महापातकों को नष्ट करने में समर्थ है (एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्)। इस व्रत के अनुसार लिखित रामनाम का षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। राम के नाम में अद्भुत चमत्कार भरे हुए हैं, इस कारण 108 या 1000 बार रामनाम जपने का प्रचलन हो गया है। दे० व्रतराज, 330--332।

रामपूर्वतापनीयोपनिषद् : इस उपनिषद् के पर्यालोचन से जान पड़ता है कि इसकी रचना के समय या इससे पूर्व रामोपासक सम्प्रदाय प्रचलित था। इसमें राम को अवतारब्रह्म माना गया है तथा` रां रामाय नमः` यह मन्त्र कहा गया है। इसमें एक रहस्यमय यन्त्र भी अंकित है जो मुक्ति तथा आनन्ददायक कहा गया है। एक पवित्र शब्द भी लिखा गया है, जो पवित्र मन्त्र का वाहक है।

रामभक्त : तमिल देश में आज कोई विशिष्ट रामभक्त सम्प्रदाय नहीं है, किन्तु वहाँ 'रामभक्तों' अर्थात् साधुओं की भरमार है, जो राम के भजन ध्यान से ही मुक्ति प्राप्त का विश्वास करते हैं। ये वहाँ के प्राचीन रामभक्त सम्प्रदाय के अवशेष हैं।

राम भार्गवावतार : ऐतरेय ब्राह्मण में राम भार्गवावतार का वर्णन है। पुराणों के अनुसार राम (भार्गव) विष्णु के प्रसिद्ध अवतारों में से हैं, जो परशुराम भी कहलाते हैं।

राम मिश्र : श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के एक आचार्य, जो नाथ मुनि के प्रशिष्य तथा पुण्डरीकाक्ष के शिष्य थे। राम मिश्र के उपदेश के प्रभाव से यामुनाचार्य राजसम्मान छोड़कर रङ्गनाथजी के सेवक हो गये थे। एक तरह से संन्यासी यामुनाचार्य के ये गुरु थे। राममिश्र के बारे में विशेष बातें नहीं ज्ञात हैं।

राममोहन राय : बङ्गाल के प्रकाण्ड विद्वान्, सुधारक और ब्रह्मसमाज के आदि प्रवर्त्तक। सं० 1835 वि० में एक ब्राह्मण जमींदार के घर हुगली जिले के राधानगर में राजा राममोहन राय का जन्म हुआ। आरम्भ में इनकी शिक्षा पटना में अरबी-फारसी के माध्यम से हुई। इस्लाम का इन पर बड़ा प्रभाव पड़ा, फिर इन्होंने काशी में संस्कृत का पूरा अध्ययन किया। एक ओर वेदान्तदर्शन का अध्ययन तथा दूसरी ओर सूफी मत का अध्ययन करने के फलस्वरूप ये ब्रह्मवादी हो गये, मूर्तिपूजा के विरोधी तो प्रारम्भ से ही थे। बाईस वर्ष की अवस्था से अंग्रेजी पढ़कर ये ईसाइयों के सम्पर्क में आ गये। ईसाई धर्म के मूल तत्त्व को समझने के लिए इन्होंने यूनानी और इब्रानी भाषाएँ पढ़ी और ईसाइयों के त्रित्ववाद और अवतारवाद का खण्डन किया। अन्त में जाति-पाँति, मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद आदि हिन्दू मन्तव्यों के विरुद्ध प्रचार करने और एक ब्रह्म की उपासना करने के लिए सं० 1885 वि० के भाद्रपद मास में इन्होंने 'ब्रह्मसमाज' की स्थापना की। पहले इस संस्था में राममोहन राय साधारण सदस्य की तरह सम्मिलित हुए। वास्तव में ये ही उसके प्राण थे। तीन वर्ष पश्चात् ये दिल्ली के बादशाह की ओर से राजा की उपाधि और दौत्य कर्म का अधिकार लेकर इंग्लैंड गये। वहीं सं० 1890 वि० की आश्विन शुक्ल चतुर्दशी को ज्वरग्रस्त होकर ब्रिस्टल में शरीर छोड़ा। इसी नगर में उनकी समाधि बनी हुई है।

रामरंजा पंथ : सिक्खों में सहिजधारी और सिंह दो सम्प्रदाय हैं। इनके भी अनेक पंथ हैं। सहिजधारियों के छः पंथ हैं तथा सिंहों के तीन। रामरंजा पंथ सहिजधारियों की एक शाखा है। इस पंथ के चलाने वाले गुरु हरराय के पुत्र रामराय थे।

रामराज्य : हिन्दू राजनीति में राम को आदर्श राजा एवं वेण को अधम माना गया है। आज भी अच्छी राजव्यवस्था के लिए 'रामराज्य' शब्द का प्रयोग होता है। महात्मा गान्धी उसी रामराज्य की कल्पना भारतीयों के समक्ष रखा करते थे। संक्षेप में रामराज्य की कल्पना गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस रामायण में इस प्रकार की है :

दैहिक दैविक भौतिक तापा। रामराज्य सपनेहुँ नहिं व्यापा॥

[राम के राज्य में दैहिक, दैविक तथा भौतिक तीनों प्रकार के दुःख किसी को स्वप्न में भी नहीं हुए।] पूरे विवरण के लिए दे० रामचरितमानस, उत्तर काण्ड।

रामराय : सिक्खों के गुरु हरराय के पुत्र का नाम रामराय था। इन्होंने रामरंजा पंथ (सहिजधारियों की एक शाखा) चलाया। देखिए 'रामरंजा।'

रामलीला : रामायणकथा का नाटकीय रूप। उत्तर भारत के प्रमुख गाँवों तथा नगरों में शारदीय दुर्गोत्सव के समय रामलीला प्रदर्शित होती है। रामलीला का प्रचलन गोस्वामी तुलसीदासजी ने प्रारम्भ किया था। इसमें रामायण के मुख्य-मुख्य स्थल; रामजन्म, यज्ञरक्षा, स्वयंवर, वनगमन, सूर्पणखानासिका कर्त्तन, सीताहरण, राम सुग्रीव--मैत्री, सीता की खोज, राम-रावण युद्ध, भरतमिलाप, रामराजसिंहासनप्राप्ति आदि दृश्य नाटकीय ढंग से दिखाये जाते हैं। समस्त भारत में काशी एवं रामनगर की रामलीलायें प्रसिद्ध हैं। रामलीला की प्रत्येक घटना के प्रदर्शन के लिए यहाँ अलग-अलग स्थान बने हुए हैं। रामलीला की व्यवस्था भूतपूर्व काशीनरेश की ओर से होती है।

रामविजय : महाराष्ट्र भक्तों में सन्त श्रीधर (1679--1728) भी प्रसिद्ध हैं। इनकी लोकप्रिय रचना है 'रामविजय'।

रामसनेही सम्प्रदाय : इसके प्रवर्त्तक महात्मा रामचरन हैं। सम्प्रदाय की स्थापना 1650 ई० के लगभग हुई। रामचरन ने अनेक बानियाँ एवं पद रचे हैं। इस सम्प्रदाय के तीसरे गुरु दूल्हाराम ने 10,000 पद एवं 4,000 दोहे रचे थे। इनके प्रार्थनामन्दिर रामद्वारा कहलाते हैं जो अधिकांश राजस्थान में पाये जाते हैं। पूजा में गान तथा शिक्षा सम्मिलित हैं। इनका मुख्य केन्द्र शाहपुर है, किन्तु ये जयपुर, उदयपुर तथा अन्य स्थानों में भी रहते हैं। इनके अनुयायी गृहस्थों में नहीं हैं। अतएव यह सम्प्रदाय अवनति पर है और केवल कुछ साधुओं का वर्ग मात्र रह गया है।

रामाई पण्डित : मयूर भट्ट की व्याख्या में 'धर्म' नामक सम्प्रदाय का उल्लेख किया गया है। यह सम्प्रदाय बौद्ध तांत्रिकवाद का अवशेष था। इस सम्प्रदाय का पहली प्राप्त रचना 'शून्य पुराण' है जिसके रचयिता रामाई पण्डित हैं। यह 11वीं शताब्दी की रचना है। रामाई पण्डित ने इसमें 'धर्म सम्प्रदाय' के धार्मिक दर्शन एवं यज्ञादि का वर्णन किया है। देखिए 'मयूर भट्ट'।

रामाचार्य : माध्व मतावलम्बी आचार्य। व्यासराज इनके गुरु थे। रामाचार्य ने 'नरङ्गिणी' नामक वेदान्त व्याख्या में अपना कुछ परिचय दिया है। इनके विद्वान् पिता का नाम विश्वनाथ था, जन्म व्यासकुल के उपमन्यु गोत्र में हुआ था। ये गोदावरी के तट पर अंधपुर नामक गाँव में रहते थे। बड़े भाई का नाम नारायणाचार्य था। कहते हैं, अपने गुरु की आज्ञा से इन्होंने मधुसूदन सरस्वती का विद्याशिष्यत्व ग्रहण किया और उनके अद्वैतमत का तात्पर्य जानकर बाद में अद्वैतमत का खण्डन किया। इससे इनका काल सत्रहवीं शताब्दी ज्ञात होता है। इन्होंने न्यायामृत की टीका 'तरङ्गिणी' के नाम से लिखी थी। तरङ्गिणी से इनके अपूर्व पाण्डित्य का पता लगता है। इसमें इन्होंने अद्वैत मत का खण्डन और माध्व मत का प्रतिपादन किया है। ब्रह्मानन्द सरस्वती ने तरङ्गिणीकार रामाचार्य के मत का खण्डन करने के लिए 'अद्वैतसिद्धि' पर 'लघुचन्द्रिका' नामक टीका लिखी है।

रामाज्ञाप्रश्न : गोस्वामी तुरसीदास की रचनाओं मेँ एक 'रामाज्ञाप्रश्न' भी है। यह पद्यों का सङ्कलन है, जिसका प्रयोग यात्रारंभ अथा किसी महत्त्वपूर्ण कार्य को आरम्भ करते समय शकुन के रूप में करते हैं। इसकी सामग्री रामचन्द्रजी का जीवनचरित है जो सात काण्डों में है। शकुन का विचार एक पद्य को चुनकर (बिना देखे) करते हैं। गोस्वामीजी के एक मित्र पंडित गंगाराम ज्योतिषी काशी में प्रहलादघाट पर रहा करते थे। रामाज्ञा प्रश्न उन्हीं के अनुरोध से रचित माना जाता है।

रामानन्द : उत्तर भारत में रामभक्ति को व्यापक रूप देने वाले वैष्णव महात्मा। इनके पूर्व अनेक वैष्णव भक्त हो चुके हैं, जिनमें नामदेव तथा त्रिलोचन महाराष्ट्र प्रान्त में एवं सदन तथा बेनी आदि उत्तर भारत में प्रसिद्ध रहे हैं। किन्तु वास्तविक रामोपासक सम्प्रदाय स्वामी रामानन्द से प्रचलित माना जाता है। इनका नाम आधुनिक हिन्दू धर्म में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, किन्तु दुर्भाग्यवश इनके बारे में बहुत कम वृत्तान्त ज्ञात है। इनके जीवनकाल की विभिन्न तिथियाँ प्रस्तावित हैं किन्तु अब इन्हें समय की निश्चित सीमा में बाँधना सम्भव हो गया है। इनके एक राजकुलीन शिष्य पीपा 1425 ई० में पैदा हुए। दूसरे शिष्य कबीर 1440 से 1518 ई० तक रहे। स्पष्ट है कि कबीर रामानन्द के सबसे पीछे के शिष्य नहीं थे। अतएव यह बहुत कुछ सत्य होगा यदि रामानन्द का काल 1400 से 1470 ई० तक मान लिया जाय। किसी भी तरह 10 वर्ष का हेरफेर भूल माना जा सकता है। जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म प्रयाग में हुआ, किन्तु नैष्ठिक संन्यासी के रूप में अपने जीवन का अधिकांश भाग इन्होंने काशी में व्यतीत किया।

सभी परम्पराएँ मानती हैं कि वे रामानुज सम्प्रदाय के सदस्य थे तथा उनके अनुयायी आज भी श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के साम्प्रदायिक चिह्न के विकसित रूप का प्रयोग करते हैं। अतः कहा जा सकता है कि उनका सम्बन्ध श्रीसम्प्रदाय से भी था। श्रीवैष्णव विष्णु के सभी अवतारों एवं उनकी पत्नियों (शक्तियों) के देवत्व को स्वीकार करते हैं। परन्तु कृष्णावतार के अति प्रसिद्ध और पूर्ण होते हुए भी राम एवं नरसिंह, अवतार का इनके बीच अधिक आदर है। इसलिए यह ध्यान देने योग्य है कि रामानन्द ने स्वतन्त्र रूप में केवल राम, सीता तथा उनके सेवकों की पूजा को ही विशेषतया अपनाया। उनके तथा उनके शिष्यों के मध्य राम नाम का प्रयोग ब्रह्म के लिए होता है। इनका गुरुमन्त्र (नारायणमन्त्र) नहीं है, अपितु 'रां रामाय नमः है। तिलक भी श्रीवैष्णव नहीं है। फलतः इनके सम्प्रदाय का नामकरण करना कठिन है। रामानन्द श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के अन्तर्गत होते तो उन्हें त्रिदण्डी कहा जाता। किन्तु वे त्रिदण्डी नहीं थे, जैसे कि श्रीवैष्णव होते हैं। श्रीवैष्णवों के सदृश वे भोजन के सम्बन्ध में कठोर आचारी भी नहीं थे। पुराने समय से ही देखा जाता है कि एक ऐसा भी सम्प्रदाय था जो अपनी मुक्ति केवल 'राम' की भक्ति में मानता था एवं प्राप्त उल्लेखों के अनुसार इसे उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण का ही माना जा सकता है। यदि ऐसा मान लें कि यह रामसम्प्रदाय दक्षिण के तमिल देश का था तथा श्रीवैष्णवों से सम्बन्धित था तथा रामानन्द इससे सम्बन्धित थे, तो पहेली सुलझ जाती है। रामानन्द इसे ग्रहण कर दक्षिण से उत्तर आये होंगे तथा 'राम' में मुक्ति लाभ का आदर्श एवं राममन्त्र अपने साथ लाये होंगे। संभव है, रामानन्द 'अध्यात्मरामायण' तथा 'अगस्त्यसुतीक्ष्णसंवाद' भी अपने साथ लाये हों। यद्यपि प्रमाण पक्का नहीं है कि वे ही इन ग्रन्थों को इधर लाये थे, किन्तु इन ग्रन्थों का उनके शिष्यों द्वारा बड़ा आदर एवं प्रयोग हुआ है। तुलसीदास के रामचरितमानस के ये ही स्रोत हैं। अगस्त्यसुतीक्ष्णसंवाद का उपयोग आज भी रामानन्दी वैष्णव करते हैं, क्योंकि यह संवाद रामानन्द की जीवनी के साथ प्रकाशित हुआ है।

रामानन्द रामानुजविरचित श्रीभाष्य पढ़ने के अभ्यासी थे, यद्यपि यह श्रीवैष्णवों के लिए रचा गया था। कारण यह है कि इसका स्पष्ट ईश्वरवाद सभी ईश्वरवादियों के अनुकूल था। रामानन्द के शिष्य एवं अनुयायी भी इसी भाष्य को आदर से पढ़ते रहे हैं, क्योंकि कोई भी रामानन्दी वेदान्त भाष्य प्रचलित नहीं हुआ।

रामानन्द के धार्मिक आन्दोलन में जाति--पाँति की छूट थी। शिष्यों को ग्रहण करने में वे जाति का विचार नहीं करते थे, जो एकदम नयी दिशा थी। उनके शिष्यों में न केवल एक-एक शूद्र, जाट एवं जातिबहिष्कृत पाये जाते हैं बल्कि एक मुसलमान तथा एक स्त्री भी उनकी शिष्य थी। उनका एक पद उनके शिष्यों में नहीं, बल्कि सिक्खों के ग्रन्थ साहब में प्राप्त होता है।

यह बहुमान्य है कि रामानन्द विशिष्टाद्वैत वेदान्तमत को मानने वाले थे। उनकी शिक्षा सगुण-निर्गुण एकेश्वरवाद का समन्वय करती थी, जो कबीर, तुलसी, नानक तथा अन्य रामानन्द के अनुयायी सन्तों में देखने में आती है। भारत में रामानन्दी साधुओं की संख्या सर्वाधिक है।

रामानन्ददिग्विजय : यह स्वामी रामानन्द के जीवनवृत्तान्त पर प्रकाश डालने वाला एक काव्य ग्रन्थ है।

रामानन्द सरस्वती : वेदान्तसूत्र पर 'ब्रंह्मामृतवर्षिणी' टीका के लेखक (16वीं शताब्दी के अन्त में)। इन्होंने योगसूत्र पर 'मणिप्रभा' नामक प्रसिद्ध वृत्ति रची है। इनका एक और ग्रन्थ 'विवरणोपन्यास' है जो पद्मपादाचार्य कृत 'पञ्चपादिका' पर प्रकाशात्मयति के लिखे हुए विवरण नामक ग्रन्थ पर एक निबन्ध है। ये रत्नप्रभाकार गोविन्दानन्द स्वामी के शिष्य थे। अपने गुरु की भाँति ये भी रामभक्त थे। इनका स्थिति काल 17वीं शताब्दी था।

रामानुज : आचार्य रामानुज का जन्म 1074 वि० में दक्षिण भारत के भूतपुरी (वर्तमान पेरेम्बुपुरम्) नामक स्थान में हुआ था। ये काञ्ची नगरी में यादवप्रकाश के पास वेदान्त का अध्ययन करने गये। इनका वेदान्त का ज्ञान थोड़े समय में ही इतना बढ़ गया कि कभी-कभी इनके तर्कों का उत्तर देना यादवप्रकाश के लिए कठिन हो जाता था। इनकी विद्या की ख्याति धीरे-धीरे बढ़ने लगी। यामुनाचार्य इन्हीं दिनों गुप्त रूप से आकर इन्हें देख गये और इनकी प्रतिभा से बड़े प्रसन्न हुए। यामुनाचार्य की तीन इच्छाएँ जीवन में अपूर्ण रह गयी थीं जिन्हें वे अपनी मृत्यु के पहले रामानुज को बताना चाहते थे, किन्तु इनके पहुँचने के पूर्व ही वे दिवंगत हो गये थे। उनकी तीन उँगलियाँ मुड़ी रह गयी थीं। लोगों ने इसका कारण वे तीनों प्रतिज्ञाएँ बतायीं, जो इस प्रकार थीं---(1) ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखना, (2) दिल्ली के तत्कालीन सुलतान के यहाँ से श्रीराममूर्ति का उद्धार करना तथा (3) दिग्विजयपूर्वक विशिष्टाद्वैत मत का प्रचार करना। रामानुज ने ज्यों ही इन्हें पूरा करने का वचन दिया त्यों ही उनकी उँगलियाँ सीधी हो गयीं। यामुनाचार्य का अन्तिम संस्कार कर वे सीधे काञ्ची चले आये। यहाँ महापूर्ण स्वामी से व्यासकृत वेदान्तसूत्रों के अर्थ के साथ तीन हजार गाथाओं का उपदेश भी प्राप्त किया। वैवाहिक जीवन से ऊबकर वे संन्यासी हो गये थे।

संन्यास लेने पर रामानुज स्वामी की शिष्यमण्डली बढ़ने लगी। उनके बचपन के गुरु यादवप्रकाश ने भी उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया तथा यतिधर्मसमुच्चय नामक ग्रन्थ की रचना की। अनेक शिष्य उनके पास आदर वेदान्त का अध्ययन करते थे। उन्हीं दिनों यामुनाचार्य के पुत्र वरदरङ्ग काञ्ची आये तथा आचार्य से श्रीरङ्गम चलकर वहाँ का अध्यक्षपद ग्रहण करने की प्रार्थना की। रामानुज उनकी प्रार्थना स्वीकार कर श्रीरङ्गम् में रहने लगे। उन्होंने यहाँ फिर गोष्ठिपूर्ण से दीक्षा ली। गोष्ठीपूर्ण ने योग्य समझ कर उन्हें मन्त्ररहस्य बता दिया और आज्ञा दी कि वे किसी को मन्त्र न दें। रामानुज को जब यह ज्ञात हुआ कि इस मन्त्र के सुनने से मनुष्य मुक्त हो सकता है तो वे मन्दिर की छत पर चढ़कर चिल्ला-चिल्लाकर सैकड़ों नर-नारियों के सामने मन्त्र का उच्चारण करने लगे। गुरु ने इससे क्रुद्ध हो उन्हें नरक जाने का शाप दिया। इस पर रामानुज ने कहा कि गुरुदेव, यदि मेरे नरक जाने से हजारों नर-नारियों की मुक्ति हो जाय तो मुझे वह नरक स्वीकार है। रामानुज की इस उदारता से प्रसन्न हो गुरु ने कहा--'आज से विशिष्टाद्त मत तुम्हारे ही नाम पर 'रामानुज दर्शन' के नाम से विख्यात होगा। मैसूर के राजा विट्टिदेव की सहायता से रामानुज ने श्रीवैष्णव मत का प्रचार करने के लिए 74 शिष्य नियत किये। इस प्रकार सारा जीवन भजन-साधन तथा धर्मप्रचार में व्यतीत कर आचार्य ने 1194 वि० में दिव्यधाम को प्रस्थान किया।

यतिराज रामानुज ने अपने मत की पुष्टि के लिए 'श्रीभाष्य' के अतिरिक्त वेदान्तसंग्रह, वेदान्तदीप, वेदान्तसार, वेदान्ततत्त्वसार, गीताभाष्य, गद्यत्रय, भगवदाराधनक्रम की भी रचना की। इसके अतिरिक्त अष्टादशरहस्य, कण्टकोद्धार, कूटसन्दोह, ईशावास्योपनिषद्भाष्य, गुणरत्नकोश, चक्रोल्लास, दिव्यंसूरिप्रभावदीपिका, देवतास्वारस्य, न्यायरत्नमाला, नारायणमन्त्रार्थ, नित्यपद्धति, नित्याराधनविधि, न्यायपरिशुद्धि, न्यायसिद्धान्ताञ्जन, पञ्चपटल, पञ्चरात्ररक्षा, प्रश्नोपनिषद् व्याख्या, मणिदर्पण, मतिमानुष, मुण्डकोपनिषद् व्याख्या, योगसूत्रभाष्य, रत्नप्रदीप, रामपटल, रामपद्धति, रामपूजपद्धति, राममन्त्रपद्धति, रामरहस्य, रामायणव्याख्या, रामार्चापद्धति, वार्तामाला, विशिष्टाद्वैत भाष्य, विष्णुविग्रहशंसनस्त्रोत्र, विष्णुसहस्रनाम भाष्य, वेदार्थसंग्रह, वैकुण्ठगद्य, शतदूषणी, शरणागति गद्य, श्वेताश्वतरोपनिषद् व्याख्या, संकल्पसूर्योदय टीका, सच्चरित्र रक्षा, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों की भी रचना की। किन्तु यह पता नहीं लगता कि कौन सा ग्रन्थ कब लिखा गया। उन्होंने अपने ग्रन्थों में शाङ्कर मत का जोरदार खण्डन करने की चेष्टा की है।

रामानुज ने यामुनाचार्य के सिद्धान्त को और भी विस्तृत करके सामने रखा है। ये भी तीन ही मौलिक पदार्थ मानते हैं--चित् (जीव), अचित् (जड़ समूह) और ईश्वर या पुरुषोत्तम। स्थूल-सूक्ष्म, चेतन-अचेतन---विशिष्ट ब्रह्म ही ईश्वर है। अनन्त जीव और जगत् उसका शरीर है। वही इस शरीर का आत्मा है। ब्रह्म सगुण और सविशेष है। उसकी शक्ति माया है। ब्रह्म अशेष कल्याणकारी गुणों का आलय है। उसमें निकृष्ट कुछ भी नहीं है। सर्वेश्वरत्तव, सर्वशेषित्व, सर्वकर्मा, राध्यत्व, सर्वफलप्रदत्व, सर्वाधारत्व, सर्वकार्योत्पादकत्व, समस्त द्रव्यशरीरत्व आदि उसके लक्षण हैं। वह सूक्ष्म चिदचिद्विशेष रूप में जगत् का उपादान कारण है, सङ्कल्पविशिष्ट रूप में निमित्त कारण है। जीव और जगत् उसका विशिष्ट रूप में निमित कारण है। जीव और जगत् उसका शरीर है। वह सृष्टि-स्थिति-संहारकर्त्ता है; पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी और अर्चावतार भेद से वह पाँच प्रकार का है; शङ्ख, चक्र, गदा, पद्मधारी चतुर्भुज है, श्री, भू और लीला देवी सहित है; किरीटादि भूषणों से अलंकृत है। जगत् जड़ है और ब्रह्म का शरीर है। ब्रह्म ही जगत् का उपादान और निमित्त कारण है। वह जगत् रूप में प्रकट होकर भी विकाररहित है। जगत् सत् है, मिथ्या नहीं है।

जीव भी ब्रह्म का शरीर है। ब्रह्म और जीव दोनों चेतन हैं। ब्रह्म विभु है, जीव अणु है। ब्रह्म पूर्ण है, जीव खण्डित है। प्रत्येक शरीर में जीव भिन्न है।

भगवान् के दासत्व की प्राप्ति ही मुक्ति है। वैकुण्ठ में श्री, भू, लीला देवियों के साथ नारायण की सेवा करना ही परम पुरुषार्थ कहा जाता है। मुक्ति विद्या अर्थात् उपासना द्वारा प्राप्त होती है। उपासनात्मक भक्ति ही मुक्ति का श्रेष्ठ साधन है। ध्यान और उपासना आदि मुक्ति के साधन हैं। सब प्रकार से भगवान् के शरण हो जाना प्रपत्ति का लक्षण है। नारायण विभु हैं, भूमा हैं, उनके चरणों में आत्मसमर्पण करने से जीव शान्ति मिलती है। उनके प्रसन्न होने पर मुक्ति मिल सकती है। सब विषयों को त्याग कर उनकी ही शरण लेनी चाहिए।

रामायण : संस्कृत का वाल्मीकि रामायण प्राचीन भारत के दो महाग्रन्थों में से एक है। महाभारत के वनपर्व में रामोपाख्यान का वर्णन करने के पहले कहा गया है कि 'राजन्! पुराने इतिहास में जो कुछ घटना हुई है वह सुनो' (अध्याय 273, श्लोक 6)। इस स्थान पर पुरातन शब्द से विदित होता है कि महाभारत काल में रामायणी कथा पुरातनी कथा हो चुकी थी। इसी तरह द्रोणपर्व में लिखा है :

अपि चायं पुरा गीतः श्लोको वाल्मीकिना भुवि।'

इन बातों से स्पष्ट है कि महाभारत की घटनाओं से सैकड़ों वर्ष पहले वाल्मीकि रामायण की रचना हो चुकी होगी। वाल्मीकि के ही कथनानुसार (बालकाण्ड, सर्ग 4) उन्होंने रामायण में 24,000 श्लोक रचे जो पाँच सौ सर्गों में बँटे थे। आजकल इसके तीन प्रकार के पाठ प्रचलित हैं : औदीच्य, दाक्षिणात्य और प्राच्य (गौडीय)। इन तीनों में पाठभद तो है ही पर किसी में न तो 24000 श्लोक हैं और न 500 सर्ग। इसका साहित्यिक एवं धार्मिक महत्व सर्वाधिक है। .यह पहला महाकाव्य है। इसीलिए इसे आदिकाव्य भी कहते हैं तथा इसके कवि को आदिकवि कहते हैं। इसका ही अनुकरण परवर्ती संस्कृत कवियों ने किया। कालिदास का रघुवंश महाकाव्य एवं भवभूति का उत्तररामचरित नाटक इसी ग्रन्थ पर आधारित हैं। आज भी लाखों भारतवासी इसका पाठ करते और सुनते हैं। मध्यकाल में स्थानीय भाषाओं में इसके रूपान्तर आरम्भ हुए। सबसे महत्त्वपूर्ण 'रामचरितमानस' तुलसीदासकृत हिन्दी में बना जो उत्तर भारत के निवासियों के लिए परम पवित्र ग्रन्थ है। रामलीला आज देश के कोने-कोने में प्रचलित है, जिसके द्वारा रामचरित्र के विशिष्ट रूप जनता के सामने रखे जाते हैं।

भारतीय जनजीवन तथा विचारों पर जितना प्रभाव इस ग्रन्थ का है उतना शायद ही किसी ग्रन्थ का प्रभाव पड़ा हो। राम के आदर्श चरित्र का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि राम की पूजा विष्णु के अवतार के रूप में हुई, जिसके मुख्य प्रचारक 12वीं शताब्दी के रामानुज तथा 14वीं शताब्दी के रामानन्द थे।

700 वि० पूर्व से लेकर 130 वि० पू० तक के बीच विभिन्न विद्वानों ने रामायण का रचना काल माना है। ऊपर इसकी महाभारत की अपेक्षा प्राचीनता कही गयी है। सभी विद्वानों के प्रमाणों पर भली भाँति विचार करने से रामायण को प्रायः चौथी शताब्दी वि० पू० के मध्य वर्तमान रूप में प्रस्तुत हुआ माना जा सकता है। किन्तु इसमें दूसरी शती वि० तक कुछ परिवर्तन तथा परिवर्द्धन होता रहा।

रामायणव्याख्या : यह रामानुज रचित एक ग्रन्थ है।

रामार्चापद्धति : यह वैष्णवाचार्य रामानुज रचित एक ग्रन्थ है।

रामावत सम्प्रदाय : स्वामी रामानन्द ने रामावत सम्प्रदाय की स्थापनी की। ये रामानुज स्वामी की श्रीवैष्णव परम्परा में हुए थे। परन्तु इन्होंने मध्ययुग की नयी परिस्थिति में अपने सम्प्रदाय को उदार बनाया। इन्होंने धर्म में जाति-पाँति का बन्धन ढीला किया और इसका द्वार सभी के लिए खोल दिया। रामावत सम्प्रदाय में सवर्ण, वर्णेतर, स्त्री, मुसलमान आदि सभी दीक्षित थे। इस सम्प्रदाय का मन्त्र था 'रां रामाय नमः।'

रामावतार : विष्णु के अवतारों के क्रम में रामावतार सप्तम माना जाता है। भगवान् का यह अवतार चिर काल से चली आ रही अव्यवस्था को व्यवस्था में परिणत करने के लिए हुआ था। परशुरामावतार के समय क्षात्र और ब्राह्म शक्तियों का सामञ्जस्य समाप्त हो गया था। अतः धार्मिक व्यवस्था सुदृढ़ नहीं रह गयी थी। ब्राह्मण वंश में भी रावण जैसे अत्याचारी निशाचरों का जन्म होने लगा था। अतएव त्रेता युग के समय भगवत्शक्ति के अवतार की आवश्यकता प्रतीत हुई। यह अवतार क्षत्रिय वर्ण में इसलिए हुआ कि उस समय क्षत्रिय कुल के लिए परम आदर्श मानवचरित्र निर्माण की आवश्यकता थी, जिससे कि चरित्र निर्माण के साथ ही राक्षसावस्था को सम्प्राप्त ब्राह्मणशक्ति को नष्ट कर, क्षात्रशक्ति के साथ ब्रह्मशक्ति का धर्मानुकूल सामञ्जस्य किया जा सके। इसीलिए भगवान् रामरूप में क्षत्रियवंश में अवतरित हुए। इसी प्रकार भगवान् की शक्ति महामाया ने भी आदर्श पातिव्रत की रक्षा के लिए एवं सतीत्वधर्म संरक्षणार्थ सीता के रूप में अवतार ग्रहण किया था। विस्तृत चरित्र के लिए दे० 'रामायण'।

रामेश्वर : (1) एक शैवाचार्य (1750 ई०)। इन्होंने 'शिवायन' नामक ग्रन्थ रचा है।

(2) रामेश्वर (म्) प्रसिद्ध शैव तीर्थस्थान्, जो दक्षिण समुद्र के सेतुबन्ध पर स्थित है। कहते हैं, इनकी स्थापना भगवान् राम ने की।

रामेश्वरम् : रामसेतु नामक रेतीले टीले का सिलसिला रामेश्वरम द्वीप से लेकर मन्नार की खाड़ी से होता हुआ श्रीलङ्का के तट चला गया है। इसकी लम्बाई 30 मील है। कहा जाता है कि रामायण के नायक श्री राम ने जब बन्दर तथा भालुओं की सेना के साथ लङ्का के राजा रावण पर आक्रमण करना चाहा तो समुद्र पार करना सेना के लिए कठिन जान पड़ा। राम ने यहाँ पर एक पुल बनवाया जो आज भी भग्नावस्था में पड़ा है। भारतीय तट से लेकर श्रीलङ्का के तट तक समुद्र का उथला होना और वह भी एक सीध में, इस विश्वास को पुष्ट करता है। यह भारतवर्ष का अन्तिम दक्षिणी छोर है जो समुद्र को स्पर्श करता है। इसी परम्परा के अनुसार रामचन्द्रजी ने इस स्थान पर शंकरजी की मूर्ति-स्थापना की थी। रामकथा से सम्बन्धित होने से रामेश्वरम् हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थ स्थान हो गया है तथा देश के कोने-कोने से तीर्थयात्री यहाँ आते हैं। यहाँ का विशाल रामेश्वरम् मन्दिर द्राविड़ शैली के मन्दिरों में अग्रगण्य है।

रामोपासक सम्प्रदाय : श्रीसम्प्रदाय के आचार्य रामानन्द स्वामी ने वैष्णव धर्म के संरक्षण के लिए अपूर्व प्रयत्न किया। इन्होंने रामोपासक सम्प्रदाय की स्थापना की जिसके सबसे बड़े प्रचारक तुलसीदास हुए।

राम्य जामाता मुनि : राम्य जामाता मुनि (1370-1443) को मतवाल मुनि भी कहते हैं। श्रीरङ्गम की (श्रीवैष्णव) शाखा के अध्यक्ष वेदान्तदेशिक के विरोध में इस सम्प्रदाय के अन्तर्गत दो और शाखाएँ आरम्भ हुईं जो क्रमशः उत्तरी तथा दक्षिणी शाखाएँ कहलाती हैं। इनमें से दक्षिणी शाखा या 'तेलङ्गइ' के नेता थे राम्य जामाता मुनि। ये वेदान्तदेशिक के पश्चात् श्रीरङ्गम् में शिक्षक थे। इनके भाष्य तथा विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ पर्याप्त प्रयोग में आते हैं। इन उत्तरी तथा दक्षिणी शाखाओं के नेताओं के समय से श्रीवैष्णव सम्प्रदाय की शाखाओं का अन्तर बढ़ता गया। इनके ग्रन्थ हैं 'तत्त्वनिरूपण' तथा 'उपदेशरत्नमाला'।

रासलीला : कृष्णभक्ति में आनन्द की उत्कट अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण के बालचरितों का अनुकरण करना रासलीला है। इसमें मण्डलनृत्य किया जाता है। महाप्रभु चैतन्य के रूप तथा सनातन आदि छः अनुयायी वृन्दावन में निवास करते थे। अनेक ग्रन्थों की रचना के साथ ही साथ इन भक्तों ने रासलीला का वार्षिक उत्सव भी प्रारम्भ किया। इसमें कृष्ण के साथ गोपियों के नृत्य का प्रदर्शन ही मुख्य होता है। बीच में कृष्ण तथा उनके चारों ओर मण्डलाकार गोपियों का समूह मिलकर एक मण्डल का निर्माण करता है। भगवान् के सायुज्य में नृत्य द्वारा रस (प्रेम) का परिपाक करना इसका मुख्य उद्देश्य है। भागवतपुराण (रासपञ्चाध्यायी) में भगवान् कृष्ण के रास का रहस्यमय वर्णन है।

राहु : राहु का (जो सूर्य को ढक लेता है) प्रसंग अथर्ववेद के एक सूक्त (19.9.10) में आता है। पाठ अनिश्चित है, किन्तु अर्थ राहु (अन्धकार) ही है। परवर्ती ज्योतिष में राहु सौरमण्डल के नवग्रहों में से एक है। यह दुष्ट ग्रह माना जाता है।

रुक्मिणी : विदर्भ देश के राजा भीष्मक की पुत्री, जिसने शिशुपाल के बदले द्वारकानाथ कृष्ण का स्वयंवरण किया और उनकी पटरानी हुई। पण्ढरपुर (महाराष्ट्र) के विट्ठलमन्दिर में विट्ठल (विष्णु) की रानियों अथवा पत्नियों की मूर्तियाँ उनके पास ही स्थापित हुई हैं। इनमें से रुक्माबाई (रुक्मिणी) भी एक हैं। लक्ष्मी के रूप में इनकी पूजा होती है।

रुक्मिण्यष्टमी : मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की अष्टमी। प्रथम वर्ष व्रतकर्ता (महिला) एक द्वार वाला मिट्टी का मकान बनवाये, जिसमें गृहस्थोपयोगी सभी वस्तुएँ-धान, घी आदि रखकर कृष्ण-रुक्मिणी, बलराम-रेवती, प्रद्मुम्न--रति, अनिरुद्ध-उषा तथा वसुदेव-देवकी की प्रतिमाएँ बनवायी जायँ। सूर्योदय के समय इन प्रतिमाओं का पूजन कर सायं चन्द्रमा को अर्घ्‍य देना चाहिए। दूसरे दिन किसी कन्या को वह घर दान कर देना चाहिए। द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ वर्ष उसी घर में और कोष्ठ, प्रकोष्ठ बनवाकर जोड़ देने चाहिए तथा बाद में उन्हें भी कन्याओं को दान कर देना चाहिए। पञ्चम वर्ष पाँच द्वारों वाला तथा षष्ठ वर्ष छः द्वारों वाला मकान बनवाकर कन्या को दान कर देना चाहिए। सप्तम वर्ष सप्त द्वारों वाला मकान बनवाकर, चूने से पुतवाकर, उसमें एक पलङ्ग बिछाकर उस पर वस्त्र भी बिछाना चाहिए। एक जोड़ा खड़ाऊँ, दर्पण, ओखली (उलूखल), मूसल, रसोई के पात्र भी रखने चाहिए। तदनन्तर कृष्ण-रुक्मिणी तथा प्रद्युम्न का उपवास एवं जागरण करते हुए पूजन करना चाहिए। द्वितीय दिवस यह अन्तिम मकान किसी सपत्नीक ब्राह्मण को दान कर देना चाहिए। इसके साथ एक गौ भी देनी चाहिए। इस व्रत के आचरण के उपरान्त व्रती शोकरहित रहेगा तथा स्त्री व्रती को पुत्राभाव का शोक नहीं सहना पड़ेगा।

रूद्र : वैदिक काल में रुद्र साधारण देवता थे। उनकी स्तुति के केवल तीन सूक्त पाये जाते हैं। रुद्र की व्युत्पत्ति रुद् धातु से है जिसका अर्थ 'हल्ला करना' अथवा 'चिल्लाना' है। 'रुद्' का अर्थ लाल होना अथवा चमकना भी होता है। रुद्र प्रकृति की उस व्यक्ति के देवता हैं जिसका प्रतिनिधित्व झंझावात और उसका प्रचण्ड गर्जन-तर्जन करता है। रुद्र का एक अर्थ भयंकर भी होता है। परन्तु रुद्र की चिल्लाहट और भयंकरता के साथ उनका प्रशान्त और सौम्य रूप भी वेदों में वर्णित है। वे केवल ध्वंस और विनाश के ही देवता नहीं, स्वास्थ्य और कल्याण के भी देवता हैं। अतः रुद्र की कल्पना में शिव के तत्त्व निहित थे, इसलिए रुद्र को बहुत शीघ्र महत्त्व मिल गया औऱ उनकी गणना त्रिदेवों (त्रिमूर्ति) में शिव अथवा महेश के रूप में होने लगी।

रुद्र रुद्रों (बहुवचन), रुद्रियों तथा मरुतों के पिता हैं। रुद्र तथा मरुतों में पारिवारिक समानता है, क्योंकि पिता और पुत्रगण दोनों सोने के आभूषण धारण करते हैं, धनुष-बाण इनके आयुध हैं, रोग दूर करने में ये समर्थ हैं। रुद्र का वर्णन कभी-कभी इन्द्र के साथ भी हुआ है, किन्तु दोनों में अन्तर है। रुद्र को केवल एक बार वज्रबाहु कहा गया है, जबकि इन्द्र सदा वज्रबाहु है। बिजली की कौंध और चमक, बादल का गर्जन एवं इसके पश्चात् जलवर्षण इन्द्र का कार्य है। परन्तु जब वज्रपात से मनुष्य अथवा पशु मरता है तो यह रुद्र का कार्य समझना चाहिए। इन्द्र का वज्र सदा उपकारी है, रुद्र का आयुध विध्वंसक है। परन्तु रुद्र के भयंकर विध्वंस के पश्चात् गंभीर शान्ति का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। इसलिए उनका विध्वंसक रूप होते हुए भी उनके कल्याणकारी रूप (शिव) की प्रार्थना की जाती है। अन्य देवों द्वारा किये गये अपकार को दूर करने के लिए भी उनसे प्रार्थना की गयी है।

पुराणों में रुद्र के शिवरूप की महत्ता अधिक बढ़ी, यद्यपि उनका विध्वंसक रूप शिव के अन्तर्गत समाविष्ट रहा। एकादश रुद्रों और उनके गणों की विशाल कल्पना पुराणों में पायी जाती है।

रुद्र पशुपति : अथर्वशिरस् पाशुपत उपनिषद् है। यह महाभारत के पाशुपत प्रसंगों की समसामयिक है। इसके अनुसार रुद्र-पशुपति सभी वस्तुओं के परम तत्त्व अर्थात् स्रोत तथा अन्तिम लक्ष्य भी हैं। पति, पशु एवं पाश का भी इसमें उल्लेख हुआ है। 'ओम्' के आधार पर योगाभ्यास करने का आदेश है। शरीर पर भस्म लगाना पाशुपत नियम या व्रत का पालन बताया गया है।

रुद्रप्रयाग : उत्तराखण्ड का एक पावन तीर्थ। यहाँ अलकनन्दा और मन्दाकिनी का संगम है। यहाँ से केदारनाथ तथा बदरीनाथ के मार्ग पृथक् होते हैं। केदारनाथ को पैदल मार्ग जाता है और बदरीनाथ को मोटर-सड़क जाती है। देवर्षि नारद ने संगीत विद्या की प्राप्ति के लिए यहाँ शङ्करजी की आराधना की थी। हृषीकेश से रुद्रप्रयाग 84 मील है।

रुद्रमाहात्म्य : चारों वेदों में रुद्र की स्तुतियाँ हैं। वाजसनेयी संहिता के शतरुद्रिय में शिव, गिरीश, पशुपति, नीलग्रीव, शितिकण्ठ, भव, शर्व, महादेव इत्यादि नाम वर्तमान है। अथर्वसंहिता में महादेव, पशुपति आदि नाम आये हैं। मार्कण्डेय पुराण और विष्णु पुराण में जिस प्रकार रुद्रदेव की उत्पत्ति वर्णित है उसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण और शाङ्खायन ब्राह्मण में भी वर्णित है।

रुद्रयामल तन्त्र : यामल तन्त्रों की व्याख्या हो चुकी है। यामलों में 'रुद्रयामल' भी एक है।

रुद्रव्रत : (1) ज्येष्ठ मास के दोनों पक्षों की अष्टमी तथा चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इन चारों दिन व्रत रखने वाले को पञ्चाग्नि तप करना चाहिए। चौथे दिन सायं काल के समय सुवर्ण की गौ दान में देनी चाहिए। इस व्रत के रुद्र देवता हैं।

(2) वर्ष भर एकभक्त पद्धति से आहार करके अन्त में सुवर्ण के वृषभ तथा तिलधेनु का दान करना चाहिए। यह संवत्सरव्रत है। शङ्कर भगवान् इसके देवता हैं। इसके आचरण से पाप तथा शोक दूर होते हैं तथा व्रती शिवलोक प्राप्त कर लेता है।

(3) कार्तिक शुक्ल तृतीया से इस व्रत का आरम्भ होता है। एक वर्ष तक इसमें नक्त विधि से गोमूत्र तथा यावक का आहार करना चाहिए। यह संवत्सवरव्रत है। गौरी तथा रुद्र इसके देवता हैं। वर्षान्त में गौ का दान करना चाहिए। इस व्रत से व्रती एक कल्प तक गौरीलोक में निवास करता है।

रुद्रलक्षव्रत : इस व्रत के अनुसार एक लाख दीपकों के, जिनमें गौ के घी में डुबायी हुई रुई की उतनी ही बत्तियाँ पड़ी हों, शिवप्रतिमा के सम्मुख समर्पण करने का विधान है। दीपकों के समर्पण से पूर्व ही शिव का षोडशोपचार पूजन कर लेना चाहिए। व्रत का आरम्भ कार्तिक, माघ, वैशाख या श्रावण मासों में से किसी में भी करना चाहिए तथा उसी मास में उसकी समाप्ति भी होनी चाहिए। इस व्रत से व्रती सम्पत्ति, पुत्रादि के अतिरिक्त उन समस्त सिद्धियों को प्राप्त करता है जिनकी वह कामना करता है।

रुद्रसम्प्रदाय : शङ्कराचार्य के पश्चात् वैष्णव धर्म के चार प्रधान सम्प्रदाय समुन्नत हुए-श्रीसम्प्रदाय, ब्रह्मसम्प्रदाय, रुद्रसम्प्रदाय और सनकसम्प्रदाय। इन चारों का आधार श्रुति है और दर्शन वेदान्त है।

रुद्रदेव ने बालखिल्य ऋषियों को जो उपदेश किया था, वही उपदेश शिष्यपरम्परा से चलता हुआ विष्णुस्वामी को प्राप्त हुआ। अतएव इधर सर्वप्रथम वेदान्तभाष्यकार विष्णुस्वामी ने ही शुद्धाद्वैतवाद का प्रचलन किया। कहते हैं कि उनके शिष्य का नाम ज्ञानदेव था। ज्ञानदेव के शिष्य नाथदेव और त्रिलोचन थे। इन्हीं की परम्परा में वल्लभाचार्य का आविर्भाव हुआ। कहते हैं कि दक्षिण भारत में विष्णुस्वामी पाण्ड्यविजय राज्य के राजगुरु देवेश्वर के पुत्र रूप में प्रकट हुए थे। इनके पूर्वाश्रम का नाम देवतनु था। इन्होंने वेदान्तसूत्रों पर 'सर्वज्ञसूक्त' नामक भाष्य लिखा था। कहते हैं कि इनके बाद दो विष्णुस्वामी और हुए, इसी से इन्हें 'आदि विष्णुस्वामी' कहते हैं।

रुद्रसंहिता : शिवमहापुराण के सात खण्ड हैं। इसका दूसरा खण्ड रुद्रसंहिता है। रुद्रसंहिता में सृष्टिखण्ड, सतीखण्ड, पार्वतीखण्ड, कुमारखण्ड, युद्धखण्ड नामक पाँच खण्ड हैं।

रुद्राक्ष : लिङ्गायतों में बच्चे के जन्म के साथ ही उसका अष्टवर्ग संस्कार होता है। इसमें 'रुद्राक्ष धारण' भी है। ये संस्कार आठों पापों से रक्षा पाने के लिए कवच का कार्य करते हैं। रुद्राक्ष का पवित्र वृक्ष हिमालय के नेपाल प्रदेश में होता है। उसके फल की गुठली ही रुद्राक्ष है, जिसमें अगल-बगल कुछ रेखा या खाँचे बने रहते हैं। उन्हें मुख कहा जाता है। साधारणतः पंचमुखी रुद्राक्ष पहनने या माला बनाने में प्रयुक्त होते हैं। एकादश मुखी रुद्राक्ष शंकरस्वरूप होते हैं। एकमुखी रुद्राक्ष ऋद्धि-सिद्धदाता शिवस्वरूप होता है, अत्यन्त भाग्यशाली व्यक्ति को ही यह सुलभ है। नेपाल के पशुपतिनाथमन्दिर में एकमुखी रुद्राक्ष और दक्षिणावर्त शंख के दर्शन कराये जाते हैं।

रुरु : यजुर्वेद में यह अश्वमेध के बलिपशु के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जो एक प्रकार का हरिण है। ऋग्वेद में रुरुशीर्षा बाणों का उल्लेख है, जिसका अर्थ है हरिण के सींग की नोक वाले बाण।

रूप गोस्वामी : चैतन्य महाप्रभु के एक शिष्य। ये पहले बंगाल मुसलमान सूबेदार के यहाँ कार्य करते थे। इन्होंने चैतन्यदेव के देवोपम चरित्र और पवित्र धर्ममत से मुग्ध होकर संसार का त्याग कर महाप्रभु का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। क्रमशः ये उस सम्प्रदाय के आश्रय और भूषण स्वरूप हो गये। पहले से ही ये प्रकाण्ड विद्वान थे। इन्होंने चैतन्य के तिरोभाव से प्रायः आठ वर्ष पूर्व 'विदग्धमाधव' नाटक की रचना की, जिसकी महाप्रभु ने बड़ी प्रशंसा की। इसके अतिरिक्त इन्होंने ललितमाधव, उज्ज्वलनीलमणि, दानकेलिकौमुदी, बन्धुस्तवावली, अष्टादश लीलाकाण्ड, पद्यावली, गोविन्दविरुदावली, मथुरामाहात्म्य, नाटकलक्षण, लघुभागवतामृत, भक्तिरसामृतसिन्धु, व्रजविलासवर्णन और कड़चा नामक ग्रन्थों की रचना की। इन ग्रन्थों से इनकी विद्वत्ता का परिचय मिलता है। उज्ज्वलनीलमणि अलंकारशास्त्र का प्रामाणिक और प्रसिद्ध ग्रन्थ है। भक्तिरसामृतसिन्धु में भक्ति की व्याख्या तथा वैष्णव मत की साधना का विचार किया गया है। इनके भतीजे जीव गोस्वामी ने इसकी टीका लिखी है। रूप गोस्वामी का 'रिपुदमन विषयक रागमय कोण' नामक बँगला ग्रन्थ भी मिलता है। रूप और सनातन ने जिस मत का बीजारोपण किया उसे जीव ने विकसित किया और बलदेव विद्याभूषण ने उसे पूर्णता प्रदान की।

रूपनवमी : मार्गशीर्ष शुक्ल की नवमी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। इसकी चाण्डिका देवता है। व्रती को नवमी के दिन उपवास या नक्त या एकभक्त पद्धति से आहार करना चाहिए। आटे का त्रिशूल तथा चाँदी का कमल बनाकर उसे सर्व पापनाशिनी दुर्गाजी को समर्पित कर देना चाहिए। पौष तथा उसके पश्चात् वाले मासों में भिन्न-भिन्न प्रकार के कृत्रिम पशु बनाकर उन्हें भिन्न-भिन्न धातुपात्रों में रखना चाहिए। तदनन्तर वे देवी को भेंट कर दिये जायं। इस व्रत के आचरण से व्रती असंख्य वर्षों तक चन्द्रलोक में वास करने के बाद सुन्दर राजा बनता है। रूप का तात्पर्य है शिल्पियों या कलाकारों द्वारा बनायी गयी कोई वस्तु अथवा आकृति, जो किसी पशु से समता रखती हो। जिन देवताओं का ऊपर उल्लेख आया है वे या तो दुर्गाजी हों या मातृदेवता।

रूपसंक्रान्ति : संक्रान्ति के दिन व्रती को तैल मर्दन के साथ स्नान करना चाहिए। उसके अनन्तर पात्र में घी तथा कुछ सुवर्ण रखकर किसी ब्राह्मण को दे देना चाहिए। उस दिन एकभक्ति पद्धति से आहार करना चाहिए। यह संक्रान्तिव्रत है। इस व्रत का परिणाम सौ अश्वमेध यज्ञों के समान होता है तथा सौन्दर्य, दीर्घायु, सुस्वास्थ्य समृद्धि तथा स्वर्ग तो प्राप्त होता ही है।

रूपसत्र : फाल्गुनी पूर्णिमा के उपरान्त जब चैत्र कृष्ण अष्टमी मूल नक्षत्रयुक्त हो, उस समय इस व्रत का आयोजन करना चाहिए। इसमें नक्षत्रों, नक्षत्रपतियों, वरुण, चन्द्र तथा विष्णु का पूजन विहित है। इन सब देवताओं के लिए होम करना चाहिए तथा अपने गुरु का सम्मान करना चाहिए। दूसरे दिन उपवास का विधान है। भगवान् केशव के भिन्न-भिन्न शरीरावयवों में चरणों से प्रारम्भ कर मस्तक तक भिन्न-भिन्न नक्षत्रों को आरोपित करते हुए उसकी पूजा करनी चाहिए। चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को इस व्रत का सत्रावसान होता है। व्रत के अन्त में भगवान् विष्णु की पूजा पुष्प-धूपादि से करनी चाहिए। गुरु को इस अवसर पर दान-दक्षिणा देनी चाहिए तथा ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। इस व्रत से व्रती स्वर्ग लोक जाता है तथा बाद में जन्म लेने के पश्चात् राजा बनता है। चैत्र शुक्ल अष्टमी के इसी व्रत के लिए देखिए बृ० सं० (104.6-13), जिसमें उपवास तथा नारायण एवं नक्षत्रों की पूजा का उल्लेख है।

रूपावाप्ति : (1) पाँच तिथियों को दस विश्वेदेवों की पूजा करने से स्वर्गोपलब्धि होती है।

(2) यह मास का व्रत है। फाल्गुन पूर्णिमा के पश्चात् चैत्र की प्रतिपदा से चैत्र की पूर्णिमा तक इसका अनुष्ठान करना चाहिए। इसमें शेषशायी भगवान् की प्रतिमा के पूजन का विधान है। इस अवसर पर एकभक्त पद्धति से आहार करना चाहिए। पृथ्वी पर शयन करना चाहिए, किसी पालने या झूले पर नहीं। तीन दिन उपवास रखते हुए चैत्र की पूर्णिमा को पूजन के उपरान्त एक जोड़ा वस्त्र तथा चाँदी का दान करना चाहिए। इससे रूप अर्थात् सौन्दर्य की उपलब्धि होती है।

रेणुकातीर्थ : (1) हिमाचल प्रदेश का पर्वतीय तीर्थ। शिमला से नाहन और दहादू जाकर गिरिनदी को पार करके पैदल रेणुकातीर्थ जाने का मार्ग है। दहादू से रेणुकातीर्थ दो फर्लांग के लगभग है। यहाँ रेणुका झील और परशुरामताल है। परशुरामजी तथा उनकी माता रेणुकाजी का मन्दिर है। एक धर्मशाला है, जो अरक्षित है। कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा पर मेला लगता है। रेणुका झील के पास यमदग्निपर्वत है।

(2) आगरा-मथुरा के मध्य यमुनातीर पर स्थित वर्तमान 'रुनकता' स्थान रेणुकाक्षेत्र कहा जाता है।

रेवणनाथ : नाथ सम्प्रदाय के नव नाथों में से छठे रेवणनाथ थे।

रेवणाराध्य : वीरशैव मत सृष्टि के आरम्भकाल से प्रचलित माना जाता है। प्रत्येक युग में इसके जो आचार्य हुए हैं उनके नाम 'सुप्रबोधागम' आदि ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। कलियुग के आरम्भ में भी पाँच शैवाचार्य हुए हैं। उनमें पहला नाम रेवणाराध्य का है। सम्भवतः ये ही बलेहल्ली मठ के प्रथम आचार्य थे।

रेवा : नर्मदा नदी का एक नाम, जो केवल एक बार उत्तर वैदिक साहित्य में व्यवहृत हुआ है। यह शतपथ ब्रा० (12.8,1,17) के एक वार्तिक में 'महिष्मत्' शब्द की व्युत्पत्ति 'महिष' शब्द से की गयी है। महिष्मत् स्पष्टतः नर्मदातट पर स्थित माहिष्मति नगरी थी। रघुवंश (6.43) में अनूप देश की राजधानी माहिष्मती रेवा पर स्थित बतलायी गयी है। स्कन्दपुराण का एक भाग रेवाखण्ड कहलाता है, जो रेवा (नर्मदा) की उत्पत्ति औऱ उसके किनारे स्थित तीर्थों का विस्तृत वर्णन करता है। दे० 'नर्मदा'।

रेवासागरसंगम : दक्षिण गुजरात का समुद्रतटवर्ती एक तीर्थ। यह विमलेश्वर से 13 मील दूर है। रेवा (नर्मदा) सागरसंगम तीर्थ पर प्रकाशस्तम्भ (लाइटहाउस) और उसके पास 'हरि का धाम' नाम का स्थान है। नर्मदा (रेवा) के सागर से मिलने के कारण ही इसका महत्त्व है।

रैदास : सोलहवीं शताब्दी वि० के पूर्वार्ध में इनका प्रादुर्भाव हुआ था। ये कबीर के समकालीन तथा स्वामी रामानन्द के मुख्य शिष्यों में से थे। जाति के ये चमार थे। मीराबाई ने इनका दर्शन किया और अपना गुरु बनाया था। अपने पदों में मीराबाई ने दो-तीन बार इनका उल्लेख किया है। रैदास के भी रचे कुछ पद हैं। इनके अनुयायी रैदासी या रविदासी कहलाते हैं। इस सम्प्रदाय की परम्परा 1570 ई० के लगभग इन्हीं से आरम्भ हुई।

रोगहविधि : रविवार के दिन पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र हो तो सूर्य का पूजन करना चाहिए। इससे व्रती समस्त रोगों से मुक्त होकर सूर्यलोक प्राप्त करता है। अर्क के फूलों से सूर्य. की पूजा करनी चाहिए। इस दिन पायस तथा अर्क के फूलों का भोजन विहित है। रात्रि को भूमि पर शयन करना चाहिए। इससे व्रती समस्त रोगों से मुक्त होकर सूर्यलोक प्राप्त करता है।

रोच : यह कतिपय व्रतों का नाम है। यथा मासोपवास, ब्राह्म रोच, काल रोच आदि। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को प्रारम्भ करके एक मास या एक वर्ष तक व्रत का आयोजन करना चाहिए। विष्णुधर्म० (3.222-223) इनका वर्णन करता है। अध्याय 224 में स्त्रियों के अनिश्चित चरित्र का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार समस्त अधर्म तथा बुराई की जड़ स्त्रियाँ हैं। किन्तु साथ ही वे धर्म अर्थ तथा काम की साधक हैं। रत्न के समान उनकी रक्षा करनी चाहिए (श्लोक 25-26)।

रोटक : श्रावण शुक्ल के प्रथम सोमवार को इस व्रत का आरम्भ होता है। यह व्रत साढ़े तीन महीनों तक चलना चाहिए। कार्तिक मास की चतुर्दशी को उपवास रखते हुए बिल्वपत्रों से शिव-पूजन करना चाहिए। इस अवसर पर पाँच रोट (लोहे अथवा मिट्टी के तवे पर सेंके गये गेहूँ के पाँच रोट) तैयार करने चाहिए, एक नैवेद्य के लिए, दो ब्राह्मणों के लिए, एक प्रसाद वितरणार्थ तथा एक व्रती के लिए। इस व्रत में शिवजी का पूजन विहित है। पाँच वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए। व्रत के अन्त में दो सुवर्ण या रजत के रोटों का दान करना चाहिए। इसका नाम बिल्वरोटक व्रत भी है।

रोमहर्षण : महर्षि वेदव्यास के एक सूतजातीय रोमहर्षण नामक शिष्य विख्यात हुए, जिन्हें 'लोमहर्षण' भी कहते हैं। महामुनि ने पुराणसंहिता प्रथमत: इन्हीं को पढ़ायी। रोमहर्षण के छः शिष्य हुए, उनके नाम सुमति, अग्निवर्चा, मित्रयु, शांसपायन, अकृतव्रण और सावर्णि थे। इनमें से कश्यपवंशीय अकृतव्रण, सावर्णि और शांसपायन ने रोमहर्षण से पढ़कर मूलसंहिता के आधार पर एक-एक पुराणसंहिता की रचना की। इन्हीं चार संहिताओं का सार संग्रह करके अन्य पुराणसंहिताएँ रची गयी।

रोहिणी : चतुर्व्यूह सिद्धान्त में चार देवता आते हैं। उनमें वासुदेव (कृष्ण) के बाद संकर्षण का स्थान है। ये वासुदेव के बड़े भाई थे। संकर्षण का अर्थ है 'अच्छी प्रकार से खींचा गया' क्योंकि ये अपनी माँ के गर्भ से खींच लिये गये थे तथा रोहिणी के गर्भ में रखे गये थे। रोहिणी से ही अन्त में संकर्षण की उत्पत्ति हुई। रोहिणी वसुदेव की बड़ी पत्नी थी।

रोहिणीचन्द्रशयन : मत्स्य पुराण (57) में इस व्रत का उल्लेख बड़े विस्तार से है (श्लोक 1-28 तक) तथा पद्म पुराण (4.24,101-130) में भी लगभग उसी प्रकार के श्लोक आये हैं। यहाँ चन्द्रमा के नाम से भगवान् विष्णु की पूजा वर्णित है। यदि पूर्णिमा के दिन सोमवार हो अथवा रोहिणी नक्षत्र हो तो व्रती को पञ्चगव्य तथा सरसों के उबटन के साथ स्नान करने के बाद ऋग्वेद का पंत्र `आप्यायस्व` (1.91.16) 108 बार बोलना चाहिए तथा शूद्र व्रती को यह बोलना चाहिए-- `सोमाय नमः विष्णवे नमः`। व्रती को फल तथा फूलों से भगवान् की पूजा करके सोम का नामोच्चारण करते हुए रोहिणी को प्रणाम करना चाहिए। व्रती को इस अवसर पर गोमूत्र का पान करना चाहिए, 28 विभिन्न पुष्प चन्द्रमा को अर्पित करने चाहिए। यह व्रत एक वर्ष तक चलना चाहिए। वर्ष के अन्त में पर्यङ्कोपयोगी वस्त्र तथा चन्द्रमा और रोहिणी की सुवर्ण प्रतिमाओं के दान का विधान है। इस समय यह प्रार्थना भी करनी चाहिए कि हे विष्णो। जिस प्रकार आपको, जो सोमरूप है, छोड़कर रोहिणी कहीं नहीं जाती, उसी प्रकार समृद्धि मुझे छोड़कर कहीं न जाये। इससे सौन्दर्य, स्वास्थ्य, दीर्घायु के साथ-साथ व्रती चन्द्रलोक प्राप्त करता है। कृत्यकल्पतरु तथा हेमाद्रि इसे चन्द्ररोहिणीशयन भी बतलाते हैं।

रोहिणीद्वादशी : श्रावण कृष्ण एकादशी को लोग (स्त्री या पुरुष) किसी सरोवर इत्यादि के समीप गाय के गोबर से एक मण्डल बनाकर उसमें चन्द्रमा तथा रोहिणी की आकृतियाँ खींचकर उनका पूजन करें तथा नैवेद्य अर्पण करें; बाद में उसे किसी ब्राह्मण को दे दें। तत्पश्चात् द्वादशी को कहीं स्थिर तथा गहरे जल में प्रविष्ट होकर चन्द्रमा तथा रोहिणी में अपना ध्यान केन्द्रित करें और पानी में खड़े-खड़े माष (उड़द की दाल) की एक सहस्र छोटी-छोटी गोलियाँ तथा घृत मिश्रित पाँच लड्डुओं को खायें। इसके बाद घर लौटकर किसी ब्राह्मण को भोजन तथा वस्त्र दान करना चाहिए। यह क्रिया प्रति वर्ष होनी चाहिए।

रोहिणीस्नान : यह भी नक्षत्रव्रत है। व्रती तथा उसके पुरोहित को रोहिणी तथा कृत्तिका नक्षत्र के दिन उपवास करना चाहिए। इस अवसर पर व्रती को पाँच कलश जल से स्नान कराया जाना चाहिए। स्नान करने के समय व्रती चावलों की ढेरी पर खड़ा रहे जो दूधवारे वृक्षों (वट-पीपल आदि) की छोटी-छोटी शाखाओं, प्रियङ्गु के श्वेत पुष्पों तथा चन्दन से सज्जित हो। व्रती को विष्णु, चन्द्र, वरुण, रोहिणी तथा प्रजापति की पूजा करनी चाहिए; घृत तथा अन्यान्य धान्यों से समस्त देवों का उद्देश्य करके होम करना चाहिए। इसके साथ व्रती को सींग में मढ़ा हुआ रत्न भी धारण करना चाहिए। सींग में मिट्टी, घोड़े के बाल तथा खुर से बने तीन भागों को धारण करना विहित है। इससे पुत्र, सम्पत्ति तथा यश की उपलब्धि होती है।

रोहिण्यष्टमी : भाद्र कृष्ण पक्ष को रोहिणी नक्षत्र युक्त अष्टमी जयन्ती कहलाती है। यदि अर्ध रात्रि के एक पल पूर्व तथा एक पल पश्चात् रोहिणी और अष्टमी विद्यमान रहें तो यह काल अत्यन्त पुनीत है, क्योंकि यह वही काल है जब भगवान् कृष्ण अवतीर्ण हुए थे। उस दिन उपवास करते हुए भगवान् का पूजन करने से पूर्व के एक सहस्र जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। एक सहस्र एकादशीव्रतों की अपेक्षा यह रोहिण्यष्टमी व्रत कहीं अधिक श्रेष्ठ है।

रौद्रविनायक याग : यदि गुरुवार को एकादशी तथा पुष्य नक्षत्र हो अथवा शनिवार के दिन एकादशी और रोहिणी नक्षत्र हो तो इस दिन रौद्रयाग का आयोजन किया जाना चाहिए। इससे पुत्रादि की प्राप्ति के साथ अनेक वरदानों की प्राप्ति होती है।

 : यह अन्तःस्थ वर्णों का अक्षर है। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है :

लकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीत्रयसंयुतम्। पीतविद्युल्लताकारं सर्वरत्नप्रदायकम्॥ पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा। त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिबिन्दुसहितं सदा॥ आत्मादितत्त्व सहितं हृदि भावय पार्वति॥

तन्त्रशास्त्र में इसके कई नाम दिये हुए हैं :

लश्चन्द्रः पूतना पृथ्वी माधवः शक्रवाचकः। बलानुजः पिनाकीशो व्यापको मांससंज्ञकः॥ खड्गी नागोऽमृतं देवी लवणं वारुणीपतिः। शिखा वाणी क्रिया माता भामिनी कामिनी प्रिया। ज्वालिनी वेगिनी नादः प्रद्युम्नः शोषणो हरिः। विश्वात्ममन्त्रों बली चेतो मेरुर्गिरीः कला रसः॥

लकुल : वायुपुराण के एक प्रकरण में पाशुपतों के उपसंप्रदाय लकुलीश का उल्लेख प्राप्त होता है। कल्पों की गणना के बाद युगों का वर्णन आता है, जो कल्प के विभाग हैं। युग कुल अट्ठाईस हैं तथा शिव प्रत्येक में अवतार लेने की प्रतिज्ञा करते हैं। अन्तिम वक्तव्य यह है कि जब कृष्ण वासुदेव का अवतार ग्रहण करेंगे तब शिव अपनी योगशक्ति से कायारोहण स्थान पर अरक्षित एक मृतक शरीर में प्रवेश करेंगे तथा लकुली नामक संन्यासी के रूप में दिखाई पड़ेंगे। कुशिक, गार्ग्य, मित्र तथा कौरुष्य उनके शिष्य होंगे। ये पाशुपत योग का अभ्यास अपने शरीर पर भस्म लगाकर करेंगे।

एकलिङ्गजी (उदयपुर) के समीप एक पुराने मन्दिर के अभिलेख से यह पता चलता है कि शिवावतार भड़ौंच देश में हुआ तथा शिव एक लाठी (लुकुल) अपने हाथ में धारण करते थे। उस स्थान का नाम कायारोहण था। चित्रप्रशस्ति का मत है कि शिव का अवतार कारोहण (कायारोहण), लाट प्रदेश, में हुआ। वहाँ पाशुपत मत को भली भाँति पालन करने के लिए शरीरी रूप धारण कर चार शिष्य भी आविर्भूत हुए। वे थे कुशिक, गार्ग्य, कौरुष्य तथा मैत्रेय। भूतपूर् बड़ौदा राज्य का 'करजण' वह स्थान कहलाता है। यहाँ लकुलीश का मन्दिर भी वर्तमान है।

लकुलेश : लकुलीश सिद्धान्त पाशुपतों का ही एक विशिष्ट मत है। इसका उदय गुजरात में हुआ। वहाँ इसके दार्शनिक साहित्य का सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ के पहले ही विकास हो चुका था, इसलिए उन लोगों ने शैव आगमों की नयी शिक्षाओं को नहीं माना। यह मत छठी से नवीं शताब्दी के बीच मैसूर और राजस्थान में भी फैल चुका था। शिव के अवतारों की सूची जो वायुपुराण से लिङ्ग और कूर्म पुराण में उद्धृत है, लकुलीश का उल्लेख करती है। वहाँ लकुलीश की मूर्ति का भी उल्लेख है, जो गुजरात के झरपतन नामक स्थान में है। यह सातवीं शताब्दी की बनी हुई है।

लकुलीश पाशुपत : लकुलीश पाशुपतों के सिद्धान्त का वर्णन 'सर्वदर्शनसंग्रह' में सायणाचार्य ने किया है, जिसका सार यह है :

जीव मात्र 'पशु' हैं। शिव 'पशुपति' हैं। भगवान् पशुपति ने बिनी किसी कारण, साधन या सहायता के इस संसार का निर्माण किया, अतः वे स्वतन्त्र कर्ता हैं। हमारे कर्मों के भी मूल कर्ता परमेश्वर हैं। अतः पशुपति सब कर्मों के कारण हैं। दे० 'पाशुपत'।

लक्षणार्द्रा व्रत : भाद्र कृष्ण अष्टमी को आर्द्रा नक्षत्र होने पर यह व्रत करना चाहिए। सर्वप्रथम उमा तथा शिव की प्रतिमाओं को पञ्चामृत से स्नान कराना चाहिए, तदनन्तर गन्धाक्षत-पुष्पादि से पूजन करना चाहिए। अर्घ्‍य, धूप, गेहूँ के आटे के मत्स्य आकृति वाले 32 प्रकार के खाद्य पदार्थ, जो पाँच प्रकार के रसों (दधि, दुग्ध, घृत, मधु, शर्करा) से युक्त हों तथा मोदक अर्पण करने चाहिए। तत्पश्चात् सुवर्ण, उपर्युक्त देवमूर्तियाँ तथा उत्तमोत्तम खाद्य पदार्थ दान में देना चाहिए। इस व्रत से समस्त पापों का नाश तो होता ही है, साथ ही सौन्दर्य, सम्पत्ति, दीर्घायु तथा यश भी प्राप्त होता है।

लक्षनमस्कारव्रत : आश्विन शुक्ल एकादशी से विष्णु भगवान् को एक लाख नमस्कार अर्पण करना चाहिए। पूर्णिमा तक व्रत की समाप्ति हो जानी चाहिए। इस अवसर पर भगवान् विष्णु का मन्त्र 'अतो देवाः' (ऋ० 1.22.16-21) उच्चारण करना चाहिए।

लक्षप्रदक्षिणाव्रत : इस व्रत में भगवान् विष्णु की एक लाख प्रदक्षिणाएँ करने का विधान है। चातुर्मास्य के प्रारम्भ के समय इसे आरम्भ कर कार्तिक की पौर्णमासी को समाप्त कर देना चाहिए।

लक्षवर्तिव्रत : कार्तिक, वैशाख अथवा माघ में इस व्रत का आरम्भ होता है। सर्वोत्तम मास वैशाख है। तीन मास के अन्त में पौर्णमासी को यह व्रत समाप्त होना चाहिए। इस अवसर पर ब्रह्मा तथा सावित्री, विष्णु तथा लक्ष्मी, शिव एवं उमा की प्रतिमाओं के सम्मुख प्रतिदिन सहस्र बत्तियों वाले दीपक प्रज्वलित करने चाहिए।

लक्षहोम : यह शान्तिव्रत है, इसमें किसी भी इष्ट देव के लिए एक लाख आहुति देने का विधान है।

लक्षेश्वरीव्रत : उसी प्रकार से यह व्रत होता है जैसे 'कोटेश्वरीव्रत' पहले बतलाया गया है।

लक्ष्मण देशिक : 11 वीं शताब्दी के एक शाक्त विद्वान्। इनका रचा हुआ 'शारदातिलक' नामक तन्त्र ग्रन्थ शाक्तों के लिए अत्यन्त प्रामाणिक माना जाता है।

लक्ष्मणसेन : बङ्गाल का प्रसिद्ध सेनवंशी राजा (1227-1250 वि०)। यह हिन्दू धर्म व साहित्य का बहुत बड़ा संरक्षक था। किसी-किसी के मतानुसार निम्बार्काचार्य इसके प्रश्रय में भी रहे थे। 'गीतागोविन्द' के रचयिता भक्त कवि जयदेव इसकी राजसभा में रहते थे।

लक्ष्मी : ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में इनका वर्णन पाया जाता है : 'श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च... इषाण।' [हे परमेश्वर, अनन्त शोभास्वरूप श्री और अनन्त शुभ लक्षणों से युक्त लक्ष्मी दोनों आपकी पत्नी हैं। अर्थात् जैसे स्त्री पति की सेवा करती है, उसी प्रकार आपकी सेवा आप ही को प्राप्त होती है,क्योंकि आप ही ने सब जगत् को शोभा और शुभ लक्षणों से युक्त कर रखा है।] आगमसहिताओं के रहस्य का विश्लेषण करने से प्रकट होता है कि सर्वोत्तम अवस्था में विष्णु और उनकी शक्ति लक्ष्मी एक ही परमात्मा हैं, जो अभिन्न हैं। केवल सृष्टि के समय वे भिन्न-भिन्न दृष्टिगोचर होते हैं।

लक्ष्मीधर : (1) लक्ष्मीधर पहले शाक्त आचार्य थे और दक्षिण मार्ग का अनुमान करते थे। इनका दीक्षानाम विद्यानाथ था। ये तेरहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में वारङ्गल (आन्ध्र) में रहते थे। इन्होंने प्रसिद्ध स्तोत्र 'सौन्दर्यलहरी' का भाष्य रचा है। इन्होंने सौन्दर्यलहरी को शङ्कराचार्य की रचना माना है, जबकि विद्वानों को इस मत में सन्देह है। सौन्दर्यलहरी के 31वें श्लोक की व्याख्या में इन्होंने 64 तन्त्रों की सूची उपस्थित की है जो 'वामकेश्वर तन्त्र' की सूची से उद्धृत है। साथ ही दो और सूचियाँ 'मिश्र' तथा 'समय' तन्त्रों की उपस्थित की हैं, जिनमें क्रमशः आठ तथा नौ नाम हैं।

(2) प्रसिद्ध धर्मशास्त्रकार, जो कान्यकुब्ज प्रदेश के गहड़वाल राजा गोविन्दचन्द्र के 'सान्धिविग्रहिक' (सन्धि और युद्ध के मंत्री) थे। इन्होंने 'कृत्यकल्पतरु' नांमक बृहत निबन्धग्रन्थ की रचना की।

लक्ष्मीनारायणव्रत : फाल्गुन की पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। वर्ष के चार-चार महीनों के तीन भागों से प्रारम्भ करके प्रत्येक पूर्णिमा के दिन लक्ष्मीनारायण का एक साल तक पूजन करना चाहिए। आषाढ़ से चार मास तक श्रीधर तथा श्री, कार्तिक से आगे के चार मास तक केशव तथा भूति का पूजन करना चाहिए। पूर्णिमा को रात्रि के समय चन्द्रमा को अर्घ्‍य देना चाहिए। चार मास वाले प्रति भाग में शरीर की संशुद्धि के लिए भिन्न प्रकार के द्रव्यों, यथा पञ्चगव्य, दर्भयुक्त जल तथा सूर्य की किरणों से उष्ण किये हुए जल का प्रयोग किया जाना चाहिए।

लक्ष्मीपूजन : कार्तिक की अमावस्या को दीपावली पर्व के अवसर पर लक्ष्मी के पूजन का विधान है।

लक्ष्मीप्रदव्रत : हेमाद्रि (2.769-771) के अनुसार यह कृच्छ्र व्रतों में है। कार्तिक कृष्ण सप्तमी से दशमी तक व्रती को क्रमशः दुग्ध, बिल्वपत्र, कमलपुष्प तथा विस (कमलनाल) का आहार करना चाहिए। एकादशी को उपवास करने का विधान है। इन दिनों केशव की पूजा करनी चाहिए। इससे विष्णुलोक की प्राप्ति होती है।

लक्ष्मीव्रत : (1) प्रति पञ्चमी को उपवास करते हुए लक्ष्मी का पूजन करना चाहिए। यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता है। व्रत के अन्त में सुवर्णकमल तथा गौ का दान विहित है। इससे व्रती प्रति जन्म में धन-सम्पत्ति प्राप्त करके विष्णुलोक प्राप्त करता है।

(2) इस व्रत में चैत्र शुक्ल तृतीया को उबला हुआ चावल तथा घृताहार करना चाहिए। चतुर्थी को गृह से बाहर कमल के पुष्पों से भरे किसी सरोवर में स्नान करना चाहिए तथा कमल में ही लक्ष्मीजी का पूजन करना चाहिए। पञ्चमी को मन्त्रोच्चारण करते हुए कमलपुष्पों को लक्ष्मीजी के चरणों में अर्पित किया जाय। पंचमी को पूर्व प्रकार से ही स्नान करके सुवर्ण का दान करना चाहिए। यह क्रिया वर्ष भर चलनी चाहिए।

लक्ष्मीयामलतन्त्र : यामल शब्द की व्याख्या हो चुकी है। आठ यामल तन्त्रों में लक्ष्मीयामल भी एक है। दे० 'यामल'।

लक्ष्मीश देवपुर : माध्व मत के आचार्य लक्ष्मीश देवपुर ने 1817 वि० में 'जैमिनीभारत' नामक ग्रन्थ की रचना की। इसमें यद्यपि युधिष्ठिर के अश्वमेधयज्ञ का वर्णन है, तथापि इस ग्रन्थ का उद्देश्य कृष्ण की महिमा का वर्णन करना और वैष्णव धर्म का महत्त्व दिखाना है।

लक्ष्मीसंहिता : पाञ्चरात्र साहित्य का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ। संहिताएँ 108 हैं, किन्तु इनके रचनाकाल के निर्धारण में बड़ी कठिनाई है। कुछ विद्वानों द्वारा पुष्कर, वाराह तथा ब्राह्म संहिताओं को सबसे प्राचीन माना जाता है। आयंगर महोदय लक्ष्मीसंहिता को अति प्राचीन मानते हैं तथा पद्म को भी प्राचीन बतलाते हैं। आयंगर के मत को गोपालाचार्यस्वामी भी स्वीकार करते हैं।

लगध : ऋग्ज्योतिष के लेखक लगध हैं। 'बार्हस्पत्य' लेख से यह जान पड़ता है कि लगध कदाचित् बर्बरदेशीय मानते थे। परन्तु वेदाङ्गज्योतिष के किसी श्लोक से, भाव से या किसी अन्तःसाक्ष्य से लगध का विदेशी होनी सिद्ध नहीं होता।

लघुचन्द्रिका : द्वैत मतावलम्बी (माध्व) व्यासराज के शिष्य रामाचार्य ने स्वामी मधुसूदन सरस्वती से अद्वैत सिद्धान्त की शिक्षा ग्रहण कर फिर उन्हीं के मत का खण्डन करने के लिए तरङ्गिणी नामक ग्रन्थ की रचना की। इससे असन्तुष्ट होकर ब्रह्मानन्द स्वामी ने अद्वैतसिद्धि पर लघुचन्द्रिका नाम की टीका लिखकर तरङ्गिणीकार के मत का खण्डन किया।

लघुटीका : तमिल शैवाचार्य शिवज्ञान योगी (मृत्युकाल 1785 ई०) ने तमिल शैव सिद्धान्त के आधार ग्रन्थ 'शिवज्ञानबोध' पर दो तमिल भाष्य रचे। एक बड़ा, जिसे 'द्राविड भाषा' तथा दूसरी छोटा, जिसे 'लघु टीका' कहते हैं।

लघुबृहन्नारदीय पुराण : यह एक छोटा ग्रन्थ है, जो सम्भवतः उपपुराणों में भी नहीं गिना जा सकता।

लघुसांख्यसूत्रवृत्ति : अठारहवीं शताब्दी के मध्य में नागेश भट्ट ने 'सांख्यप्रवचनभाष्य' की 'लघुसांख्यसूत्रवृत्ति' नामक वृत्ति लिखी। नागेश भट्ट महान् वैयाकरण होने के साथ ही सकलशास्त्रपारंगत विद्वान् थे। साहित्य, योग, सांख्य, धर्मशास्त्र, तन्त्र, वेदान्त----सभी विषयों पर उनकी मर्मस्पर्शी रचनाएँ प्राप्त हैं।

ललित आगम : रौद्रिक आगमों में से एक 'ललित आगम' भी है।

ललितकान्ता देवी व्रत : तिथितत्त्व (पृ० 41, कालिकापुराण को उद्धृत करते हुए) के अनुसार 'मङ्गलचण्डिका' ही ललितकान्ता देवी के नाम से पुकारी जाती है, जिनकी दो भुजाएँ हैं, गौर वर्ण हैं तथा जो रक्तिम कमल पर संस्थित हैं, आदि। इस देवी की पूजा से सौन्दर्य और समृद्धि प्राप्त होती है।

ललिता : दक्षिण भारत के दक्षिणमार्गी शाक्तों के मत के ललिता सुन्दरी देवी ने, जो आँखों को चौंधिया देने वाली आभा से युक्त हैं, चण्डी का स्थान ले लिया है। इनके यज्ञ, पूजा आदि की पद्धति चण्डी के समान ही है। चण्डी (दुर्गा)-पाठ के स्थान पर ललितोपाख्यान, ललितासहस्रनाम, ललितात्रिशति का पाठ होता है। ये तीनों ग्रन्थ ब्रह्माण्ड पुराण से लिये गये हैं। ललितोपाख्यान में देवी द्वारा भण्डासुर तथा अन्य दैत्यों के वध का वर्णन है। ललिता की पूजा में पशुबलि निषिद्ध है।

ललितातन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत चौसठ तन्त्रों की सूची में ललितातन्त्र भी उद्धृत है।

ललितात्रिशती : देवी के तीन सौ नामों का संग्रह। दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में चण्डी के स्थान पर ललिता की उपासना करने वाले भक्त देवी की पूजा के समय इसी का पाठ करते हैं। इस पर शंकराचार्यकृत भाष्य भी उपलब्धि होता है। दे० 'ललिता'।

ललिताव्रत : माघ शुक्ल तृतीया के दिन मध्याह्न काल में तिल तथा आवँले का उबटन शरीर में लगाकर किसी नदी में स्नान करना चाहिए तथा पुष्पादि से ललिता देवी का पूजन करना चाहिए। ताम्रपात्र में जल, सुवर्ण का टुकड़ा तथा अक्षत डालकर किसी ब्राह्मण के सम्मुख रख देना चाहिए। ब्राह्मण उसी पात्र का जल मंत्रोच्चारण करते हुए व्रती के ऊपर छिड़के। महिला व्रती को सुवर्ण का दान करना चाहिए, तथा ऐसे जल का सेवन करना चाहिए जिसमें कुश पड़ा हो। रात्रि को देवी में ही ध्यान केन्द्रित करते हुए भूमि पर शयन करना चाहिए। दूसरे दिन ब्राह्मणों तथा एक सधवा नारी का सम्मान किया जाय। यह व्रत वर्ष भर के लिए है जिसमें देवी के भिन्न-भिन्न नाम बारहों महीनों में प्रयुक्त होते हैं (जैसे ईशानी प्रथम मास में, ललिता आठवें में, गौरी बारहवें मास में)। स्त्री व्रती को शुक्ल तृतीया को उपवास करते हुए क्रमशः बारह वस्तुओं का आहार करना चाहिए, जैसे कुशों से पवित्र किया हुआ जल, दूध, घृत इत्यादि। व्रत के अन्त में एक ब्राह्मण तथा उसकी पत्नी का सम्मान किया जाना चाहिए। इससे पुत्र, सौन्दर्य तथा स्वास्थ्य प्राप्त होने के साथ साथ कभी भी वैधव्य प्राप्त नहीं होता। भविष्योत्तर पुराण, अग्नि पुराण, मत्स्य पुराण आदि ग्रन्थों में ललितातृतीया का उल्लेख करते हुए बतलाया गया है कि चैत्र शुक्ल तृतीया को ही भगवान् शिव ने गौरी के साथ विवाह किया था। मत्स्य पुराण (60.11) के अनुसार सती का नाम ही ललिता है, क्योंकि अखिल ब्रह्माण्ड में वे सर्वोच्च तथा सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी हैं। ब्रह्माण्ड पुराण के अन्त (अध्याय 44) में ललितासम्प्रदाय पर एक पृथक् विभाग ही लिखा गया है।

ललिताषष्ठी : यह व्रत अधिकांशतः महिलाओं के लिए है। भाद्र शुक्ल षष्ठी को बाँस के पात्र में नदी की बालू लाकर उसके पाँच गोल-गोल लड्डू से बनाकर उनके ऊपर भिन्न-भिन्न प्रकार के 28 या 108 पुष्पों, फलों तथा भाँति-भाँति के खाद्य पदार्थों से ललिता देवी की पूजा करनी चाहिए। उस दिन अपनी सखियों के साथ महिला बिना आँख बन्द किये जागरण करे तथा सप्तमी के दिन वह समस्त खाद्य किसी देवीभक्त को दे दिया जाय़। तदनन्तर कन्याओं तथा पाँच या दस ब्राह्मण पत्नियों को भोजन कराकर 'ललिता देवी प्रसीदतु मे' मन्त्रोच्चारण करते हुए उन्हें विदा कर दिया जाय।

लवणदान : मार्गशीर्ष पूर्णिमा को यदि मृगशिरा नक्षत्र हो तब यह व्रत करना चाहिए। चन्द्रोदय के समय एक प्रस्थ भूमि का (क्षार) लवण किसी पात्र में रखकर, जिसका केन्द्र सुवर्ण से युक्त हो, किसी ब्राह्मण को दान दे दिया जाय। इस कृत्य से सौन्दर्य तथा सौभाग्य की उपलब्धि होती है।

लवणसंक्रान्तिव्रत : संक्रान्ति के दिन स्नान के उपरान्त केसर के लेप से अष्टदल कमल की आकृति बनाना चाहिए। उसके मध्य में सूर्य की प्रतिमा का पूजन करना चाहिए तथा उसके सम्मुख एक पात्र में लवण तथा गुड़ रखना चाहिए। बाद में वह पात्र लवणादि सक्षित दान कर देना चाहिए। वर्ष भर यह कार्यवाही चलनी चाहिए। व्रत के अन्त में सुवर्ण की सूर्यप्रतिमा बनवाकर लवणपूर्ण पात्र तथा एक गौ सहित दान कर देना चाहिए। यह संक्रान्तिव्रत है।

लाट्यायनसूत्र : सामवेदीय दूसरा श्रौतसूत्र। यह कौथुमी शाखा के अन्तर्गत है। यह ग्रन्थ भी पञ्चविंश ब्राह्मण का ही अंग है। उसके बहुत से वाक्य इसमें आये हैं। इसके पहले प्रपाठक में सोमयाग के साधारण नियम हैं। आठवें और नवें अध्याय के कुछ अंश एकाह याग की प्रणाली पर है। नवें अध्याय के शेषांश में कुछ दिवसों तक चलने वाली श्रेणी के यज्ञों का वर्णन है। दसवें अध्याय में सूत्रों का वर्णन है। इस ग्रन्थ पर रामकृष्ण दीक्षित, सायण और अग्निस्वामी के अच्छे भाष्य हैं।

लालदास : मेव जाति के अन्तर्गत लालदास नाम के एक निर्गुणउपासक सन्त जिला अलवर (राजस्थान) में हो गये हैं। इनकी मृत्यु 1705 वि० में हुई। इनकी शिक्षाओं तथा पदों का संग्रह 'बानी' कहलाता है। इनसे ही लालदासी पंथ प्रचलित हुआ। लालदासी आचार्य अपने प्रारम्भिक आचार्य के समान ही विवाहित होते हैं। इस सम्प्रदाय की पूजा में केवल रामनाम का जप सम्मिलित है। लालदासी पंथ कबीरदास की शिक्षाओं से प्रभावित जान पड़ता है।

लालदासी पंथ : दे० 'लालदास'।

लालदेद : चौदहवीं शताब्दी में एक अध्यात्मज्ञानी वृद्धा, जिसका नाम लालदेद था, कश्मीर में हो गयी हैं। उसकी सरल बानियाँ कश्मीर की सुखद घाटी में बहुलता से प्रयुक्त होती हैं। कश्मीरी भाषा में उसके पद लोकप्रिय हैं। ग्रियर्सन ने उसके कुछ छन्दों का अंग्रेजी अनुवाद किया है।

लावण्यगौरीव्रत : चैत्र शुक्ल पञ्चमी के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है। पञ्चाङ्गानुसार यह व्रत तमिलनाडु में अधिक प्रचलित है।

लावण्यव्रत : कार्तिकी पूर्णिमा के उपरान्त प्रतिपदा को वस्त्र के टुकड़े पर प्रद्मुम्न की आकृति बनवाकर अथवा उनकी मूर्ति बनवाकर उसका पूजन करना चाहिए। उस दिन नक्त विधि से आहार करना चाहिए। मार्गशीर्ष मास के प्रारम्भ होते ही तीन दिनों तक उपवास करना चाहिए तथा प्रद्युम्न महाराज का पूजन करना चाहिए। हवन में घृताहुतियाँ दी जानी चाहिए। ब्राह्मणों को मुख्य रूप से लवण वाला भोजन कराना चाहिए। अन्त में एक प्रस्थ नमक, एक जोड़ा वस्त्र, सुवर्ण तथा काँसे का पात्र दान में देना विहित है। यह मासव्रत है, इसलिए एक मास तक चलना चाहिए। इससे सौन्दर्य तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

लिङ्ग : प्रतीक अथवा चिह्न। अव्यक्त अथवा अमूर्त सत्ता का स्थूल प्रतीक ही लिङ्ग है। इसके माध्यम से अव्यक्त सत्ता का ध्यान किया जाता है। महाभारत, शान्तिपर्व के पाशुपत परिच्छेदों में शिवलिंङ्ग के प्रति अति श्रद्धाभक्ति प्रदर्शित की गयी है। किन्तु पूर्ववर्ती साहित्य में इसका उल्लेख नहीं मिलता। (ऋग्वेद में 'शिश्नदेवाः' शब्द मिलता है, किन्तु लिंङ्ग शिश्न नहीं है; यह ज्योति अथवा प्रकाश का प्रतीक है।) संप्रति सभी शैवसम्प्रदाय लिङ्ग की पूजा करते हैं।

लिङ्गायत सम्प्रदाय में लिङ्ग का बहुत अधिक महत्त्व है। अष्टवर्ग जो लिङ्गायतों का एक संस्कार है, बच्चे के जन्म के बाद पापों से उसकी रक्षा के लिए किया जाता है। लिङ्ग भी अष्टवर्गों में से एक है। प्रत्येक लिङ्गायत गले में लिङ्ग धारण करता है।

लिङ्गव्रत : ये सब व्रत कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी से प्रारम्भ होते हैं। इनमें शिवजी का पूजन होता है। इस अवसर पर नक्त विधि से आहार करना चाहिए। चावल के आटे से एक अरत्नि जितना बड़ा शिवलिङ्ग बनाया जाय, इस लिङ्ग पर एक प्रस्थ तिल चढ़ाना चाहिए। मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशी को शिवलिङ्ग पर केसर का प्रलेप करना चाहिए। इस विधि से प्रति मास वर्ष भर भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रलेप, धूप तथा नैवेद्यादि का प्रयोग करना चाहिए। इससे गम्भीर से गम्भीर पातकी पवित्र होकर रुद्रलोक प्राप्त कर लेता है। लिंग का निर्माण पवित्र भस्म से, सूखे गौ के गोबर से, रेणु से या स्फटिक पाषण से किया जा सकता है, किन्तु सर्वोत्तम लिङ्ग तो नर्मदा के उद्गम वाले पर्वत की रज से ही निर्मित हो सकता है।

लिङ्गधारी : शैवों में भगवान् शिव की अनन्य और प्रगाढ़ भक्ति करने वाले वीर माहेश्वर या वीर शैव हैं, जिन्हें लिङ्गायत भी कहते हैं। पाशुपतों या शैवों में लिङ्गी वा लिङ्गधारी तथा अलिङ्गी वा साधारण लिङ्गार्चन करने वाले, ये दो प्रकार हैं। लिङ्गधारी ही लिङ्गायत कहलाते हैं जो मांस-मत्स्यादि का परित्याग करते हैं।

लिङ्गपुराण : अठारह महापुराण में से ग्यारहवाँ पुराण। लिङ्ग तथा कूर्म पुराणों शैव वर्ग के हैं जो वैष्णव वर्गीय अग्नि तथा गरुड़ पुराण जैसी विशेषताएँ रखते हैं। इनमें आगमों और तन्त्रों की शिक्षाओं का भी समावेश है और इन ग्रन्थों का प्रसंग भी यथास्थान आया है। दोनों में कुछ परिवर्तन तथा परिवर्धन के साथ शिव के 28 अवतारों तथा उनके शिष्यों का वर्णन (वायु से लिया गया) उपस्थित है। लिङ्गपुराण में ओंकार के रहस्यमय अर्थ पर विशेष विचार किया गया है।

लिङ्गपूजा : पुरातत्त्व के विद्वानों का कहना है कि लिङ्गपूजा किसी समय, विशेषतः ईसा के पूर्व सारे संसार में व्यापक रूप से प्रचलित थी और आकार तथा विधि के थोड़े-बहुत भेद के साथ सारे संसार के मूर्तिपूजक लिङ्ग-पूजन करते थे। मिस्र में, यूनान में, बाबुल में, असुर देश में, इटली में, फ्रांस तथा अमेरिका में, अफ्रीका में, तथा पॉलिनेशिया दीपों में लिङ्गपूजा होती थी। मक्का की मस्जिद में आज भी एक पत्थर अथवा लिङ्ग है, जिसे मुसलमान यात्री चूमते हैं। वह स्वयं मुहम्मद साहब के हाथों वहाँ रखा गया है। हिन्दू-भारत में तो शिवपूजा और लिङ्गपूजा अनादि काल से परम्परागत रही है।

किन्तु लिङ्गपूजा शिश्नपूजा नहीं है, जैसा कि बहुत से लोग समझते हैं। 'शिश्नोदर परायण' को हिन्दू धर्म में घृणित समझा जाता है। ऋग्वेद में 'शिश्नदेव' इसी घृणित अर्थ में प्रयुक्त है। लिङ्ग वास्तव में प्रतीक मात्र है। यह निश्चल, स्थिर तथा दृढ़ ज्ञानस्कन्ध का प्रतीक है। भारत में अनेक लिङ्गों की स्थापना हुई है, जिनमें द्वादश ज्योतिर्लिंङ्ग विशेष प्रसिद्ध हैं।

लिङ्गायत : वीर शैवों का अन्य नाम लिंगायत भी है। इस सम्प्रदाय की उत्पत्ति कर्नाटक के समुद्रतट पर तथा महाराष्ट्र देश में 12वीं शताब्दी के मध्य हुई। यद्यपि वीर शैव अथवा वीर माहेश्वर अपने सम्प्रदाय को अति प्राचीन मानते हैं। कर्नाटक में सैकड़ों वर्षों तक या तो शैव थे या दिगम्बर जैन। इस नये सम्प्रदाय की स्थापना शैव धर्म की निश्चित सुव्यवस्था के लिए तथा जैनियों को अपने सम्प्रदाय में लेने के लिए हुई। सम्प्रदाय की दो मुख्य विशेषताएँ हैं-- (1) मठों की प्रधानता तथा (2) धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रत्येक लिंगायत का समानाधिकार।

वीरशैवों की साम्प्रदायिक व्यवस्था महत्त्वपूर्ण है। इनके पाँच प्रारम्भिक मठ थे जिनके महन्त पाँच संन्यासी थे :

मठ प्रदेश प्रथम महन्त 1. केदारनाथ हिमालय प्रदेश एकोराम 2. श्रीशैल तैलंग प्रदेश पण्डिताराध्य 3. बलेहल्ली पश्चिमी मैसूर रेवण 4. उज्जयिनी बेल्लारी सीमा मरुल 5. वाराणसी उत्तर प्रदेश विश्वाराध्य

प्रत्येक लिंगायत ग्राम में एक मठ होता है जो किसी न किसी आदि मठ से सम्बन्धित होता है। जङ्गम एक जाति है जिसके सभी लिङ्गायत गुरु सदस्य होते हैं। प्रत्येक लिङ्गायत को किसी न किसी मठ से सम्बन्धित होना चाहिए तथा उसका एक गुरु होना चाहिए।

लिङ्गायत शिव को ही सर्वेश्वर मानते हैं तथा एकमात्र शिव की पूजा करते हैं। वे शिव की पूजा दो प्रकारों से करते हैं; अपने गुरू जङ्गम की पूजा तथा गले में लटकने वाले छोटे लिङ्ग की पूजा।

जब बच्चा पैदा होता है तो पिता अपने गुरु को बुलाता है, वह बच्चे की रक्षा के लिए अष्टवर्ग संस्कार करता है। इसके आठ विभाग हैं-- गुरु, लिङ्ग, विभूति, रुद्राक्ष, मन्त्र, जङ्गम, तीर्थ और प्रसाद। इस संस्कार से बालक लिङ्गायत बन जाता है।

प्रत्येक लिङ्गायत को एक गुरु स्वीकार करना होता है। इस अवसर पर एक संस्कार होता है, इसमें पाँच पात्रों का प्रयोग होता है जो पाँचों आदि विहारों के आदिमहन्तों का प्रतिनिधित्व करते हैं। चार पात्र वेदी के एक-एक कोने पर तथा मध्य में वह रखा जाता है जिससे गुरु का सम्बन्ध होता है। दीक्षा लेने वाला जिस मठ से अपना सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है उसके महन्त के प्रतिनिधि पात्र को केन्द्र में रखता है।

प्रत्येक लिङ्गायत दिन में दो बार भोजन के पूर्व पूजा करता है। वह अपने गले से लिङ्ग लेकर हथेली पर रखता है तथा बताये गये ढंग से पूजा व ध्यान में लीन हो जाता है।

जब गुरु चेले के घर आते हैं तब पादोदक संस्कार होता है, जिसमें उस परिवार के सभी लोग बन्धु-बान्धव समेत सम्मिलित होते हैं और गृहस्वामी गुरू के चरणों की पूजा षोडशोपचारपूर्वक करता है।

जङ्गम के दो अर्थ हैं : एक तो जाति का सदस्य औऱ दूसरा जो जङ्गमाभ्यास करता है। केवल दूसरा ही पूजनीय होता है। बहुत से जङ्गम विवाह करते तथा जीविकोपार्जन करते हैं, किन्तु अभ्यासी जङ्गम ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। उनकी शिक्षा किसी मठ में होती है तथा वे दीक्षित होते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं। प्रथम गुरुस्थल जङ्गम वे हैं जो पारिवारिक संस्कारों के कराने की शिक्षा लेकर गुरु का कार्य करते हैं। पाँचों मठों का नाम भी गुरुस्थल है। दूसरा वर्ग है विरक्त जङ्गम का, इनके लिए विशेष मठ होते हैं, जहाँ इन्हें दार्शनिक शिक्षा दी जाती है। इन मठों को षट्स्थल मठ कहते हैं क्योंकि यहाँ शिव के साथ एकत्व प्राप्त करने के छः स्थलों की शिक्षा दी जाती है।

लिङ्यातों में दो वर्ग हैं--एक पूर्ण लिङ्गायत, दूसरे अर्ध लिङ्गायत। अर्ध लिंगायतों की पूजा अपूर्ण तथा जातिभेद बहुत ही कड़ा है। पूर्ण लिंगायत अन्तर्जातीय विवाह नहीं करते किन्तु भोजन सभी के साथ कर लेते हैं। पूर्ण लिंगायत शव को जलाते हैं। ये शाकाहारी होते हैं। बालविवाह इनमें वर्जित है किन्तु विधवाविवाह होता है।

वीर शैवों को यह शिक्षा दी जाती है कि वे इसी जन्म में सिखाये हुए ध्यान की छः अवस्थाओं से होकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। उनके अभ्यास में भक्ति का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है।

लिङ्गायत साहित्य अधिकांश कन्नड़ तथा संस्कृत में है। किन्तु कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ तेलुगु भाषा में भी हैं। एक अति प्राचीन ग्रन्थ है 'पंडिताराध्य का जीवन'। इसे सोमनाथ ने संस्कृत तथा तेलुगु मिश्रित भाषा में लिखा है। अन्य ग्रन्थ वसवपुराण, श्रीकरभाष्य (वेदान्तसूत्र का भाष्य), सूक्ष्म आगम पूर्ण लिङ्गायत हैं। लिङ्गायतों में प्रचलित महत्त्वपूर्ण कन्नड़ भाषा की भिक्षाएँ 'वचन' कहलाती हैं। कुछ कन्नड़ी पुराण भी इस सम्प्रदाय के हैं जिनमें राघवाङ्करचित 'सिद्धराम' बहुत प्रसिद्ध है।

लिङ्गार्चनव्रत : शनिवारयुक्त कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। उस दिन शिवजी के एक सौ नामों का जप करना चाहिए। प्रदोषकाल में पञ्चामृत से स्नान कराकर लिङ्ग रूप में शिवजी का पूजन करना चाहिए। स्कन्दपुराण (1.17.59--91) इस व्रत का वर्णन करता है। श्लोकसंख्या 75-89 में शिवजी के 100 नाम गिनाये गये हैं।

लिङ्गार्चनी शाखा : यों तो सभी शैव लिङ्गार्चन करते हैं, किन्तु प्रगाढ़ शिवभक्तों का सम्प्रदाय वीर माहेश्वर या वीर शैव अपने अङ्ग पर निरन्तर लिङ्ग धारण करने के कारण लिङ्गायत कहलाता है। प्रति दिन दो बार लिङ्गार्चन करने के कारण इस शाखा को लिङ्गार्चन शाखा भी कहा गया है।

लीलाचरित : मानभाउ पन्थ या दत्त सम्प्रदाय का एक प्राचीन ग्रन्थ लीलाचरित है। इनके सभी ग्रन्थ मराठी में हैं अपने साहित्य को गुप्त रखने लिए साम्प्रदायिकों ने ग्रन्थ लेखन के लिए एक भिन्न लिपि का भी उपयोग किया है।

लीलाशुक : विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के चौदहवीं-पन्द्रहवीं शती के एक आचार्य बिल्वमङ्गल हो गये हैं। इनका ही दूसरा नाम लीलाशुक है। इन्होंने 'कृष्णकर्णामृत' नामक बड़े ही मधुर भक्तिरसपूर्ण काव्यग्रंथ की रचना की है।

लुम्बिनी (कानन) : यह मूलतः बौद्ध तीर्थ है। अब यहाँ स्थानीय लोग देवी की पूजा करते हैं। यह बुद्ध की माता माया देवी का आधुनिक रूप है। यह स्थान नेपाल की तराई में पूर्वोत्तर रेलवे की गोरखपुर-नौतनवाँ लाइन के नौतनवाँ स्टेशन से 20 मील उत्तर है और गोरखपुर-गोंडा लाइन के नौगढ़ स्टेशन से 10 मील है। नौगढ़ से यहाँ तक पक्का मार्ग भी बन गया है। गौतम बुद्ध का जन्म यहीं हुआ था। यहाँ के प्राचीन विहार नष्ट हो चुके हैं। एक अशोकस्तम्भ है जिस पर अशोक का अभिलेख उत्कीर्ण है। इसके अतिरिक्त समाधिस्तूप भी है, जिसमें बुद्ध की मूर्ति है। नेपाल सरकार द्वारा निर्मित दो स्तूप और हैं। रुम्मिनदेई का मन्दिर तथा पुष्करिणी दर्शनीय है।

लोक : ऋग्वेद आदि संहिताओं में लोक का अर्थ विश्व है। तीन लोकों का उल्लेख प्रायः होता है। 'अयं लोकः' (यह लोक) सर्वदा 'असौ लोकः' (परलोक अथवा स्वर्ग) के प्रतिलोम अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। लोक का कभी-कभी स्वर्ग अर्थ भी किया गया है। वैदिक परिच्छेदों में अनेक विभिन्न लोकों का उल्लेख हुआ है। लौकिक संस्कृत में प्रायः तीन लोकों का ही उल्लेख मिलता है : (1) स्वर्ग (2) पृथ्वी और (3) पाताल।

लोकव्रत : चैत्र शुक्ल पक्ष में इस व्रत का प्रारम्भ होता है। सात दिनों तक निम्न वस्तुओं का क्रमशः सेवन करना चाहिए--गोमूत्र, गोमय, दुग्ध, दधि, घृत तथा जल जिसमें कुश डूबा हुआ हो। सप्तमी को उपवास का विधान है। महाव्याहृतियों (भूः भुवः स्वः) का उच्चारण करते हुए तिलों से हवन करना चाहिए। वर्ष के अन्त में वस्त्र, काँसा तथा गौ दान की जानी चाहिए। इस व्रत से व्रती को राजत्व प्राप्त होता है।

लोकाचार्य : विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय में लोकाचार्य वेदान्ताचार्य के ही समसामयिक और विशिष्ट विद्वान् हुए हैं। इनका काल विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी और पिता का नाम कृष्णपाद मिलता है। जन्म भी दक्षिण में ही हुआ था। इन्होंने रामानुजाचार्य का मत समझाने के लिए दो ग्रन्थों की रचना की है ---'तत्त्वत्रय' और 'तत्त्वशेखर'। 'तत्त्वत्रय' में चित् तत्त्व या आत्मतत्त्व, अचित् या जड़ तत्त्व और ईश्वर तत्त्व का निरूपण करते हुए रामानुजीय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। कहीं-कहीं पर अन्य मतों का खण्डन भी किया गया है। इस ग्रन्थ पर बर्बर मुनि का भाष्य भी मिलता है।

लोकायतदर्शन : लोक एवं आयत, अर्थात् 'लोकों' जनों में 'आयत' फैला हुआ दर्शन ही लोकायत है। इसका दूसरा अर्थ वह दर्शन है जिसकी सम्पूर्ण मान्यताएँ इसी भौतिक जगत् में सीमित हैं। यह भौतिकवादी अथवा नास्तिक दर्शन है। इसका अन्य नाम चार्वाक दर्शन भी है। विशेष विवरण के लिए दे० 'चार्वाक दर्शन'।

लोचनदास : चैतन्य सम्प्रदाय के इस प्रतिष्ठित कवि ने सोलहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण 'चैतन्यमङ्गल' नामक काव्य ग्रन्थ की रचना की।

लोपा : तैत्तिरीय संहिता (5.59.181) में लोपा अश्वमेध यज्ञ की बलितालिका में उद्धृत है। इसे सायण ने एक प्रकार का पक्षी, सम्भवतः 'श्मशानशकुनि' (शवभक्षी कौवा) बतलाया है।

लोपामुद्रा : ऋग्वेद (1.179.4) की एक ऋचा में लोपामुद्रा का उल्लेख अगस्त्य की स्त्री के रूप में जान पड़ता है। यह प्रबुद्ध महिला स्वयं ऋषि थी।

लोमश ऋषि : लोमश ऋषि को 'लोमशरामायण' का रचयिता माना जाता है। ये अमर समझे जाते हैं।

लोहाभिसारिकाकृत्य : जो राजा विजयेच्छु हो उसे आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से अष्टमी तक यह धार्मिक कृत्य करना चाहिए। सोने, चाँदी अथवा मिट्टी की दुर्गाजी की प्रतिमा का पूजन इसमें होता है। इस अवसर पर अस्त्र-शस्त्र तथा राजत्व के उपकरण (छत्र, चँवर आदि) का भी मन्त्रों से पूजन किया जाना चाहिए। जनश्रुति है कि लोह नाम का एक राक्षस था। देवताओं ने उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। आज जितना भी लोहा मिलता है वह उसी के शरीर के अवयवों से निर्मित हुआ है। लोहाभिसार का तात्पर्य यह है कि लोहे के अस्त्र-शस्त्रों को आकाश में घुमाना (लोहाभिसारोऽस्त्रभृतां राज्ञां नीराजनो विधिः--अमरकोश)। जिस समय विजयरेच्छु राजा आक्रमण के लिए प्रयाण करता था, उस समय उसके शरीर को पवित्र जल से अभिषिञ्चित किया जाता था, अथवा दीपों की पंक्तियों को नाराजना के रूप में उसके चारों ओर घुमाया जाता था। यह कार्य उस समय लोहाभिसारिक कर्म कहलाता था। उद्योगपर्व (160.93) में 'लोहाभिसारो निर्वृत्‍तः' वाक्य मिलता है। नीलकण्ठ व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इसमें अश्त्र शस्त्रों के सम्मुख दीप प्रज्वलित करके उनकी आरती उतारते हुए देवताओं से अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की जाती है।

लोहिताहि : लोहित+अहि (लाल साँप)। एक प्रकार के सर्प का नाम है जिसका उल्लेख यजुःसंहिता के अश्वमेध यज्ञ की बलितालिका में हुआ है।

लौगाक्षि : सामवेद शाखा परम्परा के अन्तर्गत पौष्यञ्जि के शिष्य लौगाक्षि सामवेद के शाखाप्रवर्तकों में थे। इनके शिष्य ताण्ड्यपुत्र राणायनीय, सुविद्वान्, मूलचारी आदि थे।

लौगाक्षिकाठकगृह्यसूत्र : यजुर्वेदीय गृह्यसूत्रों में लौगाक्षिकाठकगृह्यसूत्र भी सम्मिलित है, इस पर देवपाल की एक वृत्ति प्राप्त होती है।

लौगाक्षिभास्कर : वैशेषिक तथा न्याय की संयुक्त शाखा का अनुमोदन जिन वैशेषिक तथा नैयायिक आचार्यों के ग्रन्थों से हुआ, उनमें लौगाक्षिभास्कर प्रसिद्ध दार्शनिक हुए हैं। ये 1657 वि० के लगभग वर्तमान थे। कर्ममीमांसा पर इनका एक ग्रन्थ 'अर्थसंग्रह' और न्याय-वैशेषिक मत पर अन्य ग्रन्थ 'पदार्थमाला' प्रसिद्ध है।

लौरिय कृष्णदास : पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उत्पन्न एक बंगाली कवि। इन्होंने 'भक्तिरत्नावली' का अनुवाद बँगला में बड़ी योग्यता से किया है। 'भक्तिरत्नावली' स्वामी विष्णुपुरी द्वारा रचित मध्वमत सम्बन्धी ग्रन्थ है तथा इसका विषय है भगवद्गीता के भक्तविषयक सुन्दरतम स्थलों का संग्रह।

लौ सेन : दे० 'मयूर भट्ट'।

लौहित्य : (1) लोहित के वंशज, जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण के अनेक आचार्यों का पितृबोधक नाम, जिसके अनुसार लौहित्य कुल का रोचक अध्ययन किया जा सकता है। यथा कृष्णदत्त, कृष्णरात, जयक, त्रिवेद कृष्णरात, दक्ष जयन्त, पल्लिगुप्त, मित्रभृति प्रभृति नाम। शाङ्खायन आरण्यक में भी एक लौहित्य या लोहिक्य नामक आचार्य का उल्लेख है।

(2) ब्रह्मपुत्र के ऊपरी प्रवाह का नाम लौहित्य है। भारत के पवित्र नदों में इसकी गणना है। पूर्वोत्तर सीमान्त में यह प्रवाहित होता है। दे० 'लौहित्यस्नान'।

लौहित्यस्नान : ब्रह्मपुत्र नदी में स्नान करने को लौहित्यस्नान कहते हैं। ब्रह्मपुत्र भारत का पवित्र नद है। इसमें स्नान करना पुण्यदायक माना जाता है। दे० 'ब्रह्मपुत्रस्नान'।

 : अन्तःस्थ वर्णों का चौथा अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का वर्ण निम्नांकित है :

वकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीमोक्षमव्ययम्। पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा॥ त्रिबिन्दुसहितं वर्णमात्मादि तत्त्वसंयुतम्। पञ्चदेवमयं वर्णं पीतविद्युल्लतामयम्॥ चतुर्वर्गप्रदं वर्णं सर्वसिद्धिप्रदायकम्। त्रिशक्तिसहितं देवि त्रिबिन्दुसहितं सदा॥

वर्णोद्धारतन्त्र में इसका ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है :

कुन्दपुष्प्रभां देवीं द्विभुजां पङ्कजेक्षणाम्। शुक्लमाल्याम्बरधरां रत्नहारोज्जवलां पराम्॥ साधकाभीष्टदां सिद्धां सिद्धिदां सिद्धसेविताम्। एवं ध्यात्वा वकारंतु तन्मन्त्रं दशधा जपेत्॥

वंशब्राह्मण : एक ब्राह्मण ग्रन्थ। परिचय सहित यह ग्रन्थ बर्नेल साहब ने मंगलौर से (सन् 1873--1876,1877 में) प्रकाशित किया था।

वगलामुखी : शाक्त मतानुसार दस महाविद्याओं (मुख्य देवियों) में एक महाविद्या। 'शाक्तप्रमोद' के अन्तर्गत दसों महाविद्याओं के अलग-अलग तन्त्र हैं, जिनमें इनकी कथाएँ, ध्यान और उपासना विधि दी हुई है।

वचन : प्रचलित लिङ्गायत मत के अन्तर्गत संगृहीत प्रारम्भिक कन्नड़ उपदेश बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हें वचन कहते हैं। इनमें से कुछ स्वयं आचार्य वसव द्वारा रचित हैं तथा अन्य परवर्ती महात्माओं के हैं।

वज्र : (1) इन्द्र देवता का मुख्य अस्त्र, जो ऋषि दधीचि की अस्थियों से निर्मित कहा जाता है। यह अस्त्र चक्राकार और तीक्षण कोणों से युक्त होता है। इसके अनेक नाम हैं, यथा-अशनि, अभ्रोत्थ, बहुदार, भिदिर या छिदक, दम्भोक्ति, जसुरि, ह्रादिनी, कुलिश, पवि, षट्कोण, शम्भ एवं स्वरु।

(2) अनिरुद्ध का पुत्र उसकी माता अनिरुद्ध की पत्नी सुभद्रा अथवा दैत्यकुमारी उषा कही जाती है। यादवों के विनाश के पश्चात् और द्वारका के जलमग्न हो जाने पर वही अन्त में मथुरामण्डल का राजा बनाया गया था।

वज्रसूती उपनिषद् : यह एक परवर्ती उपनिषद् है। कहा जाता है, यह किसी बौद्ध तार्किक (अश्वघोष) की रची हुई है।

वञ्जुली (द्वादशी) : कई प्रकार की द्वादशियों में से एक द्वादशी। वञ्जुली उस द्वादशी को कहते हैं जो सूर्योदय से आरम्भ होकर अगले सूर्योदय तक विद्यमान रहे तथा उस दिन भी थोड़ी देर रहे। अतएव यह सम्भव है कि द्वादशी को उपवास करके द्वादशी में ही दूसरे दिन व्रत की पारणा कर ली जाय। दूसरी तिथि में पारणा करने की आवश्यकता नहीं है। उस दिन भगवान् नारायण की सुवर्णप्रतिमा का पूजन किया जाय। इसका माहात्म्य तथा पुण्य सहस्र राजसूय यज्ञों से भी अधिक माना जाता है।

वटसावित्रीव्रत : ज्येष्ठ मास की अमावस्या को सधवा महिलाएँ सौभाग्य रक्षार्थ यह व्रत करती हैं। इसमें विविध प्रकार से वटवृक्ष का पूजन किया जाता है और पति के स्वास्थ्य तथा दीर्घायुष्य की कामना की जाती है।

वत्स : कण्व के वंशज अथवा पुत्र वत्स का ऑगद में गायक के रूप में उल्लेख हुआ है। पञ्चविंशब्राह्मण के अनुसार उन्हें अपनी वंशशुद्धता मेधातिथि के सम्मुख प्रदर्शित करने के लिए अग्निपरीक्षा देनी पड़ी तथा उसमें वे सफल निकले। शाङ्खानश्रौतसूत्र में उन्हें तिरिन्दर पारशव्य से प्रभूत दान पानेवाला कहा गया है। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र में भी उनका उल्लेख है। वत्स एक उपगोत्र (वत्स गोत्र) के प्रवर्त्तक भी माने जाते हैं।

वत्सद्वादशी : कार्तिक कृष्ण द्वादशी। इस दिन बछड़े वाली गौ का चन्दन के लेप, माला, अर्घ्‍य से उरद की दाल के बड़ों का नैवेद्य बनाकर सम्मान करना चाहिए। उस दिन व्रती तेल का पका हुआ अथवा कड़ाही में तला हुआ भोजन एवं गौ के दूध, घी, दही तथा मक्खन का परित्याग करे और बछड़ों को छुट्टा दूध पीने दिया जाय।

वत्सराधिपपूजा : वर्ष के स्वामी का पूजन। चैत्र मास में जिस दिन नया वर्ष प्रारम्भ होता है उस दिन का वार ही वर्ष का स्वामी होता है। उसी दिन वर्ष के स्वामी का पूजन होना चाहिए।

वन : शङ्कर के अनुयायी दसनामी संन्यासियों में से वन भी एक वर्ग है। ये गोवर्धन मठ (जगन्नाथपुरी) के अन्तर्गत आते हैं।

वरचतुर्थी : मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी। यह तिथिव्रत है। प्रति मास की चतुर्थी को गणेश का पूजन करना चाहिए। उस दिन क्षार तथा लवण त्यागकर एकभक्त विधि से भोजन करना चाहिए। यह व्रत चार साल तक चलना चाहिए। किन्तु द्वितीय वर्ष नक्त विधि से, तृतीय वर्ष अयाचित विधि से तथा चतुर्थ वर्ष उपवास के साथ व्रत करने का विधान है।

वरदगुरु : आचार्य वरदगुरु पन्द्रहवीं शती में हुए थे। वे वेंकटनाथ के पुत्र तथा नगनाराचार्य के शिष्य थे। उनका दूसरा नाम प्रतिवादिभङ्करम् अस्नन था। तार्किक होने के कारण उनका यह नाम पड़ा। वरदगुरु ने वेंकटनाथ की प्रशंसा में 'सप्ततिरत्नमालिका' नामक काव्य की रचना की। नगनाराचार्य ने वेदान्ताचार्य के 'अधिकरणसारावली' नामक ग्रन्थ की टीका लिखी है। वरदगुरु वेङ्कटनाथ के अनन्य भक्त और नागनाराचार्य के उपयुक्त शिष्य एवं विशिष्टाद्वैत मत के समर्थक थे। उन्होंने 'तत्त्वत्रयचुलुकसंग्रह' नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें रामानुज स्वामी के सिद्धान्त की व्याख्या की गयी है।

वरचतुर्थी : माघ शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। वरद (विनायक या गणपति) की चतुर्थी एवं पञ्चमी को कुन्दपुष्पों से पूजा करनी चाहिए, ऐसा 'समयप्रदीप' का लेख है। जबकि 'कृत्यरत्नाकर' और 'वर्षकृत्यकौमुदी' कहते हैं कि 'वरचतुर्थी' के दिन व्रतारम्भ करके पञ्चमी श्री पञ्चमी है। 'वर' का तात्पर्य है विनायक।

वरदतापनीयोपनिषद् : इसका अन्य नाम गणपतितापनीयोपनिषद् भी है। यह गाणपत्य मत की उपनिषद् है। इसमें गणेश को ही परब्रह्म मानकर उनका एक मन्त्रराज लिखा गया है तथा उसकी व्याख्या नरसिंहतापनीयोपनिषद् के अनुकरण पर की गयी है। रचनाकाल की दृष्टि से इसको नवीं शताब्दी के बीच का माना जाता है।

वरदनायक सूरि : ये आचार्य वरदगुरु के पश्चात् उत्पन्न हुए थे। क्योंकि इन्होंने 'चिदचिदोश्वरतत्त्वनिरूपण' नामक अपने ग्रन्थ में वरदगुरु के 'तत्त्वत्रयचुलुक' का उल्लेख किया है। सम्भवतः ये 16वीं शती में हुए थे। वरदनायक ने अपने ग्रन्थ में जीव, जगत् और ईश्वर के सम्बन्ध पर विचार किया है। इनका विचार भी रामानुज स्वामी के विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त से मिलता-जुलता है।

वरदराज : वरदराज विष्णुस्वामी मतावलम्बी थे। इन्होंने भागवत पुराण की एक टीका लिखी है। इसकी एक दो सौ वर्ष पुरानी पाण्डुलिपी संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में है। किन्तु इसकी परीक्षा नहीं हुई है। इनका समय अनिश्चित है।

वरदा चतुर्थी : माघ शुक्ल चतुर्थी। गौरी इसकी देवता हैं। विशेष रूप से महिलाओं के लिए इस व्रत का महत्तव है। हेमाद्रि, 1.531 में इसका नाम गौरीचतुर्थी है जो सही प्रतीत होता है। निर्णयसिन्धु (पृ० 133) के अनुसार भाद्र शुक्ल पक्ष की चतुर्थी वरदा चतुर्थी है। पुरुषार्थ-चिन्तामणि (पृ० 15) के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी वरदा चतुर्थी है।

वरदाचार्य : वरदार्य या वरदाचार्य रामानुजाचार्य के भानजे और शिष्य तथा 'श्रुतप्रकाशिका' टीकाकार सुदर्शनाचार्य के गुरु थे। वे लगभग तेरहवीं शती विक्रमी में विद्यमान थे। 'तत्त्वनिर्णय' ग्रन्थ में अपना गोत्र उन्होंने वात्स्य औऱ पिता का नाम देवराजाचार्य लिखा है। वरदाचार्य ने 'तत्त्वनिर्णय' नामक प्रबन्ध में विष्णु को ही परब्रब्म सिद्ध किया है। यह ग्रन्थ सम्भवतः अप्रकाशित है।

वरदोत्तरतापनीय उपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्। इसका सम्बन्ध गाणपत्य मत से है।

वरनवमी : इस व्रत के अनुसार प्रत्येक नवमी को आटे का आहार नौ वर्षपर्यन्त करना चाहिए। दुर्गा इसकी देवता हैं। इससे समस्त मनःकामनाएँ पूरी होती हैं। यदि व्रती प्रति नवमी को बिना पका हुआ भोजन जीवनपर्यन्त करो तो इहलोक तथा परलोक में अनन्त पुण्यों तथा फलों की प्राप्ति होती है।

वररुचि : सामवेद का गोभिलकृत श्रौतसूत्र पुष्पसूत्र है। इसे दाक्षिणात्यों में फुलुसूत्र कहते हैं और इसे वररुचि की रचना बतलाते हैं। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य पर वररुचि का भाष्य था जो अब नहीं मिलता है। वररुचि प्राकृतप्रकाश नामक एक व्याकरण ग्रन्थ के रचयिता भी कहे जाते हैं।

महाभाष्य के पहले पाणिनीय सूत्रों पर कात्यायन मुनि ने वार्तिक लिखे हैं। इन्होंने अपने वार्तिक में पाणिनि के अनेक सूत्रों की स्वतंत्र समालोचना की है। इसका विशेष उद्देश्य यही है कि सूत्रों का अर्थ और तात्पर्य खुल जाय। ये वार्तिककार कात्यायन ही वररुचि थे। कथासरित्सागर में लिखा है कि पार्वती के शाप से वत्सराज उदयन की राजधानी कौशाम्बी में कात्यायन वररुचि का जन्म हुआ था।

वरलक्ष्मीव्रत : श्रावण पूर्णिमा के दिन जब शुक्र ग्रह पूर्व में उदय हो उस समय व्रती को अपने घर की उत्तर-पूर्व दिशा में एक मण्डप बनाना चाहिए तथा उसमें कलश की स्थापना करनी चाहिए। कलश पर वरलक्ष्मी का आवाहन करके उनका 'श्रीसूक्त' के मन्त्रों से पूजन करना चाहिए। दे० 'साम्राज्यलक्ष्मीपीठिका' का पृ० 147-149 (भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टीच्यूट पूना, 1925-26 का प्रतिलेख सं० 43)।

वराटिकासप्तमी : किसी भी सप्तमी के दिन इस व्रत का अनुष्ठान किया जा सकता है। मनुष्य उस दिन ऐसे भोजन पर निर्भर रहे जो तीन कौड़ियों में खरीदा जा सके। उस खरीदी हुई वस्तु को खाना चाहे जो उसके लिए उचित हो या न हो। इसके सूर्य देवता हैं। इसके पुण्य तथा फल नहीं बताये गये हैं।

वराहद्वादशी : माघ शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। भगवान् विष्णु के ही एक रूप वराह इसके देवता हैं। एकादशी को संकल्प तथा पूजन करके एक कलश में सोने की वराह भगवान् की मूर्ति रख देनी चाहिए। तदनन्तर उनकी पूजा कर रात्रि में मण्डप में जागरण किया जाय॥ द्वितीय दिवस वह प्रतिमा किसी विद्वान् तथा सदाचारी को दान में दे दी जाय। इसके परिणामस्वरूप इसी जीवन में सौभाग्य, सम्पत्ति, सौन्दर्य, सम्मान, पुत्रादि सभी कुछ प्राप्त हो जाता है।

वराहपुराण : यह वैष्णव पुराण है। इसमें वराह अवतार की कथा का विशेष रूप से वर्णन है और यह वराह द्वारा पृथ्वी को सुनाया गया था। संभवतः नामकरण का यही कारण हो सकता है। पुराणों के अनुसार इसमें 24 सहस्र श्लोक होने चाहिए, किन्तु उपलब्ध प्रतियों में केवल 10 सहस्र श्लोक पाये जाते हैं। इसके दो संस्करण मिलते हैं--(1) गौड़ीय और (2) दाक्षिण्त्य। इनमें प्रथम अधिक प्रसिद्ध है। इस पुराण में विष्णु के अनेक व्रतों का विस्तृत वर्णन है, विशेषकर द्वादशीव्रत का। प्रत्येक मास की शुक्ल द्वादशी का सम्बन्ध विष्णु के अवतारविशेष से जोड़ा गया है। इस पुराण के दो आख्यान बहुत प्रसिद्ध हैं--मथुरामाहात्म्य (अ० 152--172) तथा नाचिकेतोपाख्यान (अ० 193-212)। दूसरे आख्यान में नचिकेता की यमलोकयात्रा के सम्बन्ध में स्वर्ग तथा नरक का विस्तृत वर्णन पाया जाता है।

वराहमिहिर : खगोलीय गणित और फलित ज्योतिष के प्राचीन लेखक। वराहमिहिर नाम से ही ये मिहिर (सूर्य) के भक्त सिद्ध होते हैं। इन्होंने पञ्चसिद्धान्तिका, बृहज्जातक आदि के साथ ही प्रसिद्ध ग्रन्थ बृहत्संहिता की रचना की। इसके अनुसार सूर्य की प्रतिमा ईरानी शैली में निर्मित होती थी। इन्होंने इन मूर्तियों तथा इनके मन्दिरों की स्थापना तथा मग ब्राह्मणों द्वारा प्राणप्रतिष्ठा करने आदि के नियम बतलाये हैं। इनका समय पाँचवी-छठी शती का मध्य भाग इन्हीं की ग्रहगणना से सिद्ध होता है। इससे इनका विक्रमादित्य के नवरत्नों में होना प्रमाणित नहीं होता।

वराहसंहिता : वैष्णव संहिताओं में वराहसंहिता सबसे प्राचीन मानी जाती है।

वराहावतार : विष्णु के दस अवतारों में तृतीय स्थान वराहावतार का है। भगवान् ने पाताल लोक से पृथ्वी के उद्धार के लिए यह अवतार धारण किया था। इस अवतार के प्रसंग में भागवत पुराण के अनुसार जय और विजय नामक भगवान् के द्वारपाल सनत्कुमारादि ऋषियों के शाप के कारण विष्णुलोक से च्युत होकर दैत्य योनि में उत्पन्न हुए। उनमें से एक का नाम हिरण्याक्ष था, जिसने पृथ्वी पर अधिकार प्राप्तकर उसे रसातल में छिपा रखा था। अतः भगवान् ने उसका वध करके पृथ्वी का उद्धार किया। यह कथानक इस अवतार से सम्बन्धित है।

वरिवस्यारहस्य : दक्षिणमार्गी शाक्त ग्रन्थ। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में तञ्जौर के राजपण्डित भास्करराय द्वारा यह रचा गया। इसका विषय शाक्त उसासना पद्धति है। यह आर्या छन्द में लिखा गया है।

वरुण : वैदिक देवों में वरुण का स्थान सबसे अधिक प्रभावशाली है। इनका प्रभाव भारत-ईरानी काल में बढ़ गया था तथा 'अहुर मज्द' वरुण का ही ईरानी प्रतिरूप प्रतीत होता है। कुछ लोग इनका प्रभाव भारत-यूरोपीय काल से मानते हैं तथा इनका सम्बन्ध यूनानी 'औरनॉज' से स्थापित करते हैं। कतिपय प्राच्यविद्याविशारद चन्द्रमा में वरुण का भौतिक आधार मानते हैं। वरुण आदित्यों में सात (वें) हैं तथा प्रो० ओल्डेनवर्ग ने उनको सूर्य, चन्द्र तथा पञ्चग्रहरूप बतलाया है। ऋग्‍वेद में वरुण का मित्र से उतना ही सामीप्य है जितना अवेस्ता में 'अहुरमज्द' का 'मिथ्र' से। दोनों नाम वरुण एवं मित्र बोगाजकोई (ईराक) के अभिलेख में उद्धृत हैं (1400 ई० पू०)।

प्रागैतिहासिक काल में यूनानी जियस् (द्यौस्) तथा औरनॉज के जो गुण प्रकाश तथा घेरना कहे गये हैं, वे भारतीय वरुण देवता में पाये जाते हैं। साधारण लोग वरुण का सम्बन्ध जल से स्थापित करते हैं तथा इस प्रकार वरुण को वर्षा करने वाला देवता भी कहते हैं। मित्र और वरुण का युग्म (वैदिक मित्रावरुण) तो भारत ईरानी काल से ही प्रचलित है। दे० पीछे 'मित्र'।

वरुण और नीति--ऋग्वेद (8.86) में वरुण द्वारा की गयी ऋत की व्यवस्था का वर्णन है। यह व्यवस्था भौतिक, नैतिक और कर्मकाण्डीय है। वरुण पापों की चेतावनी तथा दण्ड देने के लिए रोग भी उत्पन्न कर देते हैं। वरुण की स्तुति पाप तथा दण्डों से मुक्ति पाने के लिए (ऋ० 7.86.5 आदि) की जाती थी। वरुण को दयालु देवता और जीवन तथा मृत्यु का देवता भी कहा गया है।

वरुण की मैत्री तथा दया प्राप्त करने के लिए दास्यभक्ति की आवश्यकता होती है (ऋ० 7.86.7) तथा इससे वरुण के कोपभाजन उनके कृपापात्र हो जाते हैं उनके नियमों के सामने निर्दोष व्यक्ति प्रसन्नचित खड़े रहते हैं। वरुण की इच्छा ही धर्मविधि है। वरुण के धर्म परिवर्तित नहीं होते। उनका एक चारित्रिक विरुद धृतव्रत है (जिनके व्रत दृढ़ हैं)।

वरुण का साम्राज्य पक्षियों की उड़ान से भी दूर, समुद्र तथा पहाड़ों की पहुँच के बाहर तक फैला हुआ है। सबसे ऊँचे आकाश (स्वर्ग) में वे सहस्र द्वारों वाले प्रसाद में सिंहासनारूढ़ हैं, विश्व पर शासन करते हैं तथा मनुष्यों के कार्यों पर दृष्टि रखते हैं। स्वर्ग भी उन्हें धारण नहीं कर सकता, अपितु तीनों स्वर्ग तथा तीनों भूलोक उनके भीतर निहित हैं। वे सबको धारण करने वाले हैं (ऋ० 8.41.37)। 'वे सर्वव्यापी हैं तथा कोई उनसे दूर नहीं भाग सकता। वे विश्व में होने वाली सभी गुप्त से गुप्त बातों को जानते हैं। वे सर्वज्ञ हैं, प्रत्येक आँख की पलक के गिरने का उन्हें ज्ञान है।' वरुण को प्रसन्न करने के लिए ऐसी ही अनेक स्तुतियाँ वेदों में कही गयी हैं। वे अपने भक्तों को प्रसन्नता व रक्षा का वर देते हैं।

वरुणगृहीत : वरुणगृहीत (वरुण से ग्रहण किया हुआ) का उल्लेख वैदिक ग्रन्थों में बहुशः हुआ है। वरुण से गृहीत होने पर मनुष्य को जलोदर का रोग होता है। पापों के फलभोग के लिए वरुण द्वारा दिया गया यह दण्ड है।

वरुणव्रत : (1) यदि कोई व्यक्ति रात्रि भर जल में खड़ा रहे तथा दूसरे दिन प्रातः एक गौ का दान करे तो वह वरुणलोक प्राप्त कर लेता है।

(2) विष्णुधर्म० (3.195.1--3) के अनुसार भाद्रपद मास के प्रारम्भ से पूर्णिमा तक का पूजन करना चाहिए। व्रत के अन्त में एक जलधेनु, एक छाता, दो वस्त्र तथा एक जोड़ी खड़ाऊँ का दान किया जाय। 'जलधेनु' शब्द अनुशासनपर्व (71.41) तथा मत्स्य पुराण (53.13) में आता है।

वर्ची : ऋग्वेद में यह इन्द्र के एक शत्रु का नाम है। उसे दास तथा शम्बर का साथी भी (4.30.15) कहा गया है। वह पार्थिव शत्रु एवं असर है। सम्भवतः उसका सम्बन्ध वृचीवन्त से है।

वर्ण : चार श्रेणियों में विभक्त भारत का मानववर्ग। यह सामाजिक संस्था है। इसका अर्थ है प्रकृति के आधार पर गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार समाज में अपनी वृत्ति (व्यवसाय) का चुनाव करना। इस सिद्धान्त के अनुसार समाज में चार ही मूल वर्ग अथवा वर्ण हो सकते हैं। वे हैं (1) ब्राह्मण (बौद्धिक कार्य करने वाला) (2) क्षत्रिय (सैनिक तथा प्रशासकीय कार्य करने वाला (3) वैश्य (उत्पादक सामान्य प्रजा वर्ग) और (4) शूद्र (श्रमिक वर्ग)। वर्ण की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई सिद्धान्त हैं। एक मत के अनुसार इसकी उत्पत्ति प्राकृतिक श्रमविभाजन के आधार पर हुई। श्रमविभाजन पहले व्यक्तिगत था जो पीछे पैतृक हो गया। दूसरे मत के अनुसार वर्ण दैवी व्यवस्था है। विराट् पुरुष (विश्वपुरुष) के शरीर के चार अङ्गों से चार वर्ण उत्पन्न हुए : मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से राजन्य (क्षत्रिय), जंघाओं से वैश्‍य और चरणों से शूद्र उत्पन्न हुआ। वास्तव में यह सामाजिक श्रम अथवा कार्य विभाजन का रूपकात्मक वर्णन है। तीसरे मत के अनुसार वर्ण का आधार प्रजाति है और वर्ण का अर्थ रंग है। आर्य श्वेत और आर्येतर कृष्ण वर्ण के थे। इस रंगीन अन्तर के कारण पहले आर्य और अनार्य अथवा शूद्र दो वर्ण बने। फिर आर्यों में ही तीन वर्ण हो गये-- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य। परन्तु आर्यों के भीतर ही तीन वर्ण अथवा रंग कैसे हुए, इसकी व्याख्या इस मत से नहीं होती। वर्ण के उत्पत्ति का चौथा मत दार्शनिक है। संसार में जितने भी भेद हैं सांख्यदर्शन के अनुसार तीनों गुणों--सत्‍त्व, रज तथा तम-के न्यूनाधिक्य के कारण बने हैं। सामाजिक विभाजन भी इसी के ऊपर आधारित है। जिसमें सत्त्वगुण (ज्ञान अथवा प्रकाश) की प्रधानता है वह ब्राह्मण वर्ण है। जिसमें रजोगुण (क्रिया अथवा शक्ति) की प्रधानता है वह क्षत्रिय वर्ण है। जिसमें रजस्तमः (अन्धकार-लोभ-मोह) के मिश्रण की प्रधानता है वह वैश्य वर्ण है और जिसमें तमः (अन्धकार, जड़ता) की प्रधानता है वह शूद्र वर्ण है।

वास्तव में दार्शनिक सिद्धान्त ही मौलिक सिद्धान्त है। परन्तु वर्ण के ऐतिहासिक विकास में उपर्युक्त सभी तत्वों का हाथ रहा। पहले आर्यों में ही वर्ण विभाजन था किन्तु वह व्यक्तिगत और मुक्त था; वर्ण परिवर्तन संभव और सरल था। ज्यों ज्यों आर्येतर तत्त्व समाज में बढ़ता गया त्यों त्यों शूद्रों की संख्या तो बढ़ती गयी किन्तु उनका सामाजिक स्तर गिरता गया। साथ ही जो वर्ण शूद्र के जितना ही निकट और उससे सम्पृक्त था वह उतना ही सामाजिक मूल्यांन में नीचे खिसकता गया। वर्णों के पैतृक होने का एक कारण तो पैतृक व्यवसाय का स्थायित्व था, परन्तु दूसरा कारण प्रजातीय भेद भी हो सकता है। फिर भी वर्ण का एक वैशिष्ट्य था। इसमें सहस्रों जातियों और उपजातियों को चार पूरक और परस्पर सहकारी वर्गों में बाँटने का प्रयास किया गया है। यह जातिप्रथा से भिन्न संस्था है। वर्ण सैद्धान्तिक अथवा वैचारिक संस्था है, जबकि जाति का आधार जन्म अथवा प्रजाति है। वर्ण संयोजक है, जाति विभाजक है।

वर्णों के कर्त्तव्य अथवा कार्य का विभाजन सैद्धान्तिक है और इसका पूरा विवरण धर्मशास्त्र में पाया जाता है। ब्राह्मण के कर्त्तव्य हैं (1) पठन (2) पाठन (3) यजन (4) याजन (5) दान और (6) प्रतिग्रह। इनमें पाठन, याजन और प्रतिग्रह ब्राह्ण के विशेष कार्य हैं। क्षत्रिय के सामान्य कर्त्तव्य हैं पठन, यजन और दान। उसके विशेष कर्त्तव्य हैं प्रजारक्षण, और प्रजारंजन। वैश्य के सामान्य कर्त्तव्य वे ही हैं जो क्षत्रिय के हैं। उसके विशेष कर्त्तव्य हैं कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य। शूद्र के भी सामान्य कर्त्तव्य वे ही हैं जो अन्य वर्णों के, परन्तु उनका अनुष्ठान वह वैदिक मंत्रों की सहायता के बिना कर सकता था। पीछे इस पर भी प्रतिबन्ध लगने लगे। उसका विशेष कर्त्तव्य अन्य तीन वर्णों की सेवा है। कर्त्तव्यों में अपवाद और आपद्धर्म स्वीकार किये गये हैं। आपत्काल में अपने से अवर वर्ण के कर्त्तव्यों से जीविका चलायी जा सकती है। परन्तु उसमें कुछ प्रतिबन्ध लगाये गये हैं, जिससे मूल वृत्ति की रक्षा हो सके।

वर्ण के उत्कर्ष और अपकर्ष का सिद्धान्त भी धर्मशास्त्रों में माना गया है। जब वर्ण तरलावस्था में था तो शूद्र से ब्राह्मण और ब्राह्मण से शूद्र होना दोनों संभव थे। परन्तु वर्ण ज्यों-ज्यों जन्मगत होता गया त्यों-त्यों वर्णपरिवर्तन कठिन होता गया और अन्त में बन्ध हो गया। फिर भी सिद्धान्ततः आज भी मान्य है कि सत्कर्मों से जन्मान्तर में वर्ण का उत्कर्ष हो सकता है।

मध्ययुग में, विशेष कर दक्षिण में, एक विचित्र सिद्धान्त का प्रचलन हो गया कि कलियुग में दो ही वर्ण हैं---(1) ब्राह्मण और (2) शूद्र (कलावाद्यन्तसंस्थितिः); क्षत्रिय और वैश्य नहीं है। ऐसा जान पड़ता है कि वैदिक कर्मकाण्ड और संस्कारों के बन्द हो जाने कारण वैश्यों और क्षत्रियों की कई जातियाँ शूद्रवर्ण में परिगणित होने लगीं। धीरे-धीरे दक्षिण में दो ही वर्ण ब्राह्मण और ब्राह्मणेतर माने जाने लगे। परन्तु उत्कीर्ण अभिलेखों तथा समसामयिक साहित्य से पता लगता है कि व्यवहार में क्षत्रिय और वैश्य वर्ण अपने को क्षत्रिय और वैश्य ही मानते रहे और समाज ने उनकी इस मान्यता को स्वीकार भी किया।

आधुनिक युग में वर्णगत व्यवसायों के सम्बन्ध में विज्ञान और तकनीकी विज्ञान के कारण क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ है। वर्ण और व्यवसाय का सामंजस्य टूट सा चला है। इससे विचित्र वृत्तिसंकर की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। कार्य विशेष के लिए अयोग्यता और भ्रष्टाचार का अधिकांश में यही कारण है।

वर्णविलासतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' की तन्त्रसूची में एक तन्त्र 'वर्णविलास' भी है।

वर्णव्यवस्था : मानवसमूह की आवश्यकताओं को देखते हुए उसके चार विभाजन हुए। सबसे बड़ी आवश्यकता शिक्षा की थी, इसके लिए ब्राह्मण वर्ण बना। राष्ट्र की रक्षा, प्रजा की रक्षा दूसरी आवश्यकता थी। इस काम में कुशल, बाहुबल को विवेक से काम में लाने वाले क्षत्रिय वर्ण की उत्पत्ति हुई। शिक्षा और रक्षा से भी अधिक आवश्यक वस्तु थी जीविका। अन्न के बिना प्राणी जी नहीं सकता था, पशुओं के बिना खेती नहीं हो सकती थी। वस्तुओं की अदलाबदली बिना सबको सब चीजें मिल नहीं सकती थीं। चारों वर्णों को अन्न, दूध, घी, कपड़े लत्ते आदि सभी वस्तुएँ चाहिए। इन वस्तुओं का उपजाना, तैयार करना, फिर जिसकी जिसे जरूरत हो उसके पास पहुँचाना, यह सारा काम प्रजा के एक सबसे बड़े समुदाय के सिर पर रखा गया। इसके लिए वैश्यों का वर्ण बना। किसान, व्यापारी, ग्वाले, कारीगर, दूकानदार, बनजारे ये सभी वैश्य हुए। शिक्षक को, रक्षक को, वैश्य को, छोटे-मोटे कामों में सहायक और सेवक की आवश्यकता थी। धावक व हरकारे की, हरवाहे की, पालकी ढोनेवाले की, पशु चरानेवाले की, लकड़ी काटने वाले की, पानी भरने, बरतन माजने वाले की, कपड़े धोनेवाले की भी आवश्यकता थी। ये आवश्यकताएँ शूद्रों ने पूरी कीं। इस प्रकार प्रजासमुदाय की सभी आवश्यकताएँ प्रजा में पारस्परिक कर्मविभाग से पूरी हुईं। दे० 'वर्ण'।

वर्णव्रत : यह चतुर्मूर्तिव्रत है, जो चैत्र से प्रारम्भ होकर आषाढ़ मास से भी आगे जारी रहता है। जो व्रती उपवास रखते हुए भगवान् वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनुरुद्ध की पूजा क्रमशः यज्ञोपयोगी सामग्री ब्राह्मण को, युद्धोपयोगी क्षत्रिय को, व्यापारोपयोगी वैश्य को तथा शारीरिक शिल्पोपयोगी शूद्र को दान करता है वह इन्द्र लोक प्राप्त करता है।

वर्णाश्रमधर्म : वर्णव्यवस्था का आधार कर्मविभाग था, उसी प्रकार व्यक्ति की जीवनव्यवस्था का रूप आश्रमविभाग था। जीवन की पहली अवस्था में अच्छे गृहस्थ होने की शिक्षा लेना अनिवार्य था। प्रत्येक वर्ण का सदस्य जीविका की आवश्यक शिक्षा इसी अवस्था या आश्रम में पाता था। वेदादि शास्त्रों के अतिरिक्त, क्षत्रिय शस्त्रास्त्र विद्या और वैश्य कारीगरी, पशुपालन, कृषि आदि का काम भी सीखता था। शूद्र भी अपनी जीविका के अनुकूल गुणों का अभ्यास करता था। साथ ही सबको चरित्र की शिक्षा इसी समय मिलती थी। इस आश्रम में ही कर्मविभाग पर ध्यान देना आरम्भ हो जाता था।

दूसरी अवस्था अथवा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर तो मनुष्य अपने-अपने भिन्न-भिन्न कर्म करता ही था। वानप्रस्थाश्रम तपस्या का आश्रम था, भोगविलास का नहीं। संन्यासाश्रम में भी तपस्या ही थी। इस तरह गृहस्थ के सिवा शेष तीनों आश्रमी अपने भोजनाच्छादन के लिए यद्यपि गृहस्थ के भरोसे रहते थे, तथापि उनकी आवश्यकताएँ बहुत थोड़ी होती थीं। नियमतः वे थोड़ा पहनते थे, थोड़ा खाते थे। उनका जीवन समाज पर बोझ नहीं प्रतीत होता था।

गृहस्थाश्रम के अधिकारी चारों वर्णों के लोग थे। ब्रह्मचर्याश्रम के तीन वर्ण के लोग (शूद्र को छोड़कर) तथा वानप्रस्थाश्रम के अधिकारी केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय थे। संन्यासाश्रम के अधिकारी केवल ब्राह्मण थे। इस प्रकार आश्रम के हिसाब से सबसे बड़ी संख्या गृहस्थी की थी। उनके बाद ब्रह्मचारी थे, वानप्रस्थ उनसे कम और संन्यासी उनसे भी कम। फिर तपस्या का जीवन इतना लोकप्रिय नहीं था और ममता छोड़ संसार त्यागकर संन्यासी होना तो सबसे कठिन था। इसीलिए इन आश्रमों में लोग अपनी-अपनी श्रद्धानुसार प्रवेश करते थे। यही बात थी कि वैश्य और क्षत्रिय ब्रह्मचर्याश्रम के अधिकारी होते हुए भी कम ही उस आश्रम में जाते थे।

वर्णाश्रमों के विशिष्ट धर्म सूत्रग्रन्थों में, स्मृतियों में, पुराणों में, तन्त्रों में और महाभारत में भी प्रसंगानुसार जहाँ-तहाँ विस्तार से बतलाये गये हैं।

वर्धमान उपाध्याय : न्याय दर्शन के एक आचार्य। इन्होंने उदयनाचार्य विरचित 'तात्पर्यपरिशुद्धि' की टीका लिखी है जिसका नाम 'प्रकाश' है। इसका पूरा नाम 'न्यायनिबन्धप्रकाश' है। यह 12वीं शती की रचना है।

वर्धापनविधि : इस कृत्य का अर्थ है जन्मोत्सव के क्रियाकलाप। किसी शिशु के लिए यह प्रति मास जन्म वाली तिथि के दिन होनी चाहिए, किन्तु किसी राजा के सम्बन्ध में वर्ष में केवल एक बार होनी चाहिए। इस अवसर पर सोलह देवियों (कुमुदा, माधवी, गौरी, रुद्राणी, पार्वती आदि) की नील अथवा केसर से एक वृत्त में आकृतियाँ खींची जाँय, जिनके मध्य में सूर्य की भी आकृति रहे। इस अवसर पर बच्चे को स्नान कराकर बाँस की सोलह टोकरियों में मूल्यवान् पदार्थ, खाद्य पदार्थ, फल-फूल भरकर उक्त देवियों को अर्पण करने चाहिए। पश्चात् एक एक देवी के नाम से एक-एक टोकरी का ब्राह्मणों तथा सधवा स्त्रियों को दान कर देना चाहिए। दान करते समय देवियों से प्रार्थना की जाय कि कुमुदा आदि देवियाँ हमारे पुत्र को स्वास्थ्य, सुख तथा दीर्घायु प्रदान करें। देवी की पूजा में उच्च स्वर से वैदिक मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए। गीत, नृत्यादि मांगलिक कार्यों का भी विधान है। इन सब कृत्यों के बाद बच्चे के माता-पिता अपने सम्बन्धियों के साथ भोजन करें। राजा के विषय में इन्द्र तथा लोकपालों के नाम से हविष्यान्न की आहुतियाँ दी जाँय।

वर्षव्रत : चैत्र शुक्ल नवमी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। हिमवान्, हेमकूट, श्रृंगवान्, मेरु, माल्यवान्, गन्धमादन आदि वर्षपर्वतों की पूजा इस दिन करनी चाहिए। उपवास का भी विधान है। व्रत के अन्त में जम्बू द्वीप का चाँदी का मण्डल दान में दिया जाय। इससे समस्त मनःकामनाओं की पूर्ति तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

वल्लभ सम्प्रदाय : वल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक वल्लभाचार्य (1479-1531 ई०) तैलङ्ग ब्राह्मण थे, इनका जन्म काशी की ओर हुआ। पिता लक्ष्मण भट्ट विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के अनुयायी थे। आरम्भ में आचार्य वल्लभ संस्कृत की शिक्षा प्राप्त कर वर्षों तक तीर्थाटन करते रहे तथा विद्वानों के साथ शास्त्र चर्चा करने में समय बिताते रहे। कृष्णदेव (विजयनगर के राजा, 1509-29ई०) की राजसभा में इनके द्वारा स्मार्त विद्वानों को हराने की घटना विशेष उल्लेखनीय है। इनके जीवन की अनेक घटनाओं के बारे में विशेष कुछ ज्ञात नहीं है, न यह ज्ञात है कि किस कारण इन्होंने इस सम्प्रदाय की स्थापना की, क्योंकि इनका प्राचीन विष्णुस्वामी सम्प्रदाय से सम्बन्ध था। वल्लभ अग्निदेव के अवतार कहे जाते हैं, इनके कोई भी मानव गुरु ज्ञात नहीं है। इन्होंने अपने मत की शिक्षा सीधे कृष्ण भगवान् से प्राप्त की, ऐसा विश्वास प्रचलित है। जान पड़ता है कि कृष्ण के परम ब्रह्म होने, राधा के उनकी सहधर्मिणी होने तथा सर्वोच्च स्वर्ग गोलोक में उनके लीला करने का सिद्धान्त निम्बार्क से उनको मिला होगा।

वे अपने दार्शनिक सम्प्रदाय को शुद्धाद्वैत कहते हैं, किन्तु इनका अद्वैत शङ्कराचार्य के अद्वैतावाद के सदृश शुष्क नहीं है। यह नाम शाङ्कर अद्वैत के विरोध के कारण दिया हुआ है। वल्लभ का मार्ग भक्तिमार्ग है। इनके अनुसार भक्ति साध्य है, साधन नहीं, क्योंकि भक्ति ज्ञान से श्रेष्ठ है तथा सच्चा भक्त मुक्ति नहीं चाहता; वह कृष्ण का सायुज्य तथा लीला में सम्मिलित होना चाहता है। वल्लभ के मतानुसार भक्ति ईश्वर की कृपा से मिलती है। इस सम्प्रदाय में ईश्वर की कृपा के लिए 'पुष्टि' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह शब्द तथा इसका प्रयोग भागवत पुराण के एक उल्लेखानुसार हुआ है (वहाँ 2.10.4 में अनुग्रह को पोषण कहा गया है)।

इस सम्प्रदाय के सिद्धान्त संक्षिप्त रूप में ये हैं--श्री कृष्ण परब्रह्म हैं, वे सत्ता, ज्ञान, आनन्द रूप हैं तथा केवल वे ही एक मात्र तत्त्व हैं। उन्हीं से भौतिक जगत्, जीवात्मा तथा देवों की उत्पत्ति होती है, यथा अग्नि से चिनगारियों की। जीव अणु हैं तथा ब्रह्मानुरूप हैं। जब तीनों गुणों (सत्त्व, रजस्, तमस्) का उलटफेर होता है तो उनका आनन्द ढक जाता है तथा वे केवल सत्ता तथा अल्प ज्ञान रखते हुए दिखाई पड़ते हैं।

मुक्त आत्मा कृष्णलोक (गोलोक) को जाते हैं जो विष्णु, शिव तथा ब्रह्मा के स्वर्गों से ऊपर है। वे कृष्ण के विशुद्ध दैवी स्वरूप को प्राप्त करते हैं।

इनके मन्दिरों में दिन में आठ बार पूजा (सेवा) होता है। सम्प्रदाय का मन्त्र है 'श्रीकृष्णः शरणं मम'। सम्प्रदाय की एक परम्परा यह है कि गुरु का पद वल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ तथा उनके वंशजों को ही प्राप्त है।

वल्लभाचार्य के ग्रन्थ विद्वत्तापूर्ण हैं। वे ही इस सम्प्रदाय के आधार या प्रमाण माने जाते हैं। उनमें ये मुख्य हैं : (1) वेदान्तसूत्र का अणुभाष्य (2) 'सुबोधिनी' (भागवत पुराण की टीका) (3) तत्‍त्वदीपनिबन्ध (यह उनके सिद्धान्तों पर रचित दार्शनिक ग्रन्थ है)। इसके साथ 'प्रकाश' नामक पद्यभाग तथा अन्य कुछ लघु ग्रन्थ हैं जिनमें 'सिद्धान्तरहस्य' प्रसिद्ध है। गिरिधरजी तथा बालकृष्ण भट्ट ने क्रमशः 'शुद्धाद्वैतमार्त्तण्ड' तथा 'प्रमेयरत्नार्णव' जैसे वेदान्त ग्रन्थ लिखे हैं। ये दोनों सम्प्रदाय के उद्भट विद्वान् थे तथा इनके उपर्युक्त संस्कृत ग्रन्थ बड़े ही तर्कपूर्ण हैं। बाद के ग्रन्थकारों में गोस्वामी पुरुषोत्तमजी सबसे प्रसिद्ध हैं। इस सम्प्रदाय द्वारा वात्सल्य एवं मधुर भाव की भक्ति का बहुत प्रचार हुआ।

वल्लभी श्रुति : कहते हैं कि वल्लभी और सत्यायनी नामक दो वेदशाखा ग्रन्थ (यजुर्वेदीय) और भी हैं। बृहद्देवता में वल्लभी श्रुति का नाम आया है। सुरेश्वराचार्य एवं सायणाचार्य ने भी इसका उल्लेख किया है।

वल्लभोत्सव : वैष्ण सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य वल्लभ के सम्मान में उनके जन्मदिन के उत्सव के आयोजन को वल्लभोत्सव कहते हैं। जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म 1479 ई० में हुआ था तथा इन्होंने अनेक ग्रन्थों का निर्माण कर योग तथा तपस्या से भिन्न भक्तिमार्ग का आन्दोलन चलाया। इनके समस्त सिद्धान्त भागवत पुराण पर आश्रित हैं। यह जन्मोत्सव वैशाख कृष्ण एकदशी को होता है।

वश अश्व्य : अश्विनों का आश्रित एक व्यक्ति, जो ऋग्वेद में बहु बार वर्णित है। शांखायन श्रौतसूत्र में भी उसे पृथुश्रवा कानीत से दान पाने वाला कहा गया है। वह वेदकालीन एक राज्य का प्रसिद्ध ऋषि भी है (ऋ० 8.46) जो अपने 'वश' नाम से अनेक बार उद्धृत हुआ है।

वसन्तपञ्चमी : (1) माघ शुक्ल पञ्चमी को वसन्तपंचमी का त्यौहार मनाते हैं। इस दिन सरस्वतीपूजा के अतिरिक्त नवान्न प्राशन, प्रीतिभोज, गाना-बजाना आदि उत्सव होते हैं। वसन्त ऋतु का स्वागत किया जाता है। जान पड़ता है कि कभी इसी समय वसन्त ऋतु का आगमन होता था।

(2) प्राचीन समय में वैदिक अध्ययन का सत्र श्रावणी पूर्णिमा (उपाकर्म) से प्रारम्भ होकर इसी तिथि को समाप्त (उत्सर्जन) होता था। इस दिन सरस्वती पूजन करना इसी का स्मारक अवशेष है।

वसन्तोत्सव : वसन्त ऋतु का उत्सव वसन्तोत्सव नाम से प्रचलित है। इसके बारे में वायुपुराण (6.10-21) में बड़ा रोचक तथा विशद वर्णन मिलता है। मालविकाग्निमित्र तथा रत्नावली नामक नाटकों की प्रस्तावना में बतलाया गया है कि ये दोनों नाटक वसन्तोत्सव के उपलक्ष्य में अभिनीत हुए थे। मालविकाग्निमित्र के तीसरे अङ्क में बतलाया गया है कि लाल अशोक के फूलों की सौगात लोगों ने अपने प्रिय जनों के पास भेजी थी तथा उच्च घराने की महिलाएँ अपने पतियों के साथ झूले में बैठा करती थीं। निर्णयसिन्धु इसे चैत्र कृष्ण प्रतिपदा (पूर्णिमान्त की गणना करते हुए) को बतलाता है जबकि पुरुषार्थ चिन्तामणि इसे माघ शुक्ल पञ्चमी (निर्णयामृत का अनुसरण करते हुए) को बतलाता है। पारिजातमंजरी नाटिका, प्रथम अङ्क के अनुसार चैत्र की परिवा को वसन्तोत्सव होता है।

वसव : वीर शैव सम्प्रदाय के संस्थापक वसव थे, ऐसा कुछ इतिहास के विद्वान मानते हैं। वसव चालुक्य राजा बिज्जल के प्रधान मंत्री थे। किन्तु फ्लीट के मतानुसार अब्लुर के एकान्तद रामाय्य, जिनका जीवनचरित्र एक प्रारम्भिक आलेख में प्राप्त है, इस सम्प्रदाय के संस्थापक थे। वसव को इसका पुनरुद्धारक कह सकते हैं।

वसवपुराण : तेलुगु में छन्दोबद्ध रूप में रचित 13वीं शताब्दी का यह ग्रन्थ वीर शैव सम्प्रदाय का निरूपण करता है। इसके रचयिता पालकर्की के सोमनाथ हैं। इसका कन्नड़ अनुवाद भीमचन्द्र कवि द्वारा हुआ है।

वसवशाखा : वसव की परम्परा के लिङ्गायत सुधारवादी वर्ग के माने जाते हैं। इसका आरम्भ वसव से समझा जाता है और आधार वसवेश्वर पुराण है। इस पुराण में लिखा है कि जब भूमण्डल पर वीर शैवमत का ह्रास हो रहा था, देवर्षि नारद की प्रार्थना पर परमेश्वर ने अपने गण नन्दी को उसके उद्धार के लिए भेजा। नन्दीश्वर ने वागेवाड़ी में जन्म लिया और उनका नाम 'वसव' रखा गया। कन्नड़ में वसव शब्द वही है जो हिन्दी में 'बसह' और संस्कृति में वृषभ है। वसवेश्वर ने यज्ञोपवीत नहीं धारण किया, क्योंकि उन्हें सूर्य की उपासना स्वीकार न थी। वे बागेवाड़ी से कल्याण आये जहाँ बिज्जल नामक राजा था और वसवेश्वर के मामा बलदेव उसके मन्त्री थे। बलदेव की मृत्यु के बाद वसवेश्वर मन्त्री हो गये। वसवेश्वर वीरशैवों के पक्षपाती थे। उन्होंने उन पर बहुत कुछ राजस्व व्यय किया, जिससे राजा रुष्ट हो गया। उसने उन्हें कैद करना चाहा। राजा और मन्त्री में युद्ध छिड़ गया। राजा हार गया और सन्धि हुई। राजा, मन्त्री फिर यथावत् स्थित हुए।

तदनन्तर वसव ने वर्णान्तर विवाह का प्रचार किया। चमार और ब्राह्मण में विवाह सम्बन्ध कराया। इस पर राजा ने हरलइया चमार और मधुवइया ब्राह्मण की आँखें निकलवा लीं। इससे वसव का उद्देश्य सफल न हुआ। इस पर रुष्ट होकर वसवेश्वर ने षड़यन्त्र रचा और राजा का वध करवा दिया।

कुछ लोगों का अनुमान है कि लिङ्गायतों के मूलाचार्य वसवेश्वर थे। यह कथन अनेक कारणों से भ्रमपूर्ण है। पहले तो 'वसवपुराण' जो मूलतः तेलुगु और फिर कन्नड़ में लिखा गया, अब से सात सौ वर्ष से अधिक पुराना ग्रन्थ नहीं हो सकता। इसे बादरायण व्यास की रचना कहना तो अशक्य है। इसी में वीरशैव मत का प्राचीन होना और उसके ह्रास की अवस्था स्वीकार की गयी है। वसव को वीर शैवों का पक्षधर कहा गया है। डा० फ्लीट का कहना है कि वसव नहीं, बल्कि एकान्तद रामाय्य वीरशैव मत के प्रवर्त्तक थे।

वसवेश्वर ने लिङ्ग धारण करने की विशेषता स्थिर रखी, परन्तु वीरशैवों के अनेक मन्तव्यों के विपरीत मत चलाया। उन्होंने वर्णाश्रम धर्म का खण्डन किया, ब्राह्मणों का महत्त्व अस्वीकार किया, वेदों को नहीं माना, भगवान् शिव के सिवा किसी देवी-देवती को मानना अस्वीकार किया, जन्मान्तर को असिद्ध ठहराया, प्रायश्चित और तीर्थयात्रा को व्यर्थ बताया, सगोत्र विवाह को विहित बताया, अन्त्येष्टि क्रिया को अनावश्यक और शौचाशौच के विचार को भ्रमात्मक ठहराया, विधवा विवाह प्रचलित किया। इनके अनुयायी भी अपने को वीर शैव और लिङ्गायत कहते हैं। परन्त आचार-विचार में इतना अधिक भेद होने से प्राचीन वीरशैव वा पाशुपात शैवों में और वसवपन्थी लिङ्गायतों में पार्थक्य सहज में हो सकता है।

वसवेश्वर सम्प्रदाय : यह एक सुधारक वीर शैव सम्प्रदाय है। दे० 'वसव शाखा'।

वसिष्ठ : वैदिक परम्परा में सबसे बड़े ऋषि-पुरोहितों में वसिष्ठ माने गये हैं। ऋग्वेद का सातवाँ मण्डल इनके द्रारा संकलित कहा जाता है, क्योंकि इस मण्डल में वसिष्ठ एवं उनके वंशजों का उल्लेख प्रायः हुआ है, यद्यपि इसके बाहर भी छिटफुट इनका नामोल्लेख पाया जाता है। वसिष्ठ से एक निश्चित व्यक्ति का ही बोध हो, ऐसा संभव प्रतीत नहीं होता। फिर भी यह अस्वीकार करना आवश्यक नहीं कि एक ऐतिहासिक वसिष्ठ थे, क्योंकि एक ऋचा (ऋ. 7.18.7) में उनकी रचना का स्‍पष्‍ट बोध होता है तथा उनके द्वारा दस राजाओं के विरुद्ध सुदास की सहायता करना प्रकट होता है। वसिष्ठ के जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना उनकी विश्वामित्र से प्रतिद्वन्द्विता थी। विश्वामित्र निश्चित रूप से एक समय सुदास के पुरोहित थे (ऋ० 3.33.53)। किन्तु उन्हें उस पद से च्युत होना पड़ा और उन्होंने सुदास के विरोधियों का पक्ष ग्रहण कर सुदास के अनेक मित्र राजाओं का नाश कराया। ऋग्वेद में इन दोनों ऋषियों के संघर्ष का विवरण नहीं मिलता। वसिष्ठ के पुत्र शक्ति तथा विश्वामित्र की शत्रुता का प्रमाण यहाँ प्राप्त है, जबकि विश्वामित्र ने भाषण में विशेष पटुता प्राप्त की तथा सुदास के सेवकों द्वारा शक्ति की हत्या करायी (शाट्यायनक 7.32 पर अनुक्रमणी की टिप्पणी द्र्ष्टव्य)। इस घटना का संक्षिप्त उल्लेख तैत्तिरीय संहिता में पाया जाता है। पञ्चविंश ब्राह्मण में भी वसिष्ठ के पुत्र के मारे जाने तथा सौदासों पर विश्मित्र की विजय का उल्लेख है। सुदास के न रहने पर विश्वामित्र ने पुनः अपना पद प्राप्त कर लिया तथा वसिष्ठ ने अपने पुत्रवध के बदले सौदासों को किसी युद्ध में पराजित कराया।

वैदिक साहित्य के ऋषि के रूप में वसिष्ठ के अनेक उद्धरण सूत्रों, महाभारत, रामायण आदि में प्राप्त होते हैं जहाँ वसिष्ठ तथा विश्वामित्र संघर्ष करते हुए वर्णित हैं। इन वैदिक आख्यायनों की श्रृंखला में पुराणों में वसिष्ठ की अनेक कथाएँ वर्णित हैं।

वसिष्ठधर्मसूत्र : एक प्रसिद्ध धर्मसूत्र, जो मुख्यतः ऋग्वेदीय संप्रदाय द्वारा अधीत होता है, किन्तु अन्य वैदिक शाखानुयायी भी इसे प्रयोग में लाते हैं। ऋग्वेदीय कल्‍प के श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र उपलब्ध नहीं हैं। किन्तु वे अवश्य रहे होंगे। यह अन्य धर्मसूत्रों से विषय और शैली दोनों में मिलता-जुलता है।

वसिष्ठसंहिता : यह एक शाक्त ग्रन्थ है। वसिष्ठसंहिता अथवा महासंहिता में शान्ति, जप, होम, वलि, दान आदि पर 45 अध्याय हैं। इसमें नक्षत्र, वार आदि ज्योतिष-विषयक प्रश्नों पर भी विचार किया गया है। दे० अलवर कैटेलॉग एक्सट्रैक्ट, 582।

वसुगुप्त : काश्मीर शैव सिद्धान्त के एक प्रवर्त्तक आचार्य। इन्होंने 907 वि० के लगभग शिवसूत्रों की रचना की जिनका उद्देश्य आगमों की द्वैतवादी (लगभग) शिक्षाओं के स्थान पर अद्वैत दर्शन को स्थान दिलाना था। कहना न होगा कि उस समय काश्मीर शैव सिद्धान्त पर द्वैतवादी आगमों का ही प्रभाव था। कहते हैं कि शिवसूत्रों का ज्ञान वसुगुप्त को भगवान् शंकर से प्राप्त हुआ था। वसुगुप्त से कल्लटाचार्य ने और कल्लट से भास्कराचार्य ने इस दार्शनिक तत्त्व को ज्ञात किया।

वसुदेव : कृष्ण के पिता। ये यादवों की वृष्णि शाखा के अन्तर्गत थे। इनको कंस की बहिन देवकी ब्याही थी। कंस ने शत्रुतावश इन दोनों को कारागार में डाल रखा था। वहीं कृष्ण का अवतार हुआ। वसुदेव के पुत्र होने के कारण ही कृष्ण वासुदेव कहलाते हैं।

वसुव्रत : (1) चैत्र शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए। आठ वसुओं की (ये वास्तव में भगवान् वासुदेव के ही रूप हैं) एक वृत्त में आकृतियाँ खींचकर या उनकी प्रतिमाएँ बनाकर इस दिन उपवास करते हुए इनका पूजन करना चाहिए। व्रत के अन्त में एक गौ का दान विहित है। इसमें धन-धान्य की प्राप्ति के साथ वसुलोक की प्राप्ति होती है। आठ वसु ये हैं--धर, ध्रुव, सोम, आपः, अनिल, अनल, प्रत्यूष तथा प्रभाष। इसके लिए दे० अनुशासन पर्व (15.16-17)।

(2) प्रभूत सुवर्ण के साथ एक गौ का, जबकि वह ब्याने के योग्य हो, दान करना चाहिए तथा उस दिन केवल दुग्धाहार करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से व्रती परम पद मोक्ष प्राप्त करता है तथा फिर उसे इस संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता। हेमाद्रि (2.885) के अनुसार गर्भजननी अवस्था वाली गौ का दान महत्वपूर्ण होता है (उसे उभयतोमुखी कहा जाता है)।

वाक्यार्थ : वाक्य का अर्थ क्या है, इस विषय में बहुत मतभेद है। मीमांसकों के मत में नियोग अथवा प्रेरणा ही वाक्यार्थ है--अर्थात् 'ऐसा करो', 'ऐसा न करो' यही बात सब वाक्यों से कही जाती है; चाहे साक्षात् चाहे ऐसे अर्थ वाले दूसरे वाक्यों के सम्बन्ध द्वारा। नैयायिकों के मत से कई पदों के सम्बन्ध से निकलने वाला अर्थ ही वाक्यार्थ है। परन्तु वाक्य में जो पद होते हैं, वाक्यार्थ के मूल कारण वे ही हैं। न्यायमञ्जरी में पदों में दो प्रकार की शक्ति मानी गयी है; अभिधा शक्ति, जिससे एक-एक पद अपने-अपने अर्थ का बोध कराता है और दूसरी तात्पर्य शक्ति, जिससे कई पदों के सम्बन्ध का अर्थ सूचित होता है। धार्मिक विधियों का अर्थ अथवा तात्पर्य निकालने में इस सिद्धान्त से बहुत सहायता मिलती है।

वाकोवाक्य (संवाद) : वैदिक ग्रन्थों के कुछ विशेष कथनोपकथन अंशों को ब्राह्मणों में दिया हुआ नाम। एक स्थान में (शत० ब्रा० 4.6.9.20) ब्रह्मोद्य को वाकोवाक्य कहा गया है। कुछ विद्वान् वाकोवाक्य से 'इतिहास-पुराण' के किसी आवश्यक भाग का प्रकट होना बतलाते हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में यह स्पष्ट ही तर्कशास्त्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

वैदिक : वैदिक देवमण्डल में वाक् का बड़ा महत्त्व है। यह एक भावात्मक देवता है। शत० ब्रा० (4.1.3.16) में इसकों चार भागों में बाँटा गया है--मानवों की, पशुओं की, पक्षियों (वयांसि) तथा छोटे रेंगने वाले कीड़ों की (क्षुद्र सरीसृपम्)। इन्द्र को वाक् या ध्वनियों का अन्तर समझने वाला कहा गया है। तूणव वीणा तथा दुन्दुभि बाजों की ध्वनिंयों का भी वर्णन पाया जाता है। कुरु-पंचालों की वाक् शक्ति को विशेष स्थान प्राप्त था। कौषो० ब्रा० में उत्तरदेशीय वाक् की विशेषता का वर्णन है। इसीलिए लोग वहाँ भाषा का अध्ययन करने जाते थे। दूसरी ओर वाक् की बर्बरता को त्यागने का निर्देश हुआ है। वाक् का एक-एक विभाग दैवी एवं मानुषी था। ब्राह्मण को दोनों का ज्ञाता कहा गया है। आर्य तथा ब्राह्मण वाक् का भी उल्लेख हुआ है, जिससे अनार्य भाषाओं के विरुद्ध संस्कृत का बोध होता है।

वाचस्पति मिश्र : अद्वैताकाश के एक देवोप्यमान नक्षत्र, जो भामतीकार नाम से भी विख्यात है। मिथिला में नवीं शती में इनका जन्म हुआ। बाद के सभी आचार्यों ने इनके वाक्य प्रमाण रूप में ग्रहण किये हैं। शाङ्कर भाष्य पर रची इनकी 'भामती' टीका अद्वैतमत को समझने का अनिवार्य साधन है।

वाचस्पति मिश्र ने वेदान्तसूत्र के शांकरभाष्य पर भामती, सुरेश्वरकृत ब्रह्मसिद्धि पर ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा, सांख्यकारिका पर तत्त्वकौमुदी, पातञ्जल दर्शन पर तत्त्ववैशारदी, न्यायदर्शन पर न्यायवार्तिकतात्पर्य, पूर्वमीमांसा पर न्यायसूचीनिबन्ध, भाट्ट मत पर तत्त्वबिन्दु तथा मण्डन मिश्र के विधिविवेक पर न्यायकणिका नामक टीकाओं की रचना की। इनके अतिरिक्त खण्डन कुठार तथा स्मृतिसंग्रह नामक पुस्तकों के रचयिता का नाम भी वाचस्पति मिश्र ही मिलता है। परन्तु यह कहना कठिन है कि इन दोनों के लेखक भी ये ही थे या कोई अन्य वाचस्पति मिश्र।

वाचस्पति मिश्र ने यों तो छहों दर्शनों की टीकाएँ लिखी हैं और उनमें उनके सिद्धान्तों का निष्पक्ष भाव से समर्थन किया है, तो भी इनका प्रधान लक्ष्य शाङ्कर सिद्धान्त ही है। इनके ग्रन्थों में पर्याप्त मौलिकता पायी जाती है। शाङ्कर सिद्धान्त के प्रचार में इनका बहुत बड़ा हाथ रहा है, इनकी भामती टीका अद्वैतवाद का प्रामाणिक ग्रन्थ है। ये केवल विद्वान् ही नहीं थे, उच्च कोटि के साधक भी थे। इन्होंने अपना प्रत्येक ग्रन्थ भगवान् को ही समर्पित किया है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि सुरेश्वराचार्य ने ही वाचस्पति मिश्र के रूप में पुनः जन्म लिया था।

वाजपेय : एक श्रौतयज्ञ, जो शतपथ ब्राह्मण के अनुसार केवल ब्राह्मण या क्षत्रियों द्वारा ही करणीय है। यह यज्ञ राजसूय से श्रेष्ठ है। अन्य ग्रन्थों के मत से यह पुरोहित के लिए बृहस्पति सत्र का एवं राजा के लिए राजसूय का पूर्वकृत्य है। इसका एक आवश्यक अंग रथों की दौड़ है जिसमें यज्ञकर्ता विजयी होता है। हिलब्रैण्ट ने इसकी तुलना ओलेम्पिक खेलों के साथ की है, किन्तु इसके लिए प्रमाणों का अभाव है। यह यज्ञ प्रारम्भिक रथदौड़ से ही विकसित हुआ जान पड़ता है, जो यज्ञ के रूप में दिव्य शक्ति की सहायता से यज्ञकर्त्ता को सफलता प्रदान करता है। एगेलिंग का कथन ठीक जान प़ड़ता है कि यह यज्ञ ब्राह्मण द्वारा पुरोहित पद ग्रहण करने का पूर्वसंस्कार था तथा राजाओं के लिए राज्याभिषेक का पूर्वसंस्कार।

वाजसन : याज्ञवल्क्य के पिता। इन्हीं के नाम पर याज्ञवल्क्य द्वारा संकलित शुक्ल यजुर्वेद का नाम वाजसनेयी संहिता पड़ा।

वाजसनेयी संहिता : यजुर्वेद के वर्णन में इस संहिता का वर्णन किया जा चुका है। दे० 'यजुर्वेद'।

वाजसनेय प्रातिशाख्य : इसके रचयिता कात्यायन हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि पाणिनिसूत्रों के वार्तिककार कात्यायन तथा उपर्युक्त कात्यायन एक ही व्यक्ति हैं। अपने वार्तिक में जिस तरह उन्होंने पाणिनी की तीव्र आलोचना की है, उसी तरह प्रातिशाख्य में भी की है। इससे प्रमाणित होता है कि वाजसनेय प्रातिशाख्य पाणिनि के सूत्रों के बाद का है। इसमें आठ अध्याय हैं। पहले अध्याय में संज्ञा और परिभाषा है। दूसरे में स्वर प्रक्रिया है। तीसरे से पाँचवें अध्याय तक संस्कार हैं। छठे और सातवें अध्याय में क्रिया के उच्चारण भेद हैं। आठवें अध्याय में स्वाध्याय अर्थात् वेदपाठ के नियम हैं। इस प्रातिशाख्य, शौनक, उपाशिवि, काण्व, माध्यन्दिन आदि पूर्वाचार्यों की चर्चायें हैं।

वाणिज्यलाभव्रत : इस व्रत में मूल तथा पूर्वाषाढ़ नक्षत्रों के दिन उपवास करने का विधान है। व्रती को पूर्वाभिमुख बैठकर चार कलशों के जल से, जिनमें शंख, मोती, नरकुल की जड़ें तथा सुवर्ण पड़ा हो, स्नान करना चाहिए। तदनन्तर वह विष्णु, वरुण, वरुण तथा चन्द्रमा की अपने आँगन में पूजा करे। उपर्युक्त देवों के सम्मान में घृत से होम करना चाहिए। अन्त में नीले वस्त्रों का, चन्दन का, मदिरा का तथा श्वेत पुष्पों का दान किया जाय़। इस आचरण से व्यापारिक सफलता प्राप्त होती है, समुद्रयात्राओं में तथा कृषि के कार्यों में व्रतकर्त्ता कभी असफल नहीं होता।

वाणी : दादूपंथ के प्रवर्त्तक महात्मा दादू दयाल द्वारा रचित 'सवद' और 'वाणी' अधिक प्रसिद्ध हैं। इनमें इन्होंने संसार की असारता और ईश्वर (राम) भक्ति के उपदेश सबल छन्दों द्वारा दिये हैं। कविता की दृष्टि से भी इनका रचना मनोहर एवं यथार्थभाषिणी है।

वातरशन : वायु की रशना=मेखला पहनने वाले, सर्वस्वत्यागी नग्न मुनिजन। ऋग्वेद तथा तैत्तिरीय आरण्यक में ऋषि-मुनियों के लिए यह शब्द प्रयुक्त हुआ है। नग्न रहने वाले दिगम्बर मुनियों की परम्परा इसी मूल से विकसित प्रतीत होती है।

वातवन्त : पञ्चविंश ब्राह्मण में उद्धृत एक ऋषि का नाम। उन्होंने तथा दृति ने एक सत्र किया था, किन्तु किसी विशेष समय पर उसे बन्द कर देने के कारण उन्हें दुःख उठाना पड़ा तथा उनके वंशज वातवन्त दार्तेयों की अपेक्षा कम उन्नतिशील हुए।

वातुल आगम : रौद्रिक आगमों में से एक। इसका अन्य नाम परआगम है। इसमें लिङ्गायत सम्प्रदाय सम्बन्धी अधिक उल्लेख प्राप्त हैं।

वात्सीपुत्र : वत्स गोत्र की महिला के पुत्र। बृहदारण्यक उपनिषद् की अंतिम वंशसूची में इनका उल्लेख हुआ है। ये पाराशरीपुत्र के शिष्य थे। काण्व तथा माध्यन्दिन शाखा के अनुसार ये भारद्वाजीपुत्र के शिष्य थे।

वात्स्यायन : (1) वत्स गोत्र में उत्पन्न और तैत्तिरीय आरण्यक में उद्धृत एक आचार्य का नाम।

(2) गौतम के न्यायसूत्र पर वात्स्यायन मुनि ने भाष्य लिखा है। हेमचन्द्र ने न्यायसूत्र पर भाष्य रचने वाले वात्स्यायन और चाणक्य को एक ही व्यक्ति माना है, किन्तु यह बात अप्रमाणित है। विद्वानों ने इनकी स्थिति पाँचवीं शती में ठहरायी है।

वाद : किसी दार्शनिक मत के प्रतिपादन को वाद कहा जाता है। वाद के प्रतिपादन के लिए पूर्व का खण्डन तथा उत्तर पक्ष का समर्थन आवश्यक है।

वादनक्षत्रमाला : अप्पय दीक्षित कृत एक मीमांसा विषयक ग्रन्थ। इसमें पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा के सत्ताईस विषयों का विचार किया गया है।

वादरिमत : आचार्य वादरि के मत का उल्लेख ब्रह्मसूत्र और मीमांसासूत्र दोनों में पाया जाता है। अनुमान होता है कि ये ब्रह्मसूत्रकार और मीमांसासूत्रकार से प्राचीन थे और इनके मत का देश में काफी प्रभाव था। वादरायण ने अपने मत के समर्थन में और मीमांसासूत्रकार जैमिनि ने पूर्वपक्ष के रूप में खण्डन के लिए इनके मत को उद्धृत किया है। इससे ज्ञात होता है कि ये मीमांसक आचार्य थे। यत्र-तत्र इनके मतों का जो उल्लेख पाया जाता है उनसे निम्नलिखित बातें ज्ञात होती हैं :

(1) आचार्य वादरि के मतानुसार यद्यपि परमेश्वर महान् है, फिर भी प्रादेश मात्र हृदय द्वारा अर्थात् मन द्वारा उसका स्मरण हो सकता है।

(2) इनके मतानुसार गतिश्रुतिबल से कार्यब्रह्म अर्थात् सगुण ब्रह्म की ही प्राप्त होती है और अमानव पुरुष ही ब्रह्म की प्राप्ति करा सकते हैं।

(3) इनके मत में ज्ञानी पुरुष के शरीरादि नहीं होते; मुक्त पुरुष निरिन्द्रिय एवं शरीरहीन होते हैं।

(4) इनके मत में वैदिक कर्म करने का सबको अधिकार है।

वादावली : स्वामी जयतीर्थाचार्य द्वारा रचित ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ वादावली है। व्यासराज स्वामी ने इसी का अवलम्बन कर माध्व सिद्धान्त का न्यायामृत नामक ग्रन्थ लिखा है।

वादिहंसाम्बुजाचार्य : इनका अन्य नाम द्वितीय रामानुजाचार्य है। ये वेङ्कटनाथ के मामा और गुरु थे। इनके पिता का नाम पद्मनाभाचार्य था। द्वितीय रामानुजाचार्य ने न्यायकुलिश नामक ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ सम्भवतः कहीं प्रकाशित नहीं हुआ है। इसमें प्रायः बारह विषयों पर विचार किया गया है, जो निम्नांकित हैं : (1) सिद्धार्थव्युत्पत्त्यादिसमर्थन (2) स्वतः प्राणाण्यनिरूपण (3) ख्यातिनिरूपण (4) स्वयंप्रकाशवाद (5) ईश्वरानुमानभङ्गवाद (6) वेदाद्यतिरिक्तात्मयाथार्थ्यवाद (7) समानाधिकरणवाद (8) सत्कार्यवाद (9) संस्थानसामान्यसमर्थनवाद (10) मुक्तिवाद (11) भावान्तराभाववाद तथा (12) शरीरवाद।

वानप्रस्थ : जीवन के चार आश्रमों (विश्रामस्थलों) में से तीसरा। इस आश्रम को वन में बिताने का आदेश है। इसमें शरीर तथा मन को विविध प्रकार के अनुशासन में रखकर धार्मिक कार्यों के लिए तैयार करते हैं। इसका उद्देश्य ब्रह्मचिन्तन के लिए चरित्र की पवित्रता, अपरिग्रह और शुद्ध सात्विक भाव प्राप्त करना है। इसके लिए यौगिक क्रिया द्वारा शरीर तथा मन का निग्रह किया जाता है। यह आश्रम संन्यास का पूर्व रूप है। दे० 'आश्रम'।

वामकेश्वर तन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत 64 तन्त्रों में एक वामकेश्वर भी है। इस ग्रन्थ में भी 64 तन्त्रों की तालिका प्रस्तुत हुई है।

वामदेव : कुछ ऋग्वेदीय सूक्तों के संकलयिता सप्तर्षियों में से एक। ऋग्वेद के चौथे मण्डल का ऋषि इनको माना जाता है। इन्हें गौतम का पुत्र कहा गया है। बृहद्देवता में वामदेव के बारे में दो असंगत कथाएँ वर्णित हैं। यद्यपि वामदेव अथर्ववेद (18.3.15.16) तथा प्रायः ब्राह्मणों में उल्लिखित हैं, किन्तु यहाँ उन्हें पूर्व कथाओं का नायक नहीं कहा गया है।

वामनजयन्ती : भाद्र शुक्ल द्वादशी को वामनजयन्ती मनायी जाती है। विष्णु के अवतार वामन भगवान् इसी दिन मध्याह्न काल में उत्पन्न हुए थे और उस दिन श्रवण नक्षत्र था। इस दिन उपवास का विधान है। यह व्रत समस्त पापों को दूर करता है। भागवत पुराण में कहा गया है कि वामन भगवान् द्वादशी को प्रकट हुए थे और उस दिन श्रवण नक्षत्र तथा अभिजित् मुहूर्थ था। इस तिथि को विजया द्वादशी भी कहा जाता है।

वामनद्वादशी : चैत्र मास की द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। विष्णु इसके देवता हैं। उस दिन उपवास रखना चाहिए। भगवान् के चरणों से प्रारम्भ कर मस्तक पर्यन्त उनके सभी शरीरावयवों की भिन्न-भिन्न नाम लेकर पूजा करनी चाहिए। यज्ञोपवीत, छत्र, पादुका तथा माला युक्त वामन भगवान् की प्रतिमा को एक कलश में स्थापित कर द्वितीय दिवस उसका दान कर देना चाहिए। इस व्रत से पुत्रहीन लोग पुत्र प्राप्त करते हैँ। अन्य भी जो कोई धनादि की इच्छा करते हैं वह अवश्य पूर्ण होती है। कुछ अधिकृत ग्रन्थों के अनुसार वामन एकादशी को प्रकट हुए थे, जबकि बहुतों के अनुसार वे द्वादशी को ही प्रकट हुए थे। इन सब बातों के लिए दे० निर्णयसिन्दु, 140।

वामनपुराण : अठारह महापुराणों में एक वामन पुराण भी है। वैष्णव पुराण होने के कारण इसमें विष्णु के विभिन्न अवतारों की कथाएँ हैं किन्तु वामन अवतार की प्रधानता है। वामन पुराण में दस हजार श्लोक हैं तथा पंचानवे अध्याय हैं।

इस महापुराण में शैव सम्प्रदाय का वर्णन भी मिलता है। इसमें शिव, शिवमाहात्म्य, शैवतीर्थ, उमाशिवविवाह, गणेश की उत्पत्ति, कार्तिकेयजन्म और उनके चरित्र का वर्णन पाया जाता है। इस पुराण की प्रकृति समन्वयात्मक है। करकचतुर्थी तथा कायञ्ज्वली व्रतकथा, गङ्गामानसिक स्नान, गङ्गामाहात्म्य, दधिवामनस्तोत्र, वराहमाहात्म्य, वेङ्कटगिरि माहात्म्य इत्यादि कई छोटी-छोटी पोथियाँ वामनपुराणान्तर्गत कहलाती हैं।

वामन अवतार : विष्णु के दस अवतारों में से वामन अवतार पाँचवाँ है। वामन का शाब्दिक अर्थ है बौना। भगवान् ने यह अवतार असुरों से पृथ्वी को देवों को दिलाने के लिए लिया था। इस कथा का मूल सर्वप्रथम ऋग्वेद के विष्णुसूक्त में पाया जाता है। शतपथ ब्राह्मण में वामनअवातार का संक्षिप्त वर्णन है। वामनपुराण में उसी को विस्तृत रूप दे दिया गया है। वामनपुराण से यह मालूम होता है कि भगवन् विष्णु ने कई बार वामन रूप धारण किया था। त्रिविक्रम नामक वामनावतार में उन्होंने धुन्धु नामक असुर को ढककर तीन ही चरणों मे सारे भुवन को वश में कर लिया। इसी प्रकार अन्य वामन अवतारों में विष्णु ने अपने प्रिय देवों की निर्बलता पर दया करके अपनी माया से असुरों को ठगकर उनसे पृथ्वी, स्वर्ग, लक्ष्मी आदि को छुड़ाया। वामन की प्रसिद्ध कथा बलि के सम्बन्ध में है।

वाममार्ग : वाम=सुन्दर, सरस, रोचक उपसनामार्ग। शाक्तों के दो मार्ग हैं--दक्षिण (सरल) और वाम (मधुर)। पहला वैदिक तान्त्रिक तथा दूसरा अवैदिक तान्त्रिक सम्प्रदाय है। भारत ने जैसे अपना वैदिक शाक्त मत औरों को दिया, वैसे ही जान पड़ता है कि उसने वामाचार औरों से ग्रहण भी किया। आगमों में वामाचार और शक्ति की उपासना की अद्भुत विधियों का विस्तार से वर्णन हुआ है। 'चीनाचार' आदि तन्त्रों में लिखा है कि वसिष्ठ देव ने चीन देश में जाकर बुद्ध के उपदेश से तारा का दर्शन किया था। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं। एक तो यह कि चीन के शाक्त तारा के उपासक थे और दूसरे यह कि तारा की उपासना भारत में चीन से आयी। इसी तरह कुलालिकाम्नायन्त्र में मगों को ब्राह्मण स्वीकार किया गया है। भविष्यपुराण में भी मगों का भारत में लाया जाना और सूर्योपासना में साम्ब की पुरोहिताई करना वर्णित है। पारसी साहित्य में भी 'पीरे-मगाँ' अर्थात् मगाचायर्यों की चर्चा है। मगों की उपासनाविधि में मद्य मांसादि के सेवन की विशेषता थी। प्राचीन हिन्दू और बौद्ध तन्त्रों में शिव-शक्ति अथवा बोधिसत्व-शक्ति के साधन प्रसंग में पहले सूर्यमूर्ति की भावना का भी प्रसंग है।

वज्रयानी सिद्धों, वाममार्गियों और मगों के पंचमकार सेवन की तुलना की जाय तो पता लगेगा कि किसी काल में लघु एशिया से लेकर चीन तक मध्य एशिया और भारत आदि दक्षिणी एशिया में शाक्तमत का एक न एक रूप में प्रचार रहा होगा। कनिष्क के समय में महायान और वज्रयान मत का विकास हुआ था और बौद्ध शाक्तों के द्वारा पञ्चमकार की उपासना इनकी विशेषता थी। वामाचार अथवा वाममार्ग का प्रचार बंगाल में अधिक व्यापक रहा। दक्षिणमार्गी शाक्त वाममार्ग को हेय मानते हैं। उनके तन्त्रों में वामाचार की निन्दा हुई है।

वैदिक दक्षिणामार्गी वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले थे। अवैदिक बौद्ध आदि वामाचारी चक्र के भीतर बैठकर सभी एक जाति के, सभी द्विज या ब्राह्मण हो जाते थे। वामाचार प्रच्छन्न रूप से वैदिक दक्षिणाचार पर जब आक्रमण करने लगा तो दक्षिणाचारी वर्णाश्रम धर्म के नियम टूटने लगे, वैदिक सम्प्रदायों में भी जाति-पाँति तोड़ने वाली शाखाएँ बन गयीं। वीर शैवों में वसवेश्वर का सम्प्रदाय, पाशुपतों में लकुलीश सम्प्रदाय, शैवों में कापालिक, वैष्णवों में बैरागी और गुसाँई इसी प्रकार के सुधारक दल पैदा हो गये। बैरागियों और वसवेश्वर पन्थियों के सिवा सभी सुधारक दल मद्य-मांसादि सेवन करने लगे। कोई गृहस्थ ऐसा नहीं रह गया जिसके गृहदेवता या कुलदेवताओं में किसी देवी की पूजा न होती हो। वाममार्ग बाहर से आया सही, परन्तु शाक्त मत और समान संस्कृति होने के कारण यहाँ खूब घुल-मिलकर फैल गया। दे० 'वामाचार' तथा 'वामाचारी'।

वाममार्गी शैव : अवैदिक पंचमकारों का सेवन करने वाले, जाति-पाँति का भेद भाव न रखने वाले शाक्त वाममार्गी शैव कहलाते हैं। कापालिकों को इस कोटि में स्पष्ट रूप से रखा जा सकता है। वाममार्ग का प्रभाव परवर्ती सभी शाक्तों पर न्यूनाधिक हो गया था।

वामाचार : वामाचार की परिभाषा इस प्रकार कही जाती है :

पञ्चतत्तवं खपुष्पञ्च पूजयेत् कुलयोषितम्। वामाचारो भवेत्तत्र वामो भूत्वा यजेत् पराम्॥

[पञ्चतत्त्व अथवा पञ्चमकार, खपुष्प अर्थात् रजस्वला के रज और कुलस्त्री की पूजा करे। ऐसा करने से वामाचार होता है। इसमें स्वयं वाम होकर परा शक्ति की पूजा करे।] चाण्डाली, चर्मकारी, मातङ्गी, मन्स्याहारिणी, मद्यकर्त्री, रजकी, क्षीरकी और धनवल्लभा ये आठ स्त्रियाँ कुलयोगिनी हैं। ये ही समस्त सिद्धियों को देने वाली हैं।

वामाचारी : शक्ति की उपासना चार रूपों में होती हैं : (1) मन्दिर में सर्वसाधारण द्वारा देवी की पूजा (2) चक्रपूजा (3) साधना योगाभ्यास तथा (4) अभिचार (जादू-मन्त्र)। इनमें दूसरी प्रणाली अर्थात् 'चक्रपूजा' प्रमुख पद्धति है। चक्रपूजकों को वामाचारी भी कहते हैं। इसमें समान संख्यक पुरुष तथा स्त्रियाँ जो किसी भी जाति के होते हैं औऱ समीपी सम्बन्धी भी हो सकते हैं (यथा पति, पत्नी, माँ, बहिन, भाई) एकान्त में मिलते हैं, विशेष कर रात को, और एक गोलाई में बैठ जाते हैं। देवी का प्रतिनिधित्व एक यन्त्र या मूर्ति द्वारा होता है जिसे मध्य में रखा जाता हैं। मन्त्रोच्चारण के साथ पञ्चमकारों का सेवन होता है।

वायवीय संहिता : शिवपुराण में कुल सात खण्ड हैं। इसमें सातवाँ खण्ड वायवीय संहिता है। इसके दो भाग हैं पूर्व और उत्तर।

वायुपुराण : यह प्राचीनतम महापुराणों में माना जाता है। वाणभट्ट ने कादम्बरी में इसका उल्लेख किया है (पुराणे वायुप्रलपितम्)। इसमें रुद्रमाहात्म्य भी सम्मिलित है। यह शैव पुराण है तथा शिव की प्रशंसा में लिखा गया है। इसमें पाशुपतयोग का महत्त्वपूर्ण वर्णन है जो अन्य पुराणों में नही मिलता। अठारह महापुराणों की तालिका में वायुपुराण तथा शिवपुराण दोनों साथ न होकर कोई एक गिना जाता है। परम्परानुसार इसमें 24 हजार श्लोक हैं, किन्तु ऐसी कोई पोथी अभी तक प्राप्त नहीं है। इस समय जो प्रति उपलब्ध है उसमें लगभग 11 सहस्र श्लोक हैं। इसमें चार खण्ड तथा 112 अध्याय हैं। ये खण्ड पाद कहलाते हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं : (1) प्रक्रियापाद (2) अनुषङ्गपाद (3) उपोद्घातपाद और (4) उपसंहारपाद। प्रथम पाद में सृष्टिवर्णन बड़े विस्तार के साथ किया गया है। इसके पश्चात् चतुराश्रमविभाग का विवेचन है। इस पुराण में भौगोलिक सामग्री प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। जम्बूद्वीप तथा अन्य द्वीपों का विस्तृत एवं सुन्दर वर्णन है। खगोल का वर्णन भी उपलब्ध होता है। कतिपय अध्यायों में युग, यज्ञ, ऋषि, तीर्थादि का वर्णन है। वेद तथा वेद की शाखाओं का वर्णन सम्यक् हुआ है जो वैदिक साहित्य के अध्ययन के लिए उपयोगी है। प्रजापति, कश्यप तथा अन्य ऋषि‍यों के वंशों का इतिहास पाया जाता है। आगे चलकर श्राद्ध का वर्णन और गयामाहात्म्य है। संगीत का वर्णन भी ऐतिहासिक दृष्‍टि से मह्त्त्वपूर्ण है।

यह पुराण साम्प्रदायिक होते हुए भी धार्मिक दृष्टि से उदार है। इसके कई अध्यायों में विष्णु तथा उनके विभिन्न अवतारों का भक्तिपूर्ण तथा सुन्दर वर्णन है। दक्ष प्रजापति ने जो शिव की स्तुति की है वह रुद्राध्याय का स्मरण दिलाती है।

वायु (वात) : वैदिक देवताओं को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है; पार्थिव, वायवीय एवं आकाशीय। इनमें वायवीय देवों में वायु प्रधान देवता है। इसका एक पर्याय वात भी है। वायु, वात दोनों ही भौतिक तत्त्व एवं दैवी व्यक्तित्व के बोधक हैं किन्तु वायु से विशेष कर देवता एवं वात से आँधी का बोध होता है। ऋग्वेद में कवल एक ही पूर्ण सूक्त वायु की स्तुति में है (1.139) तथा वात के लिए दो हैं (10.168,186)। वायु का प्रसिद्ध विरुद् 'नियुत्वान्' है जिससे इसके सदा चलते रहने का बोध होता है। वायु मन्द के सिवा तीन प्रकार का होता है : (1) धूल-पत्ते उड़ाता हुआ (2) वर्षाकर एवं (3) वर्षा के साथ चलने वाला झंझावात। तीनों प्रकार वात के हैं जबकि वायु का स्वरूप बड़ा ही कोमल वर्णित है। प्रातःकालीन समीर (वायु) उषा के ऊपर साँस लेकर उसे जगाता है, जैसे प्रेमी अपनी सोयी प्रेयसी को जगाता हो। उषा को जगाने का अर्थ है प्रकाश को निमंत्रण देना, आकाश तथा पृथ्वी को द्युतिमान् करना। इस प्रकार प्रभात होने का कारण वायु है क्योंकि वायु ही उषा को जगाता है।

इन्द्र एवं वायु का सम्बन्ध बहुत ही समीपी है और इस प्रकार इन्द्र तथा वायु युगलदेव का रूप धारण करते हैं। विद्युत् एवं वायु वर्षाकालीन गर्जन एवं तूफान में एक साथ होते हैं, इसलिए इन्द्र तथा वायु एक ही रथ में बैठते हैं--दोनों के संयुक्त कार्य का यह पौराणिक व्यक्तिकरण है। सोम की प्रथम घूँट वायु ही ग्रहण करता है। वायु अपने को रहस्यात्मक (अदृश्य) पदार्थ के रूप में प्रस्तुत करता है। इसकी ध्वनि सुनाई पड़ती है किन्तु कोई इसका रूप नहीं देखता। इसकी उत्पत्ति अज्ञात है। एक बार इसे स्वर्ग तथा पृथ्वी की सन्तान कहा गया है (ऋ० 7.9.3)। वैदिक ऋषि वायु के स्वास्थ्य सम्बन्धी गुणों से सुपरिचित थे। वे जानते थे कि वायु ही जीवन का साधन है तथा स्वास्थ्य के लिए वायु का चलना परमावश्यक है। वात रोगमुक्ति लाता है तथा जीवनी शक्ति को बढ़ाता है। उसके घर में अमरत्व का कोष भरा पड़ा है। उपर्युक्त हेतुओं से वायु को विश्व का कारण, मनुष्यों का पिता तथा देवों का श्वास कहा गया है। इन वैदिक कल्पनाओं के आधार पर पुराणों में वायु सम्बन्धी बहुत सी पुराकथाओं की रचना हुई।

वारकरी (सम्प्रदाय) : दक्षिण भारत के उदार भागवत सम्प्रदाय (शिव तथा विष्णु की एकता के सम्प्रदाय) की तीन शाखाएँ हो गयी हैं : (1) वारकरी सम्प्रदाय (2) रामदासी सम्प्रदाय और (3) दत्त सम्प्रदाय। वारकरी सम्प्रदाय वालों की विशेषता है तीर्थयात्रा। उनके प्रधान उपास्य पण्ढरपुर के भगवान् विट्ठल या बिठोवा हैं।

वारव्रत : अग्निपुराण, अ० 185; कृत्यकल्पतरु, 8-35; दानसागर, पृ० 568-570; हेमाद्रि का चतुर्वर्गचिन्तामणि, 1.517-521; कृत्यरत्नाकर, 593-610; स्मृ० कौ०, 549-588 तथा व्रतार्क जैसे ग्रन्थों में रविवार, सोमवार तथा मंगलवार के दिन व्रत करने का उल्लेख किया गया है।

वाराणसी (बनारस) : काशी का दूसरा नाम। वरणा और असी के बीच बसने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। इसी का अपभ्रंश 'बनारस' है। प्राचीन काल में जनपद का नाम काशी था और वाराणसी उसकी राजधानी थी। अति प्राचीन काल से भारत की विद्या व धर्म की राजधानी गंगा के बायें तट पर बसी वाराणसी ही रही है। यह शिव की प्रिय नगरी और अनेकानेक धर्म व सम्प्रदायों की जननी है। शैव धर्म, जैन तीर्थङ्कर, गौतम बुद्ध, शंकराचार्य, वल्लभ, रामानन्द, कबीर, तुलसी आदि की यह कर्मभूमि रही है। गङ्गा का यहाँ दक्षिण से उत्तर को बहाव वाराणसी को और भी महत्त्व प्रदान करता है। गङ्गा के तट वर वाराणसी के घाट अपूर्व शोभा पाते हैं। इन पर नित्य स्नान करने वाले प्रातःकाल गंगा के सामने दूसरी ओर से निकलते हुए भगवान् भास्कर का दर्शनकर कृतार्थ हो जाते हैं। शिव तथा गंगा के अतिरिक्त वैष्णव, बौद्ध, जैन एवं अनेकानेक हिन्दू सम्प्रदायों के यहाँ मन्दिर तथा मठ हैं। यदि इसे मन्दिरों की नगरी कहें तो अतिशयोक्ति न होगी।

लगभग 1500 मन्दिर इस नगर में हैं। यहाँ का प्रत्येक मन्दिर, मठ, आश्रम यहाँ तक कि आचार्यों के घर एक-एक विद्यालय है। इस परम्परा का निर्वाह आज भी हो रहा है। आजकल तीन विश्वविद्यालयों--काशी हिन्दू विश्व विद्यालय, संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय और काशी विद्यापीठ के अतिरिक्त अनेकानेक विद्यालय तथा महाविद्यालय यहाँ भरे हुए हैं। उपर्युक्त महत्ताओं के कारण काशी (वाराणसी) हिन्दू मात्र का प्रसिद्ध तीर्थ है। प्रत्येक हिन्दू की यह इच्छा होती है कि वह विश्वनाथ की इस प्यारी नगरी में ही मरे। प्रत्येक ग्रहण के अवसर पर सारे भारत की जनता इस नगरी में उमड़ आती है, गंगास्नान व काशी-विश्वेश्वर के दर्शन कर अपने को धन्य और कृतार्थ मानती है। दे० 'काशी'।

वाराह अवतार : तैत्तिरीय ब्राह्मण और शतपथ ब्राह्मण में इस अवतार का वर्णन है। यह विष्णु का तीसरा अवतार है। इसका वराहपुराण में विस्तृत वर्णन है। जब हिरण्याक्ष नामक दैत्य ने पृथ्वी को चुराकर पाताल में रखा दिया था तब विष्णु ने वराह रूप धारण कर अपने दाँतों से पृथ्वी का उद्धार किया। इस पौराणिक घटना के नाम पर इस कल्प का नाम ही श्वेत वाराहकल्प हो गया है। दे० 'वराहावतार'।

वाराही : प्रत्येक देवता की शक्तियों की उपासना का प्रचलन शक्त धर्म की देन है। इस प्रकार वराह की शक्ति का नाम वाराही है। मूर्तियों में इसका अङ्कन हुआ है।

वाराहीतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत एक तन्त्र। इस तन्त्र से पता लगता है कि जैमिनि, कपिल, नारद, गर्ग, पुलस्त्य, भृगु, शुक्र, बृहस्पति आदि ऋषियों ने भी कई उपतन्त्र रचे हैं। वाराहीतन्त्र में इन तन्त्रों का नाम उनकी श्लोकसंख्या सहित दिया हुआ है।

वारिव्रत : यह मासव्रत है। प्रतीत होता है कि इसके देवता ब्रह्मा हैं। व्रती को चैत्र, ज्येष्ठ, आषाढ़, माघ अथवा पौष में अर्थात् चार मास अयाचित पद्धति से आहार करना चाहिए। व्रत के अन्त में वस्त्रों से ढका एक कलश, भोजन तथा तिलों से परिपूर्ण एक पात्र, जिसमें सुवर्ण खण्ड भी पड़ा हो, दान करना चाहिए। इतने कृत्यों के उपरान्त व्रती ब्रह्माजी के लोक को प्राप्त होता है।

वारुण उपपुराण : उन्तीस उपपुराणों में से एक वारुण उपपुराण भी है।

वारुणी : चैत्र कृष्ण त्रयोदशी को यदि शतभिषा नक्षत्र हो (जिसके स्वामी वरुण देवता हैं) तो वह वारुणी कहलाती है तथा इस पर्व पर गंगास्नान करने वाले को एक करोड़ सूर्यग्रहणों के बराबर पुण्य होता है। यदि उपर्युक्त योगों के अतिरिक्त उस दिन शनिवार भी हो तो यह महावारुणी कहलाती है। यदि इन सबके अतिरिक्त शुभ नामक योग भी आ जाय तो फिर यह 'महामहावारुणी' कहलाती है।

वारुणी उपनिषद् : तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन भाग हैं। पहला संहितोपनिषद् या शिक्षावल्ली है, दूसरे भाग को आनन्दवल्ली और तीसरे को भृगुवल्ली कहते हैं। इन दोनों वल्लियों का संयुक्त नाम वारुणी उपनिषद् है।

वार्षगण्य : प्रथम अथवा द्वितीय शताब्दी वि० में उत्पन्न, सांख्य दर्शन के एक आचार्य। ये प्रसिद्ध दार्शनिक थे। इनका रचा 'षष्टितन्त्र' सांख्य विषयक मौलिक रचना है।

वालखिल्य : (1) ऋग्वेद के समस्त सूक्तों की संख्या 1028 है। इनमें से 11 सूक्तों पर, जिन्हें 'वालखिल्य' कहते हैं, न तो सायणाचार्य का भाष्य है और न शौनक ऋषि की अनुक्रमणी में इनका उल्लेख पाया जाता है। प्रत्येक सूक्त में किसी दिव्य ईश्वरीय विभूति की स्तुति है और उस स्तुति के साथ-साथ व्याजरूप से सृष्टि के अनेक रहस्यों तथा तत्वों का उद्घाटन किया गया है।

(2) देवगणों का एक ऐसा वर्ग जो आकार में अँगूठे के बराबर होते हैं। इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के शरीर से हुई है। इनकी संख्या साठ हजार है और ये सूर्य के रथ के आगे-आगे चलते हैं।

वालखिल्यशाखा : यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता में 1990 मन्त्र हैं। वालखिल्य शाखा का भी यही परिमाण है। इन दोनों से चार गुना अधिक इनके बाह्मणों का परिमाण है :

द्वे सहस्रे शतन्यूनं मन्त्रा वाजसनेयके। तावत्त्वन्येन संख्यातं वालखिल्यं सशुक्रियम्। ब्राह्मणस्य समाख्यातं प्रोक्तमानाच्चतुर्गुणम्॥

वाल्मीकि : (1) महर्षि कश्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई भृगु ऋषि थे। वरुण का नाम प्रचेत भी है, इसलिए वाल्मीकि प्राचेतस् नाम से विख्यात हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् में वर्णित ब्रह्मविद्या वरुण और भृगु के संवादरूप में है। इससे स्पष्ट है कि भृगु के अनुज वाल्मीकि भी परम ज्ञानी और तपस्वी ऋषि थे। उग्र तपस्या या बह्मचिन्तन में देहाध्यास न रहने के कारण इनके शरीर को दीमक ने ढक लिया था, बाद में दीमक के वल्मीक (ढूह) से से ये बाहर निकले, तबसे इनका नाम वाल्मीकि हो गया। इनका आश्रम तमसा नदी के तट पर था। (भागवत)

एक दिन महर्षि ने प्रातःकाल तमसा के तट पर एक व्याध के द्वारा क्रौञ्च पक्षी का वध करने पर करुणार्द हो उसे शाप दिया। शाप का शब्द अनुष्टुप् छन्द में बन गया था। इसी अनुष्टुप् छन्द में मुनि ने नारद से सुनी। राम की कथा के आधार पर रामायण की रचना कर डाली। उसे लव-कुश को पढ़ाया। लव-कुश ने उसे राम की राजसभा में गाया। इस पर वाल्मीकि प्रथम कवि तथा रामायण प्रथम महाकाव्य प्रसिद्ध हुआ। वाल्मीकि की औऱ भी अनेक रचनाएँ हैं किन्तु रामायण अकेले ही उन्हें सर्वदा के लिए अमरत्व दे गयी है।

(2) ये पुराणवर्णित वाल्मीकि त्रेतायुग में हुए थे और प्राचेतस् वाल्मीकि से भिन्न प्रतीत होते हैं। परम्परागत कथनानुसार इनका प्रारम्भिक जीवन निकृष्ट था। कहते हैं कि ये रत्नाकर नामक दस्यु थे तथा जंगल में पथिकों का बध कर उनका धन छीन लेते और अपने परिवार का भरण-पोषण किया करते थे। एक दिन उसी मार्ग से महर्षि नारद का आगमन हुआ। वाल्मीकि ने उनके साथ भी वैसा ही व्यवहार करना चाहा। महर्षि ने उन्हें मना किया तथा कहा कि इन पापों के भागीदार तुम्हारे माता-पिता, स्त्री या बच्चे होंगे या नहीं, जिनके लिए तुम यह सब करते हो। वाल्मीकि को विश्वास न हुआ और वे नारद को एक वृक्ष के साथ बाँधकर अपने घर उपर्युक्त जिज्ञासा का उत्तर प्राप्त करने गये। किन्तु घर का कोई भी सदस्य उनके पापों का भगीदार होना न चाहता था। वे वन में लौट आये, नारदजी को मुक्त कर उनके चरणों में गिर गये और उनके उपदेश से अन्न-जल त्यागकर तपस्या में निरत हुए। उनके शरीर पर दीमकों ने घर बना लिया। दीमकों से बनाये टीले को 'वल्मीक' कहते हैं। उससे निकलने के कारण इनका नाम वाल्मीकि प्रसिद्ध हो गया।

वाल्मीकि रामायण : दे० 'रामायण'।

वासिष्ठ उपपुराण : उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से एक वासिष्ठ उपपुराण भी है।

वासन्तिक नवरात्र : चैत्र शुक्ल के आरम्भ से नौ दिनों तक चलने वाला पर्व। इन नवरात्रों में भी शारदीय नवरात्रों के सदृश ही पूजन उत्सव होते हैं। यह मुख्यतः शाक्त पूर्व है और इसमें शक्ति अथवा दुर्गा की पूजा होती है। परन्तु इसके साथ वैष्णव पर्व भी जुड़ गया है। अन्तिम दिन रामनवमी को रामजन्मोत्सव मंङ्गल-वाद्य, नाच-गान आदि के साथ मनाया जता है।

वासुदेवद्वादशी : आषाढ़ शुक्ल द्वादशी। इसमें भगवान् वासुदेव के शरीरावयवों की, चरणों से मस्तक तक उनके विभिन्न नामों तथा व्यूहों का उच्चारण करते हुए पूजा करनी चाहिए। एक पात्र में वासुदेव की सुवर्णप्रतिमा रखकर उसका पूजन किया जाना चाहिए। जलपात्र दो वस्त्रों से आच्छादित होना चाहिए। पूजन के उपरान्त उसका दान कर देना चाहिए। यह व्रत नारद द्वारा वसुदेव तथा देवकी को सूचित किया गया था, इसको करने से व्रती पुत्र अथवा राज्य, यदि उसने खो दिया हो, प्राप्त कर लेता है। साथ ही वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।

विजया (दशमी) : (1) आश्विन शुक्ल दशमी को इस व्रत का अनुष्ठान विहित है। सूर्यास्त के थोड़ी देर बाद का समय, जबतारागण निकल रहे हों, समस्त सिद्धियों तथा उद्देश्यों की सिद्धि के लिए अत्यन्त पुनीत तथा महत्त्वपूर्ण माना गया है। दे० स्मृतिकौस्तुभ, 353।

(2) दिन के पंद्रह मुहूर्तों में से यह ग्यारहवीं मुहूर्त है। दे० स्मृतिकौस्तुभ, 353।

विजय द्वादशी : (1) इस व्रत में भाद्रपद शुक्ल एकादशी को संकल्प करना चाहिए और श्रवण नक्षत्र युक्त द्वादशी को उपवास। इस अवसर पर भगवान् विष्णु की सुवर्ण की प्रतिमा को पीताम्बर पहनाकर उनका अर्घ्‍यादि से पूजन करना चाहिए। रात्रि को जागरण का विधान है। दूसरे दिन सूर्योदय के समय प्रतिमा का दान करना चाहिए।

(2) फाल्गुन कृष्ण या शुक्ल एकादशी अथवा द्वादशी यदि पुष्य नक्षत्र से युक्त हो तो वह विजया कहलाती है।

(3) भाद्र शुक्ल एकादशी वा द्वादशी यदि बुधवार को पड़े तथा उस दिन श्रवण नक्षत्र हो तो वह भी विजया है। शुक्ल पक्ष में व्रत करने से स्वर्गोपलब्धि तथा कृष्ण पक्ष में व्रत करने से पाप क्षय होते हैं।

विजया : यह नाम कई तिथियों के लिए प्रयुक्त होता है। यथा यदि रविवार को सप्तमी और रोहिणी नक्षत्र हो तो वह विजया कहलाती है। गरुड़पुराण के अनुसार द्वादशी या एकादशी श्रवण नक्षत्र से संयुक्त हो तो वह विजया कहलाती है। 'वर्षकृत्यकौमुदी' के अनुसार यदि विजया सप्तमी को सूर्य हस्त नक्षत्र में हो तो वह महामहाविजया कहलाती है। शुक्ल पक्ष की एकादशी को यदि पुनर्वसु नक्षत्र हो तो वह विजया कहलाती है।

आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी भी विजया कही जाती है। इस दिन क्षत्रिय राजा अपराजिता देवी, शमी वृक्ष और अस्त्र-शस्त्रों का पूजन एवं विजययात्रा करते हैं।

विजयाव्रत : इन्द्र के वाहन ऐरावत हाथी तथा उच्चैःश्रवा नामक अश्व की पूजा इस व्रत में की जाती है। उच्चैःश्रवा इन्द्र का वाहन है। यह पर्व विजया दशमी को क्षत्रियों द्वारा मनाया जाता है।

विजयायज्ञसप्तमी : माघ शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए। इसके देवता सूर्य हैं। एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान होता है। प्रति मास सूर्य के विभिन्न नामों को प्रयुक्त किया जाय। 12 ब्राह्मणों को सम्मानित किया जाय। व्रत के अन्त में सुवर्ण की सूर्यमूर्ति एवं सारथि तथा रथ की प्रतिमाएँ बनवाकर अपने आचार्य को दे देनी चाहिए।

विज्ञान : अन्तःकरण की उस चेतना का नाम, जिसके द्वारा अपने व्यक्तित्व का बोध होता है। इसका अर्थ 'अहङ्कार' से कुछ मिलता-जुलता है।

विज्ञानवाद : दर्शन के उस सिद्धान्त का नाम, जो मानता है कि वस्तुसत्ता 'विज्ञानरूप' है। विज्ञान के अतिरिक्त जगत् का कोई अस्तित्व नहीं है। यह बौद्ध योगाचार मत से मिलता-जुलता है।

वितस्तापूजा : भाद्रपद की दशमी से सात दिनों तक वितस्ता जो नदी (आजकल झेलम कहलाती है) में ही स्नान, उसी का जल पीना, उसके पूजन तथा ध्यान में मग्न होना चाहिए। कश्मीर भूमि में वितस्ता भगवती सती (पार्वती) का ही अवतार है। वितस्ता तथा सिन्धु के संगम पर विशेष पूजा का विधान है। वितस्ता के सम्मान में उत्सव मनाना चाहिए और अभिनेता तथा नर्तकों का सम्मान करना चाहिए।

विद्या : दर्शन, धर्म और कला के अर्थों में 'विद्या' का प्रयोग होता है। दर्शन में विद्या का अर्थ है अध्यात्म शास्त्र, अर्थात् आत्मज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली विद्या। धर्म में विद्या का अर्थ है त्रयी (तीन वेद), धर्मशास्त्र अथवा सामाजिक शास्त्र। पौराणिक तथा तान्त्रिक धर्म में विद्या का प्रयोग महादेवी, दुर्गा अथवा शक्ति के मन्त्र अर्थ में होता है। कला के क्षेत्र में विद्या का प्रयोग अनेक कलाओं और शिल्पों के अर्थ में किया जाता है।

अर्थशास्त्र में चार विद्याएँ बतलायी गयी हैं --(1) आन्वीक्षिकी (तर्क अथवा दर्शन) (2) त्रयी (तीन वेद) (3) वार्ता (आधुनिक अर्थशास्त्र) और (4) दण्डनीति (आधुनिक राजनीति)। मनुस्मृति (7.43) ने एक और विद्या (आत्मविद्या) जोड़ दी है। याज्ञवल्क्य स्मृति में विद्या के चौदह स्थान बतलाये गये हैं--चार वेद, छः वेदाङ्ग, पुराण, न्याय, मीमांसा और स्मृति। कोई-कोई चार उपवेदों को भी जोड़कर अठारह विद्यास्थान बतलाते हैं। इसी प्रकार कोई तेतीस और कोई चौसठ विद्याएँ (कलाएँ) मानते हैं। सर्वप्रथम ईशोपनिषद् में 'विद्या' का प्रयोग अध्यात्म विद्या के रूप में हुआ है :

विद्याञ्च अविद्याञ्च यस्तद् वेद उभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यायाऽमृतमश्नुते॥

[जो विद्या (अध्यात्म) और अविद्या (भौतिक शास्त्र) को साथ-साथ जानता है वह अविद्या से मृत्यु-संसार को पारकर विद्या से अमृततत्त्व को प्राप्त करता है।] नागेश भट्ट ने इसी अर्थ में विद्या का प्रयोग किया है : "परमोत्तमपुरुषार्थसाधनीभूता विद्या ब्रह्मज्ञान स्वरूपा।"

विद्याप्रतिपद्व्रत : मास की प्रथम तिथि को यह व्रत करना चाहिए। जो व्यक्ति धनार्थी या विद्यार्थी हो उसे धानों से एक वर्गाकार आकृति बनाकर भगवान् विष्णु तथा लक्ष्मी का एक सहस्र या उससे कम पूर्ण रूप से खिले हुए कमलों से तथा दूध या खीर से पूजन करना चाहिए। सरस्वती की प्रतिमा उनके पार्श्व में विराजमान की जाय। चन्द्रमा भी वहाँ विद्यमान रहे। उस दिन अपने गुरु का सम्मान करन चाहिए। उस दिन तथा द्वितीया को उपवास करके विष्णु का पूजन करना चाहिए। तदुपरान्त आचार्य को सुवर्ण दान कर स्वयं भोजन करना चाहिए।

विद्यावाप्तिव्रत : माघ मास की कृष्ण प्रतिपदा को व्रत आरम्भ कर एक मास तक उस का आयोजन करना चाहिए। इस अवसर पर तिलों से हयग्रीव की पूजा करनी चाहिए, तिलों से ही हवन करना चाहिए। प्रथम तीन दिन उपवास रखना चाहिए। यह एक मास का व्रत है। इससे व्रती विद्वान हो जाता है। (विष्णुधर्म०)

विद्याव्रत : किसी मास की द्वितीया को अक्षतों से एक वर्गाकार आकृति बनाकर उसके केन्द्र में अष्ट दल कमल अंकित किया जाय, उसके चारों ओर कमलहस्ता लक्ष्मी की, जिसकी आठ शक्तियां (सरस्‍वती, रति, मैत्री, विद्या आदि) विद्यमान रहें, आकृति बनायी जाय। आठ शक्तियों को एक-एक पँखुड़ी पर अङ्कित करना चाहिए। तब 'सरस्वत्यै नमः' कहते हुए उन्हें प्रमाण करना चाहिए। कुछ अन्य देवगण, जैसे चारों दिशाओं के चार दिक्पाल तथा उनके मध्य वाली दिशाओं के भी दिक्पालों की आकृतियाँ और चार गुरुओं (व्यास, क्रतु, मनु, दक्ष) तथा वसिष्ठादि की आकृतियाँ मण्डल में स्थापित की जाँय। भिन्न-भिन्न पुष्पों से इन सबकी पूजा करनी चाहिए। श्रीसूक्त के मंत्रों, पुरुषसूक्त के मंत्रों तथा विष्णु के लिए कहे गये मंत्रों से इनका पूजन करना चाहिए। व्रतोपरान्त एक गौ, जलपूर्ण कलश तथा चावलों एवं तिलों से परिपूर्ण अन्य पाँच पात्र अपने पुरोहित को दिये जाँय। (स्त्री व्रती द्वारा) पिसी हुई हल्दी तथा सुवर्ण किसी सद्गृहस्थ को तथा भूखे को भोजन दिया जाय। व्रतकर्ता अपने आचार्य से तथा आचार्य प्रतिमाओं के सम्मुख विद्या देने की प्रार्थना करें। (गरुड०)

विधानसप्तमी : इसके सूर्य देवता हैं। व्रती को माघ शुक्ल सप्तमी से व्रत का आरम्भ कर निम्नांकित बारह वस्तुओं में से केवल एक वस्तु का प्रति मास की सप्तमी को क्रमशः आहार करना चाहिए : अर्क के पुष्पों का अग्रभाग, शुद्ध गौ का गोबर, मरिच, जल, फल, मूल (रक्तिम), नक्त विधि, उपवास, एकभक्त, दुग्ध, पवन और घृत। कालविवेक, वर्षकृत्यकौमुदी आदि इस व्रत को रविव्रत से (जो माघ में प्रथम रविवार के दिन होता है) पृथक् मानते हैं।

विनयपत्रिका : रामचरितमानस के प्रणेता गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित यह ग्रन्थ मुख्यतः राम के प्रति और गौणतः अन्य देवताओं के प्रति की गयी स्तुतियों का संग्रह है। आवेदनपत्र के रूप में ये स्तुतियाँ पद्यों में रची गयी हैं, अतः इस संग्रह का नाम विनयपत्रिका पड़ा। तुलसी साहित्य में रामचरितमानस के पश्चात् इसका दूसरा स्थान है। रचना में दास्य औऱ दैन्य भाव की प्रधानता है।

विभूतिद्वादशी : वैशाख, कार्तिक, मार्गशीर्ष, फाल्गुन अथवा आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को इस व्रत का आरम्भ होता है। व्रती नियमों (अनिषिद्ध बातों) का आचरण करे। एकादशी के दिन उपवास करते हुए जनार्दन (मूर्ति) का पूजन करे। चरणों से प्रारम्भ कर सिरपर्यन्त भगवान् की प्रतिमा का क्रमशः पूजन करे। भगवान् की प्रतिमा के सम्मुख कलश या किसी जलपूर्ण पात्र में सोने की मछली बनाकर रखी जाय, रात्रि को भगवान् की कथाएँ कहकर जागरण किया जाय। दूसरे दिन प्रातः काल निम्न शब्द बोलते हुए---`विष्णु भगवान् अपने महान् प्रकाश से कभी विमुक्त नहीं होते, उसी प्रकार आप मुझे संसार के शोक पङ्क से मुक्त करें`, प्रार्थना करे। प्रति मास वह दस अवतारों में से एक अवतार की प्रतिमा एवं दत्तात्रेय तथा व्यासजी की प्रतिमाओं का दान करे। उनके साथ द्वादशी को एक नील कमल का भी दान किया जाय। द्वादश द्वादशियों के व्रतों का आचरण करने के बाद अपने गुरू अथवा आचार्य को एक लवणाचल, पर्यङ्कोपयोगी समस्त वस्त्र, एक दौ, (यदि व्रती राजा महाराज हो तो) ग्राम या खेत (गाँव का मुख्य खेत) तथा अन्यान्य ब्राह्मणों को गौएँ तथा वस्त्र दान में दिये जाँय। यह विधि तीन वर्षों तक चलनी चाहिए। इन आचरणों से व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर कम से कम एक सौ पितरों का भी उद्धार कर लेता है। `लवणाचल` दान के लिए दे० पा० वा० काणे : धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग 2, पृ० 882 (मत्स्यपुराण, 84.1-9)।

विरूपाक्षव्रत : पौष शुक्ल चतुर्दशी को इस व्रत का आरम्भ होता है। इसके अनुसार भगवान् शिव की एक वर्ष तक पूजा करनी चाहिए। व्रत के अन्त में किसी ब्राह्मण को समस्त पदार्थ तथा एक ऊँट दान किया जाय। इससे समस्त राक्षसों के भय से तथा रोगों से मुक्ति मिलती है एवं शुक्ल कामनाओं की पूर्ति होती है।

विवर्त : अद्वैत वेदान्त का एक सिद्धान्त। ब्रह्म और जगत् के सम्बन्ध को समझाने के लिए इसका विकास हुआ। इसके अनुसार जगत् न ब्रह्म की सृष्टि है और न उसका परिणाम; जगत् ब्रह्म का विवर्त (वृत्ताकार चक्रगति से उत्पन्न भ्रममात्र) है, इसलिए यह भ्रामक और अवास्तविक है। दे० 'अद्वैतवाद' तथा 'शङ्कर'।

विशिष्टाद्वैत : एक प्रकार के द्वैत जैसे वेदान्त का सम्प्रदाय। इसका अर्थ है 'विशिष्ट (विशेषण युक्त) अद्वैत'। इसके प्रवर्त्तक आचार्य रामानुज थे। इस सम्प्रदाय के अनुसार ब्रह्म ऐकान्तिक होते हुए भी पुरुष (ईश्वर) है। उसके दो अंश (विशेषण) हैं---चित् (जीवात्मा) और अचित् (जड़ जगत्) जो वास्तविक और उससे भिन्न है। इन्हीं तीनों तत्त्वों (तत्त्वत्रय) से विश्व संघटित है। इन तीनों में ऐक्य है किन्तु अभेद नहीं। जीवात्मा ईश्वर की कृपा से ही मुक्ति पा सकता है। इस मत का प्रतिपादन रामानुज द्वारा ब्रह्मसूत्र के श्रीभाष्य में हुआ है। दे० 'रामानुज'।

विशोकद्वादशी : आश्विन शुक्ल दशमी को रात्रि को व्रती संकल्प करे---"मैं कल एकादशी को उपवास करके भगवान् केशव की आराधना करूँगा और द्वादशी के दिन भोजन ग्रहण करूँगा।" उस दिन केशव की आपादमस्तक पूजा होनी चाहिए। एक मण्डल बनाकर उस पर चतुष्कोण वेदिका बनानी चाहिए। उस पर अनाज साफ करनेवाला नया सूप रखकर उसमें लक्ष्मी की, जिसे विशोका (जो शोक रहित करती है) भी कहते हैं, स्थापना करके पूजा की जाय तथा प्रार्थना करते हुए कहा जाय कि हे विशोका देवी! हमारे शोकों का नाश करो, हमें समृद्धि तथा सफलता प्रदान करो। समस्त रात्रियों को ऐसा पानी पिया जाय जिसमें दर्भ पड़े हों। रात्रि में नृत्य तथा गान हो, ब्राह्मणों का सम्मान किया जाय। यह क्रिया प्रति मास चले। व्रत के अन्त में पर्यङ्क के उपयुक्त वस्त्र, गुड़धेनु तथा शूर्प का लक्ष्मीजी की मूर्ति के साथ दान करना चाहिए। मत्स्यपुराण में इसका तथा गुड़धेनु का वर्णन है, जो इस व्रत का गौण भाग है। गुड़धेनु के लिए दे० पा० वा० काणे : धर्मशास्त्र का इतिहास, 2, पृ० 880--81।

विशोकसक्रान्ति : जब अयन के दिन अथवा विषुव के दिन व्यतीपात योग हो, जो व्रती को तिलमिश्रित जल से स्नान करना चाहिए तथा एकभक्त विधि से आहार करना चाहिए। तब वह सूर्य की सुवर्णप्रतिमा को पञ्चगव्य से स्नान कराकर गन्ध, पुष्पादि अर्पण कर दो रक्त वस्त्र पहनाये, तदनन्तर उसे ताम्रपात्र में रखकर सूर्य के भिन्न-भिन्न नामों से आपादमस्तक उनकी पूजा की जाय। यह क्रम एक वर्षपर्यन्त चलना चाहिए। वर्ष के अन्त में सूर्य के पूजन का विधान है। इस अवसर पर 12 कपिला गौओं का अथवा निर्धन होने पर केवल एक गौ का दन किया जाय। इससे दीर्घ आयु प्राप्त होती है, स्वास्थ्य तथा समृद्धि की सुरक्षा होती है।

विश्वरूपव्रत : अष्टमी अथवा चतुर्दशी के दिन यदि शनिवार तथा रेवती नक्षत्र हो तो उस दिन इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। शिवजी इसके देवता हैं। इस दिन शिवलिङ्ग का महाभिषेक स्नान कराया जाय। कर्पूर को अङ्गराग की भाँति लगाया जाय, श्वेत कमल तथा अन्य अनेक आभूषण चढ़ाये जायँ, धूप के रूप में कर्पूर जलाया जाय, घी तथा खीर का नैवेद्य अर्पण किया जाय, कुशों से भींगा हुआ जल पिया जाय तथा रात्रि को जागरण किया जाय। इस अवसर पर आचार्य को गज अथवा अश्व का दान करना चाहिए। इससे व्रती वह सब प्राप्त कर लेता है जिसकी वह इच्छा करता है, जैसे पुत्र, राज्य, आनन्दादि। इसी कारण इसका नाम है विश्वरूप (साहित्यिक अर्थ समस्त रूप)।

विशिष्टव्रत अथवा भद्राव्रत : ज्योतिष ग्रन्थों में करणों का विवेचन किया गया है। प्रत्येक तिथि के आधे-आधे भागों को करण कहते हैं जो सब ग्यारह हैं। उनकी दो श्रेणियाँ हैं--चर तथा स्थिर, अर्थात् चलनशील और अचल। प्रथम की कुल संख्या सात है जिनमें से एक विष्टि है। विष्टि किसी तिथि का अर्धांश होता है। ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थों ने इसे बुरे, दुष्ट, कपटी भूत-प्रेतादि के समान श्रेणी प्रदान की है। यह तीस घड़ियों का समवेत काल है जो असमानता पूर्वक उसके मुख, कण्ठ, हृदय, नाभि, कटि तथा पूँछ (क्रमशः 5,1,11,4,6,3 घड़ियों) में विभाजित किया गया है। स्मृतिकौस्तुभ (565-566) में इसे सूर्य की पुत्री तथा शनि की बहिन बतलाया गया है। तीन पग वाली विष्टि का मुख गधे का है। विष्टि साधारणतः ध्वंसात्मक स्वभाव वाली है अतएव किसी शुभ कार्य के आरम्भ के समय इसे त्‍यागना चाहिए। किन्तु शत्रुओं को नष्ट करने अथवा उन्हें विष इत्यादि देने के समय यह बड़ी अनुकूल पड़ती है (बृ० संहिता 99.4)। जिस दिन विष्टि हो उस दिन उपवास करना चाहिए। यदि विष्टि रात्रि में पड़े तो दो दिनों तक एकभक्त पद्धति से आहार करना चाहिए। उस दिन देवों, पितरों तथा दर्भों की बनायी हुई विष्टि का पुष्पादि से पूजन किया जाय। इस अवसर पर विष्टि को कृशरा अर्थात् खिचड़ी का नैवेद्य अर्पित करना चाहिए। काले वस्त्रों, काली गौ तथा काले कम्बल का दान इस अवसर पर किया जाय। विष्टि तथा भद्रा का एक ही अर्थ है।

विष्णु : आदित्य वर्ग के वैदिक देवताओं में एक। यद्यपि विष्णु की स्तुति में ऋग्वेद (1.154) का एक ही सूक्त पाया जाता है, किन्तु वह इतना सारगर्भित है कि उसके तत्त्वों से विष्णु को हिन्दू त्रिमूर्ति में आगे चलकर प्रमुख स्थान मिला। उस विष्णुसूक्त में उनके तीन चरणों (त्रिविक्रमं, उरुक्रम) की विशेषता पायी जाती है। ये बालसूर्य, मध्याह्नसूर्य तथा सायंसूर्य के तीन स्नान हैं। उनका उच्चतम स्थान मध्याह्न का है। इस स्थान का जो वर्णन पाया जाता है वह परवर्ती विष्णुलोक अथवा गोलोक का पूर्वरूप है। विष्णु का भक्त वहाँ पहुँच कर आनन्द का अनुभव करता है। वहाँ भूरिश्रृंग गौएँ (रश्मियाँ) विचरती हैं औऱ मधु की धाराएँ प्रवाहित होती हैं। विष्णु अपने चरण दयाभाव से उठाते हैं; उनका उद्देश्य है संसार को दुःख से मुक्त करने का और मानवों के लिए पृथ्वी को उपयुक्त आवास बनाने का (ऋ० 6. 49.13)। वे संसार के रक्षक और संरक्षक दोनों हैं। विष्णु कई रूप धारण करते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में विष्णु की कल्पना और विष्णुयागों का और विस्तार हुआ। पुराणों में विष्णु सम्बन्धि कल्पनाओं, कथाओं और पूजा पद्धति का अपरिमित विस्तार हुआ है।

त्रिमूर्ति की कल्पना में विष्णु का स्वरूप निखरा। ये विश्वात्मा के विश्वरूप के सात्त्विक तत्त्व हैं, जिनका मुख्य कार्य संयोजन, धारण, केन्द्रीकरण तथा संरक्षण है। विश्व में जो प्रवृत्तियाँ केन्द्र की ओर जाती हैं, ऐक्य की शक्ति उत्पन्न करती हैं, अस्तित्व तथा वास्तविकता को दृढ़ करती हैं, प्रकाश और सत्य का निर्देश करती हैं, वे विष्णु से उद्भूत होती हैं। विष्णु शब्द की व्युत्पत्ति 'विष्लृ' धातु से हुई हैं, जिसका अर्थ है सर्वत्र फैलना अथवा व्यापक होना। महाभारत (5.70; 13.214) अनुसार विष्णु सर्वत्र व्याप्त हैं, वे समस्त के स्वामी हैं, वे विध्वंसक शक्तियों का दमन करते हैं। वे इसलिए विष्णु हैं कि वे सभी शक्तियों पर प्रभुत्व प्राप्त करते हैं।

विष्णु के अनेक नाम हैं। विष्णुसहस्रनाम में उनके एक सहस्र नामों की सूची प्रस्तुत की गयी है। इसके ऊपर शङ्कराचार्य का भाष्य है, जिसमें नामों का अर्थ और रहस्य बतलाया गया है। विष्णु का प्रसिद्ध नाम 'हरि' है। इसका अर्थ है (पाप औऱ दुःख) दूर करने वाला। ब्रह्मयोगी ने कलिसन्तरण उपनिषद् (2.1.215) के अपने भाष्य कलिसन्तरण उपनिषद् (2.1.215) के अपने भाष्य में इसकी व्याख्या इस प्रकार की है : 'जो अज्ञान (अविद्या) और इसके दुष्परिणाम का अपहरण करता है वह हरि है।' विष्णु का दूसरा नाम शेषयायी अथवा अनन्तशायी है। जब विष्णु शयन करते हैं तो सम्पूर्ण विश्व अपनी अव्यक्त अवस्था में पहुँच जाता है। व्यक्त सृष्टि के अवशेष का ही प्रतीक 'शेष' है जो कुण्डली मारकर अनन्त जलराशि पर तैरता रहता है। शेषशायी विष्णु नारायण कहलाते हैं, जिसका अर्थ है 'नार (जल) में आवास करने वाला'। नारायण का दूसरा अर्थ भी हो सकता है; 'जिसमें समस्त नरों (मनुष्यों) का अयन (आवास) है।'

विष्णु की मूर्तियों में विष्णुसम्बन्धी सिद्धान्तों और कल्पनाओं का ही प्रतीक पाया जाता है। विष्णुमूर्तियाँ प्रतीकों के समूह हैं और साधक उनके किसी भी रूप का ध्यान कर सकता है। गोपाल उत्तरतापनीय उपनिषद् (46.48,216) में विष्णुमूर्ति के मुख्य अङ्गों का वर्णन रहस्यमय रूप में विस्तार से प्राप्त होता है।

विष्णु की चौबीस प्रकार की मूर्तियाँ पायी जाती हैं। इनका वर्णन पद्मपुराण के पातालखण्ड में पाया जाता है। इन मूर्तियों में विष्णु के विविध गुणों का प्रतीकत्व है। रूपमण्डन नामक ग्रन्थ में भी विष्णु की चौबीस मूर्तियों का वर्णन है, किन्तु पद्मपुराण से कुछ भिन्न। विभिन्न युगों में इन्हीं मूर्तियों (रूपों) में विष्णु का युगानुसारी अवतार होता है। पद्मपुराण और रूपमण्डन के अनुसार इन मूर्तियों की व्याख्या इस प्रकार है :

1. केशव (लम्बे केश वाले)

2. नारायण (शेषशायी, सार्वभौम निवास)

3. माधव (मायापति, ज्ञानपति)

4. गोविन्द (पृथ्वी के रक्षक)

5. विष्णु (सर्वव्यापक)

6. जनार्दन (भक्त पुरस्कर्ता)

7. उपेन्द्र (इन्द्र के भ्राता)

8. हरि (दुःख, दारिद्र्य, पाप आदि का हरण करने वाले)

9. वासुदेव (विश्वान्तर्यामी)

10. कृष्ण (आकृष्ट करने वाले, श्याम) इत्यादि।

इन मूर्तियों के अतिरिक्त राम, परशुराम आदि की मूर्तियाँ भी प्रचलित हैं, जिनका उल्‍लेख उपर्युक्त उल्लेखों में नहीं हैं।

उनके चार आयुओं और प्रमुख आभूषणों के अतिरिक्त पीताम्बर औऱ यज्ञोपवीत भी प्रमुख उपकरण हैं। साथ ही चामर, ध्वज और छत्र का भी अङ्कन प्रतिमाओं में होता है। विष्णु के रथ और वाहन दोनों का उल्लेख मिलता है। उनका वाहन गरुड़ है जो वैदिक मन्त्रों की शक्ति, गति और प्रकाश का प्रतीक है, वह अपने पक्षों पर विष्णु को वहन करता है। विष्णु के पार्षदों में मुख्य विष्वक्सेन (विश्वविजेता) तथा अष्ट विभूतियाँ (योग से उपलब्ध होने वाली सिद्धियाँ) हैं।

विष्णुकाञ्ची : तमिल प्रदेश का यह प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ है। शिवकाञ्ची से अलग करने के लिए इसे विष्णुकाञ्ची कहा जाता है। कावेरी नदी दोनों को बीच से विभाजित करती है। शिवकाञ्ची से दो मील दूर विष्णुकाञ्ची है। यहाँ 18 विष्णुमन्दिर हैं। मुख्य मन्दिर देवराज स्वामी का है जिनको प्रायः वरदराज कहा जाता है। वैशाख पूर्णिमा को इस मन्दिर का ब्रह्मोत्सव होता है। यह दक्षिण भारत का सबसे बड़ा उत्सव है। एक मन्दिर में रामानुजाचार्य की प्रतिमा विराजमान है। यहीं महाप्रभु वल्लभाचार्य की बैठक भी है। सप्त मोक्षपुरियों में काञ्ची की भी गणना है।

विष्णुत्रिमूर्तिव्रत : विष्णु भगवान् के तीन रूप हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि उनका अभिव्यक्तीकरण तीन रूपों में होता है। वे हैं वायु, चन्द्र तथा सूर्य। तीनों रूप तीनों लोकों की रक्षा करते हैं। ये ही मनुष्य के शरीर में वात, पित्त तथा कफ के रूप में विद्यमान हैं। इसलिए भगवान् विष्णु के ये ही तीन स्पर्श करने योग्य रूप हैं। ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को उपवास रखते हुए इनका पूजन करना चाहिए। प्रातःकाल भोर में वायु का पूजन तथा मध्यान्ह काल में यव-तिलों से हवन करना चाहिए। सूर्यास्त के समय चन्द्रमा का जल में पूजन करना चाहिए। एक वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए (प्रत्येक शुक्ल पक्ष की तृतीया को)। इस व्रत से आराधक स्वर्ग प्राप्त कर लेता है। यदि वह लगातार तीन वर्षों तक इस व्रत का आचरण करे तो वह 5000 वर्षों तक स्वर्ग में वास करता है।

विष्णुदेवकीव्रत : कार्तिक मास की प्रतिपदा से आरम्भ कर एक वर्ष तक यह व्रत करना चाहिए। पंचगव्य से भगवान् वासुदेव को स्नान कराकर उसी को उस अवसर पर प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिए। बाण के फूलों, चन्दन के प्रलेप तथा अत्यन्त स्वादिष्ट नैवेद्य से पूजा करनी चाहिए। एक मास तक किसी भी प्राणी को (यहाँ तक कि पशु को भी) किसी प्रकार की क्षति न पहुँचायी जाय। इस अवसर पर असत्य भाषण, चौर्य, मांस तथा मधु-भक्षण एकदम निषिद्ध हैं। केवल भगवान् के ध्यान में मग्न रहना चाहिए। शास्त्रों, यज्ञों तथा देवों की निन्दा का परित्याग करना चाहिए। प्रति दिन मौन रहकर नैवेद्य ग्रहण करना चाहिए। मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा अन्य मासों में भी यही विधान रहेगा, केवल पुष्प, धूप तथा नैवेद्य ही परिवर्तित होते रहेंगे। देवकी एक सुन्दर पुत्र चाहती थी। अतएव विष्णु की पूजा करने के लिए इस व्रत का अनुष्ठान उन्होंने किया था।

विष्णुपञ्चक : कार्तिक मास के अन्तिम पाँच दिन विष्णुपञ्चक कहलाते हैं। उन दिनों विष्णु तथा राधा की पञ्चोपचारों (गन्धाक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य) से पूजा करनी चाहिए। इससे समस्त पापों का नाश होता है और व्रती सीधा विष्णुलोक जाता है। पूजा की कुछ विभिन्न पद्धतियों का यहाँ वर्णन किया जा रहा है, यथा एकादशी को पूजन, द्वादशी को गोमूत्रपान, त्रयोदशी को दुग्धाहार, चतुर्दशी को दही का आहार तथा पूर्णिमा को केशव की आराधना करके सायंकाल पञ्चगव्य प्राशन करना चाहिए अथवा तुलसीदलों से हरि का पूजन करना चाहिए। दे० पद्मपुराण, 3.23,1-33।

विष्णुपद अथवा विष्णुपदी : यह चार राशियों का नाम है। यथा वृषभ, सिंह, वृश्चिक तथा कुम्भ। दे० कालनिर्णय., 332।

विष्णुपदव्रत : आषाढ़ मास में पूर्वाषाढ़ नक्षत्र के समय व्रत आरम्भ करना चाहिए। इस अवसर पर दुग्ध अथवा घृत में रखे हुए भगवान् विष्णु के तीन पगों की पूजा करनी चाहिए। व्रती को केवल रात्रि के समय हविष्यान्न ग्रहण करना चाहिए। श्रवण अथवा उत्तराषाढ़ नक्षत्र काल में भगवान् गोविन्द तथा भगवान् विष्णु के तीन पगों की आराधना करनी चाहिए, किन्तु दान और भोजन में अन्तर हो जायगा। भाद्र मास में पूर्वाषाढ़ नक्षत्र के समय, फाल्गुन मास में पूर्वाफाल्गुनी तथा चैत्र में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रों के समय उसी प्रकार की पूजा की जाय। इन आचरणों से व्रती स्वास्थ्य, समृद्धि का लाभ करके अन्त में विष्णुलोक प्राप्त कर लेता है।

विष्णुपुराण : जैसा इसके नाम से ही प्रकट है, यह वैष्णव पुराण है। प्रमुख पुराणों में इसकी गणना है। श्रीमद्भागवत के पश्चात् लोकप्रियता में इसका दूसरा स्थान है। वैष्णव दर्शन के मौलिक सिद्दान्तों का इसमें प्रतिपादन हुआ है। आचार्य रामानुज ने ब्रह्मसूत्र के ऊपर रचित श्रीभाष्य में विष्णुपुराण से अनेक उद्धरण दिये हैं। इससे इसका दार्शनिक महत्त्व प्रकट होता है। यह छः खण्डों में विभक्त है जिनको अंश कहते हैं। इसमें अध्यायों की संख्या 126 है। आकार में यह श्रीमद्भागवत पुराण का एक तिहाई है। प्रथम अंश में सृष्टिवर्णन, द्वितीय अंश में भूगोलवर्णन, तृतीय अंश में आश्रम और वैदिक शाखावर्णन, चतुर्थ में इतिहास, पञ्चम में कृष्ण चरित्र और षष्ठ अंश में प्रलय और भक्ति का वर्णन पाया जाता है। इस पुराण में ज्ञान और भक्ति का सुन्दर समन्वय मिलता है। विष्णु और शिव के अभेद का प्रतिपादन भगवान् कृष्ण के मुख से कराया गया है--

योऽहं स त्वं जगच्चेदं सदेवासुरमानुषम्। मत्तो नान्यदशेषो यत् तत् त्वं ज्ञातुमिहार्हसि॥ अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः। वदन्ति भेदं पश्यन्ति चावयोरन्तरं हर॥ (विष्णुपुराण, 5,33,48--49)

विष्णुप्रबोध : कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान् शय्या त्याग कर जाग जाते हैं। इस कारण इस दिन को विष्णुप्रबोधिनी एकादशी कहा जाता है। संध्या को सुसज्जित मण्डप में पत्र-पुष्प-फलों की प्रथम उपज से पूजन करते हुए विष्णु को जगाया जाता है। दीपमाला जलायी जाती है। इसका नाम 'देवदीपावली'भी है।

विष्णुप्राप्तिव्रत : इस व्रत में द्वादशी के दिन उपवास का विधान है। इस दिन 'नमो नारायणाय' का उच्चारण करके सूर्य को अर्घ्‍य देना चाहिए। श्वेत पुष्पों से विष्णु की पूजा करते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण किया जाय, 'देवाधिदेव' धरा के आधार, हे आशुतोष! इन पुष्पों को स्वीकार कर कृपा कर मेरे ऊपर प्रसन्न होइए।' व्रती को ज्वार, बाजरा (श्यामाक) का भोजन अथवा उस धान्य का आहार करना चाहिए जो 60 दिनों में पक्कर तैयार होता है तथा जो मसालों के साथ बो दिया गया है (मिर्च, धनियाँ, जीरा आदि) या धान अथवा जौ अथवा नीवार (जंगली धान) का आहार करना चाहिए। तदनन्तर व्रत की पारणा करनी चाहिए। इससे व्रती विष्णु लोक प्राप्त कर लेता है।

विष्णुलक्षणवर्तिव्रत : किसी पवित्र तिथि तथा लग्न के समय रुई की धूल तथा तिनके आदि साफ करके चार अंगुल लम्बा धागा काता जाय। इस प्रकार पाँच धागों को कातकर एक बत्ती बनायी जाय़। इस प्रकार की एक लाख बत्तियाँ घी में भिगोकर किसी चाँदी या काँसे के पात्र में रखकर भगवान् विष्णु की प्रतिमा के पास ले जानी चाहिए। इनको ले जाने का सबसे उचित समय कार्तिक, माघ या वैशाख मास है, वैशाख सर्वोत्तम है। प्रति दिन एक सहस्र अथवा दो सहस्र बत्तियाँ विष्णु के सम्मुख प्रज्वलित की जायें। उपर्युक्‍त किसी मासों में से किसी भी मास को व्रत समाप्त कर देना चाहिए। तदनन्तर उद्यापन किया जान चाहिए। आजकल दक्षिण भारत में महिलाओं द्वारा इस व्रत का आयोजन किया जाता है।

विष्णुशङ्करव्रत : इस व्रत में उसी विधि का अनुसारण करना चाहिए जो उमामहेश्वरव्रत के विषय में पीछे कही गयी है। भाद्रपद अथवा आश्विन मास में मृगशिरा, आर्द्रा, पूर्वाफाल्गुनी, अनुराधा अथवा ज्येष्ठा नक्षत्र के अवसर पर इस व्रत का आचरण करना चाहिए। यहाँ अन्तर केवल इतना है कि विष्णु को पीताम्बर धारण कराये जाँयगे तथा दक्षिण में भी विष्णु को सुवर्ण तथा शंकर को मोती भेंट किये जाँयगे।

विष्णुशयनोत्सव : आषाढ़ शुक्ल एकादशी को भगवान् विष्णु का शयनोत्सव मनाया जाता है। यह उत्सव मलमास अथवा पुरुषोत्तम मास में कदापि नहीं मनाया जाना चाहिए। दे० निर्णयसिन्धु, 102। इस समय तक वर्षा प्रारम्भ हो चुकती है और सूर्य मेघाच्छन्न रहता है। विष्णु सूर्य का ही एक रूप है। सूर्य के मेघाच्छन्न होने के कारण यह विश्वास किया जाता है कि विष्णु शयन करने चले गये हैं। यह स्थिति प्रायः कार्तिक शुक्ल एकादशी तक रहती है जब कि निर्मेघ स्वच्छ आकाश में प्रबोध एकादशी के दिन देवोत्थान (विष्णु के जागरण) का उत्सव तथा व्रत मनाया जाता है। दे० 'प्रबोधएकादशी'।

विष्णुश्रृंखलायोग : यदि द्वादशी एकादशी से संयुक्त हो तथा उस दिन श्रवण नक्षत्र हो तो वह विष्णुश्रृंखला कहलाता है। इस व्रत के आचरण से मनुष्य सारे पापों से मुक्त होकर सायुज्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

वीरव्रत : नवमी के दिन व्रती को एकभक्त पद्धति से आहार करके कन्याओं को भोजन कराकर सुवर्ण का कलश, दो वस्त्र तथा सुवर्ण दान करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए। प्रति नवमी को कन्याओं को भोजन कराया जाना चाहिए। इस व्रत से व्रती प्रत्येक जीवन में अत्यन्त रूपवान् होता है और उसे किसी शत्रु से भय आदि नहीं रहता। अन्त में वह शिवजी की राजधानी प्राप्त कर लेता है। ऐसा लगता है कि इस व्रत के देवता या तो शिव हैं या उमा अथवा दोनों ही हैं।

वीरासन : समस्त कृच्छ्रव्रतों में वांछनीय आसन वीरासन कहा जाता है। हेमाद्रि, 1.322 (गरुडपुराण को उद्धृत करते हुए) तथा 2.932। अघमर्षण व्रत में भी इसका उल्लेख मिलता है। अघमर्षण का उल्लेख शंखस्मृति, 18.2 में आया है। इससे समस्त पापों का नाश होता है।

वृक्षोत्सवविधि : भारत में वृक्षारोपण को अत्यन्त महत्व दिया जाता है मत्स्यपुराण। (59, श्लोक 1-20)। ठीक वैसे ही पद्मपुराण (5.24,192-211) में वृक्षोत्सव के विधान के विषय में पर्याप्त सामग्री प्राप्त होती है। संक्षेप में उसकी विधि यह है कि सर्वोषधियों से युक्त जल से वृक्षों को उद्यानों को तीन दिन सींचा जाय। सुगन्धित चूर्ण से तथा वस्त्रों से वृक्षों का श्रृंगार करना चाहिए। सुवर्ण की बनी हुई (कान छेदने वाली) सुई से वृक्षों को छेदकर उनमें सुनहरी पेंसिल से सिन्दूर भर देना चाहिए। वृक्षों से बने मचानों पर सात या आठ सोने के फल लगाये जाँय तथा वृक्षों के नीचे कुछ ऐसे कलश भी स्थापित किये जाँय जिनमें सुवर्णखण्ड पड़े हों। इन्द्र तथा लोकपालों के लिए वनस्पतियों के निमित्त हवन करना चाहिए।

अतिथि, ब्राह्मणों को दूध से परिपूर्ण भोजन कराया जाय। इस अवसर पर जौ, काले तिल तथा सरसों से हवन करना चाहिए। हवन में पलाश की समिधाएँ प्रयुक्त की जायें। चौथे दिन व्रतोत्सव आयोजित हो। इससे व्रत अपनी समस्त मनःकामनाओं की पूर्ति होते हुए देखता है।

मत्स्यपुराण (154.512) के अनुसार एक पुत्र दस गहरे जलाशयों के समान है तथा एक वृक्ष का आरोपण दस पुत्रों के बराबर है। वराहपुराण (172.36-37) में कहा गया है कि जैसे एक अच्छा पुत्र परिवार की रक्षा करता है, उसी प्रकार एक वृक्ष, जिस पर फल-फूल लदे हों, अपने स्वामी को नरक में गिरने से बचाता है। पाँच आम के पौधे लगाने वाला कभी नरक जाता ही नहीं : 'पञ्चाम्रवापी नरकं न याति।' विष्णुधर्म० (3.297-13) के अनुसार 'एक व्यक्ति द्वारा पालित पोषित वृक्ष एक पुत्र के समान या उससे भी कहीं अधिक महत्त्व रखता है। देवगण इसके पुष्पों से, यात्री इसकी छाया में बैठकर, मनुष्य इसके फल-फूल खाकर इसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं। अतः वृक्षारोपण करने वाले व्यक्ति को कभी नरक में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

वृन्ताकत्यागविधि : वृन्ताक (बैंगन या भंटा) फल के भक्षण का पूरे जीवन के लिए अथवा एक वर्ष या छः मास या तीन मास के लिए त्याग करना इस व्रत में विहित है। इसमें एक रात्रि को भरणी अथवा मघा नक्षत्र के समय उपवास करना चाहिए। यमराज, काल, चित्रगुप्त, मृत्यु एवं प्रजापति को एक वेदी पर स्थापित कर उनकी प्रार्थना करते हुए गन्ध, अक्षतादि से पूजन करना चाहिए। तिल तथा घी से 'नीलाय स्वाहा, यमाय स्वाहा' कहकर होम करना चाहिए और इसी प्रकार स्वाहा शब्द नीलकण्ठ, यमराज, चित्रगुप्त, वैवस्वत के साथ जोड़कर हवन करना चाहिए। इस तरह 108 आहुतियाँ दी जाँय। तदनन्तर सोने के बने हुए वृन्ताक, श्यामा गौ, साँड़, अँगूठियाँ, कान के आभूषण, छाता, पादुका, एक जोड़ी कपड़े तथा एक काले कम्बल का दान करना चाहिए। ब्राह्मणों को भोजन देना चाहिए। इस अवसर पर ब्राह्मण का कर्त्तव्य स्वस्तिवाचन करना है। जो व्यक्ति जीवनपर्यन्त बैंगन नहीं खाता वह सीधा विष्णु लोक जाता है। जो व्यक्ति एक वर्ष या एक मास के लिए इसका त्याग करता हैं उसे यम की राजधानी में उपस्थित नहीं होना पड़ता। यह प्रकीर्णक व्रत है।

वृन्दावन : मथुरा से सात मील उत्तर यमुनातट पर वृक्ष-लता-कुञ्च-कुटीरों से शोभायमान विख्यात वैष्णव तीर्थ। वृन्दावन का महत्त्व इसलिए है कि भगवान् कृष्ण ने यहीं पर गोचारण की अनेकों बाललीलाएँ तथा गोपियों के साथ महारास की लीला की थी। पूर्व जन्म में जालन्धर की पत्नी वृन्दा थी। भगवत्कृपा से वह विष्णुप्रिया बन गयी। उसको विष्णु का वरदान मिला। असंख्य गोपियों के रूप में वह व्रज में अवतरित हुईं। उसके नाम से ही विहारस्थल का नाम वृन्दावन पड़ा। यह संतों और भक्तों की सिद्ध भजनस्थली भी रही है। एक से एक बढ़कर गोपाल कृष्ण के हजारों मन्दिर यहाँ भक्तों की भावना के स्मारक बने हुए हैं। साधुओं के अखाड़े, आश्रम, कुटी, कुंज, भजनाश्रम, रासमण्डल, व्रजरज और घाटों से इस स्थान की शोभा निराली हो गयी है।

आध्यात्मिक अर्थ में ब्रह्म और जीव के तादात्म्य की यह रासस्थली (अनुभवभूमि) है। बालकृष्ण की लीलाभूमि वृन्दावन कृष्णभक्तों तथा सभी वैष्णवों के लिए अति आकर्षणपूर्ण पुण्य स्थल है। मुसलमानी आक्रमणकारियों ने इसके पूर्व गौरवशाली रूप को विकृत कर दिया था। किन्तु फिर अनेक सम्प्रदायों तथा उनके सरक्षकों के द्वारा इसके पुण्यस्थलों का उद्धार हुआ है। प्रसिद्ध चैतन्यानुयायी रूप तथा सनातन गोस्वामी आदि वैष्णवों ने तो वृन्दावन को ही अपन कार्यस्थल बनाया। इन लोगों ने इसके माहात्म्य को और भी बढ़ाया। अनेकों कृष्णभक्त कवि, गायक, सन्त आदि के नामों से यह स्थान संबंधित है। अकबर के शासन काल में अनेक राजपूत राजाओं तथा अन्य भक्तों के दान से यहाँ अनेकों भव्य मन्दिर बने। इस निर्माण में उपर्युक्त चैतन्य सम्प्रदाय के गोस्वामी लोगों का बड़ा हाथ था।

वृन्दावनद्वादशी : कार्तिक शुक्ल द्वादशी को वृन्दावनद्वादशी कहते हैं। इस व्रत के अनुष्ठान का प्रचार केवल तमिलनाडु में है।

वृषोत्सर्ग : वृष अथवा साँड़ का उत्सर्ग (त्याग)= दान'। चैत्र या कार्तिक पूर्णिमा को अथवा रेवती नक्षत्र में साँड को छोड़ना वृषोत्सर्गव्रत कहलाता है। तीन वर्ष में एक बार ऐसा करना चाहिए। साँड़ भी तीन वर्ष की अवस्था का होना चाहिए। तीन वर्ष की अवस्था वाली चार या आठ गौएँ साँड़ के साथ छोड़ दी जानी चाहिए। सामान्य रूप से किसी पुरुष की मृत्यु के ग्यारहवें दिन साँड़ छोड़ने का प्रचलन है।

वेङ्कटगिरि : सुदूर दक्षिण के आन्ध्र देश का एक तीर्थस्थल। यह कालहस्ती से 15 मील दूर स्थित है। यहाँ काशीपेठ में काशीविश्वेश्वर शिव का मन्दिर है। यह मूर्ति काशी से लाकर स्थापित की गयी है। अन्नपूर्णा, कालभैरव, सिद्धविनायक आदि की मूर्तिया भी यहाँ दर्शनीय हैं।

वेङ्कटेश्वर (तिरुपति) : आन्ध्र देशस्थ वेङ्कटाद्रि पर विराजमान भगवान् वेङ्कटेश्वर के मन्दिर में शिव औऱ विष्णु की एकता आज भी प्रत्यक्ष है। यह मन्दिर तिरुपति पहाड़ी पर स्थित है। यह दक्षिण भारत का सर्वाधिक लोकपूजित और वैभवशाली तीर्थ है। पहले इसमें वैखानससंहिता के आधार पर पूजा होती थी, जबकि तमिल देश के अधिकांश मन्दिरों में पाञ्चरात्र संहिताओं के आधार पर पूजा होती थी। काञ्चीवरम्, श्रीपेरुम्बुदूर के मन्दिरों में भी वेंकटेश्वरमन्दिर के समान वैखानससंहिता का अनुसरण होता था। बाद में रामानुज स्वामी ने वेंकटेश्वर में प्रचलित वैखानस विधि को हटाकर पाञ्चरात्र विधि प्रचलित करायी थी।

वेद : तैत्तिरीय संहिता, आपस्तम्ब धर्मसूत्र, मनुस्मृति, नाट्यशास्त्र, अमरकोश आदि में 'वेद' शब्द की व्युत्पत्ति बतलायी गयी है। यह शब्द चार धातुओं से व्युत्पन्न होता है--- (1) विद् (ज्ञाने) (2) विद् (सत्तायाम्) (3) विद् (लाभे) और (4) विद् (विचारणे)। 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 'वेद' शब्द का निर्वचन निम्नांकित प्रकार से किया है :

विदन्ति जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ते लभन्ते, विन्दन्ति विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सत्यविद्याम् यैर्येषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति, ते वेदाः।

[जिनसे सभी मनुष्य सत्य विद्या को जानते हैं, अथवा प्राप्त करते हैं, अथवा विचारते हैं, अथवा विद्वान् होते हैं अथवा सत्य विद्या की प्राप्ति के लिए जिनमें प्रवृत्त होते हैं, उनको वेद कहते हैं।] परन्तु यहाँ पर जिस ज्ञान का संकेत किया गया है वह सामान्य ज्ञान नहीं है, यद्यपि वैदिक साहित्य में सामान्य ज्ञान का अभाव नहीं। यहाँ ज्ञान का अभिप्राय मुख्यतः ईश्वरीय ज्ञान है, जिसका साक्षात्कार मानवजीवन के प्रारम्भ में ऋषियों को हुआ था। मनु (1.7) ने तो वेदों को सर्वज्ञानमय ही कहा है।

वेद` शब्द का प्रयोग पूर्व काल में सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय के अर्थ में होता था, जिसमें संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् सभी सम्मिलित थे। कथित है--`मन्त्रब्राह्णयोर्वेदनामधेयम्`, अर्थात् मन्त्र और ब्राह्मणों का नाम वेद है। यहाँ ब्राह्मण में आरण्यक और उपनिषद् का भी सामवेश है। किन्तु आगे चलकर `वेद` शब्द केवल चार वेदसंहिताओं; ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ही द्योतक रह गया। ब्राह्मण, आरण्‍यक और उपनिषद् वैदिक वाङ्मय के अङ्ग होते हुए भी मूल वेदों से पृथक् मान लिये गये। सायणाचार्य ने तैत्तिरीयसंहिता की भूमिका में इस तथ्य का स्पष्टीकरण किया है: `यद्यपि मन्त्रब्राह्मणात्मको वेदः तथा ब्राह्मणस्य मन्त्रव्याख्यानस्वरूपत्वाद् मन्त्रा एवादौ समाम्नाताः।` अर्थात् यद्यपि मन्त्र और ब्राह्मण दोनों का नाम वेद है, किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों के मन्त्र के व्याख्यान रूप होने के कारण (उनका स्थान वेदों के पश्चात आता है और) आदि वेदमन्त्र ही हैं। इस वैदिक ज्ञान का साक्षात्कार, जैसा कि पहले कहा गया है, ऋषियों को हुआ था। जिन व्यक्तियों ने अपने योग और तपोबल से इस ज्ञान को प्राप्त किया वे ऋषि कहलाये, इनमें पुरुष स्त्रियाँ दोनों थे। वैदिक ज्ञान जिन ऋचाओं अथवा वाक्यों द्वारा हुआ उनको मन्त्र कहते हैं। मन्त्र तीन प्रकार के हैं--(1) ज्ञानार्थक (2) विचारार्थक और (3) सत्कारार्थक। इनकी व्युत्पत्ति इस प्रकार से बतलायी गयी है : दिवादिगण की मन् धातु (ज्ञानार्थ प्रतिपादक) में ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से `मन्त्र` शब्द व्युत्पन्न होता है, जिसका अर्थ है--`मन्यते (ज्ञायते) ईश्वरादेशः अनेन इति मन्त्रः`। इससे ईश्वर के आदेश का ज्ञान होता है, इसलिए इसको मन्त्र कहते हैं। तनादिगण की मन् धातु (विचारार्थक) में ष्‍ट्रन प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द बनता है, जिसका अर्थ हैं--`मन्यते (विचार्यते) ईश्वरादेशो येन स मन्त्रः`, अर्थात् जिसके द्वारा ईश्वर के आदेशों का विचार हो वह मन्त्र है। इस प्रकार तनादिगण की ही मन् धातु (सत्कारार्थक) में ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द बनता है, जिसका अर्थ `मान्यते (सत्क्रियते) देवताविशेषः अनेन इति मन्त्रः` है, अर्थात् जिसके द्वारा देवता विशेष का सत्कार हो वह मन्त्र है। वेदार्थ जानने के लिए तीनों व्युत्पत्तियाँ समीचीन जान पड़ती हैं। परन्तु सबको मिलाकर यही अर्थ निकलता है कि वेद वह है जिसमें ईश्वरीय ज्ञान का प्रतिपादन हो।

वेदों का वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया है--त्रिविध और चतुर्विध। पहले में सम्पूर्ण वेदमन्त्रों को तीन वर्गों में विभक्त किया गया है--(1) ऋक् (2) यजुष् और (3) साम। इन्हीं तीनों का संयुक्त नाम त्रयी है। ऋक् का अर्थ है प्रार्थना अथवा स्तुति। यजुष् का अर्थ है यज्ञ-यागादि का विधान। साम का अर्थ है शान्ति अथवा मंगल स्थापित करने वाला गान। इसी आधार पर प्रथम तीन संहिताओं के नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद पड़े। वेदों का बहुप्रचलित औऱ प्रसिद्ध विभाजन चतुर्विध है। पहले वैदिक मन्त्र मिले-जुले और अविभक्त थे। यज्ञार्थ उनका वर्गीकरण कर चार भागों में बाँट दिया गया, जो चार वेदों के नाम से प्रसिद्ध हुए-- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद औऱ अथर्ववेद। ऋक्, यजुष् तथा साम को अलग-अलग करके प्रथम तीन वेद बना दिये गये। किन्तु वैदिक वचनों में इनके अतिरिक्त भी बहुत सामग्री थी, जिसका सम्बन्ध धर्म, दर्शन के अतिरिक्त लौकिक कृत्यों औऱ अभिचारों (जादू-टोना आदि) से था। इन सबका समावेश अथर्ववेद में कर दिया गया। इस चतुर्विध विभाजन का उल्लेख वैदिक साहित्य में ही मिल जाता है :

यस्मादृचो अयातक्षन् यजुर्यस्मादपकषन्। सामानि यस्य लोमानि अथर्वाङ्गिरसों मुखम्। स्क्मभं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः॥ (अथर्व० 10.4.20)

परन्तु चारों वेदों का सम्यक् विभाजन और सम्पादन वेदव्यास ने किया। यास्क ने निरुक्त (1.20) और भास्कर भट्ट ने यजुर्वेदभाष्य की भूमिका में इसका उल्लेख किया है। भाष्यकार महीधर ने और विस्तार से इसका उल्लेख किया है : `तत्रादी ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन् मनुष्यान् विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजुःसामाथर्वाक्यांश्चतुरो वेदान् पैल-वैशम्पायन-जैमिनि-सुमन्तुभ्यः क्रमादुपदिदेश।`

प्रत्येक वेद से जो वाङ्मय विकसित हुआ उसके चार भाग हैं--(1) संहिता (2) ब्राह्मण (3) आरण्यक और (4) उपनिषद्। संहिता में वैदिक स्तुतियाँ संगृहीत हैं। ब्राह्मण में मन्त्रों की व्याख्या और उनके समर्थन में प्रवचन दिये हुए हैं। आरण्यक मं वानप्रस्थियों के उपयोग के लिए अरण्यगान और बिधि-विधान हैं। उपनिषदों में दार्शनिक व्याख्याएं प्रस्तुत की गयी हैं।

वैदिक अध्ययन और चिन्तन के फलस्वरूप उनकी कई शाखाएँ विकसित हुईं, जिनके नाम पर संहिताओं के नाम पड़े। इनमें से कालक्रम से अनेक संहिताएँ नष्ट हो गयीं, परन्तु कुछ अब भी उपलब्ध हैं। ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ थीं--(1) शाकल (2) वाष्कल (3) आश्वलायन (4) शाखायन और (5) माण्डूक्य। इनमें अब शाकल शाखा ही उपलब्ध है। शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन औऱ काण्व दो शाखाएँ हैं। माध्यन्दिन उत्तर भारत तथा काण्व महाराष्ट्र में प्रचलित है। कृष्ण यजुर्वेद की इस समय चार शाखाएँ उपलब्ध हैं : (1) तैत्तिरीय (2) मैत्रायणी (3) काठक और (4) कठ। सामवेद की दो शाखाएँ उपलब्ध हैं-- (1) कौथुमी औऱ (2) राणायनीय। अथर्ववेद की उपलब्ध शाखाओं के नाम पैप्पलाद तथा शौनक हैं। (चारों वेदों की जानकारी के लिए उनके नाम के साथ यथास्थान देखिए।)

वेद का चतुर्विध विभाजन प्रायः यज्ञ को ध्यान में रखकर किया गया था। यज्ञ के लिए चार ऋत्विओं की आवश्यकता होती है--(1) होता (2) अध्वर्यु (3) उद्गाता और (4) ब्रह्मा। होता का अर्थ है आह्वान करने वाला (बुलानेवाला)। होता यज्ञ के अवसर पर विशिष्ट देवता के प्रशंसात्मक मन्त्रों का उच्चारण कर उस देवता का आह्वान करता है। ऐसे मन्त्रों का संग्रह जिस संहिता में है उसका नाम ऋग्वेद है। अध्वर्यु का काम यज्ञ का सम्पादन है। उसके लिए आवश्यक मन्त्रों का संकलन जिस संहिता में है उसका नाम यजुर्वेद हैं। उद्गाता का अर्थ है उच्च स्वर से गाने वाला, उसके उपयोग के लिए मन्त्रों का संग्रह जिस संहिता में है उसका नाम सामवेद है। ब्रह्मा का काम अध्यक्षपद से सम्पूर्ण यज्ञ का निरीक्षण करना है। वह चारों वेदों का ज्ञाता होता है। अथर्ववेद में अन्य तीनों वेदों की सामग्री से अतिरिक्त कुछ और भी है। अतः ब्रह्मा का विशिष्ट वेद अथर्ववेद है।

वेद के प्रकारों के बारे में शतपथ ब्रा० में लिखा है कि अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद और सूर्य से सामवेद प्राप्त हुए हैं। मनुसंहिता के अनुसार तो ऋक्, यजुः और साममन्त्रों को ही त्रिवृद्वेद कहते हैं। मुण्डकोपनिषद् में ऋक् आदि चार वेदों को अपरा विद्या कहा गया है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास और पुराणादि अपरा विद्या हैं। वेदों की नित्यता प्रमाणित करते हुए कहा जाता है कि ज्ञानरूप वेद प्रलय के समय भी ओंकार रूप में वर्तमान रहते हैं। ऐसे अनादि, अनश्वर और नित्य ब्रह्मवाक्य को सृष्टि की प्रथम अवस्था में रचित आदिविद्या कहा जाता है जो सकल प्रपंचविस्तारक है।

मनुष्य द्वारा न रचे जाने और ईश्वरकृत होने का कारण ही वेदों को अपौरुषेय कहते हैं। ब्रह्मस्वरूप और नित्य ज्ञान का विस्तार वेदों द्वारा ही होता है। ऋषि लोग वेद के द्रष्टा मात्र हैं। वेद नित्य हैं इसलिए समाधिस्थ ऋषियों के अन्तःकरण में ही उनका प्रकाश होता है। ऋषियों को वेदों का ज्ञान प्रलयकालोपरान्त ब्रह्माजी से तपस्या द्वारा प्राप्त हुआ था।

वेद की नित्यता इसलिए स्वीकार की जाती है कि वेद ज्ञानरूप हैं। वे ज्ञानरूप ईश्वर के हृदय में प्रलयदशा में स्थित रहते हैं। यह निष्क्रिय दशा परमात्मा की श्वासहीन योगनिद्रा है। ईश्वर की जाग्रत अवस्था सृष्टि है और निद्रावस्था प्रलय। प्रलयोपरान्त जब प्रलयविलीन प्राणियों का संस्कार क्रियोन्मुख होता है तब भगवान् अपनी योगनिद्रा छोड़कर सृष्टि की इच्छा करते हैं। यह श्वासयुक्त सृष्टि की अवस्था उनकी सिसृक्षा कही जाती है। वेद में जो भगवान् की 'एकोऽहं बहु स्यां प्रजायेय' इच्छा व्यक्त की गयी है वह एकता से अनेकता की ओर उन्मुख होकर प्रजासृष्टि की ही इच्छा है।

मनुसंहिता में कहा गया है कि सिसृक्षा से परमात्मा द्वारा जल की सृष्टि हुई; यह 'अप्' साधारण जल नहीं हो सकता। यह वस्तुतः समष्टि संस्कार रूप 'कारणवारि' है। परमात्मा सिसृक्षा से सर्वप्रथम इन संस्कारों को उद्बुद्ध करते हैं, फिर उनमें क्रियाशक्ति का बीज आरोपित करते हैं। यहृ क्रियाशक्ति परिपुष्ट होकर देदीप्यमान सूर्य की तरह चमकती है, जिससे ब्रह्माजी की उत्पत्ति होती है। यह सृष्टि की प्रारंभिक अवस्था है। यह मनुष्य के मन और वाणी की पहुँच से बाहर है। यह मन और वाणी से परे ब्रह्माजी का सूक्ष्म शरीर ज्योतिर्मय कारणवारि में क्रियाशालिनी समष्टि प्राणशक्ति के रूप में स्थित रहता है।

मुण्डकोपनिषद् के एक मंत्र की व्याख्या करते हुए स्वामी शंकराचार्य ने बड़ा ही सुन्दर तर्क दर्शाया है कि भूतयोनि ब्रह्मतपस्या से उद्भूत है। इससे मूल तत्त्व (अन्न) विकसित होता है। फिर यह अव्याकृत प्रकृति (अन्न) समष्टि प्राणरूप हिरण्यगर्भ को उत्पन्न करती है। यह हिरण्यगर्भ श्रुतियों के अनुसार ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर ही है, जिसमें सृष्टिकारिणी क्रियाशक्ति विराजमान है। इससे मन, सत्य और लोक की सर्वप्रथम सृष्टि हुई। ब्रह्मा के इस सूक्ष्म शरीर में सर्वप्रथम परमात्मा ने ज्ञानरूप वेदराशि का संचार किया। इसीलिए वेदों को अपौरुषेय कहा जाता है।

जिस प्रकार ब्रह्माण्डप्रकृति में व्यापक प्राण ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर है और उसी के अंशभूत जगत् प्राणियों के प्राण हैं, उसी तरह समष्टि अन्तःकरण ही ब्रह्मा का स्वरूप माना जाना चाहिए। इस समष्टि व्यापक अन्तःकरण से व्यष्टि अन्तःकरण की स्थिति है। इसीलिए वाजसनेयी ब्राह्मणोपनिषद् में ब्रह्मा को 'अन्तःकरण' और 'मुक्ति' की संज्ञा दी गयी है। इसी तरह उन्हें 'मनी महान् मतिर्ब्रह्मा' कहा गया है। यहाँ मन शब्द मूलतः करणवाचक है, इसलिए ब्रह्मा को मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार इन चार तत्त्वों से युक्त चतुर्मुख कहा गया है। यह समष्टि अन्तःकरण-रूपी ब्रह्मा का अंश ऋषिरूपी व्यष्टि में व्याप्त रहता है। जब ऋषि लोग तपस्या और योगसाधना के द्वारा समाधिस्थ हो जाते हैं उसी अवस्था में उन्हें सब वेदमंत्रों का साक्षात्कार होता है। बात यह है कि सामान्य रूप से इन्द्रियसापेक्ष व्यष्टि, व्यापक, अन्तःकरण से विच्छिन्न होने के कारण अल्पज्ञ रहता है, पर जितेन्द्रिय योगी समष्टि अन्तःकरण के साथ मिलकर समाधिस्थ हो जाते हैं। वे सूक्ष्म रूप से ब्रह्मा के साथ एकात्मा होने के कारण वेद का दर्शन करते हैं। अतएव ब्रह्मा के द्वारा वेद की प्राप्ति या ऋषियों के समाधिस्थ अन्तःकरण में वेद की उपस्थिति एक ही स्तर की बात है। साथ ही यह भी है कि अपौरुषेय वेद परमात्मा के जिस भाव से प्रकट होता है उसे ऋषि लोग भी समाधिस्थ होकर प्राप्त करते हैं। वस्तुतः जीव औऱ ब्रह्म एक ही है। अविद्या के कारण केवल जीव देश, काल औऱ वस्तु के द्वारा परमात्मा से अलग है और परमात्मा इन सब मायाराज्यों से परे है। पर समाधि की दशा में व्यष्टि अन्तःकरण समष्टि अन्तःकरण में विलीन हो जाता है और ब्रह्म तथा जीव में एकत्व की स्थिति आ जाती है। इसी दशा में वेद का ज्ञान होता है। निष्कर्ष यह है कि परमात्मा के निश्वास रूप प्रकाशित वेद, ब्रह्मा के हृदय तथा देवर्षियों या ब्रह्मार्षियों के अन्तःकरण में भी एक ही भूमि से प्राप्त होते हैं। इसलिए उन्हें अपौरुषेय कहा जाता है।

प्रकृतिविलास और प्रकृतिलय के अनुसार परमात्मा के तीन भाव अध्यात्म अधिदैव औऱ अधिभूत हैं। अध्यात्मभाव में मायातीत और मन-वाणी से अगोचर, निर्गुण, निष्क्रिय परब्रह्मा आता है। अधिदैव भाव में माया का अधिष्ठाता, सृष्टि का कर्ता, उसकी स्थिति तथा प्रलय का संचालक ईश्वर है। अधिभूत भाव में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड स्वरूप विराट् का रूप आता है। इन तीन भावों के अनुसार संसार भी त्रिगुणात्मक है। वस्तुतः कार्यकारण का विस्तार मात्र होता है, अतएव दोनों में समान भावों की स्थिति होना स्वाभाविक है। कार्यब्रह्म में प्रकृति और पुरुष की लीला का पर्यवसान गुण और भावों की लीला के रूप में होता है। अतएव प्रकृति-पुरुष को आधार मानने वाले मुक्तिकामी साधक को प्रत्येक वस्तु में त्रिगुण और त्रिभाव देखना पड़ता है। इसी प्रकार ज्ञानराशि भी वही पूर्ण है जिसमें अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव तीनों भावों की पूर्णता हो।

वेदों में भी आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों अर्थों का सन्निवेश है। स्मृतियों के अनुसार अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत--तीनों भावों से सम्पन्न अमृतमयी श्रुति ज्ञानी महात्मा के लिए ब्रह्मानन्द का आस्वादन कराती है। अतः वेद तीन अर्थों और तीन भावों से सम्पन्न है। आज के मनुष्यों की दृष्टि एकांगी है और इस दृष्टि की अपूर्णता के कारण भ्रमवश वे वेदमंत्रों का पूर्ण अर्थ नहीं लगा पाते। वे प्रायः इनके अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत में से किसी एक का ही अर्थ लगा लेते हैं। पर वेद की अपौरुषेयता के कारण यह सब अनर्गल है। वेद में तीनों भावों का एक साथ अर्थ लगाना चाहिए। बृहदारण्यकोपनिषद् के अनुसार देवता और असुर दोनों ही प्रजापति के द्वारा उत्पन्न किये गये भाई हैं। असुर देवों के बड़े भाई और दोनों ही एक-दूसरे से स्पर्धा करते हैं। देवासुरसंग्राम इसी का परिणाम है। इस बात को ब्रह्म के तीनों भावों की भूमिका पर रखकर देखना होगा। दैवी सम्पत्ति वालों और आसुरी सम्पत्ति वालों का पारस्परिक संघर्ष इसका अधिभूत अर्थ कहा जायेगा, और इसी तरह देवलोक में तमोगुणी असुरों तथा सत्त्वगुणी देवों का पारस्परिक संघर्ष अधिदैव अर्थभूत देवासुरसंग्राम है। तीसरे अध्यात्म के क्षेत्र में मानसिक कुमति और सुमति का द्वन्द्व आध्यात्मिक देवासुरसंग्राम है। इस प्रकार वेदमन्त्रों का तीन भावों की दृष्टि से अर्थ लगाया जा सकता है। इस तरह वेद में त्रिगुण और त्रिभाव की पूर्णता है। इसलिए वेद को अपौरुपेय कहा जाता है।

वेद को समझने के लिए सर्वप्रथम शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष नामक छः शास्त्रों के अंगों का अध्ययन आवश्यक है। इसके उपरान्त वैदिक सप्त दर्शनों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। इनमें से एक के भी अभाव में साधक का ज्ञान अपूर्ण रहेगा। उपर्युक्त षडंग तथा सप्तदर्शन की तात्विक ज्ञानभूमि पर प्रतिष्ठित होकर ही मनुष्य वेदाध्ययन का अधिकारी बन सकता है। ज्ञानार्जन का अदिकारी होने पर उसे कर्म, उपासना और ज्ञान की सहायता से अपना चित्त निर्मल करना होगा, तभी वेद समझा जा सकता है।

वेदत्रयी : प्रारम्भ में वेदमन्त्र अपने छान्दस् रूप में अविभक्त थे। उनमें पद्य और गद्य दोनों प्रकार की सामग्री सम्मिलित थी। फिर धीरे-धीरे उनका वर्गीकरण करके तीन विभाग किये गये--ऋक्, यजु और साम। यही तीन वेदत्रयी कहलाते हैं। पहले विभाग का अर्थ है स्तुति अथवा प्रार्थना, दूसरे का अर्थ है यज्ञों में विनियोग करने वाले गद्यमय मन्त्र अथवा वाक्य और तीसरे विभाग का अर्थ है गान। वैदिक मन्त्रों को इन्हीं तीन मूल भागों में बाँटा जा सकता है। कुछ विद्वान अथर्ववेद को इससे पृथक् समझते हैं, किन्तु वास्तव में अथर्ववेद इन्हीं तीनों से बना हुआ संग्रह है। यह वेद का चतुर्विध नहीं अपितु त्रिविध विभाजन है।

वेदव्यास : व्यास का अर्थ है 'सम्पादक'। यह उपाधि अनेक पुराने ग्रन्थकारों को प्रदान की गयी है, किन्तु विशेषकर वेदव्यास उपाधि वेदों को व्यवस्थित रूप प्रदान करने वाले उन महर्षि को दी गयी है जो चिरंजीव होने के कारण 'शाश्वत' कहलाते हैं। यही नाम महाभारत के संकलनकर्ता, वेदान्तदर्शन के स्थापनकर्ता तथा पुराणों के व्यवस्थापक को भी दिया गया है। ये सभी व्यक्ति वेदव्यास कहे गये हैं। विद्वानों में इस बात पर मतभेद है कि ये सभी एक ही व्यक्ति थे अथवा विभिन्न। भारतीय परम्परा इन सबको एक ही व्यक्ति मानती है। महाभारतकार व्यास ऋषि पराशर एवं सत्यवती के पुत्र थे, ये साँवले रंग के थे तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप में उत्पन्न हुए थे। अतएव ये साँवले रंग के कारण 'कृष्ण' तथा जन्मस्थान के कारण 'द्वैपायन' कहलाये। इनकी माता ने बाद में शान्तनु से विवाह किया, जिनसे उनके दो पुत्र हुए, जिनमें बड़ा चित्राङ्गद युद्ध में मारा गया और छोटा विचित्रवीर्य संतानहीन मर गया। कृष्ण द्वैपायन ने धार्मिक तथा वैराग्य का जीवन पसंद किया, किन्तु माता के आग्रह पर इन्होंने विचित्रवीर्य की दोनों सन्तानहीन रानियों द्वारा नियोग के नियम से दो पुत्र उत्पन्न किये जो घृतराष्ट्र तथा पाण्डु कहलाये, इनमें तीसरे विदुर भी थे। पुराणों में अठारह व्यासों का उल्लेख है जो ब्रह्मा या विष्णु अवतार कहलाते हैं एवं पृथ्वी पर विभिन्न युगों में वेदों की व्याख्या व प्रचार करने के लिए अवतीर्ण होते हैं।

वेदव्रत : यह चतुर्मूर्तिव्रत है। मनुष्य को चैत्र मास से ऋग्वेद की पूजा करके नक्त विधि से आहार कर वेदपाठ श्रवण करना चाहिए। ज्येष्ठ मास के अन्तिम दिन दो वस्त्र, सुवर्ण, गौ, घी से परिपूर्ण काँसे के पात्र का दान विहित है। आषाढ़, श्रावण तथा भाद्रपद मास में उसे यजुर्वेद की पूजा और श्रवण करना चाहिए। आश्विन, कार्तिक तथा मार्गशीर्ष में सामवेद की तथा पौष, माघ एवं फाल्गुन में समस्त वेदों की पूजा एवं पाठ श्रवण करना चाहिए। वस्तुतः यह भगवान् वासुदेव की ही पूजा है जो समस्त वेदों के आत्मा है। यह व्रत 12 वर्षपर्यन्त आचरणीय है। इसके आचरण से व्रती समस्त संकटों से मुक्त होकर विष्णुलोक प्राप्त कर लेता है।

वेदसार वीरशैवचिन्तामणि : यह नञ्जनाचार्य विरचित वीर शैव सम्प्रदाय का एक प्रमुख ग्रन्थ है।

वेदाचार : तान्त्रिक गण सात प्रकार के आचारों में विभक्त हैं। कुलार्णवतन्त्र के मत से वेदाचार श्रेष्ठ हैं, वेदाचार से वैष्णवाचार उत्तम हैं, वैष्णवाचार से शैवाचार उत्कृष्ट हैं, शैवाचार से दक्षिणाचार महान् है, दक्षिणाचार से वामाचार श्रेष्ठ है, वामाचार से सिद्धान्ताचार उत्तम है तथा सिद्धान्ताचार की अपेक्षा कौलाचार परम उत्तम है।

प्राणतोषिणीधृत नित्यानन्दतन्त्र में लिखा है कि शिव पार्वती से कह रहे हैं : `हे सुन्दरि! वेदाचार का वर्णन करता हूँ, तुम सुनो। साधक ब्राह्म मुहूर्त में उठे और गुरु के नाम के अन्त में आनन्दनाथ बोलकर उनको प्रणाम करे। फिर सहस्रदल पद्म में उनका ध्यान करके पञ्च उपचारों से पूजा करे और वाग्भव बीज का जप करके परम कलाशक्ति का ध्यान करे।` महाराष्ट्र के वैदिकों में वेदाचार का प्रचार है।

वेदाङ्ग : वेदों के सहायक शास्त्र, जिनकी संख्या छः है। वेदों के पाठ, अर्थज्ञान, यज्ञों में उनकी उपयोगिता आदि जानने के लिए इन छः शास्त्रों की आवश्यकता होती है : (1) शिक्षा (2) कल्प (3) व्याकरण (4) निरुक्त (5) छन्द और (6) ज्योतिष। जैसे मनुष्य के आँख, कान, नाक, मुख, हाथ और पाँव होते हैं वैसे ही वेदों के लिए आँख ज्योतिष है, कान निरुक्त है, नाक शिक्षा है मुख व्याकरण है, हाथ कल्प हैं और पाँव छन्द हैं (पाणिनीय शिक्षा 41-42)। उच्चारण के सम्बन्ध में उपदेश शिक्षा है। यज्ञ-यागादि कर्म सम्बन्धी विधि कल्प है। शब्दों के सम्बन्ध में विचार व्याकरण है और उनकी व्युत्पत्ति और अर्थ के सम्बन्ध में विचार निरुक्त है। वैदिक छन्दों के सम्बन्ध का ज्ञान छन्द अथवा पिङ्गल है। यज्ञ-यागादि करने के योग्य अयन ऋतु, संवत्सर, मुहूर्त का विचार और तत्सम्बन्धी ज्ञान ज्योतिष है। वेद के ज्ञान की पूर्ति इन विषयों का अलग अलग अध्ययन किये बिना नहीं हो सकती। (वेदाङ्गों का विस्तृत परिचय उनके नामगत परिचय में देखिए।)

वेदान्त : यह शब्द 'वेद' और 'अन्त' इन दो शब्दों के मेल से बना है, अतः इसका वाक्यार्थ वेद अथवा वेदों का अन्तिम भाग है। वैदिक साहित्य मुख्यतः तीन भागों में विभक्त है, पहले का नाम है 'कर्मकाण्ड', दूसरे का नाम है 'ज्ञानकाण्ड', तीसरे का नाम है 'उपासनाकाण्ड'। साधारणतः वैदिक साहित्य के ब्राह्मण भाग को, जिसका सम्बन्ध यज्ञों से है, कर्मकाण्ड कहते हैं और उपनिषदें ज्ञानकाण्ड कहलाती हैं, जिसमें उपासना भी सम्मिलित है। अन्त शब्द का अर्थ क्रमशः 'तात्पर्य', 'सिद्धान्त' तथा 'आन्तरिक अभिप्राय' अथवा मन्तव्य भी किया गया है। उपनिषदों के मार्मिक अध्ययन से पता चलता है कि उन ऋषियों ने, जिनके नाम तथा जिनका मत इनमें पाया जाता है, अन्त शब्द का अर्थ इसी रूप में किया है। उनके मत के अनुसार वेद वा ज्ञान का अन्त अर्थात् पर्यवसान ब्रह्मज्ञान में है। देवी-देव, मनुष्य, पशु-पक्षी, स्थावर-जङ्गमात्मक सारा विश्वप्रपञ्च, नाम-रूपात्मक जगत् ब्रह्म से भिन्न नहीं; यही वेदान्त अर्थात् वेदसिद्धान्त है। जो कुछ दृष्टिगोचर होता है, जो कुछ नाम-रूप से सम्बोधित होता है, उसकी सत्ता ब्रह्म की सत्ता से भिन्न नहीं है। मनुष्य का एक मात्र कर्त्तव्य ब्रह्मज्ञान प्राप्ति, ब्रह्ममयता, ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति है। यही एक बात वेदों का मौलिक सिद्धान्त अन्तिम तात्पर्य तथा सर्वोच्च-सर्वमान्य अभिप्राय है। यही वेदान्त शब्द का मूलार्थ है। इस अर्थ में वेदान्त शब्द से उपनिषद् ग्रन्थों का साक्षात् बोध होता है। परवर्ती काल में वेदान्त का तात्पर्य वह दार्शनिक सम्प्रदाय भी हो गया जो उपनिषदों के आधार पर केवल ब्रह्म की ही एक मात्र सत्ता मानता है। कई सूक्ष्म भेदों के आधार पर इसके कई उपसम्प्रदाय भी हैं, जैसे अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैतवाद आदि।

वेदान्तकल्पतरु : अद्वैत वेदानत का एक ग्रन्थ, जिसकी रचना 1260 ई० के कुछ पूर्व अमलानन्द द्वारा हुई। ब्रह्मसूत्रभाष्य के ऊपर यह वाचस्पति मिश्र की 'भामती' टीका की व्याख्या है।

वेदान्तकल्पतरुपरिमल : भामती'- व्याख्या 'वेदान्तकल्पतरु' की यह अप्पयदीक्षित कृत टीका है।

वेदान्तकल्पलतिका : स्वामी मधुसूदन सरस्वतीकृत वेदान्तविषयक एक ग्रन्थ। इसका रचनाकाल 1550 ई० के आसपास है।

वेदान्तकारिकावली : विशिष्टाद्वैत वेदान्ती बुच्चि वेङ्कटाचार्य ने वेदान्तकारिकावली ग्रन्थ की रचना की। इसमें रामानुजाचार्यसम्मत पदार्थों और सिद्धान्तों का सारांश लिखा गया है। यह ग्रन्थ पद्य में है। बुच्चि वेङ्कटाचार्य रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी थे।

वेदान्तकौस्तुभ : निम्बार्क सम्प्रदाय के द्वितीय आचार्य श्रीनिवास विरचित वेदान्तसूत्र का तार्किक भाष्य। यह द्वैताद्वैत सिद्धान्त का अधिकारी ग्रन्थ है। रचना सुदीर्घ, गम्भीर तथा दार्शनिकों में बहु आदृत है। रचनाकाल लगभग 12 वीं शताब्दी था।

वेदान्तकौस्तुभप्रभा : निम्बार्क सम्प्रदाय के द्वितीय आचार्य श्रीनिवासकृत 'वेदान्तकौस्तुभ' भाष्य की व्याख्या, जिसके रचयिता केश्व काश्मीरी भट्ट हैं। इनका समय सोलहवीं शताब्दी का आरम्भिक काल था। केशव काश्मीरी जितने उच्च कोटि के दार्शनिक और दिग्विजयी विद्वान् थे उससे अधिक कृष्ण भगवान् के गम्भीर उपासक थे।

वेदान्तजाह्नवी : द्वैताद्वैतवादी वैष्णव सिद्धान्त के अनुसार रची गयी वेदान्तसूत्र की एक टीका। इसके लेखक श्रीदेवाचार्य ने निम्बार्कमत का प्रतिपादन करते हुए प्रस्तुत ग्रन्थ में अद्वैतवाद का खण्डन किया है।

वेदान्ततत्त्वबोध : निम्बार्काचार्य विरचित ग्रन्थों में इसका नाम भी लिया जाता है। सम्भवतः इसके रचनाकार सम्प्रदाय के कोई परवर्ती आचार्य हैं।

वेदान्ततत्वविवेक : भट्टोजिदीक्षित विरचित एक अद्वैतवेदान्त का ग्रन्थ। आचार्य दीक्षित सुप्रसिद्ध वैयाकरण होने के साथ ही मीमांसक और वेदान्ती भी थे। इन्होंने दो वेदान्तग्रन्थ लिखे हैं। इनमें वेदान्तकौस्तुभ तो प्रकाशित है, वेदान्ततत्त्वविवेक संभवतः अभी तक प्रकाशित नहीं है।

वेदान्तदर्शन : वह विद्या अथवा शास्त्र, जो वेद के अन्तिम अथवा चरम तत्त्व का विवेचन करता है, वेदान्तदर्शन कहलाता है। उपनिषदों के ज्ञान को एकत्र समन्वित करने के लिए महर्षि बादरायण ने 'ब्रह्मसूत्र' या 'वेदान्तसूत्र' लिखा। इसी को वेदान्तदर्शन कहा जाता है। उपनिषदों या वेदों के त्त्वज्ञान को समन्वित कहा जाता है। उपनिषदों या वेदों के तत्त्वज्ञान को समन्वित करने वाली भगवद्गीता भी है। कुछ लोगों के मत से वह स्वयं उपनिषद् है। अतः ये तीनों वेदान्त के प्रस्थानत्रय कहे जाते हैं। इस प्रकार उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र औऱ गीता इन तीनों को या इनमें से किसी एक को प्रधान मानर चलने वाले दार्शनिकों के सिद्धान्त को वेदान्तदर्शन कहा जाता है। शंकर, भास्कर, रामानुज, निम्बार्क, मध्व, श्रीकण्ठ, श्रीपति, वल्लभ, विज्ञानभिक्षु और बलदेव 'ब्रह्मसूत्र' के प्रसिद्ध भाष्यकार हुए हैं।

इन सभी भाष्यकारों ने ब्रह्मसूत्र की व्याख्या अपने अपने ढंग से की है। वेदान्तसूत्रों को बिना किसी भाष्य के समझना कठिन है। शङ्कर, निम्बार्क, रामानुज, मध्व एवं वल्लभ में से प्रत्येक को कुछ न कुछ लोग वेदान्त सूत्र का सर्वश्रेष्ठ भाष्यकार कहते हैं। इनमें शाङ्कर भाष्य सबसे प्राचीन है। अतः प्रायः शंकर के दर्शन को ही बादरायण का दर्शन माना जाता है। अपने देश तथा पाश्चात्य देशों में भी लोग शङ्कर के ही दर्शन को वेदान्तदर्शन मानते हैं।

ब्रह्मसूत्र के सभी भाष्यकारों में इस बात पर मतैक्य है कि वेदान्त का मुख्य सिद्धान्त ब्रह्मवाद है और इसकी सुन्दर तथा पर्याप्त अभिव्यक्ति 'ब्रह्मसूत्र' के प्रथम चार सूत्रों या चतुःसूत्री में हो गयी है। (1) 'अथातो ब्रह्माजिज्ञासा' (2) 'जन्माद्यस्य यतः' (3) 'शास्त्रयोनित्वात्' और (4) 'तत्तु समन्वयात्', ये ही चार सूत्र हैं। इनका अर्थ है---(1) वेदान्त समझने के लिए 'ब्रह्म की जिज्ञासा' होनी चाहिए। (2) ब्रह्म वह है जो जगत् का मूल स्रोत, आधार तथा लक्ष्य है। जगत् उसी से बनता है, उसी में स्थित है तथा उसी में इसका लय भी होगा। (3) ब्रह्म को शास्त्र से ही अर्थात् उपनिषदों (वेदवचनों) से ही जाना जा सकता है। (4) उपनिषदों का समन्वय वेदान्त की शिक्षा से होता है, अन्य दर्शनों की शिक्षा से नहीं।

ब्रह्म का स्वरूप, ब्रह्म औऱ जगत् का सम्बन्ध, ब्रह्म और जीव का सम्बन्ध, केवल ज्ञान से मुक्ति या भक्ति-कर्म-समुच्चित ज्ञान से मुक्ति, जीवन्मुक्ति या विदेह मुक्ति या सद्योमुक्ति आदि वेदान्तियों के मतभेद के मुख्य विषय हैं।

ब्रह्मसूत्र का दार्शनिक मत निम्नलिखित है--ब्रह्म एक है तथा निराकार (अकल) है। वह श्रुतियों का स्रोत है तथा सर्वज्ञ है, उसे केवल शास्त्रों के द्वारा जाना जा सकता है, वह सृष्टि का उपादान एवं अन्तिम कारण है, वह इच्छारहित है तथा क्रियाहीन है। उसके दृश्य कार्य लीला हैं। विश्व का, जिसकी उसके द्वारा समय समय पर सृष्टि होती है, आदि व अन्त नहीं है। शास्त्र भी शाश्वत है। देवता हैं तथा वे वेदविहित यज्ञों में दिये गये पदार्थों से अपना भाग प्राप्त करते हैं। जीवात्मा भी वास्तव में नित्य, ज्ञानमय एवं सर्वव्याप्त है। यह ब्रह्म का ही अंश है; यह ब्रह्म है। इसका व्यक्तित्व केवल दृष्टिभ्रान्ति है। यज्ञ मनुष्य को ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने में सहायता पहुँचाते हैं, मोक्ष केवल ज्ञान से ही प्राप्त होता है। ब्रह्म से ही कार्यों का फल प्राप्त होता है, और इसी कारण से पुनर्जन्म एवं उसी से मोक्ष भी मिलता है।

वेदान्तसूत्रों को भाष्य के विना समझना बड़ा कठिन है। इसीलिए अनेक विद्वानों ने इस पर भाष्य प्रस्तुत किये हैं। वे दो श्रेणियों में रखे जा सकते हैं : (1) जो शङ्कराचार्य (788-820 ई०) के मतानुगामी हैं एवं जीवात्मा को ब्रह्मस्वरूप मानते हैं तथा एक अद्वैत तत्त्व को स्वीकार करते हुए भौतिक जगत् को माया मात्र बतलाते हैं। (2) जो ब्रह्म को सगुण साकार मानते हैं, विश्व को न्यूनाधिक सत्य मानते हैं, जीवात्मा को ब्रह्म से भिन्न मानते हैं। इस श्रेणी के प्रतिनिधि रामानुजाचार्य हैं जो 1100 ई० के लगभग हुए थे। ह्विटने ने इस प्रश्न पर विस्तृत विवेचन किया है कि शङ्कर तथा रामानुज में से कौन ब्रह्मसूत्र के समीप है। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ब्रह्मसूत्र की शिक्षाओं तथा रामानुज के मतों में अधिक सामीप्य है, अपेक्षाकृत शङ्कर के। दूसरी तरफ वह शङ्कर की शिक्षाओं को उपनिषदों की शिक्षा के समीप ठहरता है। इस तथ्य की कल्पना वह इस बात से करता है कि सूत्रों की शिक्षा भगवद्गीता से कुछ सीमा तक प्रभावित है।

जीवात्मा तथा ब्रह्म के सम्बन्ध को लेकर तीन सिद्धान्त जो परवर्ती भाष्यों में पाये जाते हैं, वे बादरायण के पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा ही स्थापित हैं। आश्मरथ्य के मतानुसार न तो आत्मा ब्रह्म से भिन्न है, न अभिन्न है; इस सिद्धान्त को भेदाभेद की संज्ञा दी गयी है। औडुलोमि के अनुसार आत्मा ब्रह्म से बिलकुल भिन्न है; उस समय तक जब तक कि यह मोक्ष प्राप्त कर उसमें विलीन नहीं होता। इस मत को सत्यभेद या द्वैतवाद कहते हैं। काशकृत्सन के मतानुसार आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल अभिन्न है। इस प्रकार वे अद्वैत मत के संस्थापक हैं।

वेदान्तदेशिक : एक प्रसिद्ध विशिष्टाद्वैती आचार्य। इनका अन्य नाम था वेङ्कटनाथ (देखिए 'वेङ्कटनाथ वेदान्तचार्य')। मीमांसादर्शन अनीश्वरवादी कहा जाता है, क्योंकि इसने कहीं भी परमात्मा को स्वीकार नहीं किया है। किन्तु स्मार्तों को इससे बाधा नहीं पड़ती एवं वे सभी उपनिषद्वर्णित ब्रह्म को स्वीकार करते हैं। वेदान्तदेशिक ने अपनी 'सेश्वरमीमांसा' (जो जैमिनीय मीमांसासूत्रों की व्याख्या है) में दर्शाया है कि मीमांसाचार्य कुमारिल भट्ट ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं तथा अन्य विद्वान् भी यह मानते हैं कि इसके सिद्धान्तों में सर्वत्र ईश्वरतत्त्व विराजमान है।

वेदान्तपरिभाषा : धर्मराज अध्वरीन्द्र इस सुप्रसिद्ध ग्रन्थ के प्रणेता थे। यह अद्वैत सिद्धान्त का अत्यन्त उपयोगी प्रकरण ग्रन्थ है। इसके ऊपर बहुत सी टीकाएँ हुई हैं, और भिन्न भिन्न स्थानों से इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं। अद्वैत वेदान्त का रहस्य समझने के लिए इसका अध्ययन बहुत उपयोगी है।

वेदान्तपारिजातसौरभ : चार वैष्णव संप्रदायों के एक प्रधान आचार्य निम्बार्क का निर्विवाद रूप से एक ही दार्शनिक ग्रन्थ 'वेदान्तपारिजातसौरभ' प्राप्त है। यह वेदान्तसूत्र की संक्षिप्त व्याख्या है। श्रीनिवासाचार्य ने इसका विस्तृत भाष्य 'वेदान्तकौस्तुभ' नाम से लिखा है तथा उस पर काश्मीरी केशवाचार्य ने प्रभा नामक प्रखर व्याख्या लिखी है।

वेदान्तप्रदीप : रामानुजाचार्य द्वारा विरचित एक ग्रन्थ। इसमें इन्होंने यादवप्रकाश के मत का खण्डन किया है। यादवप्रकाश अद्वैतवादी आचार्य थे जिनके पास प्रारम्भ में रामानुज ने शिक्षा पायी थी। किंवदन्ती है कि यादवप्रकाश आगे चलकर रामानुज के शिष्य हो गये।

वेदान्तरत्न : निम्बार्काचार्य द्वारा केवल दस पद्यों में सूत्र रूप से विरचित 'वेदान्तरत्न' के अन्य नाम 'वेदान्तकामधेनु', 'दशश्लोकी' एवं 'सिद्धान्तरत्न' भी हैं।

वेदान्तरत्नमञ्जूषा : पुरुषोत्तमाचार्य विरचित वेदान्तरत्न मञ्जूषा वेदान्तकामधेनु या दशश्लोकी का भाष्य है। इसमें निम्बार्कीय द्वैताद्वैत मत की व्याख्या की गयी है।

वेदान्तविजय : दोद्दय भट्टाचार्य रामानुजदास कृत वेदान्तविजय में रामानुजमत की पुष्टि की गयी है।

वेदान्तसार : (1) सदानन्द योगीन्द्र द्वारा रचित (16वीं शता) अद्वैत वेदान्त का सुप्रचलित प्रकरण ग्रन्थ। यह सरल होने के साथ ही लोकप्रिय भी है। नृसिंह सरस्वती ने इसकी सुबोधिनी नामक टीका लिखी है। रामतीर्थ स्वामी ने भी इसकी टीका लिखी है।

(2) रामानुजाचार्य की प्रमुख कृतियों में एक प्रसिद्ध ग्रन्थ वेदान्तसार है।

वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली : इस ग्रन्थ के रचयिता हैं, प्रकाशानन्द यति। इसकी विवेचनशैली बहुत युक्तियुक्त, पाण्डित्यपूर्ण और प्राञ्जल है। इसमें गद्य में विवेचना करके पद्य में सिद्धान्त निरूपण किया गया है। इसके ऊपर अप्पयदीक्षित की सिद्दान्तदीपिका नाम की वृत्ति है। इसका अंग्रेजी अनुवाद भी हो चुका है।

वेदान्तसूत्र : वेदान्तसूत्र को ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। इसके रचयिता बादरायण व्यास हैं। इन्होंने उपनिषदों की समग्र दार्शनिक सामग्री का आलोचना कर इसकी रचना की, जो वेदान्त की 'प्रस्थानत्रयी' का दूसरा प्रस्थान है। यह चार अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। शङ्कराचार्य के अनुसार ब्रह्मसूत्रों की अधिकरणसंख्या 191, बलदेवभाष्य के अनुसार 198, श्रीकण्ठ के अनुसार 182, रामानुज के अनुसार 156, निम्बार्क के अनुसार 151, वल्लभाचार्य के अणुभाष्य के अनुसार 162 और मध्व के अनुसार 223 है। प्रचलित पाठ के अनुसार ब्रह्मसूत्रों की सूत्रसंख्या 556 होनी चाहिए।

इसके प्रथम अध्याय का नाम 'समन्वय' है। इसमें ब्रह्म के सम्बन्ध में विभिन्न श्रुतियों का समन्वय किया गया है। दूसरा अध्याय 'अविरोध' है, जिसमें अन्य दर्शनों का खण्डन कर युक्ति और प्रमाणों से वेदान्तमत की स्थापना की गयी है। तीसरे अध्याय का नाम 'साधन' है। इसमें जीव और ब्रह्म के लक्षणों का प्रतिपादन है तथा मुक्ति के बहिरंग एवं अन्तरंग साधनों का विवेचन है। ब्रह्मसूत्र के चौथे अध्याय का नाम 'फल' है। इसमें जीवन्मुक्ति, निर्गुणसगुण उपासना तथा मुक्त पुरुष का वर्णन है।

वेदान्तसूत्रभाष्य : (1) (अन्य नाम शारीरक भाष्य) के रचयिता शङ्कराचार्य हैं। यह अद्वैत वेदान्त मत की स्थापना करता है।

(2) आचार्य मध्वरचित वेदान्तसूत्रभाष्य का नाम 'पूर्णप्रज्ञ भाष्य' है। यह द्वैतवाद का प्रतिपादक है।

(3) आचार्य रामानुज के वेदान्तसूत्रभाष्य का नाम 'श्रीभाष्य' है।

(4) निम्बार्काचार्य के संक्षिप्त वेदान्तसूत्र भाष्य या विवृत्ति का नाम 'वेदान्तपारिजात सौरभ' है।

(5) वल्लभाचार्यरचित वेदान्तसूत्रभाष्य को 'अणुभाष्य' कहते हैं। इसका रचनाकाल पन्द्रहवीं शताब्दी का अन्त या 16वीं का प्रारम्भ है।

(6) आचार्य बलदेव विद्याभूषण (अठारहवी शती) कृत वेदान्तसूत्रभाष्य का नाम 'वेदान्तस्यमन्तक' है। यह गौडीय चैतन्य मतानुसार लिखा गया है।

वेदान्ताचार्य : वेदान्ताचार्यों की परम्परा का प्रारम्भ बादरायण के ब्रह्मसूत्र रचनाकाल के बहुत पहले हो चुका था। कहा जा चुका है कि बादरायण के पूर्व अनेक आचार्य वेदान्त के सम्बन्ध में विभिन्न मतों के मानने वाले हो चुके थे। बादरायण ने केवल उन सबके मतों का अपने सूत्रों में संकलन और समन्वय किया है। इन आचार्यों के नाम स्थान-स्थान पर सूत्रों में आ गये हैं। इस परम्परा का क्रम आज तक चला आ रहा है। इस लम्बी परम्परा को कालक्रम से तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं :

(1) बादरायण के पूर्व के वेदान्ताचार्य--जिनमें बादरि, कार्ष्णाजिनि, आत्रेय, औडुलोमि, आश्मरथ्य, काशकृत्स्न, जैमिनि, काश्यप एवं बादरायणि के नाम हैं।

(2) बादरायण के पश्चात् एवं शङ्कर के पूर्व के वेदान्ताचार्य--शङ्कर ने अपने भाष्य में इनकी चर्चा की है तथा दार्शनिक साहित्य में भी इनका जहाँ तहाँ उल्लेख मिलता है। ये हैं भर्तृप्रपंच, ब्रह्मनन्दी, टङ्क, गुहदेव, भारुचि, कपर्दी, उपवर्ष, बोधायन, भर्तृहरि, सुन्दर पाण्ड्य, द्रमिडाचार्य, ब्रह्मदत्त आदि।

(3) शङ्कर के पश्चाद्वर्ती वेदान्ताचार्य--ये दो विभागों में विभाजित हैं; शङ्करमतानुयायी तथा रामानुजमतानुयायी। इन सभी आचार्यों का यहाँ वर्णन उपस्थित करना पुनरावृत्ति होगी। इनका परिचय यथास्थान देखिए।

वेदार्थसंग्रह : आचार्य रामानुज द्वारा रचित दार्शनिक ग्रन्थों में तीन अति महत्‍त्वपूर्ण हैं--(1) वेदार्थसंग्रह (2) श्रीभाष्य (वेदान्तसूत्र का भाष्य) और (3) गीताभाष्य। वेदार्थसंग्रह में आचार्य ने यह दिखाने की चेष्टा की है कि उपनिषदें शुष्क अद्वैत मत का प्रतिपादन नहीं करतीं। सुदर्शन व्यास भट्टाचार्य ने वेदार्थसंग्रह की तात्पर्यदीपिका नामक टीका लिखी है।

वेदि (वेदिका) : यज्ञाग्नि या कलश आदि स्थापित करने का छोटा चबूतरा। वैदिक काल में यज्ञ खुले मैदान में यज्ञकर्त्ता के घर के समीप आच्छादित मण्डप के नीचे होता था। 'वेदि' शब्द उस क्षेत्र का बोधक है जिसके ऊपर यज्ञ क्रिया सम्पन्न होती थी। इसके ऊपर (वेदि पर) कुश बिछाये जाते थे जिससे देवता आकर उस पर बैठें; फिर उस पर यज्ञसामाग्री--दुग्ध, घृत, अन्न, पिण्डादि रखे जाते थे। वेदि पर ही यज्ञाग्नि प्रज्वलित कर यज्ञसामग्रियों का हवन अध्वर्यु द्वारा होता था। इसकी निर्माणविधि शुल्वसूत्रों से निर्धारित होती है।

वेदेश : आचार्य वेदेशतीर्थ मध्वमतावलम्बी हरिभक्त थे। इन्होंने पदार्थकौमुदी, तत्त्वोद्योतटीका की वृत्ति, कठोपनिषद् वृत्ति, केनोपनिषद् वृत्ति तथा छान्दोग्योपनिषद् आदि की वृत्ति विरचित की है। इनका समय प्रायः अठारहवीं शती था।

वेश्याव्रत : वेश्याओं को अपने उद्धार के लिए गौओं, खेतों, देवोद्यान तथा सुवर्णादि का दान करना चाहिए तथा जिस रविवार को हस्त, पुष्य या पुनर्वसु नक्षत्र हो उस दिन वे सर्वोषधि युक्त जल से से स्‍नान करें। स्नानोपरान्त कामदेव का आपाद-मस्तक पूजन करें तथा कामदेव को विष्णु भगवान् ही मानें। एक वर्ष के लिए विष्णुपूजा का नियम पालें, तेरहवें मास पर्यङ्कोपयोगी वस्त्र, सुवर्णश्रृंखला तथा कामदेव की प्रतिमा का दान करें। यह व्रत समस्त वेश्याओं के लिए उपयोगी है। अनङ्ग (प्रेम का देवता) ही इसका देवता है। कृत्यकल्पतरु (व्रतकाण्ड, 27-31) में इस व्रत का उल्लेख मिलता है।

वैकुण्ठ : आगमसंहिताओं के सिद्धान्तानुसार वैकुण्ठ सबसे ऊँचे स्वर्ग को कहते हैं। कोई जीवात्मा ज्ञानलाभ तथा मोक्ष प्राप्ति ईश्वरकृपा के बिना नहीं कर सकता। ईश्वरकृपा और भक्ति से वह ईश्वर में विलीन नहीं होता, अपितु वैकुण्ठ में ईश्वर का सायुज्य प्राप्त करता है।

वैकुण्ठचतुर्दशी : (1) कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी। इस दिन भगवान् विष्णु की पूजा रात्रि में की जानी चाहिए। दे० नीर्णयसिन्धु, 206।

(2) कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को हेमलम्ब संवत्सर के समय भगवान् विश्वेश्वर ने ब्राह्म मुहूर्त में काशी के मणिकार्णिका तीर्थ में स्नान किया था। उन्होंने पाशुपत व्रत भी किया था तथा उमा के साथ विश्वेश्वर की पूजा तथा स्थापना भी की थी।

वैखानस : (1) वानप्रस्थ (तृतीय आश्रमी) के लिए प्रारम्भ में वैखानस शब्द का प्रयोग होता था। वैखानस 'विखनस्' से बना है, जिसका अर्थ नियमों का परम्परागत रचयिता है। गौतमधर्मसूत्र (3.26) में उपर्युक्त अर्थ में यह शब्द व्यवहृत हुआ है।

(2) पौराणिक ऋषियों का समूह, जो पञ्चविंश ब्राह्मण (14.4.7) के अनुसार 'रहस्य देवमलिम्लुच' द्वारा मुनि मरण नामक स्थान पर मारा गया था। तैत्तिरीय आ० (1.23.3) में भी इसकी चर्चा है। इनमें से एक व्यक्ति वैखानसपुरुहन्ता कहा जाता था।

वैखानसगृह्यसूत्र : यह कृष्ण यजुर्वेद का एक गृह्यसूत्र है।

वैखानसधर्मसूत्र : पाँच प्रारम्भिक धर्मसूत्रों में से एक। यह सभी शाखाओं के लिए उपयोगी है। द्वितीय श्रेणी के धर्मसूत्रों में भी यह मुख्य समझा जाता है।

वैखानससंहिता : आगमसंहिताएँ दो प्रकार की हैं, पाञ्चरात्र और वैखानस। किसी वैष्णव मन्दिर में पाञ्चरात्र तथा किसी में वैखानससंहिताएं प्रमाण मानी जाती हैं। वैखानससंहिताएँ और उनमें भी विशेषतः भागवतसंहिता नाम की एक विशेष संहिता हरि-हर की एकता सम्पादन करने के लिए लिखी गयी जान पड़ती है।

वैतरणीव्रत : मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी को वैतरणी तिथि कहा गया है। उस दिन व्रतकर्ता नियमों का पालन (कुछ प्रतिषिद्ध आचरणों का त्याग) करे। रात्रि के समय एक श्यामा गौ की मुख की ओर से प्रारम्भ कर पूँछ तक के भाग की पूजा करनी चाहिए। उसके चरणों तथा सींगों को चन्दन से सुवासित जल से धोना तथा पौराणिक मन्त्रों से उसके शरीरावयवों की आराधना करनी चाहिए। चूँकि नरक लोक में मनुष्य गौ की सहायता से ही वैतरणी नदी को पार करता है, अतएव यह एकादशी, जिसको गौ की पूजा होती है, वैतरणी एकादशी कहलाती है। इस व्रत का आयोजन वर्ष के चार-चार मासों के तीन भागों में करना चाहिए। मार्गशीर्ष मास के प्रथम भाग में उबाला हुआ चावल, द्वितीय में पकाया हुआ जौ तथा तृतीय भाग में खीर अर्पित करनी चाहिए। कुल नैवेद्य का सवाया भाग गौ को, सवाया भाग पुरोहित को तथा शेष भाग स्वयं व्रती को ग्रहण करना चाहिए। वर्ष के अन्त में पर्यङ्कोपयोगी वस्त्र, सोने की गौ तथा एक द्रोण लोहा पुरोहित को दान करना चाहिए।

वैतानश्रौतसूत्र : अथर्ववेद का एक मात्र श्रौतसूत्र यही उपलब्ध है।

वैदिकशाक्तमत : निगमानुमोदित तान्त्रिक विधान ही वैदिक शाक्तमत, दक्षिण मार्ग अथवा दक्षिणाचार कहा जाता है। ऋग्वेद के आठवें अष्टक के अन्तिम सूक्त में `इयं शुष्मेभिः` प्रभृति मन्त्रों से पहले नदी का स्तवन है, फिर देवता रूप में महाशक्ति एवं सरस्वती का स्तवन है। सामवेद वाचयमव्रत में `हुवाइ वाम्` इत्यादि तथा ज्योतिष्टोम में `वाग्विसर्जन` स्तोम आता है। अरण्यगान में भी इसके गान हैं। यजुर्वेद के एक स्थल (2.2) में `सरस्वत्यै स्वाहा` मन्त्र से आहुति देने का विधान है, पाँचवें अध्याय के सोलहवें मन्त्र में पृथिवी और अदिति देवियों की चर्चा है। सत्रहवें अध्याय, मन्त्र 55 में पाँचों दिशाओं से विघ्न-बाधा निवारण के लिए इन्द्र, वरुण, यम, सोम, ब्रह्मा, इन पाँच देवताओं की शक्तियों (देवियों) का आवाहन किया गया है। अथर्ववेद के चौथे काण्ड के तीसवें सूक्त में (अहं रुद्रेभिः वसुभिः चरामि अहम् आदित्यै रुत विश्वदेवैः) महाशक्ति कहती है कि मैं समस्त देवताओं के साथ हूँ, सबमें व्याप्त रहती हूँ। केनोपनिषद् में `बहु शोभमाना उमा हैमवती` ब्रह्मविद्या महाशक्ति द्वारा प्रकट होकर ब्रह्म निदेश करना वर्णित है। अथर्वशीर्, देवीसूक्त और श्रीसूक्त तो शक्ति के ही स्तवन हैं। वैदिक शाक्त घोषित करते हैं कि दशोपनिषदों में दसों महाविद्याओं का ब्रह्मरूप में वर्णन है। इस प्रकार शाक्तमत का आधार श्रुति ही है।

देवीभागवत, देवीपुराण, कालिकापुराण, मार्कण्डेयपुराण शक्ति के माहात्म्य से ही व्याप्त है। महाभारत तथा रामायण में देवी की स्तुतियाँ हैं और अद्भुत रामायण में तो अखिल विश्व की जननी सीताजी का परात्पर शक्तिवाला रूप प्रकट करके बहुत सुन्दर स्तुति की गयी है। प्राचीन पाञ्चरात्र मत का 'नारदपञ्चरात्र' प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ है। उसमें दसों महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गयी है। निदान, श्रुति-स्मृति में शक्ति की उपासना जहाँ-तहाँ उसी प्रकार प्रकट है, जिस तरह विष्णु और शिव की उपासना देखी जाती है। इससे स्पष्ट है कि शाक्तमत के वर्तमान साम्प्रदायिक रूप का आधार श्रुतिस्मृति है और यह मत उतना ही प्राचीन है जितना वैदिक साहित्य। उसकी व्यापकता तो इतनी है कि जितने सम्प्रदायों का वर्णन ऊपर किया गया है वे सब बिना अपवाद के अपने उपास्य की शक्तियों को परम उपास्य मानते हैं और एक न एक रूप में शक्ति की उपासना करते हैं। जहाँ तक शैवमत वेदबोधित नियमों पर आधारित है, वहाँ तक शाक्तमत भी वैसा ही नियमानुमोदित है।

इस वैदिक शाक्तमत का प्रचार यहाँ से पार्श्ववर्ती देशों में हुआ तथा इसी की तरह चीन आदि देशों से भारत में वामाचार का भी आगमन हुआ।

वैतानसूत्र : अथर्ववेद के पाँच सूत्र ग्रन्थ हैं--कौशिकसूत्र, वैतानसूत्र, नक्षत्रकल्पसूत्र, आङ्गिरसकल्पसूत्र और शान्तिकल्पसूत्र। 'वैतानसूत्र' में अयनान्त निष्पाद्य, त्रयीविहित दर्शपूर्णमासयज्ञादि कर्मों के ब्रह्मा, ब्राह्मणाच्छंसी, आग्नीध्र और होता इन चार ऋत्विजों के कर्तव्य बताये गये हैं।

वैदिकसिद्धान्तसंग्रह : अद्वैत मतावलम्बी नृसिंहाश्रम सरस्वती के ग्रन्थों में यह रचना बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु और शिव की एकता सिद्ध की गयी है और बतलाया गया है कि ये तीनों एक ही परब्रह्म की अभिव्यक्ति मात्र है।

वैद्यनाथधाम : बिहार प्रदेशस्थ प्रसिद्ध शैव तीर्थ। वैद्यनाथ द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में है। 51 शक्तिपीठों में यह एक पीठ भी है। कुछ लोग हैदराबाद के समीपस्थ परली वैद्यनाथ को द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में मानते हैं। किन्तु "वैद्यनाथं चिताभूमौं" के अनुसार यही मुख्य वैद्यनाथ है। इस स्थान का अन्य नाम देवघर है। अपनी कामनाओं को पूर्ण करने के लिए लोग मन्दिर में धरना देकर निर्जल पड़े रहते हैं। जो बराबर टिके रहते हैं उनकी कामना पूर्ण होती है। यहाँ दर्शनीय स्थान गौरीमन्दिर, कार्तिकेयमन्दिर आदि हैं।

वैनायकीचतुर्थी : प्रत्येक चतुर्थी को यह व्रत होता है। इसमें दिन में उपवास तथा रात में चन्द्रोदय के पश्चात् भोजन करने की विधि है।

वैयासिकन्यायमाला : व्यास रचित ब्रह्मसूत्र के विषयों की माला। आचार्य भारती तीर्थ शाङ्करमत के अनुयायी थे। उन्होंने इस मत की व्याख्या करने के लिए ही 'वैयासिकन्यायमाला' की रचना की। शाङ्करमतानुसार ब्रह्मसूत्र का तात्पर्य समझने के लिए यह ग्रन्थ बड़ा उपयोगी माना जाता है। यह ग्रन्थ सरल और सुबोध गद्य-पद्यों में लिखा गया है।

वैरदेय : संहिताओं तथा ब्राह्मणों में इसका अर्थ ऐसा धन है, जो किसी मनुष्य का प्राण लेने के बदले में उसके सम्बन्धियों को देना पड़े। यह अर्थ आपस्तम्ब तथा बौधायन सूत्रों में भी प्रयुक्त हुआ है। दोनों ने ही क्षत्रिय की हत्या के लिए 1000 गौएँ, वैश्य के लिए 100 गौएँ तथा शूद्र के लिए 10 गौएँ हर्जाना निश्चित किया है तथा प्रत्येक दशा में एक बैल भी देने का निर्देश किया है। यह अर्थदान 'वैरनिर्यातन' के लिए होता था।

ऋग्वेद में (2.32.4) एक व्यक्ति के बदले में 100 गौओं के दान का निर्देश है। इसे शतदाय कहते थे। निस्सन्देह यह मूल्य घटता-बढ़ता था। किन्तु ऐतरेय ब्राह्मण में शुनःशेप के क्रय के बदले 100 गौओं का दाय वर्णित है। यजुर्वेद में पुनः 'शतदाय' उद्धृत हुआ है। परवर्ती काल में हत्या के लिए दण्ड और प्रायश्चित दोनों का विधान था।

वैरागी : स्वामी रामानन्द ने जो सम्प्रदाय स्थापित किया उसके संन्यासियों के लिए उन्होंने सरल अनुशासन (पवित्रता औऱ आचार के सात्विक नियम) निश्चित किये। ये संन्यासी रामानन्दी वैष्णव वैरागी कहलाते हैं। ये विरक्त साधु होते हैं तथा इनके मठ काशी, अयोध्या चित्रकूट, मिथिला तथा अन्य स्थानों में हैं।

वैशम्पायन : वेदव्यास के चार वैदिक शिष्यों में यजुर्वेद के मुख्य अध्येता। महीधर ने अपने यजुर्भाष्य में लिखा है कि वैशम्पायन ने याज्ञवल्क्य आदि शिष्यों को वेदाध्ययन कराया। पीछे किसी कारण उन्होंने क्रुद्ध होकर याज्ञवल्क्य से अपना पढ़ाया हुआ वेद वापस माँगा। योगी याज्ञवल्क्य ने विद्या को मूर्तिमती करके वमन कर दिया। वैशम्पायन ने अपने अन्य शिष्यों को इन वान्त यजुओं को ग्रहण करने की आज्ञा दी। उन्होंने तीतर बनकर उनको चुन लिया। इसीलिए इसका नाम 'तैत्तिरीय संहिता' पड़ा। प्राचीन काल के दो धनुर्वेद ग्रन्थों का उद्धरण बहुत प्राप्त होता है, वे हैं वैशम्पायन का धनुर्वेद तथा वृद्ध शार्ङ्गधर का धनुर्वेद। अष्टाध्यायी के सूत्रों में पाणिनि ने जिन पूर्व वैयाकरणों का नामोल्लेख किया है उनमें वैशम्पायन भी एक हैं।

वैशाखकृत्य : इस मास के कुछ महत्त्वपूर्ण व्रत, जैसे अक्षयतृतीया आदि का पृथक् वर्णन किया जा चुका है। कुछ छोटे-मोटे तथ्यों का यहाँ वर्णन किया जा रहा है। इस मास में प्रातः स्नान का विधान है। विशेष रूप से इस अवसर पर पवित्र सरिताओं में स्नान की आज्ञा दी गयी है। इस सम्बन्ध में पद्मपुराण (4.85.41-70) का कथन है कि वैशाख मास में प्रातः स्नान का महत्त्व अश्वमेध यज्ञ के समान है। इसके अनुसार शुक्ल पक्ष की सप्तमी को गंगाजी का पूजन करना चाहिए, क्योंकि इसी तिथि को महर्षि जह्नु ने अपने दक्षिण कर्ण से गंगाजी को बाहर निकाला था। वैशाख शुक्ल सप्तमी को भगवान् बुद्ध का जन्म हुआ था, अतएव सप्तमी से तीन दिन तक उनकी प्रतिमा का पूजन किया जाना चाहिए। यह विशेष रूप से उस समय होना चाहिए जब पुष्य नक्षत्र हो। वैशाख शुक्ल अष्टमी को दुर्गाजी, जो अपराजिता भी कहलाती हैं, की प्रतिमा को कपूर तथा जटामांसी से सुवासित जल से स्नान कराना चाहिए। इस समय व्रती स्वयं आम के रस से स्नान करे।

वैशाखी पूर्णिमा को ब्रह्माजी ने श्वेत तथा कृष्ण तिलों का निर्माण किया था। अतएव उस दिन दोनों प्रकार के तिलों से युक्त जल से व्रती स्नान करे, अग्नि में तिलों की आहुति दे, तिल, मधु तथा तिलों से भरा हुआ पात्र दान में दे। इसी प्रकार के विधि-विधान के लिए दे० विष्णु-धर्म०, 90.10। भगवान् बुद्ध की वैशाखपूजा 'दत्थगामणी' (लगभग 100-77 ई० पू०) नामक व्यक्ति ने लंका में प्रारम्भ करायी थी। दे० वालपोल राहुल (कोलम्बो, 1956) द्वारा रचित 'बुद्धिज्म इन सीलोन', पृ० 80।

वैशालाक्षनीतिशास्त्र : राजनीति शास्त्र भारत का अति प्राचीन ज्ञान है। इस पर सर्वप्रथम प्रजापति ने दण्डनीति नामक बृहदाकार पुस्तक लिखी, जो अब दुर्लभ है। उसी का संक्षिप्तीकरण वैशालाक्षनीतिशास्त्र है। यह भी प्राप्त नहीं है। पुनः इसका संक्षिप्तीकरण बाहुदन्तक नामक ग्रन्थ में हुआ जो भीष्म पितामह के समय में बार्हस्पत्य शास्त्र के नाम से प्रसिद्ध था। मानवता के विकास के साथ जीवन में व्यस्तता बढ़ने लगी तथा व्यस्त जीवन को देखते हुए क्रमशः ये ग्रन्थ संक्षिप्त होते ही गये। वैशालाक्ष (विशाल आँखों वाले अर्थात् शिव) का नीतिशास्त्र शिवप्रणीत कहा जाता है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में वैशालाक्ष सिद्धान्तों को बहुधा उद्धृत किया है।

वैशेषिक : वैशेषिक दर्शन का अस्तित्व विक्रम की पहली शताब्दी में था। यह इससे भी प्राचीन हो सकता है। वैशेषिक सूत्रों के रचयिता कणाद काश्यप् कहे जाते हैं। वैशेषिक तथा न्याय दर्शन साथ ही साथ विकसित हुए तथा दोनों सूत्र एक दूसरे के बहुत ही निकट प्रसंग को ध्यान में रखते हुए लिखे गये हैं। वैशेषिक दर्शन पारमाणविक (अणुविज्ञानी) यथार्थवाद है। द्रव्यों के नव प्रकार यहाँ माने गये हैं। पहले चार प्रकारों के परमाणु कहे गये हैं। प्रत्येक परमाणु परिवर्तनहीन्, नित्य, फिर भी अदृश्य तथा आकृतिहीन होता है। ये परमाणु चार श्रेणियों में गंध, स्वाद, स्पर्श तथा ऊष्मा गुणों के कारण विभक्त किये गये हैं, जो क्रमशः पृथ्वी, जल, वायु तथा अग्नि के गुण हैं। दो परमाणुओं से एक 'द्व्यणुक' तथा तीन द्व्यणुकों से एक त्र्यणुक (त्रुसरेणु) बनता है। सबसे छोटी इकाई यही है जो रूपवान् होती है तथा इसे पदार्थ की संज्ञा दी गयी है।

पाँचवीं नित्य सत्ता आकाश है जो अदृश्य परमाणुओं को मूर्त पदार्थ बदलने का माध्यम है। छठा सत्य काल है। यह वह शक्ति है जो सभी कार्य परिवर्तन करती है तथा दो समयों के अन्तर का आधार उपस्थित करती है। सातवाँ सत्य दिक् या दिशा है। यह काल को संतुलित करती है। आठवाँ सत्य अगणित आत्माओं का है। प्रत्येक आत्मा नित्य तथा विभु है। नवाँ सत्य है 'मनस्' जिसके माध्यम से आत्म ज्ञानेन्द्रियों के स्पर्श में आता है। परमाणुओं की तरह प्रत्येक मन नित्य तथा रूपहीन है। कर्ममीमांसा तथा सांख्य की तरह प्रारम्भिक वैशेषिक भी देवमण्डल के अस्तित्व को स्वीकार करता है। सूत्र में छः पदार्थों के नाम हैं : द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय। इन छहों का ज्ञान मोक्षदाता है। 600 ईँ० के लगभग प्रशस्तपाद नामक आचार्य ने वैशेषिक सूत्रों पर भाष्य लिखा। ह्वेनसाँग ने 'दश पदार्थ' का अनुवाद किया, जिसे ज्ञानचक्र द्वारा चीनी भाषा में अनुवादित कहा गया है।

दसवीं शताब्दी के मध्य में दो उल्लेखनीय दार्शनिक वैशेषिक दर्शन के व्याख्याकार हुए। उनमें से प्रथम थे उदयन जो बहुत ही शक्तिशीली एवं स्पष्ट प्रतिभा के दार्शनिक थे। इन्होंने प्रशस्तपाद भाष्य के समर्थन में किरणावली नामक ग्रन्थ रचा। इनका दूसरा ग्रन्थ है लक्षणावली। दूसरे ग्रन्थकार थे श्रीधर, जो दक्षिणपश्चिम वंग के निवासी थे। इन्होंने प्रशस्तपाद के भाष्य की न्यायकन्दली नामक व्याख्या रची। यह 991 ई० के लगभग रची गयी। इसके बाद न्याय-वैशेषिक दोनों संयुक्त दर्शन एकत्र हो गये। (आगे का विकास 'वैशेषिकन्याय' शब्द की व्याख्या में देखें।)

वैशेषिक दर्शन : दे० 'वैशेषिक'।

वैशेषिक न्याय : ग्यारहवीं शताब्दी के बाद न्याय तथा वैशेषिक वस्तुतः एक में मिल गये। दोनों का संयोग शिवादित्य के 'सप्तपदार्थनिरूपण' (11 वीं शताब्दी) से आरम्‍भ होता है। गंगेश उपाध्याय की 'न्यायचिन्तामणि' में इसी सम्मिलन के 'आदर्श का पालन हुआ है। यह 12 वीं शताब्दी का बहुप्रयुक्त ग्रन्थ है। तेरहवीं शती के केशव के 'तर्कभाषा' तथा 15वीं शती के शङ्कर मिश्र के 'वैशेषिकसूत्रोपस्कार' में इसी संयोग की चेष्टा हुई है।

1600 ई० के लगभग न्याय-वैशेषिक की संयुक्त शाखा से सम्बन्धित अन्नम् भट्ट, विश्वनाथ पञ्चानन, जगदीश तथा लौगाक्षिभास्कर नामक आचार्य हुए। बङ्गाल में नव्य न्याय की प्रणाली का प्रारम्भ वासुदेव सार्वभौम के द्वारा हुआ जो नवद्वीप (नदिया) में अध्यापक (1470-1480 ई०) थे। इनकी बौद्धिक स्वतंत्रता इनके शिष्य रघुनाथ शिरोमणि ने घोषित करायी। इस प्रकार 17वीं शती के अन्त तक तर्क शास्त्र का उत्तराधिकार चलता आया।

वैशेषिकसूत्रभाष्य : वैशेषिक सूत्र पर लिखा हुआ यह प्रथम भाष्य है, जिसे प्रशस्तपाद (650 वि० के लगभग) ने प्रस्तुत किया। इस भाष्य के अध्ययन के बिना वैशेषिक सूत्रों को समझना असम्भव है।

वैशेषिकसूत्रोपस्कार : शङ्कर मिश्र द्वारा विरचित यह ग्रन्थ वैशेषिक सूत्र का उपभाष्य है। इसमें न्याय तथा वैशेषिक को एक में मिलाने का प्रयास हुआ।

वैश्य : चार वर्णों में तीसरा स्थान वैश्य का है। इसका प्रथम उल्लेख पुरुषसूक्त में हुआ है (ऋ० 10.9.12)। इसके पश्चात् अथर्ववेद आदि में इसका प्रयोग बहुलता से किया गया है। ऋग्वेद में कहा गया है कि वैश्य की उत्पत्ति विराट् पुरुष की जंघाओं से हुई। इस रूपक से ज्ञात होता है कि वैश्य सामाजिक जीवन का स्तम्भ माना जाता था। वैदिक साहित्य में वैश्य की स्थिति का वर्णन ऐतरेय ब्राह्मण (7.29) करता है; वैश्य 'अन्यस्य बलिकृत्' (दूसरे को बलि देने वाला), 'अन्यस्याद्यः' (दूसरे का उपजीव्य) है। उस पर राजाद्वारा कर लगाया जाता था। वैश्य साधारणतः कृषक, पशुपालक एवं व्यवसायवाणिज्य कर्ता होते थे। तैत्तिरीय संहिता के अनुसार वैश्यों की महत्त्वाकांक्षा ग्रामणी बनने की होती थी। यह पद राजा की ओर से धनी वैश्यों को प्रदान किया जाता था। वैश्यों के क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण पद प्राप्त करने का उदाहरण नहीं प्राप्त होता।

धर्मसूत्रों और स्मृतियों में वैश्यों के सामान्य औऱ विशेष दो प्रकार के कर्त्तव्य बतलाये गये हैं। सामान्य कर्त्तव्य है, अध्ययन, यजन और दान। विशेष कर्त्त्व्य है कृषि, गोरक्षा (गोपालन) औऱ वाणिज्य। वैश्य वर्ण के अन्तर्गत अनेक जातियों और उपजातियों का समावेश है। वैश्यों का शूद्रों के साथ अधिक सम्पर्क बढ़ने औऱ अन्यत्र धार्मिक कठोर आचार (कृच्छ्राचार) बढ़ने के कारण धीरे-दीरे बहुत-सी कृषि तथा गोपालन करने वाली जातियों की गणना शूद्रों में होने लगी और केवल वाणिज्य करने वाली जातियाँ ही वैश्य मानी जाने लगीं। धर्मशास्त्रों के अन्तिम चरण में 'कलिवर्ज्य' के अन्तर्गत यह मत प्रतिपादित हुआ कि कलि में केवल दो वर्ण ब्राह्मण औऱ शूद्र हैं, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण नहीं। ऐसा लगता है कि बीच में इन वर्णों में आचार के शिथिल हो जाने के कारण यह मान्यता प्रचलित हुई।

वैष्णवतोषिणी : चैतन्यदेव के शिष्य सनातन गोस्वामी द्वारा यह व्याख्या ग्रन्थ भागवत पुराण के दशम स्कन्ध पर वृन्दावन में रचा गया। वैष्णवतोषिणी का अन्य नाम दशमटिप्पणी भी है।

वैष्णवदास : चैतन्य सम्प्रदाय के प्रारम्भिक अठारहवीं शती के एक वंगदेशीय आचार्य। इन्होंने 'पदकल्पतरु' नामक ग्रन्थ रचा है।

वैष्णवपुराण : विष्णु, भागवत, नारदीय, ब्रह्मवैवर्त, पद्म और गरुड वैष्णव पुराण है।

वैष्णवमत : मुख्य रूप से विष्णु की उपासना करने का मार्ग। इसके अन्य नाम भागवतमत तथा पाञ्चरात्रमत भी है। भागवत सम्प्रदाय महाभारतकाल में भी वर्तमान था। कहना चाहिए कि लगभग कृष्णावतार के समय ही पाञ्चरात्रमत सात्वतों के भागवतमत में परिणत हो गया। परन्तु बौद्धों के जोर-शोर में प्रायः इस मत का भी ह्रास समझा जाना चाहिए। जो कुछ अवशिष्ट था उसका खण्डन शङ्कर स्वामी ने किया। 'नारदपञ्चरात्र' और 'ज्ञानामृतसार' से पता चलता है कि भागवतधर्म की परम्परा बौद्धधर्म के फैलने पर भी नष्ट नहीं हो पायी। इस मत के अनुसार हरिभजन ही परम कर्त्तव्य और मुक्ति का साधन है। 'ज्ञानामृतसार' में छः प्रकार की भक्ति कही गयी है--स्मरण, कीर्तन, वन्दन, पादसेवन, अर्चन और आत्‍मनिवेदन,। भागवतपुराण से (7.5.23-24) श्रवण, दास्य और सख्य ये तीन प्रकार और मिलाकर नव प्रकार की भक्ति मानी जाती है। सम्भवतः भागवतमत की अनेक शाखाओं का अस्तित्व शङ्करस्वामी के समय में भी रहा होगा, किन्तु सबका मूल सिद्धान्त एक ही होने से शङ्कर स्वामी ने शाखाओं की चर्चा नहीं की। वैष्णव सम्प्रदायों के इतिहास से भी पत चलता है कि उनकी सत्ता का मूल अत्यन्त प्राचीन है, यद्यपि उनके मुख्य प्रचारक वा आचार्य बाद के हैं। शङ्कराचार्य के पश्चात् वैष्णवों के चार सम्प्रदाय विशेष विकसित दिखलाई पड़ते हैं; श्रीवैष्णव सम्प्रदाय, माध्व सम्प्रदाय, रुद्र सम्प्रदाय औऱ सनक-सम्प्रदाय। इन चारों का आधार श्रुति है और दर्शन वेदान्त है। पुराना साहित्य एक ही है, केवल व्याख्या और बाह्यचार में परस्पर अन्तर होने से सम्प्रदाय भेद उत्पन्न हो गये हैं। महाभारतकाल से लेकर आदि शङ्कराचार्य के समय तक पाञ्चरात्र और भागवत धर्म का रूप समान ही रहा होगा। क्योंकि शङ्गराचार्य ने एक ही नाम से इनकी आलोचना की है। परन्तु इसके पश्चात् सम्भवतः समय-समय पर आचार्यों के सिद्धान्तों की भिन्न रीति से व्याख्या करने के कारण भागवत और पाञ्चरात्र की शाखाएँ स्वतन्त्र बन गयीं, जो काल पाकर सम्प्रदायों के रूप में प्रकट हुईँ।

वैष्णव पुराणों में विष्णुपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, हरिवंश और श्रीभद्भागवत में विष्णु, नारायण, यादव कृष्ण और गोपाल कृष्ण के चरितों का कई पहलुओं से वर्णन है। जैसा नाम से प्रकट है, श्रीमद्भागवत ही सब पुराणों में भागवत सम्प्रदाय का मुख्य ग्रन्थ समझा जाना चाहिए।

प्राचीन भागवत सम्प्रदाय का अवशेष आज भी दक्षिण भारत में विद्यमान है। द्रविड़, तैलङ्ग, कर्णाटक औऱ महाराष्ट्र के बहुत से वैष्णव गोपीचन्दन की रेखा वाले ऊर्ध्वपुण्ड्र को मस्तक में धारण किये हुए प्रायः मिलते हैं। ये लोग नारदभक्तिसूत्र एवं शाणिडल्यभक्तिसूत्रों के अनुयायी हैं। इनकी उपनिषदें वासुदेव एवं गोपीचन्दन हैं। इनका पुराण भागवतपुराण है। महाराष्ट्र देश में इस सम्प्रदाय के पूर्वाचार्य ज्ञानेश्वर समझे जाते हैं। जिस तरह योगमार्ग में ज्ञानेश्वर नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी माने जाते हैं, उसी तरह भक्तिमार्ग में वे विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के शिष्य माने जाते हैं। परन्तु विष्णुस्वामी के मत में राधा-गोपाल की उपासना का विशेष प्रचलन है।

वैष्णवमताब्जभास्कर : सीतारामोपासक वैष्णव सम्प्रदाय के प्रधानाचार्य स्वामी रामानन्दजी महाराज ने वैष्णवधर्म के संरक्षण के लिए वैष्णवमताब्जभास्कर नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसमें वैष्णों के दैनिक आचार और भजन-पूजन का भली भाँति निर्देश किया गया है।

वैष्णवसम्प्रदाय : दे० 'वैष्णवमत'।

वैष्णववाङ्मय : ऋग्वेद (10.90) के पुरषसूक्त में इसकी आरम्भिक उपलब्धि होती है। महानारायण उपनिषद्, महाभारत, रामायण तथा भगवद्गीता इसका साधारण साहित्य है। भागवत लोग उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त सभी स्मार्त ग्रन्थों में रुचि रखते हैं। भागवत सम्प्रदाय के जो विशेष ग्रन्थ हैं, उनका यहाँ उल्लेख किया जाता है। इसका सबसे प्राचीन ग्रन्थ हरिवंश है। वैखानससंहिता, स्कन्द उपनिषद्, भागवत पुराण, नारदभक्तिसूत्र, शाण्डिल्यभक्तिसूत्र, वासुदेव एवं गोपीचन्दन उपनिषद्, वोपदेव कृत मुक्ताफल तथा हरिलीला श्रीधर स्वामी (1400 ई०) कृत भागवतभावार्थदीपिका तथा शुकसुधी कृत शुकपक्षीया व्याख्या एवं वेदान्तसूत्र (तेलुगु में) आदि ग्रन्थ इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं।

वैष्णवाचार : तान्त्रिक गण सात प्रकार के आचारों में विभक्त हैं, उनमें वैष्णवाचार भी एक है। इसमें वेदाचार की विधि के अनुसार सर्वदा नियमतत्पर रहना होता है, मद्य, मैथुन वा उसका कथाप्रसङ्ग भी कभी नहीं किया जाता। हिंसा, निन्दा, कुटिलता और मांस भोजन का सदा परित्याग होता है। रात्रि में कभी माला तथा मन्त्र का उपयोग नहीं किया जाता। दे० 'आचारभेद'।

वोपदेव : तेरहवीं शती के अन्त में महाराष्ट्र में वोपदेव नामक एक व्युत्पन्न विद्वान् का उदय हुआ। इन्होंने भागवत पुराण पर अनेक ग्रन्थ रचे। उनमें से हरिलीला तथा मुक्ताफल अधिक प्रसिद्ध हैं। हरिलीला में भागवत पुराण का सारांश है तथा मुक्ताफल इसकी शिक्षाओं का संग्रह है।

व्यतीपातव्रत : व्यतीपात पञ्चाङ्गस्थ योगों (विष्कम्भ, प्रीति इत्यादि) में से है। धर्मशास्त्र में इसकी कई प्रकार से व्याख्या की गयी है। व्यतीपात के दिन मनुष्य को पञ्चगव्य से नदी में स्नान करना चाहिए। अष्टादश भुजा वाली व्यतीपात की आकृति बनाकर, सुवर्णकमल में स्थापित कर गन्धाक्षत-पुष्पादि से उसका पूजन करना चाहिए। उस दिन उपवास का विधान है। एक वर्षपर्यन्त यह व्रत चलना चाहिए। तेरहवें व्यतीपात के समय उद्यापन करना चाहिए। अग्नि में सौ घृत आहुतियों के अतिरिक्त दुग्ध, तिल, समिधाओं के हवन के बाद घृत की धारा डालते हुए 'व्यतीपाताय स्वाहा' शब्द का उच्चारण करना चाहिए। कहा जाता है कि व्यतीपात सूर्य तथा चन्द्र का पुत्र है।

व्यासपूजा : आषाढ़ की पूर्णिमा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है। विशेष रूप से संन्यासियों, यतियों, साधुओं, तथा तपस्वियों के लिए इसका महत्त्व है। दे० स्मृतिकौस्तुभ, 144-145; पुरुषार्थचिन्तामणि, 284। तमिलनाडु में ज्येष्ठ शुक्ल 15 (मिथुनार्क) को इसका आयोजन किया जाता है।

व्योमव्रत : इसके लिए श्वेत चन्दन का अँगूठे औऱ अँगूली के जोड़ जैसा कुण्डलाकार आकाश बनाकर सूर्य के सम्मुख रखना चाहिए। करवीर के पुष्पों से सूर्य का पूजन करना चाहिए तथा आकाश की आकृति के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर में क्रमशः केसर, अगर, श्वेत चन्दन तथा 'चतुःसम' और केन्द्र में रक्त चन्दन लगाना चाहिए। इसका मन्त्र है 'खखोल्काय नमः।' सूर्य इसके देवता हैं।

व्रज : गौओं का बाड़ा अथवा पशुचारण का स्थान (चरागाह)। रूढ़ प्रसंग में इसका अर्थ है वह स्थान जहाँ कृष्ण ने गौएँ चरायीं, अर्थात् मथुरा और वृन्दावन के आस-पास का भूमण्डल। यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश का यमुनातटवर्ती क्षेत्र है, जहाँ विष्णु के अवतार श्री कृष्ण ने बाललीलायें की थीं। व्रजमण्डल बड़ा पवित्र माना जाता है। भक्तिकाल के प्रमुख आचार्य स्वामी हरिदास, हित हरिवंश और अष्टछाप के आठों कवि यहीं हुए। यहाँ बोली जाने वाली भाषा को 'व्रजभाषा' कहते हैं। इसमें अनेक कृष्णप्रेमी कवियों ने मधुर रचनाएँ की हैं। यह हिन्दी साहित्य का एक अति उदात्त, सरस और महत्त्वपूर्ण अङ्ग है।

व्रजवासीदास : राधा-कृष्ण एवं ग्वाल-बालों के बालजीवन तथा प्रेम को आधार बनाकर इन्होंने व्रजविलास नामक ग्रन्थ की रचना 1800 वि० के लगभग की।

व्रजविलास : संत व्रजवासीदास कृत व्रजभाषा का लोककाव्य। यह ग्रन्थ व्रजभूमि के माहात्म्य तथा कृष्ण के बालचरित्रों का दोहा-चौपाइयों में वर्णन करता है। भक्तों की इसके पठन की तीव्र लालसा रहती है।

व्रतषष्टि : मत्स्यपुराण (101) और पद्मपुराण (5.20.43) में महत्त्वपूर्ण 60 व्रतों का उल्लेख मिलता है, जिन सबका उल्लेख कृत्यकल्पतरु में हुआ है।

 : ऊष्मवर्णों का प्रथम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का वर्णन निम्नांकित है :

शकारं परमेशानि श्रृणु वर्णं शुचिस्मिते। रक्तवर्णप्रभाकारं स्वयं परमकुण्डली॥ चतुर्वर्गप्रदं देवी शकारं ब्रह्मविग्रहम्। पञ्चेदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणात्मकं प्रिये॥ रजःसत्वतमो युक्तं त्रिबिन्दुसहितं सदा। त्रिशक्तिसहितं वर्णमात्मादित्त्वसंयुतम्॥

योगिनीतन्त्र (तृतीय भाग, सप्तम पटल) में इसके निम्नलिखित वाचक बतलाये गये हैं :

शः सव्यश्च कामरूपी कामरूपो महामतिः। सौख्यनामा कुमारोऽस्थि श्रीकण्ठो वृषकेतनः॥ विषध्नं शयनं शान्ता सुभगा विस्फुलिङ्गिनी। मृत्युर्देवो महालक्ष्मीर्महेन्द्रः कुलकौलिनी॥ बागुर्हंसो वियद् वक्रं हृदनङ्गाकुशः खलः। वामोरुः पुण्डरीकात्मा कान्तिः कल्याणवाचकः॥

शकुन्तला : शतपथ ब्राह्मण (13.5.4.13) के अनुसार एक अप्सरा का नाम, जिसने भरत को नाडपित नामक स्थान पर जन्म दिया था। ब्राह्मणों, माहाभारत, पुराणों और परवर्ती साहित्य में शकुन्तला मेनका नामक अप्सरा से उत्पन्न विश्वामित्र की पुत्री कही गयी है। मेनका स्वर्ग लौटने के पूर्व पुत्री को पृथ्वी पर छोड़ गयी, जिसका पालन शकुन्त पक्षियों ने किया। इसके पश्चात् वह कण्व ऋषि की धर्मपुत्री हुई और उनके आश्रम में ही पालित और शिक्षित हुई। उसका गान्धर्वविवाह पौरववंशी राजा दुष्यन्त से हुआ, जिससे भरत की उत्पत्ति हुई। भरत चक्रवर्ती राजा था, जिसके नाम पर एक परम्परा के अनुसार इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।

शक्ति : शक्ति की कल्पना तथा आराधना भारतीय धर्म की अत्यन्त पुरानी औऱ स्थायी परम्परा है। अनेक रूपों में शक्ति की कल्पना हुई है, प्रधानतः मातृरूप में। इसका विशेष पल्लवन पुराणों और तन्त्रों में हुआ। हरिवंश औऱ मार्कण्डेय पुराण के देवीमाहात्म्य में देवी अथवा शक्ति का विशेष वर्णन और विवेचन किया गया है। देवी को उपनिषदों का ब्रह्म तथा एकमात्र सत्ता बतलाया गया है। दूसरे देव इसी की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। दैवी शक्ति का यह सिद्धान्त यहाँ सर्वप्रथम व्यक्त हुआ है। इस प्रकार वह (शक्ति) विशेष पूजा तथा आराधना के योग्य है। मनुष्य जब कुछ अपनी मनोरथ पूर्ति कराना चाहेगा तो उसी से अनुनय-विनय करेगा, शिव से नहीं।

शाक्त साहित्य में शक्तिरहित शिव को शवतुल्य बताया गया है। शक्ति ही शिव या ब्रह्म की विशुद्ध कार्यक्षमता है। अर्थात् वही सृष्टि एवं प्रलयकर्त्री है तथा सब दैवी कृपा तथा मोक्ष प्रदान उसी के कार्य हैं। इस प्रकार शक्ति शिव से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। शक्ति से ही विशेषण 'शाक्त' बनता है जो शक्ति-उपासक सम्प्रदाय का नाम है। शक्ति ब्रह्मतुल्य है। शक्ति और ब्रह् का एक मात्र अन्तर यह है कि शक्ति क्रियाशील भाग है तथा ब्रह्म को सभी उत्पन्न वस्तुओं तथा जीवों के रूप में वह व्यक्त वा द्योतित करती है। जबकि ब्रह्म अव्यक्त एवं निष्क्रिय है। धार्मिक दृष्टि से वह ब्रह्म से श्रेष्ठ है। शक्ति मूल प्रकृति है तथा सारा विश्व उसी (शक्ति) का प्रकट रूप है। दे० 'योग', 'क्रिया', 'भूति'।

शक्ति उपासना : पुराणों के परिशीलन से पता चलता है कि प्रत्येक सम्प्रदाय के उपास्य देव की एक शक्ति है। गीता में भगवान् कृष्ण अपनी द्विधा प्रकृति, माया की बारम्बार चर्चा करते हैं। पुराणों में तो नारायण औऱ विष्णु के साथ लक्ष्मी के, शिव के साथ शिवा के, सूर्य के साथ सावित्री के, गणेश के साथ अम्बिका के चरित और माहात्म्य वर्णित हैं। इनके पीछे जब स्प्रदायों का अलग-अलग विकास होता है तो प्रत्येक सम्प्रदाय अपने उपास्य की शक्ति की उपासना करता है। इस तरह शक्ति उपासना की एक समय ऐसी प्रबल धारा बही कि सभी सम्प्रदायों के अनुयायी मुख्य रूप से नहीं तो गौण रूप से शाक्त बन गये। अपने उपास्य के नाम पहले शक्ति के स्मरण करने की प्रथा चल पड़ी। सीताराम, राधाकृष्ण लक्ष्मीनारायण, उमामहेश्वर, गौरीगणेश, इत्यादि नाम इसी प्रभाव के सूचक हैं। सचमुच सारी आर्य जनता किसी समय शाक्त थी और इसके दो दल थे; एक दल में शैव, वैष्णव, सौर, गाणपत्य, आदि वैदिक सम्प्रदायों के दक्षिणाचारी थे और दूसरी ओर बौद्ध, जैन और अवैदिक तान्त्रिक सम्प्रदायों के शाक्त वामाचारी थे। इतना व्यापक प्रचार होने के कारण ही शायद शाक्तों का कोई मठ या गद्दी नहीं बनी। इनके पाँच महापीठ या 51 पीठ ही इनके मठ समझे जाने चाहिए। दे० 'वैदिक शाक्तमत'।

शक्तितन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत तन्त्रों की सूची में शक्तितन्त्र भी उल्लिखित है।

शक्तिविशिष्टाद्वैत : श्रीकण्ठ शिवाचार्य ने वायवीय संहिता के आधार पर सिद्ध किया है कि भगवान् महेश्वर अपने को उमा शक्ति से विशिष्ट किये रहते हैं। इस शक्ति में जीव और जगत्, चित् औऱ अचित्, दोनों का बीज उपस्थित रहता है। उसी शक्ति से महेश्वर चराचर सृष्टि करते हैं। इस सिद्धान्त को शक्तिविशिष्टाद्वैत कहते हैं। वीर शैव अथवा लिङ्गायत इस शक्तिविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को अपनाते हैं। शाक्तों के अनुसार शक्ति परिणामी हैं, विवर्त नहीं है। शाक्तों का वेदान्तमत शक्तिविशिष्टाद्वैत है।

शक्तिसंगमतन्त्र : नेपाल प्रदेश में एक लाख श्लोकों वाला शक्तिसङ्गमतन्त्र प्रचलित है। इस महातन्त्र में शाक्त सम्प्रदाय का वर्णन विस्तार से मिलता है। इसके उत्तर भाग, पहले खण्ड, आठवें पटल के तीसरे लेकर पचीसवें श्लोकों का सार यहाँ दिया जाता है :

सृष्टि की सुविधा के लिए यह प्रपञ्च रचा गया है। शाक्त, सौर, शैव, गाणपत्य, वैष्णव, बौद्ध आदि यद्यपि भिन्न नाम हैं, भिन्न सम्प्रदाय हैं, परन्तु वास्तव में ये एक ही वस्तु हैं। विधि के भेद से भिन्न दीखते हैं। इनमें परस्पर निन्दा, द्वेष इस प्रपञ्च के लिए ही हैं। निन्दक की सिद्धि नहीं होती। जो ऐक्य मानते हैं उन्हीं को उनके सम्प्रदाय से सिद्धि मिलती है। काली औऱ तारा की उपासना इसी ऐक्य की सिद्धि के सिद्ध के लिए की जाती है। यह महाशक्ति भले, बुरे; सुन्दर औऱ क्रूर; दोनों को धारण करती है। यही मत प्रकट करने के लिए शास्त्र का कीर्तन किया गया है। इस एकत्व प्रतिपादन के लिए ही चारों वेद प्रकट किये गये हैं। जगत्तारिणी देवी चतुर्वेदमयी और कालिका देवी अथर्ववेदाधिष्ठात्री है, काली और तारा के बिना अथर्ववेदविहित कोई क्रिया नहीं हो सकती। केरल देश में कालिका देवी, कश्मीर में त्रिपुरा और गौड़ देश में तारा ही पश्चात् काली रूप में उपास्य होती हैं।

इस कथन से पता चलता है कि इनसे पहले के साम्प्रदायिकों में, जिनमे शाक्त भी शामिल हैं; और ये अवश्य ही वैदिक शाक्त हैं--यह तान्त्रिक शाक्तधर्म अथवा वामाचार बाद में प्रचलित हुआ।

शङ्करजय : माधवाचार्य विरचित इस ग्रन्थ में आचार्य शङ्कर की जीवन सम्बन्धी घटनाओं का सङ्कलन संक्षिप्त रूप में हुआ है। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से इसकी कोई प्रामाणिकता नहीं है। यह उत्तम काव्य ग्रन्थ है।

शङ्करदिग्विजय : स्वामी आनन्द गिरि कृत शङ्करदिग्विजय शङ्कराचार्य की जीवन घटनाओं का काव्यात्मक संकलन है। यह ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक नहीं है। 'शङ्करदिग्विजय' और भी कई विद्वानों ने लिखे हैं। इनमें माधवाचार्य एवं सदानन्द के नाम मुख्य हैं।

शङ्कर मिश्र : शङ्कर मिश्र का नाम भी उन चार पण्डितों में है, जिन्होंने न्याय-वैशेषिक दर्शनों को एक में युक्त करने के लिए तदनुरूप ग्रन्थों का प्रणयन किया। शङ्कर मिश्र ने इस कार्य को वैशेषिकसूत्रोपस्कार की रचना द्वारा पूरा किया। यह ग्रन्थ 15वीं शती में रचा गया था।

शङ्कराचार्य : वेदान्त दर्शन के अद्वैतवाद का प्रचार भारत में यों तो बहुत प्राचीन काल से था, परन्तु आगे इसका अधिक ठोस प्रचार शङ्कराचार्य के द्वारा ही हुआ। इस मत के समर्थक प्रधान ग्रन्थ इन्हीं के रचे हुए हैं। इसी से शङ्कराचार्य अद्वैतमत के प्रवर्तक कहे जाते हैं और अद्वैतमत को शाङ्कर मत अथवा शाङ्कर दर्शन भी कहते हैं। ब्रह्मसूत्र पर आज जितने भाष्य उपलब्ध हैं उनमें सबसे प्राचीन शाङ्करभाष्य ही है और उसी का सबसे अधिक आदर भी है। शङ्कर के जो ग्रन्थ मिलते हैं तथा यत्र-तत्र उनकी जीवन सम्बन्धी जो घटनाएँ ज्ञात होती हैं, उनसे स्पष्ट है कि वे अलौकिक प्रतिभा के व्यक्ति थे। उनमें प्रकाण्ड पाण्डित्य, गम्भीर विचार शैली, प्रचण्ड कर्मशीलता, अगाध भगवद्भक्ति, सर्वोत्तम त्याग, अद्भुत यौगीश्वर्य आदि अनेक गुणों का दुर्लभ समुच्चय था। उनकी वाणी में मानो साक्षात् सरस्वती ही विराजती थी। यही कारण है कि 32 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने अनेक बड़े-बड़े ग्रन्थ रच डाले और सारे भारत में भ्रमण कर विरोधियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। भारत के चारों कोनों में चार प्रधान मठ स्थापित किये और सारे देश में युगान्तर उपस्थित कर दिया। थोड़े में यह कहा जा सकता है कि शङ्कराचार्य ने डूबते हुए सनातन धर्म की रक्षा की। उनके धर्म संस्थापन के कार्य को देखकर लोगों का यह विश्वास हो गया कि वे साक्षात् भगवान् शङ्कर के ही अवतार थे--'शङ्करः शङ्करः साक्षात्' और इसी से प्रायः 'भगवान्' शब्द के साथ उनका स्मरण किया जाता है।

शङ्कराचार्य के आविर्भाव एवं तिरोभाव-काल के सम्बन्ध में अनेक मत हैं। किन्तु अधिकांश लोग इनकी स्थिति 788 तथा 820 ई० के मध्य मानते हैं। इनका जन्म केरल प्रदेश के पूर्ण नदी तटवर्ती कालटी नामक गाँव में वैशाख शुक्ल पञ्चमी को हुआ था। पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सुभद्रा अथवा विशिष्टा था।

कोई महान् विभूति अवतरित हुई है इसका प्रमाण उनके बचपन से ही मिलने लगा था। इसी बीच उनके पिता का वियोग हो गया। एक वर्ष की अवस्था होते-होते बालक मातृभाषा में अपने भाव प्रकट करने लगा तथा दो वर्ष की अवस्था में पुराणादि की कथा सुनकर कण्ठस्थ करने लगा। पाँचवें वर्ष यज्ञोपवीत कर उन्हें गुरुगृह भेजा गया तथा सात वर्ष की अवस्था में ही वे वेद और वेदाङ्गों का पूर्ण अध्ययन करके घर आ गये। उनकी असाधारण प्रतिभा देखकर उनके गुरुजन चकित रह गये। विद्याध्‍ययन समाप्त कर शङ्कर ने संन्यास लेने की इच्छा प्रकट की परन्तु माता ने आज्ञा न दी। शङ्कर माता के बड़े भक्त थे एवं उन्हें कष्ट देकर संन्यास नहीं लेना चाहते थे। एक दिन माता के साथ नदी स्नान करते समय एक मगर ने इन्हें पकड़ लिया। माता बेचैन होकर हाहाकार करने लगी। इसी पर शङ्कर ने कहा कि यदि आप संन्यास लेने की आज्ञा दे दें तो यह मगर मुझे छोड़ देगा। माता ने तुरंत आज्ञा दे दी और मगर ने शङ्कर को छोड़ दिया। संन्यास मार्ग में जाते समय शङ्कर माता की इच्छा के अनुसार यह वचन देते गये कि तुम्हारि मृत्यु के समय में घर पर मैं अवश्यमेव उपस्थित रहूँगा।

केरल से चलकर शङ्कर नर्मदातट पर आये और वहाँ स्वामी गोविन्द भगवत्पाद से संन्यासदीक्षा ली। गुरु-पदिष्ट मार्ग से साधना आरम्भ कर अल्प काल में ही वे बहुत बड़े योगसिद्ध महात्मा हो गये। गुरु की आज्ञा से काशी आये। यहाँ उनकी ख्याति बढ़ने लगी और लोग शिष्यत्वग्रहण करने लगे। उनके प्रथम शिष्य सनन्दन थे जो पीछे पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। शिष्यों को पढ़ाने के साथ वे ग्रन्थ भी लिखते जाते थे। कहते हैं कि एक दिन भगवान् विश्वनाथ ने चाण्डाल के रूप में शङ्कर को दर्शन दिया। वे चाण्डाल को आगे से हटने का आग्रह करने लगे। भगवान् ने उनको एकात्मवाद का मर्म समझाया और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने का आदेश दिया। जब भाष्य लिखना पूरा हो गया तो एक दिन एक ब्राह्मण ने गङ्गातट पर उनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा। इस सूत्र पर ब्राह्मण के साथ उनका आठ दिनों तक शास्त्रार्थ हुआ। पीछे उन्हें ज्ञात हुआ कि ये स्वयं भगवान् वेद्वायास हैं। फिर वेदव्यास ने उन्हें अद्वैतवाद का प्रचार करने की आज्ञा दी और उनकी 16 वर्ष की आयु को 32 वर्ष तक बढ़ा दिया। शङ्कराचार्य दिग्विजय को निकल पड़े।

यहाँ से कुरुक्षेत्र होते हुए वे कश्मीर की राजधानी श्रीनगर पहुँचे और शारदा देवी के सिद्धि पीठ में अपने भाष्य को प्रमाणित कराया। उधर से लौटकर बदरिकाश्रम गये और वहाँ अपने अन्य ग्रन्थों की पूर्ति में लग गये। बारह वर्ष से पन्द्रह वर्ष तक की अवस्था में उन्होंने सारे ग्रन्थ लिखे। वहाँ से प्रयाग आये जहाँ कुमारिल भट्ट से भेंट हुई। कुमारिल के अनुसार वे वहाँ से माहिष्मती नगरी में मण्डन मिश्र के पास शास्त्रार्थ के लिए गये। मण्डन मिश्र के हारने पर उनकी पत्नी भारती ने भी उनसे शास्त्रार्थ किया। सपत्नीक मण्डन पर विजय प्राप्त करके शङ्कर महाराष्ट्र गये तथा वहाँ शैवों और कापालिकों को परास्त किया। वहाँ से चलकर दक्षिण में तुङ्गभद्रा के तट पर उन्होंने एक मन्दिर बनवाकर उसमें कश्मीर वाली शारदा देवी की स्थापना की। उसके लिए वहाँ जो मठ स्थापित हुआ उसे श्रृंङ्गगिरि (श्रृंगेरी) मठ कहते हैं। इस मठ के अध्यक्ष सुरेश्वर (मण्डन) बनाये गये। वहाँ से माता की मृत्यु का समय आया जानकर घर पहुँचे और माँ की अन्त्येष्टि क्रिया की। श्रृंगेरी मठ से जगन्नाथ पुरी जाकर गोवर्धन मठ की स्थापना की तथा पद्मपादाचार्य को वहाँ का मठाधीश बनाया।

पुनः शङ्कराचार्य ने चोल और पाण्ड्य राजाओं की सहायता से दक्षिण के शाक्त, गाणपत्य और कापालिक सम्प्रदायों के अनाचार को नष्ट किया। फिर वे उत्तर भारत की ओर मुड़े। गुजरात आकर द्वारका पुरी में शारदमठ की स्थापना की। फिर प्रचार कार्य करते हुए असम के कामरूप में गये और तान्त्रिकों से शास्त्रार्थ किया। यहाँ से बदरिकाश्रम जाकर वहाँ ज्योतिर्मठ की स्थापना की और त्रोटकाचार्य को मठाधीश बनाया। वहाँ से अन्त में केदार क्षेत्र आये, जहाँ पर कुछ दिनों बाद भारत का यह प्रोज्ज्वल सूर्य ब्रह्मलीन हो गया।

उनके विरचित प्रधान ग्रन्थ ये हैं : ब्रह्मसूत्र (शारीरक) भाष्य, उपनिषद् भाष्य (ईश, केन, कठ, प्रश्न, माण्डूक्य, मुण्डक, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, नृसिंहपूर्वतापनीय, श्वेताश्वतर इत्यादि), गीताभाष्य, विवेकचूड़ामणि, प्रबोधसुधाकर, उपदेशसाहस्री, अपरोक्षानुभूति, पञ्चीकरण, प्रपञ्चसारतन्त्र, मनीषापञ्चक, आनन्दलहरी-स्तोत्र आदि।

शाङ्करमत--शङ्कर के समय में भारतवर्ष बौद्ध, जैन एवं कापालिकों के प्रभाव से पूर्णतया प्रभावित हो गया था। वैदिक धर्म लुप्तप्राय हो रहा था। इस कठिन अवसर पर शङ्कर ने वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया। उन्होंने जिस सिद्धान्त की स्थापना की उस पर संसार के बड़े से बड़े विद्वान् और विचारक मन्त्रमुग्ध हैं। यह मत था अद्वैत सिद्धान्त।

आत्मा एवं अनात्मा---ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखते समय सवर्वप्रथम शङ्कर ने आत्‍मा तथा अनात्मा का विवेचन करते हुए सम्पूर्ण प्रपञ्च को दो भागों में बाँटा है--द्रष्टा और दृश्य। एक वह तत्त्व, जो सम्पूर्ण प्रतीतियों का अनुभव करने वाला है, तथा दूसरा वह, जो अनुभव का विषय है। इनमें समस्त प्रतीतियों के चरम साक्षी का नाम आत्मा है तथा जो कुछ उसका विषय है वह अनात्मा है। आत्मतत्त्व नित्य, निश्चल, निर्विकार, असङ्ग, कूटस्थ, एक और निर्विशेष है। बुद्धि से लेकर स्थूल भूतपर्यन्त सभी प्रपञ्च अनात्मा है, उसका आत्मा से सम्बन्ध नहीं है।

ज्ञान और अज्ञान---सम्पूर्ण विभिन्न प्रतीतियों के स्थान में एक अखण्ड सच्चिदानन्द घन का अनुभव करना ही ज्ञान है तथा उस सर्वाधिष्ठान पर दृष्टि न देकर भेद में सत्यत्व बुद्धि करना अज्ञान है।

साधन--शङ्कर ने श्रवण, मनन और निदिध्यासन को ज्ञान का साक्षात् साधन स्वीकार किया है। किन्तु इनकी सफलता ब्रह्मतत्व की जिज्ञासा होने पर ही है तथा जिज्ञासा की उत्पत्ति में प्रधान सहायक दैवी सम्पत्ति है। आचार्य का मत है कि जो मनुष्य विवेक, वैराग्य, शमादि षट् सम्पत्ति और मुमुक्षा, इन चार साधनों से सम्पन्न है, उसी को चित्तशुद्धि होने पर जिज्ञासा हो सकती है। इस प्रकार की चित्तशुद्धि के लिए निष्काम कर्मानुष्ठान बहुत उपयोगी है।

भक्ति---शङ्कर ने भक्ति को ज्ञानोत्पत्ति का प्रधान साधन माना है। विवेकचूड़ामणि में वे कहते हैं--'स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीयते।' अर्थात् अपने शुद्ध स्वरूप का स्मरण करना ही भक्ति कहलाता है। उन्होंने सगुणोपासना की उपेक्षा नहीं की है।

कर्म और संन्यास---शङ्कराचार्य ने अपने भाष्यों में स्थान-स्थान पर कर्मों के स्वरूप से त्याग करने पर जोर दिया है। वे जिज्ञासु एवं बोधवान दोनों के लिए सर्व कर्मसंन्यास की आवश्यकता बतलाते हैं। उनके मत में निष्काम कर्म केवल चित्त शुद्धि का हेतु है।

स्मार्तमत---वर्णाश्रम परंपरा की फिर से स्थापना का श्रेय शङ्कर को ही है। उन्हीं के प्रयास से जप, तप, व्रत, उपवास, यज्ञ, दान, संस्कार, उत्सव, प्रायश्चित आदि फिर से जीवित हुए। उन्होंने ही पञ्चदेव उपासना की रीति चलायी, जिसमें विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश और देवी, परमात्मा के इन पाँचों रूपों में से एक को प्रधान मानकर और शेष को उसका अङ्गीभूत समझकर उपासना की जाती है। पञ्चदेव उपासना वाला मत इसीलिए स्मार्त कहलाता है कि स्मृतियों के अनुसार यह सबके लिए निर्धारित है। आज भी साधारण सनातनधर्मी इसी स्मार्तमत के मानने वाले समझे जाते हैं।

शिष्‍यपरम्परा----शंकरानुगत संन्यासियों का भी एक विशेष सम्प्रदाय चला जो दसनामी कहलाते हैं। शङ्कराचार्य के चार प्रधान शिष्य थे : पद्मपाद, हस्तामलक, सुरेश्वर और त्रोटक। इनमें से पद्मपाद के शिष्य थे तीर्थ और आश्रम। हस्तामलक के शिष्य वन औऱ अरण्य थे। सुरेश्वर के गिरि, पर्वत और सागर तीन शिष्य थे। त्रोटक के भी तीन शिष्य पुरी, भारती और सरस्वती थे। इन्हीं दस शिष्यों के नाम से संन्यासियों के दस भेद चले। शङ्कराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित किये जिनमें इन दस प्रशिष्यों की परम्परा चली आती है। पुरी, भारती और सरस्वती की परम्परा श्रृंगेरी मठ के अन्तर्गत है। तीर्थ और आश्रम शारदामठ (द्वारका) के अन्तर्गत हैं। वन और अरण्य गोवर्धनमठ (पुरी) के अन्तर्गत हैं। गिरि, पर्वत औऱ सागर ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) के अन्तर्गत हैं। प्रत्येक दसनामी संन्यासी इन्हीं चार मठों मे किसी न किसी से संबन्धित होता है। शङ्कर स्वामी के शिष्य संन्यासियों ने बौद्धभिक्षुओं की तरह घूम-घूमकर सनातन धर्म के इस महाजागरण में बड़ी सहायता पहुँचायी।

उनके चारों मठों में गद्दी पर बैठने वाले शिष्य शङ्कराचार्य ही कहलाते आये हैं। ये सब प्रायः अपने समय के अप्रतिम विद्वान ही होते हैं। इनकी असंख्य रचनाएँ हैं, स्तोत्र हैं, जो सभी "श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितम्" कहे जाते हैं, किन्तु वे सभी आदि शङ्कर की कृतियाँ नहीं हो सकतीं। फिर भी सभी रचनाएँ स्मार्तों में आद्य आचार्य के नाम से प्रचलित हैं।

शङ्कराचार्यजयन्ती : दक्षिण भारत में चैत्र शुक्ल पञ्चमी को किन्तु उत्तर भारत में वैशाख शुक्ल दशमी को शङ्कराचार्य की जयन्ती मनायी जाती है। इस तिथि को औपचारिक रूप से आचार्य शङ्कर के प्रति आदर और श्रद्धा अर्पित की जाती है।

शङ्करानन्द : उपनिषदों के मुख्य भाष्यकार। ये प्रसिद्ध वेदान्ती स्वामी विद्यारण्य (माधवाचार्य) के गुरु थे। ये चौदहवीं शती के प्रथम अर्धांश में हुए थे।

शङ्करार्कव्रत : रविवार वाली अष्टमी के दिन इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। सूर्य शंकर के दक्षिण नेत्र माने गाये हैं, उनकी पूजा करनी चाहिए। केसर तथा रक्त चन्दन से अर्धचन्द्राकार आकृति बनाकर उसमें गोल वृत बनाना चाहिए। वृत्त में सुवर्णजटित माणिक्य की स्थापना की जाय। यह शिवनेत्र (सूर्य) होगा। अर्क (सूर्य) शङ्कर के नेत्र हैं। वे ही इसके देवता हैं।

शङ्ख : (1) अथर्ववेद (4.10.1) में शङ्ख कवच के रूप में व्यवहृत होने वाले पदार्थ का द्योतक है। परवर्ती साहित्य में यह फूँककर बजाया जानेवाला सागरोत्पन्न वाद्य है।

(2) शङ्ख एक स्मृतिकार धर्मशास्त्री भी हुए हैं। दे० 'शङ्कस्मृति'।

शठरिपु : दक्षिण भारत के आलवार सन्त अपनी प्रेमा भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं। इन्हीं में शठरिपु की गणना होती है। कलि के आरम्भ में पाण्ड्य देश की करुकापुरी में इनका जन्म हुआ, जिन्हें शठकोप भी कहते हैं। इनके शिष्य 'मधुर' कवि का जन्म शठरिपु के जन्मस्थान के पास ही हुआ था। विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय के आचार्यों को परम्परा में शठकोप स्वामी आदरपूर्वक गिने जाते हैं।

शतदूषणी : आचार्य वेंकटनाथ या वेदान्तदेशिक कृत श्रीवैष्णवसम्प्रदाय का तर्कपूर्ण वेदान्त ग्रन्थ। रामानुजाचार्य ने भी इसके पूर्व शतदूषणी नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इन ग्रन्थों में अद्वैतवाद की आलोचना की गयी है।

शतपति : इन्द्र का एक विरुद, जिसका उल्लेख मैत्रायणी संहिता तथा तैत्ति० ब्रा० में हुआ है। इसका अर्थ है 'मनुष्यों में एक सौ का राजा।' तैत्तिरीय ब्राह्मण इसकी व्याख्या 'सौ देवों के राजा' के रूप में करता है। यह 'सौ गाँवों का राजा' अर्थ का भी द्योतक है, जिसका पता परवर्ती धर्मग्रन्थों से चलता है। यह ऐसे मानव कर्मचारी के अर्थ में प्रयुक्त है, जो राजा की ओर से न्यायाधिकारी या भूमिकरसंग्राहक के रूप में नियुक्त होता था।

शतपथ ब्राह्मण : शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिनी तथा काण्व शाखाओं का ब्राह्मण शतपथ है। यह विस्तृत और सुव्यवस्थित ग्रन्थ है। शत (एक सौ) अध्याय होने के कारण इसका नाम शतपथ पड़ा। इसमें माध्यन्दिनी शाखा के चौदह काण्ड हैं तथा काण्व शाखा के सत्रह काण्ड हैं। प्रथम पाँच तथा अन्तिम काण्ड के रचयिता शांडिल्य ऋषि कहे जाते हैं। इसमें बारह सहस्र ऋचाएँ, आठ सहस्र यजुष् तथा चार सहस्र साम प्रयुक्त हैं। इसके तीन प्रामाणिक भाष्य उपलब्ध हैं, जिनके रचयिताओं के नाम हैं हरिस्वामी, सायण और कवीन्द्र सरस्वती। शङ्कराचार्य ने जिस बृहदारण्यक उपनिषद् का भाष्य लिखा वह काण्व शाखा के अन्तर्गत है।

इसमें प्रथम से नवम काण्ड तक वाजसनेयी संहिता के प्रथम अठारह अध्यायों के यजुष् की व्याख्या और विनियोग हैं। दशम काण्ड में अग्निरहस्य का विवेचन किया गया है। एकादश काण्ड में आठ अध्याय हैं। इनमें पूर्व वर्णित क्रियाओं के ऊपर आख्यान हैं। द्वादश काण्ड मं सौत्रामणी तथा प्रायश्चित कर्म वर्णित हैं। तेरहवें काण्ड में अश्वमेध, सर्वमेध, पुरुषमेध और पितृमेध का वर्णन है। चतुर्दश काण्ड आरण्यक है। इसके प्रथम तीन अध्यायों में प्रवर्ग क्रियाओं का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त संहिता के इकतीस से लेकर उन्तालीस अध्याय तक की सभी कथाओं के उद्धरण हैं। इसमें प्रतिपादित किया गया है कि विष्णु सभी देवताओं में श्रेष्ठ हैं। शेष अध्याय बृहदारण्यक उपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध है।

ऐतिहासिक दृष्टि से शतपथ ब्राह्मण का बहुत बड़ा महत्त्व है। इसके एक मन्त्र में इतिहास को कला माना गया है। महाभारत की अनेक कथाओं के स्रोत इसके आख्यानों में पाये जाते हैं, यथा रामकथा, कद्रू-सुंपर्णा की कथा, पुरूरवा-उर्वशीप्रेमाख्यान, अश्विनीकुमारों द्वारा च्यवन को यौवनदान आदि। इस प्रकार संस्कृत साहित्य के काव्य, नाटक, चम्पू प्रभृति अनेक विधाओं के सूत्र इस ब्राह्मण में वर्तमान हैं। वास्तव में यह विशाल विश्वकोशात्मक ग्रन्थ है।

शतभिषास्नान : शतभिषा नक्षत्र के समय यजमान तथा पुरोहित दोनों उपवास करें। यजमान भद्रासन से बैठे और सहस्र कलशों के जल से मोतियों के साथ शंख द्वारा जल भर-भरकर उसको स्नान कराया जाय। तदुपरान्त नवीन वस्त्र धारण कर वह केशव, वरुण, चन्द्र, शतभिषा नक्षत्र की (जिसका स्वामी वरुण देवता हैं) गन्धाक्षत, पुष्पादि से पूजा करे। व्रत के अन्त में यजमान अपने आचार्य को तरल पदार्थ, गौ तथा कलश का दान करे और अन्यान्य ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदान करे। यजमान स्वयं एक रत्न धारण करे जो शमी वृक्ष, सेमल की पत्तियों तथा बाँस के अग्रभाग से आवृत हो। इससे समस्त रोग दूर होते हैं। यह नक्षत्रव्रत है। इसके विष्णु तथा वरुण देवता हैं।

शतयातु : सौ मायाशक्ति वाला। ऋग्वेद (7.18.21) में यह एक ऋषि का नाम है। इनका उल्लेख पराशर के पश्चात् तथा वसिष्ठ के पूर्व हुआ है। कुछ विद्वान् इन्हें वसिष्ठ का पुत्र कहते हैं।

शतरुद्रसंहिता : शिवपुराण के सात खण्डों में तीसरा खण्ड शतरुद्रसंहिता के नाम से ज्ञात है।

शतरुद्रिय : यजुर्वेद का रुद्र सम्प्रदाय संबन्धी एक प्रसिद्ध सूक्त। वैदिक काल में रुद्र (शिव) के क्रमशः अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने का यह द्योतक है। इसको रुद्राध्याय भी कहते हैं।

शतश्लोकी : शङ्कराचार्य विरचित ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ शतश्लोकी है। इसमें वेदान्तीय ज्ञान के एक सौ श्लोक संगृहीत हैं।

शत्रुञ्जय (सिद्धाचल) : गुजरात प्रदेश का प्रसिद्ध जैन तीर्थ। कहा जाता है कि यहाँ आठ करोड़ मुनि मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं। यह सिद्धक्षेत्र है। जैनों में पाँच पर्वत पवित्र माने जाते हैं : (1) रत्रुञ्जय (सिद्धाचल) (2) अर्बुदाचल (आबू) (3) गिरनार (सौराष्ट्र) (4) कैलास और (5) सम्मेत शिखर (पारसनाथ, बिहार में)।

शनिप्रदोषव्रत : शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी जिस किसी शनिवार के दिन पड़े उसी दिन इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। यह सन्तानार्थ किया जाता है। इसमें शिवाराधन तथा सूर्यास्तोपरान्त भोजन विहित है।

शनिवारव्रत : श्रावण मास में प्रति शनिवार को शनि की लौहप्रतिमा को पञ्चामृत से स्नान कराकर पुष्पों तथा फलों का समर्पण करना चाहिए। इस दिन शनि के नामों का उच्चारण विभिन्न शब्दों में किया जाय, यथा--कोणस्थ, पिंगल, बभ्रु, कृष्ण, रौद्र, अन्तक, यम, सौरि (सूर्यपुत्र), शनैश्वर तथा मन्द (शनि मन्दगामी है)। चारों शनिवारों को क्रमशः चावल तथा उरद की दाल, खीर, अम्बिली (मट्ठे में पकाया हुआ चावल का झोल) तथा पूड़ी समर्पित करनी चाहिए और व्रती को स्वयं खाना चाहिए। उक्त शनैश्वरस्तोत्र स्कन्दपुराण से ग्रहण किया गया है।

शनिव्रत : (1) शनिवार के दिन तैलाभ्यंग के साथ स्नान करके किसी ब्राह्मण (या भड्डरी को) तैल दान करना चाहिए। इस दिन गहरे श्याम पुष्पों से शनि का पूजन करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का आचरण होता है। किसी लोहपात्र अथवा मृत्तिका के कलश में, जो तेल से भरा हो तथा काले वस्त्र से आवृत हो, शनैश्वर महाराज की लौहप्रतिमा का पूजन करना चाहिए। ब्राह्मण व्रती के लिए मन्त्र है---`शन्नो देवीरभष्टिय आपो भवन्तु पीतये, शं यो रभिस्रवन्तु नः।` किन्तु दूसरे वर्ण वाले लोगों के लिए पौराणिक मन्त्रों का विधान है। शनि की (जो `कोण` के नाम से भी विख्यात है, जो कदाचित् ग्रीक भाषा का शब्द है) प्रार्थना तथा स्तुति की जानी चाहिए। इसके आचरण से शनि ग्रह के समस्त दुष्प्रभाव दूर हो जाते हैं।

(2) प्रत्येक शनिवार को शनि ग्रह के प्रीत्यर्थ किया जाने वाला व्रत 'शनिव्रत' कहलाता है।

शपथ : वेदसंहिताओं में यह शाप का बोधक है। ऋग्वेद के एक परिच्छेद में यह सौगन्ध का द्योतक है (7.104.15)। परवर्ती साहित्य में शपथ का व्यवहार सौगन्ध के अर्थ में ही होता है। न्यायपद्धति में 'सत्य के प्रमाण' रूप से इसका प्रयोग होता है।

शबरशंकरविलास : वीर शैव सम्प्रदाय से सम्बन्धित कन्नड़ भाषा में रचित एक ग्रन्थ, जो षडक्षरदेव (1714 वि०) द्वारा प्रणीत है।

शबर स्वामी : पूर्वमीमांसासूत्र के भाष्यकार। भाष्य की प्राचीन लेख शैली इनके ई० पाँचवीं शती में होने का प्रमाण प्रस्तुत करती है। प्रभाकर एवं कुमारिल दो पूर्वमीमांसाचार्यों ने शबर के भाष्य पर व्याख्यावार्तिक प्रस्तुत किये हैं। प्रभाकर शबर की आलोचना नहीं करते है, जबकि कुमारिल इनसे भिन्न मत स्थापित करते हैं।

शब्द : सब तरह के दृश्य पदार्थ, कल्पना अथवा भावों या विचारों की प्रतिच्छाया वा प्रतिबिम्ब 'शब्द' हैं। शब्द के अभाव में ज्ञान का स्वयंप्रकाशत्व लुप्त हो जाता है। किसी न किसी रूप में सभी योग मतानुयायी शब्द की उपासना करते हैं जो अति प्राचीन विधि है। प्रणव के रूप में इसका मूल वेद में उपलब्ध है। इसका प्राचीन नाम स्फोटवाद है। प्राचीन योगियों में भर्तृहरि ने शब्दाद्वैतवाद का प्रवर्तन किया। नाथ संप्रदाय में भी शब्द पर जोर दिया गया है। आधुनिक राधास्वामी मत, योग साधन ही जिसका लक्ष्य है, शब्द की ही उपासना बतलाता है। चरनदासी पन्थ में भी शब्द का प्राधान्य है।

शब्दप्रमाण : न्याय दर्शन के अनुसार चौथा प्रमाण शब्द है। 'आप्तोपदेश' अर्थात् आप्त पुरुष का वाक्य शब्द प्रमाण है। भाष्यकार ने आप्त पुरुष का यह लक्षण बतलाया है कि जो साक्षात्कृतधर्मा हो, जैसा देखा, सुना, अनुभव किया हो, ठीक-ठीक वैसा ही कहने वाला हो वही आप्त है। शब्दसमूह वाक्य होता है, शब्द वह है जो अर्थ व्यक्त करने में समर्थ हो। शब्द में शक्ति ईश्वर के संकेत से आती है। नव्य न्याय के अनुसार शब्द में शक्ति लम्बी परम्परा से आती है। शब्द प्रमाण दो प्रकार का है-- वैदिक और लौकिक। प्रथम पूर्ण और दूसरा संदिग्ध होता है। लौकिक शब्द (वाक्यों में प्रयुक्त) तभी प्रामाणिक माने जाते हैं जब उनमें आकांक्षा, योग्यता, सन्निधि और तात्पर्य हों।

शब्‍दाद्वैतवाद : जो दर्शन यह मानता है कि `शब्द` ही एकमात्र अद्वैत तत्त्व है, वह शब्दाद्वैतवाद कहलाता है। योग मार्ग में इस दर्शन का विशेष विकास हुआ। प्रत्येक योगसाधक किसी न किसी रूप में शब्द की उपासना करता है। यह उपासना अत्यन्त प्राचीन है। प्रणव या ओंकार के रूप में इसका बीज वेदों में वर्तमान है। उपनिषदों में प्रणवोपासना का विशेष विकास हुआ। माण्डूक्योपनिषद् में कहा गया है कि मूलतः प्रणव ही एक तत्त्व है जो तीन प्रकार से विभक्त है। पाणिनी की अष्टाध्यायी में भी इस दर्शन के संकेत पाये जाते हैं। उन्होंने सिद्धान्त प्रतिपादन किया है कि शब्दव्यवहार अनादि और अनन्त (सनातन) है (तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वात्, 2.4.16)। शब्दाद्वैत के लिए `स्फोट` शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग महाभाष्य में पाया जाता है। सबसे पहली शब्द की परिभाषा भी महाभाष्य में ही पायी जाती है : येनोच्चारितेन सास्ना-लाङ्गूल-ककुद-खुर-विषाणिनां सम्प्रत्ययो भवति स शब्दः।`

भर्तृहरि ने शब्दाद्वैतवाद को 'वाक्यपदीय' में दार्शनिक रूप दिया। इसके पश्चात् भर्तृमित्र ने इस विषय पर स्फोटसिद्धि नामक ग्रन्थ लिखा। इसके अनन्तर पुण्यराज और कैयट की व्याख्याओं में इस मत का प्रतिपादन हुआ। इसके प्रबल समर्थक नागेश भट्ट अठारहवीं शती में हुए।

वैयाकरण, नैयायिक, मीमांसक, वेदान्ती सभी ने शब्द पर दार्शनिक ढंग से विचार किया है। वैयाकरणों के अनुसार शब्द से ही अर्थबोध और संसार का ज्ञान होता है। उसके अभाव में ज्ञान का प्रकाशकत्व नष्ट हो जाता है। सब दृश्य जगत् और उसके पदार्थ कल्पना मात्र हैं, विचारों की प्रतिच्छाया अथवा प्रतिबिम्ब हैं। इस प्रकार शब्द ही सत्य है; बाह्य जगत् अवास्तविक है। वैयाकरणों का यह सिद्धान्त निम्नांकित उपनिषद्वाक्य का भाष्य है : 'वाचारम्भणम् विकारो नामधेयम् मृत्तिकेत्येव सत्यम्।' यह मानते हुए कि शब्द से अर्थबोध होता है, यह प्रश्‍न उठता है कि क्या केवल ध्वनि मात्र से अर्थबोध होता है? 'गौः' शब्द लीजिए। यह तीन ध्वनियों से बना है--ग्+औ+स्। यह कहना कठिन है कि आदि, मध्य अथवा अन्तिम ध्वनि से अर्थबोध होता है।

नैयायिकों की आपत्ति है कि एक ध्वनि एक-दो क्षण से अधिक अस्तित्व में नहीं रहती; जब अन्तिम ध्वनि का उच्चारण होता है तब तक आदि औऱ मध्य ध्वनियाँ लुप्त हो जाती हैं। नैयायिकों के अनुसार प्रथम दो ध्वनियों के संस्कार के साथ जब अन्तिम ध्वनि मिलती है तब अर्थबोध होता है। इससे वैयाकरणों की कठिनाई तो दूर हो जाती है परन्तु दूसरा दोष उत्पन्न हो जाता है। नैयायिक और भाषाविज्ञानी दोनों मानते हैं कि भाषा की इकाई वाक्य है और अर्थबोध के लिए वाक्य में प्रतिज्ञा की एकता होना चाहिए। यदि प्रथम ध्वनियों का संस्कार और अन्तिम ध्वनि दो वस्तुएँ हैं तो फिर एकता कैसी होगी?

मीमांसकों के अनुसार वर्ण नित्य हैं और ध्वनि से व्यक्त किया जाते हैं। मीमांसकों की अर्थप्रत्यायकत्व प्रक्रिया नैयायिकों से मिलती-जुलती है। परन्तु वर्णों की ऐक्यानुभूति में उन्हें कोई कठिनाई नहीं जान पड़ती, क्योंकि सभी वर्ण नित्य हैं। किन्तु यह आपत्ति बनी रहती है कि वर्णों की अनुभूति क्षणिक है और इस परिस्थिति में सभी वर्णों की एकता शक्य नहीं है। वैयाकरणों ने इस कठिनाई को दूर करने के लिए वाचकता का एक नया अधिष्ठान ढूँढ़ निकाला, वह था स्फोटवाद। 'स्फोट' भिन्न शब्दों और अर्थों में एक होकर भी स्थायी रूपसे व्यक्त होता है। अतः वाक्य में एकतानता बनी रहती है। वैयाकरणों ने इस स्फोट का वाचक प्रणव को माना, जिससे सम्पूर्ण विश्व की अभिव्यक्ति हुई है।

शब्दाद्वैतवाद का पूर्ण विकास और पूर्ण संगति तब हुई जब इसका सम्बन्ध अद्वैत वेदान्त (शाङ्कर वेदान्त) से जोड़ा गया। शब्दतत्व उसी प्रकार विश्व का कारण है जिस प्रकार ब्रह्म विश्व का कारण है। इस प्रकार शब्द को शब्दब्रह्म मान लिया गया। शब्दब्रह्मवाद (शब्दाद्वैतवाद) का विवेचन भर्तृहरि ने अपने वाक्यपदीय में निम्नांकित प्रकार से किया है :

अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्‍त्वं यदक्षरम्। विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः॥ एकस्य सर्वबीजस्य यस्य चेयमनेकधा। भोक्तृ-भोक्तव्यरूपेण भोगरूपेण च स्थितिः॥

जिस प्रकार शाङ्कर वेदान्त में विश्व ब्रह्म का विवर्त माना गया है उसी प्रकार शब्दाद्वैतवाद के अनुसार यह विश्व शब्द का विवर्त है। यह बाद परिणामवाद (सांख्य) है और आरम्भवाद (न्याय) का प्रत्याख्यान करता है।

शब्द और अर्थ के बीच सम्बन्ध नित्य है। शब्दब्रह्म की अनुभूति के लिए शब्द के स्वरूप को जानना आवश्यक है। शब्द चार रूपों में प्रकट होता है : परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। इनमें से तीन गुप्त रहती हैं; परा मूलाधार में, पश्यन्ती नाभिस्थान में औऱ मध्यमा हृदयावकाश में निवास करती है। इनकी अनुभूति और ज्ञान केवल ब्रह्मज्ञानी मनीषियों को होता है। इनमें चौथी वैखरी वाणी ही बाहर व्यक्त होती है जिसको मनुष्य बोलते हैं। वास्तव में शब्दब्रह्म की उपासना ब्रह्म की ही उपासना है। शब्दब्रह्म की अनुभूति प्रणव की उपासना और यौगिक प्रक्रिया द्वारा नाभिचक्र में स्थित कुण्डलिनी को जागृत करने से होती है।

शम्बर : इन्द्र के एक शत्रु का नाम। इसका उल्लेख शुश्न, पिप्रु एवं वर्चिन के साथ, दास के रूप में तथा कुलितर (ऋ० 6.26.5) के पुत्र के रूप में हुआ है। इसके नब्बे, निन्यानबे तथा सौ दुर्ग कहे गये हैं। इसका सबसे बड़ा शत्रु दिवोदास अतिथिग्व था, जिसने इन्द्र की सहायता से उस पर विजय प्राप्त की। यह कहना कठिन है कि शम्बर वास्तविक व्यक्ति था या नहीं। हिलब्रैण्ट इसको दिवोदास का विरोधी सामन्त मानते हैं। वास्तव में शम्बर पर्वतवासी शत्रु था, जिससे दिवोदास को युद्ध करना पड़ा।

शम्भुदेव : शैव सिद्धान्त के सोलहवीं शती के एक प्रसिद्ध आचार्य। इन्होंने अपने मत के नियमों को दर्शाने के लिए शैवसिद्धान्तदीपिका तथा शम्भुपद्धति नामक दो ग्रन्थों की रचना की।

शय्यादान : पर्यङ्क और उसके उपयोगी समस्त वस्त्रों का दान। यह मासोपवासव्रत तथा शर्करासप्तमी आदि अनेक व्रतों में वांछनीय है।

शरभ उपनिषद् : एक परवर्ती उपनिषद्। इसमें उग्र देवता शरभ की महिमा और उपासना बतायी गयी है।

शरभङ्ग आश्रम : मध्य प्रदेशवर्ती वैष्णव तीर्थस्थान। विराधकुण्ड एवं टिकरिया गाँव के समीप वन में यह स्थान है। आश्रम के पास एक कुण्ड है, जिसमें नीचे से जल आता है। यहाँ राममन्दिर है, वन्य पशुओं के भय से मन्दिर का बाहरी द्वार संध्या के पहले बन्द कर दिया जाता है। महर्षि शरभङ्ग ने भगवान् राम के सामने यहीं अग्नि प्रज्वलित करके शरीर छोड़ा था।

इस प्रकार के तपोमय जीवन यापन करने की पद्धति 'शरभंग सम्प्रदाय' कही जाती है।

शर्करासप्तमी : चैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रातः तिलमिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। एक वेदी पर केसर से कमलपुष्प हुए धूप-पुष्पादि चढ़ाये जाँय। एक कलश में सुवर्ण खण्ड डालकर उसे शर्करा से भरे हुए पात्र से ढककर पौराणिक मन्त्रों से उसकी स्थापना की जाय। फिर पञ्चगव्य प्राशन तथा कलश के समीप ही शयन करना चाहिए। उस समय धीमे स्वर से सौरमन्त्रों (ऋग्वेद 1.50) का पाठ करना चाहिए। अष्टमी के दिन पूर्वोक्त सभी वस्तुओं का दान करना चाहिए। इस दिन शर्करा, घृत तथा खीर का ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रती स्वयं लवण तथा तैल रहित भोजन करे। प्रति मास इसी प्रकार से व्रत करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण विहित है। व्रत के अन्त में पर्यङ्कोपयोगी वस्त्र, सुवर्ण, एक गौ, एक मकान (यदि सम्भव हो) तथा एक से सहस्र निष्क तक सुवर्ण का दान विहित है। जिस समय सूर्य अमृत पान कर रहे थे उस समय उसकी कुछ बूँदे पृथ्वी पर गिर पड़ीं, जिससे चावल, मूँग तथा गन्ना उत्पन्न हो गये, अतः ये सूर्य को प्रिय हैं। इस व्रत के आचरण से शोक दूर होता है तथा पुत्र, धन, दीर्घायु एवं स्वास्थ्य की उपलब्धि होती है।

शर्व : शिव का एक पर्याय। 'श्रृ' धातु से व प्रत्यय लगाने पर यह शब्द बनता है, जिसक अर्थ है संहार करना। शिव प्रलय काल में सम्पूर्ण प्रजा का संहार करते हैं, अथवा भक्तों के पापों का विनाश करते हैं, अतः उनको शर्व कहा जाता है।

शर्वाणी : शर्व (शिव) की पत्नी पार्वती का पर्याय।

शस्त्र : यज्ञकर्म में होता पुरोहित का पाठ्य मन्त्रभाग, जो उद्गाता के 'स्तोत्र' से भिन्न है। प्रातःकालीन सोमदान सम्बन्धी शस्त्र 'आज्य' तथा 'प्रौग', मध्यकाल का 'मरुत्वतीय' तथा 'निष्केवल्य' एवं सान्ध्यकालीन 'वैश्वदेव' तथा 'आग्निमारुत' कहलाता है।

शाक : (1) वनस्पति को शाक कहते हैं। ये दस प्रकार के बताये जाते हैं यथा मूल, पत्तियाँ, अङ्कुर, गुच्छक, फल, शाखा, अंकुरित धान्य, छाल, फूल, तथा कुकुरमुत्ता जाति की उपज। दे० अमरकोश के टीकाकार क्षीरस्वामी का विवरण।

(2) सप्त द्वीपों में से एक द्वीप का नाम। मत्स्यपुराण (अ० 102) में इसका विस्तृत वर्णन है : `द्वीप का जम्बूद्वीप से दुगुना विस्तार है। विस्तार से दूना चारों ओर इसका परिणाह (घेरा) है। उस द्वीप से यह लवणोदधि (समुद्र) मिला हुआ है। वहाँ पुण्य जनपद है, जहाँ दीर्घायु होकर लोग मरते हैं, दुर्भिक्ष नहीं पड़ता, क्षमा और तेज से युक्त जन हैं। मणि से भूषित सात पर्वत हैं।

शाकटायन : शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिसाख्यसूत्र और उसकी अनुक्रमणी भी कात्यायन के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रतिशाख्यसूत्र में शाकटायन का नामोल्लेख एक पूर्वाचार्य के रूप में हुआ है। अष्टाध्यायी के सूत्रों में पाणिनि ने जिन पूर्व वैयाकरणों के नामोल्लेख किये हैं उनमें शाकटायन भी हैं। किसी नये शाकटायन ने कामधेनु नामक व्याकरण भी लिखा है।

शाकद्वीपीय ब्राह्मण : भारत पर शकों के आक्रमण के पूर्व, उनके बसने के कारण वर्तमान बलोचिस्तान का दक्षिणी भाग सीस्तान (शकस्थान) कहलाता था। उनके भारत में आने के बाद सिन्ध भी सीस्तान (शकस्थान अथवा शाक्द्वीप) कहलाने लगा। वहाँ से जो ब्राह्मण विशेषकर उत्तर भारत में फैले वे शाकद्वीपीय कहलाये। इनकी पूर्व उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुराणों में मगों का वर्णन देखना चाहिए। ऐसा लगता है कि मग ब्राह्मण मूलतः मगध में बसते थे, जिसके कारण यह प्रदेश 'मगध' कहलाता था। यहाँ से वे पश्चिमी एशिया के देशों में गये और वहाँ से पुनः भारत वापस आये। सूर्यमन्दिरों में पुजारी का कार्य करनेवाले मग ब्राह्मणों का वर्णन पूर्व हो चुका है। इन्हीं मगों को भोजक तथा शाकद्वीपीय ब्राह्मण भी कहते हैं। भविष्यपुराण में शाकद्वीपी मग ब्राह्मणों का शाकद्वीप से लाया जाना वर्णित है। इसमें उनकी चाल, ढाल, प्रथाएँ आदि विस्तार से बतायी गयी हैं।

इनको भारत में लानेवाले कृष्ण के पुत्र साम्ब थे। वर्णन से जान पड़ता है कि जरथुस्त्र के पूर्व की अथवा उन्हीं की समकालीन सूर्योपासक आर्य जातियाँ भारतवर्ष में पश्चिमी देशों से आकर फैलीं। पारसियों की प्रथाएँ मगों से कुछ मिलती-जुलती हैं। आज भी फारसी साहित्य में मगों के आचार्यों का नाम 'पीरे मुगाँ' सैकड़ों स्थानों में पाया जाता है। ये लोग यज्ञविहित सुरापान करते थे। ज्योतिष और वैद्यक शास्त्र का इनमें विशेष प्रचार था। आभिचारिक तथा तान्त्रिक क्रियाओं के भी ये विशेषज्ञ होते थे। दे० 'मग ब्राह्मण'।

शाकपूणि : भट्ट भास्कर के कृष्ण यजुर्वेद भाष्य में शाकपूणि का नामोल्लेख है। अपने पूर्ववर्ती निरुक्तकारों में शाकपूणि की गणना यास्क ने की है।

शाकम्भरी : दुर्गा का एक नाम। इसका शाब्दिक अर्थ है 'शाक से जनता का भरण करने वाली।' मार्कण्डेय पुराण के चण्डीस्तोत्र में यही विचार व्यक्त किया गया है :

ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः। भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः॥ शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि।

वामन पुराण (अ० 53) में भी शाकम्भरी नाम पड़ने का यही कारण दिया हुआ है।

शाकम्भरी : राजस्थान का एक प्रसिद्ध देवीतीर्थ। उस शक्ति से इसका सम्बन्ध है जिससे शाक (वनस्पति अथवा उद्भिज) की वृद्धि होती है। नवलगढ़ से 25 मील दक्षिण-पश्चिम पर्वतीय प्रदेश में यह स्थान है। ऊपर शाकम्भरी देवी का मन्दिर है। यह सिद्ध पीठ कहा जाता है।

शाकल : ऋग्वेद की एक शाखा। शाकल्य वैदिक ऋषि थे। उन्होंने ऋग्वेद के पदपाठ का प्रवर्तन किया, वाक्यों की सन्धियाँ तोड़कर पदों को अलग-अलग स्मरण करने की पद्धति चलायी। पदपाठ से शब्‍दों के मूल की ठीक-ठीक विवेचना की रक्षा हुई। शतपथ ब्राह्मण में शाकल्य का दूसरा नाम विदग्ध भी मिलता है। विदेह के राजा जनक के ये सभापण्डित और याज्ञवल्क्य के प्रतिद्वन्द्वी थे। ये कोसलक-विदेह थे। ऐसा जान पड़ता है कि ऋग्वेद के पदपाठ का कोसल-विदेह में विकास हुआ।

शाकसप्तमी : कार्तिक शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। वर्ष के चार-चार महीनों के तीन भाग कर प्रति भाग में एक वर्षपर्यन्त व्रताचरण करना चाहिए। पञ्चमी को एकभक्त, षष्ठी को नक्त तथा सप्तमी को उपवास रखा जाय। इस दिन ब्राह्मणों को अच्छे मसालों से बनी वनस्पतियों (शाकों) से युक्त भोजन कराना विहित है। व्रती को स्वयं रात्रि में भोजन करना चाहिए। सूर्य इसके देवता हैं। चार-चार महीनों के प्रति भाग में भिन्न प्रकार के पुष्प (अगस्ति, सुगन्धित पुष्प, करवीर आदि), प्रलेप (केसर, श्वेत चन्दन, लाल चन्दन), धूप (अपराजित, अगरु तथा गुग्गुलु), नैवेद्य (खीर, गुड़ की चपाती, उबाले हुए चावल) का उपयोग करना चाहिए। वर्ष के अन्त में ब्राह्मणों को भोजन कराना तथा किसी पुराणपाठक से पुराण श्रवण करना चाहिए।

शाकार्य : कात्यायान के वाजसनेय प्रातिशाख्य में अनेक आचार्यों के साथ शाकार्य का नामोल्लेख हुआ है।

शाकिनी : दुर्गा की एक अनुचरी। कात्यायनीकल्प में इसका उल्‍लेख है :

डाकिनी योगिनी चैव खेचरी शाकिनी तथा। दिक्षु पूज्या इमा देव्यः सुसिद्धाः फलदायिकाः॥

शाक्त : शक्ति या दुर्गा के उपासक। जिस सम्प्रदाय की इष्ट देवता 'शक्ति' है उसको ही शाक्त कहते हैं।

शाक्तमत : शक्तिपूजक सम्प्रदाय। शक्तिपूजा का स्रोत वेदों में प्राप्त होता है। वाक्, सरस्वती, श्रद्धा आदि के रूप में स्त्रीशक्ति की कल्पना वेदों में की गयी है। सभी देवताओं की देवियों (पत्नियों) की कल्पना भी शक्ति की ही कल्पना है। ऋग्वेद के अष्टम अष्टक के अन्तिम सूक्त में 'इयं शुष्मेभिः' आदि मन्त्रों से महाशक्ति सरस्वती की स्तुति की गयी है। सामवेद के वाचंयम सूक्त में 'हुवाइवाचम्' आदि तथा ज्योतिष्टोम् में 'वाग्विसर्जन स्तोम' का उल्लेख है। यजुर्वेद (अ० 2.2) में 'सरस्वत्यै स्वाहा' मन्त्र से आहुति देने का विधान है। यजुर्वेद (5.13) में पृथ्वी और अदिति देवियों का वर्णन है। इसके सत्रहवें अध्याय के 55वें मन्त्र में पाँच दिशाओं से विघ्न-बाधा निवारण के लिए इन्द्र, वरुण, यम, सोम और ब्रह्मा देवताओं की शक्तियों का आवाहन किया गया है। अथर्ववेद के चतुर्थ काण्ड के 30 वें सूक्त में महाशक्ति का निम्नांकित कथन है :

मैं सभी रुद्रों और वस्तुओं के साथ संचरण करती हूँ। इसी प्रकार सभी आदित्यों औऱ सभी देवों के साथ, आदि।` उपनिषदों में भी शक्ति की कल्पना का विकास दिखाई पड़ता है। केनोपनिषद् में इस बात का वर्णन है कि उमा हैमवती (पार्वती का एक पूर्व नाम) ने महाशक्ति के रूप में प्रकट होकर ब्रह्म का उपदेश किया। अथर्वशीर्ष, श्रीसूक्त, देवीसूक्त आदि में शक्ति की स्तुतियाँ भरी पड़ी हैं। नैगम (वैदिक) शाक्तों के अनुसार प्रमुख दस उपनिषदों में दस महाविद्याओं (शक्तियों) का ही वर्णन है। पुराणों में मार्कण्डेय पुराण, देवी पुराण, कालिका पुराण, देवी भागवत में शक्ति का विशेष रूप से वर्णन है। रामायण और महाभारत दोनों में देवी की स्तुतियाँ पायी जाती हैं। अद्भुत रामायण में सीताजी का वर्णन परम्परा शक्ति के रूप में है। वैष्णवग्रन्थ नारदपञ्चरात्र में भी दस महाविद्याओं का विस्तार से वर्णन है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि शाक्तमत अत्यन्त प्राचीन है और उसका भी आधार श्रुति-स्मृति है, जिस प्रकार अन्य धार्मिक संप्रदायों का। शैव मत के समान ही शाक्तमत भी निगमानुमोदित है। परन्तु वैदिक कर्मकाण्ड की अपेक्षा शाक्त उपासना श्रेष्ठ मानी जाती है। आगमों के आचार का विकास होने पर शाक्तमत के दो उपसम्प्रदाय हो गये--(1) दक्षिणाचार (वैदिक मार्ग) और (2) वामाचार। दक्षिणाचार को समयाचार भी कहते हैं और वामाचार को कौलाचार। दक्षिणाचार सदाचारपूर्ण और दार्शनिक दृष्टि से अद्वैतावादी है। इसका अनुयायी अपने को शिव मानकर पञ्चतत्त्वों से शिवा (शक्ति) की पूजा करता है। इसमें पञ्च मकारों (मद्यादि) के स्थान पर विजयारस का सेवन होता है। इसके अनुसार शक्ति और शक्तिमान् की अभिन्नता की अनुभूति योग के द्वारा होती है। योग शक्ति-उपासना का प्रधान अङ्ग है। योग के छः चक्रों में कुण्डलिनी और आज्ञा दो चक्र महाशक्ति के प्रतीक हैं। आज्ञा चक्र की शक्ति से ही विश्व का विकास होता है। यौगिक साधनाओं में `समय` का एक विशेष अर्थ है। हृदयाकाश में चक्रभावना के द्वारा शक्ति के साथ अधिष्ठान, अनुष्ठान, अवस्थान, नाम तथा रूप भेद से पाँच प्रकार का साम्य धारण करनेवाले शिव ही `समय` कहे जाते हैं। समय वास्तव में शिव और शक्ति का सामरस्य (मिश्रण) है। समयाचार की साधना के अन्तर्गत मूलाधार में से सुप्त कुण्डलिनी को जगाकर स्‍आदि चक्रों से ले जाते हुए सहस्रार चक्र में अधिष्ठित सदाशिव के साथ ऐक्य या तादात्म्य करा देना हीसाधक का मुख्य ध्येय होता है। वामाचार अथवा कौलमत की साधना दक्षिणाचार से भिन्न है किन्तु ध्येय दोनों का एक ही हैं। `कौल` उसको कहते हैं जो शिव और शक्ति का तादात्म्य कराने में समर्थ है। `कुल` शक्ति अथवा कुण्डलिनी है; `अकुल` शिव है। जो अपनी यौगिक साधना से कुण्डलिनी को जागृत कर सहस्रार चक्र में स्थित शिव से उसका मिलन कराने में सक्षम है वही कौल है। कौल का आचार कौलाचार अथवा वामाचार कहलाता है। इसमे पञ्च मकारों का सेवन होता है। ये पञ्च मकार हैं (1) मद्य (2) मांस (3) मत्स्य (4) मुद्रा और (5) मैथुनि। वास्तव में ये नाम प्रतीकात्मक हैं और इनका रहस्य गूढ़ है। मध्य भौतिक मदिरा नहीं है, ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्रदल कमल से स्यूत अमृत ही मधु या मदिरा है। जो साधक ज्ञानरूपी खड्ग से वासनारूपी (पाप-पुण्य) पशुओं को मारता है और अपने मन को शिव में लगाता है वह मांस का सेवन है। मत्स्य शरीर में स्थित इड़ा तथा पिङ्गला नाड़ियों में प्रवाहित होने वाला श्वास तथा प्रश्वास है। वही साधक मत्स्य का सेवन करता है जो प्राणायाम की प्रक्रिया से श्वास-प्रश्वास को रोककर प्राणवायु को सुषुम्ना नाड़ी के भीतर संचालित करता है। असत् संग का त्याग और सत्संग का सेवन मुद्रा है। सहस्रार चक्र में स्थित शिव और कुण्डलिनी (शक्ति) का मिलन मैथुन (दो का एक होना) हैं।मूलतः कौलसाधना यौगिक उपासना थी। कालान्तर में कुछ ऐसे लोग इस साधना में घुस आये जो आचार के निम्न स्तर के अभ्यासी थे। इन लोगों ने पञ्च मकारों का भौतिक अर्थ लगाया और इनके द्वारा भौतिक मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन का खुलकर सेवन होने लगा। वामाचार के पतन और दुर्नाम का यही कारण था। शाक्त दर्शन में छत्तीर तत्त्व माने गये हैं जो तीन वर्गों में विभक्त हैं --(1) शिवतत्त्व (2) विद्यातत्त्व और (3) आत्मतत्त्व। शिवतत्त्व में दो तत्त्वों, शिव और शक्ति का समावेश है। विद्यातत्त्व में सदाशिव, ईश्वर और शुद्ध विद्या सम्मिलित हैं। आत्मतत्त्व में इकतीस तत्त्वों का समाहार है, जिनकी गणना इस प्रकार हैं--माया, कला, विद्या, राग, काल, नियति, पुरुष, प्रकृति, बुद्धि, अहंकार, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेंन्द्रियाँ, पाँच विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) और पाँच महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी)। शिव-शक्तिसंगम में शाक्त मत के अनुसार परा शक्ति की ही प्रधानता होता है। परम पुरुष के हृदय में सृष्टि की इच्छा उत्पन्न होते ही उसके दो रूप, शिव और शक्ति प्रकट हो जाते हैं। शिव प्रकाशरूप है और शक्ति विमर्शरूप। विमर्श का तात्पर्य है पूर्ण और शुद्ध अहंकार की स्फूर्ति। इसके कई नाम हैं--चित्, चैतन्य, स्वातन्त्र्य, कर्तृत्व, स्फुरण आदि। प्रकाश और विमर्श का अस्तित्व युगपत् रहता है। प्रकाश को संवित् औऱ विमर्श को युक्ति भी कहा जता हैं। शिव और शक्ति के आन्तर निमेष को सदाशिव और बाह्य उन्मेष को ईश्वर कहते हैं। इसी शिव-शक्तिसंगम से सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न होती है। शाक्त मत में वामाचार के उद्गम और विकास को लेकर कई मत प्रचलित हैं। कुछ लोग इसका उद्गम भारत के उस वर्ग से मानते हैं, जिसमें मातृशक्ति की पूजा आदि काल से चली आ रही थी, परन्तु वे लोग स्मार्त आचार से प्रभावित नहीं थे। दूसरे विचारक इस सम्प्रदाय में वामाचार के प्रवेश के लिए तिब्बत और चीन का प्रभाव मानते हैं। बौद्ध धर्म का महायान सम्प्रदाय इसका माध्यम था। चीनाचार आदि कई आगम ग्रन्थों में इस बात का उल्लेख है कि वसिष्ठ ऋषि ने बुद्ध के उपदेश से चीन देश में जाकर तारा देवी का दर्शन किया था। इससे स्पष्ट है कि तारा की उपासना चीन से भारत में आयी। नेपाली बौद्ध ग्रन्थ साधनमाला का तन्त्र के जटासाधन प्रसंग में निम्नांकित कथन भी इस तथ्य की पुष्टि करता हैं :आर्य नागार्जुनपादैर्भोटदेशात् समुद्धृता।`

[तारा देवी की मूर्ति आर्य नागार्जुनाचार्य द्वारा भोट देश (तिब्बत) से लायी गयी।] स्वतन्त्रतन्त्र नामक ग्रन्थ में भी तारा देवी की विदेशी उत्पत्ति का उल्लेख है :

मेरोः पश्चिमकोणे तु चोलनाख्यो ह्रदो महान्। तत्त्र जज्ञे स्वयं तारा देवी नीलसरस्वती॥

शाक्तों के पाँच वेदों, पाँच योगियों और पाँच पीठों का उल्लेख कुलालिकातन्त्र में पाया जाता है। इनमें उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और ऊर्ध्व ये पाँच आम्नाय अथवा वेद हैं। महेश्वर, शिवयोगी आदि पाँच योगी हैं। उत्कल में उड्डियान, पंजाब में जालन्धर, महाराष्ट्र में पूर्ण, श्रीशैल पर मतङ्ग और कामरूप में कामाख्या ये पाँच पीठ हैं। आगे चलकर शाक्तों के इकावन पीठ हो गये और इस मत में बहुसंख्यक जनता दीक्षित होने लगी। इसका सबसे बड़ा आकर्षण यह था कि (भैरवी) चक्रपूजा में सभी शाक्त (चाहे वे किसी वर्ण के हों) ब्राह्मण माने जाने लगे। धार्मिक संस्कारों के मंडल, यन्त्र और चक्र जो शक्तिपूजा के अधिष्ठान थे, वैदिक और स्मार्त संस्कारों में भी प्रविष्ट हो गये। शाक्त मत का विशाल साहित्य है जिसका बहुत बड़ा अंश अभी तक अप्रकाशित है। इसके दो उपसम्प्रदाय हैं--(1) श्रीकुल और (2) कालीकुल। प्रथम उपसम्प्रदाय के अनेक ग्रन्थों में अगस्त्य का शक्तिसूत्र तथा शक्तिमहिम्नस्तोत्र, सुमेधा का त्रिपुरारहस्य, गौडपाद का विद्यारत्नसूत्र, शंकराचार्य के सौन्दर्यलहरी और प्रपञ्चसार एवं अभिनवगुप्त का तन्त्रालोक प्रसिद्ध हैं। दूसरे उपसम्प्रदाय में कालज्ञान, कालोत्तर, महाकालसंहिता आदि मुख्य हैं।

शाक्त संन्यासी : शाक्त संन्यासी देश के कोने-कोने में छिटपुट पाये जाते हैं। रामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतापुरी स्वयं रामकृष्ण तथा विवेकानन्द शाक्त संन्यासी थे। रामकृष्ण मिशन के अन्य स्वामी लोग भी शाक्त संन्यासियों के उदाहरण हैं तथा शङ्कराचार्य के दसनामियों की पुरी शाखा से सम्बद्ध हैं।

शाक्तानन्दतरिङ्गणी : यह स्वामी ब्रह्मानन्द गिरि रचित एक शाक्त ग्रन्थ है।

शाक्य मुनि : शाक्य वंश में अवतीर्ण होने के कारण गौतम बुद्ध शाक्य मुनि कहलाते थे। शाक शाल वृक्ष को कहते हैं। अयोध्या के इक्ष्वाकु (सूर्यपुत्र) वंश की एक शाखा गौतमगोत्रज कपिल मुनि के आश्रमप्रदेश में, जिसमें शाक वृक्षों का आधिक्य था, आकर बस गयी थी, इसलिए वह शाक्त कहलाने लगी। अमरकोश के टीकाकर भरत का निम्नांकित कथन है :

शाकवृक्षप्रतिच्छन्नं वासं यस्मात् प्रचक्रिरे। तस्मादिक्ष्वाकुवंश्यास्ते भुवि शाक्य इति श्रुताः॥ शाक्य मुनि को शाक्यसिंह भी कहते हैं।

शाक्री : शक्र की शाक्ति। यह दुर्गा का पर्याय है :

इन्द्राणी इन्द्रजननी शाक्री शक्रपराक्रमा। वज्रांकुशकरा देवी वज्रा तेनोपगीयते॥ (देवीपुराण)

शाख : विशाख को ही शाख भी कहते हैं। इनका दूसरा नाम कृत्तिकापुत्र या कार्तिकेय भी है। वास्तव में ये पार्वती के पुत्र थे, जिनका पालन कृतिकाओं ने किया था।

शाङ्खायन : कौषीतकि ब्राह्मण, कौषीतकि गृह्यसूत्र आदि के रचनाकार तथा ऋग्वेद के एक शाखा सम्पादक। इनका उल्लेख वंशसूची में शाङ्खायन आरण्यक के अन्त में हुआ है जहाँ गुणाख्य को उसका रचयिता कहा गया है। श्रौतसूत्र में शाङ्खायन का नामोल्लेख नहीं है। किन्तु गृह्यसूत्र सुयज्ञ शाङ्खायन को आचार्य के रूप में लिखता है। परवर्ती काल में शाख्यान शाखा के अनुयायी उत्तरी गुजरात में पाये जाते थे। शाङ्खायन तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में काण्डमायन के साथ उल्लिखित हैं।

शाङ्खायन आरण्यक : ऋग्वेद का एक आरण्यक। इस आरण्यक का सम्पादन तथा अंग्रेजी अनुवाद प्रो० कीथ ने किया है।

शाङ्खायनगृह्यसूत्र : गृह्यसूत्रों के वर्ग में ऋग्वेद से सम्बन्धित शाङ्खायनगृह्यसूत्र प्रमुखतया प्रचलित है।

शाङ्खायनब्राह्मण : यह ऋग्वेद की कौषीतकि शाखा का ब्राह्मण है। कौषीतकिब्राह्मण नाम से भी यह ख्यात है।

शाङ्खायनश्रौतसूत्र : ऋग्वेदीय साहित्यान्तर्गत संहिता और ब्राह्मण के पश्चात् तीसरी कोटि का साहित्य। यह 48 अध्यायों में है। शाङ्खायन श्रौतसूत्र का शाङ्खायन ब्राह्मण से सम्बन्ध है। इस श्रौतसूत्र के पन्द्रहवें और सोलहवें अध्याय की रचना ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषाशैली में हुई है। इससे इसकी प्राचीनता अनुमानित की जाती है। इसके सत्रहवें औऱ अठारहवें अध्याय का सम्बन्ध कौषीतकि आरण्यक के पहले दो अध्यायों के साथ घनिष्ठ प्रतीत होता है।

शाट्यायन : शाट्य के गोत्रज शाट्यायन का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (8.1.4.9;10.4.5.2) में दो बार हुआ है। जैमिनीय उपनिषद्ब्राह्मण में प्रायः इनका उल्लेख है। वंशसूची में ये ज्वालायन के शिष्य कहे गये हैं तथा सामविधान ब्रा० की वंशसूची में बादरायण के शिष्य उल्लिखित हैं। शाट्यायनों का उल्लेख सूत्रों में भरा पड़ा है। शाट्यायन ब्राह्मण तथा शाट्यायनक का भी उनमें उल्लेख है।

शाट्यायनब्राह्मण : आश्वलायन श्रौतसूत्र में शाट्यायन ब्राह्मण का उल्लेख है।

शाण्डिल्य : शण्डिल के वंशज शाण्डिल्य कहलाते हैं। अनेक आचार्यों का यह वंशबोधक नाम है। सबसे महत्त्वपूर्ण शाण्डिल्य वे हैं जो अनेक बार शतपथ ब्रा० में सुयोग्य विद्वान् के रूप में वर्णित हैं। इससे स्पष्ट है कि वे अग्निक्रियाओं (यज्ञों) के सबसे बड़े आचार्यों में थे, जिनसे (यज्ञों से) शतपथ ब्रा० का पाँचवाँ तथा उसके परवर्ती अध्याय भरे पड़े हैं। वंशब्राह्मण के दसवें अध्याय के अन्त में उन्हें कुशिक का शिष्य तथा वात्स्य का आचार्य कहा गया है। यह गोत्रनाम आगे चलकर बहुत प्रसिद्ध हुआ। विशेष विवरण के लिए दे० गोत्र प्रवरमञ्जरी।

शाण्डिल्यभक्तिसूत्र : यह एक विशिष्ट भागवत (वैष्णव) ग्रन्थ है। इसमें भक्तितत्त्व का विवेचन किया गया है। भक्तिशास्त्र के मौलिक ग्रन्थों में शाण्डिल्य तथा नारद के भक्तिसूत्र ही आते हैं।

शाण्डिल्यायन : शाण्डिल्य के गोत्रापत्य (वंशज) शाण्डिल्यायन कहलाते हैं। शतपथब्राह्मण में यह एक आचार्य का वंशसूचक नाम है। अवश्य वे तथा चेलक एक ही व्यक्ति हैं औऱ इसलिए यह सोचना ठीक है कि चै‍लिक जीवल उनके पुत्र का नाम था। यह सन्देहास्पद है कि वे प्रवाहण जैवलि के पितामह थे जो ब्राह्मण के बदले राजकुमार था।

शान्ति : (1) धार्मिक जीवन की एक बड़ी उपलब्धि। पद्मपुराण (क्रियायोगसार, अध्याय 15) में इसकी निम्नलिखित परिभाषा है:

यत्किञ्चिद् वस्तु सम्प्राप्य स्वल्पं वा यदि वा बहु। या तुष्टिर्जायते चित्ते शान्तिः सा गद्यते बुधैः॥

[स्वल्प अथवा अधिक जिस किसी वस्तु को पाकर चित्त में जो संतोष उत्पन्न होता है उसे शान्ति कहते हैं।]

(2) दुर्गा का भी एक नाम शान्ति है। देवीपुराण के देवीनिरुक्ताध्याय में कथन है :

उत्पत्ति-स्थिति-नाशेषु सत्त्वादित्रिगुणा मता। सर्वज्ञा सर्ववेत्तृत्वाच्छान्तित्वाच्छान्तिरुच्यते॥

शान्तिकर्म : अथर्ववेदीय कर्मकाण्ड तीन भागों में विभक्त है-- (1) स्वस्तिक (कल्याणकारी) (2) पौष्टिक (पोषण करने वाला) और (3) शान्तिक (उपद्रव शान्त करनेवाला)। वे सभी कर्म शान्तिकर्म कहलाते हैं जिनसे आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक उपद्रव शान्त होते हैं। आगे चलकर ज्योतिष की व्यापकता बढ़ जाने पर ग्रहशान्ति कर्मकाण्ड का प्रधान अङ्ग बन गया। यह माना जाने लगा कि दुष्ट ग्रहों के कारण ही मनुष्य पर विपत्तियाँ आती हैं, इसलिए विपत्तियों से बचने के लिए ग्रहशान्ति अथवा ग्रहों की पूजा आवश्यक है।

शान्तिकर्मों में अद्भुतशान्ति नामक भी कर्म है। प्रकृतिविरुद्ध अद्भुत आपदाओं की पूर्व सूचना के लिए देवता 'उपसर्ग' उत्पन्न करते हैं। इस सम्बन्ध में शान्तिकर्म करने से भावी आपत्तियों की निवृत्ति होती है (दे० 'अद्भुतसागर' में आथर्वण अद्भुतवचनम्)। इन उपसर्गों के कारण प्रायः नैतिक होते हैं :

अतिलोभादसत्याद्वा नास्तिक्याद्वाप्यधर्मतः। नरापचारान्नियतमुपसर्गः प्रवर्तते॥ ततोऽपचारान्नियतमपवर्जन्ति देवताः। ताः सृजन्त्यद्भुतांस्तांस्तु दिव्यनाभसभूमिजान्॥ (गर्गसंहिता)

शान्तिकल्प : यह अथर्ववेद का एक उपांग है। इस कल्प में पहले विनायकों द्वारा ग्रस्त प्राणी के लक्षण हैं। उनकी शान्ति के लिए द्रव्य एवं सामग्री इकट्ठा करने, पूजा, अभिषेक और वैनायक होमादि करने का विधान इस कल्प में बतलाया गया है। आदित्यादि नवग्रहों के जप, यज्ञ आदि भी इसी में सन्निविष्ट हैं।

शान्तिपञ्चमी : श्रावण शुक्ल पञ्चमी को काले तथा अन्य रंगों से सर्पों की आकृति बनाकर उनकी गन्ध-अक्षत-लावा आदि से पूजा करनी चाहिए तथा अग्रिम मास की पञ्चमी को दर्भों से साँप बनाकर उनकी तथा इन्द्राणी की पूजा करनी चाहिए। इससे सर्प सर्वदा व्रतकर्ता के ऊपर प्रसन्न रहते हैं। इसका मन्त्र है 'कुरुकुल्ले हुं फट् स्वाहा'।

शाप : क्रोधपूर्वक किसी के अनिष्ट का उद्घोष 'शाप' कहलाता है। विशेषकर ऋषि, मुनि, तपस्वी आदि के अनिष्ट कथन को शाप कहते हैं। किसी महान् नैतिक अपराध के हो जाने पर शाप दिया जाता था। इसके अनेक उदाहरण प्राचीन साहित्य में उपलब्ध हैं। गौतम ने पतिव्रत भङ्ग के कारण अपनी पत्नी अहल्या को शाप दिया था कि वह शिला हो जाय। दुर्वासा अपने क्रोधी स्वभाव के कारण शाप देने के लिए प्रसिद्ध थे।

शाबर भाष्य : दे० 'शबर स्वामी'।

शाम्बव्य गृह्यसूत्र : मुख्य गृह्य ग्रन्थों में शाम्बव्य के सूत्र का नाम भी उल्लेखनीय है। यह ऋग्वेद से सम्बन्धित गृह्यसूत्र है।

शाम्भरायणी व्रत : यह नक्षत्रव्रत है और अच्युत इसके देवता हैं। सात वर्षपर्यन्त इसके आचरण का विधान है। बारह नक्षत्रों, जैसे--कृतिका, मृगशिरा, पुष्य तथा इसी प्रकार के अन्य नक्षत्रों के हिसाब से वर्ष के बारह मासों का नामोल्लेख किया गया है, यथा कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष आदि। कार्तिक मास की पूर्णिमा से व्रत का आरम्भ कर विष्णु का पूजन करना चाहिए। कार्तिक मास से अग्रिम चार मासों के लिए कृशरा (खिचड़ी) नैवेद्य है, फाल्गुन से संयाव (हलुआ) तथा आषाढ़ से पायस (खीर)। ब्राह्मणों को भी नैवेद्य के हिसाब से भोजन कराया जाय। शाम्भरायणी नामक ब्राह्मणी स्त्री की चाँदी की प्रतिमा की स्थापना की जाय। शाम्भरायणी उस ब्राह्मणी का नाम है जिससे बृहस्पति ने इन्द्र के पूर्वजों के बारे में पूछा था। भगवान् कृष्ण ने भी इस आदरणीय महिला की कथा सुनायी है। (भविष्योत्तरपुराण)।

शारदातिलक : शारदातिलक तन्त्र शाक्त मत का अधिकारपूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ है। इसके रचयिता लक्ष्‍मण देशिक हैं। ये ग्यारहवीं शती में उत्पन्न हुए थे। इस ग्रंन्थ में केवल मन्त्र एवं यातु (जादू) हैं, क्रियाएँ बहुत कम हैं। यह सरस्वती से सम्बधित है जो शारदा भी कहलाती हैं। यह मन्त्रों का वर्गीकरण उपस्थित करता है, उनके प्रयोगार्थ प्रारम्भिक दीक्षा तथा याज्ञिक अग्नि में होम करने के लिए मन्त्रों का प्रयोजन बतलाता है। मुद्राओं तथा अनेक यन्त्रों का वर्णन करता है। अन्तिम अध्याय में तान्त्रिक योग है।

शारदापूजा : शरद् काल की नवमी तिथि की देवताओं के द्वारा दुर्गा देवी का आवाहन हुआ था, इसलिए ये शारदा कहलाती हैं :

शरत्काले पुरा यस्माद् नवम्यां बोधिता सुरैः। शारदा सा समाख्याता पीठे लोके च नामतः॥

शरत्कालीन दुर्गापूजा का नाम ही शारदापूजा है। देवीभागवत (अ० 29-30) में शारदापूजा का विस्तृत वर्णन पाया जाता है।

शारदामठ : स्वामी शङ्कराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में से एक। द्वारकापुरी के मठ का नाम शारदामठ या शारदापीठ है।

शारीरक : ब्रह्माण्ड या पिण्ड शरीर में निवास करने वाला अद्वैत आत्मा ही शारीर है। उसको आधार मानकर लिखे गये ग्रन्थ को 'शारीरक' कहते हैं। वेदव्यासकृत वेदान्तसूत्रों को ही 'शारीरकसूत्र' कहा जाता है। इनके ऊपर लिखे गये शाङ्करभाष्य का नाम भी 'शारीरक भाष्य' है।

शालग्राम : विष्णुमूर्ति का प्रतीक गोल शिलाखण्ड। नेपाल की गण्डकी अथवा नारायणी नदी में प्राप्‍त वज्रकीट से कृत चक्रयुक्त शिला, अथवा द्वारका में प्राप्त ऐसी ही (गोमतीचक्र) शिला शालग्राम कहलाती है। इसके लक्षण और माहात्म्य आदि पुराणों में विस्तार से वर्णित हैं। पद्मपुराण के पातालखण्ड में इसका विशेष वर्णन है।

शास्त्र : शास्त्र वह है जिससे शासन, आदेश अथवा शिक्षण किया जाता है। शास्त्र की उत्पत्ति का वर्णन मत्स्यपुराण (अ० 3) में इस प्रकार दिया हुआ है :

पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्। नित्यशब्दमयं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम्॥ अनन्तरञ्च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः। मीमांसा-न्याय-विद्याश्च प्रमाणं तर्कसंयुतम्॥ कार्याकार्य में शास्त्र ही प्रमाण माना गया है।

शास्त्रदर्पण : इस वेदान्तग्रन्थ के रचयिता आचार्य अमलानन्द हैं। इसमें ब्रह्मसूत्र के अधिकरणों की व्याख्या की गयी है। इसका रचनाकाल तेरहवीं शती का उत्तरार्ध है।

शिक्षा : छः वेदाङ्गों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द) में से प्रथम वेदाङ्ग। इसको वेदों की नासिका कहा गया है। यह शुद्ध उच्चारण (ध्वनि) का शास्त्र है। स्वर और व्यंजनों का शुद्ध उच्चारण शब्दों के अर्थ का ठीक-ठीक बोध कराता है। मन्त्रों के ठीक उच्चारण से ही उनका मनोवांछित प्रभाव पड़ता है। वैदिक मन्त्रों के उच्चारण में स्वर प्रक्रिया का विशेष महत्त्व है।

यद्यपि यह शास्त्र बहुत पुराना है, तथापि इस विषय पर लिखे हुए ग्रन्थ बहुत कम मिलते हैं। एक अनुश्रुति के अनुसार जैगीषव्य के शिष्य बाभ्रव्य इस शास्त्र के प्रवर्तक थे। ऋग्वेद के क्रमपाठ की व्यवस्था भी इन्होंने ही की थी। महाभारत (शान्ति, 342.104) के अनुसार आचार्य गालव ने एक शिक्षाशास्त्रीय ग्रन्थ का निर्माण किया था। इनका उल्लेख अष्टाध्यायी में भी पाया जाता है। वास्तव में पाञ्चाल बाभ्रव्य का ही दूसरा नाम गालव था। भारद्वाज ऋषि प्रणीत 'भारद्वाजशिक्षा' नामक ग्रन्थ 'भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट' पूना से प्रकाशित हुआ है। परन्तु यह बहुत प्राचीन नहीं है। 'चारायणीशिक्षा' की एक हस्तलिखित प्रति डॉ० कीलहार्न को कश्मीर में प्राप्त हुई थी। राजशेखर की काव्यमीमांसा में पाणिनि के पूर्ववर्ती शब्दवित् आचार्य आपिशलि का उल्लेख हुआ है। पाणिनि के समय तक शिक्षाशास्त्र का पूर्ण विकास हो चुका था। 'पाणिनीय शिक्षा' इस विषय का प्रथम ग्रन्थ है जिसमें इस शास्त्र का सुव्यवस्थित विवेचन हुआ है। इस नाम से उपलब्ध ग्रन्थ का सम्पादन और प्रकाशन आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी सरस्वती ने किया था। वाराणसी से एक ग्रन्थ 'शिक्षासंग्रह' के नाम से प्रकाशित हुआ था, जिसमें गौतमशिक्षा, नारदीय शिक्षा, पाण्डुकीय शिक्षा और भारद्वाज शिक्षा सम्मिलित हैं। मूलतः वेदों के अलग-अलग शिक्षाग्रन्थ थे। आज केवल यजुर्वेद की याज्ञवल्क्यशिक्षा, सामवेद की नारदशिक्षा, अथर्ववेद की माण्डूकीशिक्षा ही उपलब्ध हैं। ऋग्वेद का कोई स्वतन्त्र शिक्षा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है; उसके उच्चारण के लिए पाणिनीय शिक्षा का ही उपयोग किया जाता है।

ध्वनि का आरोह-अवरोह, उच्चारण की शुद्धता, उच्चारण की कालावधि का परिसीमन शिक्षाशास्त्र के मुख्य विषय हैं। इसके वर्ण्य विषयों में वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम और सन्तान इन छः की गणना होती है। 'अ' से लेकर 'ह' तक जितने वर्ण हैं उनके उच्चारण के विविध स्थान निश्चित हैं। वे हैं--कण्ठ, तालु, मूर्ध्ना, दन्त और ओष्ठ। स्वरों के तीन भेद हैं--उदात्, अनुदात्त और स्वरित। मात्राएँ तीन हैं--ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत। बल प्रयत्न को कहते हैं। प्रयत्न दो प्रकार के हैं--अल्पप्राण और महाप्राण। श्रुतिमधुर पाठ को साम कहा जाता है। सन्धि को सन्तान कहते हैं। शिक्षा के इन छः वर्ण्य विषयों के ज्ञान से ही भाषा का शुद्ध उच्चारण औऱ अर्थ बोध संभव है।

शिक्षावल्ली : तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन विभागों में प्रथम विभाग। इसमें व्याकरण सम्बन्धी कुछ विवेचन के पश्चात् अद्वैत सिद्धान्तसमर्थक श्रुतियों का विन्यास है। इसी में स्नातक को दिया जाने वाला आचार्य का दीक्षान्त प्रवचन भी है, जो संप्रति अनेक भारतीय विश्वविद्यालयों के पदवीदानसमारोह में स्नातकों के समक्ष पढ़ा जाता है।

शिखरिणीमाला : अप्पय दीक्षित द्वारा लिखा गया एक ग्रन्थ। इसमें चौसठ शिखरिणी छन्दों में भगवान् शङ्कर के सगुण स्वरूप की स्तुति की गयी है।

शिखा : सिर के मध्य में स्थित केशपुञ्ज। यह हिन्दुओं का विशेष धार्मिक चिह्न है। चूडाकरण संस्कार के समय सिर के मध्य में बालों का एक गुच्छा छोड़ा जाता है। प्रत्येक धार्मिक कृत्य के समय (देवकर्म के समय) शिखा बन्धन किया जाता है। कर्म करने के तीन आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ) में ही शिखा रखी जाती है, चौथे (संन्यास) में शिखा त्याग दी जाती है।

शिरोव्रत : मुण्डकोपनिषद् (3.2.20) तथा विष्णु ध० सू० (26.12) में इस व्रत का उल्लेख मिलता है। शङ्कराचार्य इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इस व्रत में सिर पर अग्नि (तेज) धारण करना होता है, जो ज्ञान संचय का प्रतीक है।

शिव : एक ही परम तत्त्व की तीन मूर्तियों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) में अन्तिम मूर्ति। ब्रह्मा का कार्य सृष्टि, विष्णु का स्थिति (पालन) और शिव का कार्य संहार करना है। परन्तु साम्प्रदायिक शैवों के अनुसार शिव परम तत्त्व हैं और उनके कार्यों में संहार के अतिरिक्त सृष्टि और स्थिति के कार्य भी सम्मिलित हैं। शिव परम कारुणिक भी हैं और उनमें अनुग्रह अथवा प्रसाद तथा तिरोभाव (गोपन अथवा लोपन) की क्रिया भी पायी जाती है। इस प्रकार उनके कार्य पाँच प्रकार के हैं। शिव की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ इन्हीं कार्यों में से किसी न किसी से सम्बन्द्ध हैं। इनका उद्देश्य भक्तों का कल्याण करना है। शिव विभिन्न कलाओं और सिद्धियों के प्रवर्तक भी माने गये हैं। संगीत, नृत्य, योग, व्याकरण,व्याख्यान, भैषज्य आदि के मूल प्रवर्तक शिव हैं। इनकी कल्पना सब जीवधारियों के स्वामी के रूप में भी की गयी है, इसलिए ये पशुपति, भूतपति और भूतनाथ कहलाते हैं। ये सभी देवताओं में श्रेष्ठ माने जाते हैं, अतः महेश्वर और महादेव इनके विरुद पाये जाते हैं। इनमें माया की अनन्त शक्ति है, अतः ये मायापति भी हैं। उमा के पति होने से इनका एक पर्याय उमापति है। इनके अनेक विरुद और पर्याय हैं। महाभारत (13,17) में इनकी एक लम्बी सहस्रनाम सूची दी हुई है।

शिव की कल्पना की उत्पत्ति और विकास का क्रम वैदिक साहित्य से ही मिलना प्रारम्भ हो जाता है। ऋग्वेद में रुद्र की कल्पना में ही शिव की अनेक विशेषताओं और तत्सम्बन्धी पौराणिक गाथाओं के मूल का समावेश है। इसी प्रकार शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता (अ० 16) में दो शतरुद्रिय पाठ हैं उसमें शिव का मूल रूप प्रतिबिम्बित है। उसमें शिव को गिरीश (पर्वत पर रहने वाला), पशुचर्म धारण करने वाला (कृत्तिवास) तथा जटाजूट रखने वाला (कपर्दी) कहा गया है। अथर्वेद में रुद्र की बड़ी महिमा बतायी गयी है और उनके लिए भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र महादेव और ईशान विरुदों का प्रयोग किया गया है।

सिन्धुघाटी के उत्खनन से जो धार्मिक वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं उनमें योगी शिव की भी एक प्रतिकृति है। परन्तु अभी तक संज्ञा के रूप में शिव का नाम न मिलकर विशेषण के रूप में ही मिला है। उत्तर वैदिक साहित्य में शिव रुद्र के पर्याय के रूप में मिलने लगता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में रुद्र के अनेक नामों में शिव भी एक है। शाङ्खायन, कौषीतकि आदि ब्राह्मणों में शिव, रुद्र, महादेव, महेश्वर, ईशान आदि रुद्र के नाम मिलते हैं। शतपथ और कौषीतकि ब्राह्मण में रुद्र का एक विरुद अशनि भी पाया जाता है। इन आठ विरुदों में से रुद्र शर्व, उग्र तथा अशनि शिव के घोर (भयंकर) रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं; इसी प्रकार भव, पशुपति, महादेव और ईशान उनके सौम्य (सुन्दर) रूप का। यजुर्वेद में उनके माङ्गलिक विरुद शम्भु और शङ्कर का भी उल्लेख है।

शिव की पूजा का क्रमशः विकास कब से हुआ यह बतलाना कठिन है। किन्तु इतना निश्चित है कि ईसापूर्व में ही शैव सम्प्रदाय का उदय हो चुका था। पाणिनि ने अष्टाध्यायी (4.1.115) में शिव के उपासकों (शैवों) का उल्लेख किया है। पतञ्जलि ने महाभाष्य में रुद्र और शिव का उल्लेख किया है। महाभाष्य में यह भी कहा गया है कि शिवभागवत अयःशूल (लोहे का त्रिशूल) और दण्ड अजिन धारण करते थे। पुराणों में (विशेषतः शैव पुराणों में) शिव का विस्तृत वर्णन और शिवतत्त्व का विवेचन पाया जाता है। संस्कृत के शुद्ध साहित्य और अभिलेखों में शिव की स्तुतियाँ भरी पड़ी हैं।

पुराणों और पारवर्ती साहित्य में शिव की कल्पना योगिराज के रूप में की गयी है। उनका निवास स्थान कैलास पर्वत है। व्याघ्रचर्म (बाघम्बर) पर वे बैठते हैं, ध्यान में मग्न रहने हैं। वे अपने ध्यान और तपोबल से जगत को धारण करते हैं। उनके सिर पर जटाजूट है जिसमें द्वितीया का नवचन्द्र जटित है। इसी जटा से जगत्पावनी गङ्गा प्रवाहित होती है। ललाट के मध्य में उनका तीसरा नेत्र है जो अन्तर्दृष्टि और ज्ञान का प्रतीक है। यह प्रलयङ्कर भी है। इसी से शिव ने काम का दहन किया था। शिव का कण्ठ नीला है इसलिए वे नीलकण्ठ कहलाते हैं। समुद्र मन्थन से जो विष निकला था उसका पान करके उन्होंने शिव को बचा लिया था। उनके कण्ठ और भुजाओं मे सर्प लिपटे रहते हैं। वे अपने सम्पूर्ण शरीर पर भस्म और हाथ में त्रिशूल धारण करते हैं। उनके वामाङ्क में पार्वती विराजमान रहती हैं और उनके सामने उनका वाहन नन्दी। वे अपने गणों से घिरे रहते हैं। योगिराज के अतिरिक्त नटराज के रूप में भी शिव की कल्पना हुई है। वे नाट्य औ संगीत के भी अधिष्ठाता हैं, 108 प्रकार के नाट्यों की उत्पत्ति शिव से मानी जाती है जिनमें लास्य और ताण्डव दोनों सम्मिलित हैं। दक्षिणामूर्ति के रूप में भी शिव की कल्पना हुई है। यह शिव के जगद्गुरुत्व का रूप है। इस रूप में वे व्याख्यान अथवा तर्क की मुद्रा में अंकित किये जाते हैं। मूर्त रूप के अतिरिक्त अमूर्त अथवा प्रतीक रूप में भी शिव की भावना होती है। इनके प्रतीक को लिङ्ग कहते हैं जो उनके निश्चल ज्ञान और तेज का प्रतिनिधित्व करता है। पुराणों में शिव के अनेक अवतारों का वर्णन है। लगता है कि विष्णु के अवतारों की पद्धति पर यह कल्पना की गयी है। प्रायः दुष्टों के विनाश तथा भक्तों की परीक्षा आदि के लिए शिव अवतार धारण करते हैं। शिव-पार्वती के विवाह की कथा संस्कृत साहित्य और लोक साहित्य में भी बहुत प्रचलित है।

शिव के भयङ्कर रूप की कल्पना भी पायी जाती है जिसका सम्बन्ध उनके विध्वंसक रूप से है। वे श्मशान, रण्क्षेत्र, चौराहों (दुर्घटनास्थल) में निवास करते हैं। मुण्डमाला धारण करते हैं। भूत, प्रेत, और गणों से घिरे रहते हैं। वे स्वयं महाकाल (मृत्यु तथा उसके भी काल) हैं, जिसके द्वारा महाप्रलय घटित होता है।

इनका एक अर्धनारीश्वर रूप है, जिसमें शिव और शक्ति के युग्म आकार की कल्पना है। इसी प्रकार हरि-हर रूप में शिव और विष्णु के समन्वित रूप का अङ्कन है।

शिव उपपुराण : उन्तीस उपपुराणों में से यह एक है। स्पष्टतः इसका सम्बन्ध शैव सम्प्रदाय से है।

शिवकर्णामृत : अप्पय दीक्षित लिखित एक ग्रन्थ। इसमें शिव की स्तुतियों का संग्रह है।

शिवकाञ्ची : सुदूर दक्षिण भारत का प्रसिद्ध तीर्थ। यहाँ सर्वतीर्थ नामक विस्तृत सरोवर है। मुख्य मन्दिर काशीविश्वनाथ का है। सरोवर के तट पर यात्री मुण्डन और श्राद्ध करते हैं। एकाम्रेश्वर शिवकाञ्ची का मुख्य मन्दिर है। इस क्षेत्र के दूसरे विभाग में वैष्णवतीर्थ विष्णुकाञ्ची स्थित है।

शिवचतुर्थी : भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को शिवचतुर्थी कहा जाता है। उस दिन स्नान, दान, उपवास तथा जप करने से सहस्र गुना पुण्य होता है। गणेश इसके देवता हैं।

शिवचतुर्दशीव्रत : मार्गशीर्ष की कृष्ण त्रयोदशी को एकभक्त पद्धति से आहार तथा शिवजी की प्रार्थना करनी चाहिए। चतुर्दशी को उपवास का विधान है। शंकर तथा उमा की श्वेत कमल तथा गन्धाक्षतादि से चरणों से प्रारम्भ कर सिरपर्यन्त पूजा करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त सभी चतुर्दशियों को व्रत का आयोजन हो सकता है। मार्गशीर्ष मास से प्रारम्भ कर बारह महीनों तक भिन्न-भिन्न नामों से शिवजी को प्रणामाञ्जलि देनी चाहिए। वर्ष के प्रति मास में व्रती क्रमशः निम्न वस्तुओं का सेवन करे-गोमूत्र, गोमय, गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत इत्यादि तथा प्रति मास भिन्न-भिन्न प्रकार के पुष्प समर्पित किये जाँय। कार्तिक मास से एक वर्ष या बारह वर्षों तक यह विधान चलना चाहिए। वर्ष के अन्त वह एक वृष छोड़ दे तथा पर्यङ्कोपयोगी वस्त्र तथा कलश का दान करे। इस व्रत का पुण्य सहस्रों अश्वमेध यज्ञों से बढ़कर है। इससे गम्भीर से गम्भीर पाप भी नष्ट हो जाते हैं।

शिवदृष्टि : शैव मत का एक ग्रन्थ। उत्पलाचार्य के गुरु, काश्मीरीय शिवाद्वैतवाद के मुख्य आचार्य सोमानन्द ने इसकी रचना की थी। इसमें भर्तृहरि के शब्दाद्वयवाद की विशेष समालोचना हुई है।

शिवनक्षत्रपुरुषव्रत : फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में हस्त नक्षत्र के दिन उपवास करने में असमर्थ व्यक्ति को इसका आयोजन करना चाहिए। यह नक्षत्रव्रत है। इसके शिव देवता हैं। इस दिन शङ्करजी के शरीरावयवों को हस्त इत्यादी 27 नक्षत्रों के साथ संयुक्त करते हुए उनका आपादमस्तक पूजन करना चाहिए। तैल एवं लवण रहित नक्त विधि से आहार तथा प्रति नक्त दिन को एक प्रस्थ चावल तथा घृत से परिपूर्ण पात्र का दान करना चाहिए। पारणा के समय शिव तथा उमा की मूर्ति तथा पर्यङ्कोपयोगी वस्त्रों का दान करना चाहिए।

शिवनारायणी पंथ : सुधारवादी निर्गुण शाखा का पन्थ, जिसका प्रवर्तन शिवनारायण नामक सन्त ने किया था। शिवनारायण का जन्म गाजीपुर (उ० प्र०) जिले के भलेसरी गाँव के राजपूत परिवार में हुआ था। इन्होंने संवत् 1790 वि० में इस मत का प्रवर्तन किया। इन्होंने गाजीपुर जिले में ही चार धामों के नाम से चार मठों की स्थापना की। इनके अनुयायियों में सभी वर्ण के लोग सम्मिलित थे, परन्तु निम्न वर्ण और असवर्णों की प्रधानता थी। ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली का बादशाह मुहम्मद शाह (संवत् 1776-1805 वि०) भी इस मत का अनुयायी था। इस पंथ में निराकार ब्रह्म की उपासना होती है और इनके अनुयायी शिवनारायण को ईश्वर का अवतार मानते हैं।

शिवपवित्रव्रत : आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन शिव की आराधना करनी चाहिए। इस दिन शिवप्रतिमा को यज्ञोपवीत (पवित्र सूत्र) पहनाया जाय तथा शिवभक्तों को भोजन कराया जाय। पुनः कार्तिक की पूर्णिमा को शिव की उपासना करनी चाहिए। साथ ही संन्यासियों को दक्षिण देनी चाहिए तथा वस्त्रों का दान करना चाहिए।

शिवपुराण : विष्णुपुराण में अष्टादश पुराणों की जो सूची दी गयी है उसमें शिवपुराण की गणना है, वायुपुराण की नहीं। इसलिए कतिपय विद्वान् दोनों पुराणों को एक ही ग्रन्थ मानते हैं। परन्तु दोनों पुराणों की विषयसूचियों में मेल नहीं है (दे० आनन्दाश्रम, पूना से प्रकाशित वायुपुराण की विषयसूची)। शिवपुराण (विद्येश्वर खण्ड, अ० 2) के अनुसार इसमें मूलतः एक लाख श्लोक थे। व्यास ने इसका संक्षेप कर सात संहिताओं (खण्डों) का चौबीस सहस्र श्लोकों वाला शैव पुराण (शिवपुराण) रचा। स्पष्टतः यह शैव पुराण है। इसके सात खण्डों के नाम इस प्रकार हैं : (1) विद्येश्वरसंहिता (2) रुद्रसंहिता जिसमें सृष्टिखण्ड, सतीखण्ड, पार्वतीखण्ड, कुमारखण्ड, और युद्धखण्ड का समावेश है (3) शतरुद्रसंहिता (4) कोटिरुद्रसंहिता (5) उमासंहिता (6) कैलाससंहिता और (7) वायवीय संहिता। पं० रामनाथ शैव द्वारा सम्पादित तथा वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित शिवपुराण में चौबीस सहस्र श्लोक हैं। इसमें उपर्युक्त सात संहिताएँ पायी जाती हैं।

शिवभागवत : अथर्वशिरस् उपनिषद् में शंकर अथवा शिव के लिए 'भगवान्' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसलिए प्राचीन ग्रन्थों में शिव के उपासकों को 'शिवभागवत' कहा जाने लगा। महाभाष्य (पाणिनि, 5.2.78) में शिवभागवत का उल्लेख है। प्रशस्तपाद ने वैशेषिक सूत्रभाष्य के अन्त में महर्षि कणाद की वन्दना करते हुए कहा है कि 'भगवान् महेश्वर' के प्रसाद से उन्हें ये सूत्र प्राप्त हुए थे। शिवभागवत स्मार्त आचारवादी होते हैं।

शिवयोगयुक्त शिवरात्रिव्रत : फाल्गुन कृष्ण की शिवयोगयुक्त चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। शिव इसके देवता हैं। यह एक राजा की कथा से सम्बद्ध है जो पूर्व जन्म में व्यापारी था तथा सर्वदा उसकी माल चुराने की प्रवृत्ति रहती थी (स्कन्दपुराण)।

शिवरथव्रत : हेमन्त (मार्गशीर्ष-पौष) में एकभक्त विधि से व्रत करना चाहिए। इसके अनुसार एक रथ बनवाकर उसे रंग-बिरंगे कपड़ों से सजाकर उसमें चार श्वेत वृषभ जोते जाँय। चावलों के आटे की शिवप्रतिमा बनाकर उसे रथ में विराजमान करके रात्रि में सार्वजनिक सड़कों पर हाँकते हुए रथ को शिवमन्दिर तक लाया जाय। रात्रि में दीपों को प्रज्वलित करते हुए जागरण तथा नाटक आदि का आयोजन विहित है। दूसरे दिन शिवभक्तों, अन्धों, निर्धनों तथा दलितों-पतितों को भोजन कराया जाय। इसके बाद शिवजी को रथ समर्पित कर दिया जाय। यह ऋतुव्रत है।

शिवरात्रि : फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी को 'शिवरात्रि' कहते हैं। इसी दिन शिव और पार्वती का विवाह हुआ था। इस दिन महाशिवरात्रि का व्रत किया जाता है। इस व्रत को करने का अधिकार सभी को है।

शिवशक्तिसिद्धि : महाकवि श्रीहर्ष द्वारा रचित एक दार्शनिक ग्रन्थ। इसमें शिव और शक्ति के अद्वयवाद का विवेचन हुआ है।

शीतलाषष्ठी : बंगाल में माघ शुक्ल षष्ठी को, गुजरात में श्रावण कृष्ण अष्टमी को शीतला व्रतविधि मनायी जाती है। उत्तर भारत में चैत्र कृष्ण अष्टमी को शीतलाष्टमी मनायी जाती है। इसमें शीतला देवी की विधिवत् पूजा की जाती है।

शीतलाष्टमी : चैत्र कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। चेचक से मुक्ति के लिए शीतला (माता अथवा चेचक की देवी के नाम से विख्यात) देवी की पूजा की जाती है। इस अवसर पर आठ घी के दीपक रात-दिन देवी के मन्दिर में प्रज्वलित किये जाने चाहिए। साथ ही गौ का दूध तथा उशीर मिश्रित जल छिड़का जाय। इसके उपरान्त एक गदहा, एक झाड़ू तथा एक सूप का पृथक्-पृथक् दान किया जाय। शीतला देवी को नग्नावस्था में एक हाथ में झाड़ू एवं कलश तथा दूसरे में सूप लिये हुए चित्रित किया जाता है। (शीतला देवी के लिए देखिए फॉर्ब की रसमाला, जिल्द 2, पृ० 322-352 तथा शीतला-मंगला के लिए ए० सी० सेन की 'बंगाली भाषा तथा साहित्य', पृ० 365-367)।

शील : धर्म के मूल आचरणों में एक शील भी है। मनुस्मृति (अ० 2) में कथन है:

वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्। आचारश्चैव साधूनामात्मनः तुष्टिरेव च॥

इसके अनुसार वेदज्ञों के आचरण को शील कहते हैं। हारीत के अनुसार ब्रह्मण्यता आदि त्रयोदश (तेरह) प्रकार के गुणसमूह को शील कहते हैं। यथा---

ब्रह्मण्यता, देवपितृभक्तता, सौम्यता, अपरोपतापिता, अनसूयुता, मृदुता, अपारुष्य, मैत्रता, प्रियवादिता, कृतज्ञता, शरण्यता, कारुण्य, प्रशान्तिः। इत त्रयोदशविधं शीलम्।

गोविन्दराज के अनुसार राग-द्वेषपरित्याग को शील कहते हैं। दे० महाभारत का शील निरूपणाध्याय।

शुक्र : (1) व्यास के पुत्र (शुकदेव) जिन्होंने राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत की कथा सुनायी थी। हरिवंश तथा वायुपुराण में इनकी कथा मिलती है। अग्निपुराण के प्रजापतिसर्ग नामक अध्याय में भी शुक की कथा पायी जाती है। देवीभागवत (1.14.123) में एक दूसरे प्रकार से शुक की कथा दी हुई है।

(2) शुक पक्षी-विशेष का नाम है। इससे शुभाशुभ का ज्ञान होता है। वसन्तराजशाकुन (वर्ग 8) में लिखा है :

वाम: पठन् राजशुकः प्रयाणे, शुभं भवेद्दक्षिणतः प्रवेशे। वनेचरा काष्ठशुकाः प्रयातुः, स्युः सिद्धिदाः संमुखमापतन्तः॥

शुक्र : एक चमकीला ग्रह। इसके पर्याय हैं दैत्यगुरु, काव्य, उशना, भार्गव, कवि, सित, आस्फुजित, भृगुसुत, भृगु आदि। वामनपुराण (अ० 66) में शुक्र के नामकरण की अद्भुत कथा दी हुई है। ये दैत्य राजा बलि के पुरोहित थे। इनकी पत्नी का नाम शतपर्वा था। कन्या देवयानी का विवाह सोमवंश के राजा ययाति से हुआ था। शुक्र को उशना भी कहते हैं जो राजशास्त्रकार माने जाते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (विद्यासमुद्देश) में ये दण्डनीति के एक सम्प्रदाय (औशनस) के प्रवर्तक कहे गये हैं, जिसके अनुसार दण्डनीति ही एक मात्र विद्या है। 'शुक्रनीतिसार' शुक्र की ही परम्परा में लिखा गया ग्रन्थ है।

शुक्रव्रत : शुक्रवार के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र होने पर मनुष्य को नक्त विधि से आहार करना चाहिए। यदि ऐसे ही शुक्रवार को सप्तमी पड़े तो चाँदी या काँसे के पात्र में सुवर्ण की शुक्र की मूर्ति रखकर इसकी श्वेत वस्त्रों तथा चन्दन के प्रलेप से पूजा की जानी चाहिए। प्रतिमा के सम्मुख खीर तथा घी रखकर थोड़ी देर बाद समस्त वस्तुओं का दान कर दिया जाय तथा दान के समय शुक्र से प्रार्थना की जाय कि 'हे शुक्र, हमारी समस्त बुराइयों एवं कुग्रहों के दुष्प्रभाव को दूर करके सुस्वास्थ्य दीर्घायु प्रदान कीजिए।'

शुक्ल यजुर्वेद : यजुर्वेद के दो मुख्य विभाग हैं, शुक्ल यजुर्वेद तथा कृष्ण यजुर्वेद। जिसमें शुद्ध पद्यात्मक (छन्दोबद्ध) मन्त्र हैं उसे शुक्ल यजुर्वेद कहा जाता है। जिस भाग में मन्त्र तथा विधि के गद्य का मिश्रण है उसे कृष्ण यजुर्वेद कहते हैं। दे० 'यजुर्वेद'।

शुद्ध : शुचि, पवित्र, पावन, निष्कल्मष वस्तु। शरीर की शुद्धता-अशुद्धता का विस्तृत वर्णन पद्मपुराण (उन्नीसवें अध्याय, उत्तर खण्ड) में पाया जाता है।

शुद्धि : धार्मिक कृत्य के लिए अर्हता उत्पन्न करने वाले प्रयोजक संकारविशेष को शुद्धि कहते हैं। जननाशौच तथा मरणाशौच से शुद्ध होने की क्रिया को भी शुद्धि कहते हैं। वस्तुओं को शुद्ध करने का नाम भी शुद्धि है। विस्तृत वर्णन 'शुद्धितत्व' नामक ग्रन्थ में देखिए।

शुद्धिव्रत : शरद् ऋतु के अन्तिम पाँच दिन अथवा बारहों महीनों की एकादशी को शुद्धिव्रत किया जाय। यह तिथिव्रत है। हरि इसके देवता हैं। जिस समय समुद्र मंथन हुआ था, उसमें से पाँच गौएँ निकली थीं जिनकी अंगज वस्तुएँ पवित्र मानी गयीं। यथा गोमय, रोचना, (पीत चूर्ण), दुग्ध, गोमूत्र, दही तथा घी। गौ के गोबर से बिल्व वृक्ष अथवा श्रीवृक्ष उत्पन्न हुआ। लक्ष्मी के वास करने से इसे श्रीवृक्ष कहते हैं। गोरोचना से समस्त पुनीत इच्छाएँ उत्पन्न हुईँ। गोमूत्र से गुग्गुलु तथा संसार की समस्त शक्ति गौ के दूध से उत्पन्न हुई। समस्त पुनीत वस्तुएँ गौ के दही से उत्पन्न हुईँ तथा समस्त सौन्दर्य गौ के घी से उत्पन्न हुआ। इसलिए हरि की प्रतिमा को दूध, दही, घी से स्नान कराकर उसका अगस्ति के पुष्पों, गुग्गुलु तथा दीपक जलाकर पूजन करना चाहिए।

इस व्रत के आचरण से स्वर्ग प्राप्त होंता है, साथ ही व्रतकर्त्ता के पूर्वज भी स्वर्ग प्राप्त कर लेते हैं। व्रत के अन्त में एक गौ के साथ-साथ जलधेनु, घृतधेनु एवं मधुधेनु का दान करना चाहिए। इससे वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।

शुनःशेप : वेदसूक्त रचयिता एक ऋषिकुमार। ये ऋचीक मुनि के पुत्र थे, यज्ञार्थ अम्बरीष द्वारा खरीदे गये थे। विश्वामित्र ने इनकी रक्षा की थी। वाल्मीकिरामायण (बालकाण्ड, 61 सर्ग) में शुनःशेप की कथा इस प्रकार दी हुई है---'राजा हरिश्चन्द्र वरुण के शाप के कारण जलोदर रोग से पीडित था। वरुण की तुष्टि के लिए यज्ञार्थ उसने अजीगर्त के पुत्र शुनःशेप को बलिपशु के रूप में प्राप्त किया। करुणार्द्र होकर विश्वामित्र ने अत्यन्त व्याकुल शुन:--शेप को देखा और उसको मुक्त किया। तब से शुनःशेप विश्वामित्र के पुत्र कहलाये।

ऋग्वेद के वरुण सूक्त के आधार पर शुन:--शेप की कथा का विकास हुआ। इसमें शुनःशेप द्वारा पाप से मुक्त होने की प्रार्थना की गयी है। इसका आख्यान पहले ऐतरेय ब्राह्मण में आया है और फिर वहाँ से पुराणों में इसका विस्तार हुआ।

शुम्भ : एक दानव, जो गवेष्टी का पुत्र और प्रह्लाद का पौत्र था। यह दुर्गा के द्वारा मारा गया। अग्निपुराण (कश्यपीय सर्गाध्याय), वामनपुराण (52 अध्याय) तथा मार्कण्डेय पुराण (देवीमाहात्म्य, 10 अध्याय) में शुम्भ की कथा पायी जाती है।

शूकरक्षेत्र : कहा जाता है कि यहाँ गोस्वामी तुलसीदासजी का गुरुद्वारा था। दे० 'शौकर क्षेत्र'।

शूद्र : चार वर्णों में चतुर्थ वर्ण। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के अनुसार विराट् पुरुष के पैरों से इसकी उत्पत्ति हुई थी। समाज की सावयव कल्पना के आधार पर समाज का यह अविभाज्य अङ्ग है। पैरों के समान चलना अथवा प्रेष्य होना इसका कर्तव्य है। स्मृतियों के अनुसार प्रथम तीन वर्णों की सेवा इसका कार्य और जीविका है। इसका एक मात्र आश्रम गार्हस्थ्य है।

धर्मशास्त्र में चारों वर्णों के लिए जिन षट्कर्मों का विधान है (पठन-पाठन, यजन-याजन तथा दान-प्रतिग्रह) उनमें से शूद्र को पठन (वैदिक मन्त्रों को छोड़कर), यजन (निर्मन्त्र) तथा दान (शुद्धि) का अधिकार है। सेवा उसका विशेष कार्य है। इस प्रकार शूद्र स्वतंत्र श्रमिक है, भृत्य अथवा दास नहीं, जो किसी भी वर्ण का व्यक्ति हो सकता है।

शूद्रान्न तथा शूद्र का दिया हुआ दान परवर्ती ग्रन्थों में प्रायः वर्जित है। किन्तु कई शास्त्रकारों ने इसका अपवाद स्वीकार किया है:

कन्दुपक्वानि तैलेन पायसं दधिसक्तवः। द्विजैरेतानि भोज्यानि शूद्रगेहकृतान्यपि॥

शूद्रों के सम्बन्ध में विशेष विवरण के लिए कमलाकर भट्ट का शूद्रकमलाकर नामक निबन्ध ग्रन्थ देखिए।

शून्य : श्वान के सोने योग्य, एकान्त का स्थान (शुने हितम्, शुनः संप्रसारणं यच्च।)। चाणक्यनीतिशास्त्र में शून्य के विषय में कथन है :

अविद्यजीवनं शून्यं दिक् शून्या चेदबान्धवा। पुत्रहीनं गृहं शून्यं सर्वशून्या दरिद्रता॥

(2) दर्शन शास्त्र तथा गणित में भाव और अभाव से विलक्षण स्थिति का नाम शून्य है।

शून्यवाद : अनात्मवादी बौद्ध दार्शनिकों की एक शाखा। इसके अनुसार संसार को 'सर्व शून्यम्' माना जाता है। इसी अभिप्राय से यह मत 'वैनाशिक' भी कहलाता है।

श्रृङ्गवेरपुर : रामायणवर्णित निषादराज गुह की गङ्गा तीरस्थ राजधानी। यह प्रयाग से प्रायः दस कोस दूर पश्चिम में है। भगवान् श्री राम ने वनवास के समय निषादराज के कहने से यहाँ रात्रि में निवास किया था। यहाँ श्रृङ्गी (ऋष्यश्रृंङ्ग) ऋषि तथा उनकी पत्नी दशरथसुता शान्ता देवी का मन्दिर है। गङ्गाजी में षऋयश्रृंङग के पिता के नाम पर विभाण्डककुण्ड है। रामचौरा ग्राम में गङ्गा के किनारे एक मन्दिर में रामचन्द्रजी के चरणचिह्न हैं। पास में रामनगर स्थान है, जहाँ प्रत्येक पूर्णिमा और अमावस्या को मेला लगता है। रामचन्द्रजी यहीं गङ्गा पार उतरकर प्रयाग गये थे।

श्रृङ्गेरी : आद्य शङ्कराचार्य का दक्षिण प्रदेशस्त मुख्य पीठ स्थान। यह तुङ्गभद्रा नदी के किनारे बसा हुआ है। घाट के ऊपर ही शङ्कराचार्यमठ, शारदा देवी और विद्यातीर्थ महेश्वर का मन्दिर है। यहाँ विभाण्डकेश्वर शिवलिङ्ग है। श्रृङ्गी ऋषि के पिता विभाण्डक ऋषि का यहाँ आश्रम था। यह क्षेत्र भी पुराना विभाण्डकाश्रम है। यहाँ के जगदगुरु शङ्कराचार्य का देश में सबसे अधिक आदर है।

शेष : (1) नागराज अनन्त, जिनके ऊपर विष्णु भगवान् शयन करते हैं। प्रलय काल में नयी सृष्टि से पूर्व जो विश्व का शेष अथवा मूल (अव्यक्त) रूप रह जाता है उसी का यह प्रतीक है। शेष का ध्यान निम्नलिखित प्रकार से भविष्यपुराण में बतलाया गया है :

फणासहस्रसंयुक्तं चतुर्बुहं किरीटिनम्। नवाम्रपल्लवाकारं पिङ्गलश्मश्रुलोचनम्॥

भगवान् की एक मूर्ति (तामसी) का नाम भी (कूर्मपुराण, 48 अध्याय) शेष है :

एका भगवतो मूर्तिर्ज्ञानरूपा शिवामला। वासुदेवाभिधाना सा गुणातीता सुनिष्कला॥ द्वितीया ज्ञानसंज्ञान्या तामसी शेषसंज्ञिता। निहन्ति सकलांश्चान्ते वैष्णवो परमा तनुः॥

(2) लक्ष्मण और बलराम का एक नाम शेष है। वे शेष के अवतार माने जाते हैं।

शैवमत : भारत के धार्मिक सम्प्रदायों में शैवमत प्रमुख है। वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदायों के अनुयायियों से इसके मानने वालों की संख्या अधिक है। शिव त्रिमूर्ति में से तीसरे हैं, जिनका विशिष्ट कार्य विश्व का संहार करना है। शैव वह धार्मिक सम्प्रदाय है जो शिव को ही ईश्वर मानकर आराधना करता है। शिव का शाब्दिक अर्थ हैं 'शुभ', 'कल्याण', 'मङ्गल', 'श्रेयस्कर' आदि, यद्यपि शिव का कार्य, जैसा कि कहा जा चुका हैं, संहार करना है।

शैवमत का मूल रूप ऋग्वेद में रुद्र की कल्पना में मिलता है। रुद्र के भयङ्कर रूप की अभिव्यक्ति वर्षा के पूर्व झंझावात के रूप में होती थी। रुद्र के उपासकों ने अनुभव किया कि झंझावात के पश्चात् जगत् को जीवन प्रदान करने वाला शीतल जल बरसता है और उसके पश्चात् एक गम्भीर शान्ति और आनन्द का वातावरण निर्मित हो जाता है। अतः रुद्र का ही दूसरा सौम्य रूप शिव जनमानस में स्थिर हो गया। शिव के तीन नाम शम्भु, शङ्कर और शिव प्रसिद्ध हुए। इन्हीं नामों से उनकी प्रार्थना होने लगी।

यजुर्वेद के शतरुद्रिय अध्याय, तैत्तिरीय आरण्यक और श्वेताश्वतर उपनिषद् में शिव को ईश्वर माना गया है। उनके पशुपति रूप का संकेत सबसे पहले अथर्वशिरस् उपनिषद् में पाया जाता है, जिसमें पशु, पाश, पशुपति आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है। इससे लगता है कि उस समय से पाशुपत सम्प्रदाय बनने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी।

रामायण-महाभारत के समय तक शैवमत शैव अथवा माहेश्वर नाम से प्रसिद्ध हो चुका था। महाभारत में माहेश्वरों के चार सम्प्रदाय बतलाये गये हैं--(1) शैव (2) पाशुपत (3) कालदमन और (4) कापालिक। वैष्णव आचार्य यामुनाचार्य ने कालदमन को ही 'कालमुख' कहा है। इनमें से अन्तिम दो नाम शिव को रुद्र तथा भयङ्कर रूप में सूचित करते हैं, जब प्रथम दो शिव के सौम्य रूप को स्वीकार करते हैं। इनके धार्मिक साहित्य को शैवागम कहा जाता है। इनमें से कुछ वैदिक और शेष अवैदिक हैं।

सम्प्रदाय के रूप में पाशुपत मत का संघटन बहुत पहले प्रारम्भ हो गया था। इसके संस्थापक आचार्य लकुलीश थे। इन्होंने लकुल (लकुट) धारी शिव की उपासना का प्रचार किया, जिसमें शिव का रुद्र रूप अभी वर्तमान था। इसकी प्रतिक्रिया में अद्वैत दर्शन के आधार पर समयाचारी वैदिक शैव मत का संघटन सम्प्रदाय के रूप में हुआ। इसकी पूजापद्धति में शिव के सौम्य रूप की प्रधानता थी। किन्तु इस अद्वैत शैव सम्प्रदाय की भी प्रतिक्रिया हुई। ग्यारहवीं शताब्दी में वीर शैव अथवा लिङ्गायत सम्प्रदाय का उदय हुआ, जिसका दार्शनिक आधार शक्तिविशिष्ट अद्वैतवाद था।

कापालिकों ने भी अपना साम्प्रदायिक संघटन किया। इनके साम्प्रदायिक चिह्न इनकी छः मुद्रिकाएँ थीं, जो इस प्रकार हैं---(1) कण्ठहार (2) आभूषण (3) कर्णाभूषण, (4) चूडामणि (5) भस्म और (6) यज्ञोपवीत। इनके आचार शिव के घोर रूप के अनुसार बड़े बीभत्स थे, जैसे कपालपात्र में भोजन, शव के भस्म को शरीर पर लगाना, भस्मभक्षण, यष्टिधारण, मदिरापात्र रखना, मदिरापात्र का आसन बनाकर पूजा का अनुष्ठान करना आदि। कालमुख साहित्य में कहा गया है कि इस प्रकार के आचार से लौकिक और पारलौकिक सभी कामनाओं की पूर्ति होती है। इसमें सन्देह नहीं कि कापालिक कापालिक क्रियाएँ शुद्ध-शैवमत से बहुत दूर चली गयी और इनका मेल वाममार्गी शाक्तों से अधिक हो गया।

पहले शैवमत के मुख्यतः दो ही सम्प्रदाय थे-- पाशुपत और आगमिक। फिर इन्हीं से कई उपसम्प्रदाय हुए, जिनकी सूची निम्नांङ्कित है :

1. पाशुपत शैव मत-- (1) पाशुपत, (2) लकुलीश पाशुपत, (3) कापालिक, (4) नाथ सम्प्रदाय, (5) गोरख पन्थ, (6) रसेश्वर।

(2) आगमिक शैव मत--- (1) शैव सिद्धान्त, (2) तमिल शैव (3) काश्मीर शैव, (4) वीर शैव।

पाशुपत सम्प्रदाय का आधारग्रन्थ महेश्वर द्वारा रचित 'पाशुपतसूत्र' है। इसके ऊपर कौण्डिन्यरचित 'पञ्चार्थीभाष्य' है। इसके अनुसार पदार्थों की संख्या पाँच है-- (1) कार्य (2) कारण (3) योग (4) विधि और (5) दुःखान्त। जीव (जीवात्मा) और जड़ (जगत्) को कार्य कहा जाता है। परमात्मा (शिव) इनका कारण है, जिसको पति कहा जाता है। जीव पशु और जड़ पाश कहलाता है। मानसिक क्रियाओं के द्वारा पशु और पति के संयोग को योग कहते हैं। जिस मार्ग से पति की प्राप्ति होती है उसे विधि की संज्ञा दी गयी है। पूजाविधि में निम्नांङ्कित क्रियाए आवश्यक हैं--(1) हँसना (2) गाना (3) नाचना (4) हुंकारना और (5) नमस्कार। संसार के दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति ही दुःखान्त अथवा मोक्ष है।

आगमिक शैवों के शैव सिद्धान्त के ग्रन्थ संस्कृत और तमिल दोनों में हैं। इनमें पति, पशु और पाश इन तीन मूल तत्त्वों का गम्भीर विवेचन पाया जाता है। इनके अनुसार जीव पशु है जो अज्ञ और अणु है। जीव पशु चार प्रकार के पाश से बद्ध है। यथा--मल, कर्म, माया और रोध शक्ति। साधना के द्वारा जब पशु पर पति का शक्तिपात (अनुग्रह) होता है तब वह पाश से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहते हैं।

काश्मीर शैव मत दार्शनिक दृष्टि से अद्वैतवादी है। अद्वैत वेदान्त और काश्मीर शैव मत में साम्प्रदायिक अन्तर इतना है कि अद्वैतवाद का ब्रह्म निष्क्रिय है किन्तु काश्मीर शैवमत का ब्रह्म (परमेश्वर) कर्तृत्वसम्पन्न है। अद्वैतवाद में ज्ञान की प्रधानता है, उसके साथ भक्ति का समाञ्जस्य पूरा नहीं बैठता; काश्मीर शैवमत में ज्ञान और भक्ति का सुन्दर समन्वय है। अद्वैत वेदान्त में जगत् ब्रह्म का विवर्त (भ्रम) है। काश्मीर शैवमत में जगत् ब्रह्म का स्वातन्त्र्य अथवा आभास है। काश्मीर शैव दर्शन की दो प्रमुख शाखाएँ हैं--स्पन्द शास्त्र और प्रत्यभिक्षा शास्त्र। पहली शाखा के मुख्य ग्रन्थ 'शिवदृष्टि' (सोमानन्द कृत), 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका' (उत्पलाचार्य कृत), 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिकाविमर्शिनी' और (अभिनवगुप्त रचित) 'तन्त्रलोक' हैं। दोनों शाखाओं में कोई तात्त्विक भेद नहीं है; केवल मार्ग का भेद है। स्पन्द शास्त्र में ईश्वराद्वय की अनुभूति का मार्ग ईश्वरदर्शन और उसके द्वारा मलनिवारण है। प्रत्यभिज्ञाशास्त्र में ईश्वर के रूप में अपनी प्रत्यभिज्ञा (पुनरनुभूति) ही वह मार्ग है। इन दोनों शाखाओं के दर्शन को 'त्रिकदर्शन' अथवा 'ईश्वराद्वयवाद' कहा जाता है।

वीरशैव मत के संस्थापक महात्मा वसव थे। इस सम्प्रदाय के मुख्य ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र पर 'श्रीकरभाष्य' और 'सि‍द्धान्तशिखामणि' हैं। इनके अनुसार अन्तिम तत्त्व अद्वैत नहीं, अपितु विशिष्टाद्वैत है। यह सम्प्रदाय मानता है कि परम तत्त्व शिव पूर्ण अहन्तारूप अथवा पूर्ण स्वातन्त्र्यरूप हैं। स्थूल चिदचिच्छक्ति विशिष्ट जीव और सूक्ष्म चिदचिच्छक्ति विशिष्ट शिव का अद्वैत है। वीरशैव मत को लिङ्गायत भी कहते हैं, क्योंकि इसके अनुयायी बराबर शिवलिङ्ग गले में धारण करते हैं। (अन्य शैव सम्प्रदायों को यथास्थान देखिए।)

शौकर : शूकरक्षेत्र का ही पर्याय। यह गङ्गातटवर्ती प्रसिद्ध तीर्थ है। वराहपुराणस्थ शौकरतीर्थमाहात्म्य के 'आदित्यवरप्रदान-गृध्रजम्बुकोपाख्यान' नामक अध्याय में इसका वर्णन पाया जाता है :

श्रृणु मे परमं गुह्यं यत्त्वया परिपृच्छितम्। मम क्षेत्रं परञ्चैव शुद्धं भागवत्तप्रियम्॥ परं कोकामुखं स्थानं तथा कुब्जाम्रकं परम्। परं शौकरवं स्थानं सर्व संसारमोक्षणम्॥ यत्र संस्था च मे देवि ह्युद्धृतासि रसातलात्। यत्र भागीरथी गङ्गा मम शौकरवे स्थिता॥

अधिकांश विद्वानों के विचार में आधुनिक 'सोरों' (एटा जिला) ही शौकर अथवा क्षेत्र है। कुछ लोग इसको अयोध्या के पास वाराहक्षेत्र के स्थान पर मानते हैं। किन्तु वराहपुराण का शौकर क्षेत्र तो (यत्र भागीरथी गङ्गा) गङ्गा के किनारे ही होना चाहिए।

शौच : एकादशी तत्त्व में उद्धृत बृहस्पति के अनुसार शौच (शुद्धि) की परिभाषा इस प्रकार है :

अभक्ष्यपरिहारस्तु संसर्गश्चाप्यनिन्दितैः। स्वधर्मे च व्यवस्थानं शौचमेतत् प्रकीर्तितम्॥

[अभक्ष्य का परित्याग, निन्दित पुरुषों के संसर्ग का परित्याग, अपने धर्म में व्यवस्थिति (दृढ़ता) को शौच कहते हैं।]

गरुडपुराण (110 अध्याय) में शौच की निम्नलिखित परिभाषा है :

सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं विशिष्यते। योऽर्थार्थैरशुचिः शौचान्न मृदा वारिणा शुचिः॥ सत्यशौचं मनःशौचं शौचमिन्दिरियनिग्रहः। सर्वभूतदया शौचं जलशौचन्तु पञ्चमम्। यस्य सत्यञ्च शौचञ्च तस्य स्वर्गौ न दुर्लभः॥ और भी कहा है :

यावता शुद्धिं मन्येत तात्वच्छौचं समाचरेत्। प्रमाणं शौचसंख्याया न शिष्टैरुपदिश्यते॥ शौचन्तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिरथान्तरम्॥

जननाशौच, मरणाशौच, स्पर्शाशौच आदि अनेक प्रकार के अशौच से शौच प्राप्त करने की विधियाँ पुराणों और परवर्ती स्मृतियों में भरी पड़ी हैं। दे० पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, 109 अध्याय; कूर्मपुराण, उपविभाग, 22 अध्याय।

श्मशान : शवसंस्कार का स्थान श्मनां (शवानां शानं शयनं यत्र)। इसके पर्याय हैं पितृवन, रुद्राक्रीड, दाहसर आदि। वाराणसी को महाश्मशान कहा गया है :

वाराणसीति विख्याता रुद्रावास इति द्विजाः। महाश्मशानमित्येवं प्रोक्तमानन्दकाननम्॥

श्मशान से लौटने पर शौच आदि की विधि शास्त्रों में निर्दिष्ट है। दे० वराहपुराण, श्मशानप्रवेशापराधप्रायश्चित नामाध्याय।

श्मशानकाली : काली का एक विशेष रूप। दे० कालीतन्त्र।

श्यामा : कालिका अथवा दुर्गा। श्यामा की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार पाया जाता है :

ततः सा कालिका देवी योगनिद्रा जगन्मयी। पूर्वत्यक्तसतीरूपा जन्मार्थ मेंनकां ययौ॥ समयस्यानुरूपेण मेनकाजठरे शिवा। सम्भूय च समुत्पन्ना सा लक्ष्मीरिव सागरात्॥ वसन्तसमये देवी नवम्यां मृगयोगतः। अर्धरात्रौ समुत्पन्ना गङ्गेव शशिमण्डलात्॥ तान्तु दृष्ट्वा यथा जातां नीलोत्पलदलानुगाम्। श्यामां सा मेनका देवी मुदमापातिहर्षिता॥ देवाश्च हर्षमतुलं प्रापुस्तत्र मुहुर्मुहुः॥ आदि (कालिकापुराण, 40 अध्याय)

तन्त्र ग्रन्थों में श्यामपूजा का विस्तृत विधान है। दे० कालीतन्त्र, वीरतन्त्र, कूमारीकल्प, तन्त्रसार, गोप्य-गोप्य-लीलागम आदि।

श्रवण : नवधा भक्ति का एक प्रकार। भगवान् की कीर्ति को सुनना 'श्रवण' कहलाता है।

(2) मनुस्मृति (8.74) के अनुसार समक्ष दर्शन और श्रवण दोनों से साक्ष्य सिद्ध होता है।

श्राद्ध : श्रद्धापूर्वक शास्त्रविधि से पितरों की तृप्ति के लिए किया गया धार्मिक कृत्य। इसका लक्षण इस प्रकार वर्णित है :

संस्कृतव्यञ्जनाढ्यञ्च पयोदधिधृतान्वितम्। श्रद्धया दीयते यस्मात् श्राद्धं केन निगद्यते॥

मनु के अनुसार श्राद्ध पाँच प्रकार का है :

नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धं तथैवं च। पार्वणञ्चेति मनुना श्राद्धं पञ्चविधं स्मृतम्॥

विश्वामित्र के अनुसार श्राद्ध बारह प्रकार का होता है :

नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धं सपिण्डनम्। पार्वणञ्चेति विज्ञेयं गोष्ठ्यां शुद्ध्यर्थमष्टमम्॥ कर्माङ्गं नवमं प्रोक्तं दैविकं दशमं स्मृतम्। यात्रार्थैकादशं प्रोक्तं पुष्ट्यर्थं द्वादशं स्मृतम्॥

भविष्यपुराण में इन श्राद्धों का निम्नलिखित विवरण पाया जाता है :

1. नित्य श्राद्ध--जो प्रति दिन श्राद्ध किया जाता है उसे नित्य श्राद्ध कहते हैं।

2. नैमित्तिक---एक (पितृ) के उद्देश्य से जो श्राद्ध (एकोद्दिष्ट) किया जाता है उसे नैमित्तिक कहते हैं। इसको अदैव रूप से किया जाता है और इसमें अयुग्म (विषम) संख्या के ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है।

3. काम्य श्राद्ध---किसी कामना के अनुकूल अभिप्रेतार्थ सिद्धि के लिए जो श्राद्ध किया जाता है उसे काम्य कहते हैं।

4. पार्वण श्राद्ध---पार्वण (महालया, अमावस्या के) विधान से जो श्राद्ध किया जाता है उसे पार्वण श्राद्ध कहते हैं।

5. वृद्धि श्राद्ध--वृद्धि (संतान, विवाह) में जो श्राद्ध किया जाता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं।

6. प्रेत को पितरों के साथ मिलित करने के लिए जो श्राद्ध किया जाता हैं उसे सपिण्डन कहते हैं।

7--22. शेष नित्य श्राद्ध के समान होते हैं।

दे० कूर्म, वराह (श्राद्धोत्पत्तिनामाध्याय), विष्णु पुराण (3. अंश, 13 अध्याय), गरुड पुराण (99 अध्याय)।

श्रावणी : श्रवण नक्षत्र से युक्त श्रावणमास की पूर्णिमा को श्रावणी कहते हैं। यह पवित्र तिथि मानी जाती है। प्राचीन काल में शैक्षणिक सत्र इसी समय से प्रारम्भ होता था। इस दिन श्रावणी कर्म अथवा उपाकर्म किया जाता था, जिसके पश्चात् अपनी-अपनी शाखा का वैदिक अध्ययन प्रारम्भ होता था। आजकल श्रावणी के दिन रक्षाबन्धन की प्रथा चल गयी है, जिसका उद्देश्य है किसी महान् त्याग के लिए अपने सम्बन्धी, मित्रों अथवा यजमानों को प्रतिबद्ध (प्रतिश्रुति) करना।

श्रावस्ती : उत्तर प्रदेश में गोंडा--बहराइच जिलों की सीमा पर स्थित बौद्ध तीर्थस्थान। गोंड़ा-बलरामपुर से 12 मील पश्चिम आज का सहेत-महेत ग्राम ही श्रावस्ती है। प्राचीन काल में यह कोसल देश की दूसरी राजधानी थी। भगवान् राम के पुत्र लव ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। श्रावस्ती बौद्ध, जैन दोनों का तीर्थ है। तथागत दीर्घ काल तक श्रावस्ती में रहे थे। यहाँ के श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक ने असंख्य स्वर्णमुद्राएँ व्यय करके भगवान् बुद्ध के लिए जेतवन विहार बनवाया था। अब यहाँ बौद्ध धर्मशाला, मठ और मन्दिर हैं।

श्री : (1) लक्ष्मी (श्रयति हरिं या), विष्णुपत्नी।

(2) यह देवताओं और मानवों के लिए सम्मानसूचक विशेषण शब्द है :

देवं गुरुं गुरुस्थानं क्षेत्रं क्षेत्राधिदेवताम्। सिद्धं सिद्धाधिकारांश्च श्रीपूर्व समुदीरयेत्॥'

श्रीकण्ठ : शिव का एक विरुद (श्रीः शोभा कण्ठे यस्य)। शिवभक्ति के अधिक प्रचार के कारण पूरे कुरु-जाङ्गल (हरियाना) प्रदेश को श्रीकण्ठ कहा जाता था।

श्रीचक्र : त्रिपुरसुन्दरी देवी की पूजा का विशेष यन्त्र। मन्त्र महोदधि (11 तरङ्ग) में इसकी रचना का निम्नांङ्कित वर्णन है :

श्रीचक्रस्योद्धृतिं वक्ष्ये तत्र पूजाप्रसिद्धये। बिन्दुगर्भं त्रिकोणंतु कृत्वा चाष्टारमुद्धरेत्॥ दशाराद्वयमन्वस्राष्टारषोडशकोणकम्। त्रिरेखात्मकभूगेहवेष्टितं यन्त्रमालिखेत्॥

श्रीचक्र सृष्ट्यात्मक यन्त्र है। बिन्दु के साथ तीन आधारों पर स्थित अष्टकोण संहारचक्र होता है। बारह और चौदह अरों वाला यन्त्र स्थितिचक्र हो जाता है। यामलतन्त्र में कहा गया है :

बिन्दुत्रिकोणवसुकोणदशारयुग्म-मन्वस्रनागदलसङ्गतषोडशारम्। वृत्तत्रयञ्च धरणीसदनत्रयञ्च श्रीचक्रराजमुदितं परदेवतायाः॥

श्रीचक्र के पूजन से ऋद्धि, सिद्धि तथा सुख, सम्पत्ति प्राप्त होती है :

चक्रेऽस्मिन् पूजयेत् यो हि स सौभाग्यमवाप्नुयात्। अणिमाद्यष्टसिद्धीनामधिपो जायतेऽचिरात्॥ विद्रुमे रचिते यन्त्रे पद्मरागेऽथवा प्रिये। इन्द्रनीलेऽथ वैदूर्ये स्फाटिके मारकतेऽपि वा॥ धनं पुत्रान् तथा दारानं शशांसि लभते ध्रुवम्। ताम्रान्तु कान्तिदं प्रोक्तं सुवर्णं शत्रुनाशनम्॥ राजतं क्षेमदञ्चैव स्फाटिकं सर्वसिद्धिदम्।

श्रीचक्र के पादोदक (चरणामृत) का महत्व इस प्रकार बतलाया गया है :

गङ्गापुष्करनर्मदासु यमुनागोदावरीगोमती-गङ्गाद्वारगयाप्रयागबदरीवाराणसीसिन्धुषु। रेवासेतुसरस्वतीप्रभृतिषु ब्रह्माण्डभाण्डोदरे, तीर्थस्नानसहस्रकोटिफलदं श्रीचक्रपादोदकम्॥ श्रीचक्र के दर्शन का महान् फल कहा गया है : सम्यक् शतक्रतून् कृत्वा यत् फलं समवाप्नुयात्। तत्फलं लभते भक्त्या कृत्वा श्रीचक्रदर्शनम्॥ षोडशं वा महादानं कृत्वा यल्लभते फलम्। तत्फलं समवाप्नोति कृत्वा श्रीचक्रदर्शनम्॥ (तन्त्रसार)

श्रीनगर : (1) कश्मीर की राजधानी, उत्तरापथ का प्रसिद्ध तीर्थस्थान। श्रीनगर तथा उसके आसपास बहुत से दर्शनीय स्थान हैं। श्रीनगर से लगी हुई एक पहाड़ी पर आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित शिवमूर्ति है। इस पर्वत को शंकराचार्य टेकरी कहते हैं। लगभग दो मील कड़ी चढ़ाई है। मन्दिर बहुत प्राचीन है। इसी के नीचे शङ्करमठ है। इसको दुर्गामन्दिर भी कहते हैं। नगर में शाह हमदन की मस्जिद है जो देवदारु की चौकोर लकड़ी की बनी है। इस स्थान पर प्राचीन मन्दिर था। कोने में पानी का स्रोत है। हिन्दू इस स्थान की पूजा करते हैं। कालीमन्दिर का स्थान अब श्मशानभूमि के रूप में है। नगर के पास हरिपर्वत है जो छोटी पहाड़ी के रूप में है। अकबर ने उस पर एक परकोटा बनवाया था। उसके अन्दर मन्दिर और गुरुद्वारा भी है। अब वह सुरक्षित सैनिक स्थान है। श्रीनगर में दो कलापूर्ण मस्जिदें दर्शनीय हैं, विशेष कर नूरजहाँ की बनवायी पत्थर की मस्जिद। इसके अतिरिक्त मुगल उद्यान अपने सौन्दर्य के लिए विश्व में प्रसिद्ध है। डल झील के किनारे के मुख्य उद्यान शालीमारबाग, निशातबाग हैं। नौका से देखने योग्य नसीमबाग है। शङ्कराचार्यशिखर के पास ही अब नेहरूपार्क बन गया है, जहाँ झील में स्नान की भी उत्तम सुविधा है। जम्मू से श्रीनगर जाते समय मध्य में एक पहाड़ी मार्ग वैष्णव देवी के लिए जाता है। आश्विन के नवरात्र में यहाँ मेला होता है। श्रीनगर से आगे अनन्तनाग, मार्तण्ड, अमरनाथ आदि धर्मस्थानों की यात्री का जाती है।

(2) श्रीनगर (द्वितीय) बदरिकाश्रम के मार्ग में टीहरी जिले का प्रमुख नगर है। यहाँ भी शङ्कराचार्य द्वारा प्रतिष्ठित श्रीयन्त्र का दर्शन होता था जो अब गंगा के गर्भ में विलीन है।

श्रीमूर्ति : देवविग्रह अर्थात् देवता की प्रतिमा (विशेषतः वैष्णव) को श्रीमूर्ति कहते हैं। श्रीमूर्तियों के प्रकार का वर्णन भागवत में इस तरह है :

शैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्या च सैकती। मनोमयी मणिमयी प्रतिमाष्टविधा मता॥ चलाचलेति द्विविधा प्रतिष्ठा जीवमन्दिरम्।

हयशीर्षपञ्चरात्र में श्रीमूर्तियों के विस्तृत लक्षण पाये जाते हैं। दे० श्रीहरिभक्तिविलास, 181 विलास।

श्रीरङ्गपट्टन : कर्णाटक प्रदेश का प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ। कावेरी नदी की धारा में तीन द्वीप हैं--आदिरङ्गम्, मध्यरङ्गम्, और अन्तरङ्गम्। श्रीरङ्गपट्टन ही आदरङ्गम् है। यहाँ भगवान् नारायण की शेषशायी श्रीमूर्ति है। कहते हैं कि यहाँ महर्षि गौतम ने तपस्या की थी और श्रीरङ्गमूर्ति की स्थापना भी की थी।

श्री राम : राम अथवा रामचन्द्र अयोध्या के सूर्यवंशी राजा दशरथ के पुत्र थे। त्रेता युग में इनका प्रादुर्भाव हुआ था। ये भगवान् विष्णु के अवतार माने जाते हैं। वैष्णव तो इनको परब्रह्म ही समझते हैं। भारत के धार्मिक इतिहास में विशेष और विश्‍व के धार्मिक इतिहास में भी इनका बहुत ऊँचा स्थान है। राम को मर्यादापुरुषोत्तम कहते हैं जिन्होंने अपने चरित्र द्वारा धर्म और नीति की मर्यादा की स्थापना की। उनका राज्य न्याय, शान्ति और सुख का आदर्श था। इसीलिए अब भी 'रामराज्य' नैतिक राजनीति का चरम आदर्श है। रामराज्य वह राज्य है जिसमें मनुष्य को त्रिविध ताप--आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक--नहीं हो सकते।

इनका अवतार एक महान् उद्देश्य को लेकर हुआ था। वह था आसुरी शक्ति का विनाश तथा दैवी व्यवस्था की स्थापना। पिता द्वारा इनका वनवास भी इसी उद्देश्य से हुआ था एवं सीता का अपहरण भी इसी की सिद्धि के लिए। रावण वध भी इसीलिए हुआ। रामपूर्वतापनीयोपनिषद् के ऊपर ब्रह्मयोगी के भाष्य (अप्रकाशित) में इसका एक दूसरा ही उद्देश्य बताया गया है। वह है रावण का उद्धार। वैष्णव साहित्य में रावण पूर्व जन्म में विष्णु का पार्षद माना गया है। एक ब्राह्मण के शाप से वह राक्षस योनि में जन्मा। उसको पुनः विष्णुलोक में भेजना भगवान् राम (विष्णु) का उद्देश्य था।

रामभक्ति का भारत में व्यापक प्रचार है। रामपञ्चायतन में चारों भाई तथा सीता और उनके पार्षद हनुमान् की पूजा होती है। हनुमान् की मूर्ति तो राम की मूर्ति से भी अधिक व्यापक है। शायद ही ऐसी कोई गाँव या टोला हो जहाँ उनकी मूर्ति अथवा चबूतरा न हो। रामसंप्रदाय में इतिहास, धर्म और दर्शन का अद्भुत समन्वय है। सीता राम की पत्नी हैं, किन्तु वे आदिशक्ति औऱ दिव्य श्री भी हैं। वे स्वर्गश्री हैं जो तप से प्राप्त हुई थीं। वे विश्व की चेतनाचेतन प्रकृति हैं (देवी उपनिषद् 2.294)।

रामावत सम्प्रदाय का मन्त्र 'रामाय नमः' अथवा तान्त्रिक रूप में 'रां रामाय नमः' है। 'राम' का शाब्दिक अर्थ हैं '(विश्व में) रमण करने वाला' अथवा 'विश्व को अपने सौन्दर्य से मुग्ध करने वाला'। रामपूर्वतापनीयोपनिषद् (1.11-13) में इस मन्त्र का रहस्य बतलाया गया है :

जिस प्रकार विशाल वटवृक्ष की प्रकृति एक अत्यन्त सूक्ष्म बीज में निहित होती है, उसी प्रकार चराचर जगत् बीजमन्त्र 'राम' में निहित है। पद्मपुराण की लोमशसंहिता में कहा गया है कि वैदिक और लौकिक भाषा के समस्त शब्द युग-युग में 'राम' से ही उत्पन्न और उसी में विलीन होते हैं। वास्तव में वैष्णव रामावत सम्प्रदाय में राम का वही स्थान है जो वेदान्त में ओम् का। तारसार उपनिषद् (2.2-5) में कहा गया है कि राम की सम्पूर्ण कथा 'ओम्' की ही अभिव्यक्ति है :

अ से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई है, जो रामावतार में जाम्बवान् (ऋक्षों के राजा) हुए। उसे विष्णु (उपेन्द्र) की उत्पत्ति हुई, जो सुग्रीव हुए (वानरों के राजा)। म से शिव का प्रादुर्भाव हुआ, जो हनुमान हुए। सानुनासिक बिन्दु से शत्रुघ्न प्रकट हुए। ओम् के नाद से भरत का अवतरण हुआ। इस शब्द की कला से लक्ष्मण ने जन्म लिया। इसकी कालातीत ध्वनि से लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ जो सीता हुईं। इन सबके ऊपर परमात्मा विश्वपुरुष स्वयं राम के रूप में अवतरित हुए।

रामावत पूजा पद्धति में सीता औऱ राम की युगल मूर्तियाँ मन्दिरों में पधरायी जाती हैं। राम का वर्ण श्याम होता है। वे पीताम्बर धारण करते हैं। केश जूटाकृति रखे जाते हैं। उनकी आजानु भुजाएँ तथा दीर्घ कर्णकुण्डल होते हैं। वे गले में वनमाला धारण करते हैं, प्रसन्न और दर्पयुक्त मुद्रा में धनुष--बाण धारण करते हैं। अष्ट सिद्धियाँ उनके सौन्दर्य को बढ़ाती हैं। उनकी बायीं ओर जगज्जननी आदिशक्ति सीता की मूर्ति स्वतन्त्र अथवा राम की बायीं जंघा पर स्थित होती हैं। वे शुद्ध काञ्चन के समान विराजती हैं। उनकी भी दो भुजाएँ हैं। वे दिव्य रत्नों से विभूषित रहती हैं और हाथ में दिव्य कमल धारण करती हैं। इनके पीछे लक्ष्मण की मूर्ति भी पायी जाती है। दे० रामपूर्वतापनीयोपनिषद्, 4.7.10। दे. 'राम'।

श्रीवत्साङ्कमिश्र (कुरेश स्वामी) : स्वामी रामानुजाचार्य के अनन्य सेवक और सहकर्मी शिष्य। इनका तमिल नाम कूरत्तालवन था, जिसका तद्भव कूरेश है। काञ्चीपुरी के समीप कुरम ग्राम में इनका जन्म हुआ था। ये व्याकरण, साहित्य और दर्शनों के पूर्ण ज्ञाता थे। 'पञ्चस्तवी' आदि इनकी भक्ति और कवित्वपूर्ण प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। काञ्ची में ये रामानुज स्वामी के शरणागत हुए और आजीवन उनकी सेवा में निरत रहे।

रामानुज स्वामी जब ब्रह्मसूत्र की बोधायनाचार्य कृत वृत्ति की खोज में कश्मीर गये थे, तब कूरेशजी भी उनके साथ थे। कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों ने इनको उक्त ब्रह्मसूत्रवृत्ति केवल पढने को दी थी; साथ ले जाने या प्रतिलिपि करने की स्वीकृति नहीं थी। अनधिकारी कश्मीरी पंडितों की अपेक्षा वह रामानुज स्वामी के लिए अधिक स्पृहणीय थी। किन्तु पंडितों ने उस ग्रन्थ को स्वामीजी से बलपूर्वक छीन लिया। सुदूर दक्षिण से यहाँ तक की यात्रा को विफल देखकर रामानुज स्वामी को बड़ा खेद हुआ। उस समय कूरेशजी ने अद्भुत स्मृतिशक्ति के बल से बोधायनवृत्ति गुरूजी को आनुपूर्वी सुना दी। गुरु-शिष्य दोनों ने उसकी प्रतिलिपि तैयार कर ली। पश्चात् काञ्ची लौटकर आचार्य ने इसी वृत्ति के आधार पर ब्रह्मसूत्र के श्रीभाष्य की रचना की थी।

श्रीविद्या : आद्या महाशक्ति की मन्त्रमयी मूर्ति। वास्तव में त्रिपुरसुन्दरी ही श्रीविद्या है। इसके छत्तीस भेद हैं। ज्ञानार्णवतन्त्र में श्रीविद्या के बारे में निम्नाङ्कित वर्णन मिलता है :

भूमिश्चन्द्रः शिवो माया शक्तिः कृष्णाध्वमादिनी। अर्द्धचन्द्रश्च बिन्दुश्च नवार्णो मेरूरुच्यते॥ महात्रिपुरसुन्‍दर्या मन्त्रा मेरुसमुद्भवाः॥ सकला भुवनेशानी कामेशो बीजमुद्धृतम्॥ अनेन सकला विद्याः कथयामि वरानने। शक्त्यन्तस्तूर्यवर्णोऽयं कलमध्ये सुलोचने॥ वाग्भवं पञ्चवर्णाढ्यं कामराजमथोच्यते। मादनं शिवचन्द्राढ्यं शिवान्तं मीनलोचने॥ कामराजमिदं भद्रे षड्वर्णं सर्वमोहनम्। शक्तिबीजं वरारोहे चन्द्राद्यं सर्वमोहनम्॥ एतामुपास्य देवेशि कामः सर्वाङ्गसुन्दरः। कामराजो भवेद्देवि विद्येयं ब्रह्मरूपिणी॥

तन्त्रसार में इसके ध्यान की विधि इस प्रकार बतायी गयी है :

बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्। पाशाड्कुशशरांश्चापं धारयन्तीं शिवां श्रये॥

श्रुति : श्रवण से प्राप्त होने वाला ज्ञान। यह श्रवण या तो तत्त्व का साक्षात् अनुभव है, अथवा गुरुमुख एवं परम्परा से प्राप्त ज्ञान। लाक्षणिक अर्थ में इसका प्रयोग 'वेद' के लिए होता है। दे० 'वेद'।

श्रोत्रिय : श्रुति अथवा वेद अध्ययन करने वाला ब्राह्मण। पद्मपुराण के उत्तर खण्ड (116 अध्याय) में श्रोत्रिय का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है :

जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैद्विज उच्यते। वेदाभ्यासी भवेद् विप्रः श्रोत्रियस्त्रिभिरेव च॥

[जन्म से ब्राह्मण जाना जाता है, संस्कारों से द्विज, वेदभ्यास करने से विप्र होता है और तीनों से श्रोत्रिय।] मार्कण्डेय पुराण तथा मनुस्मृति में भी प्रायः श्रोत्रिय की यही परिभाषा पायी जाती है। दानकमलाकर में थोड़ी भिन्न परिभाषा मिलती है :

एकां शाखां सकल्पां वा षड्भिरङ्गैरधीत्य च। षट्कर्मनिरतो विप्रः श्रोत्रयो नाम धर्मवित्॥

[कल्प के साथ एक वैदिक शाखा अथवा छः वेदाङ्गों के साथ के एक वैदिक शाखा का अध्ययन कर षट्कर्म में लगा हुआ ब्राह्मण श्रोत्रिय कहलाता है।]

धर्मशास्त्र में श्रोत्रियों के अनेक कर्तव्यों तथा अधिकारों का वर्णन पाया जाता है। श्राद्ध आदि कर्मों में उनका वैशिष्ट्य स्वीकार किया गया था। राजा को यह देखना आवश्यक था कि उसके राज्य में कोई श्रोत्रिय प्रश्रयहीन न रहे।

श्रौतधर्म : वेदविहित धर्म (श्रुति से उत्पन्न श्रौत)। मत्स्य पुराण (120 अध्याय) में श्रौत तथा स्मार्त धर्म का विभेद इस प्रकार किया गया है :

धर्मज्ञैर्विहितो धर्मः श्रौतः स्मार्तो द्विधा द्विजैः। दानाग्निहोत्रसम्बन्धमिज्या श्रौतस्य लक्षणम्॥ स्मार्तो वर्णाश्रमाचारो यमश्च नियमैर्युतः। पूर्वेभ्यो वेदयित्वेह श्रौतं समर्षयोऽब्रुवन्॥ ऋचो यजूंषि सामानि ब्रह्मणोऽङ्गानि सा श्रुतिः। मन्वन्तरस्यातीतस्य स्मृत्वा तन्मनुरब्रवीत्॥ ततः स्मार्तः धर्मो वर्णाश्रमविभागशः। एवं वै द्विविधो धर्मः शिष्टाचारः स उच्यते॥ इज्या वेदात्मकः श्रौतः स्मार्तो वर्णाश्रमात्मकः॥

[धर्मज्ञ ब्राह्मणों द्वारा दो प्रकार का, श्रौत तथा स्मार्त, धर्म विहित है। दान, अग्निहोत्र, इनसे सम्बद्ध यज्ञ श्रौत धर्म के लक्षण हैं। यम और नियमों के सहित वर्ण तथा आश्रम का आचार स्मार्त कहलाता है। सप्तर्षियों ने पूर्व (ऋषियों) से जानकर श्रौत धर्म का प्रवचन किया। ऋक्, यजुष्, साम, ब्राह्ण तथा वेदाङ्ग ये श्रुति कहलाते हैं। मनु ने अतीत मन्वन्तरों के धर्म का स्मरण कर स्मार्त धर्म का विधान किया। इसीलिए यह स्मार्त (स्मृति से उत्पन्न) धर्म कहलाता है। यह वर्णाश्रम के विभागक्रम से है। इस प्रकार निश्चय ही यह दो प्रकार का धर्म शिष्टाचार कहलाता है। (संक्षेप में) यज्ञ और वेद सम्बन्धी आचार श्रौत तथा वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार स्मार्त कहलाता है।]

श्वेतकेतु : श्वेतकेतु की कथा उपनिषद् में मूलतः आती है। ये उद्दालक के पुत्र थे। एक बार अतिथिसत्कार में उद्दालक ने अपनी पत्नी को भी अर्पित कर दिया। इस दूषित प्रथा का विरोध श्वेतकेतु ने किया। वास्तव में कुछ पर्वतीय आरण्यक लोगों में आदिम जीवन के कुछ अवशेष कहीं-कहीं अभी चले आ रहे थे, जिनके अनुसार स्त्रियाँ अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों के साथ भी सम्बन्ध कर सकती थी। इस प्रथा को श्वेतकेतु ने बन्द कराया। महाभारत (1.122.9-20) में इसका उल्लेख है।