सूरदास

विक्षनरी से


हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

सूरदास संज्ञा पुं॰ [सं॰] उत्तर भारत के प्रसिद्ध कृष्णभक्त महाकवि और महात्मा जो अंधे थे । विशेष—ये हिंदी भाषा के दो सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं । जिस प्रकार रामचरित का गान कर गोस्वामी तुलसीदास जी अमर हुए हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्ण की लीला कई सहस्र पदों में गाकर सूरदास जी भी । ये अकबर के काल में वर्त्तमान थे । ऐसा प्रसिद्ध है कि बादशाह अकबर ने इन्हें अपने दरबार में फतहपुर सीकरी में बुलाया, पर ये न आए । इन्होंने यह पद कहा 'मोको कहा सीकरी सों काम' । इसपर तानसेन के साथ अकबर स्वयं इनके दर्शन को मथुरा गया । इनका जन्म संवत् १५४० के लगभग ठहरता है । ये वल्लभाचार्य की शिष्यपरंपरा में थे और उनकी स्तुति इन्होंने कई पदों में की है जैसे,—'भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो । श्रीवल्लभ नखचंद्र छटा बिनु हो हिय माँझ अँधेरो' । इनकी गणना 'अष्टछाप' अर्थात् ब्रज के आठ महाकवियों और भक्तों में थी । अष्टछाप में ये कवि गिने गए हैं—कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, गोविंद स्वामी, चतुर्भुजदास, नंददास और सूरदास । इनमें से प्रथम चार कवि तो वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे और शेष सूरदास आदि चार कवि उनके पुत्र विट्ठलनाथ जी के । अपने अष्टछाप में होने का उल्लेख सूरदास जी स्वयं करते हैं । यथा—'थापि गोसाईं करी मेरी आठ मध्ये छाप' । विट्ठलनाथ के पुत्र गोकुलनाथ जी ने अपनी 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में सूरदास जी को सारस्वत ब्राह्मण लिखा है और उनके पिता का नाम 'रामदास' बताया है । सूरसारावली में एक पद में इनके वंश का जो परिचय है, उसके अनुसार ये महाकवि चंद बरदाई के वंशज थे और सात भाई थे । पर उक्त पद के असली होने में कुछ लोग संदेह करते हैं । इनका जन्मस्थान भी अनिश्चित है । कुछ लोग इनका जन्म दिल्ली के पास 'सीही' गाँव में बतलाते हैं । जनश्रुति इन्हें जन्मांध कहती है, पर ये जन्मांध न थे । ऐसी भी किंवदंती है कि किसी परस्त्री के सौंदर्य पर मोहित हो जाने पर इन्होंने नेत्रों का दोष समझ उन्हें फोड़ डाला था । भक्तमाल में लिखा है कि आठ वर्ष की अवस्था में इनका यज्ञोपवीत हुआ और ये एक बार अपने माता पिता के साथ मथुरा गए । वहाँ से वे घर लौटकर न आए; कहा कि यहीं कृष्ण की शरण में रहूँगा । 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' के अनुसार ये गऊघाट में रहते थे जो आगरा और मथुरा के बीच में है । यहीं पर ये विट्ठलनाथ जी के शिष्य हुए और इन्हीं के साथ गोकुलस्थ श्रीनाथ जी के मंदिर में बहुत काल तक रहे । इसी मंदिर में रहकर ये पद बनाया करते थे । यों तो पद बनाने का इनका नित्य नियम था; पर मंदिर के उत्सवों पर उसी लीला के संबंध में बहुत सा पद बनाकर गाया करते थे । ऐसा प्रसिद्ध है कि ये एक बार कुएँ में गिर पड़े और छह दिन तक उसी में पड़े रहे । सातवें दिन स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने हाथ पकड़कर इन्हें निकाला । निकलने पर इन्होंने यह दोहा पढ़ा—'बाँह छुड़ाए जात हौ निबल जानि कै मोहिं । हिरदै सों जब जायहौ मरद बदौंगो तोहिं ।' इसमें संदेह नहीं कि ब्रजभाषा के ये सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, क्योंकि इन्होंने केवल ब्रजभाषा में ही कविता की है, अवधी में नहीं । गोस्वामी तुलसीदास जी का दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था और उन्होंने जीवन की नाना परिस्थितियों पर रसपूर्ण कविता की है । सूरदास में केवल श्रृंगार और वात्सल्य की पराकाष्ठा है । संवत् १६०७ के पूर्व इनका सूरसागर समाप्त हो गया था; क्योंकि उसके पीछे इन्होंने जो 'साहित्य लहरी' लिखी है, उसमें संवत् १६०७ दिया हुआ है ।