सेन

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

सेन ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. शरीर । तन । देह ।

२. जीवन ।

३. बंगाल की वैद्य जाती की उपाधि । यौ॰—सेनकुल = दे॰ 'सेनवंश' ।

४. एक भक्त नाई । विशेष—इसकी कथा भक्तमाल में इस प्रकार है । यह रीवाँ के महाराज की सेवा में था और बड़ा भारी भक्त था । एक दिन साधुसेवा में लगे रहने के कारण यह समय पर राजसेवा के लिये न पहुँच सका । उस समय भगवान् ने इसका रूप धरकर राजभवन में जाकर इसका काम किया । यह वृतांत ज्ञात होने पर यह विरक्त हो गया और राजा भी परम भक्त हो गए ।

५. एक राक्षस का नाम ।

६. दिगंबर जैन साधुओं के चार मेदों में से एक ।

सेन ^२ वि॰ [सं॰]

१. जिसके सिर पर कोई मालिक हो । सनाथ ।

२. आश्रित । अधीन । ताबे ।

सेन पु ^३ संज्ञा पुं॰ [सं॰ श्येन, प्रा॰ सेण] बाज पक्षी । उ॰— ज्यों गच काँच बिलोकि सेन जड़, छाँह आपने तन की । टूटत आति आतुर अहारबस, छति बिसारि आनन की ।—तुलसी (शब्द॰) ।

सेन पु ^४ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ सैन्य, प्रा॰ सेण] दे॰ 'सेना' । उ॰— हय गय सेन चलै जग पूरी ।—जायसी (शब्द॰) ।

सेन † ^५ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ सन्धि] दे॰ 'सेंध' ।

सेन † ^६ संज्ञा पुं॰ [हिं॰ सैन] संकेत । इशारा । उ॰—(क) तासों बहू ने सेन ही मों नाहीं करो ।—दो सौ बावन॰, भा॰ १, पृ॰ २६० । (ख) अपने घर इन चारों को सेन दै कै पधराइ लै गई ।—दो सौ बावन॰, भाग १, पृ॰ ७२ ।

सेन † ^७ संज्ञा पुं॰ [सं॰ शयन] दे॰ 'शयन' । उ॰—(क) सो श्री गोवर्धननाथ जी को उत्थापन किए । पाछे सेन पर्यत की सब सेवा ।—दो सौ बावन॰, भा॰ २, पृ॰ २३ । (ख) श्री नवनीत प्रिय जी को उत्थापन ते सेन पर्यत की सेवा सों पहोंचि........ सुबोधिनी की कथा कहे ।—दो सौ बावन॰, भा॰ २, पृ॰ ६६ । यौ॰—सेन आर्ति = शयनकाल की आरती । उ॰—श्री ठाकुर जी की सेन आर्ति करि कै अपने घर तें चलतो ।—दो सौ बावन॰, भा॰, पृ॰ २६ । सेनभोग = शयनकालीन भोग । उ॰—पाछें सेन भोग धरि श्री ठाकुर जी की रसोई पोति, भोग सराइ, आर्ति करि..........मुरारीदास सोवते ।—दो सौ बावन॰, भा॰, पृ॰ १०२ ।