साख
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]साख ^१ संज्ञा पुं॰ [हिं॰ साक्षी]
१. साक्षी । गवाह ।
२. गवाही । शहादत । उ॰—(क) तुम बसीठ राजा की ओरा । साख होहु यह भीख निहोरा ।—जायसी (शब्द॰) । (ख) जैसी भुजा, कलाई तेहि बिधि जाय न भाख । कंकन हाथ होव जेहि तेहि दरपन का साख ।—जायसी (शब्द॰) । मुहा॰—साख पूरना = साखी भरना । समर्थन करना ।
साख ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ शाका, हिं॰ साका]
१. धाक । रोब ।
२. मर्यादा । उ॰—प्रीति बेल उरझइ जब तब सुजान सुख साख ।—जायसी (शब्द॰) ।
३. बाजार में वह मर्यादा या प्रतिष्ठा जिसके कारण आदमी लेन देन कर सकता हो । लेन- देन का खरापन या प्रामाणिकता । जैसे,—जबतक बाजार में साख बनी थी, तबतक लोग लाखों रुपए का माल उन्हें उठा देते थे ।
४. विश्वास । भरोसा । क्रि॰ प्र॰—बनना ।—बिगड़ना ।
साख † ^३ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ शाखा]
१. दे॰ 'साखा' ।
२. उपज । फसल । उ॰—ढाढी एक संदेसडउ कहि ढोलउ समझाइ । जोबण आँबउ फलि रह्यउ साख न खावउ आइ ।—ढोला॰, दू॰ ११७ ।
साख पु ^४ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ शिखा] शिखा । ज्वाला । उ॰—संपेख अगनग साख सी । रत रोष मारग राष सी ।—रघु रू॰, पृ॰ ६७ ।