विपर्यय

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

विपर्यय संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. एक वस्तु का दूसरी के स्थान पर और दूसरी का पहली के स्थान पर होना । उलट पुलट । इधर का उधर । जैसे,—वर्णविपर्यय ।

२. ऐसा परिवर्तन जिसमें दो वस्तुओं की स्थिति पूर्वस्थिति से विरुद्ध हो जाय । जैसी चाहिए, उससे विरुद्ध स्थिति । और का और । व्यतिक्रम ।

३. मिथ्या ज्ञान । और का और समझना । विशेष—योग दर्शन के अनुसार 'विपर्यय' चित्त की पाँच प्रकार की वृत्तियों (प्रमाण, विकल्प आदि) में से एक है । जैसे,—रस्सी को साँप या सीप की चाँदो समझता । ययार्थ ज्ञान द्वारा इसका निराकरण होता है । इस 'विपर्यय' या विपरीत ज्ञान के पाँच अवयव कहे गए हैं—अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश । इन्हीं को सीख्य में क्रमशः तम, माह, महामीह तामिस्त्र और अंधतामिस्त्र कहते हैं ।

४. भ्रम । भूल । गलती । समझ का फेर ।

५. गड़बड़ी । अव्यवस्था ।

७. नाश । विनाश ।

७. अदल बदल । विनिमय (को॰) ।

८. शत्रुता (को॰) ।

९. बैर । विरोध (को॰) ।

१०. प्रलय (को॰) ।

११. अभाव । अनस्तित्व (को॰) ।