साम
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]साम ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ सामन्]
१. वे वेद मंत्र जो प्राचीन काल में यज्ञ आदि के समय गाए जाते थे । छंदोबद्ध स्तुतिपरक मंत्र या सूक्त ।
२. चारों वेदों में तीसरा वेद । विशेष— दे॰ 'सामवेद' ।
३. मीठी बातें करना । मधुर भाषण ।
४. राजनीति के चार अंगों या उपायों में से एक । अपने वैरी या विरोधी को मीठी बातें करके प्रसन्न करना और अपनी ओर मिला लेना । (शेष तीन अंग चया उपाय दाम दंड और भेद हैं ।
५. संतुष्ट करना । शांत करना (को॰) ।
६. मृदुता । कोमलता (को॰) ।
७. ध्वनि । स्वर । आवाज (को॰) ।
साम ^२ वि॰, संज्ञा पुं॰ [सं॰ श्याम] दे॰ 'स्याम' । उ॰—धूम साम धौरे घन छाए ।—जायसी ग्रं॰, पृ॰ १५२ ।
साम ^३ संज्ञा पुं॰ [अ॰ शाम] दे॰ 'शाम' (देश) ।
साम ^४ संज्ञा स्त्री॰ [फा़॰ शाम] सायंकाल । दे॰ 'शाम' । उ॰—घुर- बिनिया छोड़त नहिं कबहीं होइ भोर भा साम ।—गुलाल॰, पृ॰ १९ ।
साम पु ^५ संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] दे॰ 'शामी' (लोहे का बंद) । हथियार, उ॰—सूरा के सिर साम है, साधों के सिर राम ।—दरिया॰ बानी, पृ॰ १४ ।
साम पु ^६ संज्ञा पुं॰ [फ़ा॰ सामान, सामाँ] दे॰ 'सामान' । उ॰— बालमीकि अजामिल के कधु हुतो न साधन सामो ।—तुलसी (शब्द॰) ।
साम ^७ वि॰ [सं॰] जो पचा न हो । जिसका अच्छी तरह पाक न हुआ हो [को॰] ।