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शोथ

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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शोथ संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. किसी अंग का फूलना । सूजन । वरम ।

२. अंग में सूजन होने का रोग । वरम । विशेष—जब दूषित रक्त, पित्त या कफ कुपित वायु से नसों में रुद्ध हो जाता है, तब सूजन होती है । शोथ तीन प्रकार का कहा गया है—वातज, पित्तज और कफज । आमाशय में दोष होने से छाती के ऊपर, पक्वाशय में होने से छाती के नीचे और मलाशय में होने से कमर से पैर तक सारे शरीर में शोथ होता है । शरीर के मध्य भाग या सर्वांग का शोथ कष्टसाध्य कहा गया है । जो शोथ केवल अर्धांग में उत्पन्न होकर ऊपर की ओर बढ़ता हो, वह प्रायः घातक होता है । पर पांडु आदि रोगों में पैर से ऊपर की ओर बढ़नेवाला शोथ घातक नहीं होता । स्त्रियों की कुक्षि, उदर, गर्भस्थान या गले का शोथ असाध्य होता है । जो शोथ बहुत भारी और कड़ा हो और जिसमें श्वास, प्यास, दुर्बलता, अरुचि आदि उपद्रव भी उत्पन्न हो, वह भी असाध्य कहा गया है ।