विराट्
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]विराट् ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ विराज्] ब्रह्मा का वह स्थूल स्वरूप जिसके अंदर अखिल विश्व है अर्थात् सपूर्ण विश्व जिसका शरीर है । विश्वशरीरमय अनंत पुरूष । विशेष—इस भावना का निरूपण इस प्रकार है— 'उस पुरूष के सहस्त्रों मस्तक, सहस्रो आँखों और सहस्त्रों चरण हैं । वह पृथ्वी में सर्वत्र व्याप्त रहने पर भी दस अंगुल ऊपर अवस्थित है । पुरूष ही सब कुछ है—जो हुआ है और जो होगा । उसक ी इतनी बड़ी महिमा है, पर वह इससे कहीं बडा है । सँपूर्ण विश्व और भूत एक पाद है, आकाश का अमर अँश त्रिपाद हैं । उससे विराट् उत्पन्न हुए और विराट् से अधिपुरुष । उन्होंने आविर्भूत होकर संपूर्ण पृथ्वी को आगे पीछे घेर लिया ।' भगवदगीता के अनुसार भगवान् ने जो अपना विराट् स्वरूप दिखाया था, उसमें समस्त लोक, पर्वत, समुद्र, नद, नदी, देवता आदि दिखाई पड़े थे । बलि को छलने के लिये भगवान् ने जो त्रिविक्रम रूप धारण किया था, उसे भी विराट् कहते हैं । पुराणों में विराट् को ब्रह्मा का प्रथम पुत्र कहा है । ब्रह्मा दो भागों में विभक्त हुए— स्त्री और पुरूष । स्त्री अंश से विराट् की उत्पत्ति हुई जिसने स्वायंभुव मनु को उप्तन्न किया । स्वायं- भुत्र मनु सें प्रजापतियो की उत्पत्ति हुई ।
२. लड़ाकू जाति । क्षत्रिय ।
३. कांति । दीप्त । सौदर्य ।
४. शरीर । देह (को॰) ।
५. प्रज्ञान । प्रतिभा । प्रज्ञा । (वेंदांत दर्शन) ।
६. ब्रह्माड़ (को॰) ।
विराट् ^२ वि॰
१. बहुत बड़ा । बहुत भारी । जैसे,— विराट् सभा, विराट् आयोजन ।
२. शासन करनेवाला । प्रधान (को॰) ।
विराट् ^३ संज्ञा स्त्री॰
१. एक वैदिक वृत्ति का नाम ।
२. उत्कृष्टता । दीप्तिमत्ता । सुंदरता [को॰] ।
विराट् स्वराज संज्ञा पुं॰ [सं॰] एक दिन में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ । एक प्रकार का एकाह । (श्रोत सुत्र) ।