स्वयंवर

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

स्वयंवर संज्ञा पुं॰ [सं॰ स्वयम्वर]

१. प्राचीन भारत का एक प्रसिद्ध, विधान जिसमें विवाह योग्य कन्या कुछ उपस्थित व्यक्तियों में से अपने लिये स्वयं वर चुनती थी । उ॰— (क) सीय स्वयंवर कथा सुहाई । सरित सुहावनि सो छबि छाई ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) जनक विदेह कियो जु स्वयंवर बहु नृप विप्र बोलाए । तोरन धनुष देव त्र्यंबक को काहू यतन न पाए ।—सूर (शब्द॰) । (ग) मारि ताड़का यज्ञ करायो विश्वामित्र आनंद भयो । सीय स्वयंवर जानि सूर प्रभु को ऋषि लै ता ठौर गयो ।—सूर (शब्द॰) । विशेष—प्राचीन काल में भारतीय आर्यों, विशेषतः क्षत्रियों या राजाओं में यह प्रथा थी कि जब कन्या विवाह योग्य हो जाती थी, तब उसकी सूचना उपयुक्त व्यक्तियों के पास भेज दी जाती थी, जो एक निश्चित समय और स्थान पर आकर एकत्र होते थे । उस समय वह कन्या उन उपस्थित व्यक्तियों में से जिसे अपने लिये उपयुक्त समझती थी, उसके गले में वरमाल या जयमाल डाल देती थी; और तब उसी के साथ उसका विवाह होता था । कभी कभी कन्या के पिता की ओर से, बलपरीक्षा के लिये, कोई शर्त भी लगा दी जाती थी; और वह शर्त पूरी करनेवाला ही कन्या के लिये उपयुक्त पात्र समझा जाता था । सीता जी और द्रौपदी का विवाह इसी प्रथा के अनुसार हुआ था । यौ॰—स्वयंवरपति = स्वयंवर प्रथा द्वारा चुना हुआ पति । स्वयंवरविवाह = वह विवाह जो स्वयंवर प्रथा द्वारा पति चुन लिए जाने पर हो ।

२. वह स्थान, सभा या उत्सव जहाँ इस प्रकार लोगों के एकत्र करके कन्या के लिये वर चुना जाय ।