व्रजभाषा

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

व्रजभाषा संज्ञा स्त्री॰ [सं॰] मथुरा, आगारा, इटावा और इनके आसपास के प्रदेशों में बोली जानेवाली एक प्रसिद्ध भाषा, जिसकी उत्पत्ति शौरसेनी प्राकृत से हुई है । उक्त जिलों के पश्चिम या दक्षिया में यही राजस्थानी का रूप धारण कर लेती है । विशेष—इस भाषा का प्राचीन साहित्य बहुत उच्च और बड़ा है और इधर चार पाँच सौ वर्षो में उत्तर भारत के अधिकांश कवियों ने प्रायः इसी भाषा में कविताएँ की है, जिनमें से सूर, तुलसी, बिहारी आदि अनेक कवियों ने तो बहुत अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की है । यह भाषा बहुत ही कर्णमधुर मानी जाती है । खड़ी बोली में दो सज्ञाएँ, विशेषण और भूतकृदंत आदि आका- रांत होते है, वे इस भाषा में प्रायः ओकारांत हो जाते हैं । और कारणचिह्न भी प्रायः ओकारांत ही होते हैं जैसे,— घोड़ो, चल्यों को सों, मों आदि । इसके कारकचिह्न निज के हैं, जो न खड़ी बोली में मिलते है और न अवधी में । भाषा- विज्ञान की द्दष्टि से य़ह भाषा अंतरंग समुदाय की सब भाषाओं में मुख्य मानी जाती है ।