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को ^१ पु सर्व [सं॰ |
को ^१ पु सर्व [सं॰ कःrtttyt] <br><br>१. कौन । उ॰— तू को, कौन देस है तेरी । कै छल गह्यो राज सब मेरो ।— सुर॰, १ । २९० । <br><br>२. कोई । उ॰— पैदा जाको हुआ है वो सब उनों किया है ।—दक्खिनी॰ पृ॰, २१२ । <br><br>३. क्या । उ॰— इतर धातु पाह- नहि परसि कंचन ह्वै सोहैं । नंदसुवन को परम प्रेम इह इचरज को है ।—नंद॰ ग्रं॰, पृ॰, ८ । |
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को ^२ (प्रत्य॰) [हिं॰] कर्म और संप्रदान का विभक्ति प्रत्यय । जैसे—साँप को मारी । राम को दो । उ॰— और विद्या की अभ्यास विशेष हतो ।— अकबरी॰ पृ॰, ३८ । |
को ^२ (प्रत्य॰) [हिं॰] कर्म और संप्रदान का विभक्ति प्रत्यय । जैसे—साँप को मारी । राम को दो । उ॰— और विद्या की अभ्यास विशेष हतो ।— अकबरी॰ पृ॰, ३८ । |
०९:१५, ९ दिसम्बर २०२३ का अवतरण
हिन्दी
प्रकाशितकोशों से अर्थ
शब्दसागर
को ^१ पु सर्व [सं॰ कःrtttyt]
१. कौन । उ॰— तू को, कौन देस है तेरी । कै छल गह्यो राज सब मेरो ।— सुर॰, १ । २९० ।
२. कोई । उ॰— पैदा जाको हुआ है वो सब उनों किया है ।—दक्खिनी॰ पृ॰, २१२ ।
३. क्या । उ॰— इतर धातु पाह- नहि परसि कंचन ह्वै सोहैं । नंदसुवन को परम प्रेम इह इचरज को है ।—नंद॰ ग्रं॰, पृ॰, ८ ।
को ^२ (प्रत्य॰) [हिं॰] कर्म और संप्रदान का विभक्ति प्रत्यय । जैसे—साँप को मारी । राम को दो । उ॰— और विद्या की अभ्यास विशेष हतो ।— अकबरी॰ पृ॰, ३८ ।