विप्रचित्ति

विक्षनरी से

राहू केतू एक ही शरीर के दो अंग हैं

जैसे की उप्पर बताया गया हैं की महर्षी कश्यप और दिती की पुत्री सिंहिका . विप्रच्चित्ती और सींहिका का पुत्र था स्वरभानु जो समुद्र मंथन मे निकले अमृत को देवो के रूप में उनके पंक्ती मे जाकर पिया था ये सुर्य चंद्र ने देखा था (तब से राहू सूर्य चंद्रमा को ग्रास्ता हैं यांनी ग्रहण करता हैं इसिके कारण ग्रहण होता है)

तब मोहिनी रूप मे भगवान विष्णु ने स्वरभानु पर अपना सुदर्शन छोडा उसके गले से उप्पर एक और नीचे एक ऐसे दो भगो मे ओ विभागा गया तबसे ओ मुख वाला हिस्सा राहू बना और निचे वाला हिस्सा केतू बना

( कुलकर्णी सच्चीदानंद राजुरी )

हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

विप्रचित्ति संज्ञा पुं॰ [सं॰] एक दानव जिसकी पत्नी सिंहिका के गर्भ से राहु की उत्पत्ति हुई थी । राहू केतू एक ही शरीर के दो अंग हैं

जैसे की उप्पर बताया गया हैं की महर्षी कश्यप और दिती की पुत्री सिंहिका विप्रच्चित्ती और सींहिका का पुत्र था स्वरभानु जो समुद्र मंथन मे निकले अमृत को देवो के रूप में उनके पंक्ती मे जाकर पिया था ये सुर्य चंद्र ने देखा था (तब से राहू सूर्य चंद्रमा को ग्रास्ता हैं यांनी ग्रहण करता हैं ईसिके कारण ग्रहण होता है)

तब मोहिनी रूप मे भगवान विष्णु ने स्वरभानु पर अपना सुदर्शन छोडा उसके गले से उप्पर एक और नीचे एक ऐसे दो भगो मे ओ विभागा गया तबसे ओ मुख वाला हिस्सा राहू बना और निचे वाला हिस्सा केतू बना

( कुलकर्णी सच्चीदानंद राजुरी )