विभक्ति
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]विभक्ति वि॰ [सं॰]
१. विभक्त होने की क्रिया या भाव । विभाग । बाँट ।
२. अलग होने की क्रिया या भाव । अलगाव । पार्थक्य ।
३. उत्तराधिकार में मिली हुई संपत्ति या हिस्सा (को॰) ।
४. व्याकरण में शब्द के आगे लगा हुआ वह प्रत्यय या चिहुन जिससे पता लगता है कि उस शब्द का क्रियापद से क्या संबंध है । उ॰—एक ही प्रत्यय अथवा विभक्ति के योग से निष्पन्न धातु, शब्द, प्रत्यय या विभक्ति में निर्दिष्ट क्रमानुसार स्वरध्वनियों में परिवर्तन हो जाता है ।—भोज॰ भा॰ सा॰, पृ॰ १० । विशेष—संस्कृत व्याकरणानुसार नाम या संज्ञाशब्दों के बाद लगनेवाले वे प्रत्यय जो नाम या संज्ञा शब्दों को पद (वाक्य प्रयोगार्ह) बनाते हैं और कारक परिणति के द्वारा क्रिया के साथ संबंध सूचित करते हैं । प्रथमा, द्वितीया, तृतीया आदि विभक्तियाँ हैं जिनमें एकवचन, द्विवचन, बहुवचन—तीन बचन होते है । पाणि- नीय व्याकरण में इन्हें 'सुप' आदि २७ विभक्ति के रूप में गिनाया गया है । संस्कृत व्याकरण में जिसे 'विभक्ति' कहते है, वह वास्तव में शब्द का रूपांतरित अग होता है । जैसे,—रामेण, रामाय इत्यादि । आजकल की प्रचलित खड़ी बोली में इस प्रकार की विभक्तियाँ प्रायः नहीं हैं, केवल कर्म और सप्रदान कारक के सर्वनामों में विकल्प से आती हैं । जैसे,—मुझे, तुझे, इन्हें इत्यादि । संस्कृत में विभक्तियों के रूप शब्द के अंत्य अक्षर के अनुसार भिन्न भिन्न होते हैं । पर यह भेद खड़ीबोली के कारकों में नहीं पाया जाता, जिसमें शुद्ध विभक्तियों का ब्यवहार नहीं होता, कारकचिह्नों का व्यवहार होता है ।