सोन
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]सोन ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ शोण] एक प्रसिद्ध नद का नाम । उ॰— सानुज राम समर जस पावन । मिलेउ महानद सोन सुहावन । — मानस,१ । ४० । विशेष— यह नद मध्यप्रदेश के अमरकंटक की अधित्यका भूमि से, नर्मदा के उद्गम स्थान से दो ढाई मील पूर्व से, निकला है और उत्तर में मध्यप्रदेश तथा बुंदेलखंड होता हुआ पूर्व की ओर प्रवाहित हुआ है तथा बिहार में दानापुर से १० मील उत्तर गंगा में मिला है । बिहार में इस नद का पाट कोई अढ़ाई तीन मील लंबा है । वर्षा ऋतु में यह नद समुद्र सा जान पड़ता है । इसमें कइ शाखा नदियाँ मिलती हैं जिनमें कोइल प्रधान है । गरमी में इस नद में पानी बहुत कम हो जाता है । वैद्यक के अनुसार इसका जल रुचिकर, संताप और शोषापहस, पथ्य, अग्नि- वर्धक, बल और क्षीणांग को बढ़ानेवाला माना गया है । पर्या॰— शोणा । शोणभद्र । हिरण्यवाह ।
सोन पु२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ स्वर्ण, प्रा॰ सोण्ण, हिं॰ सोना]दे॰ 'सोना' । उ॰— (क) परी नाथ कोइ छुवै न पारा । मारग मानुष सोन उछारा । — जायसी (शब्द॰) । (ख) दमयंती के बचन न भाए । नल राजा सब द्रव्य गँवाए । सोन रुप जो लाव भुवारा । धरत दाउँ पल मह सब हारा । — सबलसिंह (शब्द॰) । यौ॰— सोनथार=सोने का थाल । उ॰— सोनथार मनि मानिक जरे । — जायसी ग्रं॰, पृ॰१२४ । सोनबरन=स्वर्णभ । सुन- हला । उ॰— सोनबरन होइ रही सो रेखा । —जायसी ग्रं॰, पृ॰ १४४ । सोनरास = पका हुआ पीला (पान) । उ॰— पेड़ी हुँत सोनरास बखानू । —जायसी ग्रं॰, पृ॰१३५ ।
सोन ^३ संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का जलपक्षी । उ॰— कुररहि सारस करहि हुलासा । जीवन मरन सो एकहि पासा । बोलहिं सोन ढेक बगलेदी । रही अबोल मीन जल भेदी । — जायसी ग्रं॰, पृ॰१३ ।
सोन ^४ वि॰ [सं॰ शोण] लाल । अरुणा । रक्त । उ॰— सुभग सोन सरसीरुह लोचन । बदन मयंक तापत्रय मोचन । —तुलसी (शब्द॰) ।
सोन ^४ संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰ सोना] एक प्रकार की बेल जो बारहो महीने बराबर हरी रहती है । इसके फूल पीले रंग के होते हैं ।
सोन ^५ संज्ञा पुं॰ [सं॰ रसोनक या सोनह] लहसुन । (डि॰) ।