सन्देह
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]संदेह संज्ञा पुं॰ [सं॰ सन्देह]
१. वह ज्ञान जो किसी पदार्थ की वास्तविकता के विषय में स्थिर न हो । किसी विषय में ठीक या निश्चित न होनेवाला मत या विश्वास । मन की वह अवस्था जिसमें यह निश्चय नहीं होता कि यह चीज ऐसी ही है या और किसी प्रकार की । अनिश्चयात्मक ज्ञान । संशय । शंका । शक । उ॰—तव खगपति विरंचि पहि गएऊ । निज संदेह सुनाबत भएऊ ।—मानस, ७ । ६० । क्रि॰ प्र॰—करना ।—डालना ।—मिटना ।—मिटाना ।—होना । यौ॰—संदेहगंध = संदेह का आभास या झलक । संदेहच्छेदन = शक दूर करना । संदेह न रहना । संदेहदायी = शंका उत्पन्न करनेवाला । शक धरानेवाला । संदेहदोलो = दुवधा की स्थिति । अनिश्चय की अवस्था । संदेहनाश = संशय मिटना । संदेहपद = संशय की जगह । संदेह का स्थान । संदेहभंजन = शक या शंका दूर करना ।
२. एक प्रकार का अर्थालंकार । विशेष—यह उस समय माना जाता है जब किसी चीज को देखकर संदेह बना रहता है, कुछ निश्चय नहीं होता । 'भ्रांति' में और 'संदेह' में यह अंतर है किं भ्रांति में तो भ्रमवश किसी एक वस्तु का निश्चय हो भी जाता है, पर इसमें कुछ भी निश्चय नहीं होता । कविता में इस अलंकार के सूचक प्रायः धौं, किधौं; आदि संदेहवाचक शब्द आते हैं । जैसे,—(क) की तुम हरिदासन महँ कोई । मोरे हृदय प्रीति अति होई । को तुम राग दीन अनुरागी । आए माहि करन वड़भागी ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है कि सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है । कुछ आचार्यों ने इसके निश्चयगर्म, निश्चयांत और शुद्ध ये तीन भेद माने हैं ।
३. जोखिम । खतरा । डर (को॰) ।
४. शरीर के भौतिक उपकरणों का उपचयन (को॰) ।