विक्षनरी:हिन्दू धर्मकोश (ष से ह)

विक्षनरी से

 : ऊष्म वर्णों का द्वितीय अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का वर्णन निम्नांकित है :

षकारं श्रणु चांर्वाङ्गि अष्टकोणमयं सदा। रक्तचन्द्रप्रतीकाशं स्वयं परमकुण्डली॥ चतुर्वर्गमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा। रजः सत्त्वतमोयुक्तं त्रिशक्तिसहितं सदा॥ त्रिबिन्दुसहितं वर्णम् आत्मादितत्त्वसंयुतम्। सर्वदेवमयं वर्णं हृदि भावय पार्वति॥

तन्त्रशास्त्र में इसके बहुत से पर्याय बतलाये गये हैं :

षः श्वेतो वासुदेवश्च पीता प्राज्ञा विनायकः। परमेष्ठी वामबाहुः श्रेष्ठो गर्भविमोचनः॥ लम्बोदरो यमौ लेशः कामधुक् कामधूमकः। सुश्री उश्ना वृषो लज्जा मरुद्भक्ष्यः प्रियः शिवः॥ सूर्यात्मा जठरः क्रोधो मत्ता वक्षी विहारिणी। कलकण्ठो मध्यभिन्न युद्धात्मा मलपूः शिरः॥

षट्कर्म : (1) कुछ धार्मिक विभागों के छः प्रधान कृत्य। ब्राह्मणों के मुख्य छः कर्तव्य षट्कर्म कहलाते हैं। ये हैं, (1) अध्ययन (2) अध्यापन (3) यजन (4) याजन (5) दान और (6) प्रतिग्रह। मनु आदि स्मृतियों में इन कर्मों का विस्तृत वर्णन पाया जाता है :

इज्याध्ययनदानानि याजनाध्यापने तथा। प्रतिग्रहश्च तैर्युक्तः षट्कर्मा विप्र उच्यते॥

(2) आगम और तन्त्र में छः प्रकार के शान्ति आदि कर्मों को षट्कर्म कहते हैं। शारदातिलक में इनका वर्णन पाया जाता है :

शान्ति-वश्य-स्तम्भनानि विद्वेषोच्चाटने ततः। मारणान्तानि शंसन्ति षट्कर्माणि मनीषिणः॥ रोग-कृत्या-ग्रहादीनां निरासः शान्तिरीरिता। वश्यं जनानां सर्वेषां विधेयत्वमुदीरितम्॥ प्रवृत्तिरोधः सर्वेषां स्तम्भनं तदुदाहृतम्। स्निग्धानां क्लेशजननं मिथों विद्वेषणं मतम्॥ उच्चाटनं स्वदेशादेर्भ्रंशनं परिकीर्तितम्। प्राणिनां प्राणहरणं मारणं तदुदाहृतम॥ स्वदेवतादिक्कालादीन् ज्ञात्वा कर्माणिं साधयेत्॥ रतिर्वाणी रमा ज्येष्ठा दुर्गा काली यथा क्रमम्। षट्कर्मदेवता प्रोक्ताः कर्मादौ ताः प्रपूजयेत्॥ ईश-चन्द्रेन्द्र-निऋति-वाय्वाग्नीनान्दिशो मताः। सूर्योदयं समारभ्य घटिकादशकं क्रमात्॥ ऋतवः स्युर्वसन्ताद्य अडोरात्रं दिने दिने। वसन्त-ग्रीष्म-वर्षाख्य--शरद्-हेमन्त-शैशिराः॥

[(1) शान्ति (2) वश्य (वशीकरण) (3) स्तम्भन्, (4) विद्वेष (5) उच्चाटन और (6) मारण इनको मनीषी लोग षट् कर्म कहते हैं। रोग, कृत्या, ग्रह आदि का निवारण 'शान्ति' कहलाता है। सब जनों का सेवक हो जाना 'वश्य' कहा गया है। सबकी प्रवृत्ति का रोध 'स्तम्भन' कहलाता है। मित्रो के बीच में क्लेश उत्पन्न करना 'विद्वेष' है। अपने देश से भ्रंश (उखाड़ा) उत्पन्न करना 'उच्चाटन' है। प्राणियों का प्राण हरण कर लेना 'मारण' कहा गया है। इनके देवताओं, दिशा, काल आदि को जानकर इन कर्मों की साधना करना चाहिए। रति, वाणी, रमा, ज्येष्ठा, दुर्गा और काली क्रमशः इनकी देवता हैं। कर्म के आदि में इनकी पूजा करनी चाहिए। ईश, चन्द्र, इन्द्र, निर्ऋति, वायु और अग्नि इनकी दिशाएँ हैं। सूर्योदय से प्रारम्भ कर दस घटिका के क्रम से वसन्त आदि ऋतुएँ दिन-रात में प्रति दिन होती हैं। वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त औऱ शिशिर ये ऋतुएँ हैं।]

घेरण्डसंहिता में छः प्रकार के हठयोग के अङ्गों को भी षट्कर्म कहा गया है :

धौतिर्वस्तिस्तथा नेतिर्नौलिकी त्राटकस्तथा। कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि समाचरेत्॥

[(1) धौति (2) वस्ति (3) नेति (4) नौलिकी (5) त्राटक और (6) कपालभाति इन छः कर्मों का आचरण करना चाहिए।

षट्चक्र : शरीर में स्थित छः चक्रों के समाहार को षट्चक्र कहते हैं। पद्म पुराण (स्वर्ग खण्ड, अध्याय 27) में इनका वर्णन इस प्रकार है :

सप्त पद्मानि तत्रैव सन्ति लोका इव प्रभो। गुदे पृथ्वीसमं चक्रं हरिद्वर्णं चतुर्दलम्॥ लिंगे तु षड्दलं चक्रं स्वाधिष्ठानमिति स्मृतम्। त्रिलोकवह्निनिलयं तप्तचामीकरप्रभम्॥ नाभौ दशदलं चक्रं कुण्डलिन्यां समन्वितम्। नीलाञ्जननिभं ब्रह्मस्थानं पूर्वकमन्दिरम्॥ मणिपूराभिधं स्वच्छं जलस्थानं प्रकीर्तितम्। उद्यदादित्ससंकाशं हृदि चक्रमनाहतम्॥ कुम्भकाख्यं द्वादशारं वैष्णवं वायुमन्दिरम्। कण्ठे विशुद्धशरणं षोडशारं पुरोदयम्॥ शाम्भवीवरचक्राख्यं चन्द्रविन्दुविभूषितम्। षष्ठामाज्ञालयं चक्रं द्विदलं श्वेतमुत्तमम्॥ राधांचक्रमिति ख्यातं मनःस्थानं प्रकीर्तितम्। सहस्रदलमेकार्णं परमात्मप्रकाशकम्॥ नित्यं ज्ञानमयं सत्यं सहस्रादित्य सन्निभम्। षट् चक्राणीह भेद्यानि नैतद् भेद्यं कथञ्चन॥

[हे प्रभो! वहाँ (शरीरा में) सात पद्म (कमल) सात लोकों के समान होते हैं। गुदा में पृथ्वी के समान, मूलाधार' चक्र होता है, जो हरिद्वर्ण और चार दल वाला है। लिङ्ग में षड्दल चक्र होता है, जिसको 'स्वाधिष्ठान' कहते हैं। वह तीनों लोकों में व्याप्त अग्नि का निवास है और तप्त सोने के समान प्रभा वाला है। नाभि में दशदल चक्र कुण्डलिनी में समन्वित है। यह नीलाञ्जन के समान, ब्रह्मस्थान और उसका मन्दिर है। इसे 'मणिपूर' कहते हैं, जो स्वच्छ जल के समान प्रसिद्ध है। हृदय में 'अनाहतचक्र' है जो उदय होते हुए सूर्य के समान प्रकाशमान है। इसका नाम कुम्भक है, यह द्वादश अरों वाला वैष्णव और वायु-मन्दिर है। कण्ड में 'विशुद्धशरण' षोडशार, पुरोदय, शाम्भवीवरचक्र है जो चन्‍द्रबिन्दु से विभूषित है। छठा 'आज्ञालय' चक्र है जो दो दल वाला और श्वेतवर्ण है। यह राधा चक्र नाम से भी प्रसिद्ध है। यह मन का स्थान है। ये ही षट्चक्र (ज्ञानार्थ क्रमशः) भेदन करने योग्य है; किन्तु सहस्रदल चक्र परमात्मा से प्रकाशित है। यह नित्य, ज्ञानमय, सत्य और सहस्र सूर्यों के समान प्रकाशमान हैं। इसका भेदन नहीं होता।]

षट्तीर्थ : सर्वसाधारण के लिए छः तीर्थ सदा सर्वत्र सुलभ हैं :

(1) भक्ततीर्थ---धर्मराज युधिष्ठिर विदुरजी से कहते हैं, `आप जैसे भागवत (भगवान् के प्रिय भक्त) स्वयं ही तीर्थ रूप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजित भगवान् के द्वारा तीर्थ को भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं।

(2) गुरुतीर्थ--सूर्य दिन में प्रकाश करता है, चन्द्रमा रात्रि में प्रकाशित होता है और दीपक घर में उजाला करता है। परन्तु गुरु शिष्य के हृदय में रात-दिन सदा ही प्रकाश फैलाते रहते हैं। वे शिष्य के सम्पूर्ण अज्ञानमय अन्धकार का नाश कर देते हैं। अतएव शिष्यों के लिए गुरु परम तीर्थ हैं।

(3) माता तीर्थ, (4) पिता-तीर्थ---पुत्रों को इस लोक और परलोक में कल्याणकारी माता-पिता के समान कोई तीर्थ नहीं है। पुत्रों के लिए माता-पिता का पूजन ही धर्म है। वही तीर्थ है। वही मोक्ष है। वही जन्म का शुभ फल है।

(5) पतितीर्थ---जो स्त्री पति के दाहिने चरण को प्रयाग और वाम चरण को पुष्कर मानकर पति के चरणोदक से स्नान करती हैं, उसे उन तीर्थों के स्नान का पुण्य फल मिलता है इसमें कोई संदेह नहीं। पति सर्वतीर्थमय और सर्वपुण्यमय है।

(6) पत्नीतीर्थ---सदाचार का पालन करने वाली, प्रशंसनीय आचरण करने वाली, धर्म साधन में लगी हुई, सदा पातिव्रत का पालन करने वाली तथा ज्ञान की नित्य अनुरागिणी, गुणवती, पुण्यमयी, महासती पत्नी जिसके घर हो उसके घर में देवता निवास करते हैं। ऐसे घर में गङ्गा आदि पवित्र नदियाँ, समुद्र, यज्ञ, गौएँ ऋषिगण तथा सम्पूर्ण पवित्र तीर्थ रहते हैं। कल्याण तथा उद्धार के लिए भार्या के समान कोई तीर्थ नहीं, भार्या के समान सुख नहीं और भार्या के समान पुण्य नहीं। ऐसी पत्नी भी पवित्र तीर्थ हैं।

षट्त्रिंशत् : एकादशीतत्त्व' ग्रन्थ में देवता पूजन के छत्तीस उपचार बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं :

1. आसन 2. अभ्यञ्जन 3. उद्वर्तन 4. विरुक्षण 5. सम्मार्जन 6. घृतादिसे स्नपन 7. आवाहन 8. पाद्य 9. अर्घ्‍य 10. आचमनीय 11. स्थानीय 12. मधुपर्क 13. पुनराचमनीय 14. वस्त्र 15. यज्ञोपवीत 16. अलङ्कार 17. गन्ध 18. पुष्प 19. धूप 20. दीप 21. ताम्बूलादिक नैवेद्य 22. पुष्पमाला 23. अनुलेप 24. शय्या 25. चामरंव्यजन 26. आदर्शदर्शन 27. नमस्कार 28. नर्तन 29. गीत 30. वाद्य 31. दान 32. स्तुति 33. होम 34. प्रदक्षिणा 35. दन्तकाष्ठ प्रदान 36. देव विसर्जन।

षट्त्रिंशन्मत : छत्तीस (धर्मशास्त्रकार ऋषियों) का मत। शङ्खलिखित स्मृति में इनके नाम निम्नांकित हैं :

मनुर्विष्णुर्यमो दक्षः अङ्गिरोऽत्रि बृहस्पतिः। आपस्तम्बश्चोशना च कात्यायनपराशरौ॥ वसिष्ठव्याससंवर्ता हारीत गौतमावपि। प्रचेताः शङ्खलिखितौ याज्ञवल्कश्च काश्यपः॥ शातातपो लोमशश्च जमदग्निः प्रजापति। विश्वामित्रपैठीनसी बौधायनपितामहौ॥ छागलेयश्च जाबालो मरीचिश्चयवनो भृगुः। ऋष्यश्रृङ्गो नारदश्च षट्तिंतशत् स्मृतिकारकाः॥ एतेषान्तु मतं यत्तु षट्त्रिंशन्मतमुच्यते॥

षट्सन्दर्भ : विद्वद्वर और परम हरिभक्त जीव गोस्वामी द्वारा रचित कृष्णभक्तिदर्शन का ग्रन्थ। यह श्रीमद्भागवत की मान्यताओं का समर्थक तथा अचिन्त्य भेदाभेद दर्शन सम्बन्धी प्रामाणिक रचना है। चैतन्यसम्प्रदाय के भक्ति सिद्धान्तों का प्रौढ़ दार्शनिक शैली में यह निरूपण करता है। इसके क्रम, भक्ति, प्रेम सन्दर्भ आदि छः खण्ड हैं।

षडक्षरदेव : वीरशैव सम्प्रदाय के आचार्य, जो 1657 ई० आस-पास हुए (दे० राइस : कन्नड लिटरेचर, पृ० 62, 67)। इन्होंने कन्नड़ भाषा में राजशेखरविलास, शबरशङ्करविलास आदि ग्रन्थों की रचना की।

षडङ्ग : वेद को षडङ्ग भी कहते हैं (षट् अङ्गानि यस्य) यथा :

शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दसाञ्चयः ज्योतिषामयनञ्चैव षडङ्गो वेद उच्यते॥ विशेष विवरण के लिए दे० 'वेदाङ्ग'।

षड्गुरुशिष्य : ऋक्संहिता की अनेक अनुक्रमणिकाएँ हैं। इनमें शौनक की रची अनुवाकानुक्रमणी और कात्यायन की रची सर्वानुक्रमणी अधिक प्रसिद्ध हैं। इन दोनों पर विस्तृत टीकाएँ लिखी गयी हैं। टीकाकार का नाम है षड्गुरुशिष्य। यह कहना कठिन है कि यह टीकाकार का नाम है षड्गुरुशिष्य। यह कहना कठिन है कि यह टीकाकार का वास्तविक नाम है अथवा विरुद। टीकाकार ने अपने छः गुरुओं के नाम लिखे हैं, जो इस प्रकार हैं--1. विनायक 2. त्रिशूलान्तक 3. गोविन्द 4. सूर्य 5. व्यास और 6. शिवयोगी।

षड्विंशब्राह्मण : सामवेद की कौथुमीय संहिता का ब्राह्मण ग्रन्थ चालीस अध्यायों में लिखा गया है। यह पाँच ब्राह्मणों में विभक्त है। इसके प्रथम पचीस अध्याय पञ्चविंशब्राह्मण कहलाते हैं। चौबीस से तीस तक के छः अध्यायों को षड्विंश ब्राह्मण, तीसवों अध्याय के अंतिम भाग को अद्भुत ब्राह्मण, इकतीस से बत्तीस तक के दो अध्यायों को मन्त्रब्राह्मण और अन्तिम आठ अध्यायों को छान्दोग्य ब्राह्मण कहते हैं। षड्विंश ब्राह्मण का प्रकाशन के० क्लेम और एच्० एस० एलसिंग ने क्रमशः 1898 तथा 1908 ई० में कराया था।

षण्ड : पञ्चविंश ब्राह्मण (25.15.3) के अनुसार एक पुरोहित का नाम, जिसने उसमें वर्णित सर्पसत्र में भाग लिया था।

षण्मुख : पार्वतीनन्दन स्वामी कार्तिकेय। शाब्दिक अर्थ है 'छः मुख हैं जिसके वह'। छः मातृकाओं ने कार्तिकेय का पालन किया था। उनका स्तन्य पान करने के लिए कार्तिकेय के छः मुख हो गये थे।

षष्टितन्त्र : सांख्य दर्शन के आचार्यों में पञ्चशिख और वार्षगण्य प्रसिद्ध हैं। योगभाष्य में भी इनका उल्लेख आया है। वार्षगण्य ने षष्टितन्त्र नामक ग्रन्थ लिखा था। इसका अर्थ है 'साठ प्रबन्ध'। यह ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं है।

षष्ठी : कात्यायनी देवी का एक पर्याय। षोडश मातृकाओं में एक मातृका का भी यह नाम है। यह प्रकृति की छठी कला है। इसको स्कन्द की भार्या भी कहा गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड (प्रथम अध्याय) में इसके स्वरूप आदि का वर्णन इस प्रकार पाया जाता है।

हे नारद! प्रकृति की अंशस्वरूप जो देवसेना है वह मातृकाओं में पूज्यतम है और षष्ठी नाम से प्रसिद्ध है। शिशुओं का प्रत्येक अवस्था में पालन करने वाली है। यह तपस्विनी औऱ विष्णुभ्कत है, कार्तिकेय की कामिनी भी है। प्रकृति के छठे अंश का रूप है, इसलिए इसे षष्ठी कहते हैं। पुत्र-पौत्र की देनेवाली और तीनों जगत् की धात्री है। यह सर्व सुन्दरी, युवती, रम्या और बराबर अपने पति के पास रहने वाली है। शिशुओं के स्थान में परमा वृद्धरूपा और योगिनी है। संसार में बारहों महीने इसकी बराबर पूजा होती है। शिशु उत्पन्न होने के छठे दिन सूतिकागार में इसकी पूजा होती है। इसी प्रकार इक्कीसवें दिन भी इसकी पूजा कल्याण करने वाली होती है। यह बराबर नियमित और नित्य इच्छानुसार आहूत की जा सकती है, यह सदा मातृरूपा, दयारूपा और रक्षणरूपा है। यह जल, स्थल और अन्तरिक्ष में और यहाँ तक कि स्वप्न में भी शिशुओं की रक्षा करने वाली है। इसकी उत्पत्ति और विस्तृत कथानक के लिए दे० स्कन्दपुराण। षष्ठीकर्म के लिए दे० राजमार्तण्ड, ब्रह्मवैवर्त, विष्णुधर्मोत्तर, ज्योतिस्तत्त्व आदि।

षष्ठीवर : उत्कल देश के एक विद्वान्, जिन्होंने महाभारत का अनुवाद उड़िया भाषा में किया। इनका समय तेरहवीं शती के लगभग है।

षोडश दान : श्राद्ध आदि धार्मिक कृत्यों में सोलह प्रकार के दानों का वर्णन पाया जाता है। दे० शुद्धितत्त्व।

षोडशभुजा : दुर्गा का एक पर्याय, अर्थ है 'सोलह भुजावाली'। कालिकापुराण (अ० 59) में षोडश भुजा-पूजन का विधान पाया जाता है :

जब षोडशभुजा महामाया का दुर्गातन्त्र से पूजन करना चाहिए, तब उसकी विशेष बात सुनिए। कृष्ण पक्ष की कन्या राशि की एकादशी को उपवास करके, द्वादशी को एक बार भोजन कर और त्रयोदशी को रात में भोजन कर, चतुर्दशी को महामाया को विधानतः जगाकर गीत, वादित्र, निर्धष और नाना प्रकार के नैवेद्य से पूजा करे। दसरे दिन बुद्धिमान साधक को अयाचित उपवास करना चाहिए। इस प्रकार व्रत करना चाहिए जब तक कि नवमी आ जाय। ज्येष्ठा में सम्यक् प्रकार से अर्चना कर मूल में प्रतिपूजन करना चाहिए। उत्तरा में अर्चना कर श्रवण में विसर्जन करना चाहिए।

षोडश मातृका : मातृकाओं अथवा देवियों की (विसेष प्रकार में) संख्या सोलह मानी गयी है। 'दुर्गोत्सवपद्धति' में सोलह मातृकाओं को नमस्कार किया गया हैं (गौर्यादिषोडशमातृकाभ्यो नमः)। श्राद्धतत्त्व में उनके नाम इस प्रकार आते हैं :

गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया जया।, देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोकमातरः॥, शान्तिः पुष्टिर्धृतिस्तुष्टिरात्मदेवतया सह।, आदि विनायकः पूज्य० अन्ते च कुलदेवता॥

ये सब शिव, विष्णु, इन्द्र, ब्रह्मा, अग्नि, कार्तिकेय आदि प्रमुख देवताओं की पत्नियाँ हैं।

षोडशर्त्विक् क्रतु : षोडश ऋत्विकों (याज्ञिकों) द्वारा किया जाने वाला यज्ञविशेष। यह ज्योतिष्टोम यज्ञ अथवा बारह दिनों में पूरा होने वाला सत्रयाग हैं। षोडश ऋत्विजों के नाम इस प्रकार हैं :

(1) ब्रह्मा (2) ब्राह्मणाच्छंसी (3) आग्नीघ्र (4) पोता (5) होता (6) मैत्रावरुण (7) अच्छावाक् (8) ग्रावस्तोता (9) अध्वर्यु (10) प्रतिप्रस्थाता (11) नेष्टा (12) उन्नेता (13) उद्गाता (14) प्रस्तोता (15) प्रतिहर्ता और (16) सुब्रह्मण्य।

उपर्युक्त में से प्रथम चार सर्ववेदीय, द्वितीय चार ऋग्वेदीय, तृतीय चार यजुर्वेदीय और चतुर्थ चार सामवेदीय होते हैं।

षोडशी : (1) एक यज्ञपात्र का नाम। अतिरात्र यज्ञ का सोमपात्र।

(2) बारह महाविद्याओं में से एक विद्या का नाम। वैसे प्रायः दस महा विद्याएँ ही प्रसिद्ध हैं। इनके नाम नाम्नांकित हैं :

काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी।, भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा॥, वगला सिद्धविद्या च मातङ्गी कमलात्मिका।, एता दश महाविद्या सिद्धविद्याः प्रकीर्तिताः॥,

विशेष विवरण के लिए दे० 'ज्ञानार्णव'।

(3) एक प्रकार का श्राद्ध। यह प्रायः संन्यासियों की स्मृति में किया जाता हैं।

षोडशोपचार : तन्त्रसार में सोलह प्रकार के पूजाद्रव्यार्पण को षोडशोपचार कहा गया है। देवपूजा में यही क्रम अधिकतर प्रयुक्त होता हैं।

षोढ़ान्यास : वीरतन्त्र के अनुसार शरीर के अंगों में छः प्रकार से मन्त्रों के न्यास को षोढान्यास (षड्धा न्यास) कहते हैं। इनमें अंगन्यास, करन्यास, महान्यास, अन्तर्बहिर्मातका आदि होते हैं।

 : कामधेनुतन्त्र में स अक्षर के स्वरूप का निम्नांकित वर्णन हैं :

सकारं श्रृणु चार्वङ्गि शक्तिबीजं परात्परम्।, कोटि विद्यल्लताकारं कुण्डलीत्रयसंयुतम्॥, पञ्चदेवमयं देवी पञ्चप्राणात्मकं सदा।, रजः सत्त्व तमोयुक्तं त्रिबिन्दुसहितं सदा॥

[हे सुन्दरी पार्वती! सुनो। यह अक्षर कलायुक्त, शक्तिबीज, परात्पर, करोड़ों विद्युत् की लता के समान आकार वाला, तीन कुण्डलियों से युक्त, पञ्चदेवमय, पञ्चप्राणात्मक, सदा सत्त्व-रज-तम तीन गुणों से युक्त और त्रिबिन्दु सहित हैं।]

वर्णोद्धारतन्त्र में इसका ध्यान इस प्रकार बतलाया गया हैं :

शुकलाम्बरां शुक्लवर्णा द्विभुजां रक्तलोचनाम्। श्वेतचन्दनलिप्ताङ्गी मुक्ताहारोपशोभिताम्॥

गन्धर्वगीयमानाञ्च सदानन्दमयीं पराम्। अष्टसिद्धिप्रदां नित्यां भक्तानन्दविविर्द्धनीम्॥

एवं ध्यात्वा सत्कारं तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत्। त्रिशक्तिसहितं वर्ण आत्म दि तत्त्वसंयुतम्॥

प्रणम्य सततं देवि हृदि भावय सुन्दरि॥

[शुक्ल (शेवत) वस्त्र धारण करने वाली, शुक्ल वर्णवाली, दो भुजाओंवाली, लाल नेत्र वाली, श्वेत चन्दनलिप्त शरीर वाली, मोती के हार से सुशोभित, गन्धर्वों से प्रशंसित होती हुई, सदा आनन्दमयी, पराशक्तिरूप, आठ सिद्धियों को देनेवाली, नित्य भक्तों के आनन्द को बढ़ाने वाली---इस प्रकार की शक्ति के रूप में सकार का ध्यान करके इस के मन्त्र को दस बार जपना चाहिए। त्रिशक्ति सहित, आत्मादि तत्त्व से संयुक्त इस वर्ण को बराबर प्रणाम करके हृदय में इसकी भावना करनी चाहिए।]

संयम : व्रत के एक दिन पूर्व विहित नियमों के पालन को संयम कहते हैं! यह व्रत का ही पूर्व अङ्ग हैं। एकादशीतत्त्व में इसका निम्नांकित विधान हैं :

शाकं माषं मसूरञ्च पुनर्भोजनमैथुने।, द्यूतमत्स्यम्बुपानञ्च दशम्यां वैष्णवस्त्यजेत्॥, कांस्यं मांसं सुरां क्षौद्रं लोभं वितथभाषणम्।, व्यायामञ्च व्यवायञ्च दिवास्वप्नं तथाञ्जनम्॥ तिलपिष्टं मसूरञ्च दशम्यां वर्जयेत् पुमान्।, दशम्याम् एकभक्तञ्च कुर्वीत नियतेन्द्रियः॥, आचम्य दन्तकाष्ठञ्च खादेत तदनन्तरम्।, पूर्व हरिदिन्नाल्लोकाः सेवध्यं चैकभोजनम्॥, अवनीपृष्ठशयनाः स्त्रियाः सङ्गविवर्जिताः।, संवदध्वं देवदेवं पुराणं पुरुषोत्तमम्॥, स्कृद् भोजनसंतुष्टा द्वादश्याञ्च भविष्यथ॥

संवर्त : (1) मुनि विशेष का नाम। मार्कण्डेय पुराण (130.11) में इनके विषय में कहा गया है कि ये अंगिरा ऋषि के पुत्र और बृहस्पति के भ्राता थे। ज्योतिस्तत्व के अनुसार एक प्रकार के मेघ का नाम भी सवर्त हैं, जो प्रभूत पानी बरसाने वाला होता हैं :

आवर्ता निर्जलो मेघः संवर्तश्च बहूदकः।, पुष्करो दुष्करजलो द्रोणः सस्यप्रपूरकः॥,

(2) धर्मशास्त्रकारों में से एक का नाम। याज्ञवल्क्य.स्मृति में स्मृतिकारों की सूची में इनका उल्लेख हैं। विश्वरूप, मेधातिथि, विज्ञानेश्वर (मिताक्षराकार), हरदत्त, अपरार्क आदि व्याख्याकारों ने विभिन्न विषयों पर संवर्त के वचन उद्धृत किये हैं। व्यवहार के कई अंगों पर संवर्त का मत उल्लेखनीय हैं। उदाहरण के लिए, लिखित साक्ष्य के विरोध में मौखिक साक्ष्य अमान्य हैं :

लेख्ये लेख्यक्रिया प्रोक्ता वाचिके वाचिकी मता। चिके तु न सिध्येत्सा लेख्यस्योपरि या क्रिया॥ (अपरार्क, पृ० 691-92)

परन्तु गृह और क्षेत्र के स्वाम्य के सम्बन्ध में लेख्य से भुक्ति अधिक प्रामाणिक हैं :

भुज्यमाने गृहक्षेत्रे विद्यमाने तु राजनि।, भुक्तिर्यस्य भवेत्तस्य न लेख्ये तत्र कारणम्॥, (पराशरमाधवीय, 3 पृ० 146)

संवर्त के अनुसार स्त्रीधन लाभ और निक्षेप पर वृद्धि (ब्याज) नहीं लगती, जब तक कि स्वयं स्वीकृत न की गयी हों :

न वृद्धिः स्त्रीधने लाभे निक्षेपे च यथास्थिते।, संदिग्धे प्रातिभाव्ये च यदि न स्यात्स्वयं कृता॥ (स्मृतिचन्द्रिका, व्यव०, 157)

जीवानन्द के स्तिसंग्रह (भाग, पृ० 584-603) और आनन्दाश्रमस्मृतिसंग्रह (पृ० 411-24) में संवर्तस्मृति संगृहीत है, जिसमें क्रमशः 227 और 230 श्लोक हैं। इसमें कहा गया है कि संवर्त ने वामदेव आदि ऋषियों के सम्मुख इस स्मृति का प्रवचन किया था।

संवर्तस्मृति के विषय व्यवहार पर उद्धृत वचनों से अधिक प्राचीन जान पड़ते हैं।

संसार : संसरण, गति, खसकाव रखनेवाला, अर्थात् जो गतिमान अथवा नश्वर हैं। नैयायिकों के अनुसार 'मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न वासना' को संसार कहते हैं ('संसारश्च मिथ्याधीप्रभवा वासना') मर्त्यलोक अथवा भूलोक को सामान्यतः संसार कहते हैं। कूर्मपुराण (ईश्वर गीता, द्वितीय अध्याय) में संसार की परिभाषा इस प्रकार दी हुई हैं :

न माया नैव च प्राणश्चैतन्यं परमार्थतः।, अहं कर्ता सुखी दुःखी कृशः स्थूलेति या मतिः॥, सा चाहंकारकर्तृत्वादात्मन्यारोप्यते जनैः।, वदन्ति वेदविद्वांसः साक्षिणं प्रकृतेः परम्॥, भोक्तारमक्षरं शुद्धं सर्वत्र समवस्थितम्।, तस्मादज्ञानमूलीऽयं संसारः सर्वदेहिनाम्॥,

[आत्मा परमार्थतः चैतन्य हैं; माया और प्राण नहीं, किन्तु वह अज्ञान से अपने को कर्ता, सुखी, दुःखी, कृश, स्थूल आदि मान लेता हैं। मनुष्य अहंकार से उत्पन्न कर्तृत्व के कारण इन परिस्थितियों को अपने ऊपर आरोपित कर लेते हैं। विद्वान् लोग आत्मा को प्रकृति से परे (भिन्न) मानते हैं; वास्तव में वही भोक्ता, अक्षर, शुद्ध और सर्वत्र विद्यमान है। इसलिए (वास्तव में) शरीरधारियों का यह संसार (मर्त्यलोक) अज्ञान से उत्पन्न हुआ हैं।]

संसारमोक्षण : वैष्णव सम्प्रदाय में संसार से मुक्ति पाने की प्रक्रिया को 'संसार मोक्षण' कहते हैं। वाराह पुराण (सूतस्वामिमाहात्म्यनामाध्याय) में कथन हैं :

एवमेतन्महाशास्त्रं देवि संसारमोक्षणम्।, मम भक्तव्यवस्थायै प्रयुक्तं परमं मया॥

वामनपुराण (अध्याय 90) में संसार से मोक्ष पाने का उपाय इस प्रकार बतलाया गया हैं :

ये शङ्खचक्राब्जकरं तु शार्ङ्गिणं, खगेन्द्रकेतुं वरदं श्रियः पतिम्।, समाश्रयंन्ते भवभीतिनाशनं, संसारगर्ते न पतन्ति ते पुनः॥

संस्कार : (1) इस शब्द का प्रयोग कई अर्थों में होता हैं। मेदिनीकोश के अनुसार इसका अर्थ है प्रतियत्न, अनुभव और मानस कर्म। न्याय दर्शन के अनुसार यह गुणविशेष हैं। यह तीन प्रकार का होता है---(1) वेगाख्य (यह वेग अथवा कर्म से उत्पन्न होता हैं) (2) स्थितिस्थापक (यह पृथ्वी का गुण है, यह अतीन्द्रिय और स्पन्दनकारण होता है) और (3) भावना (यह आत्मा का अतीन्द्रिय गुण हैं, यह स्मरण औऱ प्रत्यभिज्ञा का कारण है)।

(2) शरीर एवं वस्तुओं की शुद्धि के लिए उनके विकास के साथ समय-समय पर जो कर्म किये जाते हैं उन्हें संस्कार कहते हैं। यह विशेष प्रकार का अदृष्ट फल उत्पन्न करनेवाला कर्म होता हैं। इस प्रकार शरीर के मुख्य संस्कार सोलह हैं---(1) गर्भाधान (2) पुंसवन (3) सीमन्तोन्नयन (4) जातकर् (5) नामकरण (6) निष्क्रमण (7) अन्नप्राशन (8) चूडाकरण (9) कर्णवेध (10) विद्यारम्भ (11) उपनयन (12) वेदारम्भ (13) केशान्त (14) समावर्तन (15) विवाह और (16) अन्त्येष्टि। संस्कार से किसी भी वस्तु का उत्कर्ष हो जाता है। विस्तार के लिए देखिए नीलकंठ : संस्कारमयूख; मित्रमिश्र : संस्कार प्रकाश।

(3) जीर्ण मन्दिरादि के पुनरुद्धार को भी संस्कार कहते हैं। शास्त्रों में इसका बड़ा महत्व बतलाया गया हैं।

संस्कारहीन : (1) जिस व्यक्ति का समय से विहित संस्कार न हो उसे संस्कारहीन कहा जाता है। शास्त्र में ऐसे व्यक्ति की संज्ञा 'व्रात्य' है। विशेषकर उपनयन संस्कार अवधि के भीतर न होने से व्यक्ति सावित्रीपतित अथवा व्रात्य हो जाता है। यह अवधि ब्राह्मण के लिए सोलह वर्ष, क्षत्रिय के लिए बाईस वर्ष और वैश्य के लिए चौबीस वर्ष हैं।

(2) अनगढ़ असंस्कृत व्यक्ति या वस्तु को भी संस्कारहीन कहा जाता है।

संस्मरण : संस्काराजन्य ज्ञान। तिथ्यादितत्त्व में कथन हैं :

ध्यायेन्नारायणं नित्यं स्नानादिषु च कर्मसु।, तद्विष्णोरिति मनेण स्नायादप्सु पुनः पुनः॥, गायत्री वैष्णवी ह्योषा विष्णोः संस्मरणाय वै।

संहार : (1) सृष्ठि की समाप्ति प्रलय। मनुस्मृति (1.80) के अनुसार :

मन्वन्तराण्यसंख्यानि सर्गः संहार एव च।, क्रीडन्निवैतत् कुरुते परमेष्ठी पुनः पुनः॥,

(2) अष्ट भैरवों में से एक का नाम :

असिताङ्गो रुरुश्चण्डः क्रोध उन्मत्त एव च।, कपाली भीषणश्चैव संहारश्चाष्ट भैरवाः.।

संहारमुद्रा (विसर्जनमुद्रा) : धार्मिक क्रियाओं में विसर्जन की मुद्रा को संहारमुद्रा कहते हैं। यथा

अधोमुखे वामहस्ते ऊर्ध्वास्यं दक्षहस्तकम्।, क्षिप्राङ्गुलीरङ्गलिभिः संगृह्य परिवर्तयेत्॥, प्रोक्ता संहारमुद्रेयमर्पणे तु प्रशस्यते॥

संहिता : सम्यक् अथवा पूर्वापर रूप में संग्रथित (संगृहीत) साहित्यिक अथवा आचार-नियम सम्बन्धी सामग्री।, संगृहीत और सुसम्पादित वैदिक साहित्य को इसीलिए संहिता कहते हैं जिसकी संख्या चार हैं--(1) ऋग्वेद (2) यजुर्वेद (3) सामवेद और (4) अथर्ववेद। मन्वादिप्रणीत धर्मशास्त्र ग्रन्थों अथवा स्मृतियों को भी संहिता कहते हैं। सम्प्रदायों से सम्बद्ध ग्रन्थों को भी संहिता कहा जाता हैं। पुराण भी संहिता कहे गये हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड (अऽ 132) में संहिताओं की गणना इस प्रकार हैं :

एवं पुराणसंस्थानं चतुर्लक्षमुदाहृतम्।, अष्टादश पुराणानामेवमेव विदुर्बुधाः॥, एवञ्चोपपुराणानामष्टादश प्रकीर्तितः।, इतिहासो भारतञ्च वाल्मीकं काव्यमेव च॥, पञ्चकं पञ्चरात्राणं कृष्णमाहात्म्यमुत्तमम्।, वासिष्ठं नारदीयञ्च कापिल गौतमीयकम्॥, परं सनत्कुमारीयं पञ्चरात्रञ्च पञ्चकम्।, पञ्चकं संहितानाञ्च कृष्णभक्तिसमन्विताम्॥, ब्रह्मणश्च शिवस्यापि प्रह्लादस्य तथैव च।, गौतमस्य कुमारस्य संहिताः परिकीर्तिताः॥

कूर्मपुराण (अ० 1), स्कन्दपुराण (शिवमाहात्म्य खण्ड, अ० 1) में भी संहिताओं की सूचियाँ हैं।

सकुल्य : समान कुल में उत्पन्न अथवा सगोत्र। बौधायन के अनुसार प्रपितामह, पितामह, पिता, स्वयं, सहोदर भाई, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र---इनको अविभक्त दायाद अथवा सपिण्ड कहते हैं। विभक्त दायादों को सकुल्य कहते हैं। अविभक्त दायादों के अभाव में सम्पत्ति इनको मिलती है। दे० दायतत्त्व तथा शुद्धितत्त्व।

सकुल्यों के लिए बृहस्पति ने अशौच का विधान इस प्रकार बतलाया हैं :

दशाहेन सपिण्डास्तु शुध्यन्ति प्रेतसूतके।, त्रिरात्रेण सकुल्यास्तु स्नात्वा शुध्यन्ति गोत्रजाः॥, (शुद्धितत्त्व में उद्धृत)

सखीसम्प्रदाय : राम और कृष्ण के प्रेममार्गी भक्तों का एक उपसम्प्रदाय। इसके अनुयायी अपने को सीताजी या राधाजी की सखी मानकर राम या कृष्ण की उपासना करते हैं। ये अपनी वेशभूषा प्रायः स्त्रियों की तरह रखते हैं। रंगीन वस्त्र पहनते हैं, आभूषण धारण करते हैं, पाँवों में महावर लगाते हैं। अपने साम्प्रदायिक नाम भी स्त्रीवाचक रखते हैं, जैसे प्रेमा, ललिता, शशिकल्प आदि। अयोध्या, जनकपुर, वृन्दावन इनके केन्द्र हैं। प्रायः उच्च श्रेणी के रसिक भक्त अपने सखीभाव को लोकाचार से अलग गुप्त रखते हैं।

सगर : सूर्यवंश के एक प्रसिद्ध राजा। इनकी उत्पत्ति की कथा पद्मपुराण (स्वर्ग खण्ड, अध्याय 15) में इस प्रकार दी हुई हैं :सूर्यवंश में बाहु नाम के महान् राजा हुए। तालजङ्घ हैहयों ने उनके सम्पूर्ण राज्य का हरण कर लिया। काम्बोज, पह्लव, पारद, यवन औऱ शक इन पाँच गणों ने हैहयों के लिए पराक्रम किया। राज्य का हरण हो जाने पर राजा बाहु वन में चले गये। उनकी पतिव्रता यादवी पत्नी गर्भिणी थी। उसकी सौत ने गर्भ को नष्ट करने के लिए उसकों भोजन के समय गर (विष) दे दिया। यादवी के योगबल से वह गर्भ मरा नहीं और देवताओं की अनुकम्पा से वह रानी भी नहीं मरी। वह वन में पति की सेवा करती रही। राजा ने उस वन में योग से अपने प्राण त्याग दिये। रानी पति की चिता लगाकर भस्म होने के लिए उस पर चढ़ने जा रही थी। और्व भार्गव (वसिष्ठ) ने दया करके उसको सती होने से बचाया। रानी ने उस वन में अग्नि के समान प्रोज्ज्वल गर्भ की सेवा की। तपोबल से गर (विष) के साथ बालक का जन्म हुआ इसलिए वह सहर कहलाया। वह अत्यन्त सुन्दर बालक था। और्व भार्गव ने उसके जातकर्म आदि संस्कार करके वेदों और शस्त्रास्त्र की शिक्षा दी। देवताओं के लिए भी दुःसह महाघोर आग्नेय अस्त्र उसको प्रदान किया। सगर ने उस बल से समन्वित होकर तथा सैन्य बल से भी युक्त होकर तालजङ्घ हैहयों और अन्य रिपुओं को वश में कर लिया।

मत्स्यपुराण के अनुसार सगर की दो भार्यायें थीं--- प्रभा और भानुमती। दोनों ने और्व भार्गव की आराधना की। और्व ने दोनों को उत्तम वर प्रदान किया। एक को साठ सहस्र पुत्र तथा दूसरी को एक पुत्र उत्पन्न हुआ। यादवी प्रभा को साठ सहस्र पुत्र और भानुमती को असमंजस नामक वंशधर पुत्र हुआ। अश्वमेध यज्ञ में अश्व की खोज करते हुए प्रभा के साठ सहस्र पुत्र कपिल के शाप से दग्ध हो गये। असमंजस का पुत्र अंशुमान् प्रसिद्ध हुआ। उसका पुत्र दिलीप और दिलीप का भगीरथ विख्यात हुआ। उसने तप करके गङ्गा का पृथ्वी पर अवतरण कराया। इससे उसके शापदग्ध पितरों का उद्धार हुआ।

सगुणोपासना : ब्रह्म के दो रूप हैं---निर्गुण और सगुण। निर्गुण अव्यक्त और केवल ज्ञानगम्य है। सगुण गुणों से संयुक्त होने के कारण सुगम और इन्द्रियगोचर है। श्रीमद्भगवद्गीता में यह प्रश्न किया गया है कि दोनों रूपों में से किसकी उपासना सरल है। उत्तर में कहा गया है कि निर्गुण अथवा अव्यक्त की उपासना क्लिष्ट (कठिन) है। सगुण की उपासना सरल है। सगुण उपासना में पहले प्रतीकों--प्रणव आदि की उपासना और आगे चलकर अवतारों की उपासना प्रचलित हुई। गीता में कहा गया है कि वृष्णिलोगों में वासुदेव (कृष्ण) और रुद्रों में शङ्कर (शिव) 'मैं' हूँ। इस प्रकार वैष्णव और शैव सम्प्रदायों और उनके अनेक उपसम्प्रदायों में सगुणोपासना का प्रचार हुआ।

सगोत्र : एक ही गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति। अमरकोश में सगोत्र, बान्धव, ज्ञाति, बन्धु और स्वजन को समान बतलाया गया है। किन्तु इनमें तारतम्य है।

सङ्कर : भिन्न वर्ण के माता-पिता से उत्पन्न सन्तान। हिन्दू समाज मुख्यतः चार वर्णों में विभक्त है। विवाहसम्बन्ध प्रायः सवर्णों में ही होता आया है। कभी-कभी अनुलोम के अनुसार संतति पिता के वर्ण की मानी जाती थी। परन्तु आगे चलकर वर्णान्तर विवाह वर्जित और निषिद्ध होने लगे। इस प्रकार के विवाहों से उत्पन्न संतति मिश्र (संङ्कर) और निन्दनीय मानी जाने लगी। मनुस्मृति में वर्णसङ्कर जातियों का विस्तार से वर्णन पाया जाता है। दे० 'वर्ण'।

सङ्कर्षण : पाञ्चरात्र वैष्णव मत के अनुसार पाँच के व्यूह में से दूसरे व्यक्ति। व्यूह के सिद्धान्त के अनुसार वासुदेव से संकर्षण, संकर्षण से प्रद्युम्न, प्रद्युम्न से अनिरुद्ध और अनिरुद्ध से ब्रह्मा उत्पन्न हुए। वासुदेव परमतत्त्व (ब्रह्म) हैं। संकर्षण प्रकृति अथवा महत् है। यहीं से सृष्टि में क्रियात्मक कर्षण प्रारम्भ होता है।

पाञ्चरात्र वैष्णव देवमण्डल में वासुदेव कृष्ण के साथ संकर्षण (बलराम) भी पूजा के देवता हैं। दे० 'पाञ्चरात्र'।

सङ्कल्प : किसी कर्म के लिए मन में निश्चय करना। भाव अथवा विधि में 'मेरे द्वारा यह कर्त्तव्य हैं' और निषेध में मेरे द्वारा यह अकर्तव्य है, ऐसा ज्ञानविशेष संकल्प कहा जाता है। कोई भी कर्म, विशेष कर धार्मिक कर्म, बिना संकल्प के नहीं करना चाहिए। भविष्य पुराण का कथन है :

संकल्पेन बिना राजन् यत्किञ्चित् कुरुते नरः। पलञ्चाल्पाल्पकं तस्य धर्मस्यार्द्धक्षयो भवेत्॥ संकल्पमूलः कामो वै यज्ञाः संकल्पसम्भवाः। व्रता नियमधर्माश्च सर्वे संकल्पजाः स्मृताः॥

[हे राजन्! मनुष्य जो कुछ कर्म बिना संकल्प के करता है उसका अल्प से अल्प फल होता है; धर्म का आधा क्षय हो जाता है। काम का मूल संकल्प में है। यज्ञ संकल्प से ही उत्पन्न होते हैं। व्रत, नियम और धर्म सभी संकल्प से ही उत्पन्न होते हैं, ऐसा सुना गया है।]

संकल्प की वाक्यरचना विभिन्न कर्मों के लिए शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से बतलायी गयी है। योगिनीतन्त्र (प्रथम खण्ड, द्वितीय पटल) में संकल्प का निम्नांकित विधान है :

ताम्रपात्रं सदूर्वञ्च सतिलं जलपूरितम्। सकुराञ्च फलैर्देवि गृहीत्वाचम्य कल्पतः॥ अभ्यर्च्च्य च शिरःपद्मे श्रीगुरुं करुणामयम्। यक्षेशवदनो वापि देवेन्द्रवदनोऽपि वा॥ मासं पक्षं तिथिञ्चैव देवपर्वादिकन्तथा। आद्यान्तकालञ्च तथा गोत्रं नाम च कामिनाम्॥ क्रियाह्वयं करिष्येऽन्तमेवं समुत्सृजेत् पयः॥

संङ्कल्पनिराकरण : चौदह शैव सिद्धान्तशास्त्रों (ग्रन्थों) में से एक। इसके रचयिता उमापति शिवाचार्य तथा रचनाकाल चौदहवीं शती है। उमापति शिवाचार्य ब्राह्मण थे किन्तु शूद्र आचार्य मरै ज्ञानसम्बन्ध के शिष्य हो जाने के कारण जाति से बहिष्कृत कर दिये गये। ये अपने सम्प्रदाय के प्रकाण्ड धर्मविज्ञानी थे। इन्होंने आठ प्रामाणिक सिद्धान्त ग्रन्थों की रचना की जिनमें से संकल्पनिराकरण भी एक है।

सङ्कल्पसूर्योदय : श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य वेदान्तदेशिक द्वारा लिखित एक ग्रन्थ। यह रूपकात्मक नाटक है तथा बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय है। वेदान्तदेशिक माधवाचार्य के मित्रों में थे। माधव ने 'सर्वदर्शनसंग्रह' में इनका उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल चौदहवीं शती का उत्तरार्ध है।

सङ्किशा : उत्तर प्रदेश के फरुखाबाद जिले में पखना स्टेशन से प्रायः सात मील काली नदी के तट पर स्थित बौद्धों का धर्मस्थान। इसका प्राचीन नाम संकाश्य है। कहते हैं, बुद्ध भगवान् स्वर्ग से उतरकर पृथ्वी पर यहीं आये थे। जैन भी इसे अपनी तीर्थ मानते हैं। तेरहवें तीर्थङ्कर विमलनाथजी का यह 'केवलज्ञानस्थान' माना जाता है।

वर्तमान सङ्किशा एक ऊँचे टीले पर बसा हुआ छोटा सा गाँव है। टीला दूर तक फैला हुआ है और किला कहलाता है। किले के भीतर ईंटों के ढेर पर बिसहरी देवी का मन्दिर है। पास ही अशोकस्तम्भ का शीर्ष है जिस पर हाथी की मूर्ति निर्मित है।

सङ्कीर्तन : सम्यक् प्रकार से देवता के नाम का उच्चारण अथवा उसके गुणादि का कथन। कीर्तन नवधा भक्ति का एक प्रकार है :

स्मरणं कीर्तनं विष्णोः वन्दनं पादसेवनम्।'

इसी का विकसित रूप संकीर्तन है। भागवत (11.5) में संकीर्तन का उल्लेख इस प्रकार है :

यज्ञैः संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः॥ पुराणों में संकीर्तन का बड़ा माहात्म्य वर्णित है। बृहन्नारदीय पुराण के अनुसार :

संकीर्तनध्वनिं श्रुत्वा ये च नृत्यन्ति मानवाः। तेषा पादरजस्पर्शात् सद्यः पूता वसुंधरा॥

[संकीर्तन की ध्वनि सुनकर जो मानव नाच उठते हैं, उनके पदरज के स्पर्शमात्र से वसुंधरा तुरन्त पवित्र हो जाती है।]

सङ्क्रान्ति : सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाना। द्वादश नक्षत्र राशियों के अनुसार द्वादश ही संक्रान्तियाँ हैं। विभिन्न संक्रान्तियाँ विभिन्न व्यक्तियों के लिए शुभाशुभ फल देनेवाली होती हैं। संक्रान्तियों के अवसर पर विभिन्न धार्मिक कृत्यों का विधान पाया जाता है। स्नान और दान का विशेष महत्त्व बतलाया गया है।

सञ्ज्ञा : एक भावात्मक देवता। सूर्यपत्नी को संज्ञा कहते हैं। मार्कण्डेयपुराण (77.1) में कथन है :

मार्तण्डस्य रवेर्भार्या तनया विश्वकर्मणः। संज्ञा नाम महाभागा तस्यां भानुरजीजनत्॥

विशेष विवरण के लिए उपर्युक्त पुराण का सम्बद्ध भाग देखिए।

सतनामी : कबीरदास से प्रभावित जिन अनेक निर्गुणवादी सम्प्रदायों का उदय हुआ उनमें सतनामी समप्रदाय भी है। इसका प्रवर्तक कौन था और किस प्रकार इसका उदय हुआ, यह बतलाना कठिन है। अनुमानतः 1600 ई० के लगभग इसका उदय हुआ। इसका नाम सतनामी इसलिए पड़ा कि इसमें 'सत्य नाम' (वास्तविक ईश्वर के नाम) की उपासना पर जोर दिया जाता है। यह कबीर की नामोपासना से मिलता-जुलता है, जो उनके प्रभा को स्पष्ट करता है। 1672 ई० के लगभग सबसे पहला इसका उल्लेख पाया जाता है। औरंगजेब के शासनकाल में दिल्ली से दक्षिण-पश्चिम 75 मील दूर नारनौल नामक स्थान में एक साधारण सी बात पर सतनामियों और शासन में झगड़ा हो गया। इस पर सतनामियों ने विद्रोह किया औऱ वे बड़ी संख्या में मारे गये। उस समय का सतनामियों का कोई समसामयिक ग्रन्थ नहीं पाया जाता।

इस सम्प्रदाय का पुनः संगठन 1750 ई० के लगभग जगजीवन दास के द्वारा हुआ, जो बाराबंकी जिले (उ.प्र.) के कोटावा नामक स्थान के निवासी थे। ये योगी और कवि थे। इन्होंने हिन्दी में पदों की रचना की। इनके शिष्य दूलन दास हुए। ये भी कवि थे। ये आजीवन रायबरेली जिले में रहे। 1820 और 1830 ई० के बीच छत्तीसगढ़ के एक चमार जातीय सन्त गाजीदास ने फिर इस सम्प्रदाय का पुनरुत्थान किया। इस नवोत्थित धर्म का प्रचार विशेषकर चमारों और अन्य असवर्ण लोगों में ही हुआ इस सम्प्रदाय में निम्न वर्ण के लोग थे।

जैसा कि ऊपर कहा गया है, इस सम्प्रदाय के अनुयायी एक सत्यनाम (अरूप, निर्गुण ईश्वर) के उपासक हैं। इनमें अवतार और मूर्तिपूजा वर्जित है। भोजन में ये शाकाहारी हैं और इनमें मद्य और मांस का निषेध है। ये उन पदार्थों का भी सेवन नहीं करते जो आकृति में रक्त अथवा मांस की तरह दिखाई पड़ते हैं। कुछ लोगों के अनुसार ये शारीरिक मलों से युक्त भोजन करते थे। परन्तु भट्टाचार्य ने इस मत का खण्डन किया है। छत्तीसगढ़ के सतनामियों में एक धार्मिक प्रथा के रूप में स्त्रियों में शिथिल आचार देखा जाता था जो अब प्रायः बन्द हो गया है। इनके कई वर्गों में मूर्तिपूजा की प्रथा भी जारी हो गयी है, जो परम्परागत हिन्दू धर्म का प्रभाव है। इनकी कुछ गन्दी प्रथाएँ आदिम काल के अविकसित जीवन के अवशेष हैं जो अभी तक पूर्णतः नष्ट नहीं हो पाये हैं।

सती : (1) सत् अथवा सत्य पर दृढ़ रहनेवाली। यह शिव की पत्नी का नाम है। पुराणों में इनकी कथा विस्तार से दी हुई है। ये दक्ष प्रजापति की कन्या थीं। इनका विवाह शिव के साथ हुआ था। एक बार दक्ष ने यज्ञ का अनुष्ठान किया। उन्होंने सभी देवताओं को निमन्त्रित कर उनका भाग दिया किन्तु शिव को नहीं निमन्त्रित किया। जब सती को अपने पिता के यज्ञानुष्ठान का पता लगा तो उन्होंने शिव से अपने पिता के यहाँ जाने का आग्रह किया। शिव ने बिना निमन्त्रण के जाना अस्वीकार कर दिया। उनके मना करने पर भी सती अपने पिता के यहाँ गयी। वहाँ अपने पति के अपमान से बहुत दुःखी हुई और अपना शरीर त्याग कर दिया। इस घटना का समाचार पाकर शिव बहुत क्रुद्ध हुए। उन्होंने अपने गणों को यज्ञ विध्वंस करने के लिए भेजा। स्वयं वे सती के मृत शरीर को लेकर और सन्तप्त होकर सँसार में घूमते रहे। जहाँ-जहाँ सती के अङ्ग गिरे वहाँ तीर्थ बन गये। दूसरे जन्म में सती ने हिमालय के यहाँ पार्वती के रूप में जन्म लिया और पुनः उनका शिव के साथ विवाह हआ, जिसका काव्यमय वर्णन कालिदास ने कुमारसंभव में किया है।

(2) प्रचलित अर्थ में सती वह स्त्री है जो सच्चे पतिव्रत का पालन करती थी और पति के मरने पर उसकी चिता पर अथवा अलग चिता पर जलकर उसका अनुगमन करती थी। यह प्रथा प्राचीन भारत में प्रचलित थी। परन्तु अब यह विधि के द्वारा वर्जित है, कभी-कभी इसके उदाहरण विधि का भंग करते हुए सुनाई पड़ते हैं।

अन्य देशों में, जहाँ स्त्रियाँ पुरुषों की सम्पत्ति समझी जाती थीं, मृत पति के साथ वे समाधि में चुन दी जाती थीं। परन्तु भारत के प्राचीनतम साहित्य में इस प्रकार का उल्लेख नहीं पाया जाता। ऐसा कोई वैदिक सूक्त अथवा मन्त्र नहीं मिलता जिसमें मृत पति की चिता पर विधवा के सती होने की चर्चा हो। गृह्यसूत्रों में, जिनमें अन्त्येष्टि का विस्तृत वर्णन पाया जाता है, सती होने का कोई विधान नहीं है। ऐसा लगता है कि किसी आर्येतज्ञ्अवथा विदेशी सम्पर्क के कारण यह प्रथा भारत में प्रचलित हुई। धर्मसूत्रों में से केवल विष्णुधर्मसूत्र में सतीप्रथा का वैकल्पिक विधान है (मृते भर्तरि ब्रह्मचर्य तदन्वारोहणं वा)। 25.14 : मिताक्षरा, याज्ञ० 1.88 के भाष्य में उद्घृत)। मनुस्मृति में कहीं भी सती का उल्लेख नहीं पाया जाता। रामायण (उत्तर, 17.15) में इसका केवल एक उदाहरण पाया जाता है। इसके अनुसार एक ब्रह्मर्षि की पत्नी अपने पति की चिता पर सती हुई। महाभारत के अनुसार युद्ध में बहुसंख्यक लोग मारे गये, किन्तु सती के उदाहरण बहुत कम हैं। माद्री पाण्डु के मरने पर उनकी चिता पर सती हो गयी (आदि०, 95.65)। वसुदेव की चार पत्नियाँ--देवकी, भद्रा, रोहिणी और मदिरा---पति की चिता पर सती हुईं (मुसल०, 7.18)। कृष्ण की कुछ पत्नियां उनके शव के साथ सती हुईँ। किन्तु सत्यभामा तपस्या करने वन चली गयी (मुसल, 7.73--74)। ऐसा लगता है कि सती प्रथा मुख्यतः क्षत्रियों में ही प्रचलित थी और वह भी बहुत व्यापक नहीं थी। कौरवों की पत्नियों के सती होने का उल्लेख नहीं है। परवर्ती स्मृतियों में ब्राह्मण विधवाओं के सती होने का स्पष्ट निषेध किया गया है (मिताक्षारा, याज्ञ० 1.86 के भाष्य में उद्धृत)। यूनानी लेखकों ने, जो सिकन्दर के साथ भारत में आये थे, इस बात का उल्लेख किया है कि पंजाब की कठ जाति में सती प्रथा प्रचलित थी (स्ट्रैबों, 15.1.30,62)। परन्तु यह प्रथा बहुप्रचलित नहीं थी।

सती प्रथा की पवित्रता और उपयोगिता के सन्बन्ध में धर्मशास्त्रकारों में सदा मतभेद रहा है। मेधातिथि ने मनुस्मृति (5.157) पर भाष्य करते हुए सती प्रथा की तुलना श्येनयाग से की है जो एक प्रकार का अभिचार (जादू-टोना) था। मेधातिथि तथा कुछ अन्य टीकाकारों ने इसकी तुलना आत्महत्या से की है और इसे गर्हित बतलाया है। इसके विपरीत मिताक्षरा के रचयिता विज्ञानेश्वर तथा अन्यों ने सती प्रथा का समर्थन किया है।

सम्पूर्ण मध्ययुग में यह प्रथा विशेषतः राजपूतों में प्रचलित थी। मुसलमानों के आक्रमण से इसको और प्रोत्साहन मिला। अकबर ने अपने सुधारवादी शासन में सती प्रथा को बन्द करना चाहा, परन्तु यह बन्द न हुई। आधुनिक युग में भी बनी रही। बंगाल में इसका सर्वाधिक प्रचार था। इसका कारण यह था कि वहाँ दाय भाग के अनुसार पत्नी को पति की मृत्यु के पश्चात् संयुक्त पारिवारिक सम्पत्ति में पूर्ण अधिकार प्राप्त था। इसलिए परिवारवाले यही चाहते थे कि विधवा मृत पति के साथ सती हो जाय। इसमें छल और बल प्रयोग भी होने लगा। राजा राममोहन राय के प्रयत्नों से लार्ड विलियम बैंटिङ्क के शासन-काल (1829 ई०) में सतीप्रथा भारत में निषिद्ध कर दी गयी।

सतीर्थ : सहपाठी अर्थात् गुरुभाई। समान गुरु से पढ़े हुए परस्पर सतीर्थ कहलाते हैं।

सत्कार : पूजा अथवा आवभगत। व्यवहारतत्‍त्व के अनुसार सभा में सभासद् जिस प्रकार बैठते हैं, उठते हैं, तथा दानमान आदि प्राप्त करते हैं, उसे सत्कार कहा जाता है।

सत्क्रिया : शवदाहादि संस्कार को सत्क्रिया कहा जाता है। शब्दरत्नावली में 'संस्कार' के अर्थ में सत्क्रिया का प्रयोग हुआ है। महाभारत (1.44.5 'प्रयुज्य सर्वाः परलोकसत्क्रियाः।') में अन्त्येष्टि के अर्थ में ही यह शब्द प्रयुक्त हुआ है।

सत्य : तीनों कालों में जो एक समान रहे (त्रिकालाबाध्य), परमात्मा (सत्यं ज्ञानमनन्तं)। इसका प्रयोग कृतयुग, शपथ एवं यथार्थ के अर्थ में प्रायः होता है। इसके अन्य पर्याय हैं, तथ्य, ऋत सम्यक्, अवितथ, भूत आदि। पद्मपुराण (क्रियायोगसार, अध्याय 16) में सत्य का लक्षण इस प्रकार है :

यथार्थकथनं यच्च सर्वलोकसुखप्रदम्। तत्सत्यमिति विज्ञेयमसत्यं तद्विपर्ययम्॥

सांख्य दर्शन में इससे मिलता-जुलता सत्य का लक्षण बतलाया गया है : 'अत्यन्तलोकहितम् सत्यम्।' महाभारत (राजधर्म) में सत्य का आकार निम्नांकित प्रकार से बतलाया गया है :

सत्यञ्च समता चैव दमश्चैव न संशयः। अमात्सर्य क्षमा चैव ह्रीस्तितिक्षानुसूयाता॥ त्यागो ध्यानमथार्यत्वं धृतिश्च सततं दया। अहिंसा चैव राजेन्द्र सत्याकारास्त्रयोदश॥

पुराणों में सत्य का माहात्म्य बड़े विस्तार से वर्णित है। गरुड़पुराण (अध्याय 115) में सत्य की प्रशंसा इस प्रकार है :

न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वृद्ध ये न वदन्ति सत्यम्। नाऽसौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति न तत्सत्यं यच्छलेनानुविद्धम्॥

सत्यनारायण : ईश्वर का एक पर्याय। इसका अर्थ है 'सत्य ही नारायण (भगवान्) हैं।' सत्यनारायण की व्रतकथा बहुत ही प्रचलित है। यह स्कन्द पुराण के रेवाखण्ड में वर्णित कही जाती है। प्रायः पूर्णिमा को सत्यनारायणव्रतकथा कहने का प्रचलन है। यद्यपि कलियुग में सत्यनारायण की पूजा विशेष फलदायक कही जाती है, किन्तु सत्य के नाम से नारायण का अवतार और पूजा-उपासना सत्ययुग से ही चली आ रही है :

धर्मस्य सूनृतयां तु भगवान् पुरुषोत्तमः। सत्यसेन इति ख्यातो जातः सत्यव्रतैः सह॥ सोऽनृतव्रतदुःशीलानसतो यक्षराक्षसान्। भूतद्रुहो भूतगणांस्त्ववधीत् सत्यजित्सखः॥ (भागवत, 8.1.25-26)

सत्यभामा : कृष्ण की आठ पटरानियों में द्वितीय। पद्मपुराण (उत्तर खण्ड, अध्याय 69) में इन आठों के नाम इस प्रकार हैं :

अष्टौ महिष्यस्ताः सर्वा रुक्मिण्याद्या महात्मनः। रुक्मिणी सत्यभामा च कालिन्दी च शुचिस्मिता॥ मित्रविन्दा जाम्बवती नाग्नजिती सुलक्षणा। सुशीला नाम तन्वङ्गी महिष्यश्चाष्टमाः स्मृताः॥

सत्ययुग : चार युगों में से प्रथम युग। इसका कृत नाम इस कारण हुआ कि समस्त प्रजा इस काल में कृतकृत्य या कृतार्थ रहती थी :

कृतकृत्य प्रजा यत्र तन्नाम्ना मां कृतं विदुः॥' (कल्कि पुराण, अध्याय 19)

कृत्युग (सत्ययुग) की दशा का वर्णन निम्नांकित पाया जाता है :

धर्मश्चतुष्पादभवत् कृते पूर्णे जगत्त्रयम्। देवा यथोक्तफलदाश्चरन्ति भुवि सर्वतः॥ सर्वसस्या वसुमती हृष्टपुष्टजनावृता। शाठ्यचौर्या नृतैर्हीना आधिव्याधिविवर्जिता॥ विप्रा वेदविदः सुमङ्गलियुता नार्यस्तु चर्याव्रतैः पूजाहोमपरा पतिव्रतधरा यागोद्यताः क्षत्रिया:-॥ वैश्या वस्तुषु धर्मतो विनिमयैः श्रीविष्णुपूजापराः, शूद्रास्तु द्विजसेवनाद् हरिकथालापाः सपर्यापराः॥ (कल्कि पुराण, अध्याय 18)

वैशाख शुक्ल तृतीया रविवासर को सत्य युग की उत्पत्ति हुई थी। इसमें विष्णु के चार अवतार हुए--1. मत्स्य, 2. कूर्म 3. वराह तथा 4. नृसिंह। इसमें पुण्य पूर्ण था, पाप का अभाव था, मुख्य तीर्थ कुरुक्षेत्र था, ब्राह्मण ग्रहांश थे, प्राण मज्जागत थे, मृत्यु इच्छानुसार थी। इसमें बलि, मान्धाता, पुरूरवा, धुन्धुमारिक, कार्तवीर्य ये छः चक्रवर्ती राजा हुए थे। इसका लक्षण निम्नांकित है :

सत्यधर्मरता नित्यं तीर्थानाञ्च सदाश्रयम्। नन्दन्ति देवताः सर्वा सत्ये सत्यपरा नराः॥

(दे० भागवत, 12,4,2, पर श्रीधर स्वामी की टीका)

सत्यलोक : सात लोकों के अन्तर्गत एक लोक। विष्णुपुराण (2.7) में इसका निम्नांकित लक्षण दिया हुआ है :

षड्गुणेन तपोलोकात् सत्यलोको विराजते। अपुनर्मारका यत्र ब्रह्मलोको हि स सम्तः॥

[तप लोक से छः गुना सत्यलोक अधिक विराजमान है। वहाँ बसने वालों की पुनः मृत्यु नहीं होती, वह सत्यलोक और ब्रह्मलोक कहलाता है।]

सत्यवती : (1) व्यास की माता का नाम। यह धीवरकन्या थी। पराशर ऋषि ने इसके साथ संसर्ग किया, जिससे व्यास का जन्म हुआ।

(2) हरिवंश पुराण (27,18) के अनुसार ऋचीक मुनि की पत्नी। यथा :

गाधेः कन्या महाभागा नाम्ना सत्यवती शुभा। तां गाधिः काव्यपुत्राय ऋचीकाय ददौ प्रभुः॥

[गाधि‍ की कन्या नाम से सत्यवती महाभागा औऱ शुभा थी। उसको गाधि ने काव्यपुत्र ऋचीक को विवाह में दिया।]

सत्यवतीसुत : (1) सत्यवती के पुत्र व्यास। वास्तव में इनका नाम कृष्ण था। पराशर द्वारा अविवाहित सत्यवती से ये उत्पन्न हुए थे। सत्यवती ने लज्जा के मारे इनको एक द्वीप में छिपा दिया, इसीलिए आगे चलकर ये द्वैपायन भी कहलाये। जब इन्होंने वेदों का संकलन और सम्पादन किया तो इनकी प्रसिद्ध उपाधि व्यास हुई। सर्वाधिक इसी नाम से ये प्रसिद्ध हुए।

(2) जमदग्नि ऋषि भी सत्यवतीसुत कहलाते हैं, क्योंकि उनकी माता का नाम भी सत्यवती था।

सत्यवान् : केकय देश के राजा अश्वपति की कन्या सावित्री के पति। ये साल्व देश (पूर्वी राजस्थान, अलवर) के निवासी थे। महाभारत (3.293.12) में इनके नाम की व्युत्पत्ति इस प्रकार बतलायी गयी है :

सत्यं बदत्यस्य पिता सत्यं माता प्रभाषते। ततोऽस्य बाह्मणाश्चक्रुर्नामैतत् सत्यवानिति॥

[इनके पिता सत्य बोलते थे, माता सत्य भाषण करती थी, इसलिए ब्राह्मणों ने इनका नाम सत्यवान् ही रखा।] सावित्री-सत्यवान् की प्रसिद्ध कथा महाभारत (3.292 और आगे) में विस्तार से दी हुई है।

सत्यार्थप्रकाश : आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा लिखित प्रसिद्ध ग्रन्थ। यह आर्य समाज का सर्वमान्य ग्रन्थ है। इसके अधिकांश प्रारंभिक अध्यायों (समुल्लासों) में आर्य समाज के सिद्धान्तों का मण्डन और समाजसुधारक विचारों का प्रतिपादन किया गया है।

इसके पश्चात् पौराणिक तथा तान्त्रिक हिन्दू धर्म तथा संसार के अन्यान्य धर्मों की कड़ी समीक्षा की गयी है। दे० 'आर्य समाज'।

सत्र : यज्ञ का पर्याय। भागवत पुराण (1.1) में यज्ञ के अर्थ में ही इसका प्रयोग हुआ है।

नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः। सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत॥

कलिमागतमाज्ञाय क्षेत्रेऽस्मिन्वैणवे वयम्। आसीना दीर्घसत्रेण कथायां सक्षणा हरेः॥

[अनिमिषक्षेत्र नैमिषारण्य में शौनक आदि ऋषियों ने स्वर्ग की प्राप्ति और लोक कल्याण के लिए सहस्रों वर्ष का सत्र (यज्ञ) किया। कलि को आया हुआ जानकर इस वैष्णव क्षेत्र में हम लोग दीर्घ सत्र (यज्ञ) करते हुए भगवत कथा में समय बिताने लगे।]

सत्राजित् : कृष्ण की पत्नी सत्यभामा के पिता।

सत्वत् : यदुवंश के एक प्राचीन राजा, जिनसे सात्वत वंश चला। वे अंशु के पुत्र थे। सात्वतों में ही वैष्णवों का भागवत सम्प्रदाय प्रारम्भ में विकसित हुआ, अतः इसे सात्वत सम्प्रदाय भी कहते हैं। सत्वत् के पुत्र सात्वत ने नारद से भागवत धर्म का उपदेश ग्रहण किया (दे० कूर्म पुराण)। इस धर्म की विशेषता थी निष्काम कर्म और वासुदेव की आराधना। ज्ञान, कर्म औऱ भक्ति के समुच्चय अथवा समन्वय के सात्वत लोग समर्थक थे।

सदन : स्वामी रामानन्द के पूर्व रामावत सम्प्रदाय में कई सन्त आचार्य हुए। इनमें नामदेव और त्रिलोचन महाराष्ट्र में तथा सदन और बेनी उत्तर भारत में हुए थे। सदन ने हिन्दी में अपने पदों की रचना की। राय बालेश्वर प्रसाद ने सन्तबानी-संग्रह सन् 1-15 में बेल्बेडियर प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित कराया था। उसमें सदन के पद संगृहीत हैं।

सदाचार : धर्म के अनेक स्रोतों में से एक। इसको धर्मसूत्रों में शील, सामयाचारिक अथवा शिष्टाचार कहा गया है और स्मृतियों में आचार अतवा सदाचार। धर्म के स्रोतों की गणना निम्नांकित प्रकार है :

वेदो धर्ममूलम्। तद्विदाञ्च स्मृतिशीले। (गौ० ध० 1.1-2)

अथातः सामयाचारिकान्धर्मान् व्याख्यास्यामः। धर्मज्ञसमयः प्रमाणम् वेदाश्च। (आप० धर्म० 1.1.1-3)

श्रुतिस्मृतिविहितो धर्मः। तदलाभे शिष्टाचारः प्रमाणम्। शिष्टः पुनरकामात्मा। अगृह्यमाणकारणो धर्मः। (वसिष्ठधर्म० 1.4-7)

श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। सम्यक्संकल्पज: कामोः धर्ममूलमिदं स्मृतम्॥ (याज्ञ० 1.7)

वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्‍मृतिशीले च तद्विदाम्। आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च॥ (मनु 1.6)

आपस्तम्ब धर्मसूत्र के भाष्य में हरदत्त सामयाचारिक की व्याख्या इस प्रकार करते हैं :

पौरुषेयी व्यवस्था समयः, सच विविधः, विधिर्नियमः, प्रतिषेधश्चेति। समयमूला आचाराः, तेषु भवाः सामयाचारिकाः, एवंभूतान् धर्मानिति। कर्मजन्योऽभ्युदयनिःश्रेयसहेतुरपूर्वाख्य आत्मगुणो धर्मः।

[पौरुषेयी व्यवस्था को समय कहते हैं, वह तीन प्रकार का होता है--(1) विधि (2) नियम और (3) प्रतिषेध। आचारों का मूल समय में होता है। उनमें उत्पन्न होने के कारण वे सामयाचारिक कहलाते हैं। अर्थात् इस प्रकार से उत्पन्न हुए धर्म। कर्म से उत्पन्न, अभ्युदयनिःश्रेयस का कारणभूत अपूर्व नामक आत्मा का गुण धर्म है।]

वसिष्ठधर्मसूत्र में शिष्ट की परिभाषा दी गयी है :

शिष्टः पुनरकामात्मा।

[शिष्ट वह है जो (स्वार्थमय) कामनाओं से रहित हो] अकामात्मा का ही आचार प्रमाण माना जा सकता है। मनु ने शील और आचार में थोड़ा भेद किया है। कुल्लूक के अनुसार शील नैतिक गुणों को कहते हैं, जैसे विद्याप्रेम, देवभक्ति, पितृभक्ति आदि; आचार वह है जो अनुबन्ध अथवा परम्परा पर आधारित हो। श्रुति तथा स्मृति और आचार की प्रामाणिकता में भी अन्तर है। प्रथम दो धर्म के मौलिक प्रमाण हैं, जब कि आचार सहायक प्रमाण है।

सदाचार अथवा आचार तीन प्रकार का होता है :

(1) देशाचार (2) जात्याचार और (3) कुलाचार। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में विभिन्न आचार, प्रथायें और परम्पराएँ प्रचलित होती हैं, वे देशाचार कहलाती हैं। इसी प्रकार विभिन्न जातियों में भी अपने-अपने विशिष्ट आचार होते हैं, जो जात्याचार कहलाते हैं। जाति के भीतर विभिन्न कुलों में भी अपने-अपने विशेष आचार होते हैं, जिनको कुलाचार कहते हैं। ये श्रुति-स्मृतियों में विहित विधान के अतिरिक्त होते हैं। कालमानित और बहुमानित होने के कारण ये प्रमाण माने जाते हैं, यद्यपि श्रुति-स्मृतियों से अविरुद्ध होने की इनसे अपेक्षा की जाती है।

सदाचार के प्रामाण्य पर कुमारिल द्वारा तन्त्रवार्तिक (जैमिनि, 1.3.7) में विस्तार से विचार किया गया है। इसके अनुसार वे ही प्रथाएँ सदाचार के अन्तर्गत आती हैं जो श्रुति के स्पष्ट पाठ के अविरुद्ध होती हैं, जिनका आचरण शिष्ट इस विश्वास से करते हैं कि उनका पालन करना धर्म है, जिनका कोई इष्ट फल (काम अथवा लोभ) नहीं होता है। शिष्ट भी वे ही होते हैं जो स्पष्ट श्रुतिविहित कर्तव्यों का स्वेच्छा से अपने आप पालन करते हैं; वे नहीं जो तथाकथित सदाचार का पालन करते हैं। यदि ऐसा न हो तो शिष्टता वाग्जाल के चक्र में पड़ जायेगी। इसलिए परम्परागत और पीढ़ी दर पीढ़ी से चली आने वाली प्रथाओं का शिष्टों द्वारा इस बुद्धि से पालन कि वे धर्म के अङ्ग हैं, वस्तुतः धर्म हैं और इससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है :

दृष्टकारणहीनानि यानि कर्माणि साधुभिः। प्रयुक्तानि प्रतीयेरन् धर्मत्वेनेह तान्यपि॥ शरीरस्थितये यानि सुखार्थं वा प्रयुञ्जते। अर्थार्थं वा न तेष्वस्ति शिष्टानामेव धर्मधीः॥ धर्मत्वेन प्रपन्नानि शिष्टैर्यानि तु कानिचित्। वैदिकैः कर्मसामान्यात्तेषां धर्मत्वमिष्यते॥ नैव तेषां सदाचारनिमित्ता शिष्टता मता। साक्षाद्विहितकारित्वाच्छिष्टत्वे सति तद्वचः॥

प्रत्यक्षवेदविहितक्रियया हि लब्धशिष्टत्वव्यपदेशा, यत्परम्पराप्राप्तमन्यदपि धर्मबुद्धया कुर्वन्ति तदपि स्वर्ग्यत्वाद्धर्मरूपमेव। (तन्त्रवार्तिक, पृ० 205-206)।

केवल महान् पुरुषों का आचरण मात्र सदाचार नहीं है, क्योंकि उनके जीवन में कई कर्म धर्मविरुद्ध होते हैं, जिनका आचरण सामान्य पुरुषों को नहीं करना चाहिए :

दृष्टो धर्मव्यतिक्रमः साहसं च महताम्। अवरदौर्बल्यात्। (गौतम धर्म० 1.3-4) दृष्टो धर्मव्यतिक्रमः साहसं च पूर्वषाम्। तेषां तेजोविशेषेण प्रत्यवायो न विद्यते। तदन्वीक्ष्य प्रयुञ्जानः सीदत्यवरः॥ (आप० धर्म० 2.6.13.7-9)

सदाचारस्मृति : मध्वाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ। इसमें माध्व साम्प्रदायिक वैष्णवों के आचारों का वर्णन और विवेचन है।

सदानन्द : अद्वैत दर्शन के एक आचार्य अद्वैतानन्द पन्द्रहवीं शती में हुए थे, जिन्होंने ब्रह्मसूत्र के शाङ्कर भाष्य पर ब्रह्मविद्याभरण नामक भाष्य पद्य में लिखा। अद्वैतानन्द के शिष्य सदानन्द थे, जिन्होंने गद्य में वेदान्तसार नामक ग्रन्थ लिखा। यह शाङ्कर वेदान्त की अच्छी भूमिका प्रस्तुत करता है परन्तु इस पर सांख्य की प्रभाव स्पष्‍ट है।

सदानन्द योगीन्द्र : इन्होंने वेदान्तसार नामक ग्रन्थ की रचना की। इनका जीवन काल सोलहवीं शती का उत्तरार्द्ध है। वेदान्‍तसार के ऊपर नृसिंह सरस्वती की सुबोधिनी नामक टीका है जिसका रचनाकाल शक सं० 1518 है। वेदान्तसार अद्वैतवेदान्त का अत्यन्त सरल प्रकरण ग्रन्थ है। इस पर कई टीकाएँ लिखी गयी हैं। इस ग्रन्थ से मुमुक्षुओं का बहुत उपकार हुआ है। सदानन्द योगीन्द्र का एक ग्रन्थ शङ्करदिग्विजय भी है जो अभी नागराक्षरों में प्रकाशित नहीं है। दे० सदानन्द।

सदानीरा : शतपथ ब्राह्मण (1.4.1.14) के अनुसार यह कोसल और विदेह के बीच सीमा बनाती थी। वेबर इसको गण्डकी (बड़ी गंडक) मानते हैं, जो ठीक प्रतीत होता है। कुछ लोगों ने इसको करतोया माना है (इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया, पृ 15,24)। परन्तु करतोया बहुत दूर पूर्व में होने से सदानीरा नहीं हो सकती। महाभारत (2.794) में गण्डकी और सदानीरा को अलग-अलग माना गया है। किन्तु यहाँ शायद गण्डकी का तात्पर्य छोटा गण्डक से है, जो उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में बहती है। सदानीरा का एक नाम नारायणी या शालग्रामी भी है। वर्षाऋतु में अन्य नदियाँ रजस्वला होने के कारण अपवित्र रहती हैं, किन्तु इसका जल सदा पवित्र रहता है। अतः यह सदानीरा कहलाती है। यह पटना के पास गंगा में मिल जाती है।

सदापृण : ऋग्वेदोक्त (5.44.12) एक ऋषि।

सदाशिव ब्रह्मेन्द्र : भट्टोजिदीक्षित के समकालीन एक विद्वान् संन्यासी। संभवतः ये काञ्ची कामकोटि पीठ के महाधीश्वर भी थे। इनके रचित ग्रन्थ गुरुरत्नमालिका में ब्रह्मविद्याभरणकार स्वामी अद्वैतानन्द का उल्लेख पाया जाता है। सदाशिव स्वामी ने अद्वैतविद्याविलास., बोधार्यात्मनिर्वेद, गुरुरत्नमालिका, ब्रह्मकीर्तनतरङ्गिणी आदि ग्रन्थों की रचना की थी।

सदुक्तिकर्णामृत : वङ्गदेशीय वैष्णव श्रीधरदास द्वारा प्रस्तुत स्तुतियों का एक संग्रह ग्रन्थ। इसका रचनाकाल 1205 ई० है। इसमें जयदेव के कुछ पद्य भी संगृहीत हैं।

सद्यःशुद्धि : सामान्यतः मरणाशौच और जननाशौच में शुद्धि बारह दिनों के पश्चात् होती है। परन्तु किन्हीं परिस्थितियों में सद्यः (तुरन्त) शुद्धि हो जाती है। गरुडपुराण (अध्याय 107) के अनुसार :

देशान्तरमृते बाले सद्यः शुद्धिर्यतौ मृते।'

[देशान्तर में मरने पर, बालक की मृत्यु पर तथा संन्यासी की मृत्यु पर सद्यः शुद्धि हो जाती है।] इसका कारण यह है कि प्रथम औऱ द्वितीय का परिवार से सम्बन्ध नहीं रहता है। द्वितीय का व्यक्तित्व अविकसित और उसका परिवार में अभिनिवेश प्रायः नहीं होता।

सद्यःशौच : सामाजिक आवश्यकता और कुछ विशेष कारणों से कुछ वर्गों और व्यक्तियों का शौच (शुद्धि) तुरन्त मान लिया जाता है। गरुडपुराण (अध्याय 107) में कथन है:

शिल्पिनः कारवो वैद्याः दासीदासाश्च भृत्यकाः। अग्निमान् श्रोत्रियो राजा सद्यः शौचाः प्रकीर्तिताः॥

[शिल्पी लोग, बढ़ई, वैद्य, दासी, दास, भृत्य, यज्ञ करने वाला, श्रोत्रिय और राजा ये तुरन्त शौच वाले (शुद्ध) माने जाते हैं।]

कूर्मपुराण (उपविभाग, अध्याय 22), आदिपुराण एवं कई स्मृतियों मे सद्यःशौच वाले लोगों की लम्बी सूचियाँ पायी जाती हैं। कुछ कर्मों का अनुष्ठान प्रारम्भ हो जाने पर अशौच नहीं होता :

व्रतयज्ञविवाहेषु श्राद्धहोमार्चने जपे। आरब्धे सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम्॥ (विष्णुस्मृति)

[व्रत, यज्ञ और विवाह में, इसी प्रकार श्राद्ध, होम, अर्चन और जप में भी आरम्भ हो जाने पर सूतक नहीं होता; अनारम्भ में होता है।] दे० सद्यःशुद्धि।

सद्विद्याविजय : दोद्दय महाचार्य रामानुजदास कृत एक ग्रन्थ। इसका रचनाकाल सोलहवीं शती है। इसमें श्री वैष्णव वेदान्तमत का प्रतिपादन हुआ है।

सधर्मचारिणी : एक साथ धर्म का आचरण करने वाली। यह भार्या का पर्याय है।

सधवा : धव= पति के, स= साथ विद्यमान। जिस स्त्री का पति जीवित होता है उसे सधवा कहते हैं।

सनक : (1) ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों में से प्रथम। श्रीमद्भागवतपुराण (3.12) में इनका वर्णन है।

(2) जैमिनीय ब्राह्मण (3.233) के अनुसार सनक दो काप्यों में से एक का नाम है (दूसरा नवक है।) इन्होंने विभिन्दकीयों के यज्ञ में भाग लिया था। ऋग्वेद के एक स्थल (3.147) पर इनको यज्ञ से उदासीन के रूप में चर्चित किया गया है; संभवतः इनकी भक्तिवादी प्रवृत्ति के कारण।

सनकसंप्रदाय : आचार्य शङ्कर के पश्चात् जिन वैष्णव सम्प्रदायों का विकास हुआ, उनमें एक सनक सम्प्रदाय भी है। मुख्य वैष्णव सम्प्रदाय थे--(1) श्री सम्प्रदाय (2) ब्रह्मसम्प्रदाय (3) रुद्रसम्प्रदाय और (4) सनकसम्प्रदाय। अब इनमें से निम्बार्क के अनुयायिओं का सम्प्रदाय सनक अथवा सनकादि सम्प्रदाय कहलाता है। इन सभी सम्प्रदायों का आधार श्रुति (वेद) है और दर्शन वेदान्त। इनकी साहित्यिक परम्परा भी प्रायः एक है। केवल व्याख्या करने की पद्धति भिन्न-भिन्न हैं। बाहरी आचारों में भेद होने से इनमें सम्प्रदायभेद उत्पन्न हो गया।

सनकादिसम्प्रदाय : दें० 'सनकसम्प्रदाय'।

सनत्कुमार : (1) सनत् (ब्रह्मा) के पुत्र होने से अथवा सनत् (सदा) कुमार रहने के कारण इनका नाम सनत्कुमार पड़ा। हरिवंश में इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की हुई है :

यथोत्पन्नस्तथैवाहं कुमार इति विद्धि माम्। तस्मात् सनत्कुमारेति नामैतन्मे प्रतिष्ठितम्॥

वामन पुराण (अ० 57-58) के अनुसार धर्म की अहिंसा नामक पत्नी से चार पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें एक सनत्कुमार थे। इन पुत्रों को ब्रह्मा ने दत्तकरूप में ग्रहण किया :

धर्मस्य भार्याऽहिंसाख्या तस्यां पुत्रचतुष्टयम्। सम्प्राप्तं मुनिशार्दूल योगशास्त्रविचारकम्॥ ज्येष्ठः सनत्कुमारोऽभूद् द्वितीयश्च सनातनः। तृतीय सनको नाम चतुर्थश्च सनन्दनः॥

(2) छान्दोग्य उपनिषद् (7.1-1;26.2) में एक ज्ञानी ऋषि का नाम। पौराणिक पुराकथा के अनुसार ये वैष्णव परम्परा के नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। ब्रह्मा के चार पुत्रों में से ये एक थे।

सनत्कुमारउपपुराण : यह उन्तीस उपपुराणों में से एक है।

सनत्कुमारतन्त्र : आगमतत्त्वविलास' में अनुसूचित चौसठ तन्त्रों में से एक तन्त्र।

सनन्दन : ब्रह्मा के चतुर्थ पुत्र (दे० सनत्कुमार)। स्कन्द पुराण के काशी खण्ड के अनुसार ये जनलोक वासी हैं और दिव्य मनुष्य माने जाते हैं। इसीलिए पितरों के समान इनका तर्पण किया जाता है।

सनातन : (1) ब्रह्मा के द्वितीय पुत्र। काशी खण्ड के अनुसार ये जनलोकवासी किन्तु अग्निपुराण के अनुसार तपोलोकवासी थे। ब्रह्मा, विष्णु और शिव का पर्याय भी 'सनातन' है। हेमचन्द्र के अनुसार सनातन पितरों के अतिथि हैं। दे० 'सनत्कुमार'।

(2) तैत्तिरीय संहिता (4.3.3.1) में एक ऋषि का नाम। बृहदारण्यक उपनिषद् की (2.5.22;4.5.28) दो वंशसूचियों में इनका उल्लेख सनग नामक ऋषि के शिष्य और सनारु के गुरु के रूप में हुआ है।

सनातन गोस्वामी : चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य। रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी दोनों महाप्रभु के पट्ट शिष्य एवं भाई थे। ये पहले बंगाल के नवाब के यहाँ उच्च कर्मचारी थे। चैतन्य महाप्रभु से प्रभावित होने पर एक दिन सनातन के मन में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हुआ। एक दिन वे किसी सरकारी काम से कहीं जा रहे थे। बहुत जोर की आँधी आयी और आकाश बादलों से घिर गया। मार्ग में एक मेहतर दम्पति आपस में वार्तालाप करते हुए मिले। पत्नी पति को बाहर जाने से रोक रही थी। उसने पति से कहा `ऐसे झंझावात में संकट के समय या तो दूसरे का नौकर बाहर जा सकता है अथवा कुत्ता।` सनातन गोस्वामी ने इस बात को सुनकर नौकरी छोड़ने का निश्चय किया। परन्तु यह बात नवाब को मालूम हो गयी और उसने सनातन को कारागार में डाल दिया। सनातन अपने को भगवान् के चरणों में समर्पित कर चुके थे। काराध्यक्ष को प्रसन्न कर एक दिन केवल एक कम्बल के साथ ये जेल के बाहर आ गये औऱ महाप्रभु चैतन्य की शरण में पहुँच गये। कम्बल देखकर महाप्रभु ने उदासीनता प्रकट की। इस पर सनातन ने कम्बल का भी त्याग कर दिया। वे अत्यन्त विरक्त होकर कृष्ण की आराधना में तल्लीन हो गये। जीवन के अन्तिम भाग में ये वृन्दावन में रहने लगे थे। इन्होंने गीतावली, वैष्णवतोषिणी, भागवतामृत और सिद्धान्तसार नामक गंभीर ग्रन्थों की रचना की। भागवतामृत में चैतन्य सम्प्रदाय के कर्तव्य औऱ आचार का वर्णन है। हरिभक्तिविलास नामक ग्रन्थ भी इन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ में भगवान् के स्वरूप और उपासना का वर्णन है। बँगला भाषा में भी इनका एक ग्रन्थ रसमयकलिका नाम से प्रचलित है। सनातन गोस्वामी अचिन्त्यभेदाभेद मत के मानने वाले थे और इनके ग्रन्थों का यही दर्शन है।

सन्ध्या : एक धार्मिक क्रिया जो, हिन्दुओं का अनिवार्य कर्तव्य है। दिन औऱ रात्रि की सन्धि में यह क्रिया की जाती है, इसलिए इसको सन्ध्या (सन्धिवेला में की हुई) कहते हैं। व्यास का कथन है :

उपास्ते सन्धिवेलायां निशाया दिवसस्य च। तामेव सन्ध्यां तस्मात्त प्रवदन्ति मनीषिणः॥

इसकी अन्य व्युत्पत्तियाँ भी पायी जाती हैं। यथा 'सम्यक् ध्यायन्त्यस्यामिति।' 'संदधातीति'। दिन और रात्रि की सन्धि के अतिरिक्त मध्याह्न को भी सन्धि माना जाता है। अतः तीन सन्ध्याओं में जो उपासना की जाती है, उसका नाम (त्रिकाल) सन्ध्या है। इन कालों में उपास्य देवता का नाम भी सन्ध्या है।

सन्ध्या उपासना सभी के लिए आवश्यक है, किन्तु ब्राह्मण के लिए अनिवार्य है :

एतत् सन्ध्यात्रयं प्रोक्तं ब्राह्मण्यं यदधिष्ठितम्। यस्य नास्त्यादरस्तत्र न स ब्राह्मण उच्यते॥ अब्राह्मणास्तु षट् प्रोक्ता ऋषिणा तत्त्ववादिना। आद्यो राजभृतस्तेषां द्वितीयः क्रियविक्रयी॥ तृतीयो बहुयाज्यः स्याच्चतुर्थो ग्रामयाजकः। पञ्चमस्तु भृतस्तेषां ग्रामस्य नगरस्य च॥ अनागतान्तु यः पूर्वां सादित्याञ्चैव पश्चिमाम्। नपासीत द्विजः सन्ध्यां स षष्ठोऽब्राह्मणः स्मृतमः॥ (शातातप)

[तत्त्ववादी ऋषि द्वारा छः प्रकार के अब्राह्मण कहे गये हैं। उनमें से प्रथम राजसेवक है; दूसरे क्रय और विक्रय करने वाला है; तीसरा बहुतों का यज्ञ कराने वाला; चौथा ग्रामयाजक; पाँचवाँ ग्राम और नगर का भृत्य और छठा प्रातः और सायं सन्ध्या न करने वाला।] याज्ञवल्क्य ने सन्ध्या का लक्षण इस प्रकार बतलाया है :

त्रयाणाञ्चैव वेदानां ब्रह्मादीना समागमः। सन्धिः सर्वसुराणाञ्च तेन सन्ध्या प्रकीर्तिता॥

[ऋक्, साम, यजुः तीनों वेदों और ब्रह्मा, विष्णु, शिव तीन मूर्तियों का इसमें समागम होता है। सभी देवताओं की इसमें सन्धि होती है, इसलिए यह सन्ध्या नाम से प्रसिद्ध है।] संवर्तस्मृति में सन्ध्योपासना का उपक्रम इस प्रकार बतलाया गया है :

प्रातःसन्ध्यां सनक्षत्रामुपासीत यथा विधि। सादित्यां पश्चिमां सन्ध्यामर्द्धास्तमितभास्कराम्॥

प्रातःसन्ध्या की उपासना यथा विधि नक्षत्र सहित (थोड़ी रात रहते) करनी चाहिए। सायं सन्ध्या आधे अस्त सूर्य के साथ होनी चाहिए।) मध्याह्न सन्ध्या के लिए आठवाँ मुहूर्त उपयुक्त बतलाया गया है : `समसूर्येऽपि मध्याह्ने मुहूर्ते सप्तमोपरि।` सांख्यायनगृह्यसूत्र में सन्ध्या का निम्नांकित विधान है: `अरण्ये समित्पाणिः सन्ध्यामुपास्ते नित्यं वाग्यत उत्तरापराभिमुखोऽन्वष्टमदिशम्आनक्षत्रदर्शनात्। अतिक्रान्तायां महाव्याहृतीः सावित्रीं स्वस्त्ययनादि जप्त्वा एवं प्रातः प्राङ्मुखस्तिष्ठन् आमण्डलदर्शनादिति।

व्यास ने तीन काल की संध्‍याओं के अलग-अलग नाम दिये हैं :

गायत्री नाम पूर्वाह्ने सावित्री मध्यमे दिने। सरस्वती च सायाह्ने, सैव सन्ध्या त्रिषु स्मृता॥ प्रतिग्रहानन्दोषाच्च पातकादुपपातकात्। गायत्री प्रोच्यते तस्मात् गायन्तं त्रायते यतः॥ सवितृद्योतनात् सैव सांवित्री परिकीर्तिता। जगतः प्रसवित्रीत्वात् वाग्‍रूपत्वात् सरस्वती॥

[पूर्वाह्न में जो सन्ध्या की जाती है उसका नाम गायत्री; मध्याह्न में जो की जाती है उसका नाम सावित्री और सायं जो की जाती है उसका नाम सरस्वती है। दान में ग्रहण किये हुए अन्न के दोष, पातक और उपपातक से अपने गानेवाले (उपासना करनेवाले) को त्राण देती हैं, इसलिए गायत्री कहलाती है। सविता के प्रकाश अथवा जगत् को उत्पन्न करने के कारण सावित्री नाम से प्रसिद्ध है। वाग्‍रूप होने से सरस्वती कहलाती है।]

सन्ध्या का माहात्म्य तैत्तिरीय ब्राह्मण में इस प्रकार बतलाया गया है :

उद्यन्तमस्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन् ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भद्रमश्नुते। असावादित्यो ब्रह्मा इति ब्रह्मैव सन् ब्रह्माभ्येति य एवं वेदेत्ययमर्थः।

[उगते हुए, अस्त होते हुए तथा मध्याह्न में ऊपर जाते हुए आदित्य (सूर्य) का ध्यान करते हुए विद्वान् ब्राह्मण सम्पूर्ण कल्याण को प्राप्त करता है। यह आदित्य ब्रह्मरूप ही है, उपासक ब्रह्म होता हुआ ब्रह्म को प्राप्त करता है, वह इसका अर्थ है।]

याज्ञवल्क्य ने और विस्तार के साथ इसका माहात्म्य बतलाया है :

या सन्ध्या सा तु गायत्री द्विधा भूत्वा प्रतिष्ठिता। सन्ध्या उपासिता येन विष्णुस्तेन उपासितः॥ गवां सर्पिः शरीरस्थं न करोत्यंगपोषणम्। निःसृतं कर्मसंयुक्तं पुनस्तासां तदौषधम्॥ एवं स हि शरीरस्थः सर्पिवत्परमेश्वरः। विना चोपासनादेव न करोति हितं नृषु॥ प्रणवव्याहृतिभ्याञ्च गायत्र्या त्रितयेन च। उपास्यं परमं ब्रह्म आत्मा यत्र प्रतिष्ठितः॥ वाच्यः स ईश्वरो प्रोक्तो वाचकः प्रवणः स्मृतः। वाचकेऽपि च विज्ञाते वाच्य एव प्रसीदति॥ भूर्भुवः स्वस्तथा पूर्वं स्वयमेव स्वयभ्भुवा। व्याहृता ज्ञानदेहेन तस्मात् व्याहृतयः स्मृताः॥

शुद्धितत्त्व' में जनन-मरणाशौच में सन्ध्योपासना का निषेध किया गया है :

संन्यास : (1) चार आश्रमों में से चतुर्थ आश्रम। प्रथम तीन आश्रमों---ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ--के पालन के पश्चात् इसमें प्रवेश करने का विधान है। वामन पुराण (अ० 14) में संन्यास आश्रम का धर्म निम्नांकित प्रकार से बतलाया गया है :

सर्वसङ्गपरित्यागो ब्रह्मचर्यसमन्वितः। जितेन्द्रियत्वमावासे नैकस्मिन्वसतिश्चिरम्॥ अनारम्भस्तथाहारे भिक्षा विप्रे ह्यानिन्दिते। आत्मज्ञानविवेकश्च तथा ह्यात्मावबोधनम्॥ चतुर्थे चाश्रमे धर्मो ह्यास्माभिस्ते प्रकीर्तितः॥

[सभी प्रकार की आसक्ति का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन, इन्द्रियजय, एक स्थान में चिरकाल तक रहने का त्याग, कामनायुक्त कर्म का अभाव, आहार में प्रशस्त विप्र के यहाँ भिक्षावृत्ति, आत्मज्ञान का विवेक, आत्मा में ही सभी प्रकार से निष्ठा, चतुर्थ आश्रम (संन्यास) में यह धर्म तुमसे कहा गया है।] कलियुग में संन्यास का निषेध बतलाया गया है :

अश्वमेधं गयालम्भं संन्यासं पलपैतृकम्। देवरेण सुनोत्पत्तिं क्लौ पञ्च विवर्जयेत्॥

मलमास-तत्त्व-प्रतिज्ञा में रघुनन्दन भट्टाचार्य के अनुसार यह कलिवर्ज्य केवल क्षत्रिय और वैश्य के लिए है। दे० 'आश्रम'।

संन्यासी : चतुर्थ आश्रम संन्यास ग्रहण करने वाले व्यक्ति को संन्यासी कहते हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड (अध्याय 33) गें संन्यासी के धर्म का वर्णन निम्नलिखित प्रकार है :

सदन्ने वा कदन्ने वा लोष्ट्रे वा काञ्चने तथा। समबुद्धिर्यस्य शाश्वत् स संन्यासीति कीर्तितः॥ दण्डं कमण्डलुं रक्तवस्त्रमात्रञ्च धारयेत्। नित्यं प्रवासी नैकत्र स संन्यासीति कीर्तितः॥ शुद्धाचारद्विजान्नञ्च भुङ्क्ते लोभादिवर्जितः। किन्तु किञ्चिन्न याचेत् स संन्यासीति कीर्तितः॥ न व्यापारी नाश्रमी च सर्वकर्मविवर्जितः। ध्यायेन्नारायणं शश्वत् स संन्यासीति कीर्तितः॥ शश्वन्मौनी ब्रह्मचारी सम्भाषालापवर्जितः। सर्वं ब्रह्ममयं पश्येत् स संन्यासीति कीर्तितः॥ अयाचितोपस्थितश्च मिष्टामिष्टञ्च भुक्तवान्। न याचेत् भक्षणार्थी स संन्यासीति कीर्तितः॥ न च पश्येत् मुखं स्त्रीणां न तिष्ठेत्तत्समीपतः। दारवीमपि योपाञ्च न स्पृशेद् यः स भिक्षुकः॥

[सदन्न अथवा कदन्न में, लोष्ट्र अथवा काञ्चन में जिसकी समान बुद्धि रहती है वह संन्यासी कहलाता है। जो दण्ड, कमण्डल और रक्तवस्त्र धारण करता है और एक स्थान में न रहकर नित्य प्रवास में रहता है वह संन्यासी कहलाता है। जो शुद्ध आचार वाले द्विज का अन्न खाता है, लोभादि से रहित होता है और किसी से कुछ माँगता नहीं, वह संन्यासी कहलाता है। जो व्यापार नहीं करता, जो प्रथम तीन आश्रमों का त्याग कर चुका है, सभी कर्मों में अनासक्त, सदा नारायण का ध्यान करता है, वह संन्यासी कहलाती है। सदा मौन रहनेवाला, ब्रह्मचारी, सम्भाषण और आलाप न करनेवाला और सब को ब्रह्ममय देखनेवाला होता है, वह संन्यासी कहलाता है। सर्वत्र समबुद्धि रखनेवाला, हिंसा और माया से रहित, क्रोध और अहं से मुक्त संन्यासी कहलाता है। बिना निमंत्रण के उपस्थित, मिष्ट-अमिष्ट का भोजन करनेवाला और भोजन के लिए कभी न मांगनेवाला संन्यासी कहलाता है। जो स्त्री का मुख कभी नहीं देखता, न उनके समीप खड़ा होता है और काष्ठ की स्त्री को भी नहीं छूता, वह भिक्षुक (संन्यासी) है।]

गरुडपुराण (अध्याय 49) में भी संन्यासी का धर्म वर्णित है :

तपसा कर्षितोऽत्यन्तं यस्तु ध्यानपरो भवेत्। संन्यासीह स विज्ञेयो वानप्रस्थाश्रमे स्थितः॥ योगाभ्यासरतो नित्यमारुरुक्षुर्ज्जितेन्द्रियः। ज्ञानाय वर्तते भिक्षुः प्रोच्यते पारमेष्ठिकः॥ यस्त्वात्मरतिरेव स्यान्नित्यतृप्तो महामुनिः। सम्यक् च दमसम्पन्नः स योगी भिक्षुरुच्यते॥ भैक्ष्यं श्रुतञ्च मौनित्वं तपो ध्यानं विशेषतः। सम्यक् च ज्ञान-वैराग्ये धर्मोऽयं भिक्षुके मतः॥ ज्ञानसंन्यासिनः केचिद् वेदसंन्यासिनोऽपरे। कर्मसंन्यासिनः केचित् त्रिविधः पारमैष्ठिकः॥ योगी च त्रिविधो ज्ञेयो भौतिकी मोक्ष एव च। तृतीयोऽन्त्याश्रमी प्रोक्तो योगमूर्तिसमाश्रितः॥ प्रथमा भावना पूर्वे मोक्षे त्वक्षरभावना। तृतीये चान्तिमा प्रोक्ता भावना पारमेश्वरी॥ यतीनां यतचित्तनां न्यासिनमामूर्ध्वरेतसाम्। आनन्दं ब्रह्म तत्स्थानं यस्मान्नावर्तते मुनिः॥ योगिनाममृतं स्थानं व्योमाख्यं परमक्षरम्। आनन्दमैश्वरं यस्मान्मुक्तो नावर्तते नरः॥

कूर्मपुराण (उपविभाग, अध्याय 27; यतिधर्मनामक अध्याय 28) में भी संन्यासी धर्म का विस्तार से वर्णन पाया जाता है। दे० 'आश्रम'।

सपिण्ड : जिनके पिण्ड अथवा मूल पुरुष समान होते हैं वे आपस में सपिण्ड कहलाते हैं। सात पुरुष तक पिण्ड की ज्ञाति हैं। अशौच, विवाह और दाय के भेद से पिण्ड तीन प्रकार का होता है। एक गोत्र में दानः भोग एवं अन्य सम्बन्ध से अशौच-सपिण्ड सात पुरुष तक होता है। पिता तथा पितृबन्धु की अपेक्षा से सात पुरुष तक विवाह-सपिण्ड होता है तथा मातामह एवं मात-बन्धु की अपेक्षा से पाँच पुरुष तक होता है। उद्वाह-तत्त्व नामक ग्रन्थ में नारद का निम्नांकित वचन उद्घृत है।

पञ्चमात् सप्तमादूर्द्धवं मातृतः पितृतः क्रमात्। सपिण्डता निवर्तेत सर्ववर्णेष्वयं विधिः॥

दाय-सपिण्ड तीन पुरुष तक ही होता है। वे तीन पुरुष हैं पिता, पितामह औह प्रपितामह और उनके पुत्र पौत्र एवं प्रपौत्र-दौहितृ। इसी प्रकार मातामह, प्रमातामह, और बृद्ध प्रमातामह और उनके पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र। (दे० दायभाग)। मत्स्यपुराण में भी सपिण्ड का बिचार किया गया है।

लेपभाजश्चतुर्थाद्याः पित्राद्याः पिण्डभागिनः। पिण्डदः सप्तमस्तेषां सापिण्ड्यं साप्तपौरुषम्॥

सपिण्डीकरण : प्रेत को पूर्वज पितरों के साथ मिलाने वाला एक पिण्ड श्राद्ध। इसमें प्रेतपिण्ड का तीन पितृपिण्डों के साथ मिश्रीकरण होता है। कूर्मपुराण (उपविभाग अध्याय 22) में सपिण्डीकरण का वर्णन इस प्रकार मिलता है।

सपिण्डीकरणं प्रोक्तं पूर्वे संवत्सरे पुनः। कुर्याच्चत्वारि पात्राणि प्रेतादीनां द्विजोत्तमाः॥ प्रेतार्थ पितृपात्रेपु पात्रमासे चये ततः। ये समाना इति द्वाम्यां पिण्डानप्येवमेव हि॥ सपिण्डीकरणश्राद्धं देवपूर्वं विघीयते। पितृनावाहयेदयत्र पृथक् पिण्डाश्च निर्द्दिशेत्॥ ये सपिण्डीकृताः प्रेता न तेषां स्यात् पृथक् क्रिया। यस्तु कुर्यात् पृथक् पिण्डान् पितृहा सोऽपि जायते॥

सप्त गोदावर : गोदावरी-समुद्र संगम का एक तीर्थ। यह आन्ध्र देश के समुद्र तट पर है। महाभारत (3.85.44) में इसका माहात्म्य वर्णित है।

सप्तपदी : विवाह संस्कार का अनिवार्य और मुख्य अङ्ग। इसमें वर उत्तर दिशा में वधू को सात मन्त्रों द्वारा सप्तमण्डलिकाओं में सात पदों तक साथ ले जाता है। वधू भी दक्षिण पाद उठाकर पुनः वामपाद मण्डलिकाओं में रखती है। इसके बिना विवाह कर्म पक्का नहीं होता। अग्नि की चार परिक्रमाओं (फेरा) से यह कृत्य अलग है।

सप्तर्षि : मूल सात ऋषि‍यों का समूह। इनके नाम इस प्रकार हैं--मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वसिष्ठ। प्रत्येक मन्वन्तर में सप्तर्षि भिन्न भिन्न होते हैं। इनका वृत्तान्त 'ऋषि' शब्द के अन्तर्गत देखिए।

सप्तर्षि मण्डल : सप्तर्षि मण्डल आकाश में सब के उत्तर दिखाई पड़ता है। ब्रह्मा के द्वारा विनियुक्त सात ऋषि इसमें बसते हैं। ये ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ब्रह्मवादियों के द्वारा ये सात ब्राह्मण कहे जाते हैं। इनकी पत्नियाँ हैं : मरीचि की संभूति, अत्रि की अनसूया, पुलह की क्षमा, पुलस्त्‍य की प्रीति, क्रतु की सन्नति, अंगिरा की लज्जा तथा वशिष्ट की अरुन्धती, जो लोकमाता कहलाती हैं। त्रिकाल सन्ध्या की उपासना करने वाले और गायत्री के जप में तत्पर ब्रह्मवादी ब्राह्मण सप्तर्षि लोक में निवास करते हैं। (दे० पद्मपुराण, स्वर्ग खण्ड, अध्याय 11)।

सप्तशती : सात सौ श्लोकों का समूह देवीमाहात्म्य। इसको चण्डीपाठ भी कहते हैं। अर्गलास्तोत्र में कथन है।

अर्गलं कीलकं चादौ पठित्वा कवचं ततः। जपेत् सप्तशतीं चण्डीं क्रम एष शिवोदितः॥ नागोजी भट्ट के अनुसार :---

तत्राद्ये चरिताध्याये श्लोका अशीतिरुत्तमाः। अथ मध्ये चरित्रे तु पञ्चाष्टैकसुसंख्यकाः॥ त्रयोऽध्यायाश्चतुः सप्तचतुर्वेदस्ववेदकाः। अथोत्तरचरित्रे तु षट्षडग्निश्लोकभाक्॥ अग्नीसोमाध्यायवती गीता सप्तशती स्मृता।

सप्तसागर अथवा सप्तसमुद्र व्रत : चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से इस का आरम्भ होता है। सुप्रभा, काञ्चनाक्षी, विशाला मानसोद्भवा, मेघनादा, सुवेणु, तथा विमलोदका धाराओं का क्रमशः सात दिनपर्यन्त पूजन होना चाहिए। सात सागरों के नामों से दही का हवन हो तथा ब्राह्मणों को दधियुक्त भोजन कराया जाए। व्रती स्वयं रात्रि को घृत मिश्रित चावल खाए। एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का आचरण विहित है। किसी पवित्र स्थान पर किसी भी ब्राह्मण को सात वस्त्रों का दान करना चाहिए। इस व्रत का नाम सारस्वत व्रत भी है। प्रतीत होता है कि उपर्युक्त गिनाए हुए सात नाम या तो सरस्वती नदी के हैं अथवा उसकी सहायक नदियों के। अतएव इस व्रत का नाम 'सारस्वत व्रत' अथवा 'सप्तसागर व्रत'। उचित ही प्रतीत होता है। इस सात नदियों के लिए तथा सारस्वत व्रत की सार्थकता के लिए दे० विष्णुधर्म० 3.164.1-7।

सप्तसुन्दर व्रत : इस व्रत में पार्वती का सात नामों से पूजन करना चाहिए। वे नाम हैं--कुमुदा, माधवी, गौरी भवानी, पार्वती, उमा तथा अम्बिका। सात दिनपर्यन्त सात कन्याओं को (जो लगभग आठ वर्ष की अवस्था की हो) भोजन कराना चाहिए। प्रतिदिन सात नामों में से एक नाम उच्चारण करते हुए प्रार्थना की जाय जैसे 'कुमुदा देवि प्रसीद'। उसी प्रकार क्रमशः अन्य नामों का 6 दिनों तक प्रयोग किया जाना चाहिए। सातवें दिन समस्त नामों का उच्चारण करके पार्वती का पूजनादि करने के लिए गन्धाक्षतादि के साथ साथ ताम्बूल, सिन्दूर तथा नारियल अर्पित किया जाय। पूजन के उपरान्त प्रत्येक कन्या को एक दर्पण प्रदान किया जाय। इस व्रत के आचरण से सौभाग्य औऱ सौन्दर्य की उपलब्ध होती है तथा पाप क्षीण होते हैं।

सभा : जहाँ साथ साथ लोग शोभायमान होते है वह स्थान (सह यान्ति शोभन्ते यत्रेति)। मनु ने इसका लक्षण (न्याय सभा के लिए) इस प्रकार दिया है---

यस्मिन् देशे निषीदन्ति विप्रा वेदविदस्त्रयः। राज्ञः प्रतिकृतो विद्वान्ब्राह्मणास्तां सभां विदुः॥

[जिस स्थान में तीन वेदविद् विप्र राजा के प्रतिनिधि विद्वान् ब्राह्मण बैठते हैं उसको सभा कहा गया है।] सभा का ही पर्याय परिषद् है : इसकी परिभाषा इस प्रकार है :

त्रैविद्यो हैतुकस्तर्की निरुक्तो धर्मपाठकः। त्रयश्चाश्रमणिः पूर्वे परिषत् स्याद्दशावरा॥

[तीन वेदपारग, हैतुक (सद्युक्तिव्यवहारी), तर्कशास्त्री, निरुक्त जाननेवाला धर्मशास्त्री, तथा तीन आश्रमियों के प्रतिनिधि-इन दसों से मिलकर 'दशावरा' परिषद् बनती है।]

कात्यायन ने सभा का लक्षण निम्नांकित प्रकार से किया है :

कुल-शील-वयो-वृत्त-वित्तवद्भभिरधिष्ठितम्। वणिग्भिः स्यात् कतिपयैः कुलवृद्धैरधिष्ठतम्॥

[कुल, शील, वय, वृत्त तथा वित्तयुक्त सभ्यों एवं कुलवृद्ध कुछ वणिग्-जनों से अधिष्ठित स्थान को सभा कहते हैं।] सभा (राजसभा) में न्याय का वितरण होता था। अतः सभा के सदस्यों में सत्य और न्याय के गुणों की आवश्यकता पर जोर दिया जाता था।

समय : (1) शपथ, आचार, करार अथवा आचारसंहिता। यथा :--

ऋषीणां समये नित्यं ये चरन्ति युधिष्ठिर। निश्चितः सर्व्वधर्मज्ञास्तान् देवान् ब्राह्मणान् विदुः॥ (महाभारत, 13.90.50)

धर्मशास्त्र में धर्म अथवा विधि के स्रोतों में समय की गणना है : 'धर्मज्ञसमयः प्रमाणम।'

(2) आगमसिद्धान्तानुसार देवाराधना का एक रूप। 'समयाचार' जैसे तन्त्रों में इसका निरूपण हुआ है।

समाधि : वह स्थिति, जिसमें सम्यक् प्रकार से मन का आधान (ठहराव) होता है। समाधि अष्टाङ्गयोग का अन्तिम अङ्ग है--यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। यह योग की चरम स्थिति है। पातञ्जल योगदर्शन में समाधि का विशद निरूपण है। चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है अतः समाधि की अवस्था में चित्त की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हो जाता है। ये चित्तवृत्तियाँ हैं--प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति। चित्तवृत्ति का निरोध वैराग्य और अभ्यास से होता है। निरोध की अवस्था के भेद से समाधि दो प्रकार की होती है--संप्रज्ञात समाधि और असंप्रज्ञात समाधि।

संप्रज्ञात समाधि की स्थिति में चित्त किसी एक वस्तु पर एकाग्र रहता है। तब उसकी वही एकमात्र वृत्ति जागृत रहती है; अन्य सब वृत्तियाँ क्षीण होकर उसी में लीन हो जाती हैं। इसी वृत्ति में ध्यान लगाने से उसमें 'प्रज्ञा' का उदय होता है। इसी को संप्रज्ञात समाधि कहते हैं। इसका अन्य नाम 'सबीज समाधि' भी है। इसमें एक न एक आलम्बन बना रहता है और इस आलम्बन का भान भी। इस अवस्था में चित्त एकाग्र रहता है; यथार्थ तत्त्व को प्रकाशित करता है; क्लेशों का नाश करता है; कर्मजन्य बन्धनों को शिथिल करता है और निरोध के निकट पहुँचता है। संप्रज्ञात समाधि के भी चार भेद हैं---(1) वित्तर्कानुगत (2) विचारानुगत (3) आनन्दानुगत और अस्मितानुगत। यद्यपि संप्रज्ञात समाधि में प्रज्ञा का उदय हो जाता है किन्तु इसमें आलम्बन बना रहता है और ज्ञान, ज्ञात, ज्ञेय का भेद भी लगा रहता है।

असंप्रज्ञात समाधि में ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय का भेद मिट जाता है। इसमें तीनों भावनायें अत्यन्त एकीभूत हो जाती हैं। परम वैराग्य से सभी वृत्तियाँ पूर्णतः निरुद्ध हो जाती हैं। आलम्बन का अभाव हो जाता है। केवल संस्कारमात्र शेष रह जाता है। इसको 'निर्बीज समाधि' भी कहते हैं, क्योंकि इसमें क्लेश और कर्माशय का पूर्णतः अभाव रहता है। असंप्रज्ञात समाधि के भी दो भेद हैं--भवप्रत्यय तथा उपाय प्रत्यय। भवप्रत्यय में प्रज्ञा के उदय होने पर भी पूर्णज्ञान का उदय नहीं होता; अविद्या बनी रहती है। इसलिये उसमें संसार की ओर प्रवृत्त हो जाने की आशंका रहती है। उपाय प्रत्यय में अविद्या का सम्पूर्ण नाश हो जाता है और चित्त ज्ञान में समग्र रूप से प्रतिष्ठित हो जाता है; उसके पतन का भय सदा के लिये समाप्त हो जाता है।

पुराणों में भी समाधि का विवेचन है। गरुड़पुराण (अध्याय 44) में समाधि का निम्नलिखित लक्षण पाया जाता है :

नित्यं शुद्धं बुद्धियुक्तं सत्यमानन्द मद्वयम्। तुरीयमक्षरं ब्रह्म अहमस्मि परं पदम्॥ अहं ब्रह्मेत्यवस्थानं समाधिरिति गीयते॥

दे० 'योग दर्शन' तथा 'अष्टाङ्ग योग'।

समालम्भन : एक प्रकार की मांगलिक लेपन क्रिया। अमरकोश में कुङ्कुमादि विलेपन को समालम्भन कहा गया है। पशुबध को भी समालम्भन कहा गया है :

वृथा पशुसमालम्भं नैव कुर्यान्न कारयेत्।' महाभारत, 12.34.28

[व्यर्थ में पशुवध न करना चाहिए और न कराना चाहिए]

समावर्तन : सोलह संस्कारों में एक। सम्यक् प्रकार से (विद्याध्ययन करके आचार्य गृह से अपने गृह) लौटना। इसकू दूसरा नाम है स्नान', क्योंकि इसमें स्नान मुख्य प्रतीकात्मक क्रिया है और 'स्नातक' उच्च शिक्षित को कहते हैं। यह संस्कार आजकल के दीक्षान्त समारोह के समान था। प्राचीन काल में दो प्रकार के ब्रह्मचारी होते थे---उपकुर्वाण और नैष्ठिक। प्रथम वह था जो अपनी विद्या समाप्तकर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहता था; दूसरा आजीवन गुरुकुल में रहकर विद्यार्थी जीवन व्यतीत करना चाहता था। प्रथम को आचार्य की आज्ञा लेकर समावर्तन करना आवश्यक होता था। विवाह के लिये यह प्रवेश पत्र था। विद्या अथवा ज्ञान की उपमा सागर से दी जाती थी। उसमें जो स्नान किये हो वह स्नातक था। स्नातक भी तीन प्रकार के होते थे---विद्या स्नातक, व्रतस्नातक और उभयस्नातक। जो केवल विद्या पढ़कर गुरुकुल से घर लौट आता था उसे विद्यास्नातक कहते थे। जो विद्या कम पढ़ता था, किन्तु व्रत (तपस्या और शील) का पालन पूरा करता था, वह व्रतस्नातक कहलाता था। जो पूरी विद्या भी प्राप्त करता था औऱ व्रत का भी पालन करता था, वह उभयस्नातक कहलाता था। गृह्यसूत्रों और पद्धतियों में समावर्तन का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। दे० 'संस्कार'।

समुद्रव्रत : चैत्र शुक्ल प्रतिपद् से आरम्भ कर लगातार सात दिनपर्यन्त इस व्रत का आयोजन होना चाहिए। इस अवसर पर समुद्ररूपी लवण, दुग्ध, घृत, तक्र, सुगन्धित जल, गन्ने के रस तथा मधुर दधि से नारायण का पूजन करना चाहिए। घृत से हवन करना चाहिए। इसका आचरण एक वर्षपर्यन्त होना चाहिए। वर्ष के अन्त में एक गौ का दान विहित है। इस व्रत के आचरण से साधारण राजा चक्रवर्ती सम्राट् हो जाता है। इसके अतिरिक्त, स्वास्थ्य, सम्पत्ति तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है। दे० वायु०; 49.123। कूर्म० 1.45,4।

समुद्रस्नान : पर्व के दिनों में, जैसे पूर्णिमा और अमावस्या को किन्तु भौमवार और शुक्रवार को छोड़कर समुद्र में स्नान करना चाहिए। व्रती को चाहिए कि वह उक्त दिनों में समुद्र तथा पीपल के वृक्ष का पूजनादि करे किन्तु उनका स्पर्श कदापि न करे। शनिवार को पीपल का स्पर्श किया जा सकता है। सेतुबन्ध (रामेश्वर) में कभी भी स्नान किया जा सकता है, वहाँ स्नान का कभी निषेध नहीं है।

सम्पद्गौरीव्रत : माघ शुक्ल प्रतिपदा (जैसा कि तमिलनाडु के पञ्चाङ्गों में लिखा हुआ है) को समस्त विवाहित नारियों तथा कन्याओं को कुम्भ मास में इस व्रत का आयोजन करना चाहिए।

सम्पुट : सम्यक् प्रकार से पुटित अथवा भावित किया हुआ। एक जातीय उभय पदार्थों के मध्य में अन्य को रखने की विधि सम्पुट है। तन्त्रसार के अनुसार 'सकामः सम्पुटो जाप्यो निष्कामः संपुटं बिना।'

[किसी अभीष्ट सिद्धि के लिए जप करना हो तो सम्पुट विधि से करना चाहिए; यदि निष्काम जप करना हो तो बिना सम्पुट के।]

सम्पूर्णव्रत : यह व्रत प्रत्येक त्रुटिपूर्ण तथा अपूर्ण व्रत को पूर्ण करता है। व्रतकर्त्ता को उस देवविशेष की सुवर्ण अथवा रजत प्रतिमा बनवाकर को उस देवविशेष की सुवर्ण अथवा रजत प्रतिमा बनवाकर पूजा करनी चाहिए जिसका व्रत अथवा पूजा किसी कारण से अपूर्ण रह गई हो। जिस दिन से शिल्पी प्रतिमा का निर्माण प्रारम्भ करे उसी दिन से लगातार एक मासपर्यन्त किसी ब्राह्मण द्वारा उस प्रतिमा का दुग्ध, दधि, घृत, तरल पदार्थी तथा शुद्ध जल से स्नान तथा गन्धाक्षत-पुष्पादि से पूजन कराया जाय। उसी देवता का नामोच्चारण करते हुए चन्दन मिश्रित जल का अर्घ्‍य दिया जाय तथा प्रार्थना की जाय कि हमारा जो व्रत खण्डित हो गया था वह पूर्ण हो तथा स्वाहा बोलते हुए आहुतियाँ दी जाँय। पुरोहित घोषणा करे कि हे यजमान, तुम्हारा अपूर्ण व्रत पूर्ण हो चुका है। पुराण कहता है कि ब्राह्मणों द्वारा घोषित बात को देवगण अपनी सहमति तथा स्वीकृति प्रदान करते हैं।

सम्प्रदाय : गुरुपरम्परागत अथवा आचार्यपरम्परागत संघटित संस्था। भरत के अनुसार शिष्टपरम्परा प्राप्त उपदेश ही सम्प्रदाय है। इसका प्रचलित अर्थ है 'गुरुपरम्परा से सदुपदिष्ट व्यक्तियों का समूह।' पद्मपुराण में वैष्णव सम्प्रदायों की नामावली दी हुई है :

सम्प्रदायविहीना ये मन्त्रास्ते निष्फला मताः। अतः कलौ भविष्यन्ति चत्वारः सम्प्रदायिनः॥ श्रीमध्व-रुद्र-सनका वैष्णवाः क्षितिपावनाः॥ शक्तिसंगतम तन्त्र (प्रथम खण्ड, अष्टम पटल) में सम्प्रदायों की सूची इस प्रकार दी हुई है :

वैखान: सामवेदादौ श्री राधावल्लभी तथा। गोकुलेशो महेशानि तथा वृन्दावनी भवेत्॥ पाञ्चरात्रः पञ्चमः स्यात् षष्ठः श्रीवीरवैष्णवः। रामानन्दी हविष्याशी निम्बार्कश्च महेश्वरि॥ ततो भागवतो देवि दश भेदाः प्रकीर्तिताः। शिखी मुण्डी जटी चैव द्वित्रिदण्डी क्रमेण च॥ एकदण्डी महेशानि वीरशैवस्तथैव च। सप्त पाशुपताः प्रोक्ताः दशधा वैष्णवा मताः॥

सम्भल : उत्तर प्रदेशस्थ मुरादाबाद जिले में विष्णु का अवतार स्थल। कलियुग के अन्त में विष्णुयश ब्राह्मण के यहाँ इसी सम्भल में भगवान् कल्कि का अवतार होगा। सत्ययुग में इस स्थान का नाम सत्यव्रत था, त्रेता में महद्गिरि, द्वापर में पिङ्गल और कलियुग में सम्भलपुर है। इसमें 68 तीर्थ और 19 कूप हैं। यहाँ एक अतिविशाल औऱ प्राचीन मन्दिर है। इसके अतिरिक्त मुख्य तीन शिवलिंङ्ग हैं---पूर्व में चन्द्रेश्वर, उत्तर में भुवनेश्वर तथा दक्षिण में सम्भलेश्वर। प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल चतुर्थी और पञ्चमी को यहाँ मेला लगता है औऱ यात्री इसकी परिक्रमा करते हैं।

सम्भोगव्रत : दो प्रतिपादाओं तथा पंचमी तिथियों को उपवास का विधान है। व्रती को भगवान् भास्कर में अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। साथ ही वह स्वपत्नी के साथ शयन करते हुए भी प्रणयकेलि तथा अन्य विलासादिक क्रियाओं का एकदम परित्याग कर दे। इस व्रत के आचरण से सहस्रों वर्षों के तप के बराबर पुण्य प्राप्त होता है। दे० कृत्यकल्पतरु 3.88; हेमाद्रि, 2.394 एवं रामकृष्ण परमहंस एवं शारदा माता का चरित्र।

सरमा : देवशुनी (देवताओं की कुतिया) का नाम। वैदिक पुराकथा में इसका काम मार्ग निर्देश करना है। इसके पुत्रों को सारमेय कहा गया है। इसकी व्युत्पत्ति है 'रमया शोभया सह वर्तमाना।' विभीषण की पत्नी राक्षसी का नाम भी सरमा है। जो सीता की सेविका थी। कश्यप की एक पत्नी का नाम भी सरमा है जिससे भ्रमर आदि की उत्पत्ति हुई।

सरयू : अवध प्रदेश की एक नदी। इसके किनारे अयोध्या पुरी स्थित है जो सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी थी और जहाँ भगवान् राम का जन्म हुआ था। इसलिये वैष्णवसम्प्रदाय में इसका औऱ भी महत्त्व है। इसके जल का गुण राजनिर्घण्ट में वर्णित है :

सरयू सलिलं स्वादु बलपुष्टिप्रदायकम्।'

सरवरिया : कन्याकुब्ज ब्रह्मणों की एक उपशाखा। पञ्चगौड़ ब्राह्मणों--गौड़, सारस्वत, कान्यकुब्ज, मैथिल और उत्कल में कोई स्वतन्त्र शाखा नहीं है। 'सरवरिया' शब्द 'सरयू पारीण' का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है 'सरयूनदी के (उत्तर) पार रहने वाला।' यह शुद्ध भौगोलिक नाम है। मध्य युग में वर्जनशीलता और संकीर्णता के कारण वर्णों और जातियों की छोटी-छोटी क्षेत्रीय शाखाएँ और उपशाखायें बन गयीं। उन्हीं में से सरयुपारीण (सरवरिया) भी एक है। इस समय सरवरिया केवल सरयू-पार में सीमित न रह कर देश के कई प्रान्तों में फैले हुए हैं। मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में इनकी बहुत बड़ी संख्या है जो अपने को 'छत्तीसगढ़ी' कहते हैं।

सरस्वती : (1) सर्वप्रथम ऋग्वेद में सरस्वती पवित्र नदी और क्रमशः नदी देवता और वाग्देवता के रूप में वर्णित हुई है। सरस्वती मूलतः शुतुद्रि (सतलज) की एक सहायक नदी थी। जब शुतुद्रि अपना मार्ग बदल कर विपाशा (व्यास) में मिल गयी तो सरस्वती उसके पुराने पेटे से बहती रही। यह राजस्थान के समुद्र में मिलती थी। बड़ी वेगवती नदी के रूप में इसका वर्णन पाया जाता है, जिसके किनारे राजा लोग और जन बसते थे, यज्ञ करते और मन्त्रों का गान करते थे। सरस्वती को आजकल घग्घर कहते हैं। सरस्वती और दृषद्वती के बीच का प्रदेश ब्रह्मावर्त कहलाता था जो वैदिक ज्ञान और कर्मकाण्ड के लिए प्रसिद्ध था। सरस्वती देवी के रूप में ऋग्वेद में कल्पित की गयी है जो पवित्रता, शुद्धि, समृद्धि और शक्ति प्रदान करती थी। उसका सम्बन्ध अन्य देवताओं--पूषा, इन्द्र, और मरुत् से बतलाया गया है। कई सूक्तों में सरस्वती का सम्बन्ध यज्ञीय देवता इडा औऱ भारती से भी जोड़ा गया है। पीछे भारती सरस्वती से अभिन्न मान ली गयी।

(2) पहले सरस्वती नदी देवता थी। परन्तु ब्राह्मण काल में (दे० शतपथ ब्राह्मण, 3-9-1; ऐतरेय ब्राह्मण, 3.1) उसका वाक् (वाग्देवता) से अभेद मान लिया गया। परवर्ती काल में तो वह विद्या और कला की अधिष्ठात्री देवी हो गयी। पुराणानुसार यह ब्रह्मा की पुत्री मानी गयी है।

सरस्वती का ध्यान निम्नांकित पद्य से प्रायः किया जाता है :

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणावरधारिणी भगवती या श्वेतपद्मासना। या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता। सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥

सरस्वती का वाहन हंस है, जो क्षीर-नीर-विवेक का प्रतीक है। कहीं मयूर भी सरस्वती का वाहन बतलाया गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणेश खण्ड (40.61-67) में सरस्वतीपूजन की विधि विस्तार के साथ वर्णित है।

सरस्वतीपूजनविधि : आश्विन शुक्ल के मूल नक्षत्र में सरस्वती का आवाहन करना चाहिए। प्रतिदिन सरस्वती की आराधना करते हुए श्रवण नक्षत्र को विसर्जन करना चाहिए (मूल नक्षत्र से चौथा नक्षत्र श्रवण है)। सरस्वती की चार दिन पूजा होती है, जो साधारणतः सप्तमी से दशमी तक चलती है। वर्षकृत्यदीपिका के अनुसार इन दिनों न तो अध्ययन करना चाहिए न अध्यापन और न लेखन।

माघ शुक्ल पंचमी (वसन्तपंचमी) को आगमोक्त विधि से महाशक्ति सरस्वती की वार्षिक पूजा की जाती है।

सरस्वतीस्थापना : आश्विन शुक्ल नवमी को पुस्तकों में सरस्वती की स्थापना करनी चाहिए। दे० वर्ष-कृत्य-दीपिका, 92-93 तथा 268-269। तमिलनाडु में आबाल वृद्ध प्रकाशित तथा हस्तलिखित ग्रन्थ एकत्रित कर विशेष प्रकार की सरस्वती पूजा करते हैं। बालिकाएँ तथा विवाहित महिलाएँ अपनी संगीत सन्बन्धी पुस्तकें तथा वीणा साथ-साथ लाती हैं तथा उनकी सरस्वती के समान ही पूजा करती हैं। शिल्पी तथा दूसरे कारीगर लोग नवमी के दिन अपने-अपने औजार तथा यंत्रों को पूजते हैं।

सर्ग : सृष्टि, जगत् की रचना। पुराणों का प्रथम वर्ण्य विषय यही है। मनु० ने इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है :

हिंसाहिंसे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते। यद्यस्य सोऽदधात् सर्गे तत्तस्य स्वयमाविशत्॥ (1.29)

श्रीमद्भागवत (3,10.14-26) में सर्ग का विस्तृत वर्णन पाया जाता है।

सर्पविषापहापञ्चमी : श्रावण शुक्ल पंचमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। व्रती को घर के दरवाजे के दोनों और गौ के गोबर से सर्प की आकृतियाँ बनाकर उनकी गेहूँ, दूध, भुने हुए धान्य, दधि, दूर्वांकुरों तथा पुष्पादि से पूजा करनी चाहिए। इससे सर्प जाति सन्तुष्ट रहती है तथा पूजक को सात पीढ़ियों तक उनका भय नहीं रहता।

सर्पसत्र (नागयज्ञ) : सर्पों को नष्ट करने वाला यज्ञ। जनमेजय ने अपने पिता परीक्षित् की सर्वदंश से हुई मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्पसत्र किया था। भागवत, 12,6.16-28।

सर्वगन्ध : पूजनोपयोगी मुख्य गन्धद्रव्य। सुगन्धित पदार्थों का भिन्न-भिन्न रूप से परिगणन किया गया है। इस सम्बन्ध में हेमाद्रि (1.44) में वर्णन है। कपूर, चन्दन, कस्तूरी तथा केसर समान भागों में होने पर सर्वगन्ध कहलाती हैं।

सर्वजया : स्त्रियों द्वारा किया जानेवाला एक व्रत। मार्गशीर्ष से प्रारम्भ होकर बारह महीनों तक यह व्रत चलता है।

इसमे सामान्य विधि से नवग्रहपूजन तथा प्रणव से अंगन्यास करके निम्नलिखित प्रकार से ध्यान करना चाहिए :

श्वेतवर्णं वृषारूढ़ं व्यालयज्ञोपवीतिनम्। विभूतिभूषिताङ्गञ्च व्याघ्रचर्मधरं शुभम्॥ पञ्चवक्त्रं दशभुजं जटिलं चन्द्रचूडकम्। त्रिनेत्रं पार्वतीयुक्तं प्रमथैश्च समन्वितम्॥ प्रसन्नवदनं देवं वरदं भक्तवत्सलम्।

इस प्रकार ध्यान करके 'ऊँ नमः शिवाय ह्रीं दुर्गायै नमः' मन्त्र से अर्घ्‍य देकर और पुनः ध्यानकर 'ऊँ गौरीसहितहराय नमः' इस मन्त्र से पूजन करना चाहिये।

इसके पश्चात् पाँच पुष्पाञ्जलिदान करके निम्नलिखित मन्त्र से प्रणाम करना चाहिये :

नमस्ते पार्वतीनाथ नमस्ते शशिशेखर। नमस्ते पार्वतीदेव्यै चण्डिकायै नमोनमः॥

इस व्रत की कथा स्कन्दपुराण में विस्तार से दी हुई है और इसकी पूरी विधि कृत्यचन्द्रिका में।

सर्वज्ञात्ममुनि : प्रसिद्ध अद्वैत वेदान्ताचार्य संन्यासी। इनका जीवन-काल लगभग नवीं शती था। श्रृंगेरी के ये मठाधीश थे। इनका अन्य नाम नित्यबोधाचार्य था। अद्वैतमत को स्पष्ट करने के लिए इन्होंने 'संक्षेप शारीरक' नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया। इन्होंने अपने गुरु का नाम देवेश्वराचार्य लिखा है। प्रसिद्ध भाष्यकार मधुसूदन सरस्वती और रामतीर्थ ने देवेश्वराचार्य को सुरेश्वराचार्य से अभिन्न बतलाये हैं। परन्तु दोनों के काल में पर्याप्त अन्तर होने से ऐसा मानना कठिन है। 'संक्षेपशारीरक' में श्लोक और वार्तिक दोनों का समावेश है। 'शारीरक भाष्य' के समान इसमें भी चार अध्याय हैं और इनके विषयों का क्रम भी उसी प्रकार है। इनमें श्लोक-संख्या क्रमशः 563, 248, 365 और 53 है। सर्वज्ञात्ममुनि ने 'संक्षेप शारीरक' को 'प्रकरणवार्तिक' बतलाया है। अद्वैतसम्प्रदाय की परम्परा में यह ग्रन्थ बहुत प्रामाणिक माना जाता है। इस पर मधुसूधन सरस्वती और रामतीर्थ ने टीकाएँ लिखीं जो बहुत प्रसिद्ध हैं।

सर्वतोभद्र : माङ्गलिक अलङ्करण की एक वर्गात्मक विधा। इसके केन्द्र में मुख्य देव और पार्श्ववर्गों में अन्य देवों की स्थापना होती है। अमरकोश (2-2-10) के अनुसार मन्दिर स्थापत्य का यह एक प्रकार भी है। द्वार-अलिन्दादि भेद से समृद्ध लोगों के आवास का एक प्रकार रूप सर्वतोभद्र कहा जाता है। इसका लक्षण निम्नांकित है :

स्वस्तिकं प्राङ्मुखं यत् स्यादलिन्दानुगतं भवेत्। तत्पार्श्वानुगतौ चान्यौ तत्पर्यन्तगतोऽपरः॥ अनिषिद्धालिन्दभेदं चतुर्द्वारञ्च यद्गृहम्। तद्भवेत्सर्वतोभद्रं चतुरालिन्दशोभितम्॥ (भरत)

ग्रहशान्ति, उपनयन, व्रत-प्रतिष्ठा आदि में पूजा का एक रंगीन आधारमण्डल सर्वतोभद्र नाम से बनाया जाता है। दे० शारदातन्त्र; तन्त्रसार।

सर्वदर्शन संग्रह : माधवाचार्य द्वारा प्रणीत प्रसिद्ध दर्शन ग्रन्थ। इसमें सभी दर्शनों का सार संगृहीत किया गया है। भारतीय दर्शनों को यहाँ दो भागों में बाँटा गया है। आस्तिक और नास्तिक। आस्तिक के अन्तर्गत न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग पूर्वमीमांसा औऱ उत्तरमीमांसा (वेदान्त) हैं : नास्तिक के अन्तर्गत चार्वाक, आर्हत, बौद्ध आदि की गणना है। यह ग्रन्थ दार्शनिक दृष्टि से समुच्चयवादी है।

सर्वमङ्गला : दुर्गा का एक पर्याय। ब्रह्मवैवर्तपुराण में इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है :

हर्षे सम्पदि कल्याणे मङ्गलं परिकीर्तनम्। तान् ददाति च या देवी सा एव सर्वमङ्गला॥

देवीपुराण (अध्याय 45) में सर्वमङ्गला की व्युत्पत्ति निम्नांङ्कित है :

सर्वाणि हृदयस्थानि मङ्गलानि शुभानि च। ददाति चेप्स‍ितानि तेन सा सर्वमङ्गला॥

सर्वमेध : एक प्रकार का यज्ञ। इसमें यजमान अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति यज्ञ और दान में लगा देता था।

सर्वौषधि : पूजा की सामग्रियों में इनकी गणना है। इस वर्ग में निम्नांकित ओषधियाँ सम्मिलित हैं :

कुण्ठमांसीहरिद्राभिर्वचाशैलेयचन्दनैः। मुराचन्दनकर्पूरैः मुस्तः सर्वौषधिः स्मृतिः॥

इस सूची में द्वितीय चन्दनपद रक्तचन्दन के लिए प्रयुक्त हुआ है। सर्वौषधिगण में औषधियों की एक लम्बी सूची पायी जाती है। दे० पद्मपुराण, उत्तरखण्ड अ० 107; अग्निपुराण, 177.17; राजनिर्घण्ट।

सर्षसप्तमी : यह तिथिव्रत है। सूर्य इसके देवता हैं। सात सप्तमियों को व्रती सूर्याभिमुख बैठकर अपनी हथेली पर पञ्चगव्य अथवा अन्य कोई वस्तु रखते हुए प्रति सप्तमी को क्रमशः दो से सात तक सरसों के दाने रखकर उनका अवलोकन करता रहे। अवलोकन के समय मन में किसी वस्तु या कार्य की कामना करते हुए दन्त स्पर्श किये बिना पञ्चगव्य सहित सरसों का मन्त्रोच्चारण के साथ पान कर लेना चाहिए। तनन्तर होम तथा जप का विधान है। इसके पुत्र, धन की प्राप्ति के साथ समस्त इच्छाएँ पूर्ण होती हैं।

सस्योत्सव : सस्य के पकने के समय का उत्सव। मास के शुक्ल पक्ष में किसी पवित्र तिथि, नक्षत्र तथा मुहूर्त के समय गाजे-बाजे के साथ खेतों की ओर जाना चाहिए तथा वहाँ अग्नि प्रज्वलित करके हवन करना चाहिए। तदनन्तर पके हुए धान्य को वैदिकमन्त्रों का उच्चारण करते हुए अभीष्ट देवों तथा पितरों को अर्पित करना चाहिए। व्रती को पके हुए धान्य को दही में मिलाकर खा लेना चाहिए। तदुपरान्त उत्सव का आय़ोजन होना चाहिए।

सहधर्मिणी : वैदिक विधान से ब्याही हुई पत्नी। इसका शाब्दिक अर्थ हैं 'साथ धर्मकार्य करनेवाली'।

सहमरण : पति के मरने पर पत्नी द्वारा उसकी चिता पर साथ जल जाना। अङ्गिरा ने सहमरण का बड़ा माहात्म्य बतलाया है (अ० स्मृति)।

सहस्रधारा : देवता को स्नान कराने के लिए सहस्र छिद्रयुक्त पात्र से निकली हुई जलधाराओं को सहस्रधारा कहते हैं। दुर्गोत्सवपद्धति में इसका उल्लेख है।

मान्धाता-माहेश्वर तीर्थ में नर्मदा नदी का नाम भी सहस्रधारा है। कथा है कि सहस्रार्जुन कार्तवीर्य ने अपनी सहस्रभुजाओं से नर्मदा के प्रवाह को रोकना चाहा। नर्मदा उसकी अवहेलना कर सहस्रधाराओं से फूट निकलीं। इसलिए वहाँ उनका नाम सहस्रधारा पड़ा गया।

सहस्रनयन (सहस्रनेत्र) : इन्द्र, जिसके सहस्रनयन हैं। वास्तव में इन्द्र राजा का प्रतीक है और नेत्र उसके मन्त्रियों का। इन्द्र के एक सहस्र मन्त्री थे, अतः उसको सहस्रनयन कहते हैं। परन्तु पुराणकथा में वह शरीरतः सहस्रनयन चित्रित किया गया है।

सहस्र भोजनविधि : एक सहस्र ब्राह्मणों को भोजन कराने की विधि। व्रती इसका आयोजन स्वगृह में अथवा किसी मन्दिर में करे। पक्वान्न से तथा परिष्कृत नवनीत से भगवान् के बारह नामों का उच्चारण करते हुए (जैसे केशव, नारायण आदि) हवन करना चाहिए। ब्रह्म भोज के बाद भिन्न-भिन्न प्रकार की दान-दक्षिणा दी जानी चाहिए।

सहोढ़ : बारह प्रकार के पुत्रों में से एक जो माता के विवाह के समय गर्भ में रहता है। वह विवाह के पश्चात् जन्म लेने पर विवाह करने वाले पिता का पुत्र होता है। प्राचीन काल में ऐसी विधिक मान्यता थी। मनुस्मृति (अध्याय 8) में सहौढ़ की परिभाषा इस प्रकार दी हुई है :

या गर्भिणी संस्क्रियते ज्ञाताज्ञातापि या सती। वौढु: स गर्भो भवति सहोढ़ इथि चोच्यते॥

[जिस गर्भिणी का विवाह-संस्कार होता है, चाहे उसका गर्भ ज्ञात हो अथवा अज्ञात, उससे विवाह करने वाले का ही वह गर्भ होता है। जन्म लेने पर गर्भस्थ बालक उसका सहोढ़ पुत्र कहलाता है।]

सांवत्सर : वर्ष से सम्बन्ध रखने वाला। वर्ष (काल) सम्बन्धी शास्त्र का जो अध्ययन करता है उसको 'सांवत्सर' (ज्योतिषी अथवा गणक) कहते हैं। बृहत्संता (3.10-11) में इसकी उपयोगिता के बारे में निम्नलिखित कथन है :

मुहूर्तं तिथिनक्षत्रमृतवश्चायने तथा। सर्वाण्येवाकुलानि स्युर्न स्यात् सांवत्सरो यदि॥ तस्माद्राज्ञाभिगन्तव्यो विद्वान् सांवत्सरोऽग्रणी। जयं यशः श्रियं भोगान् श्रेयश्च समभीप्सता॥

[यदि सांवत्सर (ज्योतिषी) न होवे तो मुहूर्त, निथि, नक्षत्र, ऋतु तथा अयन सभी व्याकुल हो जाते हैं। इस लिए जय, यश, श्री, भोग और श्रेय की कामना करने वाले राजा को अग्रणी सांवत्सर के पास जाना चाहिए।]

सांवत्सरिक : पितरों के लिए प्रतिवर्ष किया जाता श्राद्ध। हेमाद्रि का कथन है :

पूर्णे संवत्सरे श्राद्धं षोडशं परिकीर्तितम्। तेनैव च सपिण्डत्वं तेनैवाब्दिकमिष्यते॥

साक्षी : (1) आत्मा को साक्षी कहा गया है। वह प्रकृति के धरातल पर घटित होने वाली क्रियाओं को देखता है, इसलिए साक्षी कहलाता है।

(2) धर्मशास्त्र में किसी वाद के नर्णय करने में चार प्रमाण माने गये हैं, जिनमें साक्षी का स्थान तीसरा है----

(1) लिखित (2) युक्ति (3) साक्षी और (4) दिव्य--- साक्षी वह है जो अपनी आँखों से (अक्ष्‍णा सह) वादग्रस्त तथ्यों को देख चुका हो। साक्षी के मिथ्याकथन अथवा अकथन में बहुत दोष माना गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृतिखण्ड, 49 अध्याय) में मिथ्या साक्ष्य के निम्नांकित परिणाम बतलाये गये हैं :

मिथ्या साक्ष्यं यो ददाति कामात् क्रोधात् तथा भंयात्। सभायां पाक्षिकं वक्ति स कृतघ्न इति स्मृतः॥ मिथ्या साक्ष्यं पाक्षिकं वा भारते वक्ति योनृप। यावदिन्द्रसहस्रञ्च सर्पकुण्डे वसेद् ध्रुवम्॥ सन्ततं वेष्टितैः सर्पैर्भीतश्च भक्षितस्तथा। भुङ्क्ते च सर्पविण्‍मूत्रं यमदूतेन ताडितः॥

साक्ष्य : साक्षी के कर्म को साक्ष्य कहा गया है। साक्ष्य की सिद्धि के विषय में मनु का कथन है :

समक्षदर्शनात् साक्ष्यं श्रवणाच्चैव सिध्यति।

यत्रानिरुद्धी वीक्ष्येत श्रृणुयाद्वापि किञ्चन। पृष्टस्तत्रापि तद्ब्रूयात् यथादृष्टं तथा श्रुतम्॥

सांख्य : षड्दर्शनों में से एक। इसकी व्युत्पत्ति होती है 'सम्यक् प्रकार से ख्यात, ख्याति अथवा विचार'। जिस दर्शन में प्रकृति और पुरुष के भेद के सम्बन्ध में सम्यक् विचार किया गया हो उसको सांख्य कहते हैं। प्रकृति तथा पुरुष के इस पृथक्करण को विवेकख्याति, विवेकज्ञान अथवा प्रकृति-पुरुषविवेक भी कहते हैं। एक मत यह भी है कि मूल प्रकृति से अभिव्यक्त पचीस तत्त्वों की इसमें संख्या (गणना) की गयी है, अतः यह दर्शन सांख्य कहलाता है। परन्तु पहली व्याख्या अधिक युक्तिसंगत है। सांख्य ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा, इसलिए ज्ञानमार्ग को सांख्य कहते हैं।

सांख्यदर्शन के प्रवर्तक कपिल थे जिनकी गणना पौराणिकों ने अड़तालीस अवतारों के अन्तर्गत की है। भागवतपुराण में कपिल विष्णु के पञ्चम अवतार माने गये हैं। कपिल के साक्षात् शिष्य आसुरि और आसुरि के पञ्चशिख थे। पञ्चशिख ने सांख्य के ऊपर एक सूत्र ग्रन्थ की रचना की थी। इसके बहुत बाद ईश्वरकृष्ण ने ईसापूर्व दूसरी शती में 'सांख्यकारिका' की रचना की जो सांख्यदर्शन पर सबसे अधिक प्रामाणिक ग्रन्थ है। इसपर कई टीकायें लिखी गयी हैं। इनमें माठरवृत्ति, गौडपाद भाष्य, जयमङ्गला, चन्द्रिका, सरलसांख्ययोग, तत्त्वकौमुदी (वाचस्पति मिश्र), युक्तिदीपिका, और सुवर्णसप्तति (चीनी संस्करण) विशेष प्रसिद्ध हैं। इस सम्प्रदाय के दूसरे प्रमुख आचार्य विज्ञानभिक्षु हुए, जिनका काल सोलहवीं शती ई० था। इन्होंने इस समय उपलब्ध 'सांख्यसूत्र' की रचना की और इस पर 'सांख्यप्रवचन भाष्य' भी लिखा। ईश्वरकृष्ण निरीश्वर सांख्य के समर्थक थे और विज्ञानभिक्षु सेश्वर सांख्य के। सांख्यप्रवचन भाष्य में सांख्य और वेदान्त दोनों का समन्वय पाया जाता है।

सांख्य के अनुसार तीन प्रकार के तत्त्व हैं--व्यक्ति, अव्यक्त और ज्ञ। 'ज्ञ चेतन है और यही पुरूष है। 'अव्यक्त' को मूल प्रकृति अथवा प्रधान कहते हैं। यह जड़ है। 'व्यक्त' कार्यकारण-परम्परा से मूल प्रकृति (अव्यक्त) का परिणाम है। इसके तेईस भेद हैं। सांख्यदर्शन में ये ही पचीस प्रमेय अथा तत्त्व हैं। इन्हीं तत्वों के यथार्थ ज्ञान से दुःख की निवृत्ति होती है (व्यक्ताव्यक्तज्ञाविज्ञानात्)। विवेक, ज्ञान अथवा ख्याति ही सांख्य के अनुसार मोक्ष है। सांख्य सृष्टि प्रक्रिया में ईश्वर का अस्तित्व आवश्यक नहीं मानता। उसका कथन है कि ईश्वर की सत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती। इसी कारण सांख्य को निरीश्वर कहा जाता है।

पुरुष निष्क्रिय, निर्गुण और निर्लिप्त है। किन्तु अन्य दो तत्त्व अव्यक्त और व्यक्त (प्रकृति) त्रिगुण, अविवेकी आदि धर्मों से युक्त हैं। इन तत्त्वों का परस्पर सम्बन्ध समझने के लिए परिणाम और कार्य-कारण-भाव को समझना आवश्यक है। प्रत्येक पदार्थ में कोई न कोई धर्म होता है। यह धर्म परिवर्तनशील है। इसकी परिवर्तनशीलता को ही परिणाम कहते हैं। अर्थात् एक धर्म के बदलने पर उसके स्थान में दूसरी धर्म के आने को परिणाम कहा जाता है। परिणाम व्यक्त और अव्यक्त दोनों तत्त्वों में निरन्तर होता रहता है। संसार का प्रत्येक पदार्थ सत्व, रज और तम तीन गुणों से बना हुआ है। गुण का अर्थ है घटक अथवा रस्सी। जिस प्रकार तीन धागों के बटने से रस्सी तैयार होती है उसी प्रकार तीनों गुणों के न्यूनाधिक मात्रा में संवलित होने पर विभिन्न पदार्थ निर्मित होते हैं। सत्व का स्वरूप प्रकाश अथवा ज्ञान है। रज का गुण चलन अथवा क्रियाशीलता है। तम का गुण है अवरोध, भारीपन आवरण आदि। इन्हीं तीनों गुणों की स्थिति के कारण पदार्थों में परिणाम होते रहते हैं। परिणाम तीन प्रकार के होते हैं---(1) धर्मपरिणाम (2) लक्षणपरिणाम और (3) अवस्थापरिणाम।

मूल प्रकृति (अव्यक्त) जब साम्यावस्था में रहती है, अर्थात् जब तीनों गुण संतुलित अवस्था में होते हैं तब प्रकृति में परिणाम अथवा परिवर्तन नही होता। जब इनका संतुलन भंग होता है तब परिणाम अर्थात् कार्य होने लगता है। अव्यक्त और व्यक्त प्रकृति में कारण-कार्य सम्बन्ध है। अब प्रश्न यह है कि कारण-कार्य सम्बन्ध का अर्थ क्या है। न्याय के अनुसार कार्य कारण से भिन्न है। और कारण में कार्य का अभाव है। कार्य एक विशेष कारण ईश्वरेच्छा से उत्पन्न होता है। परन्तु सांख्य के अनुसार कार्य कारण से भिन्न न होकर उसमें वर्तमान रहता है। कारण से कार्य की उत्पत्ति का अर्थ है कारण

कूर्मपुराण (पूर्वभाग, यदुवंशानुकीर्तन, 24.31-36) में यदुवंशी सत्वत राजा के पुत्रों का नाम सात्वत है। मनुस्मृति में संकरजातिविशेष का नाम सात्वत आया है। ऐसा लगता है कि भागवत सात्वतों में परम्पराविरोधी प्रवृत्तियाँ अधिक बढ़ गयी थीं, जिनके कारण मनु ने उनको संकर जातियों में परिगणित किया।

सात्त्विक : सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति में तीन गुण होते हैं----सत्‍त्व, रज और तम। सत्त्व की विशेषता है प्रकाश शौर ज्ञान। इनमें उत्पन्न या सम्बद्ध भाव सात्त्‍िवक कहलाता है। सर्वदानन्द ने इसकी परिभाषा निम्नांकित प्रकार से की है :

सत्त्वोत्कटे मनसि ये प्रभवन्ति भावास्ते सात्त्विका इति विदुर्मुनि पुङ्गवास्ते।'

(मनोदशासूचक) सात्त्विक भावों की परिगणना इस प्रकार है :

स्वेदः स्त्मभोऽथ रोमाञ्चः स्वरभङ्गोऽथ वेपथुः। वैवर्णमश्रुप्रलय इत्यष्टौ सात्त्विका मताः॥

भगवद्गीता (अध्याय 17-18) में सात्त्विक जीवन का विवरण विस्तार से दिया हुआ है।

साधक : धार्मिक अथवा दार्शनिक उपलब्धियों के लिए जो प्रयास करते हैं और अपने इष्ट का सम्पादन करते हैं, वे साधक कहलाते हैं। देवीपुराण के नन्दामाहात्म्य में साधक का निम्नांकित लक्षण दिया हुआ है :

अतः परं प्रवक्ष्यामि साधकानां तु लक्षणम्। धर्मशीलास्तपोयुक्ताः सत्यवादिजितेन्द्रियाः॥ मात्सर्येण परित्यक्ताः सर्वसत्‍त्वहिते रताः। कर्मशीलास्तथोत्साहा मर्त्यलोकेऽजुगुप्सकाः॥ परस्परसुसन्तुष्टानुकूलाः साधकस्य तु। इदृशैः साधनं कुर्यात् सुसहायैः सहैव तु॥

शिवसंहिता में और विस्तार से साधक वर्णन पाया जाता है :

(1) चतुर्धा साधको ज्ञेयो मृदुमध्याधिमात्रकः। अधिमायतम् श्रेष्ठो भावब्धौ लङ्घनक्षमः॥ महावीर्यान्वितोत्साही मनोज्ञः शौर्यवानपि। शास्त्रज्ञोऽम्यासशीलश्च निर्ममश्च निराकुलः॥ नवयौवनसम्पन्नो मिताहारी जितेन्द्रियः निर्भयश्च शुचिर्दक्षो दाता सर्वजनाश्रयः॥ अधिकारी स्थिरो धीमान् यथेच्छावस्थितः क्षमी। सुशील धर्मचारी च गुप्तचेष्टः प्रियंवदः॥ शास्त्रविश्वाससम्पनो देवतागुरुपूजकः। अनसङ्गविरक्तश्च सर्वयोगस्य साधकः। त्रिभिःसंवत्सरैः सिद्धिरेतस्य स्यान्न संशयः॥ सर्वयोगाधिकारी च नात्र कार्या विचारणा॥

साधन : योगदर्शन के साधन पाद में योग के आठ अङ्ग अथवा साधन बतलाये गये हैं--यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

(1) यम-मानसिक, वाचिक और कायिक संयम को यम कहते हैं। इसमें निम्नांकित सम्मिलित हैं।

(क) अहिंसा---सर्वदा तथा सर्वथा जीवमात्र को दुःख न पहुँचना।

(ख) सत्य-- मन और वचन में यथार्थता। जिसको जैसा देखा, सुना और जाना हो, उसको वैसा ही कहना।

(ग) अस्तेय--दूसरे का सत्त्वापहरण न करना और न उसकी कामना ही करना।

(घ) ब्रह्मचर्य--ब्रह्म का आचरण। इन्द्रियों में लोलुपता का अभाव। विशेषकर जननेन्द्रियों का संयम।

(ङ) अपरिग्रह--अनावश्यक संग्रह न करना, दान आदि न लेना।

2. नियम---(क) शौच---मन, वचन और शरीर की पवित्रता (ख) सन्तोष (ग) तप (घ) स्वाध्याय (ङ) ईश्वर प्रणिधान।

(3) आसन--जिस प्रकार बैठने से चित्त को स्थिरता और सुख मिले उसे आसन कहते हैं। यथा (क) सुखासन (ख) पद्मासन (ग) भद्रासन (घ) वीरासन।

4. प्राणायाम--(क) रेचक (ख) कुम्भक (ग) पूरक।

5. प्रत्याहार---इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाकर उनको अन्तर्मुखी करना।

6. धारणा---चित्त को किसी एक स्थान में स्थिर करने का नाम धारणा है।

7. ध्यान--जब किसी एक स्थान में ध्येय वस्तु का ज्ञान देर तक एक प्रवाह में संलग्न होता है तब उसे ध्यान कहते हैं।

8. समाधि--जब ध्यान ध्येय के आकार में भासित होता है और अपना स्वरूप छोड़ देता है तो उस परिस्थिति को समाधि कहते हैं। इसमें ध्यान और ध्यान का ध्येय में लय हो जाता है। इसमें अव्यक्त रूप से वर्तमान कार्य का व्यक्त होना। इसी सिद्धान्त को 'सत्कार्यवाद' कहते हैं।

तीनों गुणों की साम्यावस्था प्रकृति है। इसमें रजोगुण क्रियाशील है किन्तु तमोगुण की स्थिति के कारण अवरुद्ध रहता है। पूर्वजन्म के कर्मों के फलस्वरूप अदृष्ट जीवों के साथ लगा रहता है। जब वह पाकोन्मुख होता है अर्थात् वह जीव को संसार में सुख--दुःख देने के लिए उन्मुख होता है तब तमोगुण का प्रभाव हट जाता है और प्रकृति में रजोगुण के कारण क्षोभ अथवा चाञ्चवल्य उत्पन्न होता है। तब प्रकृति में विकृति अथवा परिणाम उत्पन्न होते हैं और सृष्टि प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। प्रकृति के सात्त्विक अंश से पहले महत्त-तत्त्व अर्थात् बुद्धि-तत्त्व की अभिव्यक्ति होती है। इससे अहंकार; अहंकार से ग्यारह इन्द्रियाँ--पाँच ज्ञानेंन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और मन; इन्द्रियों से तन्मात्रायें--शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध; और तन्मान्त्राओं से पञ्चभूतों की अभिव्यक्ति होती है।

सांख्यदर्शन प्रकृति औऱ पुरुष के स्वरूप और सम्बन्ध का सूक्ष्म विवेचन करता है। मूल प्रकृति अव्यक्त अथवा अप्रत्यक्ष है। परन्तु इसका अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है।

पुरुष अपरोक्ष है। बुद्धि के द्वारा भी यह प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। यह त्रिगुणातीत औऱ निर्लिप्त है। इसमें कोई लिङ्ग नहीं है, अतः अनुमान के द्वारा भी इसकी सिद्धि नहीं हो सकती। इसके अस्तित्व का एक मात्र प्रमाण है शब्द अथवा आगम। पुरुष अथवा ज्ञ अहेतुमान्, सर्वव्यापी औऱ निष्क्रिय है। पुरुष एक है। परन्तु कई टीकाकारों के मत में सांख्य पुरुषबहुत्व के सिद्धान्त को मानता है। वास्तव में बद्धपुरुष में अनेकत्व है, जैसे अन्य दर्शनों के अनुसार जीवात्मा में। सांख्य में पुरुष की तीन स्थितियाँ हैं--बुद्ध, मुक्त और ज्ञ। बद्ध पुरुष ही मुक्त होने की चेष्टा करता है।

प्रकृति और पुरुष के सम्बन्ध, बन्धन औऱ कैवल्य पर भी सांख्यदर्शन में सूक्ष्म विचार किया गया है। जैसा कि पहले कहा गया है, पुरुष स्वभावतः निर्लिप्त, त्रिगुणातीत निष्क्रिय और नित्य है। अविद्या भी नित्य है (इन दोनों का सम्पर्क अनादि काल से चला आ रहा है। प्रकृति जड़ और नित्य है। पुरुष का बिम्ब जब प्रकृति पर पड़ता है तब बुद्धि उत्पन्न होती है और प्रकृति अपने को चेतन समझने लगती है। इसी प्रकार बुद्धि (प्रकृति) का प्रतिबिम्ब पुरुष पर भी पड़ता है। इसके कारण निर्लिप्त, त्रिगुणातीत, निष्क्रिय पुरुष अपने को आसक्त कर्त्ता, भोक्ता आदि समझने लगता है। पुरुष और प्रकृति के इसी कल्पित और आरोपित सम्बन्ध को बन्धन कहते हैं। इस कल्पित सम्बन्ध को दूर कर अपने स्वरूप को प्रकृति से पृथक् करके पहचानना ही विवेक-बुद्धि, कैवल्य अथवा मुक्ति है। इसी स्थिति को प्राप्तकर पुरुष अपने को निर्लिप्त और निस्संग समझने लगता है। ज्ञान के अतिरिक्त धर्म और अधर्म आदि बुद्धि के सात भावों का प्रभाव जब लुप्त हो जाता है तब सृष्टि का कोई प्रयोजन नहीं रहता। सृष्टि का उद्देश्य (पुरुष की मुक्ति या कैवल्य) पूर्ण हो जाने पर प्रकृति सृष्टि कार्य से विरत हो जाती है और पुरुष कैवल्य को प्राप्त हो जाता है। कैवल्य के पश्चात् भी प्रारब्ध कर्मों और पूर्व जन्मों के संस्कारों के बने रहने के कारण तत्काल शरीर का का विनाश नहीं होता। साधक जीवन्मुक्ति की अवस्था में रहता है भोग की पूर्ति होनें पर जब शरीर का पतन होता है तब विदेह कैवल्य की उपलब्धियाँ होती हैं।

सांख्यदर्शन के अनुसार जीवन के परमपुरुषार्थ है तीन प्रकार के दुःखों--आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आत्ध्‍यात्मिक---से अत्यन्त निवृत्ति। सत्य का बोध ही इसका चरम साधन और अत्यन्त लोकहित ही सत्य है।

सात्वत : वासुदेव के भक्त अथवा सत्वत के वंशज यादव। हेमचन्द्र ने इसको बलदेव का पर्याय माना है। महाभारत (1.219-12) में इसको कृष्ण का पर्याय कहा गया है। महाभारत (1.222.3) में सम्पूर्ण यादवों के लिए इसका प्रयोग हुआ है।

यह विष्णु का भी पर्याय है (सच्छब्देन सत्त्तवमूर्तिभगवान्। स उपास्यतया विद्यतेऽस्य इति। मतुप्। ततः स्वार्थे अण्।) पद्मपुराण के उत्तर खण्ड (अध्याय 99) में सात्वत का अर्थ है विष्णु का भक्त। इसका लक्षण निम्नांकित है:

सत्त्वं सत्त्वाश्रयं सत्त्वगुणं सेवेत् केशवम्। योऽनन्यत्वेन मनसा सात्वतः समुदाहृतः॥ विहाय काम्यकर्मादीन् भजेदेकाकिनं हरिम्। सत्यं सत्त्वगुणोपेतो भक्त्या तं सात्व विदुः॥

अन्य दर्शनों में भी साधन-क्रम पाया जाता है। प्रत्येक साधन के लिए साधन की आवश्यकता होती है। वेदान्त में मुक्ति साधन से उपलब्ध न होकर अनुभूति का विषय है। किन्तु अनुभूति के लिए जिज्ञासा और ज्ञान आवश्यक है। जिज्ञासा और ज्ञान के लिए काम्य और निषिद्ध कर्मों का परित्याग करना चाहिए। नित्य एवं नैमित्तिक कर्म, प्रायश्चित, उपासना आदि चित्तशुद्धि के लिए करना आवश्यक है। विवेक, वैराग्य, शम, दम, उपरति, तितीक्षा, मुमुक्षा, श्रद्धा, समाधान (समाधि) आदि वेदान्त में भी जिज्ञासु के लिए आवश्यक साधन माने गये हैं।

साधु : धर्म आदि कार्यों का सम्पादन करने वाला (साधयतिधर्मादिकार्यमिति) अथवा जो दूसरों के कार्यों को सिद्ध करता है (साध्नोति पर कार्याणीति) पद्मपुराण (उत्तरखण्ड, अध्याय 99) में साधु के निम्नांकित लक्षण बताये गये हैं :

यथालब्धेऽपि सन्तुष्टः समचित्‍तो जितेन्द्रियः। हरिपादाश्रयो लोके विप्रः साधुरनिन्दकः॥-1 निवैरः सदयः शान्तो दम्भाहंकारवर्जितः। निरतेक्षो मुनिर्वीतरागः साधुरिहोच्यते॥-2 लोभमोहमदक्रोधकामादिरहितः सुखी। कृष्णाङ्घ्रिशरणः साधुः सहिष्णुः समदर्शनः॥-3 गरुडपुराण में साधु का दूसरा लक्षण मिलता है :

न प्रहृष्यति सम्माने नावमाने च कुप्यति। न क्रुद्धः परुषं ब्रूयादेतत् साधोस्तु लक्षणम्॥113.42

अग्निपुराण (दानावस्थानिर्णयाध्याय) में साधु के स्वभाव का वर्णन इस प्रकार है :

त्यक्तात्मखुभोगेच्छाः सर्वसत्त्वसुखैषिणः। भवन्ति परदुःखेन साधवो नित्यदुःखिता॥ परदुःखातुरा नित्यं स्वसुकानि महान्त्यपि। नापेक्षन्ते महात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥

इस प्रकार के सत्य-न्यायपरायण व्यवहारी वैश्य भी 'साधु' कहे जाते थे, जिनको विश्वासपात्र समझकर लोग धन-सम्पत्ति का लेन-देन करते थे।

साध्य : सामूहिक देवगण। भरत के अनुसार इनकी संख्या बारह है (साध्या द्वादश विख्याता रुद्राश्चैकादश स्मृताः)। अग्निपुराण के गणभेदनामाध्याय में इनके नाम इस प्रकार पाये जाते हैं :

मनो मन्ता तथा प्राणो नरोऽपानश्च वीर्यवान्। विनिर्भयो नयश्चैव दंसो नारायणों वृषः। प्रभुश्चेति समाख्याता साध्या द्वादश पौर्विकाः.।

सानन्दूर : एक श्रेष्ठ तीर्थ (कर्नाटक में)। वाराह पुराण के सानन्दूर माहात्म्य में इसका वर्णन पाया जाता है। एक बार पृथ्वी ने विष्णु से पूछा कि क्या द्वारका से भी कोई अन्य तीर्थ उत्तम है? इसके उत्तर में भगवान् विष्णु ने कहा :

सानन्दूरेति विख्यातं भूमे! गुह्यं परं मम। उत्तरे तु समुद्रस्य मलयस्य च दक्षिणे। तत्र तिष्ठामि वसुधे उदीचीदिर्शिमाश्रितः॥ प्रतिमा वै मदीयास्ति नात्युच्चा नातिनीचका। अत्यसी तां दन्त्येके अन्ये ताम्रमयी तथा॥ कांस्यीं रीतिमयीमन्ये केचित् सीसकनिर्मिताम्। शिलामयीमित्यपरे महदाश्चर्यरुपिणीम्॥ तत्र स्थानानि मे भूमे! कथ्यमानं मया श्रृणु। मनुजा यत्र मुच्यन्ते गताः संसारसागरम्॥

सान्दीपनि : कृष्ण और बलराम के शिक्षागुरु एक मुनि। सन्दीपन के वंश में ये उत्पन्न हुए थे, अतः इनका नाम सान्दीपनि पड़ा। ब्रह्मवैवर्तपुराण (श्री कृष्ण जन्म खण्ड, अध्याय 99.30) में इनका वर्णन मिलता है:

विदिताखिलविज्ञानौ तत्त्वज्ञानमथावपि। शिष्याचार्यक्रमं वीरौ ख्यातयन्तौ यदूत्तमौ॥ ततः सान्दीपनिं काश्यमवन्तिपुरवासनिम्।, अस्त्रार्थं जग्मतुवीरौ बलदेवजनार्दनौ॥

विष्णुपुराण (5,21.18-30) के अनुसार कृष्ण और और बलराम दोनों भाइयों ने सान्दीपनि से अस्त्र-विद्या पढ़ी और गुरु दक्षिणा में वे उनके मृतपुत्र को पञ्चजन नामक राक्षस को मार कर वापस लाये। भागवतपुराण के अनुसार कृष्ण-बलराम के साथ सुदामा भी सान्दीपनि के शिष्य थे और इन तीनों में बड़ा सौहार्द था। सुदामा की कथा प्रसिद्ध है।

साम : चार वेदों में से तृतीय। भरत के अनुसार इसको साम इसलिए कहते हैं कि यह पाप को छिन्न करता रहता है (स्यति पापं नाम)। जैमिनि ने इसका लक्षण बतलाया है : 'गीतिषु सामाख्या इति'। तिथ्यादितत्त्व में कहा गया है : "गीयमानेषु मन्त्रेषु सामसंज्ञेत्यर्थः"। दे० 'वेद' शब्द।

सामग : सामवेद का गानकर्ता ब्राह्मण। महाभारत (13.149.75) में विष्णु को भी सामग कहा गया है) भागवत (1.4.21) सामवेदज्ञ की ही संज्ञा सामग है :

तत्रर्ग्वेदधरः पैलः सामगो जैनिनिः कविः। वैशम्पायन एवैको निष्णातो यजुषामुत॥

सायुज्य : इसका शाब्दिक अर्थ है सहयोग, सहमिलन अथवा एकत्व (सयुजो सहयोगस्य भावः)। पाँच प्रकार की मुक्तियों के अन्तर्गत एक मुक्ति का नाम सायुज्य है :

सारदा : यह शारदा (सरस्वती) का ही एक पर्याय है। इसकी व्युत्पत्ति है : 'सारं ददातीति' अर्थात् जो 'सार' (ज्ञान, विद्यादि) देती है। 'तिथ्यादितत्त्व' के अनुसार यह व्युत्पत्ति काल्पनिक है।

सारनाथ : काशी के सात मील पूर्वोत्तर में स्थित बौद्धों का प्रधान तीर्थ। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं किया था और यही से उन्होंने 'धर्म चक्र प्रवर्तन' प्रारम्भ किया। यहाँ पर सारङ्गनाथ महादेव का मन्दिर भी है जहाँ श्रावण के महीने में हिन्दुओं का मेला लगता है। यह जैन तीर्थ भी है। जैन ग्रन्थों में इसे सिंहपुर कहा गया है। सारनाथ की दर्शनीय वस्तुएँ अशोक का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान् बुद्ध का मन्दिर, धामेख स्तूप, चौखण्डी स्तूप, राजकीय संग्रहालय, जैनमन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलगंधकुटी और नवीन विहार हैं। मुहम्मदगोरी ने इसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। सन् 1905 में पुरातत्व विभाग ने यहाँ खुदाई का काम प्रारम्भ किया। तब बौद्ध धर्म के अनुयायियों और इतिहास के विद्वानों का ध्यान इधर गया। अब सारनाथ बराबर वृद्धि को प्राप्त हो रहा है।

सारस्वत : सरस्वती (देवता या नदी) से सम्बन्ध रखनेवाला सारस्वत प्रदेश हस्तिनापुर के पश्चिमोत्तर में स्थित है। इस देश के निवासी ब्राह्मण भी सारस्वत कहे जाते हैं जो पञ्चगौड़ ब्राह्मणों की एक शाखा हैं-गौड़, सारस्वत, कान्यकुब्ज, मैथिल और उत्कल। एक कल्प विशेष का नाम भी सारस्वत है।

सारस्वतकल्प : सरस्वती-पूजा का एक विधान। विश्वास है कि इसके अनुष्ठान से अपूर्व विद्या और ज्ञान की उपलब्धि होती है। 'स्वायम्भुव-मातृका-तन्त्र' के सारस्वत पटल में इसका विस्तार से वर्णन पाया जाता है :

मन्त्रोद्धारं प्रवक्ष्यामि साङ्गावरणपूजनैः। अनन्तं बिन्दुना युक्तं वामगण्डान्तभूषितम्॥ जपेत् द्वादशलक्षंतु मूकोऽपि वाक्पतिर्भवेत्। नाभौ शुभारविन्दञ्च ध्यायेद्दशदलं सुधी॥ तन्मध्ये भावयेन्मन्त्रों मण्डलानां त्रयं चिरम्। रत्नसिंहासनं तत्र वर्णज्योत्स्नामयं पुनः॥ तस्योपरि पुनर्ध्यायेद्देवीं वागीश्वरीं ततः। मुक्तां कान्तिमिमां देवीं ज्योत्स्नाजालविकाशिनीम्॥ मुक्ताहारयुतां शुभ्रां शशिखण्डविमण्डिताम्। बिभ्रतीं दक्षहस्ताभ्यां व्याख्यां वर्णस्य मालिकाम्॥ अमृतेन तथा पूर्णं घटं दिव्यञ्च पुस्तकम्। दधतीं वामहस्ताभ्यां पीनस्तनभरान्विताम्॥ मध्ये क्षीणां तथा स्वच्छां नानारत्नविभूषिताम्। आत्माभेदेन ध्यात्वैयं ततः संपूजयेत् क्रमात्॥

मत्स्यपुराण (66.1-24) में भी विस्तार से सारस्वतकल्प का वर्णन मिलता है।

सारस्वतव्रत : यह संवत्सर व्रत है जिसका मत्स्यपुराण (66.3-18) में उल्लेख है। इस व्रत के अनुसार व्रती को अपने अभीष्ट देवता की तिथि के दिन अथवा पंचमी रविवार या सप्ताह के किसी भी पुनीत दिन दोनों सन्ध्या कालों के समय तथा भोजन के अवसर पर मौन धारण करना चाहिए। भगवती सरस्वती देवी का पूजन करके सधवा नारियों को सम्मानित करना चाहिए। लगभग ऐसे ही श्लोक पद्म-पुराण (5.22.178-194) तथा भविष्योत्तर-पुराण (35.3--19) में उपलब्ध हैं।

सावर्ण : चौदह मनुओं मे से द्वितीय। सावर्ण की व्युत्पत्ति है : सवर्णायाः छायायाः अपत्यं पुमान्। देवीभागवत में कथन है :

छायासंज्ञासुतो योऽसौ द्वितीयः कथितो मनुः। पूर्वजस्य सवर्णोऽसौ सावर्णस्तेन कथ्यते॥ हरिवंश (9.19) के अनुसार, पूर्वजस्य मनोस्तात सदृशोऽयमिति प्रभुः। मनुरेवाभवन्नाम्ना सावर्ण इति चोच्यते॥

सावर्णि : भागवत पुराण (8.13.8--17) के अनुसार सावर्णि अष्टम मनु तथा सूर्य के पुत्र थे :

विवस्वतश्च द्वै जाये विश्वकर्मसुते उभे। संज्ञा छाया च राजेन्द्र ये प्रागभिहिते तथा॥ तृतीयां वडवामेके तासां संज्ञा सुतास्त्रयः। यमो यमी श्राद्धदेवश्छायायाश्च सुतान् श्रृणु॥ सावर्णिस्तपती कन्या भार्या संवरणस्य या। शनैश्चरस्तृतीयोऽभूदश्विनौ वडवात्मजौ॥ अष्टमेऽन्तरे आयाते सावर्णिर्भविता मनुः। निर्मोकविरजस्काद्या सावर्णितनया नृप॥

सावित्री : (1) सविता (सूर्य) की उपासना जिस वैदिक मन्त्र 'गायत्री' से की जाती है उसका नाम सावित्री है। प्रतीक और रहस्य के विकास से सावित्री की कल्पना का बहुत विस्तार हुआ है।

(2) मेदिनी के अनुसार यह उमा का एक पर्याय है। देवीपुराण (अध्याय 44) के अनुसार इसके नामकरण का कारण इस प्रकार है :

त्रिदशैरर्च्चिता देवी वेदयागेषु पूजिता। भावशुद्धस्वरूपा तु सावित्री तेन सा स्मृता॥

अग्नि पुराण (ब्राह्मण प्रशंसानामाध्याय) में उनके नामकरण का कारण निम्नांकित है :

सर्वलोकप्रसवनात् सविता स तु कीर्त्यते। यतस्तद्देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः। वेदप्रसवनाच्चापि सावित्री प्रोच्यते बुधैः॥

मत्स्यपुराण (3.30-32) के अनुसार सावित्री ब्रह्मा की पत्नी कही गयी हैं :

ततः संजपतस्तस्य भित्त्वा देहमकल्मषम्। स्त्रीरूपमर्द्धमकरोदर्द्ध पुरुषरूपवत्॥ शतरूपा च सा ख्याता सावित्री च निगद्यते। सरस्वत्यथ गायत्री ब्रह्माणी च परन्तप॥

(3) सावित्री का एक ऐतिहासिक चरित्र भी है। महाभारत (वनपर्व, अध्याय 292) के अनुसार वह केकय के राजा अश्वपति की कन्या और साल्वदेश के राजा सत्यवान की पत्नी थी। अपने अल्पायु पति का जब एक बार वरण कर लिया तो आग्रहपूर्वक उसी से विवाह किया। किस प्रकार अपने मृत पति को वह यमराज के पाशों से वापस लाने तथा अपने पिता को सौ पुत्र दिलाने में सफल हुई, यह कथा भारतीय साहित्य में अत्यधिक प्रचलित है।सावित्री पातिव्रत का उच्चतम प्रतीक है।

सावित्रीव्रत : ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी अमावस्या को स्त्रियों द्वारा यह व्रत किया जाता है। पराशर के अनुसार---

मेषे वा वृषभे वाऽपि सावित्रीं तां विनिर्द्दिशेत्। जेष्ठकृष्णचतुर्दश्यां सावित्रीमर्चयन्ति याः। जेष्ठकृष्णचतुर्दश्यां सावित्रीमर्चयन्ति याः। वटमूले सोपवासा न ता वैधव्यमाप्नुयुः॥

सावित्रीसूत्र : उपनयन संस्‍कार के अवसर पर जो सूत्र धारण किया जाता है उसका नाम सावित्रीसूत्र है। कारण यह है कि वटु सावित्री दीक्षा के समय इसको ग्रहण करता है। दे० 'यज्ञोपवीत'।

सिंहवाहिनी : दुर्गा देवी। देवीपुराण (अध्याय 45) के अनुसार--

सिंहमारुह्य कल्पान्ते निहतो महिषो यतः। महिषघ्नी ततो देवी कथ्यते सिंहवाहिनी॥

सिंहस्थ गुरु : जिस समय बृहस्पति ग्रह सिंह राशि पर आता है उस समय विवाह, यज्ञोपवीत, गृह-प्रवेश (प्रथमबार), देव प्रतिष्ठा तथा स्थापना तथा इसी प्रकार के अन्य मांगलिक कार्य निषिद्ध रहते हैं। दे० 'मलमास तत्त्व' पृ० 82....। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि जब बृहस्पति सिंह राशि पर आ जाता है उस समय समस्त तीर्थ गोदावरी नदी में जाकर मिल जाते हैं। इसलिए श्रद्धालु व्यक्ति को उस समय गोदावरी में स्नान करना चाहिए। इस विषय में शास्त्रकारों के भिन्न-भिन्न मत हैं कि सिंहस्थ गुरु के समय विवाह-उपनयनादि का आयोजन हो या ना हो। कुछ का मत है कि विवाहादि माङ्गलिक कार्य तभी वर्जित हैं जब बृहस्पति मघा नक्षत्र पर अवस्थित हो (यथा सिंह के प्रथम 13॥ अंश)। अन्य शास्त्रकारों का कथन है कि गंगा तथा गोदावरी के मध्यवर्ती प्रदेशों में उस काल तक विवाह तथा उपनयनादि निषिद्ध हैं जब तक बृहस्पति सिंह राशि पर विद्यमान हो, किन्तु अन्य धार्मिक कार्यों का आयोजन हो सकता है। केवल वह उस समय नहीं हो सकता जब बृहस्पति मघा नक्षत्र पर अवस्थित हों। अन्य शास्त्रकारों का कथन है कि यदि सूर्य उस समय मेष राशि पर विद्यमान हो तो सिंहस्थ गुरु होने पर भी धार्मिक कार्यों के लिए कोई निषेध नहीं है। इन सब विवादों के समाधानार्थ दे० स्मृतिकौ०, पृ० 557-559। यह तो लोक-प्रसिद्ध विश्वास है ही कि समुद्र मंथन के पश्चात् निकला हुआ अमृतकलश सर्वप्रथम हरिद्वार, तदनन्तर प्रयाग, ततः उज्जैन और सबके बाद नासिक (त्र्यम्बकेश्वर) में गोदावरीतट पर रखा गया था। इसके अनुसार नासिकपञ्चवटी में गोदावरीतट पर सिंहस्थस्नान या कुम्भ का पर्व पूरे श्रावण मास तक मनाया जाता है।

सिता सप्तमी : भुवनेश्वर (उड़ीसा) की चौदह यात्राओं में से एक यात्रा की तिथि। माघ शुक्ल सप्तमी को इस यात्रा के अनुष्ठान का नियम है।

सिद्ध : देवताओं का एक विशेष वर्ग, उपदेव। अणिमा महिमादि गुणों से संयुक्त विश्वावसु (गन्धर्व) आदि इसमें सम्मिलित हैं।

सिद्धनक्षत्र : शुक्रवार, प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी तथा त्रयोदशी एवं पूर्वा-फाल्गुनी, उत्तराषाढ़, हस्त, श्रवण तथा रेवती की गणना सिद्ध नक्षत्रों में है। समस्त पुनीत कृत्य इन्हीं उपर्युक्त नक्षत्रादिकों के अवसर पर किये जाने चाहिए।

सिद्धान्त : पूर्वपक्ष का निरास (खण्डन) करके उत्तर पक्ष की स्थापना। सिद्ध= वादि-प्रतिवादिनिर्णीत, अन्त=अर्थ जिसमें हो। ग्रहगीत के निर्णायक नवविध ज्योतिष ग्रन्थों को भी सिद्धान्त कहा जाता है--1. ब्रह्म सिद्धान्त 2. सूर्य सिद्धान्त 3. सोम सिद्धान्त 4. बृहस्पति सिद्धान्त 5. गर्ग सिद्धान्त 6. नारद सिद्धान्त 7. पराशर सिद्धान्त 8. पुलस्त्‍य सिद्धान्त और 9. वसिष्ठ सिद्धान्त।

सिद्धार्थ : शाक्य सिंह (गौतम बुद्ध)। जैन तीर्थङ्कर महावीर के पिता का नाम भी सिद्धार्थ था। श्वेत सरसों का भी नाम सिद्धार्थ है, क्योंकि वह मांगलिक तथा सिद्धिदाता मानी जाती है।

सिद्धार्थकादिसप्तमी : माघ अथवा मार्गशीर्ष मास की सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। यदि व्रती रुग्ण हो तो किसी मास की किसी भी सप्तमी को व्रत का आयोजन किया जा सकता है। इसमें सूर्योंदय से अर्द्ध प्रहर पूर्व (लगभग चार घड़ी पूर्व तक) निश्चित वृक्षों की दातुन से दन्तशुद्धि करनी चाहिए। जैसे मधूक, अर्जुन, नीम, अश्वत्थ। दाँत साफ करने के बाद दातुन फेंकने के स्थानों से शकुन विचार सम्भव है। सात सप्तमियों को इस व्रत का आयोजन किया जाय। प्रथम सप्तमी को सरसों से, द्वितीय सप्तमी को आक की कलियों से, तृतीय सप्तमी से आगे तक क्रमशः मरिच, नीम, उबले हुए चावलों को छोड़कर अन्य खाद्यान्नों के साथ छः फलों से पूजन तथा अन्य कृत्य किये जायें। इसके अतिरिक्त जप, होम तथा सूर्य के सम्मुख लेटकर गायत्रीमंत्र का जप करना चाहिए। सूर्य प्रतिमा के सम्मुख लेटने के समय कुछ स्वप्नों से पार्थक्य, विभिन्न प्रकार के पुष्पों के समर्पण से उनके फल तथा पुण्य भी विभिन्न मिलते हैं, यथा ---कमल पुष्पों से यश, मन्दार पुष्पों से कुष्ठ तथा अगस्त्य के पुष्पों से सफलता। ब्राह्मणों को रंग विरंगे वस्त्र, इत्र, पुष्प, हविष्यान्न तथा गौ के दान का विधान है।

सिद्धि : अहेतुक अद्भुत सफलता या चमत्कार। मार्कण्डेय पुराण (दत्तात्रेयालर्क संवाद, योगवल्लभ नामक अध्याय) में अष्ट सिद्धियों के नाम और लक्षण बतलाये गये हैं :

अणिमा महिमा चैव लघिमा प्राप्तिरेवच। प्राकाम्यञ्च तथेशित्वं वशित्वञ्च तथापरम्॥ यत्र कामावसायित्वं गुणानेतानथैश्वरान्। प्राप्नोत्यष्टौ नरव्याघ्र परनिर्वाणसूचकान्॥ सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरोऽणीयान् शीघ्रत्वाल्लघिमा गुणः। महिमाशेषपूज्यत्वात् प्राप्तिर्नाप्राप्यमस्य यत्॥ प्राकाम्यमस्य व्यापित्वात् ईशित्वो चेश्वरो यतः। वशित्वात् वशिता नाम योगिनः सप्तमों गुणः॥ यथेच्छास्थानमप्युक्तं यत्र कामावसायिता। ऐश्वर्य कारणैरेभिर्योगिनः प्रोक्तमष्टधा॥ ब्रह्मवैवर्तपुराण (1.6.18-19) में अठारह सिद्धियों की गणना की गयी है :

अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा। ईशित्ञ्च वशित्वञ्च सर्वाकामावसायिता॥ सर्वज्ञ दूरश्रवणं परकायप्रवेशनम्। वाक्सिद्धिः कल्पवृक्षत्वं स्रष्टुं संहर्तुमीशता॥ अमरत्वञ्च सर्वाङ्गं सिद्धयोऽष्टादश स्मृताः॥

सिद्धियोगिनी : अग्निपुराण के गणभेद नामक अध्याय में बतलाया गया है कि दक्ष कि पचास कन्यायें थी। वे ही सिद्धियोगिनियों के रूप में विख्यात हुईं।

सिद्धिविनायकव्रत : शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन अथवा जिस दिन व्रती के हृदय में धार्मिक प्रवृत्ति का स्फुरण हो उसी दिन इस का अनुष्ठान निहित है। इस दिन तिलमिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। इस समय गणेश जी की सुवर्ण अथवा रजत प्रतिमा को पञ्चामृत से स्नान कराकर गन्धाक्षत-पुष्प, धूप, दीप-नैवेद्यादि से 'गणाध्यक्ष, विनायक, उमासुत, रुद्रप्रिय, विघ्ननाशन' आदि नामोच्चारणपूर्वक पूजन करना चाहिए। पूजन में 21 दूर्वादल तथा 21 लड्डू गणेशप्रतिमा के सम्मुख रखे जाँय जिनमें एक लड्डू गणेश जी के लिए, 10 पुरोहित तथा 10 व्रती के स्वयं के लिए होंगे। इस आचरण से विद्या प्राप्ति, धनार्जन तथा युद्ध में सफलता (सिद्धि) की उपलब्धि होती है।

सिप्रा (शिप्रा क्षिप्रा) : भारत की एक प्रसिद्ध नदी। यह मालवा में बहती है। इसके तट पर अवन्तिका (महाकाल की मोक्षदायिनी नगरी उज्जैन) स्थित है। कालिका पुराण (अध्याय 23) में इसकी उत्पत्ति का वर्णन पाया जाता है।

सीता : लाङ्गल पद्धति (हल के फल से खेत में बनी हुई रेखा)। राजा जनक की पुत्री का नाम सीता इसलिए था कि वे जनक को हल कर्षित रेखाभूमि से प्राप्त हुई थीं। बाद में उनका विवाह भगवान् राम से हुआ। वाल्मीकिरामायण (1.66.13--14) में जनक जी सीता की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार कहते हैं :

अथ में कृषतः क्षेत्रं लाङ्गलादुत्थिता ततः। क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता॥ भूतलादुत्तिथता सा तु व्यवर्द्धता ममात्मजा। वीर्यशुक्लेति में कन्या स्थापितेयमयोनिजा॥ यही कथा पद्मपुराण तथा भविष्यपुराण (सीतानवमी व्रत माहात्म्य) में विस्तार के साथ कही गयी है।

(2) सीता एक नदी का नाम है। भागवत (पञ्चमस्कन्ध) के अनुसार वह भद्राश्व वर्ष (चीन) की गंगा है :

सीता तु ब्रह्मसदनात् केशवाचलादि गिरशिखरेभ्योऽधोऽधः प्रस्रवन्ती गन्धमादनमूर्द्धसु पतित्वाऽन्तरेण भद्राश्वं वर्ष प्राच्यां दिशि क्षारसमुद्रं अभिप्रविशति।

शब्दमाला' में सीता के सम्बन्ध में निम्नांकित कथन है :

गङ्गायान्तु भद्रसोमा महाभद्राथ पाटला। तस्याः स्रोतसि सीता च वङ्क्षुर्भद्रा च कीर्तिता॥ तद्भेदेऽलकनन्दापि शारिणी त्वल्पनिम्नगा॥

सीतापूजा : (1) सीता शब्द का अर्थ है कृषि कार्य में जोती हुई भूमि। ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि नारद के द्वारा आग्रह करने पर दक्ष के पुत्रों ने फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को पृथ्वी की नाप-जोख की थी। अतएव देवगण तथा पितृगण इसी दिन अपूपों का श्राद्ध पसन्द करते हैं।

(2) भगवान् राम की धर्मपत्नी सीता का पूजन इस व्रत के दिन होता है, जो फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को उत्पन्न हुई थीं।

सीतामढ़ी : सीताजी के प्रकट होने का स्थल। यह प्राचीन मिथिला में (नेपाल राज्य) के अन्तर्गत है। लखनदेई नदी के पश्चिम तट पर सीतामढ़ी बस्ती है। घेरे के भीतर सीता जी का मन्दिर है। पास में ही राम, लक्ष्मण, शिव, हनुमान्, तथा गणेश के मन्दिर हैं। यहाँ से एक मील पर पुनउड़ा गाँव के पास पक्का सरोवर है। यहीं जानकी जी पृथ्वी से उत्पन्न हुई थीं। पास में ठाकुरबाड़ी है। निमिवंशज राजा सीरध्वज अकाल पड़ने पर सोने के हल से यज्ञ भूमि जोत रहे थे। तभी हलाग्र के लगने से दिव्य कन्या उत्पन्न हुई। यहाँ उर्विजा नामक प्राचीन कुण्ड है। स्त्रियों में यह तीर्थ बहुत लोकप्रिय है।

सीमन्तोन्नयन : सोलह शरीर-संस्कारों में से एक संस्कार। गर्भाधान के छठे अथवा आठवें महीने में इसका अनुष्ठान किया जाता है। इसमें पति पत्नी के सीमन्त (शिर के ऊपरी भागों के बालों) को सँभाल कर उठाते हुए उसके तथा गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य की कामना करता है। इस संस्कार के साथ गर्भिणी स्त्री और उसके पति के कर्तव्यों का विस्तृत वर्णंन पाया जाता है।

सुकलत्रप्राप्तिव्रत : कन्याओं, सधवाओं तथा विधवाओं के लिए भी इस व्रत का आचरण विहित है। यह नक्षत्र व्रत है। इसके नारायण देवता हैं। कोई कन्या तीन नक्षत्रों, यथा उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तराभाद्रपद को जगन्नाथ का पूजन कर माधव के नाम का कीर्तन करे तथा प्रियङ्ग फल (लाल फूल) अर्पित करे, मधु तथा शोधित नवनीत से हवन तथा 'माधवाय नमः' कहते हुए प्रणामाञ्जलि अर्पित करे तो इससे उसे अच्छा पति प्राप्त होता है। भगवान् शिव ने भी पार्वती को उस व्रत का महत्त्व बताया था।

सुकुलत्रिरात्रव्रत : मार्गशीर्ष मास में उस दिन इस व्रत का प्रारम्भ होना चाहिए जिस दिन 'त्र्यहः स्पृक् (तीन दिन वाली तिथि) हो, इस व्रत में तीन दिन उपवास का विधान है। इस व्रत में त्रिविक्रम (विष्णु) का श्वेत, पीत, रक्त पुष्पों से, तीन अङ्गरागों से, गुग्गुल, कुटुक (कुटकी) तथा राल की धूप से पूजन करना चाहिए। इस अवसर पर उन्हें त्रिमधुर (मिसरी, मधु, मक्खन) अर्पित किए जाँय। तीन ही दीपक प्रज्ज्वलित किए जाँय। यव, तिल तथा सरसों से हवन करना चाहिए। इस व्रत में त्रिलोह (सुवर्ण, रजत तथा ताँबे) का दान करना चाहिए।

सुकृततृतीयाव्रत : हस्त नक्षत्र युक्त श्रावण शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। इसमें नारायण तथा लक्ष्मी का पूजन विहित है। तीन वर्षपर्यन्त इसका आचरण होना चाहिए। उस समय 'विष्णोर्नु कम्०' तथा 'सक्तुमिव' आदि ऋग्वेद के मन्त्रों का पाठ होना चाहिए।

सुख : नैयायिकों के अनुसार आत्मवृत्ति विशेष गुण है। वेदान्तियों के अनुसार यह मन का धर्म है। गीता (अ० 18) में सुख के सात्त्विक, राजस, तामस तीन प्रकार कहे गये हैं। सुख जगत् के लिए काम्य है और धर्म से उत्पन्न होता है। गरुडपुराण (अध्याय 113) में सुख के कारण और लक्षण बतलाये गए हैं।

रागद्वेषादियुक्तानां न सुखं कुत्रचित् द्विज। विचार्य खलु पश्यामि तत्सुखं यत्र निर्वृतिः॥ यत्र स्नेहों भयं तत्र स्नेहो दुःखस्य भाजनम्। स्नेहमूलानि दुःखानि तस्मिंस्त्यक्ते महत्सुखम्॥ सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवश सुखम्। एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःकायोः॥ सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम्। सुखं दुःखं मनुष्याणां चक्रवत्परिवर्तते॥

सुखरात्रि अथवा सुखरात्रिका : यह लक्ष्मीपूजन दिवस है (कार्तिक की अमावस्या)। दीवाली के अवसर पर इसे सुखरात्रिका के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

सुखव्रत : शुक्लपक्ष की चतुर्थी को भौमवार पड़े तब यह सुखदा कही जाती है। इस दिन नक्त विधि से आहारादि करना चाहिए। इस प्रकार से चार चतुर्थियों तक इस व्रत की आवृत्ति की जाय। इस अवसर पर मंगल का पूजन होना चाहिए, जिसे उमा का पुत्र समझा जाता है। सिर पर मृत्तिका रखकर फिर उसे सारे शरीर में लगाया जाय, तदनन्तर शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए। स्नानोपरान्त दूर्वा, पीपल, शमी तथा गौ स्पर्श किया जाय। 108 आहुतियों से मंगल ग्रह को निमित्‍त मानकर हवन करना चाहिए। सुवर्ण अथवा रजत अथवा ताम्र अथवा सरल नामक काष्ठ या चीड़ या चन्दन के बने हुए पात्र में मंगल ग्रह की प्रतिमा स्थापित कर उसका पूजन करना चाहिए।

सुगतिपौषमासीकल्प (पौर्णमासी) : फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। विष्णु इसके देवता हैं। व्रती को नक्त विधि से लवण तथा तैलरहित आहार करना चाहिए। एक वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए। वर्ष को चार-चार मासों के तीन भागों में बाँटकर लक्ष्मी सहित केशव का पूजन करना चाहिए। व्रत के दिन अधार्मिकों, नास्तिकों, जघन्य अपराधियों तथा पापात्माओं एवं चाण्डालों से वार्तालाप भी नहीं करना चाहिए। रात्रि के समय भगवान् हरि तथा लक्ष्मी को चन्द्रमा के प्रतिभासित होते हुए देखना चाहिए।

सुतीक्ष्ण आश्रम : यह स्थान मध्य प्रदेश में वीरसिंहपुर से लगभग चौदह मील है। शरभङ्ग आश्रम से सीधे जाने में दस मील पड़ता है। यहाँ भी श्रीराम मन्दिर है। महर्षि अगस्त्य के शिष्य सुतीक्षण मुनि यहाँ रहते थे। भगवान् राम अपने वनवास में यहाँ पर्याप्त समय तक रहे थे।

कुछ विद्वान् वर्तमान सतना (म० प्र०) को ही सुतीक्ष्णआश्रम का प्रतिनिधि मानते हैं। चित्रकूट से सतना का सामीप्य इस मत को पुष्ट करता है।

सुदर्शन : विष्णु का चक्र (आयुध)। मत्स्यपुराण (11.27-30) में इसकी उत्पत्ति का वर्णन है।

सुदर्शनषष्ठी : राजा या क्षत्रिय इस व्रत का आचरण करते हैं। कमलपुष्पों से एक मण्डल बनाकर चक्र की नाभि पर सुदर्शन चक्र की तथा कमल की पंखुडियों पर लोकपालों की स्थापना की जाय। चक्र के सम्मुख अपने स्वयं के अस्त्र-शस्त्र स्थापित किये जायँ। तदनन्तर लाल चन्दन के प्रलेप, सरसों, रक्त कमल तथा रक्तिम वस्त्रों से सबकी पूजा की जाय। पूजन के उपरान्त गुड़मिश्रित नैवेद्य समर्पण करना चाहिए। इसके पश्चात् शत्रुओं के विनाश के लिए, युद्ध में विजय के लिए तथा अपनी सेना की सुरक्षा के लिए मंत्रों के साथ सुदर्शन चक्र की प्रार्थना की जाय। विष्णु के धनुष (शार्ङ्ग), गदा इत्यादि का तथा उनके वाहन गरुड का भी पूजन किया जाय। राजा को सिंहासन पर बैठाकर उसके सम्‍मुख एक सुसज्जित नारी दीपों से आरती उतारे। किसी पापग्रह अथवा जन्मकालिक क्रूर नक्षत्र का उदय होने पर भी इसी विधि से पूजन करना चाहिए।

सुधर्मा : इन्द्रदेवकी सभा। द्वारकापुरी में यादवों की राज सभा सुधर्मा कहलाती थी।

सुपात्र : किसी कार्य के समुपयुक्त अथवा योग्य व्यक्ति। भागवतपुराण के अनुसार ब्राह्मण को विशेष करके सुपात्र माना गया है :

पुरुषेस्वपि राजेन्द्र सुपात्रं ब्राह्मणं विदुः। तपसा विद्यया तुष्ट्या धत्ते वेदं हरेस्तनुम्॥

दानविधि में सुपात्र का विशेष ध्यान रखा जाता है:

तस्मात् सर्वात्मना पात्रे दद्यात् कनकदक्षिणाम्। अपात्रे पातयेद्दतं सुवर्णं नरकार्णवे॥ (शुद्धितत्त्व)

सुप्रभातम् : प्रातः कालीन मङ्गलपाठ, जिसमें कुछ पुण्यश्लोंकों का उच्चारण होता है। वामनपुरा (अध्याय 14) में यह निम्नप्रकार से मिलता है :

ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च। गुरुः सशुक्रः सह भानुजेन कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥ भृगुर्वशिष्ठः क्रतुरङ्गिरास्च मनुः पुलस्त्यः पुलहः सगोतमः। रैम्यो मरीचिश्चवनोऽमलोरुः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥ सनत्कुमारः सनकः सनन्दनः सनातनोऽप्यासुरिपिङ्गलौच। सप्तस्वरः सप्तरसातलाश्च कुर्वंतु सर्वे मम सुप्रभातम्॥ पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथापः सस्पर्शवायुर्ज्वलितञ्च तेजः। नभः सशब्दं महतः सहैव कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥ सप्तार्णवाः सप्तकुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीपवराश्च सप्त। भूरादि कृत्सनं भुवनानि सप्त कुर्वन्ति सर्वे मम सुप्रभातम्॥ इत्थं प्रभाते परमं पवित्रं यं संस्मरेद्वा श्रृणुयाच्च भक्त्या। दुःस्वप्ननाशो ननु सुप्रभाते भवेच्च सत्यं भगवत्प्रसादात्॥

सुमेरु : उत्तर दिशा का केन्द्र, भूगोल का सर्वोच्च प्रभाग, जो पर्वत माना गया है। हिन्दुओं के भूगोल और पुरा कथा में इसके महत्त्वपूर्ण उल्लेख पाये जाते हैं। भागवत पुराण (पञ्चम स्कन्ध) में इसका निम्नांकित विवरण पाया जाता है।

एषां मध्ये इलावृत्तं नामाभ्यन्तरवर्षं यस्य नाभ्यामवस्थितः सर्वतः सौवर्णः कुलगिरिराजो मेरुर्द्वीपायामसमुन्नाहः कर्णिकाभूतः कुवलयकमलस्य मूर्द्धनि द्वात्रिशंत्सहस्रयोजनविततो मूले षोडशहस्रं तावतान्तर्भूम्यां प्रविष्ठः॥7॥

आजकल इसकी स्थिति तिब्बत और पामीर के पठार के मध्य कही जाती है।

सुरभि : देवताओं की गौ कामधेनु, जो समुद्र मन्थनोत्पन्न चौदह रत्नों में है। गौ माता के लिए भी इसका सामान्य प्रयोग होता है। ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड, 47 अध्याय) में सुरभि की उत्पत्ति, पूजन आदि का वर्णन पाया जाता है।

सुरसा : (1) तुलसी। किसी-किसी के मत में यह दुर्गा का भी नाम है।

(2) नागमाता का नाम सुरसा है। वाल्मीकीरामायण (सुन्दरकाण्ड, सर्ग 1) में सुरसा का उल्लेख हनुमानजी के सागरोल्लघन के सन्दर्भ में हुआ है।

सुरेन्द्र : देवताओं के राजा इन्द्र। एक लोकपात्र का नाम भी सुरेन्द्र है।

सुव्रत : चैत्र शुक्ल अष्टमी से अष्ट वसुओं की जो भगवान् वासुदेव के ही रूप हैं, गन्धाक्षत-पुष्पादि से पूजा की जानी चाहिए। एक वर्षपर्यन्त यह व्रत चलना चाहिए। व्रत के अन्त में गौ का दान करना चाहिए। इससे समस्त संकल्पों की सिद्धि होती है तथा व्रती वसुलोक प्राप्त करता है।

सूक्त : वेदोक्त देवस्तुतियों का निश्चित मन्त्र समूह। इसका अर्थ हैं 'शोभन उक्ति विशेष। उदाहरणार्थ, ऋग्वेद में

अग्निमीले इत्यादि अग्नि सूक्त है।, 'सहस्रशीर्षे' इत्यादि पुरुष सूक्त है। 'अहं रुद्रेभिरि' इत्यादि देवी सूक्त है। 'हिरण्यवर्णामि' इत्यादि श्रीसूक्त है।

सूत : मनुस्मृति (10.11) के अनुसार क्षत्रिय पिता और ब्राह्मण कन्या से उत्पन्न सन्तान (वर्णसंकर): "क्षत्रियात् ब्रह्मकन्यायां सूतों भवति जातितः।" इसका व्यवसाय रथ संचालन बतलाया गया है (वही, 10.47)। वेदव्यास ऋषि ने रोमहर्षण नामक अपने सूत शिष्य को समस्त पुराण और महाभारत आदि पढ़ाये थे। सूतजी नैमिषारण्य में ऋषियों को ये पुराण कथाएँ सुनाया करते थे।

सूतक : परिवार में किसी शिशु के जन्म से उत्पन्न अशौच। वृद्धमनु के अनुसार यह अशौच दस दिनों तक रहता है।

सूतिका : नव प्रसूता स्त्री। इसका संस्पर्श दूषित बतलाया गया है। संस्पर्श होने पर प्रायश्चित से शुद्धि होती है। 'प्रायश्चित्ततत्त्व' में कथन है :

चाण्डालान्नं भूमिपान्नमजजीविश्वजीविनाम्। शौण्डिकान्नं सूतिकान्नं भुक्त्वा मासं व्रती भवेत्॥

सूत्र : (1) अत्यन्त सूक्ष्म शैली में लिखे हुए शास्त्रादिसूचना ग्रन्थ। सूत्र का लक्षण इस प्रकार है :

स्वल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् विश्‍वतो मुखम्। अस्तोभनवद्यञ्च सूत्रं सूत्रविदो विदुः॥

[अत्यन्त थोड़े अक्षर वाले, सारगर्भित, व्यापक, अस्तोभ (स्तोभ--सामगान के तालस्वर) तथा अनवद्य (वाक्य अथवा वाक्यांश सूत्र) कहा जाता है।]

वेदाङ्ग--- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष सूत्रशैली में ही लिखे गये हैं। षड्दर्शन भी सूत्र शैली में प्रणीत हैं।

(2) ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) को भी सूत्र कहते हैं।

सूना : प्राणियों का वधस्थान। गृहस्थ के घर में पाँच सूना होती हैं :

पञ्चसूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः। कण्डनी चोदकुम्भश्च वध्यते याश्च वाहयन्॥

[चूल्हा, चक्की, सामग्री, ओखली और जलाधार ये पाँच सूना के स्थान हैं जहाँ गृहस्थ के द्वारा हिंसा होती रहती है'।] इसके पापनाशन का उपाय मनु ने इस प्रकार बतलाया है :

पञ्चैतान् यो महायज्ञान् न हापयति शक्तितः। स गृहेऽपि वसन्नियं सूनादोषैर्न लिप्यते॥

[पंच महायज्ञ ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ और मनुष्ययज्ञ) नित्य करने वाला गृहस्थ पाँच सूना (हिंसा) दोषों से मुक्त रहता है।]

सूर्य : देवमण्डल का एक प्रधान देवता। यह बारह आदित्यों (अदिति के पुत्रों) में से एक है। ऋग्वेद के बारह सूक्तों में सूर्य की स्तुति की गयी है। यह आदित्य वर्ग के देवताओं में सबसे अधिक महत्त्वशाली और दृश्य है। इसका देवत्व सबसे अधिक उस समय विकसित होता है जब यह आकाश के मध्य में चढ़ जाता है। यह देवताओं का मुख कहा गया है। (ऋ० 1.115.1)। इसको देवताओं का विशेषकर मित्र और वरुण का चक्षु भी कहा है (ऋ० 6.51.1)। चक्षु और सूर्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है। वह विराट् पुरुष का चक्षु स्थानीय है। कई संस्कारों में सूर्य के दर्शन करने की व्यवस्था है। वह मनुष्यों के शुभ और अशुभ कर्मों को देखता, मनुष्यों को निर्दोषित घोषित करता और उन्हें निष्पाप भी बनाता है। स्वास्थ्य से सूर्य का स्वाभाविक सम्बन्ध है। वह रोगों को दूर भगाता है (ऋ० 1.59.11.12)

वेदों में सूर्य का सजीव चित्रण पाया जाता है जो उसके परवर्ती मूर्ति विज्ञान का आधार है। वह एक घोड़े अथवा बहुसंख्यक घोड़ों (हरितः) से खींचा जाता है। ये घोड़े स्पष्टतः उसकी प्रकाश किरणों के प्रतीक हैं। कहीं कहीं हंस, गरुड, वृषभ, अश्व, आकाशरत्न आदि के रूप में भी उसकी कल्पना की गयी है। वह कहीं उषा का पुत्र (परवर्ती होने के कारण और कहीं उसके पीछे-पीछे चलने वाला उसका प्रणयी कहा गया है। (ऋ० 1.115.2)। वह द्यौ का पुत्र भी कहा गया है (वास्तव में सम्पूर्ण देवमण्डल द्यावापृथ्वी का पुत्र है)।

सूर्य वास्तव में अग्नि तत्त्व का ही आकाशीय रूप है। वह अन्धकार और उसमें रहने वाले राक्षसों का विनाश करता है। वह दिनों की गणना और उनका संवर्द्धन भी करता (ऋ० 8.48.7) है। इसको एक स्थान पर विश्वकर्मा भी कहा गया है। उसके मार्ग का निर्माण देवता, विशेष कर वरुण और आदित्य, करते हैं। यह प्रश्न पूछा गया है कि आकाश से सूर्य का बिम्ब क्यों नहीं गिरता (वहीं 4.13.5)। उत्तर है कि सूर्य स्वयं विश्व के विधान का संरक्षक है; उसका चक्र नियमित, अपरिवर्तनीय, सार्वभौम नियम का अनुसारण करता है। विश्व का केन्द्र स्थानीय है। वह जंगम और स्थावर सभी का आत्मा है (ऋग्वेद 1.115.1)।

सूर्य की वैदिक कल्पना का पुराणों और महाभारत आदि में बड़े विस्तार से वर्णन है, जहाँ सूर्य सम्बन्धी पुरा कथाओं औऱ पूजा विधियों के रूप में विवरण पाया जाता है।

सूर्य के विवाह आदि इतिवृत का मनोरंजक वर्णन मार्कण्डेय पुराण में पाया जाता है। इसके अनुसार विश्वकर्मा ने अपनी पुत्री संज्ञा का विवाह विवस्वान् के साथ किया। परन्तु संज्ञा सूर्य का तेज सहन न कर सकी, अतः उनके पास अपनी छाया को छोड़कर पितृगृह लौट गयी। विश्वकर्मा ने खराद पर चढ़ाकर सूर्य के तेज को थोड़ा कम किया जिससे संज्ञा उसको सहन कर सके। सूर्य की चार पत्नियाँ हैं--संज्ञा, राज्ञी, प्रभा और छाया। संज्ञा से मुनि की उत्पत्ति हुई। राज्ञी से यम, यमुना और रेवन्त उत्पन्न हुए। प्रभा से प्रभात, छाया से सावर्णि, शनि औऱ तपती का जन्म हुआ। सूर्य परिवार के अन्य देवताओं औऱ नवग्रहों की उत्पत्ति सूर्य से कैसे हुई, इसका विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है।

उपर्युक्त भावनाओं तथा विश्वासों के कारण धीरे-धीरे सूर्य सम्प्रदाय का उदय हुआ। ईसापूर्व तथा ईसा पश्चात् की शताब्दियों में ईरान के साथ भारत का घनिष्ठ सम्बन्ध होने से ईरानी मित्र-पूजा (मिथ्र-पूजा) का सूर्य पूजा (मंदिर की मूर्ति पूजा) से समन्वय हो गया। भविष्य पुराण तथा वाराह पुराण में कथा है कि कृष्ण के पुत्र शाम्ब को कुष्ठ रोग हो गया। सूर्य पूजा से ही इस रोग की मुक्त हो सकती थी। इसलिए सूर्य मन्दिर की स्थापना और मूर्तिपूजा के लिए शकद्वीप (पूर्वी ईरान, सीस्तान) से मग ब्राह्मणों को निमंत्रित किया गया। चन्द्रभागा (चिनाव) के तटपर मूलस्थानपुर (मुलतान) में सूर्य मन्दिर की स्थापना हुई। मूलस्थान (मुलतान) के सूर्य मंदिर का उल्लेख चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा अरब लेखक अल्-इद्रिसी, अबूइशाक, अल्-इश्तरवी आदि ने किया है। कुछ पुराणों के अनुसार शाम्ब ने मथुरा में शाम्भादित्य नामक सूर्य मंदिर की स्थापना की थी। इस समय से लेकर तेरहवीं शती ई० तक भारत में सूर्य पूजा का काफी प्रचार था। कुमारगुप्त (प्रथम) के समय मे दशपुर (मंदसौर) के बुनकरों की एक श्रेणी (संघ) ने भव्य सूर्यमंदिर का निर्माण किया था। स्कन्दगुप्त का एक स्मारक इन्द्रपुर (इन्दौर, बुलन्दशहर, उ० प्र०) में सूर्य मन्द्रि के निर्माण का उल्लेख करता है। मिहिरकुल के ग्वालियर प्रस्तर लेख में मातृ चेट द्वारा सूर्य मन्दिर के निर्माण का वर्णन है। बलभी के मैत्रक राजा सूर्योपासक थे। पुष्यभूतिवंश के प्रथम चार राजा आदित्य भक्त थे (बांसखेरा तथा मधुवन ताम्रपत्र)। परवर्ती गुप्त राजा द्वितीय जीवितगुप्त के समय में आरा जिले (मगध) में सूर्यमन्दिर निर्मित हुआ था (फ्लीटः गुप्त अभिलेख पृ० 70, 80, 162,218)। बहराइच में बालादित्य का प्रसिद्ध और विशाल सूर्यमंदिर था जिसका ध्वंस सैयद सालार मसऊद गाजी ने किया। सबसे पीछे प्रसिद्ध सूर्यमंदिर चन्द्रभागा तटवर्ती मूलस्थान वाले सूर्यमंदिर की स्मृति में उड़ीसा के चन्द्रभागा तीर्थ कोण्डार्क में बना जो आज भी करवट के बल लेटा हुआ है।

सूर्य पूजा में पहले पूजा के विषय प्रतीक थे, मानवकृति मूर्तियाँ पीछे व्यवहार में आयीं। प्रतीकों में चक्र, वृत्ताकार सुवर्ण थाल, कमल आदि मुख्य थे। व्यवहार में सूर्य मूर्तियों के दो संप्रदाय विकसित हुए (1) औदीच्य (2) दाक्षिणात्य। औदीच्य में पश्चिमोत्तरीय देशों का बाह्य प्रभाव विशेषकर वेश में परिलक्षित होता है। दाक्षिणात्य में भारतीयता की प्रधानता है परन्तु मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से दोनों में पूरी भारतीयता है। मूर्तियाँ भी दो प्रकार की हैं। एक रथारूढ़ और दूसरी खड़ी। रथारूढ़ मूर्तियों में एक चक्र वाला रथ होता है जिसको एक से लेकर सात अश्व खींचते हैं। आगे चलकर सात अश्व ही अधिक प्रचलित हो गए। अरुण सारथि (जिसके पाँव नहीं होते) रथ का संचालन करता है। रथ तम के प्रतीक राक्षसों के ऊपर से निकलता हुआ दिखाया जाता है। सूर्य के दोनों पार्श्व से उषा और प्रत्युषा (उषा के दो रूप) धनुष से आकाश पर बाण फेंकती हुई अंकित की जाती हैं। दोनों ओर दो पार्षद दण्डी (दण्ड लिए हुए) औऱ पिङ्गल अथवा कुण्‍डी (मसि-पात्र और लेखनी लिए हुए) भी दिखाए जाते हैं। किन्हीं-किन्हीं मूर्तियों में सूर्य की पत्नियों और पुत्रों का भी, जो सभी प्रकाश के प्रतीक हैं, अंकन मिलता है। औदीच्य सूर्य मूर्तियों के पाँवों में भरकम ऊँचे जूते (उपानह, चुश्त पाजामा, भारी अंगा; चौड़ी मेंखला, किरीट, (मुकुट) और उसके पीछे प्रभामण्डल पाया जाता है। कही कहीं कन्धे से दोनों ओऱ दो पंख भी जुड़े होते हैं जो सूर्य के वैदिक गरुत्मान् रूप के अवशेष हैं। हाथों में--दाहिने में कमल (अथवा कमलदण्ड) और बायें में खड्ग मिलता है। दाक्षिणात्य मूर्तियों की विशेषता है कमलस्थ नंगा पाँव, धोती और पूर्णतः अभिव्यक्त (खुला) शरीर।

सूर्यनक्तव्रत : व्रतकर्ता को रविवार के दिन नक्त विधि से आहार आदि करना चाहिए। रविवार को हस्त नक्षत्र पड़े तो उस दिन एकभक्त तथा उसके बाद वाले रविवारों को नक्त विधि से आहार करना चाहिए। सूर्यास्त के समय रक्त चन्दन के प्रलेप से द्वादश दलीय कमल बनाकर पूर्व से आठों दिशाओं में भिन्न-भिन्न नामों से (जैसे सूर्य, दिवाकर आदि) न्यास किया जाय। मण्डल के पूर्व में सूर्य के अश्वों का न्यास किया जाय। ऋग्वेद तथा सामवेद के प्रथम मंत्रों तथा तैत्तिरीय संहिता के प्रथम चार शब्दों का उच्चारण करते हुए अर्घ्‍य दान करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त अथवा द्वादश वर्षपर्यन्त इस व्रत का आचरण होता है। इससे व्रती समस्त रोगों से मुक्त होकर सुख समृद्धि तथा सन्तानादि का सुख भोगकर सूर्य लोक प्राप्त कर लेता है।

सूर्यजाप्रशंसा : दे० विष्णु धर्म०, 3.181.1-7, जिसमें लिखा है कि वर्ष की समस्त सप्तमी तिथियों को सूर्य का पूजन करने से क्या पुण्य अथवा फल मिलता है; अथवा वर्ष भर प्रति रविवार को नक्त विधि से आहारादि करने से अथवा सूर्योदय के समय सर्वदा सूर्योपासना करने से क्या पुण्य प्राप्त होता है। भविष्य पुराण (1-68) के श्लोक 8-14 में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि सूर्योपासना में किन-किन पुष्पों की आवश्यकता पड़ती है तथा उनका प्रयोग करने से क्या पुण्य प्राप्त होते हैं।

सूर्यरथयात्रा माहात्म्य : भविष्यपुराण (1.58) के अनुसार सूर्य का रथोत्सव माघ मास में आयोजित किया जाता है। यदि प्रति वर्ष इसका आयोजन कठिन हो तो बारहवें वर्ष जिस दिन प्रथम बार हुआ था, उसी दिन आयोजन किया जाना चाहिए। उत्सव के नैरन्तर्य में थोड़े-थोड़े व्यवधानों के बाद इसका आयोजन नहीं किया जाना चाहिए। आषाढ़, कार्तिक तथा माघ मास की पूर्णिमाएँ इसके लिए पवित्रतम् हैं। यदि रविवार को षष्ठी या सप्तमी पड़े तो भी रथयात्रा का उत्सव आयोजित हो सकता है।

सृष्टि : संसार की उत्पत्ति या निर्मित अथवा सर्जना। जो ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं उनके अनुसार ईश्वर ने अपनी ही योगमाया से अथवा प्रकृतिरूपी उपादान कारण से इस जगत् का निर्माण किया। श्रीभागवत पुराण में सृष्टि का वर्णन इस प्रकार है :

सृष्टि के पूर्व मन, चक्षु आदि इन्द्रियों से अगोचर भगवान् एकमात्र थे। जब उन्होंने स्वेच्छा से देखने की कामना की तो कोई दृश्य नहीं दिखायी पड़ा। तब उन्होंने त्रिगुणमयी माया का प्रकाश किया। तब भगवान् ने अपने अंश पुरुषरूप करके उस माया में अपने वीर्य चैतन्य का आधान किया। उससे तीन प्रकार का अहङ्कार उत्पन्न हुआ। उनमें से सात्विक अहङ्कार से मन इन्द्रिय के अधिष्ठातृदेवता उत्पन्न हुए। राजस अहङ्कार से दस इन्द्रियों की उत्पत्ति हुई। तामस अहङ्कार से पञ्चभूत हुए। उनमें पञ्चगुण उत्पन्न हुए। इस प्रकार प्रकृत्यादि इन चौबीस तत्त्वों से ब्रह्माण्ड का निर्माण कर भगवान् ने एक अंश से उसमें प्रवेश कर गर्भोदक संज्ञक जल उत्पन्न किया। उस जल के बीच में योगनिद्रा से सहस्रयुगकाल तक स्थित रहे। उसके अन्त में उठकर अपने अंश से ब्रह्मा होकर सब की सृष्टि कर और (विष्णुरूप से) नानावतारों को धारणकर जगत् का पालन करते हैं। कल्पान्त में रुद्ररूप से जगत् का संहार करते हैं।

विष्णु पुराण (1.5.27-65) में विष्णु द्वारा सृष्टि का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में विराट् (विश्व पुरुष) से सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति का रूपकात्मक वर्णन है। न्याय दर्शन के अनुसार सृष्टि के तीन कारण हैं-- (1) उपादान (2) निमित्त औऱ (3) सहकारी। प्रकृति सृष्टि का उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। जिस प्रकार कुम्भकार मृत्तिका उपादान से अनेक प्रकार के मृद्भाण्डों का निर्माण करता है उसी प्रकार ईश्वर प्रकृति के उपादान से बहुविधि जगत् की सृष्टि करता है।

सृष्टितत्त्व : भारतीय संस्कृति के मौलिक तत्त्वों से आध्यात्मिक चिन्तन की बड़ी विशेषता है। दर्शन शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार बिना तत्व-ज्ञान प्राप्त किये जीव कल्याण का भागी नहीं हो सकता। अतः मानव अध्यात्म की ओर प्रवृत्त होता है। इसके अनन्तर उसे जिज्ञासा होती है कि दृश्य जगत् की उत्पत्ति कहाँ से होती है और यह किस जगह विलीन हो जाता है। इस दिशा में हमारे दर्शन शास्त्र अधिक प्रकाश डालते हैं, यथा---

प्रकृतेर्महान् ततोऽहंकारः तस्मादगणश्च षोडशकः। तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि॥

अर्थात् सर्वप्रथम प्रकृति से महत् तत्त्व (बुद्धि) का आविर्भाव होता है, इसके अनन्तर अहंकार और उससे षोडश गण उत्पन्न होते हैं। षोडश गणों से पंचीकरण द्वारा पञ्चमहाभूत बन जाते हैं, प्रकृति की परिणामधर्मता के अनुसार समस्तसृष्टि आगे चलकर तीन भागों में विभक्त होती हैं, आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक। इनमें आधिभौतिक सृष्टि स्थावर, जङ्गम, स्वेदज, जरायुज, अण्डज आदि के रूप में सर्जित है। अतः इसे जन्म और मृत्यु नाम से भी व्यवहृत करते हैं।

आध्यात्मिकी सृष्टि अनादि और अनन्त है। प्रकृति भी आदि और अन्त से रहित है। अतः हम अनाद्यनन्त परमेश्वर की परम महाशक्ति से उद्भूत होने के कारण अनाद्यनन्ता आध्यात्मिकी सृष्टि की नित्य सत्ता को स्वीकार करते हैं। यही आध्यात्मिक सृष्टि अनन्त कोटि ब्रह्माण्डमय विराट् पुरुष का विग्रह है। श्रुति के अनुसार इस ब्रह्माण्ड के चारों ओर इस प्रकार के अनन्त ब्रह्माण्ड प्रकाशित हैं। और उन सभी ब्रह्माण्डों में सत्त्व, रजस्, तमः प्रधान ईश्वरांश स्वरूप अनन्त कोटि ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र वास करते हैं। ये अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड आकाश में इसी प्रकार भ्रमण करते हैं, जिस प्रकार समुद्र में अनन्त मत्स्य एवं जल बुद्बुद भ्रमणशील रहते हैं।

इस प्रकार व्यापक परमेश्वर की सत् चित् सत्ता के आश्रय से महाशक्ति प्रकृति की स्वाभाविक त्रिगुणमय आध्यात्मिक सृष्टि का अनन्त विस्तार हो रहा है, जिसका न उत्पत्ति ही है, और न नाश ही

आधिदैविक सृष्टि आध्यात्मिक सृष्टि से सर्वथा भिन्न है। इसका सम्बन्ध एक एक ब्रह्माण्ड से रहता है। यह सृष्टि अनित्य या नश्वर होती है, इसकी उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय हुआ करते हैं। जिस प्रकार महासागर की तरंगे एक साथ सहसा नष्ट नहीं होतीं, उसी प्रकार आधिदैविक सृष्टि के अन्तर्गत एक एक ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, निश्चित समय तक उसकी स्थिति और प्रलय होते हैं।

सृष्टि के सम्बन्ध में कहा जाता है कि यह क्यों होती है? ईश्वर ने किसलिए इस दुःखमय संसार का सर्जन किया। इत्यादि अनेक प्रकार के प्रश्न किये जाते हैं, और उनके उत्तर में अनेक मस्तिष्क विभिन्न प्रकार के समाधान प्रस्तुत करते हैं। कोई कहता है, परमेश्वर ने सर्जन द्वारा अपनी विभूति प्रकट की है। किसी के मत में जिस प्रकार स्वप्न बिना विचारे ही अकस्मात् उत्पन्न होता है, उसी प्रकार जगत् भी अकस्मांत् आविर्भूत हुआ। अन्य लोग जगत् को परमात्मा का क्रीडनक कहते हैं। किन्तु ये सभी उत्तर भ्रममूलक हैं। क्योंकि आत्मकाम पूर्ण परमात्मा को कोई भी स्पृहा स्पर्श नहीं कर सकती। सृष्टि केवल स्वाभाविक रूप में ही उत्पन्न होती है। जिस प्रकार मकड़ी बिना किसी प्रयोजन के ही तन्तुसमूह को फैलाती है एवं सिकोड़ लेती है एवं पृथ्वी पर बिना कारण ही औषधियाँ प्रादुर्भूत होती हैं तथा मनुष्यों के शरीर में निष्कारण ही बाल और रोम उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार उस अक्षर ज्योतिर्मय ब्रह्म से समस्त विश्व उत्पन्न होता है। अतः यह समस्त सृष्टि स्वाभाविक है।

सेतु : जल के ऊपर से जाने के लिए बनाया गया मार्ग। इसके दान का महत् फल बतलाया गया है :

सेतुप्रदानादिन्द्रस्य लोकमाप्नोति मानवः। प्रपाप्रदानाद्वरुणलोकमाप्नोत्यसंशयम्॥

संक्रमाणान्तुयः कर्ता स स्वर्ग तरते नरः। स्वर्गलोके च निवसेदिष्टकासेतुकृत् सदा॥ (मठादि प्रतिष्ठातत्त्व)

[मानव सेतु-प्रदान से इन्द्रलोक को प्राप्त करता है। प्याऊ की व्यवस्था करने से वह वरुण लोक को जाता है। जो संक्रमणों (बाँध) का निर्माण करता है वह स्वर्ग में निवास करता है।]

सेवा : सेवा का महत्त्व सभी धर्मों में स्वीकार किया गया है। वैष्णव धर्म में इसको साधना के रूप में माना गया है। वैष्णव संहिताएँ, जो वैष्णव धर्म के कल्पसूत्र हैं, सम्पूर्ण वैष्णव शिक्षा को चार भागों में बाँटती हैं :

1. ज्ञानपाद (दार्शनिक धर्म विज्ञान) 2. योगपाद (मनोवैज्ञानिक अभ्यास) 3. क्रियापाद (लोकोपकारी पूर्त कर्म) और 4. चर्यापाद (धार्मिक कृत्य)।

क्रियापाद को क्रियायोग भी कहते हैं। क्रियापाद और चर्यापाद के अन्तर्गत सेवा का समावेश है। भक्तिमार्ग में, विशेषकर वल्लभ-सम्प्रदाय में, भगवान कृष्ण की सेवा का विस्तृत विधान है। आचार्य वल्लभ द्वारा प्रचलित पुष्टिमार्ग का दूसरा नाम ही 'सेवा' है। पुराणों में भगवान् विष्णु की सेवा का विस्तृत वर्णन है (दे० पद्मपुराण, क्रियायोगसार, अध्याय 9-10; वही अध्याय 11-13) पुराणों में वर्णित सेवा प्रायः कर्मकाण्डीय है। परन्तु पुष्टिमार्ग की सेवा प्रायः कर्मकाण्डीय है। परन्तु पुष्टिमार्ग, की सेवा मुख्यतः भावनात्मक है। सेवा के तीन स्थान हैं--(1) गुरु (2) सन्त और (3) प्रभु। प्रथम दो साधन और अंतिम साध्य है. गुरु--सेवा भक्ति का प्रथम सोपान है और अनिवार्य भी। उपनिषदों तक में इसकी महिमा गायी गयी है। निर्गुण और सगुण दोनों भक्तिमार्गों में गुरु की बड़ी महिमा है। नामक ने जिस सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया, उसमें गुरु प्रथम पूजनीय है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के प्रारम्भ में गुरु की बड़ी महिमा गयी है। सन्त-सेवा भक्ति का दूसरा चरण है। इसका माहात्म्य पुराणों में विस्तार से दिया हुआ है (दे० गरुडपुराण, उत्तरखण्ड, धर्मकाण्ड)।

सेवा का तीसरा और अंतिम चरण है प्रभु-सेवा जो साध्य है। यहाँ सेवा का अर्थ है भगवान् की स्वरूपसेवा। इसके दो प्रकार हैं-- (1) क्रियात्मक औऱ भावनात्मक। क्रियात्मक सेवा के भी दो प्रकार हैं--(1) तनुजा तथा (2) वित्तजा। जो सेवा शरीर से की जाती है उसको तनुजा और जो सेवा स्मपत्ति के द्वारा की जाती है उसे वित्तजा कहते हैं। भावात्मक सेवा मानसिक होती है। इसमें सम्पूर्ण भाव से प्रभु के सम्मुख आत्मसमर्पण किया जाता है। इसके भी दो भेद हैं-- (1) मर्यादा सेवा और (2) पुष्टिसेवा। प्रथम में ज्ञान, भजन, पूजन, श्रवण आदि साधनों द्वारा भगवान् के सायुज्य की कामना की जाती है। इसमें नियम-उपनियम, विधिनिषेध का पर्याप्त स्थान है। इसीलिए इसको मर्यादा सेवा कहते हैं। इसमें नर्बन्ध अथवा उन्मुक्त समर्पण नहीं। पुष्टिसेवा में प्रभु के सम्मुखविधि निषेध रहित उन्मुक्त समर्पण है। यह सेवा साधनरूपा नहीं, साध्यरूपा है।

सेवापराध : आचारतत्त्व' में बत्तीस प्रकार के सेवापराध बतलाये गये हैं। भगवान् की पूजा के प्रसंग में इनका परिवर्जन आवश्यक है :

(1) भगवद्भक्तों का क्षत्रिय सिद्धान्न भोजन। (2) मल-मूत्र त्याग, स्त्री सेवन के बाद बिना स्नान किए विष्णुमूर्ति के पास जाना। (3) अनिषिद्ध दिन में बिना दन्तधावन किए विष्णु के पास पहुँचना।

(4) मृत मनुष्य को छूकर बिना स्नान किए विष्णु के पास जाना।

(5) रजस्वला को छूकर विष्णु-मन्दिर में प्रवेश करना।

(6) मानव शव को स्पर्श कर बिना स्नान किए विष्णु की सन्निधि में बैठना।

(7) विष्णु का स्पर्श करते हुए अपान वायु छोड़ना।

(8) विष्णु कर्म करते हुए पुरीष-त्याग।

(9) विष्णु शास्त्र का अनादर करके दूसरे शास्त्रों की प्रशंसा।

(10) मलिन वस्त्र पहनकर विष्णु कर्म करना।

(11) अविधान से आचमन कर विष्णु के पास जाना।

(12) विष्णु अपराध करके विष्णु के पास जाना।

(13) क्रोध के समय विष्णु का स्पर्श।

(14) निषिद्ध पुष्प से विष्णु का अर्चन कराना।

(15) रक्त वस्त्र धारण कर विष्णु के पास जाना।

(16) अन्धकार में दीपक के बिना विष्णु का स्पर्श।

(17) काला वस्त्र पहनकर विष्णु पूजाचरण।

(18) कौआ से अपवित्र वस्त्र पहन कर विष्णु-कर्म करना।

(19) विष्णु को कुत्ता का उच्छिष्ट अर्पित करना।

(20) वराह मांस खाकर विष्णु के पास जाना।

सोम : सोम वसुवर्ग के देवताओं में हैं। मत्स्यपुराण (5-21) में आठ वसुओं में सोम की गणना इस प्रकार है--

आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्‍चैवानिलोऽनलः। प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ प्रकीर्तितः॥

ऋग्वेदीय देवताओं में महत्व की दृष्टि से सोम का स्थान अग्नि तथा इन्द्र के पश्चात् तीसरा है। ऋग्वेद का सम्पूर्ण नवाँ मण्डल सोम की स्तुति से परिपूर्ण है। इसमें सब मिलाकर 120 सूक्तों में सोम का गुणगान है। सोम की कल्पना दो रूपों में की गयी है--(1) स्वर्गीय लता का रस और (2) आकाशीय चन्द्रमा। देव और मानव दोनों को यह रस स्फूर्ति और प्रेरणा देनेवाला था। देवता सोम पीकर प्रसन्न होते थे; इन्द्र अपना पराक्रम सोम पीकर ही दिखलाते थे। काण्व ऋषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है : `यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है; रोग दूर करता है; विपत्तियों को भगाता है; आनन्द और आराम देता है; आयु बढ़ाता है; सम्पत्ति का संवर्द्धन करता है। विद्वेषों से बचाता है; शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है; उल्लास उत्पन्न करता है; उत्तेजित और प्रकाशित करता है; अच्छे विचार उत्पन्न करता है; पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है; देवताओं के क्रोध को शान्त करता है और अमर बनाता है (दे० ऋग्वेद 8.48)। सोम विप्रत्व और ऋषित्व का सहायक है (वही 3.43.5)

सोम की उत्‍पत्ति के दो स्‍थान हैं- (1) स्‍वर्ग और (2) पार्थिव पर्वत। अग्नि की भाँति सोम भी स्वर्ग से पृथ्वी पर आया। ऋग्वेद (1.93.6) में कथन है :

मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा; गरुत्मान् ने दूसरे को मेघशिलाओं से। इसी प्रकार (9.61.10) में कहा गया है : `हे सोम, तुम्हारा जन्म उच्च स्थानीय है; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है। सोम की उत्पत्ति का पार्थिव स्थान मूजवन्त पर्वत (गन्धार-कम्बोज प्रवेश) है (ऋग्वेद 10.34.1)।

सोम रस बनाने की प्रक्रिया वैदिक यज्ञों में बड़े महत्त्व की है। इसकी तीन अवस्‍थाएं हैं--पेरना, छानना और मिलाना। वैदिक साहित्य में इसका विस्तृत और सजीव वर्णन उपलब्ध है। देवताओं के लिए सम्पूर्ण का यह मुख्य पदार्थ था और अनेक यज्ञों में इसका बहुविधि उपयोग होता था। सबसे अधिक सोमरस पीनेवाले इन्द्र और वायु हैं। पूषा आदि को भी यदाकदा सोम अर्पित किया जाता है।

स्वर्गीय सोम की कल्पना चन्द्रमा के रूप में की गयी है। छान्दोग्योपनिषद् (5.10.4) में सोम राजा को देवताओं का भोज्य कहा गया है। कौषितकि ब्राह्मण (7.10) में सोम और चन्द्र के अभेद की व्याख्या इस प्रकार की गयी है : `दृश्य चन्द्रमा ही सोम है। सोमलता जब लायी जाती है तो चन्द्रमा उसमें प्रवेश करता है। जब कोई सोम खरीदता है तो इस विचार से कि `दृश्य चन्द्र ही सोम है` उसी का रस पेरा जाय।`

सोम का सम्बन्ध अमरत्व से भी है। वह स्वयं अमर तथा अमरत्व प्रदान करनेवाला है। वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है (ऋ० 8.48.13)। कहीं कहीं उसको देवों का पिता कहा गया है, जिसका अर्थ यह है कि वह उनको अमरत्व प्रदान करता है। अमरत्व का सम्बन्ध नैतिकता से भी है। वह विधि का अधिष्ठान और ऋत की धारा है। वह सत्य का मित्र है दे० ऋ० 9.97.18, 7.104। सोम का नैतिक स्वरूप उस समय अधिक निखर जाता है जब वह वरुण और आदित्य से संयुक्त होता है : `हे सोम, तुम राजा वरुण के सनातन विधान हो; तुम्हारा स्वभाव उच्‍च और गंभीर है; प्रिय मित्र के समान तुम सर्वाङ्ग पवित्र हो; तुम अर्यमा के समान वन्दनीय हो।` (ऋ० 1.91.3)।

वैदिक कल्पना के इन सूत्रों को लेकर पुराणों में सोमसम्बन्धी बहुत सी पुरा कथाओं का निर्माण हुआ। वाराहपुराण में सोम की उत्पत्ति का वर्णन पाया जाता है : `ब्रह्मा के मानस पुत्र महातपा अत्रि हुए जो दक्ष के जामाता थे। दक्ष की सताईस कन्यायें थीं; वे ही सोम की पत्नियाँ हुई। उनमें रोहिणी सबसे बड़ी थी। सोम केवल रोहिणी के साथ रमण करते थे, अन्य के साथ नहीं। औरों ने पिता दक्ष के पास आकर सोम के विषय व्यवहार के सम्बन्ध में निवेदन किया। दक्ष ने सोम को सम व्यवहार करने के लिए कहा। जब सोम ने ऐसा नहीं किया तो दक्ष ने शाप दिया, `तुम अन्तर्हित (लुप्त) हो जाओं`। दक्ष के शाप से सोम क्षय को प्राप्त हुआ। सोम के नष्ट होने पर देव, मनुष्य, पशु, वृक्ष और विशेष कर सब औषधियाँ क्षीण हो गयीं।.... देव लोग चिन्तित होकर विष्णु की शरण में गये। भगवान ने पूछा, `कहो क्या करें?` देवताओं ने कहा, `दक्ष के शाप से सोम नष्ट हो गया।` विष्णु ने कहा कि `समुद्र का मन्थन करो।`... `सब ने मिलकर समुद्र का मन्थन किया। उससे सोम पुनः उत्पन्न हुआ। जो यह क्षेत्रसंज्ञक श्रेष्ठ पुरुष इस शरीर में निवास करता है उसे सोम मानना चाहिए; वही देहधारियों का जीवसंज्ञक है। वह परेच्छा से पृथक् सौम्य मूर्ति को धारण करता है। देव, मनुष्य, वृक्ष औषधी सभी का सोम उपजीव्य है। तब रुद्र ने उसको सकल (कला सहित) अपने सिर में धारण किया।....।`

सोमतीर्थ : प्रभासतीर्थ का दूसरा नाम (सोमेन कृतं तीर्थं सोमतीर्थम्)। महाभारत (3-83.19) में इसके माहात्म्य का वर्णन मिलता है। इस तीर्थ में स्नान करने से राजसूय यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। वाराह पुराण (सौकरतीर्थ माहात्म्याध्याय) में इसका विस्तृत वर्णन है।

सोमयाग : जिस यज्ञ में सोमपान तथा सोमाहुति प्रधान अङ्ग होता है और जिसका सत्र तीन वर्षों तक चलता रहता है उसे सोमयाग कहते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों तथा श्रौतसूत्रों में इसका विस्तार से वर्णन है। ब्रह्मवैवर्त पुराण (श्रीकृष्णजन्मखण्ड, 60-54-58) में इसका वर्णन इस प्रकार है :

ब्रह्महत्याप्रशमनं सोमयागफलं मुने। वर्ष सोमलतापानं यतमानः करोति च॥ वर्षमेंकं फलं भङ्क्ते वर्षमेकं जलं मुदा। त्रैवार्षिकमिदं यागं सर्वपापप्रणाशनम्॥ यस्य त्रैवार्षिकं धान्यं निहितं भूतवृद्धये। अधिकं वापि विद्येत स सोमं पातुमर्हति॥ महाराजश्च देवों वा यागं कर्तुमलं मुने। न सर्वसाध्यों यज्ञोऽयं बह्वन्नों बहुदक्षिणः॥

सोमयाजी : सोम याग कर चुकने वाले। सोमयज्ञ संपादन करने के पश्चात् यजमान की यह उपाधि होती थी।

सोमलता : एक औषधिविशेष। यज्ञ में इसके रस का पान किया जाता था और आहुति होती थी। आयुर्वेद में भी यह बहुत गुणकारी मानी गयी है। सुश्रुत (चिकित्सास्थान, अध्याय 29) में इसका विस्तृत वर्णन है। यह लता कश्मीर के पश्चिमोत्तर हिन्दूकुश की ओर से प्राप्त की जाती थी।

सोमवंश : पुराणों के अनुसार सोम (चन्द्रमा) से उत्पन्न वंश सोमवंश अथवा चन्द्रवंश कहलाता है। चन्द्रमा के पुत्र बुध और मनु की पुत्री इला के विवाह से पुरूरवा का जन्म हुआ, जिसे ऐल (इला से उत्पन्न) कहते थे। इस उपनाम के कारण सोमवंश ऐलवंश भी कहलाता है। इस वंश की आदि राजधानी प्रतिष्ठान (प्रयोग के पास झूसी थी) गरुड पुराण (अध्याय 143-144) तथा अन्य कई पुराणों में सोमवंश के राजाओं की सूची पायी जाती है।

सोमवती अमावस्या : सोमवार के दिन पड़नेवाली अमावस्या बड़ी पवित्र मानी जाती है। इस दिन लोग (विशेष रूप से स्त्री वर्ग) पीपल के वृक्ष के पास जाकर विष्णु भगवान् की पूजा कर वृक्ष की 108 परिक्रमाएँ करते हैं। 'व्रतार्क' ग्रन्थ के अनुसार यह व्रत बड़े बड़े धर्मग्रन्थों में वर्णित नहीं है, किन्तु व्यवहार रूप में ही इसका प्रचलन है।

सोमवार व्रत : प्रति सोमवार को उपवासपूर्वक सायंकाल शिव अथवा दुर्गा का पूजन जिस व्रत में किया जाता है उसको सोमवार व्रत कहते हैं। स्कन्दपुराण (ब्रह्मोत्तरखण्ड, सोमवार व्रत माहात्म्य, अध्याय 8) में इसका विवरण मिलता है :

सोमवारे, विशेषेण प्रदोषादिगुणैर्युते। केवलं वापि ये कुर्युः सोमवारे शिवार्चनम्॥ न तेषां विद्यते किञ्चिदिहामुत्र च दुर्लभम्॥ उपोषितः शुचिर्भूत्वा सोमवारे जितेन्द्रियः। वैदिकैलोकिकैर्वापि विधिवत्पूजयेच्छिवम्॥ ब्रह्मचारी गृहस्थो वा कन्या वावि सभर्तुका। विभर्तृका वा संपूज्य लभते वरमभीप्सितम्॥

सामान्य नियम है कि श्रावण, वैशाख, कार्तिक अथवा मार्गशीर्ष मास के प्रथम सोमवार से व्रत का आरम्भ किया जाय। इसमें शिव की पूजा करते हुए पूर्ण करते हुए पूर्ण उपवास अथवा नक्त विधि से आहार करना चाहिए। वर्षकृत्य दीपिका में सोमवार व्रत तथा उद्यापन का विशद वर्णन मिलता है। आज भी श्रावण मास के सोमवारों को पवित्रतम माना जाता है।

सोमविक्रयी : सोमलता अथवा उसके रस को बेंचने वाला। ऐसा करना पाप माना जाता था। सोमविक्रयी को दान देने वाला भी पापी माना जाता है। दे० मनु 3.180।

सोमव्रत : (1) यदि मास के किसी भी पक्ष में सोमवार को अष्टमी पड़ जाय तो व्रती को उस दिन शिव की आराधना करनी चाहिए। प्रतिमा का दक्षिण पार्श्व शिव का तथा वाम पार्श्व हरि तथा चन्द्रमा का प्रतिनिधित्व करता है। सर्वप्रथम शिवलिङ्ग को पञ्चामृत से स्नान कराकर चन्दन तथा कपूर दक्षिण पार्श्व में तथा केसर, अगर उशीर वाम पार्श्व में लगाकर 25 दीपकों से देव तथा देवी की नीराजना करनी चाहिए। तदनन्तर ब्राह्मणों को सपत्नीक बुलाकर भोजन कराना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का आचरण होना चाहिए।

(2) माघ शुक्ल चतुर्दशी को उपवास करके पूर्णिमा के दिन शिवजी के ऊपर एक कम्बल में घी भरकर शिखा की ओर से वेदी की ओर टपकाया जाय। तदनन्तर एक जोड़ी श्यामा गौएँ दान में दी जायँ। रात्रि को गीत वाद्यादि सहित नृत्य का आयोजन होना चाहिए।

(3) मार्गशीर्ष मास अथवा चैत्र मास के प्रथम सोमवार को अथवा किसी भी अन्य सोमवार को जब पूजा की तीव्र लालसा उत्पन्न हो, शिवजी की पूजा श्वेत पुष्पों (जैसे मालती, कुन्द इत्यादि) से करनी चाहिए। चन्दन का प्रलेप लगाया जाय। तत्पश्चात् नैवेद्यार्पण होना चाहिए। होम भी विहित है। सोमवार के दिन नक्तविधि से आहारादि करने पर महान् पुण्यफल प्राप्त होता है।

सोमायनव्रत : एक मास तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है। व्रती सात दिनों तक लगातार गौ के चारों स्तनों के दूध का आहार कर प्राण धारण करता है। तत्पश्चात् सात दिनों तक केवल तीन स्तनों के दूध को पीकर तथा पुनः सात दिन तक केवल एक स्तन का दूध पीने के पश्चात् अन्त में तीन दिनों तक निराहार रहता है। इससे व्रती के समस्त पाप क्षय हो जाते हैं। दे० मार्कण्डेय पुराण।

सोमाष्टमी : यह तिथिव्रत है। शिव तथा उमा इसके देवता हैं। यदि सोमवार के दिन नवमी हो तो शिव तथा उमा का रात्रि को पूजन किया जाय। पञ्चगव्य से प्रतिमाओं को स्नान कराया जाय। शिवजी का वामदेव आदि नामों से पूजन करना चाहिए। प्रतिमा के दक्षिण भाग में चन्दन का प्रलेप तथा कर्पूर तथा वाम भाग में केसर तथा तुरुष्क (लोवान धूप) लगाया जाय। देवीजी के शिरोभाग पर नीलम तथा शिवजी के सिर पर मुक्ता स्थापित किया जाय। ततः श्वेत तथा अरुणाभ पुष्पों से पूजन होना चाहिए। सद्योजात नाम से तिलों का प्रयोग करते हुए होम करना चाहिए। वामदेव, सद्योजात, अघोर, तत्पुरुष और ईशान भगवान् शिव के पाँच मुख या रूप हैं। दे० तैत्तिरीय आरण्यक 10.43-47।

सोरों (सूकरक्षेत्र अथवा वाराहक्षेत्र) : उत्तर प्रदेश में एटा कासगंज से नौ मील गङ्गातट पर सोरों तीर्थ है। वाराह क्षेत्र के नाम से भारत में कई स्थान हैं। उनमें से एक स्थान सोरों भी है। प्राचीन समय में यह तीर्थ गङ्गा के तट से लगा हुआ था। कालक्रम से अब गङ्गाधारा कुछ मील दूर हट गयी है। पुराने प्रवाह का स्मारक एक लंबा सरोवर घाटों के किनारे रह गया है जिसे 'बूढ़ी गङ्गा' कहा जाता है। इसके किनारे अनेक घाट और मन्दिर बने हुए हैं। मुख्य मन्दिर में श्वेतवाराह की चतुर्भुज मूर्ति है। सोरों की पवित्र परिक्रमा 5 मील है। यहाँ पुराण प्रसिद्ध चार बटों में 'गृद्धब्रट' नामक वृक्ष स्थित है। उसके नीचे बटकनाथ का मन्दिर है। 'हरिपदी गङ्गा' (बूढ़ी गङ्गा) नामक कुण्ड में दूर दूर के कई प्रान्तों से लोग अस्थिविसर्जन करने के लिए यहाँ आते रहते हैं। कुछ लोग इसे तुलसीदासजी की जन्मभूमि मानते हैं। ('सो मैं नज गुरु सन सुनी कथा सु सूकर खेत' के अनुसार)। यहीं अष्टछाप के कवि नन्ददास द्वारा स्थापित बलदेव जी का मन्दिर है। योगमार्ग नामक स्थान तथा सूर्यकुण्ड यहाँ के विख्यात तीर्थ हैं। दे० 'शूकर क्षेत्र'।

सौत्रामणी : एक प्रकार का वैदिक यज्ञ। इस के देवता सुत्रामा (इन्द्र) हैं, इस लिए यह सौत्रामणी कहलाता है। यजुर्वेद की काण्वशाखा के तीन अध्यायों (21,22,23) में इसकी प्रक्रिया बतलायी गयी है। इसमें सुरा का सन्धान होता है। इस याग में ब्राह्मण सुरा पीकर पतित नहीं होता।

सौत्रामण्यां कुलाचारे ब्राह्मणः प्रपिबेत् सुराम्। अन्यत्र कामतः पीत्वा पतितस्तु द्विजो भवेत्॥ कात्यायनसूत्रभाष्य में इसका सविस्तार वर्णन है।

सौदायिक : स्त्रीधन का एक प्रकार। पिता, माता, पति के कुल, सम्बन्धियों से जो धन स्त्री को प्राप्त होता है उसे सौदायिक कहते हैं। कात्यायन ने इसकी परिभाषा इस प्रकार दी है :

ऊढया कन्याया वापि पत्युः पितृगृहेऽथवा। भर्तुसकाशात् पित्रोर्वा लब्धं सौदायिकं स्मृतम्॥

इस धन के उपयोग में स्त्री स्वतन्त्र होती है :

सौदायिके सदा स्त्रीयां स्वातन्त्र्यं परिकीर्तितम्। विक्रये चैव दाने च यथेष्टं स्थावरेष्वपि॥

सौभाग्य : एक व्रत का नाम। वाराहपुराण (सौभाग्यव्रतनामाध्याय) में इसका वर्णन मिलता है। यह वार्षिक व्रत है। फाल्गुन शुक्ल तृतीया से इसका आरम्भ होता है। उस दिन नक्त विधि से उपवास करके लक्ष्मीनारायण अथवा उनके दूसरे स्वरूप गौरीशंकर का षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। लक्ष्मी-गौरी तथा हरि-हर में अभेद बुद्धि रखकर किसी भी युगल की श्रद्धापूर्वक आराधना करनी चाहिए। फिर `गम्भीराय सुभगाय देवदेवाय त्रिनेत्राय वाचस्पतये रुद्राय स्वाहा` मन्त्रवाक्यों से अंगपूजा करनी चाहिए औऱ तिल, घृत, मधु से होम करना चाहिए। तदनन्तर लवण औऱ घृत से रहित भुने हुए गेहूँ भूमि में रखकर खाने चाहिए। पूजन-व्रत की यह विधि चार मास तक चलती है। इसका पारण करने के बाद पुनः आषाढ़ शुक्ल तृतीया तथा कार्तिक शुक्ल तृतीया से चार-चार मास का यही क्रम चलता है। इनके मध्य प्रथम जौ, पश्चात् साँवा अन्न खाया जाता है। माघ शुक्ल तृतीया को व्रत का उद्यापन होता है। इसके फलस्वरूप सात जन्मों तक अखण्ड सौभाग्य मिलता है।

सौभाग्यशयनव्रत : चैत्र शुक्ल तृतीया को गौरी तथा शिव की प्रतिमाओं का (प्रसिद्ध है कि चैत्र शुक्ल तृतीया को ही गौरी का शिवजी के साथ विवाह हुआ था) पञ्चगव्य तथा सुगन्धित जल से स्नान कराकर पूजन करना चाहिए। भगवती शिवा तथा भूतभावन शङ्कर की प्रतिमाओं को चरणों से प्रारम्भ कर मस्तक तथा केशों को प्रमाणाञ्जलि देनी चाहिए। प्रतिमाओं के सम्मुख सौभाग्याष्टक स्थापित किया जाय। द्वितीय दिवस प्रातः सुवर्ण की प्रतिमाओं का दान कर दिया जाय। एक वर्षपर्यन्त प्रति तृतीया को इसी विधि की आवृत्ति की जाय। प्रतिमास भिन्न-भिन्न प्रकार के नैवेद्य भोज्यादि पदार्थ, भिन्न-भिन्न प्रकार के मन्त्रों का उच्चारण तथा चैत्र से ही भिन्न-भिन्न प्रकार के देवीजी नामों का उल्लेख कर पूजन करना चाहिए। प्रतिमास विशेष प्रकार के पुष्य पूजा में प्रयुक्त हों। व्रती कम से कम एक फल का एक वर्ष के लिए त्याग करे। व्रत के अन्त में पर्यङ्कोपकरण तथा अन्य सज्जा की सामग्री, सुवर्ण की गौ तथा वृषभ का दान करना चाहिए। इससे सौभाग्य, स्वास्थ्य, सौन्दर्य तथा दीर्घायु प्राप्त होती है।

सौभाग्याष्टक : मत्स्यपुराण (60.8-9) के अनुसार आठ वस्तुएँ ऐसी हैं, जिन्हें सौभाग्य सूचक माना जाता है :-- गन्ना, पारद, निष्पाव (गेहूँ का बना खाद्य पदार्थ जिसमें दुग्ध तथा घृत प्रयुक्त किया गया हो), अजाजी (जीरा), धान्यक (धनियाँ), गौ का दधि, कुसुम्भ तथा लवण। कृत्यरत्नाकर के अनुसार यह 'तवराजः' (शकरकन्द) तथा व्रतराज के अनुसार 'तरुराजः' (खजूर का वृक्ष) है। पद्मपुराण (5.24-251) कुछ अन्तर से इनका परिगणन करता है तथा कहता है : तरुराज कुसुम (कुस्तुम्बुरु) तथा जीरक (जीरा)। सौभाग्याष्टक के लिए देखिए, भविष्योत्तर पुराण (25.9)।

सौरसम्प्रदाय : सूर्यपूजा करने वाले सम्प्रदाय को सौर सम्प्रदाय कहते हैं। त्रिमूर्तियों--(1) ब्रह्मा (2) विष्णु और (3) शिव--को आधार मानकर तीन मुख्य सम्प्रदायों, ब्राह्म, वैष्णव और शैव का विकास हुआ। पुनः उपसम्प्रदायों का विकास होने लगा। वैष्णव सम्प्रदाय का ही एक उपसम्प्रदाय सौर सम्प्रदाय था। विष्णु और सूर (सूर्य) दोनों ही आदित्य वर्ग के देवता हैं। सूर्योपासक सम्प्रदाय के रूप में कई स्थानों में इसका उल्लेख हुआ है। महानिर्वाण तन्त्र (1.140) में अन्य सम्प्रदायों के साथ इसकी गणना हुई है :

शाक्ताः वैष्णवाश्च सौरा गाणपतास्तथा। विप्रा विप्रेतराश्चैव सर्वेऽप्यत्राधिकारिण:॥

इस सम्प्रदाय के गुरु मध्यम श्रेणी के माने जाते थे :

गौडा: शाल्वोद्भवाः सौरा मागधाः केरलास्तथा। कौशलाश्च दशार्णाश्च गुरवः सप्त मध्यमाः॥

इस सम्प्रदाय का उद्गम अत्यन्त प्राचीन है। ऋग्वेद से प्रकट है कि उस युग में सूर्य की पूजा कई रूपों में होती थी। वह आज भी किसी न किसी रूप में वर्तमान है। वैदिक प्रार्थनाओं में गायत्री (सावित्री) की प्रधानता थी। आज भी नित्य सन्ध्या-वन्दन में उसका स्थान सुरक्षित है। परन्तु सम्प्रदाय के रूप में इसका प्रथम उल्लेख महाभारत में पाया जाता है। जब युधिष्ठिर प्रातः काल अपने शयन-कक्ष से निकले तो एक सहस्र सूर्योपासक ब्राह्मण उनके सामने आये। इन ब्राह्मणों के आठ सहस्र अनुयायी थे (दे० महाभारत 7.82.14-16)। इस सम्प्रदाय के धार्मिक सिद्धान्त महाभारत, रामायण, मार्कण्डेय पुराण आदि मे पाये जाते हैं। इनके अनुसार सूर्य सनातन ब्रह्म, परमात्मा, स्वयम्भू, अज, सर्वात्मा, सबका मूल कारण और संसार का उद्गम है। मोक्ष की कामना करने वाले तपस्वी उसकी उपासना करते हैं। वह वेदस्वरूप और सर्वदेवमय है। वह ब्रह्मा, विष्णु और शिव का भी प्रभु है। यह सम्पदाय दार्शनिक दृष्टि से अद्वैतवादी परम्परा का भक्तिमार्ग है।

आगे चलकर विष्णुपुराण औऱ भविष्यपुराण में सूर्यपूजा का जो रूप मिलता है, उसमें ईरान की मित्रपूजा (मिथ्रपूजा) का मिश्रण है। प्राचीन भारत और ईरान दोनों देशों में सूर्यपूजा प्रचलित थी। अतः यह साम्य और सम्मिश्रण स्वाभाविक था। फिर भी सौरसम्प्रदाय मूलतः भारतीय है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं (दे० सूर्य और (सूर्यपूजा)।

पाँचवी शती से लेकर दसवीं-ग्यारहवीं शती तक सौर सम्प्रदाय, उत्तर भारत में विशेषकर, सशक्त रूप में प्रचलित था। कई सूर्यमन्दिरों का निर्माण हुआ और कई राजवंश सूर्योपासक थे। सूर्यमन्दिरों के पुजारी भोजक, मग और शाकद्वीपीय ब्राह्मण होते थे। इस सम्प्रदाय का एतत्कालीन सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थ सौरसंहिता था। इसमें साम्प्रदायिक कर्मकाण्ड का विस्तृत विधान है। इसकी हस्तलिपि नेपाल में पायी गयी थी जिसका काल 941 ई० (1008 वि०) है। परन्तु ग्रन्थ निश्चय ही पूर्ववर्ती है। दूसरा प्रसिद्ध ग्रंथ सूर्यशतक है। इसका रचयिता बाण का समकालीन हर्ष का राजकवि मयूर था। इसका काल सप्तम शती ई० का पूर्वार्द्ध था। सूर्यशतक में सूर्य की जो कल्पना है वह पूर्ववर्ती कल्पना से मिलती जुलती है। सूर्य ही मोक्ष का उद्गम है, इस पर बहुत बल दिया गया है। बाण ने हर्षचरित के प्रारम्भ में सूर्य की बन्दना की है। भक्तामरस्तोत्र के रचयिता जैन कवि मानतुङ्ग ने भी सूर्य की अतिरञ्जित स्तुति की है। इसी काल में उत्कल में साम्बपुराण नामक ग्रन्थ लिखा गया। इसमें साम्ब और उनके द्वारा निमंत्रित मग ब्राह्मणों की कथा दी हुई है। इसका उल्लेख अलबीरूनी (1030 ई०) भी करता है। अग्निपुराण (अध्याय 51,73,99) तथा गरुडपुराण (अध्याय 7,16,17,39) में सूर्यमूर्तियों तथा सूर्यपूजा का विवेचन पाया जाता है।

मध्ययुग में उत्तरोत्तर वैष्णव और शैव सम्प्रदायों के विकास औऱ वैष्णव सम्प्रदाय द्वारा आदित्य वर्ग के देवताओं को आत्‍मसात करने की प्रवृत्ति के कारण धीरे-धीरे सौर सम्प्रदाय का ह्रास होने लगा। फिर भी कृष्ण मिश्र विरचित प्रबोधचन्द्रोदय नाटक में सौर सम्प्रदाय का उल्लेख आदर के साथ किया गया है। इसका एतत्कालीन साहित्य उपलब्ध नहीं होता। ब्रह्मपुराण (अध्याय 21-28) में सौर धर्मविज्ञान के कुछ अंशों का विवेचन तथा उत्कल-औड्र तथा कोण्डार्क में सूर्य मन्दिर का माहात्म्य पाया जाता है। बंगला भाषा में सूर्यदेव की स्तुतियाँ लिखी गयीं, जिनका प्रकाशन श्री दिनेशचन्द्र सेन ने किया (एपिग्राफिया इंडिका, 2.338)। गया जिले के गोविन्दपुर ग्राम में प्राप्त अभिलेख (1137 ई०) के रचयिता कवि गङ्गाधर ने सूर्य की सुन्दर प्रशस्ति लिखी है।

स्कन्द : शैव परिवार के एक देवता। ये शिव के पुत्र हैं। स्कन्द कार्तिकेय का पर्याय है। 'स्कन्द' शब्द का अर्थ है उछलकर चलने वाला, अथवा दैत्यों का शोषण करने वाला (स्कन्दते उत्पलु गच्छति स्कन्दति शोषयति दैत्यान् वा)। स्कन्द का दूसरा प्रसिद्ध नाम कुमार है। कालिदास के कुमारसंभव, महाभारत, वामन पुराण, कालिका पुराण आदि में स्कन्द के जन्म, कार्य, मूर्ति, सम्प्रदाय आदि का विवरण पाया जाता है।

स्कन्द देवसेना के नेता हैं। एक मत में वे सनातन ब्रह्मचारी रहने के कारण कुमार कहलाते हैं। परन्तु आलंकारिक रूप से देवसेना ही उनकी पत्नी थी। देवसेना का नेतृत्व ही उनके प्रादुर्भाव का उद्देश्य था। वे कहीं-कहीं शिव के अवतार कहे गये हैं। उन्होंने संसार को विताडित करनेवाले तारक का संहार किया।

स्कन्द की मूर्ति कुमारावस्था की ही निर्मित होती है। उसके एक अथवा छः शिर होते हैं और इसी क्रम से दो अथवा बारह हाथ। स्कन्द का वस्त्र रक्तवर्ण का होता है। उनके हाथों में धनुष-बाण, खड्ग, शक्ति, वज्र और परशु होते हैं। उनका शक्ति (भाला) अमोघ होता है। वह शत्रु का वधकर फिर वापस आ जाता है। उनका वाहन मयूर है, उनका लांछन (ध्वजचिह्न) मुर्गा है। ध्वज अग्निप्रदत्त तथा प्रलयाग्नि के समान लाल है, जो उनके रथ के ऊपर प्रज्वलित रूप में फहराता है।

स्कन्द का सम्प्रदाय बहुत प्राचीन है। पतञ्जलि के महाभाष्य में स्कन्द की मूर्तियों का उल्लेख है। कतिपय कुषाण मुद्राओं पर उनका नाम अंकित है। गुप्तकाल में, विशेषर, उत्तर भारत में, स्कन्द पूजा का बहुत प्रचार था। स्कन्द चालुक्य वंश के इष्टदेव थे। आजकल उत्तर भारत में स्कन्द पूजा का प्रचार कम और दक्षिण भारत में अधिक है। कुमार (ब्रह्मचारी) होने के कारण स्त्रियाँ उनकी पूजा नहीं करतीं। सुदूर दक्षिण के कई देवताओं मुरुगन (बालक), वेलन (शक्तिधर), शेय्यान (रक्तवर्ण) आदि से स्कन्द का अभेद स्थापित किया गया है। भारत में कई नामों से स्कन्द अभिहित होते हैं---कुमार, कार्तिकेय, गुह, रुद्रसूनु, सुब्रह्मण्य (ब्राह्मणत्व की रक्षा करने वाले), महासेन, सेनापति, सिद्धसेन, शक्तिधर, गङ्गापुत्र, शरभू, तारकजित्, षड्मुख, षडानन, पावकि आदि।

योगमार्ग की साधना में स्कन्द पवित्र शक्ति के प्रतीक हैं। तपस्या और ब्रह्मचर्य के द्वारा जिस शक्ति (वीर्य) का संरक्षण होता है वही स्कन्द और कुमार है। योग में जब तक पूर्ण संयम नहीं होता तब तक शक्ति (--कुमार) का जन्म नहीं होता। सृष्टि विज्ञान में स्कन्द सूर्य की वह शक्ति है जो वायुमण्डल के ऊपर स्थित होती है और जिससे संवत्सरानि (वर्ष उत्पन्न करनेवाली अग्नि) का उदय होता है।

स्कन्द का प्रथम उल्लेख मैत्रायणी संहिता में मिलता है। छान्दोग्योपनिषद् में स्कन्द को सनत्कुमार से अभिन्न माना गया है। गृह्यसूत्रों में भी स्कन्द का उल्लेख उनके घोर रूप में है। महाभारत और शिवपुराण में जो कथा स्कन्द की पायी जाती है वही कालिदास द्वारा कुमारसंभव में ललित रूप में कही गयी है। तन्त्रों में भी स्कन्द पूजा का विधान है। स्कन्दपुराण स्कन्द के नाम से ही प्रसिद्ध है, जो सबसे बड़ा पुराण है। स्कन्द के उपदेश इसमें वर्णित हैं।

स्कन्द पुराण : कार्तिकेय अथवा स्कन्द ने इस पुराण में शिवतत्त्व का विवेचन किया है। इसीलिए इसको स्कन्द पुराण' कहते हैं। आकार में यह सबसे बड़ा पुराण है। इसमें छः संहितायें (सूत संहिता, 2012 के अनुसार), सात खण्ड (नारद पुराण के अनुसार) और 81000 श्लोक हैं। इसमें निम्नांकित संहितायें हैं :

1. सनत्कुमार संहिता (36000 श्लोक)

2. सूत संहिता (6000 श्लोक)

3. शङ्कर संहिता (30000 श्लोक)

4. वैष्णव संहिता (5000 श्लोक)

5. ब्रह्म संहिता (3000 श्लोक)

6. सौर संहिता (1000 श्लोक)

संहिताओं में केवल तीन ही इस समय उपलब्ध हैं---

(1) सनत्कुमार संहिता, (2) सूत संहिता (3) शङ्कर संहिता। शैव उपासना की दृष्टि से सूत संहिता का बड़ा महत्व है। इसमें वैदिक तथा तान्त्रिक दोनों प्रकार की पूजाओं का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। इस पर माध्वाचार्य की 'तात्पर्यदीपिका' नामक एक विशद व्याख्या है। इस संहिता के चार खण्ड हैं---(1) शिव माहात्म्य, (2) ज्ञानयोग खण्ड, (3) मुक्तिखण्ड और (4) यज्ञवैभव खण्ड। अंतिम खण्ड सबसे बड़ा है। उसके दो भाग हैं--पूर्वभाग और उत्तर भाग। यह खण्ड दार्शनिक दृष्टि से भी महत्तव का है। इसके उत्तर भाग में दो गीतायें सम्मिलित हैं--ब्रह्म गीता और सूत गीता। इनका विषय भी दार्शनिक है। इसमें यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है कि मुक्ति और भुक्ति सब कुछ शिव के प्रसाद से ही संभव है। शङ्कर संहिता कई भागों में विभक्त है। इसके प्रथम खण्ड को 'शिवरहस्य' कहते हैं। इसमें सात काण्ड और 13000 श्लोक हैं। इसके सात काण्ड इस प्रकार हैं-- (1) संभव काण्ड (2) आसुर काण्ड (3) माहेन्द्रकाण्ड (4) युद्ध काण्ड (5) देवकाण्ड (6) दक्षकाण्ड और (7) उपदेश काण्ड। सनत्कुमार संहिता में केवल बाईस अध्याय हैं।

स्कन्दपुराण के खण्डों का विवरण निम्नांकित है :

1. माहेश्वर खण्ड के दो उपखण्ड हैं-- केदार खण्ड और कुमारिका खण्ड। इन दोनों में शिव-पार्वती की लीलाओं एवं तीर्थ व्रत, पर्वत आदि के सुन्दर वर्णन हैं।

2. वैष्णव खण्ड के अन्तर्गत उत्कल खण्ड हैं जिसमें जगन्नाथ जी के मन्दिर का वर्णन पाया जाता है।

3. ब्रह्मखण्ड के दो उपविभाग हैं--(1) ब्रह्माख्य खण्ड और (2) ब्रह्मोत्तर खण्ड। इसके दूसरे उपविभाग में उज्जयिनी और महाकाल का वर्णन है।

4. काशीखण्ड में काशी की महिमा तथा शैवधर्म का वर्णन है।

5. (क) रेवाखण्ड में नर्मदा की उत्पत्ति और इसके तटवर्ती तीर्थों का वर्णन है। इसी के अन्तर्गत सत्यनारायण व्रत कथा भी मानी जाती है।

6. (ख) अवन्तीखण्ड में उज्जयिनी में स्थित विभिन्न शिवलिङ्गों का वर्णन है।

6. तापीखण्ड में तापीनदी के तटवर्ती तीर्थों का वर्णन है। इसके षष्ठ उपखण्ड का नाम नागरखण्ड है। इसके तीन परिच्छेद हैं-- (1) विश्वकर्मा उपाख्यान (2) विश्वकर्मा वंशाख्यान और (3) हाटकेश्वर माहात्म्य। तीसरे खण्ड में नागर ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन है।

7. प्रभास खण्ड में प्रभास क्षेत्र का सविस्तर वर्णन है। 'सह्याद्रिखंड' आदि इसके प्रकीर्ण कतिपय अंश और भी प्रचलित हैं।

स्कन्दषष्ठी : आश्विन शुक्ल पक्ष की षष्ठी को स्कन्दषष्ठी कहा जाता है। पञ्चमी के दिन उपवास रखते हुए षष्ठी के दिन कुमार (स्वामी कार्तिकेय) की पूजा की जाती है। 'निर्णयामृत' के अनुसार दक्षिणापथ में भाद्र शुक्ल षष्ठी को स्वामी कार्तिकेय की प्रतिमा का दर्शन कर लेने से ब्रह्महत्या जैसे महान् पातकों से मुक्ति मिल जाती है। तमिलनाडु में स्कन्दषष्ठी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जैसा कि सौर वृश्चिक मास (कार्तिक शुक्ल 6) में पञ्चाङ्गों में उल्लिखित रहता है तथा जो देवालयों एवं गृहों में समारोहपूर्वक मनाया जाता है। हेमाद्रि 'चतुर्वर्ग चिन्तामणि' (622) में ब्रह्मपुराण से कुछ श्लोक उद्धृत करते हुए बतलाते हैं कि अमावस्या के दिन अग्नि से स्कन्द की उत्पत्ति हुई थी तथा वे चैत्र शुक्ल 6 को प्रकट हुए थे और तत्पश्चात् उन्हें समस्त देवों का सेनाध्यक्ष बनाया गया और उन्होंने तारक नामक राक्षस का बध किया। अतएव दीपों को प्रज्ज्वलित करके, वस्त्रों से, साज-सज्जाओं से ताम्रचूड (क्रीडन सामग्री के रूप में) इत्यादि से उनकी पूजा की जाय अथवा शुक्ल पक्ष की समस्त षष्ठियों को बच्चों के सुस्वास्थ्य की कामना वाले स्कन्द जी का पूजन होना चाहिए।

स्कन्दषष्ठीव्रत : कार्तिक शुक्ल षष्ठी को फलाहार करते हुए दक्षिणाभिमुख होकर स्वामी कार्तिकेय को अर्घ्‍य प्रदान करके उन्हें दही, घी, जल मन्त्र बोलकर समर्पित किये जाते हैं। व्रती को रात्रि के समय के समय खाली भूमि पर भोजन रखकर उसे ग्रहण करना चाहिए। इससे उसे सफलता, समृद्धि, दीर्घायु, सुस्वास्थ्य तथा खोया हुआ राज्य प्राप्त होता है। व्रती को षष्ठी के दिन (कृष्ण अथवा शुक्ल पक्ष की) तैल-सेवन नहीं करना चाहिए। पंचमी विद्धा स्कन्दषष्ठी को प्राथमिकता देनी चाहिए। 'गदाधर पद्धति' के कालसार भाग (83-84) के अनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष में स्कन्दषष्ठी होनी चाहिए।

स्तम्भन : अभिचार कर्म द्वारा किसी व्यक्ति के जड़ीकरण को स्तम्भन कहा जाता है। यह षट्कर्मान्तर्गत एक अभिचार कर्म है। फेत्कारिणीतन्त्र (पञ्चम पटल) में इसका वर्णन इस प्रकार है:

उलूककाक्योः पक्षौ गृहीत्वा मन्त्रवित्तमः। आलिख्य वै शरावे निशायाञ्च साध्याक्षरसंपुटितम्॥ मन्त्रं स्थापितवनं (कृतप्राणप्रतिष्ठम्) सहस्रजप्तं चतुष्पथे निखनेत्। स्तम्भवमेतदवश्यं भविता जगताञ्च नात्र सन्देहः.। कृत्वा प्रतिकृतिमथवा श्मशानाङ्गराकेशशववसनजाम्। सम्यगधिष्ठितपावनां हद्गतनाम्नीं समन्त्रललाटम्॥ वसनाधिष्ठितपवनां सहस्रजप्तां तदुल्क्या वसनाम्। दग्धं कृत्वा निखनेत् श्मशानदेशेः सपदि वाक्स्तम्भः॥ गरुडपुराण (पूर्वखण्ड 186.11-18) में अग्निस्तम्भन का विधान वर्णित है : माजूरस्य रसं गृह्य जलौका तत्र पेषयेत्। हस्तौ तू लेपयेत्तेन अग्निस्तम्भनमुत्तमम्॥ शाल्मलीरसमादाय खरमूत्रे निधाय तम्। अग्त्यागारे क्षिपेतेन अग्निस्तम्भनमुतमम्॥ वायसीमुदरं गृह्य मण्डूकवसया सह। गड़िकां कारयेत्तेन ततोऽग्नौ प्रक्षिपेद्वसी॥ एवमेतत्प्रयोगेण आग्नस्तम्भनमुत्तमम्॥ रक्तपाटलमूलतुं अवष्टब्धञ्च मूलकैः। दिव्यं स्तम्भ्यते क्षिप्रं पयं पिण्डं जलान्तकम्॥ मुण्डीतकवचाकुष्ठं मरीचं नागरं तथा। चर्वित्वा च इमं सद्यो जिह्वा ज्वलनं लिहेत्॥

स्तुति : (1) पूजापद्धति का एक अंग। इसका अर्थ है स्तव अथवा प्रशंसागान। इसमें देवताओं के गुणों का वर्णन होता है और उनसे स्तुतिकर्ता के अथवा संसार के कल्याण की कामना की जाती है। (2) दुर्गा का एक पर्याय। देवीपुराण (अध्याय 45) के अनुसार दुर्गा के निम्नांकित नाम है : स्तुति सिद्धिरितिख्यात् श्रयाः संश्रयाश्च सा। लक्ष्मीर्या ललना वापि क्रमात् सा कान्तिरुच्यते॥

स्तोता : वेदमन्त्र स्तुतिपाठक या स्तवकर्ता। ऋग्वेद (8.44-18) में कथन हैं : स्तोता स्यां तव शर्मणि। निघण्टु (3.13) में इसके तेरह पर्याय पाये जाते हैं।

स्तोत्र : स्तुति करने की वचनावली। मत्स्यपुराण (अध्याय 121) में इसके चार प्रकार बतलाये गये हैं :

ऋचो यजूंषि सामानि तथावत् प्रतिदैवतम्। विधिहोत्र तथा स्तोत्र पूर्ववत् सम्प्रवर्तते॥ द्रव्यस्तोत्रं कर्मस्तोत्रं विधिस्तोत्रं तथैव च। तथैवाभिजनस्तोत्रं स्तोत्रमेतच्चतुष्टयम्॥

स्तोम : साम (गान) के अन्तर्गत गीत और आलाप के पूरक एवं अर्थरहित अक्षरों को स्तोम कहते हैं। छान्दोज्ञोपनिद् ब्राह्मण (प्रथम प्रपाठक) में इसके त्रयोदश भेद बतलाये गये हैं।

स्त्रीधन : हिन्दू परिवार के पितृसत्तात्मक होने के कारण धर्मशास्त्र के अनुसार पुरुष कुलपति के मरने पर उत्तराधिकार परिवार के पुरुष सदस्यों को प्राप्त होता था। उनके अभाव में ही स्त्री उत्तराधिकारिणी होती थी। इस अवस्था में भी उसका उत्तराधिकार बाधित था। वह सम्पत्ति का केवल उपयोग कर सकती थी; वह उसे बेच अथवा परिवार से अलग नहीं कर सकती थी। उसके मरने पर पुनः पुरुष को अधिकार मिल जाता था। वह एक प्रकार से सम्पत्ति के उत्तराधिकार का माध्यम मात्र थी। परन्तु पारिवारिक सम्पत्ति को छोड़कर उसके पास एक अन्य प्रकार की सम्पत्ति होती थी जिस पर उसका पूरा अधिकार था। वह परिवार की पैतृक सम्पत्ति से भिन्न थी। उसको स्त्रीधन कहते थे। नारद के अनुसार स्त्रीधन छः प्रकार का होता है :

अध्यग्न्यभ्यावाहनिकं भर्तृदायं तथैव च। भातृदत्तं पितृभ्याञ्च षड्विधं स्त्रीधनं स्मृतम्॥

[विवाह के समय प्राप्त, विदाई के समय प्राप्त, पति से प्राप्त, भाई द्वारा दिया हुआ, माता औऱ पिता से दिया हुआ; यह छः प्रकार का स्त्रीधन कहलाता है।] दूसरे स्रोतों से धनसंग्रह करने में स्त्री के ऊपर प्रतिबन्ध लगा हुआ है। कात्यायन का कथन है :

प्राप्तं शिल्पैस्तु यद्वित्तं प्रीत्या चैव यदन्यतः। भर्तृः स्वाम्यं भवेत्तत्र शेषंतु स्त्रीधनं स्मृतम्॥

[जो धन शिल्प से प्राप्त होता है अथवा दूसरे प्रेमोपहार में प्राप्त होता है उसके ऊपर पति का अधिकार होता है; शेष को स्त्रीधन कहते हैं।] काम कर के कमाया हुआ धन परिवार के अन्य सदस्यों की कमाई की भाँति परिवार की सम्पत्ति होता है, जिसका प्रबन्धक पति है। स्त्रियों को अपने सम्बन्धियों के अतिरिक्त अन्य से प्रेपोपहार ग्रहण करने में प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है। कारण स्पष्ट है।

मिताक्षरा (अध्याय 2) ने स्त्रीधन का प्रयोग सामान्य अर्थ में किया है औऱ सभी प्रकार के स्त्रीधन पर स्त्री का अधिकार स्वीकार किया है। दायभाग (अध्याय 4) में स्त्रीधन उसी को मान गया है, जिस पर स्त्री को दान देने, बेचने का और पूर्णरूप से उपयोग (पति से स्वतन्त्र) करने का अधिकार हो। परन्तु सौदायिक (सम्बन्धियों से प्रेमपूर्वक प्राप्त) पर स्त्री का पूरा अधिकार माना गया है। कात्यायन का कथन है :

ऊढया कन्यया वापि पत्युः पितृगृहेऽथवा। भर्तृछ सकाशात् पित्रोर्वा लब्धं सौदायिकं स्मृतम्॥ सौदायिकं धनं प्राप्य स्त्रीणां स्वातन्त्रमिष्यते। यस्मात्तदानृशंस्यार्थ तैर्दत्तं तत् प्रजीवनम्॥ सौदायिके सदा स्त्रीणां स्वातन्त्र्यं परिकीर्तितम्। विक्रये चैव दाने च यथेष्टं स्थावरेष्वपि॥ किन्तु नारद ने स्थावर पर प्रतिबन्ध लगाया है : भर्त्रा प्रीतेन यद्दत्तं स्त्रियै तस्मिन् मृतेऽपि तत्। सा यथा काममश्नीयाद्दद्याद्वा स्थावरादृते॥

[जो धन प्रीतिपूर्वक पति द्वारा स्त्री को दिया जाता है उस धन को पति के मरने पर भी स्त्री इच्छानुसार उपभोग में ला सकती है, अचल सम्पत्ति को छोड़ कर।] कात्यायन के अनुसार किन्हीं परिस्थितियों में, स्त्री स्त्री धन से वञ्चित की जा सकती है :

अपराक्रियायुक्ता निर्लज्जा चार्थनाशिनी। व्यभिचाररता या च स्त्रीधनं न च सार्हति॥

[अपकार क्रिया में रत, निर्लज्जा, अर्थ का नाश करने वाली, व्यभिचारिणी स्त्री स्त्रीधन की अधिकारिणी नहीं होती।] सामान्य स्थिति में पति आदि सम्बन्धियों का स्त्रीधन के उपयोग में अधिकार नहीं होता। विपत्ति आदि में उपयोग हो सकता है :

न भर्ता नैव च सुतो न पिता भ्रातरो न च।

आदाने वा विसर्ग वा स्त्रीधनं प्रभविष्णवः॥ कात्यायन

दुर्भिक्षे धर्मकार्ये वा व्याधौ संप्रतिरोधके।

गृहीतं स्त्रीधनं भर्ता नाकामी दातुमर्हति॥ याज्ञवल्क्य मृत सभी के स्त्रीधन पर जिसका अधिकार होगा, इस पर किसका अधिकार होगा, इस पर भी धर्मशास्त्र में विचार हुआ है :

सामान्यं पुत्रकन्यानां मृतायां स्त्रीधनं विदुः।

अप्रजायां हरेद्भर्ता माता भ्राता पितापि वा॥--देवल

पुत्र के अभाव में दुहिता और दुहिता के अभाव में दौहित्र को स्त्रीधन प्राप्त होता है :

पुत्राभावे तु दुहिता तुल्यसन्तानदर्शनात्।--नारद

दौहित्रोऽपि ह्यमुत्रैनं संतारयति पौत्रवत्।---मनु

स्त्रीपुत्रकामावाप्तिव्रत : यह मास व्रत है। सूर्य इसके देवता हैं। जो स्त्रियाँ कार्तिक मास में एकभक्त पद्धति से आहार करती हुई अहिंसा आदि नियमों का पालन करती हैं तथा गुड़मिश्रित उबले हुए, चावलों का नैवेद्य अर्पण करती हैं एवं षष्ठी या सप्तमी को मास के दोनों पक्षों में उपवास करती हैं वे सीधी सूर्यलोक सिधारती हैं। जब वे पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में लौटती हैं तो राजा अथवा अभीष्ट पुरुष को पति रूप में प्राप्ति करती हैं।

स्त्रीपुंधर्म : स्त्री और पुरुष के पारस्परिक व्यवहार को स्त्रीपुंधर्म कहते हैं। अष्टादश विवादों (मुकदमों) में से एक विवाद का नाम भी स्त्रीपुंधर्म है (मनु अध्याय 8)।

इसका पूरा विवरण मनुस्मृति के नवम अध्याय में पाया जाता हैं।

स्थिण्डिल : यज्ञ के लिए परिष्कृत भूमि पर बना हुआ ऊँचा चबूतरा। जहाँ बिना किसी बाधा के बैठा जा सके वह स्थान स्थण्डिल है।

इसके बनाने का तिथ्यादितत्त्व में निम्नांकित विधान है :

नित्यं नैमित्तिके काम्यं स्थण्डिले वा समाचरेत्। हस्तमात्रं तु तत्कुर्यात् चतुरत्नं समन्ततः॥

[नित्य, नैमित्तिक अथवा काम्य कोई भी कर्म हो स्थण्डिल पर ही करना चाहिए। इसका परिमाण चौकोर एक हस्तमात्र है।]

स्थपति : यज्ञमंडप, भवन, देवागार, राजप्रासाद, सभा, सेतु आदि का निर्माता। इसको बृहस्पतिसव नामक यज्ञ करने का अधिकार होता है। मत्स्यपुराण (215.39) में इसका लक्षण निम्नांकित है :

वास्तुविद्याविधानज्ञो लघुहस्तो जितश्रमः। दीर्घदर्शी च शूरश्च स्थपतिः परिकीर्तितः.।

[वास्तुविद्याविधान का ज्ञाता, हस्तकला में कुशल, कभी न थकने वाला, दीर्घदर्शी तथा शूर को स्थपति कहा जाता है।]

स्थाणु : शिव का एक पर्याय। इसका अर्थ है जो स्थिर रूप से वर्तमान है। वामनपुराण (अधअयाय 46) में पुराकथा के रूप में इसका कारण बतलाया गया है :

समुत्तिष्ठन् जलात्तस्मात् प्रजास्ताः सृष्टवानहम्। ततोऽहं ताः प्रजा दृष्ट्वा रहिता एव तेजसा॥ क्रोधेन महता युक्तो लिङ्गमुत्पाद्य चाक्षिपम्। उत्पिक्षतं सरसो मध्ये ऊर्ध्वमेव यदा स्थितम्। तदा प्रभृति लोकेषु स्थाणुरित्येव विश्रुतम्॥

[मैंने जल से उठकर उन प्रजाओं की उत्पत्ति की। इसके पश्चात् देखा कि वे तेज से रहित हैं। तब महान् क्रोध से युक्त होकर मैने शिवलिङ्ग की सृष्टि की और उसे जल में फेंक दिया। वह उत्क्षिप्त लिङ्ग जल के बीच में ऊर्ध्व (ऊपर उठा हुआ) स्थित हो गया तब से लोक में वह स्थाणु नाम से प्रसिद्ध है।]

स्थाणु तीर्थ : कुरुक्षेत्र के समीप अम्बाला से 27 मील पर स्थित एक शैव तीर्थ। अब यह थानेश्वर कहलाता है। इसके निकट सान्निहत्य सरोवर था। इसका माहात्म्य वामनपुराण ((अध्‍याय 43) में दिया हुआ है।

एतत् सन्निहितं प्रोक्तं सरः पुण्यप्रदं महत्। स्थाणुलिङ्गस्य माहात्म्यं ब्रह्मन् मेऽवहितः श्रृणु॥ अचेतनः सचेता वा अज्ञो वा प्राज्ञ एव वा। लिङ्गस्य दर्शनादेव मुच्यते सर्वपातकै:॥ पुष्करादीनि तीर्थानि समुद्रचरणानि च। स्थाणुतीर्थ समेष्यन्ति मध्यं प्राप्ते दिवाकरे॥ तत्र स्थास्यति यो ब्रह्मन् माञ्च स्तोष्यति भक्तितः। तस्याहं सुलभो नित्यं भविष्यामि न संशयः॥

स्थाण्वीश्वर : कुरुभूमि में अम्बाला के निकट शंकरजी की प्रमुख मूर्ति। पहले यहाँ सरस्वती नदी बहती थी। संप्रति यह स्थल थानेश्वर कहलाता है। बाणभट्ट ने हर्षचरित में इसका वर्णन किया है। वामनपुराण (अध्याय 42) में इसका माहात्म्य पाया जाता है।

स्थालीपाक : यज्ञार्थ स्थाली (बटलोई) में पकाया हुआ चरु अथवा खीर। अष्टकाश्राद्ध में अथवा अन्य पशुयागों में स्थालीपाक पशु का प्रतिनिधि होता था। गोभिल ने पशु के विकल्प में स्थालीपाक का विधान किया है :

अपि वा स्थालीपाकं कुर्वीत।

स्थितप्रज्ञ : जिस पुरुष की प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। भगवद्गीता (अध्याय 2, श्लोक 55-56) में स्थितप्रज्ञ की परिभाषा दी हुई है :

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥ दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥

[हे पार्थ! जब पुरुष सभी मनोगत भावों को त्याग देता है और अपने आत्मा में अपने आप संतुष्ट रहता है तब उसको स्थितप्रज्ञ कहते हैं। जिसका मन दुःखों में अनुद्विग्न नहीं होता, जो सुखों में कामना से रहित होता है, जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो, चुके हैं उसको स्थितधी (स्थितप्रज्ञ) मुनि कहते हैं।]

स्थितितत्त्व : प्रकृति के परिणामस्वरूप सृष्टि होने के अनन्तर उस सृष्टि की एक काल सीमा। प्राणतत्व की आकर्षण और विकर्षणात्मक दो शक्तियाँ। प्रथम रागात्मिका शक्ति है, जो कामशक्ति में परिणत होकर जीवसृष्टि का कारण बनती है। दूसरी शक्ति विकर्षण तमोगुणात्मिका है जिसकी सहायता से प्रलय स्थिति का निर्माण होता है।

सृष्टि काल में जिस प्रकार ब्रह्माजी की ब्रह्माण्डव्यापिनी शक्ति प्रलयान्धकार परिपूर्ण जीवों की सृष्टि प्रकाश की ओऱ आकर्षित करती है, उसी प्रकार स्थिति काल में भगवान् विष्णु की व्यापिका शक्ति प्रजापतिसृष्ट प्रजा की स्थिति और रक्षा करती है। इसी प्रकार भगवान् रुद्र की व्यापक शक्ति सृष्टिकाल से ही कार्यकारिणी होकर समस्त जड़ृ-चेतनात्मक विश्व को महाप्रलय की ओर आकर्षित करती है। इन शक्तियों की व्यापकता के कारण इनकी क्रिया एक सूक्ष्म अणु से लेकर देवतापर्यन्त विस्तृत रहती हैं। जो आकर्षण शक्ति सृष्टि काल में प्रत्येक परमाणु के अन्दर द्व्यणुक त्रसरेणु आदि उत्पन्न करती है यह सब ब्राह्मी व्यापक शक्ति की ही क्रियाकारिता हैं। कोई भी जीव अपनी रक्षा के लिए यदि किसी प्रकार की प्रतिक्रिया करता है तो यह वैष्णवी शक्ति की व्यापकता का परिणाम है; जिससे उसे रक्षा करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। इसी प्रकार रोग शोकादि द्वारा जब जीव अपने इस पाञ्चभौतिक देह का परित्याग करता है तो यह रौद्री शक्ति का परिणाम है जो सर्वत्र व्याप्त रहने के कारण अपना कार्य करती रहती है।

इस प्रकार इन तीनों शक्तियों के अधिष्ठाता ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र देव हैं। अतएव स्पष्ट है कि सृष्टि की स्थिति में मूल कारणभूत सत्त्वगुण विशिष्ट वैष्णवी शक्ति कार्यनिरत रहकर संसार के स्थितिस्थापकत्व कार्य. को पूर्ण करती है।

स्नात : स्नान किया हुआ। धार्मिक कृत्य करने के पूर्व स्नान करना आवश्यक है। प्रायः प्रत्येक धर्म में जल पवित्र करने वाला माना गया है। 'प्रायश्चित्त तत्त्व' में स्नान की धार्मिक अनिवार्यता इस प्रकार बतलायी गयी है :

स्नातोऽधिकारी भवति दैवे पैत्रे च कर्मणि। अस्नातस्य क्रिया सर्वा भवन्ति हि यतोऽफला॥ प्रातः समाचरेत्स्नानमतो नित्यमतिन्द्रितः॥

[मनुष्य दैव औऱ पैत्र (पितर सम्बन्धी) कर्म में स्नान किये बिना सम्पूर्ण क्रियाएँ निष्फल होती हैं इसलिए आलस्य छोड़कर नित्य प्रातः स्नान विधिवत् करना चाहिए।]

स्नातक : जो वेदाध्ययन और ब्रह्मचर्य आश्रम समाप्त कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की कामना से समावर्तन संस्कार में स्नान कर लेता है उसको स्नातक कहते हैं। विद्या की उपमा सागर से दी जाती है। जो इस सागर में अवगाहन कर बाहर निकलता है वह स्नातक कहलाता है। स्नातक तीन प्रकार के होते हैं--(1) विद्यास्नातक (2) व्रतस्नातक और (3) उभयस्नातक। जो वेदाध्ययन तो पूरा कर लेता है परन्तु ब्रह्मचर्य आश्रम के सभी नियमों का पूरा पालन किये बिना गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की अनुज्ञा माँगने जाता है उसको विद्यास्नातक कहते हैं। जो ब्रह्मचर्य व्रत का पूरा पालन करता है परन्तु वेदाध्ययन पूरा नहीं कर पाता है वह व्रतस्नातक है। जो विद्या और व्रत दोनों का पूरा पालन करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है वह उभयस्नातक (पूर्णस्नातक) कहलाता है।

स्नान : नित्य, नैमित्तिक, काम्य भेद से स्नान तीन प्रकार का होता है। नैमित्तिक स्नान ग्रहण, अशौच आदि में होता है। तीर्थों का स्नान काम्य कहा जाता है। नित्य स्नान प्रति दिनों का धार्मिक कृत्य माना गया है। ये तीन मुख्य स्नान हैं। इनके अतिरिक्त गौण स्नान भी हैं जो सात प्रकार के हैं, जिनका प्रयोग शरीर के अवस्थाभेद से किया जाता है :

(1) मान्त्र (मन्त्र से स्नान)। 'आपो हिष्ठा' आदि वेद मन्त्रों के द्वारा।

(2) भौंम (मिट्टी से स्नान)। सूखी मिट्टी शरीर में मसलना।

(3) आग्नेय (अग्नि से स्नान)। पवित्र भस्म सारे शरीर में लगाना।

(4) वायव्य (वायु से स्नान)। गौओं के खुरों से उड़ी हुई धूल शरीर पर गिरने देना।

(5) दिव्य (आकाश से स्नान)। धूप निकलते समय वर्षा में स्नान करना।

(6) वारुण (जल से स्नान)। नदी-कूप आदि के जल से स्नान करना।

(7) मानस (मानसिक स्नान)। विष्णु भगवान् के नामों का स्मरण करना।

धर्म कार्य के पूर्व स्नान करना अनिवार्य बतलाया गया है।

स्नानयात्रा : ज्येष्ठपूर्णिमा के दिन जगन्नाथपुरी में रूपोत्सव को स्नानयात्रा कहते हैं। ब्रह्मपुराण, स्कन्द पुराण, विष्णुधर्मोत्तर पुराण आदि में इसका माहात्म्य पाया जाता है।

स्नापन सप्तमीव्रत : यह व्रत उन महिलाओं के लिए है जिनके बालक शैशव काल में दिवंगत हो जाते हैं। दे० भविष्योत्तर पुराण, 52.1--40।

स्नेहव्रत : यह मासव्रत है। भगवान् विष्णु इसके देवता हैं। व्रती को आषाढ़ मास से चार मास तक तैलस्नान का परित्याग कर पायस तथा घी का आहार करना चाहिए। व्रत के अन्त में तिल के तेल से परिपूर्ण एक कलश दान में देना चाहिए। इस व्रत से व्रती सबका स्नेह-जन बन जाता है।

स्पन्द : अङ्गविशेष का हलका कम्पन। विश्वास है कि इसका शुभाशुभ फल होता है। 'मलमासतत्त्व' में कथन है :

चक्षुःस्पन्दं भुजस्पन्दं तथा दुःखप्रदर्शनम्। शत्रूणाञ्च समुत्थानमश्वत्थ शमयाशु मे।

मत्स्यपुराण (241.3-14) में इसके शुभाशुभ फल का विस्तार से वर्णन है।

स्पर्श : धार्मिक क्रियाओं में विविध अङ्गों के स्पर्श का विधान पाया जाता है। सन्ध्योपासना में आचमन के पश्चात् विभिन्न अङ्गों का स्पर्श किया जाता है। इसका उद्देश्य है उनको प्रबुद्ध करना अथवा उनकी ओऱ ध्यान केन्द्रित करना। उपनयन संस्कार में आचार्य शिष्य के हृदय का स्पर्श कर उसके औऱ अपने बीच में भावात्मक सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। इसी प्रकार विवाहसंस्कार में पति पत्नी के हृदय का स्पर्श करता है और कहता है कि मैं तुम्हारे हृदय की बात जानता रहूँगा और तुम्हारा हृदय अपने हृदय में धारण करता हूं। आदि।

बहुत से अभिचार कर्मों में स्पर्श का उपयोग होता है। इसका उद्देश्य स्पृष्ट व्यक्ति को आदिष्ट अथवा आविष्ट करना होता है।

धर्मशास्त्र में शुचिता की दृष्टि से बहुत सी वस्तुओं तथा व्यक्तियों का स्पर्श निषिद्ध बतलाया गया है। यथा, उच्छिष्ट के स्पर्श का बहुधा निषेध है। कुछ उदाहरण निम्नांकित हैं :

न स्पृशेत् पाणिनोच्छिष्टं विप्रगोब्राह्मणानलान्। न चानलं पदा वापि न देवप्रतिमां स्पृशेत्॥ (कूर्म पुराण, उपविभाग 16.35)

पाने मैथुनसंसर्गे तथा मूत्रपुरीषयोः। स्पर्शनं यदि गच्छेतु शवोदक्यांत्यगैः सह॥ दिनमेकं चरेन्मूत्रे पुरीषे तु दिनद्वयम्। दिनत्रयं मैथुने स्यात् पाने स्यात्तच्चतुष्टयम्॥ (दक्षस्मृति)

रजस्वला स्त्री के स्पर्श का तो तीन दिनों तक बहुत निषेध और प्रायश्चित्त है। देवकार्य के लिए रजस्वला पाँचवें दिन शुद्ध होती है।

स्मार्त : स्मृतियों में विहित विधि-आचार आदि, अथवा इस व्यवस्था को मानने वाला। मनु (1.108) का कथन है :

आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च। तस्मादस्मिन् सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् दिव्जः॥

[आचार ही परम धर्म है। यह श्रुति में उक्त और स्मार्त (स्मृतियों के अनुकूल) है। इसलिए आत्मवान् (आत्मज्ञानी) द्विज वही होता है जो सदा इनके अनुसार आचरण करता हैं।] वैष्णवों में 'स्मार्त' और 'भागवत' दो भेद आचार की दृष्टि से पाये जाते हैं। स्मार्त वैष्णव वे हैं जो परम्परागत स्मृति विहित धर्म का पालन करते हैं। भागवत वैष्णव परम्परा और विधि के स्थान पर भक्त और आत्मसमर्पण पर बल देते हैं; अतः वे स्मार्त धर्म के प्रति उदासीन हैं।

स्मृति : (1) अनुभूत विषय का ज्ञान अथवा अनुभव-संस्कार जन्य ज्ञान। यह बुद्धि का दूसरा भेद है। इसका पहला भेद अनुभूति है। 'उज्ज्वलनीलमणि' में भक्ति की दृष्टि से स्मृति का निरूपण निम्नांकित प्रकार से है :

अनुभूतप्रियादीनामर्थानां चिन्तनं स्मृतिः। तत्र कम्पाङ्गवैवर्ण्यष्वापनिःश्वसितादयः॥

(2) धर्म के प्रमाणों अथवा स्रोतों में स्मृति की गणना है। मनुस्मृति (2.12) के अनुसार

श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥

[श्रुति (वेद), स्मृति, सदाचार और अपने आत्मा को प्रिय (आत्मतुष्टि, इन्द्रयतुष्टि नहीं) ये चार प्रकार के साक्षात् धर्म के लक्षण कहे गये हैं।] इन प्रमाणों में श्रुति अथवा वेद स्वतः प्रमाण और स्मृति आदि परतः प्रमाण हैं। परन्तु व्यावहारिक धर्म में स्मृतियों का बहुत महत्त्व है, क्योंकि धर्म की नियमित व्यवस्था स्मृतियों में ही उपलब्ध है।

धर्मशास्त्र में स्मृति का मूल अर्थ केवल मन्वादि प्रणीत स्मृतियाँ ही नहीं हैं। मूलतः इसमें वे सभी आचार-विचार सम्मिलित थे जो वेदविद् आचारवान् पुरुषों की स्मृति और आछरण में पाये जाते थे। इसमें सभी सूत्र-ग्रन्थ-श्रौत, गृह्य और धर्म-महाभारत, पुराण और मनु आदि स्मृतियाँ समाविष्ट हैं। गौतम धर्मसूत्र का कथन है `वेदो धर्ममूलम्। तद्विदाञ्च स्मृतिशीले।` (वेद धर्म का मूल है और उसको जानने वाले पुरुषों की स्मृति तथा शील भी।) मेधातिथि ने मनुस्मृति के `स्मृतिशीले च तद्विदाम` का भाष्य करते हुए लिखा है `वेदार्थविदाम् इदं कर्तव्यम् इदन्न कर्तव्यम् इति यत् स्मरणं तदपि प्रमाणम्।` परन्तु धीरे-धीरे विशाल धर्मशास्त्र की सामग्रियों ने संग्रह अथवा संहिता का रूप धारण किया और वे स्मृतिग्रन्थों के रूप में प्रसिद्ध हुईं और समय समय पर आगे भी स्मृतियाँ आवश्यकतानुसार बनती गयीं। प्राचीन सूत्रग्रन्थों और स्मृतियों में रचना की विद्या की दृष्टि से एक विशेष अन्तर है। सूत्र सभी अत्यन्त सूक्ष्म और सूत्रात्मक है। स्मृतियाँ, विष्णुस्मृति को छोड़कर, सभी पद्यात्मक हैं और विवेचन तथा वर्णन की दृष्टि से विस्तृत।

स्मृतियों की संख्या बढ़ते-बढ़ते बहुत बड़ी हो गयी। इनकी सूची कई ग्रन्थों में पायी जाती हैं। अपरार्क ने अपने भाष्य (पृ० 7) में गौतम धर्मसूत्र से एक सूत्र उद्धृत किया है जिसमें स्मृतिकारों की सूची है। (इस समय मुद्रित गौतम धर्मसूत्र में यह नहीं मिलता है।) यह सूची इस प्रकार है :

स्मृतिधर्मशास्त्राणि तेषां प्रणेतारो मनु-विष्णु-दक्षाङ्गिरो-अत्रि-बृहस्पति-उश्न आपस्तम्बगौतम-संवर्त-आत्रेय-कात्यायन-शङ्ख-लिखित-पराशर-व्यास-शातातप--प्रचेता-याज्ञ वल्क्यआदयः॥'

दूसरी सूची याज्ञवल्क्य स्मृति (1.4-5) में पायी जाती हैं, जिसके अनुसार स्मृतियों की संख्या बीस हैं :

वक्तारो धर्मशास्त्राणां मनु-विष्णु-यमोऽङ्गिरा।, वसिष्ठ-दक्ष-संवर्त-शातातप-पराशराः॥, आपस्तम्बोशनो-व्यासाः कात्यायन-बृहस्पती।, गौतमः शङ्खलिखितौ हारीतोऽत्रिरहं तथा॥.

धर्मशास्त्र के वक्ता 1. मनु, 2. विष्णु 3. यम 4. अङ्गिरा 5. वसिष्ठ 6. दक्ष 7. संवर्त 8. शातातप 9. पराशर 10. आपस्तम्ब 11. उशना 12. व्यास 13. कात्यायन 14. बृहस्पति 15. गौतम 16. शङ्क 17. लिखित 18. हारीत 19. अत्रि और 20. याज्ञवलक्य। इस सूची में प्राचीन स्मृतिकार बौधायन क नाम नहीं हैं। पराशर ने अपने को छोड़कर उन्नीस धर्मशास्त्रकारों का नाम दिया है। किन्तु यह सूची याज्ञवल्क्य से भिन्न है। इसमें बृहस्पति, यम और व्यास के नाम नहीं हैं। नये नाम कश्यप, गार्ग्य और प्रचेता हैं। कुमारिल के तन्त्रवार्तिक (पृ० 125) में अठारह धर्मसंहिताओं का उल्लेख हैं। 'चतुवंशतिमत' में चौबीस धर्मंशास्त्रकार ऋषियों के मतों का संग्रह हैं। इसमें कात्यायन और लिखित को छोड़कर याज्ञवल्क्य द्वारा परिगणित भी स्मृतिकार और इनके अतिरिक्त गार्ग्य, नारद, बौधायन, वत्स, विश्वामित्र और शङ्ख, (सांख्यायन) का समावेश हैं। 'षट्त्रिंशन्मतं' (मिताक्षरा में उद्घृत) में छत्तीस स्मृतियों के मतों का संकलन है। पैठीनसि (स्मृतिचन्द्रिका में उद्धृत) नें स्मृतियों की संख्या छत्तीस बतलायी हैं। वृद्ध गौतम स्मृति (जीवानन्द संस्करण, भाग 2 पृ० 498-99) में सत्तावन स्मृतियों की सूची दी हुई हैं। यदि भाष्यकारों और निबन्धकारों द्वारा उद्धृत सभी धर्मशास्त्रकारों को जोड़ा जाय तो नकी संख्यां एक सौ इकत्तीस पहुँचती हैं (कमलाकर भट्ट : नर्णय सिन्धु)। एक तो युगपरिवर्तन के कारण नयी स्मृतियाँ स्वयं बनती जाती थीं, दूसरे विभिन्न धर्मशास्त्रीय सम्प्रदाय वाले लघु, बृहत् और वृद्ध जोड़कर अपने साम्प्रदायिक धर्मशास्त्र का विकास करते जाते थे। इनके रचनाकाल के सम्बन्ध में बहुत मतभेद हैं। परन्तु इनको दूसरी शती ई० पू० और आठवीं शती इ० प० के बीच रखा जा सकता है। (दे० काशी प्रसाद जायसवाल : मनु ऐण्ड याज्ञवल्क्य; म० पाण्डुरंग काणे ; धर्मशास्त्र का इतिहास, जिल्द 1)।

स्मृतियों में जिन विषयों का वर्णन हैं उनकी तीन मुख्य वर्ग किए जा सकते हैं--1. आचार 2. व्यवहार और 3. प्रायश्चित (दे० याज्ञवल्क्यस्मृति)। आचार वर्ग में साधारण, विसेष, नित्य, नैमित्तिक, आपद्धर्म सभी का वर्णन है। विशेषकर वर्ण और आश्रम-धर्म का विस्तार से वर्णन किया गया है। व्यवहार वर्ग के अन्तर्गत, राजधर्म, प्रशासन, विधि आदि विषयों का समावेश है। प्रायश्चित्त के अन्तर्गत विविध अपराधों और पापों से मुक्त होने के लिए अनेक तप, व्रत, दान आदि कर्मकाण्डों का विधान है। इनके अतिरिक्त धर्म, समाज, राज्य, व्यक्ति सम्बन्धी यथासंभव सभी विषयों का विवेचन स्मृतियों में पाया जाता हैं।

सभी स्मृतियों के प्रामाण्य का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। पुरातनवादी स्मृति-भाष्यकारों और निबन्धकारों का मत है कि सभी स्मृतियाँ समान रूप से मान्य हैं, क्योंकि सभी ऋषिप्रणीत हैं और ऋषियों का मत कभी अमान्य नहीं हो सकता। यदि यह मत स्वीकार किया जाय तो बड़ी कठिनाई उत्पन्न हो जाएगी। देखने पर स्पष्ट है कि स्मृतियों में परस्पर बहुत मतभेद है और यदि सभी को छूट मिल जाय कि जो जिस स्मृति को पसन्द करे उसी का पालन करे तो समाज में अराजकता फैल जायेगी। इस लिए यह मत ग्राह्य नहीं हो सकता। दूसरा मत यह है कि मनुस्मृति सबसे अधिक प्रामाणिक है; अतः जो स्मृति उसके अतुकूल है वह मान्य और जो उसके प्रतिकूल है वह अमान्य हैं :

मन्वर्थविपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते'। तब प्रश्न यह उठता है कि वे सभी स्मृतियाँ व्यर्थ ही रची गयीं, जिनका मनु से मतभेद है। यह मानना कि अनेक परवर्ती स्मृतियों की रचना व्यर्थ हुई, बुद्धिसंगत नहीं जान पड़ता। तीसरा मत यह है कि जहाँ स्मृतियों के वाक्यों में विरोध हो वहाँ बहुमत को मानना चाहिए :

विरोधो यत्र वाक्यनां प्रामाण्यं तत्र भूयसाम्।, (गोभिल, 3.149)

तस्माद्विरोधे धर्मस्य निश्चित्य गुरुलाधवम्।, यतो भयः ततो विद्वान कूर्यात विनिर्णयम्॥, (स्मृतिचन्द्रिका, संस्कार काण्ड)

[इसलिए धार्मिक वाक्यों के विरोध होने पर उनकी गुरुता (गंभीरता) और लघुता (हल्कापन) का विचार कर, जो अधिक गंभीर और बहुसम्मत हो, विद्वान् को उसी के अनुसार निर्णय करना चाहिए।]

चौथा मत है कि विभिन्न स्मृतियाँ विभिन्न युगों में उनकी आवश्यकता के अनुसार लिखी गयी थीं। अतः विभिन्न स्मृतियाँ विभिन्न युगों के लिए मान्य हैं :

अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे।, अतो कलियुगे नृणां युगह्रासानुरूपतः॥ मनु, 1.85

[कृतयुग (सतयुग) में अन्य प्रकार के धर्म थे। त्रेता में अन्य। और द्वापर में अन्य (उनसे भिन्न)। इसलिए कलियुग में मनुष्यों के लिए अन्य धर्म हैं। ये धर्म युगह्रास के अनुरूप हैं।]

इस सिद्धान्त के अनुसार पराशर स्मृति (1.24) में मुख्य स्मृतियों को विभिन्न युगों में विभाजित कर दिया गया हैं :

कृते तु मानवा धर्मास्त्रेतायां गौतमाः स्मृताः।, द्वापरे शङ्खलिखिताः कलौ पाराशराः स्मृताः॥,

[कृतयुग में मानव धर्मशास्त्र प्रामाणिक है; त्रेता में गौतम धर्मशास्त्र; द्वापर में शङ्खलिखित और कलि में पाराशर धर्मशास्त्र।]

सिद्धान्त में युगधर्म स्वीकार किया गया है। परन्तु मनु और याज्ञवल्क्य तथा उनकी टीकाएँ आज भी प्रामाणिक मानी जाती हैं। ये टीकाएँ ही युगधर्म की दिशाप्रवर्तक हैं।

स्वधर्म : अपने स्वभाव अर्थात् वर्ण औऱ आश्रम के अनुसार जिसका जो धर्म विहित हैं, वह उसका स्वधर्म हैं। उसके पालन से ही कल्याण होता हैं। उसको छोड़कर अपने स्वभाव के प्रतिकूल दूसरे के धर्म के पालन से अनिष्ट होता हैं। नृसिंह पुराण में कथन हैं :

यो यस्य विहितों धर्मः स तज्जातिः प्रकीर्तितः।, तस्मात् स्वधर्म कुर्वीत द्विजों नित्यामनापदि॥, चत्वारो वर्णा राजेन्द्र चरेयुश्चापि आश्रमाः।, ऋते स्वधर्म विपुलं न ते यान्ति परां गतिम्॥, स्वधर्मेण यथा नृणां नरसिंहः प्रत्युष्यति।, न तुष्यति तथान्येन वेदवाक्येन कर्मणा॥

ब्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृतिखण्ड, 51.45-47) में स्वधर्मत्यागी को कृतघ्न कहा गया है और उसकी निन्दा की गयी हैं :

स्वधर्म हन्ति ये विप्रः सन्ध्यात्रयविवर्जितः।, अतर्पणञ्च यत्स्नानं विष्णुनैवेद्यवञ्चितः॥, विष्णुमन्त्र--विष्णुपूजा-विष्णुभक्तिविहीनकः।, एकादशीविहीनश्च श्रीकृष्णजन्मवासरे॥, शिवरात्रौ च यो भुङ्क्ते श्रीरामनवमीदिने।, पितृकृत्यं देवकृत्यं स कृतघ्न इति स्मृतम्॥,

भगवद्गीता में भी स्वधर्म का माहात्म्य बतलाया गया हैं :

श्रेयान् स्वधर्मों विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।, स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मों भयावहः॥,

[गुणरहित भी अपना धर्म दूसरे के भलीभाँति अनुष्ठित धर्म से श्रेयस्कर है। अपने धर्म के पालन में मृत्यु श्रेयस्कर है। दूसरे का धर्म भयावह हैं।]

स्वधा : (1) स्वादपूर्वक ग्रहण करने की क्रिया। देवताओं के लिए हविर्दान मन्त्र के साथ 'स्वाहा' कहते हैं। स्वधा का प्रयोग पितरों के लिए ही किया जाता हैं।

(2) भागवत पुराण के अनुसार स्वधा दक्ष की कन्या थी। वह पितरों की पत्नी थी। उशकी दो कन्याएँ हुई---यमुना और धारिणी। ये दोनों तपस्विनी थीं। अतः इनकी कोई सन्तान नहीं थी। व्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृतिखण्ड, अध्याय 41) के अनुसार स्वधा ब्रह्मा की मानसी कन्या और पितरों की पत्नी थी। इस पुराण में इसकी विस्तृत कथा दी हुई है।

स्वप्न : इसका एक अर्थ है निद्रा, दूसरा है निद्रा के सोये हुए व्यक्ति का विज्ञान। सुश्रुत (शरीर स्थान, अध्याय 4) ने स्वप्न को निम्नांकित प्रकार से बतलाया हैं :

पूर्वदेहानुभूतांस्तु भूतात्मा स्वपतः प्रभुः।, रजोयुक्तेन मनसा गृह्ल्यात्यर्थान् शुभाशुभान्॥, करणानान्तु वैकल्ये तमसाभिप्रवर्द्धिते।, अस्वपन्नपि भूतात्मा प्रसुप्त इव चोच्यते॥,

[जीवात्मा सोता हुआ रजोगुण से युक्त मन द्वारा अपने शरीर से पूर्व अनुभूत शुभ तथा अशुभ पदार्तों को ग्रहण करता है। तमोगुण के बढ़ जाने पर न सोता हुआ भी जीवात्मा सोते हुए की भाँति कहा गया हैं।]

ब्रह्मवैवर्त पुराण (श्रीकृष्ण जन्म खण्ड, सुस्वप्नदर्शन नामक 77 अध्याय) में शुभाशुभ स्वप्न-फल का विस्तृत वर्णन हैं।

स्वभाव : अपना भावया मानसिक विचार। उज्ज्वल नीलमणि में स्वभाव की परिभाषा निम्नांकित हैं :

बहिर्हत्वनपेक्षा तु स्वभावोऽथ प्रकीर्तितः।, निसर्गश्च स्वरूपश्चेत्येषोऽपि भवति द्विधा॥, निसर्गः सुदृढ़ाभ्यासजन्यः संस्कार उच्यते।, अजत्यस्तु स्वतः सिद्धः स्वरूप भाव इष्यते॥,

[जो किसी बाहरी हेतु (कारण) की अपेक्षा न रखता हो उसको स्वभाव कहा जाता है। इसके निसर्ग और स्वरूप दो भेद होते हैं। सुदृढ़ अभ्यास से उत्पन्न संस्कार को निसर्ग कहते हैं। जो किसी से उत्पन्न नहीं होता औऱ जो स्वतः सिद्ध है उसको स्वरूप भाव कहते हैं।]

स्वभूरामदेव : निम्बार्क सम्प्रदायाचार्य एवं मध्यकालीन धर्मरक्षक वैष्णव महात्मा, जिन्होंने पंजाब की ओर हिन्दुओं की धार्मिक आस्था को अपनी तपश्चर्या से ओजस्वी बनाया। अखिल भारत में धर्म प्रचार करने वाले आचार्य हरिव्यासदेव (पंद्रहवी शताब्दी) के द्वादश शिष्यों में ये प्रथम एवं पट्टशिष्य थे। समयानुसार हरिव्यासदेवजी ने व्यापक धर्मप्रचार के उद्देश्य से मठ, मन्दिर द्वारा गद्दी की प्ररम्परा चलायी और अपने शिष्य-प्रशिष्यों को विभिन्न प्रदेशों में इसके लिए भेजा। उस समय गोरखपन्थी नाथ साधु साधनमार्ग से हटकर धार्मिक द्वेष के वश में पड़ गए थे। पंजाब की ओर वैष्णवों से इनका संघर्ष होता रहता था। हरिव्यासदेव ने हिन्दूधर्म के उक्त गृहकलह के शमनार्थ अपने प्रधान विष्य स्वभूरामदेव को मथुरास्थिर नारदटीला स्थान का अध्यक्ष बनाकर पंजाब की ओर भेज दिया। इन्होंने अपने भजन-साधन के बल पर नाथों का हृदय परिवर्तन कर उस दिशा में वैष्णव धर्म का प्रभाव स्तापित किया। जगाधरी जिले के बूड़िया स्थान में यमुनातट पर 'स्वभूरामदेवजी की बनी' नामक तपोभूमि आज भी जनता में सम्मानित हैं। ये उस समय के प्रभावशाली महात्मा थे और धर्मरक्षा की ओर विशेष दत्तचित्त रहते थे। इसीलिए वैष्णवों के मठ-मन्दिरों में भारत के सुदूर बंगाल, उड़ीसा, बिहार, मध्यप्रदेश, गुजरात, पंजाब, व्रजमण्डल आदि स्थानों में स्वभूरामदेवशाखा के महत्त्वपूर्ण स्थान अधिक संख्या में पाये जाते हैं। इनकी परंपरा में अनेक उच्च कोटि के ग्रन्थकार, उपासनारहस्यज्ञ विद्वान् और तपस्वी सन्त होते आये हैं।

स्वर्ग : जिस स्थान अथवा लोक का गान अथवा प्रशंसा की जाय वह स्वर्ग है (स्वृयते स्वर्यते गीयते च इति) देवताओं के निवास स्थान को स्वर्ग कहते हैं। यह अत्यन्त प्राचीन विश्वास है कि पुण्यात्मा मरने के पश्चात् स्वर्ग लोग में जाता हैं। मीमांसा शास्त्र के अनुसार स्वर्ग वह लोक है जहाँ दुःख का पूर्ण अभाव है और पूर्ण सूख की प्राप्ति होती हैं। यज्ञानुष्ठान से पुण्य होता है। अतः स्वर्ग की कामना रखने वाले को यज्ञ करना चाहिए नैयायियों के मत में स्वर्ग की परिभाषा हैं :

यन्न दुःखेन सम्भिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम्।, अभिलाषोपनीतं यत् तत् सुखं स्वःपदास्पदम्॥,

पद्मपुराण (भूखण्ड, अध्याय 90) में स्वर्ग के गुणदोष इस प्रकार कहे गये हैं :

नन्दनादीनि दिव्यानि रम्याणि विविधानि च।, तत्रोद्यानानि पुण्यानि सर्वकामशुभानि च॥, सर्व कामफलैवृक्षैः शोभितानि समन्ततः।, विमानानि सुदिव्यानि परितान्यप्सरोगणैः॥, सर्वत्रैव विचित्राणि कामगानि रसानि च।, तरुणादित्यवर्णानि मुक्ताजालान्तराणि च॥, चन्द्रमण्डलशुभ्राणि हेमशय्यासनानि च।, सर्वकामसमृद्धाश्च सुखदुखविवर्जिताः॥, नराः सुकृतिनस्ते तु विचरन्ति यथासुखम्।, न तत्र नास्तिकाः यान्ति न स्तेया नोजितेन्द्रियाः॥, न नृशंसा न पिशुनाः कृतघ्ना न च मानिनिः।, सत्यास्तपस्थिताः शूरा दयावन्तः क्षमापराः॥, यज्वानों दानशीलाश्च तत्र गच्छन्ति ते नराः।, न रोगो न जरा मृत्युर्न शोको न हिमादयः.।, न तत्र क्षुत्पिपासा न कस्य ग्लानिनं दृश्यते। एते चान्ये च बहवों गुणाः सन्ति च भूपते॥, दोषास्तत्रैव ये सन्ति तान् श्रृणुस्व च साम्प्रतम्। शुभस्य कर्मणः कृत्सनं फलं तत्रैव भुज्यते॥, न चात्र क्रियते भूयः सोऽत्र दोषो महान् श्रुतः।, असन्तोषश्च भवति दृष्ट्वा दीप्तां परश्रियम्॥, सम्प्राप्ते कर्मणामन्ते सहसा पतनं तथा।, इह यत् क्रियते कर्म फलं तत्रैव भुञ्जते॥, कर्मभूमिरियं राजन् फलभूमिस्त्वसौ स्मृता॥

अग्निपुराण, मत्स्यपुराण (103.104), नृसिंह पुराण (अध्याय 30), गरुडपुराण (109.44) में भी स्वर्ग का वर्णन पाया जाता हैं।

स्वर्णगौरीव्रत : भाद्रशुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। यह तिथिव्रत हैं; गौरी देवता हैं। केवल महिलाओं के लिए यह व्रत हैं। इस अवसर पर गौरी का षोडशोपचार पूजन किया जाय। सन्तानार्थ, स्वास्थ्य तथा सौभाग्य की प्राप्ति के लिए देवी से प्रार्थना की जाय। उद्यापन के समय सींक से बने हुए पात्रों में 16 प्रकार के खाद्य पदार्थ रखकर उन्हें वस्त्र खण्डों से आच्छादित करके सद्गृहस्थ सपत्नीक ब्राह्मणों को दान कर दिया जाय।

स्वस्ति : कुशल-क्षम, शुभकामना, कल्याणं, आशीर्वाद, पुण्य, पापप्रक्षालन दानस्वीकार के रूप में भी इसका प्रयोग होता हैं :

ओभित्युक्त्वा प्रतिगृह्य स्वस्तीस्युक्तत्वा सावित्रीं पठित्वा कामस्तुतिं पठेत्।` (शुद्धितत्त्व)

वैदिक संहिताओं में स्वस्तिपाठ के कई सूक्त हैं। प्रत्येक मङ्गलकार्य में उनका पाठ किया जाता है। इसे 'स्वस्ति वाचन' कहते हैं।

स्वस्तिक : एक प्रतीक या चिह्न, जो माङ्गलिक माना जाता है। इसका आकार इस प्रकार है। इसका शाब्दिक अर्थ है, "जो स्वस्ति अथवा क्षेम का कथन करता है।" यह गणेशजी का लिप्यात्मक स्वरूप है। एक प्रकार की गृह रचना को भी स्वस्तिक कहते हैं।

स्वस्तिकव्रत : आषाढ़ की एकादशी या पूर्णिमा से चार मासपर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए। स्त्री तथा पुरुष दोनों के लिए यह व्रत विहित है। यह कर्णाटक में बहुत प्रचलित है। पञ्च वर्णों (नील पीतादि) की स्वस्तिक की आकृतियाँ बनाकर उन्हें विष्‍णु भगवान् को अर्पित किया जाता है। देवालयों अथवा अन्य पवित्र स्थलों में विष्णु का पूजन होता है।

स्वस्तिपुण्याहवाचन : माङ्गलिक कर्मों के प्रारम्भ में मन्त्रोच्चारण के साथ पवित्र तण्डुल-विकिरण। इसकी विधि में आशीर्वादात्मक वेदमन्त्रों का पाठ तथा प्रार्थनात्मक कथनोपकथन होता है।

स्वाधिष्ठान : षट्चक्रों के अन्तर्गत द्वितीय चक्र। वस्तिप्रदेश के पीछे इसकी स्थिति है। इसमें शिव अग्नि वर्तमान रहते हैं :

षड्रले वैद्युतनिभे स्वाधिष्ठानेऽनलत्विषि। व-भ-पैर्य-र- लैर्युक्ते वर्णेः षड्भिश्च सुव्रत॥ स्वाधिष्ठानाख्यचक्रे तु सबिन्दुं राकिणीं तथा। वादिलान्तं प्रविन्यस्य नाभौ तु मणिपूरके॥ (तन्त्रसार)

स्वाहा : (1) देवताओं का हविर्दान-मन्त्र। (सुष्ठु आहूवन्ते देवा अनेन इति)। प्रार्थनासमर्पण के अर्थ में अनेक मन्त्रों में यह 'परसर्ग' के समान प्रयुक्त होता है।

(2) भागवत पुराण के अनुसार स्वाहा दक्ष की कन्या और अग्नि की भार्या है। ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड, स्वहोपाख्यान नामक अध्याय, 40-7-56) में स्वाहा की उत्पत्ति आदि का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है :

स्वाहा देवहविर्दाने प्रशस्ता सर्वकर्मसु। पिण्डदाने स्वधा शस्ता दक्षिणा सर्वतो वरा॥ प्रकृतेः कलया चैव सर्वशक्तिस्वरूपिणी। बभूव वाविका शक्तिरग्ने स्वाहा स्वकामिनी॥ ईषद् हास्यप्रसन्नास्या भक्तानुग्रहकतारा। उवाचेति विधेरग्रे पद्मयोने! वरं श्रुणु॥ विधिस्तद्वचनं श्रुत्वां संभ्रमात् समुवाच ताम्। त्वमग्नेर्दाहिका शक्तिर्भव पत्नी च सुन्दरि। दग्ध न शक्तस्त्वकृती हताशश्च त्वया विना॥ तन्नानमोच्चार्य मन्त्रान्ते यो दास्यति हविर्नरः। सुरेभ्यस्तत् प्राप्नुवन्ति सुराः स्वानन्दपूर्वकम्॥

 : ऊष्मवर्णों का चौथा तथा व्यञ्जनों का तैतीसवाँ अक्षर। इसका उच्चारण स्थान कण्ठ है। कामधेनु तन्त्र में इसका वर्णन और उपयोग बतलाया गया है :

हकारं श्रृणु चार्वङ्गि चतुवर्गप्रदायकम्। कुण्डलीद्वयसंयुक्तं रक्तिविद्युल्लतोपमम्॥ रजःसत्त्वतमोयुक्तं पञ्चदेवमयं सदा। पञ्चप्राणात्मकं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा॥ त्रिविन्दुसहितं वर्णं हृदि भावय पार्वति॥

वर्णोद्धारतन्त्र में इसका लेखन प्रकार और तान्त्रिक उपयोग इस प्रकार बतलाया है :

ऊर्ध्वादांकुञ्चिता मध्ये कुण्डलीत्वं गता त्वधः। ऊर्ध्वं गता पुनः सैव तासु ब्रह्मादयः क्रमात्॥ मात्रा च पार्वती ज्ञेया ध्यानमस्य प्रचक्ष्यते। करीष भृषिताङ्गी च साट्टहासां दिगम्बरीम्॥ अस्थिमाल्यामष्टभुजां वरदामम्बुजेक्षणाम्। नागेन्द्रहारभूषाढ्यां जटामुकुटमण्डिताम्॥ सव्वैसिद्धिप्रदां नित्यां धर्मकामार्थमोक्षदाम्। एवं ध्यात्वा हकारन्तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत्॥ वर्णाभिधान में इसके अनेक नाम गिनाये गये हैं : हः शिवो गगनं हंसो नागलोकोऽम्बिका पतिः। नकुलीशो जगत्प्राणः प्राणेशः कपिलामलः॥ परमात्मात्मजो जीवो यवाकः शान्तिदोऽङ्गजः। श्रृंगो भयोऽरुणा स्थाणुः कूटकूपविरावणः॥ लक्ष्मीर्मविहरः शम्भुः प्राणशक्तिर्ललाटजः। सृकोपवारणः शूली चैतन्यं पादपूरणः॥ महालक्ष्मी परं शाम्भुः शाखीटः सोममण्डलः।

बीजवर्णाभिधान में ह के दूसरे तान्त्रिक नामों का उल्लेख है।

शुक्रश्चाथ हकारोंऽशः प्राणः सान्तः शिवो वियत्। अकुली नकुलीशश्च हंसः शून्यश्च हाकिनी॥ अनन्तो नकुली जीवः परमात्मा ललाटजः।

हंस : साहित्य में नीर-क्षीर विवेक का और धर्म-दर्शन में परमात्म तत्त्व का प्रतीक पक्षी है : योग और तन्त्र में इस प्रतीक का बहुत उपयोग हुआ है। हंस का ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है।

आराधयामि मणिसन्निभमात्यलिङ्ग, मायापुरीहृदयपङ्कजसन्निविष्टम्। श्रद्धानदीविमलचित्तजलावगाहं, नित्यंसमाधिकुसुमैरपुनर्भवाय॥

राघवभट्ट धृत दक्षिणामूर्ति संहिता (सप्तम पटल) में हंसज्ञान और हंस माहात्म्य का वर्णन निम्नांकित है।

अजपाधारणं देवि कथयामि तवानघे। यस्य विज्ञानमात्रेण परं ब्रह्मैव देशिकः॥ हंसः पदं परेशानि प्रत्यहं प्रजपेन्नरः। मोहरन्धं न जानाति मोक्षस्तस्य न विद्यते॥ श्रीगुरोः कृपया देवि ज्ञायते जप्यते यदा। उच्छ्वासनिश्वासतया तदा बन्धक्षयो भवेत्॥ उच्छवासे चैव विश्वासे हंस इति अक्षरद्वयम्। तस्मात् प्राणस्तु हंसात्मा आत्माकारेण संस्थितः॥ नाभेरुच्छ्वासनिश्वासात् हृदयाग्रे व्यवस्थितिः।

हंसव्रत : पुरुष सूक्त के मंत्रों का उच्चारण करते हुए स्नान करना चाहिए। उन्हीं से तर्पण तथा जप करना चाहिए। अष्टदल कमल के मध्य भाग में पुष्पादिक से भगवान् जनार्दन की, जिन्हें हंस भी कहा जाता है, पूजा करनी चाहिए। पूजन में ऋग्वेद के दशम मण्डल के 90 मंत्रों का उच्चारण किया जाय। पूजन के उपरान्त हवन विहित है। तदनन्तर एक गौ का दान करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान विहित है। इससे व्रती की सम्पूर्ण मनःकामनाएँ पूर्ण होती हैं।

हत्या : हनन के लिए निषिद्धप्राणियों को मारना। सामान्य रूप से जीव मात्र के मारने को हत्या कहा जाता है। हत्या पातक है। ब्रह्महत्या (मनुष्य वध) की गणना महापातकों में की गयी है।

ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः।, महान्ति पातकान्याहुः संसर्गश्चापि तैः सह॥,

[ब्रह्म हत्या, सुरापान; स्तेय (चोरी), गुरु पत्नी से समागम---ये महापातक हैं और इनके करने वालों के साथ संसर्ग भी महापातक है।]

हनुमान् : वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक वानर वीर। [वास्तव में वानर एक विशेष मानव जाति ही थी, जिसका धार्मिक लांछन (चिन्ह) वानर अथवा उसकी लाङ्गल थी। पुरा कथाओं में यही वानर (पशु) रूप में वर्णित है।] भगवान् राम को हनुमान् ऋष्यमूक पर्वत के पास मिले भक्त सिद्ध हुए। सीता का अन्वेषण करने के लिए ये लङ्का गए। राम के दौत्य का इन्होंने अद्भुत निर्वाह किया। राम-रावण युद्ध में भी इनका पराक्रम प्रसिद्ध है। रामावत वैष्णव धर्म के विकास के साथ हनुमान् का भी दैवीकरण हुआ। वे राम के पार्षद और पुनः पूज्य देव रूप में मान्य हो गये। धीरे धीरे हनुमत् अथवा मारुति पूजा का एक सम्प्रदाय ही बन गया है। 'हनुमत्कल्प' में इनके ध्यान और पूजा का विधान पाया जाता है।

हमुमज्जयन्ती : चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को इस उत्सव का आयोजन किया जाता है।

हम्‍पी : दक्षिण भारत के प्राचीन विजयनगर राज्य की राजघानी, अब हम्पी कही जाती है। इसके मध्य में विरूपाक्ष मन्दिर है। इसे लोग हम्पीश्वर कहते हैं।

हयग्रीव : महाभारत के अनुसार मधु-कैटभ दैत्यों द्वारा हरण किए हुए वेदों का उद्धार करने के लिए विष्णु ने हयग्रीव अवतार धारण किया। इनके विग्रह का वर्णन इस प्रकार है :

सुनासिकेन कायेन भूत्वा चन्द्रप्रभस्तदा। कृत्वा हयशिरं शुभं वेदानामालयं प्रभुः॥ तस्य मूर्द्धा समयवत् द्यौः सनक्षत्रतारका। केशास्चास्याभवद् दीर्घा रवेरंशुसमप्रभा॥ कर्णावाकाशेपाताले ललाटं भूतधारिणी। गङ्गा सरस्वती श्रोण्‍यौ भ्रुवावास्तां महोदधी॥ चक्षुषी सोमसूर्यौं ते नासा सन्ध्या पुनः स्मृता। प्रणवस्तस्य संस्कारों विद्युज्जिह्वा च निर्मिंता॥ दन्ताश्च पितरो राजन् सोमपा इति विश्रुता। गोलोको ब्रह्मलोकश्च ओष्ठावास्तां महात्मनः॥ ग्रीवा चास्याभवद्राजन् कालरात्रिर्गुणोत्तरा। एतद्हयशिरः कृत्वा नानामूर्तिभिरावृतम्॥

देवीभागवत (प्रथम स्कन्ध, पञ्चम अध्याय) में हयग्रीवक दूसरी कथा मिलती है। इसके अनुसार दैत्य का वध करने के लि ही विष्णु ने हयग्रीव का रूप धारण किया था। हेमचन्द्र ने इस कथा का समर्थन किया है। (विष्णुवध्य दैत्यविशेषः)। किन्तु एक दूसरी परम्परा के अनुसार जब कल्पान्त में ब्रह्मा सो रहे थे तब हयग्रीव नामक दैत्य ने वेद का हरण कर लिया। वेद का उद्धार करने के लिए विष्णु ने मत्स्यावतार धारण किया और उसका वध किया।

विद्या प्राप्ति के लिए वेदोद्धारक हयग्रीव भगवान् की उपासना विशेष चमत्कारकारिणी मानी गयी है।

हयपञ्चमी अथवा हयपूजाव्रत : चैत्र मास की पंचमी को इन्द्र का प्रसिद्ध अश्व, उच्चैःश्रवा समुद्र से आविर्भूत हुआ था। अतएव गन्धर्वों सहित (जैसे चित्ररथ, चित्रसेन जो वस्तुतः उच्चैःश्रवा के बन्धु-बान्धव ही हैं) उच्चैःश्रवा का संगीत, मिष्ठान्न, पोलिकाओं, दही, गुड़, दूध, चावल आदि से पूजन करना चाहिए। इसके फलस्वरूप शक्ति, दीर्घायु, स्वास्थ्य की प्राप्ति तथा युद्धों में सदा विजय होती है।

हर : शिव का एक नाम। इसका अर्थ है पापों तथा सांसारिक तापों का हरण करने वाला (हरित पापान् सांसारिकान् क्लेशाञ्च)।

हरकालीव्रत : माघ शुक्ला तृतीया को इस व्रत का आयोजन करना चाहिए। इसकी दुर्गा जी देवता हैं। यह व्रत केवल महिलाओं के लिए है। व्रती जौ के हरे हरे अंकुरों में रात भर देवों का ध्यान करते हुए खड़ा रहे। द्वितीय दिवस स्नान, ध्यान आदि से निवृत्त होकर देवी का पूजन कर भोजन ग्रहण करे। वर्ष में प्रति मास देवी के भिन्न भिन्न नामों को उच्चारण करते हुए पूजन करना चाहिए तथा भिन्न भिन्न खाद्य पदार्थों का भोग लगाना चाहिए। वर्षान्त में सपत्नीक ब्राह्मण का सम्मान करना चाहिए। इसके परिणाम स्वरूप रोगों से मुक्ति, सात जन्मों तक वैधव्याभाव, सौन्दर्य तथा पुत्र-पौत्रादि की उपलब्धि होती है। पार्वती ने शंकर जी के शरीर में अर्द्ध भाग प्राप्त करने के लिए इस व्रत का आच किया था।

हरगौरी : हर (शिव) के साथ गौरी (पार्वती) की मूर्ति को हरगौरी कहते हैं। यह अर्द्ध नारीश्वर-शिवमूर्ति का नाम है। कालिका पुराण (अध्याय 44) में इस स्वरूप का विस्तृत वर्णन पाया जाता है :

देवी ने कहा, हे हर! जिस प्रकार मैं सदा तुम्हारी छाया के समान अनुगत रहूँ और आप का साहचर्य सदा बना रहे उस प्रकार मेरे लिए आप को करना चाहिए। आपके साथ मैं सभी अङ्गों का संस्पर्श और नित्य आलिङ्गन का पुलक चाहती हूँ। आप को ऐसा ही करना योग्य है।

भगवान् शिव ने कहा, हे भामिनि : जिसकी तुम इच्छा करती हो वह मुझे भी रुचिकर है। उसका उपाय मैं कहता हूँ। यदि कर सकती हो तो करो। हे सुन्दरी! मेरे शरीर का आधा तुम ग्रहण कर लो। मेरा आधा शरीर नारी और आधा पुरुष हो जाय। यदि तुम मेरा आधा शरीर नहीं ग्रहण कर सकती हो, तो हे सुन्दर मुखावली! तुम्हारा आधा शरीर मैं ही ग्रहण करूँगा। तुम्हारा आधा शरीर नारी और आधा पुरुष हो जाय। ऐसा करने में मेरी शक्ति है। तुम अपनी अनुज्ञा दो।

देवी ने कहा, हे वृषध्वज! मैं ही आप के शरीर का आधा भाग ग्रहण करूँगी। किन्तु मेरे एक इच्छा है, यदि आप पसन्द करें हे हर! उस प्रकार मैं जब आप के शरीर का आधा ग्रहण कर के स्थिर रहूँ और आधा शरीर छोंड़ दूँ तो दोनों सम्पूर्ण बने रहें। इस प्रकार यदि आधे भाग का हरण आप को पसन्द हो तो आप के शरीर का आधा भाग हे शम्भों! मैं हरण करती हूँ।

शिव ने कहा, जैसा तुम करना चाहती हो, ऐसा ही नित्य हो। शरीर के आधे भाग का हरण तुम्हारी इच्छा के अनुसार ही हो।

हरव्रत : अष्टमी के दिन कमल दल की आकृति बनाकर भगवान् हर की पूजा तथा घृत की धारा छोड़ते हुए समिधाओं से हवन करना चाहिए।

हरि : विष्णु का एक पर्याय। इन्द्र, सिंह, घोड़ा, हरे रंग, आदि को भी हरि कहते हैं। हरे (श्याम) वर्ण कारण विष्णु या कृष्ण भी हरि कहलाते हैं।

हरि, विष्णु और कृष्ण का अभेद स्वीकार कर पुराणों ने हरि भक्ति का विपुल वर्णन किया है। पद्मपुराण (उत्तर खण्ड, अध्याय 111) में कृष्ण-हरि के एक सौ आठ नामों का उल्लेख है :

श्रीकृष्‍णाष्टोत्तरशतं नाम मङ्गलदायकम्। तत् श्रृणुष्व महाभाग सर्वकल्मषनाशनम्॥ श्री कृष्णः पुण्डरीकाक्षो वासुदेवो जनार्दनः। नारायणो हरिर्विष्णुर्माधवः पुरुषोत्तमः॥ आदि०

हरितालिका : पार्वतीजी की आराधना का सौभाग्य व्रत, जो केवल महिलाओं के लिए है और भाद्रपद शुक्ल तृतीया को प्रायः निर्जल किया जाता है। रात्रि में शिव-गौरी की पूजा और जागरण होता है; दूसरे दिन प्रातः विसर्जन के पश्चात् अन्न-जल ग्रहण किया जाता है। 'अलियों'। (सखियों) के द्वारा 'हरित' (अपहृत) होकर पार्वती ने एक कन्दरा में इस व्रत का पालन किया था, इसलिए इसका नाम 'हरितालिका' प्रसिद्ध हो गया।

हरिकालीव्रत : तृतीया को अनाज साफ करने वाले सूप में सप्त धान्य बोकर उनके उगे हुए अंकुरों पर काली पूजा की जाती है। तदनन्तर सधवा नारियों द्वारा अंकुरों को सिरों पर ले जाकर किसी तडाग या सरिता में विसर्जन कर दिया जाता है। कथा इस प्रकार है : काली दक्ष प्रजापति की पुत्री हैं तथा दक्ष ने उनका महादेव जी के साथ परिणय कर दिया। वर्ण से वे कृष्ण हैं। एक समय देवताओं की सभा में महादेव जी ने काली के शरीर की तुलना काले सुरमें से कर डाली। इससे वे क्रुद्ध होती हुई अपना कृष्ण वर्ण घास वाली भूमि पर छोड़कर स्वयं अग्नि में प्रविष्ट हो गईं। द्वितीय जन्म में गौरी रूप में उनका पुनः आविर्भाव हुआ और उन्होंने महादेव जी को ही पुनः पति रूप में प्राप्त किया। काली जी ने जो कृष्ण वर्ण त्याग था उससे आगे चलकर कात्यायनी हुईं, जिन्होंने देवताओं के प्रयत्नों में बहुत बड़ी सहायता की थी। देवताओं ने उनको यह वरदान भी दिया था कि जो स्त्री-पुरुष हरी घास पर बैठकर काली की पूजा करेंगे, वे सुख, दीर्घायु तथा सौभाग्य प्राप्त करेंगे। व्रत का नाम हरिकाली है, किन्तु इसका हरि (विष्णु) के अर्थ में आने का प्रश्न ही नहीं उठता। हरि का यहाँ अर्थ है भूरी या (श्यामा) काली, जो गौरवर्णा नहीं थी।

हरिक्रीडाशयन अथवा हरिक्रीडायन : कार्तिक अथवा वैशाख मास की द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसके हरि देवता हैं। एक ताम्रपात्र में मधु भरकर इसके ऊपर नृसिंह भगवान् की चतुर्मुखी प्रतिमा, जिसमें माणिक्य के आयुध लगे, मूँगों के नख बनाये गये हों तथा अन्यान्य रत्नों को वक्ष, चक्षु, सिर तथा स्रोतों पर लगाकर स्थापित किया जाय। तदनन्तर ताम्रपात्र को जल से भर दिया जाय और नृसिंह भगवान् का षोडशोपचार पूजन तथा रात्रि जागरण होना चाहिए। इससे व्रती जंगलों, अरण्यों तथा युद्धस्थलों में संकटमुक्त होकर निर्भीक विचरण करता है। (नृसिंह पुराण से)

हरिद्रागणेश : गणेश जी का एक विग्रह। यह हरिद्रा (हल्दी) के वर्ण का होता है अतः इसे हरिद्रा-गणेश कहते हैं। इनका मन्त्र है :

पञ्चान्तको धरासंस्थो बिन्दुभूषितमस्तकः। एकाक्षरो महामन्त्रः सर्वकामफलप्रदः॥ इसका ध्यान इस प्रकार किया जाता है :

हरिद्राभं चतुर्बाहुं हारिद्र्यवसनं विभुम्। पाशाङ्कुशधरं देवं मोदकं दन्तमेव च॥ तन्त्रसार में पूजा-विधान का सविस्तार वर्णन है।

हरिद्वार : हरिद्वार अथवा मायापुरी भारत की सात पवित्र पुरियों में से है। इसका अर्थ हैं 'हरि' (विष्णु) का द्वार। जहाँ गङ्गा हिमालय से मैदान में उतरती है, वहाँ यह स्थित है। इसलिए इसका विशेष महत्त्व है। प्रति बारहवें वर्ष जब सूर्य और चन्द्र मेष राशि पर तथा बृहस्पति कुम्भ राशि में स्थित होते हैं तब यहाँ कुम्भ का पर्व होता है। उसके छठे वर्ष अद्धकुम्भी होती है। कहा जाता है कि इसी स्थान पर मैत्रेय जी ने विदुर को श्रीमद्भागवत की कथा सुनायी थी और यहीं पर नारद जी ने सप्तर्षियों से श्रीमद्भागवत की सप्ताह कथा सुनी थी। हरिद्वार मुख्यतः वैष्णवतीर्थ है, परन्तु सभी सम्प्रदाय के लोग इसका आदर करते हैं।

हरिनाम : हरि का नाम अथवा भगवन्नाम। धर्म में नामजप का माहात्म्य बराबर रहा है। किन्तु कलि में तो इसका अत्यधिक माहात्म्य है। कारण यह है कि नाम और नामी में भेद नहीं है और नामी की पूजा-अर्चा से नाम-स्मरण सदा सर्वत्र सुलभ और सरल है। पद्मपुराण (उत्तर खण्ड, अध्याय 98) में नाम की महिमा इस प्रकार दी हुई है :

न कालिनयमस्तत्र न देशनियमस्तथा। नोच्छिष्ठादौ निषेधोऽस्ति हरेर्नामनि लुब्धक॥ ज्ञानं देवार्चनं ध्यानं धारणा नियमो यमः। प्रत्याहारः समाधिश्च हरिनामसमं न च॥

बृहन्नारदीय पुराण (श्री हरिभक्ति विलास, विलास 11 में उद्धृत) में तो हरिनाम कलियुग में एकमात्र गति है।

वैष्णवों के नित्य जप के हरिनाम निम्नांकित हैं :

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥

इस मन्त्र के ऋषि, वासुदेव छन्द गायत्री और देवता त्रिपुरा हैं। इसका विनियोग, महाविद्यासिद्धि में किया जाता है। दे० वासुदेव माहात्म्य; राधातन्त्र के वासुदेवत्रिपुरा संवाद में द्वितीय पटल।

हरिवंश : हरि अथवा कृष्ण का वंश। इसी नाम के ग्रन्थ में हरिवंश की कथा विस्‍तार से कही गयी है। यह ग्रन्थ महाभारत का परिशिष्ट या खिलपर्व कहलाता है। इसकी कथा सुनने से संतान प्राप्त होती है। गरुड पुराण (अध्याय 148।1.6-8.11) में हरिवंश की कथा मिलती है।

हरिवासर : (1) 'तिथ्यादितत्त्व' में एकादशी और द्वादशी तिथियों को हरिवासर (हरि का दिन) कहा गया है।

एकादशी द्वादशी च प्रोक्ता श्रीचक्रपाणिनः। एकादशीमुपोष्यैव द्वादशीं समुपोजयेत्॥ न चात्र विधिलोपः स्यादुयोदेवता हरिः। द्वादश्याः प्रथमः पादो हरिवासरसंज्ञकः॥ समतिक्रम्य कुर्वीत पारणं विष्णुतत्परः।

एकादशीतत्त्व में इस दिन अन्न भोजन का घोर निषेध है।

हरिवासर में जागरण का विशेष माहात्म्य है (दे० स्कन्द पुराण में ब्रह्म-नारद-संवाद तथा श्रीप्रह्लाद-संहिता)। हरिवासर के सम्बन्ध में विचार वैभिन्नय है। 'वर्षकृत्य कौमुदी' के अनुसार एकादशी ही हरि का दिन है न कि द्वादशी। गरुड पुराण (1.137.12) तथा नारद पुराण (2.24.6 तथा 9) एकादशी को ही हरि का दिन मानते हैं, किन्तु 'कृत्यसारसमुच्चय' मत्स्य पुराण को उद्धृत करते हुए कहता है : आषाढ़ शुक्ल द्वादशी बुधवार को हो तथा उस दिन अनुराधा नक्षत्र हो एवं भाद्र शुक्ल द्वादशी बुधवार को पड़े तथा उस दिन श्रवण नक्षत्र हो और कार्तिक शुक्ल द्वादशी बुधवार को पड़े तथा उस दिन रेवती नक्षत्र हो तो उपर्युक्त तीनों दिन 'हरिवासर' कहलाते हैं। 'स्मृति कौस्तुभ' के अनुसार भी द्वादशी ही हरि तिथि है। अतएव :

आ-भा-कासितपक्षेषु हस्त-श्रवण-रेवती। द्वादशी बुधवारश्चेद् हरिवासर इष्यते॥

हरिवाहन : हरि (विष्णु) का वाहन गरुड़।

हरिव्यासदेव : निम्बार्क सम्प्रदाय के मध्यकालीन वैष्णवाचार्य और ग्रन्थकार। कृष्ण भगवान् की मधुर लीलाओं के चिन्तन के साथ ये तीर्थ यात्रा, धर्म प्रचार और ग्रन्थ रचना में दन्तचित रहते थे। धार्मिक संगठन की भावना इनमें अधिक देखी जाती है, जिसके लिए समग्र देश को व्यापक केन्द्र बनाकर इन्होंने संघबद्ध धर्मयात्राएँ प्रचलित कीं। इनकी उपासना का प्रिय स्थल वृन्दावन और गुरुस्थान मथुरा की एकान्त भूमि ध्रुवघाट पर नारद टीला थी। प्रसिद्ध भक्तिसंगीतकार संत श्रीभट्ट के ये शिष्य थे। राधा-कृष्ण के सरस चिन्तन स्वरूप हरिव्यास जी की पदावली 'महावाणी' कही जाती है और इनका अन्तरङ्ग नाम 'हरिप्रिया'। इसके साथ ही धार्मिक जनों को शक्तिसम्पन्न करने के लिए ये उग्र देवता नृसिंह की पूजा का प्रचार भी करते थे। इसका संकेत 'नृसिंह परिचर्या' नामक लिखित पुस्तक से मिलता है जो काशीस्थ सरस्वती भवन पुस्तकालय में है।

इन्होंने हिमाचल स्थित देवी मन्दिर में अपने तपोबल और साधु मण्डली के उपवास के सहारे पशुबलि प्रथा को बन्द करा दिया था। तबसे उन देवीजी को वैष्णवी देवी कहा जाने लगा है। प्राचीन निम्बार्कीय विद्वान् पुरुषोत्तमाचार्य की पुस्तक 'वेदान्तरत्नमंजूषा' पर इन्होंने विस्तृत संस्कृत व्याख्या लिखी है। धर्म प्रचार और संगठनार्थ इन्होंने अपने सुयोग्य शिष्य देश के संकटग्रस्त स्थानों में नियुक्त किये थे, जिनमें इनके प्रधान शिष्य स्वभूरामजी पंजाब की ओर सक्रिय रहे और धार्मिक कलह, हिंसा, कदाचार के निवारण में सफल हुए। आगे चलकर मध्य, पूर्व, पश्चिम दिशाओं, तिरुपति, जगन्नाथपुरी, किन्दुबिल्व बंगाल, द्वारका आदि स्थानों में इनकी ओर से अनेक मठ-मन्दिर स्थापित किए गए। हरिव्‍यासजी के एक प्रभावशाली शिष्य परशुरामदेव राजस्थान में मुस्लिम फकीरों के आतंक को शान्त करने में अग्रसर हुए और सलीमशाह सूफी को अपना सेवक बना लिया। हरिव्यासदेव पन्द्रहवीं शती में हुए थे।

हरिव्रत : (1) अमावस्या तथा पूर्णिमा के दिन मनुष्य को एकभक्त रहने का अभ्यास करना चाहिए। इससे कभी नरक में नहीं जाना पड़ता। उपर्युक्त दिवसों को व्रती को चाहिए कि वह भगवान् हरि की पुण्याह वाचन तथा 'जय' जैसे शब्दों से पूजाकर ब्राह्मण को प्रणाम करे तथा ब्राह्मणों, अन्धों, अनाथों, दलित पतितों को भोजन कराए।

(2) जो मनुष्य द्वादशी (एकादशी) के दिन भोजन का परित्याग करता है वह सीधा स्वर्ग सिधारता है। (वाराह पुराण)।

हरिशयन : हरि (विष्णु का शयन-निद्रा)। यह आषाढ़ शुक्ल एकादशी को प्रारम्भ और कार्तिक शुक्ल एकादशी को समाप्त होता है। यह चार महीने का समय हरिशयन का काल हैं। इस काल में व्रत उपवास पूजा आदि का विधान है तथा उपनयन, विवाह आदि का निषेध है।

हरिश्चन्द्र : सूर्यवंश के अड़तीसवें राजा, जो त्रेता युग में हुए थे। ये अपनी सत्यनिष्ठा के लिए प्रसिद्ध थे।

हरिहर : हरि (विष्णु) और हर (शिव) की संयुक्त मूर्ति। इनको वृषाकपी भी कहा जाता है। वामनपुराण (अध्याय 59) हरिहर मूर्ति का सुन्दर वर्णन है।

हरिहर क्षेत्र : विहार प्रदेश का तीर्थविशेष। हरिहर (विष्णुशिव) का संयुक्त तीर्थस्थान। यह गङ्गा और नारायणी (बड़ी गंडक) के संगम पर पटना के पास सोनपर में स्थित है। तट पर हरिहरात्मक संयुक्त हरिहरनाथ का मन्दिर है। कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ विशाल मेला होता है जिसमें देशदेशान्तर के लाखों लोग सम्मिलित होते हैं। वाराहपुराण में हरिहरक्षेत्र का माहात्म्य पाया जाता है :

ततः स पञ्चरात्राणि स्थित्वा वै विधिपूर्वकम्। गोधनान्यग्रतः कृत्वा हरिक्षेत्र जगाम ह॥ हरिणाधिष्ठितं क्षेत्रं हरिक्षेत्रं ततः स्मृतम्। सदानन्दी शूलपाणिर्गोधनेन पुरस्कृतः॥ स्थितवांस्तद्दिनादेव तत्क्षेत्रं हरिहरात्मकम्।, देवानामटनाच्चैव देवाट इति संज्ञितम्।

हलधर : बलराम अथवा बलदेव का पर्याय। इसका अर्थ है 'हल धारण करने वाला'। इसका दूसरा नाम संकर्षण है, जो पाञ्चरात्र के चतुर्व्यूह के द्वितीय घटक हैं। हलधर औऱ संकर्षण का एक ही भाव है।

हल षष्ठी : भाद्र कृष्ण षष्ठी [निर्णयसिन्धु 123]।

हवि (हविष्‍य) : हवनीय द्रव्य को हवि अथवा हविष्य कहते हैं। इसके पर्याय घृत, तिल, चावल, सामान्नादि हैं।

हविष्य : यज्ञोपयोगी खाद्यान्न, जो कुछ निश्चित व्रतों में ग्राह्य हैं। दे० कृत्यरत्नाकर 400, तिथितत्‍त्व 109, निर्णयसिन्धु 106।

हस्‍तगौरी व्रत : भाद्र शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। कृष्ण भगवान् ने कुन्ती को धन-धान्य से परिपूर्ण राज्य की प्राप्ति के लिए इस व्रत को उपयोगी बतलाया था। इसमें निरन्तर 13 वर्षों तक गौरी, हर तथा हेरम्ब (गणेश) में ध्यान केन्द्रित करते रहना तथा चौदहवें वर्ष में उद्यापन करना चाहिए।

हाटकेश्वर (बड़नगर) : गुजरात का प्रसिद्ध तीर्थस्थान। भगवान् शंकर के तीन मुख्य लिह्गों में एक हाटकेश्वर है। हाटकेश्वर गुर्जर नागर ब्राह्मणों के कुलदेवता हैं।

आनर्तविषये रम्यं सर्वतीर्थमयं शुभम्। हाटकेश्वरजं क्षेत्रं महापातकनाशनम्॥ तत्रैकमपि मासार्द्ध यो भक्त्य पूजयेद्धरम्। स सर्वपापयुक्तोऽपि शिवलोके महीयते॥ अत्रान्तरे नरा येच निवसन्ति द्विजोत्तमाः। कृषिकर्मोद्यताश्चापि यान्ति ते परमां गतिम्॥ (स्कन्द पुराण नागर खं. 27।)

हारीत : धर्मशास्त्रकर्ता एक ऋषि है याज्ञवल्क्य (1.4) ने धर्मशास्त्र प्रयोजकों में इनकी गणना की है।

मन्वत्रिविष्णुहारीतयाज्ञ वल्क्योशनोऽङ्गिराः। यमापस्तम्बसंवर्ताः कात्यायनबृहस्पती॥ पराशरव्यासशङ्खलिखिता दक्षगौतमौ। शातातपो वसिष्ठश्च धर्मशास्त्रप्रयोजकाः॥

श्रीमद्भागवत में इनको पौराणिक कहा गया है :

त्रय्यारुणिः कश्यपश्च सावर्णिरकृतव्रणः। वैशम्पायनहारीतौ षड्वै पौराणिक इमे॥

हालेविद : कर्णाटक प्रदेश का प्रसिद्ध तीर्थस्थान। मैसूर के तीर्थों में भगवान् होयसालेश्वर का प्रमुख स्थान है। इन्हें राजा विष्णुवर्द्धन ने प्रतिष्ठित किया था। यह मन्दिर दक्षिण के मन्दिरों में कला और संस्कृति की दृष्टि से निराला स्थान रखता है।

हाहा : देवगन्धर्व विशेष। देवताओं में हाहा, हूहू, विश्वावसु, तुम्बरु, चित्ररथ आदि गन्धर्ववाचक हैं। इनका संगीत से विशेष सम्बन्ध है।

हिन्दुत्व : भारतवर्ष में बसनेवाली प्राचीन जातियों का सामूहिक नाम 'हिन्दू' तथा उनके समष्टिवादी धर्म का भाव 'हिन्दुत्व' है। जब मुसलमान आक्रमणकारी जातियों ने इस देश में अपना राज्य स्थापित किया और बसना प्रारम्भ किया तब वे मुसलमानों से इतर लोगों को, अपने से पृथक् करने के लिए सामूहिक रूप से 'हिन्दू' तथा उनके धर्म को 'हिन्दी मजहब (धर्म) कहने लगे। यूरोपीयों और अंग्रेजों ने भी इस परम्परा को जारी रखा। उन्होंने भारतीय जनता को छिन्न-भिन्न रखने के लिए उसको दो भागों में बाँटा--(1) मुस्लिम तथा (2) गैर मुस्लिम अर्थात् 'हिन्दू'। इस प्रकार आधुनिक यात्रावर्णन, इतिहास, राजनीति, धर्म विवरण आदि में भारत की मुस्लिमेतर जनता का नाम 'हिन्दू' तथा उनके धर्म का नाम 'हिन्दू धर्म' प्रसिद्ध हो गया, यद्यपि भारतीय मुसलमान भी पश्चिम एशिया में 'हिन्दी' और अमेरिका में 'हिन्दू' कहलाते रहे। भारतीय जनता ने भी संसार में व्यापक रूप से अपने को अभिहित करनेवाले इन शब्दों को क्रमशः स्वीकार कर लिया।

इसमें सन्देह नहीं कि 'हिन्दू' शब्द भारतीय इतिहास में अपेक्षाकृत बहुत अर्वाचीन और विदेशी है। प्राचीन संस्कृत साहित्य में इसका प्रयोग नहीं मिलता। एक अत्यन्त परवर्ती तन्त्रग्रन्थ, 'मेरुतन्त्र' में इसका उल्लेख पाया जाता है। इसका सन्दर्भ निम्नांङ्कित है :

पञ्चखाना सप्तमीरा नव साहा महाबलाः। हिन्दूधर्मप्रलोप्तारो जायन्ते चक्रवर्तिनः॥ हीनञ्च दूशयत्येव हिन्दूरित्युच्यते प्रिये। पूर्वाम्नाये नवशातां षडशीतिः प्रकीर्तिताः॥ (मेरुतन्त्र, 33 प्रकरण)

उपर्युक्त सन्दर्भ में 'हिन्दू' शब्द की जो व्युत्पत्ति दी गयी है वह है 'हीनं दूषयति स हिन्दू' अर्थात् जो हीन (हीनता अथवा नीचता) को दूषित समझता (उसका त्याग करता) है, वह हिन्दू है। इसमें सन्देह नहीं कि यह यौगिक व्युत्पत्ति अर्वाचीन है, क्योंकि इसका प्रयोग विदेशी आक्रमणकारियों के संदर्भ में किया गया है।

वास्तव में यह 'हिन्दू' शब्द भौगोलिक है। मुसलमानों को यह शब्द फारस अथवा ईरान से मिला था। फारसी कोषों में 'हिन्द' और इससे व्युत्पन्न अनेक शब्द पाये जाते हैं, जैसे हिन्दू, हिन्दी, हिन्दुवी, हिन्दुवानी, हिन्दूकुश, हिन्दसा, हिन्दसाँ, हिन्दुबाना, हिन्दुएचर्ख, हिन्दमन्द आदि। इन शब्दों के अस्तित्व से स्पष्ट है कि 'हिन्द' शब्द मूलतः फारसी है और इसका अर्थ 'भारतवर्ष' है। भारत फारस (ईरान) का पड़ोसी देश था। इसलिए वहाँ इसके नाम का बहुत प्रयोग होना स्वाभाविक था। फारसी में बलख-नगर का नाम 'हिन्दवार', इसके पास के पर्वत का नाम 'हिन्दूकुश' और भारतीय भाषा और संस्कृति के लिए 'हिन्दकी' शब्द मिलता है। इन शब्दों के प्रयोग से यह निष्कर्ष निकलता है कि फारसी बोलनेवाले लोग हिन्द (भारत) से भली-भाँति परिचित थे और वे हिन्दूकुश तक के प्रदेश को भारत का भाग समझते थे। निस्सन्देह फारस के पूर्व का देश भारत ही 'हिन्द' था। अब प्रश्न यह है कि 'हिन्दू' शब्द फारसवालों को कैसे मिला। फारस के पूर्व सबसे महत्त्वपूर्ण भौगोलिक अवरोध एवं दृश्य 'सिन्धु नद' और उसकी दक्षिण तथा वामवर्ती सहायक नदियों का जाल है। पूर्व से सिन्धु में सीधे मिलने-वाली तीन नदियाँ वितस्ता (झेलम), पुरुष्णी (रावी) और शतद्रु (सतलज) उपनदियों के साथ) और पश्चिम से भी तीन सुवास्तु (स्वाती) कुभा (काबुल) और गोमती (गोमल) हैं। इन छः प्रमुख नदियों के साथ सिन्धु द्वारा सिञ्चित प्रदेश का नाम 'हफ्तहेन्दु' (सप्तसिन्धु) था। यह शब्द सबसे पहले 'जेन्दावस्ता' (छन्दावस्था) पारसी धर्मग्रन्थ में मिलता है। फारसी व्याकरण के अनुसार संस्कृत का 'स' अक्षर 'ह' में परिवर्तित हो जाता है। इसी कारण 'सिन्धु' 'हिन्दु' हो गया। पहले 'हेन्दु' अथवा 'हिन्द' के रहनेवाले 'हैन्दव' अथवा 'हिन्दू' कहलाये। धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत के लिए इसका प्रयोग होने लगा, क्योंकि भारत के पश्चिमोत्तर के देशों के साथ स्मपर्क का यही एकमात्र द्वार था। इसी प्रकार व्यापक रूप में भारत में रहनेवाले लोगों का धर्म हिन्दू धर्म कहलाया।

फारसी भाषा में 'हिन्दू' शब्द के कुछ अन्य घृणासूचक अर्थ भी पाये जाते हैं, यथा डाकू, सेवक, दास, पहरेदार, काफिर (नास्तिक) आदि। ये अर्थ अवश्य ही जातीय द्वेष के परिणाम हैं। पश्चिमोत्तर सीमा के लोग प्रायः बराबर साहसी और लड़ाकू प्रवृत्ति के रहे हैं। अतः वे फारस के आक्रामक, व्यापारी और यात्री सभी को कष्ट देते रहे होंगे। इसीलिए फारसवाले उन्हें डाकू कहते थे और जब फारस ने इस्लाम स्वीकार किया तो नये जोश में उनको काफिर (नास्तिक) भी कहा। परन्तु जैसा पहले लिखा जा चुका हैं, 'हिन्दू' का तात्पर्य शुद्ध भौगोलिक था।

अब प्रश्न यह है कि आज 'हिन्दू' और 'हिन्दूधर्म' किसे कहना चाहिए। इसका मूल अर्थ भौगोलिक है। इसको स्वीकार किया जाय तो हिन्द (भारत) का रहनेवाला 'हिन्दू' और उसका धर्म 'हिन्दुत्व' है। मुस्लिम आक्रमणों के पूर्व भारत में इस अर्थ की परम्परा बराबर चलती रही। जितनी जातियाँ बाहर से आयीं उन्होंने 'हिन्दू' जाति और 'हिन्दुत्व' धर्म स्वीकार किया। इस देश में बहुत से परम्परावादी और परम्पराविरोधी आन्दोलन भी चले, किन्तु वे सब मिल-जुल कर 'हिन्दुत्व' में ही विलीन हो गये। वैदिक धर्म ही यहाँ का प्राचीनतम सुव्यवस्थित धर्म था जिसने क्रमशः अन्य आर्येतर धर्मों को प्रभावित किया और उनसे स्वयं प्रभावित हुआ। बौद्ध और जैन आदि परम्परा विरोधी धार्मिक तथा दार्शनिक आन्दोलनों का उदय हुआ। किन्तु कुछ ही शताब्दियों में वे मूल स्कन्ध के साथ पुनः मिल गये। सब मिलाकर जो धर्म बना वहीं हिन्दू धर्म है। यह न तो केवल मूल वैदिक धर्म है और न आर्येतर जातियों की धार्मिक प्रथा अथवा विविध विश्वास, और नहीं बौद्ध अथवा जैन धर्म; यह सभी का पञ्चमेल और समन्वय है। इसमें पौराणिक तथा तान्त्रिक तत्त्व जुटते गये और परवर्ती धार्मिक सम्प्रदायों, संतों, महात्माओं और आचार्यों ने अपने-अपने समय में इसके विस्तार और परिष्कार में योग दिया। 'प्रवर्तक धर्म' होने के कारण इस्लाम और ईसाई धर्म हिन्दू धर्म के महामिलन में सम्मिलित होने के लिए न पहले तैयार थे और न आजकल तैयार हैं। किन्तु जहाँ तक हिंदुत्व का प्रश्न है, इसने कई मुहम्मदी और मसीही उप-सम्प्रदायों को 'हिन्दू धर्म' में सम्मिलित कर लिया है। इस प्रकार हिंदुत्व अथवा हिन्दू धर्म वर्द्धमान विकसनशील, उदार और विवेकपूर्ण समन्वयवादी (अनुकरणवादी नहीं) धर्म है।

हिन्दू और हिन्दुत्व की एक परिभाषा लोकमान्य तिलक ने प्रस्तुत की थी, जो निम्नाङ्कित है :

आसिन्धोः सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका। पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः॥

[सिन्धु नदी के उद्गम-स्थान से लेकर सिन्धु (हिन्द महासागर) तक सम्पूर्ण भारत भूमि जिसकी पितृभू (अथवा मातृभूमि) तथा पुण्यभू (पवित्र भूमि) है, वह 'हिन्दू' कहलाता है (और उसका धर्म हिन्दुत्व)।]

सम्पूर्ण हिन्दू तो ऐसा मानते ही हैं। यहाँ बसनेवाले मुसलमान और ईसाइयों की पितृभूमि (पूर्वजों की भूमि) भारत है ही। यदि इसे वे पुण्यभूमि भी मान लें तो हिन्द की समस्त जनता हिन्दू और उनका समन्वित धर्म हिन्दुत्व माना जा सकता है। यह सत्य केवल राजनीति की दृष्टि से ही नहीं धर्म और शान्ति की दृष्टि से भी वांछनीय है। भारत की यही धार्मिक साधना रही है। परन्तु इसमें अभी कई अन्तर्द्वन्द्व वर्तमान और संघर्षशील हैं। अभी वांछनीय समन्वय के लिए अधिक समय और अनुभव की अपेक्षा है।

अन्तर्द्वन्द्व तथा अपवादों को छोड़ देने के पश्चात् अपने अपने विविध सम्प्रदायों को मानते हुए भी हिन्दुत्व की सर्वतोनिष्ठ मान्यताएँ हैं, जिनको स्वीकार करनेवाले हिन्दू कहलाते हैं। सर्वप्रथम, हिन्दू को निगम (वेद) और आगम (तर्कमूलक दर्शन) दोनों और कम से कम दोनों में से किसी एक को अवश्य मानना चाहिए। दूसरे, ईश्वर पर विश्वास रखना हिन्दू के लिए वांछनीय है किन्तु अनिवार्य नहीं; यदि वह कोई धर्म, परमार्थ अथवा दार्शनिक दृष्टिकोण मानता है तो हिन्दू होने के लिए पर्याप्त है। जहाँ तक धार्मिक साधना अथवा व्यक्तिगत मुक्ति का प्रश्न है, हिन्दू के लिए अनन्त विकल्प हैं, यदि वे उसके विकास और चरम उपलब्धि में सहायक होते हैं। नैतिक जीवन में वह जनकल्याण के लिए समान रूप से प्रतिबद्ध है। इष्ट (यज्ञ) पूर्त (लोककल्याणकारी कार्य) कोई भी वह कर सकता है। सदाचार ही धर्म का वास्तविक मूल माना गया है (आचारप्रभवो धर्मः); इसके बिना तो वेद भी व्यर्थ हैं :

आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीताः सह षड्भिरभ्रङ्गैः। छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाः॥ (वसिष्ठ स्मृति)

[आचारहीन व्यक्ति को वेद पवित्र नहीं करते चाहे वे छः अङ्गों के साथ ही क्यों न पढ़े गये हों। मृत्युकाल में मनुष्य को वेद वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे पंख उगने पर पक्षी घोंसले को।]

हिमपूजा : पूर्णिमा को चन्द्रमा का जो भगवान् विष्णु का वाम नेत्र है, पुष्पों, दुग्ध के नैवेद्य से पूजन करना चाहिए। गौओं को लवण दान करना चाहिए। माँ, बहिन तथा पुत्री को रक्त वस्त्र देकर सम्मान करना चाहिए। यदि व्रती हिम (बर्फ) के समीप हो तो उसे अपने पितृ गणों को हिम के साथ मधु, तिल तथा घी का दान करना चाहिए। यदि हिम का अभाव हो तो मुख से केवल 'हिम', 'हिम' शब्द का उच्चारण करते हुए ब्राह्मणों को घृत से परिपूर्ण उरद से बने खाद्य पदार्थ खिलाने चाहिए। नृत्य, गायन, वादन के साथ उत्सव का आयोजन किया जाय तथा श्यामा देवी का पूजन हो।

हिरण्यकशिपु : एक दैत्य का नाम। इसकी कथा संक्षेप में इस प्रकार है। कश्यप का पुत्र हिरण्यकशिपु उसकी दिति पत्नी से उत्पन्न हुआ था। उसका सहोदर हिरण्याक्ष और भार्या कयाधु थी। इसके पृत्रों के नाम संह्राद, अनुह्राद, ह्राद और प्रह्लाद थे। इसकी कन्या का नाम सिंहिका था। यह विष्णु का विरोधी था। इसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु का भक्त था इसलिये इसने अपने पुत्र को बहुत सताया और विविध प्रकार की यातनायें दीं। इसका वध करने के लिये विष्णु भगवान् ने नृसिंह अवतार धारण किया और अपने भयंकर नाखूनों द्वारा इसके उदर को विदीर्ण कर इसको मार डाला। दे० 'नृसिंहावतार'।

हिरण्य कामधेनु : हिरण्य अथवा स्वर्ण की बनी हुई कामधेनु। षोडश महादानों में इसकी गणना है। मत्स्यपुराण (अध्याय 253) में इसके दान का विस्तार के साथ वर्णन है।

हिरण्यगर्भ : ब्रह्मा देवता। सृष्टि के आदि में नारायण की प्रेरणा से ब्रह्माण्ड का आरम्भिक रूप सुवर्ण जैसा प्रकाशमान गोलाकार प्रकट हुआ था। उसके फिर ऊर्ध्व और अधः दो भाग हो गये और उनके बीच से ब्रह्माजी प्रकट हुए। दे० भागवत पुराण।

हिरण्याक्ष : दैत्य विशेष का नाम। 'जिसकी आँखें सोने की अथवा सोने की तरह पीली हों' वह हिरण्याक्ष है। यह दिति से उत्पन्न कश्यप का पुत्र था। पुराकथा के अनुसार इसने पृथ्वी का अपहरण कर विष्टा के परकोटे के भीतर रखा था। विष्णु ने वाराह अवतार के रूप में परकोटे का भेदन कर इसका वध तथा पृथ्वी का उद्धार किया।

हिरण्याश्व : तुलापुरुषादि षोडश महादानों में एक विशेष दान। दे० मत्स्य पुराण, (अध्याय 280)।

हिरण्याश्वरथ : षोडश महादानों में एक विशेष दान। षोडश महादानों की गणना इस प्रकार है :

आद्यन्तु सर्वदानानां तुलापुरुषसंज्ञितम्। हिरण्यगर्भदानञ्च ब्रह्माण्डं तदनन्तरम्॥ कल्पपादप दानञ्च गोसहस्रञ्च पञ्चमम्। हिरण्यकाधेनुञ्च हिरण्याश्वस्तथैव च॥ पञ्चलाङ्गलकञ्चैव धरादानं तथैव च। हिरण्याश्वदथस्तद्वत् हेमहिस्तरथस्तथा॥ द्वादशं विष्णुचक्रञ्च ततः कल्पलतात्मकम्। सप्तसागरदानञ्च रत्ननुणुस्तथैव च॥ महाभूतघटस्तद्वत् षोडशः परिकीर्तितः॥

हुताश, हुताशन : अग्नि। इसका शाब्दिक अर्थ है 'हुत (हविष्य) है अशन (भोजन) जिसका'।

हुहु : गन्धर्व विशेष। इसका संगीत से सम्बन्ध है। दे० 'हाहा'।

हूँ : तन्‍त्रशाखा के ग्रन्थों का एक बीजाक्षर, जो उग्रता का सूचक है।

हकारो नाम कर्णाढ्यों नादबिन्दूविभूषितः। कूर्चं क्रोध उग्रदर्पो दीर्घहूङ्कार उच्यते॥ शिखावषट् च कवचं क्रोधो वर्म हमित्यपि। क्रोधाख्यों हूँ तनुत्रञ्च शस्त्रादौ रिपुसंज्ञकः॥

हृदय विधि : सूर्यदेव के सुप्रसिद्ध स्तोत्र 'आदित्यहृदय' के पाठ करने का विधान, जिसमें पूजा, जय, व्रत, का भी समावेश है।

हृषीकेश : विष्णु का नाम, हृषिक (इन्द्रियों) के ईश (स्वामी)। शङ्कराचार्य (गीताभाष्य) के अनुसार `क्षेत्रज्ञरूपकत्वातं परमात्मत्वाद्वा इन्द्रियाणि यद्वशे वर्तन्ते स परमात्मा।` पौराणिकों के अनुसार `हृष्यः जगत्प्रीतिकरा केशाः रश्‍मयो यस्य स हृषीकेशः` (जगत् को प्रसन्न करने वाली हैं रश्मियाँ जिसकी) अर्थात् सूर्यचन्द्ररूप भगवान्। महाभारत के मोक्षधर्म पर्व में कहा गया है :

सूर्याचन्द्रमसोः शश्वत् अंशुभिः केशसंज्ञितैः। बोधयत् स्वापयच्चैव जगदुद्भिद्यते पृथक्॥ बोधनात् स्वापनाच्चैव कर्मभिः पाण्डुनन्दन। हृषीकेशोऽहमीशानो वरदो लोकभावनः॥

दे० वाराह पुराण, रुरुक्षेत्र हृषीकेष महिमानाम अध्याय; कूर्म्म पुराण, अध्याय 27।

हेमाद्रि : मध्यकालीन धर्मशास्त्र निबन्धकारों में हेमाद्रि का स्थान बहुत ऊँचा है। ये बहुत बड़े लेखक और शास्त्रकार थे। इन्होंने चतुर्वर्ग चिन्तामणि की रचना की जो धार्मिक क्रियाओं और व्रतों का विश्वकोश है। इस ग्रन्थ के एक उल्लेख से विदित होता हैं कि इन्होंने इस महाकाव्य ग्रन्थ को पाँच खण्डों में लिखने का निश्चय किया था। ये खण्ड थे व्रत, दान, तीर्थ, मोक्ष और परिशेष।

परिशेष भी चार भागों में विभक्त था----देवता, कालनिर्णय, कर्मविपाक और लक्षण समुच्चय। इस महाग्रन्थ का जितना अंश प्रकाशित हो चुका है उसमें व्रत, दान, श्राद्ध और काल का निरूपण है। तीर्थ और मोक्ष सम्बन्धी अंश अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाया है।

हेमाद्रि धर्मशास्त्र के अतिरिक्त मीमांसाशास्त्र के भी बहुत बड़े पण्डित थे। अपने ग्रन्थ में इन्होंने धर्म औऱ दर्शन के अवतरणों द्वारा अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य का प्रदर्शन किया है। चतुर्वर्गचिन्तामणि के कुछ उल्लेखों से हेमाद्रि के जीवन पर भी प्रकाश पड़ता है। ये वत्सगोत्रीय थे, पिता का नाम कामदेव और पितामह का नाम वासुदेव था। देवगिरि के यादव राजा महादेव के करणाधिकारी (कार्यालय के प्रमुख अध्यक्ष) तथा सम्मान्य मन्त्री थे। इनका जीवन काल तेरहवी शती का उत्तरार्द्ध और चौदहवीं का पूर्वार्द्ध था। ये बड़े दानी और उदार था :

लिपिं विधात्रा लिखितां जनस्य, भाले विभूत्या परिमृज्य दुष्टाम्। कल्याणिनीमेष लिखत्यैनां चित्रं प्रमाणीकुरूते विधिश्च॥ (हेमाद्रि, 1.15;3.1.17)

[विधाता द्वारा दरिद्र जनों के ललाट पर जो दरिद्रता की रेखा लिख गयी थी, उस दुष्ट लेख को अपने दान द्वारा मिटाकर ये कल्याणी रेखा लिखते थे। विचित्र तो यह है कि ब्रह्मा इसका प्रमाणीकरण भी कर देते हैं] चतुर्वर्गचिन्तामणि (दानखण्ड) में इनके सम्बन्ध में ये उदात्त श्लोक पाये जाते हैं :

महादेवस्य हेमाद्रिः सर्वश्रीकरणप्रभुः। निजोदारतया यस्य सर्वश्रीकरणप्रभुः॥

अनेन चिन्तामणिकामधेनुकल्पद्रुमानर्थिजनाय दत्तान्। विलोक्य शङ्के किममुष्य सर्वगीर्वाणनाथोऽपि करप्रदोऽभूत्॥ अथामुना धर्मकथा दरिद्रं त्रैलोक्यमालोक्य कलेर्बलेन। तस्यापकारे दधतानुचिन्तां चिन्तामणिः प्रादुरकारि चारु॥

हेरम्ब : गणेश का पर्याय। इनका मन्त्र निम्नांकित है।

पञ्चान्तको विन्दुयुक्तो वामकर्णविभूषितः। तारादिहृदयान्तोऽयं हेरम्बमनुदीरितः॥ चतुर्वर्णात्मको नृणां चतुर्वर्गफलप्रदः॥

ध्यान इस प्रकार है :

पाशाङ्कुशौ कल्पलतां विषाण दधत्स्वशुण्डाहितबीजपूरः। रक्तस्तिनेदस्तरुणोन्दुमौलिर्हारोज्ज्वलो हस्तिमुखोऽवताद्वः॥

हैमवती : पार्वती, हिमवान् (हिमालय) की पुत्री। देवी भागवत (12.8.57) में कहा है:

'उमाभिधानां पुरतो देवी हैमवतीं शिवाम्।

हैहय : यादवों की एक शाखा। ये लोग कुछ समय तक वीतहव्य (यज्ञ का त्याग करने वाले) थे। भार्गवों से इनका संघर्ष था। इसी वंश के सहस्रार्जुन कार्तवीर्य का परशुराम से युद्ध हुआ था। पीछे हैहयों की एक शाखा ब्राह्मण और वैदिक कर्मकाण्ड की समर्थक बन गयी। दे० अथर्ववेद, ब्रह्मगर्वासूक्त।

होता : ऋग्वेद का पाठ करने वाला। अमरकोष (2.7.17) में इसका अर्थ 'ऋग्वेदवेत्‍ता' बताया गया है। 'दायभाग' टीका में श्री कृण्‍णतर्कालंकार ने इसका अर्थ 'होमकर्ता' किया है। उनका कथन हैं, 'विशिष्ट देशावच्छिन्नप्रक्षेपोपहितहविस्त्यागस्य होमत्वात् प्रक्षेपस्य तदभिधाननिमित्तमित्यर्थः। तेन हुधात्वर्थतावच्छेदकप्रक्षेपानुकूल व्यापारयति ऋत्विजि होता इत्यादि व्यपदेशः।" होमक्रिया में मुख्यतः ऋग्वेद मन्त्र पढ़कर आहुतियाँ दी जाती हैं। अतः होता ऋग्वेदवेत्‍ता ही होता है।

होत्र : होम करने की क्रिया अथवा अज्ञ। दे० 'होम'।

होम : अग्नि में देवताओं के लिए किसी वस्तु का विधिपूर्वक प्रक्षेप। यह पञ्च महायज्ञों में से एक यज्ञ है। मनु का कथन हैं :

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। होमों दैवो बलिर्भौतोनृयज्ञोऽतिथिपूजनम्॥

होमक : होता का पर्याय। मत्स्य पुराण (93.128-129) में आठ प्रकार के होता बतलाये गये हैं :

पूर्वद्वारे च संस्थाप्य वह्वृचं वेदपारगम्। यजुर्विदं तथा याम्ये पश्चिमे सामवेदिनम्॥ अथर्ववेदिनं तद्वदुत्तरे स्थापयेद् बुधः। अष्टौ तु होमकाः कार्या वेदवेदाङ्गवेदिनः॥

ह्रादिनी : एक विशेष शक्ति। यह भगवान् की ही सुखरूप शाक्ति है जो विश्व को आनन्द प्रदान करती है।