विष्कम्भ

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

विष्कंभ संज्ञा पुं॰ [सं॰ विष्कम्भ]

१. फलित ज्योतिष के अनुसार सत्ताईस योगों में से पहला योग । विशेष—आरंभ के पाँच दंडों को छोड़कर शुभ कार्य के लिये यह योग बहुत अच्छा समझा जाता है । कहते हैं, इस योग में जन्म लेनेवाला मनुष्य सब बातों में स्वाधीन और भाई बंधु आदि से सदा सुखी रहता है ।

२. विस्तार ।

३. बाधा । विघ्न ।

४. साहित्यदर्पण के अनुसार नाटक का एक प्रकार का अंक जो प्रायः गर्भांक के समीप होता है । उ॰—प्राज अमरता का जीवित हूँ मैं वह भीषण जर्जर दंभ, आह सर्ग के प्रथम अंक का अधम पात्र मय सा विष्कंभ ।—कामायनी, पृ॰ १८ । विशेष—जो कथा पहले हो चुकी हो अथवा जो अभी होनेवाली हो, उसकी इसमें मध्यम पात्रों द्वारा सूचना दी जाती है । यह दो प्रकार का होता है—शुद्ध और संकीर्णा । जब एक या अनेक मध्यम पात्र इसका प्रयोग करते हैं, तब यह शुद्ध कहलाता है । और जब मध्यम तथा नीच पात्रों द्वारा इसका प्रयोग होता है, तब इसे संकीर्ण कहते है । शुद्ध विष्कंभ में मध्यम पात्रों का वार्तालाप संस्कृत भाषा में और संकीर्ण विष्कंभ में मध्यम तथा नीच पात्रों का वार्तालाप प्राकृत भाषा में होता है । शुद्ध का उदाहरण मालतीमाधव के पाँचवें अंक में कुंडलाकृत प्रयोग और संकीर्ण का रामाभिनंद में क्षपणक और कापालिककृत प्रयोग है ।

५. योगियों का एक प्रकार का बंध ।

६. वाराहपुराण के अनुसार एक पर्वत का नाम ।

७. वृक्ष । पेड़ ।

८. अर्गल । ब्योड़ा ।

९. दे॰ 'बड़ेरा ।' बँड़ेरी (को॰) ।

१०. स्तंभ । खंभा (को॰) ।

११. मंथनदंड जिसमें रस्सी लपेटकर दधिमंथन करते हैं (को॰) ।

१२. किसी वृत्त या घेरे का व्यास (को॰) ।

१३. क्रियाशीलता । कार्य में निरत रहना (फो॰) ।