सूल
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]सूल संज्ञा पुं॰ [सं॰ शूल, प्रा॰ सूल]
१. बरछा । भाला । साँग । उ॰—(क) वर्म चर्म कर कृपान सूल सैल धनुषबान, धरनि दलनि दानव दल रन करालिका—तुलसी । ग्रं॰, पृ॰ ४६२ । (ख) लिए सूल सेल पास परिघ प्रचंड दंड भाजन सनीर धीर धरे धनुबान हैं ।—तुलसी ग्रं॰, पृ॰ १७१ ।
२. कोई चुभनेवाल ी नुकीली चीज । काँटा । उ॰—(क) सर सों समीर लाग्यो सूल सों सहेली सब विष सों बिनोद लाग्यो बन सों निवास री ।— मतिराम (शब्द॰) । (ख) ऐती नचाइ कै नाच वा राँड को लाल रिझावन को फल येती । सेती सदा रसखानि लिए कुबरी के करेजनि सूल सी भेती ।—रसखान (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—चुभना ।—लगना ।
३. भाला चुभने की सी पीड़ा । कसक । उ॰—बसिहौं बन लखिहौं मुनिन भखिहौं फल दल मूल । भरत राज करिहैं अवधि मोहि न कछु अब सूल ।—पद्माकर (शब्द॰) ।
४. दर्द । पीड़ा । जैसे—पेट में सूल । क्रि॰ प्र॰—उठना ।—मिटना । विशेष—इस शब्द का स्त्रीलिंग प्रयोग भी सूर आदि कवियों में मिलता है । जैसे—मेरे मन इतनी सूल रही ।—सूर (शब्द॰) ।
५. माला का ऊपरी भाग । माला के ऊपर का फुलरा । उ॰— मनि फूल रचित मखतूल की झूल न जाके तूल कोउ । सजि सोहे उघारि दुकुल वर सूल सबै अरि शूल सोउ ।—गोपाल (शब्द॰) ।