वैदूर्य

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

वैदूर्य संज्ञा पुं॰ [सं॰] धूमिल रंग का एक प्रकार का रत्न या बहुमूल्य पत्थर जिसे 'लहसुनिया' कहते हैं । दे॰ 'लहसुनिया' । दीर्घ खंभे हैं बने वैदूर्य के; ध्वजपटों में चिह्न कुलगुरु सुर्य के ।—साकेत, पृ॰ १९ । विशेष—फलित ज्योतिष के अनुसार इस रत्न के अधिष्ठाता देवता केतु माने गए हैं और कहा गया है कि जब केतु ग्रह खराब या बिगड़ा हुआ हो, तो यह रत्न धारण करना चाहिए । हमारे यहाँ इसकी गणना महारत्नों में है । सुतार, घन, अद्रच्छ, कलिक और व्यंग ये पाँच इसके गुण और कर्कर, कर्कश, त्रास, कलंक और देह ये पाँच इसके दोष कहे गए हैं । कुछ लोगों का मत है कि यह रत्न विदूर पर्वत पर होता है, इसी से वैदूर्य कहलाता है । वैद्यक के अनुसार यह अम्ल, उष्ण, कफ तथा वायु का नाशक और गुल्म तथा शूल को शांत करनेवाला है । पर्या॰—केतुरत्न । अभ्ररोह । विदूररत्न । विदूरज । खराब्जांकुर ।