शृंगार
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]श्रृंगार संज्ञा पुं॰ [सं॰ श्रृङ्गार]
१. साहित्य के अनुसार नौ रसों में से एक रस जो सबसे अधिक प्रसिद्ध है और प्रधान माना जाता है । उ॰—जाको थायी भाव रस, सो श्रृंगार सुहोत । मिलि विभाव अनुभाव पुनि संचारिन के गोत ।—पद्माकर (शब्द॰) । विशेष—इसमें नायक नायिका के परस्पर मिलन के कारण होनेवाले सुख की परिपुष्टता दिखलाई जाती है । इसका स्थायी भाव रति है । आलंबन विभाव नायक और नायिका हैं । उद्दीपन विभाव सखा, सखी, वन, बाग आदि, विहार, चंद्र- चंदन, भ्रमर, झंकार, हाव भाव, मुसक्यान तथा विनोद आदि हैं । यही एक रस है जिसमें संचारी विभाव, अनुभाव सब भेदों सहित होता है; और इसी कारण इसे रसराज कहते हैं । इसके देवता विष्णु अथवा कृष्ण माने गए हैं और इसका वर्ण श्याम कहा गया है । यह दो प्रकार का होता है—एक संयोग और दूसरा वियोग या विप्रलंभ । नायक नायिका के मिलने को संयोग और उनके विछोह को वियोग कहते हैं ।
२. स्त्रियों का वस्त्राभूषण आदि से शरीर को सुशोभित और चित्ताकर्षक बनाना । सजावट । संग सखी सोहैं बिधि बारा । कीन्हें तन षोड़श श्रृंगारा ।—रधुनाथ (शब्द॰) । विशेष—श्रृंगार १६ कहे गए हैं—अंग में उबटन लगाना, नहाना, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, बाल सँवारना, काजल लगाना, सेंदुर से माँग भरना, महावर देना, भाल पर तिलक लगाना, चिबुक पर तिल बनाना, मेंहदी लगाना, अर्गजा आदि सुगंधित वस्तुओं का प्रयोग करना, आभूष्ण पहनना, फूलों की माला धारण करना, पान खाना, मिस्सी लगाना । जैसे—अंग शुची मंजन बसन, माँग महावर केश । तिलक भाल तिल चिबुक में भूषण मेंहदी वेश । मिस्सी काजल अर्गजा, बीरी और सुगंध । पुष्प कली युत होय कर, तब नव सप्त निबंध ।
३. किसी चीज को दूसरे सुंदर उपकरणों से सुसज्जित करना । सजा- वट । बनाव चुनाव ।
४. भक्ति का एक भाव या प्रकार जिसमें भक्त अपने आप को पत्नी के रूप में और अपने इष्टदेव को पति के रूप में मानते हैं । उ॰—शति दास्य सख्य वात्सल्य और श्रृंगारु चारु पाँचौ रस सार विस्तार नीक गाए हैं ।—नाभादास (शब्द॰) ।
५. वह जिससे किसी चीज की शोभा बढ़ती हो । उ॰—यशुमति कोखि सराहि बलैया लेन लगी ब्रजनार । ऐसो सुत तेरे गृह प्रकट्यो या ब्रज को श्रृंगार ।—सूर (शब्द॰) ।
६. लौंग ।
७. सेंदुर ।
८. अदरक ।
९. चूर्ण । चूरन ।
१०. काला अगर ।
११. सोना ।
१२. रति । मैथुन ।
१३. हाथी की सूँड़ पर चित्रित सिंदुर की रेखाएं (को॰) ।
श्रृंगार रस संज्ञा पुं॰ [सं॰ श्रृङ्गार रस] साहित्य शास्त्र के ९ रसों में पहला रस । विशेष दे॰ 'श्रृंगार'—१ ।