संतोष

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

संतोष संज्ञा पुं॰ [सं॰ सन्तोष]

१. मन की वह वृत्ति या अवस्था जिसमें मनुष्य अपनी वर्तमान दशा में ही पूर्णा सुख का अनुभव करता है; न तो किसी बात की कामना करता है और न किसी बात की शिकायत । हर हालत में प्रसन्न रहना । संतुष्टि । सब्र । कनायत । उ॰—गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान । जब आवत संतोष धन सब धन धूरि समान । तुलसी (शब्द॰) । विशेष—हमारे यहाँ पातंजल दर्शन के अनुसार 'संतोष' योग का एक अंग और उसके नियम के अंर्तगत है । इसकी उत्पत्ति सात्विक वृत्ति से मानी गई है; और कहा गया है कि इसके पैदा हो जाने पर मनुष्य को अनंत और अखंड सुख मिलता है । पुराणानुसार धर्मानुष्ठान से सदा प्रसन्न रहना और दुःख में भी आतुर न होना संतोष कहलाता है । क्रि॰ प्र॰—करना ।—मानना ।—रखना ।—होना ।

२. मन की वह अवस्था जो किसी कामना या आवश्यकता की भली- भाँति पूर्ति होने पर होती है । तृप्ति । शांति । इतमीनान । जैसे,—पहले मेरा संतोष करा दीजिए, तब मैं आपके साथ चलूँगा ।

३. प्रसन्नता । सुख । हर्ष । आनंद । जैसे,—हमें यह जानकर बहुत संतोष हुआ कि अब आप किसी से वैमनस्य न करेंगे ।

४. अंगूठा और तर्जनी (को॰) ।