विरस
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प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]विरस ^१ वि॰ [सं॰]
१. रसहीन । फीका । नीरस । बिना स्वाद का । उ॰—जल पय सरिस, बिकाय, देखहु प्रीति की रीति यह । विरस तुरत ह्वै जाय, कपट खटाई परत ही ।—तुलसी (शब्द॰) ।
२. जो अच्छा न लगे । विरक्तिजनक । जो हटानेवाला । अप्रिय । अरुचिकर । उ॰—चहुँटो चिबुक चाँपि चूँबि लोल लोयन कौ, रस में विरस कलो वचन मलीनो है । गहि भरि लीनो कछू उत्तर न बाल दीनी हाल से हवाल राउ अंक भरि लीनो है ।—सूदन (शब्द॰) ।
३. (काव्य) जो रस- हीन हो गया हो । जिसमें रस का निर्वाह न हो सका हो ।
४. क्रुर । निर्दय (को॰) ।
विरस ^२ संज्ञा पुं॰
१. काव्य में रसभंग । विशेष—केशव ने इसे 'अनरस' के पाँच भेदों में से एक माना है ।
२. पीड़ा । वेदना (को॰) ।